सत्य प्राप्त करने के लिए कीमत चुकाना बहुत महत्वपूर्ण है

हम परमेश्वर में विश्वास करते हैं ताकि उद्धार पा सकें, लेकिन क्या उद्धार पाना कोई आसान बात है? इसमें सबसे कठिन क्या है? कई लोग यह बात साफ तौर पर नहीं समझ पाते, मगर वास्तव में उद्धार पाने में सबसे मुश्किल होता है सत्य प्राप्त करना। इसलिए, सत्य प्राप्त करने के लिए बहुत अधिक कष्ट सहना और कीमत चुकाना हमेशा सार्थक होता है, फिर चाहे आपको कुछ हासिल हो या न हो। तो, सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें कैसा कष्ट उठाना चाहिए? तुम्हें न्याय और ताड़ना, परीक्षण और शोधन, काट-छाँट और निपटान से गुजरना चाहिए, उस उत्पीड़न और प्रतिकूल स्थिति का सामना करना चाहिए जो परमेश्वर का अनुसरण करने से आती है; तुम्हें कारागार के कष्टों से गुजरना चाहिए, धार्मिक दुनिया की बदनामी और निंदा सहनी चाहिए। तुम्हें इन सभी कठिनाइयों को सहन करना चाहिए। अगर तुम यह सब सह पाए, तो सत्य प्राप्त कर सकते हो। वर्तमान में, अधिकांश लोग सत्य का अनुसरण करना चाहते हैं। वे अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने पर ध्यान देते हैं, और वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए सत्य का अभ्यास करना और सत्य प्राप्त करना सीखना चाहते हैं। परमेश्वर में विश्वास रखना और अपना कर्तव्य निभाना ही जीवन का सही मार्ग है। इस मार्ग को चुनना सही है, और यह परमेश्वर की सबसे बड़ी आशीष है। लोग ईमानदारी से उसके लिए खुद को खपाकर सृजित प्राणियों का कर्तव्य निभा सकते हैं—यह परमेश्वर का महान अनुग्रह और आशीष है। कुछ ऐसे लोग हैं जो कर्तव्य निभाने के महत्व को स्पष्ट रूप से नहीं समझते हैं, जो हमेशा परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश करते हैं—चाहे उन पर कैसी भी आपदा आए, वे हमेशा बेबस और परेशान रहते हैं, वे हमेशा प्रभावित और भ्रमित हो जाते हैं, जिस कारण वे सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभाने में इतने असमर्थ हो जाते हैं कि अपने कर्तव्यों को छोड़ कर भाग खड़े होते हैं। यह कितनी अफसोस की बात है! शायद उन्हें अभी ज्यादा पछतावा न हो, लेकिन जब आपदाएँ भयंकर रूप ले लेंगी, परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा, वह अच्छे लोगों को पुरस्कृत करना और दुष्टों को दंड देना शुरू कर देगा, तो उन्हें इस व्यवहार के परिणामों का पता चलेगा। इसीलिए, तुम्हें अक्सर एक साथ मिलकर प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर के सामने अपने मन को शांत रखना चाहिए, उसके वचनों को और अधिक पढ़ना चाहिए, और सत्य पर अधिक संगति करनी चाहिए। अभी के लिए उन मुद्दों को अलग रख दो जिनका सत्य के अनुसरण से कोई लेना-देना नहीं है, उन पर अभी विचार नहीं किया जाना चाहिए। शादी-विवाह, काम, तुम्हारा भविष्य और घर बसाना ही जीवन में सबसे जरूरी चीजें नहीं हैं, और न ही समाज में अपना स्थान पाना और पर्याप्त आहार होना जरूरी है। इनमें से कोई भी चीज जीवन में सबसे महत्वपूर्ण नहीं है। तो फिर जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीज क्या है? वह है उस कर्तव्य को निभाना और वह काम करना जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए; साथ ही, तुम्हें परमेश्वर के लक्ष्य और उस काम को पूरा करना है जो उसने तुम्हें सौंपा है। यही सबसे सार्थक चीज है। यही संकल्प लोगों में होना जरूरी है।

वर्तमान में, जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वे हर दिन उसके वचनों को खा-पी सकते हैं, और जो ज्यादा सत्य खोजते हैं वे भी अपने कर्तव्यों को पूरा कर रहे हैं। यह जीवन में तुम्हारी दिशा का सही प्रारंभिक बिंदु है, तो तुम इस मार्ग पर कैसे आगे बढ़ोगे? (हमें जीवन प्रवेश के मार्ग पर एक नींव बनानी चाहिए।) हाँ, अगर तुम सत्य और जीवन पाना चाहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों पर एक नींव बनानी होगी। इससे तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पाओगे, जो जीवन का एकमात्र लक्ष्य और दिशा है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य को अपने हृदय में नींव डालने देते हो, तो तुम वास्तव में परमेश्वर के चुने हुए और पूर्व-नियत लोगों में से एक बन पाओगे। इस समय, तुम सबकी नींव अभी कच्ची है। अगर शैतान की ओर से एक छोटा-सा लालच भी सामने आ जाए, तो बड़ी आपदा या परीक्षण की बात तो दूर रही, तुम इसी से डगमगाकर ठोकर खा सकते हो। यह नींव की कमी है, जो बहुत खतरनाक