परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें
सबसे पहले, आओ हम एक भजन गाएँ : राज्य गान (I) दुनिया में राज्य का अवतरण हुआ है।
संगत : लोग मेरी जय-जयकार करते हैं, लोग मेरी स्तुति करते हैं; सभी अपने मुख से एकमात्र सच्चे परमेश्वर का नाम लेते हैं। राज्य मनुष्यों के जगत में अवतरित होता है।
1 लोग मेरी जय-जयकार करते हैं, लोग मेरी स्तुति करते हैं; सभी अपने मुख से एकमात्र सच्चे परमेश्वर का नाम लेते हैं, सभी लोगों की दृष्टि मेरे कर्मों को देखने के लिए उठती है। राज्य मनुष्यों के जगत में अवतरित होता है, मेरा व्यक्तित्व समृद्ध और प्रचुर है। इस पर कौन खुश नहीं होगा? कौन आनंदित होकर नृत्य नहीं करेगा? ओह, सिय्योन! मेरा जश्न मनाने के लिए अपनी विजय-पताका उठाओ! मेरा पवित्र नाम फैलाने के लिए अपना विजय-गीत गाओ!
2 पृथ्वी की समस्त सृष्टि! जल्दी से स्वयं को शुद्ध करो, ताकि तुम मुझे अर्पित की जा सको! स्वर्ग के तारो! नभ-मंडल में मेरा प्रबल सामर्थ्य दिखाने के लिए जल्दी से अपने स्थानों पर लौट जाओ! मैं पृथ्वी पर उन लोगों की आवाजों पर कान लगाता हूँ, जो मेरे प्रति अपना असीम प्रेम और श्रद्धा गीत में उड़ेलते हैं! इस दिन, जबकि हर चीज फिर से जीवित होती है, मैं मनुष्य के जगत में आता हूँ। इस पल, इस घड़ी सभी फूल जोरों से खिलते हैं, सभी पक्षी एक सुर में गाते हैं, सभी चीजें पूरे उल्लास से झूम उठी हैं! राज्य के अभिनंदन की ध्वनि में शैतान का राज्य ध्वस्त हो गया है, राज्य-गान की गड़गड़ाहट में नष्ट हो गया है, और फिर कभी सिर नहीं उठाएगा!
3 पृथ्वी पर कौन सिर उठाने और प्रतिरोध करने का साहस करता है? जब मैं पृथ्वी पर उतरता हूँ तो दाह लाता हूँ, कोप लाता हूँ, सभी प्रकार की विपदाएँ लाता हूँ। पृथ्वी के राज्य अब मेरा राज्य हैं! ऊपर आकाश में बादल लुढ़कते और लहराते हैं; आकाश के नीचे झीलें और नदियाँ आनंदपूर्वक उमड़-घुमड़कर उत्तेजक राग उत्पन्न करती हैं। विश्राम करते जानवर अपनी माँदों से बाहर निकलते हैं, और मैं सभी लोगों को उनकी नींद से जगा देता हूँ। असंख्य लोग जिसकी प्रतीक्षा में थे, वह दिन आखिरकार आ ही गया! वे मुझे सर्वाधिक सुंदर गीत भेंट करते हैं!
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, राज्य-गान
इस भजन को गाते हुए, हर बार तुम लोग क्या सोचते हो? (हम उत्तेजित और रोमांचित हो जाते हैं, और सोचते हैं कि राज्य का सौन्दर्य कितना महिमामय है, कैसे मनुष्य और परमेश्वर हमेशा के लिए साथ होंगे।) क्या किसी ने सोचा है कि परमेश्वर के साथ रहने के लिए मनुष्य को कौन-सा रूप अपनाना पड़ेगा? तुम लोगों के ख्याल में, किसी व्यक्ति को परमेश्वर के साथ जुड़ने और राज्य के महिमामय जीवन का आनन्द लेने के लिए कैसा होना चाहिए? (उसके स्वभाव में बदलाव आना चाहिए।) उसके स्वभाव में बदलाव आना चाहिए, लेकिन किस सीमा तक? इस बदलाव के बाद वह कैसा हो जाएगा? (वह पवित्र बन जाएगा।) पवित्रता का मानक क्या है? (इंसान के सभी विचार और सोच मसीह के अनुकूल होने चाहिए।) ऐसी अनुकूलता कैसे प्रदर्शित होती है? (व्यक्ति परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करता या उससे विश्वासघात नहीं करता, बल्कि परमेश्वर के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो सकता है, और उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है।) तुम लोगों के कुछ उत्तर सही दिशा में हैं। तुम लोग दिल खोलकर अपनी बात कहो। (जो लोग राज्य में परमेश्वर के साथ रहते हैं उन्हें सत्य का अनुसरण कर और किसी व्यक्ति, घटना और चीज से विवश हुए बिना निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम होना चाहिए। फिर उनके लिए यह संभव हो जाता है कि वे अंधकार के प्रभाव से पूरी तरह अलग रहें, अपना दिल परमेश्वर के अनुरूप बना सकें और परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह सकें।) (चीज़ों के बारे में हमारा दृष्टिकोण परमेश्वर के अनुरूप बन सकता है, और हम अंधकार के प्रभाव से अलग हो सकते हैं। कम से कम ऐसी जगह जा सकते हैं जहाँ शैतान हमारा शोषण न करे, हम अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करके परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकें। हम मानते हैं कि अंधकार के प्रभाव से अलग होना आवश्यक है। यदि कोई अंधकार के प्रभाव से अलग नहीं हो सके और शैतान के बंधनों को तोड़कर आज़ाद न हो सके, तो उसने परमेश्वर के उद्धार को प्राप्त नहीं किया है।) (परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने के मानक पर खरा उतरने के लिए लोगों को परमेश्वर के साथ हृदय एवं मन से एक होना चाहिए और परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करना चाहिए। उन्हें स्वयं को जानने, सत्य को अभ्यास में लाने, परमेश्वर की समझ प्राप्त करने, परमेश्वर से प्रेम कर सकने, और परमेश्वर के अनुरूप हो सकने में समर्थ होना चाहिए। एक व्यक्ति को बस इतना ही करने की आवश्यकता है।)
लोगों के हृदय में परिणाम का बोझ कितना भारी होता है
ऐसा लगता है कि तुम लोगों के हृदय में उस मार्ग के बारे में कुछ विचार हैं, जिसका तुम लोगों को पालन करना चाहिए, और तुम लोगों ने उसकी कुछ समझ या जानकारी विकसित कर ली है। किन्तु जो कुछ तुम लोगों ने कहा है, वे खोखले शब्द हैं या वास्तविक, यह तुम लोगों के दिन-प्रतिदिन के अभ्यास में ध्यान लगाने पर निर्भर करता है। बीते वर्षों में तुम लोगों ने सिद्धांतों और सत्य की वास्तविक विषयवस्तु के संदर्भ में सत्य के प्रत्येक पहलू से विशेष फल प्राप्त किए हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि लोग आजकल सत्य के लिए प्रयास करने पर जोर देते हैं, और परिणामस्वरूप, सत्य के हर पहलू और हर मद ने निश्चित रूप से कुछ लोगों के हृदय में जड़ें जमा ली हैं। लेकिन वह क्या है जिससे मैं सबसे अधिक डरता हूँ? वह ये है कि इस तथ्य के बावजूद कि सत्य के इन विषयों और इन सिद्धांतों ने तुम्हारे दिल में जड़ें जमा ली हैं, तुम्हारे दिल में उनकी वास्तविक विषयवस्तु का सार बहुत कम है। जब तुम लोग समस्याओं का सामना करते हो, तुम्हारा परीक्षणों और विकल्पों से सामना होता है—तब तुम लोगों के लिए इन सत्यों की वास्तविकता का कितना व्यवहारिक उपयोग होगा? क्या यह तुम्हें कठिनाइयों से पार पाने और परीक्षाओं से उबरने में सहायता कर सकती है जिससे तुम परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर सको? क्या तुम लोग परीक्षणों में अडिग रहकर परमेश्वर के लिए शानदार गवाही दोगे? क्या तुम लोगों ने इन मामलों से कभी कोई सरोकार रखा है? मैं तुम लोगों से पूछता हूँ : तुम्हारे दिल में और प्रतिदिन के अपने विचारों और चिंतन में, तुम लोगों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्या है? क्या तुम लोग कभी इसके निष्कर्ष पर पहुँचे हो? ऐसा क्या है जो तुम लोगों को सबसे महत्वपूर्ण लगता है? कुछ लोग कहते हैं, “बेशक, वह सत्य को अभ्यास में लाना है,” जबकि कुछ लोग कहते हैं “बेशक, वह प्रतिदिन परमेश्वर के वचन पढ़ना है।” कुछ लोग कहते हैं, “बेशक, वह प्रतिदिन परमेश्वर के सामने आकर उससे प्रार्थना करना है,” और ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं, “बेशक, वह हर दिन अपने कर्तव्य का ठीक से निर्वहन करना है।” फिर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं कि वे सिर्फ यही सोचते हैं कि परमेश्वर को किस प्रकार संतुष्ट किया जाए, कैसे हर चीज में उसके प्रति समर्पण किया जाए, और कैसे उसके इरादों के साथ तालमेल बिठाकर कार्य किया जाए। क्या यह सही है? क्या यह बस इतना ही है? उदाहरण के लिए कुछ लोग कहते हैं : “मैं केवल परमेश्वर को समर्पित होना चाहता हूँ, किन्तु जब कोई समस्या आती है तब मैं ऐसा नहीं कर पाता।” कुछ लोग कहते हैं, “मैं केवल परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता हूँ, अगर मैं उसे केवल एक बार ही संतुष्ट कर पाऊँ तो भी मुझे मंज़ूर है—लेकिन मैं उसे कभी संतुष्ट नहीं कर पाता।” कुछ लोग कहते हैं, “मैं केवल परमेश्वर को समर्पित होना चाहता हूँ। परीक्षण के समय मैं कोई शिकायत या अनुरोध किए बिना खुद को केवल उसके आयोजनों के भरोसे छोड़कर उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहता हूँ। फिर भी मैं लगभग हर बार ऐसा कर पाने में असफल रहता हूँ।” कुछ लोग तो ये भी कहते हैं, “जब निर्णय लेने की बात आती है, तब मैं कभी सत्य को अभ्यास में लाने को नहीं चुन पाता। मैं हमेशा देह को संतुष्ट करना चाहता हूँ, हमेशा अपनी व्यक्तिगत, स्वार्थी अभिलाषाओं को संतुष्ट करना चाहता हूँ।” इसका क्या कारण है? परमेश्वर के परीक्षणों के आने से पहले ही, क्या तुम लोगों ने स्वयं को कई बार चुनौती दी है, और स्वयं को कई बार आजमाया और जाँचा है? विचार करो कि क्या तुम लोग वास्तव में परमेश्वर को समर्पित हो सकते हो, क्या परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो, और क्या गारंटी दे सकते हो कि तुम परमेश्वर से विश्वासघात नही करोगे; विचार करो कि क्या तुम लोग स्वयं को संतुष्ट किये बिना, अपनी अभिलाषाओं को संतुष्ट किये बिना, व्यक्तिगत पसंद के बगैर, केवल परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। क्या कोई ऐसा करता है? वास्तव में, केवल एक ही तथ्य है जिसे तुम लोगों की आँखों के सामने रखा गया है। उसी में तुममें से हर एक की सबसे ज़्यादा रूचि है, वही तुम लोग सबसे अधिक जानना चाहते हो, और यह प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम और मंजिल का मामला है। तुम लोगों को शायद इसका एहसास न हो, परन्तु इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। जब मनुष्य के परिणाम की सच्चाई की, मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रतिज्ञा की, और परमेश्वर मनुष्य को किस प्रकार की मंजिल तक पहुँचाने का इरादा करता है, इन सबकी बात आती है, तो मैं जानता हूँ कि ऐसे कुछ लोग हैं जो पहले ही कई बार इन विषयों पर परमेश्वर के वचनों का अध्ययन कर चुके हैं। फिर ऐसे भी लोग हैं जो बारंबार इसके उत्तर खोज कर रहे हैं और अपने मन में इस पर विचार कर रहे हैं, लेकिन फिर भी उन्हें कोई परिणाम नहीं मिलता, या शायद किसी अस्पष्ट निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। अंत में वे इस बारे में निश्चित नहीं हो पाते कि किस प्रकार का परिणाम उनका इंतज़ार कर रहा है। अपने कर्तव्य निभाते समय, अधिकांश लोग निम्नलिखित प्रश्नों के निश्चित उत्तर जानना चाहते हैं : “मेरा परिणाम क्या होगा? क्या मैं इस मार्ग पर अंत तक चल सकता हूँ? मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है?” कुछ लोग इस प्रकार चिंता करते हैं : “मैंने अतीत में कुछ काम किए हैं, कुछ बातें कही हैं; मैंने परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह किया है, मैंने परमेश्वर से विश्वासघात करने वाले कुछ काम किए हैं, और कुछ मामलों में मैं परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाया हूँ, परमेश्वर के हृदय को ठेस पहुँचायी है, उसे निराश किया, उसे मुझसे घृणा और नफरत करने पर मजबूर किया है। इसलिए शायद मेरा परिणाम अज्ञात है।” यह कहना उचित होगा कि अधिकतर लोग अपने परिणाम के बारे में असहज महसूस करते हैं। कोई यह कहने का साहस नहीं करता, “मैं सौ प्रतिशत निश्चित हूँ कि मैं जीवित रहूँगा; मैं सौ प्रतिशत निश्चित हूँ कि मैं परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर सकता हूँ। मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है; मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जिसकी परमेश्वर प्रशंसा करता है।” कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना कठिन है, और सत्य को अभ्यास में लाना सबसे कठिन है। परिणामस्वरूप, ये लोग सोचते हैं कि कोई उनकी सहायता नहीं कर सकता, और वे अच्छे परिणाम हासिल करने की आशा नहीं कर पाते। या शायद वे मानते हैं कि वे परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट नहीं कर सकते, इसलिए जीवित नहीं रह सकते। इसी वजह से वे कहते हैं कि उनके पास कोई परिणाम नहीं है, और वे एक अच्छी मंजिल हासिल नहीं कर सकते। लोग वास्तव में चाहे जिस प्रकार भी सोचते हों, उन सभी ने कई बार अपने परिणाम के बारे में विचार किया होता है। ये लोग अपने भविष्य के प्रश्नों पर और उन प्रश्नों पर कि जब परमेश्वर अपने कार्य को समाप्त कर लेगा, तो उन्हें क्या मिलेगा, वे हमेशा गुणा-भाग करने और योजना बनाने में लगे रहते हैं। कुछ लोग दोगुनी कीमत चुकाते हैं; कुछ लोग अपने परिवार और अपनी नौकरियाँ छोड़ देते हैं; कुछ लोग विवाह-बंधन को तोड़ देते हैं; कुछ लोग परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाने की खातिर त्यागपत्र दे देते हैं; कुछ लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ देते हैं; कुछ लोग कठिन रास्ता अपना कर बेहद कठोर और थका देने वाले काम हाथ में लेने लगते हैं; कुछ लोग धन अर्पित करते हैं, अपना सर्वस्व अर्पित कर देते हैं; कुछ लोग सत्य और परमेश्वर को जानने का प्रयास करते हैं। तुम लोग चाहे जैसे अभ्यास करो, क्या वह तरीका जिससे तुम लोग अभ्यास करते हो वह महत्वपूर्ण है या नहीं? (नहीं, महत्वपूर्ण नहीं है।) तो फिर हम इस महत्वहीनता की व्याख्या कैसे करें? यदि अभ्यास का तरीका महत्वपूर्ण नहीं है, तो क्या महत्वपूर्ण है? (बाहरी अच्छा व्यवहार सत्य को अभ्यास में लाने का द्योतक नहीं है।) (हर व्यक्ति के विचार महत्वपूर्ण नहीं हैं; यहाँ मुख्य बात यह है कि हम सत्य को अभ्यास में लाए हैं या नहीं, और हमारे पास परमेश्वर-प्रेमी हृदय है या नहीं।) (मसीह-विरोधियों और झूठे अगुवाओं का पतन यह समझने में हमारी सहायता करता है कि बाहरी व्यवहार सबसे महत्वपूर्ण बात नहीं है। बाहरी तौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने बहुत कुछ त्याग दिया है और वे कीमत चुकाने के लिए तैयार लगते हैं, परन्तु विश्लेषण करने पर हम देख सकते हैं कि उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है ही नहीं; बल्कि वे हर प्रकार से उसका विरोध करते हैं। निर्णायक समय में वे हमेशा शैतान के साथ खड़े रहकर परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालते हैं। इस प्रकार, यहाँ मुख्य विचारणीय बातें ये हैं कि समय आने पर हम किसके साथ खड़े होते हैं, और हमारा दृष्टिकोण क्या है।) तुम सभी लोग अच्छा बोलते हो, और ऐसा प्रतीत होता है कि तुम लोगों में पहले से ही सत्य को अभ्यास में लाने की, परमेश्वर के इरादों की, और जो कुछ परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा रखता है, उसकी एक बुनियादी समझ और मानक है। तुम लोग इस प्रकार से बोल पाते हो यह अत्यंत मर्मस्पर्शी है। हालाँकि तुम्हारी बहुत-सी बातें सटीक नहीं होतीं, फिर भी तुम लोग पहले ही सत्य की सही व्याख्या के निकट पहुँच चुके हो, और इससे प्रमाणित होता है कि तुमने लोगों, घटनाओं और अपने आसपास की वस्तुओं की, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित तुम्हारे समस्त परिवेश की, और हर दृश्य वस्तु के बारे में वास्तविक समझ विकसित कर ली है। ये समझ सत्य के निकट है। भले ही जो कुछ तुम लोगों ने कहा है वो बहुत विस्तृत नहीं है, और कुछ शब्द बहुत उचित नहीं हैं, लेकिन तुम्हारी समझ पहले ही सत्य की वास्तविकता के करीब पहुँच रही है। तुम लोगों को इस तरह बोलते हुए सुनकर मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा है।
लोगों का विश्वास सत्य का स्थान नहीं ले सकता
कुछ लोग कठिनायाँ सह सकते हैं; वे कीमत चुका सकते हैं; उनका बाहरी आचरण बहुत अच्छा होता है, वे बहुत आदरणीय होते हैं; और लोग उनकी सराहना करते हैं। क्या तुम लोग इस प्रकार के बाहरी आचरण को, सत्य को अभ्यास में लाना कह सकते हो? क्या तुम लोग कह सकते हो कि ऐसे लोग परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर रहे हैं? लोग बार-बार ऐसे व्यक्तियों को देखकर ऐसा क्यों समझ लेते हैं कि वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं, वे सत्य को अभ्यास में लाने के मार्ग पर चल रहे हैं, और वे परमेश्वर के मार्ग पर चल रहे हैं? क्यों कुछ लोग इस प्रकार सोचते हैं? इसका केवल एक ही स्पष्टीकरण है। और वह स्पष्टीकरण क्या है? स्पष्टीकरण यह है कि बहुत से लोगों को, ऐसे प्रश्न—जैसे कि सत्य को अभ्यास में लाना क्या है, परमेश्वर को संतुष्ट करना क्या है, और यथार्थ में सत्य वास्तविकता से युक्त होना क्या है—ये बहुत स्पष्ट नहीं हैं। अतः कुछ लोग अक्सर ऐसे लोगों से गुमराह हो जाते हैं जो बाहर से आध्यात्मिक, कुलीन, ऊँचे और महान प्रतीत होते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो वाक्पटुता से शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल सकते हैं, और जिनकी कथनी-करनी सराहनीय लगती है, तो जो लोग उनके हाथों धोखा खा चुके हैं उन्होंने उनके कार्यकलापों के सार को, उनके कर्मों के पीछे के सिद्धांतों को, और उनके लक्ष्य क्या हैं, इसे कभी नहीं देखा है। उन्होंने यह कभी नहीं देखा कि ये लोग वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं या नहीं, वे लोग सचमुच परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हैं या नहीं। उन्होंने इन लोगों के मानवता सार को कभी नहीं पहचाना। बल्कि, उनसे परिचित होने के साथ ही, थोड़ा-थोड़ा करके वे उन लोगों की तारीफ करने, और आदर करने लगते हैं, और अंत में ये लोग उनके आदर्श बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ लोगों के मन में, वे आदर्श जिनकी वे उपासना करते हैं, मानते हैं कि वे अपने परिवार एवं नौकरियाँ छोड़ सकते हैं, और सतही तौर पर कीमत चुका सकते हैं—ये आदर्श ऐसे लोग हैं जो वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं, और एक अच्छा परिणाम और एक अच्छी मंजिल प्राप्त कर सकते हैं। उन्हें मन में लगता है कि परमेश्वर इन आदर्श लोगों की प्रशंसा करता है। उनके ऐसे विश्वास की वजह क्या है? इस मुद्दे का सार क्या है? इसके क्या परिणाम हो सकते हैं? आओ, हम सबसे पहले इसके सार के मामले पर चर्चा करें।
सार रूप में, लोगों का दृष्टिकोण, उनका अभ्यास, लोग अभ्यास करने के लिए किन सिद्धांतों को चुनते हैं, और लोग किस चीज पर जोर देते हैं, इन सब बातों का लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं का कोई लेना-देना नहीं है। चाहे लोग सतही मसलों पर ध्यान दें या गंभीर मसलों पर, शब्दों एवं धर्म-सिद्धांतों पर ध्यान दें या वास्तविकता पर, लेकिन लोग उसके मुताबिक नहीं चलते जिसके मुताबिक उन्हें सबसे अधिक चलना चाहिए, और उन्हें जिसे सबसे अधिक जानना चाहिए, उसे जानते नहीं। इसका कारण यह है कि लोग सत्य को बिल्कुल भी पसंद नहीं करते; इसलिए, लोग परमेश्वर के वचन में सिद्धांतों को खोजने और उनका अभ्यास करने के लिए समय लगाने एवं प्रयास करने को तैयार नहीं है। इसके बजाय, वे छोटे रास्तों का उपयोग करने को प्राथमिकता देते हैं, और जिन्हें वे समझते हैं, जिन्हें वे जानते हैं, उसे अच्छा अभ्यास और अच्छा व्यवहार मान लेते हैं; तब यही सारांश, खोज करने के लिए उनका लक्ष्य बन जाता है, जिसे वे अभ्यास में लाए जाने वाला सत्य मान लेते हैं। इसका प्रत्यक्ष परिणाम ये होता है कि लोग अच्छे मानवीय व्यवहार को, सत्य को अभ्यास में लाने के विकल्प के तौर पर उपयोग करते हैं, इससे परमेश्वर की कृपा पाने की उनकी अभिलाषा भी पूरी हो जाती है। इससे लोगों को सत्य के साथ संघर्ष करने का बल मिलता है जिसे वे परमेश्वर के साथ तर्क करने तथा स्पर्धा करने के लिए भी उपयोग करते हैं। साथ ही, लोग अनैतिक ढंग से परमेश्वर को भी दरकिनार कर देते हैं, और जिन आदर्शों को वे सराहते हैं उन्हें परमेश्वर के स्थान पर रख देते हैं। लोगों के ऐसे अज्ञानता भरे कार्य और दृष्टिकोण का, या एकतरफा दृष्टिकोण और अभ्यास का केवल एक ही मूल कारण है, आज मैं तुम लोगों को उसके बारे में बताऊँगा : कारण यह है कि भले ही लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हों, प्रतिदिन उससे प्रार्थना करते हों और उसके कथन पढ़ते हों, फिर भी वे वास्तव में उसके इरादों को नहीं समझते। और यही समस्या की जड़ है। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के हृदय को समझता है, और जानता है कि परमेश्वर क्या पसंद करता है, किस चीज से वो घृणा करता है, वो क्या चाहता है, किस चीज को वो अस्वीकार करता है, किस प्रकार के व्यक्ति से परमेश्वर प्रेम करता है, किस प्रकार के व्यक्ति को वो नापसंद करता है, लोगों से अपेक्षाओं के उसके क्या मानक हैं, मनुष्य को पूर्ण करने के लिए वह किस प्रकार की पद्धति अपनाता है, तो क्या तब भी उस व्यक्ति का व्यक्तिगत विचार हो सकता है? क्या वह यूँ ही जा कर किसी अन्य व्यक्ति की आराधना कर सकता है? क्या कोई साधारण व्यक्ति लोगों का आदर्श बन सकता है? जो लोग परमेश्वर के इरादों को समझते हैं, उनका दृष्टिकोण इसकी अपेक्षा थोड़ा अधिक तर्कसंगत होता है। वे मनमाने ढंग से किसी भ्रष्ट व्यक्ति की आदर्श के रूप में आराधना नहीं करेंगे, न ही वे सत्य को अभ्यास में लाने के मार्ग पर चलते हुए, यह विश्वास करेंगे कि मनमाने ढंग से कुछ साधारण नियमों या सिद्धांतों के मुताबिक चलना सत्य को अभ्यास में लाने के बराबर है।
