4. व्यावहारिक कार्य न कर पाने के नतीजे

हाल ही में कुछ भाई-बहनों ने बताया कि एक समूह अगुआ शिनयू घमंडी और निरंकुश है, वह दूसरों के साथ ठीक से काम नहीं कर पाती या सुझाव नहीं मानती है। उसके आगे सभी बेबस महसूस करते हैं और इससे सुसमाचार के काम पर असर पड़ा है। सभी ने यह समस्या बताकर उसकी मदद करनी चाही, उसने हामी तो भर ली मगर खुद को बिल्कुल नहीं बदला। हमने इस पर चर्चा कर उसे बर्खास्त करने का फैसला किया। दरअसल, मैं इससे बेहद शर्मिंदा थी, क्योंकि इससे पता चला कि मैं व्यावहारिक कार्य नहीं कर रही थी। मैंने शिनयू की समस्याओं के बारे में कभी-कभार उसके साथ संगति की थी लेकिन हैरानी हुई कि समस्या हल होने के बजाय हालत और ज्यादा बिगड़ गई। तब मैंने आत्म-चिंतन कर इसका असली कारण पता करना चाहा। मैंने उन दिनों को याद किया जब पहली बार यह काम संभाला था। शिनयू का समूह सुसमाचार कार्य में सबसे सफल था और इसमें मन से जुटा रहता था। मैं उनका बहुत सम्मान करती थी। खासकर शिनयू की काबिलियत देखकर मुझे लगा कि उसे समूह अगुआ के रूप में कोई दिक्कत नहीं आएगी, इसलिए मैंने उसके काम पर ज्यादा नजर नहीं रखी। कुछ बहनों ने मुझे अपनी समस्याएँ बताईं, लेकिन मैंने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। मुझे लगा कि वे सुसमाचार कार्य में सफल थीं, इसलिए अगर कुछ समस्याएँ हैं भी तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। कभी-कभी संगति के दौरान मैं उन्हें कुछ साधारण-से संकेत दे देती थी, लेकिन बाद में ये समस्याएँ हल हुईं भी कि नहीं, मैंने कभी नहीं देखा। मुझे याद है, एक बार काम पर चर्चा के दौरान मैंने शिनयू और शाओली में मतभेद देखे। दोनों बहुत घमंडी थीं और अपनी-अपनी बात पर अड़ी रहीं। मैंने परमेश्वर के कुछ वचन खोजकर दोनों के साथ उनकी दशा पर संगति की, और यह देखकर कि वे आत्म-चिंतन कर खुद को बदलने को तैयार हैं, मैंने सोचा कि समस्या हल हो चुकी है। मुझे यह तो सूझा कि चीजों पर नजर रखूँ और देखूँ कि क्या उनकी हालत सचमुच बदलीं भी है या नहीं। लेकिन फिर मैंने सोचा, उनके साथ अधिक संगति के लिए मुझे परमेश्वर के वचनों के अंश खोजने पड़ेंगे और उनकी हालत की तह में जाना होगा जो बड़ा थकाऊ काम है। फिर वे सामान्य रूप से काम कर ही रही थीं, तो मैंने उनकी छानबीन को नजरअंदाज करना ही बेहतर समझा। इसलिए मैंने मामले को वहीं छोड़ दिया। फिर एक बार, मैंने संगति के दौरान शिनयू और दूसरी बहन में मतभेद होते देखे। दूसरी बहन ने एक तर्कसंगत सुझाव दिया लेकिन शिनयू इसे स्वीकारने के बजाय अपनी बात को सही ठहराने पर अड़ी रही। कोई चारा न देखकर बहन को अंत में झुकना पड़ा। शिनयू के दंभ को देखकर मैं उसकी समस्या उजागर करना चाहती थी लेकिन फिर मैंने सोचा कि इस संगति में समय और मेहनत दोनों लगेंगे, और फिर मुझे दूसरे काम भी देखने थे। क्योंकि उनमें कोई स्पष्ट टकराव या झगड़ा नहीं था, तो शायद यह उतनी बुरी स्थिति नहीं थी। मुसीबत जितनी कम हो, उतना ही अच्छा। शिनयू एक समूह अगुआ भी थी, अगर वह कोई घमंड दिखा रही थी तो उसे ही सत्य खोजकर इस समस्या को दूर करना आना चाहिए था। इसलिए, मैंने उसे उसकी समस्या नहीं बताई।

इन बातों पर दुबारा सोचते हुए, मैं जानती थी कि शिनयू घमंडी है और दूसरों के साथ ठीक से काम नहीं कर सकती। फिर वह अगुआ भी थी, इसलिए इतने महत्वपूर्ण मामले की उपेक्षा करके मैं वाकई गैर-जिम्मेदारी दिखा रही थी! बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : “कोई अगुआ या कर्मी चाहे जो भी महत्वपूर्ण कार्य करे, और उस कार्य की प्रकृति चाहे जो हो, उनकी पहली प्राथमिकता इस बात से पूर्णत: परिचित होना है कि काम कैसे हो रहा है। चीजों पर अनुवर्ती कार्रवाई करने और प्रश्न पूछने के लिए उन्हें व्यक्तिगत रूप से वहाँ होना चाहिए और उनकी सीधी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। उन्हें केवल सुनी-सुनाई बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए या अन्य लोगों की रिपोर्टें नहीं सुननी चाहिए; इसके बजाय, उन्हें अपनी आँखों से देखना चाहिए कि कर्मचारी कैसे काम कर रहे हैं, काम कैसे बढ़ रहा है, और सीखना चाहिए कि क्या कठिनाइयाँ हैं, कोई क्षेत्र ऊपर वाले की अपेक्षाओं के विपरीत तो नहीं, विशेषज्ञ-कार्यों में कहीं सिद्धांतों का उल्लंघन तो नहीं हुआ, कोई गड़बड़ी या व्यवधान तो नहीं है, आवश्यक उपकरण की या किसी कार्य-विशेष के लिए निर्देशात्मक सामग्री की कमी तो नहीं है—उन्हें इन सब पर नजर रखनी चाहिए। चाहे वे कितनी