सत्य का अनुसरण कैसे करें (14)

पिछली बार हमने लोगों के अनुसरणों, आदर्शों और आकांक्षाओं को जाने देने के व्यापक विषय में परिवार से जुड़ी चीजों पर संगति की थी—हमारी संगति परिवार विषय के किस खंड पर थी? (पिछली बार परमेश्वर ने परिवार से मिली शिक्षा से आने वाली कुछ कहावतों पर संगति की थी, जैसे कि “साथ-साथ चल रहे किन्हीं भी तीन लोगों में कम-से-कम एक ऐसा होता है जो मेरा शिक्षक बन सकता है,” “लोगों की नजरों में प्रतिष्ठित बनना हो, तो तुम्हें तब कष्ट झेलने होंगे जब कोई देखता न हो,” “जैसे बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ही एक योग्य मनुष्य को तीन अन्य लोगों का सहारा चाहिए,” “महिला उन लोगों के लिए सजेगी-सँवरेगी जो उसकी तारीफ करते हैं, जबकि एक सज्जन उसे समझने वालों के लिए अपनी जान न्योछावर कर देगा,” “बेटियों को अमीर बच्चों की तरह पाल-पोसकर बड़ा करना चाहिए, और बेटों को गरीब बच्चों की तरह,” “लोगों में ऊँचा आईक्यू नहीं बल्कि सिर्फ ऊँचा ईक्यू होना चाहिए,” “किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो,” और “माता-पिता हमेशा सही होते हैं।” कुल मिलाकर इन आठ कहावतों पर चर्चा हुई थी।) हमने परिवार से मिली शिक्षा को जाने देने के बारे में संगति की थी, जिसकी विषयवस्तु में किसी व्यक्ति के विचारों के प्रति परिवार से मिली शिक्षा और अनुकूलन शामिल थे। कुछ कहावतों पर विस्तार से संगति की गई थी, जबकि कुछ का केवल संक्षेप में जिक्र किया गया था और उन पर विशेष संगति नहीं की गई थी। हर व्यक्ति के जीवन में परिवार का बहुत अधिक महत्त्व होता है। यह वह स्थान है जहाँ लोगों की यादें बनती हैं, वे बड़े होते हैं और उनके विविध विचार आकार लेने लगते हैं। लोग कैसा आचरण और व्यवहार करें, चीजों से कैसे निपटें, दूसरों से कैसे मिलें-जुलें, विभिन्न हालात का कैसे सामना करें, और इन हालात का सामना होने पर फैसले कैसे करें और कैसे नजरियों और दृष्टिकोणों से इन चीजों को सँभालें, भले ही उनके विचार और नजरिये शुरुआती हों या ज्यादा ठोस, ये सभी मुख्य रूप से परिवार से मिली शिक्षा पर आधारित होते हैं। यानी बाकायदा समाज में कदम रखने और सामाजिक समूहों से जुड़ने से पहले लोगों के विचारों और नजरियों का अंकुरण परिवार में ही होता है। इसलिए परिवार सबके लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसकी महत्ता शारीरिक विकास से बहुत आगे होती है; ज्यादा अहम यह है कि समाज में कदम रखने से पहले लोग घर में ऐसे बहुत-से विचार और नजरिये सीख लेते हैं जिन्हें समाज, सामाजिक समूहों और अपने आगामी जीवन को देखने के तरीके में अपनाया जाना चाहिए। हालाँकि ये विचार और नजरिये किसी व्यक्ति के सयाना होते समय खास या सही ढंग से परिभाषित नहीं होते, ये विविध विचार और नजरिये, और ये विविध तरीके, नियम और दुनिया से निपटने के साधन भी समाज में कदम रखने से पहले ही उनके माता-पिता, बड़े-बूढ़ों और पारिवार के दूसरे सदस्यों द्वारा बुनियादी और मुख्य रूप से उनके मन में बिठाकर उन्हें प्रभावित और शिक्षा से प्रभावित कर दिया जाता है। मन में बैठाने, प्रभावित करने और शिक्षा से प्रभावित करने का यह अभ्यास तब कराया जाता है जब लोग अपने परिवार में बड़े हो रहे होते हैं; इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए परिवार इतना महत्वपूर्ण होता है। बेशक, इस महत्त्व का निशाना महज उस स्तर पर होता है जब लोग समाज में कदम रखकर सामाजिक समूहों में शामिल होते हैं, और प्रौढ़ अवस्था के जीवन और अस्तित्व में प्रवेश करते हैं—यह शारीरिक अस्तित्व के स्तर तक सीमित होता है। यह दिखाता है कि परिवार से मिली शिक्षा समाज और प्रौढ़ जीवन में प्रवेश करने वाले व्यक्ति के लिए कितनी अहम होती है। यानी जब लोग वयस्क होकर समाज में कदम रखते हैं तो सांसारिक आचरण के उनके फलसफे का ज्यादातर अंश अपने माता-पिता की विरासत और परिवार के प्रभाव से उपजता है। इस परिप्रेक्ष्य से यह भी कहा जा सकता है कि समाज की सबसे छोटी इकाई के रूप में परिवार किसी व्यक्ति के विचारों को गढ़ने के साथ ही दुनिया से निपटने के उसके विविध तौर-तरीकों, सिद्धांतों और जीवन के प्रति दृष्टिकोण को भी आकार देने में सर्वोपरि भूमिका निभाता है। यह मानकर कि ये विविध विचार, नजरिये, दुनिया से निपटने के तौर-तरीके और जीवन के प्रति दृष्टिकोण नकारात्मक हैं, सत्य के अनुरूप नहीं हैं, सत्य से असंबद्ध हैं या यह भी कहा जा सकता है कि ये सत्य के प्रतिकूल हैं और परमेश्वर से नहीं उपजते, इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि लोग अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा को त्याग दें। परिवार से मिली शिक्षा के परिणामों पर विचार करने पर हम देखते हैं कि यह सत्य का खंडन करती है और उसके अनुरूप नहीं है, परमेश्वर का विरोध करती है और अनिवार्य रूप से कहा जा सकता है कि परिवार वह स्थान है जहाँ शैतान मानवता को भ्रष्ट करता है, लोगों को परमेश्वर को नकारने, उसका प्रतिरोध करने और जीवन के गलत पथ पर चलने की ओर आगे बढ़ाता है। इस नजरिये से क्या यह कहा जा सकता है कि समाज की सबसे छोटी इकाई के रूप में परिवार वह स्थान है जहाँ लोग शुरू में भ्रष्ट किए जाते हैं? ऐसा कहना कि शैतान और सामाजिक चलन लोगों को भ्रष्ट करते हैं एक व्यापक परिप्रेक्ष्य है, मगर विशिष्ट बात की जाए तो परिवार को वह स्थान मानना चाहिए जहाँ लोग शुरू में भ्रष्टता और नकारात्मक विचार, बुरी प्रवृत्तियाँ और शैतान के नजरिये स्वीकार करते हैं। और भी विशिष्ट रूप से कहें तो व्यक्ति जिस भ्रष्टता को स्वीकार करता है वह उसके माता-पिता, बड़े-बूढ़ों, परिवार के दूसरे सदस्यों, और उसके संपूर्ण परिवार की प्रथाओं, मूल्यों, परंपराओं, वगैरह से उपजती है। किसी भी स्थिति में परिवार एक आरंभ बिंदु है जहाँ लोग भ्रष्टता से मिलते हैं, शैतान के बुरे विचार और प्रवृत्तियाँ स्वीकारते हैं, और यहीं लोग अपने शुरुआती रचनात्मक वर्षों में विविध भ्रष्ट और बुरे विचार स्वीकार करते हैं। लोगों को भ्रष्ट करने में परिवार वह भूमिका निभाता है जो पूरा समाज, सामाजिक प्रवृत्तियाँ और शैतान नहीं निभा सकते, यानी समाज में कदम रखकर सामाजिक समूहों में शामिल होने से पहले ही बच्चों को परिवार शैतान की बुरी प्रवृत्तियों के विविध विचारों और नजरियों से मिलवा देता है। परिवार का ढाँचा चाहे जैसा भी हो, यह तुम्हारे शैतानी विचारों और नजरियों का प्राथमिक स्रोत है। इसलिए, विविध गलत विचारों और नजरियों को जाने देने में लोगों की मदद करने के लिए यह जरूरी है कि सिर्फ समाज में व्याप्त गलत विचारों और नजरियों को ही नहीं बल्कि परिवार से मिली शिक्षा के गलत विचारों और नजरियों और साथ ही दुनिया से निपटने के सिद्धांतों को भी पहचान कर उनका विश्लेषण किया जाए। परिवार ही ऐसी चीज है जो सारे मानव समाज का अंग है, न कि कलीसिया या परमेश्वर का घर, और स्वर्ग का राज्य तो बिल्कुल भी नहीं। यह भ्रष्ट मानवता के बीच रची गई समाज की सबसे छोटी इकाई मात्र है, और यह सबसे छोटी इकाई भी भ्रष्ट मानवता से ही बनी है। इसलिए, अगर कोई व्यक्ति गलत विचारों और नजरियों की विवशताओं, बंधनों और मुसीबतों से खुद को आजाद करना चाहता हो, तो उसे पहले परिवार से मिली शिक्षा के विविध विचारों और नजरियों पर चिंतन कर उन्हें तब तक समझना और उनका विश्लेषण करना चाहिए, जब तक कि वह उस मुकाम पर न पहुँच जाए जहाँ वह उन्हें जाने दे सके। लोगों को परिवार से मिली शिक्षा को त्यागने के अभ्यास का यह एक सही सिद्धांत है।

पहले हमने लोगों को परिवार से मिली शिक्षा पर संगति की थी, जिसका संबंध समाज में कदम रखते समय उनके जीवन दृष्टिकोण, जीवित रहने के नियमों, दुनिया से व्यवहार और उससे निपटने के तरीकों के सिद्धांतों और खेल के कुछ अलिखित नियमों से है। इस विषयवस्तु से जुड़े जीवन के कुछ दृष्टिकोण क्या हैं? मिसाल के तौर पर, “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है,” और “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” दुनिया से निपटने के कुछ ऐसे सिद्धांत क्या हैं जिन्हें परिवार लोगों के मन में बैठाते हैं? इनके उदाहरण हैं : “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” और “समझौते से संघर्ष सुलटना आसान हो जाएगा।” इनके अलावा और क्या? (“जैसे बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ही एक योग्य मनुष्य को तीन अन्य लोगों का सहारा चाहिए,” और “किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो।” ये दुनिया से निपटने के तरीके और सिद्धांत भी हैं।) क्या खेल के कुछ सामाजिक नियम होते हैं? जैसे कि “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है”? (हाँ।) “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है।” और कुछ? (अपनी ही दवा का स्वाद चखो।) एक यह भी है, लेकिन हमने पिछली बार इस पर संगति नहीं की थी। इसके अलावा, तुम्हारे माता-पिता ने अक्सर तुम्हें बताया, “बाहर दुनिया में तुम्हारा फैसला पक्का, तुम्हारी बोली मीठी और नजर पैनी होनी चाहिए। तुम्हें ‘अपनी आँखें हर रास्ते के लिए खोले रखो, कान हर दिशा में लगाए रखो।’ अपनी चाल-ढाल में इतने ज्यादा स्थिर मत रहो।” साथ ही यह भी है, “किसी का अभिनंदन करना कभी आहत नहीं करता,” और “जहाँ भी रहो तुम्हें बहाव के साथ जाना चाहिए। जब हर कोई अपराधी हो तो कानून लागू नहीं किया जा सकता। शंका होने पर भीड़ के पीछे चलो।” ये सभी खेल के नियमों के प्रकार हैं। फिर ऐसी कहावतें भी हैं, “महिला उन लोगों के लिए सजेगी-सँवरेगी जो उसकी तारीफ करते हैं, जबकि एक सज्जन उसे समझने वालों के लिए अपनी जान न्योछावर कर देगा,” और “दुनिया में बदसूरत महिलाएँ हैं ही नहीं, सिर्फ आलसी महिलाएँ हैं।” ये किस श्रेणी की हैं? ये दैनिक जीवन की श्रेणी की हैं; ये तुम्हें बताती हैं कि कैसे जिएँ और अपने भौतिक शरीर से कैसे पेश आएँ। फिर ऐसी कहावतें भी हैं, “माता-पिता हमेशा सही होते हैं,” “माँ दुनिया में सबसे अच्छी होती है,” “सभी चीजें प्रकृति और परिवेश द्वारा नियत होती हैं,” और “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है।” ये पारिवारिक स्नेह और भावना के विचारों और नजरियों से जुड़े होते हैं। साथ ही लोग अक्सर कहते हैं, “मृत व्यक्ति जीवित लोगों की नजरों में महान होते हैं”—मरने के बाद व्यक्ति महान हो जाता है। अगर तुम ऊँची हैसियत चाहते हो, यह चाहते हो कि लोग तुम्हारे बारे में अच्छा बोलें, तुम्हारा आदर करें, तो तुम्हें मरना होगा। मरने के बाद तुम महान हो जाओगे। “मृत व्यक्ति जीवित लोगों की नजरों में महान होते हैं”—यह तर्क हास्यास्पद है क्या? वे कहते हैं, “किसी के मर जाने के बाद उसके बारे में कुछ बुरा मत बोलो। मृत व्यक्ति जीवित लोगों की नजरों में महान होते हैं। उन्हें थोड़ा आदर दो!” उस व्यक्ति ने जितने भी बुरे काम किए हों, मरने के बाद वह महान हो जाता है। क्या यह लोगों में अच्छे-बुरे को पहचानने का घोर अभाव और आचरण में सिद्धांतहीनता नहीं दर्शाता? (बिल्कुल।) “माता-पिता हमेशा सही होते हैं।” पिछली बार हमने इस पर विस्तार से संगति की थी। ये दूसरी कहावतें, जैसे कि “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है,” और “सभी चीजें प्रकृति और परिवेश द्वारा नियत होती हैं,” संगति का हिस्सा नहीं थीं, लेकिन क्या इन्हें समझना आसान नहीं है? क्या कहावत “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है” सही है? इससे ऐसा लगता है मानो पिता की दी हुई शिक्षा बहुत अहम होती है। कोई पिता अपने बच्चों को किस प्रकार के पथ पर आगे बढ़ा सकता है? क्या वह तुम्हें सही पथ पर ले जा सकता है? क्या वह तुम्हें परमेश्वर की आराधना करने और एक सच्चा नेक इंसान बनने की ओर ले जा सकता है? (नहीं।) तुम्हारे पिता तुम्हें बताते हैं, “पुरुष आसानी से आँसू नहीं बहाते,” लेकिन तुम छोटे हो, और जब तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ कुछ गलत हुआ है तो तुम रोते हो। तुम्हारे पिता तुम्हें डाँट कर कहते हैं, “आँसू रोको! असली पुरुष बनो। हर छोटी-मोटी चीज पर रो देते हो, निकम्मे कहीं के!” इसके बाद तुम सोचते हो, “मैं आँसू नहीं बहा सकता; अगर रोया तो निकम्मा बन जाऊँगा।” तुम अपने आँसू रोक लेते हो, रोने की हिम्मत नहीं करते, और रात को लिहाफ में छिपकर रोते हो। पुरुष होने के नाते तुम्हें सहज रूप से अपनी भावनाएँ व्यक्त करने या जताने का भी हक नहीं है; तुम्हें रोने का भी हक नहीं है, जब भी यह महसूस करो कि तुम्हारे साथ गलत हुआ है, तुम्हें आँसू भीतर ही रोक लेने होंगे। तुमने अपने पिता से यही शिक्षा पाई है, और “बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है” का सच्चा अर्थ यही है। तुम्हारे पिता, तुम्हारी माँ और बड़ी पीढ़ी सब यह कहकर इस शिक्षा से चिपके रहते हैं, “तुम, लड़के हो, किसी भी चीज पर रो बैठते हो, अपने साथ कुछ भी गलत महसूस होने पर रो पड़ते हो, बाहर मार खाने पर भी रोते हो। निकम्मे कहीं के! उन्होंने तुम्हें पीटा, तो तुमने पलटकर क्यों नहीं पीटा? उन्होंने तुम्हें पीटा, इसलिए अब उनके साथ मत खेलना। वे तुम्हें दोबारा दिखें और तुम्हें लगे कि तुम उन्हें पीट सकते हो, तो पीटना; अगर नहीं तो दूर भाग जाना। देखो हान शिन[क] ने किसी दूसरे की टाँगों के बीच से रेंगने पर मजबूर किए जाने की बेइज्जती कैसे झेली। वह नहीं रोया; ऐसा होता है असली पुरुष!” पिता अपने बेटों को ऐसी शिक्षा देते हैं और उनके मन में एक असली पुरुष होने का विचार बैठा देते हैं। पुरुष अपनी मुश्किलें बयान नहीं कर सकते और आँसू नहीं बहा सकते; उन्हें आँसू अपने भीतर रोके रखने होते हैं। तुम्हीं बताओ, पुरुषों को कितना अन्याय सहना चाहिए? इस समाज में, पुरुषों को अपने परिवारों का साथ देना चाहिए, अपने बड़े-बूढ़ों के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखानी चाहिए, और वे कितने भी थके हुए हों, शिकायत करने की हिम्मत नहीं करनी चाहिए। उन्होंने कितना भी अन्याय सहा हो, वे अपनी भड़ास नहीं निकाल सकते। क्या यह पुरुषों के साथ अन्याय नहीं है? (बिल्कुल है।) जब तुम लोगों के पिताओं ने तुम्हें इस तरह शिक्षा दी, तो तुम्हें कैसा लगा? कभी तुम्हारा रोने का मन हुआ, तो तुम्हारे पिता ने क्या कहा? “मैं जिंदगी भर होशियारी से जिया और बढ़िया करने को उत्सुक रहा। मैंने भला तुझ जैसा मरियल बच्चा कैसे पाला? तेरी उम्र में तो मैं अपने परिवार को सहारा देने लगा था। और एक तू है, लाड़-दुलार पाकर बिगड़ गया, निकम्मा कहीं का!” तुम लोगों को कैसा लगा? तुम्हारे माता-पिता और दादा-दादी ने तुम्हें यह कहकर शिक्षा दी : “पुरुष परिवार का स्तंभ होता है, हम तुझे सहारा क्यों देते हैं? तुझे कॉलेज क्यों भेजते हैं? यह परिवार को सहारा देने में तेरी मदद करने के लिए है, इसलिए नहीं कि कुछ भी होने पर तू महसूस करे कि तेरे साथ गलत हुआ है और तू रोए।” तुम लोगों के पिताओं और बड़े-बूढ़ों ने जब ये बातें कहीं, तो तुम लोगों को कैसा लगा? क्या तुम्हें लगा कि तुम्हारे साथ गलत हुआ है या तुमने इसे हल्के में लिया था? (मैंने अवसादग्रस्त महसूस किया था, लगा मेरे साथ गलत हुआ है।) क्या तुम्हारे पास इसे मंजूर करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था, या क्या तुमने दिल में नाराजगी महसूस की थी? (मुझे नाराजगी महसूस हुई थी, पर मुझे इसे मंजूर करना पड़ा था।) तुमने ऐसा क्यों किया? (क्योंकि मुझे लगा कि ऐसी हालत या सामाजिक प्रणाली में मेरे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था।) समाज पुरुषों को ऐसी ही स्थिति में रखता है। वे ऐसी सामाजिक परिस्थिति में पैदा होते हैं और किसी के पास कोई विकल्प नहीं होता। तुमने अपने माता-पिता और बड़े-बूढ़ों से जो शिक्षा पाई वह समाज से उपजी थी; विचारधारा की यह शिक्षा पाने के बाद उन्होंने समाज से मिले ये विचार तुम्हारे भीतर बिठा दिए। वास्तविकता में, जब उन्होंने अपने शुरुआती रचनात्मक वर्षों में ये विचार और नजरिये स्वीकार किए थे, तब उन्होंने भी अनिच्छा से ही ऐसा किया था। बड़े होने पर उन्होंने ये विचार अगली पीढ़ी में पहुँचा दिए। उन्होंने यह नहीं सोचा कि नई पीढ़ी को ये विचार और नजरिये स्वीकार करने चाहिए या नहीं, ये सही हैं या नहीं, क्योंकि वे इसी तरह बड़े हुए थे। उन्होंने सोचा कि लोगों को इसी तरह जीना चाहिए; तुम्हारे साथ गलत हुआ भी हो तो क्या फर्क पड़ता है, अहम चीज यह है कि इन विचारों को स्वीकार करने से तुम्हें समाज में पाँव जमाने और दूसरे लोगों से धौंस न खाने में मदद मिलेगी। उन्होंने भी ये मुसीबतें सहीं, तुम्हारी तरह अवसादग्रस्त और रोषपूर्ण महसूस किया, फिर भी ये विचार और नजरिये तुम्हें क्यों पहुँचा दिए? एक कारण यह है कि उन्होंने समाज से विविध विचार और नजरिये सहज ही स्वीकार कर लिए जिससे उन्हें सामाजिक प्रवृत्तियों में घुल-मिल जाने और समाज में अपने पाँव जमाने में मदद मिली। सभी लोग इन पर सवाल उठाए बिना या इनसे दूर होने या इनके खिलाफ विद्रोह करने की इच्छा किए बिना, इन विचारों और नजरियों का निर्देशों और मानदंडों के रूप में पालन करते हैं। जीवित रहने के लिए यह एक पहलू है। दूसरा मुख्य पहलू यह है कि लोगों में सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच भेद करने की काबिलियत नहीं होती है। ऐसा क्यों है? इसलिए कि लोग सत्य को नहीं समझते, और उनमें जीवित रहने, दुनिया से निपटने या जिस पथ पर उन्हें चलना चाहिए, उस बारे में सही विचारों और नजरियों का अभाव होता है। समाज के अनुसार ढलने, उसमें शामिल होने, और इस समाज और सामाजिक समूहों में जीवित रहने के लिए लोगों को सक्रिय या निष्क्रिय रूप से दुनिया से निपटने के लिए समाज द्वारा तय किए गए विविध सिद्धांतों और समाज द्वारा स्थापित खेल के नियमों को स्वीकार करना पड़ता है। ढलने का प्रयोजन यह है कि लोग समाज में खुद को स्थापित कर सकें और जीवित रह सकें। लेकिन चूँकि लोग सत्य को नहीं समझते, इसलिए उनके पास समाज द्वारा तय किए गए दुनिया से निपटने के सिद्धांतों और खेल के नियमों को चुनने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता है। इसलिए एक पुरुष के रूप में जब तुम्हारे पिता ने तुम्हें यह सिखाया, “पुरुष आसानी से आँसू नहीं बहाते,” तो अपने साथ गलत महसूस करके और अपनी भड़ास निकालना चाह कर भी तुम्हारे पास उनकी बात काटने का कोई तरीका नहीं था, न ही तुम यह समझ पाए कि वे क्या कह रहे थे। आखिरकार इसे दिल से स्वीकार करने के पीछे तुम्हारा कारण यह था कि “हालाँकि मेरे पिता की बातें सुनने में थोड़ी कठोर और मुश्किल हैं, और भले ही इनको स्वीकार करना मेरी इच्छा के विरुद्ध है, फिर भी वह ये सब मेरी भलाई के लिए कर रहे हैं, इसलिए मुझे इन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए।” अपनी अंतरात्मा और संतानोचित निष्ठा के कारण लिहाज कर लोगों को इन विचारों और नजरियों को स्वीकार करना पड़ता है। परिवार से मिली शिक्षा का चाहे कोई भी पहलू हो, वे निरंतर ऐसी दशा में होते हैं, इन तरीकों से लगातार उनके मन में ये बातें तब तक बिठाई जाती हैं जब तक वे अनिच्छा से ही सही इन्हें स्वीकार नहीं कर लेते। निरंतर स्वीकृति की इस पूरी प्रक्रिया के दौरान ये गलत और नकारात्मक विचार और नजरिये धीरे-धीरे रिसकर व्यक्ति के अंतरतम में समा जाते हैं, या धीमे-धीमे और लगातार उनके विचारों और नजरियों में बैठ जाते हैं, और ऐसे तमाम आधार बन जाते हैं जिनके जरिये वे दुनिया से व्यवहार कर उससे निपटते हैं। इस प्रक्रिया को भी भ्रष्ट होना कहना सही होगा क्योंकि गलत विचार और नजरिये स्वीकारना भी भ्रष्टता की प्रक्रिया है। तो लोगों को किसने भ्रष्ट किया? भावार्थ में, उन्हें शैतान ने, बुरी प्रवृत्तियों ने भ्रष्ट किया; और विशेष अर्थ में, उनके परिवार ने उन्हें भ्रष्ट किया, और भी अधिक विशेष अर्थ में उनके माता-पिता ने उन्हें भ्रष्ट किया। अगर मैंने दस वर्ष पहले यह कहा होता, तो शायद तुम लोगों में से कोई भी इसे स्वीकार न कर पाता और तुम सब मुझसे बैर रख लेते। लेकिन अब तुममें से ज्यादातर लोग इस वक्तव्य को तर्कपूर्ण ढंग से सही मानकर “आमीन” कह सकते हो, है कि नहीं? (बिल्कुल।) यह वक्तव्य सही क्यों है? यह समझने के लिए लोगों को धीरे-धीरे अपने पूरे अनुभव के दौरान इसे अच्छी तरह समझना होगा। तुम्हारी समझ जितनी विशिष्ट और गूढ़ होगी, और तुम्हारे अनुभवों में इसकी जितनी झलक मिलेगी, उतना ही ज्यादा तुम इस वक्तव्य से सहमत हो सकोगे।

