सत्य का अनुसरण कैसे करें (11)

पिछली सभा में हमने कहाँ तक संगति की थी? हमने “सत्य का अनुसरण कैसे करें” के भाग के तौर पर, शादी के संबंध में “त्याग करने” के विषय पर संगति की थी। हम शादी के विषय पर कई बार संगति कर चुके हैं—पिछली बार हमने मुख्य रूप से किस विषय पर संगति की थी? (हमने शादी से जुड़ी तमाम फंतासियों को त्यागने और शादीशुदा लोगों के कुछ विकृत विचारों और दृष्टिकोणों को सुधारने के साथ-साथ यौन इच्छा को सही ढंग से समझने पर संगति की थी। अंत में, हमने यह संगति की थी कि शादी की खुशी के पीछे भागना हमारा मकसद नहीं है।) हमने “शादी से जुड़ी तमाम फंतासियाँ त्यागना” के विषय पर संगति की थी, तो तुम लोगों को यह बात कितनी समझ आई और कितनी बातें तुम्हें याद हैं? क्या हमने मुख्य रूप से शादी के बारे में लोगों की विभिन्न अवास्तविक, अव्यावहारिक, बचकानी और तर्कहीन राय और इच्छाओं पर संगति नहीं की? (हाँ।) शादी को सही ढंग से समझना-बूझना और इसके प्रति सही रवैया अपनाना—लोगों को शादी के प्रति यही रवैया रखना चाहिए। शादी को कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल नहीं समझना चाहिए, न ही इसे अपने सभी फंतासियों और अवास्तविक चाहतों को पूरा करने का जरिया समझना चाहिए। शादी के बारे में कौन-सी तमाम फंतासियां जुड़ी होती हैं? लोगों की इन फंतासियों और जीवन के प्रति विभिन्न रवैयों के बीच एक निश्चित संबंध होता है, और सबसे जरूरी बात यह है कि ये शादी के बारे में उन विभिन्न कहावतों, व्याख्याओं और दृष्टिकोणों से संबंधित हैं जो लोगों को दुनिया और समाज से प्राप्त होते हैं। ये कहावतें, व्याख्याएँ और रवैये समाज और मानवजाति के सभी लोगों से निकली अनगिनत अवास्तविक और झूठी कहावतें और विचार हैं। लोगों को ये चीजें क्यों त्याग देनी चाहिए? क्योंकि ये चीजें भ्रष्ट मानवजाति से आती हैं, क्योंकि ये सभी शादी के बारे में ऐसे विभिन्न विचार और दृष्टिकोण हैं जो दुष्ट संसार से उत्पन्न हुए हैं, और ये विचार और दृष्टिकोण शादी की उस सही परिभाषा और अवधारणा से पूरी तरह अलग हैं जिन्हें परमेश्वर ने मानवजाति के लिए निर्धारित किया है। परमेश्वर द्वारा मानवजाति के लिए निर्धारित शादी की अवधारणा और परिभाषा मनुष्य की उन जिम्मेदारियों और दायित्वों के साथ-साथ मानवता, अंतरात्मा और विवेक पर ज्यादा केंद्रित है, जिन्हें लोगों को जीवन में अपनाना चाहिए। शादी के बारे में परमेश्वर की परिभाषा मुख्य रूप से लोगों को यह सिखाती है कि शादी के ढांचे के भीतर अपनी जिम्मेदारियों को सही ढंग से कैसे निभाया जाए। अगर तुम शादीशुदा नहीं हो और तुम पर शादी की जिम्मेदारियाँ नहीं हैं, फिर भी तुम्हें शादी के बारे में परमेश्वर की परिभाषा की सही समझ होनी चाहिए—यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि परमेश्वर लोगों को शादी के ढांचे के भीतर उन जिम्मेदारियों को उठाने के लिए तैयार रहने को प्रेरित करता है जो उन्हें उठानी चाहिए। शादी कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल या बच्चों के घर-घर खेलने जैसा नहीं है। पहली बात यह गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि शादी एक जिम्मेदारी का संकेत है। इससे भी जरूरी है खुद को उन जिम्मेदारियों के लिए तैयार करना जिन्हें व्यक्ति को सामान्य मानवता में रहकर पूरा करना चाहिए। वहीं दूसरी ओर, शादी के बारे में शैतान और दुष्ट संसार की अवधारणाएँ, समझ और कहावतें किस बात पर ज्यादा ध्यान देती हैं? वे भावनाओं और यौन इच्छाओं के साथ खेलने, शारीरिक इच्छाओं को संतुष्ट करने और विपरीत लिंग के प्रति दैहिक उत्कंठा को संतुष्ट करने के साथ ही, बेशक, इंसानी घमंड को संतुष्ट करने पर ज्यादा ध्यान देती हैं। वे कभी जिम्मेदारी या मानवता का जिक्र नहीं करतीं, और इस बारे में तो बिल्कुल भी चर्चा नहीं करतीं कि परमेश्वर द्वारा निर्धारित शादी में शामिल दो पक्षों, यानी पुरुष और महिला को अपनी जिम्मेदारियाँ कैसे निभानी चाहिए, अपने दायित्वों को कैसे पूरा करना चाहिए, और शादी के ढाँचे के भीतर रहकर वह सब अच्छे से कैसे करना चाहिए जो एक पुरुष और महिला को करना चाहिए। संसार लोगों को शादी के बारे में जिन विभिन्न व्याख्याओं, कहावतों और रवैयों पर शिक्षा देता है वे मनुष्य की भावना और इच्छा को संतुष्ट करने, अपनी भावना और इच्छा को समझने, और अपनी भावना और इच्छा को साकार करने पर ज्यादा ध्यान देते हैं। इसलिए, अगर तुम शादी के बारे में समाज की इन विभिन्न बातों, समझ या रवैये को स्वीकारते हो, तो तुम इन दुष्ट विचारों से प्रभावित होने से बच नहीं पाओगे। साफ तौर पर कहें, तो तुम शादी के बारे में संसार से आने वाले इन विचारों से भ्रष्ट होने से नहीं बच पाओगे। एक बार जब ये विचार और दृष्टिकोण तुम्हें भ्रष्ट और प्रभावित कर देते हैं, तो फिर तुम्हारा इन विचारों के नियंत्रण से बचना मुमकिन नहीं होता, और इसी के साथ, तुम अविश्वासियों की तरह ही इन दृष्टिकोणों से बेवकूफ बनना और इनके बहकावे में आना भी स्वीकार लोगे। जब अविश्वासी शादी के बारे में इन विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार लेते हैं, तो फिर वे प्यार करने और अपनी यौन इच्छाओं को संतुष्ट करने के बारे में बातें करने लगते हैं। इसी तरह, जब तुम खुलकर ये विचार और दृष्टिकोण स्वीकार लोगे, तो फिर तुम भी प्यार करने और अपनी यौन इच्छाओं को संतुष्ट करने की बातें करोगे। इसे टाला नहीं जा सकता और तुम इससे बच नहीं सकते। जब तुम्हें शादी की सही परिभाषा नहीं पता होगी, और तुम्हारे पास शादी के बारे में सही समझ और दृष्टिकोण नहीं होगा, तो तुम स्वाभाविक रूप से शादी के बारे में संसार से, समाज से, और मानवजाति से आने वाले सभी विभिन्न विचारों और कहावतों को स्वीकार करोगे। जब तक इनके बारे में सुनते रहोगे, जब तक इन्हें देखते और जानते रहोगे, और जब तक तुम्हारे पास इन विचारों से लड़ने की शक्ति नहीं होगी, तब तक तुम न चाहते हुए भी इस तरह के सामाजिक परिवेश से प्रभावित होते रहोगे, और तुम अनजाने में शादी के बारे में इन विचारों और कहावतों को स्वीकार करते रहोगे। जब तुम अपने मन में इन बातों को स्वीकार लेते हो, तो तुम शादी के प्रति अपने रवैये को प्रभावित करने वाले इन विचारों और दृष्टिकोणों से बच नहीं सकते। क्योंकि तुम किसी निर्जन स्थान पर नहीं रहते, इसलिए तुम्हारा शादी के बारे में संसार से, समाज से, और मानवजाति से आने वाली इन कहावतों से प्रभावित और नियंत्रित होना लाजमी है। एक बार जब तुम पर उनका नियंत्रण हो जाएगा, तो तुम्हारे लिए उनसे मुक्त होना बेहद मुश्किल होगा, और तुम खुद को यह कल्पना करने से रोक नहीं सकोगे कि तुम्हारी शादी कैसी होनी चाहिए।

पिछली बार, हमने शादी से जुड़ी तमाम फंतासियों पर संगति की थी, और ये फंतासियां शादी को लेकर दुष्ट मानवजाति की अनगिनत गलत विचारों और दृष्टिकोणों से उत्पन्न होती हैं। ऐसे विचार और दृष्टिकोण, चाहे विशेष हों या सामान्य, ये सब ऐसी चीजें हैं जिन्हें सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति को त्याग देना चाहिए। सबसे पहले, उन्हें शादी के बारे में तमाम गलत परिभाषाएँ और दृष्टिकोण त्याग देने चाहिए; दूसरा, उन्हें सही तरीके से अपना जीवनसाथी चुनना चाहिए; और तीसरा जो लोग पहले से शादीशुदा हैं उन्हें अपनी शादी के प्रति सही नजरिया रखना चाहिए। यहाँ “सही” शब्द का अर्थ शादी के प्रति लोगों के उस रवैये और जिम्मेदारी से है जिसे परमेश्वर उन्हें निभाने का आदेश और निर्देश देता है। लोगों को यह समझना चाहिए कि शादी प्रेम का प्रतीक नहीं है और शादी करना किसी महल में प्रवेश करने जैसा नहीं है, न ही यह किसी मकबरे में प्रवेश करना है, और यह केवल एक शादी का जोड़ा, एक हीरे की अँगूठी, एक कलीसिया, अनंत प्रेम की कसमें खाना, मोमबत्ती की रोशनी में डिनर करना, रोमांस करना या बस दो लोगों का संसार तो बिल्कुल नहीं है—इनमें से एक भी चीज शादी का प्रतीक नहीं है। इसलिए, जब शादी की बात आती है, तो सबसे पहले तुम्हें शादी के बारे में अपने दिल में रची-बसी सभी फंतासियों के साथ-साथ उन प्रतीकात्मक चीजों को भी निकाल देना चाहिए जो शादी को लेकर इन फंतासियों से उपजी हैं। शादी की सही व्याख्या पर संगति करने और शादी के बारे में शैतान के दुष्ट संसार से आने वाले विभिन्न विकृत विचारों का गहन विश्लेषण करने से, क्या अब तुम लोगों को शादी की परिभाषा की अधिक सटीक समझ नहीं मिल गई है? (बिल्कुल मिल गई है।) जहाँ तक उन लोगों की बात है जो शादीशुदा नहीं हैं, क्या ये बातें कहने से तुम लोग शादी के मामले में थोड़े स्थिर महसूस नहीं करते हो? और क्या यह तुम्हारी अंतर्दृष्टि बढ़ाने में मदद नहीं करता है? (बिल्कुल।) किस मामले में तुम्हारी अंतर्दृष्टि बढ़ती है? (शादी के बारे में मेरी पिछली फंतासियों में बस फूल, हीरे की अंगूठियाँ, शादी का जोड़ा और अनंत प्रेम की कसमें जैसी अस्पष्ट चीजें शामिल थीं। अब, परमेश्वर की संगति सुनकर, मैं समझ गया हूँ कि शादी वास्तव में परमेश्वर द्वारा निर्धारित है, और यह दो लोगों का मिलकर एक-दूसरे की इच्छाओं का ख्याल रखना, एक-दूसरे की देखभाल करना और एक-दूसरे की जिम्मेदारी उठाने में सक्षम होना है। यह जिम्मेदारी की भावना है, और शादी के बारे में यह दृष्टिकोण अधिक व्यावहारिक है और इसमें वे अस्पष्ट चीजें भी शामिल नहीं हैं।) तो तुम्हारी अंतर्दृष्टि बढ़ी है, है न? सामान्य शब्दों में, तुम्हारी अंतर्दृष्टि बढ़ी है। इसकी बारीकियों पर गौर करें, तो क्या उन चीजों के मानकों में थोड़ा भी बदलाव हुआ है जिनकी तुम पहले प्रशंसा करते थे और जिनके प्रति आकर्षित होते थे? (हाँ, ऐसा हुआ है।) तुम हमेशा एक लंबे, अमीर, सुंदर आदमी, या एक गोरी, अमीर, खूबसूरत महिला को पाने के सपने देखा करते थे; अब तुम्हारे लिए ज्यादा जरूरी क्या है? कम से कम, अब तुम व्यक्ति की मानवता पर, और इस बात पर ज्यादा ध्यान देते हो कि क्या वह भरोसेमंद है और क्या उसमें जिम्मेदारी की भावना है। अब बताओ, अगर कोई इस निर्देश, इस उद्देश्य और इस तरीके से अपना जीवनसाथी चुनता है, तो उनकी शादी खुशहाल रहने की संभावना ज्यादा होगी या नाखुश होकर तलाक लेने की? (उनके खुशहाल रहने की संभावना ज्यादा होगी।) उनके खुशहाल रहने की संभावना थोड़ी ज्यादा होगी। हम यह क्यों नहीं कहते कि ऐसी शादी सौ फीसदी गारंटी के साथ एक खुशहाल शादी होगी? इसके कितने कारण हैं? कम से कम, एक कारण तो यह है कि लोग गलतियाँ कर सकते हैं और शादी करने से पहले व्यक्ति को अच्छे से पहचान नहीं पाते। दूसरा कारण यह है कि शादी करने से पहले, व्यक्ति के मन में शादी को लेकर अद्भुत कल्पनाएँ हो सकती हैं, वह सोच सकता है, “हम साथ में बहुत जँचते हैं और एक जैसी चीजें चाहते हैं। उसने यह वादा भी किया है कि शादी के बाद वह अपनी जिम्मेदारी उठाने और मेरे प्रति अपने दायित्व पूरे करने के लिए तैयार है, और वह मुझे कभी निराश नहीं करेगा।” हालाँकि, शादी होने के बाद, शादीशुदा जीवन में सब कुछ वैसा नहीं होता जैसा वे चाहते थे, सब कुछ सुचारु रूप से नहीं चलता। साथ ही, कुछ लोग सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, जबकि कुछ लोगों को देखने से ऐसा लग सकता है कि उनकी मानवता बुरी या दुष्ट नहीं है, पर वे सकारात्मक चीजों से प्रेम और सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। जब ऐसे लोग शादी करके एक साथ जीवन बिताते हैं, तो उनकी मानवता में जिम्मेदारी या दायित्व की वह थोड़ी सी भावना भी धीरे-धीरे खत्म हो जाती है, वे समय के साथ बदल जाते हैं, और फिर अपना असली रंग दिखाने लगते हैं। अब बताओ, अगर किसी शादीशुदा जोड़े में एक व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और दूसरा नहीं करता है, अगर तुम एकतरफा सत्य का अनुसरण करती हो और वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता है, तो तुम कब तक उसके साथ रह पाओगी? (ज्यादा दिन तक नहीं।) तुम उसके जीवन की कुछ आदतों या उसकी मानवता में कुछ छोटी-मोटी खामियों या विफलताओं को न चाहते हुए भी सह सकते हो, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, तो तुम्हारे बीच आपसी समझ या एक जैसा लक्ष्य नहीं होगा। वह सत्य का अनुसरण नहीं करता है, न ही वह सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है, और उसे हमेशा संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों वाली चीजें पसंद आती हैं। धीरे-धीरे, तुम दोनों के बीच बातें कम से कम होने लगेंगी, तुम्हारी आकांक्षाएँ एक-दूसरे से अलग होंगी, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने की उसकी चाहत भी खत्म हो जाएगी। क्या यह एक खुशहाल शादी है? (नहीं।) अगर तुम खुश नहीं हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? (अगर दो लोग एक साथ नहीं रह सकते, तो उन्हें जल्द से जल्द अलग हो जाना चाहिए।) बिल्कुल सही। मन में यह विचार आने से लेकर अलग होने तक में कितना वक्त लगता है? शुरुआत में, दोनों लोग आपस में मिलजुलकर रहते हैं, और कुछ समय तक मिलजुलकर रहने के बाद, उनके बीच झगड़े होने लगते हैं। झगड़े के बाद, वे मेल-मिलाप कर लेते हैं, और मेल-मिलाप कर लेने के बाद, पत्नी को यह एहसास होता है कि उसका पति अब भी नहीं बदला है, तो वह यह सब सहती रहती है, और कुछ समय तक यह सब सहने के बाद, वे फिर से झगड़ने लगते हैं। जब यह झगड़ा अपने चरम तक पहुँच जाता है, तो चीजें फिर से शांत हो जाती हैं, और पत्नी सोचती है, “हम एक-दूसरे के लिए सही नहीं हैं और पहले मुझे नहीं लगा था कि चीजें ऐसी हो जाएँगी। हमारा साथ रहना कष्टदायक है। क्या हमें तलाक ले लेना चाहिए? लेकिन हमारे लिए इस मुकाम तक पहुँचना कितना मुश्किल रहा है और हम कई बार बिछड़कर वापस एक हुए हैं। मुझे उसे इतनी आसानी से तलाक नहीं देना चाहिए। मुझे बस इसे सहते रहना चाहिए। अकेले जीने से अच्छा है उसके साथ ही जीवन बिताऊँ।” तो वह एक-दो सालों तक यह सब सहती रहती है; जितना अधिक वह उसे देखती है उतना ही अधिक असंतुष्ट महसूस करती है, और जितना अधिक समय तक यह सब चलता रहता है वह उतनी ही अधिक हताश हो जाती है। आपस में मिलकर रहने से उसे खुशी नहीं मिलती, और उनके बीच बातें भी कम से कम होने लगती हैं। पत्नी अपने पति की खामियों को लगातार बढ़ते हुए देखती है और उसके साथ रहने और उसे बर्दाश्त करने की उसकी इच्छा कम से कम होने लगती है। पाँच-छह साल बाद, अब वह इसे और बर्दाश्त नहीं कर पाती है, अपनी भड़ास निकाल देती है और उससे सभी नाते तोड़ लेना चाहती है। उससे सारे नाते तोड़ने का फैसला करने से पहले, उसे शुरू से अंत तक सारी बातों पर विचार करना पड़ता है और बहुत साफ तौर पर और अच्छे से यह सोचना पड़ता है कि तलाक के बाद वह कैसे जिएगी। अच्छी तरह से सोच-विचार करने के बाद भी वह हिम्मत नहीं जुटा पाती है, लेकिन कई बार और सोचने के बाद, वह न चाहते हुए भी अपने पति को छोड़ने का फैसला करती है, सोचती है, “मैं उसे तलाक दे दूँगी। शांति से अकेले जीवन जीना इससे कहीं बेहतर है।” वे दोनों हमेशा झगड़ते रहते हैं और मिलजुलकर रह नहीं पाते हैं। पहले जो कुछ भी वह सहन कर पाती थी, वह अब असहनीय हो गया है। अपने पति को देखकर वह परेशान हो जाती है, उसकी बातें सुनकर उसे गुस्सा आता है, और यहाँ तक कि उसकी आवाज सुनकर, उसका चेहरा, उसके कपड़े और उसकी इस्तेमाल की गई चीजें देखकर उसका मन खट्टा होने लगता है। अब वे दोनों इस असहनीय मुकाम पर पहुँच गए हैं कि एक-दूसरे के लिए अजनबी हो गए हैं और पत्नी को उससे तलाक लेना पड़ता है। पत्नी ने किस आधार पर अपने पति से तलाक लिया? उन दोनों का साथ रहना बहुत कष्टदायक हो गया था, और अब उसका अकेले रहना ही बेहतर है। जब चीजें इतनी खराब हो जाती हैं, तो पति के साथ उसका जुड़ाव भी खत्म हो जाता है। अब उसके मन में अपने पति के लिए कोई भावना नहीं है, उसने अच्छी तरह सोच-समझकर फैसला कर लिया है : अकेले रहना ही बेहतर है, जैसे कि अविश्वासी अक्सर कहते हैं, “अकेले रहते हुए तुम्हें किसी और की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होती।” वरना, वह हमेशा अपने पति के बारे में सोचती रहती, “क्या उसने खाना खाया होगा? क्या वह ठीक से कपड़े पहन रहा होगा? क्या वह ठीक से सो रहा होगा? क्या घर से दूर जाकर काम करना उसे थका देता होगा? क्या उसके साथ अच्छा बर्ताव नहीं हो रहा होगा? वह कैसा महसूस कर रहा होगा?” उसे हमेशा उसकी चिंता सताती रहती। लेकिन अब, उसे लगता है कि अकेले रहना ही ज्यादा शांतिपूर्ण है, जहाँ उसे किसी और के बारे में सोचने या चिंता करने की जरूरत नहीं। ऐसे आदमी के लिए इस तरह जीने का कोई मतलब नहीं। उसके लिए चिंता करना, प्यार दिखाना, कोई जिम्मेदारी उठाना कोई मायने नहीं रखता, और उस आदमी में प्यार करने लायक कुछ भी नहीं है। अंत में, वह तलाक के लिए अर्जी दे देती है, उनकी शादी टूट जाती है, वह कभी पीछे मुड़कर नहीं देखती और उसे अपने फैसले पर कभी पछतावा नहीं होता। ऐसी शादियाँ भी होती हैं, है न? (बिल्कुल होती हैं।) ऐसी शादियाँ भी होती हैं जिनके पीछे अलग-अलग कारण होते हैं, जैसे कि पिछले जीवन की उदारता और शिकायतें। जैसी कि हमने पहले चर्चा की थी, कुछ लोग इसलिए साथ आते हैं क्योंकि उनमें से एक का दूसरे पर कर्ज चढ़ा होता है। दोनों के बीच, या तो महिला पर पुरुष का कर्ज होता है या फिर पुरुष पर महिला का। पिछले जीवन में, उनमें से एक ने दूसरे का बहुत अधिक लाभ उठाया होगा, उस पर बहुत सारे कर्ज होंगे, और इसलिए इस जीवन में दोनों साथ आए हैं, ताकि व्यक्ति अपना कर्ज चुका सके। इस तरह की कई शादियाँ खुशहाल नहीं होती हैं, मगर वे तलाक नहीं ले सकते। चाहे परिवार के कारण, बच्चों के कारण या किसी और वजह से, वे एक साथ रहने के लिए मजबूर होते हैं, चाहे जो भी हो उनमें बनती नहीं है, वे हमेशा लड़ते-झगड़ते और बहस करते रहते हैं, और उनके व्यक्तित्व, रुचियाँ, लक्ष्य और शौक बिल्कुल भी मेल नहीं खाते। वे एक-दूसरे को पसंद नहीं करते और साथ रहने से उनमें से किसी को