भी रिपोर्टें सुनें, या सुनी-सुनाई बातों से उन्हें कितना भी कुछ मिले, इनमें से कुछ भी व्यक्तिगत दौरे की बराबरी नहीं करता। चीजों को अपनी आँखों से देखना अधिक सटीक और विश्वसनीय होता है; जब वे स्थिति से परिचित हो जाते हैं, तो उन्हें इस बात का अच्छा अंदाजा हो जाता है कि क्या चल रहा है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। “अगुआ चाहे किसी भी कार्य का निरीक्षण कर रहे हों, भार वहन करने वाले अगुआ हमेशा समस्याएँ पहचान लेते हैं। जो भी समस्या किसी विशेष पेशेवर कौशल के ज्ञान से संबंधित है या सिद्धांतों के उल्लंघन से संबंधित है, वे उसे पहचानने, उस बारे में पूछताछ करने और समझने में सक्षम होते हैं, और जब उन्हें किसी समस्या का पता चल जाता है, तो वे उसे तुरंत दूर करते हैं। बुद्धिमान अगुआ और कार्यकर्ता केवल कलीसिया के कार्य, पेशेवर ज्ञान और सत्य के सिद्धांतों से संबंधित समस्याओं का समाधान करते हैं। दैनिक जीवन की छोटी-छोटी बातों पर वे कोई ध्यान नहीं देते। वे परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सुसमाचार प्रचार कार्य के हर पहलू का ध्यान रखते हैं। वे हर उस समस्या के बारे में पूछते और उसका निरीक्षण करते हैं जिसे वे महसूस कर पाते या जिसका पता लगा पाते हैं। यदि वे उस समय स्वयं समस्या का समाधान नहीं कर पाते, तो वे अन्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर, उनके साथ संगति कर, सत्य के सिद्धांतों की खोज करते हैं और उसे हल करने के तरीकों के बारे में सोचते हैं। यदि उनके सामने ऐसी कोई बड़ी समस्या आती है जिसका वे निश्चित रूप से समाधान नहीं कर पाते, तो वे तुरंत ऊपरवाले से सहायता माँगते हैं ताकि वे उन्हें संभाल सकें और उनका समाधान करें। ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता अपने काम में सिद्धांतों पर चलने वाले होते हैं। चाहे कोई भी समस्या हो, अगर उन्होंने उसे देख लिया है, उसके बारे में सुन लिया है या उसके बारे में जानते हैं, तो वे उसे छोड़ते नहीं और हर को समस्या को हल करने में सक्षम होते हैं। अगर कोई समस्या सही ढंग से हल नहीं भी होती है, तो भी वे गारंटी देते हैं कि समस्या फिर से पैदा नहीं होगी(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। अगुआओं और कार्यकर्ताओं से परमेश्वर क्या चाहता है, यह जानकर मैं बहुत शर्मिंदा हुई। सुसमाचार कार्य के लिए मैंने बोझ नहीं उठाया। मैं सुसमाचार कार्य की फौरन खोज-खबर लेने में तो विफल थी ही, मुझे भाई-बहनों की हालत की गहरी समझ भी नहीं थी। जैसे, शिनयू एक समूह अगुआ थी और उसके साथ काम करना भी मुश्किल था—मुझे संगति के जरिए समस्या का हल निकालना चाहिए था, लेकिन मैंने उसे संक्षेप में समस्या बताकर छुट्टी पा ली और इसकी गहरी समझ हासिल करने के लिए दूसरों से बात नहीं की। मैंने उसकी समस्या की प्रकृति और इसके नतीजों को भी उजागर नहीं किया। उसके बाद, वह बदली भी या नहीं, मैंने पूछताछ नहीं की। मैंने सोचा ही नहीं कि क्या यह उसके सार का मसला है या वह भ्रष्टता दिखा रही है, क्या वह समूह अगुआ होने योग्य है भी या नहीं, और ऐसे ही अन्य बातें। इसलिए उसकी समस्याएँ कभी हल हुई ही नहीं और सुसमाचार कार्य भी प्रभावित हुआ। बाद में मैंने देखा कि शिनयू अब भी घमंडी, दंभी और निरंकुश है, मैं जानती थी कि यह समस्या दूर करने के लिए उसके साथ संगति करनी चाहिए, वरना काम में देरी होगी। फिर भी मैंने चिंता नहीं की क्योंकि मैं पचड़े में नहीं पड़ना चाहती थी। मैं अब भी बस अधूरे मन से हल निकाल रही थी, समस्या का जिक्र भर करके मैं सतही उपायों से संतुष्ट थी। समस्या वाकई हल हुई या नहीं, इस बारे में जानने के लिए मैंने सिर नहीं खपाया। मैं गैर-जिम्मेदार थी, न अपना काम कर रही थी, न ही कोई व्यावहारिक कार्य। झूठे अगुआ ऐसा ही करते हैं। कलीसिया ने इस उम्मीद से मुझे सुसमाचार कार्य का प्रभारी बनाया कि मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य पूरा करूँगी, अपने काम के प्रति गंभीर और जिम्मेदार रहूँगी और सत्य के सिद्धांतों के सहारे भाई-बहनों के मसले हल करूँगी ताकि सुसमाचार का कार्य सुगमता से चलता रहे। लेकिन इसके बजाय, जब समस्याएँ पैदा हुईं और समाधान की जरूरत पड़ी तो मैंने यह सोचकर कुछ नहीं किया कि मुसीबत जितनी कम हो, उतना ही अच्छा। मैं बिल्कुल झूठी अगुआ की तरह बर्ताव करते हुए सुसमाचार कार्य में अड़ंगे डाल रही थी। अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया परमेश्वर को चिढ़ाने वाला था!

