सत्य का अनुसरण कैसे करें (9)

पिछली बार की सभा में, हमने “सत्य का अनुसरण कैसे करें” के संबंध में किन चीजों को त्यागने की जरूरत है, इसके दूसरे भाग—यानी, लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने के बारे में संगति की थी। इस विषय पर हमने कुल चार चीजों को सूचीबद्ध किया था : पहली चीज, रुचियाँ और शौक; दूसरी चीज, शादी; तीसरी चीज, परिवार; और चौथी चीज, करियर। पिछली बार, हमने रुचियों और शौक के बारे में संगति की थी। लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने के तत्वों में से एक है लोगों के ऐसे लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ जो रुचियों और शौक के कारण उत्पन्न होती हैं। मेरी संगति को सुनकर, क्या अब सभी रुचियों और शौक के प्रति सही रवैया और परिप्रेक्ष्य रखते हैं? (हाँ।) हमारी संगति का मकसद रुचियों और शौक के कारण उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना है, पर इन चीजों को त्यागने के लिए, तुम्हें पहले समझना होगा कि रुचियाँ और शौक क्या हैं, फिर उनसे सही ढंग से निपटना और इन लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना सीखना होगा जो उन रुचियों और शौक के कारण उत्पन्न होते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम इसके सकारात्मक पहलू पर संगति करते हैं या नकारात्मक पर। संक्षेप में, लक्ष्य लोगों को यह समझने में सक्षम बनाना है कि रुचियाँ और शौक क्या हैं, और फिर उन्हें सही ढंग से व्यवहार में लाना और लागू करना, अस्तित्व में रहने के लिए उन्हें उचित स्थान या मूल्य देना और साथ ही, लोगों को उन लक्ष्यों, इच्छाओं और, आदर्शों को त्यागने में सक्षम बनाना है जो गलत और अनुचित हैं, जो उनके पास नहीं होने चाहिए, और जो परमेश्वर में उनके विश्वास और उनके कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित करते हैं। यह कहना सही होगा कि तुम्हारी रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ तुम्हारे जीवन, अस्तित्व और जीवन जीने के बारे में तुम्हारे दृष्टिकोण को प्रभावित करेंगी; बेशक, उनका तुम्हारे चुने गए मार्ग, और इस जीवन में तुम्हारे कर्तव्य और मकसद पर और भी अधिक गहरा प्रभाव पड़ेगा। तो, एक निष्क्रिय परिप्रेक्ष्य से, जो लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ लोगों में रुचियों और शौक के कारण उत्पन्न होते हैं, वे ऐसे लक्ष्य या दिशा नहीं हैं जिनका वे अनुसरण करते हैं—और न ही वे जीवन के बारे में दृष्टिकोण और वे मूल्य हैं जो इस जीवनकाल में उनके पास होने चाहिए। रुचियाँ और शौक क्या हैं, इस पर संगति करके, मैं लोगों को उनके बारे में सही ढंग से जानना और उनसे पेश आना सिखाता हूँ, और फिर यह जानने में उनकी मदद करता हूँ कि क्या उनके लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ उनकी रुचियों और शौक के प्रभाव के परिप्रेक्ष्य से सही हैं या नहीं। यानी, मैं सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों ही पहलुओं का उपयोग करके लोगों को स्पष्ट रूप से यह समझने में मदद करता हूँ कि इन रुचियों और शौक से सही ढंग से कैसे पेश आएँ। पहली बात, अगर किसी को रुचियों और शौक के बारे में सही ज्ञान और सटीक समझ है, और वह उनसे सही ढंग से निपट सकता है, तो वह रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले आदर्शों और इच्छाओं को भी सचमुच त्याग रहा है। जब तुम्हारे पास रुचियों और शौक की सही समझ होगी, तो उनसे निपटने के तुम्हारे तौर-तरीके भी सही होंगे और अपेक्षाकृत सिद्धांतों और मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप होंगे। इस तरह, तुम रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को सकारात्मक तरीके से त्यागने में सक्षम होगे। इसके अलावा, यह संगति तुम्हें उन विभिन्न हानिकारक प्रभावों को भी स्पष्ट देखने में सक्षम बनाती है जो रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्य, आदर्श और इच्छाओं के कारण सामने आते हैं, या यह तुम्हें उनके द्वारा उत्पन्न प्रतिरोधी, नकारात्मक प्रभाव को देखने में मदद करती है, जो तुम्हें इन अनुचित लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को सक्रियता से त्यागने में सक्षम बनाते हैं। इन सारी बातों पर हमारी संगति के बाद, क्या अभी भी कुछ ऐसे लोग नहीं होंगे जो कहेंगे : “इस संसार में विभिन्न प्रकार के लोगों की अलग-अलग रुचियाँ और शौक हैं, और उनकी व्यक्तिगत रुचियों और शौक से अलग-अलग लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं। मान लो कि हम अपनी मौजूदा सोच या मान्यताओं के अनुसार काम करते रहते और लोग अपने लक्ष्यों और इच्छाओं को पूरा न करते तो क्या आज यह संसार विकसित होता? मानवजाति की प्रौद्योगिकी, संस्कृति और शिक्षा जैसे क्षेत्र, जो मानवजाति के अस्तित्व और जीवन के लिए जरूरी हैं, तब कैसे विकसित होते? क्या मानवजाति तब भी अपनी वर्तमान जीवनशैली का आनंद ले पाती? क्या दुनिया में वर्तमान स्तर तक विकास होता? क्या दुनिया एक आदिम समाज की तरह नहीं होती? क्या हमारे पास आज की आधुनिक मानवीय जीवनशैली होती?” क्या यह एक समस्या है? यह मुमकिन है कि चाहे हम किसी भी विषय पर संगति करें, तुम सभी इसे “परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उन्हें स्वीकारकर उनके प्रति समर्पित होना चाहिए” के परिप्रेक्ष्य से स्वीकार करते हो, इसलिए ज्यादातर समय, मैं जिन वचनों की संगति करता हूँ, उनका खंडन करने के लिए तुम लोगों के पास अलग-अलग राय नहीं होती है। लेकिन यह वैसी बात नहीं है, जैसे कि ऐसा कोई है ही नहीं—या ऐसा कोई तीसरा पक्ष नहीं है—जो ऐसे संदेह व्यक्त कर सके, है न? अगर वाकई किसी ने ऐसा सवाल उठाया, तो तुम लोग उसका जवाब कैसे दोगे? (मुझे लगता है कि इस सवाल में व्यक्त परिप्रेक्ष्य गलत है, क्योंकि लोगों की रुचियाँ और शौक प्रौद्योगिकी के विकास को नियंत्रित नहीं करते हैं, और न ही वे युगों की प्रगति को नियंत्रित करते हैं। प्रौद्योगिकी का विकास और युगों की प्रगति, सभी परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि रुचि या शौक रखने वाला व्यक्ति संसार के विकास को आगे बढ़ा सकता है, कि वह संसार को बदल सकता है।) तुम स्थूल स्तर पर बात कर रहे हो। क्या इसे देखने का कोई और तरीका है? यह इस पर निर्भर करता है कि तुम वास्तव में सत्य समझते हो या नहीं। क्या तुम लोगों को लगता है कि संगति के इन वचनों को सुनने के बाद, अविश्वासी ऐसे सवाल करेंगे? (शायद करेंगे।) अगर वे यह सवाल उठाते हैं, तो तुम्हें वस्तुनिष्ठ तथ्यों और सत्य के अनुसार इसका जवाब कैसे देना चाहिए? अगर तुम जवाब नहीं दे सकते तो वे कहेंगे कि तुम्हें गुमराह किया गया है। तुम्हारे जवाब न दे पाने से एक बात तो साबित होती है कि तुम सत्य के इस पहलू को नहीं समझते। क्या तुम लोग इसका जवाब देने में अक्षम नहीं हो? (हम अक्षम हैं।) तो चलो इस मामले पर बात करते हैं।

कुछ लोग कहते हैं : “अगर मानवजाति अपने आदर्शों का अनुसरण नहीं करती, तो क्या आज संसार वर्तमान स्तर तक विकसित हो पाता?” जवाब है “हाँ।” क्या यह सरल-सी बात नहीं है? (बिल्कुल है।) इस “हाँ” के लिए सबसे सरल, बेबाक स्पष्टीकरण क्या है? यह कि मानवजाति अपने आदर्शों को साकार करती है या नहीं, इसका संसार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वर्तमान स्तर तक संसार के विकास को न तो मानवजाति के आदर्शों ने आगे बढ़ाया है और न ही इसका नेतृत्व किया है; बल्कि, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति को वर्तमान तक, आज की स्थिति तक पहुँचाया है। अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं के बिना, मानवजाति आज भी वैसी ही होती, पर सृष्टिकर्ता की अगुआई और संप्रभुता के बिना, सब कुछ वैसा नहीं होता। क्या ऐसा स्पष्टीकरण उपयुक्त है? (हाँ।) इसमें उपयुक्त क्या है? क्या इससे हमारे सवाल का जवाब मिल गया? क्या यह सवाल का सार समझाता है? नहीं समझाता है; यह केवल सैद्धांतिक रूप से सवाल का जवाब देता है, जिसे दर्शन की शर्तें कहा जा सकता है। मगर इससे भी अधिक विस्तृत, आवश्यक स्पष्टीकरण मौजूद है जिस पर अब तक चर्चा नहीं हुई है। वह विस्तृत स्पष्टीकरण क्या है? आओ पहले सरल बात करते हैं। पूरी मानवजाति में, लोग अपनी-अपनी किस्म के लोगों के पीछे चलते हैं, हर किस्म के व्यक्ति का अपना मकसद होता है। परमेश्वर में विश्वास करने वालों का मकसद सृष्टिकर्ता की संप्रभुता की गवाही देना, उसके कर्मों की गवाही देना, जो भी कार्य उसने सौंपा है उसे पूरा करना, अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाना और अंत में बचाया जाना है। यही उनका मकसद है। अधिक विस्तार से कहें, तो यह मकसद परमेश्वर के वचन और उसके कार्य को फैलाना और फिर उसकी अगुआई को स्वीकार कर और उसके कार्य का अनुभव करके, अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करना और बचाया जाना है। परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को चुनता है। वे ऐसे लोगों में से हैं जो उसके प्रबंधन कार्य में सहयोग करते हैं। इस किस्म के व्यक्ति का मकसद अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना और जो भी कार्य परमेश्वर ने सौंपा है उसे पूरा करना है। यह कहना सही होगा कि ऐसे लोग पूरी मानवजाति के बीच एक अनूठा समूह हैं। लोगों का यह अनूठा समूह परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में, उसकी छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना में एक अनूठा मकसद लेकर चलता है; उनका एक खास कर्तव्य और खास जिम्मेदारी होती है। तो जब मैं रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की बात करता हूँ, तो मैं इन लोगों से अपेक्षा करता हूँ—मेरा मतलब तुम लोगों से है—कि तुम अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दो, क्योंकि तुम लोगों का मकसद, तुम लोगों का कर्तव्य और तुम लोगों की जिम्मेदारी परमेश्वर के घर में और कलीसिया में है, इस संसार में नहीं। यानी तुम लोगों का इस संसार के विकास और प्रगति या इसके किसी भी प्रचलन से कोई लेना-देना नहीं है। यह कहना भी सही होगा कि परमेश्वर ने तुम लोगों को इस संसार के विकास और प्रगति के संबंध में कोई मकसद नहीं दिया है। यह उसका विधान है। परमेश्वर ने अपने चुने हुए लोगों को, यानी जिन्हें वह बचाएगा, उन्हें कौन-सा मकसद सौंपा है? यह मकसद परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना और बचाया जाना है। बचाए जाने के लिए वह लोगों से अपेक्षा करता है कि वे सत्य का अनुसरण करें, और सत्य का अनुसरण करने के संबंध में वह अपेक्षा करता है कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्याग दें। इसलिए, ये वचन और अपेक्षाएँ पूरी मानवजाति पर लक्षित नहीं हैं; बल्कि वे लक्षित हैं तुम लोगों पर, परमेश्वर के चुने हुए हरेक व्यक्ति पर और उन लोगों पर जो बचाया जाना चाहते हैं—और बेशक, ये उन सभी पर लक्षित हैं जो मानवजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हैं। परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य में तुम सभी कौन-सी भूमिका निभा सकते हो? तुम ही लोग हो जिन्हें परमेश्वर बचाएगा। तो जब बात उन लोगों की आती है जिन्हें परमेश्वर बचाएगा, तो इस “उद्धार” में क्या शामिल है? इसमें परमेश्वर के वचनों, उसकी ताड़ना और न्याय, उसके विधान, उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकारना, और उसके सभी वचनों के प्रति समर्पित होना, उसके मार्ग के अनुसार चलना और आखिर में उसकी आराधना करना और बुराई से दूर रहना शामिल है; ऐसा करने से, तुम बचा लिए जाओगे, और अगले युग में प्रवेश करोगे। पूरी मानवजाति के बीच तुम लोगों की यही भूमिका है, और यही वह खास मकसद भी है जो परमेश्वर ने सभी लोगों में से तुम लोगों को सौंपा है। बेशक, तुम लोगों के परिप्रेक्ष्य से कहें, तो यह एक विशेष प्रकार की जिम्मेदारी और कर्तव्य है जो पूरी मानवजाति में सिर्फ तुम लोगों के लिए है। यह इस मुद्दे पर परमेश्वर के चुने हुए लोगों के परिप्रेक्ष्य से बात करना है। दूसरी बात, पूरी मानवजाति में, परमेश्वर ने लोगों के इस अनूठे समूह को ही यह खास मकसद दिया है। उसे इसकी जरूरत नहीं कि इन लोगों पर संसार के विकास, इसकी प्रगति या इससे जुड़ी किसी भी अन्य चीज के प्रति कोई भी दायित्व या जिम्मेदारी हो। लोगों के इस अनूठे समूह के अलावा, परमेश्वर ने बाकी बचे उन सभी किस्म के लोगों को अलग-अलग मकसद सौंपे हैं जिन्हें उसने नहीं चुना है, फिर चाहे उनका प्रकृति सार कुछ भी हो। मानवजाति की अलग-अलग समयावधियों, अलग-अलग सामाजिक परिवेशों और विभिन्न जातियों में, वे अपने अलग-अलग मकसद के कारण जीवन के सभी क्षेत्रों में सभी प्रकार की भूमिकाएँ निभाते हैं। परमेश्वर द्वारा उनके लिए निर्धारित उन विभिन्न भूमिकाओं के कारण, उनमें से हरेक की अपनी-अपनी रुचियाँ और शौक हैं। उन रुचियों और शौक की पूर्वशर्तों के तहत, उनमें सभी प्रकार के लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं। क्योंकि उनके पास सभी प्रकार के लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ हैं, तो अलग-अलग युगों और विभिन्न सामाजिक परिवेशों में, संसार सभी प्रकार की नई चीजों और नए उद्योगों को तैयार करता है—उदाहरण के लिए, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, व्यवसाय, अर्थशास्त्र और शिक्षा, या हल्के उद्योग जैसे कपड़ा और हस्तशिल्प, और साथ ही विमानन और समुद्री उद्योग वगैरह। इस प्रकार, अपने विभिन्न लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं के कारण हर क्षेत्र में उभरने वाले प्रमुख व्यक्तियों, उत्कृष्ट व्यक्तियों और विशेष उद्यमियों के पास अलग-अलग समय पर और विभिन्न सामाजिक परिवेशों के तहत अपने-अपने मकसद होते हैं। इसी के साथ, अपने विशेष सामाजिक परिवेश में भी वे लगातार अपने मकसद को पूरा कर रहे हैं। इस तरह, मानवजाति की विभिन्न समयावधियों और सामाजिक परिवेशों में, इन विशेष व्यक्तियों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं की प्राप्ति के कारण समाज लगातार विकसित होता और आगे बढ़ता रहता है। बेशक, यह लगातार मानवजाति को भौतिक जीवन की कई अच्छी चीजें भी उपलब्ध कराता है। उदाहरण के लिए, कुछ सौ साल पहले, बिजली नहीं होने के कारण लोग लालटेन का इस्तेमाल करते थे। इन विशेष परिस्थितियों में, एक विशेष व्यक्ति ने आकर बिजली का आविष्कार कर डाला, और तब से मानवजाति रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल करने लगी। दूसरा उदाहरण देखो, तो एक विशेष सामाजिक परिवेश में, एक अन्य विशेष व्यक्ति सामने आया था। उसने देखा कि बाँस की पर्चियों पर लिखना बहुत मुश्किल है, तो उसने उम्मीद की कि एक दिन ऐसा आएगा जब लोग किसी पतली, सपाट सतह पर लिख सकेंगे, जो पढ़ने में सुविधाजनक और आसान भी होगा। फिर उसने कागज बनाने की तकनीकों पर शोध करना शुरू किया और अपने निरंतर अनुसंधान, अन्वेषण और प्रयोग से, उसने आखिर में कागज का आविष्कार किया। फिर भाप इंजन का आविष्कार भी हुआ। एक विशेष समयावधि में, ऐसा विशेष व्यक्ति आया जिसने सोचा कि हाथ से काम करना बहुत थकाऊ है, इससे मनुष्य की ऊर्जा की बर्बादी होती है, और काम भी अच्छे से नहीं हो पाता है। अगर कोई ऐसी मशीन या कोई दूसरा तरीका हो जो मनुष्य के श्रम की जगह ले पाए, तो इससे लोगों का काफी सारा समय बचेगा और वे अन्य काम कर पाएँगे। इस तरह, अनुसंधान और अन्वेषण के जरिये, भाप इंजन का आविष्कार हुआ, और फिर एक-एक करके सभी प्रकार की यांत्रिक चीजों का भी आविष्कार हुआ जो भाप इंजन के प्रवर्तक सिद्धांतों पर चलते थे। ऐसा ही हुआ था न? (बिल्कुल।) इस तरह, अलग-अलग समय में, एक विशेष व्यक्ति या कई लोगों के विशेष समूह के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं की निरंतर प्राप्ति और सत्यापन के कारण धीरे-धीरे और लगातार हल्के और भारी, दोनों तरह के उद्योग विकसित होते और प्रगति करते रहे, जिससे सारी मानवजाति के जीवन की गुणवत्ता और जीवन स्तरों में निरंतर सुधार होता गया। कपड़ा और हस्तशिल्प जैसे हल्के उद्योग अब गुणवत्ता, उत्कृष्टता और परिशुद्धता के बढ़ते स्तरों से विकसित हो रहे हैं, और मानवजाति अब उनका अधिक आनंद उठा रही है। भारी उद्योग, जैसे सभी प्रकार के परिवहन के साधन, जैसे कि कार, ट्रेन, स्टीमशिप और हवाई जहाज, लोगों के जीवन को बहुत आसान बनाते हैं, जिससे लोगों के लिए यात्रा करना आसान और सुविधाजनक हो जाता है। यही मानवता के विकास की वास्तविक प्रक्रिया और विस्तृत अभिव्यक्ति है। संक्षेप में, चाहे हल्का उद्योग हो या भारी उद्योग, चाहे कोई भी पहलू हो, हर चीज की शुरुआत और प्राप्ति एक विशेष व्यक्ति या एक समूह के विशेष लोगों की रुचियों और शौक से होती है। उनकी विशेष रुचियों और शौक के कारण, उनके अपने लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ होती हैं। साथ ही, मानवजाति की अलग-अलग समयावधियों में और उनके मौजूदा सामाजिक परिवेशों में, उनके विशेष लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं के कारण, उनके बीच के विभिन्न क्षेत्र सभी प्रकार की अधिक उन्नत चीजों, अधिक सुविधाजनक चीजों, और ऐसी चीजों को उत्पन्न करते हैं जो पूरी मानवजाति में जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए अधिक लाभकारी हैं। इससे मानवजाति का जीवन आसान और उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है। अभी हम इन चीजों पर बात नहीं करेंगे। बल्कि इन विशेष व्यक्तियों के मूल पर गौर करेंगे। अलग-अलग समयावधियों में ये विशेष लोग कहाँ से आते हैं? क्या उन्हें परमेश्वर ने निर्धारित नहीं किया है? (बिल्कुल किया है।) यह बात एकदम पक्की है, इसमें कोई संदेह नहीं है और कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता। क्योंकि उन्हें परमेश्वर ने निर्धारित किया है, तो उनके मकसद भी परमेश्वर के विधान से ही संबंधित हैं। “परमेश्वर के विधान से संबंधित” होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि परमेश्वर ने इन विशेष व्यक्तियों को विशेष मकसद सौंपे हैं, इसलिए वे विशेष समय पर आगे आकर जो करना चाहते हैं उसे करते हैं, और फिर उन व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले विशेष कार्यों के जरिये वे अलग-अलग समय पर मानवता को आगे बढ़ाते हैं। इन विशेष व्यक्तियों के कारण, संसार में लगातार छोटे-मोटे परिवर्तन और नवीनीकरण होते रहते हैं। इसी तरह से मानवता का विकास होता है।

