सत्य का अनुसरण कैसे करें (12)
पिछली कुछ सभाओं में, हमने “लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने” के मामले में शादी से संबंधित विषयों पर संगति की थी, है न? (हाँ।) शादी से संबंधित विषयों पर हमारी संगति मूलतः समाप्त हो गई है। इस बार, हम परिवार से संबंधित विषयों पर संगति करेंगे। आओ सबसे पहले यह देखें कि परिवार के किन पहलुओं में लोगों के लक्ष्य, आदर्श, और इच्छाएँ शामिल हैं। परिवार की अवधारणा से कोई अनजान नहीं है। इस विषय का जिक्र आते ही लोगों के मन में सबसे पहले परिवार की संरचना और परिवार के सदस्य, परिवार से जुड़े कुछ मामलों और लोगों की बात आती है। परिवार से संबंधित ऐसे कई विषय हैं। तुम्हारे मन में चाहे कितनी भी छवियाँ और विचार कौंध रहे हों, क्या वे “लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने” के विषय से संबंधित हैं जिस पर आज हम संगति करेंगे? हमारी संगति शुरू होने से पहले तुम इतना भी नहीं जानते कि ये चीजें एक-दूसरे से संबंधित हैं भी या नहीं। तो इससे पहले कि हम अपनी संगति शुरू करें, क्या तुम बता सकते हो कि लोगों के मन में परिवार का क्या अर्थ है, या तुम्हारे अनुसार परिवार की बात आने पर हमें किसका त्याग करना चाहिए? इससे पहले हमने लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं से संबंधित कई पहलुओं पर बात की थी। क्या तुम लोगों ने पहचाना कि इस विषय पर हमारी संगति के हर एक पहलू में क्या-क्या शामिल है? इसमें चाहे कोई भी पहलू शामिल हो, लोगों को इस मामले को छोड़ने के बजाय, उन गलत विचारों और दृष्टिकोण को त्यागना चाहिए जो वे इसके प्रति अपनाते हैं; साथ ही, इस मामले से संबंधित अपनी विभिन्न समस्याओं को भी त्यागना चाहिए। ऐसे पहलुओं के संबंध में इन विभिन्न समस्याओं पर संगति करना सबसे अहम है। ये विभिन्न समस्याएँ ही लोगों के सत्य के अनुसरण को प्रभावित करती हैं, बल्कि अधिक सटीक रूप से कहें, तो ये सभी समस्याएँ ही लोगों को सत्य का अनुसरण करने और सत्य में प्रवेश करने से रोकती हैं। यानी, अगर किसी मामले को लेकर तुम्हारे ज्ञान में भटकाव या समस्याएँ हैं, तो उस मामले के प्रति तुम्हारे रवैये, दृष्टिकोण या उससे निपटने के तरीके में भी तुम्हें उनसे संबंधित समस्याएँ आएँगी, और हमें आज उनसे संबंधित इन्हीं समस्याओं पर संगति करनी है। हमें इन पर संगति क्यों करनी है? क्योंकि इन समस्याओं का तुम्हारे सत्य के अनुसरण और किसी मामले को लेकर तुम्हारे सही, सैद्धांतिक दृष्टिकोणों पर बड़ा भारी या जबरदस्त प्रभाव पड़ता है, और वे समस्याएँ स्वाभाविक रूप से इस मामले के संबंध में तुम्हारे अभ्यास करने के तरीके की शुद्धता, और इससे निपटने के सिद्धांतों को भी प्रभावित करती हैं। जिस तरह हमने व्यक्तिगत रुचियों, शौक, और शादी के विषयों पर संगति की थी, वैसे ही हम परिवार के विषय पर संगति कर रहे हैं, क्योंकि परिवार के बारे में भी लोगों के कई गलत विचार, दृष्टिकोण और रवैये हैं, या क्योंकि परिवार स्वयं लोगों पर कई नकारात्मक प्रभाव डालता है, और इन नकारात्मक प्रभावों के कारण ही लोग स्वाभाविक रूप से गलत विचार और दृष्टिकोण अपना लेते हैं। ये गलत विचार और दृष्टिकोण तुम्हारे सत्य के अनुसरण को प्रभावित करेंगे, और तुम्हें चरम सीमा तक ले जाएँगे, ताकि जब भी तुम्हारे सामने परिवार से जुड़े मामले आएँ, या परिवार संबंधी समस्याओं से तुम्हारा सामना हो, तो तुम्हारे पास उन मामलों और समस्याओं को देखने या उनसे निपटने और उनसे उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं को हल करने के लिए सही दृष्टिकोण या मार्ग न हो। यह हर एक विषय पर हमारी संगति का सिद्धांत है, और वह मुख्य समस्या है जिसे हल करना जरूरी है। तो, जहाँ तक परिवार के विषय का संबंध है, क्या तुम लोग सोच सकते हो कि तुम्हारा परिवार तुम लोगों पर कौन से नकारात्मक प्रभाव डालता है, और किन तरीकों से परिवार तुम्हारे सत्य के अनुसरण में बाधा डालता है? तुम्हारी आस्था और कर्तव्य निर्वहन के दौरान, और जब तुम सत्य का अनुसरण करते हो या सत्य सिद्धांत खोजते हो, और सत्य का अभ्यास करते हो, तो परिवार तुम्हारी सोच, तुम्हारे आचरण के सिद्धांतों, तुम्हारे मूल्यों, और जीवन के प्रति तुम्हारे नजरिये को किस तरह से प्रभावित और बाधित करता है? दूसरे शब्दों में, जिस परिवार में तुम्हारा जन्म हुआ था, वह एक विश्वासी के रूप में तुम्हारे दैनिक जीवन, और तुम्हारे सत्य के अनुसरण और उसके ज्ञान पर कैसा प्रभाव डालता है, कैसे गलत विचार और दृष्टिकोण उत्पन्न करता है, कैसी बाधाएँ और रुकावटें डालता है? जिस तरह शादी के विषय पर संगति करने में एक सिद्धांत का पालन किया जाता है, वैसे ही परिवार के विषय पर संगति में भी किया जाता है। यह ऐसा नहीं कहता कि तुम औपचारिक अर्थों में या अपनी सोच और दृष्टिकोण के संदर्भ में परिवार की अवधारणा त्याग दो, न ही यह तुमसे अपने वास्तविक, भौतिक परिवार या अपने भौतिक परिवार के किसी सदस्य को त्यागने की अपेक्षा करता है। बल्कि इसकी अपेक्षा है कि तुम उन सभी नकारात्मक प्रभावों को त्याग दो जो परिवार तुम पर डालता है; और उन बाधाओं और रुकावटों को भी त्याग दो जो परिवार तुम्हारे सत्य के अनुसरण के रास्ते में पैदा करता है। खास तौर पर, यह कहना सही होगा कि तुम्हारा परिवार ऐसी विशिष्ट और सटीक उलझनों और दिक्कतों का कारण बन जाता है जिन्हें तुम सत्य का अनुसरण करते और अपना कर्तव्य निभाते हुए महसूस और अनुभव कर सकते हो, और जो तुम्हें इतना बेबस कर देते हैं कि तुम उनसे मुक्त नहीं हो पाते या अच्छी तरह से अपने कर्तव्यों का पालन और सत्य का अनुसरण भी नहीं कर सकते। इन उलझनों और दिक्कतों के कारण ही तुम्हारा इस “परिवार” शब्द या इसमें शामिल लोगों या इससे जुड़े मामलों से उत्पन्न होने वाली बाधाओं और प्रभावों को दूर करना मुश्किल हो जाता है, और परिवार के अस्तित्व के कारण या परिवार द्वारा तुम पर डाले गए किसी भी नकारात्मक प्रभाव के कारण ही अपनी आस्था और अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान तुम उत्पीड़ित महसूस करते हो। ये उलझनें और दिक्कतें अक्सर तुम्हारी अंतरात्मा को भी दुखी करती हैं और तुम्हारे तन-मन को मुक्त नहीं होने देती हैं, और अक्सर तुम्हें ऐसा महसूस कराती हैं जैसे कि अगर तुम अपने परिवार से मिले इन विचारों और दृष्टिकोणों के खिलाफ गए, तो तुम्हारे अंदर मानवता नहीं होगी, और तुम अपनी नैतिकता और आचरण के न्यूनतम मानकों और सिद्धांतों को भी खो दोगे। जब पारिवारिक मुद्दों की बात आती है, तो तुम अक्सर नैतिकता और सत्य के अभ्यास के बीच की लाल रेखा के बीच झूलते रहते हो, इससे खुद को मुक्त करने और बाहर निकलने में असमर्थ होते हो। यहाँ कौन-सी विशिष्ट समस्याएँ हैं—क्या तुम लोग कोई समस्या बता सकते हो? अभी मैंने जिन बातों का जिक्र किया, क्या तुम लोग कभी अपने दैनिक जीवन में उनमें से कुछ बातों का अनुभव करते हो? (परमेश्वर की संगति से, मुझे याद आ रहा है कि क्योंकि अपने परिवार को लेकर मेरे कुछ गलत दृष्टिकोण थे, तो मैं सत्य का अभ्यास नहीं कर पा रही थी, और ऐसा करने में मेरी अंतरात्मा को पीड़ा हो रही थी। पहले, जब मैं अपनी पढ़ाई खत्म करके खुद को अपने कर्तव्य निर्वहन में समर्पित करना चाहती थी, तो मेरे अंदर काफी संघर्ष चलता रहता था। मुझे लगता था कि क्योंकि मेरे परिवार ने मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया और इस दौरान मेरी पढ़ाई का खर्चा उठाया, और अब मैं यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट हो गई हूँ, ऐसे में अगर मैंने पैसे कमाकर अपने परिवार का ख्याल नहीं रखा, तो मैं उनकी संतान कहलाने लायक नहीं रहूँगी और अपनी मानवता खो दूँगी, जो मेरी अंतरात्मा पर भारी बोझ बन गया था। उस समय, मैं कई महीनों तक इस मामले को लेकर संघर्ष करती रही, आखिरकार मुझे परमेश्वर के वचनों में एक मार्ग मिल ही गया, और मैंने अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाने का फैसला किया। मुझे लगता है कि परिवार के बारे में ये गलत दृष्टिकोण वाकई लोगों को प्रभावित करते हैं।) यह एक सामान्य उदाहरण है। ये परिवार द्वारा लोगों पर डाली गई अदृश्य बेड़ियाँ हैं; साथ ही, ये ऐसी दिक्कतें हैं जो अपने जीवन, अनुसरण और आस्था के संबंध में लोगों की भावनाओं, विचारों या दृष्टिकोणों पर उनके परिवार द्वारा पैदा की जाती हैं। कुछ हद तक, ये दिक्कतें तुम्हारे दिल की गहराइयों में दबाव और बोझ पैदा करती हैं, जिनसे समय-समय पर अंतर्मन में कुछ बुरी भावनाएँ जन्म लेती हैं। और कोई कुछ कहना चाहेगा? (परमेश्वर, मेरा दृष्टिकोण है कि मैं एक बच्चा था, और अब बड़ा हो गया हूँ, और इस नाते मुझे अपने माँ-बाप के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाते हुए उनकी सभी चिंताओं और समस्याओं का निवारण करना चाहिए। लेकिन क्योंकि मैं पूरे समय अपना कर्तव्य निभाता हूँ, तो अपने माँ-बाप के प्रति एक संतान का कर्तव्य नहीं निभा पाता या उनके लिए कुछ नहीं कर पाता। अपने माँ-बाप को रोजी-रोटी कमाने के लिए इधर-उधर भागते देखकर, मुझे ऐसा लगता है कि मैं उनका ऋणी हूँ। पहले-पहल, जब मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था, तो इसी वजह से मैं उसे धोखा देने ही वाला था।) व्यक्ति के परिवार की संस्कृति का उसकी सोच और विचारों पर यह नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है। तुम परमेश्वर को धोखा देने वाले थे, लेकिन कुछ लोगों ने तो वाकई उसे धोखा दे दिया। कुछ लोग अपनी मजबूत पारिवारिक धारणाओं के कारण अपने परिवार को त्याग नहीं पाए। अंत में, उन्होंने अपने परिवार की खातिर जीते रहने का विकल्प चुना और अपने कर्तव्यों का पालन करना छोड़ दिया।
सभी का एक परिवार होता है, सभी एक अलग परिवार में बड़े होते हैं, और एक अलग पारिवारिक माहौल से आते हैं। परिवार सभी के लिए बहुत अहम होता है, और यह व्यक्ति के जीवन पर सबसे बड़ा प्रभाव डालता है, जो बहुत गहरा होता है और इसे हटाना और त्यागना आसान नहीं है। लोगों के लिए अपने पारिवारिक घर को या उसमें मौजूद सभी उपकरणों, बर्तनों, और दूसरी चीजों को नहीं, बल्कि परिवार के सदस्यों या पारिवारिक परिवेश और स्नेह को त्यागना मुश्किल होता है। लोगों के मन में परिवार की यही अवधारणा है। उदाहरण के लिए, परिवार के बड़े सदस्य (दादा-दादी और माँ-बाप), तुम्हारी उम्र के लोग (भाई, बहन और जीवनसाथी), और युवा पीढ़ी (तुम्हारे अपने बच्चे) : लोगों के मन में बसी परिवार की अवधारणा में ये महत्वपूर्ण सदस्य हैं, और वे हर परिवार के सबसे महत्वपूर्ण घटक भी होते हैं। लोगों के लिए परिवार का क्या अर्थ है? लोगों के लिए इसका अर्थ भावनात्मक पोषण और आध्यात्मिक सहारा है। परिवार का और क्या अर्थ है? परिवार वह जगह है जहाँ व्यक्ति को प्यार मिल सकता है, वह अपने दिल की बात खुलकर कह सकता है, या जहाँ वह दयावान और मनमौजी हो सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि परिवार एक ऐसी सुरक्षित जगह है जहाँ व्यक्ति को भावनात्मक पोषण मिल सकता है, जहाँ व्यक्ति का जीवन शुरू होता है। और क्या? तुम लोग मुझे समझाओ। (परमेश्वर, मुझे लगता है कि पारिवारिक घर ऐसी जगह है जहाँ लोग बड़े होते हैं, जहाँ परिवार के सदस्य एक-दूसरे का साथ देते हैं और एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं।) बहुत अच्छे। और क्या? (मैं परिवार को एक आरामदायक ठिकाना मानता था। बाहरी दुनिया में मैंने चाहे कितना भी अन्याय सहा हो, जब मैं घर आता था, तो अपने परिवार के सहयोग और समझ के कारण मेरा मन और आत्मा पूरी तरह से शांत हो जाती थी, इसलिए मुझे परिवार एक सुरक्षित ठिकाना लगता था।) पारिवारिक घर सुकून और स्नेह की जगह है, है न? लोगों के मन में परिवार महत्वपूर्ण है। जब भी कोई खुश होता है, तो वह अपनी खुशी अपने परिवार के साथ बाँटना चाहता है; जब भी कोई परेशान और दुखी होता है, तो वह इसी तरह अपनी दिक्कतें अपने परिवार को बताना चाहता है। जब भी लोग आनंदित, क्रोधित, दुखी, और खुश होते हैं, तो वे बिना किसी दबाव या बोझ के उसे अपने परिवार के साथ बाँटते हैं। हर किसी के लिए परिवार एक प्यारी और सुंदर चीज है, यह आत्मा के लिए ऐसा पोषण है जिसे लोग त्याग नहीं सकते या जिसके बिना वे जी नहीं सकते, और पारिवारिक घर एक ऐसी जगह है जो लोगों के तन-मन और आत्मा को जबरदस्त सहारा देती है। इसलिए, परिवार हर व्यक्ति के जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा है। लेकिन यह जगह, जो लोगों के अस्तित्व और जीवन में इतनी महत्वपूर्ण है, उनके सत्य के अनुसरण पर कैसे नकारात्मक प्रभाव डालती है? सबसे पहले, यह यकीन से कहा जा सकता है कि लोगों के अस्तित्व और जीवन में परिवार चाहे कितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो, या वह उनके अस्तित्व और जीवन में चाहे जो भी भूमिका निभाए और जैसा भी काम करे, वह तब भी सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों के मार्ग में कुछ छोटी-बड़ी परेशानियाँ खड़ी करता ही है। जहाँ यह सत्य के अनुसरण के दौरान लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, यह सभी प्रकार की परेशानियाँ और समस्याएँ भी पैदा करता है जिन्हें टालना आसान नहीं होता। यानी, सत्य के अनुसरण और अभ्यास के दौरान, लोगों के लिए परिवार जितनी भी विभिन्न मनोवैज्ञानिक और वैचारिक समस्याएँ और साथ ही औपचारिक पहलुओं से संबंधित समस्याएँ पैदा करता है, उनसे लोगों को अत्यधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। तो ये समस्याएँ वास्तव में क्या हैं? बेशक, सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में, लोग पहले ही अलग-अलग संख्या और तीव्रता में इन समस्याओं का अनुभव कर चुके हैं, बात बस इतनी है कि उन्होंने उनके बारे में सावधानी से विचार और चिंतन नहीं किया है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि वास्तव में ये निहित समस्याएँ क्या हैं। इसके अलावा, लोगों ने इन समस्याओं के सार तक को नहीं पहचाना है, उन सत्य सिद्धांतों की बात तो छोड़ ही दो जिन्हें समझकर उनका पालन करना चाहिए। तो, आज, हम परिवार के विषय पर और उन समस्याओं और बाधाओं के बारे में संगति करेंगे जो परिवार लोगों के सत्य के अनुसरण के मार्ग में पैदा करता है; हम यह भी जानेंगे कि जब परिवार के मसले की बात आए तो लोगों को किन लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए। यह बहुत ही वास्तविक समस्या है।
भले ही परिवार एक बड़ा विषय है, मगर यह कई विशेष समस्याएँ खड़ी करता है। आज हम उस नकारात्मक प्रभाव, हस्तक्षेप और बाधा की समस्या पर संगति करेंगे जो परिवार के कारण सत्य का अनुसरण करने वालों को सहना पड़ता है। परिवार के संबंध में वह पहली समस्या कौन-सी है जिसे व्यक्ति को त्याग देना चाहिए? यह व्यक्ति को अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान है। यह एक महत्वपूर्ण मसला है। चलो बात करें कि आखिर यह मसला कितना महत्वपूर्ण है। हर कोई एक अलग परिवार से आता है, सबकी अपनी अलग पृष्ठभूमि, जीवन जीने का परिवेश और अपना जीवन स्तर होता है, सबकी अपनी खास जीवन शैली और आदतें होती हैं। हर व्यक्ति को विरासत में एक विशिष्ट पारिवारिक जीवन परिवेश और पृष्ठभूमि मिलती है। यह अलग पहचान न सिर्फ समाज में और दूसरों के बीच हर व्यक्ति की विशेष अहमियत दर्शाती है, बल्कि यह एक अलग संकेत और चिह्न भी है। तो यह चिह्न क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि क्या व्यक्ति अपने समूह में खास माना जाता है या निम्न दर्जे का। यह अलग पहचान समाज में और दूसरों के बीच व्यक्ति का दर्जा तय करती है, और उसे यह दर्जा उस परिवार से विरासत में मिलता है जिसमें वह पैदा हुआ था। इसलिए, तुम्हारी पारिवारिक पृष्ठभूमि और तुम जैसे परिवार में रहते हो, बेहद महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि समाज में और दूसरों के बीच वे तुम्हारी पहचान और दर्जे को प्रभावित करते हैं। तुम्हारी पहचान और दर्जा यह तय करता है कि तुम समाज में खास माने जाते हो या निम्नतर, क्या तुम्हारा सम्मान किया जाता है, क्या तुम्हें बहुत ऊँचा माना जाता है, और क्या दूसरे लोग तुम्हें आदर से देखते हैं, या फिर तुमसे नफरत किया जाता है, तुम्हारे साथ भेदभाव होता है, और तुम दूसरों के पैरों तले कुचले जाते हो। साफ तौर पर कहें, तो क्योंकि लोगों को अपने परिवार से विरासत में मिली इस पहचान का असर समाज में उनकी स्थिति और भविष्य पर पड़ता है, इसलिए विरासत में मिली यह पहचान हर व्यक्ति के लिए बहुत अहम और महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह पहचान समाज में तुम्हारी प्रतिष्ठा, दर्जे और अहमियत के साथ-साथ इस जीवन में तुम्हारी सम्मान या अपमान की भावना को प्रभावित करती है, इसलिए तुम भी अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और उससे विरासत में मिली पहचान को काफी अहमियत देते हो। क्योंकि इस मामले का तुम पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है, इसलिए यह तुम्हारे जीवन के मार्ग पर तुम्हारे लिए बहुत ही अहम और महत्वपूर्ण बात है। क्योंकि यह इतना अहम और महत्वपूर्ण मामला है, इसलिए तुम्हारी आत्मा की गहराइयों में इसकी एक अहम जगह है, और तुम्हारे लिए यह बहुत मायने रखता है। अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान न केवल तुम्हारे लिए बहुत मायने रखती है, बल्कि तुम जान-पहचान के या अनजाने लोगों की पहचान को भी उसी नजरिये से, उन्हीं आँखों से, और उसी तरह से देखते हो, और तुम जिस किसी से भी मिलते हो उसकी पहचान को मापने के लिए उसी नजरिये का इस्तेमाल करते हो। तुम उसकी पहचान से उसके चरित्र को आँकते हो, और यह तय करते हो कि उससे संपर्क और मेलजोल कैसे किया जाए—क्या उससे दोस्ताना ढंग से मिला जाए, बराबरी के स्तर से बात की जाए या उसके अधीन रहकर उसकी हर बात सुनी और मानी जाए, या बस तिरस्कारपूर्ण और भेदभावपूर्ण नजरों से देखते हुए बस थोड़ी बातचीत की जाए, या फिर अमानवीय तरीके से या असमानता का भाव रखते हुए बात की जाए। लोगों को देखने और चीजों से निपटने के ये तरीके काफी हद तक व्यक्ति की उस पहचान से तय होते हैं जो उसे अपने परिवार से विरासत में मिली है। तुम्हारे परिवार की पृष्ठभूमि और स्थिति यह तय करती है कि तुम्हारा सामाजिक दर्जा क्या होगा, और तुम्हारा सामाजिक दर्जा ही लोगों और चीजों को देखने और उनसे निपटने के तुम्हारे तरीकों और सिद्धांतों को निर्धारित करता है। इसलिए, चीजों से निपटने के लिए व्यक्ति जो रवैया और तरीके अपनाता है, वे काफी हद तक, उन्हें अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान पर निर्भर करते हैं। “काफी हद तक” से मेरा क्या मतलब है? कुछ विशेष परिस्थितियाँ हैं, जिनके बारे में हम बात नहीं करेंगे। ज्यादातर लोगों के लिए, स्थिति वैसी ही है जैसी मैंने अभी बताई। हर कोई अपने परिवार से मिली पहचान और सामाजिक दर्जे से प्रभावित होता है, और हर कोई इस पहचान और सामाजिक दर्जे के अनुसार ही लोगों और चीजों को देखता और उनके साथ व्यवहार करता है—यह बहुत स्वाभाविक है। साफ तौर पर, क्योंकि यह एक ऐसी अनिवार्य चीज और अस्तित्व को लेकर ऐसा नजरिया है जो स्वाभाविक रूप से व्यक्ति को परिवार से मिलता है; व्यक्ति के अस्तित्व और जीवन जीने के तरीके पर उसके नजरिये का मूल उसे परिवार से विरासत में मिली पहचान पर निर्भर करता है। व्यक्ति को अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान उन तरीकों और सिद्धांतों को निर्धारित करती है जिनसे वह लोगों और चीजों को देखता और उनसे निपटता है, और साथ ही लोगों और चीजों को देखने और उनसे निपटने के दौरान उसके चुनावों और फैसलों के प्रति उनका दृष्टिकोण भी निर्धारित करती है। इससे निस्संदेह लोगों में एक गंभीर समस्या पैदा हो जाती है। एक अर्थ में, लोगों और चीजों को देखने और उनसे निपटने में लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों का मूल अपरिहार्य रूप से परिवार से प्रभावित होता है, तो वहीं दूसरे अर्थ में, यह व्यक्ति को अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान से भी प्रभावित होता है—इस प्रभाव से दूर होना लोगों के लिए बहुत मुश्किल होता है। इसी वजह से, लोग अपने साथ सही, तर्कसंगत, और निष्पक्ष व्यवहार या दूसरों के साथ उचित व्यवहार नहीं कर पाते, और लोगों और सभी चीजों के साथ परमेश्वर द्वारा सिखाए गए सत्य सिद्धांतों के मुताबिक व्यवहार करने में भी असमर्थ होते हैं। इसके बजाय, वे मामलों से निपटने, सिद्धांतों को लागू करने और फैसले लेने में लचीलापन दिखाते हैं, जो उनकी अपनी पहचान और दूसरों की पहचान के बीच अंतर पर आधारित होता है। चूँकि समाज में और दूसरों के बीच चीजों को देखने और उनसे निपटने के लोगों के तरीके उनके परिवार की हैसियत से प्रभावित होते हैं, इसलिए ये तरीके चीजों से निपटने के उन सिद्धांतों और तरीकों से बेशक अलग होंगे जो परमेश्वर ने लोगों को बताए हैं। और सटीक तौर पर कहें, तो ये तरीके परमेश्वर के सिखाए इन सिद्धांतों और तरीकों के विपरीत होंगे, उनका प्रतिरोध और उल्लंघन करेंगे। अगर लोगों के काम करने के तरीके परिवार से विरासत में मिली उनकी पहचान और सामाजिक दर्जे पर आधारित हुए, तो वे अपनी और दूसरों की अलग या विशेष पहचान के कारण निस्संदेह चीजों को करने के लिए अलग-अलग या विशेष तरीके और सिद्धांत अपनाएँगे। उनके द्वारा अपनाए जाने वाले ये सिद्धांत सत्य नहीं हैं, और न ही वे सत्य के अनुरूप हैं। वे न केवल मानवता, अंतरात्मा और विवेक का उल्लंघन करते हैं, बल्कि इससे भी गंभीर रूप से, वे सत्य का उल्लंघन करते हैं, क्योंकि वे व्यक्ति की प्राथमिकताओं और रुचियों के आधार पर तय करते हैं कि उसे क्या अपनाना और क्या ठुकराना चाहिए, और किस हद तक लोगों को एक-दूसरे से अपेक्षाएँ रखनी चाहिए। इसलिए, इस संदर्भ में, लोग चीजों को देखने और उनसे निपटने के लिए जिन सिद्धांतों का इस्तेमाल करते हैं वे अनुचित हैं और सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और वे पूरी तरह से व्यक्ति की भावनात्मक जरूरतों और लाभ पाने की चाहत पर आधारित हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान खास है या निम्न स्तर की, तुम्हारे दिल में इस पहचान की खास जगह है, और कुछ लोगों के लिए तो यह बेहद अहम है। इसलिए, अगर तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, तो यह पहचान निस्संदेह तुम्हारे सत्य के अनुसरण को प्रभावित करेगी और उसमें हस्तक्षेप करेगी। यानी, सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में, तुम इन समस्याओं का सामना जरूर करोगे, जैसे कि लोगों से कैसा व्यवहार करें और चीजों से कैसे निपटें। जब इन समस्याओं और महत्वपूर्ण मसलों की बात आएगी, तो तुम अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान से जुड़े परिप्रेक्ष्यों या दृष्टिकोणों को अपनाकर ही लोगों और चीजों को देखोगे, और तुम लोगों को देखने और चीजों से निपटने के इसी आदिम या सामाजिक तरीके का इस्तेमाल करने से खुद को रोक नहीं पाओगे। अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान चाहे तुम्हें समाज में खास महसूस कराती हो या निम्न दर्जे का, दोनों ही सूरत में, इस पहचान का तुम्हारे सत्य के अनुसरण, जीवन के प्रति तुम्हारे सही नजरिये, और सत्य का अनुसरण करने के तुम्हारे सही मार्ग पर प्रभाव जरूर पड़ेगा। सटीक तौर पर कहें, तो यह चीजों से निपटने के तुम्हारे सिद्धांतों को प्रभावित करेगा। समझ गए?