उसके बाद मैंने वास्तविक कार्य करने में अपनी नाकामी का असली कारण खोजा और उस पर विचार किया। मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा। “अपने काम में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान देना और उसके प्रति वफादार रहना चाहिए। उनके लिए व्यवहार करने का सबसे अच्छा तरीका सक्रिय रूप से समस्याओं को पहचानना और हल करना है। उन्हें निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए, खासकर जब उनके पास मार्गदर्शन करने के लिए ये व्यावहारिक वचन और संगति हो। उन्हें सत्य पर संगति करके व्यावहारिक समस्याओं और कठिनाइयों को पूरी तरह से हल करने की पहल करनी चाहिए। उन्हें अपना काम अच्छी तरह से करना चाहिए, उसकी प्रगति पर तुरंत और सक्रिय रूप से अनुवर्ती कार्रवाई करनी चाहिए। वे ऊपर से मिलने वाले आदेशों और प्रेरणाओं का इंतजार नहीं कर सकते जो उन्हें कार्य करने के लिए बाध्य करें। यदि अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा निष्क्रिय और प्रतिक्रियाशील रहेंगे, तो इसका अर्थ है कि वे वास्तविक कार्य नहीं कर रहे हैं, वे परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने योग्य नहीं हैं। उन्हें बर्खास्त करके कोई दूसरा काम दे दिया जाना चाहिए। फिलहाल ऐसे बहुत-से अगुआ और कार्यकर्ता हैं जो अपने काम में बहुत निष्क्रिय हैं। वे तभी थोड़ा-बहुत काम करते हैं जब ऊपरवाला उन्हें आदेश देता है और काम करने के लिए मजबूर करता है; अन्यथा, वे सुस्त पड़ जाते हैं और टालमटोल करते हैं। कुछ कलीसियाओं में काम में काफी अस्तव्यस्तता होती है, वहाँ काम करने वाले कुछ लोग बेहद आलसी और लापरवाह होते हैं और उनके काम का कोई वास्तविक परिणाम नहीं मिलता। हो सकता है कि ये समस्याएं बहुत गंभीर और बेहद खराब प्रकृति की हों, लेकिन उन कलीसियाओं के अगुआ और कार्यकर्ता अभी भी सरकारी कर्मचारियों की तरह ही काम करते हैं। वे न तो कोई वास्तविक कार्य कर पाते हैं, न ही समस्याओं को पहचानकर उन्हें हल कर पाते हैं। इससे कलीसिया का काम रुक जाता है और फिर काम ठप्प ही पड़ जाता है। जब भी किसी कलीसिया का काम बुरी तरह से अस्तव्यस्त होता है, व्यवस्था का चिह्न भी नदारद होता है, तो यह तय है कि उसका प्रभारी कोई झूठा अगुआ है। जिस किसी कलीसिया की कमान झूठे अगुआ के हाथ होती है, उस कलीसिया का सारा काम पूरी तरह से गड़बड़ और एकदम अस्त-व्यस्त मिलेगा—इसमें कोई संदेह नहीं है। ... जब लोग आवश्यक काम के प्रति भी एकदम लापरवाह होते हैं तो इसका मतलब क्या है? (वे कोई भार वहन नहीं करते।) यह कहना सही होगा कि वे कोई भार वहन नहीं करते, बेहद आलसी भी होते हैं, वे आराम के लिए तड़पते रहते हैं, मौका मिलते ही आरामतलबी करते हैं और किसी भी अतिरिक्त परेशानी से बचने की कोशिश करते हैं। ये आलसी लोग अक्सर सोचते हैं, ‘मैं इसके बारे में इतनी चिंता क्यों करूँ? बहुत ज्यादा चिंता करने से मैं जल्दी बूढ़ा हो जाऊँगा। ऐसा करके, इतना भागदौड़ करके और अपने आपको इतना थकाकर मुझे क्या लाभ होगा? अगर मैं जी-तोड़ मेहनत करके बीमार पड़ गया तो? मेरे पास तो इलाज के लिए पैसे भी नहीं हैं। और जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा तो मेरी देखभाल कौन करेगा?’ ये आलसी लोग इतने निष्क्रिय और पिछड़े होते हैं। उनमें रत्ती भर भी सत्य नहीं होता और वे कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। जाहिर है कि वे भ्रमित लोगों का एक समूह हैं, है न? वे सब भ्रमित होते हैं। वे सत्य से बेखबर होते हैं और उन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती, तो उन्हें कैसे बचाया जा सकता है? लोग हमेशा अनुशासनहीन और आलसी क्यों होते हैं, मानो वे नींद में चलते हुए जीवन गुजार रहे हों? यह उनकी प्रकृति की एक समस्या से जुड़ा है। मानव-प्रकृति में एक प्रकार का आलस्य होता है। लोग चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, उन्हें हमेशा किसी के द्वारा निगरानी किए जाने और उन्हें प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता होती है। कभी-कभी लोग देह के विचारों में डूबे रहते हैं, शारीरिक आराम के लिए तरसते हैं, अपने लिए उनके पास हमेशा एक आकस्मिक योजना होती है—ये लोग बड़े धूर्त होते हैं, और वे वास्तव में अच्छे लोग नहीं होते। वे कभी भरसक प्रयास नहीं करते, चाहे वे कोई भी महत्वपूर्ण कर्तव्य क्यों न निभा रहे हों। यह गैर-जिम्मेदार और विश्वासघाती होना है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। “ये अकर्मण्य झूठे अगुआ एक अगुआ या कर्मी होने को सुख भोगने का पद मानते हैं। किसी अगुआ द्वारा कर्तव्य-पालन और कार्य-निष्पादन को ऐसे लोग एक बाधा और झंझट समझते हैं। उनके दिल में कलीसिया के कार्य के प्रति अवज्ञा का भाव होता है : अगर उनसे कार्य पर नजर रखने या उसमें आ रही समस्याओं का पता लगाने और