44. इच्छानुसार कर्तव्य करने के नतीजे

शिनशिन, चीन

जून 2020 में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। शुरू में जब मुझे काम में समस्याएँ आती थीं तो मैं सचेत होकर सिद्धांत खोजती और यह जानते हुए भी कि कोई काम कैसे करना है, मैं सहकर्मियों की सलाह लेती थी और आम सहमति बनने के बाद ही कार्रवाई करती थी। लेकिन थोड़े समय बाद मैंने देखा कि अधिकांश समय मेरे अपने सुझाव ही अधिक उपयुक्त होते थे। इसके अलावा चूँकि मैं पहले अगुआ और कार्यकर्ता रह चुकी थी तो मुझे लगा कि मुझे कुछ सिद्धांतों की समझ है और लोगों और चीजों दोनों को देख सकती हूँ, साथ ही कार्य में व्यवस्थाएँ अधिक सटीकता से कर सकती हूँ। विशेषकर एक बार जब सुसमाचार कार्य के परिणाम अच्छे नहीं आए और मेरी सहयोगी बहन को समझ नहीं आया कि उसे कैसे हल करना है तो मैंने प्रस्ताव रखा कि सुसमाचार कार्य में शामिल सभी भाई-बहन आपस में मिलें ताकि हम इस कार्य में आने वाली कठिनाइयों पर संगति कर समाधान के लिए सत्य खोज सकें। कुछ समय बाद हर भाई-बहन अपना कर्तव्य निभाने में अपनी क्षमता का प्रभावी ढंग से उपयोग करने में सक्षम हो गया और सुसमाचार कार्य की प्रभावशीलता में उल्लेखनीय सुधार हुआ। अनजाने में ही मैं अहंकार और आत्मसंतुष्टि की दशा में आ गई, मुझे लगा कि मुझमें कार्यक्षमता है और मैं कर्मियों और कलीसिया दोनों के काम को ठीक से प्रबंधित कर सकती हूँ।

कुछ महीनों बाद कलीसिया को एक सुसमाचार उपयाजक का चुनाव करने की आवश्यकता पड़ी। चुनाव से पहले मैं कलीसिया के सभी लोगों से मिली, मुझे लगा बहन ली यांग सबसे उपयुक्त है। वह कई सालों की विश्वासी थी, त्याग कर सकती थी, खुद को खपा सकती थी और उसका दिमाग भी तेज था। वह पहले भी सुसमाचार प्रचार के लिए कई जगहों पर जा चुकी थी और कुछ परिणाम भी हासिल किए थे। वह अभी-अभी शहर के बाहर से लौटी थी और कई लोगों का मत-परिवर्तन करा चुकी थी इसलिए मैंने सोचा कि वह सुसमाचार उपयाजक बनने योग्य है। लेकिन कई मूल्यांकनों को देखने के बाद जिनमें कहा गया था कि वह बहुत अहंकारी स्वभाव की है, अक्सर दूसरों को बेबस कर देती है और लोगों को उनके कर्तव्य निर्वहन के लिए हतोत्साहित करती है, तो मैं झिझक गई। लेकिन फिर मैंने सोचा, “उसके पास अच्छी कार्यक्षमता है और वह प्रभावी ढंग से सुसमाचार का प्रचार कर सकती है, अब भले ही उसमें ये समस्याएँ हों, अगर हम सब मिलकर मदद करते हैं तो कोई ज्यादा समस्या नहीं होनी चाहिए।” कुछ समय तक इस पर विचार करने के बाद अंत में मुझे यही लगा कि ली यांग सुसमाचार उपयाजक बनने योग्य है। अगले दिन मैंने अपनी सहयोगी बहन के साथ अपने विचार साझा किए। उसने कहा, “ली यांग दूसरों को बुरी तरह बेबस कर देती है। उसका अपने दम पर ही सुसमाचार का प्रचार करना ठीक है, लेकिन मुझे चिंता यह है कि अगर वह सुसमाचार उपयाजक बन गई तो सुसमाचार के काम में बाधा डालेगी, इसलिए हमें सतर्क रहना होगा।” मुझे बहन की यह बात अच्छी नहीं लगी। मैंने सोचा, “तुम्हें तो परमेश्वर में विश्वास रखते हुए अभी थोड़ा समय ही हुआ है, इसलिए तुम्हारा दृष्टिकोण बहुत एकतरफा है। मैं लोगों और चीजों को ज्यादा सटीकता से देखती हूँ, इसलिए मेरी बात मानना गलत नहीं होगा।” चेहरे पर हिकारत के भाव लाते हुए मैंने कहा, “सुसमाचार उपयाजकों को चुनते समय सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या उस व्यक्ति के पास सुसमाचार प्रचार करने की कार्यक्षमता और विशेषज्ञता है। ली यांग अहंकारी हो सकती है और उसमें दूसरों को बेबस करने की प्रवृत्ति भी हो सकती है, लेकिन उसके पास काम करने की योग्यता है, वह सुसमाचार का प्रचार करने में परिणाम हासिल कर सकती है। हमें सीखना होगा कि लोगों का उनकी क्षमताओं और योग्यताओं के अनुसार उपयोग कैसे करना है और उनकी छोटी-मोटी समस्याओं पर अड़े नहीं रहना है।” यह सुनकर मेरी सहयोगी बहन बहुत मायूस हो गई और ज्यादा कुछ नहीं बोली।

इसके बाद चुनाव के बारे में भाई-बहनों के साथ संगति करते हुए मैंने चुनाव के सिद्धांतों पर संगति नहीं की, बल्कि जान-बूझकर इस बात पर जोर दिया कि जिसके पास कार्यक्षमता हो और जो अपना कर्तव्य निभाने में प्रभावी हो उसे चुना जाना चाहिए। मेरी संगति से प्रभावित होकर अधिकांश भाई-बहनों ने ली यांग को सुसमाचार प्रचारक बनाने के लिए वोट दिया। उस वक्त मैं काफी खुश थी। लेकिन फिर जब मेरी वरिष्ठ अगुआ ने ली यांग का मूल्यांकन पढ़ा तो उसने कहा कि ली यांग ने हमेशा दूसरों को बेबस और हतोत्साहित किया है, वह बहुत अहंकारी है और भाई-बहनों की सलाह नहीं मानती, उसके सुसमाचार उपयाजक बनने से काम बहुत बाधित हो सकता है। मैंने सोचा, “तुम कलीसिया की कार्मिक स्थिति को नहीं जानती। अगर तुम हर समय चीजों को लेकर इतनी सख्त रहोगी तो हमें कार्य के लिए कभी कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिलेगा। इसके अलावा ली यांग पूरी तरह से दूसरों के सुझावों के खिलाफ भी नहीं होती। पिछली बार जब मैंने