केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है

यदि तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहते हो, तो तुम्हें पहले सत्य को समझना चाहिए। तुम्हें दिल लगाकर सत्य खोजना चाहिए। सत्य खोजते हुए परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन करना सीखना सबसे अहम है। परमेश्वर के वचनों पर इस तरह चिंतन करने का उद्देश्य उनके सही अर्थ को समझना है। खोज करके ही तुम परमेश्वर के वचनों के अर्थ, लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं और परमेश्वर के इरादों को समझोगे जो उसके वचनों में पाए जा सकते हैं। जब तुम यह समझ हासिल कर लोगे, तब तुम सत्य को समझ जाओगे। जब तुम सत्य समझ जाओगे, तो उन सिद्धांतों को समझना आसान होगा जो तुम्हारे अभ्यास का मार्गदर्शन करते हैं, और फिर तुम सत्य का अभ्यास कर सकोगे। सत्य का अभ्यास सीख जाने के बाद तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने लगोगे। ऐसे समय में तुम उन चीजों को समझ लोगे जिन्हें तुम पहले नहीं समझ पाए थे, तुम उन चीजों का अर्थ जान लोगे जिन्हें तुम पहले स्पष्ट रूप से नहीं देख पाए थे और उन समस्याओं को हल कर लोगे जो पहले तुम्हारे लिए असंभव थीं। कई चीजों में तुम्हें प्रेरणा और नई अंतर्दृष्टि प्राप्त होने लगेगी, कार्यान्वयन के रास्ते तुम्हारे लिए खुल जाएँगे और तुम लगातार सत्य का अभ्यास कर पाओगे। इसी तरह तुम पूर्णतः सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। हालांकि, यदि तुम अपने कर्तव्य में अपना दिल नहीं लगाते हो, न ही सत्य सिद्धांतों की खोज करते हो, यदि तुम भ्रमित या उलझन में रहते हो, चीजों को हरसंभव सबसे आसान तरीके से करते हो, तो यह किस प्रकार की मानसिकता है? यह काम को अनमने तरीके से करना है। यदि तुम अपने कर्तव्य के प्रति वफादार नहीं हो, यदि तुममें इसके प्रति जिम्मेदारी की भावना नहीं है या लक्ष्य की कोई समझ नहीं है, तो क्या तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाओगे? क्या तुम स्वीकार्य मानक पर अपना कर्तव्य निभा पाओगे? और यदि तुम स्वीकार्य मानक पर अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते तो क्या तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे? बिल्कुल नहीं। यदि हर बार अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम परिश्रम नहीं करते हो, कोई प्रयास नहीं करना चाहते और जैसे-तैसे काम करते हो, मानो यह कोई खेल हो, तो क्या यह समस्या नहीं है? इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर तुम क्या प्राप्त कर लोगे? अंततः लोगों को पता चल जाएगा कि अपना कर्तव्य निभाते हुए तुममें कोई जिम्मेदारी का बोध नहीं होता, तुम अनमने रहते हो और आधे-अधूरे मन से काम करते हो—तो इस स्थिति में तुम पर निकाले जाने का खतरा मँडरा रहा होगा। जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो तो परमेश्वर पूरी प्रक्रिया के दौरान तुम्हारी पड़ताल करता है, तो फिर परमेश्वर क्या कहेगा? (यह व्यक्ति उसके आदेश या उसके भरोसे के लायक नहीं है।) परमेश्वर कहेगा कि तुम भरोसेमंद नहीं हो और तुम्हें निकाल दिया जाना चाहिए। इसलिए तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाते हो, चाहे वह महत्वपूर्ण कर्तव्य हो या सामान्य, यदि तुम खुद को मिले कर्तव्य में दिल लगाकर काम नहीं करते या अपनी जिम्मेदारी नहीं उठाते, और यदि तुम इसे परमेश्वर के आदेश के रूप में नहीं देखते या इसे अपने कर्तव्य और दायित्व के रूप में नहीं लेते हो, हमेशा चीजों को अनमने ढंग से करते हो, तो यह एक समस्या होने वाली है। “भरोसेमंद नहीं”—ये दो शब्द परिभाषित करेंगे कि तुम अपना कर्तव्य कैसे निभाते हो। इनका यह अर्थ है कि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक के अनुरूप नहीं है, और तुम्हें निकाल दिया गया है, और परमेश्वर कहता है कि तुम्हारा चरित्र मानक के अनुरूप नहीं है। अगर तुम्हें कोई काम सौंपा गया है, फिर भी तुम उसके प्रति यही रवैया अपनाते हो और तुम इसे इसी तरह से संभालते हो, तो क्या तुम्हें भविष्य में कोई और कर्तव्य सौंपा जाएगा? क्या तुम्हें कोई महत्वपूर्ण काम सौंपा जा सकता है? तब तक तो बिल्कुल नहीं, जब तक तुम सच्चा पश्चात्ताप नहीं कर लेते। हालाँकि, अंदर-ही-अंदर परमेश्वर के मन में तुम्हारे प्रति थोड़ा अविश्वास और असंतोष बना रहेगा। यह एक समस्या होगी, है न? तुम अपना कर्तव्य निभाने का कोई भी अवसर खो सकते हो, और शायद तुम्हें बचाया न जाए।

जब लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं तो वे दरअसल वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे परमेश्वर के सामने करते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य दिल से और ईमानदारी की भावना से निभाते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हो, तो क्या यह रवैया कहीं ज्यादा सही नहीं होगा? तो तुम इस रवैये को अपने दैनिक जीवन में कैसे व्यवहार में ला सकते हो? तुम्हें “दिल से और ईमानदारी से परमेश्वर की आराधना” को अपनी वास्तविकता बनाना होगा। जब कभी भी तुम शिथिल पड़ना चाहते हो और बिना रुचि के काम करना चाहते हो, जब कभी भी तुम धूर्तता से काम करना और आलसी बनना चाहते हो, और जब कभी तुम्हारा ध्यान बँट जाता है या तुम आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हें विचार करना चाहिए : “इस तरह व्यवहार करके, क्या मैं गैर-भरोसेमंद बन रहा हूँ? क्या यह कर्तव्य निर्वहन में अपना मन लगाना है? क्या मैं ऐसा करके विश्वासघाती बन रहा हूँ? ऐसा करने में, क्या मैं परमेश्वर के सौंपे आदेश पर खरा उतरने में विफल हो रहा हूँ?” तुम्हें इसी तरह आत्म-चिंतन करना चाहिए। अगर तुम्हें पता चलता है कि तुम अपने कर्तव्य में हमेशा अनमने रहते हो, कि तुम विश्वासघाती हो और यह भी कि तुमने परमेश्वर को चोट पहुँचाई है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, “जिस क्षण मुझे लगा कि यहाँ कुछ गड़बड़ है, लेकिन मैंने इसे समस्या नहीं माना; मैंने इसे बस लापरवाही से नजरअंदाज कर दिया। मुझे अब तक इस बात का एहसास नहीं हुआ था कि मैं वास्तव में अनमना रहता था, कि मैं अपनी जिम्मेदारी पर खरा नहीं उतरा था। मुझमें सचमुच जमीर और विवेक की कमी है!” तुमने समस्या का पता लगा लिया है और अपने बारे में थोड़ा जान लिया है—तो अब तुम्हें खुद को बदलना होगा! अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया गलत था। तुम उसके प्रति लापरवाह थे, मानो यह कोई अतिरिक्त नौकरी हो, और तुमने उसमें अपना दिल नहीं लगाया। अगर तुम फिर इस तरह अनमने रहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे तुम्हें अनुशासित करने और ताड़ना देने देना चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारी ऐसी ही इच्छा होनी चाहिए। तभी तुम सच्चा पश्चात्ताप कर सकते हो। जब तुम्हारी अंतरात्मा साफ होगी और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया बदल गया होगा, तभी तुम खुद को बदल पाओगे। और पश्चात्ताप करते हुए, तुम्हें अक्सर इस बात पर भी चिंतन करना चाहिए कि क्या तुमने वास्तव में अपना पूरा दिल, पूरा दिमाग और पूरी ताकत अपना कर्तव्य निभाने में लगाई है या नहीं; फिर, परमेश्वर के वचनों का पैमाने के रूप में उपयोग करते हुए उन्हें खुद पर लागू करने से तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे कर्तव्य के प्रदर्शन में अभी भी क्या समस्याएँ मौजूद हैं। इस तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार लगातार समस्याएँ हल करके क्या तुम अपने कर्तव्य निर्वहन को अपने पूरे दिल, पूरे दिमाग और पूरी ताकत से साकार नहीं कर रहे हो? अपना कर्तव्य इस तरह निभाने के लिए : क्या तुमने पहले ही अपने पूरे दिल, पूरे दिमाग और पूरी ताकत से ऐसा नहीं किया है? यदि अब तुम्हारी अंतरात्मा पर कोई दोषारोपण नहीं है, यदि तुम योग्यताओं को पूरा करने में सक्षम हो और अपना कर्तव्य निभाने में ईमानदारी दिखाते हो, तभी तुम्हारे दिल में सच्ची शांति और खुशी होगी। अपना कर्तव्य निभाना तुम्हें एक अतिरिक्त बोझ नहीं लगेगा, बल्कि पूरी तरह स्वाभाविक और उचित जिम्मेदारी की तरह महसूस होगा, और यह किसी और के लिए किया गया काम तो बिल्कुल भी नहीं लगेगा। इस तरह से कर्तव्य निभाकर तुम संतुष्ट महसूस करोगे और तुम्हें लगेगा कि तुम परमेश्वर की उपस्थिति में जी रहे हो। इस तरह व्यवहार करने से मन को शांति मिलती है। क्या यह तुम्हें जिंदा लाश जैसा कम और थोड़ा ज्यादा मनुष्य नहीं बना देगा? क्या इस तरह से व्यवहार करना आसान है? दरअसल, यह आसान है, मगर उन लोगों के लिए नहीं जो सत्य को नहीं स्वीकारते।

वास्तव में, कोई व्यक्ति सचमुच अपना कर्तव्य स्वीकार्य मानक के अनुसार निभा सकता सक्षम है या नहीं, दोनों ही स्थितियों में उसके दिल पर एक भार होगा। यदि वे लगातार धर्मोपदेश सुनते हैं, लगातार परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और लगातार दूसरों से संगति करते हैं तो भले ही उनके पास सत्य की उथली समझ हो, वे कम-से-कम कुछ धर्म-सिद्धांतों को समझने में सक्षम होंगे। इन धर्म-सिद्धांतों को अपना मानक मानकर वे यह भी आँक सकते हैं कि वे अपना कर्तव्य कितनी अच्छी तरह से निभा रहे हैं और सही सिद्धांतों का पालन कर रहे हैं या नहीं। यह स्पष्टता उन सभी की पकड़ में होती है जिनके पास अंतरात्मा और विवेक है। कई बार लोग अपने कर्तव्य अनमने ढंग से निभाते हैं। वे अपनी पूरी ताकत नहीं लगाते, सत्य खोजना और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना तो दूर की बात है। उनके कर्तव्य चाहे जो भी हों, वे आंखें मूंद लेते हैं। उन्हें कोई समस्या दिखती भी है, तो वे उसका हल नहीं खोजते, बल्कि ऐसा व्यवहार करते हैं मानो यह उनकी परेशानी नहीं है और इसे हल करने के लिए कुछ अनमने प्रयास करते हैं। अपने दिलों में, वे अपने लिए चीजों को कठिन बनाने और इस मामले में गंभीर होने की कोई आवश्यकता नहीं देखते हैं। लेकिन खुद को इस तरह से ढालने के कारण उनकी आंतरिक स्थिति बदतर हो जाती है और इसका पता भी नहीं चलता। यदि तुम जिम्मेदारी की भावना के बिना अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम्हारा दिल निश्चित ही अनमना रहेगा। वह जिम्मेदारियाँ नहीं उठा पाएगा, वफादार होना तो दूर की बात है। नतीजतन, उसे पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त नहीं होगा। तुम बिना किसी नई रोशनी या अंतर्दृष्टि के हमेशा स्थापित नियमों और विनियमों का पालन करते हो, बस आधे-अधूरे मन से अपना कर्तव्य निभाने से ज्यादा कुछ नहीं करते हो। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना व्यर्थ है, तुम मजदूरी भी करते हो तो वह पर्याप्त नहीं है। यदि तुम्हारा मजदूरी करना भी पर्याप्त नहीं है, तो क्या तुम एक वफादार मजदूर हो सकते हो? बिल्कुल नहीं। जो लोग पर्याप्त मजदूरी भी नहीं करते उन्हें निकाला ही जाएगा। कुछ भ्रमित लोगों को सत्य की थोड़ी-सी भी समझ नहीं है। वे अपना कर्तव्य निभाने को ही सत्य का अभ्यास करना मानते हैं। वे सोचते हैं कि केवल अपना कर्तव्य निभाकर वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। यदि तुम ऐसे व्यक्ति से पूछो, “क्या तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो?” तो वह जवाब देगा, “क्या मैं अपना कर्तव्य निभाकर सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा हूँ?” क्या वे सही हैं? ये एक भ्रमित व्यक्ति के शब्द हैं। अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें इसमें कम-से-कम अपना पूरा दिल, दिमाग और ताकत लगा देनी चाहिए ताकि तुम सत्य का प्रभावी ढंग से अभ्यास कर सको। सत्य का प्रभावी ढंग से अभ्यास करने के लिए तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। यदि तुम अनमने ढंग से अपना कर्तव्य निभाते हो तो इसका कोई वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ेगा। तुम इसे सत्य का अभ्यास करना नहीं कह सकते, यह मजदूरी करने के अलावा और कुछ नहीं है। तुम साफ तौर पर केवल मजदूरी कर रहे हो, यह सत्य का अभ्यास करने से अलग है। मजदूरी करना अपनी इच्छा के अनुसार केवल वे कार्य करना है जो तुम्हें खुश करते हैं, जबकि उन सभी कार्यों की अवहेलना है जिन्हें करना तुम्हें पसंद नहीं है। तुम चाहे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करो, तुम कभी सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते। बाहर से ऐसा लग सकता है कि तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, पर यह सब सिर्फ मजदूरी करना है। जो कोई भी सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करके अपना कर्तव्य नहीं निभाता, वह मजदूरी करने के अलावा और कुछ नहीं कर रहा है। परमेश्वर के परिवार में बहुत से लोग मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करके अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास करते हैं। वे बिना किसी नतीजे के वर्षों तक कड़ी मेहनत करते हैं, वे अपना कर्तव्य निभाने में सत्य का अभ्यास या सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार नहीं कर पाते। इसलिए लोग अगर अक्सर अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं और अपनी मर्जी के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो भले ही वे बुराई न कर रहे हों, फिर भी इसे सत्य का अभ्यास करना नहीं माना जाता है। अंत में, इतने सालों के कार्य के बाद भी उन्हें सत्य की कोई समझ प्राप्त नहीं होती है, और उनके पास साझा करने के लिए कोई अनुभवजन्य गवाही नहीं होती। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि अपना कर्तव्य निभाने के पीछे के इनके इरादे सही नहीं हैं। वे अपना कर्तव्य सिर्फ आशीष पाने के लिए निभाते हैं, वे परमेश्वर के साथ लेनदेन करना चाहते हैं। वे अपना कर्तव्य केवल सत्य प्राप्त करने की खातिर नहीं निभाते। वे अपना कर्तव्य इसलिए निभाते हैं क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं होता। इसी कारण, वे हमेशा भ्रमित रहते हैं और अनमने ढंग से आधे-अधूरे काम करते हैं। वे सत्य की खोज नहीं करते और इसलिए यह सब केवल मजदूरी करना है। चाहे वे कितने भी कर्तव्य निभा लें, उनके कार्यों का कोई वास्तविक प्रभाव नहीं होता है। इसके उलट उन लोगों की बात अलग है जो अपने दिल में परमेश्वर का भय मानते हैं। वे लगातार विचार करते रहते हैं कि परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य कैसे करें और परमेश्वर के परिवार और उसके चुने हुए लोगों के लाभ के लिए कार्य कैसे करें। वे हमेशा सिद्धांतों और नतीजों के बारे में गहराई से सोचते रहते हैं। वे हमेशा सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण दिखाने का प्रयास करते हैं। यह हृदय का सही रवैया है। यही वे लोग हैं जो सत्य खोजते हैं और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। इस तरह का व्यक्ति अपने कर्तव्य निभाते समय परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया जाता है और उसका अनुमोदन प्राप्त करता है। हालाँकि, जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं वे बाहरी तौर पर अपना कर्तव्य निभाते प्रतीत हो सकते हैं, पर वे जरा भी सत्य नहीं खोजते हैं। वे अपनी मनमर्जी के अनुसार कार्य करते हैं और केवल वही चीजें करते हैं जिनमें नुकसान की संभावना नहीं होती और जो उनके लिए फायदेमंद होते हैं। वे कम-से-कम प्रयास करते हैं और किसी भी कठिनाई से दूर रहते हैं, फिर भी वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों का अनुमोदन और अच्छी प्रतिष्ठा चाहते हैं। यदि उनका दिल इन चीजों पर लगा है, तो क्या वे स्वीकार्य मानक पर अपने कर्तव्यों का पालन कर पाएंगे? हरगिज नहीं। भले ही बाहर से तुम अपना कर्तव्य निभाते दिखाई देते हो, पर वास्तव में तुम लोगों का दिल परमेश्वर के सामने नहीं होता है। तुम्हारा सारा ध्यान स्वार्थी योजनाएँ बनाने और जोड़-तोड़ करने में लगे होने के कारण, कई बरसों तक आस्था रखने के बावजूद तुम बिल्कुल भी प्रगति नहीं करोगे। भले ही तुम लोग अक्सर एक साथ सभा करते हो, एक साथ मिलकर परमेश्वर के वचन खाते-पीते हो, उपदेश और संगति सुनते हो, मगर जैसे ही तुम परमेश्वर के वचन पढ़ना बंदकर सभा स्थल से निकलते हो, इनमें से कुछ भी तुम्हारे दिल में नहीं रहता। परमेश्वर का एक भी वचन, सत्य का एक भी वचन तुम्हारे दिल में नहीं रहता। कभी-कभी तुम उसके वचनों को नोटबुक में लिख लेते हो, पर उन्हें अपने दिल में नहीं रखते और पलक झपकते ही सब कुछ भूल जाते हो। इसके अलावा, तुम लोग अपने दैनिक जीवन में कभी भी परमेश्वर के वचनों के सत्य पर विचार नहीं करते। अपना कर्तव्य निभाने में तुम कभी सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजते। तुम्हारा सामना चाहे कैसी भी कठिनाइयों से हो, तुम अनमना रवैया अपनाते हो। काट-छाँट के बीच भी तुम कभी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते या सत्य नहीं खोजते। इस मामले में तुम लोग अविश्वासियों से बिल्कुल भी अलग नहीं हो। तुम लोग वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हो लेकिन तुम्हारे पास न तो जीवन प्रवेश है, न ही सत्य वास्तविकता है। तुम लोगों का कर्तव्य पालन साफ तौर पर मजदूरी करना है, और तुम लोगों का इरादा ऐसी मजदूरी के बदले में स्वर्ग के राज्य की आशीष पाना है। इसमें कोई शक नहीं है। इस ढंग से परमेश्वर में विश्वास कर तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल है, जीवन और सत्य प्राप्त करना मुश्किल है। तुम लोगों के बीच ऐसे लोग भी हैं जिनके पास अच्छी काबिलियत है, मगर एक दशक से भी ज्यादा समय से आस्था रखने के बावजूद वे कुछ ही शब्द और धर्म-सिद्धांत सुना पाते हैं, और सतही शब्दों और धर्म-सिद्धांतों तक ही सीमित रहते हैं। वे थोड़ा-सा धर्म-सिद्धांत समझकर ही संतुष्ट हो जाते हैं और सोचते हैं कि केवल विनियमों का पालन करना ही काफी है। उनके लिए अधिक गहराई में जाना कठिन होता है। ऐसे लोगों के दिलों ने सत्य समझने की कोशिश नहीं की, इसलिए वे जिस सीमा तक सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं वह बहुत सीमित है। वे केवल कुछ विनियमों का पालन कर सकते हैं। यदि तुम लोगों से पूछा जाए कि तुम्हें अपने कर्तव्य निभाने हुए सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए, तो शायद तुम कहोगे, “अधिक प्रार्थना करो, अपनी इच्छा से कष्ट सहो, अपना कर्तव्य निभाते समय आलसी या अनमने मत बनो, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करो और परमेश्वर के परिवार की हर जरूरत के प्रति समर्पण करो।” तुम लोग अपने कर्तव्य निभाने के बाहरी, धर्म-सैद्धांतिक पहलुओं पर चर्चा करने में सक्षम हो, लेकिन सत्य सिद्धांतों से जुड़े विशिष्ट मुद्दों पर तुम लोगों की समझ कम है। इससे पता चलता है कि ज्यादातर लोग सत्य का केवल शाब्दिक अर्थ समझते हैं, पर सत्य की वास्तविकता को नहीं समझते। इस प्रकार वे वास्तव में सत्य को बिल्कुल भी नहीं समझते। जो लोग सत्य को नहीं समझते, वे सत्य के बारे में कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर ही बात कर सकते हैं, लेकिन क्या हमें यह मानना चाहिए कि उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया है? (बेशक नहीं।) तो, तुम लोगों को भविष्य में किस बात पर ध्यान देना चाहिए? तुम्हें प्रार्थना करते हुए, सभा करते हुए, परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हुए, उपदेशों को सुनते हुए और परमेश्वर की स्तुति के भजन गाते हुए एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन जीना चाहिए। इन अभ्यासों का बाहरी तौर पर पालन करने के अलावा, तुम्हें अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटना चाहिए, बल्कि इसे अच्छी तरह से निभाना चाहिए। तुम लोगों को एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी समझनी चाहिए : यदि तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, यदि तुम