सत्य का अनुसरण कैसे करें (13)

कुछ समय से हम “सत्य का अनुसरण कैसे करें” में “जाने देने” के विषय पर संगति करते रहे हैं। क्या तुमने इस विषय से जुड़े विविध पहलुओं पर विचार किया है? हमने जिन चीजों के बारे में संगति की थी, जिन्हें लोगों को जाने देना चाहिए, क्या उन्हें जाने देना लोगों के लिए आसान है? संगतियाँ सुनने के बाद, क्या तुमने उनकी विषयवस्तु के आधार पर मंथन और आत्मचिंतन किया है? क्या तुमने दैनिक जीवन के अपने उद्गारों और अभिव्यक्तियों की तुलना इस विषयवस्तु से की है? (मैं आम तौर पर इस पर थोड़ा विचार करता हूँ। पिछली बार जब परमेश्वर ने परिवार द्वारा हमारे ऊपर डाले गए सोच बदलने वाले प्रभावों को जाने देने पर संगति की, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने जीवन में आम तौर पर संसार के प्रति अपने व्यवहार में इन शैतानी फलसफों का पालन करता हूँ, जैसे कि यह कहावत “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” जिसे मेरे परिवार ने मन में बैठा दिया था। इन विचारों को स्वीकारने के बाद, मैंने नाक कटने के डर से अपने हर काम में प्रतिष्ठा और हैसियत को महत्त्व दिया, जिससे मैं एक ईमानदार इंसान नहीं बन पाया।) विविध चीजों के जाने देने को लेकर ये पूरी विषयवस्तु जिस पर हमने संगति की, वह मुख्य रूप से विविध विषयों पर लोगों के विचारों और सोच का समाधान करती है। ऐसे विषयों पर उनके गलत विचारों और सोच को उजागर कर यह लोगों को इस लायक बनाती है कि वे उन्हें पहचानें, उनका स्पष्ट ज्ञान पाएँ, और फिर उन्हें एक सकारात्मक तरीके से जाने दे पाएँ, उनसे संकुचित न हो जाएँ। सबसे महत्वपूर्ण चीज है इन विचारों और सोच के चलते बेबस न होना, बल्कि परमेश्वर के वचनों और सत्य को सही ढंग से अपने मानदंड के रूप में अपनाकर जीना और अस्तित्व में रहना है। अगर लोग विविध सत्यों की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहते हैं, तो उन्हें सभी परिप्रेक्ष्यों से ज्ञान और अनुभव होना जरूरी है। खास तौर से, उन्हें विविध चीजों के बारे में निष्क्रिय और नकारात्मक विचारों और सोच की स्पष्ट समझ होनी ही चाहिए। ऐसी चीजों को विवेकपूर्ण ढंग से पहचानने पर ही वे सक्रिय रूप से उन्हें जाने दे सकते हैं, और उनसे धोखा नहीं खाते, उसके बंधन में नहीं रह जाते। इसलिए, विविध सत्यों की वास्तविकता में प्रवेश करने और सत्य के अनुसरण का परिणाम प्राप्त करने के लिए, लोगों को अक्सर आत्मचिंतन कर सोचना चाहिए कि वे अपने दैनिक जीवन में विविध विचारों और सोच से किस तरह बंधे और नियंत्रित होते हैं, या अक्सर यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि दैनिक जीवन की विविध चीजों के बारे में उनके विचार और सोच क्या हैं, और यह भी समझना चाहिए कि ये विचार और सोच सही और सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, क्या वे सकारात्मक हैं, परमेश्वर से आते हैं, या वे इंसानी इरादों या शैतान से आते हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण सबक है, और यह वास्तविकता का एक पहलू है जिसमें लोगों को अपने दैनिक जीवन में हर दिन प्रवेश करना चाहिए। यानी दैनिक जीवन में विविध लोगों, मामलों और चीजों से तुम्हारा सामना हो या न हो, तुम्हें हमेशा जाँचना चाहिए कि तुम्हारे मन में कौन-से विचार और सोच हैं, और क्या ये विचार और सोच सही और सत्य के अनुरूप हैं—यह एक बहुत महत्वपूर्ण सबक है। तुम्हारे दैनिक जीवन में, कर्तव्य-निर्वहन में सामान्यतः जो समय लगता है, उसे छोड़कर तुम्हारे जीवन का 80-90 प्रतिशत इस पहलू में प्रवेश करने में व्यतीत होना चाहिए। सिर्फ इसी तरह से तुम नकारात्मक चीजों के बारे में तमाम विचारों और सोच से छुटकारा पा सकोगे, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे। यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारे लिए आशा तभी है जब तुम लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के लिए परमेश्वर के वचनों को आधार और सत्य को अपनी कसौटी बनाते हो; तभी अंत में तुम उद्धार प्राप्त करने की आशा कर सकते हो। अगर दैनिक जीवन में अपना कर्तव्य निभाने में लगे सामान्य समय के अलावा बाकी 80-90 प्रतिशत समय तुम्हारा दिमाग खाली हो, या तुम बस अपने भौतिक जीवन, हैसियत और शोहरत पर सोच-विचार करते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना आसान नहीं होगा, न ही सत्य के अनुसरण का परिणाम प्राप्त करना आसान होगा। अगर इन दोनों में से एक भी चीज प्राप्त करना तुम्हारे लिए आसान न हो, तो तुम्हारे उद्धार प्राप्त करने की संभावना बहुत कम है। तो फिर उद्धार प्राप्ति किस बात पर निर्भर करती है? एक अर्थ में, यह इस पर निर्भर करती है कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है, और पवित्र आत्मा तुममें कार्यरत है या नहीं; एक दूसरे अर्थ में, यह तुम्हारे व्यक्तिपरक लगन, तुम्हारी चुकाई कीमत और सत्य के अनुसरण और उद्धार प्राप्ति में खपाई गई ऊर्जा और समय की मात्रा पर निर्भर करता है। अगर ज्यादातर समय तुम जो सोचते और करते हो, उसका सत्य के अनुसरण से कोई लेना-देना नहीं होता, तो तुम्हारे कार्यों का तुम्हारे बचाए जाने से कोई लेना-देना नहीं होता—यह एक अनिवार्य तथ्य और अनिवार्य परिणाम है। तो आगे बढ़ते हुए तुम्हें क्या करना चाहिए? एक पहलू यह है कि तुम्हें संगति के प्रत्येक विषय पर बारीकी से ध्यान देना चाहिए, और फिर बाद में सक्रियता से उस पर सोच-विचार कर उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए, यानी जब हम एक विषय पूरा कर लेते हैं, तभी तुम्हें आत्मचिंतन करते हुए लोहे के गर्म होते ही हथौड़ा मारना चाहिए, ताकि तुम सच्चा और सही ज्ञान पाकर सच्चा प्रायश्चित्त कर सको। हमारे संगति समाप्त करते ही या संगति के विषय का कुछ अंश तुम्हें समझ आते ही, सत्य के इस पहलू को जानने में समर्थ होने का प्रयोजन यह है कि तुम अपने ही विचारों और सोच के बारे में आधारभूत जानकारी पा सको, ताकि बाद में जब दैनिक जीवन में तुम्हारा इनसे जुड़े मामलों से सामना हो, तो सत्य सिद्धांतों का तुम्हारा पहले का ज्ञान और समझ, वह आधारभूत विचार और सोच बन जाएँ, जो इस विषय में तुम्हारे अनुभव को राह दिखा सकें। कम से कम, जब एक बार तुम जागरूकता पा लोगे, सटीक और सही ज्ञान पा लोगे, तो इस विषय को लेकर तुम्हारा रवैया और समझ सकारात्मक और सक्रिय होंगे। यानी इस घटना के होने से पहले ही, तुम्हें टीका लग चुका होगा, और तुम एक हद तक प्रतिरक्षा क्षमता पा चुके होगे, ताकि जब यह घटना वास्तव में होगी, तो तुम्हारी विफलता के साथ ही परमेश्वर से विश्वासघात करने की संभावना कम हो जाएगी, और सत्य वास्तविकता में तुम्हारे प्रवेश करने की संभाव्यता काफी बढ़ जाएगी। ठीक वैसे ही जैसे कि महामारी में होता है : अगर तुम टीका नहीं लेते, तो बस घर में बंद रह सकते हो, बाहर नहीं जा सकते, जिससे संक्रमण का जोखिम शून्य हो जाता है। लेकिन अगर तुम बाहर जाकर सबसे मिलते-जुलते हो, बाहरी दुनिया के संपर्क में आते हो, तो तुम्हें टीका लगवा लेना चाहिए। क्या यह टीका संक्रमण की संभावना को दूर कर देता है? नहीं, दूर नहीं करता, मगर यह संक्रमण की संभाव्यता को घटा देता है। यह कहना काफी है कि तुम्हारे शरीर में ऐंटीबॉडीज होंगे। विविध सत्यों के ज्ञान के साथ सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया शुरू होती है। अगर तुम विविध सत्यों के भीतर से सही और सकारात्मक वक्तव्य और सिद्धांत जान लो, और साथ ही तुम्हें प्रत्येक सत्य द्वारा खुलासा किए गए विविध नकारात्मक और बुरे विचारों और सोच का कुछ ज्ञान हो, तो वैसी ही घटना के दोबारा होने पर तुम्हारे चुनाव अब शैतान द्वारा तुम्हारे मन में बिठाए गए नकारात्मक और बुरे विचारों और राय के मानदंड पर आधारित नहीं होंगे, और अब तुम्हारा रवैया ऐसे विचारों और सोच से चिपके रहने का नहीं होगा। हालाँकि इस अवस्था में तुमने अब तक सत्य वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश नहीं किया है, और तुम्हारे नजरिये निष्पक्ष हो सकते हैं, फिर भी इन सकारात्मक विचारों और सोच को स्वीकारने के बाद, तुम्हें नकारात्मक विचारों और सोच का थोड़ा ज्ञान होगा, ताकि भविष्य में जब वैसे ही मामले से तुम्हारा सामना हो, तो कम-से-कम तुम इस विषय से जुड़े सकारात्मक और नकारात्मक विचारों और सोच के बीच फर्क कर पाओगे, और इनसे निपटने के कुछ मानदंड तुम्हारे पास होंगे। इन मानदंडों के आधार पर, सत्य से प्रेम करने वाले और मानवता वाले लोगों का झुकाव सत्य पर अमल करने और सत्य के मानदंड के अनुसार लोगों और चीजों को देखने, आचरण करने और कार्य करने की ओर ज्यादा होता है। एक हद तक, यह सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसकी आज्ञा मानने, और परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित लोगों, मामलों और चीजों को स्वीकारने में तुम्हारी बड़ी मदद करेगा। इस दृष्टिकोण से, क्या ऐसा कहा जा सकता है कि कोई व्यक्ति जितने अधिक सत्य समझता है, सत्य वास्तविकता में प्रवेश की उसकी संभावना उतनी ही ज्यादा होती है, और वह नकारात्मक चीजों को जितने अच्छे ढंग से समझता है, उनसे मुँह मोड़ने की उसकी संभावना उतनी ही ज्यादा होगी? (हाँ, कहा जा सकता है।) इसलिए, चाहे तुम सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक हो या नहीं, या तुमने सत्य के अनुसरण का मन बना लिया हो या नहीं, तुम सत्य के अनुसरण के पथ पर हो या नहीं, तुम्हारी काबिलियत चाहे जैसी हो, या तुम सत्य को किस तरह समझते हो, संक्षेप में, अगर लोग सत्य का अनुसरण करना चाहें, सत्य के मानदंडों को समझना चाहें, और सत्य पर अमल कर उसमें प्रवेश करना चाहें, तो यह जरूरी है कि वे तमाम नकारात्मक चीजों को पहचानें और समझें। सत्य के अनुसरण और सत्य वास्तविकता में प्रवेश के लिए ये जरूरी शर्तें हैं।

कुछ लोग सत्य नहीं समझते, और अभी हम जिन विविध विषयों पर संगति कर रहे हैं, उन्हें लेकर उन्हें हमेशा लगता है : “मैंने इन विषयों के बारे में कभी नहीं सोचा, न ही उनका अनुभव किया है। इन विषयों के बारे में तुम्हारी बातों का मेरी विविध समस्याओं, भ्रष्ट स्वभावों और भ्रष्टता के उद्गारों से क्या संबंध है, यह मैं नहीं समझ पा रहा हूँ, तो इन विषयों पर तुम्हारी बातों का मेरे सत्य के अनुसरण से क्या लेना-देना है? ऐसा नहीं लगता कि इसका मेरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश से कुछ ज्यादा लेना-देना है, है न? तुम लोगों के सकारात्मक प्रवेश से जुड़े ऊँचे, गूढ़ विषयों पर क्यों चर्चा नहीं करते? हमेशा दैनिक जीवन के इन तुच्छ नकारात्मक मामलों को क्यों उजागर करना?” यह राय सही है या गलत? (गलत।) ऐसे विचारों वाले लोग जब दैनिक जीवन के तुच्छ विषयों के बारे में सुनते हैं, खास तौर से जब इन विषयों की कुछ मिसालें दी जाती हैं, तो वे चिढ़ जाते हैं, सुनना नहीं चाहते। वे सोचते हैं, “यह विषयवस्तु बहुत मामूली है, उथली है। इसमें कुछ शानदार नहीं है, यह बेहद सरल है। इसे सुनते ही मैंने इसे तुरंत समझ लिया। यह बेहद आसान है। सत्य को ऐसा नहीं होना चाहिए, इससे ज्यादा गूढ़ होना चाहिए, लोगों को इसे समझ पाने और कुछ वाक्य याद रख पाने से पहले कई-कई बार सुनने की जरूरत होनी चाहिए। तुम अभी जिस बारे में बता रहे हो, वो दैनिक जीवन के तुच्छ मामले हैं और साथ ही दैनिक जीवन में सामान्य मानवता की कुछ अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या यह हम लोगों के लिए जरा ज्यादा ही उथला नहीं है?” क्या तुम सोचते हो कि ऐसी सोच रखनेवालों की सोच सही है? (नहीं, गलत है।) क्यों गलत है? उन लोगों के साथ क्या गलत है? सबसे पहले, क्या लोगों के विचार और सोच उनके दैनिक जीवन से असंबद्ध होते हैं? (नहीं, असंबद्ध नहीं होते।) क्या उनकी विविध अभिव्यक्तियाँ और रवैये उनके दैनिक जीवन से असंबद्ध होते हैं? (नहीं, असंबद्ध नहीं होते हैं।) नहीं, इनमें से कोई भी चीज असंबद्ध नहीं है। लोगों के भ्रष्ट स्वभाव, विचार और सोच, विविध विषयों को लेकर उनके विचार और इरादे, काम करने के उनके खास तरीके, और उनके दिमाग से उपजे विचार और खयाल, ये सभी दैनिक जीवन में उनकी अभिव्यक्तियों और उद्गारों से अलग नहीं किए जा सकते। इसके अलावा, दैनिक जीवन में ये विविध अभिव्यक्तियाँ और उद्गार और साथ ही अपने साथ होने वाले विविध मामलों के प्रति लोगों के विचार, सोच और रवैये, लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित अधिक विशेष चीजें हैं। सत्य के अनुसरण का प्रयोजन लोगों के गलत विचारों और सोच को बदलना है, और लोगों के विचारों और सोच को बदल कर और तमाम लोगों, मामलों और चीजों के प्रति उनके रवैये को बदलकर, लोगों से उनके भ्रष्ट स्वभावों का त्याग करवाना है, सत्य और परमेश्वर को लेकर उनकी अवज्ञा और विश्वासघात और साथ ही परमेश्वर के विरुद्ध उनके प्रकृति सार का त्याग करवाना है। इस तरह, अगर तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, तो क्या यह पूरी तरह से आवश्यक नहीं है कि तुम अपने दैनिक जीवन में विविध गलत विचारों और सोच को त्याग कर उन्हें बदल डालो? क्या यह सबसे महत्वपूर्ण नहीं है? (हाँ, जरूर है।) इसलिए, मेरी चर्चा की बातें कितनी भी उथली और मामूली क्यों न लगें, उनके बारे में विद्रोही मानसिकता मत रखो। ये चीजें यकीनन मामूली महत्त्व की नहीं हैं। ये तुम्हारे दिलो-दिमाग पर हावी होती हैं, और उस हर व्यक्ति, मामले और चीज के बारे में तुम्हारे विचारों और सोच को नियंत्रित करती हैं जिनसे तुम्हारा सामना होता है। अगर तुम दैनिक जीवन में इन गलत विचारों और सोच को नहीं बदलते या त्यागते, तो तुम्हारा दावा कि तुम सत्य को स्वीकारते हो और तुममें सत्य वास्तविकता है, बस खोखले शब्द होंगे। यह तुम्हें कैंसर होने जैसा है—पहले ही सक्रिय होकर उसका इलाज करवाना चाहिए। कैंसर कोशिकाएँ किसी भी अंग में हों, तुम्हारे रक्त में, त्वचा में, सतह पर या गहरे कहीं छिपी हुई हों, इतना कहना काफी है कि सबसे पहले जिनसे निपटना चाहिए वे हैं तुम्हारे शरीर की कैंसर कोशिकाएँ। कैंसर कोशिकाओं को हटाने के बाद ही तुम्हारे लिए हुए विविध पोषक तत्व अवशोषित होकर तुम्हारे भीतर कार्य कर पाएँगे। इस तरह, तब तुम्हारे शरीर के सभी अंग सामान्य रूप से कार्य कर पाएँगे। एक बार रोग मिटा दिए जाने के बाद, तुम्हारा शरीर ज्यादा सेहतमंद और ज्यादा सामान्य हो जाएगा। और ऐसे लोग इस रोग से पूरी तरह ठीक हो जाते हैं। लोगों का सत्य का अनुसरण भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने की प्रक्रिया है, यह सत्य वास्तविकता में प्रवेश की भी प्रक्रिया है। भ्रष्ट स्वभावों को त्याग देने की प्रक्रिया लोगों के विविध गलत और नकारात्मक विचारों और सोच को बदल कर उनसे खुद को मुक्त करने की प्रक्रिया है। यह लोगों के विविध सही और सकारात्मक विचारों और सोच से खुद को लैस करने की भी प्रक्रिया है। सकारात्मक विचार और सोच क्या हैं? ये सत्य की वास्तविकता, सिद्धांत और मानदंडों से जुड़ी चीजें हैं। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए लोगों को सत्य खोजकर, जीवन, जीवित रहने और दूसरों के साथ बर्ताव के बारे में विविध गलत विचारों और सोच का बारी-बारी से विश्लेषण कर उन्हें समझना चाहिए, और फिर बारी-बारी से उन्हें सुलझा कर त्याग देना चाहिए। संक्षेप में, सत्य का अनुसरण लोगों को इस लायक बनाने के लिए है कि वे अपने गलत और त्रुटिपूर्ण विचारों और सोच को त्याग करें और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप तमाम चीजों, विचारों और सोच के बारे में सही विचार और सोच रखें। सिर्फ इसी तरह से लोग पूरी तरह लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के लिए परमेश्वर के वचनों को आधार और सत्य को अपनी कसौटी बनाने का लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। यही है वह अंतिम परिणाम जो लोग सत्य का अनुसरण कर हासिल करते हैं, और यही वह सत्य वास्तविकता है, जिसे लोग उद्धार प्राप्त करने के बाद जी सकते हैं। क्या तुम यह समझ पाए हो? (हाँ।)

