39. आखिरकार एक इंसान की तरह जीना

झोऊ हांग, चीन

2018 में जब मैं एक कलीसिया की अगुआ बनी, तो मुझे वहां एक बहन मिली जिसका उपनाम यांग था, उसमें अच्छी काबिलियत थी और वो सत्य का अनुसरण करती थी। मैंने सोचा, "अगर मैं उसे अच्छी तरह प्रशिक्षण दूँ, तो इससे मेरा काम आसान हो जाएगा, हमारे काम में सुधार होगा और मेरी अगुआ भी मेरी सराहना करेंगी।" तो मैं उसे प्रशिक्षण देने में जुट गई। जब भी उसे कोई समस्या होती, तो मैं उसके साथ संगति करती, फिर मैंने उसे टीम की अगुआ बना दिया। उसने बड़ी तेज़ी से तरक्की की, वो अपना काम बहुत ध्यान से करती। जल्दी ही, उसकी टीम का काम काफ़ी बढ़ गया। मैंने सोचा, "अगर मेरे पास बहन यांग जैसी कुछ और कर्मी हो जाएं, तो हमारी कलीसिया का सारा काम काफ़ी बेहतर ढंग से चलने लगेगा। मुझे थोड़ी-सी राहत मिल जाएगी और नतीजे भी बेहतर होंगे, फिर सभी लोग कहेंगे कि मेरा काम बहुत अच्छा है।" एक दिन, हमें किसी ऐसे व्यक्ति की सख्त ज़रूरत थी जो मसीह-विरोधियों और कुकर्मियों को पहचान कर निष्कासित करने से जुड़े दस्तावेज़ों को संकलित कर सके। मैं और मेरी साथी इससे सहमत थे कि बहन यांग को इस काम का जिम्मा लेना चाहिए। मुझे हैरानी हुई कि उसने जल्दी ही सिद्धांतों को समझ लिया और ऐसे दस्तावेज़ तैयार किये जो कारगर भी थे और सटीक भी। इस दौरान, मेरी अगुआ अक्सर पूछती थीं कि क्या हमारे पास ऐसा कोई है जिसमें दस्तावेज़ों को संकलित करने की काबिलियत हो, मुझे पता था कि बहन यांग इस काम में काबिल है। मगर जब मैंने उसका तबादला किये जाने और हमारे काम पर इसका असर होने की बात सोची, तो मैं उसे जाने नहीं देना चाहती थी और मैंने अगुआ को उसका नाम नहीं सुझाया।

एक दिन एक सभा में, अगुआ ने कहा कि उन्हें किसी ऐसे की ज़रूरत है जो मसीह-विरोधियों और कुकर्मियों को पहचान कर निष्कासित करने से जुड़े दस्तावेज़ों को संकलित कर सके, उन्होंने पूछा कि क्या हम किसी का नाम सुझा सकते हैं। मैंने सोचा, "बहन यांग इस काम में अच्छी साबित होगी, लेकिन अगर मैंने उसे जाने दिया, तो मुझे किसी और को प्रशिक्षण देना पड़ेगा। इसके लिए मुझे काफ़ी प्रयास करने होंगे। अगर हमारा काम पिछड़ गया, तो मेरे अगुआ क्या सोचेंगे? बहन तांग भी दस्तावेज़ों के संकलन में अच्छी है, मगर वो अपने काम में थोड़ी सुस्त है और उसे काफ़ी मदद की ज़रूरत पड़ती है। मैं बहन यांग की जगह उसका नाम सुझा दूँगी। इस तरह, मैं काम के लिए किसी का नाम सुझाकर, बहन यांग को अपने साथ बनाये रखूंगी। हमारे काम पर भी असर नहीं पड़ेगा।" तो मैंने बहन तांग की सिफ़ारिश कर दी और उसकी खूबियों के बारे में बताया, मैंने जानबूझकर बहन यांग को ज़्यादा काबिल नहीं बताया। कुछ दिनों बाद, बहन तांग को इस काम के लिए चुन लिया गया। बाद में मुझे पता चला कि बहन तांग अकेले इस काम का जिम्मा नहीं उठा सकती। मैंने सोचा, "कोई बात नहीं, बहन यांग इसे संभाल लेगी। मगर मैं उसे जाने नहीं देना चाहती। वो अपने काम में बहुत अच्छी है, उसके