सत्य को समझना और प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें यह भी सीखना होगा कि परमेश्वर के सामने कैसे शांत रहें, सत्य पर कैसे विचार करें और परमेश्वर के वचनों पर कैसे मनन करें। क्या सत्य पर विचार करते समय किसी तरह की औपचारिकताएँ होती हैं? क्या कोई विनियम हैं? क्या कोई समय सीमाएँ हैं? क्या तुम्हें यह किसी निश्चित स्थान पर करना चाहिए? नहीं—तुम किसी भी समय या किसी भी स्थान पर परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन कर सकते हो। जो समय तुम आम तौर पर आराम करने या दिन में सपने देखने पर खर्च करते हो, उसे परमेश्वर के वचनों और सत्य पर विचार करने में लगाओ, ताकि दिन बर्बाद न हो। लोग समय कैसे बर्बाद करते हैं? वे अपना दिन फालतू की गपशप में बिताते हैं, ऐसे काम करते हैं जिनमें उनकी रुचि होती है, या फिजूल की चीजों में उलझे रहते हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता, और जब उनके पास करने के लिए कुछ और नहीं होता, तो वे व्यर्थ की चीजों और उन चीजों के बारे में सोचते हैं जो पहले ही घटित हो चुकी हैं। वे कल्पना करते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है, भविष्य का राज्य कहाँ होगा और नरक कहाँ है, वगैरह। क्या ये फिजूल की बातें नहीं हैं? यदि तुम इस समय को सकारात्मक चीजों पर लगाते हो—यदि तुम परमेश्वर के सामने शांत रहते हो, परमेश्वर के वचनों पर विचार करने और सत्य पर संगति करने में ज्यादा समय बिताते हो, अपने प्रत्येक कार्य की जाँच करते हो, और उसे परमेश्वर के सामने उसकी जांच-पड़ताल के लिए रखते हो; फिर यदि तुम इस बात पर विचार करते हो कि तुम्हारे भीतर कौन-सी समस्याएँ अभी हल होने से रह गई हैं और अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें किन कठिनाइयों का सामना करना बाकी है, और तुम्हारे अक्सर प्रकट होने वाले भ्रष्ट स्वभाव—विशेष रूप से वे जो परमेश्वर के प्रति सबसे अधिक विद्रोही और सबसे घातक हैं—वे परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजने से हल हुए हैं या नहीं; यदि इन सभी मसलों को एक निश्चित अवधि के भीतर हल किया जा सकता है, तो तुम धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहे होगे।

परमेश्वर के वचनों पर चिंतन का अभ्यास कैसे किया जाए? सबसे पहले उन आध्यात्मिक शब्दों और अभिव्यक्तियों के बारे में बार-बार सोचो और संगति करो जिनका तुम आम तौर पर उपयोग करते हो। खुद से पूछो : “मैं इन चीजों का शाब्दिक और सैद्धांतिक अर्थ जान सकता हूँ, पर व्यावहारिक रूप में इनका क्या अर्थ है? इनमें व्यावहारिक रूप से क्या चीजें शामिल हैं? मैं उन आध्यात्मिक अभिव्यक्तियों में निहित वास्तविकता को कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? मुझे उनका अभ्यास कहाँ से शुरू करना चाहिए और उनमें कहाँ से प्रवेश करना चाहिए?” तुम्हें इसी प्रकार चिंतन करना चाहिए। यहीं से परमेश्वर के वचन का चिंतन शुरू होता है। यदि कोई परमेश्वर में विश्वास करता है लेकिन उसने परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन करना नहीं सीखा है, तो सत्य को समझना और उसे अमल में लाना कठिन है। यदि कोई सत्य को समझने में असमर्थ है, तो क्या वह सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? (नहीं।) सत्य वास्तविकता में प्रवेश किए बिना क्या कोई सत्य प्राप्त कर सकता है? (नहीं।) सत्य प्राप्त किए बिना क्या कोई परमेश्वर के इरादे पूरे कर सकता है? (नहीं।) नहीं कर सकता—यह निश्चित है। चूँकि लोग सत्य को नहीं समझते, इसलिए वे केवल अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं और परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के इरादों को कभी कैसे पूरा कर सकेंगे? यह बिल्कुल नहीं हो सकता। तो फिर व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों पर कैसे विचार करना चाहिए? उदाहरण के लिए, जब तुम बार-बार दोहराए जाने वाले वाक्यांश “परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना” पर विचार करते हो, तो तुम्हें इन बातों पर विचार करना चाहिए : परमेश्वर का भय मानना क्या है? क्या कुछ गलत कहना परमेश्वर का भय न मानने के बराबर है? क्या इस तरह से बोलना बुराई है? क्या परमेश्वर इसे पाप मानता है? कौन से कार्यकलाप बुरे हैं? मेरे विचार, इरादे, सुझाव और राय, मेरे कथनी-करनियों के उद्देश्य और स्रोत, और मुझमें प्रकट होने वाले विभिन्न स्वभाव—क्या ये सब सत्य के अनुरूप हैं? परमेश्वर इनमें से किन चीजों का अनुमोदन नहीं करता और किन चीजों से घृणा करता है? वह किन चीजों की निंदा करता है? किन मामलों में लोगों के बड़ी गलतियाँ करने की आशंका होती हैं? इन सब पर विचार करना चाहिए। क्या सत्य पर विचार करना तुम लोगों के लिए सामान्य बात है? (हम सत्य पर विचार करने में ज्यादा समय नहीं लगाते; ज्यादातर समय, हमारा दिमाग अपने-आप काम करता है।) जरा सोचो, तुमने इतने सालों में कितना समय बर्बाद किया है! तुम लोगों ने कितनी बार सत्य से संबंधित मामलों, परमेश्वर में विश्वास करने, जीवन प्रवेश करने और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के बारे में सोचा है? क्या तुम लोगों ने इन मामलों पर गंभीरता से विचार किया है? जब तुम लोग सत्य को समझने और सिद्धांतों के अनुसार इसका अभ्यास करने की हद तक परमेश्वर के वचनों पर विचार कर लोगे, तभी तुम्हें फल दिखने शुरू होंगे और तभी तुम जीवन प्रवेश करोगे। तुम लोग अभी तक नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों पर कैसे विचार किया जाए, और न ही तुम सत्य की समझ तक पहुँचे पाए हो। तुमने अब तक जीवन में प्रवेश नहीं किया है। तुम्हें इसके पीछे लगे रहना चाहिए और अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे कोई व्यक्ति चाहे उसकी उम्र कितनी भी हो, जब यह सोचना शुरू कर देता है कि व्यापार करना कैसे सीखा जाए, आजीविका कमाकर अपने परिवार का भरण-पोषण कैसे किया जाए, कैसे एक अच्छा जीवन जिया जाए, दूसरों के साथ कैसा व्यवहार किया जाए, उनका भविष्य कैसा होगा, वगैरह, तो इसका मतलब है कि इस व्यक्ति का दिमाग परिपक्व हो गया है और वह एक स्वतंत्र जीवन जीने लगा है। जो लोग ऐसी चीजों के बारे में नहीं सोचते और जिन्होंने ऐसी चीजों के बारे में कभी नहीं सोचा है, उनके पास कोई विचार या स्वतंत्र राय नहीं है। वे जीवन के बारे में इन चीजों को नहीं समझ सकते, इसलिए उन्हें हर बात के लिए अपने माता-पिता पर निर्भर रहना पड़ता है। वे खर्च करने के पैसे, खाने के लिए भोजन और पहनने के कपड़ों के लिए उन पर निर्भर रहते हैं। यदि उनके माता-पिता ने उनकी देखभाल नहीं की, तो वे निराश्रित, भूखे