मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो)

परिशिष्ट : कनाडा में एक कलीसिया को संभाले जाने को लेकर लोगों की गलतफहमियों का समाधान

पिछली बार जब हम एकत्र हुए थे, तब कुछ असामान्य बात हुई थी। वह क्या थी? (वह कनाडा के एक कलीसिया को सँभालने से जुड़ा मसला था।) यह एक महीने पहले की बात है। क्या यह अभी भी तुम्हारी याद में ताजा है? (हाँ।) क्या इस मामले ने तुम लोगों को बहुत ज्यादा विचलित किया था? (हाँ।) जब कुछ कलीसियाओं या कुछ लोगों के साथ समस्याएँ उभरती हैं, तो मैं परिस्थितियों के आधार पर निर्णय लेता हूँ और सिद्धांतों के अनुसार उन्हें सँभालता हूँ; कनाडा के कलीसिया का मामला सँभालते हुए मूल रूप से यही हुआ था। तो मुझे बताओ कि जब कनाडा की कलीसिया में एक मसीह-विरोधी उभरा और उसने लोगों को गुमराह किया, तो मैंने मामले को जैसे सँभाला, वैसा तरीका मैंने क्यों अपनाया? इस पर तुम लोगों के क्या विचार हैं? जाहिर है, इसने कुछ लोगों को डरा दिया। इससे उन्हें डर क्यों लगा? कुछ लोग कहते हैं, “इसे बहुत कठोर तरीके से सँभाला गया। क्या यह इतना गंभीर था? इसे इस तरह से कैसे सँभाला जा सकता है? क्या इसे सिद्धांतों के अनुरूप सँभाला गया था? क्या इसे क्षणिक सनक के अनुसार नहीं सँभाला गया था? इसे इस तरह से सँभालने के क्या परिणाम होंगे? क्या उन लोगों ने जो किया, वह वास्तव में इतना गंभीर था? वहाँ लोगों से जो पूछताछ की गई, और उनके रवैये, बयानों और उनसे सुनी गई जानकारी के आधार पर ऐसा लगता है कि उनके साथ इतनी सख्ती से पेश नहीं आना चाहिए था, है न?” कुछ लोग ऐसे ही सोचते हैं। कुछ दूसरे लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि “शायद परमेश्वर के पास मामले से इस तरह से निपटने के अपने कारण और विचार थे।” वास्तव में वे विचार क्या हैं? क्या मामले को इस तरह से सँभालने के पीछे कोई मौलिक इरादा या कारण था? क्या उन लोगों से इस तरह से निपटना उचित था? (हाँ।) तुम सभी लोग कहते हो कि यह उचित था, इसलिए आज इस मामले पर चर्चा करते हैं और देखते हैं कि मामले को इस तरह से सँभालना क्यों उचित था, तुम लोग इस मामले के बारे में वास्तव में क्या सोचते हो, भविष्य में तुम पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, इसके बारे में तुम लोगों के विचार सही हैं या गलत, और तुम्हारे विचारों में कुछ गलत या विकृत है। यदि तुम लोग बातें हमेशा मन में दबाए रहते हो, अपनी बात कहने से कतराते हो और खुद को व्यक्त नहीं करते, हमेशा विरोधी महसूस करते हो, तो समस्याएं कभी भी सर्वोत्तम तरीके से हल नहीं होंगी, और इसीलिए हमें आम सहमति पर पहुँचना जरूरी है। आम सहमति तक पहुँचने के क्या सिद्धांत हैं? यदि तुम लोग मेरे इस निर्णय को स्वीकार करने में असमर्थ हो, और इस बारे में तुम लोगों के कुछ विचार और धारणाएँ हैं, तुम इसे लेकर प्रतिरोधी महसूस करते हो, और यहाँ तक कि इसके बारे में गलतफहमियाँ पालते हो, और तुम्हारे मन में प्रश्न या कुविचार उठते हों, तो हमें क्या करना चाहिए? हमें इस मामले पर चर्चा करनी चाहिए। यदि हमारे विचार अलग-अलग हैं, तो हमारे बीच कोई आम सहमति नहीं है। फिर हम आम सहमति तक कैसे पहुँच सकते हैं? क्या अपने मतभेदों को बरकरार रखते हुए समान आधार की तलाश करना ठीक है? यदि हम किसी मतभेद को समझौते के माध्यम से सुलझाते हैं, यदि मैं कुछ पीछे हटता हूँ, और तुम लोग कुछ पीछे हटते हो, तो क्या यह ठीक होगा? स्पष्टतः ऐसा करना ठीक नहीं है। यह सुसंगति पाने का तरीका नहीं है। इसलिए, यदि हम आम सहमति और इस मामले पर एक एकरूप समझ और निर्णय पर पहुँचना चाहते हैं, तो ऐसा करने का तरीका क्या है? तुम लोगों को सत्य की तलाश करनी चाहिए, सत्य के लिए प्रयास करना चाहिए, और सत्य समझने का प्रयास करना चाहिए, और मेरे लिए यह आवश्यक है कि मैं सभी को पूरी कहानी समझाऊँ और स्थिति स्पष्ट करूँ। किसी को भी अपने हृदय में इस बाबत कोई गलतफहमी नहीं रखनी चाहिए। इस तरह, हम मामले के बारे में एक एकरूप दृष्टिकोण पर पहुंचेंगे, तब यह मामला खत्म हो जाएगा। अगर भविष्य में मेरे सामने ऐसा ही कोई मामला आता है, तो शायद मैं इसे उसी तरह से सँभालूं, या शायद मैं इसे उस तरह से न सँभालूं, बल्कि इसके बजाय किसी दूसरे तरीके का इस्तेमाल करूं। तो, इस मामले से तुम लोगों को क्या हासिल करना चाहिए? (हमें सत्य की खोज करने का तरीका सीखना चाहिए और समझना चाहिए कि परमेश्वर ने इस मामले को इस तरह से क्यों सँभाला।) बहुत अच्छी बात है कि तुमने दो पहलुओं का उल्लेख किया है। इसका क्या कोई और पहलू है? (हमें परमेश्वर के कार्यों के सिद्धांतों को समझने की कोशिश करनी चाहिए ताकि हम परमेश्वर के स्वभाव को ठेस न पहुंचाएँ। यह हमारे लिए एक चेतावनी है।) यह एक और पहलू है।

कनाडा की कलीसिया को जैसे सँभाला गया, उसे समझाने के लिए हमें आरंभ से बात करनी चाहिए। हमें किससे शुरू करना चाहिए? हम तब से शुरू करेंगे जब ये लोग चीन छोड़ कर गए थे। क्या वहाँ से शुरू करना बहुत पीछे तक जाना है? तुम लोगों को यह मजेदार लग सकता है, लेकिन वास्तव में यह हँसने का मुद्दा नहीं है। क्या यह पुरानी खुन्नस निपटाने का मामला है? नहीं, ऐसा नहीं है। जब तुम लोगों को मैं कारणों के बारे में बताऊँगा, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि मैं वहाँ से क्यों शुरू कर रहा हूँ। इस बात को एक तरफ रखकर कि क्या विदेश आने वाला हर व्यक्ति एक आदेश, एक ध्येय और एक जिम्मेदारी लेकर आता है, हम एक छोटे से मुद्दे से शुरू करेंगे—क्या यह संयोगवश है कि हर व्यक्ति चीन छोड़ने में सक्षम हो पाता है? (नहीं।) ऐसा संयोगवश नहीं होता। मुझे बताओ कि तुममें अपने कर्तव्य-निर्वाह के लिए चीन छोड़ने का संकल्प और इच्छा होने से लेकर विदेश पहुँचने तक की पूरी प्रक्रिया के दौरान, तुम्हारे सहयोग के अलावा, यह कौन तय करता है कि तुम आसानी से चीन छोड़ सकते हो या नहीं? (परमेश्वर।) सही कहा। यह इस बात से तय नहीं होता कि तुम्हारे किन लोगों से सामाजिक संबंध हैं, न ही यह इस बात से तय होता है कि तुम्हारे पास कितना पैसा है, या तुमने सभी औपचारिकताएँ पूरी की हैं या नहीं—विदेश आने वाले सभी लोगों में एक साझा समझ और अनुभव होना चाहिए। वे सभी लोग क्या अनुभव करते हैं? परमेश्वर इस बात पर संप्रभुता रखता है कि कोई व्यक्ति आसानी से चीन छोड़ सकता है या नहीं; इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि वे कितने सक्षम हैं या उनमें कोई महान योग्यता है या नहीं। यह किसी देश में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में जाना नहीं है; यह अपने देश को छोड़ना है, और इसमें कई जटिल औपचारिकताएं पूरी करनी होती है। विशेष रूप से इस युग में जब बड़ा लाल अजगर विश्वासियों पर पागलों की तरह अत्याचार कर रहा है, पीछे पड़ा है और उन सब पर बारीकी से नजर रख रहा है, चीन छोड़ने की औपचारिकताओं को पूरा करना इतना आसान नहीं है। इसलिए, इन लोगों का आसानी से विदेश पहुँचना पूरी तरह से परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन था और यह परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को दर्शाता है। कौन चीन छोड़ सकता है, औपचारिकताएं आसानी से पूरी हो जाती हैं या नहीं, और उन्हें सँभालने में कितना समय लगता है, यह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है, और परमेश्वर ही यह सब आयोजित और व्यवस्थित करता है। तुम लोगों के इस पर विश्वास न करने या इस बात को स्वीकार न करने से काम नहीं चलेगा—ये तथ्य हैं। मामले का समापन लोगों के सहयोग और परमेश्वर की संप्रभुता से होता है। अगर हमें तुम्हारे चीन छोड़ने के बारे में निर्णय लेना हो, तो वह कौन था जिसने इसे संभव बनाया? (परमेश्वर ने।) यह परमेश्वर ने किया। इसमें ऐसा कुछ नहीं है कि कोई अपनी डींग हाँके, बल्कि उन्हें परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए। तो, तुम्हें क्या करना चाहिए? (अपना कर्तव्य निभाने में मेहनत करनी चाहिए।) तुम्हें अपना कर्तव्य करने में मेहनत करनी चाहिए और इसे एकाग्र मन से करना चाहिए। व्यापक दृष्टिकोण से देखें तो क्या हम अंतिम रूप से निर्धारित करके कह सकते हैं कि अपने कर्तव्य-निर्वाह के लिए तुम्हारा चीन छोड़ना परमेश्वर की व्यवस्था और मार्गदर्शन के कारण हुआ, न कि तुम्हारी अपनी योग्यता के कारण? (हाँ, हम ऐसा कह सकते हैं।) कुछ लोग कहते हैं, “यह मेरी क्षमता के कारण कैसे नहीं हुआ? यद्यपि मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन मिल रहा था, लेकिन अगर परमेश्वर ने मेरा मार्गदर्शन नहीं किया होता, तो भी चीन छोड़ना मेरे लिए मुश्किल नहीं होता क्योंकि मैं एक स्नातक हूँ और मेरे पास अंग्रेजी में TEM8 योग्यता है, और TOEFL परीक्षा पास करने में मुझे कोई समस्या नहीं होती।” बहुत कम लोग ऐसी स्थिति में हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग धनी हैं और निवेशक वीजा पर प्रवास कर सकते हैं, लेकिन ऐसी परिस्थितियाँ बहुत कम और दुर्लभ होती हैं। तो, क्या इन लोगों का चीन छोड़कर जाना परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन और उसकी अनुमति से होता है? हाँ, ऐसा ही होता है। हम व्यक्तिगत स्थितियों के विस्तार में नहीं जाएँगे; हम केवल उन लोगों के बारे में बात करेंगे जो चीन छोड़कर जा सकते हैं और बाद में ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने आते हैं। ऐसा पूरी तरह से उनके अपने इरादों से नहीं होता। चीन छोड़ने का एक पहलू यह है कि तुम्हारा एक ध्येय है, जबकि दूसरा पहलू यह है कि तुमने परमेश्वर के मार्गदर्शन में चीन छोड़ा है। पूरे मामले को इस बिंदु से देखा जाए, तो तुम क्या करने के लिए चीन छोड़कर गए हो? (अपना कर्तव्य निभाने।) शुरुआती चरणों में प्रक्रियाओं को पूरा करने में कितना भी समय लगे, तुम कितना भी खपो या परमेश्वर इस मामले पर कितना भी प्रभुत्व रखता हो, जो भी हो, चूँकि तुम चीन छोड़ सकते हो और परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा सकते हो, इसलिए हम निश्चितता के साथ कह सकते हैं कि विदेश में तुम्हारा एक ध्येय है। तुम एक जिम्मेदारी और भारी बोझ उठाते हो, और विदेश आने का तुम्हारा लक्ष्य बहुत स्पष्ट होगा। पहली बात यह है कि तुम जीवन का आनंद लेने विदेश आए आप्रवासी नहीं हो; दूसरे, तुम आजीविका के स्रोत की तलाश में विदेश नहीं आए हो; तीसरे, तुम जीवन जीने के एक अलग तरीके की तलाश में विदेश नहीं आए हो; और चौथे, तुम अच्छा जीवन जीने के उद्देश्य से विदेश नहीं आए हो। क्या ऐसा नहीं है? तुम दुनियावी चीजें हासिल करने के लिए विदेश नहीं आए हो; तुम एक ध्येय और परमेश्वर के आदेश के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए आए हो। इस बिंदु से देखें तो, विदेश आते समय तुम्हारी सर्वोच्च प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? (अपना कर्तव्य निभाने की।) तुम्हारी सर्वोच्च प्राथमिकता परमेश्वर के घर आना और अपना स्थान पाना, और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के अनुसार जमीनी और सद्व्यवहारी तरीके से अपना कर्तव्य निभाना है। क्या यह बात सही नहीं है? (हाँ, यह सही है।) यह सही है। इसके अलावा, तुम इसलिए भी विदेश नहीं आए हो कि किसी ने तुम्हें धमकाया था या तुम्हारा अपहरण किया था—तुम स्वेच्छा से आए। तुम इसे चाहे जिस भी पहलू से देखो, तुम विदेश आए हो, इसलिए तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। यह सही बात है, है न? क्या यह लोगों से कोई बड़ी माँग करना है? (नहीं।) यह बड़ी माँग नहीं है, न ही यह हद से ज्यादा है। यह अनुचित नहीं है। अब, मैंने अभी-अभी जो कहा है, उसके आधार पर तुम्हें अपने कर्तव्य से कैसे पेश आना चाहिए और परमेश्वर ने तुम्हें जो आदेश दिया है उसे पूरा करने के लिए तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? क्या तुम्हें इन बातों के बारे में सोचना चाहिए? सबसे पहले तुम्हें सोचना चाहिए, “मैं अब एक साधारण व्यक्ति नहीं हूँ, अब मेरे कंधों पर एक बोझ है। कैसा बोझ? यह बोझ वह आदेश है, जो परमेश्वर ने मुझे दिया है। परमेश्वर ने विदेश आने के लिए मेरा मार्गदर्शन किया, और मुझे परमेश्वर के सुसमाचार के प्रसार में किसी सृजित प्राणी द्वारा निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा करना चाहिए—यह मेरा कर्तव्य है। सबसे पहले मुझे सोचना चाहिए कि मैं क्या कर्तव्य कर सकता हूँ, और दूसरे, मुझे सोचना चाहिए कि उस कर्तव्य को अच्छी तरह से कैसे निभाऊँ ताकि मुझ पर परमेश्वर की संप्रभुता और मेरे लिए उसकी व्यवस्थाओं की उम्मीदों पर खरा उतरने में मैं विफल न हो जाऊँ।” क्या तुम्हें ऐसे नहीं सोचना चाहिए? क्या ऐसे सोचना हद से ज्यादा सोचना है? क्या यह झूठ है? नहीं, ऐसा नहीं है; यह कुछ ऐसा है जिसके बारे में विवेक, मानवता और अंतश्चेतना वाले व्यक्ति को सोचना चाहिए। अगर कुछ लोग कहते हैं, “विदेश आने के बाद मैंने पाया कि यह वैसा नहीं है जैसा मैंने सोचा था, और मुझे आने का पछतावा है,” ये लोग किस तरह की बातें कर रहे हैं? ऐसे लोगों में कोई मानवता नहीं है और उनकी आस्था खंडित हो गई है। परंतु, विदेश आने वाले अधिकांश लोग अपना कर्तव्य निभाने के लिए खुद को समर्पित करने के इच्छुक होते हैं। इतना काफी है। अब हम जो बात कर रहे हैं, उसे कनाडा की कलीसिया के मामले से जोड़ते हैं। कनाडा की कलीसिया के लोग भी इससे अलग नहीं हैं। क्या यह संयोग से हुआ कि वे कनाडा गए? यह संयोग से नहीं हुआ, यह अपरिहार्य था। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि यह अपरिहार्य था? मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ क्योंकि परमेश्वर ने बहुत पहले ही निर्धारित कर दिया था कि कौन-से लोगों को किस देश में जाना है, और यह “अपरिहार्यता” परमेश्वर द्वारा संप्रभुतापूर्वक शासित थी। जब परमेश्वर संप्रभुतापूर्वक आदेश देता है कि तुम्हें किसी देश में जाना है, तो ऐसा ही होता है। कनाडा की कलीसिया के लोगों के पास भी एक ध्येय था और वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था द्वारा विदेश आए थे। परमेश्वर ने उन्हें कनाडा भेजा, और उनकी प्रतिभाओं और उनके पेशेवर कौशल तथा खूबियों आदि के आधार पर, कलीसिया ने उन्हें विभिन्न कार्यस्थलों पर नियुक्त किया, और उन्हें उनका कर्तव्य करने की अनुमति दी। उन्होंने शुरू से ही अपना कर्तव्य कुछ हद तक अनम्यता से निभाया। “अनम्यता” से मेरा मतलब यह नहीं है कि वे कम बोलने वाले और धीमे थे, बल्कि यह कि भले ही उनमें से अधिकांश अपना कर्तव्य निभाने आए थे, लेकिन वे सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे थे। मैं क्यों कहता हूँ कि उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया? जब उनके सामने समस्याएं आईं, तो उन्होंने सत्य की खोज नहीं की, और न ही अपने कार्यों में सिद्धांतों की तलाश की। कभी-कभी, जब ऊपरवाले ने उनके लिए कुछ व्यवस्था की या उन्हें कुछ करने के लिए कहा, तो उन्होंने सहयोग नहीं किया—यही रवैया उन्होंने अपने कर्तव्य करते हुए अपनाया। वे ऐसे ही अनमने ढंग से आगे बढ़ते रहे और उनका कर्तव्य प्रदर्शन दोषपूर्ण स्थिति में पहुँच गया, पूरी तरह से गड़बड़ा गया। इन लोगों के कलीसियाई जीवन या जीवन प्रवेश के बारे में कुछ भी अच्छा नहीं था, उनके कर्तव्य का प्रभाव बुरा था, सत्य पर उनकी संगति में कोई वास्तविकता नहीं थी, और वे झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को बिल्कुल भी पहचान नहीं पाते थे—उनके किसी भी काम में कुछ भी अच्छा नहीं था। जैसे-जैसे समय बीता, यान नाम का एक मसीह-विरोधी उभरा, और वे इस मसीह-विरोधी के साथ एक हो गए। “वे एक हो गए” का क्या अर्थ है? यह मसीह-विरोधी 26 साल का युवा था, जो कलीसिया में ढाई साल से काम कर रहा था। उस दौरान, उसने कई बहनों को आकर्षित किया था, शायद 10 से ज्यादा। इनमें से कुछ लोगों को वह बहुत पसंद करता था, और कुछ को नहीं, और उन लोगों को नजरअंदाज करता था, फिर भी वे सभी लोग इस मसीह-विरोधी को बहुत प्रेम करते थे। ढाई साल पहले, कनाडा की कलीसिया के लोग अपने कर्तव्य-निर्वाह में ज्यादा अच्छे नहीं थे और बेजान-सी अकर्मण्यता की स्थिति में थे। ऊपरवाले ने उनके लिए जो भी काम तय किया, उन्होंने उसे अनमने ढंग से किया और असहयोग करते रहे, और दिए गए काम को लागू करवाने के लिए बहुत ज्यादा प्रयास करने पड़े। ऊपरवाले ने जब उनकी काट-छाँट की, तो वे घोर निराशा का शिकार हो गए, उनका मूड खराब हो गया, वे ऊपरवाले से बहुत कम मौकों पर संवाद करते थे, और काम के प्रति उनका रवैया भी बहुत हताश हो गया था। यान नामक मसीह-विरोधी के अगुआ बनने के बाद, उनकी स्थिति दिन-ब-दिन खराब होती गई, और उनमें से ज्यादातर निरुद्देश्य होकर दिन काट रहे थे। वे इस तरह निरुद्देश्य होकर काम करने की स्थिति में क्यों पहुँच गए थे? इसका संबंध किस बात से था? एक वस्तुनिष्ठ कारण यह हो सकता है कि इसका संबंध अगुआओं से था। उनके पास अच्छे अगुआ नहीं थे, उनका कोई भी अगुआ सत्य का अनुसरण नहीं करता था, बल्कि इसके बजाय वे पारस्परिक संबंध बढ़ाने और कुटिल गतिविधियों में संलग्न रहते थे। और, व्यक्तिपरक कारण क्या था? वह यह था कि उनमें से कोई भी सत्य का अनुसरण नहीं कर रहा था। क्या सत्य का अनुसरण न करने वाले ऐसे लोगों के गिरोह के लिए, अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक और मानक के अनुसार निर्वाह करना आसान है? (नहीं।) किंतु, क्या सत्य का अनुसरण न करने वालों के गिरोह और कुछ छद्म-विश्वासियों के लिए कुटिल गतिविधियों में संलग्न होना, अनमना रहना और ऊपरवाले का विरोध करना आसान है? (हाँ।) और ऐसे लोगों के गिरोह के लिए नीचे गिरना और गैर-विश्वासियों की तरह पतित हो जाना आसान है? यह बहुत आसान है, और यही वह मार्ग था जिसका वे अनुसरण कर रहे थे। अपना कर्तव्य करने की आड़ में वे परमेश्वर के घर का खाना खाते थे, परमेश्वर के घर के स्वामित्व वाले आवास में रहते थे, और परमेश्वर का घर उन्हें सहारा देता था। उन्होंने परमेश्वर के घर से धोखे से भोजन-पानी पाया, फिर भी वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने और पुरस्कार पाने की उम्मीद करते थे—वे इस तरह की चालबाजी पर निर्भर होकर जीवनयापन कर रहे थे। जब मसीह-विरोधी ने कलीसिया के काम में बाधा डाली, तो उनमें से किसी एक ने भी ऊपरवाले को कोई समस्या नहीं बताई। केवल एक महिला ने एक झूठे अगुआ को समस्या बताई, और इसका परिणाम यह हुआ कि मामला हल नहीं हुआ। अन्य लोग अंधे थे, और कलीसिया में इतनी सारी समस्याएँ पैदा होते देखकर भी उन्होंने उनकी रिपोर्ट नहीं की। परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को बदलने के सिद्धांत स्पष्ट रूप से बताए गए हैं, लेकिन किसी ने भी उन पर ध्यान नहीं दिया, बल्कि उस मसीह-विरोधी के साथ निरुद्देश्य होकर दिन गुजारते रहे। इन छद्म-विश्वासियों में, एक तरफ वे लोग थे जो 20 से अधिक वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास कर रहे थे, और दूसरी तरफ वे लोग थे जो कम से कम पाँच वर्षों से विश्वास कर रहे थे, और किसी ने भी इन समस्याओं की सूचना नहीं दी। लेकिन इससे भी बुरा क्या था? वहाँ कई महिला टीम लीडर और डिप्टी टीम लीडर थीं जो इस मसीह-विरोधी के साथ इश्कबाजी करती थीं, और उसका ध्यान आकर्षित करने के लिए एक-दूसरे से होड़ करती थीं। जब कोई पुरुष और महिला एक-दूसरे में रुचि लेने लगते हैं, तो वयस्क और बुजुर्ग इसे एक नजर में आसानी से देख लेते हैं। पुरुषों और महिलाओं के बीच संबंधों के मामले में सभी लोग संवेदनशील होते हैं, और वे एक नजर में ही जान सकते हैं कि क्या चल रहा है। परंतु, किसी ने इसकी रिपोर्ट नहीं दी, कोई भी उन्हें फटकारने या उजागर करने के लिए खड़ा नहीं हुआ, और कोई भी उन्हें पहचान नहीं सका। यह देखते हुए कि वे मसीह-विरोधी की अगुआई वाला गिरोह थे, क्या कोई आगे आया और बोला, “मैं तुम लोगों का अनुसरण नहीं कर सकता। मुझे इसकी रिपोर्ट उच्च अगुआओं को देनी चाहिए और तुम लोगों को हटवा देना चाहिए, या फिर तुम लोगों को निकाल बाहर करने के लिए न्याय की भावना रखने वाले कुछ भाई-बहनों को संगठित करना चाहिए”? नहीं, किसी ने ऐसा नहीं किया। इस मामले के उजागर होने तक किसी ने इसकी रिपोर्ट नहीं की। ये किस तरह के लोग थे? क्या वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी थे? क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग थे? (नहीं।) उनकी नाक के नीचे इतनी बड़ी बात हो रही थी और उन्हें इसकी जानकारी भी नहीं थी, क्या सत्य का अनुसरण न करने वाले ये लोग अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने में सक्षम थे? अपने कर्तव्य के प्रति उनका रवैया कैसा था? स्पष्टतः वे केवल मुफ्तखोर थे, जो दिन-ब-दिन मुफ्तखोरी करते थे। उनका मानना था कि वे परमेश्वर के घर में आसानी से निरुद्देश्य जीवन बिताते रह सकते हैं, अगर कोई समस्या नजर आए तो भी किसी को कुछ नहीं कहना चाहिए, किसी को किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, और अगर वे “बॉस” को नाराज करते हैं, तो बहुत बुरा होगा, और उनके लिए इसके परिणाम बुरे होंगे। अगर तुम लोगों को नाराज करने से डरते हो और ऐसा करने की हिम्मत नहीं करते, तो क्या तुममें परमेश्वर को नाराज करने की हिम्मत है? अगर तुम परमेश्वर को नाराज करते हो, तो क्या परिणाम तुम्हारे लिए अच्छे होंगे? परमेश्वर तुमसे कैसे निपटेगा? क्या उसके परिणाम नहीं होंगे? (हाँ, होंगे।) उसके परिणाम होंगे। निश्चित रूप से यह कोई मुख्य कारण नहीं था कि वे किसी को ठेस पहुंचाने से डरते थे। मुख्य कारण यह था कि वे दुष्ट लोग थे जिन्हें सत्य से कोई प्रेम नहीं था। सत्य का अनुसरण न करने के अलावा, उन्होंने कई मूर्खतापूर्ण काम भी किए। कनाडा की कलीसिया में बहुत ज्यादा लोग नहीं थे, फिर भी उनकी बहुत बड़ी-बड़ी महत्वाकांक्षाएँ थीं। उनके कर्तव्य प्रदर्शन का स्पष्ट रूप से कोई परिणाम नहीं मिल रहा था, फिर भी वे अपने काम के दायरे का विस्तार करना चाहते थे और संपत्तियाँ खरीदने में व्यस्त थे, लेकिन अंत में बिना किसी फायदे के एक संपत्ति के लिए धन का भुगतान किया। अब इनमें से अधिकांश लोगों को अलग-थलग कर दिया गया है। मुझे बताओ, ऐसे लोग क्या हैं? क्या वे जंगली जानवरों और दुष्टों का झुंड नहीं हैं? स्पष्टतः, वे कुछ भी नहीं हैं, फिर भी उन्होंने चढ़ावे को इस तरह से बर्बाद कर दिया। कोई भी परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं कर रहा था, किसी में न्यायप्रियता नहीं थी—वे केवल राक्षसों का एक समूह हैं! यह वास्तव में क्रोध दिलाने वाली बात है!

कनाडा के कलीसिया में बहुत ज्यादा लोग नहीं थे, मात्र कुछ सौ लोग थे। वे अपने कर्तव्य-निर्वहन का ज्यादा प्रयास नहीं करते थे, अपने कर्तव्य की उपेक्षा करते थे और गुटबाजी करते थे, सभी निरुद्देश्य होकर दिन काट रहे थे। क्या यह क्रोधित करने वाली बात नहीं है? वे काम में अक्षम थे और कोई प्रगति नहीं कर पाए, वे सभी एक साथ मिलकर काम नहीं कर रहे थे बल्कि एक-दूसरे के खिलाफ साजिश रच रहे थे। अगुआ कुछ दूसरे लोगों के साथ मिल कर कुटिल गतिविधियों में लगे हुए थे, और किसी में भी कोई तत्परता नहीं थी, किसी को भी गुस्सा नहीं आया, और न ही किसी को भी इन बातों से कोई दुःख हुआ। किसी ने इस मामले पर प्रार्थना नहीं की, न ही उन्होंने ऊपरवाले से सहायता की तलाश या मांग की। किसी ने ऐसा नहीं किया, और कोई भी यह कहने आगे नहीं आया कि, “यह ठीक नहीं है कि हम अपने कर्तव्य ऐसे कर रहे हैं। हम जो कर्तव्य कर रहे हैं, वह हमें परमेश्वर से मिला आदेश है, और हम परमेश्वर को निराश नहीं कर सकते!” उनके पास किसी चीज की कमी नहीं थी, उनके पास पर्याप्त लोग थे, और पर्याप्त उपकरण थे। उनके पास किस चीज की कमी थी? उनके पास जो कमी थी, वह थी अच्छे लोगों की। कोई भी कलीसिया के काम को लेकर बोझ वहन नहीं कर था, न ही कोई परमेश्वर के घर के काम की रक्षा कर सकता था, न कोई आगे आकर बोल सकता था, न ही पहचानने के बारे में सत्य पर संगति कर सकता था, ताकि सभी लोग उठकर झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचान सकें और उन्हें उजागर कर सकें; किसी ने ऐसा नहीं किया। क्या ऐसा इसलिए था क्योंकि ये दुष्ट लोग अंधे थे और नहीं देख पा रहे थे कि क्या हो रहा है, या इसलिए कि वे काबिलियत की कमी और अधिक उम्र के कारण भ्रमित थे? (दोनों में से कोई भी कारण नहीं था।) कारण इनमें से कोई नहीं था। तो असली स्थिति क्या थी? वे सभी मसीह-विरोधी के साथ थे, सभी एक-दूसरे का बचाव करते हुए एक-दूसरे के तलवे चाट रहे थे, कोई भी किसी को उजागर नहीं कर रहा था, सभी बस राक्षसों की उस माँद में घूम रहे थे। क्या उन्होंने कभी अपने कर्तव्य या परमेश्वर के आदेश के बारे में सोचा? (नहीं।) वे आत्म-भर्त्सना के भाव से रहित होकर बस इसी तरह से जैसे-तैसे काम निपटाना चाहते थे। यह कैसी परिघटना है कि उन लोगों में आत्म-भर्त्सना का कोई भाव ही नहीं था? यह ऐसी घटना है जिसमें पवित्र आत्मा उन पर काम नहीं कर रहा था, और परमेश्वर ने उन्हें छोड़ दिया था। परमेश्वर द्वारा उन्हें त्याग देने का एक और स्पष्टीकरण है, और वह यह है कि अपने कर्तव्य, सत्य और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये के साथ-साथ उनके विचारों के कारण, परमेश्वर उनसे चिढ़ गया था और वे उस कर्तव्य को करने के योग्य नहीं रह गए थे। यही कारण है कि उनमें कोई आत्म-निंदा या अनुशासन नहीं दिखा, उनके अंतःकरण में कोई जागृति नहीं आई, और उन्हें कोई प्रबुद्धता या प्रकाशन नहीं मिला, उनकी कोई काट-छाँट नहीं हुई, न्याय नहीं किया गया या ताड़ना नहीं हुई। ये चीजें उनके लिए अप्रासंगिक थीं, वे सभी चेतनाशून्य थे, और शैतानों से अलग नहीं थे। वे वर्षों से परमेश्वर के घर में धर्मोपदेश सुन रहे थे, और उन्होंने मसीह-विरोधियों को पहचानने और अपने कर्तव्य को मानक के अनुसार निभाने के तरीके पर भी धर्मोपदेश सुने थे, लेकिन क्या उन्होंने इस दौरान सत्य की खोज की और उसे स्वीकार किया? क्या उन्होंने मसीह-विरोधियों को पहचाना? क्या उन्होंने मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर कोई बहस की? नहीं, उन्होंने ऐसा नहीं किया। यदि उन्होंने वास्तव में ऐसा किया होता, तो निश्चित रूप से थोड़े से ऐसे लोग होते जो खड़े होकर मसीह-विरोधियों की पोल खोल सकते थे और उनकी रिपोर्ट कर सकते थे, और चीजें इतनी बुरी नहीं होतीं जितनी कि वे हुईं। वे बस उलझे हुए और बेकार लोगों का एक समूह थे! उनकी वास्तविक स्थिति, उनके व्यवहार और उन्हें दिए गए वर्गीकरण के अनुसार, मैंने उन्हें अलगाव और चिंतन की अवधि के लिए समूह “ब” में भेज दिया। क्या इस मामले को इस तरह से सँभालना मेरे लिए अतिचारी होना था? (नहीं।) नहीं, यह बिल्कुल भी हद से आगे बढ़ना नहीं था। और यदि यह अतिचार नहीं था, तो क्या इसे पूरी तरह से उचित नहीं माना जा सकता है? यह उन्हें कुछ मौका देने के लिए किया गया था। कैसा मौका? अगर उनमें सचमुच थोड़ी मानवता और अंतश्चेतना है, अगर वे पश्चाताप कर पाते हैं और अपना रास्ता बदल सकते हैं, तो उन्हें कलीसिया में वापस आने का मौका मिलेगा; अगर उनमें पश्चाताप करने की इच्छा भी नहीं है, तो वे अपने शेष जीवन के लिए अलग-थलग ही रहेंगे, और कलीसिया द्वारा उन्हें बाहर भी कर दिया जाएगा। ऐसा ही है। उन्हें पश्चाताप करने का मौका देने के लिए तुरंत बाहर नहीं निकाला गया। वे कह सकते हैं, “हमने यह बुरा काम किया, और परमेश्वर तुम क्रोधित हो गए और हमें अलग-थलग कर दिया। भले ही हमने पहले अपना कर्तव्य निभाकर कोई पुण्य नहीं कमाया हो, लेकिन हमें निश्चित रूप से इसके लिए कष्ट उठाना पड़ा। तुम इसे क्यों नहीं देखते?” लेकिन वास्तव में, उन्हें अलग-थलग करने में पर्याप्त उदारता दिखती है, अन्यथा उनके कार्यों और व्यवहार के आधार पर उन्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए था। उनके इस रवैये को देखो—वे कितने खतरे में हैं! तो, इस मामले को कैसे सँभाला जाना चाहिए? मुझे अपने नजरिए को दो चरणों में विभाजित करना होगा : पहला चरण उन्हें अलग-थलग करना है, और दूसरा चरण अलगाव की अवधि के दौरान उनकी परिस्थिति और उनके व्यक्तिगत व्यवहार के आधार पर उन्हें वैसे सँभालना है जैसे मुझे ठीक लगे, और यह तय करना है कि उन्हें कलीसिया में रखना है या बाहर निकालना है। क्या यह उनके प्रति पर्याप्त नरमी दिखाना नहीं है?

कनाडा के कलीसिया के उन लोगों ने बहुत सारे बुरे काम किए थे और उनके व्यवहार के अनुसार उन्हें अलग-थलग करना बहुत नरमी दिखाने जैसा है, ऐसे में कुछ लोगों के मन में अब भी इस मामले से निपटने के तरीके के बारे में अपने ही विचार क्यों हैं? कुछ लोग कहते हैं, “हो सकता है कि इस मामले को उस तरह से सँभालना तुम्हारे लिए सही रहा हो, लेकिन इसमें अब भी थोड़ी-सी समस्या है। कनाडा की कलीसिया के लोगों ने इन परिणामों को खुद ही न्योता था और उनके साथ वही हुआ जो होना चाहिए था, लेकिन क्या तुम इस मामले से ऐसे निपटकर दूसरों के लिए मिसाल कायम करने के लिए उन्हें कठोर दंड नहीं दे रहे हो?” क्या यह सही समझ है? (नहीं।) मैंने कुछ लोगों को यह कहते हुए सुना है, “इसे सँभालने का यही सही तरीका है। दूसरों के लिए मिसाल कायम करने के लिए, उन्हें दूसरों के लिए एक चेतावनी जैसा बनाने के लिए, और दूसरों तक संदेश भेजने की ताकत दिखाते हुए तुम्हें उन लोगों को कठोर दंड देना चाहिए।” क्या यह किसी गैर-विश्वासी के कथन जैसी बात नहीं है? यह इन स्थितियों पर किसी गैर-विश्वासी का दृष्टिकोण है। तुम लोग शायद अभी तक इस समस्या का सार देखने में सक्षम नहीं हो, और इसीलिए तुम अभी भी एक गैर-विश्वासी का नजरिया व्यक्त कर पा रहे हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि किसी का ऐसा कहना थोड़ा घिनौना है? यदि तुम लोग इस मामले की व्याख्या करने के लिए ऐसे शब्दों का उपयोग करते हो, तो तुम ऐसी बातें कह रहे हो जो मुद्दे से हटकर हैं, और चीजें ऐसी नहीं हैं। तो, इस मामले को मैंने जैसे सँभाला उसका वर्णन तुम कैसे करोगे? (तुमने इसे सिद्धांतों के अनुसार सँभाला है।) यह सही है, मैंने इसे सिद्धांतों के अनुसार सँभाला है; कहने के लिए यह एक व्यावहारिक बात है। कोई और बताना चाहेगा? क्या उन लोगों ने अपने लिए खुद ही ये स्थितियाँ पैदा नहीं की थीं? (हाँ।) और इसका वर्णन करने का सबसे सरल तरीका क्या है? (उन्हें उनका उचित फल मिला।) यह सही है, उनके व्यवहार के आधार पर उन्हें उनका उचित दंड मिला और वे स्वयं ही ये स्थितियाँ खुद पर लाए थे। परमेश्वर सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करता है; वह लोगों के व्यवहार के अनुसार प्रतिफल देता है। इसके अलावा, लोगों को अपने कामों के परिणाम भुगतने चाहिए और जब वे गलत काम करते हैं, तो उन्हें दंड मिलना चाहिए—यह उचित है। परमेश्वर लोगों से उनके व्यवहार के अनुसार प्रतिफल देता है; प्रचलित शब्दावली में कहें तो यह कनाडा की कलीसिया के उन लोगों को प्रतिफल देना है और उन्हें सिद्धांतों के अनुसार सँभालना है। मुझे बताओ कि मैंने उनके बारे में जो कुछ उजागर किया है, उनमें से कौन-सी बातें तथ्य नहीं हैं? इन मामलों के बारे में मेरे कौन से विश्लेषण और परिभाषाएँ, या मेरा किया कौन-सा वर्गीकरण तथ्य नहीं है? वे सभी तथ्य हैं। इसलिए, इन अभिव्यक्तियों और उनके कार्यों और व्यवहार के अनुसार उन्हें प्रतिफल दिया गया है—इसमें क्या गलत है? तो, दूसरों को संदेश भेजने की ताकत दिखाना, दूसरों के लिए उदाहरण स्थापित करने के लिए लोगों को कठोर दंड देना और लोगों को दूसरों के लिए एक चेतावनी जैसा बनाना—क्या इन कार्यों की प्रकृति वैसी ही है जैसे मैंने कनाडा के कलीसिया के मामले को सँभाला है? (नहीं।) तो, दूसरों के लिए उदाहरण स्थापित करने के लिए लोगों को कठोर दंड क्यों दिया जाए? इसकी प्रकृति क्या है? दूसरों के लिए उदाहरण स्थापित करने के लिए लोगों को कठोर दंड देना, दूसरों को संदेश देने की ताकत दिखाना और लोगों को दूसरों के लिए एक चेतावनी जैसा बनाना—इन तीनों कार्यों की प्रकृति मूलतः एक जैसी है। वह प्रकृति क्या है? वह किसी शासक या शक्तिशाली व्यक्ति द्वारा किसी विशिष्ट परिस्थिति में किया जाने वाला कुछ ऐसा काम है जो उसे अपना अधिकार स्थापित करने और दूसरों को डराने के लिए आवश्यक लगता है। इसे दूसरों के लिए उदाहरण स्थापित करने के लिए लोगों को कठोर दंड देना कहा जाता है। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य क्या होगा? यह इसलिए होगा कि दूसरे लोग उसकी आज्ञा का पालन करें, उससे डरें, और भयभीत महसूस करें, उसके सामने बिना सोचे-समझे काम न करें और उसके सामने जो दिल चाहे वह न करें। क्या उसका ऐसा करना सिद्धांतों के अनुरूप होगा? (नहीं।) तुम यह क्यों कहते हो कि ऐसा करना सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होगा? कार्रवाई करने के पीछे एक शासक की अपनी अभिप्रेरणा होती है और उसकी अपने शासन को सुदृढ़ करने तथा अपनी शक्ति की रक्षा करने की भी अभिप्रेरणा होगी। वह इस मामले पर हंगामा खड़ा करना चाहेगा, और यह उसके कार्य की प्रकृति होगी। कनाडा की कलीसिया से संबंधित प्रकरण सँभालने का मामला सत्य सिद्धांतों पर आधारित था, न कि गैर-विश्वासियों के शैतानी फलसफों पर। उस मसीह-विरोधी ने लोगों को गुमराह किया, कलीसिया के काम में बाधाएं और गड़बड़ियाँ पैदा कीं और पूरी कलीसिया को उलट-पुलट दिया, फिर भी अधिकांश लोग उसके बचाव में बोलते रहे—उनके कार्यों की प्रकृति वास्तव में बहुत घिनौनी है! इस तरह से निरुद्देश्य जीवन बिता रहे लोगों के लिए बेहतर होता कि वे कलीसिया को छोड़कर अपनी मर्जी का जीवन जीते। कम से कम तब एक अच्छी बात यह होती कि परमेश्वर के घर के संसाधन बर्बाद नहीं होते। लेकिन क्या उन्होंने ऐसा किया? उनकी अंतश्चेतना में ऐसी जागरूकता नहीं थी, और उन्होंने परमेश्वर के घर के वित्तीय और भौतिक संसाधनों को बर्बाद किया, उन्होंने अपना कर्तव्य निभाने में मेहनत नहीं की, और वे मसीह-विरोधी के साथी बनकर उसके साथ मिलकर कुकर्म करते थे—इन कार्यों की प्रकृति बहुत गंभीर है! परमेश्वर के घर ने उन्हें इस तरह से सँभाला है जिससे कि वे चिंतन करें और खुद को जानें, ताकि वे अपना रास्ता बदलें और पश्चाताप करें, और यह सब उनके लाभ के लिए है। अगर उन्हें सँभाला नहीं गया होता, तो अब से एक साल बाद शायद वे सभी परमेश्वर को धोखा दे चुके होते और सामान्य दुनिया में वापस लौट जाते। सौभाग्य से, उन्हें एकदूसरे से अलग कर दिया गया और समय रहते उन्हें सँभाला गया, और इस काम ने और भी अधिक लोगों को बुराई करने से बचा लिया और कलीसिया के काम का और अधिक नुकसान होने से बचा लिया। ऐसा करके उन्हें बचाया जा रहा है या निकाला जा रहा है? (उन्हें बचाया जा रहा है।) उन्हें वास्तव में बचाया जा रहा है। यह कार्रवाई उनकी मदद करने, उन्हें चेतावनी देने, उनके लिए खतरे की घंटी बजाने और यह बताने के लिए की गई थी कि उनका इस तरह से कार्य करना सही नहीं था, कि अगर वे इस तरह से चलते रहे तो वे आध्यात्मिक तबाही भोगेंगे और उनका नाश हो जाएगा और उद्धार पाने की सारी उम्मीदें खो जाएँगी। यदि वे इस बिंदु को समझ सकें, तो उनके पास अभी भी उम्मीद है। अगर वे इस बिंदु को भी नहीं समझ सकते, और हताश होते हैं, पतित होते हैं और निराशा में पड़ना जारी रखते हैं, ऊपरवाले का विरोध करते हैं और अपनी धारणाओं को नकारात्मक मनोदशा में व्यक्त करते हैं, तो वे मुश्किल में पड़ जाएंगे। तुम लोग उनके लिए क्या चाहते हो? (कि वे पश्चाताप करें।) तुम सभी चाहते हो कि वे ठीक हो जाएँ और पश्चाताप करें। और मैं उनके लिए क्या चाहता हूँ? क्या मैं चाहता हूँ कि वे पश्चाताप न करें, कि मैं उन सभी को निकाल बाहर करूँ, कि इन लोगों के न रहने से कलीसिया बेहतर हो जाएगी? क्या मैं यही चाहता हूँ? (नहीं।) नहीं, मैं यही नहीं चाहता। मैं चाहता हूँ कि वे ठीक हों और पश्चाताप करें, कि पश्चाताप करने के बाद वे परमेश्वर के घर लौट आएँ, और फिर से अपने कर्तव्यों का पालन पहले जैसे बुरे तरीके से न करें। वह पद क्या है? “अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्चाताप करें” (योना 3:8)। जहाँ तक उनका सवाल है, अगर वे ऐसा कर सकें तो यह आजीवन अमिट रहने वाली यादगार बात होगी और उनके लिए यह असाधारण अनुभव होगा, यह घटनाक्रम अद्भुत बन जाएगा। यह सब इस पर निर्भर करता है कि वे व्यक्तिगत रूप से क्या हासिल करने की कोशिश करते हैं।