परिवार से मिली शिक्षा में बहुत करके दुनिया से व्यवहार करने और निपटने के खेल के और भी बहुत-से नियम जुड़े होते हैं। मिसाल के तौर पर, माता-पिता अक्सर कहते हैं, “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए; तुम अत्यंत मूर्ख और भोले हो।” माता-पिता अक्सर ऐसी बातें दोहराते रहते हैं, और बड़े-बूढ़े यह कह कर तुम्हें तंग करते हैं, “नेक इंसान बनो, दूसरों को नुकसान मत पहुँचाओ, लेकिन तुम्हें खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए। सभी लोग ख़राब हैं। शायद तुम देखो कि कोई बाहर से तुमसे मीठी बातें करता है, मगर तुम्हें नहीं पता वह भीतर क्या सोच रहा है। लोगों के दिल उनकी त्वचा के नीचे छिपे होते हैं, और एक बाघ का चित्र बनाते समय तुम उसकी खाल दिखाते हो, उसकी हड्डियाँ नहीं; इंसान को जानने में, तुम उसकी शक्ल-सूरत को जान सकते हो, लेकिन उसके दिल को नहीं।” क्या इन वाक्यांशों का कोई सही पहलू भी है? इनमें से प्रत्येक को शाब्दिक रूप से देखें, तो ऐसे वाक्यांशों में कुछ गलत नहीं है। कोई व्यक्ति भीतर गहरे क्या सोच रहा है, उसका दिल शातिर है या दयालु, नहीं जाना जा सकता। किसी व्यक्ति की आत्मा के भीतर झाँकना नामुमकिन है। इन वाक्यांशों का निहितार्थ जाहिर तौर पर सही है, लेकिन यह एक प्रकार का सिद्धांत ही है। इन दो वाक्यांशों से लोग आखिरकार दुनिया से निपटने का कौन-सा सिद्धांत निकाल पाते हैं? वह यह है कि “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए।” पुरानी पीढ़ी यही कहती है। माता-पिता और बड़े-बूढ़े अक्सर यह कहते हैं, और वे तुम्हें यह कह कर निरंतर परामर्श देते हैं, “सावधान रहो, मूर्ख मत बनो, और अपने दिल की पूरी बात प्रकट मत करो। खुद को सुरक्षित रखना सीखो, और सतर्क रहो। अच्छे दोस्तों के सामने भी अपनी असलियत या अपना दिल खोल कर मत रखो। उनके लिए अपनी जान दाँव पर मत लगाओ।” क्या तुम्हारे बड़े-बूढ़ों की यह चेतावनी सही है? (नहीं, यह लोगों को कपटपूर्ण तरीके सिखाती है।) सैद्धांतिक तौर पर, इसका एक अच्छा प्राथमिक उद्देश्य है : तुम्हारी रक्षा करना, तुम्हें खतरनाक हालात में गिरने से रोकना, तुम्हें दूसरों से हानि होने या धोखा खाने से बचाना, तुम्हारे भौतिक हितों, निजी सुरक्षा और तुम्हारे जीवन को सुरक्षित रखना। इसका उद्देश्य तुम्हें मुसीबत, कानूनी मुकदमों और प्रलोभनों से बचाना और हर दिन अमन-चैन और खुशी से जीने देना है। माता-पिता और बड़े-बूढ़ों का मुख्य उद्देश्य बस तुम्हारी रक्षा करना है। लेकिन वे जिस तरह तुम्हारी रक्षा करते हैं, पालन करने के लिए तुम्हें जिन सिद्धांतों का परामर्श देते हैं, और जो विचार वे तुम्हारे मन में बैठाते हैं वे सब सही नहीं हैं। वैसे उनका मुख्य उद्देश्य सही है, पर जो विचार वे तुम्हारे भीतर बैठाते हैं वे अनजाने ही तुम्हें अति की ओर आगे बढ़ाते हैं। ये विचार तुम्हारे दुनिया से निपटने के तरीके के सिद्धांत और आधार बन जाते हैं। जब तुम सहपाठियों, सहयोगियों, सहकर्मियों, वरिष्ठ अधिकारियों और समाज के हर प्रकार के व्यक्ति, जीवन के हर वर्ग के लोगों से मिलते-जुलते हो, तो तुम्हारे भीतर तुम्हारे माता-पिता द्वारा बैठाए गए रक्षात्मक विचार अनजाने ही तुम्हारे परस्पर रिश्तों से जुड़े मामलों को संभालते समय तुम्हारा सबसे बुनियादी जंतर और सिद्धांत बन जाते हैं। यह कौन-सा सिद्धांत है? यह है : मैं तुम्हें हानि नहीं पहुँचाऊँगा, लेकिन मुझे हमेशा सतर्क रहना होगा ताकि मैं तुम्हारे छल-कपट से बच सकूँ, मुश्किलों या कानूनी मुकदमों में फँसने से बच सकूँ, अपने पारिवारिक धन-दौलत को डूबने से बचा सकूँ, अपने परिवार के लोगों का अंत होने और खुद को जेल जाने से बचा सकूँ। ऐसे विचारों और नजरियों के नियंत्रण में जीते हुए, दुनिया से निपटने के ऐसे रवैए वाले सामाजिक समूह में जीते हुए तुम सिर्फ ज्यादा उदास ही हो सकते हो, ज्यादा थक सकते हो, तन-मन दोनों से थक कर चूर हो सकते हो। आगे चलकर तुम इस दुनिया और मानवता के प्रति और ज्यादा प्रतिरोधी और विरक्त हो जाते हो, और उनसे ज्यादा घृणा कर सकते हो। दूसरों से घृणा करते हुए तुम खुद को कम आँकने लगते हो, ऐसा महसूस करते हो कि तुम एक इंसान जैसे नहीं जी रहे हो, बल्कि एक थका-हारा, उदासी भरा जीवन जी रहे हो। दूसरों से होने वाली हानि से बचने के लिए तुम्हें निरंतर सतर्क रहना होता है, और अपनी इच्छा के विरुद्ध काम करना पड़ता है, बातें कहनी पड़ती हैं। अपने हितों की रक्षा और निजी सुरक्षा के प्रयास में तुम अपने जीवन के हर पहलू में एक नकली मुखौटा पहन लेते हो, छद्मवेश में आ जाते हो, और कभी भी सत्य वचन कहने की हिम्मत नहीं करते। इस स्थिति में, जीवित रहने के इन हालात में, तुम्हारी अंतरात्मा को मुक्ति या आजादी नहीं मिल पाती। तुम्हें अक्सर किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ती है जिससे तुम्हें कोई हानि न हो, जो कभी तुम्हारे हितों के लिए खतरा न बने, जिसके साथ तुम अपने अंतर्मन के विचार साझा कर सको और अपनी बातों की कोई जिम्मेदारी लिए बिना, किसी के मखौल, हँसी, मजाक उड़ाए बिना या कोई नतीजा भुगते बिना अपनी भड़ास निकाल सको। ऐसी स्थिति में जहाँ “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए” का विचार और नजरिया दुनिया से निपटने का तुम्हारा सिद्धांत हो, वहाँ तुम्हारा अंतरतम भय और असुरक्षा से भर जाता है। स्वाभाविक रूप से तुम उदास रहते हो, इससे मुक्ति नहीं पाते और तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ती है जो तुम्हें सांत्वना दे, जिससे तुम अपने मन की बात कह सको। इसलिए, इन पहलुओं से परखें तो दुनिया से निपटने का तुम्हारे माता-पिता का सिखाया सिद्धांत “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए,” भले ही तुम्हारी रक्षा करने में सफल हो सकता है, मगर यह एक दुधारी तलवार है। वैसे तो यह तुम्हारे भौतिक हितों और निजी सुरक्षा की किसी हद तक रक्षा करता है, पर यह साथ ही तुम्हें उदास और दुखी बना देता है, तुम मुक्ति नहीं पाते, और यह तुम्हें इस दुनिया और मानवता से और भी ज्यादा विरक्त कर देता है। साथ ही, भीतर गहरे तुम हल्के-से उकताने भी लगते हो कि ऐसे बुरे युग में, ऐसे बुरे लोगों के समूह में तुम्हारा जन्म हुआ। तुम नहीं समझ पाते कि लोगों को जीना क्यों चाहिए, जीवन इतना थकाऊ क्यों है, उन्हें हर जगह मुखौटा पहनकर खुद को छद्मवेश में क्यों रखना पड़ता है, या तुम्हें अपने हितों की खातिर हमेशा दूसरों से सतर्क क्यों रहना पड़ता है। तुम चाहते हो कि सच बोल सको, मगर इसके नतीजों के कारण तुम नहीं बोल सकते। तुम एक असली इंसान बनाना चाहते हो, खुलकर बोलना और आचरण करना चाहते हो, और एक नीच व्यक्ति बनने या चोरी-छिपे दुष्ट और शर्मनाक काम करने, पूरी तरह अंधकार में जीने से बचना चाहते हो, मगर तुम इनमें से कुछ भी नहीं कर सकते। तुम ईमानदारी से क्यों नहीं जी सकते? अपने पूर्व कर्मों पर सोच-विचार करते हुए तुम एक हल्की-सी उपेक्षा महसूस करते हो। तुम इस बुरी प्रवृत्ति और इस बुरी दुनिया से घृणा और बेइंतहा नफरत करते हो, और साथ ही खुद से भी गहराई से घृणा करते हो, और तुम्हें अपने इस रूप से घिन होती है। फिर भी ऐसा कुछ नहीं है जो तुम कर सकते हो। भले ही तुम्हारे माता-पिता ने अपनी कथनी-करनी के जरिये तुम्हें यह जंतर सौंपा है, फिर भी तुम्हें लगता है कि तुम्हारे जीवन में खुशी या सुरक्षा की भावना नहीं है। जब तुम इस खुशी, सुरक्षा, ईमानदारी और स्वाभिमान की कमी का अनुभव करते हो, तो तुम यह जंतर पाने के लिए अपने माता-पिता का आभार भी मानते हो और खुद को इन जंजीरों में बाँधने के लिए क्रोधित भी होते हो। तुम नहीं समझते कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें ऐसा आचरण करने को क्यों कहा, समाज में पाँव जमाने, इस सामाजिक समूह में शामिल होने और अपनी रक्षा करने के लिए ऐसा आचरण करना क्यों जरूरी है। यह एक जंतर है, मगर साथ ही यह एक प्रकार की जंजीर भी है, जिससे तुम अपने दिल में प्रेम और घृणा दोनों महसूस करते हो। लेकिन तुम क्या कर सकते हो? तुम्हारे पास जीवन में सही पथ नहीं है, तुम्हें कोई यह नहीं बताता कि कैसे जिएँ या अपने सामने आई चीजों से कैसे निपटें, और कोई यह नहीं बताता कि तुम जो कर रहे हो वह सही है या गलत, या तुम्हें अपने सामने के पथ पर कैसे चलना चाहिए। तुम सिर्फ भ्रम, अनिश्चय, पीड़ा और बेचैनी में पड़ सकते हो। ये नतीजे तुम्हारे माता-पिता और परिवार द्वारा तुम्हारे मन में बैठाए गए सांसारिक आचरण के फलसफे के हैं, जिससे एक सरल व्यक्ति बनने की तुम्हारी सबसे सरल कामना यानी दुनिया से निपटने के इन उपायों का इस्तेमाल किए बिना ईमानदारी से आचरण कर पाने की तुम्हारी आकांक्षा साकार नहीं हो सकती। तुम समझौते करते हुए, अपनी शोहरत की खातिर जीते हुए, दूसरों से सुरक्षित रहने के लिए खुद को खास तौर पर खूंख्वार बनाते हुए, धौंस खाने से बचने के लिए खूंख्वार, कद्दावर, ताकतवर, सामर्थ्यवान और असाधारण होने का नाटक करते हुए केवल भ्रष्ट ढंग से जी सकते हो। तुम अपनी इच्छा के विरुद्ध ही इस तरह जी सकते हो, जिसके कारण तुम खुद से घृणा करते हो, मगर तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं है। चूँकि तुम्हारे पास दुनिया से निपटने के इन तरीकों या रणनीतियों से बचने की काबिलियत या राह नहीं है, इसलिए तुम खुद को अपने परिवार और माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा के विचारों के अनुसार ही चलने दे सकते हो। बेसुधी की इस प्रक्रिया में लोग अपने परिवारों और माता-पिता द्वारा अपने भीतर बैठाए गए विचारों से बेवकूफ बनते और नियंत्रित होते हैं, और चूँकि वे यह नहीं समझते कि सत्य क्या है और जीना कैसे है, इसलिए वे इसे सिर्फ भाग्य पर छोड़ सकते हैं। भले ही उनमें थोड़ी-सी अंतरात्मा बाकी हो, या उनमें मनुष्यों की तरह जीने की, दूसरों के साथ उचित ढंग से मिल-जुल कर रहने और स्पर्धा करने की छोटी-सी भी आकांक्षा हो, तो उनकी कामनाएँ चाहे जो भी हों, वे अपने परिवार से आए विविध विचारों और नजरियों की शिक्षा और नियंत्रण से बच नहीं सकते, और अंत में वे उसी विचार और नजरिये की शरण में लौट सकते हैं जिसकी उनके परिवार ने उन्हें शिक्षा दी है कि “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए,” क्योंकि उनके सामने कोई दूसरा पथ नहीं है—उनके पास कोई विकल्प नहीं है। ये तमाम चीजें लोगों के सत्य को न समझ पाने और सत्य प्राप्त करने में उनकी विफलता के कारण होते हैं। बेशक, माता-पिता तुम्हें यह भी बताते हैं, “एक बाघ का चित्र बनाते समय तुम उसकी खाल दिखाते हो, उसकी हड्डियाँ नहीं; इंसान को जानने में, तुम उसकी शक्ल-सूरत को जान सकते हो, लेकिन उसके दिल को नहीं”; वे तुम्हें दूसरों से सुरक्षित रहने की कला के बारे में बताते हैं, और तुम्हें ऐसा इसलिए करने को कहते हैं क्योंकि तमाम लोग कपटी हैं; अगर तुम लोगों को गहराई से नहीं समझ सकते, तो उनकी चालों में फँसना आसान होता है, उनके अंदरूनी विचार शायद वही न हों जैसे वे बाहर से दिखते हैं, कोई व्यक्ति ऊपर से धार्मिक और दयालु दिखाई दे सकता है, लेकिन उसका दिल साँप या बिच्छू जैसा जहरीला हो सकता है; या कोई व्यक्ति ऊपर से तो परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता की बातें कर सकता है, तमाम सही बातें कह सकता है, उसकी कथनी में धार्मिकता और नैतिकता भरी हो सकती है, लेकिन अपने दिल और आत्मा में कहीं गहरे वह निहायत गंदा, घिनौना, नीच और दुष्ट हो सकता है। इसलिए, तुम अपने माता-पिता द्वारा तुम्हारे भीतर बैठाए गए विचारों और नजरियों के आधार पर ही दूसरों को देख सकते हो और उनके साथ मिल-जुल सकते हो।

“किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए,” और “एक बाघ का चित्र बनाते समय तुम उसकी खाल दिखाते हो, उसकी हड्डियाँ नहीं; इंसान को जानने में, तुम उसकी शक्ल-सूरत को जान सकते हो, लेकिन उसके दिल को नहीं” दुनिया से निपटने के वे सबसे बुनियादी सिद्धांत हैं, और साथ ही लोगों को देखने और उनसे सुरक्षित रहने के सबसे बुनियादी मानदंड हैं, जो माता-पिता तुम्हारे भीतर बैठाते हैं। माता-पिता का प्राथमिक उद्देश्य तुम्हें बचाना और अपनी रक्षा करने में तुम्हारी मदद करना है। लेकिन एक दूसरी दृष्टि से इन वचनों, विचारों और नजरियों से तुम्हें और भी ज्यादा महसूस हो सकता है कि दुनिया खतरनाक है और लोग भरोसेमंद नहीं हैं, जिस कारण तुम्हारे मन में दूसरों के प्रति सकारात्मक भावना बिल्कुल नहीं होती। लेकिन तुम वास्तव में दूसरों को कैसे पहचान और देख सकते हो? किन लोगों के साथ तुम्हारी बन सकती है और लोगों के बीच उचित रिश्ता क्या होना चाहिए? किसी व्यक्ति को दूसरों के साथ सिद्धांतों के आधार पर कैसे मिलना-जुलना चाहिए, और कोई दूसरों के साथ कैसे उचित और सद्भावनापूर्ण ढंग से मिल-जुल सकता है? माता-पिता इन चीजों के बारे में कुछ भी नहीं जानते। वे लोगों से सुरक्षित रहने के लिए दुनिया से निपटने के विविध खेलों के नियमों, चालों, साजिशों का इस्तेमाल करना ही जानते हैं और वे खुद दूसरों को चाहे जितनी भी हानि पहुँचाएँ, लेकिन उनसे खुद को हानि से बचाने के लिए उनका फायदा उठाना और उन्हें नियंत्रित करना जानते हैं। अपने बच्चों को ये विचार और नजरिये सिखाते समय माता-पिता उनके भीतर जो चीजें बिठाते हैं वे महज दुनिया से निपटने की कुछ रणनीतियाँ ही होती हैं। ये रणनीतियों से अधिक कुछ नहीं हैं। इन रणनीतियों में क्या शामिल होता है? हर तरह की चालें, खेल नियम, दूसरों को कैसे खुश करें, अपने हितों की रक्षा कैसे करें और निजी फायदा कैसे खूब बढ़ाएँ। क्या ये सिद्धांत ही सत्य हैं? (नहीं, ये सत्य नहीं हैं।) क्या ये लोगों के पालन करने के सही पथ हैं? (नहीं।) इनमें से कोई भी सही पथ नहीं है। तो माता-पिता द्वारा तुम्हारे भीतर बैठाए गए इन विचारों का सार क्या है? ये सत्य के अनुरूप नहीं हैं, ये सही पथ नहीं हैं, और ये सकारात्मक चीजें नहीं हैं। तो फिर ये क्या हैं? (ये पूरी तरह से शैतान का वह फलसफा हैं जो हमें भ्रष्ट करता है।) नतीजे देखें तो ये लोगों को भ्रष्ट करते हैं। तो इन विचारों का सार क्या है? जैसे, “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए”—क्या यह दूसरों से मिलाने-जुलने का सही सिद्धांत है? (नहीं, ये पूरी तरह से नकारात्मक चीजें हैं जो शैतान से आती हैं।) ये नकारात्मक चीजें हैं जो शैतान से आती हैं—तो उनका सार और उनकी प्रकृति क्या है? क्या ये चालें नहीं हैं? क्या ये रणनीतियाँ नहीं हैं? क्या ये दूसरों को जीतने की युक्तियाँ नहीं हैं? (बिल्कुल।) ये सत्य में प्रवेश करने के अभ्यास सिद्धांत या सकारात्मक सिद्धांत और दिशाएँ नहीं है जिनसे परमेश्वर लोगों को सिखाता है कि अपना आचरण कैसे करें; ये दुनिया से निपटने की रणनीतियाँ हैं, ये चालें हैं। इसके अलावा, क्या “एक बाघ का चित्र बनाते समय तुम उसकी खाल दिखाते हो, उसकी हड्डियाँ नहीं; इंसान को जानने में, तुम उसकी शक्ल-सूरत को जान सकते हो, लेकिन उसके दिल को नहीं” जैसे वाक्यांशों की प्रकृति भी वही है? (हाँ।) क्या ये वाक्यांश तुम्हें नहीं सिखाते कि कपटी बन जाओ, सीधे-सादे या ईमानदार न रहो, ऐसे बन जाओ कि दूसरों के लिए तुम्हें भाँपना और गहराई से समझना मुश्किल हो जाए? क्या इन विचारों और नजरियों से मिले दुनिया से निपटने के विशेष सिद्धांत तुम्हें नहीं बताते कि दूसरों से मेल-जोल के समय रणनीतियों का इस्तेमाल करो, दूसरों को जीतना सीखो और उन खेल नियमों को सीखो जो हर युग में लोगों के बीच प्रचलित रहते हैं? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “माता-पिता अपने बच्चों को ये वाक्यांश दूसरों से सुरक्षित रहने और दूसरों को देखने के नजरियों के बारे में निर्देश देने के लिए बताते हैं।” क्या उन्होंने तुम्हें बताया कि दूसरों को किस दृष्टि से देखें? उन्होंने तुम्हें नहीं बताया कि दूसरों को किस दृष्टि से देखें, नहीं बताया कि विभिन्न लोगों को सही सिद्धांतों के नजरिये से देखें, बल्कि विभिन्न लोगों की जरूरतों और रणनीतियों के मुताबिक चालों और साजिशों का इस्तेमाल करना बताया। मिसाल के तौर पर, तुम्हारा अधिकारी या उच्च अधिकारी घिनौना और कामुक है। तुम सोचते हो, “अधिकारी ऊपर से तो सम्मानित और ईमानदार लगता है, मगर भीतर से वह असल में कामुक व्यक्ति है। वह अपनी आत्मा में कहीं गहरे ऐसा नीच कमीना है। ठीक है, मैं उसकी पसंद का ख्याल रखूँगा, देखूंगा कि कौन-सी महिला सुंदर दिखती है, उससे मिलूँगा और अधिकारी को खुश करने के लिए उससे उसे मिलवाऊंगा।” क्या यह दुनिया से निपटने की रणनीति है? (हाँ।) मिसाल के तौर पर, जब तुम ऐसे किसी को देखते हो जिसके मूल्य का तुम फायदा उठा सकते हो, और जो तुम्हारे मेल-जोल के लायक हो, मगर जिसके साथ गड़बड़ करना आसान न हो, तो तुम सोचते हो, “मुझे उससे वैसी ही चापलूसी की बातें करनी हैं, जो वह सुनना चाहता हो।” वह व्यक्ति कहता है, “आज मौसम सुहाना है।” तुम कहते हो, “मौसम सचमुच सुहाना है, कल भी अच्छा होगा।” वह कहता है, “आज मौसम सचमुच ठंडा है।” तुम कहते हो, “हाँ, मौसम ठंडा है। आप कुछ गर्म क्यों नहीं पहनते? मेरा कोट गर्म है, ये लीजिए, पहन लीजिए।” वह जैसे ही जम्हाई लें, तुम फौरन उसे तकिया बढ़ाने लगते हो; वह दवा की शीशी ले, तो तुम उसके लिए जल्दी से ग्लास में पानी डालते हो; खाना खाने के बाद वह बैठ जाए, तो तुम उसके लिए जल्दी से चाय बनाते हो। क्या ये दुनिया से निपटने की रणनीतियाँ नहीं हैं? (बिल्कुल।) ये दुनिया से निपटने की रणनीतियाँ हैं। तुम ये रणनीतियाँ क्यों इस्तेमाल कर पाते हो? तुम उसकी चापलूसी क्यों करना चाहते हो? अगर तुम्हें उसकी जरूरत नहीं होती, अगर उससे तुम्हें कोई फायदा नहीं दिखता, तो क्या तुम उससे इस तरह पेश आते? (नहीं।) नहीं, यह वैसा ही है जैसा लोग कहते हैं, “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो।” यह सब्जियों के बगीचे में पानी की बाल्टी ले जाने जैसा है—तुम सिर्फ उन्हीं पौधों को पानी देते हो जो तुम्हारे काम के हैं। तुम सक्रिय रूप से उस व्यक्ति की चापलूसी करते हो जो तुम्हारे काम का है। एक बार जब वह अपने पद से उतर जाए या हटा दिया जाए, तो उसके प्रति तुम्हारा जोश तुरंत ठंडा हो जाता है और तुम उसकी अनदेखी करते हो। जब वह तुम्हें फोन करता है, तो या तो तुम अपना फोन बंद कर देते हो या बहाना करते हो कि लाइन व्यस्त है, और जवाब नहीं देते। जब तुम्हारी नजर उस पर पड़ती है तो वह तुम्हारा अभिवादन कर कहता है, “आज मौसम बढ़िया है।” तुम यह कह कर उन्हें भौंचक्का कर देते हो, “अरे हाँ। फिर मिलेंगे, कोई बात हुई तो आगे बात करेंगे, मैं किसी दिन आपको भोजन का निमंत्रण दूँगा।” खोखले वादे, और फिर तुम उसकी अनदेखी करते हो, उससे संपर्क नहीं करते और उसे ब्लॉक भी कर देते हो। माता-पिता के बैठाए विचार और नजरिये लोगों के दिलों पर एक अदृश्य सुरक्षा कवच बना देते हैं। साथ-ही-साथ, वे दुनिया से निपटने या जीवित रहने के बुनियादी तरीके भी लोगों के भीतर बैठाते हैं, लोगों को दोनों ओर से खेलना और किसी सामाजिक समूह में घुल-मिल जाना, समाज में खुद को स्थापित करना और लोगों के समूह में धौंस खाने से बचना सिखाते हैं। हालाँकि तुम समाज में प्रवेश करो इससे पहले, तुम्हारे माता-पिता ने विशेष रूप से तुम्हारा मार्गदर्शन नहीं किया कि विशिष्ट हालात से कैसे निपटें, दुनिया से निपटने के इन तरीकों और सिद्धांतों के संदर्भ में तुम्हारे माता-पिता या परिवार द्वारा दी गई शिक्षा ने तुम्हें दुनिया से निपटने के बुनियादी विचार और सिद्धांत दिए हैं। दुनिया से निपटने की ये बुनियादी विचार और सिद्धांत क्या हैं? ये तुम्हें सिखाते हैं कि लोगों से मिलते-जुलते समय कोई मुखौटा कैसे पहनें, प्रत्येक सामाजिक समूह में मुखौटे के साथ कैसे जिएँ, और आखिरकार अपनी शोहरत और फायदे को नुकसान से बचाने के लक्ष्य के साथ ही मनचाही शोहरत और फायदा कैसे हासिल करें, या अपनी सुरक्षा की बुनियादी गारंटी कैसे हासिल करें। तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हारे भीतर बैठाए गए दुनिया से निपटने के विचारों और नजरियों और विविध रणनीतियों से यह देखा जा सकता है कि माता-पिता ने तुम्हें यह नहीं सिखाया कि स्वाभिमानी व्यक्ति, वास्तविक व्यक्ति, एक नेक सृजित प्राणी या सत्य प्राप्त व्यक्ति कैसे बनें। इसके विपरीत उन्होंने तुम्हें बताया कि दूसरों को धोखा कैसे दें, दूसरों से सतर्क कैसे रहें, विभिन्न लोगों से मेल-जोल में रणनीतियाँ कैसे इस्तेमाल करें, और साथ ही यह भी कि लोगों के दिल कैसे होते हैं, और मानवजाति कैसी होती है। अपने माता-पिता से आए इन विचारों और नजरियों की शिक्षा के असर से तुम्हारा अंतरतम और भी डरावना होता जाता है और तुम लोगों के प्रति द्वेष की भावना विकसित कर लेते हो। तुम्हारे नाजुक दिल में दुनिया से निपटने की रणनीतियाँ तैयार होने से पहले ही मानवता की एक अल्पविकसित और बुनियादी परिभाषा, और साथ ही दुनिया से निपटने का एक अल्पविकसित और बुनियादी सिद्धांत होता है। तो तुम्हारे दुनिया से निपटने में तुम्हारे माता-पिता क्या भूमिका निभाते हैं? वे बेशक तुम्हें गलत रास्ते पर आगे बढ़ाने की भूमिका निभाते हैं; वे अच्छे पथ पर चलने में तुम्हारी अगुआई नहीं करते या तुम्हें सकारात्मक और सक्रिय रूप से मानव जीवन के सही पथ की ओर नहीं ले जाते, बल्कि तुम्हें भटकाव की ओर ले जाते हैं।

