81. मुझे सचमुच खुशहाल जीवन मिला

मैं एक साधारण ग्रामीण परिवार में पली-बढ़ी हूं। हालाँकि हमारी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, फिर भी मैं बहुत खुश थी। मेरी माँ का व्यक्तित्व खुशमिजाज था; वह नेकदिल और काबिल थी और घर को एकदम व्यवस्थित रखती थी। मेरे पिता मेरी माँ का बहुत ख्याल रखते थे और उनके प्रति विचारशील थे और वे 60 से अधिक वर्षों तक हर सुख-दुख में एक साथ रहे। मुझे याद नहीं मैंने उन्हें कभी बहस करते देखा हो। जब मैं वयस्क हुई तो मुझे उम्मीद थी कि मुझे कोई ऐसा आदमी मिलेगा जो मेरे पिता की तरह अपने परिवार का ख्याल रखेगा। जैसा मैं चाहती थी, मुझे एक संतोषजनक पति मिला। हम साथ काम पर जाते, साथ घर आते थे और घर के काम और बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारियाँ एक साथ निभाते थे। मेरा पति भी मेरा बहुत ख्याल रखता था। खासकर उन कुछ सालों के दौरान जब मेरा स्वास्थ्य खराब था, जब मैं बीमार पड़ जाती थी तो वह मुझसे भी अधिक चिंतित रहता था। वे मेरे साथ अस्पताल जाता था और मेरा पूरा ख्याल रखता था। विवाह के बाद हमारे बीच शायद ही कभी मतभेद हुए हों और हम एक-दूसरे को माफ कर देते थे। मैंने भी एक पत्नी के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हुए परिवार को पूरी लगन से चलाया। मुझे लगा कि मेरी शादी खुशहाल है और मैं दुनिया की सबसे खुश महिला हूँ। मैं बार-बार सपने भी देखती कि मैं हमेशा अपने पति के साथ ऐसे ही रहूँ और हम जीवन भर साथ रहें।

2017 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। मेरा दृढ़ विश्वास था कि परमेश्वर का अनुसरण करना ही जीवन का सही मार्ग है और कलीसिया द्वारा मेरे लिए निर्धारित कोई भी कर्तव्य स्वीकारने और उसके प्रति समर्पित होने में मुझमें बहुत उत्साह था। शुरू में, मैं अपने कर्तव्य में व्यस्त नहीं थी और इसका मेरे पारिवारिक जीवन पर कोई असर नहीं पड़ा और मेरे पति ने परमेश्वर में मेरी आस्था का समर्थन किया। 2020 में, मैं कलीसिया अगुआ बन गई और काम में बहुत व्यस्त हो गई। हर दिन मैं जल्दी निकल जाती और देर से घर लौटती और मेरे पति को घर के सभी छोटे-बड़े मामलों को संभालना पड़ता। उसने परमेश्वर में मेरे विश्वास करने पर आपत्ति जताना शुरू कर दिया, यहाँ तक कि मुझ पर कटाक्ष करते हुए कहा, “तुम रिटायर होने के बाद और ज्यादा व्यस्त हो गई हो!” अपने पति की खुशी के लिए मैं सुबह और शाम को उसके लिए खाना बनाने लगी। मुझे याद है कि एक बार मेरी सास बीमार पड़ गईं और उन्हें अस्पताल जाना पड़ा, मेरा पति 20 दिनों से ज्यादा समय तक उनके साथ रहा। वह इतने थका हुआ था कि उसकी आँखों के नीचे झुर्रियाँ बन गई थीं और उसका वजन बहुत कम हो गया था। मैं हर सुबह उनके लिए खाना लाती थी पर मेरा पति मुझे देखकर खुश नहीं होता था। उसे इतना थका-मांदा देखकर मेरा दिल बैठ जाता। मैंने सोचती, “काश मैं पहले की तरह कोई आसान काम कर पाती तो मैं और मेरा पति बारी-बारी से मेरी सास की देखभाल कर सकते थे और उसे इतनी थकान भी नहीं होती। एक पत्नी के रूप में मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं।” जिस दिन मेरी सास को अस्पताल से छुट्टी मिली, उस दिन मैं बहुत देर से घर पहुँची। जब मेरे पति ने मुझे देखा तो वह गुस्से से बोला, “वह इतने समय से बीमार थीं और तुमने उनकी परवाह नहीं की, बल्कि मुझे थकावट झेलने के लिए मजबूर कर दिया। तुम सिर्फ अपने बारे में ही सोचती हो। हम ऐसे नहीं रह सकते।” अपने पति की आलोचना के सामने मैं कुछ भी नहीं कह सकी। मैं भागकर बेडरूम में चली गई और रोने लगी। मैं सोचा, “जब से मैंने अगुआ का काम संभाला है, तब से कलीसिया में बहुत काम बढ़ गया है और जब मेरी सास बीमार पड़ीं तो मैं उनकी देखभाल भी नहीं कर पाई। इसमें कोई हैरानी नहीं कि मेरा पति मुझसे खुश नहीं है। अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो वह मुझसे और भी असंतुष्ट हो जाएगा और मुझसे बहस भी करेगा। तो क्या जिस शादी को मैंने इतने साल संभाला है, वह बिखर नहीं जाएगी? शादी के बिना मेरा कोई घर नहीं है।” उस रात मैं करवटें बदलती रही और सो नहीं पाई, मैंने सोचा, “एक तरफ मेरी शादी है और दूसरी तरफ मेरा कर्तव्य है; मुझे क्या चुनना चाहिए? मैं अगुआ के पद से इस्तीफा देकर कोई आसान-सा काम कर सकती हूँ।”

