मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग तीन)
परिशिष्ट : उपहार
इससे पहले कि मैं इस संगति के मुख्य विषय पर आऊँ, मैं एक कहानी सुनाता हूँ। मुझे किस तरह की कहानी सुनानी चाहिए? अगर इसका लोगों पर कोई असर नहीं होता, या अगर यह उन लोगों को शिक्षित नहीं करती या लाभ नहीं पहुँचाती जो जीवन प्रवेश और परमेश्वर को जानने के संदर्भ में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, तो इसे सुनाने का कोई मतलब नहीं है। अगर मैं कोई कहानी सुनाने जा रहा हूँ, तो वह कहानी अपने आप में कुछ हद तक शिक्षाप्रद होनी चाहिए—उसमें मूल्य और अर्थ होना चाहिए। इसलिए आज इस कहानी को सुनो और देखो कि क्या यह तुम लोगों के लिए शिक्षाप्रद और मददगार हो सकती है। कुछ कहानियाँ सच्ची होती हैं, जबकि दूसरी वास्तविक घटनाओं से ली गईं मनगंढ़त कहानियाँ होती हैं; वे सच्ची नहीं होतीं, लेकिन वे अक्सर जीवन में देखी जाती हैं, इसलिए वे वास्तविकता से कटी हुई नहीं होतीं। चाहे वे मनगढंत हों, या वे वास्तव में हुई हों, वे सभी लोगों के जीवन से करीब से जुड़ी होती हैं। तो फिर तुम लोगों को ऐसी कहानियाँ क्यों सुनाई जाएँ? (ताकि हम सत्य को समझ सकें।) यह सही है : ताकि तुम लोग उनसे सत्य को समझ सको—कुछ सत्य जिन्हें जानने में लोगों को वास्तविक जीवन में मुश्किल होती है। आओ हम कहानी सुनाने का प्रयोग लोगों के सत्य और परमेश्वर के बारे में ज्ञान को वास्तविकता के करीब लाने के लिए करें और उनके लिए सत्य और परमेश्वर को समझना आसान बनाएं।
जब लंबे समय तक मेरा लोगों के साथ काफी संपर्क रहता है, तो अनोखी और मनोरंजक घटनाएं अपरिहार्य हो जाती हैं। यह वाली इसी साल वसंत में हुई थी। जैसे-जैसेसर्दी खत्म हुई और वसंत आ रहा था, मौसम सुहावना और बेहतर होता जा रहा था, और सभी तरह के पौधे अंकुरित होने लगे थे, जो धूप और बारिश में हर दिन बड़े हो रहे थे। उनमें से कुछ पौधे जंगली थे, और उनमें से कुछ उगाए गए थे; कुछ जानवरों के खाने के लिए थे, कुछ इंसानों के खाने के लिए थे, और उनमें से कुछ इंसानों और जानवरों दोनों के खाने के लिए थे। यह वसंत के दिनों का नजारा था : एक हरा और जीवंत परिदृश्य। और यहीं से कहानी शुरू होती है। एक दिन एक खास तोहफा पाकर मैं हैरान रह गया। किस तरह का तोहफा? जंगली साग का एक थैला। इसे मुझे देने वाले व्यक्ति ने कहा, “यह चरवाहे का पर्स है—यह खाने लायक है और तुम्हारी सेहत के लिए अच्छा है। तुम इसे अंडों के साथ पका सकते हो।” बढ़िया। फिर मैंने इसकी तुलना उस चरवाहे के पर्स से की जिसे मैंने पहले खरीदा था, और ऐसा करते ही एक समस्या खड़ी हो गई। क्या तुम लोग अनुमान सकते हो कि यह क्या थी? मुझे एक “रहस्य” का पता चला। क्या रहस्य? विदेश में चरवाहे का पर्स चीन में चरवाहे के पर्स से अलग दिखता था। क्या यहाँ कुछ गड़बड़ है? (हाँ, यहाँ है।) अगर यह एक ही चीज होती, तो फिर इसे वैसा ही दिखना चाहिए था, तो यह पता लगने पर कि यह अलग दिखती है, दिमाग में आने वाली पहली चीज क्या होगी? क्या यह चरवाहे का पर्स है, या यह नहीं है? मैं निश्चित नहीं हो पाया। क्या मुझे उस व्यक्ति से पूछने की जरूरत नहीं थी कि क्या चल रहा है? इसलिए बाद में मैंने जाकर उससे पूछा, “क्या तुम्हें यकीन है कि यह चरवाहे का पर्स है?” उसने इस बारे में सोचा और उत्तर दिया, “ओह, मुझे यकीन नहीं है कि यह चरवाहे का पर्स है या नहीं।” अगर उसे यकीन नहीं था, तो वह इसे मुझे कैसे दे सकता था? उसने इसे मुझे देने की हिम्मत क्यों की? सौभाग्य से मैंने उसे ऐसे ही नहीं खाया। दो दिन बाद मैं निश्चित हो चुका था कि वह वास्तव में चरवाहे का पर्स नहीं था। उस व्यक्ति ने क्या कहा? उसने कहा, “तुमने कैसे पता लगाया कि यह चरवाहे का पर्स नहीं था? मुझे यकीन नहीं है, लेकिन इसके बारे में भूल जाओ : इसे खाना मत।” क्या ऐसी कोई चीज अब भी खाई जा सकती है? (नहीं खाई जा सकती।) नहीं खाई जा सकती। अगर मैं कहता हूँ, “तुम निश्चित नहीं हो, लेकिन मैं जोखिम लूँगा और इसे खाऊँगा, चूँकि तुम बहुत दयालु हो,” क्या यह चलेगा? (नहीं चलेगा।) ऐसा बर्ताव करने की प्रकृति क्या होती है? क्या यह मूर्खता होगी? (हाँ, होगी।) हाँ, यह मूर्खता है। सौभाग्य से मैंने इसे नहीं खाया, न ही मैंने चीजों पर और आगे ध्यान दिया, इसलिए मामला टल गय।
कुछ समय बाद खेतों में सभी किस्मों के जंगली पौधे उगने लगे : लंबे और छोटे, फूल वाले और बिना फूल वाले, और हर रंग और विवरण वाले पौधे। वे संख्या में बढ़ते गए, लगातार घने और ज्यादा से ज्यादा सुड़ौल हो गए। एक दिन मुझे तोहफे का एक और थैला मिला, लेकिन यह चरवाहे के पर्स नहीं था। इसके बजाय, इसमें उसी व्यक्ति से मिला चीनी मगवॉर्ट पौधा था। वह इतना दयालु था कि उसने एक और थैला भेजा, और इसके साथ, निर्देश दिए, “इसे आजमाओ। यह चीनी मगवॉर्ट है : यह सर्दी दूर भगाता है, और तुम इसे अंडों के साथ भी खा सकते हो।” मैंने इसे देखा : क्या यह सालाना मगवॉर्ट नहीं था? चीनी मगवॉर्ट चीन के कई हिस्सों में पाया जाता है, और इसके पत्तों में खास खुशबू होती है, लेकिन यह वह नहीं था जो उस व्यक्ति ने भेजा था—यह चीनी मगवॉर्ट कैसे हो सकता था? पत्तियाँ कुछ मिलती-जुलती थीं, लेकिन यह था या नहीं था? मुझे देने वाले व्यक्ति से मैंने पूछा, लेकिन उसने कहा कि वह नहीं जानता—यह कहकर उसने पूरी तरह से जिम्मेदारी दूसरों पर डाल दी। यहाँ तक कि उसने पूछा, “तुमने अभी तक इसमें से कुछ भी क्यों नहीं खाया? हालाँकि मुझे यकीन नहीं है कि यह क्या है, तुम्हें कुछ खाना होगा। मैंने कुछ खाया है, और यह वास्तव में स्वादिष्ट है।” वह अनिश्चत था, फिर भी वह मुझसे इसे खाने के लिए आग्रह कर रहा था। तुम लोगों को क्या लगता है कि मुझे क्या करना चाहिए था? क्या मुझे इसे खाने के लिए खुद को मजबूर करना चाहिए था? (नहीं।) इसे निश्चित रूप से नहीं खाया जाना चाहिए था, क्योंकि इसे भेजने वाले व्यक्ति को भी नहीं पता था कि यह क्या था? अगर मैंने जुआ खेला होता और कुछ नया आजमाने के लिए इसे खा लिया होता, तो शायद कुछ न होता, क्योंकि जिसने इसे खाया था, उसने कहा था कि यह ठीक रहेगा। लेकिन कार्रवाई के उस तरीके के बारे में क्या, जिसमें यह सोचना कि यह ठीक है और इसे अज्ञानतापूर्ण खा लेना? क्या यह चीजों को आँख मूँद कर करते रहना नहीं है? किस तरह का व्यक्ति आँख मूँद कर ऐसी चीजें करता है? सिर्फ वही ऐसा करेगा जो असभ्य और लापरवाह है—जो सोचता है, “इससे किसी भी तरह कोई फर्क नहीं पड़ता; कम या ज्यादा काफी ही है।” क्या तुम लोगों को लगता है कि मुझे ऐसा करना चाहिए? (नहीं।) क्यों नहीं? खाने के लिए बहुत सारी चीजें हैं; किसी अनजान पौधे को खाने का जोखिम क्यों उठाना? अकाल के वक्त जब वास्तव में कोई खाना नहीं बचता है, तो तुम विभिन्न जंगली घास खोदकर खाने की कोशिश कर सकते हो, और तुम कुछ जोखिम उठा सकते हो। इस तरह के हालात में, तुम कोई अनजान पौधा खा सकते हो। लेकिन क्या अभी उनमें से कोई हालात है? (ऐसा नहीं है।) ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिन्हें तुम खा सकते हो, तो फिर जंगली साग की खोज में क्यों जाना? क्या किसी अदृश्य, अमूर्त और काल्पनिक छोटे से लाभ के लिए जोखिम उठाना जरूरी है? (नहीं है।) इसलिए मैंने इसे नहीं खाने का फैसला किया। मैंने इसे नहीं खाया, सौभाग्य से; न ही मैंने इन चीजों पर आगे गौर किया, और इसी तरह वह मामला भी टल गया।
कुछ समय बाद उस व्यक्ति ने मुझे एक और तोहफा दिया; यह तीसरी बार था। इस बार तोहफा बहुत खास था : इसे मिट्टी में नहीं उगाया गया था, न ही पेड़ पर फल की तरह लगा था। यह क्या था? पक्षी के दो अंडे कागज के एक थैले में करीने से लपेटे गए थे जिस पर “परमेश्वर के लिए पक्षी के अंडे” लिखा गया था। मजेदार, है न? जब मैंने कागज का थैला खोला, मैंने देखा कि दोनों अंडों के छिलके खूबसूरती से रंगे गए थे। मैंने उन जैसे अंडे पहले कभी नहीं देखे थे, इसलिए मैं बता नहीं सकता था कि किस तरह के पक्षी ने उन्हें दिया था; मैंने इंटरनेट पर खोजने के बारे में सोचा, लेकिन मुझे कोई सुराग नहीं मिल सका क्योंकि समान रंग और पैटर्न के बहुत सारे अंडे थे, इसलिए आकार और रंग के आधार पर उनकी पहचान करने का कोई तरीका नहीं था। क्या तुम लोगों में से किसी को लगता है कि मेरे उस व्यक्ति से यह पूछने का कोई फायदा होता कि वे किस प्रकार के पक्षी के अंडे थे? (नहीं।) क्यों नहीं? (उसे भी नहीं पता होता।) तुम लोगों ने ठीक अंदाजा लगाया; उसे भी नहीं पता होता। इसलिए मैंने उससे नहीं पूछा। अगर मैंने पूछा होता, तो मैंने उसकी भावनाओं को ठेस पहुँचाई होती, और उसने सोचा होता, “मैं बहुत नेक इरादों वाला और ख्याल रखने वाला हूँ, लेकिन फिर भी तुम मुझ पर शक करते हो। तुम्हें उन्हें इंटरनेट पर क्यों खोजना पड़ा? मैं तुम्हें उन्हें खाने के लिए दे रहा हूँ, तो बस उन्हें खा लो!” क्या तुम लोग सोचते हो कि मुझे अंडे खाने चाहिए थे या नहीं? (तुम्हें नहीं खाने चाहिए थे।) अगर उसने तुम लोगों को दिए होते, तो क्या तुम लोगों ने उन्हें खाया होता? (नहीं।) न ही मैं खाता। ये अंडे पक्षियों के अंडे सेने और प्रजनन के लिए हैं। क्या उन्हें खाना क्रूर नहीं होता? (हाँ, होता।) मैं ऐसा नहीं कर सका, इसलिए पक्षियों के अंडों की बात छोड़ दी गई, लेकिन ऐसी चीजें होती रहीं।
एक दिन, मुझे कुछ सालाना मगवॉर्ट मिले—जो चीनी मगवॉर्ट की तरह दिखते थे—जो कहीं रेलिंग पर सूख रहे थे, इसलिए मैंने एक बहन से पूछा कि यह किसलिए है। “क्या यह उसी तरह का चीनी मगवॉर्ट नहीं है जो उस आदमी ने पिछली बार तुम्हें दिया था?” उसने जवाब दिया। “चीनी मगवॉर्ट सीलन से छुटकारा दिला सकता है और ठंड को दूर भगा सकता है। क्या तुम ठंड के प्रति संवेदनशील नहीं हो? उस आदमी ने कहा था कि एक बार इसके सूख जाने पर वह इसे तुम्हारे लिए गर्म पानी में पैर भिगोने के लिए बचाकर रखेगा, ताकि ठंड दूर हो जाए।” यह सुनने पर तुम लोगों को क्या लगता है कि मेरी प्रतिक्रिया क्या थी? एक शब्द में। (निशब्द।) यह सच है, मैं निशब्द था। इस तरह की परिस्थतियों में क्या मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए था कि यह व्यक्ति कितना ख्याल रखने वाला था, और कैसे उसने इसके लिए इतना प्रयास किया था? मैं निशब्द कैसे रह सकता था? बात सिर्फ इतनी थी कि यह व्यक्ति पहले इन मामलों में समझ से परे रहा था और फिर उसने रवैया बदला था, मानो कह रहा हो, “मैंने तुम्हें खाने के लिए साग और अंडे दिए, लेकिन तुमने उन्हें नहीं खाया, इसलिए मैंने तुम्हारे लिए गर्माहट में पैर भिगोने के लिए कुछ चीनी मगवॉर्ट सुखाए ताकि मेरी कोशिशें बेकार न जाएँ।” इस दृश्य को देखकर मैं सचमुच निशब्द था। बाद में मैं किसी और को बता रहा था दवा की कई दुकानें अब चीनी मगवॉर्ट का स्टॉक रखती हैं। तुम जब जितना चाहो, खरीद सकते हो : यह कई तरह की पैकेजिंग में आता है, विभिन्न देशों द्वारा बनाया जाता है, और सफाई के साथ संसाधित किया जाता है। यह उससे बहुत बेहतर है जो उसे व्यक्ति ने मुझे भेजा था, इसलिए क्या इसे सड़क के किनारे से चुनना और फिर इसे धूप में सुखाने के लिए रेलिंग पर रखना बेकार कोशिश नहीं है? अगर वह इसे सुखाकर मुझे देता है, तो क्या तुम्हें लगता है कि मुझे यह चाहिए? (तुम्हें नहीं चाहिए।) मुझे यह नहीं चाहिए। समय के साथ रेलिंग पर अब कोई मगवॉर्ट नहीं था, क्योंकि मैंने जो कहा था वह उस तक पहुँच गया था, और उसने इसे भेजना बंद कर दिया। बाद में, जब खेत में ज्यादा जंगली साग लगने लगा तो उसे अब दुर्लभ नहीं माना जाता था, इसलिए किसी ने मुझे जंगली साग नहीं भेजा। और मुझे लगता है कि इस बीच पक्षियों के अंडे शायद फूट गए होंगे और उन्हें इकट्ठा नहीं किया जा सकता था, इसलिए अभी तक मुझे कोई और पक्षी के अंडे या जंगली साग नहीं मिला है। और यही मेरी कहानी थी।
