सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, मामलों और चीज़ों से सीखना चाहिए

इस समय, जो लोग पूरे दिल से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे अपने कर्तव्य कर्मठता से निभाने पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैं और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहते हैं। लेकिन चूँकि सभी का स्वभाव भ्रष्ट है, और उनमें से प्रत्येक की अपनी-अपनी कठिनाइयाँ और कमियाँ हैं, इसलिए उनके लिए अपना कर्तव्य समुचित रूप से निभाना मुश्किल है—इसके लिए उन्हें सत्य का अनुसरण और कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता होगी। जब कठिनाइयाँ आती हैं, तो अपनी समस्याएँ संयुक्त रूप से हल करने के लिए सभी को मिलकर प्रार्थना करनी चाहिए और सत्य खोजना चाहिए। यह हर व्यक्ति की जिम्मेदारी और कर्तव्य है। सभी की जिम्मेदारी और दायित्व है कि वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाएँ। यह विशेष रूप से किसी एक व्यक्ति की जिम्मेदारी नहीं है; बल्कि, यह सभी की संयुक्त जिम्मेदारी है। इसलिए, सभी को मिलकर कड़ी मेहनत करनी चाहिए और सामंजस्यपूर्वक सहयोग करना सीखना चाहिए। सत्य से लैस होने के अलावा सभी को पेशेवर ज्ञान से लैस होना चाहिए, वे काम करने चाहिए जिन्हें वे अच्छी तरह कर सकते हैं, कुछ व्यावहारिक चीजें सीखनी चाहिए, एक-दूसरे से सीखना चाहिए और एक-दूसरे की मदद करके अपनी कमजोरियाँ दूर करनी चाहिए। ऐसा करने से उन्हें अपने कर्तव्यों में बेहतर से बेहतर परिणाम मिलेंगे।

तुम लोग ऐसा क्यों सोचते हो कि अविश्वासियों के लिए कुछ भी करना बहुत कठिन है, और उनकी बाधाएँ इतनी बड़ी क्यों हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोगों की शैतानी प्रकृति होती है; वे सभी भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं, दिखावा करना चाहते हैं, अपनी चलाना चाहते हैं, और उनके पास सामंजस्यपूर्वक सहयोग करने का कोई तरीका नहीं होता। इस तरह, उनके लिए कुछ भी सफलतापूर्वक करना बहुत कठिन होता है। कोई काम करते हुए आधे रास्ते में ही उनमें फूट पड़ जाती है और वे अलग हो जाते हैं। अच्छी मानवता वाले लोग थोड़ा और आगे जा पाते हैं। देर-सवेर, जिनके पास सत्य नहीं है, वे ठोकर खाएँगे। अगर तुम लोग यह बिंदु स्पष्ट रूप से देख पाओ, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर उसके प्रति समर्पित होना सीखना चाहिए, और दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्वक सहयोग करना चाहिए। लोग सामंजस्यपूर्वक सहयोग क्यों नहीं करते? (क्योंकि लोग अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि वे सही हैं, और वे दूसरों के सुझाव स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते।) अहंकार और आत्मतुष्टि दोनों एक भ्रष्ट स्वभाव के अंग हैं। क्या यह समस्या हल करना आसान है? क्या कोई इसे हल कर सकता है? अविश्वासी इस तरह की समस्या हल करने में बिल्कुल असमर्थ होते हैं। क्यों? क्योंकि वे सत्य नहीं स्वीकारते। वे शैतानी फलसफों, अपनी मर्जी, चालों, षड़यंत्रों, छल-कपट और अपने शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं। वे सत्य नहीं स्वीकारते, उसे अमल में लाना तो दूर की बात है, न ही वे खुद को जानना, अहं त्यागना या सत्य के प्रति समर्पित होना चाहते हैं। वे इन सकारात्मक मामलों और सही मार्गों के बारे में बिल्कुल भी कुछ नहीं कहते। वे कभी नहीं स्वीकारते कि परमेश्वर सत्य है और कभी उसमें विश्वास नहीं करते, इसलिए चाहे वे कोई भी करिअर अपना लें, उसमें और अपने हर काम में वे हमेशा असफल होते हैं और खुद पर तबाही लाते हैं। परमेश्वर के घर में बात अलग है। परमेश्वर के घर में परमेश्वर ही शासन करता है; उसके वचन और सत्य ही हैं जो शासन करते हैं। रोजाना परमेश्वर के चुने हुए लोग उसके वचन खाते-पीते हैं और सत्य के बारे में संगति करते हैं। उनके हृदय अधिकाधिक प्रकाश से भर जाते हैं और वे सत्य की दिशा में प्रयास करने और उसे प्राप्त करने के लिए तैयार रहते हैं। एक-साथ काम करने में भाई-बहन अविश्वासियों की तुलना में अधिक प्रभावी क्यों रहते हैं? कम से कम, उनके पास एक नींव होती है : वे सभी ऐसे लोग होते हैं जो पूरे दिल से परमेश्वर में विश्वास करते हैं और परमेश्वर के घर में वे अपने कर्तव्य निभाते हुए अपनी सोच और प्रयासों में एकीकृत होते हैं। इसके अतिरिक्त, उनके पास एक साझा विश्वास, साझे लक्ष्य होते हैं और उनकी आत्माएँ आपस में जुड़ी होती हैं। चाहे वे उत्तरी, दक्षिणी या केंद्रीय मैदानों से हों, भले ही उनकी बोलियाँ अलग-अलग हों, फिर भी जब वे विश्वास के बारे में संगति और अपने अनुभवों पर चर्चा करते हैं, तो जल्दी से एक-दूसरे से परिचित हो जाते हैं, मानो वे एक-दूसरे को लंबे समय से जानते हों। उन्हें ऐसा लगता है कि वे एक ही परिवार के सदस्य हैं। और तो और, जो लोग मामले व्यावहारिक रूप से नहीं सँभालते, जो हमेशा साजिश रचते और धोखा देते हैं, जो चालाकी करते हैं, जो हमेशा अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं, जो अपनी इच्छा पर चलते हैं, और जो सत्य का जरा-सा भी अंश नहीं स्वीकारते, परमेश्वर के घर में दृढ़ नहीं रह सकते, उन्हें स्वाभाविक रूप से बाहर निकालकर हटा दिया जाता है, क्योंकि परमेश्वर के घर में सत्य शासन करता है। यह सब दिखाई देता है और पहले ही सच साबित हो चुका है। चाहे तुम्हारी उम्र, लिंग, यहाँ तक कि तुम्हारे कौशल का स्तर कुछ भी हो, अगर तुम कहते हो, “मैं अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र को समझता हूँ, इसलिए मैं जो कहता हूँ वह सही है। मैं तुम लोगों की बात नहीं सुनूँगा!” तो सबका तुम्हारे बारे में क्या दृष्टिकोण होगा? क्या वे ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा करेंगे? (नहीं, वे नहीं करेंगे।) क्या इस तरह का व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता और अडिग रह सकता है? (नहीं, वह नहीं रह सकता।) उसे बाहर निकालना आसान है। कुछ लोग बोलने में अच्छे होते हैं और उनकी वाणी सुनने में विशेष रूप से सुखद होती है, लेकिन वे कुछ भी व्यावहारिक नहीं करते। पहले तो लोगों की उनके प्रति अच्छी भावना होगी, लेकिन बाद में क्या होगा? सभी उनके बारे में सत्य देख लेंगे और कहेंगे, “यह व्यक्ति ऊपर से तो अच्छा बोलता है, लेकिन व्यावहारिक कुछ नहीं करता। उस पर एक नजर डालते ही तुम कह सकते हो कि वह सत्य से प्रेम नहीं करता। वह ढोंग करने और खुद को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करने पर ध्यान केंद्रित करता है। उसने कभी सत्य के बारे में संगति नहीं की, न ही आत्मचिंतन किया है। वह अविश्वासियों के ही समान है, वह गैर-विश्वासी है।” यह देखने के बाद लोग यह सोचकर उससे उकताने लगेंगे कि उसके साथ बोलना या काम करना रचनात्मक या उपयोगी नहीं होगा। इस तरह का व्यक्ति दूसरों को दुखी महसूस कराता है और उनकी आत्माएँ मुक्त नहीं होतीं, और वे धीरे-धीरे इस व्यक्ति से खुद को दूर करने लगेंगे। जब व्यक्ति देखता है कि उसे दूसरों ने त्याग दिया है और वह पूरी तरह से अलग-थलग हो गया है, तो वह आत्मचिंतन करना शुरू कर देगा। सिर्फ तभी उसे एहसास होगा, “व्यक्ति के लिए सत्य का अनुसरण न करना अस्वीकार्य है। छोटी-छोटी तरकीबों, गुणों और योग्यताओं या अपने अनुभवों, सबकों, जीवन-दर्शनों और दाँव-पेचों पर निर्भर रहना परमेश्वर के घर में काम नहीं आएगा। बाहर निकाले जाने से बचने के लिए मुझे सत्य स्वीकार कर उसका अनुसरण करना चाहिए!” अगर ऐसा व्यक्ति वास्तव में पश्चात्ताप करके बदल जाता है, तो अभी भी आशा की एक डोर है कि उसे बचाया जा सकता है।

परमेश्वर के घर में अधिकांश लोग किस तरह के व्यक्ति को पसंद करते हैं? (वे ऐसे लोगों को पसंद करते हैं, जो सत्य का अनुसरण करते हैं, सत्य स्वीकार सकते हैं और जिनके पास सत्य की वास्तविकता होती है।) जिन लोगों के पास सत्य की वास्तविकता होती है, वे इसे कैसे दिखाते हैं? (वे अधिक ईमानदार होते हैं।) उनमें ईमानदार मानवता होती है। और कुछ? (वे अधिक धर्मपरायण होते हैं।) बाहर से वे अधिक धर्मपरायण और उचित जीवन जीते हैं और दूसरे उन्हें देखकर लाभान्वित होते हैं। और कुछ? (वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं और सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हैं।) ये कुछ व्यावहारिक तरीके हैं, जिनसे वे इसे दिखाते हैं। सिद्धांत के साथ कार्य करने में कौन-सी चीजें शामिल हैं? उसके क्या विवरण हैं? उदाहरण के लिए, जब लोगों के साथ व्यवहार करने की बात आती है, चाहे उनकी हैसियत हो या न हो, या चाहे वे भाई-बहन हों या फिर अगुआ या कार्यकर्ता, तो किन सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए? निस्संदेह, यह बिल्कुल उचित और तर्कसंगत है कि उनके साथ परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार व्यवहार किया जाना चाहिए। तुम भावनाओं या व्यक्तिगत प्राथमिकताओं, एक के करीब होने और दूसरे से दूर होने, जो निष्कपट हैं उनका फायदा उठाने और जो प्रभावशाली हैं उनकी ठकुरसुहाती करने, या गुटीय संघर्ष पैदा करने के लिए गुट बनाने पर बिल्कुल भरोसा नहीं कर सकते। इसके अलावा, तुम उन लोगों पर हमला या उनके साथ भेदभाव नहीं कर सकते, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हैं। तुम्हें लोगों के साथ सत्य के सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। लोगों के साथ कैसे व्यवहार किया जाए, इसका यही सिद्धांत है, और दूसरों के साथ कैसे बनाकर चला जाए, इसका भी यही सिद्धांत है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें सभी लोगों के साथ उचित व्यवहार करना चाहिए। उपयोगी होने पर लोगों को जीतना और जो उपयोगी नहीं हैं उनके साथ भेदभाव करना—क्या यही वह सिद्धांत है, जिसके द्वारा तुम्हें लोगों के साथ व्यवहार करना चाहिए? यह अविश्वासियों का सांसारिक फलसफा, एक शैतानी स्वभाव और शैतानी तर्क है। परमेश्वर के घर में, लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाए, इसके लिए क्या सिद्धांत हैं? तुम्हें सभी के साथ सत्य के सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए और प्रत्येक भाई-बहन के साथ उचित व्यवहार करना चाहिए। उनके साथ उचित व्यवहार कैसे करें? यह आधारित होना चाहिए परमेश्वर के वचनों पर, और इस पर कि परमेश्वर किन लोगों को बचाता है, किन्हें निष्कासित करता है, किन्हें पसंद करता है और किनसे घृणा करता है; ये सत्य के सिद्धांत हैं। भाई-बहनों के साथ प्रेमपूर्ण सहयोग, पारस्परिक स्वीकार्यता और धैर्य के साथ व्यवहार करना चाहिए। कुकर्मियों और गैर-विश्वासियों की पहचान कर उन्हें अलग कर दिया जाना चाहिए और उनसे दूर रहना चाहिए। तुम ऐसा करते हो तभी तुम लोगों के साथ सिद्धांतों के साथ व्यवहार करते हो। हर भाई-बहन में क्षमता और कमियाँ होती हैं और उनके स्वभाव में भी भ्रष्टता होती है, इसलिए जब वे साथ हों, तो उन्हें प्यार से एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए, उनमें स्वीकार करने का भाव और धैर्य होना चाहिए, उन्हें न तो मीनमेख निकालनी चाहिए और न ही बहुत कठोर होना चाहिए। विशेष रूप से, ऐसे भाई-बहनों की, जिन्हें परमेश्वर में विश्वास किए बहुत लंबा समय नहीं हुआ है या जो युवा हैं, प्रचुरता से देखभाल की जानी चाहिए और उनका धैर्यपूर्वक समर्थन किया जाना चाहिए। अगर उनके भ्रष्ट उद्गार हों, तो उनके साथ सत्य के बारे में संगति करो और उन्हें धैर्यपूर्वक उपदेश दो। उनकी यों ही निंदा बिल्कुल न करो या उनकी समस्याएँ बढ़ा-चढ़ाकर पेश न करो, क्योंकि यह कठोरता है। अगर तुम बुरे कर्म करने वाले किसी नकली अगुआ या मसीह-विरोधी के बारे में पता चलने पर डरकर छिप जाते हो और इसे प्रकट करने का साहस नहीं कर पाते; लेकिन जब तुम्हें पता चलता है कि तुम्हारे भाई-बहनों में कुछ भ्रष्ट उद्गार हैं तो तुम उनके पीछे पड़ जाते हो और राई का पहाड़ बना देते हो, यह किस तरह का व्यवहार है? ऐसा करने वाले लोग घिनौने होते हैं और वे दूसरों का फायदा उठाते हैं। दूसरों के साथ व्यवहार करने का यह उचित तरीका नहीं है; बल्कि, तुम व्यक्तिगत पसंद के अनुसार काम कर रहे हो। यह एक भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव है, जो एक अपराध है! परमेश्वर वह सब-कुछ देखता है, जो लोग करते हैं। जो कुछ भी तुम करते और अपने दिल में सोचते हो, परमेश्वर उसे देख रहा है! तुम कुछ भी करो, तुम्हें सिद्धांतों को समझने की जरूरत है। सबसे पहले, तुम्हें सत्य समझना चाहिए। जब तुम सत्य समझ जाते हो, तो तुम्हारे लिए परमेश्वर की इच्छा समझना आसान हो जाएगा और तुम वे सिद्धांत जान जाओगे जिनके द्वारा परमेश्वर लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार करने की अपेक्षा करता है। तुम जान जाओगे कि लोगों के साथ कैसे व्यवहार करना है और तुम उनके साथ परमेश्वर की इच्छा के अनुसार व्यवहार करने में सक्षम होगे। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो निश्चित रूप से तुम परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ पाओगे और दूसरों के साथ सिद्धांतयुक्त तरीके से व्यवहार नहीं करोगे। तुम्हें दूसरों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए, यह परमेश्वर के वचनों में साफ तौर पर दिखाया या इंगित किया गया है। परमेश्वर मनुष्यों के साथ जिस रवैये से व्यवहार करता है, वही रवैया लोगों को एक-दूसरे के साथ अपने व्यवहार में अपनाना चाहिए। परमेश्वर हर एक व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है? कुछ लोग अपरिपक्व कद वाले होते हैं; या कम उम्र के होते हैं; या उन्होंने सिर्फ कुछ समय के लिए परमेश्वर में विश्वास किया होता है; या वे प्रकृति और सार से बुरे नहीं होते, दुर्भावनापूर्ण नहीं होते, बस थोड़े अज्ञानी होते हैं या उनमें क्षमता की कमी होती है। या वे बहुत अधिक बाधाओं के अधीन हैं, और उन्हें अभी सत्य को समझना बाकी है, जीवन में प्रवेश करना बाकी है, इसलिए उनके लिए मूर्खतापूर्ण चीजें करने या नादान हरकतें करने से खुद को रोक पाना मुश्किल है। लेकिन परमेश्वर लोगों के मूर्खता करने पर ध्यान नहीं देता; वह सिर्फ उनके दिलों को देखता है। अगर वे सत्य का अनुसरण करने के लिए कृतसंकल्प हैं, तो वे सही हैं, और अगर यही उनका उद्देश्य है, तो फिर परमेश्वर उन्हें देख रहा है, उनकी प्रतीक्षा कर रहा है, परमेश्वर उन्हें वह समय और अवसर दे रहा है जो उन्हें प्रवेश करने की अनुमति देता है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर उन्हें एक अपराध के लिए भी खारिज कर देगा। ऐसा तो अक्सर लोग करते हैं; परमेश्वर कभी भी लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता। जब परमेश्वर लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता, तो लोग दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? क्या यह उनके भ्रष्ट स्वभाव को नहीं दर्शाता है? यह निश्चित तौर पर उनका भ्रष्ट स्वभाव है। तुम्हें यह देखना होगा कि परमेश्वर अज्ञानी और मूर्ख लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, वह अपरिपक्व अवस्था वाले लोगों के साथ कैसे पेश आता है, वह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के सामान्य प्रकटीकरण से कैसे पेश आता है और दुर्भावनापूर्ण लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है। परमेश्वर अलग-अलग तरह के लोगों के साथ अलग-अलग ढंग से पेश आता है, उसके पास विभिन्न लोगों की बहुत-सी परिस्थितियों को प्रबंधित करने के भी कई तरीके हैं। तुम्हें इन सत्यों को समझना होगा। एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तब तुम मामलों को अनुभव करने का तरीका जान जाओगे और लोगों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने लगोगे।

क्या परमेश्वर निर्धारित करता है कि किसी व्यक्ति को उसकी भ्रष्टता के स्तर के आधार पर बचाया जाएगा या नहीं? क्या वह निर्धारित करता है कि उसके अपराधों के आकार या उसकी भ्रष्टता की मात्रा के आधार पर उसका न्याय और ताड़ना की जाए या नहीं? क्या वह उसके रूप, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, उसकी क्षमता के स्तर या इस बात के आधार पर कि उसने कितना कष्ट उठाया है, उसकी मंजिल और अंतिम परिणाम निर्धारित करता है? परमेश्वर अपने निर्णयों के आधार के रूप में इन चीजों का उपयोग नहीं करता; वह तो इन चीजों की ओर देखता तक नहीं। इसलिए तुम्हें यह समझना चाहिए कि चूँकि परमेश्वर लोगों को इन चीजों के आधार पर नहीं मापता, इसलिए तुम्हें भी लोगों को इन चीजों के आधार पर नहीं मापना चाहिए। मान लो, तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई देता है, जो आकर्षक दिखता है और एक अच्छा व्यक्ति प्रतीत होता है, इसलिए तुम उसके साथ ज्यादा बात करना शुरू कर देते हो, उसके साथ जुड़ जाते हो, उसके करीब आ जाते हो और अच्छे दोस्त बन जाते हो। फिर, मान लो, तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो अनाकर्षक है, जिसे सुनना अप्रिय लगता है, जो दूसरों के साथ बातचीत करना नहीं जानता और उपयुक्त नहीं बैठता, इसलिए तुम उसे स्वीकार नहीं करते, यहाँ तक कि कभी-कभी उसे धौंस भी देना चाहते हो, या उसे दबाने के लिए अप्रिय शब्द कहते हो—लोगों के साथ व्यवहार करने का यह कैसा तरीका है? ये सभी चीजें एक भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव से उपजती हैं। क्या तुम लोग ऐसे भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव के साथ जीने को तैयार हो? क्या तुम अपने भ्रष्ट, शैतानी स्वभावों से विवश और बाध्य होना और उन्हें अपने कार्यों को निर्देशित करने देना चाहते हो? (नहीं।) लोगों की व्यक्तिपरक इच्छाओं के अनुसार, कोई भी शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के