परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I
आज हम एक महत्वपूर्ण विषय पर संगति कर रहे हैं। यह ऐसा विषय है जिस पर परमेश्वर के कार्य की शुरुआत से लेकर अब तक चर्चा की गई है और जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए अत्यधिक महत्व रखता है। दूसरे शब्दों में, यह ऐसा मुद्दा है, जो परमेश्वर में अपने विश्वास के दौरान प्रत्येक व्यक्ति के सामने आएगा; यह ऐसा मुद्दा है, जिसका सामना किया जाना चाहिए। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण, अनिवार्य मुद्दा है, जिससे मानवजाति पीछा नहीं छुड़ा सकती। इसके महत्व के बारे में कहें, तो परमेश्वर के प्रत्येक विश्वासी के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात क्या है? कुछ लोगों को लगता है कि परमेश्वर के इरादों को समझना सबसे महत्वपूर्ण बात है; कुछ लोगों का विश्वास है कि परमेश्वर के ज़्यादा से ज़्यादा वचनों को खाना-पीना सबसे महत्वपूर्ण है; कुछ महसूस करते हैं कि सबसे महत्वपूर्ण बात स्वयं को जानना है; दूसरों की राय है कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह जानना है कि परमेश्वर के माध्यम से उद्धार किस प्रकार पाया जाए, परमेश्वर का अनुसरण किस प्रकार किया जाए और परमेश्वर के इरादों को किस प्रकार पूरा किया जाए। हम इन सभी मुद्दों को आज के लिए एक तरफ रखेंगे। तो फिर हम किस पर चर्चा कर रहे हैं? विषय है, परमेश्वर। क्या यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण विषय है? इस विषय में क्या शामिल है? निःसंदेह, इसे परमेश्वर के स्वभाव, परमेश्वर के सार एवं परमेश्वर के कार्य से अलग नहीं किया जा सकता। अतः आज, आओ हम “परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर” पर चर्चा करें।
जब से मनुष्य ने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था, तब से उसका सामना परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव एवं स्वयं परमेश्वर जैसे विषयों से हुआ है। जब परमेश्वर के कार्य की बात आती है, तो कुछ लोग कहेंगे : “परमेश्वर का कार्य हम पर किया जाता है; हम इसे हर दिन अनुभव करते हैं, अतः हम इससे अनजान नहीं हैं।” परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कहें तो, कुछ लोग कहेंगे : “परमेश्वर का स्वभाव ऐसा विषय है, जिसका अध्ययन, खोज हम जीवन भर करते हैं और जिस पर ध्यान भी केंद्रित करते हैं, अतः हमें इससे परिचित होना चाहिए।” जहाँ तक स्वयं परमेश्वर की बात है, कुछ लोग कहेंगे : “स्वयं परमेश्वर वह है, जिसका हम अनुसरण करते हैं, जिसमें हमारी आस्था है और जिसकी हम तलाश करते हैं, तो उसके बारे में भी हम बेख़बर नहीं हैं।” परमेश्वर ने सृष्टि के समय से ही अपने कार्य को कभी नहीं रोका है; अपने कार्य के दौरान उसने निरंतर अपने स्वभाव को व्यक्त किया है और अपने वचनों को व्यक्त करने के लिए विभिन्न साधनों का उपयोग किया है। साथ ही, उसने मानवजाति के सामने स्वयं और स्वयं के सार को व्यक्त करना, और मनुष्य के प्रति अपने इरादे और मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ व्यक्त करना बंद नहीं किया है। अतः, शाब्दिक रूप से, इन विषयों से कोई अनजान नहीं है। फिर भी उन लोगों के लिए जो आज परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव एवं स्वयं परमेश्वर, सभी वास्तव में बिलकुल अनजान बातें हैं। ऐसी स्थिति क्यों है? जब मनुष्य परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, तो वे परमेश्वर के साथ संपर्क में भी आते हैं, जिससे उनको यह लगता है, मानो वे परमेश्वर के स्वभाव को समझते हैं या वह कैसा है, इसके बारे में कुछ जानते हैं। तदनुसार, मनुष्य को नहीं लगता कि वह परमेश्वर के कार्य या परमेश्वर के स्वभाव से अनजान है। इसके बजाय, मनुष्य सोचता है कि वह परमेश्वर से अच्छी तरह परिचित है और परमेश्वर के बारे में काफी कुछ समझता है। लेकिन वर्तमान में, परमेश्वर के बारे में यह समझ बहुत से लोगों में उनके द्वारा पुस्तकों में पढ़ी गई बातों तक, उनके व्यक्तिगत अनुभव तक सीमित होती है, उनकी कल्पना द्वारा नियंत्रित होती है और सबसे बढ़कर, उन तथ्यों तक सीमित होती है, जिन्हें वे अपनी आँखों से देख सकते हैं—यह सब कुछ स्वयं सच्चे परमेश्वर से बहुत दूर है। और यह “दूर” भला कितना दूर है? शायद मनुष्य खुद निश्चित नहीं है या शायद मनुष्य को थोड़ा सा अहसास है, हल्का-सा आभास है—लेकिन जब स्वयं परमेश्वर की बात आती है, तो उसके बारे में मनुष्य की समझ स्वयं सच्चे परमेश्वर के सार से बहुत परे है। इसीलिए “परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर” जैसे विषय पर हमारे लिए व्यवस्थित और ठोस ढंग से संगति में शामिल होना अनिवार्य है।
वास्तव में, परमेश्वर का स्वभाव सब के सामने है और वह छिपा हुआ नहीं है, क्योंकि परमेश्वर ने कभी किसी व्यक्ति को जान-बूझकर नजरअंदाज नहीं किया है और उसने कभी भी लोगों को उसे जानने या समझने से रोकने के लिए जानबूझकर स्वयं को छिपाने का प्रयास नहीं किया है। परमेश्वर का स्वभाव हमेशा खुला रहना और खुलकर प्रत्येक व्यक्ति का सामना करना रहा है। अपने प्रबंधन में, परमेश्वर सबका सामना करते हुए अपना कार्य करता है और उसका कार्य हर व्यक्ति पर किया जाता है। यह कार्य करते हुए वह प्रत्येक व्यक्ति के मार्गदर्शन और भरण-पोषण के लिए लगातार अपने स्वभाव का प्रकटन और अपने सार का उपयोग कर रहा है कि उसके पास क्या है और वह कौन है। हर युग में और हर चरण पर, चाहे परिस्थितियाँ अच्छी हों या बुरी, परमेश्वर का स्वभाव प्रत्येक व्यक्ति के लिए हमेशा खुला होता है और उसकी चीज़ें एवं अस्तित्व भी प्रत्येक व्यक्ति के लिए हमेशा खुले होते हैं, वैसे ही जैसे उसका जीवन लगातार एवं बिना रुके मानवजाति का भरण-पोषण कर रहा है और उसे सहारा दे रहा है। इस सब के बावजूद, परमेश्वर का स्वभाव कुछ लोगों के लिए छिपा रहता है। क्यों? क्योंकि भले ही ये लोग परमेश्वर के कार्य के अंतर्गत रहते हैं और परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, फिर भी उन्होंने न तो कभी परमेश्वर को समझने का प्रयास किया, न ही परमेश्वर को जानना चाहा, परमेश्वर के निकट आने की तो बात ही छोड़ो। इन लोगों के लिए, परमेश्वर के स्वभाव को समझना इस बात की पूर्वसूचना देता है कि उनका अंत निकट है; इसका अर्थ है कि परमेश्वर के स्वभाव द्वारा उनका न्याय किया जाने वाला है और उन्हें दोषी ठहराया जाने वाला है। इसलिए, उन्होंने कभी भी परमेश्वर या उसके स्वभाव को समझने की इच्छा नहीं की है, न ही कभी उन्होंने परमेश्वर के इरादों की गहरी समझ या उनके ज्ञान की अभिलाषा की है। वे सचेत सहयोग के माध्यम से परमेश्वर के इरादों को समझने का प्रयास नहीं करते—वे तो बस जो करना चाहते हैं, हमेशा वही करने में आनंद लेते हैं और उसे करते हुए कभी नहीं थकते; वे ऐसे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जिसमें वे विश्वास करना चाहते हैं; वे ऐसे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जो केवल उनकी कल्पनाओं में ही मौजूद है, ऐसा परमेश्वर जो केवल उनकी धारणाओं में मौजूद है; और एक ऐसे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जिसे उनके दैनिक जीवन में उनसे अलग नहीं किया जा सकता है। जब स्वयं सच्चे परमेश्वर की बात आती है, तो वे उसे पूरी तरह खारिज कर देते हैं और उसे समझने या उस पर ध्यान देने की उनमें कोई इच्छा नहीं होती और उसके करीब आने का इरादा तो बिल्कुल भी नहीं होता। वे केवल परमेश्वर द्वारा व्यक्त शब्दों का प्रयोग स्वयं को सजाने, स्वयं को अच्छी तरह से प्रस्तुत करने के लिए कर रहे हैं। उनके विचार से, यह उनको पहले से ही सफल विश्वासी एवं अपने हृदय में परमेश्वर के प्रति आस्था रखने वाला व्यक्ति बना देता है। अपने हृदय में वे अपनी कल्पनाओं, अपनी धारणाओं और यहाँ तक कि परमेश्वर के बारे में अपनी व्यक्तिगत परिभाषाओं से निर्देशित होते हैं। दूसरी ओर, स्वयं सच्चे परमेश्वर का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि, यदि वे सच्चे परमेश्वर को समझना चाहते, परमेश्वर के सच्चे स्वभाव और परमेशवर क्या है और उसके पास क्या है, उसे समझना चाहते तो इसका अर्थ होता कि उनके कार्यों, उनकी आस्था उनके अनुसरण की निंदा की जाएगी। इसीलिए वे परमेश्वर का सार समझने के अनिच्छुक रहते हैं और इसीलिए वे परमेश्वर को अच्छे से समझने, परमेश्वर के इरादों को अच्छे से जानने और परमेश्वर के स्वभाव को अच्छे से समझने के लिए सक्रिय रूप से प्रयास करने या प्रार्थना करने के अनिच्छुक रहते हैं और उसके लिए तैयार नहीं होते। इसके बजाय, वे चाहते हैं कि परमेश्वर कुछ ऐसा हो, जिसे गढ़ा गया हो, जो कुछ खोखला और अज्ञात हो। वे चाहते हैं कि परमेश्वर बिल्कुल ऐसा हो, जिसकी उन्होंने कल्पना की है, जो उनके इशारों और मांग पर चले, जिसका भंडार अक्षय हो और जो हमेशा उपलब्ध रहे। जब वे परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेना चाहते हैं, तो वे परमेश्वर से वह अनुग्रह बन जाने की माँग करते हैं। जब उन्हें परमेश्वर के आशीष की आवश्यकता होती है, तो वे परमेश्वर से वह आशीष बन जाने की माँग करते हैं। विपत्ति का सामना करने पर वे परमेश्वर से माँग करते हैं कि वह उन्हें मजबूत बनाए और उनकी पीछे की ढाल बन जाए। परमेश्वर के बारे में इन लोगों का ज्ञान अनुग्रह एवं आशीष की परिधि के दायरे में ही अटका हुआ है। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव और स्वयं परमेश्वर के विषय में उनकी समझ भी उनकी कल्पनाओं और शब्दों एवं धर्म-सिद्धांतों तक ही सीमित होती है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो परमेश्वर के स्वभाव को समझने के लिए उत्सुक हैं, वास्तव में परमेश्वर को देखना चाहते हैं और वास्तव में परमेश्वर के स्वभाव और जो वह स्वयं है और जो उसके पास हैं, उसे समझना चाहते हैं। ये लोग सत्य की वास्तविकता एवं परमेश्वर द्वारा उद्धार की खोज में रहते हैं और परमेश्वर से विजय, उद्धार एवं पूर्णता प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। वे परमेश्वर के वचन को पढ़ने के लिए अपने हृदय का उपयोग करते हैं, प्रत्येक परिस्थिति एवं प्रत्येक व्यक्ति, घटना या ऐसी प्रत्येक चीज को समझने के लिए अपने हृदय का उपयोग करते हैं, जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने उनके लिए की है और वे ईमानदारी से प्रार्थना और खोज करते हैं। वे सबसे अधिक परमेश्वर के इरादों को जानना चाहते हैं और परमेश्वर के सच्चे स्वभाव एवं सार को समझना चाहते हैं, ताकि वे आगे से परमेश्वर को और ठेस न पहुँचाएँ और अपने अनुभवों के माध्यम से परमेश्वर की सुंदरता और उसके सच्चे पहलू को और भी देख सकें। वे ऐसा इसलिए भी करते हैं ताकि उनके हृदय में वास्तव में एक सच्चा परमेश्वर विराजमान हो सके और ताकि उनके हृदय में परमेश्वर के लिए एक स्थान हो, जिससे अब उन्हें कल्पनाओं, धारणाओं या अस्पष्टता के बीच न जीना पड़े। इन लोगों में परमेश्वर के स्वभाव एवं सार को समझने की एक प्रबल इच्छा होने का कारण यह है कि मानवजाति को अपने अनुभवों के दौरान पल-पल परमेश्वर के स्वभाव एवं सार की आवश्यकता होती है; यह उसका स्वभाव और सार ही है, जो व्यक्ति के पूरे जीवनकाल के दौरान जीवन की आपूर्ति करता है। जब एक बार वे परमेश्वर के स्वभाव को समझ लेंगे तो वे और भी अच्छे से परमेश्वर का भय मानने, परमेश्वर के कार्य के साथ और अच्छे से सहयोग करने, परमेश्वर के इरादों के प्रति और अधिक विचारशील रहने और अपना कर्तव्य उचित ढंग से निभाने में सक्षम होंगे। परमेश्वर के स्वभाव के प्रति इस प्रकार के रुख दो प्रकार के लोग रखते हैं। प्रथम प्रकार के लोग परमेश्वर के स्वभाव को समझना नहीं चाहते। भले ही वे कहते हों कि वे परमेश्वर के स्वभाव को समझना चाहते हैं, स्वयं परमेश्वर को जानना चाहते हैं, देखना चाहते हैं जो उसके पास है और जो वह खुद है तथा ईमानदारी से परमेश्वर के इरादों को समझना चाहते हैं, किंतु अपने हृदय की गहराई में वे मानते हैं कि परमेश्वर का अस्तित्व नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस प्रकार के लोग निरंतर परमेश्वर से विद्रोह कर उसका प्रतिरोध करते हैं; वे अपने हृदय में पद के लिए परमेश्वर से लड़ते हैं और अक्सर परमेश्वर के अस्तित्व पर संदेह करते हैं और यहाँ तक कि उससे इनकार कर देते हैं। वे परमेश्वर के स्वभाव या स्वयं वास्तविक परमेश्वर को अपने हृदय पर काबिज नहीं होने देना चाहते। वे सिर्फ अपनी ही इच्छाएँ, कल्पनाएँ एवं महत्वाकांक्षाएँ पूरी करना चाहते हैं। अतः हो सकता है ये लोग परमेश्वर में विश्वास करते हों, परमेश्वर का अनुसरण करते हों और उसके लिए अपने परिवार एवं नौकरियां भी त्याग सकते हों, लेकिन वे अपने बुरे तरीक़ों से बाज नहीं आते। यहाँ तक कि कुछ लोग भेंटों की चोरी भी करते हैं या उसे लुटा देते हैं या एकांत में परमेश्वर को कोसते हैं, जबकि अन्य लोग बार-बार अपने बारे में गवाही देने, अपनी शक्ति बढ़ाने और लोगों एवं हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा करने हेतु अपने पदों का उपयोग कर सकते हैं। वे लोगों से अपनी आराधना करवाने के लिए विभिन्न तरीकों एवं साधनों का उपयोग करते हैं और लोगों को जीतने एवं उनको नियंत्रित करने की लगातार कोशिश करते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग जानबूझकर लोगों को यह सोचने के लिए गुमराह करते हैं कि वे परमेश्वर हैं ताकि उनके साथ परमेश्वर की तरह व्यवहार किया जाए। वे किसी को कभी नहीं बताएँगे कि उन्हें भ्रष्ट कर दिया गया है—कि वे भी भ्रष्ट एवं अहंकारी हैं, उनकी आराधना नहीं करनी है और चाहे वे कितना भी अच्छा करते हों, यह सब परमेश्वर द्वारा उन्हें ऊँचा उठाने के कारण है और वे वही कर रहे हैं जो उन्हें वैसे भी करना ही चाहिए। वे ऐसी बातें क्यों नहीं कहते? क्योंकि वे लोगों के हृदय में अपना स्थान खोने से बहुत डरते हैं। इसीलिए ऐसे लोग परमेश्वर को कभी ऊँचा नहीं उठाते हैं और परमेश्वर के लिए कभी गवाही नहीं देते हैं, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर को समझने की कभी कोशिश नहीं की है। क्या वे परमेश्वर को समझे बिना ही उसे जान सकते हैं? असंभव है! इस प्रकार, यद्यपि “परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर” विषय के शब्द साधारण हो सकते हैं, किंतु प्रत्येक व्यक्ति के लिए उनका अर्थ अलग हो सकता है। अक्सर परमेश्वर से विद्रोह करने वाले, परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले, और परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने वाले व्यक्ति के लिए ये वचन निंदा का पूर्वाभास हैं; जबकि सत्य वास्तविकता का अनुसरण करने वाला और अक्सर परमेश्वर के इरादों को खोजने के लिए परमेश्वर के सम्मुख आने वाला व्यक्ति ऐसे वचनों को उस तरह लेगा, जैसे मछली जल को लेती है। अतः तुम लोगों के बीच ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें परमेश्वर के स्वभाव एवं परमेश्वर के कार्य की बात सुनकर सिरदर्द होने लगता है, जिनके हृदय प्रतिरोध से भर जाते हैं और वे अत्यधिक बेचैन हो जाते हैं। लेकिन तुम्हारे बीच कुछ ऐसे लोग हैं, जो सोचते हैं कि यह विषय बिल्कुल वही है जिसकी उन्हें आवश्यकता है, क्योंकि यह उनके लिए बहुत लाभदायक है। यह ऐसी चीज है, जो उनके जीवन के अनुभव से अनुपस्थित नहीं हो सकती; यह निचोड़ का निचोड़ है, परमेश्वर में आस्था का आधार है और यह ऐसी चीज है, जिसका मानवजाति त्याग नहीं कर सकती है। तुम सबको यह विषय निकट एवं दूर दोनों लग सकता है, अपरिचित होते हुए भी परिचित महसूस हो सकता है। किंतु चाहे जो भी हो, यह ऐसा विषय है जिसे हर एक को सुनना चाहिए, जानना चाहिए और समझना चाहिए। चाहे तुम इससे कैसे भी निपटो, चाहे तुम इसे कैसे भी देखो या चाहे तुम इसे कैसे भी ग्रहण करो, इस विषय के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
मानवजाति के सृजन के समय से ही परमेश्वर अपना कार्य करता रहा है। शुरुआत में, यह एक बहुत सरल कार्य था, लेकिन इसकी सरलता के बावजूद, यह परमेश्वर के सार एवं स्वभाव की अभिव्यक्ति से युक्त था। अब जबकि परमेश्वर का कार्य उन्नत हो गया है और परमेश्वर के वचन की महान अभिव्यक्ति के साथ उसका अनुसरण करने वाले हर व्यक्ति पर यह कार्य आश्चर्यजनक रूप से महान और मूर्त हो गया है, फिर भी इस दौरान परमेश्वर का व्यक्तित्व मानवजाति से पूर्णतया छिपा हुआ रहा है। बाइबल के लेखों के समय से लेकर हाल के दिनों तक हालाँकि वह दो बार देहधारण कर चुका है, फिर भी कभी भी किसी ने परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व को कभी देखा है? तुम लोगों की समझ के आधार पर क्या कभी किसी ने परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व को देखा है? नहीं। किसी ने परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व को नहीं देखा है, अर्थात किसी ने भी परमेश्वर के असल रूप को कभी नहीं देखा है। यह कुछ ऐसा है, जिससे हर कोई सहमत है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर का वास्तविक व्यक्तित्व या परमेश्वर का आत्मा सारी मानवता से छिपा हुआ है, जिसमें आदम और हव्वा भी शामिल हैं, जिन्हें उसने बनाया था और जिसमें धार्मिक अय्यूब शामिल है, जिसे उसने स्वीकार किया था। इनमें से किसी ने भी परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व को नहीं देखा था। लेकिन परमेश्वर क्यों जान-बूझकर अपने वास्तविक व्यक्तित्व को ढँकता है? कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर को डर है कि कहीं लोग डर न जाएँ।” दूसरे कहते हैं : “परमेश्वर अपने वास्तविक व्यक्तित्व को छिपाता है क्योंकि मनुष्य बहुत छोटा है और परमेश्वर बहुत बड़ा है; मनुष्य उसे नहीं देख पाएँगे, या फिर वे मर जाएँगे।” कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं : “परमेश्वर हर दिन अपने कार्य का प्रबंधन करने में व्यस्त रहता है, और शायद उसके पास प्रकट होने के लिए समय नहीं है कि लोग उसे देख पाएँ।” इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमलोग किस पर विश्वास करते हो, यहाँ मेरा एक निष्कर्ष है। वह निष्कर्ष क्या है? वह निष्कर्ष यह है कि बस परमेश्वर चाहता ही नहीं कि लोग उसके वास्तविक व्यक्तित्व को देखें। मानव जाति से छिपे रहना कुछ ऐसा है, जिसे परमेश्वर जानबूझकर करता है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर का उद्देश्य यह है कि लोग उसके वास्तविक व्यक्तित्व को न देखें। अब तक यह सबको स्पष्ट हो जाना चाहिए। यदि परमेश्वर ने अपने व्यक्तित्व को कभी किसी को नहीं दिखाया है, तो क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर के व्यक्तित्व का अस्तित्वहै? (उसका अस्तित्व है।) निश्चय ही उसका अस्तित्व है। परमेश्वर के व्यक्तित्व का अस्तित्व सभी संदेह से परे है। किन्तु जहाँ तक इसकी बात है कि परमेश्वर का व्यक्तित्व कितना बड़ा है या वह कैसा दिखता है, क्या ये वे प्रश्न हैं जिनकी मानवजाति को छानबीन करनी चाहिए? नहीं। उत्तर नकारात्मक है। यदि परमेश्वर का व्यक्तित्व ऐसा विषय नहीं है, जिसकी हमें छानबीन करनी चाहिए, तो फिर किसकी करनी चाहिए? (परमेश्वर का स्वभाव।) (परमेश्वर का कार्य।) इससे पहले कि हम आधिकारिक विषय पर संगति शुरू करें, आओ हम उसी पर लौटें, जिस पर थोड़ी देर पहले चर्चा कर रहे थे : परमेश्वर ने मानवजाति को कभी अपना व्यक्तित्व क्यों नहीं दिखाया है? परमेश्वर क्यों जानबूझकर अपने व्यक्तित्व को मानवजाति से छिपाता है? इसका सिर्फ एक ही कारण है, और वह है : यद्यपि परमेश्वर द्वारा सृजित किए गए मनुष्य ने परमेश्वर के हज़ारों वर्षों के कार्य का अनुभव किया है, फिर भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, जो परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव एवं परमेश्वर के सार को जानता हो। परमेश्वर की नज़रों में ऐसे लोग उसके विरुद्ध हैं और परमेश्वर अपने आप को ऐसे लोगों को नहीं दिखाएगा, जो उसके प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। यही एकमात्र कारण है कि परमेश्वर ने अपने व्यक्तित्व को कभी मानवजाति को नहीं दिखाया है और क्यों वह जानबूझकर अपने व्यक्तित्व को मानवता से बचाकर रखता है। क्या अब तुम लोगों को परमेश्वर का स्वभाव जानने का महत्व स्पष्ट है?
परमेश्वर के प्रबंधन के अस्तित्व के समय से ही, वह अपना कार्य कार्यान्वित करने के लिए हमेशा ही पूरी तरह से समर्पित रहा है। मनुष्य से अपने व्यक्तित्व को छिपाने के बावजूद, वह हमेशा मनुष्य के अगल-बगल ही रहा है, मनुष्य पर कार्य करता रहा है, अपने स्वभाव को व्यक्त करता रहा है, अपने सार से समूची मानवजाति का मार्गदर्शनकरता रहा है और अपनी शक्ति, अपनी बुद्धि और अपने अधिकार के माध्यम से हर एक व्यक्ति पर अपना कार्य करता रहा है, इस प्रकार वह व्यवस्था के युग, अनुग्रह के युग और आज के राज्य के युग को अस्तित्व में लाया है। यद्यपि परमेश्वर मनुष्य से अपने व्यक्तित्व को छिपाता है, फिर भी उसका स्वभाव, उसका अस्तित्व और उसकी चीज़ें और मानवजाति के प्रति उसके इरादे खुलकर मनुष्य के सामने प्रकट हो जाते हैं ताकि मनुष्य उन्हें देख एवं अनुभव कर सके। दूसरे शब्दों में, यद्यपि मानव परमेश्वर को देख या स्पर्श नहीं कर सकते, फिर भी मानवता के सामने आने वाला परमेश्वर का स्वभाव एवं सार पूरी तरह स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या यह सत्य नहीं है? परमेश्वर अपने कार्य के लिए चाहे जिस रास्ते या कोण को चुने, वह हमेशा अपनी सच्ची पहचान के ज़रिए लोगों से बर्ताव करता है, वह कार्य करता है जिन्हें करना उसका फर्ज़ है और वे वचन कहता है, जो उसे कहने हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर किस स्थान से बोलता है—वह तीसरे स्वर्ग में खड़ा हो सकता है या देह में खड़ा हो सकता है या यहाँ तक कि एक साधारण व्यक्ति हो सकता है—वह मनुष्य से बिना किसी छल या छिपाव के हमेशा अपने पूरे दिल और अपने पूरे मन के साथ बोलता है। जब वह अपने कार्य को क्रियान्वित करता है, परमेश्वर अपने वचन एवं अपने स्वभाव को अभिव्यक्त करता है और बिना किसी प्रकार के संदेह के जो वह स्वयं है और जो उसके पास है, उसे प्रकट करता है। वह अपने जीवन, अस्तित्व और अपनी चीज़ों के साथ मानवजाति का मार्गदर्शन करता है। इसी तरह से मनुष्य ने व्यवस्था के युग—मानवता के शैशव युग—के दौरान “अदृश्य एवं अस्पृश्य” परमेश्वर के मार्गदर्शन में जीवन बिताया था।
व्यवस्था के युग के बाद पहली बार परमेश्वर ने देहधारण किया था—ऐसा देहधारण जो साढ़े तैंतीस वर्षों तक रहा। एक मनुष्य के लिए, क्या साढ़े तैंतीस साल का समय लंबा समय है? (ज़्यादा लंबा नहीं है।) जबकि किसी मानव का जीवनकाल सामान्यतः तीस-एक सालों से कहीं ज़्यादा लंबा होता है, यह एक मनुष्य के लिए बहुत लंबा समय नहीं है। किंतु देहधारी परमेश्वर के लिए ये साढ़े तैंतीस साल वास्तव में बहुत ही लंबे थे। वह एक व्यक्ति बन गया—एक सामान्य व्यक्ति, जिसने परमेश्वर के कार्य और आदेश को अपने हाथ में लिया था। इसका अर्थ था कि उसे ऐसा कार्य करना था, जिसे एक सामान्य व्यक्ति नहीं संभाल सकता है, जबकि वह पीड़ा भी सहन कर रहा था, जिसका सामना सामान्य लोग नहीं कर सकते। अनुग्रह के युग के दौरान प्रभु यीशु द्वारा सहन की गई पीड़ा की मात्रा, उसके कार्य की शुरुआत से लेकर उसे सलीब पर कीलों से जड़े जाने तक, शायद कुछ ऐसा नहीं है जिसे आज के लोग व्यक्तिगत रूप से देख सकते, किंतु क्या तुम लोग कम से कम बाइबल की कहानियों के ज़रिए इसका अंदाज़ा तक नहीं ले सकतेसकते? चाहे इन लिखित तथ्यों में कितने भी विवरण हों, कुल मिलाकर, इस समयावधि के दौरान परमेश्वर का कार्य कष्ट एवं पीड़ा से भरा था। एक भ्रष्ट मनुष्य के लिए, साढ़े तैंतीस साल का समय एक लंबा समय नहीं है; थोड़ी सी पीड़ा छोटी बात है। लेकिन पवित्र, निष्कलंक परमेश्वर के लिए, जिसे सारी मानवजाति के पापों को सहना था और जिसे पापियों के साथ खाना, सोना और रहना था, यह पीड़ा अविश्वसनीय तौर पर बहुत ही बड़ी थी। वह सृष्टिकर्ता है, सभी चीज़ों का संप्रभु और हर चीज़ का संप्रभु है, फिर भी जब वह संसार में आया, तो उसे भ्रष्ट मनुष्यों के हाथों दमन और क्रूरता को सहना पड़ा था। अपने कार्य को पूर्ण करने और मानवता को दुर्गति के समुद्र से निकालने के लिए, उसे मनुष्य द्वारा दोषी ठहराया जाना था और सारी मानवजाति के पापों को सहना था। वह जितनी पीड़ा से होकर वह गुज़रा था, उसकी थाह संभवतः सामान्य लोगों द्वारा नापी एवं आंकी नहीं जा सकती है। यह पीड़ा क्या दर्शाती है? यह मानवजाति के प्रति परमेश्वर के समर्पण को दर्शाती है। यह उस अपमान का प्रतीक है, जिसे उसने सहा था और उस कीमत का प्रतीक है, जिसे उसने मनुष्य के उद्धार के लिए, उनके पापों से छुटकारे के लिए और अपने कार्य के इस चरण को पूर्ण करने के लिए चुकाया था। इसका अर्थ यह भी है कि मनुष्य परमेश्वर के द्वारा सलीब से छुड़ाया जाएगा। यह एक ऐसी कीमत है जिसे लहू से एवं जीवन से चुकाया गया और एक ऐसी कीमत, जिसे चुका पाना सृजित किए गए किसी भी प्राणी के बस में नहीं है। उसके पास परमेश्वर का सार और वह है जोकि परमेश्वर के पास है, इसलिए वह ऐसी पीड़ा सह सका और इस प्रकार का कार्य कर सका। यह कुछ ऐसा कार्य है जिसे उसकी जगह कोई सृजित प्राणी नहीं कर सकता था। यह अनुग्रह के युग के दौरान परमेश्वर का कार्य है और उसके स्वभाव का एक प्रकाशन है। क्या इससे कुछ भी जो वह है या उसके पास है, प्रकट होता है? क्या यह मानवजाति के जानने योग्य है? उस युग में, यद्यपि मनुष्य ने परमेश्वर के व्यक्तित्व को नहीं देखा था, फिर भी उन्होंने परमेश्वर की पाप बलि को प्राप्त किया और उन्हें परमेश्वर द्वारा सलीब से छुड़ाया गया। हो सकता है कि मानवजाति अनुग्रह के युग में किए गए परमेश्वर के कार्य से अनजान न हो, लेकिन क्या कोई उस युग में व्यक्त किए गए परमेश्वर के स्वभाव और इरादों से परिचित है? विभिन्न युगों के दौरान विभिन्न माध्यमों से मनुष्य महज़ परमेश्वर के कार्य के विवरण ही जानता है या परमेश्वर से संबंधित उन कहानियों को जानता है, जो उसी समय घटित हुई थीं जब परमेश्वर अपने कार्य को क्रियान्वित कर रहा था। ये विवरण एवं कहानियाँ ज़्यादा से ज़्यादा परमेश्वर के विषय में कुछ सूचनाएँ या प्राचीन किंवदंतियां हैं और इनका परमेश्वर के स्वभाव एवं सार के साथ कोई वास्ता नहीं है। अतः चाहे लोग परमेश्वर के बारे में कितनी भी कहानियाँ जानते हों, इसका यह मतलब नहीं कि उनके पास परमेश्वर के स्वभाव या उसके सार की गहरी समझ एवं ज्ञान है। व्यवस्था के युग के समान, यद्यपि लोगों ने अनुग्रह के युग में देहधारी परमेश्वर के साथ बहुत करीबी एवं घनिष्ठ संपर्क का अनुभव किया था, फिर भी परमेश्वर के स्वभाव एवं परमेश्वर के सार के विषय में उनका ज्ञान वस्तुतः न के बराबर था।
राज्य के युग में परमेश्वर ने फिर से देहधारण किया, उसी प्रकार जैसे उसने पहली बार किया था। कार्य की इस समयावधि के दौरान, परमेश्वर अभी भी खुलकर अपने वचन को अभिव्यक्त करता है, वह कार्य करता है जो उसे करना है और वह अभिव्यक्त करता है, जो वह स्वयं है और जो उसके पास है। साथ ही, वह निरंतर मनुष्य के विद्रोहीपन और अज्ञानता को सहकर सब्र करता जाता है। क्या इस समयावधि के कार्य के दौरान भी परमेश्वर निरंतर अपने स्वभाव को प्रकट नहीं करता और अपने इरादों को व्यक्त नहीं करता? इसलिए मनुष्य के सृजन से लेकर अब तक, परमेश्वर का स्वभाव, उसका अस्तित्व और उसकी चीज़ें एवं उसके इरादे सदैव हर व्यक्ति के सामने रहे हैं। परमेश्वर ने कभी भी जानबूझकर अपने सार, अपने स्वभाव या अपने इरादों को नहीं छिपाया। बात बस इतनी है कि मानवजाति इसकी परवाह नहीं करती कि परमेश्वर क्या कर रहा है, उसके इरादे क्या हैं—इसीलिए परमेश्वर के बारे में मनुष्य की समझ इतनी दयनीय है। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर अपने व्यक्तित्व को छिपाता है, तो भी वह हर समय खुले तौर पर अपने इरादों, स्वभाव और सार को प्रकट करते हुए हर क्षण मानवजाति के साथ खड़ा होता है। एक अर्थ में, परमेश्वर का व्यक्तित्व भी सभी लोगों के सामने है लेकिन मनुष्य के अंधेपन और विद्रोहीपन के कारण वे कभी भी परमेश्वर का प्रकटन नहीं देख पाते। अतः यदि ऐसी स्थिति है, तो क्या प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर के स्वभाव और स्वयं परमेश्वर को समझना आसान नहीं होना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर देना बहुत ही कठिन है, है ना? तुम कह सकते हो कि यह आसान है, लेकिन जब कुछ लोग परमेश्वर को जानने का प्रयास करते हैं, वे वास्तव में उसे नहीं जान पाते या उसके विषय में एक स्पष्ट समझ प्राप्त नहीं कर पाते—वह हमेशा ही धुंधली और अस्पष्ट रहती है। किंतु यदि तुम कहो कि यह आसान नहीं है, तो वह भी सही नहीं है। इतने लंबे समय तक परमेश्वर के कार्य के अधीन रहने के बाद, अपने अनुभवों के माध्यम से, प्रत्येक का परमेश्वर के साथ वास्तव में व्यवहार हो चुका होना चाहिए। उन्हें कम से कम कुछ हद तक अपने हृदय में परमेश्वर का अहसास करना चाहिए था या उन्हें पहले परमेश्वर के साथ आध्यात्मिक संस्पर्श करना चाहिए था और उनके पास कम से कम परमेश्वर के स्वभाव के विषय में थोड़ी बहुत अनुभव लायक जागरूकता होनी चाहिए थी या उन्हें उसकी कुछ समझ प्राप्त करनी चाहिए थी। जब से मनुष्य ने परमेश्वर का अनुसरण करना शुरू किया था, तब से अब तक मानवजाति ने बहुत कुछ प्राप्त किया है, लेकिन कई वजहों से—मनुष्य की नाकाबिलियत, अज्ञानता, विद्रोहीपन एवं विभिन्न प्रयोजनों के कारणवश—मानवजाति ने इसमें से बहुत कुछ खो भी दिया है। क्या परमेश्वर ने मानवजाति को पहले से ही काफी कुछ नहीं दिया है? यद्यपि परमेश्वर अपने व्यक्तित्व को मनुष्यों से छिपाता है, फिर भी जो वह स्वयं है, जो उसके पास है और अपने जीवन से वह मनुष्य को आपूर्ति करता है; परमेश्वर के विषय में मानव जाति का ज्ञान केवल उतना ही नहीं होना चाहिए जितना अभी है। इसीलिए मैं सोचता हूँ कि परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव एवं स्वयं परमेश्वर के विषय में तुम लोगों के साथ आगे संगति करना आवश्यक है। इसका उद्देश्य यह है कि हज़ारों साल की देखभाल एवं परवाह, जिसे परमेश्वर ने मनुष्य पर न्योछावर किया है, व्यर्थ न हो जाए और मानवजाति अपने प्रति परमेश्वर के इरादों को सचमुच समझ और सराह सके। यह इसलिए है ताकि लोग परमेश्वर के विषय में अपने ज्ञान में एक नए चरण की ओर बढ़ सकें। साथ ही यह परमेश्वर को लोगों के हृदय में अपने असली स्थान पर वापस लौटाएगा; अर्थात उसके साथ इंसाफ करेगा।
परमेश्वर के स्वभाव एवं स्वयं परमेश्वर को समझने के लिए तुम्हें बहुत थोड़े से आरंभ करना होगा। लेकिन थोड़े से कहां से शुरू करोगे? सबसे पहले, मैंने बाइबल के कुछ अध्यायों को चुना है। नीचे दी गई जानकारी में बाइबल के पद सम्मिलित हैं, उनमें से सब परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव एवं स्वयं परमेश्वर के विषय से संबंधित हैं। मैंने विशेष रूप से इन अंशों को संदर्भ के रूप में खोजा है ताकि परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव एवं स्वयं परमेश्वर को समझने में तुम लोगों की सहायता करूँ। इन्हें साझा करने से हम यह देख पाएँगेकि परमेश्वर ने अपने अतीत के कार्य के ज़रिए किस प्रकार का स्वभाव प्रकट किया है और उसके सार के किन पहलुओं को लोग नहीं जानते हैं। हो सकता है कि ये अध्याय पुराने हों, लेकिन वह विषय जिसके बारे में हम संगति कर रहे हैं, वह कुछ नया है जो लोगों के पास नहीं है और जिसके बारे में उन्होंने कभी नहीं सुना है। हो सकता है कि तुम में से कुछ को यह कल्पनातीत लगे—क्या आदम और हव्वा की चर्चा करना और नूह तक लौटना, उन्हीं चरणों की ओर लौटना नहीं है? चाहे तुम लोग कुछ भी सोचो, ये अध्याय इस विषय पर संगति के लिए अत्यंत लाभकारी हैं और आज की संगति के लिए ये शिक्षण सामाग्री या प्रत्यक्ष सामग्री के बतौर काम सकते हैं। जब तक मैं इस संगति को समाप्त करूँगा, तुम लोग इन अध्यायों को चुनने के पीछे मेरा उद्देश्य समझ जाओगे। जिन्होंने पहले बाइबल पढ़ी है, उन्होंने शायद इन कुछ पदों को पढ़ा हो, लेकिन शायद इन्हें सही मायने में न समझा हो। आओ, पहले इनकी संक्षिप्त समीक्षा करते हैं, फिर अपनी संगति में एक-एक करके इन पर विस्तार से जानेंगे।
आदम और हव्वा मानवजाति के पूर्वज हैं। यदि हमें बाइबल से पात्रों का उल्लेख करना है, तब हमें इन दोनों से शुरू करना होगा। अगला है नूह, मानवजाति का दूसरा पूर्वज। तीसरा पात्र कौन है? (अब्राहम।) क्या तुम सब लोग अब्राहम की कहानी के बारे में जानते हो? हो सकता है कि तुम लोगों में से कुछ जानते हों, लेकिन दूसरों के लिए शायद यह ज़्यादा स्पष्ट न हो। चौथा पात्र कौन है? सदोम के विनाश की कहानी में किसका उल्लेख है? (लूत।) लेकिन यहाँ लूत का संदर्भ नहीं दिया गया है। यह किसकी ओर संकेत करता है? (अब्राहम।) अब्राहम की कहानी में जो मुख्य बात है, वह है जो कुछ यहोवा परमेश्वर ने कहा था। क्या तुमने इसे देखा? पाँचवाँपात्र कौन है? (अय्यूब।) क्या परमेश्वर ने अपने कार्य के इस चरण के दौरान अय्यूब की कहानी के बारे में बहुत कुछ उल्लेख नहीं किया है? तो क्या तुम लोग इस कहानी के बारे में बहुत अधिक परवाह करते हो? यदि तुम लोग बहुत अधिक परवाह करते ही हो, तो क्या तुम लोगों ने बाइबल में अय्यूब की कहानी को ध्यान से पढ़ा है? क्या तुम्हें पता है कि अय्यूब ने कौन सी बातें कहीं, उसने कौन सी चीज़ें कीं? वे लोग जिन्होंने इसे सबसे अधिक पढ़ा है, तुम लोगों ने इसे कितनी बार पढ़ा है? क्या तुम इसे अक्सर पढ़ते हो? हाँगकाँग की बहनो, कृपया हमें बताओ। (जब हम अनुग्रह के युग में थे, तब मैंने इसे एक-दो बार पढ़ा था।) तुम लोगों ने तब से इसे दोबारा नहीं पढ़ा है? यदि ऐसा है, तो यह शोचनीय है। मैं तुम लोगों को बता दूँ : परमेश्वर के कार्य के इस चरण के दौरान उसने कई बार अय्यूब का उल्लेख किया, जो उसके इरादों का एक प्रतिबिंब है। यह बात कि उसने कई बार अय्यूब का उल्लेख किया लेकिन तुम लोगों का ध्यान उस पर नहीं गया, यह इस तथ्य का एक प्रमाण है : तुम लोगों की ऐसे लोग बनने में कोई रुचि नहीं जो अच्छे हैं और जो परमेश्वर का भय मानते और बुराई से दूर रहते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोग बस परमेश्वर द्वारा उद्धृत अय्यूब की कहानी के बारे में हल्के-फुल्के अंदाज़े से ही संतुष्ट हो। तुम लोग बस कहानी को समझने भर से ही संतुष्ट हो, लेकिन तुम लोग उन विवरणों की परवाह नहीं करते या समझने की कोशिश नहीं करते कि अय्यूब कौन है और परमेश्वर का विविध अवसरों पर अय्यूब का ज़िक्र करने के पीछे उद्देश्य क्या है। यदि तुम लोगों को एक ऐसे व्यक्ति में रुचि नहीं है, जिसकी परमेश्वर ने प्रशंसा की है, तो तुम लोग असल में ध्यान किस बात पर दे रहे हो? यदि तुम लोग एक ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति की परवाह नहीं करते या समझने की कोशिश नहीं करते, जिसका परमेश्वर ने उल्लेख किया है तो यह परमेश्वर के वचन के प्रति तुम लोगों के रवैये के बारे में क्या कहता है? क्या यह एक दुःखद बात नहीं होगी? क्या इससे यह साबित नहीं होगा कि तुम लोगों में से अधिकतर व्यावहारिक चीज़ों में शामिल नहीं हो या सत्य की खोज में नहीं हो? यदि तुम सत्य को खोजते ही हो, तो तुम उन लोगों पर जिन्हें परमेश्वर स्वीकार करता है और उन पात्रों की कहानियों पर आवश्यक ध्यान दोगे, जिनके बारे में परमेश्वर ने बोला है। इसकी परवाह किए बगैर कि तुम उनके अनुरूप आचरण कर सकते हो या उनकी कहानियों को महसूस करने लायक पाते हो, तुम जल्दी से जाओगे और उनके बारे में पढ़ोगे, उन्हें समझने की कोशिश करोगे, उनके उदाहरण का अनुसरण करने के तरीके ढूँढोगे और वह करोगे, जिसे तुम अपनी सर्वोच्च योग्यता के साथ कर सकते हो। सत्य की लालसा रखने वाले किसी व्यक्ति को इस तरह व्यवहार करना चाहिए। लेकिन तथ्य यह है कि तुम लोगों में से अधिकांश लोग जो यहाँ बैठे हैं, उन्होंने अय्यूब की कहानी को कभी नहीं पढ़ा है। यह काफ़ी कुछ कहता है।
आओ, हम उस विषय पर वापस जाएँ जिस पर मैं अभी-अभी बात कर रहा था। पवित्र शास्त्रों के इस भाग में, जो पुराने नियम व्यवस्था के युग से संबंधित है, मैंने उन कुछ कहानियों को ध्यान केंद्रित करने के लिए चुना है, जिनके पात्र बेहद प्रतिनिधिक हैं, जिनसे बाइबल पढ़ने वाले ज़्यादातर लोग परिचित हैं। कोई भी जो इन पात्रों के बारे में कहानियाँ पढ़ता है, वह यह महसूस कर पाएगा कि वह कार्य जिसे परमेश्वर ने उन पर किया है और वे वचन जिन्हें परमेश्वर ने उनसे कहा है, वे आज के लोगों के लिए भी उतने ही मूर्त एवं सुगम हैं। बाइबल से इन कहानियों और अभिलेखों को पढ़ने पर तुम यह बेहतर ढंग से समझ पाओगे कि किस प्रकार परमेश्वर ने अपना कार्य किया और किस प्रकार इतिहास के उन दिनों में लोगों के साथ व्यवहार किया। लेकिन आज इन अध्यायों पर चर्चा करने का मेरा उद्देश्य यह नहीं है कि तुम इन कहानियों या उनके पात्रों पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करो। इसके बजाय उद्देश्य यह है कि तुम—इन पात्रों की कहानियों के ज़रिए—परमेश्वर के कर्म और उसका स्वभाव देख पाते हो। इससे तुम अधिक आसानी से परमेश्वर को जानने और समझने लायक बन पाओगे, उसका वास्तविक पक्ष देख पाओगे; यह तुम्हारे अनुमानों और उसके बारे में धारणाओं को दूर करेगा और तुम्हें अस्पष्टता से घिरी निष्ठा से दूर जाने मेंमदद करेगा। जब तक तुम्हारे पास ठोस आधार न हो, परमेश्वर के स्वभाव का अर्थ निकालना और स्वयं परमेश्वर को जानने की कोशिश करना अक्सर असहायता, दुर्बलता और अनिश्चितता महसूस करा सकता है कि कहाँ से शुरू करें। इसने मुझे एक ऐसी पद्धति और दृष्टिकोण विकसित करने को प्रेरित किया, जो तुम्हें परमेश्वर को बेहतर समझने में मदद कर सकता है, अधिक प्रामाणिक रूप से परमेश्वर के इरादों की सराहना करता है, परमेश्वर के स्वभाव और स्वयं परमेश्वर की जानकारी दे सकता है और तुमको वास्तव में परमेश्वर के अस्तित्व का अहसास कर मानवजाति के प्रति उसके इरादों की सराहना करने देता है। क्या इस सबका तुम लोगों को लाभ नहीं होगा? अब जब तुम सब इन कहानियों और पवित्र शास्त्रों के हिस्सों को दोबारा देखते हो, तो तुम अपने हृदय के भीतर क्या महसूस करते हो? क्या तुम सोचते हो कि पवित्र शास्त्र के अंश जिन्हें मैंने चुना है, वे ज़रूरत से ज़्यादा हैं? जो कुछ मैंने तुम लोगों को अभी-अभी बताया था, उस पर मैं दोबारा ज़ोर दूँगा : इन पात्रों की कहानियों को तुम लोगों से पढ़वाने का लक्ष्य है कि यह समझने में तुम लोगों की सहायता की जाए कि परमेश्वर कैसे लोगों पर अपना कार्य करता है और मानवजाति के प्रति उसके रवैये को अच्छी तरह समझा जा सके। इस समझ तक पहुँचने में तुम्हें किससे मदद मिलेगी? परमेश्वर ने अतीत में जो कार्य किया है उसे समझकर और उस कार्य से जोड़कर जो परमेश्वर इस समय कर रहा है—इससे तुम्हें उसके असंख्य पहलू समझने में मदद मिलेगी। ये असंख्य पहलू वास्तविक हैं और उन सभी द्वारा जाने और समझे जाने चाहिए, जो परमेश्वर को जानने की इच्छा रखते हैं।
