जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है

अनेक लोगों को ऐसा लगता है कि अपना कर्तव्य निभाने के बाद उनमें कोई कमी है, और उनमें सत्य वास्तविकता नहीं है, इसलिए उन्हें हमेशा अधिक धर्मोपदेश सुनने, और अधिक सभाएँ करने के लिए ज्यादा अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जरूरत होती है, मानो कि इसी से वे जीवन में प्रवेश और विकास कर सकेंगे। अगर वे थोड़ा-सा भी समय किसी सभा में जाए बिना या धर्मोपदेश सुने बिना रह जाएं तो उन्हें अपना दिल खाली-खाली या उजाड़-सा लगता है, मानो उनके पास कुछ है ही नहीं। उनका दिल कहता है, मानो दैनिक सभाओं और धर्मोपदेशों से ही वे जीवन में प्रवेश पा सकेंगे, या आध्यात्मिक परिपक्वता पाने में सक्षम होंगे। हकीकत में, इस तरह की सोच पूरी तरह गलत है। जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं या उसका अनुसरण करते हैं, उन्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए—तभी वे जीवन का अनुभव हासिल कर सकेंगे। अगर तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर पर निष्ठापूर्वक विश्वास करते हो, लेकिन अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते, तो फिर परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास में निष्ठा है ही कहाँ? जो निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभाते हैं, वही विश्वासी होते हैं। जो विश्वासी होते हैं, केवल वही परमेश्वर के लिए अपना जीवन अर्पित करने का साहस करते हैं, और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के लिए सब कुछ छोड़ सकते हैं। इसी प्रकार के लोगों को अपना कर्तव्य निभाते हुए पवित्र आत्मा के कार्य का अनुभव होता है; वे पवित्र आत्मा से प्रबोधन, मार्गदर्शन और अनुशासन प्राप्त करते हैं। इन सबसे जीवन अनुभव मिलता है। इसलिए, जीवन में प्रवेश विधिवत रूप से अपना कर्तव्य निभाने से शुरू होता है।

अगर लोग अपना कर्तव्य निभाने को लेकर उदासीन या हमेशा भ्रमित रहते हैं तो तुम्हें यह किस प्रकार का रवैया लगता है? क्या यह महज बेमन से काम करना नहीं हुआ? क्या अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा यही रवैया है? यह काबिलियत की समस्या है या स्वभाव की? इस बारे में सबको स्पष्ट समझ होनी चाहिए। अपना कर्तव्य निभाते समय लोग निपट लापरवाह क्यों होते हैं? परमेश्वर के लिए कार्य करते समय वे निष्ठावान क्यों नहीं होते हैं? उनमें विवेक या अंतरात्मा होती भी है या नहीं? अगर, तुममें सच में अंतरात्मा और विवेक हो, तो कार्यों को करते समय तुम उनमें थोड़ा ज्यादा मन लगाओगे और थोड़ी अधिक उदारता, जिम्मेदारी और सोच-विचार का उपयोग करोगे, और तुम ज्यादा प्रयास कर पाने में सक्षम होगे। जब तुम अधिक प्रयास कर पाते हो, तब तुम्हारे कर्तव्यों के निर्वहन के परिणामों में अवश्य सुधार होगा। तुम्हारे परिणाम बेहतर होंगे, और यह परमेश्वर के साथ-साथ लोगों को भी संतुष्ट करेगा। तुम्हें इसे जी-जान से करना होगा! तुम अपने दिमाग को ताक पर रखकर इस तरह काम नहीं कर सकते कि मानो यह एक आम सांसारिक जगह है और इसमें तुम्हें अपने समय के बदले सिर्फ पैसा कमाना है। अगर तुम्हारा रवैया ऐसा है तो तुम मुसीबत में हो। फिर तुम ठीक से कर्तव्य नहीं निभा पाओगे। यह कैसी मानवता है? क्या अंतरात्मा विहीन लोगों में मानवता होती है? नहीं। अगर तुम कहते हो कि तुममें अंतरात्मा है और सत्य को अमल में लाकर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहते हो तो अपने कर्तव्य में और अधिक प्रयास करने और इसमें और ज्यादा रमने की जरूरत है। तुम कहते तो हो कि तुममें अंतरात्मा है लेकिन तुम कभी पूरे दिल से अपना कर्तव्य नहीं निभाते। तो क्या तुम्हारी अंतरात्मा किसी काम की है? तुम्हें अपना दिल सही जगह लगाना चाहिए। इन सारी चीजों के बारे में अक्सर सोचना चाहिए—सारी चीजों को समझना चाहिए। बेमन से अपना कर्तव्य निभाना भारी वर्जना है। अगर अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हारा मन कभी नहीं लगता तो मान्य मापदंडों के अनुरूप काम करने का कोई तरीका तुम्हारे पास नहीं है। अगर तुम निष्ठा से काम करना चाहते हो तो पहले तुम्हें बेमन से काम करने की अपनी समस्या दूर करनी होगी। यह समस्या देखते ही इसके निराकरण के कदम उठाने होंगे। अगर हमेशा भ्रमित रहते हो, समस्याएं कभी नहीं देख पाते और लापरवाही से कार्य करते हो तो अपना कर्तव्य ठीक से करने का तरीका तुम्हें कभी नहीं आएगा। इसलिए, तुम्हें हमेशा पूरे मन से अपना कर्तव्य निभाना होगा। लोगों को यह अवसर मिलना बहुत कठिन था! जब परमेश्वर उन्हें अवसर देता है लेकिन वे उसे पकड़ नहीं पाते, तो वह अवसर खो जाता है—और अगर बाद में वे ऐसा अवसर खोजना चाहें, तो शायद वह दोबारा न मिले। परमेश्वर का कार्य किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, और न ही अपना कर्तव्य निभाने के अवसर किसी की प्रतीक्षा करते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने पहले अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया था, लेकिन अभी भी मैं उसे निभाना चाहता हूँ। मैं दुबारा डटना चाहता हूँ।” इस तरह का संकल्प लेना तो अच्छी बात है लेकिन अपना कर्तव्य निभाना कैसे है, इसकी स्पष्ट समझ होनी चाहिए, और तुम्हें सत्य हासिल करने का प्रयास करना चाहिए। जो सत्य समझते हैं, केवल वही अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकते हैं। जो सत्य नहीं समझते, वे तो श्रम करने योग्य भी नहीं हैं। सत्य के बारे में जितनी अधिक स्पष्टता होगी, तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में उतने ही प्रभावी होगे। अगर तुम यह सच्चाई समझ लोगे तो सत्य को जानने का प्रयास करने लगोगे, और तब तुम अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने की उम्मीद रख सकते हो। वर्तमान में कर्तव्य निभाने के बहुत ज्यादा अवसर नहीं हैं, इसलिए जब भी संभव हो, तुम्हें उन्हें लपक लेना चाहिए। जब कोई कर्तव्य सामने होता है, तो यही समय होता है जब तुम्हें परिश्रम करना चाहिए; यही समय होता है जब तुम्हें खुद को अर्पित करना चाहिए और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहिए, और यही समय होता है जब तुमसे कीमत चुकाने की अपेक्षा की जाती है। कोई कमी मत छोड़ो, कोई षड्यंत्र मत करो, कोई कसर बाकी मत रखो, या अपने लिए बचने का कोई रास्ता मत छोड़ो। यदि तुमने कोई कसर छोड़ी, या तुम मतलबी, मक्कार या विश्वासघाती बनते हो, तो तुम निश्चित ही एक खराब काम करोगे। मान लो, तुम कहते हो, “किसी ने मुझे चालाकी से काम करते हुए नहीं देखा। क्या बात है!” यह किस तरह की सोच है? क्या तुम्हें लगता है कि तुमने लोगों की आँखों में धूल झोंक दी, और परमेश्वर की आँखों में भी? हालांकि, वास्तविकता में, तुमने जो किया वो परमेश्वर जानता है या नहीं? वह जानता है। वास्तव में, जो कोई भी तुमसे कुछ समय तक बातचीत करेगा, वह तुम्हारी भ्रष्टता और नीचता के बारे में जान जाएगा, और भले ही वह ऐसा सीधे तौर पर न कहे, लेकिन वह अपने दिल में तुम्हारा आकलन करेगा। ऐसे कई लोग रहे हैं, जिन्हें इसलिए बेनकाब करके हटा दिया गया, क्योंकि बहुत सारे दूसरे लोग उन्हें समझ गए थे। जब उन सबने उनका सार देख लिया, तो उन्होंने उनकी असलियत उजागर कर दी और उन्हें बाहर निकाल दिया गया। इसलिए, लोग चाहे सत्य का अनुसरण करें या न करें, उन्हें अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए; उन्हें व्यावहारिक काम करने में अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। तुममें दोष हो सकते हैं, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में प्रभावी हो पाते हो, तो तुम्हें नहीं हटाया जाएगा। अगर तुम हमेशा सोचते हो कि तुम ठीक हो, अपने हटाए न जाने के बारे में निश्चित रहते हो, और अभी भी आत्मचिंतन