97. मैंने अपने घमंडी तौर-तरीके कैसे बदले

पहले, मैं खुद को हमेशा बहुत स्मार्ट मानता था। सोचता, दूसरों से मदद लिए बिना कभी भी कुछ भी कर सकता हूँ। स्कूल में और घर पर, दोनों जगह, लोग चाहे जो भी सवाल पूछें, बड़े भाई जवाब न दे पाते, तो भी मैं दे देता, और इसलिए मैं उन्हें नीची नजर से देखता था। बड़े भाई मुझे घमंडी कहते, बोलते, मुझे बदलना चाहिए, दूसरों की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए, मगर मैं सोचता, वे मुझसे जलते हैं, इसलिए ऐसा कहते हैं, मैं उनके आरोपों की परवाह नहीं करता।

2019 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। जल्द ही, मैं हाल ही में परमेश्वर का कार्य स्वीकारने वाले नए सदस्यों का सिंचन करने लगा। तब, मेरे साथ काम करने वाली तीन बहनों में से, दो ने कुछ महीने पहले ही परमेश्वर का कार्य स्वीकारा था। तीसरी थी बहन जॉना, जो मेरे काम में मदद करती थी। तब मुझे समूह अगुआ चुना गया था, यानी मेरे ख्याल से समूह में मैं सबसे अच्छा था। साथ काम करते समय, जब वे काम करने का कोई अलग तरीका बतातीं, तो मैं अक्सर नहीं मानता, कहता बस निर्देश के अनुसार ही काम करना होगा। मिसाल के तौर पर, नए सदस्यों की सभाओं के बाद, हर बार, बहन जॉना पूछती, "नए सदस्यों से पूछ लें, उन्होंने सब समझ लिया या नहीं?" तो मैं कहता, "कोई जरूरत नहीं। सभा में उनसे पूछ चुका हूँ, वे समझते हैं, फिर से पूछने की जरूरत नहीं।" जब बहन जॉना कहती, "परमेश्वर के कार्य के सत्य पर संगति करते समय तुम्हें ज्यादा विस्तार से बोलना चाहिए। इससे सुसमाचार सुनकर बदल सकने वाले लोग जल्द तय कर पाएँगे कि परमेश्वर का कार्य वास्तविक है।" मैं बिना सोचे बोला, "सब-कुछ बता चुका हूँ। दोहराने की जरूरत नहीं।" कभी-कभी, बहन जॉना मुझसे नए सदस्यों की हालत पता करने को कहती, लेकिन मैं नहीं जाना चाहता। लगता, समूह अगुआ के तौर पर मुझे उसके काम की व्यवस्था करनी है, वह नहीं बता सकती कि मुझे क्या करना है। कभी-कभी बहन जॉना पूछती, क्या नए सदस्य सभाओं में संगति समझ रहे हैं। उसे हमेशा मेरे काम की खोज-खबर लेते देख मुझे गुस्सा आ जाता। वह समूह अगुआ नहीं थी। उसे मुझे बताने का कोई हक नहीं था कि मैं कौन-सा काम करूँ। तब, मैं बहुत घमंडी था। मैं बहन जॉना या दूसरी दो बहनों के साथ सहयोग नहीं करता था। आम तौर पर नए सदस्यों को मैं खुद सहारा देता था, उन्हें कोई काम नहीं सौंपता था। सोचता, उन्होंने हाल ही में परमेश्वर का कार्य स्वीकारा है और वे दर्शन के अनेक सत्य नहीं समझते हैं, तो शायद अच्छे ढंग से काम न कर सकें। उनके साथ सभाएँ आयोजित करते समय, मैं हमेशा बहुत बोलता, उन्हें संगति का समय नहीं देता। मुझे फिक्र होती कि वे अच्छी संगति नहीं करेंगे, और नए सदस्य नहीं समझ पाएंगे। दरअसल, नए सदस्य मेरी दो बहनों की संगति समझ लेते थे। बस, उन्हें नीची नजर से देखने के कारण मैं नहीं चाहता था वे संगति करें। एक बार, सच्चे मार्ग में नए सदस्यों की नींव जल्द-से-जल्द बनाने के लिए, मैं सत्य के कई अन्य पहलुओं पर संगति करना चाहता था, मगर बहनों ने कहा, "तुम नहीं कर सकते। हमारी सभा सिर्फ डेढ़ घंटे की है। अगर तुमने लंबी संगति की, तो समय नहीं बचेगा, और नए सदस्य समझ नहीं पाएंगे। हम संगति को कई सभाओं में बाँट सकते हैं।" मगर तब मैं उनकी राय नहीं मानना चाहता था, मैंने उन्हें समझाकर अपनी