अब हम पवित्र शास्त्र के एक उद्धरण से शुरू करते हुए आदम और हव्वा की कहानी से शुरुआत करेंगे।
क. आदम और हव्वा
1. आदम के लिए परमेश्वर की आज्ञा
उत्पत्ति 2:15-17 तब यहोवा परमेश्वर ने आदम को लेकर अदन की वाटिका में रख दिया, कि वह उसमें काम करे और उसकी रक्षा करे। और यहोवा परमेश्वर ने आदम को यह आज्ञा दी, “तू वाटिका के सब वृक्षों का फल बिना खटके खा सकता है; पर भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना : क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाएगा उसी दिन अवश्य मर जाएगा।”
तुम लोगों को इन पदों से क्या समझ आया? पवित्र शास्त्र का यह भाग तुम लोगों को कैसा महसूस कराता है? मैंने आदम के लिए परमेश्वर की आज्ञा के बारे में चर्चा का फ़ैसला क्यों किया? क्या अब तुम लोगों में से प्रत्येक के मन में परमेश्वर और आदम की एक तस्वीर है? तुम कल्पना करने की कोशिश कर सकते हो : यदि तुम लोग उस दृश्य में होते, तो तुम लोगों के हृदय में, कहीं गहरे, परमेश्वर किसके समान होता? इस बारे में सोचने से तुम लोगों को कैसा लगता है? यह एक द्रवित करने और दिल को छू लेने वाली तस्वीर है। यद्यपि इसमें केवल परमेश्वर एवं मनुष्य ही हैं, फिर भी उनके बीच की घनिष्ठता तुम्हें आदर से भर देती है : परमेश्वर का प्रचुर प्रेम मनुष्य को खुलकर प्रदान किया गया है और यह मनुष्य को घेरे रहता है; मनुष्य भोला-भाला एवं निर्दोष, भारमुक्त एवं लापरवाह है, आनंदपूर्वक परमेश्वर की दृष्टि के अधीन जीवन बिताता है; परमेश्वर मनुष्य के लिए चिंता करता है, जबकि मनुष्य परमेश्वर की सुरक्षा एवं आशीष के अधीन जीवन बिताता है; हर एक चीज़ जिसे मनुष्य करता एवं कहता है वह परमेश्वर से घनिष्ठता से जुड़ी है और अभिन्न है।
यह परमेश्वर की पहली आज्ञा कही जा सकती है, जो मनुष्य को बनाने के बाद उसे दी गई। यह आज्ञा क्या सूचित करती है? यह परमेश्वर का इरादा दर्शाती है, परंतु साथ ही यह मानवजाति के लिए उसकी चिंताओं को भी बताती है। यह परमेश्वर की पहली आज्ञा है, और साथ ही यह भी पहली बार है, जब परमेश्वर मनुष्य के विषय में चिंता व्यक्त करता है। कहने का तात्पर्य है, जिस घड़ी परमेश्वर ने मनुष्य को बनाया, तब से उसने उसके प्रति ज़िम्मेदारी महसूस की है। उसकी ज़िम्मेदारी क्या है? उसे मनुष्य की सुरक्षा करनी है और मनुष्य की देखभाल करनी है। वह आशा करता है कि मनुष्य उस पर भरोसा कर सकता है और उसके वचनों का पालन कर सकता है। यह मनुष्य से परमेश्वर की पहली अपेक्षा भी है। इसी अपेक्षा के साथ परमेश्वर निम्नलिखित वचन कहता है : “तू वाटिका के सब वृक्षों का फल बिना खटके खा सकता है; पर भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना : क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाएगा उसी दिन अवश्य मर जाएगा।” ये साधारण वचन परमेश्वर का इरादा दर्शाते हैं। वे यह भी प्रकट करते हैं कि परमेश्वर ने अपने हृदय में मनुष्य के लिए चिंता प्रकट करना शुरू कर दिया है। सब चीज़ों के मध्य, केवल आदम को ही परमेश्वर के स्वरूप में बनाया गया था; आदम ही एकमात्र जीवित प्राणी था, जिसके पास परमेश्वर के जीवन की श्वास थी; वह परमेश्वर के साथ चल सकता था, परमेश्वर के साथ बात कर सकता था। इसीलिए परमेश्वर ने उसे ऐसी आज्ञा दी। परमेश्वर ने इस आज्ञा में बिलकुल साफ कर दिया था कि मनुष्य क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता।
इन कुछ साधारण वचनों में, हम परमेश्वर का हृदय देखते हैं। लेकिन हम किस प्रकार का हृदय देखते हैं? क्या परमेश्वर के हृदय में प्रेम है? क्या इसमें कोई चिंता है? इन पदों में परमेश्वर के प्रेम एवं चिंता को न केवल सराहा जा सकता है, इसे घनिष्ठता से महसूस भी किया जा सकता है। क्या तुम इससे सहमत नहीं होंगे? मेरे यह कहने के बाद, क्या तुम लोग अब भी सोचते हो कि ये बस कुछ साधारण वचन हैं? ये इतने साधारण भी नहीं हैं, है ना? क्या तुम लोगों को पहले इसका पता था? यदि परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से तुम्हें इन थोड़े से वचनों को कहा होता, तो तुम भीतर से कैसा महसूस करते? यदि तुम एक दयालु व्यक्ति नहीं होते, यदि तुम्हारा हृदय बर्फ के समान ठंडा होता, तो तुम कुछ भी महसूस न करते, तुम परमेश्वर के प्रेम की सराहना नहीं करते और तुम परमेश्वर के हृदय को समझने की कोशिश नहीं करते। लेकिन एक विवेकशील और मानवता की समझ रखने वाले व्यक्ति के रूप में तुम कुछ अलग महसूस करोगे। तुम गर्मजोशी महसूस करोगे, तुम महसूस करोगे कि तुम्हारी परवाह की जाती है और तुम्हें प्रेम किया जाता है, और तुम खुशी महसूस करोगे। क्या यह सही नहीं है? जब तुम इन चीज़ों को महसूस करते हो, तो तुम परमेश्वर के प्रति कैसे पेश आओगे? क्या तुम परमेश्वर से जुड़ाव महसूस करोगे? क्या तुम अपने हृदय की गहराई से परमेश्वर से प्रेम और उसका सम्मान करोगे? क्या तुम्हारा हृदय परमेश्वर के और करीब जाएगा? तुम इससे देख सकते हो कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम कितना महत्वपूर्ण है। लेकिन जो और भी अधिक महत्वपूर्ण है, वह परमेश्वर के प्रेम के विषय में मनुष्य की सराहना एवं समझ है। असल में, क्या परमेश्वर अपने कार्य के इस चरण के दौरान ऐसी बहुत सी चीज़ें नहीं कहता? क्या आज ऐसे लोग हैं, जो परमेश्वर के हृदय की सराहना करते हैं? क्या तुम परमेश्वर का इरादा समझ सकते हो, जिसके बारे में मैंने अभी-अभी कहा था? तुम लोग परमेश्वर के इरादे को तब भी नहीं समझ सकते, जब यह इतना ठोस, साकार और असली होता है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुम लोगों के पास परमेश्वर के विषय में वास्तविक ज्ञान एवं समझ नहीं है। क्या यह सत्य नहीं है? लेकिन हमें इसे अभी यहीं छोड़ देना चाहिए।
2. परमेश्वर हव्वा को बनाता है
उत्पत्ति 2:18-20 फिर यहोवा परमेश्वर ने कहा, “आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं; मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊँगा जो उस से मेल खाए।” और यहोवा परमेश्वर भूमि में से सब जाति के बनैले पशुओं, और आकाश के सब भाँति के पक्षियों को रचकर आदम के पास ले आया कि देखे कि वह उनका क्या क्या नाम रखता है; और जिस जिस जीवित प्राणी का जो जो नाम आदम ने रखा वही उसका नाम हो गया। अतः आदम ने सब जाति के घरेलू पशुओं, और आकाश के पक्षियों, और सब जाति के बनैले पशुओं के नाम रखे; परन्तु आदम के लिये कोई ऐसा सहायक न मिला जो उस से मेल खा सके।
उत्पत्ति 2:22-23 और यहोवा परमेश्वर ने उस पसली को जो उसने आदम में से निकाली थी, स्त्री बना दिया; और उसको आदम के पास ले आया। तब आदम ने कहा, “अब यह मेरी हड्डियों में की हड्डी और मेरे मांस में का मांस है; इसलिए इसका नाम नारी होगा, क्योंकि यह नर में से निकाली गई है।”
पवित्र शास्त्र के इस भाग में एक मुख्य पंक्ति है : “जिस जिस जीवित प्राणी का जो जो नाम आदम ने रखा वही उसका नाम हो गया।” अतः किसने सभी जीवित प्राणियों को उनके नाम दिए थे? वह आदम था, परमेश्वर नहीं। यह पंक्ति मानवजाति को एक तथ्य बताती है : परमेश्वर ने मनुष्य को बुद्धि दी, जब उसने उसकी सृष्टि की थी। कहने का तात्पर्य है, मनुष्य की बुद्धि परमेश्वर से आई थी। यह एक निश्चितता है। लेकिन क्यों? परमेश्वर ने आदम को बनाया, उसके बाद क्या आदम विद्यालय गया था? क्या वह जानता था कि कैसे पढ़ते हैं? परमेश्वर ने विभिन्न जीवित प्राणियों को बनाया, उसके बाद क्या आदम ने इन सभी प्राणियों को पहचाना था? क्या परमेश्वर ने उसे बताया कि उनके नाम क्या थे? निश्चित ही, परमेश्वर ने उसे यह भी नहीं सिखाया था कि इन प्राणियों के नाम कैसे रखने हैं। यही सत्य है! तो आदम ने कैसे जाना कि इन जीवित प्राणियों को उनके नाम कैसे देने थे और उन्हें किस प्रकार के नाम देने थे? यह उस प्रश्न से संबंधित है कि परमेश्वर ने आदम में क्या जोड़ा जब उसने उसकी सृष्टि की थी। तथ्य साबित करते हैं कि जब परमेश्वर ने मनुष्य की सृष्टि की, तो उसने अपनी बुद्धि को उसमें जोड़ दिया था। यह एक मुख्य बिंदु है, तो ध्यानपूर्वक सुनो। एक अन्य मुख्य बिंदु भी है, जो तुम लोगों को समझना चाहिए : आदम ने जब इन जीवित प्राणियों को उनका नाम दिया, उसके बाद ये नाम परमेश्वर के शब्दकोश में निर्धारित हो गए। मैं इसका उल्लेख क्यों करता हूँ? क्योंकि इसमें भी परमेश्वर का स्वभाव शामिल है और यह एक बिंदु है, जिसे मुझे और समझाना होगा।
परमेश्वर ने मनुष्य की सृष्टि की, उसमें जीवन श्वास फूंकी और उसे अपनी कुछ बुद्धि, अपनी योग्यताएँ और वह दिया जो वह स्वयं है और उसके पास है। जब परमेश्वर ने मनुष्य को ये सब चीज़ें दीं, उसके बाद मनुष्य स्वतंत्र रूप से कुछ चीज़ों को करने और अपने आप सोचने के योग्य हो गया। यदि मनुष्य जो सोचता है और जो करता है, वह परमेश्वर की नज़रों में अच्छा है, तो परमेश्वर उसे स्वीकार करता है और हस्तक्षेप नहीं करता। जो कुछ मनुष्य करता है यदि वह सही है, तो परमेश्वर उसे रहने देगा। अतः वह वाक्यांश “जिस जिस जीवित प्राणी का जो जो नाम आदम ने रखा वही उसका नाम हो गया” क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि परमेश्वर ने विभिन्न जीवित प्राणियों के नामों में कोई बदलाव करने की ज़रूरत नहीं समझी। आदम उनका जो भी नाम रखता, परमेश्वर कहता “ऐसा ही हो” और प्राणी के नाम की पुष्टि करता। क्या परमेश्वर ने कोई राय व्यक्त की? नहीं, निश्चित ही नहीं। तो तुम लोग इससे क्या नतीजा निकालते हो? परमेश्वर ने मनुष्य को बुद्धि दी और मनुष्य ने कार्यों को अंजाम देने के लिए अपनी परमेश्वर-प्रदत्त बुद्धि का उपयोग किया। यदि जो कुछ मनुष्य करता है, वह परमेश्वर की नज़रों में सकारात्मक है, तो इसे बिना किसी मूल्यांकन या आलोचना के परमेश्वर के द्वारा पुष्ट, मान्य एवं स्वीकार किया जाता है। यह कुछ ऐसा है जिसे कोई व्यक्ति या दुष्ट आत्मा या शैतान नहीं कर सकता। क्या तुम लोग यहाँ परमेश्वर के स्वभाव का प्रकाशन देखते हो? क्या एक मानव, एक भ्रष्ट किया गया मानव या शैतान अपने नाम पर किसी को अपनी नाक के नीचे कुछ करने देगा? निश्चित ही नहीं! क्या वे इस पद के लिए उस अन्य व्यक्ति या अन्य शक्ति से लड़ेंगे, जो उनसे अलग है? निश्चित ही, वे लड़ेंगे! उस घड़ी, यदि वह एक भ्रष्ट किया गया व्यक्ति या शैतान आदम के साथ होता, तो जो कुछ आदम कर रहा था, उन्होंने निश्चित रूप से उसे ठुकरा दिया होता। यह साबित करने के लिए कि उनके पास स्वतंत्र रूप से सोचने की योग्यता है और उनके पास अपनी अनोखी अंतर्दृष्टि हैं, उन्होंने हर उस चीज़ को बिल्कुल नकार दिया होता, जो आदम ने किया था : “क्या तुम इसे यह कहकर बुलाना चाहते हो? ठीक है, मैं इसे यह कहकर नहीं बुलाने वाला, मैं इसे वह कहकर बुलाने वाला हूँ; तुमने इसे सीता कहा था लेकिन मैं इसे गीता कहकर बुलाने वाला हूँ। मुझे दिखाना है कि मैं कितना चतुर हूँ।” यह किस प्रकार का स्वभाव है? क्या यह अनियंत्रित रूप से अहंकारी होना नहीं है? और परमेश्वर का क्या? क्या उसका स्वभाव ऐसा है? जो आदम कर रहा था, क्या उसके प्रति परमेश्वर की कुछ असामान्य आपत्तियाँ थीं? स्पष्ट रूप से उत्तर है नहीं! उस स्वभाव को लेकर जिसे परमेश्वर प्रकाशित करता है, उसमें जरा भी वाद-विवाद, अहंकार या आत्म-तुष्टता का आभास नहीं है। इतना तो यहाँ स्पष्ट है। यह बस एक छोटी सी बात लग सकती है, लेकिन यदि तुम परमेश्वर के सार को नहीं समझते हो, यदि तुम्हारा हृदय यह पता लगाने की कोशिश नहीं करता कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है और उसका रवैया क्या है, तो तुम परमेश्वर के स्वभाव को नहीं जानोगे या परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति एवं प्रकाशन को नहीं जानोगे। क्या यह ऐसा नहीं है? क्या तुम लोग उससे सहमत हो, जो मैंने अभी-अभी तुम्हें समझाया? आदम के कार्यों के प्रत्युत्तर में, परमेश्वर ने दिखावटी घोषणा नहीं की, “तुमने अच्छा किया, तुमने सही किया और मैं सहमत हूँ!” जो भी हो, जो कुछ आदम ने किया, परमेश्वर ने अपने हृदय में उसे स्वीकृति दी, उसकी सराहना एवं तारीफ की। सृष्टि के समय से यह पहला कार्य था, जिसे मनुष्य ने परमेश्वर के निर्देशन पर उसके लिए किया था। यह कुछ ऐसा था, जिसे मनुष्य ने परमेश्वर के स्थान पर और परमेश्वर की ओर से किया था। परमेश्वर की नज़रों में, यह उस बुद्धिमत्ता से उदय हुआ था जो उसने मनुष्य को प्रदान की थी। परमेश्वर ने इसे एक अच्छी चीज़, एक सकारात्मक चीज़ के रूप में देखा था। जो कुछ आदम ने उस समय किया था, वह मनुष्य में परमेश्वर की बुद्धिमत्ता का पहला प्रकटीकरण था। परमेश्वर के दृष्टिकोण से यह एक उत्तम प्रकटीकरण था। जो कुछ मैं यहाँ तुम लोगों को बताना चाहता हूँ, वह यह है कि उसकी बुद्धिमत्ता और जो वह स्वयं है और जो उसके पास है, उसे मनुष्य को देने का परमेश्वर का यह लक्ष्य था कि मानवजाति ऐसा जीवित प्राणी बन सके, जो उसे प्रकट करे। क्योंकि एक जीवित प्राणी का उसकी ओर से कार्य करना बिलकुल वैसा था, जिसे देखने की लालसा परमेश्वर को थी।
3. परमेश्वर ने आदम और हव्वा के लिए चमड़े के अँगरखे बनाए
उत्पत्ति 3:20-21 आदम ने अपनी पत्नी का नाम हव्वा रखा; क्योंकि जितने मनुष्य जीवित हैं उन सब की आदिमाता वही हुई। और यहोवा परमेश्वर ने आदम और उसकी पत्नी के लिये चमड़े के अँगरखे बनाकर उनको पहिना दिए।
आओ, हम इस तीसरे अंश पर एक नज़र डालें, जो बताता है कि वास्तव में उस नाम के पीछे एक अर्थ है, जिसे आदम ने हव्वा को दिया था। यह दर्शाता है कि सृजन किए जाने के बाद, आदम के पास अपने स्वयं के विचार थे और वह बहुत सी चीज़ों को समझता था। लेकिन फिलहाल हम, जो कुछ वह समझता था या कितना कुछ वह समझता था, उसका अध्ययन या उसकी खोज करने नहीं जा रहे हैं क्योंकि तीसरे अंश में चर्चा का यह मेरा मुख्य उद्देश्य नहीं है। अतः तीसरे अंश का मुख्य बिंदु क्या है, जिसे मैं उजागर करना चाहता हूँ। आओ हम इस पंक्ति पर एक नज़र डालें, “और यहोवा परमेश्वर ने आदम और उसकी पत्नी के लिये चमड़े के अँगरखे बनाकर उनको पहिना दिए।” यदि आज हम पवित्र शास्त्र की इस पंक्ति के बारे में चर्चा नहीं करें, तो हो सकता है कि तुम लोग इन वचनों के पीछे निहित अर्थों का कभी अहसास न कर पाओ। सबसे पहले, मैं कुछ सुराग देता हूँ। हो सके तो तुम लोग कल्पना करो, अदन की वाटिका, जिसमें आदम और हव्वा रह रहे हैं। परमेश्वर उनसे मिलने जाता है, लेकिन वे छिप जाते हैं क्योंकि वे नग्न हैं। परमेश्वर उन्हें देख नहीं पाता और जब वह उन्हें पुकारता है, वे कहते हैं, “हममें तुझे देखने की हिम्मत नहीं है क्योंकि हमारे शरीर नग्न हैं।” वे परमेश्वर को देखने की हिम्मत नहीं करते क्योंकि वे नग्न हैं। तो यहोवा परमेश्वर उनके लिए क्या करता है? मूल पाठ कहता है : “और यहोवा परमेश्वर ने आदम और उसकी पत्नी के लिये चमड़े के अँगरखे बनाकर उनको पहिना दिए।” इससे क्या तुम लोग समझते हो कि परमेश्वर ने उनके वस्त्र बनाने के लिए क्या उपयोग किया था? परमेश्वर ने उनके वस्त्रों को बनाने के लिए जानवर के चमड़े का उपयोग किया था। कहने का तात्पर्य है, जो वस्त्र परमेश्वर ने मनुष्य के लिए बनाया वह एक रोएँदार कोट था। यह वस्त्र के पहले टुकड़े थे, जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य के लिए बनाया था। आज के मानकों से एक रोएँदार कोट विलासिता की चीज़ है, ऐसी चीज़ नहीं, जिसे हर कोई पहन सके। यदि तुमसे कोई पूछे : “हमारे पूर्वजों द्वारा पहना गया पहला वस्त्र कौन-सा था?” तुम उत्तर दे सकते हो : “वह एक रोएँदार कोट था।” “वह रोएँदार कोट किसने बनाया था?” तब तुम जवाब दे सकते हो : “परमेश्वर ने बनाया था!” यहाँ यही मुख्य बिंदु है : इस वस्त्र को परमेश्वर द्वारा बनाया गया था। क्या यह ऐसी चीज़ नहीं है, जिस पर चर्चा की जानी चाहिए? मेरा वर्णन सुनने के बाद क्या तुम लोगों के मन में एक छवि उभरी है? तुम्हारे पास कम से कम एक मोटी रुपरेखा होनी चाहिए। आज तुम्हें बताने का बिंदु यह नहीं है कि तुम लोग जानो कि मनुष्य के वस्त्र का पहला टुकड़ा क्या था। तो फिर बिंदु क्या है? बिंदु रोएँदार कोट नहीं है बल्कि लोगों को कैसे पता चलता है—जैसा परमेश्वर द्वारा यहाँ यह करके प्रकट किया गया—उसका स्वभाव, जो उसके पास है एवं जो वह स्वयं है।
“और यहोवा परमेश्वर ने आदम और उसकी पत्नी के लिये चमड़े के अँगरखे बनाकर उनको पहिना दिए,” इस दृश्य में परमेश्वर किस प्रकार की भूमिका निभाता है जब वह आदम और हव्वा के साथ होता है? मात्र दो मानवों के साथ इस संसार में परमेश्वर किस प्रकार की भूमिका में प्रकट होता है? क्या वह स्वयं को परमेश्वर की भूमिका में प्रकट करता है? हाँगकाँग के भाइयो एवं, बहनो कृपया उत्तर दीजिए। (एक अभिभावक की भूमिका में।) दक्षिण कोरिया के भाइयो एवं बहनो, तुम लोग क्या सोचते हो कि परमेश्वर किस भूमिका में प्रकट होता है? (परिवार के मुखिया की।) ताइवान के भाइयो एवं बहनो, तुम लोग क्या सोचते हो? (आदम और हव्वा के परिवार में किसी व्यक्ति की भूमिका में, परिवार के एक सदस्य की भूमिका में।) तुम लोगों में से कुछ सोचते हैं कि परमेश्वर आदम और हव्वा के परिवार के एक सदस्य के रूप में प्रकट होता है, जबकि कुछ कहते हैं कि परमेश्वर परिवार के एक मुखिया के रूप में प्रकट होता है वहीं दूसरे कहते हैं, वह अभिभावक के रूप में है। इनमें से सब बिलकुल उपयुक्त हैं। लेकिन क्या तुम्हें पता है मैं किस ओर इशारा कर रहा हूँ? परमेश्वर ने इन दो लोगों की सृष्टि की और उनके साथ अपने साथियों के समान व्यवहार किया। उनके एकमात्र परिवार के समान, परमेश्वर ने उनके जीवन का ख्याल रखा और उनकी भोजन, कपड़े और घर जैसी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा। यहाँ, परमेश्वर आदम और हव्वा के माता-पिता के रूप में प्रकट होता है। जब परमेश्वर यह करता है, मनुष्य नहीं देखता कि परमेश्वर कितना ऊँचा है; वह परमेश्वर की सर्वोच्चता, उसकी रहस्यमयता और ख़ासकर उसके क्रोध या प्रताप को नहीं देखता। जो कुछ वह देखता है वह परमेश्वर की विनम्रता, उसका स्नेह, मनुष्य के लिए उसकी चिंता और उसके प्रति उसकी ज़िम्मेदारी एवं देखभाल है। जिस रवैये एवं तरीके से परमेश्वर ने आदम और हव्वा के साथ व्यवहार किया, वह वैसा है जैसे माता-पिता अपने बच्चों के लिए चिंता करते हैं। यह ऐसा है, जैसे माता-पिता अपने पुत्र एवं पुत्रियों से प्रेम करते हैं, उन पर ध्यान देते हैं और उनकी देखरेख करते हैं—वास्तविक, दृश्यमान और स्पर्शगम्य। खुद को एक उच्च और शक्तिमान पद पर रखने के बजाय, परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से मनुष्य के लिए पहरावा बनाने के लिए चमड़ों का उपयोग किया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस रोएँदार कोट का उपयोग उनकी लज्जा छिपाने के लिए किया गया था या उन्हें ठंड से बचाने के लिए। जो मायने रखता है वह यह कि मनुष्य के शरीर को ढँकने वाला पहरावा, परमेश्वर द्वारा अपने हाथों से बनाया गया था। बस कपड़ों को सोचकर अस्तित्व में लाने या कुछ अन्य चमत्कारी साधनों का उपयोग करने के बजाय, जैसा लोग कल्पना कर सकते हैं कि परमेश्वर करेगा, परमेश्वर ने वैध रूप से कुछ ऐसा किया, जो मनुष्य ने सोचा होगा कि परमेश्वर नहीं करेगा और उसे नहीं करना चाहिए। यह एक मामूली बात लग सकती है—कुछ लोग यहाँ तक भी सोच सकते हैं कि यह जिक्र करने लायक भी नहीं है—परंतु यह परमेश्वर का अनुसरण करने वाले किसी भी व्यक्ति को, जो उसके विषय में पहले अस्पष्ट विचारों से घिरा हुआ था, उसकी सच्चाई एवं मनोहरता में अन्तःदृष्टि प्राप्त करने और उसकी निष्ठा एवं विनम्रता को देखने की गुंजाइश भी देता है। यह असह्य रूप से अभिमानी लोगों को, जो सोचते हैं कि वे ऊँचे एवं शक्तिशाली हैं, परमेश्वर की सच्चाई एवं विनम्रता के सामने लज्जा से अपने अहंकारी सिरों को झुकाने के लिए मजबूर करता है। यहाँ, परमेश्वर की सच्चाई एवं विनम्रता लोगों को और यह देखने लायक बनाती है कि परमेश्वर कितना मनभावन है। इसके विपरीत, “असीम” परमेश्वर, “मनभावन” परमेश्वर और “सर्वशक्तिमान” परमेश्वर लोगों के हृदय में कितना छोटा एवं नीरस हो गया है और हल्के स्पर्श से भी बिखर जाता है। जब तुम इस पद को देखते हो और इस कहानी को सुनते हो, तो क्या तुम परमेश्वर को नीचा समझते हो क्योंकि उसने ऐसा कार्य किया था? शायद कुछ लोग ऐसा सोचें, लेकिन दूसरे पूर्णतः विपरीत प्रतिक्रिया देंगे। वे सोचेंगे कि परमेश्वर सच्चा एवं मनभावन है और यह बिलकुल परमेश्वर की सच्चाई एवं विनम्रता ही है, जो उन्हें द्रवित करती है। जितना अधिक वे परमेश्वर के वास्तविक पहलू को देखते हैं, उतना ही अधिक वे परमेश्वर के प्रेम के सच्चे अस्तित्व की, अपने हृदय में परमेश्वर के महत्व की और वह किस प्रकार हर घड़ी उनके बगल में खड़ा होता है, उसकी सराहना कर सकते हैं।
अब हम अपनी चर्चा को वर्तमान से जोड़ते हैं। यदि परमेश्वर उन मनुष्यों के लिए ये विभिन्न छोटी-छोटी चीज़ें कर सकता था, जिनका सृजन उसने बिलकुल शुरुआत में किया था, यहाँ तक कि ऐसी चीज़ें भी जिनके विषय में लोग कभी सोचने या अपेक्षा करने की हिम्मत भी नहीं करेंगे, तो क्या परमेश्वर आज लोगों के लिए ऐसी चीज़ें कर सकता है? कुछ कहते हैं, “हाँ!” ऐसा क्यों है? क्योंकि परमेश्वर का सार झूठा नहीं है, उसकी मनोहरता झूठी नहीं है। परमेश्वर का सार सचमुच अस्तित्व में है और यह ऐसी चीज़ नहीं है, जिसमें दूसरों द्वारा कुछ जोड़ा गया हो और निश्चित रूप से ऐसी चीज़ नहीं है जो समय, स्थान एवं युगों में परिवर्तन के साथ बदलती हो। परमेश्वर की सच्चाई एवं मनोहरता को केवल कुछ ऐसा करने से सामने लाया जा सकता है, जिसे लोग मामूली एवं महत्वहीन मानते हैं—ऐसी चीज़ जो इतनी छोटी है कि लोग सोचते भी नहीं कि वह कभी करेगा। परमेश्वर ढोंगी नहीं है। उसके स्वभाव एवं सार में कोई अतिशयोक्ति, छद्मवेश, गर्व या अहंकार नहीं है। वह कभी डींगें नहीं मारता, बल्कि इसके बजाय निष्ठा एवं ईमानदारी से प्रेम करता है, चिंता करता है, ध्यान रखता है और मनुष्यों की अगुआई करता है, जिन्हें उसने बनाया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग इसकी कितनी ही कम सराहना करते हैं, अहसास करते हैं या देखते हैं जो परमेश्वर करता है, वह निश्चय ही यह कर रहा है। क्या यह जानना कि परमेश्वर के पास ऐसा सार है, उसके लिए लोगों के प्रेम को प्रभावित करेगा? क्या यह परमेश्वर के लिए उनके भय को प्रभावित करेगा? मैं आशा करता हूँ कि जब तुम परमेश्वर के वास्तविक पहलू को समझ जाओगे, तो तुम उसके और करीब हो जाओगे और तुम मानवजाति के प्रति उसके प्रेम एवं देखभाल की सचमुच में और अधिक सराहना करने के योग्य हो जाओगे, अपना हृदय परमेश्वर को देने लायक हो जाओगे और उसके प्रति तुम्हें कोई संदेह और शंका नहीं रहेगी। परमेश्वर चुपचाप मनुष्य के लिए सब कुछ कर रहा है, वह यह सब अपनी ईमानदारी, निष्ठा एवं प्रेम के ज़रिए खामोशी से कर रहा है। लेकिन वह जो भी करता है, उसे लेकर उसे कभी शंकाएँ या खेद नहीं होते, न ही उसे कभी आवश्यकता होती है कि कोई उसे किसी रीति से बदले में कुछ दे या कभी मानवजाति से कोई चीज़ प्राप्त करने के उसके इरादे हैं। वह सब कुछ जो उसने हमेशा किया है उसका एकमात्र उद्देश्य यह है कि वह मानवजाति के सच्चे विश्वास एवं प्रेम को प्राप्त कर सके। और इसके साथ, मैं यहाँ पहले विषय का समापन करूँगा।
क्या इन चर्चाओं ने तुम लोगों की सहायता की है? वे कितनी सहायक रही हैं? (हमें परमेश्वर के प्रेम की और अधिक समझ एवं ज्ञान है।) (संगति का यह तरीका भविष्य में हमारी सहायता कर सकता है कि हम परमेश्वर के वचन की बेहतर ढंग से सराहना करें, उन भावनाओं को समझें, जो उसमें थीं और उन चीज़ों के पीछे के अर्थ समझें, जिन्हें उसने कहा था जब उसने उन्हें बोला था और जो कुछ उसने उस समय महसूस किया था उसका अहसास करें।) क्या तुम में से कोई इन वचनों को पढ़ने के बाद परमेश्वर के वास्तविक अस्तित्व के प्रति अधिक सचेत है? क्या तुम्हें महसूस होता है कि अब परमेश्वर का अस्तित्व खोखला या अज्ञात नहीं रहा है? जब तुम्हें यह अहसास हो जाता है, तब क्या तुम समझ पाते हो कि परमेश्वर बिलकुल तुम्हारे बगल में है? कदाचित यह संवेदना अभी स्पष्ट नहीं है या तुम लोग इसे अभी तक महसूस करने योग्य नहीं हो पाए हो। लेकिन एक दिन, जब तुम लोगों के हृदय में परमेश्वर के स्वभाव एवं सार की सचमुच गहरी सराहना एवं वास्तविक ज्ञान होगा, तो तुम्हें समझ आएगा कि परमेश्वर बिलकुल तुम्हारे बगल में है—बात बस इतनी है कि तुमने अपने हृदय में असल में परमेश्वर को कभी स्वीकार नहीं किया था। और यही सत्य है!
संगति के इस तरीके के बारे में तुम लोग क्या सोचते हो? क्या तुम लोग सीख पाए? क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के स्वभाव के विषय में इस प्रकार की संगति बहुत बोझिल है? तुम कैसा महसूस करते हो? (बहुत अच्छा, उत्साहित।) किस चीज ने तुम लोगों को अच्छा महसूस कराया? तुम लोग क्यों उत्साहित थे? (यह अदन की वाटिका में वापस लौटने, वापस परमेश्वर के पास लौटने के समान है।) “परमेश्वर का स्वभाव” वास्तव में लोगों के लिए अपेक्षाकृत अपरिचित विषय है, क्योंकि जो कुछ तुम लोग सामान्यतः सोचते हो और जो कुछ तुम पुस्तकों में पढ़ते या संगतियों में सुनते हो, वह तुम्हें एक नेत्रहीन मनुष्य के समान महसूस कराता है, जो एक हाथी को स्पर्श कर रहा है—तुम बस अपने हाथों से आसपास की चीजों को महसूस करते हो, लेकिन तुम असल में अपनी आँखों से कुछ नहीं देख सकते। बिना देखे टटोलने से तुमको परमेश्वर की धुँधली समझ भी नहीं आ सकती, एक स्पष्ट अवधारणा की तो बात ही छोड़ दो; यह बस तुम्हारी कल्पना को और उत्तेजित करता है, तुम्हें ठीक से परिभाषित करने से रोकता है कि परमेश्वर का स्वभाव एवं सार क्या है और तुम्हारी कल्पना से उपजी अनिश्चितताएँ निरपवाद रूप से तुम्हारे दिल को संदेहों से भर देंगी। जब तुम किसी चीज के विषय में निश्चित नहीं हो पाते और फिर भी उसे समझने की कोशिश करते हो, तो तुम्हारे हृदय में हमेशा विरोधाभास एवं संघर्ष होंगे और यहाँ तक कि अशांति का भाव होगा जिससे तुम गुमराह और भ्रमित महसूस करोगे। क्या यह एक अत्यंत दुखदायी बात नहीं कि तुम परमेश्वर को खोजना चाहते हो, परमेश्वर को जानना चाहते हो और उसे साफ-साफ देखना चाहते हो, लेकिन कभी भी उत्तर खोजने में सक्षम नहीं हो पाते? अवश्य ही, ये शब्द केवल उन लोगों पर लक्षित हैं जो परमेश्वर का भय मानना चाहते हैं और उसे संतुष्ट करना चाहते हैं। ऐसी चीजों पर ध्यान न देने वालों के लिए, यह वास्तव में मायने नहीं रखता क्योंकि वे जो सबसे अधिक आशा करते हैं वह यह है कि परमेश्वर की यथार्थता और अस्तित्व केवल एक किंवदंती या कल्पना है, इसलिए वे जो चाहें कर सकते हैं, इसलिए वे सबसे बड़े और सबसे महत्वपूर्ण हो सकते हैं, इसलिए वे परिणामों की परवाह किए बिना बुरे कर्म कर सकते हैं, इसलिए उन्हें सजा का सामना नहीं करना पड़ेगा या कोई जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ेगी और यहाँ तक कि परमेश्वर जो कुछ भी दुष्ट लोगों के बारे में कहता है, वे चीजें उन पर लागू नहीं होंगी। ये लोग परमेश्वर के स्वभाव को समझने के इच्छुक नहीं हैं। ये लोग परमेश्वर को और उसके बारे में सब कुछ जानने का प्रयास करने से विमुख हैं। वे पसंद करेंगे कि परमेश्वर अस्तित्व में न हो। ये लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं और ये ऐसे लोग हैं, जिन्हें त्याग दिया जाएगा।
इसके आगे, हम नूह की कहानी और यह किस प्रकार परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव और स्वयं परमेश्वर के विषय से संबंधित है, इस पर चर्चा करेंगे।
पवित्र शास्त्रों के इस भाग में तुम लोग परमेश्वर को नूह के साथ क्या करते हुए देखते हो? कदाचित यहाँ बैठा हुआ प्रत्येक जन पवित्र शास्त्र को पढ़ने से इसके बारे में कुछ न कुछ जानता है : परमेश्वर ने नूह से एक जहाज़ बनवाया, फिर परमेश्वर ने जलप्रलय से संसार को नष्ट किया। परमेश्वर ने नूह से अपने आठ लोगों के परिवार को बचाने के लिए जहाज़ का निर्माण कराया, जिससे वे मानव जाति की अगली पीढ़ी के लिए जीवित रह पाए और पूर्वज बन सके। आओ अब हम पवित्र शास्त्र को पढ़ें।
ख. नूह
1. परमेश्वर संसार को जलप्रलय से नष्ट करने का इरादा करता है और नूह को एक जहाज बनाने का निर्देश देता है
उत्पत्ति 6:9-14 नूह की वंशावली यह है। नूह धर्मी पुरुष और अपने समय के लोगों में खरा था; और नूह परमेश्वर ही के साथ साथ चलता रहा। और नूह से शेम, और हाम, और येपेत नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए। उस समय पृथ्वी परमेश्वर की दृष्टि में बिगड़ गई थी, और उपद्रव से भर गई थी। और परमेश्वर ने पृथ्वी पर जो दृष्टि की तो क्या देखा कि वह बिगड़ी हुई है; क्योंकि सब प्राणियों ने पृथ्वी पर अपना अपना चाल-चलन बिगाड़ लिया था। तब परमेश्वर ने नूह से कहा, “सब प्राणियों के अन्त करने का प्रश्न मेरे सामने आ गया है; क्योंकि उनके कारण पृथ्वी उपद्रव से भर गई है, इसलिये मैं उनको पृथ्वी समेत नष्ट कर डालूँगा। इसलिये तू गोपेर वृक्ष की लकड़ी का एक जहाज बना ले, उसमें कोठरियाँ बनाना, और भीतर-बाहर उस पर राल लगाना।”
उत्पत्ति 6:18-22 “परन्तु तेरे संग मैं वाचा बाँधता हूँ; इसलिये तू अपने पुत्रों, स्त्री, और बहुओं समेत जहाज में प्रवेश करना। और सब जीवित प्राणियों में से तू एक एक जाति के दो दो, अर्थात् एक नर और एक मादा जहाज में ले जाकर, अपने साथ जीवित रखना। एक एक जाति के पक्षी, और एक एक जाति के पशु, और एक एक जाति के भूमि पर रेंगनेवाले, सब में से दो दो तेरे पास आएँगे, कि तू उनको जीवित रखे। और भाँति भाँति का भोज्य पदार्थ जो खाया जाता है, उनको तू लेकर अपने पास इकट्ठा कर रखना; जो तेरे और उनके भोजन के लिये होगा।” परमेश्वर की इस आज्ञा के अनुसार नूह ने किया।
इन दो अंशों को पढ़ने के बाद क्या अब तुम लोगों को सामान्य समझ है कि नूह कौन था? नूह किस प्रकार का व्यक्ति था? मूल पाठ है : “नूह धर्मी पुरुष और अपने समय के लोगों में खरा था।” वर्तमान लोगों की समझ के अनुसार, उन दिनों, एक “धर्मी पुरुष” किस प्रकार का व्यक्ति होता था? एक धर्मी पुरुष को पूर्ण होना चाहिए। क्या तुम लोग जानते हो कि यह पूर्ण व्यक्ति मनुष्य की दृष्टि में पूर्ण था या परमेश्वर की दृष्टि में पूर्ण था? बिना किसी शंका के, यह पूर्ण व्यक्ति परमेश्वर की दृष्टि में पूर्ण था और मनुष्य की दृष्टि में नहीं। यह तो निश्चित है! ऐसा इसलिए क्योंकि मनुष्य अंधा है और देख नहीं सकता, और सिर्फ परमेश्वर ही पूरी पृथ्वी और हर एक व्यक्ति को देखता है, सिर्फ परमेश्वर ही जानता था कि नूह एक पूर्ण व्यक्ति था। इसलिए, संसार को जलप्रलय से नष्ट करने की परमेश्वर की योजना उस क्षण शुरू हो गई थी, जब उसने नूह को बुलाया था।
उस युग में, परमेश्वर ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए नूह को बुलाने का इरादा किया। यह कार्य क्यों करना पड़ा? क्योंकि उस घड़ी परमेश्वर के हृदय में एक योजना थी। उसकी योजना जलप्रलय से संसार का नाश करने की थी। वह संसार का नाश क्यों करता? यहाँ कहा गया है : “उस समय पृथ्वी परमेश्वर की दृष्टि में बिगड़ गई थी, और उपद्रव से भर गई थी।” तुम लोग इस वाक्यांश से क्या समझते हो “पृथ्वी उपद्रव से भर गई थी”? यह पृथ्वी पर एक घटना थी, जब संसार और इसके लोग चरमावस्था तक भ्रष्ट हो गए थे; अतः “पृथ्वी उपद्रव से भर गई थी”, आज की बोलचाल में, “उपद्रव से भर गई थी” का मतलब होगा कि सब कुछ अस्त-व्यस्त है। मनुष्य के लिए, इसका मतलब था कि जीवन के हर पहलू में व्यवस्था दिखनी बंद हो गई थी और सब कुछ अराजक और अनियंत्रित हो गया था। परमेश्वर की नज़रों में, इसका मतलब था कि संसार के लोग बहुत ही भ्रष्ट हो गए थे। लेकिन किस हद तक भ्रष्ट? उस हद तक भ्रष्ट कि परमेश्वर उन्हें अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता था या और अधिक धीरज नहीं धर सकता था। उस हद तक भ्रष्ट कि परमेश्वर ने उन्हें नष्ट करने का इरादा किया। जब परमेश्वर ने संसार को नष्ट करने की ठान ली, तो उसने जहाज़ बनाने के लिए किसी को ढूंढने की योजना बनाई। परमेश्वर ने इस कार्य को करने के लिए नूह को चुना; अर्थात नूह को जहाज़ बनाने दिया। उसने नूह को क्यों चुना? परमेश्वर की नज़रों में, नूह एक धार्मिक पुरुष था; और चाहे परमेश्वर ने उसे कुछ भी करने का निर्देश दिया, नूह ने वैसा ही किया। इसका मतलब है कि नूह वह सब करने को तैयार था, जो परमेश्वर ने उसे करने के लिए कहा था। परमेश्वर अपने साथ कार्य करने के लिए ऐसा कोई चाहता था, कोई ऐसा जो कुछ उसने सौंपा था उसे पूर्ण कर सके—पृथ्वी पर उसके कार्य को पूर्ण कर सके। उस समय अतीत में, क्या नूह के अलावा कोई और व्यक्ति था, जो ऐसे कार्य को पूर्ण कर सकता था? निश्चित रूप से नहीं! नूह ही एकमात्र उम्मीदवार था, एकमात्र व्यक्ति जो उसे पूर्ण कर सकता था, जिसे परमेश्वर ने सौंपा था और इसलिए परमेश्वर ने उसे चुना। लेकिन क्या लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर का दायरा एवं मापदंड अब वैसे ही हैं, जैसे तब थे? उत्तर यह है कि इसमें निश्चित रूप से एक अंतर है! और मैं यह क्यों पूछता हूँ? उस समय परमेश्वर की नज़रों में केवल नूह ही एक धार्मिक पुरुष था, इसका तात्पर्य यह हुआ कि न तो उसकी पत्नी धार्मिक थी और न उसके बेटे और बहूएँ धार्मिक लोग थे, लेकिन परमेश्वर ने नूह के कारण इन लोगों को भी बख्श दिया। परमेश्वर ने उनसे उस तरह अपेक्षा नहीं की थी, जैसे वह आज करता है और इसके बजाय उसने नूह के परिवार के सभी आठ सदस्यों को जीवित रखा। उन्होंने नूह की धार्मिकता के कारण परमेश्वर के आशीष को प्राप्त किया। नूह के बिना उनमें से कोई भी उस कार्य को पूर्ण नहीं कर सकता था जो परमेश्वर ने सौंपा था। इसलिए, नूह ही एकमात्र व्यक्ति था, जिसे संसार के उस विनाश में जीवित बचना था और अन्य लोग बस अतिरिक्त सहायक लाभार्थी थे। यह दर्शाता है कि परमेश्वर के प्रबंधकीय कार्य को आधिकारिक रूप से प्रारंभ करने से पहले के युग में, लोगों से व्यवहार करने और उनसे अपेक्षा करने के उसके सिद्धांत एवं मापदंड अपेक्षाकृत शिथिल थे। आज के लोगों के लिए, जिस तरह परमेश्वर ने नूह के परिवार के आठ सदस्यों से व्यवहार किया, उसमें “निष्पक्षता” का अभाव प्रतीत होता है। किंतु कार्य के उस परिमाण, जिसे वह अब लोगों पर करता है और उसके द्वारा दिये जाने वाले वचन की बड़ी मात्रा की तुलना में, परमेश्वर का नूह के परिवार के आठ लोगों से किया व्यवहार महज़ उस समय उसके कार्य की पृष्ठभूमि के मद्देनज़र एक कार्य सिद्धांत था। तुलनात्मक रूप से, क्या नूह के परिवार के आठ लोगों ने परमेश्वर से ज़्यादा प्राप्त किया था या आज के लोग ज़्यादा प्राप्त करते हैं?
नूह को बुलाया जाना एक साधारण तथ्य है, परंतु इस अभिलेख में वह मुख्य बिंदु इतना साधारण नहीं है जिसके विषय में हम बात कर रहे हैं—परमेश्वर का स्वभाव, उसके इरादे और उसका सार। परमेश्वर के इन विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए, हमें पहले समझना होगा कि परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति को बुलाने की इच्छा करता है, और इसके माध्यम से हमें उसके स्वभाव, इरादों और सार को समझना होगा। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। अतः परमेश्वर की नज़रों में, यह किस प्रकार का व्यक्ति होता है, जिसे वह बुलाता है? यह ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो उसके वचनों को सुन सके, जो उसके निर्देशों का अनुसरण कर सके। साथ ही, यह ऐसा व्यक्ति भी होना चाहिए, जिसमें ज़िम्मेदारी की भावना हो, कोई ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर के वचन को ऐसी ज़िम्मेदारी एवं कर्तव्य मानकर क्रियान्वित करेगा, जिसे निभाने के लिए वो बाध्य है। तब क्या इस व्यक्ति को ऐसा व्यक्ति होने की आवश्यकता है, जो परमेश्वर को जानता है? नहीं। उस समय अतीत में, नूह ने परमेश्वर की शिक्षाओं के बारे में बहुत कुछ नहीं सुना था या परमेश्वर के किसी कार्य का अनुभव नहीं किया था। इसलिए, परमेश्वर के बारे में नूह का ज्ञान बहुत ही कम था। हालाँकि यहाँ लिखा है कि नूह परमेश्वर के साथ-साथ चलता रहा, तो क्या उसने कभी परमेश्वर के व्यक्तित्व को देखा था? उत्तर है, पक्के तौर पर नहीं! क्योंकि उन दिनों, सिर्फ परमेश्वर के दूत ही लोगों के बीच आते थे। जबकि वे चीज़ों की कथनी और करनी में परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकते थे, वे महज परमेश्वर की इच्छा एवं इरादों को सूचित कर रहे होते थे। परमेश्वर का व्यक्तित्व मनुष्य पर आमने-सामने प्रकट नहीं हुआ था। पवित्र शास्त्र के इस भाग में, हम सब मूल रूप से यही देखते हैं कि नूह को क्या करना था और उसके लिए परमेश्वर के निर्देश क्या थे। अतः वह सार क्या था जिसे यहाँ परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया था? सब कुछ जो परमेश्वर करता है, उसकी योजना सटीकता के साथ बनाई जाती है। जब वह किसी चीज़ या परिस्थिति को घटित होते देखता है, तो उसकी दृष्टि में इसे नापने के लिए एक मापदंड होता है और यह मापदंड निर्धारित करता है कि इससे निपटने के लिए वह किसी योजना की शुरुआत करता है या नहीं या उसे इस चीज़ एवं परिस्थिति के साथ किस प्रकार निपटना है। वह उदासीन नहीं है या उसमें सभी चीज़ों के प्रति भावनाओं की कमी नहीं है। असल में इसका पूर्णतः विपरीत है। यहाँ एक पद है, जिसे परमेश्वर ने नूह से कहा था : “सब प्राणियों के अन्त करने का प्रश्न मेरे सामने आ गया है; क्योंकि उनके कारण पृथ्वी उपद्रव से भर गई है, इसलिये मैं उनको पृथ्वी समेत नष्ट कर डालूँगा।” जब परमेश्वर ने यह कहा तो क्या उसका मतलब था वह सिर्फ मनुष्यों का विनाश कर रहा था? नहीं! परमेश्वर ने कहा कि वह देह वाले सभी जीवित प्राणियों का विनाश करने जा रहा था। परमेश्वर ने विनाश क्यों चाहा? यहाँ परमेश्वर के स्वभाव का एक और प्रकाशन है; परमेश्वर की दृष्टि में, मनुष्य की भ्रष्टता के प्रति, सभी देहधारियों की अशुद्धता, उपद्रव और विद्रोहीपन के प्रति उसके सब्र की एक सीमा है। उसकी सीमा क्या है? यह ऐसा है जैसा परमेश्वर ने कहा था : “और परमेश्वर ने पृथ्वी पर जो दृष्टि की तो क्या देखा कि वह बिगड़ी हुई है; क्योंकि सब प्राणियों ने पृथ्वी पर अपना अपना चाल-चलन बिगाड़ लिया था।” इस वाक्यांश “क्योंकि सब प्राणियों ने पृथ्वी पर अपना अपना चाल-चलन बिगाड़ लिया था” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कोई भी जीवित प्राणी, इनमें परमेश्वर का अनुसरण करने वाले, वे जो परमेश्वर का नाम पुकारते थे, ऐसे लोग जो किसी समय परमेश्वर को होमबलि चढ़ाते थे, ऐसे लोग जो मौखिक रूप से परमेश्वर को स्वीकार करते थे और यहाँ तक कि परमेश्वर की स्तुति भी करते थे—जब एक बार उनका व्यवहार भ्रष्टता से भर गया और परमेश्वर की दृष्टि में आ गया, तो उसे उनका नाश करना होगा। यह परमेश्वर की सीमा थी। अतः परमेश्वर किस हद तक मनुष्य एवं सभी देहधारियों की भ्रष्टता के प्रति सहनशील बना रहा? उस हद तक जब सभी लोग, चाहे वे परमेश्वर के अनुयायी हों या अविश्वासी, सही मार्ग पर नहीं चल रहे थे। उस हद तक जब मनुष्य केवल नैतिक रूप से भ्रष्ट और बुराई से भरा हुआ नहीं था, बल्कि जहाँ कोई व्यक्ति नहीं था, जो परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता था, किसी ऐसे व्यक्ति के होने की तो बात ही छोड़ दीजिए जो विश्वास करता हो कि परमेश्वर द्वारा इस संसार पर शासन किया जाता है और यह कि परमेश्वर लोगों के लिए प्रकाश का और सही मार्ग ला सकता है। उस हद तक जहाँ मनुष्य ने परमेश्वर के अस्तित्व से घृणा की और परमेश्वर को अस्तित्व में रहने की अनुमति नहीं दी। जब एक बार मनुष्य का भ्रष्टाचार इस बिंदु पर पहुँच गया, तो परमेश्वर इसे और अधिक नहीं सह सका। उसका स्थान कौन लेता? परमेश्वर के क्रोध और परमेश्वर के दंड का आगमन। क्या यह परमेश्वर के स्वभाव का एक आंशिक प्रकाशन नहीं था? इस वर्तमान युग में, क्या ऐसे कोई मनुष्य नहीं हैं, जो परमेश्वर की दृष्टि में धार्मिक हों? क्या ऐसे कोई मनुष्य नहीं हैं, जो परमेश्वर की दृष्टि में पूर्ण हों? क्या यह युग ऐसा युग है, जिसके अंतर्गत परमेश्वर की दृष्टि में पृथ्वी पर सभी देहधारियों का व्यवहार भ्रष्ट हो गया है? आज के दिन और युग में, ऐसे लोगों को छोड़कर जिन्हें परमेश्वर पूर्ण करना चाहता है और जो परमेश्वर का अनुसरण और उसके उद्धार को स्वीकार कर सकते हैं, क्या सभी देहधारी लोग परमेश्वर के धीरज की सीमा को चुनौती नहीं दे रहे हैं? क्या सभी चीज़ें, जो तुम लोगों के आसपास घटित होती हैं, जिन्हें तुम लोग अपनी आँखों से देखते हो और अपने कानों से सुनते हो और इस संसार में व्यक्तिगत रूप से अनुभव करते हो, उपद्रव से भरी हुई नहीं हैं? परमेश्वर की दृष्टि में, क्या एक ऐसे संसार एवं ऐसे युग को समाप्त नहीं कर देना चाहिए? यद्यपि इस वर्तमान युग की पृष्ठभूमि नूह के समय की पृष्ठभूमि से पूर्णतः अलग है, फिर भी वे भावनाएँ एवं क्रोध जो मनुष्य की भ्रष्टता के प्रति परमेश्वर में है, वे वैसी ही बना रहता है। परमेश्वर अपने कार्य के कारण सहनशील होने में समर्थ है, किन्तु सब प्रकार की परिस्थितियों एवं हालात के अनुसार, परमेश्वर की दृष्टि में इस संसार को बहुत पहले ही नष्ट कर दिया जाना चाहिए था। जब जलप्रलय द्वारा संसार का विनाश किया गया था, उस लिहाज से तो परिस्थितियाँ कहीं ज़्यादा खराब हैं। किंतु अंतर क्या है? यह भी ऐसी चीज़ है, जो परमेश्वर के हृदय को अत्यंत दुःखी करती है, और कदाचित कुछ ऐसा है, जिसकी तुम लोगों में से कोई भी सराहना नहीं कर सकता।
जब उसने जलप्रलय द्वारा संसार का नाश किया, तब परमेश्वर नूह को जहाज़ बनाने और कुछ तैयारी के काम के लिए बुलाने में सक्षम था। परमेश्वर एक पुरुष—नूह—को बुला सकता था कि वह उसके लिए कार्यों की इन श्रृंखलाओं को अंजाम दे। किंतु इस वर्तमान युग में, परमेश्वर के पास कोई नहीं है, जिसे वो बुलाए। ऐसा क्यों है? हर एक व्यक्ति जो यहाँ बैठा है, वह शायद उस कारण को बहुत अच्छी तरह समझता और जानता है। क्या तुम चाहते हो कि मैं इसे बोलकर बताऊँ? ज़ोर से कहने से हो सकता है कि तुम लोगों के सम्मान को चोट पहुँचे या सब परेशान हो जाएँ। कुछ लोग कह सकते हैं : “हालाँकि परमेश्वर की दृष्टि में हम लोग धार्मिक और पूर्ण नहीं हैं, फिर भी यदि परमेश्वर हमें कुछ करने के लिए निर्देश देता है, तो हम अभी भी इसे करने में समर्थ होंगे। इससे पहले, जब उसने कहा कि एक विनाशकारी तबाही आ रही थी, तो हमने भोजन एवं ऐसी चीज़ों को तैयार करना शुरू कर दिया था, जिनकी आवश्यकता किसी आपदा में होगी। क्या यह सब परमेश्वर की माँगों के अनुसार नहीं किया गया था? क्या हम सचमुच में परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग नहीं कर रहे थे? जो चीज़ें हमने कीं क्या उनकी तुलना जो कुछ नूह ने किया, उससे नहीं की जा सकती? हमने जो किया क्या वो सच्चा समर्पण नहीं है? क्या हम परमेश्वर के निर्देशों का अनुसरण नहीं कर रहे थे? क्या जो परमेश्वर ने कहा हमने वो इसलिए नहीं किया क्योंकि हमें परमेश्वर के वचनों में विश्वास है? तो परमेश्वर अभी भी दुःखी क्यों है? परमेश्वर क्यों कहता है कि उसके पास बुलाने के लिए कोई भी नहीं है?” क्या तुम लोगों के कार्यों और नूह के कार्यों के बीच कोई अंतर है? अंतर क्या है? (आपदा के लिए आज भोजन तैयार करना हमारा अपना इरादा था।) (हमारे कार्य “धार्मिक” नहीं कहला सकते हैं, जबकि नूह परमेश्वर की दृष्टि में एक धार्मिक पुरुष था।) जो कुछ तुमने कहा वह बहुत गलत नहीं है। जो नूह ने किया वह आवश्यक रूप से उससे अलग है, जो लोग अब कर रहे हैं। जब नूह ने वैसा किया जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था, तो वह नहीं जानता था कि परमेश्वर के इरादे क्या थे। उसे नहीं पता था कि परमेश्वर कौनसा कार्य पूरा करना चाहता था। परमेश्वर ने नूह को सिर्फ एक आज्ञा दी थी और अधिक स्पष्टीकरण के बिना उसे कुछ करने का निर्देश दिया था, नूह ने आगे बढ़कर इसे कर दिया। उसने गुप्त रूप से परमेश्वर के इरादों को जानने की कोशिश नहीं की, न ही उसने परमेश्वर का विरोध किया या निष्ठाहीनता दिखाई। वह बस गया और एक शुद्ध एवं सरल हृदय के साथ इसे तदनुसार कर डाला। परमेश्वर उससे जो कुछ भी करवाना चाहता था, उसने किया और इस काम में परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण कर इन्हें सुनने में विश्वास उसका सहारा बना। इस प्रकार जो कुछ परमेश्वर ने उसे सौंपा था, उसने ईमानदारी एवं सरलता से उसे निपटाया था। समर्पण ही उसका सार था, उसके कार्यों का सार था—न कि अपनी अटकलें लगाना या प्रतिरोध करना, न ही अपने निजी हितों और अपने लाभ-हानि के विषय में सोचना था। इसके आगे, जब परमेश्वर ने कहा कि वह जलप्रलय से संसार का नाश करेगा, तो नूह ने नहीं पूछा कब या उसने नहीं पूछा कि चीज़ों का क्या होगा और उसने निश्चित तौर पर परमेश्वर से नहीं पूछा कि वह किस प्रकार संसार को नष्ट करने जा रहा था। उसने बस वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था। हालाँकि परमेश्वर चाहता था कि इसे बनाया जाए और जिससे बनाया जाए, उसने बिलकुल वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने उसे कहा था और तुरंत कार्रवाई भी शुरू कर दी। उसने परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा के रवैये के साथ परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार काम किया। क्या वह आपदा से खुद को बचाने में सहायता करने के लिए यह कर रहा था? नहीं। क्या उसने परमेश्वर से पूछा कि संसार को नष्ट होने में कितना समय बाकी है? उसने नहीं पूछा। क्या उसने परमेश्वर से पूछा या क्या वह जानता था कि जहाज़ बनाने में कितना समय लगेगा? वह यह भी नहीं जानता था। उसने बस समर्पण किया, सुना और तदनुसार कार्य किया। अब के लोग वैसे नहीं हैं : जैसे ही परमेश्वर के वचन से हल्की सी जानकारी निकलती है, जैसे ही लोग परेशानी या समस्या के किसी चिह्न का आभास करते हैं, वे किसी भी चीज़ और कीमत की परवाह किए बगैर, आपदा के बाद क्या खाएँगे, क्या पियेंगे एवं क्या उपयोग करेंगे, इसकी तैयारी करने के लिए हरकत में आ जाते हैं, यहाँ तक कि विपत्ति से बच निकलने के अपने मार्गों की योजना बना लेते हैं। इससे भी अधिक दिलचस्प तो यह है कि इस अहम घड़ी में, मानवीय दिमाग “काम पूरा करने” में बहुत अच्छे होते हैं। उन परिस्थितियों में जहाँ परमेश्वर ने कोई निर्देश नहीं दिया है, मनुष्य बिलकुल उपयुक्त ढंग से हर चीज़ की योजना बना सकता है। तुम ऐसी योजनाओं का वर्णन करने के लिए “पूर्ण” शब्द का उपयोग कर सकते हो। जहाँ तक इसकी बात है कि परमेश्वर क्या कहता है, परमेश्वर के इरादे क्या हैं या परमेश्वर क्या चाहता है, कोई भी परवाह नहीं करता और न कोई इसकी सराहना करने की कोशिश करता है। क्या यह आज के लोगों और नूह के बीच में सबसे बड़ा अंतर नहीं है?
नूह की कहानी के इस अभिलेख में, क्या तुम लोग परमेश्वर के स्वभाव के एक भाग को देखते हो? मनुष्य की भ्रष्टता, गंदगी एवं उपद्रव के प्रति परमेश्वर के धीरज की एक सीमा है। जब वह उस सीमा तक पहुँच जाता है, तो वह और अधिक धीरज नहीं रखेगा और इसके बजाय वह अपने नए प्रबंधन और नई योजना को शुरू करेगा, जो उसे करना है उसे प्रारम्भ करेगा, अपने कर्मों और अपने स्वभाव के दूसरे पहलू को प्रकट करेगा। उसका यह कार्य यह दर्शाने के लिए नहीं है कि मनुष्य द्वारा कभी उसे नाराज़ नहीं किया जाना चाहिए या यह कि वह अधिकार एवं क्रोध से भरा हुआ है और यह इस बात को दर्शाने के लिए नहीं है कि वह मानवता का नाश कर सकता है। बात यह है कि उसका स्वभाव एवं उसका पवित्र सार इस प्रकार की मानवता को परमेश्वर के सामने जीवन बिताने हेतु और उसके प्रभुत्व के अधीन जीवन जीने हेतु न तो और अनुमति दे सकता है और न धीरज रख सकता है। कहने का तात्पर्य है, जब सारी मानवजाति उसके विरुद्ध है, जब सारी पृथ्वी पर ऐसा कोई नहीं है जिसे वह बचा सके, तो ऐसी मानवता के लिए उसके पास और अधिक धीरज नहीं होगा और वह बिना किसी संदेह के इस प्रकार की मानवता का नाश करने के लिए अपनी योजना को कार्यान्वित करेगा। परमेश्वर के द्वारा ऐसा कार्य उसके स्वभाव से निर्धारित होता है। यह एक आवश्यक परिणाम है और ऐसा परिणाम है, जिसे परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन प्रत्येक सृजित प्राणी को सहना होगा। क्या यह नहीं दर्शाता है कि इस वर्तमान युग में, परमेश्वर अपनी योजना को पूर्ण करने और उन लोगों को बचाने के लिए जिन्हें वह बचाना चाहता है और इंतज़ार नहीं कर सकता? इन परिस्थितियों में, परमेश्वर किस बात की सबसे अधिक परवाह करता है? इसकी नहीं कि किस प्रकार वे जो उसका बिलकुल अनुसरण नहीं करते या वे जो हर तरह से उसका विरोध करते हैं, वे उससे कैसा व्यवहार करते हैं या उसका कैसे प्रतिरोध करते हैं, या मानवजाति किस प्रकार उस पर कलंक लगा रही है। वह केवल इसकी परवाह करता है कि वे लोग जो उसका अनुसरण करते हैं, वे जो उसकी प्रबंधन योजना में उसके उद्धार के विषय हैं, उन्हें उसके द्वारा पूरा किया गया है या नहीं, कि वे उसकी संतुष्टि के योग्य बन गए हैं या नहीं। जहाँ तक उसका अनुसरण करने वालों के अलावा अन्य लोगों की बात है, वह मात्र कभी-कभार ही अपने क्रोध को व्यक्त करने के लिए थोड़ा सा दंड देता है। उदाहरण के लिए : सुनामी, भूकंप, ज्वालामुखी का विस्फोट। ठीक उसी समय, वह उनको भी मजबूती से बचा रहा होता और देखरेख कर रहा होता है, जो उसका अनुसरण करते हैं और जिन्हें उसके द्वारा बचाया जाना है। परमेश्वर का स्वभाव यह है : एक ओर, वह उन लोगों के प्रति अधिकतम धीरज एवं सहनशीलता रख सकता है, जिन्हें वह पूर्ण बनाने का इरादा करता है और उनके लिए वह तब तक इंतज़ार कर सकता है, जब तक वह संभवतः कर सकता है; दूसरी ओर, परमेश्वर शैतान-जैसे लोगों से, जो उसका अनुसरण नहीं करते और उसका विरोध करते हैं, अत्यंत नफ़रत एवं घृणा करता है। यद्यपि वह इसकी परवाह नहीं करता कि ये शैतान-जैसे लोग उसका अनुसरण या उसकी आराधना करते हैं या नहीं, वह तब भी उनसे घृणा करता है, जबकि उसके हृदय में उनके लिए धीरज होता है और चूँकि वह इन शैतान-जैसे लोगों के अंत को निर्धारित करता है, इसलिए वह अपनी प्रबंधकीय योजना के चरणों के आगमन का भी इंतज़ार कर रहा होता है।
आओ, हम अगले अंश को देखें।
2. जलप्रलय के बाद नूह के लिए परमेश्वर की आशीष
उत्पत्ति 9:1-6 फिर परमेश्वर ने नूह और उसके पुत्रों को आशीष दी और उनसे कहा, “फूलो-फलो, और बढ़ो, और पृथ्वी में भर जाओ। तुम्हारा डर और भय पृथ्वी के सब पशुओं, और आकाश के सब पक्षियों, और भूमि पर के सब रेंगनेवाले जन्तुओं, और समुद्र की सब मछलियों पर बना रहेगा : ये सब तुम्हारे वश में कर दिए जाते हैं। सब चलनेवाले जन्तु तुम्हारा आहार होंगे; जैसा तुम को हरे हरे छोटे पेड़ दिए थे, वैसा ही अब सब कुछ देता हूँ। पर मांस को प्राण समेत अर्थात् लहू समेत तुम न खाना। और निश्चय ही मैं तुम्हारे लहू अर्थात् प्राण का बदला लूँगा : सब पशुओं और मनुष्यों, दोनों से मैं उसे लूँगा; मनुष्य के प्राण का बदला मैं एक एक के भाई बन्धु से लूँगा। जो कोई मनुष्य का लहू बहाएगा उसका लहू मनुष्य ही से बहाया जाएगा, क्योंकि परमेश्वर ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप के अनुसार बनाया है।”
तुम लोग इस अंश से क्या समझते हो? मैंने इन पदों को क्यों चुना? मैंने जहाज़ पर नूह और उसके परिवार के जीवन से उद्धरण क्यों नहीं लिया? क्योंकि उस जानकारी का उस विषय से ज़्यादा संबंध नहीं है जिस पर आज हम बातचीत कर रहे हैं। जिस पर हम ध्यान दे रहे हैं, वह है परमेश्वर का स्वभाव। यदि तुम लोग उन विवरणों के विषय में जानना चाहते हो, तो तुम लोग बाइबल उठाकर स्वयं पढ़ सकते हो। यहाँ हम उसके बारे में बात नहीं करेंगे। वह मुख्य चीज जिसके बारे में हम आज बात कर रहे हैं, वह है कि परमेश्वर के कार्यों को कैसे जानें।
जब नूह ने परमेश्वर के निर्देशों को स्वीकारा, जहाज़ बनाया और परमेश्वर द्वारा संसार का नाश करने के लिए जलप्रलय का उपयोग करने के दौरान जीवित रहा, उसके बाद आठ लोगों का उसका पूरा परिवार जीवित बच गया। नूह के परिवार के आठ लोगों को छोड़कर, सारी मानवजाति का नाश कर दिया गया था और पृथ्वी पर सभी जीवित प्राणियों का नाश कर दिया गया था। नूह को परमेश्वर ने आशीषें दीं और उससे और उसके बेटों से कुछ बातें कहीं। ये बातें वे थीं, जिन्हें परमेश्वर उसे प्रदान कर रहा था और उसके लिए परमेश्वर की आशीष भी थीं। यह वह आशीष एवं प्रतिज्ञा है, जिसे परमेश्वर किसी ऐसे व्यक्ति को देता है, जो उसे सुन सकता है और उसके निर्देशों को स्वीकार कर सकता है और साथ ही ऐसा तरीका भी है, जिससे परमेश्वर लोगों को प्रतिफल देता है। कहने का तात्पर्य है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि नूह परमेश्वर की दृष्टि में एक पूर्ण पुरुष या एक धार्मिक पुरुष था या नहीं और इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह परमेश्वर के बारे में कितना जानता था, संक्षेप में, नूह और उसके सभी तीन पुत्रों ने परमेश्वर के वचनों को सुना था, परमेश्वर के कार्य में सहयोग किया था और वही किया था, जिसे परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार उनसे करने की अपेक्षा थी। परिणामस्वरूप, जलप्रलय के द्वारा संसार के विनाश के बाद उन्होंने परमेश्वर के लिए मनुष्यों एवं विभिन्न प्रकार के जीवित प्राणियों को संरक्षित किया था और परमेश्वर की प्रबंधकीय योजना के अगले चरण में बड़ा योगदान दिया था। वह सब कुछ जो उसने किया, उसके कारण परमेश्वर ने उसे आशीष दी। शायद आज के लोगों के लिए, जो कुछ नूह ने किया था वह उल्लेख करने के भी लायक नहीं था। कुछ लोग सोच सकते हैं : “नूह ने कुछ भी नहीं किया था; परमेश्वर ने उसे बचाने के लिए अपना मन बना लिया था, अतः उसे निश्चित रूप से बचाया ही जाना था। उसका जीवित बचना उसकी अपनी उपलब्धियों की वजह से नहीं था। यह वह है, जिसे परमेश्वर घटित करना चाहता था, क्योंकि मनुष्य निष्क्रिय है।” लेकिन यह वह नहीं, जो परमेश्वर सोच रहा था। परमेश्वर को, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई व्यक्ति महान है या मामूली, जब तक वे उसे सुन सकते हैं, उसके निर्देशों और जो कुछ वह सौंपता है उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं और उसके कार्य, उसकी इच्छा एवं उसकी योजना के साथ सहयोग कर सकते हैं, ताकि उसकी इच्छा एवं उसकी योजना निर्विघ्न पूरी की जा सके, तो ऐसा आचरण उसके द्वारा स्मरण रखने और उसकी आशीष प्राप्त करने के योग्य है। परमेश्वर ऐसे लोगों को अनमोल समझता है और वह उनके कार्यों एवं अपने लिए उनके प्रेम एवं उनके स्नेह को हृदय में संजोता है। यह परमेश्वर का रवैया है। तो परमेश्वर ने नूह को आशीष क्यों दी? क्योंकि परमेश्वर ऐसे कार्यों और मनुष्य के समर्पण से इसी तरह पेश आता है।
नूह के विषय में परमेश्वर की आशीष के लिहाज से, कुछ लोग कहेंगे : “यदि मनुष्य परमेश्वर को सुनता है और परमेश्वर को संतुष्ट करता है, तो परमेश्वर को मनुष्य को आशीष देना चाहिए। क्या कहे बिना ही ऐसा नहीं होता?” क्या हम ऐसा कह सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं : “नहीं।” हम ऐसा क्यों नहीं कह सकते? कुछ लोग कहते हैं : “मनुष्य परमेश्वर की आशीष का आनंद उठाने के लायक नहीं है।” यह पूर्णतः सही नहीं है। क्योंकि जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के सौंपे हुए को स्वीकार करता है, तो परमेश्वर के पास न्याय करने के लिए एक मापदंड होता है कि उस व्यक्ति के कार्य अच्छे हैं या बुरे, उस व्यक्ति ने समर्पण किया है या नहीं, उस व्यक्ति ने परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट किया है या नहीं और उसने जो किया वह पर्याप्त है या नहीं। परमेश्वर जिसकी परवाह करता है वह है व्यक्ति का हृदय, न कि ऊपरी तौर पर किए गए उसके कार्य। ऐसी बात नहीं है कि परमेश्वर को किसी व्यक्ति को तब तक आशीष देना चाहिए जब तक वे कुछ करते हैं, इसकी परवाह किए बिना कि वे इसे कैसे करते हैं। यह परमेश्वर के बारे में लोगों की ग़लतफ़हमी है। परमेश्वर सिर्फ चीज़ों के अंतिम नतीजे ही नहीं देखता, बल्कि इस पर अधिक ज़ोर देता है कि किसी व्यक्ति का हृदय कैसा है और चीज़ों के आगे बढ़ने के दौरान किसी व्यक्ति का रवैया कैसा रहता है और वह यह देखता है कि उसके हृदय में समर्पण, लिहाज और परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा है या नहीं। उस समय नूह परमेश्वर के बारे में कितना जानता था? क्या यह उतना था, जितना इन सिद्धांतों को अब तुम लोग जानते हो? परमेश्वर की अवधारणाएँ एवं उसका ज्ञान जैसे सत्य के पहलुओं के लिहाज से क्या उसने उतनी सिंचाई एवं चरवाही पाई थी, जितनी तुम लोगों ने पाई है? नहीं, उसने नहीं पाई थीं! लेकिन एक तथ्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता : चेतना में, मन में और यहाँ तक कि आज के लोगों के हृदय की गहराई में भी, परमेश्वर के विषय में उनकी अवधारणाएँ और रवैया अज्ञात एवं अस्पष्ट हैं। तुम लोग यहाँ तक कह सकते हो कि लोगों का एक हिस्सा परमेश्वर के अस्तित्व के प्रति एक नकारात्मक रवैया रखता है। लेकिन नूह के हृदय एवं चेतना में, परमेश्वर का अस्तित्व परम एवं ज़रा भी संदेह के परे था, और इस प्रकार परमेश्वर के प्रति उसका समर्पण मिलावट रहित था और परीक्षा का सामना कर सकता था। उसका हृदय शुद्ध एवं परमेश्वर के प्रति खुला हुआ था। उसे परमेश्वर के हर एक वचन का अनुसरण करने हेतु अपने आपको आश्वस्त करने के लिए सिद्धांतों के बहुत अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं थी, न ही उसे परमेश्वर के अस्तित्व को साबित करने के लिए बहुत सारे तथ्यों की आवश्यकता थी, ताकि जो कुछ परमेश्वर ने सौंपा था, वह उसे स्वीकार कर सके और जो कुछ भी करने के लिए परमेश्वर ने उसे अनुमति दी थी, वह उसे करने के योग्य हो सके। यह नूह और आज के लोगों के बीच आवश्यक अंतर है। साथ ही यह बिलकुल सही परिभाषा भी है कि परमेश्वर की दृष्टि में एक पूर्ण मनुष्य कैसा होता है। परमेश्वर जो चाहता है, वे नूह जैसे लोग हैं। वह उस प्रकार का व्यक्ति है, जिसकी परमेश्वर प्रशंसा करता है और बिलकुल उसी प्रकार का व्यक्ति है, जिसे परमेश्वर आशीष देता है। क्या तुम लोगों ने इससे कोई प्रबोधन प्राप्त किया है? लोग लोगों को बाहर से देखते हैं, जबकि जो परमेश्वर देखता है वह लोगों के हृदय एवं उनके सार हैं। परमेश्वर किसी को भी अपने प्रति अधूरा-मन या शंका रखने की अनुमति नहीं देता, न ही वह लोगों को किसी तरीके से उस पर संदेह करने या उसकी परीक्षा लेने की इजाज़त देता है। इस प्रकार, हालाँकि आज लोग परमेश्वर के वचन के आमने-सामने हैं—तुम लोग यह भी कह सकते हो कि परमेश्वर के आमने-सामने हैं—फिर भी अपने अंतरतम में बैठी किसी चीज़, अपने भ्रष्ट सार और परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैये ने लोगों को परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने में बाधा डाली है और उसके प्रति समर्पित होने से रोका है। इसी कारण उनके लिए वैसी ही आशीष पाना बहुत कठिन है जैसा परमेश्वर ने नूह को प्रदान किया था।
इसके आगे, आओ, हम पवित्र शास्त्रों के इस भाग पर एक नज़र डालें कि किस प्रकार परमेश्वर ने मनुष्य के साथ अपनी वाचा के लिए इंद्रधनुष को एक चिह्न के रूप में उपयोग किया।
3. परमेश्वर मनुष्य के साथ अपनी वाचा के लिए इंद्रधनुष को प्रतीक के रूप में उपयोग करता है
उत्पत्ति 9:11-13 “और मैं तुम्हारे साथ अपनी यह वाचा बाँधता हूँ कि सब प्राणी फिर जल-प्रलय से नष्ट न होंगे : और पृथ्वी का नाश करने के लिये फिर जल-प्रलय न होगा।” फिर परमेश्वर ने कहा, “जो वाचा मैं तुम्हारे साथ, और जितने जीवित प्राणी तुम्हारे संग हैं उन सब के साथ भी युग-युग की पीढ़ियों के लिये बाँधता हूँ, उसका यह चिह्न है : मैं ने बादल में अपना धनुष रखा है, वह मेरे और पृथ्वी के बीच में वाचा का चिह्न होगा।”
अधिकांश लोग जानते हैं कि इंद्रधनुष क्या है और उन्होंने इंद्रधनुष से जुड़ी कुछ कहानियों को सुना है। जहाँ तक बाइबल में इंद्रधनुष के बारे में उस कहानी की बात है, कुछ लोग इसका विश्वास करते हैं, कुछ इसे किंवदंती की तरह मानते हैं, जबकि अन्य लोग इस पर बिलकुल भी विश्वास नहीं करते। चाहे जो हो, इंद्रधनुष के संबंध में घटित सभी घटनाएं परमेश्वर का कार्य थीं और मनुष्य के लिए परमेश्वर के प्रबंधन की प्रक्रिया के दौरान घटित हुई थीं। इन घटनाओं को बाइबल में हूबहू लिखा गया है। ये अभिलेख हमें यह नहीं बताते हैं कि उस समय परमेश्वर किस मनोदशा में था या इन वचनों के पीछे उसके क्या इरादे थे, जिन्हें परमेश्वर ने कहा था। इसके अतिरिक्त, कोई भी इसका आकलन नहीं कर सकता कि जब परमेश्वर ने उन्हें कहा तो वह कैसा महसूस कर रहा था। फिर भी, इस समूचे हालात के लिहाज से परमेश्वर के मन की दशा को पाठ की पंक्तियों के बीच प्रकट किया गया है। यह ऐसा है, मानो परमेश्वर के वचन के प्रत्येक शब्द एवं वाक्यांश के ज़रिये उस समय के उसके विचार पन्नों से निकल पड़ते हैं।
ये परमेश्वर के विचार हैं, जिनके बारे में लोगों को चिंतित होना चाहिए और जिन्हें जानने के लिए उन्हें सबसे अधिक कोशिश करनी चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर के विचार परमेश्वर के विषय में मनुष्य की समझ से जटिल ढंग से जुड़े हैं और परमेश्वर के बारे में मनुष्य की समझ मनुष्य के जीवन प्रवेश की एक अनिवार्य कड़ी है। अतः, परमेश्वर उस समय क्या सोच रहा था जब ये घटनाएं घटित हुई थीं?