उसकी काट-छाँट की तो उसने उसे स्वीकार कर लिया था। वह इस भूमिका के लिए एकदम उपयुक्त है।” यह सोच कर मैंने झट से कहा, “ली यांग आलोचना और काट-छाँट किए जाने को स्वीकार कर सकती है और उसका सुसमाचार प्रचार काफी प्रभावी होता है। हम भविष्य में उसके अहंकारी स्वभाव में उसकी ज्यादा मदद कर सकते हैं; उसके बावजूद वह इस पद को संभाल सकती है। इसके अलावा फिलहाल कलीसिया में उससे अधिक उपयुक्त और कोई नहीं है।” मेरी बात सुनने के बाद अगुआ ने हथियार डालते हुए कहा, “तो ठीक है, उसे कुछ समय तक अभ्यास करने देते हैं और फिर देखते हैं। अगर तुम्हें लगता है कि वह लोगों पर हमला कर रही है और काम में बाधा डाल रही है तो उसे तुरंत बरखास्त कर देना।” और इस तरह ली यांग सुसमाचार उपयाजक बन गई।

कुछ समय बाद ही मेरी सहयोगी बहन ने कहा, “पिछले कुछ समय से मैं ली यांग के संपर्क में हूँ और मुझे पता चला है कि वह अभी भी लोगों को बुरी तरह से बेबस करती है। जब सुसमाचार कार्यकर्ताओं में कमियाँ होती हैं तो वह संगति के जरिए उनकी मदद नहीं करती बल्कि यह कहकर उन पर हमला करती है कि वे बेकार हैं और बहुत धीमी गति से प्रगति कर रहे हैं। वह कहती है कि वह सारा काम अकेले ही करती है और अन्य भाई-बहनों के साथ सहयोग करना बहुत थका देने वाला होता है जो हर एक को नकारात्मक दशा में डाल देता है।” मैंने यह सोचकर उसकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया, “हर एक में भ्रष्टता होती है। जब तक ली यांग अपने कर्तव्यों को प्रभावी ढंग से निभा सकती है तब तक कोई दिक्कत नहीं है। तुम्हारा अनुभव और अंतर्दृष्टि अभी बहुत उथली है। मैंने उसके जैसे कई लोगों को देखा है। जब तक हम अक्सर संगति करते हैं और उसकी काट-छाँट करते हैं, वह काम कर सकती है।” तो मैंने अपनी सहयोगी से कहा, “चलो उसकी क्षमताओं पर और गौर करते हैं। वह अहंकारी है पर सुसमाचार का प्रचार कर सकती है। हमें इन छोटी-मोटी गलतियों के प्रति सहनशील रहना होगा। मैं आगे चलकर उसके साथ और अधिक संगति करूँगी।” मैंने अपनी सहयोगी की बात का खंडन कर दिया था, अब उसके पास कहने को और कुछ नहीं था। बाद में जब मैं ली यांग से मिली तो मैंने उसकी समस्याओं को उजागर कर उनका गहन-विश्लेषण करना चाहा लेकिन जैसे ही हम मिले उसने कहा कि सुसमाचार का काम अब बहुत प्रभावी है। मैंने देखा कि वह अपने कर्तव्य में बहुत सक्रिय है तो मैंने केवल संक्षेप में उसके अहंकारी स्वभाव और दूसरों को बेबस करने वाले मुद्दे का उल्लेख किया और उसके साथ संगति की कि उसे अपने भाई-बहनों के साथ सही ढंग से कैसे व्यवहार करना है। मेरी बात सुनकर उसने कहा कि वह बदलने को तैयार है, इसलिए मैंने और कुछ नहीं कहा। बाद में कई बहनों ने मुझे बताया कि ली यांग वास्तविक कार्य तो कर ही नहीं रही बल्कि जब भाई-बहनों को कठिनाइयाँ होतीं हैं तो वह समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर संगति भी नहीं करती, यहाँ तक कि गुस्सा होकर उन्हें डाँटती और उन पर आक्रमण करती है और उन्हें नकारात्मक दशा में डाल देती है। परिणामस्वरूप सुसमाचार कार्य की प्रभावशीलता में तेजी से गिरावट आ गई। मैंने सोचा, “क्या मेरा उसे उपयाजक के रूप में चुनने पर जोर देना वाकई गलत था? चूँकि भाई-बहनों ने कई बार इसका उल्लेख किया है तो मैं अब अपने विचारों पर अड़ी नहीं रह सकती।” उसके बाद मैंने ली यांग के बारे में सभी के मूल्यांकन एकत्र किये, मैंने देखा कि वह अपने को श्रेष्ठ मानकर दूसरों को डाँटने और हमला करने के लिए अक्सर सुसमाचार प्रचार में अपने कई वर्षों के अनुभव का सहारा लेती है जिससे वे बेबस हो जाते हैं और नकारात्मक दशा में आ जाते हैं और सामान्य रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ हो जाते हैं। जब दूसरे लोग उसकी समस्याएं बताते हैं तो वह तर्क-वितर्क से अपना बचाव करती है। कई लोगों ने उसके साथ संगति की लेकिन उसने इसे स्वीकार नहीं किया। इन मूल्यांकनों को पढ़कर मैं स्तब्ध रह गई। मुझे उम्मीद नहीं थी कि ली यांग की समस्याएँ इतनी गंभीर होंगी। इतने वर्षों के काम के बाद मैंने एक गलत व्यक्ति को उपयाजक चुन लिया, सारा काम बिगाड़ दिया जिसके कारण भाई-बहनों को शिकायत हुई। यह सब जानकर मेरे लिए झेलना मुश्किल हो गया। बाद में ली यांग के लगातार व्यवहार के आधार पर यह तय किया गया कि वह सुसमाचार उपयाजक के लायक नहीं है और उसे बरखास्त कर दिया गया।

