सत्य का अनुसरण कैसे करें (6)

हमने पिछली बार “त्यागने” के बारे में संगति की थी, जो सत्य का अनुसरण करने के अभ्यास के सिद्धांतों में से एक है। “त्यागने” के पहले भाग का अर्थ है सभी नकारात्मक भावनाओं को त्यागना। हम पहले ही इस विषय पर कई बार संगति कर चुके हैं। क्या हमने पिछली बार दमन की नकारात्मक भावना पर संगति की थी? (हाँ, की थी।) हमने इस संबंध में क्या संगति की थी? लोग दमित क्यों महसूस करते हैं? (परमेश्वर ने यह संगति की थी कि लोग अपने कर्तव्यों में मनमर्जी करते हैं, और कलीसिया के नियमों और विनियमों का पालन करना या अंकुशों के दायरे में रहना नहीं चाहते हैं। अपनी मनमर्जी करने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करने के कारण वे अच्छी तरह अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते, और इसलिए अक्सर उनके साथ काट-छाँट की जाती है। यदि वे अपने क्रियाकलापों पर विचार नहीं करते और सत्य खोजकर अपनी समस्याओं को हल करने में विफल रहते हैं, तो वे दमित महसूस करेंगे।) पिछली बार हमने एक प्रकार की स्थिति के बारे में संगति की थी जिसमें लोग दमित होने की नकारात्मक भावना महसूस करते हैं, जिसका मुख्य कारण यह है कि वे अपनी मनमर्जी से काम करने में असमर्थ होते हैं। वह संगति मुख्य रूप से इन बातों से संबंधित थी : ऐसी परिस्थितियाँ जहाँ लोग अपनी मनमर्जी से काम करने में असमर्थ होते हैं, कौन-सी चीजें लोग अपनी मनमर्जी से करना चाहते हैं, और दमन की भावना में डूबे रहने वालों में कौन-से आम व्यवहार मौजूद होते हैं। फिर हमने उस मार्ग के बारे में संगति की थी जिसे इस भावना के समाधान के लिए व्यक्ति को चुनना चाहिए। क्या तुम लोग नकारात्मक भावनाओं को त्याग देने के विषय पर इन संगतियों को सुनने के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुँचे हो, क्या वे मनुष्य की नकारात्मक भावनाओं की अभिव्यक्तियों को उजागर कर रहे थे, या लोगों को उनका त्याग करने का मार्ग बता रहे थे? नकारात्मक भावनाओं को त्यागने का यह अभ्यास किस ओर निर्देशित है? इन संगतियों को सुनने के बाद, क्या तुम लोगों ने इस पर विचार किया? (परमेश्वर, मेरी समझ से यह अभ्यास चीजों पर लोगों के दृष्टिकोणों की ओर निर्देशित है।) सही कहा, यह इसका एक पहलू है। इसका संबंध चीजों पर लोगों के दृष्टिकोणों से है। ये दृष्टिकोण मुख्य रूप से उन विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों से संबंधित हैं, जिन पर व्यक्ति विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों का सामना करते हुए अड़ा रहता है, और मुख्य रूप से उन विभिन्न समस्याओं की ओर निर्देशित हैं जिनका सामना व्यक्ति अपने सामान्य मानव जीवन और अस्तित्व में करता है। इसके उदाहरणों में शामिल हैं : दूसरों के साथ कैसे मेलजोल करें, शत्रुता को कैसे कम करें, और विवाह, परिवार, काम, अपनी संभावनाओं, बीमारी, बुढ़ापे, मृत्यु और जीवन की छोटी-छोटी बातों के प्रति रवैया कैसा हो। अन्य मसलों के अलावा यह इसकी बात भी करता है कि व्यक्ति को अपने परिवेश और उस कर्तव्य का सामना कैसे करना चाहिए जिसे निभाने की अपेक्षा उससे की जाती है। क्या यह इनके बारे में बात नहीं करता? (करता है।) जहाँ तक उन सभी प्रमुख समस्याओं और सिद्धांत के मामलों का सवाल है जो सामान्य मानव जीवन और अस्तित्व से संबंधित हैं—यदि व्यक्ति के पास सही विचार, दृष्टिकोण और रवैया है, तो उसकी मानवता अपेक्षाकृत सामान्य होगी। “सामान्य” से मेरा मतलब है सामान्य विवेक होना और चीजों पर एक सामान्य परिप्रेक्ष्य और रुख रखना। जिन लोगों के पास सही विचार और दृष्टिकोण हैं, केवल वे ही सत्य का अनुसरण करते हुए उसे आसानी से समझ पाएँगे और उसमें प्रवेश करने में सक्षम होंगे। इसका मतलब है कि लोगों और चीजों पर सामान्य विचार और सामान्य दृष्टिकोण, परिप्रेक्ष्य और रुख रखने वाले लोग ही अपने सत्य के अनुसरण में कुछ निश्चित परिणाम प्राप्त करने में सक्षम होंगे। यदि लोगों और चीजों पर किसी व्यक्ति का परिप्रेक्ष्य और रुख, और उसके विचार, दृष्टिकोण और रवैया, सभी नकारात्मक हैं, वे सामान्य मानवता की अंतरात्मा और तर्कसंगतता के अनुरूप नहीं हैं, और कट्टरपंथी, अड़ियल और अशुद्ध हैं—संक्षेप में, यदि वे सभी नकारात्मक, प्रतिकूल और निराशाजनक हैं—जिस व्यक्ति के इस प्रकार के नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण हों, और वह सत्य का अनुसरण करे, तो क्या उसके लिए इसे समझना और इसका अभ्यास करना आसान होगा? (नहीं होगा।) सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य से तुम लोगों के लिए यह कहना आसान है, लेकिन वास्तविकता में, तुम लोग इसे अच्छी तरह नहीं समझते। सरल शब्दों में कहें, तो हम जिन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं पर संगति कर रहे हैं उनके मद्देनजर, यदि किसी व्यक्ति का अपने जीवन में और अपने जीवन पथ पर सामने आने वाले विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों के प्रति नकारात्मक और गलत परिप्रेक्ष्य और रुख है, तो क्या वह सत्य की समझ हासिल करने में सक्षम होगा? (नहीं।) यदि लोग हमेशा नकारात्मक भावनाओं में डूबे रहें, तो क्या वे परमेश्वर के वचनों की स्पष्ट समझ-बूझ प्राप्त कर सकेंगे? (नहीं।) यदि उन पर हमेशा नकारात्मक भावनाओं के विचारों और दृष्टिकोणों का प्रभुत्व, नियंत्रण और प्रभाव रहता है, तो क्या सभी चीजों पर उनका परिप्रेक्ष्य और रुख, और उनके साथ घटित होने वाली चीजों के बारे में उनके दृष्टिकोण नकारात्मक नहीं होंगे? (बिल्कुल होंगे।) यहाँ “नकारात्मक” का क्या अर्थ है? सबसे पहले, क्या हम कह सकते हैं कि यह तथ्य और वस्तुनिष्ठ नियमों के विपरीत है? क्या यह परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य के साथ-साथ प्रकृति के उन नियमों का उल्लंघन करता है जिनका पालन मनुष्य को करना चाहिए? (हाँ।) यदि परमेश्वर के वचन सुनते और पढ़ते समय लोगों के मन में ये नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण हों, तो क्या वे सचमुच उसके वचन स्वीकार कर इनके प्रति समर्पण कर सकेंगे? क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसके अनुरूप बन सकेंगे? (नहीं।) मुझे एक उदाहरण देकर समझाओ, ताकि पता चले कि तुम लोग इस बात को समझ गए हो। एक ऐसा उदाहरण ढूँढो जहाँ कोई व्यक्ति अपने जीवन और जीवनयापन की प्रमुख समस्याओं से निपट रहा हो, जैसे कि विवाह, परिवार, बच्चों या बीमारी की समस्याएँ, उनके भविष्य, भाग्य और इससे जुड़ी समस्याएँ कि क्या उनका जीवन सुचारू रूप से चल रहा है, उनकी अहमियत, सामाजिक दर्जा, व्यक्तिगत हित वगैरह की समस्याएँ। (मुझे याद है, पिछली बार परमेश्वर ने संगति की थी कि जब लोग बीमार होते हैं, तो वे संताप, व्याकुलता और चिंता जैसी नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं, और मरने से बेहद डरते हैं। इससे उनके कर्तव्य निभाने और सामान्य जीवन जीने की क्षमता प्रभावित होती है, और यह उन्हें वस्तुनिष्ठ नियमों का पालन करने में असमर्थ बना देता है। वास्तव में, लोगों का जीवन और मृत्यु, वे कब बीमार होते हैं, और उन्हें कितना कष्ट होता है, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्व निर्धारित है। लोगों को उचित, सकारात्मक रवैये के साथ इन स्थितियों का सामना और अनुभव करना चाहिए। उन्हें जिस इलाज की आवश्यकता है उसे खोजना चाहिए, और वह कर्तव्य निभाना चाहिए जो उनसे निभाने की अपेक्षा की जाती है—उन्हें सकारात्मक स्थिति बनाए रखनी चाहिए और अपनी बीमारी में फँसे नहीं रहना चाहिए। लेकिन जब लोग नकारात्मक भावनाओं में डूब रहे होते हैं, तो वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं करते, और वे यह विश्वास भी नहीं करते कि परमेश्वर ने उनके जीवन और मृत्यु को पूर्व-निर्धारित कर रखा है। वे बस अपनी बीमारी को लेकर चिंतित, भयभीत और व्यग्र महसूस करते हैं। वे अधिक से अधिक चिंतित और भयभीत हो जाते हैं—वे मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता के सत्य से शासित नहीं होते हैं, और न ही परमेश्वर उनके दिलों में होता है।) यह बढ़िया उदाहरण है। क्या इसका संबंध इस प्रश्न से है कि जीवन और मृत्यु के महत्वपूर्ण मामले पर लोगों का क्या दृष्टिकोण होना चाहिए? (हाँ।) क्या तुम लोग इस विषय के बारे में थोड़ा-बहुत जानते हो? यह खुद के जीवन और मृत्यु का सामना करने का प्रश्न है। क्या इसका संबंध सामान्य मानवता के दायरे में आने वाली समस्याओं से है? (हाँ।) यह एक प्रमुख समस्या है जिसका हर किसी को सामना करना ही पड़ता है। भले ही तुम जवान हो या तुम्हारी सेहत अच्छी है और तुमने जीवन और मृत्यु की समस्याओं का सामना या उनका अनुभव नहीं किया है, लेकिन यकीनन एक दिन ऐसा आएगा जब तुम्हें ऐसा करना होगा—यह ऐसी चीज है जिसका हर किसी को सामना करना होगा। एक सामान्य व्यक्ति के रूप में, फर्क नहीं पड़ता कि तुम इससे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित होते हो या इससे बहुत दूर हो, मामला चाहे जो हो, यह तुम्हारे सामने आने वाली जीवन की सबसे महत्वपूर्ण समस्या होगी। तो, मृत्यु के महत्वपूर्ण मामले का सामना करते हुए, क्या लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि उन्हें इस समस्या से कैसे निपटना है? क्या वे इससे निपटने के लिए कुछ मानवीय तरीके नहीं अपनाएँगे? लोगों को किन दृष्टिकोणों पर टिके रहना चाहिए? क्या यह एक व्यावहारिक समस्या नहीं है? (बिल्कुल है।) यदि लोग नकारात्मक भावनाओं में डूबे रहे, तो वे क्या सोचेंगे? हमने पहले इस पर संगति की थी—यदि लोग नकारात्मक भावनाओं के विचारों और दृष्टिकोणों के साथ जीते हैं, तो उनके क्रियाकलाप और अभिव्यक्तियाँ सत्य के अनुरूप होती हैं या नहीं? वे सामान्य मानवता की सोच के अनुरूप होती हैं या नहीं? (नहीं, वे ऐसी नहीं होतीं।) वे सामान्य मानवता की सोच के अनुरूप नहीं होतीं, सत्य के अनुरूप होना तो दूर की बात है। वे वस्तुनिष्ठ तथ्यों या वस्तुनिष्ठ नियमों के अनुरूप नहीं होतीं, और वे परमेश्वर की संप्रभुता के अनुरूप तो कतई नहीं होती हैं।

विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के बारे में हमारी संगति का अंतिम परिणाम क्या है? तुम विशेष रूप से “त्यागने” का कार्यान्वयन और अभ्यास कैसे कर सकते हो ताकि तुम्हारे पास सामान्य मानवता की सोच और विवेक हो, दूसरे शब्दों में, तुम्हारे पास वे विचार, परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण हों जो सामान्य मानवता और विवेक वाले व्यक्ति के पास होने चाहिए? इस “त्यागने” से जुड़े अभ्यास के विशिष्ट कदम या मार्ग क्या हैं? क्या पहला कदम यह पहचानना नहीं है कि जिन मामलों का तुम सामना करते हो उनके बारे में तुम्हारे दृष्टिकोण सही हैं या नहीं और उनमें कोई नकारात्मक भावना तो नहीं है? यह पहला कदम है। उदाहरण के लिए, बीमारी और मृत्यु से निपटने के बारे में हमने पहले जो उदाहरण दिया था, उसके संबंध में तुम्हें पहले ऐसे मामलों के प्रति अपने दृष्टिकोणों का गहन-विश्लेषण करना चाहिए, कहीं उनमें नकारात्मक भावनाएँ तो नहीं हैं, जैसे कि क्या इन समस्याओं को लेकर तुम कोई संताप, चिंता या व्याकुलता महसूस करते हो और तुम्हारी संताप, चिंता और व्याकुलता कैसे उत्पन्न होती है, और तुम्हें इन समस्याओं के मूल कारण की पड़ताल करनी चाहिए। इसके बाद, गहन-विश्लेषण करते रहो, तब तुम्हें पता लगेगा कि तुमने इन मामलों को पूरी तरह से नहीं समझा है। तुमने स्पष्ट रूप से यह नहीं पहचाना है कि मानवजाति की हर चीज परमेश्वर के हाथों में और उसकी संप्रभुता के अधीन है। यहाँ तक कि बीमार पड़ने या मृत्यु का सामना करने पर भी लोगों को इन चीजों में नहीं फँसना चाहिए। इसके बजाय, उन्हें बीमारी या मृत्यु से भयभीत या पूरी तरह परास्त हुए बिना, परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। उन्हें इन चीजों से डरना नहीं चाहिए, न ही इनसे अपने सामान्य जीवन और कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित होने देना चाहिए। एक ओर, उन्हें बीमारी का सामना करते समय सक्रिय रूप से परमेश्वर की संप्रभुता का अनुभव करना और उसे समझना चाहिए, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, और जरूरत पड़ने पर वे इलाज कराने जा सकते हैं। यानी, उन्हें सक्रिय रूप से इस प्रक्रिया का सामना करना चाहिए, इसका अनुभव कर इसे समझना चाहिए। वहीं दूसरी ओर, उन्हें इन मामलों के बारे में अपने दिलों में सही समझ विकसित करनी चाहिए और यह विश्वास करना चाहिए कि सब परमेश्वर के हाथों में है। मनुष्य केवल अपनी भूमिका निभा सकता है, और बाकी चीजों के लिए उसे स्वर्ग की इच्छा के प्रति समर्पित होना चाहिए। क्योंकि सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है और लोगों का जीवन-मरण सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। भले ही लोग वही करें जो उन्हें करना चाहिए, इन सबका अंतिम परिणाम उनकी इच्छा के अनुसार नहीं बदलता है, और यह लोगों द्वारा निर्धारित नहीं होता है, है न? (बिल्कुल।) बीमार पड़ने पर तुम्हें सबसे पहले अपने दिल में झाँक कर देखना चाहिए और उसमें मौजूद किसी भी नकारात्मक भावना की पहचान करनी चाहिए। तुम्हें मामले के बारे में अपनी समझ और अपने दिलों में मौजूद दृष्टिकोण का आकलन करना चाहिए कि कहीं तुम नकारात्मक भावनाओं की बेबसी या बंधन में तो नहीं हो और ये नकारात्मक भावनाएँ कैसे उत्पन्न हुई हैं। तुम्हें इन चीजों का गहन-विश्लेषण करना चाहिए, जैसे कि तुम किस बारे में चिंतित हो, तुम्हें किस बात का डर है, तुम कहाँ असुरक्षित महसूस करते हो, और तुम अपनी बीमारी के कारण किस चीज को त्यागने में असमर्थ हो, फिर उन चीजों के कारण की जाँच करनी चाहिए जो तुम्हें चिंतित, भयभीत या डरा हुआ महसूस कराती हैं, और धीरे-धीरे एक-एक करके उन्हें हल करना चाहिए। तुम्हें सबसे पहले गहन-विश्लेषण करके यह पता लगाना चाहिए कि क्या ये नकारात्मक तत्व तुम्हारे भीतर मौजूद हैं, और यदि वे मौजूद हैं, तो उनका गहन-विश्लेषण करके पता लगाना चाहिए कि वे सही हैं या नहीं या क्या ऐसे तत्व मौजूद हैं जो सत्य से मेल नहीं खाते हैं। यदि तुम्हें ऐसे तत्व मिलते हैं जो सत्य से मेल नहीं खाते, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों में उत्तर खोजना चाहिए और उन्हें हल करने के लिए धीरे-धीरे सत्य खोजना चाहिए। तुम्हें ऐसी दशा तक पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए जहाँ तुम इन नकारात्मक तत्वों से परेशान, प्रभावित या बंधे हुए न हो, तुम्हें ऐसा करना चाहिए जिससे वे तुम्हारे सामान्य जीवन या कार्य या तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर असर न डालें, या तुम्हारे जीवन की लय को न बिगाड़ दें। और, बेशक, उन्हें परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास और उसके अनुसरण को प्रभावित नहीं करना चाहिए। संक्षेप में, तुम्हारा लक्ष्य यह है कि तुम अंत में विवेक, सही ढंग, वस्तुनिष्ठता और सटीकता के साथ इस प्रकार की समस्याओं का सामना करने में सक्षम हो जाओ जो तुम्हारे समक्ष आती हैं या आएँगी। क्या यह त्यागने की प्रक्रिया नहीं है? (बिल्कुल है।) यह अभ्यास का विशिष्ट मार्ग है। क्या तुम लोग संक्षेप में बता सकते हो कि अभ्यास का विशिष्ट मार्ग क्या है? (सबसे पहले, व्यक्ति को उस मसले को समझना चाहिए जिसका वे सामना कर रहे हैं, इस प्रक्रिया के दौरान यह गहन-विश्लेषण करना चाहिए कि उनमें नकारात्मक भावनाएँ तो नहीं हैं, फिर परमेश्वर के वचनों में उत्तर खोजने चाहिए, इन्हें हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए, और खुद को इन नकारात्मक भावनाओं से परेशान नहीं होने देना चाहिए, न ही इनसे अपने जीवन और कर्तव्य निर्वहन पर असर पड़ने देना चाहिए। साथ ही, उन्हें यह विश्वास रखना चाहिए कि जिन मसलों का वे सामना करते हैं वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं से उत्पन्न होते हैं। इस तरह की समझ के साथ, लोग अंत में समर्पण करके सकारात्मक और सक्रिय अभ्यास कर सकेंगे।) मुझे बताओ, यदि लोग नकारात्मक भावनाओं में डूबे रहें, तो बीमारी का सामना होने पर उनका ठेठ व्यवहार क्या होता है? तुम्हें यह कैसे एहसास होता है कि तुममें नकारात्मक भावनाएँ हैं? (सबसे पहले, मन में बहुत डर होता है, और ऐसे-वैसे विचार आने लगते हैं, जैसे कि “यह कैसी बीमारी है? अगर मैं इसे ठीक नहीं कर सका तो क्या इससे मुझे बहुत पीड़ा होगी? क्या इससे अंत में मेरी मौत हो जाएगी? क्या मैं बाद में भी अपना कर्तव्य निभा पाऊँगा?” हम इन चीजों के बारे में सोचते हैं और इनके बारे में चिंता करके डरते हैं। कुछ लोग अपने स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देने लगते हैं, अपने कर्तव्य निभाने के लिए कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते, यह सोचते हैं कि यदि वे कम कीमत चुकाएँगे, तो शायद उनकी बीमारी कम हो जाए। ये सभी नकारात्मक भावनाएँ हैं।) नकारात्मक भावनाओं की जाँच दो तरह से की जा सकती है। एक ओर, तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारे मन में क्या चल रहा है। जब तुम बीमार पड़ते हो, तो सोच सकते हो, “अरे नहीं, मुझे यह बीमारी कैसे हुई? क्या किसी और से मुझे यह बीमारी हुई है? क्या यह मेरी थकावट के कारण हुई? यदि मैं अपने आप को थकाता रहूँ, तो क्या यह बीमारी और भी बदतर हो जाएगी? क्या यह और अधिक दर्दनाक हो जाएगा?” यह एक पहलू है; तुम अपने विचारों में मौजूद चीजों को समझ सकते हो। दूसरी ओर, जब तुम्हारे मन में ये विचार आते हैं, तो वे तुम्हारे व्यवहार में कैसे अभिव्यक्त होते हैं? जब लोगों में ये विचार होते हैं, तो उनके कार्य उसी के अनुसार प्रभावित होते हैं। लोगों के कार्य, व्यवहार और तरीके, सभी विभिन्न विचारों से संचालित होते हैं। जब लोगों में ये नकारात्मक भावनाएँ होती हैं, तो उनसे विभिन्न