चले जाने से हमारे काम पर क्या असर पड़ेगा?" इसलिये, मैंने फिर से बहन यांग की सिफ़ारिश नहीं की। उसके कुछ दिनों बाद, मेरी अगुआ ने खास तौर पर मुझसे बहन यांग के बारे में पूछा और हमें जल्द से जल्द उसकी जगह किसी को ढूंढने के लिए कहा। मुझे यह विचार बिल्कुल पसंद नहीं आया। मैंने सोचा, "अगर बहन यांग चली जाएगी, तो हमारी कलीसिया के दस्तावेज़ों को कौन संकलित करेगा? अगर हमें कोई मिल भी गया, तो वो एक नौसिखिया होगा और उसे सिद्धांतों की समझ नहीं होगी। उसे प्रशिक्षण देना पड़ेगा। इससे न केवल हमारे काम को नुकसान होगा, बल्कि मुझे भी काफ़ी मेहनत और प्रयास करना पड़ेगा।" मैं जानती थी कि मेरी यह सोच गलत है, मगर मैं खुद से बहाने बनाती रही: "मैंने खुद बहन यांग को प्रशिक्षण दिया था। अगर वो चली जाती है, तो उसकी जगह लेने के लिए हमारी टीम में कोई नहीं होगा। फिर हमारा काम कैसे चलेगा? नहीं, मुझे अपने सहकर्मियों से इसकी चर्चा करनी होगी और अगुआ को लिखना पड़ेगा कि वे बहन यांग को कुछ और महीने यहीं रहने दें, जब तक हम किसी और को प्रशिक्षण नहीं दे देते।" जब मैंने यह बात अपने दो सहकर्मियों को बतायी, तो उन्होंने मुझे फटकारते हुए कहा, "हम परमेश्वर के घर का काम करने के लिये लोगों को प्रशिक्षण देते हैं। बहन यांग चली जाएगी, तो हम किसी और को प्रशिक्षण दे सकते हैं। क्या तुम बहन यांग को जाने से रोक कर स्वार्थी नहीं बन रही हो?" मगर मैंने आत्मचिंतन करने के बजाय सोचा, "आप लोग कितने सीधे हैं। आप सोचते हैं कि लोगों को प्रशिक्षण देना आसान है?" मैं काफ़ी परेशान थी और उसे जाने नहीं देना चाहती थी, मेरे पक्ष पर विचार न करने को लेकर मैं अपने सहकर्मियों से नाराज़ हो गई। कुछ ही समय बाद, मुझे महसूस हुआ कि मेरा शरीर काफ़ी तप रहा है, जैसे मेरे बदन में आग लग गई हो, मैंने अपने अंदर काफ़ी कमज़ोरी महसूस की। मैंने सोचा, "मौसम तो अच्छा है और मुझे सर्दी भी नहीं है। ये तो अजीब बात है।" मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर मुझे ताड़ना देकर अनुशासित कर रहा है। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आये : "अब, जबकि मैं तुम लोगों के बीच कार्य कर रहा हूँ, तो तुम लोग इस तरह से व्‍यवहार कर रहे हो—यदि किसी दिन तुम लोगों की निगरानी करने के लिए कोई न हो, तो क्या तुम लोग ऐसे डाकू नहीं बन जाओगे जिन्होंने खुद को राजा घोषित कर दिया है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (1))। मैं यह जानकर स्तब्ध रह गई कि परमेश्वर के वचन मेरी हालत को बिल्कुल सटीक तौर पर बयाँ कर रहे थे। मैं बहन यांग को अपनी संपत्ति समझ रही थी। मैंने सोचा, जब मैंने उसे प्रशिक्षण दिया है, तो वो मेरी होनी चाहिए और उसे मेरी कलीसिया में रहकर मेरा रुतबा बढ़ाने का काम करना चाहिए। मैंने किसी और को उसे नहीं ले जाने दूँगी। असल में, सभी भाई-बहन परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हैं और उनके सभी आदेश परमेश्वर से आते हैं। जब कभी