सत्य का अनुसरण कैसे करें (7)
सत्य का अनुसरण करने का पहला अभ्यास : जाने देना
I. विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ जाने देना
इस अवधि के दौरान, हमारी संगति का मुख्य विषय “सत्य का अनुसरण कैसे करें” रहा है। पिछली बार हमने सत्य का अनुसरण करने के लिए अभ्यास के दो सिद्धांतों का सारांश दिया था। पहला सिद्धांत क्या है? (पहला सिद्धांत है त्याग, और दूसरा है समर्पण।) पहला सिद्धांत है त्याग, और दूसरा है समर्पण। हमने “त्याग” के विषय पर संगति पूरी नहीं की है। “त्याग” का पहला प्रमुख विषय क्या है? (विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्याग देना।) विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के संदर्भ में हमने मुख्य रूप से किस बारे में संगति की थी? हमने मुख्य रूप से लोगों द्वारा अनुभव की जाने वाली नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति की और उनका खुलासा किया, यानी किस प्रकार की नकारात्मक भावनाएँ अक्सर लोगों के दैनिक जीवन में और जीवन पथ पर उनके साथ होती हैं, और उनका त्याग कैसे करें। ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के भीतर एक प्रकार की भावना के रूप में प्रकट होती हैं, लेकिन वास्तव में, वे लोगों के मन में बैठे विभिन्न भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों से उत्पन्न होती हैं। लोगों में विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों के कारण विभिन्न प्रकार की नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती और उनमें उजागर और प्रदर्शित होती हैं। नकारात्मक भावनाओं के मसलों पर हमारी पहले की जा चुकी संगति, लोगों के विभिन्न व्यवहारों, उनके विचारों और दृष्टिकोणों के आधार पर तुम लोगों को क्या समस्याएँ नजर आती हैं? दूसरे शब्दों में, विभिन्न नकारात्मक भावनाओं की बाहरी अभिव्यक्तियों का विश्लेषण करके, क्या तुम लोगों के विचारों के कुछ अंतर्निहित सार को समझ सकते हो? किसी व्यक्ति में नकारात्मक भावनाएँ प्रदर्शित होने पर, यदि हम गहराई में जाकर सावधानीपूर्वक उनका गहन-विश्लेषण करें, तो हम लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उसके विभिन्न गलत विचारों, दृष्टिकोणों और रवैये को देख सकते हैं जो उन नकारात्मक भावनाओं के भीतर छिपे होते हैं, और यहाँ तक कि विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों को अपने भीतर से संभालने और हल करने के उसके तरीकों को भी देख सकते हैं, है ना? (हाँ।) तो, जितनी बार हमने इन नकारात्मक भावनाओं का गहन-विश्लेषण करने के बारे में संगति की है, उसके आधार पर क्या हम कह सकते हैं कि लोगों के विभिन्न गलत, भ्रामक, पक्षपाती, नकारात्मक और प्रतिकूल विचार और दृष्टिकोण उनकी नकारात्मक भावनाओं के भीतर छिपे होते हैं? क्या हम ऐसा कह सकते हैं? (हाँ, कह सकते हैं।) मैंने अभी क्या कहा? (परमेश्वर ने यही कहा कि लोगों के विभिन्न गलत, भ्रामक, पक्षपाती, नकारात्मक और प्रतिकूल विचार और दृष्टिकोण उनकी नकारात्मक भावनाओं में छिपे होते हैं।) क्या तुम्हें मेरी बात साफ तौर पर समझ आई? (हाँ, मैंने आपकी बात समझ ली है।) यदि हम इन नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति नहीं करते हैं, तो शायद लोग सामने आने वाली अस्थायी या दीर्घकालिक नकारात्मक भावनाओं पर अधिक ध्यान न दें। लेकिन, नकारात्मक भावनाओं के भीतर छिपे विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों का गहन-विश्लेषण करने के बाद, क्या लोग इस तथ्य को स्वीकारते हैं? विभिन्न नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण लोगों की विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के भीतर छिपे होते हैं। दूसरे शब्दों में, जब कोई व्यक्ति नकारात्मक भावनाओं का अनुभव करता है, तो सतही तौर पर ये कुछ भावनाओं जैसी प्रतीत हो सकती हैं। वे अपनी भावनाओं को जाहिर कर सकते हैं, निराशाजनक बातें कह सकते हैं, हताशा फैला सकते हैं और कुछ नकारात्मक परिणाम ला सकते हैं, या ऐसे काम कर सकते हैं जो अपेक्षाकृत चरम स्तर के हों। बाहर से यही दिखता है। लेकिन, नकारात्मक भावनाओं और चरम व्यवहार की इन अभिव्यक्तियों के पीछे, दरअसल लोगों में विभिन्न नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण मौजूद होते हैं। इसलिए, भले ही इस अवधि के दौरान हम नकारात्मक भावनाओं पर चर्चा करते रहे हैं, पर वास्तव में, हम लोगों की विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को उजागर कर उनका विश्लेषण करते हुए, उनके विभिन्न नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों का विश्लेषण कर रहे हैं। हम इन विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर क्यों करते हैं? क्या ये नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण केवल लोगों की भावनाओं को प्रभावित करते हैं? क्या यह केवल इसलिए क्योंकि वे लोगों में नकारात्मक भावनाओं को जन्म देते हैं? नहीं, ये गलत विचार और दृष्टिकोण केवल किसी की भावनाओं और अनुसरणों को ही प्रभावित नहीं करते हैं; लेकिन, लोग उनकी भावनाओं और बाहरी व्यवहार को ही देख और समझ सकते हैं। इसलिए, हम लोगों के विभिन्न नकारात्मक, प्रतिकूल और अनुचित विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर करने के लिए नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण करने का सरल और सुविधाजनक तरीका अपनाते हैं। हम इन विचारों, दृष्टिकोणों और नकारात्मक भावनाओं को इसलिए उजागर करते हैं क्योंकि ये विचार और दृष्टिकोण, लोगों और चीजों को देखने, आचरण करने और वास्तविक जीवन में काम करने के प्रति लोगों की सोच और रवैये से संबंधित हैं। उनका संबंध लोगों के जीवित रहने के लक्ष्यों और दिशा से, और स्वाभाविक रूप से जीवन पर उनके विचारों से भी है। इसलिए, हमने कुछ नकारात्मक भावनाओं को इस तरह उजागर किया है। बहरहाल, विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति करने का मुख्य उद्देश्य लोगों के विभिन्न भ्रामक, नकारात्मक और प्रतिकूल विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर करना और उनका गहन-विश्लेषण और समाधान करना है। इन नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर करने के हमारे प्रयास से लोग, विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उनके विचारों में मौजूद गलत नजरिये, रवैये और परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट रूप से पहचानने में सक्षम होंगे। इससे इन नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों के कारण उत्पन्न होने वाली विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का समाधान करने में मदद मिलती है और इस प्रकार लोग इन भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को पहचान पाते हैं और इनकी असलियत देख पाते हैं, जिसके बाद वे सही मार्ग खोज सकते हैं, उन्हें त्याग सकते हैं और अंततः उन्हें पूरी तरह से छोड़ सकते हैं। अंतिम लक्ष्य यह है कि व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में या अपने पूरे जीवनकाल के दौरान विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का सही विचारों और दृष्टिकोण के साथ सामना करने, देखने, संभालने और उन्हें हल करने की क्षमता विकसित करे। संक्षेप में, इसका वांछित परिणाम क्या होगा? इसका उद्देश्य यह है कि लोग अपने भीतर मौजूद विभिन्न नकारात्मक विचारों को पहचान और समझ सकें, और उन्हें पहचानने के बाद, अपने जीवन और जीवन-पथ में इन गलत विचारों और दृष्टिकोणों को लगातार बदलें और सुधारें; वे सत्य से मेल खाने वाले सही विचारों और दृष्टिकोणों को खोजें, उन्हें स्वीकारें या उनके प्रति समर्पण करें, और अंततः सही विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार जीवन जीएँ और आचरण करें। यही उद्देश्य है। क्या तुम लोग सहमत हो? (हाँ।) सतही तौर पर, हम लोगों की नकारात्मक भावनाओं को उजागर करते हैं, लेकिन वास्तव में, हम विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उनके भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर करते हैं। इसका उद्देश्य लोगों को विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करने और उन्हें संभालने के लिए सही विचारों और दृष्टिकोण का उपयोग करने में सक्षम बनाना है, और आखिर में लोगों और चीजों को देखते, आचरण करते और कार्य करते समय सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम बनाना है। क्या हम वापस “सत्य का अनुसरण कैसे करें” के मूल विषय पर नहीं आ गए? (हाँ।)
विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के बारे में संगति मुख्य विषय से भटके बिना आखिर में “सत्य का अनुसरण कैसे करें” के व्यापक विषय पर ही लौट आती है, है न? (हाँ।) पहले-पहल, कुछ लोग सोच सकते हैं, “विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागने का सत्य का अनुसरण करने से कोई लेना-देना नहीं लगता है। नकारात्मक भावनाएँ केवल अस्थायी मनोदशाएँ या क्षणिक सोच और विचार हैं।” यदि यह एक क्षणिक सोच या अस्थायी मनोदशा है, तो यह उन नकारात्मक भावनाओं के दायरे में नहीं आता है जिनके बारे में हम संगति कर रहे हैं। इन नकारात्मक भावनाओं का वास्ता सिद्धांत और सार की इन समस्याओं से है कि कोई व्यक्ति लोगों और चीजों को कैसे देखता है और खुद कैसा आचरण और कार्य करता है। इनमें वह सही दृष्टिकोण, रवैया और सिद्धांत शामिल हैं, जिन्हें लोगों को अपने जीवन में दृढ़तापूर्वक बनाए रखना और पालन करना चाहिए, साथ ही इनमें उनके जीवन के विचार और जीवन जीने के तौर-तरीके भी शामिल हैं। इन चीजों के बारे में संगति करने का अंतिम उद्देश्य लोगों को इस तरह से सक्षम बनाना है कि जीवन में विभिन्न मामलों का सामना होने पर वे इन्हें अपनी स्वाभाविकता या उग्रता के साथ न संभालें या इन समस्याओं से अपने भ्रष्ट स्वभावों द्वारा न निपटें। बेशक इसका मतलब यह भी है कि वे समाज द्वारा उनके मन में बिठाए गए विभिन्न शैतानी फलसफों के आधार पर इन समस्याओं से नहीं निपटेंगे। बल्कि, वे उनसे सही तरीके से, उस अंतरात्मा और विवेक के साथ निपटेंगे जो जीवन में आने वाली समस्याओं से निपटते समय व्यक्ति में होना ही चाहिए। इसके अलावा, सामान्य मानवीय अंतरात्मा और विवेक की बुनियादी स्थितियों में, वे जीवन और अस्तित्व में शामिल तथा सामना किए जाने वाले विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ परमेश्वर के वचनों, सत्य और परमेश्वर द्वारा सिखाए गए विभिन्न सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करेंगे। इस उद्देश्य को हासिल करने की खातिर ही विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति और उनका विश्लेषण किया जाता है। समझा तुमने? (हाँ, समझ गया।) तो बताओ। (इन नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति करने और उनका गहन-विश्लेषण करने में परमेश्वर का उद्देश्य, लोगों को उनकी नकारात्मक भावनाओं के भीतर मौजूद गलत विचारों और दृष्टिकोणों का भेद पहचानने और उन्हें बदलने में सक्षम बनाना है, ताकि वे इन नकारात्मक भावनाओं को त्याग सकें और जीवन में अंतरात्मा और विवेक पर निर्भर होकर, परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना कर सकें और उनसे सही तरीके से निपटें। इससे उन्हें धीरे-धीरे जीवन के प्रति अपना नजरिया बदलने, लोगों और चीजों को सत्य के आधार पर देखने, आचरण करने, सत्य के अनुसार कार्य करने और अपनी सामान्य मानवता का जीवन जीने में मदद मिलती है।) अगर मैंने इन नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति नहीं की या उनका गहन-विश्लेषण नहीं किया, अगर मैंने लोगों के विभिन्न नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों के बारे में न तो संगति की और न ही उन्हें उजागर किया, तो जब लोगों के दैनिक जीवन में समस्याएँ आएँगी, तब वे अक्सर गलत रुख और परिप्रेक्ष्य अपनाएँगे, इन मामलों का सामना करने, इन्हें संभालने और हल करने के लिए भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग करेंगे। इस तरह, काफी हद तक, लोग अक्सर इन नकारात्मक विचारों से बाध्य, बंधे हुए और नियंत्रित होंगे, और जीवन में विभिन्न समस्याओं को परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार या परमेश्वर के वचनों में उजागर किए गए सिद्धांतों और तरीकों से संभालने में असमर्थ होंगे। बेशक, यदि किसी व्यक्ति के पास विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति सही विचार और दृष्टिकोण के साथ-साथ सही परिप्रेक्ष्य और रुख भी है, तो इससे उसे इन लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते हुए सही परिप्रेक्ष्य के साथ इनसे निपटने या कम-से-कम सामान्य मानवीय अंतरात्मा और विवेक के दायरे में रहकर इन्हें संभालने में मदद मिलेगी, और वे विभिन्न समस्याओं से उग्रता के साथ या अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार निपटने से बचेंगे, जिनसे अनावश्यक परेशानी और अनचाहे परिणाम सामने आ सकते हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति अपने भविष्य, बीमारी, परिवार, शादी, प्रेम, पैसा, लोगों के बीच संबंधों और अपनी प्रतिभाओं के साथ-साथ अपने सामाजिक दर्जे और मूल्य और इसी तरह की अन्य समस्याओं को कैसे देखता है, यह सत्य समझने से पहले उसने अपने परिवार या समाज में जो कुछ सुना और सीखा है या जिन चीजों से प्रभावित हुआ है उन पर निर्भर करता है, और साथ ही उनके कुछ अनुभवों या तरीकों पर भी जो उन्होंने स्वयं तैयार किया है। हरेक व्यक्ति के पास चीजों को देखने का अपना अनूठा तरीका होता है, और हरेक व्यक्ति मामलों से निपटते समय एक खास रवैया अपनाने पर जोर देता है। बेशक, लोगों का चीजों को देखने के विभिन्न तरीकों में एक सामान्य कारक यह है कि वे सभी नकारात्मक, प्रतिकूल, भ्रामक या पक्षपाती विचारों और दृष्टिकोणों के अधीन होते हैं और उनके द्वारा शासित और नियंत्रित किए जाते हैं। उनका अंतिम लक्ष्य अपनी शोहरत, भाग्य और स्वार्थ को हासिल करना है। साफ तौर पर कहें, तो ये विचार और दृष्टिकोण शैतान द्वारा उनके मन में बिठाए विचारों और शिक्षाओं से आते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि वे उन विभिन्न भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों से उत्पन्न होते हैं जिन्हें शैतान संपूर्ण मानवजाति में फैलाता है, जिनका वह समर्थन और पोषण करता है। इन भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों के निर्देशन में, लोग अनजाने में खुद को बचाने और अपने फायदों का अधिकतम लाभ उठाने के लिए इनका उपयोग करते हैं। वे खुद को सुरक्षित करने और अपने फायदों का अधिकतम लाभ उठाने के लिए समाज और दुनिया से उत्पन्न होने वाले इन विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग करने की भरसक कोशिश करते हैं, ताकि वे अपने स्वार्थों की पूर्ति कर सकें। जाहिर है कि सब कुछ हासिल करने की यह लालसा कहीं नहीं रुकती है और यह अंतरात्मा और विवेक के साथ-साथ नैतिक सीमाओं को भी पार कर जाती है। इसलिए, इन नकारात्मक भावनाओं और नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों के निर्देशन में, कोई व्यक्ति लोगों और चीजों को कैसे देखता है और खुद कैसा आचरण और कार्य करता है इसका अंतिम नतीजा केवल लोगों को आपसी शोषण, धोखे, नुकसान और संघर्ष की ओर ले जा सकता है। आखिर में, विभिन्न नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों के निर्देशन, बंधन या बहकावे में आकर, लोग परमेश्वर की अपेक्षाओं से या यहाँ तक कि अपने आचरण और कार्य करने के तरीके में परमेश्वर द्वारा सिखाए गए सिद्धांतों से भी दूर चले जाएँगे। यह भी कहा जा सकता है कि विभिन्न नकारात्मक विचारों के निर्देशन और बहकावे में आकर, लोग कभी भी वास्तव में सत्य को प्राप्त नहीं करेंगे और न ही परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार सत्य का अभ्यास करने की वास्तविकता में प्रवेश कर पाएँगे। उनके लिए सत्य को कसौटी मानकर लोगों और चीजों पर अपने विचारों, आचरण और कार्यों को परमेश्वर के वचनों पर आधारित करने के सिद्धांत का पालन करना भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए, जब लोग अपनी नकारात्मक भावनाओं का समाधान करते हैं, तब वास्तव में उन्हें विभिन्न नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों को त्यागने की भी आवश्यकता होती है। जब लोग अपने भीतर के विभिन्न गलत विचारों और दृष्टिकोणों को पहचान लेते हैं, तभी वे हर प्रकार की नकारात्मक भावना को त्याग सकते हैं। बेशक, जैसे-जैसे लोग विभिन्न नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों को त्यागते हैं, उनकी नकारात्मक भावनाएँ भी काफी हद तक दूर हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, आओ उन हताश भावनाओं पर विचार करें जिनके बारे में हमने पहले संगति की थी। सरल शब्दों में, यदि किसी व्यक्ति में लगातार यह महसूस करने के कारण कि उसकी किस्मत खराब है, ये नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, तो जब वह अपनी किस्मत के खराब होने के उन विचारों और दृष्टिकोणों पर कायम रहता है, तो वह अनजाने में ही हताशा की भावना में डूब जाता है। इसके अलावा, उसकी व्यक्तिपरक चेतना लगातार यह विश्वास दिलाती है कि उसकी किस्मत खराब है। जब भी उसके सामने थोड़ी कठिन या चुनौतीपूर्ण स्थिति आती है, तो वह सोचता है, “अरे, मेरी तो किस्मत ही खराब है।” वह इसके लिए अपनी खराब किस्मत को जिम्मेदार ठहराता है। नतीजतन, वह निराशा, हताशा और अवसाद की नकारात्मक भावनाओं में जीता है। यदि लोग जीवन में आने वाली विभिन्न कठिनाइयों का सही ढंग से सामना कर सकें या नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण उत्पन्न होने पर सत्य की खोज कर सकें, उनका सामना करने के लिए परमेश्वर के वचनों पर भरोसा कर पाएँ, यह पहचान सकें कि मनुष्य की नियति क्या है, और यह विश्वास कर पाएँ कि उनकी किस्मत परमेश्वर के हाथों में और उसके नियंत्रण में है, तब वे जीवन की इन विपत्तियों, चुनौतियों, बाधाओं और कठिनाइयों का सही ढंग से सामना कर पाएँगे या इन संघर्षों को सही ढंग से समझ सकेंगे। ऐसा करने पर, क्या खराब किस्मत होने के बारे में उनकी सोच और दृष्टिकोण में कोई बदलाव आता है? साथ ही, क्या वे इन समस्याओं का सामना करने के लिए उचित रुख अपना पाते हैं? (हाँ।) जब लोग इन समस्याओं का सामना करने में सही रुख अपनाते हैं, तो उनकी हताशा की भावनाएँ धीरे-धीरे सुधरने लगती हैं, गंभीर से मध्यम, फिर मध्यम से हल्की, और फिर हल्की स्थिति से पूरी तरह समाप्त होकर उनके अस्तित्व से गायब हो जाती हैं। अंततः, उनकी हताशा की भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए है क्योंकि “मेरी किस्मत ही खराब है” की उनकी पहले वाली सोच और दृष्टिकोण में बदलाव आता है। इसके ठीक हो जाने के बाद वे अब और अपनी किस्मत को हताशा की भावना से नहीं देखते, बल्कि मसलों का सामना एक सक्रिय और आशावादी रवैये के साथ, परमेश्वर की शिक्षाओं के तरीकों के साथ और उस नियति के सार के परिप्रेक्ष्य के साथ करते हैं जो परमेश्वर ने मानवता को प्रकट की है। इसलिए, जब वे पहले आ चुकी समस्या का फिर से सामना करते हैं, तो वे अब अपनी नियति को खराब किस्मत के विचारों और दृष्टिकोणों से नहीं देखते हैं, और न ही हताशा की भावनाओं के साथ इन समस्याओं का विरोध या विद्रोह करते हैं। भले ही शुरू में वे उन्हें अनदेखा कर सकते हैं या उनके प्रति बेरुखी दिखा सकते हैं, लेकिन समय के साथ, जैसे-जैसे वे सत्य के अनुसरण की गहराई में जाते हैं और उनका आध्यात्मिक कद बढ़ता है, लोगों और चीजों को देखने का उनका परिप्रेक्ष्य और रुख लगातार ठीक होता जाता है, तो उनकी हताशा की भावनाएँ न केवल समाप्त हो जाती हैं, बल्कि वे अधिक सक्रिय और आशावादी भी बन जाते हैं। आखिर में, वे मनुष्य की नियति की प्रकृति की पूरी समझ और स्पष्ट अंतर्दृष्टि प्राप्त कर लेते हैं। वे परमेश्वर के आयोजन के प्रति समर्पण के रवैये या इसकी वास्तविकता के साथ इन मामलों को सही ढंग से संभाल और निपटा सकते हैं। उस समय, वे अपनी हताशा की भावनाओं को पूरी तरह से त्याग देते हैं। ऐसी है नकारात्मक भावनाओं को त्यागने की प्रक्रिया, यह जीवन का एक महत्वपूर्ण विषय है। सार में, जब कोई नकारात्मक भावना किसी व्यक्ति के दिल में गहराई से जड़ें जमा लेती है या लोगों और चीजों को देखने के उनके तरीके, उनके आचरण और कार्यों को प्रभावित करती है, तो यह निस्संदेह एक साधारण नकारात्मक भावना से कहीं अधिक है। इसके पीछे इस बारे में, उस बारे में या किसी अन्य मामले के बारे में कोई गलत विचार या दृष्टिकोण होता है। ऐसे मामलों में, तुम्हें न केवल नकारात्मक भावनाओं के स्रोत का विश्लेषण करना है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें अपनी नकारात्मक भावनाओं के भीतर छिपे हत्यारे का भी गहराई से विश्लेषण करना है। यह छिपा हुआ तत्व एक नकारात्मक विचार या दृष्टिकोण है, चीजों से निपटने के लिए एक गलत या भ्रामक विचार या दृष्टिकोण है जो लंबे समय से तुम्हारे दिल में गहराई तक जड़ें जमाए बैठा है। भ्रामक और नकारात्मक पहलुओं के संदर्भ में, यह विचार या दृष्टिकोण यकीनन सत्य का खंडन करता है और उसके बिल्कुल विपरीत है। इस समय, तुम्हारा काम केवल इसके बारे में सोचना, इसका विश्लेषण करना और इससे परिचित होना ही नहीं है, बल्कि इससे होने वाले नुकसान, तुम पर इसके नियंत्रण और बंधन, और तुम्हारे सत्य के अनुसरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को गहराई और पूर्ण रूप से समझना भी है। इसलिए, तुम्हें विभिन्न नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर करना, उनका विश्लेषण करना, और उन्हें पहचानना होगा; साथ ही, तुम्हें परमेश्वर द्वारा संगति में बताए गए सत्य सिद्धांतों के अनुसार उन्हें पहचानने और उनकी असलियत देखने के लिए परमेश्वर के वचन भी खोजने होंगे, अपने गलत या नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों का स्थान सत्य को देकर उन नकारात्मक भावनाओं को पूरी तरह से ठीक करना होगा जो तुम्हें उलझाते रहे हैं। यही नकारात्मक भावनाओं को ठीक करने का मार्ग है।
कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अब तक अपने अंदर कोई नकारात्मक भावना नहीं देखी।” कोई बात नहीं, देर-सबेर, सही समय पर, सही माहौल में, या जब तुम सही उम्र या जीवन के किसी विशेष अहम पड़ाव पर पहुँचोगे, तो ये नकारात्मक भावनाएँ स्वाभाविक रूप से उभरेंगी। तुम्हें जानबूझकर उन्हें तलाशने या खोजकर निकालने की कोई जरूरत नहीं है; कमोबेश, कुछ हद तक वे सभी लोगों के दिलों में मौजूद होती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग मानव संसार में रहते हैं, कोई भी कंप्यूटर की तरह अपने विचारों और दृष्टिकोणों को ध्यान में रखे बिना चीजों को नहीं देखता है, और लोगों के विचार सक्रिय रहते हैं, वे एक ऐसे पात्र की तरह हैं जो सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को प्राप्त करने में सक्षम हैं। दुर्भाग्य से, सकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारना शुरू करने से बहुत पहले ही लोगों ने शैतान, समाज और भ्रष्ट मानवजाति के विभिन्न गलत और त्रुटिपूर्ण विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार लिया था। ये गलत विचार और दृष्टिकोण लोगों की आत्मा की गहराइयों में भरे पड़े हैं, उनके दैनिक जीवन और जीवन पथ पर गंभीर प्रभाव डालते और हस्तक्षेप करते हैं। इसलिए, जिस समय विभिन्न नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण लोगों के जीवन और उनके अस्तित्व में साथ चलते हैं, उसी समय विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ भी उनके जीवन और उनके अस्तित्व के पथ पर साथ चलती हैं। तो, व्यक्ति चाहे कोई भी हो, एक दिन तुम्हें पता चलेगा कि तुममें कुछ नहीं बल्कि बहुत सारी अस्थायी नकारात्मक भावनाएँ हैं। तुममें केवल एक नकारात्मक विचार या दृष्टिकोण मौजूद नहीं है, बल्कि एक साथ कई नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण मौजूद हैं। भले ही वे अब तक उजागर नहीं हुए हैं, ये बस इसलिए है क्योंकि कोई ऐसा उपयुक्त परिवेश, सही समय या ट्रिगर नहीं मिला जो तुम्हें अपने गलत विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर करने या अपनी नकारात्मक भावनाएँ जाहिर करने का कारण बनें या फिर ऐसा परिवेश या समय अभी तक आया ही नहीं है। यदि इनमें से एक भी कारक काम करने लगे, तो यह आग में घी का काम करेगा, तुम्हारी नकारात्मक भावनाओं और नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोण को चिंगारी लगाएगा, जिससे वे फट पड़ेंगे। तुम न चाहते हुए भी उनसे प्रभावित, नियंत्रित और बंधे हुए होगे। यहाँ तक कि वे तुम्हारे लिए बाधाएँ बन सकती हैं और तुम्हारे चुनावों को भी प्रभावित कर सकती हैं। यह सिर्फ समय की बात है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के बारे में हमने संगति की है वे ऐसी समस्याएँ हैं जिनका सामना लोग अपने जीवन में या अपने अस्तित्व के पथ में कर सकते हैं, और वे हर व्यक्ति के जीवन या अस्तित्व में सामने आने वाली व्यावहारिक समस्याएँ हैं। वे खोखली नहीं बल्कि ठोस हैं। चूँकि इन नकारात्मक भावनाओं में सीधे तौर पर वे सिद्धांत शामिल हैं जिन्हें कायम रखा जाना चाहिए और वे दृष्टिकोण शामिल हैं जो जीवित रहने को लेकर होना चाहिए, इसलिए हमें इन समस्याओं पर सावधानी से खोजबीन करनी चाहिए और इनका गहन-विश्लेषण करना चाहिए।
ङ. दमन की भावना
3. अपनी आकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने में असमर्थ रहने के कारण दमित महसूस करना
पहले, हमने “दमन” की नकारात्मक भावना के बारे में संगति की थी। हमने “दमन” की समस्या पर कितनी बार संगति की थी? (हमने इसके बारे में दो बार संगति की थी।) हमने पहली बार किस बारे में संगति की थी? (पहली बार हमने इस बारे में संगति की थी कि कैसे लोग अक्सर अपनी इच्छानुसार कार्य नहीं कर पाते हैं, जिससे दमन की नकारात्मक भावनाएँ पैदा होती हैं। दूसरी बार, हमने इस बारे में संगति की थी कि कैसे लोग अपनी विशेषज्ञता का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं और अक्सर दमित नकारात्मक भावनाओं की स्थिति में जीते हैं।) हमने इन दो पहलुओं के बारे में संगति की थी। उनसे, क्या हम यह कह सकते हैं कि इसी प्रकार इन दो प्रकार के दमन के पीछे, लोग जीवन को कैसे देखते हैं, इस बारे में विचार और दृष्टिकोण छिपे हैं? पहला प्रकार, जो अपनी इच्छानुसार कार्य न कर पाने से उत्पन्न होता है, किस प्रकार का विचार या दृष्टिकोण दर्शाता है? यह अपनी जिम्मेदारी उठाने की आवश्यकता को समझे बिना आवेग, मनमर्जी, भावना और रुचि के आधार पर काम करते हुए, हमेशा मनमानी करने और गैर-जिम्मेदार बने रहने की मानसिकता है। क्या यह एक प्रकार का रवैया नहीं है जिसे लोग जीवन के प्रति अपनाते हैं? (हाँ।) यह जीवित रहने का एक तरीका भी है। क्या यह एक सकारात्मक दृष्टिकोण और जीवित रहने का तरीका है? (नहीं।) यह सकारात्मक नहीं है। लोग हमेशा अपनी इच्छानुसार जीना चाहते हैं, अपनी मनोदशा, रुचि और शौक के आधार पर मनमाने ढंग से काम करना चाहते हैं। यह जीने का सही तरीका नहीं है; यह नकारात्मक है और इसे हल करना जरूरी है। बेशक, इस नकारात्मक रवैये और जीने के तरीके से उत्पन्न होने वाली नकारात्मक भावनाओं को हल करना और भी जरूरी है। दूसरा प्रकार है दमन की नकारात्मक भावनाएँ, जो व्यक्ति की अपनी विशेषज्ञता का इस्तेमाल न कर पाने से उत्पन्न होती हैं। जब लोग अपनी विशेषज्ञता प्रदर्शित नहीं कर पाते हैं, खुद का दिखावा नहीं कर पाते हैं, अपने व्यक्तिगत मूल्य को प्रतिबिंबित नहीं कर पाते हैं, दूसरों से मान्यता प्राप्त नहीं कर पाते हैं, या अपनी प्राथमिकताओं को पूरा नहीं कर पाते हैं, तो वे दुखी, उदास और दमित महसूस करते हैं। क्या यह जीने का सही तरीका और परिप्रेक्ष्य है? (नहीं।) गलत चीजों को बदला जाना चाहिए, उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजा जाना चाहिए और उनका स्थान सही तरीके को दिया जाना चाहिए जो सत्य और सामान्य मानवता के अनुरूप हो। हमने पहले दमनकारी भावनाओं के उभरने के पीछे के इन दो कारणों के बारे में संगति की थी, जो हैं अपनी इच्छानुसार कार्य न कर पाना और अपनी विशेषज्ञता का उपयोग न कर पाना। दमनकारी भावनाओं के उभरने का एक और कारण है, क्या तुम लोग सोच सकते हो कि यह क्या है? व्यक्ति के अस्तित्व में होने के दृष्टिकोण से संबंधित कुछ अन्य चीजें क्या हैं जो लोगों को दमित महसूस करा सकती हैं? नहीं पता? दूसरा कारण यह है कि लोग अपनी आकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी नहीं कर पाते हैं और इसलिए वे दमित महसूस करते हैं और उनमें दमन की नकारात्मक भावनाएँ जन्म लेती हैं। एक पल के लिए इस बारे में सोचो, क्या दमन की यह समस्या वाकई मौजूद है? क्या यह मनुष्यों के लिए एक वास्तविक समस्या है? (हाँ।) जिन लोगों के बारे में हमने पहले चर्चा की थी, जो अपनी इच्छानुसार काम करना चाहते हैं, वे अधिक खुदगर्ज और मनमौजी होते हैं। जीवन के प्रति उनका रवैया आवेग में आकर काम करना और अपनी मनमानी करना है। वे दूसरों पर धौंस जमाना पसंद करते हैं और किसी समुदाय में रहने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। उनके जीवित रहने का तरीका यह है कि बाकी सभी लोग उनके चारों ओर घूमते फिरें, वे स्वार्थी होते हैं और दूसरों के साथ मिलजुलकर रहने या सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करने में असमर्थ हैं। दूसरे प्रकार का व्यक्ति जिसमें दमन का उदय होता है, वह ऐसा व्यक्ति है जो हमेशा दिखावा करना और खुद को प्रदर्शित करना चाहता है, जो सोचता है कि केवल वही सबसे महत्वपूर्ण है, और कभी दूसरों को रहने की जगह नहीं देता। अगर उसके पास थोड़ी-सी विशेषज्ञता या प्रतिभा हो, तो चाहे माहौल उपयुक्त हो या न हो, उसकी विशेषज्ञता बहुमूल्य हो या न हो, या फिर परमेश्वर के घर में उनका इस्तेमाल किया जा सकता हो या नहीं, वह इसे प्रदर्शित करना चाहेगा। इस प्रकार का व्यक्ति व्यक्तिवाद पर भी जोर देता है, है ना? क्या ये सब लोगों के जीवित रहने के तरीकों में शामिल है? (हाँ।) जीने और जीवित रहने के ये दोनों तरीके गलत हैं। आओ, अब दमन की उन नकारात्मक भावनाओं की ओर लौटते हैं जिनकी हमने पहले चर्चा की थी, जो व्यक्ति की अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा न कर पाने से उत्पन्न होती हैं। अवसर, माहौल या अवधि चाहे जो भी हो, और चाहे वे किसी भी तरह के कार्य में लगे हों, ऐसे लोग हमेशा अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने के लक्ष्य पर ध्यान देते हैं, इसे अपना मानक बना लेते हैं। यदि वे इस उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाते या हासिल नहीं कर पाते, तो वे दमित और दुखी महसूस करते हैं। क्या यह भी एक खास प्रकार के व्यक्ति के लिए जीवित रहने का तरीका नहीं है? (हाँ।) यह भी कुछ लोगों के लिए जीवित रहने का एक तरीका है। तो, जीवित रहने के इस तरीके से जीने वालों का मुख्य विचार या दृष्टिकोण क्या होता है? यह कि अगर उनके पास आकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं, तो चाहे वे कहीं भी हों या कुछ भी कर रहे हों, उनका उद्देश्य अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करना होता है। यही उनके जीवित रहने का तरीका और उनका लक्ष्य है। दूसरों को चाहे कितनी भी कीमत चुकानी पड़े या कितना भी त्याग करना पड़े और चाहे कितने ही लोगों को उनकी आकांक्षाओं और इच्छाओं का बोझ उठाना पड़े या अपने निजी हितों का त्याग करना पड़े, वे बिना हार माने अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने के लक्ष्य का पीछा करेंगे। वे बिना किसी हिचकिचाहट के दूसरों के कंधों पर सवार होने या दूसरों के हितों की बलि देने को भी तैयार हैं। यदि वे इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, तो वे दमित महसूस करते हैं। क्या इस प्रकार की सोच या दृष्टिकोण सही है? (नहीं।) इसमें गलत क्या है? (यह बहुत स्वार्थी है!) यह “स्वार्थी” शब्द सकारात्मक है या नकारात्मक? (यह नकारात्मक है।) यह एक नकारात्मक और प्रतिकूल बात है, इसलिए सत्य के आधार पर इसका समाधान किया जाना चाहिए।