विचार उत्पन्न होते हैं, और इन विचारों के नियंत्रण में आकर कर्तव्य निभाने संबंधी उनके रवैयों या तौर-तरीकों में बदलाव आता है। उदाहरण के लिए, पहले कभी-कभी वे नींद से जागते ही अपने कर्तव्य निभाना शुरू कर देते थे। लेकिन अब, जब बिस्तर से उठने का समय होता है, तो वे सोचने लगते हैं, “क्या यह बीमारी थकावट के कारण हुई है? शायद मुझे थोड़ी देर और सोना चाहिए। मैं बहुत अधिक कष्ट उठाता था और थकावट महसूस होती थी। अब मुझे अपने शरीर की देखभाल पर ध्यान देना होगा ताकि बीमारी बदतर न हो जाए।” इन सक्रिय विचारों से प्रेरित होकर वे अधिक देर से उठने लगते हैं। जब खाना खाने की बात आती है, तो वे सोचते हैं, “मेरी बीमारी पोषण की कमी से संबंधित हो सकती है। पहले मैं कुछ भी खा लेता था, लेकिन अब मुझे चुनिंदा चीजें खानी होंगी। मुझे ज्यादा अंडे और मांस खाना चाहिए ताकि मेरा पोषण बना रहे और मेरा शरीर मजबूत बन सके—इस तरह मुझे अपनी बीमारी से पीड़ित नहीं होना पड़ेगा।” जब अपने कर्तव्य निभाने की बात आती है, तो वे लगातार यह भी सोचते रहते हैं कि अपने शरीर की देखभाल कैसे करें। पहले, एक या दो घंटे तक लगातार काम करने के बाद वे ज्यादा-से-ज्यादा हाथ-पैर हिलाते या टहलते थे। लेकिन अब, उन्होंने अपने लिए हर आधे घंटे में घूमने का नियम बना लिया है, ताकि वे थके नहीं। सभाओं में संगति करते समय, वे कम से कम बोलने की कोशिश करते हैं; सोचते हैं, “मुझे अपने शरीर की देखभाल करना सीखना होगा।” पहले, चाहे कोई उनसे कभी भी कुछ भी सवाल पूछता, वे बिना किसी हिचकिचाहट के जवाब देते थे। लेकिन अब वे कम बोलना चाहते हैं, अपनी ऊर्जा बचाए रखना चाहते हैं, और अगर कोई बहुत ज्यादा सवाल पूछता है, तो वे कहते हैं, “मुझे आराम की जरूरत है।” देखो, वे विशेष रूप से अपने शरीर के बारे में अधिक चिंता करने लगे हैं, जो पहले से अलग है। अक्सर वे पूरक आहार लेने, फल खाने और नियमित रूप से व्यायाम करने पर भी लगातार ध्यान देते हैं। वे सोचते हैं, “पहले, मैं बहुत मूर्ख और अज्ञानी था, मुझे नहीं पता था कि अपने शरीर की देखभाल कैसे करनी है। मैं अपनी भूख के कारण बहुत खाना खाता था। अब जबकि मेरे शरीर में समस्याएँ हो गई हैं, यदि मैं अपने स्वास्थ्य पर ध्यान न दूँ और बीमारी गंभीर होने पर मैं अपना कर्तव्य न निभा पाऊँ, तो क्या मुझे तब भी आशीष मिलेगी? मुझे भविष्य में अपने शरीर की देखभाल पर ध्यान देना चाहिए और किसी भी तरह की बीमारी को उभरने नहीं देना चाहिए।” इसलिए वे अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना शुरू कर देते हैं और अब अपने कर्तव्य पूरी निष्ठा से नहीं निभाते। उन्होंने अपने कर्तव्य निभाते समय पहले जो कष्ट सहे और जो कीमत चुकाई, उसे लेकर भी पछताकर खिन्न रहते हैं। क्या ये विचार और व्यवहार नकारात्मक भावनाओं से प्रभावित नहीं हैं और क्या ये इनसे ही उत्पन्न नहीं होते हैं? ये विचार और व्यवहार वास्तव में इन नकारात्मक भावनाओं के कारण ही उत्पन्न होते हैं। तो क्या उनकी नकारात्मक भावनाओं के साथ-साथ ये विचार और व्यवहार उन्हें परमेश्वर में अधिक विश्वास रखने और अपने कर्तव्य निभाने में अधिक समर्पित होने में मदद कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। अंतिम नतीजा क्या होगा? वे निष्ठा के बिना और अनमने होकर अपने कर्तव्य निभाएंगे। कार्य करते समय क्या वे सत्य खोज सकते हैं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) इन नकारात्मक भावनाओं के काबू में रहकर वे अपनी मनमर्जी करेंगे, सत्य को संजोने और उसका अभ्यास करने के बजाय उसे दरकिनार करेंगे। वे जो कुछ भी करते हैं, जो कुछ भी अभ्यास में लाते हैं, वह उनकी नकारात्मक भावनाओं से उत्पन्न विचारों के इर्द-गिर्द घूमता रहेगा। क्या ऐसा व्यक्ति सत्य के अनुसरण का लक्ष्य हासिल सकता है? (नहीं, वह नहीं कर सकता।) तो क्या इस प्रकार के विचार सामान्य मानवता वाले लोगों में होने चाहिए? (नहीं होने चाहिए।) क्योंकि इस प्रकार के विचार सामान्य मानवता वाले लोगों में नहीं होने चाहिए, तो तुम लोगों को क्या लगता है कि लोग कहाँ गलती कर बैठते हैं? (लोगों को परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के बारे में कोई समझ नहीं है। वास्तव में, ये सभी बीमारियाँ परमेश्वर के हाथों में हैं। किसी व्यक्ति को कितना कष्ट सहना है यह भी परमेश्वर द्वारा निर्धारित और व्यवस्थित होता है। लेकिन जब कोई व्यक्ति नकारात्मक भावनाओं में रहता है, तो वह षडयंत्रों का सहारा लेता है और भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों से संचालित होता है। वह मानवीय तरीकों पर भरोसा करता है और अपने शरीर को संजोता है।) क्या किसी व्यक्ति के लिए अपने शरीर को इस तरह संजोना सही है? जब कोई व्यक्ति अपने शरीर के बारे में बहुत चिंता करता है और उसे सुपोषित, स्वस्थ और मजबूत रखता है, तो उसके लिए इसका क्या महत्व है? ऐसे जीने का क्या अर्थ है? व्यक्ति के जीवन का मूल्य क्या है? क्या यह केवल खाने, पीने और मनोरंजन जैसे शारीरिक सुखों में शामिल होने की खातिर है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर यह क्या है? तुम लोग अपने विचार साझा करो। (व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने का लक्ष्य हासिल करना चाहिए।) सही कहा। मुझे बताओ, यदि जीवन भर किसी व्यक्ति के दैनिक क्रियाकलाप और विचार केवल बीमारी और मृत्यु से बचने, अपने शरीर को स्वस्थ और बीमारियों से मुक्त रखने और दीर्घायु होने की कोशिश पर केंद्रित होते हैं, तो क्या व्यक्ति के जीवन का यही मूल्य होना चाहिए? (नहीं, यह नहीं होना चाहिए।) किसी व्यक्ति के जीवन का यह मूल्य नहीं होना चाहिए। तो, व्यक्ति के जीवन का मूल्य क्या होना चाहिए? अभी-अभी, किसी ने एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने का जिक्र किया था, जो एक विशिष्ट पहलू है। क्या इसके अलावा कुछ और भी है? मुझे उन आकांक्षाओं के बारे में बताओ जो आम तौर पर प्रार्थना करते या संकल्प लेते समय तुम लोगों के मन में होती हैं। (हमारे लिए परमेश्वर की जो व्यवस्थाएँ और आयोजन हैं, उनके प्रति समर्पित होना।) (परमेश्वर ने हमें जो भूमिका सौंपी है उसे अच्छी तरह से निभाना, और अपने लक्ष्य और जिम्मेदारी को पूरा करना।) और कुछ? एक ओर, यह सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने के बारे में है। दूसरी ओर, यह अपनी क्षमता और काबिलियत के दायरे में रहकर अपना सर्वश्रेष्ठ और हरसंभव योगदान देने के बारे में है; यह कम से कम उस बिंदु तक पहुँचने के बारे में है जहाँ तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें दोषी नहीं ठहराती है, जहाँ तुम अपनी अंतरात्मा के साथ शांति से रह सकते हो और दूसरों की नजरों में स्वीकार्य साबित हो सकते हो। इसे एक कदम आगे बढ़ाते हुए, अपने पूरे जीवन में, चाहे तुम किसी भी परिवार में पैदा हुए हो, तुम्हारी शैक्षिक पृष्ठभूमि या काबिलियत चाहे जो भी हो, तुम्हें उन सिद्धांतों की थोड़ी समझ होनी चाहिए जिन्हें लोगों को जीवन में समझना चाहिए। उदाहरण के लिए, लोगों को किस प्रकार के मार्ग पर चलना चाहिए, उन्हें कैसे रहना चाहिए, और एक सार्थक जीवन कैसे जीना चाहिए—तुम्हें कम से कम जीवन के असली मूल्य का थोड़ा पता लगाना चाहिए। यह जीवन व्यर्थ नहीं जिया जा सकता, और कोई इस पृथ्वी पर व्यर्थ में नहीं आ सकता। दूसरे संदर्भ में, अपने पूरे जीवनकाल के दौरान, तुम्हें अपना लक्ष्य पूरा करना चाहिए; यह सबसे महत्वपूर्ण है। हम किसी बड़े लक्ष्य, कर्तव्य या जिम्मेदारी को पूरा करने की बात नहीं कर रहे हैं; लेकिन कम से कम, तुम्हें कुछ तो हासिल करना चाहिए। उदाहरण के लिए, कलीसिया में, कुछ लोग अपनी सारी कोशिश सुसमाचार फैलाने में लगा देते हैं, अपने पूरे जीवन की ऊर्जा समर्पित करते हैं, बड़ी कीमत चुकाते और कई लोगों को जीतते हैं। इस वजह से, उन्हें लगता है कि उनका जीवन व्यर्थ नहीं गया है, उसका मूल्य है और यह राहत देने वाला है। बीमारी या मृत्यु का सामना करते समय, जब वे अपने पूरे जीवन का सारांश निकालते हैं और उन सभी चीजों के बारे में सोचते हैं जो उन्होंने कभी की थीं, जिस रास्ते पर वे चले, तो उन्हें अपने दिलों में तसल्ली मिलती है। उन्हें किसी दोषारोपण या पछतावे का अनुभव नहीं होता। कुछ लोग कलीसिया में अगुआई करते समय या कार्य के किसी खास पहलू की अपनी जिम्मेदारी में कोई कसर नहीं छोड़ते। वे अपनी अधिकतम क्षमता का उपयोग करते हैं, अपनी पूरी ताकत लगाते हैं, अपनी सारी ऊर्जा खर्च करते हैं और जो काम करते हैं उसकी कीमत चुकाते हैं। अपने सिंचन, अगुआई, सहायता और समर्थन से, वे कई लोगों को उनकी कमजोरियों और नकारात्मकता के बीच मजबूत बनने और दृढ़ रहने में मदद करते हैं ताकि वे पीछे हटने के बजाय परमेश्वर की उपस्थिति में वापस आएँ और अंत में उसकी गवाही भी दें। इसके अलावा, अपनी अगुआई की अवधि के दौरान, वे कई महत्वपूर्ण कार्य पूरे करते हैं, बहुत-से दुष्ट लोगों को कलीसिया से निकालते हैं, परमेश्वर के चुने हुए अनेक लोगों की रक्षा करते हैं, और कई बड़े नुकसानों की भरपाई भी करते हैं। ये सभी चीजें उनकी अगुआई के दौरान ही हासिल होती हैं। वे जिस रास्ते पर चले, उसे पीछे मुड़कर देखते हुए, बीते बरसों में अपने द्वारा किए गए काम और चुकाई गई कीमत को याद करते हुए, उन्हें कोई पछतावा या दोषारोपण महसूस नहीं होता। वे मानते हैं कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसके लिए उन्हें पछताना पड़े, और वे अपने दिलों में मूल्य, स्थिरता और शांति की भावना के साथ जीते हैं। यह कितना अद्भुत है! यही परिणाम होता है न? (हाँ।) स्थिरता और राहत की यह भावना, पछतावे का न होना, सकारात्मक चीजों और सत्य का अनुसरण करने का परिणाम और पुरस्कार हैं। आओ, लोगों के लिए ऊँचे मानक स्थापित न करें। एक ऐसी स्थिति पर विचार करें जहाँ व्यक्ति को ऐसे कार्य का सामना करना पड़ता है जो उसे अपने जीवनकाल में करना चाहिए या वह करना चाहता है। अपना पद जान लेने के बाद, वह दृढ़ता से उस पर बना रहता है बहुत कष्ट उठाता है, कीमत चुकाता है, और जिस चीज पर काम करना चाहिए और जिसे पूरा करना चाहिए उसे हासिल और पूरा करने के लिए अपनी सारी ऊर्जा समर्पित कर देता है। जब वह अंत में हिसाब देने के लिए परमेश्वर के सामने खड़ा होता है, तो वह काफी संतुष्ट महसूस करता है, उसके दिल में कोई दोषारोपण या पछतावा नहीं होता है। उसमें राहत और फलवान होने की भावना होती है कि उसने एक मूल्यवान जीवन जिया है। क्या यह एक महत्वपूर्ण लक्ष्य नहीं है? इसका पैमाना चाहे जो भी हो, मुझे बताओ, क्या यह व्यावहारिक है? (यह व्यावहारिक है।) क्या यह विशिष्ट है? यह पर्याप्त रूप से विशिष्ट, व्यावहारिक और यथार्थवादी है। तो, एक मूल्यवान जीवन जीने और अंत में इस प्रकार का पुरस्कार प्राप्त करने के लिए, क्या व्यक्ति के शरीर का थोड़ा कष्ट सहना और थोड़ी कीमत चुकाना सार्थक है, भले ही वह थकान और शारीरिक बीमारी का अनुभव करे? (यह सार्थक है।) जब कोई व्यक्ति इस संसार में आता है, तो यह केवल देह के आनंद के लिए नहीं होता है, न ही यह केवल खाने, पीने और मौज-मस्ती करने के लिए होता है। व्यक्ति को केवल उन चीजों के लिए नहीं जीना चाहिए; यह मानव जीवन का मूल्य नहीं है, न ही यह सही मार्ग है। मानव जीवन के मूल्य और अनुसरण के सही मार्ग में कुछ मूल्यवान हासिल करना या एक या अनेक मूल्यवान कार्य करना शामिल है। इसे करियर नहीं कहा जाता है; इसे सही मार्ग कहा जाता है, इसे उचित कार्य भी कहा जाता है। मुझे बताओ, क्या व्यक्ति के लिए किसी मूल्यवान कार्य को पूरा करना, सार्थक और मूल्यवान जीवन जीना और सत्य का अनुसरण करना और उसे प्राप्त करना इस योग्य है कि उसके लिए कीमत चुकाई जाए? यदि तुम वास्तव में सत्य का अनुसरण करने और उसे समझने, जीवन में सही मार्ग पर चलने, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा करने, और एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जीने की इच्छा रखते हो, तो तुम्हें अपनी सारी ऊर्जा लगाने, कीमत चुकाने, अपना सारा समय और जीवन के बचे हुए दिन देने में संकोच नहीं करना चाहिए। यदि तुम इस अवधि के दौरान थोड़ी बीमारी का अनुभव करते हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, इससे तुम टूट नहीं जाओगे। क्या यह जीवन भर आराम और आलस्य के साथ जीने, शरीर को इस हद तक पोषित करने कि वह सुपोषित और स्वस्थ हो, और अंत में दीर्घायु होने से ज्यादा बेहतर नहीं है? (हाँ।) इन दोनों विकल्पों में से कौन-सा एक मूल्यवान जीवन के लिए अधिक हितकर है? इनमें से कौन-सा विकल्प लोगों को अंत में मृत्यु का सामना करते हुए राहत दे सकता है, जिससे उन्हें कोई पछतावा नहीं होगा? (एक सार्थक जीवन जीना।) सार्थक जीवन जीने का अर्थ है अपने दिल में परिणाम और सुकून महसूस करना। उन लोगों का क्या जो अच्छा खाना खाते हैं और जिनके चेहरे पर मृत्यु तक गुलाबी चमक बनी रहती है? वे सार्थक जीवन नहीं जीते हैं, तो मरने पर उन्हें कैसा महसूस होता है? (मानो उनका जीवन व्यर्थ रहा।) ये तीन शब्द चुभने वाले हैं—जीवन व्यर्थ रहना। “जीवन व्यर्थ रहने” का क्या अर्थ है? (अपना जीवन बर्बाद करना।) जीवन व्यर्थ रहना, अपना जीवन बर्बाद करना—इन दो वाक्यांशों का आधार क्या है? (अपने जीवन के अंत में उन्हें पता चलता है कि उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया है।) फिर व्यक्ति को क्या हासिल करना चाहिए? (उन्हें सत्य प्राप्त करना चाहिए या इस जीवन में मूल्यवान और सार्थक चीजें हासिल करनी चाहिए। एक सृजित प्राणी को जो चीजें करनी चाहिए वे उन्हें अच्छे से करनी चाहिए। यदि वे यह सब करने में विफल रहते हैं और केवल अपने शरीर के लिए जीते हैं, तो उन्हें लगेगा कि उनका जीवन व्यर्थ चला गया और बर्बाद हो गया।) मृत्यु का सामना होने पर, वे सोचेंगे कि उन्होंने जीवन भर क्या किया है। वे कहेंगे, “ओह, मैं हर दिन केवल खाने, पीने और मौज-मस्ती करने के बारे में सोचता रहा। मेरा स्वास्थ्य अच्छा था और मुझे कोई बीमारी नहीं हुई। मेरा पूरा जीवन शांतिपूर्ण था। लेकिन अब मैं बूढ़ा हो रहा हूँ और मरने वाला हूँ, मरने के बाद मैं कहाँ जाऊँगा? मैं नर्क में जाऊँगा या स्वर्ग में? परमेश्वर मेरे अंत की व्यवस्था कैसे करेगा? मेरी मंजिल कहाँ होगी?” उन्हें बेचैनी महसूस होगी। जीवन भर भौतिक सुख-सुविधाओं का आनंद लेते हुए, उन्हें पहले कोई जागरूकता नहीं थी, लेकिन अब जब मृत्यु करीब आ रही है तो वे असहज महसूस करते हैं। क्योंकि वे असहज महसूस करते हैं, तो क्या वे सुधार करने के बारे में सोचना शुरू नहीं कर देंगे? क्या तब सुधार करने का समय बचा होगा? (जरा भी समय नहीं होगा।) अब उनमें न तो दौड़ने की शक्ति बची है, न ही बोलने की शक्ति है। अगर वे थोड़ी-सी कीमत चुकाना चाहें या थोड़ी कठिनाई सहना चाहें, तब भी उनकी शारीरिक शक्ति इसके लिए पर्याप्त नहीं है। भले ही वे बाहर जाकर सुसमाचार का प्रचार करना चाहें, लेकिन उनकी शारीरिक स्थिति इस लायक नहीं है। इसके अलावा, वे जरा भी सत्य नहीं समझते हैं और इसके बारे में थोड़ी भी संगति नहीं कर सकते हैं। अब उनके पास सुधार करने का समय नहीं बचा है। मान लो कि वे कोई भजन सुनना चाहते हैं। भजन सुनते हुए वे सो जाते हैं। मान लो वे कोई उपदेश सुनना चाहते हैं। उसे सुनते हुए उन्हें नींद आने लगती है। उनके पास अब ऊर्जा नहीं बची है, और वे ध्यान केंद्रित करने में असमर्थ हैं। वे सोचते हैं कि उन्होंने इतने वर्षों तक क्या किया और उन्होंने अपनी ऊर्जा कहाँ खपाई। अब उनकी उम्र बढ़ गई है और वे अपना उचित काम करना चाहते हैं, लेकिन उनका ढलता शरीर अब उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता। उनमें अब ऊर्जा नहीं बची है, वे चाहकर भी कुछ नहीं सीख सकते हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ धीमी हो गई हैं। वे कई सत्यों को नहीं समझ सकते, और जब वे दूसरों के साथ संगति करने का प्रयास करते हैं, तो हर कोई व्यस्त होता है और उनके पास उनके साथ संगति करने का समय नहीं होता है। उनके किसी भी कार्य में सिद्धांत या मार्ग नहीं होता है। अंत में उनका क्या होता है? वे जितना अधिक विचार करते हैं उतना ही असहज महसूस करते हैं। जितना अधिक वे सोचते हैं, उतना ही उन्हें पछतावा होता है। जितना अधिक वे विचार करते हैं, उतना ही उनका मन पछतावे से भर जाता है। अंत में उनके पास मौत का इंतजार करने के सिवाय कोई चारा नहीं बचता। उनका जीवन समाप्त हो गया है, और सुधार करने का कोई रास्ता नहीं है। क्या उन्हें पछतावा महसूस होता है? (हाँ।) अब बहुत देर हो चुकी है! कोई समय नहीं बचा है। मृत्यु का सामना करते समय, उन्हें एहसास होता है कि शारीरिक आराम के जीवन का आनंद लेना बिल्कुल खोखला है। वे हर चीज समझते हैं और सत्य का अनुसरण करने, अपना कर्तव्य पूरा करने और कुछ अच्छे से करने से पीछे हटना चाहते हैं, लेकिन वे किसी भी तरह से कुछ भी हासिल नहीं कर पाते हैं या किसी भी चीज के लिए कोशिश नहीं कर पाते हैं। यह जीवन लगभग समाप्त हो गया है, यह पछतावे के साथ समाप्त होता है, इसमें अफसोस और बेचैनी होती है। मृत्यु का सामना करते समय ऐसे लोगों का अंतिम परिणाम क्या होता है? वे केवल अफसोस, पछतावे और बेचैनी के साथ मर जाते हैं। यह जीवन व्यर्थ चला गया! उनके भौतिक शरीरों ने कोई कष्ट नहीं सहा। उन्होंने तेज हवा या धूप नहीं झेली, कोई जोखिम नहीं उठाया, केवल आराम का आनंद लिया। उन्होंने कोई कीमत नहीं चुकाई। वे अच्छे स्वास्थ्य में जिए, शायद ही कभी किसी बीमारी का अनुभव किया, यहाँ तक कि उन्हें सर्दी भी नहीं हुई। उन्होंने अपने भौतिक शरीर की अच्छी तरह से देखभाल की, लेकिन दुर्भाग्य से, उन्होंने कोई भी कर्तव्य पूरा नहीं किया या कोई सत्य प्राप्त नहीं किया। केवल मृत्यु के पल में ही उन्हें पछतावा होता है। और यदि उन्हें पछतावा हो, तब भी क्या होगा? इसे कहते हैं अपने कर्मों के फल के रूप में कष्ट भोगना!