कोई खुशी नहीं मिलती, मगर वे एक-दूसरे को तलाक नहीं दे सकते, इसलिए मरते दम तक साथ रहते हैं। जब मौत करीब आती है, तब भी वे अपने साथी को ताना मारते हैं, “अगले जन्म में तुझे देखना भी गवारा नहीं!” वे एक-दूसरे से इतनी नफरत करते हैं, है न? लेकिन इस जीवन में वे एक दूसरे को तलाक नहीं दे सकते, और यह परमेश्वर ने तय किया है। ये सभी विभिन्न प्रकार की शादियाँ, चाहे उनका ढाँचा या बुनियाद जैसा भी हो, चाहे तुम शादीशुदा हो या नहीं, कुछ भी हो, तुम्हें शादी को लेकर अपने मन में रची-बसी विभिन्न अवास्तविक और अनुभवहीन फंतासियों को हमेशा के लिए त्याग देना चाहिए; तुम्हें शादी के प्रति सही रवैया अपनाना चाहिए और लोगों की भावनाओं और इच्छाओं के साथ नहीं खेलना चाहिए, और शादी को लेकर उन गलत दृष्टिकोणों के जाल में तो बिल्कुल भी नहीं फँसना चाहिए जिनके बारे में समाज तुम्हें सिखाता है और हमेशा शादी को लेकर तुम्हारे विचार जानना चाहता है : क्या तुम्हारा साथी तुमसे प्यार करता है? क्या तुम अपने साथी के प्यार को महसूस कर सकते हो? क्या तुम्हें अब भी अपने साथी से प्यार है? तुम अपने साथी से अब भी कितना प्यार करते हो? क्या तुम्हारे साथी के मन में अब भी तुम्हारे लिए कुछ भावनाएँ हैं? क्या तुम्हारे मन में अपने साथी के लिए कुछ भावनाएँ हैं? ये चीजें महसूस करने या इनके बारे में विचार करने की कोई जरूरत नहीं है—ये सभी बेतुके और निरर्थक विचार हैं। जितना ज्यादा तुम इन चीजों के बारे में सोचोगे, उतना ही अपनी शादी को संकट में पाओगे, और जितना ज्यादा तुम इन विचारों में डूबते जाओगे, उतना ही यह साबित होता जाएगा कि तुम शादी के जाल में फँस गए हो, यकीनन इसके बाद तुम खुश या सुरक्षित महसूस नहीं करोगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब तुम्हारे मन में ऐसे विचार, दृष्टिकोण, और ख्याल आते हैं, तो तुम्हारी शादी खराब हो जाती है, तुम्हारी मानवता विकृत हो जाती है, और तुम खुद भी शादी को लेकर समाज के विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों के काबू में आकर किसी काम के नहीं रहते। इसलिए, शादी को लेकर समाज और दुष्ट मानवजाति से आने वाले विभिन्न विचारों और कहावतों के संदर्भ में, तुम्हें उन्हें सटीक तरीके से पहचानने में सक्षम होना चाहिए, और तुम्हें इन विचारों और कहावतों को ठुकराना भी चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरे क्या कहते हैं या शादी के बारे में उनके विचार कैसे बदलते हैं, लोगों को शादी के बारे में परमेश्वर की परिभाषा को नहीं भुलाना चाहिए, न ही लोगों को शादी के बारे में दुष्ट संसार के दृष्टिकोणों से खुद को प्रभावित होने या अपनी आँखों पर पर्दा डालने नहीं देना चाहिए। सीधे तौर पर कहें, तो शादी व्यक्ति के जीवन में किशोरावस्था से लेकर बालिग होने तक के एक अलग चरण की शुरुआत है। यानी, बालिग होने के बाद तुम जीवन के एक अलग चरण में प्रवेश करते हो, और जीवन के इस चरण में तुम शादी के बंधन में बंधकर किसी ऐसे व्यक्ति के साथ जीवन बिताते हो जिसका तुम्हारे साथ खून का कोई रिश्ता नहीं है। जिस दिन से तुम उस व्यक्ति के साथ रहना शुरू करते हो, यानी एक पत्नी या पति होने के नाते तुम्हें शादीशुदा जीवन की सभी जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाना पड़ता है; इतना ही नहीं, तुम दोनों को शादीशुदा जीवन की सभी दिक्कतों का साथ मिलकर सामना करना पड़ता है। यानी, शादी का मतलब है कि व्यक्ति अपने माता-पिता को छोड़कर, अविवाहित जीवन को अलविदा कहकर, अब किसी और के साथ रहने के लिए दो लोगों के जीवन में प्रवेश कर चुका है। यही वह चरण है जहाँ दो लोग साथ मिलकर जीवन की चुनौतियों का सामना करते हैं। यह चरण दर्शाता है कि तुम जीवन के एक अलग चरण में प्रवेश करोगे और बेशक, तुम जीवन की सभी प्रकार की परीक्षाओं का सामना करोगे। शादी के बंधन में रहकर तुम जीवन में कैसे आगे बढ़ोगे और तुम दोनों मिलकर शादीशुदा जीवन में आने वाली दिक्कतों का सामना कैसे करोगे, यह सब तुम्हारे लिए परीक्षाएँ हो सकती हैं, ये चीजें तुम्हें पूर्ण बना सकती हैं, या फिर बर्बादी का कारण भी बन सकती हैं। बेशक, वे जीवन में अधिक अनुभव पाने के लिए स्रोत भी हो सकती हैं; वे तुम्हें जीवन की गहरी समझ और आकलन देने में भी मदद कर सकती हैं, है न? (बिल्कुल।) शादी को लेकर सही समझ और इससे जुड़ी तमाम फंतासियों के विषय पर अपनी संगति हम यहीं पर समाप्त करेंगे।

पिछली बार हमने एक और विषय पर संगति की थी कि वैवाहिक सुख के पीछे भागना तुम्हारा मकसद नहीं है। इस विषय पर संगति करते समय हमने किस बात पर जोर दिया था? (यह कि हमें अपने जीवन की खुशियों का जिम्मा अपने साथी को नहीं सौंपना चाहिए, और हमें सिर्फ अपने साथी को आकर्षित करने या अपने तथाकथित प्यार को बचाने के लिए उसे खुश करने वाले काम नहीं करने चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम सृजित प्राणी हैं और शादीशुदा जीवन में हमें जिन जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाना चाहिए, वे सृजित प्राणियों के रूप में हमारे कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के आड़े नहीं आने चाहिए।) कई लोग अपने जीवन की खुशी का आधार अपनी शादी को बना लेते हैं, और खुशी की तलाश में उनका मकसद अपनी शादी के सुख के पीछे भागना और उसे आदर्श बनाना होता है। वे मानते हैं कि अगर उनकी शादी खुशहाल होगी और वे अपने साथी के साथ खुश रहेंगे, तो उनका जीवन सुखद रहेगा, और इसलिए वे एड़ी-चोटी का जोर लगाकर अपनी शादी को खुशहाल बनाना ही जीवन का मकसद बना लेते हैं। इसी वजह से, शादी के बाद बहुत से लोग उन कई चीजों के बारे में सोचने में अपना दिमाग खपाते रहते हैं जिनकी मदद से वे अपनी शादी को “तरोताजा” बनाए रख सकते हैं। “तरोताजा” का क्या मतलब है? इसका मतलब है, जैसा कि लोग कहते हैं, चाहे शादी को कितना भी वक्त हो गया हो, पति-पत्नी एक दूसरे से कसकर जुड़ा हुआ महसूस करें और कभी एक दूसरे को न छोड़ पाएँ; ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने अपने प्यार की शुरुआत की थी, तब वे हमेशा एक दूसरे से चिपके रहना चाहते थे और कभी अलग होने की नहीं सोचते थे। इतना ही नहीं, हर जगह और हर वक्त, वे अपने साथी के बारे में सोचते और उसे याद किया करते थे, उनके दिलों में अपने साथी की आवाज, मुस्कुराहट, बातें और हरकतें रची-बसी रहती थीं। एक दिन भी अपने साथी की आवाज न सुन पाने से उनके दिलों में उदासी छा जाती थी, और एक दिन भी अपने साथी का चेहरा न देखने से ऐसा लगता था मानो उनके प्राण सूख गए हों। उन्हें लगता है कि ये वैवाहिक सुख के प्रतीक हैं। इसलिए, हमेशा घर पर रहने वाली कुछ तथाकथित गृहिणियों को लगता है कि घर पर बैठे रहकर अपने पति के लौटने का इंतजार करना ही सबसे सुखद चीज है। अगर उनके पति समय पर घर नहीं आते तो वे उन्हें फोन करती हैं और उनका पहला सवाल क्या होता है? (तुम कब तक घर आओगे?) लगता है तुम लोगों को यह सवाल अक्सर सुनने को मिलता है—यह सवाल कई लोगों के दिलों की गहराई में बसा हुआ है। तो पहला सवाल होता है “तुम कब तक घर आओगे?” उन्हें इस सवाल का सटीक जवाब मिले या न मिले, इससे एक खुशहाल शादी में पत्नी का प्रेम रोग उजागर हो जाता है। जो लोग शादी में खुशी ढूँढते हैं उनके जीवन में यह सब आम बात है। उनकी पत्नियाँ चुपचाप अपने साथी के ऑफिस से घर आने का इंतजार करती रहती हैं। अगर उन्हें कहीं बाहर जाना होता है, तो ज्यादा दूर या ज्यादा समय तक बाहर रहने की हिम्मत नहीं करतीं, उन्हें डर होता है कि जब उनका साथी घर आएगा और उसे घर पर कोई नहीं मिलेगा, तो उसे बुरा लगेगा, वह निराश और दुखी होगा। ऐसे लोग वैवाहिक सुख पाने को लेकर बहुत आशा और विश्वास से भरे होते हैं, और वे कोई भी कीमत चुकाने या कोई भी बदलाव करने से पीछे नहीं हटते। ऐसे भी कुछ लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी पहले की तरह ही वैवाहिक सुख की तलाश में रहते हैं, अपने साथी से प्यार करना चाहते हैं और हमेशा अपने साथी से पूछते रहते हैं कि क्या उसे भी उससे उतना ही प्यार है। इसलिए, सभाओं के दौरान, कोई महिला सोच सकती है, “क्या मेरा पति घर आ गया होगा? अगर हाँ, तो क्या उसने कुछ खाया होगा? क्या वह थक गया होगा? मैं अभी भी इस सभा में हूँ और थोड़ा असहज महसूस कर रही हूँ। मुझे कुछ ऐसा लग रहा है जैसे मैंने उसे निराश किया है।” अगली सभा में जाने से पहले, वह अपने पति से पूछती है, “तुम कब तक घर वापस आओगे? अगर तुम घर आए और मैं सभा में हुई, तो क्या तुम्हें अकेला महसूस नहीं होगा?” उसका पति जवाब देता है, “मुझे कैसे अकेला नहीं महसूस होगा? घर खाली रहता है और मैं अकेला होता हूँ। आम तौर पर, हम यहाँ हमेशा साथ होते हैं, और अब अचानक मुझे अकेला रहना पड़ता है। तुम्हें हमेशा सभा में जाने की क्या जरूरत है? मतलब तुम सभा में जा सकती हो लेकिन मुझसे पहले घर वापस आ जाओ तो बेहतर रहेगा!” उसका दिल जानता है, “ओह, वह मुझसे ज्यादा कुछ नहीं चाहता, मुझे बस उसके वापस आने से पहले घर पहुँचना होगा।” अगली सभा में, वह बार-बार घड़ी देखती रहती है, और जब उसे लगता है कि उसके पति का काम खत्म होने ही वाला है, तो वह अब और शांत नहीं बैठ पाती और कहती है, “तुम लोग सभा जारी रखो, मुझे घर पर कुछ जरूरी काम है, तो अब मुझे जाना होगा।” वह भागकर घर पहुँचती है और सोचती है, “बहुत बढ़िया, मेरा पति अभी तक वापस नहीं आया है! मैं जल्दी से कुछ खाना बनाकर थोड़ी साफ-सफाई कर लेती हूँ ताकि जब वह घर आए तो सब साफ-सुथरा हो, खाने की खुशबू आ रही हो, और उसे पता चल जाए कि मैं घर पर हूँ। कितनी अच्छी बात है कि खाने के समय पर हम एक साथ होंगे! भले ही मैंने सभा में थोड़ा कम समय दिया, कम संगति सुनी और कम चीजें समझीं, पर पति से पहले घर पहुँचकर उसके लिए गरमागरम खाना तैयार करना भी अच्छी बात है, और यह एक खुशहाल शादी को बनाए रखने का आधार है।” इसके बाद से वह सभाओं में अक्सर ऐसा ही करती है और कभी-कभी जब सभा देर तक चलती है, तो घर पहुँचकर देखती है कि उसका पति पहले से ही वहाँ मौजूद है। वह उससे थोड़ा नाराज और नाखुश होकर बड़बड़ाता है, “क्या तुम एक सभा भी नहीं छोड़ सकती? क्या तुम्हें नहीं पता कि जब मैं घर आता हूँ और तुम यहाँ नहीं होती हो, तो मुझे कैसा लगता है? मैं बेचैन हो जाता हूँ!” यह बात उसके दिल को छू जाती है और वह सोचती है, “इसका मतलब है कि वह मुझसे बहुत प्यार करता है और मेरे बिना नहीं रह सकता। मुझे यहाँ नहीं देखकर वह बेचैन हो जाता है। मैं कितनी खुशकिस्मत हूँ! भले ही वह थोड़ा गुस्से में लग रहा है, पर मैं उसका प्यार महसूस कर सकती हूँ। अगली बार से मैं ध्यान रखूँगी और सभा चाहे कितनी भी लंबी चले, मैं जल्दी घर आ जाऊँगी। मैं उसके प्यार को ठेस नहीं पहुँचा सकती। अगर मैं सभाओं में परमेश्वर के वचनों को थोड़ा कम समझूँ और थोड़ा कम सुनूँ, तो इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा।” इसके बाद से जब वह सभाओं में जाती है, तो हर वक्त घर पहुँचने के बारे में ही सोचती रहती है, ताकि अपने पति के प्यार की कसौटी पर खरा उतर सके और अपनी खुशहाल शादी को बनाए रख सके। उसे हल्का सा एहसास होता है कि अगर वह समय से घर नहीं पहुँची, तो अपने पति के प्यार की कद्र नहीं करेगी, और अगर वह उसे इसी तरह निराश करती रही, तो कहीं उसका पति उसे छोड़कर किसी और को न ढूँढ ले और उससे पहले की तरह प्यार न करे। उसे लगता है कि प्यार करना और प्यार पाना हमेशा खुशी की बात है, और प्यार देने और प्यार पाने के इस रिश्ते को बनाए रखना उसके जीवन का लक्ष्य है, जिसका वह अनुसरण करती रहेगी, और इसलिए वह बिना किसी संकोच या हिचकिचाहट के ऐसा ही करती है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो जब घर से दूर जाकर अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो अक्सर अपने अगुआ से कहते हैं, “मैं रात में घर से दूर नहीं रह सकती। मैं शादीशुदा हूँ, अगर मैं घर नहीं जाऊँगी तो मेरा पति अकेला पड़ जाएगा। अगर रात में उसकी आँख खुली और मैं पास नहीं हुई, तो वह बेचैन हो जाएगा। सुबह आँखें खुलने पर जब वह मुझे वहाँ नहीं देखेगा, तो उसे बुरा लगेगा। अगर मैं अक्सर रात को घर नहीं लौटती हूँ, तो क्या मेरे पति को मेरी वफादारी और बेगुनाही पर शक नहीं होगा? शादी के समय, हमने वादा किया था कि हम एक-दूसरे के प्रति वफादार रहेंगे। चाहे जो भी हो, मुझे अपना वादा निभाना ही होगा। मैं उसके काबिल बनना चाहती हूँ, क्योंकि इस संसार में कोई मुझसे उतना प्यार नहीं करता जितना वह करता है। तो, उसके प्रति अपनी बेगुनाही और वफादारी साबित करने के लिए, मैं रात भर घर से दूर नहीं रह सकती। चाहे कलीसिया में कितना भी काम हो या मेरा कर्तव्य कितना भी जरूरी क्यों न हो, मुझे रात को घर जाना ही होगा, चाहे कितनी भी देर हो जाए।” वह कहती है कि अपनी बेगुनाही और वफादारी को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है, लेकिन यह सिर्फ औपचारिकता है, सिर्फ खोखली बातें हैं, जबकि वास्तव में उसे डर है कि उसकी शादी खुशहाल नहीं रहेगी और टूट जाएगी। इसलिए वह अपना कर्तव्य छोड़ देगी और जो कर्तव्य निभाना चाहिए उसे त्याग देगी, ताकि अपने वैवाहिक सुख को बनाए रख सके, मानो वैवाहिक सुख ही उसकी प्रेरणा और उसके हर क्रियाकलाप का आधार हो। एक खुशहाल शादी के बिना, वह एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने में असमर्थ है; एक खुशहाल शादी के बिना, वह एक अच्छी सृजित प्राणी नहीं बन सकती। वह अपने प्रति अपने पति के प्यार को निराश न करने और उसके प्यार में बने रहने को वैवाहिक सुख की निशानी और अपने जीवन का लक्ष्य मानती है। अगर किसी दिन उसे महसूस होता है कि अब वह उससे प्यार नहीं करता, या वह कुछ ऐसा करती है जिससे उसके प्रति उसके पति के प्यार को ठेस पहुँचती है, वह उससे निराश और नाराज हो जाता है, तो वह अपना मानसिक संतुलन खो देगी, वह सभाओं में आना और परमेश्वर के वचन पढ़ना बंद कर देगी, और जब कलीसिया को कोई कर्तव्य निभाने में उसकी जरूरत पड़ेगी तो वह उसे ठुकराने के लिए हर तरह के बहाने बनाएगी। उदाहरण के लिए, वह कहेगी कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है या घर पर कोई जरूरी काम आ गया है, और वह कर्तव्य निभाने से बचने के लिए कुछ बेतुके और अजीब बहाने भी बना सकती है। ऐसे लोग जीवन में वैवाहिक सुख को सबसे अहम मानते हैं। कुछ लोग अपनी शादी की खुशी कायम रखने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार रहते हैं, और अपने जीवनसाथी को बाँधकर रखने और उसके दिल में बसे रहने के लिए कोई भी कीमत चुकाने से पीछे नहीं हटते, ताकि उसका जीवनसाथी उससे हमेशा प्यार करता रहे; वे प्यार की उस भावना को कभी नहीं भूलतीं जो शादी के समय उनके दिल में मौजूद थी, और यह भी नहीं भूलती हैं कि शादी के बारे में पहले-पहल वे कैसा महसूस करती थीं। कुछ महिलाएँ ऐसी भी हैं जो इससे भी बड़े त्याग करती हैं : कुछ महिलाएँ अपनी नाक की सर्जरी करवाकर उसे नुकीला बनाती हैं, कुछ अपनी ठुड्डी को नया आकार देती हैं, तो कुछ अपने वक्षों को बड़ा दिखाने के लिए या शरीर में जमी चर्बी कम करने के लिए सर्जरी करवाती हैं, वे कितना भी दर्द सहने को तैयार रहती हैं। कुछ महिलाओं को तो यह भी लगता है कि उनकी पिंडलियाँ बहुत मोटी हैं, तो वे अपने पैरों को पतला बनाने के लिए सर्जरी करवाती हैं, और अंत में नसों में खराबी आने के कारण खड़ी भी नहीं हो पाती हैं। ऐसी महिला का पति यह सब देखकर कहता है, “भले ही तुम्हारे पैर मोटे थे, पर तुम एक सामान्य इंसान थी। अब तुम खड़ी भी नहीं हो सकती, और किसी काम की नहीं हो। मुझे तलाक चाहिए!” देखा तुमने, उसने इतनी बड़ी कीमत चुकाई और इसका उसे ऐसा फल मिला। कुछ महिलाएँ ऐसी भी हैं जो हर दिन सुंदर कपड़े पहनती हैं, परफ्यूम लगाती और चेहरे पर पाउडर मलती हैं। वे खुद को जवान और खूबसूरत बनाए रखने के लिए चेहरे पर लिप्स्टिक, ब्लशर और आई शैडो जैसी मेकअप की चीजें लगाती हैं, ताकि वे अपने साथी के लिए आकर्षक दिखें और उसका साथी उससे वैसे ही प्यार करे जैसा वह शुरुआत में करता था। इसी तरह, पुरुष भी वैवाहिक सुख की खातिर अनेक त्याग करते हैं। किसी को कहा जाता है, “तुम परमेश्वर के जाने-माने विश्वासी हो। यहाँ आसपास के बहुत से लोग तुम्हें जानते हैं और इससे तुम पर रिपोर्ट किए जाने और गिरफ्तार होने का खतरा बना रहता है; इसलिए तुम्हें यह जगह छोड़कर कहीं और जाकर अपना कर्तव्य निभाना होगा।” यह सुनकर उसे बेचैनी होती है और वह सोचता है, “लेकिन अगर मैं चला गया, तो क्या इसका मतलब यह है कि मेरी शादी खत्म हो गई? क्या अब सब कुछ बिखरने लगेगा? अगर मैं घर छोड़ दूँ तो क्या मेरी पत्नी किसी और के साथ चली जाएगी? क्या अब हमारे रास्ते अलग हो जाएँगे? क्या हम फिर कभी एक साथ नहीं होंगे?” यह सब सोचकर परेशान हो जाने के बाद वह सौदेबाजी करना शुरू कर देता है और कहता है, “क्या मैं यहीं रह सकता हूँ? अगर मैं हफ्ते में बस एक बार घर जाऊँ तो भी ठीक रहेगा—मुझे अपने परिवार की देखभाल करनी है!” दरअसल, वह अपने परिवार की देखभाल करने के बारे में नहीं सोच रहा है। उसे डर है कि उसकी पत्नी किसी और के साथ चली जाएगी और फिर उसे कभी वैवाहिक सुख नहीं मिलेगा। उसका दिल चिंता और भय से भर जाता है, वह नहीं चाहता कि उसकी शादी की खुशियाँ इस तरह गायब हो जाएँ। ऐसे लोगों के दिलों में, वैवाहिक सुख किसी भी दूसरी चीज से अधिक अहम होता है, और इसके बिना, वे पूरी तरह हताश महसूस करते हैं। उनका मानना है, “एक खुशहाल शादी के लिए प्यार सबसे जरूरी चीज है। क्योंकि मैं अपनी पत्नी से प्यार करता हूँ और वह मुझसे प्यार करती है, सिर्फ इसलिए हमारी शादी खुशहाल रही है और हम अब तक साथ रह पाए हैं। अगर मैंने यह प्यार खो दिया और इसका कारण परमेश्वर में मेरा विश्वास और मेरा कर्तव्य निभाना हुआ, तो क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि मैंने अपना वैवाहिक सुख हमेशा के लिए खो दिया है, और मैं