व्यक्ति को अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने में असमर्थ रहने के कारण उत्पन्न होने वाली इन दमित भावनाओं का समाधान कैसे करना चाहिए? आओ पहले हम लोगों की विभिन्न आकांक्षाओं और इच्छाओं का विश्लेषण करें। क्यों न हम यहाँ से अपनी संगति शुरू करें? (ठीक है।) लोगों की क्या आकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं, यहाँ से अपनी संगति शुरू करने से लोगों के लिए समझना और विचार की स्पष्ट श्रृंखला पर चलना आसान हो जाता है। तो सबसे पहले उन आकांक्षाओं और इच्छाओं पर एक नजर डालते हैं जो लोगों में होती है। कुछ आकांक्षाएँ और इच्छाएँ वास्तविक होती हैं, जबकि अन्य अवास्तविक होती हैं। कुछ लोगों की आकांक्षाएँ आदर्शवादी होती हैं, जबकि कुछ की यथार्थवादी। क्या हमें पहले आदर्शवादियों की आकांक्षाओं के बारे में संगति करनी चाहिए या यथार्थवादियों की आकांक्षाओं के बारे में? (यथार्थवादियों की आकांक्षाओं के बारे में।) यथार्थवादियों की आकांक्षाओं के बारे में। अवास्तविक आकांक्षाओं के बारे में क्या सोचते हो? हमें उनके बारे में संगति करनी चाहिए या नहीं? यदि हम उनके बारे में संगति नहीं करेंगे तो क्या लोग उनके बारे में जान पाएँगे? (नहीं जान पाएँगे।) यदि संगति किए बिना वे इनके बारे में नहीं जान पाएँगे तो हमें इनके बारे में संगति करने की सचमुच जरूरत है। अक्सर संगति के बिना भी लोग यथार्थवादियों की आकांक्षाओं को समझ सकते हैं। ये चीजें हर किसी के विचारों और चेतना में मौजूद हैं। कुछ आकांक्षाएँ और इच्छाएँ साकार हों या न हों बचपन से जवानी तक अपरिवर्तित रहती हैं, जबकि अन्य उम्र के साथ बदल जाती हैं। जैसे-जैसे लोग बड़े होते हैं और उनके ज्ञान, क्षितिज और अनुभव का दायरा बढ़ता है, उनकी आकांक्षाएँ और इच्छाएँ लगातार बदलती रहती हैं। वे अधिक यथार्थवादी, वास्तविक जीवन के करीब और अधिक विशिष्ट हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब युवा थे तो गायक बनना चाहते थे, लेकिन जैसे-जैसे वे बड़े हुए, उन्हें एहसास हुआ कि वे लय में नहीं रह सकते, इसलिए गायक बनना यथार्थवादी नहीं था। फिर उन्होंने फिल्मी सितारा बनने के बारे में सोचा। कई वर्षों के बाद उन्होंने आईने में देखा और महसूस किया कि वे बहुत आकर्षक नहीं हैं। भले ही वे थोड़े लंबे हैं, लेकिन अभिनय में अच्छे नहीं हैं और उनके हाव-भाव ज्यादा स्वाभाविक नहीं लगते थे। फिल्मी सितारा बनना भी अवास्तविक था। इसलिए उन्होंने निर्देशक बनने के बारे में सोचा, ताकि वे फिल्मी सितारों को निर्देशित कर सकें। जब वे अपने जीवन के बीस के दशक में पहुँचे और उन्हें कॉलेज में एक मुख्य विषय चुनना था तो उनकी आकांक्षा बदलकर निर्देशक बनना हो गई। स्नातक होने के बाद जब उन्होंने निर्देशन का डिप्लोमा लेकर वास्तविक दुनिया में प्रवेश किया तो उन्हें एहसास हुआ कि एक निर्देशक बनने के लिए शोहरत और प्रतिष्ठा, आवश्यक योग्यता के साथ-साथ वित्तीय संसाधन होना भी जरूरी है, जिसकी उनके पास सर्वथा कमी थी। कोई भी उन्हें निर्देशक के रूप में काम पर नहीं रखेगा। इसलिए उन्हें कम पर समझौता करके फिल्म उद्योग में संभवतः एक पटकथा सुपरवाइजर या प्रोडक्शन कोऑर्डिनेटर के रूप में अपना रास्ता बनाना पड़ा। समय के साथ उन्होंने सोचा, “निर्माता बनना मेरे लिए उपयुक्त हो सकता है। मुझे व्यस्त रहना और पैसे जुटाना अच्छा लगता है, मैं अच्छा बोल सकता हूँ और दिखने में भी काफी अच्छा हूँ। लोगों को मुझसे चिढ़ नहीं होती और मैं दूसरों के साथ अच्छी तरह संवाद कर सकता हूँ और उनका समर्थन पा सकता हूँ। फिल्में बनाना मेरे लिए उपयुक्त हो सकता है।” तुमने देखा, उनकी आकांक्षा धीरे-धीरे बदलती गई। यह क्यों बदली? शुरुआत में यह इसलिए बदली क्योंकि उनके विचार धीरे-धीरे परिपक्व हो गए, चीजों के बारे में उनकी धारणा अधिक सटीक, अधिक वस्तुनिष्ठ और व्यावहारिक होती गई। फिर वास्तविक दुनिया में रहते हुए उनके वास्तविक जीवन परिवेश और जीवन की व्यावहारिक जरूरतों और दबावों के आधार पर उस परिवेश से उनकी पिछली आकांक्षाएँ धीरे-धीरे बदल गईं। आखिरकार कोई रास्ता न बचने और निर्देशक बनने में असमर्थ होने पर उन्होंने निर्माता बनने का विकल्प चुना। लेकिन क्या निर्माता बनकर वास्तव में उनकी आकांक्षाएँ साकार हुईं या नहीं? वे खुद भी इसका ठीक-ठीक पता नहीं लगा सके। बहरहाल, एक बार शुरू करने के बाद उन्होंने लगभग दस वर्षों तक या यहाँ तक कि सेवानिवृत्त होने तक यही किया। यह यथार्थवादियों की आकांक्षाओं का एक सामान्य विवरण है।
हम अभी इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि लोगों की आकांक्षाओं को आदर्शवादियों की आकांक्षाओं और यथार्थवादियों की आकांक्षाओं की दो श्रेणियों में कैसे बाँटा जा सकता है। आओ आदर्शवादियों की आकांक्षाओं के बारे में बात शुरू करें। यथार्थवादियों की आकांक्षाओं को पहचानना आसान होना चाहिए। दूसरी ओर आदर्शवादियों की आकांक्षाएँ ज्यादा ठोस नहीं होती हैं और वास्तविक जीवन से कुछ हद तक दूर ही होती हैं। वे मानव जीवन के बचे रहने में शामिल व्यावहारिक मामलों, जैसे कि दैनिक जरूरतों से भी बहुत दूर होते हैं। इन आकांक्षाओं में ठोस अवधारणाएँ होती हैं लेकिन इनके उतरने के लिए कोई विशिष्ट धरातल नहीं होता है। तुम कह सकते हो कि ये आकांक्षाएँ और इच्छाएँ फंतासियाँ हैं, अपेक्षाकृत खोखली और मानव प्रकृति से अलग हैं। कुछ को अमूर्त माना जा सकता है और इनमें से कुछ आकांक्षाएँ और इच्छाएँ ऐसी भी हैं जो एक खंडित व्यक्तित्व से उत्पन्न होती हैं। आदर्शवादियों की आकांक्षाएँ क्या हैं? आदर्शवाद को समझना आसान होना चाहिए। यह एक दिवास्वप्न है, एक फंतासी है, जिसका वास्तविक जीवन में दैनिक जरूरतों के व्यावहारिक मामलों से कोई संबंध नहीं है। उदाहरण के लिए, एक कवि होना, एक अमर कवि होना, दुनिया भर में घूमना; या तलवारबाज होना, भटका शूरवीर होना और सारी दुनिया घूमना, अविवाहित और निःसंतान रहना, जीवन की तुच्छ चीजों की उलझनों से आजाद रहना, दैनिक जरूरतों की चिंता से मुक्त होना, आराम और सुकून से जीना, इधर-उधर भटकते रहना, हमेशा अमर रहने की आकांक्षा रखना और वास्तविक जीवन से बचकर भागना। क्या यह एक आदर्शवादी की आकांक्षा है? (हाँ।) क्या तुम लोगों में से किसी के मन में ऐसे विचार हैं? (नहीं हैं।) चीनी इतिहास के उन मशहूर कवियों के बारे में क्या कहोगे जो शराब पीकर कविताएँ लिखते थे? वे आदर्शवादी थे या यथार्थवादी? (आदर्शवादी।) जिन विचारों का उन्होंने समर्थन किया था वे आदर्शवादियों की फंतासियाँ और दिवास्वप्न थे। वे हमेशा इधर-उधर भटकते रहते थे, अस्पष्ट और अनिश्चित शब्दों में बातें करते थे, कल्पना करते थे कि दुनिया कितनी सुंदर है, मानवजाति कितनी शांतिपूर्ण हो सकती है, लोग किस तरह मिलजुलकर रह सकते हैं। उन्होंने खुद को सामान्य मानवता की अंतरात्मा, विवेक और जीवन की जरूरतों से अलग कर लिया। उन्होंने खुद को वास्तविक जीवन के इन मसलों से अलग कर लिया और एक आदर्शवादी या काल्पनिक क्षेत्र की कल्पना की जो वास्तविकता से पूरी तरह अलग था। उन्होंने खुद की कल्पना उस क्षेत्र के और उस दायरे के भीतर रहने वाले प्राणी के रूप में की। क्या यही एक आदर्शवादी की आकांक्षा नहीं है? अतीत की एक कविता है, और उसकी एक पंक्ति में लिखा है, “मैं हवा के झोंके पर सवार होकर उड़ते हुए घर जाना चाहता हूँ।” उस कविता का शीर्षक क्या था? (“वाटर मेलोडी।”) उस कविता की पंक्तियाँ पढ़ो। (“मैं हवा के झोंके पर सवार होकर उड़ते हुए घर जाना चाहता हूँ। मुझे डर है कि आसमान बहुत ठंडा है, जेड-पैलेस बहुत ऊँचा है। अपनी परछाई के संग नाचते हुए, अब मैं नश्वर बंधन से मुक्त हूँ।”) “अपनी परछाई के संग नाचते हुए, अब मैं नश्वर बंधन से मुक्त हूँ” से कवि का क्या तात्पर्य है? क्या ये दो पंक्तियाँ एक आदर्शवादी की दमनकारी और आक्रोशपूर्ण भावनाओं को व्यक्त करती हैं जिसकी आकांक्षाएँ हासिल या साकार नहीं हो पाईं? क्या वे ऐसा कुछ हैं जो इस दमनकारी भावना के तहत व्यक्त किए गए हैं? यह किस पर केंद्रित है? कौन-सा वाक्य उस माहौल और पृष्ठभूमि को दर्शाता है जिसमें कवि ने खुद को उस समय पाया था? क्या यह वाला, “मुझे डर है कि आसमान बहुत ठंडा है”? (हाँ।) वह अफसरशाही के अंधकार और बुराई, जीने की एक भ्रष्ट जगह को उजागर कर रहा था। वह ऐसे माहौल और स्थिति से बचने के लिए अमर बनना चाहता था। क्या उसके लिए केवल एक अधिकारी का पद त्याग देना ही काफी नहीं होता? क्या ऐसा हो सकता है कि वह इस माहौल को बदलना चाहता हो? वह ऐसे माहौल से असंतुष्ट था, उसे लगता था कि यह उस जीवन निर्वाह के माहौल से मेल नहीं खाता है जिसकी उसने आकांक्षा की थी और वह अंदर ही अंदर दमित महसूस करता था। एक आदर्शवादी के पास इसी प्रकार की आकांक्षा होती है। आदर्शवादियों की आकांक्षाएँ अधिकतर फंतासियों की ओर प्रवृत्त होते हैं, वे अवास्तविक और अमूर्त होते हैं, वास्तविक जीवन से कटे होते हैं। ऐसा लगता है मानो वे भौतिक संसार के बाहर एक स्वतंत्र और व्यक्तिगत स्थान में, फंतासियों में लिप्त और वास्तविकता से अलग होकर किसी दूसरी दुनिया में जीते हैं। आधुनिक समाज में रहने वाले कुछ लोगों की तरह, वे भी हमेशा प्राचीन कपड़े पहनना, प्राचीन तरीकों से अपने बालों को संवारना और प्राचीन भाषा में बात करना चाहते हैं। वे सोचते हैं, “आह, उस तरह का जीवन एकदम अद्भुत है! बिल्कुल एक अमर व्यक्ति की तरह, जो भौतिक देह की परेशानियों और वास्तविक जीवन की विभिन्न कठिनाइयों से मुक्त होकर घूमता और भ्रमण करता रहता है। जीवन जीने के ऐसे माहौल में कोई उत्पीड़न, कोई शोषण, कोई चिंता नहीं है। सभी लोग एक समान हैं, एक-दूसरे की मदद करते हुए मिलजुलकर रहते हैं। जीवन जीने की ऐसी आदर्श परिस्थितियाँ कितनी सुंदर और अभीष्ट हैं!” अविश्वासियों के बीच, कुछ ऐसे लोग हैं जो इन चीजों का अनुसरण करते हैं। कुछ लोग एक जैसे गीत गाते हैं या एक जैसी कविताएँ लिखते हैं, या एक जैसा अभिनय करते हैं। इसी वजह से, लोग उस दूसरी दुनिया की और भी अधिक लालसा रखते हैं जिसका आदर्शवादी सपना देखते हैं। और जब कुछ लोग ये गाने गाते हैं या ये कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं, तो जितना अधिक वे गाते हैं, उनकी मनोदशा उतनी ही ज्यादा उदास होती जाती है, उतना ही अधिक वे उस आदर्श दुनिया के लिए तरसते हैं और उससे चिपके रहते हैं। आखिर में क्या होता है? कुछ लोगों को लंबे समय तक गाने के बाद लगता है कि वे अपनी चिंताओं से भाग नहीं सकते। वे चाहे कितना भी गाएँ, फिर भी वे मानव संसार का स्नेह महसूस नहीं कर सकते। वे चाहे कितना भी गाएँ, फिर भी उन्हें लगता है कि उनके आदर्शवाद का काल्पनिक संसार ही बेहतर है। उनका संसार से मोहभंग हो जाता है, वे अब इस मानवीय संसार में नहीं रहना चाहते हैं और आखिर में अपने तरीके से उस आदर्श दुनिया में जाने का दृढ़ निर्णय कर लेते हैं। कुछ लोग जहर पी लेते हैं, कुछ इमारतों से कूद जाते हैं, कुछ अपने गमछों से अपना गला घोंट लेते हैं, तो कुछ भिक्षु बन जाते हैं और आध्यात्मिक अभ्यास करने लगते हैं। उनके शब्दों में, उन्होंने सांसारिक लगाव के भ्रमजाल के पार देख लिया है। वास्तव में, दुनिया के प्रति उनके मोहभंग को दूर करने के लिए ऐसे चरम उपायों और तरीकों का सहारा लेने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसी समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के कई तरीके हैं, लेकिन क्योंकि वे इन समस्याओं के अंतर्निहित सार को नहीं समझ पाते हैं, इसलिए वे आखिर में इन कठिनाइयों को हल करने और उनसे बचने के लिए चरम तरीके चुनते हैं, ताकि अपनी आकांक्षाओं को साकार करने के उद्देश्य को हासिल कर सकें। यह उन कुछ आदर्शवादियों को और उनकी समस्याओं को दर्शाता है जो अविश्वासियों के बीच रहते हैं।
परमेश्वर के घर में, कलीसिया में, क्या ऐसे लोग मौजूद हैं जिनकी एक जैसी आकांक्षाएँ हों? यकीनन, तुम लोगों ने अभी तक उन्हें खोजा नहीं है, इसलिए मैं तुम्हें उनके बारे में बताऊँगा। ऐसे व्यक्ति मौजूद हैं, जो लौकिक दुनिया में रहते हुए, सभी के लिए शांति, सद्भाव, अमन और समानता वाले एक आदर्श समाज के लिए तरसते हैं, जैसा कि अविश्वासियों के बीच मौजूद आदर्शवादी करते हैं। यह आदर्श समाज कुछ कवियों या लेखकों द्वारा चित्रित आदर्श लोक की तरह है; बेशक, यह अधिकतर कुछ ऐसे क्षेत्रों, जीवन जीने के तरीकों या रहने के माहौल जैसा है जो लोगों की आदर्श दुनिया में होते हैं। ऐसी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं से प्रेरित ये लोग, अपनी आकांक्षाओं को साकार करने के लिए अनजाने में अपनी आस्था खोज लेते हैं। खोज करते समय, उन्हें पता चलता है कि परमेश्वर में विश्वास करना एक अच्छा मार्ग और आस्था का एक अच्छा विकल्प है। अपनी आकांक्षाओं को साथ लेकर, वे परमेश्वर के घर में आते हैं, आशा करते हैं कि लोगों के बीच उन्हें स्नेह मिलेगा, उनकी परवाह की जाएगी, उन्हें सँजोकर रखा जाएगा और उनकी देख-रेख होगी, और बेशक, वे परमेश्वर के महान प्रेम और सुरक्षा को और भी अधिक महसूस करने की आशा करते हैं। वे अपनी आकांक्षाओं के साथ परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं, और वे चाहे अपने कर्तव्य निभाएँ या न निभाएँ, हर हाल में उनकी आकांक्षाएँ अपरिवर्तित रहती हैं—वे हमेशा अपनी आकांक्षाओं को साथ लेकर चलते हैं। शुरू से अंत तक, उनकी आकांक्षाओं का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है : परमेश्वर के घर में प्रवेश करने पर, वे आशा करते हैं कि यह एक ऐसा स्थान है जहाँ वे स्नेह महसूस कर सकते हैं, जहाँ वे स्नेह, खुशी और कल्याण का आनंद ले सकते हैं। वे आशा करते हैं कि यह ऐसी जगह है जहाँ लोगों के बीच कोई विवाद, संदेह या भेदभाव नहीं होता; एक ऐसी जगह जहाँ लोगों के बीच धौंस जमाने, धोखा देने, नुकसान पहुँचाने या अलग-थलग करने की कोशिश नहीं होती है। ये मूल रूप से वे आकांक्षाएँ हैं जो ऐसे आदर्शवादियों के मन में पाई जा सकती हैं। यानी, वे एक ऐसी जगह की कल्पना करते हैं जहाँ लोग एक-दूसरे के साथ मशीनों की तरह व्यवहार करें, उनका अपना जीवन या कोई विचार न हो, दूसरों से मेलजोल में मित्रता दिखाने और यह दिखाने के लिए कि उनके बीच कोई दुश्मनी नहीं है, वे यंत्रवत ढंग से मुस्कुराएँ, सिर हिलाएँ और झुककर अभिवादन करें। इस आदर्श स्थान में, लोगों के बीच बहुत प्रेम है, और वे एक-दूसरे की देख-रेख कर सकते हैं, एक-दूसरे को सँजोकर परवाह और मदद कर सकते हैं, एक-दूसरे को समझकर आपस में सामंजस्य बैठा सकते हैं, और यहाँ तक कि एक-दूसरे की ढाल बनकर गलतियाँ भी छिपा सकते हैं। ये सब कुछ ऐसी चीजें हैं जिनकी आदर्शवादी लोग आकांक्षा करते हैं और जिनके बारे में सपने देखते हैं। उदाहरण के लिए, जब आदर्शवादी परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं तो उनकी आकांक्षाएँ और उम्मीदें यह होती हैं कि बुजुर्ग लोगों का सम्मान किया जाए, उन्हें सँजोकर उनकी देखभाल की जाए और युवा सदस्य अच्छे से उन पर ध्यान दें और उनका ख्याल रखें। सम्मान के अलावा, वे यह भी आशा करते हैं कि लोग आदरसूचक नामों का उपयोग करेंगे, भाइयों को “फलाँ बड़े ताऊ,” “अमुक अंकल” या “फलाँ अंकल” और बहनों को “अमुक दादी,” “अमुक आंटी,” या “फलाँ बहन” कहकर संबोधित करेंगे—मूल रूप से, हर किसी का अपना अलग संबोधन होगा। वे आशा करते हैं कि लोग बाहरी तौर पर एक-दूसरे के प्रति विशेष रूप से सौहार्दपूर्ण, सामंजस्यपूर्ण और विनम्र होंगे, और किसी के भी मन में सतही तौर पर या दिल की गहराई में कोई दुर्भावना या कोई खराब या बुरी बात नहीं होगी। वे आशा करते हैं कि यदि कोई गलती करता है या कठिनाइयों का सामना करता है, तो हर कोई उनकी सहायता के लिए मदद का हाथ बढ़ा सकता है, और इसके अलावा, उनकी अच्छे से देखभाल कर उनके प्रति सहनशील हो सकता है। खासकर जब कमजोर लोगों और उन अपेक्षाकृत निष्कपट लोगों की बात आती है जिन्हें दुनिया में लोग आसानी से धमकाते या दबाते हैं—तो वे और भी अधिक आशा करते हैं कि जब ऐसे लोग कलीसिया में, परमेश्वर के घर में आएँ, तो उनकी अच्छी देखभाल की जाए, उनका ध्यान रखा जाए और उनके साथ खास तरह का व्यवहार किया जाए। जैसा कि ये आदर्शवादी कहते हैं, जब वे परमेश्वर के घर में आए, तो उन्होंने कामना की थी कि हर कोई खुशहाल और सुखी रहे, और उन्हें उम्मीद थी कि क्योंकि वे सभी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे एक बड़ा परिवार और आपस में भाई-बहन होंगे। वे सोचते हैं कि यहाँ कोई धौंस जमाने, दंड देने या नुकसान पहुँचाने की कोशिश नहीं करेगा। उनका मानना है कि यदि कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो लोगों के बीच कोई विवाद या गुस्सा नहीं होना चाहिए, बल्कि सभी को एक-दूसरे के साथ शांति से, बहुत धैर्य और सहयोग की भावना के साथ व्यवहार करना चाहिए, उन्हें हमेशा दूसरों को सहज महसूस कराना चाहिए, और हरेक व्यक्ति को सिर्फ अपना सबसे अच्छा और सबसे उदार पक्ष ही दिखाना चाहिए और अपने बुरे या दुष्टतापूर्ण पक्ष को अपने तक ही सीमित रखना चाहिए। उनका मानना है कि लोगों को एक-दूसरे के साथ मशीनों की तरह व्यवहार करना चाहिए, उन्हें दूसरे लोगों के बारे में कोई नकारात्मक विचार या राय नहीं रखनी चाहिए, और एक-दूसरे के साथ कुछ भी नकारात्मक तो बिल्कुल नहीं करना चाहिए; वे सोचते हैं कि लोगों को दूसरों के प्रति अच्छे इरादे रखने चाहिए, और यह कहावत बढ़िया बात कहती है, “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” वे सोचते हैं कि केवल यही परमेश्वर का सच्चा घर और सच्ची कलीसिया है। लेकिन इन आदर्शवादियों की आकांक्षाएँ अभी साकार होनी बाकी नहीं हुई हैं। उनकी जगह पर, परमेश्वर का घर सिद्धांतों पर ध्यान देता है, लोगों के बीच पारस्परिक सहयोग और समर्थन पर जोर देता है, और हर किसी से यह अपेक्षा करता है कि वे सभी प्रकार के लोगों के साथ सत्य सिद्धांत और परमेश्वर के वचनों के आधार पर व्यवहार करें। परमेश्वर के घर ने कुछ ऐसी अपेक्षाएँ तक सामने रखी हैं जो लोगों के प्रति “विचारशून्य” हैं, जैसे विभिन्न प्रकार के लोगों के बीच अंतर करना और उनके साथ अलग-अलग व्यवहार करना। परमेश्वर