यदि कोई व्यक्ति मूल्यवान और सार्थक जीवन जीना चाहता है, तो उसे सत्य का अनुसरण करना चाहिए। सबसे पहले, जीवन के प्रति उसका नजरिया सही होना चाहिए, साथ ही, अपने जीवन में और जीवन पथ में सामने आने वाले विभिन्न बड़े-छोटे मसलों पर उसके विचार और दृष्टिकोण भी सही होने चाहिए। उसे अपने जीवनकाल के दौरान या अपने दैनिक जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं को चरम या कट्टरपंथी विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग करके देखने के बजाय इन सभी मसलों को सही परिप्रेक्ष्य और रुख से देखना चाहिए। बेशक, उसे इन चीजों को सांसारिक परिप्रेक्ष्य से भी नहीं देखना चाहिए, बल्कि ऐसे नकारात्मक और गलत विचारों और दृष्टिकोणों को त्याग देना चाहिए। यदि तुम इसे हासिल करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले लोगों के मन में बैठे विभिन्न नकारात्मक विचारों का गहन-विश्लेषण करना, उन्हें उजागर करना और पहचानना चाहिए, और फिर अपनी विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को बदलने और सुधारने, उन्हें त्यागने, सही और सकारात्मक विचार और दृष्टिकोण रखने के साथ-साथ लोगों और चीजों को देखने के लिए सही परिप्रेक्ष्य और रुख हासिल करने में सक्षम होना चाहिए। ऐसा करने से, तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण करने वाली अंतरात्मा और आवश्यक विवेक होगा। बेशक, यह विशेष रूप से कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति के पास लोगों और चीजों को देखने के लिए सही दृष्टिकोण, परिप्रेक्ष्य और रुख होने का मतलब यही है कि उसमें सामान्य मानवता है। यदि लोगों में इस प्रकार की सामान्य मानवता और ऐसे सही विचार और दृष्टिकोण हैं, तो उनके लिए सत्य का अनुसरण करना बहुत कम चुनौतीपूर्ण और काफी आसान हो जाता है। यह ऐसे ही है जैसे जब कोई व्यक्ति किसी मंजिल पर पहुँचना चाहता है—यदि वह सही रास्ते पर है और सही दिशा में बढ़ रहा है, तो उसकी रफ्तार चाहे जो भी हो, वह अंत में अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाएगा। लेकिन, यदि कोई व्यक्ति अपनी इच्छित मंजिल की विपरीत दिशा में जा रहा है, तो चाहे वह कितना भी तेज या कितना भी धीमा चल रहा हो, वह अपने लक्ष्य से केवल दूर ही होता जाएगा। यह तो वही कहावत हुई कि “उत्तर की दिशा में गाड़ी चलाकर दक्षिण की ओर जाने की कोशिश करना।” यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करके उद्धार पाने की इच्छा रखते हैं, लेकिन शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भी भागते हैं, जिसका अर्थ है कि उनके पास उद्धार पाने का कोई रास्ता नहीं है। उनका अंतिम परिणाम क्या होगा? यह यकीनन सजा ही होगी। उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी व्यक्ति को कैंसर हो गया है और वह मरने से डरता है। वह मृत्यु को स्वीकारने से इनकार करता है और लगातार परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि उसे मृत्यु से बचाए और उसका जीवन कुछ और वर्षों के लिए बढ़ा दे। वह हर गुजरते दिन के साथ, संताप, चिंता और व्याकुलता की नकारात्मक भावनाओं को साथ लेकर चलता है; भले ही वह कुछ और वर्षों तक जीवित रहने, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने और मृत्यु को टालने से मिलने वाली खुशी का अनुभव करने में कामयाब होता है। वह खुद को भाग्यशाली मानता है और विश्वास करता है कि परमेश्वर बहुत अच्छा है, वह वाकई शानदार है। अपने प्रयासों, बार-बार की गई विनती, खुद से प्रेम और खुद की देखभाल से, वह मृत्यु से बच जाता है, और अंत में, अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जीने लगता है। वह परमेश्वर के संरक्षण, अनुग्रह, प्रेम और दया के लिए आभार व्यक्त करता है। हर दिन वह परमेश्वर का धन्यवाद करता है और इसके लिए स्तुति करने उसके समक्ष आता है। वह भजन गाते समय और परमेश्वर के वचनों पर विचार करते समय अक्सर रो पड़ता है और सोचता है कि परमेश्वर कितना अद्भुत है : “वाकई जीवन और मृत्यु पर परमेश्वर का नियंत्रण है; उसने मुझे जीने का अवसर दिया।” हर दिन अपना कर्तव्य निभाते समय वह अक्सर इस बात पर विचार करता है कि दुख को पहले और सुख को आखिर में कैसे रखा जाए, और हर चीज में दूसरों से बेहतर कैसे किया जाए, ताकि वह अपना जीवन सुरक्षित रख सके और मृत्यु से बच सके—अंत में वह कुछ और वर्षों तक जीवित रहता है और काफी संतुष्ट और खुश महसूस करता है। लेकिन फिर एक दिन, उसकी बीमारी बढ़ जाती है, और डॉक्टर उसे आखिरी चेतावनी देते हुए अंत के लिए तैयार रहने को कहता है। अब वह मृत्यु का सामना कर रहा है; वास्तव में वह मौत की कगार पर है। उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? उसका सबसे बड़ा डर अब सामने आ गया है, उसकी सबसे बड़ी चिंता असलियत बन गई है। वो दिन आ गया है जिसे वह कभी देखना या अनुभव करना नहीं चाहता था। एक पल में उसका दिल बैठ जाता है और उसकी मनोदशा बिगड़ जाती है। उसका मन अब अपना कर्तव्य निभाने का नहीं करता है, और उसके पास परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए कोई शब्द भी नहीं बचे हैं। वह अब परमेश्वर की स्तुति नहीं करना चाहता, न उसके कोई वचन सुनना चाहता है और न ही चाहता है कि वो कोई सत्य प्रदान करे। वह अब यह विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर प्रेम, धार्मिकता, दया और उदारता का नाम है। साथ ही, उसे पछतावा भी होता है, “इतने बरसों तक मैं अच्छा खाना खाना और खाली समय में घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करना भूल गया। अब मेरे पास वो सब करने का मौका ही नहीं है।” उसका मन शिकायतों और विलापों से भर जाता है, और उसका दिल पीड़ा के साथ-साथ परमेश्वर के लिए शिकायतों, नाराजगी और इनकार से भर जाता है। फिर उसी पछतावे के साथ वह इस दुनिया से चला जाता है। उसके जाने से पहले, क्या परमेश्वर उसके दिल में मौजूद था? क्या उसे अभी भी परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास था? (वह अब विश्वास नहीं करता था।) यह परिणाम कैसे आया? क्या इसकी शुरुआत उन गलत दृष्टिकोणों से नहीं हुई जो वह शुरू से ही जीवन और मृत्यु के प्रति रखता था? (हाँ।) उसने न केवल शुरु से ही गलत विचार और दृष्टिकोण रखे, बल्कि इससे भी गंभीर बात यह है कि इसके बाद भी वह अपने विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार ही चलता रहा और उनके अनुरूप ही बना रहा। उसने कभी हार नहीं मानी और पीछे मुड़कर देखे बिना बड़ी तेजी से गलत रास्ते पर आगे बढ़ता रहा। नतीजतन, आखिरकार, परमेश्वर से उसका विश्वास उठ गया—इस प्रकार उसकी आस्था की यात्रा समाप्त हो गई और उसका जीवन भी समाप्त हो गया। क्या उसे सत्य प्राप्त हुआ? क्या परमेश्वर ने उसे प्राप्त किया? (नहीं।) जब उसकी मृत्यु हुई, तो मृत्यु के प्रति जिन परिप्रेक्ष्यों और रवैयों पर वह अड़ा हुआ था, क्या वे बदल गए? (नहीं।) वह आराम, खुशी और शांति से मरा या फिर अफसोस, अनिच्छा और कड़वाहट के साथ? (वह अनिच्छा और कड़वाहट के साथ मरा।) उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। उसने सत्य प्राप्त नहीं किया और न ही परमेश्वर ने उसे प्राप्त किया। तो क्या तुम लोग यह कहोगे कि ऐसे व्यक्ति को उद्धार प्राप्त हुआ है? (नहीं।) उसे बचाया नहीं गया है। अपनी मृत्यु से पहले क्या उसने बहुत भागदौड़ नहीं की और काफी हद तक खुद को नहीं खपाया? (बिल्कुल ऐसा ही किया।) दूसरों की तरह वह भी परमेश्वर में विश्वास रखता था और अपना कर्तव्य निभाता था, बाहरी तौर पर, उसके और किसी और के बीच कोई अंतर नहीं मालूम पड़ता था। जब उसने बीमारी और मृत्यु का अनुभव किया, तो उसने परमेश्वर से प्रार्थना की और तब भी अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा। वह उसी स्तर पर काम करता रहा, जिस पर पहले करता था। लेकिन, एक बात लोगों को समझनी और पहचाननी चाहिए : इस व्यक्ति के विचार और दृष्टिकोण लगातार नकारात्मक और गलत बने रहे। उसके कष्टों की सीमा चाहे जो भी रही हो या अपना कर्तव्य निभाते हुए उसने जो भी कीमत चुकाई हो, उसने अपने अनुसरण में इन गलत विचारों और दृष्टिकोणों को बरकरार रखा। वह लगातार उनके काबू में रहा और अपनी नकारात्मक भावनाओं को अपने कर्तव्य में लाता रहा, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, जीवित रहने के बदले उसने परमेश्वर के साथ अपने कर्तव्य निर्वहन का सौदा करना चाहा। उसके अनुसरण का लक्ष्य सत्य समझना या उसे प्राप्त करना नहीं था, न ही उसका लक्ष्य परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना था। उसके अनुसरण का लक्ष्य इसके ठीक विपरीत था। वह अपनी इच्छा और जरूरतों के अनुसार जीना चाहता था, जिसका वह अनुसरण कर रहा था उसे पाना चाहता था। वह अपने भाग्य और यहाँ तक कि अपने जीवन और मृत्यु को भी खुद ही व्यवस्थित और आयोजित करना चाहता था। और इसलिए, रास्ता खत्म होने पर उसका परिणाम यह हुआ कि उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। उसे सत्य प्राप्त नहीं हुआ और आखिर में उसने परमेश्वर को नकार दिया और उसमें विश्वास खो दिया। यहाँ तक कि जब मृत्यु निकट आ गई, तब भी वो यह समझने में असफल रहा कि लोगों को कैसे जीना चाहिए और एक सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए। यही ऐसे लोगों की सबसे दयनीय और दुखद बात है। मृत्यु की कगार पर भी, वो इस बात को समझने में असफल रहा कि व्यक्ति के पूरे जीवन में, सब-कुछ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्था के अधीन है। यदि सृष्टिकर्ता चाहता है कि तुम जीवित रहो, तो भले ही तुम किसी घातक बीमारी से पीड़ित हो, तब भी तुम नहीं मरोगे। यदि सृष्टिकर्ता तुम्हारी मृत्यु चाहता है, तो भले ही तुम जवान, स्वस्थ और मजबूत हो, जब तुम्हारा समय आएगा, तो तुम्हें मरना ही होगा। सब-कुछ परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के अधीन है, यह परमेश्वर का अधिकार है, और कोई भी इससे ऊपर नहीं उठ सकता। वह इतने सरल तथ्य को समझने में असफल रहा—क्या यह दयनीय स्थिति नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर में विश्वास रखने, सभाओं में भाग लेने, धर्मोपदेश सुनने, अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखने के बावजूद उसने बार-बार इस बात को नकारा कि जीवन, मृत्यु और मनुष्य का भाग्य उसकी इच्छा के अनुसार नहीं चलता, बल्कि यह परमेश्वर के हाथों में है। कोई भी केवल इसलिए नहीं मरता क्योंकि वह मरना चाहता है, और कोई भी केवल इसलिए जीवित नहीं रहता क्योंकि वह जीना चाहता है और मृत्यु से डरता है। वह इतने सरल तथ्य को समझने में विफल रहा, आसन्न मृत्यु का सामना करने पर भी वह इसे नहीं समझ पाया और यह भी नहीं जान पाया कि किसी व्यक्ति का जीवन और मृत्यु उसके हिसाब से निर्धारित नहीं होते, बल्कि सृष्टिकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित होते हैं। क्या यह दुखद नहीं है? (दुखद है।) इसलिए, भले ही विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ लोगों को महत्वहीन लगें, लेकिन वे सभी उस रवैये में शामिल होती हैं जिसके साथ व्यक्ति सामान्य मानवता के दायरे में लोगों और चीजों को देखता है। यदि कोई व्यक्ति सामान्य मानव जीवन और अस्तित्व में होने वाली हर तरह की चीज को सकारात्मक रवैये के साथ देखता है, तो उसमें अपेक्षाकृत कम नकारात्मक भावनाएँ होंगी। यह भी कहा जा सकता है कि उसकी अंतरात्मा और विवेक अपेक्षाकृत सामान्य होगा, जिससे उसके लिए सत्य का अनुसरण करना और उसकी वास्तविकता में प्रवेश करना आसान हो जाएगा और उसके सामने आने वाली कठिनाइयों और बाधाओं में कमी आएगी। यदि किसी व्यक्ति का दिल सभी प्रकार की नकारात्मक भावनाओं से भरा हुआ है, जिसका मतलब यह है कि जीवन और अस्तित्व की चुनौतियों के प्रति अपने रवैये में वह विभिन्न नकारात्मक विचारों से भरा हुआ है, तो उसे सत्य खोजने में अधिक बाधाओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। यदि सत्य का अनुसरण करने की उसकी इच्छा प्रबल नहीं है, यदि उसमें ज्यादा उत्साह नहीं है या परमेश्वर के लिए इतनी जबरदस्त चाह नहीं है, तो सत्य का अनुसरण करने में उसके सामने अनेक कठिनाइयाँ और बाधाएँ आएँगी। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि वह सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए संघर्ष करेगा। उसके भ्रष्ट स्वभाव की गंभीरता को तो छोड़ ही दें, ये नकारात्मक भावनाएँ अकेले ही उसे बाँध लेंगी, जिससे एक-एक कदम चलना कठिन हो जाएगा। जब कुछ लोगों को घृणा, क्रोध, विभिन्न प्रकार की पीड़ा या अन्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो उनके मन में जो अलग-अलग विचार आते हैं, वे नकारात्मक होते हैं। यानी लगभग हर मामले में उनकी मनोदशा पर हमेशा नकारात्मक भावनाएँ हावी रहती हैं। यदि तुममें इन नकारात्मक भावनाओं को दूर करने और नकारात्मक भावनाओं की इस मनोदशा से उभरने के लिए जरूरी दृढ़-संकल्प और दृढ़ता की कमी है, तो तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना बेहद चुनौतीपूर्ण होगा। यह आसान नहीं होगा। इसका मतलब यह है कि सत्य का अनुसरण करने की वास्तविकता में प्रवेश करने से पहले, लोगों के पास पहले सामान्य मानवता से संबंधित हर समस्या के संबंध में सबसे बुनियादी सही विचार, दृष्टिकोण और रुख होना चाहिए। तभी वे सत्य को समझ और स्वीकार करके धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकेंगे। सत्य का औपचारिक रूप से अनुसरण करने से पहले, तुम्हें पहले अपनी विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का समाधान करते हुए इस चरण को पार करना होगा। एक बार जब लोग इस चरण को पार कर लेंगे और विभिन्न मामलों से संबंधित उनके विचार और दृष्टिकोण लोगों और चीजों को देखने के उनके परिप्रेक्ष्य और रुख, सभी सही हो जाएँगे, तो सत्य का अनुसरण करना और वास्तविकता में प्रवेश करना उनके लिए आसान हो जाएगा।