कुल मिलाकर कहानी में चार घटनाएँ थीं, सभी मेरे लिए भेजी जा रहीं चीजों के बारे में थीं : दो अज्ञात जंगली साग भेजने के बारे में थीं, एक अज्ञात पक्षी के अंडे भेजने के बारे में थी, और एक धूप में सुखाई गई “परंपरागत चीनी दवा” के बारे में थी। इन चीजों के बारे में बात करना थोड़ा हास्यास्पद लग सकता है, लेकिन इन घटनाओं के संदर्भ में उन्हें सुनने के बाद तुम लोगों पर क्या असर पड़ा, अगर कोई पड़ा हो तो? क्या ऐसा कुछ है जो तुम्हें उनसे समझना चाहिए या लेना चाहिए, कोई ऐसा सबक है जो तुम्हें सीखना चाहिए? जब तुम लोग सुन रहे थे तो तुम सब क्या सोच रहे थे? जो चीजें मैंने सुनाईं क्या वह किसी खास व्यक्ति के लिए थीं? निश्चित रूप से नहीं। लेकिन फिर अगर वे किसी खास व्यक्ति के लिए नहीं थीं, तो मैं उनके बारे में बात क्यों कर रहा हूँ? क्या इसका कोई मतलब है? या यह सिर्फ बेकार की बात है? (ऐसा नहीं है।) चूँकि तुम लोग इसे बेकार की बात नहीं मानते, क्या तुम लोग जानते हो कि मैं इसके बारे में बात क्यों कर रहा हूँ? इस व्यक्ति ने ऐसी चीजें क्यों कीं? उसके व्यवहार की प्रकृति क्या थी? उसका मकसद क्या था? यहाँ पर समस्याएँ क्या हैं? क्या उन्हें संदर्भ में रखने की जरूरत है? अगर तुम लोगों और घटनाओं की प्रकृति को उनके संदर्भ में देख सको तो तुम सत्य को समझ सकोगे। तुम लोगों को क्या लगता है कि यह सब करने वाले व्यक्ति के इरादे अच्छे थे या बुरे? (अच्छे इरादे थे।) सबसे पहले, एक चीज निश्चित है : उसके इरादे नेक थे। उसके अच्छे इरादों के साथ गलत क्या था? क्या अच्छे इरादों के साथ काम करने का मतलब है कि तुम ख्याल रखने वाले हो? (जरूरी नहीं है।) अगर किसी के लिए कुछ करने का मकसद अच्छे इरादे हैं, तो क्या यह जरूरी है कि भ्रष्ट स्वभाव की अशुद्धता नहीं है? ऐसा नहीं होता। इसलिए मैं तुम सब लोगों से पूछता हूँ, अगर तुम अपने माता-पिता का सम्मान करने वाले और आज्ञाकारी हो, तो तुम इन्हें उनके खाने के लिए क्यों नहीं भेजते? या अगर तुम अपने अधिकारियों और अगुआओं का ख्याल रखते हो, तो तुम ये चीजें उन्हें खाने के लिए क्यों नहीं देते? तुम ऐसा करने की हिम्मत क्यों नहीं करोगे? ऐसा इसलिए क्योंकि तुम्हें डर है कि कुछ गलत हो जाएगा। तुम अपने माता-पिता, अपने अगुआओं, और अपने अधिकारियों को नुकसान पहुँचाने से डरते हो, तो क्या तुम परमेश्वर को नुकसान पहुँचाने से नहीं डरते? तुम्हारे इरादे क्या हैं? तुम्हारी दयालुता में क्या शामिल है? क्या तुम परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश कर रहे हो? क्या तुम उसके साथ खेलने की कोशिश कर रहे हो? क्या तुम एक आध्यात्मिक प्राणी होने के नाते परमेश्वर के साथ ऐसी चीजें करने की कोशिश करोगे? अगर तुम देखते हो कि परमेश्वर की देह सामान्य मानवता की है, और उसका भय मानने के बजाय तुम ऐसी चीजें करने की हिम्मत करते हो तो क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होगा? अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, तो ऐसी चीजें करना क्या वास्तव में तुम्हारा ख्याल रखने वाला होना होता? यह ख्याल रखना नहीं है : यह परमेश्वर को धोखा देना और उसके साथ खेलना है, और यह तुम्हारी बहुत ही हिम्मत है! अगर तुम वास्तव में एक जिम्मेदार व्यक्ति हो, तो पहले तुम ही कुछ खाते और चखते क्यों नहीं, ताकि सुनिश्चित हो जाए कि परमेश्वर के सामने लाने से पहले इसमें कुछ गलत तो नहीं है? अगर तुम इसे बिना चखे और खाए सीधे परमेश्वर के पास ले आते हो, तो क्या यह परमेश्वर के साथ खिलवाड़ नहीं है? क्या तुम्हें नहीं लगता कि ऐसा करके तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर रहे हो? क्या यह ऐसा कुछ है जिसे परमेश्वर भूल सकता है? भले ही तुम इसे भूल भी जाओ, परमेश्वर नहीं भूलेगा। ऐसा कुछ भी करते समय तुम्हारे दिमाग में क्या चल रहा होता है? तुमने इसे नहीं चखा, और तुम्हारे पास कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है, फिर भी तुम इसे परमेश्वर को देने की हिम्मत करते हो? क्या यह जिम्मेदारीपूर्ण व्यवहार है? अगर तुम्हें परमेश्वर को नुकसान पहुँचाना था, तो तुम क्या जिम्मेदारी लेते? भले ही कानून तुम्हारे साथ नहीं निपटे, परमेश्वर तुम्हें अनंत काल तक सजा देगा। तुम इस कबाड़ को अविश्वासी अगुआओं और अधिकारियों को देने लायक भी नहीं समझते, और तुम इसे अशोभनीय मानते, तो इसे परमेश्वर को देने में तुम्हारे इरादे कैसे होंगे? क्या मेरी कीमत इतनी कम है? अगर तुम अपने बॉस को जंगली साग का एक थैला देते, तो वह क्या सोचता? “क्या मैं इसी लायक हूँ? लोग मुझे धन और नामी चीजें देते हैं, और तुम मुझे मुट्ठी पर खरपतवार दे रहे हो?” क्या तुम ऐसा करने में सक्षम होते? निश्चित रूप से नहीं। लेकिन अगर तुम ऐसा करते भी, तुम्हें किस चीज की चिंता करनी होगी? पहली चीज जो तुम्हें सोचनी है, “बॉस को क्या पसंद है? क्या उसे इस चीज की जरूरत है? अगर उसे इसकी जरूरत नहीं है, और मैं इसे फिर भी उसे देता हूँ, तो क्या वह मुझे तंग करेगा? क्या वह मुझे काम पर परेशान करेगा और कष्ट देगा? अगर मामला गंभीर हो जाता है, तो क्या वह बहाने ढूँढ़कर मुझे नौकरी से निकाल देगा?” क्या तुम इनमें से किसी के बारे में सोचते हो? (मैं सोचता हूँ।) अगर तुम अपने बॉस को खुश करना चाहते हो, तो पहली चीज क्या होगी जो तुम्हें उसे देनी चाहिए। (कुछ ऐसा जो उसे पसंद हो।) उसे सिर्फ उसकी पसंद की चीज देना काफी नहीं है। अगर उसे अभी एक कप की जरूरत है, उदाहरण के लिए, तो क्या तुम उसके लिए एक कप खरीदने के लिए 10 या 20 रुपये खर्च कर सकते हो? (नहीं।) तुम्हें उसे कुछ सोना, चाँदी, कुछ आकर्षक देना होगा। उसे ऐसा कुछ क्यों देना जो तुम अपने लिए नहीं खरीदना चाहोगे? (उसे खुश करने के लिए।) उसे खुश करने का मकसद क्या है? सबसे पहले, कम से कम वह तुम्हें अपने संरक्षण में ले सकता है, और अपनी ताकत से वह तुम्हारी रक्षा कर सकता है और तुम्हारी नौकरी और वेतन को स्थिर और सुरक्षित बना सकता है। कम से कम वह तुम्हारे लिए मुश्किलें खड़ी नहीं करेगा। इसलिए तुम उसे कभी भी अज्ञात जंगली घास का तोहफा नहीं दोगे। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) तुम वैसा अपने बॉस के साथ भी नहीं कर सकते, तो फिर खरपतवार देने वाले व्यक्ति ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? क्या उसने नतीजों के बारे में सोचा? उसने निश्चित रूप से नहीं सोचा। और क्यों नहीं? कुछ लोग कहेंगे, “क्योंकि तुम हमें कष्ट नहीं देने वाले।” क्या यह इतना आसान है? क्योंकि मैं उसे परेशान नहीं करने वाला हूँ, है न? उसने इस तरह की चीजें देने की हिम्मत कैसे की? (उसने सोचा कि उसके इरादे नेक हैं।) यह सही है—उसने अपने सारे भद्देपन और दुष्टता को अच्छे इरादों के पीछे छिपा लिया, मतलब, “तुम्हारे लिए मेरे इरादे नेक हैं, लेकिन दूसरों के नहीं! इन सभी जंगली घास की तरफ देखो। इन्हें तुम्हारे लिए किसने खोदा? क्या वह मैं नहीं था?” यह किस तरह का रवैया है? यह किस तरह की मानसिकता है? क्या ये अच्छे इरादे मानवता के अनुरूप हैं? अगर वे मानवता के अनुरूप भी नहीं हैं, तो क्या वे सत्य के अनुरूप हो सकते हैं? (नहीं हो सकते।) वे सत्य से और दूर हो सकते हैं! ये अच्छे इरादे