रुतबे के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें
भ्रष्ट मानवजाति शोहरत और रुतबे से प्रेम करती है। सभी लोग सत्ता के पीछे भागते हैं। तुम लोग जो अभी अगुआ और कार्यकर्ता हो, क्या तुम्हें यह नहीं लगता कि अपने कार्य करते हुए तुम अपनी पदवियाँ और ओहदे ढोए रहते हो? मसीह-विरोधी और नकली अगुआ भी यही करते हैं, जो खुद को परमेश्वर के घर के अधिकारी मानते हैं, बाकी सबसे ऊपर, सबसे श्रेष्ठ। अगर उनके पास आधिकारिक पदवियाँ और ओहदे न हों, तो वे अपने कर्तव्य निर्वहन में कोई बोझ नहीं उठाएँगे, लगन से अपना कामकाज नहीं करेंगे। सभी लोग अगुआ या कार्यकर्ता होने को एक अधिकारी होने के समकक्ष मानते हैं, और सभी लोग एक अधिकारी की तरह कार्रवाई करना चाहते हैं। अनुकूल दृष्टि से पेश करें तो हम इसे कैरियर का अनुसरण करना कहते हैं—मगर बुरी दृष्टि से पेश करें, तो इसे अपने व्यवसाय में लगे रहना कहा जाता है। यह अपनी महत्वाकांक्षाओं और लालसाओं की संतुष्टि के लिए एक स्वतंत्र राज्य बनाना है। अंत में, क्या रुतबा होना अच्छी चीज है या खराब? मनुष्य की नजर में यह अच्छी चीज है। जब तुम्हारे पास आधिकारिक पदवी होती है, तो तुम्हारी कथनी-करनी अलग होती है। तुम्हारी कथनी में शक्ति होती है, और लोग तुम्हारी बात मानेंगे। वे तुम्हारी चापलूसी करेंगे, तुम्हारे आगे नारे लगाते हुए चलेंगे और पीछे-पीछे चलकर तुम्हारा साथ देंगे। लेकिन तुम्हारे पास रुतबा और पदवी न हो, तो वे तुम्हारी बातें अनसुनी करेंगे। चाहे तुम्हारी बातें सच्ची हों, समझदारी से भरी हों, और लोगों के लिए लाभकारी हों, फिर भी कोई तुम्हारी बात नहीं मानेगा। यह क्या दर्शाता है? सभी इंसान रुतबे को पूजते हैं। सबकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ और लालसाएँ होती हैं। वे सभी दूसरों से आराधना करवाने की कोशिश करते हैं, और एक रुतबे वाले पद से मामले सँभालना पसंद करते हैं। क्या रुतबे वाले पद पर रहकर कोई नेकी कर सकता है? क्या वे ऐसे काम कर सकते हैं जो लोगों के लिए लाभकारी हों? यह निश्चित नहीं है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम्हारा मार्ग क्या है और तुम रुतबे को किस तरह लेते हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, मगर हमेशा लोगों का समर्थन पाना चाहते हो, अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को संतुष्ट करना चाहते हो, अपनी रुतबे की लालसा पूरी करना चाहते हो, तो तुम मसीह-विरोधी मार्ग पर चल रहे हो। क्या मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने वाला कोई व्यक्ति अपने अनुसरण और कर्तव्य निर्वाह में सत्य के अनुरूप चल सकता है? बिल्कुल नहीं। ऐसा इसलिए कि इंसान का चुना हुआ मार्ग ही सब कुछ तय करता है। अगर इंसान गलत मार्ग चुन लेता है, तो उसके तमाम प्रयास, उसका कर्तव्य निर्वाह, और उसका अनुसरण किसी भी तरह सत्य के अनुरूप नहीं होते हैं। उनके बारे में ऐसी कौन-सी चीज है जो सत्य के विपरीत है? उनके कार्यकलापों का उद्देश्य क्या होता है? (रुतबा।) रुतबे की खातिर काम करने वाले सभी लोग क्या प्रदर्शित करते हैं? कुछ लोग कहते हैं, “वे हमेशा शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, वे कभी सत्य वास्तविकता के बारे में संगति नहीं करते, वे हमेशा दिखावा करते हैं, अपनी ही खातिर बोलते हैं, वे कभी परमेश्वर को ऊँचा नहीं उठाते या उसकी गवाही नहीं देते। जिन लोगों में ऐसी चीजें प्रदर्शित होती हैं, वे रुतबे के लिए काम करते हैं।” क्या यह सही है? (हाँ।) वे शब्द और धर्म-सिद्धांत क्यों बोलते हैं और दिखावा क्यों करते हैं? वे परमेश्वर को ऊँचा क्यों नहीं उठाते, उसकी गवाही क्यों नहीं देते? क्योंकि उनके हृदय में केवल रुतबा, अपनी प्रसिद्धि और लाभ होता है—परमेश्वर पूरी तरह से अनुपस्थित होता है। ऐसे लोग खास तौर पर रुतबे और अधिकार की आराधना करते हैं। उनके लिए उनकी प्रसिद्धि और लाभ बहुत ज्यादा महत्त्व रखते हैं; उनकी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा ही उनका जीवन बन गए हैं। परमेश्वर उनके हृदय से अनुपस्थित है, परमेश्वर के प्रति समर्पण करना तो दूर रहा, वे उसका भय भी नहीं मानते; वे बस खुद को ऊँचा उठाते हैं, अपनी ही गवाही देते हैं और दूसरों की सराहना पाने के लिए दिखावा करते हैं। इस तरह वे अक्सर अपने बारे में डींग मारते हैं, कि उन्होंने क्या-कुछ किया, कितने कष्ट सहे, परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया, काट-छाँट होने पर वे कितने सहनशील रहे, यह सब वे लोगों की सहानुभूति और प्रशंसा पाने के लिए करते हैं। ये लोग बिल्कुल मसीह-विरोधियों की किस्म के लोग होते हैं, ये पौलुस के मार्ग पर चलते हैं। और उनका अंतिम परिणाम क्या होता है? (वे मसीह-विरोधी बन जाते हैं और हटा दिए जाते हैं।) क्या ये लोग जानते हैं कि उनका यह हश्र होने वाला है? (वे जानते हैं।) वे जानते हैं? अगर वे जानते हैं, तो अपनी ही लीक पर क्यों चलते हैं? दरअसल वे नहीं जानते। वे मानते हैं कि उनके कार्यकलाप अच्छे और सही हैं। वे कभी खुद की जाँच नहीं करते कि उनके कौन-से काम परमेश्वर का प्रतिरोध या उसे खिन्न करते हैं, या उनके किन कामों के पीछे कोई नीयत छिपी है, या वे किस मार्ग पर चल रहे हैं। ऐसी चीजें हमेशा उनकी जाँच से बच निकलती हैं।
अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में क्या तुम लोगों ने कभी इन प्रश्नों पर सोच-विचार किया है : मुझे परमेश्वर का दिया आदेश एक विशेष आदेश है, किसी साधारण अनुयायी का साधारण कर्तव्य नहीं। इस कर्तव्य में विशेष जिम्मेदारी निहित है और इसका विशेष अर्थ है। इसलिए यह विशेष कर्तव्य निभाते समय और यह जिम्मेदारी लेते समय मैं परमेश्वर के इरादे के अनुरूप होने या कम-से-कम परमेश्वर की नफरत से बचने के लिए कौन-सा मार्ग अपनाऊँ? मुझे किस तरह अनुसरण करना चाहिए ताकि मैं परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जा सकूँ, और मसीह-विरोधियों का मार्ग अपनाने और उसके परिणामस्वरूप निकाल दिए जाने से बच सकूँ? क्या तुमने कभी इन प्रश्नों पर विचार किया है? (पहले-पहल एक अगुआ के रूप में सेवा शुरू करने पर मुझे लगा था कि परमेश्वर ने मुझे उत्कर्षित किया है। हालाँकि मैं जानता था कि मुझे सत्य का अनुसरण करना चाहिए और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना चाहिए, मगर अपनी अहंकारी प्रकृति के कारण मैं बेकाबू होकर हमेशा शोहरत और रुतबे के पीछे भागता रहा। इसे पहचान लेने के बाद, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करने में सक्षम हो सका, और समाधान पाने के लिए उसके वचनों में सुसंगत अंश खोज सका। उस समय मैं अपने मार्ग की दिशा पलट सका, मगर यह स्थिति भविष्य में दोबारा आएगी, और खुद से दिली नफरत करने के बावजूद मेरे लिए इस समस्या को पूरी तरह सुलझाना कठिन था।) तुम अपनी सोच और विचारों पर काबू नहीं कर सकते, और इसी तरह प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने की तुम्हारी महत्वाकांक्षा और लालसा भी तुम्हारे नियंत्रण से परे है। यह इस बात का साक्ष्य है कि भ्रष्ट स्वभाव ने तुम्हारे अंदर जड़ें जमा ली हैं। यह कोई गुजरती हुई मनःस्थिति या अस्थायी मनोभाव नहीं है, न ही इसे दूसरों ने तुम पर थोपा है। तुम्हें यह किसी और से सिखाए जाने की जरूरत नहीं है; यह तुम्हारी सोच का सहज झुकाव और तुम्हारे कर्मों की सहज राह है। यह तुम्हारी प्रकृति है। किसी की प्रकृति में जो चीजें अंतर्निहित होती हैं उन्हें बदलना सबसे कठिन होता है। इसलिए, एक बार जब शैतानी प्रकृति वाले लोगों को रुतबा मिल जाता है, तो वे खतरे में पड़ जाते हैं। तो क्या किया जाना चाहिए? क्या उनके पास कोई मार्ग नहीं है जिस पर वे चल सकें? एक बार उस खतरनाक स्थिति में पड़ जाने के बाद क्या उनके लिए वापसी का कोई मार्ग नहीं रहता? बताओ भला, एक बार भ्रष्ट लोगों को रुतबा हासिल हो जाए—चाहे वे कोई भी हों—तो क्या वे मसीह-विरोधी बन जाते हैं? क्या यह बिल्कुल सच है? (अगर वे सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे तो मसीह-विरोधी बन जाएंगे, लेकिन अगर वे सत्य का अनुसरण करते हैं तो मसीह-विरोधी नहीं बनेंगे।) यह पूरी तरह से सही है : यदि लोग सत्य का अनुसरण न करें, तो वे यकीनन मसीह-विरोधी बन जाएँगे। तो क्या जो लोग मसीह-विरोधी मार्ग पर चलते हैं, क्या वे ऐसा रुतबे के कारण करते हैं? नहीं, वे ऐसा मुख्यतः सत्य से प्रेम न होने के कारण करते हैं, क्योंकि वे सही लोग नहीं होते। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके पास चाहे रुतबा हो या न हो, वे सब मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते हैं। उन्होंने चाहे जितने भी उपदेश सुने हों, ऐसे लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, वे सही मार्ग पर नहीं चलते, बल्कि कुटिल मार्ग की ओर चलने पर तुले हुए हैं। यह कुछ वैसी ही बात है कि लोग कैसा खाना खाते हैं : कुछ लोग ऐसा खाना नहीं खाते जो उनके शरीर को पोषण दे सके और उनके सामान्य जीवन को बनाये रख सके, बल्कि वे ऐसी चीजों का सेवन करने पर तुले रहते हैं जो उन्हें नुकसान पहुँचाती हैं, अंत में, वे खुद ही अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। क्या वे ऐसा खुद ही नहीं चुनते हैं? हटा दिए जाने के बाद, कुछ अगुआ और कर्मी यह कहकर धारणाएँ फैलाते हैं, “अगुआ मत बनना, और रुतबा हासिल मत करना। रुतबा मिलते ही लोग मुसीबत में पड़ जाते हैं, और परमेश्वर उनका खुलासा कर देता है! खुलासा होने के बाद, वे लोग साधारण विश्वासी की पात्रता भी नहीं रखते, और उन्हें फिर किसी भी तरह का आशीर्वाद नहीं मिलता।” यह किस तरह की बात हुई? हल्के में लें, तो यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी दर्शाती है; गंभीरता से लें तो यह ईश-निंदा है। यदि तुम सही मार्ग पर नहीं चलते, सत्य का अनुसरण नहीं करते और परमेश्वर के मार्ग पर नहीं चलते, बल्कि मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने पर अड़े रहते हो और पौलुस के मार्ग पर पहुँच जाते हो, तो अंततः तुम्हारा वही हश्र होता है, वही अंत होता है जो पौलुस का हुआ, फिर भी परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो, परमेश्वर को अधार्मिक कहते हो, तो क्या तुम मसीह-विरोधी होने के असली पात्र नहीं हो? ऐसे व्यवहार को धिक्कार है! जब लोगों को सत्य की समझ नहीं होती, तो वे हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीते हैं, अक्सर परमेश्वर को गलत समझते हैं, उन्हें लगता है कि परमेश्वर के कार्य उनकी धारणाओं के विपरीत हैं और इस कारण उनमें नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाती हैं; इसकी वजह है लोगों में भ्रष्ट स्वभाव का होना। वे नकारात्मक चीजें इसलिए कहते और इसलिए शिकायत करते हैं क्योंकि उनका विश्वास बहुत ही तुच्छ होता है, उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और सत्य की उनकी समझ बहुत कम होती है—ये सारी बातें क्षमा-योग्य हैं, परमेश्वर इन बातों को याद नहीं रखता। फिर भी, ऐसे लोग होते हैं जो सही मार्ग पर नहीं चलते, जो जानबूझकर कपट करने, विरोध करने, परमेश्वर को धोखा देने और उससे लड़ने के मार्ग पर चलते हैं। इन लोगों को अंततः परमेश्वर दंड और शाप देता है, वे तबाही और विनाश में जा गिरते हैं। वे इस हद तक कैसे पहुँचते हैं? क्योंकि उन्होंने कभी आत्मचिंतन नहीं किया, स्वयं को नहीं जाना, वे सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते, लापरवाह और दुराग्रही होते हैं, पश्चात्ताप करने से हठपूर्वक इनकार करते हैं, खुलासा करके हटाए जाने पर यह कहकर परमेश्वर के बारे में शिकायत भी करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है। क्या ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है? (नहीं।) उन्हें नहीं बचाया जा सकता। तो क्या जिसका भी खुलासा कर हटा दिया जाता है, उसका उद्धार नहीं हो सकता? यह तो नहीं कहा जा सकता है कि उसे कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। ऐसे भी लोग हैं जिन्हें सत्य की बहुत कम समझ होती है, वे युवा और अनुभवहीन होते हैं—जो अगुआ या कर्मी बनकर रुतबा पा लेने के बाद अपने भ्रष्ट स्वभाव से नियंत्रित होते हैं, वे रुतबे के पीछे भागते हैं और इस रुतबे का आनंद लेते हैं, और स्वाभाविक रूप से मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने लगते हैं। यदि उजागर और न्याय किए जाने के बाद, वे आत्मचिंतन कर पाते हैं, सच्चा पश्चात्ताप कर पाते हैं, नीनवे के लोगों की तरह दुष्टता त्यागकर पहले की तरह बुराई के मार्ग पर चलना बंद कर देते हैं, तो उनके पास अभी भी बचाए जाने का अवसर होता है। लेकिन ऐसे अवसर की शर्तें क्या होती हैं? उन्हें सच्चा प्रायश्चित्त करने और सत्य को स्वीकारने में सक्षम होना चाहिए। अगर वे ऐसा कर सकें, तो उनके लिए अभी भी आशा की किरण बची है। यदि वे आत्मचिंतन करने में सक्षम नहीं हैं, सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते, न ही सच्चा प्रायश्चित्त करने का उनका कोई इरादा है, तो उन्हें पूरी तरह हटा दिया जाएगा।
“रुतबा” शब्द अपने आप में न तो कोई परीक्षण है न ही प्रलोभन। यह इस बात पर निर्भर करता है कि लोग रुतबे को कैसे संभालते हैं। अगर तुम अगुआई के काम को अपने कर्तव्य और पूरी की जाने वाली जिम्मेदारी की तरह लेते हो, तो रुतबा तुम्हें लाचार नहीं करेगा। अगर तुम इसे एक आधिकारिक पदवी या पद के रूप में स्वीकारते हो, तो तुम मुश्किल में पड़कर यकीनन औंधे मुँह गिरोगे। तो फिर कलीसिया का अगुआ और कार्यकर्ता बनने पर किसी को कैसी मानसिकता अपनानी चाहिए? अनुसरण में तुम्हारा ध्यान कहाँ होना चाहिए? तुम्हारा एक मार्ग होना चाहिए! अगर तुम सत्य नहीं खोजते और तुम्हारे पास अभ्यास का कोई मार्ग नहीं है, तो यह रुतबा तुम्हारे लिए फंदा बन जाएगा और तुम औंधे मुँह गिर पड़ोगे। कुछ लोग रुतबा पाने के बाद अलग किस्म के हो जाते हैं और उनकी मानसिकता बदल जाती है। वे नहीं जानते कि कैसी पोशाक पहनें, दूसरों से कैसे बात करें, किस लहजे में बोलें, लोगों से कैसे संसर्ग करें, और चेहरे पर कैसी भाव-भंगिमाएँ लाएँ। परिणामस्वरूप, वे अपनी एक छवि गढ़ने लगते हैं। क्या यह एक विकृति नहीं है? कुछ लोग गैर-विश्वासियों का केश-विन्यास, उनके कपड़े-लत्ते और उनकी बोलने और चाल-ढाल की खूबियाँ ताकते हैं। वे उनकी नकल करते हैं, और इस मार्ग पर गैर-विश्वासियों की दिशा में चल पड़ते हैं। क्या यह सकारात्मक चीज है? (नहीं है।) यहाँ क्या चल रहा होता है? यूँ तो ये सतही कार्यकलाप लगते हैं, लेकिन वास्तव में ये एक प्रकार का अनुसरण हैं। ये नकल हैं। यह सही तरीका नहीं है। अब तुम लोग इन जाहिर छवियों और छद्मवेशों में सही और गलत का भेद कर सकते हो, मगर क्या तुम गलत को ठुकराकर उसके विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो? (हाँ, अगर हम इसके प्रति जागरूक हों।) यह तुम लोगों का मौजूदा आध्यात्मिक कद है। जब ये विचार तुम्हारे दिल में ताजा हैं, तुम उनमें भेदकर उन्हें पहचान सकते हो। अगर तुम रुतबे के पीछे भागने को प्रेरित हो, तो तुम खुद इस चाहत को घटा सकते हो, ताकि तुम उस आसक्त प्रशंसक की तरह न बन जाओ जो अपने आदर्श का यों पीछा करता है जैसे कोई मतवाला बर्बर जानवर। व्यक्तिपरक रूप से तुम उन विचारों की पहचान कर सकते हो। जब तुम लोगों से घिरे हुए न हो, तो तुम किसी प्रलोभन के बिना देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो। लेकिन तब क्या जब लोग तुम्हारा अनुसरण करें, तुम्हारे चक्कर काटें, तुम्हारी रोजमर्रा की जरूरतों की परवाह करें, तुम्हें भोजन और कपड़े दें और तुम्हारी हर जरूरत पूरी करें? तब तुम्हारे दिल में कौन-सी भावनाएँ हलचल मचाएँगी? क्या तुम रुतबे के फायदों का लाभ नहीं ले रहे होगे? क्या तब भी तुम देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकोगे? जब लोग तुम्हारे चारों ओर इकट्ठा हो जाएँ, तुम्हारे चारों ओर मँडराएँ मानो तुम कोई सितारा हो, तब तुम इस रुतबे को कैसे सँभालोगे? तुम्हारी चेतना की चीजें, यानी तुम्हारी सोच और विचारों की वे चीजें—रुतबे की प्रशंसा, रुतबे का आनंद, रुतबे का लालच, और यहाँ तक कि उसके प्रति आसक्ति—क्या तुम ये चीजें ढूँढ़ने के लिए अपना दिल टटोल सकते हो? क्या तुम उन्हें पहचान सकते हो? अगर तुम अपने दिल की जाँच कर उसके भीतर इन चीजों को पहचान सको, तो क्या उस हालत में तुम देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकोगे? अगर तुममें सत्य का अभ्यास करने की इच्छाशक्ति नहीं है, तो तुम इन चीजों के विरुद्ध विद्रोह नहीं करोगे। तुम इनका मजा लोगे, और मस्त रहोगे। पूरी तरह आत्मसंतुष्ट होकर तुम कहोगे, “परमेश्वर में विश्वास रखते हुए रुतबा होना सचमुच अद्भुत है। एक अगुआ के रूप में सभी लोग मेरी बात मानते हैं। यह कितना शानदार एहसास है। मैं ही इन लोगों की अगुआई कर इनका सिंचन करता हूँ। ये सब अब मेरे आज्ञाकारी हैं। मैं पूरब में जाने को कहता हूँ, तो कोई भी पश्चिम में नहीं जाता। जब मैं कहता हूँ प्रार्थना करो, तो कोई गाना गाने की हिम्मत नहीं करता। यह एक उपलब्धि है।” तब तुम रुतबे के लाभों का मजा उठाने लगे होगे। तब रुतबा तुम्हारे लिए क्या बन चुका होगा? (जहर।) और हालाँकि यह जहर है, तुम्हें इससे डरने की जरूरत नहीं। ठीक ऐसी ही स्थिति में तुम्हें सही अनुसरण और अभ्यास के सही तरीकों की जरूरत है। अक्सर, जब लोग रुतबे वाले होते हैं, मगर उनके काम के परिणाम मिलने अभी बाकी हों तो वे यही कहेंगे, “मैं रुतबे का मजा नहीं ले पा रहा हूँ, रुतबे से मिलने वाली हर चीज का मजा नहीं ले पा रहा हूँ।” मगर, एक बार जब उनका काम कुछ सफल होने लगता है और उन्हें लगता है कि उनका रुतबा सुरक्षित है, तो वे अपना विवेक खो बैठते हैं और रुतबे के फायदों का मजा लेने लगते हैं। क्या तुम मानते हो कि प्रलोभन को पहचानने के ठीक बाद तुम देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो? क्या वास्तव में तुम्हारा आध्यात्मिक कद इतना ऊँचा है? सच्चाई यह है कि यह इतना ऊँचा नहीं है। तुम यह पहचान सकते हो और देह के खिलाफ विद्रोह कर सकते हो तो महज इसलिए कि तुममें वह अंतरात्मा और बुनियादी तार्किकता है जो मनुष्य के पास होती है। यही वे चीजें हैं जो तुम्हें बताती हैं कि इस तरह पेश मत आओ। अंतरात्मा का मानक और परमेश्वर में विश्वास रखने से तुम जो थोड़ी-सी तार्किकता प्राप्त करते हो, ये चीजें ही तुम्हारी मदद करती हैं या तुम्हें गलत राह से दूर रखती हैं। इसका संदर्भ क्या है? वह यह है कि तुम रुतबे से प्रेम तो करते हो मगर अभी उसे नहीं पा सके हो, और अभी भी तुममें थोड़ा जमीर और विवेक है। ये कथन तुम्हें अब भी संयमित रख सकते हैं और तुम्हें एहसास करवा सकते हैं कि रुतबे का मजा लेना ठीक नहीं है, यह सत्य के अनुरूप नहीं है, यह सही मार्ग नहीं है, यह परमेश्वर का प्रतिरोध है और उसे खिन्न करता है। तब तुम सचेत होकर देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो, और रुतबे का मजा छोड़ सकते हो। जब तुम्हारे पास दिखाने को कोई उपलब्धियाँ या खूबियाँ न हों, तब तुम देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो, मगर जैसे ही तुम सराहनीय कार्य करोगे, तो क्या तुम्हारी शर्म, तार्किकता, तुम्हारा जमीर और तुम्हारे नैतिक विचार तुम्हें रोकेंगे? तुम्हारे पास अंतरात्मा का जो छोटा-सा मानक है वह परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होने के सामने कहीं नहीं टिकता और तुम्हारा जरा-सा विश्वास किसी काम नहीं आएगा। तो जो थोड़ा-सा जमीर अभी तुम्हारे पास है, क्या वह सत्य वास्तविकता के