71. सत्य का अभ्यास करने को लेकर मेरी शंकाएँ

जियांग पिंग, चीन

सितंबर 2021 में कलीसिया के कार्य की एक मद की मुझे जिम्मेदारी मिली और झाओ टिंग हमारी समूह अगुआ थी। जब सभी लोग साथ मिलकर काम पर चर्चा करते तो झाओ टिंग हमेशा अपने विचारों पर अड़ी रहती और दूसरों की जरा भी नहीं सुनती। इससे अक्सर हम गतिरोध में फँस जाते और काम आगे नहीं बढ़ पाता। मैं उससे इस बारे में बात करना चाहती थी, लेकिन मेरे शब्द जुबान पर नहीं आ पाते जब मुझे याद आता कि कैसे झाओ टिंग अक्सर मुझे अहंकारी, आत्मतुष्ट और अपने विचारों पर अड़ियल होने के रूप में उजागर करती है। भले ही मुझे पता होता था कि उसका कहा सच है, लेकिन मुझे यह दिल से नापसंद होता था। ऐसा लगता था कि वह ऐसा करके मेरे घावों पर नमक छिड़क रही है और मैं चाहती थी कि वह बस मुँह बंद कर ले। अगर मैं अब उसकी समस्या की ओर इशारा करूँ तो क्या उसे भी वही दर्द महसूस नहीं होगा जो मुझे हुआ था? मैंने सोचा कि चुप रहना ही बेहतर है ताकि हम दोनों में से किसी को भी बुरा न लगे। इसके अलावा मुझे दूसरों द्वारा उजागर किया जाना और मेरी समस्याएँ बताना पसंद नहीं था और मैं खुद बदल नहीं पाई थी लेकिन फिर भी दूसरों को बदलने के लिए कह रही थी, क्या इससे यह नहीं लगता कि मैं पूरी तरह से तर्कहीन हूँ? अगर वह मुझ पर पलटवार करती और कहती, “तुम तो दूसरों से सलाह लेना भी पसंद नहीं करती तो तुम्हें मेरी आलोचना करने का अधिकार किसने दिया?” तो मेरे पास कोई जवाब नहीं होता। साथ ही आमतौर पर हमारी अच्छी बनती है और हमारे बीच बहुत अच्छा तालमेल रहता है और हम एक-दूसरे से विनम्रता से बात करती हैं। अगर मैंने उसकी समस्याओं के बारे में बात की और वह मेरे साथ वह पहले तरह पेश नहीं आई और काम पर मेरा साथ नहीं देना चाहा तो क्या होगा? इन बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने उसे उसकी समस्याओं के बारे में नहीं बताया।

जल्दी ही वू शिन नाम की एक बहन हमारे समूह में शामिल हुई। कुछ समय बाद मैंने पाया कि वह कोई प्रगति नहीं कर रही है। वह हमेशा दूसरों से प्रतिस्पर्धा करती और जब वह आगे नहीं बढ़ पाती तो खीझने लगती। मैंने उसकी समस्याओं से संबंधित परमेश्वर के कुछ वचनों पर संगति की और मैंने उसका मार्गदर्शन और मदद करने के लिए सिद्धांतों का सहारा लिया। लेकिन उसने अपनी समस्या पर आत्म-चिंतन नहीं किया और कहा कि उसे नतीजे नहीं मिल रहे हैं क्योंकि हमने उसके साथ सिद्धांतों पर स्पष्ट संगति नहीं की है। उसे इस तरह देखकर मैं उसके साथ संगति करना चाहती थी और प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण करने के उसके सार का और इसी तरह आगे बढ़ने के परिणामों का गहन-विश्लेषण करना चाहती थी। लेकिन फिर मुझे याद आया कि कैसे उसने एक सभा में अपनी भ्रष्टता के खुलासे का उल्लेख किया था और कहा था कि उसे दूसरों की समस्याएँ बताना पसंद नहीं है और उसे यह भी पसंद नहीं है कि दूसरे हमेशा उसकी समस्याएँ बताएँ। मैंने सोचा, “प्रतिष्ठा और रुतबा मेरे लिए भी महत्वपूर्ण हैं और मैं धीरे-धीरे इस पहलू की खोज करना चाहती हूँ और खुद ही इसमें प्रवेश करना चाहती हूँ। मैं नहीं चाहती कि दूसरे मेरी समस्याएँ उजागर करें और उन पर ध्यान दिलाएँ। अगर मैं बहुत सख्ती से बात करती हूँ तो वह दुखी हो जाएगी। बेहतर होगा कि मैं संगति और उसकी मदद करके शुरुआत करूँ। शायद एक बार जब वह सिद्धांत समझ लेगी और कुछ नतीजे पा लेगी तो अहंकार और रुतबे की इच्छा पूरी न कर पाना उसे इतना नकारात्मक नहीं बनाएगा।” यह सोचकर मैंने उसकी समस्याएँ बताना बंद कर दिया। मुझे बाद में पता चला कि वू शिन की मानवता बहुत खराब है। वह अक्सर लोगों से अपमानजनक और व्यंग्यात्मक तरीके से बात करती है, जिससे वे बेबस हो जाते हैं और कभी-कभी वह अलग विचार रखने वालों पर हमला करती है और उन्हें अलग-थलग कर देती है। जब काम पर समस्याएँ सामने आती हैं तो वह जरा भी आत्म-चिंतन नहीं करती और जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करती है और उसे अपने कर्तव्य में कोई नतीजा नहीं मिल रहा है। सिद्धांतों के अनुसार उसे बर्खास्त किया जाना था। मुझे लगा कि ऐसा करने से वह नाराज हो सकती है, इसलिए मैंने उसकी स्थिति एक अगुआ को बताई। लेकिन अगुआ बहुत व्यस्त थी, इसलिए उसने मुझे वू शिन को बर्खास्त करने के लिए कहा। जब मैं उससे मिली तो मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए उसके निरंतर प्रयास, उसके हमलों और विभिन्न लोगों के बहिष्कार, और उसके मसीह विरोधी के मार्ग पर चलने का गहन-विश्लेषण करना चाहती थी, ताकि वह अपनी समस्याओं का सार और अंजाम जान