विभिन्न परिवारों से लोगों को विभिन्न पहचान और सामाजिक दर्जे मिलते हैं। एक अच्छे सामाजिक दर्जे और अलग पहचान का लोग आनंद उठाते हैं, जबकि एक सामान्य और निम्न स्तरीय परिवार से विरासत में मिली पहचान लोगों को दूसरों का सामना करने में छोटा और शर्मिंदा महसूस कराती है, और उन्हें यह भी लगता है कि उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता या अधिक सम्मान नहीं दिया जाता है। ऐसे लोगों के साथ अक्सर भेदभाव भी होता है, जिससे उन्हें दिल की गहराइयों से पीड़ा होती है और उनका स्वाभिमान डगमगा जाता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों के माँ-बाप छोटे किसान हो सकते हैं जो खेती करते और सब्जियाँ बेचते हैं; कुछ लोगों के माँ-बाप छोटे कारोबार करने वाले व्यापारी हो सकते हैं, जो ठेला लगाने या फेरी लगाने जैसे छोटे-मोटे काम करते हैं; कुछ लोगों के माँ-बाप शिल्प उद्योग में काम करने वाले हो सकते हैं, वे कपड़े बनाने और उनकी मरम्मत करने का काम करते हैं, या पैसे कमाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए हस्तशिल्प के काम पर निर्भर हो सकते हैं। कुछ लोगों के माँ-बाप सेवा उद्योग में सफाई कर्मी या आया का काम कर सकते हैं; कुछ माँ-बाप चीजों को निकालने या हटाने या परिवहन का काम करने वाले हो सकते हैं; कुछ मालिश करने वाले, ब्यूटीशियन या नाई हो सकते हैं, और कुछ माँ-बाप जूते, साइकिल, चश्मे वगैरह की मरम्मत करने वाले हो सकते हैं। कुछ माँ-बाप अधिक कौशल वाले शिल्पकार्य या गहने या घड़ियों जैसी चीजों की मरम्मत कर सकते हैं, जबकि दूसरों का सामाजिक दर्जा इससे भी कमतर हो सकता है, जो अपने बच्चों और परिवार का पालन-पोषण करने के लिए कबाड़ इकठ्ठा करके उन्हें बेचने के आसरे जीते हैं। समाज में इन सभी माँ-बाप का पेशेवर दर्जा दूसरों से अपेक्षाकृत कमतर होता है, और इसी वजह से उनके परिवार के हर सदस्य का सामाजिक दर्जा भी छोटा ही होगा। दुनिया की नजरों में, ऐसे परिवार से आने वाले लोगों का दर्जा और पहचान छोटी होती है। इसका मुख्य कारण यह है कि समाज व्यक्ति की पहचान को देखने और उसकी अहमियत को मापने का यही तरीका अपनाता है; अगर तुम्हारे माँ-बाप छोटे किसान हैं और कोई तुमसे पूछता है, “तुम्हारे माँ-बाप क्या करते हैं? तुम्हारा परिवार कैसा है?” तो तुम जवाब दोगे “मेरे माँ-बाप... अरे वे तो... छोड़ो उनके बारे में क्या बताऊँ,” और तुम यह बताने की हिम्मत नहीं करोगे कि वे क्या काम करते हैं, क्योंकि इससे तुम्हें बहुत शर्मिंदगी होगी। सहपाठियों और दोस्तों से मिलते हुए या उनके साथ डिनर पर बाहर जाते हुए, लोग अपना परिचय देते हुए अपने परिवार की अच्छी पृष्ठभूमि या उनके ऊँचे सामाजिक दर्जे के बारे में बात करेंगे। लेकिन अगर तुम छोटे किसानों, छोटे व्यापारियों या फेरी वालों के परिवार से आते हो, तो तुम यह नहीं बताना चाहोगे और शर्मिंदा महसूस करोगे। समाज में एक लोकप्रिय कहावत है, “एक नायक से उसकी जड़ों के बारे में मत पूछो।” इस कहावत का अर्थ बहुत खास है, और निम्न सामाजिक दर्जा रखने वाले लोगों के लिए यह एक आशा की किरण और प्रकाश-पुंज की तरह है और उन्हें काफी सुकून देता है। लेकिन ऐसी कहावत समाज में इतनी लोकप्रिय क्यों है? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि समाज में लोग अपनी पहचान, अहमियत और सामाजिक दर्जे पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं? (बिल्कुल।) तुच्छ पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों में लगातार आत्मविश्वास की कमी होती है, इसलिए वे खुद को दिलासा देने, और दूसरों को आश्वस्त करने के लिए इस कहावत का उपयोग करते हैं, सोचते हैं कि भले ही उनका दर्जा और पहचान निम्न स्तर की हो, पर वे दिमाग से तेज हैं, और यह ऐसी चीज है जो सीखी नहीं जा सकती। चाहे तुम्हारी पहचान कितनी भी छोटी हो, अगर तुम्हारा दिमाग तेज है, तो यह साबित करता है कि तुम एक सम्माननीय व्यक्ति हो, यहाँ तक कि खास पहचान और दर्जा पाए लोगों से भी ज्यादा। यह किस समस्या की ओर संकेत करता है? जितना ज्यादा लोग कहते हैं कि “एक नायक से उसकी जड़ों के बारे में मत पूछो,” उतना ही यह साबित होता है कि वे उसकी पहचान और सामाजिक दर्जे की परवाह करते हैं। खास तौर पर जब किसी व्यक्ति की पहचान और सामाजिक दर्जा बेहद सामान्य और निम्न स्तर का होता है, तो वे खुद को दिलासा देने और अपने दिलों के खोखलेपन और असंतोष को भरने के लिए इस कहावत का उपयोग करते हैं। कुछ लोगों के माँ-बाप छोटे व्यापारियों, फेरी वालों, छोटे किसानों और कारीगरों से भी बुरी स्थिति में होते हैं, या उन माँ-बाप से भी बदतर होते हैं जो समाज में छोटे-मोटे, तुच्छ और विशेष रूप से कम आय वाले काम करते हैं, तो उन्हें अपने माँ-बाप से विरासत में मिली पहचान और दर्जा और अधिक निम्न स्तर का होता है। उदाहरण के लिए, समाज में कुछ लोगों के माँ-बाप का नाम बहुत बदनाम होता है, वे ऐसे काम नहीं करते जो उन्हें करना चाहिए, और उनके पास सामाजिक तौर पर स्वीकार्य पेशा या पैसे कमाने का निश्चित जरिया भी नहीं होता, तो वे अपना परिवार चलाने के लिए संघर्ष करते हैं। कुछ माँ-बाप अक्सर जुआ खेलते हैं और हर दांव पर पैसे हार जाते हैं। अंत में, परिवार के पास फूटी कौड़ी भी नहीं बचती, रोजमर्रा के खर्चे के पैसे भी नहीं होते। इस परिवार में पैदा हुए बच्चे मैले-कुचैले कपड़े पहनते हैं, भूखे रहते हैं और गरीबी में जीते हैं। उनके माँ-बाप स्कूल में पैरेंट-टीचर मीटिंग में कभी नहीं आते, और टीचर को पता होता है कि वे जुआ खेलने गए हैं। यह बताने की जरूरत नहीं कि शिक्षकों और अपने सहपाठियों की नजरों में इन बच्चों की पहचान और दर्जा कैसा होता है। ऐसे परिवार में जन्मे बच्चों को यह महसूस होता है कि वे दूसरों के सामने अपना सिर उठाकर नहीं चल सकते। भले ही वे अच्छी तरह पढ़ाई करें और कड़ी मेहनत करें, और भले ही उनका दिमाग तेज हो और वे दूसरों से अलग दिखते हों, इस परिवार से विरासत में मिली पहचान की वजह से दूसरों की नजरों में उनका दर्जा और मूल्य पहले ही तय कर दिया गया है—यह व्यक्ति को बेहद दमित और पीड़ित महसूस करा सकता है। यह पीड़ा और दमन कहाँ से आता है? यह स्कूल से, शिक्षकों से, समाज से, और खास तौर पर लोगों से पेश आने के मानवजाति के गलत दृष्टिकोण से आता है। ऐसा ही है न? (बिल्कुल है।) कुछ माँ-बाप समाज में विशेष रूप से बदनाम नहीं होते, पर उन्होंने कुछ घृणित काम किए होते हैं। उदाहरण के लिए उन माँ-बाप को लो, जिन्हें गबन करने और रिश्वत लेने के कारण, या कुछ गैरकानूनी काम करके या सट्टेबाजी और मुनाफाखोरी करके कानून तोड़ने के आरोप में सजा सुनाकर जेल में डाल दिया गया है। इस वजह से वे अपने साथ-साथ अपने परिवार के सदस्यों को भी इस अपमान को झेलने के लिए मजबूर करके अपने परिवार पर नकारात्मक और प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। तो, ऐसे परिवार से संबंधित होने का व्यक्ति की पहचान पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। न केवल उनकी पहचान और सामाजिक दर्जा निम्नतर होता है, बल्कि उन्हें नीची नजर से देखा जाता है, और यहाँ तक कि उन्हें “गबन करने वाला” और “चोर परिवार का सदस्य” जैसे नाम से भी बुलाया जाता है। जब किसी को ऐसे नाम दिए जाते हैं, तो इसका उनकी पहचान और सामाजिक दर्जे पर और भी अधिक बुरा प्रभाव पड़ता है, और समाज में उनकी स्थिति बदतर हो जाती है, जिससे वे अपना सिर उठाकर चलने में बेहद असमर्थ महसूस करेंगे। चाहे तुम कितनी भी कोशिश कर लो या कितने भी मिलनसार क्यों न हो, फिर भी तुम अपनी पहचान और सामाजिक दर्जा नहीं बदल पाओगे। बेशक, व्यक्ति की पहचान पर परिवार का प्रभाव होने के कारण भी ऐसे परिणाम होते हैं। फिर कुछ पारिवारिक ढाँचे अपेक्षाकृत जटिल होते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों की कोई सगी माँ नहीं होती बल्कि सिर्फ सौतेली माँ होती है, जो उनके प्रति बहुत उदार या विचारशील नहीं होती, और जिसने बड़े होते समय उनकी ज्यादा देखभाल नहीं की या उन्हें माँ का प्यार नहीं दिया। उनके लिए, इस तरह के परिवार से संबंध होना उन्हें प्रभावी रूप से एक विशेष पहचान देता है, अनचाहा होने की पहचान। इस विशेष पहचान के कारण वे अधिक निराश होते हैं और उन्हें लगता है कि दूसरों के बीच उनका दर्जा सबसे निम्नतर है। उनमें खुशी की कोई भावना नहीं होती, अस्तित्व का कोई एहसास नहीं होता, जीने का कोई मकसद होना तो दूर की बात है, और वे विशेष रूप से दीनहीन और बदकिस्मत महसूस करते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनका पारिवारिक ढाँचा इसलिए जटिल होता है क्योंकि कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण उनकी माँ ने लगातार शादियाँ कीं, तो उनके कई सौतेले पिता हैं और वे नहीं जानते कि उनका असली पिता कौन है। यह बताने की जरूरत नहीं कि ऐसे परिवार से आने वाले व्यक्ति की पहचान कैसी होगी। दूसरों की नजरों में उनका सामाजिक दर्जा निम्नतर होगा, और समय-समय पर ऐसे लोग भी होंगे जो इन मुद्दों से या परिवार के बारे में कुछ राय बनाकर उस व्यक्ति को अपमानित करने, बदनाम करने और भड़काने का काम करेंगे। इससे न केवल समाज में ऐसे व्यक्ति की पहचान और दर्जा कमतर होगा, बल्कि उसे शर्मिंदगी महसूस होगी और वह दूसरों को अपना चेहरा भी नहीं दिखा पाएगा। संक्षेप में, वह विशेष पहचान और सामाजिक दर्जा जो लोगों को एक ऐसे परिवार विशेष का हिस्सा होने से विरासत में मिलता है, जिनका कि मैंने उदाहरण दिया, या वह आम, साधारण पहचान और सामाजिक दर्जा जो लोगों को एक आम, साधारण परिवार से संबंधित होने के कारण विरासत में मिलता है, वह उनके दिल की गहराइयों में बसी एक धुंधली-सी पीड़ा है। यह एक बेड़ी भी है और बोझ भी, पर लोग इसे उतार फेंकना बर्दाश्त नहीं कर सकते, और वे इसे त्यागने को तैयार नहीं हैं। क्योंकि हर व्यक्ति के लिए, पारिवारिक घर वह जगह है जहाँ वे पैदा हुए और पले-बढ़े, और यह पोषण से भरपूर जगह भी है। उन लोगों के लिए जिनका परिवार उन्हें तुच्छ और निम्न सामाजिक दर्जे और पहचान से बाँध देता है, उनके लिए परिवार अच्छा और बुरा दोनों है, क्योंकि मानसिक तौर पर लोग परिवार के बिना नहीं जी सकते, लेकिन उनकी वास्तविक और वस्तुगत जरूरतों के संदर्भ में, परिवार ने उन्हें अलग-अलग तरह से अपमानित किया है, उन्हें दूसरों के बीच और समाज में वह सम्मान और समझ पाने से रोका है जिनके वे हकदार हैं। तो इन लोगों के लिए पारिवारिक घर एक ऐसी जगह है जिससे वे प्यार भी करते हैं और नफरत भी। ऐसे परिवार को समाज में कोई भी अहमियत या सम्मान नहीं देता है, बल्कि उनके साथ भेदभाव किया जाता है और लोग उन्हें नीची नजर से देखते हैं। इसी वजह से, ऐसे परिवार में जन्मे लोगों को भी यही पहचान, दर्जा और मूल्य विरासत में मिलता है। इस परिवार से संबंधित होने के कारण उन्हें जो शर्मिंदगी महसूस होती है, वह अक्सर उनकी सबसे गहरी भावनाओं, चीजों पर उनके दृष्टिकोणों और उनसे निपटने के उनके तरीकों पर भी असर डालती है। यह निस्संदेह उनके सत्य के अनुसरण को और सत्य का अनुसरण करते हुए इसके अभ्यास को भी काफी हद तक प्रभावित करती है। क्योंकि ये चीजें लोगों के सत्य के अनुसरण और अभ्यास को प्रभावित कर सकती हैं, तो तुम्हें अपने परिवार से विरासत में चाहे जैसी भी पहचान मिली हो, तुम्हें उसे त्याग देना चाहिए।
कुछ लोग कह सकते हैं : “अभी तुमने जिन माँ-बाप के बारे में बात की वे सभी छोटे किसान, छोटे व्यापारी, फेरीवाले, सफाई कर्मी और छोटे-मोटे काम करने वाले लोग हैं। इनका सामाजिक दर्जा बहुत निम्न है, और लोगों का इन्हें त्याग देना ठीक ही है। वो कहावत है न, ‘आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है,’ तो लोगों को बड़ा सोचना चाहिए और बड़े लक्ष्य रखने चाहिए, और इन निम्न दर्जे वाली चीजों की ओर नहीं देखना चाहिए। उदाहरण के लिए, छोटा किसान कौन बनना चाहता है? छोटा व्यापारी कौन बनना चाहता है? हर कोई खूब पैसे कमाना, उच्च-स्तरीय अधिकारी बनना, समाज में रुतबा पाना, और शानदार कामयाबी हासिल करना चाहता है। कोई भी बचपन से ही छोटा किसान बनकर और खेती करके किसी तरह अपना गुजारा चला पाने से संतुष्ट रहने के सपने नहीं देखता। कोई भी इसे कामयाबी पाना नहीं कहता, ऐसा कोई भी नहीं है। चूँकि ऐसे परिवार के कारण लोगों को शर्मिंदगी होती है और ऐसी पहचान के कारण उनके साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाता है, इसलिए उन्हें अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान को त्याग देना चाहिए।” क्या ऐसा ही है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) नहीं, ऐसा नहीं है। अगर हम दूसरे पहलू से इस बारे में चर्चा करें, तो कुछ लोग संपन्न परिवारों से आते हैं, या जिनके पास जीने के लिए अच्छा माहौल या समाज में ऊँचा दर्जा होता है, तो वे विरासत में एक खास पहचान और सामाजिक दर्जा लेकर आते हैं, और सभी क्षेत्रों में उनका बहुत सम्मान किया जाता है। बड़े होने के दौरान, उनके माँ-बाप और परिवार के बड़े-बुजुर्ग उनके साथ बहुत विनम्र व्यवहार करते हैं, कहने की जरूरत नहीं कि समाज में उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है। उनके परिवार की खास और कुलीन पृष्ठभूमि के कारण, स्कूल में, उनके शिक्षक और सहपाठी सभी उन्हें ऊँची नजरों से देखते हैं, और कोई भी उन्हें धमकाने की हिम्मत नहीं करता। शिक्षक उनसे नरमी और स्नेह से बात करते हैं और उनके सहपाठी उनकी बड़ी इज्जत करते हैं। क्योंकि वे एक खास पृष्ठभूमि वाले संपन्न परिवार से आते हैं, जिससे उन्हें समाज में एक कुलीन पहचान मिलती है और सभी उनकी इज्जत करते हैं, वे खुद को दूसरों से श्रेष्ठ मानते हैं और उन्हें लगता है कि उनके पास एक सम्मानित पहचान और सामाजिक रुतबा है। इसलिए, हर समूह में वे अति-आत्मविश्वासी दिखते हैं, किसी की भावनाओं की परवाह किए बिना वे जो चाहे कह देते हैं, और अपने हर काम में पूरी तरह असंयमित होते हैं। दूसरे लोगों के सामने वे परिष्कृत और शिष्ट होते हैं, बड़ा सोचने, खुलकर बोलने और कार्य करने से नहीं डरते; उनकी कथनी या करनी चाहे जो भी हो, क्योंकि उनके पास अपनी मजबूत पारिवारिक पृष्ठभूमि का समर्थन होता है, हमेशा कुछ खास लोग उनकी मदद के लिए आगे आते रहते हैं, और उनका हर काम सहज रूप से चलता है। चीजें जितनी सहजता से चलती हैं, वे उतना ही ज्यादा श्रेष्ठ महसूस करते हैं। वे जहाँ भी जाते हैं, वहाँ दूसरों को प्रभावित करना, भीड़ से अलग खड़े होना और दूसरों से अलग दिखना चाहते हैं। दूसरों के साथ खाना खाते समय, वे बड़ा हिस्सा चुनते हैं, और अगर उन्हें ये नहीं मिलता तो वे गुस्सा हो जाते हैं। भाई-बहनों के साथ रहते हुए, वे सबसे अच्छे बिस्तर पर सोना चाहते हैं—जहाँ सबसे अच्छी धूप आती हो, या जो हीटर के पास हो, या जहाँ भी ताजी हवा आती हो—और यह सिर्फ उनका ही होता है। क्या यह खुद को दूसरों से श्रेष्ठ मानना नहीं है? (बिल्कुल है।) कुछ लोगों के माँ-बाप अच्छा पैसा कमाते हैं, या सिविल सेवक हैं, या ऊँचा वेतन पाने वाले प्रतिभाशाली पेशेवर हैं, तो उनके परिवार की ठाठ-बाट और रहन-सहन कुछ खास ही आरामदायक होता है, और उन्हें भोजन या कपड़े जैसी चीजें खरीद पाने की चिंता नहीं करनी पड़ती है। नतीजतन, ऐसे लोग खुद को श्रेष्ठतम महसूस करते हैं। वे जो चाहे पहन सकते हैं, सबसे फैशनेबल कपड़े खरीद सकते हैं और फैशन से बाहर हो जाने पर उन्हें फेंक भी सकते हैं। वे जो चाहे खा सकते हैं—उन्हें बस अपनी माँग रखनी है और उनके सामने सब हाजिर हो जाएगा। उन्हें किसी भी चीज के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है, और वे खुद को बहुत श्रेष्ठ मानते हैं। ऐसे संपन्न परिवार से उन्हें जो पहचान विरासत में मिलती है, उसका मतलब है कि दूसरों की नजरों में, अगर वे महिला हैं तो प्रभावी रूप से एक राजकुमारी हैं, या अगर वे पुरुष हैं तो एक रसिक हैं। ऐसे परिवार से उन्हें विरासत में क्या मिला है? एक कुलीन पहचान और सामाजिक दर्जा। ऐसे परिवार से उन्हें विरासत में जो मिला है वह शर्मिंदगी नहीं, बल्कि गौरव है। चाहे वे किसी भी माहौल या लोगों के समूह के बीच हों, उन्हें हमेशा यही लगता है कि वे बाकियों से श्रेष्ठ हैं। वे ऐसी बातें कहते हैं, जैसे, “मेरे माँ-बाप अमीर कारोबारी हैं। मेरे परिवार के पास बहुत सारा पैसा है। मैं जब चाहे तब इसे खर्च करता हूँ और मुझे कभी बजट बनाने की जरूरत नहीं पड़ती,” या “मेरे माँ-बाप ऊँची रैंक वाले अधिकारी हैं। मैं अपने कारोबार के संबंध में जहाँ भी जाऊँ वहाँ सामान्य प्रक्रियाओं से गुजरे बिना चुटकी बजाकर अपना काम निकलवा लेता हूँ। देखो, तुम लोगों को अपना काम निकलवाने के लिए कितनी कोशिश करनी पड़ती है, तुम्हें सारी प्रक्रियाओं से गुजरना होता है, अपनी बारी का इंतजार करना और लोगों के सामने हाथ-पैर जोड़ने पड़ते हैं। मुझे देखो, मैं बस अपने माँ-बाप के किसी सहयोगी को काम बता देता हूँ, तो वह आसानी से हो जाता है। इस पहचान और सामाजिक दर्जे के बारे में क्या कहोगे!” क्या वे खुद को श्रेष्ठ मानते हैं? (बिल्कुल।) कुछ लोग कहते हैं : “मेरे माँ-बाप सार्वजनिक हस्तियाँ हैं, तुम इंटरनेट पर उनका नाम डालकर देख सकते हो, वे वहाँ हैं या नहीं।” जब कोई हस्तियों की सूची देखता है और उनमें वाकई उनके माँ-बाप के नाम होते हैं, तो उन लोगों को श्रेष्ठता का एहसास होता है। अगर कहीं कोई उनसे यह पूछे, “तुम्हारा नाम क्या है?” तो उनका जवाब होता है, “मेरे नाम से क्या फर्क पड़ता है, मेरे माँ-बाप का नाम फलाँ-फलाँ हैं।” वे सबसे पहले लोगों को अपने माँ-बाप का नाम बताते हैं, ताकि दूसरों को उनकी पहचान और सामाजिक दर्जे का पता चल सके। कुछ लोग मन ही मन सोचते हैं : “तुम्हारे परिवार के पास रुतबा है, तुम्हारे माँ-बाप अधिकारी या मशहूर हस्तियाँ हैं या अमीर कारोबारी हैं, और यह तुम्हें ऊँची रैंक वाले अधिकारियों या बेहद अमीर माँ-बाप की विशेषाधिकृत औलाद बनाता है। मैं कौन हूँ?” इस बारे में सोचकर, वे जवाब देते हैं, “मेरे माँ-बाप के बारे में कुछ भी खास नहीं है, वे औसत वेतन पाने वाले साधारण कर्मी हैं, तो इस बारे में डींगें हाँकने वाली कोई बात नहीं है—लेकिन मेरे पूर्वजों में से एक किसी राजवंश के प्रधानमंत्री थे।” दूसरे कहते हैं : “तुम्हारे पूर्वज प्रधानमंत्री थे। वाह, तो समाज में तुम्हारा विशेष रुतबा होगा। तुम एक प्रधानमंत्री के वंशज हो। एक प्रधानमंत्री का वंशज कोई साधारण व्यक्ति नहीं होता, यानी तुम भी मशहूर हस्तियों के वंशज हो!” देखा तुमने, जब कोई व्यक्ति खुद को किसी हस्ती के साथ जोड़ लेता है, तो उसकी पहचान बदल जाती है, उसका सामाजिक दर्जा फौरन बढ़ जाता है, और वे सम्मानित व्यक्ति बन जाते हैं। कुछ अन्य लोग भी हैं जो कहते हैं : “मेरे पूर्वज अमीर कारोबारियों की पीढ़ी से थे। वे बेहद संपन्न थे। बाद में सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक व्यवस्था में बदलाव के कारण उनकी संपत्तियाँ जब्त कर ली गईं। आज यहाँ दसियों मील के दायरे में लोग जिन घरों में रहते हैं, उनमें से कई मेरे पूर्वजों के घर थे। पुराने समय में, मेरे खानदानी घर में चार या पाँच सौ कमरे, या कम से कम दो या तीन सौ कमरे थे और इनमें कुल मिलाकर सौ से अधिक नौकर होते थे। मेरे दादाजी कारोबार के मालिक थे। उन्होंने कभी कोई काम नहीं किया, बस दूसरों को आदेश दिया करते थे। मेरी दादी बहुत आलीशान जिंदगी जीती थी, उन्हें कपड़े पहनाने और उनके कपड़े धोने के लिए सेविकाएँ मौजूद थीं। बाद में, क्योंकि सामाजिक परिवेश बदल गया, हमारा परिवार बर्बाद हो गया, तो अब हम कुलीन वर्ग का हिस्सा नहीं रहे, बल्कि आम लोग बन गए। पहले, मेरा परिवार बड़ा और प्रतिष्ठित हुआ करता था। वे गाँव के एक छोर पर अपने पैर मारते, तो उसके झटके गाँव के दूसरे छोर तक महसूस होते थे। सभी जानते थे वे कौन हैं। मैं ऐसे परिवार से आता हूँ, इस बारे में तुम क्या कहोगे? यह बहुत असाधारण है, है न? तुम्हें मेरी इज्जत करनी चाहिए, है न?” कुछ अन्य लोग कहते हैं : “तुम्हारे पूर्वजों की संपत्ति के बारे में कुछ खास नहीं है। मेरे पूर्वज सम्राट थे और वह भी एक संस्थापक सम्राट। कहा जाता है कि मुझे मेरा उपनाम उन्हीं से मिला है। मेरे परिवार के सभी सदस्य उनके करीबी रिश्तेदार हैं, दूर के नहीं। इस बारे में क्या कहोगे? अब जब तुम मेरे पूर्वज की पृष्ठभूमि जानते हो, तो क्या तुम्हें मुझे अलग नजरों से नहीं देखना चाहिए और थोड़ा सम्मान नहीं देना चाहिए? क्या तुम्हें मेरी इज्जत नहीं करनी चाहिए?” कुछ लोग कहते हैं : “भले ही मेरे पूर्वजों में से कोई भी सम्राट नहीं था, पर उनमें से एक सेना का जनरल था जिसने अनेकों दुश्मनों का खात्मा किया, अनगिनत सैन्य अभियान पूरे