और निष्क्रिय रह जाएँगे। क्या ऐसा व्यक्ति स्वतंत्र रूप से जी सकता है? क्या यह एक परिपक्व व्यक्ति है? (बेशक नहीं।) अभी तुम लोग किस अवस्था में हो? क्या तुम अपनी आस्था की वयस्क अवस्था में पहुँच गए हो? अभी, अगर कोई तुम लोगों का सिंचन न करे, अगर ऊपरवाला तुम लोगों को उपदेश न दे, अगर कोई तुम लोगों की अगुआई न करे बल्कि तुम्हें अपने आप ही परमेश्वर के वचन खाने-पीने दे और भजन सुनने दे तो क्या तुम लोग जीवन प्रवेश कर पाओगे? क्या तुम लोग सत्य का अभ्यास कर पाओगे, अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाओगे और सिद्धांतों के अनुसार काम कर पाओगे? (नहीं।) समस्या यहीं है। इसका मतलब है कि तुम लोगों का अध्यात्मिक कद अभी भी बहुत छोटा है। तुम अपना कर्तव्य भी अच्छी तरह से नहीं निभा सकते और अभी वयस्क अवस्था तक नहीं पहुँचे हो। वर्तमान परिस्थितियों में यदि कोई तुम लोगों का नेतृत्व और चरवाही करता है, तो तुम परमेश्वर में विश्वास कर सकते हो और अपना कर्तव्य निभा सकते हो। तुम एक विश्वासी के समान हो। लेकिन अगर भविष्य में तुम लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए कोई न हो, तो क्या यह खुलासा नहीं हो जाएगा कि तुम दृढ़ता से खड़े रह सकते हो या नहीं और अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकते हो या नहीं, और तुम कितनी सत्य वास्तविकता प्राप्त कर चुके हो? यदि तुम्हें यह एहसास नहीं है कि वह समय आने तक तुम्हारे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं होगी, तो क्या यह चिंताजनक बात नहीं है? यह बहुत खतरनाक बात है! जब तुम परीक्षणों का सामना करोगे, तो तुम यह नहीं जान पाओगे कि अपनी गवाही में कैसे अडिग रहना है और परमेश्वर के इरादों को कैसे पूरा करना है। तुम्हारे दिल में कोई रास्ता नहीं होगा, कोई दिशा नहीं होगी और कोई भी सत्य तुम्हारे भीतर अपनी जड़ें नहीं जमा पाएगा। तो फिर तुम कैसे दृढ़ता से खड़े रह पाओगे? यदि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं होगी तो प्रलोभनों का सामना होने पर तुम्हारे ठोकर खाने की संभावना होगी। जब बुरे कर्म करने वाले और कलीसिया के कार्य को विफल करने की कोशिश करने वाले अगुआओं या मसीह-विरोधियों से तुम्हारा सामना होगा, तो तुम उनकी असलियत नहीं पहचान पाओगे और उनके चंगुल से बाहर नहीं निकल पाओगे। अगर तुम अभी भी ऐसे नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों का अनुसरण करोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे। ये दो सवाल तुम्हारा खुलासा कर देंगे और तुम पर निकाल दिए जाने का खतरा होगा। इसलिए परमेश्वर में विश्वास करने के लिए यह आवश्यक है कि तुम निरंतर परमेश्वर के वचनों पर विचार करो और सत्य पर चिंतन-मनन करो। इसी तरह से तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो और सत्य प्राप्त कर सकते हो।

वर्तमान में, क्या ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो इस समाज में रहने वालों को लुभा सकती हैं? प्रलोभन तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए हैं—तमाम तरह की बुरी भावनाएँ, तमाम तरह के प्रवचन, तमाम तरह के विचार और दृष्टिकोण, तमाम तरह के लोगों की तमाम तरह की गुमराह करने वाली चीजें और प्रलोभन, तमाम तरह के लोगों के तमाम शैतानी चेहरे। ये सभी ऐसे प्रलोभन हैं जिनका तुम सामना करते हो। उदाहरण के लिए, लोग तुम पर एहसान कर सकते हैं, तुम्हें अमीर बना सकते हैं, तुम्हारे दोस्त बन सकते हैं, तुम्हारे साथ प्रेम-मिलाप के लिए जा सकते हैं, तुम्हें पैसे दे सकते हैं, कोई नौकरी दे सकते हैं, डांस करने के लिए बुला सकते हैं, तुम्हारे साथ अच्छा बर्ताव कर सकते हैं या तुम्हें तोहफे दे सकते हैं। ये सभी चीजें संभावित रूप से प्रलोभन हैं। अगर सब कुछ ठीक न रहा तो तुम जाल में फंस जाओगे। यदि तुम्हें कुछ सत्यों का ज्ञान नहीं है और तुम्हारे पास वास्तविक आध्यात्मिक कद नहीं है, तो तुम इन चीजों की असलियत को नहीं समझ पाओगे और ये सभी तुम्हें फंसाने के लिए जाल और प्रलोभन साबित होंगी। एक लिहाज से देखें तो अगर तुम्हारे पास सत्य नहीं है, तो तुम शैतान की चालें नहीं समझ पाओगे और विभिन्न प्रकार के लोगों के शैतानी चेहरों को नहीं भाँप पाओगे। तुम शैतान पर विजय पाने, दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम नहीं होगे। दूसरे लिहाज से, सत्य वास्तविकता के बिना तुम सभी विभिन्न प्रकार की बुरी भावनाओं, बुरे दृष्टिकोणों और बेतुके विचारों और कथनों का प्रतिरोध नहीं कर पाओगे। जब इन चीजों से तुम्हारा सामना होगा, तो यह शीत लहर की मार पड़ने जैसा होगा। हो सकता है कि तुम्हें केवल हल्का जुकाम हो जाए, या शायद कुछ और गंभीर समस्या हो—तुम्हें जानलेवा सर्दी का दौरा भी पड़ सकता है।[क] हो सकता है कि तुम अपनी आस्था पूरी तरह खो दो। यदि तुम्हारे पास सत्य नहीं है, तो शैतानों और अविश्वासियों की दुनिया के राक्षसों के कुछ शब्द ही तुम्हें बेचैन और भ्रमित कर देंगे। तुम सवाल करोगे कि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए या नहीं और ऐसी आस्था रखना सही है या नहीं। हो सकता है कि आज की सभा में तुम अच्छी स्थिति में हो, लेकिन फिर कल तुम घर जाकर किसी टेलीविजन शो के दो एपिसोड देख लोगे। अब तुम बहकावे में आ चुके हो। रात में, तुम सोने से पहले प्रार्थना करना भूल जाते हो, और तुम्हारा मन पूरी तरह से उस टेलीविजन शो की कहानी में लगा है। यदि तुम दो दिन तक टेलीविजन देखते रहते हो, तो तुम्हारा दिल पहले से ही परमेश्वर से दूर हो गया है। अब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ना या सत्य के बारे में संगति करना नहीं चाहते हो। तुम परमेश्वर से प्रार्थना भी नहीं करना चाहते हो। अपने दिल में, तुम हमेशा यही कहते हो, “मैं कब कुछ कर पाऊँगा? मैं कोई महत्वपूर्ण काम कब शुरू करूँगा? मेरा जीवन व्यर्थ नहीं होना चाहिए!” क्या यह हृदय परिवर्तन है? मूल रूप से, तुम सत्य के बारे में और अधिक समझना चाहते थे, ताकि सुसमाचार फैला सको और परमेश्वर की गवाही दे सको। अब तुम क्यों बदल गए हो? केवल फिल्में और टेलीविजन कार्यक्रम देखकर तुमने शैतान को अपने दिल पर कब्जा करने दिया है। तुम्हारा आध्यात्मिक कद वाकई छोटा है। क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास इन बुरी भावनाओं का विरोध करने लायक आध्यात्मिक कद है? अब परमेश्वर तुम पर अनुग्रह करता है और कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें अपने घर में लेकर जाता है। तुम अपना आध्यात्मिक कद मत भूलो। अभी, तुम ग्रीनहाउस में एक फूल जैसे हो, जो बाहर की हवा और बारिश का सामना नहीं कर सकता। यदि लोग