है! बहुत से लोग उत्पीड़न और विपत्ति से सामना होने पर लड़खड़ा जाते हैं और परमेश्वर को धोखा दे देते हैं। कुछ लोग थोड़ा-सा रुतबा हासिल करने के बाद लापरवाही से काम करने लगते हैं, और फिर उन्हें उजागर करके निकाल दिया जाता है। तुम सभी इन चीजों को बहुत स्पष्ट रूप से देख सकते हो। इसलिए, तुम्हें अब पहले उस दिशा और लक्ष्य का निर्धारण करना चाहिए जिसका तुम जीवन में अनुसरण करोगे और जिस पर तुम चलोगे, और फिर इस लक्ष्य को पाने के लिए अपने मन को शांत करो, कड़ी मेहनत करो, खुद को खपाओ, भरसक कोशिश करो, और कीमत चुकाओ। अभी के लिए अन्य बातों को किनारे कर दो—अगर तुम उन्हीं को लेकर माथा-पच्ची करते रहोगे, तो इसका असर तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर पड़ेगा, और यह तुम्हारे सत्य के अनुसरण और उद्धार के अहम मामले पर भी असर डालेगा। अगर तुम्हें काम खोजने, ढेर सारा पैसा कमाने, और अमीर बनने के बारे में सोचना है, समाज में एक मजबूत पकड़ बनाने और अपनी जगह पाने के बारे में सोचना है, अगर तुम्हें शादी करने और जीवनसाथी ढूँढने के बारे में सोचना है, परिवार चलाने और उन्हें एक अच्छा जीवन देने की जिम्मेदारी उठानी है, और अगर तुम कोई नया कौशल सीखना चाहते हो, उत्कृष्टता प्राप्त करना और अन्य लोगों से बेहतर बनना चाहते हो—तो क्या इन सभी चीजों के बारे में सोचना थकाऊ नहीं होगा? तुम अपने दिमाग में कितना सब कुछ भर पाओगे? एक व्यक्ति के जीवनकाल में कितनी ऊर्जा होती है? किसी के पास सक्रिय जीवन के कितने साल होते हैं? इस जीवन में बीस से चालीस वर्ष की आयु के लोगों में सबसे अधिक ऊर्जा होती है। इस अवधि में, तुम सबको उन सत्यों में महारत हासिल करनी होगी जिन्हें परमेश्वर के विश्वासियों को समझना चाहिए, और फिर सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के साथ-साथ उसके शोधन और परीक्षणों को स्वीकार कर उस मुकाम तक पहुँच जाना चाहिए जहाँ से तुम किसी भी परिस्थिति में परमेश्वर को न ठुकराओ। यही सबसे बुनियादी बात है। इसके अलावा, चाहे कोई तुम्हें लुभाने और बहकाने के लिए प्रेम और शादी का कितना भी इस्तेमाल करे, या फिर कोई तुम्हें कितनी भी शोहरत, दौलत, रुतबा या फायदों की पेशकश करे, तुम्हें अपना कर्तव्य या एक सृजित प्राणी का दायित्व नहीं त्यागना चाहिए। भले ही बाद में परमेश्वर तुम्हें स्वीकार न करे, फिर भी तुम्हें सत्य का अनुसरण करते रहना चाहिए, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलते रहना चाहिए। तुम्हें इस ऊंचाई तक पहुँच जाना चाहिए। इस तरह, परमेश्वर के लिए खुद को खपाने में तुमने जितने साल बिताए हैं, वे व्यर्थ नहीं होंगे। अगर तुम अपने जीवन के सबसे अच्छे साल कोई अच्छी नौकरी खोजने या जीवनसाथी की तलाश करने के बारे में सोचते हुए, परमेश्वर में विश्वास रखते हुए देह-सुख वाले जीवन का आनंद लेने की आशा करते हुए या फिर एक ही समय में दोनों कार्य करने के बारे में सोचते हुए बिता दोगे, तो कुछ सालों के बाद, शायद तुम्हें कोई जीवनसाथी मिल जाए, तुम शादी कर लोगे, बच्चे पैदा कर लोगे, एक घर और करियर भी बना लोगे, मगर इन सालों में तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से कुछ भी हासिल नहीं होगा, तुम्हें कोई सत्य प्राप्त नहीं होगा, तुम्हें अपने दिल में खोखलापन महसूस होगा, और तुम्हारे सबसे अच्छे साल यूँ ही बीत चुके होंगे। चालीस साल की उम्र में जब पीछे मुड़कर देखोगे, तो तुम्हारा एक परिवार होगा, बच्चे होंगे, तुम अकेले नहीं होगे, तुम्हें अपने परिवार का भरण-पोषण करना होगा। यह एक ऐसा बंधन है जिससे तुम कभी मुक्त नहीं हो सकते। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाना चाहते हो, तो तुम्हें अपने परिवार के बंधनों में जकड़े रहकर ऐसा करना होगा। तुम्हारा दिल कितना भी बड़ा क्यों न हो, तुम दोनों पर ध्यान नहीं दे सकते—तुम न तो पूरे दिल से परमेश्वर का अनुसरण कर पाओगे और न ही अपना कर्तव्य अच्छे से निभा पाओगे। ऐसे बहुत से लोग हैं जो परिवार और सांसारिक चीजों को त्याग देते हैं, लेकिन कुछ सालों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी वे केवल शोहरत, फायदे और रुतबे के पीछे भागते रहते हैं। उन्हें न तो सत्य प्राप्त होता है और न ही उनके पास कोई वास्तविक अनुभव की गवाही होती है। वे भी उसी तरह अपना समय बर्बाद कर रहे होते हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय, उन्हें किंचित-मात्र भी सत्य समझ नहीं आता, और जब उनके साथ कुछ घटता है तो वे उसका