किए, और शाही दरबार में एक महत्वपूर्ण मंत्री बने। मेरे परिवार के सभी लोग उनके ही वंशज हैं। आज भी, मेरा परिवार मेरे पूर्वजों द्वारा सिखाए गए मार्शल आर्ट के दाँव-पेंचों का अध्ययन करता है, जिनके बारे में बाहर के लोग नहीं जानते हैं। इसके बारे में तुम क्या कहोगे? क्या मेरी पहचान खास नहीं है? क्या मेरा रुतबा विशिष्ट नहीं है?” ये विशेष पहचान जो लोगों को उनके तथाकथित दूर के पैतृक परिवारों के साथ-साथ उनके आधुनिक परिवारों से विरासत में मिली है, उन्हें लोग सम्मानित और गौरवशाली मानते हैं, और समय-समय पर, वे उनका अपनी पहचान और सामाजिक दर्जे के प्रतीक के रूप में जिक्र करते हैं और उन पर इतराते रहते हैं। एक ओर वे ऐसा यह साबित करने के लिए करते हैं कि उनकी पहचान और रुतबा असाधारण है। वहीं दूसरी ओर, ऐसी कहानियाँ सुनाते समय लोग खुद को भी ऊँचा दिखाने और ऊँचा सामाजिक दर्जा पाने की कोशिश करते हैं, ताकि दूसरों के बीच अपनी अहमियत बढ़ा सकें और असाधारण और विशेष दिखें। वे असाधारण और विशिष्ट क्यों दिखना चाहते हैं? ताकि दूसरों से ज्यादा सम्मान, प्रशंसा और मान्यता पा सकें, और अधिक आरामदायक, आसान और सम्मानित जीवन जी सकें। उदाहरण के लिए, कुछ विशेष परिवेशों में, ऐसे लोग भी होते हैं जो किसी समूह के भीतर अपनी मौजूदगी दिखाने या दूसरों का सम्मान और आदर पाने में लगातार असमर्थ होते हैं। तो वे मौके के तलाश में होते हैं और समय-समय पर अपनी मौजूदगी दिखाने और लोगों को यह बताने के लिए कि वे असाधारण हैं, और लोगों को अपनी अहमियत दिखाने और उनसे सम्मान पाने के लिए अपनी विशेष पहचान या विशेष पारिवारिक पृष्ठभूमि का इस्तेमाल करते हैं, ताकि वे लोगों के बीच प्रतिष्ठा पा सकें। वे कहते हैं : “भले ही मेरी अपनी पहचान, रुतबा और काबिलियत सामान्य है, मेरे पूर्वजों में से एक मिंग राजवंश में एक राजकुमार के परिवार के सलाहकार थे। क्या तुमने फलाँ व्यक्ति के बारे में सुना है? वे मेरे पूर्वज थे, मेरे परदादा के दादा, वे राजकुमार के परिवार के एक महत्वपूर्ण सलाहकार थे। उन्हें ‘मास्टरमाइंड’ के नाम से भी जाना जाता था। उन्हें खगोल विज्ञान से लेकर भूगोल, प्राचीन और आधुनिक इतिहास, और चीनी और विदेशी मामले तक हर चीज में महारत हासिल थी। वे भविष्यवाणियाँ भी कर सकते थे। हमारे परिवार में आज भी वह भूगर्भिक फेंग शुई कंपास मौजूद है जिसका वे इस्तेमाल किया करते थे।” भले ही वे अक्सर इस बारे में बात न करें, फिर भी वे समय-समय पर दूसरों को अपने पूर्वजों के शानदार इतिहास की कहानियाँ सुनाकर खुश करते हैं। कोई नहीं जानता कि वे जो कह रहे हैं वह सच है या झूठ, उनमें से कुछ सिर्फ सुनी-सुनाई कहानियाँ हो सकती हैं, पर कुछ बातें सच भी हो सकती हैं। जो भी हो, लोगों के मन में, अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान बहुत महत्वपूर्ण होती है। यह दूसरों के बीच उनकी हैसियत और रुतबा तय करता है; इससे लोगों के बीच उनके साथ किया जाने वाला व्यवहार, उनकी स्थिति और दर्जा भी तय होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि दूसरों के बीच रहते हुए, लोग समझते हैं कि उन्हें ये चीजें अपनी विरासत की पहचान से मिली हैं, और इसीलिए वे उन्हें बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं। नतीजतन, वे समय-समय पर अपने पारिवारिक इतिहास के उन “गौरवशाली” और “शानदार” अध्यायों की डींगें हाँकते हैं, जबकि बार-बार अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के उन पहलुओं या उन चीजों की बात करने से बचते हैं जो उनके परिवार के लिए शर्मिंदगी की बात थी या जिसकी वजह से उन्हें नीची नजरों से देखा या भेदभाव किया जा सकता है। संक्षेप में, जो पहचान लोगों को अपने परिवार से विरासत में मिलती है वह उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है। जब उनके साथ कुछ विशेष चीजें घटती हैं, तो वे दिखावा करने के लिए अक्सर अपने परिवार की विशेष पहचान का पूँजी के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, ताकि लोगों से मान्यता पा सकें और उनके बीच रुतबा हासिल कर सकें। चाहे तुम्हारे परिवार से तुम्हें गौरव मिलता हो या शर्मिंदगी, या अपने परिवार से तुम्हें विरासत में मिली पहचान और सामाजिक दर्जा कुलीन हो या साधारण, जहाँ तक तुम्हारा सवाल है, यह परिवार तुम्हारे लिए इन सबसे अधिक और कुछ नहीं है। इससे यह तय नहीं होता कि तुम सत्य समझ सकते हो या नहीं, क्या तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो, या क्या तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकते हो। इसलिए, लोगों को इसे बेहद महत्वपूर्ण मामला नहीं समझना चाहिए, क्योंकि यह न तो व्यक्ति की किस्मत तय करता है और न ही उसका भविष्य, और यह व्यक्ति के जीवन का मार्ग तो बिल्कुल भी तय नहीं करता। अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान सिर्फ दूसरों के बीच तुम्हारी स्वयं की भावनाओं और धारणाओं को तय कर सकता है। अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान से चाहे तुम नफरत करते हो या उसके बारे में डींगें हाँकते हो, इससे यह तय नहीं हो सकता कि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पाओगे या नहीं। इसलिए जब सत्य के अनुसरण की बात आती है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें अपने परिवार से कैसी पहचान या कैसा सामाजिक दर्जा विरासत में मिला है। भले ही अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान तुम्हें श्रेष्ठ और सम्मानित महसूस कराती हो, इसका जिक्र करने का कोई मतलब नहीं है। अगर यह तुम्हें शर्मिंदगी और निम्नता का एहसास दिलाती है और तुम्हारा आत्मविश्वास कम करती है, इसका तुम्हारे सत्य के अनुसरण पर कोई असर नहीं पड़ेगा। ऐसा ही है न? (हाँ।) इससे तुम्हारे सत्य के अनुसरण पर थोड़ा भी असर नहीं पड़ेगा, और न ही इसका परमेश्वर के समक्ष तुम्हारे सृजित प्राणी की पहचान पर कुछ असर होगा। इसके विपरीत, तुम्हें अपने परिवार से चाहे कैसी भी पहचान या सामाजिक दर्जा विरासत में मिला हो, परमेश्वर के नजरिये से सबके पास बचाए जाने, अपना कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने का एक जैसा अवसर होता है और सभी का दर्जा और पहचान समान होती है। अपने परिवार से तुम्हें विरासत में मिली पहचान, चाहे सम्मानित हो या शर्मनाक, तुम्हारी मानवता निर्धारित नहीं करती है, और न ही यह तुम्हारा मार्ग निर्धारित करती है। हालाँकि, अगर तुम इसे बेहद महत्वपूर्ण मानते हो, अपने जीवन और अस्तित्व का अटूट हिस्सा मानते हो, तो तुम इसे कसकर पकड़े रहोगे, कभी इसे छूटने नहीं दोगे, और इस पर गर्व करोगे। अगर तुम्हें अपने परिवार से मिली पहचान कुलीन है, तो तुम उसे एक तरह की पूँजी मानोगे, जबकि अगर यह पहचान निम्न स्तर की है, तो तुम उसे शर्मनाक मानोगे। तुम्हें अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान चाहे कुलीन हो, शानदार हो या शर्मनाक हो, यह सिर्फ तुम्हारी अपनी समझ है, और यह मामले को अपनी भ्रष्ट मानवता के परिप्रेक्ष्य से देखने का नतीजा है। यह सिर्फ तुम्हारी अपनी भावना, धारणा और समझ है, जो सत्य के अनुरूप नहीं है और इसका सत्य से कोई सरोकार नहीं है। यह तुम्हारे सत्य के अनुसरण के लिए पूँजी नहीं है, और बेशक, यह तुम्हारे सत्य के अनुसरण में बाधक भी नहीं है। अगर तुम्हारा सामाजिक दर्जा कुलीन और ऊँचा है, तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम इसे अपने उद्धार के लिए पूँजी मान बैठो। अगर तुम्हारा सामाजिक दर्जा निम्न स्तर का है और साधारण है, तो भी यह तुम्हारे सत्य के अनुसरण में बाधक नहीं है, तुम्हारे उद्धार की कोशिश में बाधक होना तो दूर की बात है। भले ही किसी परिवार का माहौल और पृष्ठभूमि, जीवन स्तर, और रहन-सहन, सभी परमेश्वर द्वारा निर्धारित होते हैं, मगर उनका परमेश्वर के समक्ष व्यक्ति की वास्तविक पहचान से कोई सरोकार नहीं है। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी परिवार से आता हो, या चाहे उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शानदार हो या निम्न स्तरीय, परमेश्वर की नजरों में वह सृजित प्राणी ही है। भले ही तुम्हारे परिवार की पृष्ठभूमि शानदार हो और तुम्हारी पहचान और दर्जा कुलीन है, फिर भी तुम एक सृजित प्राणी हो। इसी तरह, अगर तुम्हारे परिवार का दर्जा साधारण है और लोग तुम्हें नीची नजरों से देखते हैं, तो भी तुम परमेश्वर की नजरों में एक सामान्य सृजित प्राणी ही हो—तुममें कोई विशेष बात नहीं है। अलग-अलग पारिवारिक पृष्ठभूमि लोगों को जीवन जीने का अलग-अलग परिवेश देती है, और जीवन जीने के विभिन्न परिवेश लोगों को सांसारिक चीजों, संसार, और जीवन से निपटने के विभिन्न दृष्टिकोण देते हैं। चाहे कोई संपन्न हो या जीवन में संघर्ष करता हो, या चाहे किसी की पारिवारिक परिस्थितियाँ सौभाग्यशाली हों या नहीं, यह बस अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग अनुभव है। तुलनात्मक रूप से कहें, तो जो गरीब हैं या जिनके परिवार का जीवन स्तर सामान्य है, वे जीवन का गहराई से अनुभव करते हैं, जबकि जो अमीर हैं और जिनके परिवार सौभाग्यशाली हैं, उनके लिए ऐसा करना ज्यादा कठिन होता है, है न? (हाँ।) चाहे तुम कैसे भी पारिवारिक माहौल में पले-बढ़े हो, और तुम्हें उस पारिवारिक माहौल से चाहे जो भी पहचान या सामाजिक दर्जा मिला हो, जब तुम परमेश्वर के समक्ष आते हो, जब परमेश्वर तुम्हें एक सृजित प्राणी मानता और स्वीकारता है, तो परमेश्वर की नजरों में तुम भी दूसरे लोगों जैसे ही होते हो, तुम दूसरों के बराबर होते हो, तुममें कोई विशेष बात नहीं है, और परमेश्वर तुमसे की गई अपेक्षाओं में वही मानक और तरीके लागू करेगा जो दूसरों के लिए लागू होते हैं। अगर तुम कहते हो, “समाज में मेरा विशेष दर्जा है,” तो परमेश्वर के समक्ष, तुम्हें इस “विशेषता” को भूल जाना होगा; अगर तुम कहते हो, “मेरा सामाजिक दर्जा निम्न स्तर का है,” तो तुम्हें इस “नीचता” को भी भूल जाना होगा। परमेश्वर के समक्ष, तुम सभी को अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान को पीछे छोड़ना होगा, उसे त्यागना होगा, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दी गई एक सृजित प्राणी की पहचान को स्वीकारना होगा, और सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से निभाते समय इस पहचान को अपनाना होगा। अगर तुम एक अच्छे परिवार से आते हो और तुम्हारा दर्जा कुलीन है, तो इसमें डींगें हाँकने वाली कोई बात नहीं है, और तुम दूसरों से ज्यादा कुलीन नहीं हो। ऐसा क्यों? परमेश्वर की नजरों में, जब तक तुम एक सृजित प्राणी हो, तुम भ्रष्ट स्वभावों से भरे होगे, और तुम उन लोगों में से होगे जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है। इसी तरह, अगर तुम्हें अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान निम्न स्तर की और सामान्य है, तो भी तुम्हें एक सृजित प्राणी की पहचान को स्वीकारना चाहिए जो परमेश्वर ने तुम्हें दी है, और परमेश्वर का उद्धार स्वीकारने के लिए एक सृजित प्राणी के रूप में उसके समक्ष आना चाहिए। तुम कह सकते हो : “मेरे परिवार का सामाजिक दर्जा निम्न स्तर का है, और मेरी पहचान भी निम्न स्तर की है। लोग मुझे नीची नजरों से देखते हैं।” परमेश्वर कहता है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आज, परमेश्वर के समक्ष, तुम वह इंसान नहीं हो जिसे अपनी पहचान अपने परिवार से मिली थी। तुम्हारी मौजूदा पहचान एक सृजित प्राणी की है, और तुम्हें सिर्फ खुद से की गई परमेश्वर की अपेक्षाओं को स्वीकारना चाहिए। परमेश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। वह तुम्हारे परिवार की पृष्ठभूमि या तुम्हारी पहचान को नहीं देखता, क्योंकि उसकी नजरों में, तुम बाकी लोगों जैसे ही हो। तुम्हें शैतान ने भ्रष्ट किया है, तुम भ्रष्ट मानवजाति का हिस्सा हो, और परमेश्वर के समक्ष तुम बस एक सृजित प्राणी हो, तो तुम उन लोगों में से एक हो जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किसी ऊँची रैंक वाले अधिकारी या बहुत अमीर माँ-बाप की संतान हो, चाहे तुम कोई विशेषाधिकार प्राप्त युवक हो या राजकुमारी हो, या चाहे तुम छोटे किसान या साधारण माँ-बाप की संतान हो। ये चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं, और परमेश्वर इनमें से किसी भी चीज पर ध्यान नहीं देता। क्योंकि परमेश्वर तुम्हें बस एक इंसान के रूप में बचाना चाहता है। वह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बदलना चाहता है, तुम्हारी पहचान नहीं। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारी पहचान से निर्धारित नहीं होता है, न ही तुम्हारा मूल्य तुम्हारी पहचान से निर्धारित होता है, और तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे परिवार से नहीं आया है। परमेश्वर तुम्हें इसलिए नहीं बचाना चाहता कि तुम्हारा दर्जा साधारण है, इसलिए तो बिल्कुल नहीं बचाना चाहता कि तुम्हारा दर्जा विशिष्ट है। बल्कि, परमेश्वर ने अपनी योजना और अपने प्रबंधन के कारण तुम्हें चुना है, क्योंकि शैतान ने तुम्हें भ्रष्ट किया है, और तुम भ्रष्ट मानवजाति का हिस्सा हो। अपने परिवार से तुम्हें विरासत में चाहे जो भी पहचान मिली हो, परमेश्वर के समक्ष तुम भी बाकी सारे लोगों जैसे ही हो। तुम सभी मानवजाति का हिस्सा हो, जिसे शैतान ने भ्रष्ट किया है, तुम सभी में भ्रष्ट स्वभाव हैं। तुममें कोई खास बात नहीं है। ऐसा ही है न? (हाँ।) इसलिए, अगली बार जब तुम्हारे आसपास कोई कहे, “मैं काउंटी मजिस्ट्रेट हुआ करता था” या “मैं प्रांतीय राज्यपाल था,” या कोई कहे, “हमारे पूर्वज सम्राट थे,” या कोई और कहे, “मैं कांग्रेस का सदस्य हुआ करता था,” या “मैंने राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा था,” या अगर कोई यह कहे, “मैं एक बड़ी कंपनी का प्रेसिडेंट था,” या “मैं सरकारी उद्योग का प्रमुख था,” तो कहना कि इसमें कौन-सी बड़ी बात है? क्या यह बात महत्वपूर्ण है कि किसी समय में तुम वरिष्ठ कार्यकारी या कमान अधिकारी हुआ करते थे? यह संसार और यह समाज लोगों की पहचान और सामाजिक दर्जे को बहुत महत्व देता है, और तुम्हारी पहचान और रुतबे के अनुसार ही तुम्हारे साथ व्यवहार करता है। लेकिन अब तुम परमेश्वर के घर में हो, और परमेश्वर इसलिए तुम्हें अलग नजर से नहीं देखेगा कि तुम पहले कितने प्रतिभाशाली हुआ करते थे, या तुम्हारी पहचान कितनी शानदार और गौरवशाली थी। खास तौर पर अब क्योंकि वह चाहता है कि तुम सत्य का अनुसरण करो, तो क्या अपनी योग्यताओं, सामाजिक दर्जे और मूल्य का दिखावा करने का कोई मतलब है? (नहीं, नहीं है।) क्या ऐसा करना बेवकूफी होगी? (बिल्कुल।) बेवकूफ लोग अक्सर इन चीजों का इस्तेमाल दूसरों से अपनी तुलना करने के लिए करते हैं। कुछ नए विश्वासी ऐसे भी हैं जिनका आध्यात्मिक कद छोटा है और वे सत्य नहीं समझते, और जो अक्सर दूसरों से अपनी तुलना करने के लिए समाज और परिवार की इन चीजों का इस्तेमाल करते हैं। जिन लोगों के पास परमेश्वर में विश्वास की एक नींव और आध्यात्मिक कद है वे आम तौर पर ऐसा नहीं करेंगे, न ही ऐसी चीजों के बारे में बात करेंगे। अपनी पारिवारिक पहचान या सामाजिक दर्जे का पूँजी के तौर पर इस्तेमाल करना सत्य के अनुरूप नहीं है।
अब इस बारे में इतनी संगति करने के बाद, मैंने परिवार से विरासत में मिलने वाली पहचान के बारे में जो भी कहा, क्या वह तुम समझ गए? (हाँ।) तो बताओ कुछ इस बारे में। (परमेश्वर, मैं इस बारे में कुछ कहूँगा। लोग अक्सर उस परिवार को विशेष महत्व देते हैं जिसमें वे पैदा हुए हैं; साथ ही, वे अपनी पारिवारिक पहचान और सामाजिक रुतबे को भी काफी अहमियत देते हैं। निम्न सामाजिक दर्जे वाले परिवार में पैदा हुए लोग अक्सर किसी न किसी मामले में खुद को दूसरों से कमतर समझते हैं। उन्हें लगता है कि वे बहुत ही साधारण परिवार से आते हैं, और समाज में सिर उठाकर नहीं चल सकते, तो वे अपना सामाजिक दर्जा बेहतर करने की कोशिश करना चाहते हैं; दूसरी ओर, ऊँची हैसियत और ऊँचे दर्जे वाले परिवार में पैदा हुए लोग अक्सर अहंकारी और दंभी होते हैं, वे दिखावा करना पसंद करते हैं और खुद को श्रेष्ठ समझते हैं। मगर असल में, लोगों का सामाजिक दर्जा सबसे जरूरी नहीं चीज है, क्योंकि परमेश्वर के सामने, सभी लोगों की पहचान और दर्जा एक समान है—वे सभी सृजित प्राणी हैं। किसी व्यक्ति की पहचान और दर्जा यह निर्धारित नहीं कर सकता कि क्या वह सत्य का अनुसरण कर सकता है, सत्य का अभ्यास कर सकता है, या क्या उसे बचाया जा सकता है, तो तुम अपनी पहचान और दर्जे के कारण खुद को बांध नहीं सकते।) बहुत बढ़िया। सत्य का अनुसरण नहीं करने वाले लोग किसी व्यक्ति की पहचान और सामाजिक दर्जे की बहुत परवाह करते हैं, तो कुछ विशेष हालात में, वे इस तरह की बातें कहेंगे : “हमारी कलीसिया में फलाँ आदमी को जानते हो, उसका परिवार बहुत संपन्न है!” जब उनके मुँह से “संपन्न” शब्द निकलता है तो उनकी आँखें चमक उठती हैं, जो उनकी बेहद द्वेषपूर्ण और ईर्ष्यालु मानसिकता को दर्शाता है। उनमें ईर्ष्या की भावनाएँ काफी समय से बढ़ती जा रही हैं, जो अब इस हद तक पहुँच गई है जहाँ वे ऐसे लोगों से बेहद प्रभावित होते हैं और कहते हैं, “अरे, उन लोगों को जानते हो, उस महिला के पिता ऊँची रैंक वाले अधिकारी हैं, और उस आदमी के पिता काउंटी मजिस्ट्रेट हैं, उसके पिता मेयर हैं, और उस आदमी के पिता किसी सरकारी विभाग में सचिव हैं!” जब वे किसी को अच्छे कपड़े पहने देखते हैं, या किसी का पहनावा बहुत अच्छा है, या जिसके पास थोड़ी हैसियत या अंतर्दृष्टि है, या जो खास तौर पर महंगी चीजें इस्तेमाल करता है, तो उन्हें ईर्ष्या होती है और सोचते हैं, “उनका परिवार अमीर है, वे तो पैसों में खेलते होंगे,” और वे उनके प्रति प्रशंसा और ईर्ष्या से भरे होते हैं। जब भी वे किसी व्यक्ति के बारे में बताते हैं कि वह किसी कंपनी का मालिक है, तो उन्हें उस व्यक्ति की पहचान की जितनी पड़ी होती है उतनी परवाह वह व्यक्ति खुद नहीं करता। भले ही वह व्यक्ति खुद अपने काम के बारे में बात न करे, फिर भी वे हमेशा उसके काम के बारे में चर्चा करते हैं, और जब कलीसिया अगुआ चुनने का समय आता है तो वे उस व्यक्ति के लिए वोट भी करते हैं। अपने से ऊँचा सामाजिक दर्जा रखने वाले लोगों के प्रति उनके मन में कुछ खास भावनाएँ होती हैं, और वे उन पर विशेष ध्यान देते हैं। वे हमेशा उन लोगों की खातिरदारी करने, उनके करीब आने और उनकी चापलूसी करने की कोशिश करते हैं, जबकि खुद से नफरत करते हैं और सोचते हैं, “मेरे डैड अधिकारी क्यों नहीं हैं? मैं इस परिवार में क्यों पैदा हुआ? अपने परिवार के बारे में बताने के लिए मेरे पास कुछ भी अच्छा क्यों नहीं है? ये लोग जिन परिवारों से आते हैं वे अधिकारियों या अमीर कारोबारियों के परिवार हैं, जबकि मेरे परिवार के पास तो कुछ भी नहीं है। मेरे सभी भाई-बहन सामान्य लोग हैं, खेती करने वाले छोटे किसान हैं जो समाज के निचले दर्जे पर आते हैं। और मेरे माँ-बाप के बारे में जितना कम कहा जाए उतना ही बेहतर है—वे तो पढ़े-लिखे भी नहीं हैं। कितनी शर्म की बात है!” जैसे ही कोई उनके माँ-बाप का जिक्र करता है, वे टालमटोल करते हुए कहते हैं, “इस बारे में बात ना ही करें, किसी और बात पर चर्चा करते हैं। अपनी कलीसिया के फलाँ व्यक्ति के बारे में बात करते हैं। देखो वह प्रबंधन में किस पद पर है, उसे पता है कि अगुआ कैसे बना जाता है। वह दशकों से अगुआई कर रहा है, कोई उसकी जगह नहीं ले सकता। वह अगुआई करने के लिए ही पैदा हुआ है। काश यही बात हमारे बारे में भी कही जाती। अब उसका परमेश्वर में विश्वास करना भी दोहरी आशीष जैसा है। वह सचमुच धन्य है, क्योंकि उसके पास पहले से ही वह सब कुछ मौजूद है जिसकी समाज में किसी को चाह हो सकती है, और अब जब वह परमेश्वर के घर में आ गया है, तो वह राज्य में प्रवेश करके एक सुंदर मंजिल भी पा सकता है।” वे मानते हैं कि जब कोई अधिकारी कलीसिया में आता है, तो उसे कलीसिया अगुआ ही बनना चाहिए, और उसे सुंदर मंजिल मिलनी चाहिए। यह कौन तय करता है? क्या आखिरी फैसला उनका होता है? (नहीं।) जाहिर है कि ऐसी बातें छद्म-विश्वासी ही कहते हैं। अगर उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति दिखता है जिसमें थोड़ी योग्यता और जन्मजात प्रतिभा है, जो अच्छे कपड़े पहनता है और जीवन में अच्छी चीजों का आनंद लेता है, और जो शानदार कार चलाता है और बड़े मकान में रहता है, तो वे लगातार उस व्यक्ति के साथ खुद को जोड़ते हैं, उसकी चापलूसी करते और उसके कृपापात्र बन जाते हैं। फिर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि उनके पास ऊँचा सामाजिक दर्जा और