समतुल्य है? बिल्कुल भी नहीं। और चूँकि यह सत्य वास्तविकता नहीं है, इसलिए तुम जो कर सकते हो वह बस मानवीय अंतरात्मा और मानवीय विवेक के अंकुश के अधीन किया जाता है। चूँकि अभी तुम लोगों के पास अपने जीवन के रूप में परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता नहीं है, इसलिए रुतबा और आधिकारिक पदवियाँ पा लेने पर तुम लोगों का क्या होगा? क्या तुम मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने लगोगे? (यह निश्चित नहीं है।) यह महा संकट का समय है। क्या तुम लोग इसे स्पष्ट रूप से देख सकते हो? बताओ भला, क्या एक अगुआ या कार्यकर्ता होना खतरनाक है? (बिल्कुल।) खतरे को जानने के बाद भी क्या तुम लोग यह कर्तव्य निभाने को तैयार हो? (हाँ।) कर्तव्य निभाने की यह तत्परता मानवीय इच्छाशक्ति है, और यह एक सकारात्मक चीज है। मगर क्या सिर्फ यह सकारात्मक चीज ही तुम्हें सत्य को अमल में लाने देगी? क्या तुम देह की चाहतों के विरुद्ध विद्रोह कर सकोगे? अच्छे इंसानी इरादों और मानवीय इच्छाशक्ति के भरोसे, और मानवीय आकांक्षाओं और आदर्शों के भरोसे क्या तुम अपनी इच्छा पूर्ण कर सकोगे? (नहीं।) फिर तुम्हें सोच-विचार करना चाहिए कि तुम्हें अपनी इच्छाओं, अपने आदर्शों और अपनी इच्छा को अपनी वास्तविकता और अपना सच्चा आध्यात्मिक कद बनाने के लिए क्या करना चाहिए। वास्तव में, यह बहुत बड़ी समस्या नहीं है। असली समस्या यह है कि मनुष्य की मौजूदा दशा और आध्यात्मिक कद, और उसकी मानवता की खूबियों को देखते हुए वह परमेश्वर की स्वीकृति की शर्तों को संतुष्ट करने से बहुत दूर है। तुम लोगों के मानवीय चरित्र में थोड़े-से जमीर और विवेक से ज्यादा कुछ नहीं है, और सत्य का अनुसरण करने की इच्छाशक्ति तो है ही नहीं। अपना कर्तव्य निभाते समय शायद तुम अनमने न रहना चाहो, या सतही न होने की, और परमेश्वर को चकमा देने की कोशिश न करना चाहो, मगर तुम ऐसा करोगे। तुम लोगों की मौजूदा सच्ची दशा और आध्यात्मिक कद को देखते हुए तुम पहले से ही संकटपूर्ण स्थिति में हो। क्या तुम अब भी इस बात पर कायम हो कि रुतबा होना खतरनाक है, और उसके न होने पर तुम सुरक्षित हो? दरअसल रुतबा न होना भी खतरनाक है। अगर तुम भ्रष्ट स्वभाव के साथ जीवन जीते हो, तो तुम संकट में हो। अब, क्या बात ऐसी है कि अगुआ होना ही खतरनाक है, जबकि जो लोग अगुआ नहीं हैं वे सुरक्षित हैं? (नहीं।) अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और तुममें जरा-सी भी सत्य वास्तविकता नहीं है, तो चाहे अगुआ हो या नहीं तुम खतरे में ही हो। तो इस खतरे से बचने के लिए तुम्हें सत्य का अनुसरण कैसे करना चाहिए? क्या तुमने इस प्रश्न पर विचार किया है? अगर तुम्हारी छोटी-सी लालसा है और तुम बस कुछ विनियमों का पालन करते हो, तो क्या इससे काम चलेगा? क्या तुम इस तरह संकट के स्थान से सचमुच बच निकल पाओगे? थोड़े समय तक इससे काम चल सकता है, मगर कहना मुश्किल है कि लंबी अवधि में क्या होगा। फिर क्या करना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं कि सत्य का अनुसरण करना सबसे अच्छा रास्ता है। यह बिल्कुल सही है, मगर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए किसी को किस तरह अनुसरण करना चाहिए? और अपने जीवन की प्रगति के लिए किस तरह अनुसरण करना चाहिए? ये सारी चीजें सरल नहीं हैं। अव्वल तो तुम्हें सत्य को समझना चाहिए, और फिर उसे अमल में लाना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति सत्य को समझ लेता है, तो आधी समस्याएँ वैसे ही सुलझ जाती हैं। वह अपनी दशा पर आत्मचिंतन कर सकता है और उसे स्पष्ट रूप से देख सकता है। उसे उस संकट का एहसास हो जाएगा जिसमें वह जी रहा है। वह सक्रिय होकर सत्य को अमल में ला सकेगा। ऐसा अभ्यास व्यक्ति को परमेश्वर के प्रति समर्पण की ओर बढ़ाता है। क्या परमेश्वर को समर्पित व्यक्ति खतरे से बाहर होता है? क्या तुम्हें सचमुच उत्तर चाहिए? जो लोग सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं, वे न तो उससे विद्रोह करेंगे न उसका प्रतिरोध करेंगे, उससे विश्वासघात करना तो बहुत दूर की बात है। उनका उद्धार सुनिश्चित है। क्या ऐसा व्यक्ति पूरी तरह खतरे के बाहर नहीं है? इसलिए समस्याएँ सुलझाने का सबसे अच्छा उपाय सत्य को पूरी गंभीरता से लेना और सत्य में अपने सारे प्रयास लगाना है। जब लोग एक बार सत्य को सचमुच समझ लेंगे, तो सारी समस्याएँ सुलझ जाएँगी।
तुम लोगों के लिए अगुआ या कार्यकर्ता होने में विशेष बात क्या है? (ज्यादा जिम्मेदारी उठाना।) जिम्मेदारी इसका हिस्सा है। यह ऐसी चीज है जिसको लेकर तुम सभी सचेत हो, मगर तुम अपनी जिम्मेदारियाँ अच्छी तरह कैसे पूरी कर सकते हो? तुम कहाँ से शुरू करोगे? दरअसल, इस जिम्मेदारी को अच्छे से निभाना, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना है। “जिम्मेदारी” शब्द सुनकर यूँ लग सकता है मानो यह कोई विशेष चीज हो, मगर अंतिम विश्लेषण में, यह व्यक्ति का कर्तव्य ही है। तुम लोगों के लिए, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना आसान काम नहीं है, क्योंकि तुम्हारे सामने बहुत-से अवरोध हैं, जैसे कि रुतबे का अवरोध, जिसे पार करना तुम लोगों के लिए बहुत मुश्किल है। अगर तुम्हारे पास कोई रुतबा नहीं है, तुम एक साधारण विश्वासी हो, तो तुम्हारे सामने कम प्रलोभन आएँगे, और तुम्हारे लिए अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना आसान रहेगा। तुम साधारण लोगों की तरह हर दिन आध्यात्मिक जीवन जी सकते हो, परमेश्वर के वचनों को खा-पी सकते हो, सत्य पर संगति कर सकते हो, और अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकते हो। यह पर्याप्त है। लेकिन अगर तुम्हारे पास रुतबा है, तो तुम्हें पहले रुतबे के कारण उत्पन्न अवरोध को पार करना होगा। पहले तुम्हें इस परीक्षा में खरा उतरना होगा। तुम इस अवरोध को पार कैसे कर सकते हो? साधारण लोगों के लिए यह आसान नहीं है, क्योंकि मनुष्य के भीतर भ्रष्ट स्वभाव गहराई से जड़ें जमाए हुए हैं। सभी लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों में जीते हैं और स्वाभाविक रूप से शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागना पसंद करते हैं। ऐसी मुश्किलों के बीच आखिरकार रुतबा पा लेने के बाद कौन इसके लाभों का भरपूर मजा नहीं लूटेगा? अगर तुम्हारे दिल में सत्य के प्रति प्रेम है और तुम्हारे पास एक हद तक परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, तो तुम अपने रुतबे को सावधानी और सतर्कता से संभालोगे, साथ-ही-साथ अपने कर्तव्य निर्वाह में सत्य को खोजने में भी सक्षम होगे। इस प्रकार, तुम्हारे दिल में शोहरत, लाभ और रुतबे को जगह नहीं मिलेगी, न ही वे तुम्हारे कर्तव्य निर्वाह में रुकावट पैदा कर पाएँगे। अगर तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, तो तुम्हें बार-बार प्रार्थना करनी चाहिए, और परमेश्वर के वचनों से खुद को संयम में रखना चाहिए। तुम्हें कुछ खास चीजें करने के लिए या कुछ प्रकार के परिवेशों और प्रलोभनों से सचेत होकर बचने के तरीके ढूँढ़ने चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम एक अगुआ हो। जब तुम कुछेक साधारण भाई-बहनों के संग रहते हो, तो क्या वे तुम्हें अपने से थोड़ा-सा श्रेष्ठ नहीं समझेंगे? भ्रष्ट मानवजाति इसे इसी तरह देखती है और यह तुम्हारे लिए पहले से ही एक प्रलोभन है। यह परीक्षण नहीं, प्रलोभन है! अगर तुम भी मानते हो कि तुम उनसे श्रेष्ठ हो, तो यह बहुत खतरनाक है, लेकिन अगर तुम उन्हें अपनी बराबरी का मानते हो, तो तुम्हारी मानसिकता सामान्य है और तुम भ्रष्ट स्वभाव से बाधित नहीं होगे। अगर तुम्हें लगता है कि अगुआ होने के नाते तुम्हारा रुतबा उनसे श्रेष्ठ है, तो वे तुमसे कैसे पेश आएँगे? (वे अगुआ के बारे में ऊँची राय रखेंगे।) क्या वे सिर्फ तुम्हें आदर देंगे और तुम्हारी सराहना करेंगे, और कुछ नहीं? नहीं। उन्हें उसी अनुरूप बोलना और करना होगा। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हें सर्दी-जुकाम हो जाए, और एक साधारण भाई-बहन को भी सर्दी-जुकाम हो जाए, तो वे पहले किसकी देखभाल करेंगे? (अगुआ की।) क्या यह पक्षपाती होना नहीं है? क्या यह रुतबे के फायदों में से एक नहीं है? अगर किसी भाई-बहन के साथ तुम्हारा विवाद हो गया तो तुम्हारे रुतबे के कारण क्या वे तुमसे निष्पक्ष रूप से पेश आएँगे? क्या वे सत्य का पक्ष लेंगे? (नहीं।) ये तुम्हारे सामने आने वाले प्रलोभन हैं। क्या तुम इनसे बच सकते हो? तुम्हें इनसे कैसे निपटना चाहिए? अगर कोई तुमसे बुरे ढंग से पेश आए, तो शायद तुम उन्हें पसंद न करो, और उन पर हमला करने, उन्हें अलग-थलग कर देने, उनसे बदला लेने के बारे में सोच सकते हो, जबकि दरअसल, वह व्यक्ति गलत नहीं है। दूसरी ओर, कुछ लोग तुम्हारी चापलूसी कर सकते हैं, और शायद तुम इस पर आपत्ति न करो, बल्कि इसका सचमुच आनंद लेने लगो। क्या यह मुसीबत खड़ी करने वाली बात नहीं है? क्या तुम फौरन चापलूस को आगे बढ़ाना और प्रशिक्षित करना शुरू नहीं कर दोगे, ताकि वह तुम्हारा विश्वासपात्र बनकर तुम्हारा कहा मानने लगे? अगर तुमने ऐसा किया, तो तुम किस मार्ग पर चल रहे होगे? (मसीह-विरोधियों का मार्ग।) अगर तुम इन प्रलोभनों में फँसोगे, तो खतरे में पड़ जाओगे। क्या तुम्हारा सारे दिन लोगों से अपने चक्कर कटवाना अच्छी बात है? मैंने सुना है कि कुछ लोग अगुआ बनने के बाद अपना काम नहीं करते या व्यावहारिक समस्याएँ नहीं सुलझाते। इसके बजाय, वे सिर्फ देह के सुखों के बारे में सोचते रहते हैं। कभी-कभी वे सिर्फ अपने लिए बना विशेष भोजन करते हैं, और अपने मैले कपड़े दूसरों से धुलवाते हैं। एक समय के बाद, उनका खुलासा कर हटा दिया जाता है। ऐसी किसी चीज का सामना होने पर तुम लोगों को क्या करना चाहिए? अगर तुम्हारा कोई रुतबा है, तो लोग