या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते, और तुम अपने उचित कार्यों को अनदेखा करते हो, हमेशा लापरवाह रहते हो, तो जब तुम्हें लेकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सहनशीलता खत्म हो जाएगी, तो वे तुम्हारी असलियत उजागर कर देंगे, और इस बात की पूरी संभावना है कि तुम्हें हटा दिया जाएगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सभी ने तुम्हारी असलियत देख ली है और तुमने अपनी गरिमा और निष्ठा खो दी है। अगर कोई व्यक्ति तुम पर भरोसा नहीं करता, तो क्या परमेश्वर तुम पर भरोसा कर सकता है? परमेश्वर मनुष्य के अंतस्तल की पड़ताल करता है : वह ऐसे व्यक्ति पर बिलकुल भी भरोसा नहीं कर सकता। अगर कोई व्यक्ति भरोसेमंद नहीं है तो उसे किसी भी परिस्थिति में कोई काम मत सौंपो। अगर तुम किसी व्यक्ति को जानते नहीं हो, या सिर्फ लोगों से सुना है कि वह अपने काम में अच्छा है, लेकिन तुम्हारा दिल सौ फीसदी गवाही नहीं देता, तो पहले उसे कोई छोटा-सा काम सौंपकर देखो—जो कतई महत्वपूर्ण न हो। अगर वह कुछ छोटे-छोटे काम ठीक से कर ले, तो उसे कोई सामान्य काम सौंप सकते हो। और अगर उसने वह काम सफलतापूर्वक कर दिखाया, तभी उसे कोई महत्वपूर्ण काम सौंप सकते हो। अगर वह सामान्य-सा काम भी बिगाड़ दे तो वह व्यक्ति भरोसेमंद नहीं है। काम चाहे छोटा हो या बड़ा, उसे नहीं सौंपा जा सकता है। यदि तुम्हें ऐसा कोई व्यक्ति मिले जो सज्जन और जिम्मेदार है, लापरवाही नहीं करता, जो दूसरों के सौंपे काम को अपना मानकर करता है, काम के हर पहलू पर ध्यान देता है, तुम्हारी जरूरतें समझता है, हर दृष्टिकोण को ध्यान में रखता है, गहराई में जाता है और बिल्कुल सही तरीके से चीजें संभालता है, अपने काम से तुम्हें पर संतुष्ट करता है—तो इसी तरह का व्यक्ति भरोसेमंद है। भरोसेमंद लोग वे लोग होते हैं जिनमें मानवता होती है, और जिन लोगों में मानवता होती है उनमें अंतःकरण और विवेक होता है, और उनके लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना बहुत आसान होना चाहिए, क्योंकि वे अपने कर्तव्य को अपना दायित्व मानते हैं। अंतःकरण या विवेक से रहित लोगों का अपना कर्तव्य खराब तरीके से निभाना निश्चित है, और उनका कर्तव्य चाहे कुछ भी हो, उसके प्रति उनमें जिम्मेदारी का कोई बोध नहीं होता। दूसरों को हमेशा उनकी चिंता करनी पड़ती है, उनकी निगरानी करनी पड़ती है और उनकी प्रगति के बारे में पूछना पड़ता है; वरना उनके कर्तव्य निभाते समय चीजें गड़बड़ा सकती हैं, कार्य करते समय चीजें गलत हो सकती हैं, जिससे भारी परेशानी होगी। संक्षेप में, लोगों को अपने कर्तव्यों का पालन करते समय हमेशा अपनी जाँच करनी चाहिए : “क्या मैंने इस कर्तव्य को पर्याप्त रूप से पूरा किया है? क्या मैंने दिल लगाकर काम किया? या मैंने इसे जैसे-तैसे ही पूरा किया?” अगर तुम हमेशा लापरवाह रहते हो, तो तुम खतरे में हो। कम से कम, इसका यह मतलब है कि तुम्हारी कोई विश्वसनीयता नहीं है, और लोग तुम पर भरोसा नहीं कर सकते। ज्यादा गंभीर रूप में, अगर तुम अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा बेमन से काम करते हो, और अगर तुम हमेशा परमेश्वर को धोखा देते हो, तो तुम बड़े खतरे में हो! जान बूझकर धोखेबाज़ बनने के दुष्परिणाम क्या हैं? हर कोई देख सकता है कि तुम जानबूझकर अपराध कर रहे हो, कि तुम किसी और चीज के अनुसार नहीं, बल्कि अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जी रहे हो, कि तुम लापरवाह होने के सिवाय कुछ नहीं हो, कि तुम बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं करते—इसका अर्थ है कि तुम मानवता विहीन हो! अगर यह तुममें पूरी तरह प्रकट होता है, अगर तुम बड़ी गलतियाँ करने से बचते हो, लेकिन छोटी गलतियाँ निरंतर करते रहते हो, और शुरू से अंत तक पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम एक बुरे व्यक्ति हो, छद्म-विश्वासी हो, और तुम्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। इस तरह के परिणाम जघन्य हैं—तुम पूरी तरह से बेनकाब हो जाते हो और एक छद्म-विश्वासी और बुरे व्यक्ति के रूप में हटा दिए जाते हो।

तुम जो भी कर्तव्य निभाते हो उसमें जीवन-प्रवेश शामिल होता है। तुम्हारा कर्तव्य काफी नियमित हो या अनियमित, नीरस हो या जीवंत, तुम्हें हमेशा जीवन-प्रवेश हासिल करना ही चाहिए। कुछ लोगों द्वारा किये गये कर्तव्य एकरसता वाले होते हैं; वे हर दिन वही चीज करते रहते हैं। मगर, इनको करते समय, ये लोग अपनी जो दशाएं प्रकट करते हैं वे सब एक-समान नहीं होतीं। कभी-कभार अच्छी मनःस्थिति में होने पर लोग थोड़े ज़्यादा चौकस होते हैं और बेहतर काम करते हैं। बाकी समय, किसी अनजान प्रभाव के चलते, उनका शैतानी स्वभाव उनमें शैतानी जगाता है जिससे उनमें अनुचित विचार उपजते हैं, वे बुरी हालत और मनःस्थिति में आ जाते हैं; परिणाम यह होता है कि वे अपने कर्तव्यों को सतही ढंग से करते हैं। लोगों की आंतरिक दशाएं निरंतर बदलती रहती हैं; ये किसी भी स्थान पर किसी भी वक्त बदल सकती हैं। तुम्हारी दशा चाहे जैसे बदले, अपनी मनःस्थिति के अनुसार कर्म करना हमेशा ग़लत होता है। मान लो कि जब तुम अच्छी मनःस्थिति में होते हो, तो थोड़ा बेहतर करते हो, और बुरी मनःस्थिति में होते हो तो थोड़ा बदतर करते हो—क्या यह काम करने का कोई सैद्धांतिक ढंग है? क्या यह तरीका तुम्हें अपने कर्तव्य को एक स्वीकार्य मापदंड तक निभाने देगा? मनःस्थिति चाहे जैसी हो, लोगों को परमेश्वर के सामने प्रार्थना करना और सत्य की खोज करना आना चाहिए, सिर्फ इसी तरीके से वे अपनी मनःस्थिति द्वारा बाधित होने, और उसके द्वारा इधर-उधर भटकाए जाने से बच सकते हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें हमेशा खुद को जांच कर देखना चाहिए कि क्या तुम सिद्धांत के अनुसार काम कर रहे हो, तुम्हारा कर्तव्य निर्वाह सही स्तर का है या नहीं, कहीं तुम इसे सतही तौर पर तो नहीं कर रहे हो, कहीं तुमने अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने से जी चुराने की कोशिश तो नहीं की है, कहीं तुम्हारे रवैये और तुम्हारे सोचने के तरीके में कोई खोट तो नहीं। एक बार तुम्हारे आत्मचिंतन कर लेने और तुम्हारे सामने इन चीज़ों के स्पष्ट हो जाने से, अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें आसानी होगी। अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा किसी भी चीज़ से सामना हो—नकारात्मकता और कमज़ोरी, या काट-छाँट के बाद बुरी मनःस्थिति में होना—तुम्हें कर्तव्य के साथ ठीक से पेश आना चाहिए, और तुम्हें साथ ही सत्य को खोजना और परमेश्वर के इरादों को समझना चाहिए। ये काम करने से तुम्हारे पास अभ्यास करने का मार्ग होगा। अगर तुम अपना कर्तव्य निर्वाह बहुत अच्छे ढंग से करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी मनःस्थिति से बिल्कुल प्रभावित नहीं होना चाहिए। तुम्हें चाहे जितनी निराशा या कमज़ोरी महसूस हो रही हो, तुम्हें अपने हर काम में पूरी सख्ती के साथ सत्य का अभ्यास करना चाहिए, और सिद्धांतों पर अडिग रहना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो न सिर्फ दूसरे लोग तुम्हें स्वीकार करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी तुम्हें पसंद करेगा। इस तरह, तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे, जो ज़िम्मेदार है और दायित्व का निर्वहन करता है; तुम सचमुच में एक अच्छे व्यक्ति होगे, जो अपने कर्तव्यों को मानक के अनुसार निभाता है और जो पूरी तरह से एक सच्चे इंसान की तरह जीता है। ऐसे लोगों का शुद्धिकरण किया जाता है और वे अपने कर्तव्य निभाते समय वास्तविक बदलाव हासिल करते हैं, उन्हें परमेश्वर की दृष्टि में ईमानदार कहा जा सकता है। केवल ईमानदार लोग ही सत्य का अभ्यास करने में डटे रह सकते हैं और सिद्धांत के साथ कर्म करने में सफल हो सकते हैं, और मानक के