और जहां भी परमेश्वर के घर को उनकी ज़रूरत होती है और परमेश्वर ऐसी व्यवस्था करता है, वैसे ही वे अपना कर्तव्य निभाते हैं। फिर भी, मैं धोखेबाज बनी रही, अपनी हैसियत और रुतबे की खातिर दूसरों को धोखा दिया, मैंने बहन यांग को अपने साथ बनाये रखने की भरसक कोशिश की। क्या मैं "उन डाकुओं में से एक नहीं, जिन्होंने खुद को राजा घोषित कर दिया है"? मैंने बहन यांग पर काबू करने और उसे परमेश्वर से छीनने की कोशिश की। यही तो मसीह-विरोधियों ने किया, और यह बर्बादी का रास्ता है। इसका एहसास होने पर, मुझे काफ़ी पछतावा हुआ। मैं बहुत अहंकारी और स्वार्थी हूँ।

फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों का न्याय अच्छे या बुरे के रूप में किया जाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में तुममें सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य-वास्तविकता को जीने की गवाही है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो इसमें कोई शक नहीं कि तुम कुकर्मी हो"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "यदि कोई परमेश्वर में विश्वास तो करता है लेकिन उसके वचनों पर ध्यान नहीं देता है, सत्य को स्वीकार नहीं करता, या उसकी व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण नहीं करता; यदि वह केवल कुछ अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन करता है, लेकिन देह की इच्छाओं का त्याग करने में असमर्थ है, और अपने अभिमान या स्वार्थ को बिल्कुल भी नहीं त्यागता है; यदि, दिखावे भर के लिए वह अपना कर्तव्य तो निभाता है, फिर भी वह अपने शैतानी स्वभाव के द्वारा जीता है, और उसने शैतान के दर्शन और अस्तित्व के तौर-तरीकों को उसने ज़रा-भी नहीं छोड़ा है, और वह बदलता नहीं है—तो वह संभवतः परमेश्वर में कैसे विश्वास कर सकता है? वह धर्म में आस्था होती है। इस तरह के लोग सतही रूप से चीज़ों को त्यागते हैं और अपने आप को खपाते हैं, लेकिन जिस मार्ग पर वे चलते हैं और जो कुछ वे करते हैं उसका स्रोत और उसकी प्रेरणा, परमेश्वर के वचनों या सत्य पर आधारित नहीं होती; इसके बजाय, वे निरंतर स्वयं अपनी ही कल्पनाओं, इच्छाओं और व्यक्तिपरक मान्यताओं के अनुसार कार्य करते रहते हैं, और शैतान के दर्शन और स्वभाव ही लगातार उनके अस्तित्व और काम के आधार बने रहते हैं। उन मामलों में जिनकी सच्चाई वे नहीं समझते, वे उसकी तलाश नहीं करते हैं; उन मामलों में जिनकी सच्चाई वे नहीं समझते, वे उसका अभ्यास नहीं करते हैं, न तो वे परमेश्वर को महान मानकर उसे ऊँचा उठाते हैं, न ही सत्य को संजोते हैं। हालाँकि नाम के लिए वे परमेश्वर के अनुयायी होते हैं, यह केवल कहने के लिए होता है; उनके कामों का सार उनके भ्रष्ट स्वभावों की अभिव्यक्ति के अलावा और कुछ नहीं होता है। इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता है कि उनका उद्देश्य और इरादा सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के वचनों के अनुसार