अगले दिन, मैं अपनी साझेदार बहन से मिली और उससे घर पर जो कुछ हुआ था उसके बारे में बात की, साथ ही अपने विचारों और अपने भीतर के दर्द के बारे में भी बात की। बहन ने मेरे साथ परमेश्वर के वचनों के कई अंशों की संगति की और उनमें से एक अंश ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर किए जाने वाले कार्य के प्रत्येक चरण में, बाहर से यह लोगों के मध्य अंतःक्रिया प्रतीत होता है, मानो यह मानव-व्यवस्थाओं द्वारा या मानवीय विघ्न से उत्पन्न हुआ हो। किंतु पर्दे के पीछे, कार्य का प्रत्येक चरण, और घटित होने वाली हर चीज, शैतान द्वारा परमेश्वर के सामने चली गई बाजी है और लोगों से अपेक्षित है कि वे परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग बने रहें। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब का परीक्षण हुआ : पर्दे के पीछे शैतान परमेश्वर के साथ होड़ लगा रहा था और अय्यूब के साथ जो हुआ वह मनुष्यों के कर्म थे और मनुष्यों का विघ्न डालना था। परमेश्वर द्वारा तुम लोगों में किए गए कार्य के हर कदम के पीछे शैतान की परमेश्वर के साथ बाजी होती है—इस सब के पीछे एक संघर्ष होता है। ... हर उस चीज़ में, जिसका तुम सामना करते हो, एक संघर्ष है, और जब तुम्हारे भीतर एक संघर्ष चलता है, तो तुम्हारे वास्तविक सहयोग और पीड़ा के कारण, परमेश्वर तुम्हारे भीतर कार्य करता है। अंततः, अपने भीतर तुम मामले को एक ओर रखने में सक्षम होते हो और क्रोध स्वाभाविक रूप से समाप्त हो जाता है। परमेश्वर के साथ तुम्हारे सहयोग का ऐसा ही प्रभाव होता है। हर चीज जो लोग करते हैं, उसमें उन्हें अपने प्रयासों के लिए एक निश्चित कीमत चुकाने की आवश्यकता होती है। बिना वास्तविक कठिनाई के वे परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकते; वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के करीब तक भी नहीं पहुँचते और केवल खोखले नारे लगा रहे होते हैं! क्या ये खोखले नारे परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं? जब परमेश्वर और शैतान आध्यात्मिक क्षेत्र में संघर्ष करते हैं, तो तुम्हें परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करना चाहिए और किस प्रकार उसकी गवाही में अडिग रहना चाहिए? तुम्हें यह पता होना चाहिए कि जो कुछ भी तुम्हारे साथ होता है, वह एक महान परीक्षण है और ऐसा समय है, जब परमेश्वर चाहता है कि तुम उसके लिए गवाही दो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने से मुझे समझ आया कि हर दिन घटित होने वाली सभी छोटी-बड़ी चीजें परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्था का हिस्सा हैं। ये सभी मामले आध्यात्मिक लड़ाई का हिस्सा हैं और परमेश्वर चाहता है कि लोग अपनी गवाही में दृढ़ रहें। आज मैं परमेश्वर पर विश्वास करके और अपना कर्तव्य निभाते हुए जीवन में सही मार्ग पर चल रही थी, जिसे परमेश्वर स्वीकारता है। लेकिन शैतान हर जगह गड़बड़ी और रुकावटें पैदा कर रहा था। चूँकि मेरा पति परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता था इसलिए वह शैतान का था। वह सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचता था। जब मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी और परिवार के मामलों का ध्यान नहीं रख पा रही थी तो अनजाने में मेरे पति के हित प्रभावित हुए, तो उसने हंगामा शुरू कर दिया, मेरे काम में बाधा और व्यवधान डाला। मुझे डर था कि हमारी शादी टूट जाएगी, इसलिए मैं अगुआ के पद से इस्तीफा देना चाहती थी और अपने परिवार की ज्यादा आसानी से देखभाल करने के लिए कोई सरल काम लेना चाहती थी। मैं अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रही और लगभग शैतान के बहकावे में आ गई। मैं इस तरह अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हट सकती थी, इसलिए मैंने इस्तीफा देने का विचार त्याग दिया।

एक दिन मैं बहुत देर से घर पहुँची और मेरे पति ने गुस्से में मुझे एक बार फिर डाँटा, “ओह, मैं देख रहा हूँ कि तुम रात अपने ‘होटल’ में बिताने आई हो। ऐसा लगता है कि तुम अब मेरे साथ जिंदगी नहीं जीना चाहती।” अपने पति को इस तरह बर्ताव करते देख मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, कि वह मुझे आस्था और शक्ति प्रदान करे ताकि मैं उसके लिए अपनी गवाही में दृढ़ रह सकूँ। मेरे पति का गुस्सा उतरने के बाद मैंने उससे कहा, “मैंने पिछले तीस सालों तक इस परिवार के लिए काफी त्याग किया है। मेरे उन सहकर्मियों को देखो; सेवानिवृत्त होने के बाद वे या तो माहजोंग खेल रहे हैं, नाच रहे हैं या फिर घूमने जा रहे हैं। वे कभी घर पर नहीं रहते और तरह-तरह से पैसा खर्च करते हैं। अब मैं परमेश्वर पर विश्वास कर रही हूँ, सही रास्ते पर चल रही हूँ और अपना कुछ समय दे रही हूँ और फिर भी तुम इसके खिलाफ हो, हर दिन मुझसे झगड़ते हो। अगर तुम साथ नहीं रहना चाहते तो कल ही तलाक के लिए अर्जी दाखिल कर दो। अगर तुम साथ रहना चाहते हो तो मेरे काम में दखल देना बंद करो; मुझे अपनी मर्जी से कुछ भी करने की आजादी है।” वह बस सदमे में खड़ा रहा और कुछ और नहीं बोला। अगली सुबह मैंने उससे पूछा, “तो तुम्हारा क्या कहना है? मुझे जवाब दो, क्या हम शादीशुदा रहेंगे या नहीं?” मुझे ऐसा कहते हुए सुनकर मेरे पति ने मेरे माथे पर अपनी उंगली तानी और कहा, “ओह, मैं तुम्हारे साथ क्या करने जा रहा हूँ?” उस समय मैं बहुत खुश थी। उसके बाद मैंने अपने पति की बड़बड़ाहट पर कोई ध्यान नहीं दिया और धीरे-धीरे उसने बड़बड़ाना कम कर दिया।