फिर कभी इस वैवाहिक सुख का आनंद नहीं ले पाऊँगा? वैवाहिक सुख के बिना हमारा क्या होगा? मेरे प्यार के बिना मेरी पत्नी का जीवन कैसा होगा? अगर मैंने अपनी पत्नी का प्यार खो दिया तो मेरा क्या होगा? क्या एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के समक्ष रहकर मनुष्य होने का लक्ष्य हासिल करने से इस नुकसान की भरपाई हो सकती है?” वे नहीं जानते, उनके पास कोई जवाब नहीं है, और वे सत्य के इस पहलू को नहीं समझते। इसलिए, जब परमेश्वर के घर को ऐसे लोगों की जरूरत पड़ती है जो वैवाहिक सुख को दूसरी सभी चीजों से बढ़कर मानते हैं, और उनसे अपना घर छोड़कर किसी दूर देश में जाकर सुसमाचार फैलाने और अपना कर्तव्य निभाने की अपेक्षा की जाती है, तो वे अक्सर इस तथ्य को जानकर निराश, असहाय और यहाँ तक कि असहज महसूस करते हैं कि जल्द ही उनका वैवाहिक सुख खत्म हो सकता है। कुछ लोग अपने वैवाहिक सुख को बनाए रखने के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करना छोड़ देते हैं या उन्हें करने से इनकार कर देते हैं, और कुछ लोग तो परमेश्वर के घर की महत्वपूर्ण व्यवस्थाओं को भी अस्वीकार कर देते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने वैवाहिक सुख को बनाए रखने के लिए अक्सर अपने जीवनसाथी की भावनाओं को जानने की कोशिश करते हैं। अगर उनका जीवनसाथी जरा भी दुखी होता है या अपनी आस्था, अपने द्वारा अपनाए गए परमेश्वर में आस्था के मार्ग और अपने कर्तव्य पालन को लेकर थोड़ी सी भी नाखुशी या असंतोष दिखाता है, तो वे तुरंत अपना रास्ता बदलकर रियायतें देने लगते हैं। अपने वैवाहिक सुख को बनाए रखने के लिए, वे अक्सर अपने जीवनसाथी को रियायतें देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें अपने कर्तव्य निभाने के अवसरों को भी त्यागना पड़े, और सभाओं में हिस्सा लेने, परमेश्वर के वचन पढ़ने और आध्यात्मिक भक्ति करने का समय भी छोड़ना पड़े; वे अपने जीवनसाथी को अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाने और उन्हें अकेला और अलग-थलग महसूस न होने देने और अपने जीवनसाथी को अपने प्यार का एहसास दिलाने की भरसक कोशिश करेंगे; वे अपने जीवनसाथी का प्यार खोने या उसके बगैर रहने के बजाय सब कुछ त्यागना या छोड़ना पसंद करेंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने अपनी आस्था के लिए या परमेश्वर में आस्था के लिए चुने गए मार्ग की खातिर अपने जीवनसाथी के प्यार को त्याग दिया, तो इसका मतलब है कि उन्होंने अपने वैवाहिक सुख को त्याग दिया है और अब वे इस वैवाहिक सुख को महसूस नहीं कर पाएँगे, और फिर वे अकेले, बेचारे और दयनीय बन जाएंगे। किसी व्यक्ति के बेचारे और दयनीय होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है एक दूसरे के लिए प्यार या सम्मान न होना। भले ही ये लोग कुछ धर्म-सिद्धांत और परमेश्वर के उद्धार कार्य के महत्व को समझते हैं और बेशक, वे यह भी समझते हैं कि एक सृजित प्राणी के रूप में उन्हें सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए, मगर क्योंकि वे अपनी खुशी का जिम्मा अपने जीवनसाथी को सौंप देते हैं, और बेशक अपनी खुशी का आधार अपने वैवाहिक सुख को बनाते हैं, तो यह जानते और समझते हुए भी कि उन्हें क्या करना चाहिए, वे वैवाहिक सुख के पीछे भागना नहीं छोड़ पाते हैं। वे गलती से वैवाहिक सुख के पीछे भागने को अपने इस जीवन का मकसद बना लेते हैं, और गलती से वैवाहिक सुख की तलाश को उस मकसद के रूप में देखते हैं जिसका अनुसरण एक सृजित प्राणी को करना चाहिए और जिसे हासिल करना चाहिए। क्या यह गलती नहीं है? (बिल्कुल है।)

वैवाहिक सुख की तलाश में गलती कहाँ होती है? क्या यह शादी के बारे में परमेश्वर की परिभाषा और जो लक्ष्य वह शादीशुदा जोड़ों को सौंपता है उसके अनुरूप चलने में होती है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर दिक्कत कहाँ है? कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने कहा है कि मनुष्य का अकेले रहना अच्छा नहीं है, इसलिए उसने उसके लिए एक जीवनसाथी बनाया, और यह जीवनसाथी उसका साथ देता है। क्या शादी के बारे में यही परमेश्वर की परिभाषा नहीं है? क्या यह वैवाहिक सुख की तलाश का हिस्सा नहीं है? दो लोगों का साथ मिलकर अपनी-अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना—इसमें गलत क्या है?” क्या शादी के ढाँचे में रहकर अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने और बिना समझौता किए वैवाहिक सुख की तलाश को अपना मकसद बनाने के बीच कोई अंतर है? (हाँ, बिल्कुल है।) यहाँ समस्या क्या है? (वे वैवाहिक सुख की तलाश को अपना सबसे महत्वपूर्ण मकसद मानते हैं, जबकि वास्तव में जीवित मनुष्य का सृष्टिकर्ता के समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। उन्होंने गलत चीज को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है।) क्या कोई और इस बारे में कुछ कहना चाहेगा? (जब कोई शादीशुदा जीवन में निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों और दायित्वों के प्रति सही नजरिया नहीं अपना पाता है, तो वह अपना समय और ऊर्जा अपनी शादी को बनाए रखने में खर्च करेगा। हालाँकि, शादी की जिम्मेदारियों के प्रति सही नजरिए को लेकर सबसे पहली बात यह नहीं भूलनी चाहिए कि व्यक्ति एक सृजित प्राणी है और उसे ज्यादातर समय अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके द्वारा सौंपे गए मकसद को पूरा करने में लगाना चाहिए। फिर उसे शादी के ढाँचे में रहकर अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाना चाहिए। ये दो अलग-अलग चीजें हैं।) क्या शादी के बाद वैवाहिक सुख की तलाश लोगों के जीवन का लक्ष्य होना चाहिए? क्या इसका परमेश्वर द्वारा निर्धारित शादी के मकसद से कोई लेना-देना है? (नहीं।) परमेश्वर ने मनुष्य के लिए शादी की व्यवस्था की है, और उसने तुम्हें ऐसा परिवेश भी दिया है जहाँ तुम शादी के ढाँचे में रहकर एक पुरुष या महिला का कर्तव्य निभा सकते हो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की है, यानी उसने तुम्हें एक जीवनसाथी दिया है। यह साथी जीवनभर तुम्हारा साथ देगा और जीवन की हर अवस्था में तुम्हारे साथ रहेगा। “साथ” से मेरा क्या मतलब है? मेरा कहने का मतलब है कि तुम्हारा जीवनसाथी तुम्हारी मदद और देखभाल करेगा, और तुम्हारे साथ मिलकर जीवन की हर मुश्किल का सामना करेगा। यानी, तुम्हारे सामने चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, तुम उनका सामना अकेले नहीं करोगे, बल्कि तुम दोनों मिलकर उनका सामना करोगे। इस तरह से जीने से जीवन कुछ हद तक आसान और अधिक सुकून भरा हो जाता है, जहाँ दोनों लोग अपने-अपने काम करते हैं और दोनों अपने-अपने कौशल और गुणों का उपयोग करते हुए अपना जीवन शुरू करते हैं। कितनी सरल बात है। लेकिन, परमेश्वर ने कभी लोगों से यह कहकर अपेक्षा नहीं रखी, “मैंने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की है। अब तुम शादीशुदा हो तो तुम्हें मरते दम तक अपने जीवनसाथी से प्यार करना और उसे खुश रखना होगा—यही तुम्हारा मकसद है।” परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की है, एक जीवनसाथी दिया है, और जीवन जीने का एक अलग परिवेश दिया है। जीवन के ऐसे माहौल और हालात में, वह निश्चित करता है कि तुम्हारा जीवनसाथी तुम्हारे साथ सब कुछ साझा करे और तुम्हारे साथ मिलकर हर मुश्किल का सामना करे, ताकि तुम ज्यादा आजादी से और आराम से जीवन जी सको, और इसी के साथ वह तुम्हें जीवन की एक अलग अवस्था का आकलन करने देता है। हालाँकि, परमेश्वर ने तुम्हें शादी के लिए बेचा नहीं है। मेरे कहने का क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि परमेश्वर ने तुमसे तुम्हारा जीवन, तुम्हारा भाग्य, तुम्हारा मकसद, तुम्हारे जीवन का मार्ग, तुम्हारे जीवन की दिशा और तुम्हारी आस्था छीनकर सब कुछ निर्धारित करने का जिम्मा तुम्हारे जीवनसाथी को नहीं सौंप दिया है। उसने यह नहीं कहा कि एक महिला का भाग्य, लक्ष्य, जीवन पथ और जीवन के प्रति नजरिया उसका पति तय करेगा या किसी पुरुष का भाग्य, लक्ष्य, जीवन के प्रति नजरिया और उसके जीवन की दिशा उसकी पत्नी तय करेगी। परमेश्वर ने कभी भी ऐसी बातें नहीं कही हैं और चीजों को इस तरह से निर्धारित नहीं किया है। बताओ, जब परमेश्वर ने मानवजाति के लिए शादी की व्यवस्था रखी थी तो क्या उसने ऐसा कुछ कहा था? (नहीं।) परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा कि वैवाहिक सुख के पीछे भागना एक महिला या पुरुष के जीवन का मकसद होना चाहिए, और यह कि तुम्हें अपने जीवन का मकसद पूरा करने और एक सृजित प्राणी जैसा आचरण करने के लिए अपनी शादी की खुशी को बनाए रखना होगा—परमेश्वर ने कभी ऐसी कोई बात नहीं कही। परमेश्वर ने यह भी नहीं कहा, “तुम्हें शादी के ढाँचे में रहकर अपने जीवन का मार्ग चुनना होगा। तुम्हें उद्धार प्राप्त होगा या नहीं, यह तुम्हारी शादी और तुम्हारा जीवनसाथी तय करेंगे। जीवन और भाग्य के प्रति तुम्हारा नजरिया तुम्हारा जीवनसाथी तय करेगा।” क्या परमेश्वर ने कभी ऐसी बात कही है? (नहीं।) परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की और तुम्हें एक जीवनसाथी दिया है। शादी के बाद भी परमेश्वर के समक्ष तुम्हारी पहचान और दर्जा नहीं बदलता है—तुम अब भी तुम ही हो। अगर तुम महिला हो तो शादी के बाद भी तुम परमेश्वर के सामने एक महिला ही रहोगी; अगर तुम पुरुष हो तो शादी के बाद भी परमेश्वर के सामने तुम एक पुरुष ही रहोगे। लेकिन तुम दोनों के बीच एक चीज समान है, और वह यह है कि चाहे तुम पुरुष हो या महिला, तुम सभी सृष्टिकर्ता के सामने एक सृजित प्राणी हो। शादी के ढाँचे में, तुम एक-दूसरे से प्यार करते हो और एक-दूसरे के प्रति सहनशील रहते हो, तुम एक दूसरे की मदद और सहयोग करते हो, और यही तुम्हारे लिए जिम्मेदारियाँ निभाना है। लेकिन, परमेश्वर के सामने, जो जिम्मेदारियाँ तुम्हें निभानी चाहिए और जो मकसद तुम्हें पूरा करना चाहिए उसकी जगह अपने साथी के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियाँ नहीं ले सकती हैं। इसलिए, जब भी अपने साथी के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों और परमेश्वर के समक्ष रहकर एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियों को निभाने के बीच टकराव की स्थिति हो, तो तुम्हें अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के बजाय एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए। तुम्हें यही दिशा और यही लक्ष्य चुनना चाहिए, और बेशक, यही मकसद पूरा करना चाहिए। हालाँकि, कुछ लोग गलती से वैवाहिक सुख की तलाश, या अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने, उसका ध्यान रखने, उसकी देखभाल करने और उससे प्यार करने को अपने जीवन का मकसद बना लेते हैं, और वे अपने साथी को अपना आसमान, अपनी नियति बना लेते हैं—यह गलत है। तुम्हारी नियति परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, इसमें तुम्हारा साथी कुछ नहीं कर सकता। शादी तुम्हारी नियति नहीं बदल सकती, और न ही वह इस तथ्य को बदल सकती है कि तुम्हारी नियति परमेश्वर तय करता है। जीवन के प्रति तुम्हारा जो नजरिया होना चाहिए और तुम्हें जिस मार्ग पर चलना चाहिए, वो तुम्हें परमेश्वर की शिक्षाओं और अपेक्षाओं के वचनों में खोजना चाहिए। ये चीजें तुम्हारे साथी पर निर्भर नहीं हैं और इन्हें तय करना उसके हाथ में नहीं है। उसे बस तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, उसका तुम्हारे भाग्य पर कोई काबू नहीं होना चाहिए, और न ही उसे तुमसे अपने जीवन की दिशा बदलने की माँग करनी चाहिए, उसे यह तय नहीं करना चाहिए कि तुम किस मार्ग पर चलोगे, जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया क्या रहेगा; तुम्हें उद्धार पाने से रोकना या बाधित करना तो दूर रहा। जहाँ तक शादी की बात है, लोगों को बस इसे परमेश्वर की व्यवस्था के रूप में स्वीकार कर मनुष्य के लिए निर्धारित शादी की परमेश्वर की परिभाषा के अनुरूप चलना चाहिए, जहाँ पति-पत्नी दोनों ही एक-दूसरे के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरा करेंगे। वे अपने साथी की नियति, उसका पिछला जीवन, वर्तमान जीवन या अगला जीवन तय नहीं कर सकते, शाश्वत जीवन की तो बात छोड़ ही दो। तुम्हारी मंजिल, तुम्हारी नियति, और तुम्हारे जीवन का मार्ग केवल सृष्टिकर्ता तय कर सकता है। इसलिए, एक सृजित प्राणी होने के नाते, चाहे तुम्हारी भूमिका पत्नी की हो या पति की, तुम्हारे जीवन की खुशियाँ एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने और एक सृजित प्राणी का मकसद पूरा करने से ही आती हैं। सिर्फ शादी कर लेने से खुशियाँ नहीं मिल जाती हैं, और शादी के ढाँचे में रहकर एक पत्नी या पति की जिम्मेदारियाँ निभाने से तो बिल्कुल भी नहीं मिलती हैं। बेशक, जीवन में जो मार्ग तुम चुनते हो और जो नजरिया अपनाते हो, वह वैवाहिक सुख पर आधारित नहीं होना चाहिए; यह पति-पत्नी में से किसी एक के द्वारा निर्धारित तो बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए—यह बात तुम्हें समझनी होगी। इसलिए, जो लोग शादी करने के बाद केवल वैवाहिक सुख की तलाश करते हैं और इस तलाश को ही अपना मकसद मानते हैं उन्हें ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों को त्याग देना चाहिए, और अपने अभ्यास का तरीका और जीवन की दिशा बदलनी चाहिए। तुम बस परमेश्वर के विधान के अनुसार शादी करके अपने साथी के साथ जीवन जी रहे हो, और एक साथ जीवन बिताते हुए पत्नी या पति की जिम्मेदारियाँ निभाना पर्याप्त है। जहाँ तक यह सवाल है कि तुम किस मार्ग पर चलते हो और जीवन के प्रति क्या नजरिया अपनाते हो, इसका तुम्हारे साथी पर कोई दायित्व नहीं है और उसे इन चीजों का फैसला करने का कोई अधिकार नहीं है। भले ही तुम शादीशुदा हो और तुम्हारा एक जीवनसाथी है, तुम्हारा तथाकथित जीवनसाथी सिर्फ एक पत्नी या पति होने का वह अर्थ रखता है जो परमेश्वर ने निर्धारित किया है। वे केवल पत्नी या पति होने की जिम्मेदारियाँ निभा सकते हैं, और तुम सिर्फ उन चीजों को चुन सकते हो और उनका फैसला कर सकते हो जो तुम्हारे जीवनसाथी से संबंधित नहीं हैं। बेशक, इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि तुम्हारी पसंद और फैसले अपनी प्राथमिकताओं और समझ पर आधारित नहीं होने चाहिए, बल्कि परमेश्वर के वचनों पर आधारित होने चाहिए। क्या तुम इस मामले पर की गई संगति को समझ रहे हो? (हाँ।) इसलिए, शादी के ढाँचे में किसी भी कीमत पर वैवाहिक सुख की तलाश करने वाले पति या पत्नी का कोई भी कार्य या कोई भी त्याग परमेश्वर याद नहीं रखेगा। चाहे तुम कितने ही अच्छे से या कितने ही सटीक तरीके से अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाओ, या अपने साथी की उम्मीदों पर खरा उतरो—दूसरे शब्दों में, चाहे तुम कितने ही अच्छे से या कितने ही सटीक तरीके से अपना वैवाहिक सुख बनाए रखते हो, या चाहे यह कितना ही बेहतरीन हो—इसका मतलब यह नहीं है कि तुमने एक सृजित प्राणी का मकसद पूरा कर लिया है, और न ही इससे साबित होता है कि तुम ऐसे सृजित प्राणी हो जो मानक अनुरूप है। हो सकता है कि तुम एक आदर्श पत्नी या एक आदर्श पति हो, लेकिन यह बस शादी के ढाँचे तक ही सीमित है। तुम कैसे इंसान हो, सृष्टिकर्ता इसे इस आधार पर मापता है कि तुम उसके समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभाते हो, तुम किस मार्ग पर चलते हो, जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया क्या है, जीवन में तुम किस चीज का अनुसरण करते हो, और एक सृजित प्राणी होने का मकसद कैसे पूरा करते हो। इन चीजों को ध्यान में रखते हुए परमेश्वर एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे द्वारा अपनाया गया मार्ग और तुम्हारी मंजिल निर्धारित करता है। वह इन चीजों को इस आधार पर नहीं मापता है कि तुम पत्नी या पति के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को कैसे पूरा करते हो; न ही इस आधार पर कि अपने साथी के प्रति तुम्हारा प्यार परमेश्वर को खुश रखता है या नहीं। जहाँ तक वैवाहिक सुख के पीछे भागना तुम्हारा मकसद नहीं होने का सवाल है, मैंने आज इस विषय को समेटने के लिए ही यह सब बताया है। देखो, अगर मैं इन मसलों पर संगति नहीं करता, तो लोग सोचते कि वे इनके बारे में थोड़ा बहुत समझते-बूझते हैं, लेकिन जब वास्तव में उनके साथ कुछ घटित होगा, तो वे कई भ्रामक मसलों में उलझकर अटक जाएँगे; एक तरफ वे पत्नी या पति के दायित्वों को पूरा करना चाहेंगे, तो दूसरी तरफ एक मनुष्य, एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को अच्छी तरह निभाना चाहेंगे। हालाँकि, जब ये दोनों चीजें एक-दूसरे से टकराती हैं या उनमें विरोधाभास होता है, तो व्यक्ति को इसे कैसे संभालना चाहिए, यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। इस तरह से संगति करने के बाद क्या अब यह बात स्पष्ट हो गई है? (बिल्कुल।) एक तरफ जिन चीजों को लोग अपनी धारणाओं में अच्छा और सही मानते हैं और दूसरी तरफ जो चीजें सत्य के अनुसार सकारात्मक, सही और अच्छी हैं, उनके बीच एक अंतर है। जब इसे स्पष्ट किया जाता है तो सब समझ आ जाता है। जिन चीजों को लोग सकारात्मक और अच्छा मानते हैं वे अक्सर मनुष्य की धारणाओं, कल्पनाओं और भावनाओं से भरी होती हैं, और वे सत्य से “असंबंधित” होती हैं। “असंबंधित” से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि वे सत्य नहीं हैं। अगर तुम भ्रामक बातों और ऐसी बातों को जो सत्य नहीं हैं, सकारात्मक बातें और सत्य मानते हो, और उनका अनुसरण करते हो और उनसे हठपूर्वक चिपके रहते हो, उन्हें सत्य मानते हो, तो तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग पर नहीं चल पाओगे, और सत्य से बहुत दूर होते चले जाओगे। और इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा?