अनुसार कर्तव्यों को निभा सकते हैं। सिद्धांत पर चलकर कर्म करने वाले लोग अच्छी मनःस्थिति में होने पर अपने कर्तव्यों को ध्यान से निभाते हैं; वे सतही ढंग से कार्य नहीं करते, वे अहंकारी नहीं होते और दूसरे उनके बारे में ऊंचा सोचें इसके लिए दिखावा नहीं करते। बुरी मनःस्थिति में होने पर भी वे अपने रोज़मर्रा के काम को उतनी ही ईमानदारी और ज़िम्मेदारी से पूरा करते हैं और उनके कर्तव्यों के निर्वाह के लिए नुकसानदेह या उन पर दबाव डालने वाली या उनके कर्तव्य निर्वहन में बाधा पहुँचाने वाली किसी चीज़ से सामना होने पर भी वे परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत रख पाते हैं और यह कहते हुए प्रार्थना करते हैं, “मेरे सामने चाहे जितनी बड़ी समस्या खड़ी हो जाए—भले ही आसमान फट कर गिर पड़े—जब तक मैं जीवित हूँ, अपना कर्तव्य निभाने की भरसक कोशिश करने का मैं दृढ़ संकल्प लेता हूँ। मेरे जीवन का प्रत्येक दिन वह दिन होगा जब मैं अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाऊंगा, ताकि मैं परमेश्वर द्वारा मुझे दिये गये इस कर्तव्य, और उसके द्वारा मेरे शरीर में प्रवाहित इस सांस के योग्य बना रहूँ। चाहे जितनी भी मुश्किलों में रहूँ, मैं उन सबको परे रख दूंगा क्योंकि कर्तव्य निर्वाह करना मेरे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है!” जो लोग किसी व्यक्ति, घटना, चीज़ या माहौल से प्रभावित नहीं होते, जो किसी मनःस्थिति या बाहरी स्थिति से बेबस नहीं होते, और जो परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गये कर्तव्यों और आदेशों को सबसे आगे रखते हैं—वही परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होते हैं और सच्चाई के साथ उसके सामने समर्पण करते हैं। ऐसे लोगों ने जीवन-प्रवेश हासिल किया है और सत्य वास्तविकता में प्रवेश किया है। यह सत्य को जीने की सबसे सच्ची और व्यावहारिक अभिव्यक्तियों में से एक है। क्या इस तरह जीना किसी को सुकून दे सकता है? क्या तुम्हें इस बात को लेकर परेशान होने की जरूरत है कि परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है? तुम कैसे कहोगे कि सुकून महसूस करने के लिए तुम्हें कार्य करने की जरूरत है? (अपने कर्तव्य को सर्वोपरि रखो, और खुद को किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज से बेबस न होने दो। सिर्फ इसी तरीके से तुम परमेश्वर को निराश करने से बच सकते हो।) बिल्कुल सही, सुकून पाने का यही राज है। क्या तुम सब इस राज को जान चुके हो? अगर तुमसे बात करते हुए किसी व्यक्ति का रवैया बुरा है, और वह तुम्हें किनारे धकेलना चाहता है या तुममें जानबूझकर गलतियाँ ढूंढना चाहता है, तो तुम नाखुश महसूस करोगे, मानो किसी ने तुम्हें चाकू घोंप दिया हो। तुम्हारी भूख और नींद उड़ जाएगी। हर हाल में तुम्हारा मन खट्टा रहेगा, और दिल में काँटे चुभेंगे। इस स्थिति में, क्या करोगे? तुम कह सकते हो, “आज मेरा मन खराब है, इसलिए मैं कुछ दिन अपने कर्तव्य से दूर रहूँगा,” या “मैं अपना काम तो करूँगा, लेकिन अगर आधे-अधूरे दिल या बेमन से भी करूँ तो चलेगा। हर किसी की जिंदगी में ऐसा वक्त आता है जब चीजें अपनी इच्छानुसार नहीं होतीं, इसलिए अगर मेरी मनःस्थिति खराब है तो परमेश्वर मुझसे बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं करेगा, है न? मैं आज बस कुछ देर के लिए अपने कर्तव्य से दूर रहूँगा। कोई दिक्कत नहीं, कल अच्छा काम कर लूँगा। परमेश्वर छह हजार वर्षों से अपना काम करता चला आ रहा है, इसलिए अगर मैं एक दिन की देर कर दूँ तो क्या उसे वाकई फर्क पड़ेगा?” किस प्रकार का व्यक्ति छोटी-छोटी चीजों से अपनी मनःस्थिति खराब होने देता है, और फिर इससे अपने कर्तव्य को प्रभावित होने देता है? क्या यह बचकाना, निराशाजनक स्वभाव नहीं है? जब उनके साथ कुछ भी अप्रिय घटता है तो वे गुस्सा हो जाते हैं, अपना कर्तव्य नहीं निभाते, दृढ़ता नहीं दिखा पाते, और अपनी प्रतिज्ञाएँ भूल जाते हैं। यह कैसी समस्या है? क्या यह मनमानी नहीं है? संभव है कुछ लोग आम तौर पर ऐसे पेश न आते हों लेकिन मनःस्थिति खराब होने पर वे अपनी जिम्मेदारियों से विमुख हो जाते हैं। ऐसी चीजें अक्सर होती हैं। कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो मनःस्थिति खराब होने पर थोड़ा बाहरी प्रभाव में आ जाते हैं, इसलिए कर्तव्य निभाने के दौरान उनमें कोई उत्साह नहीं रहता, और वे काम में दुबारा ध्यान नहीं दे पाते हैं। जब ऐसा हो तो क्या करना चाहिए? क्या इन समस्याओं को हल नहीं करना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं, “इनका समाधान नहीं हो सकता। कुछ देर मैं यह नहीं करना चाहता, और जैसा चल रहा है, चलने दूँगा। कुछ भी हो, मेरी मनःस्थिति बिगड़ी हुई है और मैं नहीं चाहता कि कोई मुझसे बात करे। बस कुछ देर मुझे मायूस रहने दो।” यद्यपि वे अब भी अपना कर्तव्य निभा रहे होते हैं, लेकिन वे केवल शरीर से मौजूद रहते हैं, मन से नहीं। पता नहीं, उनका मन कहाँ भटकने चला गया। वे अपने कर्तव्य को लेकर जिम्मेदार नहीं हैं, वे कोई प्रयास नहीं करते, और कमजोर हैं। लेकिन, जब उनकी मनःस्थिति सुधरती है तो उत्साह भी लौट आता है; वे दुबारा कठिनाई और थकान झेलने लायक हो जाते हैं और अपने भोजन को लेकर परेशान नहीं होते। क्या यह सब थोड़ा-सा असामान्य नहीं है? लोग इतनी सारी विभिन्न भावनाओं और परिस्थितियों से प्रभावित क्यों होते हैं? क्या तुमने कभी कारण ढूंढे? क्या तुम लोग अक्सर इन चीजों से परेशान नहीं होते? क्या अक्सर इन स्थितियों में नहीं फँसते? क्या यही समस्या तुम लोगों की नहीं है? (है।) अगर इन समस्याओं का हल न निकाला गया तो लोग कभी परिपक्व नहीं हो पाएँगे; वे हमेशा बच्चे ही बने रहेंगे। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति तुम्हारी भावनाओं का ख्याल रखे बिना कुछ ऐसा कहे जो आंशिक या परोक्ष रूप से तुम्हारे बारे में हो, या तुम्हारे बारे में कोई टेढ़ी बात करे, तो तुम थोड़े-से असहज हो जाओगे। यदि तुम किसी से बात करो और वह तुम्हारी बात पर ध्यान न दे, या अपने चेहरे पर अच्छा भाव व्यक्त न करे, तो तुम असहज हो जाओगे। अगर कोई दिन ऐसा बीता जिसमें तुम अपनी इच्छानुसार काम न कर पाए तो भी असहज हो जाओगे। अगर कोई बुरा सपना देखो जो अपशकुन जैसा हो तो भी यही स्थिति होगी। अगर अपने परिवार के बारे में कोई बुरी खबर सुनो तो असहज होकर तुम्हारी मनःस्थिति बिगड़ जाएगी और तुम निराश हो जाओगे। अगर किसी व्यक्ति को अच्छा काम करते देखो, और उसे प्रशंसा मिलने के साथ अगुआ के रूप में पदोन्नति मिल जाए तो इससे भी तुम असहज हो जाओगे और तुम्हारी मनःस्थिति पर असर पड़ेगा...। तुम्हें प्रभावित करने वाली ये सारी छोटी-बड़ी चीजें तुम्हें नकारात्मकता के चंगुल में फंसा सकती हैं, उदास कर सकती हैं, और तुम्हारे कर्तव्य निभाने की क्षमता पर असर डाल सकती हैं। इस तरह पेश आने वाले लोगों में क्या समस्या होती है? (उनका स्वभाव अस्थिर होता है।) अस्थिर स्वभाव इसका एक पहलू है। उनकी मानवता अपरिपक्व और बचकानी होती है, और उनमें कोई अंतर्दृष्टि नहीं होती है। जहाँ तक उनके जीवन में प्रवेश की बात है, वे हमेशा तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों से बेबस जो जाते हैं, इसलिए उनके लिए सत्य का अभ्यास करना आसान नहीं होता है। अगर वे सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते तो वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते, और अगर वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते तो उनका जीवन-प्रवेश भी नहीं होगा। क्या ऐसा ही नहीं होता है? वे लोगों, घटनाओं और चीजों के सामने क्यों बेबस होते हैं? इसका कारण यह है कि वे न तो सत्य समझते हैं, न सत्य-असत्य की पहचान कर पाते हैं और न ही उचित-अनुचित व्यक्ति की। फलस्वरूप वे नहीं जान पाते कि अभ्यास कैसे करना है, न आगे बढ़ पाते