हैसियत है। परमेश्वर के घर में आने के बाद वे हमेशा विशेषाधिकार माँगते हैं, अपने भाई-बहनों को आदेश देते हैं, और उनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार करते हैं, क्योंकि उन्हें अधिकारी का जीवन जीने की आदत लग गई है। क्या ऐसे लोगों को लगता है कि भाई-बहन उनके मातहत हैं? जब कलीसिया अगुआ चुनने की बारी आती है, और उन्हें नहीं चुना जाता है, तो वे गुस्सा होकर कहते हैं, “अब मैं विश्वास नहीं करूँगा, परमेश्वर का घर निष्पक्ष नहीं है, यह लोगों को मौका नहीं देता है, परमेश्वर का घर लोगों को नीची नजर से देखता है!” उन्हें बाहरी संसार में अधिकारी जैसा बर्ताव करने की आदत है, और वे खुद को दमखम वाला मानते हैं, इसलिए परमेश्वर के घर में आने के बाद भी, हमेशा सारे फैसले खुद लेने की कोशिश करते हैं, हर चीज में अगुआई करते हैं, विशेषाधिकार माँगते हैं, और वे परमेश्वर के घर में वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा वे बाहरी संसार और समाज में करते हैं। मुमकिन है कि कोई बाहरी संसार में किसी अधिकारी की पत्नी हो, पर परमेश्वर के घर में आने के बाद भी वह चाहती है कि उसके साथ अधिकारी की पत्नी जैसा ही व्यवहार किया जाए, लोग उसकी चापलूसी करें और उसके आगे-पीछे घूमें। सभाओं के दौरान, अगर भाई-बहन उसका अभिवादन न करें, तो वह गुस्सा होकर सभाओं में आना बंद कर देती है, क्योंकि उसे लगता है कि लोग उसे गंभीरता से नहीं लेते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करना निरर्थक है। क्या यह अनुचित नहीं है? (बिल्कुल है।) समाज में तुम्हारी विशेष पहचान चाहे जैसी भी हो, परमेश्वर के घर में आकर तुम अपनी वह विशेष पहचान खो देते हो। परमेश्वर और सत्य के सामने, लोगों की बस एक ही पहचान है, सृजित प्राणी की पहचान। बाहरी संसार में, चाहे तुम सरकारी अधिकारी हो या किसी अधिकारी की पत्नी, चाहे तुम समाज के कुलीन वर्ग के सदस्य हो या कोई साधारण कर्मचारी, या चाहे तुम सैन्य जनरल हो या सैनिक, परमेश्वर के घर में तुम्हारी एक ही पहचान है, जो एक सृजित प्राणी की पहचान है। तुममें कोई खास बात नहीं है, तो विशेषाधिकार मत माँगो या लोगों से अपनी भक्ति मत करवाओ। फिर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो किसी खास ईसाई परिवार से या ऐसे परिवार से आते हैं जिसने सदियों से प्रभु में विश्वास किया है। मुमकिन है कि उसकी माँ ने किसी सेमिनरी में प्रशिक्षण लिया हो और उसके पिता पादरी हों। धार्मिक समुदाय में उनका बहुत सम्मान किया जाता है, और वे विश्वासियों से घिरे रहते हैं। परमेश्वर के कार्य के इस चरण को स्वीकारने के बाद भी उन्हें लगता है कि उनकी पहचान पहले जैसी ही है, मगर वे सपनों की दुनिया में जी रहे हैं! अब उनके लिए सपने देखना बंद करने और जाग जाने का वक्त आ गया है! इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कोई पादरी हो या अगुआ, परमेश्वर के घर में आकर तुम्हें परमेश्वर के घर के नियमों को समझना होगा और अपनी पहचान बदलना सीखना होगा। सबसे पहला काम तुम्हें यही करना है। तुम कोई ऊँची रैंक वाले अधिकारी नहीं हो, तुम कोई साधारण कर्मचारी भी नहीं हो, तुम न तो कोई अमीर कारोबारी हो और न ही गरीब या निर्धन हो। परमेश्वर के घर में आने के बाद तुम्हारी बस एक ही पहचान रहती है, और यह वही पहचान है जो परमेश्वर ने तुम्हें दी है—एक सृजित प्राणी की पहचान। सृजित प्राणियों को क्या करना चाहिए? तुम्हें अपने पारिवारिक इतिहास या अपने परिवार से विरासत में मिले सामाजिक दर्जे पर इतराना नहीं चाहिए, और न ही अपने उन्नत सामाजिक दर्जे का इस्तेमाल परमेश्वर के घर में मनमानी करने और विशेष अधिकार माँगने के लिए करना चाहिए; और यकीनन तुम्हें समाज से मिले अपने अनुभव और अपने सामाजिक दर्जे से मिली श्रेष्ठता की भावना का इस्तेमाल परमेश्वर के घर में किसी संप्रभु शासक की तरह कार्य करने और फैसले लेने के लिए नहीं करना चाहिए। बल्कि, परमेश्वर के घर में तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, सही ढंग से आचरण करना चाहिए, अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि का उल्लेख नहीं करना चाहिए, खुद को किसी भी तरह से श्रेष्ठ नहीं समझना चाहिए, और न ही तुम्हें खुद को दूसरों से कमतर समझना चाहिए; तुम्हें खुद को कमतर या श्रेष्ठ समझने की कोई जरूरत नहीं है। संक्षेप में, तुम्हें आज्ञाकारी बनकर वही काम अच्छे से करना है जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए, और सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “तो क्या इसका मतलब है कि मुझे खुद पर लगाम लगानी चाहिए और आम आदमी की तरह पेश आना चाहिए?” नहीं, तुम्हें खुद पर लगाम लगाने या आम आदमी बनने की जरूरत नहीं है, तुम्हें दूसरों के अधीन रहने की जरूरत नहीं है, और यकीनन तुम्हें दबंग और ताकतवर बनने की भी कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें दूसरों से अलग दिखने, मुखौटा लगाने, और सिर्फ दूसरों को खुश रखने के लिए रियायतें देने की कोई जरूरत नहीं है। परमेश्वर लोगों के साथ निष्पक्ष और न्यायपूर्ण व्यवहार करता है, क्योंकि परमेश्वर ही सत्य है। परमेश्वर ने लोगों से अनेक वचन बोले हैं और कई अपेक्षाएँ की हैं, और वह तुमसे बस यही चाहता है कि तुम अच्छी तरह से सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाओ, और वह सब करो जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए। अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान के मामले से निपटते हुए, तुम्हें अपने परिवार से मिली श्रेष्ठता की भावना पर इतराने के बजाय, परमेश्वर के वचनों को आधार और सत्य को कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखने, वैसा आचरण और व्यवहार करने की जरूरत है। और बेशक, अगर तुम किसी सौभाग्यशाली परिवार से नहीं आते हो, तो तुम्हें अपने परिवार के हालात के बारे में खुलकर बात करने और यह सब बताने की कोई जरूरत नहीं है कि परिवार की स्थिति कितनी बुरी है। कुछ अन्य लोग कह सकते हैं : “क्या परमेश्वर का घर चाहता है कि हम ‘एक नायक से उसकी जड़ों के बारे में न पूछें?’” क्या यह कहावत सत्य है? (नहीं।) यह कहावत सत्य नहीं है, तो तुम्हें किसी भी चीज को इस कहावत के आधार पर आँकने की जरूरत नहीं है, और न ही इसे उन अपेक्षाओं को पूरा करने की कसौटी मानने की जरूरत है जो परमेश्वर तुमसे रखता है। जहाँ तक तुम्हें अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान की बात है, तो परमेश्वर तुमसे बस यही अपेक्षा करता है कि तुम अपना कर्तव्य निभाओ। परमेश्वर के सामने, तुम्हारी पहचान सिर्फ एक सृजित प्राणी की है, तो तुम्हें उन चीजों को त्याग देना चाहिए जो तुम्हारे एक अच्छा सृजित प्राणी बनने पर असर डाल सकती हैं या तुम्हें ऐसा करने से रोक सकती हैं। तुम्हें इन चीजों को अपने दिल में जगह नहीं देनी चाहिए, न ही उन्हें ज्यादा अहमियत देना चाहिए। चाहे रूपरंग की बात हो या रवैये की, तुम्हें अपने परिवार से विरासत में मिली विशेष पहचान को त्याग देना चाहिए। इस बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या ऐसा किया जा सकता है? (बिल्कुल।) मुमकिन है कि तुम्हें अपने परिवार से एक सम्मानित पहचान मिली हो या तुम्हारी पारिवारिक पृष्ठभूमि तुम्हारी पहचान पर पर्दा डालती हो। चाहे जो भी हो, मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम उससे मुक्त हो जाओगे, इस बात को गंभीरता से लोगे, और फिर जब भी तुम्हारे सामने कोई विशेष परिस्थितियाँ आएँगी, और ये चीजें तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर असर डालेंगी, और लोगों के साथ तुम्हारे व्यवहार को प्रभावित करेंगी, और चीजों के साथ निपटने के तुम्हारे सही सिद्धांतों को प्रभावित करेंगी और लोगों के साथ मिल-जुलकर रहने के तुम्हारे सिद्धांतों पर असर डालेंगी, तब मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान से प्रभावित हुए बिना, सबके साथ सही व्यवहार करोगे और सब कुछ अच्छी तरह संभाल पाओगे। उदाहरण के लिए, मान लो कि कलीसिया में कोई ऐसी महिला है जो हमेशा अपने कर्तव्य में अनमने ढंग से काम करती है और लगातार रुकावटें पैदा करती है। तुम्हें उससे कैसे निपटना चाहिए? तुम इस पर दिमाग लड़ाते हुए सोचती हो, “मुझे उसकी काट-छाँट करनी होगी, क्योंकि अगर मैंने उसकी काट-छाँट नहीं की, तो इससे कलीसिया का कार्य प्रभावित होगा।” तो फिर तुम उसकी काट-छाँट करने की ठान लेती हो। मगर वह अपनी गलती नहीं मानती और कई तरह के बहाने बनाती है। तुम उससे नहीं डरती, तो उसके साथ संगति करना और काट-छाँट करना जारी रखती हो। वह कहती है, “जानती हो मैं कौन हूँ?” तो तुम जवाब देती हो, “इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम कौन हो?” वह कहती है : “मेरा पति तुम्हारे पति का बॉस है। अगर आज तुमने मेरे काम में टांग अड़ाई, तो तुम्हारे पति के साथ अच्छा नहीं होगा।” तुम कहती हो : “यह परमेश्वर के घर का कार्य है। अगर तुमने इसे सही से नहीं किया और रुकावटें पैदा करती रही, तो मैं तुम्हें कर्तव्य से बर्खास्त कर दूँगी।” तो वह कहती है, “जो भी हो, मैं तुम्हें इसका अंजाम बता चुकी हूँ। अब क्या फैसला करना है खुद देख लो!” “खुद देख लो” से उसका क्या मतलब है? वह तुम्हें बता रही है कि अगर तुमने उसे बर्खास्त किया, तो वह तुम्हारे पति को निकलवा देगी। ऐसे में, तुम सोचती हो, “इस औरत पर ताकतवर लोगों का हाथ है, तभी तो वह हमेशा अहंकार से बात करती है,” फिर तुम अपना लहजा बदलकर कहती हो : “ठीक है, इस बार मैं तुम्हें जाने देती हूँ, पर दोबारा ऐसा नहीं होगा! मेरी बातों को दिल पर मत लेना, ये सब मैं सिर्फ कलीसिया के कार्य की खातिर कर रही हूँ। हम सब परमेश्वर में विश्वास करने वाले भाई-बहन हैं, हम सब एक ही परिवार हैं। जरा सोचो, मैं कलीसिया अगुआ हूँ, तो मैं इसकी जिम्मेदारी कैसे न उठाऊँ? अगर मैं जिम्मेदार न होती, तो तुम लोग मुझे नहीं चुनते, है न?” तुम बात संभालने की कोशिश करने लगती हो। क्या इसके पीछे कोई सिद्धांत हैं? तुम्हारे दिल की गहराइयों में बनी रक्षात्मक दीवार गिर चुकी है, तुम सिद्धांतों पर टिकी नहीं रह पाई और उसके सामने झुक गई। ऐसा ही हुआ न? (बिल्कुल।) तो तुम उसे चेतावनी देकर छोड़ देती हो। तुम्हें शर्मिंदगी होती है कि तुम्हारी पहचान उसके जैसी कुलीन नहीं है, और उसका सामाजिक दर्जा तुमसे ऊँचा है, तो तुम उसे खुद पर काबू करने देती हो और उसकी बात मानती हो। भले ही तुम दोनों परमेश्वर में विश्वास करती हो, पर तुम खुद को उसके हाथों का खिलौना बनने देती हो। अगर तुम अपने सामाजिक दर्जे के प्रभाव से खुद को छुटकारा नहीं दिला सकती, तो तुम सिद्धांतों पर कायम नहीं रह पाओगी, सत्य का अभ्यास नहीं कर पाओगी, और परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं होगी। अगर तुम परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं रही, तो क्या वह तुम्हें स्वीकारेगा? क्या परमेश्वर तुम पर भरोसा करेगा? क्या वह तुम्हें कोई भी महत्वपूर्ण काम सौंपेगा? उसके लिए तुम भरोसे के लायक नहीं हो, क्योंकि तुमने एक महत्वपूर्ण मोड़ पर, अपने हितों की रक्षा करने के लिए परमेश्वर के घर के हितों को धोखा दे दिया। उस महत्वपूर्ण मोड़ पर, तुम शैतान और समाज की बुरी शक्तियों से डरकर पीछे हट गई, तुमने परमेश्वर के घर के हितों को ताक पर रख दिया और अपनी गवाही में अडिग रहने में नाकाम रही। यह एक गंभीर अपराध और परमेश्वर का सरासर अपमान है। ऐसा क्यों? क्योंकि ऐसा करके तुमने एक सृजित प्राणी की अपनी पहचान के साथ धोखा किया, और एक सृजित प्राणी द्वारा जो कार्य अपेक्षित है, उसके सिद्धांत का उल्लंघन किया। इस मामले से निपटते समय, तुमने अपने सामाजिक दर्जे और अपनी सामाजिक पहचान से खुद को प्रभावित होने दिया। किसी भी समस्या का सामना करते समय, अगर तुम अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त नहीं हो सकती, तो तुम अप्रत्याशित चीजें करते हुए इन समस्याओं से निपटने की कोशिश करोगी। एक ओर, ये चीजें तुम्हें सत्य के खिलाफ जाने पर मजबूर करेंगी, तो वहीं दूसरी ओर, तुम्हें असमंजस की स्थिति में डाल देंगी, जहाँ तुम कोई फैसला नहीं कर पाओगी। यह रास्ता तुम्हें आसानी से अपराध करने और पछताने की ओर लेकर जाएगा, जिससे परमेश्वर के सामने तुम कलंकित हो जाओगी और तुम पर वफादार न होने का ठप्पा लग जाएगा, तुमने उन सिद्धांतों का उल्लंघन किया है जो परमेश्वर ने मानवजाति के लिए बनाए हैं, जो कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना और वह सब करना है जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए। जरा सोचो, यह बात भले ही मामूली लगती हो, मगर अपने आप में बेहद अहम भी है, है न? (बिल्कुल है।)
अभी मैंने तुम्हारे साथ परिवार से विरासत में मिली पहचान को त्यागने के बारे में संगति की। क्या ऐसा करना आसान है? (हाँ, यह आसान है।) सच में आसान है? किन परिस्थितियों में यह मुद्दा तुम्हें प्रभावित और परेशान करेगा? जब तुम्हें इस मुद्दे के बारे में सही और स्पष्ट समझ नहीं होगी, तो किसी विशेष माहौल में तुम इससे प्रभावित होगे, और यह अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाने की तुम्हारी क्षमता को प्रभावित करेगा, और चीजों को संभालने के तुम्हारे तरीकों और परिणामों पर भी असर डालेगा। इसलिए, जब अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान की बात आती है, तो तुम्हें इससे ठीक से निपटना चाहिए, और इससे प्रभावित या नियंत्रित नहीं होना चाहिए, बल्कि परमेश्वर द्वारा लोगों को दिए गए तरीकों के अनुसार चीजों और लोगों को देखना, आचरण करना, और सामान्य व्यवहार करना चाहिए। इस तरह, तुम्हारे पास वह रवैया और सिद्धांत होंगे जो इस संबंध में एक स्वीकार्य सृजित प्राणी के पास होने चाहिए। आगे, हम परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के प्रभावों को त्यागने के बारे में संगति करेंगे। इस समाज में, संसार से निपटने के लिए लोगों के सिद्धांत, जीवन जीने के लोगों के तरीके, और यहाँ तक कि धर्म और आस्था के प्रति उनके रवैये और धारणाएँ, और साथ ही लोगों और चीजों के प्रति उनकी विभिन्न धारणाएँ और दृष्टिकोण—ये सभी चीजें निस्संदेह परिवार द्वारा सिखाई जाती हैं। सत्य समझने से पहले—व्यक्ति की उम्र चाहे जितनी भी हो, चाहे वह पुरुष हो या महिला, या वह किसी भी पेशे में कार्यरत हो, या सभी चीजों के प्रति उसका रवैया जैसा भी हो, चाहे यह अतिवादी हो या तर्कसंगत हो—संक्षेप में, सभी तरह की बातों में, चीजों के प्रति लोगों के विचार, दृष्टिकोण और उनके रवैये काफी हद तक परिवार द्वारा प्रभावित होते हैं। यानी, परिवार द्वारा व्यक्ति को दी गई शिक्षा के विभिन्न प्रभाव काफी हद तक, चीजों के प्रति उसका रवैया, उन चीजों से निपटने के उसके तरीके, और जीवन जीने के प्रति उसका नजरिया निर्धारित करते हैं, और यहाँ तक कि यह उसकी आस्था को भी प्रभावित करते हैं। चूँकि परिवार व्यक्ति को बहुत कुछ सिखाता और बहुत प्रभावित करता है, इसलिए चीजों से निपटने के लोगों के तरीकों और सिद्धांतों के साथ ही जीवन के प्रति उनके नजरिये और आस्था पर उनके दृष्टिकोण के मूल में परिवार होता ही है। क्योंकि पारिवारिक घर वह स्थान नहीं है जहाँ सत्य उत्पन्न होता है, न ही यह सत्य का स्रोत है, व्यावहारिक तौर पर सिर्फ एक ही प्रेरक शक्ति या लक्ष्य है जो तुम्हारे परिवार को जीवन के बारे में तुम्हें कोई भी विचार, दृष्टिकोण या तरीका सिखाने के लिए प्रेरित करता है—और यह है अपने सर्वोत्तम हितों के लिए काम करना। ये चीजें जो तुम्हारे सर्वोत्तम हितों के लिए हैं, चाहे वे किसी से भी आएँ—चाहे तुम्हारे माता-पिता से, दादा-दादी से या तुम्हारे पूर्वजों से—संक्षेप में, इनका उद्देश्य यही है कि तुम समाज में और दूसरों के बीच अपने हितों की रक्षा करने में सक्षम बनो, कोई तुम पर धौंस न जमा पाए, और तुम लोगों के बीच अधिक खुलेपन के साथ और कूटनीतिक बनकर रह पाओ, जिसका मकसद भरसक तुम्हारे हितों की रक्षा करना है। परिवार से मिली शिक्षा तुम्हारी रक्षा के लिए है, ताकि कोई तुम पर धौंस न जमाए या तुम्हें कोई अपमान न सहना पड़े, और तुम दूसरों से बेहतर बन सको, फिर चाहे इसका मतलब दूसरों पर धौंस जमाना या उन्हें तकलीफ देना ही क्यों न हो, जब तक तुम्हें कोई नुकसान नहीं होता, तब तक सब सही है। ये कुछ सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं जो तुम्हारा परिवार तुम्हें सिखाता है, और यह तुम्हें सिखाए गए सभी विचारों का सार और मूल उद्देश्य भी है। यही बात है न? (बिल्कुल।) तुम्हारे परिवार ने जो भी चीजें तुम्हें सिखाई हैं, अगर तुम उनके उद्देश्य और सार के बारे में सोचो, तो क्या इनमें कुछ भी सत्य के अनुरूप है? भले ही ये चीजें नैतिकता या मानवता के वैध अधिकारों और हितों के अनुरूप हों, क्या इनका सत्य से कोई सरोकार है? क्या ये सत्य हैं? (नहीं।) यकीनन यह कहा जा सकता है कि ये सत्य नहीं हैं। चाहे तुम्हारा परिवार तुम्हें कितनी भी सकारात्मक और वैध, मानवीय और नैतिक चीजें सिखाए, वे सत्य नहीं हैं, न ही वे सत्य का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं, और बेशक वे सत्य की जगह तो कतई नहीं ले सकती हैं। इसलिए, जब परिवार की बात आती है, तो ये चीजें वे अन्य पहलू हैं जिसे लोगों को त्याग देना चाहिए। यह पहलू आखिर है क्या? यह पहलू परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के प्रभाव हैं—परिवार के विषय में यह दूसरा पहलू है जिसका तुम्हें त्याग करना चाहिए। चूँकि हम परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के प्रभावों पर चर्चा कर रहे हैं, तो आओ पहले इस पर बात करते हैं कि शिक्षा के ये प्रभाव आखिर हैं क्या। अगर हम लोगों की सही और गलत की अवधारणा के अनुसार उनमें अंतर करें, तो पता चलेगा कि उनमें से कुछ चीजें अपेक्षाकृत सही, सकारात्मक, और प्रस्तुत करने योग्य हैं, और उन्हें सामने रखा जा सकता है, जबकि कुछ चीजें अपेक्षाकृत स्वार्थी, घृणित, नीच, और काफी नकारात्मक हैं, और कुछ नहीं। लेकिन चाहे जो भी हो, परिवार से मिली शिक्षा के प्रभाव कपड़ों की एक रक्षात्मक परत की तरह होते हैं जो कुल मिलाकर व्यक्ति के दैहिक हितों की रक्षा करते हैं, दूसरों के बीच उनकी गरिमा बनाए रखते हैं, और उन्हें किसी की धौंस में आने से रोकते हैं। ऐसा ही है न? (बिल्कुल।) तो फिर, आओ बात करें कि तुम्हारे परिवार की शिक्षा के क्या प्रभाव होते हैं। उदाहरण के लिए, जब परिवार के बुजुर्ग अक्सर तुमसे कहते हैं कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” तो यह इसलिए होता है ताकि तुम अच्छी प्रतिष्ठा रखने और गौरवपूर्ण जीवन जीने को अहमियत दो और ऐसे काम मत करो जिनसे तुम्हारी बदनामी हो। तो यह कहावत लोगों को सकारात्मक दिशा की ओर लेकर जाती है या नकारात्मक? क्या यह तुम्हें सत्य की ओर ले जा सकती है? क्या यह तुम्हें सत्य समझने की ओर ले जा सकती है? (नहीं, बिल्कुल नहीं।) तुम यकीन से कह सकते हो, “नहीं, नहीं ले जा सकती!” जरा सोचो, परमेश्वर कहता है कि लोगों को ईमानदार लोगों की तरह आचरण करना चाहिए। अगर तुमने कोई अपराध किया है या कुछ गलत किया है या कुछ ऐसा किया है जो परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है या सत्य के विरुद्ध जाता है, तो तुम्हें अपनी गलती स्वीकारनी होगी, खुद को समझना होगा, और सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए खुद का विश्लेषण करते रहना होगा और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना होगा। अगर लोग ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करें, तो क्या यह इस कहावत के विरुद्ध नहीं होगा कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है”? (हाँ।) यह इसके विरुद्ध कैसे होगा? “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” इस कहावत का उद्देश्य यह है कि लोग उज्ज्वल और रंगीन जीवन जिएँ और ऐसे काम ज्यादा करें जिनसे उनकी छवि बेहतर होती है—उन्हें बुरे या अपमानजनक काम या ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिनसे उनका कुरूप चेहरा उजागर हो—और वे आत्मसम्मान या गरिमा के साथ न जी पाएँ। अपनी प्रतिष्ठा की खातिर, अपने गौरव और सम्मान की खातिर, व्यक्ति को अपने बारे में सब कुछ नहीं बताना चाहिए, और दूसरों को अपने अँधेरे पक्ष और शर्मनाक पहलुओं के बारे में तो कतई नहीं बताना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति को आत्मसम्मान और गरिमा के साथ जीना चाहिए। गरिमावान होने के लिए अच्छी प्रतिष्ठा होना जरूरी है, और अच्छी प्रतिष्ठा पाने के लिए व्यक्ति को मुखौटा लगाना और अच्छे कपड़े पहनकर दिखाना होता है। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के विरुद्ध नहीं है? (हाँ।) जब तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करते हो, तो तुम जो भी करते हो वह इस कहावत से बिल्कुल अलग होता है, “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” अगर तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना चाहते हो, तो आत्मसम्मान को अहमियत मत दो; व्यक्ति के आत्मसम्मान की कीमत दो कौड़ी की भी नहीं है। सत्य से सामना होने पर, व्यक्ति को मुखौटा लगाने या झूठी छवि बनाए रखने के बजाय, खुद को उजागर कर देना चाहिए। व्यक्ति को अपने सच्चे विचारों, अपनी गलतियों, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले पहलुओं वगैरह को परमेश्वर के सामने प्रकट कर देना चाहिए, और अपने भाई-बहनों के सामने भी इनका खुलासा करना चाहिए। यह अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीने का मामला नहीं, बल्कि एक ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करने, सत्य का अनुसरण करने, एक सच्चा सृजित प्राणी बनने और परमेश्वर को संतुष्ट करने और बचाए जाने की खातिर जीने का मामला है। लेकिन जब तुम यह सत्य और परमेश्वर के इरादे नहीं समझते हो, तो तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई चीजें तुम पर हावी हो जाती हैं। इसलिए, जब तुम कुछ गलत करते हो, तो उस पर पर्दा डालकर यह सोचते हुए दिखावा करते हो, “मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूँगा, और अगर कोई इस बारे में जानता है मैं उसे भी कुछ नहीं कहने दूँगा। अगर तुममें से किसी ने कुछ भी कहा, तो मैं तुम्हें आसानी से नहीं छोडूँगा। मेरी प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा जरूरी है। जीने का मतलब तभी है जब हम अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जिएँ, क्योंकि यह किसी भी चीज से ज्यादा जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा खो देता है, तो वह अपनी सारी गरिमा खो देता है। तो तुम जो सच है वह नहीं बता सकते, तुम्हें झूठ का सहारा लेना होगा और चीजों को छुपाना होगा, वरना तुम अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा खो बैठोगे, और तुम्हारा जीवन निरर्थक हो जाएगा। अगर कोई तुम्हारा सम्मान नहीं करता है, तो तुम एकदम बेकार हो, सिर्फ रास्ते का कचरा हो।” क्या इस तरह अभ्यास करके ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना मुमकिन है? क्या पूरी खुलकर बोलना और अपना विश्लेषण करना मुमकिन है? (नहीं, मुमकिन नहीं है।) बेशक, ऐसा करके तुम इस कहावत का पालन कर रहे हो, “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” जैसा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें सिखाया है। हालाँकि, अगर तुम सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने के लिए इस कहावत को त्याग देते हो, तो फिर यह तुम्हें प्रभावित नहीं करेगी, और यह कोई काम करने के लिए तुम्हारा आदर्श वाक्य या सिद्धांत भी नहीं रहेगी, बल्कि तुम जो भी करोगे वह इस कहावत से बिल्कुल विपरीत होगा कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” तुम न तो अपनी प्रतिष्ठा की खातिर और न ही अपनी गरिमा की खातिर जियोगे, बल्कि तुम सत्य का अनुसरण करने और ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के लिए जियोगे, और परमेश्वर को संतुष्ट करके एक सच्चे सृजित प्राणी की तरह जीने की कोशिश करोगे। अगर तुम इस सिद्धांत का पालन करते हो, तो तुम अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों से मुक्त हो जाओगे।
परिवार लोगों को बस एक या दो कहावतों से नहीं, बल्कि बहुत सारे मशहूर उद्धरणों और सूक्तियों से सिखाता है। उदाहरण के लिए, क्या तुम्हारे परिवार के बुजुर्ग और माँ-बाप अक्सर इस कहावत का उल्लेख करते हैं, “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है”? (हाँ।) इससे उनका मतलब होता है : “लोगों को अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीना चाहिए। लोग अपने जीवनकाल में दूसरों के बीच अच्छी प्रतिष्ठा कायम करने और अच्छा प्रभाव डालने के अलावा और कुछ नहीं चाहते हैं। तुम जहाँ भी जाओ, वहाँ अधिक उदारता के साथ सबका अभिवादन करो, खुशियाँ बाँटो, तारीफें करो, और कई अच्छी-अच्छी बातें कहो। लोगों को नाराज मत करो, बल्कि अधिक अच्छे और परोपकारी कर्म करो।” परिवार द्वारा दी गई इस विशेष शिक्षा के प्रभाव का लोगों के व्यवहार या आचरण के सिद्धांतों पर विशेष प्रभाव पड़ता है, जिसका नतीजा यह होता है कि वे शोहरत और लाभ को ज्यादा अहमियत देते हैं। यानी, वे अपनी प्रतिष्ठा, साख, लोगों के मन में बनाई अपनी छवि, और वे जो कुछ भी करते हैं और जो भी राय व्यक्त करते हैं उसके बारे में दूसरों के अनुमान को बहुत महत्व देते हैं। शोहरत और लाभ को ज्यादा अहमियत देकर, तुम अनजाने में इस बात को कम महत्व देते हो कि तुम जो कर्तव्य निभा रहे हो वह सत्य और सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, क्या तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो, और क्या तुम पर्याप्त मात्रा में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। तुम इन चीजों को कम महत्वपूर्ण और कम प्राथमिकता वाली चीजें मानते हो, जबकि तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई इस कहावत को कि “व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है,” तुम बहुत महत्वपूर्ण मान लेते हो। यह कहावत तुम्हें दूसरों के मन में अपने बारे में हर एक बारीक चीज पर ध्यान देने को मजबूर करती है। खास तौर पर, कुछ लोग इस पर विशेष ध्यान देते हैं कि दूसरे लोग उनकी पीठ पीछे उनके बारे में असल में क्या सोचते हैं, यहाँ तक कि वे दीवारों पर कान लगाकर और आधे-खुले दरवाजों से दूसरों की बातें सुनते हैं, और दूसरे लोग उनके बारे में क्या लिख रहे हैं उस पर नजर भी रखते हैं। जैसे ही कोई उनके नाम का जिक्र करता है, वे सोचते हैं, “मुझे जल्दी से सुनना होगा कि वे मेरे बारे में क्या कह रहे हैं, और वे मेरे बारे में अच्छी राय रखते हैं या नहीं। अरे नहीं, उनका कहना है कि मैं आलसी हूँ और मुझे अच्छा खाना पसंद है। अब मुझे बदलना होगा, मैं अब से आलसी नहीं हो सकता, मुझे मेहनती बनना होगा।” कुछ समय तक मेहनत करने के बाद, वे मन ही मन सोचते हैं, “मैं कई दिनों से कान लगाकर सुन रहा था कि लोग मुझे आलसी कहते हैं या नहीं, पर हाल के दिनों में मैंने किसी से ऐसा नहीं सुना है।” मगर फिर भी उन्हें बेचैनी होती है, तो वे अपने आस-पास के लोगों से चर्चा करते समय यूँ ही कह देते हैं : “मैं थोड़ा आलसी तो हूँ।” तो दूसरे जवाब देते हैं : “तुम आलसी नहीं हो, बल्कि अब पहले से काफी मेहनती बन गए हो।” यह सुनकर वे तुरंत आश्वस्त, खुश और सुकून महसूस करते हैं। “देखा, मेरे बारे में सबकी राय बदल गई है। ऐसा लगता है कि सभी ने मेरे व्यवहार में सुधार देखा है।” तुम जो कुछ भी करते हो वह सत्य का अभ्यास करने की खातिर नहीं है, न ही यह परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए है, बल्कि यह सब तुम्हारी प्रतिष्ठा की खातिर है। इस तरह, तुमने जो कुछ भी किया वह प्रभावी रूप से क्या बन जाता है? यह प्रभावी रूप से एक धार्मिक कार्य बन जाता है। तुम्हारे सार को क्या होता है? तुम बिल्कुल फरीसियों जैसे बन गए हो। तुम्हारे मार्ग को क्या होता है? यह मसीह-विरोधियों का मार्ग बन गया है। परमेश्वर इसी तरह इसे परिभाषित करता है। तो, तुम जो भी करते हो उसका सार दूषित हो गया है, यह अब पहले जैसा नहीं रहा; तुम सत्य का अभ्यास या उसका अनुसरण नहीं कर रहे, बल्कि तुम शोहरत और लाभ के पीछे भाग रहे हो। जहाँ तक परमेश्वर का संबंध है, तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन—एक शब्द में—अपर्याप्त है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए कार्य या एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित होने के बजाय बस अपनी प्रतिष्ठा के प्रति समर्पित हो। जब परमेश्वर तुम्हारे सामने ऐसी परिभाषा रखता है तो तुम अपने दिल में क्या महसूस करते हो? यह कि परमेश्वर में तुम्हारे इतने वर्षों का विश्वास व्यर्थ रहा। तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे थे? तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे थे, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा पर विशेष ध्यान दे रहे थे, और इन सबकी जड़ में तुम्हारे परिवार तुम्हें दी गई शिक्षा का प्रभाव है। वह कौन-सी सबसे प्रभावशाली कहावत है जिससे तुम्हें शिक्षित किया गया है? यह कहावत कि “व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है,” तुम्हारे दिल में जड़ें जमा चुकी है और तुम्हारा आदर्श वाक्य बन गई है। बचपन से ही तुम इस कहावत से प्रभावित और शिक्षित किए गए हो, और बड़े होने के बाद भी तुम अपने परिवार की अगली पीढ़ी और अपने आस-पास के लोगों को प्रभावित करने के लिए अक्सर इस कहावत को दोहराते रहते हो। बेशक, इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि तुमने इसे अपने आचरण और चीजों के साथ निपटने के लिए अपने तरीके और सिद्धांत के रूप में अपनाया है, और यहाँ तक कि अपने जीवन के लक्ष्य और दिशा मान लिया है। तुम्हारा लक्ष्य और दिशा गलत है, तो फिर तुम्हारा अंतिम परिणाम भी यकीनन नकारात्मक ही होगा। क्योंकि तुम जो कुछ भी करते हो उसका सार केवल तुम्हारी प्रतिष्ठा की खातिर और सिर्फ इस कहावत को अभ्यास में लाने के लिए होता है कि “व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है।” तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, और तुम्हें खुद ही यह पता नहीं है। तुम्हें लगता है कि इस कहावत में कुछ भी गलत नहीं है; क्या लोगों को अपनी प्रतिष्ठा के लिए नहीं जीना चाहिए? जैसी कि आम कहावत है, “व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है?” यह कहावत बहुत सकारात्मक और उचित लगती है, तो तुम अनजाने में इसकी सीख के प्रभाव को स्वीकार लेते हो और इसे एक सकारात्मक चीज मानते हो। इस कहावत को एक सकारात्मक चीज मानने के बाद, तुम अनजाने में इसका अनुसरण और अभ्यास करते हो। इसी के साथ, तुम अनजाने में और भ्रमित होकर इसे सत्य और सत्य की कसौटी मान लेते हो। इसे सत्य की कसौटी मानने के बाद, तुम परमेश्वर की नहीं सुनते, और न ही उसकी बातों को समझते हो। तुम आँख बंद करके इस आदर्श वाक्य को अभ्यास में लाते हो कि “व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है,” और इसके अनुसार कार्य करते हो, जिससे अंत में तुम अच्छी प्रतिष्ठा पा लेते हो। तुम जो चाहते थे अब वह तुम्हें मिल गया है, पर ऐसा करके तुमने सत्य का उल्लंघन और सत्य का त्याग किया है, और बचाए जाने का अवसर भी गँवा दिया है। यह देखते हुए कि यही इसका अंतिम परिणाम है, तुम्हें अपने परिवार द्वारा सिखाए गए इस विचार को त्याग देना चाहिए कि “व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है।” तुम्हें इस कहावत पर टिके नहीं रहना चाहिए, और न ही इस कहावत या विचार को अभ्यास में लाने के लिए अपनी जीवनभर की कोशिश और ऊर्जा लगानी चाहिए। यह विचार और दृष्टिकोण जो तुममें डाला और सिखाया गया है, सरासर गलत है, तो तुम्हें इसे त्याग देना चाहिए। इसे त्यागने का कारण सिर्फ यही नहीं है कि यह सत्य नहीं है, बल्कि असल में यह तुम्हें भटका देगा और तुम्हारे विनाश की ओर ले जाएगा, यानी इसके परिणाम बहुत गंभीर हैं। तुम्हारे लिए, यह बस कोई मामूली कहावत नहीं, बल्कि कैंसर है—लोगों को भ्रष्ट करने का साधन और तरीका है। क्योंकि परमेश्वर के वचनों में, लोगों से उसकी सभी अपेक्षाओं में, परमेश्वर ने लोगों से कभी भी अच्छी प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि पाने या लोगों पर अच्छी छाप छोड़ने या लोगों की स्वीकृति प्राप्त करने, या लोगों की प्रशंसा पाने के लिए नहीं कहा है, और न ही उसने कभी लोगों को शोहरत पाने की खातिर जीने या अपने पीछे अच्छी प्रतिष्ठा छोड़ने के लिए मजबूर किया है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग अच्छी तरह अपने कर्तव्य निभाएँ, उसके प्रति और सत्य के प्रति समर्पण करें। इसलिए, जहाँ तक तुम्हारा सवाल है, यह कहावत तुम्हारे परिवार से मिली एक तरह की शिक्षा है जिसे तुम्हें त्याग देना चाहिए।
तुम्हारे परिवार की शिक्षा का तुम पर एक और प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, माँ-बाप या बड़े-बूढ़े तुम्हें प्रोत्साहित करने के लिए अक्सर कहते हैं, “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी।” ऐसा कहकर, वे तुम्हें कष्ट सहना, मेहनती और दृढ़ रहना और अपने किसी भी काम में डटकर कष्ट सहना सिखाना चाहते हैं, क्योंकि जो कष्ट सहते हैं, कठिनाइयों से लड़ते हैं, कड़ी मेहनत करते और संघर्ष करने की भावना रखते हैं वे ही शीर्ष पर पहुँचते हैं। “शीर्ष पर पहुँचने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है ऐसी स्थिति में होना जहाँ कोई धौंस नहीं जमा सकता या नीची नजरों से नहीं देख सकता या भेदभाव नहीं कर सकता; इसका मतलब लोगों के बीच ऊँची प्रतिष्ठा और रुतबा होना, अपनी बात कहने और सुने जाने, और फैसले लेने का अधिकार होना; इसका मतलब यह भी है कि तुम दूसरों के बीच बेहतर और उच्च स्तरीय जीवन जी पाते हो, लोग तुम्हारा सम्मान करते हैं, तुम्हारी सराहना करते हैं और तुमसे ईर्ष्या करते हैं। मूल रूप से इसका यह मतलब है कि संपूर्ण मानवजाति में तुम्हारा ऊँचा दर्जा है? “ऊँचा दर्जा” से क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि कई लोग तुम्हारे नीचे हैं और तुम्हें उनसे कोई दुर्व्यवहार सहने की जरूरत नहीं है—“शीर्ष पर पहुँचने” का यही मतलब है। शीर्ष पर पहुँचने के लिए, तुम्हें “बड़ी पीड़ा सहनी होगी,” यानी तुम्हें ऐसे कष्ट सहने होंगे जो दूसरे नहीं सह सकते। तो शीर्ष पर पहुँच पाने से पहले, तुम्हें लोगों की अपमानजनक नजरों, उपहास, कटाक्ष, बदनामी, और साथ ही उनकी नासमझी और यहाँ तक कि उनका तिरस्कार वगैरह भी सहना होगा। शारीरिक पीड़ा के अलावा, तुम्हें आम लोगों की राय के कटाक्ष और उपहास को सहना भी सीखना होगा। केवल इस प्रकार का व्यक्ति बनना सीखकर ही तुम दूसरों से अलग बन सकते हो, और समाज में अपने लिए खास जगह बना सकते हो। इस कहावत का उद्देश्य लोगों को कोई मामूली व्यक्ति बनाने के बजाय एक शीर्ष पर रहने वाला व्यक्ति बनाना है, क्योंकि एक मामूली व्यक्ति होना बहुत कठिन है—तुम्हें दुर्व्यवहार सहना पड़ता है, तुम बेकार महसूस करते हो, और तुम्हारी कोई गरिमा या पहचान नहीं होती। यह भी परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा का प्रभाव है, और यह तुम्हारा भला करने के उद्देश्य से किया जाता है। तुम्हारा परिवार ऐसा इसलिए करता है ताकि तुम्हें दूसरों से दुर्व्यवहार न सहना पड़े, और तुम्हारे पास शोहरत और अधिकार हो, तुम अच्छा खाओ-पियो और मौज करो, और जहाँ भी जाओ वहाँ कोई तुम पर धौंस जमाने की कोशिश न करे, बल्कि तुम तानाशाह की तरह रहो और सभी फैसले खुद ले सको, और सभी तुम्हारे सामने सिर झुकाएँ और अपनी दुम हिलाएँ। एक ओर, सबसे आगे निकलने की कोशिश, तुम्हारे अपने फायदे के लिए है, और वहीं दूसरी ओर, तुम यह अपने परिवार का सामाजिक दर्जा बढ़ाने और अपने पूर्वजों का नाम रौशन करने के लिए भी कर रहे हो, ताकि तुम्हारे माँ-बाप और परिवार वालों को भी तुमसे जुड़े रहने का फायदा मिले और कोई उनसे दुर्व्यवहार न करे। अगर तुमने बहुत कष्ट सहा है और सबसे आगे निकलकर ऊँची रैंक वाले अफसर बन गए हो और अब तुम्हारे पास एक शानदार कार है, आलीशान घर है और लोग तुम्हारे आस-पास घूमते हैं, तो तुम्हारे परिवार वालों को भी तुमसे जुड़े रहने का फायदा होगा, वे भी अच्छी गाड़ियाँ चला पाएँगे, अच्छा खाएँगे, और उच्च स्तरीय जीवन जियेंगे। तुम चाहो तो सबसे महँगे पकवान खा सकोगे, मनचाही जगह पर जा सकोगे, और सभी तुम्हारे इशारों पर नाचेंगे, तुम अपनी मनमर्जी कर सकोगे, और सिर झुकाकर जीने या डरकर जीने के बजाय तुम मनमाने ढंग से और अहंकार के साथ जीवन जी सकोगे, जो मन करे वह कर सकोगे, फिर चाहे वह कानून के खिलाफ ही क्यों न हो, और तुम निडर और लापरवाह जीवन जी सकोगे—तुम्हें इस तरह की शिक्षा देने के पीछे तुम्हारे परिवार का यही उद्देश्य है कि कोई तुम्हारे साथ अन्याय न कर पाए और तुम सबसे आगे निकल सको। साफ-साफ कहें, तो उनका उद्देश्य तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनाना है जो दूसरों का नेतृत्व करे, उन्हें निर्देश दे, आदेश दे; उनका उद्देश्य तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनाना भी है जो दूसरों पर धौंस जमाने में सक्षम हो और कभी किसी की धौंस में न आए, जो किसी के अधीन होने के बजाय खुद शीर्ष पर पहुँचे। यही बात है न? (बिल्कुल।) अपने परिवार से मिली इस शिक्षा के प्रभाव का क्या तुम्हें कोई फायदा होता है? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कह रहे हो कि इससे तुम्हें कोई फायदा नहीं होता? अगर हर परिवार अपनी अगली पीढ़ी को ऐसी शिक्षा दे, तो क्या इससे सामाजिक संघर्ष बढ़ जाएगा और समाज अधिक प्रतिस्पर्धी और अन्यायी बन जाएगा? हर कोई सबसे आगे रहना चाहेगा, कोई भी निचले पायदान पर रहना या सामान्य व्यक्ति बनना नहीं चाहेगा—हर कोई दूसरों पर शासन करने और धौंस जमाने वाला व्यक्ति बनना चाहेगा। अगर ऐसा हुआ तो क्या तुम्हें लगता है कि समाज में तब भी अच्छा बना रहेगा? जाहिर है कि समाज सकारात्मक दिशा में नहीं जा रहा होगा, और इससे सामाजिक संघर्षों में बढ़ोतरी होगी, और लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा और विवाद बढ़ेंगे। उदाहरण के लिए, स्कूल को ही ले लो। जब आस-पास कोई नहीं होता है तो विद्यार्थी बहुत मेहनत से पढ़ाई करके एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते हैं, मगर जब आपस में मिलते हैं तो कहते हैं, “अरे यार, मैंने फिर से पिछले हफ्ते पढ़ाई नहीं की। बल्कि फलाँ जगह जाकर दिन भर खूब मौज-मस्ती की। तुम कहाँ गए थे?” तभी कोई दूसरा बीच में बोलता है : “मैं तो पूरे हफ्ते सोता रह गया और बिल्कुल भी पढ़ाई नहीं की।” असल में दोनों ही अच्छी तरह जानते हैं कि वे पढ़ाई कर-करके थक गए थे, मगर उनमें से कोई भी तब तक पढ़ाई करने या मेहनत करने की बात नहीं स्वीकारता जब तक कि कोई उसे देख न रहा हो, क्योंकि हर कोई शीर्ष पर पहुँचना चाहता है और यह नहीं चाहता कि दूसरे उससे आगे निकल जाएँ। वे कहते हैं कि उन्होंने पढ़ाई नहीं की, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि दूसरों को पता चले कि असल में उन्होंने पढ़ाई की थी। इस तरह झूठ बोलने से क्या मिलेगा? तुम अपनी खातिर पढ़ाई करते हो, दूसरों के लिए नहीं। अगर तुम अभी से ही झूठ बोलोगे, तो क्या फिर समाज में आकर सही मार्ग पर चल पाओगे? (नहीं।) समाज में आकर व्यक्तिगत हित, पैसा और रुतबा आवश्यक हो जाता है, तो इससे लोगों के बीच मुकाबला काफी बढ़ेगा ही। लोग अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए बिल्कुल नहीं रुकेंगे और किसी भी हद तक चले जाएँगे। अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए वे किसी भी कीमत पर कुछ भी करने को तैयार होंगे, और वहाँ तक पहुँचने के लिए अपमान भी सहेंगे। अगर सब ऐसे ही चलता रहा, तो समाज अच्छा कैसे बन सकता है अगर सभी ऐसा करने लगे, तो मानवजाति अच्छी कैसे हो सकती है? (नहीं हो सकती।) सभी प्रकार की गलत सामाजिक परंपराओं और बुरी प्रवृत्तियों की जड़ में परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा है। तो फिर, परमेश्वर इस मामले में हमसे क्या चाहता है? क्या परमेश्वर यह चाहता है कि हम शीर्ष पर पहुँचें और साधारण, सांसारिक, मामूली या सामान्य होने के बजाय महान, मशहूर, और उत्कृष्ट बनें? क्या परमेश्वर लोगों से यही चाहता है? (नहीं।) जाहिर है कि जिस कहावत की तुम्हारे परिवार ने तुम्हें शिक्षा दी है—“शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी”—वह तुम्हें सकारात्मक दिशा नहीं दिखाती है, और बेशक, इसका सत्य से कोई सरोकार नहीं है। तुम्हें कष्ट सहने के लिए मजबूर करने के पीछे तुम्हारा परिवार का उद्देश्य निष्कपट नहीं है, बल्कि ऐसा साजिश के तहत किया गया है, और यह बेहद घृणित और कपटपूर्ण है। परमेश्वर लोगों को इसलिए कष्ट सहने को मजबूर करता है क्योंकि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं। अगर लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों से शुद्ध होना चाहते हैं, तो उन्हें कष्ट सहना होगा—यह एक वस्तुनिष्ठ तथ्य है। इसी के साथ, परमेश्वर चाहता है कि लोग कष्ट सहें : एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए, और एक सामान्य व्यक्ति को भी इसी तरह कष्ट सहना चाहिए और ऐसा ही रवैया रखना चाहिए। हालाँकि, परमेश्वर तुमसे शीर्ष पर पहुँचने की अपेक्षा नहीं करता है। वह तुमसे बस इतना चाहता है कि तुम एक साधारण, सामान्य व्यक्ति बनो, जो सत्य समझे, उसके वचनों को सुने और उसके प्रति समर्पित हो। परमेश्वर कभी नहीं चाहता कि तुम उसे हैरान करो या कोई हलचल मचा देने वाला कारनामा करो, और न ही वह तुमसे कोई मशहूर हस्ती या महान व्यक्ति बनने को कहता है। वह बस इतना चाहता है कि तुम एक साधारण, सामान्य और वास्तविक व्यक्ति बनो, और चाहे तुम कितना भी कष्ट सह सको या कष्ट न भी सह सको, अगर अंत में तुम परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह सकते हो, तो यही तुम्हारे लिए सबसे बेहतरीन होगा। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम शीर्ष पर पहुँचो, बल्कि वह चाहता है कि तुम एक सच्चे सृजित प्राणी बनो, जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सके। ऐसा व्यक्ति साधारण और सामान्य व्यक्ति है, जिसके पास सामान्य मानवता, अंतरात्मा और विवेक है, और वह अविश्वासियों या भ्रष्ट मनुष्यों की नजरों में ऊँचा या महान नहीं है। हमने पहले भी इस पहलू पर बहुत संगति की है, तो अब आगे इस पर चर्चा नहीं करेंगे। “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी,” इस कहावत को तुम्हें निस्संदेह त्याग देना चाहिए। इसमें ऐसा क्या है जो तुम्हें त्यागना चाहिए? तुम्हें वह दिशा त्यागनी है जिसके अनुसरण की शिक्षा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें दी है। यानी, तुम्हें अपने अनुसरण की दिशा बदलनी चाहिए। सिर्फ शीर्ष पर पहुँचने, भीड़ से अलग दिखने और उल्लेखनीय होने या दूसरों से तारीफ पाने की खातिर कुछ भी मत करो। बल्कि तुम्हें इन इरादों, लक्ष्यों, और मंशाओं को त्यागकर व्यावहारिक तरीके से सब कुछ करना चाहिए ताकि तुम एक सच्चा सृजित प्राणी बन सको। “व्यावहारिक तरीके” से मेरा क्या मतलब है? सबसे बुनियादी सिद्धांत है उन तरीकों और सिद्धांतों के अनुसार सब कुछ करना जो परमेश्वर ने लोगों को सिखाए हैं। मान लो कि कोई भी तुम्हारे काम से हैरान या प्रभावित नहीं होता है, या कोई तुम्हारी प्रशंसा या सराहना भी नहीं करता है। हालाँकि, अगर यह कुछ ऐसा है जो तुम्हें करना ही है, तो तम्हें डटे रहकर इसे जारी रखना चाहिए, और इसे एक सृजित प्राणी द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्य की तरह देखना चाहिए। अगर ऐसा करोगे, तो तुम परमेश्वर की नजरों में एक स्वीकार्य सृजित प्राणी होगे—यह इतना सरल है। तुम्हें अपने आचरण और जीवन के प्रति अपने नजरिये के संबंध में बस अपने अनुसरण का तरीका बदलना है।