फिर उसका अनुसरण कर उसे हल करने को कहा जाए, तो ऐसा करने की उनकी जरा भी इच्छा नहीं होती। अगुआओं और कर्मियों का यही तो काम होता है, यह उनका कार्य है। यदि तुम ऐसा नहीं करते—यदि तुम इसे करने के इच्छुक नहीं हो—तो फिर तुम अगुआ या कर्मी क्यों बनना चाहते हो? तुम अपने कर्तव्य का पालन परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत रहने के लिए करते हो या अफसरशाही के तमगे का आनंद लेने के लिए करते हो? अगर तुम किसी आधिकारिक पद पर बैठने की इच्छा रखते हो, तो क्या अगुआ बनना तुम्हारी बेशर्मी नहीं है? इससे ज्यादा गिरा हुआ चरित्र नहीं हो सकता—इन लोगों में स्वाभिमान नाम की कोई चीज नहीं होती, ये लोग बेशर्म होते हैं। अगर तुम दैहिक सुख का आनंद लेना चाहते हो, तो जल्दी से वापस संसार में जाओ और उसके लिए प्रयास करो, अपनी क्षमता के अनुसार उसे पकड़ो और छीन लो। कोई दखल नहीं देगा। परमेश्वर का घर परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए अपने कर्तव्य निभाने और उसकी आराधना करने का स्थान है; यह लोगों के लिए सत्य का अनुसरण करने और बचाए जाने का स्थान है। यह किसी के लिए दैहिक सुख का आनंद लेने का स्थान नहीं है, लोगों को दुलारने वाली जगह तो बिल्कुल भी नहीं है। झूठे अगुआ ऐसे किस्म के लोग होते हैं जिन्हें कोई शर्म नहीं होती; वे बेशर्म, निर्लज्ज और बुद्धिहीन होते हैं। उन्हें कोई भी वास्तविक कार्य दे दो, वे उसे महत्वपूर्ण नहीं मानते। वे उस पर कोई खास ध्यान नहीं देते, वे जवाब तो अच्छे देते हैं, लेकिन कोई वास्तविक कार्य नहीं करते। क्या यह नैतिकता की कमी नहीं है? ... कुछ लोग चाहे जो भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे उसमें सफल नहीं हो पाते, यह उनके लिए बहुत अधिक होता है, वे किसी भी उस दायित्व या जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ होते हैं, जो लोगों को निभानी चाहिए। क्या वे कचरा नहीं हैं? क्या वे अभी भी इंसान कहलाने लायक हैं? कमअक्ल लोगों, मानसिक रूप से विकलांगों और जो शारीरिक अक्षमताओं से ग्रस्त हैं, उन्हें छोड़कर, क्या कोई ऐसा जीवित व्यक्ति है जिसे अपने कर्तव्यों का पालन और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहिए? लेकिन इस तरह के लोग धूर्त होते हैं और हमेशा बेईमानी करते हैं, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करना चाहते; निहितार्थ यह है कि वे एक सही व्यक्ति की तरह आचरण नहीं करना चाहते। परमेश्वर ने उन्हें क्षमता और गुण दिए, उसने उन्हें इंसान बनने का अवसर दिया, लेकिन वे अपने कर्तव्य-पालन में इनका इस्तेमाल नहीं कर पाते। वे कुछ नहीं करते, लेकिन हर चीज का आनंद लेना चाहते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है? उन्हें कोई भी काम दे दिया जाए—चाहे वह महत्वपूर्ण हो या सामान्य, कठिन हो या सरल—वे हमेशा लापरवाह और अनमने, आलसी और धूर्त बने रहते हैं। समस्याएँ आने पर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं; वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, अपना परजीवी जीवन जीते रहना चाहते हैं। क्या वे बेकार कचरा नहीं हैं?(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। उसके वचनों से मुझे गहरी पीड़ा हुई। पूरे समय, अगुआओं की जिम्मेदारियों पर परमेश्वर गहन रूप से संगति करता रहा लेकिन मैंने इसमें बिल्कुल भी प्रवेश नहीं किया। मैं आलसी और गैर-जिम्मेदार बनी रही, देह की इच्छाओं में उलझी रही और अपने काम में कोई नतीजे नहीं दे रही थी। मैं परजीवी जैसी और निकम्मी थी जिसे परमेश्वर उजागर करता है। शिनयू की समस्या देखते हुए मुझे पता था कि मसला अभी हल नहीं हुआ है, फिर भी मैंने धूर्तता दिखाकर सिर्फ खुद को परेशानी से बचाने का काम किया। मुझे एहसास हुआ कि मेरा काम अक्सर बेअसर इसलिए रहता है क्योंकि मैं आलसी हूँ और सिर्फ अपने आराम की चिंता करती हूँ। शुरुआत में, जब सुसमाचार साझा करने में दूसरों को परेशानी होती थी या सिद्धांतों को लेकर कुछ शंकाएँ होती थीं तो मैं समाधान के लिए उनके साथ संगति करती थी। लेकिन उनमें से कुछ की प्रगति सुस्त या समस्याएँ जटिल होने के कारण मुझे लगा कि उनकी मदद करना मुसीबत भरा और मेहनत की बर्बादी है। मुझे सत्य खोजकर, सोच-समझकर उनके साथ धैर्यपूर्वक संगति करनी पड़ती, इसलिए मैंने इससे बचने का विकल्प चुना और सिर्फ जाहिर मसलों को हल किया और मुश्किल मसलों को दबाती रही। बड़ी-बड़ी समस्याओं को मैंने कम आंका और छोटी-मोटी की परवाह नहीं की। इसलिए बहुतेरे मसले कभी हल हुए ही नहीं। समस्याएं दूर किए बिना मैं देह-सुख में उलझी रही। लिहाजा, लंबे समय तक सुसमाचार का कार्य आगे बढ़ा ही नहीं। वह सिर्फ इसलिए कि मैं प्रकृति से आलसी थी, देह-सुख को ही अहमियत देती थी, और अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित या जिम्मेदार नहीं