सामना करना नहीं जानते—वे सिसकने लगते हैं, उन्हें बहुत पछतावा होता है। जब वे अपने शुरुआती दिनों के बारे में सोचते हैं, कलीसिया जीवन एक साथ मिलकर जीने वाले, अपना कर्तव्य निभाने वाले, साथ मिलकर परमेश्वर के भजन गाने और उसकी स्तुति करने वाले युवाओं के बारे में सोचते हैं, तब उन्हें एहसास होता है कि वे कितने अच्छे दिन थे, और वे उस समय में लौटने के लिए बेचैन हो जाते हैं! दुर्भाग्य से, इस दुनिया में पछतावे का कोई इलाज नहीं है। कोई चाहे भी तो समय को वापस नहीं मोड़ सकता है। शुरुआती दिनों में वापस जाने और फिर से जीवन जीने का कोई रास्ता नहीं है। इसीलिए, एक बार जो मौका हाथ से निकल जाता है, वह दोबारा नहीं आता। एक व्यक्ति का जीवन केवल कुछ दशकों का होता है, अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के इस सबसे सही समय को खो देते हो, तो तुम्हारा पछतावा किसी काम नहीं आएगा। कुछ लोग आज तक भी परमेश्वर में विश्वास रखकर भ्रमित बने हुए हैं। वे इस बात से पूरी तरह अनजान हैं कि परमेश्वर का कार्य किस चरण तक पहुँच गया है। बड़ी आपदाएँ आ चुकी हैं, और ये लोग अभी भी यह सोचकर एक सपने में जी रहे हैं, : “परमेश्वर को अपना कार्य पूरा करने में अब भी बहुत समय बाकी है! लोग अब भी हमेशा की तरह खाते, पीते और शादी करते हैं। मुझे जल्दी-जल्दी जीवन का आनंद लेना है, मैं इस मौके को गँवा नहीं सकता!” वे अभी भी शारीरिक सुख की लालसा रखते हैं, उनके दिलों में सत्य की जरा-सी भी प्यास नहीं है। इस तरह, वे जीवन में केवल एक बार मिलने वाला उद्धार का मौका गँवा बैठते हैं। वास्तव में, परमेश्वर मानवजाति को बचाने के लिए कार्य करता है, और जब उसका उद्धार कार्य पूरा हो जाएगा, तब भले ही केवल एक व्यक्ति जीवित रहे, परमेश्वर बिलकुल नहीं सोचेगा कि यह बहुत कम है। परमेश्वर उस एक व्यक्ति को ले जाएगा, और बाकी सब पीछे छूट जाएंगे। यह परमेश्वर का स्वभाव है, जिसे कोई भी व्यक्ति स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकता है। जब परमेश्वर बाढ़ से सारी दुनिया को नष्ट करने जा रहा था, तो उसने नूह को एक नाव बनाने का निर्देश दिया ताकि जो लोग उसमें विश्वास रखते हैं उन्हें बचाया जा सके। जब नाव पूरी तरह बन गई, तो नूह के परिवार के केवल आठ सदस्यों ने नाव में प्रवेश किया और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त किया। बाकी सबका क्या हुआ? वे सब बाढ़ में डूब गए और आपदा में मारे गए। आज, ऐसे बहुत से लोग हैं जो परमेश्वर को ये सभी सत्य व्यक्त करते हुए देखते हैं, जो अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर उद्धार का कार्य कर रहा है, लेकिन फिर भी वे संदेह करते हैं, उनकी अपनी धारणाएँ हैं, और वे इसे नकारते हैं। इस प्रकार के लोग आत्ममुग्ध होते हैं, लेकिन जब बड़ी आपदाएँ आएँगी, तो वे नष्ट हो जाएँगे, और इसके लिए वे किसे दोष देंगे? परमेश्वर की नजरों में, जो उसके उद्धार को स्वीकार नहीं करते, वे कीड़े हैं, वे जीते-जागते प्रेत हैं, वे जंगली जानवरों से भी बदतर हैं! परमेश्वर के उद्धार के दौरान, उसका स्वभाव दयालु, स्नेही और क्षमाशील होता है, लेकिन जब परमेश्वर का उद्धार का कार्य समाप्त हो जाएगा, तो वह मनुष्य को माफी नहीं देगा। परमेश्वर इसे वापस ले लेगा, और लोग केवल उसके क्रोध और प्रताप का सामना करेंगे। अभी, तुम सब इस महान पल के साक्षी हो—परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय कार्य कर रहा है। यह लोगों के लिए परमेश्वर द्वारा बचाए और पूर्ण किए जाने का एकमात्र अवसर है। परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैलाने के इस अहम पल में तुम सब अपना-अपना कर्तव्य निभा रहे हो। यह परमेश्वर द्वारा तुम्हारा असाधारण उत्कर्ष है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने किस क्षेत्र में पढ़ाई की है, तुम्हें किस क्षेत्र का ज्ञान है, या तुम्हारे पास कौन-सा गुण या विशेषज्ञता है, किसी भी मामले में, परमेश्वर तुम्हें अपने घर में उस विशेषज्ञता का उपयोग करके कर्तव्य निभाने की अनुमति देकर अनुग्रह दिखा रहा है। ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलता। जब परमेश्वर कार्य करता है, तो वह किसी से पक्षपात नहीं करता, वह सबके साथ निष्पक्ष व्यवहार करता है। जो कोई भी सत्य स्वीकारता है और उसका अभ्यास करता है, परमेश्वर उसके प्रति अनुग्रह दिखाता है, वह उस व्यक्ति से घृणा करता और उसे ठुकरा देता है जो सत्य से प्रेम नहीं करता, जो सत्य से ऊब चुका है और सत्य को अस्वीकार करता है। परमेश्वर हर व्यक्ति के प्रति न्यायशील है। अगर तुम सत्य स्वीकार सकते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो, तो परमेश्वर तुम्हारे प्रति अनुग्रह दिखाएगा और तुम्हारे पिछले अपराधों के लिए तुम्हें जवाबदेह नहीं ठहराएगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर तुम्हारे लिए किस तरह का रास्ता खोलता है, वह तुम पर कितना अनुग्रह दिखाता है, अंत में उसकी केवल एक ही इच्छा होती है, और वह यह है कि तुम उसकी इच्छा को समझो, सबक सीखो, और अपने जीवन की प्रगति के अनुकूल माहौल में सत्य को समझो। एक बार जब परमेश्वर के वचन और सत्य तुम्हारे भीतर गढ़े जाते हैं और वे तुम्हारा जीवन बन जाते हैं, और तुम परमेश्वर को अपने पुनर्जन्म के माता-पिता मान लेते हो, और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर उसका भय मानते हो, तब तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बन जाओगे। हालाँकि, तुममें से अधिकांश लोग युवा हैं, अगर परमेश्वर के वचन पढ़कर और सत्य समझकर, तुम सब संकल्प लेते हो, जीवन में आगे बढ़ते हो, तुम्हारे दिल में परमेश्वर का भय होता है, परीक्षणों और विपत्तियों का सामना करते हुए तुम अडिग रह पाते हो, तब तुम्हारा एक आध्यात्मिक कद होगा, और परमेश्वर तुमसे संतुष्ट होगा। परमेश्वर कहेगा कि उसने तुम पर अनुग्रह करके बेकार में ही इतनी बड़ी कीमत नहीं चुकाई। उसे पुरस्कार मिलेगा, उसे तुम्हारे अंदर अपने कार्य का फल दिखेगा, और यह देखकर उसे बहुत आनंद और खुशी होगी। यह परिणाम पूरी तरह से परमेश्वर के कार्य से प्राप्त होता है; यह मनुष्य के लिए शेखी बघारने की चीज नहीं है।

परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के जन्म से लेकर वर्तमान तक के दशकों के दौरान केवल उसके लिए कीमत ही नहीं चुकाता। परमेश्वर के अनुसार, तुम अनगिनत बार इस दुनिया में आए हो, और अनगिनत बार तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ है। इसका प्रभारी कौन है? परमेश्वर इसका प्रभारी है। तुम्हारे पास इन चीजों को जानने का कोई तरीका नहीं है। हर बार जब तुम इस दुनिया में आते हो, परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे लिए व्यवस्थाएं करता है : वह व्यवस्था करता है कि तुम कितने साल जियोगे, किस तरह के परिवार में पैदा होगे, कब तुम अपना घर और करियर बनाओगे, और साथ ही, तुम इस दुनिया में क्या करोगे और कैसे अपनी आजीविका चलाओगे। परमेश्वर तुम्हारे लिए आजीविका चलाने के तरीके की व्यवस्था करता है, ताकि तुम इस जीवन में बिना किसी बाधा के अपना मिशन पूरा कर सको। जहाँ तक यह बात है कि तुम अगले जन्म में क्या करोगे, इसकी व्यवस्था और उपाय परमेश्वर इस आधार पर करता है कि तुम्हारे पास क्या होना चाहिए और तुम्हें क्या दिया जाना चाहिए...। परमेश्वर तुम्हारे लिए ऐसी व्यवस्थाएं कितनी ही बार कर चुका है, और कम से कम तुम अंत के दिनों के युग में अपने वर्तमान परिवार में पैदा हुए हो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए एक ऐसे परिवेश की व्यवस्था की है जिसमें तुम उस पर विश्वास कर सको; उसने तुम्हें अपनी वाणी सुनने और अपने पास वापस आने की अनुमति दी है, ताकि तुम उसका अनुसरण कर सको और उसके घर में कोई कर्तव्य निभा सको। परमेश्वर के ऐसे मार्गदर्शन की बदौलत ही तुम आज तक जीवित रहे। तुम नहीं जानते कि तुम कितनी बार मनुष्यों के बीच पैदा हुए हो, न ही तुम यह जानते हो कि कितनी बार तुम्हारा रूप बदला है, तुम्हारे कितने परिवार हुए, तुम कितने युगों और कितने वंशों को जी चुके हो—लेकिन इन सबके दौरान हर पल परमेश्वर का हाथ तुम्हारी मदद करता रहा है, और वह हमेशा तुम पर निगाह रखता रहा है। एक व्यक्ति के लिए परमेश्वर कितना परिश्रम करता है! कुछ लोग कहते हैं, “मैं साठ साल का हूँ। साठ साल से परमेश्वर मुझ पर निगाह रख रहा है, मेरी रक्षा और मेरा मार्गदर्शन कर रहा है। बूढ़ा होने पर अगर मैं कोई कर्तव्य नहीं निभा पाया और कुछ करने लायक नहीं रहा—क्या परमेश्वर तब भी मेरी देखभाल करेगा?” क्या यह कहना मूर्खता नहीं है? मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता नहीं है, मनुष्य के लिए उसकी निगरानी और सुरक्षा केवल एक जीवन-काल की बात नहीं है। अगर यह केवल एक जीवन-काल की, एक ही जीवन की बात होती, तो यह प्रदर्शित करना संभव नहीं होता कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और सभी चीजों पर उसकी संप्रभुता है। परमेश्वर किसी व्यक्ति