40. अपने कर्तव्य में मेहनत नहीं करने का नतीजा

लिंडा, इटली

2019 में बहन एंडरिया के साथ मुझे आर्ट डिजाइन कार्य का प्रभारी बनाया गया। कर्तव्य निभाने की शुरूआत में, कई सिद्धांतों की समझ मुझे नहीं थी, एंडरिया ने धीरज के साथ सहभागिता की, ज़्यादातर काम खुद किया। फिर पता चला कि वो दो सालों से यह कर्तव्य निभा रही है, उसे काम का थोड़ा अनुभव था, सभाओं में समस्याएं हल करने से लेकर काम का सारांश तैयार करने तक हर मामले में, उसकी सोच मेरे मुकाबले अधिक गहरी थी। उसके पास हमेशा भाई-बहनों के सवाल के अच्छे समाधान होते। उसकी तुलना में मैं बहुत पीछे थी। मैंने सोचा, “एंडरिया जैसी बनने के लिए मुझे कितनी पीड़ा सहनी होगी, कितनी कीमत चुकानी होगी? उसके पास ज़्यादा अनुभव है, वो ज़्यादा जिम्मेदारी लेती है, तो ज्यादातर काम उसे ही करने दूँगी।”

काम का सारांश तैयार करने से पहले, एंडरिया ने मुझे समय रहते समस्याएं हल करने पर सहभागिता करने के बारे में सोचने को कहा। मैंने सोचा, “ये तो बहुत मुश्किल है। हमारे कर्तव्य की मौजूदा समस्याओं का सार बताने के साथ, मुझे उनके समाधान पर सहभागिता करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचन और सिद्धांत भी ढूंढने होंगे। खासकर पेशेवर मामलों में, मेरे पास ज़्यादा अनुभव नहीं है। समाधान बताने के लिए बहुत सी जानकारी ढूंढने में काफी मेहनत करनी होगी, जो समझ नहीं आता उस पर सहभागिता लेनी होगी। इसमें काफी समय और मेहनत लगेगी। एंडरिया को काम की जानकारी है, वो आसानी से सार बता सकती है। उसी पर छोड़ना ठीक है।” उसके बाद, मैंने काम का सारांश तैयार करने के बारे में फिर कभी नहीं सोचा। सारांश तैयार करने के दौरान, जब एंडरिया ने मुझसे मेरे विचार और सुझाव पूछे, तो मैंने कहा, “मुझे काम की जानकारी नहीं है, आप ही सार निकाल लें।” कभी, अध्ययन की दिशा तय करते समय वो मुझसे पूछती, क्या मैं भागीदारी करना चाहूंगी, ताकि उसे अपनी सलाह देकर आने वाली समस्याओं से बचने में मदद कर सकूँ। मैं सोचती थी कि, “एंडरिया हमेशा से हमारे अध्ययन के लिए जिम्मेदार रही है। भागीदारी के लिए मुझे सोचना होगा, जो नहीं जानती उसे बहुत गहराई से पढ़ना होगा। इसमें भी काफी मेहनत लगेगी! चलो छोड़ो! इससे दूर ही रहूंगी!” फिर मैंने एंडरिया को मना कर दिया।

एक बार, हम ड्रॉइंग की नई तकनीक सीख रहे थे। इसे सीखने के दौरान हमारे सामने कई समस्याएं और मुश्किलें आईं, पर एंडरिया ने हमारे साथ चर्चा करके सब हल कर दिया। क्योंकि मुझे तकनीक की ज़्यादा जानकारी नहीं थी, इसलिए दो बार समझाने पर भी मुझे समझ नहीं आया। मैंने सोचा, “इस काम में नये कौशल सीखना थका देता है। मुझे नहीं लगता इस बार मैं शामिल हो पाऊँगी। एंडरिया तो है ही, वो सीखने में हमारी मदद कर देगी।” फिर, पढ़ाई के समय, मैंने ध्यान से नहीं सुना। कभी-कभी पूरी अवधि के दौरान मैं कुछ नहीं कहती; तो कभी दूसरे काम करने चली जाती। एंडरिया मेरे सुझावों और विचारों के बारे में पूछती, तो मैं लापरवाही से कह देती, कोई सुझाव नहीं है। धीरे-धीरे में, मैं अपने कर्तव्य में कम-से-कम जिम्मेदारी लेने लगी। काम की खोज-खबर लेने में समस्याओं को देख न पाती। उस दौरान, हर दिन मेरे दिल में खालीपन महसूस होता, मैं बहुत नकारात्मक रहने लगी। लगा मैं किसी काबिल नहीं हूँ, कर्तव्य के हिसाब से ठीक नहीं हूँ।

एक दिन, एंडरिया ने मेरे साथ काम पर चर्चा करने के बाद कहा, “तुम्हें यह कर्तव्य निभाते कुछ समय हो गया है, फिर भी कहती रहती हो तुममें अनुभव और समझ नहीं है। दरअसल तुम जिम्मेदारी लेना या मेहनत करना नहीं चाहती। मेरे पास अच्छे सुझाव इसलिए होते हैं क्योंकि मैं अक्सर प्रार्थना करके परमेश्वर पर भरोसा करती हूँ, चीज़ों को समझने के लिए सिद्धांत खोजती हूँ। खासकर जब उन पेशेवर पहलुओं की बात आती है जिन्हें हम नहीं समझते, हमें उनके बारे में पढ़ने की पहल करनी चाहिए। इसके बिना, हमारा कर्तव्य अच्छे से कैसे होगा?” फिर उसने बताया कि समस्याओं का सामना करते हुए कैसे उसने परमेश्वर पर भरोसा किया और समस्याओं का हल खोजा। हालांकि, उस वक्त भी मैं अपनी समस्या नहीं समझ पाई। लगा एंडरिया मेरी परेशानियों को नहीं समझती, मैंने उसके सुझावों पर ध्यान नहीं दिया, मैंने आत्मचिंतन भी नहीं किया।