काम करने का है। जो लोग अपने हितों को ही सब से ऊपर मानते हैं, जो पहले अपनी ही इच्छाओं और इरादों को पूरा करते हैं—क्या वे लोग वो हैं जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं? (नहीं।) और क्या वे लोग जो परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, अपने स्वभावों में बदलाव ला सकते हैं? (नहीं।) और यदि वे अपने स्वभावों को बदल नहीं सकते, तो क्या वे दयनीय नहीं हैं?"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'धर्म में विश्‍वास से कभी उद्धार नहीं होगा')। मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार और अपने व्यवहार पर आत्मचिंतन किया। वैसे तो लगता था कि मैंने परमेश्वर के लिये त्याग किया है, मगर अपने कर्तव्य में मेरा इरादा अपने हितों को पूरा करना था। जब मेरी अगुआ ने किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में पूछा जो दस्तावेज़ों को संकलित कर सके, तो मैं जानती थी कि बहन यांग इस काम के लिये सबसे अच्छी साबित होगी। मगर मैंने अपने हितों की रक्षा के लिये झूठ बोला और धोखा दिया, मैंने उसके बजाय बहन तांग का नाम सुझाया। जब मैंने बहन तांग को उस काम में परेशानियों का सामना करते देखा, तो यह जानते हुए भी कि वो काम में देरी कर देगी, मैंने बहन यांग की सिफ़ारिश नहीं की। मैंने न तो परमेश्वर के घर के बारे में सोचा, ना ही परमेश्वर की इच्छा पर कोई ध्यान दिया। मैंने बस अपनी हैसियत और रुतबे को बचाने के साधनों के तौर पर भाई-बहनों का इस्तेमाल किया। मैं कितनी दुष्ट, स्वार्थी और नीच थी। मैंने बरसों तक परमेश्वर में विश्वास किया, फिर भी मेरे विचार और दृष्टिकोण मेरे शैतानी स्वभाव पर और शैतान के अस्तित्व में बने रहने की तरकीबों पर आधारित थे। मैंने परमेश्वर के वचनों का पालन या सत्य का अभ्यास नहीं किया। मैं एक अविश्वासी थी, जैसा कि परमेश्वर के वचनों में बताया गया है। मैं अब स्वार्थी नहीं बन सकती। मुझे किसी काबिल इंसान की तलाश करनी होगी और हमारी कलीसिया के लिए ज़्यादा लोगों को प्रशिक्षण देना होगा। हमने बहन यांग के काम की जिम्मेदारी लेने के लिये अपनी कलीसिया में किसी को खोज लिया और बहन यांग का तबादला कर दिया गया। बाद में, मुझे पता चला कि बहन यांग ने लोगों के शुद्धिकरण और निष्कासन से जुड़े दस्तावेज़ों को बड़ी तेज़ी से संकलित कर लिया। यह सुनकर मुझे बुरा लगा। अगर मैंने पहले ही उसका नाम सुझा दिया होता और अपने हितों को परे रखा होता, तो इस काम में इतनी अधिक देरी नहीं होती। यह सब मेरे स्वार्थ की वजह से हुआ। मैंने अपराध और कुकर्म किया था। मैंने इसे एक चेतावनी के तौर पर लिया और फिर कभी अपने हितों को परमेश्वर के घर से ऊपर नहीं रखने का संकल्प लिया।