सके, लेकिन मेरे शब्द जुबान तक नहीं आ सके। मैंने सोचा कि वह प्रतिष्ठा और रुतबे को कितना महत्व देती है और वह कितनी कमजोर है। अगर मैंने उसकी समस्याएँ उजागर कीं और उनका गहन-विश्लेषण किया और वह बर्दाश्त नहीं कर सकी और मेरे खिलाफ पूर्वाग्रह विकसित कर लिया तो क्या होगा? मैंने सोचा कि अपनी जुबान पर लगाम लगाना ही बेहतर होगा। इसलिए मैंने बस यह बताया कि उसे नतीजे नहीं मिल रहे हैं और फिर मैंने उसे बर्खास्त कर दिया, उसे दिलासा देने वाली कुछ बातें कहीं और ठीक से आत्म-चिंतन करने को कहा। जब अगुआ को पता चला कि मैंने वू शिन के व्यवहार का गहन-विश्लेषण नहीं किया है तो उसने मेरी काट-छाँट करते हुए कहा, “उसकी समस्याएँ बहुत गंभीर थीं, लेकिन तुमने उन्हें उजागर या उनका गहन-विश्लेषण नहीं किया! तुम बहुत ज्यादा खुशामदी हो!” यह सुनना बहुत भारी पड़ा। मुझे पता था कि मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाई हैं, लेकिन मैंने उस समय आत्म-चिंतन नहीं किया। बाद में एक घटना होने पर ही मैंने आखिरकार आत्म-चिंतन शुरू किया।

उस समय झाओ टिंग और उसके समूह ने निकाले जाने वाले व्यक्तियों के बारे में कुछ जानकारी जुटाई, लेकिन इसमें बहुत सारे बिंदु अस्पष्ट थे। सामान्य परिस्थितियों में इस तरह की निम्न-स्तरीय गलतियाँ नहीं होतीं। मैंने दूसरों से पूछा कि चल क्या रहा है और उन्होंने कहा कि झाओ टिंग अपनी ही चला रही है। कोई कुछ भी सुझाव देता तो वह उसे नकार देती। वे सभी बेबस थे और उन्हें बस वही करना पड़ रहा था जो वह कहती थी। यह सुनकर मुझे बहुत अपराध बोध हुआ। मुझे उसकी इस समस्या के बारे में बहुत पहले से पता था, लेकिन उसे नाराज करने से डर से मैंने कभी इसे उजागर नहीं किया और परिणामस्वरूप कार्य में देरी होती आ रही थी। मैंने आखिरकार सत्य की तलाश और आत्म-चिंतन शुरू किया। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अंतरात्मा और विवेक दोनों ही व्यक्ति की मानवता के घटक होने चाहिए। ये दोनों सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें अंतरात्मा नहीं है और सामान्य मानवता का विवेक नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। अधिक विस्तार में जाएँ तो ऐसा व्यक्ति किस लुप्त मानवता का प्रदर्शन करता है? विश्लेषण करो कि ऐसे लोगों में कैसे लक्षण पाए जाते हैं और वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं। (वे स्वार्थी और नीच होते हैं।) स्वार्थी और नीच लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं और अपने को उन चीजों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर के इरादों का लिहाज नहीं करते हैं। वे अपने कर्तव्य को करने या परमेश्वर की गवाही देने की कोई जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। ... कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ पर कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। वे पता चलने वाली समस्याओं की रिपोर्ट भी तुरंत अपने वरिष्ठों को नहीं करते। लोगों को विघ्न-बाधा डालते देखकर वे आँखें मूँद लेते हैं। जब वे दुष्ट लोगों को बुराई करते देखते हैं, तो वे उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करते। वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, न ही इस बात पर विचार करते हैं कि उनका कर्तव्य और जिम्मेदारी क्या है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते; वे खुशामदी लोग हैं और सुविधा के लालची होते हैं; वे केवल अपने घमंड, साख, हैसियत और हितों के लिए बोलते और कार्य करते हैं, और वे अपना समय और प्रयास ऐसी चीजों में लगाना चाहते हैं, जिनसे उन्हें लाभ मिलता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी वास्तविक अवस्था उजागर कर दी। मैंने देखा था कि झाओ टिंग का स्वभाव अहंकारी है और वह दूसरों को बेबस करती है, जिससे काम पर असर पड़ रहा है। एक पर्यवेक्षक के रूप में मुझे उसकी समस्या बताकर उजागर करनी चाहिए थी, लेकिन मुझे चिंता थी कि वह इसे स्वीकार नहीं करेगी और फिर मेरे बारे में उल्टा-सीधा सोचेगी, इसलिए जब भी मैंने उसकी समस्या बतानी चाही तो ऐसा लगा मानो मेरी बोलती बंद हो गई हो और मेरे शब्द जुबान पर नहीं आ पाते थे। मैंने काम का इस्तेमाल बहाने की तरह किया, सोचा कि अगर हमारा रिश्ता टूट गया तो वह काम में मेरा साथ नहीं देगी। ऐसा लग रहा था कि मुझे काम की फिक्र है, लेकिन मैं बस दरअसल अपना दोस्ताना और अच्छा रिश्ता खराब नहीं करना चाहती थी और मैं अपने भाई-बहनों पर अच्छी छाप छोड़ना चाहती थी। इसके अलावा मैंने साफ देखा कि वू शिन की समस्याएँ गंभीर हैं, लेकिन मुझे डर था कि अगर मैंने उसकी समस्याएँ उजागर कीं और उनकी ओर ध्यान दिलाया तो वह मुझे खराब नजर से देखेगी, इसलिए मैं उसकी समस्याएँ उजागर करने में लगातार नाकाम रही और परिणामस्वरूप वह खुद को नहीं पहचान पाई और उसका भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदला और उसने कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी डाली और दूसरों को बेबस महसूस कराया। अपना कर्तव्य करते समय मैं केवल अपने हितों और दूसरों के दिलों में अपनी जगह के बारे में सोच रही थी। मैंने दूसरों को कर्तव्यों में अपने भ्रष्ट स्वभाव पर भरोसा करके काम में बाधा और गड़बड़ी डालते देखा और मैंने इसे नजरअंदाज कर दिया, कलीसिया के काम पर जरा भी विचार नहीं किया। मैं बहुत स्वार्थी थी, मुझमें कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं था!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे समझ आया कि मैं हमेशा दूसरों की समस्याएँ बताने से डरती थी और हमेशा उनकी ओर से आँखें मूंद लेती थी, क्योंकि मैं शैतानी फलसफों पर निर्भर थी जैसे “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है,” और “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” मैंने हमेशा सोचा कि मुझे तभी कुछ करना चाहिए जब मुझे उससे लाभ हो और किसी की समस्याएँ बताने और उजागर करने से वह नाराज होगा और मुझे कोई लाभ नहीं होगा, इसलिए मैं ऐसा नहीं करना चाहती थी। मैं बहुत स्वार्थी, नीच, चंचल और धोखेबाज थी। मैंने देखा कि झाओ टिंग घमंडी और जिद्दी है और दूसरों की बात नहीं सुनती है और उसने काम भी प्रभावित किया था, लेकिन उसकी समस्याओं को उजागर करने या उनका गहन विश्लेषण करने के बजाय उसके साथ अपना रिश्ता बचाना चाहती थी। मुझे हमेशा डर रहता था कि मैं उसे कहीं नाराज न कर दूँ और उसे खुश करने के लिए हमेशा आज्ञाकारी बनी रहती थी। मैं लोगों को नाराज करने से डरती थी लेकिन परमेश्वर को नाराज कर रही थी और मैंने कलीसिया के हितों पर विचार नहीं किया। मैं अंतरात्मा और विवेक के बिना नीच और बेकार जीवन जी रही थी। अंतरात्मा और विवेक वाला इंसान जब दूसरों को बुरी अवस्था में देखता है तो उनकी मदद करने के लिए सत्य पर संगति कर सकता है और जब वह किसी को कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी डालते देखता है तो वह उन्हें उजागर करने और रोकने के लिए खड़ा हो सकता है। एक पर्यवेक्षक के रूप में मुझे और ज्यादा दायित्व और जिम्मेदारी लेनी चाहिए। चाहे किसी भाई-बहन को अपनी अवस्था या काम से कोई समस्या हो, मुझे उनके साथ संगति करके उनकी मदद करनी चाहिए। अगर कोई व्यक्ति कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी डाल रहा है तो मुझे उसकी काट-छाँट करनी चाहिए, उसे उजागर करना चाहिए और उसे समय रहते रोकना चाहिए। एक पर्यवेक्षक को इस तरह अपना काम करना चाहिए। लेकिन दूसरों के मन में अपनी अच्छी छवि को बचाने के लिए मैंने बुनियादी जिम्मेदारियाँ भी नहीं निभाईं। मैं काम के प्रति गैर-जिम्मेदार थी और मैंने अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश पर बिल्कुल विचार नहीं किया। मैंने देखा कि खुशामद करने वाली बनकर मैं वाकई दुष्ट और दुर्भावनापूर्ण बन गई थी। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना परमेश्वर को घिनौना और घृणित लगता है। अगर मैं ऐसे ही चलती रही तो अंत में परमेश्वर द्वारा मुझे उजागर कर निकाल दिया जाएगा। इन बातों का एहसास होना बहुत परेशान करने वाला था। मैं इस तरह से जीना नहीं चाहती थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं सत्य का अभ्यास करना चाहती हूँ, लेकिन मेरा भ्रष्ट स्वभाव बहुत गंभीर है। मुझे स्वयं को जानने और अभ्यास का मार्ग खोजने के लिए प्रबुद्ध करो।”

एक दिन मैंने अपनी भक्ति में पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “कलीसिया में मेरी गवाही में दृढ़ रहो, सत्य पर टिके रहो; सही सही है और गलत गलत है। काले और सफ़ेद के बीच भ्रमित मत होओ। तुम शैतान के साथ युद्ध करोगे और तुम्हें उसे पूरी तरह से हराना होगा, ताकि वह फिर कभी न उभरे। मेरी गवाही की रक्षा के लिए तुम्हें अपना सब-कुछ देना होगा। यह तुम लोगों के कार्यों का लक्ष्य होगा—इसे मत भूलना(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 41)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। मुझे हर चीज में सत्य सिद्धांतों को बनाए रखने और कलीसिया के हितों की रक्षा करने की जरूरत है। झाओ टिंग अपने कर्तव्यों में अपने भ्रष्ट स्वभाव पर निर्भर होकर पहले ही कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी डाल चुकी थी। मुझे उसके साथ संगति करनी थी और उसे उजागर करके गहन-विश्लेषण करना था, ताकि वह अपनी समस्याएँ जान सके। अगर वह फिर भी आत्म-चिंतन या पश्चात्ताप नहीं करती तो मुझे उसे तुरंत स्थानांतरित या बरखास्त करना पड़ेगा। बाद में मैंने झाओ टिंग को उसकी समस्याओं के बारे में बताया और मैंने अहंकारी स्वभाव को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े। परमेश्वर के वचन पढ़कर उसे अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में कुछ ज्ञान मिला और फिर उसने कुछ सुधार और बदलाव किए। जब किसी चर्चा में सभी अलग-अलग विचार रखते थे तो वह उन्हें खोज और सुन पाती थी, अब वह अपने विचार नहीं थोपती थी। दूसरों के साथ अपने रिश्ते न बचाने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने से मुझे सहजता महसूस हुई। इस तरह जीने से मैं आखिरकार कुछ हद तक मानव के समान हो गई थी।

बाद में मैंने सोचा : “मेरे स्वार्थ, मतलबीपन और अपने हितों की रक्षा करने की इच्छा के अलावा और कौन सी चीजें मुझे हमेशा लोगों की खुशामद करने के लिए बेबस करती थीं?” एक दिन एक सभा में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े जो कहते हैं : “शाब्दिक अर्थ में, ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ का अर्थ है कि अगर तुम कोई चीज पसंद नहीं करते, या कोई चीज करना पसंद नहीं करते, तो तुम्हें उसे अन्य लोगों पर भी नहीं थोपना चाहिए। यह चतुराई भरा और उचित लगता है, लेकिन अगर तुम हर स्थिति सँभालने के लिए यह शैतानी फलसफा इस्तेमाल करोगे, तो तुम कई गलतियाँ करोगे। इस बात की संभावना है कि तुम लोगों को चोट पहुँचाओगे, गुमराह करोगे, यहाँ तक कि लोगों को नुकसान भी पहुँचा दोगे। वैसे ही, जैसे कुछ माता-पिताओं को पढ़ने का शौक नहीं होता लेकिन वे चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़ें, और उनसे मेहनत से पढ़ने का आग्रह करते हुए हमेशा बहस करने की कोशिश करते हैं। अगर यहाँ ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ की अपेक्षा लागू की जाए, तो इन माता-पिताओं को अपने बच्चों को पढ़ने पर मजबूर नहीं करना चाहिए, क्योंकि उन्हें खुद इसमें आनंद नहीं आता। कुछ लोग हैं जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते; फिर भी वे अपने हृदय में जानते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना ही जीवन का सही मार्ग है। अगर वे देखते हैं कि उनके बच्चे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते और सही रास्ते पर नहीं हैं, तो वे उनसे परमेश्वर पर विश्वास करने का आग्रह करते हैं। भले ही वे खुद सत्य का अनुसरण नहीं करते, फिर भी वे चाहते हैं कि उनके बच्चे सत्य का अनुसरण करें और आशीष पाएँ। इस स्थिति में, अगर उन्होंने ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ की कहावत का पालन किया, तो इन माता-पिताओं को अपने बच्चों से परमेश्वर पर विश्वास करने का आग्रह नहीं करना चाहिए। यह इस शैतानी फलसफे के अनुरूप होगा, लेकिन यह उनके बच्चों का उद्धार का अवसर भी नष्ट कर देगा। इस परिणाम के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या नैतिक आचरण की परंपरागत कहावत ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ लोगों को नुकसान नहीं पहुँचाती? ... उदाहरण के लिए, कुछ लोग सत्य से प्रेम नहीं करते; वे दैहिक सुखों के लिए लालायित रहते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय ढीले पड़ने के तरीके ढूँढ़ते हैं। वे कष्ट उठाने या कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं हैं। वे सोचते हैं कि ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ कहावत अच्छी तरह से बात को कहती है, और वे लोगों को बताते हैं, ‘तुम लोगों को सीखना चाहिए कि आनंद कैसे लिया जाए। तुम्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने या कठिनाई झेलने या कोई कीमत चुकाने की आवश्यकता नहीं है। अगर तुम ढीले पड़ सकते हो, तो ढीले पड़ जाओ; अगर तुम कोई चीज जैसे-तैसे निपटा सकते हो, तो निपटा दो। अपने लिए चीजें इतनी कठिन मत बनाओ। देखो, मैं इसी तरह जीता हूँ—क्या यह बहुत अच्छा नहीं है? मेरा जीवन एकदम उत्तम है! तुम लोग उस तरह जीकर खुद को थका रहे हो! तुम लोगों को मुझसे सीखना चाहिए।’ क्या यह ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ की अपेक्षा पूरी नहीं करता? अगर तुम इस तरह से कार्य करते हो, तो क्या तुम जमीर और विवेक वाले व्यक्ति हो? (नहीं।) अगर व्यक्ति अपना जमीर और विवेक खो देता है, तो क्या उसमें सद्गुण की कमी नहीं है? इसे ही सद्गुण की कमी कहा जाता है। हम इसे ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि वह आराम की लालसा रखता है, अपना कर्तव्य जैसे-तैसे निपटाता है, और दूसरों को अनमना होने और आराम की लालसा रखने में अपने साथ शामिल होने के लिए उकसाता और प्रभावित करता है। इसमें क्या समस्या है? अपने कर्तव्य में अनमना और गैर-जिम्मेदार होना चालाकी बरतने और परमेश्वर का विरोध करने का कार्य है। अगर तुम अनमने बने रहते हो और पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम उजागर कर बाहर निकाल दिए जाओगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (10))। “‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ एक बहुत ही समस्यात्मक कहावत है। इसमें कमियाँ और खामियाँ बिल्कुल स्पष्ट हैं; यह विश्लेषण करने और पहचानने लायक भी नहीं है। जरा-सी जाँच करने पर ही इसकी त्रुटियाँ और हास्यास्पदता स्पष्ट दिखाई दे जाती है। हालाँकि, तुममें से कई ऐसे हैं, जो इस कहावत से आसानी से सहमत और प्रभावित हो जाते हैं और बिना विचारे इसे स्वीकार लेते हैं। दूसरों के साथ बातचीत करते हुए तुम अक्सर इस कहावत का उपयोग खुद को धिक्कारने और दूसरों को प्रोत्साहन देने के लिए करते हो। ऐसा करने से, तुम सोचते हो कि तुम्हारा चरित्र विशेष रूप से श्रेष्ठ है, और तुम्हारा व्यवहार बहुत तर्कसंगत है। लेकिन अनजाने ही इन शब्दों ने उस सिद्धांत को, जिसके अनुसार तुम जीते हो, और मुद्दों पर तुम्हारे रुख को प्रकट कर दिया है। इसी के साथ, तुमने दूसरों को गुमराह कर गलत राह पर डाल दिया है जिससे लोगों और परिस्थितियों के प्रति उनके विचार और रुख भी तुम्हारे जैसे हो गए हैं। तुमने एक असली तटस्थ व्यक्ति की तरह काम किया है और पूरी तरह से बीच का रास्ता अपना लिया है। तुम कहते हो, ‘मामला चाहे जो भी हो, इसे गंभीरता से लेने की कोई जरूरत नहीं। अपने या दूसरों के लिए चीजें कठिन मत बनाओ। अगर तुम दूसरे लोगों के लिए चीजें कठिन बनाते हो, तो तुम उन्हें अपने लिए कठिन बना रहे हो। दूसरों के प्रति दयालु होना खुद के प्रति दयालु होना है। अगर तुम दूसरे लोगों के प्रति कठोर हो, तो तुम अपने प्रति कठोर होते हो। खुद को कठिन स्थिति में क्यों डाला जाए? दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, यह सबसे अच्छी बात है जो तुम अपने लिए कर सकते हो, और सबसे ज्यादा विचारशील भी।’ यह रवैया स्पष्ट रूप से किसी भी चीज में सावधानी न बरतने का है। तुम्हारा किसी भी मुद्दे पर कोई सही रुख या दृष्टिकोण नहीं होता; हर चीज के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण उलझा हुआ होता है। तुम सावधान नहीं रहते और चीजों को नजरंदाज करते हो। जब तुम अंततः परमेश्वर के सामने खड़े होगे और अपना हिसाब दोगे, तो यह एक बड़ी उलझन होगी। ऐसा क्यों है? क्योंकि तुम हमेशा कहते हो कि तुम्हें दूसरों पर वह नहीं थोपना चाहिए जो तुम अपने लिए नहीं चाहते। यह तुम्हें बहुत सूकून और सुख देता है, लेकिन साथ ही यह तुम्हारे लिए बहुत बड़ी परेशानी का कारण बनेगा, जिससे ऐसा हो जाएगा कि तुम कई मामलों में स्पष्ट दृष्टिकोण या रुख नहीं रख पाओगे। बेशक, यह तुम्हें स्पष्ट रूप से यह समझने में असमर्थ भी बनाता है कि इन परिस्थितियों का सामना करने की हालत में तुम्हारे लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक क्या हैं, या तुम्हें क्या परिणाम प्राप्त करना चाहिए। ये चीजें इसलिए होती हैं, क्योंकि तुम जो कुछ भी करते हो, उसमें तुम सावधानी नहीं बरतते; वे तुम्हारे उलझे हुए रवैये और सोच के कारण होती हैं। क्या ‘दूसरों पर वह नहीं थोपना जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,’ सहिष्णु रवैया है, जो तुम्हारा लोगों और चीजों के प्रति होना चाहिए? नहीं, यह वह रवैया नहीं है। यह सिर्फ एक सिद्धांत है, जो बाहर से सही, महान और दयालु दिखता है, लेकिन वास्तव में यह पूरी तरह से नकारात्मक चीज है। स्पष्ट रूप से, यह वो सत्य सिद्धांत तो बिल्कुल भी नहीं है, जिसका लोगों को पालन करना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (10))। परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं कि शैतान इस कहावत “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” का इस्तेमाल हमें भ्रष्ट और गुमराह करने के लिए करता है, हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हमें दूसरों पर ऐसी चीजें नहीं थोपनी चाहिए जो हम नहीं करना चाहते या नहीं कर सकते और यही तर्कसंगत व्यवहार है। मैं इसी विचार पर भरोसा करके