थी। मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया : “यह गंभीर लापरवाही है! तुमने वह रवैया और उत्तरदायित्व का बोध खो दिया है जो किसी अगुआ या कार्यकर्ता के पद पर बैठे किसी व्यक्ति में अपने कर्तव्य के प्रति होना चाहिए(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। “क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है?” नहीं। मैं अगुआ थी, इसलिए यह मेरी जिम्मेदारी बनती थी कि जो भी मसले सामने आएं उनके समाधान के लिए हर संभव काम करूँ। लेकिन मैं सही रास्ते पर नहीं चल रही थी—मैं हमेशा अपने आराम के बारे में सोचती थी। जब भी मुझे वास्तविक कार्रवाई या कोई वास्तविक कार्य करना पड़ता, मैं बच निकलती थी। इससे कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को क्षति पहुँची। इस तरह से अपना काम करना गंभीर लापरवाही थी! जरा सोचिए, इंसान की भ्रष्टता दूर करने के परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य में उसने लाखों वचन व्यक्त किए हैं, उसके कार्य में याद दिलाना और उपदेश देना, न्याय करना और ताड़ना देना, चेतावनी देना और उजागर करना, हमारे साथ संगति करने के लिए ध्यानपूर्वक प्रत्येक साधन का प्रयोग करना शामिल था, ताकि हम समझने और सत्य में प्रवेश करने में समक्ष रहें। उस मानवजाति को बचाने के लिए, जिसे शैतान बहुत गहरे तक भ्रष्ट कर चुका है, परमेश्वर ने इतनी ज्यादा परेशानी और पीड़ा सही है, खुद को इतना अधिक खपाया है और बड़ी कीमत चुकाई है। लेकिन परमेश्वर से सत्य का इतना अधिक पोषण पाने के बावजूद मैंने उसके घर में एक अहम कार्य संभालते हुए उसके प्रेम का मूल्य चुकाने का ख्याल नहीं रखा। अपने काम के लिए मैं जरा-सा भी कष्ट उठाने या कीमत चुकाने में असफल थी। गंभीर कार्रवाई और कुछ वास्तविक कार्य करने की जरूरत पड़ते ही मैं भाग खड़ी हुई। मैं ज़रा-से प्रयास के बदले परमेश्वर से हमेशा इनाम और आशीष पाना चाहती थी। मैं बहुत स्वार्थी और दुष्ट थी, मुझमें अंतरात्मा और समझ नहीं थी। आखिरकार मैंने समझा कि हमेशा देह-सुख के बारे में सोचने और आराम के लिए तड़पते रहने का अर्थ तो गरिमा के बिना जीना और भरोसे लायक न होना है। मैं आलसी अगुआ थी, एक झूठी अगुआ थी। उस तरह काम करने से मुझे क्षणिक आराम तो मिला, लेकिन आलस्य के मारे मैं सत्य जानने के मौके गँवाती रही, आखिरकार परमेश्वर मुझे बहिष्कृत कर देता। मैं थोड़ा-सा बचाने के फेर में बहुत सारा गँवा रही थी, मुझ जैसा मूर्ख कौन था! मुझे बाइबल की यह बात याद आई : “और निश्‍चिन्त रहने के कारण मूढ़ लोग नष्‍ट होंगे” (नीतिवचन 1:32)। मैं कुछ ऐसे भाई-बहनों को जानती थी जिन्होंने वास्तविक कार्य करने के बजाय हमेशा अपनी देह-सुख और आराम की चिंता की, इसीलिए उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। आराम की लालसा रखना परमेश्वर को रुष्ट करता है और इससे आप उद्धार का अवसर भी गँवा सकते हैं। परमेश्वर पवित्र और धार्मिक है और वह मेरे कार्य में मेरे इरादों की जाँच भी करता है। मैं उस तरह कार्य नहीं कर पाई। परमेश्वर का घर वह जगह नहीं है जहाँ दैहिक सुख पाने की लालसा की जाए, यहाँ तो मुझे अपना कर्तव्य निभाना और सत्य का अभ्यास करना है। क्योंकि मैंने यह कर्तव्य स्वीकार किया है, इसलिए इसे ठीक से पूरा करने में अपना सब कुछ झोंक देना चाहिए। प्रायश्चित करते हुए मैंने प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, ऐसे हालात बनाने के लिए धन्यवाद ताकि मैं देख सकूँ कि मैंने कर्तव्य से ज्यादा दैहिक सुख को चाहा और बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं रही। अब से, मैं अपने कर्तव्य में अपना भरसक प्रयास करना चाहती हूँ।” उसके बाद, परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, सत्य खोज कर और आत्म-चिंतन करके मैंने पाया कि मेरा नजरिया गलत था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “अगुआओं और कार्यकर्ताओं को विभिन्न स्रोतों से महत्वपूर्ण कार्य की देखरेख करने वालों, सुसमाचार साझा करने का निर्देश देने वालों, प्रत्येक समूह के अगुआओं, फिल्म समूह के निर्देशक आदि की समझ प्राप्त करनी चाहिए। इससे पहले कि वे इन लोगों के बारे में सुनिश्चित हो सकें, उन्हें इन लोगों का गहन अवलोकन और परीक्षण करना चाहिए। केवल इस तरह से लोगों को काम सौंपकर ही वे यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि व्यवस्थाएँ सही हैं और लोग अपने कार्य में प्रभावी होंगे। कुछ लोग कहते हैं, ‘सभी अविश्वासी कहते हैं, “उन लोगों पर संदेह न करो जिन्हें तुम काम पर रखते हो, और जिन लोगों पर तुम संदेह करते हो उन्हें काम पर मत रखो।” परमेश्वर का घर इतना शक्की कैसे हो सकता है? वे सभी विश्वासी हैं; वे कितने बुरे हो सकते हैं? क्या वे सभी अच्छे लोग नहीं हैं? कलीसिया को उन्हें क्यों जानना चाहिए, उन पर नजर क्यों रखनी चाहिए और उनका अवलोकन क्यों करना चाहिए?’ क्या ये बातें मान्य हैं? क्या वे समस्यात्मक हैं? (हाँ।) क्या किसी को जानना और उसका गहराई से निरीक्षण करना और उसके साथ निकटता से बातचीत करना सिद्धांतों का पालन करना है? यह सिद्धांतों का पूर्ण अनुपालन करना है। यह किन सिद्धांतों के अनुरूप है? (अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों की मद संख्या 4: विभिन्न कार्यों के निरीक्षकों और विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यों के लिए जिम्मेदार कर्मियों की परिस्थितियों से अवगत रहो, और आवश्यकतानुसार तुरंत उनका काम या उन्हें बदलो, ताकि अनुपयुक्त लोगों को काम पर रखने से होने वाला नुकसान रोका या कम किया जा सके, और कार्य की दक्षता और सुचारु प्रगति की गारंटी दी जा सके।) यह एक अच्छा संदर्भ बिंदु है, लेकिन ऐसा करने का वास्तविक कारण क्या है? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है। हालाँकि, आज, बहुत से लोग कर्तव्य का निर्वहन करते हैं, लेकिन कुछ ही लोग सत्य का अनुसरण करते हैं। लोग अपने कर्तव्य-पालन के दौरान सत्य का अनुसरण करते हुए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कम ही करते हैं; अधिकांश लोगों के काम करने के तरीके में कोई सिद्धांत नहीं होते, वे अब भी सच्चाई से परमेश्वर की आज्ञा का पालन नहीं करते; केवल जबान से कहते हैं कि उन्हें सत्य से प्रेम है, सत्य का अनुसरण करने और सत्य के लिए प्रयास करने के इच्छुक हैं, लेकिन पता नहीं उनका यह संकल्प कितने दिनों तक टिकेगा। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनका भ्रष्ट स्वभाव किसी भी समय या स्थान पर बाहर आ सकता है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनमें अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे अक्सर लापरवाह और अनमने होते हैं, मनमर्जी से कार्य करते हैं, यहाँ तक कि काट-छाँट और निपटारा स्वीकार नहीं पर पाते। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे नकारात्मक और कमजोर होते ही हार मान लेते हैं—ऐसा अक्सर होता रहता है, यह सबसे आम बात है; सत्य का अनुसरण न करने वाले लोगों का व्यवहार ऐसा ही होता है। और इसलिए, जब लोगों को सत्य की प्राप्ति नहीं होती, तो वे भरोसेमंद और विश्वास योग्य नहीं होते। उनके भरोसेमंद न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जब उन्हें कठिनाइयों या असफलताओं का सामना करना पड़ता है, तो बहुत संभव है कि वे गिर पड़ें, और नकारात्मक और कमजोर हो जाएँ। जो व्यक्ति अक्सर नकारात्मक और कमजोर हो जाता है, क्या वह भरोसेमंद होता है? बिल्कुल नहीं। लेकिन जो लोग सत्य समझते हैं, वे अलग ही होते हैं। जो लोग वास्तव में सत्य की समझ रखते हैं, उनके अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला, उसकी आज्ञा का पालन करने वाला हृदय होता है, एक ऐसा हृदय जो परमेश्वर की आज्ञा का पालन करता है, और जिन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, वही लोग भरोसेमंद होते हैं; जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, वे लोग भरोसेमंद नहीं होते। जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, उनसे कैसे संपर्क किया जाना चाहिए? उन्हें प्रेमपूर्वक सहायता और सहारा देना चाहिए। जब वे कर्तव्य निभा रहे हों, तो उनकी अधिक निगरानी करनी चाहिए, अधिक से अधिक मदद कर उनका मार्गदर्शन करना चाहिए; तभी वे अपना कार्य प्रभावी ढंग से कर पाएँगे। और ऐसा करने का उद्देश्य क्या है? मुख्य उद्देश्य परमेश्वर के घर के काम को बनाए रखना है। दूसरा मकसद है समस्याओं की तुरंत पहचान करना, तुरंत उनका पोषण करना, उन्हें सहारा देना, उनसे निपटना और उनकी काट-छाँट करना, भटकने पर उन्हें सही मार्ग पर लाना, उनके दोषों और कमियों को दूर करना। यह लोगों के लिए फायदेमंद है; इसमें दुर्भावनापूर्ण कुछ भी नहीं है। लोगों की निगरानी करना, उन पर नजर रखना, उन्हें जानना—यह सब उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते में प्रवेश करने में मदद करने के लिए है, ताकि वे परमेश्वर की अपेक्षा और सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सकें, ताकि वे किसी प्रकार की गड़बड़ी या व्यवधान उत्पन्न न करें, ताकि वे समय बर्बाद न करें। ऐसा करना पूरी तरह से उनके और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना की उपज है; इसमें कोई दुर्भावना नहीं है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचन बताते हैं कि हमें अपने कार्य में एक और सिद्धांत पर अमल करना चाहिए। हमें अपनी जिम्मेदारी वाले भाई-बहनों पर करीबी नजर रखनी चाहिए, खासकर जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य करते हैं, क्योंकि हरेक का भ्रष्ट स्वभाव होता है और हर किसी में सत्य की वास्तविकता नहीं होती, इसलिए हम भ्रष्टता से बच नहीं सकते। हम