मैंने सोचा कि इस अनुभव ने मुझे थोड़ा बदल दिया है, मगर वही पुरानी समस्या फिर से अपना कुरूप चेहरा लेकर हालात अनुकूल होने के इंतज़ार में थी। कुछ ही दिनों बाद, मेरी अगुआ ने बहन लियू के बारे में मुझसे पूछा। वे उसे पास की एक कलीसिया में नये विश्वासियों के सिंचन में मदद के लिये भेजना चाहती थीं। मैं ऐसा नहीं करना चाहती थी, मगर फिर सोचा कि मुझे स्वार्थी नहीं बनना चाहिए, मुझे कलीसिया के काम को बनाये रखना चाहिये, मैं किसी और को प्रशिक्षण दे सकती हूँ। मैं बहन लियू को जाने देने के लिये तैयार हो गई। मगर तभी उन्होंने कहा कि बहन ली, जो दस्तावेज़ों के संकलन का कार्यभार संभाल रही थी, उसे पदोन्नत किया जाएगा और मुझे उसका मूल्यांकन करने के लिये कहा गया। यह मेरे सब्र का इम्तहान था। अगर बहन ली चली गई, तो फिर दस्तावेज़ों के संकलन का कार्यभार कौन संभालेगा? मैं बहन ली को जाने नहीं देना चाहती थी, इसलिये मैंने उसके मूल्यांकन को अनदेखा कर दिया। मैं चाहती थी कि उसके जाने में कुछ दिनों की देरी हो जाये, ताकि मेरी अगुआ को इस बीच कोई और मिल जाये और बहन ली यहीं रह जाये। मेरी सहकर्मी ने देखा कि मैं मूल्यांकन को अनदेखा कर रही हूँ, तो उसने इसके लिये मुझ पर दबाव बनाया। मैंने उसे टालते हुए कहा कि मैं इस पर काम करूंगी, मगर फिर भी मूल्यांकन नहीं लिखा। करीब 10 दिन बाद, मेरी सहकर्मी ने कहा, "हमारी अगुआ ने बहन ली के बारे में दूसरों से सुनकर उसका तबादला कर दिया है।" इस कार्रवाई में मुझे काफ़ी समय लग गया। यह सब काफ़ी तेज़ी से हो रहा था! जो अच्छी क्षमता वाले थे उन सभी को दूर कर दिया गया। अब हम कलीसिया में कुछ भी ठीक से नहीं कर पाएंगे। इस तरह के विचार मेरे मन में घूमने लगे, जिससे मेरा सिर फटने लगा। मुझे लगा जैसे मेरे दिल पर बहुत बड़ा बोझ रख दिया गया हो। अगले कुछ दिन मेरी भूख-प्यास भी खत्म हो गई। बस यही सोचती कि अब मैं लोगों को कैसे खोजूं, मेरे ऊपर कितना अधिक दबाव था। इस काम में काफ़ी मशक्कत करनी होगी। मैं जितना अधिक इस बारे में सोचती, मेरी चिंता उतनी ही बढ़ती जाती, मैं बुरी तरह थक चुकी थी।

एक दिन मैं सीढ़ियों से नीचे उतर रही थी, तो मेरा पैर फिसल गया। मैंने अपने पैर में कुछ चटकने की आवाज़ सुनी, जैसे हड्डी टूट गई हो। मैंने सोचा, "अब मैं गई काम से। टूटे पैर से अब मैं अपना काम नहीं कर सकती।" मैं जानती थी कि परमेश्वर मुझे अनुशासित कर रहा है। मैंने सोचा कि कैसे मैं एक-एक करके लोगों का तबादला होते देखती रही, कैसे मैंने अपने दिल में परमेश्वर से कुतर्क किया और इन सारी बातों का विरोध किया। अपने कर्तव्य के प्रति मेरे रवैये ने परमेश्वर को ज़रूर नाराज़ किया होगा, इसलिये परमेश्वर ने मुझे कर्तव्य से दूर कर दिया। यह सोचकर मुझे काफ़ी डर लगा। मेरे पैर में भी काफ़ी दर्द हो रहा था। मैं सचमुच पश्चाताप की चाह लेकर, परमेश्वर से प्रार्थना करती रही। उस दिन दोपहर के खाने के बाद, मैं यह देखकर हैरान रह गई कि मेरे पैर का दर्द अचानक खत्म हो गया, जैसे कि मुझे कभी चोट लगी ही नहीं थी। अपने दिल में, मैं जानती थी कि यह परमेश्वर की ओर से एक चेतावनी थी, ताकि मैं आत्मचिंतन करके खुद को जान सकूँ। मैंने सोचा, "मैं हमेशा अपने हितों को आगे क्यों रखती हूँ?"