जी रही थी। मैं साफ जानती थी कि झाओ टिंग के अहंकार और आत्मतुष्टता से काम प्रभावित हो रहा है और मुझे उसकी समस्या बतानी और उजागर करनी चाहिए थी, लेकिन मैंने सोचा कि मैं अक्सर कैसे अहंकारी स्वभाव को बेनकाब करती हूँ और कैसे मुझे हमेशा दूसरों के आलोचना करने से नफरत है, इसलिए मैंने सोचा कि किसी अन्य व्यक्ति पर कुछ ऐसा थोपना जो मुझे पसंद नहीं है तर्कहीन है, इसलिए मैं झाओ टिंग की समस्या बताने से बहुत डरती थी। मैं साफ जानती थी कि वू शिन केवल प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए काम कर रही है और उसका अहंकार दूसरों को बेबस कर रहा है और काम में बाधा और गड़बड़ी डाल रहा है। उसे उजागर करने और काट-छाँट करने की जरूरत थी, लेकिन मैंने सोचा कि मैंने अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को कितना महत्व दिया और मैं दूसरों द्वारा अपनी समस्याएँ बताए जाने या उजागर किए जाने के लिए तैयार नहीं थी, इसलिए मैं “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” के दृष्टिकोण से जीती रही और इसलिए मैंने उसे उजागर नहीं किया। मैंने सोचा कि उजागर होना और आलोचना किया जाना दर्दनाक और अपमानजनक है और मुझे उम्मीद थी कि दूसरे लोग मेरी काट-छाँट या आलोचना नहीं करेंगे, इसलिए मैं दूसरों के साथ भी ऐसा नहीं करना चाहती थी। दरअसल मैं बस खुद को समायोजित और सुरक्षित कर रही थी। मैं अपने अहंकार और रुतबे की रक्षा कर रही थी और सत्य नहीं स्वीकार रही थी और यहाँ तक कि दूसरों की अनदेखी कर उनके साथ मिलीभगत कर रही थी। मैं विद्रोही थी और परमेश्वर का प्रतिरोध कर रही थी और मैं दूसरों को भी ऐसा ही करने दे रही थी। सारभूत रूप में, मैं उम्मीद कर रही थी कि कोई भी सत्य का अभ्यास नहीं करेगा या परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव नहीं करेगा या उसकी काट-छाँट नहीं की जाएगी। मैं वास्तव में घृणित और अनैतिक थी! हम शैतान द्वारा भ्रष्ट हो चुके हैं और शैतानी स्वभाव से भरे हुए हैं। हमारी प्रकृति अहंकारी, अभिमानी, स्वार्थी, धोखेबाज और प्रतिष्ठा और रुतबा चाहने वाली हैं। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन के बिना, काट-छाँट के बिना और दूसरों की आलोचना या मदद के बिना हम कलीसिया के काम को बाधित होने से नहीं बचा सकते। झाओ टिंग और वू शिन भ्रष्ट स्वभाव को उजागर कर रही थीं और गलत रास्ते पर थीं और अगर कोई उनकी आलोचना या उन्हें उजागर नहीं करता तो वे कलीसिया के काम में बाधा डालतीं। अगर उनका उल्लंघन मामूली होता तो उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता लेकिन अधिक गंभीर होने पर उन्हें बहिष्कृत कर दिया जाता। मैं शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी, समस्याएँ देख रही थी लेकिन उन्हें सामने नहीं ला रही थी। यह गुप्त रूप से दूसरों को उनके शैतानी स्वभाव के अनुसार कार्य करने की अनुमति देना है, और इससे अंत में खुद मुझे और दूसरों को नुकसान होगा। यह देखते हुए कि मैं “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” के शैतानी जहर के अनुसार जी रही थी, न केवल मैं अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा रही थी, बल्कि मैं शैतान के साथी के रूप में भी काम कर रही थी और कलीसिया के काम में बाधा डाल रही थी। इन बातों को समझकर स्वीकार करना मुश्किल था और मैं परमेश्वर के सामने पाप स्वीकारना और पश्चात्ताप करना चाहती थी।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसमें कहा गया है : “परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि लोग दूसरों पर वह नहीं थोपें जो वे अपने लिए नहीं चाहते, इसके बजाय वह लोगों से उन सिद्धांतों पर स्पष्ट होने के लिए कहता है, जिनका पालन उन्हें विभिन्न स्थितियाँ सँभालते समय करना चाहिए। अगर यह सही है और परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुरूप है, तो तुम्हें इस पर दृढ़ रहना चाहिए। और न केवल तुम्हें इस पर दृढ़ रहना चाहिए, बल्कि तुम्हें दूसरों को सावधान करना, मनाना और उनके साथ संगति करनी चाहिए, ताकि वे समझ सकें कि परमेश्वर के इरादे असल में क्या हैं और सत्य सिद्धांत क्या हैं। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है। परमेश्वर तुमसे बीच का रास्ता अपनाने के लिए नहीं कहता, और यह दिखाने के लिए तो बिल्कुल नहीं कहता कि तुम्हारा दिल कितना बड़ा है। तुम्हें उन बातों पर दृढ़ रहना चाहिए, जिनके बारे में परमेश्वर ने तुम्हें चेताया है और जो तुम्हें सिखाई हैं, और जिनके बारे में परमेश्वर अपने वचनों में बात करता है : अपेक्षाएँ, कसौटी और सत्य सिद्धांत जिनका लोगों को पालन करना चाहिए। न केवल तुम्हें उनसे चिपके रहना चाहिए, और उन पर हमेशा के लिए कायम रहना चाहिए, बल्कि तुम्हें एक मिसाल बनकर इन सत्य सिद्धांतों पर अमल भी करना चाहिए; साथ ही साथ, तुम्हें अपनी ही तरह दूसरों को इनसे चिपके रहने, इनका पालन करने और अभ्यास करने के लिए समझाना, उनकी निगरानी करना, उनकी मदद करना और उनका मार्गदर्शन करना चाहिए। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि तुम ऐसा करो—वह यही काम तुम्हें सौंपता है। तुम केवल दूसरों को अनदेखा करके खुद से अपेक्षाएं नहीं रख सकते। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि तुम मुद्दों पर सही रुख अपनाओ, सही कसौटी से चिपके रहो, और ठीक-ठीक जान लो कि परमेश्वर के वचनों में क्या कसौटी है, और ठीक-ठीक समझ लो कि सत्य सिद्धांत क्या हैं। अगर तुम इसे पूरा न भी कर पाओ, अगर तुम अनिच्छुक भी हो, अगर तुम्हें यह पसंद न हो, अगर तुम्हारी धारणाएँ हों, या अगर तुम इसका विरोध करते हो, तो भी तुम्हें इसे अपनी जिम्मेदारी, अपना दायित्व मानना चाहिए। तुम्हें लोगों के साथ उन सकारात्मक चीजों पर संगति करनी चाहिए जो परमेश्वर से आती हैं, उन चीजों पर जो सही और सटीक हैं, और उनका उपयोग दूसरों की मदद करने, उन्हें प्रभावित करने और उनका मार्गदर्शन करने के लिए करो, ताकि लोग उनसे लाभान्वित और शिक्षित हो सकें, और जीवन में सही मार्ग पर चल सकें। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, और तुम्हें हठपूर्वक ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ के विचार से नहीं चिपकना चाहिए, जिसे शैतान ने तुम्हारे दिमाग में डाल दिया है। परमेश्वर की दृष्टि में, यह कहावत सिर्फ सांसारिक आचरण का एक फलसफा है; यह एक ऐसी सोच है जिसमें शैतान की चाल निहित है; यह सही मार्ग तो बिल्कुल नहीं है, न ही यह कोई सकारात्मक चीज है। परमेश्वर तुमसे केवल इतना चाहता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनो, जो स्पष्ट रूप से समझता हो कि उसे क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। वह तुमसे चापलूस या तटस्थ बनने के लिए नहीं कहता; उसने तुम्हें बीच का रास्ता अपनाने के लिए नहीं कहा है। जब कोई मामला सत्य सिद्धांतों से संबंधित हो, तो तुम्हें वह कहना चाहिए जो कहने की आवश्यकता है, और वह समझना चाहिए जो समझने की आवश्यकता है। अगर कोई व्यक्ति कोई चीज नहीं समझता लेकिन तुम समझते हो, और तुम संकेत देकर उसकी मदद कर सकते हो, तो तुम्हें निश्चित रूप से यह जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना चाहिए। तुम्हें एक किनारे खड़े होकर देखना भर नहीं चाहिए, और तुम्हें उन फलसफों से तो बिल्कुल भी नहीं चिपकना चाहिए जो शैतान ने तुम्हारे दिमाग में बैठा दिए हैं, जैसे कि दूसरों पर वह नहीं थोपना जो तुम अपने लिए नहीं चाहते। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) जो सही और सकारात्मक है वह तब भी वैसा ही होगा जब तुम्हें यह पसंद न हो, तुम इसे करना न चाहो, इसे करने और हासिल करने में सक्षम न हो, इसके प्रतिरोधी हो और इसके विरुद्ध धारणाएँ रखते हो। परमेश्वर के वचनों का सार और सत्य सिर्फ इसलिए नहीं बदलेगा क्योंकि मानवजाति का स्वभाव भ्रष्ट है और उसमें कुछ भावनाएँ, एहसास, इच्छाएँ और धारणाएँ हैं। परमेश्वर के वचनों का सार और सत्य कभी भी नहीं बदलेगा। जैसे ही तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य को जानते हो, समझते हो, अनुभव करते और प्राप्त करते हो, यह तुम्हारा दायित्व बन जाता है कि तुम अपनी अनुभवजन्य गवाहियों के बारे में दूसरों के साथ संगति करो। इससे और अधिक लोगों को परमेश्वर के इरादे समझने, सत्य को समझने और प्राप्त करने, परमेश्वर की अपेक्षाओं और मानकों को समझने और सत्य सिद्धांतों को समझने में मदद मिलेगी। ऐसा करने से, जब ये लोग अपने दैनिक जीवन में समस्याओं का सामना करेंगे तो उन्हें अभ्यास का मार्ग प्राप्त होगा और वे शैतान के विभिन्न विचारों और नजरिये से भ्रमित नहीं होंगे या बंधन में नहीं फँसेंगे। नैतिक आचरण के बारे में यह कहावत ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ वास्तव में लोगों के मन पर काबू पाने की शैतान की कुटिल योजना है। अगर तुम हमेशा इसे कायम रखते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो शैतानी फलसफों के अनुसार जीता है; ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से शैतानी स्वभाव में रहता है। अगर तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं करते, तो तुम सत्य से प्रेम या