का घर लोगों से यह अपेक्षा भी करता है कि वे जिन्हें परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते, कार्य व्यवस्थाओं का उल्लंघन करते या सिद्धांतों के विरुद्ध जाते देखें उन्हें उजागर करने और उनकी काट-छाँट करने के लिए उठ खड़े हों, ताकि परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा की जा सके, और यह लोगों को भावनाओं के आधार पर किसी को बचाने या उसकी गलतियाँ छिपाने की अनुमति नहीं देता है। बेशक, परमेश्वर के घर ने अगुआई के विभिन्न स्तर भी निर्धारित किए हैं। एक ओर, परमेश्वर का घर सभी स्तरों के अगुआओं से यह अपेक्षा करता है कि वे कलीसिया के रोजमर्रा के कार्य की देख-रेख करें। दूसरी ओर, वह उनसे विभिन्न कार्यों की कड़ाई से निगरानी, प्रबंधन करने और उनकी खोज-खबर रखने के साथ-साथ उनसे हर समय विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों की दशा और कलीसियाई जीवन के बारे में सूचित रहने, उन्हें पूरी तरह समझने और उन पर ध्यान देने, कर्तव्य निभाते समय अपने रवैये और प्रवृत्तियों पर गौर करने, और आवश्यक होने पर उचित और उपयुक्त समायोजन करने की अपेक्षा करता है। बेशक, परमेश्वर का घर अगुआओं और कर्मियों से ऐसे किसी भी व्यक्ति की सख्ती से काट-छाँट करने की अपेक्षा करता है जो उन्हें परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं के विरुद्ध जाते दिखे या सिद्धांतों का उल्लंघन करे, कलीसिया के कार्य में बाधा डाले और उसे बिगाड़े; उनसे छोटे-मोटे अपराधों के लिए चेतावनियाँ जारी करने, और अधिक गंभीर मामलों से उचित ढंग से निपटने की अपेक्षा भी की जाती है। इस संदर्भ में, कुछ लोगों को दूर कर दिया गया है, निकाल दिया गया है, या उनके नाम काट दिए गए हैं। यकीनन, जब लोग विभिन्न कर्तव्य निभाने और विभिन्न कार्यों में शामिल होने के लिए परमेश्वर के घर में आते हैं, तो उनमें से कई लोग परमेश्वर के वचनों से आने वाली ताड़ना और न्याय को सुनते, देखते या अनुभव करते हैं; इसके अलावा, वे विभिन्न दर्जे के अगुआओं से काट-छाँट का अनुभव करते हैं। ये अलग-अलग माहौल और मामले, जिनका लोग परमेश्वर के घर में सामना करते हैं, वे आदर्शवादियों की आकांक्षाओं में कल्पना किए गए परमेश्वर के घर और कलीसिया से पूरी तरह से अलग हैं, इस हद तक अलग हैं कि वे उनकी अपेक्षाओं से बिल्कुल बाहर ही हैं, और इस कारण से उनके दिलों में बहुत गहरा दबाव महसूस होता है। एक ओर, उन्हें कलीसिया में होने वाली विभिन्न घटनाएँ या समस्याओं से निपटने के कलीसिया के तरीके और सिद्धांत अकल्पनीय लगते हैं। वहीं दूसरी ओर, अपनी आकांक्षाओं के कारण और सकारात्मक चीजों, कलीसिया और परमेश्वर के घर के बारे में अपनी भ्रामक समझ के कारण उनके दिलों की गहराई में दमनकारी भावनाएँ पैदा होती हैं। इन दमनकारी भावनाओं के उत्पन्न होने पर, क्योंकि वे अपने गलत विचारों और दृष्टिकोणों को तुरंत ठीक करने में विफल रहते हैं, या अपनी आकांक्षाओं की समस्याओं की असलियत नहीं जान पाते और स्पष्ट रूप से पहचान नहीं पाते, तो उनके भीतर कई धारणाएँ उभरने लगती हैं। इसके अलावा, चूँकि वे सत्य समझने या इन धारणाओं को ठीक करने के लिए सत्य का उपयोग करने में असमर्थ होते हैं, ये धारणाएँ उनके विचारों या उनकी आत्मा की गहराई में जड़ें जमाना शुरू कर देती हैं, जिसके कारण उनकी दमनकारी भावनाएँ लगातार बढ़ जाती हैं और अधिक से अधिक गंभीर हो जाती हैं। वास्तव में, परमेश्वर, परमेश्वर का घर, कलीसिया, विश्वासी, और ईसाई, सभी इन आदर्शवादियों की आकांक्षाओं वाले काल्पनिक खूबसूरत जन्नत, स्वर्ग या आदर्श-लोक से मेल नहीं खाते। नतीजतन, उनके दिलों की गहराई में छिपा दमन लगातार इकट्ठा होता रहता है, और उनके पास खुद को इससे मुक्त करने का कोई रास्ता नहीं होता। क्या कलीसिया में ऐसे लोग मौजूद हैं? (हाँ।)
कुछ लोग कहते हैं, “अरे, परमेश्वर का घर हमेशा न्याय और ताड़ना को स्वीकारने की बात क्यों करता है? परमेश्वर में विश्वास करने वाले भी अब भी काट-छाँट का सामना क्यों कर रहे हैं? परमेश्वर का घर लोगों को क्यों निष्कासित कर देता है? इसमें प्रेम तो बिल्कुल नहीं है! ‘धरती पर स्वर्ग’ में ऐसी चीजें कैसे हो सकती हैं? कलीसिया में मसीह-विरोधी कैसे दिख सकते हैं? मसीह-विरोधियों द्वारा दूसरों का दमन करने और उन्हें दंडित करने की घटनाएँ कैसे घट सकती हैं? कलीसिया में, परमेश्वर के घर में लोग कैसे एक-दूसरे को उजागर कर एक-दूसरे का गहन-विश्लेषण कर सकते हैं? यहाँ विवाद कैसे हो सकते हैं? ईर्ष्या और संघर्ष कैसे हो सकता है? यहाँ चल क्या रहा है? चूँकि हम परमेश्वर के घर में आए हैं, तो हमारे बीच प्रेम होना चाहिए, और हम सभी को एक-दूसरे की मदद करने में सक्षम होना चाहिए। ये चीजें अब भी कैसे घटित हो सकती हैं?” क्या ऐसे विचारों वाले बहुत-से लोग हैं? बहुत-से लोग परमेश्वर के घर को अपनी कल्पनाओं की नजरों से देखते हैं। अब, मुझे बताओ, क्या ये कल्पनाएँ और वक्तव्य तथ्यपरक हैं? (नहीं, वे तथ्यपरक नहीं हैं।) उनमें तथ्यपरक होने की कमी कहाँ है? (मानवता गहराई से भ्रष्ट है, और जिन्हें परमेश्वर बचाता है उन सभी के स्वभाव भ्रष्ट हैं, तो वे यकीनन दूसरों के साथ अपने मेलजोल में भ्रष्टता प्रकट करेंगे। ईर्ष्या और संघर्ष होगा, और धौंस जमाने और दबाने की घटनाएँ होंगी। इन चीजों का होना निश्चित है। आदर्शवादियों की कल्पना में मौजूद ऐसी चीजों का कोई अस्तित्व नहीं है। इसके अलावा, कलीसिया के जीवन और कार्य की रक्षा के लिए, कलीसिया सत्य सिद्धांतों के आधार पर लोगों की काट-छाँट करेगी, या लोगों में फेरबदल और उन्हें बर्खास्त करेगी, या दुष्ट लोगों और छद्म-विश्वासियों को बहिष्कृत कर बाहर निकाल देगी—यह सिद्धांतों के अनुरूप है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार कार्य करते हैं, तो वे कलीसिया के कार्य को अस्त व्यस्त करते हैं। अगर कलीसिया ऐसे लोगों की काट-छाँट करने या उन्हें बदलने या हटाने जैसे उपायों को नहीं अपनाएगी, तो यह यथार्थ से मुँह मोड़ना होगा।) यह यथार्थ से मुँह मोड़ना है, इसलिए ऐसे लोगों के विचार आदर्शवादियों की आकांक्षाएँ हैं। उनमें से कोई भी यथार्थवादी नहीं है, वे सभी खोखले और काल्पनिक हैं, है ना? अभी भी, ऐसे लोगों को यह समझ नहीं आता कि उन्हें परमेश्वर में विश्वास क्यों करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा है। परमेश्वर में विश्वास का अर्थ है अच्छे कार्य करना और एक अच्छा इंसान बनना।” क्या यह कथन सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) “परमेश्वर में विश्वास करने वालों के दिलों में नेक इरादे होने चाहिए।” क्या यह कथन सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) अपने दिल में नेक इरादे रखना—यह किस प्रकार का कथन है? क्या चाहने मात्र से तुम नेक इरादे रख सकते हो? क्या तुम्हारे इरादे नेक हैं? क्या अपने दिल में नेक इरादे रखना मानवीय आचरण का एक सिद्धांत है? यह सिर्फ एक नारा है, एक धर्म-सिद्धांत है। यह एक खोखली बात है। जब तुम्हारे अपने हित शामिल नहीं होते, तो तुम यह सोचकर बहुत अच्छी तरह से इसे कह सकते हो, “मेरे दिल में नेक इरादे हैं, मैं दूसरों को नहीं धमकाता, नुकसान नहीं पहुँचाता, धोखा नहीं देता या उनका फायदा नहीं उठाता।” लेकिन जब तुम्हारे अपने हित, रुतबा और प्रतिष्ठा शामिल हों, तो क्या “अपने दिल में नेक इरादे रखना” कथन तुम्हें रोक पाने में सक्षम होगा? क्या यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर सकता है? (नहीं, यह नहीं कर सकता।) इसलिए यह कथन खोखला है; यह सत्य नहीं है। सत्य तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के सार को उजागर करने में सक्षम है, यह तुम्हारे द्वारा की जाने वाली चीजों के सार और वास्तविक प्रकृति को उजागर और उनका गहन-विश्लेषण कर सकता है और तुम्हारे द्वारा की जाने वाली इन चीजों के सार और तुम्हारे द्वारा प्रकट स्वभाव के सार को निर्धारित और इसकी निंदा कर सकता है। फिर यह तुम्हें तुम्हारे जीने के तरीके, आचरण और कार्य करने के तरीके को बदलने के लिए उचित मार्ग और सिद्धांत प्रदान करता है। इस तरह, यदि लोग सत्य को स्वीकार सकें और अपने जीने के तरीके को बदल सकें, तो उनके भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो सकता है; लोगों को अपने दिलों में नेक इरादे रखने के लिए आग्रह करने से यह नहीं होगा, केवल सत्य ही यह काम कर सकता है। सत्य किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नारे, सिद्धांत, या विनियम और नियम देकर नहीं करता, बल्कि उसे आचरण के सिद्धांत, मानदंड और दिशा-निर्देश देकर करता है। यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव को हटाने और बदलने के लिए इन सिद्धांतों, मानदंडों और दिशा-निर्देशों का उपयोग करता है। जब लोगों के आचरण करने के सिद्धांत, मानदंड, और दिशा-निर्देश बदलकर ठीक कर दिए जाते हैं, तब उनके मन में मौजूद तमाम विकृत सोच और गलत विचार भी स्वाभाविक रूप से बदल जाते हैं। जब कोई व्यक्ति सत्य समझता है और उसे हासिल करता है, तो उसके विचार तदनुरूप ही बदल जाते हैं। यह अपने दिल में नेक इरादे रखने की बात नहीं, बल्कि अपने विचारों के स्रोत, अपने स्वभाव और अपने सार में बदलाव लाने की बात है। ऐसा व्यक्ति जो प्रकट करता और जिसे जीता है, वह सकारात्मक हो जाता है। उनके आचरण की दिशा, तौर-तरीके और स्रोत सभी में बदलाव आता है। वे अपनी कथनी और करनी का आधार और मानदंड परमेश्वर के वचनों को बनाते हैं, और सामान्य मानवता को जी सकते हैं। तो, क्या अब भी उन्हें बस यह बताना जरूरी है कि “अपने दिलों में नेक इरादे रखो”? क्या यह उपयोगी है? वह कथन खोखला है; यह किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकता। परमेश्वर के घर, कलीसिया में आने के बाद भी आदर्शवादियों की आकांक्षाएँ साकार नहीं हो पाती हैं, और इस वजह से वे अपने दिलों में दमित महसूस करते हैं। यह वैसा ही है जैसे कुछ आदर्शवादी सरकार या समाज के भीतर गहराई तक जाने के बाद यह पाते हैं कि उनकी आकांक्षाओं को साकार या पूरा नहीं किया जा सकता है। नतीजतन, वे अक्सर हताश महसूस करते हैं। कुछ लोग अधिकारी या सम्राट बनने के बाद अपने आप में बहुत प्रसन्न महसूस करते हैं और बेहद अहंकारी हो जाते हैं, बिल्कुल उस कविता की एक पंक्ति की तरह जिसमें कहा गया है, “तेज हवा चलती है, बादल छंट जाते हैं।” अगली पंक्ति में क्या कहा गया है? (“अब जबकि मेरा आधिपत्य पूरे महासागर में फैल चुका है, मैं अपने वतन लौट रहा हूँ।”) देखा तुमने, उनके शब्द अजीब लगते हैं। उनमें एक प्रकार की भावना है जिसे सामान्य मानवता और विवेक वाले लोगों के लिए समझना मुश्किल है। ये आदर्शवादी हमेशा उन्नत लहजे में बोलते हैं। उन्नत लहजे में बोलने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि वे जो कुछ भी करते हैं उसमें वे कभी वास्तविकता का सामना नहीं करते या वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करते हैं। वे नहीं समझते कि वास्तविकता क्या है, वे हमेशा भावनाओं से प्रेरित होते हैं। जब ये लोग परमेश्वर के घर में आते हैं, तो चाहे वे कितना भी सत्य सुनें, वे परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ या परमेश्वर में विश्वास करने का महत्व नहीं समझ पाते। वे सत्य का मूल्य नहीं समझते, फिर उसका अनुसरण करने का मूल्य समझना तो दूर की बात है। वे हमेशा आदर्शवादियों की आकांक्षाओं का अनुसरण करते हैं। उनका सपना है कि एक दिन परमेश्वर का घर वैसा ही हो जैसा उन्होंने सोचा था, जहाँ लोग एक-दूसरे के साथ सम्मान से पेश आएँ, एक साथ मिल-जुलकर रहें, एक-दूसरे के साथ बहुत अच्छे से तालमेल बनाकर रहें, एक-दूसरे को सँजोकर रखें, देखभाल करें, परवाह करें, मदद करें और एक-दूसरे का धन्यवाद करें। जहाँ लोग एक-दूसरे को अच्छी बातें कहें और आशीष दें, कोई अप्रिय या आहत करने वाले शब्द न कहें, या ऐसे शब्द न कहें जो लोगों के भ्रष्ट सार को उजागर करते हों या बिना किसी विवाद के, या लोग एक-दूसरे को उजागर या एक-दूसरे की काट-छाँट न करें। ऐसे लोग चाहे कितना भी सत्य सुन लें, फिर भी वे परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ नहीं समझते हैं, या नहीं जान पाते हैं कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, और परमेश्वर लोगों को किस प्रकार का व्यक्ति बनाना चाहता है। वे न केवल इन चीजों को नहीं समझते, बल्कि यह आशा भी करते हैं कि एक दिन परमेश्वर के घर में वे उस आदर्शवादी व्यवहार का आनंद ले पाएँगे जैसा वे चाहते हैं। यदि उन्हें ऐसा व्यवहार नहीं मिलता है, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ उनकी आकांक्षाओं को साकार किया जा सके, न ही उन्हें साकार करने का कोई अवसर मिलता है। इसलिए, कुछ लोग अक्सर दमित महसूस करते हुए हार मानने की सोचते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करना उबाऊ और खोखला लगता है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले बौद्ध धर्म में विश्वास करने वालों की तरह एक-दूसरे की मदद नहीं करते, एक-दूसरे को नहीं सँजोते और सम्मान नहीं करते हैं। और परमेश्वर में विश्वास करने वाले हमेशा सत्य और सिद्धांतों पर चर्चा करते रहते हैं, वे अक्सर पारस्परिक संबंधों में विवेक की बात करते हैं, उन्हें अक्सर उजागर किया जाता है और उनकी आलोचना होती है, और यहाँ तक कि वे अक्सर काट-छाँट का भी सामना करते हैं। मैं इस तरह का जीवन नहीं चाहता हूँ।” यदि उनके पास अपनी आकांक्षाएँ और यह आशा की किरण नहीं होती कि वे स्वर्ग में पहुँचेंगे, तो इस तरह के आदर्शवादी किसी भी समय कलीसिया छोड़कर कोई दूसरा रास्ता खोज लेते। तो, मुझे बताओ, क्या ये परमेश्वर के घर के लोग हैं? क्या वे परमेश्वर के घर में रहने के लिए उपयुक्त हैं? (नहीं, वे उपयुक्त नहीं हैं।) तुम लोगों को क्या लगता है, उन्हें कहाँ जाना चाहिए? (वे मठवासी जीवन जीने के लिए उपयुक्त हैं।) वे बौद्ध या ताओवादी मंदिरों में जा सकते हैं, इनमें से कोई भी ठीक रहेगा। वे लौकिक दुनिया में दमित महसूस नहीं करते हैं, लेकिन परमेश्वर के घर में विशेष रूप से दमित महसूस करते हैं, उन्हें लगता है कि उनके पास अपनी आकांक्षाओं को साकार करने का अवसर या उनका उपयोग करने के लिए जगह नहीं है। इसलिए, ये लोग धुएँ के छल्ले उड़ाने वाली और लगातार धूप-दीप जलाने वाली जगहों में रहने के लिए बिल्कुल सही हैं। वे शांत जगहें हैं, और वे तुम्हें आचरण करने के तरीके नहीं सिखाते हैं। वे तुम्हारे तमाम भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर नहीं करते हैं, और वे तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को उजागर या उसकी काट-छाँट भी नहीं करते हैं। वहाँ लोगों के बीच दूरी और सम्मान है। लोग दिन भर में बस दो-चार शब्द ही बोलते हैं, और उनके बीच कोई विवाद भी नहीं होता है। तुम किसी की निगरानी या नियमन के अधीन नहीं होते। तुम वहाँ एक आत्मनिर्भर जीवन जियोगे, वर्ष भर में शायद ही कभी अजनबियों से तुम्हारा सामना होगा। तुम्हें दैनिक मामलों के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होगी। यदि तुम्हें अपने शारीरिक भरण-पोषण के लिए किसी चीज की आवश्यकता होगी, तो तुम एक छोटा-सा कटोरा या भिक्षा का कटोरा लेकर आम जनता से भिक्षा माँग सकते हो, और खाने के लिए कुछ भोजन प्राप्त कर सकते हो, तुम्हें पैसे कमाने की भी कोई जरूरत नहीं होगी। उन स्थानों पर सभी सांसारिक कष्ट दूर हो जाते हैं। लोग एक दूसरे के साथ बहुत उदारता से व्यवहार करते हैं और कोई किसी से बहस नहीं करता। अगर कोई मतभेद होता है तो वह लोगों के दिलों में रहता है। दिन सुकून और आराम से बीतते हैं। इसे ही परम आनंद की भूमि कहते हैं, यही आदर्शवादियों की आकांक्षाओं का स्थान है, और वह स्थान जहाँ आदर्शवादी अपनी आकांक्षाओं को साकार कर सकते हैं। इन लोगों को अपनी कल्पना की जगह पर ही रहना चाहिए, कलीसिया में नहीं। जहाँ तक ऐसे लोगों का संबंध है, कलीसिया में करने के लिए बहुत सारी चीजें हैं। हर दिन, उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने होंगे, सभाओं में भाग लेना होगा, प्रत्येक सिद्धांत को सीखना होगा, और हर समय सत्य और अपने भ्रष्ट स्वभावों को समझने पर संगति करने होगी; कुछ लोग, जो अपने भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर कार्य करते हैं और सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, उन्हें काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, और कुछ लोग तो अक्सर इसका सामना करते हैं। ये लोग यहाँ विशेष रूप से दमित और दुखी महसूस करते हैं। कलीसिया उनका आदर्श माहौल नहीं है। उनका मानना है कि इस जगह पर अपना समय बर्बाद करने या अपनी जवानी बर्बाद करने से बेहतर होगा कि वे जल्द किसी ऐसी जगह पर जाकर रहने लगें जो उन्हें पसंद हो। वे सोचते हैं कि लगातार दमित महसूस करने और असहज, आनंदहीन और दुखी जीवन जीने में अपना समय यहाँ बर्बाद करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह आदर्शवादियों की आकांक्षाओं की एकमात्र विशिष्ट अभिव्यक्ति है जिस पर हमने चर्चा की है। इन लोगों के बारे में कहने को ज्यादा कुछ नहीं है। चाहे तुम उनके साथ सत्य पर कितनी भी संगति करो, वे उसे नहीं सुनेंगे। सारा दिन वे फंतासियों में डूबे रहते हैं, और जिन चीजों के बारे में सोचते हैं वे सभी बहुत अवास्तविक और अस्पष्ट हैं, और सामान्य मानवता से बहुत अलग हैं। वे दिन भर इन्हीं चीजों के बारे में सोचते रहते हैं और सामान्य लोगों से बात नहीं कर पाते। सामान्य लोग भी यह नहीं समझ पाते हैं कि उनकी दुनिया किस चीज से बनी है। इसलिए, चाहे ये लोग किसी भी प्रकार के विचार और दृष्टिकोण रखें, उनकी आकांक्षाएँ खोखली होती हैं। क्योंकि उनकी आकांक्षाएँ खोखली होती हैं, तो उनके विचार और दृष्टिकोण भी स्वाभाविक रूप से खोखले होते हैं। वे गहन-विश्लेषण करने या बहुत गहराई से जांच करने लायक नहीं होते हैं। चूँकि वे खोखले होते हैं तो उन्हें ऐसे ही रहने दो। ये लोग जहाँ चाहें वहाँ जा सकते हैं, और परमेश्वर का घर इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। यदि वे परमेश्वर के घर में रहना और अपने कुछ कर्तव्य निभाना या मजदूरी करना चाहते हैं, तो जब तक वे परेशानी खड़ी नहीं करते या कुछ बुरा नहीं करते हैं, हम उनकी जरूरतों को पूरा करेंगे और उन्हें पश्चात्ताप करने का अवसर देंगे। संक्षेप में, यदि वे भाई-बहनों के प्रति, परमेश्वर के घर और कलीसिया के प्रति सौहार्दपूर्ण रहते हैं, तो हमें इस प्रकार के व्यक्ति को संभालने की कोई आवश्यकता नहीं है, जब तक कि वे खुद ही यहाँ से जाने की इच्छा जाहिर नहीं करते। अगर ऐसा है, तो आओ हम इसका खुले दिल से स्वागत करें, ठीक है? (ठीक है।) तो फिर, यह बात खत्म हुई।