मई 2022 में मुझे एक प्रचारक के रूप में चुना गया और कई कलीसिया के काम का प्रभारी बनाया गया। प्रमोशन होने पर खुश होना चाहिए था लेकिन मुझे लगा जैसे मेरे दिल पर बहुत बड़ा बोझ है और मैंने सोचा, “पिछले कुछ सालों से मैं एक कलीसिया अगुआ रही हूँ, हालाँकि मैं कलीसिया के काम में व्यस्त रहती थी, फिर भी मैं सुबह-शाम घर के कामों में समय दे सकती थी। अब मैं एक प्रचारक बनने जा रही हूँ और न केवल मैं व्यस्त रहूँगी, मुझे घर छोड़ना होगा और अपने पति से अलग रहना होगा क्योंकि कुछ कलीसिया बहुत दूर हैं। वह इसे कैसे स्वीकार करेगा? क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि मैं सक्रिय रूप से अपनी शादी से निकल रही हूँ? अगर भविष्य में मेरी शादी टूट जाती है और मैं अकेली रह जाती हूँ, तो मैं कैसे गुजारा कर पाऊँगी? मैं जल्द ही 60 साल की हो जाऊँगी; अगर भविष्य में मुझे कोई बीमारी हो जाती है तो मेरे लिए खाना बनाने या पानी पिलाने वाला भी कोई नहीं होगा। मैं ऐसे कैसे जी पाऊँगी?” जितना ज्यादा मैंने सोचा, मैं उतनी ही दुखी हो गई और मेरे चेहरे से बेतहाशा आँसू बहने लगे। मैं परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता थी, लेकिन जो सिद्धांत मैं पहले समझ चुकी थी, उसका कोई असर नहीं हुआ और चाहे मैंने कितनी भी कोशिश की हो, मैं उसे अमल में नहीं ला सकी। आखिरकार मैंने इस पद को इस आधार पर अस्वीकार दिया कि मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और मुझमें सत्य वास्तविकता नहीं है। उसके बाद कुछ दिनों तक मैं बहुत उथल-पुथल में रही और मैंने परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस किया और सोचा “कलीसिया ने कुछ सालों तक मुझे विकसित किया है और पूरा समय मैं कलीसिया अगुआ रही हूँ। मैंने अक्सर भाई-बहनों के साथ परमेश्वर के प्रति समर्पण के सत्य के बारे में संगति की है, लेकिन जब इस कर्तव्य के लिए मेरी जरूरत पड़ी तो मैं कायर बन गई और अपनी शादी और परिवार को चुना। मैं शैतान के उपहास का पात्र बन गई हूँ; मैं खुद को परमेश्वर की अनुयायी कैसे कह सकती हूँ? मैं सचमुच बेकार हूँ!” मैं तुरंत सत्य खोजकर अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करना चाहती थी, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कौन वास्तव में पूरी तरह से मेरे लिए खप सकता है और मेरी खातिर अपना सब-कुछ अर्पित कर सकता है? तुम सभी अनमने हो; तुम्हारे विचार इधर-उधर घूमते हैं, तुम घर के बारे में, बाहरी दुनिया के बारे में, भोजन और कपड़ों के बारे में सोचते रहते हो। इस तथ्य के बावजूद कि तुम यहाँ मेरे सामने हो, मेरे लिए काम कर रहे हो, अपने दिल में तुम अभी भी घर पर मौजूद अपनी पत्नी, बच्चों और माता-पिता के बारे में सोच रहे हो। क्या ये सभी चीजें तुम्हारी संपत्ति हैं? तुम उन्हें मेरे हाथों में क्यों नहीं सौंप देते? क्या तुम्हें मुझ पर पर्याप्त विश्वास नहीं है? या ऐसा है कि तुम डरते हो कि मैं तुम्हारे लिए अनुचित व्यवस्थाएँ करूँगा? तुम हमेशा अपने दैहिक परिवार के बारे में परेशान क्यों रहते हो और तुम हमेशा अपने प्रियजनों के लिए चिंता क्यों महसूस करते हो? क्या तुम्हारे दिल में मेरा कोई निश्चित स्थान है? तुम फिर भी मुझे अपने भीतर प्रभुत्व रखने और अपने पूरे अस्तित्व पर कब्जा करने देने की बात करते हो—ये सभी कपटपूर्ण झूठ हैं! तुम में से कितने लोग कलीसिया के लिए पूरे दिल से समर्पित हो? और तुम में से कौन अपने बारे में नहीं सोचता, बल्कि आज के राज्य की खातिर कार्य कर रहा है? इस बारे में बहुत ध्यानपूर्वक सोचो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 59)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए ऐसा लगा मानो परमेश्वर मेरे सामने ही मेरा न्याय कर रहा है। उसने मेरी वास्तविक स्थिति को उजागर कर दिया। ऐसा लगता था कि मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, हर दिन बहुत व्यस्त रहती हूँ, लेकिन अंदर ही अंदर मैं हमेशा अपने परिवार के बारे में सोचती रहती थी। कभी-कभी जब मैं किसी सभा में होती तो मुझे चिंता लगी रहती कि मेरे पति ने अभी तक