क्या हैं? क्या वे सच में अच्छे इरादे हें? (वे नहीं हैं।) तो उनमें किस तरह का रवैया शामिल है। उनमें किस तरह की अशुद्धियां और सार हैं? यहाँ तक कि तुम युवा लोग जिन्होंने कम दुनिया देखी है वे भी समझते हैं कि तुम अपने बॉस को किसी भी तरह का तोहफा नहीं दे सकते; तुम्हें नतीजों के बारे में सोचना होगा। इसलिए खास तौर पर अगर 40 या 50 साल की उम्र का अनुभवी व्यक्ति मुझे इस तरह के तोहफे देता है, तो तुम लोगों के विचार में इसकी प्रकृति क्या है? क्या यह हमारे लिए चर्चा करने के लायक है? (यह है।) तो जब सब कुछ कहा और किया जा चुका है, तो इसकी प्रकृति क्या है? उस व्यक्ति ने लापरवाही से मुझे कुछ जंगली साग दिए, बिना यह जाने कि वे क्या हैं, उसने मुझे उन्हें खाने के लिए कहा। जब मैंने कहा कि वे उस तरह के जंगली साग जैसे नहीं दिखते, तो उसने मुझे उन्हें न खाने के लिए कहने में जरा देर नहीं लगाई—और बस इतना ही नहीं। उसने मुझे खाने के लिए दूसरी तरह के जंगली साग भेजे। मैंने उन्हें नहीं खाया, और उसने कहा, “कुछ खाओ, वे स्वादिष्ट हैं। मैंने इसे आजमाया है।” यह किस तरह का रवैया है? (यह अपमानजनक और गैरजिम्मेदाराना है।) यह सही है। क्या तुम सभी लोग इस रवैये को महसूस करते हो? (हम करते हैं।) क्या यह नेकनीयत है? यहाँ नेकनीयत कुछ भी नहीं है! उसे बिना कुछ खर्च किए कहीं से कुछ मिल गया और उसने फिर इसे एक प्लास्टिक की थैली में डाल दिया और मुझे दे दिया, मुझसे इसे खाने के लिए कहा। भले ही तुम भेड़ों और खरगोशों को खिलाने के लिए कुछ जंगली साग चुनो, फिर भी तुम्हें सोचना होगा, “क्या इसे खाना जानवरों के लिए जहरीला हो सकता है?” क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिस पर तुम्हें विचार करना चाहिए? अगर तुम लोग जानवरों को चारा खिलाते समय जोखिम उठाने को तैयार नहीं हो, तो तुम जंगली साग का कोई भी पुराना गुच्छा उठाकर मुझे खाने के लिए कैसे दे सकते हो? यह किस तरह का स्वभाव है? समस्या की प्रकृति क्या है? क्या तुम लोग समझते हो? अगर ऐसा व्यक्ति मेरे साथ इस तरह का व्यवहार करता है, तो तुम लोगों को क्या लगता है कि वह अपने अधीनस्थों या किसी ऐसे व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करेगा जिसे वह रास्ते का कोई औसत व्यक्ति मानता है? यह बस लापरवाही से खिलवाड़ करना है। यह कैसा स्वभाव है? यह दुष्ट और शातिराना है। क्या उसे एक अच्छा व्यक्ति माना जा सकता है? (नहीं, उसे नहीं माना जा सकता।) उसे एक अच्छा व्यक्ति नहीं माना जा सकता। लोगों के शरीर और जीवन को गंभीरता से नहीं लेना, उनके साथ जुआ खेलना और उसके बाद कुछ भी महसूस नहीं करना, और वास्तव में अंतरात्मा की पीड़ा बिल्कुल नहीं होना, लेकिन बार-बार एक ही काम करने में सक्षम होना : यह वास्तव में अजीब है।
कहानी की शुरुआत में मैंने कुछ ऐसे वचन कहे थे जिन पर तुम लोगों ने शायद ज्यादा ध्यान नहीं दिया होगा। मैंने कहा था कि उन जंगली सागों में से कुछ इंसानों के खाने के लिए थे, कुछ जानवरों के खाने के लिए थे, और कुछ इंसानों और जानवरों दोनों के खाने के लिए थे। यह एक “जानी-मानी कहावत” है, और इसका एक स्रोत है। क्या तुम जानते हो कि यह कहाँ से आई है? यह एक कहानी का संकेत है। यह उस व्यक्ति से आती है जिसने उस कहानी में कुछ तोहफे दिए थे। यह व्यक्ति पौधारोपण का प्रभारी था और उसने तीन किस्म की मक्की लगाई थी। कौन सी तीन किस्में? वह किस्म जिसे लोग खाते हैं, वह किस्म जिसे जानवर खाते हैं, और वह किस्म जिसे लोग और जानवर दोनों खाते हैं : वे तीन। मक्की की यह तीन किस्में काफी दिलचस्प हैं। क्या तुम लोगों ने उनके बारे में पहले सुना है? तुम लोगों ने नहीं सुना है, और यह पहली बार था जब मैंने उनके बारे में सुना था—क्योंकि वे दुर्लभ होती हैं। अंत में, क्योंकि उन्हें उगाने वाले लोग बहुत गैर-जिम्मेदार थे, इसलिए तीनों किस्म की मक्की आपस में मिल गईं : जानवरों के खाने वाली लोगों को खिलाई गई, जबकि इंसानों के खाने वाली जानवरों को खिलाई गई। उन्हें खाने के बाद सभी ने शिकायत की कि मक्की बेस्वाद थी, इसका स्वाद अनाज जैसा नहीं था, और इसमें थोड़ा घास जैसा स्वाद था। मक्की बोने वाले लोगों ने क्या किया? अपने कर्तव्य को करने में अपनी गैरजिम्मेदारी के कारण उन्होंने जो इंसानों के खाने के लिए था और जो जानवरों के खाने के लिए था, उसे आपस में मिला दिया, फिर कोई भी दोनों को अलग नहीं कर पाया, और उन्हें और बीज खरीदने पड़े और उन्हें फिर से बोना पड़ा। तुम सभी लोगों को क्या लगता है कि यह काम कैसे किया गया? क्या इस तरह के लोगों के काम में कोई सिद्धांत नहीं होते? (उनके पास नहीं होते।) अपने काम में क्या वे सत्य की तलाश करते हैं? (वे नहीं करते।) इस तरह के रवैये के साथ काम करने में हर किसी के प्रति इतने अपमानजनक और गैरजिम्मेदार होने के कारण इस तरह के लोग परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में क्या सोचते हैं? सत्य के प्रति उनका नजरिया क्या है? उनके दिलों में सत्य कितनी अहमियत रखता है? परमेश्वर की पहचान कितनी महत्वपूर्ण है? क्या वे जानते हैं? (वे नहीं जानते।) क्या उन्हें ऐसे बड़े मामलों के बारे में पता नहीं होना चाहिए? फिर वे क्यों नहीं जानते? इसका संबंध उनके स्वभाव से है। वह स्वभाव क्या है? (यह दुष्टता होती है।) यह दुष्टता है, और यह सत्य से विमुख होना है। वे जो करते हैं उसकी प्रकृति के बारे में सचेत नहीं होते, और वे कभी भी विचार करने या खोजने की कोशिश नहीं करते, न ही वे काम करने के बाद खुद की जाँच करते हैं। इसके बजाय वे जो चाहते हैं वही करते हैं, सोचते हैं कि जब तक उनके इरादे अच्छे और सही हैं, उन्हें किसी की निगरानी या आलोचना की जरूरत नहीं है; उन्हें लगता है कि उनकी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे हो गए हैं। क्या ऐसा है? कुछ लोग कहते हैं, “हम उस कहानी को समझते हैं जो तुमने हमें बताई है, लेकिन हम अभी भी उस हिस्से को नहीं समझ पाए हैं जिसके बारे में हम सबसे अधिक चिंतित हैं, और वह है : इस तरह की चीजों के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है? ऐसे काम करने वाले व्यक्ति के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है? क्या यह क्रोध, तिरस्कार और घृणा है? या क्या तुम इस तरह के व्यक्ति को पसंद करते