हमने अभी इस विषय पर संगति की कि लोगों को वैवाहिक सुख की तलाश करना छोड़ देना चाहिए, और यह कि शादी के ढाँचे में रहकर अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना ही पर्याप्त है। वैवाहिक सुख की तलाश करना छोड़ देने के विषय पर हमारी संगति पूरी हो गई है, तो अब हम दूसरे मसले पर संगति करेंगे : तुम शादी के गुलाम नहीं हो। हमें इस मसले पर संगति करनी चाहिए। शादी के बाद, कुछ लोग क्या मानते हैं? “अब यही मेरा जीवन है। अब मुझे अपना बाकी जीवन इसी व्यक्ति के साथ बिताना है। मैं जीवन भर अपने माता-पिता या परिवार के बुजुर्गों या अपने दोस्तों पर निर्भर नहीं रह सकता। तो मेरे जीवन भर का सहारा कौन है? जिससे मैं शादी करूँगा वह मेरे जीवनभर का सहारा होगा।” इस तरह के विचारों से प्रेरित होकर, कई लोग शादी को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं; वे सोचते हैं कि शादी के बाद उनका जीवन स्थिर हो जाएगा, उनके पास एक सुरक्षित जगह होगी, और कोई ऐसा होगा जिस पर भरोसा किया जा सकता है। महिलाएँ कहती हैं, “शादी के बाद, मेरे पास भरोसे का एक मजबूत कंधा होगा।” पुरुष कहते हैं, “शादी के बाद, मेरे पास एक शांतिपूर्ण घर होगा और अब मैं भटकूँगा नहीं; यह सोचकर ही मुझे खुशी होती है। मेरे आसपास मौजूद उन अविवाहित लोगों को देखो। महिलाएँ पूरे दिन इधर-उधर भटकती रहती हैं, उनके पास कोई भरोसा करने लायक नहीं होता, कोई स्थिर घर नहीं होता, रोने के लिए कंधा नहीं होता, और पुरुषों के पास प्यार भरा घर नहीं होता। वे कितने दयनीय हैं!” इसलिए, जब वे अपने वैवाहिक सुख के बारे में सोचते हैं, तो उन्हें लगता है कि यह काफी परिपूर्ण और संतोषजनक है। संतुष्ट महसूस करने के अलावा, उन्हें लगता है कि उन्हें अपनी शादी और अपने घर के लिए भी कुछ करना चाहिए। इसलिए, शादी के बाद कुछ लोग अपने शादीशुदा जीवन में अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार होते हैं, और वे अपनी शादी के लिए भरसक कोशिश करने, संघर्ष करने, और मेहनत करने की तैयारी करते हैं। कुछ लोग पैसे कमाने में लगे रहते हैं और कष्ट सहते हैं और बेशक, अपने जीवन की खुशी का जिम्मा अपने साथी को सौंप देते हैं। वे मानते हैं कि उनके जीवन की हँसी-खुशी इस बात पर निर्भर करती है कि उनका साथी कैसा है, वह अच्छा इंसान है या नहीं; उसका व्यक्तित्व और रुचियाँ एक जैसी हैं या नहीं; क्या वह पैसे कमाकर परिवार चलाने वालों में से है; क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो भविष्य में उसकी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सके, और उसे एक खुशहाल, स्थिर और बेहतरीन परिवार दे सके; और क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो किसी दर्द, तकलीफ, विफलता या नाकामी का सामना करने पर उसे दिलासा दे सके। इन बातों की पुष्टि करने के लिए, वे साथ रहते हुए अपने साथी पर विशेष ध्यान देते हैं। वे बड़ी सावधानी और सतर्कता से, अपने साथी के विचारों, दृष्टिकोणों, बातों और व्यवहार को और उसके हर एक कदम के साथ-साथ उसकी हर खूबी और कमजोरी पर नजर रखते और उसे परखते हैं। वे जीवन में अपने साथी द्वारा प्रकट किए गए सभी विचारों, दृष्टिकोणों, बातों और व्यवहारों को अच्छे से याद रखते हैं, ताकि वे अपने साथी को बेहतर ढंग से समझ सकें। इसी के साथ, वे यह भी आशा करते हैं कि उनका साथी भी उन्हें बेहतर ढंग से समझे, वे अपने साथी को अपने दिल में जगह देते हैं, और अपने साथी के दिल में बसते हैं, ताकि एक-दूसरे पर बेहतर ढंग से काबू रख सकें; वे चाहते हैं कि अपने साथी के साथ कुछ भी हो तो सबसे पहले वही सामने नजर आएँ, सबसे पहले वही उनकी मदद करें, आगे बढ़कर उनका सहारा बनें, उनका हौसला बढ़ाएँ, और उनके लिए चट्टान बनकर खड़े रहें। जीवन की ऐसी परिस्थितियों में, पति और पत्नी शायद ही कभी यह समझने की कोशिश करते हैं कि उनका साथी कैसा इंसान है, वे अपने साथी के लिए पूरी तरह से अपनी भावनाओं में जीते हैं, और अपनी भावनाओं में आकर अपने साथी की देखभाल करते हैं, उन्हें सहन करते हैं, उनकी सभी गलतियों और कमियों को माफ करते हैं, और यहाँ तक कि उनके इशारों पर नाचते रहते हैं। उदाहरण के लिए, एक महिला का पति कहता है, “तुम्हारी सभाएँ बहुत लंबी चलती हैं। बस आधे घंटे के लिए जाकर वापस आ जाया करो।” वह जवाब देती है, “मैं पूरी कोशिश करूँगी।” जाहिर है, अगली बार वह सभा में बस आधे घंटे के लिए जाकर घर वापस आ जाती है, तो अब उसका पति कहता है, “ये हुई न बात। अगली बार, बस अपना चेहरा दिखाकर वापस आ जाना।” फिर वह कहती है, “अच्छा, तुम्हें मेरी इतनी याद आती है! ठीक है फिर, मैं अपनी पूरी कोशिश करूँगी।” जाहिर है, अगली बार जब वह सभा में जाती है तो अपने पति को निराश नहीं करती, और करीब दस मिनट बाद ही घर वापस आ जाती है। उसका पति बहुत खुश होता है, और कहता है, “बहुत बढ़िया!” वह उसके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं करती; अगर वह उसे हँसते हुए देखना चाहता है तो वह रोने की हिम्मत नहीं करती। वह उसे परमेश्वर के वचन पढ़ते और भजन सुनते देखता है तो उसे अच्छा नहीं लगता और इससे घृणा होती है; वह कहता है, “हर वक्त उन वचनों को पढ़ने और गीत गाने से तुम्हें क्या मिलेगा? जब मैं घर पर रहूँ, तब क्या तुम उन वचनों को पढ़ना और उन गीतों को गाना बंद नहीं कर सकती?” वह जवाब देती है, “कोई बात नहीं, मैं उन्हें अब और नहीं पढ़ूँगी।” अब वह परमेश्वर के वचनों को पढ़ने या भजन सुनने की हिम्मत नहीं करती। अपने पति की माँगों से उसे आखिरकार समझ आ जाता है कि उसके पति को उसका परमेश्वर में विश्वास करना या उसके वचन पढ़ना पसंद नहीं है, इसलिए वह जब घर पर होता है तो उसके साथ ही रहती है, साथ में टीवी देखती है, खाना खाती है, बातें करती है, और यहाँ तक कि उसकी शिकायतें भी सुनती है। वह उसकी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है। उसका मानना है कि एक पत्नी या पति को ये जिम्मेदारियाँ निभानी ही चाहिए। तो, वह परमेश्वर के वचन कब पढ़ती है? वह अपने पति के बाहर जाने का इंतजार करती है, फिर उसके पीठ-पीछे दरवाजा बंद करके जल्दी-जल्दी वचन पढ़ती है। जब वह दरवाजे पर किसी की आहट सुनती है, तो जल्दी से किताब को दूर रख देती है और इतनी डर जाती है कि उसे दोबारा पढ़ने की हिम्मत नहीं कर पाती। और जब दरवाजा खोलती है तो पता चलता है कि यह उसका पति नहीं था—उसे बस गलत फहमी हुई थी, तो वह पढ़ना जारी रखती है। जैसे-जैसे वह पढ़ती जाती है, उसके मन में आशंकाएँ घुमड़ने लगती हैं, वह घबरा जाती है और डर जाती है, सोचती है, “अगर वह सच में घर आ गया तो क्या होगा? बेहतर होगा कि अभी के लिए बस इतना ही पढ़ूँ। जरा फोन करके पूछती हूँ कि वह कहाँ है और कब तक घर वापस आएगा।” वह उसे फोन करती है और वह कहता है, “आज काम थोड़ा ज्यादा है, तो मैं तीन या चार बजे तक घर नहीं पहुँच पाऊँगा।” इससे वह शांत हो जाती है, लेकिन क्या उसका मन अभी भी इतना शांत होगा कि वह परमेश्वर के वचन पढ़ सके? नहीं होगा; उसका मन अशांत हो चुका है। वह प्रार्थना के लिए परमेश्वर के पास दौड़ती है, और फिर क्या कहती है? क्या वह कहती है कि परमेश्वर में उसकी आस्था में विश्वास नहीं है, कि उसे अपने पति का भय है, और वह परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए अपना मन शांत नहीं कर पा रही है? उसे लगता है कि वह ये चीजें नहीं कह सकती, तो वह परमेश्वर से कुछ भी नहीं कह पाती है। मगर फिर वह अपनी आँखें बंद करके हाथ जोड़ लेती है। वह शांत हो जाती है और इतनी बेचैन महसूस नहीं करती, तो फिर से परमेश्वर के वचन पढ़ने जाती है, लेकिन अब ये वचन उसके पल्ले नहीं पड़ते। वह सोचती है, “मैं अभी क्या पढ़ रही थी? मैं अपने चिंतन-मनन में कहाँ तक पहुँच पाई थी? मेरे दिमाग से सब निकल गया।” जितना अधिक वह इसके बारे में सोचती है, उतना ही परेशान और असहज महसूस करती है : “आज मैं नहीं पढ़ूँगी। एक बार के लिए मेरी आध्यात्मिक भक्ति छूट गई तो कोई पहाड़ नहीं टूट जाएगा।” तुम्हें क्या लगता है? क्या उसका जीवन अच्छा चल रहा है? (नहीं।) यह वैवाहिक सुख है या वैवाहिक संकट? (संकट।) इस बात पर, कुछ अविवाहित लोग कह सकते हैं, “तो, तुम आग में कूद गई हो, है न? शादी कोई अच्छी चीज नहीं है, है न? देखो मेरा जीवन कितना अच्छा है, मुझे किसी और के बारे में नहीं सोचना पड़ता है, और मुझे सभाओं में जाकर अपना कर्तव्य निभाने से कोई रोकने वाला भी नहीं है।” अपने साथी को अपने साथ खुश रखने और कभी-कभार तुम्हारे परमेश्वर के वचन पढ़ने या सभाओं में हिस्सा लेने पर उसे सहमत करने के लिए, तुम्हें रोज सुबह उठकर नाश्ता बनाना पड़ता है, घर की साफ-सफाई करनी पडती है, चूजों को दाना और कुत्तों को खाना देना पड़ता है, और सभी तरह के थकाऊ काम करने पड़ते हैं—ऐसे काम भी जो आम तौर पर पुरुष करते हैं। अपने पति को संतुष्ट रखने के लिए तुम एक बूढ़ी नौकरानी की तरह बिना थके काम करती रहती हो। उसके घर आने से पहले, तुम उसके चमड़े के जूते चमकाती हो और चप्पलों को ठीक करती हो, और उसके घर आने के बाद, तुम उसके कपड़ों से धूल झाड़ने और कोट उतारकर सही जगह पर रखने में उसकी मदद करती हो, और कहती हो, “आज बहुत गर्मी है। तुम्हें गर्मी लग रही है? प्यास लगी है? आज तुम क्या खाना पसंद करोगे? कुछ खट्टा या तीखा? तुम्हें कपड़े बदलने हैं? ये कपड़े उतार दो, मैं उन्हें धो दूँगी।” तुम एक बूढ़ी नौकरानी या गुलाम जैसी हो, जो पहले ही उन जिम्मेदारियों के दायरे को पार कर चुकी है जो तुम्हें शादी के ढाँचे में रहकर निभाना चाहिए। तुम अपने पति के इशारों पर नाचती हो, उसे अपना स्वामी मानती हो। ऐसे परिवार में, पति-पत्नी के दर्जे में एक स्पष्ट अंतर होता है : एक गुलाम होता है, तो दूसरा मालिक; एक ताबेदार और विनम्र होता है, तो दूसरा भयानक और तानाशाह; एक सिर झुकाता है, तो दूसरा घमंड में चूर होता है। जाहिर है, शादी के ढाँचे में इन दोनों का दर्जा बराबरी का नहीं है। ऐसा क्यों? क्या ऐसी गुलामी उसे नीचा नहीं दिखाती है? (बिल्कुल दिखाती है।) ऐसी गुलामी उसे नीचा दिखाती है। मानवजाति के लिए परमेश्वर ने शादी को लेकर जो जिम्मेदारियाँ निर्धारित की हैं, तुम उस पर कायम नहीं रही, और उससे बहुत आगे चली गई। तुम्हारा पति कोई जिम्मेदारी नहीं निभाता और कुछ नहीं करता है, और फिर भी तुम इस तरह अपने पति के इशारों पर नाचती हो और उसके आदेश का पालन करती हो, अपनी मर्जी से उसकी गुलाम और उसकी बूढ़ी नौकरानी बनी हुई हो जो उसका सारा काम करती है—तुम कैसी इंसान हो? वास्तव में तुम्हारा प्रभु कौन है? तुम इस तरह से परमेश्वर के लिए अभ्यास क्यों नहीं करती? परमेश्वर ने निर्धारित किया है कि तुम्हारा साथी तुम्हारे जीवन के लिए भरण-पोषण करेगा; उसे यह तो करना ही चाहिए, ऐसा करके वह तुम पर एहसास नहीं कर रहा। तुम वह करती हो जो तुम्हें करना चाहिए और अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाती हो—क्या वह ऐसा करता है? क्या वह वही करता है जो उसे करना चाहिए? शादी के ढाँचे में, ऐसा नहीं है कि जो ताकतवर है वही स्वामी हो, और जो कड़ी मेहनत करता हो और सबसे अधिक काम करता हो वह गुलाम हो। शादी के ढाँचे में, दोनों को एक-दूसरे के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए और एक-दूसरे का साथ देना चाहिए। दोनों की एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदारी है, और दोनों को शादी के बंधन में रहकर अपने दायित्व पूरे करने और अपने काम करने हैं। तुम्हें अपनी भूमिका के मुतबिक ही काम करना चाहिए; जो भी तुम्हारी भूमिका है, तुम्हें उस भूमिका से जुड़े काम ही करने चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो तुममें सामान्य मानवता नहीं है। आम बोलचाल की भाषा में कहें, तो तुम्हारी हैसियत दो कौड़ी की भी नहीं है। तो जब किसी की हैसियत दो कौड़ी की भी नहीं है और फिर भी तुम उसके इशारों पर नाचती हो और अपनी मर्जी से उनकी गुलामी करती हो, तो यह सरासर बेवकूफी है और इससे तुम्हारी अहमियत खत्म हो जाती है। परमेश्वर में विश्वास करने में क्या गलत है? क्या तुम्हारा परमेश्वर में विश्वास करना कुकर्म है? क्या परमेश्वर के वचन पढ़ने में कोई दिक्कत है? ये सभी ईमानदार और सम्मानजनक कार्य हैं। जब सरकार परमेश्वर में विश्वास करने वालों पर अत्याचार करती है तो यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि मानवजाति बहुत बुरी है, और यह बुरी ताकतों और शैतान का प्रतिनिधित्व करती है। यह सत्य या परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। इसलिए, परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब यह नहीं है कि तुम दूसरों से नीचे हो या दूसरों से निम्नतर हो। इसके विपरीत, परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास तुम्हें सांसारिक लोगों से ज्यादा आदर्श बनाता है, तुम्हारा सत्य का अनुसरण तुम्हें परमेश्वर की नजरों में सम्मानजनक बनाता है, और वह तुम्हें अपनी आँखों का तारा मानता है। और फिर भी तुम खुद को नीचा दिखाती हो और शादी के ढाँचे में अपने साथी की चापलूसी करने के लिए अनायास ही उसकी गुलाम बन जाती हो। एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाते समय तुम ऐसा व्यवहार क्यों नहीं करती? तुम ऐसा क्यों नहीं कर सकती? क्या यह मानवीय दीनता की अभिव्यक्ति नहीं है? (बिल्कुल है।)

परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था सिर्फ इसलिए की है ताकि तुम अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना सीख सको, किसी दूसरे इंसान के साथ शांतिपूर्ण ढंग से रह सको और मिलकर जीवन बिता सको, और इसका अनुभव कर सको कि अपने जीवनसाथी के साथ जीवन बिताना कैसा होता है, और तुम एक साथ मिलकर सभी तरह के हालात का सामना कैसे कर सकते हो, जिससे तुम्हारा जीवन पहले से अधिक समृद्ध और अलग हो जाए। लेकिन, वह तुम्हें शादी की भेंट नहीं चढ़ाता है, और बेशक, वह तुम्हें तुम्हारे साथी के हाथों बेचता भी नहीं है ताकि तुम उसकी गुलामी करो। तुम उसके गुलाम नहीं हो, और वह तुम्हारा मालिक नहीं है। तुम दोनों बराबर हो। तुम्हें अपने साथी के प्रति सिर्फ एक पत्नी या पति की जिम्मेदारियाँ निभानी हैं, और जब तुम ये जिम्मेदारियाँ निभाते हो, तो परमेश्वर तुम्हें एक संतोषजनक पत्नी या पति मानता है। तुम्हारे साथी के पास ऐसा कुछ नहीं है जो तुम्हारे पास नहीं है, और तुम अपने साथी से कमतर तो बिल्कुल नहीं हो। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करते हो, अपना कर्तव्य निभा सकते हो, अक्सर सभाओं में हिस्सा ले सकते हो, परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए प्रार्थना कर सकते हो और परमेश्वर के समक्ष आ सकते हो, तो ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर स्वीकार करता है और ये वही चीजें हैं जो एक सृजित प्राणी को करनी चाहिए और एक सृजित प्राणी को ऐसा ही सामान्य जीवन जीना चाहिए। इसमें शर्म की कोई बात नहीं है, और न ही इस तरह का जीवन जीने के लिए तुम्हें अपने साथी का ऋणी महसूस करना चाहिए—तुम उसके ऋणी नहीं हो। पत्नी होने के नाते अगर तुम चाहो, तो तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में अपने साथी को गवाही देने का दायित्व निभा सकती हो। हालाँकि, अगर वह परमेश्वर में विश्वास नहीं करता है, और तुम्हारे चुने हुए मार्ग पर नहीं चलता है, तो तुम्हें अपनी आस्था या अपने चुने हुए मार्ग के बारे में उसे कोई जानकारी देने या कुछ समझाने की जरूरत नहीं है, न तो तुम पर इसकी कोई जिम्मेदारी है और न ही उसे यह सब जानने का हक है। तुम्हारा समर्थन करना, तुम्हें प्रोत्साहित करना और तुम्हारी ढाल बनकर खड़े रहना उसकी जिम्मेदारी और दायित्व है। अगर वह इतना भी नहीं कर सकता, तो उसमें मानवता नहीं है। ऐसा क्यों? क्योंकि तुम सही मार्ग पर चल रही हो, और तुम्हारे सही मार्ग पर चलने के कारण ही तुम्हारे परिवार और तुम्हारे जीवनसाथी को आशीष मिली है और वह तुम्हारे साथ परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठा रहा है। तुम्हारे साथी को इसके लिए तुम्हारा आभारी होना चाहिए; ऐसा नहीं वह तुम्हारे खिलाफ भेदभाव करने लगे या तुम्हारी आस्था के कारण या तुम्हें सताए जाने के कारण तुम्हें धमकाए या फिर यह माने कि तुम्हें घर के काम और दूसरी चीजों में अधिक ध्यान देना चाहिए या यह कि तुम उसकी कर्जदार हो। तुम भावनात्मक या आध्यात्मिक रूप से या किसी अन्य तरीके से उसकी ऋणी नहीं हो—उल्टा वही तुम्हारा ऋणी है। परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के कारण ही उसे परमेश्वर के अतिरिक्त अनुग्रह और आशीष का आनंद उठा रहा है, और उसे ये चीजें असाधारण रूप से मिलती हैं। “उसे ये चीजें असाधारण रूप से मिलती हैं” से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि ऐसे व्यक्ति को ये चीजें पाने का कोई हक नहीं है और उसे यह सब नहीं मिलना चाहिए। उसे यह सब क्यों नहीं मिलना चाहिए? क्योंकि वह परमेश्वर का अनुसरण नहीं करता या परमेश्वर को स्वीकार नहीं करता, इसलिए जिस अनुग्रह का वह आनंद लेता है वह परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के कारण आता है। वह तुम्हारे साथ रहकर