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ वाला एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज़ को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीज़ें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीज़ें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि वे शैतान के जहर से युक्त हैं। जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि शैतान का जहर क्या है, इसे वचनों के माध्यम से पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम कुछ कुकर्मियों से पूछते हो उन्होंने बुरे कर्म क्यों किए, तो वे जवाब देंगे: 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।' यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का तर्क लोगों का जीवन बन गया है। भले वे चीज़ों को इस या उस उद्देश्य से करें, वे इसे केवल अपने लिए ही कर रहे होते हैं। सब लोग सोचते हैं चूँकि जीवन का नियम, हर कोई बस अपना सोचे, और बाकियों को शैतान ले जाए, यही है, इसलिए उन्हें बस अपने लिए ही जीना चाहिए, एक अच्छा पद और ज़रूरत के खाने-कपड़े हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देनी चाहिए। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन और फ़लसफ़ा है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह कथन वास्तव में शैतान का जहर है और जब इसे मनुष्य के द्वारा आत्मसात कर लिया जाता है तो यह उनकी प्रकृति बन जाता है। इन वचनों के माध्यम से शैतान की प्रकृति उजागर होती है; ये पूरी तरह से इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। और यही ज़हर मनुष्य के अस्तित्व की नींव बन जाता है और उसका जीवन भी, यह भ्रष्ट मानवजाति पर लगातार हजारों सालों से इस ज़हर के द्वारा हावी रहा है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')

परमेश्वर के वचन कहते हैं कि शैतान द्वारा इंसान को भ्रष्ट किये जाने के बाद, सभी तरह के शैतानी विष हमारे दिलों में डाल दिये गए और वही हमारी प्रकृति बन गये। जैसे कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।" हर कोई इस शैतानी विष के अनुसार जीवन जीता है, हम जो कुछ भी करते हैं वह हमारे अपने फ़ायदे के लिये होता है, हम सोचते हैं कि यही सही और उचित है, इस तरह हम अधिक से अधिक स्वार्थी और धोखेबाज बन जाते हैं। मैंने आत्मचिंतन किया। जब अगुआ ने मेरी कलीसिया से लोगों का तबादला किया, तो मैंने इसका विरोध किया, यहां तक कि कपट के ज़रिए इसे रोकने की भी कोशिश की। मैं लोगों से इस तरह पेश आयी जैसे वो मेरी संपत्ति हों, मैंने उन्हें परमेश्वर के घर नहीं जाने दिया। मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी, बिल्कुल विवेकहीन थी। मैंने परमेश्वर के घर के कार्य के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़ी थी! जब प्रभु यीशु कार्य करने आया, तो फ़रीसियों ने लोगों को उसका अनुसरण करने से रोक कर, अपनी हैसियत और आजीविका की रक्षा करने की कोशिश की। उन लोगों ने विश्वासियों को अपनी संपत्ति माना और उनके लिए प्रभु से होड़ लगाई। अंत में उन्होंने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया और दंड के भागी बने। मेरा व्यवहार उन फ़रीसियों से अलग कैसे था? भाई-बहन परमेश्वर की भेड़ें हैं, परमेश्वर के घर को अपनी इच्छा के अनुसार उन्हें काम पर लगाने का अधिकार है। मुझे इसमें दखल देने का कोई हक़ नहीं। कलीसिया की अगुआ के तौर पर, मुझे परमेश्वर के घर की ज़रूरत और सिद्धांतों के मुताबिक अपना कर्तव्य करना चाहिए, समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर संगति करनी चाहिये और लोगों को प्रशिक्षण देना चाहिए। यही मेरा कर्तव्य है, यही मेरी जिम्मेदारी है। मगर मैंने परमेश्वर की इच्छा का ध्यान नहीं रखा या सिद्धांतों के मुताबिक लोगों को काम पर नहीं लगाया। मैं