परिवार दूसरे तरीकों से भी तुम्हें शिक्षा देता है और तुम्हें प्रभावित करता है, जैसे कि इस कहावत से कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है।” परिवार के सदस्य अक्सर तुम्हें सिखाते हैं : “दयालु बनो और दूसरों से बहस मत करो या दुश्मन मत बनाओ, क्योंकि अगर तुम बहुत सारे दुश्मन बनाओगे, तो समाज में अपने पैर नहीं जमा पाओगे, और अगर तुमसे नफरत और तुम्हारी हानि करने वालों की संख्या ज्यादा होगी, तो तुम समाज में सुरक्षित नहीं रहोगे। तुम पर हमेशा खतरे की तलवार लटकी रहेगी, और तुम्हारा अस्तित्व, रुतबा, परिवार, व्यक्तिगत सुरक्षा, और यहाँ तक कि तुम्हारे करियर में प्रगति की संभावनाएँ भी खतरे में पड़ जाएँगी और बुरे लोग इसमें बाधा डालेंगे। तो तुम्हें यह सीखना होगा कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है।’ सबके प्रति दयालु बनो, अच्छे रिश्ते मत तोड़ो, ऐसी बातें मत कहो जिसका बाद में तुम्हें पछतावा हो, लोगों के आत्मसम्मान को ठेस मत पहुँचाओ, और उनकी कमियों को उजागर मत करो। ऐसी बातें कहने से बचो या मत कहो जिन्हें लोग सुनना नहीं चाहते। सिर्फ तारीफें करो, क्योंकि किसी की तारीफ करने से कोई नुकसान नहीं होता है। तुम्हें बड़े और छोटे, दोनों तरह के मामलों में धीरज दिखाना और समझौता करना सीखना होगा, क्योंकि ‘समझौते से संघर्ष सुलटना आसान हो जाएगा।’” जरा सोचो, तुम्हारा परिवार एक बार में तुम्हारे मन में दो विचार और दृष्टिकोण डालता है। एक ओर, वे कहते हैं कि तुम्हें दूसरों के प्रति दयालु बनना होगा; तो वहीं दूसरी ओर, वे चाहते हैं कि तुम धीरज दिखाओ, अपनी बारी आए तभी बोलो, और अगर तुम्हें कुछ कहना है, तो उस वक्त अपना मुँह बंद ही रखो और घर आकर सारी बातें सिर्फ अपने परिवार को बताओ। या इससे भी बेहतर, अपने परिवार को भी मत बताओ, क्योंकि दीवारों के भी कान होते हैं—अगर कभी राज़ सामने आ गया, तो तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा। इस समाज में पैर जमाने और जीवन जीने के लिए, लोगों को एक चीज जरूर सीखनी चाहिए, और वह है गोलमोल बातें करने वाला बनना। बोलचाल की भाषा में कहें तो तुम्हें झूठा और चालाक बनना होगा। तुम यूँ ही अपने मन की बात नहीं कह सकते। अगर तुम बगैर सोचे अपने मन की बात कह देते हो, तो यह बेवकूफी कहलाएगी, चतुराई नहीं। कुछ लोग बड़बोले होते हैं जो बगैर सोचे कुछ भी कह देते हैं। मान लो कि कोई व्यक्ति ऐसा करके अपने बॉस को नाराज कर देता है। फिर बॉस उसका जीना दूभर कर देता है, उसका बोनस काट लेता है, और हमेशा उससे झगड़ने की फिराक में रहता है। आखिर में, नौकरी करते रहना उसके बर्दाश्त से बाहर हो जाता है। अगर उसने नौकरी छोड़ दी, तो उसके पास जीविका चलाने का कोई और जरिया नहीं होगा। लेकिन अगर उसने नौकरी नहीं छोड़ी, तो उसे उस नौकरी में बने रहना होगा जो उसके बर्दाश्त के बाहर है। वो क्या कहते हैं, जब तुम्हारे एक ओर कुआँ और दूसरी ओर खाई हो? दुविधा में “फंस जाना।” फिर उसका परिवार उससे कहता है : “तुम इसी बुरे व्यवहार के लायक हो, तुम्हें याद रखना चाहिए था कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है!’ बड़बोला होने और बेपरवाही से बोलने का यही नतीजा होता है! हमने तुमसे कहा था कि चतुराई से और अच्छी तरह सोच-समझकर ही कुछ बोला करो, पर तुमने हमारी नहीं सुनी, तुमने मुँहफट की तरह अपनी बात कह डाली। तुम्हें क्या लगा कि अपने बॉस से पंगे लेना इतना आसान है? क्या तुमने सोचा था कि समाज में जीना इतना आसान है? तुम्हें हमेशा यही लगता है कि तुम बेबाकी से बोलते हो। खैर, अब तुम्हें अपने किए का नतीजा भुगतना ही होगा। इसे अपने लिए एक सबक मानो! आगे से, तुम इस कहावत को अच्छी तरह याद रखोगे, ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है’!” एक बार यह सीख मिल जाने के बाद, वह इसे याद रखता है; सोचता है, “मेरे माँ-बाप ने मुझे सही शिक्षा दी थी। यह जीवन के अनुभव से मिली अंतर्दृष्टि अंश है, ज्ञान का असली अंश, मैं अब इसे अनदेखा नहीं कर सकता। मैं खुद को खतरे में डालकर अपने बड़ों को अनदेखा करता हूँ, तो आगे से मैं इसे याद रखूँगा।” परमेश्वर में विश्वास करने और परमेश्वर के घर से जुड़ने के बाद, उसे अभी भी यह कहावत याद है, “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है!” इसलिए जब भी वह अपने भाई-बहनों से मिलता है तो उनका अभिवादन करता है, और उनके साथ मीठी बातें कहने की भरसक कोशिश करता है। अगुआ कहता है : “मुझे अगुआ बने एक अरसा हो गया है, पर मेरे पास कार्य का पर्याप्त अनुभव नहीं है।” तो वह तारीफ करते हुए कहता है : “आप बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं। अगर आप हमारी अगुआई नहीं कर रहे होते, तो हमें लगता कि हम बेसहारा हैं।” कोई और कहता है : “मैंने अपने बारे में कुछ चीजें समझी हैं, और मुझे लगता है मैं काफी धूर्त हूँ।” इस पर वह जवाब देता है, “तुम धूर्त नहीं हो, तुम बहुत ईमानदार हो, धूर्त तो मैं हूँ।” कोई और उसके बारे में कुछ बुरी टिप्पणियां कहता है, तो वह मन-ही-मन सोचता है, “ऐसी बुरी टिप्पणियों से डरने की कोई जरूरत नहीं है, मैं इससे भी बदतर चीजें सह सकता हूँ। तुम्हारी टिप्पणियाँ चाहे कितनी भी बुरी हों, मैं उन्हें अनसुना कर दूँगा, तुम्हारी तारीफ करता रहूँगा, और तुम्हारी खुशामद करने की भरसक कोशिश करूँगा, क्योंकि किसी की तारीफ करने से कोई नुकसान नहीं होता है।” संगति के दौरान जब कोई उसकी राय माँगता है या खुलकर बोलने को कहता है, तो वह खुलकर बात नहीं करता, और सबके सामने हँसमुख और खुशमिजाजी का मुखौटा लगाए रखता है। कोई उससे पूछता है : “तुम हमेशा इतने हँसमुख और खुशमिजाज कैसे रहते हो? क्यातुम हमेशा मुस्कुराते ही रहते हो?” तो वह मन-ही-मन सोचता है : “मैं सालों से मुस्कुराता रहा हूँ, और अब तक तो किसी ने मेरा फायदा नहीं उठाया, अब यह संसार से निपटने के लिए मेरा प्रमुख सिद्धांत बन गया है।” क्या वह एक कपटी इंसान है? (बिल्कुल।) कुछ लोग कई सालों से समाज में ऐसे ही जीते आए हैं, और परमेश्वर के घर में आने के बाद भी यही करते रहते हैं। उनकी एक भी बात सच्ची नहीं होती, वे कभी दिल से बात नहीं करते, और वे खुद को लेकर अपनी समझ के बारे में भी बात नहीं करते हैं। यहाँ तक कि जब कोई भाई या बहन उनसे अपने दिल की बात कहता है, तब भी वे खुलकर बात नहीं करते, और कोई नहीं जान पाता है कि असल में उनके मन में क्या चल रहा है। वे अपनी सोच और अपना दृष्टिकोण कभी सामने नहीं रखते, सबके साथ बहुत अच्छे रिश्ते बनाए रखते हैं, और तुम्हें पता ही नहीं चलता कि वे असल में कैसे इंसान हैं या उनका व्यक्तित्व किस तरह का है, या वे वास्तव में दूसरों के बारे में क्या सोचते हैं। अगर कोई उनसे पूछता है कि फलाँ व्यक्ति कैसा है, तो वे जवाब देते हैं, “वह करीब दस सालों से विश्वासी है, और बढ़िया आदमी है।” चाहे तुम उनसे किसी के बारे में भी पूछो, वे यही जवाब देंगे कि वह इंसान बढ़िया है या काफी अच्छा है। अगर कोई उनसे पूछे, “क्या तुम्हें उसमें कोई कमियाँ या खामियाँ दिखती हैं?” वे जवाब देते हैं, “अब तक तो नहीं, पर आगे से मैं इस पर कड़ी नजर रखूँगा,” पर वे मन-ही-मन सोचते हैं : “तुम मुझे उस व्यक्ति को नाराज करने को कह रहे हो, जो मैं कतई नहीं करूँगा! अगर मैंने तुम्हें सच बता दिया और उसे पता चल गया, तो क्या वह मेरा दुश्मन नहीं बन जाएगा? मेरा परिवार हमेशा से मुझे कहता आया है कि दुश्मन मत बनाना, और मैं उनकी बात भूला नहीं हूँ। क्या मैं तुम्हें बेवकूफ लगता हूँ? क्या तुम्हें लगता है कि सत्य से जुड़े दो वाक्यों पर तुम्हारी संगति से मैं अपने परिवार से मिली सीख और शिक्षा को भुला दूँगा? ऐसा कतई नहीं होगा! ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है’ और ‘समझौते से संघर्ष सुलटना आसान हो जाएगा,’ इन कहावतों ने आज तक मुझे कभी निराश नहीं किया है और ये मेरे ताबीज हैं। मैं किसी की खामियों के बारे में बात नहीं करता, और अगर कोई मुझे उकसाता है तो मैं उसके प्रति धीरज दिखाता हूँ। क्या तुमने नहीं देखा मेरे माथे पर क्या बना है? यह ‘धीरज’ का चीनी प्रतीक है, जिसमें दिल के ऊपर एक चाकू की तस्वीर है। अगर कोई बुरी टिप्पणियाँ करता है, मैं उसके प्रति धीरज दिखाता हूँ। अगर कोई मेरी काट-छाँट करता है, मैं उसके प्रति धीरज से काम लेता हूँ। मेरा लक्ष्य सभी के साथ अच्छे रिश्ते बनाना और संबंधों को इसी स्तर पर बनाए रखना है। सिद्धांतों पर अड़े मत रहो, बेवकूफी मत करो, अड़ियल मत बनो, तुम्हें हालात के अनुसार झुकना सीखना होगा! कछुए इतने लंबे समय तक कैसे जिंदा रहते हैं? क्योंकि जब भी हालात मुश्किल होते हैं वे अपने कवच के अंदर छिप जाते हैं, है न? इस तरह वे खुद की रक्षा करते हैं और हजारों साल तक जीते हैं। लंबा जीवन इसी तरह जिया जाता है और संसार से ऐसे ही निपटा जाता है।” तुम ऐसे लोगों को कभी सच्ची बात बोलते हुए नहीं सुनोगे, और उनके वास्तविक दृष्टिकोण और उनके आचरण की मूल बातें कभी उजागर नहीं होती हैं। वे इन चीजों के बारे में बस मन-ही-मन सोच-विचार करते हैं, पर किसी और को उनके बारे में कोई अता-पता नहीं होता। ऐसा व्यक्ति बाहर से तो सबके प्रति दयालु होता है, अच्छे स्वभाव वाला मालूम पड़ता है और किसी को चोट या नुकसान नहीं पहुँचाता है। मगर वास्तव में, वे गोलमोल बातें करते हैं और कपटी होते हैं। कलीसिया में ऐसे व्यक्ति को कुछ लोग हमेशा पसंद करते हैं, क्योंकि वे कभी बड़ी गलतियाँ नहीं करते, अपनी सच्चाई कभी बाहर नहीं आने देते, और कलीसिया अगुआओं और भाई-बहनों का उनके बारे में मूल्यांकन यह होता है कि वे सभी के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। वे अपने कर्तव्य को लेकर उदासीन रहते हैं, उनसे जो कहा जाता है वही करते हैं। वे विशेष रूप से आज्ञाकारी होते हैं और अच्छा व्यवहार करते हैं, बातचीत में या मामलों से निपटते हुए कभी दूसरों को दुखी नहीं करते, और कभी किसी का गलत फायदा नहीं उठाते हैं। वे कभी किसी के बारे में बुरा नहीं बोलते, और पीठ पीछे लोगों की आलोचना भी नहीं करते। हालाँकि, यह कोई नहीं जानता कि वे अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार हैं या नहीं, और वे दूसरों के बारे में क्या सोचते हैं या उनके बारे में क्या राय रखते हैं। बहुत सोच-विचार के बाद, तुम्हें लगता है कि यह व्यक्ति वाकई थोड़ा अजीब है और उसकी थाह पाना मुश्किल है, और उसे अपने साथ रखने से दिक्कत हो सकती है। अब तुम्हें क्या करना चाहिए? यह तय करना मुश्किल है, है न? जब वे अपना कर्तव्य निभा रहे होते हैं, तो तुम उन्हें अपना काम करते देख सकते हो, पर वे परमेश्वर के घर द्वारा बताए गए सिद्धांतों की कभी परवाह नहीं करते। वे अपनी मनमर्जी से काम करते हैं, बेमन से काम करते हैं और कुछ नहीं, सिर्फ बड़ी गलतियाँ करने से बचने की कोशिश करते हैं। इसी वजह से, तुम्हें उनमें कोई खामी या कोई दोष नहीं दिखता है। वे काम तो बड़े अच्छे से करते हैं, पर उनके मन में क्या चलता है? क्या वे अपना कर्तव्य निभाना चाहते हैं? अगर कलीसिया के प्रशासनिक आदेश नहीं होते या कलीसिया अगुआ या भाई-बहनों की निगरानी नहीं होती, तो क्या ऐसे लोग बुरे लोगों के साथ जुड़ सकते हैं? क्या वे बुरे लोगों के साथ मिलकर बुरे काम और बुरी चीजें कर सकते हैं? इसकी संभावना काफी अधिक है, और वे ऐसा कर सकते हैं, पर अब तक किया नहीं है। इस प्रकार के व्यक्ति सबसे ज्यादा दिक्कतें खड़ी करते हैं, और वे एक नंबर के झूठे और बूढ़ी चालाक लोमड़ी जैसे होते हैं। वे किसी के खिलाफ मन में खोट नहीं रखते। अगर कोई उन्हें दुख पहुँचाने के लिए कुछ कहता है या ऐसे भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा करता है जिससे उनकी गरिमा को चोट पहुँचती है, तब वे क्या सोचते हैं? “मैं धीरज से काम लूँगा, इस कारण मैं तुमसे बैर नहीं करूँगा, पर एक दिन ऐसा आएगा जब तुम खुद का मजाक बनाओगे!” जब उस व्यक्ति से वास्तव में निपटा जाता है या वह खुद का मजाक बनाता है, तो वे मन-ही-मन उस पर हँसते हैं। वे आसानी से दूसरे लोगों, अगुआओं और परमेश्वर के घर का मजाक उड़ाते हैं, पर अपना मजाक नहीं बनने देते। वे खुद ही नहीं जानते कि उनमें क्या समस्याएँ या खामियाँ हैं। ऐसे लोग सावधानी बरतते हैं कि कहीं कुछ ऐसा खुलासा न कर दें जिससे दूसरों को ठेस पहुँचे या जिससे दूसरों को उनकी असलियत पता चल जाए; हालाँकि, वे इन चीजों के बारे में मन-ही-मन जरूर सोचते हैं। जब ऐसी चीजों की बात आती है जो दूसरों को सुन्न या गुमराह कर सकती हैं, तो वे खुलकर उन्हें व्यक्त करते हैं और लोगों को उन्हें देखने देते हैं। ऐसे लोग बेहद मक्कार होते हैं और इनसे निपटना कठिन होता है। तो ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर का घर कैसा रवैया अपनाता है? अगर उनका इस्तेमाल किया जा सकता है तो करो, नहीं तो उन्हें बाहर निकाल दो—यही सिद्धांत है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि इस तरह के लोग कभी सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते। वे छद्म-विश्वासी हैं जो चीजें गलत होने पर परमेश्वर के घर, भाई-बहनों और अगुआओं का मजाक बनाते हैं। वे क्या भूमिका निभाते हैं? क्या यह शैतान और राक्षसों की भूमिका है? (बिल्कुल।) जब वे भाई-बहनों के प्रति धैर्य दिखाते हैं, इसमें न तो वास्तविक सहनशीलता होती है और न ही सच्चा प्रेम। वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि खुद की रक्षा कर सकें और किसी दुश्मन या खतरे को अपने रास्ते में न आने दें। वे अपने भाई-बहनों को बचाने या उनके प्रति प्रेम दिखाने के लिए उन्हें बर्दाश्त नहीं करते हैं, और वे ऐसा सत्य का अनुसरण करने या सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने के कारण तो कतई नहीं करते। उनका रवैया पूरी तरह से धारा के साथ बहने और लोगों को गुमराह करने पर केंद्रित होता है। ऐसे लोग गोलमोल बातें करने वाले और कपटी होते हैं। वे सत्य को पसंद या उसका अनुसरण नहीं करते, बल्कि बस धारा के साथ बहते जाते हैं। जाहिर है कि उन्हें अपने परिवार से मिली शिक्षा उनके आचरण और चीजों से निपटने के तरीकों को काफी प्रभावित करती है। बेशक, यह कहा जाना चाहिए कि संसार से निपटने के इन तरीकों और सिद्धांतों को उनकी मानवता के सार से अलग नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी बात, अपने परिवार से मिली शिक्षा के प्रभाव उनके कार्यों को अधिक स्पष्ट और ठोस बनाने का काम करते हैं, और उनकी प्रकृति सार को और अच्छी तरह स्पष्ट करते हैं। इसलिए, सही और गलत के प्रमुख मुद्दों और परमेश्वर के घर के हितों पर असर डालने वाले मामलों का सामना होने पर, अगर ऐसे लोग कुछ सही फैसले करके परमेश्वर के घर के हितों को बनाए रखने, अपने अपराधों को कम करने, और परमेश्वर के समक्ष अपने कुकर्मों को कम करने के लिए, सांसारिक आचरण के उन फलसफों को त्याग दें जो उनके दिलों में बसे हैं, जैसे कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,”—तो इससे उन्हें क्या फायदा होगा? कम से कम, जब भविष्य में परमेश्वर हर एक व्यक्ति का परिणाम निर्धारित करेगा, तो इससे उनकी सजा कम हो जाएगी और परमेश्वर उन्हें कम ताड़ना देगा। इस तरह अभ्यास करने से, ऐसे लोगों के पास खोने के लिए कुछ नहीं होगा, पर पाने के लिए सब कुछ होगा, है न? अगर उन्हें सांसारिक आचरण के अपने सभी फलसफों को पूरी तरह से त्यागने के लिए मजबूर किया जाए, तो यह उनके लिए आसान नहीं होगा, क्योंकि इसमें उनका मानवता सार शामिल है, और ये गोलमोल बातें करने वाले कपटी लोग सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते। उनके लिए अपने परिवारों द्वारा सिखाए गए शैतानी फलसफों को त्यागना इतना सरल और आसान नहीं होता है, क्योंकि—अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों को अलग रखने के बाद भी—वे खुद शैतानी फलसफों में बहुत अधिक विश्वास करते हैं, और उन्हें संसार से निपटने का यह नजरिया पसंद आता है, जो कि बहुत ही व्यक्तिगत, व्यक्तिपरक नजरिया है। लेकिन अगर ऐसे लोगों में चतुराई है—अगर अपने हितों को खतरा या नुकसान न होने पर वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए इनमें से कुछ अभ्यासों को त्याग पाते हैं—तो यह वास्तव में उनके लिए अच्छी बात है, क्योंकि कम से कम इससे उनके अपराध और परमेश्वर द्वारा उन्हें मिलने वाली ताड़ना कम हो सकती है, और यहाँ तक कि पासा पलट भी सकता है और परमेश्वर उन्हें ताड़ना देने के बजाय इनाम देकर याद भी रख सकता है। यह कितना शानदार होगा! क्या यह अच्छी बात नहीं होगी? (बिल्कुल।) इस पहलू पर हमारी संगति यहीं समाप्त होती है।