पिछली सभा में, हमने “जाने देने” विषय में परिवार को लेकर संगति की थी। परिवार के विषय में हमने पिछली बार क्या संगति की थी? (हमने उन असुविधाओं और बाधाओं के बारे में संगति की थी, जो परिवार हमारे सत्य के अनुसरण के पथ में डालता है, और साथ ही इस पर संगति की थी कि परिवार का मुद्दा उठने पर किन अनुसरणों, आदर्शों और आकांक्षाओं को जाने देना चाहिए। परमेश्वर ने दो बातों का जिक्र किया, एक अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान को जाने देने को लेकर, और दूसरा परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों को जाने देने को लेकर।) हाँ, यही दो चीजें थीं। पहली है अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान को जाने देना। क्या तुम जानते हो कि वे सत्य सिद्धांत कौन-से हैं जिनकी समझ लोगों को होनी चाहिए? मेरी संगतियाँ सुनने के बाद, अगर मैं तुम्हें विशिष्ट सार न दूँ, तो क्या तुम जानते हो कि इसका सारांश कैसे तैयार करें? इन चीजों और इनसे जुड़े विशेष ब्योरों के बारे में मेरी संगति के बाद, क्या तुम लोगों ने सत्य के इस पहलू से संबंधित सिद्धांतों का सारांश तैयार किया जिनका इस संदर्भ में लोगों को पालन करना चाहिए? अगर तुम इनका सारांश बनाना जानते हो, तो तुम उन पर अमल कर पाओगे; अगर तुम उनका सारांश तैयार करना नहीं जानते, थोड़ी-सी छितरी हुई रोशनी पर अटक जाते हो, और नहीं जानते कि संबंधित सत्य सिद्धांत कौन-से हैं, तो तुम उन्हें अमल में नहीं ला पाओगे। अगर तुम उन पर अमल करना नहीं जानते, तो तुम सत्य वास्तविकता के इस पहलू में कभी प्रवेश नहीं कर पाओगे। भले ही तुम अपनी समस्याओं का पता लगा लो, तो भी तुम मेरे वचनों के साथ उनका संबंध नहीं जोड़ पाओगे, और अमल में लाने के लिए संबंधित सिद्धांत नहीं ढूँढ़ पाओगे। अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान को जाने देने के बारे में संगति करने का मुख्य प्रयोजन यह है कि तुम उस पहचान से जुड़े विविध प्रभावों से प्रभावित हुए बिना लोगों और चीजों को देख सको और आचरण और कार्य कर सको। अगर परिवार से तुम्हें विरासत में मिली पहचान विशिष्ट है, तो तुम्हें उस पहचान को सही दृष्टि से देखना चाहिए। तुम्हें यह नहीं महसूस करना चाहिए कि तुम विशिष्ट हो, दूसरों से ज्यादा योग्य हो, या तुम्हारी पहचान विशिष्ट है। दूसरों के बीच रहते हुए, तुम्हें उनके साथ उन सिद्धांतों के अनुसार बातचीत करनी चाहिए जिनसे परमेश्वर लोगों को चेतावनी देता है, और सबसे सही ढंग से पेश आना चाहिए, बजाय इसके कि सभी परिस्थितियों में दिखावा करने के लिए अपनी विशिष्ट पारिवारिक पृष्ठभूमि का पूँजी के रूप में इस्तेमाल करो, जिससे दूसरे हर स्थिति में तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखें। मान लो कि तुम अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान को जाने नहीं दे पाते, और हमेशा अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि को पूँजी के रूप में इस्तेमाल करते हो, अत्यधिक दंभी, हठीला और आडंबरी आचरण करते हो। और मान लो कि तुम हमेशा दिखावा करते हो, दूसरों के बीच अपना प्रदर्शन करते हो, और अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और अपने परिवार से विरासत में मिली विशेष पहचान का निरंतर दिखावा करते हो। इसके अलावा, मान लो कि तुम भीतर से खास तौर पर अकड़ू और रोब झाड़ने वाले हो, दूसरों से बात करते समय खास तौर पर दबंगई और अक्खड़ता दिखाते हो, और तुम लोगों को झिड़कने और दबाने के लिए अपनी पहचान का पूँजी के रूप में अक्सर इस्तेमाल करते हो—दूसरे शब्दों में, लोग सोचते हैं कि तुममें सामान्य विवेक नहीं है—तुम सभी को आम मानते हो, खास तौर पर जब तुम लोगों के संपर्क में आकर उनसे निपटते हो, तो विनम्र या तुमसे निचले दर्जे के लोगों को कुछ नहीं समझते, और उनसे बात करते समय तुम खास तौर पर आक्रामक, कठोर होकर अपने जहरीले दाँत दिखाते हो। मान लो कि तुम लोगों को निरंतर झिड़कना चाहते हो, हमेशा दूसरों से गुलामों की तरह पेश आते हुए हुक्म चलाते और चीखते-चिल्लाते हो, हमेशा मानते हो कि तुम्हारी पहचान विशिष्ट है, दूसरों के साथ सौहार्द से मिल-जुलकर नहीं रह पाते, और अपने से निचले दर्जे के लोगों से सही ढंग से पेश नहीं आ पाते—ये सभी भ्रष्ट स्वभाव हैं, और ये सारी ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को त्याग देना चाहिए। जब किसी व्यक्ति की पारिवारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक हैसियत विशिष्ट हो, तो ऐसे भ्रष्ट स्वभाव उभरते हैं। इसलिए, ऐसे व्यक्ति को अपनी कथनी-करनी पर सोच-विचार करना चाहिए, अपने विचारों और सोच, खास तौर पर पारिवारिक पहचान पर सोच-विचार करना चाहिए। उन्हें ऐसे विचारों और सोच को जाने देना चाहिए, और अपनी विशेष सामाजिक हैसियत के नतीजे के रूप में जिन विविध मानवताओं को वे जीते हैं, उनसे पीछे हट जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, ऐसे व्यक्ति को अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान को जाने देना चाहिए। ज्यादातर लोग सोचते हैं कि उनकी सामाजिक हैसियत हीन है। खास तौर से, जिस किस्म के लोग समाज में हेय दृष्टि से देखे जाते हैं, जिनसे भेदभाव होता है, और जिन्हें धमकाया जाता है, उन्हें अक्सर लगता है कि उनकी पहचान हीन है, और उनके विशेष पारिवारिक माहौल के कारण होने वाली शर्मिंदगी उन्हें खास तौर पर दीन-हीन बना देती है। इस भावना के कारण वे अक्सर हीन महसूस करते हैं, और दूसरों के साथ सौहार्द और बराबरी के दर्जे के साथ मिल-जुलकर नहीं रह पाते। बेशक, इस किस्म के लोग भी खुद को विविध तरीकों से अभिव्यक्त करते हैं। कुछ लोग खास तौर से विशिष्ट हैसियत और पहचान वाले लोगों को आदर भाव से देखते हैं, उनकी खुशामद करते हैं, चापलूसी करते हैं, उनसे मीठी बातें करते हैं, और उनके तलवे चाटते हैं। वे आँखें बंद करके उनकी बात दोहराते हैं, उनके अपने कोई सिद्धांत या प्रतिष्ठा नहीं होती, और वे उनके पिछलग्गू बनने और गुलामों की तरह उनका हुक्म बजाने और उनके हाथ की कठपुतली बनने को तैयार रहते हैं। ऐसे लोगों के काम करने के सिद्धांत भी सत्य के अनुरूप नहीं होते, क्योंकि मन की गहराई से वे मानते हैं कि उनकी पहचान नीची है, वे अभागे होने के लिए ही पैदा हुए थे, वे अमीरों या कुलीन सामाजिक पहचान वाले लोगों के बराबर खड़े होने लायक नहीं हैं, और इसके बजाय वे उन लोगों का गुलाम बनने और उनका हुक्म बजाने के लिए पैदा हुए हैं। वे दासत्व महसूस नहीं करते। इसके बजाय सोचते हैं कि यह सामान्य है, सब-कुछ ऐसे ही चलना चाहिए। भला ये किस प्रकार के विचार और सोच हैं? क्या ये विचार और सोच एक तरह से खुद को गिराना नहीं है? (हाँ।) एक और तरह के लोग भी होते हैं, जो अमीरों को उनके दंभी, हठी, दिलेर, दबंग तरीकों से जीते हुए देखते हैं, वे ऐसे लोगों से बड़ी ईर्ष्या करते हैं, उनके पीछे भागते हैं और आशा करते हैं कि अगर उन्हें चीजें बदलने का मौका मिला होता, तो वे भी उन्हीं अमीरों की तरह दंभी और हठी ढंग से जिये होते। वे सोचते हैं कि हठी और दंभी होने में कुछ गलत नहीं है; इसके विपरीत, वे इन्हें आकर्षक और रूमानी लक्षण मानते हैं। ऐसे लोगों के विचार और सोच भी गलत हैं और इन्हें जाने देना चाहिए। तुम्हारी पहचान या हैसियत चाहे जो हो, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित है। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो भी परिवार या पारिवारिक पृष्ठभूमि पूर्व-निर्धारित की हो, उससे तुम्हें विरासत में जो पहचान मिलती है, वह न शर्मनाक है, न ही सम्माननीय। तुम अपनी पहचान से कैसे पेश आते हो, उसका सिद्धांत सम्मान और शर्मिंदगी के सिद्धांत पर आधारित नहीं होना चाहिए। परमेश्वर तुम्हें चाहे जैसे परिवार में डाल दे, वह तुम्हें चाहे जैसे भी परिवार से आने दे, परमेश्वर के समक्ष तुम्हारी बस एक ही पहचान है, और वह है एक सृजित प्राणी की। परमेश्वर के समक्ष तुम एक सृजित प्राणी हो, इसलिए परमेश्वर की नजरों में, तुम समाज में किसी भी उस व्यक्ति के बराबर हो, जिसकी पहचान और सामाजिक हैसियत तुमसे अलग है। तुम सभी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हो, और तुम सब वे लोग हो जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है। परमेश्वर के समक्ष, बेशक तुम सबके पास सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने, सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने का एक सामान अवसर है। इस स्तर पर, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दी गई सृजित प्राणी की पहचान के आधार पर, तुम्हें अपनी पहचान के बारे में बहुत ऊँची राय नहीं रखनी चाहिए, न ही उसे नीची नजर से देखना चाहिए। इसके बजाय, परमेश्वर के एक प्राणी के रूप में अपनी पहचान के साथ तुम्हें सही ढंग से पेश आना चाहिए, सबके साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से बराबरी के स्तर पर और उन सिद्धांतों के अनुसार मिलने-जुलने में समर्थ होना चाहिए, जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है और जिनसे वह उन्हें झिड़कता है। दूसरों की सामाजिक हैसियत या पहचान चाहे जो हो, तुम्हारी सामाजिक हैसियत या पहचान चाहे जो हो, जो भी व्यक्ति परमेश्वर के घर में आकर उसके समक्ष आता है, उसकी बस एक ही पहचान होती है, और वह है एक सृजित प्राणी की पहचान। इसलिए, निचली सामाजिक हैसियत और पहचान वाले लोगों को हीन नहीं महसूस करना चाहिए। तुममें प्रतिभा हो या न हो, तुम्हारी योग्यता चाहे जितनी ऊँची हो, तुममें सामर्थ्य हो या न हो, तुम्हें अपनी सामाजिक हैसियत को जाने देना चाहिए। तुम्हें पारिवारिक पृष्ठभूमि या पारिवारिक इतिहास के आधार पर लोगों का विशिष्ट या दीन-हीन के रूप में श्रेणीकरण, क्रम-निर्धारण या वर्गीकरण करने के बारे में अपने विचारों और सोच को भी जाने देना चाहिए। तुम्हें अपनी निचली सामाजिक पहचान और हैसियत के कारण हीन नहीं महसूस करना चाहिए। तुम्हें खुश होना चाहिए कि हालाँकि तुम्हारी पारिवारिक पृष्ठभूमि उतनी शक्तिशाली और शानदार नहीं है, और तुम्हें विरासत में मिली हैसियत निचली है, फिर भी परमेश्वर ने तुम्हारा परित्याग नहीं किया है। परमेश्वर दीनों को गोबर और धूल के ढेर से उठाता है, और उन्हें दूसरे लोगों जैसी ही सृजित प्राणी की पहचान देता है। परमेश्वर के घर में और उसके समक्ष तुम्हारी पहचान और हैसियत परमेश्वर द्वारा चुने हुए शेष सभी लोगों के समकक्ष ही होती है। एक बार इसका एहसास होने पर, तुम्हें अपनी हीनभावना को जाने देना चाहिए, उससे चिपके नहीं रहना चाहिए। विशिष्ट और बड़ी सामाजिक हैसियत या तुमसे ऊँची सामाजिक हैसियत वालों के सामने तुम्हें घुटने टेकने या हमेशा दाँत निपोरने की जरूरत नहीं है, उन्हें सिर आँखों पर बिठाने की बात तो छोड़ ही दो। इसके बजाय, तुम्हें उन्हें बराबर का समझना चाहिए, उनकी आँखों में सीधे देखकर उनसे सही ढंग से पेश आना चाहिए। भले ही वे अक्सर हावी होने वाले या घमंड से चूर लोग हों, और खुद को ऊँची हैसियत वाला मानते हों, तुम्हें उनसे सही ढंग से पेश आना चाहिए, उनकी भव्यता से मजबूर या भयभीत नहीं होना चाहिए। उनका व्यवहार चाहे जैसा हो, वे तुमसे जैसे भी पेश आयें, तुम्हें जानना चाहिए कि परमेश्वर के समक्ष तुम और वे सब, सृजित प्राणी होने के नाते एक समान हो, तुम सब परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के लिए चुने हुए मनुष्य हो। तुमसे तुलना करें, तो उनमें कोई खासियत नहीं है। उनकी तथाकथित विशेष पहचान और हैसियत का परमेश्वर की नजरों में अस्तित्व ही नहीं है, वह उन्हें नहीं मानता। इसलिए, तुम्हें अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान से संकुचित होने की जरूरत नहीं है, न ही इस वजह से हीन महसूस करने की जरूरत है। सिर्फ अपनी निचली हैसियत के कारण दूसरे लोगों के साथ बराबरी से बात करने का अवसर छोड़ने की या परमेश्वर के घर में और परमेश्वर के समक्ष, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए अधिकार, जिम्मेदारियाँ और दायित्व छोड़ने की तो और भी जरूरत नहीं है। और बेशक तुम्हें निश्चित रूप से अपने बचाए जाने का अधिकार या उद्धार प्राप्ति की आशा नहीं छोड़नी चाहिए। परमेश्वर के घर में, परमेश्वर के समक्ष, अमीर और गरीब या ऊँची और निचली सामाजिक हैसियत के बीच कोई अंतर नहीं है, और विशेष पारिवारिक पृष्ठभूमि वाला कोई भी व्यक्ति विशेष व्यवहार या खास विशेषाधिकार के योग्य नहीं होता। परमेश्वर के समक्ष सभी लोगों की सिर्फ एक पहचान होती है, जोकि एक सृजित प्राणी की है। साथ ही, परमेश्वर के समक्ष सभी लोगों के प्रकृति सार एक ही होते हैं। परमेश्वर सिर्फ एक प्रकार के मनुष्य को बचाना चाहता है, और वह है भ्रष्ट मनुष्य। इसलिए, चाहे तुम्हारी पहचान या सामाजिक हैसियत कुलीन हो या दीन-हीन, तुम सब ऐसे मनुष्य हो जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है।

कल्पना करो कि किसी ने तुमसे कहा, “अपने परिवार को देखो, वे इतने गरीब हैं कि तुम्हारे पास अच्छे कपड़े भी नहीं हैं; तुम्हारा परिवार इतना गरीब है कि तुम बस प्राथमिक स्कूल में ही पढ़ पाए, और कभी हाई स्कूल नहीं जा पाए; तुम्हारा परिवार इतना गरीब है कि तुम्हें हमेशा सिर्फ सूप और सब्जियां ही खाने को मिलती हैं, तुमने कभी चॉकलेट, पिज्जा या कोला का स्वाद ही नहीं चखा।” तुम्हें ऐसी स्थिति को कैसे सँभालना चाहिए? क्या तुम हीन और मायूस महसूस करोगे? क्या तुम मन-ही-मन परमेश्वर के बारे में शिकायत करोगे? क्या तुम उस व्यक्ति की बातों से डर जाओगे? (अब नहीं।) अब तुम नहीं डरोगे, मगर पहले डर जाते, है ना? अतीत में, जब कभी तुम किसी अमीर, दौलतमंद और विशिष्ट परिवार को देखते, तो कहते, “वाह! वे एक बंगले में रहते हैं, उनकी अपनी गाड़ी है। वे अनगिनत बार विदेश जा चुके हैं। मैं अपने गाँव से बाहर भी नहीं गया, कभी रेलगाड़ी भी नहीं देखी। वे तीव्र गति वाली रेलयात्राएँ करते हैं, प्रथम श्रेणी में यात्रा करते हैं, आलीशान जहाजों में सफर करते हैं, फ्रेंच डिजाइनर ब्रांड के कपड़े और इटैलियन आभूषण पहनते हैं। मैंने आज तक इनमें से किसी भी चीज के बारे में क्यों नहीं सुना?” जब भी तुम ऐसे लोगों के आसपास होते हो, तो उनसे छोटा महसूस करते हो। सत्य पर संगति करते समय और परमेश्वर में विश्वास रखते समय तुममें थोड़ा आत्मविश्वास होता है। लेकिन जब तुम उन लोगों से अपने परिवार और पारिवारिक जीवन के बारे में बात करते हो, तो उनसे दूर भाग जाना चाहते हो, तुम्हें लगता है कि तुम उन जैसे अच्छे नहीं हो, और तुम्हारे लिए जीने से बेहतर मर जाना है। तुम सोचते हो, “मैं ऐसे परिवार में क्यों हूँ? मैंने दुनिया में कुछ नहीं देखा। दूसरे लोग हाथों में क्रीम लगाते हैं, जबकि मैं अपने हाथों में अब भी वेसलीन लगाता हूँ; दूसरे लोग अपने चेहरे पर कोई क्रीम तक नहीं लगाते और सीधे सैलून का रुख करते हैं, जबकि मुझे यह भी नहीं मालूम कि सैलून है कहाँ; दूसरे लोग बड़ी गाड़ियों में घूमते हैं, मगर यह मेरे लिए संभव नहीं है, मुझे साइकिल भी चलाने को मिल जाए तो भी मैं भाग्यशाली हूँ, कभी-कभी तो मुझे किसी बैलगाड़ी या गधागाड़ी में सवारी करनी पड़ती है।” तो हर बार ऐसे लोगों से बात करते समय तुम आत्मविश्वास खो देते हो, और अपनी पहचान की बात करने में शर्मिंदा महसूस करते हो, उसका जिक्र करने की भी हिम्मत नहीं करते। तुम दिल से परमेश्वर के प्रति थोड़ा रोषपूर्ण और नाराज रहते और सोचते हो, “वे सब भी मेरी ही तरह सृजित प्राणी हैं, तो फिर परमेश्वर उन्हें जीवन के इतने मजे कैसे लेने देता है? उसने उनके लिए वैसा परिवार और सामाजिक हैसियत पूर्व-निर्धारित क्यों किया है? मेरा परिवार इतना अधिक गरीब क्यों है? मेरे माता-पिता, बिना किसी काबिलियत और कौशल के, समाज के सबसे निचले तबके में क्यों हैं? बस इस बारे में सोचने भर से मुझे गुस्सा आ जाता है। जब भी मैं इस बारे में बात करता हूँ, अपने माता-पिता का जिक्र नहीं करना चाहता, वे इतने नाकाबिल और नाकारा हैं! बड़ी गाड़ी में सवार होने और बंगले में रहने को जाने दो, मैं बस में या तेज रेलगाड़ियों में सवार होकर शहर जाकर या शहर के बाग-बगीचों में खेलकर ही संतुष्ट हो जाता, मगर वे मुझे वहाँ भी नहीं ले गए, एक बार भी नहीं! मुझे किसी भी तरह का जीवन अनुभव नहीं है। मैंने बढ़िया खाना नहीं खाया, अच्छी गाड़ियों में सवारी नहीं की, और हवाई जहाज में उड़ना तो बस सिर्फ सपना ही है।” इन सबके बारे में सोचने से तुम्हें हीनता महसूस होती है, और यह विषय तुम्हें अक्सर संकुचित महसूस कराता है, इसलिए तुम नियमित रूप से उन भाई-बहनों के साथ उठते-बैठते हो, जिनकी पहचान और हैसियत तुमसे कुछ ज्यादा अलग नहीं है, और मन-ही-मन सोचते हो : “किसी ने ठीक ही कहा है, चोर-चोर मौसेरे भाई। उन लोगों को तो देखो, वे सब अमीर हैं, वरिष्ठ सरकारी अधिकारी, करोड़पति हैं, उनके माता-पिता धन्ना सेठ हैं, ताकतवर उद्योगपति हैं, और वे विदेशों में शिक्षा-प्राप्त और स्नातकोत्तर हैं, और साथ ही कॉर्पोरेट अधिकारी और होटल प्रबंधक हैं। उनकी तुलना हमारे इस मेले से करके देखो। हम सब या तो किसान हैं या बेरोजगार। हमारे परिवार पिछड़े हुए ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, हम सिर्फ प्राथमिक स्कूल तक शिक्षा प्राप्त हैं, हमने दुनिया में कुछ नहीं देखा है। हमने मवेशी चराए हैं, गली-नुक्कड़ों में ठेले लगाए हैं, जूते दुरुस्त किए हैं। हम कैसे लोग हैं? क्या हम सिर्फ भिखारियों का झुंड नहीं हैं? जरा उन लोगों को देखो, सबके-सब ऊँचे दर्जे के, सजीले, बने-ठने। जब मैं हम जैसे अभागों के बारे में सोचता हूँ, तो बिल्कुल बेकार और व्यथित महसूस करता हूँ।” इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, तुमने इस विषय को कभी भी जाने नहीं दिया, और अक्सर खास तौर पर हीन और अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हो। चीजों के बारे में इन लोगों के विचार और सोच जाहिर तौर पर गलत हैं, ये लोगों और चीजों और उनके आचरण और कार्य के बारे में उनकी सोच के सही होने को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं। ये विचार और नजरिये सामाजिक प्रवृत्तियों और सामाजिक रीति-रिवाजों से प्रभावित होते हैं। सटीक रूप से कहा जाए, तो बेशक ये विचार और नजरिये ऐसे हैं, जो दुष्ट लोगों और पारंपरिक संस्कृति द्वारा सामान्य लोगों की सोच पर डाले जाने वाले अनुकूलन प्रभावों का परिणाम हैं। चूँकि वे भ्रष्ट हैं, बुरी प्रवृत्तियों के हैं, इसलिए तुम्हें उन्हें जाने देना चाहिए, ऐसे विचारों और नजरियों से परेशान या संकुचित नहीं होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “मैं ऐसे परिवार में जन्मा था, और इस तथ्य को बदला नहीं जा सकता। ऐसे विचार और नजरिये निरंतर मेरे दिमाग पर हावी रहते हैं, इन्हें जाने देना कठिन है।” यह सचमुच एक तथ्य है कि उन्हें जाने देना कठिन है, लेकिन अगर तुम निरंतर किसी गलत विचार और नजरिये पर ही सोचते रहोगे, तो तुम उसे कभी जाने नहीं दोगे। अगर तुम सही विचारों और नजरियों को स्वीकारते हो, तो तुम गलत विचारों और नजरियों को धीरे-धीरे जाने दोगे। मेरा यह कहने का क्या तात्पर्य है? मेरा तात्पर्य है कि तुम्हारे लिए एक ही बार में इन्हें जाने देना संभव नहीं है, जिससे कि तुम अमीरों और ऊँची हैसियत और बोलबाले वाले लोगों के साथ बराबर और सामान्य आधार पर बातचीत कर सको। एक ही बार में ऐसा करना असंभव है, लेकिन कम-से-कम तुम इस विषय से मुक्त हो पाओगे। अगर तुममें अभी भी हीनभावना है, भले ही तुम अब भी इसे लेकर दिल से अस्पष्ट रूप से परेशान हो, तो तुमने इससे कुछ हद तक पहले ही मुक्ति पा ली है। बेशक, बाद में तुम्हारे सत्य के अनुसरण में, तुम धीरे-धीरे और ज्यादा आजादी और मुक्ति पा सकोगे। सारे तथ्यों के उजागर हो जाने पर, तुम और ज्यादा स्पष्ट रूप से विविध लोगों, मामलों और चीजों का सार देख पाओगे, और सत्य के बारे में तुम्हारी समझ और ज्यादा गहरी हो जाएगी। ऐसे विषयों की गहरी अंतर्दृष्टि पा लेने पर, ऐसे विषयों का तुम्हारा जीवन अनुभव और ज्ञान बढ़ जाएगा। साथ-ही-साथ, सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया और अधिक सक्रिय और सकारात्मक हो जाएगा, और तुम नकारात्मक चीजों से उतना ही कम विवश होगे। तब क्या तुम बदल नहीं गए होगे? इसके बाद जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलोगे जिसकी पहचान और हैसियत तुमसे बहुत ज्यादा अलग है, और उससे बात कर जुड़ोगे, तो कम-से-कम तुम अब भीतर से भयभीत नहीं रहोगे, न ही दूर भागोगे, बल्कि इसके बजाय तुम उनसे सही ढंग से पेश आ पाओगे, और तुम अब उनके प्रतिबंधों के अधीन नहीं रहोगे, या नहीं सोचोगे कि वे कितने महान और विशिष्ट हैं। एक बार तुम लोगों का भ्रष्ट सार समझ लोगे, तो तुम हर तरह के लोगों को ठीक ढंग से सँभाल पाओगे, हर तरह के लोगों को आदर से देखे या नीचा दिखाए बिना, भेदभाव किए बिना या उनके बारे में ऊँची राय रखे बिना, उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार मिल-जुलकर रह सकोगे, बातचीत कर उनसे जुड़ सकोगे। इस तरह से, क्या तुम धीरे-धीरे सत्य के अनुसरण से मिलने वाले परिणाम प्राप्त कर सकोगे? (हाँ।) यह परिणाम प्राप्त कर तुम सत्य से अधिक प्रेम करने लगोगे, सकारात्मक चीजों और सत्य के प्रति अधिक झुकाव रखने लगोगे, परमेश्वर और सत्य की सराहना करने के प्रति अधिक झुकाव रखने लगोगे, समाज या दुनिया के किसी व्यक्ति की विशिष्ट पहचान और हैसियत देख उसकी सराहना नहीं करोगे। तुम जिन चीजों की सराहना कर आदर से देखते हो, और साथ ही जिन चीजों का अनुसरण कर तुम आराधना करते हो, वे अलग होंगे, और धीरे-धीरे नकारात्मक चीजों से सकारात्मक चीजों और फिर सत्य में—और सटीक ढंग से कहें—तो परमेश्वर, उसके वचनों और परमेश्वर की पहचान और हैसियत में बदल जाएँगे। इस प्रकार, इस संबंध में धीरे-धीरे तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करोगे। यानी, तुम धीरे-धीरे इस संबंध में अपने भ्रष्ट स्वभाव और शैतान के बंधनों को त्याग दोगे, और धीरे-धीरे उद्धार प्राप्त कर लोगे—प्रक्रिया में ये चीजें शामिल हैं। यह कठिन नहीं है; तुम्हारे सामने मार्ग प्रशस्त है। अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो। और आखिरकार तुम कौन-सी वास्तविकता में प्रवेश करोगे? तुम अपने परिवार से चाहे जैसी हैसियत विरासत में पाओ, तुम अब इस बात से परेशान या प्रभावित नहीं रहोगे कि यह कुलीन है या निचले दर्जे की। इसके बजाय, तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा पाओगे, और एक सृजित प्राणी की पहचान के साथ ही तुम लोगों और चीजों को देख सकोगे, आचरण और कार्य कर पाओगे, परमेश्वर के समक्ष जी पाओगे, प्रत्येक दिन वर्तमान में जी पाओगे—यही है वह परिणाम है जिसका तुम अनुसरण करोगे। क्या यह एक अच्छा परिणाम है? (हाँ, जरूर है।) जब लोग वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश करते हैं, तो उनके दिल मुक्त और आजाद हो जाते हैं। कम-से-कम तुम परिवार से तुम्हें विरासत में मिली पहचान के विषय को लेकर परेशान नहीं रहोगे, तुम्हें परवाह नहीं होगी कि तुम्हारी हैसियत ऊँची है या नीची। अगर तुम्हारी पहचान विशिष्ट है, और कुछ लोग तुम्हें आदर से देखें, तो तुम चिढ़ जाओगे; अगर तुम्हारी पहचान नीची है, और कुछ लोग तुमसे भेदभाव करते हैं, तो तुम उससे संकुचित या परेशान नहीं होगे, न ही तुम इसको लेकर दुखी या नकारात्मक होगे। तुम्हें अब इस आधार पर चिंतित, व्यथित या हीन महसूस करने की जरूरत नहीं है कि तुमने किसी तेज रेलगाड़ी में सवारी की है या नहीं, सैलून गए हो या नहीं, विदेश घूमे हो या नहीं, पश्चिमी खाना खाया है या नहीं, या अमीरों की तरह विशिष्ट भौतिक आराम के मजे लिए हैं या नहीं। तुम अब ऐसे विषयों से संकुचित या परेशान नहीं होगे, और हर तरह के लोगों, चीजों और मामलों से सही बर्ताव कर पाओगे, अपना कर्तव्य सामान्य ढंग से निभा पाओगे। फिर क्या तुम आजाद और मुक्त नहीं होगे? (हाँ।) इस प्रकार तुम्हारा दिल मुक्त हो जाएगा। सत्य के इस पहलू में प्रवेश कर लेने और शैतान के बंधनों से मुक्त हो जाने पर, तुम सचमुच परमेश्वर के समक्ष जीने वाला सृजित प्राणी बन चुके होगे, एक ऐसा सृजित प्राणी जिसकी चाह परमेश्वर को है। अब तक परिवार से विरासत में मिली पहचान और हैसियत को जाने देने के पथ के बारे में तुम्हारी समझ पहले से ज्यादा स्पष्ट हो गई होगी।