तुम्हारी चापलूसी करेंगे, और तुम्हारे साथ खास ढंग से पेश आएँगे। अगर तुम इन प्रलोभनों से उबर कर इन्हें नकार सकते हो, और लोग तुमसे चाहे जैसे भी पेश आएँ, तुम उनके साथ निष्पक्ष बर्ताव कर सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम सही किस्म के इंसान हो। अगर तुम रुतबे वाले हो, तो कुछ लोग तुम्हें आदर से देखेंगे। वे तुम्हारी खुशामद और चापलूसी करते हुए हमेशा तुम्हारे आसपास मँडराएंगे। क्या तुम इसे समाप्त कर सकते हो? तुम लोग ऐसी स्थितियों को कैसे संभालते हो? जब तुम लोगों को अपना ख्याल रखवाने की जरूरत न हो, फिर भी कोई तुम्हारी तरफ “मदद का हाथ” बढ़ाकर तुम्हारा हर ख्याल रखने लगे, तो संभवतः तुम लोग यह सोचकर मन-ही-मन खुश होने लगो कि रुतबा होना तुम्हें अलैहदा बनाता है और कि विशेष व्यवहार भरपूर मजा लेने के लिए ही है। क्या ऐसा नहीं होता? क्या यह एक असली समस्या नहीं है? जब तुम्हारे साथ ऐसी चीजें होती हैं, तो क्या तुम्हारा दिल तुम्हें धिक्कारता है? क्या तुम्हें घिन और नफरत होती है? अगर कोई व्यक्ति घिन और नफरत महसूस नहीं करता, इसे नहीं ठुकराता, दिल से आरोप और दोष से मुक्त रहता है, और इसके बजाय यह महसूस करके कि रुतबा एक अच्छी चीज है, इन चीजों का मजा लेना पसंद करता है, तो क्या ऐसे व्यक्ति में कोई जमीर होता है? क्या उसमें तार्किकता होती है? क्या यह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य का अनुसरण करता है? (नहीं।) यह क्या दर्शाता है? यह रुतबे के फायदों की लिप्सा है। हालाँकि यह तुम्हें मसीह-विरोधी की पाँत में खड़ा नहीं करती, फिर भी तुम मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल पड़े हो। जब तुम विशेष आवभगत का मजा लेने के आदी हो जाते हो, तो अगर किसी दिन तुम्हारी ऐसी आवभगत न हो तो क्या तुम नाराज नहीं हो जाओगे? अगर कुछ भाई-बहन गरीब हैं और उनके पास तुम्हारी खातिरदारी के लिए पैसा नहीं है, तो क्या तुम उनके साथ निष्पक्ष रूप से पेश आओगे? अगर वे तुम्हें नाखुश करने वाला कोई तथ्य बताएँ, तो क्या तुम उन पर अपनी ताकत आजमाओगे, और उन्हें दंडित करने के बारे में सोचोगे? क्या उन्हें देखकर तुम नाखुश हो जाओगे और उन्हें सबक सिखाना चाहोगे? अगर तुम्हारे मन में ऐसे विचार आने लगें, तो फिर तुम बुराई करने से ज्यादा दूर नहीं हो, है न? क्या लोगों के लिए मसीह-विरोधी मार्ग पर चलना सरल है? क्या मसीह-विरोधी बनना आसान है? (हाँ।) यह बहुत परेशानी की बात है! अगर अगुआ और कार्यकर्ता के तौर पर, तुम हर चीज में सत्य नहीं खोजते, तो तुम मसीह-विरोधी मार्ग पर चल रहे हो।
कुछ लोग परमेश्वर के कार्य को नहीं समझते, वे नहीं जानते कि परमेश्वर किसे और कैसे बचाता है। वे देखते हैं कि सभी लोग मसीह-विरोधी स्वभाव वाले हैं, वे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल सकते हैं, और इस तरह उन्हें लगता है कि ऐसे लोगों को उद्धार की कोई आशा नहीं होनी चाहिए। अंत में, उन सबको मसीह-विरोधी करार दे दिया जाएगा। उन्हें बचाया नहीं जा सकता और उन सबको नष्ट हो जाना चाहिए। क्या ऐसी सोच और विचार सही हैं? (नहीं।) तो इस समस्या को कैसे सुलझाया जाए? सबसे पहले तो तुम्हें परमेश्वर के कार्य की समझ होनी चाहिए। परमेश्वर भ्रष्ट मनुष्य को बचाता है। भ्रष्ट मनुष्य मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलकर परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है। इसीलिए उसे परमेश्वर के उद्धार की जरूरत है। तो किसी मनुष्य से, मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने के बजाय, परमेश्वर का सच्चा अनुसरण कैसे करवाया जाए? उसे सत्य समझना होगा, आत्मचिंतन कर खुद को और अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना होगा, अपनी शैतानी प्रकृति को जानना होगा। फिर उसे सत्य खोजकर अपना भ्रष्ट स्वभाव ठीक करना होगा। ऐसा करके ही तुम सुनिश्चित कर सकते हो कि तुम मसीह-विरोधियों के मार्ग पर न चलो, खुद एक मसीह-विरोधी न बनो, और ऐसे न बनो जिसे परमेश्वर ठुकरा दे। परमेश्वर अलौकिक तरीकों से कार्य नहीं करता। इसके बजाय वह लोगों के दिलों की गहराई तक पड़ताल करता है। अगर तुम हमेशा रुतबे के लाभों का आनंद उठाते हो, तो परमेश्वर तुम्हें सिर्फ फटकारेगा। वह तुम्हें इस गलती का बोध कराएगा ताकि तुम आत्म-चिंतन करो और जानो कि यह सत्य के अनुरूप नहीं है और परमेश्वर के लिए सुखद नहीं है। अगर तुम्हें यह एहसास हो सके, और तुम आत्मचिंतन करो और खुद को और जानो, तो तुम्हें इस समस्या को सुलझाने में कठिनाई नहीं होगी। लेकिन अगर तुम ऐसी दशा में लंबे समय तक जीते रहते हो, हमेशा रुतबे के लाभों का आनंद लेते हो, परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हो, आत्मचिंतन नहीं करते हो, और सत्य नहीं खोजते हो, तो परमेश्वर कुछ भी नहीं करेगा। वह तुम्हें त्याग देगा, ताकि तुम उसे अपने साथ महसूस न कर सको। परमेश्वर तुम्हें यह एहसास दिलाएगा कि अगर तुम यूँ ही करते रहे तो तुम यकीनन ऐसे बन जाओगे जिससे परमेश्वर घृणा करता है। परमेश्वर तुम्हें यह जानने देगा कि यह मार्ग गलत है, तुम्हारा जीने का तरीका गलत है। लोगों को ऐसी जागरूकता देने का परमेश्वर का प्रयोजन उन्हें यह बताना है कि कौन-से कर्म सही हैं और कौन-से गलत, ताकि वे सही विकल्प चुन सकें। लेकिन किसी व्यक्ति का सही मार्ग पर चलना उसकी आस्था और सहयोग पर निर्भर करता है। जब परमेश्वर ये चीजें कर रहा होता है, तो वह सत्य समझाने में तुम्हारा मार्गदर्शन करता है, मगर उससे आगे वह विकल्प चुनने की शक्ति तुम पर छोड़ देता है और बात यहाँ आ जाती है कि क्या तुम सही मार्ग पर चल रहे हो। परमेश्वर कभी तुम पर थोपता नहीं। वह कभी तुम्हें जबरन नियंत्रित नहीं करता या कुछ करने के लिए आज्ञा नहीं देता, या तुमसे ये या वो काम नहीं करवाता। परमेश्वर इस तरह कार्य नहीं करता। वह तुम्हें चुनने की आजादी देता है। ऐसे समय में, इंसान को क्या करना चाहिए? जब तुम्हें एहसास हो कि तुम गलत कर रहे हो, तुम्हारे जीने का तरीका गलत है, तो क्या तुम एकाएक सही तरीकों के अनुसार अभ्यास कर सकते हो? ऐसा करना बहुत मुश्किल होगा। इसमें एक युद्ध करना होगा, क्योंकि मनुष्य की पसंदीदा चीजें शैतान का फलसफा और तर्क हैं, जो सत्य के विरुद्ध होते हैं। कभी-कभी तुम जानते हो कि सही क्या होगा और गलत क्या होगा, और तुम्हारे दिल में युद्ध होता है। ऐसे युद्ध के दौरान तुम्हें बारम्बार प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगना चाहिए, उसकी फटकार माँगनी चाहिए ताकि तुम यह जान सको कि तुम्हें कौन-सी चीजें नहीं करनी चाहिए। फिर, ऐसे प्रलोभनों के विरुद्ध सक्रियता से विद्रोह कर उनसे दूर होकर बचना चाहिए। इसमें तुम्हारे सहयोग की जरूरत पड़ती है। युद्ध के दौरान, तुम गलतियाँ करते रहोगे, और गलत रास्ता पकड़ना आसान होगा। भले ही मन-ही-मन तुम सही दिशा चुनो, यह सुनिश्चित नहीं है कि तुम सही मार्ग पर चलोगे। क्या चीजें वास्तव में ऐसी नहीं होतीं? पल भर की लापरवाही से, तुम गलत रास्ता पकड़ लोगे। यहाँ “पल भर की लापरवाही” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि प्रलोभन बहुत बड़ा है। तुम्हारे लिए इसका कारण कभी अपनी प्रतिष्ठा, कभी मनःस्थिति, कभी कोई विशेष संदर्भ या खास माहौल हो सकता है। दरअसल, सबसे गंभीर घटक तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है, जो तुम पर हावी होकर तुम्हें नियंत्रित करता है। सही मार्ग पर चलने में यही तुम्हारे लिए मुश्किल खड़ी करता है। संभव है तुम थोड़ी आस्था रखते हो, फिर भी हालात तुम्हें हिलाकर डावाँडोल कर देते हैं। जब तक तुम्हारी काट-छाँट न हो, तुम्हें दंडित और अनुशासित न किया जाए, तुम्हारी राह को बाधाएँ रोक न दें, और तुम्हें आगे कोई राह न दिखाई दे, तब तक तुम्हें एहसास नहीं होगा कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागना सही तरीका नहीं है, बल्कि ऐसा कुछ है जिससे परमेश्वर नफरत कर श्राप देता है, परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मार्ग पर चलना ही जीवन का उचित मार्ग है, और अगर तुम इस मार्ग पर चलने की इच्छाशक्ति को दृढ़ न करो, तो तुम पूरी तरह हटा दिए जाओगे। लोग ताबूत देखने तक रोते नहीं है! लेकिन इस युद्ध के दौरान, अगर मनुष्य की आस्था सुदृढ़ है, सहयोग करने का उसका संकल्प दृढ़ है, और उसमें सत्य का अनुसरण करने की इच्छाशक्ति है, तो उसके लिए इन प्रलोभनों से पार पाना आसान होगा। अगर अपनी प्रतिष्ठा का खास ख्याल, रुतबे का प्रेम, शोहरत, लाभ और देहसुख का लालच तुम्हारी बड़ी कमजोरी है, और ये चीजें तुम्हारे भीतर विशेष रूप से मजबूत हैं, तो तुम्हारे लिए विजयी होना मुश्किल होगा। तुम्हारे लिए विजयी होना मुश्किल होगा का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि तुम्हारे लिए सत्य के अनुसरण का मार्ग चुनना मुश्किल होगा, इसलिए इसके बजाय तुम गलत मार्ग चुन सकते हो, जिसके कारण परमेश्वर तुमसे नफरत कर तुम्हें त्याग देगा। लेकिन अगर तुम हमेशा सावधान और विवेकपूर्ण रहते हो, फटकार पाने और अनुशासित होने के लिए अक्सर परमेश्वर के सम्मुख आ सकते हो, रुतबे के लाभों का आनंद नहीं उठाते, न ही शोहरत, लाभ या देह के सुखों का लालच करते हो और अगर ऐसे विचार आने पर उनके सक्रिय होने से पहले ही तुम उनसे पुरजोर विद्रोह करने के लिए परमेश्वर का सहारा लेते हो, परमेश्वर से प्रार्थना करते हो और सत्य खोजते हो, आखिरकार सत्य के अभ्यास के मार्ग पर चलने और उस वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम हो जाते हो तो चाहे कुछ भी हो जाए, तब क्या इस बात की और अधिक संभावना नहीं है कि बहुत बड़ा प्रलोभन दिखने पर भी तुम सही दिशा चुनोगे? (बिल्कुल।) यह तुम्हारी सामान्य संचित आरक्षित निधियों के भरोसे होता है। बताओ भला : अगर किसी व्यक्ति के सामने बहुत बड़ा प्रलोभन आ जाए, तो क्या वह अपने मौजूदा आध्यात्मिक कद, अपनी खुद की इच्छाशक्ति या अपनी सामान्य संचित आरक्षित निधियों के सहारे, परमेश्वर के इरादे को पूरी तरह संतुष्ट कर सकता है? (नहीं।) क्या वह उसे आंशिक रूप से संतुष्ट कर सकता है? (हाँ।) मनुष्य शायद उसे आंशिक रूप से संतुष्ट करने में समर्थ हो, मगर जब उसके सामने बहुत बड़ी मुश्किलें आ जाती हैं, तो परमेश्वर का दखल जरूरी हो जाता है। अगर तुम सत्य पर अमल करना चाहते हो, तो सिर्फ सत्य की इंसानी समझ और इंसानी इच्छाशक्ति पर निर्भर रहकर तुम्हें संपूर्ण सुरक्षा नहीं मिल सकती, न ही तुम परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर सकते हो और बुराई से दूर रह सकते हो। अहम यह है कि मनुष्य में सहयोग करने का संकल्प होना चाहिए, और शेष के लिए परमेश्वर के कार्य के सहारे रहना चाहिए। मान लो कि तुम कहते हो, “मैंने इसके लिए बहुत प्रयास खपाए हैं, और भरसक काम किया है। भविष्य में जो भी प्रलोभन या हालात आएँ, मेरा आध्यात्मिक कद इतना ही है और मैं बस इतना ही कर सकता हूँ।” तुम्हें ऐसा करते देख परमेश्वर क्या करेगा? परमेश्वर ऐसे प्रलोभनों से तुम्हारी रक्षा करेगा। जब परमेश्वर ऐसे प्रलोभनों से तुम्हारी रक्षा करता है, तो तुम सत्य पर अमल करने में समर्थ हो पाओगे, तुम्हारी आस्था और अधिक दृढ़ हो जाएगी, और तुम्हारा आध्यात्मिक कद धीरे-धीरे बढ़ेगा।