के लिए जो परिश्रम करता है और जो कीमत चुकाता है, वह केवल इस जीवन में उसके कामों को व्यवस्थित करने के लिए नहीं है, बल्कि उसके अनगिनत जन्मों की व्यवस्था करने के लिए है। परमेश्वर इस दुनिया में जन्म लेने वाली प्रत्येक आत्मा के लिए पूरी जिम्मेदारी लेता है। वह अपने जीवन का मूल्य चुकाते हुए, हर व्यक्ति का मार्गदर्शन करते हुए और उसके प्रत्येक जीवन को व्यवस्थित करते हुए बहुत ध्यान से काम करता है। मनुष्य की खातिर परमेश्वर इतना परिश्रम करता है और इतनी कीमत चुकाता है, और वह मनुष्य को ये सभी सत्य और यह जीवन प्रदान करता है। अगर लोग इन अंतिम दिनों में सृजित प्राणियों का कर्तव्य नहीं निभाते और वे सृष्टिकर्ता के पास नहीं लौटते—वे चाहे कितने ही जन्मों और पीढ़ियों से गुजरे हों, अगर अंत में, वे अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाते और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने में विफल रहते हैं—तब क्या परमेश्वर के प्रति उनका कर्ज बहुत बड़ा नहीं हो जाएगा? क्या वे परमेश्वर की चुकाई सभी कीमतों का लाभ पाने के लिए अयोग्य नहीं हो जाएँगे? वे इतने विवेकहीन होंगे कि इंसान कहलाने लायक नहीं रहेंगे, क्योंकि परमेश्वर के प्रति उनका कर्ज बहुत बड़ा हो जाएगा। इसलिए, इस जीवन में—यहाँ तुम्हारे पिछले जन्मों की बात नहीं हो रही—अगर तुम अपने लक्ष्य की खातिर उन चीजों को त्यागने में नाकाम रहते हो जिनसे तुम्हें प्रेम है या दूसरी चीजें—जैसे सांसारिक आनंद और परिवार का प्रेम और सुख—अगर तुम उस कीमत के लिए देह-सुख नहीं छोड़ते जो परमेश्वर तुम्हारे लिए चुकाता है या तुम परमेश्वर के प्रेम का मूल्य नहीं चुकाते हो, तो तुम वाकई दुष्ट हो! दरअसल, परमेश्वर के लिए कोई भी कीमत चुकाना सार्थक है। तुम्हारे ओर से परमेश्वर जो कीमत चुकाता है उसकी तुलना में, तुम जो जरा-सी मेहनत करते हो या खुद को खपाते हो, उसका क्या मोल है? तुम्हारी जरा-सी तकलीफ का क्या मोल है? क्या तुम्हें पता है परमेश्वर ने कितनी पीड़ा सही है? परमेश्वर ने जितनी पीड़ा सही है उसकी तुलना में तुम्हारी तकलीफ की बात करना भी निरर्थक है। इसके अलावा, अपना कर्तव्य निभाकर, तुम सत्य और जीवन प्राप्त कर रहे हो, और अंत में, तुम जीवित रहोगे और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करोगे। यह कितनी बड़ी आशीष है! जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कष्ट सहते हो या नहीं, कीमत चुकाते हो या नहीं, वास्तव में तुम परमेश्वर के साथ काम कर रहे हो। परमेश्वर हमसे जो भी करने को कहता है, हम परमेश्वर के वचन सुनें और उनके अनुसार ही अभ्यास करें। परमेश्वर की अवज्ञा या ऐसा कुछ मत करना जिससे उसे दुख हो। परमेश्वर के साथ काम करने के लिए, तुम्हें थोड़ा कष्ट उठाना होगा, कुछ चीजों का त्याग करना होगा और कुछ चीजों को किनारे करना होगा। तुम्हें शोहरत और लाभ, रुतबा, पैसा और सांसारिक सुखों को छोड़ना होगा—यहाँ तक कि तुम्हें शादी-विवाह, कामकाज, और संसार में अपने उज्ज्वल भविष्य का भी त्याग करना होगा। क्या परमेश्वर जानता है कि तुमने इन चीजों को त्याग दिया है? क्या परमेश्वर यह सब देख सकता है? (हाँ।) परमेश्वर जब यह देखेगा कि तुमने इन चीजों को छोड़ दिया है तो वह क्या करेगा? (परमेश्‍वर को शांति मिलेगी, और वह प्रसन्‍न होगा।) परमेश्वर न केवल प्रसन्‍न होगा, बल्कि वह कहेगा, “जो कीमत मैंने चुकाई थी वह फलीभूत हो गई है। लोग मेरे साथ काम करने के इच्छुक हैं, उनके पास यह संकल्प है, और मैंने उन्हें हासिल कर लिया है।” परमेश्वर खुश और प्रसन्न है या नहीं, वह संतुष्ट है या नहीं, उसे शांति मिली या नहीं, उसका यह रवैया है ही नहीं। वह कार्य भी करता है, और वह उन परिणामों को देखना चाहता है जो उसके कार्य को प्राप्त होते हैं, वरना लोगों से उसकी जो अपेक्षाएँ हैं वे व्यर्थ चली जाएँगी। परमेश्वर मनुष्य पर जो अनुग्रह, प्रेम और करुणा दिखाता है वह केवल दृष्टिकोण भर नहीं है—वे वास्तव में तथ्य भी हैं। वह तथ्य क्या है? वह यह है कि परमेश्वर अपने वचन तुम्हारे अंदर डालता है, तुम्हें प्रबुद्ध करता है, ताकि तुम देख सको कि उसमें क्या मनोहर है, और यह दुनिया क्या है, ताकि तुम्हारा हृदय रोशनी से भर जाए, तुम उसके वचन और सत्य समझ सको। इस तरह, अनजाने ही, तुम सत्य प्राप्त कर लेते हो। परमेश्वर बहुत वास्तविक तरीके से तुम पर बहुत सारा काम करके तुम्हें सत्य प्राप्त करने में सक्षम बनाता है। जब तुम सत्य प्राप्त कर लेते हो, जब तुम सबसे कीमती चीज, शाश्वत