जल्दी ही, एंडरिया दूसरे काम की प्रभारी बन गई। उसने जाने पर मैं बहुत उदास हो गई, क्योंकि इतना काम देखकर मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। मैंने सोचा, “एक साल से इस काम की जिम्मेदारी मुझ पर है, फिर भी मैं इसे पूरा कैसेनहीं कर पा रही?” तब मुझे एंडरिया की बात याद आई। क्या मैंने सचमुच अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी नहीं उठाई? मैंने परमेश्वर से राह दिखाने के लिए प्रार्थना की, ताकि आत्मचिंतन करके खुद को जान सकूं। फिर परमेश्वर के वचनों का ये अंश पढ़ा : “काम में आ रही समस्याओं के बारे में पूछे जाने पर अधिकांश समय तुम लोग उत्तर नहीं दे पाते। तुममें कुछ लोग काम में शामिल हुए हैं, लेकिन तुम लोगों ने कभी नहीं पूछा कि काम कैसा चल रहा है, न ही इस बारे में सावधानी से सोचा है। तुम लोगों की क्षमता और ज्ञान को देखते हुए, तुम लोगों को कम से कम कुछ पता होना चाहिए, क्योंकि तुम सबने इस कार्य में भाग लिया है। तो ज्यादातर लोग कुछ भी क्यों नहीं कहते? संभव है कि तुम लोगों को वास्तव में पता न हो कि क्या कहना है—कि तुम जानते ही न हो कि कामकाज ठीक चल रहा है या नहीं। इसके दो कारण हैं : एक यह कि तुम लोग पूरी तरह से उदासीन हो, और तुमने कभी इन चीजों की परवाह ही नहीं की है और केवल यह मानते रहे हो कि इस काम को किसी तरह निपटाना है। दूसरा यह है कि तुम गैर-जिम्मेदार हो और इन बातों की परवाह करने के अनिच्छुक हो। अगर वास्तव में तुम्हें परवाह होती, लगन होती, तो हर चीज पर तुम्हारा एक विचार और दृष्टिकोण होता। कोई दृष्टिकोण या विचार न होना अकसर उदासीन और बेपरवाह होने तथा कोई जिम्मेदारी न लेने से पैदा होता है। तुम जो कर्तव्य निभाते हो, उसे मेहनत से नहीं निभाते, तुम कोई जिम्मेदारी नहीं उठाते, तुम कोई कीमत चुकाने या कर्तव्य में तल्लीन होने को तैयार नहीं होते। तुम कोई कष्ट नहीं उठाते और न ही अधिक ऊर्जा खर्च करने को तैयार होते हो; तुम बस मातहत बनना चाहते हो, जो किसी अविश्वासी के अपने मालिक के लिए काम करने से अलग नहीं है। कर्तव्य का ऐसा प्रदर्शन परमेश्वर को नापसंद है और वह इससे प्रसन्न नहीं होता। इसे उसकी स्वीकृति नहीं मिल सकती(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर ने वचनों ने मेरी हालत को स्पष्ट कर दिया। एंडरिया के साथ पार्टनर बनकर काम और चर्चा करते हुए, मेरे अपने सुझाव या विचार कभी नहीं होते थे। हमेशा यही लगता था कि ऐसा काम की जानकारी न होने की वजह से हुआ। परमेश्वर के वचन पढ़कर समझ आया कि इसकी वजह मेरी लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी थी। एंडरिया के साथ पार्टनर के तौर पर काम करने के अपने अनुभव के बारे में सोचा तो लगा कि पेशेवर समस्या होने पर मैंने कभी परवाह नहीं की। हमेशा कर्तव्य का अनुभव और सिद्धांतों की समझ न होने का बहाना बनाया, ताकि समस्या से बच सकूं और उसे टाल सकूं। काम पर चर्चा की बातें बस सुनकर रह जाती। कभी ध्यान नहीं दिया। एंडरिया से अक्सर कहती कि मुझे समझ नहीं आया, मैं काबिल नहीं हूँ, आपको काम का ज़्यादा अनुभव है, मगर असल में ये सब सिर्फ बहाने ही थे। मेरा असली मकसद उसकी हमदर्दी पाना ही था, ताकि वो ज़्यादा से ज़्यादा काम करे और मैं आराम से बैठी रहूँ। मैं बहुत कपटी और धूर्त थी! मुझे करीब एक साल से इस कर्तव्य की जिम्मेदारी मिली हुई थी, मेरे पास पेशेवर आधार भी था, अगर मैंने जिम्मेदारी और मेहनत से पढ़ाई की होती, तो काम पर चर्चा के समय मेरे भी कुछ विचार होते। एंडरिया का ट्रांसफर होने के बाद मैं सारा काम ठीक से संभाल सकती थी। मगर मैं अपने कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार बनी रही, मानो मैं सिर्फ वेतन पाने के लिए काम कर रही थी, जितनी हो सके उतनी कम से कम मेहनत और फिक्र करते हुए एक-एक दिन गुजार रही थी। ठीक से काम करने, पूरी कोशिश करने और जिम्मेदारी निभाने के बारे में कभी नहीं सोचा। जैसे-तैसे अपना कर्तव्य निभाती रही, शरीर को कष्ट देने से बचने की सोचती रही। परमेश्वर की इच्छा पर कभी विचार नहीं किया। मैं कैसे कह सकती हूँ कि मेरे दिल में परमेश्वर के लिए जगह है? कर्तव्य के प्रति ऐसा रवैया देख परमेश्वर कैसे नफ़रत नहीं करेगा?