लोगों में दमन की नकारात्मक भावना क्यों उभरती है, पिछली बार हमने इसके एक कारण के बारे में संगति की थी। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे मनमर्जी नहीं कर सकते हैं। आज हम दमन की इस नकारात्मक भावना के उभरने के दूसरे कारण पर संगति करना जारी रखेंगे, यानी लोग अक्सर इस दमनकारी भावना में इसलिए रहते हैं क्योंकि वे अपनी विशेषज्ञता का उपयोग नहीं कर पाते। क्या यह दूसरा कारण नहीं है? (हाँ, है।) पिछली बार, हमने इस बारे में बात की थी कि कैसे कुछ लोग अक्सर कलीसिया में या अपने दैनिक जीवन में अपनी मनमर्जी करना चाहते हैं, काम में टालमटोल करते हैं और अपना उचित काम करने में असफल रहते हैं, ऐसे में जब उनकी इच्छाएँ अधूरी रह जाती हैं, तो वे दमित महसूस करते हैं। इस बार, हम लोगों के दूसरे समूह की अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करेंगे। इन लोगों के पास कुछ विशेष गुण, खूबियाँ या पेशेवर कौशल और क्षमताएँ होती हैं या उन्होंने किसी विशेष प्रकार के तकनीकी पेशे वगैरह में महारत हासिल की होती है, फिर भी वे कलीसिया के भीतर सामान्य रूप से अपने गुणों, खूबियों और पेशेवर कौशल का उपयोग करने में असमर्थ होते हैं, और इस वजह से, वे अक्सर निराश रहते हैं, महसूस करते हैं कि इस माहौल में जीवन असहज और दुखदायी है, और वे खुश नहीं रहते हैं। संक्षेप में, इस भावना का वर्णन करने वाला शब्द दमन है। सांसारिक समाज में, ऐसे लोगों को क्या कहा जाता है? उन्हें पेशेवर, तकनीकी विशेषज्ञ और विशेष जानकार कहा जाता है—संक्षेप में, उन्हें विशेषज्ञ कहा जाता है। विशेषज्ञों के पास क्या विशेषताएँ होती हैं? उनका माथा ऊँचा और आँखें चमकीली होती हैं, वे चश्मा पहनते हैं और अपना सिर ऊँचा रखते हैं, तेज चलते हैं, मामलों को निर्णायक रूप से और कुशलता से संभालते हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे जहाँ भी जाते हैं अपने बैग में लैपटॉप रखते हैं। वे देखते ही पेशेवर और तकनीकी विशेषज्ञ के रूप में पहचान लिए जाते हैं। संक्षेप में, इस तरह के लोगों में कुछ पेशेवर योग्यताएँ होती हैं या वे किसी विशेष प्रकार की तकनीक में बहुत कुशल होते हैं। उन्होंने पेशेवर शिक्षा और प्रशिक्षण हासिल किया होता है, वे पेशेवर निर्देशों और प्रशिक्षण से गुजरे होते हैं, या उनमें से कुछ ने पेशेवर शिक्षण और प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया होता, लेकिन फिर भी वे कुछ प्रतिभाओं और काबिलियत के साथ पैदा होते हैं। ऐसे लोग पेशेवर और तकनीकी विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। जब ऐसे लोग कलीसिया में शामिल होते हैं, तो जैसे समाज में करते हैं, वैसे ही, वे अक्सर अपना लैपटॉप साथ रखते हैं और जहाँ भी काम करते हैं वहाँ पेशेवर और तकनीकी विशेषज्ञों के रूप में पहचाने जाना चाहते हैं। उन्हें विशेषज्ञ कहलाना अच्छा लगता है और यहाँ तक कि अपने उपनामों के आगे “प्रोफेसर” जैसे शब्द जोड़ना पसंद करते हैं; जब उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है और उन्हें इस तरह संबोधित किया जाता है तो उन्हें अच्छा लगता है। हालाँकि, कलीसिया एक विशेष स्थान है जहाँ विशेष कार्य किया जाता है। यह सांसारिक समाज के किसी भी समूह या संगठन या संस्था से अलग है। यहाँ आम तौर पर किस चीज पर चर्चा की जाती है? सत्य, सिद्धांत, नियम और कार्य व्यवस्थाओं के साथ ही परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने और परमेश्वर की गवाही देने पर। बेशक, स्पष्टता से कहें, तो लोगों से सत्य का अभ्यास करने, परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के प्रति समर्पित होने, और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं और उसके द्वारा निर्देशित सिद्धांतों के प्रति समर्पण करने की भी अपेक्षा की जाती है। जैसे ही इन स्पष्ट नियमों को बढ़ावा दिया जाता है, लोगों से उनका अभ्यास और पालन करने की अपेक्षा की जाती है, तो कलीसिया में शामिल हुए इन विशेषज्ञों को लगता है कि उनके साथ कुछ गलत हो रहा है। उन्होंने जो कौशल सीखा है या कुछ खास क्षेत्रों में जो ज्ञान उनके पास है, वह अक्सर कलीसिया में व्यर्थ चला जाता है। उन्हें आम तौर पर महत्वपूर्ण पदों पर नहीं रखा जाता है या उच्च सम्मान नहीं दिया जाता है, और उन्हें अक्सर किनारे कर दिया जाता है। स्वाभाविक रूप से, ये लोग अक्सर अकेला महसूस करते हैं, और उन्हें लगता है कि उनकी क्षमताओं का उपयोग नहीं किया जा रहा है। वे क्या सोचते हैं? “अरे, यह तो बिल्कुल उस कहावत जैसा है, ‘जब कोई शेर मैदानी इलाके में आता है, तो कुत्ते भी उसका अपमान करते हैं!’ उन दिनों जब मैं फलाँ सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी के लिए या फलाँ विदेशी कंपनी के लिए काम करता था, तो वहाँ कितना सम्मान था! मुझे अपना बैग भी नहीं उठाना पड़ता था, दूसरे लोग मेरे दैनिक जीवन और काम के हर पहलू की व्यवस्था करते थे। मुझे किसी भी चीज के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं थी। मैं एक उच्च स्तर का विशेषज्ञ, एक माहिर तकनीशियन था, इसलिए कंपनी के लिए मैं एक ऊँची हस्ती था। ऊँची हस्ती होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि मेरे बिना, कंपनी काम नहीं कर सकती थी, उसे कोई ऑर्डर भी नहीं मिलते, और उसके सभी कर्मचारियों को छुट्टी लेनी पड़ती—कंपनी का व्यवसाय ठप होने का खतरा बना रहता, मेरे बिना उसका काम नहीं चलता। वे गौरवशाली दिन थे, एक ऐसा समय था जब मुझे लगता था कि मेरी अहमियत है!” अब परमेश्वर में विश्वास रखते के बाद, भी, वे उसी स्तर के गौरव का आनंद उठाना चाहते हैं। वे मन में सोचते हैं, “मेरी क्षमताओं के साथ, परमेश्वर के घर में चमकने के लिए मेरे लिए और भी अधिक जगह होनी चाहिए। तो मेरा उपयोग क्यों नहीं किया जा रहा है? कलीसिया में अगुआ और भाई-बहन हमेशा मुझे नजरंदाज क्यों करते हैं? दूसरों की तुलना में मुझमें क्या कमी है? शक्ल-सूरत के मामले में, मैं अच्छा दिखता हूँ; स्वभाव के मामले में, मैं किसी और से बुरा नहीं हूँ; सम्मान और प्रतिष्ठा के मामले में मुझे कोई समस्या नहीं है; और तकनीकी विशेषज्ञता के मामले में, मुझे महारत हासिल है। तो कोई मुझ पर ध्यान क्यों नहीं देता? मेरी बातें और सुझाव कोई क्यों नहीं सुनता? परमेश्वर के घर में मेरा स्वागत क्यों नहीं होता? क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर के घर को मेरे जैसे विशेषज्ञ की आवश्यकता ही नहीं है? जब से यहाँ आया हूँ, मुझे अपने कौशल का उपयोग करने के लिए कोई जगह क्यों नहीं मिल रही? परमेश्वर के घर के कार्य के किसी एक पहलू के लिए तो उस तकनीकी कौशल की आवश्यकता होगी जो मैंने सीखा है। यहाँ मेरी विशेषज्ञता को अहमियत दी जानी चाहिए! मैं एक पेशेवर हूँ, मुझे टीम अगुआ, सुपरवाइजर या अगुआ होना चाहिए—मुझे अन्य लोगों की अगुआई करनी चाहिए। मैं हमेशा निचले पद पर क्यों रहता हूँ? कोई मुझ पर ध्यान नहीं देता, कोई मेरा सम्मान नहीं करता। यह क्या हो रहा है? यदि मैं सत्य नहीं समझता तो क्या वास्तव में मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिए?” वे खुद से ये सवाल बार-बार पूछते हैं, लेकिन उन्हें कभी जवाब नहीं मिल पाता और इसलिए वे दमित महसूस करते हैं।

एक बार जब गायक मंडली भजन गाने के लिए मंच पर आई, तो उन्होंने मुझसे उनकी हेयर स्टाइल के बारे में पूछा। मैंने कहा, “बहनें अपने बालों को पोनीटेल में बाँध सकती हैं या उन्हें कान या कंधे की लंबाई तक कटवा सकती हैं। बेशक, वे अपने बालों का जूड़ा भी बना सकती हैं या उसे ऊपर करके भी बाँध सकती हैं। भाई क्रू कट कर सकते हैं या मांग निकालकर बाल बना सकते हैं। इसमें किसी साज-सज्जा या स्टाइल की जरूरत नहीं है। बस यह ध्यान रखना कि बाल साफ-सुथरे, तराशे हुए और स्वाभाविक दिखें। संक्षेप में, अगर तुम ईमानदार और मर्यादित दिखते हो, और एक ईसाई जैसे दिखते हो, तो सब ठीक है। मुख्य बात अच्छे से गाना और कार्यक्रम प्रस्तुत करना है।” क्या मेरी बात स्पष्ट थी? क्या उसे समझना आसान था? (हाँ।) पुरुषों और महिलाओं, दोनों के लिए हेयर स्टाइल स्पष्ट कर दी गई थी। हेयर स्टाइल चुनने के सिद्धांत क्या हैं? भाई मांग निकालकर बाल बना सकते हैं या क्रू कट रख सकते हैं, और बहनें छोटे या लंबे बाल रख सकती हैं। यदि बाल लंबे हैं, तो वे इसे पोनीटेल में बाँध सकती हैं, और छोटे हैं, तो ध्यान रहे कि ये ज्यादा छोटे न हों। यह एक सिद्धांत है। दूसरा सिद्धांत है साफ और सुव्यवस्थित होने का, ऐसा रूप-रंग जो सकारात्मक और गरिमापूर्ण हो, और चरित्र सकारात्मक हो। हमारा मकसद समाज की कोई बड़ी हस्ती या मशहूर व्यक्ति बनना नहीं है। हम कोई आकर्षक छवि नहीं चाहते, बस एक ईमानदार और गौरवशाली रूप-रंग रखना चाहते हैं। संक्षेप में, व्यक्ति को साफ-सुथरा, ईमानदार और गौरवशाली दिखना चाहिए। क्या मेरी बात स्पष्ट है? क्या इन दोनों सिद्धांतों को समझना और लागू करना आसान है? (आसान है।) इन्हें एक बार सुन लेने के बाद, लोग अपने दिलों में इन्हें स्पष्टता से समझ जाते हैं, और उन्हें दोहराने की कोई आवश्यकता नहीं होती। उन सभी को लागू करना बहुत आसान होता है। करीब दस दिनों के बाद, उन्होंने मुझे एक वीडियो भेजा। उस वीडियो में मैंने बहनों को तीन या चार कतारों में खड़ी देखा। पहली कतार में सबके बाल करीने से सँवारे हुए थे, हर किसी की हेयर स्टाइल और बालों की सज्जा अलग थी। हर बहन अलग दिख रही थी, हर किसी की बालों की शैली अजीब लग रही थी, और बीस-पच्चीस बरस की कुछ बहनें करीब पैंतीस से पैंतालीस बरस की दिख रही थीं, और कुछ तो बुजुर्ग महिलाओं जैसी लग रही थीं। संक्षेप में, हरेक की हेयर स्टाइल अलग थी। वीडियो भेजने वाले व्यक्ति ने कहा, “हमने आपके चुनने के लिए कई अलग-अलग हेयर स्टाइल की व्यवस्था की है। आप उनमें से किसी एक को चुन सकते हैं, और हम उसे इस्तेमाल कर लेंगे। यह हमारे लिए मुश्किल नहीं होगा! अपना फैसला करके बस हमें बता दीजिए और हम कर देंगे, कोई दिक्कत नहीं है!” तुम लोगों को क्या लगता है, यह वीडियो देखकर मुझे कैसा लगा होगा? मुझे थोड़ी घृणा महसूस हुई, फिर बारीकी से जाँचने पर मुझे गुस्सा आने लगा। जब मुझे वे सिद्धांत याद आए जो मैंने उन्हें समझाए थे, तो मैं कुछ बोल ही न पाया। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ। मैंने सोचा, “अरे, ये लोग इंसानी भाषा नहीं समझते।” मैंने उन शब्दों पर विचार किया जो मैंने कहे थे और जो सिद्धांत मैंने उन्हें बताए थे, वे ऐसी चीजें थीं जिन्हें कोई भी समझ-बूझ सकता था। ऐसी सरल चीजें लोगों के लिए कठिन नहीं थीं, और वे उन्हें कर सकते थे—फिर उन्होंने मुझे ऐसा वीडियो क्यों भेजा? छानबीन करने के बाद, मुझे समझ आया कि ऐसा नहीं था कि मैंने अपनी बात स्पष्ट नहीं की थी, और ऐसा तो बिल्कुल नहीं था कि मैंने उन्हें विभिन्न अलग-अलग हेयर स्टाइल बनाने के लिए कहा था। इस व्यवहार के दो कारण हैं : एक कारण यह है कि वे मेरी बात नहीं समझ पाए। दूसरा कारण यह है कि जैसे ही लोग कुछ करने में सक्षम होते हैं, जैसे ही वे कुछ समझते हैं और कुछ कौशल और तकनीकों में महारत हासिल कर लेते हैं, तो वे संसार में अपनी जगह भूल जाते हैं। वे किसी का सम्मान नहीं करते और हमेशा दिखावा करना चाहते हैं। वे बेहद अहंकारी हो जाते हैं। यदि वे मेरी बातें समझते भी हैं, तो उन्हें स्वीकार नहीं करते या उन्हें अभ्यास में नहीं लाते हैं। वे मेरी बातों को दिल में नहीं उतारते, उन्हें महत्वपूर्ण नहीं मानते, और मेरी बातों को सीधे नजरंदाज कर देते हैं। मैं उनसे जो करने को कहता हूँ या जो कराना चाहता हूँ उसमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती है। जब उन्होंने मुझसे सिद्धांतों के बारे में पूछा, तो वास्तव में उन्होंने पहले ही तय कर लिया था कि वे क्या और कैसे करेंगे। उनका मेरी राय माँगना उनकी प्रक्रिया का बस एक हिस्सा था। क्या उनका यह पूछना एक प्रकार से मजाक उड़ाना नहीं है? (है।) वे जब मजाक उड़ा लेते हैं, फिर चाहे मैंने कुछ भी कहा हो, अंत में उन्होंने अपनी मनमर्जी ही चलाई और मेरी बात बिल्कुल नहीं मानी। वे इतने मनमाने निकले! उनके मन में क्या चल रहा था? “तुम हमें कमतर समझते हो। हम पेशेवर तकनीशियन हैं। हम समाज के प्रभावशाली लोगों के साथ कामकाज करते हैं। हमारे पास ये कौशल और महारत है, और हम जहाँ भी जाएँ, वहाँ एक अच्छा जीवन जी सकते हैं और लोगों का सम्मान पा सकते हैं। परमेश्वर के घर में आकर ही हम सेवाकर्मी बन जाते हैं, और हमें लगातार नीची नजरों से देखा जाता है। हमारे पास कौशल है, हम विशेषज्ञ हैं, हम सामान्य लोगों जैसे नहीं हैं। परमेश्वर के घर में हमारा सम्मान होना चाहिए। तुम हमारी प्रतिभा को इस तरह दबा नहीं सकते। हम परमेश्वर के घर में अपनी विशेषज्ञता का उपयोग करते हैं, और तुम्हें हमारा समर्थन और सहयोग करना चाहिए।” क्या यह अभद्र और अनुचित नहीं है? (हाँ।) क्या इसमें कोई सामान्य मानवता है? (नहीं, नहीं है।) इसे देखने के बाद मैंने सोचा, “ओह, इन लोगों के साथ बहस करना बेकार है!” जब मैंने उन्हें सिद्धांत बताए, तो मैंने उनसे बार-बार पूछा भी, “क्या तुम समझ गए? क्या तुम इसे याद रखोगे?” उन्होंने मुझसे वादा किया कि वे इसे याद रखेंगे, लेकिन फिर जैसे ही वे पीछे मुड़े, तुरंत अपनी बात से मुकर गए। वे ऐसी बातें कहते हैं जो सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं, “मैं यहाँ अपना कर्तव्य निभाने के लिए हूँ, मैं यहाँ परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए हूँ।” क्या इसे ही तुम अपना कर्तव्य निभाना कहते हो? क्या तुम वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो? तुम अपनी देह को, अपनी प्रतिष्ठा को संतुष्ट कर रहे हो। तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए नहीं, बल्कि अपना करियर बनाने के लिए यहाँ हो। दूसरे शब्दों में, तुम भारी अव्यवस्था पैदा करने के लिए परमेश्वर के घर में आए हो। मुझे बताओ, परमेश्वर के घर के कार्य के सभी पहलुओं में लोगों को जिन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, उन पर अंतिम निर्णय किसका होता है? तुम्हारा या परमेश्वर का? (अंतिम निर्णय परमेश्वर का होता है।) तुम्हारी बातें सत्य हैं या परमेश्वर के वचन? (परमेश्वर के वचन सत्य हैं।) जो भी तुम लोग कहते हो वह एक प्रकार का धर्म-सिद्धांत है। यदि वह धर्म-सिद्धांत सत्य से मेल नहीं खाता है, तो वह भ्रांति बन जाता है। चूँकि तुम लोग यह मानते हो कि मैं जो कहता हूँ वह सत्य है, तो फिर उसे स्वीकारने में असमर्थ क्यों हो? मेरी बातों का तुम लोगों पर कोई असर क्यों नहीं होता है? तुम लोग मेरे सामने तो अच्छी बातें कहते हो, लेकिन मेरी पीठ पीछे सत्य का अभ्यास नहीं करते। यह क्या चल रहा है? जब भ्रष्ट मनुष्यों के पास थोड़ी-सी भी प्रतिभा, विशेषज्ञता या विचार हों, तो वे अहंकारी और दंभी बन जाते हैं और किसी का भी कहना मानने से इनकार कर देते हैं। वे किसी की बात नहीं सुनते। क्या यह बेहद बेतुकी बात नहीं है? यदि तुम लोगों को लगता है कि तुम जो कर रहे हो वह सही है, तो तुम मुझे उसकी जाँच क्यों करने देते हो? जब मैं तुम लोगों की कमियाँ बताता हूँ और तुम्हारी गलतियाँ उजागर करता हूँ, तो तुम लोग इसे स्वीकार क्यों नहीं कर पाते हो? तुम लोग सत्य नहीं समझते, लेकिन मैं सत्य के बारे में तुम्हारे साथ संगति कर सकता हूँ। मैं सत्य के अनुरूप, सिद्धांतों के अनुरूप, संतों जैसी शालीनता के साथ कार्य करना जानता हूँ। मैं जानता हूँ कि इस तरह से कैसे कार्य करना है जिससे दूसरों को सीख मिले। क्या तुम सब यह जानते हो? यदि तुम ये बातें भी नहीं जानते, तो सत्य स्वीकारने में असमर्थ क्यों हो? जैसा मैं कहता हूँ तुम वैसा क्यों नहीं करते?