हो?” (यह घृणा है।) क्या इस तरह की चीज से घृणा नहीं की जानी चाहिए? (करनी चाहिए।) अगर तुम्हारे साथ इस तरह की चीज हो तो तुम लोग क्या सोचोगे? मान लो कि एक दयालु व्यक्ति तुम्हें बार-बार कुछ अज्ञात चीजें देता है और तुम्हें यह समझाने की बहुत कोशिश करता है कि “इन्हें खाओ, यह तुम्हारी सेहत के लिए अच्छी हैं; इन्हें खाओ, यह तुम्हें स्वस्थ रखेंगी; इन्हें खाओ, यह तुम्हारे रूप और स्फूर्ति में सुधार लाएँगी। मेरी बात सुनने से कुछ बुरा नहीं होगा।” अगर जाँच करने पर पता चले कि उन चीजों की कोई कीमत नहीं है, तो तुम क्या सोचोगे? (अगर मैं होता तो शायद मैं ऐसे व्यक्ति से अब और परेशान नहीं होना चाहता; मैं उससे नाराज हो जाता और बोल नहीं पाता—इस तरह की भावनाएँ होतीं।) ऐसे लोगों से घृणा करनी चाहिए और उनसे नफरत होनी चाहिए। और क्या? क्या किसी को गुस्सा, दुख या दर्द महसूस करना चाहिए? (कोई मतलब नहीं है।) कोई मतलब नहीं है, है न? क्या ऐसे लोग नहीं हैं जो कहते हैं, “इस व्यक्ति ने शायद ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह सत्य को नहीं समझता”? ज्यादातर लोग सत्य को नहीं समझते, फिर भी उनमें से कितने लोग ऐसी चीजें करने में सक्षम हैं? क्या लोग एक दूसरे से अलग नहीं होते? (वे अलग होते हैं।) लोग अलग-अलग होते हैं। यह वैसा ही है जैसे लोग एक दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं : जब भौतिक सामान का आदान-प्रदान होता है, तो कुछ लोग निष्पक्षता और तर्कसंगतता चाहते हैं। भले ही वे लोग दूसरे पक्ष को उनका थोड़ा-बहुत फायदा उठाने दें, लेकिन इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता—इस तरह से उनका रिश्ता कायम रहता है; उनमें मानवता होती है और उन्हें लगता है कि थोड़ा-बहुत नुकसान उठाना कोई बड़ी परेशानी की बात नहीं है। दूसरे लोगों में मानवता की कमी होती है और वे हमेशा दूसरों का फायदा उठाना पसंद करते हैं : दूसरों के साथ उनका व्यवहार सिर्फ दूसरों की कीमत पर फायदा उठाने और लाभ कमाने के लिए होता है। अगर वे तुमसे कुछ फायदा उठा सकते हैं, तो वे तुम्हें खुश करेंगे और तुम्हारे साथ संबंध बनाए रखेंगे, लेकिन अगर वे ऐसा नहीं कर सकते, तो वे तुम्हें दूर कर देंगे। वे तुम्हारे प्रति कोई ईमानदारी नहीं दिखाते; ऐसे लोगों में कोई मानवता नहीं होती।
आज बताई गई कहानी में तोहफे देने वाले लोगों के प्रकार के बारे में तुम लोग क्या सोचते हो? ऐसे लोग चीजों का तोहफा क्यों देते हैं? क्या यह कोई संयोग है? अगर यह कई वर्षों के दौरान एक बार हुआ तो यह संयोग हो सकता है, लेकिन क्या इसे तब भी संयोग माना जा सकता है अगर एक ही चीज एक मौसम में चार बार होती हो? (यह संयोग नहीं हो सकता।) उसका यह व्यवहार अचानक नहीं था, न ही उस तरह के स्वभाव को क्षणिक खुलासा और भ्रष्टाचार की अभिव्यक्ति कहा जा सकता है। तो उसके व्यवहार की प्रकृति क्या थी? जैसा कि हमने पहले कहा, उसका व्यवहार अपमानजनक, गैरजिम्मेदार, लापरवाह, जल्दबाजी वाला और आवेगपूर्ण था, और एक असभ्य स्वभाव का था। तो उसने ऐसा क्यों किया? उसने वे चीजें किसी और को क्यों नहीं दीं, बल्कि सिर्फ मुझे ही क्यों दीं? मेरी अलग पहचान और स्थिति ने मुझे यह तोहफे पाने के लायक बनाया। क्या इससे उपहार देने वाले व्यक्ति का इरादा और उसके द्वारा किए गए काम की प्रकृति स्पष्ट हो जाती है? उसका मकसद क्या था? (अपनी खुशामद करना।) यह सही है। उसकी इस खुशामद का वर्णन करने के लिए सबसे सटीक शब्द क्या है? यह एक घटिया चाल है : खुशामद और मौकापरस्ती। यह खुद को तुमसे तृप्त करने का एक चतुर तरीका है, तुम्हें उस गड्ढे में फँसाना जो उसने खोदा है और तुम्हें एहसास न होने देना, और तुम्हें उसके बारे में एक अच्छी भावना देना जबकि वास्तव में वह बिल्कुल भी सच्चा नहीं है—वह बिना कोई कीमत चुकाए अपने मकसद को हासिल करना चाहता है। उसने नतीजों के बारे में कोई विस्तृत विचार किए बिना ऐसा किया और तुम्हें कुछ ऐसा दिया जो उसने मुफ्त में पाया था, जिससे तुम्हें लगे कि उसे तुम्हारी परवाह है, और तुम्हें खुश कर रहा है। इसका वास्तव में क्या मतलब है? इसका मतलब है कि एक पैसा भी खर्च किए बिना उसने तुम्हें यह महसूस कराया है कि तुमने उसके खर्च पर बहुत लाभ उठाया है, जो स्पष्ट रूप से तुम्हें मूर्ख बनाना है। क्या इसका यही मतलब नहीं है? वह खुद से सोच रहा है, “मैं एक भी पैसा खर्च नहीं कर रहा हूँ, और मैं अपने रास्ते से हटकर कुछ नहीं कर रहा हूँ; मेरे पास तुम्हारे लिए कोई ईमानदारी नहीं है। मैं तुम्हें बस कुछ ऐसा दूँगा जिससे तुम मुझे याद रखो, ताकि तुम मुझे दयालु, ख्याल रखने वाला और वफादार समझो, और सोचो कि मेरे दिल में तुम्हारे लिए प्यार है।” तुम्हें यह गलत तरीके से विश्वास दिलाना कि वह ऐसा ही है, एक घटिया चाल है, और यह अवसरवाद भी है। बिना कोई कीमत चुकाए या बिना किसी ईमानदारी के सबसे बड़े लाभ और सबसे बड़े फायदे के लिए सबसे घटिया तथाकथित दयालुता का इस्तेमाल करना एक घटिया चाल है। क्या तुम लोगों में से कोई ऐसा करेगा? हर कोई करता है—बस इतनी सी बात है कि तुम लोगों ने वह काम नहीं किया जो उसने किया, लेकिन अगर तुम लोगों को मौका मिले तो तुम भी ऐसा ही करोगे। इस तरह के लोगों से निपटने के दौरान मैंने यही पहली चीज निष्कर्ष के रूप में निकाली है, यानी कि वे घटिया चालें चलने में बहुत अच्छे हैं। वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते; वे जिसका अनुसरण करते हैं वह कोई ऐसा व्यक्ति है जिसके बारे में उन्हें लगता है कि वह उनका भला करेगा, उन्हें आशीष देगा, और जो अनुसरण करने लायक है। इस एक घटना ने इस प्रकार के व्यक्ति की आस्था और उनकी वास्तविकता के सत्य को पूरी तरह से उजागर कर दिया है। ऐसे लोगों का परमेश्वर के प्रति प्रेम, वफादारी और समर्पण की समझ बहुत सरल होती है, और वे परमेश्वर की स्वीकृति पाने और आशीष प्राप्त करने के लिए घटिया चाल चलना चाहते हैं। क्या वे परमेश्वर के प्रति ईमानदार हैं? क्या वे किसी भी तरह से परमेश्वर का भय मानते हैं? (वे नहीं मानते हैं।) फिर अन्य चीजें तो और भी अधिक बेमानी हैं। यह पहली बात है जिसका मैंने निष्कर्ष निकाला है। तुम लोगों के विचार में क्या मैं सही हूँ? (तुम सही हो।) क्या मैं उसे अनुचित रूप से लेबल कर रहा हूँ? क्या मैं राई का पहाड़ बना रहा हूँ? बिल्कुल नहीं। उसके सार के अनुसार यह उससे कहीं अधिक गंभीर है। कम से कम वह परमेश्वर को धोखा दे रहा है और उसके साथ खेल रहा है।
दूसरी चीज जिसका मैंने निष्कर्ष निकाला है, वह यह है कि ऐसे लोगों से क्या देखा जा सकता है। मनुष्य का हृदय खौफनाक है! मुझे बताओ, यह डर क्या है? मैं क्यों कहता हूँ कि मनुष्य का हृदय खौफनाक है? (यह व्यक्ति आशीष पाने के अपने इरादे और इच्छा को संतुष्ट करने के लिए स्वयं को परमेश्वर का अनुग्रही बनाता है, और फिर गैर-जिम्मेदार हो जाता है और यह नहीं सोचता कि उसके इन चीजों को खाने के बाद परमेश्वर की देह का क्या होगा या इसके क्या परिणाम होंगे। वह जब अपने परिवार को खाने के लिए कुछ भी देता है, तो हमेशा उसके परिणामों पर विचार करता है, लेकिन जब वह परमेश्वर को कुछ देता है, तो वह परिणामों के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचता। ऐसा वह पूरी तरह से अपने उद्देश्यों को पाने के लिए स्वयं को परमेश्वर के प्रति अनुग्रहशील बनाकर करता है, चाहे उसके तरीके उचित हों या अनुचित; कोई भी देख सकता है कि वह विशेष रूप से स्वार्थी और नीच है, उसके हृदय में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, और वह परमेश्वर के साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार नहीं करता।) इसका निहितार्थ देखें तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि वह मेरे साथ एक इंसान की तरह व्यवहार नहीं करता? क्या इसे ऐसे कहा जा सकता है? (कहा जा सकता है।) कितने खौफनाक इरादे हैं उसके! (हाँ, वह परमेश्वर को धोखा नहीं देगा, भले ही वह परमेश्वर को अपना रिश्तेदार ही क्यों न मानता हो।) यह वास्तव में खौफनाक है। अगर कोई तुम्हारा दोस्त होता, तो क्या वह तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार करता? वह ऐसा नहीं करता। वह तुम्हें बताता कि क्या खाना अच्छा है, और अगर कुछ खाने के दुष्प्रभाव होते हैं, तो वह उसे खाने से तुम्हें कड़ाई से मना करता; ऐसा तो दोस्त भी कर सकते हैं। लेकिन क्या यह व्यक्ति ऐसा कर सकता है? नहीं। चूँकि उसने मेरे साथ ऐसा किया, तो वह निश्चित रूप से तुम लोगों साथ भी ऐसा ही करेगा। उसके बारे में और क्या-क्या डरावनी बातें हैं? (वह बहुत ज्यादा हिसाब-किताब रखता है। वह इसे बाहरी गर्मजोशी से छिपा लेता है, लेकिन अंदर से वह साजिश रच रहा होता है, सबसे सस्ती चीज से वह सबसे ज्यादा फायदा उठाने की कोशिश कर रहा होता है, और यह भयानक लगता है।) इसे इस तरह देखना अच्छा है। तुमने पहले जो उल्लेख किया है वह उसका स्वार्थी पक्ष है, जबकि यह उसकी साजिश को संदर्भित करता है। तुम सब लोगों ने जो कहा है, उसके अनुसार ये चीजें कहाँ से आती हैं जो किसी व्यक्ति के अंदर गहराई में होती हैं, ये चीजें जो उसकी मानवता से प्रकट होती हैं, वे चीजें जिन्हें वह छूने में सक्षम या अक्षम होता है, और जिन्हें दूसरे लोग देख सकते हैं या नहीं देख सकते या जिनकी व्याख्या नहीं कर सकते? क्या उन्हें किसी के माता-पिता द्वारा सिखाया जाता है? क्या उन्हें स्कूल में पढ़ाया जाता है? या उन्हें समाज द्वारा पोषित किया जाता है? वे कैसे आती हैं? एक बात तो निश्चित है : वे कुछ जन्मजात होती हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? जन्मजात चीजें किससे संबंधित होती हैं? वे किसी व्यक्ति के प्रकृति सार से संबंधित होती हैं। तो उसके लिए इस तरह से सोचना, क्या यह लंबे समय तक चला पूर्व-चिंतन था, या अचानक पैदा हुई सनक थी? क्या वह किसी और को ऐसा करते हुए देखकर प्रेरित हुआ था, या उसे कुछ विशेष परिस्थितियों में ऐसा करने की जरूरत पड़ी थी? या मैंने ऐसा करने का उसे निर्देश दिया था? इनमें से कुछ भी नहीं था। हालाँकि बाहरी तौर पर ये छोटी-छोटी चीजें साधारण लग सकती हैं, लेकिन इनमें से हर चीज के पीछे की प्रकृति असाधारण होती है। क्या ये काम करने वाला व्यक्ति इन कामों को करने के परिणामों का एहसास करने में सक्षम था? वह नहीं था। क्यों नहीं? मान लो कि तुम अपने बॉस को देने के लिए रास्ते के स्टॉल से कोई सस्ता सामान खरीद लेते हो। इसे देने से पहले क्या तुम्हें मामलों का मूल्यांकन नहीं करना चाहिए और खुद से पूछना चाहिए, “क्या बॉस को यह सामान रास्ते के स्टॉल पर मिल सकता है? क्या वह ऑनलाइन जाकर पता लगा सकता है कि इसकी कीमत कितनी है? क्या कोई उसे इसका खुलासा कर सकता है कि इसकी कीमत कितनी है? इसे देखने के बाद वह मेरे बारे में क्या सोचेगा?” क्या ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिनका तुम्हें मूल्यांकन करना होगा? तुम पहले इसका मूल्यांकन करोगे और उसके बाद इसे खरीदोगे। अगर इसका मूल्यांकन करने के बाद तुम्हें लगता है कि इस चीज को उपहार में देने के विपरीत परिणाम होंगे, तो क्या तुम उसे फिर भी दे दोगे? निश्चित रूप से नहीं दोगे। अगर तुम्हें लगता है कि यह सामान बॉस को देना सस्ता पड़ेगा और इससे तुम्हारे बॉस को खुशी होगी, तो तुम निश्चित रूप से इसे दे दोगे। लेकिन कहानी में इस व्यक्ति ने इनमें से किसी भी चीज का मूल्यांकन नहीं किया, तो वह क्या सोच रहा था? वह बस यही सोच रहा था कि अपने इरादे पूरे करने का यही एकमात्र तरीका है। अब इसका विश्लेषण करने पर इस मामले की प्रकृति उभर कर आती है। इस मामले की प्रकृति के माध्यम से क्या देखा जा सकता है? लोगों के संपर्क के माध्यम से देखा जाने वाला दूसरा नतीजा यह है कि उनके हृदय खौफनाक होते हैं। क्या इस बात के बारे में कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऐसे लोग किस तरह के भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करते हैं, चाहे वह जानबूझकर हो या अनिच्छा से? मनुष्य का हृदय इतना खौफनाक क्यों होता है? क्या इसलिए कि यह बहुत असंवेदनशील है? असंवेदनशील व्यक्ति वह होता है जिसमें बोध की कमी होती है। क्या उन्हें असंवेदनशील कहना सही होगा? (नहीं होगा।) तो क्या यह अज्ञानता के कारण होता है? (ऐसा नहीं है।) तो फिर आखिरकार इसका कारण क्या माना जाए? लोगों के दुष्ट स्वभाव को इसका कारण माना जाना चाहिए। मुझे तुम लोगों को बताना है कि लोगों का खौफ कहाँ होता है : यह इस तथ्य में होता है कि उनके हृदयों में राक्षस रहते हैं। तुम सब लोग इस बारे में कैसा महसूस करते हो? मैं क्यों कहता हूँ कि लोगों के हृदयों में राक्षस रहते