ली यांग को बरखास्त करने के बाद मुझे ऐसा महसूस हुआ कि इसे बयान नहीं कर सकती, जैसे मेरे चेहरे पर किसी ने जोरदार थप्पड़ मारा हो। मुझे वो वक्त याद आ गया जब मेरी सहयोगी ने ली यांग की समस्याओं के बारे में बात की थी लेकिन मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया था, नतीजतन कलीसिया के काम को गंभीर नुकसान हुआ। मुझे बेहद पछतावा और ग्लानि हुई और मैंने खुद से पूछा, “मैंने ली यांग को चुनने में इतनी बड़ी गलती कैसे कर दी? इन विफलताओं पर आत्मचिंतन कैसे करूँ और सत्य के किस पहलू में प्रवेश करूँ?” मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे प्रबुद्ध करे ताकि मैं खुद को जान सकूँ। मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “कुछ लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए कभी सत्‍य की तलाश नहीं करते। वे अपनी कल्‍पनाओं के अनुसार आचरण करते हुए, सिर्फ वही करते हैं जो उन्‍हें अच्‍छा लगता है, वे हमेशा स्‍वेच्‍छाचारी और उतावले बने रहते हैं। वे सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर नहीं चलते। ‘स्‍वेच्‍छाचारी और उतावला’ होने का क्‍या अर्थ है? इसका अर्थ है, जब तुम्‍हारा किसी समस्‍या से सामना हो, तो किसी सोच-विचार या खोज की प्रक्रिया के बगै़र उस तरह का आचरण करना जो तुम्हारे हिसाब से ठीक बैठता हो। किसी और का कहा हुआ कुछ भी तुम्हारे दिल को नहीं छू सकता, न ही तुम्हारे मन को बदल सकता है। यहाँ तक कि सत्य की संगति किए जाने पर भी तुम उसे स्वीकार नहीं कर सकते, तुम अपनी ही राय पर अड़े रहते हो, जब दूसरे लोग कुछ भी सही कहते हैं, तब तुम नहीं सुनते, खुद को ही सही मानते हो और अपने ही विचारों से चिपके रहते हो। भले ही तुम्हारी सोच सही हो, तुम्हें दूसरे लोगों की राय पर भी ध्यान देना चाहिए। और अगर तुम ऐसा बिल्कुल नहीं करते, तो क्या यह अत्यधिक आत्मतुष्ट होना नहीं है? जो लोग अत्यधिक आत्मतुष्ट और मनमाने होते हैं, उनके लिए सत्य को स्वीकारना आसान नहीं होता। अगर तुम कुछ गलत करते हो और दूसरे यह कहते हुए तुम्हारी आलोचना करते हैं, ‘तुम इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहे हो!’ तो तुम जवाब देते हो, ‘भले ही मैं इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहा, फिर भी मैं इसे इसी तरह से करने वाला हूँ,’ और फिर तुम कोई ऐसा कारण ढूँढ़ लेते हो जिससे यह उन्हें सही लगने लगे। अगर वे यह कहते हुए तुम्हें फटकार लगाते हैं, ‘तुम्हारा इस तरह से काम करना व्यवधान है और यह कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाएगा,’ तो न केवल तुम नहीं सुनते, बल्कि बहाने भी बनाते रहते हो : ‘मुझे लगता है कि यही सही तरीका है, इसलिए मैं इसे इसी तरह करने वाला हूँ।’ यह कौन-सा स्वभाव है? (अहंकार।) यह अहंकार है। अहंकारी स्वभाव तुम्हें जिद्दी बनाता है। अगर तुम्हारी प्रकृति अहंकारी है, तो तुम दूसरों की बात न सुनकर स्‍वेच्‍छाचारी और उतावले ढंग से व्यवहार करोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी दशा को हूबहू उजागर कर दिया। मैंने सोचा चूँकि मैं कई वर्षों से अगुआ रही हूँ, कुछ सिद्धांतों में महारत हासिल कर चुकी हूँ और अपने काम में कुछ परिणाम भी हासिल किये हैं, इसलिए मुझे लगा कि मैं सत्य समझ गई हूँ और लोगों और चीजों को स्पष्ट रूप से देख सकती हूँ। यह सोचकर मैंने खुद पर भरोसा किया। जब परेशानियाँ आईं तो मैंने वही किया जो मैं चाहती थी और मेरा खोज करने वाला दिल नहीं था। मेरी सहयोगी ने कहा कि हमें यह पता लगाना होगा कि क्या ली यांग ने पश्चात्ताप किया है और क्या उसमें बदलाव आया है जो कि पूर्णतः सिद्धांतों के अनुरूप था लेकिन मैंने इसे स्वीकार नहीं किया और उससे अपनी बात मनवाने पर जोर दिया। चुनाव के दौरान मैंने जानबूझकर दूसरों को गुमराह करने के लिए अपने विचारों पर जोर दिया। चुनाव के बाद मेरी वरिष्ठ अगुआ ने मुझे चेताया था कि ली यांग उपयुक्त नहीं है पर मैं अहंकारपूर्वक अपने विचारों पर अड़ी रही और अगुआ की बात काटने के कारण ढूँढ़े। ली यांग ने सुसमाचार उपयाजक बनने के बाद हर बात में लोगों को बेबस किया। जब मेरी सहयोगी ने दोबारा इस समस्या के बारे में बताया तब भी भी मैंने अपने व्यवहार पर चिंतन नहीं किया। यह सोचकर कि उसके पास बहुत कम अनुभव और अंतर्दृष्टि है तो मैंने उसकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया। मैंने तो यह भी कह दिया कि बुद्धि और काबिलियत रखने वाले लोगों का थोड़ा-सा अहंकारी होना सामान्य बात है। मैंने इसका इस्तेमाल ली यांग को बचाने और उसके कार्यकलापों को नजरअंदाज करने के बहाने के तौर पर किया। मैं हठपूर्वक अपने विचारों पर अड़ी रही। मैंने यह नहीं देखा कि वह वास्तविक कार्य करती है या बाधा और गड़बड़ी पैदा करती है, जिसके कारण हर कोई अपने कर्तव्य में उसके हाथों खुद को बेबस महसूस कर रहा था और सुसमाचार कार्य बुरी तरह बाधित हो रहा था। मैं बहुत अहंकारी, आत्मतुष्ट और लापरवाह थी। मैं किस तरह अपना कर्तव्य निभा रही थी? मैं कलीसिया के काम में विघ्न और गड़बड़ी पैदा कर रही थी, बुराई कर रही थी और परमेश्वर का विरोध कर रही थी जिससे परमेश्वर को घृणा और चिढ़ है। इस बात को जानने के बाद मैं डर गई और मैंने तुरंत परमेश्वर के आगे पश्चात्ताप करने के लिए प्रार्थना की कि मैं अपनी गलत दशा और विचारों को बदलना चाहती हूँ और लोगों को चुनने के सिद्धांतों की खोज करना चाहती हूँ।