कुछ लोग बहुत अच्छा लिखते हैं; उनमें स्वाभाविक रूप से भाषा को व्यवस्थित करने और विचारों को संप्रेषित करने का गुण होता है। उनके पास एक विशेष स्तर की साहित्यिक क्षमता भी हो सकती है, जिससे वे चीजों का वर्णन करते हुए कुछ तकनीकों और शैलियों का उपयोग करते हैं। लेकिन क्या ये गुण होने का मतलब यह है कि वे सत्य समझते हैं? (नहीं, ऐसा नहीं है।) यह ज्ञान का बस एक पहलू है, किसी व्यक्ति के गुणों और प्रतिभाओं का एक पहलू है। इसका मतलब है कि तुम्हारे पास एक खास प्रतिभा है, तुम लिखने और भाषा के माध्यम से विचार व्यक्त करने में अच्छे हो, और तुम शब्दों के उपयोग में भी माहिर हो। ऐसी चीजों में अच्छा होना कुछ लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर देता है, “मैं परमेश्वर के घर में कलम चलाता हूँ; मुझे पाठ्य-सामग्री आधारित कार्य में शामिल होना चाहिए।” पाठ्य-सामग्री आधारित कार्य में अधिक लोगों को शामिल करना अच्छी बात है; परमेश्वर के घर को इसकी आवश्यकता है। हालाँकि, परमेश्वर के घर को केवल उसकी जरूरत नहीं है जिसमें तुम माहिर हो, न ही इसे सिर्फ तुम्हारी पेशेवर काबिलियत की जरूरत है। तुम्हारे पेशेवर कौशल और विशेषज्ञता उस कार्य के लिए उपकरण मात्र हैं जिससे तुम जुड़े हुए हो। तुम्हारी पेशेवर क्षमताएँ और कौशल का स्तर चाहे जो भी हो, तुम्हें परमेश्वर के घर के अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार खुद को ढालना चाहिए और परमेश्वर के घर द्वारा निर्धारित वांछित नतीजे और लक्ष्य हासिल करने चाहिए। परमेश्वर के घर में इन नतीजों और लक्ष्यों के लिए आवश्यक मानक और संबंधित सिद्धांत हैं; यह तुम्हें अपनी पसंद या प्राथमिकताओं के आधार पर कार्य करने की अनुमति नहीं देता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों में अच्छा लेखन कौशल होता है, और वे सजावटी भाषा और सजीव और व्यवस्थित कथानक वाली स्क्रिप्ट लिखते हैं। लेकिन क्या इससे इच्छित परिणाम प्राप्त होता है? परमेश्वर की गवाही देने के प्रभाव को हासिल करना तो दूर, ऐसी स्क्रिप्ट कहीं टिकती ही नहीं है। हालाँकि, ये स्क्रिप्ट राइटर दिलचस्प भाषा में लिखने की अपनी क्षमता से संतुष्ट और आश्वस्त महसूस करते हैं, और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। लेकिन वे यह नहीं समझते कि एक स्क्रिप्ट को परमेश्वर की गवाही देने, परमेश्वर का वचन फैलाने का प्रभाव प्राप्त करना चाहिए। यही लक्ष्य है। परमेश्वर का घर यह अपेक्षा करता है कि स्क्रिप्ट में परमेश्वर के उन वचनों का वर्णन होना चाहिए जिन्हें नायक पढ़ता है और इसमें ऐसी वास्तविक समझ होनी चाहिए जो नायक परमेश्वर के कार्य के मार्गदर्शन में परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास करके प्राप्त करता है। एक ओर इसे परमेश्वर की गवाही के रूप में काम करना चाहिए, तो दूसरी ओर इसे परमेश्वर के वचन फैलाने चाहिए। तभी स्क्रिप्ट वांछित नतीजा प्राप्त करती है। परमेश्वर के घर की यही अपेक्षाएँ हैं। क्या तुम सबको लगता है कि इससे लोगों के लिए चीजें कठिन हो जाती हैं? (नहीं, ऐसा नहीं होता है।) नहीं, यह परमेश्वर के घर का कार्य है। हालाँकि, ये स्क्रिप्ट राइटर इस तरह से काम करने को तैयार नहीं होते हैं। उनका रवैया कुछ ऐसा होता है, “मैंने जो लिखा है वह पहले से ही सही और पर्याप्त रूप से विशिष्ट है। यदि तुम मुझे इसमें वह सामग्री जोड़ने के लिए कहोगे, तो यह जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं होगा। मैं इससे खुश नहीं हूँ, और मैं इसे इस तरह लिखना नहीं चाहता।” भले ही वे बाद में यह सामग्री अनिच्छा से इसमें जोड़ दें, लेकिन तब तक उनकी भावनाएँ काफी बदल चुकी होती हैं। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना बहुत दमनकारी लगता है। लोग हमेशा हमारी काट-छाँट करते हैं और हमारी गलतियाँ निकालते हैं। मैं बहुत चिंतित हो जाता हूँ, लेकिन कहावत है ना कि भिखारी अपनी पसंद नहीं चुन सकते। यदि आखिरी फैसला मेरा होता और मैं जो चाहूँ वो लिख सकता, तो कितना अच्छा होता! परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हुए हमें हमेशा दूसरों की बात सुननी पड़ती है और अपनी काट-छाँट स्वीकारनी पड़ती है। यह बहुत दमनकारी है!” क्या यह सही रवैया है? यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह बहुत अहंकारी और दंभी स्वभाव है! गायक मंडली में वे लोग भी होते हैं जो मेकअप करने का कर्तव्य निभाते हैं। उन्हें अविश्वासियों के हेयर स्टाइल पसंद हैं, लेकिन उन हेयर स्टाइल का अंतिम नतीजा ठुकरा दिया जाता है। ऐसा क्यों? क्योंकि परमेश्वर का घर राक्षसों जैसा हेयर स्टाइल नहीं चाहता; वह ऐसे हेयर स्टाइल चाहता है जो सामान्य, मर्यादित और सधे हुए हों। तुम चाहे जो भी हेयर स्टाइल बनाने में सक्षम हो, उसे अविश्वासियों के संसार में जाकर दिखा सकते हो। उन्हें ऐसे विशेषज्ञों की जरूरत है, लेकिन परमेश्वर के घर को नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि वे परमेश्वर के घर में मुफ्त में ये हेयरस्टाइल तैयार को तैयार हैं, लेकिन तब भी यह वांछित या सराहनीय नहीं है; यह देखना घिनौना है। परमेश्वर का घर तुमसे एक सभ्य व्यक्ति की तरह गरिमामय और ईमानदार दिखने की अपेक्षा करता है। यह तुमसे आकर्षक लगने, महलों में रहने वाले कुलीन लोगों जैसा दिखने, और यकीनन किसी राजकुमारी, किसी संभ्रांत महिला, किसी अमीर युवा मालिक या स्वामी जैसा दिखने की अपेक्षा नहीं करता है। हम सामान्य लोग हैं, हमारा कोई रुतबा, ओहदा, या मूल्य नहीं है, हम सबसे सामान्य और साधारण लोग हैं। कुलीन या परिष्कृत होने के बजाय एक साधारण व्यक्ति बनना, साधारण कपड़े पहनना और एक साधारण व्यक्ति की तरह दिखना, दिखावा न करना, बल्कि जो भी तुम करने में सक्षम हो उसका आनंद लेना और बिना महत्वकांक्षा या इच्छा के एक साधारण व्यक्ति का जीवन जीकर संतुष्ट रहना सबसे अच्छा है। यह सर्वोत्तम है, यही सामान्य मानवता वाले व्यक्ति का जीवन है। तुम बस एक साधारण व्यक्ति हो, फिर भी तुम हमेशा एक कुलीन व्यक्ति जैसा व्यवहार करने का प्रयास करते रहते हो। क्या यह घिनौना नहीं है? (यह घिनौना है।) तुम हमेशा परमेश्वर के घर में अपनी विशेषज्ञता प्रदर्शित करने और दिखावा करने की कोशिश करते हो। मैं तुम्हें बता दूँ, क्या अपनी विशेषज्ञता का प्रदर्शन करना मूल्यवान है? यदि इसका वास्तव में कोई मूल्य है, तो यह स्वीकार्य है। लेकिन यदि इसका कोई मूल्य नहीं है और इसके बजाय यह विघटनकारी और विनाशकारी बन जाता है, तो तुम केवल अपनी घिनौनी प्रकृति और अनचाहे गुण दिखा रहे हो। क्या तुम्हें ऐसी चीजें उजागर करने के परिणाम पता हैं? यदि तुम्हें नहीं पता तो उन्हें उजागर भी मत करो। तुम क्या कर सकते हो, तुम्हारे पास कौन-से तकनीकी कौशल हैं, तुम किन विशेष प्रतिभाओं में स्वाभाविक रूप से उत्कृष्ट हो या कौन-सी प्रतिभाएँ तुम्हारे पास हैं, इनमें से कुछ भी कुलीन नहीं माना जाता है; तुम महज एक साधारण व्यक्ति हो। कुछ लोग कहते हैं, “मैं कई भाषाओं में माहिर हूँ।” तो फिर जाओ, एक अनुवादक के रूप में काम करो और अपना अनुवाद का कार्य अच्छे से करो; तब तुम्हें एक अच्छा इंसान माना जा सकता है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं पूरी शिन्हुआ डिक्शनरी सुना सकता हूँ।” तो क्या हुआ यदि तुमने पूरी शिन्हुआ डिक्शनरी याद कर ली है? क्या यह तुम्हें सुसमाचार फैलाने में सक्षम बनाता है? क्या यह तुम्हें परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम बनाता है? कुछ लोग कहते हैं, “मैं एक बार में दस पंक्तियाँ पढ़ सकता हूँ। मैं एक दिन में परमेश्वर के वचन के 100 पन्ने पढ़ सकता हूँ। इस कौशल को देखो, क्या यह प्रभावशाली नहीं है?” तुम एक दिन में “वचन देह में प्रकट होता है” के 100 पन्ने पढ़ने में सक्षम हो सकते हो, लेकिन क्या तुम इससे कुछ समझ पाते हो? तुम सत्य का कौन-सा पहलू समझ पाते हो? क्या तुम इसे अभ्यास में ला सकते हो? कुछ लोग कहते हैं, “मैं बचपन से ही प्रतिभाशाली हूँ। मैं पाँच साल की उम्र में ही कविताएँ गाने और लिखने में सक्षम था।” क्या यह उपयोगी है? हो सकता है कि अविश्वासी तुम्हारी प्रशंसा करें, लेकिन परमेश्वर के घर में तुम्हारा कोई उपयोग नहीं है। मान लो कि मैं तुम्हें अभी परमेश्वर की स्तुति वाला एक भजन लिखने के लिए कहता हूँ। क्या तुम यह कर सकोगे? यदि नहीं कर सकते, तो इसका मतलब है कि तुम सत्य का कोई भी पहलू नहीं समझते हो। सिर्फ गुण होना कोई बड़ी बात नहीं है। यदि तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम कुछ भी हासिल नहीं कर पाओगे। किसी व्यक्ति के पास चाहे जो भी गुण, कौशल या प्रतिभा हो, वास्तव में ये साधन मात्र हैं। यदि उनका उपयोग सकारात्मक चीजों के लिए किया जा सकता है और उनका सकारात्मक प्रभाव हो सकता है, तो कहा जा सकता है कि उनका कुछ मूल्य है। यदि उनका उपयोग सकारात्मक चीजों के लिए नहीं किया जा सकता या वे सकारात्मक प्रभाव नहीं डाल सकते, तो उनका कोई मूल्य नहीं है, और उन्हें सीखना तुम्हारे लिए बेकार और बोझिल है। यदि तुम अपने पेशेवर कौशल या प्रतिभा को अपने कर्तव्य निर्वहन में इस्तेमाल कर सकते हो और सत्य सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर के घर में कोई कार्य पूरा कर सकते हो, तो यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे पेशेवर कौशल और प्रतिभा का उचित स्थान पर और एक उद्देश्य को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया गया है—यही उनका मूल्य है। दूसरी ओर, यदि तुम उन्हें अपने कर्तव्य निर्वहन में इनका बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं कर सकते, तो तुम्हारे पेशेवर कौशल और प्रतिभा का कोई मूल्य नहीं है और मेरे लिए उनका कोई महत्व नहीं है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग स्वाभाविक रूप से वाक्पटु होते हैं और स्पष्टता से बोल पाते हैं, और वे कुशल भाषाविद् होते हैंऔर तेजी से सोच पाते हैं। इसे एक प्रतिभा माना जा सकता है। संसार में, यदि इस तरह के लोग सार्वजनिक भाषण, प्रचार या बातचीत में शामिल होते हैं, या न्यायाधीश, वकील या इसी तरह के पेशों में काम करते हैं, तो वहाँ उनकी प्रतिभाओं के लिए एक स्थान होता है। हालाँकि, परमेश्वर के घर में, यदि तुम्हारे पास ऐसी प्रतिभा है, लेकिन तुम सत्य के किसी भी पहलू को नहीं समझते, यहाँ तक कि दर्शनों के सत्य की बुनियादी समझ भी नहीं रखते, और सुसमाचार प्रचार नहीं कर सकते या परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते, तो तुम्हारे गुण या प्रतिभा का कोई मूल्य नहीं है। यदि तुम लगातार अपने गुणों के आधार पर जीते हो, जहाँ भी जाते हो अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हो, शेखी बघारते हो और शब्द और धर्म-सिद्धांत का प्रचार करते हो, तो तुम लोगों के लिए घृणित बन जाओगे। क्योंकि तुम्हारे कहे हरेक शब्द से उबकाई आएगी, और तुम्हारा व्यक्त किया गया हरेक विचार या दृष्टिकोण थका देगा। उस स्थिति में, तुम्हारे लिए चुप रहना ही बेहतर होगा। जितना अधिक तुम खुद को दिखाने और प्रदर्शन करने की कोशिश करोगे, तुम उतने ही अधिक घृणित होते जाओगे। लोग कहेंगे, “अपना गंदा मुँह बंद ही रखो! तुम्हारी सारी बातें धर्म-सिद्धांत मात्र हैं, लेकिन कौन इसे पहले से नहीं समझता? तुम कितने वर्षों से प्रवचन दे रहे हो? तुम्हारे शब्द फरीसियों के शब्दों से अलग नहीं हैं, वे कलीसिया के माहौल को प्रदूषित करने वाले खोखले सिद्धांतों से भरे हुए हैं। इन्हें कोई सुनना नहीं चाहता!” देखा तुमने, यह गुस्सा भड़काता है और लोगों को दूर करता है। इसलिए, तुम्हारे लिए बेहतर है कि तुम सत्य पर ज्यादा ध्यान दो और सत्य की अधिक समझ हासिल करने का प्रयास करो, और यही सच्ची क्षमता है। जितना अधिक मैं यह कहता हूँ, उतना ही अधिक ये “सक्षम” और “विशेषज्ञ” लोग दमित महसूस करते हैं; वे सोचते हैं, “अब सब खत्म हो गया है, कोई रास्ता नहीं बचा है। मैंने हमेशा अपने आप को प्रतिभाशाली, उत्कृष्ट माना है और मैं जहाँ भी जाता हूँ, मुझे प्रमुख पदों पर रखा जाता है। वो कहावत है न, ‘अगर यह सोना है, फिर आज नहीं तो कल जरूर चमकेगा’? लेकिन अप्रत्याशित रूप से परमेश्वर के घर में मेरे सारे रास्ते बंद हो गए हैं। यह दमनकारी लगता है, बहुत दमनकारी! मेरे साथ ऐसा कैसे हो गया?” परमेश्वर में विश्वास रखना अच्छी बात है, तो जब ऐसे असाधारण प्रतिभाशाली और उन्नत विशेषज्ञ परमेश्वर के घर में आते हैं, तो वे दमित क्यों महसूस करते हैं? वे इतने वर्षों से दमित महसूस कर रहे हैं कि अब अवसाद से पीड़ित हो गए हैं। वे अब बोलना या व्यवहार करना भी नहीं जानते। अंत में, कुछ लोग कहते हैं, “लगातार काट-छाँट बहुत दमनकारी लगती है। अब मेरा व्यवहार बहुत अच्छा हो गया है, और कलीसिया के अगुआ या समूह के अगुआ जो भी कहते हैं, मैं उससे सहमत हो जाता हूँ और हमेशा ‘हाँ’ या ‘ठीक है’ में जवाब देता हूँ।” ऐसा लग सकता है कि उन्होंने समर्पण और आज्ञा का पालन करना सीख लिया है, लेकिन वे अभी भी सिद्धांतों को या अपने कर्तव्यों को ठीक से पूरा करने का तरीका नहीं समझते हैं। वे दमन की इस भावना को अपने साथ लेकर चलते हैं और खुद को अपमानित महसूस करते हैं उन्हें लगता है कि उन्हें कम आँका जा रहा है। जब उनसे उनकी शिक्षा के स्तर के बारे में पूछा जाता है, तो कुछ लोग कहते हैं, “मुझे स्नातक की डिग्री प्राप्त है,” दूसरे कहते हैं, “मैंने स्नातकोत्तर की डिग्री ली है,” अन्य लोग कहते हैं, “मेरे पास पीएच.डी. की डिग्री है,” या “मैंने मेडिकल स्कूल से ग्रेजुएशन किया है,” “मैंने फाइनेंस का अध्ययन किया है,” या “मैंने प्रबंधन का अध्ययन किया है,” जबकि अन्य लोग प्रोग्रामर या इंजीनियर होते हैं। यदि उनके नाम के आगे पहले से ही “डॉ.” नहीं लगा है, तो उनके नाम के आगे कोई अन्य औपचारिक उपाधि होती है। इन लोगों को परमेश्वर के घर में इस तरह संबोधित नहीं किया जाता है, न ही उनके साथ कोई उच्च सम्मान वाला व्यवहार किया जाता है। वे अक्सर दमित महसूस करते हैं और अपनी पहचान की भावना तक खो देते हैं। कलीसिया में सभी प्रकार के विशेषज्ञ हैं, जिनमें संगीतकार, नर्तक, फिल्म निर्माता, तकनीशियन, व्यावसायिक पेशेवर, अर्थशास्त्री और यहाँ तक कि राजनेता भी शामिल हैं। भाई-बहनों के बीच, ये लोग अक्सर कहते हैं, “मैं सरकारी स्वामित्व वाले उद्यम में एक सम्मानित कार्यकारी हूँ। मैं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी का वरिष्ठ कार्यकारी हूँ। मैं सीईओ हूँ, आज तक मैं किस से डरा हूँ? मैंने कब किसी के आगे समर्पण किया है? मैं प्रबंधन कौशल के साथ पैदा हुआ हूँ, और मैं जहाँ भी जाऊँ, मेरे पास अधिकार वाला ओहदा होना चाहिए, मुझे प्रभारी होना चाहिए, हमेशा अन्य लोगों को प्रबंधित करने वाला व्यक्ति होना चाहिए, कोई भी मुझे प्रबंधित नहीं कर सकता। तो, परमेश्वर के घर में मुझे कम से कम समूह अगुआ या प्रभारी व्यक्ति तो होना ही चाहिए!” जल्द ही, सबको पता चल जाता है कि इन लोगों के पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है, वे कोई भी कार्य करने में असमर्थ हैं, और विशेष रूप से अहंकारी और दंभी हैं। वे किसी भी कर्तव्य को ठीक से पूरा करने में विफल रहते हैं, और अंत में, उनमें से कुछ को केवल शारीरिक श्रम का कार्य सौंप दिया जाता है, जबकि अन्य हमेशा समर्पण करने से इनकार करते हैं, लगातार अपनी क्षमताएँ दिखाने की कोशिश करते हैं और बेकाबू हो जाते हैं। नतीजतन, वे बहुत अधिक संताप खड़ी करते हैं, सभा को क्रोधित करते हैं, और अंत में हटा दिए जाते हैं। क्या ये लोग दमित महसूस नहीं करेंगे? अंत में, वे अपने अनुभव को इस कथन के साथ सारांशित करते हैं : “परमेश्वर का घर हमारे जैसे प्रतिभाशाली लोगों के लिए सही जगह नहीं है। हम उन्नत नस्ल के घोड़ों जैसे हैं, लेकिन परमेश्वर के घर में हमें पहचानने वाला कोई नहीं है। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले, खासकर विभिन्न स्तरों पर मौजूद अगुआ अज्ञानी और अल्पज्ञ हैं। भले ही वे सत्य समझते हैं, लेकिन वे यह पहचानने में असफल रहते हैं कि हम उन्नत नस्ल के हैं। हमें किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढना होगा जो हमारी प्रतिभाएँ पहचान सके।” अंत में वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। कुछ अन्य लोग कहते हैं, “परमेश्वर के घर में हमारे रहने के लिए बहुत कम जगह है। हम सभी महत्वपूर्ण हस्तियाँ हैं, जबकि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले समाज के निचले वर्ग के विनम्र लोग हैं : जिनमें किसान, रेहड़ी-पटरी वाले और छोटे कारोबार के मालिक शामिल हैं। उनमें कोई शीर्ष-वरीयता वाले विशेषज्ञ नहीं हैं। भले ही कलीसिया छोटी है, संसार बहुत बड़ा है, और इतने बड़े संसार में हमारे लिए जगह तो होनी ही चाहिए। हम, प्रतिभाशाली लोग, आखिर में अपना प्रशंसक खुद ढूँढ लेंगे!” आओ इन लोगों को अपना प्रशंसक ढूँढने के लिए शुभकामनाएँ दें, है न? (ठीक है।) जिस दिन वे अपने प्रशंसक को ढूँढने के बाद हमें अलविदा कहेंगे, उस दिन हम उन्हें विदाई भोज देंगे और आशा करेंगे कि उन्हें उनका सही स्थान मिल जाए, जहाँ वे दमन की किसी भी भावना से मुक्त हों। वे हमसे बेहतर जिएँ और उन्हें शांतिपूर्ण जीवन मिले, यही हमारी कामना है। हमारे ऐसा कहने से क्या इन दमित भावनाओं वाले लोगों को कुछ राहत महसूस होती है? उनकी छाती में जकड़न, सिर में सूजन, हृदय में भारीपन, शारीरिक संताप और बेचैनी की भावनाएँ—क्या वे भावनाएँ गायब हो गई हैं? मैं आशा करता हूँ कि उनकी सभी इच्छाएँ पूरी हों, वे अब दमित महसूस न करें, और वे खुशी से और आजादी से जीने में सक्षम हों।