भीतर रहते हुए कुछ भी करने या अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार नहीं होता। अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं में लोग अच्छाई का लक्ष्य रखते हैं और सत्य का अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अगर लोग सत्य नहीं समझते या सत्य का अनुसरण नहीं करते, सत्य के बारे में गंभीर नहीं होते या उसके साथ कोई प्रयास नहीं करते, तो वे सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाएँगे। अगर तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाते, तो जिसे तुम जीते हो, जो सिद्धांत तुम अपने हर काम में अपनाते हो और जो शब्द तुम कहते हो, वे सत्य के अनुरूप नहीं होंगे, और ये चीजें पूरी तरह से सत्य से रहित होंगी। अगर सत्य का कोई ऐसा पहलू है जिसे तुम नहीं समझते, तो तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में बिल्कुल असमर्थ होगे, और अगर तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते, तो तुम्हारे पास कोई सत्य नहीं होगा। क्या जिनके पास कोई सत्य नहीं होता, उनमें कोई मानवता होती है? (नहीं।) ऐसे लोग जो कुछ भी जीते हैं, वह शैतान का भ्रष्ट स्वभाव होता है। ऐसा नहीं है कि लोग अपने कर्तव्य का पालन शुरू करते ही ऐसे व्यक्ति बन जाते हैं, जिनके पास सत्य की वास्तविकताएँ होती हैं। अपना कर्तव्य करना एक विधि और एक माध्यम अपनाने से अधिक नहीं है। अपने कर्तव्यों के पालन में, लोग सत्य के अनुसरण का उपयोग, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने, सत्य को धीरे-धीरे समझने, उसे स्वीकारने और फिर उसका अभ्यास करने के लिए करते हैं। फिर वे एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाते हैं, जहाँ वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग देते हैं, खुद को शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के बंधनों और नियंत्रण से मुक्त कर लेते हैं, और इसलिए वे ऐसे व्यक्ति बन जाते हैं, जिनके पास सत्य की वास्तविकता होती है और जो सामान्य मानवता से युक्त होते हैं। जब तुममें सामान्य मानवता होगी, तभी तुम्हारे कर्तव्य का प्रदर्शन और तुम्हारे कार्य लोगों के लिए शिक्षाप्रद और परमेश्वर के लिए संतोषजनक होंगे। और जब परमेश्वर लोगों के कर्तव्य-प्रदर्शन की प्रशंसा करता है, तभी वे परमेश्वर के स्वीकार्य प्राणी हो सकते हैं। तो, अपने कर्तव्य के प्रदर्शन के संबंध में, हालाँकि जो तुम लोग अब खपाते हो और भक्ति में जो प्रदर्शित होता है, वे तुम लोगों द्वारा प्राप्त विभिन्न कौशल, शिक्षा और ज्ञान हैं, ठीक ये ही वह माध्यम प्रदान करते हैं जिससे तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य समझ सकते हो, और जान सकते हो कि अपना कर्तव्य निभाना क्या होता है, परमेश्वर के सामने आना क्या होता है, परमेश्वर के लिए दिलोजान से खपना क्या होता है। इस माध्यम से तुम जानोगे कि कैसे अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर फेंकना है, और कैसे अहं त्यागना है, अहंकारी और आत्म-तुष्ट नहीं बनना और सत्य का पालन और परमेश्वर का आज्ञापालन करना है। केवल इसी तरह तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो।

इस समय अपना कर्तव्य निभाने का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा समर्पण करना सीखना—सत्य के प्रति और परमेश्वर से आने वाली चीजों के प्रति समर्पण करना सीखना है। इस तरह, जब तुम लोग परमेश्वर का अनुसरण करोगे, तो तुम अपने सबक सीखने में सक्षम होगे और धीरे-धीरे सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। मुझे बताओ, अगर व्यक्ति को इस बात की कोई समझ न हो कि सत्य का अभ्यास करने, सत्य के प्रति समर्पित होने का क्या अर्थ है, या अगर वह यह नहीं समझता कि अपना कर्तव्य निभाने के लिए उसे किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, तो क्या वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? यह निश्चित रूप से कठिन होगा। तुम सभी लोग शायद यह भी समझते हो कि जब तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हो, तो अगर तुम्हारे पास जरा-सी भी सत्य की वास्तविकता नहीं है या तुम्हारा उसमें जरा-सा भी प्रवेश नहीं है, तो तुम्हारे लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना बहुत कठिन है। स्वीकार्य मानक के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना या अडिग रहना बहुत कठिन बात है। अब, क्या तुम सभी लोगों ने अनुभव कर लिया है कि सत्य के बिना एक कदम भी आगे बढ़ाना कितना कठिन है? (हाँ।) किस बात ने तुम लोगों को इसे सबसे गहराई से अनुभव करने के लिए प्रेरित किया? (अक्सर काट-छाँट और निपटारा किया जाना, असफल होना और ठोकर खाना, क्योंकि हम सत्य नहीं समझते थे और अपने कर्तव्य निभाने के लिए एक भ्रष्ट स्वभाव पर निर्भर थे।) तुम सभी लोग कितनी असफलताओं से गुजरे हो? (कुछ असफलताओं से।) परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते समय, चाहे तुम कितनी भी बार असफल हुए हो, गिरे हो, तुम्हारी काट-छाँट की गई हो या उजागर किए गए हो, ये बुरी चीजें नहीं हैं। भले ही तुम्हारी कैसी भी काट-छाँट या निपटारा किया गया हो, चाहे किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने किया हो या तुम्हारे भाई-बहनों ने, ये सब अच्छी चीजें होती हैं। तुम्हें यह बात याद रखनी चाहिए : चाहे तुम्हें कितना भी कष्ट हो, तुम्हें असल में इससे लाभ होता है। कोई भी अनुभव वाला व्यक्ति इसकी पुष्टि कर सकता है। चाहे कुछ भी हो जाए, काट-छाँट, निपटारा और उजागर किया जाना हमेशा अच्छा होता है। यह कोई निंदा नहीं है। यह परमेश्वर का उद्धार है और तुम्हारे लिए स्वयं को जानने का सर्वोत्तम अवसर है। यह तुम्हारे जीवन अनुभव को गति दे सकता है। इसके बिना, तुम्हारे पास न तो अवसर होगा, न ही परिस्थिति, और न ही अपनी