अपनी खोज में, मैंने “सत्य का अभ्यास करने के 170 सिद्धांत” में सिद्धांत 63, “अगुआओं और कार्यकर्ताओं के चुनाव के सिद्धांत” पढ़े। इसमें उल्लेख है : “अहंकारी स्‍वभाव के तमाम लोगों को समान रूप से बुरा नहीं समझना चाहिए। अगर कोई व्‍यक्ति सत्‍य को स्‍वीकार करने और व्‍यावहारिक कार्य करने में सक्षम हैं, तो उन्‍हें चुना जा सकता है।” मैंने देखा कि अहंकारी स्वभाव वाले लोगों को भी चुना जा सकता है लेकिन एक शर्त है : उन्हें सत्य स्वीकारने और वास्तविक कार्य करने में सक्षम होना चाहिए। यूँ तो ली यांग के पास कुछ बुद्धि और काबिलियत थी और वह सुसमाचार प्रचार करने में अच्छी थी, पर उसका स्वभाव बेहद अहंकारी था और वह दूसरों को सिर्फ इसलिए हेय दृष्टि से देखती थी क्योंकि उसके पास उनसे अधिक सुसमाचार का अनुभव था। जब दूसरे उसकी समस्याएँ बताते तो वह उन्हें स्वीकार न करती और न ही आत्मचिंतन करती बल्कि बहस करती और खुद को सही ठहराने की कोशिश करती। भले ही वह कभी-कभी दिखावे के तौर पर स्वीकार कर लेती पर बाद में उसमें कोई बदलाव न आता। वह सत्य स्वीकार करने वाली इंसान नहीं थी। वह अपने रुतबे का इस्तेमाल भाई-बहनों को बेबस और उन पर हमला करने के लिए भी करती थी जिससे वे नकारात्मक दशा में रहने लगे थे, इससे सुसमाचार कार्य बुरी तरह प्रभावित हुआ था। उसके जैसे लोग—जो वास्तविक कार्य नहीं कर सकते बल्कि काम में विघ्न और गड़बड़ी पैदा करते हैं—उपयोग के लायक नहीं होते, उन्हें सुसमाचार उपयाजक के रूप में नहीं चुना जा सकता है, भले ही वे प्रतिभाशाली हों। इसके अलावा जब मैंने ली यांग को चुना तो मेरा दृष्टिकोण गलत था। मुझे लगता था कि अगर किसी के पास अनुभव है और सुसमाचार का प्रचार करने में प्रभावी है तो उसे सुसमाचार उपयाजक के रूप में चुना जा सकता है, लेकिन यह पूरी तरह से मेरी अपनी धारणा और कल्पना थी। ली यांग सुसमाचार का प्रचार करके नए विश्वासियों को ला सकती थी, इसका मतलब केवल इतना ही था कि वह सुसमाचार का प्रचार करने में अच्छी थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह सुसमाचार कार्य की निगरानी करने के उपयुक्त थी। चाहे उसके पास कितना भी अनुभव हो, अगर उसमें बुरी मानवता है, वह अपने शैतानी स्वभाव से दूसरों को बेबस कर उन पर हमला करती है और काट-छाँट नहीं स्वीकारती तो फिर यह परेशानी वाली बात है। ऐसे व्यक्ति का उपयोग कलीसिया के कार्य में केवल बाधा और गड़बड़ी ही पैदा कर सकता है। जब मेरे सामने समस्याएँ आईं तो मैंने सत्य की खोज नहीं की। मैंने लोगों और चीजों को अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर देखा। यह परमेश्वर में विश्वास रखना कैसे हुआ? जब मैंने आत्मचिंतन किया तो मुझे अपने दिल की गहराई में एक उदासी महसूस हुई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मैं सत्य सिद्धांतों की खोज करना चाहती हूँ और अब मनमाने ढंग से कार्य नहीं करना चाहती।

हालाँकि मुझमें बदलाव की इच्छा थी फिर भी मेरी अपनी इच्छा बहुत प्रबल थी, इसलिए मैंने कुछ ही समय बाद फिर से वही पुरानी गलतियाँ कीं। एक दिन मेरी उच्च अगुआ ने हमारे काम के बारे में जानकारी लेते समय देखा कि पाठ-आधारित कार्य की प्रभारी बहन शू जी में काबिलियत की कमी है। उसे काफी समय तक तैयार किया गया था लेकिन उसमें जाहिर तौर पर कोई विकास नहीं हुआ और उसने कोई प्रभावी काम भी नहीं किया। मेरी अगुआ ने सुझाव दिया कि मैं जल्दी से किसी अच्छी काबिलियत और अंतर्दृष्टि वाले व्यक्ति को तैयार करूँ और कहा कि भले ही उसे अभ्यास करते हुए कम समय हुआ हो, इससे फर्क नहीं पड़ेगा। मैंने सोचा, “भले ही शू जी में काबिलियत की कमी है, फिर भी उसने लंबे समय तक यह कर्तव्य निभाया है और वह बोझ उठा सकती है, इसलिए वह इस काम के लिए औरों से बेहतर है। जो इसमें नए हैं वे सिद्धांत नहीं समझते और उनके पास कोई कार्य अनुभव भी नहीं है, उन्हें विकसित करने में समय लगेगा। उन सबके मुकाबले शू जी इस भूमिका के लिए कहीं बेहतर हैं। वह फिलहाल अप्रभावी हो सकती है क्योंकि वह खराब दशा में है। एक बार जब वह ठीक से जम जाएगी तो उसके परिणामों में स्वाभाविक रूप से सुधार होना चाहिए।” तो मैंने शू जी को दूसरे काम पर नहीं लगाया। कुछ समय बाद अगुआ ने मुझे एक और पत्र लिखकर शू जी को दूसरा काम सौंपने को कहा और बहन शिन यू के नाम की सिफारिश करते हुए लिखा कि उसमें अच्छी काबिलियत और अच्छा लेखन कौशल है और वह पहले भी यह काम कर चुकी है और विकसित करने योग्य है। मैंने देखा कि शिन यू को परमेश्वर में विश्वास रखते हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ है और उसके पास बहुत कम अनुभव है, मुझे संदेह हुआ कि क्या वह वाकई काम संभाल सकती है। इसे ध्यान में रखते हुए मैंने शू जी को रखने पर जोर दिया और शिन यू को तैयार नहीं किया। महीने के अंत तक मुझे पता चला कि पाठ-आधारित कार्य लगभग रुका हुआ है। मेरी अगुआ ने यह कहते हुए मेरी काट-छाँट की कि मैं अपने विचारों को लेकर बहुत अड़ियल हूँ, उसने शू जी को दो बार दूसरा काम सौंपने और शिन यू को विकसित करने का सुझाव दिया लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया जिससे पाठ-आधारित कार्य बहुत ज्यादा बाधित हो रहा है। यह सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा। मेरे अगुआ ने मुझे दो बार चेताया था कि शू जी में काबिलियत की कमी है और वह विकसित करने योग्य नहीं है। मैं इसे स्वीकार क्यों नहीं कर सकी? मैंने हमेशा कर्मियों को अपनी इच्छा के अनुसार उपयोग करने पर जोर क्यों दिया? काम में हुए भारी नुकसान को देखते हुए मुझे बहुत आत्मग्लानि हुई, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं अपने मसलों पर आत्मचिंतन कर सकूँ।