फिर, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, ‘क्योंकि जिसके पास है, उसे दिया जाएगा, और उसके पास बहुत हो जाएगा; पर जिसके पास कुछ नहीं है, उससे जो कुछ उसके पास है, वह भी ले लिया जाएगा’ (मत्ती 13:12)। इन वचनों का क्या अर्थ है? इनका अर्थ है कि यदि तुम अपना कर्तव्य या कार्य तक पूरा नहीं करते या उनके प्रति समर्पित नहीं होते, तो परमेश्वर वह सब तुमसे ले लेगा जो कभी तुम्हारा था। ‘ले लेने’ का क्या अर्थ है? इससे लोगों को कैसा महसूस होता है? हो सकता है कि तुम उतना प्राप्त करने में भी नाकाम रहो जो तुम अपनी क्षमता और हुनर से कर सकते थे, और तुम कुछ महसूस नहीं करते, और बस एक अविश्वासी जैसे हो। यही है परमेश्वर द्वारा सब ले लिया जाना। यदि तुम अपने कर्तव्य में चूक जाते हो, कोई कीमत नहीं चुकाते, और तुम ईमानदार नहीं हो, तो परमेश्वर वह सब छीन लेगा जो कभी तुम्हारा था, वह तुमसे अपना कर्तव्य निभाने का तुम्हारा अधिकार वापस ले लेगा, वह तुम्हें यह अधिकार नहीं देगा। चूँकि परमेश्वर ने तुम्हें हुनर और क्षमता दी, लेकिन तुमने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, परमेश्वर के लिए खुद को नहीं खपाया, या कीमत नहीं चुकाई, उसे पूरे दिल से नहीं किया, इसलिए परमेश्वर न केवल तुम्हें आशीष नहीं देगा, बल्कि वह भी छीन लेगा जो कभी तुम्हारे पास था। परमेश्वर लोगों को गुण प्रदान करता है, उन्हें विशेष हुनर और साथ ही विवेक और बुद्धि देता है। लोगों को इन गुणों का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए? तुम्हें अपने विशेष हुनर, गुणों, विवेक और बुद्धि को अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित करना चाहिए। तुम्हें अपने कर्तव्य में अपना दिल इस्तेमाल करना चाहिए और जो कुछ भी तुम जानते हो, जो कुछ भी तुम समझते हो, और जो कुछ भी तुम हासिल कर सकते हो, उसे लागू करना चाहिए। ऐसा करके तुम धन्य हो जाओगे। परमेश्वर का आशीष पाने का क्या अर्थ है? इससे लोगों को क्या महसूस होता है? यह कि उन्हें परमेश्वर ने प्रबुद्ध कर उनका मार्गदर्शन किया है, और अपना कर्तव्य निभाते हुए उनके पास एक मार्ग होता है। दूसरे लोगों को यह लग सकता है कि तुम्हारी क्षमता और तुम्हारे द्वारा सीखी गई चीजें तुम्हें काम पूरे करने में सक्षम नहीं बना सकतीं—लेकिन अगर परमेश्वर कार्य करके तुम्हें प्रबुद्ध कर देता है, तो तुम न केवल उन चीजों को समझने और करने में, बल्कि उन्हें अच्छी तरह से करने में सक्षम हो जाओगे। यहाँ तक कि अंत में तुम मन ही मन सोचोगे, ‘मैं इतना कुशल तो नहीं हुआ करता था, लेकिन अब मेरे अंदर बहुत सारी अच्छी चीजें हैं—वे सभी सकारात्मक हैं। मैंने कभी इन चीजों का अध्ययन नहीं किया, लेकिन अब मैं अचानक इन्हें समझता हूँ। मैं अचानक इतना बुद्धिमान कैसे हो गया? मैं अब इतनी सारी चीजें कैसे कर सकता हूँ?’ तुम इसे स्पष्ट नहीं कर पाओगे। यह परमेश्वर का प्रबोधन और आशीष है; परमेश्वर इसी तरह लोगों को आशीष देता है। यदि तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते या काम करते समय ऐसा महसूस नहीं करते, तो तुम पर परमेश्वर का आशीष नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। इन वचनों पर विचार कर समझ आया कि परमेश्वर उन्हें आशीष देता है जो ईमानदार हैं, जो उसके लिए सच्चे मन से खुद को खपाते हैं। इंसान अपने कर्तव्य में जितनी मेहनत और सुधार करता है, उतना ही पवित्र आत्मा उसे प्रबुद्ध करता है, फिर वो अपने कर्तव्य में असरदार होता है। इसके उलट, अगर कोई कर्तव्य में छल-कपट करता है, मेहनती नहीं है, कीमत नहीं चुकाता, तो वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता, कर्तव्य से कोई लाभ नहीं पा सकता, जो कुछ हासिल किया है उसे भी गँवा सकता है। तभी मुझे एंडरिया का बताया एक अनुभव याद आया। सच तो यह था कि ऐसे बहुत से काम थे जिनके बारे में पहले उसे ज़्यादा समझ नहीं थी, पर वो अपनी समस्याएं परमेश्वर को बताती, प्रार्थना और खोजबीन करके उन पर गहराई से विचार करती, दूसरों के साथ उन पर सहभागिता करके उनका सारांश तैयार करती, तब उसे पवित्र आत्मा का प्रबोधन मिलता, हमेशा मन में नये विचार आते। वो ज़्यादा से ज़्यादा तरक्की करती गई, उसके कर्तव्य की प्रभावशीलता