खाना खाया होगा या नहीं। जब मैंने देखा कि वह अस्पताल में अपनी माँ की देखभाल करके बहुत थक गया है तो मैंने उसका बोझ कुछ हल्का करने के लिए कोई सरल कार्य करना चाहा। जब मैं अपने काम में व्यस्त थी और इससे मेरा पति नाखुश था, तो मैंने अगुआ के काम से इस्तीफा देना चाहा। मैं बेकार ही उम्मीद कर रही थी कि मैं दोनों जिम्मेदारियों को संभाल लूँगी। अपने परिवार का ख्याल भी रख लूँगी और अपना कर्तव्य भी निभाऊँ लूँगी। क्या मैं दो नावों में सवार नहीं थी? मैंने शायद नारे लगाए हों कि “परमेश्वर सब पर संप्रभुता रखता है,” लेकिन दरअसल मुझे परमेश्वर पर जरा भी सच्ची आस्था नहीं थी और मैंने सब कुछ उसके हाथों में सौंपने की हिम्मत नहीं की। जब कलीसिया ने मुझे प्रचारक के पद पर पदोन्नत किया, तो मैंने कलीसिया के काम की जरूरतों के बारे में जरा भी नहीं सोचा और मैं सिर्फ अपनी शादी के बारे में सोचती रही, मुझे चिंता थी कि मेरे पति से अलग रहने से हमारी शादी टूट जाएगी और फिर मेरा कोई परिवार नहीं रहेगा। वास्तव में मेरी शादी को बचाए रखना मेरे बस में नहीं था। अगर मेरी शादी टूटनी थी तो यह टूट जाएगी, भले ही मैं हर दिन घर पर रहूँ। मेरी एक दोस्त थी जो अपने पति के साथ हर जगह जाती थी, वे दोनों दो शरीर एक जान थे। लेकिन उसकी आँखों के सामने ही उसके पति ने किसी दूसरी महिला के साथ संबंध बना लिए और उनका तलाक हो गया। कुछ विवाहित जोड़े ऐसे भी हैं, जो काम की वजह से अलग रहते थे और साल में सिर्फ कुछ बार ही एक-दूसरे से मिल पाते थे, लेकिन फिर भी उनकी शादी लंबे समय तक चली। इस बात को समझकर मैं अपनी शादी परमेश्वर के हाथ में सौंपने के लिए तैयार थी। मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरी भ्रष्टता उजागर करने के लिए इन परिस्थितियों को तैयार करने के लिए धन्यवाद। मैं देखा है कि मुझे सत्य से प्रेम नहीं है और मेरी प्रकृति अत्यंत स्वार्थी है। मैंने सिर्फ अपने दैहिक हितों के बारे में सोचा, मैं सिर्फ अपनी शादी बचाना चाहती हूँ। हे परमेश्वर, मैं तुम पर भरोसा करने और अपनी शादी तोड़ने के लिए तैयार हूँ! अगर भविष्य में मुझे घर छोड़कर अपना कर्तव्य निभाने का एक और मौका मिले तो मैं अपना कर्तव्य चुनने और तुम्हें संतुष्ट करने के लिए तैयार हूँ।”

कई महीनों बाद मुझे फिर से प्रचारक बनने के लिए चुना गया। उस समय मैं बहुत भावुक थी और सोच रही थी “मैं पहले परमेश्वर को चोट पहुँचाकर निराश कर चुकी हूँ और अपने कर्तव्य में उसके प्रति बहुत ऋण संचित कर चुकी हूँ, लेकिन उसने मुझे पश्चात्ताप करने का एक मौका दिया है। इस बार मैं उसे संतुष्ट करने जा रही हूँ।” लेकिन जब मैंने सोचा कि मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ना पड़ेगा, तब भी मुझे बहुत आंतरिक द्वंद्व महसूस हुआ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उसके वचनों के एक अंश के बारे में सोचा, जो मैंने पहले पढ़ा था: “तुम्हें सत्य के लिए कष्ट उठाने होंगे, तुम्हें सत्य के लिए खुद को बलिदान करना होगा, तुम्हें सत्य के लिए अपमान सहना होगा, और अधिक सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अधिक कष्ट उठाने होंगे। यही तुम्हें करना चाहिए। एक सामंजस्यपूर्ण पारिवारिक जीवन का आनंद लेने के लिए तुम्हें सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए, और क्षणिक आनंद के लिए तुम्हें जीवन भर की गरिमा और सत्यनिष्ठा को नहीं खोना चाहिए। तुम्हें उस सबका अनुसरण करना चाहिए जो खूबसूरत और अच्छा है, और तुम्हें अपने जीवन में एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जो ज्यादा अर्थपूर्ण है। यदि तुम ऐसा साधारण और सांसारिक जीवन जीते हो और तुम्हारे पास अनुसरण का कोई लक्ष्य नहीं है, तो क्या यह अपना जीवन बर्बाद करना नहीं है? ऐसे जीवन से तुम क्या हासिल कर पाओगे? तुम्हें एक सत्य के लिए देह के सभी सुखों का त्याग करना चाहिए, और थोड़े-से सुख के लिए सारे सत्यों का त्याग नहीं कर देना चाहिए। ऐसे लोगों में कोई सत्यनिष्ठा या गरिमा नहीं होती; उनके अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं होता!