बाद में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “तुम परमेश्वर की सेवा अपने स्वाभाविक चरित्र से और अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार करते हो। इसके अलावा, तुम हमेशा सोचते हो कि जो कुछ भी तुम करना चाहते हो, वो परमेश्वर को पसंद है, और जो कुछ भी तुम नहीं करना चाहते हो, उनसे परमेश्वर घृणा करता है, और तुम पूर्णतः अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हो। क्या इसे परमेश्वर की सेवा करना कह सकते हैं? अंततः तुम्हारे जीवन स्वभाव में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आएगा; बल्कि तुम्हारी सेवा तुम्हें और भी अधिक जिद्दी बना देगी और इससे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव गहराई तक जड़ें जमा लेगा। इस तरह, तुम्हारे मन में परमेश्वर की सेवा के बारे में ऐसे नियम बन जाएँगे जो मुख्यतः तुम्हारे स्वयं के चरित्र पर और तुम्हारे अपने स्वभाव के अनुसार तुम्हारी सेवा से प्राप्त अनुभवों पर आधारित होंगे। ये मनुष्य के अनुभव और सबक हैं। यह मनुष्य के सांसारिक आचरण का फलसफा है। इस तरह के लोगों को फरीसियों और धार्मिक अधिकारियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यदि वे कभी भी जागते और पश्चाताप नहीं करते हैं, तो वे निश्चित रूप से झूठे मसीह और मसीह विरोधी बन जाएँगे जो अंत के दिनों में लोगों को गुमराह करते हैं। झूठे मसीह और मसीह विरोधी, जिनके बारे में कहा गया था, इसी प्रकार के लोगों में से उठ खड़े होंगे। जो परमेश्वर की सेवा करते हैं, यदि वे अपने चरित्र का अनुसरण करते हैं और अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं, तब वे किसी भी समय निकाल दिए जाने के ख़तरे में होते हैं। जो दूसरों के दिलों को जीतने, उन्हें व्याख्यान देने और बेबस करने तथा ऊंचाई पर खड़े होने के लिए परमेश्वर की सेवा के कई वर्षों के अपने अनुभव का प्रयोग करते हैं—और जो कभी पछतावा नहीं करते हैं, कभी भी अपने पापों को स्वीकार नहीं करते हैं, पद के लाभों को कभी नहीं त्यागते हैं—उनका परमेश्वर के सामने पतन हो जाएगा। ये अपनी वरिष्ठता का घमंड दिखाते और अपनी योग्यताओं पर इतराते पौलुस की ही तरह के लोग हैं। परमेश्वर इस तरह के लोगों को पूर्णता प्रदान नहीं करेगा। इस प्रकार की सेवा परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी करती है। लोग हमेशा पुराने से चिपके रहते हैं। वे अतीत की धारणाओं और अतीत की हर चीज से चिपके रहते हैं। यह उनकी सेवा में एक बड़ी बाधा है। यदि तुम उन्हें छोड़ नहीं सकते हो, तो ये चीजें तुम्हारे पूरे जीवन को विफल कर देंगी। परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा नहीं करेगा, थोड़ी-सी भी नहीं, भले ही तुम दौड़-भाग करके अपनी टाँगों को तोड़ लो या मेहनत करके अपनी कमर तोड़ लो, भले ही तुम परमेश्वर की ‘सेवा’ में शहीद हो जाओ। इसके विपरीत वह कहेगा कि तुम एक कुकर्मी हो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, धार्मिक सेवाओं का शुद्धिकरण अवश्य होना चाहिए)। “अगर कोई इंसान सत्य से प्रेम नहीं करता और अक्सर अपनी इच्छा के अनुसार काम करता है, तो वह अक्सर परमेश्वर को रुष्ट करेगा। परमेश्वर उसे ठुकरा कर एक किनारे कर देगा। ऐसा इंसान जो कुछ करता है, वह अक्सर परमेश्वर की स्वीकृति पाने में विफल हो जाता है, और अगर वह पश्चाताप न करे, तो सजा उससे दूर नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मैं थोड़ा डर गई। मैंने सोचा चूँकि मैंने काफी लंबे समय तक अपना कर्तव्य निभाया है और कुछ अनुभव भी है तो इसका अर्थ है कि मुझे सत्य की समझ है, इसलिए मैं अपनी धारणाओं पर कायम रही और उनका अभ्यास किया मानो वे सत्य हों और अपने कार्य अनुभव को पूँजी माना। नतीजा यह हुआ कि मैं और भी अहंकारी हो गई। जब मुझे समस्याएँ आईं तो मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी—मैंने सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं की, दूसरों के सुझाव स्वीकार नहीं किये और मैंने हठपूर्वक वही किया जो मैं चाहती थी। इस सबसे कलीसिया के काम को नुकसान हुआ। आखिरकार मैं समझ गई कि कार्य अनुभव होने का मतलब यह नहीं है कि मैं सत्य समझती हूँ और मुझमें वास्तविकताएँ हैं। सत्य का अनुसरण