बढ़ती चली गई। पर मैंने तो जैसा था वैसे ही चलने दिया, तरक्की नहीं चाही, आराम के मजे लेते हुए कष्ट उठाने या कीमत चुकाने की नहीं सोची। नतीजतन मैं जो कर सकती थी वो भी नहीं कर पाई। जैसे कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जिसके पास कुछ नहीं है, उससे जो कुछ उसके पास है, वह भी ले लिया जाएगा(मत्ती 13:12)। परमेश्वर को कर्तव्य के प्रति मेरे लापरवाह और गैर-जिम्मेदार रवैये से नफ़रत थी। मुझे एहसास हुआ कि अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो परमेश्वर पक्के तौर पर मुझे ठुकरा देगा, आखिर में मेरा कर्तव्य निभाने का मौका भी छिन सकता है। यह सोचकर मुझे डर लगा, पश्चात्ताप करने के लिए फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की और अभ्यास का मार्ग ढूंढने के लिए उसका मार्गदर्शन माँगा।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “लोगों को कर्तव्यों को कैसे समझना चाहिए? उन्हें इसे सृष्टिकर्ता—परमेश्वर—द्वारा किसी व्यक्ति को करने के लिए दी गई चीज समझना चाहिए; लोगों के कर्तव्य ऐसे ही आरंभ होते हैं। परमेश्वर जो आदेश तुम्हें देता है, वह तुम्हारा कर्तव्य होता है, और यह पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है कि तुम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाओ। अगर तुम्हें यह स्पष्ट है कि यह कर्तव्य परमेश्वर का आदेश है, कि यह तुम पर परमेश्वर के प्रेम और आशीष की वर्षा है, तो तुम परमेश्वर में रमे हृदय के साथ अपना कर्तव्य स्वीकार कर सकोगे, और तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखोगे, और तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सभी मुश्किलों से उबरने में सफल रहोगे। जो लोग खुद को सचमुच परमेश्वर के लिए खपाते हैं, वे परमेश्वर के आदेश को कभी नहीं ठुकराते, वे कभी कोई कर्तव्य नहीं ठुकरा सकते। परमेश्वर तुम्हें चाहे जो भी कर्तव्य सौंपे, उसमें चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न हों, तुम्हें मना करने के बजाय उसे स्वीकार करना चाहिए। यह अभ्यास का रास्ता है, जिसका अर्थ है परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करना और सभी चीजों में अपनी निष्ठा देना। यहाँ केन्द्र बिन्दु कहाँ है? यह ‘सभी चीजों में’ है। ‘सभी चीजों’ का मतलब वे चीजें नहीं हैं जिन्हें तुम पसंद करते हो या जिन कामों में तुम अच्छे हो, वे वह चीजें तो बिल्कुल भी नहीं हैं जिनसे तुम वाकिफ हो। कभी-कभी वे ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम कुशल नहीं हो, ऐसी चीजें होंगी जिन्हें तुम्हें सीखने की जरूरत है, ऐसी चीजें जो कठिन हैं, या ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम्हें कष्ट सहना होगा। हालाँकि, चाहे यह कुछ भी हो, जब तक परमेश्वर ने तुम्हें यह सौंपा है, तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए, और इसे स्वीकारने के बाद, तुम्हें पूरी निष्ठा के साथ अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करना चाहिए। यही अभ्यास का मार्ग है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के इन वचनों पर विचार करके मुझे काफी प्रेरणा मिली। कर्तव्य परमेश्वर की ओर से मिला आदेश होता है, और हम वो काम करने में कुशल हों या नहीं, काम आसान हो या मुश्किल, यह परमेश्वर से आया है, तो हमें जिम्मेदार बनकर जितनी हो सके उतनी वफ़ादारी दिखानी चाहिए। जब हम अपना सर्वोत्तम प्रयास कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं, तभी हमें परमेश्वर का मार्गदर्शन मिल सकता है। मैंने परमेश्वर के सामने खाई कसमों के बारे में सोचा, कि उसके प्रेम का मूल्य चुकाने को पूरी वफ़ादारी से काम करूंगी। जब मैंने देखा कर्तव्य थोड़ा मुश्किल और चुनौती भरा है, इसमें कष्ट उठाना होगा, कीमत चुकानी होगी, तो बस जैसे-तैसे इसे निपटाकर बचने की कोशिश की। इसका एहसास होने पर, लगा मैं परमेश्वर की ऋणी हूँ, उसके प्रेम के लायक नहीं हूँ। ऐसे तो नहीं चलेगा। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना होगा, ईमानदारी से काम करते हुए पूरी तरह अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी, ताकि बाद में पछताना न पड़े।