उसका अनुसरण नहीं करते। चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें जिस सिद्धांत का पालन करना चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है जितना हो सके लोगों की मदद करना। तुम्हें वैसा अभ्यास नहीं करना चाहिए जैसा शैतान कहता है, यानी ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ और एक ‘चतुर’ खुशामदी इंसान बनना। जितना हो सके लोगों की मदद करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करना। जैसे ही तुम देखो कि कोई चीज तुम्हारी जिम्मेदारियों और दायित्वों का हिस्सा है, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य पर संगति करनी चाहिए। अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने का यही अर्थ है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (10))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि परमेश्वर हमसे सत्य का अभ्यास करने और सभी चीजों में सिद्धांत बनाए रखने की अपेक्षा करता है और जब हम साथ मिलकर अपने कर्तव्य निभाते हैं, जब हम किसी को सिद्धांतों का उल्लंघन करते या कलीसिया के काम में बाधा डालते देखते हैं तो हमें उनकी आलोचना और मदद करनी चाहिए। जब हर कोई परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जीता है, तभी हम अपने कर्तव्यों में सुधार कर सकते हैं। जब सिद्धांत के मुद्दों की बात आती है तो हम लोगों को नाराज करने से या उनकी भावनाओं का ख्याल रखने से नहीं डर सकते। हमें सत्य सिद्धांतों के अनुसार चलना चाहिए और कलीसिया के काम की रक्षा करनी चाहिए। चाहे दूसरे इसे स्वीकारें या नहीं, हम सभी को सत्य का अभ्यास करना चाहिए और अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। एक पर्यवेक्षक के रूप में मेरी जिम्मेदारी है कि जब मैं समस्याएँ देखूँ तो उन पर संगति करूँ और उन्हें समय रहते सुलझाऊँ। अगर मैं समस्याएँ देखने पर उन्हें नहीं सुलझाती, सिर्फ खुशामद करती हूँ और बीच का रास्ता अपनाती हूँ, तो मैं अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रही हूँ और परमेश्वर की प्रतिरोधी हूँ। साथ ही ऐसा नहीं है कि मैं दूसरों की समस्याएँ सिर्फ इसलिए नहीं बता सकती क्योंकि मैं खुद भ्रष्टता बेनकाब करती हूँ। जब मैं भ्रष्टता बेनकाब करती हूँ तो मुझे सत्य की तलाश करनी चाहिए और आत्म-चिंतन करना चाहिए, यह मेरा निजी मामला है। लेकिन जब मैं दूसरों को सिद्धांतों का उल्लंघन करते और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाते देखूँ तो मुझे उनके साथ संगति करनी चाहिए, उन्हें उजागर करना चाहिए और रोकना चाहिए। यह कलीसिया के काम की रक्षा करना है और यह मेरी जिम्मेदारी है। मुझे दोनों चीजों में भ्रमित नहीं होना चाहिए। मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बहुत महत्व देती हूँ और मेरा स्वभाव अहंकारी है, मुझे इन चीजों को सुलझाने के लिए आत्म-चिंतन करने और सत्य की तलाश करने की जरूरत है और खुद को समायोजित करने और दूसरों को खुश करने की जरूरत नहीं है। मैं “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” के शैतानी फलसफे के अनुसार जीती थी, सोचती थी कि मुझे दूसरों से वह काम नहीं करवाना चाहिए जो मुझे पसंद नहीं है या जो मैं खुद नहीं कर सकती। परिणामस्वरूप सत्य का अभ्यास करने के अवसर हाथ से निकल गए। मैंने आखिरकार देखा कि मेरे विचार हास्यास्पद और बेतुके थे।

बाद में जब मैंने दूसरों को सिद्धांतों का उल्लंघन करते और कलीसिया का काम प्रभावित करते देखा तो मैंने उनकी समस्याओं को उजागर किया, उनका गहन-विश्लेषण किया और उनके साथ संगति की और भले ही मुझे अभी भी चिंता थी कि वे मेरे बारे में बुरा सोचेंगे, मैं पहले की तरह अति सतर्क नहीं थी या ज्यादा नहीं सोच रही थी; मैंने बस इस बारे में सोचा कि मैं उनकी मदद कैसे कर सकती हूँ और कलीसिया के काम की रक्षा कैसे कर सकती हूँ। इस तरह से अभ्यास करके मैंने भाई-बहनों को अपने कर्तव्यों में प्रगति करते देखा और मुझे बहुत आनन्द हुआ। दूसरों की समस्याएँ सुलझाते समय मैं अपने बारे में ज्यादा चिंतन कर सकी और मैंने अनजाने में ही कुछ भ्रष्ट स्वभावों का पता लगाया, जिनके बारे में मुझे पहले पता नहीं था, जिससे मुझे सत्य का अनुसरण करने और अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए और भी प्रेरणा मिली। इस तरह से अभ्यास करने से मुझे लगा कि मैं परमेश्वर के करीब हूँ; जब मैंने दैहिक सुखों को त्याग दिया और सत्य का और अभ्यास किया तो इससे मुझे इस तरह जीने में शांति और सुकून मिला।

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