न करके और अपने अनुभव और इच्छा से कार्य करके मैं केवल कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी ही पैदा कर सकती हूँ। परमेश्वर के घर में सत्य का बोलबाला है और सत्य ही लोगों के कार्यों की कसौटी है लेकिन इसके बावजूद मैंने अपने कार्य अनुभव और इच्छा को ही सत्य मान लिया था। परमेश्वर में यह विश्वास रखना कैसे हुआ? यह तो अपने आपमें विश्वास रखना हुआ! मैंने विचार किया कि कलीसिया से निष्कासित सभी मसीह-विरोधी अहंकारी, दंभी और स्वेच्छाचारी थे। अपने कर्तव्यों में उन्होंने परमेश्वर के घर के सिद्धांतों की अनदेखी की और लापरवाही से काम किया और भले ही दूसरों ने उन्हें चेताया या उनकी काट-छाँट की पर उन्होंने कभी पश्चात्ताप नहीं किया। अंत में उन्होंने कलीसिया के काम को बुरी तरह से बाधित किया, परिणामस्वरूप उन्हें हटा दिया गया। क्या मेरा स्वभाव भी इन मसीह-विरोधियों जैसा ही नहीं था? ऐसा ही था! मैं भी मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी! मुझे बेहद पछतावा और आत्मग्लानि हुई और इतनी अहंकारी और आत्म-तुष्ट होने पर खुद से घृणा हुई।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा और जाना कि अभ्यास कैसे करना है। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब दूसरे लोग अपनी असहमतियों को व्‍यक्‍त करते हैं, ऐसे में, स्‍वेच्‍छाचारी और उतावलेपन से बचने के लिए तुम किस तरह का अभ्यास कर सकते हो? पहले तुम्हारा रवैया विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे किनारे रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम अपने तरीके को सही मानो, तुम्‍हें उस पर जोर नहीं देते रहना चाहिए। यह एक तरह की प्रगति है; यह सत्‍य खोजने, स्‍वयं को नकारने और परमेश्वर के इरादे पूरे करने का रवैया दर्शाता है। जैसे ही तुम यह रवैया अपनाते हो और साथ ही तुम अपनी राय से चिपके नहीं रहते, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से सत्य जानना चाहिए, और फिर परमेश्वर के वचनों में आधार ढूँढ़ना चाहिए—परमेश्वर के वचनों के आधार पर काम करने का तरीका ढूंढो। यही सबसे उपयुक्त और सटीक अभ्यास है। जब तुम सत्य की तलाश करते हो और कोई ऐसी समस्या रखते हो जिस पर सभी लोग संगति करें और सत्य खोजें, तभी पवित्र आत्मा प्रबुद्धता प्रदान करता है। परमेश्वर लोगों को सिद्धांतों के अनुसार प्रबुद्ध करता है। वह लोगों के रवैये का जायजा लेता है। अगर तुम हठपूर्वक अपनी बात पर अड़े रहते हो, फिर चाहे तुम्हारा दृष्टिकोण सही हो या गलत, तो परमेश्वर तुमसे अपना मुँह छिपा लेगा और तुम्हारी उपेक्षा करेगा; वह तुम्हें बेनकाब करने और तुम्हारी बुरी दशा को उजागर करने के लिए तुम्हें दीवार से टकराने देगा। दूसरी ओर, यदि तुम्हारा रवैया सही है, अपने तरीके पर अड़े रहने वाला नहीं है, न ही वह आत्मतुष्ट, मनमाना और उतावला रवैया है, बल्कि सत्य की खोज करने और उसे स्वीकारने का रवैया है, अगर तुम सभी के साथ संगति करते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे बीच कार्य आरंभ करेगा और संभवतः वह तुम्हें किसी की बातों के माध्यम से समझ की ओर ले जाएगा। कभी-कभी जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है, तो वह सिर्फ कुछ शब्दों या वाक्यांशों में ही, या तुम्हें कोई विचार देकर, मामले की तह तक ले जाता है। तुम एक ही क्षण में समझ जाते हो कि जिस धारणा से तुम चिपके रहे हो वह गलत है, और उसी क्षण तुम यह भी समझ जाते हो कि इस काम को सबसे अच्छे तरीके से कैसे किया जा सकता है। इस स्तर तक पहुँचने के बाद, क्या तुम बुराई करने और गलती के परिणाम भुगतने से सफलतापूर्वक बच नहीं जाते हो? क्या यह परमेश्वर से मिला सुरक्षा कवच नहीं है? (बिल्कुल।) इस तरह की चीज को कैसे हासिल किया जाता है? वह तभी प्राप्त होती है, जब तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है और जब तुम समर्पित हृदय से सत्य खोजते हो। जब तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन प्राप्त कर लेते हो और अभ्यास के सिद्धांत निर्धारित कर लेते हो तो तुम्हारा अभ्यास सत्य के अनुरूप होगा और तुम परमेश्वर के इरादे पूरे कर लोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि चाहे हमारे साथ कुछ भी हो हमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय बनाए रखना चाहिए, परमेश्वर का इरादा और सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए। विशेषकर तब जब हमारे भाई-बहन ऐसे सुझाव दें जो हमारे विचारों से अलग हों तो हमें पहले स्वयं को नकारना चाहिए और उन्हें स्वीकारना चाहिए। अगर हमें लगता है कि हम सही हैं तो भी हमें अपनी बात पर अड़ना नहीं चाहिए और अपने भाई-बहनों से खोजना और उनके साथ संगति करनी चाहिए। केवल इसी तरह से हम परमेश्वर का मार्गदर्शन और प्रबुद्धता प्राप्त कर सकते हैं। मैं बरसों से परमेश्वर में विश्वास रखती आई थी, फिर भी अभी तक मैं उन सुझावों को स्वीकार नहीं कर सकी थी जो सत्य के अनुरूप हैं। मैं अभी भी पूरी तरह से अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार जी रही थी। इतनी दरिद्र, दयनीय, मलिन और भ्रष्ट होने के बावजूद मैं अब भी गर्व से सोचती थी कि मैं नेक हूँ और कार्य करते समय खुद पर जबर्दस्त विश्वास रखती थी। इसके बारे में सोचते हुए मुझे एहसास हुआ कि यह बेशर्मी थी। मैंने मन बना लिया कि मैं फिर कभी खुद पर भरोसा नहीं करूँगी और हर चीज में सत्य सिद्धांतों की खोज करूँगी और दूसरों के साथ अधिक संगति करूँगी ताकि मैं अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकूँ।