ज़्यादा लोगों को प्रशिक्षण देने में अपना वक्त बर्बाद नहीं करना चाहती थी। जिनके बारे में मुझे पता था कि वे काबिल हैं, उन्हें मैंने खुद प्रशिक्षण नहीं दिया, बल्कि अपने काबू में करने की कोशिश की। उनसे अपनी हैसियत के लिये काम कराया। क्या मैं परमेश्वर के घर के ख़िलाफ़ अपने हित नहीं साध रही थी? मैं परमेश्वर की अवज्ञा करके मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चल रही थी। यह सोचकर मैं डर गई, मुझे अनुशासित करने और ज़्यादा कुकर्म करने से रोकने के लिए, मैंने परमेश्वर का धन्यवाद किया।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक और वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मानवजाति की भावनाएँ स्वार्थी हैं और अँधकार के संसार से वास्ता रखती हैं। वे परमेश्वर की इच्छा के लिए अस्तित्व में नहीं हैं, परमेश्वर की योजना के लिए तो बिल्कुल नहीं हैं। इसलिए मनुष्य और परमेश्वर का उल्लेख एक साँस में नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर सर्वदा सर्वोच्च है और हमेशा आदरणीय है, जबकि मनुष्य सर्वदा तुच्छ और हमेशा निकम्मा है। यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर हमेशा मनुष्यों के लिए बलिदान करता रहता है और अपने आप को समर्पित करता है; जबकि, मनुष्य हमेशा लेता है और सिर्फ अपने आप के लिए ही परिश्रम करता है। परमेश्वर सदा मानवजाति के अस्तित्व के लिए परिश्रम करता रहता है, फिर भी मनुष्य ज्योति और धार्मिकता में कभी भी कोई योगदान नहीं देता है। भले ही मनुष्य कुछ समय के लिए परिश्रम करे, लेकिन वह इतना कमज़ोर होता है कि हल्के से झटके का भी सामना नहीं सकता है, क्योंकि मनुष्य का परिश्रम केवल अपने लिए होता है दूसरों के लिए नहीं। मनुष्य हमेशा स्वार्थी होता है, जबकि परमेश्वर सर्वदा स्वार्थविहीन होता है। परमेश्वर उन सब का स्रोत है जो धर्मी, अच्छा, और सुन्दर है, जबकि मनुष्य सब प्रकार की गन्दगी और बुराई का वाहक और प्रकट करने वाला है। परमेश्वर कभी भी अपनी धार्मिकता और सुन्दरता के सार-तत्व को नहीं बदलेगा, जबकि मनुष्य किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में, धार्मिकता से विश्वासघात कर सकता है और परमेश्वर से दूर जा सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के स्वभाव को समझना बहुत महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि परमेश्वर निःस्वार्थ है। वह जो कुछ भी करता है, हमें बचाने के लिये करता है; इसमें हमारा ही फ़ायदा है। परमेश्वर का घर लोगों को बढ़ावा देता है और उन्हें प्रशिक्षण देता है, ताकि अच्छी काबिलियत वाले ऐसे लोग जो सत्य की खोज करते हैं, ज़्यादा अभ्यास कर सकें और आखिर में परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन कर सकें। इससे भाई-बहनों के साथ-साथ परमेश्वर के घर के कार्य को भी फ़ायदा होता है। जहां तक मेरी बात है, मुझे परमेश्वर के वचनों का सिंचन और पोषण और परमेश्वर के घर का प्रशिक्षण निर्बाध तरीके से मिला, मगर मैंने परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए अपना कर्तव्य निभाने की नहीं सोची। मैंने बस लोगों को अपने काबू में करने की सोची। अपनी हैसियत और रुतबे के लिये, मैंने परमेश्वर के घर के लोगों को प्रशिक्षण देने के रास्ते का रोड़ा बनने में भी संकोच नहीं किया, जिससे कलीसिया का काम रुक गया। मैं कितनी स्वार्थी और दुर्भावना से भरी थी, परमेश्वर के सामने रहने के काबिल नहीं थी। मुझे पता था कि मैं ऐसा नहीं कर सकती। मुझे परमेश्वर के घर को काबिल लोगों की आपूर्ति करनी होगी, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा भाई-बहन सही जगह पर वो काम कर सकें जो उन्हें करना चाहिये। जब मैंने अपने मन में यह विचार कर लिया, तो मैंने तुरंत बहन ली के काम की जगह लेने के लिये किसी और को ढूंढ लिया और इसके लिये मैंने परमेश्वर का धन्यवाद किया। हालांकि नई कर्मी को सिद्धांतों की समझ नहीं थी और मुझे ज़्यादा मेहनत करनी पड़ी, मगर मैंने शांति और सुकून महसूस किया। मैं जो भी कर सकती थी उसके लिये त्याग करने को तैयार थी और भाई-बहनों के साथ प्रार्थना कर सकती थी ताकि हमारी कलीसिया का काम अच्छी तरह से चले।

