502 देहासक्ति के त्याग का अर्थ
1 तुम परमेश्वर के सामने जीवन प्राप्त कर सकते हो या नहीं, और तुम्हारा अंतिम अंत क्या होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम देह के प्रति अपना विद्रोह कैसे करते हो। परमेश्वर ने तुम्हें बचाया है, और तुम्हें चुना है और पूर्वनिर्धारित किया है, फिर भी यदि आज तुम उसे संतुष्ट करने के अनिच्छुक हो, तुम सत्य को अभ्यास में लाने के अनिच्छुक हो, तुम अपनी स्वयं की देह के विरूद्ध एक ऐसे हृदय के साथ विद्रोह करने के अनिच्छुक हो जो सचमुच परमेश्वर से प्रेम करता हो, तो अंततः तुम अपने आप को बर्बाद कर दोगे, और इसलिए चरम पीड़ा सहोगे। यदि तुम हमेशा अपनी देह को खुश करते हो, तो शैतान तुम्हें भीतर से धीरे-धीरे निगल लेगा, और तुम्हें जीवन या पवित्रात्मा के स्पर्श से रहित छोड़ देगा, जब तक कि वह दिन नहीं आ जाता, जब तुम भीतर से पूरी तरह अंधकारमय नहीं हो जाते हो। जब तुम अंधकार में रहोगे, तो तुम्हें शैतान के द्वारा बंदी बना लिया जाएगा, तुम्हारे हृदय में परमेश्वर अब और नहीं होगा, और उस समय तुम परमेश्वर के अस्तित्व को इनकार करोगे और उसे छोड़ दोगे।
2 इस प्रकार, यदि तुम परमेश्वर से प्रेम करने की इच्छा रखते हो, तो तुम्हें अवश्य पीड़ा की क़ीमत चुकानी चाहिए और कठिनाई को सहना चाहिए। बाहरी जोश की और कठिनाईयों को सहने की, अधिक पढ़ने तथा अधिक इधर-उधर भागने की आवश्यकता नहीं है; इसके बजाय, तुम्हें अपने भीतर की चीज़ों को एक तरफ रख देना चाहिए: असंयमी विचार, व्यक्तिगत हित, और तुम्हारे स्वयं के विचार, धारणाएँ और प्रेरणाएँ। ऐसी ही परमेश्वर की इच्छा है।परमेश्वर लोगों से मुख्य रूप से उनके भीतर की चीज़ों से निपटने, उनके विचारों और धारणाओं से, जो परमेश्वर के मनोनुकूल नहीं हैं, निपटने के लिए सत्य को अभ्यास में लाने के लिए कहता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के भीतर कई ऐसी चीज़ें हैं जो परमेश्वर के द्वारा उपयोग के लिए उचित नहीं हैं, और देह का अधिक विद्रोही स्वभाव है, जिससे लोगों को देह के विरुद्ध विद्रोह करने के सबक को अधिक गहराई से सीखने की आवश्यकता है। इसी को परमेश्वर पीड़ा कहता है जिससे लोगों को उसके साथ गुज़रने के लिए उसने कहा है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में "केवल परमेश्वर को प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है" से रूपांतरित