मुझे बताओ, क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर का घर जानबूझकर इन प्रतिभाशाली व्यक्तियों के लिए चीजें कठिन बना रहा है? (नहीं।) बिल्कुल नहीं। तो फिर परमेश्वर के घर में विभिन्न सिद्धांत, कार्य व्यवस्थाएँ, और हरेक कार्य की अपेक्षाएँ उनमें दमनकारी भावनाओं को क्यों जन्म देती हैं? ये प्रतिभाशाली व्यक्ति परमेश्वर के घर में दमनकारी भावनाओं में क्यों फँस जाते हैं? क्या परमेश्वर के घर से कोई गलती हुई? या क्या परमेश्वर का घर जानबूझकर इन लोगों के लिए चीजें कठिन बना रहा है? (ऐसा नहीं है।) धर्म-सिद्धांत के संदर्भ में, तुम सभी समझते हो कि ये दोनों स्पष्टीकरण बिल्कुल गलत हैं। तो फिर ऐसा क्यों होता है? (ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग अपने कर्तव्य निभाने के दौरान लौकिक संसार में हासिल की गई पेशेवर विशेषज्ञता या अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और अपेक्षाओं पर थोपते हैं।) लेकिन क्या परमेश्वर का घर उन्हें इन चीजों को अपनी अपेक्षाओं और सिद्धांतों पर थोपने देता है? बिल्कुल नहीं। कुछ लोग इसलिए दमित महसूस करते हैं क्योंकि परमेश्वर का घर ऐसा नहीं करने देता है। तुम लोगों को क्या लगता है कि उन्हें इस बारे में क्या करना चाहिए? (प्रत्येक कर्तव्य निभाने से पहले लोगों को उस कर्तव्य के लिए परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों को समझना चाहिए। इन सिद्धांतों को सटीक रूप से समझने के बाद, वे उस पेशेवर विशेषज्ञता को विवेक के साथ लागू कर सकते हैं जिसमें उन्होंने महारत हासिल की है।) यह सिद्धांत सही है। अब मुझे बताओ, क्या परमेश्वर के घर में लगातार अपनी विशेषज्ञता प्रदर्शित करने और अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करने की चाहत सही शुरुआत है? (नहीं, सही नहीं है।) यह किस प्रकार गलत है? इसका कारण समझाओ। (उनका इरादा दिखावा करना और खुद को अलग दिखाना है—वे अपने करियर के पीछे भाग रहे हैं। वे इस बारे में नहीं सोच रहे हैं कि वे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकते हैं या इस तरह से कार्य कैसे करें जिससे परमेश्वर के घर के कार्य को फायदा हो। इसके बजाय, वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा किए बिना या सत्य सिद्धांतों को खोजे बिना अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करना चाहते हैं।) अन्य लोग इस मामले को कैसे देखते हैं? (कुछ भी होने पर हमेशा दिखावा करना एक शैतानी स्वभाव है। वे यह नहीं सोचते कि अपने कर्तव्य कैसे निभाएँ और परमेश्वर की गवाही कैसे दें; वे हमेशा खुद की गवाही देना चाहते हैं, और यह रास्ता सरासर गलत है।) यह शुरुआत सरासर गलत है, इसमें कोई शक नहीं। तो, यह किस प्रकार गलत है? यह ऐसी समस्या है जिसका खंडन करने में तुम सभी असमर्थ हो। ऐसा लगता है कि तुम सभी दमित महसूस कर रहे हो, और तुम सभी अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करने के लिए अपनी विशेषज्ञता प्रदर्शित करना चाहते हो—क्या यह सही नहीं है? अविश्वासियों के बीच एक कहावत है, और यह क्या है? “एक बुजुर्ग औरत तुम्हें दिखाने के लिए लिपस्टिक लगाती है।” क्या “अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करने” का यही मतलब नहीं है? (हाँ।) अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करने का अर्थ है अपनी काबिलियत को प्रदर्शित करने और दिखावा करने, दूसरों के बीच प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करने और उच्च सम्मान पाने की चाह रखना। और कुछ नहीं तो यह अपनी क्षमताओं को प्रदर्शित करने के अवसर का उपयोग करने की चाह रखना है ताकि दूसरों को बताया और सूचित किया जा सके कि : “मेरे पास कुछ असल कौशल हैं, मैं एक साधारण व्यक्ति नहीं हूँ, मुझे नीची नजरों से मत देखो, मैं एक प्रतिभाशाली व्यक्ति हूँ।” इसके पीछे कम से कम इतना अर्थ तो है ही। तो, जब किसी के ऐसे इरादे हों और वह हमेशा अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करना चाहता हो, तो इसकी प्रकृति क्या है? वे अपना करियर बनाना चाहते हैं, अपन रुतबा बनाए रखना चाहते हैं, अन्य लोगों के बीच पाँव जमाना और प्रतिष्ठा हासिल करना चाहते हैं। यह इतनी सरल बात है। वे इसे अपना कर्तव्य निभाने के लिए या परमेश्वर के घर की खातिर नहीं कर रहे हैं, और न वे सत्य खोज रहे हैं और न ही परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और अपेक्षाओं के अनुसार कार्य कर रहे हैं। वे इसे अपने लिए कर रहे हैं, ताकि खुद को अधिक व्यापक रूप से पहचान दिला सकें, अपनी अहमियत और प्रतिष्ठा बढ़ा सकें; वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं ताकि लोग उन्हें सुपरवाइजर या अगुआ के रूप में चुनें। एक बार जब वे अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में चुन लिए जाएँगे, तो क्या फिर उनके पास रुतबा नहीं होगा? क्या तब वे सुर्खियों में नहीं रहेंगे? यही उनका मकसद है, उनका शुरुआती बिंदु इतना सरल है—यह रुतबे के पीछे भागने से अधिक कुछ नहीं है। वे जानबूझकर रुतबे के पीछे भाग रहे हैं, और वे परमेश्वर के घर के कार्य या उसके हितों की रक्षा नहीं कर रहे हैं।

दमित महसूस करने से बचने के लिए गुणी और प्रतिभाशाली लोगों को कैसे अभ्यास करना चाहिए? क्या इसे हासिल करना आसान है? (यह आसान है।) तो, अपनी विशेषज्ञता का उपयोग न कर पाने से उत्पन्न होने वाली दमन की नकारात्मक भावनाओं को तुम कैसे हल कर सकते हो? सबसे पहले, तुम्हें यह समझना होगा कि वे तकनीकी कौशल, या किसी प्रकार की प्रतिभा और विशेषज्ञता कौन-सी हैं जिसका लोग अध्ययन करते और जिसमें महारत हासिल करते हैं—क्या वे खुद जीवन हैं? (नहीं, वे नहीं हैं।) क्या उन्हें सकारात्मक चीजों की श्रेणी में डाला जा सकता है? (नहीं डाला जा सकता।) उन्हें सकारात्मक चीजों की श्रेणी में नहीं डाला जा सकता है; ज्यादा से ज्यादा, वे एक प्रकार के साधन हैं। समाज और धर्मनिरपेक्ष संसार में, वे ज्यादा से ज्यादा ऐसी क्षमताएँ हैं जो लोगों को पर्याप्त रूप से अपना भरण-पोषण करने और अपना जीवन जीते रहने में सक्षम बनाती हैं। लेकिन परमेश्वर के घर की नजरों में, तुमने बस एक प्रकार का तकनीकी कौशल हासिल किया है; यह महज एक प्रकार का ज्ञान है, यह एक प्रकार का सरल और शुद्ध ज्ञान है। यह यकीनन किसी की श्रेष्ठता या नीचता नहीं दर्शाता है—किसी व्यक्ति को दूसरों की तुलना में बस इसलिए अधिक श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसके पास एक खास विशेषज्ञता या कौशल है। तो फिर किसी की श्रेष्ठता या नीचता को कैसे देखा जा सकता है? उनकी मानवता, उनके अनुसरण और जिस मार्ग पर वे चलते हैं उसे देखकर। तकनीकी कौशल या विशेषज्ञता केवल यह दिखा सकती है कि तुमने कौन-सा विशिष्ट कौशल या ज्ञान हासिल किया है, इसके बारे में तुम्हारी समझ कितनी गहरी या उथली है, और तुमने इसमें किस स्तर की दक्षता हासिल की है। इन तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता पर केवल दक्षता, मात्रा और गहराई के संदर्भ में चर्चा की जा सकती है; और इस संदर्भ में कि क्या व्यक्ति उस क्षेत्र में अत्यधिक अनुभवी है या उसके पास इसका केवल सतही ज्ञान है। उनका उपयोग किसी व्यक्ति की मानवता की गुणवत्ता, उनके अनुसरण या जिस मार्ग पर वह चल रहा है उसका मूल्यांकन करने के लिए नहीं किया जा सकता। वे शुद्ध रूप से एक प्रकार का ज्ञान या साधन हैं। यह ज्ञान या साधन तुम्हें कुछ संबंधित कार्य करने में सक्षम बना सकता है, या तुम्हें किसी विशेष प्रकार के काम में अधिक योग्य बना सकता है, लेकिन यह तुम्हें केवल नौकरी की सुरक्षा और आजीविका की गारंटी देता है। बस इतना ही। भले ही समाज तुम्हारे तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता को कैसे भी देखता हो, लेकिन परमेश्वर का घर उन्हें इसी तरह देखता है। सिर्फ इसलिए कि किसी व्यक्ति के पास कोई विशेष कौशल है, परमेश्वर का घर कभी भी उसे अलग तरह से नहीं देखेगा, उसे बढ़ावा देने के लिए अपवादस्वरूप कोई ढील नहीं देगा या उसे किसी भी प्रकार की काट-छाँट या किसी भी प्रकार की ताड़ना या न्याय से छूट नहीं देगा। किसी व्यक्ति के पास चाहे जो भी तकनीकी कौशल या विशेषज्ञता हो, उसका भ्रष्ट स्वभाव अभी भी मौजूद है, और वह अभी भी एक भ्रष्ट इंसान हैं। किसी व्यक्ति के गुण, प्रतिभाएँ और तकनीकी कौशल उसके भ्रष्ट स्वभाव से अलग और असंबद्ध होते हैं, और उनका व्यक्ति की मानवता या चरित्र से कोई लेना-देना भी नहीं होता है। कुछ व्यक्तियों में थोड़ी बेहतर काबिलियत, थोड़ी अधिक बुद्धि, या थोड़ा अधिक विवेक और समझने की शक्ति होती है, जो खास तकनीकी कौशल का अध्ययन करते समय उन्हें कुछ हद तक गहरा ज्ञान हासिल करने में मदद करती है। वे थोड़ी अधिक उपलब्धियाँ और परिणाम प्राप्त करते हैं, और इस पेशे से जुड़े कार्य करते समय ऐसी और चीजें हासिल करते हैं। समाज में, इससे उन्हें कुछ हद तक अधिक और उच्च वित्तीय लाभ मिल सकता है, और उनके क्षेत्र में थोड़ा ऊँचा रुतबा, वरिष्ठता या प्रतिष्ठा मिल सकती है। बस इतना ही। बहरहाल, इनमें से कुछ भी यह नहीं दर्शाता है कि वे किस मार्ग पर चल रहे हैं, उनके लक्ष्य क्या हैं, या जीवन और अस्तित्व के प्रति उनका रवैया क्या है। तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता शुद्ध रूप से ज्ञान के क्षेत्र की चीजें हैं, और उनका किसी व्यक्ति के विचारों, दृष्टिकोण, या किसी चीज के बारे में उनके परिप्रेक्ष्य और रुख से कोई लेना-देना नहीं है। वे किसी भी तरह से इन चीजों से जुड़े नहीं हैं। बेशक, ज्ञान के कुछ क्षेत्रों में जिन विचारों को बढ़ावा दिया जाता है वे विधर्म और भ्रांतियाँ हैं जो लोगों को सत्य समझने और सकारात्मक चीजों को पहचानने के बारे में गुमराह करते हैं। वह बिल्कुल अलग मामला है। यहाँ, हम शुद्ध ज्ञान और तकनीकी कौशल की बात कर रहे हैं, जो लोगों के भ्रष्ट स्वभावों या सामान्य मानवता के लिए कोई सकारात्मक या सक्रिय समर्थन नहीं देते हैं और उनमें कोई सुधार नहीं करते हैं। उनमें किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव पर अंकुश लगाने या उसे सीमित करने की भी कोई क्षमता नहीं है। यही उनकी प्रकृति है। चाहे कोई व्यक्ति साहित्य, संगीत, या कला के किसी भी पहलू से, विज्ञान, जीव विज्ञान, या रसायन विज्ञान, या डिजाइन, वास्तुकला, वाणिज्य, या यहाँ तक कि शिल्प कौशल से जुड़ा हो, उनका कार्य-क्षेत्र चाहे जो भी हो, उनके तकनीकी ज्ञान की प्रकृति ऐसी ही होती है—यही इसका सार है। क्या तुम लोगों को लगता है कि मेरी बात सही है? (हाँ।) चाहे तुम किसी भी क्षेत्र में शामिल हो या किसी भी तकनीकी कौशल का अध्ययन करते हो, या तुम्हारे पास कोई जन्मजात विशेषज्ञता हो, यह तुम्हारी श्रेष्ठता या नीचता को नहीं दर्शाता है। उदाहरण के लिए, जो लोग समाज में व्यवसाय और अर्थशास्त्र से जुड़े हैं, विशेष रूप से संभ्रांत वर्ग के लोग, कुछ लोग उन्हें उन्नत चरित्र वाला मानते हैं, और क्योंकि उनके द्वारा अपनाए गए पेशे और हासिल किए गए ज्ञान का लोग बहुत सम्मान करते हैं, और वे खास तौर पर ज्यादा पैसे कमाते हैं, इसलिए उनका सामाजिक दर्जा ऊँचा है। हालाँकि, परमेश्वर के घर में ऐसी राय नहीं होती है, और परमेश्वर का घर उनका इस तरह से मूल्यांकन नहीं करेगा। क्योंकि इस बात का मूल्यांकन करने के लिए उन लोगों द्वारा उपयोग किए गए सिद्धांत और मानक सत्य नहीं, बल्कि मानवीय समझ हैं, जो मानवीय ज्ञान से संबंधित हैं, इसलिए ऐसे दृष्टिकोण परमेश्वर के घर में मान्य नहीं हैं। दूसरा उदाहरण देखो, समाज में कुछ लोग मछुआरे, रेहड़ी-पटरी वाले या कारीगर होते हैं; उन्हें निम्न दर्जे का माना जाता है और वहाँ कोई भी उन्हें उच्च सम्मान नहीं देता है। हालाँकि, परमेश्वर के घर में, परमेश्वर के सभी चुने हुए लोग एक समान हैं। सत्य के सामने सभी लोग बराबर हैं और कुलीन या नीच लोगों में कोई भेदभाव नहीं है। तुम्हें सिर्फ इसलिए सम्माननीय नहीं माना जाएगा क्योंकि समाज में तुम्हारा दर्जा ऊँचा है या तुम किसी अच्छे पेशे में हो, न ही तुम्हें इसलिए नीच माना जाएगा क्योंकि तुम समाज में निम्न दर्जे का काम करते हो। इसलिए, परमेश्वर के घर में और परमेश्वर की नजरों में, चाहे तुम्हारी पहचान, अहमियत और रुतबे को ऊँचा माना जाता हो या नीचा, इसका तुम्हारी पेशेवर क्षमताओं, तकनीकी दक्षता, या उस विशेषज्ञता से कोई लेना-देना नहीं है जो तुम्हारे पास है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं सेना में कमांडर, जनरल और मार्शल था।” मैं उनसे कहता हूँ, “तुम जाकर अलग खड़े हो जाओ।” तुम्हें अलग क्यों खड़ा होना चाहिए? क्योंकि तुम्हारा शैतानी स्वभाव बहुत गंभीर है, और तुम्हें देखकर मुझे घृणा होती है। सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में कुछ समय बिताओ, कुछ सत्यों की समझ हासिल करो, और थोड़ा मनुष्य की तरह जीवन जियो, और फिर, जब तुम वापस आओगे, तो हर कोई तुम्हें स्वीकार सकेगा। परमेश्वर के घर में, तुम्हें बस इसलिए सम्मान नहीं दिया जाएगा क्योंकि तुम समाज में ऐसा काम करते हो जिसे मनुष्य द्वारा श्रेष्ठ माना जाता है, और न ही तुम्हें इसलिए नीची नजरों से देखा जाएगा क्योंकि समाज में कभी तुम्हारा रुतबा निम्न था। लोगों का मूल्यांकन करने के लिए परमेश्वर के घर के मानक और सिद्धांत पूरी तरह से सत्य के मानदंड पर आधारित हैं। तो, सत्य के मानदंड क्या हैं? इन मानदंडों के विशिष्ट पहलू हैं : सबसे पहले, लोगों का मूल्यांकन उनकी मानवता की गुणवत्ता के आधार पर किया जाता है, क्या उनके पास अंतरात्मा और विवेक, एक अच्छा दिल, और न्याय की भावना है; दूसरे, लोगों का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाता है कि वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं, और वे किस मार्ग पर चल रहे हैं—क्या वे सत्य का अनुसरण करते हैं, सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, और परमेश्वर की निष्पक्षता और धार्मिकता से प्रेम करते हैं, या वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, सत्य और सकारात्मक चीजों से विमुख हो चुके हैं, हमेशा व्यक्तिगत प्रयासों में जुटे रहते हैं वगैरह-वगैरह। इसलिए, चाहे तुम्हारे पास किसी प्रकार का तकनीकी कौशल या विशेषज्ञता हो या नहीं, या चाहे तुम्हारे पास कोई पेशेवर कौशल या विशेषज्ञता न हो, परमेश्वर के घर में तुम्हारे साथ उचित व्यवहार किया जाएगा। परमेश्वर के घर ने हमेशा इसी तरह से काम किया है, यह अब भी ऐसा ही कर रहा है और भविष्य में भी ऐसा ही करेगा। ये सिद्धांत और मानक कभी नहीं बदलेंगे। इसलिए, उन लोगों को बदलने की जरूरत है जो दमित महसूस करते हैं क्योंकि वे अपनी विशेषज्ञता का उपयोग नहीं कर सकते। यदि तुम सचमुच यह मानते हो कि परमेश्वर धार्मिक है, और परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है, परमेश्वर के घर में निष्पक्षता और धार्मिकता है, तो मैं तुम लोगों से जल्दी से अपने तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता से जुड़े गलत दृष्टिकोण और राय को त्यागने के लिए कहता हूँ। ऐसा मत सोचो कि कुछ गुण या थोड़ी विशेषज्ञता रखने से तुम श्रेष्ठ बन जाते हो। भले ही तुम्हारे पास ऐसे तकनीकी कौशल या विशेषज्ञता हो सकती है जो दूसरों में नहीं है, फिर भी तुम्हारी मानवता और भ्रष्ट स्वभाव दूसरों से अलग नहीं हैं। परमेश्वर की नजरों में तुम सिर्फ एक साधारण व्यक्ति हैं और तुममें कुछ भी विशेष नहीं है। शायद तुम कहो, “मैं एक ऊँचे दर्जे वाला अधिकारी हुआ करता था,” पर तुम हो तो एक सामान्य व्यक्ति ही। शायद तुम कहो, “मैं बड़ी-बड़ी चीजें करता था,” तुम फिर भी एक सामान्य व्यक्ति ही हो। शायद तुम कहो, “मैं एक नायक हुआ करता था,” लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस तरह के नायक या मशहूर हस्ती थे, इसका कोई फायदा नहीं है। परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, तुम अभी भी एक सामान्य व्यक्ति हो। यह सत्य और सिद्धांतों का एक पहलू है जिसे तकनीकी कौशल और कुछ प्रकार की विशेषज्ञता के बारे में लोगों को समझना चाहिए। दूसरा पहलू—इन पेशेवर कौशलों और विशेषज्ञता को कैसे देखना चाहिए—यह अभ्यास का एक विशिष्ट मार्ग है जिसे लोगों को समझना चाहिए। सबसे पहले, तुम्हें अपने विचारों और चेतना में स्पष्ट रूप से यह जानना होगा कि तुम्हारे पास चाहे जो भी पेशेवर कौशल या विशेषज्ञता हो, तुम परमेश्वर के घर में कोई काम करने, अपनी अहमियत प्रदर्शित करने, वेतन पाने, या जीविका कमाने के लिए नहीं आ रहे हो। तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए यहाँ आए हो। परमेश्वर के घर में तुम्हारी एकमात्र पहचान एक भाई या बहन के रूप में है, दूसरे शब्दों में कहें तो परमेश्वर की नजरों में तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम्हारी कोई दूसरी पहचान नहीं है। परमेश्वर की नजरों में एक सृजित प्राणी कोई जानवर, कोई वनस्पति या कोई शैतान नहीं है। वह एक इंसान है और एक इंसान होने के नाते तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। एक इंसान के रूप में अपना कर्तव्य निभाना परमेश्वर के घर में आने के लिए तुम्हारा सबसे बुनियादी लक्ष्य और सबसे बुनियादी दृष्टिकोण होना चाहिए। तुम्हें कहना चाहिए, “मैं एक व्यक्ति हूँ। मेरे पास सामान्य मानवता, अंतरात्मा और विवेक है। मुझे अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।” सिद्धांत के अनुसार, लोगों को सबसे पहले यही विचार और दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। अगला यह है कि तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए : तुम्हें अपनी बात सुननी चाहिए या फिर परमेश्वर की? (परमेश्वर की।) सही कहा, और तुम्हें परमेश्वर की बात क्यों सुननी चाहिए? सिद्धांत और वाद के अनुसार, लोग जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर की बात सुननी चाहिए, परमेश्वर सत्य है और अंतिम फैसला परमेश्वर ही करता है। वाद के अनुसार व्यक्ति का यही दृष्टिकोण होना चाहिए। वास्तव में, तुम यह कर्तव्य अपने लिए नहीं, अपने परिवार के लिए नहीं, अपने दैनिक जीवन के लिए नहीं, न ही अपने व्यक्तिगत करियर या प्रयासों के लिए निभाते हो, बल्कि परमेश्वर के कार्य के लिए, मानवता को बचाने के परमेश्वर के प्रबंधन के लिए निभाते हो। इसका तुम्हारे व्यक्तिगत मामलों से कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हें इस दृष्टिकोण को समझना और अपनाना होगा। फिर तुम्हें यह समझना चाहिए कि चूँकि तुम अपनी खातिर कर्तव्य नहीं निभा रहे, बल्कि परमेश्वर के कार्य की खातिर निभा रहे हो, इसलिए तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करके यह खोजना होगा कि तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए, और परमेश्वर के घर के सिद्धांत और अपेक्षाएँ क्या हैं। परमेश्वर जैसे तुम्हें कहता है वैसे अपना कर्तव्य निभाओ, बिना इसके बारे में कुछ भी कहे और बिना किसी हिचकिचाहट या इनकार