पिछली बार हमने एक और विषय पर चर्चा की थी—परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के प्रभावों को जाने देना। किसी व्यक्ति के परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभाव उसके बचपन से ही शुरू हो जाते हैं। वयस्क होने पर वे धीरे-धीरे इन सिखाए गए विचारों और सोच को अपने जीवन में लागू करने लगते हैं। थोड़ा जीवन अनुभव प्राप्त होते-होते, वे अपने परिवार द्वारा सिखाए गए इन विचारों और सोच को और उन्मुक्त ढंग से अमल में लाने लगते हैं, और इस आधार पर वे और ज्यादा नफीस, विशिष्ट और अपने लिए ज्यादा हितकारी विविध सिद्धांत, तरीके और चीजों से निपटने के गुर जमा कर लेते हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभाव किसी व्यक्ति के लिए समाज और अपने सामुदायिक समूहों में जाते समय प्रवेशिका की भूमिका निभाते हैं, जिससे दूसरों के साथ रहते हुए वे खुलकर विभिन्न तरीकों और गुरों का इस्तेमाल करते हैं। चूँकि परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभाव एक प्रवेशिका हैं, इसलिए वे प्रत्येक व्यक्ति के दिल में गहरे पैठे और जड़ें जमाए होते हैं। ये चीजें लोगों के जीवन, उनके आचरण और कार्य के तरीके, और जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण को प्रभावित करती हैं। लेकिन चूँकि शिक्षा के ये प्रभाव सकारात्मक नहीं होते, इसलिए इनको भी लोगों को सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया में जाने देना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऐसी शिक्षा द्वारा तुम्हारे भीतर पिरोये गए विचार और सोच तुम्हारे दिल की गहराई में पैठ जाते हैं या नहीं, या वे भीतर गहरे तुम पर हावी होते हैं या नहीं—और निश्चित रूप से इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने अपने जीवन के दौरान ऐसे विचारों और सोच को सच के रूप में पुष्ट कर उन पर अमल किया है या नहीं—शिक्षा के ये प्रभाव अभी और भविष्य दोनों में, अलग-अलग सीमा तक तुम्हारे जीवन पर असर डालेंगे, तुम्हारे जीवन पथ के चयन को प्रभावित करेंगे, और उन रवैयों और सिद्धांतों को प्रभावित करेंगे जिनसे तुम चीजों से निपटते हो। कहा जा सकता है कि ज्यादातर परिवार लोगों को दुनिया से निपटने के सबसे मौलिक गुर और फलसफे मुहैया कराते हैं, ताकि वे समाज में जी सकें और जीवित रह सकें। मिसाल के तौर पर, पिछली बार हमने उन चीजों के बारे में संगति की थी जो माता-पिता हमेशा कहते हैं, जैसे कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” और “एक व्यक्ति जहाँ रहता है अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है,” और साथ ही “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी” और “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।” दूसरी कौन-सी कहावतें थीं? “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” और “जो ज्यादा बातें करता है, वह ज्यादा गलतियाँ करता है।” इन विविध विचारों और सोच को, जिनकी शिक्षा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें दी है, तुम चाहे अपने जीवन में स्पष्ट रूप से लागू करो या नहीं, ये तुम्हारी प्रवेशिका हैं। “प्रवेशिका” से मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा तात्पर्य उस चीज से है जो दुनिया से निपटने की खातिर शैतान के फलसफों को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती और उसकी ओर धकेलती है। तुम्हारे परिवार द्वारा बताई गई इन कहावतों ने तुममें दुनिया से निपटने और जीवित रहने का सबसे मौलिक तरीका पिरो दिया है, ताकि इस समाज में प्रवेश करने के बाद तुम शोहरत, लाभ, हैसियत के पीछे भागने के लिए कड़ी मेहनत करो, मुखौटा लगा कर खुद को बेहतर ढंग से पेश करने का प्रयास करो, और लोगों के बीच उत्तम बनने और शीर्ष पर पहुँचने और शीर्ष पर बने रहने के लिए मेहनत करो। तुम्हारे परिवार ने जिन चीजों की तुम्हें शिक्षा दी है, वे तुम्हारे लिए दुनिया से निपटने के नियम और गुर हैं, जो तुम्हें समाज में प्रवेश करने और बुरी प्रवृत्तियों को अपनाने की ओर धकेलती हैं।

पिछली बार हमने लोगों पर उनके परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों पर संगति की थी। इनके अलावा और भी शैक्षिक प्रभाव होते हैं, तो चलो उनके बारे में संगति जारी रखें। मिसाल के तौर पर, कुछ माता-पिता अपने बच्चों को बताते हैं, “साथ-साथ चल रहे किन्हीं भी तीन लोगों में कम-से-कम एक ऐसा होता है जो मेरा शिक्षक बन सकता है।” यह किसने कहा था? (कन्फ्यूशियस ने।) हाँ, यह कन्फ्यूशियस ने ही कहा था। कुछ माता-पिता बच्चों को बताते हैं : “जहाँ भी जाओ तुम्हें कौशल सीखने चाहिए। एक बार उन्हें सीख लोगे, तो तुम्हारे पास एक विशेष क्षेत्र का कौशल होगा, तुम्हें कभी बेरोजगारी की चिंता करने की जरूरत नहीं होगी, और हर स्थिति में तुम वह अधिकारी बन जाओगे जिससे सब मदद माँगने आएँगे। एक पुराने ज्ञानी ने बहुत सही कहा था, ‘साथ-साथ चल रहे किन्हीं भी तीन लोगों में कम-से-कम एक ऐसा होता है जो मेरा शिक्षक बन सकता है।’ जब भी तुम दूसरों के आसपास रहो, तो गौर करो कि किसके पास किस क्षेत्र विशेष का कौशल है। उन्हें पता चले बगैर चोरी-छिपे वह कौशल सीख लो, फिर उसमें महारत हासिल कर लेने के बाद वह कौशल तुम्हारा बन जाएगा, और तुम अपने लिए पैसे कमा सकोगे, और तुम्हें जीवन की बुनियादी जरूरतों की कभी कोई कमी नहीं होगी।” दूसरों के बीच रहते हुए कौशल सीखने के लिए तुम्हें प्रेरित करने के पीछे तुम्हारे माता-पिता का लक्ष्य क्या है? (दुनिया में आगे बढ़ाना।) कौशल सीखने का लक्ष्य तुम्हें खुद को सशक्त बनाना है, शीर्ष पर पहुँचना है, दूसरों से चोरी-छिपे कौशल सीख लेना है, और धीरे-धीरे अपनी शक्ति बढ़ानी है। अगर लोगों के बीच तुम सशक्त हो, तो तुम्हारे पास आजीविका होगी, साथ ही शोहरत और धन-दौलत भी होगा। जब तुम्हारे पास शोहरत और धन-दौलत दोनों होंगे, तो लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखेंगे। अगर तुम्हारे पास असली कौशल नहीं होंगे, तो कोई भी तुम्हारे बारे में ऊँची राय नहीं रखेगा, इसलिए तुम्हें दूसरों से चोरी-छिपे कौशल सीखने होंगे, दूसरों की खूबियाँ और कौशल सीखने होंगे, धीरे-धीरे उनसे अधिक शक्तिशाली बनना होगा—तभी तुम शीर्ष पर पहुँच पाओगे। कुछ माता-पिता अपने बच्चों को बताते हैं, “लोगों की नजरों में प्रतिष्ठित बनना हो, तो तुम्हें तब कष्ट झेलने होंगे जब कोई देखता न हो,” उसी लक्ष्य से कि उनके बच्चे दूसरों से सराहना और ऊँचा सम्मान पा सकें। अगर तुम लगन से कड़ी मेहनत करो, और दूसरे जब न देख रहे हों, तब कौशल सीखने के लिए बड़ी मुश्किलें सहो, तो उन्हें हासिल कर लेने के बाद तुम अपनी प्रतिभा से सबको प्रभावित कर सकोगे, और जब भी लोग तुम्हें नीची नजर से देखें या धमकाएँ, तो तुम अपनी प्रतिभा का दिखावा कर सकते हो, और फिर कोई भी तुम्हें धमकाने की हिम्मत नहीं करेगा। भले ही तुम साधारण और मामूली दिखाई दो, ज्यादा न बोलो, फिर भी तुम्हारे पास तकनीकी क्षमताओं के रूप में कुछ ऐसे कौशल होंगे जो साधारण लोगों की समझ से बाहर होंगे, इसलिए दूसरे तुम्हें सराहेंगे, तुम्हारे सामने छोटा महसूस करेंगे, और तुम्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में देखेंगे जो उनकी मदद कर सकता है। इस तरह क्या लोगों के बीच तुम्हारा मूल्य बढ़ नहीं जाता? मूल्य बढ़ने से क्या तुम प्रतिष्ठित नहीं लगने लगते? अगर तुम दूसरों के बीच विशिष्ट हैसियत प्राप्त करने के लिए मेहनत करना चाहते हो, तो जब वे न देख रहे हों, तब तुम्हें मुश्किल और कष्ट झेलने पड़ेंगे। चाहे जितनी भी मुश्किलें सहनी पड़ें सह लो और लगे रहो, और जब लोग देखेंगे कि तुम कितने सक्षम हो तो यह सब इस योग्य साबित होगा। “लोगों की नजरों में प्रतिष्ठित बनना हो, तो तुम्हें तब कष्ट झेलने होंगे जब कोई देखता न हो,” यह कहावत तुम्हें बताने के पीछे तुम्हारे माता-पिता का लक्ष्य क्या है? उनका लक्ष्य यह है कि तुम दूसरों के बीच विशिष्ट हैसियत हासिल करो, उनका सम्मान पाओ, बजाय इसके कि तुम्हारे साथ भेदभाव हो या तुम्हें धमकाया जाए, ताकि तुम न सिर्फ जीवन की बढ़िया चीजों के मजे ले पाओ, बल्कि दूसरों का आदर और समर्थन भी जीतो। ऐसी हैसियत वाले लोग समाज में धमकाए नहीं जाते, बल्कि वे जहाँ भी जाते हैं वहाँ उनके लिए हर चीज आसान हो जाती है। जब भी लोग तुम्हें आता देखेंगे, वे कहेंगे, “अहोभाग्य हमारे, आपके आने की यह खुशी भला हमें कैसे मिली? आपका दर्शन मिलना हमारा बहुत बड़ा सौभाग्य है! क्या यहाँ आपको कोई काम है? मैं आपका काम कर दूँगा। अरे, आप टिकट खरीदने आए हैं? अच्छा-अच्छा, लाइन में लगने की जरूरत नहीं। मैं आपको सबसे बढ़िया सीट दिलवा दूँगा। आखिर हम मित्र जो हैं!” तुम इसे स्वीकार कर सोचते हो, “वाह, इस सेलेब्रिटी तमगे के सचमुच बड़े फायदे हैं। बड़े-बुजुर्ग सही कहते हैं, ‘लोगों की नजरों में प्रतिष्ठित बनना हो, तो तुम्हें तब कष्ट झेलने होंगे जब कोई देखता न हो।’ समाज सचमुच ऐसा ही है, यह अत्यंत वास्तविकता-केंद्रित है! अगर मेरे पास यह शोहरत नहीं होती, तो भला कौन मुझ पर ध्यान देता? अगर तुम सामान्य व्यक्ति की तरह कतार में लगो, तो दूसरे शायद तुम्हें नीची नजर से देखें, तुम्हें जलील करें, और हो सकता है कतार में आगे पहुँच जाने पर भी तुम्हें टिकट न बेचें।” जब तुम अस्पताल में डॉक्टर से मिलने के लिए कतार में लगो, तो कोई हॉल में दूर से तुम्हें देख ले और कहे, “आप फलाँ-फलाँ हैं न? आप कतार में क्यों खड़े हैं? मैं आपके लिए स्पेशलिस्ट की अभी व्यवस्था कर देता हूँ, आपको कतार में लगने की जरूरत नहीं।” तुम जवाब देते हो : “मैंने अभी फीस नहीं दी है।” वह कहता है, “कोई जरूरत नहीं, फीस मैं दूँगा।” तुम इस पर विचार करते हो, सोचते हो, “सेलेब्रिटी होना अच्छी बात है। आखिर एकांत में वह तमाम कष्ट सहना बेकार नहीं गया। मैं समाज में आदर-सत्कार के मजे ले सकता हूँ। यह समाज बहुत वास्तविकता-केंद्रित है, अच्छी खातिरदारी के लिए तुम्हें सेलेब्रिटी होना चाहिए। क्या बात है!” तुम फिर एक बार खुश होते हो कि वे तमाम कष्ट बेकार नहीं गए, और जब दूसरे नहीं देख रहे थे, तब उन सब मुश्किलों और कष्टों से गुजरना इस लायक था! तुम निरंतर इससे अचंभित रहते और सोचते हो : “मुझे अस्पताल में किसी डॉक्टर से मिलने के लिए लाइन में लगने की जरूरत नहीं, जब भी मैं हवाई जहाज के टिकट खरीदूँ, मैं अच्छी सीटें पा सकता हूँ, और जहाँ भी जाऊँ मेरा आदर-सत्कार होगा। मेरा प्रभाव ऐसा है कि मैं पिछले दरवाजे से भी अंदर जा सकता हूँ। क्या बात है! समाज को ऐसा ही होना चाहिए, बराबरी की कोई जरूरत नहीं है। लोग जितना डालें उतना ही उन्हें वापस मिलना चाहिए। जब दूसरे न देख रहे हों, तब तुम कष्ट न सहो, तो क्या उनकी नजरों में प्रतिष्ठित बन सकोगे? मिसाल के तौर पर मुझे देखो। मैंने तब कष्ट सहे थे जब दूसरे मुझे नहीं देख रहे थे, ताकि जब वे देखें, तो मेरा सत्कार हो, क्योंकि मैं इस लायक हूँ।” बात ऐसी है, तो फिर लोग दूसरों से जुड़ना चाहें और समाज में कार्य करवाना चाहें तो किस पर निर्भर रहते हैं? वे काम करने की काबिलियत का साथ देने के लिए अपनी प्रतिभाओं, और कौशल के भरोसे रहते हैं। कोई अपने प्रयासों में सफल हो या न हो, या वह समाज में काम करवा लेने में कितना अच्छा है, यह उस व्यक्ति की प्रतिभाओं या मानवता पर आधारित नहीं होता, न ही इस बात पर कि उसके पास सत्य है या नहीं। समाज में कोई निष्पक्षता या बराबरी नहीं है। और अगर तुम बड़े मेहनती हो, दूसरों के न देखते वक्त कष्ट सह सकते हो, काफी अत्याचारी और खूंखार हो, तो दूसरों के बीच ऊँची हैसियत पा सकते हो। जैसे कि पहले लोग युद्ध कलाओं की दुनिया में महारत हासिल करने के लिए स्पर्धा करते थे, दिन-रात लगातार कष्ट सहते हुए अभ्यास करते थे, जब तक कि आखिर वे विभिन्न युद्ध कला शालाओं की तमाम शैलियों में महारत हासिल करके अपनी अनूठी शैली तैयार न कर लें, और उसका सिद्धि तक अभ्यास कर अभेद्य न बन जाएँ। फिर अंत में क्या होता था? युद्ध कला टूर्नामेंट में वे सभी बड़ी शालाओं के योद्धाओं को हरा कर युद्ध कला की दुनिया के बादशाह की हैसियत पा लेते थे। दूसरों के समक्ष प्रतिष्ठित दिखने के लिए वे किसी भी प्रकार का कष्ट सहने को तैयार रहते थे और बंद कमरों में कुछ काली कलाओं का भी अभ्यास करते थे। आठ-दस सालों के अभ्यास के बाद, वे इतनी महारत हासिल कर लेते थे कि युद्ध कला की दुनिया का कोई भी व्यक्ति उन्हें अखाड़े में हरा नहीं पाता था, या अखाड़े से बाहर मार नहीं पाता था, और वे जहर भी खा लें तो भी उसे अपने शरीर से निकाल फेंक सकते थे। इस तरह से वे युद्ध कलाओं का महारथी होने का अपना स्थान सुरक्षित कर लेते थे और कोई भी उनका यह स्थान डिगा नहीं सकता था—सबकी नजरों में प्रतिष्ठित बनने का अर्थ यही है। दूसरों के समक्ष प्रतिष्ठित दिखाई देने के लिए प्राचीन काल में लोग शाही परीक्षाएँ देते थे, और विद्वत्ता सम्मान प्राप्त करते थे। आजकल, लोग कॉलेज जाते हैं, स्नातकोत्तर प्रवेश परीक्षाएँ देते हैं, पीएच.डी के लिए पढ़ते हैं—वे भी मुश्किलों के बावजूद लगन से पढ़ाई करते हैं, और दिन-रात एक कर साल-दर-साल बेकार का ज्ञान सीखने की गुलामी करते हैं। कभी-कभी वे इतना थक जाते हैं कि आगे पढ़ना नहीं चाहते, ब्रेक लेने को तरसते हैं, मगर उनके माता-पिता यह कहकर डांटते-डपटते हैं, “तुम जरा-सी भी प्रतिबद्धता कब दिखाओगे? क्या तुम अब भी दूसरों के सामने प्रतिष्ठित दिखना चाहते हो? अगर ऐसी बात है तो उनकी नजरों से दूर कष्ट सहे बिना तुम कैसे कर पाओगे? ऐसा नहीं है कि एक छोटा-सा ब्रेक नहीं लोगे तो तुम्हारी जान चली जाएगी, ठीक है न? चलो पढ़ो! चलो, अपना होमवर्क करो!” वे कहते हैं, “मैंने अपना होमवर्क पूरा कर लिया है, आज के पाठ दोहरा लिए हैं। क्या आप मुझे थोड़ा आराम करने देंगे?” लेकिन उनके माता-पिता जवाब देते हैं : “बिल्कुल नहीं! लोगों की नजरों में प्रतिष्ठित बनना हो, तो तुम्हें तब कष्ट झेलने होंगे जब कोई देखता न हो!” वे इस बारे में चिंतन करते हैं, सोचते हैं, “मेरे माता-पिता यह सब मेरी ही भलाई के लिए कर रहे हैं, तो फिर मैं इतना जिद्दी और मौज-मस्ती में तल्लीन क्यों हूँ? मुझे वह करना चाहिए जो मुझे कहा जाए। कहा जाता है कि अपने जोखिम पर ही बड़ों की अनदेखी करो, इसलिए मुझे अपने माता-पिता की बात माननी चाहिए। वे अपनी बाकी जिंदगी ऐसे ही रहेंगे। अगर मैंने उनकी उचित सराहना न की, तो वे निराश हो जाएँगे। इसके अलावा, मुझे जीवन में बहुत आगे जाना है, तो लंबी दौड़ में थोड़ा-सा कष्ट क्या मायने रखता है?” मन में यह विचार आते ही वे पढ़ाई में लगन से जुट जाते हैं, अपने पाठ दोहराते हैं और होमवर्क करते हैं। पढ़ते हुए वे देर रात तक जगे रहते हैं, कितनी भी थकान महसूस करें, उससे उबर जाते हैं। अपने जीवन पथ में, लोगों के मन में उनके परिवार की शिक्षा के प्रभाव निरंतर ऐसे विचारों और अभिव्यक्तियों के रूप में भरे जाते हैं जैसे कि “लोगों की नजरों में प्रतिष्ठित बनना हो, तो तुम्हें तब कष्ट झेलने होंगे जब कोई देखता न हो,” जो उन्हें प्रोत्साहित और अभिप्रेरित करते रहते हैं। अपने भविष्य और संभावनाओं की खातिर और दूसरों के बीच प्रतिष्ठित दिखाई देने के लिए, वे निरंतर एकांत में कौशल और ज्ञान सीखते हैं। वे सशक्त बनने के लिए ज्ञान और विविध कौशलों से खुद को लैस कर लेते हैं। वे विविध प्राचीन मनीषियों और कामयाब लोगों की उपलब्धियाँ भी देखते हैं ताकि खुद को बढ़ावा दे सकें और अपनी योद्धा भावना को जगा सकें। वे ये सब गरीबी, सामान्यता और दीनता को त्याग देने और अपने साथ भेदभाव होने की नियति को बदल देने के लक्ष्य से करते हैं, ताकि वे एक उच्च व्यक्ति बनें, कुलीन वर्ग के सदस्य बनें और ऐसे बनें कि लोग उन्हें आदर से देखें। परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के ये प्रभाव उनके दिमाग में लगातार दौड़ते रहते हैं जब तक कि आखिर धीरे-धीरे ये टिप्पणियाँ और कहावतें उनमें गहरे पैठे हुए विचार और सोच न बन जाएँ, दुनिया से निपटने के नियमित तरीके न बन जाएँ और अस्तित्व और उनके अनुसरण के लक्ष्य स्वाभाविक नजरिया न बन जाएँ।