अपने बेटों को “पुरुष आसानी से आँसू नहीं बहाते,” जैसी कहावतों की शिक्षा देने के अलावा, माता-पिता उन्हें अक्सर बताते हैं : “‘एक अच्छा मुर्गा कुत्तों से नहीं लड़ता; एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता’; लड़कियों के साथ खिलवाड़ या लड़ाई मत करो; उनके स्तर तक मत गिरो; वे लड़कियाँ हैं और तुम्हें उनके साथ नरमी बरतनी चाहिए।” तुम्हें उनके साथ नरमी क्यों बरतनी चाहिए? अगर उन्होंने कुछ गलत किया है तो उनके साथ नरमी नहीं बरतनी चाहिए या उन्हें बिगाड़ना नहीं चाहिए। महिला-पुरुष बराबर हैं। तुम्हारी ही तरह माता-पिता ने उन्हें भी जन्म दिया, पाल-पोसकर बड़ा किया, फिर तुम्हें उनके साथ नरमी क्यों बरतनी चाहिए? सिर्फ इस कारण से कि वे महिलाएँ हैं? वे कुछ गलत करें तो उन्हें दंड मिलना चाहिए, उस बारे में उन्हें शिक्षित होना चाहिए, अपनी गलती मानकर माफी माँगनी चाहिए, समझना चाहिए कि उन्होंने क्या गलती की है, और यह कि उन्हें ऐसी चीज फिर से होने पर वही गलती नहीं दोहरानी चाहिए। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए अपने माता-पिता के सिखाये सिद्धांत “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता” का पालन करने के बजाय तुम्हें यह सीखना चाहिए कि उनकी मदद कैसे करें। महिलाएँ हों या पुरुष, सभी लोग कभी-न-कभी गलतियाँ करते हैं। ऐसा करने पर उन्हें अपनी गलती मान लेनी चाहिए और उसके लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए। महिला-पुरुष दोनों को सही पथ पर चलकर स्वाभिमान के साथ जीना चाहिए, बजाय इसके कि अपने माता-पिता की कही बात का पालन करें : “एक अच्छा मुर्गा कुत्तों से नहीं लड़ता; एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता।” एक नेक पुरुष महिलाओं से न लड़कर अपना दिखावा नहीं करता, न ही वह उनके स्तर तक गिरे बिना दिखावा करता है। देखो, माता-पिता अक्सर कहते हैं : “महिलाओं के बाल लंबे होते हैं मगर उनकी अंतर्दृष्टि कम होती है। उनके जीवन में कोई संभावनाएँ नहीं होती हैं, उन जैसे मत बनो, उन्हें गंभीरता से मत लो या उन पर ध्यान मत दो।” “उन पर ध्यान मत दो” से तुम्हारा क्या अर्थ है? सिद्धांतों के मसले को स्पष्ट कर समझने की जरूरत है। गलती किसने की, किसने सकारात्मक या नकारात्मक बात की, पथ के बारे में किसका उल्लेख सही था—सिद्धांतों, पथों और अपने आचरण से जुड़े मामलों को स्पष्ट किया जाना चाहिए। सही-गलत के बीच की रेखा को धुँधला मत करो; एक महिला के लिए भी तुम्हें चीजें स्पष्ट करनी चाहिए। अगर तुम उसे सचमुच ध्यान में रख रहे हो, तो तुम्हें उसे वह सच बता देना चाहिए जो लोगों को समझना चाहिए, सही पथ पर चलने में उसकी मदद करनी चाहिए, उसे मनमानी नहीं करने देनी चाहिए, और सिर्फ महिला होने के नाते उसे गंभीरता से लेने या चीजें स्पष्ट करने से नहीं बचना चाहिए। महिलाओं को भी स्वाभिमान के साथ जीना चाहिए और सिर्फ इस कारण संयम या विवेक नहीं खोना चाहिए कि पुरुष उनके साथ समझौता कर रहे हैं। महिला-पुरुष सिर्फ शारीरिक अर्थ में ही अलग-अलग हैं, परमेश्वर की नजरों में उनकी पहचान और हैसियत बराबर है। वे दोनों ही सृजित प्राणी हैं और लिंग भेद के अलावा उनमें कोई ज्यादा अंतर नहीं है। वे दोनों भ्रष्टता का अनुभव करते हैं और उनके आचरण के समान सिद्धांत हैं। परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक, बिना किसी अंतर के पुरुष और महिलाओं दोनों के लिए एक समान हैं। तो क्या माता-पिता की यह सीख “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता” सच्ची है? (सच्ची नहीं है।) तो फिर सही नजरिया क्या है? इसका संबंध लड़ाई-झगड़ा करने से नहीं, बल्कि सिद्धांतों के अनुरूप व्यवहार करने से है। ऐसी टिप्पणियाँ करके माता-पिता क्या कहना चाहते हैं? क्या यह बेटियों के बजाय बेटों की तरफदारी नहीं हुई? ऐसा ही लगता है जब वे यह कहते हैं, “महिलाओं के बाल लंबे होते हैं मगर उनकी अंतर्दृष्टि कम होती है। वे नादान हैं, उनका विवेक नहीं के बराबर है। उनके साथ तर्क भी क्यों करें? वे नहीं समझेंगी। जैसी कि कहावत है, ‘बड़े स्तनों वाली महिलाओं में दिमाग नहीं होता, उनके बाल लंबे होते हैं मगर उनकी अंतर्दृष्टि कम होती है।’ तुम महिलाओं की फिक्र क्यों करो या उन्हें गंभीरता से क्यों लो?” क्या महिलाएँ इंसान नहीं हैं? क्या परमेश्वर महिलाओं को नहीं बचाता है? क्या वह उनके साथ सत्य साझा नहीं करता है, या उन्हें जीवन नहीं देता है? क्या यही बात है? (नहीं, ऐसी बात नहीं है।) अगर परमेश्वर ऐसा नहीं करता है, अगर वह महिलाओं से अन्यायपूर्ण ढंग से पेश नहीं आता है, तो तुम्हें किस तरह कार्य करना चाहिए? परमेश्वर तुम्हें जो सिद्धांत सिखाता है, महिलाओं से उनके अनुसार पेश आओ; अपने माता-पिता के विचार मत स्वीकार करो, या पुरुष-प्रधान प्रवृत्तियाँ मत बढ़ाओ। हो सकता है तुम्हारा हाड़-मांस महिलाओं से थोड़ा ज्यादा मजबूत हों, तुम्हारी कद-काठी बड़ी और शारीरिक शक्ति ज्यादा हो, तुम ज्यादा खाना खाते हो, फिर भी तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव, विद्रोहीपन और सत्य को न समझने की तुम्हारी सीमा महिलाओं से बिल्कुल भी अलग नहीं है। तुम जिन जीवन कौशलों में उत्कृष्ट हो, वे शायद महिलाओं से अलग हों : तुम इलेक्ट्रॉनिक्स और मशीनरी में कुशल हो, जबकि महिलाएँ सिलाई-कढ़ाई और रफू करने में निपुण होती हैं। क्या तुम ये काम कर सकते हो? पुरुष भवन-निर्माण में कुशल होते हैं, जबकि महिलाएँ सौंदर्य उपचार में बहुत अच्छी होती हैं। अगर पुरुष तरह-तरह की मशीनें और औजार चला सकते हैं, तो महिलाएँ भी पीछे नहीं हैं। महिलाएँ वाकई कहाँ पीछे हैं? ऐसी तमाम तुलनाएँ बेमानी हैं। यहाँ तुम्हारे लिए मुद्दा अपनी पुरुष-प्रधान सोच को जाने देने का है। “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता” जैसे विचार मत स्वीकार करो; माता-पिता जो बातें कहते हैं वे सत्य नहीं हैं, वे तुम्हारे लिए हानिकारक हैं। कभी ऐसी बातें मत कहो जो महिलाओं के लिए अपमानजनक हों—यह तर्क और औचित्य के सरासर विरुद्ध है। महिलाओं के अपमान का मसला किस प्रकार का है? क्या ऐसे काम करने वाले लोगों में मानवता होती भी है? (नहीं होती।) वे मानवता-विहीन होते हैं। अगर तुम महिलाओं का अपमान करते हो, तो याद रखो कि तुम्हारी माँ, तुम्हारी दादी-नानी और तुम्हारी सभी बहनें महिलाएँ ही हैं। क्या वे ऐसा अपमान स्वीकार करने को तैयार हैं? कुछ माताएँ भी अपने बेटों से कहती हैं, “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता।” क्या ये माताएँ मूर्ख नहीं हैं? ऐसी माताएँ सरल बुद्धि वाली होती हैं और महिलाएँ होकर भी अपना ही महत्व घटा देती हैं; स्पष्ट रूप से वे उलझी सोच वाली होती हैं जिन्हें अपनी बातों का अर्थ पता नहीं होता। “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता” वक्तव्य तर्क और औचित्य के सरासर विरुद्ध है। परमेश्वर ने महिलाओं को इस रूप में कभी परिभाषित नहीं किया, न ही उसने पुरुषों को कभी यह कहकर चेतावनी दी है, “महिलाएँ नाजुक होती हैं, उनके बाल लंबे होते हैं मगर उनकी अंतर्दृष्टि कम होती है, और उनमें सहज बुद्धि नहीं होती। उनसे मत लड़ो। लड़ोगे भी तो तुम चीजें स्पष्ट रूप से नहीं सुलझा पाओगे। उनके साथ हर चीज में क्षमाशील और समझौतापरक बनो, उन्हें गंभीरता से मत लो; पुरुषों को बड़े दिल वाला और सबको लेकर चलने वाला होना चाहिए।” क्या परमेश्वर ने कभी भी ऐसा कहा है? (उसने नहीं कहा है।) चूँकि परमेश्वर ने कभी ऐसी बातें नहीं कही हैं, इसलिए ऐसे काम मत करो या महिलाओं को ऐसे नजरिये से मत देखो। यह महिलाओं के साथ भेदभाव है, उनका अपमान है। जहाँ महिलाओं में कौशल की कमी हो, वहाँ तुम्हें वह काम करना चाहिए, मगर जिन कामों में तुम्हारा कौशल कम हो, वे तुम्हें महिलाओं को करने देने चाहिए। परस्पर निर्भरता और एक-दूसरे का पूरक बनना ही सही नजरिया है। यह सही नजरिया क्यों है? इसलिए कि महिला-पुरुष दोनों की खूबियाँ परमेश्वर ने नियत कर रखी हैं। महिला-पुरुष दोनों की खूबियाँ परमेश्वर द्वारा नियत हैं, यह तथ्य समझने के लिए तुम्हें कौन-सा विचार और नजरिया अपनाना चाहिए? यही कि एक-दूसरे का पूरक बनना चाहिए—अभ्यास का यही सिद्धांत है। पुरुषों को महिलाओं से भेदभाव नहीं करना चाहिए और महिलाओं को पुरुषों के प्रति अत्यधिक श्रद्धा दिखाकर यह नहीं सोचना चाहिए, “आखिरकार, हमारी कलीसिया में एक भाई है, एक शक्ति स्तंभ है। अब हमारी कलीसिया पूर्ण हो गई है, कोई ऐसा है जो हमें ताकत दे सके और हमारी ओर से चीजें सँभाल सके, हमारे लिए पहल कर सके।” क्या तुम हीन हो? क्या तुम्हारी आस्था पुरुषों में हैं? अगर कलीसिया सिर्फ बहनों से बनी हो, तो क्या इसका यह अर्थ है कि अब तुम्हें परमेश्वर में आस्था नहीं रही? यह कि तुम बचाई नहीं जा सकती या तुम सत्य को नहीं समझ सकती? जब कोई एकाएक यह टिप्पणी करता है, “तुम्हारी कलीसिया में कोई भाई क्यों नहीं हैं?” तो ऐसा लगता है मानो तुम्हारे दिल में छुरा भोंप दिया गया हो, और तुम कहती हो, “यह विषय मत उठाओ, यह हमारी कलीसिया की एक कमी है। हमें यह सुनना पसंद नहीं है; तुमने हमारी एकमात्र दुखती रग को छू दिया है,” और तुम प्रार्थना करती हो, “हे परमेश्वर, तुम हमारी कलीसिया के लिए एक भाई कब तैयार करोगे?” क्या कलीसिया भाइयों से चलती है? क्या यह भाइयों के बिना सधी नहीं रह सकती? क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कहा? (नहीं, उसने नहीं कहा।) परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा, न ही उसने कभी यह कहा कि कलीसिया स्थापित होने से पहले इसमें दोनों लिंगों के लोग होने चाहिए, या एक ही लिंग के साथ इसकी स्थापना नहीं हो सकती। क्या उसने कभी ऐसा कहा? (नहीं।) ये सब परिवार की शिक्षा से आई पुरुष-प्रधान सोच के नतीजे हैं। तुम हर चीज के लिए पुरुषों के भरोसे रहती हो, और जैसे ही कोई काम सामने आता है, तुम कहती हो, “मेरे पति के लौटने पर उनसे चर्चा करने के लिए मुझे प्रतीक्षा करनी होगी,” या “हमारी कलीसिया के भाई हाल में व्यस्त रहे हैं, इसलिए कोई भी इसे सँभालने की पहल नहीं कर रहा है।” तो महिलाएँ किसलिए हैं? क्या तुम ये मामले सँभालने में असमर्थ हो? क्या तुम्हारे पास मुँह और पैर नहीं हैं? तुममें कोई कमी नहीं है : तुम सत्य सिद्धांतों को समझती हो, तुम्हें उन्हीं के अनुसार कार्य करना चाहिए। पुरुष तुम्हारे मुखिया नहीं हैं, न ही वे तुम्हारे मालिक हैं; वे सिर्फ साधारण लोग हैं, भ्रष्ट मानवता के सदस्य हैं। अपने हर काम में परमेश्वर और उसके वचनों पर भरोसा करना सीखो। किसी एक व्यक्ति पर निर्भर रहने के बजाय तुम्हें इसी सिद्धांत और तरीके का पालन करना चाहिए। मैं पुरुष-प्रधान सोच की वकालत बेशक इसलिए नहीं करता कि महिला अधिकारों को ऊपर उठाना है या उन्हें सिद्ध करना है, बल्कि इसलिए करता हूँ कि लोगों को सत्य के एक पहलू को समझने में मदद मिले। सत्य का कौन-सा पहलू? यह कि तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हारे भीतर बैठाई गई कहावत “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता” सही नहीं है; यह एक गलत विचार को मन में बैठाकर आगे बढ़ा रही है। तुम्हें एक पुरुष की भूमिका में या जिस तरह तुम महिलाओं से पेश आते हो, उसमें इस विचार और नजरिये से आगे नहीं बढ़ना चाहिए। यह सत्य का वह पहलू है जो तुम्हें समझना चाहिए। हमेशा यह मत सोचो, “मैं एक पुरुष हूँ, मुझे मसलों पर एक पुरुष के नजरिये से विचार करना चाहिए, मुझे उन बहनों के प्रति विचारशीलता रखनी चाहिए और मुझे पुरुष के परिप्रेक्ष्य से उनकी रक्षा करनी चाहिए, उन्हें बर्दाश्त कर क्षमा करना चाहिए और उनमें से किसी को भी गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। अगर कोई बहन कलीसिया में अगुआ के चुनाव में खड़ी होना चाहती हो, तो मैं उसके साथ विनम्रता से पेश आऊँगा और उसे अगुआई करने दूँगा।” किस आधार पर? सिर्फ इसलिए कि तुम पुरुष हो, तुम सोचते हो कि तुम सबको साथ लेकर चलते हो? क्या तुम उनके प्रति सहनशील हो सकते हो? तुम खुद को भी सह नहीं सकते। कलीसिया की अगुआई इस आधार पर तय होनी चाहिए कि उस भूमिका के लिए कौन उपयुक्त है। अगर भाई-बहन तुम्हें चुनें तो तुम्हें यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए। यह तुम्हारी जिम्मेदारी भी है और कर्तव्य भी है। तुम इतनी बेपरवाही से कैसे मना कर रहे हो? यह दिखाने के लिए तुम कितने महान हो? क्या यही अभ्यास का सिद्धांत है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं है।) इसे मना करना और इसके लिए लड़ना दोनों गलत हैं; तो इसका सही तरीका क्या है? सही तरीका परमेश्वर के वचनों को अपने कर्मों का आधार और सत्य को अपनी कसौटी बनाना है। तुम लोगों के माता-पिता ने तुम सबको सिखाया कि “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता।” इस पुरुष-प्रधान सोच और नजरिये के साथ तुमने जीवन के कितने वर्ष बिताए हैं? बहुत-से लोग सोचते हैं, “धोना और मरम्मत करना महिलाओं का काम है। महिलाओं के ये सँभालने दो। जब मुझे ये काम करने पड़ते हैं, तो मैं खीझ जाता हूँ; लगता है मैं पूरा पुरुष नहीं हूँ।” तो, अगर तुम ये काम कर दोगे तो क्या होगा? क्या तुम अब पुरुष नहीं रहे? कुछ लोग कहते हैं, “मेरे कपड़े हमेशा मेरी माँ, बहन या दादी धोती है। मैंने कभी भी ‘महिलाओं के काम’ नहीं किए।” अब तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, और तुम्हें आत्मनिर्भर बनना है। तुम्हें बस यही करना चाहिए; लोगों से परमेश्वर यही माँग करता है। क्या तुम ऐसा करोगे? (बिल्कुल।) अगर तुम्हारा दिल प्रतिरोध करे, तुम अनिच्छुक हो, और इस मामले के कारण हमेशा अपनी माँ के बारे में सोचते हो, तो सचमुच निकम्मे हो। पुरुषों में ये पुरुष-प्रधान विचार होते हैं, और वे बच्चों की देखभाल, घर की साफ-सफाई, कपड़ों की धुलाई और सफाई जैसे कामों को नीची नजर से देखते हैं। कुछ लोग तीव्र पुरुष-प्रधान प्रवृत्ति के होते हैं और इन कामों से घृणा करते हैं, इन्हें नहीं करना चाहते, और अगर करें भी तो बड़े अनमने ढंग से और इस डर से करते हैं कि दूसरे उन्हें कम समझेंगे। वे सोचते हैं, “अगर मैं हमेशा ऐसे काम करता रहा, तो क्या मैं स्त्री जैसा नहीं हो जाऊँगा?” यह कैसी सोच और नजरिये से शासित है? क्या उनकी सोच में कोई समस्या है? (हाँ, बिल्कुल है।) उनकी सोच में दिक्कत है। उन कुछ इलाकों पर गौर करो जहाँ पुरुष हमेशा एप्रन पहन कर खाना पकाते हैं। जब महिला काम से घर लौटती है, तो पुरुष उसे यह कहकर भोजन परोसता है, “लो ये जरा चखो। सच में स्वादिष्ट है; आज मैंने तुम्हारी सारी पसंदीदा चीजें बनाई हैं।” महिला साधिकार पका-पकाया खाना खाती है, और पुरुष साधिकार खाना बनाता है, उसे कभी नहीं लगता कि वह गृहिणी जैसा है। बाहर निकलकर एप्रन उतार देने पर भी क्या वह पुरुष नहीं है? कुछ इलाकों में जहाँ पुरुष-प्रधानता बहुत प्रबल है, वे बेशक परिवार द्वारा दी गई शिक्षा और प्रभाव से बिगड़ जाते हैं। इस शिक्षा ने उन्हें बचाया है या नुकसान पहुँचाया है? (इसने उन्हें नुकसान पहुँचाया है।) यह उनके लिए हानिकारक रहा है। तीस, चालीस या पचास की उम्र के कुछ पुरुष अपने मोजे नहीं धो पाते। वे पंद्रह दिन तक एक ही बनियान पहनते हैं, गंदी हो जाने पर भी वे उसे धोना नहीं चाहते; उन्हें इसे धोने के तरीके का कुछ भी पता नहीं, उन्हें नहीं पता कि कितना पानी डालना है, कितना साबुन लगाना है, या इसे कैसे साफ करना है। वे बस इसे ऐसे ही पहन लेते हैं और मन-ही-मन सोचते हैं, “भविष्य में मैं अपनी माँ या बीवी से अपने लिए और बनियानें और मोजे खरीदने को कहूंगा ताकि मैं उन्हें दो महीने में एक बार धो सकूँ। बहुत बढ़िया होगा अगर मेरी माँ या पत्नी को यहाँ आने का मौका मिल जाए और वे इन्हें धो दें!” इन कामों से मुँह मोड़ने का मूल कारण उस सीख से जुड़ा है जो उसे अपने परिवार और माता-पिता से मिली। जो विचार और नजरिये माता-पिता बैठाते हैं, वे जीने के सबसे बुनियादी और सरलतम नियमों के साथ-साथ लोगों के बारे में कुछ गलत सोच को छूते हैं। सारांश में कहें, तो ये सब परिवार द्वारा लोगों की सोच की शिक्षा में शामिल हैं। परमेश्वर और अस्तित्व में आस्था के दौरान किसी व्यक्ति के जीवन पर इनका जितना भी प्रभाव हो या ये जितनी भी मुसीबत और असुविधा लाएँ, यथार्थ में इनका एक विशेष संबंध माता-पिता की वैचारिक शिक्षा से होता है। अगर अभी तुम वयस्क हो, और इन विचारों और नजरियों के अनुसार अनेक वर्ष जीवन बिता चुके हो, तो ये रातोरात नहीं बदलेंगे—इसमें समय लगता है। अगर ये विचार और नजरिये किसी के कर्तव्य निभाने या दुनिया से व्यवहार और उससे निपटने के सिद्धांतों से जुड़े हों, और अगर तुम सत्य का अनुसरण कर रहे हो, तो तुम्हें इन मसलों को बदलने और यथाशीघ्र सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का प्रयास करना चाहिए। अगर ये सिर्फ किसी के निजी जीवन से जुड़े हों, तो बेहतर होता कि तुम बदलने को तैयार हो जाते। अगर तुम यह हासिल नहीं कर सकते, यह बहुत परेशान करने वाला और मुश्किल हो, या तुम पहले ही इस जीवनशैली के अभ्यस्त हो चुके हो और बदल नहीं सकते, तो कोई तुमसे जबरदस्ती नहीं कर रहा है। मैं बस तुम्हें इनका संकेत दे रहा हूँ ताकि तुम जान सको कि सही क्या है और गलत क्या है। जहाँ तक इन निजी जीवनशैली के मसलों का प्रश्न है, इन्हें तुम खुद माप-तोल कर देख लो—हम जबरदस्ती नहीं करेंगे। तुम अपने मोजे कितनी बार धोते हो, और उनके फट जाने पर क्या तुम उनकी मरम्मत करते हो या फेंक देते हो, यह तुम्हारा निजी मामला है। अपने हालात के अनुसार फैसला करो—हम इसके लिए कोई नियम तय नहीं करेंगे।