कनाडा के कलीसिया में मसीह-विरोधी का मामला सँभाले जाने के बाद कुछ लोग सोच रहे थे, “इन लोगों ने कई सालों तक अपना कर्तव्य निभाया है, और फिर भी एक मसीह-विरोधी के उभरने और व्यवधान पैदा करने की वजह से वे अलग-थलग कर दिए गए हैं।” उन्हें संकट का एहसास होता है क्योंकि वे सोचते हैं, “ओह, यह पहली बार है जब मैंने परमेश्वर को क्रोधित होकर लोगों को श्राप देते देखा है। मसीह-विरोधी के सहयोगियों, साथियों और अनुयायियों को भी नहीं छोड़ा गया। परमेश्वर को वास्तव में किसी की भावनाओं की कोई परवाह नहीं है! आम तौर पर अक्सर कहा जाता है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है और उस पर दया करता है, लेकिन इस बार तो उसका गुस्सा वास्तव में असहनीय है!” इस सोच के साथ वे बेचैनी महसूस करते हैं। मुझे बताओ, क्या लोगों का इस तरह से सोचना सही है? (नहीं।) सही क्यों नहीं है? लोगों को इस मामले को कैसे देखना चाहिए? तुम लोग कितने सालों से धर्मोपदेश सुन रहे हो? क्या तुम्हें कम से कम पाँच साल नहीं हो गए? और क्या हमें कई मामलों में आम सहमति नहीं हासिल करनी चाहिए, खासकर उन मामलों में जहाँ सिद्धांत अपेक्षाकृत स्पष्ट हैं? (हाँ।) “आम सहमति” का क्या मतलब है? इसका मतलब है एक तरह की मौन समझ। मैं कुछ करूं और तुम लोगों को इसका कारण न बताऊं, फिर भी तुम लोगों को अच्छी तरह से पता हो कि ऐसा क्यों हुआ, तुम उसे समझने, स्वीकार करने और सकारात्मक दृष्टिकोण से बूझने में सक्षम हो—मौन समझ का यही मतलब है। यह मौन समझ कैसे आती है? मान लो कि तुमने कई उपदेश सुने हैं, एक निश्चित स्तर की सत्य की समझ हासिल की है, और हम एक-दूसरे को पहले से ज्यादा जान चुके हैं। मैंने तुम्हें कई चीजें समझाई हैं, और तुम्हें अपना दृष्टिकोण, अपने विचार, कार्रवाई के सिद्धांत आदि के साथ वे चीजें भी बताई हैं जिन्हें तुम्हें समझने और करने की आवश्यकता है। मैंने तुम लोगों को ये सभी चीजें बताई हैं और अपने विचार बताए हैं, और उसके बाद तुम लोगों ने मेरे विचारों को स्वीकार कर लिया है, और मेरे विचारों के अनुरूप ही तुम तमाम चीजों, अपने कर्तव्य, आस्था, जीवन और अन्य लोगों से पेश आए हो। तब क्या हमारे बीच मौन समझ बढ़ती नहीं जाएगी? (हाँ।) तो, क्या हम कनाडा की कलीसिया का मामला सँभालने के संबंध में इस तरह की मौन समझ तक पहुँच गए हैं? अगर मैं मामले को जैसे स्पष्ट कर रहा हूँ, वैसे न करता तो हमारी मौन समझ का क्या मतलब होता? “दूसरों के लिए मिसाल कायम करने के लिए लोगों को कठोर दंड देना,” और “लोगों को दूसरों के लिए एक चेतावनी जैसा बनाना”—क्या यह हमारी मौन समझ है? (नहीं।) इन लोगों ने तो कई वर्षों तक धर्मोपदेश सुने हैं, तो मेरे यह कदम उठाने पर उनकी प्रतिक्रिया ऐसी कैसे हो सकती है? बताओ कि उनके ऐसे विचार सुनकर मुझे कैसा लगा? मुझे लगा कितना दुःखद है कि लोगों ऐसी बातें कह सकते हैं! मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या मुझे ऐसा महसूस करना चाहिए था? (हाँ।) तुम ऐसा क्यों कहते हो? ऐसा इसलिए कि इस तरह का कथन, इस तरह का दृष्टिकोण, इस तरह की समझ और इस तरह का अंतर्बोध होना या सामने आना नहीं चाहिए था। अब ऐसी बातें सामने आई हैं, और वे मेरे लिए अनपेक्षित हैं। वे मेरे आकलन और अपेक्षाओं से इतनी दूर हैं कि मुझे इस मामले पर शर्म आती है! कोई कहेगा, “क्या यह इतना गंभीर मामला है? क्या तुम बात का बतंगड़ नहीं बना रहे हो?” तो, मैं तुम्हें बता दूँ यह कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन यह कोई छोटी बात भी नहीं है। जब तुम परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू करते हो, जब तुम स्वीकार करते हो कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर और तुम्हारा प्रभु है, जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना चाहते हो, परमेश्वर का अनुसरण करना चाहते हो, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना चाहते हो, और परमेश्वर तुमसे जो कुछ भी कहे, उसे स्वीकार करना चाहते हो, उस दिन से तुम परमेश्वर के साथ एक रिश्ता बना लेते हो। एक बार जब तुम यह रिश्ता बना लेते हो, तो तुम्हारे और परमेश्वर के बीच एक अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या मौजूद होती है। वह समस्या क्या है? वह यह है कि यदि तुम परमेश्वर जो करता है उसे और परमेश्वर के व्यवहार के तरीकों को स्वीकार नहीं कर सकते, यदि तुम इन चीजों को नहीं समझ सकते, और तुम उन्हें तलाशने और समझने की पहल नहीं कर सकते, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता हर पल संकट की स्थिति में रहेगा। और संकट की यह स्थिति क्या प्रदर्शित करती है? तुम परमेश्वर के कितने ही वचन खाओ और पियो, तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की कितनी भी योजना बनाओ, जब तक यह संकट की स्थिति एक दिन के लिए भी मौजूद है, तब तक परमेश्वर का अनुसरण करने की तुम्हारी इच्छा और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने की तुम्हारी इच्छा नष्टप्राय है, यह अस्थिर हो सकती है, और कल्पना मात्र बन सकती है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? जब तक परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता सामान्य नहीं है और जब तक यह संकट की स्थिति बनी रहती है, तब तक क्या तुम परमेश्वर के साथ सामान्य रिश्ता बनाए रख पाओगे? तब, परमेश्वर के साथ तुम्हारा कैसा रिश्ता होगा? क्या यह अनुकूलता वाला रिश्ता होगा? क्या यह किसी पारिवारिक रिश्ते जैसा, या सहकर्मियों के बीच के रिश्ते जैसा होगा? वास्तव में यह किस तरह का रिश्ता होगा? जब तक परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता संकट की स्थिति में है, तब तक संभव होगा कि तुम किसी भी समय और स्थान पर परमेश्वर के कार्यों और व्यवहार की आलोचना करो और उसे गलत समझो, और तुम परमेश्वर द्वारा की जाने वाली चीजों का विरोध कर सकते हो और उन्हें स्वीकारने से मना कर सकते हो। तो क्या तब तुम खतरे में नहीं पड़ोगे? यह खतरा कैसे आता है? यह इसलिए आता है कि तुम परमेश्वर को नहीं जानते। हम सकारात्मक पक्ष से नहीं, बल्कि नकारात्मक पक्ष से बात करेंगे। उदाहरण के लिए, तुम हमेशा परमेश्वर को एक निश्चित तरीके से देखते हो, और सोचते हो कि परमेश्वर पृथ्वी पर एक राजा है, सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी है, सर्वोच्च व्यक्ति है और जो यहाँ सत्ता का प्रयोग करता है। अपने मन में तुम हमेशा सोचते हो कि परमेश्वर कोई है जो इस तरह की स्थिति में है और इसलिए इस आधार पर तुम परमेश्वर द्वारा की और कही जाने वाली चीजों पर क्या दृष्टिकोण अपनाओगे? मैं कुछ उदाहरण देता हूँ जिनसे तुम लोग समझ सकोगे कि मैं किस दृष्टिकोण की बात कर रहा हूँ। दुनिया में एक कहावत है : “राजा और भालू अक्सर अपने रक्षकों की चिंता का कारण बनते हैं।” तो, क्या ऐसे लोग हैं जो इस कहावत को परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते पर लागू करते हैं? (हाँ।) ऐसे लोग हैं, और बहुत-से लोग परमेश्वर के बारे में यही दृष्टिकोण रखते हैं। एक और कहावत है जिसका हमने पहले उल्लेख किया है, “लोगों को दूसरों के लिए एक चेतावनी जैसा बनाना।” क्या यह बात भी परमेश्वर को पृथ्वी पर कोई राजा या प्रभावशाली और हैसियत वाला व्यक्ति नहीं बनाती? (हाँ, ऐसा ही है।) यह परमेश्वर के बारे में उनकी समझ है क्योंकि परमेश्वर के बारे में यही उनका दृष्टिकोण है, और चूँकि परमेश्वर के साथ उनका इसी तरह का रिश्ता है, इसलिए वे उसे इसी तरह से देखते हैं, क्योंकि वे उसकी पहचान और हैसियत को ऐसा ही समझते हैं, इसलिए वे परमेश्वर को वैसे ही देखते हैं जैसे वे दुनिया में किसी रुतबे वाले व्यक्ति को देखते हैं—यह स्वाभाविक है। एक और कहावत है : “अपने दबदबे वाले इलाके में किसी और का दखल कैसे बर्दाश्त होगा?” यह सांसारिक राजाओं और रुतबे और प्रभाव वाले लोगों के बारे में बात करने का एक तरीका है। तुममें से कुछ लोग ऐसे लोगों को जानते होंगे या पहले उनसे जुड़े होंगे, और शायद तुम लोग भी इस कहावत को परमेश्वर पर लागू करते हो। अर्थात्, जब परमेश्वर कुछ करता है या कहता है, तो तुम परमेश्वर को उन कहावतों के साथ जोड़ सकते हो और परमेश्वर को उसी तरह से देख सकते हो। यदि तुम परमेश्वर का सम्मान उसी तरह से करते हो और उसके बारे में ऐसा ही परिप्रेक्ष्य रखते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता वास्तव में कैसा होगा? यह विरोधात्मक होगा। अपने मन में तुम परमेश्वर की कितनी भी प्रशंसा करो और उससे कितना भी डरो, तुम चाहे जितने आज्ञाकारी रहो और तुम उसके प्रति कितना भी समर्पण करो, और उसके प्रति चाहे जैसा रवैया रखो, परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता अभी भी विरोधात्मक होगा। तुम लोग सोच सकते हो कि इस तरह से बोलते हुए मेरे शब्द थोड़े अमूर्त लगते हैं, लेकिन अगर तुम उन पर ध्यान से विचार करो, तो क्या तुम्हें नहीं दिखता कि चीजें ऐसी ही हैं? जब मैंने कनाडा के कलीसिया में मसीह-विरोधी से संबंधित मामला सँभाला था, तो मैंने तुम लोगों को सावधानी से और विस्तार से सारी बातें नहीं समझाई थीं, और मैंने तुम्हें वे कारण भी नहीं बताए थे कि उन लोगों से संबंधित मामला मैंने क्यों सँभाला, और बहुत-से लोग अपनी संभावनाओं और नियति के बारे में चिंतित हो गए थे। यह चिंता कहाँ से उत्पन्न हुई? यह लोगों द्वारा परमेश्वर के बारे में गलत समझ रखने और परमेश्वर को न जानने से उत्पन्न हुई थी—यही मूल कारण था! यदि परमेश्वर के बारे में तुम लोगों की समझ परमेश्वर के सार के अनुरूप हो—उदाहरण के लिए, यदि परमेश्वर की धार्मिकता, अधिकार और बुद्धि के बारे में तुम लोगों की समझ सत्य के अनुरूप हो—तो परमेश्वर कुछ भी करे, भले ही तुम लोग उसके कारणों को न समझो और परमेश्वर के इरादों को न समझो, क्या तुम परमेश्वर को गलत समझोगे? नहीं, बिल्कुल नहीं। एक बार जब मैंने कनाडा की कलीसिया से जुड़े मुद्दे को सँभाला था, तो कुछ लोगों ने कहा, “यह उन्हें चेतावनी जैसा बना देने और हमें डराने के लिए किया गया था।” उनकी समस्या क्या है? क्या उन्होंने जो कहा वह सत्य के अनुरूप है? क्या यह सही समझ दिखाता है? (नहीं।) क्यों नहीं? मैं तुम्हें एक बहुत ही सरल बात बताता हूँ : उनकी समझ वास्तविक स्थिति के विपरीत थी, तथ्य वैसे नहीं थे, और वे उन तथ्यों को गलत तरीके से समझ रहे थे। क्या यह आसान-सा कथन नहीं है? (हाँ।) तो तुम लोग इस मुद्दे की व्याख्या के लिए इतना कठिन प्रयास क्यों करते हो? मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा, और मैं कभी किसी को डराना नहीं चाहता था। ज्यादातर लोग पिछले कुछ वर्षों में अपने कर्तव्य की प्रभावोत्पादकता में लगातार सुधार कर रहे हैं, तो क्या वे अब अपने कर्तव्यों को मानक के अनुसार करते हैं? नहीं, ऐसा नहीं हैं, फिर भी ये लोग अपने कर्तव्य में मानक के अनुसार होने की प्रक्रिया में हैं, और यदि कोई छोटी-मोटी समस्याएँ हैं तो मैं उन पर ध्यान नहीं देता। इस प्रक्रिया के दौरान कुछ लोग व्यवधान पैदा कर सकते हैं, कुछ लोग चीजों को टाल सकते हैं, या कुछ लोगों के बीच कोई छोटी-मोटी समस्याएँ आ सकती हैं, लेकिन कुल मिलाकर, वे काफी अच्छे हैं। हालाँकि, एक बात है जिसे तुम्हें नहीं भूलना चाहिए : तुम अपना कर्तव्य निभाने आए हो। तुम चाहे जितनी भी मेहनत करो, या कितने भी कष्ट झेलो, या तुम्हारी कितनी भी काट-छाँट हो, तुम्हें परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हें यह अवसर दिया है ताकि तुम सभी तरह की अलग-अलग परिस्थितियों का अनुभव कर सको और तुम्हारे पास सभी तरह के व्यक्तिगत अनुभव हों और तुम तमाम स्थितियों का सामना करो। यह अच्छी बात है, और यह सब इसलिए किया गया है ताकि तुम सत्य समझ सको। तो, तुम लोग किस बात को लेकर चिंतित हो? तुम किससे सावधान रह रहे हो? ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। बस सामान्य रूप से सत्य का अनुसरण करो, अपना सही स्थान खोजो, और अपना कर्तव्य और जो काम सामने आए उसे अच्छी तरह से करो, बस यही काफी है। यह तुम लोगों से बहुत बड़ी माँग नहीं है।

जिस क्षण से कनाडा की कलीसिया में मसीह विरोधी आया और उसने व्यवधान डालना शुरू किया, उससे लेकर तब तक जब तक कि वे लोग उस स्थिति में नहीं पहुँच गए जिसमें आज हैं, मैंने उन्हें कितने लंबे समय तक बर्दाश्त किया है? वहाँ जो हो रहा था मैं उससे पूरी तरह से अनजान नहीं था, पर मैंने लंबे समय तक इसे बर्दाश्त किया। मैंने कितना बर्दाश्त किया? लंबे समय तक वे काम पूरे करने असमर्थ रहे, उन्होंने अपने काम में कोई प्रगति नहीं की, और उनमें से कोई भी अपने मुख्य मामलों पर ध्यान नहीं देता था; वे सभी मनमाने और जल्दबाज, भ्रष्ट और अनियंत्रित थे, और उन्हें बहुत पहले ही सँभाला जाना चाहिए था। यदि तुम लोग भी मनमाने, लापरवाह और अपने उचित मामलों पर ध्यान न देने वाले बन सकते हो, तो इस बात का इंतजार न करो कि मैं इन मामलों को संभालूगा। इसके बजाय, पहल करो और यह सब छोड़ दो; यह अधिक सम्मानजनक होगा। क्या ऐसा करना सही होगा? नहीं, ऐसा करना भी सही नहीं होगा। छोड़ने के बारे में मत सोचते रहो, तुम्हें एकाग्रचित्त होकर यहाँ जड़ें जमानी होंगी और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना होगा। तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा पाओ या नहीं, कम से कम उसमें अपना मन तो लगाओ और सुनिश्चित करो कि अंततः तुमने सभी दिए गए कार्य पूरे कर लिए हैं। भगोड़े न बनो। कुछ लोग कहते हैं, “मेरी काबिलियत कम है, मैं बहुत शिक्षित नहीं हूँ और मुझमें कोई प्रतिभा नहीं है। मेरे व्यक्तित्व में दोष हैं और मुझे अपने कर्तव्य में हमेशा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अगर मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा पाया और मेरी जगह कोई और ले लिया गया तो मैं क्या करूँगा?” तुम्हें किस बात का डर है? क्या यह काम तुम अकेले पूरा कर सकते हो? तुमने अभी-अभी एक भूमिका ली है, तुमसे पूरा काम अकेले करने के लिए नहीं कहा जा रहा है। बस वही काम करों जो तुम्हें करना चाहिए, बस इतना ही काफी है। क्या तब तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर ली होंगी? यह इतना आसान है; तुम हमेशा इतने चिंतित क्यों रहते हो? तुम्हें डर है कि गिरती हुई पत्तियाँ तुम्हारे सिर पर गिरेंगी और तुम्हारा सिर फाड़ देंगी, और तुम सबसे पहले अपनी खुद की आकस्मिक समय के लिए बनाई गई योजनाओं के बारे में सोचते हो—क्या यह बेकार नहीं है? यहाँ “बेकार” का क्या मतलब है? इसका मतलब है प्रगति करने की कोशिश न करना, अपना सब कुछ देने के लिए तैयार न होना, हमेशा मुफ्तखोरी और अच्छी चीजों का आनंद लेने की चाहत रखना—इस तरह के लोग कूड़ा-कर्कट हैं। कुछ लोग बहुत ही संकीर्ण सोच वाले होते हैं। हम ऐसे लोगों की व्याख्या कैसे कर सकते हैं? (वे बेहद तुच्छ हैं।) एक बेहद तुच्छ व्यक्ति नीच होता है, और कोई भी नीच व्यक्ति अपने खुद के नीच मानकों से एक सज्जन व्यक्ति के चरित्र को माप सकता है और दूसरों को अपने जैसा ही स्वार्थी और नीच मान सकता है। ये लोग किसी काम के नहीं हैं, और भले ही वे परमेश्वर में विश्वास करते हों, उनके लिए सत्य को स्वीकार करना आसान नहीं होगा। किसी व्यक्ति में किस कारण से बहुत कम आस्था होती है? ऐसा उनके द्वारा सत्य न समझने के कारण होता है। यदि तुम बहुत कम सत्यों को समझते हो और उनके बारे में तुम्हारी समझ बहुत उथली है, तो परिणामस्वरूप तुम परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्यों, परमेश्वर द्वारा की जाने वाली चीजों और परमेश्वर द्वारा तुमसे की जाने वाली अपेक्षाओं को नहीं समझ सकते, यदि तुम ऐसी समझ नहीं विकसित कर सकते, तो परमेश्वर के बारे में तुम्हारे मन में सभी प्रकार के संदेह, कल्पनाएँ, गलतफहमियाँ और धारणाएँ उत्पन्न होंगी। यदि तुम्हारा हृदय केवल इन्हीं चीजों से भरा है, तो क्या तुम परमेश्वर में सच्ची आस्था रख सकते हो? परमेश्वर में तुम्हारी सच्ची आस्था नहीं है, और इसीलिए तुम हमेशा बेचैन महसूस करते हो, और चिंता करते हो कि पता नहीं कब तुम्हें बदल दिया जाएगा। तुम डर महसूस करते हो और सोचते हो, “परमेश्वर कभी भी निरीक्षण करने के लिए यहाँ आ सकता है।” सहज रहो! जब तक तुम लोग परमेश्वर के घर द्वारा सौंपे गए काम को अच्छी तरह से करते हो, तब भले ही तुम सत्य और जीवन प्रवेश के अनुसरण में कुछ कमजोर रहो, मैं इसे अनदेखा कर दूँगा। जहाँ तक तुम लोगों के सभाओं में भाग लेने और धर्मोपदेश सुनने, तुम्हारे कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने का सवाल है, मैं उन चीजों की निगरानी नहीं करने जा रहा, और जब तुम्हारे काम की बात आती है तो मैं तुम्हें परेशान नहीं करूँगा। मैं तुम्हें परेशान क्यों नहीं करूँगा? इसके कई कारण हैं। एक कारण यह है कि विभिन्न व्यावसायिक कौशलों से तुम मुझसे ज्यादा परिचित हो। पिछले कुछ वर्षों के काम की प्रक्रिया में तुम लोगों ने अपने अनुभव या व्यावसायिक कौशल में सुधार किया होगा और अपने काम का एक कार्यक्रम बना लिया होगा। लिखित या मौखिक, तुमने कुछ नियमों-विनियमों का संक्षिप्तीकरण किया होगा। मुझे नहीं पता कि तुम लोग किस तरह से काम करते हो, और तुम्हारी कार्य योजनाओं और काम करने के तौर-तरीकों को बिगाड़ने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। तुम अपनी खुद की शैली या पैटर्न, या नियमों-विनियमों का पालन कर सकते हो, और तुम आसान और सुविधाजनक लगने वाले ऐसे तरीके से काम कर सकते हो जिससे हर कोई स्वतंत्र और मुक्त महसूस करे और जिसके परिणामस्वरूप दक्षता का स्तर ऊंचा हो। मतलब, मैं तुम लोगों को तुम्हारे काम में पूरी स्वतंत्रता देता हूँ। यद्यपि मैं कभी-कभी कलीसियाओं के आसपास घूमता हूँ, लेकिन मैं रास्ते से हट जाता हूँ, ताकि तुम मुझे न देखो—मैं तुम लोगों को स्वतंत्र और मुक्त महसूस कराने की पूरी कोशिश करता हूँ। मैं ऐसा क्यों करता हूँ? तुममें से कोई भी बहुत ज्यादा पेशेवर कौशल नहीं रखता; तुम्हें सीखने की प्रक्रिया के हिस्से के रूप में धीरे-धीरे अपने तरीके से आगे बढ़ने की जरूरत है। चाहे लोग पेशेवर कौशल सीख रहे हों या सत्य में प्रवेश कर रहे हों, उन सभी की प्रगति की दर और दक्षता का स्तर अलग-अलग होते हैं। तुम लोगों को ऐसी चीजें करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते जो उनकी क्षमताओं से परे हों। लोगों को एक प्रक्रिया से गुजरना चाहिए, विफलताओं, रुकावटों का अनुभव करना चाहिए, या अपनी गलतियों से कुछ सबक सीखते हुए फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ने का एक तरीका निकालना चाहिए और सभी क्षेत्रों में कुछ सिद्धांतों में महारत हासिल करनी चाहिए। ऐसा होने पर वे प्रगति कर रहे होंगे। तुम लोगों की अपनी कार्यशैली और अपने तरीके हैं—इन मामलों में तुम लोगों को परेशान करना मेरे लिए अनुचित होगा। इसलिए मैं तुम्हारे काम से संबंधित इन मामलों पर चर्चा में बहुत कम ही शामिल होता हूँ। यह वह कारण है जो तुम लोगों से संबंधित है। एक प्राथमिक कारण भी है जिसका संबंध मुझसे है। ईमानदारी से कहूँ तो तुम लोग जो देखने और सोचने में सक्षम हो, चाहे वह पेशेवर कौशल की बात हो या कला के संदर्भ में हो, वह सब मुझे बहुत उथला लगता है और सत्य के संदर्भ में, वह मुझे और भी उथला लगता है। यदि मैं तुम लोगों को तेजी से प्रगति करने के लिए मजबूर करने की कोशिश करूँ तो क्या तुम लोग उसे सहन कर पाओगे? नहीं, तुम सहन नहीं कर पाओगे। यदि मैं तुम्हारे बीच अपनी इच्छानुसार कार्य करूँ, तो तुमसे मेरी माँगें तुम्हारे पेशेवर कौशल के वर्तमान वास्तविक स्तर और जीवन प्रवेश के संबंध में तुम्हारे वास्तविक आध्यात्मिक कद से बड़ी होंगी। मैं ऐसा नहीं करना चाहता, क्योंकि यह मुझे बहुत थकाने वाला होगा, और इससे तुम पर बहुत जोर पड़ेगा। हम दोनों ही एक अजीब स्थिति में पड़ जाएंगे और ये अच्छा नहीं होगा; और यह वह नहीं है जो मैं देखना चाहता हूँ। इस मामले पर ये मेरे विचार हैं, और चीजें ऐसी ही हैं। इसके दो कारण हैं : एक जो तुमसे संबंधित है, और एक यह कि इस मामले पर मेरे अपने विचार हैं, मैंने चीजों को इस तरह से सँभाला है। चीजों को इस तरह से सँभालना तुम लोगों के चरणबद्ध विकास के लिए उपयुक्त है। जीवन प्रवेश के संदर्भ में, तुम्हारे पास परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें हैं, सभी प्रकार की सभाएँ और उपदेश हैं, और ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता भी हैं जो तुम्हें सींचते हैं और तुम्हें सहारा देते हैं; ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें तुम खा सकते हो, पी सकते हो, और जिनसे पोषण प्राप्त कर सकते हो। दूसरा पहलू यह है कि लोगों के जीवन विकास की प्रक्रिया मिट्टी में बोए गए बीज के समान होती है, जिसे सींचा जाता है और खाद दी जाती है, फिर वह धीरे-धीरे अंकुरित होकर तब तक बढ़ता रहता है जब तक कि वह अंततः फल न देने लगे। यह बहुत धीमी प्रक्रिया होती है। बेशक, तुम जिस धीमी प्रक्रिया से गुजरते हो, वह बीज के अंकुरण से लेकर फलदायी होने तक बढ़ने की प्रक्रिया से भी धीमी हो सकती है। ऐसा क्यों है? लोगों में बहुत-से व्यावहारिक और वस्तुनिष्ठ कारण निहित होते हैं। एक कारण यह है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, लेकिन हम इस बारे में बात नहीं करेंगे। दूसरा यह है कि लोग निष्क्रिय होते हैं और अक्सर नकारात्मक हो जाते हैं। वे आलसी होते हैं, और जब सत्य और सकारात्मक चीजों की बात हो तो वे संज्ञाशून्य और मंथर होते हैं। इसके अलावा, लोग सकारात्मक चीजें पसंद नहीं करते। इसलिए, जब लोग सत्य में प्रवेश कर जीवन प्रवेश पाने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें कठिन संघर्ष करना होता है, क्योंकि वे धारा के विरुद्ध चल रहे होते हैं। लोगों के लिए प्रवाह के साथ चलते रहना, मुफ्तखोरी करना, धर्मनिरपेक्ष दुनिया के पीछे पड़े रहना और रुझानों का अनुसरण करना आदि धारा के साथ बहना है, जो आसान है, और व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से देखें तो लोग वास्तव में इसी तरह से कार्य करना चाहते हैं। परंतु, सत्य का अनुसरण करना, न्यायसंगत कार्यों को करना, और अपने उचित कार्यों को पूरा कर सकने वाला न्यायप्रिय व्यक्ति होना उनके लिए बहुत कठिन है। उन्हें अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं, अपनी भावनाओं, अपनी धारणाओं के विरुद्ध विद्रोह करना होगा, और उन्हें अपने आलस्य और अन्य प्रतिकूल और नकारात्मक चीजों के विरुद्ध भी विद्रोह करना होगा। जब वे लोगों, काम के भागीदारों या ऐसे वातावरण का सामना करते हैं जो उनकी कल्पना के अनुसार न हों, या जब वे परेशान करने वाली या अप्रिय बातें सुनते हैं, तो उन्हें इससे उबरने के लिए प्रार्थना पर भरोसा करना चाहिए, और इसलिए उन्हें परमेश्वर में विश्वास करने के दौरान सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। यदि वे असाधारण रूप से दृढ़ हैं और अविश्वसनीय ऊर्जा के साथ सत्य का अनुसरण करते हैं, तो वे एक या दो साल के अनुभव के बाद कुछ प्रगति कर सकेंगे। अन्यथा, यदि वे अपनी मर्जी से काम करते हैं और चीजों को उनके स्वाभाविक तरीके से चलने देते हैं, तो वे बहुत धीमी गति से प्रगति करेंगे। शायद कुछ समय बाद उन्हें किसी विशेष घटना का सामना करना होगा, जिसका उनके लिए असाधारण महत्व होगा, और वे एक सबक सीखेंगे, उनकी काट-छाँट की जाएगी, और अपने अंतरतम हृदय में वे बहुत अधिक चोट खाएँगे और बहुत प्रभावित होंगे, और उसके बाद ही वे अपने जीवन प्रवेश के मामले में बेहतरी के लिए थोड़ा-सा बदलाव कर पाएँगे। क्या बेहतरी के लिए यह बदलाव उन्हें प्रगति करने में सक्षम बना सकेगा? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। उनकी प्रगति इस बात पर निर्भर करेगी कि इस अवधि के दौरान वे सत्य की खोज कैसे करते हैं। यदि वे ऐसे लोग हैं जो केवल बहाने बनाते हैं, जो दैहिक सुखों में लिप्त हैं, और जो वास्तव में सत्य से प्रेम नहीं करते, तो उन्हें इस घटना से केवल एक सतही सबक मिलेगा, और वे सत्य की समझ हासिल नहीं कर पाएंगे। तुम जिस धीमी गति से जीवन प्रगति कर रहे हो, उसी के अनुसार मैं तुम लोगों के साथ संबंध में यह दूरी बनाए रखता हूँ और यह तरीका अपनाता हूँ। क्या तुम लोगों को लगता है कि यह उचित है? (हाँ।) तुम लोगों के लिए यह बहुत फायदेमंद है; कम से कम तुम लोग सहज महसूस करोगे। मैं तुम लोगों पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं डालूंगा, तुम लोगों पर दिन भर नजर नहीं रखूंगा, ऐसा नहीं होगा कि मैं तुम्हें दिन के 24 घंटों में कभी आराम न करने दूँ, और तुम्हें कड़ी मेहनत और बिना रुके काम करने के लिए मजबूर करूं। मैं ऐसा करने की कोशिश नहीं करूंगा, बल्कि इसके बजाय चीजों को स्वाभाविक तरीके से चलने दूंगा। क्या इसका मतलब यह है कि तुम मौज-मस्ती में डूब सकते हो? (नहीं।) तो मैं कैसे पूरे विश्वास के साथ तुम लोगों पर निगाह न रखने का विकल्प चुन सकता हूँ? क्योंकि पवित्र आत्मा जाँच करता है। इसके अलावा, अगर कोई सत्य का अनुसरण करता है, अपने अंतरतम हृदय में सत्य की जरूरत महसूस करता है और सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार है, तो भले ही तुम उसे न देख रहे हो, फिर भी वह सत्य का अनुसरण कर रहा होगा—वह भला आदमी है जो अपने उचित मामलों पर ध्यान देता है। अगर वह अच्छा आदमी न हो, तो तुम्हारे उस पर नजर रखने से भी कोई फायदा नहीं होगा। जब तुम उसे देखते हो, तो वह तुम्हारे प्रति अनमना व्यवहार करने के लिए ऊपरी तौर पर एक तरीके से काम करता है, और एक पल के लिए भी तुम्हारी नजर हटते ही वह ठीक वैसे ही काम करने लगता है जैसे वह सामान्यतः करता है और फिर से वैसा ही हो जाता है जैसे वह पहले था। सत्य का अनुसरण ऐसी चीज नहीं है जिसकी निगरानी की जा सके। यह ऐसी चीज है जिसे मैं अच्छी तरह समझता हूँ, और इसीलिए मैं तुम लोगों से जुड़ने और बातचीत करने के लिए इस तरीके को अपनाता हूँ। मेरे लिए ऐसा करना पूरी तरह से उचित है।

क्या कनाडा की कलीसिया का मामला अब स्पष्ट रूप से नहीं समझा दिया गया है? और क्या तुम लोगों ने इस मामले से कुछ सत्यों को समझा है? यदि भविष्य में तुम फिर से इस तरह के मामले का सामना करते हो, तो क्या तुम तब भी कहोगे कि यह दूसरों के लिए मिसाल कायम करने के लिए, और उन्हें दूसरों के लिए एक चेतावनी जैसा बनाने के लिए कठोर दंड देने का मामला है? ऐसा होने से पहले तुम लोगों को लगता था कि कोई भी परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते को नहीं तोड़ सकता और तुम पहले से ही परमेश्वर के सुसंगत हो। परंतु, इस मामले से सामना होने के बाद तुम्हारा छोटा आध्यात्मिक कद प्रकट हो गया। कौन-सा आध्यात्मिक कद? तुम सोचते थे कि तुम भारी बोझ उठा सकते हो और पीड़ा सह सकते हो, कि तुम्हारा संकल्प और आस्था पहले से अधिक हैं, और तुम जल्द ही पूर्ण बना दिए जाओगे; यह वह गलत समझ थी जो तुमने अपने दिल में पाल रखी थी। और अब तुम क्या सोचते हो? तुम्हारी सोच थोड़ी कच्ची थी! मुझे देखो : मैं बाहर से ऐसा दिखता हूँ, मुझे छुआ और देखा जा सकता है—क्या मेरे व्यक्तित्व को खुला और स्पष्ट माना जा सकता है? मेरे व्यक्तित्व से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मैं ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ जो किसी समस्या के उत्पन्न होने पर तुमसे गोपनीयता बरतता हो और तुम्हें कुछ नहीं बताता हो, जो चुपचाप कार्रवाई करता हो और फिर तुम लोगों को अपने इरादों के बारे में अनुमान लगाने के लिए छोड़ देता हो। मैं उस तरह का व्यक्ति नहीं हूँ। चाहे कोई भी समस्या उत्पन्न हो, मैं हमेशा तुम लोगों को उसे स्पष्ट रूप से समझाता हूँ, फिर भी, तुम लोग सारांश में ऐसे मत व्यक्त करते और कहते हो कि, “यह परमेश्वर के बारे में मेरी सर्वोच्च समझ है।” इस समझ के बारे में तुम क्या सोचते हो? तुम अब एक सबक पा गए हो, है न? क्या यह नहीं कहा जा सकता है कि परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ के संबंध में यह तुम लोगों की सबसे बड़ी विफलता रही है? तुम लोग मेरे बोले शब्दों को सुन सकते हो और मेरा चेहरा-मोहरा देख सकते हो, और मैं मांस और रक्त से बना व्यक्ति हूँ जिसे छुआ और देखा जा सकता है। मैंने वह कार्रवाई की और तुम लोगों में से कोई भी उसे समझ नहीं पाया, और हम आम सहमति तक नहीं पहुँच पाए—हमारे बीच थोड़ी-सी भी मौन समझ नहीं थी। तुम परमेश्वर से बहुत दूर हो! तुम लोग अभी भी परमेश्वर को समझने से बहुत दूर हो! ये सत्य वचन हैं; यही वास्तविक स्थिति है। यह मत सोचो कि तुम लोग अपना थोड़ा-बहुत कर्तव्य कर सकते हो, कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास कर रहे हो, और कुछ धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात कर सकते हो सिर्फ इसलिए तुम लोग परमेश्वर को समझते हो। मैं तुम लोगों को बता दूँ कि तुम्हारी सोच अधकचरी है! यह मत सोचो कि तुम लोग वास्तव में एक-दो बातें जानते हो। वास्तव में, तुम लोग अभी भी परमेश्वर को समझने से बहुत दूर हो; तुमने इस समझ के किनारे को भी नहीं छुआ है। लोगों को किसी भी मामले में प्रकट किया जा सकता है, और कनाडा की कलीसिया के इस मामले से निपटने के क्रम में कुछ लोग प्रकट हुए हैं। लोगों को निरंतर विकसित होना चाहिए, और परमेश्वर के कृत्यों और स्वभाव के बारे में जानने के क्रम में विभिन्न परिस्थितियों और घटनाओं के माध्यम से स्वयं को और परमेश्वर को लगातार समझना चाहिए, अपनी विद्रोहशीलता को समझना चाहिए, परमेश्वर के साथ अपने संबंध को सटीक रूप से समझना चाहिए, और स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि सत्य के बारे में उनकी समझ और ज्ञान, तथा परमेश्वर के बारे में उनकी समझ किस स्तर पर है। इन मामलों के माध्यम से, तुम्हारा सच्चा आध्यात्मिक कद और सच्ची स्थिति मापी जाएगी। क्या तुम लोगों ने इस बार कोई सबक सीखा है? कोशिश करो कि अगली बार तुम्हारी समझ ऐसी न हो। यह बहुत पीड़ाकारी है, बहुत ही अधिक अविश्वसनीय है! क्या तुम लोग सोचते हो कि इस मामले को समझाने में इतना लंबा समय लगाना उचित था? इसकी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी। मैं क्यों कहता हूँ कि इसकी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी? तुम लोगों ने जो वचन और धर्म-सिद्धांत समझे हैं, उनके अनुसार इस पर स्वयं चिंतन करके, और सभी के साथ मिलकर इस पर संगति करके, तुम लोगों को इस मामले की बाधाओं को पार कर लेना चाहिए था; तुम लोगों को इसे अपेक्षाकृत शुद्ध तरीके से समझने में सक्षम होना चाहिए था और तुम्हारी समझ इतनी चरम सीमा तक नहीं जानी चाहिए थी। लेकिन, जैसा कि सामने है, तुम लोगों की चरम समझ उभर आई है जिससे मेरे लिए कुछ विवरणों पर संगति करना आवश्यक हो गया है। क्या इस संगति को सुनने के बाद अब तुम्हारे दिल उज्ज्वल नहीं हुए? तुम लोगों का अब इस मामले में कोई और विचार नहीं होना चाहिए, है न? तो, क्या जिस तरह से मैं उन लोगों से निपटा, उसे तुम लोग अतिवादी मानते हो? (नहीं।) आओ, इस मामले पर चर्चा यहीं समाप्त करें, और मैं मुख्य विषय पर संगति शुरू करूँ।