इन प्रलोभनों को पहचान नहीं सकते और इनका सामना नहीं कर सकते, तो शैतान किसी भी समय, किसी भी स्थान पर उन्हें बंदी बना सकता है। ऐसा है मनुष्य का छोटा आध्यात्मिक कद और दयनीय अवस्था। क्योंकि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता और सत्य की समझ नहीं है, इसलिए शैतान के सभी शब्द तुम्हारे लिए जहर के समान हैं। यदि तुम उन्हें सुनोगे, तो वे तुम्हारे दिल में अमिट छाप छोड़ जाएंगे। अपने दिल में तुम कहते हो, “मैं अपने कान और अपनी आँखें बंद कर लूँगा,” लेकिन तुम शैतान के प्रलोभन से बच नहीं सकते। तुम शून्य में नहीं रहते हो। यदि तुम शैतान के शब्दों को सुनते हो, तो उनका प्रतिरोध नहीं कर पाओगे। तुम जाल में फंस जाओगे। तुम्हारी प्रार्थनाओं और अपने आपको धिक्कारने का कोई फायदा नहीं होगा। तुम प्रतिरोध नहीं कर सकते। ऐसी चीजें तुम्हारे विचारों और कार्यों को प्रभावित कर सकती हैं। वे तुम्हारे सत्य के अनुसरण के मार्ग को बाधित कर सकती हैं। वे तुम्हें काबू में भी कर सकती हैं, तुम्हें परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से रोक सकती हैं, तुम्हें नकारात्मक और कमजोर बना सकती हैं, और तुम्हें परमेश्वर से दूर रख सकती हैं। अंत में, तुम्हारा कोई मोल नहीं होगा और तुम्हारे लिए सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी होंगी।

अभी तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर के प्रति वफादार हो। तुममें महत्वाकांक्षा, दृढ़ संकल्प और परमेश्वर को संतुष्ट करने का आदर्श है। लेकिन जब परमेश्वर के परीक्षणों से तुम्हारा सामना होगा तब तुम क्या करोगे? तुम कहते हो कि तुम समर्पण करोगे लेकिन जब परमेश्वर तुम्हारे सामने ऐसी कठिनाई रखेगा जो तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होगी, और तुम उसके प्रति समर्पण नहीं कर पाओगे तो तब क्या करोगे? जब परमेश्वर लोगों को इनाम देता है, तो यह उनकी मनोवैज्ञानिक जरूरतों और उनकी धारणाओं और रुचियों के अनुरूप होता है, इसलिए लोग उसके प्रति समर्पण कर लेते हैं। लेकिन जब परमेश्वर तुमसे चीजें वापस ले लेगा, तो तुम क्या करोगे? क्या तुम परमेश्वर के परीक्षणों के बीच और उस माहौल में जो उसने तुम्हारे लिए बनाया है, अपनी गवाही में अडिग खड़े रह सकोगे? क्या यह एक समस्या होगी? जब तुम कहते हो, “मैं निश्चित रूप से अपनी गवाही में अडिग रहूँगा,” तो तुम्हारे शब्द आडंबर, मूर्खता, अज्ञानता और बेवकूफी से भरे होते हैं। क्या तुम जानते हो परमेश्वर तुम्हारे साथ क्या करना चाहता है? क्या तुम जानते हो परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा क्यों लेना चाहता है? वह तुममें क्या प्रकट करना चाहता है? तुम कहते हो, “मुझे कष्ट सहने की इच्छा है, मैं तैयार हूँ, मुझे परमेश्वर के किसी भी परीक्षण का डर नहीं है,” लेकिन फिर अचानक कुछ ऐसा होता है जिसकी तुमने कभी उम्मीद नहीं की थी, कुछ ऐसा जिसके लिए तुम तैयार नहीं थे। फिर तुम्हारी तैयारी का क्या फायदा? कुछ भी नहीं। मान लो कि तुम्हारा स्वास्थ्य हमेशा अच्छा रहा है। तुमने कई बरसों तक अपना कर्तव्य निभाया है और परमेश्वर ने तुम्हें सभी बीमारियों से बचाया है। तुम्हारा मार्ग सरल रहा है। अचानक, एक दिन तुम चेक-अप के लिए जाते हो और डॉक्टरों को कुछ अजीब बीमारी का पता चलता है, जो बाद में एक लाइलाज बीमारी बन सकती है। तुम्हारे दिल में, ऐसा लगता है जैसे किसी शक्ति ने शक्तिशाली धाराओं की दिशा बदल दी है और विशाल महासागर को उलट दिया है। तुम कहते हो, “कलीसिया में किसी भी भाई-बहन को यह बीमारी नहीं है।” “मैंने सबसे लंबे समय तक परमेश्वर में विश्वास किया है, अपना कर्तव्य निभाने में सबसे अधिक सक्रिय रहा हूँ, और मैंने सबसे अधिक कष्ट सहे हैं। तो फिर यह बीमारी मुझे कैसे हो सकती है?” इस मामले पर चिंतन-मनन करने के बाद तुम्हें एहसास होता है कि परमेश्वर जरूर तुम्हारी परीक्षा ले रहा है और तुम्हें समर्पण करना चाहिए। तुममें अभी भी परमेश्वर से प्रार्थना करने की आस्था बची है। लेकिन कुछ समय तक प्रार्थना करने के बाद भी जब तुम ठीक नहीं होते, तो निश्चय करते हो, “परमेश्वर मुझे मरने दे रहा है। परमेश्वर मेरी जान लेना चाहता है!” क्या तुम अब भी परमेश्वर के प्रति समर्पण करोगे? (शायद नहीं।) तुम रोते हुए कहोगे, “हे परमेश्वर! मैं मरना नहीं चाहता। मैंने पर्याप्त जीवन नहीं जिया है। मैं अब भी जवान हूँ। मैंने अपने आधे जीवन का ही अनुभव लिया है। मुझे कुछ और साल दो। मैं अभी भी बहुत कुछ कर सकता हूँ!” यह प्रार्थना करना व्यर्थ है कि परमेश्वर तुम्हें ठीक करेगा। चाहे तुम कितनी भी जाँच करा लो, हर बार तुम्हारी बीमारी लाइलाज ही दिखेगी। इलाज करने पर भी तुम मरोगे। इलाज के बिना भी तुम मरोगे। तब तुम क्या करोगे? कई बार, जब परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेता है, तो वे पहले तो यही सोचते हैं कि परमेश्वर के कार्य सही और अच्छे हैं, लेकिन जब निष्कर्ष स्पष्ट हो जाता है, तो वे सोचते हैं, “शायद यह सचमुच परमेश्वर की इच्छा है कि मैं मर जाऊँ। अगर परमेश्वर चाहता है कि मैं मर जाऊँ, तो मुझे मर जाने दो!” इसलिए, वे बस निष्क्रिय और असहाय होकर मरने की प्रतीक्षा करते हैं। इस तरह अपनी मौत की प्रतीक्षा करना कैसा रवैया है? क्या इसमें समर्पण का कोई तत्व है? (नहीं, यह केवल अपनी किस्मत को स्वीकार लेना है।) क्या ऐसे लोग वास्तव में मरने को तैयार हैं? (वे नहीं हैं।) तो वे मृत्यु की प्रतीक्षा क्यों कर रहे हैं? जब मौत आती है, तो उनके पास मरने के अलावा कोई चारा नहीं होता। यदि उनके पास कोई विकल्प नहीं है, तो वे बस इसे स्वीकार ही सकते हैं। यह “स्वीकृति” निष्क्रिय विरोध का एक रवैया है, गवाही देने का कार्य नहीं। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने मुझे मरने दिया है, तो मेरे पास गवाही देने के लिए क्या बचा है?” भले ही परमेश्वर तुम्हें मरने दे रहा है, क्या तुम परमेश्वर के सृजित प्राणी नहीं हो? क्या तुम अपना कर्तव्य छोड़ दोगे? क्या तुमने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया है? क्या तुमने अपना कर्तव्य ठीक से निभाया है? सृजित प्राणी होने के नाते गवाही में दृढ़ रहने के लिए तुम्हारे पास किस प्रकार का हृदय होना चाहिए? (मैं अपना अनुभव बताता हूँ। कुछ दिनों पहले, मुझे दांत में इतना तेज दर्द हुआ कि मैं तीन दिनों तक सो नहीं सका। फिर भी मुझे हर दिन अपना कर्तव्य निभाना पड़ता था। मेरे सिर का तेज दर्द लगभग मेरी सहनशक्ति से बाहर था। मैंने अपने दिल में थोड़ी शिकायत की। मुझे लगा कि मैंने अपना कर्तव्य बहुत अच्छी तरह से निभाया है, तो मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा था? उस समय, मुझे लगा कि मैं परमेश्वर का इरादा नहीं समझ पाया। कुछ भाई-बहनों ने मुझसे आत्म-चिंतन कर खुद को जानने को कहा, इसलिए मैं प्रार्थना करता रहा और परमेश्वर को खोजता रहा। मुझे नहीं लगा कि मैंने किसी भी चीज में परमेश्वर से विद्रोह किया है। बाद में, मैंने अय्यूब के उन शब्दों के बारे में सोचा जो उसने अपने परीक्षणों के दौरान अपनी पत्नी से कहे थे, “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” (अय्यूब 2:10)। अय्यूब अपनी परीक्षाओं के दौरान परमेश्वर की गवाही दे सका। मैंने खुद पर विचार किया और देखा कि जब सब अच्छा होता रहा, तो मैं परमेश्वर की प्रसंशा करता रहा, लेकिन प्रतिकूल हालात में नकारात्मक हो गया और परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह किया। मुझे एहसास हुआ यह एक योग्य सृजित प्राणी का मार्ग नहीं है और आखिरकार मेरी अंतरात्मा उद्वेलित हो गई। मुझमें दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा जाग गई। मैंने सोचा, भले ही मैं बीमार हूँ, फिर भी मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए। कष्ट चाहे जितना भी हो, मुझे अपनी इच्छा से अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहना चाहिए। यह मेरा अपना अनुभव था।) चाहे तुम किसी भी परीक्षण का सामना क्यों न करो, तुम्हें परमेश्वर के सम्मुख अवश्य आना चाहिए—यही सही है। अपने कर्तव्य के निर्वाह में कोई विलंब किए बिना तुम्हें अपने बारे में चिंतन-मनन करना चाहिए। मगर इतना चिंतन-मनन भी न करते रहो कि अपना कर्तव्य ही न निभा पाओ, महत्वहीन चीजों पर ध्यान देकर महत्वपूर्ण चीजों को अनदेखा मत करो—वह मूर्खतापूर्ण होगा। चाहे तुम्हारे सामने कोई भी परीक्षण क्यों न हो, तुम्हें इसे परमेश्वर द्वारा दिए गए एक बोझ के रूप में देखना चाहिए। कुछ लोगों को कोई बड़ी बीमारी और असहनीय कष्ट झेलने पड़ते हैं, और कुछ मृत्यु का भी सामना करते हैं। उन्हें इस तरह की स्थिति को कैसे देखना चाहिए? कई मामलों में परमेश्वर के परीक्षण एक बोझ होते हैं जो वह लोगों को देता है। परमेश्वर तुम्हें कितना भी भारी बोझ क्यों न दे, तुम्हें उस बोझ का भार उठाना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर तुम्हें समझता है, और यह जानता है कि तुम वह बोझ उठा पाओगे। परमेश्वर तुम्हें जो बोझ देता है, वह तुम्हारी कद-काठी, या तुम्हारी सहनशक्ति की अधिकतम सीमा से अधिक नहीं होगा; इसलिए तुम निश्चित रूप से उसे वहन करने में सक्षम होगे। परमेश्वर चाहे तुम्हें किसी भी तरह का बोझ या किसी भी तरह का परीक्षण दे, एक बात याद रखो : प्रार्थना करने के बाद चाहे तुम परमेश्वर के इरादों को समझ पाओ या नहीं, चाहे तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश प्राप्त कर पाओ या नहीं; और इस परीक्षण द्वारा परमेश्वर चाहे तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या तुम्हें चेतावनी दे रहा हो, अगर तुम इसे नहीं समझ पाते हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में देर नहीं करते और वफादारी से उस पर डटे रहते हो, तो परमेश्वर संतुष्ट रहेगा और तुम अपनी गवाही में मजबूती से खड़े रहोगे। यह देखकर कि वे किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हैं और मरने वाले हैं, कुछ लोग मन ही मन सोचते हैं, “मैंने मौत से बचने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था—लेकिन ऐसा लगता है कि इतने वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद भी वह मुझे मरने देगा। मुझे अपने काम से मतलब रखना चाहिए, वही चीजें करनी चाहिए जो मैं हमेशा से करना चाहता था, और इस जीवन में उन चीजों का आनंद लेना चाहिए जिनका मैंने आनंद नहीं लिया है। मैं अपना कर्तव्य निभाना छोड़ सकता हूँ।” यह क्या रवैया है? तुम इतने वर्षों से अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तुमने ये तमाम उपदेश सुने हैं, और फिर भी तुमने सत्य को नहीं समझा। एक परीक्षण तुम्हें डगमगा देता है, तुम्हें घुटनों पर ले आता है, और तुम्हें बेनकाब कर देता है। क्या इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर द्वारा देखभाल किए जाने के योग्य है? (वे योग्य नहीं हैं।) उनमें जरा-सी भी निष्ठा नहीं है। तो इतने वर्षों तक उन्होंने अपना जो कर्तव्य निभाया है, उसे क्या कहते हैं? इसे “मजदूरी करना” कहते हैं, और वे सिर्फ मेहनत करते रहे हैं। अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो कि “परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे समर्पण करना चाहिए और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—समर्पण—को अभ्यास में लाना चाहिए, मुझे इसे कार्यान्वित करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण की वास्तविकता को जीना ही चाहिए। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अंतिम साँस लेते हुए भी मुझे अपने कर्तव्य पर डटे रहना चाहिए,” तो क्या यह गवाही देना नहीं है? जब तुम्हारा इस तरह का संकल्प होता है और तुम्हारी इस तरह की अवस्था होती है, तो क्या तब भी तुम परमेश्वर की शिकायत कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते। ऐसे समय में तुम मन ही मन सोचोगे, “परमेश्वर ने मुझे यह साँस दी है, उसने इन तमाम वर्षों में मेरा पोषण और मेरी रक्षा की है, उसने मुझसे बहुत-सा दर्द लिया है और मुझे बहुत-सा अनुग्रह और बहुत-से सत्य दिए हैं। मैंने ऐसे सत्यों और रहस्यों को समझा है, जिन्हें लोग कई पीढ़ियों से नहीं समझ पाए हैं। मैंने परमेश्वर से इतना कुछ पाया है, इसलिए मुझे भी परमेश्वर को कुछ लौटाना चाहिए! पहले मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था, मैं कुछ भी नहीं समझता था, और मैं जो कुछ भी करता था, उससे परमेश्वर को दुख पहुँचता था। हो सकता है, मुझे परमेश्वर को लौटाने का भविष्य में और अवसर न मिले। मेरे पास जीने के लिए जितना भी समय बचा हो, मुझे अपनी बची हुई थोड़ी-सी शक्ति अर्पित करके परमेश्वर के लिए वह सब करना चाहिए जो मैं कर सकता हूँ, ताकि परमेश्वर यह देख सके कि उसने इतने वर्षों से मेरा जो पोषण किया है, वह व्यर्थ नहीं गया, बल्कि फलदायक रहा है। मुझे परमेश्वर को और दुखी या निराश करने के बजाय उसे सुख पहुँचाना चाहिए।” इस तरह सोचने के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? यह सोचकर अपने आपको बचाने और कतराने की कोशिश न करो कि “यह बीमारी कब ठीक होगी? जब यह ठीक हो जाएगी, तो मैं अपना कर्तव्य निभाने का भरसक प्रयास करूँगा और वफादार रहूँगा। मैं बीमार होते हुए वफादार कैसे रह सकता