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति दी। मैं अपनी शुरू की आधी जिंदगी पूरी तरह से देह के लिए जीती रही और खुद को चीजों में व्यस्त रखा। मैंने केवल पारिवारिक सुख और दैहिक शांति की तलाश की। इस तरह से जीने का कोई मूल्य और अर्थ नहीं था और अंत में मैं केवल खाली हाथ और पछतावे के साथ मरती। परमेश्वर ने मुझे परमेश्वर के घर आने के लिए चुना और मुझे सत्य और जीवन पाने का मौका दिया, लेकिन मैं कृतज्ञ नहीं थी और मैंने उसे अपना पूरा दिल नहीं दिया, मैंने अपनी शादी बचाने के लिए अपना कर्तव्य अस्वीकारा और परमेश्वर के सामने अपराध किया। अब परमेश्वर ने मुझे एक बार फिर से अनुग्रहित किया, मुझे प्रचारक बनने का मौका दिया। मैं अपने कर्तव्य को फिर से महज इसलिए अस्वीकार नहीं सकती थी क्योंकि मुझे चिंता थी कि मेरी शादी टूट जाएगी; इस तरह से जीने में कोई ईमानदारी, गरिमा या मूल्य नहीं था। मैंने परमेश्वर पर विश्वास करने और उसका अनुसरण करने का विकल्प चुना था, इसलिए मुझे उसे चीजों का आयोजन करने देना था। सत्य पाने के लिए कुछ भी त्यागना उचित था। भले ही घर छोड़ने के बाद मेरी शादी टूट जाए, फिर भी मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँगी और इस बार परमेश्वर के लिए जीऊँगी।

अपने कर्तव्य के लिए घर छोड़ने के ठीक बाद जब भी मुझे खाली समय मिलता तो मैं अपने पति के बारे में सोचती थी और मैं अपने काम में पूरी तरह से अपना दिल नहीं लगा रही थी। मुझे पता था कि मैंने अभी भी अपनी शादी को पूरी तरह से अपने मन से नहीं निकाला है। बाद में जब मैंने शादी के बारे में सत्यों पर परमेश्वर की संगति देखी तो यह एक अमूल्य खजाने की खोज करने जैसा था और मैंने इसे बारीकी से पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कई लोग अपने जीवन की खुशी का आधार अपनी शादी को बना लेते हैं, और खुशी की तलाश में उनका मकसद अपनी शादी के सुख के पीछे भागना और उसे आदर्श बनाना होता है। वे मानते हैं कि अगर उनकी शादी खुशहाल होगी और वे अपने साथी के साथ खुश रहेंगे, तो उनका जीवन सुखद रहेगा, और इसलिए वे एड़ी-चोटी का जोर लगाकर अपनी शादी को खुशहाल बनाना ही जीवन का मकसद बना लेते हैं। ... ऐसे लोगों के दिलों में, वैवाहिक सुख किसी भी दूसरी चीज से अधिक अहम होता है, और इसके बिना, वे पूरी तरह हताश महसूस करते हैं। उनका मानना है, ‘एक खुशहाल शादी के लिए प्यार सबसे जरूरी चीज है। क्योंकि मैं अपने साथी से प्यार करता हूँ और मेरी साथी मुझसे प्यार करती है, सिर्फ इसलिए हमारी शादी खुशहाल रही है और हम अब तक साथ रह पाए हैं। अगर मैंने यह प्यार खो दिया और इसका कारण परमेश्वर में मेरा विश्वास और मेरा कर्तव्य निभाना हुआ, तो क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि मैंने अपना वैवाहिक सुख हमेशा के लिए खो दिया है, और मैं फिर कभी इस वैवाहिक सुख का आनंद नहीं ले पाऊँगा? वैवाहिक सुख के बिना हमारा क्या होगा? मेरे प्यार के बिना मेरी साथी का जीवन कैसा होगा? अगर मैंने अपनी साथी का प्यार खो दिया तो मेरा क्या होगा? क्या एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के समक्ष रहकर मनुष्य होने का लक्ष्य हासिल करने से इस नुकसान की भरपाई हो सकती है?’ वे नहीं जानते, उनके पास कोई जवाब नहीं है, और वे सत्य के इस पहलू को नहीं समझते। इसलिए, जब परमेश्वर के घर को ऐसे लोगों की जरूरत पड़ती है जो वैवाहिक सुख को दूसरी सभी चीजों से बढ़कर मानते हैं, और उनसे अपना घर छोड़कर किसी दूर देश में जाकर सुसमाचार फैलाने और अपना कर्तव्य निभाने की अपेक्षा की जाती है, तो वे अक्सर इस तथ्य को जानकर निराश, असहाय और यहाँ तक कि असहज महसूस करते हैं कि जल्द ही उनका वैवाहिक सुख खत्म हो सकता है। कुछ लोग अपने वैवाहिक सुख को बनाए रखने के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करना छोड़ देते हैं या उन्हें करने से इनकार कर देते हैं, और कुछ लोग तो परमेश्वर के घर की महत्वपूर्ण व्यवस्थाओं को भी अस्वीकार कर देते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने वैवाहिक सुख को बनाए रखने के लिए अक्सर अपने जीवनसाथी की भावनाओं को जानने की कोशिश करते हैं। अगर उनका जीवनसाथी जरा भी दुखी होता है या अपनी आस्था, अपने द्वारा अपनाए गए परमेश्वर में आस्था के मार्ग और अपने कर्तव्य पालन को लेकर थोड़ी सी भी नाखुशी या असंतोष दिखाता है, तो वे तुरंत अपना रास्ता बदलकर रियायतें देने लगते हैं। अपने वैवाहिक सुख को बनाए रखने के लिए, वे अक्सर अपने जीवनसाथी को रियायतें देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें अपने कर्तव्य निभाने के अवसरों को भी त्यागना पड़े, और सभाओं में हिस्सा लेने, परमेश्वर के वचन पढ़ने और आध्यात्मिक भक्ति करने का समय भी छोड़ना पड़े; वे अपने जीवनसाथी को अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाने और उन्हें अकेला और अलग-थलग महसूस न होने देने और अपने जीवनसाथी को अपने प्यार का एहसास दिलाने की भरसक कोशिश करेंगे; वे अपने जीवनसाथी का प्यार खोने या उसके बगैर रहने के बजाय सब कुछ त्यागना या छोड़ना पसंद करेंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने अपनी आस्था के लिए