के, वह करो जो परमेश्वर तुमसे करने के लिए कहता है। यह निश्चित है। क्योंकि यह परमेश्वर का घर है, इसलिए लोगों के लिए यही सही और उचित है कि वे उन कर्तव्यों को निभाएँ जो उन्हें यहाँ निभाने चाहिए। लेकिन लोग ऐसा अपने लिए, अपने दैनिक अस्तित्व, जीवन, परिवार या करियर के लिए नहीं कर रहे हैं। तो फिर वे यह किसलिए कर रहे हैं? परमेश्वर के कार्य के लिए, और परमेश्वर के प्रबंधन के लिए। चाहे इसमें कोई भी विशिष्ट पेशा या किसी भी प्रकार का कार्य शामिल हो, चाहे वह विराम चिह्न या प्रारूपण शैली जितना छोटा हो, या कार्य की किसी विशिष्ट वस्तु जितना महत्वपूर्ण हो, यह सब परमेश्वर के कार्य के दायरे में आता है। इसलिए, यदि तुम्हारे पास विवेक है, तो तुम्हें पहले अपने आप से पूछना चाहिए, “मुझे यह कार्य कैसे करना चाहिए? परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं? परमेश्वर के घर ने कौन-से सिद्धांत निर्धारित किए हैं?” फिर, उन प्रासंगिक सिद्धांतों को एक-एक करके सूचीबद्ध करो और सख्ती से प्रत्येक नियम और सिद्धांत के अनुसार कार्य करो। अगर यह सिद्धांतों के अनुरूप है और उनके दायरे में रहता है, तो तुम जो भी करोगे वह उचित होगा, और परमेश्वर इसे तुम्हारे द्वारा कर्तव्य निभाना मानेगा और इसी रूप में वर्गीकृत करेगा। क्या लोगों को यह समझना नहीं चाहिए? (हाँ।) यदि तुम इसे समझते हो, तो तुम्हें हमेशा इस बात पर विचार नहीं करना चाहिए कि तुम चीजों को कैसे करना चाहते हो या तुम क्या करना चाहते हो। इस प्रकार सोचने और कार्य करने में विवेक का अभाव होता है। क्या जिन कार्यों में विवेक का अभाव हो उन्हें करना चाहिए? नहीं, उन्हें नहीं करना चाहिए। यदि तुम उन्हें करना चाहते हो, तो फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? (खुद से विद्रोह।) तुम्हें खुद से विद्रोह कर अपनी इच्छाएँ त्याग देनी चाहिए और अपने कर्तव्य और परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों को पहले रखना चाहिए। यदि तुम असहज महसूस करते हो, और तुम अपने खाली समय में अपने हितों और शौक को पूरा करते हो, तो परमेश्वर का घर इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। यह एक पहलू है जिसे तुम्हें समझना चाहिए—तुम्हारा कर्तव्य क्या है और तुम्हें इसे कैसे निभाना चाहिए। दूसरा पहलू लोगों की पेशेवर विशेषज्ञता और कौशल के मुद्दे से संबंधित है। तुम्हें पेशेवर कौशल और विशेषज्ञता के मामले को कैसे देखना चाहिए? यदि परमेश्वर के घर को तुम्हारी उस पेशेवर विशेषज्ञता और कौशल की आवश्यकता है जिसमें तुम उत्कृष्ट हो या जिसमें पहले ही महारत हासिल कर चुके हो, तो तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए? तुम्हें उन्हें बिना किसी संकोच के प्रदान करना चाहिए, जिससे वे अपना कार्य करके और तुम्हारे कर्तव्य में जितनी हो सके उतनी अपनी अहमियत प्रदर्शित कर सकें। तुम्हें उन्हें बर्बाद नहीं होने देना चाहिए; क्योंकि तुम उनका इस्तेमाल कर सकते हो, तुम उन्हें समझते हो, और तुमने उनमें महारत हासिल की है, इसलिए तुम्हें उनका उपयोग होने देना चाहिए। उनके उपयोग का सिद्धांत क्या है? वह यह है कि परमेश्वर के घर को जो कुछ भी चाहिए, उसे जितना भी चाहिए, और जिस हद तक चाहिए, तुम इन कौशलों का इस तरह से इस्तेमाल करो जिससे उन्हें मापा और नियंत्रित किया जा सके। अपने कर्तव्य में अपने तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता को लागू करो, जिससे उन्हें अपना कार्य पूरा करने में मदद मिले और तुम अपने कर्तव्य में बेहतर परिणाम प्राप्त कर सको। इस तरह, क्या तुम्हारे द्वारा पेशेवर कौशल और विशेषज्ञता का अध्ययन किसी कारण से नहीं होगा? क्या उनका कोई मूल्य नहीं होगा? क्या तुमने कोई योगदान नहीं दिया होगा? (हाँ।) क्या तुम लोग इस तरह से योगदान देना चाहोगे? (हाँ।) यह अच्छी बात है। जहाँ तक उन कौशलों और विशेषज्ञता की बात है जिनका परमेश्वर के घर में कोई उपयोग नहीं है, परमेश्वर के घर को उनकी न तो आवश्यकता है और न ही उन्हें प्रोत्साहित किया जाता है, और जिनके पास ऐसे कौशल या विशेषज्ञता है उन्हें उनका मनमाने ढंग से इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। तुम्हें इस मामले को कैसे समझना चाहिए? (मुझे ये कौशल त्याग देने चाहिए।) बिल्कुल सही, सबसे सरल तरीका है उन्हें त्याग देना, ऐसा व्यवहार करना मानो तुमने उन्हें कभी सीखा ही नहीं। मुझे बताओ, यदि तुम अपनी इच्छा से उन्हें त्याग देते हो, तो क्या वे तब भी उभरेंगे और तुम्हें परेशान करेंगे जब तुम अपना कर्तव्य निभा रहे होगे? नहीं, वे ऐसा नहीं करेंगे। क्या यह फैसला तुम पर निर्भर नहीं है? वे थोड़ा-सा ज्ञान मात्र हैं। वे कितनी संताप, कितना बड़ा प्रभाव पैदा कर सकते हैं? उनके साथ ऐसे व्यवहार करो जैसे कि तुमने उन्हें कभी सीखा ही नहीं, मानो कि तुम्हें वो सब आता ही नहीं है, और तब क्या समस्या खत्म नहीं हो जाएगी? तुम्हें इस मामले को सही ढंग से संभालना चाहिए। यदि यह कुछ ऐसा है जिसकी परमेश्वर के घर को कोई जरूरत नहीं है, तो दिखावा करने के लिए, अपने हितों को संतुष्ट करने के लिए, या हर किसी को यह दिखाने के लिए कि तुम कुछ तरकीबें जानते हो, बेवजह अपने कौशल का प्रदर्शन मत करो। ऐसा करना गलत है। यह तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन नहीं है और इसे याद नहीं रखा जायेगा। मैं तुम्हें बता दूँ, न केवल इसे याद नहीं किया जाएगा, बल्कि इसकी निंदा भी की जाएगी, क्योंकि तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे हो, तुम व्यक्तिगत प्रयासों में लगे हुए हो, और यह बहुत गंभीर मामला है! यह गंभीर मामला क्यों है? क्योंकि, इसकी प्रकृति ही बाधक और अवरोधक है! परमेश्वर के घर ने बार-बार कहा है कि तुम्हें इस तरह से काम नहीं करना चाहिए, या उन चीजों को नहीं करना चाहिए, या उस तरीके का उपयोग नहीं करना चाहिए, लेकिन तुम सुनते ही नहीं। तुम उन्हें करते रहते हो, तुम उन्हें त्यागने से इनकार करते हो और अपनी जिद पर अड़े रहते हो। क्या यह बाधा नहीं है? क्या यह जानबूझकर नहीं किया जाता है? तुम अच्छी तरह जानते हो कि परमेश्वर के घर को इन चीजों की जरूरत नहीं है, फिर भी तुम जानबूझकर उन्हें करते रहते हो। क्या तुम्हें सिर्फ दिखावा करने में मजा नहीं आता? यदि तुम्हारे बनाए गए वीडियो या कार्यक्रम परमेश्वर को अपमानित करते हैं, तो परिणाम अकल्पनीय होंगे, और तुम्हारा अपराध बहुत बड़ा होगा। तुम इसे समझते हो, है ना? (हाँ।) इसलिए, व्यक्तिगत रूप से तुम्हें जो चीजें अच्छी लगती हैं और जो पेशेवर कौशल तुम्हारे पास हैं—यदि तुम उन्हें पसंद करते हो, यदि तुम उनमें रुचि रखते हो, यदि तुम उन्हें संजोते हो, तो उन्हें घर पर निजी तौर पर करो। वह ठीक है। लेकिन उन्हें सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित मत करो। यदि तुम सार्वजनिक रूप से कुछ प्रदर्शित करना चाहते हो, तो तुम्हें इसे उच्च स्तर पर करने में सक्षम होना चाहिए, और परमेश्वर को अपमानित या उसके घर को बदनाम नहीं करना चाहिए। यह सिर्फ इस बारे में नहीं है कि तुम्हारे पास अंतर्दृष्टि है या नहीं या तुम कुछ विशेष पेशेवर कौशल में कितने दक्ष हो। यह इतना आसान नहीं है। उन सिद्धांतों और मानकों का एक आधार है जिसकी परमेश्वर का घर तुम लोगों द्वारा किए जाने वाले हरेक कार्य में अपेक्षा करता है, और साथ ही इसमें वह दिशा और उद्देश्य भी शामिल हैं जो हरेक चरण में तुम लोगों के कार्य का मार्गदर्शन करते हैं। वे सभी परमेश्वर के घर के कार्य और हितों की रक्षा के लिए हैं, न कि उन्हें बाधित करने, परेशान करने, बदनाम करने या नष्ट करने के लिए। यदि तुम लोगों की व्यक्तिगत काबिलियत, अंतर्दृष्टि, अनुभव और पसंद इनके अनुरूप नहीं हो सकती हैं, या कोई कमी रह जाती है, तो निजी तौर पर संगति करो, और उन लोगों से मार्गदर्शन और सहायता माँगो जो इन्हें समझते हैं और इनके साथ तालमेल बिठा सकते हैं। विरोध मत करो, सिर्फ इसलिए लगातार नकारात्मक भावनाएँ मत पालो क्योंकि तुम लोगों को कुछ चीजें करने की अनुमति नहीं है। तुम लोगों की जो जरा-सी तरकीबें हैं, वे खास अच्छी नहीं हैं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ कि तुम लोग खास अच्छे नहीं हो? क्योंकि तुम लोगों के विचार और दृष्टिकोण बहुत ही विकृत हैं। न केवल तुम लोगों की पसंद, अंतर्दृष्टि, निर्णय और अनुभव अपर्याप्त और असंतोषजनक है, बल्कि तुम कई पुरानी धार्मिक धारणाओं को भी लेकर चलते हो। तुम लोगों की धार्मिक धारणाएँ बहुत सारी हैं और गहरी जड़ें जमा चुकी हैं, और यहाँ तक कि बीस-पच्चीस साल के कुछ युवाओं में भी बहुत पुराने विचार और धारणाएँ मौजूद हैं। भले ही तुम सब आधुनिक युग के लोग हो, जो आधुनिक तकनीकी कौशल का अध्ययन करते हैं, और कुछ पेशेवर ज्ञान रखते हैं, लेकिन क्योंकि तुम लोग सत्य नहीं समझते, इसलिए विभिन्न मामलों के संबंध में तुम लोगों के परिप्रेक्ष्य, दृष्टिकोण, और रुख और तुम्हारे अंदर मौजूद विचार, सभी पुराने हो चुके हैं। तो, चाहे तुम लोग कितने भी पेशेवर कौशल सीख लो, तुम लोगों के विचार पुराने ही रहेंगे। तुम्हें इस समस्या को और इस वास्तविक परिस्थिति को समझना होगा। इसलिए, तुम्हें उन चीजों का त्याग करना चाहिए जिन्हें परमेश्वर का घर चाहता है कि तुम लोग छोड़ दो, जिन पर पाबंदी लगाई जाती है या जिनका इस्तेमाल करने की तुम्हें अनुमति नहीं है। तुम्हें आज्ञापालन करना सीखना होगा। यदि तुम इसके अंतर्निहित कारणों को नहीं समझते हो, तो कम से कम, तुम्हारे पास आज्ञापालन करना सीखने के लिए पर्याप्त विवेक होना चाहिए, और पहले परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के आधार पर कार्य करना चाहिए। विरोध मत करो, पहले समर्पण करना सीखो।

अपने पेशेवर कौशल के प्रति लोगों के सही रवैये के बारे में संगति करने के बाद, तुम्हें और क्या समझना चाहिए? अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में, यदि तुम किसी तकनीकी कौशल या विशेषज्ञता का ठीक से उपयोग न करने के कारण असफल हो जाते हो, जिससे कलीसिया के कार्य में रुकावट आती है और उसका नुकसान होता है, और तुम्हें काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? इसे संभालना आसान है। फौरन अपनी गलती मानकर पश्चाताप करो, और परमेश्वर का घर तुम्हें अपनी गलतियों को सुधारने का मौका देगा। क्योंकि कोई भी पूर्ण नहीं है, हर कोई गलतियाँ करता है और ऐसे पल आते हैं जब वे भ्रमित महसूस करते हैं। दिक्कत गलतियाँ करने में नहीं है, दिक्कत तब है जब तुम उन्हीं गलतियों को बार-बार दोहराना जारी रखते हो, लगातार वही गलतियाँ करते रहते हो और तब तक पीछे नहीं हटते जब तक तुम्हारा रास्ता बंद नहीं हो जाता। यदि तुम्हें अपनी गलतियों का एहसास है, तो उन्हें सुधारो। यह इतना मुश्किल नहीं है, है न? हर किसी ने गलतियाँ की हैं, इसलिए किसी को भी दूसरे का उपहास नहीं उड़ाना चाहिए। यदि तुम गलतियाँ करने के बाद उन्हें स्वीकार सकते हो, उनसे सबक सीख सकते हो, और बदलाव कर सकते हो, तो तुम प्रगति करोगे। इसके अलावा, यदि समस्या तुम्हारे कार्य में दक्षता की कमी के कारण है, तो तुम सीखना जारी रख सकते हो और आवश्यक कौशल में महारत हासिल कर सकते हो, इससे समस्या हल हो सकती है। यदि तुम यह सुनिश्चित कर सकते हो कि भविष्य में तुम उस गलती को नहीं दोहराओगे, तो क्या समस्या यहीं खत्म नहीं हो जाएगी? यह कितना सरल है! तुम्हें बस इसलिए दमित महसूस करने की जरूरत नहीं है क्योंकि तुम अपने पेशेवर कौशल के गलत उपयोग के कारण लगातार गलतियाँ करते हो, और तुम्हें काट-छाँट का सामना करना पड़ता है। दमित क्यों महसूस करते हो? तुम इतने नाजुक क्यों हो? परिस्थिति या कार्य का माहौल चाहे जैसा भी हो, लोग कभी-कभी गलतियाँ करते हैं, और ऐसे क्षेत्र भी हैं जहाँ उनकी काबिलियत, अंतर्दृष्टि और परिप्रेक्ष्य कम पड़ जाते हैं। यह सामान्य है, और तुम्हें इसे सही तरीके से संभालना सीखना होगा। चाहे तुम्हारा अभ्यास कुछ भी हो, हर हाल में तुम्हें उसका सही तरीके से और सक्रियता से सामना करना और संभालना चाहिए। थोड़ी-सी कठिनाई आने पर अवसादग्रस्त न हो या नकारात्मक या दमित महसूस न करो, और नकारात्मक भावनाओं में मत डूबो। इन सबकी कोई जरूरत नहीं है, बात का बतंगड़ मत बनाओ। तुम्हें तुरंत आत्म-चिंतन करना चाहिए और यह निर्धारित करना चाहिए कि कहीं तुम्हारे पेशेवर कौशल में या तुम्हारे इरादों में कोई समस्या तो नहीं है। जाँच करो कि क्या तुम्हारे क्रियाकलापों में कोई अशुद्धियाँ हैं या कुछ धारणाएँ इसके लिए दोषी हैं। सभी पहलुओं पर चिंतन करो। यदि यह दक्षता की कमी से जुड़ी समस्या है, तो तुम सीखना जारी रख सकते हो, समाधान खोजने में मदद के लिए किसी को ढूँढो, या उसी क्षेत्र के लोगों से परामर्श करो। यदि कुछ गलत इरादे मौजूद हैं, ऐसी समस्या शामिल है जिसे सत्य का उपयोग करके हल किया जा सकता है, तो तुम परामर्श और संगति के लिए कलीसिया अगुआओं या सत्य समझने वाले किसी व्यक्ति को खोज सकते हो। तुम जिस अवस्था में हो, उसके बारे में उनसे बात करो और उन्हें इसे सुलझाने में तुम्हारी मदद करने दो। यदि यह धारणाओं से जुड़ी समस्या है, तो उनकी जाँच करने और उन्हें पहचानने के बाद, तुम उनका गहन-विश्लेषण करके उन्हें समझ सकते हो, फिर उनसे दूर होकर विद्रोह कर सकते हो। क्या इसमें बस इतना ही नहीं करना है? आने वाले दिन अभी भी तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं, कल सूरज फिर से उगेगा, और तुम्हें जीना होगा। क्योंकि तुम जिंदा हो, क्योंकि तुम इंसान हो, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते रहना चाहिए। जब तक तुम जिंदा हो और तुम्हारे पास विचार हैं, तब तक तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने और उसे पूरा करने का प्रयास करते रहना चाहिए। यह एक ऐसा लक्ष्य है जो व्यक्ति के जीवन भर में अपरिवर्तित रहना चाहिए। चाहे जब भी हो, चाहे सामने कोई भी कठिनाई हो, चाहे किसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, तुम्हें दमित महसूस नहीं करना चाहिए। यदि तुम दमित महसूस करते हो, तो तुम स्थिर हो जाओगे और पराजित हो जाओगे। किस तरह के लोग हमेशा दमित महसूस करते हैं? कमजोर और मूर्ख लोग अक्सर दमित महसूस करते हैं। लेकिन तुम हृदयहीन या विचारहीन नहीं हो, तो तुम किस बात से दमित महसूस करते हो? बात सिर्फ इतनी है कि इस समय तुम्हारे तकनीकी कौशल या विशेषज्ञता का सामान्य रूप से उपयोग नहीं किया जा रहा है। सामान्य रूप से उपयोग करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि परमेश्वर के घर को तुमसे जो अपेक्षा है वह करना और परमेश्वर के घर के आवश्यक मानकों को पूरा करने के लिए अपने सीखे हुए तकनीकी कौशल का उपयोग करना। क्या यह काफी नहीं है? क्या इसे हम सामान्य उपयोग नहीं कहते? परमेश्वर का घर तुम्हें अपनी क्षमताओं का उपयोग करने से नहीं रोकता है। यह बस इतना चाहता है कि तुम उन्हें लापरवाही से उपयोग करने के बजाय, उद्देश्यपूर्ण ढंग से संयम, मानकों और सिद्धांतों के साथ उपयोग करो। इसके अलावा परमेश्वर का घर तुम्हारे निजी जीवन में या उन मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता जिनका संबंध तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन से नहीं है। केवल तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन के मामलों में परमेश्वर के घर में सख्त नियम और आवश्यक मानक हैं। इसलिए, जब तुम्हारे पेशेवर कौशल और विशेषज्ञता के इस्तेमाल की बात आती है, तो तुम्हारे हाथ-पैर बंधे नहीं होते और तुम्हारे विचार नियंत्रित नहीं होते। तुम्हारे विचार स्वतंत्र हैं, तुम्हारे हाथ-पैर स्वतंत्र हैं, और तुम्हारा हृदय भी स्वतंत्र है। बात बस इतनी है, जब तुम नकारात्मक भावनाओं को जन्म देते हो, तो तुम पीछे हटना, उदास होना, मना करना और विरोध करना चुनते हो। लेकिन यदि तुम सकारात्मकता से चीजों का सामना करना चुनते हो, ध्यान से सुनते हो, और परमेश्वर के घर के सिद्धांतों, नियमों और अपेक्षाओं के अनुसार चलते हो, तो तुम्हारे पास अनुसरण के लिए मार्ग होगा और करने के लिए चीजें होंगीं। तुम कोई बेकार, कमजोर या मूर्ख व्यक्ति नहीं हो। परमेश्वर ने तुम्हें स्वतंत्र इच्छा, सामान्य सोच और सामान्य मानवता दी है। इसलिए, तुम्हारे पास निभाने के लिए एक कर्तव्य है और तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। इसके अलावा, तुम्हारे पास पेशेवर कौशल और विशेषज्ञता है, इसलिए, परमेश्वर के घर में, तुम एक उपयोगी व्यक्ति हो। यदि तुम परमेश्वर के घर के पेशेवर कौशल और विशेषज्ञता से जुड़े कार्य के कुछ पहलुओं में अपनी विशेषज्ञता का उस तरह से उपयोग कर सकते हो जैसा तुम्हें करना चाहिए, तो तुम्हें अपना स्थान मिल जाएगा और तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाओगे। यदि तुम अपने स्थान पर दृढ़ रहते हो, अपना कर्तव्य निभाते हो, और अपना काम अच्छी तरह से करते हो, तो तुम बेकार नहीं बल्कि उपयोगी इंसान हो। यदि तुम अपना कर्तव्य निभा सकते हो, विचार रख सकते हो और सक्षमता से काम कर सकते हो, तो चाहे तुम्हें कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, तुम्हें दमित महसूस नहीं करना चाहिए, पीछे नहीं हटना चाहिए, और न ही तुम्हें इनकार या टालमटोल करना चाहिए। अब, इस समय, तुम्हें खुद को इस तरह से नकारात्मक भावनाओं में नहीं डुबाना चाहिए कि तुम इससे बाहर ही न निकल सको। तुम्हें एक चिढ़ी हुई औरत की तरह इस बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए कि परमेश्वर का घर तुम्हारे साथ अन्याय कर रहा है, तुम्हारे भाई-बहनें तुम्हें नीची नजरों से देख रहे हैं, या परमेश्वर का घर तुम्हें अहमियत या अवसर नहीं दे रहा है। वास्तव में, परमेश्वर के घर ने तुम्हें अवसर दिए हैं और तुम्हें वह कर्तव्य सौंपा है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए, लेकिन तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं निभाया। तुम अब भी अपनी पसंद और अपेक्षाओं पर कायम थे, तुमने परमेश्वर के वचनों को ध्यान से नहीं सुना या उन सिद्धांतों पर ध्यान नहीं दिया जो परमेश्वर के घर ने तुम्हारे काम के बारे में तुम्हें बताए थे। तुम बहुत मनमाने हो। इसलिए, यदि तुम दमन की नकारात्मक भावना में फँसे हुए हो, तो यह किसी और की जिम्मेदारी नहीं है। बात यह नहीं है कि परमेश्वर