कुछ परिवारों में अपनी सौभाग्यशाली पृष्ठभूमि के कारण माता-पिता अक्सर बच्चों से कहते हैं, “बाहर जाते समय याद रखो कि तुम किस खानदान के हो, तुम्हारे पूर्वज कौन हैं। तुम्हें सामाजिक समूहों के बीच ऐसे कर्म करने चाहिए कि खानदान का मान-सम्मान बढ़े। अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा को कभी कलंकित मत करना। अपने पूर्वजों की शिक्षाएँ हमेशा याद रखना और अपनी विरासत को शर्मसार मत करना। अगर कभी गलती कर बैठोगे, तो लोग कहेंगे, ‘क्या तुम एक प्रमुख और सम्मानित परिवार से नहीं हो? तुम ऐसा काम कैसे कर सकते हो?’ वे तुम पर हँसेंगे, मगर वे सिर्फ तुम पर नहीं हँस रहे होंगे, बल्कि हमारे पूरे परिवार पर हँस रहे होंगे। उस स्थिति में तुम अपने परिवार का नाम बदनाम कर रहे होगे और अपने पूर्वजों को शर्मसार कर रहे होगे, जो अस्वीकार्य है।” कुछ माता-पिता अपने बच्चों को यह भी बताते हैं, “हमारा देश महान है, एक प्राचीन सभ्यता है। यह मौजूदा जीवन हमें आसानी से नहीं मिला, इसलिए इसे सँजोकर रखो। खास तौर से जब तुम विदेश जाओ, तो तुम्हें चीनी लोगों के लिए मान-सम्मान अर्जित करना चाहिए। ऐसा कुछ भी मत करो जिससे हमारे राष्ट्र का सिर झुके या चीनी लोगों की शोहरत को चोट लगे।” एक ओर, माता-पिता तुम्हें अपने परिवार और पूर्वजों के लिए, तो दूसरी ओर तुम्हारे राष्ट्र और जातीयता के लिए गौरव और सम्मान अर्जित करने को कहते हैं, तुमसे आग्रह करते हैं कि अपने देश को शर्मसार मत करो। माता-पिता बचपन से ही बच्चों को ऐसी शिक्षा देते हैं, और जब वे स्कूल जाते हैं तो शिक्षक भी उन्हें यह कहकर उसी तरह सिखाते हैं, “हमारी कक्षा, हमारे स्कूल, हमरे शहर और हमारे देश के लिए गौरव अर्जित करो। विदेशियों को यह कहकर हमारा मजाक मत उड़ाने दो कि हममें काबिलियत नहीं है, या हमारा चरित्र खराब है।” कलीसिया में कुछ लोग यह भी कहते हैं, “सबसे पहले हम चीनियों ने विश्वास किया। विदेशी भाई-बहनों से मिलते-जुलते समय हमें चीनी लोगों के लिए गौरव अर्जित करना चाहिए, उनकी शोहरत को बनाए रखना चाहिए।” ये सभी कहावतें सीधे उन बातों से जुड़ी हैं जो परिवार लोगों के भीतर बैठाते हैं। क्या इस प्रकार के विचार बैठाना सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) क्यों सही नहीं है? वे कौन-सा गौरव खोज रहे हैं? क्या ऐसा गौरव खोजने से कोई लाभ होता है? (नहीं, लाभ नहीं होता है।) एक घटना हुई थी, जब उत्तर-पूर्वी चीन का एक व्यक्ति विभिन्न कलीसियाओं का दौरा कर रहा था; उसने कलीसिया के चढ़ावे के 10,000 युआन उठा लिए, और अपने दिन गुजारने घर लौट गया। जब उत्तर-पूर्व के भाई-बहनों को पता चला, तो कुछ ने कहा, “यह इंसान घिनौना है! उसने कलीसिया के चढ़ावे का पैसा उठाने की हिमाकत की। उसने उत्तर-पूर्वी लोगों की शोहरत को पूरी तरह कलंकित कर दिया! अगर वह फिर कभी दिखे तो हमें उसे सबक सिखाना चाहिए!” इस घटना के बाद, उत्तर-पूर्वी लोगों को लगा मानो उन्होंने अपना सम्मान खो दिया। जब भी वे दूसरे प्रांतों के भाई-बहनों से बातें करते, यह मामला उठाने की हिम्मत नहीं करते। वे शर्मिंदा महसूस करते थे और डरते थे कि दूसरे शायद यह कहें, “आपके उत्तर-पूर्वी क्षेत्र का अमुक व्यक्ति चढ़ावे के पैसे लेकर भाग गया।” इस बारे में किसी और के बात करने से वे डरते थे और खुद यह विषय उठाने की हिम्मत नहीं करते थे। क्या यह बर्ताव सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) यह गलत क्यों है? (कौन चढ़ावे के पैसे उठा लेता है इसका दूसरों से कोई लेना-देना नहीं है; हर कोई अपने लिए जिम्मेदार है।) बिल्कुल सही। उस व्यक्ति का चढ़ावे के पैसे लेना उसका अपना मसला है। अगर तुम्हें मालूम हो जाता और तुम उसे रोक देते, तुम इस तरह परमेश्वर के घर का नुकसान होने से बचा लेते, उसके हित सुरक्षित रख लेते तो तुमने अपनी जिम्मेदारी निभाई होती। अगर तुम्हारे पास इसे रोकने का कोई मौका नहीं था और तुम नुकसान होने से बचा नहीं सकते थे, तो तुम्हें जान लेना चाहिए था कि वह कैसा दुष्ट व्यक्ति है, खुद को चेतावनी देनी चाहिए थी और परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए थी कि ऐसी घटना से तुम्हारी रक्षा करे और सुनिश्चित करे कि तुम ऐसे प्रलोभन में न फँसो। तुम्हें इस मसले का सही ढंग से समाधान करना चाहिए। हालाँकि वह तुम्हारे क्षेत्र का है, लेकिन उसके कर्म एक व्यक्ति के रूप में सिर्फ उसके परिचायक हैं। ऐसा नहीं है कि उस क्षेत्र के लोगों ने उसे ऐसा करना सिखाया या इसके लिए प्रोत्साहित किया। इसका किसी दूसरे से कोई संबंध नहीं है। दूसरे लोग सिर्फ आधी-अधूरी निगरानी या निर्देशन के लिए जवाबदेह हो सकते हैं, लेकिन कोई भी दूसरा उसके गलत काम के नतीजे झेलने को बाध्य नहीं है। उसने परमेश्वर के विरुद्ध कार्य किया और प्रशासनिक आदेशों का अपमान किया, उसके कर्मों के नतीजे झेलने के लिए कोई दूसरा बाध्य नहीं है। उसकी बदनामी उसका अपना मामला है। यही नहीं यह नाक कटाने या गौरव अर्जित करने का मामला भी नहीं है; इसका संबंध एक व्यक्ति के प्रकृति सार और उसके चलने के पथ से है। सिर्फ यही कहा जा सकता है कि शुरू में लोग उसका सच्चा चरित्र जानने में नाकाम रहे, लेकिन इस घटना के बाद उसका असली रूप प्रकट हो गया। इसका उस भौगोलिक क्षेत्र के दूसरे भाई-बहनों की प्रसिद्धि या स्वाभिमान से कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे ही क्षेत्र का होने के कारण उसने तुम्हारी नाक कटा दी है, तो ऐसी सोच और समझ पूरी तरह गलत है। परमेश्वर का घर एक अकेले व्यक्ति के पापों के लिए एक पूरे परिवार को दंड नहीं देता; परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को एक अलग इकाई के रूप में देखता है। तुम चाहे कहीं से भी आओ, भले ही तुम उसी परिवार या उसी माता-पिता की संतान हो, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को एक अलग इकाई के रूप में देखता है। परमेश्वर एक व्यक्ति की गलतियों के लिए कभी किसी संबद्ध व्यक्ति को नहीं फँसाता। यही सिद्धांत है, और यह सत्य के अनुरूप है। लेकिन, अगर तुम सोचते हो कि गलत काम करने वाला तुम्हारे क्षेत्र का कोई व्यक्ति तुम्हारी शोहरत को हानि पहुँचाता है और तुम्हें भी फँसा देता है, तो इस सोच के पीछे तुम्हारी गलत समझ है और इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, जब माता-पिता तुमसे कहते हैं, “हमारे देश, परिवार या कुलनाम का नाम ऊँचा करो,” तो क्या यह सही है? (नहीं।) क्यों नहीं? किस वाक्यांश के साथ इसकी प्रकृति मिलती है? क्या इसकी प्रकृति वैसी ही नहीं है जैसी उस विचार की है जिस पर हमने पहले चर्चा की थी, यानी “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है”? किसी व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक कार्य करना, सही पथ पर चलना, सकारात्मक चीजों और सत्य को अपनाना—इनमें से कुछ भी खुद को श्रेय देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इसके बजाय लोगों को ऐसा आचरण करना चाहिए : यह उनकी जिम्मेदारी है, वह पथ है जिस पर उन्हें चलना चाहिए और उनका कर्तव्य है। सही पथ पर चलना, सकारात्मक चीजों और सत्य को अपनाना और परमेश्वर को समर्पित होना लोगों का दायित्व और कर्तव्य है। ये उद्धार प्राप्त करने के लिए भी हैं, इसलिए नहीं कि कोई अपने लिए या परमेश्वर के लिए और बेशक इसलिए नहीं कि अपने देश के लोगों के लिए, और निश्चित रूप से इसलिए नहीं कि किसी विशिष्ट कुलनाम, प्रजाति या वंश के लिए नाम कमाए। तुम इसलिए नहीं बचाए जाते कि तुम अपने देशवासियों के लिए नाम कमाओ, और यकीनन इसलिए भी नहीं कि अपने परिवार के लिए नाम कमाओ। नाम कमाने का विचार सिर्फ एक सिद्धांत है। तुम्हारे उद्धार का उन लोगों से कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे उद्धार से उन्हें क्या फायदा होगा? अगर तुम्हें उद्धार मिलता है, तो इससे उन्हें क्या मिलेगा? वे सही पथ पर नहीं चलते, और परमेश्वर अपने धार्मिक स्वभाव के साथ उनसे उसी तरह पेश आएगा। वह उनसे उसी तरह पेश आएगा जैसे उनके साथ आना चाहिए। इस तथाकथित नाम कमाने से उन्हें क्या मिलेगा? इसका उनके साथ कोई लेना-देना नहीं है। तुम जिस पथ पर चलते हो उसके नतीजे तुम्हीं स्वीकार करते हो, और वे ही अपने पथ के नतीजे स्वीकार करते हैं। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के साथ अपने धार्मिक स्वभाव के अनुसार पेश आता है। किसी के राष्ट्र, परिवार या कुलनाम के लिए नाम कमाना किसी एक व्यक्ति की जिम्मेदारी नहीं है। स्वाभाविक रूप से तुम्हें यह जिम्मेदारी अकेले नहीं उठानी चाहिए, और दरअसल तुम उठा भी नहीं सकते। किसी परिवार या कुल के उत्थान और पतन, उसके मार्ग और उसके भाग्य का इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि क्या तुम उनके लिए नाम कमाते हो। और बेशक, इसका तुम्हारे चलने के पथ से भी कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम अच्छा आचरण करते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पित रह पाते हो, तो यह उनके लिए नाम कमाने या उन्हें लाभ पहुँचाने के लिए नहीं है, न ही यह परमेश्वर से उनके एवज में कोई पुरस्कार पाने के लिए या उन्हें दंड से छूट दिलवाने के लिए है। उनका उत्थान-पतन और उनके भाग्य का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। खास तौर से वे सम्मानित महसूस करते हैं या नहीं और तुम उनके लिए नाम कमाते हो या नहीं—ऐसी बातें तुम्हारे लिए औचित्यहीन हैं। तुम इनका बोझ अपने कंधों पर नहीं ढो सकते, और ऐसा करने की जिम्मेदारी और दायित्व तुम्हारा नहीं है। इसलिए तुम्हारे माता-पिता जब तुमसे कहते हैं, “तुम्हें अपने राष्ट्र, परिवार या कुलनाम के लिए नाम कमाना चाहिए, और तुम्हें अपने पूर्वजों की ख्याति को कलंकित नहीं करना चाहिए या दूसरों को हमारी पीठ पीछे तिरस्कार नहीं करने देना चाहिए,” तो ये बातें तुम्हारे ऊपर सिर्फ नकारात्मक मनोवैज्ञानिक दबाव डालने का काम करते हैं। तुम उनके अनुसार नहीं जी सकते, न ही ऐसा करने का तुम्हारा कोई दायित्व है। क्यों? क्योंकि परमेश्वर तुमसे यही अपेक्षा करता है कि उसके समक्ष तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाओ। वह नहीं कहता कि तुम अपने देश, परिवार या कुलनाम के लिए कुछ भी करो या कोई दायित्व उठाओ। इसलिए, अपने देश या परिवार के लिए नाम और सम्मान अर्जित करना या अपने कुलनाम के लिए कुछ भी करना तुम्हारा दायित्व नहीं है। इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। उनका भाग्य पूरी तरह परमेश्वर के हाथों में है, और तुम्हें कोई भी बोझ उठाने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। अगर तुम कोई गलती करो, तो तुम्हें उसके प्रति अपराध बोध महसूस नहीं करना चाहिए। अगर तुम कोई नेक कर्म करते हो, तो तुम्हें यूँ नहीं सोचना चाहिए कि तुम भाग्यशाली थे या यह नहीं सोचना चाहिए कि तुमने अपने देश, परिवार या कुलनाम के लिए नाम कमाया है। इन चीजों को लेकर प्रफुल्लित मत होओ। और नाकामयाब होने पर भयभीत या बहुत दुखी मत होओ। खुद को दोष मत दो। क्योंकि इसका तुमसे बिल्कुल कोई लेना-देना नहीं है। इसके बारे में सोचो भी मत—इतनी सरल-सी बात है। तो, विभिन्न राष्ट्रीयताओं के लोगों की बात करें, तो चीनी लोग परमेश्वर द्वारा चुने गए हैं; वे परमेश्वर के समक्ष आते हैं, और सृजित प्राणी हैं। पश्चिमी लोग परमेश्वर के समक्ष आते हैं, और वे भी सृजित प्राणी हैं। एशियाई, यूरोपीय, उत्तर और दक्षिण अमरीकी, ओशनियावासी, अफ्रीकी, परमेश्वर के समक्ष आकर उसका कार्य स्वीकार करते हैं, और वे भी उसके सृजित प्राणी हैं। व्यक्ति चाहे किसी भी देश का हो, उसे बस एक ही काम करना चाहिए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाए, परमेश्वर के वचन स्वीकार करे, परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित हो, और उद्धार प्राप्त करे। लोगों को अपनी राष्ट्रीयता के आधार पर तरह-तरह के कुल समूह बनाकर अपने लोगों को समूहों या प्रजातियों में नहीं बाँटना चाहिए। जो भी चीज प्रजातीय गौरव को अपने संघर्ष का उद्देश्य या अपना बुनियादी सिद्धांत बनाती है, वह गलत है। यह वह पथ नहीं है जिस पर लोगों को चलना चाहिए, और यह ऐसी घटना है जो कलीसिया में प्रकट नहीं होनी चाहिए। एक दिन ऐसा आएगा जब विभिन्न देशों के लोग और व्यापक रूप से संपर्क बनाएँगे और विश्व के व्यापक क्षेत्र तक उनकी पहुँच होगी, जब शायद कोई एशियाई व्यक्ति यूरोपीय से मिले या कोई यूरोपीय व्यक्ति अमरीकी से मिले, और शायद एक अमरीकी किसी एशियाई या अफ्रीकी, वगैरह से मिले। विभिन्न प्रजातियों के एक साथ इकट्ठा होने पर अगर प्रजातियों के आधार पर समूह बन जाएँ, सभी अपने प्रजातीय गौरव और अपनी प्रजाति के लिए कुछ करने में लग जाएँ, तो कलीसिया का किससे सामना होने लगेगा? वह विभाजन का सामना करेगी। यह ऐसी चीज है जिससे परमेश्वर घृणा करता है और जिसकी वह निंदा करता है। जो भी ऐसा करता है उसे शाप मिलता है, जो भी ऐसा करता है वह शैतान का चाकर है, और जो भी ऐसा करता है वह दंड का भागी होगा। उसे दंड क्यों मिलेगा? क्योंकि यह प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन है। ऐसा कभी मत करो। अगर तुम ऐसा कर सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुमने अपने माता-पिता द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के इस पहलू को त्यागा नहीं है। तुमने उस पहचान को स्वीकार नहीं किया है जो परमेश्वर ने तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में दी है, और तुम अभी भी खुद को एक चीनी, या एक श्वेत, काले या साँवले व्यक्ति के रूप में देखते हो—एक अलग प्रजाति, कुलनाम या राष्ट्रीयता के किसी व्यक्ति के रूप में देखते हो। अगर तुम अपने राष्ट्र, प्रजाति या परिवार के लिए नाम कमाना चाहते हो, और अपने मन में यह विचार लेकर काम करते हो, तो इसके नतीजे भयंकर होंगे। आज हम सत्यनिष्ठा से यह घोषित करते हैं और ईमानदारी से इस विषय को यहाँ स्पष्ट करते हैं। अगर किसी दिन कोई भी व्यक्ति प्रशासनिक आदेशों के इस पहलू के विरुद्ध कार्य करता है, तो उसे इसके नतीजे झेलने होंगे। तब यह कहकर शिकायत मत करना, “तुमने मुझे नहीं बताया, मुझे पता नहीं था, मैंने नहीं समझा।” तुम्हें इतने लंबे समय से एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी पहचान का ज्ञान है, फिर भी तुम अब भी ऐसा काम करते हो : इसका अर्थ है कि तुम अनाड़ी नहीं थे, मगर तुमने जान-बूझकर ऐसा किया, जान-बूझकर अपमान किया। तुम्हें दंड मिलना चाहिए। प्रशासनिक आदेशों के विरुद्ध जाने के नतीजों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ, हम समझ रहे हैं।)

कुछ माता-पिता अपने बच्चों को बताते हैं, “जहाँ भी जाएँ हमें अपनी जड़ों को नहीं भूलना चाहिए। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम कहाँ पैदा हुए, कहाँ बड़े हुए, या हम कौन हैं। तुम जहाँ भी जाओ, अपने गाँव वालों से मिलने पर तुम्हें उनका ख्याल रखना चाहिए। कलीसिया के अगुआओं या सुपरवाइजरों को चुनते समय, अपने गाँव वालों को प्राथमिकता दो। जब कलीसिया में कोई भौतिक लाभ हो, तो अपने गाँव वालों को पहले उसका आनंद लेने दो। अगर तुम किसी समूह के लिए सदस्य चुन रहे हो, तो पहले अपने गाँव वालों को चुनो। जब साथी गाँव वाले एक साथ काम करते हैं, तो सभी एक ही भाषा बोलते हैं और एक दूसरे को जानते हैं।” इसे क्या कहा जाता है? “जब साथी गाँव वाले मिलते हैं, तो उनकी आँखें भर आती हैं।” एक कहावत यह भी है, “चाचा-चाचियाँ परिवार होते हैं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी : हड्डियाँ भले ही टूटी हुई हों, नसें अभी भी जुड़ी हुई हैं।” अपने माता-पिता और बड़े-बूढ़ों के निर्देश के कारण, कुछ लोग जैसे ही सुनते हैं कि कोई उनके गाँव या प्रांत से आया है, या वे किसी को अपने गाँव के लहजे में बोलते हुए सुनते हैं, तो वे उनके प्रिय हो जाते हैं। वे साथ खाना खाते हैं, सभाओं में साथ बैठते हैं और सब-कुछ साथ ही करते हैं। वे खास तौर पर करीब हो जाते हैं। कुछ लोग किसी साथी गाँववाले से मिलने पर शायद यह कहें, “जानते हो वे क्या कहते हैं, ‘जब साथी गाँव वाले मिलते हैं, तो उनकी आँखें भर आती हैं।’ जब मैं किसी गाँव वाले साथी से मिलता हूँ, तो उसके बहुत करीब महसूस करता हूँ : जब मैं तुमसे मिला तो लगा जैसे तुम मेरे परिवार से हो।” वे अपने साथी गाँव वालों का खास ख्याल रखते हैं। अगर उनके गाँव वालों को जीवन या कामकाज में कोई मुश्किल आती है, या अगर वे बीमार पड़ जाते हैं, तो वे उनकी खास देखभाल करते हैं। क्या यह अच्छी बात है? (नहीं, यह अच्छी बात नहीं है।) यह अच्छी बात क्यों नहीं है? (लोगों से इस तरह पेश आने में सिद्धांत नहीं होते।) इसमें सिद्धांत नहीं होते और ऐसे व्यक्ति अस्त-व्यस्त होते हैं। वे हर किसी साथी गाँव वाले को स्नेह दिखाते हैं, मगर साथी गाँव वाले कैसे हैं? क्या वे अच्छे लोग हैं? क्या वे सच्चे भाई-बहन हैं? क्या तुम्हारा उन्हें आगे बढ़ाना सिद्धांतों के अनुसार है? क्या तुम्हारे द्वारा की गई उनकी सिफारिश सिद्धांतों के अनुकूल है? क्या वे काम के लायक हैं? क्या तुम्हारा उनका ख्याल रखना और तुम्हारी उनसे करीबी जायज है? क्या यह सत्य और सिद्धांतों के अनुरूप है? अगर नहीं, तो तुम उनके लिए जो कर रहे हो, वह अनुचित है और परमेश्वर को इससे घृणा है। क्या तुम समझ रहे हो? (मैं समझ रहा हूँ।) इसलिए, जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हें बताते हैं, “साथी गाँव वालों से मिलने पर उनका ख्याल रखो,” तो यह एक भ्रम है, और तुम्हें इसे अपने मन में कहीं पीछे रखकर उसकी अनदेखी करनी चाहिए। भविष्य में, अगर तुम्हारे माता-पिता तुमसे पूछें, “हमारा वह साथी गाँव वाला तेरी ही कलीसिया में है। तूने उसका ख्याल रखा?” तो तुम्हें क्या जवाब देना चाहिए? (परमेश्वर के घर में हम सबके साथ बराबरी से पेश आते हैं।) तुम्हें कहना चाहिए, “मैं ऐसा करने को बाध्य नहीं हूँ। गाँव वालों को भूल जाइए, अगर आप लोग परमेश्वर के विरोध में खड़े होंगे तो मैं आपका भी ख्याल नहीं रखूँगा।” कुछ लोग ऐसी पारंपरिक पारिवारिक धारणाओं से बहुत ज्यादा प्रभावित होते हैं। जैसे ही वे किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं, जो थोड़ा भी उनके रिश्ते में हो, या जिसका कुलनाम एक जैसा हो, या जो उसी कुल का हो, तो वे उससे अलग नहीं रह सकते। जैसे ही वे सुनते हैं कि कोई उन्हीं के कुलनाम वाला है, तो वे कहते हैं, “अरे वाह, यहाँ हम सब परिवार के लोग ही हैं। परिवार में अपनी मौजूदा स्थिति के आधार पर मुझे उन्हें बड़ी नानी बुलाना चाहिए। उनकी तुलना में मैं एक पोते जैसा हूँ।” वे स्वेच्छा से खुद को पोता कहने लगते हैं, और उन्हें देखने पर वे उन्हें बहन या किसी और नाम से संबोधित करने की हिम्मत नहीं करते; वे उन्हें हमेशा “बड़ी नानी” कहकर पुकारते हैं। कुछ लोग जब उसी कुलनाम वाले किसी व्यक्ति से मिलते हैं, तो वह व्यक्ति जैसा भी हो, वे खास तौर से उसके करीब महसूस करते हैं। क्या यह सही है? (नहीं।) खास तौर से कुछ परिवारों में अपने कुल के लोगों का विशेष ध्यान रखने की परंपरा होती है, वे अक्सर उनसे साथ शालीनता से पेश आकर करीबी मेल-जोल रखते हैं। इस तरह, ऐसा लगता है जैसे उनके घर में हमेशा लोगों और गतिविधियों के कारण चहल-पहल रहती है, और परिवार विशेष रूप से जीवंत और समृद्ध लगता है। कुछ भी होने पर दूरस्थ रिश्तेदार भी राय-मशविरा देते हुए हाथ बँटाने आ जाते हैं। इस पारिवारिक संस्कृति से प्रभावित कुछ लोगों को लगता है कि ऐसा आचरण करना अच्छी बात है; कम-से-कम वे अलग-थलग या अकेले नहीं हैं और कुछ मसले खड़े होने पर उनकी मदद करने वाले लोग हैं। दूसरे लोगों के मन में कौन-सी धारणाएँ होती हैं? “लोगों के बीच रहने के लिए किसी को मनमोहक ढंग से कार्य करना चाहिए।” इस कहावत को समझाना मुश्किल है, फिर भी सभी लोग इसका अर्थ समझ सकते हैं। “किसी व्यक्ति को मानवीय भावनाओं के साथ जीना चाहिए। क्या मानवीय भावनाएँ न होने पर भी किसी व्यक्ति को मानव कहा जा सकता है? अगर तुम हमेशा गंभीर और ईमानदार रहते हो, अगर तुम हमेशा सिद्धांतों और दृष्टिकोणों को लेकर चिंतित रहते हो, तो अंत में, तुम्हारे पास कोई रिश्तेदार या दोस्त नहीं होंगे। सामाजिक समूहों में जीते हुए तुममें मानवीय भावनाएँ होनी चाहिए। जिन लोगों का हमारे कुलनाम से कोई लेना-देना नहीं है, उनकी बात अलग है, लेकिन क्या हमारे ही कुलनाम या कुल के सभी लोग हमारे करीबी नहीं हैं? तुम उनमें से किसी को नहीं छोड़ सकते। जब बीमारी, शादी, अंत्येष्टि या दूसरी छोटी-बड़ी घटनाओं से तुम्हारा सामना होता है, तो क्या उन पर चर्चा के लिए तुम्हें किसी की जरूरत नहीं पड़ती? जब तुम घर, गाड़ी या जमीन खरीदते हो, तो कोई भी मदद का हाथ बढ़ा सकता है। तुम इन लोगों को नहीं छोड़ सकते; तुम्हें जीवन में उन पर भरोसा करना पड़ता है।” चूँकि तुम इस पारिवारिक संस्कृति से गहराई से प्रभावित हो, इसलिए बाहर रहने पर, और खास तौर से कलीसिया में, तुम अपने ही कुल के किसी व्यक्ति को देखते हो, तो अनजाने ही उसकी ओर खिंचे चले जाते हो, उसे खास पसंद करने लगते हो, अक्सर उसका खास ख्याल रखते हो, उससे खास ढंग से पेश आते हो, और उसके साथ खास मेल-जोल रखते हो। वह गलती करे तो भी तुम अक्सर उससे उदारता से पेश आते हो। जिन लोगों के साथ तुम्हारा खून का रिश्ता नहीं है, उनसे तुम निष्पक्षता से पेश आते हो। लेकिन अपने कुल के लोगों के साथ तुम रक्षात्मक तरीके से पेश आते हो, उनका पक्ष लेते हो, जिसे बेबाकी से “रिश्तेदारों की तरफदारी” कहा जाता है। कुछ लोग अक्सर इन विचारों से चलते हैं, और परमेश्वर के सिखाए सिद्धांतों के बजाय पारिवारिक संस्कृति के प्रभाव के आधार पर लोगों से पेश आते हैं या मामले सँभालते हैं। क्या यह गलत नहीं है? (बिल्कुल।) मिसाल के तौर पर, झांग कुलनाम वाली कोई महिला शायद उसी कुलनाम वाली थोड़ी बड़ी दूसरी महिला को “बड़ी बहन” कह कर पुकारे। दूसरे लोग शायद सोचें कि वे सगी बहनें हैं, मगर असल में वे रिश्तेदार नहीं हैं, उनका कुलनाम एक है पर उनमें खून का रिश्ता बिल्कुल भी नहीं है। वह उसे इस तरह क्यों पुकारती है? यह पारिवारिक संस्कृति का प्रभाव है। दोनों जहाँ भी जाती हैं, अलग नहीं रह पातीं, वह अपनी “बड़ी बहन” के साथ सब-कुछ साझा करती है, मगर दूसरों के साथ नहीं। क्यों? “क्योंकि वह एक झांग है, ठीक मेरे जैसी। हम परिवार हैं। मुझे उसे सब-कुछ बताना चाहिए। उसे नहीं तो और किसे बताऊँगी? अगर मैंने परिवार पर भरोसा न करके अजनबियों पर भरोसा किया, तो क्या यह मूर्खता नहीं होगी? किसी भी दृष्टि से देखो, बाहर वाले भरोसेमंद नहीं होते; सिर्फ परिवार पर भरोसा किया जा सकता है।” कलीसिया अगुआओं को चुनते समय वह उसे ही चुनती है, और जब लोग पूछते हैं, “आपने उसे क्यों चुना?” तो वह कहती है, “क्योंकि उसका और मेरा कुलनाम एक ही है। मैंने उसे न चुनती तो क्या यह सरासर समझ और औचित्य के विरुद्ध नहीं होगा? अगर मैं उसे न चुनूँ तो क्या मैं इंसान भी कहलाऊँगी?” जब भी कलीसिया के पास देने के लिए कुछ भौतिक लाभ या अच्छी चीजें होती हैं, वह पहले उन्हीं के बारे में सोचती है। “आपने पहले उस महिला के बारे में क्यों सोचा?” “क्योंकि उसका और मेरा कुलनाम एक है, वह मेरे परिवार का हिस्सा है। अगर मैं उनका ख्याल नहीं रखूँगी, तो कौन रखेगा? अगर मुझमें यह बुनियादी मानवीय भावना नहीं हुई तो क्या मैं मानव भी रह पाऊँगी?” चाहे ये चीजें स्नेह से उपजें या खुदगर्ज मंसूबों से, संक्षेप में कहें तो अगर तुम अपने परिवार के इन विचारों से प्रभावित और अनुकूलित होते हो, तो तुम्हें तुरंत पीछे मुड़कर ऐसा बर्ताव करना, चीजों से इस तरह निपटना और लोगों से इन तरीकों के साथ पेश आना बंद कर देना चाहिए। ये तरीके चाहे जितने भी संकुचित या व्यापक क्यों न हों, ये वे सिद्धांत और तरीके नहीं हैं जो परमेश्वर ने तुम्हें सिखाए हैं। कम-से-कम ये ऐसे विचार और नजरिये हैं जिन्हें त्याग देना चाहिए। संक्षेप में कहें, तो परिवार द्वारा दी गई किसी भी शिक्षा को, जो परमेश्वर द्वारा तुम्हें सिखाए गए सिद्धांतों के अनुरूप न हो, तुम्हें त्याग देना चाहिए। तुम्हें इन तरीकों का इस्तेमाल कर दूसरों के साथ पेश नहीं आना चाहिए या मिलना-जुलना नहीं चाहिए, न ही तुम्हें मामलों को इस तरह सँभालना चाहिए। कुछ लोग बहस कर सकते हैं, “अगर मैंने इन चीजों को इस तरह नहीं सँभाला, तो बिल्कुल नहीं जान सकूँगा कि इन्हें कैसे सँभालना चाहिए।” इसका आसानी से प्रबंध हो सकता है। परमेश्वर के वचन तमाम मामले सँभालने के सिद्धांत बताते हैं। अगर तुम्हें परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का पथ न मिले, तो सत्य को समझाने वाले किसी भाई-बहन को तलाशो, और उससे पूछो। वह चीजें स्पष्ट कर तुम्हें समझा देंगे। ये वे चीजें हैं जिन्हें कुल, कुलनाम और दुनिया के तौर-तरीकों से जुड़े मसलों से पेश आने के लिए लोगों को जाने देना चाहिए।

