654 सत्य को कैसे स्वीकारें
यदि कोई अपनी भ्रष्टता से शुद्ध होना चाहता है और अपने जीवन स्वभाव में रूपान्तरण से गुज़रना चाहता है, तो उसे सत्य से प्रेम करना चाहिए और सत्य को स्वीकार करने में समर्थ होना चाहिए। तुम सत्य को कैसे स्वीकार करते हो? सत्य को स्वीकार करने का अर्थ यह है कि चाहे तुममें किसी भी प्रकार का भ्रष्टाचारी स्वभाव हो या बड़े लाल अजगर के जिस भी विष ने तुम्हारी प्रकृति को विषैला किया हो, तुम उसे तब स्वीकार कर लेते हो जब यह परमेश्वर के वचन द्वारा प्रकट किया जाता है और परमेश्वर के वचन के प्रति समर्पित होते हो; तुम तर्क या चुनाव के बगैर ही इसे बेशर्त स्वीकार करते हो, और तुम स्वयं को परमेश्वर के वचन के अनुसार जानते हो। परमेश्वर के वचन को स्वीकार करने का यही अर्थ है। चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे, चाहे वह किन्हीं भी वचनों का उपयोग करे, चाहे वे वचन तुम्हारे दिल को कितना भी भेद दें, तुम इसे तब तक स्वीकार कर सकते हो जब तक कि यह सत्य है, और तुम इसे तब तक स्वीकार कर सकते हो जब तक कि यह वास्तविकता के अनुरूप है। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम परमेश्वर के वचनों को कितनी गहराई से समझते हो, तुम इनके प्रति समर्पित हो सकते हो, और तुम पवित्र आत्मा से आई उस प्रबुद्धता की रोशनी को स्वीकार करते हो और उसके प्रति समर्पित होते हो जिसे भाई-बहनों द्वारा बताया जाता है। जब ऐसे व्यक्ति का सत्य का अनुसरण एक निश्चित बिंदु पर पहुंच जाता है, तो वह सत्य को प्राप्त कर सकता है और अपने स्वभाव के रूपान्तरण को प्राप्त कर सकता है।
— "मसीह की बातचीतों के अभिलेख" में "मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें" से उद्धृत