फायदा उठाता है और तुम्हारे साथ ही आशीष पाता है, और इसके लिए उसे तुम्हारा आभारी होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, क्योंकि वह इन अतिरिक्त आशीषों और इस अनुग्रह का आनंद लेता है, तो उसे अपनी जिम्मेदारियाँ अधिक निभानी चाहिए और परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का अधिक समर्थन करना चाहिए। घर में एक इंसान परमेश्वर में विश्वास करता है, तो कुछ लोगों का पारिवारिक व्यवसाय अच्छा चलता है और वे बहुत कामयाब होते हैं। वे बहुत पैसा कमाते हैं, उनका परिवार अच्छा जीवन जीता है, उनकी संपत्ति बढ़ती है, और उनका जीवन स्तर उन्नत होता है—ये सब चीजें कैसे आईं? अगर तुममें से कोई परमेश्वर में विश्वास नहीं करता, तो क्या तुम्हारे परिवार को यह सब कुछ मिलता? कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने उनका समृद्ध भाग्य निर्धारित किया है।” बात तो सही है कि यह परमेश्वर ने निर्धारित किया है, लेकिन अगर उनके परिवार में परमेश्वर में विश्वास करने वाला वह एक इंसान नहीं होता, तो उनका व्यवसाय इतना शानदार और धन्य नहीं होता। क्योंकि उनके परिवार का एक सदस्य परमेश्वर में विश्वास करता है, क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करने वाले उस एक सदस्य की आस्था सच्ची है, वह ईमानदारी से अनुसरण करता है, और वह खुद को परमेश्वर के प्रति समर्पित करने और खपाने के लिए तैयार है, तो उसके अविश्वासी जीवनसाथी को भी असाधारण रूप से अनुग्रह और आशीष मिलती है। परमेश्वर के लिए यह छोटी सी चीज है। अविश्वासी इसके बाद भी संतुष्ट नहीं होते, वे तो परमेश्वर के विश्वासियों को दबाते और धमकाते भी हैं। देश और समाज विश्वासियों पर जैसा अत्याचार करता है वह पहले से ही उनके लिए एक आपदा है, और फिर भी उनके परिवार वाले उन पर दबाव बनाने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में, अगर तुम्हें अब भी लगता है कि तुम उन्हें निराश कर रहे हो और अपनी शादी के गुलाम बनने को तैयार हो, तो तुम्हें ऐसा बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का समर्थन नहीं करते, तो कोई बात नहीं; वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का बचाव नहीं करते हैं, तब भी कोई बात नहीं। वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन, उन्हें इसलिए तुम्हारे साथ गुलाम जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। तुम गुलाम नहीं हो, एक मनुष्य हो, एक गरिमामय और ईमानदार व्यक्ति हो। कम से कम, परमेश्वर के सामने तुम एक सृजित प्राणी हो, किसी के गुलाम नहीं। अगर तुम्हें गुलाम बनना ही है, तो सत्य का गुलाम बनो, परमेश्वर का गुलाम बनो, किसी व्यक्ति का गुलाम मत बनो, और अपने जीवनसाथी को अपना मालिक को बिल्कुल मत मानो। दैहिक रिश्तों के मामले में, तुम्हारे माता-पिता के अलावा, इन संसार में तुम्हारे सबसे करीब तुम्हारा जीवनसाथी ही है। फिर भी परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास के कारण तुम्हें वे दुश्मन मानते हैं और तुम पर हमले और अत्याचार करते हैं। वे तुम्हारे सभा में जाने का विरोध करते हैं, कोई अफवाह सुनने को मिल जाए तो वे घर आकर तुम्हें डाँटते हैं और तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव करते हैं। यहाँ तक कि जब तुम घर पर परमेश्वर के वचन पढ़ते या प्रार्थना करते हो और उनके सामान्य जीवन में कोई दखल नहीं देते, तब भी वे तुम्हें फटकारेंगे और तुम्हारा विरोध करेंगे, और तुम्हें पीटेंगे भी। बताओ, यह सब क्या है? क्या वे राक्षस नहीं हैं? क्या यह वही व्यक्ति है जो तुम्हारे सबसे करीब है? क्या ऐसा व्यक्ति इस लायक है कि तुम उसके प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी निभाओ? (नहीं।) नहीं, वह इस लायक नहीं है! और इसलिए, ऐसा शादीशुदा जीवन जीने वाले कुछ लोग अभी भी अपने साथी के इशारों पर नाचते हैं, सब कुछ त्यागने को तैयार रहते हैं, वे अपना कर्तव्य निभाने में दिया जाने वाला समय, अपना कर्तव्य निभाने का अवसर, और यहाँ तक कि अपना उद्धार पाने का मौका भी त्यागने को तैयार होते हैं। उन्हें ये चीजें नहीं करनी चाहिए और कम से कम उन्हें ऐसे विचारों को पूरी तरह त्याग देना चाहिए। परमेश्वर का ऋणी होने के अलावा, लोग किसी और के ऋणी नहीं हैं। तुम पर अपने माता-पिता, अपने पति, अपनी पत्नी, अपने बच्चों का कोई कर्ज नहीं है, और दोस्तों का तो बिल्कुल भी नहीं है—तुम किसी के भी ऋणी नहीं हो। लोगों के पास जो कुछ भी है सब परमेश्वर से आता है, उनकी शादी भी। अगर हम ऋणी होने की बात करें, तो लोग सिर्फ परमेश्वर के ऋणी हैं। बेशक, परमेश्वर यह माँग नहीं करता कि तुम उसका कर्ज उतारो, वह बस इतना चाहता है कि तुम जीवन में सही मार्ग पर चलो। शादी को लेकर परमेश्वर का सबसे बड़ा इरादा यह है कि तुम अपनी शादी के कारण अपनी गरिमा और ईमानदारी मत गँवाओ, ऐसे इंसान मत बनो जिसके पास अनुसरण का कोई सही मार्ग न हो, जीवन के प्रति कोई नजरिया या अनुसरण के लिए कोई दिशा न हो, और तुम ऐसे व्यक्ति मत बनो जो अपनी शादी का गुलाम बनने के लिए सत्य का अनुसरण करना छोड़ दे, उद्धार पाने का मौका गँवा दे, और परमेश्वर के दिए हुए किसी भी आदेश या मकसद को त्याग दे। अगर तुम अपनी शादी इस तरह संभालते हो, तो तुम्हारा शादी न करना और अकेले जीवन जीना ही बेहतर होता। अगर तुम सब कुछ करने के बाद भी शादी की ऐसी परिस्थिति या ढाँचे से खुद को मुक्त नहीं कर सकते, तो फिर इस शादी को पूरी तरह खत्म कर देना ही सबसे अच्छा रहेगा, और तुम्हारा एक आजाद पंछी की तरह जीना बेहतर होगा। जैसा कि मैंने कहा है, शादी की व्यवस्था करने के पीछे परमेश्वर का इरादा यह है कि तुम्हें एक जीवनसाथी मिले और तुम अपने साथी के साथ मिलकर जीवन के सभी उतार-चढ़ावों का सामना करो और जीवन के हर पड़ाव से गुजरो, ताकि तुम जीवन के हर पड़ाव में अकेले न रहो, कोई तुम्हारे साथ हो, कोई ऐसा हो जिसे तुम अपने मन की बातें बता सको, और जो तुम्हें सुकून दे और तुम्हारी देखरेख कर सके। लेकिन, परमेश्वर तुम्हें या तुम्हारे हाथ-पैर बाँधने के लिए शादी का इस्तेमाल नहीं करता, जिससे कि तुम्हारे पास अपना मार्ग चुनने का कोई हक ही नहीं हो और तुम्हें शादी का गुलाम बनना पड़े। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी निर्धारित की है और एक जीवनसाथी की व्यवस्था की है; उसने तुम्हारे लिए कोई मालिक नहीं ढूँढा है, और न ही वह चाहता है कि तुम अपने अनुसरण, अपने जीवन के लक्ष्यों, अपने अनुसरण के लिए सही दिशा और उद्धार पाने के अधिकार के बिना शादी के दायरे तक ही सीमित रहो। इसके विपरीत, चाहे तुम शादीशुदा हो या नहीं हो, परमेश्वर ने तुम्हें जो सबसे बड़ा अधिकार दिया है, वह है अपने जीवन के लक्ष्यों का अनुसरण करना, जीवन के प्रति सही नजरिया अपनाना और उद्धार पाने की कोशिश करना। कोई तुमसे यह अधिकार नहीं छीन सकता और कोई इसमें दखल नहीं दे सकता, तुम्हारा जीवनसाथी भी नहीं। तो, तुम लोगों में से जो अपनी शादी में गुलामों की भूमिका निभाते हैं उन्हें ऐसे जीना छोड़ देना चाहिए, अपनी शादी में गुलामी करने की चाह से संबंधित विचारों और अभ्यासों को त्याग देना चाहिए, और इन हालात को पीछे छोड़ देना चाहिए। अपने जीवनसाथी के सामने बेबस मत हो, और न ही अपने साथी की भावनाओं, विचारों, बातों, रवैयों या यहाँ तक कि उनके कार्यों से प्रभावित, सीमित या बाधित हो। ये सब पीछे छोड़ो और साहसी बनकर परमेश्वर पर भरोसा करो। तुम जब चाहो तब परमेश्वर के वचन पढ़ो, जब तुम्हें सभाओं में जाना चाहिए तब सभाओं में जाओ, क्योंकि तुम एक मनुष्य हो, कोई कुत्ता नहीं, और तुम्हें अपने व्यवहार पर नियंत्रण रखने या अपने जीवन पर अंकुश लगाने या काबू रखने के लिए किसी की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे पास जीवन में अपना लक्ष्य और दिशा निर्धारित करने का अधिकार है—यह अधिकार तुम्हें परमेश्वर ने दिया है, और खासकर, तुम सही मार्ग पर चल रहे हो। सबसे अहम बात यह है कि जब परमेश्वर के घर को कोई कार्य करने के लिए तुम्हारी जरूरत पड़े, जब परमेश्वर का घर तुम्हें कोई कर्तव्य सौंपे, तो तुम्हें बिना कुछ सोचे-विचारे सब कुछ त्यागकर वह कर्तव्य निभाना चाहिए जो तुम्हें निभाना है और परमेश्वर का दिया हुआ मकसद पूरा करना चाहिए। अगर इस कार्य के लिए तुम्हें दस दिन या एक महीने के लिए घर छोड़ना पड़ता है, तो तुम्हें अच्छी तरह अपना यह कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर का दिया हुआ आदेश पूरा करना चाहिए और परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करना चाहिए—सत्य का अनुसरण करने वालों के पास यही रवैया, दृढ़ संकल्प, और इच्छा होनी चाहिए। अगर इस काम के लिए तुम्हें छह महीने, एक साल या न जाने कितने वक्त के लिए दूर रहना पड़ता है, तो तुम्हें कर्तव्यनिष्ठा से अपने परिवार और अपने पति या पत्नी को त्याग देना चाहिए और जाकर परमेश्वर का दिया हुआ मकसद पूरा करना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि यही वह समय है जब परमेश्वर के घर के कार्य और तुम्हारे कर्तव्य को तुम्हारी सबसे ज्यादा जरूरत है, न कि तुम्हारी शादी या तुम्हारे साथी को। इसलिए, तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि तुम शादीशुदा हो तो तुम्हें अपनी शादी की गुलामी करनी है, या अगर तुम्हारी शादी खत्म हो जाती या टूट जाती है तो यह शर्मिंदगी की बात है। वास्तव में, यह कोई शर्मिंदगी की बात नहीं है, और तुम्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि तुम्हारी शादी किन परिस्थितियों में टूटी थी और परमेश्वर की व्यवस्था क्या थी। अगर यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित और नियंत्रित था, और इसमें इंसान का कोई हाथ नहीं था, तो यह बहुत अच्छी बात है; तुम्हारा सिर्फ एक मकसद से यानी परमेश्वर को संतुष्ट करके एक सृजित प्राणी के रूप में अपना मकसद पूरा करने के लिए अपनी शादी को त्याग देना सम्मान की बात है। परमेश्वर इसे याद रखेगा और उसे यह स्वीकार्य होगा, और इसीलिए मैं कहता हूँ कि यह बहुत अच्छी बात है, कोई शर्मिंदगी की बात नहीं! भले ही कुछ लोगों की शादियाँ इसलिए टूटती हैं क्योंकि उनका साथी उन्हें छोड़ देता है और उन्हें धोखा देता है—आम बोलचाल की भाषा में कहें, तो उन्हें लात मारकर निकाल दिया जाता है—यह कोई शर्मिंदगी की बात नहीं है। बल्कि, तुम्हें कहना चाहिए, “यह मेरे लिए सम्मान की बात है। ऐसा क्यों? क्योंकि मेरी शादी उस मुकाम तक पहुँचकर उस तरह से खत्म हुई जो परमेश्वर द्वारा निर्धारित और नियंत्रित था। परमेश्वर के मार्गदर्शन से ही मैं यह कदम उठा पाई। अगर परमेश्वर ऐसा नहीं करता और उसने मुझे लात मारकर निकाला नहीं होता, तो मेरे पास यह कदम उठाने का विश्वास और साहस नहीं होता। परमेश्वर की संप्रभुता और मार्गदर्शन का धन्यवाद! परमेश्वर की महिमा बनी रहे!” यह एक सम्मान की बात है। सभी प्रकार की शादियों में, तुम्हें ऐसा अनुभव मिल सकता है, तुम परमेश्वर के मार्गदर्शन में सही मार्ग पर चलने का फैसला कर सकती हो, परमेश्वर का दिया गया मकसद पूरा कर सकती हो और ऐसी प्रतिज्ञा और प्रेरणा के साथ ऐसे हालत में अपने साथी को छोड़कर अपनी शादी तोड़ सकती हो, और इसके लिए तुम बधाई की पात्र हो। इसमें कम से कम एक खुशी की बात तो यह है कि अब तुम अपनी शादी की गुलाम नहीं हो। तुम अपनी शादी की गुलामी से बच गई हो, और अपनी शादी की गुलामी की वजह से अब तुम्हें चिंता करने, पीड़ा सहने और संघर्ष करने की कोई जरूरत नहीं है। उसी पल से, तुम बच गई हो, तुम अब आजाद हो, और यह एक अच्छी बात है। इसी के साथ, मैं उम्मीद करता हूँ कि जिनकी शादियाँ पहले बहुत पीड़ादायक ढंग से टूटी हैं और जो अभी भी इस घटना की छाया में जी रहे हैं, वे वास्तव में अपनी शादी और उसकी यादों को भुला सकें, इस शादी ने उन्हें जो नफरत, गुस्सा और पीड़ा दी है उसे त्याग सकें; उन्हें अपने साथी की खातिर किए गए अपने सभी त्यागों और प्रयासों के बदले में बेवफाई, विश्वासघात और उपहास का सामना करना पड़ा हो, तब भी उन्हें अब मन में कोई पीड़ा या गुस्सा नहीं रखना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि तुम यह सब भुला दोगे, और इस बात की खुशी मनाओगे कि तुम अब अपनी शादी के गुलाम नहीं हो, जश्न मनाओ कि अब तुम्हें अपनी शादी में अपने मालिक के लिए कुछ भी करने या अनावश्यक त्याग करने की जरूरत नहीं है; बल्कि तुम परमेश्वर के मार्गदर्शन और संप्रभुता में जीवन के सही मार्ग पर चल रहे हो, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रहे हो, और अब तुम्हें परेशान होने या किसी बात की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। बेशक, अब तुम्हें अपने पति या पत्नी के बारे में सोचने, चिंता करने या बेचैन होने या उसकी यादों में डूबे रहने की कोई जरूरत नहीं है, अब से सब कुछ अच्छा होगा, अब तुम्हें अपने निजी मामलों के बारे में अपने पति या पत्नी से चर्चा नहीं करनी होगी, तुम्हें उससे लाचार महसूस करने की अब कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें बस सत्य खोजना है, और परमेश्वर के वचनों में सिद्धांत और आधार ढूँढना है। तुम आजाद हो चुके हो और अब अपनी शादी के गुलाम नहीं हो। यह सौभाग्य की बात है कि तुमने शादी के उस खौफनाक अनुभव को पीछे छोड़ दिया है, तुम वास्तव में परमेश्वर के समक्ष आए हो, अब अपनी शादी के कारण बाधित नहीं हो, और अब तुम्हारे पास परमेश्वर के वचन पढ़ने, सभाओं में हिस्सा लेने, और आध्यात्मिक भक्ति करने के लिए ज्यादा समय है। तुम पूरी तरह से आजाद हो, तुम्हें अब किसी और की मनोदशा के हिसाब से किसी खास तरीके से काम नहीं करना है; तुम्हें किसी के उपहासपूर्ण ताने सुनने, और किसी की मानसिक स्थिति और भावनाओं का ख्याल रखने की जरूरत नहीं है—तुम अकेले जीवन जी रहे हो, जो बढ़िया है! अब तुम गुलाम नहीं हो, तुम उस माहौल से बाहर निकल सकते हो जहाँ तुम्हें लोगों के प्रति विभिन्न जिम्मेदारियाँ निभानी थीं, अब तुम एक सच्चे सृजित प्राणी बन सकते हो, सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन एक सृजित प्राणी बन सकते हो और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सकते हो—यह सब सच्चे मन से करना कितना शानदार है! तुम्हें अपनी शादी के बारे में दोबारा कभी बहस या चिंता नहीं करनी होगी, परेशान नहीं होना होगा, और उन तकलीफों और विकट परिस्थितियों को बर्दाश्त करना या सहना नहीं होगा, पीड़ा नहीं झेलनी होगी, और दोबारा कभी अपनी शादी को लेकर नाराज नहीं होना होगा, तुम्हें फिर कभी उस घिनौने माहौल और जटिल परिस्थिति में नहीं रहना पड़ेगा। यह बहुत अच्छा है, ये सब अच्छी बातें हैं और सब अच्छा चल रहा है। जब कोई सृष्टिकर्ता के समक्ष आता है, तो वह परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता और बोलता है। सब कुछ सुचारु रूप से चलता है, अब वे बेकार के झगड़े नहीं होते और तुम्हारा दिल शांत हो जाता है। ये सब अच्छी चीजें हैं, लेकिन यह शर्म की बात है कि कुछ लोग अभी भी ऐसे घिनौने वैवाहिक माहौल में गुलाम बने रहने को तैयार हैं, और वे न तो इससे बचकर निकल पाते हैं या न ही इसे छोड़ पाते हैं। जो भी हो, मुझे अभी भी उम्मीद है कि भले ही ये लोग अपनी शादियाँ खत्म न करें और टूटी हुई शादियों की यादों को पीछे न छोड़ पाएँ, तो कम से कम उन्हें अपनी शादी की गुलामी तो नहीं करनी चाहिए। चाहे तुम्हारा जीवनसाथी कोई भी हो, चाहे उनके पास कैसी भी प्रतिभा या मानवता हो, उसका रुतबा कितना भी ऊँचा हो, वह चाहे कितना भी कुशल और काबिल हो, तब भी वह तुम्हारा मालिक नहीं है। वह तुम्हारा जीवनसाथी है, तुम्हारी बराबरी का है। वह तुमसे ज्यादा श्रेष्ठ नहीं है, और न ही तुम उससे कमतर हो। अगर वह अपनी वैवाहिक जिम्मेदारियाँ नहीं निभा पाता है, तो उसे फटकारना तुम्हारा अधिकार है, और उसे संभालना और समझाना भी तुम्हारा ही दायित्व है। सिर्फ इसलिए अपना अपमान और शोषण मत होने दो कि तुम्हें वह बहुत ताकतवर लगता है या तुम्हें इस बात का डर है कि वह तुमसे ऊब जाएगा, तुम्हें ठुकरा देगा या तुम्हें त्याग देगा, या फिर क्योंकि तुम अपने वैवाहिक रिश्ते को बनाए रखना चाहती हो, जानबूझकर खुद को उसका गुलाम और अपनी शादी का गुलाम बनाती हो—यह सही नहीं है। किसी व्यक्ति को ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, और न ही उसे शादी के ढाँचे में रहकर इस तरह की जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। परमेश्वर तुमसे किसी का गुलाम या मालिक बनने को नहीं कहता है। वह बस इतना चाहता है कि तुम अपनी जिम्मेदारियाँ निभाओ, और इसलिए तुम्हें शादी में निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों को सही से समझना चाहिए, और तुम्हें उस भूमिका को भी सही से समझना और साफ तौर पर देखना होगा जिसे तुम शादी में निभाओगी। अगर तुम जो भूमिका निभाती हो वह विकृत है और मानवता के अनुरूप नहीं है या परमेश्वर ने जो निर्धारित किया है उसके अनुरूप नहीं है, तो तुम्हें खुद की पड़ताल करनी चाहिए और इस स्थिति से बाहर निकलने के तरीके पर विचार करना चाहिए। अगर तुम अपने जीवनसाथी को फटकार लगा सकती हो, तो उसे फटकार लगाओ; अगर अपने जीवनसाथी को फटकारने से तुम्हें बुरे नतीजे भुगतने पड़ेंगे, तो तुम्हें एक समझदार और उपयुक्त फैसला करना चाहिए। जो भी हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण करके उद्धार पाना चाहती हो, तो तुम्हें अपनी शादी की गुलामी करने से संबंधित अपने विचारों या अभ्यासों को त्यागना होगा। तुम्हें अपनी शादी का गुलाम नहीं बनना है, बल्कि तुम्हें यह भूमिका त्यागकर, एक सच्चा इंसान बनना चाहिए, एक सच्चा सृजित प्राणी बनना चाहिए और अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। मेरी बात समझ रहे हो? (हाँ।)