कुछ माता-पिता अपने बच्चों को बताते हैं, “तुम्हें दूसरों से दोस्ती करना सीखना चाहिए। जैसे कि यह कहावत, ‘जैसे कि बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ही एक योग्य मनुष्य को तीन लोगों का सहारा चाहिए।’ सोंग वंश के बदनाम राजनेता किन हुई[क] के भी तीन मित्र थे। तुम जहाँ भी जाओ दूसरों के साथ मिल-जुल कर रहना सीखो, अच्छे आपसी रिश्ते रखो। कम-से-कम तुम्हारे कुछ करीबी मित्र होने चाहिए। एक बार समाज में प्रवेश कर लेने के बाद तुम्हें जीवन, कार्य और अपने कारोबार में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। अगर तुम्हारी मदद के लिए मित्र नहीं होंगे, तो तुम्हें तमाम मुश्किलों और अजीब स्थितियों का अकेले ही सामना करना पड़ेगा। अगर तुम कुछ करीबी मित्र बनाने के गुर जान लो, तो ऐसी अजीब स्थितियों और मुश्किलों का सामना होने पर वे मित्र आगे आकर तुम्हें मुश्किलों से बाहर निकालेंगे और तुम्हें अपने प्रयासों में सफल होने में मदद करेंगे। अगर तुम बड़ी चीजें हासिल करना चाहते हो, तो तुम्हें विनम्र होकर मित्र बनाने चाहिए। तुम्हें तमाम सामर्थ्यवान लोगों को अपने साथ रखने में समर्थ होना होगा ताकि वे तुम्हारे प्रयासों और भविष्य के तुम्हारे जीवन और अस्तित्व को सहारा दें। तुम्हें विविध लोगों का लाभ उठाकर उनसे काम और सेवा करवाने में मदद लेनी होगी।” माता-पिता आम तौर पर स्पष्ट रूप से ऐसे विचार या सोच नहीं बताएँगे, या अपने बच्चों से सीधे यह नहीं कहेंगे कि उन्हें मित्र बनाने, लोगों का लाभ उठाने या अपने प्रयासों में सफल होने में मदद करने के लिए दोस्त बनाने में समर्थ होना सीखना चाहिए। लेकिन, ऐसे माता-पिता भी हैं जिनकी समाज में हैसियत और जगह है, या जो खास तौर पर धूर्त और चालबाज हैं, और जो अपने बच्चों को अपनी बातों और आचरण दोनों से प्रभावित करते हैं। इसके अलावा, जब भी उनके बच्चे दैनिक जीवन में उनकी बातों या कृत्यों में उनके विचार, सोच और दुनिया से निपटने के तरीके देखते या सुनते हैं, तो बच्चे यह सब सीखते हैं जिसका उन पर प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में जब तुम सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को सही ढंग से परख और पहचान नहीं पाते, तब तुम अनजाने ही अपने माता-पिता की बातों और कार्यों से प्रभावित होकर उनके विचारों और सोच को स्वीकार कर लेते हो, या ये विचार और सोच अनजाने ही तुम्हारे दिल की गहराई में पैठ कर, तुम्हारे कार्य करने के सबसे बुनियादी आधार और सिद्धांत बन जाते हैं। तुम्हारे माता-पिता शायद सीधे तुमसे न कहें कि “ज्यादा मित्र बनाओ, लोगों से अपने काम करवाना, और लोगों की खूबियों का लाभ उठाकर अपने आसपास के लोगों का फायदा उठाना सीखो।” फिर भी वे जिन विचारों और सोच का प्रचार करते हैं, अपने कर्मों में उन पर अमल करके वे तुम्हें इनसे संक्रमित और तुम्हें इसकी शिक्षा देते हैं। इस प्रकार तुम्हारे माता-पिता इस मामले में तुम्हारे प्रथम शिक्षक बन जाते हैं, वे तुम्हें इस बारे में दीक्षा देते हैं कि चीजों से कैसे निपटें, लोगों के साथ मिल-जुल कर कैसे रहें, समाज में मित्र कैसे बनाएँ, और तुम्हें इस बात की भी दीक्षा देते हैं कि मित्र बनाने के पीछे क्या प्रयोजन है, तुम्हें मित्र क्यों बनाने चाहिए, तुम्हें किस प्रकार के मित्र बनाने चाहिए, समाज में अपने पाँव कैसे जमाने चाहिए, वगैरह-वगैरह। इस तरह तुम्हारे माता-पिता अपने परामर्श पर अमल करके तुम्हें सिखा देते हैं। अनजाने ही जैसे-जैसे तुम बचपन से बड़े होते हो, वैसे-वैसे ये विचार और सोच धीरे-धीरे आकार लेते हैं, सरल चेतना से ठोस विचारों, सोच और कर्म में बदल जाते हैं, जिससे कि ये कदम-दर-कदम तुम्हारे दिल और आत्मा में गहरे पैठ जाते हैं और दुनिया से निपटने का तुम्हारा तरीका और फलसफा बन जाते हैं। दुनिया से निपटने के तरीके के रूप में, इस कहावत के बारे में तुम क्या सोचते हो, “जैसे कि बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ही एक योग्य मनुष्य को तीन दूसरे लोगों का सहारा चाहिए?” (यह बुरी है।) क्या इस दुनिया में सच्चा मित्र जैसा कुछ होता है? (नहीं।) तो फिर बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत क्यों है? तीन खूँटे लगाने का क्या तुक है? सिर्फ उसे ज्यादा स्थिर करने के लिए। यह दो खूँटों से स्थिर नहीं रहेगा, और एक खूँटा तो सँभाल ही नहीं पायेगा। तो यहाँ दुनिया से निपटने को लेकर कौन-सा सिद्धांत जुड़ा हुआ है? कोई योग्य मनुष्य भी, चाहे वह जितना भी सक्षम क्यों न हो, एक हाथ से ताली नहीं बजा सकता और आगे नहीं बढ़ सकता। अगर तुम्हें कुछ हासिल करना है, तो मदद के लिए तुम्हें लोगों की जरूरत होगी। और अगर तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारी मदद करें, तो तुम्हें योग्य आचरण करना और दुनिया से निपटना सीखना होगा, तुम्हें काम करवाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में मित्र बनाने होंगे, ताकत जुटानी होगी। छोटा-बड़ा, कुछ भी हासिल करने के लिए, चाहे वह करियर बनाना हो या समाज में पाँव जमाना, या और भी बड़ा कुछ हासिल करना हो, तो तुम्हारे आसपास ऐसे लोगों का होना जरूरी है, जिन पर तुम भरोसा करो या जिनके बारे में तुम्हारी राय ऊँची हो, और अपने प्रयासों में सफल होने के लिए तुम जिनका इस्तेमाल कर सको, वरना यह एक हाथ से ताली बजाने जैसा होगा। बेशक दुनिया में कुछ भी करना हो, तो ये नियम लागू होंगे, क्योंकि समाज में जरा भी निष्पक्षता नहीं है, सिर्फ षड्यंत्र और संघर्ष है। अगर तुम सही पथ पर चलो और न्यायोचित कार्य हाथ में लो, तो कोई भी स्वीकृति नहीं देगा, इस समाज में यह नहीं चलेगा। तुम चाहे जो भी प्रयास करो, तुम्हारी मदद और समाज में ताकत जुटाने के लिए लोग होने चाहिए। जहाँ भी जाओ, अगर वहाँ तुम्हारी बात मानने वाले और तुमसे डरने वाले लोग हों, तो समाज में तुम्हारे पाँव मजबूती से जमे होंगे, तुम्हारे लिए अपने प्रयास करना ज्यादा आसान होगा, और ऐसे लोग होंगे जो तुम्हें हरी झंडी दिखाएँगे। यह दुनिया से निपटने का एक रवैया और एक तरीका है। तुम चाहे जो करना चाहो, तुम्हारे माता-पिता तुमसे हमेशा कहेंगे, “जैसे कि बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ही एक योग्य मनुष्य को तीन दूसरे लोगों का सहारा चाहिए।” तो दुनिया से निपटने का यह सिद्धांत सही है या गलत? (गलत।) इसमें गलत क्या है? (कोई व्यक्ति चीजें हासिल कर सकता है या नहीं, यह उसकी सामर्थ्य या प्रतिभा पर नहीं, बल्कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं पर निर्भर होता है।) यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं पर निर्भर होता है, यह एक पहलू है। इसके अलावा, समाज में दूसरों की मदद लेने के पीछे लोगों का लक्ष्य क्या है? (खुद को बाकी सबसे ऊपर उठने योग्य बनाना।) सही है। तुम्हें सहारा देने के लिए ये तीन खूँटे रखने के पीछे लक्ष्य अपने लिए जगह बनाना और अपने पाँव जमाना है। उस तरह कोई भी तुम्हें नीचे नहीं गिरा पायेगा, और एक खूँटा हटा भी दिया जाए, तो बाकी दो तुम्हें सहारा देने के लिए लगे रहेंगे। जिन लोगों के पास थोड़ी सत्ता होती है, वे इस समाज में, कानून, लोगों की भावनाओं या लोकमत की चिंता किए बिना आसानी से चीजें कर सकते हैं। क्या लोगों का लक्ष्य यह नहीं है? (हाँ।) इस तरह तुम वैसे व्यक्ति बन सकते हो जो आदेश दे सकता है समाज में जिसकी चलती है, और कानून और लोकमत जिनके पाँव नहीं डिगा सकते या जिन्हें अस्थिर नहीं कर सकते। इस समाज या किसी भी सामाजिक समूह की प्रवृत्तियों के बारे में तुम्हारी बात अंतिम होगी। तुम्हीं वह अधिकारी होगे जिसके पास सबको आना होगा। तो फिर क्या तुम अपनी मनमानी नहीं कर सकोगे? तुम कानून, लोगों की भावनाओं, लोकमत, नैतिकता और जमीर की निंदा की सोचे बिना इन सबसे ऊपर उठ सकते हो। क्या यही वह लक्ष्य है जो लोग हासिल करना चाहते हैं? (हाँ।) यही वह लक्ष्य है जो लोग हासिल करना चाहते हैं। लोगों के कर्म का यही बुनियादी आधार है जो उन्हें अपनी महत्वाकांक्षाएँ और आकांक्षाएँ हासिल करने योग्य बनाता है। तुम देख सकते हो, समाज में कुछ लोग मुँहबोले भाई बन जाते हैं। उनमें से बड़ा भाई किसी निगम का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है, छोटा भाई किसी कारोबारी समूह का अध्यक्ष होता है, और कुछ दूसरे राजनेता या अपराधी डॉन होते हैं। कुछ लोगों के मित्र अस्पताल निदेशक, मुख्य सर्जन या मुख्य नर्स हैं, और कुछ लोगों के अपने ही व्यवसाय क्षेत्र में अच्छे मित्र हैं। क्या लोग सचमुच ये मित्र इसलिए बनाते हैं कि उनकी सोच और रुचि एक-जैसी है? या इसलिए कि वे सच में साथ मिलकर न्यायसंगत कार्य करना चाहते हैं? (नहीं।) तो फिर वे ऐसा क्यों करते हैं? इसलिए कि वे एक किस्म की ताकत जुटाना चाहते हैं, इस ताकत को फैलाना और बढ़ाना चाहते हैं, और आखिरकार समाज में पाँव जमा कर जीवित रहने, झुंड में सबसे ऊपर रहने, और आलीशान भोग-विलास वाले जीवन के मजे लेने के लिए इसका सहारा लेना चाहते हैं; कोई भी उन्हें धमकाने की हिम्मत नहीं करेगा, और उन्होंने अपराध किए भी हों तो कानून उन्हें सजा देने की हिम्मत नहीं करेगा। अगर वे अपराध भी करें, तो उनके साथी आगे आकर उनकी मदद करेंगे। एक मित्र उनकी ओर से बोलेगा, दूसरा अदालत में उनका मामला रफा-दफा करेगा और वरिष्ठ राजनेताओं से क्षमा की गुहार लगाएगा, ताकि वे चौबीस घंटे के भीतर पुलिस थाने से बाहर आ जाएँ। उनका अपराध चाहे जितना भी गंभीर क्यों हो, कोई नतीजा नहीं निकलेगा, उन्हें जुर्माना भी नहीं देना पड़ेगा। अंततः आम लोग कहेंगे : “बाप रे, वह आदमी तो बड़ा बाहुबली है। ऐसा गंभीर अपराध करने के बाद भी उसने खुद को इतनी जल्दी कैसे छुड़ा लिया? अगर हम उसकी जगह होते, तो खत्म हो गए होते, है न? हम जेल चले गए होते, सही है न? उसके मित्रों को देखो। हम उसके जैसे मित्र क्यों नहीं बना सकते? उस तरह के लोग हमारी पहुँच से दूर क्यों हैं?” लोग ईर्ष्यालु हो जाएँगे। ये सभी मामले सामाजिक अन्याय और समाज में निरंतर उभरने वाली बुरी प्रवृत्तियों के कारण होते हैं। इस समाज में लोग बिल्कुल सुरक्षित महसूस नहीं करते। वे हमेशा कुछ ताकतों के साथ अच्छे संबंध रखना चाहते हैं, और एक-दूसरे की ताकतों की तुलना करना चाहते हैं। खास तौर पर समाज के सबसे निचले वर्ग के लोग, जिनके पास भले ही आजीविका का कोई साधन हो, लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम होता कि कब किसी खतरे या मुश्किल से सामना होगा, तो वे किसी अनदेखी विपदा या दुर्घटना, खास तौर से कानून से जुड़ी किसी बात में फँसने से अत्यंत भयभीत रहते हैं, इसलिए वे पुलिस या अदालतों से कभी कुछ लेना-देना न चाहते हुए जिंदगी गुजारते हैं। चूँकि इस समाज में लोगों के मन में सुरक्षा की भावना नहीं है, इसलिए उन्हें निरंतर मित्र बनाने होते हैं, सहारे के लिए शक्तिशाली साथी ढूँढ़ने पड़ते हैं। देखो, जब छोटे बच्चे स्कूल में होते हैं, तो उन्हें खेलने-कूदने के लिए दो-तीन मित्र बनाने पड़ते हैं। वरना, अकेले रहने पर दूसरे बच्चे उन्हें हमेशा डराते-धमकाते हैं। वे बच्चे धमकाए जाने के बारे में शिक्षक को बताने की हिम्मत नहीं कर पाते, क्योंकि अगर वे ऐसा करेंगे, तो स्कूल से घर लौटते समय यकीनन उनकी पिटाई हो जाएगी। भले ही शिक्षक तुम्हारे साथ अच्छे हों, तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई ठीक चल रही हो, फिर भी अगर तुम्हें मित्र बनाना या बदमाश बच्चों से हाथ मिलाना न आता हो, तो उनसे उलटा रुख रखने पर मुसीबत में फँस जाओगे। और कभी-कभी उनसे उलटा रुख न भी रखो, तो भी वे तुम्हें अच्छा पढ़ता देख भटकाने की कोशिश करेंगे, और अगर तुमने उनकी बात न मानी, तो तुम्हारी पिटाई हो जाएगी या तुम्हें धमाका दिया जाएगा। अगर स्कूल का माहौल भी लोगों को असुरक्षित महसूस करवाता है, तो यह दुनिया सचमुच डरावनी है, तुम्हें नहीं लगता? इसलिए, इस संबंध में तुम पर तुम्हारे परिवार द्वारा दी गई शिक्षा का प्रभाव एक अर्थ में तुम्हारे माता-पिता द्वारा उदाहरण पेश करने से पैदा होता है और दूसरे अर्थ में, समाज को लेकर लोगों की असुरक्षाओं से। चूँकि इस समाज में कोई निष्पक्षता नहीं है, न ही कोई ताकत या लाभ है जो तुम्हारे मानव अधिकारों और हितों की रक्षा कर सके, इसलिए लोग अक्सर इस समाज के आतंक और भय से ग्रस्त रहते हैं। नतीजतन, वे इस विचार की सीख के प्रभावों को सहज ही स्वीकार कर लेते हैं कि “जैसे कि बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ही एक योग्य मनुष्य को तीन दूसरे लोगों का सहारा चाहिए।” चूँकि लोग जिस वास्तविक माहौल में रहते हैं, वहाँ ऐसे विचार और सोच उनके जीवित रहने के लिए जरूरी हैं, जिससे वे जीवन में एकांत और अकेलापन छोड़कर भरोसे और सुरक्षा की भावना वाले जीवन को अपनाने योग्य बन सकें। इसलिए, लोग इस दुनिया में किसी ताकत और मित्रों के सहारे को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं।

अभी हमारे द्वारा जिक्र की गई इस कहावत “जैसे बाड़ को तीन खूँटों के सहारे की जरूरत होती है, वैसे ही एक योग्य मनुष्य को तीन दूसरे लोगों का सहारा चाहिए” के अलावा लोगों के परिवार उन्हें जिन तरीकों से शिक्षित करते हैं, उनमें कुछ विशिष्ट तरीके हैं जिनसे लोगों के परिवार उन्हें सिखाते हैं। मिसाल के तौर पर, माता-पिता अपनी बेटियों को ऐसी बातें सिखाते हैं : “‘महिला उन लोगों के लिए सजेगी-सँवरेगी जो उसकी तारीफ करते हैं, जबकि एक सज्जन उसे समझने वालों के लिए अपनी जान न्योछावर कर देगा।’ साथ ही, ‘दुनिया में बदसूरत महिलाएँ हैं ही नहीं, सिर्फ आलसी महिलाएँ हैं।’ महिलाओं को खुद से प्रेम करना, सजना-धजना और सुंदर बनना सीखना चाहिए। इस तरह, तुम जहाँ भी जाओगी, लोग तुम्हें पसंद करेंगे, ज्यादा लोग तुम्हारे लिए काम करेंगे और तुम्हें हरी झंडी दिखाएँगे। अगर लोग तुम्हें पसंद करेंगे, तो स्वाभाविक रूप से वे तुम्हें तकलीफ नहीं देंगे, या तुम्हारे लिए मुश्किलें खड़ी नहीं करेंगे।” कुछ माता-पिता अपनी बेटियों को बताते हैं : “लड़कियों को बढ़िया कपड़े पहनना, साज-सिंगार करना सीखना चाहिए, और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण, उन्हें सौम्य होना सीखना चाहिए।” वे असल में यह कह रहे हैं कि तुम्हें दिखावा करना सीखना चाहिए। वे ऐसी बातें भी कहते हैं : “सशक्त महिला मत बनो। किसी महिला के लिए बहुत सशक्त और स्वतंत्र होने का क्या फायदा? ऐसी महिलाएँ कभी बन-ठनकर तैयार नहीं होतीं, बस पुरुषों की तरह जीती हैं, सारा दिन तेजी में यहाँ-वहाँ भागती हैं, और वे सौम्य भी नहीं होतीं। महिलाओं का जन्म पुरुषों द्वारा प्यार किए जाने के लिए हुआ है। उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने या कोई कौशल सीखने की जरूरत नहीं। उन्हें बस सजना-सँवरना, पुरुषों को रिझाना और महिलाओं के काम अच्छे से करना सीखना चाहिए। जिस महिला को पुरुष पसंद करें और प्यार करें, वह सारी जिंदगी खुश रहेगी।” कुछ महिलाएँ इस बारे में अपने माता-पिता द्वारा शिक्षा पाती हैं। एक तरफ वे महिला के रूप में अपनी माँओं का व्यवहार देखती हैं। दूसरी तरफ, अपने माता-पिता से शिक्षा पाकर, वे ऐसी महिलाओं में तब्दील हो जाती हैं जो निरंतर सज-सँवर और साज-सिंगार कर देखने में सचमुच आकर्षक लगती हैं। क्या ऐसे लोग होते हैं? (हाँ।) ऐसे पारिवारिक परिवेश में बड़ी होने वाली महिलाएँ अपने रूप-रंग, अपने वस्त्रों और अपनी स्त्रियोचित पहचान को बड़ी अहमियत देती हैं। वे कपड़े बदले बिना या साज-सिंगार किए बिना घर से बाहर नहीं निकलतीं। कुछ महिलाएँ, काम में जितनी भी व्यस्त क्यों न हों, घर से बाहर निकलने से पहले उनका बाल धोना, स्नान करना और सुगंधित द्रव्य छिड़कना बिल्कुल जरूरी है, वरना वे बाहर जाएँगी ही नहीं, और जब करने के लिए कुछ न हो, तो वे बस आईना देख-देख कर अपने बाल सँवारती रहती हैं। ये महिलाएँ हर दिन कितनी बार आईना देखती हैं, कौन जाने! ऐसे विचारों और सोच से उन्हें गहन शिक्षा दी जाती है, जैसे कि “महिला उन लोगों के लिए सजेगी-सँवरेगी जो उसकी तारीफ करते हैं, जबकि एक सज्जन उसे समझने वालों के लिए अपनी जान न्योछावर कर देगा,” इसलिए वे अपनी काया और अपने रंग-रूप पर बहुत ज्यादा ध्यान देती हैं। उनके रंग-रूप की रंगत जरा भी फीकी हो तो वे बाहर नहीं जातीं, चेहरे पर फुंसी भी हो तो वे लोगों को अपना चेहरा नहीं दिखातीं। अगर किसी दिन उनका साज-सिंगार करने का मन न हो, तो वे बाहर नहीं जातीं। या उन्होंने बाल कटवाए हों, मगर यह उतना बढ़िया न लग रहा हो, और वे देखने में आकर्षक न लग रही हों, तो वे काम पर नहीं जातीं, इस डर से कि कहीं लोग उनके बारे में बुरा न सोचें। ऐसी महिलाएँ सारा दिन इन्हीं चीजों की खातिर जीने में बिताती हैं। अगर उनके हाथ पर मच्छर काट ले, तो वे अपना हाथ छिपाकर रखती हैं, या पैर पर काटे, तो अपने पाँव ढँक कर रखती हैं क्योंकि वे स्कर्ट में सुंदर नहीं लगेंगी, और साथ ही वे बाहर भी नहीं जातीं, अपना कर्तव्य भी नहीं निभा पातीं। हर छोटी चीज उन्हें परेशान कर उनका रास्ता रोक सकती है, जिससे जीवन उनके लिए बहुत कठिन और थकाऊ बन जाता है। स्त्रियोचित प्रतिष्ठा बनाए रखने और बदसूरत महिला बनने से बचने के लिए वे अपने रंग-रूप, काया और बालों की देखभाल पर बड़ी मेहनत और प्रयास करती हैं, अपनी पुरानी आदतें और आलस त्याग देती हैं। वे काम में चाहे जितनी व्यस्त क्यों न हों, उनके लिए बारीकी से और शानदार ढंग से सजना-सँवरना अनिवार्य होता है। अगर उनकी भौंहें सधी हुई न हों, तो वे दोबारा साधती हैं। अगर लाली समान रूप से न लगी हो, तो दोबारा लगाती हैं। जब तक वे एक-दो घंटे साज-सिंगार में नहीं लगातीं, घर के दरवाजे से बाहर नहीं जातीं। कुछ महिलाएँ सुबह उठते ही, स्नान करने, सजाने-सँवरने और कपड़े बदलने का कार्यक्रम शुरू कर देती हैं। वे बार-बार सोचती और दिमाग लगाती हैं, अलग-अलग चीजें आजमाती हैं, इस तरह दोपहर हो जाती है लेकिन वे अब भी घर से बाहर नहीं निकल पातीं। इन निरर्थक चीजों में अपना सीमित समय और ऊर्जा लगा देना उनके लिए बहुत कठिन होता होगा। वे एक भी जरूरी काम कर ही नहीं पातीं, आँख खोलते ही वे बस सजने-सँवरने और खुद को सुंदर बनाने के बारे में सोचने लगती हैं। इनमें से कुछ महिलाएँ अपनी माँ के विचारों और सोच से प्रभावित होती हैं, जबकि दूसरी महिलाओं को उनकी माँ ने स्पष्ट रूप से बताया होता है कि उन्हें क्या करना चाहिए, और कुछ महिलाएँ अपनी माँ को देखकर सीखती हैं। संक्षेप में, ये तमाम तरीके हैं जिनसे परिवार लोगों को शिक्षित करते हैं।

कुछ परिवार यह विचार रखते हैं कि “बेटियों को अमीर बच्चों की तरह पाल-पोसकर बड़ा करना चाहिए, और बेटों को गरीब बच्चों की तरह।” क्या तुमने यह कहावत सुनी है? (हाँ, मैंने सुनी है।) इस कहावत का क्या अर्थ है? ये सब बच्चे हैं, फिर लड़कियों को अमीर बच्चों की तरह और लड़कों को गरीब बच्चों की तरह क्यों पालना-पोसना चाहिए? पारंपरिक संस्कृति पुरुषों को ज्यादा और महिलाओं को कम महत्त्व देती है, तो फिर यह कहावत लड़कों से ज्यादा मूल्य लड़कियों को देती हुई क्यों लगती है? अगर बेटी को अमीर बच्ची की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया जाए, तो वह कैसी बेटी बनेगी? वह कैसी चीज बनेगी? (बिगड़ी हुई, दंभी और रोब झाड़ने वाली।) ऐसी जो जिद्दी, नाजुक और कोई भी तकलीफ सहने में असमर्थ हो, देखभाल करने में अक्षम हो, तर्कहीन हो, नासमझ हो, और अच्छे-बुरे के बीच फर्क न कर पाए—ऐसा व्यक्ति क्या कर सकता है? क्या किसी को शिक्षित करने का यह सही तरीका है? (नहीं।) इस तरह पाल-पोसकर बड़ा करने से वे तबाह हो जाएँगी। अगर तुम अपनी बेटी को अमीर बच्ची की तरह पालोगे, तो वह ऐसे पारिवारिक परिवेश में बड़ी होगी, जो उसकी हर बुनियादी जरूरत पूरी करेगा, वह थोड़ी परिष्कृत होगी, मगर क्या वह आचरण के असली सिद्धांत समझ पाएगी? अगर वह न समझे, तो परवरिश का ऐसा नजरिया उसकी रक्षा करने के बजाय उसे आहत करता है, नुकसान पहुँचाता है। इस सिद्धांत के आधार पर अपनी बेटियों को पाल-पोसकर बड़ा करने के पीछे माता-पिता की अभिप्रेरणा क्या होती है? इस तरह पाली-पोसी गई बेटी परिष्कृत होगी, उसके लिए बढ़िया पोशाकें खरीदने वाले, जेब खर्च या मामूली उपहार और फायदे के प्रलोभन देने वाले पुरुषों के प्रति आसानी से आकर्षित नहीं होगी। इसलिए औसत पुरुष उसे नहीं लुभा पाएगा। उसका दिल जीतने, उसे आकर्षित करने और शादी के लिए उसका हाथ पाने के लिए उसे बहुत अमीर, पूर्ण सज्जन, अत्यंत परिष्कृत, अत्यधिक षड्यंत्रकारी और जोड़ने-घटाने वाला और बहुत ज्यादा चालाक होना होगा। तुम्हें अपनी बेटी का ब्याह किसी ऐसे व्यक्ति के साथ करना ठीक लगता है या बुरा? यह बिल्कुल ठीक नहीं है, है न? इसके अलावा, अगर तुम अपनी बेटी को एक अमीर बच्ची की तरह पाल-पोस कर बड़ा करोगे, तो मजे लेने, सजने-सँवरने और उम्दा खाना खाने के तरीके जानने के सिवाय क्या वह लोगों को जान पाएगी कि वे वास्तव में क्या हैं? क्या उसके पास जीवित रहने के कौशल होंगे? क्या वह दूसरे लोगों के साथ लंबे समय तक जी पाएगी? जरूरी नहीं है। हो सकता है कि उसे अपना जीवन भी व्यवस्थित रखने में मुश्किल हो, फिर ऐसी स्थिति में ऐसी महिलाएँ बेकार होती हैं। वे बिगड़ी हुई, अशिष्ट, और दबंग होंगी, जिद्दी, मुँहजोर, असंयमित और ढीठ होंगी, समझौता न करने वाली और हठी होंगी, उन्हें सिर्फ खाना-पीना और मौज करना आता है। इन सबके अलावा, उसके पास जीवन में आगे बढ़ने के लिए जरूरी बुनियादी व्यावहारिक बुद्धि भी नहीं होगी, जो सूक्ष्म रूप से भविष्य में उसके जीवित रहने और पारिवारिक जीवन के लिए मुश्किल खड़ी करेगा। अपनी बेटी को इस प्रकार शिक्षित करना उसके माता-पिता के लिए अच्छी बात नहीं है। उन्होंने उसे आचरण के सिद्धांत नहीं सिखाए, बल्कि सिर्फ जिंदगी के मजे लेना सिखाया। फिर अगर वह भविष्य में पर्याप्त धन न कमा पाए, तो क्या उसे मुश्किलें नहीं झेलनी पड़ेंगी? फिर क्या उसे जीवन चलाने में मुश्किल नहीं होगी? क्या वह इन्हें सह पाएगी? भविष्य में जब भी मुश्किलों से उसका सामना होगा तो क्या वह टूटने की कगार पर नहीं होगी? क्या उसमें इन तमाम मुश्किलों का सामना करने के लिए जरूरी दृढ़ता और धैर्य होगा? इस पर दाँव मत लगाओ। जो लोग भौतिक जीवन के बड़े मजे लेते हैं, आराम और विलासिता के जीवन के ज्यादा आदी होते हैं, जिन्होंने कभी बिल्कुल कष्ट नहीं सहे, उनकी मानवता के साथ सबसे बड़ी समस्या क्या है? वह यह है कि वे नाजुक होते हैं, उनमें मुश्किलें सहने की इच्छा नहीं होती, और ऐसे लोग तबाह हो जाते हैं। इसलिए बच्चे अपने परिवार से जो शिक्षा प्राप्त करते हैं, चाहे वह उनके माता-पिता के जरिये हो या सामाजिक प्रवृत्तियों के जरिये, अनिवार्य रूप से मनुष्यों के बीच से ही आती है। ये कहावतें एक विचार या दृष्टिकोण का आकार लें या न लें, लोगों के लिए जीवन या जीवित रहने का तरीका बनें या न बनें, इनके कारण लोग इन मसलों को एक अतिवादी, पूर्वाग्रहयुक्त और बेतुके परिप्रेक्ष्य से देखते हैं। संक्षेप में, परिवार की ये कहावतें, कमोबेश लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने के लोगों के तरीके को प्रभावित करती हैं। चूँकि ये चीजें तुम्हें प्रभावित करती हैं, इसलिए ये सत्य के तुम्हारे अनुसरण को भी प्रभावित करती हैं। इस वजह से, किसी के माता-पिता द्वारा बताई गई ये कहावतें, विचार और सोच, संभ्रांत और उत्कृष्ट हों, या काफी बुद्धिहीन और मूर्खतापूर्ण हों, सभी को उन्हें दोबारा जाँच लेना चाहिए, फिर से आकलन कर लेना चाहिए, और उनकी असलियत पहचानना सीखना चाहिए। अगर वे तुम पर कोई प्रभाव डालते हैं, तुम्हारे जीवन में और सत्य के तुम्हारे अनुसरण में कोई बाधा डालते हैं, तुम्हारे जीवन में गड़बड़ी कर देते हैं, या जब भी तुम लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते हो, तब तुम्हें सत्य को खोजने और स्वीकार करने से रोकते हैं, तो तुम्हें उनको जाने देना चाहिए।

समाज में भावनात्मक बुद्धि या ईक्यू और बौद्धिक स्तर या आईक्यू की संकल्पनाओं के बारे में दावे किए जा रहे हैं। इन दावों के अनुसार लोगों में ऊँचा आईक्यू नहीं बल्कि सिर्फ ऊँचा ईक्यू होना चाहिए। आईक्यू का किसी व्यक्ति की योग्यता से ज्यादा लेना-देना होता है, जबकि ईक्यू का उन गुरों से संबंध होता है जिनसे कोई व्यक्ति दुनिया से निपटता है। इन दो शब्दों की मेरी यही बुनियादी समझ है। हो सकता है तुम्हारा बौद्धिक स्तर बहुत ऊँचा हो, तुम वाकई पढ़ाकू हो, सचमुच ज्ञानी और बढ़िया वक्ता हो, जीवित रहने की तुम्हारी क्षमता बहुत मजबूत हो, लेकिन तुम्हारी भावनात्मक बुद्धि ज्यादा नहीं है, तो तुम्हारे पास दुनिया से निपटने के लिए कोई गुर नहीं हैं, और तुम भले ही थोड़ा जोड़-तोड़ कर लेते हो, लेकिन तुम्हारे साधन बहुत ज्यादा परिष्कृत नहीं हैं। ऐसी स्थितियों में, तुम्हारा ज्ञान, कौशल और किसी विशेष क्षेत्र में तुम्हारी प्रवीणता, तुम्हें समाज में बस गुजारा करने और बुनियादी आजीविका कमाने योग्य बनाते हैं। ऊँची भावनात्मक बुद्धि वाले लोग खास तौर पर चालाकी करने में अच्छे होते हैं। वे सनसनी पैदा कर चीजों में हेर-फेर करने और मामूली चीज को समाज या किसी समुदाय के लिए प्रभावशील रूप में पेश करने की खातिर बढ़ा-चढ़ाकर बताने के लिए समाज की विविध ताकतों, लाभकारी भौगोलिक परिवेशों या अनुकूल अवसरों का इस्तेमाल करते हैं, ताकि वे स्वयं मशहूर हो जाएँ, और आखिरकार भीड़ में अलग दिखते हुए शोहरत और हैसियत वाला व्यक्ति बन जाएँ। ऐसे व्यक्ति में ज्यादा भावनात्मक बुद्धि होती है और वे ज्यादा दाँव-पेंच जानते हैं। दाँव-पेंच जानने वाले लोग अनिवार्य रूप से धूर्त दानव राजा होते हैं। आजकल का समाज ऊँची भावनात्मक बुद्धि की वकालत करता है, और कुछ परिवार यह कह कर अपने बच्चों को अक्सर इस तरह शिक्षा देते हैं : “यह अच्छी बात है कि तुम्हारा आईक्यू ऊँचा है, मगर साथ ही तुम्हारी भावनात्मक बुद्धि भी ज्यादा होनी चाहिए। तुम्हें अपने सहपाठियों, सहकर्मियों, रिश्तेदारों और मित्रों के साथ बातचीत करते समय इसकी जरूरत पड़ेगी। यह समाज सबसे ज्यादा तुम्हारी शक्ति की नहीं, बल्कि दाँव-पेंच वाला बनने, खुद को बढ़िया ढंग से पेश करने, अपना प्रचार करने और समाज की विविध ताकतों और लाभकारी स्थितियों का फायदा उठाकर उनसे अपने लाभ के लिए काम लेने और अपनी सेवा करवाने का तरीका जानने की पैरवी करता है—चाहे तुम यह धन-दौलत कमाने का मौके का पाने के लिए करो, या प्रसिद्ध होने का मौका पाने के लिए। ऐसे तमाम लोग ऊँची भावनात्मक बुद्धि वाले होते हैं।” कुछ खास परिवार या समाज में प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित माता-पिता अक्सर यह कहकर अपने बच्चों को शिक्षित करते हैं : “भावनात्मक बुद्धि वाले पुरुष को स्त्री-पुरुष दोनों पसंद करते हैं, जबकि भावनात्मक बुद्धि रहित पुरुष को सभी नापसंद करते हैं। भावनात्मक बुद्धि वाली महिला को ढेरों स्त्री-पुरुष पसंद करेंगे, और बहुत सारे पुरुष उसके पीछे भागेंगे। लेकिन अगर किसी महिला के पास जरा भी भावनात्मक बुद्धि न हो, तो वह चाहे जितनी सुंदर हो, ज्यादा लोग उसके पीछे नहीं भागेंगे।” आज के समय में जीते हुए, अगर लोग अपने परिवारों के इन दावों को नहीं परख पाते, तो वे अनजाने ही इन विचारों और नजरियों से प्रभावित हो जाएँगे और अक्सर अपने बौद्धिक स्तर को मापेंगे और विशेष रूप से अक्सर कुछ मानकों से अपनी तुलना कर यह जाँचेंगे कि उनमें भावनात्मक बुद्धि है या नहीं और उनके ईक्यू का स्तर वास्तव में कितना ऊँचा है। तुम्हें इन चीजों का पुख्ता या स्पष्ट ज्ञान हो न हो, यह कहना काफी है कि इस बारे में तुम्हारे परिवार द्वारा दी शिक्षा के प्रभाव पहले ही तुम्हें प्रभावित करने लगे होंगे। हो सकता है वे महसूस न किए जा सकें, तुम्हारे विचारों में उनका कोई प्रमुख स्थान भी न हो। लेकिन जब तुम ये बातें सुनते हो, और उन्हें नहीं पहचानते, तो पहले ही कुछ हद तक तुम इनसे सीखने लगे हो।

परिवार की शिक्षा के कुछ और भी प्रभाव हैं। मिसाल के तौर पर, माता-पिता अपने बच्चों को अक्सर बताते हैं, “जब भी तुम लोगों के बीच होते हो, तो नहीं जानते कि दिमाग जगह पर कैसे रखें और तुम हमेशा बेवकूफ और बेखबर रहते हो। जैसी कि कहावत है, ‘किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो।’ तो जब भी लोग तुमसे बात कर रहे हों, तुम्हें उनकी बातों को सुनना सीखना चाहिए, वरना तुम धोखा खा जाओगे और लाभ की कीमत चुकाओगे!” क्या कुछ माता-पिता अक्सर ऐसा कहते हैं? वे दरअसल क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं? ईमानदार इंसान मत बनो, खुदगर्ज बनो। यानी दूसरा व्यक्ति जो कह रहा है उसके अंदर की बात समझो, उनकी बातों में छिपे हुए अर्थ को समझो, अंदाजा लगाने की कोशिश करो कि दूसरे की बात का असल में तात्पर्य क्या है, और फिर इस अनकहे अर्थ के आधार पर तदनुरूप कदम उठाओ या दाँव-पेंच लड़ाओ। निष्क्रिय मत रहो, वरना तुम धोखा खा जाओगे और लाभ की कीमत चुकाओगे। तुम्हारे माता-पिता के परिप्रेक्ष्य से, उनकी बातें नेकनीयत हैं, तुम्हें मूर्खतापूर्ण काम करने या इस दुष्ट समुदाय में दूसरों द्वारा विश्वासघात से बचाने के लिए हैं, तुम्हें धोखा खाने या कोई बेवकूफी करने से बचाने के लिए हैं। लेकिन क्या यह कहावत सत्य के अनुरूप है? (नहीं, यह नहीं है।) नहीं यह सत्य के अनुरूप नहीं है। कभी-कभी लोग दूसरों की बातों में छिपे हुए अर्थ को सुन पाते हैं। ध्यान न देने पर भी तुम छिपे हुए अर्थ सुन सकते हो। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें बताई गई इस कहावत के अनुसार—“किसी के घंटी बजाने पर उसका स्वर सुनो; और कोई बोले तो उसकी वाणी सुनो”—तुम्हें हमेशा दूसरों के प्रति सावधान और उनसे सतर्क रहना चाहिए, और उनके प्रति सावधानी बरतने के साथ-साथ वे तुम्हें हानि पहुँचाएँ या तुम्हें अपनी चाल में फँसाएँ, इससे पहले ही तुम्हें रक्षात्मक कदम उठा लेने चाहिए। और भी ज्यादा अहम यह है कि खुद को निष्क्रिय स्थिति में या दुविधा में न रखकर तुम्हें पहले हमला करना चाहिए। यह कहावत बता कर क्या तुम्हारे माता-पिता यही अंतिम लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं? (हाँ।) उनका लक्ष्य है कि जब भी तुम दूसरों से बातचीत करो, तो चाहे वे तुम्हें नुकसान पहुँचाएँ या नहीं, तुम्हें निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए। तुम्हें खुद पहल कर छुरे का हत्था पकड़ लेना चाहिए, ताकि जब भी कोई तुम्हें हानि पहुँचाना चाहे, तो न सिर्फ तुम अपनी रक्षा कर सको, बल्कि तुम पहल करके उन पर हमला कर उन्हें नुकसान पहुँचा दो, उनसे ज्यादा दुर्जेय और निर्मम बन जाओ। तुम्हारे माता-पिता की बातों का दरअसल यही लक्ष्य और मूल अर्थ है। इस प्रकार विश्लेषण करने से यह स्पष्ट है कि यह कहावत सत्य के अनुरूप नहीं है, और पूरी तरह से परमेश्वर के उस वचन से असंगत है जो उसने लोगों को बताया था, “इसलिए तुम सब साँपों के समान बुद्धिमान और कबूतरों के समान भोले बनो।” परमेश्वर लोगों को जो सिद्धांत और बुद्धिमान तरीके बताता है वे दूसरों के कपटी षड्यंत्रों को पहचानने में उनकी मदद करने के लिए हैं, दुष्ट लोगों से जुड़ने और प्रलोभनों में फँसने से खुद को बचाने के लिए हैं, बुराई से निपटने के लिए बुरे साधनों का इस्तेमाल करने से बचने के लिए हैं, और इसके बजाय किसी भी दुष्कार्य और दुष्ट व्यक्ति से निपटने के लिए सत्य सिद्धांतों का प्रयोग करने के लिए हैं। जबकि माता-पिता अपने बच्चों को जो तरीका बताते हैं—“किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो”—वह है बुराई के बदले बुराई करना। तो अगर दूसरा व्यक्ति बुरा हो, तो तुम्हें उससे भी ज्यादा बुरा बन जाना चाहिए। अगर उनकी बातों में कोई अर्थ छिपा है, तो तुम उनसे बेहतर हो, उसे पहचान सकते हो, और साथ ही इस छिपे हुए अर्थ के आधार पर तुम उनसे निपटने के लिए कदम उठा सकते और दांव-पेंच लड़ाकर उन पर जवाबी हमला कर सकते हो, उन्हें हरा सकते हो, डरा सकते हो, अपने प्रति समर्पण करवा सकते हो, और उन्हें जानने दे सकते हो कि तुम्हें धमकाया या तुम्हारे साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता है। बुराई का जवाब बुराई से देने का यही अर्थ है। जाहिर है कि तुम्हें बताया गया अभ्यास का रास्ता और मानदंड और इस कहावत से मिलने वाले नतीजे तुमसे बुराई करवाएँगे और तुम्हें सच्चे मार्ग से डिगाएँगे। जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हें ऐसा बर्ताव करने को कहते हैं, तो वे तुम्हें सत्यवान या सत्यपालक व्यक्ति बनने को नहीं कहते, न ही वे तुम्हें एक सच्चा सृजित प्राणी बनने को कहते हैं। वे तुम्हें सामने के दुष्ट व्यक्ति के तरीकों से भी ज्यादा बुरे तरीकों का इस्तेमाल कर जवाबी हमले से बुराई को जीतने को कहते हैं। तुम्हारे माता-पिता की बात का यही अर्थ है। क्या कोई माता-पिता ऐसे हैं, जो यह कहते हैं? “अगर कोई दुष्ट व्यक्ति तुम पर हमला करे, तो संयम रखो। तुम्हें उसकी अनदेखी करनी चाहिए, जानना चाहिए कि वह वास्तव में क्या है। पहले, उसके भीतर के दुष्ट व्यक्ति के सार को पहचानो, और उसकी असलियत जानो। दूसरे, खुद के अंदर के दुष्कर्मों और भ्रष्ट स्वभावों को पहचानो जो उस व्यक्ति जैसे या उसके समान हैं, और फिर उन्हें दूर करने के लिए सत्य खोजो।” क्या कोई माता-पिता अपने बच्चों को यह बताते हैं? (नहीं।) जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हें बताएँ, “किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो। तुम्हें सावधान रहना चाहिए, वरना दूसरों से धोखा खाओगे और लाभ की कीमत चुकाओगे, और तुम्हें पहले हमला करना सीखना चाहिए,” तो यह कहने के पीछे तुम्हारे माता-पिता का मूल इरादा चाहे कुछ भी हो, या इससे जो भी अंतिम प्रभाव मिले, यह तुम्हें और ज्यादा भयानक, ज्यादा सामर्थ्यवान, ज्यादा अशिष्ट, ज्यादा दबंग और ज्यादा दुष्ट बना देता है, ताकि दुष्ट लोग तुमसे डरें और जब भी तुम्हें देखें तुमसे दूर रहें, और तुमसे उलझने की हिम्मत न करें। क्या बात ऐसी नहीं है? (बिल्कुल है।) तो क्या यह कहा जा सकता है कि तुम्हें यह कहावत बताने के पीछे तुम्हारे माता-पिता का लक्ष्य तुम्हें धार्मिकता की भावना वाला, सत्यवान, और एक बुद्धिमान व्यक्ति बनाना नहीं है जो “साँपों के समान बुद्धिमान और कबूतरों के समान भोला हो”? उनका लक्ष्य यह बताना है कि तुम्हें समाज में सामर्थ्यवान व्यक्ति बनना है, दूसरों से भी ज्यादा बुरा बनना है, और ऐसा व्यक्ति बनना है जो अपनी रक्षा के लिए बुराई का इस्तेमाल करता है, सही है न? (हाँ।) जब तुम्हारे माता-पिता यह बताते हैं, “किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो,” तो चाहे यह उनका मूल इरादा हो, उससे मिलने वाला अंतिम नतीजा हो, चाहे तुम्हारे माता-पिता तुम्हें ऐसे काम अमल में लाने के सिद्धांत और तरीके बताएँ, या इसके बजाय इन चीजों पर तुम्हें अपने विचार और नजरिये बताएँ, जाहिर है कि इनमें से कुछ भी सत्य के अनुरूप नहीं है, और यह परमेश्वर के वचनों के विपरीत है। तुम्हारे माता-पिता तुम्हें एक दुष्ट व्यक्ति बना देते हैं, एक सच्चा या बुद्धिमान इंसान नहीं, जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता है। जाहिर है, तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें दी गई सीख और शिक्षण सकारात्मक नहीं हैं, न ही वह सही रास्ता है। हालाँकि तुम्हारे माता-पिता का आशय तुम्हारी रक्षा करना था, और वे बहुत नेकनीयत थे, लेकिन जो प्रभाव उनसे हासिल हुए वे घातक हैं। न सिर्फ वे तुम्हारी रक्षा करने में विफल रहे, बल्कि उन्होंने तुम्हें गलत रास्ता दिखाया, जिससे तुम बुराई करने वाले दुष्ट व्यक्ति बन गए। वे न सिर्फ तुम्हारी रक्षा करने में विफल रहे, बल्कि उन्होंने तुम्हें प्रलोभन और अधार्मिकता में गिराकर और परमेश्वर की देखभाल और रक्षा से भटकाकर वास्तव में हानि पहुँचाई। इस दृष्टिकोण से, यह अधिक संभव है कि तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के प्रभाव तुम्हें स्वार्थी और पाखंडी बना दें, शोहरत, फायदे और सामाजिक हैसियत के लिए लालची बना दें और बुरी प्रवृत्तियों में और ज्यादा लिप्त कर दें, और तुम्हें दूसरों से बातचीत करने और दूसरों के बीच कपटी, दुष्ट, अभिमानी और दबंग बनाने के लिए और ज्यादा परिष्कृत छल-कपट के तरीके दे दें, ताकि कोई भी तुमसे गड़बड़ करने या तुम्हें छूने की हिम्मत भी न करे। तुम्हारे माता-पिता के नजरिये से उन्होंने तुम्हें शिक्षा देने के लिए ये तरीके इस्तेमाल किए हैं, ताकि तुम समाज में सुरक्षित रहो, या एक हद तक एक प्रतिष्ठित व्यक्ति बन जाओ। लेकिन सत्य के परिप्रेक्ष्य से वे तुम्हें एक सच्चा सृजित प्राणी नहीं बनने देते। वे तुम्हें परमेश्वर की शिक्षाओं और उन तरीकों से भटकाते हैं, जिनसे वह तुम्हें सही आचरण करने के लिए डाँटता है, और वे तुम्हें उस लक्ष्य से भी और बहुत दूर भटका देते हैं जिसका अनुसरण करने की बात परमेश्वर तुमसे कहता है। तुम्हें सिखाने और शिक्षित करने के पीछे तुम्हारे माता-पिता का मूल इरादा चाहे जो हो, आखिरकार जो विचार उन्होंने तुम्हारे सिखा दिए हैं, उनसे तुम्हें सिर्फ शोहरत, लाभ और खालीपन ही मिले हैं, और साथ ही वे तमाम दुष्कर्म मिले हैं जो तुमने जिये हैं और प्रदर्शित किए हैं, और उन्होंने तुम्हारे आगे समाज में अपनी शिक्षा के इन प्रभावों की व्यावहारिकता की भी और अधिक पुष्टि की है, इसके अलावा कुछ नहीं।