फिर मैं आगे बढ़कर अपने काम के बारे में जानने लगी जो कभी मुझे समझ नहीं आता था, मुश्किल समस्याओं का सामना होने पर मैंने उनसे बचकर भागना बंद कर दिया। भाई-बहनों के साथ उनके बारे में चर्चा उन्हें हल करने लगी, कोई बात समझ न आने पर उनसे मदद मांगती। धीरे-धीरे, काम की बातें अच्छे से समझ आने लगीं, दूसरों को कोई समस्या होने पर उसका सही हल भी निकाल पाती। पहले, काम का सारांश बताते हुए मेरे पास विचार नहीं होता था, मैं अभी भी इससे बचना चाहती थी, फिर परमेश्वर के वचनों में पढ़ी बातों को याद करके, मैंने दैहिक इच्छाओं का त्याग किया, हमारे कर्तव्य में मौजूद समस्याओं पर विचार किया, सिद्धांत और जानकारी ढूंढने के लिए मेहनत की। कुछ समय इसी तरह अभ्यास करने के बाद, मैंने परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस किया। मुझे पता भी नहीं चला और मैं उन चीज़ों को समझने लगी जो पहले समझ नहीं आती थी या उलझन में डाल देती थी, फिर जब भी हमने काम का सारांश तैयार किया, हमें कुछ अच्छे नतीजे मिले। भाई-बहनों ने हमारी बताई बातों पर अमल किया और आगे बढ़ने लगे।

मैंने सोचा, अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया कुछ हद तक बदल गया है, पर जब मैंने फिर से उसी स्थिति का सामना किया, तो मैं पुराने ढर्रे पर लौट गई।

सितंबर 2021 में, नये सदस्यों के सिंचन से जुड़ी ज़रूरतों के कारण मैं बहन रोजी के साथ काम करने लगी। लगा इस कर्तव्य में तकनीकी समस्याएं नहीं होंगी, तो ज़्यादा सिरदर्दी भी नहीं होगी, पर असल में, काम शुरू करने के बाद पता चला कि नये सदस्यों का सिंचन करना आसान नहीं था। विदेशी भाषा में बातचीत करना तो ज़रूरी था ही, सत्य पर सहभागिता भी करनी थी, ताकि उनकी धारणा और उलझन हल हो। मैंने देखा रोजी काम के सभी पहलुओं में बहुत सक्षम थी। नए सदस्यों की समस्याएं हल करने के लिए उनसे जुड़े सत्य फौरन ढूंढ लेती थी, पर मैंने देखा कि मैं ऐसा नहीं कर पाती थी। सत्य पर स्पष्ट सहभागिता या उनकी समस्याएं हल नहीं कर पाती थी। रोजी की बराबरी करने के लिए, मुझे काफी समय तक पढ़ाई करके खुद को काबिल बनाने और बड़ी कीमत चुकाने की ज़रूरत थी। मैंने सोचा, “चलो छोड़ो, वैसे भी अब तो रोजी मेरी साथी है, मैं फ़िक्र क्यों करूं।” यह सब सोचकर, मैंने तत्परता से सिंचन कार्य से जुड़े सत्य समझने की कोशिश नहीं की, सभाओं के बाद, नये सदस्यों की समस्याओं और परेशानियों के बारे में भी नहीं पूछती थी। एक दिन, मैंने सोचा कि यह कर्तव्य निभाते दो महीने हो गये, फिर भी मैं अकेले किसी नये सदस्य का सिंचन नहीं कर पाती हूँ। मैं हमेशा बहाने बनाती थी कि मुझमें समझ नहीं है, पर असल में मैंने कीमत चुकाने का प्रयास ही नहीं किया। फिर खुद से सवाल किया, “ऐसा क्यों है कि जब किसी कर्तव्य में मैं अच्छी नहीं होती हूँ, तो ‘जानकारी नहीं होने’ और ‘काबिल नहीं होने’ का बहाना बनाकर कर्तव्य में टालमटोल करती हूँ, कीमत नहीं चुकाना चाहती हूँ?” फिर परमेश्वर के समक्ष अपनी दशा और उलझन रखते हुए प्रार्थना की।

एक दिन, अपने भक्ति-कार्य के दौरान मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “कर्तव्य निभाते समय, लोग हमेशा हल्का काम चुनते हैं, जो उन्हें थकाए नहीं, जिसमें बाहरी तत्त्वों का सामना करना शामिल न हो। इसे आसान काम चुनना और कठिन कामों से भागना कहा जाता है, और यह दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्ति है। और क्या? (अगर कर्तव्य थोड़ा कठिन, थोड़ा थका देने वाला हो, अगर उसमें कीमत चुकानी पड़े, तो हमेशा शिकायत करना।) (भोजन और वस्त्रों की चिंता और देह के भोगों में लीन रहना।) ये सभी दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब ऐसे लोग देखते हैं कि कोई कार्य बहुत श्रमसाध्य या जोखिम भरा है, तो वे उसे किसी और पर थोप देते हैं; खुद वे सिर्फ आसान काम करते हैं, और बहाने बनाते हैं कि वे उसे क्यों नहीं कर सकते, और कहते हैं कि उनकी क्षमता कम है और उनमें अपेक्षित कौशल नहीं हैं, कि वह उनके लिए बहुत भारी है—जबकि वास्तव में, इसका कारण यह होता है कि वे दैहिक सुखों का लालच करते हैं। ... ऐसा भी होता है कि लोग काम करते समय शिकायत करते हैं, वे मेहनत नहीं करना चाहते, जैसे ही उन्हें थोड़ा अवकाश मिलता है, वे