अभी हमने इस मसले पर संगति की कि “लोगों को शादी का गुलाम नहीं बनना चाहिए,” और उन्हें शादी के बारे में अपने भ्रामक दृष्टिकोण त्यागने के लिए कहा। यानी, कुछ लोग सोचते हैं कि उन्हें अपनी शादी को बनाए रखना चाहिए और उसे टूटने या खत्म होने से बचाने के लिए हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वे कई समझौते करते हैं। अपनी शादी को बनाए रखने के लिए अपने कई सकारात्मक लक्ष्य त्याग देते हैं, और जानबूझकर अपनी शादी के गुलाम बन जाते हैं। ऐसे लोग शादी के अस्तित्व और परिभाषा को गलत ढंग से समझ बैठते हैं और शादी के प्रति उनका रवैया गलत होता है, इसलिए उन्हें ऐसे विचार और दृष्टिकोण त्याग देने चाहिए, ऐसी विकृत वैवाहिक स्थिति से दूर हो जाना चाहिए, शादी के प्रति सही नजरिया अपनाना चाहिए, और शादी में आने वाली इन समस्याओं से अच्छी तरह निपटना चाहिए—शादी के संबंध में यह तीसरी समस्या है जिससे लोगों को निजात पाना चाहिए। इसके बाद, हम शादी से जुड़ी चौथी समस्या पर संगति करेंगे : शादी तुम्हारी मंजिल नहीं है। यह भी एक समस्या है। क्योंकि हम इस समस्या पर संगति कर रहे हैं, तो यह लोगों की शादी में आज के हालात में एक प्रत्यक्ष समस्या है। यह सभी प्रकार की वैवाहिक परिस्थितियों में मौजूद है। लोग अपनी शादी के प्रति या जीवन जीने के तरीके में भी ऐसा रवैया रखते हैं, तो हम इस मसले पर संगति करके इसके बारे में सब कुछ स्पष्ट करेंगे। शादी के बाद कुछ महिलाओं को लगता है कि उन्हें आदर्श पति मिल गया है। उन्हें लगता है कि वे इस आदमी पर निर्भर रह और विश्वास कर सकती हैं, वह उनके जीवन मार्ग में एक मजबूत सहारा बन सकता है, और जब उन्हें उसकी जरूरत पड़ेगी तो वह मजबूत और भरोसेमंद साबित होगा। कुछ पुरुषों को लगता है कि उन्हें आदर्श पत्नी मिल गई है। वह सुंदर और सुशील, सौम्य और विचारशील, सच्चरित्र और समझदार है। उन्हें लगता है कि इस महिला के साथ वे एक स्थिर जीवन जी पाएँगे और उनके पास एक सुकून और स्नेह से भरा घर होगा। जब लोगों की शादी होती है, तो वे सभी अपने आपको भाग्यशाली और खुश समझते हैं। ज्यादातर लोग मानते हैं कि शादी के बाद उनका साथी उनके चुने हुए भविष्य के जीवन का प्रतीक है, और बेशक, इस जीवन में उनकी शादी ही उनकी मंजिल है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि शादी करने वाला हर व्यक्ति शादी को अपनी मंजिल मानता है, और ऐसी शादी के बाद यही शादी उनकी मंजिल होती है। “मंजिल” का क्या मतलब है? इसका मतलब है एक आधार पाना। वे अपनी संभावनाओं, अपने भविष्य और अपनी खुशियों का जिम्मा अपनी शादी और अपने जीवनसाथी को सौंप देते हैं, और इसी वजह से शादी के बाद उन्हें लगता है कि अब उन्हें किसी और चीज की चाहत या चिंता नहीं होगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सोचते हैं कि उन्हें अपनी मंजिल मिल चुकी है, और यह मंजिल उनका साथी और वह घर है जो उन्होंने उस व्यक्ति के साथ मिलकर बसाया है। चूँकि उन्हें अपनी मंजिल मिल गई है, तो उन्हें किसी और चीज का अनुसरण या आशा करने की जरूरत नहीं है। बेशक, शादी के प्रति लोगों के रवैये और दृष्टिकोण के हिसाब से यह वैवाहिक ढाँचे की स्थिरता के लिए फायदेमंद है। कम से कम, यदि किसी पुरुष या महिला के पास अपनी पत्नी या पति के रूप में विपरीत लिंग का एक निश्चित साथी होगा, तो उनका किसी और के साथ चक्कर नहीं चलेगा या कोई शारीरिक संबंध भी नहीं होगा। यह अधिकतर शादीशुदा जोड़ों के लिए फायदेमंद है। कम से कम, रिश्तों को लेकर उनके दिल शांत हो जाएँगे, वे एक ही इंसान के प्रति आकर्षित होंगे और जीवन के सामान्य परिवेश में अपनी पत्नी या पति के साथ स्थिरता से रहेंगे—यह एक अच्छी बात है। लेकिन, अगर शादी के बाद, कोई व्यक्ति शादी को ही अपनी मंजिल मान लेता है, और अपने सभी लक्ष्यों, जीवन के प्रति अपने नजरिए, अपने जीवन के मार्ग, और परमेश्वर की अपेक्षाओं को अपने खाली समय में की जाने वाली अनावश्यक चीजें मान लेता है, तो फिर बिना सोचे-विचारे अपनी शादी को ही अपनी मंजिल मान लेना अच्छी बात नहीं है, बल्कि इसके विपरीत यही चीज जीवन में उसके सही लक्ष्यों के अनुसरण, जीवन के प्रति उसके सही नजरिए और यहाँ तक कि उद्धार पाने की उसकी कोशिश के लिए एक अड़चन, रास्ते का रोड़ा और बाधा बन जाती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि शादी के बाद जब कोई अपने साथी को ही अपनी मंजिल और किस्मत मान लेता है, तो उसे लगता है कि उसके साथी की विभिन्न भावनाएँ, उसकी खुशियाँ और दुख-सुख, सब उसके अपने हैं, और उसकी अपनी खुशियाँ, दुख-सुख और विभिन्न भावनाएँ उसके साथी से जुड़ी हैं, और इस तरह उसके साथी का जीवन, मरण, खुशी और आनंद उसके अपने जीवन, मरण, खुशी और आनंद से जुड़ी है। इसलिए, इन लोगों की यह सोच कि उनकी शादी ही उनके जीवन की मंजिल है, यह उनके जीवन के मार्ग, सकारात्मक चीजों और उद्धार पाने की कोशिश को बहुत धीमा और निष्क्रिय बना देती है। अगर अपनी शादी में परमेश्वर का अनुसरण करने वाले व्यक्ति का साथी परमेश्वर का अनुसरण न करने का फैसला करता है, बल्कि सांसारिक चीज पाने के पीछे भागता है, तो परमेश्वर का अनुसरण करने वाले व्यक्ति पर इसका बहुत गंभीर प्रभाव पड़ेगा। उदाहरण के लिए, पत्नी का मानना है कि उसे परमेश्वर में विश्वास रखना और सत्य का अनुसरण करना चाहिए, और उसे अपनी नौकरी छोड़कर अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, खुद को खपाना चाहिए, और परमेश्वर के घर में खुद को समर्पित कर देना चाहिए, जबकि उसका पति सोचता है, “परमेश्वर में विश्वास रखना अच्छी बात है, लेकिन हमें जीवन भी जीना है। अगर हम दोनों ही अपना कर्तव्य निभाएँगे, तो पैसे कौन कमाएगा? घर कौन चलाएगा? हमारे परिवार का भरण-पोषण कौन करेगा?” इस दृष्टिकोण के साथ वह नौकरी करते रहने और सांसारिक चीजों के पीछे भागते रहने का फैसला करता है; वह नहीं कहता कि उसे परमेश्वर में विश्वास नहीं है, और न ही यह कहता है कि वह उसका विरोध करता है। परमेश्वर में विश्वास करने वाली पत्नी हमेशा यही सोचती है, “मेरा पति मेरी मंजिल है। वह ठीक है तो मैं ठीक हूँ। अगर उसे कुछ होता है, तो मैं भी ठीक नहीं रहूँगी। हम एक ही रस्सी पर बैठी टिड्डियों जैसे हैं। हमारा सुख-दुख एक है, और हमारा जीना-मरना साथ है। वह जहाँ जाता है मैं भी वहीं जाती हूँ। लेकिन अब हमारे बीच अपना मार्ग चुनने को लेकर मतभेद होने लगे हैं और दरारें आने लगी हैं, तो फिर सामंजस्य कैसे बिठाया जाए? मैं परमेश्वर का अनुसरण करना चाहती हूँ, मगर उसे परमेश्वर पर आस्था में कोई दिलचस्पी नहीं है। अगर वह परमेश्वर में विश्वास नहीं करेगा, तो मैं भी अपनी आस्था में आगे नहीं बढ़ पाऊँगी और मेरा परमेश्वर का अनुसरण करने का मन नहीं होगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि शुरू से ही मैंने उसे अपना आसमान, अपनी किस्मत माना है। मैं उसे नहीं छोड़ सकती। अगर वह परमेश्वर में विश्वास नहीं करता, तो मैं भी नहीं करूँगी और अगर वह परमेश्वर में विश्वास करेगा तो हम दोनों करेंगे। अगर वह परमेश्वर में विश्वास नहीं करेगा, तो मुझे ऐसा लगेगा जैसे मुझमें कुछ कमी है, मानो मेरी आत्मा छीन ली गई हो।” वह हर वक्त इस बात को लेकर बेचैन और परेशान रहती है। वह अक्सर प्रार्थना करते हुए आशा करती है कि उसका पति परमेश्वर में विश्वास करने लगे। लेकिन वह कितनी भी प्रार्थना करे, उसके पति पर कोई असर नहीं पड़ता और वह परमेश्वर में विश्वास नहीं करता। वह बेचैन हो जाती है—उसे क्या करना चाहिए? जब वह कुछ नहीं कर पाती है, तो अपना इष्टतम प्रयास करती है; जब तक उसका पति घर पर होता है, तो वह उसे परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए लेकर जाती है। उसका पति परमेश्वर के वचन पढ़ता है और जब वह उन्हें बिना रुके पढ़ती है तो वह बिना कोई विरोध किए सुनता रहता है, लेकिन वह संगति में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेता। चूँकि वे पति-पत्नी हैं तो वह उससे बहस नहीं करता है। जब उससे भजन गाना सीखने के लिए कहा जाता है, तो वह यही करता है और भजन गाना सीखता है, और सीखने के बाद यह नहीं बताता है कि उसने इसे पूरी तरह सीख लिया है या नहीं, उसे यह सब पसंद है या नहीं। जब उसे सभाओं में जाने के लिए कहा जाता है, तो कभी-कभी जब उसके पास थोड़ा खाली समय होता है, वह अपनी पत्नी के साथ सभा में जाता है, लेकिन आम तौर पर वह काम करने और पैसा कमाने में लगा रहता है। वह परमेश्वर में आस्था से जुड़ी किसी बात का जिक्र कभी नहीं करता, वह कभी किसी सभा में शामिल होने या कर्तव्य निभाने के लिए पहल नहीं करता है। संक्षेप में, वह इन सबके प्रति उदासीन रहता है। वह परमेश्वर में विश्वास का विरोध नहीं करता, लेकिन वह इसका समर्थन भी नहीं करता, और न ही वह इसके प्रति अपना रवैया जाहिर करता है। परमेश्वर में विश्वास करने वाली पत्नी यह सब दिल पर लेकर याद रखती है, और कहती है, “क्योंकि हम शादीशुदा जोड़ा हैं और हम दोनों एक परिवार हैं, तो अगर मैं राज्य में प्रवेश करती हूँ तो उसे भी करना चाहिए। अगर वह मेरी आस्था में मेरे साथ-साथ नहीं चलेगा, तो वह राज्य में प्रवेश नहीं कर पाएगा या उसे उद्धार प्राप्त नहीं होगा, और फिर मेरी भी जीने की इच्छा खत्म हो जाएगी और मैं मरना पसंद करूँगी।” भले ही वह अभी मरी नहीं है, लेकिन उसका दिल इस बात से चिंतित, दुखी और पीड़ित महसूस करता है, वह सोचती है, “अगर किसी दिन आपदाएँ आती हैं और उन आपदाओं में उसकी मौत हो जाती है, तो मेरा क्या होगा? इतनी बड़ी महामारी फैली है। अगर वह इसकी चपेट में आ गया, तो मैं जी नहीं पाऊँगी। वो यह नहीं कहता कि उसे परमेश्वर में मेरे विश्वास से कोई आपत्ति है, लेकिन अगर किसी दिन वाकई उसने ऐसा कह दिया कि वह नहीं चाहता मैं परमेश्वर में विश्वास करूँ, तो मैं क्या करूँगी?” उसे चिंता है कि जब वैसा समय आएगा, तो वह अपने पति की सुनेगी और परमेश्वर में विश्वास न करने का फैसला करके परमेश्वर को धोखा देगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसके दिल में, उसका पति ही उसकी आत्मा है, वही उसका जीवन है, और इससे भी बढ़कर, वही उसका आसमान और उसका सब कुछ है। उसके दिल में बसा उसका पति उससे सबसे अधिक प्यार करता है, और वह भी अपने पति से सबसे अधिक प्यार करती है। लेकिन अब वह उलझन में पड़ गई है : अगर उसका पति परमेश्वर में उसके विश्वास का विरोध करता है और उसकी प्रार्थनाओं का कोई फायदा नहीं होता, तब क्या होगा? वह इस बारे में बहुत चिंता करती है। जब उसे घर से दूर जाकर अपना कर्तव्य निभाना होता है, तो भले ही वह भी परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना चाहती है, मगर जब उसे पता चलता है कि अपना कर्तव्य निभाने के लिए उसे घर छोड़कर कहीं दूर जाना पड़ेगा, और उसे लंबे समय तक दूर रहना पड़ सकता है, तो उसे बहुत पीड़ा होती है। ऐसा क्यों? क्योंकि उसे चिंता है कि अगर वह घर छोड़ देगी तो उसके पति का ख्याल रखने वाला कोई नहीं होगा, उसे अपने पति की याद आएगी और उसकी चिंता सताती रहेगी। उसे उसकी परवाह होगी और वह उसके लिए तड़पेगी और उसे महसूस होगा कि वह उसके बिना नहीं जी सकती, वह अपने जीवन की दिशा और उम्मीद खो बैठेगी, और वह पूरे दिल से अपना कर्तव्य भी नहीं निभा पाएगी। अब, इस बारे में सोचते ही उसका दिल पीड़ा से भर जाता है कि कहीं ऐसा वाकई न हो जाए। इसलिए कलीसिया में, वह कभी किसी और जगह पर जाकर कर्तव्य निभाने के बारे में पूछने की हिम्मत नहीं करती है, या अगर कोई ऐसा काम आता है जिसमें किसी को लंबे समय के लिए दूर जाना पड़े और रात को घर से दूर सोना पड़े, तो वह कभी इस काम के लिए अपने कदम बढ़ाने या ऐसे किसी अनुरोध पर अपनी सहमति देने की हिम्मत नहीं कर पाती है। उससे जो बन पाता है वह करती है, अपने भाई-बहनों के लिए पत्र भेजती है, या कभी-कभी उनके लिए अपने घर पर सभाएँ आयोजित करती है, मगर कभी भी पूरे दिन अपने पति से दूर रहने की हिम्मत नहीं करती। अगर वास्तव में कोई विशेष परिस्थिति आती है और उसके पति को कारोबार के लिए दूसरी जगह जाना पड़ता है या वह कुछ दिनों के लिए बाहर रहता है, तो पति के घर छोड़ने से पहले दो-तीन दिन तक घर पर बैठी रोती रहती है, इतना अधिक रोती है कि उसकी आँखें टमाटर की तरह सूज जाती हैं। वह क्यों रोती है? उसे चिंता है कि कहीं विमान दुर्घटना में उसके पति की मौत न हो जाए और कहीं उसकी लाश तक का पता न चले, तो वह क्या करेगी? वह कैसे जिएगी और कैसे दिन गुजारेगी? उसका आसमान मिट चुका होगा, ऐसा लगेगा जैसे उसका दिल लुट चुका है। इस बारे में सोचते ही उसकी रूह काँप जाती है, और इसलिए इस बारे में सोच-सोचकर रोती रहती है। उसका पति अभी तक गया भी नहीं है और वह पहले ही दो-तीन दिनों से रोती जा रही है, और उसके वापस आने तक रोती रहती है, इतना अधिक रोती है कि उसका पति झल्लाकर कहता है, “क्या मुसीबत है? मैं अभी तक मरा भी नहीं और यह रोती जा रही है। मुझे मरने का शाप दे रही है क्या?” उसके हाथ में कुछ भी नहीं है, मगर वह बस रोती रहती है, कहती है, “मैं नहीं चाहती कि तुम कहीं दूर जाओ, मैं तुम्हें अपनी आँखों से ओझल नहीं होने देना चाहती।” वह अपनी किस्मत और मंजिल अपने पति के लिए दाँव पर लगा देती है जिसके साथ उसने शादी की है, और चीजों को करने का यह तरीका बेवकूफी हो या बचकाना, हर जगह ऐसे लोग होते हैं। ऐसी महिलाओं की संख्या ज्यादा है या पुरुषों की? (महिलाओं की।) ऐसा लगता है कि ऐसी महिलाओं की संख्या ज्यादा है, महिलाएँ थोड़ी कमजोर पड़ सकती हैं। पुरुषों और महिलाओं में से चाहे कोई भी किसी को छोड़े, क्या वे अभी भी जी सकते हैं? (क्यों नहीं।) कौन किसे छोड़ता है, क्या यह फैसला तुम्हारे हाथों में है? क्या तुम इसे तय कर सकते हो? (नहीं।) नहीं, तुम यह तय नहीं कर सकते, इसलिए तुम बेतुकी कल्पनाओं में डूबे रहते हो, रोते हो, और परेशान, दुखी और पीड़ित महसूस करते हो—क्या इन सब का कोई मतलब है? (नहीं।) इन लोगों को लगता है कि अपने साथी को देख पाने, उनका हाथ थामने और उनके साथ रहने का मतलब है कि उनके पास जीवन भर का सहारा है, जो उन्हें शांत रखेगा और दिलासा देगा। उन्हें लगता है कि उन्हें खाने या कपड़ों के बारे में सोचना नहीं होगा, कोई चिंता नहीं करनी पड़ेगी और उनका साथी ही उनकी मंजिल है। अविश्वासियों से जुड़ी एक कहावत है, “जीवन में तेरा साथ है तो मुझे और क्या चाहिए।” ये लोग अपनी शादी और अपने जीवनसाथी के बारे में दिल की गहराइयों से ऐसा ही महसूस करते हैं; जब उनका साथी खुश होता है तो वे खुश होते हैं, उनका साथी बेचैन होता है तो वे बेचैन होते हैं, और जब उनका साथी तकलीफ उठाता है तो वे भी तकलीफ महसूस करते हैं। अगर उनके साथी की मौत हो जाती है, तो वे भी और जीना नहीं चाहते। और अगर उनका साथी उन्हें छोड़कर किसी से प्यार करने लगे, तब वे क्या करते हैं? (वे जीना नहीं चाहते।) कुछ लोग जीना नहीं चाहते तो वे आत्महत्या कर लेते हैं, और कुछ अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं। बताओ, यह सब क्या है? कैसा व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है? मानसिक संतुलन खो बैठना यह दर्शाता है कि उसे खुद पर काबू नहीं है। कुछ महिलाएँ अपने पति को अपने जीवन की मंजिल मानती हैं, और जब उन्हें ऐसा व्यक्ति मिल जाएगा, तो वे कभी किसी और से प्यार नहीं करेंगी—यह “जीवन में उसका साथ है तो मुझे और क्या चाहिए” वाली समस्या है। लेकिन उसका पति उसे निराश करता है, किसी और के प्यार में पड़ जाता है और अब उसे नहीं चाहता है। तो अंत में क्या होता है? फिर वह सभी पुरुषों से बेहद नफरत करने लगती है। जब उसके सामने कोई दूसरा आदमी आता है तो वह उस पर थूकना चाहती है, उसे गालियाँ देना और पीटना चाहती है। वह हिंसक बन जाती है, और अपना विवेक खो देती है। कुछ महिलाएँ ऐसी भी हैं जो वाकई पागल हो जाती हैं। जो लोग शादी को सही ढंग से नहीं समझते हैं तो उनका यही नतीजा होता है।