भ्रष्टता के सत्य की समझ तक पहुँचने में सक्षम होने के लिए कोई प्रासंगिक आधार होगा। अगर तुम सत्य को सचमुच समझते हो, और अपने दिल की गहराइयों में छिपी भ्रष्ट चीजों का पता लगाने में सक्षम हो, अगर तुम स्पष्ट रूप से उनकी पहचान कर सकते हो, तो यह अच्छी बात है, इससे जीवन में प्रवेश की एक बड़ी समस्या हल हो जाती है, और यह स्वभाव में बदलाव के लिए भी बहुत लाभदायक है। स्वयं को सही मायने में जानने में सक्षम होना, तुम्हारे लिए अपने तरीकों में बदलाव कर एक नया व्यक्ति बनने का सबसे अच्छा मौका है; तुम्हारे लिए यह नया जीवन पाने का सबसे अच्छा अवसर है। एक बार जब तुम सच में खुद को जान लोगे, तो तुम यह देख पाओगे कि जब सत्य किसी का जीवन बन जाता है, तो यह निश्चय ही अनमोल होता है, तुममें सत्य की प्यास होगी, तुम सत्य का अभ्यास करोगे और इसकी वास्तविकता में प्रवेश करोगे। यह कितनी बड़ी बात है! यदि तुम इस अवसर को थाम सको और ईमानदारी से मनन कर सको, तो कभी भी असफल होने या नीचे गिरने पर स्वयं के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हो, तब तुम नकारात्मकता और कमज़ोरी में भी फिर से खड़े हो सकोगे। एक बार जब तुम इस सीमा को लांघ लोगे, तो फिर तुम एक बड़ा कदम उठा सकोगे और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे।

यदि तुम परमेश्वर के शासन में विश्वास करते हो, तो तुम्हें यह विश्वास करना होगा कि हर दिन जो भी अच्छा-बुरा होता है, वो यूँ ही नहीं होता। ऐसा नहीं है कि कोई जानबूझकर तुम पर सख्त हो रहा है या तुम पर निशाना साध रहा है; यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और आयोजित है। परमेश्वर इन चीज़ों को किस लिए आयोजित करता है? यह तुम्हारी वास्तविकता प्रकट करने या तुम्हें उजागर करके बाहर निकालने के लिए नहीं है; तुम्हें उजागर करना अंतिम लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तुम्हें पूर्ण बनाना और बचाना है। परमेश्वर तुम्हें पूर्ण कैसे बनाता है? वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से अवगत कराने और तुम्हें तुम्हारी प्रकृति, सार, तुम्हारे दोषों और कमियों से अवगत कराने से शुरुआत करता है। उन्हें साफ तौर पर समझकर और जानकर ही तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो और धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर सकते हो। यह परमेश्वर का तुम्हें एक अवसर प्रदान करना है। यह परमेश्वर की अनुकंपा है। तुम्हें यह जानना होगा कि इस अवसर को कैसे पाया जाए। तुम्हें परमेश्वर का विरोध नहीं करना चाहिए, उसके साथ लड़ाई में उलझना या उसे गलत नहीं समझना चाहिए। विशेष रूप से उन लोगों, घटनाओं और चीज़ों का सामना करते समय, जिनकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, सदा यह मत सोचो कि चीजें तुम्हारे मन के हिसाब से नहीं हैं; हमेशा उनसे बच निकलने की मत सोचो, परमेश्वर को दोष मत दो या उसे गलत मत समझो। अगर तुम लगातार ऐसा कर रहे हो तो तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो, और इससे तुम्हारे लिए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। ऐसी कोई भी समस्या आए जिसे तुम समझ न पाओ, तो तुम्हें समर्पण करना सीखना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी चाहिए। इस तरह, इससे पहले कि तुम जान पाओ, तुम्हारी आंतरिक स्थिति में एक बदलाव आएगा और तुम अपनी समस्या को हल करने के लिए सत्य की तलाश कर पाओगे। इस तरह तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर पाओगे। जब ऐसा होगा तो, तुम्हारे भीतर सत्य की वास्तविकता गढ़ी जायेगी, और इस तरह से तुम प्रगति करोगे और तुम्हारे जीवन की स्थिति का रूपांतरण होगा। एक बार जब ये बदलाव आएगा और तुममें सत्य की वास्तविकता होगी, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा, और आध्यात्मिक कद के साथ जीवन आता है। यदि कोई हमेशा भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के आधार पर जीता है, तो फिर चाहे उसमें कितना ही उत्साह या ऊर्जा क्यों न हो, उसे आध्यात्मिक कद, या जीवन धारण करने वाला नहीं माना जा सकता है। परमेश्वर हर एक व्यक्ति में कार्य करता है, और इससे फर्क नहीं पड़ता है कि उसकी विधि क्या है, सेवा करने के लिए वो किस प्रकार के लोगों, चीज़ों या मामलों का प्रयोग करता है, या उसकी बातों का लहजा कैसा है, परमेश्वर का केवल एक ही अंतिम लक्ष्य होता है : तुम्हें बचाना। और वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें बदलता है। तो तुम थोड़ी-सी पीड़ा कैसे नहीं सह सकते? तुम्हें पीड़ा तो सहनी होगी। इस पीड़ा में कई चीजें शामिल हो सकती हैं। सबसे पहले तो, जब लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार हैं, तो उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। जब परमेश्वर के वचन बहुत कठोर और मुखर होते हैं और लोग परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या करते हैं—और धारणाएँ भी रखते हैं—तो यह भी पीड़ाजनक हो सकता है। कभी-कभी परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता उजागर करने के लिए, और उनसे चिंतन करवाने के लिए कि वे खुद को समझें, उनके आसपास एक परिवेश बना देता है, और तब उन्हें कुछ पीड़ा भी होती है। कई बार जब लोगों की सीधी काट-छाँट, निपटारा और उन्हें उजागर किया जाता है, तब उन्हें पीड़ा सहनी ही चाहिए। यह ऐसा है, जैसे वे शल्यचिकित्सा से गुजर रहे हों—अगर कोई कष्ट नहीं होगा, तो कोई प्रभाव भी नहीं होगा। यदि जब भी तुम्हारी काट-छाँट होती है और किसी परिवेश द्वारा तुम्हें उजागर कर दिया जाता है, इससे तुम्हारी भावनाएँ जागती हैं और तुम्हारे अंदर जोश पैदा होता है, तो इस प्रक्रिया के माध्यम से तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करोगे और तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा। यदि, हर बार काटे-छांटे जाने, निपटारा किए जाने, और किसी परिवेश द्वारा उजागर किए जाने पर, तुम्हें थोड़ी-भी पीड़ा या असुविधा महसूस नहीं होती और कुछ भी महसूस नहीं होता, यदि तुम परमेश्वर के सामने उसकी इच्छा की तलाश नहीं करते, न प्रार्थना करते हो, न ही सत्य की खोज करते हो, तब तुम वास्तव में बहुत संवेदनहीन हो! यदि तुम्हारी आत्मा को कुछ महसूस नहीं होता, यदि इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, तो परमेश्वर तुममें कार्य नहीं करता। परमेश्वर कहेगा, “यह व्यक्ति ज़्यादा ही संवेदनहीन है, और बहुत गहराई से भ्रष्ट किया गया है। मैं चाहे जैसे उसे अनुशासित करूँ, उससे निपटूँ या उसे नियंत्रण में रखने की कोशिश करूँ, फिर भी मैं अभी तक उसके दिल को प्रेरित नहीं कर पाया हूँ, न ही मैं उसकी आत्मा को जगा पाया हूँ। यह व्यक्ति परेशानी में पड़ेगा; इसे बचाना आसान न होगा।” यदि परमेश्वर तुम्हारे लिए विशेष परिवेशों, लोगों, चीज़ों और वस्तुओं की व्यवस्था करता है, यदि वह तुम्हारी काट-छाँट और तुम्हारे साथ व्यवहार करता है और यदि तुम इससे सबक सीखते हो, यदि तुमने परमेश्वर के सामने आना सीख लिया है, तुमने सत्य की तलाश करना सीख लिया है, अनजाने में, प्रबुद्ध और रोशन हुए हो और तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है, यदि तुमने इन परिवेशों में बदलाव का अनुभव किया है, पुरस्कार प्राप्त किए हैं और प्रगति की है, यदि तुम परमेश्वर की इच्छा की थोड़ी-सी समझ प्राप्त करना शुरू कर देते हो और शिकायत करना बंद कर देते हो, तो इन सबका मतलब यह होगा कि तुम इन परिवेशों के परीक्षण के बीच में अडिग रहे हो, और तुमने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। इस तरह से तुमने इस कठिन परीक्षा को पार कर लिया होगा। इम्तिहान में खरे उतरने वालों को परमेश्‍वर किस नज़र से देखेगा? परमेश्‍वर कहेगा कि उनका हृदय सच्‍चा है और वे इस तरह का कष्‍ट सहन कर सकते हैं, और अंतर्मन में वे सत्‍य से प्रेम करते हैं और सत्‍य को पाना चाहते हैं। अगर परमेश्‍वर का तुम्‍हारे बारे में ऐसा आकलन है, तो क्‍या तुम कद-काठी वाले नहीं हो? फिर क्‍या तुम में जीवन नहीं है? और यह जीवन कैसे प्राप्‍त हुआ है? क्या यह परमेश्‍वर द्वारा प्रदत्त है? परमेश्वर तुम्हें कई तरह से आपूर्ति करता है और तुम्हें प्रशिक्षित करने के लिए विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का इस्तेमाल करता है। यह बिल्कुल ऐसा जैसे परमेश्‍वर खुद तुम्हें भोजन और जल प्रदान कर रहा हो, खुद खाने की विभिन्न वस्तुएँ तुम तक पहुँचा रहा हो ताकि तुम पेट भरकर खाओ और आनंदित रहो; तभी तुम मजबूती से खड़े हो सकते हो। इसी तरह से तुम्हें चीजों का अनुभव करना और समझना चाहिए; इसी तरह से तुम्हें परमेश्‍वर के पास से आने वाली हर चीज के प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम्‍हारे पास इसी प्रकार की मनोदशा और रवैया होना चाहिए, और तुम्‍हें सत्‍य खोजना सीखना चाहिए। तुम्‍हें अपनी परेशानियों के लिए हमेशा बा‍हरी कारण नहीं खोजते रहना चाहिए और दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए, न ही लोगों में गलतियाँ खोजनी चाहिए; तुम्‍हें परमेश्‍वर की इच्छा की स्पष्ट समझ होनी चाहिए। बाहर से, ऐसा लग सकता है कि कुछ लोगों की तुम्‍हारे बारे में धारणाएं हैं या पूर्वाग्रह हैं, लेकिन तुम्‍हें इस रूप में चीज़ों को नहीं देखना चाहिए। अगर तुम इस तरह के दृष्टिकोण से चीज़ों को देखोगे, तो तुम केवल बहाने बनाओगे, और तुम कुछ भी प्राप्‍त नहीं कर सकोगे। तुम्‍हें चीज़ों को वस्‍तुगत ढंग से देखना चाहिए; और परमेश्वर से सब कुछ स्वीकार करना चाहिए। जब तुम चीजों को इस तरीके से देखते हो तो तुम्हारे लिए परमेश्वर के कार्य का आज्ञापालन करना आसान हो जाता है, और तुम सत्य को पाने और परमेश्वर की इच्छा को समझने में सक्षम हो जाते हो। जब तुम्‍हारे दृष्टिकोण और मनोदशा का परिशोधन हो जाएगा, तब तुम सत्‍य को प्राप्‍त कर सकोगे। तो, तुम ऐसा कर क्यों नहीं देते? तुम प्रतिरोध क्‍यों करते हो? अगर तुम प्रतिरोध करना बंद कर दोगे, तुम सत्‍य प्राप्‍त कर लोगे। अगर तुम प्रतिरोध करोगे, तब तुम कुछ भी प्राप्‍त नहीं कर सकोगे, और तुम परमेश्‍वर की भावनाओं को चोट पहुंचाओगे और उसे निराश करोगे। परमेश्‍वर क्यों निराश होगा? क्योंकि तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तुम्हें उद्धार की कोई आशा नहीं होती, और परमेश्वर तुम्हें ग्रहण नहीं कर पाता, तो वह निराश कैसे नहीं होगा? जब तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते हो तो यह खुद परमेश्वर द्वारा तुम्हें परोसे गए भोजन को दूर हटाने के समान होता है। तुम कहते हो कि तुम्हें भूख नहीं है और तुम्हें इसकी जरूरत नहीं है; परमेश्‍वर तुम्‍हें खाने के लिए बार-बार प्रोत्साहित करने की कोशिश करता है, लेकिन तुम फिर भी खाना नहीं चाहते। इसके बजाय तुम भूखे रहना पसंद करोगे। तुम सोचते हो कि तुम्‍हारा पेट भरा है, जबकि वास्‍तव में तुम्‍हारे पास बिल्कुल कुछ भी नहीं है। ऐसे लोगों में समझ का बहुत अभाव होता है, और वे बहुत दंभी होते हैं; कोई अच्छी देखकर वे पहचान नहीं पाते कि वह अच्छी है, वे सभी लोगों में सबसे अधिक दरिद्र और दयनीय होते हैं।

सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए तुम्हें पहले अपने जीवन के हर विवरण पर विचार करने से शुरुआत करनी चाहिए, और अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सबक सीखने शुरू करने चाहिए। अगर तुम उस तरीके से, जिससे तुम्हारे आसपास के लोग तुम्हारे साथ व्यवहार करते हैं, या उन मामलों और परिस्थितियों से, जो तुम पर रोजाना पड़ती हैं, सबक सीख सकते हो, यानी सत्य खोज सकते और यह सीख सकते हो कि कैसे सिद्धांतों के अनुसार काम किया जाए, तो तुम सत्य समझने में सक्षम होगे, तुम्हारा जीवन विकसित होगा और तुम अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा पाओगे। अपनी काट-छाँट और निपटारा किए जाने पर कुछ लोग अक्सर बहस करते हैं और अपना बचाव करने की कोशिश करते हैं। वे हमेशा समस्या के कारण पर जोर देते हैं और अपनी असफलताओं के लिए बहाने बनाते हैं, जो बहुत ही कष्टप्रद होता है। उनका रवैया विनम्र या सत्य खोजने का नहीं होता। इस तरह के लोग कम क्षमता के होते हैं और बहुत जिद्दी भी होते हैं। वे दूसरे लोगों की बातें नहीं समझते, सत्य उनकी पहुँच से बाहर होता है और उनकी प्रगति बहुत धीमी होती है। उनकी प्रगति धीमी क्यों होती है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वे सत्य नहीं खोजते, और जो भी गलतियाँ सामने आती हैं, वे हमेशा दूसरे लोगों को उनका कारण समझते हैं और उनकी जिम्मेदारी पूरी तरह से दूसरों पर डाल देते हैं। वे दुनियावी फलसफों के अनुसार जीते हैं, और जब तक वे सुरक्षित और स्वस्थ रहते हैं, खुद से विशेष रूप से प्रसन्न रहते हैं। वे सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करते, और सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का यह एक बहुत अच्छा तरीका है। कुछ तो यह तक सोचते हैं, “सत्य का अनुसरण करने और सबक सीखने के बारे में हमेशा बहुत-सी बातें होती हैं, लेकिन क्या सीखने के लिए वाकई बहुत सारे सबक हैं? इस तरह से परमेश्वर में विश्वास करना एक बहुत बड़ी परेशानी है!” जब वे दूसरे लोगों को मामलों का सामना करते हुए सत्य खोजते और सबक सीखते देखते हैं, तो कहते हैं, “तुम सभी लोग कैसे हर चीज से सबक सीख लेते हो? मेरे सीखने के लिए उतने सबक क्यों नहीं हैं? क्या तुम सभी लोग इतने ही अज्ञानी हो? क्या तुम बस आँख मूँदकर नियमों का पालन नहीं कर रहे?” तुम इस भावना के बारे में क्या सोचते हो? यह गैर-विश्वासियों का परिप्रेक्ष्य है। क्या कोई गैर-विश्वासी सत्य प्राप्त कर सकता है? ऐसे व्यक्ति के लिए सत्य प्राप्त करना बहुत कठिन है। कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, “मैं बड़े मामलों में तो परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ, पर छोटे मामलों में उसे परेशान नहीं करता। परमेश्वर ब्रह्मांड में हर चीज के दैनिक प्रशासन, प्रत्येक व्यक्ति के प्रशासन में बहुत व्यस्त रहता है। कितना थका देने वाला काम है! मैं परमेश्वर को परेशान नहीं करूँगा, खुद ही इस मामले को सुलझा लूँगा। अगर परमेश्वर प्रसन्न है, तो इतना ही काफी है। मैं उसे चिंतित नहीं करना चाहता।” तुम इस भावना के बारे में क्या सोचते हो? यह गैर-विश्वासियों का भी परिप्रेक्ष्य है, मनुष्यों की कल्पना है। मनुष्य सृजित प्राणी हैं, चींटियों से भी निम्नतर। वे सृष्टिकर्ता को स्पष्ट रूप से कैसे देख सकते हैं? न जाने कितने लाख या अरब सालों से परमेश्वर ने ब्रह्मांड में हर चीज का प्रशासन किया है। क्या उसने कहा है कि वह थका हुआ महसूस करता है? क्या उसने कहा है कि वह बहुत व्यस्त है? नहीं, उसने नहीं कहा। लोग कभी परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम नहीं होंगे और उनका अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से बोलना बहुत ही अज्ञानतापूर्ण है। सृष्टिकर्ता के अनुसार, परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से प्रत्येक की और उनके आसपास जो कुछ भी होता है उसकी व्यवस्था परमेश्वर की संप्रभुता द्वारा की जाती है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले के रूप में तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, सत्य खोजना चाहिए और सभी चीजों में सबक सीखने चाहिए। सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण चीज है। अगर तुम परमेश्वर की इच्छा पर विचार कर सको, तो तुम्हें उस पर भरोसा करना चाहिए और सत्य की ओर प्रयास करना चाहिए, क्योंकि यह परमेश्वर को भाता है। जब तुम सत्य प्राप्त कर लेते हो और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाते हो, तो परमेश्वर अधिक प्रसन्न होगा, लेकिन जितना अधिक तुम परमेश्वर से दूर होओगे, वह उतना ही अधिक दुखी होगा। परमेश्वर को क्या चीज दुखी करती है? (परमेश्वर ने इस उद्दश्य से परिस्थितियाँ व्यवस्थित की हैं कि लोग उसके वचनों का अनुभव कर सकें और सत्य प्राप्त कर सकें, लेकिन लोग परमेश्वर के मन को नहीं समझते; वे उसे गलत समझते हैं और यह बात परमेश्वर को दुखी करती है।) सही है। परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक श्रमसाध्य कीमत चुकाई है और प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसकी एक इच्छा है। वह उनसे अपेक्षाएँ रखता है और उसने उन पर अपनी आशाएँ रखी हैं। उनके श्रमसाध्य प्रयास मुक्त रूप से और स्वेच्छा से सभी लोगों को दिए जाते हैं। उसका जीवन और सत्य का पोषण भी प्रत्येक व्यक्ति को स्वेच्छा से दिया जाता है। अगर लोग यह समझने में सक्षम हों कि परमेश्वर ऐसा क्यों करता है, तो वह प्रसन्न महसूस करेगा। परमेश्वर तुम्हारे लिए जिन भी परिस्थितियों की व्यवस्था करे, अगर तुम उन्हें परमेश्वर की देन समझकर प्राप्त कर पाओ, उसके प्रति समर्पित हो पाओ और इस सबके बीच सत्य खोज पाओ और सबक सीख पाओ, तो परमेश्वर को यह नहीं लगेगा कि उसने वह श्रमसाध्य कीमत व्यर्थ चुकाई। तुम परमेश्वर द्वारा निवेशित तमाम विचारों और प्रयासों को जीने में या उसकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने में विफल नहीं हुए होगे। खुद पर पड़े परिस्थितियों के हर समुच्चय में तुम सबक सीखने और पुरस्कार पाने में सक्षम होगे। इस तरह, परमेश्वर ने तुममें जो कार्य किया है, वह अपेक्षित प्रभाव प्राप्त कर लेगा और परमेश्वर का हृदय संतुष्ट होगा। अगर तुम परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में असमर्थ रहते हो, अगर तुम हमेशा परमेश्वर का विरोध करते हो, उसे नकारते और उससे लड़ते हो, तो क्या तुम्हें नहीं लगता कि परमेश्वर व्याकुल होगा? परमेश्वर का हृदय यह कहते हुए चिंतित और व्याकुल होगा, “मैंने तुम्हारे सबक सीखने के लिए इतनी सारी परिस्थितियों की व्यवस्था की। ऐसा कैसे है कि इनमें से किसी का भी तुम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा?” परमेश्वर दु:ख से दबा होगा। परमेश्वर इसलिए दुखी होता है, क्योंकि तुम सुन्न, अज्ञानी, धीमे और हठी हो, क्योंकि तुम उसकी इच्छा नहीं समझते, सत्य नहीं स्वीकारते, वे तमाम चीजें नहीं देख सकते जो वह तुम्हारे जीवन के लिए जिम्मेदार होने के लिए करता आ रहा है, यह नहीं समझते कि वह तुम्हारे जीवन के बारे में चिंतित और व्याकुल है, और इसलिए कि तुम उसकी अवज्ञा और उसके बारे में शिकायत करते हो। मुझे बताओ, लोगों के साथ जुड़ी हर चीज किससे पैदा होती है? मानव-जीवन के लिए सबसे बड़ा दायित्व कौन वहन करता है? (परमेश्वर।) मात्र परमेश्वर ही लोगों से सबसे अधिक प्रेम करता है। क्या लोगों के माता-पिता और रिश्तेदार वास्तव में उनसे प्रेम करते हैं? वे जो प्यार देते हैं क्या वह सच्चा प्रेम होता है? क्या वह लोगों को शैतान के प्रभाव से बचा सकता है? नहीं बचा सकता। लोग सुन्न और मंदबुद्धि होते हैं, वे इन चीजों के परे नहीं देख पाते और हमेशा कहते हैं, “परमेश्वर मुझसे कैसे प्रेम करता है? मुझे तो महसूस नहीं होता। वैसे भी, मेरे माता-पिता मुझे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। वे मेरी पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठाते हैं, तकनीकी कौशल सिखवाते हैं ताकि मैं बड़ा होकर कुछ बन सकूँ, सफल हो सकूँ, एक प्रसिद्ध व्यक्ति या हस्ती बन सकूँ। मेरे माता-पिता मेरे पालन-पोषण पर इतना पैसा खर्च करते हैं, शिक्षा दिलाते हैं, बचत करके खुद थोड़े में गुजारा करते हैं। वह कितना महान प्रेम है? मैं उनका ऋण कभी नहीं चुका सकता!” तुम्हें लगता है कि यह प्यार है? जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हें एक कामयाब इंसान बनाते हैं, दुनिया में एक हस्ती बनने, एक अच्छी नौकरी पाने योग्य और दुनियादारी के लायक बनाते हैं तो उसके क्या परिणाम होते हैं? तुम निरंतर सफलता के पीछे भागने, अपने परिवार को सम्मान दिलाने और दुनियादारी की बुरी प्रवृत्तियों को अपनाने में लग जाते हो और नतीजा यह होता है कि अंतत: तुम पाप के गड्ढे में जा गिरते हो, तबाही झेलते हुए खत्म हो जाते हो और शैतान तुम्हें निगल जाता है। क्या यह प्रेम है? वे तुमसे प्यार नहीं कर रहे, तुम्हारा नुकसान कर रहे हैं, तुम्हें तबाह कर रहे हैं। किसी दिन तुम इतने नीचे गिरोगे कि तुम पश्चात्ताप नहीं कर पाओगे, इतने नीचे कि तुम खुद को बाहर नहीं निकाल पाओगे और नरक में उतर जाओगे। तभी तुम महसूस करोगे, “ओह, माता-पिता का प्यार देह का प्यार है, यह परमेश्वर में विश्वास करने या सत्य प्राप्त करने में फायदेमंद नहीं है—यह सच्चा प्यार नहीं है!” तुम लोगों को अभी तक इसका एहसास नहीं हुआ होगा। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर मुझसे कितना भी प्रेम क्यों न करता हो, फिर भी मैं उसे महसूस नहीं कर पाता। मुझे अब भी लगता है कि मेरी माँ मुझसे सबसे ज्यादा प्यार करती है। वह मेरे लिए दुनिया की सबसे करीबी इंसान है। एक गाना है ‘माँ दुनिया की सबसे अच्छी इंसान है’। यह नाम वास्तविकता से मेल खाता है; यह बिल्कुल सच है!” किसी दिन, जब तुम्हारे पास वास्तव में जीवन-प्रवेश होगा और जब तुमने सत्य प्राप्त कर लिया होगा, तुम कहोगे, “मेरी माँ वह नहीं है जो मुझसे सबसे ज्यादा प्यार करती है, न ही वह मेरे पिता हैं। परमेश्वर मुझसे सबसे ज्यादा प्यार करता है। वह मेरा सबसे प्यारा महबूब है, क्योंकि उसने मुझे जीवन दिया, और वह हमेशा मेरी अगुआई कर रहा है, मेरा भरण-पोषण कर रहा है और मुझे शैतान के प्रभाव से बचा रहा है। सिर्फ परमेश्वर ही है, जो लोगों को जीवन प्रदान कर सकता है, जो लोगों की अगुवाई कर सकता है और जो सभी चीजों पर शासन करता है।” जब तुम सत्य समझोगे और सत्य पूरी तरह से प्राप्त कर लोगे, तभी तुम इन वचनों को गहराई से समझ पाओगे।

अगर तुम सत्य प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम कहाँ से शुरुआत करते हो? अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से शुरुआत करो और सीखो कि सबक कैसे सीखें और सत्य कैसे खोजें। अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों में सत्य और परमेश्वर की इच्छा खोजकर ही तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे। कुछ लोग छोटे मामलों पर ध्यान नहीं देते या छोटे मामले नहीं स्वीकारते। वे हमेशा सोचते हैं, “क्यों मैं कभी किसी बड़ी चीज का सामना नहीं करता? मेरे साथ कभी कोई अत्यंत महत्वपूर्ण घटना क्यों नहीं होती? अगर कोई बड़ी, अत्यंत महत्वपूर्ण चीज होती, तो मैं कोई बड़ा सबक सीख पाता और कोई बड़ा सत्य हासिल कर पाता। यह कितना अद्भुत होगा!” क्या यह सोचने का एक यथार्थपरक तरीका है? ये शब्द बहुत भव्य हैं। क्या अपने साथ छोटी चीजें होने पर तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हो? क्या तुमने अपने सबक सीखे हैं? अगर तुम पर कोई बड़ा परीक्षण आ पड़े, तो क्या तुम अपनी गवाही में अडिग रह पाओगे? अगर बड़ा लाल अजगर तुम्हें पकड़ ले, तो क्या तुम जबरदस्त गवाही दे पाओगे? क्या ये शब्द कहने वाले लोग कुछ हद तक अहंकारी नहीं हैं? क्या तुम अनुसरण के इस तरीके का उपयोग करके सत्य प्राप्त कर पाओगे? (नहीं।) अगर तुम चलते समय सावधान नहीं रहते, तो तुम लड़खड़ा सकते हो—फिर भी तुम्हें लगता है कि तुम उड़ने के लिए तैयार हो! तुम्हें सत्य खोजना सीखना चाहिए और अपने सामने आने वाली छोटी चीजों से सबक सीखने चाहिए। अगर तुम छोटी चीजों से सबक नहीं सीख सकते, तो तुम उन्हें बड़ी चीजों से भी नहीं सीख पाओगे। अगर तुम अपने सबक नहीं सीख सकते, तो तुम जीवन में प्रगति नहीं कर पाओगे। जीवन में प्रगति हर चीज में सबक सीखकर ही हासिल की जाती है।

5 अगस्त, 2015

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