ये विशेष रुचियाँ और शौक रखने वाले लोगों और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच क्या अंतर है? अंतर यह है कि भले ही परमेश्वर ने इन लोगों के लिए एक विशेष मकसद निर्धारित किया है, पर वे ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें उसने उद्धार पाने के लिए निर्धारित किया है, तो इन लोगों से उसकी अपेक्षाएँ बस इतनी है कि उन्हें अपनी विशेष उम्र, और खास समय में कुछ विशेष करना चाहिए। वे अपना मकसद पूरा करते हैं और फिर अपने खास समय पर चले जाते हैं। जब तक वे पृथ्वी पर रहते हैं, परमेश्वर उन पर उद्धार का कार्य नहीं करता है। उनके पास बस इस समाज और मानवजाति के विकास और उन्नति का या विभिन्न अवधियों में मानवजाति के जीवन परिवेशों को बदलने का मकसद होता है। परमेश्वर की प्रबंधन योजना में मानवजाति के उद्धार के कार्य से उनका कोई लेना-देना नहीं है, तो चाहे वे किसी भी तरह का मकसद पूरा करें, मानवजाति में उनका योगदान कितना भी महान हो या मानवजाति पर उनका प्रभाव कितना भी गहरा हो, उनका मानवजाति का उद्धार करने के परमेश्वर के कार्य से कोई लेना-देना नहीं है। उनका संबंध संसार से, इसके प्रचलनों से, इसके विकास से, इसके हर क्षेत्र और उद्योग से है; मानवजाति का उद्धार करने के परमेश्वर के कार्य से उनका कोई संबंध नहीं है, इसलिए परमेश्वर द्वारा बोले गए प्रत्येक वचन, मानवजाति को प्रदान किए हर एक वचन, उसके द्वारा व्यक्त सत्य और जीवन या मानवजाति से उसकी विभिन्न अपेक्षाओं से उनका कोई लेना-देना नहीं है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि संपूर्ण मानवजाति के लिए, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के कथन से लेकर जिन विशेष अपेक्षाओं और सिद्धांतों के बारे में वह बात करता है, वे सभी लोगों के लिए निर्देशित नहीं हैं; बेशक, ये उन विशेष लोगों के लिए तो कतई नहीं हैं जिनकी मानव समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परमेश्वर के वचन—सत्य, मार्ग और जीवन—केवल उसके द्वारा चुने हुए लोगों की ओर निर्देशित हैं। इस मुद्दे को सरलता से समझाया जा सकता है : परमेश्वर के वचन उन लोगों की ओर निर्देशित होते हैं जिन्हें वह चुनता है, जिन्हें वह बचाना चाहता है और जिनके बचाए जाने की इच्छा रखता है। अगर किसी को परमेश्वर ने नहीं चुना है, और अगर वह उसे बचाने की नहीं सोच रहा है, तो फिर जीवन के ये वचन उसके लिए नहीं बोले गए हैं—उनमें उनकी कोई भूमिका नहीं है। समझे तुम? (हाँ।) इन विशेष लोगों की विशेष रुचियाँ और शौक होते हैं, इसलिए उनके लक्ष्य, आदर्श, और इच्छाएँ सामान्य लोगों से अलग और ऊँची होती हैं। क्योंकि उनके पास ये विशेष लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ हैं, और क्योंकि उनके पास अलग-अलग या विशेष रुचियाँ और शौक हैं, तो वे मानव समाज के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और बेशक, अलग-अलग समय पर, वे अपने महत्वपूर्ण मकसद पूरे करते हैं। भले ही वे आखिर में स्वीकार्य मानक तक अपने मकसद पूरे कर पाते हों या नहीं, सिर्फ वे ही ऐसे लोग हैं जिनका इन रुचियों और शौक के कारण उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं से कोई लेना-देना है। क्योंकि इन लोगों के पास विशेष मकसद हैं, तो उन्हें विशेष समय और विशेष सामाजिक परिस्थितियों में अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को साकार करना होगा। परमेश्वर ने उन्हें यही मकसद सौंपा है, इसी मकसद को उसने उनके साथ जोड़ा है; यही उनकी जिम्मेदारी है, और उन्हें इसी तरह कार्य करना चाहिए। चाहे उनके शरीर, उनके दिलों या उनकी मानसिक स्थिति को कितना तनाव सहना पड़े, या वे कितनी भी बड़ी कीमत चुकाएँ, अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए, वे सभी उस मकसद को पूरा करेंगे—या पूरा करना होगा—जो उन्हें पूरा करना चाहिए, क्योंकि यही परमेश्वर का विधान है। कोई भी परमेश्वर के विधान से नहीं बच सकता, न ही कोई उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं से बच सकता है। इसलिए, हम लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने के बारे में जो बात कर रहे हैं, उनसे उनका बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। उनका इन बातों से कोई लेना-देना नहीं है, इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने के बारे में बोले गए ये वचन उनकी ओर निर्देशित नहीं हैं। चाहे कोई भी समय अवधि हो, कैसी भी सामाजिक परिस्थितियाँ हों, और मानवजाति कितनी भी विकसित हो जाए, परमेश्वर के इन वचनों का उनसे कोई लेना-देना नहीं होगा। ये वचन उनकी ओर निर्देशित नहीं हैं, तो उन्हें इन वचनों पर खरा उतरने की कोई जरूरत नहीं है। उन्हें परमेश्वर के विधान, संप्रभुता और व्यवस्थाओं के तहत वह मकसद पूरा करना होगा जो उन्हें करना चाहिए। उन्हें अलग-अलग समय पर और बुरी और भ्रष्ट मानवजाति की विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में वही करना होगा जो उन्हें करना चाहिए, उन्हें अपने दायित्वों को पूरा करना चाहिए और उस मकसद को पूरा करना चाहिए जो उनसे अपेक्षित है। ऐसे में, वे एक सेवाकर्मी की भूमिका निभा रहे हैं या विषमता की? तुम उन्हें जो भी कहो सब ठीक है। संक्षेप में, वे परमेश्वर द्वारा चुने हुए लोग नहीं हैं, और न ही वे ऐसे लोग हैं जिन्हें वह बचाना चाहता है—बस इतना ही। तो, विश्वासी अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को कैसे भी त्यागें, इससे संसार या मानवजाति के विकास में देरी नहीं होगी; और बेशक, इससे विभिन्न समयावधियों और संसार की विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में विभिन्न क्षेत्रों और उद्योगों के विकास में भी देरी नहीं होगी। यही बात है न? (बिल्कुल।) ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि मानवजाति के विकास और समाज के उद्योगों के विकास का विश्वासियों से या परमेश्वर के चुने गए लोगों से कोई लेना-देना नहीं है, तो तुम्हें यह चिंता करने की जरूरत नहीं है : “अगर हम तुम्हारी बात मानकर अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्याग देते हैं, तो क्या तब भी यह समाज और मानवजाति विकसित होती रहेगी?” तुम्हें इसकी चिंता क्यों है? तुम्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर की अपनी योजनाएँ और व्यवस्थाएँ हैं—तुम समझते हो न? (हाँ।) तुम बेकार में चिंता कर रहे हो, इसका कारण तुम्हारा चीजों को स्पष्ट रूप से न देख पाना और सत्य को न समझ पाना है।

परमेश्वर के किसी विश्वासी के पास क्या लक्ष्य, आदर्श, और इच्छाएँ होनी चाहिए? तुम्हें अपना कर्तव्य एक स्वीकार्य मानक तक अच्छी तरह निभाना चाहिए, परमेश्वर ने तुम्हें जो काम सौंपा है उसे पूरा करना चाहिए, अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहिए, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, और सत्य को कसौटी मानकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना, वैसा ही आचरण और व्यवहार करना चाहिए। तुम्हारे यही लक्ष्य, आदर्श, और इच्छाएँ होनी चाहिए। रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले सांसारिक लक्ष्य, आदर्श, और इच्छाएँ ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम्हें त्याग देना चाहिए। उन्हें त्यागने की क्या जरूरत है? क्योंकि तुम कलीसिया के बाहर के लोगों से अलग हो; परमेश्वर ने तुम्हें चुना है, तुमने सत्य का अनुसरण करना चुना है, और तुमने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने का मन बनाया है, तो तुम्हारे जीवन के लक्ष्यों और दिशा में बदलाव आना चाहिए, और तुम्हें रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को पूरी तरह से त्याग देना चाहिए। तुम्हें उन्हें क्यों त्यागना चाहिए? क्योंकि यह वह रास्ता नहीं है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए। वह अविश्वासियों का मार्ग है, उन लोगों का मार्ग है जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। अगर तुम उस रास्ते पर चलते रहते हो, तो तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से नहीं हो। अगर तुम अविश्वासियों के आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हो, तो तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते, और उद्धार नहीं पा सकते। साफ शब्दों में कहें, तो अगर तुम अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग नहीं सकते, और तो और उन्हें साकार करना चाहते हो, तो तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होने या परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने में असमर्थ हो, और तुम कभी बचाए नहीं जा सकते। इसका क्या मतलब है? अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने में असमर्थ होना और उन्हें साकार करने की इच्छा रखना, अपने सत्य के अनुसरण को त्यागने, उद्धार को त्यागने, और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित न होने की इच्छा रखने के समान है। यही बात है न? (बिल्कुल।) तो अंत में, यह वैसा ही है जैसा कि मैंने कहा : अगर तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागना चाहिए। तुम्हें उनका त्याग करना होगा, क्योंकि सांसारिक आदर्शों और इच्छाओं के अनुसरण का उन लोगों से कोई लेना-देना नहीं है जो सत्य अनुसरण करते हुए उद्धार पाना चाहते हैं; यह वह मार्ग नहीं है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए, और न ही वह लक्ष्य और दिशा है जिसे तुम्हें अपने जीवन में निर्धारित करना चाहिए। अगर तुम अक्सर अपने दिल में इसके लिए योजना बनाते हो और इसका हिसाब लगाते हो, इस पर चिंतन-मनन करने के लिए माथापच्ची करते हो, तो तुम्हें इसे जल्द से जल्द त्याग देना चाहिए। तुम दो नाव में सवार नहीं रह सकते, सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने के साथ-साथ सांसारिक चीजों का अनुसरण करने और अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की इच्छा नहीं रख सकते। इस तरह, तुम न सिर्फ किसी भी लक्ष्य को पूरा करने या उसे साकार करने में असमर्थ होगे, बल्कि इसके अलावा—और सबसे महत्वपूर्ण बात—यह तुम्हारे उद्धार को प्रभावित करेगा। आखिर में, न केवल तुम मनुष्य का उद्धार करने के परमेश्वर के कार्य से चूक जाओगे, बल्कि परमेश्वर द्वारा मानवजाति के उद्धार के सर्वोत्तम अवसर को गँवा बैठोगे और बचाए जाने का मौका भी खो दोगे। अंत में, तुम आपदा में गिर जाओगे, अपनी छाती पीटोगे और अपने पैर पटकोगे, लेकिन तब तक पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी—तुम्हारा दुर्भाग्य ऐसा होगा। अगर तुम समझदार हो और सत्य का अनुसरण करने का मन बना चुके हो, तो तुम्हें उन आदर्शों और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए जिनका तुम कभी अनुसरण करते थे या आज भी कर रहे हो। मूर्ख, बेवकूफ, बुद्धिहीन और भ्रमित लोग—ये लोग सत्य का अनुसरण करना और बचाए जाना चाहते हैं, मगर वे अपने सांसारिक लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को नहीं त्यागना चाहते। वे दोनों चीजें पाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह से कार्य करना फायदेमंद है, यह समझदारी है, जबकि असल में, यह सबसे बड़ी बेवकूफी है। समझदार लोग अपने सांसारिक लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को पूरी तरह से त्याग देते हैं और सत्य का अनुसरण करके बचाए जाने का रास्ता चुनते हैं। चाहे संसार कितना भी विकसित हो जाए, और विभिन्न क्षेत्रों और उद्योगों में चाहे कुछ भी हो रहा हो या वे कितने भी विकसित हों, इनमें से किसी का भी तुमने कोई लेना-देना नहीं है। जो संसार के लोग हैं, वे शैतान जो पृथ्वी पर रहते हैं, उन्हें वह करने दो जो उन्हें करना चाहिए। एक ओर, हम जो करेंगे वह होगा उस कर्तव्य को पूरा करना जो हमें करना चाहिए, और दूसरी ओर, हम उनकी मेहनत के फल का आनंद उठाएँगे। कितनी बढ़िया बात है! उदाहरण के लिए, उनके द्वारा आविष्कार किए गए कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर तुम्हारे कर्तव्य और कामकाज के लिए बहुत मददगार हैं। तुम इनका इस्तेमाल करते हो, इन्हें अपने काम में लाते हो; अपना कर्तव्य अच्छे से निभाते हुए तुम इनकी मदद लेते हो, अपने काम को बेहतर ढंग से पूरा करने में इसकी मदद लेते हो, इनकी मदद से अपने कर्तव्य-प्रदर्शन की दक्षता बढ़ाते हो और इस तरह बेहतर परिणाम पाते हो और साथ ही ज्यादा समय भी बचाते हो। कितनी बढ़िया बात है! तुम्हें शोध कार्य में अपना दिमाग लड़ाने की जरूरत नहीं पड़ती है : “इस सॉफ्टवेयर का आविष्कार कैसे हुआ? इसे किसने बनाया? मुझे इस सॉफ्टवेयर में, इस तकनीकी क्षेत्र में कैसे प्रयास करना चाहिए?” इस तरह अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाना बेकार है। तुम्हारे विचार और ऊर्जा इसके लिए नहीं हैं। तुम्हें इस मामले में अपनी ऊर्जा या दिमाग लगाने की कोई जरूरत नहीं है। जिन सांसारिक लोगों को ऐसा करना चाहिए उन्हें ही यह सब करने दो; उनके योगदान के बाद हम इन्हें लेकर इनका इस्तेमाल करते हैं। कितनी बढ़िया बात है! सब कुछ पहले से तैयार है। परमेश्वर ने सब कुछ पहले से ही व्यवस्थित कर दिया है, तो तुम्हें इसका अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है, और न ही इन मामलों में चिंतित होने या प्रयास करने की कोई जरूरत है। इन मामलों में, तुम्हें कुछ भी अपने ऊपर लेने की जरूरत नहीं है, और न ही किसी भी चीज के बारे में सोचने या चिंता करने की जरूरत है। तुम्हें बस अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाना, सत्य का अनुसरण करना, सत्य समझना, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना है। क्या यह जीवन का सबसे सही मार्ग नहीं है? (बिल्कुल है।)

क्या तुम लोगों ने अब आदर्शों और इच्छाओं के पीछे भागने का मुद्दा समझ लिया है? कुछ लोग कहते हैं : “अगर लोग अपने आदर्शों के पीछे नहीं भागते, तब भी क्या संसार विकास कर आगे बढ़ पाता?” मैं कहता हूँ, कर पाता। क्या तुम लोगों को यह जवाब समझ आया? समझ रहे हो? (हाँ।) तो क्या फिर तुम लोग भी उस मुद्दे का सार स्पष्ट देख पा रहे हो जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं? वास्तव में क्या ऐसा ही नहीं होता है? (हाँ, होता है।) जब निष्कर्ष की बात आए—जब संसार के विकास, प्रगति और मामलों की बात आए—तो संसार के दानवों या संसार के तथाकथित “मनुष्यों” को ही इनसे निपटने दो। इसका परमेश्वर में विश्वास करने वालों से कोई संबंध नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करने वालों का मकसद और जिम्मेदारी क्या है? (वे अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाएँ, सत्य का अनुसरण करें, और उद्धार प्राप्त करें।) सही कहा। यह बहुत विशिष्ट और व्यावहारिक है। क्या यह सरल नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर में विश्वास करने वालों को बस सत्य का अनुसरण करने और उसके मार्ग के अनुसार चलने की जरूरत है, और इस तरह आखिर में उन्हें बचा लिया जाएगा। यह तुम्हारा मकसद है, और परमेश्वर की तुम लोगों से सबसे बड़ी अपेक्षा और आशा भी है। बाकी चीजें परमेश्वर संभालता है, तो तुम्हें चिंता करने या परेशान होने की जरूरत नहीं है। जब समय आएगा, तब तुम उन सभी चीजों का आनंद लोगे, वह सब खाओगे, और उन सभी चीजों का इस्तेमाल करोगे जो तुम्हें करना चाहिए। सब कुछ तुम्हारी कल्पना और अपेक्षाओं से बढ़कर होगा, और प्रचुरता में होगा। परमेश्वर न तो तुम्हें किसी चीज की कमी होने देगा और न ही गरीब होने देगा। बाइबल में एक पंक्ति है जो कहती है कि प्रभु का बोझ हल्का है। मूल कहावत क्या है? (“क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हल्का है” (मत्ती 11:30)।) इसका वही मतलब है न? (बिल्कुल है।) तुमसे अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की अपेक्षा रखने का उद्देश्य तुम्हें औसत दर्जे का बनाना, या आलसी, लक्ष्यहीन, एक जिंदा लाश या आत्माहीन व्यक्ति बनाना नहीं है; बल्कि, इसका उद्देश्य तुम्हारे अनुसरण की गलत दिशा और लक्ष्यों को बदलना है। तुम्हें उन लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना चाहिए जो तुम्हारे पास नहीं होने चाहिए, और सही लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को निर्धारित करना चाहिए। सिर्फ इसी तरह तुम जीवन के सही मार्ग पर चल सकते हो। तो क्या इस समस्या का हल हो गया है? अगर लोग अपने आदर्शों का अनुसरण न करें, तो क्या संसार में विकास जारी रहेगा? इसका जवाब है, “हाँ।” ऐसा क्यों? (क्योंकि परमेश्वर ने संसार से संबंध रखने वाले लोगों के लिए एक मक्सद तय किया है; यह कार्य वही लोग करेंगे।) सही कहा, क्योंकि परमेश्वर का अपना विधान और व्यवस्थाएँ हैं, तो तुम्हें चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है। संसार विकसित होगा, और इस जिम्मेदारी और दायित्व को पूरा करने के लिए, परमेश्वर में विश्वास करने वालों को खुद यह मकसद अपने ऊपर लेने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर ने चीजों की व्यवस्था की है। तुम्हें इसके लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है कि परमेश्वर किसकी व्यवस्था करता है। तुम्हारे लिए सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर के मार्ग के अनुसार चलना और उद्धार प्राप्त करना ही काफी है। क्या तुम्हें किसी और चीज के बारे में परेशान होने की जरूरत है? (नहीं।) नहीं। तो, अपने लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने का मार्ग ही वह है जिसका अभ्यास तुम्हें करना चाहिए। तुम्हें इस बात की चिंता करने की जरूरत नहीं है कि अगर तुमने अपने आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दिया तो फिर संसार या मानवजाति का क्या होगा। तुम्हें इसकी फिक्र करने की जरूरत नहीं है। इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर ने चीजें व्यवस्थित कर रखी हैं। यह इतना सरल है। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) इस तरह से संगति करके, क्या मैंने समस्या को जड़ से हल नहीं कर दिया है? (बिल्कुल कर दिया है।) अगर कोई तुम लोगों से दोबारा पूछे, तो इस समस्या के प्रति तुम लोगों का क्या नजरिया होगा और तुम इसे कैसे समझाओगे? अगर परमेश्वर में विश्वास नहीं करने वाला कोई व्यक्ति तुमसे पूछे : “तुम लोग हमेशा आदर्शों का अनुसरण नहीं करने, और आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की बात करते हो। अगर हर कोई तुम लोगों के हिसाब से अभ्यास करने लगे, तो क्या संसार का अस्तित्व बचेगा? क्या मानवता विकसित होती रहेगी?” तब तुम यह कहकर इसका जवाब दे सकते हो : “हर व्यक्ति की अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं, तुम किसी को मजबूर नहीं कर सकते।” यह संसार में एक लोकप्रिय कहावत है। तुम्हें कहना चाहिए : “परमेश्वर चाहता है कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दें; यह सत्य है। अगर तुम इसे स्वीकारने के लिए तैयार हो, तो इन चीजों को त्याग सकते हो। अगर तुम इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो, तो तुम उन्हें नहीं त्यागने का फैसला भी कर सकते हो। परमेश्वर किसी को मजबूर नहीं करेगा। अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है, और यह तुम्हारा अधिकार है। उन्हें नहीं त्यागना भी तुम्हारी इच्छा है और यह भी तुम्हारा अधिकार है। हर एक व्यक्ति का अपना विशेष मकसद होता है। पूरी मानवजाति में, हर एक व्यक्ति का अपना मकसद है, उसकी अपनी भूमिका है जो उन्हें निभाना चाहिए। लोगों की पसंद अलग-अलग होती है, तो वे जिस मार्ग पर चलते हैं वह भी अलग-अलग होता है। तुम संसार का अनुसरण करने, इस संसार में अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने, और अपने मूल्यों को अपनाना चुनते हो, जबकि मैं परमेश्वर का अनुसरण करने, उसके वचनों को सुनने, उसके मार्ग के अनुसार चलने और उसे संतुष्ट करने के लिए अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना चुनता हूँ। आखिर में, मैं उद्धार पाने में सक्षम रहूँगा। तुम इस मार्ग पर नहीं चलते, और तुम्हें ऐसा करने की आजादी है। तुम्हें कोई मजबूर नहीं कर सकता।” यह जवाब कैसा है? (अच्छा है।) अगर तुम “अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने” के विचार को स्वीकार सकते हो, तो ये वचन तुम्हारी ओर निर्देशित हैं। अगर तुम इसे स्वीकार नहीं सकते, तो इस पर कोई जोर नहीं है कि तुम्हें इन वचनों को सुनना और स्वीकारना ही होगा। तुम इन्हें नहीं सुनना चुन सकते हो; तुम मानवजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर के प्रबंधन कार्य को छोड़ना चुन सकते हो, और उद्धार पाने का अपना मौका गँवा सकते हो। यह तुम्हारा अधिकार है। तुम अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को न त्यागकर, इस संसार में आत्मविश्वास और साहस के साथ उन्हें साकार भी कर सकते हो। कोई तुम पर दबाव नहीं बनाएगा, और कोई तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। यह तुम्हारा अधिकार है। तुम्हारा फैसला तुम्हारा मकसद भी है, और तुम्हारा मकसद वह भूमिका है जिसे परमेश्वर ने तुम्हें मनुष्यों के बीच निभाने के लिए निर्धारित किया है। बात बस इतनी है। यह तथ्यों की वास्तविक स्थिति है। तुम जो भी रास्ता चुनोगे, वैसे ही रास्ते पर आगे बढ़ोगे; तुम जिस भी मार्ग पर चलोगे, लोगों के बीच वही तुम्हारी भूमिका होगी। यह इतना सरल है। यही वास्तविक तथ्य हैं। तो, यहाँ पहले वाली कहावत ही लागू होती है : “हर व्यक्ति की अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं, तुम किसी को मजबूर नहीं कर सकते।” मगर यह महत्वाकांक्षा आती कहाँ से है? मूल रूप से, इसे परमेश्वर ने निर्धारित किया है। अगर तुम सत्य को स्वीकार करके अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना नहीं चुनते तो इसका मतलब है कि परमेश्वर ने तुम्हें नहीं चुना है, और तुम्हारे पास उद्धार पाने का मौका नहीं है। साफ शब्दों में कहूँ, तो तुम्हारे पास यह आशीष नहीं है; परमेश्वर ने यह निर्धारित नहीं किया था। अगर परमेश्वर में विश्वास करने या सत्य का अनुसरण करने में तुम्हारी दिलचस्पी नहीं है—अगर तुम इस पहलू का अनुसरण नहीं करते हो—तो तुम्हारे पास यह आशीष नहीं है। जिन्हें परमेश्वर के घर में आने के लिए निर्धारित किया गया है वे वहाँ अपना कर्तव्य निभाने को तैयार हैं। परमेश्वर जो भी कहता है, वे उसे सुनते हैं; अगर वह चाहता है कि वे अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दें, तो वे ऐसा ही करते हैं। अगर वे उन्हें नहीं त्याग पाते, तो इस पर चिंतन-मनन करने के लिए अपना दिमाग लगाते हैं कि इनका त्याग कैसे किया जाए। ऐसा व्यक्ति उद्धार पाने का इच्छुक होता है। यह उनकी आत्मा की सबसे गहरी आवश्यकता और अपेक्षा है, जो परमेश्वर निर्धारित करता है, इसलिए उनके पास यह आशीष होती है, जो कि उनका सौभाग्य है। तुम्हें वही भूमिका निभानी चाहिए जो परमेश्वर तुम्हारे लिए निर्धारित करता है। वही स्रोत है। जिनके पास यह आशीष नहीं है वे संसार का अनुसरण करते हैं, और जिनके पास यह आशीष है वे सत्य का अनुसरण करते हैं—क्या यह तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) तो अगर तुम लोगों से कोई दोबारा पूछे, तब क्या तुम लोग जवाब दे पाओगे? (हाँ।) सबसे आसान जवाब क्या है? (हर व्यक्ति की अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं, तुम किसी को मजबूर नहीं कर सकते।) हर व्यक्ति की अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं, तुम किसी को मजबूर नहीं कर सकते। तुम्हें अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने के लिए कहने का उद्देश्य सिर्फ तुम्हें अभ्यास का मार्ग देना है। तुम चाहो तो उन्हें त्याग सकते हो, या फिर नहीं भी त्याग सकते हो। हर व्यक्ति की अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं, तुम किसी को मजबूर नहीं कर सकते। अगर तुम इन वचनों को स्वीकारते हो, तो ये तुम्हारी ओर निर्देशित हैं। अगर तुम इन्हें नहीं स्वीकारते, तो ये वचन तुम्हारी ओर निर्देशित नहीं हैं, और अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है; तुम आजाद हो। क्या यह मसला हल हो गया? (हाँ।) यह मसला हल हो गया है, तो अब कोई भी इस पर शोर मचाता नहीं फिरेगा, ठीक है? (हाँ।)

लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने से जुड़ा एक और मुद्दा भी है। कुछ लोग कहते हैं : “अभी तुम लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने की बात करते हो—क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि समय निकट है, अंत के दिन आ गए हैं, और आपदाएँ आ गई हैं, और क्योंकि परमेश्वर का दिन आ गया है, तो तुम चाहते हो कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दें?” यही बात है न? (नहीं।) जवाब इसके बिल्कुल उलट है : नहीं! तो चलो अब विशेष कारण पर चर्चा करते हैं। क्योंकि जवाब “नहीं” में है, तो यकीनन इसमें कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर संगति करने और समझाने की जरूरत है। आओ इस बारे में बात करें : दो हजार साल या फिर कुछ सौ साल पहले तक, संपूर्ण सामाजिक परिवेश आज से अलग था; पूरी मानवजाति के लिए सभी चीजें आज से अलग थीं। उनका जीवन परिवेश बहुत व्यवस्थित हुआ करता था। संसार आज जितना दुष्ट नहीं था, मानव समाज इतना अराजक नहीं था जितना अब है, और कोई आपदाएँ नहीं थीं। क्या तब भी लोगों को अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की जरूरत था? (हाँ।) क्यों? एक कारण बताओ और उसके बारे में तुम लोग जो भी जानते हो वह बताओ। (अब जब मानवजाति शैतान द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी है, उनके पास शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है, तो जब वे अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हैं, यह सब शोहरत, लाभ और रुतबा पाने के लिए होता है। क्योंकि वे शोहरत और लाभ के पीछे भागते हैं, तो वे संघर्ष करते और एक-दूसरे से लड़ते हैं, और इसका परिणाम यह होता है कि वे शैतान द्वारा और अधिक गहराई से भ्रष्ट कर दिए जाते हैं, जिससे उनके मानवीय होने की समानता उतरोत्तर गायब होती जाती है, और वे परमेश्वर से अधिक से अधिक दूर होते जाते हैं। इससे यह देखा जा सकता है कि आदर्शों और इच्छाओं के अनुसरण का मार्ग गलत है। तो ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि परमेश्वर का दिन निकट है, और वह अपेक्षा करता है कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दें; बल्कि, लोगों को तो इन चीजों का अनुसरण ही नहीं करना चाहिए। उन्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सही ढंग से अनुसरण करना चाहिए।) क्या तुम लोगों को लगता है कि लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना अभ्यास का सिद्धांत है? (हाँ।) क्या लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना सत्य है? क्या परमेश्वर मनुष्य से यही अपेक्षा करता है? (हाँ।) यह एक सत्य है, मनुष्य से परमेश्वर की एक अपेक्षा है। तो क्या फिर लोगों को इसी मार्ग के अनुसार चलना चाहिए? (बिल्कुल।) क्योंकि यह सत्य है, परमेश्वर की मनुष्य से एक विशिष्ट अपेक्षा है, और वह मार्ग है जिसके अनुसार लोगों को चलना चाहिए, क्या वह समय और पृष्ठभूमि से अलग बनाया गया है? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि सत्य, परमेश्वर की अपेक्षाएँ और परमेश्वर का मार्ग समय, स्थान या परिवेश बदलने के साथ नहीं बदलते हैं। समय कोई भी हो, स्थान कोई भी हो, और परिवेश कोई भी हो, सत्य तो हमेशा सत्य ही होता है, और मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षा का मानक नहीं बदलता है, और न ही उस मानक में बदलाव होता है जिसकी उसे अपने अनुयायियों से अपेक्षा होती है। तो फिर समय, स्थान या प्रसंग चाहे जो भी हो, परमेश्वर का अनुसरण करने वालों को परमेश्वर के जिस मार्ग के अनुसार चलना चाहिए, वह नहीं बदलता है। तो, आज के युग में लोगों से अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की अपेक्षा करना मनुष्य के लिए ऐसी अपेक्षा नहीं है जो समय निकट आने या अंत के दिन करीब आने के कारण सामने रखी गई हो; न ही ऐसा इसलिए है क्योंकि दिन कम रह गए हैं और आपदाएँ बड़ी होने लगी हैं, न ही इसका कारण मनुष्य के आपदा में घिर जाने का डर है, जिसकी वजह से मनुष्य से ऐसी तात्कालिक अपेक्षा की गई है, उनसे चरम और मौलिक कार्रवाई में शामिल होने की अपेक्षा की गई है, ताकि वे सत्य वास्तविकता में तीव्रतम गति से प्रवेश कर सकें। कारण यह नहीं है। फिर क्या कारण है? समय कोई भी हो, चाहे कुछ सौ या कुछ हजार साल पहले—यहाँ तक कि वर्तमान में भी—इस संबंध में मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ नहीं बदली हैं। बात बस इतनी है कि कुछ हजार साल पहले, यहाँ तक कि आज से पहले किसी भी समय, परमेश्वर ने इन वचनों को सार्वजनिक रूप से मानवजाति के लिए विस्तार से प्रकाशित नहीं किया था, मगर फिर भी मनुष्य से उसकी अपेक्षाएँ कभी भी नहीं बदली हैं। जब से मानवजाति ने अभिलेख रखने शुरू किए, उनसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ कभी भी यह नहीं रहीं कि वे संसार का अनुसरण करने के लिए परिश्रम करें, या संसार में अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करें। मनुष्य से उसकी एकमात्र अपेक्षा यही है कि वे उसके वचनों को सुनें, उसके मार्ग के अनुसार चलें, संसार के साथ कीचड़ में न लोटें, और संसार के पीछे न भागें। सांसारिक लोगों को सांसारिक मामलों से निपटने दो; यह सब उन्हें ही पूरा करने दो। उनका परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करने वालों से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर के विश्वासियों को बस परमेश्वर के मार्ग के अनुसार चलना और उसका अनुसरण करना चाहिए। परमेश्वर के मार्ग के अनुसार चलना कुछ ऐसा है जिसके प्रति परमेश्वर के विश्वासी और अनुयायी कर्तव्यबद्ध हैं। यह मामला समय, स्थान या पृष्ठभूमि के साथ नहीं बदलता है। यहाँ तक कि भविष्य में भी, जब मानवजाति बचा ली जाएगी और अगले युग में प्रवेश करेगी, तब भी यह अपेक्षा नहीं बदलेगी। परमेश्वर के वचनों को सुनना और उसके मार्ग के अनुसार चलना वह रवैया और विशिष्ट अभ्यास है जो परमेश्वर के अनुयायी को उसके प्रति रखना चाहिए। सिर्फ परमेश्वर के वचनों को सुनकर और उसके मार्ग के अनुसार चलकर ही लोग सफलतापूर्वक परमेश्वर का भय मानते हुए बुराई से दूर रह सकते हैं। तो परमेश्वर का लोगों से अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की अपेक्षा रखना समय, अनूठे परिवेश या पृष्ठभूमि के कारण नहीं है; बल्कि, जब से मनुष्य का अस्तित्व है, तब से परमेश्वर ने हमेशा उनसे इस मानक और सिद्धांत को बनाए रखने की अपेक्षा की है, भले ही उसने उन्हें स्पष्ट रूप से वचन नहीं दिए थे। चाहे कितने भी लोग इसे हासिल कर लें, कितने भी लोग उसके वचनों को अभ्यास में ला पाएँ, या वे उसके कितने ही वचनों को समझने में सक्षम हों, परमेश्वर की यह अपेक्षा कभी नहीं बदलती है। बाइबल में देखो, जहाँ भी उन खास लोगों के अभिलेख हैं जिन्हें परमेश्वर ने खास समय पर चुना था—नूह, अब्राहम, इसहाक, अय्यूब वगैरह। उनसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ, वे जिस मार्ग के अनुसार चले, उनके जीवन के लक्ष्य और दिशा, और उन्होंने जिन लक्ष्यों का अनुसरण किया और जीवन और अस्तित्व के लिए उन्होंने जो कुछ भी किया, सभी में मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ निहित हैं। मनुष्य से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं? उनमें यह शामिल है कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दें, है न? (बिल्कुल।) चाहे आत्मा में हो या स्वरूप में, उन्हें शोर-शराबे वाली, बेतरतीब, दुष्ट मानवजाति से दूर रहना चाहिए और उनकी शोर-शराबे वाली, अराजक, दुष्ट प्रवृत्तियों से भी दूर रहना चाहिए। पहले, एक शब्द हुआ करता था जो बहुत उपयुक्त नहीं था—“पवित्र।” वास्तव में, इस शब्द का अर्थ तुमसे यह अपेक्षा है कि तुम अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दो—यह तुम्हें एक अविश्वासी बनने से, या अविश्वासियों वाले कार्य करने, या उन चीजों का अनुसरण करने से रोकने के लिए है जिनका अनुसरण अविश्वासी करते हैं, बल्कि यह तुमसे उन चीजों का अनुसरण करवाने के लिए है जिनका अनुसरण विश्वासी को करना चाहिए। इसका यही अर्थ है। तो, जब कुछ लोग कहते हैं : “क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि समय निकट है, अंत के दिन आ गए हैं, और आपदाएँ आ गई हैं, और इसीलिए परमेश्वर चाहता है कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दें?” इस सवाल का जवाब क्या होना चाहिए? यही कि मनुष्य से परमेश्वर की कोई भी और सभी अपेक्षाएँ सत्य हैं, और यह ऐसा मार्ग के जिसके अनुसार लोगों को चलना चाहिए। वे समय, स्थान, परिवेश, भौगोलिक स्थान या सामाजिक पृष्ठभूमि के बदलने के साथ नहीं बदलते हैं। परमेश्वर के वचन सत्य हैं, वह सत्य जो अनादि काल से नहीं बदला है, जो अनंत काल तक नहीं बदलेगा—तो मनुष्य से परमेश्वर की हर एक अपेक्षा और उसके द्वारा उनके सामने रखा गया अभ्यास का हर एक विशिष्ट सिद्धांत, उसके द्वारा मानवजाति की रचना करने के बाद का है, जब उनके पास समय के अभिलेख तक नहीं थे। वे परमेश्वर के साथ सह-अस्तित्व में रहे हैं। दूसरे शब्दों में, जब से मनुष्य अस्तित्व में आया, मानवजाति स्वयं से परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझने में सक्षम रही है। अपेक्षाएँ चाहे किसी भी क्षेत्र से जुड़ी हों, वे सभी शाश्वत हैं, और कभी नहीं बदलेंगी। कुल मिलाकर, मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ उसके वचनों को सुनना और उसके मार्ग के अनुसार चलना है। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) परमेश्वर की अपेक्षाओं का संसार के विकास, मानव की सामाजिक पृष्ठभूमि, समय या स्थान, या उस भौगोलिक परिवेश और जगह से कोई लेना-देना नहीं है जिसमें लोग रहते हैं। परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद, लोगों का उनका पालन और उनका अभ्यास करना उचित है। परमेश्वर की लोगों से कोई और अपेक्षा नहीं है। जब वे उसके वचनों को सुनते और समझते हैं, तो उनके लिए उनका पालन और अभ्यास करना ही पर्याप्त है; इससे उन्होंने परमेश्वर की नजर में एक स्वीकार्य सृजित प्राणी होने का मानक हासिल कर लिया होगा। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) तो, समय, सामाजिक परिवेश या पृष्ठभूमि या भौगोलिक स्थिति चाहे जो भी हो, तुम्हें बस परमेश्वर के वचनों को सुनना और यह समझना है कि वह क्या कहता है और उसकी तुमसे क्या अपेक्षाएँ हैं, और फिर अगली चीज जो तुम्हें करनी चाहिए वह है उसके वचनों को ध्यान देकर सुनना, समर्पण करना और अभ्यास करना। इन बातों की चिंता मत करो कि, “क्या इस समय बाहरी संसार में बड़ी आपदाएँ आ रही हैं? क्या संसार अराजक हो गया है? क्या संसार में जाना खतरनाक है? क्या मैं महामारी के कारण बीमार पड़ सकता हूँ? क्या मैं मर सकता हूँ? क्या मैं आपदाओं में गिर जाऊँगा? क्या वहाँ बाहर कोई प्रलोभन हैं?” ऐसी बातों पर विचार करना बेकार है और इनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हें बस सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के मार्ग के अनुसार चलने से सरोकार रखना चाहिए, न कि बाहरी संसार के परिवेश से। बाहरी संसार का परिवेश चाहे जैसा भी हो, तुम एक सृजित प्राणी हो, और परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। सृष्टिकर्ता और सृजित प्राणियों के बीच का संबंध कभी नहीं बदलेगा, तुम्हारी पहचान नहीं बदलेगी, और न ही परमेश्वर का सार बदलेगा। तुम हमेशा ऐसे व्यक्ति रहोगे जिसे परमेश्वर के मार्ग के अनुसार चलना चाहिए, जिसे उसके वचनों को सुनना चाहिए और उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। परमेश्वर ही हमेशा तुम पर शासन करेगा, तुम्हारा भाग्य निर्धारित करेगा, और जीवन में तुम्हारी अगुआई करेगा। उसके साथ तुम्हारा रिश्ता नहीं बदलेगा, उसकी पहचान नहीं बदलेगी, और न ही तुम्हारी पहचान बदलेगी। इन सबके कारण, चाहे समय कोई भी हो, तुम्हारी जिम्मेदारी, दायित्व और सर्वोच्च कर्तव्य परमेश्वर के वचनों को सुनना, उनके प्रति समर्पण करना और उनका अभ्यास करना होगा। यह कभी गलत नहीं होगा, और यह उच्चतम मानक है। क्या यह मसला सुलझ गया है? (बिल्कुल।) इसका समाधान हो गया है। क्या मेरी बातें स्पष्ट थीं? क्या मेरी बातें तुम लोगों से ज्यादा सही थीं? (बिल्कुल।) मेरी बात कैसे सही थी? (हम बस मोटे तौर पर बात कर रहे थे, मगर परमेश्वर ने इस मुद्दे का अच्छी तरह से विश्लेषण किया है, और यह भी संगति की है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, ये वे मार्ग हैं जिनका लोगों को पालन करना चाहिए, उन्हें परमेश्वर के वचनों को सुनना चाहिए और उसके मार्ग के अनुसार चलना चाहिए। परमेश्वर ने यह सब स्पष्ट बताया है।) मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य का एक पहलू है। यह वाक्यांश “सत्य का एक पहलू” एक सिद्धांत है, तो क्या चीजें इस सिद्धांत का समर्थन करती हैं? ये वही पहले बताए गए विशिष्ट तथ्य और सामग्रियाँ हैं। इन सभी तथ्यों के प्रमाण मौजूद हैं; उनमें से एक भी मनगढ़ंत नहीं है, एक भी काल्पनिक नहीं है। वे सभी तथ्य हैं, या वे तथ्यों की बाहरी घटना का सार और वास्तविकता हैं। अगर तुम उन्हें समझ-बूझ सकते हो, तो इससे यह साबित होता है कि तुम सत्य समझते हो। तुम लोग इस बात को सबके सामने जोर से इसलिए नहीं बोल सकते क्योंकि तुम लोग अभी तक सत्य के इस पहलू को नहीं समझते, न ही तुम इन घटनाओं के अंतर्निहित सार और वास्तविकता को समझते हो, तो तुम लोग बस अपनी भावनाओं और ज्ञान के बारे में थोड़ा-बहुत बोल देते हो, जो सत्य से कोसों दूर है। यही बात है न? (हाँ।) यह समस्या हल हो गई है, तो इसे यहीं रहने देते हैं। जहाँ तक रुचियों और शौक के कारण उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की बात है, क्या इस प्रश्न को अतिरिक्त बिंदु के रूप में शामिल करना आवश्यक था? (हाँ।) यह जरूरी था। हर एक सवाल सत्य के किसी न किसी पहलू को छूता है, यानी यह कुछ तथ्यों की वास्तविकता और सार को छूता है, और वास्तविकता और सार के पीछे हमेशा परमेश्वर की व्यवस्थाएँ, योजनाएँ, विचार और इच्छाएँ होती हैं। और क्या? परमेश्वर के कुछ विशिष्ट तरीके और उसके कार्यों का आधार, लक्ष्य और पृष्ठभूमि होती है। यह सब वास्तविकता है।

रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने के विषय पर संगति पूरी करने के बाद, हमें अगले विषय पर संगति शुरू करनी चाहिए। अगला विषय क्या है? यह कि लोगों को शादी से उत्पन्न होने वाले अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए। जाहिर है कि यह विषय शादी से जुड़ी सभी विभिन्न समस्याओं के बारे में होगा। क्या यह विषय रुचियों और शौक से थोड़ा ज्यादा बड़ा नहीं है? इसके आकार से मत डरो। हम इसे टुकड़ों में देखेंगे, धीरे-धीरे संगति करके इस विषय को समझेंगे और इसकी गहराई में जाएँगे। इस विषय पर संगति में हम जो रुख अपनाएँगे वह समस्याओं के सार के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों परिप्रेक्ष्य और पहलुओं से शादी की समस्या का विश्लेषण करना है; शादी के बारे में लोगों की अलग-अलग समझ, सही और गलत दोनों; शादी में वे जो गलतियाँ करते हैं, साथ ही विभिन्न गलत विचार और दृष्टिकोण जो इस समस्या को जन्म देते हैं, जिनकी वजह से लोग आखिरकार शादी से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग देने में सक्षम होते हैं। “त्याग देने” की कोशिश का सबसे अच्छा और सबसे आसान अभ्यास यह है : सबसे पहले, तुम्हें समस्याओं का सार स्पष्ट रूप से देखना होगा, और उनकी असलियत जाननी होगी कि वे सकारात्मक हैं या नकारात्मक। फिर तुम्हें समस्याओं से सही और तार्किक ढंग से निपटने में सक्षम होना होगा। यह चीजों का सक्रिय पक्ष है। चीजों के निष्क्रिय पक्ष पर, तुम्हें समस्याओं से उपजे गलत विचारों, दृष्टिकोणों और रवैये, या फिर उन नुकसानदेह और नकारात्मक प्रभावों को समझने और उनकी असलियत देखने में सक्षम होना होगा जो वे तुम्हारी मानवता में उत्पन्न करते हैं, और फिर इन पहलुओं से उनका त्याग करने में सक्षम होना होगा। दूसरे शब्दों में, इन समस्याओं को समझने और इनकी असलियत पहचानने में सक्षम होना होगा, तुम्हें इन समस्याओं से उत्पन्न होने वाले गलत विचारों से बंधना या इनके आगे विवश नहीं होना, और उन्हें तुम्हारे जीवन पर काबू पाकर तुम्हें गलत मार्ग पर ले जाने नहीं देना है, या तुम्हें गलत फैसला करने की दिशा में ले जाने नहीं देना है। संक्षेप में, चाहे हम सकारात्मक पक्ष पर संगति कर रहे हों या नकारात्मक पक्ष पर, अंतिम लक्ष्य लोगों को शादी की समस्या से तर्कसंगत रूप से निपटने में सक्षम बनाना है, ताकि वे इसे समझने और इसे देखने के लिए भ्रामक विचारों और नजरिये का उपयोग न करें, और न ही इसके प्रति गलत रवैया अपनाएँ। यही “त्याग देने” के अभ्यास को सही से समझना है। अच्छा, तो अब हम शादी से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं पर संगति करना जारी रखते हैं। सबसे पहले, हम शादी की परिभाषा को देखते हैं, इसकी अवधारणा क्या है। तुममें से ज्यादातर लोग शादीशुदा नहीं हो, है न? मैं देख पा रहा हूँ कि तुममें से कई लोग बालिग हो चुके हैं। बालिग होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम्हारी शादी की उम्र हो चुकी है या शादी की उम्र जा चुकी है। चाहे तुम उस उम्र में हों या उसे पार कर चुके हो, शादी के बारे में हर व्यक्ति के कुछ अपेक्षाकृत दकियानूसी विचार, परिभाषाएँ और अवधारणाएँ होती हैं, चाहे वह सही हो या गलत। तो सबसे पहले यह जानते हैं कि वास्तव में शादी है क्या। पहले, तुम लोग अपने शब्दों में बताओ : वास्तव में शादी क्या है? अगर हम यह जानना चाहें कि शादी क्या है, इस बारे में बात करने के लिए कौन योग्य है, तो शायद ये वे लोग हैं जिनकी पहले शादी हो चुकी है। तो आओ सबसे पहले उन लोगों से शुरुआत करें जिनकी शादी हो चुकी है, और जब उनकी बात पूरी हो जाए, तो हम अविवाहित लोगों की ओर बढ़ेंगे। तुम लोग शादी के बारे में अपने विचार बता सकते हो, और हम इसके बारे में तुम लोगों की समझ और परिभाषा सुनेंगे। तुम्हें जो कहना है कहो, चाहे यह सुनने में अच्छा लगे या न लगे—शादी को लेकर तुम्हारी शिकायतें या इससे जुड़ी तुम्हारी उम्मीदें, सब ठीक है। (शादी करने से पहले, हर किसी की कुछ उम्मीदें होती हैं। कुछ लोग इसलिए शादी करते हैं ताकि वे एक समृद्ध जीवनशैली जी सकें, जबकि कुछ लोग एक खुशहाल शादी चाहते हैं, किसी सफेद घोड़े पर आने वाले राजकुमार की खोज में होते हैं, यह कल्पना करते हैं कि वे खुशहाल जीवन जिएँगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने कुछ उद्देश्यों को पूरा करने के लिए शादी करना चाहते हैं।) तो तुम्हारे विचार में, वास्तव में शादी क्या है? क्या यह एक लेनदेन है? क्या यह एक खेल है? क्या है? तुमने जिन परिस्थितियों का जिक्र किया है उनमें से कुछ संपन्न जीवन जीने के बारे में हैं, जो एक प्रकार का लेनदेन है। और क्या? (मुझे लगता है कि मेरे लिए, शादी ऐसी चीज है जिसके लिए मैं तरसता हूँ, जिसे मैं पाना चाहता हूँ।) और कोई कुछ कहना चाहता है? शादीशुदा लोगों को शादी के बारे में क्या जानकारी है? खासकर वे लोग जिनकी शादी को दस या बीस साल हो गए हैं—शादी के बारे में तुम लोगों की क्या भावनाएँ हैं? क्या तुम लोगों के पास आम तौर पर शादी के बारे में बहुत-से विचार नहीं होते? एक तो तुम्हें अपनी शादी का अनुभव है, और दूसरी बात, तुमने अपने आस-पास के लोगों की शादियाँ भी देखी हैं; साथ ही, तुमने दूसरों की शादियों पर भी विचार किया है जिन्हें तुमने किताबों, साहित्य और फिल्मों में देखा है। तो इन सभी पहलुओं से, तुम्हें क्या लगता है, शादी क्या है? तुम इसे कैसे परिभाषित करोगे? तुम इससे क्या समझते हो? तुम शादी की क्या परिभाषा दोगे? शादीशुदा लोग, जो कुछ सालों से शादीशुदा हैं—खासकर तुममें से वो लोग जिन्होंने बच्चे पाले हैं—शादी के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? बोलो। (मैं थोड़ा बता सकती हूँ। मैंने छोटी उम्र से ही बहुत सारे टीवी सीरियल देखे हैं। मैं हमेशा से एक खुशहाल शादीशुदा जीवन चाहती थी, मगर शादी करने के बाद पता चला कि यह मेरी कल्पना से बिल्कुल अलग चीज थी। शादी के बाद सबसे पहले मुझे अपने परिवार के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी, जो बहुत थकाऊ था। दूसरी बात, मेरे पति के और मेरे स्वभाव के बीच असंगतता के कारण, और जिन चीजों के लिए हम तरसते थे और जिनके पीछे हम भागते थे—खास तौर से हमारे रास्ते अलग-अलग होने के कारण—हमारे जीवन में इतने मतभेद थे कि अक्सर हमारी बहस हो जाती थी। जीवन कठिन था। उस वक्त, मुझे एहसास हुआ कि बचपन में मैं जिस शादीशुदा जीवन के लिए तरसती थी वह असल में यथार्थवादी नहीं था। यह तो बस एक खूबसूरत चाह थी, मगर वास्तविक जीवन ऐसा नहीं है। शादी के बारे में मेरे विचार यही हैं।) तो तुम्हारे विचार में शादी का अनुभव कड़वा है, है न? (हाँ।) तो शादी को लेकर तुम्हारी सभी यादें कड़वी, थकाऊ, पीड़ादायक हैं, और याद करने लायक नहीं हैं; तुम परेशान थी, तो बाद में, तुमने शादी से सभी उम्मीदें छोड़ दीं। तुम्हें लगता है कि शादी तुम्हारी इच्छाओं के अनुरूप नहीं है, यह अच्छी या रूमानी नहीं है। तुम शादी को एक त्रासदी समझती हो—यही कहना चाहती हो न? (बिल्कुल।) तुम्हारी शादी में, चाहे उन चीजों में जो तुम करने में सक्षम थी या उन चीजों में जिन्हें तुम करने को तैयार नहीं थी, तुम्हें हर चीज को लेकर काफी थकावट और कड़वाहट महसूस होती थी, यही बात है न? (हाँ।) शादी कड़वी होती है—यह एक प्रकार की भावना है, एक ऐसी भावना जिसे लोग समझ सकते हैं या खुद महसूस कर सकते हैं। चाहे रूप जो भी हो, इस समय संसार में शादी और परिवार के बारे में शायद बहुत-से अलग-अलग कथन हैं। फिल्मों और किताबों में ऐसे कई कथन हैं, और समाज में भी शादी के विशेषज्ञ और संबंधों के विशेषज्ञ मौजूद हैं जो सभी प्रकार की शादियों का विश्लेषण करते हैं, जो उन शादियों में आने वाले विवादों को सुलझाते हैं, ताकि उनके बीच मध्यस्थता हो सके। अंत में, समाज ने भी शादी के बारे में कुछ कहावतों को लोकप्रिय बना दिया है। शादी के बारे में इनमें से किस लोकप्रिय कहावत से तुम लोग सबसे ज्यादा सहमत हो या सहानुभूति रखते हो? (परमेश्वर, समाज में लोग अक्सर कहते हैं कि शादी करना कब्र में जाने जैसा है। मुझे लगता है कि शादी करने, परिवार बनाने और बच्चे पैदा करने के बाद, लोगों की जिम्मेदारियाँ होती हैं, उन्हें अपने परिवार को पालने के लिए मरते दम तक काम करना पड़ता है, और इसके अलावा शादी में दो लोगों के साथ रहने से असामंजस्य भी होता है जिससे कई तरह की समस्याएँ और कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं।) असली कहावत क्या है? “शादी एक कब्र है।” क्या चीन की कुछ महशूर, लोकप्रिय कहावतें भी हैं? क्या यह कहावत, “शादी एक कब्र है” काफी लोकप्रिय नहीं है? (बिल्कुल है।) और क्या? “शादी ऐसा शहर है जहाँ घेराबंदी हैं—जो बाहर हैं वे अंदर आना चाहते हैं, और जो अंदर हैं वे बाहर जाना चाहते हैं।” और क्या? “प्यार के बिना शादी अनैतिक है।” उनका मानना है कि शादी प्यार की निशानी है और प्यार के बिना शादी अनैतिक होती है। वे नैतिकता के मानक को मापने के लिए रूमानी प्रेम का उपयोग करते हैं। क्या शादीशुदा लोगों के पास शादी के बारे में यही परिभाषाएँ और अवधारणाएँ हैं? (हाँ।) संक्षेप में, जो लोग शादीशुदा हैं उनमें कड़वाहट भरी है। इसका वर्णन करने के लिए इस कहावत का इस्तेमाल किया जा सकता है : “शादी एक कब्र है।” क्या यह इतना आसान है? शादीशुदा लोगों ने अपनी बात कह दी है, तो अब हम सुन सकते हैं कि अविवाहित, अकेले रहने वाले लोगों का क्या कहना है। कौन बताना चाहता है कि शादी को लेकर उनकी समझ क्या है? भले ही यह बचकाना हो, या कोई कल्पना हो या ऐसी उम्मीदें हों जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना न हो, इसमें कोई दिक्कत नहीं है। (परमेश्वर, मुझे लगता है कि शादी दो लोगों का एक-दूसरे का साथी बनकर जीवन जीना है, यह दैनिक आवश्यकताओं वाला जीवन है।) क्या तुम्हारी शादी हो चुकी है? क्या इसके संबंध में तुम्हारा अपना कोई अनुभव है? (नहीं।) दैनिक आवश्यकताएँ, साथी बनकर जीना—क्या तुम्हें सचमुच यही लगता है? इतना व्यावहारिक? (मेरे आदर्शों में, शादी ऐसी नहीं है, मगर मैंने अपने मॉम-डैड की शादी में यही देखा है।) तुम्हारे मॉम-डैड की शादी इस तरह की है, लेकिन तुम्हारी आदर्श शादी ऐसी नहीं है। शादी के मामले में तुम्हारी समझ क्या है और तुम किसका अनुसरण करती हो? (जब मैं छोटी थी तो मेरी समझ बस यही थी कि मैं किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करूँ जिसकी मैं सराहना करती हूँ, फिर उसके साथ खुशी-खुशी और प्रेम से रहूँ।) तुम उसके साथ जीना चाहती थी, उसका हाथ पकड़कर साथ में बूढ़ी होना चाहती थी, है न? (हाँ।) यह शादी के बारे में तुम्हारी विशिष्ट समझ है, जिसमें तुम खुद शामिल हो; तुम्हें यह समझ दूसरों को देखकर नहीं मिली है। तुम दूसरों की शादियों में जो देखती हो वह सिर्फ उनका सतही रूप है, और क्योंकि तुमने अभी तक खुद इसका अनुभव नहीं किया है, तो तुम नहीं जानती कि तुम जो देख रही हो वह तथ्यों की वास्तविकता या फिर तथ्यों का बाहरी रूप है; जिस चीज को तुम वास्तविकता मानती हो वह हमेशा तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोण में रहेगी। युवाओं में एक ओर तो शादी का मतलब अपने प्रेमी के साथ रोमांटिक ढंग से जीना, एक दूसरे का हाथ पकड़कर बूढ़े होना और साथ मिलकर जीवन बिताना है। क्या शादी के बारे में तुम लोगों की कोई और समझ है? (नहीं।)