हैं? तुम लोगों की समझ क्या है? क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि यह एक खौफनाक कथन है? क्या तुम इसे सुनकर भयभीत नहीं होते? तुम लोगों को पहले नहीं लगता था कि तुम लोगों के हृदय में राक्षस रहते हैं; तुम्हें बस लगता था तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है लेकिन तुम्हें नहीं पता था कि तुम्हारे अंदर राक्षस रहते हैं। अब तुम्हें पता चल गया है। क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? क्या तुम लोगों को लगता है कि मैंने सही समझा है? (हाँ, सही समझा है।) क्या यह समस्या की जड़ तक नहीं पहुँचता? (हाँ, पहुँचता है।) इस बात पर विचार करो कि मैंने क्यों कहा कि लोगों के हृदयों में राक्षस रहते हैं। इस बारे में सोचो : क्या अंतरात्मा और विवेक वाला व्यक्ति इस तरह से परमेश्वर को धोखा देगा? क्या यह परमेश्वर के प्रति समर्पण है? यह आँखें तरेरकर परमेश्वर का विरोध करना है और उसके साथ बिल्कुल भी परमेश्वर जैसा व्यवहार नहीं करना है। अब जबकि मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर धरती पर आ चुका है, तो मनुष्य और परमेश्वर के बीच क्या संबंध है? क्या यह वरिष्ठ और अधीनस्थ का है? दोस्ती का है? रिश्तेदारी का है? वास्तव में यह किस तरह का संबंध है? तुम लोग इस संबंध को कैसे सँभालते और देखते हो? परमेश्वर के साथ जुड़ने और उसके साथ मिलकर चलने के दौरान तुम लोगों को किस तरह की मानसिकता रखनी चाहिए? परमेश्वर के साथ मिलकर चलने के लिए तुम्हें अपने हृदय में क्या रखना चाहिए? (भय।) भय सभी को अवास्तविक लगता है। (खौफ।) खौफ को हासिल नहीं किया जा सकता। अगर तुम मेरे साथ एक साधारण व्यक्ति की तरह व्यवहार करते हो—केवल एक परिचित की तरह, एक-दूसरे को अच्छी तरह से नहीं समझते, और अभी तक दोस्त बनने लायक भी नहीं हो—तो हमारे बीच संबंध सौहार्दपूर्ण और दोस्ताना कैसे हो सकता है? अंतरात्मा की समझ रखने वाले व्यक्ति को पता होना चाहिए कि ऐसी चीजें उचित तरीके से कैसे की जाती हैं। (सम्मान की जरूरत होती है।) यह न्यूनतम है जो तुम में होना चाहिए। मान लो कि दो लोग मिलते हैं : वे अभी तक एक-दूसरे से परिचित नहीं हैं और एक-दूसरे के नाम भी नहीं जानते हैं। अगर उनमें से एक देखता है कि दूसरा व्यक्ति भोला है और उसके साथ खेलना चाहता है, तो क्या यह बदमाशी नहीं है? अगर थोड़ा भी सम्मान नहीं है, तो क्या कोई मानवता बची है? लोगों को एक-दूसरे के साथ मिलकर चलने के लिए, चाहे कोई भी विवाद या संघर्ष क्यों न हो, उन्हें कम से कम एक-दूसरे का सम्मान करना ही चाहिए। सम्मान मनुष्य होने का प्राथमिक सामान्य ज्ञान है, और सभी मनुष्यों के बीच थोड़ा-बहुत सम्मान होता है। तो, क्या कोई व्यक्ति परमेश्वर के साथ संवाद करता है तो क्या यह सम्मान तब भी होता है? अगर तुम इस बिंदु तक भी नहीं पहुँच सकते तो वास्तव में तुम्हारे दिमाग में परमेश्वर और तुम्हारे बीच क्या संबंध है? कोई संबंध ही नहीं है, फिर—यहाँ तक कि किसी बाहरी व्यक्ति का भी नहीं। इसलिए जिस व्यक्ति ने उपहार दिए वह परमेश्वर के साथ इस तरह से व्यवहार करने में सक्षम था : न सिर्फ उसने परमेश्वर का सम्मान नहीं किया, बल्कि वह उसे धोखा भी देना चाहता था। अपने हृदय में, उसने यह महसूस नहीं किया कि परमेश्वर का सम्मान किया जाना चाहिए, या उसकी सेहत और उपहार में दी गई चीजों के खाने से होने वाले नतीजों पर सावधानी और सूक्ष्म तरीके से विचार किया जाना चाहिए—यह बातें उसके विचारों के दायरे में नहीं थीं। उसके लिए सिर्फ चालें चलना ही काफी था, ताकि वह परमेश्वर को अपने पक्ष में कर सके; उसके लिए सबसे अच्छी बात परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम होना था। यही उसका हृदय था। क्या मनुष्य के लिए ऐसा हृदय होना भयानक नहीं है? यह खौफनाक है!
कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और बाहरी तौर पर वे उसका अनुसरण करते दिखते हैं। लेकिन अपने हृदय की गहराई में क्या उन्होंने कभी इस बात पर विचार किया है कि उन्होंने कौन सा मार्ग अपनाया है और कितनी कीमत चुकाई है? क्या उन्होंने जाँच की है और यह देखने की कोशिश की है कि क्या उन्होंने परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गए कर्तव्यों को पूरा किया है? परमेश्वर के प्रति अपने व्यवहार में लोगों का रवैया वास्तव में क्या होता है? लोगों द्वारा प्रदर्शित और प्रकट की जाने वाली विभिन्न चीजों और यहाँ तक कि उनकी सबसे अंतरतम साजिशों, परमेश्वर के प्रति उनके व्यवहार में प्रकट होने वाले सभी स्वभावों का उल्लेख न भी करें, तो लोगों ने परमेश्वर के लिए क्या किया है? अपने लिए फायदेमंद चीजों के लिए कीमत चुकाने और पूरी तरह से उन्हीं पर विचार करने के अलावा परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैये क्या हैं और वे उसे क्या अर्पित करते हैं? साजिश, हिसाब-किताब, पहरेदारी और तिरस्कारपूर्ण रवैये के अलावा कुछ नहीं। तिरस्कार एक रवैया है और अगर इसे क्रिया के रूप में व्यक्त किया जाए तो इस रवैये से पैदा होने वाला व्यवहार क्या है? “उपहास करना।” क्या तुमने कभी इस शब्द के बारे में सुना है? (हमने सुना है।) “उपहास” कुछ हद तक औपचारिक शब्द है। बोलचाल की भाषा में हम क्या कहते हैं? हम कहते हैं “चिढ़ाना,” “किसी के साथ चालबाजी करना,” “किसी के साथ मजाक करना।” तुम उन्हें विनम्र लगते हो, तुम निष्कपट लगते हो; उनकी नजर में तुम कुछ भी नहीं हो और वे खुलेआम तुम्हारा उपहास करने की हिम्मत करते हैं—यह किस तरह का स्वभाव है? ऐसे स्वभाव वाले व्यक्ति के लिए, क्या यह कोई देवदूत है जो उसके हृदय में रहता है, या कोई राक्षस? (एक राक्षस।) यह एक राक्षस है। अगर वे परमेश्वर के साथ ऐसा व्यवहार कर सकते हैं, तो वे वास्तव में क्या हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित हो सकते हैं? उदाहरण के लिए, जिस व्यक्ति ने मुझे उपहार भेजे—वह सत्य की खोज नहीं करता, न ही वह परमेश्वर के इरादों को समझता है। उसे इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं है कि परमेश्वर मनुष्य से क्या अपेक्षा रखता है, परमेश्वर क्या देखना चाहता है, या परमेश्वर मनुष्य से क्या प्राप्त करना चाहता है। वह बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई अपने बॉस के साथ बातचीत करता है, इस