ये लोग शादी को अपनी खुशी की कामयाब तलाश का प्रतीक, अपने जीवन की मंजिल और वह लक्ष्य मानते हैं जिसके सपने वे काफी समय से देखते आए हैं और वह अब जाकर पूरा हुआ है। शादी उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य है, और शादी को लेकर उनका लक्ष्य बस अपने साथी के साथ जीवन बिताना, साथ-साथ बूढ़ा होना और जीना-मरना होता है। उनकी शादी ही उनकी मंजिल है, इस सोच और विचार को सही ठहराने के लिए वे शादीशुदा जीवन में कई ऐसी चीजें करते हैं जो तार्किकता और व्यक्ति की जिम्मेदारियों के दायरे से परे होती हैं। ये चीजें जो व्यक्ति की जिम्मेदारियों के दायरे से परे हैं उनमें अतिवादी चीजें शामिल होती हैं, जिससे वे अपनी ईमानदारी, अपनी गरिमा और अपने लक्ष्य खो बैठते हैं। उदाहरण के लिए, वे अक्सर इस बात पर नजर रखते हैं कि आज उनका साथी किसके साथ था, वह बाहर जाकर क्या करता है, क्या वह किसी और पुरुष या महिला के संपर्क में आया, और क्या उसने किसी और पुरुष या महिला से बातचीत की या दोस्ताना संबंध बनाए जो दोस्ती के दायरे से कहीं आगे हों। कुछ लोग अपने प्रति अपने साथी के रवैये को भाँपने और छानबीन करने में बहुत समय देते हैं ताकि पता चल सके कि क्या वे अपने साथी के मन में बसते हैं और क्या उनका साथी अब भी उनसे प्यार करता है। कुछ ऐसी महिलाएँ भी हैं जो अपने पति के घर आने पर उनके कपड़े सूँघती हैं, देखती हैं कि कहीं उन पर किसी दूसरी महिला के बाल तो नहीं उलझे हैं, कहीं उनकी कमीज पर किसी और महिला की लिप्स्टिक के निशान तो नहीं हैं। वे अपने पतियों के फोन भी जाँचती हैं कि कहीं उनमें किसी अनजान महिला का नंबर तो नहीं है, वे तो यह भी देखती हैं कि उनके पतियों के पास कितने फोन हैं, वे किससे जुड़े हुए हैं, और हर दिन जब किसी को फोन करते हैं तो वे क्या सच कहते हैं। उदाहरण के लिए, एक महिला अपने पति को फोन करके पूछती है, “तुम कहाँ हो? क्या कर रहे हो?” उसका पति जवाब देता है, “मैं काम पर हूँ, कागजात की जाँच कर रहा हूँ।” फिर वह कहती है, “जो कागजात देख रहे हो उनकी एक फोटो लेकर मुझे भेजो।” उसका पति उसकी बात मानता है, और फिर वह पूछती है, “तुम्हारे साथ दफ्तर में और कौन है?” वह जवाब देता है, “सिर्फ मैं ही हूँ।” वह कहती है, “क्या तुम मुझे वीडियो कॉल कर सकते हो, मुझे देखना है कि तुम्हारे साथ दफ्तर में और कौन है?” वह उसे वीडियो कॉल करता है और उसकी पत्नी को कोई महिला वहाँ से जाती हुई दिखती है, तो वह कहती है “तुम झूठ बोल रहे हो, वो महिला कौन है?” वह कहता है, “वो तो सफाई वाली है।” फिर वह कहती है, “अच्छा, ठीक है।” इसके बाद जाकर उसे राहत मिलती है। ऐसी महिलाएँ अपने पतियों के फोन, उनके पते-ठिकाने जाँचती हैं और यह भी कि वे दिन भर क्या करते रहते हैं। उन्हें अपनी शादी से बहुत सारी उम्मीदें होती हैं और उनके मन में काफी असुरक्षा की भावना भी होती है। बेशक, उनमें अपने जीवनसाथी पर काबू रखने की भी तीव्र इच्छा होती है। क्योंकि उन्हें यकीन है कि उनका जीवनसाथी ही उनकी मंजिल है और उन्हें जीवन भर अपने जीवनसाथी के साथ ही रहना चाहिए, इसी वजह से वे अपनी शादी में कोई चूक नहीं होने देती हैं या कोई दरार नहीं आने देती हैं; छोटी-मोटी खामियाँ या परेशानियाँ भी नहीं आने देती हैं—वे ऐसा होने नहीं दे सकतीं। इसलिए, वे अपनी ज्यादातर ऊर्जा अपने जीवनसाथी पर नजर रखने, उसके मन के विचार जानने, उसकी गतिविधियों और ठौर-ठिकानों के बारे में पूछताछ करने और उन्हें काबू करने में लगाती हैं। खासकर जब उनके जीवनसाथी का किसी से कोई प्रेम संबंध हो, तो वे यह बर्दाश्त नहीं करती हैं। वे तमाशा खड़ा कर देती हैं, इधर-उधर भटकती हैं, रोती हैं, परेशानी खड़ी करती हैं, और खुदखुशी करने की धमकी भी देती हैं। कुछ तो अपनी परेशानियों को सभाओं में लेकर जाती हैं और भाई-बहनों के साथ रणनीतियों पर चर्चा कर कहती हैं “वह मेरा पहला प्यार है, मैं उससे बेहद प्यार करती हूँ। मैंने अपने जीवन में कभी किसी और आदमी का हाथ तक नहीं पकड़ा है या किसी और को छुआ भी नहीं है। वही मेरा अकेला आदमी है, वही मेरा आसमान है, और यह जीवन मैं उसी के साथ बिताऊँगी। अगर वह किसी और के साथ भाग गया तो यह बात मेरे गले नहीं उतर सकती।” कोई उससे कहता है, “गले नहीं उतरने का क्या मतलब है? जो हो चुका है क्या तुम उसे बदल सकती हो? दूसरों को तुम्हारे पति की यह प्रवृत्ति बहुत पहले ही दिख गई थी।” वह जवाब देती है, “चाहे पहले से उसकी यह प्रवृत्ति थी या नहीं, मगर जो हुआ उसे मैं स्वीकार नहीं सकती। अब उसे सजा देने और उसकी रखैल को मेरी जगह लेने से रोकने का उपाय सुझाने में कौन मेरी मदद करेगा?” देखा तुमने, वह इतनी परेशान है कि अपनी समस्याओं का जिक्र सभा में करके उन पर संगति करना चाहती है। क्या यह संगति है? यह अनुचित टिप्पणियाँ करना, नकारात्मक संदेश देना और नकारात्मक जानकारी फैलाना है। यह तुम्हारा अपना मामला है, और चाहे तुम घर जाकर दरवाजा बंद करके उसे मारो-पीटो और बहस करो, यह सब तुम्हारा अपना मामला है, मगर तुम्हें अपनी समस्याओं का जिक्र सभाओं में नहीं करना चाहिए। अगर तुम सभा में आकर सत्य खोजना चाहती हो, तो तुम कह सकती हो, “मेरे साथ ऐसा हुआ है, तो मैं इस स्थिति से कैसे बाहर निकलूँ और उसके आगे बेबस न होने के लिए क्या करूँ? मैं परमेश्वर में अपनी आस्था और अपने कर्तव्य निर्वहन को इस मसले से प्रभावित होने से कैसे रोक सकती हूँ?” तुम्हारा सत्य की तलाश करना तो ठीक है, लेकिन तुम्हें सभा में जाकर अपने घरेलू विवादों के बारे में बातें नहीं करनी चाहिए। तुम्हें ऐसा क्यों नहीं करना चाहिए? क्योंकि शादी के बारे में गलत समझ होने के कारण ही तुम इस समस्या का सामना कर रही हो और आज खुद को अपने जीवन की मौजूदा परिस्थितियों में घिरा पाती हो। फिर तुम इन विवादों और उनके नतीजों का जिक्र भाई-बहनों के सामने करके उन पर संगति करना चाहती हो; इससे न सिर्फ दूसरों पर बुरा प्रभाव पड़ता है, बल्कि तुम्हें भी कोई फायदा नहीं होता। तुम अपने विवादों के बारे में बात करती हो, मगर ज्यादातर लोग सत्य नहीं समझते और उनके पास कोई आध्यात्मिक कद नहीं है, तो फिर वे सिर्फ नई तरकीबें लगाने और विवादों पर चर्चा करने के अलावा तुम्हारी कोई और मदद नहीं कर पाते हैं। वे न केवल सकारात्मक प्रवेश पाने में तुम्हारी मदद नहीं कर पाते हैं, बल्कि इसके विपरीत वे चीजों को बदतर बनाकर समस्या को अधिक गंभीर और जटिल बना देते हैं। ज्यादातर लोग भ्रमित होते हैं और वे सत्य या परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते हैं—क्या ऐसे लोग तुम्हें लाभकारी और मूल्यवान सलाह दे सकेंगे? कोई कहता है, “कानून की नजरों में तुम हमेशा उसकी पत्नी रहोगी। बुराई कभी भी न्याय पर विजय नहीं पा सकती।” क्या यह सच है? (नहीं।) कोई और कहता है, “उसकी रखैल के लिए रास्ता ही मत छोड़ो, फिर देखना वह तुम्हारी जगह कैसे लेती है!” क्या यह सच है? (नहीं।) लोगों की ऐसी बातें सुनकर क्या तुम्हें खुशी मिलती है, या इनसे तुम्हें गुस्सा आता है? क्या वे ऐसी चीजें तुम्हें और गुस्सा दिलाने के लिए कहते हैं या फिर इसलिए कि तुम सत्य समझो और अभ्यास का मार्ग अपनाओ? कोई और कहता है, “मैं अच्छी तरह समझता हूँ। आजकल अच्छे आदमियों की कमी है। पैसे वाला आदमी बिगड़ जाता है।” क्या यह सच है? (नहीं।) और फिर कोई कहता है, “तुम्हें इसे बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। तुम्हें उस रखैल को दिखाना होगा कि वह तुम्हें इतनी आसानी से नहीं हटा सकती। उसे दिखाओ कि बॉस कौन है। वह जहाँ काम करती है वहाँ जाकर सबको उसकी असलियत बता दो, बखेड़ा खड़ा कर दो और कहो कि वह तुम्हारे पति की रखैल है। उसकी कानूनी पत्नी तुम हो और सब तुम्हारा ही साथ देंगे, उसका नहीं। उसे अपना रास्ता नापने को मजबूर कर दो।” क्या यह सत्य है? (नहीं।) क्या ये बातें ज्यादातर लोगों की भ्रामक समझ नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) कोई और थोड़े संकोच के साथ कहता है, “वह जीवन भर तुम्हारे साथ रहा है, तुम अब तक उससे ऊब नहीं गई हो? अगर वह किसी और के साथ रहना चाहता है तो रहने दो। जब तक वह पैसे कमाकर घर लाता है और तुम्हारे पास खाने-पीने की चीजें मौजूद हैं, तो क्या यह काफी नहीं है? तुम्हें खुश रहना चाहिए, और फिर वह तुम्हें हमेशा परेशान नहीं करेगा। अगर वह अक्सर घर आता रहता है और इसे अपना घर मानता है, तो क्या इतना काफी नहीं है? तुम्हें किस बात का गुस्सा है? तुम असल में इसका फायदा उठा रही हो।” यह सुनने में भले ही अच्छा लगता हो, लेकिन क्या यह सच है? (नहीं।) क्या कोई सभ्य व्यक्ति ऐसी बातें कहेगा? (नहीं।) अगर यह सब क्लेश पैदा करने या टकराव बढ़ाने के लिए नहीं है, तो यह चीजों को शांत करने और सिद्धांतों से हटकर समझौता करने के लिए है। क्या यहाँ एक भी शब्द ऐसा है जो यह दर्शाता हो कि पत्नी को इस मामले के प्रति कैसा रवैया अपनाना चाहिए, वह रवैया जो सही हो और सत्य के अनुरूप भी हो? (नहीं।) क्या अधिकतर लोग इस तरह की बातें नहीं कहते? (बिल्कुल कहते हैं।) इससे क्या साबित होता है? (ज्यादातर लोग बहुत भ्रमित हैं और उनके सुझाव मददगार नहीं होते हैं।) ज्यादातर लोग बहुत भ्रमित हैं, वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, न ही वे सत्य समझते हैं। जो भी हो, वे नहीं समझते कि सत्य क्या है, और न ही वे यह समझते हैं कि मनुष्य से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं। साफ तौर पर कहें, तो जहाँ तक शादी का सवाल है, लोगों को यह समझ ही नहीं आता कि शादी के बारे में परमेश्वर के वचनों और परिभाषा के संदर्भ में, उन्हें शादी में आने वाली समस्याओं को परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कैसे हल करना चाहिए और कैसे गुस्से से काम नहीं लेना चाहिए।

चाहे तुम किसी भी समस्या का सामना करो, वह कोई बड़ी समस्या हो या छोटी, तुम्हें हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपना आधार और सत्य को अपनी कसौटी मानकर ही उससे निपटना चाहिए। तो फिर, शादी में सामने आने वाली इन समस्याओं के संबंध में परमेश्वर के वचनों का आधार क्या है? सत्य की कसौटी क्या है? तुम्हारा जीवनसाथी तुम्हारी शादी के प्रति वफादार नहीं है, तो यह उसकी समस्या है। लेकिन तुम उसकी समस्या का असर शादी के बारे में अपने सही रवैये और जिम्मेदारी की भावना पर पड़ने नहीं दे सकती। अपराधी वह है, पर तुम उसके अपराधों के कारण शादी के प्रति तुम्हारा जो रवैया होना चाहिए उसे प्रभावित नहीं होने दे सकती। तुम उसे अपनी मंजिल मानती हो, लेकिन यह सिर्फ तुम्हारी सोच है, असलियत यह नहीं है। परमेश्वर को कभी ऐसी अपेक्षा नहीं थी या उसने ऐसा निर्धारित नहीं किया था। दरअसल तुम ही स्नेह में आकर, मानवीय इच्छा के कारण, और अधिक सटीक रूप से कहें, तो इंसानी गुस्से के कारण उसे अपनी मंजिल, अपना जीवनसाथी मानने पर जोर देती हो। ऐसा मानने पर जोर देना गलत है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम पहले क्या मानती थीं, हर हाल में तुम्हें अब अपनी सोच बदलनी होगी और यह देखना होगा कि परमेश्वर लोगों से कौन-सी सही सोच और रवैया अपनाने को कहता है। जब तुम्हारा साथी तुमसे बेवफाई करे, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें झगड़ा करके मुसीबत मोल नहीं लेनी चाहिए, न ही बखेड़ा खड़ा करके जमीन पर लोटना चाहिए। तुम्हें समझना चाहिए कि ऐसा होने से आसमान नहीं टूट पड़ता, न ही अपनी मंजिल पाने का तुम्हारा सपना टूटता है, और बेशक इसका मतलब यह भी नहीं है कि अब तुम्हारी शादी खत्म हो जाएगी और टूट जाएगी, और इसका यह मतलब तो बिल्कुल नहीं है कि तुम्हारी शादी विफल हो गई या अब इसका कोई हल ही नहीं निकल सकता। दरअसल, सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं, और चूँकि लोग दुष्ट प्रवृत्तियों और संसार के आम तौर-तरीकों से प्रभावित होते हैं और उनमें खुद को इन दुष्ट प्रवृत्तियों से बचाए रखने की क्षमता भी नहीं है, तो लोग गलतियाँ करने से नहीं बच पाते हैं, बेवफाई करते हैं, अपनी शादी से भटक जाते हैं, और अपने जीवनसाथी को निराश करते हैं। अगर तुम इस परिप्रेक्ष्य से इस समस्या पर गौर करो, तो यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं है। सभी शादीशुदा लोगों के परिवार संसार के आम परिवेश और समाज की दुष्ट प्रवृत्तियों और आम तौर-तरीकों से प्रभावित होते हैं। एक व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से देखें, तो लोगों में यौन इच्छाएँ होती हैं, और इसके अलावा वे फिल्मों और टेलीविजन नाटकों में दिखने वाले पुरुषों और महिलाओं के प्रेम संबंधों और समाज में मौजूद पोर्नोग्राफी जैसी चीजों से प्रभावित होते हैं। लोगों के लिए उन सिद्धांतों का पालन करना मुश्किल हो जाता है जिनका पालन उन्हें करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, लोगों के लिए नैतिक आधार बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। यौन इच्छा की सीमाएँ आसानी से टूट जाती हैं; यौन इच्छा अपने आप में भ्रष्ट चीज नहीं है, पर लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं, और क्योंकि लोग ऐसे सामान्य परिवेश में रहते हैं, तो जब महिला-पुरुष संबंधों की बात आती है तो वे आसानी से गलतियाँ कर बैठते हैं, और तुम्हें यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए। भ्रष्ट स्वभाव वाला कोई भी व्यक्ति ऐसे सामान्य परिवेश में लालच या प्रलोभन मिलने पर अडिग नहीं रह पाता है। मनुष्य की यौन इच्छा कभी भी और कहीं भी उमड़ सकती है, और लोग कभी भी और कहीं भी बेवफाई कर सकते हैं। ऐसा इसलिए नहीं कि यौन इच्छा में ही कोई समस्या है, बल्कि इसलिए कि लोगों में ही कुछ गड़बड़ है। लोग अपनी यौन इच्छाओं के नाम पर ऐसी चीजें करते हैं जिससे वे अपनी नैतिकता, सदाचार और ईमानदारी खो देते हैं; जैसे कि बेवफाई करना, प्रेम संबंध बनाना, और रखैल रखना वगैरह। इसलिए परमेश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति होने के नाते अगर तुम इन चीजों पर सही ढंग से विचार कर सकते हो, तो तुम्हें इनसे विवेकशील ढंग से निपटना चाहिए। तुम एक भ्रष्ट मनुष्य हो और वह भी एक भ्रष्ट मनुष्य है, इसलिए तुम्हें सिर्फ इस कारण उससे अपने जैसा बनने और वफादार रहने को नहीं कहना चाहिए कि तुम अपनी शादी के प्रति वफादार हो, तुम्हें उससे कभी बेवफाई न करने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। ऐसा कुछ होने पर तुम्हें सही तरीके से इसका सामना करना चाहिए। ऐसा क्यों? हर किसी को ऐसे माहौल या लालच का सामना करने का मौका मिलता है। तुम अपने जीवनसाथी पर बाज की तरह नजर रख सकती हो पर इससे कुछ होगा नहीं, और तुम जितने करीब से उस पर नजर रखोगी, उतनी ही जल्दी और तेजी से ऐसी घटना घटेगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि सभी भ्रष्ट स्वभाव के हैं, हर कोई दुष्ट समाज के इस सामान्य परिवेश में रहता है, और बहुत कम लोग ही हैं जो व्यभिचारी नहीं होते। केवल अपनी स्थिति या हालात से ही वे ऐसा होने से बचे हुए हैं। ऐसी बहुत कम ही चीजें हैं जिनमें इंसान जानवरों से बेहतर है। कम से कम, एक जानवर स्वाभाविक रूप से अपनी यौन प्रवृत्ति पर प्रतिक्रिया करता है, लेकिन इंसान ऐसा नहीं करते हैं। मनुष्य सोच-समझकर व्यभिचार और अनाचार में लिप्त हो सकते हैं—केवल लोग ही व्यभिचार में लिप्त हो सकते हैं। इसलिए इस दुष्ट समाज के आम परिवेश में न केवल अविश्वासी बल्कि लगभग सभी लोग ऐसी चीजें करने में सक्षम हैं। यह एक निर्विवाद तथ्य है, और कोई इस समस्या से नहीं बच सकता। चूँकि ऐसी चीज किसी के साथ भी हो सकती है, तो फिर तुम अपने पति के साथ ऐसा होने क्यों नहीं देती? वास्तव में ऐसा होना बहुत आम बात है। क्योंकि तुम उसके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई हो, इसलिए जब वह तुम्हें छोड़कर चला जाता है, तो तुम इस झटके से उबर नहीं पाती और यह सब बर्दाश्त नहीं कर पाती हो। अगर ऐसा किसी और के साथ हुआ होता, तो तुम बस व्यंग्यपूर्ण ढंग से मुस्कुराते हुए सोचती, “यह तो आम बात है। क्या समाज में सभी लोग ऐसे ही नहीं हैं?” वो कहावत है न? केक के बारे में? (वे दोहरा फायदा उठाना उठाना चाहते हैं, अपना केक खाना भी चाहते हैं और इसे पूरा बचाना भी चाहते हैं।) ये सब संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों से जुड़े लोकप्रिय शब्द और बातें हैं। यह एक आदमी के लिए सराहनीय बात है। अगर किसी आदमी के पास केक नहीं है और वह कोई केक खा भी नहीं पाता है, तो इससे पता चलता है कि उस आदमी में कोई क्षमता नहीं है और लोग उस पर हँसेंगे। इसलिए, जब किसी महिला के साथ कुछ ऐसा होता है, तो वह बखेड़ा खड़ा कर सकती है, जमीन पर लोट सकती है, गुस्सा उतार सकती है, रो-रोकर मुसीबत खड़ी कर सकती है, और यह सब होने के कारण खाना-पीना छोड़ सकती है, उसमें मर जाने, खुद को फाँसी लगाने और खुदकुशी करने की इच्छा हो सकती है। कुछ महिलाएँ गुस्से में अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठती हैं। यह साफ तौर पर शादी के प्रति उसके रवैये से संबंधित है, और बेशक इसका सीधा संबंध उसके इस विचार से भी है कि “उसका जीवनसाथी ही उसकी मंजिल है।” महिला मानती है कि शादी तोड़कर उसके पति ने उसके जीवन की मंजिल की जिम्मेदारी और बेहतरीन महत्वाकांक्षा को नष्ट कर दिया है। क्योंकि पहले उसके पति ने ही उनकी शादी के संतुलन को बिगाड़ा, उसने ही पहले नियम तोड़े, उसका साथ छोड़ा, शादी की कसमें तोड़ीं और उसके सुंदर सपने को बुरा सपना बना दिया, इसलिए वह खुद को इस तरह से व्यक्त कर ऐसा अतिवादी व्यवहार कर रही है। अगर लोग शादी के बारे में परमेश्वर से मिली सही समझ को अपनाएँगे, तो वे कुछ हद तक विवेकशील व्यवहार कर पाएँगे। जब सामान्य लोगों के साथ ऐसी चीजें होती हैं, तो वे दुखी होते हैं, रोते हैं, और उन्हें पीड़ा होती है। लेकिन