मसीह-विरोधियों के दुष्ट, धूर्त और कपटी होने का गहन-विश्लेषण

पिछली बार हमने मसीह-विरोधियों की सातवीं अभिव्यक्ति—वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं—पर संगति की थी। हमने मुख्य रूप से किस पहलू पर संगति की थी? हमने इस बारे में बात की थी कि मसीह-विरोधी किस तरह से दुष्ट हैं। हम उन्हें दुष्ट क्यों कहते हैं? उनके प्रकृति सार में कौन-से विशेष स्वभाव, अभिव्यक्तियाँ और लक्षण उन्हें दुष्ट, धूर्त और कपटी के रूप में वर्गीकृत कर सकती हैं? वे कौन-से स्पष्ट लक्षण हैं जो साबित करते हैं कि उनमें दुष्टता मौजूद है, और कि वह उनकी वास्तविक परिस्थितियों से मेल खाती है? उनके प्रकृति सार की वे मुख्य विशेषताएँ क्या हैं जो हमें यह कहने का कारण देती हैं कि इस तरह के लोग दुष्ट हैं? कृपया अपने विचार साझा करो। (बहुत-से मसीह-विरोधी सत्य समझते हैं, लेकिन वे धृष्टतापूर्वक इसके खिलाफ रहते हैं। भले ही वे स्पष्ट रूप से जानते हों कि क्या सही है, वे हठपूर्वक अपने स्वयं के रास्ते पर चलने पर जोर देते हैं। मसीह-विरोधियों की दुष्टता इसमें भी अभिव्यक्त होती है कि वे वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाले और सकारात्मक व्यक्तियों के प्रति निराधार शत्रुता रखते हैं।) (मसीह-विरोधी दूसरों को सफल होते नहीं देखना चाहते। वे परमेश्वर के घर से भाई-बहनों को दिए जाने वाले लाभों का आनंद केवल अपने लिए चाहते हैं—वे नहीं चाहते कि भाई-बहन उन लाभों का आनंद लें, इसलिए वे इन लाभों को उन तक नहीं पहुँचाते।) (परमेश्वर, तुम्हारी पिछली संगति ने इस बारे में मुझ पर गहरी छाप छोड़ी थी कि मसीह-विरोधी कैसे परमेश्वर और सत्य का उपयोग रुतबा हासिल करने के साधन के रूप में करते हैं, मुझे लगता है कि यह विशेष रूप से दुष्टता है।) तुम लोगों में से अधिकांश को कुछ बातें याद हैं, यानी, वे कुछ उदाहरण याद हैं जो मैंने मसीह-विरोधियों के दुष्ट सार पर संगति करते हुए दिए थे। तुम लोगों को केवल उदाहरण याद हैं, लेकिन तुम लोगों ने मसीह-विरोधियों के दुष्ट सार पर मेरी संगति और उसके विश्लेषण की विषय-वस्तु को भुला दिया है। तब, मसीह-विरोधियों के दुष्ट प्रकृति सार के बारे में संगति और गहन विश्लेषण करते समय मैंने जिन सत्यों को छुआ था, उनमें से कितनों को तुम लोग समझ सकते हो? चूँकि तुम लोग उन बातों को याद नहीं कर सकते, तो क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि तुमने उस समय उनमें से किसी भी बात को नहीं समझा था? मेरी संगति ने यदि तुम लोगों पर गहरी छाप छोड़ी होती, तो क्या तुम लोग उन्हें कुछ हद तक याद नहीं रख पाते? क्या तुम्हें याद रहने वाली चीजें वे नहीं होतीं जिन्हें तुम समझ पाते हो? क्या जिन चीजों को तुम लोग याद नहीं रख पाते, वे वही नहीं हैं जिन्हें समझना तुम लोगों को बहुत मुश्किल लगता है, या जिन्हें तुम समझ ही नहीं सकते? जब तुमने उस समय उन सत्यों को सुना, तो तुमने सोचा कि वे सही हैं, और तुमने उन्हें धर्म-सिद्धांतों के तौर पर याद किया, और ऐसा करने में तुम्हें बहुत मेहनत करनी पड़ी। परंतु, रात में सोने के बाद तुम उन्हें भूल गए। एक महीने बाद तो वे पूरी तरह से गायब हो गए। क्या ऐसा ही नहीं होता है? किसी मामले या व्यक्ति के सार को अच्छी तरह समझने के लिए, तुम्हें सत्य समझने की जरूरत होती है। यदि तुम अभी भी गैर-विश्वासियों के दृष्टिकोण से चिपके रहते हो, और गैर-विश्वासियों के कथनों के आधार पर चीजों को देखते और विचार करते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम सत्य नहीं समझते। यदि सालों तक धर्मोपदेश और संगति सुनने के बाद भी तुम उनसे कुछ भी हासिल नहीं कर सके हो, और जब लोग तुम्हारे साथ सत्य पर संगति करते हैं तो वे चाहे जैसे भी समझाएँ तुम उसे समझ नहीं पाते, तो यह सत्य समझने की तुम्हारी क्षमता की कमी प्रदर्शित करता है, इसे खराब काबिलियत कहा जाता है। क्या यही मामला नहीं है? (हाँ।) मसीह-विरोधियों की दुष्टता के बारे में तुम लोगों में से किसी ने भी सबसे महत्वपूर्ण कथन का उल्लेख नहीं किया। तुमने इसका उल्लेख क्यों नहीं किया? एक लिहाज से, ऐसा इसलिए है क्योंकि काफी समय हो गया है और तुम लोग इसे भूल गए हो। दूसरे लिहाज से, ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोग इस कथन के महत्व को नहीं समझ सके थे; तुम लोग नहीं जानते थे कि यह ऐसा महत्वपूर्ण कथन है जो मसीह विरोधियों के दुष्ट सार को अनावृत करता और उसे उजागर करता है। यह कथन क्या है? वह कथन है कि मसीह विरोधियों की दुष्टता मुख्यतः सभी सकारात्मक चीजों और सत्य से संबंधित हर चीज के प्रति शत्रुता और घृणा में प्रकट होती है। मसीह-विरोधी लोग इन सकारात्मक चीजों से शत्रुता और घृणा क्यों महसूस करते हैं? क्या इन सकारात्मक बातों ने उन्हें नुकसान पहुंचाया होता है? नहीं। क्या इन चीजों का उनके हितों से कोई संबंध है? कभी-कभार शायद हाँ, तो कभी-कभी बिल्कुल नहीं। तो फिर मसीह-विरोधी क्यों सकारात्मक चीजों के प्रति निराधार शत्रुभाव रखते हैं और उनसे घृणा करते हैं? (यह उनकी प्रकृति है।) उनकी प्रकृति ऐसी है कि वे सभी सकारात्मक चीजों और सत्यों के प्रति शत्रुता और गहरी नापसंदगी रखते हैं। यह मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति की पुष्टि करता है। यह कथन महत्वपूर्ण है या नहीं? तुम लोगों को इतना महत्वपूर्ण कथन भी याद नहीं है; तुम्हें केवल वे चीजें याद हैं जो महत्वपूर्ण नहीं हैं। मैंने तुम लोगों से वे प्रश्न क्यों पूछे? ताकि तुम लोग बोलो और मैं देख सकूँ कि तुम लोग इन चीजों को किस हद तक समझते हो, अपने मन में उन्हें कितना याद रख सकते हो, और उस समय इन्हें कितना समझ सके थे। जैसी उम्मीद थी, तुम लोगों को केवल कुछ छोटी-मोटी चीजें ही याद हैं। मैंने जिन चीजों के बारे में बात की थी उसे तुम लोग बेमतलब बकवास जैसा मानते हो। मैं यहाँ बातचीत करने नहीं आया हूँ—मैं तुम लोगों को यह बताने आया हूँ कि लोगों को कैसे पहचाना जाए। मैंने जो कथन व्यक्त किया है वह बात मसीह विरोधियों की दुष्ट प्रकृति को पहचानने के लिए सर्वोच्च सत्य सिद्धांत है। यदि तुम इस कथन को व्यवहार में नहीं लागू कर सकते, तो तुम मसीह विरोधियों की दुष्ट प्रकृति को नहीं पहचान या जान पाओगे। उदाहरण के लिए, जब किसी व्यक्ति को मसीह-विरोधी के रूप में परिभाषित किया जाता है, तो कुछ लोग कह सकते हैं, “हमारे लिए तो वह अच्छा है, प्रेमपूर्ण है, और हमारी मदद करता है। ऐसे अच्छे व्यक्ति को मसीह-विरोधी के रूप में क्यों परिभाषित किया जाए?” वे यह नहीं समझते कि यद्यपि मसीह विरोधी ऊपरी तौर पर दूसरों के प्रति प्रेमपूर्ण दिखाई दे सकते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी करते और बाधा डालते हैं, और विशेष रूप से परमेश्वर का विरोध करते हैं। उनका यह धूर्ततापूर्ण और चालाकी भरा पक्ष कुछ ऐसा है जिसे अधिकांश लोग नहीं देख पाते। वे इसे बिल्कुल भी नहीं समझ सकते, और वे परमेश्वर को गलत समझ बैठते हैं, परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बनाते हैं, और यहाँ तक कि इसके कारण परमेश्वर की निंदा और शिकायत भी करते हैं। ऐसे लोग बदमाश होते हैं और वे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे केवल सतही मामलों को देखते हैं, जैसे कि मसीह-विरोधी कैसे लोगों को फँसाते हैं, फुसलाते हैं और उनकी चापलूसी करते हैं, और वे मसीह-विरोधियों के दुष्ट सार को नहीं देखते, न ही वे उन तरीकों को देखते हैं जिनका उपयोग मसीह-विरोधी परमेश्वर का विरोध करने और स्वतंत्र राज्यों की स्थापना करने के लिए करते हैं। वे इन चीजों को क्यों नहीं देख पाते? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य नहीं समझते और लोगों को नहीं पहचान पाते। वे हमेशा बाहरी परिघटनाओं से गुमराह होते हैं और समस्या के सार और परिणामों को साफ-साफ नहीं समझ पाते। वे लोगों का मूल्यांकन करने और उन पर फैसले सुनाने के लिए हमेशा नैतिकता और दुनियादार तरीकों वाली पारंपरिक मानवीय धारणाओं का उपयोग करते हैं। परिणामस्वरूप, मसीह-विरोधी उन्हें गुमराह कर लेते हैं, वे मसीह-विरोधियों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं, और उनके तथा परमेश्वर के बीच संघर्ष और टकराव पैदा होते हैं। यह किसका दोष है? यह गलती कैसे हुई? यह उनके सत्य को न समझने, परमेश्वर के कार्य को न जानने और हमेशा लोगों और चीजों को अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर देखने के परिणामस्वरूप होता है।

II. नकारात्मक चीजों से मसीह-विरोधियों के प्रेम का गहन-विश्लेषण

आज, हम मसीह विरोधियों की सातवीं अभिव्यक्ति—वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं—पर संगति जारी रखेंगे। यह अभिव्यक्ति उनकी दुष्टता पर केंद्रित है, क्योंकि दुष्टता में धूर्तता और कपट दोनों शामिल हैं। दुष्टता मसीह विरोधियों के सार को दर्शाती है, जबकि धूर्तता और कपट उसके अधीनस्थ तत्व हैं। पिछली बार, हमने मसीह विरोधियों के दुष्ट सार पर संगति करते हुए उसे उजागर किया था। हमने कुछ व्यापक अवधारणाओं और कुछ तुलनात्मक परिभाषा करने वाली सामग्री पर संगति की थी जिसमें मसीह-विरोधियों के सार के इस पहलू को उजागर करने से संबंधित कुछ शब्द शामिल थे। आज, हम इस विषय पर अपनी संगति जारी रखेंगे। कुछ लोग पूछ सकते हैं कि “क्या इस विषय में संगति करने लायक कोई चीज है?” हाँ है। कुछ विवरण हैं जिन पर अभी भी यहाँ संगति करने की आवश्यकता है। हम आज इस विषय पर एक अलग तरीके से और एक अलग दृष्टिकोण से संगति करेंगे। मसीह विरोधियों की दुष्ट प्रकृति के जिस मुख्य लक्षण और अभिव्यक्ति पर हमने पिछली बार संगति की थी, वे क्या थे? मसीह-विरोधियों जैसे लोग सभी सकारात्मक चीजों और सत्य के प्रति शत्रुता और गहरी वितृष्णा महसूस करते हैं। सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति उनकी शत्रुता और वितृष्णा के लिए किसी कारण की आवश्यकता नहीं होती, न ही यह किसी के उकसावे के परिणामस्वरूप होता है, और यह निश्चित रूप से उन पर किसी दुष्ट आत्मा का कब्जा हो जाने का परिणाम नहीं होता। इसके बजाय, वे स्वाभाविक रूप से इन चीजों को पसंद नहीं करते हैं। अपने जीवन और समूचे अस्तित्व के आंतरिक ढाँचे में वे इन चीजों के प्रति शत्रुता और घोर वितृष्णा महसूस करते हैं; जब वे सकारात्मक चीजों का सामना करते हैं तो उन्हें विकर्षण महसूस होता है। यदि तुम परमेश्वर की गवाही देते हो या उनके साथ सत्य के बारे में संगति करते हो, तो उनमें तुम्हारे प्रति घृणा पैदा हो जाएगी, और वे तुम पर हमला करने तक का मन बना सकते हैं। अपनी पिछली संगति में हमने मसीह-विरोधियों द्वारा सकारात्मक चीजों के प्रति शत्रुता और घृणा महसूस किए जाने के इस पहलू को शामिल किया था, इसलिए हम इस बार इस पर फिर से चर्चा नहीं करेंगे। इस संगति में हम एक और पहलू का पता लगाएंगे। वह दूसरा पहलू क्या है? मसीह विरोधी सकारात्मक चीजों के प्रति शत्रुता और घृणा महसूस करते हैं, तो उन्हें पसंद क्या है? आज हम मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति का गहन विश्लेषण इस पक्ष और परिप्रेक्ष्य से करेंगे। क्या यह आवश्यक है? (हाँ।) यह आवश्यक है। क्या तुम लोग इसे अपने आप समझ सकते हो? (नहीं।) सकारात्मक चीजों और सत्य के प्रति मसीह-विरोधियों की नापसंदगी उनकी दुष्ट प्रकृति है। इसलिए, इस आधार पर ध्यान से विचार करो कि मसीह-विरोधियों को क्या पसंद है, और वे किस तरह की चीजें करना पसंद करते हैं, साथ ही कोई चीज करने में उनके काम करने का तरीका और साधन क्या होता है, और वे किस तरह के लोगों को पसंद करते हैं—क्या उनके दुष्ट प्रकृति को देखने का यह एक बेहतर परिप्रेक्ष्य और पक्ष नहीं है? यह अधिक विशिष्ट और वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण प्रदान करता है। सबसे पहले, मसीह-विरोधियों को सकारात्मक चीजें पसंद नहीं होतीं, जिसका अर्थ है कि वे उनके प्रति शत्रुता रखते हैं और नकारात्मक चीजें पसंद करते हैं। नकारात्मक चीजों के कुछ उदाहरण क्या हैं? झूठ और चालबाजी—क्या ये नकारात्मक चीजें नहीं हैं? हाँ, झूठ और चालबाजी नकारात्मक चीजें हैं। तो, झूठ और चालबाजी का सकारात्मक प्रतिरूप क्या है? (ईमानदारी।) ठीक कहा, यह ईमानदारी है। क्या शैतान को ईमानदारी पसंद है? (नहीं।) उसे चालबाजी पसंद है। परमेश्वर की मनुष्यों से सबसे पहली अपेक्षा क्या होती है? परमेश्वर कहता है, “यदि तुम मुझ पर विश्वास करना चाहते हो और मेरा अनुसरण करना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले किस तरह का व्यक्ति होना चाहिए?” (एक ईमानदार व्यक्ति।) तो, शैतान लोगों को सबसे पहले क्या करना सिखाता है? झूठ बोलना। मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति का पहला प्रमाण क्या है? (चालबाजी।) हाँ, मसीह-विरोधियों को चालबाजी पसंद है, उन्हें झूठ पसंद है, और ईमानदारी से उन्हें अरुचि और घृणा है। यद्यपि, ईमानदारी सकारात्मक चीज है, लेकिन वे इसे पसंद नहीं करते, और इसके बजाय वे ईमानदारी के प्रति विकर्षण और घृणा महसूस करते हैं। इसके विपरीत, उन्हें चालाकी और झूठ पसंद है। यदि कोई मसीह-विरोधियों के सामने अक्सर सत्यवादन करते हुए कुछ ऐसा कहता है कि “तुम्हें रुतबेदार स्थिति में काम करना पसंद है, और कभी-कभी तुम आलस्य करते हो,” तो मसीह-विरोधियों को यह कैसा लगता है? (वे इसे स्वीकार नहीं करते।) इसे स्वीकार न करना उनके रवैयों में से एक है, लेकिन क्या बस इतना ही है? सत्यवादन करने वाले इस व्यक्ति के प्रति उनका रवैया क्या होता है? वे विकर्षण महसूस करते हैं, और उन्हें पसंद नहीं करते। कुछ मसीह-विरोधी भाई-बहनों से कहते हैं, “मैं पिछले कुछ समय से तुम्हारी अगुआई कर रहा हूँ। कृपया तुम सब मेरे बारे में अपनी राय बताओ।” हर व्यक्ति सोचता है, “क्योंकि तुम इतनी ईमानदारी से पूछ रहे हो, इसलिए हम तुम्हें प्रतिक्रिया देंगे।” कुछ कहते हैं, “तुम जो कुछ भी करते हो, वह तुम बहुत गंभीरता और मेहनत से करते हो, और तुमने बहुत से कष्ट सहे हैं। हमारे लिए यह देखना मुश्किल है, और हम तुम्हारे लिए व्यथित महसूस करते हैं। परमेश्वर के घर को तुम्हारे जैसे और अगुआओं की जरूरत है! अगर कोई कमी बतानी हो, तो वह यह है कि तुम बहुत गंभीर और मेहनती हो। अगर तुम बहुत ज्यादा काम करोगे और चुक जाओगे, तो काम करना जारी नहीं रख सकोगे, और क्या तब हमारा काम तमाम नहीं हो जाएगा? हमारी अगुआई कौन करेगा?” जब मसीह-विरोधी यह सुनते हैं, तो वे प्रसन्न हो जाते हैं। वे जानते हैं कि यह झूठ है, कि ये लोग उनसे फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन वे यही सुनना चाहते हैं। वास्तव में, ऐसा कहने वाले लोग इन मसीह-विरोधियों को मूर्ख बना रहे होते हैं, लेकिन ये मसीह-विरोधी इन शब्दों की वास्तविक प्रकृति को प्रकट करने के बजाय मूर्ख बनना पसंद करते हैं। मसीह-विरोधियों को ऐसे लोग पसंद होते हैं जो इस तरह से उनके तलवे चाटते हैं। ये लोग मसीह-विरोधियों की गलतियों, भ्रष्ट स्वभाव या कमियों को सामने नहीं लाते। इसके बजाय, वे गुप्त रूप से उनकी प्रशंसा करते हैं और उन्हें ऊंचा उठाते हैं। भले ही यह स्पष्ट हो कि उनके शब्द झूठे और चापलूसी-भरे हैं, मसीह-विरोधी इन शब्दों को खुशी-खुशी स्वीकार करते हैं, उनसे सांत्वना और प्रसन्नता पाते हैं। मसीह-विरोधियों के लिए ये शब्द उत्तम व्यंजनों का स्वाद लेने से बेहतर हैं। इन शब्दों को सुनने के बाद वे फूले नहीं समाते। यह क्या बताता है? यह बताता है कि मसीह-विरोधियों के भीतर एक ऐसा स्वभाव है जो झूठ को पसंद करता है। मान लो कोई उनसे कहता है, “तुम बहुत घमंडी हो, और तुम लोगों के साथ अनुचित व्यवहार करते हो। तुम उन लोगों के साथ अच्छे हो जो तुम्हारा समर्थन करते हैं, लेकिन अगर कोई तुमसे दूर रहता है या तुम्हारी चापलूसी नहीं करता, तो तुम उसे नीचा दिखाते हो और उसकी उपेक्षा करते हो।” क्या ये शब्द सच नहीं हैं? (हाँ, ये सच हैं।) यह बात सुनने के बाद मसीह-विरोधी कैसा महसूस करते हैं? वे अप्रसन्न हो जाते हैं। वे ऐसी बातें सुनना नहीं चाहते, और उन्हें स्वीकार नहीं कर सकते। वे स्पष्टीकरण देने और चीजों को शांत करने के लिए बहाने और कारण खोजने की कोशिश करते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो व्यक्तिगत रूप से मसीह-विरोधियों की लगातार चापलूसी करते हैं, जो हमेशा उनकी प्रशंसा में परोक्ष रूप से मधुर शब्द बोलते हैं, और यहाँ तक कि अपने शब्दों से उन्हें स्पष्ट रूप से धोखा देते हैं, मसीह-विरोधी कभी भी उन लोगों की जाँच नहीं करते हैं। इसके बजाय, मसीह-विरोधी उनका उपयोग महत्वपूर्ण व्यक्तियों के रूप में करते हैं। वे हमेशा झूठ बोलने वालों को महत्वपूर्ण पदों पर रखते हैं, उन्हें कुछ महत्वपूर्ण और सम्मानजनक कर्तव्य सौंपते हैं, जबकि हमेशा ईमानदारी से बोलने वालों और अक्सर मुद्दों की सूचना देने वालों को कम महत्व के पदों पर रखने की व्यवस्था करते हैं, जिससे उन्हें उच्च अगुआओं तक पहुँचने या अधिकांश लोगों को उनके बारे में जानने या उनके करीब होने से रोका जा सके। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये लोग कितने प्रतिभाशाली हैं या वे परमेश्वर के घर में क्या कर्तव्य कर सकते हैं—मसीह-विरोधी इन सारी बातों की अनदेखी करते हैं। वे केवल इस बात की परवाह करते हैं कि कौन छल-प्रपंच कर सकता है और कौन उनके लिए फायदेमंद है; ये वे लोग हैं जिन्हें वे परमेश्वर के घर के हितों पर जरा भी विचार किए बिना महत्वपूर्ण पदों पर रखते हैं।

मसीह-विरोधी छल-प्रपंच और झूठ पसंद करते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि वे जिन कलीसियाओं की देखरेख करते हैं उनमें सुसमाचार के काम पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता, और सुसमाचार फैलाने के लिए लोगों को प्रशिक्षित करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया जाता जिसके परिणामस्वरूप सुसमाचार के काम के खराब परिणाम मिलते हैं और बहुत कम लोग आकृष्ट होते हैं। परंतु, मसीह-विरोधी डरते हैं कि लोग वास्तविक स्थिति की सूचना दे सकते हैं। वे ईमानदारी से बोलने वाले हर व्यक्ति से नफरत करते हैं, और उन लोगों को पसंद करते हैं जो झूठ बोल सकते हैं, चालबाजी कर सकते हैं, और सभी हानिकारक सूचनाओं को छिपा सकते हैं। तो, मसीह-विरोधी किस तरह की बातें सुनना सबसे ज्यादा पसंद करते हैं? “हमारी कलीसिया में सुसमाचार फैलाने वाला हर व्यक्ति गवाही देने में सक्षम है, और उनमें से हर एक सुसमाचार फैलाने में माहिर है।” क्या ये शब्द लोगों को धोखा देने के लिए नहीं हैं? लेकिन मसीह-विरोधी को ऐसी बातें सुनना अच्छा लगता है। यह सुनने के बाद मसीह-विरोधी कैसे प्रत्युत्तर देते हैं? वे कहते हैं, “बहुत बढ़िया, हमारी कलीसिया में सुसमाचार कार्य के परिणाम लगातार बेहतर होते जा रहे हैं, वे दूसरे कलीसियाओं की तुलना में बहुत बेहतर हैं। हमारी कलीसिया में सुसमाचार फैलाने वाले सभी लोग इस काम में माहिर हैं।” मसीह-विरोधी और उनकी चापलूसी करने वाले लोग इस तरह से एक-दूसरे की प्रशंसा करते हैं, और मसीह-विरोधी उनकी बेशर्म चापलूसी को उजागर नहीं करते। मसीह-विरोधी इस तरह से काम करते हैं कि जब उनके अधीनस्थ उन्हें धोखा देते हैं, तो वे स्वेच्छा से धोखा खा लेते हैं। मसीह-विरोधी बस इसी तरह की मूर्खताएं करते रहते हैं। अगर कोई वास्तविक स्थिति जानता है और आगे बढ़कर कहता है, “यह सही नहीं है। जिन 10 व्यक्तियों तक हम सुसमाचार पहुँचा रहे हैं, हमने पाया है कि उनमें से दो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, और उन्होंने पहले ही जाँच-पड़ताल बंद कर दे है। शेष आठ में से केवल तीन ही वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं। आओ, उन तीनों को कलीसिया में लाने के लिए पूरी कोशिश करें।” जब स्थिति की वास्तविकता उजागर होती है, तो मसीह-विरोधियों की कैसी प्रतिक्रिया होती है? वे सोचते हैं, “मुझे उन चीजों के बारे में पता नहीं था!” जब कोई उन चीजों की वास्तविक स्थिति के बारे में सच बोलता है जिनके बारे में मसीह-विरोधियों को पता नहीं होता, तो वे उनसे सहमत होते हैं या असहमत, प्रसन्न होते हैं या अप्रसन्न? वे अप्रसन्न होते हैं। वे अप्रसन्न क्यों होते हैं? वे अगुआ हैं, और फिर भी कलीसिया के काम के विवरणों और तथ्यों से अनभिज्ञ हैं और उन्हें इसकी कोई समझ नहीं है—उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति की भी जरूरत होती है जो उन्हें सब कुछ समझाने के लिए यह समझता हो कि वास्तव में क्या चल रहा है। जब स्थितियों को समझने और ईमानदारी से बात करने वाला इन मामलों को समझाता है, तो मसीह-विरोधियों की शुरुआती भावना क्या होती है? उन्हें लगता है कि उनका सम्मान पूरी तरह से खत्म हो गया है और उनकी प्रतिष्ठा गोता लगाने वाली है। चूँकि मसीह विरोधियों की दुष्ट प्रकृति होती है तो वे क्या करेंगे? उनके भीतर घृणा पैदा होगी, और वे सोचेंगे, “अरे बकवादी! अगर तुम नहीं बोलते, तो यह बात किसी की नजर में नहीं आती। तुम्हारी वजह से सबको इसका पता चल गया है, और वे मेरे बजाय तुम्हारी प्रशंसा करने लग सकते हैं। क्या इसके कारण नाकाबिल नहीं दिखूँगा, जैसे मैं कोई वास्तविक काम न कर रहा होऊं? मैं तुम्हें याद रखूँगा। तुम सच बोलते हो, हर मोड़ पर मुझे चुनौती देते हो और मेरा विरोध करते हो। मैं सुनिश्चित करूँगा कि इसके लिए तुम्हें पछताना पड़े!” इस बारे में सोचो कि वे उन कर्तव्यनिष्ठ लोगों को कैसे देखते हैं जो निष्ठापूर्वक काम करते हैं, ईमानदारी से बोलते हैं, और वफादारी से अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं? वे उन्हें अपने विरोधी के रूप में देखते हैं। क्या यह तथ्यों को विकृत करना नहीं है? न केवल वे समय पर सहयोग करने और कार्य-संबंधी अपनी गलतियाँ दूर करने में विफल रहते हैं, बल्कि वे अपने कर्तव्यों की उपेक्षा भी करते रहते हैं। वे अपने मन में उन लोगों के प्रति भी नफरत पालते हैं जो सच बोलते हैं और अपना काम सावधानी और जिम्मेदारी से करते हैं। वे ऐसे लोगों को यातना देने की कोशिश भी कर सकते हैं। क्या यह मसीह-विरोधियों का आचरण नहीं है? (हाँ, है।) यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुष्टता है। मसीह-विरोधियों की दुष्टता इस तरह से उजागर होती है। जब भी कोई ईमानदार व्यक्ति सामने आता है, जब भी कोई ईमानदार और सत्य वचन बोलता है, और जब भी कोई सिद्धांतों का पालन करता है और मामलों की वास्तविक प्रकृति की जाँच करता है, तो मसीह-विरोधियों को उससे चिढ़ होती है और वे उससे घृणा करते हैं, उनकी दुष्ट प्रकृति फूट पड़ती है और उजागर हो जाती है। जब भी कोई छल-प्रपंच होता है, और जब भी झूठ बोला जाता है, तो मसीह-विरोधी प्रसन्न हो जाते हैं, उसमें आनंदमग्न होते हैं, और यहाँ तक कि खुद को भी भूल जाते हैं। क्या तुम लोगों में से किसी ने “सम्राट के नए कपड़े” शीर्षक वाली कहानी पढ़ी है? मसीह विरोधियों का व्यवहार कुछ हद तक उसी जैसा होता है। उस कहानी में सम्राट सड़कों पर निर्वस्त्र टहल रहा था, और हजारों लोग चिल्ला रहे थे, “सम्राट के नए कपड़े सच में सुंदर हैं! सम्राट बहुत अद्भुत लग रहे हैं! सम्राट बहुत महान हैं! सम्राट के नए कपड़े वास्तव में जादुई हैं!” हर कोई झूठ बोल रहा था। क्या सम्राट को इसका पता था? वह पूरी तरह से नग्न था तो इस तथ्य से अनजान कैसे हो सकता था कि उसने कपड़े नहीं पहने थे? इसे मूर्खता कहा जाता है। तो, ये दुष्ट मसीह-विरोधी, धूर्त और कपटी होते हुए भी कम बुद्धि वाले होते हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि उनमें बुद्धि की कमी है? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे उस नग्न सम्राट की तरह हैं। उसमें छलने वाले शब्दों की कोई समझ नहीं थी। वह अपनी कुरूपता को उजागर करते हुए नग्न घूमने में भी सक्षम था। क्या यह मूर्खता नहीं है? तो, वह क्या है जो मसीह-विरोधियों की दुष्टता अक्सर प्रकट करती है? यह है उनकी मूर्खता।

क्योंकि मसीह-विरोधियों का स्वभाव दुष्ट होता है, क्योंकि उन्हें चालाकी और झूठ पसंद होता है लेकिन ईमानदारी नापसंद होती है, और क्योंकि वे सच बोलने से घृणा करते हैं, इसलिए, मसीह-विरोधियों के शासन वाली कलीसियाओं में उन व्यक्तियों को अक्सर यातना दी जाती है जो ईमानदार हैं या ईमानदार बनने का प्रयास करते हैं, जो सत्य का अभ्यास करते हैं और चालबाजी नहीं करते या झूठ नहीं बोलना चाहते हैं। क्या ऐसा नहीं है? तुम जितनी अधिक सत्यता से बोलोगे, मसीह-विरोधी तुम्हें उतनी ही अधिक यातना देगा, और तुम जितना अधिक सच बोलोगे, वह तुम्हें उतना ही अधिक नापसंद करेगा। इसके विपरीत, जो लोग उनकी चापलूसी करते हैं और उन्हें धोखा देते हैं, वे अनुग्रह प्राप्त करते हैं और उन्हें अच्छे लगते हैं। क्या मसीह-विरोधी दुष्ट नहीं होते? क्या तुम्हारे आस-पास ऐसे दुष्ट मसीह-विरोधी हैं? क्या तुम लोगों का कभी उनसे आमना-सामना हुआ है? वे लोगों को सच नहीं बोलने देते; जो कोई सच बोलता है उसका मुँह बंद कर दिया जाता है। यदि तुम कभी झूठ बोल सको और उनकी बातें मानते हुए उनके सहयोगी बन जाओ, तो वे तुम्हारे विरोधी नहीं रहेंगे। यदि तुम सच बोलने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार मामले संभालने पर अड़े रहते हो, तो देर-सवेर वे तुम्हें यातना देंगे। क्या तुम लोगों में से किसी को यातना दी गई है? मात्र इसलिए कि तुमने झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के बुरे कामों को उजागर किया, तुम्हें यातना दी गई, और अंततः तुम्हें इस हद तक यातना दी गई कि तुम चाहकर भी कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। क्या ऐसा कभी हुआ है? सच बोलने और मुद्दों की सूचना देने के कारण तुम्हें परेशान किया गया। विभिन्न कलीसियाओं में क्या तुममें से किसी को समस्याओं की सूचना देने पर यातना दी गई है? अगर कोई झूठ बोलता है और कलीसिया को धोखा देता है और उसकी काट-छाँट की जाती है, तो क्या यह उसे यातना देना है? (नहीं।) यह सामान्य अनुशासन है; यह यातना देने के समान नहीं है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि तुम अपने कर्तव्य में लापरवाह हो, तुम सिद्धांतों का उल्लंघन करते हो, और तुम गलत इरादों से काम करते हो, झूठ बोलते हो और छल करते हो, जिसके कारण तुम्हारी काट-छाँट की जाती है। इसलिए, परमेश्वर की उपस्थिति में तुम कभी भी सच बोलने पर कोई दुष्परिणाम नहीं भोगोगे। परंतु, शैतान और मसीह-विरोधियों की उपस्थिति में, तुम्हें अधिक सतर्क रहना चाहिए। यह बात उस कहावत को प्रतिबिम्बित करती है कि “राजा और भालू अक्सर अपने रक्षकों की चिंता का कारण बनते हैं।” जब उनसे बात करो, तो हमेशा उनके मिजाज का ध्यान रखो, उनकी प्रसन्नता का आकलन करो और देखो कि उनके भाव उदासीपूर्ण हैं या प्रसन्नता के, फिर तय करो कि क्या कहना है जो उनके विचारों के अनुरूप हो। उदाहरण के लिए, यदि कोई मसीह-विरोधी कहता है कि “आज बारिश होगी, है ना?” तो तुम्हें कहना होगा, “पूर्वानुमान के अनुसार आज बारिश होगी।” वास्तव में, जब मसीह-विरोधी कहता है कि आज बारिश हो सकती है, तो वह ऐसा इसलिए कहता कि वह बाहर जाकर अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहता। यदि तुम कहते हो, “पूर्वानुमान के अनुसार आज धूप होगी,” तो वह क्रोधित हो जाएगा। तुम्हें तुरंत कहना होगा, “ओह, मैं गलती से ऐसा कह गया। आज बारिश होने वाली है।” मसीह-विरोधी कहता है कि “तुमने अभी कहा था कि बारिश नहीं होगी। अब तुम कैसे कह सकते हो कि बारिश होगी?” तो, तुम्हें जवाब देना होगा कि “इसलिए कि अभी धूप होने का मतलब यह नहीं है कि मौसम ऐसा ही रहेगा। जैसा कि पुराने लोगों ने कहा है, ‘स्वर्ग में भी अचानक तूफान आते हैं।’ मौसम के पूर्वानुमान हमेशा सटीक नहीं होते, लेकिन तुम्हारे फैसले सटीक होते हैं!” जब मसीह-विरोधी यह सुनता है, तो वह प्रसन्न होता है और समझदारी के लिए तुम्हारी प्रशंसा करता है। क्या तुम लोग कभी इस तरह से व्यवहार करते हो? तुम करते हो, है न? क्या तुम वह करने में सक्षम हो जो मसीह-विरोधी अक्सर करते हैं, लोगों को सच बोलने नहीं देते और जो सच बोलता है उसे यातना देते हो? क्या तुम लोगों ने महलों के नाटक नहीं देखे हैं? सम्राट और दरबार में उनके मंत्रियों के बीच क्या संबंध होते हैं? उनके रिश्ते को एक वाक्य में व्यक्त करना आसान नहीं हो सकता, लेकिन उनके बीच एक बात है, वह यह कि सम्राट किसी की भी बात को ज्यों का त्यों नहीं मानता। वह अपने मंत्रियों की हर बात का विश्लेषण और जाँच करता है, उसे कभी सच नहीं मानता। अपने मंत्रियों की बात सुनने का यह उसका सिद्धांत होता है। जहाँ तक मंत्रियों की बात है, तो उनमें अनकही बातों को सुनने का कौशल होना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब सम्राट कहता है, “प्रधानमंत्री वांग ने आज कुछ कहा,” या ऐसा और कुछ कहे, तो हर कोई उसे सुनता है और सोचता है कि “लगता है सम्राट प्रधानमंत्री वांग को बढ़ावा देना चाहता है, लेकिन सम्राट को लोगों के गुट बनाने, निजी लाभ तलाशने और विद्रोह करने से सबसे ज्यादा डर लगता है, इसलिए मैं प्रधानमंत्री वांग का खुलकर समर्थन नहीं कर सकता। मुझे बीच में खड़े रहना होगा, न तो उसका विरोध करना होगा और न ही समर्थन, ताकि सम्राट मेरे सच्चे इरादों को न समझ सके—लेकिन मैं सम्राट की इच्छा का विरोध भी नहीं कर रहा हूँ।” तुम देख सकते हो कि उनके दिमाग में मौजूद हर कथन साँप के चलने के रास्ते से भी ज्यादा मोड़दार और पेचीदा होता है। वे जो कुछ भी कहते हैं उसका मूल अर्थ अस्पष्ट रहता है, दुविधा में लिपटा हुआ होता है। यह विश्लेषण करने में वर्षों का अनुभव लगता है कि कौन-से कथन सत्य हैं और कौन-से असत्य, और तुम्हें उनके सामान्य व्यवहार और बातचीत के तरीके के आधार पर उनके इच्छित अर्थ को समझना होता है। संक्षेप में, उनके मुख से निकला एक भी कथन सत्य नहीं होता, और वे जो कुछ भी कहते हैं वह सब झूठ होता है। कोई निचले दर्जे का हो या ऊँचे दर्जे का, हर किसी के संवाद बोलने का अपना तरीका होता है। वे अपने दृष्टिकोण से बोलते हैं, लेकिन वे जो कहते हैं उसका अर्थ कभी भी वह शाब्दिक अर्थ नहीं होता जो सुनाई पड़ता है—वह केवल झूठ होता है। झूठ कहाँ से आते हैं? क्योंकि लोग अपने शब्दों और कार्यों में कुछ निश्चित इरादे, उद्देश्य और प्रेरणाएँ लेकर चलते हैं, जब वे बोलते हैं, तो वे अपने शब्दों और अपने शब्दों के निहितार्थों के प्रति सावधान रहते हैं, वे बातों को घुमा-फिराकर बताते हैं, और उनके बोलने का अपना तरीका होता है। जब उनके बोलने का एक तरीका होता है, क्या तब भी वह सत्य बोलना होता है? नहीं, ऐसा नहीं है। उनके शब्दों में अर्थ की कई परतें होती हैं, सच और झूठ का मिश्रण होता है—कुछ सच, कुछ झूठ—और कुछ कथन छल करने के लिए होते हैं। किसी भी हाल में वे सत्यवादी नहीं हैं। प्रधानमंत्री वांग का उदाहरण लो जिसका अभी उल्लेख किया गया था। कोई व्यक्ति दरबार में प्रधानमंत्री वांग का खुलकर विरोध करता है। पर, यह बात तुरंत स्पष्ट नहीं होती कि उसका विरोध सच्चा है या झूठा। तुम्हें आगे देखना होगा। अगले दृश्य में वह व्यक्ति प्रधानमंत्री वांग के घर के एक गुप्त ड्राइंग रूम में बैठा शराब पी रहा होता है। पता चलता है कि उन दोनों की मिलीभगत है। यदि तुम केवल वह दृश्य देखो जहाँ यह व्यक्ति प्रधानमंत्री वांग का विरोध कर रहा होता है, तो तुम कैसे देख सकोगे कि दोनों मिल कर काम कर रहे हैं? उसने वांग का विरोध क्यों किया? संदेह से बचने के लिए और उसने ऐसा प्रयास इसलिए किया ताकि सम्राट अपनी सावधानी का स्तर घटा दे और उसे संदेह न हो कि वे दोनों आपस में मिले हुए हैं। क्या यह एक युक्ति नहीं है? (हाँ, यह युक्ति है।) ये लोग उस घेरे में रहते हैं जहाँ वे एक भी शब्द सच बोलने की हिम्मत नहीं करते। यदि हर दिन झूठ बोलना इतना थकाऊ होता है, तो वे उसे छोड़ क्यों नहीं देते? वे तो किसी मर चुके प्रतिद्वंद्वी की कब्र पर भी जाते हैं—इसके पीछे क्या है? उन्हें बस दूसरों के खिलाफ लड़ना अच्छा लगता है; बिना लड़े, उन्हें लगता है कि जीवन नीरस है। अगर कोई लड़ाई नहीं होती है, तो उन्हें लगता है कि जीवन में यह समय बहुत नीरस है। उनके दिमाग में भरी सारी योजनाओं और षड्यंत्रों का इस्तेमाल करने की कोई जगह नहीं होती, उन्हें लड़ने के लिए एक प्रतिद्वंद्वी चाहिए होता है, ताकि वे देख सकें कि कौन श्रेष्ठ है। ऐसा होने पर ही उन्हें लगता है कि उनके जीवन का कोई मूल्य है। अगर उनका प्रतिद्वंद्वी मर जाए, तो उन्हें लगता है कि उनके जीवन का कोई अर्थ नहीं बचा। मुझे बताओ कि क्या इस तरह के लोगों को सुधारा जा सकता है? (नहीं, वे नहीं सुधारे जा सकते।) यह उनकी प्रकृति है। मसीह-विरोधियों की प्रकृति इस तरह की होती है : वे हर दिन दूसरों से, अगुआओं और कार्यकर्ताओं से लड़ते हैं। वे परमेश्वर तक के खिलाफ लड़ते हैं, हर दिन झूठ बोलते हैं और छल करते हैं, परमेश्वर के घर के काम में विघ्न-बाधाएँ डालते हैं। वे एक पल के लिए भी शांत नहीं बैठ सकते। उन्हें चाहे जैसे भी बताया जाए, वे सत्य स्वीकार नहीं कर सकते। बड़े लाल अजगर की तरह वे तब तक आराम से नहीं बैठते जब तक कि पूरी तरह से नष्ट न हो जाएँ।

मसीह-विरोधी उन लोगों नापसंद करते हैं जो सच बोलते हैं, वे ईमानदार लोगों को नापसंद करते हैं। उन्हें छल और झूठ पसंद है। तो, परमेश्वर के प्रति उनका रवैया क्या है? उदाहरण के तौर पर, लोगों से ईमानदार होने की परमेश्वर की अपेक्षा के प्रति उनका रवैया क्या होता है? पहली बात यह कि वे इस सत्य का खुलेआम तिरस्कार करते हैं। सकारात्मक चीजों से नफरत करने की उनकी क्षमता वास्तव में उनकी समस्या का संकेत है, और यह पहले ही साबित करता है कि उनकी प्रकृति दुष्ट है। परंतु, यह पूरी या समग्र तस्वीर नहीं है। गहराई से देखते हैं कि लोगों से ईमानदार होने की परमेश्वर की माँग को मसीह-विरोधी कैसे समझते हैं? वे कह सकते हैं, “ईमानदार होकर परमेश्वर से हर चीज के बारे में बात करना, उसे सब कुछ बताना, और भाई-बहनों के साथ सब कुछ खुलकर साझा करना—क्या इस सबका मतलब मेरी गरिमा का खत्म होना नहीं है? इसका मतलब है कि अपनी कोई गरिमा न रहे, कोई स्व न रहे, और कोई गोपनीयता तो निश्चित रूप से न रहे। यह भयानक है; यह किस तरह का सत्य है?” क्या वे इसे ऐसे ही नहीं देखते? मसीह-विरोधी न केवल अपने हृदय में परमेश्वर के वचनों और लोगों से ईमानदार होने की माँग को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं, बल्कि वे इसकी निंदा भी कर सकते हैं। अगर वे इसकी निंदा कर सकते हैं, तो क्या वे ईमानदार लोग हो सकते हैं? बिल्कुल नहीं, वे बिल्कुल ईमानदार नहीं हो सकते। मसीह-विरोधियों की तब क्या प्रतिक्रिया होती है जब वे कुछ लोगों को यह स्वीकार करते देखते हैं कि उन्होंने झूठ बोला है? इस तरह के व्यवहार का वे अपने दिल की गहराई से घृणापूर्वक तिरस्कार करते हैं और मजाक उड़ाते हैं। उनका विश्वास है कि ईमानदार होने की कोशिश करने वाले लोग बहुत मूर्ख होते हैं। क्या उनका ईमानदार लोगों को मूर्ख के रूप में परिभाषित करना दुष्टता नहीं है? (हाँ, यह दुष्टता है।) यह दुष्टता ही है। वे सोचते हैं, “आज के समाज में कौन सच बोलता है? परमेश्वर तुमसे ईमानदार होने को कहता है, और तुम वास्तव में ईमानदार होने की कोशिश भी करते हो—तुम ऐसे मामलों के बारे में भी ईमानदारी से बोलते हो। वास्तव में तुम अविश्वसनीय रूप से मूर्ख हो!” हृदय की गहराई में वे ईमानदार लोगों के लिए जो तिरस्कार महसूस करते हैं, वह साबित करता है कि वे इस सत्य की निंदा करते हैं और उससे घृणा करते हैं, और वे न तो इसे स्वीकार करते हैं और न ही इसके प्रति समर्पित होते हैं। क्या यह मसीह-विरोधियों की दुष्टता नहीं है? यह सत्य स्पष्ट रूप से एक सकारात्मक चीज है, और सामान्य मानवता को जीने का वह पहलू है जिसे लोगों को अपने आचरण में शामिल करना चाहिए, लेकिन मसीह-विरोधी इसकी निंदा करते हैं। यह दुष्टता है। कलीसिया में बहुत बार ऐसे लोग होते हैं जो समस्याओं की सूचना देने या ऊपरवाले को मामलों की वास्तविक स्थिति बताने के कारण कुछ अगुआओं द्वारा “काट-छाँट” का शिकार होते हैं—उन्हें यातना दी जाती है। कभी-कभी, जब ऊपरवाला कलीसिया की स्थिति के बारे में पूछता है, तो कुछ अगुआ केवल सकारात्मक बातें बताते हैं और नकारात्मक बातों को छोड़ देते हैं। कुछ लोग जब सुनते हैं कि उन अगुआओं की रिपोर्ट तथ्यात्मक नहीं हैं, और उनसे सच बताने को कहते हैं, तो अगुआ उन्हें किनारे ढकेल देते हैं, और सच बोलने से रोकते हैं। कुछ लोग मसीह-विरोधियों के काम करने के तरीके को स्वीकार नहीं करते। वे सोचते हैं, “चूँकि तुम ईमानदारी से नहीं बोलते, इसलिए मैं तुम्हारे साथ वैसे पेश नहीं आऊँगा जैसे अगुआ के साथ पेश आना चाहिए। मैं ऊपरवाले को सच बताऊँगा। उसके द्वारा काटे-छाँटे जाने से मैं नहीं डरता।” इसलिए, वे निष्ठापूर्वक ऊपरवाले को वास्तविक स्थिति की सूचना दे देते हैं। जब वे ऐसा करते हैं, तो कलीसिया की पोल खुल जाती है। ऐसा कैसे? क्योंकि ये लोग उन मसीह-विरोधियों से संबंधित तथ्यों को उजागर कर देते हैं—उन्होंने मामलों की वास्तविक स्थिति उजागर कर दी है। क्या मसीह-विरोधी इससे सहमत होते हैं? क्या वे इसे बर्दाश्त कर सकते हैं? वे मामलों की सूचना देने वाले लोगों को बिल्कुल नहीं बख्शेंगे। मसीह-विरोधी क्या करते हैं? ऐसा होने के तुरंत बाद, वे इस मामले पर बैठक बुलाते हैं, लोगों से इस पर चर्चा करने को कहते हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ देखते हैं। ज्यादातर लोग आसानी से प्रभावित हो जाते हैं, मामले पर विचार करते हैं और सोचते हैं, “किसी ने तथ्यों की सूचना दे दी है और अब यह अगुआ खतरे में है। यहाँ जो कुछ हो रहा था उसकी सूचना हमने नहीं दी—अगर ऊपरवाले ने इस अगुआ को दंडित करने का फैसला किया, तो क्या उसके साथ हम भी नहीं फँसेंगे?” इसलिए, ये लोग अगुआओं का बचाव करने के तरीके खोजते हैं, और इसके परिणामस्वरूप सत्य सूचना देने वाले लोग अलग-थलग पड़ जाते हैं। इस तरह, मसीह-विरोधी जो चाहें कर सकते हैं, क्योंकि वे चाहे जितने बुरे काम करें, कोई भी ऊपरवाले को स्थिति की सूचना देने की हिम्मत नहीं करता, और इसी तरह से वे अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए, कुछ लोगों को, ऊपरवाले को स्थिति की सूचना देने के कारण कई वास्तविक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उन्हें तथ्य पता होते हैं, लेकिन मसीह-विरोधी हमेशा उन्हें चुप कराना चाहते हैं। डर और दब्बूपन के कारण वे समझौता कर लेते हैं, और ऐसा करने पर क्या वे मसीह-विरोधी के उत्पीड़न का शिकार नहीं बनते? अंत में, जब ये मसीह-विरोधी प्रकाश में आ जाते हैं और उन्हें बदल दिया जाता है, तो तुम क्या सोचते हो कि समझौता करने वाले लोग कैसा महसूस करते होंगे? क्या उन्हें इसका पछतावा होता है? (हाँ, उन्हें इसका पछतावा होता है।) वे यह सोचते हुए प्रसन्नता और पछतावा दोनों महसूस करते हैं कि, “अगर मुझे पता होता कि चीजों का यह हश्र होगा, तो मैं हार नहीं मानता। मुझे उनको उजागर करना और उनके मुद्दों की सूचना देना तब तक जारी रखना चाहिए था जब तक कि उन्हें बदल नहीं दिया जाता।” लेकिन अधिकांश लोग ऐसा नहीं कर सकते; वे बहुत कायर होते हैं।