आराम करते हैं, बेपरवाही से बकबक करते हैं, या आराम और मनोरंजन में हिस्सा लेते हैं। और जब काम बढ़ता है और वह उनके जीवन की लय और दिनचर्या भंग कर देता है, तो वे इससे नाखुश और असंतुष्ट होते हैं। वे भुनभुनाते और शिकायत करते हैं, और अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाह और अनमने हो जाते हैं। यह दैहिक सुखों का लालच करना है, है न? ... क्या दैहिक सुखों का लालच करने वाले लोग कोई कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त होते हैं? उनसे कर्तव्य निभाने की बात करो, कीमत चुकाने और कष्ट सहने की बात करो, तो वे इनकार में सिर हिलाते रहते हैं : उन्हें बहुत सारी समस्याएँ होंगी, वे शिकायतों से भरे होते हैं, वे हर चीज को लेकर नकारात्मक रहते हैं। ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, उन्हें अपना कर्तव्य निभाने का अधिकार नहीं है, और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। “कुछ नकली अगुआओं में थोड़ी क्षमता तो होती है, लेकिन वे व्यावहारिक कार्य नहीं करते, और वे दैहिक सुख-सुविधाओं के लिए ललचाते हैं। जो लोग दैहिक सुख-सुविधाओं के लिए ललचाते हैं, वे सूअरों से ज्यादा अलग नहीं हैं। सूअर अपने दिन सोने और खाने में बिताते हैं। वे कुछ नहीं करते। फिर भी, एक साल तक उन्हें खाना खिलाने की कड़ी मेहनत के बाद, जब पूरा परिवार साल के अंत में उनका मांस खाता है, तो यह कहा जा सकता है कि वे काम आए हैं। अगर कोई नकली अगुआ सुअर की तरह रखा जाता है, जो रोज तीन बार मुफ्त में खाता-पीता है, मोटा-तगड़ा हो जाता है, लेकिन कोई व्यावहारिक काम नहीं करता और निखट्टू रहता है, तो क्या उसे रखना व्यर्थ नहीं रहा? क्या वह किसी काम आया? वह सिर्फ परमेश्वर के कार्य में विषमता ही हो सकता है और उसे बाहर कर देना चाहिए। सचमुच, नकली अगुआ की अपेक्षा सुअर पालना बेहतर है। नकली अगुआओं के पास ‘अगुआ’ की उपाधि हो सकती है, वे इस पद पर आसीन हो सकते हैं, और दिन में तीन बार अच्छी तरह खा सकते हैं, और परमेश्वर के कई अनुग्रहों का आनंद ले सकते हैं, और वर्ष के अंत में, खा-खाकर मोटे हो गए होते हैं—लेकिन काम कैसा रहा? इस वर्ष तुम्हारे कार्य में जो कुछ हुआ है, उसे देखो : क्या तुमने इस वर्ष कार्य के किसी क्षेत्र में परिणाम देखे हैं? तुमने क्या व्यावहारिक कार्य किया? परमेश्वर का घर यह नहीं कहता कि तुम हर काम बखूबी करो, लेकिन तुम्हें मुख्य काम तो अच्छी तरह से करना ही चाहिए—उदाहरण के लिए, सुसमाचार का काम, या ए.वी. का काम, पाठ-आधारित काम, इत्यादि। ये सभी फलदायी होने चाहिए। सामान्य परिस्थितियों में, तीन से पाँच महीने के बाद एक प्रभाव—एक परिणाम—देखा जा सकता है; अगर एक वर्ष के बाद भी कोई परिणाम नहीं निकलता, तो यह एक गंभीर समस्या है। एक वर्ष के बाद, देखो कि तुम्हारी जिम्मेदारी के दायरे में कौन-सा काम सबसे सफल रहा है, जिसमें तुमने सबसे बड़ी कीमत चुकाई है और सबसे ज्यादा कष्ट उठाया है। अपनी उपलब्धियाँ देखो : अपने दिल में, तुम्हें इस बात का अंदाजा होना चाहिए कि क्या तुमने वर्ष भर परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेकर कोई मूल्यवान उपलब्धियाँ हासिल की हैं। इस पूरे समय जब तुमने परमेश्वर के घर का खाना खाया और परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाया, तब तुम क्या कर रहे थे? क्या तुमने कुछ हासिल किया है? अगर तुमने कुछ भी हासिल नहीं किया है, तो तुम एक मुफ्तखोर, एक पक्के नकली अगुआ हो(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। जब मैं परमेश्वर के इन वचनों पर चिंतन कर रही थी, तो लगा जैसे ये वचन मेरे दिल में नश्तर की तरह चुभ गए। तब समझ आया कि मैं हमेशा कर्तव्य की मुश्किलों से जी चुराती थी, “कर्तव्य की समझ नहीं होने” और “काबिल नहीं होने” को बहाना बना लेती थी, क्योंकि मैं बहुत आलसी थी, शरीर के आराम की बहुत परवाह करती थी। इससे पहले, जब मैं एंडरिया के साथ एक कर्तव्य की प्रभारी थी, तो अपने लिए हमेशा सरल और आसान काम ही चुनती थी, जो काम मुझे नहीं आता या जिसमें ध्यान से सोचने की ज़रूरत होती, वो उसे दे देती। अब रोजी के साथ नए सदस्यों का सिंचन करने में भी, मैं काम की फ़िक्र करना या कीमत चुकाना नहीं चाहती थी। अपने