जीवन प्राप्त कर लेते हो, तब परमेश्वर की इच्छा पूरी होती है। जब परमेश्वर देखता है कि लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और उसके साथ सहयोग करने के लिए तैयार हैं, तो वह खुश और संतुष्ट होता है। तब उसका एक दृष्टिकोण होता है, और जब उसका वह दृष्टिकोण होता है, तो वह काम करता है, और मनुष्य की प्रशंसा कर उसे आशीष देता है। वह कहता है, “मैं तुम्हें इनाम दूँगा, वह आशीष दूंगा जिसके तुम पात्र हो।” और तब तुम सत्य और जीवन प्राप्त कर लेते हो। जब तुम्हें सृष्टिकर्ता का ज्ञान होता है और उससे प्रशंसा प्राप्त होती है, तब भी क्या तुम अपने दिल में खालीपन महसूस करोगे? तुम नहीं करोगे; तुम संतुष्ट होगे और आनंद की भावना महसूस करोगे। क्या किसी के जीवन का मूल्य होने का यही अर्थ नहीं है? यह सबसे मूल्यवान और सार्थक जीवन है।

अय्यूब को देखो : क्या उसने कभी परमेश्वर से यह प्रार्थना की कि वह उसे ढेर सारे मवेशी और धन-दौलत दे? (नहीं।) उसने क्या चाहा? (उसने परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना चाहा।) “परमेश्वर का भय मनाना और बुराई से दूर रहना”—इसे परमेश्वर कैसे देखता है? परमेश्वर ने कहा : “परमेश्वर ने देखा कि यह अच्छा है।” जब लोग परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की कोशिश करते हैं, तो इससे परमेश्वर को सबसे अधिक खुशी मिलती है, और परमेश्वर इसके लिए आशीष देता है। क्या परमेश्वर ने केवल ये वचन कहे और आगे कुछ नहीं किया? परमेश्वर ने अय्यूब के साथ और क्या किया? (उसने अय्यूब की परीक्षा ली।) परमेश्वर ने अय्यूब को प्रलोभन देने, उसके सभी मवेशियों, सारी धन-दौलत, उसके बच्चों, और उसके नौकरों को छीन लेने के लिए शैतान को भेजा—परमेश्वर ने उसकी परीक्षा ली। उसकी परीक्षा लेकर परमेश्वर क्या हासिल करना चाहता था? परमेश्वर अय्यूब की गवाही चाहता था। उस समय परमेश्वर ने अय्यूब को क्या दिया? लोग सोचते हैं : “परमेश्‍वर ने अय्यूब को क्या दिया? उसके मवेशियों और धन-दौलत को लूट लिया गया, उसके पास क्या रह गया था? परमेश्वर ने उसे कुछ नहीं दिया!” देखने पर ऐसा लगेगा जैसे परमेश्वर ने जो कुछ अय्यूब को दिया था, वह सब उससे वापस छीन लिया, और अब अय्यूब के पास कुछ भी नहीं बचा था, पर परमेश्वर का छीनना अपने आप में ही बहुत बड़ा इनाम है। कोई यह साफ तौर पर नहीं देख पाता है कि परमेश्वर ने अय्यूब को क्या इनाम दिया। परमेश्वर अय्यूब की गवाही चाहता था, तो उसने उसे एक अवसर दिया। यह कैसा अवसर था? यह अय्यूब के लिए ऐसा अवसर था जिससे वह शैतान और अन्य लोगों के सामने परमेश्वर के लिए गवाही दे सकता था, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अपनी वास्तविकता की गवाही दे सकता था, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अपनी सच्चाई की गवाही दे सकता था, और यह गवाही दे सकता था कि वह एक पूर्ण और सच्चा इंसान है। क्या परमेश्वर ने उसे यह अवसर नहीं दिया? अगर परमेश्वर ने अय्यूब को यह अवसर नहीं दिया होता, तो क्या शैतान अय्यूब के विरुद्ध जाने की जुर्रत करता? (नहीं।) शैतान ऐसी जुर्रत बिलकुल नहीं करता, यह तो पक्का है। अगर शैतान ने अय्यूब को बहकाने की जुर्रत न की होती, तो क्या अय्यूब को कभी यह अवसर मिलता? उसे यह अवसर नहीं मिलता। इसीलिए परमेश्वर ने अय्यूब को ऐसा अवसर दिया, ताकि वह सबके सामने साबित कर सके कि जिस मार्ग पर वह चला—यानी परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग—वह सही है, परमेश्वर को यह स्वीकार्य है, और यह कि अय्यूब एक सच्चा और पूर्ण इंसान है। सबने ये बातें देखीं, परमेश्वर ने भी ये चीजें देखीं, और अय्यूब ने इस अवसर के बीच परमेश्वर को निराश नहीं किया। उसने परमेश्वर के लिए गवाही दी, शैतान को हराया, और परमेश्वर ने देखा कि यह अच्छा है। क्या परमेश्वर ने अंत में अय्यूब को इनाम दिया? (दिया।) अय्यूब के लिए परमेश्वर का दूसरा इनाम क्या था? परमेश्वर ने कहा कि अय्यूब ने परमेश्वर का भय माना और बुराई से दूर रहा, जो उसे स्वीकार्य है। अय्यूब ने शैतान के सामने परमेश्वर के लिए गवाही दी, और परमेश्वर ने देखा कि यह सब अच्छा है। वह संतुष्ट भी था और खुश भी, और उसका एक दृष्टिकोण बन गया था। इस दृष्टिकोण के बाद, क्या उसने और कुछ नहीं किया? परमेश्वर ने क्या किया? मालूम पड़ता है कि तुम लोग अय्यूब की किताब के बारे में नहीं जानते। किन परिस्थितियों में अय्यूब ने कहा : “मैं ने कानों से तेरा समाचार सुना था, परन्तु अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं”? उसने ये शब्द परमेश्वर के वचन सुनने के बाद कहे। क्या अय्यूब ने इससे पहले परमेश्वर को देखा था? (नहीं।) अय्यूब के लिए, परमेश्वर की वाणी सुनना उसका चेहरा देखने जैसा ही था, तो क्या यह वही आशीष नहीं है जिसके लिए हर सृजित प्राणी सबसे अधिक तरसता है? (बिलकुल।) अय्यूब ने यह प्राप्त किया। क्या तुम सब उससे जलते हो? (हाँ।) यह आशीष पाना आसान नहीं है। तो, तुम्हें यह अवसर कैसे मिल सकता है, तुम ऐसा अनुग्रह और इनाम कैसे पा सकते हो? तुम्हें परमेश्वर के लिए गवाही देनी होगी, यानी शैतान के प्रलोभनों के बीच तुम्हें परमेश्वर के लिए गवाही देनी होगी। तुम्हें परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलना होगा। तुम्हें परमेश्वर से यह कहलवाना होगा, “परमेश्वर ने देखा कि यह अच्छा है।” जब परमेश्वर संतुष्ट और खुश होता है, और देखता है कि तुम्हारी गवाही और तुमने जो कुछ भी किया है वह अच्छा है, जब परमेश्वर कहता है कि तुम एक पूर्ण इंसान हो, ऐसे इंसान हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तब तुम उसकी आशीष पाने में सक्षम होगे। जब अय्यूब ने परमेश्वर की वाणी सुनी, तब परमेश्वर ने और क्या किया? उसने अय्यूब को वह सब दिया जो उसके पास पहले कभी नहीं था। अय्यूब अब पहले से भी ज्यादा धनी था—अगर वह पहले करोड़पति था, तो इसके बाद वह अरबपति बन गया होगा। देखो, अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है, तो उसके लिए अरबपति बनना आसान हो जाता है, परमेश्वर के लिए यह बस एक वचन की बात है। यह परमेश्वर का अनुग्रह है। अय्यूब ने परमेश्वर का भय माना और बुराई से दूर रहा, तो उसे परमेश्वर की आशीष मिली।

परमेश्वर लोगों को जो देता है वह उनकी उम्मीद या सोच से भी परे होता है, लेकिन अगर उम्मीद या कल्पना से भी बड़ा इनाम पाना चाहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के मार्ग पर चलना होगा। परमेश्वर के मार्ग पर चलना आसान नहीं है। लोगों को कीमत चुकानी होती है, पर वह कीमत व्यर्थ नहीं जाती, उसका इनाम मिलता है। लोगों को लगता है कि परमेश्वर का उनके प्रति बस एक रवैया है, वह कुछ करता नहीं है, वह बस उन पर नजर बनाए रखता है, उनके व्यवहार को देखता है। क्या वाकई ऐसा ही होता है? नहीं। असल में परमेश्वर तुम्हारे माता-पिता जैसा है। अगर तुम अपने माता-पिता की सुनोगे, समझदारी से काम लोगे, अगर तुम अपना कर्तव्य निभाओगे, और सही मार्ग पर चलने के लिए कष्ट उठाओगे, तो तुम्हारे माता-पिता को कैसा महसूस होगा? तुम्हारे माता-पिता को तुम पर प्यार और दया आएगी। वे अपने बच्चों के लिए अपना जीवन त्यागने को हमेशा तैयार रहते हैं, ताकि उनकी तकलीफ कम हो, वे यह पक्का करना चाहते हैं उनके बच्चे अच्छे से खाएँ, अच्छे कपड़े पहनें और जीवन का आनंद लें,—इससे उन्हें संतुष्टि मिलती है। वह तुम्हें कष्ट सहते नहीं देखना चाहते। माता-पिता का दिल ऐसा ही होता है। उनकी तुलना में, परमेश्वर का दिल और भी बेहतर, खूबसूरत, और स्नेही होता है—उसका दिल इससे कम तो हो ही नहीं सकता। तुम लोग अपने माता-पिता के दिलों के बारे में थोड़ा-बहुत तो समझ सकते हो। इस बात को अच्छे से जानते हो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए कितना कुछ किया है, और तुम उनका सिर ऊँचा करना चाहते हो। तो, परमेश्वर के दिल को समझने के लिए तुम्हें सबसे पहले वही संतानोचित निष्ठा दिखानी चाहिए। जो लोग ऐसा करते हैं वे बहुत समझदार होते हैं। बच्चे अपने प्रति माता-पिता के प्रेम को महसूस कर सकते हैं, लेकिन लोगों को उस प्रेम को और अधिक महसूस करने में सक्षम होना चाहिए जो परमेश्वर के दिल में उनके लिए है, क्योंकि जो कुछ भी उनके पास है वह सब परमेश्वर ने व्यवस्थित और आयोजित किया है। केवल परमेश्वर ही इंसान के लिए सब-कुछ तय कर सकता है। माता-पिता अपने बच्चे के लिए सब-कुछ तय नहीं कर सकते, चाहे उनका प्यार कितना ही बड़ा क्यों न हो। कम से कम, माता-पिता के पास सत्य तो नहीं ही होता। उनका प्रेम देह और भावनाओं का प्रेम है; यह प्रेम किसी की भ्रष्टता को दूर नहीं कर सकता, न ही यह उन्हें जीवन में जरा-सी भी प्रगति दे सकता है। केवल परमेश्वर का प्रेम ही लोगों को बचा सकता है। परमेश्वर के वचन लोगों की अगुआई कर सकते हैं और उन्हें पोषण दे सकते हैं, ताकि वे जीवन में सही मार्ग पर चल सकें। तुम देख सकते हो कि माता-पिता की तुलना में परमेश्वर का प्रेम कितना महान है—परमेश्वर लोगों के प्रति हर तरह से विचारचील होता है! तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया है, उनके लिए, तुम उनकी ही देह और खून हो। वे तुम्हारी बहुत परवाह करते हैं, तुम्हें संजोते हैं, और तुम्हारी रक्षा करते हैं—तो तुम्हें क्या लगता है, परमेश्वर उन इंसानों को कैसे देखता होगा जिन्हें उसने अपने हाथों से बनाया है? परमेश्वर इंसानों को ऐसे संजोता है जैसे वे उसके अपने बच्चे हों; लोग उसकी अपनी देह और खून हैं। यह किसी मनुष्य का अपने बच्चे को जन्म देने और खून के रिश्ते से जुड़े रहने जैसा नहीं है—परमेश्वर ने अपने हाथों से लोगों को बनाया, उनमें उसी की साँसें हैं, वह उनसे अपेक्षाएँ रखता है। परमेश्वर ने लोगों को अपनी आशाएँ सौंपी हैं; वह उनसे कुछ उम्मीदें रखता है, और उसने उन्हें बहुत-सी चीजें सौंपी हैं। परमेश्वर ने सिर्फ मनुष्यों को बनाया भर नहीं है, उनमें साँसें भरी हैं, उन्हें जीवंत किया है, और फिर उसका काम पूरा हुआ। ऐसा नहीं है कि अगर मानवजाति बुरी होती, तो परमेश्वर इसे फिर से बना सकता था, क्योंकि आखिरकार परमेश्वर शक्तिशाली और सर्वशक्तिमान है। परमेश्वर ने मनुष्यों को बनाने के बाद, उनके लिए चिंता की। मनुष्य उसकी देह और उसका खून है, वे उसके साथी हैं, और साथ ही, उसकी प्रबंधन योजना में, वे उसकी सभी उम्मीदों के न्यासी और धारक हैं। आखिरकार, वह इन लोगों में उम्मीद देखना और नतीजे पाना चाहता है। अगर, इसके आधार पर, तुम सभी परमेश्वर के इरादे और इच्छा की कुछ समझ दिखा सकते हो, तो क्या इससे तुम्हारी समझ और गहरी नहीं होगी? (हाँ। बिलकुल।) जैसे माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़ें और जीवन में बहुत आगे बढ़ें, बच्चों के सीखने की प्रक्रिया में वे उनके साथ रहते हैं, उन्हें पंखा झलते हैं, थोड़ी देर बाद दूध-चाय पिलाते हैं, खाने का समय होने पर उनके लिए कुछ स्वादिष्ट भोजन बनाते हैं—इन माता-पिता को इससे बेहतर कुछ और नहीं सूझता है, उनका दिमाग हमेशा अपने बच्चों के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार क्या इसलिए नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें तुमसे उम्मीदें हैं, क्योंकि उन्होंने तुमसे अपनी उम्मीदें लगा रखी हैं? अगर तुम उनकी न बात सुनो, उनकी अवज्ञा करते रहो, तो क्या इससे उन्हें कष्ट नहीं होगा? क्या वे दुखी नहीं होंगे? (होंगे।) तो इस सोच के आधार पर परमेश्वर की इच्छा पर विचार करो। जब परमेश्वर मनुष्यों को देखता है, चाहे वे उम्र में कितने भी बड़े क्यों न हों, उसकी नजर में तो बच्चे ही हैं। अगर तुम कहो, “मैं तो अस्सी साल का हूँ,” तो भी परमेश्वर तुम्हें बच्चा ही कहेगा। अगर तुम कहो, “मैं बीस साल का हूँ,” तब तो तुम और भी छोटे बच्चे हुए। चाहे तुम अस्सी, आठ सौ या आठ हजार साल के हो, सभी मनुष्य परमेश्वर की नजरों में बच्चे ही हैं। परमेश्वर के दृष्टिकोण से, उम्र से कोई फर्क नहीं पड़ता। परमेश्वर की नजरों में, सभी लोग नन्हे बालक ही हैं; परमेश्वर मानवजाति को इसी तरह देखता है। इसीलिए, परमेश्वर की नजरों में, तुम उसकी देह और उसका खून हो, उसके साथियों में से एक हो। फिर तुम कैसे उसकी देह और उसका खून, उसके साथी, और उसके दिल के करीब रहने वाले इंसान बनने लायक हो सकते हो, उसे कैसे संतुष्ट कर सकते हो? क्या यह मानवजाति के लिए ध्यान देने और विचार करने योग्य प्रश्न नहीं है? (बिलकुल है।) परमेश्वर मानवजाति को अपनी देह, अपना खून, अपना साथी, और उस खून-पसीने की कीमत का धारक मानता है जो उसने चुकाई है। परमेश्वर के मन में मनुष्य के लिए कैसा प्रेम है? उसका नजरिया कैसा है? वह उन लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है जिनके साथ उसका ऐसा संबंध है। क्या मनुष्य उस प्रेम को जरा-सा भी समझ सकता है जो परमेश्वर के मन में इन लोगों के लिए है? कुछ लोग कहते हैं : “मैंने परमेश्वर को कभी नहीं देखा है, और मैं उन चीजों को महसूस नहीं कर पाता जो उसने पिछले जन्मों में मेरे लिए किए हैं।” अब तो तुम जीवित हो, क्या तुम परमेश्वर का मार्गदर्शन और उस कीमत को महसूस नहीं कर पाते जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए चुकाई है? क्या तुम उन्हें समझ पाते हो? (हाँ।) अगर समझ पाते हो, तो बहुत अच्छा है—इससे साबित होता है कि तुम्हारे पास दिल और आत्मा है। अगर तुम इतना भी समझ पाते हो, तो यह काफी है। परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए सब-कुछ त्यागना तुम्हारे लिए सार्थक होगा।

29 मई, 2017

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