आदर्शवादियों की आकांक्षाएँ खोखली होती हैं, जबकि यथार्थवादियों की आकांक्षाएँ कहीं अधिक व्यावहारिक होती हैं और लोगों के जीवन और वास्तविक माहौल के काफी अनुरूप होती हैं। बेशक, वे मानव जीवन और अस्तित्व के साथ-साथ खुद को स्थापित कर अपना जीवन शुरू करने से जुड़े सवालों से भी अधिक व्यावहारिक ढंग से संबंध रखते हैं। खुद को स्थापित कर अपना जीवन शुरू करने में लोगों द्वारा अर्जित कौशल, योग्यताएँ और प्रतिभाएँ, उनके द्वारा हासिल की गई विभिन्न प्रकार की शिक्षाएँ और उनके गुण, काबिलियत और विशेषज्ञता शामिल होती हैं। यथार्थवादियों की आकांक्षाओं में ये पहलू शामिल होते हैं। यथार्थवादियों की आकांक्षाओं के क्षेत्र में, चाहे उनका उद्देश्य अपने जीवन की स्थितियों में सुधार लाना हो या अपने आध्यात्मिक संसार को संतुष्ट करना, ये आकांक्षाएँ लोगों के वास्तविक जीवन में ठोस रूप में दिखती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों में अगुआई करने की क्षमताएँ होती हैं और वे सुर्खियों में बने रहना पसंद करते हैं। वे सार्वजनिक रूप से बोलने या मौखिक संचार में माहिर हो सकते हैं, या उनमें लोगों की गहरी समझ और उनका उपयोग करने की निपुणता होती है और सटीक ढंग से कहें तो वे लोगों के साथ चालाकी करने में निपुण होते हैं। नतीजतन, इस तरह के लोग विशेष रूप से कोई पद संभालने, अगुआ की भूमिकाएँ निभाने या मानव संसाधन में काम करने के शौकीन होते हैं। जब वे इन क्षेत्रों में अपनी योग्यता को पहचान लेते हैं, तो वे लोगों के बीच अगुआ या आयोजक बनने, कार्यों और कर्मियों की निगरानी करने या यहाँ तक कि किसी कार्य का निर्देशन करने की इच्छा रखते हैं। उनकी प्राथमिक आकांक्षा अगुआ बनना है। बेशक, वे समाज में इसी तरह व्यवहार करते हैं। जब वे परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं, तो वे इसे एक धार्मिक संगठन के रूप में देखते हैं, जो अपने आप में अनोखा है। कलीसिया में शामिल होने के बाद भी उनकी आकांक्षाओं में कोई बदलाव नहीं आता। जिस माहौल या पृष्ठभूमि में वे रहते हैं, उसमें होने वाले बदलावों का उनकी आकांक्षाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे अपने साथ परमेश्वर के घर में अगुआई की वही आकांक्षा लेकर आते हैं। उनकी इच्छा परमेश्वर के घर में अगुआ के पद पर बने रहने की होती है, जैसे कलीसिया की अगुआई करना, किसी विशिष्ट स्तर के लिए जिम्मेदार होना या किसी समूह की अगुआई करना। यही उनकी आकांक्षा है। लेकिन चूँकि परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं में अगुआओं या कर्मियों के चयन के लिए सिद्धांत और नियम मौजूद हैं और ये लोग उन योग्यताओं को पूरा नहीं कर पाते, इसलिए यदि वे कभी-कभी किसी विशिष्ट स्तर के लिए अगुआई की चयन प्रक्रिया में भाग लेते भी हैं, तो वे आखिर में अपनी आकांक्षा को साकार कर अपनी इच्छा के अनुरूप अगुआ नहीं बन पाते। वे अगुआई हासिल करने में या वह कार्य करने में जितना अधिक असमर्थ होते हैं जिसकी वे आकांक्षा करते हैं, उनकी आकांक्षाएँ उनके भीतर उतना ही अधिक हलचल मचाती हैं, जिससे अगुआ बनने की उनकी लालसा और तीव्र हो जाती है। नतीजतन, वे कई चीजों में बहुत अधिक प्रयास करते हैं, चाहे यह उनके भाई-बहनों के बीच हो या फिर उच्च-स्तरीय अगुआओं के सामने, वे खुद को प्रदर्शित करने, खुद को उत्कृष्ट और असाधारण दिखाने और यह पक्का करने के लिए कि उनकी प्रतिभाओं को पहचाना जाए, बेहद प्रयास करते हैं। वे अपने भाई-बहनों की प्राथमिकताओं को पूरा करने के लिए अपनी अंतरात्मा से भी समझौता कर सकते हैं, कुछ खास चीजें कर और कह सकते हैं और परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं द्वारा अगुआ से जो अपेक्षाएँ निर्धारित की गई हैं, उसके अनुरूप होने के लिए जानबूझकर कुछ खास तरह का व्यवहार दिखा सकते हैं। लेकिन अपने लगातार प्रयासों के बावजूद वे अगुआ बनने की अपनी आकांक्षाओं को साकार नहीं कर पाते। ऐसे लोग भी होते हैं जो निराश, हताश और खुद से कटा हुआ महसूस करते हैं। दमन की जो नकारात्मक भावनाएँ उन्होंने पहले अनुभव की थीं, वे तब अधिक तीव्र हो जाती हैं जब वे परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन सत्य स्वीकार नहीं कर पाते या अपनी समस्याओं का समाधान नहीं ढूँढ़ पाते। उन्होंने हमेशा किसी पद पर बने रहने और अगुआ बनने की इच्छा रखी, और ये आकांक्षाएँ उनके परमेश्वर में विश्वास करने से पहले ही उनके दिलों में अंकुरित हो चुकी थीं। क्योंकि वे अपनी आकांक्षाओं को साकार करने में असमर्थ थे, इसलिए उनके भीतर गहराई में दमन की एक अदृश्य भावना हमेशा बनी रहती थी। परमेश्वर के घर में प्रवेश करने के बाद भी, जहाँ उनकी आकांक्षाएँ अभी भी साकार नहीं हो पाती हैं, उनके भीतर मौजूद दमन की भावनाएँ अधिक मजबूत और भारी हो जाती हैं। इनकी अगुआई की क्षमताओं का उपयोग नहीं किए जाने के कारण, ये लोग नाराज हो जाते हैं, और खुद को बदकिस्मत, निराश और दमित महसूस करते हैं, क्योंकि उनकी आकांक्षाएँ साकार नहीं हो पाईं। चूँकि उनकी आकांक्षाएँ अधूरी रह जाती हैं, तो उन्हें अपने भीतर अन्याय की भावना महसूस होती है। जब उनके पास अपनी क्षमताएँ दिखाने का कोई रास्ता नहीं होता, तो वे जीवन और आगे बढ़ने के मार्ग को लेकर हताश हो जाते हैं। नतीजतन, अपने दैनिक जीवन में, विभिन्न कार्य करते समय वे अक्सर दमन की भावना लेकर चलते हैं। कुछ लोग अनेक प्रयासों और कोशिशों के बाद भी अगुआ नहीं बन पाते या अपनी आकांक्षा साकार नहीं कर पाते। ऐसी स्थितियों में वे अपनी भावनाएँ जाहिर करने और अपने दमन को निकालने या जताने के लिए विभिन्न साधनों का सहारा लेना शुरू कर देते हैं। बेशक, परमेश्वर के कुछ विश्वासी, पद पर बने रहने की अपनी आकांक्षाओं पर कायम रहते हुए कलीसिया में अगुआ बनने की अपनी दिली इच्छा पूरी कर लेते हैं। लेकिन वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के अनुसार अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य नहीं निभा पाते। साथ ही, वे न खुद को परमेश्वर के घर और अपने भाई-बहनों की अपेक्षाओं और निगरानी के तहत अनिच्छा से अगुआ की भूमिकाएँ निभाते हुए पाते हैं। भले ही उन्होंने अपनी आकांक्षाओं को हासिल कर लिया है और ऐसे कार्य कर रहे हैं जिनकी वे आकांक्षा करते हैं, फिर भी वे दमित महसूस करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं को साकार करने की नींव के आधार पर अगुआई कर रहे हैं, और भले ही वे बाहरी या सतही तौर पर प्रतीत हो कि वे परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित कार्यों को पूरा कर रहे हैं, उनकी आकांक्षाएँ इन जिम्मेदारियों से कहीं आगे जाती हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएँ, आकांक्षाएँ, इच्छाएँ और दर्शन उनकी वर्तमान भूमिकाओं के दायरे से कहीं आगे जाते हैं। परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं और परमेश्वर की अपेक्षाओं के कारण, उनके कार्यों और विचारों के साथ-साथ उनकी योजनाएँ और इरादे, बंधे हुए और प्रतिबंधित होते हैं। इसलिए, अगुआई का पद पाने के बाद भी वे दमित महसूस करते हैं। इन समस्याओं का कारण क्या है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि अगुआ बनने के बाद भी वे अपनी आकांक्षाओं और अपनी आकांक्षाओं में किए गए वादों को साकार करने की कोशिश में लगे रहते हैं। हालाँकि, परमेश्वर के घर या कलीसिया में अगुआओं के रूप में सेवा करने से उनकी आकांक्षाएँ और इच्छाएँ साकार नहीं हो पाती हैं, और उनकी भावनाएँ मिश्रित और एक-दूसरे के विपरीत हो जाती हैं। इन संघर्षों और अपनी आकांक्षाओं और अनुसरण का त्याग नहीं कर पाने के कारण वे अक्सर अंदर ही अंदर दमित महसूस करते हैं और राहत पाने में असमर्थ होते हैं। यह एक प्रकार का व्यक्ति है। परमेश्वर के घर में, इन लोगों के बीच ऐसे लोग भी हैं जो अपनी आकांक्षाओं के लिए लड़ते हुए भी उन्हें साकार नहीं कर पाते हैं, और ऐसे लोग भी हैं जो अपनी आकांक्षाओं के लिए लड़ते हैं और आखिर में उन्हें साकार कर लेते हैं, पर फिर भी दमित महसूस करते हैं। चाहे वे खुद को किसी भी स्थिति में पाएँ, ये वे लोग हैं जिन्होंने अपनी आकांक्षाओं को नहीं त्यागा है और अभी भी परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते हुए और अपना जीवन जीते हुए इनका अनुसरण करते रहते हैं।
ऐसे अन्य लोग भी हैं जिनके पास लेखन, मौखिक संचार और साहित्य की प्रतिभा है। वे अपने साहित्यिक कौशल के माध्यम से अपने विचारों को व्यक्त करने की उम्मीद करते हैं और उसी समय इन कौशलों का प्रदर्शन करके परमेश्वर के घर में अपनी क्षमता, मूल्य और योगदान की ओर लोगों का ध्यान खींच पाते हैं। उनकी आकांक्षा एक उत्कृष्ट और सुयोग्य लेखक और बुद्धिजीवी बनना होती है। जब वे परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं और लिखने-पढ़ने संबंधी कर्तव्य निभाना शुरू करते हैं, तो उन्हें लगता है कि उन्हें अपनी क्षमताओं का उपयोग करने के लिए एक जगह मिल गई है। वे लेखक और बुद्धिजीवी बनने की अपनी आकांक्षा को साकार करने के लिए उत्सुकता से अपनी खूबियों और प्रतिभाओं का प्रदर्शन करते हैं। भले ही वे अपने कर्तव्य निभाते रहते हैं, लेकिन अपनी आकांक्षाओं को नहीं त्यागते। यह कहा जा सकता है कि उनके कर्तव्य निर्वहन का 80 से 90 प्रतिशत भाग उनकी आकांक्षाओं पर आधारित है; दूसरे शब्दों में, उनके कर्तव्य निर्वहन की प्रेरणा उनकी इन आकांक्षाओं के अनुसरण और आशा से आती है। नतीजतन, इस तरह के लोगों के लिए कर्तव्यों का निर्वहन बहुत मिलावटी होता है, जिससे उनके लिए सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के अपेक्षित मानकों के अनुसार कर्तव्य निर्वहन के मानकों पर खरा उतरना मुश्किल हो जाता है। वे केवल अच्छे से अपने कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर में नहीं आते हैं, बल्कि वे अपने कर्तव्य निभाने के अवसर का लाभ उठाकर अपनी प्रतिभाओं का प्रदर्शन करना चाहते हैं, वे अपनी आकांक्षाओं को हासिल करने की लालसा रखते हैं और अपनी प्रतिभाओं के प्रदर्शन के माध्यम से अपना मूल्य प्रदर्शित करते हैं। इसलिए, अपने कर्तव्यों को मानक के अनुसार अच्छे से निभाने में उनकी सबसे बड़ी बाधा उनकी आकांक्षाएँ ही हैं, यानी कर्तव्य निभाने की उनकी प्रक्रिया में निजी प्राथमिकताओं और तमाम लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उनके विचारों और परिप्रेक्ष्यों का घालमेल हो जाता है। कुछ लोगों में खास पेशेवर कौशल की समझ होती है या उनमें कोई खास प्रतिभा होती है; उदाहरण के लिए, कुछ लोग कंप्यूटर तकनीक को समझते हैं और कंप्यूटर इंजीनियर के रूप में काम करने का आनंद लेते हैं। वे चश्मे पहनते हैं, पेशेवर तरीके से पोशाक पहनते हैं और सबसे खास बात यह है कि उनके पास ऐसे लैपटॉप होते हैं जो अनूठे होते हैं या जिन्हें दूसरे लोग शायद ही कभी देख पाते हैं। वे चाहे जहाँ कहीं भी जाएँ, अपने लैपटॉप के साथ बैठते हैं और उसे खोलकर विभिन्न वेबपेजों पर जानकारी की जाँच करते हैं और कंप्यूटर की मदद से विभिन्न समस्याओं को पेशेवर तरीके से हल करते हैं। संक्षेप में, कंप्यूटर इंजीनियरिंग उद्योग में पेशेवर बनने का प्रयास करते हुए, वे खुद से एक पेशेवर परिप्रेक्ष्य, व्यवहार, बोली और तौर-तरीके अपनाने की अपेक्षा करते हैं और दूसरों के सामने इसका दिखावा करते हैं। परमेश्वर के घर में प्रवेश करने के बाद, ये लोग आखिर में अपनी आकांक्षा को साकार करते हैं और कंप्यूटर तकनीक से संबंधित कार्य करते हैं। वे लगातार तकनीक का अध्ययन करके अपने कौशल को निखारते हैं, उद्योग के रुझानों के साथ बने रहने और अपने क्षेत्र में नई जानकारी को बढ़ावा देने और प्रकाशित करने के उद्देश्य से निष्ठापूर्वक विभिन्न समस्याओं की पहचान कर उनका समाधान करते हैं। इस तरह के लोगों की एक विशिष्ट पेशेवर कौशल में विशेष रुचि और समझ होती है, जो उन्हें पेशेवर और विशेषज्ञ बनाती है। नतीजतन, उनकी आकांक्षा पेशेवर बनना है और वे आशा करते हैं कि परमेश्वर का घर उन्हें एक महत्वपूर्ण स्थान पर रखेगा, उनका सम्मान करेगा और उन पर भरोसा दिखाएगा। बेशक, परमेश्वर के घर में और मौजूदा समय में, ऐसे अधिकांश लोगों ने वास्तव में अपनी खूबियों का उपयोग किया है और अपनी आकांक्षाओं को साकार किया है। लेकिन, अपनी आकांक्षाओं को साकार करते हुए क्या इन लोगों ने इस बात पर विचार किया है कि अपना कार्य करने में वे अपने कर्तव्य निभा रहे हैं या अपनी आकांक्षाओं का अनुसरण कर रहे हैं? यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है, है ना? वे जिस कार्य में लगे हैं वह विशिष्ट, जटिल और मानसिक रूप से बहुत थका देने वाला है। लेकिन उनके पास जो कौशल हैं वे इस कार्य के लिए परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं से बहुत कम हैं। इसलिए अपनी आकांक्षाओं का अनुसरण करते हुए और अपने कर्तव्य निभाते हुए वे कुछ हद तक खुद को बँधा हुआ और नियंत्रित महसूस करते हैं। जब ये लोग परमेश्वर में विश्वास के विभिन्न सत्यों और कर्तव्य निर्वहन के सिद्धांतों का सामना करते हैं, तो अपने दिलों में मौजूद आकांक्षाओं के कारण वे एक हद तक दमन महसूस कर सकते हैं। लोगों का एक तबका ऐसा ही है।