हूँ? मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?” जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम नहीं हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम परमेश्वर को शर्मिंदा न करने में सक्षम हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, जब तक तुम्हारा मस्तिष्क स्वस्थ है, क्या तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत न करने में सक्षम हो? (हाँ।) अभी “हाँ” कहना बड़ा आसान है, पर यह उस समय इतना आसान नहीं होगा जब यह सचमुच तुम्हारे साथ घटेगा। इसीलिए, तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करना चाहिए, अक्सर सत्य पर कठिन परिश्रम करना चाहिए और यह सोचने में ज्यादा समय लगाना चाहिए कि “मैं परमेश्वर के इरादे कैसे पूरे कर सकता हूँ? मैं परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान कैसे कर सकता हूँ? मैं सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?” सृजित प्राणी क्या होता है? क्या सृजित प्राणी का कर्तव्य परमेश्वर के वचनों को सुनना भर है? नहीं—उसका कर्तव्य परमेश्वर के वचनों को जीना है। परमेश्वर ने तुम्हें इतना सारा सत्य दिया है, इतना सारा मार्ग और इतना सारा जीवन दिया है, ताकि तुम इन चीजों को जी सको और उसकी गवाही दे सको। यही है, जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए, यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है। तुम्हें इन चीजों के बारे में अक्सर सोच-विचार करते रहना चाहिए; अगर तुम इनके बारे में हमेशा चिंतन-मनन करते रहोगे, तो तुम सत्य के सभी पहलुओं की गहराई में पहुँच जाओगे।

यदि लोग सत्य का अनुसरण करने का मार्ग नहीं अपनाते हैं और सत्य प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत नहीं करते हैं, तो देर-सबेर वे ठोकर खाकर गिर पड़ेंगे। सीधे खड़ा होना कठिन होगा क्योंकि जिन समस्याओं का वे सामना करते हैं उन्हें थोड़े से ज्ञान और धर्म-सिद्धांतों पर भरोसा करके हल नहीं किया जा सकता है। तुम धर्म-सिद्धांतों के बारे में चाहे कितनी भी अच्छी तरह बोल लो, तुम वास्तविक कठिनाइयों को हल नहीं कर पाओगे। पूरी स्पष्टता प्राप्त करने के लिए तुम्हें विभिन्न सत्यों पर लगातार चिंतन-मनन करना होगा। केवल तभी तुम किसी भी समस्या का समाधान करने के लिए सत्य का उपयोग कर सकोगे। जो लोग सचमुच सत्य को समझते हैं वे शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात नहीं करते। वे सभी चीजों को पहचान सकते हैं और उन्हें स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, और वे जो भी करते हैं विश्वास के साथ करते हैं। यदि तुम यह नहीं जानते कि अपने सामने आने वाली परिस्थितियों में सत्य कैसे खोजना है और हमेशा अपनी मनमर्जी के अनुसार कार्य करते हो, तो तुम सत्य को कभी नहीं समझ पाओगे। सत्य को समझने के लिए तुम्हें निरंतर विचार करना होगा कि अपने कर्तव्य निभाने में आने वाली समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग कैसे किया जाए। यदि तुम इस तरह से चिंतन-मनन नहीं करते, तो क्या तुम इन सत्यों को प्राप्त कर सकोगे? यदि तुम परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन नहीं करते हो, तो चाहे कितने ही उपदेश सुन लो, चाहे कितने भी धर्म-सिद्धांतों को समझ लो, तुम हमेशा शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के स्तर पर ही अटके रह जाओगे। यदि तुम इन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलना जानते हो, तो यह अक्सर तुम्हें यह सोचने पर मजबूर कर सकता है कि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास का फल मिल चुका है और तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत ऊँचा है, क्योंकि अब तुम बहुत जुनूनी और ऊर्जावान हो। लेकिन जब हकीकत से पाला पड़ता है, यानी परीक्षणों और क्लेशों का सामना होता है, तब तुम देखोगे कि इन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से कितनी कम सुरक्षा मिलती है। वे तुम्हें एक भी परीक्षण से नहीं बचा सकते, यह पक्का करना तो दूर की बात है कि इनसे तुम परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी जाने वाली प्रत्येक परीक्षा को सरलता से पास कर लोगे। बल्कि, तुम यह महसूस करोगे कि ये शब्द और धर्म-सिद्धांत तुम्हें बर्बादी की राह पर ले आए हैं। ऐसे समय में, तुम्हें एहसास होगा कि तुम सत्य को कितना कम समझते हो और तुमने अभी तक सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है। अक्सर, जब लोग परीक्षणों का सामना करते हैं और आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं देख पाते, तो आखिरकार उन्हें महसूस होता है कि सत्य के बिना वे कितने लाचार हैं और धर्म-सिद्धांतों के बारे में कही गई उनकी सारी बातें कितनी बेकार थीं। तभी वे देख पाते हैं कि उनमें कितनी कमी है और वे कितनी दयनीय स्थिति में हैं। जब सब कुछ सुरक्षित और निर्बाध होता है, तो तुम्हें हमेशा लगता है कि तुम सब कुछ समझते हो। तुम्हें लगता है कि तुम्हारी आस्था व्यर्थ नहीं है और तुमने इससे बहुत कुछ प्राप्त किया है। तुम्हें लगता है कि चाहे जो भी हो जाए, तुम्हें किसी बात की चिंता करने की जरूरत नहीं होगी। वास्तव में, तुम बस कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत समझते हो, जिनका कोई उपयोग नहीं है। आपदा और विपत्ति के सामने, तुम हैरान-परेशान होगे, हालात का सामना करना नहीं जानते होगे। परमेश्वर से प्रार्थना करते समय, तुम्हें पता नहीं होगा कि क्या कहना या क्या माँगना है। तुम मार्ग नहीं खोज पाओगे। इससे पता चलता है कि मनुष्य कितना दयनीय है। तुम्हारे दिल में परमेश्वर के वचन नहीं हैं और तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है। पहले से ही तुम अंधेरे में हो। परमेश्वर में आस्था रखकर तुम्हें कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ है, और अब तुम एक भिखारी के समान दरिद्र हो। तब जाकर तुम्हें महसूस होता है कि इतने बरसों से परमेश्वर में तुम्हारी आस्था में कोई सत्य वास्तविकता नहीं थी। अब तुम्हारा पूरी तरह खुलासा हो चुका है। यदि परमेश्वर में कई वर्षों का विश्वास तुम्हें ऐसी स्थिति में छोड़ देता है, तो तुम्हारा निकाला जाना तय है।

12 फ़रवरी 2017

फुटनोट :

क. परंपरागत चीनी चिकित्सा पद्धति में “सर्दी का दौरा” शब्द भीषण और जानलेवा अंदरूनी सर्दी के लिए प्रयोग किया जाता है, जो किन्हीं बाहरी तत्वों से पैदा होती है।

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना सत्य के अनुसरण के बारे में I न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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