मूल रूप से, परमेश्वर ने ऐसी मानवता की सृष्टि की थी जो उसकी दृष्टि में बहुत ही अच्छी और उसके बहुत ही निकट थी, किंतु उसके विरुद्ध विद्रोह करने के पश्चात जलप्रलय द्वारा उनका विनाश कर दिया गया। क्या इससे परमेश्वर को कष्ट पहुँचा कि एक ऐसी मानवता तुरंत ही इस तरह विलुप्त हो गई थी? निश्चय ही इससे कष्ट पहुँचा! तो उसकी इस दर्द की अभिव्यक्ति क्या थी? बाइबल में इसे कैसे लिखा गया? इसे बाइबल में इस रूप से लिखा गया : “और मैं तुम्हारे साथ अपनी यह वाचा बाँधता हूँ कि सब प्राणी फिर जल-प्रलय से नष्ट न होंगे : और पृथ्वी का नाश करने के लिये फिर जल-प्रलय न होगा।” यह साधारण वाक्य परमेश्वर के विचारों को प्रकट करता है। संसार के इस विनाश ने उसे बहुत अधिक दुःख पहुँचाया। मनुष्य के शब्दों में, वह बहुत ही दुःखी था। हम कल्पना कर सकते हैं : जलप्रलय के द्वारा नाश किए जाने के बाद पृथ्वी जो किसी समय जीवन से भरी हुई थी, वह कैसी दिखाई देती थी? वह पृथ्वी जो किसी समय मानवों से भरी हुई थी, अब कैसी दिखती थी? कोई मानवीय निवास नहीं, कोई जीवित प्राणी नहीं, हर जगह पानी ही पानी और जल की सतह पर पूरी तरह तबाही। जब परमेश्वर ने संसार को बनाया तो क्या उसकी मूल इच्छा ऐसा ही कोई दृश्य था? बिलकुल भी नहीं! परमेश्वर की मूल इच्छा थी कि वह समूची धरती पर जीवन देखे, जिन मानवों को उसने बनाया था उन्हें अपनी आराधना करते देखे, सिर्फ नूह ही उसकी आराधना करने वाला एकमात्र व्यक्ति न हो या ऐसा एकमात्र व्यक्ति जो उसकी पुकार का उत्तर दे सके और जो कुछ उसे सौंपा गया था, उसे पूर्ण करे। जब मानवता विलुप्त हो गई, तो परमेश्वर ने वह नहीं देखा, जिसकी उसने मूल रूप से इच्छा की थी बल्कि पूर्णतः विपरीत देखा। उसका हृदय तकलीफ में कैसे नहीं होता? अतः जब वह अपने स्वभाव को प्रकट कर रहा था और अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर रहा था, तब परमेश्वर ने एक निर्णय लिया। उसने किस प्रकार का निर्णय लिया? मनुष्य के साथ वाचा के रूप में बादल में एक धनुष बनाने का (यानी, वे इंद्रधनुष जो हम देखते हैं), एक प्रतिज्ञा कि परमेश्वर दोबारा मानवजाति का जलप्रलय से नाश नहीं करेगा। उसी समय, यह लोगों को बताने के लिए भी था कि परमेश्वर ने संसार को जलप्रलय से नाश किया था, ताकि मानवजाति हमेशा याद रखे कि परमेश्वर ने ऐसा कार्य क्यों किया था।
क्या उस समय संसार का विनाश कुछ ऐसा था जो परमेश्वर चाहता था? यह निश्चित रूप से वह नहीं था, जो परमेश्वर चाहता था। संसार के विनाश के बाद हम शायद पृथ्वी के दयनीय दृश्य के एक छोटे से भाग की कल्पना कर सकते हैं, परंतु हम सोच भी नहीं सकते कि उस समय परमेश्वर की निगाहों में वह दृश्य कैसा था। हम कह सकते हैं कि चाहे यह आज के लोग हों या उस समय के, कोई भी यह कल्पना या आकलन नहीं कर सकता कि परमेश्वर उस समय क्या महसूस कर रहा था, जब उसने वो दृश्य, संसार की वो तस्वीर देखी जो जलप्रलय के द्वारा विनाश के बाद की थी। मनुष्य के विद्रोहीपन के कारण परमेश्वर इसे करने के लिए मजबूर हुआ था, परंतु जलप्रलय से संसार के विनाश के कारण परमेश्वर के हृदय के द्वारा सहा गया दर्द एक वास्तविकता है, जिसकी कोई थाह नहीं ले सकता या समझ नहीं सकता। इसीलिए परमेश्वर ने मानवजाति के साथ एक वाचा बाँधी, जो लोगों को यह बताने के लिए थी कि वे स्मरण रखें कि परमेश्वर ने किसी समय ऐसा कुछ किया था और उन्हें यह वचन देने के लिए था कि परमेश्वर कभी संसार का इस तरह दोबारा नाश नहीं करेगा। इस वाचा में हम परमेश्वर के हृदय को देखते हैं—हम देखते हैं कि परमेश्वर का हृदय पीड़ा में था, जब उसने मानवता का नाश किया। मनुष्य की भाषा में, जब परमेश्वर ने मानवजाति का नाश किया और मानवजाति को विलुप्त होते हुए देखा, तो उसका हृदय रो रहा था और उससे लहू बह रहा था। क्या उसके वर्णन का यह सबसे उत्तम तरीका नहीं है? मानवीय भावनाओं को दर्शाने के लिए इन शब्दों को मनुष्य द्वारा उपयोग किया जाता है, पर चूँकि मनुष्य की भाषा में बहुत कमी है, तो परमेश्वर के अहसास एवं भावनाओं का वर्णन करने के लिए उनका उपयोग करना मुझे बहुत बुरा नहीं लगता और न ही यह बहुत ज़्यादा है। कम से कम यह तुम लोगों को उस समय परमेश्वर की मनोदशा क्या थी, उसकी एक बहुत जीवंत एवं बहुत ही उपयुक्त समझ प्रदान करता है। जब तुम लोग इंद्रधनुष को दोबारा देखोगे, तो अब तुम क्या सोचोगे? कम से कम तुम लोग स्मरण करोगे कि किस प्रकार एक समय परमेश्वर जल-प्रलय के द्वारा संसार के विनाश पर दुःखी था। तुम लोग स्मरण करोगे कि कैसे, यद्यपि परमेश्वर ने इस संसार से नफ़रत की और इस मानवता को तुच्छ जाना था, जब उसने उन मनुष्यों का विनाश किया, जिन्हें उसने अपने हाथों से बनाया था तो उसका हृदय दुख रहा था, उसका हृदय उन्हें छोड़ने के लिए संघर्ष कर रहा था, उसका हृदय अनिच्छुक था और इसे सहना कठिन महसूस हो रहा था। उसका सुकून सिर्फ नूह के परिवार के आठ लोगों में ही था। यह नूह का सहयोग था, जिसने सभी चीज़ों की सृष्टि करने के परमेश्वर के श्रमसाध्य प्रयासों को व्यर्थ नहीं जाने दिया। एक समय जब परमेश्वर कष्ट में था, तब यह एकमात्र चीज़ थी जो उसकी पीड़ा की क्षतिपूर्ति कर सकती थी। उस बिंदु से, परमेश्वर ने मानवता की अपनी सारी अपेक्षाओं को नूह के परिवार के ऊपर डाल दिया, इस उम्मीद में कि वे उसके आशीषों के अधीन जीवन बिताएँगे और उसके शाप के अधीन नहीं, इस उम्मीद में कि वे परमेश्वर को फिर कभी संसार का जलप्रलय से नाश करते हुए नहीं देखेंगे, और इस उम्मीद में भी कि उनका विनाश नहीं किया जाएगा।
इससे हमको परमेश्वर के स्वभाव के किस भाग को समझना चाहिए? परमेश्वर ने मनुष्य से घृणा की थी क्योंकि मनुष्य उसके प्रति शत्रुतापूर्ण था, लेकिन उसके हृदय में, मानवता के लिए उसकी देखभाल, चिंता एवं दया अपरिवर्तनीय बनी रही। यहाँ तक कि जब उसने मानवजाति का नाश किया, उसका हृदय अपरिवर्तनीय बना रहा। जब मानवता भ्रष्टता से भरकर परमेश्वर के प्रति एक गंभीर हद तक विद्रोही हो गई तो उसे अपने स्वभाव एवं अपने सार के कारण और अपने सिद्धांतों के अनुसार इस मानवता का विनाश करना पड़ा था। लेकिन परमेश्वर के सार के कारण, उसने तब भी मानवजाति पर दया की और यहाँ तक कि वह मानवजाति के छुटकारे के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करना चाहता था ताकि वे निरंतर जीवित रह सकें। लेकिन, मनुष्य ने परमेश्वर का विरोध किया, परमेश्वर से विद्रोह करना जारी रखा और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने से इनकार किया; अर्थात् उसके अच्छे इरादों को स्वीकार करने से इनकार किया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर ने उन्हें कैसे पुकारा, उन्हें कैसे स्मरण दिलाया, कैसे उनकी आपूर्ति की, कैसे उनकी सहायता की या कैसे उनको सहन किया, मनुष्य ने न तो इसे समझा, न सराहा, न ही उन्होंने कुछ ध्यान दिया। अपनी पीड़ा में, परमेश्वर अब भी मनुष्य के प्रति अधिकतम सहनशील बना रहा था, इस इंतज़ार में कि मनुष्य ढर्रा बदलेगा। अपनी सीमा पर पहुँचने के पश्चात, परमेश्वर ने बिना किसी हिचकिचाहट के वह किया, जो उसे करना था। दूसरे शब्दों में, उस घड़ी जब परमेश्वर ने मानवजाति का विनाश करने की योजना बनाई, तब से उसके मानवजाति के विनाश के अपने कार्य की आधिकारिक शुरुआत तक, एक विशेष समय अवधि एवं प्रक्रिया थी। यह प्रक्रिया मनुष्य को ढर्रा बदलने योग्य बनाने के उद्देश्य के लिए अस्तित्व में थी और यह वह आख़िरी मौका था, जो परमेश्वर ने मनुष्य को दिया था। अतः परमेश्वर ने मानवजाति का विनाश करने से पहले इस अवधि में क्या किया था? परमेश्वर ने प्रचुर मात्रा में स्मरण दिलाने एवं प्रोत्साहन देने का कार्य किया था। चाहे परमेश्वर का हृदय कितनी भी पीड़ा एवं दुःख में था, उसने मानवता पर अपनी देखभाल, चिंता और भरपूर दया को जारी रखा। हम इससे क्या देखते हैं? बेशक, हम देखते हैं कि मानवजाति के लिए परमेश्वर का प्रेम वास्तविक है और कोई ऐसी चीज़ नहीं जिसके प्रति वह दिखावा कर रहा हो। यह वास्तविक, स्पर्शगम्य एवं प्रशंसनीय है, न कि जाली, मिलावटी, झूठा या कपटपूर्ण। परमेश्वर कभी किसी छल का उपयोग नहीं करता या झूठी छवियाँ नहीं बनाता कि लोगों को यह दिखाए कि वह कितना मनभावन है। वह लोगों को अपनी मनोहरता दिखाने के लिए या अपनी मनोहरता एवं पवित्रता के दिखावे के लिए झूठी गवाही का उपयोग कभी नहीं करता। क्या परमेश्वर के स्वभाव के ये पहलू मनुष्य के प्रेम के लायक नहीं हैं? क्या ये आराधना के योग्य नहीं हैं? क्या ये संजोकर रखने के योग्य नहीं हैं? इस बिंदु पर, मैं तुम लोगों से पूछना चाहता हूँ : इन शब्दों को सुनने के बाद, क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर की महानता कागज के टुकड़ों पर लिखे गए खोखले शब्द मात्र है? क्या परमेश्वर की मनोहरता केवल खोखले शब्द ही है? नहीं! निश्चित रूप से नहीं! परमेश्वर की सर्वोच्चता, महानता, पवित्रता, सहनशीलता, प्रेम, इत्यादि—परमेश्वर के स्वभाव एवं सार के इन सब विभिन्न पहलुओं के हर विवरण को हर उस समय व्यावहारिक अभिव्यक्ति मिलती है, जब वह अपना कार्य करता है, ये सब मनुष्य के प्रति उसके इरादे में समाहित हैं और ये प्रत्येक व्यक्ति में भी साकार और प्रतिबिंबित होते हैं। चाहे तुमने इसे पहले महसूस किया हो या नहीं, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति की हर संभव तरीके से देखभाल कर रहा है, वह प्रत्येक व्यक्ति के हृदय को स्नेह देने और प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा को जगाने के लिए अपने निष्कपट हृदय, बुद्धि एवं विभिन्न तरीकों का उपयोग कर रहा है। यह एक निर्विवादित तथ्य है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि यहाँ कितने लोग बैठे हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के पास परमेश्वर की सहनशीलता, धीरज एवं मनोहरता के विषय में अलग-अलग अनुभव और उसके प्रति अलग-अलग भावनाएँ हैं। परमेश्वर के ये अनुभव और उसके प्रति ये भावनाएँ या अनुभूति—संक्षेप में, ये सभी सकरात्मक चीज़ें परमेश्वर की ओर से हैं। अतः परमेश्वर के विषय में प्रत्येक व्यक्ति के अनुभव एवं ज्ञान को मिलकर और इन्हें आज बाइबल के इन अंशों के हमारे पठन से जोड़कर, क्या अब तुम लोगों के पास परमेश्वर की और अधिक वास्तविक एवं उचित समझ है?
इस कहानी को पढ़ने और इस घटना के ज़रिए प्रकट परमेश्वर के स्वभाव के कुछ भाग को समझने के पश्चात, तुम लोगों के पास परमेश्वर के बारे में कैसा नया ज्ञान है? क्या इसने तुम लोगों को परमेश्वर एवं उसके हृदय की एक गहरी समझ प्रदान की है? क्या अब तुम दोबारा नूह की कहानी को देखने पर अलग महसूस करते हो? तुम लोगों के विचारों के अनुसार, क्या बाइबल के इन पदों के बारे में संगति करना अनावश्यक था? अब जब हमने उन पर संगति कर ली है, क्या तुम लोग सोचते हो कि यह अनावश्यक था? निश्चित ही यह आवश्यक था! हालाँकि जो हमने पढ़ी, वह एक कहानी है, फिर भी यह उस कार्य का सच्चा अभिलेख है, जो परमेश्वर ने किया है। मेरा लक्ष्य यह नहीं था कि तुम लोगों को इन कहानियों के विवरणों या इस पात्र को समझाऊँ, न ही यह था कि तुम लोग जाकर इस पात्र का अध्ययन कर सको और निश्चित रूप से यह भी नहीं था कि तुम लोग वापस जाओ और फिर से बाइबल का अध्ययन करो। क्या तुम लोग समझ गए? तो क्या इन कहानियों ने परमेश्वर के विषय में तुम लोगों का ज्ञान बढ़ाया है? इस कहानी ने परमेश्वर के विषय में तुम लोगों की समझ में क्या जोड़ा है? हाँगकाँग के भाइयो एवं बहनो, हमें बताओ। (हमने देखा कि परमेश्वर का प्रेम कुछ ऐसा है, जो हममें से किसी भ्रष्ट मानव में नहीं है।) दक्षिण कोरिया के भाइयो एवं बहनो, तुम लोग बताओ। (मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम वास्तविक है। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम उसके स्वभाव को लिए हुए है और उसकी महानता, पवित्रता, सर्वोच्चता एवं उसकी सहनशीलता को लिए हुए है। यह इस योग्य है कि हम इसकी गहरी समझ प्राप्त करने की कोशिश करें।) (संगति के माध्यम से उस समय, एक ओर, मैं परमेश्वर के धार्मिक एवं पवित्र स्वभाव को देख सकता हूँ और साथ ही मैं उस चिंता को भी देख सकता हूँ जो मानवजाति के लिए परमेश्वर को है, मानवजाति के प्रति परमेश्वर की दया को देख सकता हूँ और हर चीज़ जो परमेश्वर करता है और उसका हर चिंतन एवं विचार, यह सब मानवता के लिए उसके प्रेम एवं चिंता को प्रकट करता है।) (अतीत में मेरी समझ यह थी कि परमेश्वर ने संसार का विनाश करने के लिए जलप्रलय का उपयोग किया था क्योंकि मानवजाति एक गंभीर हद तक बुरी हो गई थी, और यह ऐसा था मानो परमेश्वर ने इस मानवता का विनाश किया क्योंकि उसको उससे घृणा थी। आज जब परमेश्वर ने नूह की कहानी के बारे में बात की और कहा कि परमेश्वर के हृदय से लहू बह रहा था, उसके बाद ही मुझे लगा कि परमेश्वर असल में इस मानवता को छोड़ने का अनिच्छुक था। मानवजाति बहुत ही विद्रोही थी, इसलिए परमेश्वर के पास उनका नाश करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं था। असल में, परमेश्वर का हृदय उस समय बहुत दुःखी था। यहां से, मैं परमेश्वर के स्वभाव में मानवजाति के लिए उसकी देखभाल एवं चिंता को देख सकती हूँ। यह कुछ ऐसा है, जो मैं पहले नहीं जानती थी।) बहुत अच्छा! अब बाकी लोग बता सकते हैं। (सुनने के बाद मैं बहुत प्रभावित हुआ था। मैंने अतीत में बाइबल पढ़ी है, किंतु मैंने आज के समान कभी अनुभव नहीं किया, जहाँ परमेश्वर सीधे तौर पर इन चीज़ों का विश्लेषण करता है, जिससे हम उसे जान सकें। बाइबल को देखने के लिए परमेश्वर हमें इस तरह साथ ले चलता है, जो मुझे यह जानने का मौका देता है कि मनुष्य की भ्रष्टता से पहले परमेश्वर का सार मानवजाति के लिए प्रेम एवं परवाह था। मनुष्य के भ्रष्ट होने के समय से लेकर आज के अंतिम दिनों तक, भले ही परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है, फिर भी उसका प्रेम एवं परवाह अपरिवर्तनीय बना हुआ है। यह दिखाता है कि चाहे मनुष्य भ्रष्ट है या नहीं, सृष्टि से लेकर अब तक परमेश्वर के प्रेम का सार, कभी नहीं बदलता।) (आज मैंने देखा कि उसके कार्य के समय या स्थान में हुए परिवर्तन की वजह से परमेश्वर का सार नहीं बदलेगा। मैंने यह भी देखा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर संसार को बना रहा है या मनुष्य के भ्रष्ट होने के पश्चात इसका नाश कर रहा है, वह जो कुछ करता है उसका अर्थ होता है और इसमें उसका स्वभाव शामिल होता है। इसलिए मैंने देखा कि परमेश्वर का प्रेम असीमित एवं अगाध है, और साथ ही मैंने, जैसा अन्य भाईयों एवं बहनों ने जिक्र किया, मानवजाति के प्रति परमेश्वर की परवाह एवं दया को भी देखा, जब परमेश्वर ने संसार का विनाश किया था।) (ये ऐसी चीज़ें थीं जिन्हें मैं वास्तव में पहले से नहीं जानती थी। आज यह सब सुनने के बाद, मैं महसूस करती हूँ कि परमेश्वर सचमुच में विश्वसनीय है, सचमुच में भरोसे के लायक है, विश्वास करने योग्य है और उसका वास्तव में अस्तित्व है। मैं सही मायनों में अपने हृदय में सराहना कर सकती हूँ कि परमेश्वर का स्वभाव और प्रेम वास्तव में इतना ठोस है। आज की बातें सुनने के बाद मुझमें यह भावना है।) बहुत बढ़िया! ऐसा लगता है कि जो कुछ तुम लोगों ने सुना है, उसे तुम लोगों ने किया आत्मसात है।
क्या तुम लोगों ने बाइबल के सभी पदों में एक बात पर ध्यान दिया है, जिसमें बाइबल की वो कहानियां भी शामिल हैं, जिन पर हमने आज संगति की? क्या परमेश्वर ने अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए या मानवता के लिए अपने प्रेम एवं देखरेख का वर्णन करने के लिए कभी अपनी भाषा का उपयोग किया है? क्या उसका कोई अभिलेख है, जहाँ वह यह बताने के लिए साधारण भाषा का उपयोग करता है कि वह मानवजाति के लिए कितना चिंतित है या उससे कितना प्रेम करता है? नहीं। क्या यह सही नहीं है? तुम लोगों में से बहुत से हैं, जिन्होंने बाइबल या बाइबल के अलावा किताबें पढ़ी हैं। क्या तुम में से किसी ने ऐसे वचन देखे हैं? उत्तर निश्चित रूप से न है! अर्थात, बाइबल के अभिलेखों में, परमेश्वर के वचनों या उसके कार्य के दस्तावेज़ समेत, परमेश्वर ने मानवजाति के लिए अपनी भावनाओं का वर्णन करने के लिए या अपने प्रेम एवं परवाह को व्यक्त करने के लिए किसी युग में या किसी समयावधि में अपने स्वयं के तरीकों का उपयोग कभी नहीं किया है, न ही कभी परमेश्वर ने अपने अहसास एवं भावनाओं को बताने के लिए भाषण या किन्हीं तरीकों का उपयोग किया है—क्या यह एक तथ्य नहीं है? मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? मुझे इसका ज़िक्र क्यों करना पड़ता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि इसमें भी परमेश्वर की मनोहरता एवं उसका स्वभाव समाविष्ट है।
परमेश्वर ने मानवजाति की सृष्टि की; इसकी परवाह किए बगैर कि उन्हें भ्रष्ट किया गया है या वे उसका अनुसरण करते हैं, परमेश्वर मनुष्य से अपने सबसे अधिक दुलारे प्रियजनों के समान व्यवहार करता है—या जैसा मानव कहेंगे, ऐसे लोग जो उसके लिए अतिप्रिय हैं—और उसके खिलौनों जैसा नहीं। भले ही परमेश्वर कहता है कि वह सृष्टिकर्ता है और मनुष्य उसका सृजित प्राणी है, जो सुनने में ऐसा लग सकता है कि यहाँ पद में थोड़ा अंतर है, फिर भी वास्तविकता यह है कि जो कुछ भी परमेश्वर ने मानवजाति के लिए किया है, वह इस प्रकार के रिश्ते से कहीं बढ़कर है। परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है, मानवजाति की देखभाल करता है, मानवजाति के लिए चिंता दिखाता है, इसके साथ ही साथ लगातार और बिना रुके मानवजाति के लिए आपूर्तियाँ करता है। वह कभी अपने हृदय में यह महसूस नहीं करता कि यह एक अतिरिक्त कार्य है या जिसे ढेर सारा श्रेय मिलना चाहिए। न ही वह यह महसूस करता है कि मानवता को बचाना, उनके लिए आपूर्तियाँ करना, और उन्हें सब कुछ देना, मानवजाति के लिए एक बहुत बड़ा योगदान है। वह मानवजाति को अपने तरीके से और स्वयं के सार और जो वह स्वयं है और जो उसके पास है, उसके माध्यम से बस खामोशी से एवं चुपचाप प्रदान करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति को उससे कितना भोजन प्रबंध एवं कितनी सहायता प्राप्त होती है, परमेश्वर इसके बारे में कभी नहीं सोचता या श्रेय लेने की कोशिश नहीं करता। यह परमेश्वर के सार द्वारा निर्धारित होता है और साथ ही यह परमेश्वर के स्वभाव की बिलकुल सही अभिव्यक्ति भी है। इसीलिए, चाहे यह बाइबल में हो या किसी अन्य पुस्तक में, हम परमेश्वर को कभी अपने विचार व्यक्त करते हुए नहीं पाते हैं और हम कभी परमेश्वर को मनुष्यों को यह वर्णन करते या घोषणा करते हुए नहीं पाते हैं कि वह इन कार्यों को क्यों करता है या वह मानवजाति की इतनी देखरेख क्यों करता है, जिससे वह मानवजाति को अपने प्रति आभारी बनाए या उससे अपनी स्तुति कराए। यहाँ तक कि जब उसे क़़ष्ट भी होता है, जब उसका हृदय अत्यंत पीड़ा में होता है, तब भी वह मानवजाति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी या मानवजाति के लिए अपनी चिंता को कभी नहीं भूलता; वह पूरे समय इस कष्ट एवं दर्द को चुपचाप अकेला सहता रहता है। इसके विपरीत, परमेश्वर निरंतर मानवजाति को प्रदान करता रहता है जैसा कि वह हमेशा से करता आया है। हालाँकि मानवजाति अक्सर परमेश्वर की स्तुति करती है या उसकी गवाही देती है, पर इसमें से किसी भी व्यवहार की माँग परमेश्वर द्वारा नहीं की जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर कभी ऐसा इरादा नहीं रखता कि मानवजाति के लिए किए गए उसके अच्छे कार्य के बदले उसे धन्यवाद दिया जाए या उसका मूल्य वापस किया जाए। दूसरी ओर, ऐसे लोग जो परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हैं, जो सचमुच परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं, उसको सुनते हैं और उसके प्रति वफादार हैं और जो उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं—ये