मसीह-विरोधियों को छल-प्रपंच और झूठ पसंद होते हैं और ईमानदारी से घृणा होती है; यह उनकी दुष्ट प्रकृति की पहली प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति होती है। ध्यान दो कि कुछ लोग हमेशा ऐसे बोलते हैं कि लोग उनके शब्दों से यह न पकड़ सकें कि उनके दिमाग में क्या है। कभी-कभी उनके वाक्यों का आदि तो होता है, लेकिन उनका अंत नहीं होता है, और कभी अंत होता है लेकिन आदि नहीं होता। तुम बिल्कुल बता नहीं सकते कि वे कहना क्या चाहते हैं, तुम्हें उनकी कोई भी बात समझ में नहीं आती, और यदि तुम उन्हें स्पष्ट रूप से समझाने के लिए कहते हो, तो वे ऐसा नहीं करेंगे। वे अक्सर अपनी बातचीत में सर्वनाम का प्रयोग करते हैं। जैसे, वे रिपोर्ट करते हुए कहते हैं, “वह व्यक्ति, अ... वह सोच रहा था कि... और भाई-बहन बहुत... नहीं थे” वे घंटों बात कर सकते हैं, फिर भी साफ तौर पर कुछ नहीं कह पाते, वे हकलाते हैं, अटकते हैं, अपने वाक्यों को पूरा नहीं करते, बस एक-एक शब्द बोलते हैं जिनका आपस में कोई संबंध नहीं होता, और इतना सब सुनने पर भी तुम्हारी समझ में कोई इजाफा नहीं होता, बल्कि बेचैनी और बढ़ जाती है। वास्तव में, उन्होंने बहुत पढ़ाई की होती है और वे सुशिक्षित भी होते हैं—तो वे एक पूर्ण वाक्य तक बोलने में असमर्थ क्यों होते हैं? यह स्वभावगत समस्या है। वे इतने अस्थिर बुद्धि के होते हैं कि उन्हें थोड़ा सा भी सत्य बोलने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। मसीह-विरोधी जो कुछ भी कहते हैं, उसमें से किसी बात पर उनका कोई ध्यान नहीं होता, हमेशा एक आदि तो होता है, लेकिन कोई अंत नहीं होता; वे आधा वाक्य तेजी से बोल देते हैं, लेकिन बाकी आधा निगल जाते हैं, और वे हमेशा चीजों को भाँपते-परखते रहते हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि तुम समझो कि उनके कहे का क्या अर्थ है, वे चाहते हैं कि तुम अनुमान लगाओ। यदि वे सीधे तौर पर बता देंगे, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि वे क्या कह रहे हैं और उनकी बात का क्या मतलब है, है न? वे ऐसा नहीं चाहते। वे क्या चाहते हैं? वे चाहते हैं कि तुम खुद ही अनुमान लगाओ, वे सहर्ष तुम्हें अपने अनुमान को सही मानने देते हैं—अब ऐसे में, उन्होंने तो कुछ कहा नहीं, इसलिए उस बात को लेकर उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। इसके अलावा, जब तुम उन्हें बताते हो कि तुम्हारे अनुमान से उनकी बातों का क्या अर्थ है, तो उन्हें क्या हासिल होता है? वे तुम्हारा अनुमान ही तो सुनना चाहते हैं, इससे उन्हें उस मामले पर तुम्हारा नजरिया और तुम्हारे विचार पता चल जाते हैं। तब वे अपने शब्द चुन-चुन कर बोलेंगे कि क्या कहना है, क्या नहीं कहना है और कैसे कहना है, और फिर वे अपनी योजना के अनुसार अगला कदम उठाएंगे। उनका हर वाक्य एक जाल पर खत्म होता है, और अगर तुम उनकी बात सुनते हुए उनके अधूरे वाक्य पूरे करते रहते हो, तो तुम पूरी तरह से उनके जाल में फँस जाते हो। क्या उनके लिए हमेशा इस तरह बोलना थका देने वाला होता है? उनका स्वभाव दुष्ट है—वे थकान महसूस नहीं करते। यह उनके लिए पूरी तरह से स्वाभाविक होता है। वे तुम्हारे लिए ऐसा जाल क्यों बुनना चाहते हैं? क्योंकि उन्हें तुम्हारे विचार साफ तौर पर समझ में नहीं आते, उन्हें डर होता है कि तुम उन्हें पहचान जाओगे। साथ ही उनकी यह भी कोशिश रहती है कि तुम उन्हें समझ न पाओ, और वे तुम्हें भी समझने की कोशिश कर रहे होते हैं। वे तुम्हारे अंदर से तुम्हारे विचार, तुम्हारी सोच और तुम्हारी विधियों का सार निकालना चाहते हैं। अगर वे सफल हो जाते हैं, तो समझो उनका बुना जाल काम कर गया। कुछ लोग अक्सर “हूँ... हाँ...” कहकर रुक जाते हैं; वे कोई विशिष्ट दृष्टिकोण व्यक्त नहीं करते। अन्य लोग “जैसे...” और “खैर...” कहकर अटक जाते हैं, वे जो वास्तव में सोच रहे होते हैं, उस बात को छिपा जाते हैं, वे जो वाकई कहना चाहते हैं, उसकी जगह ऐसे शब्द बोलते हैं। उनके हर वाक्य में कई बेकार शब्द, क्रिया विशेषण और सहायक क्रियाएँ होती हैं। यदि तुम उनके शब्दों को रिकॉर्ड करते और लिख डालते, तो तुम्हें पता चलता कि उनमें से कोई भी बात इस मामले पर उनके विचारों या दृष्टिकोण को प्रकट नहीं करती। उनके हर शब्द में छिपे हुए फंदे होते हैं, प्रलोभन होते हैं और फुसलावे होते हैं। यह कैसा स्वभाव है? (दुष्टता का।) बहुत दुष्टता का। क्या इसमें छल-प्रपंच शामिल होता है? वे जिन फंदों, प्रलोभनों और फुसलावों की रचना करते हैं, उन्हीं को छल-प्रपंच कहते हैं। जिन लोगों में मसीह-विरोधियों का दुष्ट सार होता है, यह उनकी सामान्य विशेषता होती है। यह सामान्य विशेषता कैसे अभिव्यक्त होती है? वे अच्छी खबर की रिपोर्ट करते हैं, लेकिन बुरी की नहीं, वे विशेष रूप से कर्णप्रिय शब्द बोलते हैं, रुक-रुक कर बोलते हैं, वे अपने वास्तविक अर्थ को आंशिक रूप से छिपा लेते हैं, वे भ्रमित करने वाले अंदाज में बोलते हैं, अस्पष्ट बोलते हैं और उनके शब्दों में प्रलोभन होते हैं। ये सब बातें फंदे हैं और वे सब छल-प्रपंच के साधन हैं।

ज्यादातर मसीह-विरोधी इन अभिव्यक्तियों को प्रदर्शित करते हैं और इसी तरह से बोलते और काम करते हैं। यदि तुम लंबे समय तक उनके संपर्क में रहो, तो क्या तुम इसे पहचान सकते हो? क्या तुम उनकी असलियत जान सकते हो? सबसे पहले, तुम्हें यह तय करना होगा कि वे ईमानदार लोग हैं या नहीं। दूसरों से ईमानदार होने और सच बोलने की वे कितनी भी माँग करते हों, तुम्हें देखना होगा कि क्या वे खुद ईमानदार लोग हैं, क्या वे ईमानदार होने का प्रयास कर रहे हैं, और ईमानदार लोगों के प्रति उनका दृष्टिकोण और रवैया क्या है। देखो कि क्या वे अपने हृदय की गहराई में ईमानदार लोगों से विकर्षित होते हैं, उनके प्रति गहरी नापसंदगी रखते हैं और उनके साथ भेदभाव करते हैं, या वे भी अपने हृदय की गहराई में ईमानदार बनना चाहते हैं, फिर भी ऐसा करना कठिन और चुनौतीपूर्ण पाते हैं, और इसीलिए इसे हासिल नहीं कर पाते हैं। तुम्हें यह पता लगाने की जरूरत है कि वे इनमें से किस स्थिति में है। क्या तुम इसे पहचान सकते हो? संभव है कि कम समय में तुम ऐसा करने में सक्षम न हो सको, क्योंकि यदि उनके चालबाज तरीकों में चतुराई होगी, तो तुम उनकी असलियत नहीं पहचान पाओगे। हालांकि, समय के साथ हर व्यक्ति उनकी असलियत जान लेगा; अपनी सच्चाई वे हमेशा के लिए नहीं छिपा सकते। यह वैसा ही है जैसे बड़ा लाल अजगर अक्सर कहता है कि वह “जनता की सेवा कर रहा है” और “जनता के लोक सेवक के रूप में कार्य कर रहा है।” लेकिन आजकल कौन मानता है कि यह जनता की पार्टी है? कौन मानता है कि यह लोगों की ओर से निर्णय ले रही है? कोई भी अब ऐसा नहीं मानता, सही है न? शुरू में, लोगों को यह सोचकर आशावादी उम्मीदें थीं कि कम्युनिस्ट पार्टी के साथ वे अपनी किस्मत बदल सकेंगे और मालिक बन सकेंगे, कि यह पार्टी लोगों की सेवा करेगी और उनके लोकसेवक के रूप में कार्य करेगी। लेकिन आजकल, कौन इसके शैतानी शब्दों पर विश्वास करता है? लोग अब इसका मूल्यांकन कैसे करते हैं? यह लोगों के लिए लोकशत्रु बन गई है। तो, यह लोकसेवक से एक लोकशत्रु कैसे बन गई? उसके कार्यकलापों से, और उसके शब्दों की तुलना उसके कार्यकलापों से करने पर लोगों ने पाया कि उसने जो कुछ भी कहा था वह केवल धोखा देने वाले झूठ, असत्य और खुद को पाक-साफ दिखाने के इरादे से बोले गए शब्द थे। उसने सबसे सुखद लगने वाले शब्द बोले लेकिन किए सबसे बुरे काम। मसीह विरोधी भी ऐसे ही होते हैं। उदाहरण के लिए, वे भाई-बहनों से कहते हैं, “तुम्हें अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए—उन्हें व्यक्तिगत अशुद्धियों से दूषित न होने दो।” लेकिन जरा इस बारे में सोचो कि क्या वे खुद इस तरह से काम करते हैं? जब तुम उन्हें कोई सुझाव देते हो, तो जैसे ही तुम अपनी राय जरा-सा प्रकट करते हो, वे उससे सहमत नहीं होते या उसे स्वीकार नहीं करते। जब उनके व्यक्तिगत हित उनके कर्तव्यों या परमेश्वर के घर के हितों से टकराते हैं, तो वे छोटे से छोटे लाभ के लिए लड़ते हैं और उसे तनिक भी नहीं छोड़ते। उनके व्यवहार के बारे में सोचो, फिर उसकी तुलना उनकी बातों से करो। तुम क्या पाते हो? उनके शब्द सुनने में अच्छे लगते हैं, लेकिन वे सब असत्य होते हैं जो लोगों को धोखा देने के लिए होते हैं। जब वे अपने हित में योजना बनाते हैं और लड़ते हैं, तो उनका व्यवहार, साथ ही उनके कार्यकलापों के इरादे, साधन और तरीके, सभी असली होते हैं—नकली नहीं। इन बातों के आधार पर तुम मसीह-विरोधियों के बारे में कुछ समझ हासिल कर सकते हो।

मसीह-विरोधियों को झूठ और छल-प्रपंच पसंद है—उन्हें और क्या पसंद है? उन्हें चालें, योजनाएँ और षड्यंत्र पसंद हैं। वे शैतान के दर्शन के अनुसार काम करते हैं, कभी सत्य की खोज नहीं करते, पूरी तरह से झूठ और चालबाजी पर निर्भर करते हुए योजनाएँ और षड्यंत्र काम में लाते हैं। तुम चाहे जितनी स्पष्टता से सत्य की संगति करो, भले ही वे स्वीकृति में सिर हिलाएँ, पर वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करेंगे। इसके बजाय, वे अपने दिमाग दौड़ाएंगे और योजनाओं तथा षड्यंत्र का उपयोग करते हुए काम करेंगे। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितनी स्पष्टता से सत्य पर संगति करते हो, ऐसा लगता है कि वे इसे समझ नहीं सकते; वे चीजों को बस वैसे ही करते हैं जैसे करने के वे इच्छुक हैं, जैसे वे उन्हें करना चाहते हैं, और जो भी तरीका उनके अपने स्वार्थ के अनुरूप है। वे चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, अपना असली चेहरा और असली रंग छिपाते हैं, लोगों को बेवकूफ बनाते हैं और छलते हैं, और जब दूसरे लोग उनके झांसे में आ जाते हैं, तो वे खुशी महसूस करते हैं, और उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। मसीह विरोधियों का यह तरीका और रवैया हमेशा बना रहता है। जहाँ तक उन ईमानदार लोगों की बात है जो बातचीत में सीधे-सच्चे होते हैं, जो ईमानदारी से बोलते हैं और अपनी नकारात्मकता, कमजोरी और विद्रोही अवस्थाओं के बारे में खुले तौर पर संगति करते हैं, और दिल से बोलते हैं, तो मसीह-विरोधी उनसे अंदर से घृणा करते हैं और उनके साथ भेदभाव करते हैं। उन्हें ऐसे लोग पसंद होते हैं जो उनकी ही तरह कुटिल और धोखा देने वाले अंदाज में बात करते हैं और सत्य का पालन नहीं करते। जब वे ऐसे लोगों से मिलते हैं, तो उनका हृदय प्रसन्न हो जाता है, जैसे उन्हें उनके जैसा ही कोई मिल गया हो। तब, वे इस बात की चिंता नहीं करते कि दूसरे लोग उनसे बेहतर हैं या उनकी पहचान करने में सक्षम हैं। क्या यह मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति की अभिव्यक्ति नहीं है? क्या इससे यह प्रदर्शित नहीं हो सकता कि वे दुष्ट हैं? (हाँ, इससे प्रदर्शित हो सकता है।) ये मामले क्यों विस्तारपूर्वक बता सकते हैं कि मसीह-विरोधी दुष्ट होते हैं? सकारात्मक चीजें और सत्य वे चीजें हैं जिनसे किसी भी अंतरात्मा से युक्त तर्कसंगत सृजित प्राणी को प्रेम करना चाहिए। परंतु, जब मसीह-विरोधियों की बात आती है, तो वे इन सकारात्मक चीजों को गले की फाँस या बगल में धँसा काँटा मानते हैं। जो कोई भी इन चीजों का पालन करता है या अभ्यास करता है, वह उनका दुश्मन बन जाता है, और वे ऐसे लोगों को शत्रुभाव से देखते हैं। क्या यह अय्यूब के प्रति शैतान की शत्रुता की प्रकृति से मिलता-जुलता नहीं है? (हाँ, ऐसा है।) यह वही प्रकृति, वही स्वभाव और वही सार है। मसीह विरोधियों की प्रकृति शैतान से उत्पन्न होती है, और वे शैतान की ही श्रेणी में आते हैं। इसलिए, मसीह विरोधी शैतान के साथी होते हैं। क्या यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण है? बिल्कुल नहीं; यह पूरी तरह से सही है। क्यों? क्योंकि मसीह विरोधियों को सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं होता। उन्हें छल-कपट में शामिल होने में मजा आता है, वे झूठ, भ्रामक दिखावों और फरेबों को पसंद करते हैं। अगर कोई उनका असली चेहरा उजागर करे, तो क्या वे समर्पण कर सकते हैं और इसे खुशी-खुशी स्वीकार कर सकते हैं? न केवल वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते, बल्कि वे गाली-गलौज पर उतर आएँगे। सच बोलने वाले या उनका असली चेहरा उजागर करने वाले लोग उन्हें बहुत क्रोधित कर देते हैं और वे आगबबूला हो उठते हैं। उदाहरण के लिए, कोई मसीह-विरोधी ऐसा हो सकता है जो दिखावा करने में बहुत कुशल हो। हर कोई उसे अच्छे व्यक्ति के रूप में देखता है : प्यार करने वाला, लोगों के साथ सहानुभूति जता सकने वाला, दूसरों की कठिनाइयाँ समझने में सक्षम, और अक्सर कमजोर तथा नकारात्मक स्थिति वाले लोगों को समर्थन और मदद देने वाला व्यक्ति। जब भी दूसरों को कोई कठिनाई होती है, तो वे उनका ध्यान रखने और उन्हें छूट देने में सक्षम होते हैं। लोगों के हृदय में इस मसीह-विरोधी का मान परमेश्वर से भी ज्यादा होता है। खुद को गुणवान व्यक्ति के रूप में पेश करने वाले इस व्यक्ति के ढोंग और धोखेबाजी को यदि तुम उजागर करते हो, यदि तुम उसे तथ्य बताते हो, तो क्या वह इसे स्वीकार कर सकता है? न केवल वह इसे अस्वीकार करेगा, बल्कि वह अपने ढोंग और फरेब को और भी बढ़ा देगा। बताओ कि अगर तुम गलियों के कोनों में प्रार्थना करने और दूसरों को सुनाने के लिए धर्मग्रंथों का पाठ करने वाले फरीसियों का फरेब उजागर करते हो, और उनसे कहते हो कि वे यह सब दिखावा करने के लिए कर रहे हैं, तो क्या वे तुम्हारे कथन को स्वीकार करेंगे? क्या वे तुम्हारी बात को खुशी से स्वीकार करेंगे? क्या वे तुम्हारे शब्दों पर विचार करेंगे? क्या वे स्वीकार कर सकते हैं कि वे जो कर रहे थे वह फरेब और चालबाजी थी? क्या वे आत्मचिंतन और पश्चाताप कर सकते हैं, और हमेशा के लिए ऐसे कामों से बाज आ सकते हैं? बिल्कुल नहीं। अगर तुम आगे कहते हो कि “तुम्हारे काम लोगों को गुमराह कर रहे हैं और तुम नरक में जाओगे और दंडित होगे,” तो क्या यह सच नहीं होगा? (हाँ, यह सच होगा।) यह सच बोलना है। क्या वे इसे स्वीकार करेंगे? नहीं, वे तुरंत बहुत क्रोधित हो जाएंगे और कहेंगे, “क्या कहा? तुम कह रहे हो कि मैं नरक में जाऊँगा और दंड पाऊँगा? बहुत अच्छे! मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, तुममें नहीं! तुम्हारे शब्दों का कोई मतलब नहीं है!” क्या सारी बात इतने पर खत्म हो जाएगी? वे आगे क्या करेंगे? वे अपनी बात जारी रखते हुए कहेंगे, “मैंने दूर-दूर तक यात्राएँ की हैं, इतने लोगों तक सुसमाचार फैलाया है, इतने परिणाम हासिल किए हैं, इतनी सलीबें उठाई हैं, और जेल में बहुत कष्ट उठाए हैं—बच्चे, जब मैंने प्रभु में विश्वास करना शुरू किया था तब तुम अपनी माँ के पेट में थे!” इससे उनका स्वभाव उजागर हो गया, है न? क्या वे धैर्य और सहनशीलता का उपदेश नहीं देते—फिर इस छोटी-सी बात को वे क्यों नहीं सह पाते? वे इसे क्यों नहीं बर्दाश्त कर पाते? क्योंकि तुमने सच कहा है, तुमने उनका असली व्यक्तित्व उजागर कर दिया है, और उनका कोई गंतव्य नहीं है। क्या वे अब भी इसे बर्दाश्त कर सकते हैं? यदि वे मसीह-विरोधी नहीं हैं, यदि वे मसीह-विरोधी मार्ग पर हैं, लेकिन सत्य स्वीकार कर सकते हैं, और वे नकलीपन का प्रकटीकरण भी करते हैं, तो यदि तुम उनका नकलीपन उजागर करते हो, तो वे क्या करेंगे? संभव है कि वे तुरंत आत्मचिंतन न करें, और यह कहना कि वे ऐसा करते हैं, उन्हें अवास्तविक और खोखली बात लग सकती है। परंतु, यह सुनने पर अधिकांश सामान्य लोगों की पहली प्रतिक्रिया यह होती है कि उन्हें हृदय में चुभने वाला दर्द होने लगता है। यह चुभने वाला दर्द क्या संकेत करता है? इसका मतलब है कि उन्होंने जो सुना, उससे प्रभावित हुए; उन्हें उम्मीद नहीं थी कि कोई व्यक्ति इतने दुस्साहसिक तरीके से काम करते हुए इस तरह से उनके सामने सच बोलने और उनकी निंदा करने की हिम्मत करेगा—ये शब्द कुछ ऐसे हैं जिन्हें सुनने की न तो उन्होंने कभी उम्मीद की थी और न ही पहले कभी सुने थे। इसके अलावा, उन्हें शर्म आती है और वे अपनी इज्जत बचाना चाहते हैं। जब वे तुम्हारे इस कथन पर विचार करते हैं कि गली के कोने पर खड़े होकर प्रार्थना करना और धर्मग्रंथ पढ़ना लोगों को गुमराह करना है, तो आत्म-परीक्षण के बाद उन्हें पता चलता है कि ऐसा करना वास्तव में लोगों को यह दिखाने के लिए था कि वे कितने समर्पित हैं, वे प्रभु से कितना प्रेम करते हैं, और वे कितना कष्ट सह सकते हैं, कि यह दिखावा है, और तुमने जो कहा वह सच था। उन्हें पता चलता है कि अगर वे इसी तरह से काम करना जारी रखते हैं, तो वे दूसरों को चेहरा दिखाने लायक नहीं रहेंगे। उनमें शर्म की भावना होती है, और उस शर्म की भावना के कारण वे खुद को कुछ हद तक नियंत्रित करने और अपने बुरे कामों या अपने उन बेशर्मी के कामों को रोकने में सक्षम हो सकते हैं जिनसे उनका सम्मान खत्म होता है। जब वे इस तरह से काम करना बंद कर देते हैं तो उसका क्या मतलब होता है? यह पश्चाताप की झलक का संकेत करता है। यह निश्चित नहीं है कि वे निश्चित रूप से पश्चाताप करेंगे, लेकिन कम से कम पश्चाताप की संभावना है, जो मसीह-विरोधियों और फरीसियों से कहीं बेहतर है। वह क्या है जो इसे बेहतर बनाता है? क्योंकि उनके पास अंतरात्मा और शर्म की भावना है और दूसरे लोगों के उन्हें उजागर करने वाले शब्द उनके दिल में चुभते हैं। यद्यपि वे शर्मिंदा हो सकते हैं, और उनकी गरिमा को चोट पहुँच सकती है, फिर भी वे कम से कम यह स्वीकार कर सकते हैं कि ये शब्द सही हैं। भले ही वे अपनी प्रतिष्ठा बचाने में असमर्थ हों, लेकिन अंदर ही अंदर वे पहले ही उन शब्दों को जान चुके होते हैं, उनके आगे समर्पण कर चुके होते हैं और उन्हें स्वीकार कर चुके होते हैं। मसीह-विरोधी इससे अलग कैसे हैं? हम क्यों कहते हैं कि मसीह-विरोधी दुष्ट हैं? मसीह विरोधियों की दुष्टता इस तथ्य में निहित है कि जब वे कुछ ऐसा सुनते हैं जो सही हो, तो वे न केवल उसे स्वीकार करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि इसके उलट, वे उससे नफरत करते हैं। इसके अतिरिक्त, वे अपने तरीके अपनाते हुए अपने बचाव और स्पष्टीकरण के लिए बहाने, कारण और विभिन्न वस्तुनिष्ठ कारकों की तलाश करते हैं। वे किस उद्देश्य को प्राप्त करना चाहते हैं? वे नकारात्मक चीजों को सकारात्मक में और सकारात्मक चीजों को नकारात्मक में बदलने का लक्ष्य रखते हैं—वे स्थिति को उलटना चाहते हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? वे सोचते हैं, “तुम चाहे जितने सही हो, या तुम्हारे शब्द सत्य के कितने भी अनुरूप हों, क्या तुम मेरी वाक्पटुता के सामने टिक सकते हो? भले ही मैं जो भी शब्द बोलता हूँ वे साफ तौर पर झूठे, धोखा देने वाले और भ्रामक होते हैं, फिर भी मैं तुम्हारी बातों का खंडन करूँगा और उनकी निंदा करूँगा।” क्या यह दुष्टता नहीं है? यह सच में दुष्टता है। क्या तुम सोचते हो कि मसीह-विरोधी जब अच्छे लोगों को देखते हैं, तो उन्हें अपने दिल में ईमानदार नहीं मानते? वे उन्हें ईमानदार और सत्य का अनुसरण करने वाला ही मानते हैं, लेकिन ईमानदारी और सत्य का अनुसरण करने की उनकी परिभाषा क्या है? वे सोचते हैं कि ईमानदार लोग मूर्ख होते हैं। वे सत्य के अनुसरण से विकर्षित होते हैं, घृणा करते हैं, और उसके प्रति शत्रुता रखते हैं। वे इसे झूठ मानते हैं और सोचते हैं कि कोई भी इतना मूर्ख नहीं हो सकता कि सत्य के अनुसरण में सब कुछ त्याग दे, किसी से कुछ भी कह दे, और सब कुछ परमेश्वर को सौंप दे। कोई भी इतना मूर्ख नहीं होता। उन्हें लगता है कि ये सभी कार्य झूठे हैं, और वे इनमें से किसी पर विश्वास नहीं करते। क्या मसीह-विरोधी यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान और धार्मिक है? (वे ऐसा नहीं मानते।) इसलिए, वे अपने मन में इन सभी बातों पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। इसका निहितार्थ क्या है? हम प्रश्नचिह्नों के इस ढेर की व्याख्या कैसे करें? वे केवल संदेह या सवाल ही नहीं करते; अंत में, वे इसे अस्वीकार भी करते हैं और स्थिति को उलटने का लक्ष्य रखते हैं। स्थिति को उलटने से मेरा क्या मतलब है? वे सोचते हैं, “इतना न्यायोचित होने का क्या फायदा? अगर झूठ को हजार बार दोहराएँ, तो वह सच हो जाता है। अगर कोई भी सच नहीं बोलता, तो वह सच नहीं रह जाता और उसका कोई फायदा नहीं है—वह सिर्फ झूठ है!” क्या यह सही को गलत और गलत को सही करना नहीं है? यह शैतान की दुष्टता है—तथ्यों को विकृत करना और सही को गलत और गलत को सही करना—यही उन्हें पसंद है। मसीह-विरोधी ढोंग और छल-कपट में माहिर होते हैं। वे जिस चीज में माहिर होते हैं, वह बेशक उनके मूल में निहित है, और जो उनके मूल में निहित है, वह ठीक वही है जो उनके प्रकृति सार में है। इससे भी बढ़कर, यह वही है जिसकी उन्हें लालसा है और जिससे उन्हें प्यार है, और यही उनके दुनिया में जीवित रहने का भी नियम है। वे ऐसी कहावतों पर विश्वास करते हैं कि “अच्छे लोग कम उम्र में ही मर जाते हैं, जबकि बुरे लोग लंबी उम्र तक जीते हैं,” “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “किसी व्यक्ति की नियति उसी के हाथ में होती है,” “मनुष्य प्रकृति को जीत लेगा,” इत्यादि। क्या इनमें से कोई भी कथन मानवता या प्राकृतिक नियमों के अनुरूप है जिसे सामान्य लोग समझ सकें? एक भी नहीं। तो मसीह-विरोधी शैतान की इन शैतानी बातों को इतना ज्यादा पसंद कैसे कर सकते हैं और उनसे अपने आदर्श-वाक्य की तरह कैसे पेश आ सकते हैं? केवल इतना ही कहा जा सकता है कि ऐसा इसलिए है कि उनकी प्रकृति बहुत दुष्ट है।

एक कलीसिया अगुआ था जिससे करीब एक साल के दौरान मैं कई बार संपर्क में आया। हमें मुलाकात के कई मौके मिले, लेकिन हमारी बातचीत सीमित होती थी क्योंकि वह खुलकर बात करने वाला व्यक्ति नहीं था। इसका क्या मतलब है—“खुलकर बात न करने वाला”? इसका मतलब है कि जब तुम उससे सवाल पूछो, तब भी वह ज्यादा कुछ नहीं बोलता था। अब, क्या वह कलीसिया में दूसरों के साथ अपनी बातचीत में ऐसा ही था? दो संभावित स्थितियाँ थीं। जो लोग उसके जैसे विचार रखते थे, उनसे कहने के लिए उसके पास बहुत कुछ था। परंतु, जो लोग उसके जैसे विचार नहीं रखते थे, उनके साथ वह सतर्क हो जाता था और कम बोलता था। बाद में, मैंने निष्कर्ष निकाला कि उसके साथ मेरी बातचीत के दौरान, उसने कुल पाँच “उत्कृष्ट” वाक्यांश बोले। वह खुलकर नहीं बोलता था, इसलिए जब वह कुछ कहता था, तो वह एक “उत्कृष्ट” वाक्यांश बन जाता था। यह किस तरह का व्यक्ति है? क्या हम उसे “विशिष्ट व्यक्ति” कह सकते हैं? कलीसिया के अगुआओं या कार्यकर्ताओं के लिए मुझसे संपर्क करना और मामलों पर चर्चा करना बिल्कुल सामान्य बात है, है न? हालाँकि, यह व्यक्ति अद्वितीय था। उसने केवल पाँच वाक्यांश बोले, पाँच अविश्वसनीय रूप से “उत्कृष्ट” वाक्यांश। सुनिए कि इन वाक्यांशों को इतना “उत्कृष्ट” क्या बनाता है। उसके हर वाक्यांश का अपना संदर्भ है और उसके पीछे एक छोटी-सी कहानी है। सबसे पहले इस बात से शुरू करते हैं कि उसका पहला वाक्यांश कहाँ से आया।

इस अगुआ की अगुआई वाली कलीसिया में एक दुष्ट व्यक्ति था जिसने कई बुरी चीजें की थीं और कलीसिया के काम में बाधा डाली थी। सभी को पता था कि वह दुष्ट व्यक्ति है इसलिए उन्होंने उसके बारे में संगति करना और उस पर चर्चा करना शुरू कर दिया। अगर उसे निष्कासित करके बाहर किया जाना था, तो कलीसिया में उसके बारे में एक नोटिस जारी करने की जरूरत पड़ती, ताकि सभी को पता चले कि उसने क्या बुरे काम किए हैं और उसे दुष्ट व्यक्ति के रूप में क्यों वर्गीकृत किया जा रहा है और क्यों बाहर किया जा रहा है। जब उस दुष्ट व्यक्ति द्वारा किए गए कुछ बुरे कामों का खुलासा हो रहा था, तो यह अगुआ, जो आमतौर पर ज्यादा बात नहीं करता था, बोला कि, “उसकी नीयत नेक थी।” वह उस दुष्ट व्यक्ति द्वारा बुरे काम किए जाने और कलीसिया के काम में बाधा डालने को किस नजर से देखता है? “उस व्यक्ति की नीयत नेक थी।” उसका मानना था कि किसी बुरे व्यक्ति द्वारा किए गए बुरे काम सत्य के अनुरूप होते हैं, बशर्ते उस व्यक्ति की नीयत नेक हो। उसके मुताबिक किसी के कार्यों की प्रकृति चाहे जो भी हो, चाहे वे अच्छे हों या बुरे, या उनके कार्यों के कुछ भी परिणाम हों, जब तक उसकी नीयत नेक हो, तब तक उसके द्वारा पैदा की गई गड़बड़ियाँ और बाधाएँ भी सत्य के अनुरूप हैं। “उसकी नीयत नेक थी।” यह पहला वाक्यांश था जो इस अगुआ ने बोला। क्या तुमने कभी ऐसी बात सुनी है? एक दुष्ट व्यक्ति स्पष्ट रूप से दुष्टता कर रहा है, और फिर भी कोई कहता है कि उन बुरे कामों को करते समय उस व्यक्ति के इरादे नेक थे। क्या सभी को इस वाक्यांश की समझ है? मेरा मानना है कि कुछ लोग इस वाक्यांश से गुमराह हो सकते हैं क्योंकि ज्यादातर लोग सोचते हैं कि जब तक कोई व्यक्ति नेक नीयत से काम कर रहा हो, तब तक उसे रोका-टोका नहीं जाना चाहिए, और कि अगर कोई व्यक्ति अच्छे इरादे से कुछ बुरा करता है, तो वह जानबूझकर बुरा काम नहीं कर रहा है। इस अगुआ द्वारा ऐसे प्रेरित और गुमराह किए जाने के बाद संभव था कि कुछ लोग उसके पक्ष में चले जाएँ, और दुष्ट व्यक्ति के साथ सहानुभूति रखने लगें। इस अगुआ द्वारा गुमराह न किया गया होता, तो ज्यादातर लोग इस मामले को सही ढंग से समझ गए होते और सोचते कि दुष्ट व्यक्ति को कुकर्मों के लिए निष्कासित किया जाना चाहिए और बाहर कर दिया जाना चाहिए। परंतु, इस अगुआ द्वारा उकसाए और गुमराह किए जाने के बाद, कुछ लोगों ने सोचा, “उसकी नीयत नेक थी, यह बात तर्कपूर्ण है। कभी-कभी हम भी ऐसे ही होते हैं। तो, अगर हम अच्छे इरादों से कुछ बुरा कर दें, तो क्या हमें भी हटा दिया जाएगा और बाहर कर दिया जाएगा?” परिणामस्वरूप, वे इस अगुआ के पाले में आ गए। क्यों? वे अपने भविष्य के बारे में सोच रहे थे। क्या लोगों के लिए इस अगुआ के बोले वाक्यांश को स्वीकार कर लेना आसान नहीं था? इसे स्वीकार करने के क्या परिणाम हुए? उन लोगों में परमेश्वर के बारे में, उसके धार्मिक स्वभाव के बारे में और काम करने के उसके सिद्धांतों के बारे में संदेह पैदा हो गए। उनमें परमेश्वर के घर के काम करने के सिद्धांतों के बारे में संदेह विकसित हो गए, उन पर उन्होंने प्रश्न चिह्न लगा दिए, और फिर उनकी निंदा की। अपने हृदय में उन्होंने ये संदेह पाले। वास्तव में, इस दुष्ट व्यक्ति को इसलिए नहीं निकाला जा रहा था कि उसने कोई एक बुरा काम किया था। परमेश्वर के घर में कोई व्यक्ति चाहे शारीरिक श्रम करता हो, कोई विशेष कर्तव्य करता हो, या तकनीकी कौशल से जुड़ा कोई कर्तव्य करता हो, किसी को भी केवल इसलिए बाहर नहीं किया जाता कि उसने इक्का-दुक्का मौकों पर कोई गलती की होती है। वे सभी कलीसिया के अगुआओं और भाई-बहनों द्वारा उनके निरंतर व्यवहार के आधार पर बनाए गए एक संयुक्त वर्गीकरण से गुजरते हैं, और उसी के आधार पर उनसे निपटा जाता है। उदाहरण के लिए, अगर कोई हमेशा काम करने के समय आलस्य दिखाता है और काम से बचने के बहाने बनाता है, तो क्या इस व्यवहार के आधार पर उसे बाहर कर देना उचित होगा? (हाँ, यह उचित है।) यह सही है, उचित है। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हें सफाई करने के लिए नियुक्त किया गया है, और तुम अक्सर सूरजमुखी के बीज खाते रहते हो, चाय पीते रहते हो, अखबार पढ़ते रहते हो, और सूरजमुखी के बीज के छिलकों को इधर-उधर फेंकते रहते हो, तो क्या तुम अपने कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं कर रहे हो? न केवल तुम सफाई नहीं कर रहे हो, बल्कि और गंदगी भी फैला रहे हो, जिसका मतलब है कि तुम अपने कर्तव्यों की उपेक्षा कर रहे हो। अगर तुम अपने काम में अक्षम हो, तो तुम्हें बाहर निकालना पूरी तरह से सिद्धांतों के अनुरूप है, और तुम्हें इस बारे में बहस नहीं करनी चाहिए। परंतु, कलीसिया के इस अगुआ ने दावा किया कि जिस व्यक्ति से लोग गुमराह हुए थे उसकी नीयत नेक थी। अगुआ द्वारा इस तरह से लोगों को भड़काया और गुमराह किया, तो उनमें से कुछ लोग उस अगुए की बात मानने लगे, और वे एक आम सहमति पर पहुँचे। लेकिन जब उन्होंने ऐसे काम किया तो उन्होंने परमेश्वर और सत्य सिद्धांतों को कहाँ रखा? “हमारी कलीसिया” और “हमारा परमेश्वर का घर” जैसी बातें करते हुए वे एक परिवार की तरह हो गए। “कलीसिया” और “परमेश्वर के घर” को कैसे परिभाषित किया जाता है? क्या जहाँ परमेश्वर न हो, वहाँ परमेश्वर का घर हो सकता है? (नहीं।) यदि किसी स्थान पर परमेश्वर न हो, तो क्या वहाँ कोई कलीसिया हो सकती है या स्थापित की जा सकती है? (नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।) तो, जब उन्होंने “हमारा” कहा तो इसका क्या मतलब था? इसका मतलब था कि वे परमेश्वर से अलग हो गए हैं। वह कलीसिया इस भ्रमित अगुआ की कलीसिया बन गई, वह उस कलीसिया का मालिक बन गया, जबकि उन तथाकथित भाई-बहनों और भ्रमित लोगों ने उसके साथ मिलकर एक गिरोह बना लिया और उसके साथ रिश्तेदारों जैसा व्यवहार करने लगे। उन्होंने खुद को परमेश्वर से दूर कर लिया, और इसलिए परमेश्वर ने एक भूमिका “परमेश्वर के घर” के बाहर की ग्रहण की। जब इस अगुआ ने इन परिस्थितियों में वह पहला वाक्यांश बोला तो इसके ये परिणाम हुए। हर कोई खास तौर से उसे यह सोचकर ठीक मानता था कि, “हमारी कलीसिया का अगुआ निष्पक्ष है, वह हमारे प्रति विचारशील है, हमारी कमजोरियों को माफ करता है, और यहाँ तक कि हमारे पक्ष में बोलता भी है। जब हम गलतियाँ करते हैं, तो परमेश्वर हमेशा हमें उजागर करता है और हमारी काट-छाँट करता है, लेकिन हमारा अगुआ हमेशा हमारी रक्षा करता है, ठीक वैसे जैसे कोई मुर्गी अपने चूजों की रक्षा करती है। उसकी मौजूदगी में हमारे साथ कुछ गलत नहीं होगा।” हर कोई उसका आभारी था। ये इस अगुआ द्वारा कही गई पहली बात के परिणाम थे।

आओ, इस अगुआ के दूसरे वाक्यांश के साथ आगे बढ़ते हैं। कलीसिया में बाहरी मामलों से संबंधित कुछ काम थे जिन्हें ज्यादातर लोग नहीं कर सकते थे या अपने कर्तव्यों में इतने व्यस्त थे कि वे उनका ध्यान नहीं रख पाते थे। कुछ नाम मात्र के विश्वासी थे जो बाहरी मामलों को संभालने में माहिर थे, इसलिए परमेश्वर के घर ने कुछ धन आवंटित किया ताकि इन कामों की देखभाल के लिए किसी को लाया जा सके। कभी-कभी परमेश्वर का घर अपने ऐसे कुछ और कामों को संभालने के लिए उस व्यक्ति पर थोड़ा ज्यादा पैसे खर्च करता था। मुझे बताओ कि क्या ऐसे मामलों को सँभालने के लिए परमेश्वर के घर की ओर से 200 युआन का अतिरिक्त व्यय करना सिद्धांतों का उल्लंघन करना था? उन मामलों को निपटाने का यही एकमात्र तरीका था, और इसके अच्छे परिणाम मिले, इसलिए उन्हें इसी तरह से संभाला गया। उस व्यक्ति को 200 युआन का अतिरिक्त भुगतान देने से परमेश्वर के घर के लिए इन मामलों को संभालना सुविधाजनक हो गया, और कई मुद्दे हल हो गए। क्या यह 200 युआन का अतिरिक्त खर्च उचित था? (यह खर्च किए जाने लायक था।) यह बिल्कुल इसके लायक था। इस तरह से काम करना उचित था। यदि परमेश्वर के घर ने 200 युआन किसी ऐसे व्यक्ति को दिए होते जो उन कार्यों को संभाल नहीं पाता, तो वह केवल बर्बादी होती। उसे 200 युआन देने का मतलब था कि वे कार्य अच्छी तरह से पूरे किए जा सकते थे—तो क्या परमेश्वर के घर के लिए इस तरह से चीजों को संभालना सिद्धांतों के अनुरूप था? (यह सिद्धांतों के अनुरूप था।) तो, क्या भाई-बहनों के साथ इस पर चर्चा या संवाद न करना सिद्धांतों के अनुरूप था? (यह सिद्धांतों के अनुरूप था।) क्या ऊपरवाले को इस तरह से चीजों को संभालने का अधिकार है? (हाँ, है।) हाँ, यह निश्चित है। लेकिन इस कलीसिया अगुआ ने कहा, “भाइयों और बहनों ने कहा कि उस व्यक्ति को अतिरिक्त 200 युआन दिए गए थे...। मैं बस भाई-बहनों की ओर से इस मामले के बारे में पूछ रहा हूँ। वे यह सिद्धांत नहीं समझते, और हम यह जानना चाहते हैं कि सत्य के इस पहलू पर कैसे संगति की जाए।” उसने केवल आधे-अधूरे वाक्यों में अपनी बात की थी। यह उसका दूसरा वाक्यांश था। जाहिर है, यह वाक्यांश एक सवाल था, जिसका अर्थ था, “तुम कहते हो कि तुम जो कुछ भी करते हो वह सिद्धांतों के अनुरूप होता है, लेकिन यह चीज ऐसी नहीं है, और कुछ भाई-बहनों की इसके बारे में कुछ राय और धारणाएँ हैं, इसलिए मुझे उनकी ओर से तुमसे इस बारे में सवाल करना होगा। तुम इसे कैसे समझाओगे? मुझे समझाओ।” यह एक सवाल है, है न? अब, आगे बढ़ो और विश्लेषण करो कि इसमें कितने संदेश निहित थे—जब तुम लोग इस तरह की बात सुनते हो, तो तुम्हारा क्या नजरिया होता है? इस मामले के आधार पर तुम इस व्यक्ति को कैसे देखते हो? (हे परमेश्वर, उसके इस वाक्यांश का लहजा प्रश्नवाचक था। वह परमेश्वर से प्रश्न कर रहा था। वास्तव में, इस मामले पर उसकी अपनी धारणाएँ थीं। उसने अपने सच्चे विचार व्यक्त नहीं किए, इसके बजाय उसने कहा कि भाई-बहन ऊपरवाले के फैसले को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे और कि उन लोगों की इस बारे में कोई राय थी। जब भाई-बहनों की कुछ धारणाएँ थीं, तो कलीसिया के अगुआ के रूप में उसे इस मुद्दे को हल करने के लिए उनके साथ सत्य पर संगति करनी चाहिए थी, लेकिन उसने न केवल इसे हल नहीं किया, बल्कि वह इन धारणाओं के साथ परमेश्वर से प्रश्न करने आ गया। उसमें कपटी और दुष्ट स्वभाव है।) दो बिंदुओं का उल्लेख किया गया है : एक यह कि वह ऊपरवाले से प्रश्न कर रहा था, और दूसरा यह तथ्य कि उसके भीतर पहले से ही धारणाएँ थीं, फिर भी उसने कहा कि “भाई-बहन सिद्धांतों को नहीं समझते, और वे उन्हें तलाशना चाहते हैं।” क्या इस वाक्यांश में कोई समस्या है? क्या वे भाई-बहन उसके लिए इतने महत्वपूर्ण थे? जब उसने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को इतना महत्वपूर्ण माना, तब उनमें इतनी दृढ़ धारणाएँ विकसित होने पर उसने उनका समाधान क्यों नहीं किया? क्या वह अपने कर्तव्य की उपेक्षा नहीं कर रहा था? वह उपेक्षा कर रहा था। उसने इस मुद्दे को हल नहीं किया, और ऊपरवाले से सवाल करने के लिए बेशर्मी से अपने साथ भाई-बहनों की धारणाओं को भी लाया। तो, वह कितना अच्छा था? किस चीज ने उसे सवाल करने योग्य बनाया? क्या उसकी भी धारणाएँ नहीं थीं? क्या उसके भीतर भी ऊपरवाले के फैसले के बारे में अपने विचार नहीं थे? क्या उसे भी नहीं लग रहा था कि इस मामले को अनुचित तरीके से संभाला गया? वे 200 युआन उस पर खर्च नहीं किए गए, इसलिए उसे लगा कि उसने कुछ खो दिया, है न? उसने सोचा, “वह अतिरिक्त 200 युआन मुझे मिलने चाहिए थे, हम इसके हकदार हैं। वह छद्म-विश्वासी है, उसे यह नहीं मिलना चाहिए। हम सत्यनिष्ठा से परमेश्वर में विश्वास करते हैं और हम परमेश्वर के घर के लोग हैं, वह नहीं है।” क्या उसका यही मतलब नहीं था? (हाँ।) उसका यही मतलब था। और उसने यह बात सीधे नहीं कही; यह सब उसने हकलाते हुए बोला। यह सुनने के बाद, तुम लोग इसे समझ पाए या नहीं? पैसे खर्च करने के मामले पर तुम लोगों क्या दृष्टिकोण है? ज्यादातर लोग यह छोटी-सी बात समझ सकते हैं। परमेश्वर के घर के विशाल कार्य को देखते हुए, क्या उस अगुआ को वास्तव में 200 युआन का अतिरिक्त खर्च किए जाने पर ध्यान देना चाहिए था? इसके अलावा, यह पैसा उसकी जेब से नहीं निकला था, तो उसे इस बारे में इतना दुःख क्यों हुआ? क्या उसे दूसरों को अच्छा इंसान बनते देखकर बस जलन नहीं हो रही थी? क्या उसका यही मतलब नहीं था? क्या तुम लोग वह समझ पा रहे हो जो मैंने तुम्हें अभी-अभी समझाया है? क्या तुममें से कोई ऐसा है जो असहमत हो, और कहे, “नहीं! हमारी जानकारी के बिना अतिरिक्त 200 युआन का खर्च—यह बहुत बुरा है कि हमें इसके बारे में जानने का अधिकार नहीं है। क्या यह परमेश्वर के घर के चढ़ावे को बरबाद करना नहीं है?” परमेश्वर के घर की अवधारणा क्या है? चढ़ावे की अवधारणा क्या है? मैं तुम्हें बता दूँ कि चढ़ावा हर किसी का नहीं होता, वह भाई-बहनों का नहीं होता; अगर उस जगह पर केवल भाई-बहन हों और परमेश्वर न हो, तो उसे परमेश्वर का घर नहीं कहा जाता। जब परमेश्वर प्रकट होता है और कार्य करता है, जब वह लोगों को अपने सामने बुलाता है और कलीसिया की स्थापना करता है तब वह परमेश्वर का घर होता है। जब भाई-बहन दशमांश देते हैं, तो वह परमेश्वर के घर को नहीं दिया जाता है, न ही कलीसिया को, और वह निश्चित रूप से किसी व्यक्ति को नहीं दिया जाता है। वे वह दशमांश परमेश्वर को देते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो, वह धन परमेश्वर को दिया जाता है; यह उसकी निजी संपत्ति है। उसकी निजी संपत्ति का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि परमेश्वर इसे अपनी इच्छानुसार आवंटित कर सकता है, और वह अगुआ इसमें शामिल होने के योग्य नहीं था। मैं बता दूँ कि इस मामले में प्रश्न पूछना और सत्य की खोज करना हद से थोड़ा ज्यादा और अनावश्यक था; वह उसका नकलीपन और दिखावटीपन था! ऐसे कई महत्वपूर्ण मामले थे जिन पर इस अगुआ ने सत्य की खोज नहीं की थी, परंतु इस मामले में उसने सत्य को खोजना चाहा। उसने उस दुष्ट व्यक्ति को क्यों नहीं सँभाला? उसने यह कहते हुए सत्य की खोज क्यों नहीं की कि “इस व्यक्ति ने बुरा काम करने की कुछ अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित की हैं; सभी भाई-बहन उससे परेशान हो गए हैं। क्या मुझे इसे सँभालना नहीं चाहिए?” उस अगुआ ने इसके बारे में नहीं पूछा; इस दुष्ट व्यक्ति के प्रति उसने पूरी तरह से आँखें मूंद रखी थीं। क्या यह कोई समस्या नहीं है? इस अगुआ का बोला पहला वाक्यांश क्या था? (उसकी नीयत नेक थी।) “उसकी नीयत नेक थी।” देखो कि यह कहते हुए वह व्यक्ति कितना “दयालु” बन रहा था; कितना पाखंड है! वह दुष्ट था, फिर भी उसके शब्द दयालुता और नैतिकता से भरे थे; उसके शब्दों में शहद-सी मिठास थी, लेकिन उसके दिल में खंजर थे, और वह मनुष्य जैसा आचरण नहीं कर रहा था। उसका दूसरा वाक्यांश क्या था? “परमेश्वर के घर ने किसी व्यक्ति को एक कार्य पूरा करने के लिए अतिरिक्त 200 युआन दिए। मैं भाई-बहनों की ओर से यह जानना चाहता हूँ कि हमें इस मामले में सिद्धांत कैसे समझना और बूझना चाहिए।” मैंने इस बात को एक पूर्ण कथन के रूप में रखा है; बेशक, उसने इसे ऐसे नहीं कहा था। वह हिचकिचाते हुए बोला था, जिससे यह समझना मुश्किल हो गया कि उसका क्या मतलब था। वह बस ऐसे ही बात करता था। यह उस अगुआ द्वारा बोला गया दूसरा वाक्यांश था।