कुछ लोग कहते हैं : “शादी का मतलब है ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ना जो तुमसे प्यार करता हो। वह रूमानी है या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, और न ही तुम्हारा उससे बहुत प्यार करना जरूरी है। कम से कम, उसे तुमसे प्यार करना चाहिए, उसके दिल में तुम्हारी जगह होनी चाहिए, और उसके लक्ष्य, आदर्श, चरित्र, रुचियाँ और शौक तुम्हारे जैसे ही होने चाहिए, ताकि तुम दोनों के बीच तालमेल हो और तुम साथ रह सको।” दूसरे लोग कहते हैं : “जीवन बिताने के लिए कोई ऐसा व्यक्ति ढूँढ़ो जो तुमसे प्यार करे और जिससे तुम प्यार करो। सिर्फ यही खुशहाली है।” और कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके लिए शादी का मतलब है : “तुम्हें किसी अमीर व्यक्ति को ढूँढ़ना चाहिए, ताकि तुम्हें अपने आगे के जीवन में कपड़े और खान-पान की परवाह न करनी पड़े, तुम्हारा भौतिक जीवन संपन्न रहे, और तुम गरीबी में न जियो। उसकी उम्र या शक्ल-सूरत चाहे कैसी भी हो, उसका चरित्र कैसा भी हो, और उसकी पसंद-नापसंद कुछ भी हो, अगर उसके पास पैसा है तो सब ठीक है। अगर वह तुम्हें खर्च करने के लिए पैसे दे सकता है और तुम्हारी भौतिक जरूरतों को पूरा कर सकता है, तो वह स्वीकार्य है। ऐसे व्यक्ति के साथ रहकर तुम खुश रहोगे, और आरामदायक जीवन जियोगे। शादी यही होती है।” लोग शादी के लिए कुछ ऐसी ही परिभाषाएँ देते हैं और शादी से ऐसी ही अपेक्षाएँ रखते हैं। ज्यादातर लोग समझते हैं कि शादी अपना प्रेमी, अपने सपनों का प्यार, एक मनमोहक राजकुमार पाना, उसके साथ रहना और एक-दूसरे को अनुकूल पाना है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कल्पना करते हैं कि उनका मनमोहक राजकुमार कोई बड़ा सितारा या हस्ती होगा, या फिर पैसे, शोहरत और दौलत वाला कोई इंसान होगा। उन्हें लगता है कि सिर्फ ऐसे व्यक्ति के साथ रहना ही एक भरोसेमंद, सुखद, और एक परिपूर्ण शादी है, और सिर्फ ऐसा जीवन ही खुशहाली है। कुछ लोग अपने जीवनसाथी की कल्पना किसी रुतबे वाले व्यक्ति के रूप में करते हैं। कुछ लोग अपने जीवनसाथी की कल्पना किसी खूबसूरत और आकर्षक व्यक्ति के रूप में करते हैं। कुछ लोग अपने जीवनसाथी की कल्पना ऐसे अमीर व्यक्ति के रूप में करते हैं जो अच्छे संपर्क वाले, शक्तिशाली, और धनी परिवार से आता हो। कुछ लोग कल्पना करते हैं कि उनका जीवनसाथी महत्वाकांक्षी और अपने काम में माहिर होगा। कुछ लोग कल्पना करते हैं कि उनका जीवनसाथी विशेष रूप से प्रतिभाशाली होगा। कुछ लोग कल्पना करते हैं कि उनके जीवनसाथी के चरित्र में कुछ विशेष बातें होंगी। लोग शादी से ये सारी और इससे भी अधिक कई अपेक्षाएँ रखते हैं, और बेशक, यही शादी के बारे में लोगों की कल्पनाएँ, धारणाएँ और दृष्टिकोण भी हैं। संक्षेप में, जिनकी पहले शादी हो चुकी है वे कहते हैं कि शादी एक कब्र है, शादी करना किसी कब्र में घुसने जैसा है, या किसी आपदा का सामना करने जैसा है; जो लोग शादीशुदा नहीं हैं उन्हें शादी काफी सुखद और रूमानी लगती है, और वे इसको लेकर लालसा और अपेक्षाओं से भरे होते हैं। लेकिन चाहे शादीशुदा लोग हों या अविवाहित, कोई भी शादी के बारे में अपनी समझ-बूझ या शादी की वास्तविक परिभाषा और अवधारणा पर बहुत स्पष्ट रूप से बात नहीं कर सकता, है ना? (वे नहीं कर सकते।) जिन लोगों ने शादी का अनुभव किया है वे कहते हैं : “शादी एक कब्र है, यह एक कड़वा अनुभव है।” कुछ अविवाहित लोग कहते हैं : “शादी के बारे में तुम्हारी समझ गलत है। तुम शादी को इसलिए बुरा बताते हो, क्योंकि तुम बहुत स्वार्थी हो। तुमने अपनी शादी में अधिक योगदान नहीं दिया। तुम्हारी विभिन्न खामियों और समस्याओं के कारण, तुमने अपनी शादी को तबाह कर दिया। तुमने अपने हाथों से अपनी शादी तोड़ दी और सब खत्म कर दिया।” कुछ ऐसे शादीशुदा लोग भी हैं जो अविवाहित लोगों से कहते हैं : “तुम तो नासमझ बच्चे हो, तुम्हें क्या पता? तुम जानते हो शादी क्या होती है? शादी न तो एक व्यक्ति का मामला है, न ही दो लोगों का—यह दो परिवारों का मामला है, या यूँ कहें कि दो घरानों का मामला है। इसमें ऐसी कई समस्याएँ हैं जो न तो सरल हैं और न ही सीधी। यहाँ तक कि सिर्फ दो लोगों की दुनिया में, जहाँ बात सिर्फ दो व्यक्तियों की हो, तब भी यह इतना आसान नहीं है। शादी के बारे में तुम्हारी समझ और कल्पना चाहे कितनी भी सुखद हो, जैसे-जैसे दिन बीतते जाएँगे, रोजमर्रा की छोटी-छोटी जरूरतें इस पर हावी होती जाएँगी, जब तक कि इसका रंग और स्वाद फीका न पड़ जाए। तुम शादीशुदा नहीं हो, तो तुम्हें क्या ही पता होगा? तुम कभी शादी के बंधन में नहीं रहे, कभी शादी को नहीं संभाला, तो तुम शादी को आंकने या उसके बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करने के काबिल नहीं हो। शादी के बारे में तुम्हारी समझ काल्पनिक है, खयाली पुलाव है—यह वास्तविकता पर आधारित नहीं है!” चाहे इस बारे में कोई भी बात कर रहा हो, उसकी बात के पीछे कोई-न-कोई वस्तुनिष्ठ तर्क होता है, लेकिन सब कहने और करने के बाद, वास्तव में शादी का क्या मतलब है? इसे देखने का सबसे सही, सबसे वस्तुनिष्ठ परिप्रेक्ष्य कौन-सा है? सत्य के सबसे अनुरूप क्या है? इसके प्रति क्या नजरिया होना चाहिए? जिन लोगों ने पहले शादी का अनुभव किया है या जिन्होंने इसका अनुभव नहीं किया है, बात चाहे किसी की भी हो, यह तो तय है कि शादी के बारे में उनकी समझ उनकी कल्पनाओं से भरा है, और दूसरी बात यह कि भ्रष्ट मानवजाति शादी में अपनी भूमिका के संबंध में भावनाओं से भरी है। क्योंकि भ्रष्ट मानवजाति उन सिद्धांतों को नहीं समझती जिनका उन्हें विभिन्न परिवेशों में पालन करना चाहिए, और न ही शादी में अपनी भूमिका या उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को समझती है जो उन्हें निभाने चाहिए; शादी के बारे में उनकी कुछ बातें बेहद भावनात्मक होती हैं, और उनमें उनका निजी स्वार्थ और तुनकमिजाजी शामिल होती है। बेशक, चाहे कोई व्यक्ति शादीशुदा हो या नहीं, अगर वह शादी को सत्य के परिप्रेक्ष्य से नहीं देखता, और अगर उसके पास परमेश्वर से मिली इसकी सटीक समझ और ज्ञान नहीं है, तो शादी के बारे में उसके अपने व्यावहारिक निजी अनुभव को छोड़कर, इसके बारे में उसकी समझ काफी हद तक समाज और दुष्ट मानवजाति से प्रभावित होती है। इसके अलावा, उनकी समझ समाज के परिवेश, प्रवृत्तियों और सार्वजनिक राय के साथ-साथ समाज के हर स्तर और तबके के लोगों द्वारा शादी के बारे में कही जाने वाली भ्रामक, पक्षपातपूर्ण बातों—जिसे अधिक विशिष्ट रूप से अमानवीय कहा जा सकता है—से भी प्रभावित होती है। दूसरों की कही गई इन बातों के कारण, एक ओर तो लोग अनजाने में इन विचारों और दृष्टिकोणों से प्रभावित और नियंत्रित होते हैं, वहीं दूसरी ओर, वे अनजाने में ही शादी को लेकर ऐसे रवैये और नजरिये के साथ-साथ शादी से निपटने के इन तरीकों, और जीवन के प्रति शादीशुदा लोगों के रवैये को स्वीकार लेते हैं। पहली बात तो यह कि लोगों को शादी के बारे में सकारात्मक समझ नहीं है, न ही उनके पास इसके बारे में कोई सकारात्मक, सटीक ज्ञान और अनुभूति है। इसके अलावा, समाज और दुष्ट मानवजाति दोनों ही, उनके मन में शादी के बारे में नकारात्मक और भ्रामक विचार भर देते हैं। इसलिए, शादी के बारे में लोगों के विचार और दृष्टिकोण विकृत और यहाँ तक कि दुष्टतापूर्ण भी हो जाते हैं। अगर तुम इस समाज में जीते हो और जिंदा हो और तुम्हारे पास देखने के लिए आँखें, सुनने के लिए कान और सवालों पर मंथन करने के लिए विचार हैं, तुम अलग-अलग स्तर तक इन भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारोगे, जिससे शादी के बारे में तुम्हारी समझ और ज्ञान गलत और पक्षपाती हो जाएगा। उदाहरण के लिए, सौ साल पहले, लोग यह नहीं समझते थे कि रूमानी प्रेम क्या होता है, और शादी के बारे में उनकी समझ बहुत सरल थी। शादी की उम्र होने पर, शादी तय करवाने वाला एक व्यक्ति लड़के-लड़की को एक-दूसरे से मिलवाता था, फिर उनके माता-पिता ही सब संभालते, और लड़के-लड़की की शादी करा देते थे, और वे एक-दूसरे के साथ रहकर अपना जीवन गुजारते थे। इस तरह वे जीवन भर, अपने अंतिम समय तक एक दूसरे का साथ देते थे। शादी इतनी सरल हुआ करती थी। यह बस दो व्यक्तियों का मामला था—अलग-अलग परिवारों के दो लोग एक साथ रहते, एक-दूसरे का साथ देते, एक-दूसरे का ख्याल रखते थे और साथ मिलकर जीवन गुजारते थे। यह इतना आसान था। लेकिन फिर एक वक्त पर लोग रूमानी प्रेम जैसी चीजें बीच में लाने लगे और यह रूमानी प्रेम शादी की विषयवस्तु से जुड़ गया जो आज तक चला आ रहा है। यह शब्द “रूमानी प्रेम” या इसका अर्थ और विचार, अब कुछ ऐसा नहीं है जिसके बारे में लोग, अपने दिल की गहराई में, शर्मिंदगी महसूस करते हैं या जिसके बारे में बात करने में दिक्कत महसूस करते हैं। बल्कि, यह बहुत स्वाभाविक रूप से लोगों के विचारों में मौजूद है, और लोगों के लिए इस पर चर्चा करना स्वाभाविक है, इस हद तक कि जो अभी बालिग भी नहीं हुए हैं, वे भी तथाकथित रूमानी प्रेम पर चर्चा करते हैं। तो ऐसे विचार, दृष्टिकोण और कथन अमूर्त रूप से पुरुषों और महिलाओं, बूढ़े और युवाओं, सभी पर प्रभाव डालते हैं। इस प्रभाव के कारण ही शादी के बारे में हर किसी की समझ इतनी दिखावटी है—अधिक सटीकता से कहें, तो वे पूर्वाग्रह से भरे हैं। सभी ने प्रेम और जुनून से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया है। मनुष्य का तथाकथित “रूमानी प्रेम” सिर्फ प्रेम और जुनून का मेल है।[क] “प्रेम” का क्या अर्थ है? प्रेम एक प्रकार का स्नेह है। “जुनून” का क्या अर्थ है? इसका मतलब वासना है। अब शादी दो लोगों के लिए साथी के रूप में वक्त गुजारने जितनी सरल नहीं है; बल्कि अब यह स्नेह और वासना का खिलौना बन गई है। यही बात है न? (बिल्कुल है।) लोग शादी को वासना और स्नेह का मेल समझने लगे हैं, तो क्या उनकी शादियाँ अच्छी चल सकती हैं? पुरुष और महिला ठोस और उचित ढंग से जीवन व्यतीत नहीं करते, न ही वे अपनी जिम्मेदारियाँ अच्छी तरह से निभाते हैं, और वे व्यावहारिक तरीके से अपना जीवन भी नहीं गुजारते हैं। वे अक्सर प्यार, जुनून, स्नेह और वासना की बातें करते हैं। क्या तुम्हें लगता है कि वे ऐसे सहज रूप से और स्थिरता से जीवन बिता सकते हैं? (बिल्कुल नहीं।) क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो इन प्रलोभनों और लालच से बच सकता है? कोई भी इन प्रलोभनों और लालच से नहीं बच सकता। समाज में लोग एक-दूसरे के प्रति वासना और स्नेह से भरे हुए हैं। वे इसे रूमानी प्रेम कहते हैं, और समकालीन लोग शादी को इसी तरह समझते हैं; यह शादी के बारे में उनका सर्वोच्च मूल्यांकन है, सर्वोच्च आस्वादन है। तो, शादी के बारे में समकालीन लोगों की समझ इतनी बदल गई है कि उसे पहचाना नहीं जा सकता, और यह एक भयानक, भयावह गड़बड़ी है। शादी अब एक पुरुष और महिला के मामले जितना सरल नहीं रह गया है; बल्कि, यह सभी लोगों, पुरुषों और महिलाओं का मामला बन गया है, जो स्नेह और वासना के साथ खेलते हैं—वे पूरी तरह से पथभ्रष्ट हैं। दुष्ट प्रवृत्तियों के प्रलोभन में या दुष्ट विचारों के मन में डाले जाने से, शादी के बारे में लोगों की समझ और परिप्रेक्ष्य विकृत, असामान्य और दुष्ट हो जाते हैं। इसके अलावा, समाज की फिल्मों और टीवी कार्यक्रमों के साथ ही साहित्यिक और कलात्मक रचनाएँ, शादी के बारे में लगातार अधिक दुष्ट और अनैतिक व्याख्याएँ और चित्रण प्रस्तुत करती हैं। निर्देशक, लेखक और अभिनेता, सभी शादी को एक भयानक दशा बताते हैं। यह दुष्टता और वासना से भरी है, जिसकी वजह से अच्छी शादियाँ भी अराजकता में पड़ जाती हैं। तो, जब से रूमानी प्रेम आया है, तब से मानव समाज में तलाक आम हो गए हैं, और इसी तरह विवाहेतर संबंध भी आम हो गए हैं; बहुत-से बच्चों को अपने माता-पिता का तलाक झेलने के लिए मजबूर किया गया है, वे अकेली माँ या अकेले पिता के साथ रहने के लिए मजबूर होते हैं, और उनका बचपन और जवानी इस तरह गुजरती है, या वे अपने माता-पिता की शादी के बिगड़े हालात में बड़े होते हैं। इन सभी अलग-अलग वैवाहिक त्रासदियों, इन गलत या विकृत शादियों का कारण यह है कि समाज शादी के जिस दृष्टिकोण की वकालत करता है वह पूर्वाग्रह से भरा, दुष्टतापूर्ण और अनैतिक है, इस हद तक कि इसमें सदाचार और नैतिकता का अभाव है। क्योंकि मानवजाति के पास सकारात्मक या उचित चीजों की सटीक समझ नहीं है, तो लोग अनजाने में उन विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार लेंगे जिनकी समाज वकालत करता है, चाहे वे कितने भी विकृत क्यों न हों। ये चीजें एक महामारी की तरह हैं, जो तुम्हारे पूरे शरीर में फैल जाती हैं, तुम्हारी हर सोच, विचार और तुम्हारी मानवता के सही हिस्सों को भी नष्ट कर देती हैं। तुम्हारी सामान्य मानवता का जमीर और विवेक जल्द ही धुंधला, अस्पष्ट, या कमजोर हो जाता है; फिर, शैतान से आने वाले ये विचार और दृष्टिकोण, जो विकृत, बुरे और सदाचार और नैतिकता से रहित हैं, तुम्हारे विचारों और दिल की गहराई में और तुम्हारे मानसिक जगत में श्रेष्ठ स्थान रखते हैं और प्रमुख भूमिका निभाते हैं। जब ये चीजें श्रेष्ठ स्थान और प्रमुख भूमिकाएँ अपना लेती हैं, तब शादी जैसे मुद्दों पर तुम्हारा परिप्रेक्ष्य जल्दी ही तुड़ा-मुड़ा और विकृत हो जाता है, और सदाचार और नैतिकता से रहित हो जाता है, इस हद तक कि यह दुष्ट बन जाता है, मगर तुम्हें इसका एहसास तक नहीं होता, और तुम इसे पूरी तरह से सही मानते हो : “जब सभी इस तरह सोचते हैं, तो मैं क्यों नहीं सोचूँ? जब सबका इस तरह से सोचना सही है, तो क्या मेरा भी ऐसा सोचना सही नहीं हुआ? अगर रूमानी प्रेम के बारे में बात करने से कोई नहीं शर्माता, तो मुझे भी नहीं शर्माना चाहिए। पहली बार, मैं थोड़ा संकोची था, थोड़ा शर्मीला था, और मुझे अपनी बात कहने में दिक्कत हुई थी। इसके बारे में कुछ और बार बात करने के बाद मैं ठीक हो गया। इसके बारे में अधिक सुनने और अधिक बात करने से यह बात मेरी अपनी हो गई।” यह सही है कि तुम इस बारे में बात करते हो और सुनते हो, और यह तुम्हारी अपनी बात बन जाती है, लेकिन शादी की सच्ची, वास्तविक समझ तुम्हारे विचारों की गहराइयों में मजबूती से टिक नहीं रह पाती, यानी तुमने वह अंतरात्मा और विवेक खो दिया है जो एक सामान्य व्यक्ति के रूप में तुम्हारे पास होना चाहिए। इसे खोने का कारण क्या है? ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि तुमने शादी के बारे में तथाकथित “रूमानी प्रेम” के दृष्टिकोण को स्वीकार लिया है। शादी के बारे में इस तथाकथित “रूमानी प्रेम” के दृष्टिकोण ने शादी के प्रति तुम्हारी सामान्य मानवता की मूल समझ और जिम्मेदारी की भावना को निगल लिया है। बहुत जल्द, तुम रूमानी प्रेम की अपनी समझ को व्यक्तिगत रूप से अभ्यास में लाना शुरू कर देते हो। तुम लगातार अपने अनुकूल लोगों की खोज में होते हो, जो तुमसे प्यार करते हैं या जिनसे तुम प्यार करते हो, और तुम उचित-अनुचित तरीकों से रूमानी प्रेम के पीछे भागते हो, इस हद तक कष्ट सहते और बेशर्मी दिखाते हो कि रूमानी प्रेम पाने की खातिर तुम अपनी जीवन भर की ऊर्जा खर्च कर देते हो—फिर तुम्हारे पास कुछ नहीं बचता। रूमानी प्रेम खोजते हुए, मान लो कि एक महिला को कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाता है जिसकी वह प्रशंसा करती है, और वह सोचती है : “हम एक-दूसरे से प्यार करते हैं, तो चलो शादी कर लें।” शादी के बाद, वह कुछ समय तक उस व्यक्ति के साथ रहती है, फिर उसे एहसास होता है कि उसमें कुछ खामियाँ हैं, तो वह सोचती है : “वह मुझे पसंद नहीं करता, और न ही मुझे वह इतना पसंद है। हम एक-दूसरे के लिए सही नहीं हैं, इसलिए हमारा रूमानी प्रेम एक गलती थी। ठीक है, हम तलाक ले लेंगे।” तलाक के बाद, वह अपने दो या तीन साल के बच्चे को साथ लिए यह सोचकर किसी दूसरे को ढूँढ़ने की तैयारी करती है : “क्योंकि मेरी पिछली शादी में प्रेम नहीं था, इसलिए मुझे ध्यान रखना होगा कि मेरी अगली शादी में सच्चा रूमानी प्रेम हो। इस बार मुझे निश्चित होना ही पड़ेगा, इसलिए मुझे जाँच-परख करने में कुछ समय लगाना होगा।” कुछ समय बाद, वह किसी और से मिलती है, “अरे, यह तो मेरे सपनों का राजा है, ऐसा व्यक्ति जिसकी मैंने कल्पना की थी कि मैं उसे पसंद करूँगी। वह मुझे पसंद करता है, और मैं उसे पसंद करती हूँ। वह मुझसे अलग नहीं रह सकता और न ही मैं उससे अलग रह सकती हूँ; हम दो चुम्बकों जैसे हैं जो एक दूसरे को आकर्षित करते हैं, हमेशा साथ रहना चाहते हैं। हम प्यार में हैं, तो चलो शादी कर लेते हैं।” तो इस तरह वह दोबारा शादी कर लेती है। शादी के बाद, उसे एक और बच्चा होता है, और दो या तीन साल बाद, वह सोचती है : “इस व्यक्ति में कई खामियाँ हैं; वह आलसी और पेटू दोनों है। उसे शेखी बघारना, डींगें हाँकना, और गप्पें लड़ाना पसंद है। वह अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करता, पैसे कमाकर अपने परिवार को नहीं देता, और वह दिन भर शराब पीता और जुआ खेलता है। मैं ऐसे व्यक्ति से प्यार नहीं करना चाहती। जिस व्यक्ति से मैं प्रेम करती हूँ वह ऐसा नहीं है। तलाक!” दो बच्चों को साथ लेकर वह फिर से तलाक ले लेती है। तलाक लेने के बाद, वह सोचने लगती है : रूमानी प्रेम क्या है? उसके पास जवाब नहीं होता। कुछ लोगों की दो या तीन शादियाँ असफल हो जाती हैं, और आखिर में वे क्या कहते हैं? “मैं रूमानी प्रेम में विश्वास नहीं करता, मैं मानवता में विश्वास करता हूँ।” देखा तुमने, वे इधर-उधर भटकते रहते हैं, और नहीं जानते कि उन्हें किस पर विश्वास करना चाहिए। वे नहीं जानते कि शादी क्या होती है; वे भ्रामक विचारों और परिप्रेक्ष्यों को स्वीकारते हैं, और इन विचारों और परिप्रेक्ष्यों को अपने मानकों के रूप में उपयोग करते हैं। वे व्यक्तिगत रूप से इन विचारों और परिप्रेक्ष्यों को अभ्यास में लाते हैं, और वे अपनी शादी और खुद को नुकसान पहुँचाने के साथ ही दूसरों का भी काफी नुकसान करते हैं; अलग-अलग स्तर पर, वे अगली पीढ़ी और खुद को शारीरिक और आध्यात्मिक, दोनों तरह से नुकसान पहुँचाते हैं। ये सभी चीजें उस कारण का हिस्सा हैं जिससे लोग शादी को लेकर पीड़ित और असहाय महसूस करते हैं, क्योंकि उनके मन में शादी के बारे में अच्छी भावनाएँ नहीं होती हैं। मैंने अभी शादी के बारे में लोगों के विभिन्न परिप्रेक्ष्यों और परिभाषाओं के बारे में संगति की, साथ ही उस स्थिति के बारे में भी बताया जो शादी के संबंध में आधुनिक लोगों के मन में बैठे गलत दृष्टिकोणों की वजह से उत्पन्न हुई है; संक्षेप में, आधुनिक लोगों की शादी की स्थिति अच्छी है या बुरी? (बुरी।) इसमें कोई संभावना नहीं है, इसमें उम्मीद की किरण नहीं है, और यह अब पहले से कहीं अधिक गड़बड़ है। पूरब से पश्चिम तक, दक्षिण से उत्तर तक, मनुष्य की शादी एक भयानक, भयावह स्थिति में है। आज की पीढ़ी के लोग—चालीस या पचास वर्ष से कम आयु के लोग—सभी पिछली और अगली पीढ़ियों की शादियों के दुर्भाग्य के साथ-साथ शादी के संबंध में इन पीढ़ियों के विचारों और शादी को लेकर उनके असफल अनुभवों के गवाह हैं। बेशक, चालीस वर्ष से कम आयु के कई लोग सभी प्रकार की दुर्भाग्यपूर्ण शादियों के शिकार होते हैं; उनमें से कुछ अकेली माताएँ हैं, तो कुछ अकेले पिता हैं; हालाँकि, देखा जाए तो अकेली माताओं की अपेक्षा अकेले पिताओं की संख्या कम है। कुछ लोग अपनी सगी माँ और सौतेले पिता के साथ बड़े होते हैं, कुछ अपने सगे पिता और सौतेली माँ के साथ बड़े होते हैं, और कुछ सौतेले भाई-बहनों के साथ बड़े होते हैं। वहीं कुछ के तलाकशुदा माता-पिता दूसरी शादी कर लेते हैं, और माता-पिता में से कोई भी उन्हें नहीं चाहता, तो वे अनाथ हो जाते हैं, जो समाज में इधर-उधर ठोकरें खाते हुए बड़े होते हैं; फिर वे भी सौतेले पिता या सौतेली माँ, या अकेली माँ या अकेले पिता बन जाते हैं। आधुनिक जमाने की शादी की यही स्थिति है। क्या मानवजाति का इस स्तर तक शादी का प्रबंधन शैतान द्वारा उन्हें भ्रष्ट किए जाने का परिणाम नहीं है? (बिल्कुल है।) मानवजाति के सबसे बुनियादी अस्तित्व और वंश-वृद्धि के इस आवश्यक पहलू को पूरी तरह से विकृत और अस्त-व्यस्त कर दिया गया है। तुम्हें क्या लगता है कि मानवजाति कैसे जीती है? हर एक परिवार के जीवन को देखना कष्टप्रद है, यह इतना बुरा है कि इसे एक नजर देख भी नहीं सकते। अब हम इसके बारे में और बात नहीं करेंगे; इस पर जितनी चर्चा करेंगे, हमें उतनी ही खीझ महसूस होगी, है न?