भ्रष्ट मनुष्य रुतबे के पीछे भागकर उसके फायदों का आनंद उठाना पसंद करता है। हर इंसान के साथ ऐसा ही होता है, भले ही वर्तमान में उसके पास रुतबा हो या न हो : रुतबा त्याग देना और उसके प्रलोभनों से छूट जाना बहुत मुश्किल है। इसके लिए मनुष्य की ओर से बड़े सहयोग की जरूरत होती है। ऐसे सहयोग में क्या करना होता है? मुख्य रूप से सत्य खोजना, सत्य को स्वीकार करना, परमेश्वर के इरादों को समझना, और समस्याओं के सार को साफ तौर पर बेध देना। इन चीजों के साथ, एक व्यक्ति के पास रुतबे के प्रलोभन से उबरने की आस्था होगी। इसके अलावा, तुम्हें प्रलोभन से छुटकारा पाने और परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने के प्रभावी तरीके सोचने चाहिए। तुम्हारे पास अभ्यास के मार्ग होने ही चाहिए। यह तुम्हें सही मार्ग पर रखेगा। अभ्यास के मार्गों के बिना, तुम अक्सर प्रलोभनों के फेर में पड़ जाओगे। हालाँकि तुम सही मार्ग पर चलना चाहोगे, फिर भी बेहद कड़ी मेहनत के बाद भी अंत में तुम्हारे प्रयासों का ज्यादा लाभ नहीं होगा। तो ऐसे कौन-से प्रलोभन हैं जो अक्सर तुम्हारे सामने आते हैं? (जब अपने कर्तव्य निर्वाह में मैं थोड़ी सफलता हासिल करता हूँ, और भाई-बहनों का सम्मान अर्जित करता हूँ, तो मैं आत्मसंतुष्ट महसूस करता हूँ और इस एहसास से मुझे बहुत मजा आता है। कभी-कभी मुझे इसका एहसास नहीं होता; कभी-कभी मुझे एहसास तो होता है कि यह दशा गलत है, मगर फिर भी मैं इसके खिलाफ विद्रोह नहीं कर पाता।) यह एक प्रलोभन है। फिर दूसरा कौन बोलेगा? (मेरे अगुआ होने के कारण, भाई-बहन कभी-कभी मुझसे विशेष व्यवहार करते हैं।) यह भी एक प्रलोभन है। अगर तुम अपने सामने आने वाले प्रलोभनों के प्रति जागरूक नहीं रहते, बल्कि उनसे अनुचित रूप से निपटते हो और सही विकल्प नहीं चुन सकते हो तो ये प्रलोभन तुम्हें दुःख और कष्ट देंगे। उदाहरण के लिए, भाई-बहनों के विशेष व्यवहार में तुम्हें रोटी, कपड़ा, मकान जैसे भौतिक लाभ और रोजमर्रा की जरूरतें मुहैया करना शामिल हैं। अगर तुम जिन चीजों का आनंद उठाते हो, वे उनकी दी हुई चीजों से बेहतर हैं, तो तुम उन्हें हेय दृष्टि से देखोगे, और शायद उनके उपहारों को ठुकरा दो। लेकिन अगर तुम किसी धनी व्यक्ति से मिले, और वह तुम्हें उम्दा सूट देकर कहे कि वह इसे नहीं पहनता, तो क्या तुम ऐसे प्रलोभन के सामने भी अडिग रह सकोगे? शायद तुम उस स्थिति पर सोच-विचार करो और खुद से कहो, “वह धनी है, उसके लिए ये कपड़े मायने नहीं रखते। वैसे भी वह ये कपड़े नहीं पहनता। अगर वह ये मुझे नहीं देगा तो उन्हें बंद कर कहीं रख देगा। इसलिए मैं ही रख लेता हूँ।” इस फैसले का तुम क्या अर्थ निकालोगे? (वह पहले से रुतबे के लाभ का आनंद उठा रहा है।) यह रुतबे के लाभों का आनंद उठाना कैसे है? (क्योंकि उसने उम्दा चीजें स्वीकार कर लीं।) क्या तुम्हें दी गईं उम्दा चीजें स्वीकार करना ही रुतबे के लाभ का आनंद उठाना है? अगर तुम्हें कोई साधारण चीज दी जाती है, मगर यह ठीक तुम्हारी जरूरत की चीज हो और इसलिए तुम इसे स्वीकार लेते हो तो क्या इसे भी रुतबे के लाभों का आनंद उठाना कहा जाएगा? (हाँ। जब भी वह अपनी स्वार्थपरक इच्छाओं को संतुष्ट करने के लिए दूसरों से चीजें स्वीकार करता है, इसे रुतबे के लाभ का आनंद उठाने में गिना जाएगा।) लगता है तुम इस बारे में स्पष्ट नहीं हो। क्या तुमने कभी इस बारे में सोचा है : अगर तुम अगुआ नहीं होते, तुम्हारा कोई रुतबा नहीं होता, तो क्या वह तब भी तुम्हें यह उपहार देता? (वह नहीं देता।) यकीनन वह नहीं देता। तुम्हारे अगुआ होने के कारण ही वह तुम्हें यह उपहार देता है। इस चीज की प्रकृति बदल चुकी है। यह सामान्य दान नहीं है, और समस्या इसी में है। अगर तुम उससे पूछोगे, “अगर मैं अगुआ न होता, सिर्फ एक भाई-बहन होता, तो क्या तब भी तुम मुझे यह उपहार देते? अगर इस चीज की किसी भाई-बहन को जरूरत होती, तो क्या तुम उसे यह चीज दे देते?” वह कहेगा, “मैं नहीं दे सकता। मैं किसी भी व्यक्ति को यूँ ही चीजें नहीं दे सकता। मैं तुम्हें इसलिए देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अगुआ हो। अगर तुम्हारा यह विशेष रुतबा नहीं होता, तो मैं ऐसा उपहार भला क्यों देता?” अब देखो, तुम स्थिति को किस तरह नहीं समझ पाए हो। उसके यह कहने पर कि उस उम्दा सूट की उसे जरूरत नहीं है, तो तुम्हें यकीन हो गया, मगर वह तुमसे छल कर रहा था। उसका प्रयोजन तुमसे उसका उपहार स्वीकार करवाना है, ताकि भविष्य में तुम उससे अच्छा बर्ताव करो, और उसका विशेष ख्याल रखो। यह उपहार देने के पीछे उसकी नीयत यही है। सच्चाई यह है कि तुम दिल से जानते हो कि अगर तुम्हारे पास रुतबा न होता तो वह तुम्हें कभी भी ऐसा उपहार न देता, फिर भी तुम उसे स्वीकार कर लेते हो। अपनी जीभ से बुलवाते हो, “परमेश्वर का धन्यवाद। मैंने यह उपहार परमेश्वर से स्वीकार किया है। यह मुझ पर परमेश्वर का अनुग्रह है।” न केवल तुम रुतबे के लाभों का आनंद उठाते हो, बल्कि तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों की चीजों में भी आनंद उठाते हो, मानो कि उचित रूप से वे तुम्हें ही मिलने थे। क्या यह बेशर्मी नहीं है? अगर इंसान को जमीर की समझ न हो, उसमें बिल्कुल शर्म न हो, तो यह एक समस्या है। क्या यह सिर्फ बर्ताव का मामला है? क्या दूसरों से चीजें स्वीकार कर लेना गलत है और इनकार कर देना सही? ऐसी स्थिति से सामना होने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इस उपहार देने वाले से पूछना चाहिए कि क्या वे जो कर रहे हैं, वह सिद्धांतों के अनुरूप हैं। उनसे कहो, “आइए, हम परमेश्वर के वचनों, या कलीसिया के प्रशासनिक आदेशों में मार्गदर्शन ढूँढ़ें और देखें कि जो आप कर रहे हैं, वह सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। अगर नहीं, तो मैं ऐसा उपहार स्वीकार नहीं कर सकता।” अगर उपहार देनेवाले को उन सूत्रों द्वारा सूचित किया जाता है कि उनका यह काम सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, फिर भी वे उपहार देना चाहते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए। साधारण लोग इससे उबर नहीं सकते। वे उत्सुकता से लालसा रखते हैं कि दूसरे उन्हें और ज्यादा दें, वे और अधिक विशेष व्यवहार का आनंद उठाना चाहते हैं। अगर तुम सही किस्म के इंसान हो, तो ऐसी स्थिति सामने आने पर तुम्हें फौरन यह कहकर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, “हे परमेश्वर, आज जिससे मेरा सामना हुआ है वह यकीनन तुम्हारी सदिच्छा है। यह मेरे लिए तुम्हारा निर्धारित सबक है। मैं सत्य खोजने और सिद्धांतों के अनुसार कर्म करने को तैयार हूँ।” रुतबे वाले लोगों के सामने आने वाले प्रलोभन बहुत बड़े हैं, और एक बार प्रलोभन आने पर उससे उबर पाना बहुत कठिन है। तुम्हें परमेश्वर से सुरक्षा और सहायता लेने की जरूरत है; तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए और अक्सर आत्मचिंतन करना चाहिए। इस प्रकार, तुम खुद को जमीन से जुड़ा और शांत महसूस करोगे। लेकिन अगर प्रार्थना करने के लिए तुम ऐसे उपहार मिलने तक प्रतीक्षा करोगे, तो क्या तुम इस तरह जमीन से जुड़ा हुआ और शांत महसूस करोगे? (तब नहीं करोगे।) तब परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा? क्या तुम्हारे कर्मों से परमेश्वर प्रसन्न होगा, या उनसे नफरत करेगा? वह तुम्हारे कर्मों से घृणा करेगा। क्या समस्या सिर्फ तुम्हारे किसी चीज को स्वीकार करने की है? (नहीं।) तो फिर समस्या कहाँ है? समस्या इस बात में है कि ऐसी स्थिति का सामना होने पर तुम कैसी राय और रवैया अपनाते हो। क्या तुम खुद फैसला कर लेते हो या सत्य खोजते हो? क्या तुम्हारे जमीर का कोई मानक है? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है भी? जब भी ऐसी स्थिति से सामना होता है, तो क्या तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो? क्या तुम पहले अपनी इच्छाएँ संतुष्ट करने की कोशिश करते हो, या पहले प्रार्थना कर परमेश्वर के इरादे जानने की कोशिश करते हो? इस मामले में तुम्हारा खुलासा हो जाता है। तुम्हें ऐसी स्थिति को कैसे सँभालना चाहिए? तुम्हारे पास अभ्यास के सिद्धांत होने चाहिए। पहले बाहर से तुम्हें ऐसे विशेष भौतिक लाभों, इन प्रलोभनों को इनकार करना चाहिए। भले ही तुम्हें ऐसी कोई चीज दी जाए जो तुम्हें खास तौर पर चाहिए, या यह ठीक वही चीज हो जिसकी तुम्हें जरूरत है, तुम्हें इसी तरह उसे इनकार करना चाहिए। भौतिक चीजों का क्या अर्थ है? रोटी, कपड़ा और मकान, और रोजमर्रा जरूरत की तमाम चीजें इनमें शामिल हैं। इन विशेष भौतिक चीजों को जरूर इनकार करना चाहिए। तुम्हें इन्हें इनकार क्यों करना चाहिए? क्या ऐसा करना महज तुम्हारे कर्म का मामला है? नहीं; यह तुम्हारे सहयोगी रवैये का मामला है। अगर तुम सत्य पर अमल करना चाहते हो, परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते हो, और प्रलोभन से दूर रहना चाहते हो, तो पहले तुम्हें सहयोगी रवैया अपनाना होगा। इस रवैये के साथ तुम प्रलोभन से दूर रह सकोगे और तुम्हारा अंतःकरण शांत रहेगा। अगर तुम्हारी चाही कोई चीज तुम्हें दी जाए, और तुम उसे स्वीकार कर लो, तो तुम्हारा दिल कुछ हद तक तुम्हारे जमीर की फटकार महसूस करेगा। लेकिन अपने औचित्यों और बहानों के कारण तुम कहोगे कि तुम्हें यह चीज दी जानी चाहिए, कि तुम इसके हकदार हो। और फिर, तुम्हारे जमीर की टीस उतनी सही या स्पष्ट व्यक्त नहीं होगी। कभी-कभी कुछ कारण या विचार और दृष्टिकोण तुम्हारे जमीर को डुला सकते हैं, जिससे कि उसकी टीस उतनी स्पष्ट नहीं होगी। तो क्या तुम्हारा जमीर एक भरोसेमंद मानक है? यह नहीं है। यह अलार्म की घंटी है जो लोगों को चेतावनी देती है। यह कैसी चेतावनी देती है? यह कि सिर्फ जमीर की भावनाओं के सहारे रहने में कोई सुरक्षा नहीं है; व्यक्ति को सत्य सिद्धांत भी खोजने चाहिए। वही भरोसेमंद होता है। लोग, उन्हें रोकने वाले सत्य के बिना, प्रलोभन में फँस सकते हैं, बहुतेरे कारण और बहाने बना सकते हैं जिससे कि रुतबे के लाभों का उनका लालच संतुष्ट हो सके। इसलिए एक अगुआ के रूप में, तुम्हें अपने दिल में इस एक सिद्धांत का पालन करना होगा : मैं हमेशा इनकार करूँगा, हमेशा दूर रहूँगा, और किसी भी विशेष व्यवहार को पूरी तरह से ठुकरा दूँगा। बुराई से दूर रहने की पहली शर्त इसे पूरी तरह से ठुकरा देना है। अगर तुम्हारे पास बुराई से दूर रहने की पहली शर्त मौजूद है, तो कुछ हद तक तुम पहले से ही परमेश्वर की रक्षा के अधीन हो। और अगर तुम्हारे पास अभ्यास के ऐसे सिद्धांत हैं, और उन्हें मजबूती से थामे रहते हो, तो तुम पहले से ही सत्य पर अमल कर रहे हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो। तुम पहले से ही सही मार्ग पर चल रहे हो। जब तुम सही मार्ग पर चल रहे हो, और पहले से ही परमेश्वर को संतुष्टि दे रहे हो, तो क्या तुम्हें जमीर की परीक्षा देने की जरूरत है? सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना और सत्य पर अमल करना जमीर के मानकों से ऊँचा है। अगर किसी में सहयोग करने का संकल्प हो, और वह सिद्धांतों के अनुसार कर्म कर सकता हो तो वह पहले ही परमेश्वर को संतुष्ट कर चुका है। परमेश्वर मनुष्य से इसी मानक की अपेक्षा रखता है।
बहुत हद तक, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की किसी की क्षमता उसके सहयोग पर निर्भर करती है। सहयोग अहम है। अय्यूब परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहता था, इसलिए अपने आध्यात्मिक कद और वास्तविकता के चलते उसे किसी भी प्रलोभन में फँसने का डर नहीं रहा होगा। अगर वह किसी दावत में शामिल होता, तो उसने किसी भी कथनी या करनी से आसानी से परमेश्वर का अपमान नहीं किया होता। तो फिर भी उसने ऐसी दावतों में शामिल होने से मना क्यों किया? (उसे दावतें पसंद नहीं थीं।) उसे ऐसे अवसर नापसंद थे। यह एक निष्पक्ष कारण है, लेकिन एक व्यावहारिक मसला भी है जिस पर तुम लोगों ने विचार नहीं किया होगा। अय्यूब परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था। उसने कुछ उपाय किए और ऐसी परिपाटियों को अपनाया ताकि वह परमेश्वर की रक्षा पा सके, पाप करने या परमेश्वर का अपमान करने से बच सके। उसने सहयोग के इंसानी तरीके अपनाए। मामले का यह एक पहलू है। इसके अलावा, ऐसी भी कुछ स्थितियाँ हैं, जिनमें मनुष्य खुद ही अपनी भ्रष्ट प्रकृति को नियंत्रित नहीं कर सकता, इसलिए अय्यूब ऐसे अवसरों में नहीं जाता था जहाँ उसे प्रलोभन मिलें। इस तरह वह प्रलोभनों से बचा रहा। अब क्या तुम लोग समझ गए हो कि अय्यूब ऐसी दावतों में क्यों नहीं जाता था? ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसा अवसर किसी के लिए भी एक बहुत बड़ा प्रलोभन होता। किसी चीज के बहुत बड़ा प्रलोभन होने का अर्थ क्या है? लोग कहीं भी हों, किसी भी समय पाप कर सकते हैं, परमेश्वर का अपमान कर सकते हैं। केवल तुम्हारा परमेश्वर का भय मानने वाला दिल, परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और तुम्हारा संकल्प तुम्हें प्रलोभन से मुक्त रखने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। प्रलोभन दिए जाने पर वे तुम्हें परमेश्वर का अपमान करने से रोक नहीं सकते। क्या तुम समझ रहे हो? तुम्हें दूसरों द्वारा दिए गए विशेष व्यवहार को बिल्कुल इनकार करना होगा। तुम्हें हर बार इनकार करना होगा। भला काम करने का यह क्या तरीका है? मनुष्य की समस्याओं के कौन-से आयाम पर ऐसे सिद्धांतों और विनियमों का लक्ष्य होता है? (ये मनुष्य की लालची प्रकृति को निशाना बनाते हैं।) अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण मनुष्य आसानी से प्रलोभन में फँस जाता है। इसलिए, तुम्हें ऐसे प्रलोभनों से बचने के लिए कुछ निश्चित सिद्धांत या तरीके अपनाने चाहिए, ताकि परमेश्वर का अपमान न करो। सहयोग करने का यह एक शक्तिशाली और प्रभावी तरीका है। अगर तुम ऐसा करने में विफल रहो, स्थिति का जायजा लेकर कभी-कभी विशेष व्यवहार को स्वीकार कर लो और कभी इनकार कर दो, तो क्या तुम्हें मामले की अच्छी समझ है? (नहीं।) इस बारे में तुम्हारी समझ कमजोर क्यों है? (क्योंकि मनुष्य शैतानी प्रकृति का है और खुद को नियंत्रित नहीं कर सकता।) जिन लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता, उनके मन में ऐसी स्थितियों का सामना होने पर कोई सिद्धांत नहीं होते। वे हर चीज स्वीकार कर लेते हैं और कभी कुछ भी नहीं ठुकराते। अगर कोई उन्हें बताता है कि यह एक चढ़ावा है, परमेश्वर को समर्पित कोई चीज है, तब भी उन्हें कोई डर नहीं होता। वे बस इसे अपनी जेब में रख लेते हैं। वे बिना जरा-से भी खेद के ऐसे चढ़ावों को छीन कर जब्त कर लेने की हिम्मत करते हैं। यह स्पष्ट है कि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं होता है, इसलिए वे ऐसी स्थितियों में स्वाभाविक रूप से फँस जाते हैं। क्या उन्हें परमेश्वर के विश्वासी कहा भी जा सकता है? यह आराम और आसानी खोजने और रुतबे के लाभों का आनंद उठाने का परिणाम है। अगर तुम अक्सर प्रलोभन में फँस जाते हो, उससे दूर नहीं रहते, तो तुम अनिवार्य रूप से इस मार्ग पर आगे बढ़ा दिए जाओगे। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव उसे गलत रास्ते पर ले जाता है। यह समस्या अनसुलझी रह जाए, तो क्या सब-कुछ ठीक रहेगा? इसीलिए तुम्हारे सामने जो भी समस्याएँ आएँ, तुम्हें सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, और विशेष समस्याओं से जूझने के विशेष साधन अपनाने चाहिए। विनियमों का सख्ती से पालन सही राह नहीं है। जो भी साधन तुम्हें प्रलोभन पर विजय पाने दें, वे स्वीकार्य हैं।
भौतिक प्रलोभनों को काबू में करना आसान होता है। अगर तुम्हारे पास खाने को भोजन, पहनने को कपड़े और एक तृप्त दिल हो, तो तुम यह कर सकते हो। फिर ऐसे प्रलोभन आसानी से परास्त हो जाते हैं। लेकिन शोहरत, लाभ और रुतबे के प्रलोभनों को काबू में करना सबसे मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए, जब दो लोग साथ काम करते हैं, तो अगर दूसरे का रुतबा तुमसे कम हो और तुम्हारा रुतबा उससे ऊँचा हो तो तुम्हें खुशी होगी। लेकिन अगर तुम्हारा रुतबा उससे कम हो तो तुम दुखी रहोगे। तुम्हारा दिल उदास रहेगा, तुम बेबस, निराश और कमजोर महसूस करोगे और तुम प्रार्थना नहीं करोगे। क्या इस समस्या को सुलझाना आसान है? इसका कोई आसान समाधान नहीं है। लोग भौतिक प्रलोभनों को ठुकराकर उनसे दूर हो सकते हैं, उनसे संक्रमित होने से बच सकते हैं, मगर रुतबे, प्रसिद्धि, लाभ, गर्व और साख के प्रलोभनों को काबू में करना सबसे मुश्किल है। हालाँकि यह आसान नहीं है, लेकिन सच में एक हल है। अगर तुम सत्य खोज सकते हो, परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हो, और प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के खोखलेपन की असलियत देखकर उनके सार तक पहुँच सकते हो, तो तुम्हें प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा त्यागने का आत्मविश्वास मिलेगा। इस तरह तुम उनके प्रलोभन में नहीं पड़ोगे। मनुष्य भ्रष्ट प्रकृति के होते हैं, जिसके कारण वे विभिन्न भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते और उन्हें जीते हैं। यह उन्हें परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उससे विद्रोह करने की ओर ले जाता है। उनका जीवन अमानवीय होता है और सत्य से मेल नहीं खाता है। चाहे लोग अहंकारी और आत्मतुष्ट हों, सत्य के आगे झुकने से इनकार करते हों, या धोखेबाज हों, कुटिल इरादे से काम करते हों, या लालची हों, या महत्वाकांक्षा और इच्छा से ग्रस्त हों, ऐसा क्या है जो इन सब बुराइयों को जन्म देता है? (शैतान का भ्रष्ट स्वभाव।) ये शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होती हैं, और उस शैतानी प्रकृति से उपजती हैं जो मनुष्य को नियंत्रित करती है। रुतबे के पीछे मनुष्य की भागदौड़ इसकी केवल एक अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति, मनुष्य के अहंकारी स्वभाव, और परमेश्वर से उसके विद्रोह और प्रतिरोध की तरह, उसकी शैतानी प्रकृति से उपजती है। इसे दूर करने के लिए किस तरीके का प्रयोग किया जा सकता है? तुम्हें अभी भी सबसे बुनियादी तरीका इस्तेमाल