कुछ माता-पिता अपनी बेटियों को यह कह कर अक्सर तंग करते हैं, “एक महिला के रूप में तुम्हें चाहिए कि जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता। अगर तुम किसी मुर्गे के परिवार में शादी करो, तो तुम्हें मुर्गे जैसा कार्य करना चाहिए; अगर तुम किसी कुत्ते के परिवार में शादी करो, तो तुम्हें कुत्ते जैसा कार्य करना चाहिए।” निहितार्थ यह है कि तुम्हें एक अच्छा इंसान बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए बल्कि मुर्गा या कुत्ता बनकर खुश हो जाना चाहिए। क्या यह एक अच्छा पथ है? स्पष्ट रूप से यह सुनकर कोई भी समझ जाएगा कि यह सही नहीं है, है कि नहीं? इस वाक्यांश “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो” के निशाने पर निश्चित रूप से महिलाएँ हैं—उनका भाग्य इतना दुखद है। परिवार के प्रभाव और शिक्षा के अधीन महिलाएँ खुद को अधोगति में झोंक देती हैं : वे किसी मुर्गे से शादी करने पर जरूर मुर्गे के पीछे चलती हैं और कुत्ते से शादी करने पर कुत्ते के पीछे चलती हैं, अच्छे पथ पर चलने की कोशिश नहीं करतीं और वही करती हैं जो उनके माता-पिता कहते हैं। हालाँकि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे भीतर यह विचार बैठाते हैं, फिर भी तुम्हें यह जानना-समझना चाहिए कि ऐसा विचार सही है या गलत, तुम्हारे आचरण के लिए उपयोगी है या हानिकारक। बेशक, शादी को त्यागने के विषय में हम इस पहलू पर संगति कर चुके हैं, इसलिए हम यहाँ उसका गहन विश्लेषण और विश्लेषण नहीं करेंगे। संक्षेप में कहें, तो माता-पिता से आए इन सभी गलत, विकृत, सतही, मूर्खतापूर्ण और यहाँ तक कि दुष्ट और पतित विचारों और नजरियों को तुम्हें त्याग देना चाहिए। खास तौर से ऐसी कहावतें, “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता,” जिस पर हमने अभी चर्चा की, और “पुरुष से रोटी-कपड़ों के लिए शादी करो,”—तुम्हें इन वक्तव्यों को जानना-समझना चाहिए, और अपने माता-पिता द्वारा तुम्हारे अंदर बैठाए गए ऐसे विचारों से गुमराह नहीं होना चाहिए, यह मान कर कि “मैं उस पुरुष के हाथों बिक जाती हूँ जिससे मेरी शादी होती है : वह मेरा मालिक है, मुझे वैसा होना चाहिए जैसा वह चाहे, और हर वह चीज करनी चाहिए जो वह कहे, मेरा भाग्य उससे बँधा हुआ है। एक बार हम शादी कर लें, तो हम दोनों एक डोर से बँधे टिड्डा-टिड्डी की तरह जुड़े होते हैं। अगर उसे समृद्धि मिलती है, तो तुम्हें भी मिलती है; अगर उसे समृद्धि नहीं मिलती, तो तुम्हें भी नहीं मिलती। इसलिए मेरे माता-पिता की कहावत ‘जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता,’ हमेशा सही होगी। महिलाओं को स्वतंत्र नहीं होना चाहिए, उनके अपने अनुसरण नहीं होने चाहिए और यकीनन जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण रखने और जीवन में सही पथ पर चलने को लेकर उनके अपने विचार या कामनाएँ नहीं होनी चाहिए। उन्हें बस आज्ञाकारिता से अपने माता-पिता के कथनों का अनुसरण करना चाहिए, ‘जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता।’” क्या ऐसा विचार सही है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता”—ऐसे ही अर्थ वाला एक और वाक्यांश है, “एक डोर से बँधे दो टिड्डे,” जिसका अर्थ है कि शादी के बाद तुम्हारा भाग्य अपने पति के भाग्य से बँध जाता है। अगर उसे समृद्धि मिलती है, तो तुम्हें भी मिलती है; अगर उसे समृद्धि नहीं मिलती, तो तुम्हें भी नहीं मिलती। क्या बात ऐसी ही है? (नहीं।) आओ पहले “अगर उसे समृद्धि मिलती है, तो तुम्हें भी मिलती है” कहावत पर चर्चा करें। क्या यह एक तथ्य है? (नहीं।) क्या कोई इस बात को काटने के लिए उल्टा उदाहरण दे सकता है? कुछ याद नहीं आ रहा है? चलो मैं ही एक मिसाल देता हूँ। मिसाल के तौर पर जब कोई महिला किसी पुरुष से शादी करती है तो वह उसके पीछे चलने का पक्का मन बना लेती है। महिलाएँ कुछ यूँ कहती हैं, “आज से मैं तुम्हारी हुई,” यानी “मैं तुम्हारे हाथों बिक चुकी हूँ और मेरी नियति तुम्हारी नियति से बँध चुकी है।” खुद को अधोगति में झोंकने वाली महिला को छोड़कर चलो इस पर ध्यान दें कि वाक्यांश “अगर उसे समृद्धि मिलती है, तो तुम्हें भी मिलती है” सही है या नहीं। क्या यह सही है कि अगर उसे समृद्धि मिलती है, तो तुम भी खुद-ब-खुद समृद्ध हो जाओगी? मान लो वह कोई व्यापार शुरू करता है और किसी संकट में फँस जाता है, अनेक चुनौतियों का सामना करता है, उसके सामने हर कहीं मुश्किलें आती हैं, वह पैसों, संबंधों और दुकान खोलने के लिए एक सही स्थान, व्यापार करने के लिए बाजार और मदद के लिए लोगों का जुगाड़ नहीं कर पाता है। बतौर उसकी पत्नी उसके पीछे चलने का तुम्हारा इरादा बेहद पक्का है; वह चाहे जो भी करे, तुम उससे कभी घृणा नहीं करती हो, बल्कि बिना किसी शर्त के उसका साथ देती हो। समय के साथ उसका व्यापार पनपता है, वह एक के बाद एक दुकानें खोलता है, उसका मुनाफा बढ़ता जाता है और आमदनी बढ़ती जाती है। तुम्हारा पति बड़ा आसामी बन जाता है और बड़े आसामी से वह एक दौलतमंद उद्योगपति बन जाता है। वह समृद्ध हो रहा है, है कि नहीं? जैसा कि कहावत है, “पैसे वाला कोई भी इंसान बिगड़ जाता है,” जोकि बेशक इस समाज और इस बुरी दुनिया का एक तथ्य है। एक बार जब तुम्हारा पति एक आसामी और फिर एक उद्योगपति बन जाता है, तो उसके लिए भ्रष्ट होना कितना आसान है? यह कुछ ही पलों में हो जाता है। उसके आसामी बनकर समृद्ध होना शुरू होने के बाद तुम्हारे अच्छे दिन खत्म हो चुके होंगे। क्यों? तुम्हारी चिंताएँ तुम्हें घेरने लगेंगी, “कहीं बाहर उसकी कोई दूसरी औरत तो नहीं? कहीं वह मुझे धोखा तो नहीं दे रहा? कोई उसे रिझा तो नहीं रही? कहीं वह मुझसे उकता तो नहीं जाएगा? कहीं वह मुझसे प्यार करना छोड़ तो नहीं देगा?” क्या तुम्हारे अच्छे दिनों का अंत हो गया? इतने वर्ष साथ-साथ मुश्किलें झेलने के बाद तुम अंदर से दुखी और थकी-हारी लगती हो। तुम बुरे हाल में जी रही हो, तुम्हारी सेहत बिगड़ गई है, सुंदरता नष्ट हो चुकी है। तुम्हारा चेहरा पीला पड़ गया है। शायद उसकी नजरों में अब तुममें वो आकर्षण नहीं रहा जिसके पीछे वह कभी पागल था। शायद वह सोचे, “अब मैं दौलतमंद और प्रभावशाली हूँ, मुझे कोई बेहतर महिला मिल सकती है।” जैसे-जैसे वह दूर होता जाता है, उसके विचार सक्रिय होने लगते हैं, वह बदलने लगता है। फिर क्या तुम खतरे में नहीं हो? वह एक बड़ा आसामी बन गया है जबकि तुम एक पीली पड़ चुकी बुढ़िया बन गई हो—क्या तुम दोनों के बीच एक तरह का अंतर और असमानता नहीं है? ऐसे समय क्या तुम उसके लिए अयोग्य नहीं हो? क्या उसे नहीं लगता कि वह तुमसे ऊपर के मुकाम पर है? क्या वह तुमसे और ज्यादा घृणा नहीं करता? अगर ऐसा है तो तुम्हारे मुश्किल दिन बस शुरू हो रहे हैं। आखिरकार वह अपने मन की मुराद पूरी कर कोई दूसरी महिला पा सकता है, और घर पर कम-से-कम समय बिता सकता है। वह लौटता भी है तो सिर्फ तुमसे बहस करने के लिए, और फिर वह तुरंत जोर से दरवाजा बंद करके चला जाता है, कभी-कभी तुमसे बिना किसी संपर्क के कई-कई दिन बाहर रहता है। अपने पुराने रिश्ते को ध्यान में रखकर तुम ज्यादा-से-ज्यादा बस इतनी उम्मीद कर सकती हो कि शायद वह तुम्हें पैसे दे और तुम्हारी दैनिक जरूरतें पूरी करे। अगर तुम सचमुच हल्ला मचाओ, तो हो सकता है वह तुम्हारी आजीविका का खर्च देना भी बंद कर दे। तो हालत कैसी है? सिर्फ इसलिए कि वह समृद्ध हो गया है, क्या तुम्हारा भाग्य जरा भी सुधरा है? तुम पहले से ज्यादा खुश हो या नाखुश? (पहले से ज्यादा नाखुश।) तुम पहले से ज्यादा नाखुश हो। तुम्हारे दुर्भाग्य के दिन आ गए हैं। ऐसी स्थिति का सामना होने पर महिलाएँ ज्यादातर समय खूब रोती हैं, और अपने माता-पिता की बताई बात : “अपनी निजी बातें सार्वजनिक मत करो,” के कारण वे यह सोचकर सब कुछ सहती रहती हैं, “मैं यह तब तक सहूँगी जब तक मेरा बेटा बड़ा होकर मुझे सहारा न दे सके। फिर मैं अपने पति से छुटकारा पा लूँगी!” कुछ महिलाओं को वह दिन देखने का सौभाग्य मिल जाता है जब उनका बेटा उनका शक्ति-स्तंभ बन जाता है, जबकि दूसरी महिलाओं को यह भी नसीब नहीं होता। जब उनका बच्चा छोटा होता है, तभी उनके पति बच्चे को अपने साथ रखने का फैसला कर पत्नी से कहते हैं, “चली जा, पीले चेहरे वाली बुढ़िया!” और उसे भिखमंगी मानकर अपने ही घर से निकाल देते हैं। तो जब वह समृद्ध हो रहा होता है, तब क्या तुम भी जरूर समृद्ध होती हो? क्या तुम लोगों के भाग्य सचमुच साथ में बँधे हुए हैं? (नहीं।) अगर उसका व्यापार लगातार लड़खड़ा रहा हो या उसकी इच्छा के विपरीत चल रहा हो, तो उसे तुम्हारे सहारे, प्रोत्साहन, साथ और देखभाल की जरूरत पड़ सकती है, और उसमें भ्रष्ट होने की योग्यता न होने और उसे ऐसे अवसर न मिलने से, शायद वह अब भी तुम्हें सँजोकर रखे। जब तक वह समृद्ध नहीं हो रहा होता, तुम ज्यादा सुरक्षित महसूस कर सकती हो, कोई तुम्हारे साथ हो सकता है और तुम शादी की गरमाहट और खुशी महसूस कर सकती हो। चूँकि जब वह समृद्ध नहीं हो रहा होता है, तो बाहर का कोई भी व्यक्ति उस पर ध्यान नहीं देता या उसे भाव नहीं देता, और सिर्फ तुम ही एकमात्र व्यक्ति होती हो जिस पर वह भरोसा कर सकता है, इसलिए वह तुम्हें महत्व देता है। उस स्थिति में तुम सुरक्षित और अपेक्षाकृत बेहतर और खुश महसूस करती हो। लेकिन अगर वह समृद्ध होकर अपने पंख फैलाए तो उड़ जाएगा, मगर क्या वह तुम्हें साथ ले जाएगा? क्या माता-पिता की यह कहावत “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता,” सही है? (नहीं, सही नहीं है।) यह महिलाओं को दुखों के रसातल में धकेल देती है। यह सिद्धांत कैसा है, “अगर वह सही पथ पर चले तो मैं उसके पीछे चलूँगी, और न चले तो उसे छोड़ दूँगी”? इस सिद्धांत का भी गलत अर्थ लिया जाता है? उससे शादी करने का यह अर्थ नहीं है कि तुमने खुद को उसे बेच दिया है, न ही तुम्हें उसे एक बाहर वाले की तरह देखना चाहिए। विवाहित जीवन में तुम्हारे लिए अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना काफी है। अगर चीजें ठीक हो जाएँ तो बढ़िया; और नहीं हुईं, तो अलग हो जाओ। तुमने एक साफ जमीर के साथ अपने दायित्व पूरे किए हैं। अगर वह चाहता है कि तुम उसका साथ देने की अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करो, तो जरूर करो; अगर नहीं चाहता, तो अलग हो जाओ। यही सिद्धांत है। “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता,” वाक्यांश बकवास है—यह हानिकारक है। यह बकवास क्यों है? इसमें सिद्धांत नहीं हैं : पुरुष किसी भी किस्म का हो, तुम बिना सोचे-समझे उसके पीछे चलती हो। अगर तुम एक अच्छे पुरुष के पीछे चलती हो, तो जीवन अच्छा हो सकता है। लेकिन अगर तुम एक बुरे पुरुष के पीछे चलती हो, तो क्या तुम खुद को बरबाद नहीं कर रही हो? इसलिए पुरुष चाहे जैसा भी हो, तुम्हें शादी को लेकर एक सही दृष्टि रखनी चाहिए। तुम्हें समझना होगा कि केवल सत्य ही सच्चा सुरक्षा कवच है और सम्मानजनक जीवन का पथ और सिद्धांत प्रदान करता है। माता-पिता जो देते हैं वे बस उनके स्नेह या स्वार्थों पर आधारित अनुभवों या रणनीतियों के छोटे-छोटे कतरे होते हैं। ऐसे परामर्श से न तुम्हें कोई सुरक्षा मिल सकती है, न ही अभ्यास के सही सिद्धांत मिल सकते हैं। मिसाल के तौर पर वाक्यांश “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता” को ले लो। इससे तुम शादी के बारे में सिर्फ अनाड़ी बन सकते हो, और अपना स्वाभिमान और सही जीवन पथ चुनने का अवसर खो देते हो। इससे भी बड़ी बात, तुम उद्धार पाने का अवसर भी खो सकते हो। इसलिए माता-पिता के वचनों के पीछे का आशय चाहे जो हो, चाहे वह चिंता, सुरक्षा, स्नेह, निजी हित, या कोई और मंशा हो, तुम्हें उनकी तमाम कहावतों को विवेकपूर्ण ढंग से समझना चाहिए। भले ही उनका शुरुआती इरादा तुम्हारी खुशहाली या हिफाजत हो, तुम्हें ये कहावतें लापरवाही और बेवकूफी से नहीं मान लेनी चाहिए। बल्कि इन्हें समझना-बूझना चाहिए और फिर परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास के सही सिद्धांत ढूंढ़ने चाहिए, उनके वचनों के अनुसार अभ्यास या अपना आचरण नहीं करना चाहिए। खास तौर से पुरानी पीढ़ियों द्वारा अक्सर कही गई बात “पुरुष से रोटी-कपड़ों के लिए शादी करो,” का और भी ज्यादा गलत अर्थ लिया जाता है। क्या महिलाओं के हाथ-पैर नहीं हैं? क्या वे अपनी आजीविका खुद नहीं कमा सकतीं? रोटी-कपड़ों के लिए उन्हें पुरुषों के भरोसे क्यों रहना चाहिए? क्या महिलाएँ बुद्धू हैं? पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में क्या कमी है? (कुछ भी नहीं।) बिल्कुल सही कहा, उनमें कोई कमी नहीं। महिलाओं में अपने पैरों पर खड़े होकर जीने की काबिलियत है, जो उन्हें परमेश्वर ने दी है। चूँकि महिलाओं में स्वतंत्र रूप से जीने की काबिलियत है, तो फिर उन्हें पोषण के लिए पुरुषों के भरोसे क्यों रहना चाहिए? क्या यह एक गलत विचार नहीं है? (बिल्कुल।) यह अपने भीतर एक गलत विचार बैठाना है। इस कहावत के कारण महिलाओं को अपनी अहमियत नहीं घटानी चाहिए, अपनी तौहीन नहीं करनी चाहिए और अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए पुरुषों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। बेशक अपनी पत्नी और परिवार का खर्च उठाना और यह सुनिश्चित करना पुरुष का दायित्व है कि उसकी पत्नी के पास खाने-पहनने को पर्याप्त है। लेकिन महिलाओं को सिर्फ रोटी-कपड़ों के लिए शादी नहीं करनी चाहिए या ऐसे विचार और नजरिये नहीं पालने चाहिए। चूँकि तुममें स्वतंत्र रूप से रहने की काबिलियत है, तो तुम बुनियादी जरूरतों के लिए पुरुष के भरोसे क्यों रहोगी? क्या कुछ हद तक यह उनके माता-पिता के प्रभाव और परिवार के विचारों की शिक्षा के कारण है? अगर किसी महिला को परिवार द्वारा यह शिक्षा मिलती है, तो या तो वह आलसी है, रोटी-कपड़ों के लिए किसी दूसरे के भरोसे रहने के सिवाय और कुछ भी नहीं करना चाहती या उसने माता-पिता के विचारों को स्वीकार कर लिया है, मान लिया है कि महिलाएँ किसी काम की नहीं होतीं और न वे रोटी-कपड़ों के मसले खुद सुलझा सकती हैं या उन्हें सुलझाना चाहिए बल्कि उन्हें बस पुरुषों के भरोसे ही रहना चाहिए। क्या यह खुद को अधोगति में झोंकना नहीं है? (बिल्कुल।) ऐसे विचार और नजरिये अपनाना गलत क्यों है? इनका क्या प्रभाव होता है? किसी को ऐसे पतित विचारों को क्यों जाने देना चाहिए? अगर कोई पुरुष तुम्हारे रोटी-कपड़ों की व्यवस्था करता है, तो तुम उसे अपना मालिक, अपने से श्रेष्ठ, हर चीज का प्रभारी मानने लगती हो, फिर क्या तुम हर छोटे-बड़े मामले में उससे सलाह-मशविरा नहीं करोगी? (बिल्कुल।) मिसाल के तौर पर, अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखती हो, तो शायद तुम सोचो, “जो प्रभारी है, मैं उससे पूछूँगी कि क्या मुझे परमेश्वर में विश्वास रखने की इजाजत है; अगर वह हाँ कहे तो मैं विश्वास रखूँगी, अगर ना कहे तो नहीं रखूँगी।” जब परमेश्वर का घर भी लोगों को अपना कर्तव्य निभाने को कहता है, तब भी तुम्हें उससे स्वीकृति लेनी पड़ेगी; अगर वह खुश और सहमत हो तो तुम अपना कर्तव्य निभा सकती हो, अगर न हो तो नहीं निभा सकती हो। परमेश्वर की विश्वासी होने के नाते तुम उसका अनुसरण कर सकती हो या नहीं, यह तुम्हारे पति के रवैए और बर्ताव पर तय करता है। क्या तुम्हारा पति यह समझ-बूझ सकता है कि यह मार्ग सच्चा है या गलत? क्या उसकी बात सुनकर तुम अपना उद्धार और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश सुनिश्चित कर लोगी? तुम्हारा पति बुद्धिमान हो और परमेश्वर की वाणी सुन सकता हो, वह परमेश्वर की भेड़ों में से एक हो, तो शायद तुम उसके साथ लाभान्वित हो जाओ, मगर तुम महज उसके साथ ही लाभान्वित हो रही हो। लेकिन अगर वह बदमाश और मसीह-विरोधी है, और सत्य को नहीं समझ सकता, तो तुम क्या करोगी? क्या तुम फिर भी विश्वास रखोगी? क्या तुम्हारे अपने कान या दिमाग नहीं है? क्या तुम परमेश्वर के वचन नहीं सुन सकती हो? उन्हें सुनने के बाद क्या तुम उन्हें खुद समझ-बूझ नहीं सकती? क्या तुम्हारा पति तुम्हारा भाग्य तय कर सकता है? क्या वह तुम्हारी नियति को नियंत्रित और आयोजित करता है? क्या तुम उसके हाथों बिक चुकी हो? सभी के मन में ये सिद्धांत स्पष्ट हैं, लेकिन सिद्धांतों से जुड़ी कुछ समस्याओं की बात आने पर लोग अनजाने ही अपने परिवारों द्वारा इन विचारों और नजरियों से अपनी शिक्षा से प्रभावित हो जाते हैं। जब ये विचार और नजरिये तुम्हें प्रभावित करते हैं, तो तुम अक्सर गलत फैसले करते हो, और इन गलत फैसलों के पीछे के विचारों से चलते हो, गलत विकल्प चुनते हो, जो फिर तुम्हें गलत पथ पर ले जाते हैं, और आखिरकार तुम बरबाद हो जाते हो। तुमने कर्तव्य निभाने, सत्य प्राप्त करने, और उद्धार पाने का अवसर गँवा दिया। तुम्हारा अंत किस कारण से हुआ? ऊपर से लगता है एक पुरुष ने तुम्हें गुमराह कर प्रभावित किया, तुम्हें बरबाद किया। लेकिन वास्तविकता में अपनी गहरी जड़ें जमाई हुई सोच के कारण तुम्हारा अंत हुआ। यानी इस परिणाम का मूल कारण यह सोच है कि “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता।” इसलिए इस विचार को जाने देना सबसे अहम है।