अगर तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई इन कहावतों को देखें—जैसे कि “जब कोई घंटी बजाए तो उसका स्वर सुनो; जब कोई बोले तो उसकी वाणी सुनो”—अगर सिर्फ इन कहावतों पर ही विचार किया जाए, तो ये तुम्हें कुछ खास नहीं लगेंगी। तुम्हें लगेगा कि ये कहावतें बहुत आम और प्रचलित हैं, और ऐसी कहावतों, विचारों और नजरियों के साथ कोई बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन अगर तुम सत्य से उनकी तुलना करो, और उनका विस्तार से विश्लेषण करने के लिए सत्य का प्रयोग करो, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इन कहावतों के साथ सचमुच बड़ी समस्याएँ हैं। मिसाल के तौर पर, अगर तुम्हारे माता-पिता तुम्हें हमेशा बताएँ “जब कोई घंटी बजाए तो उसका स्वर सुनो; जब कोई बोले तो उसकी वाणी सुनो,” और तुम कुशलता से जीने के इस तरीके को काम में लाओ, तो जब भी तुम लोगों से मिलोगे, निरंतर अवचेतन मन से अनजाने ही ऐसी चीजों के बारे में अटकलें लगाओगे जैसे “उसके कहने का क्या अर्थ है? उसने ऐसा क्यों कहा?” और तुम निरंतर दूसरों की बातें सुनोगे, और ऐसी आदतन सोच के साथ उनसे बातचीत कर उनके विचारों के बारे में स्वाभाविक रूप से अटकल लगाओगे, यानी तुम इस पर चिंतन नहीं करोगे कि सत्य क्या है, या दूसरों से मिल-जुलकर कैसे रहें, या दूसरों से मेलजोल के क्या सिद्धांत हैं, या दूसरों से बात करने के क्या सिद्धांत हैं, या तुमने लोगों की बातों के जो आशय समझे हैं, उससे कैसे पेश आएँ, या परमेश्वर द्वारा सिखाया हुआ मार्ग कौन-सा है, या ऐसे लोगों को कैसे पहचाना जाए, या उनसे कैसे निपटा जाए, या अमल के दूसरे ऐसे सिद्धांत कौन-से हैं जो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें कभी नहीं बताए। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बताया कि दूसरों के विचारों का अनुमान कैसे लगाएँ, और तुमने इस पर बहुत अच्छी तरह अमल किया; तुम पहले ही ऐसे मुकाम पर पहुँच गए हो जहाँ तुमने इसमें कुशलता पा ली है, और अब तुम यह किए बिना नहीं रह सकते। इसलिए, इन मसलों के लिए जरूरी है कि लोग नियमित रूप से व्यवस्थित हों, सावधानी से सोचें और चीजों को समझने का प्रयास करें। एक अर्थ में, तुम्हें इन मसलों का विश्लेषण कर उन्हें स्पष्ट रूप से जानना चाहिए। एक अन्य अर्थ में, जब भी ये चीजें हों, तुम्हें अपना सोचने का तरीका और लोगों और चीजों को देखने का तरीका बदलने की कोशिश करनी चाहिए। यानी तुम्हें ऐसे मामलों से निपटने के बारे में अपने विचारों और नजरिये को बदलना चाहिए। अगली बार जब तुम किसी को बोलते हुए सुनो, और यह अटकल लगाने की कोशिश करो कि वे असल में क्या कहना चाहते हैं, तो ऐसी सोच और लोगों से निपटने के ऐसे तरीके को जाने दो, और गहराई से सोचो : “ऐसा कहने का उसका क्या अर्थ है? वह सीधी बात नहीं करता और हमेशा घुमा-फिरा कर बोलता है। यह व्यक्ति कपटी है। वह भला किस चीज के बारे में बोल रहा था? इस चीज का सार क्या है? क्या मैं इसे स्पष्ट समझ सकता हूँ? अगर मैं इसे स्पष्ट समझ सकूँ, तो मैं सत्य से सुसंगत दलीलों और नजरियों का इस्तेमाल कर उसके साथ संगति करूँगा, मामला स्पष्ट रूप से समझाऊँगा, और उसे इस पहलू का सत्य समझाऊंगा। मैं उसकी मदद कर उसके गलत विचारों और सोच को ठीक कर दूँगा। इसके अलावा, वह कपटपूर्ण ढंग से बोलता है। मुझे नहीं जानना कि उसकी बात का अर्थ क्या है, या वह यूँ घुमा-फिरा कर क्यों बोलता है। मैं अटकल लगाने की कोशिश में मेहनत और ऊर्जा नहीं खपाना चाहता कि वह दरअसल क्या कहना चाहता है। मैं वह कीमत नहीं चुकाना चाहता, और इस बारे में कुछ भी नहीं करना चाहता। मुझे बस यह पहचानने की जरूरत है कि वह कपटी है। हालाँकि वह कपटी है, मैं उसके साथ छल नहीं करूँगा। वह जितना भी घुमा-फिरा कर बोले, मैं उसके साथ सीधी तरह से पेश आऊँगा, जो कहना चाहिए वही कहूँगा, और जैसा है वैसा ही कहूँगा। जैसा कि प्रभु यीशु ने कहा था, ‘परन्तु तुम्हारी बात “हाँ” की “हाँ,” या “नहीं” की “नहीं” हो’ (मत्ती 5:37)। कपट को ईमानदारी से संबोधित करना सत्य पर अमल का सबसे ऊँचा मानदंड है।” अगर तुम इस तरह अमल करोगे, तो तुम उन तरीकों को जाने दोगे जिनकी शिक्षा तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें दी है, और अमल करने के तुम्हारे सिद्धांत भी बदल जाएँगे। फिर तुम ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो सत्य का अनुसरण करता है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम अपने माता-पिता की शिक्षा के कौन-से पहलू को जाने देते दो, जब भी कुछ संबंधित चीजें दोबारा होंगी, तुम परमेश्वर के वचनों को आधार और सत्य को मानदंड बनाकर उनके बारे में अपने गलत विचारों और सोच को बदल दोगे, और उन्हें उन विचारों और सोच में तब्दील कर दोगे जो पूरी तरह सही और सकारात्मक हैं। यानी अगर तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य को अभ्यास का आधार और मानदंड बनाकर इस मामले को परखते, देखते और संभालते हो, तो तुम सत्य पर अमल कर रहे हो। इसके विपरीत अगर तुम अब भी अपने माता-पिता के सिखाए तरीके को—या तुम्हारे भीतर पिरोये विचारों और सोच को—इस मामले को संभालने के मानदंड, आधार और अभ्यास सिद्धांतों के रूप में अपनाते हो, तो अमल का यह तरीका सत्य पर अमल करना नहीं है, न ही यह सत्य का अनुसरण करना है। अंत में, सत्य का अनुसरण करके लोग जो हासिल करते हैं वह सत्य की समझ और अनुभव है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम सत्य को न तो समझोगे, न ही इसका अनुभव हासिल करोगे। तुम जो हासिल करोगे वह तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें सिखाई गई इस कहावत को अमल में लाने की समझ और अनुभव होगा। इसलिए, जब दूसरे परमेश्वर के वचनों के उनके अनुभव और समझ पर बात करते हैं, तब तुम कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं रहते, क्योंकि तुम्हारे पास कहने को कुछ है ही नहीं। तुम्हारे पास बस तुम्हारे परिवार द्वारा सिखाए गए विचारों और सोच की व्यावहारिक समझ और अनुभव ही है। बात बस इतनी है कि तुम उनके बारे में कुछ कह ही नहीं पाते, और तुम्हारे पास उन्हें साझा करने का कोई तरीका नहीं है। इसलिए, तुम जिस भी चीज पर अमल करते हो, आखिरकार तुम उसे ही समझोगे। अगर तुम सत्य पर अमल करते हो, तो तुम जो हासिल करोगे वह परमेश्वर के वचनों और सत्य की समझ और अनुभव होगा। अगर तुम अपने माता-पिता द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा और निर्देशों पर अमल करते हो, तो तुम अपने परिवार की शिक्षा और पारंपरिक शिक्षा को ही समझोगे और इसी का अनुभव करोगे, और तुम जो हासिल करोगे वह सिर्फ शैतान द्वारा तुम्हारे मन में बैठाए गए विचार होंगे और शैतान द्वारा तुम्हें दी गई भ्रष्टता होगी। तुम जितनी गहराई से इन चीजों को समझोगे, जितना ज्यादा महसूस करोगे कि शैतान के भ्रष्ट विचार और सोच उपयोगी और व्यावहारिक हैं, उतनी ही गहराई से शैतान तुम्हें भ्रष्ट करेगा। अगर तुम सत्य पर अमल करोगे तो क्या होगा? तुम्हें सत्य और परमेश्वर द्वारा तुम्हें बताए गए वचनों और सिद्धांतों की और अधिक समझ और अनुभव प्राप्त होगा, और तुम्हें लगेगा कि सत्य सबसे अनमोल चीज है, और परमेश्वर ही मानव जीवन का स्रोत है, और परमेश्वर के वचन लोगों का जीवन हैं।

तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करने और खाना, कपड़े और शिक्षा मुहैया करने के अलावा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें क्या दिया है? उसने तुम्हें बस मुश्किलें दी हैं, सही है न? (हाँ।) अगर तुम ऐसे परिवार में पैदा नहीं हुए होते, तो तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के तमाम प्रभावों का शायद अस्तित्व ही न होता। तुम्हारा परिवार तुम्हें न भी सिखाता, मगर समाज की शिक्षा का प्रभाव जरूर होता—तुम उनसे बच नहीं सकते। तुम उसे चाहे जिस नजरिये से देखो, शिक्षा के ये प्रभाव तुम्हारे परिवार से आएँ या समाज से, ये विचार और सोच मूल रूप से शैतान से उपजते हैं। बस इतना ही है कि प्रत्येक परिवार समाज की इन विविध कहावतों पर अलग-अलग हद तक विश्वास कर स्वीकार करता है और अलग-अलग बिंदुओं पर जोर देता है। वह फिर अपने परिवार की अगली पीढ़ी को शिक्षित करने और सिखाने-पढ़ाने के लिए तदनुरूप तरीकों का प्रयोग करता है। अपने परिवार के आधार पर हर व्यक्ति हर तरह का शिक्षण अलग-अलग स्तर तक प्राप्त करता है। लेकिन दरअसल, ये शिक्षा के ये प्रभाव समाज और शैतान से उपजते हैं। बात बस इतनी है कि शिक्षा के ये प्रभाव, माता-पिता की ज्यादा ठोस बातों और कार्यों के जरिये लोगों के दिमाग में गहरे पैठाए जाते हैं, यह लोगों को अधीन बनाने वाले सीधे तरीकों से किया जाता है, ताकि लोग इस शिक्षा को स्वीकार कर लें और यह दुनिया से निपटने का उनका सिद्धांत और तरीका बन जाए, और यह वह आधार भी बन जाए जिससे वे लोगों और मामलों को देखें और अपना आचरण और कार्य करें। मिसाल के तौर पर, जिस विचार और सोच की हमने अभी बात की “जब कोई घंटी बजाए तो उसका स्वर सुनो; जब कोई बोले तो उसकी वाणी सुनो”—वह भी तुम्हारे परिवार से मिलने वाली शिक्षा का प्रभाव है। लोगों पर उनके परिवार शिक्षा द्वारा चाहे जैसा भी प्रभाव डालें, वे उसे परिवार के सदस्यों के परिप्रेक्ष्य से देखते हैं, और इसलिए उसे सकारात्मक और अपने ताबीज के रूप में स्वीकार करते हैं, जिसका वे अपनी रक्षा के लिए इस्तेमाल करते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि लोग सोचते हैं कि उनके माता-पिता से आई हर चीज उनके माता-पिता के अभ्यास और अनुभव का परिणाम है। दुनिया के सभी लोगों में से सिर्फ उनके माता-पिता ही उन्हें कभी हानि नहीं पहुँचाएँगे, और उनके माता-पिता ही चाहते हैं कि वे बेहतर जीवन जिएँ और बस माता-पिता ही उनकी रक्षा करना चाहते हैं। इसलिए लोग अपने माता-पिता से आए विचारों और सोच को समझे बिना ही स्वीकार लेते हैं। इस प्रकार वे स्वाभाविक रूप से इन विविध विचारों और सोच द्वारा सिखाई बातों को स्वीकार कर लेते हैं। एक बार जब वे इन विचारों और सोच से शिक्षित हो जाते हैं, तो कभी उन पर शक नहीं करते या उनकी असलियत नहीं पहचानते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को अक्सर ऐसी बातें कहते हुए सुनते हैं। मिसाल के तौर पर, “माता-पिता हमेशा सही होते हैं।” तो इस कहावत का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि चाहे तुम्हारे माता-पिता सही हों या गलत, मूल रूप से चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया है, पाल-पोस कर बड़ा किया है, इसलिए जहाँ तक तुम्हारा सवाल है, तुम्हारे माता-पिता द्वारा किया सब कुछ सही है। तुम फैसला नहीं कर सकते कि वे सही हैं या गलत, न ही तुम उन्हें ठुकरा सकते हो, उनका प्रतिरोध करना तो दूर की बात है। इसे संतानोचित धर्मपरायणता कहते हैं। भले ही तुम्हारे माता-पिता ने गलत किया हो, और भले ही उनके कुछ विचार और सोच पुराने या गलत हों, या जिस तरह से या जिन विचारों और सोच से वे तुम्हें शिक्षित करें, वे सही और सकारात्मक न हों, तो भी तुम्हें उन पर शक नहीं करना चाहिए या उन्हें ठुकराना नहीं चाहिए, क्योंकि उस बारे में एक कहावत है—“माता-पिता हमेशा सही होते हैं।” माता-पिता के मामले में, तुम्हें कभी यह जानना या आकलन करना नहीं चाहिए कि वे सही हैं या गलत, क्योंकि जहाँ तक बच्चों का सवाल है, उनका जीवन और उन्हें प्राप्त हर चीज उनके माता-पिता से आई है। तुम्हारे माता-पिता से ऊपर कोई नहीं, तो अगर तुममें जमीर है, तो तुम्हें उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। तुम्हारे माता-पिता चाहे जितने भी गलत या अपूर्ण क्यों न हों, फिर भी वे तुम्हारे माता-पिता हैं। वही लोग तुम्हारे सबसे करीब हैं, जिन्होंने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा किया, जो तुमसे सबसे अच्छे ढंग से पेश आते हैं, और जिन्होंने तुम्हें जीवन दिया है। क्या सभी लोग इस कहावत को नहीं स्वीकारते? और चूँकि यह मानसिकता मौजूद है, ठीक इसीलिए तुम्हारे माता-पिता को लगता है कि वे तुमसे अनैतिक ढंग से पेश आ सकते हैं, तुम्हें तमाम चीजें करने की ओर मोड़ने के लिए विविध तरीके इस्तेमाल कर सकते हैं, और तुम्हारे मन में विविध विचार भर सकते हैं। अपने नजरिये से उन्हें लगता है, “मेरी मंशाएँ सही हैं, यह तुम्हारी भलाई के लिए है। तुम्हारे पास जो भी है वह मेरा दिया हुआ है। तुम्हें मैंने ही जन्म देकर, पाल-पोस कर बड़ा किया है, इसलिए तुमसे चाहे जैसे पेश आऊँ, मैं गलत नहीं हो सकता, क्योंकि मैं सब-कुछ तुम्हारी भलाई के लिए करता हूँ, और मैं तुम्हें आहत नहीं करूँगा, नुकसान नहीं पहुँचाऊँगा।” बच्चों के परिप्रेक्ष्य से, क्या अपने माता-पिता के प्रति उनका रवैया इस कहावत पर आधारित होना चाहिए, “माता-पिता हमेशा सही होते हैं”? (नहीं, यह गलत है।) यकीनन यह गलत है। तो तुम्हें इस कहावत को किस तरह समझना चाहिए? हम कितने पहलुओं से इस कहावत के गलत होने का विश्लेषण कर सकते हैं? अगर हम इस पर बच्चों के परिप्रेक्ष्य से गौर करें, तो उनका जीवन और शरीर उनके माता-पिता से आते हैं, जिनमें उन्हें पाल-पोस कर बड़ा करने और शिक्षित करने की दयालुता भी है, इसलिए बच्चों को उनकी हर बात माननी चाहिए, अपना संतानोचित दायित्व निभाना चाहिए, और अपने माता-पिता की खामियाँ नहीं देखनी चाहिए। इन बातों का छिपा हुआ अर्थ यह है कि तुम्हें यह नहीं जानना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता असल में क्या हैं। अगर हम इस परिप्रेक्ष्य से इसका विश्लेषण करें, तो क्या यह नजरिया सही है? (नहीं यह गलत है।) हम सत्य के अनुसार इस मामले से कैसे पेश आएँ? इसे पेश करने का सही तरीका क्या है? क्या बच्चों का जीवन और उनके शरीर उन्हें माता-पिता द्वारा दिए गए हैं? (नहीं।) किसी व्यक्ति का दैहिक शरीर उसके माता-पिता से पैदा होता है, लेकिन माता-पिता को बच्चे जनने की क्षमता कहाँ से मिलती है? (यह परमेश्वर द्वारा दी जाती है, परमेश्वर से आती है।) व्यक्ति की आत्मा का क्या? यह कहाँ से आती है? यह भी परमेश्वर से आती है। तो मूल में, लोगों को परमेश्वर ने रचा है, और ये सब उसके द्वारा पूर्व-निर्धारित किए गए हैं। परमेश्वर ने ही तुम्हारा इस परिवार में जन्म लेना पूर्व-निर्धारित किया। परमेश्वर ने इस परिवार में एक आत्मा भेजी, फिर तुम इस परिवार में जन्मे, तुम्हारे माता-पिता के साथ तुम्हारा रिश्ता पूर्व-नियत है—यह परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित था। परमेश्वर की संप्रभुता और उसके पूर्व-निर्धारण के कारण, तुम्हारे माता-पिता तुम्हें पा सके, और तुम इस परिवार में जन्म ले सके। यह जड़ से बात पर गौर करना है। लेकिन अगर परमेश्वर ने चीजें इस तरह पूर्व-निर्धारित न की होतीं, तो? तो फिर तुम्हारे माता-पिता तुम्हें नहीं पाते, और तुम्हारा उनके साथ माता-पिता और संतान का रिश्ता नहीं रहा होता। कोई रक्त संबंध, कोई पारिवारिक वात्सल्य, कोई भी नाता नहीं रहा होता। इसलिए, यह कहना गलत है कि किसी व्यक्ति का जीवन उसे उसके माता-पिता देते हैं। एक और पहलू यह है कि बच्चे के परिप्रेक्ष्य से देखने पर, उसके माता-पिता उससे एक पीढ़ी बड़े हैं। लेकिन जहाँ तक सभी इंसानों का सवाल है, माता-पिता बाकी सब लोगों जैसे ही हैं, क्योंकि वे सभी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, और सभी में शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है। वे बाकी लोगों से जरा भी अलग नहीं हैं, और तुमसे भी अलग नहीं हैं। हालाँकि उन्होंने भौतिक रूप से तुम्हें जन्म दिया, और तुम्हारे देह-रक्त संबंध के अर्थ में वे तुमसे एक पीढ़ी बड़े हैं, फिर भी मानव स्वभाव के सार के अर्थ में तुम सभी लोग शैतान की सत्ता के अधीन जी रहे हो, और तुम सभी को शैतान ने भ्रष्ट किया है और तुम सबमें भ्रष्ट शैतानी स्वभाव हैं। सभी लोगों में भ्रष्ट शैतानी स्वभाव होने के तथ्य की दृष्टि से, सभी लोगों का सार एक है। चाहे वरिष्ठता या उम्र में अंतर हो या चाहे कोई इस दुनिया में जितनी जल्दी या देर से आए, सार के संदर्भ में, सभी लोगों में अनिवार्य रूप से वही भ्रष्ट स्वभाव होता है, वे सभी मनुष्य हैं जिन्हें शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, और इस मामले में वे बिल्कुल अलग नहीं है। उनकी मानवता अच्छी हो या बुरी, चूँकि उनमें भ्रष्ट स्वभाव है, इसलिए वे लोगों और मामलों को देखने और सत्य पर गौर करने को लेकर एक-जैसा परिप्रेक्ष्य और नजरिया अपनाते हैं। इस अर्थ में, उनके बीच कोई अंतर नहीं है। साथ ही, इस दुष्ट मानवजाति के बीच जीने वाले सभी लोग इस बुरी दुनिया में उपलब्ध तमाम विविध विचारों और सोच को स्वीकार करते हैं, चाहे वे बातों के रूप में हों या विचारों के रूप में, आकार रूप में हों या विचारधारा के रूप में, और वे शैतान के हर तरह के विचार को स्वीकार करते हैं, चाहे वह सरकारी शिक्षा के जरिये हो, या सामाजिक आचार-विचार की शिक्षा के जरिये। ये चीजें जरा भी सत्य के अनुरूप नहीं हैं। उनमें कोई सत्य नहीं है, और लोग निश्चित रूप से नहीं समझते कि सत्य क्या है। इस नजरिये से, माता-पिता और बच्चे बराबर हैं, और दोनों में एक ही विचार और सोच हैं। बात बस इतनी ही है कि तुम्हारे माता-पिता ने ये विचार और सोच 20-30 साल पहले स्वीकार किए थे, जबकि तुमने इन्हें कुछ समय बाद स्वीकार किया। यानी, एक ही सामाजिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में, अगर तुम एक सामान्य व्यक्ति हो, तो तुमने और तुम्हारे माता-पिता ने शैतान से वही भ्रष्टता, सामाजिक आचार-विचार की वही शिक्षा और समाज की विविध बुरी प्रवृत्तियों से उपजने वाले वही विचार और सोच स्वीकार किए हैं। इस नजरिये से, बच्चे उसी प्रकार के हैं जिस प्रकार के उनके माता-पिता। अगर इस आधार को छोड़ दें कि परमेश्वर पूर्व-निर्धारण करता है, पूर्वनियत करता है और चयन करता है, तो परमेश्वर के दृष्टिकोण से, माता-पिता और बच्चे दोनों इस अर्थ में एक समान हैं कि वे सभी सृजित प्राणी हैं, और चाहे वे परमेश्वर की आराधना करने वाले सृजित प्राणी हों या न हों, उन सबको सामूहिक रूप से सृजित प्राणियों के रूप में जाना जाता है, और वे सभी परमेश्वर की संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार करते हैं। इस नजरिये से, परमेश्वर की दृष्टि में माता-पिता और बच्चों का दर्जा वास्तव में एक-समान है, और वे सभी समान रूप से और बराबरी से परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करते हैं। यह एक वस्तुपरक तथ्य है। अगर वे सभी परमेश्वर द्वारा चुने गए हैं, तो उन सबके पास सत्य के अनुसरण के समान अवसर हैं। बेशक उनके पास परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करने और बचाए जाने के भी बराबर के अवसर हैं। इन समानताओं के अलावा, माता-पिता और बच्चों में बस एक ही अंतर है, जो यह है कि परिवार पदानुक्रम में माता-पिता का दर्जा उनके बच्चों से ऊपर होता है। परिवार पदानुक्रम में उनके दर्जे का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि वे सिर्फ एक पीढ़ी बड़े हैं, 20-30 साल बड़े—उम्र के बड़े अंतर के सिवाय यह कुछ नहीं है। और माता-पिता की विशेष हैसियत के कारण बच्चों को संतानोचित होकर अपने माता-पिता के प्रति अपने दायित्व निभाने चाहिए। किसी व्यक्ति की अपने माता-पिता के प्रति बस यही एक जिम्मेदारी है। लेकिन चूँकि सभी बच्चे और माता-पिता एक ही भ्रष्ट मानवजाति का हिस्सा हैं, माता-पिता अपने बच्चों के लिए नैतिक प्रतिमान नहीं हैं, न ही वे अपने बच्चों के सत्य के अनुसरण के लिए मानदंड या आदर्श हैं, न ही वे परमेश्वर की आराधना और आज्ञापालन के संबंध में अपने बच्चों के आदर्श हैं। बेशक माता-पिता सत्य का देहधारण नहीं हैं। लोगों की यह कोई बाध्यता या जिम्मेदारी नहीं है कि वे अपने माता-पिता को नैतिक प्रतिमान के रूप में लें, जिनकी आज्ञा का बिना शर्त पालन करना चाहिए। बच्चों को अपने माता-पिता के आचरण, कार्य और स्वभाव सार को जानने से डरना नहीं चाहिए। यानी अपने माता-पिता को सँभालने को लेकर, उन्हें ऐसे विचारों और सोच का पालन नहीं करना चाहिए, जैसे कि “माता-पिता हमेशा सही होते हैं।” यह सोच इस तथ्य पर आधारित है कि माता-पिता की हैसियत विशेष होती है, इस अर्थ में कि उन्होंने परमेश्वर के पूर्व-निर्धारण के अधीन तुम्हें जन्म दिया है, और तुमसे 20, 30 या 40-50 साल बड़े हैं। बस इस देह और रक्त संबंध के परिप्रेक्ष्य से, वे अपनी हैसियत और परिवार पदानुक्रम में अपने दर्जे के आधार पर अपने बच्चों से भिन्न हैं। लेकिन इस अंतर के कारण लोग मानते हैं कि उनके माता-पिता में कोई खामी नहीं है। क्या यह सही है? यह गलत, तर्कहीन है, और सत्य के अनुरूप नहीं है। कुछ लोग सोचते हैं कि माता-पिता और बच्चों के इस देह और रक्त संबंध के चलते उन्हें अपने माता-पिता से किस ढंग से पेश आना चाहिए। अगर माता-पिता परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो उनके साथ विश्वासियों की तरह पेश आना चाहिए; अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो उनके साथ अविश्वासियों जैसे पेश आना चाहिए। माता-पिता चाहे जिस प्रकार के लोग हों, उनके साथ तदनुरूप सत्य सिद्धांतों के अनुसार पेश आना चाहिए। अगर वे दानव हों, तो तुम्हें कहना चाहिए कि वे दानव हैं। अगर उनमें मानवता नहीं है, तो तुम्हें कहना चाहिए कि उनमें मानवता नहीं है। वे तुम्हें जो विचार और सोच सिखाते हैं अगर वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो तुम्हें इन बातों को सुनने या स्वीकारने की जरूरत नहीं है, और तुम उन्हें उनके असली रूप में पहचानकर उजागर भी कर सकते हो। अगर तुम्हारे माता-पिता कहें, “मैं यह तुम्हारी ही भलाई के लिए कर रहा हूँ,” और वे झल्ला कर हंगामा खड़ा कर दें, तो क्या तुम परवाह करोगे? (नहीं, मैं परवाह नहीं करूँगा।) अगर तुम्हारे माता-पिता विश्वास न रखें, तो उन पर जरा भी ध्यान मत दो, और वह बात वहीं छोड़ दो। अगर वे बहुत बड़ा हंगामा करें, तो तुम देखोगे कि वे दानव हैं, उससे जरा भी कम नहीं हैं। परमेश्वर में आस्था से जुड़े ये सत्य ऐसे विचार और सोच हैं जिन्हें स्वीकार करने की लोगों को बड़ी जरूरत है। वे उन्हें स्वीकार नहीं कर सकते या उन्हें मान नहीं सकते, तो वे किस प्रकार की चीजें हैं? वे परमेश्वर के वचन नहीं समझते, तो वे अवमानवीय हैं, है न? तुम्हें यूँ सोचना चाहिए : “हालाँकि आप मेरे माता-पिता हैं, मगर आपमें कोई मानवता नहीं है। आपके यहाँ पैदा होकर मैं सचमुच शर्मिंदा हूँ! अब मैं जान सकता हूँ कि असल में आप क्या हैं। आपमें मानवीय भावना नहीं है, आप सत्य नहीं समझते, आप अत्यंत स्पष्ट और सरल सिद्धांत भी नहीं सुन सकते, फिर भी ऐसी विचारहीन टिप्पणियाँ और अपमानजनक बातें करते हैं। अब मैं उसे समझता हूँ, और मैंने दिल में आपसे पूरी तरह नाता तोड़ लिया है। लेकिन बाहर से, मुझे अब भी आपसे सहमत रहना है, मुझे अब भी आपके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाने हैं। अगर मेरे पास संसाधन हुए, तो मैं आपके स्वास्थ्य की देखभाल की कुछ चीजें खरीदूँगा, मगर अगर मेरे पास संसाधन न हुए, तो मैं लौटकर आपसे मिलने आऊँगा, बस इतना ही। आप जो भी कहें, मैं आपकी राय का खंडन नहीं करूँगा। आप बेतुके हैं, और मैं आपको वैसे ही रहने दूँगा। आप जैसे विवेक से परे दानवों से कहने को क्या रह गया है? इस तथ्य के कारण कि आपने मुझे जन्म दिया है, और मुझे पाल-पोस कर बड़ा करने में इतने वर्ष खपाए हैं, मैं आपसे मिलने और आपकी देखभाल करने के लिए आता रहूँगा। वरना, मैं आप पर बिल्कुल ध्यान नहीं देता, और जब तक मैं जीवित रहता, आपको देखना भी नहीं चाहता।” तुम उन्हें फिर से देखना क्यों नहीं चाहते और उनके साथ कोई लेना-देना क्यों नहीं रखना चाहते? चूँकि तुम सत्य समझते हो, उनका सार गहराई से देख चुके हो, उनके तमाम गलत विचारों और सोच को गहराई से देख चुके हो, और इन गलत विचारों और सोच से तुम उनकी बेवकूफी, कट्टरता और दुष्टता को समझ रहे हो, स्पष्ट देख पा रहे हो कि वे दानव हैं, और इसलिए तुम उनसे घृणा करते हो, उनसे चिढ़े हुए हो, और उन्हें देखना नहीं चाहते। सिर्फ इसलिए कि अब भी तुम्हारे भीतर वह थोड़ा-सा जमीर है, तुम एक बेटे या बेटी के अपने संतानोचित कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करने को बाध्य अनुभव करते हो, इसलिए तुम नव वर्ष और बैंक की छुट्टियों वाले दिन उनसे मिलने जाते हो, और कुछ नहीं। अगर उन्होंने तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से या अपना कर्तव्य निभाने से नहीं रोका है, तो वक्त मिलने पर उनसे मिलने जाया करो। अगर तुम उन्हें सचमुच नहीं देखना चाहते, तो फोन पर उनका हालचाल जान लो, उन्हें अक्सर कुछ पैसे भेजा करो, और कुछ उपयोगी चीजें खरीद कर उन्हें दे दो। उनकी देखभाल करना, उनसे मिलना, उनके लिए कपड़े खरीदना, उनकी सेहत की चिंता जताना, और तबीयत खराब होने पर उनकी देखभाल करना—ये सब बस अपने संतानोचित दायित्व निभाना और अपनी भावनाओं और जमीर के संदर्भ में अपनी जरूरतें पूरी करना है। बस इतना ही है, और इसे सत्य पर अमल करना नहीं माना जाता। तुम्हें चाहे उनसे जितनी भी घिन हो, या तुम जितने भी अच्छे से उनके सार की असलियत जान लो, जब तक वे जीवित हैं, तुम्हें बेटे या बेटी के रूप में अपने जरूरी दायित्व निभाने चाहिए और जरूरी जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिए। तुम्हारे माता-पिता ने बचपन में तुम्हारी देखभाल की, और जब वे बूढ़े हो जाएँ, तो जब तक तुम्हारे पास संसाधन हों, तुम्हें उनकी देखभाल करनी चाहिए। अगर वे तुम्हें तंग करना चाहें तो करने दो। अगर तुम उन विचारों और सोच को नहीं सुनते जो वे तुममें भरने की कोशिश करते हैं, उनकी बात स्वीकार नहीं करते, और उन्हें तुम्हें परेशान करने या बाँधने नहीं देते, तो यह बिल्कुल ठीक है, और यह साबित करता है कि तुम आध्यात्मिक कद में बढ़ चुके हो, और तुम परमेश्वर के समक्ष अपनी गवाही में पहले से अडिग हो। उनकी देखभाल करने के कारण परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा और नहीं कहेगा, “तुम इतने भावुक क्यों हो? तुमने सत्य को स्वीकार कर लिया है और उसका अनुसरण कर रहे हो, तो तुम अब भी उनकी देखभाल कैसे कर सकते हो?” यह सबसे बुनियादी जिम्मेदारी और दायित्व है जिससे तुम्हें आचरण करना चाहिए, जोकि हालात के ठीक रहने तक तुम्हारा अपने दायित्वों को पूरा करना है। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम भावुक हो रहे हो, और परमेश्वर इसके लिए तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। बेशक, इस दुनिया में, तुम्हारे माता-पिता के अलावा, दूसरे ऐसे कौन लोग हैं जिनके प्रति तुम्हें अपने दायित्व और जिम्मेदारियाँ निभानी हैं, किसी दूसरे के लिए तुम्हारी कोई जिम्मेदारी या दायित्व नहीं है—न तुम्हारे भाई-बहनों के प्रति, न अपने दोस्तों के प्रति या विविध चाचा-चाचियों के प्रति। उन्हें खुश करने हेतु कुछ भी करने, उनके करीब होने या उनकी मदद करने के प्रति तुम्हारा कोई दायित्व या जिम्मेदारी नहीं है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।)