अब जब हम शादी के विषय पर बात कर ही रहे हैं, तो हमें यह देखना चाहिए कि वास्तव में शादी की सटीक, सही परिभाषा और अवधारणा क्या है। क्योंकि हम शादी की सटीक, सही परिभाषा और अवधारणा के बारे में बात कर रहे हैं, इसलिए हमें इनका जवाब परमेश्वर के वचनों में खोजना होगा, ताकि इस मामले के संबंध में परमेश्वर ने जो कुछ कहा और किया है, उसके आधार पर शादी को एक सही परिभाषा और अवधारणा दी जा सके, और शादी की वास्तविक स्थिति और शादी के सृजन और अस्तित्व के पीछे के मूल इरादे को स्पष्ट किया जा सके। यदि कोई शादी की परिभाषा और अवधारणा को अच्छी तरह समझना चाहता है, तो उसे सबसे पहले मानवजाति के पूर्वजों को देखते हुए शुरुआत करनी होगी। मानवजाति के पूर्वजों को देखकर शुरुआत करने का क्या कारण है? अपने पूर्वजों की शादी के कारण ही मानवजाति आज तक जीवित रह पाई है; यानी, आज इतने सारे लोगों के होने का मूल कारण उन लोगों की शादी है जिनका सृजन परमेश्वर ने शुरुआत में किया था। तो, अगर कोई शादी की सटीक परिभाषा और अवधारणा को समझना चाहता है, तो उसे मानवजाति के पूर्वजों की शादी को देखते हुए शुरुआत करनी चाहिए। मानवजाति के पूर्वजों में शादी की शुरुआत कब हुई? इसकी शुरुआत परमेश्वर द्वारा मनुष्य की रचना से हुई। इसे उत्पत्ति की पुस्तक में दर्ज किया गया है, तो हमें बाइबल खोलकर इन अंशों को पढ़ना चाहिए। क्या ज्यादातर लोगों को इस विषय में दिलचस्पी है? जो पहले से शादीशुदा हैं वे सोच सकते हैं कि इस बारे में बात करने के लिए कुछ भी नहीं है, यह विषय तो बहुत आम है, पर अविवाहित जवान लोग इस विषय में काफी दिलचस्पी रखते हैं, क्योंकि उन्हें शादी रहस्यमयी लगती है, और वे इस बारे में कई बातें नहीं जानते हैं। तो चलो मूल बात से शुरुआत करते हैं। कोई उत्पत्ति 2:18 को पढ़ो। (“फिर यहोवा परमेश्वर ने कहा, ‘आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं; मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊँगा जो उस से मेल खाए।’”) इसके बाद, उत्पत्ति 2:21-24। (“तब यहोवा परमेश्वर ने आदम को भारी नींद में डाल दिया, और जब वह सो गया तब उसने उसकी एक पसली निकालकर उसकी जगह मांस भर दिया। और यहोवा परमेश्वर ने उस पसली को जो उसने आदम में से निकाली थी, स्त्री बना दिया; और उसको आदम के पास ले आया। तब आदम ने कहा, ‘अब यह मेरी हड्डियों में की हड्डी और मेरे मांस में का मांस है; इसलिए इसका नाम नारी होगा, क्योंकि यह नर में से निकाली गई है।’ इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़कर अपनी पत्नी से मिला रहेगा, और वे एक ही तन बने रहेंगे।”) इसके बाद, उत्पत्ति 3:16-19। (“स्त्री से उसने कहा, ‘मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दुःख को बहुत बढ़ाऊँगा; तू पीड़ित होकर बालक उत्पन्न करेगी; और तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।’ और आदम से उसने कहा, ‘तू ने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैं ने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना, उसको तू ने खाया है इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है। तू उसकी उपज जीवन भर दुःख के साथ खाया करेगा; और वह तेरे लिये काँटे और ऊँटकटारे उगाएगी, और तू खेत की उपज खाएगा; और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा, और अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है; तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा।’”) हम यहीं रुकते हैं। अध्याय दो में पाँच पद और अध्याय तीन में चार पद, कुल मिलाकर बाइबल के नौ पद हैं। उत्पत्ति के नौ पद यह बताते हैं कि मानवजाति के पूर्वजों की शादी कैसे हुई। यही बात है न? (बिल्कुल।) अब तुम समझे? क्या तुम्हें सामान्य अर्थ की थोड़ी बेहतर समझ मिल गई है, और क्या तुम इसे याद रख सकते हो? यहाँ मुख्य रूप से किसकी बात हो रही है? (मानवजाति के पूर्वजों की शादी कैसे हुई।) तो यह वास्तव में कैसे हुई? (परमेश्वर ने इसे तैयारी किया।) बिल्कुल सही, असल में ऐसा ही हुआ था। परमेश्वर ने इसे मनुष्य के लिए तैयार किया। परमेश्वर ने आदम को बनाया, फिर उसके लिए एक साथी बनाया, एक जीवनसाथी जो उसकी मदद करे और उसका साथ दे, उसके साथ रहे। यही मानवजाति के पूर्वजों की शादी का मूल है, और मनुष्य की शादी का स्रोत भी यही है। यही बात है न? (बिल्कुल।) हमें मनुष्य की शादी का स्रोत मालूम है : यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया गया था। परमेश्वर ने मानवजाति के पूर्वजों के लिए एक साथी की रचना की, जिसे जीवनसाथी भी कहा जा सकता है, जो जीवन भर उनकी मदद करेगा और उनका साथ देगा। यही मनुष्य की शादी का मूल और स्रोत है। तो मनुष्य की शादी के मूल और स्रोत को देखने के बाद, हमें शादी को सही ढंग से कैसे समझना चाहिए? क्या तुम कहोगे कि शादी पवित्र होती है? (हाँ।) क्या यह पवित्र है? क्या इसका पवित्रता से कोई लेना-देना है? बिल्कुल नहीं। तुम इसे पवित्र नहीं कह सकते। शादी की व्यवस्था और निर्धारण परमेश्वर करता है। इसका मूल और स्रोत परमेश्वर की रचना में है। परमेश्वर ने पहले मनुष्य को बनाया, जिसे एक साथी की जरूरत थी जो उसकी मदद करे और उसका साथ दे, उसके साथ रहे, इसलिए परमेश्वर ने उसके लिए एक साथी बनाया, और इस तरह मनुष्य की शादी की शुरुआत हुई। बस इतना ही। यह इतना सरल है। तुम्हारे पास शादी के बारे में यह बुनियादी समझ होनी चाहिए। शादी हमें परमेश्वर से मिली है; यह उसके द्वारा व्यवस्थित और निर्धारित की गई है। कम से कम तुम कह सकते हो कि यह कोई नकारात्मक चीज नहीं, बल्कि एक सकारात्मक चीज है। यह भी सटीक रूप से कहा जा सकता है कि शादी उचित है, यह मानव जीवन में और लोगों के अस्तित्व की प्रक्रिया में एक उचित पड़ाव है। यह बुरी नहीं है, न ही यह मानवजाति को भ्रष्ट करने का कोई उपकरण या साधन है; यह उचित और सकारात्मक है, क्योंकि इसे परमेश्वर द्वारा बनाया और निर्धारित किया गया था, और बेशक, उसने ही इसकी व्यवस्था की थी। मनुष्य की शादी का मूल परमेश्वर की रचना में निहित है, और उसने इसे खुद ही व्यवस्थित और निर्धारित किया है, इसलिए इस दृष्टिकोण से देखा जाए, तो व्यक्ति के पास शादी के बारे में बस यह परिप्रेक्ष्य होना चाहिए कि यह परमेश्वर से आती है, यह एक उचित और सकारात्मक चीज है, और यह कोई नकारात्मक, बुरी, स्वार्थी या अंधकारमय चीज नहीं है। यह न तो मनुष्य से आती है, न ही शैतान से, और यह प्रकृति में अपने आप तो बिल्कुल नहीं विकसित हुई है; बल्कि परमेश्वर ने इसे अपने ही हाथों से बनाया, और व्यक्तिगत रूप से व्यवस्थित और निर्धारित किया है। यह एकदम निश्चित है। यह शादी की सबसे मौलिक और सटीक परिभाषा और अवधारणा है।