इस बर्ताव पर चिंतन किया तो पता चला इसकी असली वजह यह थी कि मैं इन शैतानी फलसफों के काबू में थी। “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो,” और “जब तक जीवित हो, जश्न मनाओ” जैसी बातें मेरे दिल में गहराई तक जड़ें जमा चुकी थीं। हमेशा लगता था कि लोगों को खुद के लिए जीना होता है, और जब कष्ट न हो और शरीर को आराम मिले, तो इसका मतलब हम वैसे ही जी रहें हैं जैसे हमें जीना चाहिए। कलीसिया में कर्तव्य निभाने लगी, तब भी मेरे विचार यही थे। जब ऐसे काम मिलते जो मुझे नहीं आता, जब जैसी परेशानियां सामने आतीं जिनके लिए कीमत चुकाने की ज़रूरत होती, तो इस तरह पीठ दिखा देती जैसे कोई कछुआ अपने सिर को कवच में छिपा लेता है, मैं शरीर के आराम को सबसे पहले रखती। सूअर को कुछ सोचने या करने की ज़रूरत नहीं होती। वे बस खाना, पीना और सोना जानते हैं। मैं भी ऐसी ही थी, सिर्फ अपने शरीर के आराम की परवाह करती थी। मैं कितनी घटिया जिंदगी जी रही थी! मैंने सोचा कि कैसे पहले सुपरवाइजर बनकर और अब सिंचन कार्य में, परमेश्वर ने मुझ पर अनुग्रह किया, पर मैंने आगे बढ़ने, अपने काम और जिम्मेदारियों को समझने की कोशिश ही नहीं की। कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन के प्रति गैर-जिम्मेदार बनी रही। मुझमें ज़रा-भी विवेक नहीं था! मैं कष्ट उठाना या कीमत चुकाना नहीं चाहती थी, काम की “समझ न होने” या “काबिल नहीं होने” को हमदर्दी पाने के बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया, ताकि दूसरों को लगे कि मैं अपनी कमियों को स्वीकारती हूँ, वे मुझे समझदार और ईमानदार समझें। सच तो ये है कि मैंने इन शब्दों से अपने आलस और गैर-जिम्मेदारी को छिपाया। मैं बहुत मक्कार और धोखेबाज थी, मैंने सभी भाई-बहनों को बेवकूफ़ बनाया! भले ही मैं कुछ समय तक उन्हें धोखा दे पाई, पर परमेश्वर सब कुछ देखता है, वह धार्मिक है। मैं उसे बेवकूफ़ बनाने और धोखा देने की कोशिश में थी, वह मुझसे नफ़रत कैसे नहीं करता? इसी वजह से काम में परमेश्वर का मार्गदर्शन नहीं मिला। मेरा हमेशा उलझन में रहना और साफ तौर पर प्रगति न करते न दिखना, असल में खतरे के संकेत थे!

मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को स्वीकार करने के बाद नूह परमेश्वर द्वारा कहे गए जहाज का निर्माण पूरा करने में इस तरह जुट गया, जैसे यह उसके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम हो। दिन बीतते गए, साल बीतते गए, दिन पर दिन, साल-दर-साल। परमेश्वर ने नूह पर कभी कोई दबाव नहीं डाला, परंतु इस पूरे समय में नूह परमेश्वर द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कार्य में दृढ़ता से लगा रहा। परमेश्वर का हर शब्द और वाक्यांश नूह के हृदय पर पत्थर की पटिया पर उकेरे गए शब्दों की तरह अंकित हो गया था। बाहरी दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से बेखबर, अपने आसपास के लोगों के उपहास से बेफिक्र, उस काम में आने वाली कठिनाई या पेश आने वाली मुश्किलों से बेपरवाह, वह परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम में दृढ़ता से जुटा रहा, वह न कभी निराश हुआ और न ही उसने कभी काम छोड़ देने की सोची। परमेश्वर के वचन नूह के हृदय पर अंकित थे, और वे उसके हर दिन की वास्तविकता बन चुके थे। नूह ने जहाज के निर्माण के लिए आवश्यक हर सामग्री तैयार कर ली, और परमेश्वर ने जहाज के लिए जो रूप और विनिर्देश दिए थे, वे नूह के हथौड़े और छेनी के हर सजग प्रहार के साथ धीरे-धीरे आकार लेने लगे। आँधी-तूफान के बीच, इस बात की परवाह किए बिना कि लोग कैसे उसका उपहास या उसकी बदनामी कर रहे हैं, नूह का जीवन साल-दर-साल इसी तरह गुजरता रहा। परमेश्वर बिना नूह से कोई और वचन कहे उसके हर कार्य को गुप्त रूप से देख रहा था, और उसका हृदय नूह से बहुत प्रभावित हुआ। लेकिन नूह को न तो इस बात का पता चला और न ही उसने इसे महसूस किया; आरंभ से लेकर अंत तक उसने बस परमेश्वर के वचनों के प्रति दृढ़ निष्ठा रखकर जहाज का निर्माण किया और सब प्रकार के जीवित प्राणियों को इकट्ठा कर लिया। नूह के हृदय में कोई उच्चतर निर्देश नहीं था जिसका उसे पालन और क्रियान्वयन करना था : परमेश्वर के वचन ही उसकी जीवन भर की दिशा और लक्ष्य थे। इसलिए, परमेश्वर ने उससे चाहे कुछ भी बोला हो, उसे कुछ भी करने को कहा हो, उसे कुछ भी करने की आज्ञा दी हो, नूह ने उसे पूरी तरह से स्वीकार कर स्मृति के सुपुर्द कर दिया और उसे अपने जीवन के सबसे बड़े उद्यम के रूप में लिया। वह न केवल भूला नहीं, उसने न केवल उन सारी बातों को अपने दिमाग में बैठाकर रखा, बल्कि उसने उन्हें अपने जीवन की वास्तविकता बना लिया, और अपने जीवन का इस्तेमाल परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने और उसे क्रियान्वित करने के लिए किया। और इस प्रकार, तख्त-दर-तख्त, जहाज बनता चला गया। नूह का हर कदम, उसका हर दिन परमेश्वर के वचनों और उसकी आज्ञाओं के प्रति समर्पित था। भले ही ऐसा न लगा हो कि नूह कोई बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, नूह ने जो कुछ भी किया, यहाँ तक कि कुछ हासिल करने के लिए उठाया गया उसका हर कदम, उसके हाथ द्वारा किया गया हर श्रम—वे सभी कीमती, याद रखने योग्य और इस मानवजाति द्वारा अनुकरणीय थे। परमेश्वर ने नूह को जो कुछ सौंपा था, उसने उसका पालन किया। वह अपने इस विश्वास पर अडिग था कि परमेश्वर द्वारा कही हर बात सत्य है; इस बारे में उसे कोई संदेह नहीं था। और परिणामस्वरूप, जहाज बनकर तैयार हो गया, और उसमें हर किस्म का जीवित प्राणी रहने में सक्षम हुआ(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण दो : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचन सुने और उसके प्रति समर्पण किया (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मुझे काफी प्रेरणा मिली। नूह परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी और विचारशील था। जब परमेश्वर ने उसे जहाज बनाने के लिए कहा, तो नूह ने उसकी आज्ञा का मान रखा, उसकी अपेक्षाओं को पूरा किया। पहले तो उसे जहाज बनाना नहीं आता था, इसे बनाने में परेशानी भी बहुत अधिक थी। हर चरण में, कष्ट सहना और कीमत चुकाना था, पर नूह परमेश्वर की आज्ञा के प्रति वफ़ादार था। परमेश्वर के आदेश के लिए उसने जान-बूझकर कष्ट उठाया, कीमत चुकाई और एक-एक कील ठोककर जहाज बनाया। नूह 120 सालों तक कोशिश करता रहा, आखिर उसने परमेश्वर की आज्ञा पूरी की। भले ही जहाज बनाने में नूह ने काफी कष्ट उठाया, शरीर का आराम तो भूल ही गया, पर उसने परमेश्वर की आज्ञा पूरी करके उसे संतुष्ट किया और उसकी मंज़ूरी पाई। परमेश्वर के आदेश के प्रति नूह के रवैये से तुलना करें, तो मुझमें इंसानियत बिल्कुल नहीं थी। अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं वफादार नहीं थी, मैं आलसी और मक्कार थी। मैंने सिर्फ शरीर आराम की परवाह की, कष्ट नहीं उठाना चाहती थी। मैं सचमुच बेहद नीच जीवन जी रही थी। ऐसे ही रहा और मैंने खुद को नहीं बदला, तो अंत में अपना कर्तव्य गँवाकर जिंदगी भर पछताउंगी।

उसके बाद, मैंने अपने समय का ठीक से ध्यान रखा, हर दिन नए सदस्यों के सिंचन से जुड़े ज़रूरी सत्य को दृढ़ता से जानने-समझने लगी। एक दिन सभा में, भाई-बहनों ने सिंचन कार्य की एक समस्या बताई, तब जो बात समझ नहीं आई, मैंने उससे बचना चाहा। सोचा उन्हें इस बारे में आपस में बात करने देती हूँ। मगर इस बार एकदम से मुझे पता चला कि मैं टालमटोल कर जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती हूँ। तब आदेश के प्रति नूह के गंभीर और जिम्मेदार रवैये के बारे में सोचा, फिर जल्दी से अपनी गलत सोच ठीक की। मैंने ध्यान से सुना कि उन्होंने कैसे समस्या हल करने के लिए सत्य पर सहभागिता की। सारांश को अंतिम रूप देते समय, मैंने अपनी सलाह दी। मुझे हैरानी हुई जब उन्होंने कहा कि मेरी सलाह अच्छी थी। रोजी के साथ नए सदस्यों का सिंचन करते हुए, मैं नए सदस्यों की व्यावहारिक परेशानियाँ हल करने का अभ्यास करने लगी, जो समस्या मैं हल नहीं कर पाती, उसमें उसकी मदद माँग लेती। कुछ समय बाद, मैं भी खुद से नए सदस्यों का सिंचन करने लगी। हालांकि अब भी मुझमें कई कमियां और खामियां हैं, पर खुद को आगे बढ़ते और फायदे पाते देख सकती हूँ, इससे काफी सुकून महसूस होता है। मुझे जो भी समझ और फायदे मिल पाये, सब परमेश्वर के कार्य का प्रभाव है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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