लोगों का एक और समूह है जो सुसमाचार फैलाने में लगा है। वे लोग सुसमाचार फैलाने के कार्य में अगुआ बनने, सबसे आगे होने, और जिस कलीसिया का हिस्सा हैं उसमें अगुआई करने और उत्कृष्टता प्राप्त करने की आकांक्षा रखते हैं, कभी पीछे रहकर संतुष्ट नहीं होते हैं। भले ही वे अपने कर्तव्य निभाते हैं और अपना कार्य करते हैं, पर उनका अनुसरण उनकी अपनी आकांक्षाओं और उन लक्ष्यों के लिए होता है जिनकी वे योजना बनाते और कल्पना करते हैं, जिनका परमेश्वर में विश्वास या सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। जब इन लक्ष्यों और आकांक्षाओं को उजागर करके इन्हें निरूपित किया जाता है, या उनके सामने कुछ बाधाएँ आती हैं और इन लोगों को एहसास होता है कि उनकी आकांक्षाओं को साकार नहीं किया जा सकता और न ही उनकी अहमियत को प्रदर्शित किया जा सकता है, तो वे विशेष रूप से दमित और असंतुष्ट महसूस करते हैं। उनमें से कई लोग अपनी आकांक्षाओं का अनुसरण करते हुए समर्थन और मान्यता पाना चाहते हैं। जब उन्हें ये चीजें नहीं मिलती हैं या जब उनके प्रयासों का फल तुरंत नहीं मिलता है, तो उन्हें लगता है कि यह सार्थक नहीं है, यह अनुचित है, तो वे दमित महसूस करते हैं। क्या वे ऐसा व्यवहार प्रदर्शित नहीं करते? (हाँ, करते हैं।) सुसमाचार फैलाने में शामिल लोगों में से कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हमेशा से सुयोग्य और अनुकरणीय प्रचारक या उपदेशक बनने की इच्छा रही है। जब वे किसी के मशहूर प्रचारक और उपदेशक बनने की बात सुनते हैं, तो वे प्रशंसा से भर जाते हैं और आशा करते हैं कि एक दिन वे भी ऐसे बन सकेंगे, आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें याद रखेंगी और उनकी प्रशंसा की जाएगी और परमेश्वर उन्हें याद रखेगा। वे अपनी आकांक्षा को अपने लक्ष्य और प्रेरणा के रूप में इस्तेमाल करते हुए, परमेश्वर के घर में प्रचारक बनने और शोहरत पाने या आने वाली पीढ़ियों द्वारा याद रखे जाने के लिए हमेशा अपने आकांक्षापूर्ण तरीके से प्रचार करना चाहते हैं। यही उनकी आकांक्षा है। लेकिन, परमेश्वर के घर में किसी भी कार्य के लिए सख्त अपेक्षाएँ और सिद्धांत हैं जिनके अनुसार परमेश्वर ने लोगों को यह कार्य करने के लिए कहा है। नतीजतन, ऐसे व्यक्ति दमित महसूस करते हैं, क्योंकि वे उस प्रकार के प्रचारक नहीं बन सकते जिसकी वे आकांक्षा करते हैं, वे अक्सर निगरानी और नियमन के अधीन होते हैं, और अगुआ और कर्मी अक्सर उनके कार्य के संबंध में खोजबीन और पूछताछ करते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो विशेष कौशल या प्रतिभाएँ होने के कारण, परमेश्वर के घर में आने के बाद भी अपनी आकांक्षाओं का अनुसरण करते रहते हैं। उदाहरण के लिए, जो अभिनेता हैं उनमें से कुछ अभिनय में कुशल हैं और उन्हें अभिनय तकनीकों की बुनियादी समझ है। वे उस प्रकार का अभिनेता बनना की इच्छा रखते हैं जिसकी वे आकांक्षा करते हैं, आशा करते हैं कि एक दिन वे अविश्वासियों के बीच लोकप्रिय मशहूर अभिनेताओं जैसे बन सकेंगे : बड़ी हस्तियाँ, सितारे, राजाओं और रानियों जैसे। हालाँकि, परमेश्वर के घर में, इस संबंध में भ्रष्टता का स्वभाव और अभिव्यक्ति हमेशा उजागर होती है, और अभिनेताओं के लिए विशिष्ट अपेक्षाएँ और सिद्धांत हैं। अभिनेता के रूप में थोड़ी प्रसिद्धि हासिल करने के बाद भी, वे ऐसी मशहूर हस्ती नहीं बन पाते जिनकी लोग पूजा और अनुसरण करते हैं, जिसके कारण वे दमित महसूस करते हैं। वे कहते हैं, “परमेश्वर का घर कष्टों से भरा है। वे हमेशा हर चीज में लोगों पर प्रतिबंध लगाते रहते हैं। मशहूर हस्तियों की मिसाल का अनुसरण करने में क्या गलत है? थोड़ी-सी शख्सियत और अपेक्षाओं के साथ अलग ढंग के कपड़े पहनने में क्या बुराई है?” परमेश्वर के घर में अभिनेताओं की वेशभूषा और विशिष्ट अभिनय की अपेक्षाओं के कारण, उनकी नजर में इन अपेक्षाओं और मशहूर हस्ती और बड़े सितारे बनने की उनकी आकांक्षा के बीच हमेशा संघर्ष और असंगतता रहती है। नतीजतन, वे यह सोचकर अपने दिलों में बहुत परेशान महसूस करते हैं, “मेरी आकांक्षाओं को साकार करना इतना कठिन क्यों है? परमेश्वर के घर में मुझे हर मोड़ पर बाधाओं का सामना क्यों करना पड़ता है?” जब वे ऐसे विचारों का अनुभव करते हैं या ये अपेक्षाएँ पूरी नहीं होती हैं, तो वे दमित महसूस करते हैं। दमन की इस भावना के पीछे उनका यह विश्वास है कि उनकी आकांक्षाएँ वैध और मूल्यवान हैं। वे यह भी मानते हैं कि अपनी आकांक्षाओं का अनुसरण करने में कुछ भी गलत नहीं है, ऐसा करना उनका अधिकार है और इसी वजह से, उनके भीतर दमनकारी भावनाएँ उभरने लगती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ निर्देशकों को लगता है कि कई फिल्मों का निर्देशन करने के बाद उन्हें काफी अनुभव प्राप्त हुआ है। वे मानते हैं कि उनकी फिल्में दिखाए जाने लायक हैं, और उनमें सिनेमैटोग्राफी, संपादन, अभिनेता के अभिनय और इसी तरह के समान प्रबंधन के मामले में पहले की तुलना में काफी सुधार हुआ है। ऊपरवाले का मार्गदर्शन प्राप्त करने के बाद, उनकी फिल्में आखिरकार उचित मानकों पर खरी उतरती हैं और समय पर रिलीज होती हैं। इससे यह पुष्टि होती है कि एक योग्य निर्देशक बनने की उनकी चाह एक उपयुक्त, वैध और आवश्यक आकांक्षा है। हालाँकि, एक योग्य निर्देशक बनने के अपने लक्ष्य को पूरा करते हुए उनके कुछ सिद्धांतहीन विचारों, दृष्टिकोणों और कार्यों को अक्सर अस्वीकार कर दिया जाता है, पलट दिया जाता है या अमान्य कर दिया जाता है। उन्हें अक्सर काट-छाँट तक का सामना करना पड़ सकता है। इससे उनके दिलों की गहराई में दमन की भावना पैदा होती है, और वे कहते हैं, “परमेश्वर के घर में निर्देशक बनना इतना कठिन क्यों है? अविश्वासियों की दुनिया के उन निर्देशकों को देखो, वे कितने प्रतिष्ठित हैं। उनके पास ऐसे लोग हैं जो उन्हें चाय परोसते हैं, उन्हें पेय पिलाते हैं और यहाँ तक कि उनके पैर भी धोते हैं। परमेश्वर के घर में निर्देशक होने से कोई रुतबा नहीं मिलता या कोई शैली नहीं होती और कोई भी हमारा सम्मान या प्रशंसा नहीं करता है। हमेशा हमारी काट-छाँट क्यों की जाती है? हम चाहे जो भी करें, वो कभी सही नहीं होता। कितना दमनकारी है यह! हमारे अपने विचार, दृष्टिकोण और पेशेवर क्षमताएँ हैं, तो फिर हमेशा हमारी ही काट-छाँट क्यों की जाती है? क्या अपनी आकांक्षाओं का अनुसरण करना गलत है या फिर ऐसा संभव है कि हमारी आकांक्षाओं का अनुसरण ही नाजायज हो? हमारी आकांक्षाओं को साकार करना इतना कठिन क्यों है? यह बहुत दमनकारी है!” चाहे वे इसके बारे में किसी भी तरह से सोचें, फिर भी वे दमित महसूस करते हैं। ऐसे कुछ गायक भी हैं जो कहते हैं, “परमेश्वर के घर में, मैं एक योग्य गायक बनने, अच्छा गाने, अपनी शैली दिखाने और अपने श्रोताओं से प्यार पाने के अलावा और कुछ नहीं चाहता।” लेकिन परमेश्वर का घर भजन गाने के लिए अक्सर विभिन्न अपेक्षाएँ और सिद्धांत सामने रखता है, और अक्सर उन अपेक्षाओं का उल्लंघन करने के लिए इन गायकों की काट-छाँट की जाती है। जब उनकी काट-छाँट नहीं की जाती है तो उन्हें लगता है कि वे अपनी आकांक्षाओं को सुचारु रूप से साकार कर सकते हैं। लेकिन जब उनकी काट-छाँट की जाती है और उन्हें कुछ असफलताएँ मिलती हैं तो उन्हें लगता है कि उस अवधि के दौरान उनके प्रयास और उपलब्धियाँ अमान्य कर दी गई हैं, और वे आकर फिर वहीं खड़े हो गए हैं जहाँ वे पहले थे। इससे उनके दिलों की गहराई में दमन की भावना पैदा होती है, और वे कहते हैं, “आह, अपनी आकांक्षाओं को साकार करना वाकई बहुत कठिन है! दुनिया बहुत बड़ी है, फिर भी ऐसा लगता है कि इसमें मेरे लिए कोई जगह नहीं है। परमेश्वर के घर में भी यही हाल है। अपना करियर बनाना इतना कठिन क्यों है? जो चीजें मैं करना चाहता हूँ उन्हें करना इतना कठिन क्यों है? कोई भी मेरा समर्थन नहीं करता, मुझे हर मोड़ पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है, और मेरी लगातार काट-छाँट की जाती है। यह सब सचमुच चुनौतीपूर्ण और दमनकारी है! अविश्वासियों के संसार में, वे हमेशा साजिश रचते और एक-दूसरे के साथ लड़ते रहते हैं, और हर जगह करियर संबंधी बाधाएँ होती हैं, इसलिए दमित महसूस करना सामान्य बात है। लेकिन अपनी आकांक्षाओं के साथ परमेश्वर के घर में आकर मैं अभी भी दमित महसूस क्यों करता हूँ?” जो लोग परमेश्वर के घर में विभिन्न कार्यों में लगे होते हैं, उन्हें अक्सर अपनी आकांक्षाओं का अनुसरण करने में असफलताओं का सामना करना पड़ता है, उन्हें अक्सर अमान्य कर दिया जाता है, उनकी अक्सर काट-छाँट की जाती है और उन्हें अक्सर मान्यता नहीं मिलती। निष्क्रिय रूप से इन चीजों का अनुभव करने के बाद, वे अनजाने ही निराश में डूब जाते हैं, उन्हें लगता है कि उनका जीवन भी खत्म हो चुका है और उनकी आकांक्षाओं को साकार करना असंभव है। परमेश्वर के घर में आने से पहले वे सोचते थे, “मैं अपने साथ अपनी आकांक्षाएँ और महत्वाकांक्षाएँ लेकर चलता हूँ। मेरी अपनी इच्छाएँ हैं और परमेश्वर के घर में इनके लिए अनंत संभावनाएँ हैं। मैं एक योग्य निर्देशक, अभिनेता, लेखक या एक योग्य नर्तक, गायक या संगीतकार तक बन सकता हूँ।” जब वे अपनी प्रतिभाएँ दिखाने और अपनी आकांक्षाओं को साकार करने में असमर्थ थे तो उनका मानना था कि परमेश्वर का घर उन्हें उनका अपना मंच, एक विशाल स्थान प्रदान करेगा, जहाँ उनकी आकांक्षाएँ, सपने और महत्वाकांक्षाएँ साकार हो सकेंगी। उन्हें लगता था कि परमेश्वर के घर का मंच विशेष रूप से बहुत बड़ा है। हालाँकि, इतने वर्षों के बाद, वे सोचते हैं, “मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मेरे पैरों तले मंच सिकुड़ा जा रहा है? मेरी दुनिया छोटी क्यों होती जा रही है? मेरी आकांक्षाओं को साकार करने की संभावना लगातार दूर होती जा रही है और यहाँ तक कि असंभव भी। यह क्या हो रहा है?” इस मोड़ पर भी ये लोग अपनी आकांक्षाओं को नहीं त्यागेंगे या इन आकांक्षाओं और इच्छाओं की सत्यता पर सवाल नहीं उठाएँगे। वे अभी भी अपने कर्तव्य निभाने में इन आदर्शों और इच्छाओं को लेकर चलते हैं। नतीजतन, लोगों की दमनकारी भावनाएँ हर जगह उनके साथ रहती हैं, फिर चाहे अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं का अनुसरण करने का समय हो या फिर अपने वास्तविक कर्तव्य निभाने का समय हो। जो लोग दमनकारी भावनाएँ रखते हैं या जो इन्हें त्याग नहीं सकते, इन दोनों के बीच विरोधाभास को सुलझाया नहीं जा सकता। वे अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसरण और अपने कर्तव्य निर्वहन, दोनों में ही दमन की भावना रखते हैं। इसलिए, चाहे जो भी हो, अपने कर्तव्य निभाते हुए लोग लगातार खुद को समायोजित कर रहे हैं, लगातार अपनी आकांक्षाओं और सपनों का अनुसरण कर रहे हैं। तुम यह भी कह सकते हो कि लोग अपने कर्तव्य विरोधाभासी रवैये के साथ निभाते हैं, हर समय दमित और अनिच्छुक महसूस करते हैं। लेकिन अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने के लिए, अपनी अहमियत साबित करने और इन आकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसरण के लिए उनके पास अपने कर्तव्य निभाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। वे नहीं जानते कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, क्या हासिल करना चाह रहे हैं, किस उद्देश्य को हासिल करने, अनुसरण करने या साकार करने की कोशिश कर रहे हैं। यह उनके लिए लगातार अस्पष्ट होता जाता है, और आगे का रास्ता अधिक से अधिक अस्पष्ट लगने लगता है। ऐसी स्थिति में, क्या उनके लिए अपनी दमनकारी भावनाओं को त्यागना या उनका समाधान करना कठिन नहीं है? (हाँ।)
यहाँ तक संगति कर लेने के बाद, आओ अब हम इस बारे में संगति करना जारी रखें कि लोगों को अपनी आकांक्षाओं, इच्छाओं और अपने कर्तव्यों के बीच के संबंध को कैसे समझना और किस दृष्टिकोण से देखना चाहिए। सबसे पहले, आकांक्षाओं के बारे में बात करते हैं, विशेष रूप से उन लोगों की आकांक्षाओं के बारे में जिनका हमने पहले जिक्र किया था। क्या लोगों का परमेश्वर के घर में अपनी आकांक्षाओं को साकार करने की कोशिश करना उचित है? (नहीं, यह उचित नहीं है।) इस समस्या की प्रकृति क्या है? यह अनुचित क्यों है? (अपने कर्तव्य निभाते समय अपनी आकांक्षाओं को साकार करने के पीछे लगे रहकर वे सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य पूरे करने में लगे रहने के बजाय अपने आप का दिखावा करते हैं और अपने करियर स्थापित करते हैं।) मुझे बताओ, क्या अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करना अनुचित है? (हाँ, यह अनुचित है।) यदि तुम लोग इसे अनुचित कहते हो तो क्या यह किसी को उसके मानव अधिकारों से वंचित करता है? (नहीं, यह ऐसा नहीं करता है।) फिर समस्या क्या है? (जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो उन्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए और उस मार्ग पर चलना चाहिए जिसे परमेश्वर के वचन उनके लिए निर्धारित करते हैं। यदि वे केवल अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं का पीछा करते हैं, तो वे उस चीज़ के पीछे चलते हैं जो उनका शरीर चाहता है, और यह एक ऐसी विचारधारा है जो शैतान ने उनमें भर दी है।) इस संसार में अपनी आकांक्षाओं की प्राप्ति का अनुसरण करना उचित माना जाता है। चाहे तुम जिन किन्हीं आकांक्षाओं का अनुसरण करो, जब तक वे वैध हैं और कोई नैतिक सीमा नहीं लांघती हैं तो कोई दिक्कत नहीं है। कोई भी किसी चीज पर सवाल नहीं उठाता और तुम सही या गलत की बातों में नहीं फंसते। तुम जो भी व्यक्तिगत रूप से पसंद करते हो उसके पीछे भागते हो, और यदि तुम इसे हासिल कर लेते हो, यदि तुम अपने लक्ष्य तक पहुँच जाते हो, तो तुम सफल हो; लेकिन यदि तुम चूक जाते हो, यदि तुम असफल हो जाते हो, तो ये तुम्हारा अपना मामला है। लेकिन जब तुम परमेश्वर के घर, एक विशेष स्थान में प्रवेश करते हो तो चाहे तुम्हारी अपनी जो भी आकांक्षाएँ और इच्छाएँ हों, तुम्हें उन सभी को त्याग देना चाहिए। ऐसा क्यों? आकांक्षाओं और इच्छाओं का अनुसरण, चाहे तुम विशेष रूप से जिसका भी अनुसरण करते हो—अगर केवल अनुसरण के बारे में ही बात करें—इसके काम करने का तरीका और यह जिस रास्ते पर चलता है वह स्वार्थपरता, निजी लाभ, रुतबे और प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द घूमता है। यह इन्हीं सब चीजों के आस-पास घूमता है। दूसरे शब्दों में, जब लोग अपनी आकांक्षाओं को साकार करने की कोशिश करते हैं तो फायदा सिर्फ उन्हीं को होता है। क्या किसी व्यक्ति के लिए रुतबे, प्रतिष्ठा, दिखावे और शारीरिक हितों की खातिर अपनी आकांक्षाओं की प्राप्ति के लिए सक्रिय प्रयास करना न्यायसंगत है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) व्यक्तिगत और निजी आकांक्षाओं, विचारों और इच्छाओं की खातिर वे जो तरीके और दृष्टिकोण अपनाते हैं, सभी स्वार्थ और निजी लाभ पर आधारित होते हैं। यदि हम उन्हें सत्य के सामने रखकर मापें, तो वे न तो न्यायोचित हैं और न ही वैध। क्या यह निश्चित नहीं है कि लोगों को उन्हें त्याग देना चाहिए? (हाँ, है।) उन्हें त्याग देना चाहिए, स्वार्थपरता को त्याग देना चाहिए, निजी आकांक्षाओं और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए। यह उन रास्तों के सार के परिप्रेक्ष्य से दिखाई देता है जिन्हें लोग अपनाते हैं—अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करना कोई सकारात्मक बात नहीं है, इसे नकार दिया गया है। यह एक पहलू है। अब दूसरे पहलू पर चर्चा करते हैं, परमेश्वर का घर यानी कलीसिया किस प्रकार का स्थान है, चाहे उसका नाम कुछ भी हो? ये किस तरह की जगह है? कलीसिया यानी परमेश्वर के घर का सार क्या है? सबसे पहले, सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य से, यह दुनिया, समाज या समाज की कोई मानव संस्था या संगठन नहीं है। यह संसार या मानवजाति की नहीं है। इसकी स्थापना क्यों की गई? इसकी मौजूदगी और अस्तित्व में होने का कारण क्या है? इसका कारण परमेश्वर और उसका कार्य है, है ना? (हाँ।) कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, परमेश्वर की उपस्थिति और उसके कार्य के कारण अस्तित्व में है। तो, क्या कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, निजी प्रतिभाओं को प्रदर्शित करने और निजी आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने की जगह है? (नहीं, यह नहीं है।) यकीनन, नहीं है। कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, परमेश्वर की उपस्थिति और उसके कार्य की मौजूदगी के कारण अस्तित्व में है। इस प्रकार यह निजी प्रतिभाओं को प्रदर्शित करने या निजी आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने की जगह नहीं है। यह दैहिक जीवन, शारीरिक संभावनाओं, शोहरत और धन, रुतबा, प्रतिष्ठा वगैरह के इर्द-गिर्द नहीं घूमता है—यह इन चीजों के लिए काम नहीं करता है। और न ही यह मनुष्यों की सांसारिक शोहरत, रुतबे, आनंद या संभावनाओं के कारण उभरा या अस्तित्व में आया है। तो फिर यह कैसी जगह है? चूँकि कलीसिया यानी परमेश्वर के घर की स्थापना परमेश्वर की उपस्थिति और उसके कार्य की मौजूदगी के कारण की गई थी, तो क्या इसका उद्देश्य परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना, उसके वचनों का प्रचार करना और उसकी गवाही देना नहीं है? (हाँ।) क्या यह सत्य नहीं है? (बिल्कुल।) कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, परमेश्वर की उपस्थिति और उसके कार्य के कारण अस्तित्व में है, तो यह केवल परमेश्वर की इच्छा को पूरा कर सकती है, उसके वचनों का प्रचार कर सकती है, और उसकी गवाही दे सकती है। इसका व्यक्तिगत रुतबे, शोहरत, संभावनाओं या किसी अन्य हित से कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया यानी परमेश्वर के घर द्वारा किए जाने वाले सभी कार्य को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत परमेश्वर के वचनों, उसकी अपेक्षाओं और उसकी शिक्षाओं पर आधारित होने चाहिए। मोटे तौर पर, ऐसा कहा जा सकता है कि यह परमेश्वर की इच्छा और उसके कार्य के इर्द-गिर्द घूमती है; विशेष रूप से, यह राज्य का सुसमाचार फैलाने, परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने और उसकी गवाही देने के आस-पास घूमती है। क्या यह सही है? (हाँ।) परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने, उसके वचनों का प्रचार करने और उसकी गवाही देने के अलावा, क्या कलीसिया यानी परमेश्वर के घर के लिए कोई और