हर किसी पर आँख मूँदकर भरोसा नहीं कर सकते या दूर-दूर रहने का रवैया नहीं अपना सकते—यह दिखाता है कि हम अपने काम में गैर-जिम्मेदार हैं। मैं बिल्कुल वैसी ही हूँ। कभी-कभी दूसरे लोग मेरी समस्याएँ बताते हैं, तो उस समय मैं खुद को बदलने की ठान लेती हूँ लेकिन अक्सर यह पल भर का उत्साह होता है। जब इस पर अमल करने की बारी आती है तो मैं भ्रष्ट स्वभाव के कारण सत्य का अभ्यास नहीं कर पाती। इसी कारण हमें दूसरों की निगरानी और मदद की जरूरत पड़ती है ताकि अभ्यास करके बेहतर प्रवेश कर सकें। हरेक में कमियाँ होती हैं और सत्य के सिद्धांतों की समझ नहीं होती, इसलिए हमारे काम में भूल-चूक होना तय है, और कभी-कभी हम भ्रष्टता दिखाते हुए जानबूझकर गलतियाँ करते हैं। ऐसे मौकों पर, अगुआओं को निगरानी और जाँच अवश्य करनी चाहिए, लोगों के कार्य कैसे हो रहे हैं, इसकी गहन समझ रखें, दिक्कतें खोजकर भटकावों को दूर करें और कलीसिया के कार्य में होने वाले नुकसान को रोकें। लेकिन मैं तो निपट अंधी और मूर्ख बनी हुई थी। मैंने देखा कि शिनयू काम में सक्रिय लगती है और उसने सुसमाचार कार्य अच्छे से किया था, इसलिए मैंने उसके बारे में चिंता नहीं की। मैंने उसे इतना महत्वपूर्ण काम सौंपा और फिर इस बारे में दुबारा नहीं सोचा। मेरी साझेदार ने बताया कि समूह में समस्याएँ हैं लेकिन मैंने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। जब मुझे पता चला कि शिनयू घमंडी है और दूसरों के साथ ठीक से काम नहीं करती, तो मैं इसकी गहराई में नहीं गई। क्योंकि वह समूह अगुआ थी, तो मैंने संक्षेप में जिक्र किया और सोचा कि इसके बाद वह अपने आप सत्य खोजकर प्रवेश करेगी, इसलिए इस बारे में चिंता करने की जरूरत मुझे नहीं है। लेकिन जैसा मैंने सोचा था, चीजें ठीक उसके उलट निकलीं। जिस व्यक्ति के बारे में सबसे कम चिंता की, उसमें ही सबसे ज्यादा समस्याएँ निकलीं। उसके घमंडी स्वभाव के कारण, दूसरे बेबस हो गए थे और अपने काम सहजता से नहीं कर सके। इसका एकमात्र कारण यह था कि मैं न तो व्यावहारिक कार्य कर रही थी, न ही चीजों और लोगों को परमेश्वर के वचनों के जरिए देख रही थी। हमने बाद में उस समूह के काम की समीक्षा की और देखा कि इसमें अब भी कुछ समस्याएँ हैं। अपने सुसमाचार कार्य के जरिए उन्हें कई सारे लोग मिल चुके थे, लेकिन कुछ नए सदस्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं चल रहे थे। कुछ में अच्छी मानवता नहीं थी और उन्हें बाहर करने की जरूरत थी, इनसे संसाधनों की बर्बादी तो होती ही है, यह कलीसिया के लिए भी एक परेशानी है। मैंने उनके काम की जितनी ज्यादा जाँच की, उतनी ही अधिक स्पष्ट समस्याएँ मिलने लगीं, और उतना ही दिखता गया कि मैं पहले व्यावहारिक कार्य नहीं कर रही थी। मैं केवल सतही तौर पर देखती थी—जब काम सुगमता से आगे बढ़ता दिखता था, तो मैं सोचती थी कि किसी को भी अपने काम में समस्या नहीं है। मैं चीजों को इतने सतही ढंग से देखती थी। मैंने जाना कि मेरा सत्य को न समझना कितना दयनीय है और खुद को चेताया कि भविष्य में चीजों को सत्य के अनुसार देखकर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करूँगी और अपनी जिम्मेदारी वाले लोगों के काम की निगरानी करूँगी। मैंने यह भी महसूस किया कि परमेश्वर की यह अपेक्षा कितनी महत्वपूर्ण है कि अगुआ को स्वयं काम की गहराई में उतरना चाहिए। यह हमें स्वीकार्य ढंग से कार्य करने के रास्ते पर ले जाता है। उसके बाद मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े। “यदि तुम वास्तव में एक निश्चित स्तर की क्षमता रखते हो, तुम सच में जिस दायरे में निरीक्षण करते हो, उसके भीतर पेशेवर कौशल की समझ रखते हो और अपने पेशे से अनजान नहीं हो, तो तुम बस एक वाक्यांश पूरा करके अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान बन सकोगे। कौन-सा वाक्यांश? ‘पूरे दिल से कार्य करो।’ यदि तुम पूरे दिल से काम करोगे और अपना दिल लोगों में लगाओगे, तो तुम अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान और जिम्मेदार बन पाओगे। लेकिन क्या इस वाक्यांश का अभ्यास करना आसान है? तुम इसे व्यवहार में कैसे लाओगे? अपने दिल को किसी चीज में लगाने का मतलब है कि तुम सूंघने के लिए अपनी नाक और सुनने के लिए अपने कान का इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि अपने दिल का इस्तेमाल करते हो। यदि कोई व्यक्ति वास्तव में किसी चीज में अपना दिल लगाता है, तो जब उसकी आँखें किसी को कुछ करते, किसी तरह से खुद को अभिव्यक्त करते या किसी चीज के प्रति किसी प्रकार की प्रतिक्रिया देखती हैं या जब उसके कान कुछ लोगों की बातें, आवाजें या तर्क सुनते हैं, इन बातों पर विचार और मनन करने के लिए अपने हृदय का उपयोग करके, उनके दिमाग में कुछ ख्याल, विचार और दृष्टिकोण पैदा होता है। ये ख्याल, विचार और दृष्टिकोण उस व्यक्ति या वस्तु