करना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलते हो, तो ये सारी समस्याएँ हल की जा सकती हैं। रुतबा न होने पर, तुम अक्सर विश्लेषण करके खुद को जान सकते हो। दूसरों को इससे लाभ हो सकता है। अगर तुम रुतबे वाले हो, फिर भी अक्सर विश्लेषण कर स्वयं को समझ सकते हो, लोगों को देखने दे सकते हो कि तुम्हारी खूबियाँ क्या हैं, कि तुम सत्य को समझते हो, तुम्हें व्यावहारिक अनुभव है, तुम सचमुच बदल सकते हो, तो क्या दूसरों को इससे लाभ नहीं पहुँचेगा? चाहे तुम्हारे पास रुतबा हो या न हो, अगर तुम सत्य पर अमल कर सकते हो, और तुम्हारे पास सच्ची अनुभवजन्य गवाही है, तुम अपने अनुभव से लोगों को परमेश्वर के इरादों और सत्य को समझने देते हो, तो क्या इससे लोगों को लाभ नहीं होता? तो तुम्हारे लिए रुतबे का अर्थ क्या है? दरअसल, रुतबा बस एक फालतू, अतिरिक्त चीज है, एक वस्त्र या एक टोपी की तरह। यह बस एक आभूषण है। इसका कोई वास्तविक उपयोग नहीं है, और इसकी मौजूदगी किसी को प्रभावित नहीं करती। तुम्हारा कोई रुतबा हो या न हो, तुम अभी भी वही व्यक्ति हो। लोग सत्य को समझ कर सत्य और जीवन को हासिल कर सकते हैं या नहीं, इसका रुतबे से कुछ लेना-देना नहीं है। अगर तुम रुतबे को बहुत बड़ी चीज नहीं मानते, तो यह तुम्हें विवश नहीं कर सकता। अगर तुम रुतबे से प्रेम कर उस पर विशेष जोर देते हो, हमेशा उसे महत्वपूर्ण चीज मानते हो, तो यह तुम्हें अपने नियंत्रण में रखेगा; तुम खुलने, अपना असली रूप दिखाने, खुद को जानने या अपनी अगुआई की भूमिका को दरकिनार कर, दूसरों के साथ कार्य करने, बात करने, संसर्ग करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार नहीं होगे। यह कैसी समस्या है? क्या यह रुतबे के आगे विवश होने का मामला नहीं है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि तुम रुतबे वाले स्थान से बोलते और कार्य करते हो और अपने ऊँचे पद से उतर नहीं सकते हो। ऐसा करके क्या तुम खुद को ही तकलीफ नहीं दे रहे हो? अगर तुम सचमुच सत्य समझते हो और रुतबा रखते हो पर रुतबे के पद से कार्य नहीं करते, बल्कि अच्छे ढंग से अपना कर्तव्य निभाने में ध्यान लगा सकते हो, वह हर चीज कर सकते हो और अपना वह कर्तव्य पूरा कर सकते हो, जो तुम्हें करना चाहिए, और अगर तुम खुद को एक साधारण भाई-बहन की तरह देखते हो, तो क्या रुतबे के नियंत्रण से मुक्त होने में सक्षम नहीं होगे? जब तुम रुतबे से विवश नहीं होते और तुम्हारे पास सामान्य जीवन प्रवेश होता है, तो क्या तुम तब भी दूसरों से अपनी तुलना करते हो? अगर दूसरों का रुतबा तुमसे ऊँचा हो, तो क्या तुम तब भी बेचैन हो जाते हो? तुम्हें सत्य खोजकर खुद को रुतबे के बंधनों और दूसरे सभी लोगों, घटनाओं और चीजों के बंधनों से मुक्त कर लेना चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने से बढ़कर कुछ भी नहीं है। तभी तुम ऐसे व्यक्ति बनोगे जिसके पास सत्य वास्तविकता है।
सभी भ्रष्ट मनुष्य एक आम समस्या से ग्रस्त होते हैं : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता तो वे किसी के साथ बातचीत करते या बोलते समय श्रेष्ठता का भाव नहीं दिखाते हैं, न ही वे अपनी बोली में कोई खास शैली या लहजा अपनाते हैं; वे वास्तव में साधारण और सामान्य होते हैं और उन्हें मुखौटा लगाने की जरूरत नहीं होती है। वे कोई मनोवैज्ञानिक दबाव महसूस नहीं करते और खुलकर, दिल से संगति कर सकते हैं। वे सुलभ होते हैं और उनके साथ बातचीत करना आसान होता है; दूसरों को यह महसूस होता है कि वे बहुत अच्छे लोग हैं। जैसे ही उन्हें कोई रुतबा प्राप्त होता है, वे घमंडी बन जाते हैं, साधारण लोगों की अनदेखी करते हैं, कोई उन तक नहीं पहुँच सकता; उन्हें लगता है कि वे श्रेष्ठ हैं और आम लोगों से भिन्न हैं। वे आम इंसान को हेय समझते हैं, बोलते समय श्रेष्ठता का भाव दिखाते हैं और दूसरों के साथ खुलकर संगति करना बंद कर देते हैं। वे अब खुले तौर पर संगति क्यों नहीं करते हैं? उन्हें लगता है कि अब उनके पास ओहदा है, और वे अगुआ हैं। उन्हें लगता है कि अगुआओं की एक निश्चित छवि होनी चाहिए, उन्हें आम लोगों की तुलना में थोड़ा ऊँचा होना चाहिए, उनका आध्यात्मिक कद बड़ा होता है और वे जिम्मेदारी संभालने में बेहतर होते हैं; वे मानते हैं कि आम लोगों की तुलना में, अगुआओं में अधिक धैर्य होना चाहिए, उन्हें अधिक कष्ट उठाने और खपने में समर्थ होना चाहिए, और शैतान के किसी भी प्रलोभन का सामना करने में सक्षम होना चाहिए। वे सोचते हैं उनके माता-पिता या परिवार के दूसरे सदस्यों की मृत्यु पर भी उनमें ऐसा आत्म-नियंत्रण होना चाहिए कि वे न रोएँ या उन्हें रोना ही है, तो सबकी नजरों से दूर, गुपचुप रोना चाहिए, ताकि किसी को उनकी कमियाँ, दोष या कमजोरियाँ न दिखाई दें। उन्हें तो यह भी लगता है कि अगुआओं को किसी को भी यह भनक नहीं लगने देनी चाहिए कि वे निराश हो गए हैं; बल्कि उन्हें ऐसी सभी बातें छिपानी चाहिए। वे मानते हैं कि ओहदे वाले व्यक्ति को ऐसा ही करना चाहिए। जब वे इस हद तक अपना दमन करते हैं, तो क्या रुतबा उनका परमेश्वर, उनका प्रभु नहीं बन गया है? और ऐसा होने पर, क्या उनमें अभी भी सामान्य मानवता है? जब उनमें ये विचार होते हैं—जब वे खुद को इस तरह सीमित कर लेते हैं, और इस तरह का कार्य करते हैं—तो क्या वे रुतबे के प्रति आसक्त नहीं हो गए हैं? जब कभी दूसरा उनसे शक्तिशाली और बेहतर होता है, यह उनकी अहम कमजोरियों को छू जाता है। क्या वे देह पर विजय प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे दूसरे व्यक्ति से उचित बर्ताव कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। स्वयं को रुतबे के नियंत्रण से मुक्त करने के लिए तुम्हें सबसे पहले क्या करना चाहिए? तुम्हें सबसे पहले इसे अपने इरादों, सोच और अपने दिल से निकाल देना चाहिए। यह कैसे किया जाता है? पहले जब तुम्हारे पास कोई रुतबा नहीं था तो तुम उन लोगों की अनदेखी करते थे जो तुम्हें पसंद नहीं होते थे। अब जबकि तुम्हारे पास रुतबा है, अगर तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो, जो तुम्हें पसंद नहीं है या जिसे समस्याएँ हैं, तो तुम उसकी मदद करने की जिम्मेदारी महसूस करते हो, और इसलिए तुम उसके साथ संगति करने में ज्यादा समय बिताते हो, उसकी कुछ व्यावहारिक समस्याएँ सुलझाने की कोशिश करते हो। ऐसे काम करते समय तुम्हारे दिल में क्या भावना होती है? उल्लास और शांति की भावना होती है। इसलिए भी जब तुम खुद को कठिनाई में पाते हो या विफलता का अनुभव करते हो तो तुम्हें दूसरों पर भरोसा करना चाहिए और उनके सामने अक्सर खुलकर बात करनी चाहिए, अपनी समस्याओं और कमजोरियों पर संगति करनी चाहिए और यह संगति करनी चाहिए कि तुमने कैसे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया था, फिर कैसे इस स्थिति से निकले थे और परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने में सक्षम रहे थे। और उनसे इस तरह मन की बात कहने का क्या असर होता है? बेशक यह सकारात्मक होता है। तुम्हें कोई भी हीन भावना से नहीं देखेगा—बल्कि शायद उन्हें इन अनुभवों से गुजरने की तुम्हारी क्षमता से जलन हो। कुछ लोग हमेशा यही सोचते हैं कि रुतबा होने पर लोगों को अधिकारियों जैसा पेश आना चाहिए और एक खास लहजे में बोलना चाहिए ताकि लोग उन्हें गंभीरता से लें और उनका सम्मान करें। क्या ऐसी सोच सही है? अगर तुम्हें यह एहसास हो जाए कि ऐसी सोच गलत है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और देह संबंधी चीजों के विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए। रौब मत दिखाओ और पाखंड की राह पर मत चलो। ज्यों ही ऐसा विचार आए, तुम्हें सत्य खोजकर इसका समाधान करना चाहिए। अगर तुम सत्य नहीं खोजते, तो यह विचार, यह नजरिया आकार लेकर तुम्हारे दिल में जड़ें जमा लेगा। परिणामस्वरूप, यह तुम पर हावी हो जाएगा, तुम छद्मवेश बनाकर अपनी ऐसी छवि गढ़ोगे कि कोई भी तुम्हारी असलियत न जान सके या तुम्हारी सोच को न समझ पाए। तुम दूसरों से मुखौटा लगाकर बात करोगे जो तुम्हारे सच्चे दिल को उनसे छिपाएगा। तुम्हें यह सीखना होगा कि दूसरे लोग तुम्हारा दिल देख सकें, तुम दूसरों के सामने अपना दिल खोल सको और उनके करीबी बन सको। तुम्हें अपनी देह की प्राथमिकताओं के विरुद्ध विद्रोह करना होगा और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करना होगा। इस प्रकार तुम्हारे दिल को शांति और खुशी मिलेगी। तुम्हारे साथ जो कुछ भी घटे, सबसे पहले स्वयं की विचारधारा की समस्याओं पर आत्मचिंतन करो। अगर तुम अभी भी अपनी कोई छवि गढ़कर छद्मवेश धरना चाहते हो, तो तुम्हें तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर! मैं फिर से छद्मवेश धरना चाहता हूँ। मैं फिर से छलपूर्वक षड्यंत्र कर रहा हूँ। मैं कैसा असली दानव हूँ! तुम अवश्य मुझे नफरत योग्य मानते होगे! अब तो यहाँ तक कि मुझे खुद से ही घृणा होने लगी है। मेरी विनती है कि तुम मुझे फटकारो, अनुशासित करो और दंड दो।” तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, अपना रवैया सबके सामने लाना चाहिए, और इसे उजागर करने, विश्लेषित करने और रोकने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए। अगर तुम उसे इस तरह विश्लेषित कर रोक दोगे, तो तुम्हारे कार्यकलापों से कोई समस्या खड़ी नहीं होगी, क्योंकि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव रुक चुका है और यह प्रकट नहीं होता। इस समय तुम्हारे दिल में कौन-सी भावनाएँ होंगी? कम-से-कम तुम थोड़ी राहत महसूस करोगे। तुम्हारा दिल उल्लासमय और शांतिपूर्ण रहेगा। तुम्हारी पीड़ा घट जाएगी और तुम्हें शोधन से कष्ट नहीं होगा। बहुत बुरी स्थिति हुई तो कुछ ऐसे मौके आएँगे जब तुम क्षणिक रूप से थोड़ा खोया-खोया महसूस करोगे और मन-ही-मन सोचोगे, “मैं एक अगुआ हूँ, रुतबे और प्रतिष्ठा वाला इंसान हूँ, मैं बिल्कुल साधारण लोगों जैसा कैसे हो सकता हूँ? मैं साधारण लोगों के साथ खुले तौर पर, दिल से और सच्ची बातें कैसे कर सकता हूँ? यह तो खुद को बहुत नीचे गिराना होगा!” जैसा तुम देख रहे हो, यह थोड़ी परेशानी पैदा कर सकता है। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव एकाएक पूरी तरह खत्म नहीं हो सकता, न यह थोड़े-से समय में दूर किया जा सकता है। तुम्हें लगता था कि अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करना बहुत सरल होगा, कि यह लोगों की कल्पना जैसा होगा—कि एक बार वे सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति कर दें और भ्रष्ट स्वभाव को पहचान लें, तो वे फौरन इससे दूर फेंक सकेंगे। यह इतनी सरल बात नहीं है। जिस प्रक्रिया से मनुष्य सत्य का अभ्यास करता है, वह अपने भ्रष्ट स्वभाव से लड़ने की प्रक्रिया है। मनुष्य की व्यक्तिगत इच्छा, कल्पना और असंयत इच्छाएँ प्रार्थना के जरिए हमेशा-हमेशा के लिए उनके खिलाफ विद्रोह करने और उन्हें काबू में कर लेने से पूरी तरह हल नहीं होतीं। इसके बजाय, इन्हें बार-बार अनेक युद्ध करने के बाद ही आखिरकार त्यागा जा सकता है। सत्य का अभ्यास करके ही किसी व्यक्ति को वास्तव में इस प्रक्रिया के सुपरिणाम मिलेंगे। विशेष तौर पर बड़े मामलों में, तुम्हारे दिल में यह युद्ध और अधिक तीव्र होगा, यह बार-बार करवटें बदलेगा, कभी महीने-दो महीने तो कभी-कभी छह महीने या सालभर लंबा भी खिंच सकता है। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव बहुत अड़ियल होता है। किसी भी प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव सत्य पर एक-दो संगतियों से दूर नहीं होता। यह तुम्हारे विरुद्ध बार-बार लड़ेगा, और तुम्हें सत्य का अनुसरण तब तक करना होगा जब तक इसे स्पष्ट रूप से न समझ लो, अपने भ्रष्ट स्वभाव को अच्छी तरह न जान लो, और देह और शैतान से घृणा न करने लगो। फिर सत्य का अभ्यास तुम्हारे लिए एक साधारण बात हो जाएगी, एक ऐसी चीज जो स्वाभाविक और सहज है। देह को हराने और शैतान पर विजय पाने का यही अर्थ है। इस युद्ध के दौरान लोगों को हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के वचन पढ़ने में ज्यादा समय बिताना चाहिए। उन्हें मार्ग ढूँढ़ने के लिए कभी भी गैर-विश्वासियों या शैतानों और दानवों के पास नहीं जाना चाहिए। उन्हें परमेश्वर पर भरोसा कर उसकी ओर देखना चाहिए। उन्हें सत्य खोजना चाहिए और परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य पर संगति करनी चाहिए। सत्य को सही मायनों में समझ लेने के बाद ही वे देह और शैतान को हरा सकते हैं। परमेश्वर इसे किस दृष्टि से देखता है? परमेश्वर तुम्हारे दिल को देखता है। वह देखता है कि तुम सत्य से प्रेम करते हो, परमेश्वर का भय मानते हो, और तुम अधार्मिकता छोड़ने और बुराई से दूर रहने को तैयार हो। हालाँकि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के कारण तुम्हारे मन में सोच, विचार और इरादे उपजे हैं, ये विचार और इरादे तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित नहीं करते, वे तुम्हारी इच्छाशक्ति को गिराकर उसे नहीं रौंदते। आखिरकार, तुम उन्हें पराजित करने में सक्षम हो जाते हो, और परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा। अगर तुम अक्सर इसका अभ्यास करते हो, तो तुम्हारी भीतरी दशा सुधर जाएगी। किस मुकाम पर कहा जा सकता है कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव के इस पहलू को पूरी तरह काबू में कर चुके हो, तुमने अपने स्वभाव के इस पहलू को बदल लिया है और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है? यानी भले ही तुम्हारे मन में अब भी कभी-कभार बुरे विचार और ख्याल आ सकते हैं, और वे अभी भी कुछ इरादे और इच्छाएँ जगाएँगे, फिर भी ये चीजें अब और तुम्हारे दिल पर हावी नहीं रहेंगी। तुम्हें पहले ही लगने लगा है कि ये चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं, और इनके सिर उठाते ही तुम इन्हें पहचान सकते हो। तुम्हें बनावटी ढंग से उन्हें रोककर उनके खिलाफ विद्रोह करने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें परमेश्वर से जानबूझकर तुम्हारी पड़ताल करने, तुम्हें अनुशासित करने और दंडित करने के लिए कहने की जरूरत नहीं है। ऐसे तरीके तुम्हारे लिए आवश्यक नहीं हैं। तुम इसे आसानी से काबू में करके छोड़ सकते हो। तुम्हारा दिल बेचैन नहीं है और तुम्हें कोई हानि महसूस नहीं होती। यह ठीक है। अब तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद है और तुम बदले हुए स्वभाव वाले हो। क्या तुम लोगों ने अब एक सीमा तक प्रवेश प्राप्त कर लिया है? क्या तुम थोड़ा-बहुत बदल गए हो? (नहीं।) तो फिर तुम्हारा आध्यात्मिक कद सचमुच बहुत निचले स्तर का है, और तुम्हें सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के वचन खाने-पीने के लिए अभी भी कड़ी मेहनत करनी होगी। फिर, जब तुम्हारे साथ ऐसी चीजें दोबारा घटेंगी, तो तुम्हें मालूम होगा कि सत्य का अभ्यास कैसे करें और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कैसे करें। तुम जानोगे कि तुम्हें अपनी गवाही में दृढ़ रहने के लिए क्या करना होगा। तब तुम सचमुच आध्यात्मिक कद से युक्त हो जाओगे। जो लोग सत्य का अभ्यास कर अपनी गवाही में दृढ़ रह सकते हैं, वे ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। यह फिलहाल तुम्हारे बस की बात नहीं है। तुम अभी भी टटोलने वाले चरण में हो। इन वास्तविक स्थितियों की बात करें, तो तुम लोग महसूस करते हो कि तुम्हारे साथ ये सारी समस्याएँ हैं, फिर भी तुम लोगों ने कभी भी उन्हें सुलझाने के लिए सत्य नहीं खोजा है। क्या इसका अर्थ यह है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। अगर तुमने सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो क्या तुम्हारा कोई जीवन हो सकता है? तुमने अभी भी सत्य प्राप्त नहीं किया है और तुम्हारा अभी भी कोई जीवन नहीं है। अगर तुम केवल देह के जीवन के अनुसार जीते हो, सिर्फ अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हो, तो तुम शैतान की सत्ता में रह रहे हो। तुमने अभी भी परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं किया है। उद्धार लोगों की उस कल्पना जितना सरल नहीं है, जब वे सोचते हैं कि अगर तुम कुछ वचन और धर्म-सिद्धांत बोल दो, और कुछ विनियमों का पालन कर लो, तो तुम बचा लिए जाओगे। तुम्हें स्वयं को सचमुच जानना होगा, भ्रष्ट स्वभाव के कुछ अंशों को उतार फेंकना होगा, प्रसिद्धि और रुतबे के सार की असलियत देखनी होगी, रुतबे को छोड़ना होगा और परमेश्वर के प्रति सचमुच समर्पित होना होगा। केवल इसी प्रकार उद्धार मिल सकता है।
दरअसल, रुतबे की समस्या का समाधान दूसरी समस्याओं वाला ही है। ये सभी समस्याएँ भ्रष्ट स्वभाव की अभिव्यक्ति और प्रकटन हैं। ये सभी मानवीय प्राथमिकताएँ और अनुसरण हैं। इससे मेरा अर्थ क्या है? अगर तुम स्वयं को अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त कर सको, तो रुतबा तुम्हारे लिए समस्या नहीं रहेगा। लोग रुतबे के लिए यह कहते हुए एक-दूसरे से होड़ लगाते हैं कि “तुम आज मुझसे ऊपर हो सकते हो, मगर कल मैं स्वयं को तुमसे ऊपर ले जाऊँगा।” यहाँ समस्या क्या है? क्या यह केवल रुतबे के कारण पैदा होती है? (नहीं।) यह किस कारण पैदा हुई? (मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के कारण।) यह सही है। यह समस्या मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से उपजती है। एक बार इस भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर दिया जाए, तो ये सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी। अंत में, जो लोग सत्य के अनुसरण का मार्ग चुनना चाहते हैं, उन्हें हर चीज में आत्मचिंतन और स्वयं को जानने पर ध्यान देना चाहिए। सत्य के अनुसरण के मार्ग पर कदम रखने से पहले उन्हें अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करना होगा। अगर वे अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर न कर सके, तो यह बहुत-सी कठिनाइयाँ और व्यवधान लाएगा। अगर उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया भी तो वे लापरवाही करेंगे और उन्हें कोई नतीजा हासिल नहीं होगा। इन समस्याओं के समाधान के लिए तुम्हें सत्य का अनुसरण करने का हर प्रयास करना होगा, अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने का हर प्रयास करना होगा और समस्याएँ सुलझाने का हर प्रयास करना होगा। केवल यह मत कहो, “सत्य का अनुसरण करने के लिए, अधिक प्रार्थना करना और परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ना पर्याप्त है।” यह बहुत अस्पष्ट है। अभ्यास के मार्ग के बिना, यह काम नहीं करेगा। विशेष समस्याओं से विशेष रूप से निपटना होता है। रटे-रटाए ढंग से विनियमों को लागू मत करो। सत्य सजीव और व्यावहारिक है, और विनियमों का बेतरतीब प्रयोग कोई तरीका नहीं है। तुम्हें व्यावहारिक समस्याओं को सत्य सिद्धांत के अनुसार सुलझाना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति सत्य का प्रयोग करके व्यावहारिक समस्याएँ सुलझाने में असमर्थ है, तो ऐसा व्यक्ति अगुआ और कार्यकर्ता बनने योग्य नहीं है। समस्याएँ सुलझाने के लिए जो व्यक्ति सत्य का प्रयोग नहीं कर सकता, वह ऐसा नहीं है जो सत्य को समझता है। वह एक अगुआ और कार्यकर्ता बन भी जाए, तो भी वह समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग नहीं कर पाएगा, उसके पास सत्य नहीं होगा, और उसके लिए सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना असंभव होगा। ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता के पास सत्य वास्तविकता बिल्कुल भी नहीं होती है।
16 फरवरी 2017