बात अधिक महत्वपूर्ण है? (यही वह जगह है जहाँ परमेश्वर के चुने हुए लोग उसके कार्य का अनुभव करते हैं, और शुद्धिकरण और उद्धार प्राप्त करते हैं।) तुमने बिल्कुल सही कहा है। कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, एक ऐसी जगह है जहाँ परमेश्वर की इच्छा पूरी की जाती है, उसके वचन का प्रचार किया जाता है, उसकी गवाही दी जाती है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। क्या तुमने इसे याद कर लिया? (हाँ, मैंने कर लिया।) इसे पढ़ो। (कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, एक ऐसी जगह है जहाँ परमेश्वर की इच्छा पूरी की जाती है, उसके वचन का प्रचार किया जाता है, उसकी गवाही दी जाती है, और परमेश्वर के चुने हुए लोग शुद्धिकरण और उद्धार प्राप्त करते हैं।) कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, एक ऐसी जगह है जहाँ परमेश्वर की इच्छा पूरी होती है, उसके वचन का प्रचार किया जाता है, उसकी गवाही दी जाती है, और उसके चुने हुए लोगों को शुद्धिकरण और उद्धार प्राप्त होता है। यह ऐसी जगह है। ऐसी जगह पर क्या कोई ऐसा काम या परियोजना है, चाहे वह जो भी हो, जो निजी आकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुरूप हो और उनकी पूर्ति करती हो? निजी आकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने के मकसद से कोई काम या परियोजना नहीं है, न ही इनका कोई भी पहलू निजी आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने के लिए है। तो क्या परमेश्वर के घर में निजी आकांक्षाएँ और इच्छाएँ मौजूद होनी चाहिए? (नहीं होनी चाहिए।) नहीं होनी चाहिए, क्योंकि निजी आकांक्षाओं और इच्छाओं का हर उस कार्य से टकराव होता है जो परमेश्वर कलीसिया में करना चाहता है। निजी आकांक्षाएँ और इच्छाएँ कलीसिया में किए जाने वाले हर कार्य के प्रतिकूल होती हैं। वे सत्य के प्रतिकूल होती हैं; वे परमेश्वर की इच्छा से, उसके वचनों के प्रसार से, उसकी गवाही देने से और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए शुद्धिकरण और उद्धार के कार्य से भटकी हुई होती हैं। किसी की आकांक्षाएँ चाहे जो भी हों, जब तक वे निजी आकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं, वे लोगों को परमेश्वर की इच्छा का पालन करने से रोकेंगी, और उसके वचनों के प्रसार और उसकी गवाही देने में बाधा डालेंगी या उन्हें प्रभावित करेंगी। बेशक, अगर ये निजी आकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं, तब तक वे लोगों को शुद्धिकरण और उद्धार प्राप्त करने नहीं दे सकती हैं। यह सिर्फ दो पक्षों के बीच विरोधाभास की बात नहीं है, यह बुनियादी तौर पर एक-दूसरे के विपरीत चलती है। अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं का अनुसरण करते हुए, तुम परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने, उसके वचनों का प्रचार करने और उसकी गवाही देने के कार्य के साथ ही लोगों के और बेशक अपने उद्धार में बाधा डालते हो। संक्षेप में कहें तो लोगों की अपनी आकांक्षाएँ चाहे जो भी हों, वे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं चलते और परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का वास्तविक नतीजा हासिल नहीं कर सकते। जब लोग अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं का अनुसरण करते हैं तो उनका अंतिम उद्देश्य सत्य को समझना नहीं होता है या यह समझना नहीं होता है कि कैसे आचरण करें, कैसे परमेश्वर के इरादे पूरे करें और कैसे अच्छे से अपने कर्तव्य निभाएँ और सृजित प्राणियों के रूप में अपनी भूमिका निभाएँ। इसका उद्देश्य लोगों का परमेश्वर के प्रति सच्चा भय और समर्पण रखना नहीं है। बल्कि, इसके विपरीत, किसी व्यक्ति की आकांक्षाएँ और इच्छाएँ जितनी अधिक साकार होती हैं, वह उतना ही परमेश्वर से दूर चला जाता है और शैतान के करीब पहुँच जाता है। इसी प्रकार, कोई व्यक्ति जितना अधिक अपनी आकांक्षाओं का अनुसरण करके उन्हें हासिल करता है, उसका हृदय परमेश्वर के प्रति उतना ही अधिक विद्रोही होता जाता है, वह परमेश्वर से उतना ही दूर चला जाता है, और अंत में, जब वह अपनी इच्छानुसार अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने, अपनी इच्छाओं को साकार करने और उन्हें संतुष्ट करने में सक्षम हो जाता है, तो वह परमेश्वर, उसकी संप्रभुता और उससे संबंधित हर बात को पहले से भी अधिक तुच्छ समझने लगता है। यहाँ तक कि वह परमेश्वर को नकारने, उसका प्रतिरोध करने और उसके विरोध में खड़े होने के मार्ग पर भी चल सकता है। यही अंतिम परिणाम होता है।
यह समझने के बाद कि परमेश्वर का घर यानी कलीसिया क्या है, लोगों को यह भी समझना चाहिए कि परमेश्वर के घर में सदस्य बनकर रहते और जीते हुए उन्हें क्या रवैया और रुख अपनाना चाहिए। कुछ लोगों ने कहा है, “तुम हमें हमारी आकांक्षाओं या हमारी इच्छाओं को साकार करने की कोशिश नहीं करने देते।” मैं तुम लोगों को तुम्हारी अपनी आकांक्षाओं का अनुसरण करने से नहीं रोक रहा हूँ; मैं तुम्हें यह बता रहा हूँ कि परमेश्वर के घर में उचित रूप से कैसे रहना है, उचित रुख कैसे अपनाना है और एक सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्यों को कैसे पूरा करना है। यदि तुम अपनी आकांक्षाओं को साकार करने की कोशिश पर जोर देते हो, तो मैं साफ तौर पर कह सकता हूँ : यहाँ से चले जाओ! कलीसिया तुम्हारे लिए अपनी आकांक्षाओं को साकार करने की कोशिश करने की जगह नहीं है। परमेश्वर के घर के बाहर तुम जो भी करने की आकांक्षा करते हो वो कर सकते हो और अपनी आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं का अनुसरण कर सकते हो। तुम्हें बस परमेश्वर का घर छोड़ देना होगा, और फिर कोई तुम्हारे काम में टांग नहीं अड़ाएगा। लेकिन कलीसिया यानी परमेश्वर का घर तुम्हारे लिए अपनी आकांक्षाओं को साकार करने की कोशिश के लिए उपयुक्त जगह नहीं है। अधिक सटीक रूप से कहें तो इस जगह पर तुम्हारे लिए अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं का अनुसरण करना असंभव है। यदि तुम परमेश्वर के घर यानी कलीसिया में एक दिन के लिए भी रहते हो तो अपनी आकांक्षाओं को साकार करने या उनका अनुसरण करने की कतई मत सोचना। यदि तुम कहते हो कि “मैं अपनी आकांक्षाओं को त्याग देता हूँ। मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने और एक मानक-स्तरीय सृजित प्राणी बनने के लिए तैयार हूँ” तो यह स्वीकार्य होगा। तुम अपनी जगह के अनुसार और परमेश्वर के घर में नियमों के अनुसार अपने कर्तव्य निभा सकते हो। लेकिन यदि तुम अपना जीवन व्यर्थ में नहीं जीने का लक्ष्य रखते हुए अपनी आकांक्षाओं का अनुसरण करने और उन्हें साकार करने पर जोर देते हो तो तुम अपने कर्तव्यों को त्यागकर परमेश्वर के घर से निकल सकते हो। या फिर तुम यह कहते हुए एक बयान लिख सकते हो, “मैं अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने के लिए अपनी इच्छा से सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया को त्यागता हूँ। दुनिया बहुत बड़ी है, वहाँ मेरे लिए कोई न कोई जगह जरूर होगी। अलविदा।” इस तरह तुम उचित और उपयुक्त तरीके से निकलकर अपनी आकांक्षाओं का अनुसरण कर सकते हो। लेकिन यदि तुम यह कहते हो कि “मैं अपनी आकांक्षाओं को त्यागना, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य अच्छे से निभाना, एक मानक-स्तरीय सृजित प्राणी बनना और उद्धार का अनुसरण करना पसंद करूँगा” तो हमारे बीच एक साझा आधार हो सकता है। चूँकि तुम परमेश्वर के घर में एक सदस्य के रूप में संतोषपूर्वक रहना चाहते हो, इसलिए तुम्हें सबसे पहले सभी चीजों में सत्य खोजना सीखना चाहिए, अपनी योग्यता के अनुसार भरसक अच्छे से अपने कर्तव्य निभाने चाहिए और सत्य को समझने और इसका अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए—इस तरीके से परमेश्वर के घर के अंदर तुम नाम और वास्तविकता दोनों में एक सृजित प्राणी होओगे। मनुष्यजाति की पहचान सृजित प्राणियों की पहचान है; परमेश्वर की नजरों में लोग यही हैं। तो तुम एक सृजित प्राणी के रूप में मानक स्तर के कैसे हो सकते हो? इसके लिए तुम्हें परमेश्वर के वचन सुनना अवश्य सीखना चाहिए और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम्हें एक बार यह उपाधि दे देता है तो मामले की इतिश्री हो जाती है; बल्कि चूँकि तुम एक सृजित प्राणी हो, इसलिए तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्य अच्छे से निभाने चाहिए और चूँकि तुम एक सृजित प्राणी हो, इसलिए तुम्हें एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। तो एक सृजित प्राणी के कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ क्या हैं? परमेश्वर का वचन सृजित प्राणियों के कर्तव्यों, दायित्वों और जिम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से बताता है, है न? तुमने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य स्वीकार किया है। तो फिर आज से तुम परमेश्वर के घर के वास्तविक सदस्य हो; इसका मतलब है कि तुम खुद को परमेश्वर के सृजित किए प्राणियों में से एक के रूप में स्वीकारते हो। आज से तुम्हें अपने जीवन की योजनाओं को फिर से तैयार करना चाहिए—तुम्हें उन आकांक्षाओं, इच्छाओं और लक्ष्यों का अनुसरण नहीं करना चाहिए जो तुमने अपने जीवन के लिए पहले निर्धारित किए थे। इसके बजाय, तुम्हें अपनी पहचान और परिप्रेक्ष्य बदलना चाहिए और उन जीवन लक्ष्यों और दिशा की योजना बनानी चाहिए जो एक सृजित प्राणी के पास होने चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारे लक्ष्य और दिशा एक अगुआ बनना या किसी उद्योग में अगुआई करना या उत्कृष्टता प्राप्त करना या ऐसा प्रसिद्ध व्यक्ति बनना नहीं होना चाहिए जो किसी अमुक काम में जुटा हो या जिसे किसी विशेष पेशेवर कौशल में महारत हासिल हो। इसके बजाय तुम्हें अपना कर्तव्य परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए, यानी यह जानना चाहिए कि इस समय तुम्हें क्या कार्य करना चाहिए और कौन-सा कर्तव्य निभाने की जरूरत है। तुम्हें अवश्य ही परमेश्वर के इरादे खोजने चाहिए। परमेश्वर तुमसे जो भी करने की अपेक्षा करे और उसके घर में तुम्हारे लिए जिस भी कर्तव्य की व्यवस्था की गई हो, तुम्हें उस कर्तव्य को अच्छे से निभाने के लिए जिन सत्यों को समझना चाहिए और जिन सिद्धांतों का अनुसरण करना और जिन सिद्धांतों में सिद्धहस्त होना चाहिए उनका पता लगाना चाहिए और उनके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। यदि तुम उन्हें याद नहीं रख सकते तो तुम उन्हें लिख सकते हो और जब तुम्हारे पास समय हो, तुम उन्हें और अधिक देख सकते हो और उन पर और अधिक चिंतन कर सकते हो। परमेश्वर के सृजित प्राणियों में से एक के रूप में तुम्हारा प्राथमिक जीवन लक्ष्य एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना और एक मानक-स्तरीय सृजित प्राणी बनना होना चाहिए। यह वह सबसे मौलिक जीवन लक्ष्य है जो तुम्हारे पास होना चाहिए। दूसरा और अधिक विशिष्ट लक्ष्य यह होना चाहिए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य कैसे अच्छे से निभाएँ और एक मानक-स्तरीय सृजित प्राणी कैसे बनें—यह सबसे महत्वपूर्ण है। जहाँ तक प्रतिष्ठा, रुतबे, मिथ्याभिमान और व्यक्तिगत संभावनाओं से जुड़ी दिशा या लक्ष्यों की बात है—वो सारी चीजें जिनका अनुसरण भ्रष्ट मानवता करती है—ये वो चीजें हैं जो तुम्हें त्याग देनी चाहिए। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “हमें उन्हें क्यों त्यागना चाहिए?” जवाब आसान है। शोहरत, लाभ और रुतबे का अनुसरण करना परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में बाधा डालेगा, परमेश्वर के घर या कलीसिया में किसी कार्य में गड़बड़ी पैदा करेगा, और यहाँ तक कि कलीसिया के कुछ कार्यों को नुकसान भी पहुँचा सकता है। यह परमेश्वर के वचनों के प्रसार, उसकी गवाही देने और इससे भी बढ़कर, यह लोगों के उद्धार प्राप्त करने पर असर डालेगा। अपने कर्तव्य को मानक स्तर पर पूरा करने और एक मानक-स्तरीय सृजित प्राणी बनने के लिए तुम अपने हिसाब से लक्ष्य निर्धारित कर सकते हो और अपने अनुभवों को सारांशित कर सकते हो, लेकिन तुम्हें अपनी आकांक्षाओं को साकार करने की कोशिश कभी नहीं करनी चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने में अपनाए गए किसी भी सिद्धांत या तरीके में तुम्हारी आकांक्षाओं की मिलावट नहीं होनी चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छे से और मानक स्तर के अनुसार निभाने और एक अच्छा सृजित प्राणी बनने के लिए तुम्हें अपने व्यक्तिगत विचारों और अवसरों का सारांश तैयार करने के लिए परमेश्वर के वचनों के बाहर नहीं जाना चाहिए, बल्कि परमेश्वर के वचनों के भीतर ही सिद्धांत और अभ्यास का अधिक सटीक मार्ग खोजना चाहिए। अभ्यास के ये सिद्धांत आखिरकार इस बात के इर्द-गिर्द घूमते हैं कि एक मानक-स्तरीय सृजित प्राणी कैसे बनें और अपना कर्तव्य कैसे अच्छे से निभाएँ। सब कुछ सत्य को समझने, एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाने और अंततः अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में या अपने दैनिक जीवन में विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते समय पालन किए जाने वाले सिद्धांतों को समझने पर केंद्रित है। क्या यह स्पष्ट है? (हाँ।) बेशक, यदि तुम परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाते हो और एक मानक-स्तरीय सृजित प्राणी बनने के लिए प्रयासरत रहते हो तो तुम ये नतीजे हासिल कर सकते हो। लेकिन यदि तुम अपनी आकांक्षाओं को साकार करने में जुटे रहते हो तो तुम्हें कभी परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी।
अगर लोग सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चले बिना अपनी आकांक्षाओं को साकार करने में हठपूर्वक जुटे रहते हैं तो वे आखिरकार और अधिक अहंकारी, स्वार्थी, आक्रामक, क्रूर और लालची बन जाएँगे। और क्या? वे और अधिक घमंडी और आत्म-मुग्ध होते जाएँगे। लेकिन जब लोग अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश छोड़ देंगे और इसके बजाय विभिन्न सत्यों को समझने का प्रयास करेंगे, साथ ही परमेश्वर के वचनों के विभिन्न पहलुओं और सत्य के उन मानदंडों का अनुसरण करेंगे जो लोगों और चीजों को देखने, आचरण करने और कार्य करने से संबंधित हैं तो वे अधिक मानवीय समानता के साथ जीवन जीने लगेंगे। विभिन्न कार्य करते हुए या विभिन्न परिवेशों का अनुभव करते हुए वे अब पहले की तरह दिशाहीन और भ्रमित महसूस नहीं करेंगे। इसके अलावा, वे अब नकारात्मक भावनाओं में नहीं फँसे होंगे जैसा कि वे अक्सर हुआ करते थे, जब वे खुद को मुक्त करने में असमर्थ, नकारात्मक विचारों और भावनाओं से बेबस और बंधे हुए महसूस करते थे, और आखिर में विभिन्न नकारात्मक भावनाओं से नियंत्रित और ढँके हुए होते थे। अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने की दिशा में लगातार प्रयास करना, लोगों को परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों और एक योग्य सृजित प्राणी बनने के सिद्धांतों से धीरे-धीरे और अधिक दूर ले जाता है। वे इस बात से अनजान होते हैं कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण कैसे करें, और उन्हें इस बात की कोई समझ नहीं होती कि मानव जीवन, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु क्या हैं। वे नहीं जानते कि नफरत को कैसे सँभालना है और विभिन्न नकारात्मक भावनाओं से कैसे निपटना है। बेशक, वे इस बारे में भी अनजान होते हैं कि उनके जीवन में आने वाले लोगों, घटनाओं और चीजों से कैसे पेश आएँ। जब विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों से उनका सामना होता है, तो वे असहाय, उलझन से भरे और हक्के-बक्के रह जाते हैं। अंत में, वे केवल नकारात्मक भावनाओं, विचारों और दृष्टिकोणों को अपने दिलों में फैलने और विकसित होने देते हैं, जिससे वे खुद को उनके द्वारा नियंत्रित और बंधे हुए पाते हैं। इसके अलावा, इन नकारात्मक भावनाओं या विचारों और दृष्टिकोणों के कारण, वे चरम व्यवहार में भी संलग्न हो सकते हैं या ऐसी चीजें कर सकते हैं जो उनको और दूसरों को नुकसान पहुँचाती हैं, जिसके अकल्पनीय परिणाम होते हैं। ऐसे कार्य लोगों के उचित अनुसरण में बाधा डालते हैं और उनमें जो अंतरात्मा और विवेक होना चाहिए उसे नुकसान पहुँचाते हैं। इसलिए, अब सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग अपने दिल की गहराई में जाकर यह परखें कि वे कौन-सी चीजें हैं जिनकी वे अब भी लालसा करते हैं, और कौन-सी चीजें देह से, संसार से, और देह के हितों से संबंधित हैं, जैसे कि शोहरत, प्रतिष्ठा, मान, रुतबा, संपत्ति वगैरह, जिनकी वे अब भी लालसा करते हैं, जिन्हें वे अब भी जरूरी समझते