या परमेश्वर में आस्था के लिए चुने गए मार्ग की खातिर अपने जीवनसाथी के प्यार को त्याग दिया, तो इसका मतलब है कि उन्होंने अपने वैवाहिक सुख को त्याग दिया है और अब वे इस वैवाहिक सुख को महसूस नहीं कर पाएँगे, और फिर वे अकेले, बेचारे और दयनीय बन जाएँगे। किसी व्यक्ति के बेचारे और दयनीय होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है एक दूसरे के लिए प्यार या सम्मान न होना। भले ही ये लोग कुछ धर्म-सिद्धांत और परमेश्वर के उद्धार कार्य के महत्व को समझते हैं और बेशक, वे यह भी समझते हैं कि एक सृजित प्राणी के रूप में उन्हें सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए, मगर क्योंकि वे अपनी खुशी का जिम्मा अपने जीवनसाथी को सौंप देते हैं, और बेशक अपनी खुशी का आधार अपने वैवाहिक सुख को बनाते हैं, तो यह जानते और समझते हुए भी कि उन्हें क्या करना चाहिए, वे वैवाहिक सुख के पीछे भागना नहीं छोड़ पाते हैं। वे गलती से वैवाहिक सुख के पीछे भागने को अपने इस जीवन का मकसद बना लेते हैं, और गलती से वैवाहिक सुख की तलाश को उस मकसद के रूप में देखते हैं जिसका अनुसरण एक सृजित प्राणी को करना चाहिए और जिसे हासिल करना चाहिए। क्या यह गलती नहीं है? (बिल्कुल है।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (11))। परमेश्वर ने वैवाहिक सुख की खोज में मनुष्य के कुछ व्यवहारों को उजागर किया है। विवाह के बाद पति-पत्नी के बीच स्नेह बनाए रखने के लिए लोग अपने साथी को खुश करने के लिए कुछ न कुछ करते रहते हैं। या अपने वैवाहिक सुख को बनाए रखने के लिए वे खुद को खपाते हैं और कुछ त्याग करते हैं, कुछ लोग तो खुशहाल शादी के लिए अपना कर्तव्य निभाने का मौका भी छोड़ देते हैं, वैवाहिक सुख पाने को ही अपना लक्ष्य मान लेते हैं। परमेश्वर ने मेरी वास्तविक स्थिति उजागर कर दी थी; यह उसी का सच्चा चित्रण था जो मैं पूरी जिंदगी करती रही थी। शादी के बाद मैंने देखा कि मेरा पति परिवार के प्रति समर्पित है और मेरा काफी ख्याल रखता है, इसलिए मैंने सोचा कि मुझे सच्चा प्यार मिल गया है और ऐसा विवाह होना स्वर्ग से मिला उपहार है। इस तरह मैंने अपने पति को जीवन भर की खुशियाँ सौंप दीं, और वैवाहिक सुख पाने को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। अपनी शादी को खुशहाल बनाए रखने की खातिर मैंने एक पत्नी के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए कड़ी मेहनत की। मैं अपने पति के लिए रोज तीनों वक्त अलग-अलग तरह का खाना बनाती और उसे खुश करने के लिए घर के काम भी सँभालती। जब मैं अगुआ बन गई और कलीसिया के काम में व्यस्त हो गई तो अपने परिवार के बारे में सोचने में असमर्थ हो गई, मेरे पति को यह जरा भी पसंद नहीं आया। मुझे अपराध बोध हुआ और मैंने खुद को दोषी ठहराया, मैंने सोचा कि मैं अपने पति की ऋणी हूँ और एक पत्नी के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ निभा नहीं पाई हूँ। मेरे पति द्वारा मुझे डाँटे जाने के बाद मुझे चिंता हुई कि मेरा परिवार टूट जाएगा और मैं अपने पति के साथ अपने रिश्ते को बनाए रखने के लिए अपने कर्तव्य से इस्तीफा देना चाहती थी। जब मुझे प्रचारक के रूप में चुना गया तो मैंने सिर्फ अपनी शादी और अपने परिवार के बारे में सोचा, मैं न सिर्फ परमेश्वर के प्रति कृतघ्न हो गई बल्कि वैवाहिक सुख के लिए अपना कर्तव्य निभाने का मौका छोड़ने को भी प्राथमिकता दी। मैं उन गलत विचारों के अनुसार जी रही थी जो शैतान ने मेरे अंदर डाले थे, जैसे कि “पति और पत्नी एक-दूसरे से तब तक प्यार करेंगे, जब तक मौत उन्हें अलग न कर दे।” मैंने वैवाहिक सुख की खोज को सकारात्मक चीज माना था, मुझे लगता था कि अगर कोई विवाहित जोड़ा अपनी 25वीं या 50वीं सालगिरह तक साथ रहता है तो यह तारीफ की बात है। जब मैं छोटी थी तब मेरे माता-पिता एक-दूसरे से बहुत प्यार करते थे और हमेशा एक-दूसरे का साथ देते थे, इसलिए मैं वयस्क होने पर एक खुशहाल वैवाहिक जीवन की कामना करती थी। जब मेरी इच्छा पूरी हुई तो मैंने इसे पूरी तरह संजोकर रखा, वैवाहिक सुख को अपने जीवन का लक्ष्य माना और यहाँ तक कि इसे अपना कर्तव्य निभाने और सत्य पाने से भी अधिक महत्वपूर्ण माना, जिसके कारण मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं से भटक गई।

मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की और तुम्हें एक जीवनसाथी दिया है। शादी के बाद भी परमेश्वर के समक्ष तुम्हारी पहचान और दर्जा नहीं बदलता है—तुम अब भी तुम ही हो। अगर तुम महिला हो तो शादी के बाद भी तुम परमेश्वर के सामने एक महिला ही रहोगी; अगर तुम पुरुष हो तो शादी के बाद भी परमेश्वर के सामने तुम एक पुरुष ही रहोगे। लेकिन तुम दोनों के बीच एक चीज समान है, और वह यह है कि चाहे तुम पुरुष हो या महिला, तुम सभी सृष्टिकर्ता के सामने एक सृजित प्राणी हो। शादी के ढाँचे में, तुम एक-दूसरे से प्यार करते हो और एक-दूसरे के प्रति सहनशील रहते हो, तुम एक दूसरे की मदद और सहयोग करते हो, और यही तुम्हारे लिए जिम्मेदारियाँ निभाना है। लेकिन, परमेश्वर के सामने, जो जिम्मेदारियाँ तुम्हें निभानी चाहिए और जो मकसद तुम्हें पूरा करना चाहिए उसकी जगह अपने साथी के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियाँ नहीं ले सकती हैं। इसलिए, जब भी अपने साथी के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों और परमेश्वर के समक्ष रहकर एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियों को निभाने के बीच टकराव की स्थिति हो, तो तुम्हें अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के बजाय एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए। तुम्हें यही दिशा और यही लक्ष्य चुनना चाहिए, और बेशक, यही मकसद पूरा करना चाहिए। ... शादी के ढाँचे में किसी भी कीमत पर वैवाहिक सुख की तलाश करने वाले पति या पत्नी का कोई भी कार्य या कोई भी त्याग परमेश्वर याद नहीं रखेगा। चाहे तुम कितने ही अच्छे से या कितने ही सटीक तरीके से अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाओ, या अपने साथी की उम्मीदों पर खरा उतरो—दूसरे शब्दों में, चाहे तुम कितने ही अच्छे से या कितने ही सटीक तरीके से अपना वैवाहिक सुख बनाए रखते हो, या चाहे यह कितना ही बेहतरीन हो—इसका मतलब यह नहीं है कि तुमने एक सृजित प्राणी का मकसद पूरा कर लिया है, और न ही इससे साबित होता है कि तुम ऐसे सृजित प्राणी हो जो मानक के अनुरूप है। हो सकता है कि तुम एक आदर्श पत्नी या एक आदर्श पति हो, लेकिन यह बस शादी के ढाँचे तक ही सीमित है। तुम कैसे इंसान हो, सृष्टिकर्ता इसे इस आधार पर मापता है कि तुम उसके समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभाते हो, तुम किस मार्ग पर चलते हो, जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया क्या है, जीवन में तुम किस चीज का अनुसरण करते हो, और एक सृजित प्राणी होने का मकसद कैसे पूरा करते हो। इन चीजों को ध्यान में रखते हुए परमेश्वर एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे द्वारा अपनाया गया मार्ग और तुम्हारी मंजिल निर्धारित करता है। वह इन चीजों को इस आधार पर नहीं मापता है कि तुम पत्नी या पति के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को कैसे पूरा करते हो; न ही इस आधार पर कि अपने साथी के प्रति तुम्हारा प्यार परमेश्वर को खुश रखता है या नहीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (11))। जब परमेश्वर यह न्याय करता है कि लोग योग्य सृजित प्राणी हैं या नहीं तो वह देखता है कि वे किस मार्ग पर चलते हैं और वे सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य निभाते हैं या नहीं, न कि यह कि उनके परिवार सामंजस्यपूर्ण और खुश हैं या नहीं। जब परमेश्वर के घर के काम और अपने परिवार के हितों के बीच टकराव होता है तो परमेश्वर के घर के हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए, सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाना चाहिए और परमेश्वर के आदेश को पूरा करना चाहिए। यह सृजित प्राणियों का कर्तव्य-बद्ध उत्तरदायित्व है। यदि कोई वैवाहिक सुख के लिए अपना कर्तव्य नहीं निभाता है तो वह अपनी जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रहता है और मनुष्य कहलाने के लायक नहीं होता। शादी के दायरे में मुझे एक पत्नी के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए लेकिन सबसे पहले मैं एक सृजित प्राणी हूँ और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना ही मेरा वास्तविक जीवन का लक्ष्य है। जब इन दोनों के बीच टकराव होता है तो मुझे एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। अब मैं समझ गई हूँ कि वैवाहिक सुख पाने से मुझे उद्धार नहीं मिलेगा और यह सच्चा जीवन नहीं है; मुझे एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पहले रखना होगा। मुझे सही चुनाव करने का मार्गदर्शन देने के लिए मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी।

मैंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ना जारी रखा : “तुम्हें वैवाहिक सुख का अनुसरण त्यागने के लिए कहने का मतलब यह नहीं है कि तुम औपचारिकता के चक्कर में शादी को ही त्याग दो या तलाक ले लो, बल्कि इसका मतलब एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें अपना मकसद पूरा करने और वह कर्तव्य निभाने के लिए कहना है जो तुम्हें शादी में निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों को पूरा करने के आधार पर निभाना चाहिए। बेशक, अगर तुम्हारा वैवाहिक सुख का अनुसरण एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित, बाधित या यहाँ तक कि उसे बर्बाद करता है, तो तुम्हें न सिर्फ वैवाहिक सुख के अनुसरण को, बल्कि अपनी पूरी शादी को ही त्याग देना चाहिए। इन समस्याओं पर संगति करने का अंतिम उद्देश्य और अर्थ क्या है? यही कि वैवाहिक सुख तुम्हारे कदमों को न रोके, तुम्हारे हाथ न बाँधे, तुम्हारी आँखों पर पर्दा न डाले, तुम्हारी दृष्टि विकृत न करे, तुम्हें परेशान न करे और तुम्हारे दिमाग को काबू न करे; यह संगति इसलिए है ताकि तुम्हारा जीवन और जीवन पथ वैवाहिक सुख के अनुसरण से न भर जाए, और ताकि तुम शादी में पूरी की जाने वाली जिम्मेदारियों और दायित्वों के प्रति सही रवैया अपना सको और उन जिम्मेदारियों और दायित्वों के संबंध में, जो तुम्हें पूरे करने चाहिए, उनके बारे में सही फैसले ले सको। अभ्यास करने का एक बेहतर तरीका यह है कि तुम अपना ज्यादा समय और ताकत अपने कर्तव्य में लगाओ, वह कर्तव्य निभाओ जो तुम्हें निभाना चाहिए, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए मकसद को पूरा करो। तुम्हें कभी नहीं भूलना चाहिए कि तुम एक सृजित प्राणी हो, परमेश्वर ने ही तुम्हें जीवन के इस पड़ाव पर लाकर खड़ा किया है, वह परमेश्वर ही है जिसने तुम्हें शादी की व्यवस्था दी, एक परिवार दिया और वो जिम्मेदारियाँ सौंपी जो तुम्हें शादी के ढाँचे के भीतर निभानी चाहिए, और कि वह तुम नहीं हो जिसने तुम्हारी शादी तय की है, या ऐसा नहीं है कि तुम्हारी शादी बस यूँ ही हो गई, या फिर तुम अपनी क्षमताओं और ताकत के भरोसे अपने वैवाहिक सुख को बरकरार रख सकते हो। क्या अब मैंने इसे स्पष्ट रूप से समझा दिया है? (हाँ।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (10))। हमें वैवाहिक सुख की खोज को छोड़ने के लिए कहने में परमेश्वर हमें औपचारिकता के रूप में तलाक लेने के लिए नहीं कह रहा है, बल्कि हमें अपनी शादी की जिम्मेदारियाँ निभाने के अंतर्गत सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने के लिए कह रहा है। अगर हमारी शादी हमारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित या बाधित करती है तो हमें इसे छोड़ देना चाहिए परमेश्वर ने मेरे लिए अभ्यास करने का एक स्पष्ट मार्ग बताया। पहले मैंने वैवाहिक सुख की खोज की, इसके लिए आधी जिंदगी तक बहुत मेहनत की और जब मैंने परमेश्वर में विश्वास करना और अपना कर्तव्य निभाना शुरू किया, तब भी मैं इसमें गहराई तक फंसी हुई थी और खुद को इससे बाहर नहीं निकाल पा रही थी। मैंने अपनी शादी बनाए रखने के लिए अपने कर्तव्य को भी अस्वीकार दिया, जिससे मैं सत्य पाने के कई अवसर चूक गई। मैं अपना खोया हुआ समय वापस नहीं पा सकती थी। अब जब मैं लगभग 60 वर्ष की हो गई थी तो मैं अपने पास बचे हुए सीमित समय का उपयोग अपना कर्तव्य निभाने के लिए करना चाहती थी। जहां तक मेरी शादी के भविष्य की बात है, तो इस बारे में मेरा निर्णय अंतिम नहीं था। मुझे यह सब परमेश्वर को सौंपना था और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना था। उसके बाद मैंने अपना कर्तव्य निभाने में अपना सबकुछ झोंक दिया। जब समस्याएँ आईं तो मैंने उन बहनों के साथ संगति की, जिनके साथ मैं भागीदार थी, ताकि उन समस्याओं को हल कर सकूँ और जब मैं मुश्किलों में फँस गई तो मैंने उच्च-स्तरीय अगुआओं से मार्गदर्शन माँगा। कुछ समय के बाद मुझे अपने काम में कुछ नतीजे मिले। मैं सुबह-शाम आध्यात्मिक भक्ति करती और जब मेरी अवस्था ठीक न होती तो मैं तुरंत उसे सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करती। मुझे पता भी नहीं चला और मैंने खुद को कुछ सत्यों से युक्त कर लिया। जब मैं घर पर रहती थी तो मैं दिन में कलीसिया के काम में और सुबह-शाम को पारिवारिक मामलों में व्यस्त रहती थी, और यहाँ तक कि मेरी आध्यात्मिक भक्ति के लिए भी बहुत कम समय बचता था लेकिन अब मैं आखिरकार अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने के महत्व को महसूस कर रही थी और मेरे पास खुद को युक्त करने और सत्य पाने के लिए अधिक समय था। अब मैं समझती हूँ कि वैवाहिक सुख की खोज करना मेरा लक्ष्य नहीं है और इससे मैं उद्धार नहीं पा सकूँगी। मैं तभी सही मायने में जी पाऊँगी, जब मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा करूँगी।

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