अब जब तुम शादी की सटीक अवधारणा और परिभाषा को समझ गए हो जो लोगों के पास होनी चाहिए, तो आओ अब इस पर गौर करते हैं : शादी को लेकर परमेश्वर के विधान और व्यवस्था का क्या अर्थ है? इसका उल्लेख बाइबल के उन पदों में किया गया है जिन्हें हमने अभी पढ़ा, यानी, मानवजाति में शादी क्यों होती है, परमेश्वर के विचार क्या थे, उस समय की स्थिति और परिस्थितियाँ क्या थीं, और कैसी परिस्थितियों में परमेश्वर ने मनुष्य को शादी जैसी चीज दी। यहोवा परमेश्वर ने कहा था : “आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं; मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊँगा जो उस से मेल खाए।” ये वचन दो बातें कह रहे हैं। सबसे पहले, परमेश्वर ने देखा कि यह पुरुष अकेले होने के कारण बेहद अकेलापन महसूस करता है, उसका कोई साथी नहीं है, बात करने के लिए कोई नहीं है, और न ही उसके पास ऐसा कोई हमसफर है जिसके साथ वह अपनी खुशियाँ या विचार बाँट सके; उसने देखा कि उसका जीवन शुष्क, नीरस और उबाऊ हो जाएगा, तो उसके मन में एक विचार आया : एक पुरुष अकेला महसूस करता है, तो मुझे उसके लिए एक साथी बनाना चाहिए। यह साथी उसकी जीवनसंगिनी होगी, जो हर जगह उसका साथ देगी और हर काम में उसकी मदद करेगी; वह उसकी साथी और जीवनसंगिनी होगी। एक साथी का मकसद जीवन भर उसका साथ देना, उसके जीवन पथ पर उसके साथ मिलकर आगे बढ़ना है। चाहे दस, बीस, सौ या दो सौ वर्ष हो जाएँ, यह साथी उसके बगल में रहेगी, हर जगह उसके साथ रहेगी, जो उससे बात करेगी, सुख-दुख और हर भावना उसके साथ बाँटेगी, और इसी के साथ, उसके साथ चलेगी और उसे अकेला नहीं छोड़ेगी या अकेला महसूस नहीं करने देगी। परमेश्वर के मन में उठने वाले ये विचार और बातें मनुष्य की शादी के उद्गम की परिस्थितियाँ हैं। इन परिस्थितियों में, परमेश्वर ने कुछ और भी किया। आओ हम बाइबल के अभिलेख को देखें : “तब यहोवा परमेश्वर ने आदम को भारी नींद में डाल दिया, और जब वह सो गया तब उसने उसकी एक पसली निकालकर उसकी जगह मांस भर दिया। और यहोवा परमेश्वर ने उस पसली को जो उसने आदम में से निकाली थी, स्त्री बना दिया; और उसको आदम के पास ले आया।” परमेश्वर ने पुरुष से एक पसली ली, और मिट्टी उठाई, और पसली का उपयोग करके दूसरा मनुष्य बनाया। यह व्यक्ति मनुष्य की पसली से बना था, उसकी पसली से इस व्यक्ति की रचना हुई। आम भाषा में कहें, तो इस व्यक्ति यानी आदम की साथी की रचना उसके शरीर से निकाले गए मांस और हड्डी से हुई थी, तो क्या यह कहना सही नहीं होगा कि जैसे वह उसकी साथी थी, वैसे ही वह उसके शरीर का एक हिस्सा भी थी? (बिल्कुल।) दूसरे शब्दों में, उसकी उत्पत्ति उसी से हुई थी। उसके सृजन के बाद, आदम ने उसे किस नाम से पुकारा? “औरत।” आदम एक पुरुष था, वह एक औरत थी; साफ तौर पर, ये दो अलग-अलग लिंग के लोग थे। परमेश्वर ने पहले पुरुष की शारीरिक विशेषताओं वाला एक व्यक्ति बनाया, फिर उसने पुरुष से एक पसली ली और महिला की शारीरिक विशेषताओं वाला एक व्यक्ति बनाया। ये दो लोग एक बनकर रहने लगे, जो शादी का मूल बन गया, और इस तरह शादी अस्तित्व में आई। तो, चाहे कोई किसी भी माँ-बाप के साथ बड़ा हुआ हो, अंत में, उन सभी को शादी करके परमेश्वर के आदेश और व्यवस्थाओं के तहत अपने जीवनसाथी के साथ मिलकर अंत तक चलना होगा। यह परमेश्वर का विधान है। एक ओर, इसे वस्तुनिष्ठ तरीके से देखें, तो लोगों को एक साथी की जरूरत होती है; वहीं दूसरी ओर, इसे व्यक्तिपरक नजरिए से देखें, तो चूँकि शादी को परमेश्वर ने निर्धारित किया है, पति और पत्नी को एक होना चाहिए, दोनों को एक बनकर रहना चाहिए जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता। यह तथ्य व्यक्तिपरक और वस्तुनिष्ठ दोनों है। तो, हर व्यक्ति को अपने जन्म के परिवार को छोड़कर शादी करनी होगी और अपने जीवनसाथी के साथ एक परिवार बसाना होगा। यह अपरिहार्य है। क्यों? क्योंकि यह परमेश्वर का विधान है, और यह कुछ ऐसा है जिसे उसने मनुष्य की शुरुआत से ही व्यवस्थित किया है। इससे लोगों को क्या पता चलता है? यह कि चाहे तुम किसी की भी अपने जीवनसाथी के रूप में कल्पना करो, चाहे यह वह व्यक्ति हो या न हो जिसकी तुम्हें खास तौर पर जरूरत है या जिसकी तुम उम्मीद करते हो, और उसकी पृष्ठभूमि चाहे कुछ भी हो, तुम जिस व्यक्ति से शादी करोगे, जिसके साथ तुम अपना परिवार बसाओगे और जीवन बिताओगे, यकीनन परमेश्वर ने उसे तुम्हारे लिए पहले से ही व्यवस्थित और निर्धारित कर रखा होगा। यही बात है न? (बिल्कुल।) इसका कारण क्या है? (परमेश्वर का विधान।) इसका कारण परमेश्वर का विधान है। इसे पिछले जन्मों के संदर्भ में, या परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से देखें, तो शादी रचाने वाले पति और पत्नी वास्तव में एक ही होते हैं, तो परमेश्वर तुम्हारे लिए शादी करने और जीवन बिताने की व्यवस्था उसी व्यक्ति के साथ करता है जिसके साथ तुम एक हो। साफ तौर पर कहें तो ऐसा ही होता है। जिससे तुम्हारी शादी हुई है वह तुम्हारे सपनों का प्रेमी हो या नहीं, चाहे वह तुम्हारा मनमोहक राजकुमार हो या नहीं, चाहे यह वही व्यक्ति हो या नहीं जिसकी तुम अपेक्षा कर रहे थे, चाहे तुम उससे प्यार करते हो या वह तुमसे प्यार करता हो, चाहे तुम लोगों की शादी स्वाभाविक रूप से भाग्य और संयोग से हुई हो या किसी अन्य परिस्थिति में, तुम लोगों की शादी परमेश्वर द्वारा निर्धारित है। परमेश्वर ने तुम दोनों को ही एक-दूसरे के लिए बनाया है, एक-दूसरे का साथ देने के लिए निर्धारित किया है, और उसने यह जीवन एक साथ बिताने और अंत तक हाथ में हाथ डालकर चलने के लिए निर्धारित किया है। यही बात है न? (बिल्कुल।) क्या तुम लोगों को यह समझ कहीं से भी दिखावटी या विकृत लगती है? (नहीं।) यह न तो दिखावटी है और न ही विकृत। कुछ लोग कहते हैं : “तुम्हारी यह बात गलत हो सकती है। अगर ये शादियाँ वाकई परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई हैं तो, कुछ शादियों का अंत तलाक के साथ क्यों होता है?” ऐसा इसलिए है क्योंकि इन लोगों की मानवता में समस्याएँ हैं, जो एक अलग मामला है। यह सत्य का अनुसरण करने के विषय से संबंधित है, जिसके बारे में हम बाद में संगति करेंगे। फिलहाल, शादी की परिभाषा, समझ और सटीक अवधारणा की बात करें, तो तथ्य यह है कि असल में ऐसा ही होता है। कुछ लोग कहते हैं : “क्योंकि तुम कहते हो कि पति और पत्नी एक ही हैं, तो क्या यह वैसा ही नहीं है जैसा अविश्वासी कहते हैं, ‘यदि यह होना है तो होकर रहेगा, नहीं होना है तो नहीं होगा’ या जैसा कि कुछ राष्ट्रों के लोग कहते हैं,[ख] ‘किसी के साथ नाव यात्रा पर चलने का मौका पाने के लिए सौ साल के अच्छे कर्म होने चाहिए, और वैवाहिक जीवन का साथ पाने के लिए हजार साल के अच्छे कर्म की जरूरत होती है’?” क्या तुम लोगों को लगता है कि जिस शादी की अभी हम बात कर रहे हैं, उसका इन कहावतों से कोई लेना-देना है? (नहीं।) इनका शादी से कोई संबंध नहीं है। शादी को सींचकर अस्तित्व में नहीं लाया जाता—यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित होती है। जब परमेश्वर दो लोगों को पति-पत्नी बनने, एक-दूसरे का साथी बनने के लिए निर्धारित करता है, तो उन्हें खुद इसमें कुछ सींचने की जरूरत नहीं पड़ती है। वे इसमें क्या सींचेंगे? नैतिक चरित्र? इंसानियत? उन्हें खुद कुछ सींचने की जरूरत नहीं है। यह बौद्ध धर्म के लोगों का बोलने का तरीका है, जो सत्य नहीं है, और इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। मनुष्य की शादी परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और निर्धारित होती है। चाहे दस्तावेज में हो या शाब्दिक रूप से, परिभाषा में हो या अवधारणा में, शादी को इसी प्रकार से समझना चाहिए। बाइबल में दर्ज वचनों से, इस संगति के माध्यम से, क्या अब तुम्हारे पास शादी की कोई सटीक, सत्य के अनुरूप परिभाषा और अवधारणा है? (हाँ, है।) यह अवधारणा, यह परिभाषा विकृत नहीं है; यह पूर्वाग्रह से देखा गया परिप्रेक्ष्य नहीं है, इसे मानवीय भावनाओं के अनुसार तो बिल्कुल भी नहीं समझा और परिभाषित किया गया है। बल्कि, इसका एक आधार है; यह परमेश्वर के वचनों और कार्यों पर आधारित है, और यह उसकी व्यवस्थाओं और विधानों पर भी आधारित है। यहाँ तक पहुँचने के बाद, क्या अब सबके पास शादी के बारे में बुनियादी समझ और परिभाषा है? (हाँ।) अब जब तुम इसे समझ गए हो, तो तुम शादी के बारे में कोई गैर-उद्देश्यपरक कल्पनाएँ नहीं करोगे, या शादी के बारे में तुम्हारी शिकायतें कम हो जाएँगी, है न? ऐसे कुछ लोग हो सकते हैं जो कहते हैं : “शादी परमेश्वर द्वारा निर्धारित होती है—इस बारे में बात करने के लिए कुछ भी नहीं है—मगर शादियाँ टूट जाती हैं। इसका क्या मतलब है?” इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। भ्रष्ट मानवजाति में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, वे समस्याओं के सार को समझ नहीं पाते, वे अपनी वासनाओं और प्राथमिकताओं को पूरा करने की कोशिश करते हैं, इस हद तक कि वे दुष्टता की वकालत करने लगते हैं, और इसलिए उनकी शादियाँ टूट जाती हैं। यह एक अलग विषय है, जिसके बारे में हम ज्यादा बात नहीं करेंगे।

चलो अब शादी में एक-दूसरे की मदद करने और साथ देने के बारे में बात करें। परमेश्वर ने कहा था : “आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं; मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊँगा जो उस से मेल खाए।” शादीशुदा लोग जानते हैं कि शादी से परिवार और व्यक्ति के जीवन में कई ऐसे लाभ होते हैं जिनके बारे में उन्होंने सोचा भी नहीं होगा। जब लोग अकेले रहते हैं तो शुरू में वे बहुत अकेला महसूस करते हैं, वे किसी पर भरोसा नहीं कर सकते, बात करने को कोई नहीं होता, साथ देने के लिए कोई नहीं होता; जीवन बहुत नीरस और असहाय होता है। शादी के बाद, उन्हें इस अकेलेपन और एकांत में नहीं रहना पड़ता। उनके पास कोई होता है जिस पर वे भरोसा कर सकते हैं। कभी-कभी, वे अपने साथी के साथ अपने दुख बाँटते हैं, और कभी-कभी, वे अपनी भावनाएँ और खुशियाँ बाँटते हैं, और यहाँ तक कि अपना गुस्सा भी उतारते हैं। कभी-कभी, वे एक-दूसरे को अपने दिल की सारी बात बता देते हैं और जीवन बहुत आनंदमय और खुशनुमा लगने लगता है। वे एक-दूसरे के साथी हैं, और एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं, तो अब वे न सिर्फ अकेले नहीं होते बल्कि वे और अधिक आनंद का अनुभव भी करते हैं, और एक साथी होने की खुशी का आनंद लेते हैं। विभिन्न मनोदशाओं, भावनाओं, और एहसासों, साथ ही विभिन्न विचारों को व्यक्त करने की आवश्यकता के अलावा, लोगों को जीवित रहने की प्रक्रिया के दौरान अपने दैनिक जीवन में कई व्यावहारिक समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है, जैसे कि रोजमर्रा की जरूरतों, कपड़े, खाने, और रहने के लिए जगह से जुड़ी समस्याएँ। उदाहरण के लिए, मान लो कि दो लोग साथ रहना चाहते हैं, और उन्हें एक छोटा-सा भंडारघर बनाना है। पुरुष को ईंटें बिछाने का काम करना होगा, दीवार बनाने के लिए ईंटें बिछानी होंगी और महिला उसकी मदद करने के लिए उसे ईंटें पहुँचा सकती है, गारा मिला सकती है या उसका पसीना पोंछ सकती है और उसे पानी पिला सकती है। दोनों हँसते हैं, बातें करते हैं और पुरुष के पास उसकी मदद के लिए कोई है, जो अच्छी बात है। अंधेरा होने से पहले काम पूरा हो जाता है। यह “फेयरी कपल” नामक पुराने चीनी ओपेरा जैसा है : “मैं पानी निकालती हूँ और तुम बगीचे में पानी देते हो।” और क्या? (“तुम खेत जोतते हो और मैं कपड़ा बुनती हूँ।”) बिल्कुल सही। एक कपड़ा बुनती है और दूसरा खेत जोतता है; एक घर की मालकिन है, दूसरा बाहर का मालिक है। इस तरह जीना काफी अच्छा है। हम इसे समरसता से एक-दूसरे का पूरक होना, या एक-दूसरे का साथ देना कह सकते हैं। इस तरह, जीवन में, पुरुष के कौशल का प्रदर्शन होता है, और जिन क्षेत्रों में वह कमतर या अकुशल होता है, उनकी भरपाई महिला करती है; जहाँ महिला कमजोर होती है, वहाँ पुरुष उसे माफ करके उसकी मदद करता और साथ देता है, जिससे महिला के कौशल भी प्रदर्शित होते हैं, जिससे परिवार के पुरुष को फायदा होता है। पति-पत्नी दोनों अपने कर्तव्य निभाते हैं, अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए एक-दूसरे की खूबियों से सीखते हैं, और घर में सद्भाव बनाए रखने और पूरे परिवार के जीवन और अस्तित्व की रक्षा के लिए मिलकर काम करते हैं। बेशक, साहचर्य से भी ज्यादा जरूरी यह है कि वे जीवन भर एक-दूसरे को सहारा दें और मदद करें, फिर चाहे गरीबी हो या अमीरी, अपने दिन अच्छे से गुजारें। संक्षेप में, जैसा कि परमेश्वर ने कहा है, मनुष्य के लिए अकेले रहना अच्छा नहीं है, इसलिए उसने मनुष्य की ओर से शादी की व्यवस्था की—जिसमें पुरुष को लकड़ी काटना और आंगन की देखभाल करना है, महिला को खाना बनाना, साफ-सफाई करना, मरम्मत करना और पूरे परिवार की देखभाल करना है। दोनों अपना काम अच्छी तरह से करते हैं, जीवन में वह सब करते हैं जो उन्हें करना चाहिए, जिससे उनका जीवन खुशी-खुशी बीतता है। मनुष्यों का जीवन धीरे-धीरे इस एक बिन्दु से शुरू होकर पूरी तरह विकसित हुआ है, और मनुष्य की आबादी बढ़ते-बढ़ते और फलते-फूलते आज तक पहुँची है। तो समग्र रूप से शादी मानवजाति के लिए अपरिहार्य है—उसके विकास के लिए अपरिहार्य है, और यह व्यक्तिगत रूप से एक मनुष्य के लिए भी अपरिहार्य है। शादी का असल प्रयोजन सिर्फ मानवजाति की संख्या में बढ़ोतरी के लिए नहीं है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण रूप से यह इसलिए है कि इसके जरिये परमेश्वर हरेक पुरुष और महिला के लिए एक साथी चुने, जो उनके जीवन में हर वक्त पर उनका साथ देगा, फिर चाहे वह कठिन और पीड़ादायक वक्त हो, या आसान, आनंदमय और खुशनुमा वक्त—इन सब में, उनके पास भरोसा करने, दिलोदिमाग से उनके साथ एक होने, और उनके दुख, दर्द, खुशी और आनंद में साथ देने के लिए कोई होता है। लोगों के लिए शादी की व्यवस्था करने के पीछे परमेश्वर का यही अभिप्राय है, और यह हरेक व्यक्ति की व्यक्तिपरक आवश्यकता भी है। जब परमेश्वर ने मानवजाति की रचना की, तो वह नहीं चाहता था कि लोग अकेले रहें, इसलिए उसने उनके लिए शादी की व्यवस्था की। शादी में, पुरुष और महिला अलग-अलग भूमिकाएँ निभाते हैं, और सबसे जरूरी बात यह है कि वे एक-दूसरे का साथ देते हैं और एक-दूसरे को सहारा देते हैं, हर दिन अच्छे से जीते हैं, जीवन की राह पर अच्छी तरह से आगे बढ़ते हैं। एक ओर, वे एक-दूसरे का साथ दे सकते हैं, और दूसरी ओर, वे एक-दूसरे को सहारा दे सकते हैं—यही शादी का वास्तविक अर्थ है और इसके अस्तित्व का प्रयोजन है। बेशक, लोगों को शादी के बारे में यही समझ और रवैया रखना चाहिए, और यही वह जिम्मेदारी और दायित्व है जो उन्हें शादी के प्रति निभाना चाहिए।

चलो अब उत्पत्ति 3:16 पर वापस चलते हैं। परमेश्वर ने महिलाओं से कहा था : “मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दुःख को बहुत बढ़ाऊँगा; तू पीड़ित होकर बालक उत्पन्न करेगी; और तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।” परमेश्वर ने महिलाओं को यह जिम्मेदारी दी है, जो बेशक एक आदेश भी है, जिसमें वह निर्धारित करता है कि शादी में एक महिला को क्या भूमिका निभानी है और उसे कौन-सी जिम्मेदारियाँ उठानी होंगी। महिला को बच्चे को जन्म देना होगा, जो एक ओर तो उसके पिछले अपराध की सजा थी, और दूसरी ओर, वह जिम्मेदारी और दायित्व था जो उसे एक महिला होने के नाते शादी में स्वीकारना होगा। वह गर्भवती होगी और बच्चे को जन्म देगी, और इसके अलावा, वह पीड़ा में बच्चों को जन्म देगी। नतीजतन, शादी के बाद, महिला को पीड़ा के डर से बच्चे पैदा करने से इनकार नहीं करना चाहिए। यह एक गलती है। तुम्हें बच्चों को जन्म देने की जिम्मेदारी उठानी ही चाहिए। इसलिए, अगर तुम चाहती हो कि कोई तुम्हारा साथी बने, जीवन में तुम्हारी मदद करे, तो तुम्हें उस प्रमुख जिम्मेदारी और दायित्व पर विचार करना होगा जो तुम शादी के बाद निभाओगी। अगर कोई महिला कहती है, “मैं बच्चे पैदा नहीं करना चाहती,” तो पुरुष कहेंगे, “अगर तुम बच्चे पैदा नहीं करना चाहती, तो मैं तुम्हें नहीं चाहता।” अगर तुम बच्चे पैदा करने की पीड़ा नहीं झेलना चाहती हो तो तुम्हें शादी नहीं करनी चाहिए। तुम्हें शादी नहीं करनी चाहिए क्योंकि तुम इसके लायक नहीं हो। शादी के बाद, एक महिला के नाते तुम्हें सबसे पहले बच्चे पैदा करने चाहिए और पीड़ा भी सहनी चाहिए। अगर तुम यह नहीं कर सकती तो तुम्हें शादी नहीं करनी चाहिए। भले ही यह नहीं कहा जा सकता कि तुम महिला होने के लायक नहीं हो, कम से कम तुम एक महिला होने की जिम्मेदारी निभाने में विफल रही हो। महिलाओं से पहली अपेक्षा गर्भधारण करने और बच्चे पैदा करने की होती है। दूसरी अपेक्षा होती है, “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।” किसी पुरुष की अर्धांगिनी होना—महिला होने के नाते, किसी पुरुष से शादी करना यह साबित करता है कि तुम उसकी अर्धांगिनी हो, और थोड़ी निश्चितता से कहें तो इस प्रकार तुम उसका एक हिस्सा हो, इसलिए तुम्हारे दिल की लालसा तुम्हारे पति की ओर होनी चाहिए, यानी वह तुम्हारे दिल में बसना चाहिए। जब वह तुम्हारे दिल में होगा तभी तुम उसकी देखभाल कर सकोगी और खुशी से उसका साथ दे सकोगी। जब तुम्हारा पति बीमार होगा, जब वह कठिनाइयों और विफलताओं का सामना करेगा या जब उसे अन्य लोगों के बीच या अपने जीवन में विफलता, ठोकर या संकट का सामना करना करेगा, तब तुम एक महिला के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा कर सकती हो, उसकी देखभाल कर सकती हो, उसे संजोकर रख सकती हो, उसे समझा सकती हो, उसे आराम दे सकती हो और एक महिला के तौर पर उसे सलाह देकर उसका हौसला बढ़ा सकती हो। यही वह साथ है जो सच्चा और बेहतर है। सिर्फ इसी तरह तुम्हारी शादी खुशहाल रहेगी और तुम एक महिला होने की अपनी जिम्मेदारी निभा पाओगी। बेशक, यह जिम्मेदारी तुम्हें तुम्हारे माता-पिता ने नहीं, बल्कि परमेश्वर ने सौंपी है। यह वह जिम्मेदारी और दायित्व है जो कि एक महिला को पूरा करना चाहिए। एक महिला होने के नाते तुम्हें ऐसा ही होना चाहिए। तुम्हें अपने पति के साथ इसी तरह पेश आना चाहिए और उसकी देखभाल करनी चाहिए; यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है। अगर कोई महिला ऐसा नहीं कर सकती, तो वह अच्छी महिला नहीं है, और बेशक, वह स्वीकार्य महिला नहीं है, क्योंकि वह महिलाओं से परमेश्वर की न्यूनतम अपेक्षाओं पर भी खरी उतरने में विफल रही : “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी।” समझे तुम? (हाँ।) एक पुरुष की अर्धांगिनी होने के नाते, जब सब कुछ सहजता से चलता है, जब उसके पास पैसे और ताकत होती है, जब वह तुम्हारी बात मानता है और तुम्हारा अच्छा ख्याल रखता है, जब वह तुम्हें सभी तरह से खुश और संतुष्ट रखता है, तब तुम उसकी प्रशंसा और देखभाल कर पाती हो। मगर जब वह कठिनाइयों, बीमारियों, कुंठाओं और विफलताओं का सामना करता है या जब वह हतोत्साहित और निराश होता है, जब चीजें उसके अनुरूप नहीं होती हैं, तब तुम उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करने में असमर्थ होती हो जो महिला होने के नाते तुम्हें पूरे करने चाहिए; तुम उससे दिल से बात करके उसे सुकून देने, उसे समझाने, उसे प्रोत्साहित करने या उसका सहयोग करने में असमर्थ होती हो। अगर ऐसा है तो, तुम अच्छी महिला नहीं हो, क्योंकि तुमने महिला होने की जिम्मेदारी नहीं निभाई, और तुम पुरुष के लिए अच्छी साथी नहीं हो। तो क्या ऐसी महिला को बुरी महिला कहना सही होगा? “बुरी” कहने का तो सवाल नहीं उठता है; पर कम से कम, तुममें वह अंतरात्मा और विवेक तो नहीं है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है, जो सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति के पास होना ही चाहिए—तुम ऐसी महिला हो जिसमें मानवता नहीं है। मैंने सही कहा न? (बिल्कुल।) महिलाओं से की गई अपेक्षाओं के बारे में हमारी बात यहीं खत्म होती है। परमेश्वर ने एक महिला की अपने पति के प्रति जिम्मेदारी बताई है, जो है : “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी।” यह शब्द “लालसा” प्यार या स्नेह के बारे में नहीं है; बल्कि, इसका मतलब है कि वह तुम्हारे दिल में बसना चाहिए। वह तुम्हें प्रिय होना चाहिए; तुम्हें उसके साथ अपने प्रियतम की तरह, अपने आधे हिस्से की तरह पेश आना होगा। तुम्हें उसे संजोना होगा, उसका साथ देना होगा और उसकी देखभाल करनी होगी, और तुम दोनों को अंतिम समय तक एक-दूसरे की देखभाल करनी होगी। तुम्हें उसकी देखभाल करनी और तहेदिल से उसे संजोकर रखना होगा। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है—इसे ही “लालसा” कहा गया है। बेशक, जब परमेश्वर कहता है, “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी,” तो यह “लालसा होगी” वाक्यांश लोगों को दी गई एक सीख है। एक मानवता युक्त महिला, एक स्वीकार्य महिला होने के नाते, तुम्हारी लालसा तुम्हारे पति की ओर होनी चाहिए। इसके अलावा, परमेश्वर ने तुमसे यह नहीं कहा है कि तुम अपने पति के साथ दूसरे आदमियों की भी लालसा रखो। क्या परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा? (उसने ऐसा नहीं कहा।) परमेश्वर महिला से यह अपेक्षा करता है कि वह अपने पति के प्रति वफादार हो, और सिर्फ उसका पति ही वह इकलौता व्यक्ति हो जो उसके दिल में बसे, जिसकी उसे लालसा हो। वह नहीं चाहता कि उसका स्नेह जिस व्यक्ति के प्रति है उसे वह बदलती रहे या वह व्यभिचारी हो या अपने पति के प्रति बेवफा हो या अपनी शादी से बाहर किसी और व्यक्ति की लालसा रखे। बल्कि, वह चाहता है कि जिससे उसकी शादी हुई है वह उसकी ही लालसा रखे और अपना बाकी जीवन उसके साथ ही बिताए। तुम्हारी लालसा इसी व्यक्ति की ओर होनी चाहिए, तुम्हें इसी पुरुष की देखभाल करने, संजोने, ध्यान रखने, साथ देने, मदद करने, और सहारा देने के लिए जीवन भर मेहनत करनी चाहिए। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) क्या यह अच्छी बात नहीं है? (बिल्कुल है।) इस तरह की अच्छी चीज नर और मादा पक्षियों और बाकी प्राणी जगत के बीच मौजूद है, मगर यह मनुष्यों के बीच बिल्कुल भी दिखाई नहीं देती—तुम देख सकते हो कि शैतान ने मानवजाति को कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है! हम उन सबसे बुनियादी दायित्वों के बारे में स्पष्टता से संगति कर चुके हैं जिन्हें एक महिला को शादी में पूरा करना चाहिए और साथ ही हमने उन सिद्धांतों के बारे में भी स्पष्टता से संगति की है जिनके अनुसार उसे अपने पति के साथ पेश आना चाहिए। इसके अलावा, यहाँ कुछ और भी है, जो यह है कि परमेश्वर सिर्फ एक व्यक्ति के साथ ही तुम्हारी शादी निर्धारित और व्यवस्थित करता है। बाइबल में हम इस बात का आधार कहाँ देख सकते हैं? परमेश्वर ने पुरुष के शरीर से एक पसली ली और उससे महिला को बनाया—उसने पुरुष के शरीर से दो या उससे ज्यादा पसलियाँ लेकर अनेक महिलाओं को नहीं बनाया। उसने सिर्फ एक महिला बनाई। यानी परमेश्वर ने एक पुरुष के लिए सिर्फ एक ही महिला बनाई। इसका मतलब है कि पुरुष के लिए बस एक ही साथी थी। पुरुष की बस एक अर्धांगिनी थी, और महिला का बस एक अर्धांग था; इसके अलावा, उसी समय, परमेश्वर ने महिला को चेतावनी दी, “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी।” तुम्हारा पति कौन है? यह वही व्यक्ति है जिससे तुम शादी करोगी, और कोई नहीं। यह तुम्हारा कोई गुप्त प्रेमी नहीं है, न ही यह कोई मशहूर हस्ती है जिसकी तुम प्रसंशा करती हो और न ही यह तुम्हारे सपनों का राजकुमार है। यह तुम्हारा पति है, और तुम्हारे पास सिर्फ एक ही है। यही वह शादी है जो परमेश्वर ने निर्धारित की है—एक ही पुरुष या महिला से रिश्ता होना। क्या यह परमेश्वर के वचनों में समाहित है? (हाँ।) परमेश्वर ने कहा था : “आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं; मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊँगा जो उस से मेल खाए।” परमेश्वर ने यह नहीं कहा कि उसने उसके लिए कुछ या अनेक साथी बनाए हैं, यह जरूरी नहीं था। एक ही काफी थी। परमेश्वर ने यह भी नहीं कहा कि एक महिला को कई पुरुषों से शादी करनी चाहिए या एक पुरुष को कई पत्नियाँ रखनी चाहिए। परमेश्वर ने एक आदमी के लिए कई पत्नियाँ नहीं बनाईं, न ही उसने अनेक महिलाएँ बनाने के लिए कई अलग-अलग पुरुषों की पसलियाँ लीं, इसलिए एक पुरुष की पत्नी सिर्फ उसकी अपनी पसली से बनी महिला ही हो सकती है। क्या यह तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) तो मानवजाति के बाद के विकास में, कई पत्नियाँ और पति रखने की प्रथा शुरू हुई। ऐसी शादियाँ असामान्य हैं, बल्कि ये शादी हैं ही नहीं। यह सब व्यभिचार है। हालाँकि कुछ विशेष परिस्थितियों में छूट मिल सकती है, जैसे पुरुष का मर जाना और उसकी पत्नी का फिर से शादी करना। यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित और व्यवस्थित है, जिसकी अनुमति है। संक्षेप में, शादी हमेशा से बस एक पति और एक पत्नी के बीच का संबंध रहा है। यही बात है न? (बिल्कुल।) प्राकृतिक संसार को देखो। जंगली हंस का एक ही साथी होता है। अगर कोई मनुष्य किसी एक हंस को मार दे, तो दूसरा हंस कभी भी “दूसरी शादी” नहीं करेगा—वह अकेले ही रहेगा। ऐसा कहा जाता है कि जब हंसों के झुंड उड़ते हैं, तो उनका नेतृत्व आम तौर पर अकेले रहने वाला हंस ही करता है। अकेले रहने वाले हंस के लिए चीजें कठिन होती हैं। उसे वो सब काम करने पड़ते हैं जो उसके झुंड के अन्य हंस करने को तैयार नहीं होते। जब दूसरे हंस भोजन कर रहे होते हैं या आराम कर रहे होते हैं, तो बाकी झुंड को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी उसे ही उठानी पड़ती है। वह न तो सो सकता है और न ही खा सकता है; झुंड की सुरक्षा के लिए उसे अपने आसपास की सुरक्षा पर ध्यान देना पड़ता है। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो वह नहीं कर सकता। वह सिर्फ अकेला ही रह सकता है, दूसरा प्यार नहीं पा सकता। मरते दम तक वह कोई दूसरा साथी नहीं चुन सकता। जंगली हंस हमेशा परमेश्वर द्वारा उनके लिए निर्धारित नियमों का पालन करते हैं, कभी नहीं बदलते, यहाँ तक कि आज भी नहीं, मगर मनुष्य का मामला बिल्कुल उल्टा है। मनुष्य इतने उल्टे क्यों हैं? क्योंकि शैतान ने मनुष्यों को भ्रष्ट किया है, और क्योंकि वे दुष्टता और स्वच्छंदता में जीते हैं, तो वे सिर्फ एक साथी के साथ नहीं रह सकते, और न ही शादी से जुड़ी अपनी भूमिकाएँ निभा सकते हैं या उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभा सकते हैं जो उन्हें निभाने चाहिए। क्या यह सच नहीं है? (बिल्कुल सच है।)