हैं, जिनकी असलियत को वे अब भी नहीं समझ पाए हैं, और जो बार-बार उन्हें बाँधती और लुभाती हैं। मुमकिन है कि वे इन चीजों में गहराई तक फँस गए हों या उनके मन में उनके प्रति गहरी प्रशंसा हो, और जरा-सी चूक से, वे किसी भी समय और किसी भी स्थान पर आसानी से उनकी पकड़ में आ सकते हैं। ऐसे मामले में ये चीजें ही उनकी आकांक्षाएँ होती हैं। जब वे इन आकांक्षाओं को साकार कर लेते हैं, तब वे उनके पतन का कारण और उनके विनाश का स्रोत बन जाते हैं। तुम लोग इस मामले को कैसे देखते हो? (लोगों को अपने दिल की गहराई में जाकर गंभीरता से विश्लेषण करना चाहिए कि वे अब भी किन चीजों की लालसा रखते हैं। उन्हें यह समझना होगा कि दैहिक और सांसारिक शोहरत, प्रतिष्ठा, समाज में छवि, रुतबा, संपत्ति आदि वास्तव में क्या हैं; नहीं तो वे आसानी से इनके जाल में फँस सकते हैं।) वे उनके कब्जे में आ सकते हैं, है ना? तो, ये दैहिक चीजें बहुत खतरनाक हैं। यदि तुम उनकी असलियत नहीं समझ पाते, तो तुम हमेशा उनसे प्रभावित होने या उनके कब्जे में होने तक के खतरे में रहोगे। तो, अब तुम लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन दैहिक चीजों का मैंने पहले उल्लेख किया था, उनका तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर विश्लेषण करके उन्हें समझो। जब तुम उन्हें खोदकर उनका भेद पहचान लो तो तुम्हें उनका त्याग कर देना चाहिए और अपने शरीर, मन और ऊर्जा को एक सामान्य सृजित प्राणी बनने में और अपने वर्तमान कर्तव्यों व कार्य में लगाना चाहिए। अपने आपको एक विशेष या अजेय व्यक्ति के रूप में या असाधारण प्रतिभाओं या क्षमताओं वाले व्यक्ति के रूप में देखना बंद करो। तुम केवल एक मामूली व्यक्ति हो। कितना मामूली? सभी सृजित प्राणियों और परमेश्वर की बनाई हुई सभी चीजों में, तुम केवल उनमें से एक हो, सबसे साधारण हो। तुम किस हद तक साधारण हो? तुम घास के किसी तिनके की तरह, किसी पेड़, पहाड़, पानी की बूँद या यहाँ तक कि समुद्रतट के रेत के एक कण के समान मामूली हो। तुम्हारे लिए घमंड करने या प्रशंसा करने के लायक कुछ भी नहीं है। तुम इतने साधारण हो। इसके अलावा, यदि तुम्हारे दिल की गहराइयों में अब भी मूर्तियों, प्रभावशाली हस्तियों, मशहूर लोगों, महान व्यक्तियों की ऊँची छवियाँ विराजमान हैं, या कुछ ऐसी चीजें हैं जिनकी तुम लालसा रखते हो, तो तुम्हें उन्हें हटाना और त्याग देना चाहिए। तुम्हें उनकी प्रकृति सार की असलियत जाननी चाहिए, और एक सामान्य सृजित प्राणी होने के मार्ग पर लौटना चाहिए। एक सामान्य सृजित प्राणी होना और अपने कर्तव्यों को पूरा करना सबसे बुनियादी कार्य है जो तुम्हें करना चाहिए। फिर, तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के इस विषय पर लौटकर, सत्य में और अधिक गहराई से प्रयास करना चाहिए। बाहरी खबरों, सूचनाओं, घटनाओं और मशहूर हस्तियों की प्रोफाइलों से अपना संपर्क कम रखने की कोशिश करो। ऐसी किसी भी चीज से बचना सबसे अच्छा है जो अपनी आकांक्षाओं को साकार करने की तुम्हारी इच्छा को फिर से जगा सकती है। अब, तुम्हें उन लोगों, घटनाओं और चीजों से दूरी बनानी होगी जो तुम्हारे लिए बिल्कुल भी फायदेमंद नहीं हैं और नकारात्मक हैं। खुद को इन चीजों से अलग कर लो और इस जटिल और अराजक संसार में हर चीज से दूर रहने की कोशिश करो। भले ही वे तुम्हारे लिए कोई खतरा या प्रलोभन न हों, फिर भी तुम्हें उनसे दूरी बना लेनी चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे मूसा चालीस वर्ष तक जंगल में रहा; क्या उसने तब भी अच्छा जीवन नहीं जीया? अंत में, उसकी बोलने की क्षमता अच्छी न होने के बाद भी, परमेश्वर ने उसे चुना, जो उसके जीवन की सबसे सम्मानजनक बात थी। इसमें कुछ भी बुरा नहीं था। इसलिए, सबसे पहले, अपने विचारों की गहराई में अपने दिल को पुनः पा लो, तुम्हारे विचारों की गहराई में धार्मिकता की भूख और प्यास वाली मानसिकता होनी चाहिए, जो तुम्हारी आस्था में सत्य का अनुसरण करे। तुम्हारे पास एक ऐसी योजना, ऐसी इच्छाशक्ति और चाह होनी चाहिए, न कि लगातार अपनी आकांक्षाओं पर अटके रहना या यह सोचते रहना कि क्या तुम उन्हें हासिल कर सकते हो, और न ही उसमें निरंतर प्रयास और मनन करते रहना चाहिए। तुम्हें पिछली आकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ अपना लगाव पूरी तरह से खत्म कर देना चाहिए, और एक योग्य और सामान्य सृजित प्राणी बनने की कोशिश करनी चाहिए। सामान्य सृजित प्राणियों में शुमार होना कोई बुरी बात नहीं है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? यह वास्तव में एक अच्छी बात है। जिस पल से तुम अपनी दैहिक आकांक्षाओं और अभिलाषाओं को त्यागना शुरू करते हो, जिस पल से तुम बिना किसी विशेष रुतबे, ओहदे या महत्व के एक सामान्य सृजित प्राणी बनने का दृढ़ निर्णय लेते हो, उसी पल से इसका मतलब है कि तुममें परमेश्वर के प्रभुत्व, सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन पूरी तरह आत्म-समर्पण करने की इच्छा और दृढ़ संकल्प है और तुम परमेश्वर को अपने जीवन की योजना बनाने और उस पर शासन करने देते हो। तुममें समर्पण करने, निजी आकांक्षाओं और इच्छाओं को त्यागने और किनारे करने, परमेश्वर को अपना प्रभु बनाने और अपनी नियति पर शासन करने देने की चाह है, तुममें ऐसी मानसिकता के साथ एक योग्य सृजित प्राणी बनने और ऐसी मानसिकता और रवैये के साथ अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने की चाह है। जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया ऐसा होना चाहिए। क्या यह सही है? क्या यही सत्य है? (हाँ।) तुम्हारे जीवन के लक्ष्य और जीवन की दिशा किस पर केंद्रित है? (एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को निभाने पर।) यही सबसे बुनियादी चीज है। और क्या? (एक सामान्य सृजित प्राणी बनने की कोशिश करने पर।) और कुछ? (उद्धार पाने के लिए सत्य का अनुसरण करने पर।) यह एक और हो गया। और कुछ? (परमेश्वर के वचनों पर ध्यान केंद्रित करने और सत्य में अधिक मेहनत करने पर ध्यान देना।) ये थोड़ा ज्यादा ठोस है, है न? तुम्हारे जीवन के सभी लक्ष्य और जीवन की दिशा परमेश्वर के वचनों के इर्द-गिर्द होनी चाहिए, और तुम्हें सत्य में अधिक परिश्रम करना चाहिए। अस्पष्ट आकांक्षाओं का अनुसरण करने का जो उत्साह तुममें पहले था, उसे परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में लगाओ, और देखो कि तुम सत्य की ओर प्रगति कर पाते हो या नहीं। यदि तुमने वास्तव में सत्य की ओर प्रगति की, तो तुम्हारे भीतर विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ होंगी। यानी, जब विभिन्न लोगों, घटनाओं और मानवीय विचारों और दृष्टिकोणों के साथ-साथ सिद्धांतों से जुड़ी चीजों से तुम्हारा सामना होगा, तब तुम हक्के-बक्के, भ्रमित, परेशान या उलझे हुए नहीं रहोगे। इसके बजाय, तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, उसके वचनों से मार्गदर्शन लोगे, तुम्हारा हृदय शांत और स्थिर होगा, और तुम जानोगे कि परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसके इरादे पूरे करने वाले तरीके से कैसे कार्य करना है। तभी तुम वास्तव में जीवन में सही मार्ग पर होगे। बहुत से लोग अपने जीवन में धीमी प्रगति करते हैं, क्योंकि अपने कर्तव्य करने की प्रक्रिया में वे हमेशा अपनी आकांक्षाओं, शोहरत, रुतबे और स्वयं द्वारा कल्पित जीवन के लक्ष्यों का पीछा करते हैं, और अपनी दैहिक इच्छाओं को संतुष्ट करते हुए आशीष पाना चाहते हैं। नतीजतन, वे अपने कर्तव्यों को व्यावहारिक तरीके से पूरा नहीं कर पाते हैं और उन्हें सच्चे जीवन प्रवेश का अनुभव नहीं होता है। शुरू से अंत तक वे वास्तविक अनुभवजन्य गवाही साझा करने में असमर्थ होते हैं। इस कारण चाहे वे कितने ही समय से अपने कर्तव्य निभा रहे हों, जीवन और सत्य में प्रवेश करने की उनकी प्रगति न्यूनतम रहती है, और उन्हें बहुत कम परिणाम मिलते हैं। यदि तुमने वास्तव में अपने कर्तव्यों को निभाने में खुद को समर्पित कर दिया होता, अपनी सारी ऊर्जा सत्य के अनुसरण में और सत्य की प्राप्ति हेतु गंभीर प्रयास करने में लगा दी होती, तो तुम लोग खुद को वर्तमान दशा, आध्यात्मिक कद और स्थिति में न पाते। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग आम तौर पर केवल नीरस कार्यों, पेशेवर कार्य और मौजूदा काम पर ध्यान देते हैं, और इन गतिविधियों का अंतर्निहित सार अपनी आकांक्षाओं को साकार करते हुए निजी अभिलाषाओं और इच्छाओं को पूरा करना है। ये आकांक्षाएँ क्या हैं? ये आकांक्षाएँ होती हैं कि लोग हमेशा अपने काम में अपनी पहचान या अस्तित्व को खोजना चाहते हैं और जब वे कुछ उपलब्धियाँ हासिल कर लेते हैं, कुछ परिणाम अर्जित कर लेते हैं और दूसरों से मान्यता प्राप्त कर लेते हैं तो वे साथ ही अपने सपनों और अपने अनुसरण के लक्ष्यों को साकार करके अपनी अहमियत दिखाना चाहते हैं। तभी वे परिपूर्ण महसूस करते हैं। लेकिन, यह सत्य का अनुसरण करना नहीं है; यह केवल अपने भीतर के खोखलेपन को संतुष्ट करना और अपने जीवन को समृद्ध बनाने के लिए काम का उपयोग करना है। ऐसा ही होता है न? (बिल्कुल।) इसलिए, चाहे कोई व्यक्ति कितनी भी देर कार्य करता हो या उसने कितना भी काम किया हो, इन सबका सत्य से कोई संबंध नहीं है। वे अभी भी सत्य को नहीं समझते और उसका अनुसरण करने से कोसों दूर हैं। अपने कार्य की जिम्मेदारियों से संबंधित सिद्धांतों के संदर्भ में लोगों के पास अभी भी कोई प्रवेश या समझ नहीं है। इसी वजह से तुम सब थके हुए महसूस करते हो और सोचते हो, “हमेशा हमारी ही काट-छाँट क्यों की जाती है? हमने बहुत प्रयास किए, बहुत कठिनाइयाँ सहीं और भारी कीमत चुकाई। फिर भी हमारी काट-छाँट क्यों की जा रही है?” ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम सिद्धांतों को नहीं समझते हो। तुमने न तो कभी सिद्धांतों को समझा, न उन पर पकड़ बनाई और न ही उन पर कोई मेहनत की। दूसरे शब्दों में, तुम लोगों ने न तो सत्य में मेहनत की है, और न ही परमेश्वर के वचनों में गहराई से प्रयास किया है। तुम बस कुछ नियमों का पालन करके अपनी कल्पना के अनुसार कार्य करते हो। तुम हमेशा अपनी आकांक्षाओं और धारणाओं की दुनिया में रहते हो, और तुम जो कुछ भी करते हो उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता है। तुम अपना करियर बना रहे हो, न कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चल रहे हो। यानी, तुम अभी भी परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों को नहीं समझते हो, और अंत में, कुछ लोगों को श्रमिक करार दिया जाता है और कुछ को यह अन्यायपूर्ण लगता है। क्या कारण है कि उन्हें यह अन्याय लगता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सोचते हैं कि उनका कष्ट सहना और कीमत चुकाना सत्य का अभ्यास करने के बराबर है। दरअसल, उनका कष्ट सहना और कीमत चुकाना बस थोड़ी कठिनाई का सामना करना है। यह सत्य का अभ्यास करना या परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना नहीं है। अधिक सटीक रूप से कहें, तो इसका सत्य का अभ्यास करने से कोई लेना-देना नहीं है; यह केवल कड़ी मेहनत और कार्य करना है। क्या केवल कड़ी मेहनत और कार्य करना ही अपने कर्तव्यों को मानकों के अनुसार अच्छे से निभाना है? क्या यह एक योग्य सृजित प्राणी होना है? (नहीं।) इन दोनों के बीच दूरी और अंतर है।
दमन की नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के विषय के संबंध में आज के लिए हम अपनी संगति यहीं पर रोकते हैं। क्या तुम उन समस्याओं को स्पष्ट रूप से देख सकते हो जो उन लोगों के लिए उत्पन्न होती हैं जो अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार नहीं कर पाने के कारण दमित महसूस करते हैं? (हाँ, यह स्पष्ट है।) क्या स्पष्ट है? आओ इसका सार निकालें। सबसे पहले, बात करते हैं कि आकांक्षाएँ क्या हैं। यहाँ जिन आकांक्षाओं का गहन-विश्लेषण किया जा रहा है वे नकारात्मक हैं, वे न्यायसंगत या सकारात्मक चीजें नहीं हैं। आकांक्षाएँ क्या हैं? “आकांक्षाओं” की परिभाषा देने के लिए सटीक भाषा का उपयोग करो। (वे खोखले विचार हैं जो सामान्य मानवीय अंतरात्मा और विवेक से भटके हुए हैं, जिनकी कल्पना मनुष्य खुद के लिए करते हैं, लेकिन वे वास्तविकता के साथ मेल नहीं खाते। वे वास्तविक नहीं हैं।) तुमने जिनका जिक्र किया है वे आदर्शवादियों की आकांक्षाएँ हैं। तुम आम तौर पर आकांक्षाओं को कैसे परिभाषित करोगे? क्या तुम लोग उन्हें परिभाषित कर सकते हो? क्या उन्हें परिभाषित करना कठिन है? वे कौन से अनुसरित लक्ष्य हैं जिन्हें लोग अपने रुतबे, प्रतिष्ठा और संभावनाओं के लिए निर्धारित करते हैं? (लोगों द्वारा अपने रुतबे, प्रतिष्ठा और संभावनाओं के लिए निर्धारित किए गए और अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य आकांक्षाएँ हैं।) क्या यह परिभाषा सही है? (हाँ।) अपने रुतबे, प्रतिष्ठा, संभावनाओं और हितों के लिए लोगों के निर्धारित लक्ष्य आकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं। क्या यह अविश्वासियों द्वारा बताई गई आकांक्षाओं की व्यापक परिभाषा है? हम इसे इसके अंतर्निहित सार के आधार पर परिभाषित कर रहे हैं, है ना? (हाँ।) आकांक्षाओं का विशिष्ट प्रकार चाहे जो हो, चाहे वे बहुत उच्च, निम्न या औसत दर्जे की हों, वे लोगों द्वारा अपने हितों के लिए निर्धारित किए गए और अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य हैं। ये लक्ष्य उनकी आकांक्षाएँ या इच्छाएँ हैं। क्या ये उन लोगों की आकांक्षाएँ नहीं है जिनके बारे में हमने पिछले उदाहरणों में संगति की और जिनका गहन-विश्लेषण किया था? लोगों द्वारा अपने रुतबे, प्रतिष्ठा, संभावनाओं, हितों वगैरह के लिए निर्धारित किए गए और अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य आकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं। जो लोग आकांक्षाओं और इच्छाओं का अनुसरण करते हैं लेकिन उन्हें साकार नहीं कर पाते, वे अक्सर कलीसिया के भीतर दमित महसूस करते हैं। ये लोग खुद को दमित महसूस करते हैं। एक मिनट के लिए सोचो, क्या तुम भी ऐसी दशा और स्थिति में हो? क्या तुम भी अक्सर ऐसी स्थिति में, ऐसी भावनाओं के साथ जीते हो? यदि तुममें ये भावनाएँ हैं, तो तुम क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हो? यह सब तुम्हारे अपने रुतबे, प्रतिष्ठा, संभावनाओं और हितों के लिए है। तुम्हारे द्वारा निर्धारित आकांक्षाएँ और अनुसरित लक्ष्य अक्सर सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रतिबंधित और बाधित होते हैं—उन्हें साकार नहीं किया जा सकता है। लिहाजा तुम दुखी महसूस करते हो और दमन की भावनाओं के साथ जीते हो। क्या यही बात नहीं है? (हाँ।) मानवीय आकांक्षाओं का यही मसला है। पहले हमने मानवीय आकांक्षाओं का गहन-विश्लेषण किया, उसके बाद हमने किस बारे में संगति की? हमने संगति की कि कलीसिया यानी परमेश्वर का घर लोगों के लिए अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने की जगह नहीं है। फिर हमने उन सही लक्ष्यों के बारे में संगति की जिनका अनुसरण लोगों को परमेश्वर में अपनी आस्था में करना चाहिए, जैसे एक योग्य सृजित प्राणी कैसे बनें और एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को कैसे अच्छे से निभाएँ। यही बात है ना? (हाँ।) इन चीजों के बारे में संगति करने का मुख्य उद्देश्य लोगों को यह बताना है कि उन्हें अपनी आकांक्षाओं और कर्तव्यों को कैसे चुनना चाहिए और उनके साथ कैसे पेश आना चाहिए। लोगों को अपनी अनुचित आकांक्षाओं को त्याग देना चाहिए, जबकि इस जीवन में उनके कर्तव्य ही वे हैं जिनके लिए उन्हें कीमत चुकानी चाहिए और अपना पूरा जीवन समर्पित करना चाहिए। एक सृजित प्राणी के कर्तव्य सकारात्मक चीजें हैं, जबकि मानवीय आकांक्षाएँ ऐसी नहीं हैं और उन पर कायम रहने के बजाय उन्हें त्याग देना चाहिए। लोगों को एक योग्य सृजित प्राणी बनने का अनुसरण करना चाहिए, उस पर कायम रहना चाहिए और इसी तरह अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। तो जब लोगों की आकांक्षाएँ उनके कर्तव्यों से टकराती हों तो उन्हें क्या करना चाहिए? (उन्हें अपनी आकांक्षाओं को त्याग देना चाहिए और पूरी तरह छोड़ देना चाहिए।) उन्हें अपनी आकांक्षाओं को त्याग देना चाहिए और अपने कर्तव्यों पर कायम रहना चाहिए। चाहे जब भी हो या लोग जिस उम्र तक भी जिएँ, उन्हें जो करना चाहिए और जिस चीज का अनुसरण करना चाहिए, वह इसी बात के इर्द-गिर्द घूमनी चाहिए कि एक सृजित प्राणी के कर्तव्य कैसे निभाएँ और परमेश्वर, उसके वचनों, और सत्य के प्रति समर्पण कैसे करें। केवल ऐसे अभ्यास से ही व्यक्ति सार्थक और मूल्यवान जीवन जी सकता है, है न? (हाँ।) ठीक है, आओ आज की हमारी संगति यहीं समाप्त करते हैं। अलविदा!
10 दिसंबर 2022