दुनिया से निपटने, खेल नियमों, दुनिया, प्रजाति, पुरुषों और महिलाओं, शादी, वगैरह के तौर-तरीकों के सिद्धांतों और रणनीतियों से जुड़े माता-पिता और परिवारों के उन विचारों और नजरियों, जिन पर हमने संगति की, को अब मुड़कर देखें, तो क्या इनमें से कोई भी सकारात्मक है? क्या इनमें ऐसा कुछ है जो सत्य के अनुसरण के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए कुछ हद तक तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकता है? (नहीं।) इनमें से एक भी सच्चा या योग्य सृजित प्राणी बनने में तुम्हारी मदद नहीं करता है। इसके विपरीत इनमें से प्रत्येक तुम्हें भारी हानि पहुँचाता है, ऐसे विचारों और नजरियों की शिक्षा के जरिये तुम्हें भ्रष्ट करता है, जिससे आज लोग अपने अंतरतम में विविध भ्रांतिपूर्ण विचारों और नजरियों से बंध गए हैं, नियंत्रित, प्रभावित और त्रस्त हो गए हैं। जहाँ लोगों के दिलों की गहराई में परिवार गरमाहट का एक स्थान है, बचपन की यादों से भरी हुई जगह है, आत्मा का आश्रय है, वहाँ परिवार द्वारा लोगों पर डाले गए विविध नकारात्मक प्रभावों को कम नहीं आँकना चाहिए। परिवार की गरमाहट इन गलत विचारों को घोल नहीं सकती। परिवार की गरमाहट और उससे जुड़ी खूबसूरत यादें भौतिक स्नेह के स्तर पर केवल थोड़ी सांत्वना और संतोष लाती हैं। लेकिन किसी के आचरण और दुनिया से निपटने के तरीके, चलने के पथ, या जीवन के प्रति कैसा दृष्टिकोण या कैसे मूल्य स्थापित करने चाहिए, जैसे विषयों के बारे में परिवार से मिली शिक्षा पूरी तरह हानिकारक होती है। इस नजरिये से देखें तो समाज में प्रवेश करने से ही पहले व्यक्ति अपने परिवार के विविध विचारों और नजरियों से भ्रष्ट हो चुका होता है—वह पहले ही विविध गलत विचारों और नजरियों की शिक्षा, नियंत्रण और प्रभाव से गुजर चुका होता है। कहा जा सकता है कि परिवार ही वह जगह है जहाँ तमाम गलत विचार और नजरिये सबसे पहले प्राप्त होते हैं, और यही वह जगह है जहाँ इन्हें चलाकर बेरोक-टोक लागू किया जाता है। परिवार सभी लोगों के जीवन और उनके दैनिक जीवन में ऐसी भूमिका निभाते हैं। इस विषयवस्तु पर हमारी संगति लोगों से यह कहने के बारे में नहीं है कि वे स्नेह के संदर्भ में या बाहरी तौर पर परिवार से अलग हो जाएँ या उससे नाते-रिश्ते तोड़ लें। बस इतनी अपेक्षा है कि लोग अपने मन में परिवार द्वारा बैठाए गए गलत विचारों और नजरियों को विशेष रूप से पहचानें, समझें-बूझें, और बेशक ज्यादा सटीकता और व्यावहारिकता से उन्हें त्याग दें। यह वह विशिष्ट अभ्यास है जो सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति को परिवार से जुड़े विषय संबोधित करते समय अपनाना चाहिए।

परिवार से जुड़े बहुत-से दूसरे विषय हैं। क्या यह सच नहीं है कि ये कहावतें जिनसे परिवार लोगों को शिक्षा देता है, और जिन पर हमने संगति की है, वे बहुत प्रचलित हैं? (हाँ, जरूर हैं।) हम परिवारों में इन्हें अक्सर सुनते हैं—अगर एक परिवार में नहीं तो दूसरे में। क्या ये बहुत प्रचलित और प्रतिनिधि कहावतें नहीं हैं? बड़ी तादाद में परिवारों ने ये विचार और नजरिये अलग-अलग सीमा तक लोगों के भीतर बैठा दिए हैं। हमने जिस भी कहावत पर संगति की है, वह ज्यादातर परिवारों में अलग-अलग ढंग से प्रकट होती है और व्यक्ति के विकास के विविध चरणों में उसके भीतर बैठाई जाती है। जिस दिन से उसके भीतर ये विचार बैठाए जाते हैं, उसी दिन से वह इन्हें स्वीकार करने लगता है, इनके प्रति थोड़ी जागरूकता और स्वीकृति हासिल करने लगता है, और फिर अपना बचाव करने की क्षमता न होने के कारण वह दुनिया से निपटने की रणनीतियों और तरीकों के रूप में ये विचार और नजरिये अपना लेता है ताकि जी सके और भविष्य में जीवित रह सके। बेशक, बहुत-से लोग समाज में पाँव जमाने के लिए इन्हें अपनी आधाररेखा बना लेते हैं। इस तरह से ये विचार और नजरिये न सिर्फ लोगों के दैनिक जीवन में बल्कि उनके अंदरूनी संसार और जीवित रहने के पथ पर वे जिन समस्याओं का सामना करते हैं उनमें व्याप्त हो जाते हैं। जब विभिन्न मसले उभरते हैं तो लोगों के दिलों में जमा विविध विचार और नजरिये उन्हें ये मामले सँभालने के लिए रास्ता दिखाते हैं; जब ये विभिन्न मसले उभरते हैं, तो विभिन्न विचार और नजरिये और दुनिया से निपटने के सिद्धांत और रणनीतियाँ उन पर हावी हो जाती हैं, और वे उनसे शासित होते हैं। लोग बड़ी दक्षता से इन गलत विचारों और नजरियों को असल जीवन में लागू कर सकते हैं। तमाम गलत विचारों और नजरियों के मार्गदर्शन में वे स्वाभाविक रूप से एक गलत राह पर चलने लगते हैं। चूँकि उनके क्रियाकलाप, व्यवहार, जीवन और अस्तित्व पर गलत विचारों का दबदबा होता है तो यह तय होता है कि जीवन में वे जिन रास्तों पर चलते हैं वे भी भटके हुए होते हैं। चूँकि उनके मार्गदर्शक विचारों की जड़ ही गलत है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनका रास्ता गलत होता है। उनके पथ की दिशा टेढ़ी होती है, जिससे उसका अंतिम परिणाम बहुत स्पष्ट हो जाता है। परिवार के विविध विचारों से मिली शिक्षा से लोग गलत पथ पर चलते हैं, और वे इस गलत पथ पर भटक जाते हैं। नतीजतन वे नरक की ओर, विनाश की ओर चल पड़ते हैं। अंत में, उनके विनाश का मूल कारण उनके परिवारों द्वारा दी गई शिक्षा के विविध गलत विचार होते हैं। गंभीर परिणामों को देखते हुए लोगों को अपने परिवारों द्वारा दिए गए विविध विचारों की शिक्षा को त्याग देना चाहिए। फिलहाल लोगों पर विविध गलत विचारों की शिक्षा का प्रभाव उन्हें सत्य को स्वीकार करने से रोकने का होता है। इन गलत विचारों का अस्तित्व होने और इनके अनुसार चलने के कारण लोग अक्सर सत्य को नहीं समझ पाते और यहाँ तक कि इसे दिल से ठुकराते हैं और इसका प्रतिरोध भी करते हैं। बेशक और भी बुरी बात यह है कि कुछ लोग परमेश्वर को धोखा देने का फैसला भी कर सकते हैं। फिलहाल यही स्थिति है, मगर दूर की सोचें तो जिन हालात में लोग सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते या सत्य को धता बताते हैं, उन हालात में ये गलत विचार उन्हें परमेश्वर को धोखा देते और ठुकराते हुए सत्य विरोधी गलत पथ पर आगे बढ़ाते हैं। ऐसे गलत पथ पर बढ़ते हुए भले ही ऐसा लगे कि वे परमेश्वर को सुन रहे हैं और उसके कार्य को स्वीकार कर रहे हैं, वे आखिरकार गलत पथ पर चलने के कारण सचमुच बचाए नहीं जा सकते। यह सचमुच खेद की बात है। इसलिए यह देखते हुए कि तुम्हारे परिवार का प्रभाव ऐसे गंभीर परिणाम ला सकता है, तुम्हें इन विचारों को तुच्छ नहीं समझना चाहिए। अगर तुम विभिन्न मसलों पर इनसे संबंधित अपने परिवार के गलत विचारों से शिक्षा पा चुके हो, तो तुम्हें उनकी जाँचकर उन्हें त्याग देना चाहिए—अब उन्हें पकड़े न रहो। विचार चाहे जो भी हो, अगर वह गलत है, और सत्य के विरुद्ध है, तो एकमात्र सही पथ जो तुम्हें चुनना चाहिए वह इसे त्याग देने का है। त्याग देने का सही अभ्यास यह है : जिन कसौटियों या आधार पर तुम इस मामले को देखते, करते या सँभालते हो, वे अब तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हारे भीतर बिठाए गए गलत विचार नहीं होने चाहिए, बल्कि इसके बजाय परमेश्वर के वचनों पर आधारित होने चाहिए। भले ही इस प्रक्रिया में तुम्हें शायद थोड़ी कीमत चुकानी पड़े और तुम्हें लगे कि तुम अपनी इच्छा के विरुद्ध कार्य कर रहे हो, अपनी नाक कटा रहे हो, और इससे शायद तुम्हारे दैहिक हितों को नुकसान भी पहुँचे, फिर भी तुम चाहे किसी भी चीज का सामना करो, तुम्हें लगातार अपने अभ्यास को परमेश्वर के बताए वचनों और सिद्धांतों के अनुरूप करना चाहिए, और छोड़ना नहीं चाहिए। इस परिवर्तन की प्रक्रिया यकीनन चुनौतीपूर्ण होगी, यह आसान नहीं होगी। यह आसान क्यों नहीं होगी? यह नकारात्मक और सकारात्मक चीजों के बीच का संघर्ष है, शैतान के बुरे विचारों और सत्य के बीच का संघर्ष है, और सत्य को स्वीकार करने की तुम्हारी इच्छा, आकांक्षा और सकारात्मक चीजों का तुम्हारे दिल में बैठे गलत विचारों और नजरियों से संघर्ष है। चूँकि एक संघर्ष चल रहा है, इसलिए व्यक्ति को कष्ट सहकर कीमत चुकानी पड़ सकती है—तुम्हें यही करना चाहिए। अगर कोई सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलकर उद्धार प्राप्त करना चाहे, तो उसे ये तथ्य स्वीकार कर इन संघर्षों का अनुभव करना चाहिए। बेशक इन संघर्षों के दौरान तुम जरूर कुछ कीमत चुकाओगे, थोड़ी पीड़ा सहोगे और कुछ चीजें छोड़ दोगे। प्रक्रिया चाहे जैसी भी दिखे, आखिरकार परमेश्वर का भय मान पाना और बुराई से दूर रह पाना, सत्य प्राप्त करना और उद्धार प्राप्त करना—यही अंतिम लक्ष्य है। इस प्रकार इस लक्ष्य के लिए चुकाई गई कोई भी कीमत कम ही है क्योंकि यह सबसे सही लक्ष्य है, और एक योग्यताप्राप्त सृजित प्राणी बनने के लिए तुम्हें इसका अनुसरण करना चाहिए। इस लक्ष्य को पाने के लिए चाहे जितना प्रयास करना पड़े या जितनी भी कीमत चुकानी पड़े, तुम्हें समझौता नहीं करना चाहिए, इससे बचना या डरना नहीं चाहिए, क्योंकि अगर तुम सत्य का अनुसरण कर परमेश्वर का भय मानने, बुराई से दूर रहने और बचाए जाने का लक्ष्य रखोगे, तो किसी भी संघर्ष या युद्ध का सामना होने पर तुम अकेले नहीं रहोगे। परमेश्वर के वचन तुम्हारे साथ होंगे; सहारे के रूप में परमेश्वर और उसके वचन तुम्हारे साथ होंगे, इसलिए तुम्हें डरना नहीं चाहिए, है कि नहीं? (हाँ।) तो, इन कुछ बातों के आधार पर, भले ही यह परिवार या किसी और स्रोत से मिले गलत विचारों की शिक्षा हो, व्यक्ति को इसे त्याग देने का निर्णय लेना चाहिए। मिसाल के तौर पर, जैसा कि अभी हमने संगति की, तुम्हारा परिवार अक्सर तुमसे कहता है, “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए।” वास्तविकता में, इस विचार को त्याग देने का अभ्यास सरल है : बस उन सिद्धांतों के अनुसार कर्म करो, जो परमेश्वर लोगों को बताता है। “सिद्धांत जो परमेश्वर लोगों को बताता है”—यह वाक्यांश बहुत व्यापक है। इसका विशिष्ट रूप से अभ्यास कैसे किया जाता है? तुम्हें यह विश्लेषण करने की जरूरत नहीं है कि क्या तुम दूसरों को हानि पहुँचाने का इरादा रखते हो, न ही तुम्हें खुद को दूसरों से सुरक्षित रखने की जरूरत है। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? एक ओर तुम्हें दूसरों के साथ उचित रूप से सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने में समर्थ होना चाहिए; दूसरी ओर विभिन्न लोगों से निपटते समय तुम्हें उनकी असलियत जानने के लिए आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों का और कसौटी के रूप में सत्य का उपयोग करना चाहिए, और फिर संबंधित सिद्धांतों के आधार पर उनसे पेश आना चाहिए। यह इतना सरल है। अगर वे भाई-बहन हैं, तो उनसे वैसे ही पेश आओ; अगर वे अपने अनुसरण में सच्चे हैं, त्याग करते हैं, खुद को खपाते हैं, तो फिर उनसे ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने वाले भाई-बहनों की तरह पेश आओ। अगर वे छद्म-विश्वासी हैं, अपना कर्तव्य निभाने के अनिच्छुक हैं, बस अपना जीवन जीना चाहते हैं, तो तुम्हें उनसे भाई-बहनों की तरह नहीं, बल्कि गैर-विश्वासियों की तरह पेश आना चाहिए। लोगों को देखते समय तुम्हें गौर करना चाहिए कि वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं, उनका स्वभाव कैसा है, उनकी मानवता कैसी है, और परमेश्वर और सत्य के प्रति उनका रवैया क्या है। अगर वे सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास करने को तैयार हैं, तो उनसे सच्चे भाई-बहन, एक परिवार की तरह पेश आओ। अगर उनकी मानवता खराब है, और वे स्वेच्छा से सत्य का अभ्यास करने का सिर्फ दिखावा करते हैं, उनमें सिद्धांत की चर्चा करने की काबिलियत है मगर वे कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो उनसे महज मजदूरों की तरह पेश आओ, परिवार के रूप में नहीं। ये सिद्धांत तुम्हें क्या बताते हैं? ये तुम्हें वह सिद्धांत बताते हैं जिससे विभिन्न प्रकार के लोगों से पेश आना चाहिए—यह वह सिद्धांत है जिसकी हमने अक्सर चर्चा की है, यानी लोगों से बुद्धिमत्ता से पेश आना। बुद्धिमत्ता एक सामान्य शब्द है, लेकिन विशेष रूप से इसका अर्थ विभिन्न प्रकार के लोगों से निपटने के स्पष्ट तरीके और सिद्धांत जानना है—जो सब कुछ सत्य पर आधारित हो, निजी भावनाओं, निजी पसंद-नापसंद, निजी नजरियों, उनसे होने वाले लाभ-हानियों और उनकी उम्र पर नहीं, बल्कि पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों पर आधारित हो। इसलिए, लोगों से निपटते समय तुम्हें यह जाँचने की जरूरत नहीं है कि क्या तुम दूसरों को हानि पहुँचाने या खुद को दूसरों से बचाने का इरादा रखते हो। अगर तुम लोगों के साथ परमेश्वर के दिए सिद्धांतों और तरीकों से पेश आते हो, तो तमाम प्रलोभनों से बच जाओगे और तुम किसी प्रलोभन या संघर्ष में नहीं फँसोगे। यह इतना सरल है। यह सिद्धांत गैर-विश्वासियों की दुनिया से निपटते समय भी उपयुक्त है। किसी को देखने पर तुम सोचोगे, “वह बुरा है, दानव, राक्षस, ठग या बदमाश है। मुझे खुद को उससे बचाने की जरूरत नहीं है; मैं उस पर ध्यान नहीं दूँगा, उसे नहीं उकसाऊँगा। अगर काम के लिए उससे मेल-जोल जरूरी हुआ, तो मैं इसे आधिकारिक और निष्पक्ष रूप से सँभालूँगा। अगर यह जरूरी न हो, तो मैं उससे संपर्क या मेल-जोल से बचूँगा, और न तो उसका बचाव करूँगा न ही उसकी खुशामद करूँगा। उसे मुझमें कोई खामी नहीं मिलेगी। अगर वह मुझे धौंस देना चाहे, तो परमेश्वर मेरे साथ है। मैं परमेश्वर पर भरोसा रखूँगा। अगर परमेश्वर ने उसे मुझ पर धौंस जमाने की इजाजत दी, तो मैं इसे स्वीकार कर समर्पण करूँगा। अगर परमेश्वर ने इसकी इजाजत नहीं दी, तो तो वह मेरा बाल भी बाँका नहीं कर पाएगा।” क्या यह सच्ची आस्था नहीं है? (बिल्कुल।) तुम्हें ऐसी सच्ची आस्था रखनी चाहिए, उससे नहीं डरना चाहिए। यह मत कहो कि वह बस एक स्थानीय ठग है, कोई छोटा गुर्गा है : बड़े लाल अजगर का सामना होने पर भी हम इसी सिद्धांत का पालन करते हैं। अगर बड़ा लाल अजगर तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकता है, तो क्या तुम उससे तर्क-वितर्क करते हो? क्या तुम उसे उपदेश देते हो? (नहीं।) क्यों नहीं देते? (उसे उपदेश देना फिजूल है।) वह दानव है, धर्मोपदेश सुनने योग्य नहीं है। भैंस के आगे बीन नहीं बजानी चाहिए। पशुओं या दानवों से सत्य नहीं बोला जाता; यह इंसानों के लिए है। भले ही दानव या पशु इसे समझ सकें, फिर भी उन्हें इसका उपदेश नहीं दिया जाता। वे इस योग्य नहीं होते! यह सिद्धांत कैसा है? (अच्छा है।) तुम कलीसिया में बुरी मानवता वाले, बुरे, बेवकूफ और नासमझ धौंस जमाने वाले लोगों, या समाज में बड़े परिवारों के कुछ सामर्थ्यवान या नामी-गिरामी लोगों से कैसे पेश आते हो? उनसे उसी तरह पेश आओ जैसे आना चाहिए। अगर वे भाई-बहन हैं, तो उनसे मेल-जोल रखो। अगर नहीं तो उनकी अनदेखी करो, और उनसे छद्म-विश्वासियों की तरह पेश आओ। अगर वे सुसमाचार साझा करने के सिद्धांतों के अनुरूप हों, तो उनके साथ साझा करो। अगर वे सुसमाचार के पात्र न हों, तो जीवन भर उनसे मत मिलो, या मत जुड़ो। यह इतना सरल है। दानवों और शैतानों के मामले में तुम्हें खुद को बचाने, उनके खिलाफ मामला तैयार करने या उनसे बदला लेने की जरूरत नहीं है। बस उन्हें अनदेखा करो। उन्हें मत उकसाओ, उनके साथ मेल-जोल मत रखो। अगर किसी कारण उनके साथ मेल-जोल या व्यवहार करना पड़े, तो आधिकारिक और निष्पक्ष रूप से सिद्धांतों के आधार पर मामलों से निपटो। यह इतना सरल है। परमेश्वर लोगों को कार्य और व्यवहार करने के जो सिद्धांत और तरीके सिखाता है, वे तुम्हें स्वाभिमान के साथ आचरण करने में मदद करते हैं, तुम्हें मानव के समान अधिक जीने देते हैं। जबकि तुम्हारे माता-पिता जिस तरह तुम्हें सिखाते हैं, जो ऊपर से तुम्हारी रक्षा करते हुए-से और तुम्हारा ख्याल रखते हुए-से लगते हैं, असल में तुम्हें गुमराह करते हैं और तुम्हें दुखों के रसातल में धकेल देते हैं। वे तुम्हें जो सिखाते हैं वह तुम्हारे आचरण का सही तरीका या बुद्धिमान दृष्टिकोण नहीं बल्कि शातिर और घिनौना तरीका है जो सत्य के विपरीत और उससे असंबद्ध है। इसलिए अगर तुम सिर्फ माता-पिता द्वारा तुम्हारे भीतर बैठाए गए विचारों की शिक्षा को ही स्वीकार करते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य को स्वीकार करना बहुत कठिन और दुष्कर हो जाता है, और सत्य का अभ्यास करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। हालाँकि अगर तुम अपने माता-पिता से मिले दुनिया से निपटने के अपने आचरण और सिद्धांतों से जुड़े विचारों को सच्चे दिल से त्याग देना चाहते हो, तो सत्य स्वीकारना आसान हो जाता है और उसी तरह इसका अभ्यास करना भी।

जहाँ तक परिवार से मिली शिक्षा का प्रश्न है, हमारे जिक्र किए हुए विचारों और नजरियों के अलावा, क्या कुछ और भी है? सारांश में बताओ। ऐसे बहुत-सी चीजें हैं जो परिवार से आती हैं, और चीन में लोग इसे “डाइनिंग टेबल संस्कृति” कहते हैं। मिसाल के तौर पर, डाइनिंग टेबल पर कोई बच्चा कहता है, “मेरे क्लास की मॉनीटर, अपनी बाँह पर तीन फीतियों वाली वह लड़की, हमेशा मेरे होमवर्क की जाँच करती है, और मेरे होमवर्क पूरा कर देने पर भी कहती है कि मैंने पूरा नहीं किया है। वह हमेशा मेरी आलोचना करती है।” माता-पिता जवाब दे सकते हैं, “तू लड़का है और वह लड़की। तू उसे लेकर क्यों परेशान हो रहा है? अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे और अपनी माँ का सिर गर्व से ऊँचा कर। जब तू क्लास मॉनीटर बन जाएगा, तो तू उसके होमवर्क की जाँच करना और इससे मामला निपट जाएगा, है कि नहीं?” यह सुनकर बच्चा सोच सकता है, “बात में दम है। मैं लड़का हूँ, भले ही वह क्लास मॉनीटर हो, है तो वह एक लड़की ही। मुझे उसे लेकर परेशान नहीं होना चाहिए। अगर वह फिर से मुझे परेशान करेगी तो मैं उसकी अनदेखी करूँगा और बस बात खत्म। वह मुझे जितना परेशान करेगी, मैं उतनी ही मेहनत से पढ़ूँगा। मैं उससे आगे हो जाऊँगा, और अगले सत्र में क्लास मॉनीटर बनकर उसका प्रभारी हो जाऊँगा। बस इससे मामला निपट जाएगा।” यह डाइनिंग टेबल संस्कृति का उदाहरण है। डाइनिंग टेबल पर अगर कोई लड़का रोने लगे, तो उसके माता-पिता कह सकते हैं, “बस कर! क्यों रो रहा है? नालायक कहीं का!” क्या रोने का अर्थ यह है कि तुम नालायक हो? क्या इसका अर्थ है कि जो लोग नहीं रोते वे होनहार हैं? क्या हर वह लड़का जो कभी नहीं रोया, होनहार है? उन होनहार लोगों को देखो—जब वे बच्चे थे तो क्या वे रोये नहीं थे या रोकर आँसू नहीं बहाए थे? क्या उनमें भावनाएँ थीं? क्या उन्होंने उल्लास, क्रोध, दुख और खुशी का अनुभव किया था? उन्होंने यह सब अनुभव किया था। चाहे कोई नामी-गिरामी हो या साधारण व्यक्ति, सबके भीतर एक इंसानी कमजोरी या मानवीय सहजज्ञान होता है। माता-पिता की शिक्षा और सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण लोग अक्सर इसे कमजोर, कायर, अक्षम या आसानी से धौंस खाने वाला पहलू समझ लेते हैं। वे कभी इसे खुलकर प्रकट करने की हिम्मत नहीं करते; इसके बजाय वे इसे किसी कोने में चुपचाप व्यक्त करते हैं। अपने करियर के सबसे चुनौतीपूर्ण समय का सामना करते समय कुछ नामी-गिरामी लोग, कोई मदद या साथ देने वाला न होने पर, शायद अपने आसपास के सभी सिपाहियों, मातहतों और नौकरों-चाकरों के जाने की प्रतीक्षा करें। और फिर वे अपने बाथटब में पड़े-पड़े भेड़ियों की तरह चिल्लाकर अपनी भावनाएँ बाहर निकालते हैं। चीखने-चिल्लाने के बाद वे सोचते हैं, “कहीं किसी ने सुना तो नहीं? कहीं मैं बहुत जोर से तो नहीं चीखा? मुझे अपना स्वर थोड़ा हल्का कर देना चाहिए!” लेकिन इसे हल्का कर देना नाकाफी लगता है, इसलिए वे अपना मुँह तौलिये से ढँककर भेड़ियों की तरह चीखते रहते हैं। सामान्य मानवजाति के लिए विविध भावनाओं को बाहर निकालना और अभिव्यक्त करना जरूरी है। लेकिन, इस समाज के जबरदस्त दबाव और तरह-तरह के जनमत के दमन के कारण कोई भी अपनी भावनाएँ सामान्य रूप से व्यक्त करने की हिम्मत नहीं करता। ऐसा इसलिए कि परिवार द्वारा दी गई सीख और शिक्षा से शुरू कर प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कुछ गलत मान्यताएँ बैठा दी गई हैं, जैसे कि “एक पुरुष को आत्मनिर्भर होना चाहिए,” “लोहा गढ़ने के लिए व्यक्ति को शक्तिशाली होना चाहिए,” “अगर व्यक्ति ईमानदार हो, तो उसे अफवाहों की फिक्र नहीं करनी चाहिए,” और “अगर तुम्हारा जमीर साफ हो, तो तुम्हें अपने दरवाजे पर दस्तक दे रहे भूतों से नहीं डरना चाहिए।” यह भी कहावत है “जैसे शरीफ घोड़े की सवारी की जाती है, वैसे ही भले व्यक्ति पर धौंस जमाई जाती है,” जो यह संदेश देता है कि व्यक्ति को आसान निशाना बनने से बचना चाहिए, बल्कि इसके बजाय उसे दूसरों को धौंस देना चाहिए। “जैसे शरीफ घोड़े की सवारी की जाती है, वैसे ही भले व्यक्ति पर धौंस जमाई जाती है,” के संदर्भ में “भले” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है निष्कपट, सरल, निष्ठावान, दयालु और ईमानदार। यानी यह सुझाव देता है कि तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनने से बचना चाहिए, क्योंकि ऐसे लोग आसान निशाना होते हैं। तो इसके बजाय तुम्हें क्या बनना चाहिए? तुम्हें गुंडा-बदमाश, लुच्चा-लफंगा, खलनायक, बुरा व्यक्ति, उपद्रवी बनना चाहिए—फिर कोई तुमसे खिलवाड़ करने की हिम्मत नहीं करेगा। कहीं भी अगर तर्क काम न करे, तो तुम्हें एक लुच्चे-लफंगे जैसा काम कर तमाशा करना चाहिए, खीझ दिखानी चाहिए, और कुतर्क कर हंगामा खड़ा करना चाहिए। ऐसा बर्ताव करने वाले लोग पनपते हैं। किसी भी कार्यस्थल या सामाजिक समूह में, ज्यादातर लोग ऐसे लोगों से डरते हैं, और कोई भी उन्हें उकसाने की हिम्मत नहीं करता। वे कुत्ते के बदबूदार मल-मूत्र या चिढ़ पैदा करने वाले कीड़े-मकोड़ों जैसे होते हैं, तुम एक बार उन्हें खुद पर ले लो, तो झटकना बहुत मुश्किल होता है। तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनना पड़ेगा। लोगों को यह मत सोचने दो कि तुम एक आसान निशाना हो या आसानी से उकसाए जा सकते हो। तुम्हारे पूरी शरीर पर काँटे होने चाहिए। अगर तुम पर काँटे नहीं होंगे तो तुम इस समाज में खुद को स्थापित नहीं कर पाओगे। हमेशा कोई ऐसा होगा जो तुम पर धौंस जमाएगा। परिवार से मिली शिक्षा तुम्हें जीवन पथ दिखाने और विशेष रूप से यह सिखाने और तुम्हारे भीतर यह बैठाने के लिए कि तुम अपना आचरण कैसे करो, एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है। यानी माता-पिता इन विचारों और नजरियों का इस्तेमाल तुम्हें यह शिक्षा देने के लिए करते हैं कि तुम अपना आचरण और बर्ताव कैसे करो, चीजों से कैसे निपटो। वे तुम्हें कैसा व्यक्ति बनने को कहते हैं? ऊपर से तो कुछ माता-पिता अच्छी लगने वाली कुछ बातें कह सकते हैं, जैसे “मेरे बच्चे को नामी-गिरामी या सेलेब्रिटी बनने की जरूरत नहीं है; वह नेक इंसान बने, यह काफी है।” लेकिन, वे अपने बच्चों को ऐसे वाक्यांश भी बताते हैं, “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए,” “जैसे शरीफ घोड़े की सवारी की जाती है, वैसे ही भले व्यक्ति पर धौंस जमाई जाती है,” और “एक पुरुष को आत्मनिर्भर होना चाहिए।” तो इतनी बातें करने के बाद क्या वे अपने बच्चों को अच्छे लोग बनने को कह रहे हैं या कुछ और? (वे उन्हें खूंख्वार बनने या कम-से-कम खुद की रक्षा करने में सक्षम होने को प्रोत्साहित कर रहे हैं।) मुझे बताओ, क्या ज्यादातर माता-पिता अपने बच्चों को दूसरों पर धौंस जमाते हुए देखने की इच्छा रखते हैं या इसके बजाय वे उन्हें खास तौर पर ईमानदारी से सही पथ पर चलते, अक्सर धौंस खाते हुए और थोड़ा बहिष्कार झेलते हुए देखना चाहते हैं? बच्चे को कैसा व्यक्ति बनना चाहिए ताकि वह अपने माता-पिता को सबसे ज्यादा खुश और गौरवान्वित कर सके और उनके चेहरे तेज से चमक सकें? (माता-पिता को तब गर्व होता है जब उनके बच्चे दूसरों को धौंस दे पाते हैं, लेकिन सही पथ पर चलते समय उनके बच्चों के साथ अक्सर दुर्व्यवहार हो तो वे इसे शर्मनाक मानते हैं।) अगर तुम सही पथ पर चलते हो, मगर अक्सर तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव होता है, तो तुम्हारे माता-पिता को दुख-दर्द, पीड़ा और मानसिक व्यथा होगी, और वे ऐसा नहीं होने देना चाहेंगे। इसका मूल कारण क्या है? कारण चाहे जो भी हों, पर माता-पिता अपने बच्चों को आचरण और कार्य करने के तरीकों के बारे में जो भी विचार और नजरिया सिखाते हैं वह गलत और सत्य के विपरीत होता है। संक्षेप में कहें, तो माता-पिता तुम्हारे भीतर जो विचार और नजरिये बैठाते हैं वे तुम्हें कभी भी परमेश्वर की मौजूदगी की ओर नहीं ले जाएँगे, न ही ये तुम्हें सत्य के अनुसरण का मार्ग दिखाएँगे। बेशक, लोग कभी भी ऐसे विचारों और नजरियों के मार्गदर्शन में उद्धार प्राप्त नहीं करेंगे। यह एक अकाट्य तथ्य है। इसलिए तुम्हारे माता-पिता के इरादे या अभिप्रेरणाएँ चाहे जो भी हों, तुम पर उनका जो भी प्रभाव पड़ता हो, अगर तुम जिस तरह जीते हो वह सत्य के विपरीत हो, सत्य का विरोध करता हो, और तुम्हें परमेश्वर और सत्य को समर्पित होने से रोकता हो, तो तुम्हें उसे त्याग देना चाहिए।