आगे पढ़ते हैं। परमेश्वर ने कहा था : “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।” “प्रभुता करेगा” का क्या मतलब है? डंडे के बल पर शासन करना, महिलाओं को गुलाम बनाना, क्या इसका यही मतलब है? (नहीं।) तो इसका क्या मतलब है? (उसकी देखभाल करना और उसके लिए जिम्मेदार बनना।) “जिम्मेदारी” वाला विचार थोड़ा सही है। यह प्रभुता करना महिला द्वारा पुरुष को पाप करने के लिए लुभाने के मामले से संबंधित है। क्योंकि महिला ने पहले परमेश्वर के वचनों का उल्लंघन किया और साँप के बहकावे में आई, फिर पुरुष को भी अपनी तरह परमेश्वर को धोखा देने के लिए बहकाया, तो परमेश्वर उससे थोड़ा गुस्सा हुआ, और इसलिए उसने उससे अपेक्षा रखी कि वह पहला कदम न उठाए, कुछ भी करने से पहले पुरुष की सलाह ले; उसके लिए पुरुष को मालिक बनने देना ही सबसे बेहतर होगा। तो क्या महिलाओं को मालिक बनने का अवसर दिया जाता है? उन्हें यह अवसर दिया जा सकता है। एक महिला अपने पुरुष साथी से परामर्श कर सकती है, और मालिक भी बन सकती है, मगर उसके लिए सबसे अच्छा यही है कि वह खुद फैसले न ले; उसे अपने पति से, अपने पुरुष साथी से परामर्श करना चाहिए। बड़े मामलों में अपने पति से सलाह लेना उसके लिए सबसे अच्छा है। एक महिला होने के नाते, तुम्हें न सिर्फ अपने पति का साथ देना होगा, बल्कि घरेलू मामलों को संभालने में भी अपने पति की मदद करनी होगी। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि परिवार में और शादी में तुम्हारे पति को मालिक की भूमिका निभानी चाहिए, तो तुम्हें हर काम में पहले अपने पति की सलाह लेनी चाहिए। पुरुष और महिलाओं के बीच अंतर के कारण, महिलाएँ अपने विचारों, अपनी सहनशीलता, अपने परिप्रेक्ष्य या किसी भी प्रकार के बाहरी मामलों में पुरुषों से आगे नहीं हैं; बल्कि पुरुष महिलाओं से आगे हैं। तो, पुरुष और महिलाओं के बीच इस अंतर के आधार पर, परमेश्वर ने पुरुषों को विशेष अधिकार दिया है—परिवार में, पुरुष मालिक और महिला सहयोगी है। महिला को अपने पति की सहायता करनी होती है, या छोटे-बड़े मामले निपटाने में अपने पति का साथ देना होता है। मगर जब परमेश्वर ने कहा, “वह तुझ पर प्रभुता करेगा,” तो उसका मतलब यह नहीं था कि पुरुषों का दर्जा महिलाओं से ऊँचा है, या यह कि पुरुषों को पूरे समाज पर हावी होना चाहिए। ऐसा नहीं है। ऐसा कहते समय, परमेश्वर सिर्फ शादी के संबंध में बोल रहा था; वह सिर्फ परिवारों और छोटे-मोटे घरेलू मामलों के बारे में बात कर रहा था जिन्हें पुरुष और महिलाएँ संभालते हैं। जब छोटे-मोटे घरेलू मामलों की बात आती है, तो परमेश्वर यह नहीं चाहता कि पुरुष हर बात में महिला को नियंत्रित करे या उसके साथ जबरदस्ती करे; बल्कि, पुरुष को सक्रियता से अपने परिवार के बोझ और जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिए, और साथ ही, उसे अपनी पत्नी का ध्यान भी रखना चाहिए, जो उसके मुकाबले कमजोर है, और उसे सही रास्ता दिखाना चाहिए। जैसा कि इस बात से देख सकते हैं, पुरुषों को कुछ विशेष जिम्मेदारियाँ दी गई हैं। उदाहरण के लिए, पुरुष को सही-गलत के प्रमुख मामलों की जिम्मेदारी लेने में पहल करनी चाहिए; उसे महिला को आग के कुंड में नहीं धकेलना चाहिए, न तो उसे सामाजिक अपमान और धौंस सहने देना चाहिए और न ही दूसरों को उसे रौंदने देना चाहिए। पुरुष को यह जिम्मेदारी उठाने की पहल करनी चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर के इन वचनों के कारण कि “वह तुझ पर प्रभुता करेगा,” वह महिला को डंडे की जोर पर नचा सकता है या उसे नियंत्रित कर सकता है या उसके साथ मनचाहा व्यवहार करने के लिए उसे गुलाम बना सकता है। शादी की पूर्व शर्तों और संरचना के तहत, परमेश्वर के सामने पुरुष और महिला बराबर हैं; बात बस इतनी है कि पुरुष पति है और परमेश्वर ने उसे यह अधिकार और जिम्मेदारी दी है। यह महज एक तरह की जिम्मेदारी है, कोई विशेष अधिकार नहीं, और न ही यह किसी महिला को एक इंसान से कमतर मानने का कोई कारण है। तुम दोनों बराबर हो। पुरुष और महिला दोनों को परमेश्वर ने बनाया है, बात सिर्फ इतनी है कि पुरुष से एक विशेष अपेक्षा होती है कि एक ओर तो उसे परिवार के बोझ और जिम्मेदारियाँ उठानी होगी, और दूसरी ओर, बड़े मामले सामने आने पर, पुरुष को साहस के साथ आगे बढ़कर उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाना होगा जो उसे एक पुरुष, एक पति होने के नाते निभाने चाहिए—यानी पत्नी की रक्षा करना, अपनी पत्नी को उन चीजों को करने या बोलने से रोकने की भरसक कोशिश करना जो महिला को नहीं करनी चाहिए, उसे कठिनाई से बचाना चाहिए, उसे ऐसी पीड़ा सहने से बचाना जो पत्नी को नहीं सहनी चाहिए। उदाहरण के लिए, अपना दर्जा ऊँचा करने के लिए, अच्छा जीवन जीने और अमीर बनने के लिए, शोहरत, लाभ और रुतबा पाने के लिए और इसलिए कि दूसरे उनके बारे में ऊँची राय रखें, कुछ पुरुष अपनी पत्नियों को रखैल या प्रेमिका के रूप में अपने मालिकों को सौंप देते हैं, अपनी पत्नियों की देह से वेश्यावृत्ति करवाते हैं। अपनी पत्नियों को बेचने के बाद, जब उनका लक्ष्य पूरा हो जाता है, तो वे अपनी पत्नी को अहमियत देना बंद कर देते हैं और उसे नहीं चाहते। यह कैसा पुरुष है? क्या ऐसे पुरुष मौजूद नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) क्या यह पुरुष दानव के समान नहीं है? (बिल्कुल है।) तुम्हारे लिए एक महिला पर शासन करने का मकसद अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना और उसकी रक्षा करना है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि शारीरिक लिंग की दृष्टि से, पुरुष विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों, स्तरों और चीजों के प्रति अंतर्दृष्टि में महिलाओं से आगे हैं; यह ऐसा तथ्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता। तो, यह देखते हुए कि परमेश्वर ने महिला को पुरुष के हाथों यह कहते हुए सौंपा है कि “वह तुझ पर प्रभुता करेगा,” जो जिम्मेदारी एक पुरुष को वहन करनी चाहिए वह यह है कि उसे परिवार का बोझ उठाना चाहिए, या गंभीर चीजें होने पर अपनी पत्नी की रक्षा करनी और उसे सँजोना चाहिए, उसके साथ सहानुभूति रखनी और उसे समझना चाहिए; साथ ही, उसे प्रलोभन में न पड़ने देकर उन जिम्मेदारियों को निभाना चाहिए जो एक पति और पुरुष को निभानी चाहिए। इस तरह, परिवार में और शादी की संरचना में, तुम उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करोगे जो तुम्हें पूरे करने चाहिए, और अपनी पत्नी को यह एहसास कराओगे कि तुम उसके भरोसे के लायक हो, तुम ही वह व्यक्ति हो जिसके साथ वह अपना जीवन बिताएगी, तुम विश्वसनीय हो, और तुम्हारा कंधा भरोसेमंद है। जब तुम्हारी पत्नी तुम पर भरोसा करती है, जब उसे कुछ गंभीर मामलों से निपटने के लिए फैसला लेने में तुम्हारी यानी अपने पति की आवश्यकता होती है, तो तुम यह नहीं चाहते कि तुम सोते रहो, शराब पीते रहो या जुआ खेलते रहो या कहीं सड़कों पर घूमते फिरो। यह सब अस्वीकार्य है; यह कायरता है। तुम अच्छे आदमी नहीं हो; तुमने वे जिम्मेदारियाँ नहीं निभाई हैं जो तुम्हें निभानी चाहिए। एक पुरुष होकर अगर हर बड़े मामले में तुम्हें हमेशा यही जरूरत रहती है कि तुम्हारी पत्नी आगे आए, और अगर तुम उसे, जिसकी भूमिका पुरुष के मुकाबले नाजुक है, आग के कुंड की ओर धकेल रहे हो, उस तरह धकेल रहे हो जहाँ हवा और लहरें सबसे तेज हैं, उसे विभिन्न प्रकार के जटिल मामलों के भँवर की ओर धकेल रहे हो, तो यह एक अच्छे पुरुष का व्यवहार नहीं है, और न ही एक अच्छे पति को इस तरह से व्यवहार करना चाहिए। तुम्हारी जिम्मेदारी सिर्फ इतनी नहीं है कि वह बस तुम्हारी लालसा रखे, तुम्हारा साथ दे, और अच्छी तरह से जीवन जीने में तुम्हारा सहयोग करे; यह सिर्फ इतना ही नहीं है, तुम्हें वह जिम्मेदारी भी निभानी होगी जो तुम्हें निभानी चाहिए। उसने तुम्हारी प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं—क्या तुमने उसके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं? उसे अच्छा भोजन देना, पहनने के लिए गर्म कपड़े देना और उसके दिल को सुकून पहुँचाना ही काफी नहीं है; इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि विभिन्न बड़े मामलों और सही-गलत के विवादों में, तुम्हें हर चीज से निपटने में सटीक, सही और उचित रूप से उसकी मदद करने में सक्षम होना चाहिए, उसे हर चिंता से दूर रखना चाहिए, ताकि वह तुमसे वास्तविक लाभ पाने और यह देखने में सक्षम हो कि तुम वे सभी जिम्मेदारियाँ निभाते हो जो एक पति को निभानी चाहिए। एक महिला शादी में इन्हीं बातों से खुश रहती है। ऐसा ही है न? (बिल्कुल।) तुम्हारी बातें कितनी ही मीठी हों या तुम उसका मन कितना भी मोह लो या तुम उसके साथ कितना भी रहो, अगर बड़े मामलों में तुम्हारी पत्नी तुम पर निर्भर नहीं हो सकती या तुम पर भरोसा नहीं कर सकती, अगर तुम वे जिम्मेदारियाँ नहीं उठाते जो तुम्हें उठानी चाहिए, बल्कि एक नाजुक महिला को आगे आने और अपमान सहने, या किसी पीड़ा को सहन करने देते हो, तो ऐसी महिला कभी भी खुश नहीं रहेगी और उसे तुममें कोई उम्मीद नहीं दिखेगी। तो, जो महिला किसी ऐसे पुरुष से शादी करेगी, वह अपनी शादी में बदकिस्मत महसूस करेगी, और उसके भविष्य के दिन और जीवन आशाहीन और प्रकाशहीन होंगे, क्योंकि उसने एक गैर-भरोसेमंद आदमी से शादी की, एक ऐसा आदमी जो अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाता, जो बुजदिल, निकम्मा और कायर है; ऐसे आदमी से उसे कोई खुशी महसूस नहीं होगी। इसलिए, पुरुषों को अपनी जिम्मेदारियाँ उठानी होंगी। एक ओर, यह इंसानों से की गई अपेक्षा है, और दूसरी ओर—और अधिक महत्वपूर्ण रूप से—उन्हें इसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए। यह वह जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व है जो परमेश्वर ने शादी में हरेक पुरुष को सौंपा है। इसलिए, मैं महिलाओं से कहता हूँ : अगर तुम शादी करना चाहती हो और अपना जीवनसाथी ढूँढ़ना चाहती हो, तो कम से कम, तुम्हें पहले यह देखना होगा कि वह पुरुष भरोसेमंद है या नहीं। उसका रूप-रंग, उसकी लंबाई, उसका डिप्लोमा, वह अमीर है या नहीं, और क्या वह बहुत पैसा कमाता है, यह सब बाद की चीजें हैं। मुख्य बात यह देखना है कि इस व्यक्ति में मानवता और जिम्मेदारी की भावना है या नहीं, उसके कंधे चौड़े और मोटे हैं या नहीं, और जब तुम उसका सहारा लोगी, तो क्या वह गिर जाएगा या तुम्हें संभालने में सक्षम होगा, और क्या वह भरोसेमंद है। सटीक रूप से कहें, तो यह देखना चाहिए कि क्या वह परमेश्वर के बताए अनुसार एक पति की जिम्मेदारियाँ निभा सकता है, क्या वह सचमुच ऐसा व्यक्ति है; परमेश्वर के मार्ग के अनुसार चलने की बात तो दूर रही, कम-से-कम उसे ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जिसके पास परमेश्वर की नजरों में मानवता हो। जब दो लोग साथ रहते हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अमीर हैं या गरीब, उनकी जीवन की गुणवत्ता कैसी है, उनके घर में क्या है, या उनके चरित्र आपस में मेल खाते हैं या नहीं; जिस पुरुष से तुम शादी कर रही हो उसे कम से कम, तुम्हारे प्रति अपने दायित्वों और जिम्मेदारियों को निभाना चाहिए, तुम्हारे प्रति जिम्मेदारी की भावना रखनी चाहिए, और तुम्हें अपने दिल में बसाना चाहिए। चाहे वह तुम्हें पसंद करे या तुमसे प्यार करे, कम से कम, उसे तुम्हें अपने दिल में रखना चाहिए, ताकि वह उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा कर सके जो उसे शादी की संरचना में निभानी चाहिए। तभी तुम्हारा जीवन आनंदमय होगा, तुम्हारे दिन सुखमय होंगे, और तुम्हारे भविष्य का मार्ग धुंधला नहीं होगा। जिस पुरुष से महिला शादी करती है अगर उस पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता, और कुछ भी होने पर भाग खड़ा होता है या छिप जाता है, और कुछ भी गलत नहीं होने पर वह डींगें हाँकता और शेखी बघारता है, मानो कि उसके पास बहुत कौशल है, वह मर्दाना और ओजस्वी है, मगर फिर जब कुछ होता है तो वह डरपोक बन जाता है; ऐसे में क्या तुम्हें लगता है कि वह महिला परेशान होगी? (बिल्कुल होगी।) क्या वह खुश होगी? (नहीं।) एक सभ्य, अच्छी महिला सोचेगी : “मैं हमेशा उसकी देखभाल करती हूँ और उसे संजोती हूँ, एक पत्नी होने के नाते अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए, मैं कुछ भी सहने को तैयार रहती हूँ, मगर मुझे इस आदमी के साथ कोई भविष्य नजर नहीं आता।” क्या ऐसी शादी दर्दनाक नहीं है? क्या महिला को महसूस होने वाला यह दर्द उसके पति यानी उसके आधे हिस्से से संबंधित नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या यह पुरुष की जिम्मेदारी है? (हाँ।) पुरुष को आत्मचिंतन करना चाहिए। वह हमेशा यह शिकायत नहीं कर सकता कि महिला नुक्स निकालती है, उसे बड़बड़ाना और बात का बतंगड़ बनाना पसंद है। दोनों पक्षों को आपस में इस बात पर विचार करना होगा कि वे अपने दायित्वों और जिम्मेदारियों को पूरा कर रहे हैं या नहीं, और क्या वे परमेश्वर के वचन सुनकर ऐसा करते हैं। अगर वे उन्हें पूरा नहीं कर रहे, तो उन्हें तुरंत बदलाव लाना चाहिए, जल्दी से खुद को ठीक करके समस्या का समाधान करना चाहिए; अभी बहुत देर नहीं हुई है। क्या यह आचरण करने का एक अच्छा तरीका है? (बिल्कुल।)

अब आगे पढ़ते हैं। इसके बाद परमेश्वर का आदम यानी मानवजाति के पहले पूर्वज को दिया गया एक और आदेश है। परमेश्वर ने कहा था : “तू ने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैं ने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना, उसको तू ने खाया है इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है। तू उसकी उपज जीवन भर दुःख के साथ खाया करेगा; और वह तेरे लिये काँटे और ऊँटकटारे उगाएगी, और तू खेत की उपज खाएगा; और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा, और अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है; तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा” (उत्पत्ति 3:17-19)। यह अंश मुख्य रूप से पुरुषों के लिए परमेश्वर का आदेश है। परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, क्योंकि परमेश्वर ने पुरुषों को एक आदेश दिया है, तो उसका आदेश वे दायित्व और कार्य हैं जिन्हें उन्हें शादी की संरचना और परिवार में रहकर पूरे करने होंगे। परमेश्वर चाहता है कि शादी के बाद पुरुष परिवार की आजीविका को बनाए रखे, यानी उन्हें अपनी आजीविका बनाए रखने के लिए जीवन भर कड़ी मेहनत करनी होगी। पुरुषों को अपनी आजीविका बनाए रखनी पड़ती है, तो उन्हें मेहनत करनी होगी; आज की भाषा में कहें, तो उन्हें पैसा कमाने के लिए नौकरी पाना और काम करना होगा, या खेत में अनाज उगाना होगा और परिवार की आजीविका बनाए रखने के लिए खेती करनी होगी। पूरे परिवार का भरण-पोषण करने, अपनी आजीविका बनाए रखने के लिए पुरुषों को कड़ी मेहनत और परिश्रम करना पड़ता है। यह पतियों यानी पुरुषों के लिए परमेश्वर का आदेश है; यह उनकी जिम्मेदारी है। तो शादी की संरचना में, पुरुष इस बात पर जोर नहीं दे सकते : “आह, मेरा स्वास्थ्य खराब है!” “आज के समाज में काम मिलना मुश्किल है, मैं बहुत परेशान हूँ!” “मैं अपने माँ-बाप के लाड़-प्यार में बड़ा हुआ, मैं कोई नौकरी नहीं कर सकता!” अगर तुम कोई नौकरी ही नहीं कर सकते तो तुमने शादी क्यों की? अगर तुम एक परिवार का भरण-पोषण नहीं कर सकते, और तुम्हारे पास एक पूरे परिवार की आजीविका का जिम्मा उठाने के लिए श्रम करने की क्षमता नहीं है, तो तुमने शादी क्यों की? यह कहना गैर-जिम्मेदारी की बात है। एक ओर, परमेश्वर चाहता है कि पुरुष परिश्रम से काम करें, और दूसरी ओर, वह चाहता है कि वे धरती से अनाज उगाने के लिए मेहनत करें। बेशक, आजकल वह इस बात पर जोर नहीं देता कि तुम धरती से अनाज उगाने के लिए खेती करो, मगर मेहनत करना तो जरूरी है। इसीलिए पुरुष का शरीर इतना हट्टा-कट्टा और मजबूत होता है, जबकि महिला का शरीर अपेक्षाकृत कमजोर होता है; वे अलग हैं। परमेश्वर ने पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग शरीर बनाए। प्राकृतिक तौर पर, पुरुष को अपने परिवार की आजीविका चलाने के लिए, परिवार को सहारा देने के लिए मेहनत और कार्य करना चाहिए; यही उसकी भूमिका है, वह परिवार की मुख्य ताकत है। वहीं दूसरी ओर, परमेश्वर ने महिला को ऐसा कोई आदेश नहीं दिया है। तो क्या महिला उन कर्मों का फल पा सकती है जो उसने नहीं किए हैं, क्या वह बिना कुछ किए बना-बनाया भोजन मिलने की प्रतीक्षा कर सकती है? यह भी सही नहीं है। भले ही परमेश्वर ने महिला को परिवार की आजीविका बनाए रखने का आदेश नहीं दिया है, मगर वह यूँ ही खाली नहीं बैठ सकती। ऐसा मत सोचो क्योंकि परमेश्वर ने महिलाओं को यह आदेश नहीं दिया है तो उन्हें इस मामले में कुछ नहीं करना है। ऐसा नहीं है। महिलाओं को भी अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी होंगी; उन्हें परिवार की आजीविका बनाए रखने में अपने पतियों की सहायता करनी चाहिए। महिला को न सिर्फ एक भागीदार बनना होगा—साथ ही, उसे परिवार में अपने पति की जिम्मेदारियों और मकसद को पूरा करने में उसकी मदद भी करनी होगी। वह सिर्फ किनारे में खड़े होकर देखती नहीं रह सकती, अपने पति का मजाक नहीं उड़ा सकती, न ही वह बना-बनाया भोजन मिलने की प्रतीक्षा कर सकती है। उन दोनों को आपस में तालमेल बिठाने की जरूरत है। इस तरह, पुरुषों और महिलाओं को जो दायित्व और जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए वे सभी पूरी हो जाएँगी, और अच्छी तरह से होंगी।