उसके बाद मैंने खोजना शुरू किया कि कैसे लोगों के लिए उनकी काबिलियत और क्षमता के अनुसार उचित ढंग से कर्तव्य की व्यवस्था की जाए। मुझे परमेश्वर के ये वचन मिले : “सभी को अपनी व्यक्तिगत भूमिका निभानी चाहिए और अपनी क्षमताओं के अनुसार योगदान देना चाहिए। व्यक्तियों के गुणों, प्रतिभा, काबिलियत, उम्र और उनके परमेश्वर में विश्वास की अवधि को ध्यान में रखते हुए उचित रूप से कर्तव्य पालन की व्यवस्था की जानी चाहिए। इस दृष्टिकोण को विभिन्न प्रकार के लोगों के उपयुक्त बनाया जाना चाहिए ताकि वे परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाकर अपनी उपयोगिता अधिकतम बढ़ा सकें(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। “कुछ लोग खुद को लिखा-पढ़ी में कुशल मानते हैं, इसलिए वे उससे संबंधित कर्तव्य निभाने की जोरदार माँग करते हैं। बेशक, परमेश्वर का घर उन्हें हतोत्साहित नहीं करेगा, परमेश्वर का घर प्रतिभाशाली व्यक्तियों को सँजोता है, और लोगों के पास जो भी गुण या खूबियाँ हों, परमेश्वर का घर उन्हें उनका उपयोग करने का अवसर देगा, और इसलिए कलीसिया उनके लिए कोई पाठ-आधारित कार्य करने की व्यवस्था करती है। लेकिन कुछ समय गुजरने के बाद पता चलता है कि उनमें वास्तव में यह कौशल नहीं है और वे इस कर्तव्य को ठीक से निभाने में असमर्थ हैं; वे पूरी तरह से बेअसर हैं। उनकी प्रतिभा और काबिलियत इस काम के लिए पूरी तरह से अक्षम है। तो ऐसी परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए? क्या यह संभव है कि उन्हें बस बरदाश्त किया जाए और कहा जाए, ‘तुममें जुनून है, और भले ही तुम्हारे पास अधिक प्रतिभा नहीं है और तुम्हारी काबिलियत औसत है, फिर भीअगर तुम इच्छुक हो और कड़ी मेहनत करने से नहीं कतराते तो परमेश्वर का घर तुम्हें बरदाश्त करेगा और तुम्हें यह कर्तव्य निभाते रहने देगा। अगर तुम इसे अच्छी तरह से नहीं करते तो भी कोई बात नहीं। परमेश्वर का घर आँखें मूँद लेगा और तुम्हें बदले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है’? क्या इसी सिद्धांत के जरिये परमेश्वर का घर मामले सँभालता है? स्पष्टतः नहीं। ऐसी परिस्थितियों में आम तौर पर उनके लिए उनकी काबिलियत और खूबियों के आधार पर उपयुक्त कर्तव्यों की व्यवस्था की जाती है; यह इसका एक पक्ष है। लेकिन केवल इसी पर निर्भर रहना काफी नहीं है, क्योंकि कई मामलों में लोग खुद भी नहीं जानते कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त हैं, और भले ही उन्हें लगता हो कि वे इसमें अच्छे हैं, जरूरी नहीं कि यह सही हो, और इसलिए उन्हें आजमाना होगा और कुछ समय के लिए प्रशिक्षित होना होगा; इस आधार पर निर्णय लेना कि वे प्रभावी हैं या नहीं, सही है। अगर उन्हें कुछ अवधि तक प्रशिक्षित किया जाता है और कोई नतीजा नहीं मिलता या कोई प्रगति नहीं होती, तो यह पुष्टि हो जाती है कि वे तराशे जाने लायक नहीं हैं, तो उनके कर्तव्य में थोड़ा बदलाव किया जाना चाहिए और उनके लिए किसी उपयुक्त कर्तव्य की फिर से व्यवस्था की जानी चाहिए। लोगों के कर्तव्य इस तरह से पुनर्व्यवस्थित और समायोजित करना उचित बात है और यह सिद्धांत के अनुरूप भी है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि कलीसिया हर व्यक्ति की मानवता, काबिलियत और खूबियों के आधार पर कर्तव्यों की व्यवस्था करती है ताकि हर व्यक्ति सही जगह पर अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिका निभा सके। कुछ लोग पाठ-आधारित कार्य करते हैं लेकिन कुछ समय तक विकसित किए जाने के बावजूद उनका कोई विकास नहीं होता। उनमें काबिलियत की कमी होती है और वे काम करने में सक्षम नहीं होते, इसलिए वे उस भूमिका में बने नहीं रह पाते। इसलिए जरूरी है कि उनकी काबिलियत के आधार पर उनके लिए ऐसे उपयुक्त कर्तव्य की व्यवस्था की जाए जो उनके और कलीसिया के काम दोनों के लिए फायदेमंद हो। सिद्धांतों के अनुसार, हालाँकि शू जी में अच्छी मानवता थी और उसने अपने कर्तव्य का बोझ उठाया था, लेकिन उसमें काबिलियत की कमी थी, इसलिए बरसों पाठ-आधारित कार्य करने के बावजूद उसकी प्रगति बहुत धीमी थी, यानी वह वास्तव में काम की निगरानी के लिए उपयुक्त नहीं थी। हालाँकि शू जी की तुलना में शिन यू कम समय से विश्वासी थी पर वह सत्य को विशुद्ध रूप से समझती थी, बोधगम्य थी, उसमें अच्छी काबिलियत थी और उसे लेखन में आनंद आता था। हालाँकि वह अभी तक इस कार्य के योग्य नहीं थी, अगर उसे कुछ समय तक विकसित किया जाता तो वह आगे बढ़ सकती थी और सक्षम बन सकती थी। लोगों का उपयोग करने और उन्हें विकसित करने के सिद्धांतों को समझने के बाद मैंने शिन यू को पाठ-आधारित कार्य का प्रभारी बना दिया और शू जी को दूसरी जिम्मेदारी सौंप दी और कुछ समय बाद पाठ-आधारित कार्य में धीरे-धीरे सुधार होने लगा।