की गहरी, वास्तविक और सही समझ देंगे और साथ ही, उपयुक्त और सही निर्णय और सिद्धांतों को जन्म देंगे। अगर कोई व्यक्ति इस तरह से किसी चीज में अपना दिल लगाता है, तभी उसकी अभिव्यक्ति उस व्यक्ति की होगी जो अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। अपना काम ठीक से करने के लिए मुझे सतर्क और जिम्मेदार बनना सीखना होगा। अपने हृदय में प्रवेश करने और अपने काम में समस्याएँ खोजने के लिए मैं जो कुछ देखती-सुनती थी, उसके लिए वास्तविक कदम उठाने होंगे। वरना, मैं किसी भी समस्या के प्रति आँखें मूँदकर सिर्फ आधे-अधूरे मन से काम करती रहती। मुझे जो समस्याएँ मिलतीं, उन्हें हल करने के लिए भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार सब कुछ करना था, अगर कोई चीज ठीक न कर सकी तो वरिष्ठ लोगों की मदद लेनी थी मैं जो कुछ कर सकती थी, उसे करना और हासिल करना था, अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी थीं, अंतरात्मा साफ रखनी थी, परमेश्वर की जांच को स्वीकार करना था। कर्तव्य निभाने के दौरान अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर निर्भर नहीं रह सकती थी। समस्याओं का समाधान होने तक मुझे सत्य के सिद्धांतों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार चलना था। हालाँकि अब भी हमारे काम में कई दिक्कतें थीं, लेकिन उन्हें दूर करने के लिए मुझे भरसक प्रयास करना था, और काम चाहे जितना अच्छा हो रहा हो, पहले तो अपना पूरा मन लगाना और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना सीखना था। परमेश्वर के घर के लिए सुसमाचार का कार्य महत्वपूर्ण है, इस नाजुक, अंत समय में, अगर मैं अपने काम को हल्के में लेना जारी रखूँगी, आराम की लालसा और अपने हितों की सुरक्षा करती रहूँगी, तो यह जीने का स्वार्थी और घृणित तरीका होगा। इसलिए मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है और बहुत काबिल भी नहीं हूँ, लेकिन मैं अपने काम में सब कुछ न्योछावर करना चाहती हूँ और तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना चाहती हूँ।”

हाल ही में, मैंने देखा कि कलीसिया का सुसमाचार कार्य बहुत प्रभावी नहीं था, क्योंकि कुछ सुसमाचार कार्यकर्ता नए थे और परमेश्वर के कार्य की गवाही देने के सत्य को स्पष्ट रूप से नहीं समझते थे। इसलिए उन्हें कुछ व्यावहारिक निर्देश देने के लिए मैंने ली मेई को भेजा। पहले तो, मैंने ली मेई के साथ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की धार्मिक धारणाओं का विश्लेषण करने और सुसमाचार कार्यकर्ताओं के मसले समझने में समय लगाया। लेकिन बाद में जब मेरा अपना ही काम बढ़ गया, मैंने ये सारी समस्याएँ ली मेई को सौंपने की सोची, ताकि मुझे उनकी बहुत ज्यादा चिंता न करनी पड़े। ऐसा सोचते ही मुझे आत्मग्लानि होने लगी। सुसमाचार कार्य ठीक से नहीं चल रहा था और ली मेई ने खुद जाकर समस्याएँ जानने के बाद मुझसे चर्चा करनी चाही लेकिन मैं एक नौकरशाह की तर्ज पर यह कठिन काम उसके माथे मढ़ देना चाहती थी। यह घिनौना था। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और सचेत होकर दैहिक इच्छाओं को त्याग दिया। ली मेई ने समस्याओं पर प्रतिक्रिया दी तो मैं उसके साथ संगति करने और उनके समाधान के लिए सत्य खोजने में व्यावहारिक तौर से शामिल हो गई। इस व्यावहारिक सहयोग से मैं समूह के कार्य और प्रगति के बारे में बहुत तेजी से समझ सकती थी, सुसमाचार कार्यकर्ताओं की समस्याओं और परेशानियों का तुरंत पता लगाकर समाधान करने में सक्षम थी। इस व्यावहारिक सहयोग में मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन दिखाई दिया। कुछ नए सुसमाचार कार्यकर्ताओं को धीरे-धीरे सिद्धांत समझ में आने लगे, सुसमाचार कार्य अधिक फलदायी हो गया और कुछ नए सदस्य परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारने के बाद इसमें जुट गए। कुछ दिनों से मैं अपने काम में ज्यादा समय और ऊर्जा खपा रही हूँ, लेकिन जब इसमें मन से जुटती हूँ तो मुझे यह कठिन या थकाऊ नहीं लगता। दरअसल, मैं सत्य के और भी अधिक सिद्धांतों को समझ चुकी हूँ, और परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना में शांत रहकर और समस्याएँ होने पर समाधान खोजने से, मैं परमेश्वर के और करीब पहुँच चुकी हूँ और अपने काम में अधिक लगा रही हूँ। अब भी मेरे काम में कई कमियाँ हैं। इसे ठीक से करने के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना है। लेकिन अपने अनुभवों के जरिए, मैंने व्यावहारिक कार्य न करने की अपनी समस्या पर आत्म-चिंतन कर सबक सीख लिया है, मुझे दिशा मिल चुकी है कि भविष्य में अपना काम कैसे करना है। मैंने जो भी हासिल किया है वह परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन और मार्गदर्शन से ही हुआ है।

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