आगे पढ़ते हैं। परमेश्वर ने कहा : “वह तेरे लिये काँटे और ऊँटकटारे उगाएगी, और तू खेत की उपज खाएगा।” देखा तुमने, परमेश्वर ने पुरुषों को मेहनत करने के अलावा, कुछ अन्य बोझ उठाने को भी दिए हैं; सिर्फ मेहनत करना ही काफी नहीं है, तुम्हें खेतों में जंगली घास भी उगती है जो तुम्हें निकालनी होगी। यानी अगर तुम किसान हो, तो तुम्हें पौधे रोपने के अलावा भी कुछ काम करने होंगे। तुम्हें जंगली घास भी निकालनी होगी, तुम खाली नहीं बैठ सकते; तुम्हें अपने परिवार की आजीविका बनाए रखने के लिए पर्याप्त मेहनत करनी होगी, जैसा कि परमेश्वर ने कहा है : “अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा।” इस कथन का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि पुरुषों को उनकी मेहनत के अलावा कुछ और बोझ भी दिया जाता है। कब तक? “अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा।” तुम्हारी आखिरी साँस तक, जब तुम्हारे जीवन का सफर पूरा हो जाएगा; तब तुम्हें इस तरह काम नहीं करना पड़ेगा, और तुम्हारी जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाएँगी। यह परमेश्वर का पुरुषों को दिया गया निर्देश है, यह परमेश्वर का पुरुषों को दिया गया आदेश और साथ ही एक जिम्मेदारी और बोझ भी है। चाहे तुम इसके लिए इच्छुक हो या नहीं, यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित है, और तुम इससे नहीं भाग सकते। तो, पूरे समाज या संपूर्ण मानवजाति में, चाहे कोई इसे व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से देखे या वस्तुपरक दृष्टिकोण से, पुरुषों को महिलाओं की तुलना में पृथ्वी पर अपने अस्तित्व के लिए अधिक तनाव झेलना होता है, जो निश्चित रूप से परमेश्वर के विधान और आयोजन का नतीजा है। इस मामले में, पुरुषों को इसे परमेश्वर से स्वीकारना होगा और उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाना होगा जो उन्हें निभाने चाहिए; विशेष रूप से, शादी की संरचना में ऐसे लोग जिनके परिवार और पति या पत्नी हैं, उन्हें अपनी जिम्मेदारियों से भागने या उन्हें ठुकराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जीवन बहुत कठिन, कड़वा या थकाऊ है। अगर तुम कहते हो, “मैं यह जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहता, और मैं मेहनत नहीं करना चाहता,” तो तुम शादी से पीछे हटने या शादी को ठुकराने का फैसला कर सकते हो। तो, शादी करने से पहले, तुम्हें इस बारे में सोचना चाहिए और स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि वे कौन सी जिम्मेदारियाँ हैं जो परमेश्वर एक शादीशुदा पुरुष से अपने ऊपर लेने की अपेक्षा करता है, तुम उन्हें पूरा कर सकते हो या नहीं, तुम उन्हें अच्छी तरह से निभा सकते हो या नहीं, तुम अपनी भूमिका ठीक से निभा सकते हो या नहीं, क्या तुम परमेश्वर के आदेश का पालन कर सकते हो, और क्या तुम परिवार की उन जिम्मेदारियों का बोझ उठा सकते हो जो परमेश्वर तुम्हें देगा। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास यह सब अच्छी तरह से करने की आस्था नहीं है या अगर तुम यह सब करने के इच्छुक नहीं हो—अगर तुम यह नहीं करना चाहते—अगर तुम इस जिम्मेदारी और दायित्व से इनकार करते हो, परिवार के भीतर और शादी की संरचना में कोई बोझ उठाने से इनकार करते हो, तो तुम्हें शादी नहीं करनी चाहिए। पुरुष और महिला दोनों के लिए, शादी का मतलब है जिम्मेदारियाँ और बोझ उठाना; यह कोई मामूली बात नहीं है। भले ही यह पवित्र चीज नहीं है, मेरी समझ में, कम से कम यह गंभीर तो जरूर है, और लोगों को इसके प्रति अपना रवैया सुधारना चाहिए। शादी दैहिक वासनाओं से खेलने के लिए नहीं है, न ही यह अपनी क्षणिक भावनात्मक जरूरतों को पूरा करने के लिए है, अपनी जिज्ञासा को पूरा करने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं है। यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है; और बेशक, इससे भी बढ़कर, यह इस बात की पुष्टि और सत्यापन है कि किसी पुरुष या महिला में शादी की जिम्मेदारियाँ उठाने की क्षमता और आस्था है या नहीं। अगर तुम नहीं जानते कि तुममें शादी की जिम्मेदारियों और दायित्वों को उठाने की क्षमता है या नहीं, अगर तुम इन चीजों से पूरी तरह अनजान हो, या अगर तुम शादी ही नहीं करना चाहते—या अगर तुम्हें इस विचार से भी चिढ़ है—अगर तुम पारिवारिक जीवन की जिम्मेदारियों और दायित्वों को नहीं उठाना चाहते, फिर चाहे वे छोटे-मोटे मामले हों या बड़े, और तुम अकेले रहना चाहते हो—“परमेश्वर ने कहा था कि अकेले रहना ठीक नहीं है, पर मुझे लगता है कि अकेले रहना बहुत अच्छा है”—तब तुम शादी को ठुकरा सकते या अपनी शादी को छोड़ भी सकते हो। यह अलग-अलग व्यक्ति के मामले में भिन्न होता है, और हरेक व्यक्ति स्वतंत्र रूप से फैसला कर सकता है। मगर, चाहे तुम कुछ भी कहो, अगर तुम मानवजाति की सबसे पहली शादी के संबंध में बाइबल में मौजूद परमेश्वर के कथनों और विधानों को देखोगे, तो तुम्हें पता चलेगा कि शादी कोई खेल नहीं है, न ही कोई मामूली बात है; बेशक यह वह कब्र तो कतई नहीं है, जैसा कि लोग इसके बारे में कहते हैं। शादी परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और निर्धारित है। मनुष्य की शुरुआत से ही, परमेश्वर ने इसे निर्धारित और व्यवस्थित किया है। तो वे सांसारिक कहावतें—“शादी एक कब्र है,” “शादी ऐसा शहर है जिसकी घेराबंदी की गई है,” “शादी एक त्रासदी है,” “शादी एक आपदा है,” वगैरह—क्या इन बातों में कोई दम है? (नहीं।) इन बातों में कोई दम नहीं है। शादी को बिगाड़ने, भ्रष्ट करने और कलंकित करने के बाद भ्रष्ट मानवजाति की शादी के बारे में यही समझ है। उचित शादी को बिगाड़ने, भ्रष्ट करने और कलंकित करने के बाद, वे इसकी आलोचना भी करते हैं, कुछ अनुचित भ्रांतियाँ बोलते हैं, शैतानी बातें फैलाते हैं, जिसकी वजह से, परमेश्वर में विश्वास करने वाले भी गुमराह हो जाते हैं, इसलिए शादी के बारे में उनके दृष्टिकोण भी गलत और असामान्य होते हैं। क्या तुम लोगों को भी गुमराह और भ्रष्ट किया गया है? (हाँ।) फिर हमारी संगति से, जब तुम्हें शादी की सटीक और सही समझ मिल जाती है, तब अगर कोई तुमसे दोबारा पूछे, “क्या तुम जानते हो कि शादी क्या है?” तो क्या तब भी तुम यही कहोगे, “शादी एक कब्र है”? (नहीं।) क्या यह कथन सही है? (नहीं।) क्या तुम्हें ऐसा कहना चाहिए? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि शादी परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और निर्धारित है, तो मनुष्यों को इसके प्रति सही रवैया रखना चाहिए। अगर लोग “शादी एक कब्र है” कहते हुए मनमर्जी से काम करते हैं, अपनी वासनाओं में लिप्त रहते हैं, व्याभिचार करते हुए बुरे परिणाम लाते हैं, तो मैं बस इतना ही कह सकता हूँ कि वे अपनी कब्र खुद खोद रहे हैं और अपने लिए ही मुसीबत खड़ी कर रहे हैं; वे शिकायत नहीं कर सकते। इसका परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा ही है न? यह कहना कि शादी एक कब्र है, शैतान का शादी और एक सकारात्मक मामले को तोड़ना-मरोड़ना और उसकी निंदा करना है। कोई चीज जितनी ज्यादा सकारात्मक होती है, उतना ही ज्यादा शैतान और भ्रष्ट मानवजाति उसे तोड़-मरोड़कर किसी बुरी चीज में बदल देती है। क्या यह दुष्टता नहीं है? अगर कोई व्यक्ति पाप में जीता है, व्यभिचार और प्रेम त्रिकोणों में उलझा रहता है, तो लोग ऐसा क्यों नहीं कहते? अगर कोई व्यक्ति विवाहेतर संबंध रखता है, तो लोग उसके बारे में क्यों नहीं कहते? उचित शादी न तो विवाहेतर संबंध है, और न ही स्वच्छंद संभोग करना है, यह शारीरिक वासनाओं की संतुष्टि नहीं है, न ही यह कोई मामूली बात है; बेशक यह कब्र तो कतई नहीं है। यह एक सकारात्मक चीज है। परमेश्वर ने मनुष्य के लिए शादी निर्धारित और आयोजित की है, और उसने इसके संबंध में जिम्मेदारी और आदेश दिए हैं; बेशक, उसने आदेश देकर शादी में दोनों पक्षों को जिम्मेदारियाँ और दायित्व भी सौंपे हैं; साथ ही, शादी क्या होती है इसके बारे में अपने कथन भी दिए हैं। शादी सिर्फ एक पुरुष और एक महिला के बीच ही हो सकती है। बाइबल में, क्या परमेश्वर ने एक आदमी बनाया, फिर दूसरा आदमी बनाया, और फिर उनकी शादी कर दी? नहीं, दो पुरुषों या दो महिलाओं के बीच कोई समलैंगिक शादी नहीं होती है। शादी सिर्फ एक पुरुष और महिला के बीच होती है। शादी में एक पुरुष और एक महिला शामिल होते हैं, जो न केवल भागीदार होते हैं, बल्कि सहयोगी भी होते हैं, जो एक-दूसरे का साथ देते हैं, एक-दूसरे की देखभाल करते हैं और परस्पर अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हैं; वे अच्छी तरह से रहते हैं और अपने जीवन पथ पर एक-दूसरे का ठीक से साथ देते हैं, जीवन के हर कठिन मोड़ पर, हर अलग और विशेष दौर में एक-दूसरे का साथ देते हैं; और बेशक, वे सामान्य वक्त भी साथ गुजारते हैं। यही वह जिम्मेदारी है जिसे शादी में दोनों पक्षों को अपने ऊपर लेनी चाहिए, और यही दायित्व उन्हें परमेश्वर ने सौंपा है। परमेश्वर ने उन्हें क्या सौंपा है? वो सिद्धांत सौंपे हैं जिनका लोगों को पालन और अभ्यास करना चाहिए। तो, शादी करने वाले हर व्यक्ति के लिए शादी सार्थक है। इसका तुम्हारे निजी अनुभव और ज्ञान के साथ-साथ तुम्हारी मानवता के विकास, परिपक्वता और पूर्णता पर पूरक प्रभाव पड़ता है। वहीं दूसरी ओर, अगर तुमने शादी नहीं की है, और सिर्फ अपने माँ-बाप के साथ रहते हो, या जीवन भर अकेले रहते हो, या अगर तुम्हारी शादी सामान्य नहीं है, ऐसी शादी है जो अनैतिक है और परमेश्वर द्वारा निर्धारित नहीं है, तब तुम जो अनुभव करोगे वह जीवन अनुभव, ज्ञान या सामना नहीं होगा, न ही यह उस मानवता का विकास, परिपक्वता और पूर्णता होगी जो तुम्हें एक उचित शादी से मिलती। शादी में, दो लोग आपस में साथ देने और एक-दूसरे को सहारा देने के अनुभव के अलावा, बेशक जीवन में आने वाली असहमतियों, विवादों और विरोधाभासों का भी अनुभव करते हैं। साथ ही, वे बच्चों को जन्म देने का दर्द, बच्चों को शिक्षित करने और उनका पालन-पोषण करने, अपने बुजुर्गों की देखभाल करने, अगली पीढ़ी को बड़े होते देखने, अगली पीढ़ी को अपनी तरह ही शादी करते और बच्चे पैदा करते हुए देखने का अनुभव करते हैं, जिसमें सब कुछ पहले की तरह दोहराया जाता है। इस तरह, लोगों के जीवन का अनुभव, ज्ञान या जिन चीजों का वे सामना करते हैं वह काफी समृद्ध और विविधतापूर्ण होता है, है न? (बिल्कुल।) अगर तुमने परमेश्वर में विश्वास करने से पहले, परमेश्वर के कार्य, वचनों, न्याय और ताड़ना को स्वीकारने से पहले ऐसा अनुभव किया था, और इसके अलावा, अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद उसकी आराधना और अनुसरण करने में सक्षम थे, तो तुम्हारा जीवन ज्यादातर लोगों की तुलना में थोड़ा अधिक प्रचुर होगा; तुम्हारा अनुभव और व्यक्तिगत समझ थोड़ी ज्यादा होगी। बेशक, मैं जिन चीजों के बारे में बात कर रहा हूँ वे सब इस धारणा पर आधारित हैं कि परमेश्वर द्वारा नियत की गई शादी की संरचना के तहत तुम्हें अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को, पुरुष-महिला की जिम्मेदारियों और दायित्वों को और पति-पत्नी की जिम्मेदारियों और दायित्वों को ईमानदारी से निभाना चाहिए। ये ऐसी चीजें हैं जो की जानी चाहिए। अगर तुम अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को नहीं निभाते हो, तो तुम्हारी शादी खराब हो जाएगी, यह विफल हो जाएगी, और आखिर में, तुम्हारी शादी टूट जाएगी। तुम एक टूटी हुई, असफल शादी का अनुभव करोगे; साथ ही, शादी तुम्हारे लिए मुसीबतें, उलझनें, पीड़ा और अशांति लाएगी। अगर शादी करने वाले दोनों पक्ष पहल नहीं कर सकते और व्यक्तिगत रूप से अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा नहीं कर सकते हैं, तो वे एक-दूसरे से बहस करेंगे और एक-दूसरे की बात काटेंगे। समय के साथ, उनके बीच बहस बढ़ती चली जाएगी, उनके विरोधाभास अधिक गहरे होते जाएँगे, और उनकी शादी में दरारें दिखाई देने लगेंगी; जब दरारें ज्यादा समय तक रहेंगी, तो वे अपनी टूटी हुई शादी के दर्पण को दोबारा जोड़ नहीं पाएँगे, और ऐसी शादी यकीनन टूटने के कगार पर, विनाश की ओर अग्रसर होगी—ऐसी शादी यकीनन विफल हो जाती है। तो तुम्हारे परिप्रेक्ष्य से, परमेश्वर ने जो शादी निर्धारित की है वह तुम्हारी इच्छाओं के अनुसार नहीं है, और तुम इसे अनुपयुक्त मानते हो। तुम ऐसा क्यों सोचते हो? क्योंकि शादी की संरचना में, तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं और आदेशों के अनुसार कुछ भी नहीं करते; तुम स्वार्थी ढंग से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने, अपनी प्राथमिकताओं और इच्छाओं के साथ-साथ अपनी कल्पना को साकार करने की कोशिश करते हो। तुम अपने आप को रोकते नहीं हो या अपने साथी की ओर से बदलाव नहीं करते, न ही कोई दर्द सहते हो; बल्कि, तुम बस अपने बहानों, अपने लाभ और प्राथमिकताओं पर जोर देते हो, और तुम कभी भी अपने साथी के बारे में नहीं सोचते। आखिर में क्या होगा? तुम्हारी शादी टूट जाएगी। शादी लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के कारण टूटती है। लोग बहुत स्वार्थी होते हैं, तो पति-पत्नी भी, जिन्हें एक होना चाहिए, एक साथ सामंजस्य बनाकर रहने में असमर्थ होते हैं, एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति रखने, एक-दूसरे को समझने, दिलासा देने और स्वीकारने में असमर्थ होते हैं, या एक-दूसरे के लिए चीजों को बदलने और त्यागने में भी असमर्थ होते हैं। तुम देख सकते हो कि मानवजाति कितनी भ्रष्ट हो गई है। शादी लोगों के आचरण को संयमित नहीं कर सकती, न ही यह लोगों को उनकी स्वार्थी इच्छाओं को त्यागने के लिए मजबूर कर सकती है; तो समाज से ऐसे कोई नैतिक सिद्धांत या अच्छी प्रथाएं नहीं मिलती हैं जो लोगों को बेहतर बना सके, या जो उनकी अंतरात्मा और विवेक को बनाए रख सके। इसलिए, जब शादी की बात आए, तो लोगों को इसे उस तरह से जानना चाहिए जैसे परमेश्वर ने सबसे पहले मनुष्य के लिए शादी निर्धारित की थी। बेशक, उन्हें इस मामले को परमेश्वर से भी समझना चाहिए। इन बातों को परमेश्वर से समझना ही शुद्ध है, और जब लोग यह सब समझने में सक्षम होंगे, तो जिस कोण और नजरिये से वे शादी को देखेंगे वह सही होगा। शादी के बारे में उनका कोण और नजरिया सिर्फ इसलिए सही नहीं होना चाहिए ताकि वे शादी की अवधारणा और सही परिभाषा को जानें; बल्कि इसलिए भी कि शादी से सामना होने पर लोगों के पास अभ्यास का उचित, सही, सटीक, और तर्कपूर्ण तरीका हो, ताकि वे शादी के प्रति अपने रवैये में शैतान या संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों के विभिन्न विचारों से गुमराह न हों। जब तुम लोग परमेश्वर के वचनों के आधार पर शादी का चयन करते हो, तो तुममें से जो महिलाएँ हैं, उन्हें स्पष्ट रूप से यह देखना चाहिए कि क्या उनका साथी उस प्रकार का व्यक्ति है जो एक पुरुष की उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करने में सक्षम होगा, जैसा कि परमेश्वर ने बताया है, क्या वह इस लायक है कि वे उसे अपना पूरा जीवन सौंप सकें। तुममें से जो पुरुष हैं, उन्हें स्पष्टता से यह देखना होगा कि वह महिला उस प्रकार की इंसान है या नहीं जो पारिवारिक जीवन और अपने पति की खातिर अपने लाभ को अलग रखने, अपनी कमियों और खामियों को बदलने में सक्षम है। तुम्हें इन सभी बातों और इसके अलावा भी कई बातों पर विचार करना चाहिए। अपनी कल्पना या क्षणिक रुचियों या शौक पर भरोसा मत करो; आँखें मूंदकर शादी का चयन करने के लिए प्रेम और रूमानियत के उन गलत विचारों पर तो बिल्कुल भी भरोसा मत करो जिन्हें शैतान तुम्हारे मन में भरता है। इस संगति के साथ, क्या हर कोई इस बारे में स्पष्ट है कि शादी को लेकर लोगों के क्या विचार, दृष्टिकोण, कोण और नजरिये होने चाहिए और साथ-साथ शादी के संबंध में उन्हें कौन सा अभ्यास चुनना चाहिए और किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? (बिल्कुल है।)

आज, हमने अभी तक शादी के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने के बारे में बात नहीं की है; हमने सिर्फ शादी की परिभाषा और अवधारणा को स्पष्ट किया है। क्या मैंने इस विषय पर स्पष्टता से बात नहीं की? (बिल्कुल की है।) मैंने स्पष्ट रूप से बात की है। क्या शादी के बारे में तुम लोगों को अभी भी कोई शिकायत है? (नहीं।) और जिससे तुम्हारी कभी शादी हुई थी, जिसे तुमने छोड़ दिया था, क्या तुम्हारे मन में उनके लिए कोई दुश्मनी है? (नहीं।) क्या शादी के बारे में तुम लोगों की असामान्य, पक्षपाती समझ और दृष्टिकोण, या यहाँ तक कि तुम्हारी बचकानी कल्पनाएँ, जो तथ्यों के अनुरूप नहीं थीं, अभी भी मौजूद हैं? (नहीं।) अब तुम्हें और अधिक यथार्थवादी होना चाहिए। मगर शादी कोई रोजमर्रा की जरूरतों वाला साधारण मामला नहीं है। इसका संबंध सामान्य मानवता वाले लोगों के जीवन, और लोगों की जिम्मेदारियों और दायित्वों से है, और इसके अलावा, और भी कई व्यावहारिक मानक और सिद्धांत हैं जिनके बारे में परमेश्वर ने लोगों को चेतावनी दी है, उनसे अपेक्षा की है, और उन्हें आदेश दिया है। ये वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं जिन्हें लोगों को निभाना चाहिए, और ये वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं जिनका बीड़ा उन्हें खुद उठाना चाहिए। यह शादी की ठोस परिभाषा है और शादी के मजबूत अस्तित्व का महत्व है, जो सामान्य मानवता वाले लोगों में जरूर होना चाहिए। अच्छा, तो आज की संगति यहीं खत्म करते हैं। अलविदा!

7 जनवरी 2023

फुटनोट :

क. मूल पाठ में, “मनुष्य का तथाकथित ‘रूमानी प्रेम’ बस प्रेम और जूनून का मेल है” यह वाक्यांश नहीं है।

ख. मूल पाठ में, “जैसा कि कुछ राष्ट्रों के लोग कहते हैं” यह वाक्यांश नहीं है।

पिछला: सत्य का अनुसरण कैसे करें (8)

अगला: सत्य का अनुसरण कैसे करें (10)

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें