प्रश्न 2: सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों में अपने न्याय का कार्य कैसे करते हैं? वे अपने वचनों से इंसान का न्याय कैसे करते हैं, उसे शुद्ध कैसे करते हैं और उसे पूर्ण कैसे करते हैं? ये जानने के लिए हम बेताब हैं। अगर हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य समझते हैं, तो हम लोग सचमुच परमेश्वर की वाणी सुन सकते हैं और हमें परमेश्वर के सिंहासन के सामने उन्नत किया जा सकता है। हमें ज़रा और विस्तार से बताइये!

उत्तर: अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर अपना कार्य किस तरह करते हैं, इस बात को समझना सत्य का अनुसरण करके उद्धार पाने की हमारी क्षमता के लिए बहुत आवश्यक है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों में सत्य व्यक्त करके लोगों का न्याय और उन्हें शुद्ध करते हैं। वे मात्र अपने संतों को स्वर्ग के राज्य में उठाने के लिए ऐसा करते हैं। इसके बावजूद धार्मिक समुदाय में बहुत से विश्वासी परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते। उन्हें लगता है कि प्रभु वापस आकर सभी संतों को सीधे स्वर्ग के राज्य में उन्नत कर देंगे। उन्हें यकीन नहीं होता कि वे न्याय और ताड़ना का कार्य करेंगे क्योंकि अगर उन्होंने लोगों के न्याय और ताड़ना का कार्य किया तो क्या वे उन्हें भी निंदित और दंडित भी नहीं करेंगे? इसलिए, वे अंतिम दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य को स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं; वे केवल प्रभु के बादलों पर उतरने और उन्हें स्वर्ग के राज्य में उन्नत करने की प्रतीक्षा करते हैं। दरअसल, ये परमेश्वर की इच्छा को पूरी तरह से गलत समझना है। प्रभु यीशु ने अंत के दिनों में न्याय के कार्य को सुगम बनाने के लिये छुटकारे का कार्य किया था। परमेश्वर का अंतिम उद्देश्य मानवता को शुद्ध करना और उसे बचाना है, ताकि उन्हें स्वर्ग के राज्य में आराम मिले। हालांकि, मनुष्य को बचाने और उसके छुटकारे का कार्य तय है; यह चरणों में आगे बढता है। यह सब एक ही बार में नहीं हो जाता। प्रभु यीशु ने अपने छुटकारे के कार्य को पूरा कर लिया है और वापस आकर संतों को ले जाने का वचन दिया है। उसके बावजूद दरअसल कोई नहीं जानता कि परमेश्वर अंत के दिनों में संतों को कैसे ले जाते हैं। दरअसल, जब परमेश्वर अंत के दिनों में अपने संतों को ले जाने के लिए आते हैं तो वे उनका न्याय करने, उन्हें शुद्ध करने और विजेता के रूप में पूर्ण करने के लिये सबसे पहले अपने सिंहासन के सामने लाते हैं। क्या यही तरीका नहीं है संतों को स्वर्ग के राज्य में उन्नत करने का? फिर भी, लोगों के लिये इसे समझना इतना आसान नहीं है। परमेश्वर के सिंहासन के सामने जाने से पहले, उन्हें न्याय, ताड़ना और शुद्धिकरण का अनुभव लेना ही होगा। यही कारण है कि लोगों ने अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य के बारे में अपनी धारणाएं बना ली हैं। तो मुझे बताइये, परमेश्वर की ताड़ना और न्याय क्या वाकई आशीष है? या यह निंदा और सजा है? बहुत से लोग इस बात को समझते ही नहीं। आइये देखें, सर्वशक्तिमान परमेश्वर इस बारे में क्या कहते हैं।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर मनुष्य की अवज्ञा को शापित करता है और वह मनुष्य के पापों का न्याय करता है। यद्यपि वह बिना किसी संवेदना के कठोरता से बोलता है, फिर भी वह उन सबको प्रकट करता है जो मनुष्य के भीतर होता है, और इन कठोर वचनों के द्वारा वह उन सब बातों को प्रकट करता है जो मूलभूत रूप से मनुष्य के भीतर होती हैं, फिर भी ऐसे न्याय द्वारा वह मनुष्य को देह के सार का गहन ज्ञान प्रदान करता है, और इस प्रकार मनुष्य परमेश्वर के समक्ष समर्पण कर देता है। मनुष्य की देह पापमय और शैतान की है, यह अवज्ञाकारी है, और परमेश्वर की ताड़ना की पात्र है। इसलिए, मनुष्य को स्वयं का ज्ञान प्रदान करने के लिए परमेश्वर के न्याय के वचनों से उसका सामना और हर प्रकार का शोधन परम आवश्यक है; केवल तभी परमेश्वर का कार्य प्रभावी हो सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)

"आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है। ... परमेश्वर मारने या नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि न्याय करने, शाप देने, ताड़ना देने और बचाने के लिए आया है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए)

"तुम सब पाप और व्यभिचार की धरती पर रहते हो; और तुम सब व्यभिचारी और पापी हो। आज तुम न केवल परमेश्वर को देख सकते हो, बल्कि उससे भी महत्वपूर्ण रूप से, तुम लोगों ने ताड़ना और न्याय प्राप्त किया है, तुमने वास्तव में गहन उद्धार प्राप्त किया है, दूसरे शब्दों में, तुमने परमेश्वर का महानतम प्रेम प्राप्त किया है। वह जो कुछ करता है, उस सबमें वह तुम्हारे प्रति वास्तव में प्रेमपूर्ण है। वह कोई बुरी मंशा नहीं रखता। यह तुम लोगों के पापों के कारण है कि वह तुम लोगों का न्याय करता है, ताकि तुम आत्म-परीक्षण करो और यह ज़बरदस्त उद्धार प्राप्त करो। यह सब मनुष्य को संपूर्ण बनाने के लिए किया जाता है। प्रारंभ से लेकर अंत तक, परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए पूरी कोशिश कर रहा है, और वह अपने ही हाथों से बनाए हुए मनुष्य को पूर्णतया नष्ट करने का इच्छुक नहीं है। आज वह कार्य करने के लिए तुम लोगों के मध्य आया है; क्या यह और भी उद्धार नहीं है? अगर वह तुम लोगों से नफ़रत करता, तो क्या फिर भी वह व्यक्तिगत रूप से तुम लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए इतने बड़े परिमाण का कार्य करता? वह इस प्रकार कष्ट क्यों उठाए? परमेश्वर तुम लोगों से घृणा नहीं करता, न ही तुम्हारे प्रति कोई बुरी मंशा रखता है। तुम लोगों को जानना चाहिए कि परमेश्वर का प्रेम सबसे सच्चा प्रेम है। यह केवल लोगों की अवज्ञा के कारण है कि उसे न्याय के माध्यम से उन्हें बचाना पड़ता है; यदि वह ऐसा न करे, तो उन्हें बचाया जाना असंभव होगा। चूँकि तुम लोग नहीं जानते कि कैसे जिया जाए, यहाँ तक कि तुम इससे बिलकुल भी अवगत नहीं हो, और चूँकि तुम इस दुराचारी और पापमय भूमि पर जीते हो और स्वयं दुराचारी और गंदे दानव हो, इसलिए वह तुम्हें और अधिक भ्रष्ट होते नहीं देख सकता; वह तुम्हें इस मलिन भूमि पर रहते हुए नहीं देख सकता जहाँ तुम अभी रह रहे हो और शैतान द्वारा उसकी इच्छानुसार कुचले जा रहे हो, और वह तुम्हें अधोलोक में गिरने नहीं दे सकता। वह केवल लोगों के इस समूह को प्राप्त करना और तुम लोगों को पूर्णतः बचाना चाहता है। तुम लोगों पर विजय का कार्य करने का यह मुख्य उद्देश्य है—यह केवल उद्धार के लिए है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई (4))

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से यह साफ ज़ाहिर है कि अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य का लक्ष्य लोगों की निंदा करना नहीं है; परमेश्वर लोगों को मारना नहीं चाहते। वे चाहते हैं कि लोग इस बात को मानें कि शैतान ने उन्हें पूरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है। वे चाहते हैं लोग अपनी प्रकृति और सार को जानें: वे परमेश्वर का विरोध करते हैं और उन्हें धोखा देते हैं। वे चाहते हैं कि लोग उनके धर्मी और पवित्र स्वभाव को जानें जिसको नाराज नहीं किया जा सकता। उनके कार्य का उद्देश्य लोगों के दिलों को और उनकी आत्मा को जगाना है। वे इंसान को उसके भ्रष्ट स्वभाव से बचाना चाहते हैं, ताकि वह एक ऐसे सच्चे इंसान का जीवन जी सके जिसे वो बचाना चाहते हैं। अगर हम परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव न लें, तो हम अपनी शैतानी प्रकृति को स्वीकार नहीं कर सकते, और न ही हम परमेश्वर के प्रति अपने पाप और प्रतिरोध का मूल कारण तय कर सकते हैं। और फिर, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना, हम उनके धर्मी स्वभाव को समझ ही नहीं सकते; हमारा भ्रष्ट स्वभाव बदल ही नहीं सकता। हमारे पास सही मायने में परमेश्वर का हुक्म मानने और उनके प्रति श्रद्धा रखने का कोई रास्ता नहीं होगा। ऐसी स्थिति में, हम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के योग्य कैसे होंगे? जैसा कि आप देख सकते हैं, परमेश्वर लोगों का न्याय करते हैं क्योंकि वे उन्हें शुद्ध करना और उन्हें बचाना चाहते हैं। ये भ्रष्ट मानवता के लिए परमेश्वर का विशेष प्रेम और उद्धार है! अच्छा, परमेश्वर अपने न्याय का कार्य किस तरह करते हैं? सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने सत्य के बारे में बहुत-सी बातें कही हैं। आइये सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कुछ वचन पढ़ें।

"वर्तमान देहधारण में परमेश्वर का कार्य मुख्य रूप से ताड़ना और न्याय के द्वारा अपने स्वभाव को व्यक्त करना है। इस नींव पर निर्माण करते हुए वह मनुष्य तक अधिक सत्य पहुँचाता है और उसे अभ्यास करने के और अधिक तरीके बताता है और ऐसा करके मनुष्य को जीतने और उसे उसके भ्रष्ट स्वभाव से बचाने का अपना उद्देश्य हासिल करता है। यही वह चीज़ है, जो राज्य के युग में परमेश्वर के कार्य के पीछे निहित है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)

"अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)

"परमेश्वर के पास मनुष्य को पूर्ण बनाने के अनेक साधन हैं। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से निपटने के लिए वह समस्त प्रकार के परिवेशों का उपयोग करता है, और मनुष्य को अनावृत करने के लिए विभिन्न चीजों का प्रयोग करता है; एक ओर वह मनुष्य के साथ निपटता है, दूसरी ओर मनुष्य को अनावृत करता है, और तीसरी ओर वह मनुष्य को उजागर करता है, उसके हृदय की गहराइयों में स्थित 'रहस्यों' को खोदकर और उजागर करते हुए, और मनुष्य की अनेक अवस्थाएँ प्रकट करके वह उसे उसकी प्रकृति दिखाता है। परमेश्वर मनुष्य को अनेक विधियों से पूर्ण बनाता है—प्रकाशन द्वारा, मनुष्य के साथ व्यवहार करके, मनुष्य के शुद्धिकरण द्वारा, और ताड़ना द्वारा—जिससे मनुष्य जान सके कि परमेश्वर व्यावहारिक है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल उन्हें ही पूर्ण बनाया जा सकता है जो अभ्यास पर ध्यान देते हैं)

"परमेश्वर न्याय और ताड़ना का कार्य करता है ताकि मनुष्य परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सके और उसकी गवाही दे सके। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का परमेश्वर द्वारा न्याय के बिना, संभवतः मनुष्य अपने धार्मिक स्वभाव को नहीं जान सकता था, जो कोई अपराध नहीं करता और न वह परमेश्वर के अपने पुराने ज्ञान को एक नए रूप में बदल पाता। अपनी गवाही और अपने प्रबंधन के वास्ते, परमेश्वर अपनी संपूर्णता को सार्वजनिक करता है, इस प्रकार, अपने सार्वजनिक प्रकटन के ज़रिए, मनुष्य को परमेश्वर के ज्ञान तक पहुँचने, उसको स्वभाव में रूपांतरित होने और परमेश्वर की ज़बर्दस्त गवाही देने लायक बनाता है। मनुष्य के स्वभाव का रूपांतरण परमेश्वर के कई विभिन्न प्रकार के कार्यों के ज़रिए प्राप्त किया जाता है; अपने स्वभाव में ऐसे बदलावों के बिना, मनुष्य परमेश्वर की गवाही देने और उसके पास जाने लायक नहीं हो पाएगा। मनुष्य के स्वभाव में रूपांतरण दर्शाता है कि मनुष्य ने स्वयं को शैतान के बंधन और अंधकार के प्रभाव से मुक्त कर लिया है और वह वास्तव में परमेश्वर के कार्य का एक आदर्श, एक नमूना, परमेश्वर का गवाह और ऐसा व्यक्ति बन गया है, जो परमेश्वर के दिल के क़रीब है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर को जानने वाले ही परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं)

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन बहुत व्यवहारिक हैं। परमेश्वर इंसान को बचाने और पूर्ण बनाने के लिये अंत के दिनों में, अपने वचन व्यक्त करते हैं और न्याय का कार्य करते हैं! सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के वचन पढ़कर, हमें आखिरकार समझ में आया कि इस अंधेरी काली दुनिया में, पूरी मानवजाति शैतान के अधिकार-क्षेत्र में रहती है। लोगों को शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, अब उनमें मानवता नाम की कोई चीज़ नहीं बची। वे सब अभिमानी, कुटिल, चालाक, स्वार्थी और व्यभिचारी हैं। वे लोग सच्चाई से ऊब चुके हैं और बुराई के प्रति श्रद्धा रखते हैं। वे अपनी पदवी और यश के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। वैसे ही जैसे आपस में जानवर लड़ते हैं, एक-दूसरे की हत्या करते हैं। उनमें न मानवता बची है और न विवेक। हालाँकि वे लोग परमेश्वर को मानते ज़रूर हैं, लेकिन पूजते हैं धन, यश और हैसियत को। वे लोग दुनियाभर में फैली बुराई का अनुसरण करते हैं, पाप, विद्रोह और परमेश्वर का विरोध करते रहते हैं। हालांकि वे लोग सबकुछ बलिदान कर, यातनाएँ सहते हैं, लेकिन वे लोग ये सब सिर्फ अपनी इच्छाओं को पूरा करने की खातिर, आशीष पाने के लिए करते हैं। पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिये करते हैं। वे लोग सत्य का अनुसरण करने या परमेश्वर को जानने या उसका हुक्म मानने के लिए ऐसा नहीं करते। हालांकि वे लोग परमेश्वर को मानते हैं, लेकिन फिर भी परमेश्वर के बारे में उनका मन अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से भरा है। दरअसल परमेश्वर के स्वभाव को, उसके पास जो है और जो वो है, उसे कोई नहीं जानता। परमेश्वर दरअसल किस तरह के लोग पसंद करते हैं, किस तरह के लोगों से घृणा करते हैं, लोग किस-किस तरह से परमेश्वर का विरोध करके, उसके स्वभाव को नाराज़ करके उसके द्वारा शापित होते हैं, लोगों के कितने तरह के विचार और धारणाएँ सच्चाई के अनुरूप नहीं हैं, परमेश्वर के सामने लोगों में किस तरह का विवेक होना चाहिये, उनमें किस तरह की सत्य की वास्तविकता होनी चाहिए, वगैरह-वगैरह। भ्रष्ट इंसान परमेश्वर को जानने, हुक्म मानने और परमेश्वर के प्रति श्रद्धा रखने संबंधी इस महत्वपूर्ण सत्य के बारे में कुछ नहीं जानते। इस तरह की भीतर तक दूषित हो चुकी इंसानियत, अगर परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण का अनुभव नहीं लेती है तो वो परमेश्वर का विरोध और उसके साथ कपट कैसे न करेगी? अंत के दिनों में, भ्रष्ट मानवजाति की जरूरतों के हिसाब से इंसान को बचाने के लिए परमेश्वर देहधारण कर सत्य व्यक्त करते हैं। परमेश्वर के धार्मिक और प्रतापी स्वभाव को नाराज नहीं किया जा सकता। वे उसे इंसान पर प्रकट करते हैं। लोगों की असल प्रकृति और भ्रष्ट आचरण साफ तौर पर प्रकट हो जाते हैं जो लोगों को आश्वस्त कर देता है। हमने परमेश्वर के न्याय और उनके वचनों की ताड़ना का अनुभव लिया है; हमने अपना अहंकार और स्वार्थ देखा है और हम अपने शैतानी सिद्धांत और नियमों के अनुसार ही जीते हैं। हम जो कुछ भी करते हैं, अपनी प्रसिद्धि और लाभ के लिए करते हैं। हम जो काम करते हैं और जो उपदेश देते हैं, वो भी अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए करते हैं। हम लगातार खुद को ऊंचा उठाते हैं, अपना सम्मान करते हैं और दूसरों से अपना गौरवगान कराते हैं। हम ये सब परमेश्वर का गौरवगान करने के लिये या परमेश्वर की गवाही देने के लिये कतई नहीं करते। जब परमेश्वर का कार्य हमारे विचारों के अनुरूप नहीं होता तो फिर हम परमेश्वर की व्याख्या और उसकी परख शुरू कर देते हैं। हम परमेश्वर के कट्टर विरोधी हैं और उनके हुक्म का पालन बिल्कुल नहीं करते। हम अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए भी दैहिक सुख भोग सकते हैं। हम परमेश्वर को लगातार धोखा देते हैं और उनके प्रति ज़रा भी वफादार नहीं हैं। परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन में हम देख सकते हैं कि हमें शैतान ने पूरी तरह दूषित कर दिया है। हम में न कोई अंतरात्मा है, न विवेक है और न मानवीय गरिमा है। हम इंसान कहलाने के लायक ही नहीं हैं। हम केवल शैतान की तरह ही परमेश्वर के दुश्मन हैं। हमें परमेश्वर से मिलने में शर्मिंदगी महसूस होती है और हम खुद को उस लायक नहीं समझते। हमारे पास परमेश्वर के सामने झुकने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता, हम खुद को शाप देते हैं, खुद से घृणा करते हैं। हमें जब वाकई परमेश्वर के उस धार्मिक स्वभाव का आनंद मिल जाता है जिसे नाराज़ नहीं किया जा सकता, तो हम परमेश्वर का भय मानने लगते हैं और ये समझ जाते हैं कि उनके नेक इरादे इंसानियत को बचाने के हैं। परमेश्वर हमारा न्याय करते हैं और हमें ताड़ना देते हैं क्योंकि उन्हें हमारे पापों और विद्रोह से घृणा है और वे हमें हमारे शैतानी स्वभाव से बचाना और प्राप्त करना चाहते हैं। जब हम अड़ियल तरीके से परमेश्वर से विद्रोह करने और उनका विरोध करने का जोखिम लेते हैं, तो वे हमें ताड़ना देते हैं और अनुशासित करते हैं। जब हम परमेश्वर को अपना दिल देते हैं, तो परमेश्वर हम पर दया करता है। हम जो कुछ करते हैं और जो हम हैं, उनके लिए वे हमें सज़ा नहीं देते। वह हमें प्रबुद्ध करते हैं और हमारी अगुवाई करते हैं और हमें अपनी इच्छा को समझने देते हैं। परमेश्वर की ताड़ना और न्याय के ज़रिये, हमें अनजाने में ही परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कुछ सच्चा ज्ञान प्राप्त हो जाता है। वे हमें यह जानने देते हैं कि उनके स्वभाव में दया और प्रेम है। हमने परमेश्वर की पवित्रता और महानता को देखा है। इससे हमारे मन में श्रद्धा और परमेश्वर का प्रेम जागा है। हम अपनी शैतानी प्रकृति के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानने लगते हैं धीरे-धीरे कुछ सत्य समझने लगते हैं। सकारात्मक और नकारात्मक चीजों में भेद कर पाने की हमारी क्षमता धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। हर बात पर हमारा दृष्टिकोण बदलने लगता है और धीरे-धीरे सत्य के लिये हमारी प्यास जगने लगती है। अब हम सिद्धांतों और शैतान के कानूनों के सहारे नहीं जीना चाहते, या गलत तरीके से परमेश्वर से कुछ पाने की कोशिश नहीं करते। हम अपनी अंतरात्मा और अपना विवेक फिर से पा लेते हैं। हम हर काम में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना शुरू कर देते हैं। हम सृजित प्राणियों की तरह विनम्र भाव से अपने कर्तव्यों का निर्वाह और परमेश्वर के प्रभुत्व और व्यवस्थाओं का पालन करने लगते हैं। हमारा जीवन स्वभाव बदलता चला जाता है; हम एक असल इंसान की तरह जीना शुरू कर देते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद! उस तरह से बदलने की हमारी योग्यता परमेश्वर के न्याय के कार्य का असर है। आज अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने वाले सभी भाई और बहन अब जानते हैं कि हमें अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करना होगा और उनका हुक्म मानना होगा ताकि हम बचाए और पूर्ण किये जा सकें।