इस दावे के बारे में कि “माता-पिता हमेशा सही होते हैं” मैंने जो भी कहा, क्या वह स्पष्ट था? (हाँ।) माता-पिता कौन हैं? (भ्रष्ट मनुष्य।) सही है, माता-पिता भ्रष्ट मनुष्य हैं। अगर तुम कभी अपने माता-पिता को याद कर सोचते हो, “पिछले दो वर्षों में मेरे माता-पिता ने कैसे गुजारा किया होगा? क्या उन्हें मेरी याद आई होगी? क्या वे रिटायर हो चुके हैं? क्या वे जीवन में किन्हीं मुश्किलों से जूझ रहे हैं? बीमार पड़ने पर उनकी देखभाल के लिए क्या उनके पास कोई है?” मान लो कि तुम इन चीजों के बारे में सोच रहे हो, और साथ ही चिंतन भी कर रहे हो, “माता-पिता हमेशा सही होते हैं। मेरे माता-पिता मुझे मारते और डांटते थे क्योंकि वे हताश थे कि मैं उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा था और चूँकि वे मुझे बड़े जोश से प्यार करते थे। मेरे माता-पिता हर किसी से बेहतर हैं, दुनिया में वही मुझे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। अपने माता-पिता के अवगुणों के बारे में सोचता हूँ तो, वे मुझे अवगुण नहीं लगते, क्योंकि माता-पिता हमेशा सही होते हैं।” तुम इस बारे में जितना सोचते हो, उतना ही तुम उन्हें देखना चाहते हो। क्या ऐसा सोचना सही है? (नहीं, सही नहीं है।) तुम्हें किस तरह सोचना चाहिए? तुम इस पर विचार करो : “मेरे माता-पिता ने बचपन में मुझे मारा, डाँटा और मेरे आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाई। उन्होंने कभी प्यार के दो बोल नहीं बोले या मुझे बढ़ावा नहीं दिया। उन्होंने मुझे पढ़ने को मजबूर किया, नाच-गाना सीखने और साथ ही गणित ओलिंपियाड के लिए पढ़ने को भी मजबूर किया—ऐसी तमाम चीजें करने को मजबूर किया जिन्हें मैं पसंद नहीं करता। मेरे माता-पिता सचमुच बहुत चिढ़ दिलाते थे। अब मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, और स्वतंत्र हो गया हूँ। मैंने कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने से पहले ही अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ दिया। परमेश्वर ही है जो अच्छा है। मुझे अपने माता-पिता की याद नहीं आती। उन्होंने मुझे परमेश्वर में विश्वास रखने से रोका। मेरे माता-पिता दानव हैं।” फिर तुम दोबारा चिंतन करते हो, “यह सही नहीं है। माता-पिता हमेशा सही होते हैं। मेरे माता-पिता ही वे लोग हैं जो मेरे सबसे करीब हैं, इसलिए उन्हें याद करना बिल्कुल सही है।” क्या ऐसा सोचना सही है? (नहीं यह गलत है।) तो फिर सोचने का सही तरीका क्या है? (हम सोचते थे कि हमारे माता-पिता चाहे जो करें, हमारे बारे में सोचकर ही करते हैं, और वे जो भी करते हैं हमारे भले के लिए करते हैं, और वे हमें कभी नुकसान नहीं पहुँचाएँगे। परमेश्वर की अभी की संगति से मुझे एहसास हुआ है कि मेरे माता-पिता भ्रष्ट मनुष्य भी हैं, जिन्होंने शैतान से विविध विचार और नजरिये स्वीकार किए हैं। अनजाने ही हमारे माता-पिता ने अनेक शैतानी नजरिये हममें भर दिए हैं, जिससे कि हम अपने आचरण और कार्यों में सत्य से बहुत दूर भटक कर शैतानी फलसफों के अनुसार जीने लगे हैं। अब चूँकि मुझे इस बात की थोड़ी समझ है कि मेरे माता-पिता के दिलों में क्या है, मैं उन्हें कम याद करूँगा और उनके बारे में बहुत कम सोचूँगा।) अपने माता-पिता से निपटने में, पहले तुम्हें तर्कसंगत रूप से इस रक्त संबंध से बाहर कदम रखकर तुम जो सत्य स्वीकार कर समझ चुके हो, उनके प्रयोग से अपने माता-पिता को जानना चाहिए। आचरण के बारे में अपने माता-पिता के विचारों, सोच और मंशाओं तथा आचरण के उनके सिद्धांतों और तरीकों के आधार पर उन्हें जानो, जिससे यह पक्का हो जाएगा कि वे भी शैतान द्वारा भ्रष्ट किए हुए लोग हैं। अपने माता-पिता को सत्य के परिप्रेक्ष्य से देखो और जानो, न कि उन्हें हमेशा ऊँचा, निस्वार्थ और तुम्हारे प्रति दयालु समझो; अगर तुम उन्हें इस तरह देखोगे, तो कभी पता नहीं लगा पाओगे कि उनकी समस्याएँ क्या हैं। अपने माता-पिता को अपने पारिवारिक रिश्तों या पुत्र-पुत्री की भूमिका के परिप्रेक्ष्य से मत देखो। इस घेरे से बाहर कदम रखो और देखो कि वे दुनिया, सत्य, लोगों, मामलों और चीजों से कैसे निपटते हैं। साथ ही, और ज्यादा विशेष रूप से, लोगों और चीजों को देखने और अपना आचरण और कार्य करने के बारे में उन विचारों और सोच पर गौर करो जिनकी शिक्षा तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें दी है—तुम्हें इसी तरीके से उन्हें पहचानना और जानना चाहिए। इस प्रकार, उनके मानवीय गुण और शैतान द्वारा उनके भ्रष्ट होने की सच्चाई थोड़ा-थोड़ा कर स्पष्ट हो जाएगी। वे किस प्रकार के लोग हैं? अगर वे विश्वासी नहीं हैं, तो परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों के प्रति उनका रवैया क्या है? अगर वे विश्वासी हैं तो सत्य के प्रति उनका रवैया क्या है? क्या वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं? क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं? क्या उन्हें सकारात्मक चीजें पसंद हैं? जीवन और दुनिया के बारे में उनका नजरिया क्या है? वगैरह-वगैरह। अगर इन चीजों के आधार पर तुम अपने माता-पिता को जान सको, तो तुम्हारे मन में स्पष्टता होगी। एक बार ये विषय स्पष्ट होने पर, तुम्हारे मन में बसी अपने माता-पिता की ऊँची, शिष्ट और अडिग हैसियत बदल जाएगी। इसके बदलने पर तुम्हारे माता-पिता द्वारा दिखाया गया मातृ और पितृ प्रेम—साथ ही उनकी विशेष बातें और कार्य तथा उनके बारे में तुम्हारे मन में बसी वे ऊँची छवियाँ—उनकी छाप अब तुम्हारे मन में उतनी गहरी नहीं होगी। तुम्हारे बिना जाने तुम्हारे प्रति तुम्हारे माता-पिता के प्रेम की निस्वार्थता और महानता और साथ ही तुम्हारी देखभाल और रक्षा के प्रति उनके समर्पण और तुम्हारे प्रति अनुराग का तुम्हारे मन में महत्वपूर्ण स्थान नहीं रह जाएगा। लोग अक्सर कहते हैं, “मेरे माता-पिता मुझसे बहुत प्यार करते हैं। जब भी मैं घर से दूर होता हूँ, मेरी माँ हमेशा मुझसे पूछती है, ‘तूने खाना खाया? क्या तू वक्त पर खाना खाता है?’ डैड हमेशा पूछते हैं, ‘तेरे पास पैसे हैं ना? अगर तेरे पास पैसे न हों, तो मैं तुझे थोड़े और भेज दूँगा।’ और मैं कहता हूँ, ‘मेरे पास पैसे हैं, कोई जरूरत नहीं,’ फिर डैड जवाब देते हैं, ‘नहीं, उससे काम नहीं चलेगा, भले ही तू कहे कि तेरे पास पैसे हैं, मैं तुझे थोड़े पैसे भेज ही देता हूँ।’” सच्चाई यह है कि तुम्हारे माता-पिता किफायत से जीते हैं, खुद पर पैसे खर्चना नहीं चाहते। वे अपना पैसा तुम्हें सहारा देने के लिए इस्तेमाल करते हैं, ताकि घर से दूर होने पर तुम्हारे पास खर्च के लिए थोड़े ज्यादा पैसे हों। तुम्हारे माता-पिता हमेशा कहते हैं, “घर में किफायत से रहो, मगर यात्रा करते समय थोड़ा अतिरिक्त पैसा साथ ले जाओ। कहीं बाहर निकलो तो थोड़ा ज्यादा साथ ले जाओ। अगर तुम्हारे पास पर्याप्त पैसे न हों, तो बस मुझे बोल दो, मैं थोड़े भेज दूँगा या तुम्हारे कार्ड में जोड़ दूँगा।” तुम्हारे माता-पिता की निस्वार्थ चिंता, ख्याल, परवाह, और लाड़-प्यार तुम्हारी आँखों में हमेशा उनके निस्वार्थ समर्पण की अमिट छाप बने रहेंगे। यह निस्वार्थ समर्पण तुम्हारे मन की गहराई में एक शक्तिशाली और स्नेहपूर्ण भावना बन चुका है जो उनके साथ तुम्हारे रिश्ते को बाँध कर रखता है। इस कारण तुम उन्हें जाने नहीं दे पाते, तुम्हें उनकी चिंता होती रहती है, तुम उनके बारे में चिंतित रहते हो, तुम्हें निरंतर उनकी याद सताती है, और इस कारण से तुम निरंतर इस भावना में फँसे रहने और उनके वात्सल्य से विवश होने को तैयार रहते हो। यह किस प्रकार की घटना है? तुम्हारे माता-पिता का प्यार सचमुच निस्वार्थ है। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारी चाहे जितनी परवाह करें, या वे तुम्हें खर्च के पैसे देने के लिए खुद जितनी भी किफायत करें और पैसे बचाएँ या तुम्हारी जरूरत की तमाम चीजें तुम्हें खरीद कर दे दें, अभी यह तुम्हारे लिए एक वरदान हो सकता है, मगर दूर की सोचें तो तुम्हारे लिए यह अच्छी बात नहीं है। वे जितने ज्यादा निस्वार्थ होंगे, तुमसे बेहतर बर्ताव करेंगे और तुम्हारी ज्यादा परवाह करेंगे, तुम उतना ही इस वात्सल्य से खुद को जुदा नहीं कर पाओगे, और इसे जाने नहीं दे पाओगे या भूल न पाओगे, और तुम उन्हें उतना ही ज्यादा याद करोगे। जब तुम अपना संतानोचित कर्तव्य नहीं निभा पाते, या उनके प्रति कोई भी दायित्व नहीं निभा पाते, तो तुम्हें उनके लिए और भी ज्यादा दुख होगा। इन हालात में, तुम्हें उन्हें जानने का दिल नहीं करेगा, या उनके प्रेम और समर्पण और उन्होंने तुम्हारे लिए जो भी किया उसे भूलने का या इन सबको अनुल्लेखनीय मानने का मन नहीं करेगा—यह तुम्हारे जमीर का प्रभाव है। क्या तुम्हारा जमीर सत्य को दर्शाता है? (नहीं, यह नहीं दर्शाता।) तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति ऐसे क्यों हैं? क्योंकि उन्हें तुमसे प्यार है। तो क्या तुम्हारे प्रति उनकी दयालुता उनके मानवता सार को प्रदर्शित कर सकती है? क्या यह सत्य के प्रति उनके रवैये को प्रदर्शित कर सकती है? नहीं, यह नहीं कर सकती। यह ठीक उन माँओं की तरह है जो हमेशा कहती हैं, “तू मेरा शरीर और खून है, तुझे पाल-पोस कर बड़ा करने के लिए मैंने पसीना बहाया और गुलामी की। तेरे दिल की बात भला मैं कैसे नहीं जानूँगी?” इन करीबी पारिवारिक रिश्तों और इस देह और रक्त संबंध के कारण वे तुम्हारे साथ अच्छे हैं, लेकिन क्या वे सचमुच तुम्हारे प्रति अच्छे हैं? क्या यह सच में उनका सच्चा चेहरा है? क्या यह उनके मानवता सार की सच्ची अभिव्यक्ति है? जरूरी नहीं। चूँकि उनके साथ तुम्हारा खून का रिश्ता है, इसलिए उन्हें लगता है कि कर्तव्य भाव के चलते उन्हें तुम्हारे साथ अच्छे से पेश आना चाहिए। लेकिन उनके बच्चे के रूप में तुम सोचते हो कि दयालुता के कारण वे तुम्हारे साथ अच्छे हैं, और उनका कर्ज उतारने में खुद को असमर्थ पाते हो। अगर तुम उनकी दयालुता का मूल्य न पूरा चुका पाओ, न ही थोड़ा, तो तुम्हारा जमीर तुम्हारी निंदा करेगा। तुम्हारे जमीर के तुम्हारी निंदा करने पर क्या तुममें पैदा हुई भावना सत्य के अनुरूप होती है? दूसरे शब्दों में, अगर वे तुम्हारे माता-पिता न होते, बल्कि किसी समूह में तुमसे सामान्य रूप से बातचीत करने वाले साधारण लोग होते, तो क्या वे तुमसे इस तरह पेश आते? (नहीं।) वे यकीनन ऐसे पेश नहीं आते। अगर वे तुम्हारे माता-पिता न होते, तुम्हारे साथ उनका रक्त संबंध न होता, तो तुम्हारे प्रति उनका रंग-ढंग और रवैया हर तरह से अलग होता। वे निश्चित रूप से तुम्हारी परवाह न करते, रक्षा न करते, दुलार न करते, देखभाल न करते या निस्वार्थ रूप से तुम्हें कुछ भी समर्पित नहीं करते। तो वे तुमसे कैसे पेश आते? हो सकता है वे तुम्हें डराते, क्योंकि तुम छोटे हो और तुम्हें सामाजिक अनुभव नहीं है, या निचली हैसियत के कारण तुमसे भेदभाव करते, और तुमसे हमेशा नौकरशाही लहजे में बात करते और तुम्हें शिक्षा देने की कोशिश करते; या हो सकता है वे सोचते कि तुम औसत रंग-रूप वाले हो, और अगर तुम उनसे बात करते तो वे तुम पर ध्यान न देते, और तुम उनकी कसौटी पर खरे न उतरते; या हो सकता है वे तुम्हें जरा भी उपयोगी न मानते, और तुम्हारे साथ मिलते-जुलते नहीं, या कोई लेना-देना न रखते; या हो सकता है वे सोचते कि तुम भोले हो, तो अगर वे किसी चीज के बारे में कुछ जानना चाहते, तो हमेशा पूछताछ कर तुमसे जवाब निकलवाने की कोशिश करते; या हो सकता है वे किसी तरह तुम्हारा गलत फायदा उठाना चाहते, जैसे कि जब तुम कोई चीज खरीदते, तो वे हमेशा चाहते कि वह तुम उनके साथ बांटो, या उसमें से कुछ ले लेना चाहते; या हो सकता है कि जब तुम किसी गली में गिर पड़ो और तुम्हें उठने के लिए उनका हाथ चाहिए हो, तो वे तुम्हारी ओर देखें भी नहीं, बल्कि इसके बजाय तुम्हें लात मार दें; या हो सकता है जब तुम बस में चढ़ो और अपनी सीट उन्हें न दो, तो वे कहें, “मैं बहुत बूढ़ा हूँ, तुम अपनी सीट मुझे क्यों नहीं देते? तुम ऐसे अनाड़ी युवा कैसे हो? तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें कोई तमीज नहीं सिखाई!” और वे तुम्हें फटकारते भी। अगर बात ऐसी है तो तुम्हें यह पता लगाने की जरूरत है कि क्या तुम्हारे दिल में गहरे छुपा मातृ प्रेम या पितृ प्रेम उनकी मानवता का सच्चा खुलासा है। उनका निस्वार्थ समर्पण, मातृ प्रेम और पितृ प्रेम अक्सर तुम्हारे दिल को छू जाता है, और तुम उनसे नजदीक से जुड़े हुए हो, उन्हें याद करते हो, और निरंतर अपना जीवन देकर उनका कर्ज उतारना चाहते हो। इसका कारण क्या है? अगर यह जमीर से उपजा है, तो फिर समस्या उतनी गहरी नहीं है और इसे ठीक किया जा सकता है। लेकिन अगर यह उनके प्रति प्रेम से पैदा हुआ है, तो यह बहुत मुश्किल की बात है। तुम इसमें और ज्यादा गहराई तक फँस जाओगे, और खुद को बाहर नहीं निकाल पाओगे। तुम अक्सर इस प्रेम में फँस जाओगे, तुम्हें अपने माता-पिता की याद आएगी, और कभी-कभी तुम अपने माता-पिता की दयालुता का बदला चुकाने के लिए परमेश्वर को भी धोखा दे दोगे। मिसाल के तौर पर, यह सुन कर तुम क्या करोगे कि तुम्हारे माता-पिता गंभीर रूप से बीमार होकर अस्पताल में पड़े हैं, या उनके साथ कुछ गंभीर घटना हो गई है, और वे किसी मुश्किल में हैं जिसमें से वे निकल नहीं पा रहे और वे दुखी हैं, उनका दिल टूट गया है, या तुमने यह खबर सुनी कि तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु करीब है? उस वक्त, यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि क्या तुम्हारा प्रेम तुम्हारे जमीर पर हावी हो जाएगा, या क्या सत्य और परमेश्वर के वे वचन जो उसने तुम्हें सिखाए हैं, वे तुम्हारे जमीर को कोई फैसला करने की ओर ले जाएँगे। इन मामलों का परिणाम इस पर निर्भर करता है कि तुम माता-पिता और बच्चों के रिश्ते को किस रूप में देखते हो, तुमने माता-पिता से बर्ताव करने के सत्य में कितना प्रवेश किया है, तुम उनकी असलियत कितनी गहराई से देख पाते हो, मानवजाति के प्रकृति सार को लेकर तुम्हारी समझ कितनी गहरी है, और तुम्हें अपने माता-पिता की मानवता की गुणवत्ता और सार और उनके भ्रष्ट स्वभावों की कितनी समझ है। सबसे अहम यह है कि इन मामलों का परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि तुम परिवार के स्तर पर रिश्तों को किस रूप में लेते हो, और तुम्हें कौन-से सही नजरिये अपनाने चाहिए—इनमें से कोई भी मामला तुम पर आ पड़े उससे पहले तुम्हें इन विविध सत्यों से खुद को लैस कर लेना चाहिए। बाकी सब—रिश्तेदार और मित्र, चाचे-चाचियाँ, दादा-दादी, और दूसरे बाहरी लोगों को—आसानी से जाने दिया जा सकता है, क्योंकि वे किसी व्यक्ति के स्नेह संबंधों में अहम स्थान नहीं रखते। इन लोगों को आसानी से जाने दिया जा सकता है, लेकिन माता-पिता अपवाद हैं। एकमात्र माता-पिता ही संसार में निकटतम संबंधी होते हैं। ये वे लोग हैं जो किसी के जीवन में अहम भूमिका निभाते हैं, और किसी के जीवनकाल में गहरी छाप छोड़ते हैं, इसलिए उन्हें जाने देना आसान नहीं है। अगर आज तुमने अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा से पैदा हुए विविध विचारों की थोड़ी स्पष्ट समझ हासिल की है तो इससे तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति प्रेम को जाने देने में मदद मिल सकती है, क्योंकि तुम्हारे पूरे परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के तुम पर हुए प्रभाव सिर्फ अमूर्त दावे होते हैं, जबकि सबसे विशिष्ट शिक्षा वास्तव में तुम्हारे माता-पिता से आती है। तुम्हारे माता-पिता का एक वाक्य, या कुछ करने के प्रति उनका रवैया, या किसी चीज से निपटने का उनका तरीका या साधन—ये यह बयान करने के सबसे सही तरीके हैं कि तुम किस तरह शिक्षित हुए हो। एक बार जब तुम नाना प्रकार से उन विचारों, कार्यों और कहावतों को समझ कर विशिष्ट तरह से पहचान लो जो तुम्हारे माता-पिता ने शिक्षा देकर तुममें भरी हैं, तो तुम्हें अपने माता-पिता की भूमिका, चरित्र, जीवन के बारे में उनके नजरिये और चीजें करने के उनके तरीकों के सार का सही आकलन और ज्ञान हो जाएगा। एक बार जब तुम्हें यह सही आकलन और ज्ञान प्राप्त हो जाए, तो अनजाने ही तुम्हारे माता-पिता की भूमिका के प्रति तुम्हारा बोध धीरे-धीरे सकारात्मक से नकारात्मक में बदल जाएगा। जब एक बार तुम समझ जाओगे कि तुम्हारे माता-पिता की भूमिका पूरी तरह नकारात्मक है, तो तुम धीरे-धीरे अपनी भावुकता की बैसाखियों, आध्यात्मिक लगाव और अपने प्रति उनके नाना प्रकार के महान प्रेम को जाने दे सकोगे। तब तक, तुम्हें लग जाएगा कि तुम्हारे दिल में गहरे पैठी माता-पिता की छवि बहुत ऊँची थी, “माई फादर्स बैक” शीर्षक वाले निबंध के पात्र की तरह, जो तुमने अपने स्कूल की पाठ्यपुस्तक में पढ़ा था, और बहुत साल पुराने इस लोकप्रिय गाने “मम इज द बेस्ट इन द वर्ल्ड” की तरह जो एक ताईवानी फिल्म का विषयगान था, और पूरे चीने समाज में प्रचलित हो गया था—ये वे तरीके हैं जिनसे समाज और संसार मानवजाति को शिक्षित करता है। जब तुम्हें इन चीजों के पीछे के सार या असली चेहरे का एहसास नहीं होता, तो तुम्हें लगता है कि शिक्षा के ये तरीके सकारात्मक हैं। अपनी मौजूदा मानसिकता के आधार पर, वे तुम्हें अपने प्रति अपने माता-पिता के प्रेम की महानता की ज्यादा पहचान और ज्यादा विश्वास दिलाते हैं, और नतीजतन ये तुम्हारे दिल की गहराई में यह छाप छोड़ देते हैं कि तुम्हारे माता-पिता का प्रेम निस्वार्थ, महान और पवित्र है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता चाहे जितने भी बुरे हों, उनका प्रेम फिर भी निस्वार्थ और महान है। तुम्हारे लिए यह अकाट्य तथ्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता, और तुम्हारे माता-पिता के बारे में कोई भी एक भी बुरा शब्द नहीं कह सकता। नतीजतन, तुम उन्हें जानना या उन्हें उजागर करना नहीं चाहते, और साथ ही तुम अपने दिल में उनके लिए एक निश्चित स्थान रखना चाहते हो, क्योंकि तुम्हें विश्वास है कि माता-पिता का प्रेम सदा के लिए सभी चीजों से ऊपर है, त्रुटिहीन है, महान और पवित्र है, और कोई इसे नकार नहीं सकता। तुम्हारे जमीर और आचरण की यह आधार-रेखा है। अगर कोई कहे कि माता-पिता का प्रेम महान नहीं है, त्रुटिहीन नहीं है, तो तुम उनसे भयंकर लड़ाई करोगे—यह तर्कहीन है। लोगों के सत्य समझने से पहले, उनके जमीर का प्रभाव उन्हें कुछ पारंपरिक विचारों और सोच को पकड़े रहने को प्रेरित करेगा, या कुछ और नए विचार और नजरिये पैदा करेगा। लेकिन, इसे सत्य के नजरिये से देखें, तो ये विचार और नजरिये अक्सर तर्कहीन होते हैं। एक बार जब तुम सत्य को समझ लेते हो, तो तुम सामान्य तार्किकता के दायरे के भीतर इन चीजों से निपट सकते हो। इसलिए, मानवता में जमीर और विवेक दोनों होते हैं। अगर जमीर इन चीजों तक न पहुँच सके या इनकी कसौटी पर खरा न उतरे, या वे जमीर के प्रभावों के अधीन विनियमित या सकारात्मक न हों, तो लोग उन्हें विनियमित और सही करने के लिए तार्किकता का प्रयोग कर सकते हैं। तो लोग तार्किकता कैसे प्राप्त करते हैं? लोगों को सत्य समझना होगा। एक बार जब लोग सत्य समझ लेते हैं, तो वे हर चीज से सटीक और सही ढंग से पेश आएँगे, चुनेंगे, और जानेंगे। इस तरह वे सच्ची तार्किकता प्राप्त करेंगे, और उस मुकाम पर पहुँचेंगे जहाँ विवेक जमीर से ऊपर हो जाता है। किसी व्यक्ति के सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के बाद जो होता है, यह उसकी अभिव्यक्ति है। अभी शायद तुम ये बातें सचमुच समझ न पाओ, लेकिन एक बार असली अनुभव होने और सत्य को समझने के बाद तुम इन्हें समझ पाओगे। क्या यह कहावत “माता-पिता हमेशा सही होते हैं” तार्किकता से उपजती है या जमीर से? यह तर्कपूर्ण नहीं है, यह जमीर के प्रभाव में किसी के प्रेम से उपजती है। तो क्या यह कहावत तर्कपूर्ण है? नहीं, यह तर्कहीन है? यह तर्कहीन क्यों है? क्योंकि यह किसी के प्रेम से उपजती है, और यह सत्य के अनुरूप नहीं है। तो किस मुकाम पर तुम माता-पिता को तार्किकता से देख और पेश आ सकते हो? जब तुम सत्य समझ लेते हो, और जब तुम इस मामले के सार और मूल को गहराई से देख लेते हो। एक बार ऐसा कर लेने के बाद, तुम आगे अपने माता-पिता से जमीर के प्रभाव के अनुसार पेश नहीं आओगे, न प्रेम कोई भूमिका अदा करेगा, न ही जमीर, और तुम अपने माता-पिता को सत्य के अनुसार देख और उसके अनुसार ही उनसे पेश आ सकोगे—यह तर्कपूर्ण होना है।

क्या मैं माता-पिता से पेश आने की समस्या के बारे में अपनी संगति में स्पष्ट रहा हूँ? (हाँ।) यह एक अहम मसला है। परिवार के सभी सदस्य कहते हैं, “माता-पिता हमेशा सही होते हैं,” और तुम नहीं जानते कि यह सही है या गलत, इसलिए तुम बस इसे स्वीकार लेते हो। फिर जब भी तुम्हारे माता-पिता लीक से हटकर कुछ करते हैं, तो तुम चिंतन कर सोचते हो, “लोग कहते हैं कि ‘माता-पिता हमेशा सही होते हैं,’ तो मैं कैसे कहूँ कि मेरे माता-पिता सही नहीं हैं? परिवार की बातें परिवार में ही रहनी चाहिए, दूसरों को इस बारे में मत बताओ, बस उसे सहन करो।” इस गलत कहावत “माता-पिता हमेशा सही होते हैं”—के शिक्षा प्रभावों के अलावा—एक और कहावत है : “परिवार की बातें परिवार में ही रहनी चाहिए।” तो तुम सोचते हो, “अपने ही माता-पिता के लिए किसे दोष दूँ? इस शर्मनाक चीज के बारे में मैं बाहर वालों को नहीं बता सकता। मुझे इसे ढक कर रखना है। अपने माता-पिता से गंभीरता से पेश आने का क्या तुक है?” परिवार की शिक्षा के ये प्रभाव लोगों के दैनिक जीवन, उनके जीवन पथ और उनके अस्तित्व के दौरान हमेशा मौजूद रहते हैं। लोग सत्य को समझ कर उसे हासिल करने से पहले अपने परिवार द्वारा सिखाए इन विविध विचारों और सोच के आधार पर लोगों और चीजों को देखते हैं और आचरण और कार्य करते हैं। वे अक्सर इन विचारों से प्रभावित होकर बाधित और प्रतिबंधित हो जाते हैं, उनके हाथ-पाँव बंध जाते हैं। वे इन्हीं विचारों से मार्गदर्शन पाते हैं, अक्सर लोगों को गलत रूप में देखकर गलत काम करते हैं, और साथ ही परमेश्वर के वचनों और सत्य का अक्सर उल्लंघन करते हैं। भले ही लोगों ने परमेश्वर के अनेक वचन सुने हों, भले ही वे अक्सर परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करते हों, उन पर संगति करते हों, फिर भी चूँकि उनके परिवार द्वारा दी गई इन नजरियों की शिक्षा उनके विचारों और उनके दिलों में गहराई से पैठ चुकी है, इसलिए वे इन नजरियों को पहचान नहीं पाते, न ही उनमें इनका प्रतिरोध करने की क्षमता होती है। इन शिक्षाओं और परमेश्वर के वचनों का पोषण प्राप्त करते समय भी, वे इन विचारों के बहकावे में आ जाते हैं जो उनकी कथनी, करनी और जीवनशैली को भी मार्गदर्शन देते हैं। इसलिए, उनके परिवार द्वारा सिखाए गए इन विचारों के अनजाने मार्गदर्शन के तहत, लोग परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने से खुद को अक्सर रोक नहीं पाते। फिर भी वे सोचते हैं कि वे सत्य पर अमल कर रहे हैं, और सत्य का अनुसरण कर रहे हैं। उन्हें जरा भी भान नहीं है कि उनके परिवार द्वारा सिखाई गई ये विविध कहावतें सत्य के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं हैं। इससे भी गंभीर बात यह है कि लोगों में उनके परिवारों द्वारा सिखाई ये कहावतें उन्हें बार-बार सत्य का उल्लंघन करने की ओर ले जाती हैं, मगर फिर भी उन्हें इसका भान तक नहीं होता। इसलिए अगर तुम सत्य का अनुसरण कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले अपने परिवार से मिलने वाली शिक्षा के विविध प्रभावों को स्पष्ट रूप से जान कर पहचान लेना चाहिए, और फिर अपने परिवार द्वारा तुम्हें सिखाए इन विविध विचारों से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। बेशक, यह यकीनन कहा जा सकता है कि तुम्हें अपने परिवार की शिक्षा से खुद को अलग कर लेना चाहिए। यह मत सोचो कि चूँकि तुम उस परिवार से हो, इसलिए तुम्हें ऐसा करना चाहिए या वैसे रहना चाहिए। अपने परिवार की परंपराओं या चीजें करने या कार्य करने के विविध तरीकों और साधनों को विरासत में पाने का तुम्हारा कोई दायित्व या जिम्मेदारी नहीं है। तुम्हें यह जीवन परमेश्वर से मिला है। आज तुम्हें परमेश्वर ने चुना है, और जिस लक्ष्य का तुम अनुसरण करना चाहते हो, वह उद्धार है, इसलिए तुम अपने परिवार द्वारा सिखाए गए विविध विचारों का लोगों और चीजों के बारे में अपने नजरिये, अपने आचरण और कार्य के आधार के रूप में इस्तेमाल नहीं कर सकते। इसके बजाय, तुम्हें परमेश्वर के वचनों और उसकी विविध शिक्षाओं के आधार पर लोगों और चीजों को देखना चाहिए और आचरण और कार्य करना चाहिए। सिर्फ इस तरह से तुम अंत में उद्धार प्राप्त कर सकोगे। बेशक, परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभाव यहाँ दी गई सूची तक ही सीमित नहीं हैं। मैंने सिर्फ कुछ का ही जिक्र किया है। पारिवारिक शिक्षा की बहुत-सी किस्में हैं जो अलग-अलग परिवारों, अलग-अलग समुदायों, अलग-अलग समाजों, अलग-अलग प्रजातियों और अलग-अलग धर्मों से आती हैं, और जिनकी शिक्षा हर प्रकार से मनुष्य के विचारों को प्रभावित करती हैं। ये विविध शिक्षाएँ चाहे जिस प्रजाति या धार्मिक संस्कृति से आएँ, अगर ये सत्य के अनुकूल नहीं हैं, और परमेश्वर से नहीं बल्कि लोगों से आई हैं, तो इन्हें जाने देना चाहिए, और ये ऐसी चीजें हैं जिनसे लोगों को दूर हो जाना चाहिए। इन्हें विरासत में पाना तो दूर, उन्हें इनका पालन भी नहीं करना चाहिए। ये सब ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को परित्याग कर छोड़ देना चाहिए। सिर्फ इसी तरह से लोग सचमुच सत्य के अनुसरण के मार्ग पर कदम रख कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाएँगे।

किसी के परिवार द्वारा दी गई शिक्षा से मिलने वाली ये कहावतें जिन पर हमने संगति की है, वे एक अर्थ में द्योतक हैं, और एक और अर्थ में इनके बारे में लोगों के बीच अक्सर चर्चा होती है। जहाँ तक कुछ विशेष और गैर-द्योतक कहावतों का प्रश्न है, हम अभी उनके बारे में चर्चा नहीं करेंगे। परिवार के विषय में हमारी संगति के बारे में तुम सबका क्या विचार है? क्या यह किसी तरह से उपयोगी रही? (हाँ, उपयोगी रही।) क्या इस विषय पर संगति करना जरूरी है? (हाँ।) सभी का परिवार होता है और सभी अपने परिवार से शिक्षित होते हैं। परिवार तुममें जो चीजें भरता है वे पूरी जहर और आध्यात्मिक अफीम होती हैं, वे तुम्हें भयानक कष्ट देती हैं। जब तुम्हारे माता-पिता ने तुममें ये चीजें भरीं, तो उस वक्त तुम्हें सचमुच अद्भुत महसूस हुआ, अफीम लेने की तरह। तुम्हें बहुत आराम महसूस हुआ, मानो तुमने एक सुखद संसार में प्रवेश किया है। लेकिन कुछ देर बाद प्रभाव फीके हो जाने पर तुम्हें इस तरह के उद्दीपन की तलाश करते रहना पड़ता है। यह आध्यात्मिक अफीम तुम्हें बहुत बड़ी मुसीबत और बाधा में डाल देता है। इससे छुटकारा पाना आज तक तुम्हारे लिए मुश्किल है और यह ऐसी चीज है जिसे थोड़े समय में त्यागा नहीं जा सकता। अगर लोग सिखाए गए इन विचारों और सोच को जाने देना चाहते हैं, तो उन्हें इनकी पहचान करने के लिए समय और ऊर्जा खपानी चाहिए। उन्हें स्पष्ट रूप से पहचानने और गहराई से देखने के लिए उनकी परतें उधेड़नी चाहिए। फिर संबद्ध मामले के सामने आने पर उन्हें इन चीजों को जाने देने, छोड़ देने, और ऐसे विचारों और सोच के सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करने में समर्थ होना चाहिए, बल्कि इसके बजाय उस तरीके से अभ्यास कर चीजें करनी चाहिए जो परमेश्वर उन्हें सिखाता है। ये थोड़ी-सी बातें सरल लगती हैं, मगर लोगों को इन्हें अमल में लाने के लिए 20-30 वर्ष या पूरा जीवनकाल लग सकता है। हो सकता है कि तुम्हारे परिवार द्वारा तुममें भरी गई इन कहावतों द्वारा उपजे विचारों और सोच के विरुद्ध लड़ने, इन विचारों और सोच से खुद को अलग करने और उनसे दूर होने में तुम अपना सारा जीवन बिता दो। यह करने के लिए तुम्हें अपनी भावनाएँ और ऊर्जा खपानी चाहिए और साथ ही कुछ शारीरिक मुश्किलें झेलनी चाहिए। तुममें परमेश्वर की जबरदस्त चाह और एक ऐसी इच्छा होनी चाहिए जो सत्य की प्यासी हो और उसका अनुसरण करे। ये चीजें होने पर ही तुम धीरे-धीरे बदलाव हासिल कर धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे। सत्य और जीवन को प्राप्त करना इतना कठिन है। अनेक धर्मोपदेश सुनने के बाद ही लोग परमेश्वर में आस्था को लेकर कुछ धर्म-सिद्धांत समझ पाते हैं, लेकिन सत्य की समझ सचमुच हासिल करना और परिवार की शिक्षा के प्रभावों और अविश्वासियों के विचारों और सोच को समझना उनके लिए आसान नहीं है। धर्मोपदेश सुनने के बाद अगर तुम सत्य को समझ लो, तो भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश रातोरात होने वाली चीज नहीं है, सही है न? (सही है।) ठीक है, आज की हमारी संगति यहीं समाप्त होती है। फिर मिलेंगे!

25 फरवरी 2023

फुटनोट :

क. मूल आलेख में वाक्यांश “बदनाम सोंग वंश राजनेता” समाहित नहीं है।

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