अब उस अगुआ का बोला हुआ तीसरा वाक्यांश सुनो। सभी लोग मिलकर खुदाई का काम कर रहे थे। हर व्यक्ति को एक टोकरी मिट्टी भरने का काम सौंपा गया था। एक व्यक्ति था जिसने जल्दी-जल्दी काम किया और सबसे पहले काम खत्म कर दिया, फिर वहीं बैठकर उसने पानी पीया और आराम से बाकियों का इंतजार करने लगा। फिर, कुछ गड़बड़ हो गई। क्या गड़बड़ हुई? तीसरी समस्या उत्पन्न हुई। यह अगुआ एक बार फिर ऊपरवाले से पूछने आया, और कहा, “हमारे यहाँ एक व्यक्ति है जो तेजी से काम करता है और तेजी से आगे बढ़ जाता है, लेकिन उसके साथ एक बात गड़बड़ है। काम खत्म करने के बाद वह बस वहीं बैठा रहता है और किसी की मदद नहीं करता, इसलिए हर कोई उसके बारे में राय बनाने लगा है।” ऊपरवाले भाई ने पूछा, “क्या वह काम करने में आमतौर पर आलसी है?” इस अगुआ ने उत्तर दिया, “नहीं, वह आलसी नहीं है। वह बस तेजी से काम करता है, और काम खत्म करने के बाद वह बस वहीं बैठा रहता है, किसी की मदद नहीं करता, इसलिए भाई-बहन उसके बारे में राय बनाते हैं, वे कहते हैं कि उसमें करुणा नहीं है।” जब भाई-बहनों ने इसका उल्लेख किया, तो यह अगुआ परेशान हो गया। उसने सोचा, “अरे, देखो तो वह व्यक्ति कितना क्रूर है! मेरे भाई-बहन काम करते-करते थक गए हैं, वे धीरे-धीरे काम करते हैं, और कोई भी उनकी मदद नहीं कर रहा है।” पूरा समूह इससे परेशान था, इसलिए वह भी परेशान हो गया। उसका व्यवहार कितना “सहानुभूतिपूर्ण” था! वह यह अपने सिर पर यह “बोझ” लेकर इसकी सूचना ऊपरवाले तक ले गया। उसने पहली बात जो पूछी वह यह थी कि “क्या इस तरह के किसी व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है?” मुझे बताओ, क्या तुम लोग सोचते हो कि इस तरह के किसी व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है? (नहीं।) तो, इसे सुनकर तुम लोगों की क्या प्रतिक्रिया है? क्या तुम्हारे मन में इसके बारे में मिली-जुली भावनाएँ हैं? क्या तुम परेशान महसूस करते हो? (हाँ।) परमेश्वर के घर ने हमेशा संगति की है कि लोगों को सत्य समझना चाहिए और दूसरों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करना चाहिए, लेकिन वह यह छोटी-सी बात भी नहीं कर सका। उसका मानना था कि उस व्यक्ति को दंडित करना उचित होगा। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ, यह दुष्टता है।) उसने सोचा, “मेरे भाई-बहन पीड़ित हैं, और उन्होंने मुझे रिपोर्ट की है कि इस व्यक्ति में करुणा नहीं है। एक अगुआ के रूप में मैं इन लोगों का हृदय कैसे जीतूँ, कैसे उन्हें खुश करूँ, उनकी रक्षा करूँ, उनके साथ कुछ गलत होने से या उन्हें कष्ट महसूस करने से कैसे बचाऊँ?” यह सोचकर कि उस व्यक्ति को दंडित करने से सभी का गुस्सा शांत हो जाएगा, और सब कुछ निष्पक्ष और न्यायसंगत हो जाएगा, अगुआ की पहली प्रतिक्रिया उस व्यक्ति को दंडित करने की थी। क्या वह ऐसा नहीं करना चाहता था? (हाँ।) उसने सोचा, “हम सभी एक जैसा खाना खाते हैं, एक ही जगह रहते हैं, और हम सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाता है। तुम्हें इतनी तेजी से काम करने का क्या अधिकार है? यदि तुम तेजी से काम करते हो, तो तुम दूसरों की मदद क्यों नहीं करते?” मुझे बताओ, यह सुनने के बाद लोगों को कैसा लगता है? “तेजी से काम करना पाप है। ऐसा लगता है कि हमें कभी भी तेजी से काम नहीं करना चाहिए—इस अगुआ के होते हुए तो हमें इससे कोई फायदा नहीं होगा। तेजी से काम करना अच्छा नहीं है, और न ही पूर्वदृष्टि रखना अच्छा है। धीमा होना ही उचित है!” ऊपरवाले ने अगुआ से पूछा, “जो लोग धीरे-धीरे काम करते हैं, उनका क्या? क्या तुम उन्हें पुरस्कार देते हो?” अगुआ को कोई जवाब नहीं सूझा, लेकिन वह उलझन में नहीं पड़ा। उसने कहा, “नहीं, मैं उन्हें पुरस्कार नहीं दे सकता। परंतु, जो आदमी तेजी से काम करता है, उसे दंडित किया जाना चाहिए। सभी भाई-बहन कहते हैं कि उसे दंडित किया जाना चाहिए।” यह वह वाक्यांश था जो उसने बोला था। मुझे बताओ, क्या यह वाक्यांश वास्तव में भाई-बहनों का प्रतिनिधित्व करता है, या यह खुद अगुआ का प्रतिनिधित्व करता है? (यह खुद उस अगुआ का प्रतिनिधित्व करता है।) आओ भाई-बहनों को इससे अलग रखते हैं—उनके बीच तो हर तरह के भ्रमित लोग हैं : जो सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, जो कुटिल तरीके से बोलते हैं, जो स्वार्थी और केवल अपना ख्याल रखते हैं, जो बहस भड़काते हैं, जो बिना सिद्धांतों के बोलते हैं, और जो बिना नैतिक आधाररेखा के काम करते हैं। उनके बीच किस तरह का व्यक्ति नहीं पाया जा सकता? तो, एक कलीसिया के अगुआ के रूप में उसकी क्या जिम्मेदारी थी? क्या प्रभावशाली भाई-बहनों के लिए बोलना, इन दुष्ट प्रवृत्तियों और कुप्रथाओं का बचाव करना उसकी जिम्मेदारी थी? (नहीं।) तो फिर उसकी क्या जिम्मेदारी थी? जब उसे भाई-बहनों के बीच विकृति और विचलन के मुद्दों का पता चला, तो यह उसकी जिम्मेदारी थी कि वह सत्य का उपयोग करते हुए इन मुद्दों को हल करे, ताकि वे लोग समझ सकें कि समस्याएँ कहाँ हैं, और उनकी स्थितियों के साथ क्या समस्याएँ हैं ताकि उन्हें खुद को जानने और सत्य को समझने के लिए प्रेरित किया जा सके, और परमेश्वर के सामने लाया जाए। क्या यह किसी कलीसिया के अगुआ की जिम्मेदारी नहीं है? (हाँ, है।) क्या उसने इस जिम्मेदारी को पूरा किया? वह न केवल इसे पूरा करने में विफल रहा, बल्कि उसने उन दुष्ट प्रवृत्तियों और कुप्रथाओं को बढ़ावा दिया, उन्हें कलीसिया में पैदा होने देने और फैलने की रक्षा की, उन्हें उकसाया और उनका स्वीकार किया। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ।) मुझे बताओ, जब ऊपरवाला इस तरह के दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति की काट-छाँट और उजागर करता है, तो क्या उनके हृदय में अवज्ञा के भाव होंगे? (हाँ।) वे निश्चित रूप से अवज्ञाकारी होंगे। क्या वे दूसरों के साथ ऊपरवाले द्वारा दिए गए सिद्धांतों के अनुसार निष्पक्ष व्यवहार करेंगे? बिल्कुल नहीं। तुम उसके बोले शब्दों से देख सकते हो कि वह पूरी तरह से कुटिल था। बाद में मैंने मन ही मन सोचा : “अगर जल्दी काम करने वालों को दंडित किया जाएगा, तो जल्दी काम करने की हिम्मत कौन करेगा? हर कोई कछुए की तरह धीमा हो जाएगा, तीन दिनों तक इधर-उधर भटकने के बाद भी नदी के किनारे पर न चढ़ सकने वाला बन जाएगा।” क्या चीजें ऐसी ही नहीं हो जाएँगी? लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने में असमर्थ होने के अलावा, इस अगुआ का सबसे घातक और गंभीर पहलू जो लोगों को सबसे अधिक गुमराह कर सकता था, वह यह था कि चाहे भाई-बहन कितने भी बुरे काम करें या वे कितने भी गलत और बेतुके दृष्टिकोण फैलाएँ, वह न केवल उन्हें पहचानने और सुधारने में विफल रहा, बल्कि उसने उन्हें बढ़ावा देने की कोशिश की, उन्हें आश्रय दिया और यहाँ तक कि उन्हें खुश करने की भी कोशिश की। क्या वह एक खतरनाक व्यक्ति नहीं था? (वह खतरनाक था।) वह बेहद खतरनाक था! यह उस अगुआ द्वारा बोला गया तीसरा वाक्यांश था।

अब चौथे वाक्यांश पर चलते हैं। मैं अक्सर उस कलीसिया में जाता था जहाँ वह अगुआ प्रभारी था, और वहाँ कुछ मुर्गे-मुर्गियाँ रखे गए थे। हर बार जब मैं जाता था, तो वह एक मुर्गा मारता था। एक दिन मुर्गे का शोरबा पकाया जाता था; तो दूसरे दिन उसे लाल भूना जाता था; उसके अगले दिन उसे तंदूर किया जाता था। मैंने सोचा कि अगर मैं हर दिन वहाँ जाता रहा, तो वहाँ के मुर्गे-मुर्गियों का वह झुंड कुछ ही दिनों में खत्म हो जाएगा। ऐसा क्यों था? जब एक मुर्गा पकाया जाता था, तो कभी-कभी मैं उसका एक टुकड़ा खा लेता था, और कभी-कभी मैं नहीं खाता था, लेकिन इसकी परवाह किए बिना वे लोग उसे चट कर जाते थे, और हर बार एक पूरा मुर्गा खा लिया जाता था। बाद में, मैंने विचार किया कि हर बार जब मैं वहाँ जाता था, तो एक पूरा मुर्गा खाया जाता था। तो, उनके पास चाहे जितने भी मुर्गे क्यों न हों, इस तरह से खाए जाने पर वे लंबे समय तक नहीं चलेंगे। इसलिए, मैंने उस अगुआ से कहा कि आगे से वह मुर्गे-मुर्गियाँ न मारे। क्या ऐसा करना उचित नहीं था? (हाँ, यह उचित था।) अब, इस बात ने वास्तव में उसे मुश्किल में डाल दिया। वह एक प्रश्न लेकर सामने आया कि “अगर हम मुर्गों को नहीं मार सकते, तो ...” तुम्हें पता नहीं है कि उसने आगे क्या पूछा। आखिरकार अटकते-अटकते उसने क्या कहा? “तो तुम क्या खाना चाहते हो?” मैंने कहा, “क्या मुर्गों के अलावा खाने के लिए कुछ और नहीं है? क्या बगीचा तरह-तरह की सब्जियों से भरा नहीं है? मैं उनमें से कुछ भी खा सकता हूँ।” उसका मतलब था कि अगर उसे मुर्गों को मारने की अनुमति नहीं है, तब भी मुझे कुछ मांस की जरूरत होगी। क्या वह “विचारशील” नहीं था? मैंने कहा, “कैसा मांस! यदि तुम्हारे पास सब्जियाँ हैं तो मैं मांस नहीं खाऊँगा। अगर मैं तुमसे मुर्गा मारने के लिए न कहूँ, तो उन्हें मत मारो!” यह बात आसानी से समझ में आनी चाहिए थी, है कि नहीं? (हाँ।) लेकिन इस मामले में, यह एक दुविधा बन गई। मुर्गों को न मार पाने से वह वास्तव में असहज हो गया। उसने बहुत अजीब-सा व्यवहार करना शुरू कर दिया, जैसे उस पर कोई भूत-प्रेत चढ़ गया हो। चूँकि उस समय वह मुर्गा नहीं खा सका था, इसलिए अगली बार जब मैं वहाँ गया, तो उसने एक और सवाल पूछा, जो हमें पाँचवें वाक्यांश पर ले आया। सुनो कि कैसे उसके सवाल और भी ज्यादा हास्यास्पद होते गए। सवाल क्या था? उसने कहा, “चूँकि हम मुर्गों को नहीं मार सकते, और हम खरगोश भी पालते हैं—तो, क्या तुम उन्हें खाओगे?” इस पर मुझे वाकई गुस्सा आ गया। मैंने कहा, “हमारे पास जो छोटे खरगोश हैं, वे बहुत प्यारे हैं, उनकी आँखें चमकदार लाल और बिल्कुल सफेद फर हैं। वे इधर-उधर खेलते-कूदते आनंद ले रहे हैं। तुम हमेशा मांस खाने के बारे में क्यों सोचते रहते हो? क्या तुम बिना मांस खाए नहीं रह सकते?” मेरी समझ में नहीं आया। वहाँ की रसोई में कभी भी मांस की कमी नहीं होती थी; वहाँ ढेरों मुर्गे की टाँगें और सुअर के मांस थे। ऐसा नहीं था कि उसके खाने के लिए मांस नहीं था, तो वह खरगोशों को मारने और उनका मांस खाने के बारे में क्यों पूछता रहता था? मैंने बस इन शब्दों में जवाब दिया : “तुम्हें उन्हें मारने की अनुमति नहीं है! ये हत्याएँ किस लिए करनी हैं?” जब उसने मुझे इस तरह जवाब देते देखा, तो वह डर गया कि कहीं उसकी काट-छाँट न कर दी जाए और उसने कोई और सवाल पूछने की हिम्मत नहीं की। उसके बाद उसने क्या खाना बनाया? जून और जुलाई के मौसम में, बगीचे में हर तरह की चीजें थीं; पत्तेदार साग और फल देने वाली सब्जियाँ प्रचुर मात्रा में थीं। एक दिन, उस अगुआ ने व्यंजनों से भरी एक मेज तैयार की। उसने क्या तैयार किया? हल्के से तले हुए अंकुरित मूंग, अंकुरित सोयाबीन का सूप, मछली के साथ पकाया गया टोफू, हल्के तले हुए हरे मटर और अंडे और हल्के तले हुए वुड-ईयर मशरूम—मेज पर एक भी पत्तेदार हरी सब्जी नहीं थी। मैंने उन सभी सूखे व्यंजनों पर एक नजर डाली। मौसम के हिसाब से कुछ ताजा भोज्य पदार्थ खाने की जरूरत थी, लेकिन उसने जो खाना बनाया था वह पूरी तरह से बेमौसमी था। मैंने सोचा, क्या यह व्यक्ति दुष्ट नहीं है? बगीचे में हर तरह की सब्जियाँ थीं; उसने कुछ पत्तेदार सब्जियाँ क्यों नहीं बनाईं? अंत में, मैंने कहा कि उसे तुरंत बाहर कर दिया जाना चाहिए। उसके जैसा कोई व्यक्ति अगर खाना पकाने का प्रभारी होगा, तो लोगों को कभी भी मौसमी खाना नहीं मिलेगा। इसके बजाय, उन्हें हमेशा ऐसे खाद्य पदार्थ मिलेंगे जो बेमौसमी होंगे। क्या यह सामान्य बात है? यह निश्चित रूप से सामान्य बात नहीं है!

इस अगुआ द्वारा पूछे गए प्रश्नों और उसके खाना पकाने के तरीके के माध्यम से मैंने देखा कि पहली बात तो यह है कि उसका चरित्र खराब था; दूसरे, कि वह एक दुष्ट और धूर्त स्वभाव का था; और तीसरे, कि वह सत्य का अनुसरण नहीं करता था। परंतु, एक अप्रत्याशित बात भी थी; तुम इसे विचित्र भी कह सकते हो। अतीत में, जब भी इस कलीसिया में चुनाव होते थे, तो उसे सबसे अधिक वोट मिलते थे, और यहाँ तक कि पुनर्निर्वाचन में भी उसे ही सबसे अधिक वोट मिले थे। उस व्यक्ति के पक्ष में ऐसा क्या चल रहा था कि उसे बार-बार सबसे अधिक वोट मिल रहे थे? क्या यह स्थिति पैदा करने वाले कारण दोनों पक्षों में नहीं थे? (हाँ थे।) इससे संबंधित कारण दोनों पक्षों के पास थे। मुख्य कारण क्या थे? एक ओर, अधिकांश भाई-बहन सत्य का अनुसरण नहीं करते थे या उसे नहीं समझते थे, और वे लोगों को पहचान भी नहीं पाते थे। दूसरी तरफ, कलीसिया का यह अगुआ लोगों को गुमराह करने में बेहद सक्षम था। तुम लोग नहीं जानते कि यह व्यक्ति कौन था, तुमने नहीं देखा कि उसने क्या किया, और तुम नहीं जानते कि बंद दरवाजों के पीछे वह किस तरह का व्यक्ति था। लेकिन मैंने जिन विषयों पर बात की है, साथ ही उसके द्वारा बोले गए पाँच वाक्यांशों के आधार पर, तुम लोग उसे किस तरह का व्यक्ति कहोगे? क्या वह कलीसिया का अगुआ बनने के लिए उपयुक्त था? (नहीं।) तो फिर, वे भाई-बहन बार-बार उसे क्यों चुनते रहे? ऐसा इसलिए कि उसके पास रणनीतियाँ थीं और उसने इन लोगों को गुमराह किया था। वह उतना भोला और व्यावहारिक बिल्कुल नहीं था जितना वह उपर से दिखता था; उसके पास निश्चित ही रणनीतियाँ थीं। बाद में, मैंने कहा कि उस कलीसिया में कोई भी व्यक्ति अगुआ के रूप में कार्य करने के लिए उपयुक्त नहीं था और किसी और को इस पद पर सेवा करने के लिए भेजा जाना चाहिए। लेकिन कुछ लोग समझ नहीं पाए; उन्हें लगा कि इस अगुआ को भाई-बहनों ने नहीं चुना है। “भाई-बहनों” को कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? क्या भाई-बहन सत्य का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या उन्हें इस तरह परिभाषित किया जाता है? (नहीं।) जब भाई-बहन सामूहिक रूप से कोई माँग, कोई विनियम, या कोई राय और कोई तर्क सामने रखते हैं, तो क्या ये चीजें आवश्यक रूप से सत्य के अनुरूप होती हैं? क्या परमेश्वर को पहले उनके मुद्दों पर विचार करना चाहिए और उनका ख्याल रखना चाहिए? क्या परमेश्वर ऐसा कर सकता है? (नहीं।) तो उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए? इन भाई-बहनों को कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? उनमें से ज्यादातर अपने कर्तव्य, श्रम और काम करने के लिए तैयार हैं, लेकिन वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। उनमें सत्य को समझने की क्षमता और काबिलियत नहीं है, वे मूर्ख, संज्ञाशून्य और मंदबुद्धि हैं, वे लोगों को पहचानने या मामलों को समझने में असमर्थ हैं, और वे स्वार्थी और मतलबी हैं। यद्यपि उनके कुछ इरादे अच्छे हैं और वे चीजों को त्यागने, खुद को खपाने और परमेश्वर के लिए मेहनत करने को तैयार होते हैं, लेकिन उनका घातक दोष क्या है? वे सत्य नहीं समझते या उसे स्वीकार नहीं करते। वे इस बात का पालन करते हैं कि “जो कोई भी मुझे खाना खिलाती है वह मेरी माँ है, और जो भी मुझे पैसे देता है वह मेरा पिता है।” जो कोई भी उनके लिए अच्छा है या उनके लिए फायदेमंद है, जो कोई भी उनकी ओर से बोलता है और उनकी रक्षा करता है, वही वह व्यक्ति है जिसे वे चुनते हैं। यदि ऐसे लोगों को अपना अगुआ चुनने की अनुमति दी जाए, तो क्या वे एक अच्छे अगुआ का चुनाव कर सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते। क्या वे अपने जीवन प्रवेश में कोई प्रगति कर सकते हैं? यदि ऊपरवाले ने उन्हें इतना स्वेच्छाचारी होने दिया, और लापरवाही से इतने बेधड़क काम करते रहने दिया, तो क्या यह गैर-जिम्मेदाराना नहीं होगा? (हाँ होगा।) वे भ्रमित थे, लेकिन ऊपरवाला भ्रमित नहीं था, और इन लोगों ने जिस अगुआ को चुना था उसे हटा दिया गया और उसके बदले किसी और को भेज दिया गया। भले ही ये लोग नए अगुआ को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, किंतु अगर नया अगुआ कुछ वास्तविक काम करने में समर्थ हो वह लोगों को गुमराह करने वाले उस झूठे अगुआ से बहुत बेहतर होगा। यद्यपि इन भाई-बहनों ने ऊपरवाले की व्यवस्था को नहीं समझा, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा जब वे कुछ सत्य समझेंगे और चीजों को कुछ समझ सकेंगे, और तब वे जान जाएँगे कि कौन अच्छा था और कौन बुरा। इस तरह से काम करके ऊपरवाला पूरी तरह से उनके लिए जिम्मेदारी ले रहा था। क्या ऐसा करना उचित था? (यह उचित था।) भले ही वे नहीं समझे, लेकिन उन्हें अपनी मर्जी से किसी को भी चुनने की अनुमति नहीं दी जा सकती थी। क्या वे विद्रोह करना चाहते हैं? अगर वे बुरा काम करना चाहते हैं, शैतान के साथी बनना चाहते हैं, तो वे पूरी तरह से नष्ट हो जाएँगे। इसीलिए, ऊपरवाले ने उनके लिए निर्णय लिया और दूसरा अगुआ चुना। लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया; उन्होंने जोर देकर कहा कि उन्होंने जिस व्यक्ति को चुना है, वह उपयुक्त है। क्या यह दुष्टता नहीं है? वे हमेशा यह क्यों सोचते थे कि वह अच्छा था? उसमें ऐसा भी क्या अच्छा था? वे उसे रखने के प्रति इतने दृढ़ क्यों थे? वहाँ एक समस्या थी : उन्हें ज्ञान नहीं था कि उस झूठे अगुआ ने उन्हें गुमराह किया था और नुकसान पहुँचाया था। वे वास्तव में मूर्खों का समूह थे। मैंने इस मामले पर बात पूरी कर ली है। इस झूठे अगुआ जैसे लोगों को हम इस विषय का गहन-विश्लेषण करने के लिए एक विशिष्ट मामले के रूप में लेते हैं—ऐसा करना उचित है। आखिरकार, उनके स्वभाव में मौजूद दुष्टता अपने आप में विशिष्ट है।

जब मसीह-विरोधियों की सातवीं अभिव्यक्ति के भीतर दुष्टता पर हमारी संगति की बात आती है, तो इन विशिष्ट उदाहरणों को एकीकृत करने, उनका विश्लेषण करने और उनकी तुलना करने के माध्यम से, क्या यह विषय तुम्हें कुछ स्पष्ट हुआ है? यह व्यक्ति जिसकी मैंने अभी चर्चा की है, भविष्य में सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होगा या नहीं, यह पता नहीं है और कुछ कहना मुश्किल है और हम अभी कोई निष्कर्ष निकालने से बचेंगे। परंतु, एक बात निश्चित है : उसका स्वभाव, सार और प्रकृति सभी कुछ दुष्टतापूर्ण थे। तो, उसे क्या प्रिय था? क्या उसे निष्पक्षता और धार्मिकता से प्रेम था? क्या उसे परमेश्वर द्वारा बोले गए विभिन्न सत्यों से प्रेम था? क्या वह एक ईमानदार व्यक्ति होना, दूसरों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करना, सिद्धांतों के साथ काम करना और सत्य की खोज करना पसंद करता था? क्या वह इन चीजों से प्यार करता था? उसे इनमें से किसी से भी प्रेम नहीं था—यह एक सौ प्रतिशत निश्चित है। उसके बोले कुछ वाक्यांशों और उसके पूछे इन कुछ सवालों के माध्यम से वे चीजें उजागर हुईं जिन्हें वह अपने हृदय की गहराई में और पोर-पोर से प्रेम करता था। उनमें से एक भी चीज ऐसी नहीं थी जो सकारात्मक चीजों के साथ मेल खाती हो। वे कौन लोग थे जिन्हें वह पसंद करता था और जिनकी रक्षा करने के लिए वह तैयार था? उसने उन लोगों की रक्षा की जिन्होंने बुरे काम किए, जिन्होंने कलीसिया के काम में बाधा डाली, जिनमें निष्ठा बिल्कुल नहीं थी और जो अपने कर्तव्यों के पालन में कई कुकर्मों में लिप्त थे। उसने ऐसे लोगों को क्रोध या घृणा की दृष्टि से नहीं देखा; उसने उनके लिए आवाज भी उठाई और उनका बचाव भी किया। यह क्या प्रदर्शित करता है? कि वे एक ही तरह के थे : उनके हित समान थे और सार समान थे। वे सभी स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे से सहमत थे, और वे एक ही तरह के सड़े लोग थे। जब कुछ भाई-बहन निरंतर परमेश्वर के वचनों और कार्यों के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल रहे थे, तो यह अगुआ कै सा महसूस करता था? क्या इन मुद्दों को हल करने के लिए उसने कोई बोझ उठाया? (नहीं।) उसने यह बोझ नहीं उठाया; उसने इन मुद्दों पर काम नहीं किया या इन मामलों पर ध्यान नहीं दिया—उसने उनकी ओर से आँखें मूँद लीं। जब किसी ने परमेश्वर के नाम का अपमान किया, या परमेश्वर के घर के काम में गड़बड़ी की और बाधा पैदा की, जब कोई निष्ठाहीन हुआ और अपने कर्तव्य निर्वहन में बेपरवाही दिखाई, या परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाया और अपने कर्तव्य को करते हुए बाधाएं पैदा की और क्षति की, या नकारात्मकता व्यक्त की और धारणाएँ फैलाईं, तो क्या वह इनमें से किसी भी बात को समस्या के रूप में पहचान सका था? वह उन्हें समस्याओं के रूप में नहीं पहचान सका था; वह सोचता था, “इन मुद्दों का होना सामान्य है; कौन है जो भ्रष्टता प्रकट नहीं करता?” उसका निहितार्थ क्या था? उसका निहितार्थ था कि उन लोगों को इस तरह से कार्य करना चाहिए, क्योंकि तब वह इतना बुरा नहीं दिखेगा—वह “छिप” सकेगा और “सुरक्षित” रह सकेगा। क्या यह दुष्टता नहीं है? ये लोग लगातार गड़बड़ियाँ करते और बाधा पैदा करते रहे, और उसने उन्हें नहीं संभाला। इसके आधार पर, मुझे बताओ, क्या उसके पास न्याय की भावना थी? क्या वह सत्य से प्रेम करता था? परमेश्वर के घर को वह कैसी जगह समझता था? वह नहीं चाहता था कि परमेश्वर का घर ईमानदार लोगों से भरा हो, जो परमेश्वर के प्रति वफादार हों, जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हों और अपने कर्तव्यों को करते हुए अपनी जगह जानते हों। वह नहीं चाहता था कि हर कोई खुलकर बात करे और परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करे, परमेश्वर के प्रति समर्पित हो और उसकी गवाही दे। वह नहीं चाहता था कि परमेश्वर के घर में हर कोई ऐसा हो। तो, वह चाहता क्या था? वह चाहता था कि हर कोई स्वार्थपूर्ण संबंध बनाए, एक-दूसरे के हितों की रक्षा करे, किसी को नुकसान न पहुँचाए, या किसी की काली करतूतों का पिटारा न खोले। वह चाहता था कि हर कोई एक-दूसरे की सुरक्षा करे और एक-दूसरे को आश्रय दे, दूसरों द्वारा की गई किसी भी गलत हरकत को बाहरी लोगों से छिपाए, और एकजुट मोर्चे की तरह से काम करे। वह यही चाहता था। जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे के गलत कामों और सच्ची परिस्थितियों को सबके सामने लाता है और इन बातों को सार्वजनिक करता है, सीधे बोलता है और सबको उनके बारे में बताता है, तो उसे ऐसे कार्यों से घृणा और वितृष्णा होती है। उसे पसंद था कि गलत काम छिपे रहें और उन पर पर्दा पड़ा रहे, झूठ उजागर न किए जाएं, और जब कोई भी व्यक्ति छल-कपट में शामिल हो या परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाए, तो उससे सिद्धांतों के अनुसार न निपटा जाए। जिस कलीसिया की वह देखरेख करता था, उसमें परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेशों और कार्य व्यवस्थाओं का क्या हुआ? वे खोखले शब्द बन गए, और वे लागू नहीं किए जा सके। उन्हें लागू क्यों नहीं किया जा सका? क्योंकि उस अगुआ ने उन्हें रोक दिया; दीवार बन कर उसने उन्हें काट दिया। यही वह दुष्ट स्वभाव है जिसे मसीह-विरोधी तथ्यों को विकृत करने, कुछ खास रणनीतियाँ अपनाने और अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु दूसरों को मूर्ख बनाने तथा धोखा देने के लिए कुछ खास योजनाओं और चालों का उपयोग करने के माध्यम से प्रकट करते हैं।

जिन कलीसियाओं में सत्ता मसीह-विरोधियों के हाथ होती है, वहाँ परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्था लागू नहीं की जा सकती। साथ ही, उन कलीसियाओं में एक अजीबोगरीब परिघटना होती है कि वहाँ केवल वही काम होता है जिसका परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं से कोई लेना-देना नहीं होता या जो उसके विपरीत होता है, जिससे भाई-बहनों के बीच अलग-अलग धारणाएँ और तर्क पैदा होते हैं और कलीसिया में अव्यवस्था फैल जाती है। नकली अगुआ कैसे काम करते हैं? वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार काम नहीं करते; ऐसा लगता है कि उनके पास कोई काम नहीं है, और वे कार्य-व्यवस्थाओं को लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। इन अगुआओं के नीचे के लोग बिल्कुल बेखबर होते हैं; जैसे रेत का खुला ढेर पड़ा हो जिसे संगठित करने वाला कोई न हो—हर कोई जो चाहता और जैसे चाहता है वैसे काम करता है। नकली अगुआ कोई बयान नहीं देते और यह जिम्मेदारी नहीं लेते। परंतु, मसीह-विरोधी अलग तरह से काम करते हैं। वे न केवल कार्य-व्यवस्थाओं को लागू करने में विफल होते हैं, बल्कि वे अपने बयान और अभ्यास के तरीके भी पेश करते हैं। कुछ लोग ऊपर वाले की कार्य व्यवस्थाओं को लेकर उन्हें बदल देते हैं, उन्हें अपने स्वयं के कथनों में बदल देते हैं, जिन्हें वे लागू करते हैं, जबकि कुछ अन्य ऊपर वाले की कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार बिल्कुल भी कार्य नहीं करते, और बस अपने मुताबिक काम करते हैं। वे ऊपर वाले की कार्य व्यवस्थाओं को रोकते हैं और उन्हें नीचे नहीं भेजते, अपने से नीचे वालों को अंधेरे में रखते हैं जबकि वे अपने मन की करते रहते हैं, और यहाँ तक कि अपने नीचे वालों को गुमराह करने और धोखा देने के लिए घालमेल करते हुए वे अपने सिद्धांत और कथन भी गढ़ते हैं। इसलिए, यह मत देखो कि मसीह-विरोधी कितना त्याग कर सकते हैं या सतह पर वे कितना दुःख सह सकते हैं। उनके सतही कार्यों और व्यवहारों को अलग रखो, और वे जो करते हैं, उन चीजों के सार को देखो। परमेश्वर के साथ उनका संबंध किस तरह का है? वे परमेश्वर द्वारा कही गई और की गई हर बात का विरोध करते हैं, हर वह बात जिसे समझने की अपेक्षा परमेश्वर हर भाई-बहन से करता है, और हर वह बात जिसे वह कलीसिया में नीचे तक लागू करने की माँग करता है—वे उन सभी चीजों का विरोध करते हैं। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “क्या इन चीजों को लागू न करना और उनका विरोध करना एक समान है?” वे इन चीजों को लागू क्यों नहीं करते? क्योंकि वे इनसे सहमत नहीं हैं। यह देखते हुए कि वे इन बातों से सहमत नहीं होते, क्या वे परमेश्वर के घर से भी ऊपर हैं? जिस तरीके से वे इन बातों से सहमत नहीं हैं, क्या उनके पास कोई बेहतर योजना है? नहीं, उनके पास कोई योजना नहीं है। तो वे इन बातों को लागू न करने की हिम्मत क्यों करते हैं, क्या केवल इसलिए कि वे इनसे सहमत नहीं हैं? क्योंकि वे कलीसिया पर हावी होना और उसे नियंत्रित करना चाहते हैं। उनका मानना है कि अगर वे कार्य-व्यवस्थाओं और ऊपरवाले की जरूरतों के मुताबिक चीजों को लागू करेंगे, तो उनके योगदान पर किसी का ध्यान नहीं जाएगा, वे अलग नहीं दिखेंगे और किसी को नजर नहीं आएंगे। मसीह विरोधियों के लिए यह बात किसी आपदा जैसी होती है। अगर हर कोई परमेश्वर की गवाही दे और नियमित रूप से सत्य पर संगति करे, अगर हर कोई सत्य समझ सके, सिद्धांतों के अनुसार मामलों को काबू में कर सके, सत्य की खोज कर सके और समस्याओं का सामना होने पर परमेश्वर से प्रार्थना और अनुनय कर सके, तो उनका क्या काम रह जाएगा? मसीह-विरोधी सत्य का अनुसरण नहीं करते, इसलिए उनके पास कोई काम नहीं होगा; वे सिर्फ सजावट की वस्तु बनकर रह जाएँगे। अगर वे सजावट की वस्तु बन गए, और कोई भी उन पर ध्यान नहीं देगा, तो क्या वे इसे स्वीकार करेंगे? नहीं, वे नहीं करेंगे। वे अपनी स्थिति को बचाने के तरीके सोचेंगे। मसीह-विरोधियों में एक दुष्ट स्वभाव और दुष्ट सार होता है—क्या वे अनुमान लगा सकते हैं कि अगर सभी भाई-बहन सत्य का अनुसरण करेंगे तो उनका खुलासा हो जाएगा? मसीह-विरोधी बहुत ही बुरे होते हैं, और वे सत्य का अनुसरण नहीं करते; वे दुष्ट, कपटी और धूर्त होते हैं, और वे सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते। अगर हर कोई सत्य समझेगा, तो वह मसीह-विरोधियों की पहचान कर लेगा। क्या मसीह-विरोधी यह बात जानते हैं? हाँ, वे जानते हैं। वे इसे अपनी आत्मा में महसूस कर सकते हैं। यह ऐसा है जैसे जब तुम कहीं जाते हो और किसी दुष्ट आत्मा का सामना करते हो। जब दुष्ट आत्मा तुम्हें देखती है, तो उसे अप्रसन्नता होती है और एक नजर में ही तुम्हें दुष्ट आत्मा से घृणा हो जाती है और तुम उससे बात नहीं करना चाहते। वास्तव में, उसने तुम्हें अपमानित नहीं किया होता, न ही तुम्हें नुकसान पहुँचाने वाला कोई काम किया होता है, लेकिन तुम उसे देखने में घृणा महसूस करते हो, और उसकी बोली तो तुम्हें और भी अधिक घृणायोग्य महसूस होती है। वास्तव में, वह तुम्हें नहीं जानता, और तुम उसे नहीं जानते। तो यहाँ चल क्या रहा है? तुम अपनी आत्मा में महसूस कर सकते हो कि तुम दोनों एक ही तरह के नहीं हो। मसीह-विरोधी परमेश्वर के चुने हुए लोगों के दुश्मन होते हैं। यदि तुम उनके साथ बातचीत करते समय अंदाजा या जागरूकता नहीं रखते, तो क्या तुम बहुत चेतनाशून्य नहीं हो? मान लो कि कोई मसीह-विरोधी बहुत अधिक नहीं बोलता, और तर्क व्यक्त करते समय, अपने दृष्टिकोण को आगे रखते हुए, या अपने कार्यों में एक निश्चित रवैया रखते हुए बस कुछ शब्द कहता है, तो तुम इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते। यदि तुम उससे लंबे समय तक मिलते-जुलते रहे हो, फिर भी तुम्हें यह जानकारी नहीं है, और एक दिन ऊपरवाला उसे मसीह-विरोधी के रूप में परिभाषित करता है, और तब जाकर तुम्हें आखिरकार इसका बोध होता है और तुम कुछ डरते हुए सोचते हो कि, “मैं ऐसे स्पष्ट मसीह-विरोधी को कैसे नहीं पहचान पाया! यह तो बहुत करीबी मामला था!” तो तुम कितने सुस्त और संज्ञाशून्य रहे होगे!