बात मनवाने की भरसक कोशिश की, अंत में, उन्हें मेरी बात माननी पड़ी। बाद में, हमने बीस से भी ज्यादा नए सदस्यों का सिंचन किया। पहली सभा में लगभग सभी नए सदस्य मौजूद थे, मगर अगली कुछ सभाओं में, मैंने देखा कि ज्यादातर नए सदस्य नहीं आए। अंत में, शुरू के बीस से ज्यादा लोगों में से सिर्फ तीन ही नियमित रूप से सभा में आते रहे। नए सदस्यों का सिंचन शुरू करने के बाद से मैंने ऐसा कभी नहीं देखा था। तब मैं बड़े पशोपेश में था, नकारात्मक हो गया था। फिर, एक दिन, अगुआ ने मुझसे मेरा हाल-चाल पूछा, मैंने कहा, "ठीक नहीं है। इस दौरान मैंने अपना कर्तव्य बुरे ढंग से निभाया है। नए सदस्यों से सही ढंग से संगति करने पर हर बार उनसे पूछता हूँ, क्या वे समझ पाए हैं, और वे हमेशा हामी भरते हैं, मगर मुझे समझ नहीं आता वे सभाओं में क्यों नहीं आते।" अगुआ ने मुझे बताया, "तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए। क्या तुमने कुछ गलत किया जिसके कारण नए सदस्य नहीं आना चाहते?" अगुआ आगे बोले, "क्या तुमने तीनों साझीदार बहनों से पूछा कि तुम्हारी सिंचन सामग्री या तरीके में उन्हें कुछ गलत नजर आया?" मैंने कहा, "नहीं, मुझे नहीं लगता, वे अच्छी सलाह दे सकती हैं।" अगुआ बोले, "समस्या यही है। हमेशा खुद पर भरोसा करने के बजाय तुम्हें उनकी राय लेनी चाहिए।" अगुआ की बात मुझे सही लगी। साझीदार बहनों से पूछने की बात मन में कभी नहीं आई। हमेशा सोचता काम में मैं उनसे बेहतर हूँ, इसलिए उनके विचार मुझे बेकार लगते।

फिर अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचन का एक अंश भेजा। "जब तुम लोग अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करते हो, तो क्या तुम अलग-अलग राय स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हो? क्या तुम दूसरों को बोलने देते हो? (हाँ, थोड़ा-सा। पहले मैं भाई-बहनों की बात नहीं सुनता था और इसी बात पर जोर देता था कि काम मेरे ही तरीके से किए जाएँगे। लेकिन फिर जब तथ्यों से साबित हुआ कि मैं गलत हूँ, तब मुझे एहसास हुआ कि उनके अधिकाँश सुझाव सही थे, परिणाम पर ही सब लोग चर्चा करते जो दरअसल उपयुक्त था, मेरे विचार गलत और दोषपूर्ण थे। इस अनुभव के बाद, मुझे एहसास हुआ कि सामंजस्यपूर्ण सहयोग कितना अहम होता है।) तो इससे हमें क्या सीख मिलती है? इसका अनुभव करने पर, क्या तुम्हें कोई लाभ हुआ और क्या सत्य समझ में आया? क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए, यह तथ्य है। अपनी शक्तियों और फायदों या दोषों के प्रति लोगों का यही रवैया भी होना चाहिए; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमज़ोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू को समझ गए हो और सत्य की वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, एक-दूसरे की खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे। यदि तुम हमेशा सोचते हो कि तुम बहुत कुशल हो और दूसरे तुम्हारी तुलना में बदतर हैं, यदि तुम हमेशा अपनी राय को अंतिम राय मनवाना चाहते हो, तो इससे परेशानी होगी। यह स्वभावगत समस्या है। क्या ऐसे लोग अहंकारी और कपटी नहीं होते?" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी समस्या दिखाई। परमेश्वर कहते हैं, "जब तुम लोग अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करते हो, तो क्या तुम अलग-अलग राय स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हो? क्या तुम दूसरों को बोलने देते हो?" परमेश्वर के सवालों पर गौर करके, मैंने तीनों बहनों के साथ इस दौरान अपने सहयोग पर आत्मचिंतन किया। मैंने उनके सारे सुझाव ठुकरा दिए। उनकी राय अच्छी या सही रही हो, तब भी मैंने हमेशा मना किया, क्योंकि मैं नहीं चाहता था वे सोचें कि मैं उनके जैसा अच्छा नहीं हूँ। मैं खुद को सबसे अच्छा समझता था, तो मैं अकेला ही अच्छी सलाह दे सकता था। मैं समूह का अगुआ था, तो उन्हें मेरी बात सुननी और माननी चाहिए, न कि मैं उनकी बात मानूँ। परमेश्वर के वचन के अनुसार कमियाँ सबमें होती हैं, सबको दूसरों की मदद चाहिए, मगर मैं हमेशा खुद को सबसे अच्छा और दूसरों से बेहतर मानता था। क्या यह हेकड़ी नहीं थी? परमेश्वर के वचनों में मैंने देखा कि वह ऐसे लोगों से घृणा करता है।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा। "जब लोगों द्वारा किए गए काम को फिर से करना पड़ता है, सबसे बड़ी समस्या विशेषज्ञ ज्ञान या अनुभव की कमी नहीं होती, बल्कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे बहुत आत्माभिमानी और अहंकारी होते हैं, वे सामंजस्यपूर्ण तरीके से काम नहीं करते, बल्कि अकेले निर्णय लेकर कार्य करते हैं—परिणामस्वरूप वे काम में गड़बड़ी कर देते हैं, और कुछ हासिल नहीं होता, सारा समय और प्रयास बर्बाद हो जाता है। इसमें सबसे गंभीर समस्या लोगों का भ्रष्ट स्वभाव है। जब लोगों का भ्रष्ट स्वभाव बहुत गंभीर होता है, तो फिर वे अच्छे लोग नहीं होते, वे दुष्ट लोग होते हैं। दुष्ट लोगों का स्वभाव सामान्य भ्रष्ट स्वभावों की तुलना में कहीं अधिक गंभीर होता है। दुष्ट लोग दुष्ट कार्य ही करते हैं, वे कलीसिया के कार्य में हस्तक्षेप कर उसे बाधित कर देते हैं। जब दुष्ट लोग कोई कार्य करते हैं, तो वे कार्य को बुरे ढंग से करते हैं और काम को बिगाड़ देते हैं; उनकी सेवा अच्छाई के बजाय परेशानी बन जाती है। कुछ लोग दुष्ट तो नहीं होते, लेकिन वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं—और इस तरह, वे अपना कार्य ठीक से नहीं कर पाते। संक्षेप में, भ्रष्ट स्वभाव लोगों के ठीक से कार्य करने में अत्यंत बाधक होता है। तुम लोगों के अनुसार, इंसान के भ्रष्ट स्वभाव का कौन-सा पहलू उसके कार्य की प्रभावशीलता में सबसे ज्यादा बुरा असर डालता है? (अहंकार और आत्म-संतुष्टि।) अहंकार और आत्म-संतुष्टि की मुख्य अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? अकेले निर्णय लेना, अपने हिसाब से चलना, दूसरों के सुझाव न सुनना, दूसरों के साथ परामर्श न करना, सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग न करना और हमेशा चीज़ों के बारे में अंतिम निर्णय लेने की कोशिश करना। भले ही कुछ अच्छे भाई और बहनें किसी विशेष कर्तव्य का पालन करने के लिए सहयोग कर रहे हों, किंतु उनमें से हरेक अपना कार्य भी कर रहा होता है, कुछ समूह अगुआ पर्यवेक्षक हमेशा अंतिम निर्णय लेना चाहते हैं; वे जो भी कर रहे होते हैं, वे सामंजस्यपूर्ण ढंग से दूसरों के साथ सहयोग नहीं करते और संगति में संलग्न नहीं होते, और वे दूसरों के साथ सर्वसम्मति पर पहुँचने से पहले ही बिना सोचे-विचारे काम करते हैं। वे सबको केवल अपनी बात सुनने के लिए मजबूर करते हैं, और समस्या इसी में है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। परमेश्वर के इन वचनों ने मुझे गहराई से छू लिया। समझ नहीं पाया पहले अपना कर्तव्य मैं प्रभावी ढंग से क्यों नहीं कर पाता था। परमेश्वर का वचन पढ़ने के बाद ही मैं समझ सका कि यह मेरे बेहद घमंडी स्वभाव और दूसरों के साथ सहयोग न कर पाने के कारण था। तब, तीनों बहनों के साथ काम करते वक्त मैं अपनी ही बात मनवाता था। सभाओं में संगति की सामग्री पर चर्चा करते समय हर बार सभी के अपने विचार और राय देने के बाद ही, हमें फैसला करना चाहिए था कि सभा का समग्र सूत्र क्या हो, ताकि सभा प्रभावी हो सके। लेकिन मैं उनकी राय पूछे बिना खुद ही फैसले करता था, क्योंकि मैं अपनी ही राय को अच्छी मानता था और दूसरों की बात सुनने की मुझे जरूरत नहीं थी। कोई आपत्ति करता तो मैं बहुत से कारण ढूँढ़ कर काट देता। बेहद घमंडी होने के कारण, मैं दूसरों की सलाह नहीं मानता था, इसलिए मुझे परमेश्वर से आशीष या मार्गदर्शन नहीं मिला, मैं अपने कर्तव्य में प्रभावी नहीं हो पाया। इस बार की नाकामी ने मुझे बेनकाब कर दिया।

बाद में, अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचन के दो अंश भेजे। परमेश्वर कहते हैं, "अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं! बुरे कर्मों के समाधान के लिए, पहले उन्हें अपनी प्रकृति को सुधारना होगा। स्वभाव में बदलाव किए बिना, इस समस्या का मौलिक समाधान हासिल करना संभव नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। "तुम्हें याद रखना चाहिए : कर्तव्य-निर्वहन का मतलब यह नहीं है कि सारे प्रयास तुम करो और सारा प्रबंधन अपने सिर पर ले लो। यह तुम्हारा निजी कार्य नहीं है, यह कलीसिया का कार्य है, और तुम उसमें केवल अपनी उस क्षमता का योगदान करते हो जो तुम्हारे पास है। तुम परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में जो कुछ करते हो वह मनुष्य के सहयोग का एक छोटा-सा हिस्सा है। किसी कोने में तुम्हारी सिर्फ एक छोटी-सी भूमिका है, तुम्हारा एक छोटा-सा दायित्व है। तुम्हारे मन में यह भाव होना चाहिए। और इसलिए, किसी काम को चाहे कितने भी लोग कर रहे हों, समस्या आने पर, सबसे पहले सभी को परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और मिलकर संगति करनी चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, और फिर यह निर्धारित करना चाहिए कि अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं। जब वे ऐसा करेंगे, तो उनके पास अभ्यास का मार्ग होगा। कुछ लोग दिखावा करने की कोशिश करते रहते हैं, और जब उन्हें काम की कोई जिम्मेदारी दी जाती है, तो वे चाहते हैं कि अंतिम निर्णय उन्हीं का हो। यह किस तरह का व्यवहार है? यह अपने आप को कानून मानना है। वे अपने तरीके से अपने काम की योजना बनाते हैं, वे दूसरों को न तो सूचित करते हो और न ही किसी से अपने विचारों पर चर्चा करते हैं; वे न तो उन्हें किसी से साझा करते हैं और न ही किसी को बताते हैं, बल्कि उन्हें अपने तक ही सीमित रखते हैं। और जब काम करने का समय आता है, तो वे हमेशा अपने शानदार करतब से दूसरों को विस्मित करना चाहते हैं, सभी को आश्चर्यचकित कर देना चाहते हो ताकि लोग उनका सम्मान करें। क्या यह अपने कर्तव्य का निर्वहन करना है? वे दिखवा करने की कोशिश कर रहे हैं; और जब उनके पास रुतबा और ख्याति होती है, तो वे अपना संचालन शुरू कर देते हैं। क्या ऐसे लोग अति-महत्वाकांक्षी नहिं होते? तुम किसी को यह क्यों नहीं बताते कि तुम क्या कर रहे हो? चूँकि यह कार्य अकेले तुम्हारा नहीं है, तुम उसे बिना किसी से चर्चा किए क्यों करोगे और अपने आप निर्णय कैसे लोगे? तुम गुप्त रूप से सारी जानकारी छिपाकर काम क्यों करोगे, जिससे कि किसी को उसके बारे में पता न चले? तुम हमेशा ऐसी कोशिश क्यों करते हो कि सबका ध्यान सिर्फ तुम्हारी ओर ही हो? जाहिर है कि तुम इसे अपना निजी कार्य समझते हो। तुम मालिक हो और बाकी सब कार्यकर्ता हैं—वे सभी तुम्हारे लिए काम करते हैं। जब लगातार तुम्हारी मानसिकता ऐसी होती है, तो क्या यह परेशानी वाली बात नहीं है? क्या इस प्रकार का व्यक्ति शैतान के स्वभाव को प्रकट नहीं करता है? जब इस तरह के लोग कोई कार्य करते हैं, तो देर-सवेर उन्हें त्याग दिया जाएगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। परमेश्वर के वचन पढ़कर ही मुझे एहसास हुआ कि घमंड मेरी प्रकृति बन चुका था, यह स्वाभाविक रूप से दिखता था। परमेश्वर के घर में जब मेरा रुतबा था, तो मैं इस मौके का इस्तेमाल सिर्फ दिखावे के लिए करना चाहता था, यह दिखाना चाहता था कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ, समूह अगुआ बनने के लिए मैं ही सबसे सही पसंद हूँ। मैं अपनी साझीदारों को भी साबित करना चाहता था कि मैं उनसे बेहतर हूँ, मुझे उनकी सलाह या मदद की जरूरत नहीं है। अपने घमंड के कारण, मुझे हमेशा लगता मैं सब जानता था, और दूसरों की बात सुनना बेकार था। मैं अपनी सोच को ही सत्य मानता था, दूसरों से अपने ही ढंग से काम करवाता था, सत्य नहीं खोजता था, कर्तव्य में परमेश्वर पर भरोसा नहीं करता था। इसके बजाय, मैं नए सदस्यों के सिंचन के लिए अपने अनुभव और मानसिक क्षमता पर ही भरोसा करता था, और अपनी बात मानने के लिए दूसरों को मजबूर करता था। क्या यह महादूत जैसा नहीं था? महादूत घमंडी था, वह परमेश्वर की आराधना नहीं करता था। वह परमेश्वर की बराबरी करना चाहता था, अंत में, अनेक दूतों के साथ मिलकर उसने परमेश्वर को धोखा दिया। मैं अपने घमंडी स्वभाव में फँसा जी रहा था, सत्य स्वीकार नहीं करता था, और दूसरों से अपनी बात मनवाता था। मैं ठीक महादूत की ही तरह परमेश्वर का प्रतिरोध कर उसे धोखा दे रहा था। मुझे यह भी याद आया कि परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले, मैं बहुत घमंडी था। भाइयों सहित अपने से निचले स्तर के लोगों को नीची नजर से देखता था। बचपन में जब मुझे परीक्षा में सबसे अच्छे अंक नहीं मिलते थे, तो मेरे पिता जोर से डांटते थे, "तुझे परीक्षा में अव्वल आना है, सबसे आगे रहना है!" दादी भी कहती, "तुझे सबसे बढ़िया बनने की कोशिश करनी है, तेरी इज्जत होनी चाहिए।" उनकी ये बातें सुनकर, मैं हमेशा बाकी सबसे अलग दिखने की कोशिश करता, खुद को अव्वल स्थान पर रखता, ताकि मैं दूसरों से मजबूत दिखाई दूँ। सोचता, दूसरों की बात सुनूँगा, तो बुरा नजर आऊँगा, इसलिए दूसरों की सलाह नहीं मानना चाहता था। सिर्फ परमेश्वर के वचन से ही मैं समझ पाया कि ये विचार सरासर गलत थे। मैं हमेशा खुद को दूसरों से ऊपर रखता था, किसी के सामने झुकना नहीं चाहता था। यह शैतानी स्वभाव है। अगर यह नहीं बदला, तो अपने कर्तव्य में न सिर्फ मुझे अच्छे नतीजे नहीं मिलेंगे, मैं दुष्टता कर, परमेश्वर का प्रतिरोध करूँगा, और अंत में, परमेश्वर मुझे त्याग देगा, दंडित करेगा। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं यह भी समझ पाया कि मेरा कर्तव्य मेरा निजी करियर नहीं है, न ही यह अपनी काबिलियत का दिखावा करने का मौका है। यह मेरे लिए परमेश्वर का आदेश है। मुश्किलों का सामना होने पर, उन्हें सुलझाने के लिए मुझे दूसरों के साथ मिलकर काम करना चाहिए, और कोई भी फैसला करने से पहले, मुझे अपने साझीदारों से सलाह लेनी चाहिए। अगर दूसरों की राय लिए बिना फैसले करके मैं परमेश्वर के घर के कार्य को पिछड़ने दूँगा, तो इस तरह कर्तव्य निभाना दुष्टता है। यह जान लेने पर, मैंने कर्तव्य के प्रति अपना रवैया बदलना चाहा, दूसरों के साथ मिल-जुलकर सहयोग करना चाहा।

बाद में, अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश देखा। "तुम लोग क्या कहते हो, क्या लोगों के साथ सहयोग करना कठिन होता है? वास्तव में, नहीं होता। तुम यह भी कह सकते हो कि यह आसान होता है। लेकिन फिर भी लोगों को यह मुश्किल क्यों लगता है? क्योंकि उनका स्वभाव भ्रष्ट होता है। जिन लोगों में मानवीयता, विवेक और समझ होती है, उनके लिए दूसरों के साथ सहयोग करना अपेक्षाकृत आसान होता है और उन्हें संभवत: उस काम को करने में खुशी भी होती है। चूँकि किसी के लिए भी अपने दम पर किसी काम को पूरा करना इतना आसान नहीं होता, चाहे वह किसी भी क्षेत्र से जुड़ा हो या कोई भी काम कर रहा हो, अगर कोई बताने और सहायता करने वाला हो तो यह हमेशा अच्छा ही होता है—अपने स्तर पर करने से कहीं ज्यादा आसान होता है। इसके अलावा, लोगों की काबिलियत क्या कर सकती है या वे स्वयं क्या अनुभव कर सकते हैं, इसकी सीमाएं होती हैं। कोई भी इंसान हरफनमौला नहीं हो सकता; किसी के लिए भी हर चीज़ को जानना, सीखना, उसे पूरा करना असंभव होता है और सभी को इस बात की समझ होनी चाहिए। इसलिए तुम चाहे जो काम करो, वह महत्वपूर्ण हो या न हो, वहां हमेशा तुम्हारी मदद करने वाले लोग होने चाहिए, तुम्हें सुझाव और सलाह देनेवाले, काम में तुम्हारी सहायता करने वाले लोग होने चाहिए। इस प्रकार तुम काम को ज़्यादा सही ढंग से कर पाओगे, ग़लतियाँ करना मुश्किल होगा, और तुम कम भटकोगे—जो सब अच्छे के लिए होता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। परमेश्वर के वचनों पर मनन कर, मैं समझ गया कि दूसरों के साथ सहयोग करके ही, हम सही मायनों में कर्तव्य निभा सकते हैं, सामान्य मानवता के साथ जी सकते हैं। मैं सोचता था कि मेरी कुछ साझीदारों ने कुछ माह पहले ही परमेश्वर का कार्य स्वीकारा था, हाल ही में सिंचन कार्य शुरू किया था, तो ऐसी बहुत-सी चीजें थीं जो वे नहीं समझती थीं, जबकि मैंने तीन साल से परमेश्वर में विश्वास रखा था और मुझे उनसे ज्यादा अनुभव था, तो मैंने कभी उनके सुझाव नहीं माने, राय नहीं मानी। अब जाकर मैं समझ पाया था कि यह नजरिया गलत था। हालांकि परमेश्वर में मेरा विश्वास लंबे समय का था, मेरा अनुभव उनसे ज्यादा था, मगर इसका अर्थ यह नहीं था कि मैं हर बात में उनसे बेहतर था। भाई-बहनों के सहयोग के बिना, अच्छे से कर्तव्य निभाना नामुमकिन होता है। कभी-कभी सभाओं में, कुछ सत्य को सतही तौर पर समझ कर मैं बुरे ढंग से संगति करता था, यानी और स्पष्ट संगति के लिए मुझे साझीदार चाहिए था। कभी-कभी नए सदस्य बीमारी के कारण सभाओं में नहीं आ पाते थे, या ज्यादा काम होने के चलते सभा में नियमित नहीं थे, और मैं उनकी हालत पर लागू होने वाले परमेश्वर के वचन नहीं ढूँढ़ पाता था, तब भी मुझे साझीदारों की जरूरत थी। दरअसल, सभी को परमेश्वर से प्रबुद्ध होने का मौका मिलता है। परमेश्वर ने सिर्फ मुझे ही प्रबुद्ध नहीं किया है, काबिलियत नहीं दी है। मैं खुद को बहुत ऊँचा मानता था और दूसरों को बेवकूफ। यह एक गलती थी, बेवकूफी थी। परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन हमारे कार्य अनुभव पर निर्भर नहीं करता, यह इस भरोसे होता है कि क्या हम सत्य को खोजकर स्वीकार सकते हैं। सबकी अपनी खूबियाँ होती हैं, बहन जॉना की तरह, जो अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी उठाती थी, अक्सर अच्छे सुझाव देती थी। मुझे बहन से सहयोग करना चाहिए था, अपनी कमियाँ पूरी करने के लिए उसकी खूबियों से सीखना चाहिए था।

बाद में, मैंने अपने कर्तव्य में भाई-बहनों की राय सुनने की कोशिश की। हर सभा के अंत में, जब बहन अलग से नए सदस्यों से पूछने को कहती कि बताई हुई बात उन्होंने समझी या नहीं, तो मैं उसका कहना मानने लगा और पहले की तरह अब प्रतिरोध नहीं किया। साथ ही, जब वह सभाओं में नए सदस्यों के साथ और विस्तार से संगति करने, और नए सदस्यों की समस्याएँ सुलझाने की भरसक कोशिश करने को कहती, तो मैं ऐसा भी करने लगा। कभी-कभी, वह नए सदस्यों के सिंचन के लिए कुछ अच्छे विचार भी देती, और मैं उन पर अमल करता। इसके बाद, मैंने ज्यादा नए सदस्यों को सभाओं में आते देखा, इससे मुझे बहुत खुशी मिली। मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया, "पवित्र आत्मा न केवल उन खास लोगों में कार्य करता है जो परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त किए जाते हैं, बल्कि कलीसिया में भी कार्य करता है। वह किसी में भी कार्य कर रहा हो सकता है। शायद वह वर्तमान समय में, तुममें कार्य करे, और तुम इस कार्य का अनुभव करोगे। किसी अन्य समय शायद वह किसी और में कार्य करे, और ऐसी स्थिति में तुम्हें शीघ्र अनुसरण करना चाहिए; तुम वर्तमान प्रकाश का अनुसरण जितना करीब से करोगे, तुम्हारा जीवन उतना ही अधिक विकसित होकर उन्नति कर सकता है। कोई व्यक्ति कैसा भी क्यों न हो, यदि पवित्र आत्मा उसमें कार्य करता है, तो तुम्हें अनुसरण करना चाहिए। उसी प्रकार अनुभव करो जैसा उसने किया है, तो तुम्हें उच्चतर चीजें प्राप्त होंगी। ऐसा करने से तुम तेजी से प्रगति करोगे। यह मनुष्य के लिए पूर्णता का ऐसा मार्ग है जिससे जीवन विकसित होता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'जो सच्चे हृदय से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे')। परमेश्वर के वचनों से मैं और स्पष्ट रूप से समझ सका कि मैं घमंडी होकर कर्तव्य में मनमानी नहीं कर सकता, मुझे दूसरों के साथ सहयोग करना ही होगा। यह इसलिए कि पवित्र आत्मा सभी को प्रबुद्ध और रोशन करता है। कोई व्यक्ति परमेश्वर में जितने भी लंबे समय से विश्वास रखे, या उसका रुतबा चाहे जैसा भी हो, अगर उसकी कथनी सत्य के अनुरूप हो, हमें स्वीकार कर उसका पालन करना चाहिए। अगर हम सुनने से इनकार करें, तो कर्तव्य में परमेश्वर हमें आशीष नहीं देगा। इस अनुभव ने मुझे अपने कर्तव्य में मिल-जुलकर सहयोग करने का महत्व दिखाया।

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