पिछले कुछ संगति सत्रों में बताए गए परिवार से मिली शिक्षा के विविध विचारों को देखें, तो हालाँकि ये विचार लोगों के बीच व्यापक रूप से इस्तेमाल किए जाते हैं और इन्हें आगे बढ़ाया जाता है, मगर इन्हें चाहे जितने भी व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता हो या चाहे जितने भी लोग इन्हें अपनाते हों, इन पर चाहे जितना भी भरोसा करते हों, इनसे लोगों को होने वाली हानि को देखते हुए, यह जरूरी है कि लोग इन विचारों और नजरियों को त्याग दें। उन्हें इन विचारों और नजरियों से संबंधित विविध मामलों की दोबारा जाँच करनी चाहिए या उन पर सवाल पूछने चाहिए, परमेश्वर के वचनों में अभ्यास और सत्य सिद्धांतों के सही पथ की तलाश करनी चाहिए, और विचारों की इस शिक्षा को त्याग देने के आधार पर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, और इस तरह उद्धार की आशा प्राप्त करनी चाहिए। मैं जानने को उत्सुक हूँ कि तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हारे भीतर बैठाए गए विचारों और नजरियों और विविध विशिष्ट कहावतों की शिक्षा पर संगति के इन सत्रों के जरिए तुम लोगों ने किस हद तक अपनी आत्मा में गहराई तक बैठे विविध विचारों और नजरियों को पहचाना है। संक्षेप में कहें, तो जो भी हो, इन संगति सत्रों को लोगों को सचेत करने का काम करना चाहिए, ताकि लोगों को परिवार की संकल्पना की नई समझ मिले, और साथ ही परिवार के रिश्तेदारों द्वारा दी गई शिक्षा, पारिवारिक विचारों और पारिवारिक संस्कृति की बिल्कुल नई समझ और अवधारणा मिले, अपने परिवार को देखने का सही नजरिया और दृष्टिकोण अपनाने के लिए बिल्कुल नया दृष्टिकोण और क्षमता मिले। तुम अपने परिवार को बाहर से चाहे जैसे भी देखो, संक्षेप में कहें तो लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने को लेकर जिन गलत विचारों और नजरियों से तुम्हारे परिवार ने तुम्हें प्रभावित किया है, तुम्हें उनमें से प्रत्येक को समझना-बूझना चाहिए, और फिर बारी-बारी से इन विचारों को त्याग देना चाहिए ताकि तुम शुद्ध समझ के साथ परमेश्वर द्वारा लोगों को सिखाए जाने वाले नजरियों और तरीकों को अपनाओ और उन सही दृष्टिकोणों और तरीकों को स्वीकार करो जो परमेश्वर लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के लिए लोगों को देता है। यही वह कार्य है जो सत्य का सच्चाई से अनुसरण करने वाले लोगों को करना चाहिए।

परिवारों द्वारा लोगों के भीतर बैठाया गया एक महत्वपूर्ण विचार और नजरिया यह है कि उन्हें खूंख्वार होना चाहिए और अपनी रक्षा के विविध उपायों का प्रयोग करना चाहिए। विविध विचारों और नजरियों की शिक्षा से दुनिया से निपटने के तरीके और साधन प्राप्त करने के बाद लोग अपने हितों की रक्षा कैसे करते हैं, इस पर ध्यान दिया जाए, तो लोगों के भीतर ऐसे विचार बैठाने का परिवारों का प्राथमिक प्रयोजन क्या है? यह लोगों की धौंस खाने से बचाने के लिए है। अब, आओ धौंस खाने के सार की जाँच करें। क्या धौंस खाना अच्छी बात है? क्या इससे बचा जा सकता है? क्या ऐसा कोई है जिसने कभी धौंस न खाई हो? धौंस खाने में होता क्या है? यह आशा करने के अलावा कि उनके बच्चे समाज में घुल-मिल कर सामान्य ढंग से स्थापित हो सकें, माता-पिता को निरंतर यह डर भी होता है कि उनके बच्चों को धौंस दी जाएगी। इसलिए तुम्हारे माता-पिता अक्सर तुम्हें दुनिया से निपटने के कुछ जुगाड़ और उपाय बताते हैं, ताकि तुम अपनी रक्षा करने और धौंस खाने से बचने के लिए इन तरीकों का इस्तेमाल कर सको। जब तुम्हारे लिए पंख फैलाकर अपने आप उड़ने का समय आ जाएगा, तो माता-पिता हर वक्त तुम्हारे साथ नहीं हो सकते या तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते, इसलिए वे यह सुनिश्चित करने के लिए तुम्हें कुछ विचारों और नजरियों से लैस कर देते हैं कि लोग तुम पर धौंस न जमा पाएँ। क्या ये विचार और नजरिये सही हैं? क्या तुम लोगों को धौंस खाने का डर है? क्या तुम लोग यह विचार और नजरिया रखते हो : “जब मैं समाज और सामाजिक समूह में पहुँचता हूँ, और खास तौर पर जब गैर-विश्वासियों से बातें करता हूँ, तो मुझे डर होता है कि मुझे धौंस दी जाएगी—मुझे सबसे ज्यादा यही चिंता होती है। अगर मैं लगभग अपने बराबर के किसी व्यक्ति से मिलूँ तो मैं अपना बचाव कर सकता हूँ। लेकिन अगर मेरी मुलाकात मुझसे ज्यादा खूंख्वार किसी व्यक्ति से हो गई, तो मैं प्रतिरोध करने की हिम्मत नहीं करूँगा। मुझे जैसी भी धौंस मिले, बस स्वीकार कर लूँगा। मैं इस बारे में कुछ नहीं कर सकता। उनके पीछे छिपे हुए समर्थक और लोग हैं, और मुझे यह सहना ही पड़ेगा।” क्या ज्यादातर लोगों के मन में यही प्रचलित विचार और नजरिया है? (पहले मेरे नजरिये भी ऐसे ही होते थे। परमेश्वर में आस्था रखने के बाद, मैं अपने भाई-बहनों के साथ सद्भाव के साथ मिल-जुल कर रहने लगा। गैर-विश्वसियों के साथ बातचीत के समय, धौंस और उत्पीड़न का सामना होने पर भी मुझे मालूम है कि यह परमेश्वर की अनुमति से हो रहा है और इससे मुझे एक सबक सीखने की जरूरत है। इसलिए मैं कम डरता हूँ और इसके बजाय इसका अनुभव करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करना सीख लिया है।) किस प्रकार का व्यक्ति खास तौर से भयभीत होता है? (जो परमेश्वर में आस्था नहीं रखता।) इन लोगों के अलावा, कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो खास तौर पर दब्बू हैं, अंतर्मुखी हैं, जिनमें स्वाभिमान की कमी है, जो कमजोर और दुर्बल हैं, शारीरिक रूप से कम आकर्षक हैं या जो छोटी कद-काठी के हैं, गरीब पृष्ठभूमि के हैं—खास तौर से ऐसे लोग जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का मजाक उड़ाया जाता है, जिनसे भेदभाव होता है—जिनका सामाजिक स्तर बहुत नीचा है, जिनमें कौशल या विशेषज्ञता नहीं है, जो मजदूरी करते हैं, जो शारीरिक रूप से अक्षम, आदि हैं। इन सभी लोगों के धौंस खाने की ज्यादा संभावना होती है और इन्हें इसका डर होता है। क्या धौंस देना समाज का प्रचलित मसला है? (हाँ।) जहाँ भी लोग होते हैं, ऐसी चीजें वहाँ जरूर होती हैं। आखिर धौंस जमाने का काम शुरू कैसे हुआ? (क्योंकि शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मानवजाति बहुत दुष्ट हो गई, और खुद धौंस खाए बिना दूसरों को धौंस देने की इच्छा रखने लगी। इसलिए, दमन की ये घटनाएँ हर जगह होती हैं।) एक पहलू यह है। कुछ लोग दूसरों से धौंस नहीं खाना चाहते, इसलिए वे पहल करके खुद पहले दूसरों को धौंस देते हैं और उन्हें डराते हैं ताकि कोई उन्हें धौंस देने की हिम्मत न करे। असल में अपने भीतर गहरे वे खुद ऐसा आचरण नहीं करना चाहते; यह उनके लिए भी थकाऊ है। सबको पछाड़ देने के बाद क्या तुम खुद भी नहीं थक जाते? एक कहावत है, “एक कदम आगे दो कदम पीछे।” उदाहरण के लिए एक साही यानी हेजहॉग को लो : अपने काँटे जैसे पंखों से निशाना साधने से क्या उसका अपना तंत्रिका तंत्र थक नहीं जाता? इनके लोगों के शरीर में गड़ने से उन्हें पीड़ा होती है, और साही खुद भी थक जाता है। तो इतना थकाऊ होने पर ऐसा क्यों करना? यह अपने संरक्षण के लिए होता है—साही को अपनी रक्षा करने के लिए थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है। चूँकि इस बुरी दुनिया में विभिन्न लोगों से पेश आने के लिए सकारात्मक या सही सिद्धांतों की कमी है, और लोगों को सांसारिक आचरण के लिए शैतान के फलसफों और सामाजिक अनुक्रम के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है, इसलिए लोगों के बीच असमान विभाजन के इन सिद्धांतों और मानदंडों के आधार पर भिन्नता और अनुक्रम पैदा हो जाते हैं। ऐसा होने पर लोग उचित रूप से और सद्भावना से मिल-जुल नहीं पाते। वे ऊँचे स्तरों में होने और बढ़िया से बढ़िया होने के लिए स्पर्धा करते हैं। जो सबसे ऊपर होते हैं वे दूसरों पर रोब जमा सकते हैं, अपनी मर्जी से उन पर धौंस जमाकर उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं। चूँकि यह समाज पक्षपातपूर्ण है, इसलिए लोगों से पेश आने के सिद्धांत अन्यायपूर्ण हैं। इस प्रकार लोगों के बीच का मेल-जोल यकीनन सद्भावनापूर्ण नहीं होता है, और लोगों के एक-दूसरे से मेल-जोल के सिद्धांत, तरीके और साधन सब-कुछ अन्यायपूर्ण हो जाते हैं। यह अन्याय विशेष रूप से उन लोगों को संबोधित करता है जो सामर्थ्य, पारिवारिक पृष्ठभूमि, कौशल, काबिलियत, शारीरिक रंग-रूप, लंबाई, और साथ ही चालों, साजिशों और रणनीतियों की तुलना करते हैं। ये तमाम चीजें कहाँ से आती हैं? ये सत्य या परमेश्वर से नहीं बल्कि शैतान से आती हैं। शैतान से आई ये चीजें लोगों में गहरे बैठ जाती हैं, और वे उनके अनुसार जीते हैं, तो तुम क्या सोचते हो, लोग आपस में कैसे मिलते-जुलते होंगे? क्या वे सभी से उचित ढंग से पेश आएँगे? (नहीं, नहीं आएँगे।) बिल्कुल नहीं। क्या परमेश्वर के घर में चुनाव का सरलतम सिद्धांत भी शैतान के प्रभुत्व वाली दुनिया में कार्यान्वित हो पाएगा? (नहीं हो सकता।) इसके कार्यान्वित न हो पाने के कारण का सार क्या है? क्या ऐसा नहीं है कि यह बुरी दुनिया सत्य द्वारा शासित नहीं है; यह बुरी प्रवृत्तियों और शैतान के विविध विचारों और उसके फलसफों द्वारा शासित है। तो बस यही हो सकता है कि लोग एक-दूसरे पर धौंस जमा कर उन्हें नियंत्रित करते हों—यही हैं संभव हालात। धौंस खाने से बचना नामुमकिन है—यह बहुत आम है। चूँकि दुनिया में सत्य का राज्य नहीं है, इसलिए इस बुरी दुनिया में जब लोग एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं, तो अगर तुम उन लोगों में से नहीं हो जो दूसरों पर धौंस जमाते हों, तो तुम वह बन जाओगे जिन्हें धौंस दी जाती है। तुम्हारी भूमिका इन दो चीजों की ही हो सकती है। वास्तविकता में, प्रत्येक व्यक्ति दूसरों को धौंस देता है और खुद भी धौंस खाता है। ऐसा इसलिए कि हमेशा लोग तुमसे उपर भी होते हैं और नीचे भी। तुम दूसरों को इसलिए धौंस देते हो क्योंकि तुम्हारी हैसियत उनसे ऊँची है, लेकिन साथ ही जब तुम उन्हें धौंस दे रहे देते हो, तब तुमसे भी ऊँची हैसियत और प्रतिष्ठा वाले लोग होते हैं जो तुम्हें धौंस देंगे, और तुम्हें उनकी धौंस झेलनी होगी। एक वर्ग के लोग दूसरे वर्ग के लोगों को धौंस देते हैं : यह है लोगों के बीच का रिश्ता, धौंस देने और धौंस खाने का। बस यही एकमात्र रिश्ता है। कोई भी सच्चा आत्मिक स्नेह, प्रेम, सहिष्णुता, धैर्य नहीं होता है, और सभी लोगों के न्यायपूर्ण और उचित ढंग से सिद्धांतों के अनुसार पेश आने की कोई संभावना नहीं होती है। चूँकि यह दुनिया सत्य द्वारा नहीं बल्कि शैतान द्वारा शासित है, इसलिए लोगों के बीच जो रिश्ते बनते हैं, वे सिर्फ धौंस देने वाले और धौंस खाने वाले के ही होते हैं, इस्तेमाल करने वाले और इस्तेमाल किये जाने वाले के होते हैं। यह अपरिहार्य है, और कोई इससे बच नहीं सकता। तुम कह सकते हो कि तुम अंडरवर्ल्ड के डॉन हो, और तुम्हारे बहुत-से गुर्गे और पिछलग्गू हैं, जिन सब पर तुम धौंस जमाते हो और जिन्हें तुम नियंत्रित करते हो। लेकिन अंडरवर्ल्ड डॉन के भी आला होते हैं और फिर सरकार भी होती है। वैसे यह कहा जाता है कि अधिकारी और अपराधी एक परिवार होते हैं, कभी-कभी सरकार जान-बूझ कर हंगामा खड़ा करती है और लाभ उठाकर तुम्हें नहीं छोड़ती। तुम्हें पुलिस थाने को रकम देकर उनके करीब होना होगा। देख लो, भले ही एक अंडरवर्ल्ड डॉन शानदार लगता हो, लेकिन पुलिस थाने जाने पर उसे भी सिर झुका कर घुटने टेकने पड़ते हैं—वह घमंडी होने की हिम्मत नहीं दिखा सकता। जैसा कि गैर-विश्वासियों की कहावतों में कहा गया है, “पादरी एक खंभा चढ़ता है तो दानव दस चढ़ जाता है,” और “हमेशा हमसे ताकतवर जरूर होता है।” इसका अर्थ यह है कि हर व्यक्ति दूसरों को धौंस देता है और खुद भी धौंस खाता है, और यही है धौंस देने का सार और प्रक्रिया।