हैं, न ही पीछे हट पाते हैं। यह इसका दुष्परिणाम है। ज्यादातर नए विश्वासी इस स्थिति में होते हैं। जब वे सत्य समझने लगते हैं, चीजों को साफ-साफ देख सकते हैं, और लोगों की पहचान कर सकते हैं तो उनकी यह समस्या सहज रूप से दूर हो जाएगी। लेकिन जो सत्य से प्रेम नहीं करते, वे समस्या आने पर सत्य नहीं खोजते हैं। ऐसा व्यक्ति कभी भी तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों से होने वाली बेबसी को दूर नहीं कर पाएगा। लोगों, घटनाओं और चीजों के सामने बेबस होने वाले लोगों में किस प्रकार की दशाएं दिखती हैं? वे आसानी से नकारात्मक हो जाते हैं, और असफल होने या कठिनाइयाँ सामने आने पर लड़खड़ा जाते हैं। इन चीजों से उनकी मनःस्थिति और अपना कर्तव्य निभाने की क्षमता पर असर पड़ता है। जो लोग सत्य नहीं समझते हैं, वे तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों के सामने आसानी से बेबस हो जाते हैं। उनका जीवन-प्रवेश बहुत धीमा हो जाता है, और वे चाहे जितने सालों से विश्वासी रहे हों, वे कोई स्पष्ट प्रगति नहीं कर पाते हैं। उनमें कोई बदलाव नहीं आता है और वे कमोबेश अविश्वासियों जैसे ही हैं। यह सब सत्य न खोजने का नतीजा है। कारण यही है। संक्षेप में, परमेश्वर पर विश्वास करते हुए तुम्हें चाहे जितने साल हो चुके हों, तुम चाहे जितने काबिल या जितनी उम्र के हो, जब तक सत्य से प्रेम नहीं करते या सभी चीजों में सत्य नहीं खोजते, तब तक तुम तमाम लोगों, घटनाओं और चीजों से आसानी से बेबस होते रहोगे। तुम न तो उचित तरीके से कार्य करना सीख पाओगे, न ही यह जान पाओगे कि सत्य का अभ्यास कैसे करें या सिद्धांतों के अनुसार कैसे रहें। यदि तुम मनुष्यों की धारणाओं के अनुसार कार्य करते भी हो और बुरे काम नहीं करते, तब भी तुम यह नहीं जान पाओगे कि तुम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप चल रहे हो या नहीं। ऐसा व्यक्ति चाहे जितने साल से विश्वासी हो, वह अपनी अनुभव की गई गवाहियों के बारे में बात नहीं कर पाएगा, क्योंकि वह न तो यह समझता है कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाए, न ही लेशमात्र सत्य समझता है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते वे ऐसे ही होते हैं; वे चाहे जितने अरसे से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हों, उनके पास बताने लायक कोई गवाही नहीं होती है। उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा होता है, और उनके पास सत्य वास्तविकता नहीं होती।

इस समय लोग अपना कर्तव्य निभाने में सक्रिय हैं। उनमें अपना कर्तव्य निभाने, परमेश्वर के लिए खुद को खपाने और उसके लिए चीजों का परित्याग करने और खुद को अर्पित करने का दृढ़ निश्चय भी है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन परमेश्वर को अर्पित करने और खुद को उसके लिए खपा देने की कई बार शपथ ली है। उनमें ये सारी चीजें हैं मगर उन्होंने जीवन-प्रवेश नहीं किया है। अगर किसी व्यक्ति का जीवन में प्रवेश नहीं हुआ है तो फिर तमाम जटिल लोगों, घटनाओं और चीजों के रहते हुए, उनके लिए अपनी भावनाओं पर काबू रखना या समस्या से निपटना काफी कठिन होगा। न तो वे कोई दिशा पा सकते हैं, न ही कोई रास्ता, उन्हें अक्सर लगता है कि वे अपनी नकारात्मक दशा से नहीं निकल सकते हैं। वे हर तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों में उलझकर इनसे बेबस, नियंत्रित और बंधे होते हैं, और अभ्यास का सबसे सही तरीका नहीं जानते हैं। अब मैं तुम लोगों को अभ्यास का एक सिद्धांत बताता हूँ : तुम्हारे साथ चाहे जो भी बुरा हो, चाहे कोई परीक्षा या परीक्षण हो, चाहे तुम्हारी काट-छाँट हो रही हो, लोग तुमसे चाहे जैसा व्यवहार करें, तुम्हें इन चीजों को परे रखकर सत्य खोजने और अपनी दशा ठीक करने के लिए परमेश्वर के सामने अनन्य भाव से प्रार्थना करने आना चाहिए। पहले इसका समाधान निकलना चाहिए। तुम्हें कहना चाहिए, “यह मामला चाहे जितना बड़ा हो, चाहे आसमान टूट पड़े, मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना है। जब तक मेरी साँस चल रही है, मैं अपना कर्तव्य नहीं छोड़ूँगा।” तो फिर तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह कैसे निभाते हो? तुम बेमन से या शरीर से हाजिर होकर लेकिन मन भटकाकर काम नहीं कर सकते—अपने काम में दिलोदिमाग लगाना होगा। तुम्हारे सिर पर चाहे जितने बड़े मामले हों, पहले उन्हें परे रखकर परमेश्वर के पास आकर यह जानना होगा कि अपना कर्तव्य कैसे अच्छी तरह निभाएँ ताकि यह परमेश्वर को संतुष्ट करे। यह सोचने की कोशिश करनी चाहिए, “आज मेरा सामना इस चीज से हुआ, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह कैसे करूँगा? पहले मैंने लापरवाही से काम किया, इसलिए आज मुझे अपना तरीका बदलना होगा और कर्तव्य अच्छे से पूरा करने में जुटना होगा, ताकि किसी को मीनमेख निकालने का मौका न मिले। महत्वपूर्ण यह है कि मैं परमेश्वर को निराश न करूँ। मुझे उसके दिल को सहज रखना है, ताकि जब वह मुझे अपना कर्तव्य निभाते देखे तो जाने कि मैं आज्ञाकारी और विनम्र ही नहीं, बल्कि निष्ठावान भी हूँ।” अगर तुम इसे अमल में लाते हो और इस दिशा में प्रयास करते हो तो अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें कोई देर नहीं करा सकता है, या तुम्हारे कर्तव्य के कारगर होने पर असर नहीं डाल सकता है। जैसे-जैसे तुम निरंतर प्रार्थना कर सत्य खोजते रहोगे और परमेश्वर के वचन समझने की कोशिश करते रहोगे तो देह के भावनात्मक मामलों को आसानी से समझने और हल करने में भी सक्षम हो जाओगे; लेकिन कोई व्यक्ति ऐसा तभी कर पाएगा, जब वह सत्य को स्वीकार ले। अगर सत्य समझ लोगे, तो कोई भी समस्या हल हो सकती है। तुम्हारी उदासी, निराशा, चिंताएँ-शंकाएँ और दिल में बैठी नकारात्मकता सबकी सब पूरी तरह दूर की जा सकती हैं। तब तुम्हारी मनःस्थिति धीरे-धीरे सुधरने लगेगी और तुम पूरी तरह मुक्त हो जाओगे। यदि तुम्हारे सामने वाकई वाजिब मुश्किलें हैं, तो सत्य खोजना और समर्पण करना सीखना चाहिए। जब किसी व्यक्ति का इस प्रकार की चीजों से पाला पड़ता है तो यह उसके आध्यात्मिक कद की परख होती है और इससे पता चलता है कि वह कौन है, ताकि यह दिख सके कि वह सत्य पर अमल कर सकता है या नहीं।

एक मान्य मापदंड के अनुरूप अपना कर्तव्य निभाने के लिए पहले तुम्हारी उचित मानसिकता होनी चाहिए। जब भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो तो तुम्हें अपनी दशा भी सुधारनी होगी। जब तुम अपने कर्तव्य के प्रति सही ढंग से पेश आने में सक्षम होते हो, जब तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों से होने वाली बेबसी और उनके प्रभावों से मुक्त हो चुके हो, जब खुद को पूरी तरह से परमेश्वर को समर्पित कर सकते हो, तभी तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकोगे। ऐसा करने का राज यही है कि अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियों को सर्वोपरि रखो। अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में तुम्हें हमेशा अपनी जाँच करनी चाहिए : “क्या अपने कर्तव्य करने के प्रति मेरा अनमना रवैया है? कौन-सी चीजें मुझे तंग करती हैं और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति अनमना बनाती हैं? क्या मैं पूरे दिल और दम-खम से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ? क्या इस तरह काम करके परमेश्वर मुझ पर भरोसा करेगा? क्या मेरा हृदय परमेश्वर को पूरी तरह समर्पित हो चुका है? क्या मेरा इस तरह कर्तव्य निभाना सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या इस तरह कर्तव्य निभाने से सर्वोत्तम नतीजे प्राप्त होंगे?” तुम्हें अक्सर इन सवालों पर चिंतन करना चाहिए। जब तुम्हें समस्याएँ दिखाई दें तो सक्रिय होकर सत्य खोजना चाहिए और इन्हें हल करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचन तलाशने चाहिए। इस तरह तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकोगे और तुम्हारे दिल को शांति और खुशी मिलेगी। अगर कर्तव्य निभाते हुए बार-बार परेशानियाँ सामने आएँ तो इनमें से अधिकतर समस्याएँ तुम्हारे इरादों के कारण आती हैं—ये भ्रष्ट स्वभाव की समस्याएँ हैं। जब किसी व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो जाता है, तो उसके हृदय में समस्याएँ होंगी और उसकी स्थिति असामान्य रहेगी, जिसका सीधा असर उसकी कर्तव्य क्षमता पर पड़ेगा। व्यक्ति की कर्तव्य क्षमता पर असर डालने वाली समस्याएँ बड़ी और गंभीर होती हैं; ये परमेश्वर के साथ उसके संबंध को सीधे प्रभावित कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, जब कुछ लोगों के परिवारों पर विपदा आती है तो वे परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियाँ विकसित कर लेते हैं। कुछ लोग जब अपने कर्तव्यों में कष्ट झेलते हैं तो नकारात्मक हो जाते हैं और इसे न कोई देखता है, न उनकी प्रशंसा करता है। कुछ लोग अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, हमेशा अनमने बने रहते हैं, और जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत करने लगते हैं। कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाने के अनिच्छुक इसलिए होते हैं क्योंकि वे हमेशा बचने का रास्ता ढूँढ़ने में लगे रहते हैं। ये सारी समस्याएँ परमेश्वर के साथ सहज संबंध पर सीधा असर डालती हैं। ये सारी समस्याएँ भ्रष्ट स्वभाव की समस्याएँ हैं। ये सभी इस तथ्य से उपजती हैं कि लोग परमेश्वर को नहीं जानते, कि वे हमेशा चालबाजी में लगे रहकर अपने बारे में ही सोचते हैं, जो उन्हें परमेश्वर के इरादों के बारे में विचारशील होने या परमेश्वर की योजनाओं के लिए समर्पित होने से रोकता है। इससे तमाम तरह के नकारात्मक मनोभाव उत्पन्न होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे बिल्कुल ऐसे ही होते हैं। जब उन पर छोटे-छोटे संकट आते हैं तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, अपना कर्तव्य निभाने में खीझ निकालते हैं, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर उसका प्रतिरोध करते हैं और अपनी जिम्मेदारियाँ छोड़कर परमेश्वर को धोखा देना चाहते हैं। ये सारी चीजें भ्रष्ट स्वभाव से उपजी बेबसी के विभिन्न दुष्परिणाम हैं। जो व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है, वह अपने जीवन, भविष्य और नियति की चिंता को परे रखकर सिर्फ और सिर्फ सत्य का अनुसरण कर इसे हासिल करना चाहता है। ऐसे लोग मानते हैं कि समय अपर्याप्त है, उन्हें डर लगा रहता है कि वे अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा पाएँगे, खुद को पूर्ण नहीं बना पाएँगे, इसलिए वे हर चीज को परे रख पाते हैं। उनकी मानसिकता सिर्फ परमेश्वर की ओर मुड़ने और उसके लिए समर्पित होने की होती है। वे किसी भी परेशानी से विचलित नहीं होते, और अगर वे खुद को नकारात्मक या कमजोर महसूस करते हैं तो परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़कर सहज रूप से इसका समाधान कर लेते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं वे परेशान होते हैं, और तुम उनके साथ सत्य के बारे में चाहे जितनी संगति कर लो, वे अपनी समस्याएँ पूरी तरह से हल करने में असमर्थ होते हैं। भले ही वे क्षण भर के लिए सचेत होकर सत्य को स्वीकारने में सक्षम हो जाएँ, फिर भी वे बाद में इससे पीछे हट जाएँगे, इसलिए ऐसे व्यक्तियों को संभालना बहुत मुश्किल होता है। ऐसा नहीं है कि वे सत्य के बारे में कुछ नहीं समझते, बल्कि बात यह है कि वे अपने मन में सत्य को संजोते या स्वीकारते नहीं हैं। आखिरकार इस हालत में वे अपनी इच्छा, अपने स्वार्थ, भविष्य, अपनी नियति और मंजिल को परे नहीं रख पाते, जो फिर हमेशा उन्हें परेशान करने के लिए सिर उठाते रहते हैं। अगर कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकारने में सक्षम होता है तो जैसे-जैसे वह सत्य को समझेगा, उसके भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित सारी चीजें अपने आप गायब हो जाएँगी, और उसे जीवन-प्रवेश और आध्यात्मिक कद प्राप्त होगा; वह आगे अज्ञानी बच्चा नहीं रहेगा। जब किसी व्यक्ति के पास आध्यात्मिक कद होता है तो वह चीजों को समझने में अधिक से अधिक सक्षम होगा, तमाम तरह के लोगों में अधिक से अधिक भेद कर सकेगा, और किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज के आगे बेबस नहीं होगा। कोई कुछ भी कहे या करे, वह प्रभावित नहीं होगा। वह शैतान की बुरी शक्तियों के दखल या झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के गुमराह करने और बाधाएँ डालने से प्रभावित नहीं होगा। यदि ऐसा होता है तो क्या धीरे-धीरे उस व्यक्ति का आध्यात्मिक कद बढ़ता नहीं जाएगा? जितना ही व्यक्ति सत्य को समझेगा, उसके जीवन में उतनी ही प्रगति होगी, और उसके लिए अपना कर्तव्य सफलतापूर्वक करना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना आसान हो जाएगा। जब तुम जीवन प्रवेश कर लोगे और तुम्हारे जीवन में धीरे-धीरे प्रगति होने लगेगी तो तुम्हारी दशा ज्यादा से ज्यादा सामान्य होने लगेगी। जो लोग, घटनाएँ और चीजें कभी तुम्हें बाधित और बेबस करती थीं, वे तुम्हारे लिए समस्या नहीं रहेंगी। अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें कोई समस्या नहीं आएगी, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध अधिक से अधिक सामान्य होता जाएगा। जब तुम यह जान जाओगे कि परमेश्वर पर कैसे भरोसा करना है, जब तुम यह जान लोगे कि परमेश्वर के इरादे कैसे खोजने हैं, जब तुम जान जाओगे कि मेरा स्थान क्या है, जब तुम जान जाओगे कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना है, कौन-से मामलों की जिम्मेदारी लेने की जरूरत है और कौन-से मामलों की नहीं, तो क्या तुम्हारी दशा ज्यादा से ज्यादा सामान्य नहीं होती जाएगी? इस तरह जीवन जीना तुम्हें थकाएगा नहीं, क्या थकाएगा? थकना तो दूर रहा, तुम खासतौर पर अधिक चैन और खुशी महसूस करोगे। तब क्या इसके नतीजे में तुम्हारा दिल रोशनी से नहीं भर जाएगा? तुम्हारी मानसिकता सामान्य हो जाएगी, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे घट जाएँगे, और तुम परमेश्वर की उपस्थिति में रहकर सामान्य मानवता के साथ जी सकोगे। जब लोग तुम्हारा मानसिक दृष्टिकोण देखेंगे तो पाएँगे कि तुममें बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। वे तुम्हारे साथ संगति करने को तैयार रहेंगे, अपने दिल में शांति और आनंद महसूस करेंगे, और लाभान्वित भी होंगे। जैसे-जैसे तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, तुम्हारी कथनी-करनी और अधिक उचित और सिद्धांत सम्मत होती जाएगी। जब तुम कमजोर और नकारात्मक लोगों को देखोगे तो उनकी ठोस मदद कर पाओगे—उन्हें बेबस नहीं करोगे या भाषण नहीं सुनाओगे, बल्कि अपने वास्तविक अनुभवों के सहारे मदद कर उन्हें लाभान्वित करोगे। इस तरह तुम परमेश्वर के घर में सिर्फ परिश्रम नहीं कर रहे होगे, बल्कि तुम ऐसे उपयोगी व्यक्ति भी बन जाओगे जो अपने कंधों पर जिम्मेदारी लेने और परमेश्वर के घर में बहुत सार्थक कार्य करने में सक्षम है। क्या परमेश्वर ऐसे ही व्यक्ति को नहीं चाहता? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे परमेश्वर चाहता है तो क्या सब लोग भी तुम्हें नहीं चाहेंगे? (बिल्कुल चाहेंगे।) परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति से क्यों प्रसन्न होता है? क्योंकि ऐसे व्यक्ति उसके सामने व्यावहारिक कार्य करने में सक्षम होते हैं, चापलूसी में नहीं फँसते, व्यावहारिक कार्य करते हैं, और अपने सच्चे अनुभवों के बारे में बताकर दूसरे लोगों की मदद और अगुआई कर सकते हैं। वे कोई भी समस्या हल करने में दूसरों की मदद करने में सक्षम होते हैं, और जब कलीसिया के कार्य में परेशानियाँ आती हैं तो वे सक्रिय रूप से समस्या सुलझाकर आगे का रास्ता दिखा सकते हैं। इसे ही निष्ठापूर्वक कर्तव्य निभाना कहते हैं। वे अपने भाई-बहनों की समस्या हल करने में मदद करते हैं, जो उनके जीवन-प्रवेश को साबित करता है। वे इतने ज्यादा व्यावहारिक कार्य कर सकते हैं, इससे साबित होता है कि वे सत्य का अभ्यास करते हैं और परमेश्वर की उपस्थिति में रहते हैं। चूँकि उनके पास सत्य वास्तविकता होती है, इसलिए वे दूसरों को भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की राह दिखा पाते हैं। यदि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता या सच्चे अनुभव न हों तो क्या तुम दूसरों को परमेश्वर की उपस्थिति में ला सकते हो? यदि तुम खुद परमेश्वर की उपस्थिति में नहीं रहते तो दूसरों को भी उसकी उपस्थिति में नहीं ला सकते। यदि तुम सत्य सिद्धांतों की बिल्कुल भी खोज किए बिना अपना कर्तव्य निभाने भर के लिए परिश्रम करते हो और परमेश्वर को संतुष्ट करने के इच्छुक नहीं हो तो फिर तुम परमेश्वर की उपस्थिति में नहीं रह रहे हो। जो परमेश्वर की उपस्थिति में नहीं रहते, क्या वे उसकी जाँच-पड़ताल को स्वीकार कर पाते हैं? क्या वे परमेश्वर की परीक्षा का सामना कर पाते हैं? क्या वे परीक्षणों के बीच दृढ़ता से खड़े रह पाते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं कर पाते।) क्या इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर के लिए गवाही दे सकता है? क्या ऐसे लोग उसकी गवाही दे सकते हैं? (नहीं, वे नहीं दे सकते।) किस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर की गवाही नहीं दे पाता? क्या ये ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखते हैं? कम-से-कम अभी तक तो उन्होंने परमेश्वर के वचनों की सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, और वे अभी परमेश्वर के वचनों के बाहर ही हैं। जो जीवन-प्रवेश किए बिना कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करता रहा हो, जो परमेश्वर की गवाही देना तो दूर रहा, अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में भी न बता सके, जो किसी को सफलतापूर्वक सुसमाचार न सुना सके—वह परमेश्वर का गवाह कहलाने लायक नहीं है। लिहाजा जिसका आध्यात्मिक कद अपरिपक्व है और जीवन-प्रवेश नहीं हुआ है, वह परमेश्वर की गवाही कभी नहीं दे सकता। यहाँ निहितार्थ यह है कि इस किस्म का व्यक्ति परमेश्वर की उपस्थिति में नहीं जीता। अगर तुम परमेश्वर की उपस्थिति में नहीं जीते हो, तुमने जीवन-प्रवेश नहीं किया है, परमेश्वर की गवाही नहीं दी है, तो क्या वह तुम्हें अपने अनुयायियों में से एक के रूप में स्वीकार करेगा? नहीं करेगा। परमेश्वर ने तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने का अवसर दिया है, और तुम इसके लिए तैयार भी हो, लेकिन तुम्हारा व्यवहार देखकर वह जान चुका है कि इतने लंबे समय तक उस पर विश्वास करने के बावजूद तुम उसकी गवाही नहीं दे सकते हो। तुम्हारे पास सच्चा अनुभवजन्य ज्ञान नहीं है, यही नहीं तुम अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीते हो, तुममें सत्य वास्तविकता नहीं है, और तुम परमेश्वर की उपस्थिति में नहीं रहते। अगर वह तुम्हारा परीक्षण करता है तो तुम इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते; अगर वह तुम्हारी काट-छाँट करता है तो तुम इसे सह नहीं पाते; अगर वह तुम्हारा न्याय करता है और तुम्हें ताड़ना देता है, तो तुम अपनी जिम्मेदारियाँ छोड़कर मनःस्थिति बिगाड़ बैठते हो, और ऐसे में वह यही सोचेगा : “यह व्यक्ति तो बाघ जैसा है जिसे छूने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता! मैं जहाँ कहीं अपना कार्य करने या बोलने जाता हूँ, ऐसा व्यक्ति मेरा अनुसरण करने और मेरे साथ रहने लायक नहीं है।” वह ऐसा क्यों कहेगा? क्योंकि ऐसा व्यक्ति सत्य को नहीं समझता, उसके पास शुद्ध समझ नहीं है, उसके पास सच्चे अनुभव नहीं हैं, और वह परमेश्वर के इरादों को भी नहीं समझता। अगर वह परमेश्वर के इरादों को नहीं समझता, तो क्या वह उसके अनुरूप हो सकता है? अगर वह परमेश्वर के इरादों को नहीं समझता तो क्या वह इन्हें बूझ सकता है? क्या वह सत्य को स्वीकार सकता है? कहना मुश्किल है, और ये सभी अज्ञात राशियाँ हैं। लिहाजा अगर ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के साथ हो तो वह हर बात में उसे लेकर शंकाएँ पालेगा और उसे समझ नहीं पाएगा, जिससे परमेश्वर के प्रति हर मोड़ पर तमाम तरह की गलतफहमियाँ, शिकायतें और आलोचनाएँ पनपेंगी। अंत में यह विश्वासघात को जन्म देगा। क्या परमेश्वर किसी ऐसे व्यक्ति को चाहेगा जो उससे विश्वासघात करे? क्या परमेश्वर उसे अपना अनुयायी बनने दे सकता है? नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकता। अगर तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हें अपने अनुयायियों में एक के रूप में स्वीकारे, तो पहले अपने जीवन-प्रवेश पर ध्यान देना होगा। इसकी शुरुआत खुद को समझने, अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ने लायक बनने, अपने कर्तव्य पर टिके रहने की क्षमता हासिल करने और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने से करनी होगी—यही सर्वोपरि है। जीवन-प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करने का उद्देश्य अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना है, यही इसका मूल अर्थ है। तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने से जीवन-प्रवेश का अनुसरण शुरू कर देना चाहिए, और जीवन-प्रवेश से तब तक बूंद-दर-बूंद सत्य को समझना और पाना चाहिए, जब तक कि तुम एक ऐसे मुकाम पर नहीं पहुँच जाते जहाँ तुम्हारा आध्यात्मिक कद हो, जहाँ तुम्हारा जीवन धीरे-धीरे बढ़ता रहे और तुम्हारे पास सत्य के सच्चे अनुभव हों। फिर तुम्हें अभ्यास के सभी प्रकार के सिद्धांत साध लेने चाहिए ताकि तुम किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज से बेबस या बाधित हुए बिना अपना कर्तव्य निभा सको। इस तरह तुम हौले-हौले परमेश्वर की उपस्थिति में रहने लगोगे। तुम किसी भी तरह के व्यक्ति, घटना या वस्तु से परेशान नहीं होओगे, और तुम्हें सत्य का अनुभव होगा। जैसे-जैसे तुम्हारा अनुभव भरपूर होता जाएगा, तुम परमेश्वर की गवाही देने में अधिक सक्षम होते जाओगे, और जैसे-जैसे तुम परमेश्वर की गवाही देने में अधिक सक्षम होओगे, तुम धीरे-धीरे उपयोगी व्यक्ति बनते जाओगे। उपयोगी व्यक्ति बनने पर तुम परमेश्वर के घर में मान्य मापदंड के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सकोगे, तुम एक सृजित प्राणी की जगह खड़े होने और परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण करने में सक्षम रहोगे, और तुम दृढ़ता से खड़े रह सकोगे। जो व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति पाता है, सिर्फ वही मान्य सृजित प्राणी होता है। तभी तुम उस सब के योग्य बनोगे जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है।

सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की कुंजी क्या है? तुम्हें सत्य का अभ्यास करने और सैद्धांतिक ढंग से मामलों को संभालने के तरीके सीखने होंगे। हमेशा कसमें खाते रहने और अपनी इच्छा जताने का फायदा क्या है? यदि तुम हमेशा कसमें खाकर अपनी इच्छा व्यक्त करते रहते हो, फिर भी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते, तो यह बिल्कुल फिजूल है। सबसे अहम और सबसे असल चीज यह है कि तुम अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में जीवन-प्रवेश प्राप्त करो, सत्य खोजते हुए उन तमाम समस्याओं को हल करो जो कर्तव्य निभाने की राह में सामने आती हों, और अपने कर्तव्य के प्रति अपने गलत रवैयों को उलट दो। जीवन-प्रवेश करने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है, तुम्हें सत्य का अनुभव और ज्ञान हो चुका है, और तुम इसका सटीक अभ्यास कर पा रहे हो। क्या तुम सब लोगों ने अभी जीवन-प्रवेश कर लिया है? क्या तुम परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम हो? क्या तुम अब भी अधिकांश समय धर्म-सिद्धांत पर ही चिपके तो नहीं रहते? क्या तुम वास्तव में सत्य का ज्ञान या अनुभव लिए बिना धर्म-सिद्धांत पर ही तो नहीं अटके हो? यदि तुम सत्य का सच्चा अनुभव और ज्ञान हासिल नहीं कर सकते तो परमेश्वर की गवाही भी नहीं दे सकते। अधिकांश समय तुम्हारा ज्ञान अवधारणात्मक होता है। तुम दोहरे भ्रम में हो, सोचते हो कि यह और वह, दोनों चीजें सही हैं; जब परमेश्वर कुछ कहता है तो तुम्हें लगता है कि मानो वह तुम्हारे लिए सत्य है, और जब वह कुछ और कहता है तो वह भी सत्य होता है। तुम्हें लगता है, मानो परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और तुम सबके लिए आमीन कहते हुए उनकी प्रशंसा करते हो लेकिन तुलना करने के लिए तुम स्वयं को खड़ा नहीं कर पाते। जब तुम कुछ करते हो तब भी भ्रमित रहते हो और यह नहीं जानते कि अपनी समस्याएँ हल करने के लिए किन सत्यों का उपयोग करना है। क्या तुम लोगों में से ज्यादातर इसी स्थिति में नहीं हैं? यद्यपि तुम धर्म-सिद्धांत काफी समझते हो और इसका बहुत बखान भी कर सकते हो लेकिन तुम इसका उपयोग अपने वास्तविक जीवन में नहीं कर सकते हो। तुम अब भी नहीं जानते कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है, न ही यह जानते हो कि अपने वास्तविक जीवन में परमेश्वर के वचनों को कैसे लागू करना है, और तुम पर चाहे जो कुछ बीतती हो, तुम अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजना नहीं जानते हो। इसका कारण यह है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। जब तुम यह जान जाते हो कि तुम लोग अपने वास्तविक जीवन में परमेश्वर के वचनों का अनुभव, अभ्यास और उन पर अमल कैसे करो, और यह भी कि अपने पर कुछ बीतने पर समस्याएँ हल करने के लिए सत्य कैसे तलाशें, तो तुम लोगों के जीवन में विकास होगा। सत्य के अभ्यास के तरीके को जानना यह संकेत है कि तुम्हारे जीवन का विकास हो रहा है। एक दिन जब तुम सत्य के सहारे समस्याएँ हल करने लगोगे, जब तुम्हें परमेश्वर का कुछ ज्ञान हो जाएगा, जब तुम परमेश्वर के बारे में अपना सच्चा ज्ञान साझा करके उसके कार्यों, उसके पवित्र और धार्मिक स्वभाव, और उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि की गवाही दे सकोगे, तब तुम सचमुच परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम होगे और तुम परमेश्वर के काम आने योग्य हो जाओगे। अगर तुम बहुत कुछ समझते हो और दिन-दिन भर धर्म-सिद्धांत का बखान कर सकते हो, लेकिन अपनी समस्या से जुड़ी कोई चीज हल नहीं कर सकते या उन्हें हल करना नहीं जानते, तो इससे साबित होता है कि तुम जिन चीजों को समझते हो वे सत्य नहीं हैं, बल्कि वे सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत हैं। भले ही तुम किसी धर्म-सिद्धांत के बारे में बहुत व्यावहारिक ढंग से बोल सकते हो, हकीकत में यह केवल अवधारणात्मक ज्ञान होता है जिसे अभी तार्किकता हासिल नहीं हुई है। भले ही तुम्हें सुनकर लोग कुछ सीख लें, तुम्हारे जैसी भावनाएँ महसूस करने लगें, और तुम्हारा ज्ञान उन पर कुछ असर छोड़ने में भी कामयाब रहे, लेकिन तुम इस पर न तो बहुत स्पष्टता से कुछ कह सकोगे, न ही तुम पूरी तरह समस्याएँ ही हल कर सकोगे। यह साबित करता है कि तुमने जिन धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात की है, वे महज अवधारणात्मक ज्ञान हैं। तुम यह भी नहीं कह सकते कि वे सत्य वास्तविकता हैं, खुद तुम्हारे सत्य वास्तविकता में प्रवेश की तो बात ही दूर है। तो अब तुम शब्द और धर्म-सिद्धांत के बारे में बोलने की समस्या का समाधान कैसे करोगे? इसके लिए यह जरूरी है कि अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम तमाम तरह की जो भ्रष्टता प्रकट करते हो, उसके बारे में आत्मचिंतन करो, तुम्हारे सामने जो भी समस्या आती है उसके मूल आधारों पर आत्मचिंतन करो, और फिर सत्य खोजकर और परमेश्वर के वचनों का उपयोग कर अपने प्रकट हुए भ्रष्ट स्वभाव का संपूर्ण समाधान करो। तुम्हारे भीतर जो प्रकट होता है, वह चाहे अहंकार और आत्मतुष्टता हो या कुटिलता और धोखेबाजी, स्वार्थ और नीचता हो या अनमनापन और परमेश्वर से झूठ बोलना, तुम्हें इन भ्रष्ट स्वभावों पर तब तक आत्मचिंतन करना होगा जब तक कि तुम उन्हें साफ-साफ समझ न लो। इस तरह तुम जान लोगे कि अपना कर्तव्य निभाते समय तुममें कौन-सी समस्याएँ मौजूद हैं और तुम उद्धार पाने से कितनी दूर हो। जब तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव अच्छी तरह देख लोगे, केवल तभी यह जान पाओगे कि अपना कर्तव्य निभाने में परेशानियाँ और बाधाएँ कहाँ हैं। तभी तुम समस्याओं को उनकी जड़ पर हल कर पाओगे। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम अपना कर्तव्य निभाने में जिम्मेदारी लेने के बजाय हमेशा लापरवाही से काम करते हो, जिससे काम में नुकसान होता है, लेकिन तुम सिर्फ अपनी इज्जत की चिंता करते हो, तो अपनी स्थिति और कठिनाइयों के बारे में खुलकर संगति करने या गहन आत्म-विश्लेषण और आत्म-ज्ञान का अभ्यास करने के बजाय हमेशा अनमने ढंग से चीजों से निपटने के बहाने ढूँढ़ते रहते हो। तुम्हें यह समस्या कैसे हल करनी चाहिए? तुम्हें आत्मचिंतन करते हुए परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर, यदि मैं ऐसा बोलता हूँ तो यह सिर्फ इज्जत बचाने के लिए है। यह मेरा भ्रष्ट स्वभाव बोल रहा है। मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए। मुझे खुद को खुलकर उघाड़ना चाहिए, और अपने दिल के सच्चे उद्गार प्रकट करने चाहिए। मैं अपने मिथ्या अभिमान को बचाने के बजाय शर्म और बदनामी सहने को तैयार हूँ। मैं सिर्फ परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता हूँ।” इस तरह अपने खिलाफ विद्रोह करके और अपने दिल के सच्चे उद्गार व्यक्त कर तुम ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास कर रहे हो, और यही नहीं, तुम न तो अपनी इच्छा के अनुसार चल रहे हो, न शर्म से बचने की कोशिश कर रहे हो। तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने, परमेश्वर के इरादों के अनुसार सत्य का अभ्यास करने, मन लगाकर अपना कर्तव्य पूरे करने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में सक्षम हो। इस तरीके से तुम सत्य का अभ्यास करते हुए अपना कर्तव्य तो बखूबी निभा ही रहे हो, परमेश्वर के घर के हितों को भी सर्वोपरि रख रहे हो, और इससे परमेश्वर के दिल को भी संतोष मिलता है। यह जीने का एक न्यायसंगत और सम्मानजनक तरीका है जो परमेश्वर और मनुष्यों, दोनों के सामने रखने लायक है। यह कितना शानदार है! इस प्रकार का अभ्यास थोड़ा कठिन जरूर है लेकिन यदि तुम्हारे प्रयास और अभ्यास इसी दिशा में हैं तो एक-दो बार असफल होने के बावजूद तुम्हारे हाथ सफलता जरूरी लगेगी। और सफलता का तुम्हारे लिए क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, तो तुम वह कदम उठाने में सक्षम हो जाते हो जो तुम्हें शैतान के बंधनों से मुक्त करता है, एक ऐसा कदम जो तुम्हें अपने खिलाफ विद्रोह करने देता है। इसका अर्थ है कि तुम अपने मिथ्या अभिमान और प्रतिष्ठा को दरकिनार कर अपने हितों को तिलांजलि देने और स्वार्थी और नीचतापूर्ण चीजें न करने में सक्षम हो। जब तुम ऐसा करते हो, तो तुम लोगों को यह दिखाते हो कि तुम ऐसे व्यक्ति हो, जो सत्य से प्रेम करता है, जो सत्य की कामना करता है, जो न्याय और प्रकाश की कामना करता है। यह वह नतीजा है जो तुम सत्य का अभ्यास कर हासिल करते हो। साथ ही, तुम शैतान को शर्मिंदा भी करते हो। शैतान ने तुम्हें भ्रष्ट किया, तुम्हें अपने लिए