के घर ने तुम्हें निराश किया है, यह तो बिल्कुल नहीं है कि तुम्हें यहाँ बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। बात यह है कि तुमने अपना कर्तव्य निभाने में अपनी क्षमताओं का पूरी तरह से उपयोग नहीं किया। तुमने अपने तकनीकी पेशे और विशेषज्ञता को सही ढंग से नहीं संभाला या ठीक से उनका उपयोग नहीं किया है। तुमने इस मामले को तर्कसंगत रूप से नहीं लिया है, बल्कि आवेग में और नकारात्मक भावनाओं के साथ इसका विरोध किया है। यह तुम्हारी गलती है। यदि तुम अपनी नकारात्मक भावनाओं को त्यागकर दमन की इस अवस्था से बाहर आ जाते हो, तो तुम्हें एहसास होगा कि ऐसे कई कार्य हैं जो तुम कर सकते हो और बहुत-से कार्य तुम्हें करने की जरूरत है। यदि तुम इन नकारात्मक भावनाओं से बाहर आकर सकारात्मक रवैये के साथ अपने कर्तव्य का सामना कर सकते हो, तो तुम देखोगे कि आगे का रास्ता उजला है, अँधकारमय नहीं। कोई भी तुम्हारी दृष्टि अवरुद्ध नहीं कर रहा है, और न ही कोई तुम्हारे कदमों को रोक रहा है। बात सिर्फ इतनी है कि तुम आगे बढ़ना ही नहीं चाहते। तुम्हारी प्राथमिकताओं, इच्छाओं और व्यक्तिगत योजनाओं ने तुम्हारे कदमों को रोक दिया है। इन चीजों को किनारे कर दो, उन्हें त्याग दो, परमेश्वर के घर में कार्य के माहौल को अपनाना सीखो, अपने भाई-बहनों द्वारा तुम्हें दी गई मदद और समर्थन को अपनाओ, और अपने कर्तव्य निर्वहन के तरीके और परमेश्वर के घर की कार्यशैली को अपनाओ। थोड़ा-थोड़ा करके अपनी प्राथमिकताओं, इच्छाओं और अवास्तविक, काल्पनिक विचारों को त्याग दो। धीरे-धीरे, तुम स्वाभाविक रूप से दमन की इन नकारात्मक भावनाओं से बाहर आ जाओगे। एक और बात तुम्हें समझनी चाहिए कि चाहे तुम्हारा पेशेवर कौशल और विशेषज्ञता कितनी भी उन्नत क्यों न हो, ये तुम्हारे जीवन को नहीं दर्शाते हैं। वे जीवन में तुम्हारी परिपक्वता या इस बात को नहीं दर्शाते हैं कि तुमने पहले ही उद्धार प्राप्त कर लिया है। यदि तुम अपने पेशेवर कौशल और विशेषज्ञता का उपयोग करके, सत्य सिद्धांतों के अनुसार सामान्य और आज्ञाकारी तरीके से परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम यहाँ अच्छा कर रहे हो और वाकई परमेश्वर के घर के सदस्य हो। लेकिन, तुम हमेशा अपने कर्तव्य निर्वहन का झंडा लहराते हो, अपने कर्तव्य निर्वहन के अवसर का लाभ उठाते हो, परमेश्वर के घर द्वारा दिए गए अवसरों का लाभ उठाते हो, और अपनी विशेषज्ञता का पूरी तरह से उपयोग करने के लिए अपनी प्राथमिकताओं, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसार चलते हो, अपने करियर और व्यक्तिगत प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिए इसका उपयोग करते हो, और इन सबकी वजह से तुम्हारे लिए सभी रास्ते बंद हो जाते हैं और तुम दमित महसूस करते हो। इस दमन का कारण कौन है? तुम खुद इसका कारण हो। यदि तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हुए व्यक्तिगत प्रयास करना जारी रखोगे, तो यह यहाँ नहीं चलेगा, क्योंकि तुम गलत जगह पर आ गए हो। शुरू से लेकर अंत तक, परमेश्वर के घर में केवल सत्य, परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके वचनों पर चर्चा की जाती है। इनके अलावा, बोलने के लिए और कुछ नहीं है। इसलिए, परमेश्वर के घर द्वारा लोगों से उनके काम या पेशे के किसी भी पहलू, या किसी विशेष कार्य व्यवस्था में चाहे कोई भी अपेक्षा की जाती हो, वे किसी खास व्यक्ति के लिए नहीं हैं, और न ही वे किसी को दबाने या किसी के उत्साह या गौरव को खत्म करने के लिए हैं। वे पूरी तरह से परमेश्वर के कार्य की खातिर, और परमेश्वर की गवाही देने, उसके वचन को फैलाने और ज्यादा से ज्यादा लोगों को उसके समक्ष लाने के लिए हैं। बेशक, वे यहाँ मौजूद तुममें से हरेक व्यक्ति के लिए हैं ताकि तुम जल्द से जल्द सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सको और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सको। क्या तुम समझ रहे हो? अगर आज बताए गए उदाहरण कुछ खास लोगों पर लागू होते हैं, तो निराश मत होना। यदि तुम मेरी बात से सहमत हो, तो इसे स्वीकारो। यदि तुम असहमत हो और अभी भी दमित महसूस करते हो, तो तुम दमन की भावना में ही रहो। आओ देखें कि ऐसे लोग किस हद तक दमित महसूस कर सकते हैं, और वे ऐसी नकारात्मक भावनाओं के साथ, सत्य का अनुसरण या बदलाव किए बिना, परमेश्वर के घर में कितने समय तक टिके रह पाते हैं।

यदि वे दमन की भावना नहीं त्यागते, तो इस नकारात्मक भावना में रहने वालों को एक और नुकसान का सामना करना पड़ता है : जैसे ही उन्हें कोई अवसर दिया जाता है, वे फौरन काम में लग जाते हैं, परमेश्वर के घर की सभी अपेक्षाओं, नियमों, और सिद्धांतों को ताक पर रखकर खुद ही प्रभारी बन जाते हैं, लापरवाही से काम करते हैं और पूरी तरह से अपनी ही इच्छाओं को पूरा करने में लग जाते हैं। जब वे कोई कदम उठाते हैं, तो इसके नतीजे अकल्पनीय होते हैं। थोड़े नुकसान के नाम पर वे परमेश्वर के घर को वित्तीय नुकसान पहुँचा सकते हैं, या वे कलीसिया के कार्य में बाधा डालने का बड़ा नुकसान कर सकते हैं। यदि वे अगुआ और सुपरवाइजर अपनी जिम्मेदारी उठाने से बचते हैं और समस्याएँ हल नहीं कर पाते हैं, तो इससे परमेश्वर के घर के सुसमाचार फैलाने के कार्य पर भी असर पड़ेगा, जिसमें परमेश्वर का विरोध करना भी शामिल है। अगर इन लोगों के साथ ऐसी घटनाएँ होंगी और ऐसे परिणाम होंगे, तो इनका अंत हो जाएगा। अपने भविष्य को देखने के बजाय, उनके लिए यही बेहतर है कि वे जल्द से जल्द दमन की भावना को त्याग दें, तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता को बहुत बड़ा समझने और महत्व देने के अपने रवैये और राय को बदल दें। उनके लिए अपने दृष्टिकोण को बदलना और उन्हें महत्व न देना जरूरी है। उन्हें महत्व न देने का कारण यह नहीं है कि वे परमेश्वर के घर में बुनियादी तौर पर महत्वहीन हैं या मेरे न्याय या इनके प्रति नकारात्मक राय रखने के कारण ऐसा नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता अनिवार्य रूप से एक प्रकार का साधन हैं। वे सत्य या जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। जब स्वर्ग और पृथ्वी नष्ट हो जाएँगे, तो तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता भी नष्ट हो जाएँगे, जबकि मनुष्यों द्वारा अर्जित सकारात्मक चीजें और सत्य न केवल नष्ट नहीं होंगे, बल्कि वे कभी भी खत्म नहीं होंगे। चाहे तुम्हारे पास कितना ही गहरा, महान या अपूरणीय तकनीकी कौशल या खास विशेषज्ञता क्यों न हो, वे मानवता या संसार को नहीं बदल सकते हैं, न ही वे लोगों के किसी छोटे से विचार या दृष्टिकोण को बदल सकते हैं। ये चीजें एक छोटे से विचार या दृष्टिकोण को भी नहीं बदल सकती हैं, इंसानों के भ्रष्ट स्वभाव को बदलना तो दूर की बात है, जिसे वे और भी नहीं बदल सकती हैं। वे मानवता को नहीं बदल सकतीं, न ही वे संसार को बदल सकती हैं। वे मानवता के वर्तमान, उनके आने वाले दिनों, या उनके भविष्य को निर्धारित नहीं कर सकतीं, और वे यकीनन मानवता के भाग्य का निर्धारण नहीं कर सकती हैं। यही इस मामले का तथ्य है। यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है, तो बस इंतजार करो और देखो। यदि तुम मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते, और ज्ञान, तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता जैसी चीजों को संजोते रहते हो, तो देखना कि जब तुम उन्हें अंत तक संजोकर रखोगे तो किसे देर होगी और तुम्हें इनसे क्या हासिल होगा। कुछ लोग कंप्यूटर टेक्नोलॉजी में बहुत कुशल और जानकार होते हैं, वे औसत व्यक्ति से आगे निकल जाते हैं और इस क्षेत्र में बेहतरीन काम करते हैं। वे वरिष्ठ तकनीशियन होते हैं, जहाँ भी जाते हैं अपने आप को श्रेष्ठ मानकर चलते हैं और यह घोषणा करते हैं, “मैं कंप्यूटर में बहुत कुशल हूँ, मैं कंप्यूटर इंजीनियर हूँ!” यदि तुम इसी तरह आगे बढ़ना जारी रखते हो, तो देखते हैं कि तुम वास्तव में कितनी दूर जाओगे और कहाँ तक पहुँचोगे। तुम्हें इस उपाधि को त्याग देना चाहिए और खुद को फिर से परिभाषित करना चाहिए। तुम एक साधारण व्यक्ति हो। यह समझो कि तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता मनुष्य से आते हैं। वे लोगों की मानसिक क्षमता और विचारों तक ही सीमित हैं, ज्यादा से ज्यादा वे लोगों के मष्तिष्क पर छा जाते हैं, उनकी यादों में छाप और निशान छोड़ जाते हैं। लेकिन, उनका व्यक्ति के जीवन स्वभाव पर, या उसके भविष्य के पथ पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है। वे कोई वास्तविक लाभ नहीं देते। यदि तुम अपने सीखे हुए तकनीकी कौशल या विशेषज्ञता से ही चिपके रहते हो, और उन्हें त्यागना नहीं चाहते हो, हमेशा यही सोचते हो कि वे अनमोल और प्यारे हैं, यह मानते हो उन्हें सीखकर तुम दूसरों से श्रेष्ठ हो, बाकियों से थोड़ा ऊपर हो, सम्मान के हकदार हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम एकदम मूर्ख हो। वे चीजें बिल्कुल बेकार हैं! मुझे आशा है कि तुम उन्हें त्यागने का प्रयास कर सकते हो, अपने आप को तकनीशियन या पेशेवर की उपाधि से मुक्त कर सकते हो, तकनीकी और पेशेवर क्षेत्र से बाहर निकलकर सब कुछ कहना और करना सीख सकते हो, और सभी लोगों और चीजों के साथ जमीन से जुड़े रहकर व्यवहार कर सकते हो। काल्पनिक विचारों में डूबे मत रहो या हवा में उड़ते मत रहो। इसके बजाय, तुम्हें अपने पैर जमीन पर मजबूती से टिकाए रखना चाहिए, चीजों को व्यावहारिक तरीके से करना चाहिए और व्यावहारिक आचरण बनाए रखना चाहिए। तुम्हें लोगों और चीजों के प्रति सही विचार और दृष्टिकोण, परिप्रेक्ष्य और रुख रखते हुए ईमानदार, सच्चे और यथार्थवादी तरीके से बोलना सीखना चाहिए। यह बुनियादी चीज है। इसका मतलब यह है कि तुम उन तकनीकी कौशलों और विशेषज्ञता को त्याग दो और हटा दो जो तुमने कई वर्षों से अपने दिल में संजोकर रखे हैं और जिन्होंने तुम्हारे हृदय और विचारों पर कब्जा कर लिया है; इसका अर्थ है कि तुम कुछ बुनियादी चीजें सीख सकते हो, जैसे कि आचरण कैसे करें, कैसे बोलें, लोगों और चीजों को कैसे देखें, और परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य कैसे पूरा करें। यह सब लोगों के अस्तित्व, उनके भविष्य, और उन रास्तों से संबंधित है जिन पर वे चलते हैं। ये चीजें जो लोगों के मार्ग और उनके भविष्य से संबंधित हैं, वे तुम्हारा भाग्य बदल सकती हैं, और तुम्हारा भाग्य निर्धारित कर सकती हैं और तुम्हें बचा सकती हैं। दूसरी ओर, तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता तुम्हारे भाग्य या तुम्हारे भविष्य को नहीं बदल सकतीं। वे कुछ भी निर्धारित नहीं कर सकती हैं। यदि तुम समाज में नौकरी करने के लिए इन कौशलों और विशेषज्ञता का उपयोग करते हो, तो वे केवल तुम्हारी आजीविका कमाने में मदद कर सकती हैं या कुछ हद तक तुम्हारा जीवन बेहतर बना सकती हैं। लेकिन मैं तुम्हें बता दूँ, जब तुम परमेश्वर के घर में आते हो, तो वे कुछ भी निर्धारित नहीं करती हैं। बल्कि, वे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में बाधक बन सकती हैं और तुम्हें एक साधारण और सामान्य व्यक्ति बनने से रोक सकते हैं। इसलिए, चाहे कुछ भी हो, सबसे पहले तुम्हारे पास उनके बारे में सही समझ और परिप्रेक्ष्य होना चाहिए। अपने आप को कोई विशेष प्रतिभा मत समझो या यह विश्वास मत रखो कि परमेश्वर के घर में तुम असाधारण, दूसरों से श्रेष्ठ या उनसे ज्यादा खास हो। तुम जरा भी खास नहीं हो, मेरी नजरों में तो कतई नहीं। कुछ विशेष योग्यताएँ या ज्ञान और कौशल रखने के अलावा, जो दूसरों के पास नहीं हैं, तुम किसी और से जरा भी अलग नहीं हो। तुम्हारी कथनी, करनी और आचरण, तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण शैतान के जहर से भरे हुए हैं, विकृत और नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोण से भरपूर हैं। तुम्हें कई चीजें बदलने की जरूरत है, कई चीजों में आमूलचूल परिवर्तन करने जरूरत है। यदि तुम संतोष, आत्म-संतुष्टि और आत्म-प्रशंसा की दशा में फँसे रहते हो, तो तुम हद से ज्यादा बेवकूफ हो और खुद को बहुत ऊँचा समझते हो। भले ही तुमने अपने पेशेवर कौशल और विशेषज्ञता के कारण एक बार परमेश्वर के घर में कुछ योगदान दिया हो, फिर भी तुम्हारे लिए इन चीजों को संजोकर रखने का कोई अर्थ नहीं है। किसी भी पेशेवर कौशल या विशेषज्ञता के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देना सार्थक नहीं है, यहाँ तक कि उन्हें संजोने, बनाए रखने, बचाने, और थामे रखने, और उनकी खातिर जीने-मरने के लिए अपने भविष्य और शानदार मंजिल को खतरे में डालना भी ठीक नहीं है। बेशक, तुम्हें उनकी मौजूदगी से अपने विचारों और भावनाओं को किसी भी तरह से प्रभावित भी नहीं होने देना चाहिए, और इसलिए उनके कारण दमित बिल्कुल भी नहीं महसूस करना चाहिए, क्योंकि तुमने उन्हें खो दिया या फिर किसी ने उन्हें पहचाना नहीं। यह एक मूर्खतापूर्ण और तर्कहीन दृष्टिकोण होगा। सीधे तौर पर कहें, तो वे उन कपड़ों की तरह हैं जिन्हें किसी भी समय नष्ट किया या उठाकर पहना जा सकता है। उनके बारे में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। तुम उन्हें तब पहनते हो जब तुम्हें उनकी जरूरत पड़ती है, और जब तुम्हें उनकी जरूरत नहीं होती है, तो तुम उन्हें उतारकर नष्ट कर सकते हो। तुम्हें उनके प्रति निष्पक्ष महसूस करना चाहिए; किसी भी ज्ञान, कौशल या विशेषज्ञता के प्रति तुम्हारा यही रवैया और दृष्टिकोण होना चाहिए। तुम्हें उन्हें अपने जीवन के रूप में संजोना या मानना नहीं चाहिए, उनकी वजह से आनंद या खुशी नहीं ढूँढनी, या उनकी खातिर जीना-मरना नहीं चाहिए। इसकी कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें तर्कसंगत रूप से उनके साथ पेश आना चाहिए। बेशक, यदि तुम उन चीजों के कारण दमन की नकारात्मक भावनाओं में फँस जाते हो, जिससे तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन और तुम्हारे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीज, जो कि सत्य का अनुसरण करना है, प्रभावित होती है तो इसे और भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि वे महज एक साधन हैं जिन्हें तुम किसी भी समय उपयोग या नष्ट कर सकते हो, उनकी वजह से तुममें कोई लगाव या भावना नहीं जगनी चाहिए। तो, चाहे परमेश्वर का घर तुम्हारे द्वारा हासिल किए गए पेशेवर कौशल या विशेषज्ञता के साथ कैसे भी पेश आता हो, चाहे वह उन्हें स्वीकारता हो या तुम्हें उन्हें त्यागने को कहता हो, या यहाँ तक कि उनकी निंदा और आलोचना भी करता हो, तुम्हें उनके बारे में व्यक्तिगत विचार नहीं रखने चाहिए। तुम्हें इसे परमेश्वर से आया मामला मानकर स्वीकारना चाहिए, सही स्थितियों और परिप्रेक्ष्यों के साथ तर्कसंगत रूप से उनका सामना करना और उनसे पेश आना चाहिए। यदि परमेश्वर का घर तुम्हारे कौशल का उपयोग करता है लेकिन इनमें किसी प्रकार की कोई कमी है, तो तुम उन्हें सीखकर उनमें सुधार कर सकते हो। यदि परमेश्वर का घर उनका उपयोग नहीं करता है, तो तुम्हें उन्हें बिना किसी हिचकिचाहट, बिना किसी चिंता और बिना किसी कठिनाई के त्याग देना चाहिए—यह इतना आसान है। परमेश्वर के घर में तुम्हारे पेशेवर कौशल और विशेषज्ञता का कोई उपयोग नहीं है, इस तथ्य के निशाने पर व्यक्तिगत रूप से तुम नहीं हो, न ही यह तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन के अधिकार से वंचित करता है। यदि तुम अपना कर्तव्य निभाने में असफल रहते हो, तो इसका कारण तुम्हारा अपना विद्रोहीपन है। यदि तुम कहते हो कि “परमेश्वर का घर मुझे, मेरी प्रतिभाओं और मेरे द्वारा अर्जित किए हुए ज्ञान को कमतर नजरों से देखता है, और वह मुझे प्रतिभाशाली व्यक्ति नहीं मानता है। इसलिए, अब से मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाऊँगा!” तो अपना कर्तव्य न निभाना तुम्हारा अपना फैसला है; ऐसा नहीं है कि परमेश्वर के घर ने तुम्हें इसका अवसर देने से इनकार कर दिया है या इसे निभाने का तुम्हारा अधिकार छीन लिया है। यदि तुम अपना कर्तव्य निभाने में असफल रहते हो, तो यह उद्धार पाने का अवसर गँवाने के बराबर है। क्योंकि तुम अपने पेशेवर कौशल, विशेषज्ञता और व्यक्तिगत गरिमा को बनाए रखने को प्राथमिकता देते हो, इसलिए तुम अपना कर्तव्य निर्वहन और उद्धार पाने की आशा त्याग देते हो। मुझे बताओ, यह तर्कसंगत है या बेतुका? (बेतुका।) यह मूर्खता है या बुद्धिमानी? (मूर्खता।) तो, क्या इसके लिए कोई रास्ता है कि तुम्हें क्या चुनना चाहिए? (हाँ।) एक रास्ता है। तो फिर, क्या तुम अब भी दमित महसूस करते हो? (नहीं, नहीं करता।) अब तुम दमित महसूस नहीं करते हो, है न? दमन की भावनाओं वाले और दमन की भावनाओं से रहित लोगों का अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति बिल्कुल अलग-अलग रवैया होता है, और उनके कार्य करने के तरीके भी पूरी तरह से अलग होते हैं। दमित लोग कभी खुश नहीं रह सकते, उन्हें कभी शांति या खुशी महसूस नहीं होगी, और उन्हें अपने कर्तव्य निभाने से मिलने वाले आनंद और संतोष का अनुभव कभी नहीं होगा। बेशक, दमन की इस नकारात्मक भावना से मुक्त होने के बाद, लोग परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाने में खुशी, सुकून और आनंद महसूस करेंगे। इसके बाद कुछ लोगों को सत्य का अनुसरण करने का प्रयास करना चाहिए—ऐसे लोगों का भविष्य उज्ज्वल होगा। हालाँकि, यदि तुम लगातार दमित महसूस करते हो और खुद को मुक्त करने के लिए सत्य नहीं खोजते, तो जाओ, अपनी दमन की अवस्था में बने रहो और देखो कि तुम कितने समय तक यह सब सह सकोगे। यदि तुम दमन की इस अवस्था में रहते हो, तो तुम्हारा भविष्य निराशाजनक और घोर अंधकारमय होगा, जिससे तुम कुछ भी नहीं देख सकोगे, और आगे कोई रास्ता नहीं होगा। तुम हर दिन धुंधलके में जियोगे, तुम कितने अनभिज्ञ होगे! वास्तव में, यह एक छोटा-सा मामला है, बस एक मामूली-सी बात है, लेकिन लोग इससे मुक्त नहीं हो सकते, इसे त्याग नहीं सकते या बदल नहीं सकते। यदि वे इसे बदल सकें, तो उनकी मानसिकता और उनके दिल की आकांक्षाएँ और उनके लक्ष्य अलग होंगे। ठीक है, हम आज अपनी संगति यहीं समाप्त करेंगे। मुझे आशा है कि तुम लोग जल्द ही दमन की नकारात्मक भावना से मुक्त हो जाओगे!

19 नवंबर 2022

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