"स्वप्न से जागृति" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश

पिछला: प्रश्न 1: कि प्रभु यीशु ने हमारे लिए सलीब पर जान दी, उन्होंने हमें पापों से छुड़ाया, और हमारे पापों को क्षमा किया, भले ही हमारा पाप करना जारी है और हमारा अभी शुद्ध होना बाकी है, प्रभु ने हमारे सभी पापों को क्षमा कर हमारी आस्था के ज़रिये हमें न्यायपूर्ण बना दिया है। मुझे लगा कि प्रभु के लिये सबकुछ त्याग करने, यातना सहन करने और कीमत अदा करने की हमारी इच्छा, हमें स्वर्ग के राज्य में प्रवेश दिलाएगी। मुझे लगा, हमारे लिये यही प्रभु की प्रतिज्ञा है। लेकिन कुछ लोगो ने इस पर सवाल उठाया है। उनके अनुसार, चाहे हमने प्रभु के लिए श्रम किया, हम अभी भी पाप करके उन्हें स्वीकार करते हैं, इसलिए हम अभी तक अशुद्ध हैं। उनके अनुसार प्रभु पवित्र हैं, इसलिए अपवित्र लोग उनसे नहीं मिल सकते। मेरा सवाल है: हम लोगों ने प्रभु के लिए अपना सब-कुछ बलिदान कर दिया, क्या हमें स्वर्ग के राज्य में ले जाया जा सकता है? दरअसल हमें इस सवाल का उत्तर नहीं पता, इसलिए हम चाहते हैं कि आप हमें इस बारे में बताएँ।

अगला: प्रश्न 4: हम सभी ने कई वर्षों तक प्रभु में विश्वास किया है, और प्रभु के लिए अपने कार्य में हमेशा पौलुस के उदाहरण का पालन किया है। हम प्रभु के नाम और उनके मार्ग के प्रति निष्ठावान रहे हैं, और धार्मिकता का ताज निश्चय ही हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। आज, हमें केवल प्रभु के लिए कड़ी मेहनत करने और उनकी वापसी की ओर देखने की आवश्यकता है। केवल इस प्रकार से ही हमें स्वर्ग का राज्य में ले जाया जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि बाइबल में ऐसा कहा गया है कि "मेरी बाट जोहनेवाले कभी लज्जित न होंगे" (यशायाह 49:23)। हमें प्रभु के वादे में विश्वास है: वे अपने लौटने पर हमें स्वर्ग का राज्य में ले जाएँगे। क्या इस ढंग से कार्य-अभ्यास करने में वास्तव में कुछ गलत हो सकता है?

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए। तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी...

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