जीना सिखाया, तुम्हें स्वार्थी और सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा के बारे में सोचने वाला बनाया। लेकिन अब ये शैतानी चीजें तुम्हें और नहीं बाँध सकतीं, तुम उनके बंधनों से छूट चुके हो, तुम अब मिथ्या अभिमान, प्रतिष्ठा या अपने निजी हितों से नियंत्रित नहीं हो, और तुम सत्य का अभ्यास करते हो, और इसलिए शैतान अपमानित होता है, और वह कुछ नहीं कर सकता है। उस स्थिति में क्या तुम विजयी नहीं हो जाते? जब तुम विजयी हो जाते हो तो क्या तुम परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में दृढ़ता से खड़े नहीं होते? क्या तुम एक अच्छी लड़ाई नहीं लड़ते? जब तुम एक अच्छी लड़ाई लड़ते हो, तो तुम्हारे मन में शांति, आनंद और राहत की भावना होती है। अगर अपने जीवन में तुम अक्सर दोषारोपण करने की भावना रखते हो, अगर तुम्हारे हृदय को सुकून नहीं मिलता, अगर तुम शांति या आनंद से रहित हो, और अक्सर सभी प्रकार की चीजों के बारे में चिंता और घबराहट से घिरे रहते हो, तो यह क्या प्रदर्शित करता है? केवल यह कि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते, परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रहते। जब तुम शैतान के स्वभाव के बीच जीते हो, तो तुम्हारे अक्सर सत्य का अभ्यास करने में विफल होने, सत्य से विश्वासघात करने, स्वार्थी और नीच होने की संभावना है; तुम केवल अपनी छवि, अपना नाम और हैसियत, और अपने हित कायम रखते हो। हमेशा अपने लिए जीना तुम्हें बहुत दर्द देता है। तुम इतनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, उलझावों, बेड़ियों, गलतफहमियों और झंझटों में जकड़े हुए हो कि तुम्हें लेशमात्र भी शांति या आनंद नहीं मिलता। भ्रष्ट देह के लिए जीने का मतलब है अत्यधिक कष्ट उठाना। सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अलग होते हैं। वे सत्य को जितना अधिक समझते हैं, उतने ही अधिक स्वतंत्र और मुक्त होते जाते हैं; वे सत्य का जितना अधिक अभ्यास करते हैं, उतने ही अधिक शांति और आनंद से भर उठते हैं। जब वे सत्य को हासिल कर लेंगे तो पूरी तरह प्रकाश में रहेंगे, परमेश्वर के आशीष का आनंद लेंगे, और उन्हें कोई कष्ट नहीं होगा।

अभी तुम सब लोग आम तौर पर किस स्थिति में जी रहे हो? अधिकांश समय सकारात्मक स्थिति में रहते हो या नकारात्मक स्थिति में? (हम अधिकांश समय नकारात्मक स्थिति में रहते हैं।) हमेशा नकारात्मक स्थिति में रहने वाले किसी व्यक्ति के लिए अपनी जिम्मेदारियों को छोड़े बिना अपने कर्तव्य निभाने में जुटे रहना कोई साधारण बात नहीं है! तुम सभी लोग अक्सर निष्क्रिय रहते हो और इसका हल नहीं जानते हो। कभी-कभी तुम्हें अपनी निष्क्रिय स्थितियों के हल के लिए अत्यधिक प्रयास करने पड़ते हैं, और जब तुम्हारे मुताबिक बात नहीं बनती तो तुम फिर से निष्क्रिय हो जाते हो। तुम हमेशा अपनी निष्क्रियता में ही लोटते रहते हो, चाह कर भी खड़े नहीं हो पाते हो; कोई भी कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकते, और तुम इतने अक्षम होते हो कि तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता है। क्या इस तरह जीना थकाऊ नहीं है? (बिल्कुल है।) तो फिर तुम निष्क्रियता की समस्या से पूरी तरह कैसे निपटते हो? तुम्हें कुछ-कुछ सत्य को पूरी तरह समझना होगा। तुम जितना भी धर्म-सिद्धांत बघारो, उससे तुम्हारी समस्या हल नहीं होने वाली। जब एक बार कोई व्यक्ति सचमुच सत्य समझ लेता है, अपने सामने आने वाली निष्क्रियता या किसी भी समस्या को हल करने में सक्षम हो जाता है तो फिर उसके लिए अपना कर्तव्य निभाना उतना थकाऊ नहीं रहता। केवल सत्य हासिल करके ही कोई स्वतंत्र और मुक्त हो सकता है। इस समय तुम सब लोगों में एक ही सबसे बड़ी कमी सत्य की है, लेकिन सत्य रातो-रात हासिल नहीं हो जाता। इसके लिए तुम्हें परमेश्वर के कार्य का सच्चा ज्ञान होना चाहिए और लोगों के भ्रष्ट स्वभाव को साफ-साफ देखने लायक होना चाहिए। इसमें समय लगता है, और इसे समझने के लिए तुम्हें सत्य खोजना होगा। तुम सब लोगों को भ्रष्ट स्वभाव के साथ जीने की पीड़ा का एहसास है और तुम्हें इसकी गहरी समझ भी है। जब तुम सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों का पालन करने में सक्षम होकर सत्य को समझ लेते हो तो उससे जो शांति और खुशी मिलती है, क्या तुम लोगों ने उसे अनुभव किया है? क्या तुम्हारे पास ऐसे कई अनुभव हैं? अगर वास्तव में ऐसे अनुभव भरपूर मात्रा में हैं तो इसका मतलब है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता पूरी तरह है। तुम्हें रोशनी में और परमेश्वर की उपस्थिति में रहने का एहसास होगा। अगर तुम कभी-कभी परमेश्वर के प्रबोधन का थोड़ा-सा भी आनंद पा लेते हो तो तुम्हें बहुत खुशी होगी। यदि तुम लोगों पर भरोसा करने के बजाय कभी-कभी परमेश्वर पर भरोसा करते हो और परमेश्वर तुम्हें थोड़ा-सी भी रोशनी देता है, तुम्हें आगे का वह रास्ता दिखाता है जिसके बारे में तुमने सोचा भी नहीं था, और मामले का निपटान हो जाता है, तो तुम्हें बहुत खुशी होगी। बार-बार ये छोटे-छोटे अनुभव होना काफी नहीं है; तुम्हें अब भी सत्य की दिशा में जुटे रहना होगा। एक ओर तुम लोगों को दर्शनों के सत्य को समझना होगा, परमेश्वर के कार्य की पूर्ण रूप से स्पष्ट समझ हासिल करनी होगी, और परमेश्वर के स्वभाव का सच्चा ज्ञान लेना होगा। इस तरह अपना कर्तव्य निभाने के दौरान जब तुम्हारा दोबारा समस्याओं से सामना होगा तो कम से कम न तो धारणाएँ पनपेंगी, न ही विद्रोह का भाव उत्पन्न होगा। यह चीजों का एक पहलू रहा। इसके अतिरिक्त तुम्हें जीवन-प्रवेश की दिशा में प्रयास करने होंगे। उन सत्यों को संक्षेप में पेश करना होगा, जिनका अभ्यास और जिनमें प्रवेश करना है, जैसे स्वयं को जानना, ईमानदार व्यक्ति बनना, परमेश्वर के प्रति समर्पण सीखना, परमेश्वर पर कैसे भरोसा करना है, अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक कैसे निभाना है, तमाम तरह के लोगों में भेद करना कैसे सीखना है, शैतान के साथ कैसा सलूक करना है, तुम्हारी बुद्धि कैसी होनी चाहिए, आदि-आदि। सत्य के इन विभिन्न पहलुओं का अनुभव और इनमें प्रवेश करके ही तुम परमेश्वर का भय मानोगे और बुराई से दूर रहोगे, और पूर्ण व्यक्ति बनोगे। तो सत्य वास्तविकता के कितने पहलुओं में तुम लोगों ने अभी तक प्रवेश किया है? सत्य वास्तविकता के किन पहलुओं में तुमने अभी तक प्रवेश नहीं किया है? तुम्हें अपने मन में इसका हिसाब रखना होगा। जब तुम अभ्यास से संबंधित कई पहलुओं में प्रवेश कर लोगे तो तुम्हारा जीवन पहले ही प्रगति कर चुका होगा, और तुममें सचमुच आध्यात्मिक कद होगा। जब तुम लोगों का आध्यात्मिक कद किसी निश्चित स्तर तक बढ़ जाएगा तब तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग में प्रवेश कर सकोगे, और तुम्हें सच्चा आध्यात्मिक कद हासिल होगा। यह ऐसा मामला नहीं है जिसमें हड़बड़ी की जाए—एक ही कौर में हाथी को नहीं निगला जा सकता। अभी तुम्हारी ऐसी कौन-सी चीज है जिसे हल करना सबसे आवश्यक और महत्वपूर्ण है? वह यही है कि तुम्हें अपना कर्तव्य ठीक से निभाना है, और कर्तव्य निभाते हुए जीवन-प्रवेश करना है। यही महत्वपूर्ण है। प्रयास बढ़ाने भर से बात नहीं बनेगी—तुम्हें इसमें अपना दिल भी झोंकना होगा। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि एक सृजित प्राणी के रूप में कर्तव्य निभाते हुए तुम अपना श्रम बेचो, बल्कि वह यह चाहता है कि तुम उसे अपनी ईमानदारी अर्पित करो। अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम्हें जीवन-प्रवेश करना ही चाहिए। जब तुम जीवन-प्रवेश कर लोगे, तभी तुम्हारे पास जीवन होगा, जब तुम्हारे पास जीवन होगा, तभी तुम बढ़ सकते हो, और जिनके पास जीवन होता है, सिर्फ उन्हीं के पास सत्य होता है।

10 अगस्त 2015

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