परमेश्वर जिस मानक से मनुष्य का परिणाम निर्धारित करता है, उस बारे में अनेक राय हैं
आओ हम इस विषय पर वापस आएँ और परिणाम के मामले पर चर्चा करना जारी रखें।
चूँकि प्रत्येक व्यक्ति अपने परिणाम को लेकर चिंतित होता है, क्या तुम लोग जानते हो कि परमेश्वर किस प्रकार उस परिणाम को निर्धारित करता है? परमेश्वर किस तरीके से किसी व्यक्ति का परिणाम निर्धारित करता है? और किसी व्यक्ति के परिणाम को निर्धारित करने के लिए वह किस प्रकार के मानक का उपयोग करता है? अगर किसी मनुष्य का परिणाम निर्धारित नहीं हुआ है, तो परमेश्वर इस परिणाम को प्रकट करने के लिए क्या करता है? क्या कोई जानता है? जैसा मैंने अभी कहा, कुछ लोगों ने इंसान के परिणाम का, उन श्रेणियों के बारे में जिसमें इस परिणाम को विभाजित किया जाता है, और उन विभिन्न लोगों का जो परिणाम होने वाला है, उस के बारे में पता लगाने के लिए परमेश्वर के वचन पर शोध करने में पहले ही काफी समय बिता दिया है। वे यह भी जानना चाहते हैं कि परमेश्वर के वचन किस प्रकार मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करते हैं, परमेश्वर किस प्रकार के मानक का उपयोग करता है, और किस तरह वह मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करता है। फिर भी, अंत में ये लोग कोई भी उत्तर नहीं खोज पाते। वास्तविक तथ्य में, परमेश्वर के कथनों में इस मामले पर ज़्यादा कुछ कहा नहीं गया है। ऐसा क्यों है? जब तक मनुष्य का परिणाम प्रकट नहीं किया जाता, परमेश्वर किसी को बताना नहीं चाहता है कि अंत में क्या होने जा रहा है, न ही वह किसी को समय से पहले उसकी नियति के बारे में सूचित करना चाहता है—क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य को कोई लाभ नहीं होगा। अभी मैं तुम लोगों को केवल उस तरीके के बारे में बताना चाहता हूँ जिससे परमेश्वर मनुष्य का परिणाम निर्धारित करता है, उन सिद्धांतों के बारे में बताना चाहता हूँ जिन्हें वह मनुष्य का परिणाम निर्धारित करने और उस परिणाम को अभिव्यक्त करने के लिए अपने कार्य में उपयोग करता है, और उस मानक के बारे में बताना चाहता हूँ जिसे वह यह निर्धारित करने के लिए उपयोग में लाता है कि कोई व्यक्ति जीवित बच सकता है या नहीं। क्या इन्हीं सवालों को लेकर तुम लोग सर्वाधिक चिंतित नहीं हो? तो फिर, लोग कैसे विश्वास करते हैं परमेश्वर ही मनुष्य का परिणाम निर्धारित करता है? तुम लोगों ने इस मामले पर अभी-अभी कुछ कहा है : तुममें से किसी ने कहा था कि यह कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक करने और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर है; कुछ ने कहा कि यह परमेश्वर का आज्ञापालन करना और परमेश्वर को संतुष्ट करना है; किसी ने कहा कि यह परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होना है; और किसी ने कहा था कि यह गुमनामी में जीना है...। जब तुम लोग इन सत्यों को अभ्यास में लाते हो, जब तुम सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास करते हो जो तुम्हें सही लगते हैं, तो जानते हो परमेश्वर क्या सोचता है? क्या तुम लोगों ने विचार किया है कि इसी प्रकार से चलते रहना परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करता है या नहीं? क्या यह परमेश्वर के मानक को पूरा करता है? क्या यह परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करता है? मेरा मानना है कि अधिकांश लोग इस पर विचार नहीं करते। वे बस परमेश्वर के वचन के किसी एक भाग को या धर्मोपदेशों के किसी एक भाग को या उन कुछ आध्यात्मिक मनुष्यों के मानकों को यंत्रवत् लागू करते हैं जिनका वे आदर करते हैं, और फलां-फलां कार्य करने के लिए स्वयं को बाध्य करते हैं। वे मानते हैं कि यही सही तरीका है, अतः वे उसी के मुताबिक चलते हुए काम करते रहते हैं, चाहे अंत में कुछ भी क्यों न हो। कुछ लोग सोचते हैं : “मैंने बहुत वर्षों तक विश्वास किया है; मैंने हमेशा इसी तरह अभ्यास किया है; लगता है मैंने वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट किया है; और मुझे यह भी लगता है कि मैंने बहुत कुछ प्राप्त किया है। क्योंकि इस दौरान मैं अनेक सत्य समझने लगा हूँ, और ऐसी बहुत-सी बातों को समझने लगा हूँ जिन्हें मैं पहले नहीं समझता था—विशेष रूप से, मेरे बहुत से विचार और दृष्टिकोण बदल चुके हैं, मेरे जीवन के मूल्य काफी बदल चुके हैं, और अब मुझे इस संसार की अच्छी-खासी समझ हो गई है।” ऐसे लोग मानते हैं कि यह पैदावार है, और यह मनुष्य के लिए परमेश्वर के कार्य का अंतिम परिणाम है। तुम्हारी राय में, इन मानकों और तुम लोगों के सभी अभ्यासों को एक साथ लेकर, क्या तुम लोग परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर रहे हो? कुछ लोग पूर्ण निश्चय के साथ कहेंगे, “निस्संदेह! हम परमेश्वर के वचन के अनुसार अभ्यास कर रहे हैं; ऊपर के लोगों ने जो उपदेश दिया था और जो बताया था, हम उसी के अनुसार अभ्यास कर रहे हैं; हम लोग हमेशा अपने कर्तव्य निभाते हैं, परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, हमने परमेश्वर को कभी नहीं छोड़ा है। इसलिए हम पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकते हैं कि हम परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं। हम चाहे परमेश्वर के इरादों को कितना ही क्यों न समझते हों, उसके वचन को चाहे कितना ही क्यों न समझते हों, हम हमेशा परमेश्वर के अनुकूल होने के मार्ग की खोज करते रहे हैं। यदि हम सही तरीके से कार्य करते हैं, और सही तरीके से अभ्यास करते हैं, तो परिणाम निश्चित रूप से सही होगा।” इस दृष्टिकोण के बारे में तुम लोग क्या सोचते हो? क्या यह सही है? शायद कुछ ऐसे लोग हों जो कहें, “मैंने इन चीज़ों के बारे में पहले कभी नहीं सोचा। मैं तो केवल इतना सोचता हूँ कि यदि मैं अपना कर्तव्य निभाता रहूँ और परमेश्वर के वचन की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करता रहूँ, तो मैं जीवित रह सकता हूँ। मैंने कभी इस प्रश्न पर विचार नहीं किया कि मैं परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट कर सकता हूँ या नहीं, न ही मैंने कभी यह विचार किया है कि मैं उसके द्वारा अपेक्षित मानक को प्राप्त कर रहा हूँ या नहीं। चूँकि परमेश्वर ने मुझे कभी नहीं बताया, और न ही मुझे कोई स्पष्ट निर्देश प्रदान किए हैं, इसलिए मैं मानता हूँ कि यदि मैं बिना रुके कार्य करता रहूँ, तो परमेश्वर संतुष्ट रहेगा और मुझसे उसकी कोई अतिरिक्त अपेक्षा नहीं होनी चाहिए।” क्या ये विश्वास सही हैं? जहाँ तक मेरी बात है, अभ्यास करने का यह तरीका, सोचने का यह तरीका, और ये सारे दृष्टिकोण—वे सब अपने साथ कल्पनाओं और कुछ अंधेपन को लेकर आते हैं। जब मैं ऐसा कहता हूँ, शायद तुम थोड़ी निराशा महसूस करो और सोचो, “अंधापन? यदि यह अंधापन है, तो हमारे उद्धार की आशा, हमारे जीवित रहने की आशा बहुत कम और अनिश्चित है, है कि नहीं? क्या ऐसी बातें बोलकर तुम हमारा उत्साह नहीं मार रहे?” तुम लोग कुछ भी मानो, मैं जो कहता और करता हूँ उसका आशय तुम लोगों को यह महसूस करवाना नहीं है, मानो तुम लोगों के उत्साह को मारा जा रहा है। बल्कि, यह परमेश्वर के इरादों के बारे में तुम लोगों की समझ को बेहतर करने के लिए है और परमेश्वर क्या सोच रहा है, वो क्या करना चाहता है, वो किस प्रकार के व्यक्ति को पसंद करता है, किससे घृणा करता है, किसे तुच्छ समझता है, वो किस प्रकार के व्यक्ति को पाना चाहता है, और किस प्रकार के व्यक्ति को ठुकराता है, इस पर तुम लोगों की समझ को बेहतर करने के लिए है। यह तुम लोगों के मन को स्पष्टता देने, तुम्हें स्पष्ट रूप से यह जानने में सहायता करने के आशय से है कि तुम लोगों में से हर एक व्यक्ति के कार्य और विचार उस मानक से कितनी दूर भटक गए हैं जिसकी अपेक्षा परमेश्वर करता है। क्या इन विषयों पर विचार-विमर्श करना आवश्यक है? क्योंकि मैं जानता हूँ तुम लोगों ने लंबे समय तक विश्वास किया है, और बहुत उपदेश सुने हैं, लेकिन तुम लोगों में इन्हीं चीज़ों का अभाव है। हालाँकि, तुम लोगों ने अपनी पुस्तिका में हर सत्य लिख लिया है, तुम लोगों ने उसे भी कंठस्थ और अपने हृदय में दर्ज कर लिया है जिसे तुम लोग महत्वपूर्ण मानते हो, हालाँकि तुम लोग अभ्यास करते समय परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए इसका उपयोग करने, अपनी आवश्यकता में इसका उपयोग करने, या आने वाले मुश्किल समय को काटने की खातिर इसका उपयोग करने की योजना बनाते हो, या फिर केवल इन चीज़ों को जीवन में अपने साथ रहने देना चाहते हो, लेकिन जहाँ तक मेरी बात है, यदि तुम केवल अभ्यास कर रहे हो, फिर चाहे जैसे भी करो, केवल अभ्यास कर रहे हो, तो यह महत्वपूर्ण नहीं है। तब सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्या है? महत्वपूर्ण यह है कि जब तुम अभ्यास कर रहे होते हो, तब तुम्हें अंतर्मन में पूरे यकीन से पता होना चाहिए कि तुम्हारा हर एक कार्य, हर एक कर्म परमेश्वर की इच्छानुसार है या नहीं, तुम्हारा हर कार्यकलाप, तुम्हारी हर सोच और जो परिणाम एवं लक्ष्य तुम हासिल करना चाहते हो, वे वास्तव में परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करते हैं या नहीं, परमेश्वर की माँगों को पूरा करते हैं या नहीं, और परमेश्वर उन्हें स्वीकृति देता है या नहीं। ये सारी बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं।
परमेश्वर के मार्ग पर चलो : परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो
एक कहावत है जिस पर तुम लोगों को ध्यान देना चाहिए। मेरा मानना है कि यह कहावत अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह मेरे मन में हर दिन अनेक बार आती है। ऐसा क्यों है? इसलिए क्योंकि जब भी किसी से मेरा सामना होता है, जब भी किसी की कहानी सुनता हूँ, मैं जब भी किसी के अनुभव या परमेश्वर में विश्वास करने की उसकी गवाही सुनता हूँ, तो मैं अपने मन में इस बात का निर्णय करने के लिए कि यह व्यक्ति उस प्रकार का व्यक्ति है या नहीं जिसे परमेश्वर चाहता है, या जिसे परमेश्वर पसंद करता है, मैं इस कहावत का उपयोग करता हूँ। तो, वह कहावत क्या है? तुम सभी लोग पूरी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे हो। जब मैं वो कहावत तुम्हें बताऊँगा, तो शायद तुम्हें निराशा हो, क्योंकि कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इससे वर्षों से दिखावटी प्रेम दिखाते आ रहे हैं। किन्तु जहाँ तक मेरी बात है, मैंने इससे कभी भी दिखावटी प्रेम नहीं किया। यह कहावत मेरे दिल में बसी हुई है। तो वह कहावत क्या है? वो है : “परमेश्वर के मार्ग पर चलो : परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो।” क्या यह बहुत ही सरल वाक्यांश नहीं है? हालाँकि यह कहावत सरल हो सकती है, तब भी कोई व्यक्ति जिसमें असल में इसकी गहरी समझ है, वह महसूस करेगा कि इसका बड़ा महत्व है, अभ्यास में इसका बड़ा मूल्य है; यह जीवन की भाषा से एक पंक्ति है जिसमें सत्य वास्तविकता निहित है, जो लोग परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते हैं, यह उनके लिए जीवन भर का लक्ष्य है, यह ऐसे व्यक्ति के लिए अनुसरण करने योग्य जीवन भर का मार्ग है जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील है। तो तुम लोग क्या सोचते हो : क्या यह कहावत सत्य नहीं है? इसकी ऐसी महत्ता है या नहीं? शायद कुछ लोग इस कहावत पर विचार करके, इसे समझने का प्रयास भी कर रहे हों, और शायद कुछ ऐसे हों जो इसके बारे में शंका रखते हों : क्या यह कहावत बहुत महत्वपूर्ण है? क्या यह बहुत महत्वपूर्ण है? क्या इस पर इतना जोर देना जरूरी है? शायद कुछ ऐसे लोग भी हों जो इस कहावत को अधिक पसंद न करते हों, क्योंकि उन्हें लगता है कि परमेश्वर के मार्ग पर चलना और उसे एक कहावत में सारभूत करना इसका अत्यधिक सरलीकरण है। जो कुछ परमेश्वर ने कहा, उसे लेकर एक छोटी-सी कहावत में पिरो देना—क्या ऐसा करना परमेश्वर को एकदम महत्वहीन बना देना नहीं है? क्या यह ऐसा ही है? ऐसा हो सकता है कि तुम लोगों में से अधिकांश इन वचनों के पीछे के गहन अर्थ को पूरी तरह से न समझते हों। यद्यपि तुम लोगों ने इसे लिख लिया है, फिर भी तुम सब इस कहावत को अपने हृदय में स्थान देने का कोई इरादा नहीं रखते; तुमने इसे बस अपनी पुस्तिका में लिख लिया है ताकि अपने खाली समय में इसे फिर से पढ़कर इस पर विचार कर सको। कुछ तो इस कहावत को याद रखने की भी परवाह नहीं करेंगे, इसे अच्छे उपयोग में लाने का प्रयास करने की तो बात छोड़ ही दो। परन्तु मैं इस कहावत पर चर्चा क्यों करना चाहता हूँ? तुम लोगों का दृष्टिकोण या तुम लोग क्या सोचोगे, इसकी परवाह किए बिना, मुझे इस कहावत पर चर्चा करनी ही थी क्योंकि यह इस बात को लेकर अत्यंत प्रासंगिक है कि किस प्रकार परमेश्वर मनुष्य के परिणामों को निर्धारित करता है। इस कहावत के बारे में तुम लोगों की वर्तमान समझ चाहे कुछ भी क्यों न हो, या तुम इससे कैसे भी पेश क्यों न आओ, मैं तब भी तुम लोगों को यह बताऊँगा : यदि लोग इस कहावत के शब्दों को अभ्यास में ला सकें, उनका अनुभव कर सकें, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मानक को प्राप्त कर सकें, तो वे लोग जीवित बचे रहेंगे और यकीनन उनके परिणाम अच्छे होंगे। यदि तुम इस कहावत के द्वारा तय मानक को पूरा न कर पाओ, तो ऐसा कहा जा सकता है कि तुम्हारा परिणाम अज्ञात है। इस प्रकार मैं तुम्हारी मानसिक तैयारी के लिए तुम्हें कहावत बता रहा हूँ, ताकि तुम लोग जान लो कि तुम्हें मापने के लिए परमेश्वर किस प्रकार के मानक का उपयोग करता है। जैसे कि मैंने अभी-अभी चर्चा की है, यह कहावत मनुष्य के बारे में परमेश्वर द्वारा इंसान के उद्धार के, और वह किस प्रकार इंसान के परिणाम को निर्धारित करता है, उससे पूरी तरह से प्रासंगिक है। यह किस तरह से प्रासंगिक है? तुम लोग सचमुच जानना चाहोगे, इसलिए आज हम इस बारे में बात करेंगे।
परमेश्वर विभिन्न परीक्षणों से जाँच करता है कि लोग परमेश्वर का भय मानते और बुराई से दूर रहते हैं या नहीं
अपने कार्य के हर युग में परमेश्वर लोगों को कुछ वचन प्रदान करता है और उन्हें कुछ सत्य बताता है। ये सत्य ऐसे मार्ग के रूप में कार्य करते हैं जिसके मुताबिक मनुष्य को चलना चाहिए, जिस पर मनुष्य को चलना चाहिए, ऐसा मार्ग जो मनुष्य को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम बनाता है, ऐसा मार्ग जिसे मनुष्य को अभ्यास में लाना चाहिए और अपने जीवन में और अपनी जीवन यात्राओं के दौरान उसके मुताबिक चलना चाहिए। इन्हीं कारणों से परमेश्वर इन वचनों को मनुष्य को प्रदान करता है। ये वचन जो परमेश्वर से आते हैं उनके मुताबिक ही मनुष्य को चलना चाहिए, और उनके मुताबिक चलना ही जीवन पाना है। यदि कोई व्यक्ति उनके मुताबिक नहीं चलता, उन्हें अभ्यास में नहीं लाता, और अपने जीवन में परमेश्वर के वचनों को नहीं जीता, तो वह व्यक्ति सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहा है। यदि लोग सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहे हैं, तो वे परमेश्वर का भय नहीं मान रहे हैं और बुराई से दूर नहीं रह रहे हैं, और न ही वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं। यदि कोई परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाता, तो वह परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त नहीं कर सकता, ऐसे लोगों का कोई परिणाम नहीं होता। तब परमेश्वर अपने कार्य के दौरान, किस प्रकार किसी व्यक्ति के परिणाम को निर्धारित करता है? मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए परमेश्वर किस पद्धति का उपयोग करता है। शायद इस वक्त भी तुम लोग इस बारे में अस्पष्ट हो, परन्तु जब मैं तुम लोगों को प्रक्रिया बताऊँगा, तो यह बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा, क्योंकि तुममें से बहुत से लोगों ने पहले ही इसका अनुभव कर लिया है।
परमेश्वर के कार्य के दौरान, आरंभ से लेकर अब तक, परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए—या तुम लोग कह सकते हो, उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए जो उसका अनुसरण करता है—परीक्षाएँ निर्धारित कर रखी हैं और ये परीक्षाएँ भिन्न-भिन्न आकारों में होती हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपने परिवार के द्वारा ठुकराए जाने की परीक्षा का अनुभव किया है; कुछ ने विपरीत परिवेश की परीक्षा का अनुभव किया है; कुछ लोगों ने गिरफ्तार किए जाने और यातना दिए जाने की परीक्षा का अनुभव किया है; कुछ लोगों ने विकल्प का सामना करने की परीक्षा का अनुभव किया है; और कुछ लोगों ने धन एवं हैसियत की परीक्षाओं का सामना करने का अनुभव किया है। सामान्य रूप से कहें, तो तुम लोगों में से प्रत्येक ने सभी प्रकार की परीक्षाओं का सामना किया है। परमेश्वर इस प्रकार से कार्य क्यों करता है? परमेश्वर हर किसी के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करता है? वह किस प्रकार के परिणाम देखना चाहता है? जो कुछ मैं तुम लोगों से कहना चाहता हूँ उसका महत्वपूर्ण बिंदु यह है : परमेश्वर देखना चाहता है कि यह व्यक्ति उस प्रकार का है या नहीं जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। इसका अर्थ यह है कि जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा ले रहा होता है, तुम्हें किसी परिस्थिति का सामना करने पर मजबूर कर रहा होता है, तो वह यह जाँचना चाहता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो या नहीं जो उसका भय मानता और बुराई से दूर रहता है। यदि किसी व्यक्ति को किसी भेंट को सुरक्षित रखने का कर्तव्य दिया गया है, और वह अपने कर्तव्य के कारण परमेश्वर की भेंट के संपर्क में आता है, तो क्या तुम्हें लगता है कि यह ऐसा काम है जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने की है? इसमें कोई शक ही नहीं है! हर चीज जो तुम्हारे सामने आती है, उसकी व्यवस्था परमेश्वर ने की होती है। जब तुम्हारा सामना ऐसे मामले से होगा, तो परमेश्वर गुप्त रूप से तुम्हारा अवलोकन करेगा, देखेगा कि तुम क्या चुनाव करते हो, कैसे अभ्यास करते हो, तुम्हारे विचार क्या हैं। परमेश्वर को सबसे अधिक चिंता अंतिम परिणाम की होती है, चूँकि इसी परिणाम से वह मापेगा कि इस परीक्षा-विशेष में तुमने परमेश्वर के मानक को हासिल किया है या नहीं। हालाँकि, जब लोगों का सामना किसी मसले से होता है, तो वे प्रायः इस बारे में नहीं सोचते कि उनका सामना इससे क्यों हो रहा है, परमेश्वर को उनसे किस मानक पर खरा उतरने की अपेक्षा है, वह उनमें क्या देखना चाहता है, या उनसे क्या प्राप्त करना चाहता है। ऐसे मामले से सामना होने पर, इस प्रकार का व्यक्ति केवल यह सोच रहा होता है : “मैं इस चीज का सामना कर रहा हूँ; मुझे सावधान रहना चाहिए, लापरवाह नहीं! चाहे कुछ भी हो, यह परमेश्वर की भेंट है और मैं इसे छू नहीं सकता हूँ।” ऐसे सरल विचार रखकर वे सोचते हैं कि उन्होंने अपना उत्तरदायित्व पूरा कर लिया। परमेश्वर इस परीक्षा के परिणाम से संतुष्ट होगा या नहीं? तुम लोग इस पर चर्चा करो। (यदि लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है, तो जब उस कर्तव्य से सामना होता है जिसमें वे परमेश्वर को अर्पित की गई भेंट के संपर्क में आते हैं, तो वे विचार करेंगे कि परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करना कितना आसान होगा, इससे वे सावधानी से आगे बढ़ने को बाध्य होंगे।) तुम्हारा उत्तर सही दिशा में है, परन्तु यह अभी सटीक नहीं है। परमेश्वर के मार्ग पर चलना सतही तौर पर नियमों का पालन करना नहीं है; बल्कि, इसका अर्थ है कि जब तुम्हारा सामना किसी मामले से होता है, तो सबसे पहले, तुम इसे एक ऐसी परिस्थिति के रूप में देखते हो जिसकी व्यवस्था परमेश्वर के द्वारा की गई है, ऐसे उत्तरदायित्व के रूप में देखते हो जिसे उसके द्वारा तुम्हें प्रदान किया गया है, या किसी ऐसे कार्य के रूप में देखते हो जो उसने तुम्हें सौंपा है। जब तुम इस मामले का सामना कर रहे होते हो, तो तुम्हें इसे परमेश्वर से आयी किसी परीक्षा के रूप में भी देखना चाहिए। इस मामले का सामना करते समय, तुम्हारे पास एक मानक अवश्य होना चाहिए, तुम्हें सोचना चाहिए कि यह परमेश्वर की ओर से आया है। तुम्हें इस बारे में सोचना चाहिए कि कैसे इस मामले से इस तरह से निपटा जाए कि तुम अपने उत्तरदायित्व को पूरा कर सको, और परमेश्वर के प्रति वफ़ादार भी रह सको, इसे कैसे किया जाए कि परमेश्वर क्रोधित न हो, या उसके स्वभाव का अपमान न हो। हमने अभी-अभी भेंटों की सुरक्षा के बारे में बात की। इस मामले में भेंटें शामिल हैं, और इसमें तुम्हारा कर्तव्य, एवं तुम्हारा उत्तरदायित्व भी शामिल है। तुम इस उत्तरदायित्व के प्रति कर्तव्य से बँधे हुए हो। फिर भी जब तुम्हारा सामना इस मामले से होता है, तो क्या कोई प्रलोभन है? हाँ, है। यह प्रलोभन कहाँ से आता है? यह प्रलोभन शैतान की ओर से आता है, और यह मनुष्य की दुष्टता और उसके भ्रष्ट स्वभाव से भी आता है। चूँकि यहाँ प्रलोभन है, इसमें गवाही देने वाली बात आती है, जो लोगों को देनी चाहिए, जो तुम्हारा उत्तरदायित्व एवं कर्तव्य भी है। कुछ लोग कहते हैं, “यह तो कितना छोटा-सा मसला है; क्या वास्तव में इस बात का बतंगड़ बनाना जरूरी है?” यह ज्यादा जरूरी नहीं हो सकता! क्योंकि परमेश्वर के मार्ग पर चलने के लिए, हम किसी भी ऐसी चीज को जाने नहीं दे सकते जिसका हमसे लेना-देना है, या जो हमारे आसपास घटती है, यहाँ तक कि छोटी से छोटी चीज भी; हमें यह मसला ध्यान देने योग्य लगे या न लगे, अगर उससे हमारा सामना हो रहा है तो हमें उसे जाने नहीं देना चाहिए। इस सबको हमारे लिए परमेश्वर की परीक्षा के रूप में देखा जाना चाहिए। चीजों को इस ढंग से देखने की प्रवृत्ति कैसी है? यदि तुम्हारी प्रवृत्ति इस प्रकार की है, तो यह एक तथ्य की पुष्टि करती है : तुम्हारा हृदय परमेश्वर का भय मानता है, और बुराई से दूर रहने के लिए तैयार है। यदि परमेश्वर को संतुष्ट करने की तुम्हारी ऐसी इच्छा है, तो जिसे तुम अभ्यास में लाते हो वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मानक से दूर नहीं है।
प्रायः ऐसे लोग होते हैं जो मानते हैं कि ऐसे मामले जिन पर लोगों के द्वारा अधिक ध्यान नहीं दिया जाता, और जिनका सामान्यतः उल्लेख नहीं किया जाता, वो महज छोटी-मोटी निरर्थक बातें होती हैं, और उनका सत्य को अभ्यास में लाने से कोई लेना-देना नहीं है। जब इन लोगों के सामने ऐसे मामले आते हैं, तो वे उस पर अधिक विचार नहीं करते और उसे जाने देते हैं। परन्तु वास्तव में, यह मामला एक सबक है जिसका तुम्हें अध्ययन करना चाहिए, यह एक सबक कि किस प्रकार परमेश्वर का भय मानना है, और किस प्रकार बुराई से दूर रहना है। इसके अतिरिक्त, जिस बारे में तुम्हें और भी अधिक चिंता करनी चाहिए वह यह जानना है कि जब यह मामला तुम्हारे सामने आता है तो परमेश्वर क्या कर रहा है। परमेश्वर ठीक तुम्हारी बगल में है, तुम्हारे प्रत्येक शब्द और कर्म का अवलोकन कर रहा है, तुम्हारे क्रियाकलापों, तुम्हारे मन में हुए परिवर्तनों का अवलोकन कर रहा है—यह परमेश्वर का कार्य है। कुछ लोग पूछते हैं, “अगर ये सच है, तो मुझे यह महसूस क्यों नहीं होता है?” तुमने इसका एहसास नहीं किया है क्योंकि तुम परमेश्वर के भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को अपना प्राथमिक मार्ग मानकर इसके मुताबिक नही चले हो; इसलिए, तुम मनुष्य में परमेश्वर के सूक्ष्म कार्य को महसूस नहीं कर पाते, जो लोगों के भिन्न-भिन्न विचारों और भिन्न-भिन्न कार्यकलापों के अनुसार स्वयं को अभिव्यक्त करता है। तुम एक चंचलचित्त वाले व्यक्ति हो। बड़ा मामला क्या है? छोटा मामला क्या है? उन सभी मामलों को बड़े और छोटे मामलों में विभाजित नहीं किया जाता जिसमें परमेश्वर के मार्ग पर चलना शामिल है, वे सब बहुत बड़ी बात हैं—क्या तुम लोग इसे समझ सकते हो? (हम इसे समझ सकते हैं।) प्रतिदिन के मामलों के संबंध में, कुछ मामले ऐसे होते हैं जिन्हें लोग बहुत बड़े और महत्वपूर्ण मामले के रूप में देखते हैं, और अन्य मामलों को छोटे-मोटे निरर्थक मामलों के रूप में देखा जाता है। लोग प्रायः इन बड़े मामलों को अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों के रूप में देखते हैं, और वे उन्हें परमेश्वर के द्वारा भेजा गया मानते हैं। हालाँकि, इन बड़े मामलों के चलते रहने के दौरान लोग अपने अपरिपक्व आध्यात्मिक कद और अपनी कम काबिलियत के कारण अक्सर परमेश्वर के इरादों पर खरे नहीं उतर पाते, कोई प्रकाशन प्राप्त नहीं कर पाते और ऐसा कोई वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते जिसका कोई मूल्य हो। जहाँ तक छोटे-छोटे मामलों की बात है, लोगों द्वारा इनकी अनदेखी की जाती है, और थोड़ा-थोड़ा करके हाथ से फिसलने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार, लोगों ने परमेश्वर के सामने जाँचे जाने, और उसके द्वारा परीक्षण किए जाने के अनेक अवसरों को गँवा दिया है। यदि तुम हमेशा लोगों, चीज़ों, मामलों और परिस्थितियों को अनदेखा कर देते हो जिनकी व्यवस्था परमेश्वर तुम्हारे लिए करता है, तो इसका क्या अर्थ होगा? इसका अर्थ है कि हर दिन, यहाँ तक कि हर क्षण, तुम अपने बारे में परमेश्वर की पूर्णता का और परमेश्वर की अगुवाई का परित्याग कर रहे हो। जब कभी परमेश्वर तुम्हारे लिए किसी परिस्थिति की व्यवस्था करता है, तो वह गुप्त रीति से देख रहा होता है, तुम्हारे हृदय को देख रहा होता है, तुम्हारी सोच और विचारों को देख रहा होता है, देख रहा होता है कि तुम किस प्रकार सोचते हो, किस प्रकार कार्य करोगे। यदि तुम एक लापरवाह व्यक्ति हो—ऐसे व्यक्ति जो परमेश्वर के मार्ग, परमेश्वर के वचन, या जो सत्य के बारे में कभी भी गंभीर नहीं रहा है—तो तुम उसके प्रति सचेत नहीं रहोगे, उस पर ध्यान नहीं दोगे जिसे परमेश्वर पूरा करना चाहता है, न उन अपेक्षाओं पर ध्यान दोगे जिन्हें वो तुमसे तब पूरा करवाना चाहता था जब उसने तुम्हारे लिए एक खास परिवेश की व्यवस्था की थी। तुम यह भी नहीं जानोगे कि तुम जिन लोगों, घटनाओं और वस्तुओं का सामना करते हो वे किस प्रकार सत्य से या परमेश्वर के इरादों से संबंध रखते हैं। तुम्हारे इस प्रकार बार-बार परिस्थितियों और परीक्षणों का सामना करने के पश्चात जब परमेश्वर तुममें कोई नतीजे नहीं देखता तो वह कैसे आगे बढ़ेगा? बार-बार परीक्षणों का सामना करके तुमने अपने हृदय में परमेश्वर को महान मानकर सम्मान नहीं दिया है, न ही तुमने उन परिस्थितियों का अर्थ समझा है जिनकी व्यवस्था परमेश्वर ने तुम्हारे लिए की है—परमेश्वर के परीक्षण और परीक्षाएँ। इसके बजाय तुमने एक के बाद एक उन अवसरों को अस्वीकार कर दिया जो परमेश्वर ने तुम्हें प्रदान किए, तुमने बार-बार उन्हें हाथ से जाने दिया। क्या ऐसा करके लोग घोर विद्रोह नहीं करते? (बिल्कुल करते हैं।) क्या इसकी वजह से परमेश्वर दुखी होगा? (वह दुखी होगा।) गलत, परमेश्वर दुखी नहीं होगा! मुझे इस प्रकार कहते हुए सुनकर तुम लोगों को एक बार फिर झटका लगा है। तुम सोच रहे होगे : “क्या ऐसा पहले नहीं कहा गया था कि परमेश्वर हमेशा दुखी होता है? इसलिए क्या परमेश्वर दुखी नहीं होगा? तो परमेश्वर दुखी कब होता है?” संक्षेप में, परमेश्वर इस स्थिति से दुखी नहीं होगा। तो उस प्रकार के व्यवहार के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है जिसके बारे में ऊपर बताया गया है? जब लोग परमेश्वर द्वारा भेजे गए परीक्षणों, परीक्षाओं को अस्वीकार करते हैं, जब वे उनसे बच कर भागते हैं, तो इन लोगों के प्रति परमेश्वर की केवल एक ही प्रवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति क्या है? परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति को अपने हृदय की गहराई से ठुकरा देता है। यहाँ “ठुकराने” शब्द के दो अर्थ हैं। मैं उन्हें अपने दृष्टिकोण से किस प्रकार समझाऊँ? गहराई में, यह शब्द घृणा का, नफ़रत का संकेतार्थ लिए हुए है। दूसरा अर्थ क्या? दूसरे भाग का तात्पर्य है किसी चीज़ को त्याग देना। तुम लोग जानते हो कि “त्याग देने” का क्या अर्थ है, ठीक है न? संक्षेप में, ठुकराने का अर्थ है ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर की अंतिम प्रतिक्रिया और प्रवृत्ति जो इस तरह से व्यवहार कर रहे हैं; यह उनके प्रति भयंकर घृणा है, और चिढ़ है, इसलिए उनका परित्याग करने का निर्णय लिया जाता है। यह ऐसे व्यक्ति के प्रति परमेश्वर का अंतिम निर्णय है जो परमेश्वर के मार्ग पर कभी नहीं चला है, जिसने कभी भी परमेश्वर का भय नहीं माना है और जो कभी भी बुराई से दूर नहीं रहा है। क्या अब तुम लोग इस कहावत के महत्व को समझ गए जो मैंने कही थी?
क्या अब वह तरीका तुम्हारी समझ में आ गया है जिसे परमेश्वर मनुष्य का परिणाम निर्धारित करने के लिए उपयोग करता है? (वह हर दिन भिन्न-भिन्न परिस्थितियों की व्यवस्था करता है।) “वह भिन्न-भिन्न परिस्थितियों की व्यवस्था करता है”—ये वो चीज है जिसे लोग महसूस और स्पर्श कर सकते हैं। तो ऐसा करने के पीछे परमेश्वर की मंशा क्या है? मंशा यह है कि परमेश्वर हर एक व्यक्ति की भिन्न-भिन्न तरीकों से, भिन्न-भिन्न समय पर, और भिन्न-भिन्न स्थानों पर परीक्षाएँ लेना चाहता है। किसी परीक्षा में मनुष्य के किन पहलुओं को जाँचा जाता है? परीक्षण यह तय करता है कि क्या तुम हर उस मामले में परमेश्वर का भय मानते हो और बुराई से दूर रहते हो जिसका तुम सामना करते हो, जिसके बारे में तुम सुनते हो, जिसे तुम देखते हो, और जिसका तुम व्यक्तिगत रूप से अनुभव करते हो। हर कोई इस प्रकार के परीक्षण का सामना करेगा, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों के प्रति निष्पक्ष है। तुममें से कुछ लोग कहते हैं, “मैंने बहुत वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है; ऐसा कैसे है कि मैंने किसी परीक्षण का सामना नहीं किया?” तुम्हें लगता है कि तुमने किसी परीक्षण का सामना नहीं किया है क्योंकि जब भी परमेश्वर ने तुम्हारे लिए परिस्थितियों की व्यवस्था की, तुमने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया, और परमेश्वर के मार्ग पर चलना नहीं चाहा। इसलिए तुम्हें परमेश्वर के परीक्षण का कोई बोध ही नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने कुछ परीक्षणों का सामना तो किया है, किन्तु मैं अभ्यास करने के उचित तरीके को नहीं जानता। जब मैंने अभ्यास किया तो भी मुझे पता नहीं कि मैं परीक्षण के दौरान डटा रहा था या नहीं।” इस प्रकार की अवस्था वाले लोगों की संख्या भी कम नहीं है। तो फिर वह कौन-सा मानक है जिससे परमेश्वर लोगों को मापता है? मानक वही है जो मैंने कुछ देर पहले कहा था : जो कुछ भी तुम करते हो, सोचते हो, व्यक्त करते हो, उसमें तुम परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हो या नहीं। इसी प्रकार से यह निर्धारित होता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो या नहीं जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। यह अवधारणा सरल है या नहीं? इसे कहना तो आसान है, किन्तु क्या इसे अभ्यास में लाना आसान है? (यह इतना आसान नहीं है।) यह इतना आसान क्यों नहीं है? (क्योंकि लोग परमेश्वर को नहीं जानते, नहीं जानते कि परमेश्वर किस प्रकार मनुष्य को पूर्ण बनाता है, इसलिए जब उनका सामना समस्याओं से होता है तो वे नहीं जानते कि समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य की खोज कैसे करें। परमेश्वर का भय मानने की वास्तविकता को अंगीकृत करने से पहले, लोगों को भिन्न-भिन्न परीक्षणों, शुद्धिकरणों, ताड़नाओं, और न्यायों से होकर गुजरना पड़ता है।) तुम इसे उस ढंग से कह सकते हो, परन्तु जहाँ तक तुम लोगों का संबंध है, परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना इस वक्त आसानी से करने योग्य प्रतीत होता है। मैं क्यों ऐसा कहता हूँ? क्योंकि तुम लोगों ने बहुत से धर्मोपदेश सुने हैं, और सत्य वास्तविकता का सिंचन भी कोई कम प्राप्त नहीं किया है; इससे तुम लोग यह समझ गए हो कि किस प्रकार सिद्धान्त और सोच के संबंध में परमेश्वर का भय मानना है और बुराई से दूर रहना है। परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के तुम लोगों के अभ्यास के संबंध में, यह सब सहायक रहा है और इसने तुम लोगों को महसूस करवाया है कि इसे आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। तब क्यों लोग वास्तव में इसे कभी प्राप्त नहीं कर पाते? क्योंकि मनुष्य का प्रकृति सार परमेश्वर का भय नहीं मानता, और बुराई को पसंद करता है। यही वास्तविक कारण है।
परमेश्वर का भय न मानना और बुराई से दूर न रहना परमेश्वर का विरोध करना है
चलो मैं शुरुआत इस सवाल से करता हूँ कि यह कहावत “परमेश्वर का भय मानें और बुराई से दूर रहें” कहाँ से आई है। (अय्यूब की पुस्तक से।) चूँकि हमने अय्यूब का उल्लेख कर दिया है, तो आओ हम उसकी चर्चा करें। अय्यूब के समय में, क्या परमेश्वर मनुष्य को जीतने और उसका उद्धार करने के लिए कार्य कर रहा था? नहीं, है न? और जहाँ तक अय्यूब का संबंध है, उस समय उसे परमेश्वर का कितना ज्ञान था? (बहुत अधिक ज्ञान नहीं था।) अय्यूब का परमेश्वर संबंधी ज्ञान तुम लोगों के आज के ज्ञान से ज़्यादा था या कम? ऐसा क्यों है कि तुम लोग उत्तर देने की हिम्मत नहीं करते? इस प्रश्न का उत्तर देना बड़ा आसान है। कम था! यह तो निश्चित है! आज तुम लोग परमेश्वर के आमने-सामने हो, और परमेश्वर के वचन के आमने-सामने हो; परमेश्वर के बारे में तुम लोगों का ज्ञान अय्यूब के ज्ञान की तुलना में बहुत अधिक है। मैं यह बात क्यों कह रहा हूँ? ये बातें कहने का मेरा क्या अभिप्राय है? मैं तुम लोगों को एक तथ्य समझाना चाहता हूँ, लेकिन उससे पहले मैं तुम लोगों से एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ : अय्यूब परमेश्वर के बारे में बहुत कम जानता था, फिर भी वह परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था; लेकिन आजकल लोग ऐसा करने में असफल क्यों रहते हैं? (क्योंकि वे बुरी तरह से भ्रष्ट हैं।) उनका बुरी तरह से भ्रष्ट होना समस्या पैदा करने वाली एक सतही घटना है, लेकिन मैं कभी इसे इस तरह नहीं देखूँगा। तुम लोग प्रायः इस्तेमाल किए जाने वाले धर्म-सिद्धांत और शब्द अपनाते हो, जैसे कि “बुरी तरह से भ्रष्ट,” “परमेश्वर से विद्रोह करना,” “परमेश्वर के प्रति विश्वासघात,” “समर्पण का अभाव,” “सत्य को पसंद न करना”, वगैरह-वगैरह, और हर एक समस्या के सार की व्याख्या करने के लिए तुम लोग इन वाक्यांशों का उपयोग करते हो। यह अभ्यास करने का एक दोषपूर्ण तरीका है। भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के मामलों को समझाने के लिए एक ही उत्तर का उपयोग करना सत्य और परमेश्वर की निंदा करने के संदेह उत्पन्न करता है; मुझे इस तरह का उत्तर सुनना पसंद नहीं है। इसके बारे में अच्छी तरह सोचो! तुममें से किसी ने भी इस मामले पर विचार नहीं किया है, परन्तु मैं इसे हर दिन देख सकता हूँ, और हर दिन इसे महसूस कर सकता हूँ। इस प्रकार, जब तुम लोग कार्य कर रहे होते हो, तो मैं देख रहा होता हूँ। जब तुम लोग ये कर रहे होते हो, तब तुम इस मामले के सार को महसूस नहीं कर पाते। किंतु जब मैं इसे देखता हूँ, तो मैं इसके सार को भी देख सकता हूँ, और मैं इसके सार को महसूस भी कर सकता हूँ। तो फिर यह सार क्या है? इन दिनों लोग परमेश्वर का भय क्यों नहीं मान पाते और बुराई से दूर क्यों नहीं रह पाते? तुम लोगों के उत्तर दूर-दूर तक इस प्रश्न के सार की व्याख्या नहीं कर सकते, न ही वे इस प्रश्न के सार का समाधान कर सकते हैं। क्योंकि इसका एक स्रोत है जिसके बारे में तुम लोग नहीं जानते। यह स्रोत क्या है? मैं जानता हूँ कि तुम लोग इस बारे में सुनना चाहते हो, इसलिए मैं तुम लोगों को इस समस्या के स्रोत के बारे में बताऊँगा।
जब से परमेश्वर ने कार्य की शुरुआत की, तब से उसने मनुष्य को कैसे देखा है? परमेश्वर ने मनुष्य को बचाया; उसने मनुष्य को अपने परिवार के एक सदस्य के रूप में, अपने कार्य के लक्ष्य के रूप में, उस रूप में देखा है जिसे वह जीतना और बचाना चाहता था, जिसे वह पूर्ण करना चाहता था। अपने कार्य के आरंभ में मनुष्य के प्रति यह परमेश्वर की प्रवृत्ति थी। परन्तु उस समय परमेश्वर के प्रति मनुष्य की प्रवृत्ति क्या थी? परमेश्वर मनुष्य के लिए अपरिचित था, और मनुष्य परमेश्वर को एक अजनबी मानता था। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर के प्रति मनुष्य की प्रवृत्ति ने सही परिणाम नहीं दिए, और मनुष्य इस बारे में स्पष्ट नहीं था कि उसे परमेश्वर के साथ कैसे पेश आना चाहिए। इसलिए उसने परमेश्वर के साथ मनमाना व्यवहार किया और जैसा चाहा वैसा किया। क्या परमेश्वर के प्रति मनुष्य का कोई दृष्टिकोण था? आरंभ में नहीं था; परमेश्वर के संबंध में मनुष्य का तथाकथित दृष्टिकोण उसके बारे में बस कुछ धारणाओं और कल्पनाओं तक ही सीमित था। जो कुछ लोगों की धारणाओं के अनुरूप था उसे स्वीकार किया गया, और जो कुछ अनुरूप नहीं था उसका ऊपरी तौर पर पालन किया गया, लेकिन मन ही मन एक संघर्ष चल रहा था और वे उसका विरोध करते थे। आरंभ में यह मनुष्य और परमेश्वर का संबंध था : परमेश्वर मनुष्य को परिवार के एक सदस्य के रूप में देखता था, फिर भी मनुष्य परमेश्वर से एक अजनबी-सा व्यवहार करता था। परन्तु परमेश्वर के कार्य की एक समयावधि के पश्चात्, मनुष्य की समझ में आ गया कि परमेश्वर क्या प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था। लोग जानने लगे थे कि वही सच्चा परमेश्वर है; वे यह भी जान गए थे कि वे परमेश्वर से क्या प्राप्त कर सकते हैं। उस समय मनुष्य परमेश्वर को किस रूप में देखता था? मनुष्य अनुग्रह, आशीष एवं प्रतिज्ञाएँ पाने की आशा करते हुए परमेश्वर को जीवनरेखा के रूप में देखता था। उस समय परमेश्वर मनुष्य को किस रूप में देखता था? परमेश्वर मनुष्य को अपने विजय के एक लक्ष्य के रूप में देखता था। परमेश्वर मनुष्य का न्याय करने, उसकी परीक्षा लेने, उसका परीक्षण करने के लिए वचनों का उपयोग करना चाहता था। किन्तु उस समय जहाँ तक मनुष्य का संबंध था, परमेश्वर एक वस्तु था जिसे वह अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उपयोग कर सकता था। लोगों ने देखा कि परमेश्वर द्वारा जारी सत्य उन पर विजय पा सकता है, उन्हें बचा सकता है, उनके पास उन चीजों को जिन्हें वे परमेश्वर से चाहते थे और उस मंजिल को जिसे वे चाहते थे, प्राप्त करने का एक अवसर है। इस कारण, उनके हृदय में थोड़ी सी ईमानदारी आ गयी, और वे इस परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए तैयार हो गए। कुछ समय बीत गया, और लोगों को परमेश्वर के बारे में कुछ सतही और सैद्धांतिक ज्ञान हो जाने से, ऐसा भी कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर और उसके द्वारा कहे गए वचनों के साथ, उसके उपदेशों के साथ, उस सत्य के साथ जिसे उसने जारी किया था, और उसके कार्य के साथ “परिचित” होने लगे थे। इसलिए, लोग इस गलतफहमी का शिकार हो गए कि परमेश्वर अब अजनबी नहीं रहा, और वे पहले ही परमेश्वर के अनुरूप होने के पथ पर चल पड़े हैं। तब से लेकर अब तक, लोगों ने सत्य पर बहुत से धर्मोपदेश सुने हैं, और परमेश्वर के बहुत से कार्यों का अनुभव किया है। फिर भी भिन्न-भिन्न कारकों एवं परिस्थितियों के हस्तक्षेप एवं अवरोधों के कारण, अधिकांश लोग सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते, न ही वे परमेश्वर को संतुष्ट कर पाते हैं। लोग उत्तरोत्तर आलसी होते जा रहे हैं, और उनके आत्मविश्वास में उत्तरोत्तर कमी आती जा रही है। वे उत्तरोत्तर महसूस कर रहे हैं कि उनका परिणाम अज्ञात है। वे कोई अनावश्यक विचार लेकर नहीं आते, और कोई प्रगति नहीं करते; वे बस अनमने ढंग से अनुसरण करते हैं, और धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहते हैं। मनुष्य की वर्तमान अवस्था के संबंध में, मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है? परमेश्वर की एकमात्र इच्छा है कि वह मनुष्य को ये सत्य प्रदान करे, उसके मन में अपना मार्ग बैठा दे, और फिर भिन्न-भिन्न तरीकों से मनुष्य को जाँचने के लिए भिन्न-भिन्न परिस्थितियों की व्यवस्था करे। उसका लक्ष्य इन वचनों, इन सत्यों, और अपने कार्य को लेकर ऐसा परिणाम उत्पन्न करना है जहाँ मनुष्य परमेश्वर का भय मान सके और बुराई से दूर रह सके। मैंने देखा है कि अधिकांश लोग बस परमेश्वर के वचन को लेते हैं और उसे सिद्धांत मान लेते हैं, उसे मात्र शब्दों के रूप में मानते हैं, और पालन किए जाने वाले विनियमों के रूप में मानते हैं। जब वे कार्य करते हैं और बोलते हैं, या परीक्षणों का सामना करते हैं, तब वे परमेश्वर के मार्ग को उस मार्ग के रूप में नहीं मानते जिसका उन्हें पालन करना चाहिए। यह बात विशेष रूप से तब लागू होती है जब लोगों का बड़े परीक्षणों से सामना होता है; मैंने किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की दिशा में अभ्यास करते नहीं देखा। इस वजह से, मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति अत्यधिक घृणा एवं अरुचि से भरी हुई है! परमेश्वर द्वारा लोगों का बार-बार, यहाँ तक कि सैकड़ों बार, परीक्षण कर लेने पर भी उनमें यह दृढ़ संकल्प प्रदर्शित करने की कोई स्पष्ट प्रवृत्ति नहीं होती कि “मैं परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना चाहता हूँ!” चूँकि लोगों का ऐसा दृढ़ संकल्प नहीं है, और वे इस प्रकार का प्रदर्शन नहीं करते, इसलिए उनके प्रति परमेश्वर की वर्तमान प्रवृत्ति अब वैसी नहीं है जैसी पहले थी, जब उसने उन पर दया दिखायी थी, सहनशीलता, सहिष्णुता और धैर्य प्रदान किया था। बल्कि वह मनुष्य से बेहद निराश है। किसने ये निराशा पैदा की? मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति किस पर निर्भर है? यह हर उस व्यक्ति पर निर्भर है जो परमेश्वर का अनुसरण करता है। अपने अनेक वर्षों के कार्य के दौरान, परमेश्वर ने मनुष्य से अनेक माँगें की हैं, और मनुष्य के लिए उसने अनेक परिस्थितियों की व्यवस्था की है। चाहे मनुष्य ने कैसा ही प्रदर्शन क्यों न किया हो, और परमेश्वर के प्रति मनुष्य की प्रवृत्ति कैसी भी क्यों न हो, मनुष्य परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के लक्ष्य की स्पष्ट अनुरूपता में अभ्यास करने में असफल रहा है। मैं इस बात को एक वाक्यांश में समेटूँगा, और उसकी व्याख्या करने के लिए इस वाक्यांश का उपयोग करूँगा जिसके बारे में हमने अभी बात की है कि क्यों लोग परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर नहीं चल पाते। यह वाक्यांश क्या है! यह वाक्यांश है : परमेश्वर मनुष्य को अपने उद्धार का लक्ष्य, अपने कार्य लक्ष्य मानता है; मनुष्य परमेश्वर को अपना शत्रु, अपना विरोधी मानता है। क्या अब तुम लोग इस विषय को अच्छी तरह समझ गए? मनुष्य की प्रवृत्ति क्या है; परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है; मनुष्य और परमेश्वर के बीच क्या रिश्ता है—ये सब बिल्कुल स्पष्ट है। चाहे तुम लोगों ने कितने ही धर्मोपदेश क्यों न सुने हों, जिन चीज़ों का निष्कर्ष तुम लोगों ने स्वयं निकाला है—जैसे कि परमेश्वर के प्रति वफ़ादार होना, परमेश्वर के प्रति समर्पित होना, परमेश्वर के अनुरुप होने के लिए मार्ग खोजना, पूरा जीवन परमेश्वर के लिए खपाने की इच्छा रखना, परमेश्वर के लिए जीना चाहना—मेरे लिए ये चीज़ें होशोहवास में परमेश्वर के मार्ग पर चलना नहीं है, जो कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना है। ये केवल ऐसे माध्यम हैं जिनके द्वारा तुम लोग कुछ लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हो। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए, तुम लोग अनिच्छा से कुछ नियमों का पालन करते हो। यही नियम लोगों को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग से और भी दूर ले जाते हैं, और एक बार फिर से परमेश्वर को मनुष्य के विरोध में लाकर रख देते हैं।
आज जिस विषय पर हम चर्चा कर रहे हैं वह थोड़ा गंभीर है, परन्तु चाहे जो भी हो, मुझे अभी भी आशा है कि तुम लोग जब आने वाले अनुभवों से और आने वाले समय से गुज़रोगे तो तुम वो कर सकोगे जो मैंने अभी तुमसे कहा है। परमेश्वर को ऐसी हवाबाज़ी मत समझो कि जब वह तुम लोगों के लिए उपयोगी हो तो वह मौजूद है, पर जब उसका कोई उपयोग न हो तो वह मौजूद नहीं है। अगर तुम्हारे अवचेतन में ऐसे विचार हैं, तो समझो, तुमने परमेश्वर को पहले ही क्रोधित कर दिया है। शायद ऐसे कुछ लोग हों जो कहते हैं, “मैं परमेश्वर को खाली हवाबाज़ी नहीं मानता, मैं हमेशा उससे प्रार्थना करता हूँ, उसे संतुष्ट करने का प्रयास करता हूँ, मेरा हर काम उसकी अपेक्षाओं के दायरे, मानक और सिद्धांतों के अंतर्गत आता है। मैं निश्चित रूप से अपने विचारों के अनुसार अभ्यास नहीं कर रहा हूँ।” हाँ, जिस ढंग से तुम अभ्यास कर रहे हो वह सही है। किन्तु जब कोई समस्या आती है तो क्या सोचते हो? जब तुम्हारा सामना किसी मसले से होता है तो तुम किस प्रकार अभ्यास करते हो? कुछ लोग महसूस करते हैं कि जब वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, और उससे आग्रह करते हैं तो वह मौजूद होता है। किन्तु जब उनका सामना किसी मसले से होता है, तो वे अपने विचारों के अनुसार ही चलना चाहते हैं। इसका मतलब है कि वे परमेश्वर को खाली हवाबाज़ी मानते हैं और ऐसी स्थिति में उनके दिमाग में परमेश्वर नहीं होता। लोग सोचते हैं कि जब उन्हें परमेश्वर की ज़रूरत होती तो उसे मौजूद होना चाहिए, न कि तब जब उन्हें उसकी ज़रूरत न हो। लोगों को लगता है कि अभ्यास करने के लिए अपने विचारों के अनुसार चलना ही काफी है। वे मानते हैं कि वे सबकुछ अपने मन-मुताबिक कर सकते हैं; वे सोचते हैं कि उन्हें परमेश्वर के मार्ग को खोजने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है। जो लोग वर्तमान में इस प्रकार की स्थिति में हैं, और इस प्रकार की अवस्था में हैं—क्या वे खतरे को दावत नहीं दे रहे? कुछ लोग कहते हैं, “चाहे मैं खतरे को बुलावा दे रहा हूँ या नहीं, मैंने अनेक वर्षों से विश्वास किया है, और मैं विश्वास करता हूँ कि परमेश्वर मेरा परित्याग नहीं करेगा, क्योंकि मेरे परित्याग को वह सहन नहीं कर सकता।” अन्य लोग कहते हैं, “मैं तो तब से प्रभु में विश्वास करता आ रहा हूँ जब मैं अपनी माँ के गर्भ में था। करीब चालीस, पचास वर्ष हो गए, समय की दृष्टि से देखा जाये तो मैं परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के अत्यंत योग्य हूँ और मैं जीवित रहने के अत्यंत योग्य हूँ। चार या पाँच दशकों की इस समय अवधि में, मैंने अपने परिवार और अपनी नौकरी का परित्याग कर दिया। जो कुछ मेरे पास था, जैसे धन, हैसियत, मौज-मस्ती, और पारिवारिक समय, मैंने वह सब त्याग दिया; मैंने बहुत से स्वादिष्ट व्यंजन नहीं खाए; मैंने बहुत-सी मनोरंजन की चीज़ों का आनंद नहीं लिया; मैंने बहुत से दिलचस्प जगहों का दौरा नहीं किया, यहाँ तक कि मैंने उस कष्ट का भी अनुभव किया है जिसे साधारण लोग नहीं सह सकते। यदि इन सब कारणों से परमेश्वर मुझे नहीं बचा सकता, तो यह मेरे साथ अन्याय है और मैं इस तरह के परमेश्वर पर विश्वास नहीं कर सकता।” क्या इस तरह का दृष्टिकोण रखने वाले लोग काफी संख्या में हैं? (हाँ, काफी हैं।) ठीक है, तो आज मैं तुम लोगों को एक तथ्य समझने में मदद करता हूँ : इस प्रकार के दृष्टिकोण वाले लोग अपने ही पाँव में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। क्योंकि वे अपनी कल्पनाओं से अपनी आँखें ढक रहे हैं। ये कल्पनाएँ और उनके निष्कर्ष, उस मानक का स्थान ले लेते हैं जिसे परमेश्वर इंसान से पूरा करने की अपेक्षा करता है, और उन्हें परमेश्वर के सच्चे इरादों को स्वीकार करने से रोकता है। यह उन्हें परमेश्वर के सच्चे अस्तित्व का बोध नहीं होने देता, और उन्हें परमेश्वर की प्रतिज्ञा के किसी भी अंश का त्याग करते हुए, परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने का अवसर गँवाने का कारण बनता है।
परमेश्वर मनुष्य के परिणाम और परिणाम-निर्धारण के मानकों को कैसे तय करता है
इससे पहले कि तुम्हारा अपना कोई दृष्टिकोण या निष्कर्ष हो, तुम्हें सबसे पहले अपने प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति को और वह क्या सोच रहा है, इसे समझना चाहिए, और तब तुम्हें निर्णय लेना चाहिए कि तुम्हारी सोच सही है या नहीं। परमेश्वर ने मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए कभी भी समय का माप की इकाई के रूप में उपयोग नहीं किया है, और न ही कभी उसने परिणाम निर्धारित करने के लिए किसी व्यक्ति द्वारा सहे गए कष्ट की मात्रा का उपयोग किया है। तब परमेश्वर किसी व्यक्ति के परिणाम को निर्धारित करने के लिए मानक के रूप में किसका उपयोग करता है? समय के आधार पर परिणाम-निर्धारण लोगों की धारणाओं के सर्वाधिक अनुरूप होता है। इसके अलावा, ऐसे लोग अक्सर नज़र आ जाएँगे, जिन्होंने किसी समय बहुत कुछ समर्पित किया था, खुद को बहुत खपाया था, बड़ी कीमत चुकायी थी, और बहुत कष्ट सहा था। ये वे लोग हैं जिन्हें, तुम लोगों की दृष्टि में, परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है। जो कुछ ये लोग दिखाते हैं और जीते हैं, वह मनुष्य का परिणाम निर्धारित करने के लिए परमेश्वर द्वारा तय मानकों के बारे में लोगों की धारणाओं के अनुरूप है। तुम लोग चाहे जो मानो, मैं एक-एक करके इन उदाहरणों को सूचीबद्ध नहीं करूँगा। संक्षेप में, अगर कोई चीज़ परमेश्वर की सोच के अनुसार मानक नहीं है, तो वह मनुष्य की कल्पना की उपज है और ऐसी सारी चीज़ें उसकी धारणाएँ हैं। अगर तुम आँख बंद करके अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर ही ज़ोर देते रहो, तो क्या नतीजा मिलेगा? स्पष्ट रूप से, इसका परिणाम केवल परमेश्वर के द्वारा तुम्हें ठुकराना हो सकता है। क्योंकि तुम हमेशा परमेश्वर के सामने अपनी योग्यताओं का दिखावा करते हो, परमेश्वर से स्पर्धा करते हो, और उससे बहस करते हो, तुम लोग परमेश्वर की सोच को समझने का प्रयास नहीं करते, न ही तुम उसके इरादों या मानवजाति के प्रति उसके रवैये को समझने की कोशिश करते हो। इस तरह आगे बढ़ने से तुम खुद को ही महान मानकर सम्मान देते हो; यह तरीका परमेश्वर को महान मानकर सम्मान नहीं देता। तुम स्वयं में विश्वास करते हो, परमेश्वर में नहीं। परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं चाहता, न ही वह उनका उद्धार करेगा। यदि तुम इस प्रकार का दृष्टिकोण त्याग सको, और अतीत के अपने उन गलत दृष्टिकोणों को सुधार लो, यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार आगे बढ़ सको, अगर तुम परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अभ्यास कर सको, अगर तुम सभी चीज़ों में परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करो, खुद को और परमेश्वर को परिभाषित करने के लिए अपनी निजी कल्पनाओं, दृष्टिकोणों या आस्था का सहारा न लो, बल्कि सभी मायनों में परमेश्वर के इरादों की खोज करो, मानवता के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति का एहसास करो और समझो, परमेश्वर के मानकों पर खरा उतरकर परमेश्वर को संतुष्ट करो, तो यह शानदार बात होगी! इसका अर्थ यह होगा कि तुम परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर कदम रखने वाले हो।
अगर परमेश्वर लोगों के सोचने के ढंग, उनके विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए एक मानक के रूप में नहीं करता, तो वह किस प्रकार के मानक का उपयोग करता है? वह मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए परीक्षणों का उपयोग करता है। मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने हेतु परमेश्वर के परीक्षणों का उपयोग करने के दो मानक हैं : पहला तो परीक्षणों की संख्या है जिनसे होकर लोग गुज़रते हैं, और दूसरा मानक इन परीक्षणों का लोगों पर परिणाम है। ये दो सूचक हैं जो मनुष्य का परिणाम निर्धारित करते हैं। आओ, अब हम इन दो मानकों पर विस्तार से बात करें।
सबसे पहले, जब परमेश्वर तुम्हारा परीक्षण करता है (हो सकता है, यह परीक्षण तुम्हारे लिए छोटा-सा हो और उल्लेख करने लायक भी न हो), तो परमेश्वर तुम्हें स्पष्ट रूप से अवगत कराएगा कि तुम्हारे ऊपर परमेश्वर का हाथ है, और उसी ने तुम्हारे लिए इस परिस्थिति की व्यवस्था की है। तुम्हारे आध्यात्मिक कद की अपरिपक्वता की स्थिति में ही, परमेश्वर तुम्हारी जाँच करने के लिए परीक्षणों की व्यवस्था करेगा। ये परीक्षण तुम्हारे आध्यात्मिक कद, और तुम जो कुछ समझने और सहन करने योग्य हो, उसके अनुरूप होते हैं। तुम्हारे कौन-से हिस्से की जाँच की जाएगी? परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति की जाँच की जाएगी। क्या यह प्रवृत्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है? निश्चित रूप से यह महत्वपूर्ण है! इसका विशेष महत्व है! मनुष्य की यह प्रवृत्ति ही वो परिणाम है जो परमेश्वर चाहता है, इसलिए जहाँ तक परमेश्वर की बात है, यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। वरना परमेश्वर इस तरह के कार्य में लगकर लोगों पर अपने प्रयास व्यर्थ नहीं करता। इन परीक्षणों के माध्यम से परमेश्वर अपने प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति देखना चाहता है; वह देखना चाहता है कि तुम सही पथ पर हो या नहीं। वह यह भी देखना चाहता है कि तुम परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह रहे हो या नहीं। इसलिए, समय-विशेष पर चाहे तुम बहुत-सा सत्य समझो या थोड़ा-सा, तुम्हें परमेश्वर के परीक्षण का सामना तो करना ही होगा, और जैसे-जैसे तुम अधिक सत्य समझने लगोगे, परमेश्वर उसी के अनुरूप तुम्हारे लिए परीक्षणों की व्यवस्था करता रहेगा। और जब फिर से तुम्हारा सामना किसी परीक्षण से होगा, तो परमेश्वर देखना चाहेगा कि इस बीच तुम्हारा दृष्टिकोण, तुम्हारे विचार, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति में कोई विकास हुआ है या नहीं। कुछ लोग सोचते हैं, “परमेश्वर हमेशा लोगों की प्रवृत्ति क्यों देखना चाहता है? क्या उसने देखा नहीं कि लोग किस प्रकार सत्य को अभ्यास में लाते हैं? वह अभी भी लोगों की प्रवृत्ति क्यों देखना चाहता है?” यह निरर्थक बात है! चूँकि परमेश्वर इस तरह से कार्य करता है, तो जरूर उसमें परमेश्वर का इरादा होना चाहिए। परमेश्वर हमेशा किनारे रहकर लोगों को देखता है, उनके हर शब्द और कर्म को देखता है, उनके हर कर्म और कृत्य पर नजर रखता है; उनकी हर सोच और हर विचार का भी अवलोकन करता है। वो लोगों के साथ होने वाली हर घटना को ध्यान में रखता है—उनके नेक कर्मों को, उनके दोषों को, उनके अपराधों को, यहाँ तक कि उनके विद्रोह और विश्वासघात को भी—परमेश्वर उनके परिणाम को निर्धारित करने के लिए इन्हें सबूत के रूप में अपने पास रखता है। जैसे-जैसे परमेश्वर का कार्य आगे बढ़ेगा, तुम ज़्यादा से ज़्यादा सत्य सुनकर ज़्यादा से ज़्यादा सकारात्मक बातों और जानकारी को स्वीकार करोगे, और तुम अधिक से अधिक सत्य की वास्तविकता प्राप्त करोगे। इस प्रक्रिया के दौरान, तुमसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ भी बढ़ेंगी। उसके साथ-साथ, परमेश्वर तुम्हारे लिए और भी कठिन परीक्षणों की व्यवस्था करेगा। उसका लक्ष्य यह जाँच करना है कि इस बीच परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति में कोई विकास हुआ है या नहीं। निश्चित रूप से, इस दौरान, परमेश्वर तुमसे जिस दृष्टिकोण की अपेक्षा करता है, वह सत्य वास्तविकता की तुम्हारी समझ के अनुरूप होगा।
जैसे-जैसे तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, वैसे-वैसे वह मानक भी बढ़ता जाएगा जिसकी अपेक्षा परमेश्वर तुमसे करता है। जब तक तुम अपरिपक्व हो, तब तक परमेश्वर तुम्हें एक बहुत ही निम्न मानक देगा; जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद थोड़ा बड़ा होगा, तो परमेश्वर तुम्हें थोड़ा ऊँचा मानक देगा। परन्तु जब तुम सारे सत्य समझ जाओगे तब परमेश्वर क्या करेगा? परमेश्वर तुमसे और भी अधिक बड़े परीक्षणों का सामना करवाएगा। इन परीक्षणों के बीच, परमेश्वर जो कुछ तुमसे पाना चाहता है, जो कुछ तुमसे देखना चाहता है, वो है परमेश्वर के बारे में तुम्हारा गहन ज्ञान और उसके प्रति तुम्हारा सच्चा भय। इस समय, तुमसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ पहले की तुलना में, जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद अपरिपक्व था, और ऊँची और “अधिक कठोर” होंगी (लोग शायद इसे कठोर मानें, परन्तु परमेश्वर इसे तर्कसंगत मानता है)। जब परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेता है, तो परमेश्वर किस प्रकार की वास्तविकता की रचना करना चाहता है? परमेश्वर लगातार चाहता है कि लोग उसे अपना हृदय दें। कुछ लोग कहेंगे : “मैं अपना हृदय कैसे दे सकता हूँ? मैंने अपना कर्तव्य निभा दिया, अपना घर-बार, रोजी-रोटी त्याग दी, खुद को खपा दिया! क्या ये सब परमेश्वर को अपना हृदय देने के उदाहरण नहीं हैं? मैं और कैसे परमेश्वर को अपना हृदय दूँ? क्या ऐसा हो सकता है कि वास्तव में ये तरीके परमेश्वर को अपना हृदय देने के नहीं थे? परमेश्वर की विशिष्ट अपेक्षा क्या है?” अपेक्षा बहुत साधारण है। वास्तव में, कुछ लोग परीक्षणों के अलग-अलग चरणों में विभिन्न स्तर पर अपना हृदय पहले ही परमेश्वर को दे चुके होते हैं, परन्तु ज़्यादातर लोग अपना हृदय परमेश्वर को कभी नहीं देते। जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता है, तब वह देखता है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर के साथ है, शरीर के साथ है, या शैतान के साथ है। जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता है, तब परमेश्वर देखता है कि तुम परमेश्वर के विरोध में खड़े हो या तुम ऐसी स्थिति में खड़े हो जो परमेश्वर के अनुरूप है, और वह यह देखता है कि तुम्हारा हृदय उसकी तरफ है या नहीं। जब तुम अपरिपक्व होते हो और परीक्षणों का सामना कर रहे होते हो, तब तुम्हारी आस्था बहुत ही कम होती है, और तुम्हें ठीक से पता नहीं होता कि वह क्या है जिससे तुम परमेश्वर के इरादों को पूरे कर सकते हो, क्योंकि तुम्हें सत्य की एक सीमित समझ है। लेकिन अगर तुम अब भी ईमानदारी और सच्चाई से परमेश्वर से प्रार्थना करो, परमेश्वर को अपना हृदय देने के लिए तैयार हो जाओ, परमेश्वर को अपने ऊपर शासन करन दो और वे चीज़ें अर्पित करने के लिए तैयार हो जाओ जिन्हें तुम अत्यंत बहुमूल्य मानते हो, तो तुम पहले ही उसे अपना दिल दे चुके हो। जब तुम अधिक धर्मोपदेश सुनोगे, और अधिक सत्य समझोगे, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद भी धीरे-धीरे परिपक्व होता जाएगा। इस समय तुमसे परमेश्वर की वे अपेक्षाएँ नहीं होंगी जो तब थीं जब तुम अपरिपक्व थे; उसे तुमसे अधिक ऊँचे स्तर की अपेक्षा होगी। जैसे-जैसे लोग परमेश्वर पर दिल लगाते हैं, वे परमेश्वर के निकट आते जाते हैं; जब लोग सचमुच परमेश्वर के निकट आ सकते हैं, तो उनका हृदय परमेश्वर का अधिक भय मानने लगता है। परमेश्वर को ऐसा ही हृदय चाहिए।
जब परमेश्वर किसी का हृदय पाना चाहता है, तो वह उसकी अनगिनत परीक्षाएँ लेता है। इन परीक्षणों के दौरान, यदि परमेश्वर उस व्यक्ति के हृदय को नहीं पाता है, या वह उस व्यक्ति में किसी तरह की प्रवृति नहीं देखता—यानी वह उस व्यक्ति को उस तरह से अभ्यास या व्यवहार करते नहीं देखता जिससे परमेश्वर के प्रति उसका भय नजर आए, और अगर उसे उस व्यक्ति में बुराई से दूर रहने की प्रवृत्ति तथा दृढ़ता नजर न आए—तो अनगिनत परीक्षणों के बाद, ऐसे व्यक्ति के प्रति परमेश्वर का धैर्य टूट जाएगा, और वह उसे बर्दाश्त नहीं करेगा, उसका परीक्षण नहीं लेगा और उस पर कार्य नहीं करेगा। तो उस व्यक्ति के परिणाम के लिए इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि उसका कोई परिणाम नहीं होगा। संभव है ऐसे व्यक्ति ने कुछ बुरा न किया हो; संभव है उसने कोई रुकावट या परेशानी पैदा करने के लिए कुछ न किया हो। शायद उसने खुलकर परमेश्वर का प्रतिरोध न किया हो। लेकिन ऐसे व्यक्ति का हृदय परमेश्वर से छिपा रहता है; परमेश्वर के प्रति उसकी प्रवृत्ति और दृष्टिकोण कभी स्पष्ट नहीं रहा है, परमेश्वर स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता कि उसका हृदय परमेश्वर को दिया गया है या नहीं या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने का प्रयास कर रहा है या नहीं? ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर का धैर्य जवाब देने लगता है, और अब वह उनके लिए कोई कीमत नहीं चुकायेगा, वह उन पर दया नहीं करेगा, या उन पर कार्य नहीं करेगा। ऐसे व्यक्ति के परमेश्वर में विश्वास का जीवन पहले ही समाप्त हो चुका होता है। क्योंकि उन सभी परीक्षणों में जो परमेश्वर ने इस व्यक्ति को दिए हैं, परमेश्वर ने वह परिणाम प्राप्त नहीं किया जो वह चाहता है। इस प्रकार, ऐसे बहुत से लोग हैं जिनमें मैंने कभी भी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी नहीं देखी। इसे देखना कैसे संभव है? शायद इस प्रकार के व्यक्तियों ने बहुत वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया हो, और सतही तौर पर वे बहुत सक्रिय रहे हों, उनका व्यवहार काफी जोशीला रहा हो; उन्होंने बहुत-सी पुस्तकें पढ़ी हों, बहुत से मामलों को सँभाला हो, दर्जनों नोटबुक भर दी हों, और बहुत से वचनों और सिद्धान्तों पर महारत हासिल कर ली हो। लेकिन, उनमें कभी कोई स्पष्ट प्रगति नहीं हुई, परमेश्वर के प्रति उनका दृष्टिकोण अदृश्य रहता है, और उनकी प्रवृत्ति अभी भी अस्पष्ट है। यानी ऐसे व्यक्तियों के हृदय को नहीं देखा जा सकता; वे हमेशा ढके हुए और सीलबंद लिफाफे की तरह रहते हैं—वे परमेश्वर के प्रति सीलबंद रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि परमेश्वर ने उनके सच्चे हृदय को कभी देखा ही नहीं होता, उसने अपने प्रति ऐसे लोगों में सच्चा भय कभी देखा ही नहीं, और तो और उसने कभी नहीं देखा कि ऐसे लोग परमेश्वर के मार्ग पर कैसे चलते हैं। यदि अब तक भी परमेश्वर ने ऐसे व्यक्ति को प्राप्त नहीं किया है, तो क्या वह उन्हें भविष्य में प्राप्त कर सकता है? नहीं! क्या परमेश्वर उन चीजों के लिए प्रयास करता रहेगा जिन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता? नहीं! तब ऐसे लोगों के प्रति आज परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है? (वह उन्हें ठुकरा देता है, उन पर ध्यान नहीं देता।) वह उन्हें अनदेखा कर देता है! परमेश्वर ऐसे लोगों पर ध्यान नहीं देता; वह उन्हें ठुकरा देता है। तुम लोगों ने इन बातों को बहुत शीघ्रता से, बहुत सटीकता से याद कर लिया है। ऐसा लगता है कि जो कुछ तुम लोगों ने सुना है वह सब तुम्हारी समझ में आ गया!
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो परमेश्वर के अनुसरण के आरंभ में, अपरिपक्व और अज्ञानी होते हैं; वे उसके इरादों को नहीं समझते; न ही वे यह समझते हैं कि उसमें विश्वास करने का क्या अर्थ है। वे परमेश्वर में विश्वास करने, उसका अनुसरण करने के मानव-निर्मित और गलत मार्ग को अपना लेते हैं। जब इस प्रकार के व्यक्ति का सामना किसी परीक्षण से होता है, तो उन्हें इसका पता ही नहीं होता; वे परमेश्वर के मार्गदर्शन और प्रबुद्धता के प्रति सुन्न होते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर को अपना हृदय देना क्या होता है, या किसी परीक्षण के दौरान दृढ़ता से खड़ा रहना क्या होता है। परमेश्वर ऐसे लोगों को सीमित समय देगा, और इस दौरान, वह उन्हें समझने देगा कि उसके परीक्षण और इरादे क्या हैं। बाद में, इन लोगों को अपना दृष्टिकोण प्रदर्शित करना होता है। जो लोग इस चरण में हैं, उनकी परमेश्वर अभी भी प्रतीक्षा कर रहा है। जहाँ तक उनकी बात है जिनके कुछ दृष्टिकोण तो हैं फिर भी डगमगाते रहते हैं, जो अपना हृदय परमेश्वर को देना तो चाहते हैं किन्तु ऐसा करने के लिए सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाए हैं, जो कुछ मूल सत्यों को अभ्यास में लाने के बावजूद, किसी बड़े परीक्षण से सामना होने पर, छुपना और हार मान लेना चाहते हैं—उन लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है? परमेश्वर अभी भी ऐसे लोगों से थोड़ी-बहुत अपेक्षा रखता है। परिणाम उनके दृष्टिकोण एवं प्रदर्शन पर निर्भर करता है। यदि लोग प्रगति करने के लिए सक्रिय नहीं होते तो परमेश्वर क्या करता है? वह उनसे आशा रखना छोड़ देता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के तुमसे आशा छोड़ने से पहले ही तुमने स्वयं से आशा छोड़ दी है। इस प्रकार, ऐसा करने के लिए तुम परमेश्वर को दोष नहीं दे सकते। तुम्हारा परमेश्वर के खिलाफ शिकायत करना गलत है।
व्यावहारिक प्रश्न लोगों में तरह-तरह की उलझनें पैदा करता है
एक अन्य प्रकार का व्यक्ति होता है जिसका परिणाम सबसे अधिक दुःखद होता है; यह ऐसा व्यक्ति होता है जिसकी चर्चा मैं कम से कम करना चाहता हूँ। दुःखद होने का कारण यह नहीं है कि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर से दण्ड प्राप्त करता है या उससे परमेश्वर की अपेक्षाएँ कठोर होती हैं इसलिए उसका परिणाम दुःखद होता है; बल्कि, दुःखद होने कारण यह है कि वह खुद ही अपने लिए ऐसा करता है। जैसी कि आम कहावत है, ऐसे लोग अपनी कब्र खुद खोदते हैं। ये किस प्रकार के व्यक्ति होते हैं? ऐसे लोग सही पथ पर नहीं चलते, और उनका परिणाम पहले से ही उजागर कर दिया जाता है। परमेश्वर की नज़र में ऐसे लोग बेहद घृणा के पात्र होते हैं। इंसानी नज़रिये से ऐसे लोग बहुत ही दयनीय होते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति जब परमेश्वर का अनुसरण करने लगते हैं तो वे बेहद उत्साहित रहते हैं; वे बहुत कीमत चुकाते हैं, परमेश्वर के कार्य की संभावनाओं पर उनकी राय काफी अच्छी होती है; और जब बात उनके भविष्य की हो, तो वे भरपूर कल्पनाएँ करते हैं। उनमें परमेश्वर को लेकर बहुत आत्मविश्वास होता है, उन्हें यह विश्वास होता है कि परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण करके एक गौरवमय मंज़िल प्रदान कर सकता है। फिर भी कारण कोई भी हो, ऐसे व्यक्ति परमेश्वर के कार्य के दौरान पलायन कर जाते हैं। यहाँ “पलायन कर जाते हैं” से क्या अभिप्राय है? इसका अर्थ है कि वे बिना अलविदा कहे, बिना आवाज़ किए गायब हो जाते हैं; वे बिना कुछ कहे चले जाते हैं। यद्यपि इस प्रकार के व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास करने का दावा करते हैं, फिर भी वे परमेश्वर पर विश्वास करने के पथ पर दृढ़ नहीं होते। इस प्रकार, चाहे उन्होंने कितने ही समय तक विश्वास किया हो, वे कभी भी परमेश्वर से दूर जा सकते हैं। कुछ लोग कारोबार की खातिर चले जाते हैं, कुछ अपने ढंग से जीवन जीने के लिए छोड़कर चले जाते हैं, कुछ लोग धनवान बनने के लिए छोड़कर चले जाते हैं, कुछ लोग विवाह करके संतान प्राप्ति के लिए चले जाते हैं...। जो लोग चले जाते हैं उनमें से, कुछ ऐसे होते हैं जिनका विवेक बाद में उन्हें कचोटता है और वे वापस आना चाहते हैं, और कुछ ऐसे होते हैं जो मुश्किल हालात में जीवन गुज़ारते हैं, और साल दर साल भटकते रहते हैं। ये भटकने वाले लोग बहुत से कष्ट उठाते हैं, उन्हें लगता है कि संसार में रहना बहुत कष्टदायी है, और वे परमेश्वर से अलग नहीं रह सकते। वे लोग आराम, शांति एवं आनंद पाने के लिए परमेश्वर के घर में लौटना चाहते हैं, आपदाओं से बचने, या उद्धार और एक खूबसूरत मंज़िल पाने के लिए परमेश्वर में लगातार विश्वास बनाए रखना चाहते हैं। क्योंकि ये लोग मानते हैं कि परमेश्वर का प्रेम असीम है, उसका अनुग्रह अक्षय है। उन्हें लगता है कि किसी व्यक्ति ने कुछ भी क्यों न किया हो, परमेश्वर को उन्हें क्षमा कर देना चाहिए और उनके अतीत के बारे में सहनशील होना चाहिए। ये लोग बारंबार यही कहते हैं कि वे वापस आकर अपने कर्तव्य करना चाहते हैं। कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो अपनी संपत्ति का कुछ भाग कलीसिया को दे देते हैं, और आशा करते हैं कि इससे परमेश्वर के घर उनकी वापसी आसान हो जाएगी। ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है? परमेश्वर को उनका परिणाम कैसे निर्धारित करना चाहिए? खुलकर बोलो। (मुझे लगता था कि परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति को स्वीकार करेगा, पर अब सुनकर लगता है कि वह उन्हें स्वीकार नहीं करेगा।) और तुम्हारा तर्क क्या है? (ऐसे लोग परमेश्वर के समक्ष इसलिए आते हैं ताकि उनका परिणाम मृत्यु न हो। वे ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखने नहीं आते; वे इसलिए आते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि परमेश्वर का कार्य शीघ्र पूरा हो जाएगा, तो वे इस भ्रम में रहते हैं कि वे आकर आशीष पा सकते हैं।) तुम कह रहे हो कि ऐसे व्यक्ति ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, अतः परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं कर सकता, है न? (हाँ।) (मेरी समझ से इस प्रकार के व्यक्ति अवसरवादी होते हैं, और वे ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास नहीं करते।) वे परमेश्वर में विश्वास करने नहीं आए हैं; वे अवसरवादी हैं। सही कहा! ऐसे अवसरवादी लोगों से हर कोई नफ़रत करता है। जिस दिशा में हवा बहती है वे उसी दिशा में बह जाते हैं, और तब तक किसी कार्य को करने की परवाह नहीं करते जब तक कि उन्हें उससे कुछ प्राप्त नहीं होता। निश्चित रूप से वे घृणित हैं! किसी और भाई-बहन की कोई और राय है? (परमेश्वर उन्हें अब और स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि परमेश्वर का कार्य समाप्त होने को है और इस समय लोगों के परिणाम तय किए जा रहे हैं। ऐसे समय में ये लोग वापस आना चाहते हैं—इसलिए नहीं कि वे वास्तव में सत्य की खोज करना चाहते हैं, बल्कि वे इसलिए वापस आना चाहते हैं क्योंकि वे आपदाएँ आते हुए देखते हैं, या वे बाहरी चीज़ों से प्रभावित हो रहे हैं। यदि उनमें वास्तव में ऐसा हृदय होता जिसमें सत्य खोजने की इच्छा होती, तो वे परमेश्वर के कार्य को बीच में ही छोड़कर न भागे होते।) क्या कोई अन्य राय है? (उन्हें स्वीकार नहीं किया जाएगा। दरअसल परमेश्वर ने उन्हें पहले ही अवसर दिया था लेकिन उन्होंने परमेश्वर के प्रति लापरवाही का रवैया बनाए रखा। ऐसे व्यक्तियों के इरादे चाहे कुछ भी न हों, भले ही वे पश्चाताप कर लें, परमेश्वर उन्हें तब भी स्वीकार नहीं करेगा। क्योंकि परमेश्वर ने उन्हें बहुत सारे अवसर दिए थे, लेकिन उन्होंने अपनी प्रवृत्ति का प्रदर्शन कर दिया है : वे परमेश्वर को छोड़ देना चाहते थे। इसलिए, अब अगर वापस आएँगे, तो परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं करेगा।) (मैं भी यह स्वीकार करता हूँ कि परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति को स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि यदि किसी व्यक्ति ने सच्चे मार्ग को देख लिया है, इतनी लम्बी समयावधि तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर लिया है, और तब भी संसार में वापस लौट जाता है, और शैतान को अंगीकार कर लेता है, तो यह परमेश्वर के साथ एक बड़ा विश्वासघात है। इस तथ्य के बावजूद कि परमेश्वर का सार करुणा है, प्रेम है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इस सार का लक्ष्य कैसा व्यक्ति है। यदि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के समक्ष आराम की खोज में या किसी ऐसी चीज़ की खोज में आता है जिससे वो उम्मीद लगा सके, तो परमेश्वर में ऐसे व्यक्ति का विश्वास सच्चा नहीं है, और उस पर परमेश्वर की दया वहीं तक सीमित रहती है।) अगर परमेश्वर का सार करुणा है, तो वह ऐसे व्यक्ति को थोड़ी और करुणा क्यों नहीं दे देता? थोड़ी और करुणा से, क्या उसे एक अवसर नहीं मिल जाएगा? पहले, प्रायः ऐसा कहा जाता था कि परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले। यदि सौ में से एक भेड़ खो जाए, तो परमेश्वर निन्यानवे भेड़ों को छोड़ देगा और उस खोई हुई एक को खोजेगा। अब, जहाँ तक ऐसे व्यक्ति का सवाल है, यदि उसका विश्वास सच्चा है, तो क्या परमेश्वर को उसे स्वीकार करना और एक और अवसर देना चाहिए? यह कोई कठिन प्रश्न नहीं है; यह बिलकुल सरल है! यदि तुम लोग सच में परमेश्वर को समझते हो और तुम्हें परमेश्वर की वास्तविक समझ है, तो अधिक व्याख्या की आवश्यकता नहीं है; और अधिक अनुमान लगाने की भी आवश्यकता नहीं है, ठीक है न? तुम लोगों के उत्तर सही दिशा में हैं, लेकिन वे अभी भी परमेश्वर की प्रवृत्ति के अनुरूप नहीं हैं।
अभी तुममें से कुछ लोगों ने कहा कि परमेश्वर ऐसे लोगों को स्वीकार नहीं कर सकता। अन्य लोग अधिक स्पष्ट नहीं हैं, उन्हें लगता है कि हो सकता है परमेश्वर उन्हें स्वीकार कर ले, और यह भी हो सकता है कि उन्हें स्वीकार न करे—यह थोड़ा बीच का रवैया है। तुममें से कुछ लोग आशा करते हैं कि परमेश्वर इस प्रकार के लोगों को स्वीकार कर ले—यह और भी ज़्यादा अस्पष्ट प्रवृत्ति है। निश्चित सोच वाले लोग विश्वास करते हैं कि परमेश्वर ने इतने समय तक कार्य किया है और उसका कार्य पूरा हो चुका है, अतः परमेश्वर को इन लोगों के प्रति सहिष्णु होने की आवश्यकता नहीं है; इसलिए तुम्हें लगता है कि वह उन्हें दोबारा स्वीकार नहीं करेगा। जो लोग बीच की सोच रखते हैं, मानते हैं कि इन मामलों को उनकी व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुसार सँभाला जाना चाहिए; यदि ऐसे लोगों के हदय परमेश्वर से अविभाज्य हैं, और वे अभी भी ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में सचमुच विश्वास करते हैं, और सत्य की खोज करते हैं, तो परमेश्वर को उनकी पिछली दुर्बलताओं और दोषों को याद नहीं रखना चाहिए; उसे उन्हें क्षमा करके एक और अवसर देना चाहिए, परमेश्वर के घर में वापस आने देना चाहिए, और परमेश्वर से उद्धार ग्रहण करने देना चाहिए। लेकिन अगर ऐसा व्यक्ति फिर से भाग जाता है, तब परमेश्वर को उसकी आवश्यकता नहीं होगी और इसे उसके प्रति अन्याय करना नहीं माना जा सकता। एक और समूह है जो उम्मीद करता है कि परमेश्वर ऐसे व्यक्तियों को स्वीकार कर सके। यह समूह स्पष्ट रूप से नहीं जानता कि परमेश्वर उन्हें स्वीकार करेगा या नहीं। यदि उन्हें लगता है कि परमेश्वर को उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए, किन्तु परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं करता है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि वे परमेश्वर के दृष्टिकोण की अनुरूपता से थोड़ा अलग हैं। यदि उन्हें लगता है कि परमेश्वर को उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए, और परमेश्वर कहता है कि मनुष्य के प्रति उसका प्रेम असीम है और वह ऐसे व्यक्ति को एक और अवसर देने का इच्छुक है, तो क्या यह मानवीय अज्ञानता को उजागर करने का उदाहरण नहीं है? खैर, तुम लोगों का अपना दृष्टिकोण है। तुम्हारी इस तरह की राय से तुम्हारी सोच में जिस तरह का ज्ञान है, उसका पता चलता है; साथ ही वे तुम लोगों की सत्य और परमेश्वर के इरादों की समझ की गहराई का भी प्रतिबिम्ब है। सही कहा न? अच्छा है कि इस मसले पर तुम लोगों की कोई राय है। परन्तु तुम लोगों की राय सही है या नहीं, यह प्रश्न अभी भी बना हुआ है। तुम सब लोग थोड़ा चिंतित हो न? “तो सही क्या है? मैं स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहा और सच में नहीं जानता कि परमेश्वर क्या सोच रहा है? परमेश्वर ने मुझे कुछ नहीं बताया है। मैं कैसे जान सकता हूँ कि परमेश्वर क्या सोच रहा है? मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति प्रेम है। अतीत में परमेश्वर की प्रवृत्ति के अनुसार, उसे इस व्यक्ति को स्वीकार करना चाहिए। किन्तु मैं परमेश्वर की वर्तमान प्रवृत्ति को लेकर अधिक स्पष्ट नहीं हूँ; मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि हो सकता है कि वह ऐसे व्यक्ति को स्वीकार कर ले, और यह भी हो सकता है कि न करे।” यह हास्यास्पद है, है ना? इस सवाल ने तुम लोगों को वास्तव में उलझा दिया है। यदि इस मसले पर तुम लोगों के पास एक उचित नज़रिया नहीं है, तब तुम लोग क्या करोगे जब सचमुच कलीसिया का सामना किसी ऐसे व्यक्ति से होगा? यदि तुम इसे सही ढंग से संभाल नहीं पाए, तो हो सकता है कि तुम लोग परमेश्वर का अपमान कर बैठो। क्या यह एक ख़तरनाक मामला नहीं है?
मैंने अभी जिस मामले पर चर्चा की है, मैं उस पर तुम लोगों का दृष्टिकोण क्यों जानना चाहता था? मैं तुम्हारी राय जाँचना चाहता था, जाँचना चाहता था कि तुम लोगों को परमेश्वर का कितना ज्ञान है, परमेश्वर के इरादों और प्रवृत्ति का कितना ज्ञान है। उत्तर क्या है? उत्तर खुद तुम्हारी राय में निहित है। तुममें से कुछ बहुत रूढ़िवादी हैं, और कुछ लोग अन्दाज़ा लगाने की कोशिश कर रहे हैं। “अन्दाज़ा लगाना” क्या है? इसका मतलब है तुम्हें पता नहीं कि परमेश्वर कैसे सोचता है, अतः तुम लोग निराधार विचार रख रहे हो कि परमेश्वर को इस तरह सोचना चाहिए; दरअसल तुम्हें नहीं पता कि तुम्हारा अनुमान सही है या गलत, अतः तुम अस्पष्ट दृष्टिकोण व्यक्त करते हो। इस तथ्य से सामना होने पर तुमने क्या देखा? परमेश्वर का अनुसरण करते समय, लोग शायद ही कभी परमेश्वर के इरादों पर ध्यान देते हैं और कभी-कभार ही उसके विचारों और मनुष्य के प्रति उसके रवैये पर गौर करते हैं। लोग परमेश्वर के विचारों को नहीं समझते, अतः जब परमेश्वर के इरादों और स्वभाव पर प्रश्न पूछे जाते हैं, तो तुम लोग हड़बड़ा जाते हो; फिर गहरी अनिश्चितता की स्थिति में पड़ जाते हो और फिर या तो अनुमान लगाते हो या दाँव खेलते हो। यह किस तरह की मानसिकता है? इससे एक तथ्य तो साबित होता है कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकांश लोग उसे हवाबाज़ी समझते हैं और ऐसी चीज़ समझते हैं जिसका एक पल अस्तित्व है और अगले ही पल नहीं है। मैंने ऐसा क्यों कहा? क्योंकि जब भी तुम लोगों के सामने समस्या आती है, तो तुम लोग परमेश्वर के इरादों को नहीं जानते। क्यों नहीं जानते? बस अभी नहीं, बल्कि तुम तो आरंभ से लेकर अंत तक नहीं जानते कि इस समस्या को लेकर परमेश्वर का रवैया क्या है। न तुम इसकी थाह ले सकते हो, न ही यह जानते कि परमेश्वर का रवैया क्या है, लेकिन क्या तुमने उस पर विचार किया है? क्या तुमने जानने की कोशिश की है? क्या तुमने उस पर संगति की है? नहीं! इससे एक तथ्य की पुष्टि होती है : तुम्हारे विश्वास के परमेश्वर का वास्तविकता के परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास में, तुम केवल अपने और अपने अगुआओं के इरादों पर विचार करते हो; और परमेश्वर के वचन के केवल शाब्दिक एवं सैद्धांतिक अर्थ पर विचार करते हो, मगर सच में परमेश्वर के इरादों को जानने और खोजने की कोशिश नहीं करते। क्या ऐसा ही नहीं होता है? इस मामले का सार बहुत डरावना है! मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों को देखा है। उनके विश्वास ने परमेश्वर को उनके मन में क्या आकार दिया है? कुछ लोग तो परमेश्वर में ऐसे विश्वास करते हैं मानो वह मात्र हवाबाज़ी हो। इन लोगों के पास परमेश्वर के अस्तित्व के प्रश्नों के बारे में कोई उत्तर नहीं होता क्योंकि वे परमेश्वर की उपस्थिति या अनुपस्थिति को महसूस नहीं कर पाते, न ही उसका बोध कर पाते हैं, इसे साफ-साफ देखने या समझने की तो बात ही छोड़ दो। अवचेतन रूप से, ये लोग सोचते हैं कि परमेश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। कुछ लोग परमेश्वर को मनुष्य समझते हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर उन सभी कार्यों को करने में असमर्थ है जिन्हें करने में वे भी असमर्थ हैं, और परमेश्वर को वैसा ही सोचना चाहिए जैसा वे सोचते हैं। उनकी परमेश्वर की परिभाषा एक “अदृश्य और अस्पर्शनीय व्यक्ति” की है। कुछ लोग परमेश्वर को कठपुतली समझते हैं; उन्हें लगता है कि परमेश्वर के अंदर कोई भावनाएँ नहीं होतीं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर मिट्टी की एक मूर्ति है, और जब कोई समस्या आती है, तो परमेश्वर के पास कोई प्रवृत्ति, कोई दृष्टिकोण, कोई विचार नहीं होता; वे मानते हैं कि वह मानवजाति की दया पर है। जो दिल चाहे लोग उस पर विश्वास कर लेते हैं। यदि वे उसे महान बनाते हैं, तो वह महान हो जाता है; वे उसे छोटा बनाते हैं, तो वह छोटा हो जाता है। जब लोग पाप करते हैं और उन्हें परमेश्वर की दया, सहिष्णुता और प्रेम की आवश्यकता होती है, वे मानते हैं कि परमेश्वर को अपनी दया प्रदान करनी चहिए। ये लोग अपने मन में एक “परमेश्वर” को गढ़ लेते हैं, और फिर उस “परमेश्वर” से अपनी माँगें पूरी करवाते हैं और अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करवाते हैं। ऐसे लोग कभी भी, कहीं भी, कुछ भी करें, वे परमेश्वर के प्रति अपने व्यवहार में, और परमेश्वर में अपने विश्वास में इसी कल्पना का इस्तेमाल करते हैं। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी होते हैं, जो परमेश्वर के स्वभाव को भड़काकर भी सोचते हैं कि परमेश्वर उन्हें बचा सकता है, क्योंकि वे मानते हैं कि परमेश्वर का प्रेम असीम है, उसका स्वभाव धार्मिक है, चाहे कोई परमेश्वर का कितना भी अपमान करे, परमेश्वर कुछ याद नहीं रखेगा। उन्हें लगता है चूँकि मानवीय दोष, मानवीय अपराध और मानवीय विद्रोह इंसान के स्वभाव की क्षणिक अभिव्यक्तियाँ हैं, इसलिए परमेश्वर लोगों को अवसर देगा, और उनके साथ सहिष्णु एवं धैर्यवान रहेगा; परमेश्वर तब भी उनसे पहले की तरह प्रेम करेगा। अतः वे अपने उद्धार की आशा बनाए रखते हैं। वास्तव में, चाहे कोई व्यक्ति परमेश्वर पर कैसे भी विश्वास करे, अगर वह सत्य की खोज नहीं करता, तो परमेश्वर उसके प्रति नकारात्मक प्रवृत्ति रखेगा। क्योंकि जब तुम परमेश्वर पर विश्वास कर रहे होते हो उस समय, भले ही तुम परमेश्वर के वचन की पुस्तक को संजोकर रखते हो, तुम प्रतिदिन उसका अध्ययन करते हो, उसे पढ़ते हो, तुम वास्तविक परमेश्वर को दरकिनार कर देते हो। तुम उसे निरर्थक मानते हो, या मात्र एक व्यक्ति मानते हो, और तुममें से कुछ तो उसे केवल एक कठपुतली ही समझते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जिस प्रकार से मैं इसे देखता हूँ, उसमें चाहे तुम लोगों का सामना किसी मसले से हो या किसी परिस्थिति से, वे बातें जो तुम्हारे अवचेतन मन में मौजूद होती हैं, जिन बातों को तुम भीतर ही भीतर विकसित करते हो, उनमें से किसी का भी संबंध परमेश्वर के वचन से या सत्य की खोज करने से नहीं होता। तुम केवल वही जानते हो जो तुम स्वयं सोच रहे होते हो, जो तुम्हारा अपना दृष्टिकोण होता है, और फिर तुम अपने विचारों, और दृष्टिकोण को ज़बरदस्ती परमेश्वर पर थोप देते हो। तुम्हारे मन में वह परमेश्वर का दृष्टिकोण बन जाता है, और तुम इस दृष्टिकोण को मानक बना लेते हो जिसे तुम दृढ़ता से कायम रखते हो। समय के साथ, इस प्रकार का चिंतन तुम्हें परमेश्वर से निरंतर दूर करता चला जाता है।
परमेश्वर की प्रवृत्ति को समझो और परमेश्वर के बारे में सभी गलत धारणाओं को छोड़ दो
आज जिस परमेश्वर पर तुम लोग विश्वास करते हो, वह किस तरह का परमेश्वर है? क्या तुम लोगों ने कभी इस बारे में सोचा है कि यह किस प्रकार का परमेश्वर है? जब वह किसी दुष्ट व्यक्ति को दुष्ट कार्य करते हुए देखता है, तो क्या वह उससे घृणा करता है? (हाँ, घृणा करता है।) जब वह अज्ञानी लोगों को गलतियाँ करते देखता है, तो उसकी प्रवृत्ति क्या होती है? (दुःख।) जब वह लोगों को अपनी भेंटें चुराते हुए देखता है, तो उसकी प्रवृत्ति क्या होती है? (वह उनसे घृणा करता है।) यह सब बिलकुल साफ है। जब परमेश्वर किसी व्यक्ति को अपने प्रति विश्वास में भ्रमित होते हुए, और किसी भी तरह से सत्य की खोज न करते हुए देखता है, तो परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है? तुम लोग इस पर पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो, है न? प्रवृत्ति के तौर पर “भ्रमित होना” कोई पाप नहीं है, न ही यह परमेश्वर का अपमान करता है। लोगों को लगता है कि यह कोई बड़ी भूल नहीं है। तो बताओ, इस मामले में, परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है? (वह उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।) “स्वीकार करने के लिए तैयार न होना”—यह कैसी प्रवृत्ति है? इसका तात्पर्य यह है कि परमेश्वर उन लोगों को तुच्छ मानकर उनका तिरस्कार करता है! परमेश्वर ऐसे लोगों से निपटने के लिए उनके प्रति उदासीन हो जाता है। उसका तरीका है उन्हें दरकिनार करना, उन पर कोई कार्य न करना जिसमें प्रबुद्धता, रोशनी, ताड़ना या अनुशासन के कार्य शामिल हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के कार्य की गिनती में नहीं आते। ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है जो परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित करते हैं, और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करते हैं? भयंकर घृणा! परमेश्वर ऐसे लोगों से अत्यंत क्रोधित हो जाता है जो उसके स्वभाव को भड़काने को लेकर पश्चाताप नहीं करते! “अत्यंत क्रोधित होना” मात्र एक अनुभूति, एक मनोदशा है; यह एक स्पष्ट प्रवृत्ति के अनुरूप नहीं होती। परन्तु यह अनुभूति, यह मनोदशा, ऐसे लोगों के लिए परिणाम उत्पन्न करती है : यह परमेश्वर को भयंकर घृणा से भर देगी! इस भयंकर घृणा का परिणाम क्या होता है? इसका परिणाम यह होता है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को दरकिनार कर देता है और कुछ समय तक उन्हें कोई उत्तर नहीं देता। फिर वह “शरद ऋतु के बाद” उन्हें छाँटकर अलग करने की प्रतीक्षा करता है। इसका क्या तात्पर्य है? क्या ऐसे लोगों का तब भी कोई परिणाम होगा? परमेश्वर ने इस प्रकार के व्यक्ति को कभी भी कोई परिणाम देने का इरादा नहीं किया था! तो क्या यह एकदम सामान्य बात नहीं है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को कोई उत्तर नहीं देता? (हाँ, सामान्य बात है।) ऐसे लोगों को किस प्रकार तैयारी करनी चाहिए? उन्हें अपने व्यवहार एवं दुष्ट कृत्यों से पैदा हुए नकारात्मक परिणामों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। ऐसे लोगों के लिए यह परमेश्वर का उत्तर है। इसलिए अब मैं ऐसे लोगों से साफ-साफ कहता हूँ : अब भ्रांतियों को पकड़े न रहो, और ख्याली पुलाव पकाने में न लगे रहो। परमेश्वर अनिश्चित काल तक लोगों के प्रति सहिष्णु नहीं रहेगा; वह सदा-सदा उनके अपराध और उनका विद्रोह सहन नहीं करेगा। कुछ लोग कहेंगे, “मैंने भी इस प्रकार के कुछ लोगों को देखा है। जब वे प्रार्थना करते हैं तो उन्हें विशेष रूप से लगता है कि परमेश्वर उन्हें स्पर्श कर रहा है, और वे फूट-फूट कर रोते हैं। सामान्यतया वे भी बहुत खुश होते हैं; ऐसा प्रतीत होता है कि उनके पास परमेश्वर की उपस्थिति, और परमेश्वर का मार्गदर्शन है।” ऐसी बेतुकी बातें मत करो! फूट-फूटकर रोने का मतलब अनिवार्यतः यह नहीं कि इंसान को परमेश्वर स्पर्श कर रहा है या वह परमेश्वर कि उपस्थिति का आनंद ले रहा है, परमेश्वर के मार्गदर्शन की तो बात ही छोड़ दो। यदि लोग परमेश्वर को क्रोध दिलाते हैं, तो क्या परमेश्वर तब भी उनका मार्गदर्शन करेगा? संक्षेप में, जब परमेश्वर ने किसी व्यक्ति को बाहर निकालने, उसका परित्याग करने का निश्चय कर लिया है, तो उस व्यक्ति का परिणाम समाप्त हो जाता है। प्रार्थना करते समय किसी की भावनाएँ कितनी ही अनुकूल हों, उसके हृदय में परमेश्वर के प्रति कितना ही विश्वास हो; उसका कोई परिणाम नहीं होता। महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर को इस प्रकार के विश्वास की आवश्यकता नहीं है; परमेश्वर ने पहले ही ऐसे लोगों को ठुकरा दिया है। उनके साथ आगे कैसे निपटा जाए यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि जैसे ही ऐसा इंसान परमेश्वर को क्रोधित करता है, उसका परिणाम निर्धारित हो जाता है। यदि परमेश्वर ने तय कर लिया कि ऐसे इंसान को नहीं बचाना, तो उसे दण्डित होने के लिए छोड़ दिया जाएगा। यह परमेश्वर की प्रवृत्ति है।
यद्यपि परमेश्वर के सार का एक हिस्सा प्रेम है, और वह हर एक के प्रति दयावान है, फिर भी लोग उस बात की अनदेखी कर भूल जाते हैं कि उसका सार महिमा भी है। उसके प्रेममय होने का अर्थ यह नहीं है कि लोग खुलकर उसका अपमान कर सकते हैं, ऐसा नहीं है कि उसकी भावनाएँ नहीं भड़केंगी या कोई प्रतिक्रियाएँ नहीं होंगी। उसमें करुणा होने का अर्थ यह नहीं है कि लोगों से व्यवहार करने का उसका कोई सिद्धांत नहीं है। परमेश्वर सजीव है; सचमुच उसका अस्तित्व है। वह न तो कोई कठपुतली है, न ही कोई वस्तु है। चूँकि उसका अस्तित्व है, इसलिए हमें हर समय सावधानीपूर्वक उसके हृदय की आवाज सुननी चाहिए, उसकी प्रवृत्ति पर ध्यान देना चाहिए, और उसकी भावनाओं को समझना चाहिए। परमेश्वर को परिभाषित करने के लिए हमें अपनी कल्पनाओं का उपयोग नहीं करना चाहिए, न ही हमें अपने विचार और इच्छाएँ परमेश्वर पर थोपनी चाहिए, जिससे कि परमेश्वर इंसान के साथ इंसानी कल्पनाओं के आधार पर मानवीय व्यवहार करे। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम परमेश्वर को क्रोधित कर रहे हो, तुम उसके कोप को बुलावा देते हो, उसकी महिमा को चुनौती देते हो! एक बार जब तुम लोग इस मसले की गंभीरता को समझ लोगे, मैं तुम लोगों से आग्रह करूँगा कि तुम अपने कार्यकलापों में सावधानी और विवेक का उपयोग करो। अपनी बातचीत में सावधान और विवेकशील रहो। साथ ही, तुम लोग परमेश्वर के प्रति व्यवहार में जितना अधिक सावधान और विवेकशील रहोगे, उतना ही बेहतर होगा! अगर तुम्हें परमेश्वर की प्रवृत्ति समझ में न आ रही हो, तो लापरवाही से बात मत करो, अपने कार्यकलापों में लापरवाह मत बनो, और यूँ ही कोई लेबल न लगा दो। और सबसे महत्वपूर्ण बात, मनमाने ढंग से निष्कर्षों पर मत पहुँचो। बल्कि, तुम्हें प्रतीक्षा और खोज करनी चाहिए; ये कृत्य भी परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अभिव्यक्ति है। सबसे बड़ी बात, यदि तुम ऐसा कर सको, और ऐसी प्रवृत्ति अपना सको, तो परमेश्वर तुम्हारी मूर्खता, अज्ञानता, और चीज़ों के पीछे तर्कों की समझ की कमी के लिए तुम्हें दोष नहीं देगा। बल्कि, परमेश्वर को अपमानित करने के प्रति तुम्हारे भय मानने वाले रवैये, उसके इरादों के प्रति तुम्हारे सम्मान और उसके प्रति समर्पण करने की तुम्हारी तत्परता के कारण परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और तुम्हें प्रबुद्धता देगा, या तुम्हारी अपरिपक्वता और अज्ञानता को सहन करेगा। इसके विपरीत, यदि उसके प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति श्रद्धाविहीन होती है—तुम मनमाने ढंग से परमेश्वर की आलोचना करते हो, मनमाने ढंग से परमेश्वर के विचारों का अनुमान लगाकर उन्हें परिभाषित करते हो—तो परमेश्वर तुम्हें अपराधी ठहराएगा, अनुशासित करेगा, बल्कि दण्ड भी देगा; या वह तुम पर टिप्पणी करेगा। हो सकता है कि इस टिप्पणी में ही तुम्हारा परिणाम शामिल हो। इसलिए, मैं एक बार फिर से इस बात पर जोर देना चाहता हूँ : परमेश्वर से आने वाली हर चीज के प्रति तुम्हें सावधान और विवेकशील रहना चाहिए। लापरवाही से मत बोलो, और अपने कार्यकलापों में लापरवाह मत हो। कुछ भी कहने से पहले रुककर सोचो : क्या मेरा यह कृत्य परमेश्वर को क्रोधित करेगा? क्या ऐसा करके मेरे मन में परमेश्वर के प्रति भय है? यहाँ तक कि साधारण मामलों में भी, तुम्हें इन प्रश्नों को समझकर उन पर विचार करना चाहिए। यदि तुम हर चीज में, हर समय, इन सिद्धांतों के अनुसार सही मायने में अभ्यास करो, विशेष रूप से इस तरह की प्रवृत्ति तब अपना सको, जब कोई चीज तुम्हारी समझ में न आए, तो परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और तुम्हें अनुसरण योग्य मार्ग देगा। लोग चाहे जो दिखावा करें, लेकिन परमेश्वर सबकुछ स्पष्ट रूप में देख लेता है, और वह तुम्हारे दिखावे का सटीक और उपयुक्त मूल्यांकन प्रदान करेगा। जब तुम अंतिम परीक्षण का अनुभव कर लोगे, तो परमेश्वर तुम्हारे समस्त व्यवहार को लेकर उससे तुम्हारा परिणाम निर्धारित करेगा। यह परिणाम निस्सन्देह हर एक को आश्वस्त करेगा। मैं तुम्हें यह बताना चाहता हूँ कि तुम लोगों का हर कर्म, हर कार्यकलाप, हर विचार तुम्हारे भाग्य को निर्धारित करता है।
मनुष्य के परिणाम कौन निर्धारित करता है?
चर्चा करने के लिए एक और बेहद महत्वपूर्ण मामला है, और वह है परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति। यह प्रवृत्ति बेहद अहम है! इससे यह निर्धारित होगा कि तुम लोग विनाश की ओर जाओगे, या उस सुन्दर मंज़िल की ओर जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए तैयार किया है। राज्य के युग में, परमेश्वर पहले ही बीस से अधिक वर्षों तक कार्य कर चुका है, और इन बीस वर्षों के दौरान शायद तुम लोगों का हृदय तुम्हारे प्रदर्शन को लेकर थोड़ा बहुत अनिश्चित रहा है। लेकिन, परमेश्वर ने मन ही मन तुममें से हर एक व्यक्ति का एक वास्तविक और सच्चा अभिलेख बना लिया है। जबसे इंसान ने परमेश्वर का अनुसरण करना, उसके उपदेश सुनना, और धीरे-धीरे अधिक सत्य समझना शुरू किया है, तब से लेकर इंसान के अपने कर्तव्यों को निभाने तक, परमेश्वर के पास प्रत्येक व्यक्ति के हर एक कार्यकलाप का लेखा-जोखा है। अपने कर्तव्य निभाने हुए और परिस्थितियों, परीक्षणों का सामना करते समय लोगों के रवैये कैसे होते हैं? उनका प्रदर्शन कैसा रहता है? मन ही मन वे परमेश्वर के प्रति कैसा महसूस करते हैं? ... परमेश्वर के पास इन सभी चीज़ों का लेखा-जोखा रहता है; उसके पास सभी चीजों का लेखा-जोखा है। शायद तुम्हारे नज़रिए से, ये मामले भ्रमित करने वाले हों। लेकिन परमेश्वर के नज़रिए से, वे मामले एकदम स्पष्ट हैं, उसमें ज़रा-सी भी लापरवाही नहीं होती। इस मामले में हर एक व्यक्ति का परिणाम शामिल है, इसमें, उनके भाग्य और भविष्य की संभावनाएँ सम्मिलित हैं। इससे भी बढ़कर, इसी स्थान पर परमेश्वर अपने सभी श्रमसाध्य प्रयास लगाता है। इसलिए परमेश्वर कभी इसकी उपेक्षा नहीं करता, न ही वह कोई लापरवाही बर्दाश्त करता है। परमेश्वर शुरु से लेकर अंत तक मनुष्य के परमेश्वर का अनुसरण करने के सारे क्रम का हिसाब-किताब रख रहा है। इस समय के दौरान परमेश्वर के प्रति तुम्हारी जो प्रवृत्ति रही है, उसी ने तुम्हारी नियति तय की है। क्या यह सच नहीं है? क्या अब तुम्हें भरोसा है कि परमेश्वर धार्मिक है? क्या उसके कार्य उचित हैं? क्या तुम्हारे दिमाग में अभी भी परमेश्वर के बारे में दूसरी कल्पनाएँ हैं? (नहीं।) तो क्या तुम लोग कहोगे कि मनुष्य का परिणाम निर्धारित करना परमेश्वर का कार्य है, या स्वयं मनुष्य को निर्धारित करना चाहिए? (इसे परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए।) उसे कौन तय करता है? (परमेश्वर।) तुम निश्चित नहीं हो न? हांग कांग के भाई-बहनो, बोलो—इसे कौन निर्धारित करता है? (मनुष्य स्वयं निर्धारित करता है।) क्या मनुष्य स्वयं इसे निर्धारित करता है? तो क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि इसका परमेश्वर के साथ कोई लेना देना नहीं है? दक्षिण कोरिया के भाई-बहनो, बोलो (परमेश्वर लोगों के कार्यकलापों, कर्मों और उस मार्ग के आधार पर उनका परिणाम निर्धारित करता है जिस पर वे चलते हैं।) यह बिलकुल वस्तुनिष्ठ उत्तर है। मैं यहाँ तुम्हें एक तथ्य बता दूँ : परमेश्वर ने उद्धार के कार्य के दौरान, मनुष्य के लिए एक मानक निर्धारित किया है। वो मानक यह है कि मनुष्य परमेश्वर के वचन का पालन करे और परमेश्वर के मार्ग पर चले। लोगों का परिणाम इसी मानक की कसौटी पर कसा जाता है। यदि तुम परमेश्वर के इस मानक के अनुसार अभ्यास करते हो, तो तुम एक अच्छा परिणाम प्राप्त कर सकते हो; यदि नहीं करते, तो तुम अच्छा परिणाम नहीं प्राप्त कर सकते। अब तुम क्या कहोगे, यह परिणाम कौन निर्धारित करता है? इसे अकेला परमेश्वर निर्धारित नहीं करता, बल्कि परमेश्वर और मनुष्य मिलकर निर्धारित करते हैं। क्या यह सही है? (हाँ।) ऐसा क्यों है? क्योंकि परमेश्वर ही सक्रिय रूप से मनुष्य के उद्धार के कार्य में शामिल होकर मनुष्य के लिए एक खूबसूरत मंज़िल तैयार करना चाहता है; मनुष्य परमेश्वर के कार्य का लक्ष्य है, यही वो परिणाम, मंज़िल है जिसे परमेश्वर मनुष्य के लिए तैयार करता है। यदि उसके कार्य का कोई लक्ष्य न होता, तो परमेश्वर को यह कार्य करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती; यदि परमेश्वर यह कार्य न कर रहा होता, तो मनुष्य के पास उद्धार पाने का कोई अवसर ही न होता। मनुष्यों को बचाना है, और यद्यपि बचाया जाना इस प्रक्रिया का निष्क्रिय पक्ष है, फिर भी इस पक्ष की भूमिका निभाने वाले की प्रवृत्ति ही निर्धारित करती है कि मनुष्य को बचाने के अपने कार्य में परमेश्वर सफल होगा या नहीं। यदि परमेश्वर तुम्हें मार्गदर्शन न देता, तो तुम उसके मानक को न जान पाते, और न ही तुम्हारा कोई उद्देश्य होता। यदि इस मानक और उद्देश्य के होते हुए भी, तुम सहयोग न करो, इसे अभ्यास में न लाओ, कीमत न चुकाओ, तो तुम्हें यह परिणाम प्राप्त न होगा। इसीलिए, मैं कहता हूँ कि किसी के परिणाम को परमेश्वर से अलग नहीं किया जा सकता, और इसे उस व्यक्ति से भी अलग नहीं किया जा सकता। अब तुम लोग जान गए हो कि मनुष्य के परिणाम को कौन निर्धारित करता है।
लोग अनुभव के आधार पर परमेश्वर को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं
परमेश्वर को जानने के विषय पर वार्तालाप करते समय, क्या तुम लोगों ने एक बात पर ध्यान दिया है? क्या तुम लोगों ने ध्यान दिया है कि परमेश्वर की वर्तमान प्रवृत्ति में एक परिवर्तन हुआ है? क्या लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति अपरिवर्तनीय है? क्या परमेश्वर हमेशा इसी तरह से सहता रहेगा, अनिश्चित काल तक मनुष्य को अपना समस्त प्रेम और करुणा प्रदान करता रहेगा? इस मामले में परमेश्वर का सार भी शामिल है। चलो हम तथाकथित उड़ाऊ-पुत्र के प्रश्न की ओर लौटें जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। तुम लोगों ने उस प्रश्न का बहुत स्पष्ट उत्तर नहीं दिया था; दूसरे शब्दों में, तुम लोग अभी भी परमेश्वर के इरादों को अच्छी तरह से नहीं समझे हो। यह जानकर कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, लोग परमेश्वर को प्रेम के प्रतीक के रूप में परिभाषित करते हैं : उन्हें लगता है, चाहे लोग कुछ भी करें, कैसे भी पेश आएँ, चाहे परमेश्वर से कैसा ही व्यवहार करें, चाहे वे कितने ही विद्रोही क्यों न हो जाएँ, किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि परमेश्वर में प्रेम है, परमेश्वर का प्रेम असीमित और अथाह है। परमेश्वर में प्रेम है, इसलिए वह लोगों के साथ सहिष्णु हो सकता है; परमेश्वर में प्रेम है, इसलिए वह लोगों के प्रति करुणाशील हो सकता है, उनकी अपरिपक्वता के प्रति करुणाशील हो सकता है, उनकी अज्ञानता के प्रति करुणाशील हो सकता है, और उनके विद्रोहीपन के प्रति करुणाशील हो सकता है। क्या वास्तव में ऐसा ही है? कुछ लोग एक बार या कुछ बार परमेश्वर के धैर्य का अनुभव कर लेने पर, वे इन अनुभवों को परमेश्वर के बारे में अपनी समझ की एक पूँजी मानने लगते हैं, यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर उनके प्रति हमेशा धैर्यवान और दयालु रहेगा, और फिर जीवन भर परमेश्वर के धैर्य को एक ऐसे मानक के रूप में मानते हैं जिससे परमेश्वर उनके साथ बर्ताव करता है। ऐसे भी लोग हैं जो, एक बार परमेश्वर की सहिष्णुता का अनुभव कर लेने पर, हमेशा के लिए परमेश्वर को सहिष्णु के रूप में परिभाषित करते हैं, उनकी नजर में यह सहिष्णुता अनिश्चित है, बिना किसी शर्त के है, यहाँ तक कि पूरी तरह से असैद्धांतिक है। क्या ऐसा विश्वास सही है? जब भी परमेश्वर के सार या परमेश्वर के स्वभाव के मामलों पर चर्चा की जाती है, तो तुम लोग उलझन में दिखाई देते हो। तुम लोगों को इस तरह देखना मुझे बहुत चिंतित करता है। तुम लोगों ने परमेश्वर के सार के बारे में बहुत से सत्य सुने हैं; तुम लोगों ने परमेश्वर के स्वभाव से संबंधित बहुत-सी चर्चाएँ भी सुनी हैं। लेकिन, तुम लोगों के मन में ये मामले और इन पहलुओं की सच्चाई, सिद्धांत और लिखित वचनों पर आधारित मात्र स्मृतियाँ हैं। तुममें से कोई भी अपने दैनिक जीवन में, यह अनुभव करने या देखने में सक्षम नहीं है कि वास्तव में परमेश्वर का स्वभाव क्या है। इसलिए, तुम सभी लोग अपने-अपने विश्वास में गड़बड़ा गए हो, तुम आँखें मूँदकर इस हद तक विश्वास करते हो कि परमेश्वर के प्रति तुम लोगों की प्रवृत्ति श्रद्धाहीन हो जाती है, बल्कि तुम लोग उसे एक ओर धकेल भी देते हो। परमेश्वर के प्रति तुम्हारी इस प्रकार की प्रवृत्ति किस ओर ले जाती है? यह उस ओर ले जाती है जहाँ तुम हमेशा परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालते रहते हो। थोड़ा सा ज्ञान मिलते ही तुम एकदम संतुष्ट हो जाते हो, जैसे कि तुमने परमेश्वर को उसकी संपूर्णता में पा लिया हो। उसके बाद, तुम लोग निष्कर्ष निकालते हो कि परमेश्वर ऐसा ही है, और तुम उसे स्वतंत्र रूप से घूमने-फिरने नहीं देते। इसके अलावा, परमेश्वर जब कभी भी कुछ नया करता है, तो तुम स्वीकार नहीं करते कि वह परमेश्वर है। एक दिन, जब परमेश्वर कहेगा : “मैं मनुष्य से अब प्रेम नहीं करता; अब मैं मनुष्य पर दया नहीं करूँगा; अब मनुष्य के प्रति मेरे मन में सहिष्णुता या धैर्य नहीं है; मैं मनुष्य के प्रति अत्यंत घृणा एवं चिढ़ से भर गया हूँ”, तो लोगों के दिल में द्वंद्व पैदा हो जाएगा। कुछ लोग तो यहाँ तक कहेंगे, “अब तुम हमारे परमेश्वर नहीं हो, ऐसे परमेश्वर नहीं हो जिसका मैं अनुसरण करना चाहता हूँ। यदि तुम ऐसा कहते हो, तो अब तुम मेरे परमेश्वर होने के योग्य नहीं हो, और मुझे तुम्हारा अनुसरण करते रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम मुझे करुणा, प्रेम सहिष्णुता नहीं दोगे तो मैं तुम्हारा अनुसरण नहीं करूँगा। यदि तुम अनिश्चित काल तक मेरे प्रति सहिष्णु बने रहते हो, धैर्यवान बने रहते हो, और मुझे देखने देते हो कि तुम प्रेम हो, धैर्य हो, सहिष्णुता हो, तभी मैं तुम्हारा अनुसरण कर सकता हूँ, और तभी मेरे अंदर अंत तक तुम्हारा अनुसरण करने का आत्मविश्वास आ सकता है। चूँकि मेरे पास तुम्हारा धैर्य और करुणा है, तो मेरे विद्रोह और अपराधों को अनिश्चित काल तक क्षमा किया जा सकता है, अनिश्चित काल तक माफ किया जा सकता है, मैं किसी भी समय और कहीं पर भी पाप कर सकता हूँ, किसी भी समय और कहीं पर भी पाप स्वीकार कर माफी पा सकता हूँ, और किसी भी समय और कहीं पर भी मैं तुम्हें क्रोधित कर सकता हूँ। तुम मेरे बारे में कोई राय नहीं रख सकते और निष्कर्ष नहीं निकाल सकते।” यद्यपि तुममें से कोई भी ऐसे मसलों पर आत्मनिष्ठ या सचेतन रूप से न सोचे, फिर भी जब कभी परमेश्वर को तुम अपने पापों को क्षमा करने का कोई यंत्र या एक खूबसूरत मंजिल पाने के लिए उपयोग की जाने वाली कोई वस्तु समझते हो, तो तुमने धीरे से जीवित परमेश्वर को अपने विरोधी, अपने शत्रु के स्थान पर रख लिया है। मैं तो यही देखता हूँ। भले ही तुम ऐसी बातें कहते रहो, “मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ”; “मैं सत्य की खोज करता हूँ”; “मैं अपने स्वभाव को बदलना चाहता हूँ”; “मैं अंधकार के प्रभाव से आज़ाद होना चाहता हूँ”; “मैं परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता हूँ”; “मैं परमेश्वर को समर्पित होना चाहता हूँ”; “मैं परमेश्वर के प्रति वफ़ादार होना चाहता हूँ, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहता हूँ”; इत्यादि। लेकिन, तुम्हारी बातें कितनी ही मधुर हों, चाहे तुम्हें कितने ही सिद्धांतों का ज्ञान हो, चाहे वह सिद्धांत कितना ही प्रभावशाली या गरिमापूर्ण हो, लेकिन सच्चाई यही है कि तुम लोगों में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने पहले से ही जान लिया है कि किस प्रकार परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालने के लिए उन नियमों, मतों और सिद्धांतों का उपयोग करना है जिन पर तुम लोगों ने महारत हासिल कर ली है, और स्वाभाविक है कि ऐसा करके तुमने परमेश्वर को अपने विरुद्ध कर लिया है। भले ही तुमने शब्दों और धर्म-सिद्धांतों में महारत हासिल कर ली हो, फिर भी तुमने असल में सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, इसलिए तुम्हारे लिए परमेश्वर के करीब होना, उसे जानना-समझना बहुत कठिन है। यह बेहद खेद योग्य है!
मैंने एक वीडियो में यह दृश्य देखा था : कुछ बहनें “वचन देह में प्रकट होता है” की एक प्रति थामे हुए थीं, और उसे बहुत ऊँचा उठाए हुए थीं; वे उस पुस्तक को अपने बीच में सिर से ऊपर थामे हुए थीं। यद्यपि यह मात्र एक छवि थी, किन्तु इसने मेरे भीतर कोई छवि जागृत नहीं की बल्कि, इसने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि हर इंसान अपने हृदय में परमेश्वर के वचन को नहीं, बल्कि परमेश्वर के वचन की पुस्तक को ऊँचा उठाकर रखता है। यह बहुत ही अफसोसनाक बात है। यह परमेश्वर को ऊँचा उठाने के समान बिल्कुल भी नहीं है, क्योंकि परमेश्वर के बारे में तुम्हारी नासमझी तुम्हें इस दर्जे तक ले आयी है कि तुम एक स्पष्ट प्रश्न, एक बहुत ही छोटे से मसले पर भी, अपनी धारणा बना लेते हो। जब मैं तुम लोगों से कुछ पूछता हूँ, तुम्हारे साथ गंभीर होता हूँ, तो तुम अपनी अटकलबाजी और कल्पनाओं से उत्तर देते हो; तुम लोगों में से कुछ तो संदेह भरे लहजे में पलट कर मुझसे ही प्रश्न करते हैं। इससे मुझे एकदम साफ समझ आ जाता है कि जिस परमेश्वर पर तुम लोग विश्वास करते हो वह सच्चा परमेश्वर नहीं है। इतने सालों तक परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, तुम लोग एक बार फिर से परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालने के लिए परमेश्वर के वचनों का, उसके कार्य का, और अधिक सिद्धांतों का उपयोग करते हो। तुम कभी परमेश्वर को समझने का प्रयास भी नहीं करते; तुम लोग कभी परमेश्वर के इरादों को समझने की कोशिश नहीं करते; यह समझने का प्रयास नहीं करते कि मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है, या वह कैसे सोचता है, वह दुःखी क्यों होता है, क्रोधित क्यों होता है, लोगों को क्यों ठुकराता है, और ऐसे ही अन्य प्रश्न। अधिकतर लोग मानते हैं कि परमेश्वर हमेशा इसलिए खामोश रहा है क्योंकि वह मनुष्य के कार्यकलापों को देख रहा है, उनके बारे में उसकी कोई प्रवृत्ति या विचार नहीं हैं। लेकिन एक अन्य समूह तो यह मानता है कि परमेश्वर कोई आवाज़ नहीं करता क्योंकि उसने मौन स्वीकृति दी है, परमेश्वर इसलिए शांत है क्योंकि वह इंतज़ार कर रहा है या इसलिए क्योंकि उसमें कोई प्रवृत्ति नहीं है; चूँकि परमेश्वर की प्रवृत्ति को पहले ही पुस्तक में विस्तार से समझाया जा चुका है, उसे संपूर्णता में मनुष्य के लिए अभिव्यक्त किया जा चुका है, इसलिए इसे बार-बार लोगों को बताने की आवश्यकता नहीं है। यद्यपि परमेश्वर खामोश है, तब भी उसमें प्रवृत्ति और दृष्टिकोण है, और एक मानक है जिसके अनुसार वह लोगों से जीने की अपेक्षा करता है। यद्यपि लोग उसे समझने और खोजने का प्रयास नहीं करते, फिर भी उसकी प्रवृत्ति बिलकुल साफ है। किसी ऐसे व्यक्ति का लो जिसने कभी पूरे जुनून से परमेश्वर का अनुसरण किया था, परन्तु फिर किसी मुकाम पर उसका परित्याग करके चला गया। यदि अब वही व्यक्ति वापस आना चाहे तो आश्चर्यजनक रूप से तुम लोग नहीं जानते कि परमेश्वर का दृष्टिकोण क्या होगा, या परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होगी। क्या यह बेहद अफसोसनाक बात नहीं है? असल में यह एक सतही मामला है। यदि तुम लोग वास्तव में परमेश्वर के हृदय को समझते हो, तो तुम लोग इस प्रकार के व्यक्ति के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति को समझ जाओगे, और अस्पष्ट उत्तर नहीं दोगे। चूँकि तुम लोग नहीं जानते, इसलिए मैं तुम लोगों को बताता हूँ।
उन लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति जो उसके कार्य के दौरान भाग जाते हैं
ऐसे लोग हर जगह होते हैं : परमेश्वर के मार्ग के बारे में सुनिश्चित हो जाने के बाद, विभिन्न कारणों से, वे चुपचाप बिना अलविदा कहे चले जाते हैं और जो कुछ उनका दिल चाहता है वही करते हैं। फिलहाल, हम इस बात पर नहीं जाएँगे कि ऐसे लोग छोड़कर क्यों चले जाते हैं; पहले हम यह देखेंगे कि ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है। यह बिलकुल स्पष्ट है। जिस समय ऐसे लोग छोड़कर चले जाते हैं, परमेश्वर की नज़रों में, उनके विश्वास की अवधि समाप्त हो जाती है। इसे वो लोग नहीं, बल्कि परमेश्वर समाप्त करता है। ऐसे लोगों का परमेश्वर को छोड़कर जाने का अर्थ है कि उन्होंने पहले ही परमेश्वर को अस्वीकृत कर दिया है, यानी अब वे परमेश्वर को नहीं चाहते, अब उन्हें परमेश्वर का उद्धार स्वीकार्य नहीं है। चूँकि ऐसे लोग परमेश्वर को नहीं चाहते, तो क्या परमेश्वर तब भी उन्हें चाह सकता है? इसके अतिरिक्त, जब इस प्रकार के लोगों की प्रवृत्ति और दृष्टिकोण ऐसा है और वे परमेश्वर को छोड़ने पर अडिग हो चुके हैं, तो इसका अर्थ है कि उन्होंने पहले ही परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित कर दिया है। इस तथ्य के बावजूद कि शायद आवेश में आकर, उन्होंने परमेश्वर को न कोसा हो, उनके व्यवहार में कोई नीचता या ज़्यादती न रही हो, और इस तथ्य के बावजूद कि ऐसे लोग सोच रहे हों, “यदि कभी ऐसा दिन आया जब मुझे बाहर भरपूर खुशियाँ मिलीं, या जब किसी चीज़ के लिए मुझे अभी भी परमेश्वर की आवश्यकता हुई, तो मैं वापस आ जाऊँगा। या कभी परमेश्वर मुझे बुलाए, तो मैं वापस आ जाऊँगा,” या वे कहते हैं, “अगर मैं कभी बाहर की दुनिया में चोट खाऊँ, या कभी यह देखूँ कि बाहरी दुनिया अत्यंत अंधकारमय और दुष्ट है और अब मैं उस प्रवाह के साथ नहीं बहना चाहता, तो मैं परमेश्वर के पास वापस आ जाऊँगा।” भले ही ऐसे लोग अपने मन में इस तरह का हिसाब-किताब लगाएँ कि कब उन्हें वापस आना है, भले ही वे अपनी वापसी के लिए द्वार खुला छोड़कर रखने की कोशिश करें, फिर भी उन्हें इस बात का एहसास नहीं होता कि वे चाहे जो सोचें और कैसी भी योजना बनाएँ, यह सब उनकी खुशफहमी है। उनकी सबसे बड़ी गलती यह है कि वे इस बारे में अस्पष्ट होते हैं कि जब वे छोड़कर जाना चाहते हैं तो परमेश्वर को कैसा महसूस होता है। जिस पल वे परमेश्वर को छोड़ने का निश्चय करते हैं, परमेश्वर उसी पल उन्हें पूरी तरह से छोड़ चुका होता है; परमेश्वर पहले ही अपने हृदय में उनका परिणाम निर्धारित कर चुका होता है। वह परिणाम क्या है? ऐसा व्यक्ति चूहों में से ही एक चूहा होगा और उन्हीं के साथ नष्ट हो जाएगा। इस प्रकार, लोग प्रायः इस प्रकार की स्थिति देखते हैं : कोई परमेश्वर का परित्याग कर देता है, लेकिन उसे दण्ड नहीं मिलता। परमेश्वर अपने सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है; कुछ चीज़ें देखने में आती हैं, और कुछ चीज़ें परमेश्वर के हृदय में ही तय होती हैं, इसलिए लोग परिणाम नहीं देख पाते। जो हिस्सा लोग देख पाते हैं वह आवश्यक नहीं कि चीज़ों का सही पक्ष हो, परन्तु दूसरा पक्ष होता है, जिसे तुम देख नहीं पाते—उसी में परमेश्वर के हृदय के सच्चे विचार और निष्कर्ष निहित होते हैं।
परमेश्वर के कार्य के दौरान भाग जाने वाले लोग सच्चे मार्ग का परित्याग कर देते हैं
परमेश्वर उन लोगों को इतना कठोर दंड क्यों देता है, जो उसके कार्य के दौरान भाग जाते हैं? परमेश्वर उन पर इतना क्रोधित क्यों है? पहली बात तो, हम जानते हैं कि परमेश्वर का स्वभाव प्रताप और कोप है; वह कोई भेड़ नहीं है, जिसका वध किया जाए; वह कठपुतली तो बिल्कुल नहीं है जिसे लोग जैसा चाहें, वैसा नचाएँ। उसका अस्तित्व निरर्थक भी नहीं है कि उस पर धौंस जमाई जाए। यदि तुम वास्तव में मानते हो कि परमेश्वर का अस्तित्व है, तो तुम्हें परमेश्वर का भय मानना चाहिए, और तुम्हें पता होना चाहिए कि परमेश्वर के सार को क्रोधित नहीं किया जा सकता। वह क्रोध किसी शब्द से पैदा हो सकता है या शायद किसी विचार से या शायद किसी प्रकार के अधम व्यवहार से या किसी तरह के हल्के व्यवहार तक से, या किसी ऐसे व्यवहार से जो मनुष्य की नज़र में और नैतिकता की दृष्टि से महज़ कामचलाऊ हो; या वह किसी मत, सिद्धांत से भी भड़क सकता है। लेकिन, अगर एक बार तुमने परमेश्वर को क्रोधित कर दिया, तो समझो तुम्हारा अवसर गया, और तुम्हारे अंत के दिन आ गए। यह बेहद खराब बात है! यदि तुम इस बात को नहीं समझते कि परमेश्वर को अपमानित नहीं किया जाना चाहिए, तो शायद तुम परमेश्वर से नहीं डरते और शायद तुम उसे अक्सर अपमानित करते रहते हो। अगर तुम नहीं जानते कि परमेश्वर से कैसे डरना चाहिए, तो तुम परमेश्वर से नहीं डर पाओगे, और नहीं जान पाओगे कि परमेश्वर के मार्ग पर कैसे चलना है—यानी परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर। एक बार जब तुम जान गए और सचेत हो गए कि परमेश्वर को अपमानित नहीं करना चाहिए, तो तुम समझ जाओगे कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या होता है।
परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलने का अर्थ यह नहीं है कि तुम सत्य से कितने परिचित हो, तुमने कितने परीक्षणों का अनुभव किया है, या तुम कितने अनुशासित हो। बल्कि यह इस बात पर निर्भर है कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति क्या है, और तुम कौन-सा सार व्यक्त करते हो। लोगों का सार और उनकी आत्मनिष्ठ प्रवृत्तियाँ—ये अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रमुख बातें हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिन्होंने परमेश्वर को त्याग दिया है और छोड़कर चले गए हैं, परमेश्वर के प्रति उनकी कुत्सित प्रवृत्ति ने और सत्य से घृणा करने वाले उनके हृदय ने परमेश्वर के स्वभाव को पहले ही भड़का दिया है, इसलिए जहाँ तक परमेश्वर की बात है, उन्हें कभी क्षमा नहीं किया जाएगा। उन्होंने परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में जान लिया है, उनके पास यह जानकारी है कि परमेश्वर का आगमन पहले ही हो चुका है, यहाँ तक कि उन्होंने परमेश्वर के नए कार्य का अनुभव भी कर लिया है। उनका चला जाना गुमराह या भ्रमित हो जाने का मामला नहीं था, ऐसा तो और भी नहीं कि उन्हें जाने के लिए बाध्य किया गया हो। बल्कि उन्होंने होशोहवास में, सोच-समझ कर परमेश्वर को छोड़कर जाने का विकल्प चुना। उनका जाना अपने मार्ग को खोना नहीं था, न ही उन्हें दरकिनार किया गया। इसलिए, परमेश्वर की दृष्टि में, वे लोग कोई मेमने नहीं हैं, जो झुंड से भटक गए हों, भटके हुए फिज़ूलखर्च पुत्र होने की तो बात ही छोड़ दो। वे दंड से मुक्त हो कर गए हैं और ऐसी दशा, ऐसी स्थिति परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित करती है, और उसका यही क्रोध उन्हें निराशाजनक परिणाम देता है। क्या इस प्रकार का परिणाम भयावह नहीं है? इसलिए यदि लोग परमेश्वर को नहीं जानते, तो वे परमेश्वर को अपमानित कर सकते हैं। यह कोई छोटी बात नहीं है! यदि लोग परमेश्वर की प्रवृत्ति को गंभीरता से नहीं लेते, और यह मानकर चलते हैं कि परमेश्वर उनके लौटने की प्रतीक्षा कर रहा है—क्योंकि वे परमेश्वर की खोई हुई भेड़ हैं और परमेश्वर अभी भी उनके हृदय-परिवर्तन की प्रतीक्षा कर रहा है, तो फिर ऐसे लोग दंड के दिन से बहुत दूर नहीं हैं। परमेश्वर उन्हें केवल अस्वीकार ही नहीं करेगा—बल्कि चूँकि उन्होंने दूसरी बार उसके स्वभाव को क्रोधित किया है, इसलिए यह और भी अधिक भयानक बात है! ऐसे लोगों की श्रद्धाहीन प्रवृत्ति पहले ही परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन कर चुकी है। क्या वह अब भी उन्हें स्वीकार करेगा? इस मामले में परमेश्वर के सिद्धांत हैं कि यदि कोई व्यक्ति सत्य मार्ग के विषय में निश्चित है, फिर भी वह जानबूझकर और स्पष्ट मन से परमेश्वर को अस्वीकार करता है और उसे छोड़कर चला जाता है, तो परमेश्वर ऐसे व्यक्ति के उद्धार-मार्ग को अवरुद्ध कर देगा, उसके बाद राज्य के दरवाजे उस व्यक्ति के लिए बंद कर दिए जाएँगे। जब ऐसा व्यक्ति फिर से आकर द्वार खटखटाएगा, तो परमेश्वर द्वार नहीं खोलेगा; वह सदा के लिए बाहर ही रह जाएगा। शायद तुम में से किसी ने बाइबल में मूसा की कहानी पढ़ी हो। मूसा को परमेश्वर द्वारा अभिषिक्त कर दिए जाने के बाद, 250 अगुआओं ने मूसा के कार्यकलापों और कई अन्य कारणों से उसके प्रति अपनी असहमति व्यक्त की। उन्होंने किसके आगे समर्पित होने से इनकार किया? वह मूसा नहीं था। उन्होंने परमेश्वर की व्यवस्थाओं को मानने से इनकार किया; उन्होंने इस मामले में परमेश्वर के कार्य को मानने से इनकार किया था। उन्होंने निम्नलिखित बातें कहीं : “तुम ने बहुत किया, अब बस करो; क्योंकि सारी मण्डली का एक एक मनुष्य पवित्र है, और यहोवा उनके मध्य में रहता है।” क्या इंसानी नज़रिए से, ये बातें बहुत गंभीर हैं? गंभीर नहीं हैं। कम-से-कम शाब्दिक अर्थ तो गंभीर नहीं है। कानूनी नज़रिए से भी, वे कोई नियम नहीं तोड़ते, क्योंकि देखने में यह कोई शत्रुतापूर्ण भाषा या शब्दावली नहीं है, इसमें ईश-निन्दा जैसी कोई बात तो बिल्कुल नहीं है। ये केवल साधारण से वाक्य हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। तो फिर, ये शब्द परमेश्वर के क्रोध को इतना क्यों भड़का सकते हैं? उसकी वजह यह है कि ये शब्द लोगों के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर के लिए बोले गए थे। उन शब्दों में व्यक्त प्रवृत्ति और स्वभाव परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित करते हैं और परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करते हैं जिसे अपमानित नहीं किया जाना चाहिए। हम सब जानते हैं कि अंत में उन अगुआओं का परिणाम क्या हुआ था। ऐसे लोगों के बारे में जिन्होंने परमेश्वर का परित्याग कर दिया है, उनका दृष्टिकोण क्या है? उनकी प्रवृत्ति क्या है? और उनका दृष्टिकोण और प्रवृत्ति ऐसे कारण क्यों बनते हैं कि परमेश्वर उनके साथ इस तरह से निपटता है? कारण यह है कि हालाँकि वे साफ तौर पर जानते हैं कि वह परमेश्वर है, मगर फिर भी वे परमेश्वर के साथ विश्वासघात करते हैं, और इसीलिए उन्हें उद्धार के अवसर से पूरी तरह वंचित कर दिया जाता है। जैसा कि बाइबल में लिखा है, “क्योंकि सच्चाई की पहिचान प्राप्त करने के बाद यदि हम जान बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिये फिर कोई बलिदान बाकी नहीं” (इब्रानियों 10:26)। क्या अब तुम लोग इस विषय को अच्छी तरह समझ गए हो?
मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के प्रति उसकी प्रवृत्ति से निर्धारित होता है
परमेश्वर एक जीवित परमेश्वर है, और जैसे लोग भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न तरीकों से बर्ताव करते हैं, वैसे ही इन बर्तावों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति भी भिन्न-भिन्न होती है क्योंकि वह न तो कोई कठपुतली है, और न ही वह शून्य है। परमेश्वर की प्रवृत्ति को जानना मनुष्य के लिए एक नेक खोज है। परमेश्वर की प्रवृत्ति को जानकर लोगों को सीखना चाहिए कि कैसे वे परमेश्वर के स्वभाव को जान सकते हैं और थोड़ा-थोड़ा करके उसके हृदय को समझ सकते हैं। जब तुम थोड़ा-थोड़ा करके परमेश्वर के हृदय को समझने लगोगे, तो तुम्हें नहीं लगेगा कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना कोई कठिन कार्य है। जब तुम परमेश्वर को समझ जाओगे, तो उसके बारे में निष्कर्ष नहीं निकालोगे। जब तुम परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालना बन्द कर दोगे, तो उसे अपमानित करने की संभावना नहीं रहेगी और अनजाने में ही परमेश्वर तुम्हारी अगुआई करेगा कि तुम उसके बारे में ज्ञान प्राप्त करो; इससे तुम्हारा हृदय परमेश्वर के प्रति भय से भर जाएगा। तुम उन धर्म-सिद्धांतों, शब्दों एवं सिद्धांतों का उपयोग करके परमेश्वर को परिभाषित करना बंद कर दोगे जिनमें तुम महारत हासिल कर चुके हो। बल्कि, सभी चीजों में सदा परमेश्वर के इरादों को खोजकर, तुम अनजाने में ही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप बन जाओगे।
इंसान परमेश्वर के कार्य को न तो देख सकता है, न ही छू सकता है, परन्तु जहाँ तक परमेश्वर की बात है, वह हर एक व्यक्ति के कार्यकलापों को, परमेश्वर के प्रति उसकी प्रवृत्ति को, न केवल समझ सकता है, बल्कि देख भी सकता है। इसे हर किसी को पहचानना और इसके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। हो सकता है कि तुम स्वयं से पूछते हो, “क्या परमेश्वर जानता है कि मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? क्या परमेश्वर जानता है कि मैं इस समय क्या सोच रहा हूँ? हो सकता है वह जानता हो, हो सकता है न भी जानता हो”। यदि तुम इस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाते हो, परमेश्वर का अनुसरण करते हो और उसमें विश्वास करते हो, मगर उसके कार्य और अस्तित्व पर सन्देह भी करते हो, तो देर-सवेर ऐसा दिन आएगा जब तुम परमेश्वर को क्रोधित करोगे, क्योंकि तुम पहले ही एक खतरनाक खड़ी चट्टान के कगार पर खड़े डगमगा रहे हो। मैंने ऐसे लोगों को देखा है जिन्होंने बहुत वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है, परंतु उन्होंने अभी तक सत्य वास्तविकता प्राप्त नहीं की है, और वे परमेश्वर के इरादों को तो और भी नहीं समझते। केवल अत्यंत छिछले मतों के मुताबिक चलते हुए, उनके जीवन और आध्यात्मिक कद में कोई प्रगति नहीं होती। क्योंकि ऐसे लोगों ने कभी भी परमेश्वर के वचन को जीवन नहीं माना, और न ही कभी परमेश्वर के अस्तित्व का सामना और उसे स्वीकार किया है। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को देखकर आनंद से भर जाता है? क्या वे उसे आराम पहुँचाते हैं? यह है लोगों का परमेश्वर में विश्वास करने का तरीका जो उनका भाग्य तय करता है। जहाँ तक सवाल यह है कि लोग परमेश्वर की खोज कैसे करते हैं, कैसे परमेश्वर के समीप आते हैं, तो यहाँ लोगों की प्रवृत्ति प्राथमिक महत्व की हो जाती है। अपने सिर के पीछे तैरती खाली हवा समझ कर परमेश्वर की उपेक्षा मत करो; जिस परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास है उसे हमेशा एक जीवित परमेश्वर, एक वास्तविक परमेश्वर मानो। वह तीसरे स्वर्ग में हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठा है। बल्कि, वह लगातार प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में देख रहा है, यह देख रहा है कि तुम क्या करते हो, वह हर छोटे वचन और हर छोटे कर्म को देख रहा है, वो यह देख रहा है कि तुम किस प्रकार व्यवहार करते हो और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति क्या है। तुम स्वयं को परमेश्वर को अर्पित करने के लिए तैयार हो या नहीं, तुम्हारा संपूर्ण व्यवहार एवं तुम्हारे अंदर की सोच एवं विचार परमेश्वर के सामने खुले हैं, और परमेश्वर उन्हें देख रहा है। तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे कर्मों, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति के अनुसार ही तुम्हारे बारे में उसकी राय, और तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति लगातार बदल रही है। मैं कुछ लोगों को कुछ सलाह देना चाहूँगा : अपने आपको परमेश्वर के हाथों में छोटे शिशु के समान मत रखो, जैसे कि उसे तुमसे लाड़-प्यार करना चाहिए, जैसे कि वह तुम्हें कभी नहीं छोड़ सकता, और जैसे कि तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति स्थायी हो जो कभी नहीं बदल सकती, और मैं तुम्हें सपने देखना छोड़ने की सलाह देता हूँ! परमेश्वर हर एक व्यक्ति के प्रति अपने व्यवहार में धार्मिक है, और वह मनुष्य को जीतने और उसके उद्धार के कार्य के प्रति अपने दृष्टिकोण में ईमानदार है। यह उसका प्रबंधन है। वह हर एक व्यक्ति से गंभीरतापूर्वक व्यवहार करता है, पालतू जानवर के समान नहीं कि उसके साथ खेले। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम बहुत लाड़-प्यार या बिगाड़ने वाला प्रेम नहीं है, न ही मनुष्य के प्रति उसकी करुणा और सहिष्णुता आसक्तिपूर्ण या बेपरवाह है। इसके विपरीत, मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सँजोने, दया करने और जीवन का सम्मान करने के लिए है; उसकी करुणा और सहिष्णुता बताती हैं कि मनुष्य से उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, और यही वे चीज़ें हैं जो मनुष्य के जीने के लिए जरूरी हैं। परमेश्वर जीवित है, वास्तव में उसका अस्तित्व है; मनुष्य के प्रति उसकी प्रवृत्ति सैद्धांतिक है, कट्टर नियमों का समूह नहीं है, और यह बदल सकती है। मनुष्य के लिए उसके इरादे, परिस्थितियों और प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति के साथ धीरे-धीरे परिवर्तित एवं रूपांतरित हो रहे हैं। इसलिए तुम्हें पूरी स्पष्टता के साथ जान लेना चाहिए कि परमेश्वर का सार अपरिवर्तनीय है, उसका स्वभाव अलग-अलग समय और संदर्भों के अनुसार प्रकट होता है। शायद तुम्हें यह कोई गंभीर मुद्दा न लगे, और तुम्हारी व्यक्तिगत अवधारणा हो कि परमेश्वर को कैसे कार्य करना चाहिए। परंतु कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि तुम्हारे दृष्टिकोण से बिल्कुल विपरीत नजरिया सही हो, और अपनी अवधारणाओं से परमेश्वर को आंकने के पहले ही तुमने उसे क्रोधित कर दिया हो। क्योंकि परमेश्वर उस तरह कार्य नहीं करता जैसा तुम सोचते हो, और न ही वह उस मसले को उस नजर से देखेगा जैसा तुम सोचते हो कि वो देखेगा। इसलिए मैं तुम्हें याद दिलाता हूँ कि तुम आसपास की हर एक चीज के प्रति अपने नजरिए में सावधान एवं विवेकशील रहो, और सीखो कि किस प्रकार हर चीज में “परमेश्वर के भय मानने और बुराई से दूर रहने वाले परमेश्वर के मार्ग पर चलने के सिद्धांत” का अभ्यास करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के इरादों और परमेश्वर के रवैये के मामलों में एक दृढ़ समझ विकसित करनी चाहिए; तुम्हें ईमानदारी से प्रबुद्ध लोगों को खोजना चाहिए जो इस पर तुम्हारे साथ संवाद करें। अपने विश्वास में परमेश्वर को एक कठपुतली मत समझो—उसे मनमाने ढंग से मत परखो, उसके बारे में मनमाने निष्कर्षों पर मत पहुँचो, परमेश्वर के साथ सम्मान-योग्य व्यवहार करो। एक तरफ जहाँ परमेश्वर तुम्हारा उद्धार कर रहा है, तुम्हारा परिणाम निर्धारित कर रहा है, वहीं वह तुम्हें करुणा, सहिष्णुता, या न्याय और ताड़ना भी प्रदान कर सकता है, लेकिन किसी भी स्थिति में, तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति स्थिर नहीं होती। यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति पर, और परमेश्वर की तुम्हारी समझ पर निर्भर करता है। परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान या समझ के किसी अस्थायी पहलू के जरिए परमेश्वर को सदा के लिए परिभाषित मत करो। किसी मृत परमेश्वर में विश्वास मत करो; जीवित परमेश्वर में विश्वास करो। यह बात याद रखो! यद्यपि मैंने यहाँ पर कुछ सत्यों पर चर्चा की है, ऐसे सत्य जिन्हें तुम लोगों को सुनना चाहिए, फिर भी तुम्हारी वर्तमान दशा और आध्यात्मिक कद के मद्देनजर, मैं तुम्हारे उत्साह को खत्म करने के लिए कोई बड़ी माँग नहीं करूँगा। ऐसा करने से तुम लोगों का हृदय अत्यधिक उदासी से भर सकता है, और तुम्हें परमेश्वर के प्रति बहुत अधिक निराशा हो सकती है। इसके बजाय मुझे आशा है कि तुम लोग एक परमेश्वर-प्रेमी हृदय का उपयोग कर सकते हो, और मार्ग पर चलते समय परमेश्वर के प्रति सम्मानजनक प्रवृत्ति का उपयोग कर सकते हो। परमेश्वर में विश्वास करने को लेकर इस मामले में भ्रमित मत होओ; इसे एक बड़ा मसला समझो। इसे अपने हृदय में रखो, इसे वास्तविकता से जोड़ो और वास्तविक जीवन से जोड़ो; इसका केवल दिखावटी आदर मत करो। क्योंकि यह जीवन और मृत्यु का मामला है, जो तुम्हारी नियति को निर्धारित करेगा। इसके साथ कोई मजाक मत करो या इसे बच्चों का खेल मत समझो! आज तुम लोगों के साथ इन वचनों को साझा करने के बाद, मुझे नहीं पता कि तुम लोगों ने इन बातों को कितना आत्मसात किया है। आज जो कुछ मैंने यहाँ पर कहा है क्या उसके बारे में तुम्हारे मन में कोई प्रश्न है जो तुम पूछना चाहते हो?
हालाँकि ये विषय थोड़े नए हैं, और तुम लोगों के दृष्टिकोण से, तुम्हारी सामान्य खोज से, और जिस पर ध्यान देने की तुम्हारी प्रवृत्ति है, उससे थोड़ा हट कर हैं, फिर भी मेरा ख्याल है कि कुछ समय तक उन पर संवाद करके, जो कुछ मैंने यहाँ कहा है, उसके बारे में तुम लोग एक सामान्य समझ विकसित कर लोगे। ये सारे विषय नए हैं, और ऐसे विषय हैं जिन पर तुमने पहले कभी विचार नहीं किया, इसलिए मुझे आशा है कि ये तुम लोगों के बोझ को और नहीं बढ़ाएँगे। मैं आज ये बातें तुम्हें भयभीत करने के लिए नहीं बोल रहा, न ही मैं इनका उपयोग तुम्हारी काट-छाँट के लिए कर रहा हूँ; बल्कि, मेरा लक्ष्य तथ्य की सच्चाई को समझने में तुम लोगों की सहायता करना है। चूँकि इंसान और परमेश्वर के बीच एक दूरी है : यद्यपि इंसान परमेश्वर में विश्वास करता है, फिर भी उसने परमेश्वर को कभी समझा नहीं है, उसकी प्रवृत्ति को कभी नहीं जाना है। मनुष्य ने कभी भी परमेश्वर की प्रवृत्ति के लिए कोई उत्साह नहीं दिखाया है। बल्कि उसने आँख मूँदकर विश्वास किया है, वह आँख मूँदकर आगे बढ़ा है, और वह परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान और समझ में लापरवाह रहा है। अतः मैं इन मामलों को तुम लोगों के लिए स्पष्ट करने, और यह समझने में तुम लोगों की सहायता करने को मजबूर हूँ कि वह परमेश्वर किस प्रकार का परमेश्वर है जिस पर तुम लोग विश्वास करते हो; वह क्या सोच रहा है; विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ उसके व्यवहार में उसकी प्रवृत्ति क्या है; तुम लोग उसकी अपेक्षाओं को पूरा करने से कितनी दूर हो; और तुम्हारे कार्यकलापों और उस मानक के बीच कितनी असमानता है जिसकी वह तुमसे अपेक्षा करता है। तुम लोगों को ये बातें बताने का मकसद तुम्हें वह पैमाना देना है जिससे तुम खुद को माप सको, ताकि तुम जान सको कि जिस मार्ग पर तुम हो, उसमें तुम्हें कितनी प्राप्ति हुई है, तुम लोगों ने इस मार्ग पर क्या प्राप्त नहीं किया है, और तुम किन क्षेत्रों में शामिल नहीं हुए हो। तुम लोग आपस में संवाद करते समय, आमतौर पर कुछ सामान्य रूप से चर्चित विषयों पर ही बोलते हो जिनका दायरा संकरा होता है, और विषयवस्तु बहुत सतही होती है। तुम लोगों की चर्चा के विषय और परमेश्वर के इरादों में, तुम्हारी चर्चाओं और परमेश्वर की अपेक्षाओं के दायरे एवं मानक में एक दूरी, एक अंतर होता है। इस प्रकार चलते हुए कुछ समय बाद तुम लोग परमेश्वर के मार्ग से बहुत दूर होते चले जाओगे। तुम लोग बस परमेश्वर के मौजूदा कथनों को लेकर उन्हें आराधना की वस्तुओं में बदल रहे हो, और उन्हें रीति-रिवाजों और नियमों के तौर पर देख रहे हो। बस यही कर रहे हो! वास्तव में, तुम लोगों के हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं है, दरअसल परमेश्वर ने तुम लोगों के हृदय को कभी प्राप्त ही नहीं किया। कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर को जानना बहुत कठिन है—यही सत्य है। यह कठिन है। यदि लोगों से अपने कर्तव्य निभाने के लिए कहा जाए और कार्यों को बाहरी तौर पर करने को कहा जाए, उनसे कठिन परिश्रम करने के लिए कहा जाए, तो लोग सोचेंगे कि परमेश्वर पर विश्वास करना बहुत आसान है, क्योंकि यह सब मनुष्य की योग्यताओं के दायरे में आता है। मगर जैसे ही यह विषय परमेश्वर के इरादों और मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति की ओर जाता है, तो सभी के नज़रिए से चीज़ें निश्चित रूप से थोड़ी कठिन हो जाती हैं। क्योंकि इसमें सत्य के बारे में लोगों की समझ और वास्तविकता में उनका प्रवेश शामिल है, तो निश्चित ही इसमें थोड़ी कठिनाई तो है! किन्तु जैसे ही तुम लोग पहले द्वार को पार कर जाते हो और प्रवेश करना शुरू कर देते हो तो धीरे-धीरे चीज़ें आसान होने लगती हैं।
परमेश्वर का भय मानने का आरंभिक बिन्दु उसके साथ परमेश्वर के समान व्यवहार करना है
अभी थोड़ी देर पहले, किसी ने एक प्रश्न उठाया था : ऐसा कैसे है कि हम परमेश्वर के बारे में अय्यूब से अधिक जानते हैं, फिर भी हम परमेश्वर का भय नहीं मान पाते? हमने पहले ही इस मामले पर थोड़ी-बहुत चर्चा कर ली है। वास्तव में इस प्रश्न के सार पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं, हालाँकि तब अय्यूब परमेश्वर को नहीं जानता था, फिर भी उसने उसके साथ परमेश्वर के समान व्यवहार किया था, और उसे स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजों का संप्रभु माना था। अय्यूब ने परमेश्वर को शत्रु नहीं माना था; बल्कि, उसने सभी चीजों के सृष्टिकर्ता के रूप में उसकी आराधना की थी। ऐसा क्यों है कि आजकल लोग परमेश्वर का इतना अधिक विरोध करते हैं? वे परमेश्वर का भय क्यों नहीं मान पाते? एक कारण तो यह है कि उन्हें शैतान ने बुरी तरह भ्रष्ट कर दिया है। गहरी शैतानी प्रकृति के कारण, लोग परमेश्वर के शत्रु बन गए हैं। हालाँकि लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उसे स्वीकार करते हैं, तब भी वे परमेश्वर का विरोध करते हैं और उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। यह मानव प्रकृति द्वारा निर्धारित होता है। दूसरा कारण यह है कि लोग परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं, पर वे उसके साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार नहीं करते। वे सोचते हैं कि परमेश्वर मनुष्य का विरोधी है, उसे मनुष्य का शत्रु मानते हैं, और सोचते हैं कि परमेश्वर के साथ उनका कोई मेल नहीं है। बस इतनी-सी बात है। क्या इस मामले को पिछले सत्र में नहीं उठाया गया था? इसके बारे में सोचो : क्या यही कारण नहीं है? तुम्हें परमेश्वर का थोड़ा-बहुत ज्ञान हो सकता है, फिर भी इस ज्ञान में क्या है? क्या हर कोई इसी के बारे में बात नहीं कर रहा है? क्या परमेश्वर ने तुम्हें इसी के बारे में नहीं बताया था? तुम केवल इसके सैद्धांतिक और मत-संबंधी पहलुओं को ही जानते हो; लेकिन क्या तुमने कभी परमेश्वर की सच्ची मुखाकृति को समझा है? क्या तुम्हारा ज्ञान आत्मनिष्ठ है? क्या तुम्हें व्यावहारिक ज्ञान और अनुभव है? यदि परमेश्वर तुम्हें न बताता, तो क्या तुम जान पाते? तुम्हारा सैद्धांतिक ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं दर्शाता। संक्षेप में, चाहे इसके बारे में तुमने कितना भी और कैसे भी जाना हो, जब तक तुम परमेश्वर का वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं करोगे, परमेश्वर तुम्हारा शत्रु ही बना रहेगा, और जब तक तुम परमेश्वर के साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार नहीं करोगे, वह तुम्हारा विरोध करेगा, क्योंकि तुम शैतान के मूर्त रूप हो।
जब तुम मसीह के साथ होते हो, तो शायद तुम उसे दिन में तीन बार भोजन परोस सकते हो या उसे चाय पिला सकते हो और उसके जीवन की आवश्यकताओं का ध्यान रख सकते हो; ऐसा लगेगा जैसे तुमने मसीह के साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार किया है। जब कभी कुछ होता है, तो लोगों का दृष्टिकोण हमेशा परमेश्वर के दृष्टिकोण से विपरीत होता है; लोग हमेशा परमेश्वर के दृष्टिकोण को समझने और स्वीकारने में असफल रहते हैं। जबकि हो सकता है कि लोग केवल ऊपरी तौर पर परमेश्वर के साथ हों, इसका अर्थ यह नहीं है कि वे परमेश्वर के अनुरूप हैं। जैसे ही कुछ होता है तो मनुष्य और परमेश्वर के बीच मौजूद शत्रुता की पुष्टि करते हुए मनुष्य के विद्रोहीपन की असलियत प्रकट हो जाती है। यह शत्रुता ऐसी नहीं है कि परमेश्वर मनुष्य का विरोध करता है या परमेश्वर मनुष्य का शत्रु होना चाहता है, न ही ऐसा है कि परमेश्वर मनुष्य को अपने विरोध में रखकर उसके साथ ऐसा व्यवहार करता है। बल्कि, यह परमेश्वर के प्रति ऐसे विरोधात्मक सार का मामला है जो मनुष्य की आत्मनिष्ठ इच्छा में, और मनुष्य के अवचेतन मन में घात लगाता है। चूँकि मनुष्य उस सब को अपने अनुसंधान की वस्तु मानता है जो परमेश्वर से आता है, किन्तु जो कुछ परमेश्वर से आता है और जिस चीज़ में भी परमेश्वर शामिल है उसके प्रति मनुष्य की प्रतिक्रिया, सर्वोपरि, अंदाज़ा लगाने, संदेह करने और उसके बाद तुरंत ऐसी प्रवृत्ति को अपनाने वाली होती है जो परमेश्वर से टकराव रखती है, और परमेश्वर का विरोध करती है। उसके तुरंत बाद, मनुष्य एक नकारात्मक मनोदशा में परमेश्वर से विवाद या स्पर्धा करता है, वह यहाँ तक संदेह करता है कि ऐसा परमेश्वर उसके अनुसरण के योग्य है भी या नहीं। इस तथ्य के बावजूद कि मनुष्य की तर्कशक्ति उसे कहती है कि ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए, वह न चाहते हुए भी ऐसा ही करेगा, और वह अंत तक बेहिचक ऐसी ही हरकतें जारी रखेगा। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोगों की पहली प्रतिक्रिया क्या होती है जब वे परमेश्वर के बारे में कोई अफवाह या अपयश की बात सुनते हैं? उनकी पहली प्रतिक्रिया यह होती है कि ये अफवाहें सही हैं या नहीं, इनका कोई अस्तित्व है या नहीं, और तब वे प्रतीक्षा करके देखने वाला रवैया अपनाते हैं। और फिर वे सोचने लगते हैं : इसे सत्यापित करने का कोई तरीका नहीं है, क्या वाकई ऐसा हुआ है? यह अफवाह सच है या नहीं? हालाँकि ऐसे लोग ऊपरी तौर पर नहीं दिखाते, मन ही मन संदेह करने लगते हैं, वे पहले ही परमेश्वर पर संदेह करना और परमेश्वर को नकारना शुरू कर चुके होते हैं। ऐसी प्रवृत्ति और दृष्टिकोण का सार क्या है? क्या यह विश्वासघात नहीं है? जब तक उनका सामना किसी समस्या से नहीं होता, तुम ऐसे लोगों का दृष्टिकोण नहीं जान पाते; ऐसा प्रतीत होता है जैसे परमेश्वर से उनका कोई टकराव नहीं है, मानो वे परमेश्वर को शत्रु नहीं मानते। हालाँकि, जैसे ही उनके सामने कोई समस्या आती है, वे तुरंत शैतान के साथ खड़े होकर परमेश्वर का विरोध करने लगते हैं। यह क्या बताता है? यह बताता है कि मनुष्य और परमेश्वर विरोधी हैं! ऐसा नहीं है कि परमेश्वर मनुष्य को अपना शत्रु मानता है, बल्कि मनुष्य का सार ही अपने आप में परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है। चाहे कोई व्यक्ति कितने ही लम्बे समय से परमेश्वर का अनुसरण करता रहा हो, उसने कितनी ही कीमत चुकाई हो; वह कैसे भी परमेश्वर की स्तुति करता हो, कैसे भी परमेश्वर का प्रतिरोध करने से स्वयं को रोकता हो, यहाँ तक कि परमेश्वर से प्रेम करने के लिए वह अपने आपसे कितनी भी सख्ती करता हो, लेकिन वह कभी भी परमेश्वर के साथ परमेश्वर के रूप में व्यवहार नहीं कर सकता। क्या यह मनुष्य के सार से निर्धारित नहीं होता? यदि तुम उसके साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार करते हो, सचमुच मानते हो कि वह परमेश्वर है, तो क्या तब भी तुम उस पर संदेह कर सकते हो? क्या तब भी तुम्हारा हृदय उस पर कोई प्रश्नचिह्न लगा सकता है? नहीं लगा सकता, है न? इस संसार के चलन बहुत ही दुष्टतापूर्ण हैं, यह मनुष्यजाति भी बहुत बुरी है; तो ऐसा कैसे है कि उसके बारे में तुम्हारी कोई अवधारणा न हो? तुम स्वयं ही बहुत दुष्ट हो, तो ऐसा कैसे हो सकता है कि उसके बारे में तुम्हारी कोई अवधारणा न हो? फिर भी थोड़ी-सी अफवाहें और कुछ निंदा, परमेश्वर के बारे में इतनी बड़ी अवधारणाएँ उत्पन्न कर सकती हैं, और तुम्हारी कल्पना इतने सारे विचारों को उत्पन्न कर सकती है, जो दर्शाता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना अपरिपक्व है! क्या थोड़े से मच्छरों और कुछ घिनौनी मक्खियों की “भिनभिनाहट” ही तुम्हें गुमराह करने के लिए काफी है? यह किस प्रकार का व्यक्ति है? तुम जानते हो परमेश्वर इस प्रकार के इंसान के बारे में क्या सोचता है? परमेश्वर इन लोगों से किस प्रकार व्यवहार करता है इस बारे में उसका दृष्टिकोण वास्तव में बिल्कुल स्पष्ट है। ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर ठंडा रुख अपनाता है—उसकी प्रवृत्ति उन पर कोई ध्यान न देना है, और इन अज्ञानी लोगों को गंभीरता से न लेना है। ऐसा क्यों है? क्योंकि अपने हृदय में उसने ऐसे लोगों को प्राप्त करने की योजना कभी नहीं बनाई जिन्होंने अंत तक उसके प्रति शत्रुतापूर्ण होने की शपथ खाई है, और जिन्होंने कभी भी परमेश्वर के अनुरूप होने का मार्ग खोजने की योजना नहीं बनाई है। शायद मेरी इन बातों से कुछ लोगों को ठेस पहुँचे। अच्छा, क्या तुम लोग इस बात के लिए तैयार हो कि मैं तुम्हें हमेशा इसी तरह ठेस पहुँचाता रहूँ? तुम लोग तैयार हो या न हो, लेकिन जो कुछ भी मैं कहता हूँ वह सत्य है! यदि मैं हमेशा इसी तरह से तुम लोगों को ठेस पहुँचाऊँ, तुम्हारे कलंक उजागर करूँ, तो क्या इससे तुम्हारे हृदय में बसी परमेश्वर की ऊँची छवि प्रभावित होगी? (नहीं होगी।) मैं मानता हूँ कि नहीं होगी। क्योंकि तुम्हारे हृदय में कोई परमेश्वर है ही नहीं। वह ऊँचा परमेश्वर जो तुम्हारे हृदय में निवास करता है, जिसका तुम लोग दृढ़ता से समर्थन और बचाव करते हो, वह परमेश्वर है ही नहीं। बल्कि वह मनगढ़ंत इंसानी कल्पना है; उसका अस्तित्व ही नहीं है। अतः यह और भी अच्छा है कि मैं इस पहेली के उत्तर का खुलासा करूँ; क्या यह संपूर्ण सत्य को उजागर नहीं करता? वास्तविक परमेश्वर वो नहीं जिसके होने की कल्पना मनुष्य करता है। मुझे आशा है कि तुम लोग इस वास्तविकता का सामना कर सकते हो, और यह परमेश्वर के बारे में तुम लोगों के ज्ञान में सहायता करेगा।
परमेश्वर जिन्हें स्वीकार नहीं करता
कुछ लोगों के विश्वास को परमेश्वर के हृदय ने कभी स्वीकार नहीं किया है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर यह नहीं मानता कि ये लोग उसके अनुयायी हैं, क्योंकि परमेश्वर उनके विश्वास की प्रशंसा नहीं करता। क्योंकि ये लोग, भले ही कितने ही वर्षों से परमेश्वर का अनुसरण करते रहे हों, लेकिन इनकी सोच और इनके विचार कभी नहीं बदले हैं; वे अविश्वासियों के समान हैं, अविश्वासियों के सिद्धांतों और लोगों से मिलने-जुलने के तौर-तरीकों, और जिन्दा रहने के उनके नियमों एवं विश्वास के मुताबिक चलते हैं। उन्होंने परमेश्वर के वचन को कभी अपना जीवन नहीं माना, कभी नहीं माना कि परमेश्वर का वचन सत्य है, कभी परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने का इरादा ज़ाहिर नहीं किया, और परमेश्वर को कभी अपना परमेश्वर नहीं माना। वे परमेश्वर में विश्वास करने को एक किस्म का शगल मानते हैं, परमेश्वर को महज एक आध्यात्मिक सहारा समझते हैं, इसलिए वे नहीं मानते कि परमेश्वर का स्वभाव, या उसका सार इस लायक है कि उसे समझने की कोशिश की जाए। कहा जा सकता है कि वह सब जो सच्चे परमेश्वर से संबद्ध है उसका इन लोगों से कोई लेना-देना नहीं है; उनकी कोई रुचि नहीं है, और न ही वे ध्यान देने की परवाह करते हैं। क्योंकि उनके हृदय की गहराई में एक तीव्र आवाज है जो हमेशा उनसे कहती है : “परमेश्वर अदृश्य एवं अस्पर्शनीय है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है।” वे मानते हैं कि इस प्रकार के परमेश्वर को समझने की कोशिश करना उनके प्रयासों के लायक नहीं है; ऐसा करना अपने आपको मूर्ख बनाना होगा। वे मानते हैं कि कोई वास्तविक कदम उठाए बिना अथवा किसी भी वास्तविक कार्यकलाप में स्वयं को लगाए बिना, सिर्फ शब्दों में परमेश्वर को स्वीकार करके, वे बहुत चालाक बन रहे हैं। परमेश्वर इन लोगों को किस दृष्टि से देखता है? वह उन्हें अविश्वासियों के रूप में देखता है। कुछ लोग पूछते हैं : “क्या अविश्वासी लोग परमेश्वर के वचन को पढ़ सकते हैं? क्या वे अपने कर्तव्य निभा सकते हैं? क्या वे ये शब्द कह सकते हैं : ‘मैं परमेश्वर के लिए जिऊँगा’?” लोग प्रायः जो देखते हैं वह लोगों का सतही प्रदर्शन होता है; वे लोगों का सार नहीं देखते। लेकिन परमेश्वर इन सतही प्रदर्शनों को नहीं देखता; वह केवल उनके भीतरी सार को देखता है। इसलिए, इन लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति और परिभाषा ऐसी है। ये लोग कहते हैं : “परमेश्वर ऐसा क्यों करता है? परमेश्वर वैसा क्यों करता है? मैं ये नहीं समझ पाता; मैं वो नहीं समझ पाता; यह मनुष्य की अवधारणाओं के अनुरूप नहीं है; तुम मुझे यह बात अवश्य समझाओ...।” इसके उत्तर में मैं पूछता हूँ : क्या तुम्हें यह मामला समझाना सचमुच आवश्यक है? क्या इस मामले का तुमसे वास्तव में कुछ लेना-देना है? तुम कौन हो इस बारे में क्या सोचते हो? तुम कहाँ से आए हो? क्या तुम परमेश्वर को ये संकेत देने योग्य हो? क्या तुम उसमें विश्वास करते हो? क्या वह तुम्हारे विश्वास को स्वीकार करता है? चूँकि तुम्हारे विश्वास का परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है, तो उसके कार्य का तुमसे क्या सरोकार है? तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के हृदय में तुम कहाँ ठहरते हो, तो तुम परमेश्वर से संवाद करने योग्य कैसे हो सकते हो?
चेतावनी के शब्द
क्या तुम लोग इन टिप्पणियों को सुनने के बाद असहज नहीं हो? हो सकता है कि तुम लोग इन वचनों को सुनना नहीं चाहते, या उन्हें स्वीकार करना नहीं चाहते, फिर भी वे सब तथ्य हैं। क्योंकि कार्य का यह चरण परमेश्वर के करने के लिए है, यदि परमेश्वर के इरादों से तुम्हारा कोई सरोकार नहीं है, परमेश्वर की प्रवृत्ति की तुम्हें कोई परवाह नहीं है, और तुम परमेश्वर के सार और स्वभाव को नहीं समझते हो, तो अंत में तुम्हारा ही विनाश होगा। मेरे शब्द सुनने में कठोर लगें तो उन्हें दोष मत देना, यदि तुम्हारा उत्साह ठंडा पड़ जाए तो उन्हें दोष मत देना। मैं सत्य बोलता हूँ; मेरा अभिप्राय तुम लोगों को हतोत्साहित करना नहीं है। चाहे मैं तुमसे कुछ भी माँगूं, और चाहे इसे कैसे भी करने की तुमसे अपेक्षा की जाए, मैं चाहता हूँ कि तुम लोग सही पथ पर चलो, और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करो और सही पथ से कभी विचलित न हो। यदि तुम परमेश्वर के वचन के अनुसार आगे नहीं बढ़ोगे, और उसके मार्ग का अनुसरण नहीं करोगे, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर रहे हो और सही पथ से भटक चुके हो। इसलिए मुझे लगता है कि कुछ ऐसे मामले हैं जो मुझे तुम लोगों के लिए स्पष्ट कर देने चाहिए, और मुझे तुम लोगों को साफ-साफ, और पूरी निश्चितता के साथ विश्वास करवा देना चाहिए, और परमेश्वर की प्रवृत्ति, परमेश्वर के इरादों, किस प्रकार परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण करता है, और वह किस तरीके से मनुष्य के परिणाम को तय करता है, इसे स्पष्ट रूप से जानने में तुम लोगों की सहायता करनी चाहिए। यदि ऐसा दिन आता है जब तुम इस मार्ग पर नहीं चल पाते हो, तो मेरी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है, क्योंकि ये बातें तुम्हें पहले ही साफ-साफ बता दी गयी हैं। जहाँ तक यह बात है कि तुम अपने परिणाम से कैसे निपटोगे—तो यह मामला पूरी तरह से तुम पर है। भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों के परिणामों के बारे में परमेश्वर की भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियाँ हैं। मनुष्य को तौलने के उसके अपने तरीके हैं, और उनसे अपेक्षाओं का उसका अपना मानक है। लोगों के परिणामों को तौलने का उसका मानक ऐसा है जो हर एक के लिए निष्पक्ष है—इसमें कोई संदेह नहीं! इसलिए, कुछ लोगों का भय अनावश्यक है। क्या अब तुम लोगों को तसल्ली मिल गयी? आज के लिए इतना ही। अलविदा!
17 अक्टूबर, 2013