तुम्हारे परिवार ने तुम्हें और कैसी शिक्षा दी है? उदाहरण के लिए, तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें अक्सर बताते हैं : “अगर तुमने ज्यादा मुँह ज्यादा चलाया और बोलने में उतावलापन दिखाया, तो देर-सबेर तुम मुसीबत में फँस जाओगे! तुम्हें याद रखना चाहिए कि ‘जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है’! इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि अगर तुम बहुत ज्यादा बोलोगे, तो निश्चित तौर पर तुम्हारे मुँह से कुछ गलत निकल ही जाएगा। चाहे कोई भी मौका हो, बिना सोचे-समझे कुछ मत बोलो—कुछ भी कहने से पहले दूसरों की बातें सुनो। अगर तुम बहुमत के साथ चलोगे, तो सब ठीक रहेगा। लेकिन अगर तुम हमेशा दूसरों से अलग दिखने की कोशिश करोगे, लगातार बिना सोचे-समझे कुछ भी बोलोगे और अपने चीफ, बॉस या दूसरों की राय जाने बिना अपनी राय सामने रखोगे, और बाद में पता चला कि तुम्हारे चीफ या बॉस की राय तुमसे अलग है, तो वे तुम्हारा जीना मुश्किल कर देंगे। क्या इससे किसी का भला हो सकता है? नादान बच्चे, आगे से तुम्हें सावधानी बरतनी होगी। जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है। बस इसे याद रखो, और बिना सोचे-समझे कुछ मत बोलो! मुँह खाना खाने, साँस लेने, अपने वरिष्ठों से मीठी बातें करने और दूसरों की खुशामद करके के लिए है, सच बोलने के लिए नहीं। तुम्हें बुद्धिमानी से अपने शब्दों को चुनना चाहिए, चालें चलनी और तरकीबें लड़ानी चाहिए और अपने दिमाग का इस्तेमाल करना चाहिए। कुछ भी कहने से पहले, मन में उन बातों पर मंथन करो, उन्हें बार-बार दोहराओ, और अपनी बात कहने के लिए सही समय का इंतजार करो। तुम्हारी बात परिस्थिति पर भी निर्भर होनी चाहिए। अगर तुम अपनी राय बताना शुरू करते हो, मगर फिर देखते हो कि लोग इसमें दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं या अच्छी प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं, तो वहीं रुक जाओ और सोचो कि अपनी राय इस तरह कैसे बताई जाए जिससे सभी खुश रहें और किसी को ठेस न पहुँचे। एक बुद्धिमान बच्चा यही करेगा। ऐसा करने से, तुम मुसीबत में नहीं फँसोगे और सभी तुम्हें पसंद करेंगे। और जब सभी तुम्हें पसंद करेंगे, तो क्या यह तुम्हारे लिए फायदेमंद नहीं होगा? क्या इससे भविष्य में तुम्हारे लिए ज्यादा अवसर नहीं पैदा होंगे?” तुम्हारा परिवार यह बताकर तुम्हें न केवल अच्छी प्रतिष्ठा पाने, शीर्ष पर पहुँचने और दूसरों के बीच अपनी जगह बनाने के तरीके की शिक्षा देता है, बल्कि तुम्हें यह भी सिखाता है कि बाहरी दिखावों के जरिये दूसरों को कैसे धोखा दें और कैसे सच नहीं बोलें, और कैसे अपने मन की कोई भी बात दूसरों के सामने न कहें। कुछ लोग जो सच बोलने के बाद मुसीबत में पड़ गए हैं, वे अपने परिवार की बताई इस कहावत को याद करते हैं, “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,” और इससे सबक लेते हैं। इसके बाद वे इस कहावत को अमल में लाने और इसे अपना आदर्श वाक्य बनाने के लिए ज्यादा इच्छुक हो जाते हैं। दूसरे लोग मुसीबत में नहीं पड़े, लेकिन इस संबंध में अपने परिवार की शिक्षा को ईमानदारी से स्वीकारते हैं, और हर मौके पर इस कहावत को लगातार अमल में लाते हैं। वे इसे जितना अधिक अमल में लाते हैं, उतना ही उन्हें महसूस होता है कि “मेरे माँ-बाप और दादा-दादी को मेरी कितनी परवाह है, वे सभी मेरे प्रति ईमानदार हैं और सिर्फ मेरा भला चाहते हैं। मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ कि उन्होंने मुझे यह कहावत बताई, ‘जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,’ वरना मैं अपने बड़बोलेपन के कारण बार-बार मुसीबत में पड़ जाता और कई लोग मेरा जीना हराम कर देते या मुझे अपमान भरी नजरों से देखते या मेरा उपहास करते और मजाक उड़ाते। यह कहावत कितनी उपयोगी और लाभकारी है!” इस कहावत को अमल में लाने से उन्हें बहुत सारे ठोस फायदे मिलते हैं। बेशक, जब वे परमेश्वर के समक्ष आते हैं, तब भी यही सोचते हैं कि यह कहावत सबसे उपयोगी और लाभकारी चीज है। जब भी कोई भाई या बहन अपनी व्यक्तिगत दशा, भ्रष्टता या अनुभव और ज्ञान के बारे में खुलकर संगति करती है, तो वे भी संगति करना चाहते हैं और एक स्पष्टवादी और सच्चा इंसान बनना चाहते हैं, और वे भी ईमानदारी से अपने मन या दिल की बात कहना चाहते हैं, ताकि कुछ समय के लिए उनके मन को राहत मिले, जो इतने सालों से दबा हुआ है या वे कुछ हद तक आजादी और मुक्ति पाना चाहते हैं। मगर जैसे ही अपने माँ-बाप की बार-बार सिखाई बातें उनके कानों में गूँजती हैं कि “‘जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,’ बिना सोचे-समझे कुछ मत कहो, बोलने वाला बनने के बजाय सुनने वाले बनो, और दूसरों की बातें सुनना सीखो,” तो वे अपनी बात मन में ही दबा लेते हैं। जब बाकी सभी लोग अपनी बात कह देते हैं, तो वे कुछ नहीं कहते और मन-ही-मन सोचते हैं : “बढ़िया है, इस बार मैंने कुछ न कहकर अच्छा ही किया, क्योंकि अगर मैं अपनी बात कह देता, तो लोग मेरे बारे में कोई न कोई राय बना लेते, और मैं शायद कुछ खो बैठता। कुछ न कहना ही सबसे अच्छा है, शायद इस तरह सबको यही लगेगा कि मैं ईमानदार हूँ और इतना कपटी नहीं हूँ, बल्कि स्वाभाविक रूप से खामोश रहने वाला व्यक्ति हूँ, और इसलिए कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ जो साजिश रचता हो या जो बहुत भ्रष्ट हो, और विशेष रूप से ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ जो परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखता है, बल्कि मैं एक सरल और सच्चा व्यक्ति हूँ। लोगों का मेरे बारे में ऐसा सोचना बुरा तो नहीं है, फिर मैं कुछ क्यों कहूँ? ‘जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,’ इस कहावत का पालन करके मुझे वाकई कुछ परिणाम दिख रहे हैं, तो मैं इसी तरह व्यवहार करता रहूँगा।” इस कहावत का पालन करने से उसे एक अच्छा, कुछ हासिल होने वाला एहसास होता है, और इसलिए वह एक बार, दो बार चुप रहता है, और ऐसा तब तक चलता है, जब एक दिन उसके अंदर इतनी सारी बातें इकट्ठी हो जाती हैं कि वह अपने भाई-बहनों को सब खुलकर बताना चाहता है, मगर ऐसा लगता है मानो उसके मुँह और होंठ सिल गए हों, और वह कुछ नहीं कह पाता है। क्योंकि वह अपने भाई-बहनों से कुछ नहीं कह पाता है, तो परमेश्वर से बात करने की कोशिश करता है, उसके सामने घुटने टेककर कहता है, “परमेश्वर, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ। मैं...।” भले ही वह अपने मन में कई बार इस पर विचार कर चुका है, मगर वह नहीं जानता कि अपनी बात कैसे कहे, वह इसे व्यक्त नहीं कर पाता है, ऐसा लगता है जैसे वह एकदम गूँगा हो गया है। वह सही शब्द चुनना या यहाँ तक कि ठीक से वाक्य बनाना भी नहीं जानता है। इतने वर्षों से इकट्ठी हुई भावनाएँ उस पर काफी दबाव बनाती हैं, ऐसा महसूस कराती हैं मानो वह एक अँधकारमय और घिनौना जीवन जी रहा हो, और जब वह परमेश्वर को अपने दिल की बात बताने और अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का मन बनाता है, तो उसके पास कहने को शब्द ही नहीं होते और वह नहीं जानता कि शुरुआत कहाँ से करें या अपनी बात कैसे कहें। क्या वह दुखी नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) तो फिर, उसके पास परमेश्वर से कहने के लिए कुछ क्यों नहीं है? वह सिर्फ अपना परिचय देता है। वह परमेश्वर को अपने दिल की बात बताना चाहता है, पर उसके पास शब्द नहीं है, और अंत में वह बस इतना कह पाता है : “परमेश्वर मुझे कुछ शब्द दो, ताकि मुझे जो कहना चाहिए वह कह सकूँ!” तब परमेश्वर जवाब देता है : “तुम्हें कहना तो बहुत कुछ चाहिए, पर तुम कहना ही नहीं चाहते, और मौका मिलने पर भी तुम कुछ कहते नहीं हो, इसलिए मैंने तुम्हें जो कुछ भी दिया है, सब वापस लेता हूँ। तुम्हें यह नहीं मिलेगा, तुम इसके लायक नहीं हो।” तब जाकर उसे एहसास होता है कि बीते सालों में उसने कितना कुछ खोया है। भले ही उसे लगता है कि उसने बहुत गरिमामय जीवन जिया है, खुद को अच्छी तरह से ढककर रखा है और सही तरीके से दिखाने की कोशिश की है, मगर जब वह देखता है कि उसके भाई-बहन हर वक्त लाभ उठाते आए हैं, और वे बिना हिचकिचाहट अपने अनुभवों के बारे में बात कर सकते हैं और अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बता सकते हैं, तो उसे एहसास होता है कि वह खुद तो एक वाक्य भी नहीं कह सकता है, और उसे कहने का तरीका भी नहीं पता है। ऐसे लोगों ने इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है, तो वे स्वयं के बारे में जो जानते हैं वो बताना चाहते हैं, परमेश्वर के वचनों के अपने अनुभव पर चर्चा करना चाहते हैं, परमेश्वर से कुछ प्रबोधन और थोड़ी रोशनी प्राप्त करना चाहते हैं, और कुछ हासिल करना चाहते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से, क्योंकि वे सभी अक्सर इस राय पर अड़े रहते हैं कि “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,” और अक्सर इस विचार से बंधे और नियंत्रित होते हैं, इसलिए वे इतने सालों से इसी कहावत के अनुसार जीते आए हैं, उन्हें परमेश्वर से कोई प्रबोधन या रोशनी नहीं मिली है, और जीवन प्रवेश के संबंध में वे आज भी गरीब, दयनीय और खाली हाथ हैं। उन्होंने इस कहावत और विचार पर पूरी तरह से अमल किया है और इनका अच्छी तरह से पालन किया है, मगर इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी, उन्हें थोड़ा भी सत्य हासिल नहीं हुआ है, और वे आज भी गरीब और अंधे बने हुए हैं। परमेश्वर ने उन्हें मुँह तो दिए, पर उनमें सत्य पर संगति करने की कोई क्षमता नहीं है, न ही अपनी भावनाओं और ज्ञान के बारे में बात करने की क्षमता है, फिर भाई-बहनों से बात करने की क्षमता होना तो दूर की बात है। इससे भी ज्यादा दयनीय यह है कि उनके पास परमेश्वर से बात करने की क्षमता भी नहीं है, और उन्होंने ऐसी क्षमता खो दी है। क्या वे दयनीय नहीं हैं? (हाँ, बिल्कुल हैं।) दयनीय और निराशाजनक। क्या तुम्हें बात करना नापसंद नहीं है? क्या तुम्हें हमेशा इस बात का डर नहीं लगता कि जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है? तो फिर तुम्हें हमेशा चुप ही रहना चाहिए। तुम अपने अंतरतम के विचारों को ढककर रखते हो और जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है उसे दबाए रखते हो, उसे मुहरबंद कर देते हो और सामने आने से रोकते हो। तुम लगातार अपनी इज्जत खोने, खतरा महसूस होने, अपनी असलियत दूसरों के सामने आने से डरते हो, और इस बात से भी डरते हो कि अब तुम दूसरों की नजरों में एक आदर्श, ईमानदार और अच्छे इंसान नहीं रहोगे, तो तुम खुद को ढक लेते हो और अपने असली विचारों के बारे में कुछ नहीं कहते हो। फिर अंत में क्या होता है? तुम हर तरह से गूँगे बन जाते हो। तुम्हें इतना नुकसान किसने पहुँचाया? इसकी जड़ में, तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा है जिसने तुम्हें इतना नुकसान पहुँचाया है। मगर तुम्हारे व्यक्तिगत परिप्रेक्ष्य से, ऐसा इसलिए भी है क्योंकि तुम्हें शैतानी फलसफों के अनुसार जीना पसंद है, इसीलिए तुमने यह माना कि तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा सही है, और यह नहीं माना कि परमेश्वर तुमसे जो अपेक्षाएँ करता है वे सकारात्मक हैं। तुम्हारे परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों को तुम सकारात्मक चीज मानते हो, जबकि परमेश्वर के वचनों, उसकी अपेक्षाओं और उसके प्रावधान, सहायता और शिक्षण को ऐसी नकारात्मक चीजें मानते हो जिनसे बचकर रहना चाहिए। इसलिए, शुरुआत में परमेश्वर ने तुम्हें चाहे कितना भी दिया हो, इतने सालों तक सतर्कता बरतने और इनकार करने के कारण, अंत में परमेश्वर तुमसे सब कुछ वापस ले लेता है और तुम्हें कुछ नहीं देता, क्योंकि तुम इन्हें पाने के लायक ही नहीं हो। इससे पहले कि यह सब हो, तुम्हें इस संबंध में अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों को त्याग देना चाहिए, और इस गलत विचार को स्वीकार नहीं करना चाहिए कि “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है।” यह कहावत तुम्हें अधिक संकीर्ण, अधिक धूर्त और पाखंडी बनाती है। यह लोगों के ईमानदार होने की परमेश्वर की अपेक्षा और उनके स्पष्टवादी और सच्चे होने की उसकी उम्मीद के बिल्कुल विपरीत और विरोधी है। परमेश्वर का विश्वासी और अनुयायी होने के नाते, तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के लिए पूरी तरह से दृढ़ होना चाहिए। और जब तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए पूरी तरह दृढ़ होगे, तब तुम्हें अपने परिवार से मिली शिक्षा के प्रभावों को भी त्याग देने पर बिल्कुल दृढ़ होना चाहिए जो तुम्हें सकारात्मक लगते हैं—इसमें कोई चुनाव बिल्कुल नहीं करना चाहिए। अपने परिवार से मिली शिक्षा का तुम पर चाहे जैसा भी प्रभाव पड़ा हो, वे तुम्हारे लिए चाहे कितने भी अच्छे या फायदेमंद क्यों न हों, वे चाहे तुम्हारी कितनी भी रक्षा करें, मगर वे लोगों और शैतान से आते हैं, और तुम्हें उन्हें त्याग देना चाहिए। भले ही परमेश्वर के वचन और लोगों से उसकी अपेक्षाएँ, तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा के प्रभावों से अलग हों, या वे तुम्हारे हितों को नुकसान ही क्यों न पहुँचाएँ, और तुम्हारे अधिकारों को छीन लें, और भले ही तुम्हें ऐसा लगता हो कि वे तुम्हारी रक्षा नहीं करते, बल्कि तुम्हारी असलियत सामने लाने और तुम्हें मूर्ख दिखाने के लिए हैं, फिर भी तुम्हें उन्हें सकारात्मक चीजें ही मानना चाहिए, क्योंकि वे परमेश्वर से आते हैं, वे सत्य हैं, और तुम्हें उन्हें स्वीकारना चाहिए। अगर तुम्हारे परिवार ने तुम्हें जिन चीजों की शिक्षा दी है उनका प्रभाव तुम्हारी सोच और आचरण, जीवन जीने के तुम्हारे नजरिये और तुम्हारे द्वारा अपनाए गए मार्ग पर पड़ता है, तो तुम्हें उन्हें त्याग देना चाहिए और उन पर अड़े नहीं रहना चाहिए। बल्कि, तुम्हें उन्हें परमेश्वर से आए संबंधित सत्यों से बदल देना चाहिए, और ऐसा करने में, तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई चीजों की अंतर्निहित समस्याओं और सार को लगातार समझना और पहचानना भी चाहिए, और फिर अधिक सटीकता, व्यावहारिकता और सच्चाई से परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और अभ्यास करना चाहिए। लोगों और चीजों के बारे में परमेश्वर से आने वाले विचारों, दृष्टिकोणों और अभ्यास के सिद्धांतों को स्वीकार करना—यही एक सृजित प्राणी की कर्तव्य-बद्ध जिम्मेदारी है, और एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए; यही वह विचार और दृष्टिकोण भी है जो एक सृजित प्राणी को रखना चाहिए।
कुछ परिवारों में माँ-बाप, अपने बच्चों को उनके जीवन, लक्ष्यों और भविष्य के लिए सकारात्मक और फायदेमंद लगने वाली चीजें सिखाने के अलावा, उनमें कुछ अपेक्षाकृत कट्टर और कुत्सित विचार और दृष्टिकोण भी डाल देते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसे माँ-बाप कहते हैं : “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है।” यह कहावत बताती है कि तुम्हें कैसा आचरण करना चाहिए। यह कहावत कि “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है,” तुम्हें दो विकल्पों में से एक को चुनने पर मजबूर करती है। यह तुम्हें एक सच्चा खलनायक बनने के लिए मजबूर करती है, यानी लोगों के पीठ-पीछे बुराई करने से बेहतर है खुलेआम बुराई करो। इस तरह, भले ही लोगों को लगे कि तुम अच्छे काम नहीं करते हो, फिर भी वे तुम्हारी सराहना करेंगे और तुम्हें स्वीकारेंगे। इसका मतलब है, चाहे तुम कोई भी बुरे काम करो, तुम्हें उन्हें सबके सामने, खुले तौर पर और स्पष्ट रूप से करना चाहिए। कुछ परिवार अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा और सीख देते हैं। वे न केवल समाज में उन लोगों से घृणा नहीं करते जिनके विचार और व्यवहार घृणित और बुरे होते हैं, बल्कि वे अपने बच्चों को यह कहकर सिखाते हैं : “इन लोगों को कम मत समझना। वास्तव में, यह जरूरी नहीं कि वे बुरे लोग हों—वे नकली सज्जनों से बेहतर भी हो सकते हैं।” एक ओर, वे तुम्हें बताते हैं कि कैसा इंसान बनना है, वहीं दूसरी ओर, वे तुम्हें यह भी सिखाते हैं कि लोगों को कैसे पहचानें, किस तरह के लोगों को सकारात्मक मानें, और किस तरह के लोगों को नकारात्मक मानें; वे तुम्हें सकारात्मक और नकारात्मक चीजों में अंतर करना और आचरण करना भी सिखाते हैं—वे तुम्हें इसी तरह की शिक्षा देते और ऐसे सिखाते हैं। तो, ऐसी शिक्षा से लोगों पर अप्रत्यक्ष रूप से कैसा प्रभाव पड़ता है? (वे अच्छे-बुरे में अंतर नहीं कर पाते।) सही कहा, वे अच्छे-बुरे और सही-गलत में अंतर नहीं कर पाते। आओ सबसे पहले देखें कि मनुष्य इन तथाकथित खलनायकों और नकली सज्जनों को कैसे देखते हैं। पहली बात, मनुष्यों को लगता है कि सच्चे खलनायक बुरे लोग नहीं हैं, और जो सही मायनों में नकली सज्जन हैं वे बुरे लोग हैं। नकली सज्जन वे कहलाते हैं जो दूसरों के पीठ-पीछे बुरे काम करते हैं और सामने अच्छा बनने का दिखावा करते हैं। वे लोगों के सामने परोपकार, धार्मिकता और नैतिकता की बातें करते हैं, लेकिन उनके पीठ-पीछे सभी तरह के बुरे काम करते हैं। वे हर तरह की अच्छी बातें करते हुए ऐसे बुरे काम करते हैं—ऐसे लोग तिरस्कार के लायक ही हैं। जहाँ तक सच्चे खलनायकों की बात है, वे लोगों के सामने भी उतने ही बुरे होते हैं जितना कि उनके पीठ-पीछे, और फिर भी लोगों के तिरस्कार का पात्र बनने के बजाय ऐसे आदर्श बन जाते हैं जिनका अनुकरण और अध्ययन किया जाता है। ऐसी कहावत और दृष्टिकोण वास्तव में अच्छे और बुरे व्यक्ति को लेकर लोगों की अवधारणाओं को भ्रमित करते हैं। इसलिए लोगों को कुछ भी ठीक-ठीक पता नहीं होता, और उनकी अवधारणाएँ बहुत धुंधली हो जाती हैं। जब परिवार लोगों को ऐसी शिक्षा देता है, तो उनमें से कुछ ऐसा भी सोचते हैं, “एक सच्चा खलनायक बनकर मैं ईमानदार बन रहा हूँ। मैं हर काम खुलकर कर रहा हूँ। मुझे कुछ कहना होता है तो तुम्हारे मुँह पर कहता हूँ। अगर मैं तुम्हें नुकसान पहुँचाता हूँ या तुम्हें नापसंद करता हूँ या तुम्हारा फायदा उठाना चाहता हूँ, तो यह सब तुम्हारे सामने और तुम्हें बताकर करूँगा।” यह कैसा तर्क है? यह किस प्रकार का प्रकृति सार है? जब बुरे लोग बुरे काम और कुकर्म करते हैं, तो इसके लिए एक सैद्धांतिक आधार खोजते हैं, और यह होता है उनका तर्क। वे कहते हैं : “देखो, मैं जो कर रहा हूँ वह भले ही इतना अच्छा न हो, लेकिन यह नकली सज्जन बनने से तो बेहतर है। मैं यह सब लोगों के सामने करता हूँ और सभी इस बारे में जानते हैं—इसे ईमानदार होना कहा जाता है!” इस तरह, खलनायक खुद को ईमानदार दिखाने की कोशिश करते हैं। इस तरह की सोच रखने के कारण, असली ईमानदारी और असली बुराई को लेकर लोगों की अवधारणाएँ बहुत धुंधली हो गई हैं। वे नहीं जानते कि ईमानदार होना क्या है, और सोचते हैं, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरी बातों से किसी को दुख होता है या नहीं, मेरी बातें सही हैं या नहीं, और क्या वे तर्कपूर्ण हैं या क्या वे सिद्धांतों और सत्य के अनुरूप हैं। अगर मैं बोलने की हिम्मत करूँगा, परिणामों की चिंता नहीं करूँगा, और अगर मेरा स्वभाव सच्चा होगा, प्रकृति सीधी-स्पष्ट होगी, और मैं बिलकुल सीधा रहूँगा, और अगर मेरे मन में कोई धूर्त इरादे नहीं होंगे, तो सब सही है।” क्या यह सही-गलत को पलटने का मामला नहीं है? (बिल्कुल है।) इस तरह, नकारात्मक चीजों को सकारात्मक चीजों में बदल दिया जाता है। इसी कारण कुछ लोग इसे अपना आधार मानते हैं और इस कहावत के अनुसार आचरण करते हैं, और यह भी मान लेते हैं कि न्याय उनके पक्ष में है; वे सोचते हैं, “जो भी हो, मैं तुम्हारा फायदा नहीं उठा रहा, न ही तुम्हारी पीठ-पीछे चालें चल रहा हूँ। मैं खुलकर सबके सामने चीजें कर रहा हूँ। तुम्हें जो समझना है समझ लो। मेरे हिसाब से यह ईमानदारी है! जैसी कि कहावत है, ‘अगर व्यक्ति ईमानदार हो तो उसे अफवाहों की चिंता नहीं करनी चाहिए,’ इसलिए तुम्हें जो सोचना है सोचो!” क्या यह शैतान का तर्क नहीं है? क्या यह लुटेरों का तर्क नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या तुम्हारे लिए कुकर्म करना, बिना वजह परेशानी खड़ी करना, अत्याचारी की तरह व्यवहार करना और बुराई करना सही है? बुराई करना बस बुराई करना ही होता है : अगर तुम जो करते हो उसका सार बुराई करना है, तो यह बुराई ही है। तुम्हारे क्रियाकलापों को कैसे मापा जाता है? उन्हें इस आधार पर नहीं मापा जाता है कि क्या तुम्हारी कोई मंशाएँ थीं या क्या तुमने उन्हें सबके सामने किया या क्या तुम्हारे पास सच्चा स्वभाव है। उन्हें सत्य और परमेश्वर के वचनों के आधार पर मापा जाता है। हर चीज को मापने का मानक सत्य ही है, और इस मामले में यह बात बिल्कुल सही ढंग से लागू होती है। सत्य की माप के हिसाब से, अगर कोई चीज बुरी है, तो वह बुरी ही होगी; अगर कोई चीज सकारात्मक है, तो वह सकारात्मक ही होगी; अगर कोई चीज सकारात्मक नहीं है, तो वह सकारात्मक नहीं होगी। और वे कौन-सी चीजें हैं जिन्हें लोग ईमानदार होना, और सच्चा स्वभाव और सीधी-स्पष्ट प्रकृति होना मानते हैं? इसे शब्दों को तोड़-मरोड़कर पेश करना और कुतर्क करना, अवधारणाओं को भ्रमित करना और बकवास बातें करना कहा जाता है, इसे लोगों को पथभ्रष्ट करना कहा जाता है, और अगर तुम लोगों को पथभ्रष्ट करते हो तो तुम कुकर्म कर रहे हो। चाहे लोगों के पीठ-पीछे किया जाए या उनके सामने, बुराई तो बुराई ही होती है। किसी के पीठ-पीछे बुराई करना दुष्टता है, जबकि किसी के सामने बुराई करना वास्तव में दुर्भावनापूर्ण और बुरा है, मगर इन सभी का संबंध बुराई से है। तो मुझे बताओ, क्या लोगों को यह कहावत स्वीकारनी चाहिए “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है?” (नहीं, नहीं स्वीकारनी चाहिए।) सकारात्मक क्या है—नकली सज्जन के व्यवहार संबंधी