बाद में मैंने देखा कि दूसरे समूह की बहन वांग चेन अच्छा लिखती है और मुझे लगा कि उसे पाठ-आधारित कार्य के लिए तैयार किया जा सकता है तो मैंने उसकी सिफारिश की। लेकिन मेरी सहयोगी ने कहा कि वह घमंडी और आत्म-तुष्ट है, लोगों को बेबस कर देती है और हमेशा दूसरों को अपनी बात मानने पर मजबूर करती है इसलिए वह विकसित किए जाने योग्य नहीं है। उसकी यह बात सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा और मैंने सोचा, “भले ही यह सच है कि वांग चेन थोड़ी अहंकारी है और लोगों को बेबस करती है लेकिन उसका यह व्यवहार तो अतीत की बात है। अब वह काट-छाँट स्वीकार कर सकती है और उसने खुद में कुछ बदलाव लाकर दिखाया है। मुझे लगता है कि वह पाठ-आधारित कार्य के लिए एकदम उपयुक्त है।” इसलिए मैं अपने दृष्टिकोण पर कायम रहना चाहता थी लेकिन फिर मैंने सोचा, “मैंने हमेशा अपनी इच्छा के आधार पर लोगों का चयन किया जिससे कलीसिया के काम को नुकसान हुआ। अब मैं एक बार फिर सिद्धांतों की खोज किए बिना वांग चेन को नियुक्त कर रही हूँ। मैंने यह निर्णय एकतरफा लिया है। मैं अब भी मनमाने ढंग से काम कर रही हूँ! अब मैं अपने विचारों पर अड़ी नहीं रह सकती। मुझे इसमें सत्य खोजना होगा। इसे निर्धारित करने का एकमात्र सटीक तरीका सिद्धांतों के अनुसार है।” बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : “एक और प्रकार के लोग हैं जिन्हें पदोन्नत और विकसित किया जा सकता है, वे वैसे लोग हैं जिनमें विशेष प्रतिभाएँ या गुण होते हैं या जिन्होंने कुछ पेशेवर कौशलों पर महारत हासिल की है। इस प्रकार के लोगों को टीम अगुआओं के रूप में विकसित करने के लिए परमेश्वर का घर किस मानक की अपेक्षा करता है? पहले उनकी मानवता पर गौर करो—अगर वे सकारात्मक चीजों से अपेक्षाकृत प्रेम करते हैं और बुरे लोग नहीं हैं, तो यह काफी है। कुछ लोग पूछ सकते हैं, ‘उनसे यह अपेक्षा क्यों नहीं की जाती कि वे सत्य का अनुसरण करें?’ क्योंकि टीम अगुआ कलीसिया के अगुआ या कार्यकर्ता नहीं होते, न ही वे सिंचन करने वाले होते हैं, और उनसे सत्य का अनुसरण करने के मानक पर खरे उतरने की अपेक्षा करना कुछ ज्यादा ही माँगना है, और यह उनमें से अधिकतर की पहुँच के बाहर है। उन लोगों से इसकी अपेक्षा नहीं की जाती जो सामान्य मामलों का कार्य करते हैं या पेशेवर कार्य की विशिष्ट चीजें करते हैं; अगर ऐसा होता, तो सिर्फ कुछ ही लोग योग्य साबित होते, इसलिए मानकों को नीचे लाना पड़ता है। अगर लोग अपने पेशे को समझते हैं, और काम का बोझ उठाने में सक्षम हैं, और बुरे कर्म नहीं करते या कोई बाधा पैदा नहीं करते, तो यह काफी है। इन लोगों के लिए, जिनके पास कुछ कौशलों और पेशों की विशेषज्ञता है, और जिनमें कुछ खूबियाँ हैं, अगर वे परमेश्वर के घर में कौशल की जानकारी की जरूरत वाले और उनके पेशों से संबंधित काम करने वाले हों, तो अगर वे अपने चरित्र के मामले में अपेक्षाकृत निष्कपट और ईमानदार हैं, बुरे नहीं हैं, अपनी समझ में विकृत नहीं हैं, कष्ट सहने में सक्षम हैं, और कीमत चुकाने को तैयार हैं, तो यह काफी है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर का घर इस सिद्धांत के आधार पर विशेष कौशल वाले लोगों को तैयार करता है : उनमें स्वीकार्य मानवता हो, विकृति-रहित समझ हो, वे अपने कर्तव्यों को गंभीरता से लेते हों और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हों। वांग चेन का स्वभाव कुछ हद तक अहंकारी था लेकिन अगर दूसरों का सुझाव सही और सत्य के अनुरूप हो तो वह उसे स्वीकार कर सकती थी। उसमें पाठ्य-आधारित कार्य करने की प्रतिभा थी, वह अपने कर्तव्य में कष्ट सह सकती थी और कीमत भी चुका सकती थी और वह कलीसिया के काम को कायम रख सकती थी, इसलिए वह उस सिद्धांत के अनुरूप थी। बाद में मैंने अपने विचारों के बारे में अपने वरिष्ठ अगुआ और कई सहयोगियों के साथ संगति के लिए सिद्धांत का उपयोग किया और हर कोई इस बात पर सहमत था कि वांग चेन को विकसित किया जा सकता है, तो मैंने उसके लिए पाठ-आधारित कार्य की व्यवस्था कर दी। उसने अवसर का लाभ उठाया और अपनी नई जिम्मेदारी में अच्छे परिणाम दिए। मैंने देखा कि जब हम हर चीज में परमेश्वर का इरादा खोजते हैं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हैं तो हमें पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन प्राप्त होगा और हमारे दिल में सहजता और शांति होगी।

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