दो हफ़्तों के बाद, मेरी अगुआ ने कहा, "हम बहन झाओ को जो लेखों का संपादन करती हैं, काम के लिए किसी दूसरी कलीसिया में भेजना चाहते हैं।" यह सुनकर मैंने सोचा, "मुझे परमेश्वर के घर के समग्र कार्य के बारे में सोचना चाहिए। अब मैं स्वार्थी नहीं बन सकती। फिर, हमने तो अभी इस काम के लिए एक और बहन को प्रशिक्षण देना शुरू ही किया है, उसे सिद्धांतों की जानकारी नहीं है। हमारे काम पर असर पड़ना तय है। बेहतर तो यही होगा कि बहन झाओ अपनी जगह पर बनी रहें।" मैंने महसूस किया कि मैं फिर से अपने हितों के बारे में सोच रही हूँ। मैंने सोचा कि कैसे मैं मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चल पड़ी थी, बार-बार कलीसिया के कार्य में रुकावट डाल कर परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर रही थी। मैं काफ़ी डर गई। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आये : "हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी स्वयं की हैसियत, प्रतिष्ठा और साख पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा के बारे में मननशील होना चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, क्या तूने वफादार होने के लिए अपना अधिकतम किया है, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया है और अपना सर्वस्व दिया है, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन चीज़ों पर बार-बार विचार कर, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा। जब तेरी क्षमता कमज़ोर होती है, तेरा अनुभव उथला होता है, या जब तू अपने पेशे में दक्ष नहीं होता है, तब सारी ताकत लगा देने के बावजूद तेरे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, और परिणाम बहुत अच्छे नहीं हो सकते हैं। जब तू कार्यों को करते हुए अपनी स्वयं की स्वार्थी इच्छाओं या अपने स्वयं के हितों के बारे में विचार नहीं करता है, और इसके बजाय हर समय परमेश्वर के घर के कार्य पर विचार करता है, परमेश्वर के घर के हितों के बारे में लगातार सोचता रहता है, और अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाता है, तब तू परमेश्वर के समक्ष अच्छे कर्मों का संचय करेगा। जो लोग ये अच्छे कर्म करते हैं, ये वे लोग हैं जिनमें सत्य-वास्तविकता होती है; इन्होंने गवाही दी है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। मुझे परमेश्वर की इच्छा और कलीसिया के कार्य पर ध्यान देना होगा। मैं स्वार्थी बनकर किसी की काबिलियत को अपने तक सीमित रखने की कोशिश नहीं कर सकती। मैंने परमेश्वर से यह प्रार्थना की: "प्यारे परमेश्वर, मैं बहुत स्वार्थी और नीच हूँ, मैंने हमेशा परमेश्वर के घर में लोगों को बढ़ावा देने से रोकने की कोशिश की और कलीसिया के काम पर बुरा असर डाला। अब मैं आपका विरोध नहीं करना चाहती। मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं अपने देह-सुख को त्याग कर सत्य का अभ्यास कर सकूँ ..." प्रार्थना करने के बाद, मैं बहन झाओ के पास गई और उसके तबादले के बारे में बताया। हालांकि उसका तबादला कर दिया गया, मगर मैंने पहले की तरह खुद को परेशान महसूस नहीं किया। इसके बजाय, मुझे महसूस हुआ कि यह परमेश्वर की दया और आशीष है जिससे मैं परमेश्वर के घर को ऐसे काबिल लोगों की आपूर्ति कर पायी हूँ। मैं अपना कर्तव्य निभाने में भी सक्षम हूँ और मेरा हृदय सुकून और आनंद से भरा है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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