धौंस देने के मामले पर गौर करें, तो चूँकि यह ऐसी चीज है जिससे कोई बच नहीं सकता, किसी व्यक्ति को इसे कैसे सँभालना चाहिए? भले ही तुम्हें धौंस खाने का डर न हो, फिर भी क्या कलीसिया में ऐसा कुछ होता है? क्या यह हो सकता है? जब तुम गैर-विश्वासियों से बातचीत करते हो, तो हो सकता है वे तुम्हें धौंस दें। तो क्या यह कलीसिया में नहीं होता? (जरूर होता है।) कमोबेश यह होता है, क्योंकि सभी लोग शैतान द्वारा भ्रष्ट हो चुके हैं। उद्धार प्राप्त करने से पहले लोग अक्सर भ्रष्टता दिखाते हैं और इसका एक पहलू दूसरों के साथ मनमाने ढंग से पेश आकर उचित बर्ताव न करना है। जब दूसरों के साथ ऐसा अनुचित बर्ताव होता है, तो धौंस देना और धौंस खाना भी होते हैं। तो ये चीजें कभी-कभी होती ही हैं, और लोग इनसे बच नहीं सकते या इनसे दूर नहीं रह सकते। इस मामले से निपटने और इसे सँभालने का सही सिद्धांत क्या है? (परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सिद्धांतों के अनुसार।) सैद्धांतिक रूप से ऐसा ही कहा जाता है। इसके अभ्यास का विशिष्ट तरीका क्या है? धौंस देने और धौंस खाने के मामले को तुम कैसे समझ सकते हो? मिसाल के तौर पर, मान लो तुम एक नकली अगुआ से जुड़ी समस्याओं का एक शिकायत-पत्र लिखते हो, और नकली अगुआ तुम्हें यह कहकर धौंस देना चाहता है, “अगर तुम औकात में न रहे, अगर तुम मेरी कमियों के बारे में ऊपर वालों से शिकायत करते रहे, मेरी चुगली करते रहे, या मेरे मूल्यांकन में कुछ नकारात्मक लिखते रहे, तो मैं तुम्हारी जान ले लूँगा! मेरे पास तुम्हें निष्कासित करने की ताकत है। क्या तुम नहीं डरते?” तुम ऐसी स्थिति को कैसे सँभालोगे? वह तुम्हें धमकी दे रहा है; विशेष रूप से कहें तो वह तुम्हें धौंस दे रहा है। उसके पास ताकत है, और तुम एक साधारण विश्वासी हो, तो वह मनमाने ढंग से बिना किसी सिद्धांत या आधाररेखा के तुम्हें सताता है। वह तुमसे वैसे ही पेश आता है जैसे शैतान लोगों से पेश आता है। इसे ठोस ढंग से कहें, तो क्या वह तुम्हें धौंस नहीं दे रहा है? क्या वह तुम्हें सताने की कोशिश नहीं कर रहा है? (बिल्कुल।) तो तुम इसे कैसे सँभालोगे? तुम समझौता करोगे या सिद्धांतों पर दृढ़ रहोगे? (सिद्धांतों पर दृढ़ रहूँगा।) सैद्धांतिक रूप से लोगों को सिद्धांतों पर दृढ़ रहना चाहिए और इस नकली अगुआ से नहीं डरना चाहिए। इसका आधार क्या है? तुम्हें उससे क्यों नहीं डरना चाहिए? अगर वह तुम्हें सचमुच निष्कासित कर दे तो क्या तुम भयभीत हो जाओगे? चूँकि वह तुम्हें सचमुच निष्कासित कर सकता है, इसलिए तुम शायद सिद्धांतों पर दृढ़ रहने की हिम्मत न करो और डर जाओ। यह मामला कहाँ अटक जाता है? तुम कैसे डर सकते हो? (क्योंकि मुझे यकीन नहीं है कि परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है।) यह इसका एक पहलू है। तुम्हें यह आस्था रखकर कहना चाहिए, “तुम बुरे व्यक्ति हो। यह मत सोचो कि सिर्फ इसलिए कि तुम एक अगुआ हो, अब तुम्हारे पास मुझे निष्कासित करने की ताकत है। मुझे निष्कासित करना गलत होगा। यह मामला देर-सवेर उजागर हो जाएगा। परमेश्वर का घर अकेले तुम्हारे अधिकार में नहीं है। अगर आज तुम मुझे निष्कासित करोगे, तो अंततः तुम्हें दंड मिलेगा। अगर तुम्हें इस पर यकीन नहीं है, तो रुको और देखो। परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है, परमेश्वर का शासन है। लोग तुम्हें दंड नहीं दे सकते, मगर परमेश्वर तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटा सकता है। जब तुम्हारे गलत कर्म उजागर हो जाएँगे, तभी तुम्हें दंड मिलेगा।” क्या तुम्हें यह विश्वास है? (हाँ।) तुम्हें है? तो फिर तुम लोग यह क्यों नहीं कह सकते? लगता है ऐसी स्थितियों का सामना होने पर तुम खतरे में पड़ जाओगे; तुम्हारे अंदर साहस और सच्ची आस्था नहीं है। जब तुम सच में इन मामलों का सामना करोगे, बुरे लोगों और ऐसे खूंख्वार मसीह-विरोधियों से मिलोगे जिनके लोगों को सताने के तरीके बड़े लाल अजगर के तरीकों जैसे ही हों, तब तुम क्या करोगे? तुम यह कहकर रोने लगोगे, “अरे, मैं आध्यात्मिक कद में छोटा हूँ, दब्बू हूँ, हमेशा मुसीबत से डरता रहा हूँ, मुझे अपने सिर पर गिरते हुए पत्ते के टकराने से भी डर लगता है। काश! मुझे ऐसे लोगों का सामना न करना पड़े। अगर वे लोग मुझे धौंस दें तो मैं क्या करूँगा?” क्या वे तुम्हें धौंस दे रहे हैं? वे तुम्हें धौंस नहीं दे रहे हैं; यह तो शैतान है जो तुम्हें सता रहा है। इंसानी नजरिये से देखें तो तुम कहोगे, “यह व्यक्ति ताकतवर है, हैसियत वाला है, और यह उन निष्कपट लोगों को धौंस देता है जिनकी कोई हैसियत नहीं है।” क्या यही हो रहा है? सत्य के दृष्टिकोण से, यह धौंस देना नहीं है; यह शैतान का लोगों को दुख देना है, सताना है, बेवकूफ बनाना है, भ्रष्ट करना है और उन्हें कुचलना है। शैतान के इन कार्यों से तुम्हें कैसे निपटना चाहिए, उन्हें कैसे सँभालना चाहिए? क्या तुम्हें डरना चाहिए? (मुझे नहीं डरना चाहिए; मुझे शिकायत कर उन्हें उजागर करना चाहिए।) तुम्हारे दिल में उनसे डर नहीं होना चाहिए। अगर उन मसलों की शिकायत करना और उनके विरुद्ध संघर्ष करना इस वक्त उपयुक्त न हो, तो तुम्हें फिलहाल उन्हें सहकर बाद में उनकी शिकायत का सही समय ढूँढ़ना चाहिए। अगर भाई-बहनों के बीच तुम जैसे समझ-बूझ वाले लोग हों, तो उनके बुरे कर्मों की शिकायत कर उन्हें उजागर करने के लिए तुम सबको एकजुट हो जाना चाहिए। अगर किसी और में समझ-बूझ न हो, और जब उनकी शिकायत करने के लिए तुम आगे बढ़ो और हर कोई तुम्हें ठुकरा दें, तो थोड़े समय के लिए सब्र रखो। जब आला अगुआ तुम्हारी कलीसिया में आकर कामकाज की जाँच करें, तो उनसे इन मसलों के बारे में शिकायत करने का सही समय ढूँढ़ो, पूरे विस्तार से उनके कुकर्मों का स्पष्ट वर्णन करके अगुआओं को उन लोगों को हटाने का मौका दो। क्या यह बुद्धिमानी है? (बिल्कुल।) एक लिहाज से तुम्हें आस्था रखकर बुरे लोगों, मसीह-विरोधियों या शैतान से नहीं डरना चाहिए। दूसरे लिहाज से तुम्हें अपने प्रति उनके कर्मों को एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को धौंस देने के रूप में नहीं देखना चाहिए; तुम्हें इसका सार इस रूप में देखना चाहिए कि शैतान लोगों को बेवकूफ बनाकर सता और कुचल रहा है। फिर स्थिति के आधार पर तुम्हें उनकी यातना से निपटने के लिए बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए, उन्हें उजागर कर उनकी शिकायत करने, और परमेश्वर के घर और कलीसिया कार्य के हितों को सुरक्षित रखने का सही समय देखना चाहिए। यही वह गवाही है, जिस पर तुम्हें दृढ़ रहना चाहिए और यही वह कर्तव्य और दायित्व है, जो तुम्हें एक व्यक्ति के रूप में पूरा करना चाहिए। वे चाहे जैसे भी तुम्हें धौंस दें या अनुचित ढंग से पेश आएँ, इसे धौंस के रूप में मत देखो। यह उनका धौंस देना नहीं है; यह शैतान द्वारा लोगों को बेवकूफ बनाना, कुचलना और सताना है। जब बड़ा लाल अजगर परमेश्वर के विश्वासियों को सताता है तो क्या तुम कहते हो कि वह तुम्हें धौंस दे रहा है? (नहीं।) वह तुम्हें धौंस नहीं दे रहा है। वह तुम्हें क्यों सताता है? (क्योंकि उसका सार परमेश्वर का विरोध करना है।) उसका सार परमेश्वर का विरोध करना है। वह परमेश्वर को शत्रु मानता है, और परमेश्वर के संपूर्ण कार्य को अपनी आँख में चुभी कील और काँख में चुभा काँटा मानता है। वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी शत्रु मानता है। अगर तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तो वह तुमसे घृणा करेगा जैसा कि बाइबल में कहा गया है : “यदि संसार तुम से बैर रखता है, तो तुम जानते हो कि उसने तुम से पहले मुझ से बैर रखा” (यूहन्ना 15:18)। बड़ा लाल अजगर लोगों से घृणा करता है, परमेश्वर से घृणा करता है, परमेश्वर को एक शत्रु के रूप में देखता है, और इससे भी ज्यादा परमेश्वर का अनुसरण करने वालों, खास तौर से सत्य का अभ्यास करने वालों को शत्रु के रूप में देखता है। इसीलिए वह तुम्हें सताना चाहता है, मार डालना चाहता है, तुम्हें परमेश्वर का अनुसरण करने से रोकना चाहता है, तुमसे अपनी आराधना और अनुसरण करवाना चाहता है, और चाहता है कि तुम परमेश्वर को कोसो। तुम कह सकते हो, “मैं परमेश्वर को नहीं कोसूँगा।” फिर वह तुम्हें धमकी देगा, “अगर तुम परमेश्वर को नहीं कोसोगे तो मर जाओगे!” वह तुम्हें यह कहने को मजबूर करेगा, “कम्युनिस्ट पार्टी अच्छी है,” और तुम कहोगे, “मैं ऐसा नहीं कहूँगा।” फिर वह कहेगा, “अगर तुम यह नहीं कहोगे तो मैं तुम्हें परेशान करूँगा, बदले में क्रूर यातना दूँगा!” क्या यह धौंस देना है? नहीं यह लोगों के साथ शैतान का दुर्व्यवहार है। क्या तुम समझ रहे हो? (मैं समझ रहा हूँ।) धौंस के मामले से निपटते समय तुम्हारी समझ सही होनी चाहिए। समाज और लोगों के समूहों के बीच अगर तुम इसे इंसानी नजरिये से देखो, तो हर व्यक्ति कभी धौंस देने वाले तो कभी धौंस खाने वाले की भूमिका निभाता है। लेकिन इसे सत्य के परिप्रेक्ष्य से इस तरह नहीं देखना चाहिए। कोई भी व्यक्ति जो तुम्हें धौंस देना चाहता है, तुम्हें नियंत्रित करना चाहता है, उसके व्यवहार के सार को धौंस देना नहीं माना जाता। इसके बजाय यह शैतान का लोगों के साथ दुर्व्यवहार, तिकड़म, उन्हें बेवकूफ बनाना, कुचलना और भ्रष्टता है। विशेष रूप से कहें, तो इसका अर्थ है कि वे तुमसे तार्किक और मानवीय तरीकों से पेश नहीं आ रहे हैं, उचित बर्ताव नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे शैतान का परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण अपना रहे हैं और तुमसे किस तरह पेश आएँ, बात करें या मेल-जोल रखें, इसका रास्ता दिखाने के लिए शैतान के विचारों का प्रयोग कर रहे हैं। मिसाल के तौर पर, मान लो कि तुम और एक बुरा व्यक्ति एक कमरे में साथ रहते हो। तुम पहले पहुँचते हो, इसलिए तुम्हें एक उपयुक्त स्थान पहले चुनना चाहिए, और तुम नीचे वाला बिस्तर चुन लेते हो। दूसरा व्यक्ति पहुँचते ही यह देखता है तो कहता है, “क्या नीचे वाला बिस्तर चुनकर तुमने सही किया? मैंने तो अब तक चुना भी नहीं है, क्या यह तुम्हारी बारी है? मेरे होते हुए तुम नीचे वाले बिस्तर पर सोने की हिम्मत कर रहे हो? ऐसी ढिठाई! तुमने मुझसे बात भी नहीं की, और अपने आप तुमने सोने के लिए नीचे वाला बिस्तर चुन लिया। जाओ ऊपर वाले बिस्तर पर!” तुम जवाब देते हो, “तुम ऊपर वाले बिस्तर पर क्यों नहीं सो सकते? तुम मेरे बाद आए; उस कायदे से तुम्हें ऊपर वाले बिस्तर पर सोना चाहिए।” वह कहता है : “कायदा? मैंने कभी कोई कायदा नहीं माना! मैं कहीं भी कतार में नहीं लगता; मैं तो राष्ट्रपति से मिलने के लिए भी कतार में खड़ा न होऊँ! क्या तुमने यह जानने की कोशिश की कि मैं कौन हूँ? तुम मुझसे बारी लगाने की हिम्मत कर रहे हो—इतनी ढिठाई! तुम्हें मरना है क्या? जाओ ऊपर वाले बिस्तर पर!” तो तुम्हें सिर झुकाकर ऊपर वाले बिस्तर पर सोने जाना पड़ता है। क्या यह तुम्हें धौंस देना है? इंसानी नजरिये से यह धौंस देने जैसा लगता है। वह देखता है कि तुम निश्छल हो जिसके साथ उसकी तिकड़म चल सकती है। वह पहले तुम्हें रोब-दाब दिखाता है, और सबक सिखाता है ताकि तुम यह जान लो कि वह कौन है। यह इस बात को इंसानी नजरिये, मानवीय भावनाओं या देह के परिप्रेक्ष्य से देखना है। लेकिन अगर तुम इसे सत्य के नजरिये से देखो, तो क्या वैसे ही देख सकते हो? तुमने नीचे वाला बिस्तर पहले चुना, सब कुछ सही कायदे में था, लेकिन उसने जबरदस्ती की कि तुम वहाँ से हट जाओ, तुम्हें ऊपर वाला बिस्तर लेने को मजबूर किया। क्या यह अनुचित नहीं है? क्या यह उसका तुम्हें सताना नहीं है? क्या वह तुम्हें इंसान न मानकर बर्ताव नहीं कर रहा है? क्या वह तुम्हारा निरादर नहीं कर रहा है? क्या वह खुद को मालिक नहीं मान बैठा है, और तुमसे एक नौकर या गुलाम की तरह पेश नहीं आ रहा है? उसकी सोच का तर्क क्या है? जो भी उसके जितना दबंग नहीं है, उसे वह अपना नौकर समझता है, हुक्म दे सकता है, सता सकता है। सत्य के नजरिये से इसे धौंस देना नहीं कहा जा सकता है; यह लोगों को सताना है। लोगों को कौन सता सकता है? बुरे लोग, दानव, ठग, बदमाश, कमीने, अन्यायी, मानवताहीन लोग, जिनके मन में किसी के प्रति आदर नहीं है। ऐसे लोग जहाँ भी जाते हैं, नियमों का पालन नहीं करते हैं। वे यूँ पेश आते हैं मानो वे मालिक हों, हर अच्छी, फायदेमंद और लाभप्रद चीज सिर्फ उन्हीं की हो। दूसरों को ऐसी चीजों में हिस्सा नहीं मिल सकता और वे उसके बारे में सोच भी नहीं सकते। क्या यह इंसान कमीना नहीं है? (है।) कमीने और दानव यही करते हैं। वे तुम्हें यूँ सता रहे हैं, तो क्या तुम डरोगे नहीं? तुम सोचोगे, “हे परमेश्वर, तो आखिर इतने दबंग लोग भी होते हैं। वे यह भी सोचते हैं कि मेरा नीचे वाले बिस्तर पर सोना गलत है। यह क्या हो रहा है?” तुम सकपका जाओगे, और आगे से जब भी उनसे बात करोगे, सोच-समझ कर बोलोगे। तुम्हें यह सोचकर उस पर विचार करना पड़ेगा : “मैं उसे नाराज नहीं कर सकता हूँ, उसे उकसा नहीं सकता हूँ। अगर मैंने उसे उकसाया, तो वह मुझे परेशान करेगा।” अगर तुम्हारी मानसिकता ऐसी है, तो समझो वह अपने मकसद में कामयाब है। उसका मकसद क्या है? वह तुम्हें डराना चाहता है, चाहता है कि तुम उससे हमेशा डरो, अपने और तुम्हारे बीच फासला बनाकर रखना चाहता है, जहाँ वह मालिक हो और तुम नौकर, और तुम जहाँ भी जाओ तुम्हें उसकी बात सुननी और माननी पड़े। क्या शैतान के कार्य करने का यही सिद्धांत नहीं है? उसे तुम्हारा मालिक होना चाहिए, और तुम्हें उसका नौकर। तुम्हें स्वेच्छा से अनुशासित होना पड़ेगा, उसका रोब सहना पड़ेगा, और उसके हाथ का खिलौना बनना पड़ेगा; तुम्हें उसकी हर बात माननी पड़ेगी। तुम उसके साथ बराबर खड़े नहीं हो सकते; तुम उसकी बराबरी एक ही स्थिति में कर सकते हो और वह है उसके मरने के बाद—तुम सिर्फ एक मुरदे की बराबरी करने लायक हो। मुझे बताओ, उसने तुम्हें किस हद तक धौंस दी है? क्या उसके कुकर्मों और हावी होने वाले रंग-ढंग ने तुम्हें दिल में गहराई तक भयभीत कर दिया है? (हाँ।) तुमने यह तथ्य स्वीकार कर लिया है, समझौता कर लिया है, तो क्या हम कह सकते हैं कि नतीजतन तुम उससे भ्रष्ट हो गए हो? उसने तुम्हें कसकर जकड़ रखा है; जब वह कुकर्म करे और सिद्धांतों का उल्लंघन करे, तो तुम बोलने की हिम्मत नहीं करोगे, क्योंकि वह पहले तुम्हें निचले बिस्तर से एक ही धक्के में ऊपरी बिस्तर पर भेज चुका है। तुम उसे दोबारा उकसाने की हिम्मत नहीं करोगे; जब वह तुम्हें दिखाई देगा तो उसके आसपास चक्कर लगाओगे और सिर्फ उसके जिक्र से ही तुम्हारी हालत पतली हो जाएगी। क्या यह उससे बुरी तरह डरना नहीं है? तुम उसके साथ सिद्धांतों के अनुसार उचित ढंग से पेश आने की हिम्मत नहीं कर सकते; उसने तुम्हें कसकर जकड़ रखा है। उसके तुम्हें कसकर जकड़े रखने का सार क्या है? इसका अर्थ है कि तुम उसके कब्जे में हो, वह तुम्हें नियंत्रित करता है। क्या यही बात नहीं है? (बिल्कुल।) तो उससे नियंत्रित होने से बचने के लिए तुम्हें इस स्थिति को किस नजरिये से देखना चाहिए? लोगों को दुष्टों से धौंस मिलने को तुम्हें यह मानना चाहिए कि लोगों को भ्रष्ट कर शैतान उनसे दुर्व्यवहार कर रहा है। इस सार को समझ लेने के बाद तुम्हें इसे किस नजरिये से देखना चाहिए? तुम्हें बुरे लोगों से दिल की गहराई से घृणा कर उन्हें ठुकरा देना चाहिए, उनसे डरना नहीं चाहिए। तुम्हें सोचना चाहिए, “अच्छा, तुम चाहते हो कि मैं ऊपर वाले बिस्तर पर सोऊँ? ठीक है, मैं ऊपर सो जाऊँगा। लेकिन आज मैंने एक और बुरे व्यक्ति की हरकतें देख लीं, एक और बुरे व्यक्ति के सार को पहचान लिया, और अब से मैं बुरे लोगों के एक और किस्म के व्यवहार को समझ-बूझ पाऊँगा जो वे अपने दैनिक जीवन में लोगों की पीठ पीछे करते हैं। आज से मैं उनकी कथनी-करनी पर नजदीकी नजर रखूँगा और देखूँगा कि क्या वे धोखा देते हैं। अगर परमेश्वर का घर उनसे काम लेता है, तो देखूँगा कि क्या वे सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हैं, क्या वे परमेश्वर के घर के हितों को कायम रखते हैं, क्या वे चढ़ावा लूटते हैं और क्या वे अभी भी दूसरों को सताते हैं।” तुम्हें दिल की गहराई से प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर, इस बुरे व्यक्ति को उजागर करो, मुझे उसके कुकर्मों और उसके सार को समझने-बूझने लायक बनाओ। उसके कुकर्मों के सबूत जुटाने में मेरी मदद करो, मुझे बुरे लोगों से निडर बनाओ, आस्था रखने और उनके विरुद्ध लड़ने की शक्ति दो।” भले ही तुम अभी भी उसके साथ उसी कमरे में रहोगे, और ऊपर से कुछ भी नहीं बदला होगा, पर अपने दिल की गहराई में तुम उससे नहीं डरोगे क्योंकि वह तुम्हारे साथ जो भी कर रहा हो वह धौंस देना नहीं है; यह उसकी शैतानी प्रकृति का प्रकटन है, उसका उजागर होना है। जब तुम उसे इस दृष्टि से देखोगे, तो क्या अब भी उससे डरते रहोगे? उसके दिखाए हर कर्म और बोली गई हर बात पर तुम अपने दिल में यह कहकर उसे कोसोगे, “तुम एक दुष्ट हो, शैतान हो, बुरे काम करके परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो, और देर-सवेर तुम्हें शाप मिलेगा। परमेश्वर तुम्हें बचकर जाने नहीं देगा; आखिर तुम उजागर कर दिए जाओगे!” तुम्हें बुरे लोगों से इस तरह निपटना चाहिए। तुम्हारे भीतर उनसे लड़ने की ऐसी आस्था और शक्ति होनी चाहिए, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, तब तुम्हारा दिल मजबूत होगा और तुम उनसे नहीं डरोगे। यह कैसा रहेगा? क्या ये युक्तियाँ असरदार नहीं हैं? (ये असरदार हैं।) जब तुम इन्हें सत्य के दृष्टिकोण से इस तरह समझोगे-बूझोगे, तो क्या यह तुम्हारे माता-पिता की सीख से ज्यादा व्यावहारिक नहीं है : “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए।” सुरक्षित रखने का क्या लाभ है? तुम शैतान के दुर्व्यवहार और भ्रष्ट करने से खुद को कैसे सुरक्षित रख सकते हो? शैतान का भ्रष्ट करना और दुर्व्यवहार करना ऐसी चीजें नहीं हैं जिनसे अपनी सुरक्षा की जा सके—ये हर जगह हैं। शैतान द्वारा लोगों की भ्रष्टता सिर्फ सतह पर नहीं होती है, यह सिर्फ बाहरी नहीं होती है; यह तुम्हारी सोच को भी भ्रष्ट कर देती है। क्या तुम इससे सुरक्षित रह सकते हो? तुम्हारे लिए सबसे अहम है सत्य प्राप्त करना और परमेश्वर पर भरोसा करना। तुम्हें बुरे लोगों के कार्यों को ही नहीं बल्कि उनके सार को भी समझना-बूझना चाहिए, और साथ ही उनके विविध विचारों और नजरियों को भी समझना-बूझना चाहिए। फिर सत्य प्राप्त करो, और परमेश्वर के वचनों और सत्य के सहारे उन्हें उजागर कर उनका विश्लेषण करो, ताकि भाई-बहनों को भी समझ-बूझ हासिल हो सके। फिर सभी लोग एकजुट होकर उन्हें ठुकराने के लिए उठ खड़े हो सकते हैं। यह कितना अच्छा रहेगा? अगर तुम हमेशा बचाव की मुद्रा में रहोगे, हमेशा सतर्क रहोगे, हमेशा बचते-बचाते फिरोगे तो यह कायरता है, यह एक विजेता की निशानी नहीं है।

इन सब पर संगति होने के बाद क्या तुम सबको अब लोगों के धौंस खाने के मामले को लेकर एक नया दृष्टिकोण मिला है? क्या धौंस देना सही है? (नहीं, सही नहीं है।) धौंस देने की प्रकृति क्या है? (यह बुरे लोगों का दूसरों को सताना है।) सार रूप में यह बुरे लोगों और शैतान का दूसरों को सताना और बेवकूफ बनाना है। अब धौंस खाने की प्रकृति क्या है? (यह कमजोरी है, सत्य का अभ्यास न करना है, उठ खड़े होने और प्रतिरोध करने की हिम्मत न दिखाना है।) बिल्कुल सही कहा, बुरे लोगों से डरना, बुरी ताकतों से डरना, शैतान से लड़ने की आस्था न रखना, शैतान के कुरूप चेहरे को पहचानने, समझने-बूझने और उसे गहराई से जानने की आस्था न रखना, और शैतान के तुम्हें कुचलने और तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार करने का प्रतिरोध करने की आस्था न रखना—क्या यही इसकी प्रकृति नहीं है? (बिल्कुल।) आस्थाहीन लोगों के दिलों में हमेशा एक पेंच होता है; वे यह सोचकर हमेशा डरे रहते हैं, “मुझे दूसरों से धौंस नहीं खानी चाहिए। मैं दूसरों को धौंस नहीं देता, और मुझे भी दूसरों से धौंस नहीं खानी चाहिए, जैसा कि मेरी माँ ने कहा था, ‘किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए।’” वे यह कहकर प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, बुरे लोगों से मेरा सामना न होने दो; मैं दब्बू हूँ, हमेशा सीधा-सादा रहा हूँ। मैं तुममें विश्वास रखता हूँ और तुम्हारा अनुसरण करता हूँ; तुम्हें मेरी रक्षा करनी चाहिए!” यह कायरता है। तुमने बहुत-से सत्य सुने हैं, और तुम अनेक सत्य समझते हो। तुम दानवों और शैतान से नहीं डरते, तो क्या तुम एक बुरे व्यक्ति से डरते हो? क्या तुम बड़े लाल अजगर से डरते हो? (अगर मैं पकड़ा गया, तो डर लगेगा ही, लेकिन परमेश्वर से प्रार्थना कर मैं उस पर भरोसा रख सकता हूँ।) इसका अर्थ यह है कि तुम उसकी बुराई से भयभीत नहीं हो। यह भी एक अभिव्यक्ति है जो सिर्फ आस्था की नींव होने से आती है। कुछ लोग कहते हैं, “तुम कहते हो कि मैं बड़े लाल अजगर से डरता हूँ। अगर मैं बड़े लाल अजगर से डरता, तो क्या मैं यहाँ तक पहुँच पाता? क्या यह एक तथ्य नहीं है? लेकिन अगर तुम मुझसे यह कहने को कहोगे कि मैं बड़े लाल अजगर से नहीं डरता, तो मैं अभी भी ऐसा कहने से थोड़ा डरता हूँ। अगर बड़े लाल अजगर ने सुन लिया तो क्या होगा?” यहाँ अभी भी थोड़ा डर है। ऐसे लोग सार्वजनिक रूप से यह कहने से थोड़ा डरते हैं कि बड़ा लाल अजगर दुष्ट और क्रूर है; उनमें आस्था की कमी है और उनका आध्यात्मिक कद अभी भी बहुत ही छोटा है। मैं तुम्हें बड़े लाल अजगर से खुल्लमखुल्ला लड़ने या उसे उकसाने को नहीं कह रहा हूँ। लेकिन कम-से-कम तुम्हें अपने दिल की गहराई में यह जानना चाहिए कि यह दानव, बड़ा लाल अजगर, लोगों के साथ दुर्व्यवहार और भ्रष्टता से पेश आता है, उन्हें मूर्ख बनाता है, कुचलता है और फिर उन्हें निगल जाता है। यह धौंस देना नहीं है; ऐसा नहीं है कि वह लोगों को इसलिए धौंस देता और सताता है कि वे भोले हैं और नियम-कानून का पालन करते हैं। यह बकवास है, यह ऐसा वक्तव्य है जिसमें आध्यात्मिक समझ का अभाव है। बड़ा लाल अजगर तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार कर रहा है। वह तुमसे दुर्व्यवहार कैसे करता है? वह तुम्हें धमकाता है, डराता है, सताता है और यातना देता है। तुमसे दुर्व्यवहार करने का उसका प्रयोजन क्या है? उसका प्रयोजन यह है कि तुम आस्था छोड़ दो, परमेश्वर को नकार दो, परमेश्वर को त्याग दो, फिर उसके साथ समझौता करो, और आखिरकार उसकी आराधना करो, उसका अनुसरण करो, उसके अधीन हो जाओ, उसके विविध विचारों को स्वीकार करो, और उसके समक्ष आराधना में घुटने टेक दो। उसे इसमें आनंद आता है; तुम्हें सताने का उसका यही प्रयोजन है। यह देखकर कि तुम उसके बजाय परमेश्वर का अनुसरण करते हो, वह जलता है, और वह तुम्हें बख्शेगा नहीं। बेशक अगर तुम परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते हो, तो क्या वह तुम्हें बख्श देगा? (नहीं, यह उन लोगों से भी दुर्व्यवहार करता है जो परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते।) बोलचाल की भाषा में यह सही है, बिल्कुल ऐसी ही बात है; ज्यादा सही ढंग से देखें, तो यह इसका प्रकृति सार है। जो लोग उसका अनुसरण करते हैं, उसका गुणगान करते हैं, वह उनसे भी दुर्व्यवहार करता है, उन्हें भी मूर्ख बनाता और कुचलता है, और इस्तेमाल करने के बाद उन्हें फेंक देता है, उनमें से कुछ का मुँह बंद करने के लिए वह उनकी जान भी ले लेता है, और आखिरकार उन्हें पूरी तरह निगल जाता है। किसी भी स्थिति में, उनका अंत अच्छा नहीं होता। चाहे कुछ भी हो, लोगों को स्पष्ट समझना चाहिए कि परिवारों का लोगों के भीतर विविध विचारों और नजरियों की शिक्षा को बैठाने का अंतिम प्रयोजन असल में उनकी रक्षा करना या उन्हें सही पथ की ओर ले जाना नहीं है। इसके बजाय यह लोगों को ऐसा बनाने के लिए है कि वे परमेश्वर से दूर चले जाएँ, वे शैतान के फलसफों के अनुसार जिएँ, और बारम्बार चक्रीय ढंग से विविध विचारों को कुचले जाना और समाज और शैतान से आने वाली तमाम बुरी प्रवृत्तियों की शिक्षा को स्वीकार करें। परिवारों के ऐसा करने के पीछे के शुरुआती इरादे या प्रयोजन चाहे जो हों, अंत में, ये लोगों को सही पथ की ओर नहीं ले जा सकते, उन्हें सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की ओर और आखिरकार उद्धार पाने की ओर आगे नहीं बढ़ा सकते। इसलिए परिवारों से आने वाले विविध विचार और नजरिये लोगों को जाने देना चाहिए, वे ऐसी चीजें हैं जिन्हें सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया और उसके पथ में जाने देना चाहिए। अच्छा, चलो आज की संगति यहीं समाप्त करें। फिर मिलेंगे!

4 मार्च 2023

फुटनोट :

क. हान शिन हान वंश का एक प्रसिद्ध जनरल था, जिसे एक बार एक कसाई की टाँगों के बीच से सरकने पर मजबूर किया गया था जिसने उसके प्रसिद्ध होने से पहले उसकी कायरता का मजाक उड़ाया था।

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