मसीह-विरोधियों की दुष्टता की एक स्पष्ट विशेषता होती है, और इसे पहचानने का राज़ मैं तुम लोगों के साथ साझा करूँगा : इसका राज़ है कि उनके भाषण और कार्य दोनों में, तुम उनकी गहराई नहीं समझ सकते या उनके दिल में नहीं झाँक सकते। तुमसे बात करते हुए उनकी आँखें हमेशा इधर-उधर नाचती रहती हैं, और तुम यह नहीं बता सकते कि वे कैसी योजना बना रहे हैं। कभी-कभी, वे तुमको यह एहसास दिलाते हैं कि वे निष्ठावान या काफी ईमानदार हैं, लेकिन ऐसा है नहीं—तुम उनकी असलियत कभी नहीं समझ सकते। तुम्हारे दिल में एक खास अनुभूति होती है, एक बोध कि उनके विचारों में एक गहरी सूक्ष्मता है, उनमें अथाह गहराई है, कि वे कपटपूर्ण हैं। यह मसीह-विरोधियों की दुष्टता का पहला लक्षण है, और यह दिखाता है कि मसीह-विरोधियों में दुष्टता का गुण होता है। मसीह-विरोधियों की दुष्टता का दूसरा लक्षण क्या है? वह यह है कि वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, वह अत्यधिक भ्रामक होता है। यह कहाँ प्रदर्शित होता है? लोगों का मनोविज्ञान समझने और लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के साथ ठीक बैठने वाली और स्वीकारने में आसान बातें बोलने में उनकी विशेष कुशलता में प्रदर्शित होती है। परंतु, एक बात है जिसे तुमको समझना चाहिए : वे जो सुखद बातें कहते हैं, उन्हें साकार नहीं करते। उदाहरण के लिए, वे दूसरों को धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, उन्हें बताते हैं कि ईमानदार कैसे बनें, और कैसे प्रार्थना करें और कोई मुश्किल आने पर परमेश्वर को अपना स्वामी बनाएँ, लेकिन जब खुद मसीह-विरोधियों के सामने कुछ मुश्किल आती है, तो वे सत्य का अभ्यास नहीं करते। वे केवल अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं, और सबसे सेवा करवाते हुए और उनके मामले संभालते हुए वे खुद को लाभ पहुँचाने के अनगिनत तरीकों के बारे में सोचा करते हैं। वे कभी भी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते या उसे अपना स्वामी नहीं बनाते। वे ऐसी बातें कहते हैं जो कानों को अच्छी लगती हैं, लेकिन उनके काम वैसे नहीं होते जैसा वे कहते हैं। कोई भी कार्य करते समय वे सबसे पहले अपने लाभ के बारे में सोचते हैं; वे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार नहीं करते हैं। लोग देखते हैं कि वे काम करते समय आज्ञाकारी नहीं होते, कि वे हमेशा खुद को लाभ पहुँचाने और आगे बढ़ने का रास्ता खोजते रहते हैं। यह मसीह-विरोधियों का कपटी और दुष्ट पक्ष है जिसे लोग देख सकते हैं। काम करते समय, कभी-कभी मसीह-विरोधी कठिनाई का सामना कर सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं, यहाँ तक कि कई बार नींद और भोजन भी त्याग सकते हैं, लेकिन वे ऐसा केवल प्रतिष्ठा पाने या नाम बनाने के लिए करते हैं। वे अपनी महत्वाकांक्षाओं और लक्ष्यों की खातिर कठिनाई झेलते हैं लेकिन परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें सौंपे गए महत्वपूर्ण कार्य के प्रति अन्यमनस्क होते हैं, और उसे बमुश्किल पूरा करते हैं। तो, क्या वे अपने सभी कार्यों में परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति विनयशील होते हैं? क्या वे अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं? यहाँ एक समस्या है। एक अन्य तरह का व्यवहार भी है, जो यह है कि जब भाई-बहन उनसे अलग राय रखते हैं, तो मसीह-विरोधी उन्हें गोल-गोल घुमाकर खारिज कर देते हैं, वे एक ही बात दोहराते हुए लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि मसीह-विरोधियों ने उनके साथ संगति की है और उनके साथ चर्चा की है—लेकिन जब करने की बात आती है, तो सभी को वही करना होता है जो वे कहें। वे हमेशा दूसरे लोगों के सुझावों को खारिज करने के तरीके खोजते रहते हैं, ताकि लोग उनके विचारों का पालन करें और जैसा वे कहते हैं वैसा ही करें। क्या यह सत्य सिद्धांतों की खोज करना है? निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। तो फिर, उनके काम का सिद्धांत क्या है? वह यह है कि हर किसी को उनकी बातें सुननी चाहिए और उनका पालन करना चाहिए, कि उनसे बेहतर कोई नहीं है, और कि उनके विचार सबसे अच्छे और सबसे ऊँचे हैं। मसीह-विरोधी हर किसी को यह महसूस कराना चाहते हैं कि वे जो कहते हैं वही सही है, कि वे सत्य हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? यह मसीह-विरोधियों की दुष्टता का दूसरा लक्षण है। मसीह-विरोधियों की दुष्टता का तीसरा लक्षण यह है कि जब वे खुद की गवाही देते हैं, तो वे अक्सर अपने योगदान, अपने द्वारा झेली गई कठिनाइयों और सभी के लिए किए गए लाभकारी कार्यों की गवाही देते हैं, उसे लोगों के दिमाग में डालते हैं, ताकि लोग याद रखें कि वे मसीह-विरोधी से उत्पन्न प्रकाश में जगमगा रहे हैं। यदि कोई मसीह-विरोधी की प्रशंसा करता है या धन्यवाद देता है, तो वे बहुत ही आध्यात्मिक शब्द भी बोल सकते हैं, जैसे, “परमेश्वर का शुक्रिया। यह सब परमेश्वर का काम है। हमारे लिए परमेश्वर की कृपा ही काफी है,” ताकि हर कोई देख सके कि वे बहुत आध्यात्मिक हैं, और वे परमेश्वर के अच्छे सेवक हैं। वास्तव में, वे खुद को ऊँचा उठा रहे होते हैं और खुद की गवाही दे रहे होते हैं, और उनके दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं होती। अन्य सभी के दिमाग में, मसीह-विरोधी का ओहदा पहले से ही परमेश्वर से कहीं ऊँचा होता है। क्या यह मसीह-विरोधी द्वारा खुद की गवाही देने का वास्तविक प्रमाण नहीं है? जिन कलीसियाओं में मसीह-विरोधी सत्ता में और नियंत्रण में होते हैं, वहाँ लोगों के दिलों में उनका स्थान सबसे ऊँचा होता है। परमेश्वर दूसरे या तीसरे स्थान पर ही आ सकता है। यदि परमेश्वर किसी ऐसी कलीसिया में जाता है जहाँ मसीह-विरोधी सत्ता में है और कुछ कहता है, तो वह जो भी कहता है क्या वह वहाँ के लोगों तक पहुँचेगा? क्या वे उसे दिल से स्वीकार करेंगे? यह कहना मुश्किल है। यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि मसीह-विरोधी खुद की गवाही देने का कितना प्रयास करते हैं। वे परमेश्वर के लिए गवाही बिल्कुल नहीं देते, बल्कि परमेश्वर की गवाही देने के सभी अवसरों का उपयोग अपने लिए गवाही देने में करते हैं। क्या मसीह-विरोधी द्वारा अपनाई जाने वाली यह रणनीति धूर्ततापूर्ण नहीं है? क्या यह अविश्वसनीय रूप से दुष्ट नहीं है? यहाँ संगति की गई इन तीन विशेषताओं के माध्यम से मसीह-विरोधियों को पहचानना आसान है।

मसीह-विरोधियों में एक और लक्षण होता है, और यह उनके दुष्ट स्वभाव की एक बड़ी अभिव्यक्ति भी है। वह यह है कि परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे जैसे संगति करे, परमेश्वर के चुने हुए लोग आत्मज्ञान पर चाहे जैसे संगति करें, या न्याय, ताड़ना और काट-छाँट स्वीकार करें, मसीह-विरोधी उन पर कोई ध्यान नहीं देता। इतने पर भी वे प्रसिद्धि, लाभ और पद की तलाश में लगे रहते हैं और आशीष पाने के अपने इरादे और इच्छा को कभी नहीं छोड़ते। मसीह-विरोधी सोचते हैं, अगर कोई कर्तव्य-पालन करने, कीमत चुकाने और थोड़ी-बहुत कठिनाइयों का सामना करने योग्य है, तो उसे परमेश्वर का आशीष मिलना चाहिए। और इसीलिए, कुछ समय तक कलीसिया का काम करने के बाद ही, वे इस बात का जायजा लेना शुरू कर देते हैं कि उन्होंने कलीसिया के लिए क्या काम किया है, उन्होंने परमेश्वर के घर में क्या योगदान दिया है और भाई-बहनों के लिए उन्होंने क्या किया है। वे यह सब अपने मन में बिठाकर रखते हैं और यह देखने की प्रतीक्षा करते हैं कि इनसे उन्हें परमेश्वर से क्या अनुग्रह और आशीष मिलेगा, ताकि वे यह तय कर सकें कि वे जो काम कर रहे हैं वह इस लायक है या नहीं। वे हमेशा इस तरह की चीजों में क्यों उलझे रहते हैं? वे मन ही मन किस लक्ष्य का पीछा कर रहे होते हैं? परमेश्वर में उनकी आस्था का उद्देश्य क्या होता है? शुरू से, परमेश्वर में उनका विश्वास आशीष पाने के लिए ही रहता है। और उन्होंने चाहे जितने भी वर्षों तक प्रवचन सुने हों, परमेश्वर के कितने भी वचन खाए और पिए हों, चाहे जितने भी सिद्धांतों समझते हों, लेकिन वे आशीष पाने की इच्छा और मंशा कभी नहीं त्यागते। यदि तुम उनसे एक कर्तव्यपरायण सृजित प्राणी बनने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करने के लिए कहोगे, तो वे बोलेंगे, “इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मुझे इन चीजों के लिए प्रयास नहीं करना चाहिए। मुझे तो इन चीजों के लिए प्रयास करना है : अपनी लड़ाई लड़ लेने, अपने अपेक्षित प्रयास और अपेक्षित कठिनाइयों का सामना कर लेने के बाद, और परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार सब कर लेने के बाद, परमेश्वर को मुझे इनाम देना चाहिए और मेरा अस्तित्व बनाए रखना चाहिए, और मुझे राज्य में मुकुट पहनाया जाना चाहिए और मुझे परमेश्वर के लोगों की तुलना में अधिक ऊँचे ओहदे पर रखना चाहिए। मुझे कम से कम दो या तीन शहरों का प्रभारी होना चाहिए।” मसीह-विरोधियों को इन्हीं बातों की सबसे अधिक परवाह होती है। परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे जैसे संगति करे, उनके इरादों और इच्छाओं को मिटाया नहीं जा सकता; वे पौलुस जैसे ही होते हैं। क्या इस तरह के बेशर्मी भरे लेन-देन में एक प्रकार की बुराई और शातिर स्वभाव नहीं होता? कुछ धार्मिक लोग कहते हैं, “हमारी पीढ़ी क्रूस के मार्ग पर परमेश्वर का अनुसरण करती है। हमें परमेश्वर ने हमें चुना है, इसलिए हम आशीष पाने के हकदार हैं। हमने दुःख उठाए हैं, कीमत चुकाई है और कड़वे प्याले से दाखमधु पिया है। हममें से कुछ को गिरफ्तार कर जेल में भी डाला गया है। इतने कष्ट सहने, इतने सारे उपदेश सुनने और बाइबल के बारे में इतना कुछ सीखने के बाद भी, यदि एक दिन हमें आशीष नहीं मिला, तो हम तीसरे स्वर्ग में जाकर परमेश्वर से बहस करेंगे।” क्या तुम लोगों ने कभी ऐसा कुछ सुना है? वे कहते हैं कि वे तीसरे स्वर्ग में जाकर परमेश्वर से बहस करेंगे—यह कितनी धृष्टता है? क्या इसे सुनने मात्र से तुम लोग भयभीत नहीं हो जाते? परमेश्वर से बहस करने की हिम्मत कौन करता है? सौभाग्य से, जिस यीशु पर वे विश्वास करते हैं, वह बहुत पहले ही स्वर्ग जा चुका है। यदि यीशु अभी भी धरती पर होता, तो क्या वे उसे फिर से सूली पर चढ़ाने की कोशिश नहीं करते? बेशक, पहली बार परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने पर, यह सोचकर कि लोगों में ऐसी दृढ़ता और संकल्प होना चाहिए, कुछ लोगों को ऐसे शब्द शक्तिशाली और प्रभावशाली लग सकते हैं। लेकिन, इतने लंबे समय से विश्वास करने के बाद, तुम लोग इन शब्दों को कैसे देखते हो? क्या ऐसे लोग महादूत नहीं हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? तुम किसी से भी बहस कर सकते हो, लेकिन परमेश्वर से नहीं। तुमको ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए, या ऐसा करने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। आशीष परमेश्वर से आते हैं : वह उन्हें जिसे चाहता है, देता है। भले ही तुम आशीष पाने की शर्तों को पूरा करते हो और परमेश्वर तुम्हें आशीष न दे, फिर भी तुमको परमेश्वर से बहस नहीं करनी चाहिए। संपूर्ण ब्रह्मांड और पूरी मानवजाति परमेश्वर के शासन के अधीन है; सारा नियंत्रण परमेश्वर के ही हाथ में है। तुम, एक छोटे-से इंसान, भला परमेश्वर से बहस करने की हिम्मत कैसे कर सकते हो? तुम अपनी क्षमताओं को इतना अधिक कैसे आँक सकते हो? तुम कौन हो, यह देखने के लिए तुम आईना क्यों नहीं देखते? इस तरह से सृष्टिकर्ता के विरुद्ध शोर मचाने और उससे विवाद करने का साहस करके, क्या तुम मृत्यु को आमंत्रित नहीं कर रहे हो? “यदि एक दिन हमें आशीष नहीं मिला, तो हम तीसरे स्वर्ग में जाकर परमेश्वर से बहस करेंगे” यह एक ऐसा कथन है जो खुले तौर पर परमेश्वर के विरुद्ध शोर है। तीसरा स्वर्ग किस तरह का स्थान है? यह वह स्थान है जहाँ परमेश्वर रहता है। परमेश्वर से बहस करने के लिए तीसरे स्वर्ग में जाने का साहस करना परमेश्वर को “उखाड़ फेंकने” की कोशिश करने जैसा है! क्या ऐसा नहीं है? कुछ लोग पूछ सकते हैं, “इस बात का मसीह-विरोधियों से क्या संबंध है?” इसका उनसे बहुत संबंध है, क्योंकि जो लोग परमेश्वर से बहस करने के लिए तीसरे स्वर्ग में जाना चाहते हैं, वे सभी मसीह-विरोधी हैं। ऐसी बातें केवल मसीह-विरोधी ही कह सकते हैं। इस तरह के शब्द, वह आवाज हैंजो मसीह-विरोधियों द्वारा उनके हृदय की गहराई में पाली गई होती है। यह उनकी दुष्टता है। हालाँकि मसीह-विरोधी खुलेआम ये बातें नहीं कहते, लेकिन वे वास्तव में अपने हृदय में इन बातों को पाले रहते हैं, वे बस इन्हें प्रकट करने की हिम्मत नहीं करते और किसी को इन्हें जानने नहीं देते। परंतु, हृदय की गहराई में उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ कभी न बुझने वाली आग की तरह जलती रहती हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि मसीह-विरोधी सत्य से प्रेम नहीं करते। वे परमेश्वर की निष्पक्षता और धार्मिकता, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से प्रेम नहीं करते, और परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता, बुद्धि और सभी चीजों पर उसकी संप्रभुता से तो वे निश्चित रूप से प्रेम नहीं करते। वे इनमें से किसी भी चीज से प्रेम नहीं करते—वे उनसे घृणा करते हैं। तो, उन्हें किस चीज से प्रेम है? उन्हें रुतबा पसंद है और वे पुरस्कारों की परवाह करते हैं। वे कहते हैं, “मेरे पास खूबियाँ, प्रतिभा और योग्यताएँ हैं। मैंने कलीसिया के लिए मेहनत की है, इसलिए परमेश्वर को मुझे इसका बदला देना ही चाहिए और मुझे पुरस्कार देना चाहिए!” क्या वे संकट में नहीं हैं? क्या यह मौत को गले लगाना नहीं है? क्या यह परमेश्वर को सीधी चुनौती नहीं है? क्या यह सृष्टिकर्ता को चुनौती नहीं है? अपने भाले को सीधे परमेश्वर, सृष्टिकर्ता पर तानने की हिम्मत करना—यह कुछ ऐसा है जिसे करने में केवल महादूत, शैतान ही सक्षम है। अगर वास्तव में ऐसे दृष्टिकोण वाले लोग हैं, जो ऐसे कार्य करने में सक्षम हैं, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे मसीह-विरोधी हैं। पृथ्वी पर, केवल मसीह-विरोधी ही खुले तौर पर परमेश्वर का विरोध करने और उस पर इस तरह से फैसला सुनाने का साहस करते हैं। कुछ लोग कह सकते हैं, “हमने जिन मसीह-विरोधियों को देखा है, वे इतने दुस्साहसी या धृष्ट नहीं थे।” इस बात को उस संदर्भ और परिवेश के अनुसार देखा जाना चाहिए जिसमें मसीह-विरोधी हैं। जब उन्होंने पूरी तरह से शक्ति नहीं प्राप्त की होती और खुद को स्थापित नहीं किया होता है, तो वे अपनी तेज धार दिखाने की हिम्मत कैसे कर सकते हैं? मसीह-विरोधी अपने समय का इंतजार करना जानते हैं, और उठ खड़े होने के सही समय का इंतजार करते हैं। जब वे सफल हो हो जाते हैं, तो उनकी धार पूरी तरह से उजागर हो जाती है। हालाँकि कुछ मसीह-विरोधी जब तक उनके पास कोई पद या रुतबा नहीं होता, तब तक अपने असली रंग को काफी हद तक छिपा लेते हैं, और ऊपरी तौर पर उनमें कोई समस्या नहीं देखी जा सकती, लेकिन जैसे ही वे रुतबा हासिल करते हैं और खुद को स्थापित कर लेते हैं, उनकी दुष्टता और कुरूपता पूरी तरह से उजागर हो जाती है। यह कुछ उन लोगों जैसा है जिनमें सत्य वास्तविकता नहीं होती। जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता, वे बेमन से काट-छाँट को समर्पित हो सकते हैं, और हृदय में विद्रोही नहीं होते। परंतु, अगर वे अगुआ या कार्यकर्ता बन जाते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच कुछ प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेते हैं, तो जब उन्हें काटा-छाँटा जाता है, तो इस बात की बहुत अधिक संभावना होती है कि वे अपना असली रूप उजागर कर देंगे, और परमेश्वर से बहस करना और उसके खिलाफ शोर मचाना शुरू कर देंगे। यह वैसा ही है जैसे कुछ लोग सामान्य परिस्थितियों में अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाते हैं और उन्हें कोई शिकायत नहीं होती है, लेकिन अगर उन्हें कैंसर और तेजी से नजदीक आती मौत का सामना करना पड़े, तो वे अपना असली रूप उजागर कर देते हैं। वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करना, उससे बहस करना और उसके खिलाफ शोर मचाना शुरू कर देंगे। मसीह-विरोधी, लोगों का यह समूह, सत्य से विमुख होता है और सत्य से नफरत करता है, और कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं करता। फिर, उजागर होने और प्रकट होने के बाद भी, वे कलीसिया में काम करने और यहाँ तक कि सबसे छोटे अनुयायी होने के लिए क्यों तैयार होते हैं? यह क्या हो रहा है? उनका एक लक्ष्य है : उन्होंने आशीष हासिल करने के अपने इरादे को कभी नहीं छोड़ा होता। उनकी मानसिकता है, “मैं इस आखिरी जीवन-रेखा को पकड़े रहूँगा। अगर मैं आशीष नहीं पा सकता, तो मैं कभी भी परमेश्वर को नहीं छोड़ूँगा। अगर मैं आशीष नहीं पा सकता, तो परमेश्वर परमेश्वर नहीं है!” यह किस तरह का स्वभाव है? परमेश्वर को धृष्टता से नकारने और उसके विरुद्ध शोर मचाने की हिम्मत करना—यह दुष्टता है। जब तक उन्हें आशीष पाने की थोड़ी-सी भी उम्मीद होगी, वे परमेश्वर के घर में रहेंगे और उन आशीषों की प्रतीक्षा करेंगे। इसे कैसे देखा जा सकता है? वे फरीसियों की तरह हैं, हमेशा अच्छा होने का दिखावा करते हैं—क्या इसके पीछे का इरादा और लक्ष्य स्पष्ट नहीं है? उनका बाहरी व्यवहार कितना भी अच्छा क्यों न लगे, वे बाहरी रूप से कितना भी कष्ट उठाते क्यों न दिखे, वे कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं करते, वे कार्य करते समय सत्य की खोज नहीं करते, न परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और न ही उसके इरादों की खोज करते हैं। वे लोग कभी भी वह काम नहीं करते जो परमेश्वर को पसंद हैं। इसके बजाय, वे केवल अपनी महत्वाकांक्षा और आशीष पाने की इच्छा को संतुष्ट करने का प्रयास करते हुए वही काम करते हैं जो वे करना चाहते हैं और जो उन्हें पसंद हैं। क्या इससे वे संकट में नहीं पड़ेंगे? क्या यह मसीह-विरोधियों के सार को उजागर नहीं करता? मसीह-विरोधी जिस चीज से प्रेम करते हैं और जिसकी तलाश में लगे रहते हैं, वह उनके शैतानी स्वभाव को प्रदर्शित करता है। वे जिन चीजों से प्रेम करते हैं और जिनकी तलाश में लगे रहते हैं, उन्हें परमेश्वर को प्रसन्न करने वाली सकारात्मक चीजें मानते हैं, और कोशिश करते हैं कि वह उन्हें स्वीकार करे और आशीष दे। क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या यह परमेश्वर का विरोध करना और खुद को उसके खिलाफ खड़ा करना नहीं है? मसीह-विरोधी हर मोड़ पर परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश करते हैं। वे अपने दुःख सहने और कीमत चुकाने का इस्तेमाल परमेश्वर से इनाम और मुकुट माँगने के लिए करते हैं, ताकि उनके बदले उन्हें एक अच्छा गंतव्य मिल सके। लेकिन क्या उनकी गणना गलत नहीं है? इस तरह से परमेश्वर का विरोध करके, वे परमेश्वर के दंड से कैसे बच सकते हैं? अपने पापों के लिए वे यही पाने के हकदार हैं। यह प्रतिकार है।

एक बार एक मसीह-विरोधी था जो गायन और नृत्य की कला के बारे में थोड़ा-बहुत जानता था, और उस समय यह व्यवस्था की गई कि गायक मंडली के भाई-बहनों को कला सिखाने में वह अगुआई करे। वे भाई-बहन युवा थे, और उनमें से अधिकांश बहुत लंबे समय से परमेश्वर पर विश्वास नहीं कर रहे थे; उनमें खूब लगन थी और वे अपने कर्तव्य करने के इच्छुक थे, बस इतना ही, लेकिन वे सत्य नहीं समझते थे, और उनमें से कुछ ने तो इसकी बुनियाद भी नहीं रखी थी। जब वह मसीह-विरोधी काम कर रहा था, तो उसने उन्हें पवित्र आत्मा के कार्य की भावना का अनुभव करने के लिए निर्देशित किया, उन्हें परमेश्वर की उपस्थिति और उसकी अनुपस्थिति की भावना के बीच अंतर का अनुभव कराया—उसने हमेशा उन्हें अपनी भावनाओं पर भरोसा करने के लिए कहा। वह सत्य नहीं समझता था, न ही उसके पास कोई वास्तविक अनुभव था, लेकिन उसने अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर भाई-बहनों को इस तरह गुमराह किया और गलत दिशा में ले गया। ऊपरवाले को पता था कि उसके पास सत्य वास्तविकता नहीं है, और उसने उसे केवल कला सिखाने और समझाने के लिए कहा था। अपने कर्तव्य के इस पहलू को पूरा करना भर पर्याप्त होता और उसकी जिम्मेदारियों की पूर्ति माना जाता। लेकिन वह फिर भी “सत्य के बारे में संगति” करना चाहता था, और लोगों को उनकी भावनाओं को समझना और उनकी भावनाओं पर भरोसा करना सिखाना चाहता था। इस तरह से कार्य करके क्या उसके लिए लोगों को दुष्ट आत्मा के कार्य की अलौकिक भावना में लाना आसान नहीं होता? यह बहुत खतरनाक है! एक बार जब कोई दुष्ट आत्मा इस तरह के अवसर का लाभ उठाती है और किसी व्यक्ति पर कब्जा कर लेती है, तो वह व्यक्ति बर्बाद हो जाता है। प्रशिक्षण अवधि के दौरान, उसने इन लोगों से प्रार्थना करवाई, और प्रार्थना करने के बाद उसने उन्हें यह देखने को कहा कि पवित्र आत्मा कैसे काम कर रहा था, और क्या उन्हें पसीना आ रहा था, क्या वे रो रहे थे, या उनके शरीर में कोई अन्य भावनाएँ थीं। उसने इन बातों पर जोर दिया, लेकिन वास्तव में, इन बातों को पहले ही स्पष्ट रूप से समझाया जा चुका था। बहुत सारे सत्य हैं, लेकिन उसने उनके बारे में संगति नहीं की, न ही उसने उन लोगों को परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के लिए प्रेरित किया, और वह अपने उचित कार्य पर ध्यान देने में विफल रहा। उसने भाई-बहनों को नृत्य संयोजित करने की अनुमति नहीं दी, और इसके बजाय सभी को अपने हृदय की संतुष्टि के अनुसार मंच पर नाचने दिया, उन्हें इच्छानुसार बदलाव करने दिया और यहाँ तक कहा कि, “यह ठीक है, परमेश्वर हमारा मार्गदर्शन कर रहा है, इसलिए हमें डरने की जरूरत नहीं है, पवित्र आत्मा काम कर रहा है!” यह मसीह-विरोधी सत्य नहीं समझता था, इसलिए वह हमेशा मूर्खतापूर्ण काम करता था। भाई-बहनों में पहचान कर पाने की क्षमता नहीं थी, इसलिए उन्होंने उसकी बात सुनी और प्रार्थना करने लगे, “परमेश्वर, कृपया काम करो, परमेश्वर, कृपया काम करो...।” उन्होंने “पूरे दिल से” प्रार्थना करने की पूरी कोशिश की, और प्रार्थना करने के बाद रोए भी, और फिर वे मंच पर गए और नृत्य के बीच उसमें बदलाव किए। मंच के नीचे से देखने वालों को लगा कि माहौल बहुत बढ़िया था और पवित्र आत्मा शक्तिशाली तरीके से काम कर रहा था! वे दूसरों को नाचते हुए देखकर रो पड़े, मानो उन्होंने पवित्र आत्मा के काम को महसूस किया हो। अंत में, इन लोगों ने इन सभी चीजों को रिकॉर्ड किया और मुझे दिखाने के लिए तस्वीरें लीं। तस्वीरों में कुछ लोग आँखें बंद करके रो रहे थे, और सर्दी में भी उनके चेहरे गर्मी से लाल हो गए थे। मैंने देखा कि मुसीबत आने वाली थी, और ये लोग उसके द्वारा बर्बाद होने वाले थे। उसे केवल कला सिखाने के लिए कहा गया था, और वह सत्य के बारे में कुछ भी नहीं समझता था। वह केवल अपनी कल्पनाओं के आधार पर आँख मूंदकर काम कर रहा था, पवित्र आत्मा के कार्य की भावना को खोजना चाहता था। क्या पवित्र आत्मा का कार्य भावनाओं का विषय है? तुम्हें सत्य को समझना होगा—यह वास्तविक है। भावनाएँ अपने आप में खोखली और बेकार होती हैं। क्या तुम अपनी भावनाओं के आधार पर सत्य और परमेश्वर के इरादों को समझ सकते हो? बिल्कुल नहीं। तुम्हें किसी भावना की तलाश करने की जरूरत नहीं है, तुम्हें बस परमेश्वर के वचनों के आधार पर सिद्धांतों और परमेश्वर के इरादों की तलाश करनी है, और फिर उनकी तुलना उन चीजों से करनी है जो तुम्हारे साथ घटित होती हैं—यह बहुत व्यावहारिक है, और तुम धीरे-धीरे सत्य समझने लगोगे। जब तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करोगे, तो पवित्र आत्मा स्वाभाविक रूप से काम करना शुरू कर देगा। भले ही पवित्र आत्मा काम न करे, क्योंकि तुमने परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास किया है, परमेश्वर तुम्हें अपने अनुयायी के रूप में स्वीकारेगा—यह बहुत व्यावहारिक और सबसे सच्ची बात है। उस मसीह-विरोधी ने इस तरह से संगति नहीं की, बल्कि लगातार उन लोगों को भावनाओं, चिह्नों और चमत्कारों जैसी चीजों और सपनों की तलाश के लिए प्रोत्साहित किया। वह एक आम आदमी था जिसके पास आध्यात्मिक समझ नहीं थी और वह मूर्ख और अज्ञानी बच्चों के एक समूह को हास्यास्पद काम करने की ओर ले जा रहा था। तस्वीरों में लोग रो रहे थे और विलाप कर रहे थे। यह किस चीज का प्रतिनिधित्व करता है? यह किसी भी चीज का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, लेकिन इसमें ऐसा कुछ है जो उसके द्वारा किए जा रहे कार्यों की प्रकृति को स्पष्ट करता है। इस मसीह-विरोधी ने उन सभी चीजों की तस्वीरें लीं और उन्हें “परमेश्वर के कार्य के विवरण” के रूप में लेबल किया। ये “विवरण” क्या थे? वे लोग सत्य नहीं समझते थे, वे पवित्र आत्मा के कार्य की अनुभूति ढूंढ़ रहे थे और बिना किसी अच्छे कारण के बदलाव करते थे, और उनका नृत्य हर बार अलग होता था, क्योंकि हर बार भावना अलग होती थी, और परमेश्वर की “अगुआई” अलग होती थी—वे “विवरण” थे। उन “विवरणों” में और क्या शामिल था? मसीह-विरोधी ने यह भी कहा कि वे पवित्र आत्मा के कार्य के परिणाम थे। जब उसने यह कहा, तो भाई-बहन उत्साहित हो गए, जैसे उनका विश्वास और आध्यात्मिक कद अचानक काफी बढ़ गया हो। उसने “विवरण” क्यों कहा? “विवरण” शब्द कहाँ से आया? मैंने एक बार परमेश्वर के कार्य के विवरण का उल्लेख किया था। ये विवरण किस बात को संदर्भित करते हैं? वे लोगों पर परमेश्वर के कार्य के परिणाम हैं जिन्हें मनुष्य देख और समझ सकता है, और वे न तो अलौकिक हैं और न अस्पष्ट। वे ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम महसूस कर सकते हो। वे तब होते हैं जब परमेश्वर ने तुम पर बहुत काम किया होता है, तुमसे बहुत सारे शब्द कहे होते हैं, श्रमसाध्य प्रयास किए होते हैं, और इस प्रकार तुम्हारे अस्तित्व के तरीके को, चीजों के प्रति तुम्हारे विचारों को, चीजों को करते समय तुम्हारे रवैये को, परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये को, साथ ही तुम्हारे अन्य हिस्सों को भी बदल दिया होता है। अर्थात्, वे परमेश्वर के कार्य के लाभ और फल हैं—विवरण का यही अर्थ है। उस मसीह-विरोधी ने भी अपने द्वारा किए गए इन कार्यों को “विवरण” कहा। इन चीजों की प्रकृति को फिलहाल छोड़ देते हैं, तो तुम लोग केवल इस वाक्यांश के विश्लेषण से क्या देख सकते हो? परमेश्वर लोगों पर कार्य करता है, और उसने कहा है कि लोग उसके द्वारा उन पर किए गए कार्यों के विवरण देख सकेंगे, लेकिन इस मसीह-विरोधी ने सभी के अनियंत्रित आचरण की अगुआई करते हुए हर चीज को गड़बड़ कर दिया था, फिर भी उसने इन्हें “विवरण” कहा—वह क्या करने की कोशिश कर रहा था? (वह परमेश्वर के बराबर होना चाहता था।) ठीक है। उसके द्वारा “विवरण” शब्द का उपयोग कहाँ से आया? यह परमेश्वर के बराबर होने और परमेश्वर की नकल करने की उसकी इच्छा से आया। इस शब्द का उपयोग करते हुए उसका मतलब था कि, “परमेश्वर विवरण में कार्य करता है, और मेरी अगुआई में लोगों का यह समूह जो कर रहा है, वह भी विवरण में है।” “विवरण” शब्द के बाद का विशेषण है “परमेश्वर के कार्य का,” लेकिन वास्तव में, अपने हृदय में वह पवित्र आत्मा के कार्य के परिणामी विवरणों को खुद से जोड़ रहा था, जो मसीह-विरोधी करते हैं। जब भी सुर्खियों में आने का मौका मिलता है, जब भी किसी मौके की झलक मिलती है, वे उसे हाथ से जाने नहीं देते; लोगों के लिए वे परमेश्वर से संघर्ष करते हैं। वे किस तरह के लोगों के लिए संघर्ष करते हैं? कुछ ऐसे लोगों के लिए जो सत्य नहीं समझते, सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों को नहीं पहचान सकते, और मूर्ख और अज्ञानी हैं; जिनमें से कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, और भीड़ का अनुसरण करना पसंद करते हैं तथा आँख मूँदकर बाहर से काम करते हैं; और कुछ ऐसे भी हैं जो नए विश्वासी हैं और उनकी नींव गहरी नहीं है—वे अभी तक नहीं समझते कि परमेश्वर में विश्वास करना क्या है, और वे मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह किए हुए हैं। बाद में, समय रहते इस व्यवहार को रोक दिया गया था। इसे रोक दिए जाने का तथ्य बहुत असाधारण नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह था कि मसीह-विरोधी जो मूर्खतापूर्ण चीजें कर रहा था, वे एक ही बार में उजागर हो गईं। जब सभी ने संगति की और पलटकर सोचा, तो उन्होंने कहा, “इस मसीह-विरोधी के आने से पहले, हालाँकि हम कभी-कभी गायन के पेशेवर और तकनीकी पहलुओं के मामले में फँस जाते थे, लेकिन जब हम गाते थे, तो हमें लगता था कि वह हमारे हृदय तक पहुँच रहा है, और हम हर शब्द को अपने दिल से गा सकते हैं। जब वह आया और कुछ पेशेवर सिद्धांतों के बारे में बात की, तो हम सभी को लगा कि हम निचुड़ गए हैं और अब और नहीं गाना चाहते थे, क्योंकि हर शब्द में हम परमेश्वर जो कह रहा था, उसका आनंद नहीं ले पा रहे थे—हम परमेश्वर को महसूस नहीं कर पा रहे थे।” क्या ये लोग मुसीबत में नहीं थे? जैसे ही मसीह-विरोधी कार्य करने के लिए हाथ बढ़ाते हैं, उसका जो नतीजा निकलता है, वह यह है कि उसके बाद लोग यह महसूस नहीं कर पाते कि परमेश्वर कहाँ है, और यह नहीं जान पाते कि उचित तरीके से कार्य कैसे करें। वे अपना संतुलन खो देते हैं। क्या जब लोग परमेश्वर को महसूस करने में असमर्थ हो जाते हैं, तब भी अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकते हैं? क्या वे तब भी परमेश्वर की गवाही देने के लिए वफादारी से काम कर सकते हैं? शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मनुष्यों में एक निश्चित लक्षण पैदा हुआ, जो है भीड़ का अनुसरण करने को पसंद करना। वे मक्खियों की तरह हैं : जब तक उनका कोई अगुआ होता है, तब तक उनका कोई स्पष्ट लक्ष्य होने की आवश्यकता नहीं होती, आँख मूंदकर मूर्खता करने में अन्य लोग भी उनके साथ शामिल होंगे, क्योंकि ऐसा करना अधिक जीवंत है, और जब वे इस तरह से काम करते हैं तो उन्हें खुद को नियंत्रित करने की आवश्यकता नहीं होती है, उनके कार्यों की कोई आधार रेखा नहीं होती, और कोई भी सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करता। उन्हें प्रार्थना करने या खोजने की आवश्यकता नहीं होती, उन्हें पवित्र या शांत होने की आवश्यकता नहीं होती; जब तक उनका दिमाग चलता है और वे साँस ले सकते हैं, वे उसी तरह से कार्य करते रह सकते हैं। क्या यह कमोबेश जानवरों जैसा ही नहीं है? चूँकि भ्रष्ट मनुष्यों में यह लक्षण होता है, इसलिए वे आसानी से गुमराह हो जाते हैं, लेकिन अगर तुम सत्य समझते हो और इन चीजों को पहचान सकते हो, तो तुम इतनी आसानी से गुमराह नहीं होगे। इस मसीह-विरोधी के उजागर होने के बाद, सभी ने उसके द्वारा कही गई भ्रामक बातों और उस तरह से कार्य करने के लिए इस्तेमाल की गई युक्तियों का विश्लेषण किया, और उनकी तुलना परमेश्वर के वचनों से की। उन्हें एहसास हुआ कि यह आदमी लोगों को गुमराह करने में वाकई माहिर था, उसने चीजों को अव्यवस्थित कर दिया था, और कि उसने जो काम उनसे करवाया था वह काफी प्रभावशाली लग रहा था, और ऐसा लग रहा था कि वे पवित्र आत्मा के शक्तिशाली कार्य को महसूस कर रहे थे, किंतु वास्तव में, वे परमेश्वर को बिल्कुल भी महसूस नहीं कर पाए थे। ऊपरी तौर पर ऐसा लग रहा था कि सभी जोश से भरे हैं, और उनकी आस्था और आध्यात्मिक कद अचानक बढ़ गया है; लेकिन वास्तव में वह एक भ्रम था, यह एक दुष्ट आत्मा का काम था। ये अलौकिक परिस्थितियाँ प्रकट हुईं, इसलिए पवित्र आत्मा ने काम नहीं किया। इसके बाद कुछ समय तक, सत्य पर संगति के माध्यम से, सभी लोग मसीह-विरोधी को पहचानने में सक्षम हो गए थे, और उनकी स्थितियाँ धीरे-धीरे सामान्य हो गईं। ये लोग मसीह-विरोधी द्वारा गुमराह किए गए थे, और मुझसे दूर हो गए थे। जब मैंने बात की, तो ये लोग मुझे ऐसे देखते थे जैसे मैं कोई अपरिचित व्यक्ति हूँ, वे मेरे सवालों का जवाब नहीं देना चाहते थे, और हम तुरंत अजनबी जैसे हो गए थे। वे किसी भी बात को मानने से पहले मसीह-विरोधी के बोलने का इंतजार करते थे; वे मसीह-विरोधी की कही हर बात सुनते थे, और वह जो कुछ भी वे कहता था, उसी से उनका प्रतिनिधित्व होता था। इसलिए, किसी भी बात में ये लोग कुछ नहीं कह सकते थे, लेकिन वे कोई भी बात न कहने के लिए स्वेच्छा से तैयार थे; वे उसके बोलने का इंतजार करते थे और उसके नियंत्रण में थे। दुष्ट आत्माएँ और मसीह-विरोधी लोगों को गुमराह करने के लिए ऐसी हरकतें करते हैं।

कुछ दुष्ट चीजें शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त की जा सकती हैं और उनका गहन-विश्लेषण किया जा सकता है, लेकिन कुछ दूसरी चीजों के बारे में केवल इतना कहा जा सकता है कि उनके भीतर दुष्ट आत्माएँ काम कर रही हैं, और उन्हें शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता, उन्हें केवल तुम्हारी भावनाओं के आधार पर या समझे गए सत्य और अनुभवों के आधार पर पहचाना जा सकता है। इस मसीह-विरोधी को जल्दी से पहचाना गया और इसका समाधान किया गया, और कलीसिया का जीवन फिर से सामान्य हो गया। इसके बाद, इस घटना पर संगति करते समय सभी को डर सताने लगा। उन्होंने कहा, “यह वास्तव में खतरनाक था! उस मसीह-विरोधी के तथाकथित ‘विवरणों’ ने हमें इतना नुकसान पहुँचाया कि हम उसके हाथों लगभग बर्बाद हो गए थे।” इसलिए, तुम लोगों को मसीह-विरोधियों को पहचानना सीखना होगा। कभी भी यदि तुम मसीह-विरोधी को गंभीरता से नहीं लेते, तो खतरे में रहोगे, और कौन जानता है कि कब या किस अवसर पर तुम उनके द्वारा गुमराह हो जाओगे। बिना यह जाने कि क्या हो रहा है, भ्रमित तरीके से तुम मसीह-विरोधी का अनुसरण भी कर सकते हो। उस समय तुम्हें नहीं लगेगा कि इसमें कुछ भी गलत है, और यह भी लगेगा कि यह मसीह-विरोधी जो कहता है वह सही है—इस तरह से तुम अनजाने ही गुमराह हो जाओगे। तुम्हारे गुमराह हो जाने का तथ्य बताता है कि तुमने परमेश्वर को धोखा दिया है, और फिर परमेश्वर के पास तुम्हें बचाने का कोई रास्ता नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो आम तौर पर अच्छा प्रदर्शन करते हैं, लेकिन यह कुछ समय के लिए होता है, वे मसीह-विरोधियों के झाँसे में आ जाते हैं, और अंत में कलीसिया उन्हें गलत काम करने से रोक कर और संगति के माध्यम से वापस ले आती है। लेकिन, कुछ ऐसे भी हैं जो सत्य की कितनी भी संगति किए जाने के बाद भी वापस नहीं आते, और वे मसीह-विरोधियों के साथ जाने पर आमादा हो जाते हैं—क्या तब वे पूरी तरह से बर्बाद नहीं हो जाते हैं? वे दृढ़ता से वापस आने से इनकार करते हैं, और उसके बाद परमेश्वर उन पर और काम नहीं करता। कुछ लोगों में समझ की कमी होती है, और वे इस तरह के व्यक्ति के लिए दुःखी होते हैं, कहते हैं, “वह व्यक्ति बहुत अच्छा है : उसने कई वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है, और चीजों को त्यागा है, खुद को खपाया है; वह अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभाता था, परमेश्वर में उसकी आस्था बहुत ज्यादा थी, और वह सच्चा विश्वासी था—क्या हमें उसे एक और मौका नहीं देना चाहिए?” क्या यह दृष्टिकोण सही है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? लोग किसी दूसरे व्यक्ति की केवल ऊपरी सतह देख सकते हैं, उसके हृदय को नहीं देख सकते; वे स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते कि वह वास्तव में किस प्रकार का व्यक्ति है, या उसमें किस प्रकार का सार है। उनकी असलियत जान पाने के लिए उन्हें उस व्यक्ति के संपर्क में रहना चाहिए या कुछ समय के लिए उसे ध्यान से देखना चाहिए, और उस व्यक्ति को ऐसी घटनाओं का सामना करना चाहिए जो उनका खुलासा करती हों। इसके अलावा, यदि तुम अपने हृदय की अच्छाई के कारण इन लोगों की मदद करने की कोशिश करते हो, लेकिन तुम उनके साथ चाहे जितनी भी संगति कर लो, वे नहीं लौटते हैं तो तुम नहीं जान पाओगे कि इसके पीछे क्या कारण हैं। वास्तव में, परमेश्वर ने पहले ही इन लोगों को परख लिया है और उन्हें हटा दिया है। परमेश्वर ने उन्हें क्यों हटाया? इसका सबसे सीधा कारण यह है कि कुछ मसीह-विरोधी स्पष्ट रूप से दुष्ट आत्माएँ हैं, और उन्हें ऐसे मसीह-विरोधियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है जिनमें दुष्ट आत्माएँ सक्रिय हैं। यदि लोग कुछ समय तक उनका अनुसरण करते हैं, तो उनके हृदय अंधकारमय हो जाएँगे, और वे इतने कमजोर हो जाएँगे कि वे टूट जाएँगे, जो साबित करता है कि परमेश्वर ने बहुत पहले ही उनसे हार मान ली है। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है, और वह शैतान से घृणा करता है। चूँकि ये लोग शैतान और दुष्ट आत्माओं का अनुसरण करते हैं, तो क्या परमेश्वर फिर भी उन्हें अपने अनुयायी के रूप में स्वीकार कर सकता है? परमेश्वर पवित्र है और बुराई से अत्यधिक घृणा करता है। वह उन लोगों को नहीं चाहता जो दुष्ट आत्माओं का अनुसरण करते हैं; भले ही दूसरे लोग सोचते हों कि वे अच्छे लोग हैं, लेकिन वह उन्हें नहीं चाहता है। इसका क्या अर्थ है कि परमेश्वर बुराई से अत्यधिक घृणा करता है? “बुराई से अत्यधिक घृणा करना” क्या प्रदर्शित करता है? मैं अब जो कहता हूँ उसे सुनो, और तुम लोग समझ जाओगे। जब परमेश्वर किसी व्यक्ति को चुनता है, तब से लेकर जब तक वह व्यक्ति यह स्वीकार नहीं कर लेता कि परमेश्वर ही सत्य, धार्मिकता, बुद्धि और सर्वशक्तिमान है, कि वह एकमात्र है—एक बार जब व्यक्ति इन चीजों को समझ लेता है, और कुछ अनुभव प्राप्त कर लेता है, तो उसके हृदय की गहराई में परमेश्वर के स्वभाव, सार और उसके पास जो है और जो वह है, इसकी एक बुनियादी समझ हो जाती है, और यह बुनियादी समझ उसकी आस्था बन जाती है। यह आस्था लोगों को परमेश्वर का अनुसरण करने, परमेश्वर के लिए खुद को खपाने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए भी प्रेरित करती है। एक बार जब उन्हें अनुभव हो जाता है, सत्य की समझ हो जाती है, और परमेश्वर के स्वभाव की उनकी समझ और परमेश्वर के बारे में ज्ञान उनके हृदय में जड़ जमा लेता है—जब उन्हें यह आध्यात्मिक कद मिल जाता है—तो वे परमेश्वर को अस्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन अगर उन्हें मसीह, व्यावहारिक परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं है, और अगर वे मसीह-विरोधी की आराधना और उसका अनुसरण कर सकते हैं, तो वे अभी भी खतरे में हैं। वे अभी भी दुष्ट मसीह-विरोधी का अनुसरण करने के लिए देहधारी मसीह से मुँह मोड़ सकते हैं। यह खुले तौर पर मसीह को नकारना और परमेश्वर के साथ संबंध तोड़ना होगा। इसका निहितार्थ यह है : “मैं अब परमेश्वर का अनुसरण नहीं करता—मैं शैतान का अनुसरण करता हूँ। मैं शैतान से प्रेम करता हूँ और मैं उसकी सेवा करने के लिए तैयार हूँ; मैं शैतान का अनुसरण करने के लिए तैयार हूँ। वह मेरे साथ चाहे जैसा व्यवहार करे, मुझे कैसे भी बर्बाद करे, रौंदे और भ्रष्ट करे, मैं पूरी तरह से तैयार हूँ। परमेश्वर चाहे जितना भी धार्मिक और पवित्र क्यों न हो, चाहे वह कितना भी सत्य व्यक्त करे, मैं उसका अनुसरण करने के लिए तैयार नहीं हूँ। मुझे सत्य पसंद नहीं है। मैं भले ही प्रसिद्धि, हैसियत, पुरस्कार और मुकुट हासिल न कर सकूँ, पर मुझे ये पसंद हैं।” और बिल्कुल इस तरह, वे एक ऐसे व्यक्ति का अनुसरण करते हैं जिसका उनसे कोई संबंध नहीं है, वे परमेश्वर का विरोध करने वाले एक मसीह-विरोधी के साथ भाग जाते हैं। क्या परमेश्वर अब भी ऐसे व्यक्ति को चाहेगा? कतई नहीं। क्या यह उचित है कि परमेश्वर उन्हें न चाहे? बहुत ज्यादा उचित है। धर्म-सिद्धांत से तुम जानते हो कि परमेश्वर ऐसा परमेश्वर है जो बुराई से अत्यधिक घृणा करता है, और वह पवित्र है। तुम यह धर्म-सिद्धांत समझते हो, लेकिन क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर इस तरह के लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है? यदि परमेश्वर किसी का तिरस्कार करता है, तो वह बिना किसी हिचकिचाहट के उसे त्याग देता है। क्या मैं जो कह रहा हूँ चीजें वैसी ही नहीं है? (ऐसी ही हैं।) चीजें ऐसी ही हैं। तो, क्या परमेश्वर द्वारा ऐसे व्यक्ति को त्यागने का अर्थ यह है कि उसका हृदय क्रूर है? (नहीं।) परमेश्वर सिद्धांतों से अपने कार्य करता है। यदि तुम जानते हो कि परमेश्वर कौन है, लेकिन तुम्हें उसका अनुसरण करना पसंद नहीं है—यदि तुम जानते हो कि शैतान कौन है, फिर भी तुम उसका अनुसरण करने पर जोर देते हो—तो परमेश्वर तुम पर दबाव नहीं डालेगा। जाओ, और हमेशा शैतान का अनुसरण करो। वापस मत आना; परमेश्वर ने तुम्हें त्याग दिया है। कोई परमेश्वर के स्वभाव को कैसे समझ सकता है? परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है, और उसके स्वभाव में एक तत्व है जो बुराई से अत्यधिक घृणा करता है। दूसरे शब्दों में, यदि सृजित प्राणी के रूप में, तुम भ्रष्ट होने के लिए तैयार हो, तो परमेश्वर और क्या कह सकता है? परमेश्वर कभी भी लोगों को ऐसी चीजें करने के लिए बाध्य नहीं करता है जो वे करने के लिए तैयार न हों। वह कभी भी लोगों को सत्य स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं करता। यदि तुम भ्रष्ट होना चाहते हो, तो यह तुम्हारी व्यक्तिगत पसंद है—अंततः परिणाम तुम्हीं को भुगतने हैं, और केवल खुद तुम ही इसके दोषी होगे। लोगों के साथ व्यवहार के परमेश्वर के सिद्धांत अपरिवर्तनीय हैं, इसलिए यदि तुम भ्रष्टता से खुश हो, तो दंडित होना तुम्हारा अपरिहार्य अंत है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुमने कितने वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण किया है; यदि तुम अनैतिक होना चाहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें पश्चाताप करने के लिए बाध्य नहीं करेगा। यह तुम ही हो जो शैतान का अनुसरण करने, शैतान द्वारा गुमराह होने और बर्बाद होने के लिए तैयार है, और इसलिए, अंत में, यह तुम ही होगे जिसे परिणाम भुगतने होंगे। कुछ लोग इस तरह के लोगों के लिए दुःखी होते हैं और उनकी मदद करने में दयालुता बर्बाद करते हैं, लेकिन उनसे चाहे जितना भी आग्रह किया जाए, वे नहीं लौटेंगे। इसका क्या कारण है? तथ्य यह है कि परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को नहीं बचाता; वह उन्हें नहीं चाहता है। मनुष्य इसके बारे में क्या कर सकता है? यही इसका अंतर्निहित कारण है। लेकिन जब लोग किसी स्थिति को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, तो उन्हें वही करना चाहिए जो करना उनसे अपेक्षित है, और उन दायित्वों और उत्तरदायित्वों को निभाना चाहिए जिनके निर्वाह की उनसे अपेक्षा है। इन कार्यों को करने से क्या परिणाम मिलेंगे, इसके लिए उन्हें परमेश्वर की अगुआई पर ध्यान देना चाहिए। मैंने जिन विवरणों के बारे में बात की है, क्या तुम लोग उनकी मदद से “परमेश्वर ऐसा परमेश्वर है जो बुराई से बेइंतहा नफरत करता है” वाक्यांश को कुछ हद तक नहीं समझ सके हो? इसका एक पहलू यह है कि परमेश्वर उन लोगों को नहीं चाहता है जो दुष्ट आत्माओं द्वारा कलंकित हैं। परमेश्वर के उन्हें न चाहने का कारण क्या है? यदि तुमने शैतान को चुना है, तो फिर परमेश्वर तुम्हें कैसे चाह सकता है? यदि तुमने शैतान को चुना है, तो परमेश्वर तब भी कैसे दया कर सकता है और तुम्हें वापस लाने के लिए तुम्हारे हृदय को प्रेरित कैसे कर सकता है? क्या परमेश्वर ऐसा करने में सक्षम है? वह इससे कहीं अधिक सक्षम है, लेकिन वह यह कार्य नहीं करना चाहता क्योंकि उसका स्वभाव धार्मिक है, और क्योंकि वह ऐसा परमेश्वर है जो बुराई से अत्यधिक घृणा करता है।

पिछली बार, हमारी संगति इस बात पर केंद्रित थी कि मसीह-विरोधियों के दुष्ट सार की मुख्य अभिव्यक्ति सभी सकारात्मक चीजों और सत्यों के प्रति उनकी शत्रुता और घृणा है। आज मैं दूसरे दृष्टिकोण से संगति कर रहा हूँ, जो यह है कि मसीह-विरोधियों को हर वह चीज पसंद है जो सकारात्मक चीजों के विपरीत है। और वह क्या है? (नकारात्मक चीजें।) हाँ, वे नकारात्मक चीजें हैं, अर्थात्, वह सब कुछ जो सत्य के विरुद्ध है, उसके विरोधाभासी है और उससे असहमत है। मसीह-विरोधियों को सकारात्मक चीजें पसंद नहीं हैं, इसलिए कुछ तो ऐसा होगा जो उन्हें पसंद हो, है न? और उन्हें क्या पसंद है? उन्हें चालबाजी और झूठ, साथ ही षड्यंत्र, साजिशें और चालें पसंद हैं। क्या ऐसे भी मसीह-विरोधी हैं जो अपने खाली समय में “द थर्टी-सिक्स स्ट्रैटेजम” पढ़ते हैं? मुझे लगता है कि वे इसे पढ़ते हैं। क्या तुम्हें लगता है कि मैं “द थर्टी-सिक्स स्ट्रैटेजम” पढ़ता हूँ? मैं इसे नहीं पढ़ता। मैं इसका अध्ययन नहीं करता। इसे पढ़ने का क्या फायदा है? इसे पढ़ने से मुझे उबकाई आती है और पेट में दर्द होता है। तुम लोग क्या सोचते हो कि “द थर्टी-सिक्स स्ट्रैटेजम” पढ़ने के बाद सामान्य लोगों को कैसा महसूस होता है? क्या यह उन्हें दुष्ट मानवजाति से और भी अधिक घृणा महसूस नहीं कराता? क्या तुम्हें इस भावना का अनुभव होता है? जितना अधिक तुम इसे पढ़ते हो, उतनी ही अधिक तुम घृणा महसूस करते हो। उन्हें लगता है कि यह व्यक्ति बहुत बुरा है! क्या हर छोटी-मोटी बात के लिए तरकीबें अपनाना, इतनी दूर तक की सोचना, रात को सो न पाना या दिन में खाना न खा पाना और लड़ने के तरीके जानने के लिए दिमाग खपाने का कोई मतलब है? कुछ मसीह-विरोधी अपने खाली समय में “द थर्टी-सिक्स स्ट्रैटेजम” का अध्ययन कर सकते हैं, और अपनी बुद्धि का इस्तेमाल दूसरे व्यक्तियों और परमेश्वर के विरुद्ध कर सकते हैं। वे झूठ, छल-प्रपंच, षड्यंत्र, साजिशों, साथ ही चालों और रणनीतियों का आनंद लेते हैं—लेकिन क्या उन्हें परमेश्वर की निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद है? निष्पक्षता और धार्मिकता का विलोम क्या है? (दुष्टता और कुरूपता।) दुष्टता और कुरूपता। उन्हें कुरूप चीजें पसंद हैं, हर वह चीज पसंद है जो अन्यायपूर्ण और अनुचित हो, हर न्यायविरुद्ध और अनौचित्यपूर्ण चीज पसंद है। उदाहरण के लिए, लोगों का सत्य का अनुसरण करना न्यायोचित उद्देश्य है—मसीह-विरोधी इसे कैसे परिभाषित करते हैं? वे कहते हैं, “जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे मूर्ख हैं! जीवन जीने का क्या महत्व, अगर कोई इसे अपनी इच्छानुसार न जिए? लोगों को अपने लिए जीना चाहिए, और जो लोग सत्य और न्याय के लिए जीते हैं, वे लोग मूर्ख हैं!” यह उनका दृष्टिकोण है। तो फिर, क्या वे न्यायपूर्ण कार्य करने में सक्षम हैं? नहीं, वे सक्षम नहीं हैं। क्या जब कलीसिया में कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करने और बाधा डालने वाली चीजें हो रही हों, तो वे खड़े होकर बोल सकते हैं? वे न केवल खड़े नहीं होते हैं, बल्कि वे मन ही मन इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पर खुश होते हैं और मजा लेते हैं—वे बुरे बीज हैं। परमेश्वर के घर के कार्य से संबंधित मामलों के बारे में वे कभी भी चिंतित नहीं होते, न ही वे कभी खड़े होकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा के लिए कुछ करते हैं। जो लोग दुष्टों को बुरा काम करते हुए, और बुरे लोगों को कलीसिया पर अत्याचार करते हुए देखते हैं और चुपचाप आनंदित महसूस करते हैं, और परमेश्वर के घर का मजाक उड़ाते हैं—वे किस प्रकार के लोग हैं? वे दुष्ट लोग हैं। फिर, वे अगुआ किस तरह के हैं जो इन दुष्टों को शरण देते हैं? वे मसीह-विरोधी हैं। वे अपने हितों को कोई नुकसान नहीं होने देंगे, लेकिन जब कलीसिया के हितों को चोट पहुंचाई जाती है, तो वे पलक भी नहीं झपकाते, और बिल्कुल दुःखी नहीं होते। बंद दरवाजों के पीछे वे इस बात पर खुश भी होते हैं कि उनका कुछ नहीं खोया है। यह मसीह-विरोधियों की दुष्टता है।

हमने अभी-अभी इस बारे में बात की कि मसीह-विरोधी सत्य से कैसे विमुख हैं, कैसे उन्हें अधर्मी और दुष्ट चीजें पसंद हैं, कैसे वे अपने हित साधने और आशीष पाने का निरंतर प्रयास करते हैं, आशीष हासिल करने का इरादा और इच्छा कभी नहीं छोड़ते, और कैसे हमेशा परमेश्वर के साथ सौदे करने की कोशिश करते हैं। तो, इस मामले को कैसे पहचाना और वर्गीकृत किया जाना चाहिए? अगर हम इसे हर चीज से पहले लाभ को प्राथमिकता देना कहें, तो यह बहुत हल्की बात होगी। यह वैसा ही है जैसे पौलुस ने स्वीकार किया कि उसकी देह में एक कांटा चुभा है, और उसे अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए काम करना चाहिए, लेकिन अंत में, वह फिर भी धार्मिकता का मुकुट पाने की इच्छा रखता था। इसकी प्रकृति क्या है? (शातिरपना।) यह एक तरह का शातिर स्वभाव है। लेकिन इसकी प्रकृति क्या है? (परमेश्वर के साथ सौदे करना।) इसकी प्रकृति ऐसी है। वह अपने हर काम में लाभ की तलाश करता था, हर चीज को सौदे के रूप में लेता था। गैर-विश्वासियों के बीच एक कहावत है : “मुफ्त की दावत जैसी कोई चीज नहीं होती है।” मसीह-विरोधी भी इसी तर्क को अपने मन में रखते हैं, और सोचते हैं कि, “अगर मैं तुम्हारे लिए काम करता हूँ, तो तुम मुझे बदले में क्या दोगे? मुझे क्या फायदे हो सकते हैं?” इस प्रकृति को संक्षेप में कैसे व्यक्त किया जाना चाहिए? यह लाभ से प्रेरित होना, लाभ को हर चीज से ऊपर रखना, और स्वार्थी और नीच होना है। मसीह-विरोधी लोगों का प्रकृति सार यही है। वे केवल लाभ और आशीष प्राप्त करने के उद्देश्य से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। यदि वे कुछ कष्ट सहते हैं या कुछ कीमत चुकाते हैं, तो वह सब भी परमेश्वर के साथ सौदा करने के लिए होता है। आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की उनकी मंशा और इच्छा बहुत बड़ी होती है, और वे उससे कसकर चिपके रहते हैं। वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए अनेक सत्यों में से किसी को भी स्वीकार नहीं करते और अपने हृदय में हमेशा सोचते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना आशीष प्राप्त करने और एक अच्छी जगह पहुंचना सुनिश्चित करने के लिए है, कि यह सर्वोच्च सिद्धांत है, और इससे बढ़कर कुछ भी नहीं हो सकता। वे सोचते हैं कि लोगों को आशीष प्राप्त करने के अलावा परमेश्वर पर विश्वास नहीं करना चाहिए, और अगर यह सब आशीष के लिए नहीं है, तो परमेश्वर पर विश्वास का कोई अर्थ या महत्व नहीं होगा, कि यह अपना अर्थ और मूल्य खो देगा। क्या ये विचार मसीह-विरोधियों में किसी और ने डाले थे? क्या ये किसी अन्य की शिक्षा या प्रभाव से निकले हैं? नहीं, वे मसीह-विरोधियों के अंतर्निहित प्रकृति सार द्वारा निर्धारित होते हैं, जिसे कोई भी नहीं बदल सकता। आज देहधारी परमेश्वर के इतने सारे वचन बोलने के बावजूद, मसीह-विरोधी उनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं करते, बल्कि उनका विरोध करते हैं और उनकी निंदा करते हैं। सत्य के प्रति उनके विमुख होने और सत्य से घृणा करने की प्रकृति कभी नहीं बदल सकती। अगर वे बदल नहीं सकते, तो यह क्या संकेत करता है? यह संकेत करता है कि उनकी प्रकृति दुष्ट है। यह सत्य का अनुसरण करने या न करने का मुद्दा नहीं है; यह दुष्ट स्वभाव है, यह निर्लज्ज होकर परमेश्वर के विरुद्ध हल्ला मचाना और परमेश्वर को नाराज करना है। यह मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है; यही उनका असली चेहरा है। चूँकि मसीह-विरोधी निर्लज्जता से परमेश्वर के विरुद्ध हल्ला मचाने और उसका विरोध करने में सक्षम हैं, तो उनका स्वभाव क्या है? दुष्टता का। मैं क्यों कहता हूँ कि यह दुष्ट स्वभाव है? मसीह-विरोधी आशीष पाने के लिए, और प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा पाने के लिए परमेश्वर का विरोध करने और उसके विरुद्ध शोर मचाने का साहस करते हैं। वे ऐसा करने का साहस क्यों करते हैं? उनके हृदय की गहराई में एक शक्ति है, एक दुष्ट स्वभाव है जो उन्हें नियंत्रित करता है, इसलिए वे बेईमानी से कार्य करने, परमेश्वर के साथ बहस करने और उसके विरुद्ध हल्ला मचाने में सक्षम होते हैं। इससे पहले कि परमेश्वर कहे कि वह उन्हें मुकुट नहीं देगा, इससे पहले कि परमेश्वर उनका गंतव्य छीन ले, उनका दुष्ट स्वभाव उनके हृदय के भीतर से फूट पड़ता है, और वे कहते हैं, “यदि तुम मुझे मुकुट और मंजिल नहीं देते, तो मैं तीसरे स्वर्ग में जाकर तुमसे बहस करूँगा!” यदि यह उनके दुष्ट स्वभाव के कारण न होता, तो उन्हें इतनी ऊर्जा कहाँ से मिलती? क्या ज्यादातर लोग ऐसी ऊर्जा जुटा सकते हैं? मसीह-विरोधी क्यों विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं? वे आशीष पाने की इच्छा पर दृढ़ता से क्यों टिके रहते हैं? क्या यह एक और बार उनकी दुष्टता नहीं है? (है।) परमेश्वर लोगों को जो आशीष देने का वादा करता है, वही मसीह-विरोधियों की महत्वाकांक्षा और इच्छा बन गया है। वे उन्हें प्राप्त करने के लिए दृढ़ हैं, लेकिन वे परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं करना चाहते, और वे सत्य से प्रेम नहीं करते। इसके बजाय, वे आशीष, पुरस्कार और मुकुट की तलाश में लगे रहते हैं। इससे पहले कि परमेश्वर कहे कि वह उन्हें ये चीजें नहीं देगा, वे परमेश्वर से मुकाबला करना चाहते हैं। उनका तर्क क्या है? “यदि मुझे आशीष और पुरस्कार नहीं मिले, तो मैं तुमसे बहस करूँगा, मैं तुम्हारा विरोध करूँगा, और कहूँगा कि तुम परमेश्वर नहीं हो!” क्या वे ऐसी बातें कहकर परमेश्वर को धमका नहीं रहे हैं? क्या वे उसे उखाड़ फेंकने की कोशिश नहीं कर रहे हैं? वे तो हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता को नकारने की भी हिम्मत करते हैं। अगर परमेश्वर के कार्य उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं होते, वे यह भी नकारने की हिम्मत करते हैं कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, एकमात्र सच्चा परमेश्वर है। क्या यह शैतान का स्वभाव नहीं है? क्या यह शैतान की दुष्टता नहीं है? क्या मसीह-विरोधियों के काम के तरीके और परमेश्वर के प्रति शैतान के रवैये में कोई अंतर है? इन दोनों रवैयों को पूरी तरह से एक जैसा माना जा सकता है। मसीह-विरोधी हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकार करने से इनकार करते हैं, और वे परमेश्वर के हाथों से आशीष, पुरस्कार और मुकुट छीनना चाहते हैं। यह किस तरह का स्वभाव है? किस आधार पर वे इस तरह से काम करना और चीजों को हथियाना चाहते हैं? वे इतनी ऊर्जा कैसे जुटा सकते हैं? इसके कारण को अब सारांशित किया जा सकता है : यह मसीह-विरोधियों की दुष्टता है। मसीह-विरोधी सत्य से प्रेम नहीं करते, फिर भी वे आशीष और मुकुट प्राप्त करना चाहते हैं, और परमेश्वर के हाथों से जबरन इन पुरस्कारों को लेना चाहते हैं। क्या यह मृत्यु का आह्वान करना नहीं है? क्या उन्हें भान है कि वे मृत्यु का आह्वान कर रहे हैं? (उन्हें इसका भान नहीं है।) उन्हें शायद जरा-सा यह भी आभास हो सकता है कि पुरस्कार प्राप्त करना असंभव है, इसलिए वे पहले ही ऐसी बात बोलते हैं कि, “यदि मुझे आशीष प्राप्त नहीं हुआ, तो मैं तीसरे स्वर्ग में जाकर परमेश्वर से बहस करूँगा!” वे पहले से ही यह अनुमान लगा लेते हैं कि उनके लिए आशीष प्राप्त करना असंभव होगा। आखिरकार, शैतान ने कई वर्षों तक बीच आसमान में परमेश्वर के विरुद्ध शोर मचाया है, और परमेश्वर ने उसे क्या दिया है? परमेश्वर का उसके लिए एकमात्र कथन है कि “कार्य समाप्त होने के बाद, मैं तुझे अथाह कुंड में फेंक दूँगा। तू अथाह कुंड में ही रहने के योग्य है!” यह शैतान से परमेश्वर का एकमात्र “वादा” है। क्या यह विकृत बात नहीं है कि वह अभी भी पुरस्कार की इच्छा रखता है? यह दुष्टता है। मसीह-विरोधियों का जन्मजात सार परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है, और मसीह-विरोधी स्वयं भी नहीं जानते कि ऐसा क्यों है। उनके हृदय केवल आशीष और मुकुट प्राप्त करने पर केंद्रित होते हैं। जब भी कोई चीज सत्य या परमेश्वर से जुड़ी होती है, तो उनके अंदर प्रतिरोध और क्रोध उत्पन्न होता है। यह दुष्टता है। सामान्य लोग शायद मसीह-विरोधियों की आंतरिक भावनाओं को नहीं समझ सकते; मसीह-विरोधियों के लिए यह काफी कठिन होता है। मसीह-विरोधियों की बहुत बड़ी महत्वाकांक्षाएँ होती हैं, उनके भीतर बहुत बड़ी दुष्ट ऊर्जा होती है, और आशीष पाने की बहुत बड़ी इच्छा होती है। उन्हें इच्छाओं के ताप में जलते व्यक्ति के रूप में वर्णित किया जा सकता है। लेकिन परमेश्वर का घर लगातार सत्य पर संगति करता रहता है—इसे सुनना उनके लिए बहुत दर्दनाक और कठिन होता होगा। वे अपने साथ खुद गलत करते हैं और उसे सहन करने के लिए भारी दिखावा करते हैं। क्या यह एक तरह की दुष्ट ऊर्जा नहीं है? अगर सामान्य लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, तो उन्हें कलीसियाई जीवन अरुचिकर लगता और यहाँ तक कि वे इसके प्रति विकर्षण का भाव भी महसूस करते। परमेश्वर के वचनों को पढ़ना और सत्य पर संगति करना उन्हें आनंद से अधिक पीड़ा जैसा लगता है। तो, मसीह-विरोधी इसे कैसे सहन कर लेते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि उनमें आशीष पाने की इच्छा इतनी प्रबल होती है कि वह उन्हें खुद अपने साथ गलत करने और उसे अनिच्छापूर्वक सहने के लिए मजबूर करती है। इसके अलावा, वे शैतान के अनुचर के रूप में कार्य करने के लिए परमेश्वर के घर में घुस जाते हैं, और कलीसिया के काम में गड़बड़ी करने और बाधा डालने के प्रति समर्पित हो जाते हैं। वे मानते हैं कि यह उनका मिशन है, और अगर वे परमेश्वर का विरोध करने का अपना कार्य पूरा नहीं कर लेते, तब तक बेचैनी महसूस करते हैं और मानते हैं कि उन्होंने शैतान को निराश किया है। यह मसीह-विरोधियों की प्रकृति से निर्धारित होता है।

मसीह-विरोधियों को साफ तौर पर रुतबे का मोह होता है, और यह बात सभी लोग जानते हैं। उन्हें रुतबा किस हद तक पसंद है? इसकी अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? सबसे पहले, वे सीढ़ी चढ़ने का मौका हासिल करते हैं, वह चापलूसी से हो या चालबाजियों से, या लोगों का दिल जीतने के लिए अच्छे काम करके। बहरहाल, जब भी ऊपर चढ़ने का अवसर मिलता है, वे उसे पकड़ लेते हैं। एक बार जब वे रुतबा पा लेते हैं, तो वे इसे पहले से भी ज्यादा चाहने लगते हैं। जब सामान्य लोग पद हासिल करते हैं, तो उनमें थोड़ा लज्जा का भाव आता है और वे खुद को थोड़ा संयमित करते हैं। इसके अलावा, परमेश्वर के घर में अगुआ या कार्यकर्ता का पद एक कर्तव्य है। यह कोई रुतबा या आधिकारिक पदनाम नहीं है, यह एक कर्तव्य है। कभी-कभार ये सामान्य लोग यह सोचकर कि अब वे एक आधिकारिक पद पर हैं, दिखावा करते हुए अपना भ्रष्ट स्वभाव थोड़ा प्रकट करते हैं। सामान्य लोगों को कभी-कभी इस तरह का व्यवहार करना कुछ हद तक स्वीकार्य लगता है, लेकिन अगर वे नियमित रूप से ऐसा करें, तो वे खुद से घृणा महसूस करेंगे और डरेंगे कि भाई-बहनों का ध्यान इस बात पर जाएगा। उनमें गरिमा और लज्जा का भाव होता है, इसलिए वे खुद को थोड़ा संयमित करते हैं। सत्य समझने के बाद, वे धीरे-धीरे रुतबे को कम महत्व देने लगते हैं। इसका क्या सकारात्मक प्रभाव होगा और इसके क्या अच्छे परिणाम होंगे? इससे वे मन की शांति के साथ अपना कर्तव्य करने में सक्षम होंगे। अपनी वर्तमान भूमिका के बावजूद, वे इसे एक कर्तव्य मानेंगे। चूँकि उनका चयन अगुआ होने के लिए किया गया था, और अगुआई एक बोझ है और साथ ही मनुष्य के लिए एक कर्तव्य भी है, इसलिए पहले उन्हें यह समझना चाहिए कि इस कर्तव्य के दायरे में कौन-सी चीजें आती हैं। जब तुम अगुआ की भूमिका में नहीं होते, तो कुछ मामलों के बारे में तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं होती, और वास्तव में तुम पर कोई बोझ नहीं होता। लेकिन जब तुम अगुआ की भूमिका निभाते हो, तो तुम्हें यह जानने की जरूरत होती है कि अपने कार्यों को अच्छी तरह से कैसे करना है, और परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार अपना कर्तव्य कैसे निभाना है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे इस तरह सकारात्मक दिशा में प्रगति कर सकते हैं। तो, हैसियत के प्रति रवैये के संदर्भ में मसीह-विरोधियों और सत्य का अनुसरण करने वालों के बीच क्या अंतर है? मसीह-विरोधी अपनी हैसियत को लेकर जुनूनी होते हैं, उसे हासिल करने का लगातार प्रयास करते हैं, उसे संजोते हैं और उसका प्रबंधन करते हैं। हर मोड़ पर वे अपने रुतबे के बारे में सोचते हैं। रुतबा उनके लिए जीवनदायी रक्त की तरह होता है। अगर दूसरे लोग उनका मान नहीं रखते, या अगर वे आकस्मिक रूप से कुछ गलत कह देते हैं और दूसरे लोग उन्हें नीची नजर से देखते हैं, और वे दूसरों के मन में अपनी जगह खो देते हैं, तो वे अपने रुतबे के बारे में लगातार उद्विग्नता महसूस करते हैं, और अपने काम करने और बोलने के तरीके में बेहद सतर्क हो जाते हैं। तुम सत्य का अनुसरण करने के बारे में चाहे जितनी संगति करो, वे इसे समझ नहीं पाते। जो एकमात्र चीज वे समझ पाते हैं वह क्या है? “मैं इस ‘पद’ का कामकाज अच्छी तरह से कैसे करूँ और किसी अधिकारी जैसा व्यवहार कैसे करूँ?” इसकी कुछ विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई कलीसिया अगुआ 20 से अधिक भाई-बहनों के साथ समूह फोटो खिंचवाता है, तो गरिमा और शर्म की भावना वाला कोई व्यक्ति कहाँ बैठना पसंद करेगा? वह किनारे का कोई कोना ढूँढ़ लेगा। मसीह-विरोधी आमतौर पर कहाँ बैठते हैं? (बीच में।) क्या वे बीच में इसलिए बैठते हैं क्योंकि हर कोई ऐसा चाहता है या यह उनकी व्यक्तिगत इच्छा है? (यह उनकी व्यक्तिगत इच्छा है।) कभी-कभी, ऐसा हो सकता है कि सभी लोग उनके लिए बीच में एक जगह छोड़ दें, जिससे उन्हें केंद्रीय स्थान पर आने के लिए मजबूर होना पड़े। ऐसा होने पर अपने हृदय में वे अपने आप से बहुत प्रसन्न होते हैं, “देखो, सारे लोग मेरा कितना समर्थन करते हैं! मुझे यहाँ बैठना चाहिए। इससे मैं देख सकता हूँ कि सभी के दिल में मेरे लिए एक जगह है। वे मेरे बिना नहीं रह सकते!” वे काफी खुश और प्रसन्न महसूस करते हैं। अगर उन्हें यह विचार पसंद न हो कि सब लोग उनके लिए बीच में जगह छोड़ें, तो वे वहाँ जाकर क्यों बैठेंगे? यह स्पष्ट है कि वे उस विशेष क्षण में अपनी स्थिति और उससे होने वाली अनुभूति का पूरा आनंद लेते हैं। उन्हें उस क्षण की भावना की वास्तव में आवश्यकता होती है और वे उसे संजोते हैं, यही कारण है कि वे पद को अस्वीकार नहीं करते। यह अगुआ दर्जनों दूसरे लोगों से घिरे हुए बीचोबीच बैठता है, और खुद को अलग दिखाने के लिए कुशन का भी उपयोग करता है। वह सोचता है, “हर किसी के बराबर ऊँचाई का होना ठीक नहीं होगा। इससे अगुआ के रूप में मेरी विशिष्टता का प्रदर्शन कैसे हो सकेगा? मुझे खुद को थोड़ा ऊपर उठाने और बीच में बैठने की जरूरत है, फिर मैं विशिष्ट हो जाऊँगा। सही जगह पर बैठने के बारे में जानना यही है। जब लोग फोटो देखेंगे, तो सबसे पहले वे मुझे देखेंगे। वे कहेंगे, ‘यह हमारा फलाँ अगुआ है।’ कितनी शानदार बात है! यह फोटो सालों तक रहेगी। अगर लोग मुझे न देख सकें, और धीरे-धीरे मुझे भूल जाएँ, तो मेरे अगुआ होने का क्या फायदा?” वे अपनी स्थिति को इतना अधिक संजोते हैं।

एक बार, मैंने एक कलीसिया की स्थिति के बारे में जानने के लिए वहाँ से कुछ लोगों को बुलाया। जब उन्होंने अपना वीडियो चालू किया, तो वे सभी कैमरे के सामने बैठ गए और बीच में जगह छोड़ दी। मुझे समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों है और मैंने उन्हें सुझाव दिया कि वे और पास-पास बैठें क्योंकि कैमरे का फ्रेम इतना बड़ा नहीं था, और फ्रेम उनके आधे चेहरों का आना अजीब लग रहा था। उसके बाद, वे थोड़ा बीच की ओर खिसके, लेकिन फिर भी बीच में एक खाली सीट छोड़ दी। मैं मन में बड़बड़ाया, “कोई बीच में क्यों नहीं बैठ रहा है? ऐसा लगता है जैसे वहाँ कोई प्रभामंडल वाला बुद्ध बैठा हो—कोई वहाँ जाने की हिम्मत क्यों नहीं करता?” फिर, एक मोटा आदमी आया और ठीक बीच में बैठ गया, बिल्कुल प्रभामंडल वाले “बुद्ध” की तरह, गोल और मोटा। पता चला कि बीच वाली सीट उसके लिए आरक्षित थी। क्या तुम लोग अनुमान कर सकते हो कि वह कौन था? (अगुआ।) सही है, वह बिल्कुल बीच में बैठा था। यह रुतबे की एक निशानी है। जब बुद्ध जैसा दिखने वाला यह शैतान आया और वहाँ बैठा, तो उसने उस स्थान पर बिल्कुल स्वाभाविक रूप से कब्जा कर लिया, जैसे कि वह उसका सही स्थान हो। उसके दोनों ओर बैठकर सभी लोग बहुत खुश थे, उसे एक विशेष स्नेह से देख रहे थे, जैसे कि वे उसे बहुत अच्छी तरह से “समझते” हों। ऐसा लगा जैसे वे तलवे चाटने वालों का एक झुंड हो, जो कह रहा हो, “आह, तुम आखिरकार आ ही गए। हम जाने कब से तुम्हारा इंतजार कर रहे थे।” जब मैं बोल रहा था, तो कोई उस पर ध्यान नहीं दे रहा था; वे अगुआ का इंतजार कर रहे थे। इस प्रभामंडल वाले “बुद्ध” को पहले बाहर आना था। अगर वह बाहर नहीं आया होता, तो मैं बोलना जारी नहीं रख पाता। वह वहाँ कैसे बैठ गया, और इतने स्वाभाविक रूप से कैसे बैठ सका? क्या इसका उसकी सामान्य प्राथमिकताओं, वरीयताओँ और गतिविधियों से कोई लेना-देना है? (हाँ।) ये लोग आमतौर पर किस तरह का दृश्य प्रस्तुत करते होंगे? अपनी कल्पना का उपयोग करते हुए इसके बारे में सोचो। जब यह अगुआ कोई सभा आयोजित करता है या किसी ऐसे कमरे में प्रवेश करता है जहाँ लोग अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे होते हैं, तो वे उसके साथ कैसा व्यवहार करते हैं? ऐसा लगता है कि वह कोई पूर्वज या बुद्ध है : वे जल्दी से उसे बैठने की जगह देते हैं, और मुख्य सीट उसके लिए आरक्षित रखते हैं। क्या यह ठीक होगा कि वे उसके बैठने की जगह आरक्षित न करें? उस क्षण कैमरे पर मैंने जो घटना देखी उसके आधार पर कह सकते हैं कि उन लोगों का बैठने के मुख्य स्थान को खाली न छोड़ना शायद ठीक नहीं होता—यह नियम बन गया था, एक अलिखित नियम। जब “बुद्ध” आएँ, तो उन्हें तुरंत मुख्य सीट दी जानी चाहिए। यदि “बुद्ध” वहाँ न हों, तो मुख्य सीट खाली रहनी चाहिए। इसे रुतबा कहा जाता है। क्या तुममें से कोई इस तरह से कार्य करता है, और रुतबे को हर चीज से ऊपर मानता है? मैंने जिस दृश्य का वर्णन अभी किया है, उससे तुम क्या देख पाते हो? अलग-अलग लोग पद या रुतबे को अलग-अलग तरीके से देखते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे अपने दिल में परमेश्वर के आदेश को संजोते हुए अपने पद को कर्तव्य मानते हैं। वे अपना कर्तव्य स्वीकार करते हैं लेकिन अपनी हैसियत का दावा नहीं करते। कुछ लोग पद या हैसियत को बोझ के रूप में देखते हैं, उन्हें लगता है कि यह अतिरिक्त बोझ है जो उन पर दबाव, प्रतिबंध और यहाँ तक कि मुश्किलें भी लाता है। परंतु, जो लोग रुतबे की आराधना करते हैं, वे पद को अधिकारी होने जैसा मानते हैं, और हमेशा इसके लाभों का आनंद लेते हैं। रुतबे के बिना वे जी नहीं सकते। एक बार इसे पा लेने के बाद, वे इसके लिए अपना जीवन और अपना आत्म-सम्मान सहित सब कुछ बलिदान करने को तैयार हो जाते हैं—इसके लिए अपना शरीर भी बेचने को तैयार हो जाते हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? (है।) इसे दुष्टता कहते हैं। उनकी नजर में रुतबा क्या है? यह शीर्ष पर आने का एक मार्ग और साधन है, और लोगों के बीच अपनी पहचान, नियति और स्थिति को बदलने का एक तरीका है। इसीलिए, वे पद को बहुत महत्व देते हैं। जब वे इसे प्राप्त कर लेते हैं, और लोग उनकी बात सुनते हैं, उनका पालन करते हैं, उन्हें खुश करते हैं, और हर चीज में उनकी चापलूसी करते हैं, तो इस सबसे खीझ महसूस करने के बजाय, वे इसमें अत्यधिक आनंद पाते हैं। बिल्कुल उस अगुआ की तरह जिसने बीच की सीट ली—उसकी मुद्रा कितनी शांत और सहज थी, और इसमें सुख और आनंद का भाव कितना अधिक था। क्या यह दुष्टता नहीं है? यदि कोई व्यक्ति विशेष रूप से श्रेष्ठता की सभी भावनाओं और रुतबे से मिलने वाले सभी लाभों का मजा लेता है, और विशेष रूप से इन चीजों का अनुसरण करता है और उनका मोह करता है, उन्हें छोड़ना नहीं चाहता, तो वह अत्यंत दुष्ट है। मैं क्यों कहता हूँ कि वे अत्यंत दुष्ट हैं? जब उन लोगों की बात आती है जो रुतबेदार लोगों की चापलूसी करते हैं, चिकनी-चुपड़ी बातें बोलते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं, तो वे असल में क्या कह रहे होते हैं? वे झूठे, बेशर्म, घिनौने और उबकाई लाने वाले, और छल-कपट भरे शब्दों का प्रयोग कर रहे होते हैं, यहाँ तक कि वे कुछ ऐसी बातें भी कह रहे होते हैं जो सुनने में अपमानजनक लगते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी रुतबेदार व्यक्ति का बेटा वास्तव में बहुत बदसूरत है, उसका चेहरा पतला-सा और गाल बंदर जैसे हैं—क्या वे चापलूस कहते हैं कि वह बदसूरत है? वे क्या कहते हैं? (वह बहुत ही सुंदर है।) क्या उनके लिए केवल यह कहना पर्याप्त है कि “वह बहुत ही सुंदर है”? उन्हें कुछ और उबकाई लाने वाली बातें कहनी होंगी, जैसे, “उसका माथा भरा हुआ है और जबड़ा चौड़ा और गोल है। उसका चेहरा किसी ऐसे व्यक्ति जैसा है जो भविष्य में धनी और उच्च पद पर आसीन होगा!” हालाँकि यह स्पष्ट है कि ऐसा नहीं है, फिर भी वे खुलेआम झूठ बोलने की हिम्मत करते हैं। जब वह अधिकारी यह सुनता है, तो प्रसन्न होता है, उसे ये बातें सुनना अच्छा लगता है—उसे इन्हें सुनने में मजा आता है। उसे इन्हें सुनना कितना अच्छा लगता है? अगर कोई उसके सामने ये पाखंडी, चापलूसी भरे और छलपूर्ण शब्द न बोले, अगर कोई उसकी खुशी और आनंद के लिए कोई झूठा और घिनौना शब्द न बोले, तो उसे जीवन नीरस लगेगा। क्या यह दुष्टता नहीं है? (है।) यह बहुत ज्यादा दुष्टता है। जब वे खुद झूठ बोलते हैं, तो वह खुद ही बहुत उबकाई लाने वाला होता है, लेकिन उन्हें दूसरे झूठे लोगों का अपने इर्द-गिर्द बदबूदार मक्खियों के झुंड की तरह बनाए रखना भी अच्छा लगता है, और वे इससे कभी नहीं थकते। वे ऐसे हर व्यक्ति से प्रेम करते हैं जो शब्दों का अच्छा इस्तेमाल करता हो, जो चापलूसी करने और चिकनी-चुपड़ी बोलने में माहिर हो, और जो घुमा-फिराकर बोलता हो—वे ऐसे लोगों को अपने पास रखते हैं और उन्हें महत्वपूर्ण स्थानों पर बिठाते हैं। क्या ऐसे अगुआ खतरे में नहीं हैं? वे किस तरह का काम करवा सकते हैं? अगर कलीसिया उनके नियंत्रण में आ जाए तो क्या वह खत्म नहीं हो जाएगी? क्या इन हालात में भी उस कलीसिया में पवित्र आत्मा का कार्य हो सकता है?

मैंने सुना है कि कुछ अगुआ खाने के शौकीन हैं। जब वे ऐसे भाई-बहनों के साथ रहते थे जो खाना बनाने में कुशल नहीं थे और अच्छा खाना नहीं बनाते थे, तो वे कोई ऐसा मेजबान ढूंढ़ लेते थे जो उनके सामने बिछ जाना और उन्हें मक्खन लगाना जानता था, और जो हर दिन उनके लिए खास तौर पर स्वादिष्ट खाना बनाता था। हर दिन वे अगुआ जी भरकर खाते-पीते थे, और कहते थे, “परमेश्वर का शुक्र है, हम हर दिन परमेश्वर के भोज का आनंद लेते हैं। यह वास्तव में परमेश्वर का अनुग्रह है!” ऐसे लोग खतरे में हैं। भले ही वे अभी मसीह-विरोधी न हों, लेकिन उनके व्यवहार ने पहले ही उजागर कर दिया है कि उनमें मसीह-विरोधी का प्रकृति सार और दुष्ट स्वभाव है, और यह भी कि वे वर्तमान में मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहे हैं। क्या वे मसीह-विरोधी बन सकते हैं या क्या वे मसीह-विरोधी हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे आगे चलकर क्या रास्ता चुनते हैं। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वे वर्तमान में मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहे हैं और उनका स्वभाव सार मसीह-विरोधी के साथ मेल खाता है, और ऐसा इसलिए है क्योंकि वे नकारात्मक चीजों के शौकीन हैं और सकारात्मक चीजों को नापसंद करते हैं। वे सकारात्मक चीजों के प्रति अवमानना की दृष्टि रखते हैं, अपने हृदय में उनकी भर्त्सना करते हैं और अस्वीकार करते हैं। वे क्या स्वीकार करते हैं? दोहरापन, झूठ और नकारात्मक चीजों से जुड़ी सभी चीजें। जब मैं किसी निश्चित स्थान पर पहुंचता हूँ, तो कुछ लोग कहते हैं : “तुम ठीक नहीं लग रहे हो; थोड़ी देर आराम कर लो।” मैं अच्छा महसूस कर रहा हूँ या नहीं, और मुझे कब आराम करने की जरूरत है, मैं खुद इन चीजों को जानता हूँ। तुम्हें होशियार होने का दिखावा करने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें यह दिखाने की जरूरत नहीं है कि तुम कितने चतुर हो। मैं इसे स्वीकार नहीं करता; मुझे इससे घृणा होती है। मुझे किस तरह के लोग पसंद हैं? वे जो कुछ होने पर तुरंत संगति कर सकें और अपने मन की बात मुझसे कह सकें। मैं तुम्हारी कठिनाइयाँ हल करने के लिए तुम्हारे साथ संगति करता हूँ, और तुम मेरे साथ करीबी संबंध बना सकते हो। मुझे खुश करने की कोशिश में मुझसे चिकनी-चुपड़ी बातें करने में जुटने की चिंता न करो—यह बहुत ही घृणित है! इस तरह के लोगों को मुझसे दूर रहना चाहिए, क्योंकि मैं उन्हें घृणोत्पादक पाता हूँ। मैं तुम्हें गुस्सा दिलाने वाली मक्खी या कीड़े के रूप में वर्गीकृत करता हूँ। दूर रहो! कुछ लोग कहते हैं, “क्या तुम नहीं चाहते कि तुम्हारी सेवा के लिए कोई तुम्हारे पास हो?” तुम्हारे विचार में, मेरी पहचान और हैसियत के अनुरूप कुछ विशेष व्यवहार और सेवा होनी चाहिए। लेकिन मुझे इसकी जरूरत नहीं है। तुम्हें ये चीजें नहीं करनी चाहिए, समझे? मुझे इन चीजों से गहरी खीझ और घृणा होती है। अगर तुम सच में अपने दिल में मेरे प्रति उदार होने और मेरी परवाह करने की इच्छा रखते हो, तो ऐसा करने के बहुत सारे उचित तरीके हैं। उदाहरण के लिए, अगर मैं तुम्हें कुछ करने के लिए कहूँ, तो तुम आज्ञाकारिता के साथ उसका पालन करो, और जब तुम्हारा सामना कठिनाइयों से हो, तो तुम तुरंत मेरे साथ उन पर चर्चा कर लो। परंतु, तुम जो भी करो, उसमें गैर-विश्वासियों द्वारा पदधारियों से फायदा लेने के लिए अपनाए जाने वाले तौर-तरीकों की नकल मत करो बहुत सारे अच्छे-अच्छे शब्दों में चापलूसी मत करो—मुझे वह सब सुनना पसंद नहीं है। यह स्पष्ट है कि मैं लंबा नहीं हूँ, फिर भी तुम जोर देकर कहते हो कि, “तुम भले ही लंबे नहीं हो, लेकिन तुम्हारा कद हमसे ऊंचा है।” मुझे यह सुनना पसंद नहीं है, इसलिए तुम जो भी करो, मुझसे यह सब न बोलो; तुम यह बात गलत व्यक्ति से कह रहे हो। मसीह-विरोधी इस तरह के शब्द सुनना पसंद करते हैं। उदाहरण के लिए, वे अपने अधीनस्थ भाई-बहनों से पूछते हैं : “क्या मैं मोटा दिखता हूँ?” और कुछ लोग कहते हैं : “भले ही तुम मोटे हो, पर तुम हमसे बेहतर दिखते हो।” “तो क्या मैं पतला हूँ?” “भले ही तुम पतले हो, पर तुम बहुत बढ़िया दिखते हो। हर लिहाज से, तुम फैशन मॉडल जैसे हो; तुम पर सब कुछ जँचता है।” जब मसीह-विरोधी यह सुनते हैं, तो वे प्रसन्न होते हैं और तुम्हें अपना साथी और सहयोगी मानते हैं। मसीह-विरोधी जिन चीजों को पसंद करते हैं, वे सभी विकर्षण पैदा करने वाली और दुष्टतापूर्ण हैं—नहीं तो कोई उन्हें दुष्ट कैसे कह सकता था? क्या मसीह-विरोधी सामान्य मानवता के तत्वों से प्यार करते हैं, जैसे अंतरात्मा, तर्क, लज्जा का भाव और गरिमा, साथ ही सामान्य मानवता में अन्य चीजों के अलावा अच्छे-बुरे, काले-सफेद, और सही-गलत के बीच भेद का विवेक आदि? क्या मसीह-विरोधी लज्जा का भाव रखने वाले लोगों से प्रेम करते हैं? क्या वे गरिमा वाले लोगों से प्रेम करते हैं? वे उन लोगों से प्रेम करते हैं जो बेशर्म हैं, जो बिना किसी आत्म-जागृति के और बिना झिझके, हद से अधिक मिठास के साथ बोल सकते हैं। क्या उनमें शर्म की भावना की कमी नहीं है? तुम्हारे शब्द जितने अधिक मीठे होंगे, वे उतने ही खुश होंगे। मसीह-विरोधियों की प्राथमिकताओं और विभिन्न चीजों के प्रति उनके रवैये, साथ ही साथ उनके चुनावों और अभिविन्यास को देखते हुए स्पष्ट है कि उनकी दुष्टता की कोई सीमा नहीं है। उन लोगों को तो छोड़ ही दो जो सत्य समझते हैं—समाज में न्याय की थोड़ी-सी भी समझ रखने वाले लोग भी इस तरह के व्यवहार की सराहना नहीं करते। देखो, आधिकारिक क्षेत्रों में कुछ लोग पद पर बैठे लोगों का अनुग्रह पाने की कोशिश करते हैं। वे पद पर बैठे लोगों को उनकी जरूरत की हर चीज देते हैं, यहाँ तक कि अपनी पत्नियों को भी दे देते हैं—क्या उनमें गरिमा का अभाव नहीं है? (उनमें गरिमा नहीं है।) इसके अलावा, कुछ अधिकारी समलैंगिक संबंधों में संलग्न होते हैं, और इन अधिकारियों के संमलिंगी कुछ लोग उनके साथ अंतरंग संबंध बनाते हैं, भले ही वे व्यक्तिगत रूप से ऐसा न चाहते हों। क्या तुम लोग ऐसी चीजें कर सकते हो? (नहीं, हम नहीं कर सकते।) लेकिन वे कर सकते हैं। उनकी कोई नैतिक आधार रेखा नहीं है, लज्जा की भावना नहीं है, अंतरात्मा जागृत नहीं है, कोई तर्कसंगति नहीं है—इसलिए वे ये काम करते हैं। वे जो बातें बोलते हैं, यदि वही पंक्तियाँ तुम्हें दिखावे के लिए भी बोलने को कहा जाए तो तुम लोग उन्हें बोल तक नहीं सकते; ये लोग मंच-कलाकारों से भी अधिक घिन पैदा करने वाले लोग हैं। मंच-कलाकारों से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब उनसे है वे जिन्हें पूर्ण नग्नावस्था में भी किसी से मिलने या देखे जाने पर कोई परेशानी नहीं होती और वे पलकें तक नहीं झपकाते। ऐसे लोगों को मंच-कलाकार कहा जाता है। इसलिए, ये चापलूस, अपने घृणा और उबकाई पैदा करने वाले शब्दों और दुष्टतापूर्ण चीजों को प्राथमिकता देने कारण उन मंच-कलाकारों से भी बदतर होते हैं। मंच-कलाकार तो केवल अपने शरीर बेचते हैं, लेकिन दुष्ट लोगों का यह गिरोह जिसे मसीह-विरोधी कहा जाता है, क्या बेचता है? वे अपनी आत्मा बेचते हैं। वे राक्षसों का समूह हैं, जो उद्धार से परे हैं। इसलिए इन लोगों से सत्य बोलना सुअरों के आगे मोती फेंकने जैसा है—उनके लिए सत्य से प्रेम करना असंभव है। श्रेष्ठता और उसके साथ जुड़ी विभिन्न अच्छी भावनाओं का आनंद लेते हुए वे रुतबे के प्रति ऐसा ही रवैया रखते हैं। इस आनंद से उत्पन्न होने वाली विभिन्न भावनाएँ क्या हैं? वे सकारात्मक चीजें हैं, या नकारात्मक? ये सभी नकारात्मक चीजें हैं। जब वे रुतबा पा लेते हैं, तो उम्मीद करते हैं कि वे लोगों द्वारा की जाने वाली चापलूसी, सेवा और उनके हितों को बढ़ावा दिए जाने का आनंद लेंगे। वे विशेष व्यवहार का भी आनंद लेना चाहते हैं—उनका भोजन, आवास और वे जिन चीजों का उपयोग करते हैं वे सभी विशेष होनी चाहिए, और उन्हें हर चीज में दूसरों से अलग होना चाहिए। क्या तुम्हारा वह भौतिक शरीर वास्तव में दूसरों के शरीर से अलग है? मसीह-विरोधी जब एक बार रुतबा पा लेते हैं, तो वे खुद को महान और असाधारण मानने लगते हैं, मानो पृथ्वी पर अब उनके लायक नहीं रही—उन्हें “गुलाब के गद्दे” पर बैठना चाहिए और लोगों को उन्हें भेंट-प्रसाद चढ़ाना चाहिए। क्या मामला ऐसा नहीं है? मुझे बताओ कि क्या सामान्य लोग आमतौर पर मन में यही विचार रखते हैं? सामान्य लोगों के पास कोई पद हो या न हो, उनके मन में इसके लिए एक निश्चित आकांक्षा और इच्छा हो सकती है, लेकिन चूँकि उन्हें सत्य की थोड़ी समझ होती है और लज्जा, विवेक और तर्कसंगतता की भावना होती है, इसलिए पद के प्रति उनका लगाव कम हो जाता है, धुंधला पड़ जाता है। इसके अलावा, वे पद के साथ मिलने वाले लाभों को कम महत्व दे सकते हैं, और यदि वे इससे मिलने वाले लाभों का महत्वहीन होना समझ सकते हैं, तो वे चापलूसी और मीठी-मीठी बातों, चाटुकारिता और इस तरह के अन्य व्यवहारों से विकर्षित भी हो सकते हैं, और उनसे दूर हो सकते हैं या यहाँ तक कि उनसे मुँह मोड़ सकते हैं और ऐसी चीजों को त्याग सकते हैं। लेकिन क्या मसीह-विरोधी इन चीजों से मुँह मोड़ सकते हैं या त्याग सकते हैं? बिल्कुल नहीं। यदि तुम उनसे इन चीजों को छोड़ने के लिए कहो, तो ऐसा लगेगा मानो तुम उनसे उनकी जान माँग रहे हो। अन्यथा, पद खोते ही कुछ लोग ऐसा क्यों कहते कि, “मैं अब और विश्वास नहीं करूँगा, मैं और नहीं जीऊंगा, यह जीवन जीने लायक नहीं है”? क्या यहाँ कुछ चल नहीं रहा है? उनके लिए पद इतना महत्वपूर्ण क्यों है? वे एक सामान्य और सहज जीवन नहीं जी सकते; उन्हें एक रुतबा चाहिए होता है, उन्हें लोगों से ऊपर उठकर दूसरों की श्रद्धा, आराधना और ऊँचा उठाए जाने का आनंद चाहिए होता है, साथ ही उन्हें खुश करने, धोखा देने और उनकी चापलूसी करने के इरादे वाले झूठ चाहिए होते हैं। वे इन चीजों में लिप्त होना चाहते हैं। क्या सामान्य मानवता वाले लोग स्वेच्छा से ऐसी चीजों में लिप्त होते हैं? निश्चित रूप से नहीं; यह सब उन्हें परेशान करता है। मसीह-विरोधी इन चीजों का आनंद लेना क्यों पसंद करते हैं? ऐसा इसलिए कि उनके भीतर एक शैतानी स्वभाव होता है। केवल शैतान जैसे लोग ही इन चीजों को पाने का लगातार प्रयास करते हैं और ऐसी माँगें रखते हैं। सामान्य लोग कुछ समय के लिए इन चीजों का आनंद ले सकते हैं, लेकिन बाद में उन्हें ये अर्थहीन और यहाँ तक कि खीझ पैदा करने वाले लगने लगते हैं, और फिर वे इन सब से दूर रहने लगते हैं। लेकिन कुछ लोग अड़ियल की तरह इन चीजों को त्यागने से इनकार करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ फिल्मी सितारे उम्र बढ़ने के बावजूद फिल्मी दुनिया से अवकाश क्यों नहीं लेते? इसलिए कि उस आभामंडल के बिना और आसपास लोगों के बिना उन्हें जीवन नीरस लगता है। उन्हें लगता है कि आकाश का नीला रंग हल्का पड़ गया है, कि उनके जीवन की कोई दिशा नहीं है, और यह अर्थहीन और मूल्यहीन हो गया है। उन्हें लगता है कि उनका पूरा जीवन बेरंग हो गया है, इसलिए उन्हें सितारा होने का एहसास फिर से जीने के लिए फिल्म उद्योग में वापस लौटना पड़ता है। मसीह-विरोधी भी उन जैसे ही गुण रखते हैं : उनके पास समान रूप से दुष्ट स्वभाव और सार होता है। जब मसीह-विरोधी रुतबा हासिल करते हैं, तो वे हर जगह इसका दिखावा करते हैं, यहाँ तक कि अपने घरों में तानाशाही चलाते हैं और अपने परिवार के सदस्यों को अपनी आज्ञा मानने के लिए मजबूर करते हैं। मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार दुष्ट होता है, और वे रुतबे के साथ विशेष स्नेह से पेश आते हैं, इसे प्रदर्शित करने और इसका दिखावा करने का हर तरीका अपनाते हैं। यह हमें क्या दिखाता है? क्या इन लोगों में लज्जा की भावना है? नहीं है। वे रुतबा पाने पर सोचते हैं कि उनकी पहचान बदल गई है, और यहाँ तक कि उनके माता-पिता के साथ भी उनका रिश्ता बदल गया है। क्या इसमें कोई समस्या नहीं है? यह विकृति है! रुतबे के प्रति उनका ऐसा रवैया होना एक तरह का सबूत है जो उनके दुष्ट सार को उजागर करता है।

परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और उसकी पहचान और हैसियत सर्वोच्च है। परमेश्वर में अधिकार, बुद्धि और शक्ति है, और उसका अपना स्वभाव और अपनी संपत्तियाँ और अस्तित्व है। क्या कोई जानता है कि परमेश्वर मानवजाति और समस्त सृष्टि के बीच कितने वर्षों से कार्य कर रहा है? जितने वर्षों से परमेश्वर कार्य करते हुए समस्त मानवजाति का प्रबंधन कर रहा है, उनकी विशिष्ट संख्या अज्ञात है; कोई भी सटीक आँकड़ा नहीं दे सकता, और परमेश्वर इन मामलों की जानकारी मानवजाति को नहीं देता। लेकिन, अगर शैतान ऐसा कुछ करता, तो क्या वह इसकी जानकारी देता? वह निश्चित रूप से देता। वह ज्यादा लोगों को गुमराह करने और ज्यादा लोगों को अपने योगदान से अवगत कराने के लिए दिखावा करना चाहता है। परमेश्वर इन मामलों की जानकारी क्यों नहीं देता? परमेश्वर के सार का एक विनम्र और छिपा रहने वाला पहलू है। विनम्र और छिपे होने का उलटा क्या है? वह है अहंकारी होना और अपना प्रदर्शन करना। परमेश्वर कितना भी महान कार्य क्यों न करे, वह लोगों को केवल वही बताता है जिसे वे समझ सकते हैं, वह लोगों को ज्ञान प्राप्त करने देने और उसके स्वयं के कार्यों के माध्यम से अपने सार को जानने की अनुमति देने भर से संतुष्ट रहता है। इससे लोगों को क्या लाभ मिलता है? इसका क्या परिणाम होता है? क्या ऐसा है कि परमेश्वर की आराधना करने के लिए लोगों को इन चीजों को जानना आवश्यक है? वास्तव में ऐसा नहीं है। लोगों का परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम होना अंतिम उद्देश्यपूर्ण परिणाम है, लेकिन लोगों को इन चीजों को जानने देने के पीछे परमेश्वर का मूल इरादा क्या होता है? यह उन्हें सक्षम बनाने के लिए होता है, ताकि इन चीजों का ज्ञान हो जाने पर, परमेश्वर द्वारा मानवता का प्रबंधन करने के तौर-तरीकों की समझ हो जाने पर, और इसकी समझ हो जाने पर कि वह किस प्रकार मानवजाति का संप्रभु है और कैसे उसकी व्यवस्था करता है, वे परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन होने में सक्षम हो सकें, व्यर्थ प्रतिरोध में लिप्त न हों, और रास्ते से न भटकें—इस तरह, लोग बहुत कम पीड़ित होंगे। स्वाभाविक जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए तरीकों और नियमों के अनुसार, और उसकी अपेक्षाओं और उसके द्वारा दिए गए सिद्धांतों के अनुरूप अस्तित्ववान रहने पर तुम शैतान के चंगुल में नहीं पड़ोगे, न तो तुम दूसरी बार भ्रष्ट किए जा सकोगे, न ही कुचले जाओगे। इसके बजाय, तुम हमेशा परमेश्वर द्वारा स्थापित नियमों के भीतर रहोगे, मानव सदृश और सृजित प्राणी के रूप में रहोगे, और परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा प्राप्त करोगे। यह परमेश्वर के कार्य का मूल इरादा और उद्देश्य है। तो, परमेश्वर ने जो विशाल कार्य किया है, क्या उसने कभी इसका दिखावा किया है? क्या उसने कभी लोगों को बताया है कि उसने क्या किया है? उसने कभी ऐसा नहीं किया। बहुत-से लोग नहीं जानते कि परमेश्वर ने क्या किया है, या परमेश्वर ने किस तरह की चीजें की हैं और कौन-सी नहीं कीं। वास्तव में, परमेश्वर ने बहुत कुछ किया है, लेकिन उसने कभी भी मानवों के सामने इन चीजों की घोषणा नहीं की। परमेश्वर मानवजाति के सामने उन्हें घोषित नहीं करता; तुम्हें बस इतना करना होता है कि तुम्हें जो जानना चाहिए उसके बारे में स्पष्ट रहो। भविष्य में, मानवजाति पृथ्वी पर सामान्य रूप से अस्तित्व में रह सकेगी और परमेश्वर की अगुआई स्वीकार कर सकेगी, और जब परमेश्वर मानवों के बीच आएगा, तो लोग परमेश्वर के साथ सामान्य बातचीत करने, उसका स्वागत करने, उसकी आराधना करने और उसके वचन सुनने में सक्षम होंगे, और तब वे शैतान के साथ नहीं चलेंगे। इस तरह, परमेश्वर का राज्य पृथ्वी पर प्रकट होगा, और पृथ्वी पर ऐसे लोगों का समूह होगा जो उसकी आराधना कर सकेगा, ऐसे लोगों का समूह जो उसके वचनों को सुन सकेगा और उन्हें अमल में ला सकेगा। इस तरह परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाएगा; यह परिणाम प्राप्त करना पर्याप्त है। इसलिए, जब परमेश्वर कुछ करता है, तो यदि तुम उसे नहीं समझते या उसके बारे में नहीं जानते, तो परमेश्वर तुम्हें यह नहीं समझाएगा। वह इसे क्यों नहीं समझाएगा? ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसी कई चीजें हैं जिन्हें तुम नहीं समझते, और परमेश्वर तुम्हें ये चीजें बताने या उसकी पहचान और सार को समझाने, या उसकी शक्ति को समझाने के लिए कुछ रहस्यों को तुम्हारे सामने प्रकट नहीं करेगा। परमेश्वर यह कार्य नहीं करता। परमेश्वर वर्तमान में क्या करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है? वह लोगों को सत्य समझाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। एक बार जब तुम सत्य समझ जाओगे, तो तुम परमेश्वर को जान जाओगे, तुम्हारे जीवन का एक आधार होगा, और तुम भविष्य में परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकोगे और उसकी आराधना कर सकोगे, और तुम शैतान को पहचान पाओगे और उसका त्याग कर पाओगे, और उसके द्वारा गुमराह नहीं होगे या उसके साथ नहीं जाओगे—तब उसका कार्य पूरा हो जाएगा। जहाँ तक उन रहस्यों की बात है, मानवजाति को भविष्य में उन्हें समझने का अवसर मिलेगा, लेकिन परमेश्वर के कार्यों के रहस्य अविश्वसनीय रूप से विशाल हैं, और भले ही परमेश्वर उन्हें तुम्हारे सामने प्रकट करे, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम उन्हें समझ ही जाओगे। भले ही तुम उनके संपर्क में आ जाओ, हो सकता है कि तुम उन्हें समझ ही न पाओ या ग्रहण न कर पाओ। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि सृजित प्राणियों और परमेश्वर के बीच, मानवीय विचारों और परमेश्वर के विचारों के बीच एक दूरी है। उदाहरण के लिए, तुम जानते हो कि इंद्रधनुष परमेश्वर और मानवता के बीच वाचा का चिह्न है, लेकिन क्या तुम जानते हो कि इंद्रधनुष कैसे बनता है? यदि परमेश्वर तुम्हें यह रहस्य समझाए, तो क्या तुम इसे समझ पाओगे? तुम नहीं समझ पाओगे, इसलिए परमेश्वर तुम्हें नहीं बताता। यदि वह समझाने लगे तो यह तुम्हारे लिए बोझिल होगा, क्योंकि तुमको इसका अध्ययन और विश्लेषण करने की आवश्यकता होगी, जो परेशानी का सबब होगा। इसलिए, परमेश्वर रहस्यों के बारे में बहुत कुछ नहीं कहता है। लेकिन क्या मनुष्य, जो शैतान से संबंधित है, इन रहस्यों के बारे में जानने पर चुप रह सकता है? बिल्कुल नहीं। यहीं पर उनके सार में अंतर होता है। क्या परमेश्वर उन कई चीजों की व्याख्या करता है जिन्हें उसने वर्षों से मानवता के सामने प्रकट किया है लेकिन लोग कभी नहीं समझ सके? क्या वह अलौकिक काम करता है? नहीं, ऐसा नहीं करता है। मानवजाति का सृजन परमेश्वर ने किया है, और परमेश्वर जानता है कि लोग इसे कितना समझ सकते हैं और किस हद तक समझ सकते हैं। ये चीजें लोगों की आँखों के सामने हैं, लेकिन अगर उनके लिए उन्हें समझना जरूरी नहीं है, तो उन लोगों को प्रबुद्ध करने या इन चीजों को लोगों पर थोपने और उनके लिए बोझ बनाने की कोई जरूरत नहीं है, इसलिए परमेश्वर इस तरह से काम नहीं करता। इसलिए, परमेश्वर के कार्यों के सिद्धांत हैं। मानवजाति के प्रति उसका नजरिया स्नेह, विचारशीलता और प्रेम का है। परमेश्वर वह चाहता है, जो लोगों के लिए सबसे अच्छा है—यही परमेश्वर के सभी क्रियाकलापों के पीछे का स्रोत और मूल इरादा है। दूसरी ओर, शैतान अपना प्रदर्शन करता है, लोगों पर चीजें थोपता है, उनसे अपनी आराधना करवाता है और उन्हें गुमराह करता है, और उन्हें पतित बनने की ओर ले जाता है, ताकि वे धीरे-धीरे जीवित शैतान बन जाएँ और विनाश की ओर बढ़ जाएँ। लेकिन जब तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो अगर तुम सत्य समझकर उसे प्राप्त कर लेते हो, तो तुम शैतान के प्रभाव से बचकर उद्धार प्राप्त कर सकते हो—तुम्हें नष्ट होने के परिणाम का सामना नहीं करना पड़ेगा। शैतान लोगों को अच्छा करते हुए नहीं देख सकता, और उसे इस बात की परवाह नहीं कि लोग जीवित रहते हैं या मरते हैं; उसे सिर्फ अपनी, अपने लाभ और अपनी खुशी की परवाह है, और उसमें प्रेम, दया, सहनशीलता और क्षमा का अभाव है। शैतान में ये गुण नहीं हैं; ये सकारात्मक चीजें सिर्फ परमेश्वर में हैं। परमेश्वर ने मनुष्यों पर काफी मात्रा में कार्य किया है, लेकिन क्या उसने कभी इसके बारे में बात की है? क्या उसने कभी इसका वर्णन किया है? क्या उसने कभी इसकी घोषणा की है? नहीं, उसने ऐसा नहीं किया है। लोग परमेश्वर को चाहे कितना भी गलत समझें, वह वर्णन नहीं करता। परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, तुम चाहे 60 साल के हो या 80 के, परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ बहुत सीमित है, और इस आधार पर कि तुम कितना कम जानते हो, तुम अभी बच्चे ही हो। परमेश्वर इसे तुम्हारे खिलाफ नहीं रखता; तुम अब तक अपरिपक्व बच्चे हो। इससे फर्क नहीं पड़ता कि कुछ लोग कई सालों तक जीवित रहे हैं और उनके शरीर पर उम्र के लक्षण दिखाई देते हैं; परमेश्वर के बारे में उनकी समझ अभी भी बहुत बचकानी और सतही है। परमेश्वर इस कारण तुम्हारे बारे में बुरी राय नहीं बनाता—अगर तुम नहीं समझते, तो नहीं समझते। यह तुम्हारी काबिलियत और क्षमता है, और इसे बदला नहीं जा सकता। परमेश्वर तुम पर कुछ भी थोपेगा नहीं। परमेश्वर चाहता है कि लोग उसकी गवाही दें, पर क्या उसने अपनी गवाही खुद दी है? (नहीं।) दूसरी ओर शैतान को डर लगा रहता है कि लोग उसके किसी धेले-भर के काम के बारे में भी नहीं जान पाएँगे। मसीह-विरोधी इससे अलग नहीं हैं : वे स्वयं द्वारा किए गए हर छोटे-मोटे काम के बारे में सबके सामने शेखी बघारते हैं। उनकी बात सुनकर लगता है कि वे परमेश्वर की गवाही दे रहे हैं—लेकिन अगर तुम ध्यान से सुनो तो तुम्हें पता चलेगा कि वे परमेश्वर की गवाही नहीं दे रहे, बल्कि अपनी शान बघार रहे हैं, खुद को स्थापित कर रहे हैं। उनकी बातों के पीछे का इरादा और सार परमेश्वर के चुने हुए लोगों और हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ होड़ करना है। परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, जबकि शैतान अपनी शान दिखाता है। क्या इनमें कोई अंतर है? दिखावा बनाम विनम्रता और प्रच्छन्नता : इनमें से कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं? (विनम्रता और प्रच्छन्नता।) क्या शैतान को विनम्र कहा जा सकता है? (नहीं।) क्यों? उसके दुष्ट प्रकृति-सार को देखते हुए, वह रद्दी का एक बेकार टुकड़ा है; शैतान के लिए अपनी शान न बघारना एक असामान्य बात होगी। शैतान को “विनम्र” कैसे कहा जा सकता है? “विनम्रता” परमेश्वर का अंग है। परमेश्वर की पहचान, सार और स्वभाव उदात्त और आदरणीय हैं, लेकिन वह कभी दिखावा नहीं करता। परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, इसलिए लोगों को नहीं दिखता कि उसने क्या किया है, लेकिन जब वह ऐसी गुमनामी में कार्य करता है, तो लोगों को निरंतर समर्थन, पोषण और मार्गदर्शन मिलता है—और इन सब चीजों की व्यवस्था परमेश्वर करता है। क्या यह प्रच्छन्नता और विनम्रता नहीं है कि परमेश्वर इन बातों को कभी घोषित नहीं करता, कभी इनका उल्लेख नहीं करता? परमेश्वर विनम्र ठीक इसलिए है, क्योंकि वह ये चीजें करने में सक्षम है लेकिन कभी इनका उल्लेख या घोषणा नहीं करता, और लोगों के साथ इनके बारे में बहस नहीं करता। तुम्हें विनम्रता के बारे में बोलने का क्या अधिकार है, जब तुम ऐसी चीजें करने में असमर्थ हो? तुमने इनमें से कोई चीज नहीं की है, फिर भी इनका श्रेय लेने पर जोर देते हो—इसे बेशर्म होना कहा जाता है। मानव-जाति का मार्गदर्शन करते हुए परमेश्वर ऐसा महान कार्य करता है, और वह पूरे ब्रह्मांड का संचालन करता है। उसका अधिकार और सामर्थ्य बहुत व्यापक है, फिर भी उसने कभी नहीं कहा, “मेरा सामर्थ्य असाधारण है।” वह सभी चीजों के बीच छिपा रहता है, हर चीज का संचालन करता है, और मानव-जाति का भरण-पोषण करता है, जिससे पूरी मानव-जाति का अस्तित्व पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहता है। उदाहरण के लिए, हवा और धूप को या पृथ्वी पर मानव-अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी भौतिक वस्तुओं को लो—ये सब लगातार बहती रहती हैं। परमेश्वर मनुष्य का पोषण करता है, यह असंदिग्ध है। अगर शैतान कुछ अच्छा करे, तो क्या वह चुप रहेगा, और एक गुमनाम नायक बना रहेगा? कभी नहीं। वह वैसा ही है, जैसे कलीसिया में कुछ मसीह-विरोधी हैं, जिन्होंने पहले जोखिम भरा काम किया, जिन्होंने चीजें त्याग दीं और कष्ट सहे, जो शायद जेल भी गए हों; ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कभी परमेश्वर के घर के कार्य के एक पहलू में योगदान दिया था। वे ये चीजें कभी नहीं भूलते, उन्हें लगता है कि इन कामों के लिए वे आजीवन श्रेय के पात्र हैं, वे सोचते हैं कि ये उनकी जीवन भर की पूँजी हैं—जो दर्शाता है कि लोग कितने ओछे हैं! लोग सच में ओछे हैं, और शैतान बेशर्म है।

मुझे बताओ कि क्या मसीह-विरोधियों का दर्जा परमेश्वर के बराबर होता, तो वे क्या खाते और क्या पहनते? वे सबसे बढ़िया खाते और सबसे बढ़िया ब्रांड के कपड़े पहनते, है न? तो, भौतिक चीजों की उनकी माँगों के बारे में, मुझे बताओ, क्या उनके कुछ विस्तृत माँगें नहीं हैं? जब वे कहीं जाते हैं, तो उन्हें विमान से जाना पड़ता है। जब वे वहाँ पहुँचते हैं, तो क्या आम भाई-बहन उन्हें अपने घर पर ठहरा सकते हैं? अगर वे ऐसा करें, तो भी मसीह-विरोधी उनके साथ नहीं रहेंगे—उन्हें महंगे होटल में ठहरना होता है। क्या मसीह-विरोधी अपनी खास जरूरतों के बारे में बहुत सजग नहीं हैं? जहाँ तक उस सम्मान, आनंद और घमंड की बात है जो उन्हें इस दर्जे के कारण मिलेगा, तो क्या वे इन चीजों को छोड़ सकते हैं? जब तक उनके पास सही परिस्थितियाँ और अवसर होते हैं, वे इन चीजों को कस कर पकड़े रहते हैं और उनका आनंद लेते हैं। उनके सिद्धांत क्या हैं? जब तक उनके पास रुतबा है, वे पैसों की हेर-फेर कर सकते हैं और नामी ब्रांड के कपड़े और दूसरी चीजें पहन सकते हैं। वे साधारण चीजें नहीं पहनना चाहते; उन्हें मशहूर ब्रांड के कपड़े पहनने होते हैं। उनकी टाई, सूट, शर्ट, कफलिंक, सोने के हार और बेल्ट—सब कुछ नामी ब्रांड का होगा। यह अच्छा संकेत नहीं है, और क्या भाई-बहन इसके कारण पीड़ित नहीं हैं? भाई-बहन जो पैसा देते हैं, उसका इस्तेमाल ये मसीह-विरोधी नामी ब्रांड के सामान खरीदने में करते हैं। क्या यह उनकी भारी बुराई नहीं है? क्या यह उनकी दुष्टता के कारण नहीं है? ये वे सारी चीजें हैं जो वे कर सकते हैं। एक व्यक्ति था जिसने पहली बार अगुआई संभालने पर शालीनता से कपड़े पहने थे, उसके पास केवल तीन-चार सेट कपड़े थे जो नामी ब्रांड या ऊंचे दर्जे के नहीं थे। अगुआ की भूमिका में कई वर्ष बीतने के बाद उसे बदल दिया गया, क्योंकि उसने कोई वास्तविक काम नहीं किया था। जब वह गया, तो वह एक कार भरकर सामान ले गया : नामी ब्रांड के कपड़े, बैग, सभी तरह की अच्छी चीजें। उसने अगुआ के रूप में कोई पैसा नहीं कमाया, तो ये चीजें कहाँ से आईं? ये उसके रुतबे से आई थीं। अगर वह दूसरों द्वारा उसके लिए ये चीजें खरीदे जाने पर मना कर देता, तो क्या भाई-बहन फिर भी उसके लिए उन्हें खरीदने पर जोर देते? क्या इस तरह की चीजें होतीं? अगर उसे ये चीजें नहीं चाहिए होतीं, तो भाई-बहन उसके लिए ये चीजें नहीं खरीदते। यहाँ क्या समस्या है? वह इन चीजों को जबरदस्ती और लालच के कारण पकड़ रहा था। एक तरह से, उसने भाई-बहनों से जबरन पैसे ऐंठे और दूसरे लिहाज से, उसने खुद ही उन्हें खरीदा था। इसके अलावा, उसने भाई-बहनों को ये चीजें खरीदने दीं और अगर कोई ऐसा करने से मना करता, तो वह उन्हें सताता और परेशान करता था। ये कई कारण सभी साथ काम करते हैं। अंत में, उसे “भरपूर उपज” मिली और वह अमीर हो गया। क्या तुम लोग ऐसे अगुआ से ईर्ष्या करते हो? अगर तुम्हें अवसर मिले, तो क्या तुम भी इसी तरह की दौलत हासिल कर सकते हो? मैं तुम्हें बता दूँ कि इस तरह से अमीर बनना अच्छा नहीं है—इसके दुष्परिणाम होते हैं! जब कुछ लोग अगुआ बनते हैं, तो उन्हें डर लगता है कि उनके साथ ये सारी स्थितियाँ पैदा होंगी। उन्हें लगता है कि प्रलोभन बहुत बड़े होंगे, इन प्रलोभनों से बचना या उन्हें संभालना मुश्किल होगा और उनमें फँसना आसान होगा। लेकिन कुछ लोग इसकी परवाह नहीं करते, और सोचते हैं, “यह सामान्य बात है। ऐसी चीजों का आनंद लिए बिना कौन पद ग्रहण करता है? ऐसा न करना हो तो पद लेना ही क्यों? यही तो मुख्य बात है!” यह किस तरह की आवाज है? यह मसीह-विरोधियों की आवाज है, और ये लोग खतरे में हैं।

मैं लगभग तीस वर्षों से काम कर रहा हूँ। क्या मैंने कभी किसी से कुछ जबरन वसूला है? उदाहरण के लिए, अगर मैंने किसी को अच्छे आभूषण पहने हुए देखा, तो क्या मैंने उनसे यह संदेश भेजकर उनसे कोई अवैध वसूली की कि, “अपने आभूषण मुझे दे दो; यह तुम्हें शोभा नहीं देता। सोने और चांदी के आभूषण रुतबे वाले लोगों के लिए होते हैं, और बिना रुतबे वाले लोगों को इन्हें नहीं पहनना चाहिए”? क्या ऐसा कभी हुआ है? ऐसा नहीं हुआ है। यहाँ तक कि जब कुछ भाई-बहन पैसे होने पर मेरे लिए चमड़े की जैकेट या कुछ और खरीदते थे, तो मैं हमेशा उसे वापस कर देता था। ऐसा नहीं था कि मुझे वे चीजें मुझे पसंद नहीं थीं; बात बस इतनी थी कि मुझे उन चीजों की कोई जरूरत नहीं थी। बाद में, मैंने इसके बारे में सोचा : “मुझे इन बातों को उचित तरीके से कैसे संभालना चाहिए? मुझे ऐसा क्या करना चाहिए जिससे उन्हें खरीदकर लाने वाले लोगों को ठेस न पहुँचे?” मैं इन चीजों को कलीसिया ले गया ताकि भाई-बहन उन्हें सिद्धांतों के अनुसार वितरित कर सकें। अगर कोई मूल्यवान वस्तुएँ खरीदने को तैयार होता, तो कलीसिया उन्हें रियायती मूल्य पर बेच देती। इसका उद्देश्य पैसे कमाना नहीं था; यह चीजों को उस तरह से संभालने के लिए था जो दोनों पक्षों के लिए उपयुक्त हो। किसी को भी ये चीजें मुफ्त में नहीं मिलनी चाहिए क्योंकि ये मूल रूप से तुम्हारे लिए नहीं थीं। ये वस्तुएँ सीमित थीं और सभी के बीच समान रूप से वितरित नहीं की जा सकती थीं, और किसी को भी इन्हें देना उचित नहीं था। इसलिए, एकमात्र विकल्प यह था कि जिनके पास पैसा था और जो उन्हें खरीदने के लिए तैयार थे, वे आगे बढ़कर उन्हें खरीद लें। वे वस्तुएँ निश्चित रूप से बाजार से सस्ती थीं, इसलिए यह परमेश्वर के घर की ओर से एक उपकार था। मुझे इस तरह से काम करने का अधिकार था। ऐसा इसलिए कि कोई चीज मुझे दे दिए जाने पर मेरी हो जाती है, और मुझे उसे अपने हिसाब से संभालने का अधिकार था। उस वस्तु का अब उस व्यक्ति से कोई संबंध नहीं था जो उसे खरीद कर लाया था। इस तरह से काम करके, मैंने पहले ही उस व्यक्ति के आत्मगौरव का ख्याल रखा था। इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी, क्योंकि यह दृष्टिकोण पूरी तरह से उचित था। कई भाई-बहनों ने मेरे लिए वस्तुएँ खरीदी हैं। माँगने की तो बात ही दूर, मैंने उन्हें मेरे लिए कुछ खरीदने का काम भी नहीं सौंपा था। ऐसा करने का उनका दिल था, जिसकी मैं सराहना करता हूँ, लेकिन ऐसी कई चीजें थीं जिन्हें मैं स्वीकार नहीं कर सकता था क्योंकि मुझे उनकी जरूरत ही नहीं थी। यह एक व्यावहारिक मुद्दा है। क्या मैंने जो कहा वह उचित है? (हाँ।) क्या इन बातों को संभालने का मेरा तरीका भी उचित था? (हाँ।) कुछ भाई-बहन ऐसे भी थे जो जानते थे कि मैं ठंड के प्रति संवेदनशील हूँ और ठंडा खाना नहीं खाता, इसलिए उन्होंने मेरे पेट के इलाज लिए कुछ दवाएँ खरीदीं। हालाँकि, उन दवाओं को लेने के बाद मुझे बहुत फायदा नहीं हुआ—मेरा शरीर ऐसे प्रयोग सह नहीं सकता, इसलिए ऐसी कई दवाएँ हैं जिनके बारे में मुझे सावधान रहना होता है। तुम्हें यह समझने की जरूरत है। कुछ भाई-बहनों ने कुछ स्वास्थ्यवर्धक पदार्थ भी खरीदे, जैसे कि पहाड़ी जिनसेंग, लाल जिनसेंग और अन्य प्रकार के टॉनिक। मैं उनमें से कोई भी नहीं ले सका। क्यों? क्योंकि वे मुझे माफिक नहीं आते थे। ऐसा नहीं था कि मैं भाई-बहन मेरे लिए जो खरीदते थे या वे जहाँ से खरीदते थे, उसे नीची नजर से देखता था; बात बस इतनी थी कि मैं उनका उपयोग नहीं कर सकता था; मैं उनका उपयोग करने में सक्षम नहीं था। सभी अच्छी चीजें सभी के लिए उपयुक्त नहीं होती हैं। दुनिया में बहुत-सी अच्छी चीजें हैं, और यदि तुम कुछ अच्छी वस्तु लेते हो और वह प्रतिकूल प्रतिक्रिया या एलर्जी का कारण बनती है, तो वह तुम्हारे लिए अच्छी चीज नहीं है। तो, इससे कैसे निपटा जाना चाहिए? सबसे अच्छा यह है कि वे वस्तुएँ जिनके लिए उपयुक्त है, उन्हें इसका उपयोग करने दिया जाए। इसलिए, मैं तुम्हें बताता हूँ कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि मेरे लिए चीजें खरीदने में पैसे कौन खर्च कर रहा है, बस इन शब्दों को याद रखो—मेरे लिए कुछ मत खरीदो। अगर मुझे कुछ चाहिए होगा, तो मैं तुम्हें सीधे-सीधे बता दूँगा, चुप्पी नहीं साधे रहूँगा। समझे? लेकिन जब तुम ये चीजें मेरे पास लाते हो, और मैं कहता हूँ कि मुझे उनकी आवश्यकता नहीं है या वे उपयुक्त नहीं हैं, तो यह भी मेरा तुम लोगों के साथ विनम्रता दिखाना नहीं है। यह झूठ या पाखंड नहीं है। मैं जो कुछ भी कहता हूँ वह वास्तविक है; वह सब सच है। मैं जब बोलूँ तो मेरे शब्दों का अन्य अर्थ निकालने की कोशिश न करो। जब मैं कहता हूँ कि मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है, तो इसका मतलब है कि मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है। जब मैं कहता हूँ कि मैं इसका उपयोग नहीं कर सकता, तो इसका मतलब है कि मैं इसका उपयोग नहीं कर सकता। तुम जो भी करो, अपना समय चीजों को खरीदने के बारे में सोचने में बर्बाद मत करो या बेकार में पैसे मत खर्च करो। ऐसा मत सोचो कि सभी अच्छी चीजें परमेश्वर को दे देनी चाहिए—क्या तुम जानते भी हो कि मुझे उनकी जरूरत है या नहीं? अगर मुझे उनकी जरूरत नहीं है, तो क्या तुमने उन्हें व्यर्थ में नहीं खरीदा है? अगर तुम सच में मेरे लिए कुछ खरीदना चाहते थे, तो मैं कहता हूँ कि मेरे लिए कुछ मत खरीदो। अगर तुम कहते हो कि तुमने इसे सबके साथ बाँटने के लिए खरीदा है, तो ठीक है, मैं इसे आगे बढ़ा सकता हूँ। जब बात आती है कि मैं ऐसी चीजों से कैसे पेश आता हूँ, और हैसियत और पद के साथ आने वाली उन भौतिक संपत्तियों से कैसे पेश आता हूँ, तो मेरा रवैया यही है। क्या मसीह-विरोधी इन मामलों से इसी तरह पेश आते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं करते।) पहले तो वे निश्चित रूप से किसी भी चीज को मना नहीं करते—जितना ज़्यादा, उतना अच्छा। कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें कौन उपहार भेज रहा है या वे चीजें क्या हैं, वे उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। दूसरे, वे निस्संदेह लोगों से कुछ चीजें जबरन वसूलते हैं, और अंत में, वे कुछ चीजें अपने लिए रख लेते हैं। वे यही ढूँढ़ते हैं और यही वे चाहते हैं; वे जिस रुतबे को हासिल करने के निरंतर प्रयास करते हैं, उससे मिलने वाली चीजें यही हैं।

मसीह विरोधियों के दुष्ट सार के बारे में पिछली बार और आज की हमारी संगति के आधार पर क्या तुम लोग इस दुष्ट सार को उजागर करने वाला सारांश एक वाक्य में दे सकते हो? मसीह-विरोधियों की दुष्टता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे हर सकारात्मक चीज, हर न्यायसंगत और सत्य के अनुरूप, और मानवों में जो कुछ भी सुंदर माना जाता है, उसकी निंदा करते हैं। वे उन चीजों से घृणा करते हैं और विमुख होते हैं। इसके विपरीत, हर नकारात्मक चीज, और हर वह चीज जिसकी निंदा की जाती है और जिसे अंतरात्मा और तर्क और न्याय की भावना वाले नीची नजर से देखते हैं, ठीक उन्हीं चीजों से मसीह-विरोधियों को खुशी मिलती है। ये वे चीजें हैं जिनका वे अनुसरण करते हैं और पाने की उत्कट अभिलाषा रखते हैं। एक अन्य वाक्य में भी इसे सारांशित किया जा सकता है : मसीह-विरोधी परमेश्वर से आने वाली हर सकारात्मक चीज से घृणा करते हैं और जो परमेश्वर को पसंद है उससे घृणा करते हैं। वे ठीक उन्हीं चीजों से प्रेम करते हैं जिनसे परमेश्वर घृणा करता है और जिनकी निंदा करता है। यही मसीह विरोधियों की दुष्टता है। इस दुष्टता का प्राथमिक लक्षण क्या है? वह यह है कि उन्हें हर बदसूरत और नकारात्मक चीज से विशेष लगाव होता है, जबकि वे हर उस चीज से घृणा करते हैं और उसके प्रति शत्रुता दिखाते हैं जो सुंदर, सकारात्मक और सत्य के अनुरूप हो। यही दुष्टता है। तुम समझ गए, न? आज की संगति में “मसीह विरोधियों को क्या पसंद है” विषय शामिल था। हमने कुछ उदाहरण भी दिए, जिनमें से कुछ दूसरों की तुलना में अधिक विशिष्ट थे, लेकिन उन सभी का उपयोग मसीह-विरोधियों के दुष्ट प्रकृति सार को समझाने के लिए सबूत के रूप में किया जा सकता है। इसके बाद, तुम लोगों को जो करना चाहिए वह यह है कि तुम लोग इस बात पर चिंतन करो और संगति करो कि तुम लोग किन दुष्ट या सकारात्मक चीजों को देखते और समझते हो, मसीह विरोधियों को कौन-सी नकारात्मक चीजें पसंद हैं, वे किन सकारात्मक चीजों से नफरत करते हैं, और ऐसा क्या है जिसे तुम लोग समझ सकते हो, साथ ही तुम क्या देखते और अनुभव करते हो। मसीह-विरोधियों और साधारण भ्रष्ट मनुष्यों के स्वभाव और सार में कुछ समस्याएँ एक जैसी होती हैं, और यद्यपि इन समानताओं की गहराई अलग-अलग हो सकती है, उनके स्वभाव का सार एक ही है। वे जिस रास्ते पर चलते हैं और जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं, वे भी अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन वे एक ही भ्रष्ट स्वभाव के सार के बहुत से पक्षों को प्रकट करते हैं। इसीलिए, मसीह-विरोधियों के सार के विभिन्न पहलुओं को उजागर करना हर भ्रष्ट व्यक्ति के लिए मददगार है। यदि परमेश्वर के चुने हुए लोग मसीह-विरोधियों के सार को पहचान सकें, तो वे गारंटी दे सकते हैं कि वे उनसे गुमराह नहीं होंगे और उनकी आराधना या अनुसरण भी नहीं करेंगे।

7 अगस्त 2019

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