ऐसे लोग हैं, जो प्रायः परमेश्वर के आशीष प्राप्त करते हैं और परमेश्वर बिना किसी हिचकिचाहट के ऐसे आशीष प्रदान करेगा। इसके अतिरिक्त, ऐसे आशीष जिन्हें लोग परमेश्वर से प्राप्त करते हैं, अक्सर उनकी कल्पना से परे होते हैं और साथ ही किसी भी ऐसी चीज़ से परे होते हैं, जिसका औचित्य मानव उससे सिद्ध कर सकते हों जो उन्होंने किया है या जो कीमत उन्होंने चुकाई है। जब मानवजाति परमेश्वर के आशीष का आनंद ले रही होती है, तब क्या कोई परवाह करता है कि परमेश्वर क्या कर रहा है? क्या कोई किसी प्रकार की चिंता करता है कि परमेश्वर कैसा महसूस कर रहा होता है? क्या कोई परमेश्वर की पीड़ा के आकलन की कोशिश करता है? इन प्रश्नों का साफ उत्तर है, नहीं! क्या नूह समेत कोई मनुष्य उस दर्द का आकलन कर सकता है, जिसे परमेश्वर उस समय महसूस कर रहा था? क्या कोई समझ सकता है कि क्यों परमेश्वर ऐसी वाचा तैयार करेगा? वे नहीं समझ सकते! मानवजाति परमेश्वर की पीड़ा का आकलन नहीं करती है, इसलिए नहीं कि वो परमेश्वर की पीड़ा नहीं समझती और इसलिए नहीं कि परमेश्वर एवं मनुष्य के बीच अंतर है या उनकी हैसियत में अंतर है; बल्कि इसलिए क्योंकि मानवजाति परमेश्वर की किसी भावना की बिल्कुल परवाह नहीं करती। मानवजाति सोचती है कि परमेश्वर तो आत्मनिर्भर है—परमेश्वर को इसकी कोई आवश्यकता नहीं है कि लोग उसकी देखरेख करें, उसे समझें या उसके प्रति परवाह दिखाएं। परमेश्वर तो परमेश्वर है, अतः उसे कोई दर्द नहीं होता, उसकी कोई भावनाएँ नहीं हैं; वह दुःखी नहीं होगा, वह शोक महसूस नहीं करता है, यहाँ तक कि वह रोता भी नहीं है। परमेश्वर तो परमेश्वर है, इसलिए उसे किसी भावनात्मक अभिव्यक्ति की आवश्यकता नहीं है और उसे किसी भावनात्मक सुकून की आवश्यकता नहीं है। यदि उसे कुछ निश्चित परिस्थितियों में इनकी आवश्यकता होती भी है, तो वह अकेले ही इस सबसे निपट सकता है और उसे मानवजाति से किसी सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इसके विपरीत, यह तो कमज़ोर, अपरिपक्व मनुष्य हैं, जिन्हें परमेश्वर की सांत्वना, भोजन-प्रबंध एवं प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है और यहाँ तक कि उन्हें अपनी भावनाओं को किसी भी समय एवं स्थान पर सांत्वना देने के लिए भी परमेश्वर की आवश्यकता होती है। ऐसी चीज़ें मानवजाति के हृदय के भीतर गहराई में छिपी होती हैं : मनुष्य कमज़ोर प्राणी है; उन्हें परमेश्वर की आवश्यकता होती है कि वह हर तरीके से उनकी देखरेख करे, वे परमेश्वर से मिलने वाली सब प्रकार की देखभाल के हकदार हैं और उन्हें परमेश्वर से किसी भी ऐसी चीज़ की माँग करनी चाहिए जिसे वे महसूस करते हैं कि वह उनकी होनी चाहिए। परमेश्वर बलवान है; उसके पास सब कुछ है और उसे मानवजाति का अभिभावक और आशीष प्रदान करने वाला होना चाहिए। चूँकि वह पहले से ही परमेश्वर है, वह सर्वशक्तिमान है और उसे मानवजाति से कभी किसी भी चीज़ की आवश्यकता नहीं होती है।
चूँकि मनुष्य परमेश्वर के किसी भी प्रकाशन पर ध्यान नहीं देता है, इसलिए उसने कभी परमेश्वर के शोक, पीड़ा या आनंद को महसूस नहीं किया है। परंतु इसके विपरीत, परमेश्वर मनुष्य की सभी अभिव्यक्तियों को अंदर-बाहर अच्छी तरह जानता है। परमेश्वर सभी समय एवं सभी स्थानों पर प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की आपूर्ति करता है, प्रत्येक मनुष्य के बदलते विचारों का अवलोकन करता है और इस प्रकार उनको सांत्वना एवं प्रोत्साहन देता है और उन्हें मार्गदर्शन देता और रोशन करता है। उन सभी चीजों के संदर्भ में जो परमेश्वर ने मानवजाति पर की हैं और उनके कारण उसने जो कीमतें चुकाई हैं, क्या लोग बाइबल से या किसी ऐसी चीज़ से एक अंश भी ढूँढ़ सकते हैं, जो परमेश्वर ने अब तक कहा है, जो साफ़-साफ़ कहता हो कि परमेश्वर मनुष्य से किसी चीज़ की माँग करेगा? नहीं! इसके विपरीत, चाहे लोग परमेश्वर की सोच को कितना भी अनदेखा करें, वह फिर भी बार-बार मानवजाति की अगुआई करता है, बार-बार मानवजाति की आपूर्ति करता है और उनकी सहायता करता है कि वे परमेश्वर के मार्ग पर चल सकें ताकि वे उस खूबसूरत मंज़िल को प्राप्त कर सकें जो उसने उनके लिए तैयार की है। जब परमेश्वर की बात आती है, जो वह स्वयं है और जो उसके पास है, उसके अनुग्रह, उसकी दया और उसके सभी प्रतिफल बिना किसी हिचकिचाहट के उन लोगों को प्रदान किए जाएँगे, जो उससे प्रेम एवं उसका अनुसरण करते हैं। किंतु वह उस पीड़ा को, जो उसने सही है या अपनी मनोदशा को कभी किसी व्यक्ति पर प्रकट नहीं करता और वह किसी के बारे में कभी शिकायत नहीं करता कि वह उसके प्रति ध्यान नहीं देता या उसके इरादों को नहीं जानता है। वह खामोशी से यह सब सहता है, उस दिन का इंतज़ार करते हुए जब मानवजाति यह समझने के योग्य हो जाएगी।
मैं यहाँ ये बातें क्यों कहता हूँ? तुम लोग उन बातों में क्या देखते हो जिन्हें मैंने कहा है? परमेश्वर के सार एवं स्वभाव में कुछ ऐसा है जिसे बड़ी आसानी से नज़रअंदाज़ किया सकता है, कुछ ऐसा जो केवल परमेश्वर के ही पास है और किसी व्यक्ति के पास नहीं, इनमें वे लोग भी शामिल हैं, जिन्हें अन्य महान, अच्छे लोग या अपनी कल्पना में परमेश्वर मानते हैं। यह चीज़ क्या है? यह परमेश्वर की निःस्वार्थता है। निःस्वार्थता के बारे में बोलते समय, शायद तुम सोचोगे कि तुम भी बहुत निःस्वार्थ हो क्योंकि जब तुम्हारे बच्चों की बात आती है, तो तुम उनके साथ कभी सौदा या मोलभाव नहीं करते या तुम्हें लगता है कि तुम तब भी बहुत निःस्वार्थ होते हो, जब तुम्हारे माता-पिता की बात आती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम क्या सोचते हो, कम से कम तुम्हारे पास “निःस्वार्थ” शब्द की एक अवधारणा तो है और तुम इसे एक सकारात्मक शब्द और यह तो मानते हो निःस्वार्थ व्यक्ति होना बहुत ही श्रेष्ठ होना है। जब तुम निःस्वार्थ होते हो, तो तुम स्वयं को अत्यधिक सम्मान देते हो। परंतु ऐसा कोई नहीं है, जो सभी चीज़ों के मध्य, सभी लोगों, घटनाओं एवं वस्तुओं के मध्य और उसके कार्य में परमेश्वर की निःस्वार्थता को देख सके। ऐसी स्थिति क्यों है? क्योंकि मनुष्य बहुत स्वार्थी है! मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? मानवजाति एक भौतिक संसार में रहती है। तुम परमेश्वर का अनुसरण तो करते हो, किंतु तुम कभी नहीं देखते या तारीफ नहीं करते कि किस प्रकार परमेश्वर तुम्हारे लिए आपूर्तियाँ करता है, तुम्हें प्रेम करता है और तुम्हारे लिए चिंता करता है। तो तुम क्या देखते हो? तुम अपने खून के रिश्तेदारों को देखते हो, जो तुम्हें प्रेम करते हैं या तुम्हें बहुत स्नेह करते हैं। तुम उन चीज़ों को देखते हो, जो तुम्हारी देह के लिए लाभकारी हैं, तुम उन लोगों एवं चीज़ों की परवाह करते हो, जिनसे तुम प्रेम करते हो। यह मनुष्य की तथाकथित निःस्वार्थता है। ऐसे “निःस्वार्थ” लोग कभी भी उस परमेश्वर की चिंता नहीं करते, जो उन्हें जीवन देता है। परमेश्वर के विपरीत, मनुष्य की निःस्वार्थता मतलबी एवं निंदनीय हो जाती है। वह निःस्वार्थता जिसमें मनुष्य विश्वास करता है, खोखली एवं अवास्तविक, मिलावटी, परमेश्वर से असंगत एवं परमेश्वर से असंबद्ध है। मनुष्य की निःस्वार्थता सिर्फ उसके लिए है, जबकि परमेश्वर की निःस्वार्थता उसके सार का सच्चा प्रकाशन है। यह बिलकुल परमेश्वर की निःस्वार्थता की वजह से है कि मनुष्य उससे निरंतर आपूर्ति प्राप्त करता रहता है। तुम लोग शायद इस विषय से, जिसके बारे में आज मैं बात कर रहा हूँ, अत्यंत गहराई से प्रभावित न हो और मात्र सहमति में सिर हिला रहे हो, परंतु जब तुम अपने हृदय में परमेश्वर के हृदय की सराहना करने की कोशिश करते हो, तो तुम अनजाने में ही इसे जान जाओगे : सभी लोगों, मामलों एवं चीज़ों के मध्य, जिन्हें तुम इस संसार में महसूस कर सकते हो, केवल परमेश्वर की निःस्वार्थता ही वास्तविक एवं ठोस है, क्योंकि सिर्फ परमेश्वर का प्रेम ही तुम्हारे लिए बिना किसी शर्त के है और बेदाग है। परमेश्वर के अतिरिक्त, किसी भी व्यक्ति की तथाकथित निःस्वार्थता झूठी, सतही एवं अप्रामाणिक है; उसका एक उद्देश्य होता है, निश्चित इरादे होते हैं, समझौते होते हैं और वह परीक्षा में नहीं ठहर सकती। तुम यह तक कह सकते हो कि यह गंदी एवं घिनौनी है। क्या तुम लोग इन वचनों से सहमत हो?
मैं जानता हूँ कि तुम लोग इन विषयों से बिलकुल अपरिचित हो और इससे पहले कि तुम सचमुच इन्हें समझ सको, इन्हें मन में उतारने के लिए तुम लोगों को थोड़ा समय चाहिए। जितना अधिक तुम लोग इन मुद्दों एवं विषयों से अपरिचित होते हो, उतना ही अधिक यह साबित करता है कि तुम लोगों के हृदय में ये विषय अनुपस्थित हैं। यदि मैंने इन विषयों का कभी जिक्र नहीं किया होता, तो क्या तुम लोगों में से कोई भी उनके बारे में कुछ भी जान पाता? मैं मानता हूँ कि तुम लोग कभी उन्हें नहीं जान पाते। यह तो निश्चित है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम लोग इन विषयों के बारे में कितना कुछ समझ या बूझ सकते हो, संक्षेप में, जिनके बारे में मैं बोलता हूँ, ये ऐसे विषय हैं जिनकी लोगों में सबसे अधिक कमी है और जिनके बारे में उन्हें सबसे अधिक जानना चाहिए। ये विषय प्रत्येक के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं—ये बहुमूल्य हैं और यही जीवन हैं, और ऐसी चीज़ें हैं, जिन्हें आगे के मार्ग के लिए तुम लोगों के पास अवश्य ही होना चाहिए। मार्गदर्शन के रूप में इन वचनों के बिना, परमेश्वर के स्वभाव एवं सार के बारे में तुम्हारी समझ के बिना, परमेश्वर के मामले में तुम हमेशा एक प्रश्न चिह्न लेकर चलोगे। तुम परमेश्वर में अच्छी तरह कैसे विश्वास कर सकते हो, यदि तुम उसे समझते ही नहीं हो? तुम परमेश्वर की भावनाओं, उसके इरादों, उसकी मनोदशा, जो वह सोच रहा है, जो उसे उदास करता है और जो उसे खुश करता है, उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते, तो तुम परमेश्वर के हृदय की परवाह कैसे कर सकते हो?
जब कभी परमेश्वर परेशान होता है, उसके सामने एक ऐसी मानवजाति होती है, जो उसकी तरफ बिलकुल भी ध्यान नहीं देती है, ऐसी मानवजाति जो उसका अनुसरण करती है और उससे प्रेम करने का दावा तो करती है लेकिन उसकी भावनाओं की पूरी तरह से उपेक्षा करती है। कैसे परमेश्वर के हृदय को चोट नहीं पहुँचेगी? परमेश्वर के प्रबंधकीय कार्य में, वह ईमानदारी से अपने कार्य को क्रियान्वित करता रहता है और प्रत्येक व्यक्ति से बात करता है, और बिना किसी प्रकार कि हिचकिचाहट या छिपाव के उनका सामना करता है; किंतु इसके विपरीत, हर व्यक्ति जो उसका अनुसरण करता है वह उसके प्रति खुला दिल नहीं रखता और कोई भी सक्रिय रूप से उसके करीब आने, उसके हृदय को समझने, या उसकी भावनाओं पर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं होता। यहाँ तक कि वे जो परमेश्वर के अंतरंग होना चाहते हैं, वे भी उसके निकट आना, उसके हृदय की परवाह करना, या उसे समझने की कोशिश नहीं करना चाहते। जब परमेश्वर आनंदित एवं प्रसन्न होता है, तो उसकी प्रसन्नता को बाँटने के लिए कोई भी नहीं होता। जब लोगों द्वारा परमेश्वर को गलत समझा जाता है, तो उसके ज़ख़्मी हृदय को सांत्वना देने के लिए कोई भी नहीं होता। जब उसका हृदय दुख रहा होता है, तो एक भी व्यक्ति नहीं होता है जो उसे सुनने के लिए तैयार हो कि वह उस पर भरोसा करके कुछ कह सके। परमेश्वर के प्रबंधकीय कार्य के इन हज़ारों सालों के दौरान, ऐसा कोई नहीं हुआ है जो परमेश्वर की भावनाओं को समझता हो, न ही कोई ऐसा है जो उन्हें बूझता या सराहता रहा हो, किसी ऐसे व्यक्ति की तो बात ही छोड़ो जो परमेश्वर के आनंद एवं दुखों में सहभागी होने के लिए उसके बगल में खड़ा हो सके। परमेश्वर अकेला है। वह अकेला है! परमेश्वर सिर्फ़ इसलिए अकेला नहीं है क्योंकि भ्रष्ट मानवजाति उसका विरोध करती है, परंतु इससे भी अधिक वह इसलिए अकेला है क्योंकि वे जो आध्यात्मिक बनना चाहते हैं, वे जो परमेश्वर को जानने और उसे समझने का प्रयास करते हैं, और यहाँ तक कि वे भी जो उसके लिए अपने पूरे जीवन को खपाने के लिए तैयार हैं, वे भी उसके विचारों को नहीं जानते हैं और उसके स्वभाव एवं उसकी भावनाओं को नहीं समझते हैं।
नूह की कहानी के अंत में, हम देखते हैं कि उस समय परमेश्वर ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए एक असामान्य तरीके का उपयोग किया था। यह तरीका बहुत ही ख़ास था : मनुष्य के साथ एक वाचा बांधना, जिसने जलप्रलय से संसार के विनाश के अंत की घोषणा की। ऊपर से, एक वाचा बांधना बहुत ही साधारण सी बात लग सकती है। यह दो पक्षों को आबद्ध करने और अपने समझौते का उल्लंघन करने से रोकने के लिए शब्दों का उपयोग करने के अलावा और कुछ नहीं है, ताकि दोनों के हितों की रक्षा हो सके। देखने में, यह बहुत ही साधारण बात है, किंतु इसे करने के पीछे की प्रेरणा और परमेश्वर द्वारा इसे करने के इरादे से यह परमेश्वर के स्वभाव एवं मनोदशा का एक सच्चा प्रकाशन है। यदि तुम बस इन वचनों को एक तरफ रखते और उन्हें अनदेखा करते, यदि मैं तुम लोगों को इन चीज़ों की सच्चाई कभी न बताऊँ, तो मानवजाति परमेश्वर की सोच को वास्तव में कभी नहीं जान पाएगी। कदाचित तुम्हारी कल्पना में परमेश्वर मुस्कुरा रहा था जब उसने यह वाचा बाँधी, या कदाचित उसकी अभिव्यक्ति गंभीर थी, परंतु इसकी परवाह किए बगैर कि लोगों की कल्पनाओं में परमेश्वर के पास कौन सी सबसे सामान्य अभिव्यक्ति थी, कोई भी परमेश्वर के हृदय या उसकी पीड़ा को नहीं देख पाया था, उसके अकेलेपन की तो बात ही छोड़ो। कोई भी परमेश्वर से अपने ऊपर भरोसा नहीं करवा सकता या परमेश्वर के भरोसे के लायक नहीं हो सकता, या ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता जिसके सामने परमेश्वर अपने विचारों को व्यक्त कर सके या जिसे अपनी पीड़ा बता सके। इसीलिए परमेश्वर के पास ऐसा कार्य करने के सिवाय कोई और विकल्प नहीं था। ऊपरी तौर पर, परमेश्वर ने मानवता को वैसे ही विदाई देकर एक आसान कार्य किया जैसी वह थी, भूतकाल के मुद्दे को व्यवस्थित किया और जलप्रलय द्वारा संसार के अपने विनाश का उपयुक्त निष्कर्ष निकाला। हालाँकि, परमेश्वर ने इसी क्षण से उस पीड़ा को अपने हृदय की गहराई में दफन कर दिया। ऐसे समय जब परमेश्वर के पास भरोसा करने लायक कोई नहीं था, उसने मानवजाति के साथ एक वाचा बाँधी, उन्हें यह बताते हुए कि वह दोबारा संसार का जलप्रलय द्वारा नाश नहीं करेगा। जब इंद्रधनुष प्रकट हुआ तो यह लोगों को स्मरण दिलाने के लिए था कि किसी समय एक ऐसी घटना घटी थी और उन्हें चेतावनी देने के लिए था कि वे बुरे काम न करें। यहाँ तक कि ऐसी दुखदायी दशा में भी, परमेश्वर मानवजाति के बारे में नहीं भूला और तब भी उसने उनके लिए अत्यधिक चिंता दिखाई। क्या यह परमेश्वर का प्रेम एवं निःस्वार्थता नहीं है? किंतु लोग क्या सोचते हैं जब वे कष्ट सह रहे होते हैं? क्या यह वह समय नहीं, जब उन्हें परमेश्वर की सबसे अधिक ज़रूरत होती है? ऐसे समय, लोग हमेशा परमेश्वर को घसीट लाते हैं ताकि परमेश्वर उन्हें सांत्वना दे। चाहे कोई भी समय हो, परमेश्वर लोगों को कभी निराश होने नहीं देगा, और वह हमेशा लोगों को इस लायक बनाएगा कि वे अपनी दुर्दशा से बाहर निकलें और प्रकाश में जीवन बिताएँ। हालाँकि परमेश्वर मानवजाति के लिए इतना प्रदान करता है, फिर भी मनुष्य के हृदय में परमेश्वर एक आश्वासन की गोली और सांत्वना के स्फूर्तिदायक द्रव्य के अलावा और कुछ नहीं है। जब परमेश्वर दुख उठा रहा होता है, जब उसका हृदय ज़ख्मी होता है, तब उसका साथ देने या उसे सांत्वना देने के लिए किसी सृजित किए गए प्राणी या किसी व्यक्ति का होना निःसन्देह परमेश्वर के लिए एक असाधारण इच्छा ही होगी। मनुष्य कभी परमेश्वर की भावनाओं पर ध्यान नहीं देता है, अतः परमेश्वर कभी यह माँग या अपेक्षा नहीं करता है कि कोई हो जो उसे सांत्वना दे। अपनी मनोदशा व्यक्त करने के लिए वह महज अपने तरीकों का उपयोग करता है। लोग नहीं सोचते हैं कि थोड़े-बहुत दुःख-दर्द से होकर गुज़रना परमेश्वर के लिए कोई बहुत बड़ी बात है, लेकिन जब तुम सचमुच में परमेश्वर को समझने की कोशिश करते हो, जब वह सब कुछ जो परमेश्वर करता है, उसमें तुम सचमुच उसके सच्चे इरादों की सराहना कर सकते हो, केवल तभी तुम परमेश्वर की महानता एवं उसकी निःस्वार्थता को महसूस कर सकते हो। यद्यपि परमेश्वर ने इंद्रधनुष का उपयोग करते हुए मानवजाति के साथ एक वाचा बाँधी, फिर भी उसने किसी को कभी नहीं बताया कि उसने ऐसा क्यों किया था—क्यों उसने इस वाचा को स्थापित किया था—मतलब उसने कभी किसी को अपने वास्तविक विचार नहीं बताए थे। ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसा कोई नहीं है, जो उस प्रेम की गहराई को बूझ सके, जो अपने हाथों से बनाई मानवजाति के लिए परमेश्वर के पास है और साथ ही ऐसा भी कोई नहीं है जो इसकी सराहना कर सके कि मानवता का विनाश करते हुए उसके हृदय ने वास्तव में कितनी पीड़ा सहन की थी। इसलिए, भले ही परमेश्वर ने लोगों को बताया होता कि उसने कैसा महसूस किया था, फिर भी वे उस पर भरोसा नहीं कर पाते। पीड़ा में होने के बावजूद, वह अभी भी अपने कार्य के अगले चरण को जारी रखे हुए है। परमेश्वर हमेशा मानवजाति को अपना सर्वोतम पहलू एवं बेहतरीन चीजें देता है जबकि स्वयं ही सारे दुखों को खामोशी से सहता रहता है। परमेश्वर कभी भी इन पीड़ाओं को खुले तौर पर प्रकट नहीं करता। इसके बजाय, वह उन्हें सहता है और खामोशी से इंतज़ार करता है। परमेश्वर की सहनशीलता शुष्क, सुन्न, या असहाय नहीं है, न ही यह कमज़ोरी का चिह्न है। बल्कि परमेश्वर का प्रेम एवं सार हमेशा से ही निःस्वार्थ रहा है। यह उसके सार एवं स्वभाव का एक प्राकृतिक प्रकाशन है और एक सच्चे सृष्टिकर्ता के रूप में परमेश्वर की पहचान का एक सच्चा मूर्तरूप है।
यह कहने पर, कुछ लोग मेरी बात और सोच का गलत अर्थ निकाल सकते हैं। “क्या परमेश्वर की भावनाओं का इतने विस्तार से एवं इतनी सनसनी के साथ वर्णन करने का इरादा यह था कि लोग परमेश्वर पर तरस खाएँ?” क्या ऐसा कोई इरादा था? (नहीं।) इन बातों को कहने का मेरा एकमात्र उद्देश्य है कि तुम लोग परमेश्वर को बेहतर ढंग से जान सको, उसके असंख्य पहलुओं को समझो, उसकी भावनाओं को समझो, इसकी सराहना करो कि परमेश्वर के सार एवं स्वभाव को ठोस रूप से एवं थोड़ा-थोड़ा करके, उसके कार्य के जरिए व्यक्त किया गया है, न कि मनुष्य के खोखले शब्दों, उनके शब्दों एवं धर्म-सिद्धांतों या उनकी कल्पनाओं के माध्यम से दर्शाया गया है। कहने का तात्पर्य है, परमेश्वर एवं परमेश्वर के सार का वास्तव में अस्तित्व है—वे तस्वीरें नहीं हैं, काल्पनिक नहीं हैं, मनुष्य द्वारा निर्मित नहीं हैं और निश्चित रूप से उनके द्वारा गढ़ी हुई नहीं हैं। क्या अब तुम लोग इसे पहचान गए हो? यदि तुम लोग इसे पहचान गए हो, तो आज मेरे वचनों ने अपना लक्ष्य पा लिया है।
आज हमने तीन विषयों पर बातचीत की। मुझे भरोसा है कि इन तीन विषयों पर हमारी संगति से हर किसी ने बहुत कुछ प्राप्त किया है। मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि इन तीन विषयों के माध्यम से, परमेश्वर के विचार जिनका मैंने वर्णन किया था या परमेश्वर का स्वभाव एवं सार जिनका मैंने उल्लेख किया था, उन्होंने परमेश्वर के बारे में लोगों की कल्पनाओं और समझ को रूपांतरित कर दिया है, यहाँ तक कि परमेश्वर में प्रत्येक के विश्वास को रूपांतरित कर दिया है, और इसके अतिरिक्त, उस परमेश्वर की छवि को रूपांतरित कर दिया है, जिसकी प्रशंसा प्रत्येक के द्वारा उनके हृदय में की जाती थी। चाहे कुछ भी हो, मैं आशा करता हूँ कि जो कुछ तुम लोगों ने बाइबल के इन दो खंडों से परमेश्वर के स्वभाव के बारे में सीखा है, वह तुम लोगों के लिए लाभदायक है और मैं आशा करता हूँ कि वापस जाने के बाद तुम लोग इस पर और अधिक विचार करने की कोशिश करोगे। आज की सभा यहीं समाप्त होती है। फिर मिलेंगे!
4 नवंबर, 2013