जब वे शांत होकर परमेश्वर के वचनों पर विचार करेंगे, तो समाज के सामान्य परिवेश के बारे में सोचेंगे, और फिर उस वास्तविक स्थिति के बारे में सोचेंगे कि सभी भ्रष्ट स्वभाव के हैं, तो वे इस मामले से विवेकशील ढंग से और सही तरीके से निपटेंगे, और वे हड्डी पर चिपके कुत्ते की तरह इस पर अड़े रहने के बजाय इसे भुला देंगे। “भुला देंगे” से मेरा क्या मतलब है? मेरे कहने का मतलब है कि क्योंकि तुम्हारे पति ने तुम्हारे साथ ऐसा किया है और तुम्हारी शादी के प्रति बेवफाई की है, तो तुम्हें इस तथ्य को स्वीकार लेना चाहिए और उसके साथ बैठकर बात करनी चाहिए, उससे पूछना चाहिए, “तुम क्या चाहते हो? अब हम क्या करेंगे? हमें अपनी शादी बनाए रखनी चाहिए या इसे तोड़कर अपने-अपने रास्ते चलना चाहिए?” बस बैठकर उससे बात करो; लड़ने या मुसीबत खड़ी करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम्हारा पति शादी तोड़ने को कहता है, तो कोई बड़ी बात नहीं है। अविश्वासी अक्सर कहते हैं, “समुद्र में बहुत सारी मछलियाँ हैं,” “आदमी बसों की तरह होते हैं—जल्द ही कोई और आ जाएगा,” और वह दूसरी कहावत भी है न? “एक पेड़ के चक्कर में पूरा जंगल मत गँवाओ।” और यह पेड़ सिर्फ भद्दा ही नहीं है बल्कि अंदर से सड़ा हुआ भी है। क्या ये कहावतें सही हैं? अविश्वासी इन कहावतों से खुद को दिलासा देते हैं, लेकिन क्या इनका सत्य से कोई लेना-देना है? (नहीं।) तो सही सोच और दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? जब तुम्हारे साथ ऐसा कुछ हो, तो सबसे पहले तुम्हें गुस्सा नहीं होना चाहिए, तुम्हें अपने गुस्से पर काबू कर कहना चाहिए, “आओ, शांति से बैठकर बात करते हैं। तुम क्या करने की सोच रहे हो?” वह कहता है, “मैं इस शादी को बनाए रखने की कोशिश करना चाहता हूँ।” और फिर तुम कहती हो, “अगर ऐसा है तो कोशिश जारी रखते हैं। अब और प्रेम संबंध मत बनाना, एक पति की जिम्मेदारियाँ निभाना, और हम बीती बात भूलकर एक नई शुरुआत कर सकते हैं। लेकिन अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो हम अलग हो जाएँगे और अपने-अपने रास्ते चले जाएँगे। शायद परमेश्वर ने निर्धारित किया हो कि हमारी शादी यहीं खत्म हो जानी चाहिए। अगर ऐसा है, तो मैं उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण के लिए तैयार हूँ। तुम चौड़े रास्ते पर चल सकते हो, मैं परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलूँगी, और फिर हम एक दूसरे को प्रभावित नहीं करेंगे। मैं तुम्हारे मामलों में टाँग नहीं अड़ाऊँगी, और तुम भी मुझे बेबस नहीं करोगे। मेरी किस्मत तुम्हारे हाथों में नहीं है और तुम मेरी मंजिल नहीं हो। मेरी किस्मत और मेरी मंजिल परमेश्वर के हाथों में है। इस जीवन में कौन-सा पड़ाव मेरा आखिरी पड़ाव होगा, और वही मेरी मंजिल होगी—यह मुझे परमेश्वर से पूछना चाहिए, वह सब जानता है, वह संप्रभुता रखता है, और मैं उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहती हूँ। जो भी हो, अगर तुम मेरे साथ इस शादी को नहीं बनाए रखना चाहते हो, तो हम शांति से अलग हो जाएँगे। भले ही मेरे पास कोई विशेष कौशल नहीं है और यह परिवार आर्थिक रूप से तुम्हारे ऊपर निर्भर है, फिर भी मैं तुम्हारे बिना जी सकती हूँ, और मैं अच्छे से रहूँगी। परमेश्वर एक गौरैया को भी भूखा नहीं रहने देता, तो वह मेरे लिए, एक जीवित इंसान के लिए कितना कुछ करेगा। मेरे हाथ-पैर हैं, मैं अपना ध्यान खुद रख सकती हूँ। तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर परमेश्वर ने यह निर्धारित किया है कि मैं तुम्हारे साथ के बिना जीवन भर अकेली रहूँगी, तो मैं समर्पण करने को तैयार हूँ, और इस तथ्य को बिना किसी शिकायत के स्वीकारना चाहती हूँ।” क्या ऐसा करना अच्छी बात नहीं है? (बिल्कुल है।) अच्छी बात है, है न? बहस और झगड़ा करने की कोई जरूरत नहीं, और इस बात को लेकर निरंतर मुसीबत खड़ी करने की जरूरत तो बिल्कुल नहीं है, ताकि सबको इसका पता चल जाए—इन सबकी कोई जरूरत नहीं। शादी किसी और का नहीं, बल्कि तुम्हारा और तुम्हारे पति का निजी मामला है। अगर शादी में कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो तुम दोनों को साथ मिलकर इसे सुलझाना होगा, और इसके नतीजे भुगतने होंगे। परमेश्वर के विश्वासी होने के नाते, तुम्हें नतीजे की परवाह किए बिना परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। बेशक, जब शादी की बात आती है, तो चाहे कैसी भी दरारें आएँ या नतीजे कैसे भी हों, तुम्हारी शादी बनी रहे या नहीं, तुम अपनी शादी में एक नए जीवन की शुरुआत कर पाते हो या नहीं, या तुम्हारी शादी उसी मुकाम पर टूट जाए, तुम्हारी शादी तुम्हारी मंजिल नहीं है, और न ही तुम्हारा जीवनसाथी तुम्हारी मंजिल है। परमेश्वर ने उसका तुम्हारे जीवन और अस्तित्व में आना निर्धारित किया था, ताकि वह तुम्हारे जीवन के मार्ग में तुम्हारा साथ दे सके। अगर वह पूरे रास्ते तुम्हारा साथ दे पाता है और अंत तक तुम्हारे साथ चलता रहता है, तो इससे बेहतर और कुछ नहीं है, और तुम्हें परमेश्वर के अनुग्रह के लिए धन्यवाद करना चाहिए। अगर शादी के दौरान कोई समस्या आती है, चाहे दरारें आती हैं या तुम्हारी पसंद के विरुद्ध कुछ होता है, जिसकी वजह से तुम्हारी शादी टूट जाती है, तो इसका मतलब यह नहीं कि अब तुम्हारे पास कोई मंजिल नहीं है, अब तुम्हारा जीवन अंधकार में पड़ गया है, आगे कोई रोशनी नहीं है, और अब तुम्हारा कोई भविष्य नहीं है। यह भी हो सकता है कि तुम्हारी शादी का टूटना तुम्हारे लिए एक शानदार जीवन की शुरुआत हो। यह सब परमेश्वर के हाथों में है, और सब आयोजन और व्यवस्था परमेश्वर ही करेगा। ऐसा हो सकता है कि शादी टूटने से तुम्हें इसकी गहरी समझ मिले और तुम बेहतर मूल्यांकन कर पाओ। बेशक, तुम्हारी शादी का टूटना तुम्हारे जीवन के लक्ष्यों और दिशा के लिए और जिस मार्ग पर तुम चलते हो उसके लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ हो सकता है। यह तुम्हें मनहूस यादें देकर नहीं जाएगा, और यह दर्दनाक यादें तो बिल्कुल नहीं देगा, न ही यह पूरी तरह नकारात्मक अनुभव और नतीजे देगा, बल्कि इससे तुम्हें सकारात्मक और सक्रिय अनुभव मिलेंगे जो तुम्हें अभी तक शादी में बने रहने से शायद नहीं मिल पाते। अगर तुम्हारी शादी बनी रहती, तो शायद तुम अपने आखिरी समय तक हमेशा यही सादा, औसत दर्जे का और नीरस जीवन जीती रहती। लेकिन, अगर तुम्हारी शादी खत्म होकर टूट जाती है, तो जरूरी नहीं कि यह कोई खराब बात हो। इससे पहले तुम अपनी शादी की खुशी और जिम्मेदारियों के साथ ही अपने जीवनसाथी के प्रति अपनी भावनाओं या जीवन जीने के तरीकों की चिंता करने, उसकी देखभाल करने, उसका ख्याल रखने, उसकी परवाह करने और उसके बारे में फिक्र करने को लेकर बेबस महसूस करती थी। लेकिन, तुम्हारी शादी टूटने के दिन से ही तुम्हारे जीवन की सभी परिस्थितियाँ, जीवन जीने के तुम्हारे लक्ष्य और अनुसरण के तरीके पूरी तरह से बदल जाते हैं, और ऐसा कहना सही होगा कि तुममें यह बदलाव तुम्हारी शादी टूटने के कारण ही आया है। ऐसा हो सकता है कि यह परिणाम, बदलाव और परिवर्तन परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए निर्धारित की गई शादी से और उस शादी को खत्म करने के लिए रास्ता दिखाकर परमेश्वर तुम्हें जो हासिल कराना चाहता है उसकी वजह से आया हो। भले ही तुम्हें पीड़ा हुई है और तुमने एक पेचीदा मार्ग अपनाया है, और भले ही तुमने अपनी शादी के ढाँचे में कुछ अनावश्यक त्याग और समझौते किए हैं, लेकिन अंत में तुम्हें जो हासिल होता है वह वैवाहिक जीवन में रहकर हासिल नहीं किया जा सकता। इसलिए, चाहे जो भी हो, इस विचार और दृष्टिकोण को त्याग देना ही सही है कि “शादी ही तुम्हारी मंजिल है।” चाहे तुम्हारी शादी बनी रहती है या उसमें दरारें आती हैं, या तुम्हारी शादी टूटने के कगार पर पहुँच जाती है या वह पहले ही टूट चुकी है, किसी भी परिस्थिति में, शादी अपने आपमें तुम्हारी मंजिल नहीं है। लोगों को यह बात समझनी चाहिए।

लोगों को यह विचार और दृष्टिकोण नहीं पालना चाहिए कि “शादी ही व्यक्ति की मंजिल है।” यह विचार और दृष्टिकोण तुम्हारी स्वतंत्रता और जीवन में अपना मार्ग चुनने के अधिकार के रास्ते में एक बड़ा खतरा है। “खतरे” से मेरा क्या मतलब है? मैंने यह शब्द क्यों इस्तेमाल किया? मेरे कहने का मतलब है कि जब भी तुम कोई फैसला करते हो, या जब भी तुम कुछ कहते हो या किसी दृष्टिकोण को अपनाते हो, अगर यह तुम्हारे वैवाहिक सुख या तुम्हारी शादी की अखंडता से जुड़ा है, या अगर यह तुम्हारा साथी ही तुम्हारी मंजिल और तुम्हारा अंतिम सहारा होने से जुड़ा है, तो तुम्हारे हाथ-पैर बंध जाएँगे, और तुम बेहद सतर्क और सावधान हो जाओगे। अनजाने में, इस तरह तुम्हारी स्वतंत्र इच्छा, जीवन में अपना मार्ग चुनने का तुम्हारा अधिकार, और साथ ही सकारात्मक चीजों की खोज और सत्य का अनुसरण करने का तुम्हारा अधिकार, सभी इस विचार और दृष्टिकोण से बाधित हो जाएँगे और छिन जाएँगे, और इस वजह से तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के समक्ष आना कम कर दोगे। परमेश्वर के समक्ष आना कम कर देने का क्या अर्थ है? उद्धार पाने की तुम्हारी इच्छा धीरे-धीरे कम हो जाएगी और तुम्हारे जीवन की परिस्थितियाँ दयनीय, दुखी, अँधकारमय और घिनौनी हो जाएँगी। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुमने अपनी सभी उम्मीदों, अपेक्षाओं, जीवन के लक्ष्यों और दिशा को अपने उस जीवनसाथी से जोड़ लिया है जिससे तुमने शादी की थी, और तुम उसे अपना सब कुछ मानते हो। क्योंकि तुम अपने साथी को ही अपना सब कुछ मानते हो, इसी वजह से वह तुम्हारे सभी अधिकार छीन लेता है, तुम्हारी दृष्टि को भ्रमित और बाधित कर देता है, तुमसे तुम्हारी ईमानदारी और गरिमा, सामान्य सोच और विवेक छीन लेता है, और वह तुमसे परमेश्वर में विश्वास करने और जीवन में सही मार्ग पर चलने के अधिकार, सही नजरिया अपनाने का अधिकार, और उद्धार पाने की कोशिश करने का अधिकार भी छीन लेता है। इसी के साथ, तुम्हारे इन सभी अधिकारों पर तुम्हारे जीवनसाथी का नियंत्रण और शासन होता है, और इसलिए मैं कहता हूँ कि ऐसे लोग दयनीय, घृणित और घटिया जीवन जीते हैं। जिस पल से ऐसे किसी व्यक्ति का जीवनसाथी किसी बात को लेकर थोड़ा दुखी महसूस करने लगता है या किसी तरह से असहज होता है, कहता है कि उसका दिल ठीक महसूस नहीं कर रहा है, तो वे इतना डर जाते हैं कि कई दिनों तक न खाना खा पाते हैं और न ही सो पाते हैं और यहाँ तक कि वे आँसुओं की बाढ़ लेकर प्रार्थना के लिए परमेश्वर के समक्ष आते हैं—उन्हें अपने जीवन में पहले कभी किसी बात को लेकर इतनी परेशानी या चिंता नहीं हुई थी, वे वाकई बहुत दुखी हैं—जैसे ही ऐसा कुछ होता है, तो लगता है जैसे उन्हें मौत आने वाली है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि वे मानते हैं कि आकाश टूटने वाला है, उनसे उनका सहारा छीन लिया जाएगा, यानी वे कहीं के नहीं रहेंगे। वे यह नहीं मानते कि व्यक्ति का जीना-मरना सृष्टिकर्ता के हाथों में है, और उन्हें इस बात का बहुत डर होता है कि परमेश्वर उनसे उनका जीवनसाथी छीन लेगा, और वे अपना जीवनसाथी, अपना सहारा, अपना आसमान और अपनी आत्मा भी खो देंगे—यह जीने का कितना विद्रोही तरीका है। परमेश्वर ने तुम्हें शादी की देन दी, और जैसे ही तुम्हें तुम्हारा सहारा और साथी मिला, तुमने परमेश्वर को भुला दिया, अब तुम्हें परमेश्वर नहीं चाहिए। तुम्हारा साथी ही तुम्हारा परमेश्वर, तुम्हारा प्रभु और तुम्हारा सहारा बन गया है। यह सरासर विश्वासघात है और परमेश्वर के खिलाफ इससे बड़ा विद्रोह और कुछ नहीं हो सकता है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनका जीवनसाथी अगर थोड़ा गुस्सा हो जाए या बीमार पड़ जाए, तो वे इतने डर जाते हैं कि कई दिनों तक सभाओं में नहीं आते। वे किसी से कुछ नहीं कहते और न ही किसी और को अपना कर्तव्य सौंपकर जाते हैं, वे बस गायब हो जाते हैं मानो हवा में उड़ गए हों। उन्हें सबसे ज्यादा चिंता सिर्फ अपने जीवनसाथी के जीने-मरने की होती है और वे जीवन में सबसे अधिक उसी की परवाह करते हैं, और उनके लिए इससे जरूरी कुछ और नहीं हो सकता—यह उनके लिए परमेश्वर, परमेश्वर के आदेश और अपने कर्तव्य से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। ऐसे लोग अपनी वह पहचान, मूल्य और अहमियत खो देते हैं जो सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर के समक्ष उनकी होनी चाहिए, और परमेश्वर उनसे घृणा करता है। परमेश्वर ने तुम्हें एक स्थिर जीवन और एक जीवनसाथी बस इसलिए दिया है ताकि तुम बेहतर जीवन जी सको और तुम्हारा ख्याल रखने वाला कोई हो, जो तुम्हारे साथ खड़ा हो, इसलिए नहीं कि तुम परमेश्वर और उसके वचनों को ही भूल जाओ या जीवनसाथी पाने के बाद अपना कर्तव्य निभाने के दायित्व या जीवन में उद्धार पाने के लक्ष्य को त्यागकर सिर्फ अपने जीवनसाथी के लिए जियो। अगर तुम वाकई ऐसा करते हो, इसी तरह से जीते हो, तो मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम जल्द-से-जल्द अपना रास्ता बदलोगे। चाहे कोई तुम्हारे लिए कितना ही जरूरी क्यों न हो, या वह तुम्हारे जीवन, तुम्हारी आजीविका या जीवन के मार्ग में कितना ही महत्व रखता हो, वह तुम्हारी मंजिल नहीं हैं, क्योंकि वह सिर्फ एक भ्रष्ट मनुष्य है। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए तुम्हारे मौजूदा जीवनसाथी की व्यवस्था की है और तुम उसके साथ जीवन बिता सकते हो। अगर परमेश्वर का मन बदल जाता है और वह तुम्हारे लिए कोई और जीवनसाथी निर्धारित करता है, तब भी तुम अच्छी तरह जी सकते हो, और इसलिए तुम्हारा मौजूदा जीवनसाथी ही तुम्हारा सब कुछ नहीं है और वह तुम्हारी मंजिल भी नहीं है। तुम्हारी मंजिल सिर्फ परमेश्वर के हाथों में है, और समस्त मानवजाति की मंजिल परमेश्वर के हाथों में ही है। अपने माँ-बाप को छोड़ने के बाद भी तुम जिंदा रह सकते हो और जीवन बिता सकते हो, और बेशक अपने जीवनसाथी को छोड़ने के बाद भी तुम उतना ही अच्छा जीवन जी सकते हो। तुम्हारी मंजिल न तो तुम्हारे माँ-बाप हैं और न ही तुम्हारा जीवनसाथी। सिर्फ इसलिए कि तुम्हारे पास एक साथी है जिसे तुम अपनी आत्मा, अपना मन और अपना शरीर सौंप सकते हो, जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीजों को मत भूलो। अगर तुम परमेश्वर को भूल जाते हो, यह भूल जाते हो कि उसने तुम्हें क्या जिम्मेदारी सौंपी है, उस कर्तव्य को भूल जाते हो जो एक सृजित प्राणी को निभाना चाहिए, और अपनी पहचान को भुला देते हो, तो तुम अपनी अंतरात्मा और विवेक पूरी तरह से खो दोगे। चाहे तुम्हारा जीवन आज कैसा भी है, तुम शादीशुदा हो या नहीं हो, सृष्टिकर्ता के सामने तुम्हारी पहचान कभी नहीं बदलेगी। कोई व्यक्ति तुम्हारी मंजिल नहीं हो सकता, और तुम खुद को किसी और के हाथों में नहीं सौंप सकते। सिर्फ परमेश्वर ही तुम्हें एक उपयुक्त मंजिल दे सकता है, मानवजाति का जीवन सिर्फ परमेश्वर के हाथों में है, और यह कभी नहीं बदलेगा। समझ गए? (हाँ।)

शादी के विषय पर अपनी संगति हम यहीं समाप्त करेंगे। अगर तुम लोग अपने विचार, दृष्टिकोण या अपनी भावनाएँ व्यक्त करना चाहते हो, तो अभी करो। (मेरे दृष्टिकोण और विचार यही हुआ करते थे कि शादी ही व्यक्ति की मंजिल है। अगर मेरा जीवनसाथी मुझसे बेवफाई करता, तो मुझे बहुत निराशा होती और मैं जी नहीं पाती। मैंने कुछ भाई-बहनों से सुना है कि उन्होंने भी ऐसा अनुभव किया है, और इस तरह के हालात का सामना करना बहुत दुखदायी था। लेकिन आज, परमेश्वर की संगति सुनकर मैं इस मामले में सही रवैया अपना सकती हूँ। सबसे पहले, परमेश्वर ने यह बताया है कि इस दुष्ट समाज में, लोग दूसरे लोगों, घटनाओं और बाहरी दुनिया की चीजों के बहकावे में आकर आसानी से गलतियाँ कर सकते हैं, तो अब मैं इन चीजों को समझ सकती हूँ। दूसरी बात, हमें अपने जीवनसाथी के प्रति सही रवैया अपनाना चाहिए। हमारे जीवन की मंजिल हमारा जीवनसाथी नहीं है। सिर्फ परमेश्वर ही हमारे जीवन की मंजिल है, और केवल परमेश्वर पर भरोसा करके ही हम वास्तव में जीवित रह सकते हैं। मुझे लगता है कि अब मुझे इस बारे में कुछ नई समझ मिली है।) बहुत बढ़िया। सत्य से संबंधित जिन सभी दृष्टिकोणों और रवैयों पर हम संगति करते हैं, उनका मकसद लोगों को सभी प्रकार के विकृत, गलत और नकारात्मक विचार और दृष्टिकोणों को निकाल फेंकने में सक्षम बनाना है; फिर, उन बातों पर संगति की जाती है ताकि जब लोगों के सामने ऐसी समस्या आए, तो उनके पास सही विचार और दृष्टिकोण हों, अभ्यास का सही मार्ग हो, ताकि वे भटकें नहीं और फिर कभी शैतान के हाथों गुमराह न हों और उसके काबू में न आएँ; उन बातों पर इसलिए संगति की जाती है ताकि लोग अतिवादी चीजें न करें, ताकि वे सभी चीजों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार सकें, सभी चीजों में परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकें, और सच्चे सृजित प्राणी बन सकें। यही जीने का सही तरीका है। ठीक है, आज के लिए हम अपनी संगति यहीं रोकते हैं। फिर मिलेंगे!

4 फ़रवरी 2023

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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