सिद्धांत या सच्चे खलनायक के व्यवहार संबंधी सिद्धांत? (इनमें से कोई भी नहीं।) बिल्कुल सही, दोनों ही नकारात्मक हैं। तो, नकली सज्जन मत बनो, और न ही सच्चे खलनायक बनो, और अपने माँ-बाप की बकवास मत सुनो। माँ-बाप हमेशा बकवास क्यों करते रहते हैं? क्योंकि वे इसी तरह का आचरण करते हैं। उन्हें हमेशा यही लगता है कि “मेरा स्वभाव सच्चा है, मैं एक सच्चा इंसान हूँ, मैं स्पष्टवादी हूँ, मैं अपनी भावनाओं को ईमानदारी से व्यक्त करता हूँ, मैं उदार हूँ, मैं सीधा-सादा हूँ और मुझे अफवाहों के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है, मैं शालीनता से व्यवहार करता हूँ और सही मार्ग पर चलता हूँ, तो मुझे किस बात का डर? मैं कुछ भी गलत नहीं करता, तो मुझे अपने दरवाजे पर राक्षसों के दस्तक देने का डर नहीं है!” राक्षस अभी तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक नहीं दे रहे हैं, पर तुमने कम बुरे कर्म नहीं किए हैं और देर-सबेर तुम्हें दंडित किया जाएगा। तुम ईमानदार हो और अफवाहों से नहीं डरते, पर ईमानदारहोना क्या दर्शाता है? क्या यह सत्य को दर्शाता है? क्या ईमानदार होना सत्य के अनुरूप होना है? क्या तुम सत्य समझते हो? अपने कुकर्म के लिए बहाने या तर्क मत सोचो, ऐसा करना निरर्थक है! अगर यह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो यह कुकर्म है! तुम्हें तो यह भी लगता है कि तुम्हारा स्वभाव सच्चा है। क्योंकि तुम्हारा स्वभाव सच्चा है, तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि तुम दूसरों का फायदा उठा सकते हो? या दूसरों को नुकसान पहुँचा सकते हो? यह कौन-सा तर्क है? (शैतान का तर्क।) यह लुटेरों और राक्षसों का तर्क कहलाता है! तुम बुराई करते हो, और फिर भी उसे सही और उचित समझते हो, उसके लिए बहाने बनाते हो और उसे सही ठहराने की कोशिश करते हो। क्या यह बेशर्मी नहीं है? (बिल्कुल है।) मैं तुम्हें फिर से बता दूँ कि परमेश्वर के वचनों में, लोगों को सच्चा खलनायक या नकली सज्जन बनने देने का कहीं कोई उल्लेख नहीं है, न ही सच्चा खलनायक या नकली सज्जन बनने की ऐसी कोई अपेक्षा की गई है। ये सभी कहावतें बकवास और शैतानी शब्द हैं, जो लोगों को धोखा देती और गुमराह करती हैं। वे सत्य नहीं समझने वालों को गुमराह कर सकती हैं, लेकिन अगर तुम सत्य समझते हो, तो तुम्हें अब ऐसी कहावतों पर टिके नहीं रहना चाहिए या उनसे प्रभावित नहीं होना चाहिए। चाहे लोग नकली सज्जन हों या सच्चे खलनायक, वे सभी राक्षस, जानवर और बदमाश हैं, और वे बिल्कुल भी अच्छे नहीं हैं, वे दुष्ट हैं और बुराई से जुड़े हुए हैं। अगर वे दुष्ट नहीं हैं तो वे विद्वेषपूर्ण हैं, और एक नकली सज्जन और एक सच्चे खलनायक के बीच एकमात्र अंतर उनके काम करने के तरीके में है : एक खुलेआम बुराई करता है जबकि दूसरा चोरी-छिपे। साथ ही, उनके आचरण करने के तरीके भी अलग हैं। एक खुलेआम बुराई करता है, जबकि दूसरा लोगों के पीठ पीछे गंदी चालें चलता है; एक अधिक धूर्त और मक्कार है, जबकि दूसरा अधिक दबंग, हावी होने वाला और जहरीले दाँत दिखाने वाला है; एक अधिक पतित है और चोरी-छिपे काम करता है, जबकि दूसरा अधिक घिनौना और अहंकारी है। ये चीजों को करने के दो शैतानी तरीके हैं, एक खुलेआम बुराई करना और दूसरा चोरी-छिपे बुराई करना। अगर तुम खुलेआम बुराई करते हो तो तुम सच्चे खलनायक हो, और अगर छुपकर करते हो तो नकली सज्जन हो। इसमें डींगें हाँकने वाली क्या बात है? अगर तुम इस कहावत को अपना आदर्श-वाक्य मानते हो, तो क्या तुम बेवकूफ नहीं हो? अगर तुम्हें उन चीजों से गहरा नुकसान पहुँचा है जिनकी शिक्षा तुम्हारे परिवार ने दी है या इस संबंध में जो चीजें तुम्हारे मन में बैठा दी गई हैं या अगर तुम उन चीजों से चिपके हुए हो, तो मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम जल्द-से-जल्द उन्हें त्याग सकोगे, उन्हें पहचान सकोगे और उनकी असलियत देख सकोगे। इस कहावत से चिपके मत रहो और यह सोचना बंद करो कि इससे तुम्हारी सुरक्षा होती है या यह तुम्हें ईमानदार या चरित्रवान, मानवता और सच्चे स्वभाव वाला व्यक्ति बना रहा है। यह कहावत व्यक्ति के आचरण का मानक नहीं है। जैसा मैं सोचता हूँ, उसके अनुसार इस कहावत की कड़ी निंदा करता हूँ, मुझे यह सबसे ज्यादा नापासंद है। मुझे न केवल नकली सज्जनों से, बल्कि सच्चे खलनायकों से भी घृणा है—मुझे दोनों प्रकार के लोगों से नफरत है। अगर तुम नकली सज्जन हो, तो मेरे हिसाब से तुम किसी काम के नहीं हो, और तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। लेकिन अगर तुम सच्चे खलनायक हो, तब तो तुम और भी ज्यादा बदतर हो। तुम सच्चे मार्ग से अच्छी तरह परिचित हो और फिर भी जानबूझकर पाप करते हो; जाहिर है कि तुम सत्य जानते हो फिर भी सरासर इसका उल्लंघन करते हो, इस पर अमल करने में विफल रहते हो, और इसके बजाय खुलेआम सत्य का विरोध करते हो, और इसलिए तुम जल्दी ही मर जाओगे। यह मत सोचो, “मेरी प्रकृति सीधी-स्पष्ट है, मैं नकली सज्जन नहीं हूँ। भले ही मैं खलनायक हूँ, पर एक सच्चा खलनायक हूँ।” तुम सच्चे कैसे हो? तुम्हारी “सच्चाई” सत्य नहीं है, और न ही यह कोई सकारात्मक चीज है। तुम्हारी “सच्चाई” तुम्हारे अहंकारी और दुष्ट स्वभावों के सार की अभिव्यक्ति है। तुम सत्य या सही मायनों में वास्तविक चीज की तरह सच्चे नहीं हो, बल्कि सच्चे शैतान, सच्चे दानवों, और सच्चे दुष्टों की तरह “सच्चे” हो। तो, जहाँ तक इस कहावत की बात है कि “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है,” जिसकी शिक्षा तुम्हें तुम्हारे परिवार से मिली है, तुम्हें इसे भी त्याग देना चाहिए, क्योंकि इसका आचरण के उन सिद्धांतों से कोई संबंध नहीं है जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है, और यह किसी भी तरह से उनके जैसा तो कतई नहीं है। इसलिए, तुम्हें इससे चिपके रहने के बजाय जितनी जल्दी हो सके इसे त्याग देना चाहिए।
परिवार अपनी शिक्षा से एक और प्रकार का प्रभाव डालता है। उदाहरण के लिए, तुम्हारे परिवार के लोग हमेशा तुमसे कहते हैं : “भीड़ से बहुत ज्यादा अलग मत दिखो, खुद पर लगाम लगाओ और अपनी कथनी और करनी के साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत प्रतिभाओं, क्षमताओं, बुद्धि वगैरह पर थोड़ा संयम रखो। सबसे अलग दिखने वाला व्यक्ति मत बनो। जैसी कि कहावत है, ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है’ और ‘धरन का जो हिस्सा बाहर निकला होता है वह सबसे पहले सड़ता है’। अगर तुम अपना बचाव करना चाहते हो और अपने समूह में दीर्घकालिक और स्थायी जगह पाना चाहते हो, तो वह पक्षी मत बनो जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखता है, तुम्हें खुद पर लगाम लगानी चाहिए और सबसे ऊपर उठने की महत्वाकांक्षा नहीं पालनी चाहिए। जरा उस बिजली के खंभे के बारे में सोचो, तूफान आने पर सबसे पहले चोट उसी पर पड़ती है, क्योंकि आसमानी बिजली सबसे ऊँची चीज पर गिरती है; और जब तूफानी हवा चलती है, तो खतरा सबसे ऊँचे पेड़ को ही होता है और वह जड़ से उखड़ जाता है; और सर्दियों में, सबसे ऊँचा पहाड़ ही पहले जमता है। लोगों के साथ भी ऐसा ही है—अगर तुम हमेशा दूसरों से अलग दिखोगे और सबका ध्यान खींचोगे, तो किसी न किसी की नजर तुम पर पड़ेगी, और वह तुम्हें दंडित करने के लिए गंभीरता से सोचेगा। ऐसा पक्षी मत बनो जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखती है, अकेले मत उड़ो। तुम्हें झुंड में ही रहना चाहिए। वरना, अगर तुम्हारे आस-पास कोई सामाजिक विरोध वाला आंदोलन खड़ा होता है, तो सबसे पहले तुम ही दंडित किए जाओगे, क्योंकि तुम सबसे अलग दिखने वाला पक्षी हो। कलीसिया में अगुआ या समूह के प्रमुख मत बनो। वरना, परमेश्वर के घर में कार्य-संबंधी कोई भी नुकसान या समस्या होने पर, अगुआ या सुपरवाइजर होने के नाते, सबसे पहले उँगली तुम पर ही उठेगी। तो, वह पक्षी मत बनो जो अपनी गर्दन उठाए रखता है, क्योंकि जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। तुम्हें कछुए की तरह अपना सिर छुपाकर पीछे हटना सीखना होगा।” तुम अपने माँ-बाप की इन बातों को याद रखते हो, और जब अगुआ चुनने का समय आता है, तो तुम यह कहकर उस ओहदे को ठुकरा देते हो, “ओह, यह मुझसे नहीं होगा! मेरा परिवार और बच्चे हैं, मैं उनके साथ एकदम बंधा हुआ हूँ। मैं अगुआ नहीं बन सकता। तुम लोगों को ही अगुआ बनना चाहिए, मुझे मत चुनो।” मान लो कि फिर भी तुम्हें अगुआ बना दिया जाता है, पर तुम इस ओहदे को स्वीकारना नहीं चाहते। तुम कहते हो, “मुझे यह ओहदा छोड़ना होगा। तुम लोग ही अगुआ बनो। मैं यह मौका तुम सबको दे रहा हूँ। तुम यह ओहदा ले सकते हो, मैं इसे छोड़ रहा हूँ।” तुम मन में सोचते हो, “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। तुम जितनी ऊँचाई पर चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे, और ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे। मैं तुम्हें अगुआ बनने दूँगा, और अगुआ बनने के बाद एक दिन ऐसा आएगा जब तुम अपना तमाशा बना लोगे। मैं कभी अगुआ नहीं बनना चाहता, मैं कामयाबी की सीढ़ी नहीं चढ़ना चाहता, यानी मैं ऊँचाई से गिरूँगा भी नहीं। जरा सोचो, क्या फलाँ व्यक्ति को अगुआ के ओहदे से बर्खास्त नहीं किया गया था? बर्खास्त किए जाने के बाद उसे निकाल दिया गया—उसे एक साधारण विश्वासी बनने का भी मौका नहीं मिला। यह उन कहावतों का एक आदर्श उदाहरण है, ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है’ और ‘धरन का जो हिस्सा बाहर निकला होता है वह सबसे पहले सड़ता है।’ सही कहा न मैंने? क्या उसे दंडित नहीं किया गया था? लोगों को अपना बचाव करना सीखना चाहिए, वरना उनकी बुद्धि किस काम की? अगर तुम्हारे पास दिमाग है, तो खुद को बचाने के लिए उसका इस्तेमाल करो। कुछ लोग इस मुद्दे को स्पष्टता से नहीं समझ पाते, लेकिन समाज में और लोगों के किसी भी समूह में ऐसा ही होता है—‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।’ जब तुम अपनी गर्दन उठाओगे, तो तुम्हारा बहुत सम्मान होगा, जब तक कि तुम्हें गोली नहीं मार दी जाती। तब तुम्हें एहसास होगा कि जो लोग खुद को सबसे सामने रखते हैं उन्हें इसका योग्य फल देर-सबेर मिल ही जाता है।” ये तुम्हारे माँ-बाप और परिवार की गंभीर शिक्षाएँ और अनुभव हैं, और उनके जीवनकाल का परिष्कृत ज्ञान भी है, जिसे वे बिना किसी हिचकिचाहट तुम्हारे कानों में फुसफुसाते हैं। “तुम्हारे कानों में फुसफुसाने” से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि किसी दिन, तुम्हारी माँ तुम्हारे कान में फुसफुसाती है, “मैं तुम्हें बता दूँ, अगर मैंने जीवन में कोई चीज सीखी है तो वो यह है कि ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है,’ जिसका मतलब है कि अगर कोई सबसे अलग दिखता हो या बहुत ज्यादा ध्यान खींचता हो, तो उसके दंडित होने की काफी संभावना है। अब देखो, तुम्हारे डैड कितने विनम्र और निष्कपट हैं, ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें दमन के किसी अभियान में दंडित किया गया था। तुम्हारे डैड में साहित्यिक प्रतिभा है, वे लिख सकते हैं और भाषण दे सकते हैं, उनमें अगुआई करने का भी कौशल है, पर वे भीड़ से कुछ ज्यादा ही अलग दिखे और फिर उन्हें दंडित किया गया। तब से, ऐसा क्यों है कि तुम्हारे डैड कभी सरकारी अधिकारी और ऊँची हस्ती बनने के बारे में बात तक नहीं करते? इसकी वजह यही है। मैं तुम्हें दिल से यह सच बता रही हूँ। तुम्हें इसे अच्छी तरह सुनकर याद रखना होगा। भूलना मत, जहाँ भी जाओ इसे याद रखना। एक माँ होने के नाते यही वो सबसे अच्छी चीज है जो मैं तुम्हें दे सकती हूँ।” इसके बाद से तुम उनकी बातें याद रखते हो, और जब भी तुम्हें वह कहावत याद आती है “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है,” तो यह तुम्हें अपने डैड की याद दिलाती है, और जब भी तुम उनके बारे में सोचते हो, तुम इस कहावत को याद करते हो। तुम्हारे डैड एक समय ऐसे पक्षी थे जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखते थे, इसी वजह वे गोली के शिकार बने, और अब उनके उदास और निराश चेहरे ने तुम्हारे दिमाग पर गहरी छाप छोड़ दी है। तो, जब भी तुम भीड़ से अलग दिखना चाहते हो, अपने मन की बात कहना चाहते हो और परमेश्वर के घर में ईमानदारी से अपना कर्तव्य पूरा करना चाहते हो, तो तुम्हारे कानों में अपनी माँ के दिल से निकली यह सलाह गूँजती है—“जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।” तो, तुम एक बार फिर पीछे हट जाते हो, सोचते हो, “मैं कोई प्रतिभा या विशेष क्षमताएँ नहीं दिखा सकता, मुझे खुद पर संयम रखकर उन्हें दबाए रखना होगा। और जहाँ तक लोगों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपना पूरा दिल, दिमाग और ताकत लगाने के लिए परमेश्वर के उपदेश की बात है, तो मुझे इन वचनों का एक हद तक ही अभ्यास करना होगा और बहुत ज्यादा मेहनत करके दूसरों से अलग दिखने से बचना होगा। अगर मैंने बहुत ज्यादा मेहनत की और कलीसिया के कार्य की अगुआई करके दूसरों से अलग दिखने लगा, और फिर परमेश्वर के घर के कार्य में कुछ गड़बड़ हुई और उसका जिम्मेदार मुझे ठहराया गया, तो क्या होगा? मैं यह जिम्मेदारी कैसे उठाऊँ? क्या मुझे बाहर निकाल दिया जाएगा? क्या मैं बलि का बकरा बनूँगा, वह पक्षी बनूँगा जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखता है? परमेश्वर के घर में, यह कहना मुश्किल है कि ऐसे मामलों का नतीजा क्या होगा। तो, चाहे मैं जो भी करूँ, मुझे अपने लिए बच निकलने का रास्ता छोड़ना होगा, मुझे अपनी सुरक्षा करना सीखना ही होगा, और कुछ भी कहने या करने से पहले अपनी सफलता सुनिश्चित करनी होगी। यही सबसे सही बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला है, क्योंकि मेरी माँ कहती है, ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।’” यह कहावत तुम्हारे दिल की गहराई में जड़ें जमा चुकी है और तुम्हारे दैनिक जीवन पर इसका गहरा प्रभाव है। बेशक, इससे भी ज्यादा, यह अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारे रवैये को प्रभावित करती है। क्या इसमें गंभीर समस्याएँ नहीं हैं? इसलिए, जब भी तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, ईमानदारी से खुद को खपाना चाहते हो, और पूरे दिल से अपनी सारी ताकत का इस्तेमाल करना चाहते हो, तो यह कहावत—“जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है”—हमेशा तुम्हारा रास्ता रोकती है, और अंत में तुम हमेशा अपने लिए बचने का रास्ता और पैंतरेबाजी के लिए जगह छोड़ते हो, और बच निकलने का रास्ता छोड़ने के बाद तुम सिर्फ नाप-तौलकर ही अपना कर्तव्य निभाते हो। क्या मैंने गलत कहा? क्या इस संबंध में तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा तुम्हें उजागर करके निपटाए जाने से काफी हद तक बचाती है? तुम्हारे लिए तो यह एक और ताबीज है, है न? (हाँ।)
अब तक हमने जिन बातों पर संगति की है उनके आधार पर, अपने परिवार से मिली शिक्षा के कारण लोगों के पास कितने ताबीज हैं? (सात।) इतने सारे ताबीजों के साथ, क्या यह सच है कि कोई भी सामान्य शैतान और राक्षस तुम्हें नुकसान पहुँचाने की हिम्मत नहीं करेगा? ये सभी ताबीज तुम्हें मानव संसार में रहते हुए बेहद सुरक्षित, आरामदायक, और प्रसन्न महसूस कराते हैं। इसी के साथ, वे तुम्हें यह भी महसूस कराती हैं कि तुम्हारे लिए परिवार कितना महत्वपूर्ण है, और तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें दी गई सुरक्षा और ताबीज कितने महत्वपूर्ण हैं और बिल्कुल सही समय पर दिए गए हैं। जब भी तुम्हें इन ताबीजों के कारण ठोस लाभ और सुरक्षा मिलती है, तो तुम्हें अपना परिवार का होना बेहद महत्वपूर्ण लगता है, और तुम हमेशा उन पर निर्भर रहोगे। जब भी तुम कठिनाइयों का सामना करते हो, सही फैसला नहीं कर पाते और घबरा जाते हो, तो एक पल के लिए खुद को संभालकर सोचते हो, “मेरे माँ-बाप ने मुझसे क्या कहा था? मेरे बड़ों ने मुझे कौन से कौशल सिखाए थे? उन्होंने मुझे क्या आदर्श-वाक्य दिए थे?” तुम फौरन, सहज रूप से और अपने-आप उन विभिन्न विचारों और परवरिश पर निर्भर हो जाते हो जो तुम्हें अपने परिवार से मिली थी, तुम उनमें अपनी सुरक्षा खोजते हो। ऐसे समय में, परिवार तुम्हारे लिए एक सुरक्षित ठिकाना, एक सहारा, और तुम्हें आगे बढ़ाने वाली शक्ति बन जाता है, जो हमेशा मजबूत, अडिग और अपरिवर्तनीय होता है; यह एक ऐसा मानसिक सहारा है जो तुम्हें जीते रहने की हिम्मत देता है और तुम्हें घबराने और सही फैसले न कर पाने से बचाता है। ऐसे समय में, तुम इस गहरे एहसास से भरे होते हो : “मेरे लिए मेरा परिवार बेहद महत्वपूर्ण है, यह मुझे जबरदस्त मानसिक शक्ति देता है, साथ ही मेरे आध्यात्मिक सहारे का स्रोत भी है।” तुम अक्सर यह सोचकर खुद को बधाई देते हो, “अच्छा हुआ जो मैंने अपने माँ-बाप की बात मानी, वरना अभी मैं बेहद शर्मनाक परिस्थिति में होता, कोई मुझ पर धौंस जमा रहा होता या नुकसान पहुँचा रहा होता। किस्मत से, मेरे पास यह तुरुप का पत्ता है, मेरे पास यह ताबीज है। तो, परमेश्वर के घर में और कलीसिया में भी, यहाँ तक कि अपना कर्तव्य निभाते समय भी, कोई मुझ पर धौंस नहीं जमाएगा, और मैं कलीसिया से बाहर निकाले या निपटाए जाने के खतरे से बचा रहूँगा। अपने परिवार से मिली शिक्षा की सुरक्षा के कारण, ये चीजें मेरे साथ शायद कभी हो ही न।” लेकिन तुम कुछ भूल रहे हो। तुम उस माहौल में जी रहे हो जो तुम्हारी कल्पना में ताबीजों वाला माहौल है और जिसमें तुम अपनी रक्षा कर सकते हो, मगर तुम यह नहीं जानते कि तुमने परमेश्वर का आदेश पूरा किया है या नहीं। तुमने परमेश्वर के आदेश को नजरंदाज किया है, और सृजित प्राणी के रूप में अपनी पहचान के साथ ही उस कर्तव्य को भी अनदेखा किया है जो एक सृजित प्राणी को निभाना चाहिए। तुमने उस रवैये को भी नजरअंदाज किया है जो तुम्हें अपनाना चाहिए और उस सब को भी नजरअंदाज किया है जो तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने के दौरान अर्पित करना चाहिए; जीवन और मूल्यों के बारे में जो सच्चा नजरिया तुम्हें संजोना चाहिए, उसकी जगह तुम्हारे परिवार द्वारा सिखाए गए दृष्टिकोणों ने ले ली है, और तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा ने तुम्हारे उद्धार के अवसरों को भी प्रभावित किया है। इसलिए, सभी को अपने परिवार से मिली शिक्षा के विभिन्न प्रभावों को त्याग देना चाहिए, यह बेहद जरूरी है। यह सत्य का वह पहलू है जिसका अभ्यास किया जाना चाहिए, और इस वास्तविकता में बिना देरी किए प्रवेश भी करना चाहिए। क्योंकि, अगर समाज तुमसे कुछ कहे, तो मुमकिन है कि तुम इसे ठुकराने का कोई तार्किक या सहज फैसला कर लोगे; अगर कोई अजनबी या तुमसे असंबंधित कोई व्यक्ति कुछ कहे, तो तुम इसे स्वीकारने या ठुकराने का तर्कसंगत ढंग से या सोच-समझकर फैसला लोगे; लेकिन अगर तुम्हारा परिवार तुमसे कुछ कहे, तो तुम बिना झिझक या बिना सोचे-विचारे इसे पूरी तरह स्वीकार लोगे, और यह वास्तव में तुम्हारे लिए बेहद खतरनाक बात है। क्योंकि तुम्हें लगता है कि परिवार कभी किसी को नुकसान नहीं पहुँचा सकता, और तुम्हारा परिवार जो भी करता है वह तुम्हारी भलाई के लिए होता है, वह तुम्हारी रक्षा के लिए और तुम्हारी खातिर करता है। इस काल्पनिक सिद्धांत के आधार पर, लोग इन अमूर्त और मूर्त चीजों से आसानी से परेशान और प्रभावित होते हैं, जो उनका परिवार कहलाता है। मूर्त चीजें व्यक्ति के परिवार के सदस्य और परिवार के सभी मामले हैं, जबकि अमूर्त चीजें विभिन्न विचार और सीख हैं जो परिवार से मिलती हैं; साथ ही, इसमें आचरण करने और अपने मामलों से निपटने के लिए मिली थोड़ी शिक्षा भी शामिल है। ऐसा ही है न? (बिल्कुल।)
परिवार से मिली शिक्षा के प्रभावों पर चर्चा करने के लिए काफी कुछ है। आज इन बातों पर संगति पूरी करने के बाद, तुम लोगों को इन पर विचार करना चाहिए और उन्हें सारांशित करना चाहिए; यह सोचना चाहिए कि इनमें से कौन-से विचार और दृष्टिकोण—उन्हें छोड़कर जिनका मैंने आज उल्लेख किया—तुम्हारे दैनिक जीवन में तुम लोगों को प्रभावित कर सकते हैं। अभी हमने जिन बातों पर संगति की है उसमें से ज्यादातर संसार से निपटने के लोगों के सिद्धांतों और तरीकों से संबंधित है, और ऐसे विषय बहुत कम हैं जिनका संबंध लोगों और चीजों को देखने के तरीकों से है। लोगों को अपने परिवार से मिली शिक्षा के प्रभावों के दायरे में ये सभी चीजें आती हैं। कुछ ऐसी समस्याएँ भी हैं जो जीवन पर लोगों के नजरिये या संसार से निपटने के उनके तरीकों से संबंधित नहीं हैं, तो हम उन पर और बात नहीं करेंगे। तो फिर, आज के लिए हमारी संगति यहीं समाप्त होती है। फिर मिलेंगे!
11 फ़रवरी 2023