बात पर ध्यान देता है कि कैसे उसकी चापलूसी करे और उसे धोखा दे, उसके साथ वैसा व्यवहार करे जैसा वह अपने लक्ष्यों को पाने के लिए कर सकता है—ऐसा व्यक्ति वास्तव में किस तरह से जीता है? वह चाटुकारिता करके जीता है, अपने अगुआओं की चापलूसी करके किसी तरह एक घृणित जीवन व्यतीत करता है। उसने मुझे ऐसी “देखभाल” और “दया” की पेशकश क्यों की? वह खुद की मदद नहीं कर सका, है न? क्या वह भविष्यवाणी कर सकता था कि मुझे इस बारे में कैसा महसूस हुआ होगा? (नहीं।) यह सही है; वह नहीं समझा। उसके पास पूरी तरह से एक सामान्य मानव मन की कमी है। न तो वह जानता था और न ही उसे परवाह थी कि मैं उसके व्यवहार और स्वभाव को कैसे महसूस करूँगा, परिभाषित करूँगा या उसका मूल्यांकन करूँगा। उसे किस बात की परवाह है? उसे इस बात की परवाह है कि अपने लक्ष्यों को पाने के लिए वह कैसे मेरी चापलूसी करे और फिर मेरे मन में अपने बारे में अच्छी छाप छोड़े। चीजों को करते समय उसका यही इरादा होता है। यह किस तरह की मानवता है? क्या सच्ची अंतरात्मा और विवेक वाला व्यक्ति ऐसा ही करेगा? तुम इतने सालों से जी रहे हो, इसलिए तुम्हें समझना चाहिए : पहली बात, मुझे तुम्हारी चापलूसी की जरूरत नहीं है। दूसरा, मुझे तुमसे किसी भी चीज की भेंट नहीं चाहिए। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात, तुम्हें समझना चाहिए कि तुम चाहे जो भी करो, चाहे तुम्हारे इरादे और लक्ष्य कुछ भी हों, और तुम जो करते हो उसकी प्रकृति जो भी हो, मैं इन सभी को परिभाषित करता हूँ और निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ। यह ऐसा मामला नहीं है कि तुम कुछ करो और फिर बात खत्म हो जाए; इसके विपरीत मुझे स्पष्ट रूप से देखना होता है कि तुम्हारे इरादे और मकसद क्या हैं। मैं सिर्फ तुम्हारे स्वभाव को देखता हूँ। कुछ लोग शायद कहेंगे, “तुम लोगों के साथ बहुत कठोर हो!” क्या मैं ऐसा हूँ? मुझे ऐसा जरा भी नहीं लगता। ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं बिल्कुल भी कठोर नहीं हूँ, इसलिए कुछ लोग स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। क्या ऐसा नहीं है? जैसे ही कुछ लोग मेरे संपर्क में आते हैं, वे सोचने लगते हैं, “मैं तुम्हें एक सामान्य व्यक्ति के रूप में देखता हूँ। तुम पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं है। तुम बहुत कुछ मेरे जैसे ही हो : तुम भी दिन में तीन बार खाना खाते हो, और मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे पास कोई अधिकार या सामर्थ्य है। मैं तुम्हारे साथ चाहे जैसा व्यवहार करूँ, तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ नहीं होगा। तुम मेरा क्या कर सकते हो?” यह किस तरह की सोच है? यह कहाँ से आती है? यह व्यक्ति के स्वभाव से आती है। लोगों का स्वभाव ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके हृदयों में राक्षस रहते हैं। उनके हृदयों में राक्षसों का वास होते हुए चाहे वे परमेश्वर को कितना भी महान समझें, चाहे वे परमेश्वर की स्थिति को कितना भी महान समझें, चाहे वे यह कितना भी मानें कि परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए सत्य व्यक्त करता है, चाहे वे मौखिक रूप से कितना भी आभार व्यक्त करें, और चाहे वे पीड़ा सहने और कीमत चुकाने की अपनी इच्छा को कैसे भी दर्शाएँ, जब उनका कर्तव्य निभाने का समय आएगा, तो राक्षस उनके हृदयों में हावी हो जाएँगे, और ये राक्षस ही हैं जो काम करना शुरू कर देंगे। तुम लोगों के विचार से, किस तरह का व्यक्ति परमेश्वर को भी धोखा देने और उसका उपहास करने की हिम्मत रखता है? (एक राक्षस।) यह राक्षस ही होता है; यह बात तो निश्चित है।
हमारी पिछली संगति में, शैतान और परमेश्वर के बीच किस संवाद से हम शैतान के स्वभाव को देख सकते हैं? परमेश्वर ने कहा, “शैतान, तू कहाँ से आता है?” शैतान ने क्या जवाब दिया? (“पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ” (अय्यूब 1:7)।) यह किस तरह की बात है? (राक्षसी बात है।) यह राक्षसी बात है! अगर शैतान परमेश्वर को परमेश्वर की तरह मानता, तो वह कहता, “परमेश्वर ने मुझसे पूछा है, इसलिए मैं अच्छे ढंग से कहूँगा कि मैं कहाँ से आया हूँ।” क्या यह समझदारी से बात करना नहीं है? (हाँ।) यह सामान्य मानवीय सोच के अनुरूप एक वाक्य है : एक पूर्ण वाक्य, व्याकरण के अनुरूप और तुरंत समझ में आने वाला। क्या शैतान ने यही कहा? (नहीं।) उसने क्या कहा? “पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ।” क्या तुम लोग इस वाक्य को समझते हो? (नहीं।) यहाँ तक कि अब तक कोई भी इसका मतलब नहीं समझ पाया है। तो शैतान कहाँ से आ रहा था? वह कहाँ इधर-उधर घूमता-फिर रहा था? वह कहाँ से आ रहा था, और किस तरफ जा रहा था? क्या इन सवालों के कोई निर्णायक जवाब हैं? आज तक बाइबल की व्याख्या करने वाले लोग यह पता नहीं लगा पाए हैं कि शैतान वास्तव में कहाँ से आ रहा था, या उसे परमेश्वर के सामने आने और उससे बात करने में कितना समय लगा था; इनमें से कोई भी बात ज्ञात नहीं है। फिर शैतान परमेश्वर के सवाल का ऐसे लहजे और ऐसी भाषा में जवाब कैसे दे पाया? क्या परमेश्वर ने उससे सवाल गंभीरता से किया था? (उसने किया था।) तो क्या उसने इसी तरह से जवाब दिया? (नहीं दिया।) परमेश्वर को जवाब देने में उसने क्या रवैया अपनाया? उपहास का। यह वैसा ही है जैसे जब तुम किसी से पूछते हो, “तुम कहाँ से हो?” और वह जवाब देता है, “अनुमान लगाओ।” “मैं अनुमान नहीं लगा सकता।” वह जानता है कि तुम इसका अनुमान नहीं लगा सकते, लेकिन फिर भी वह तुम्हें अनुमान लगाने को कहता है। वह तुम्हारे साथ बस मजाक कर रहा है। यही वह रवैया है जिसे किसी के साथ खेलना या उसका उपहास करना कहा जाता है। वह ईमानदार नहीं है, और वह नहीं चाहता कि तुम जानो; वह बस तुम्हारे साथ चालें खेलना चाहता है और तुम्हारे साथ मजाक करना चाहता है। शैतान का स्वभाव बिल्कुल ऐसा ही होता है। मैंने कहा कि कुछ लोगों के हृदयों में राक्षस रहते हैं; क्या वे परमेश्वर के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करते? उनके बाहरी दिखावे से, जैसे वे भागते-दौड़ते हैं, काम करते हैं, और कभी-कभी कुछ कष्ट सहते हैं और थोड़ी सी कीमत चुकाते हैं, वे ऐसे लोग नहीं लगते; ऐसा लगता है कि उनके हृदय में परमेश्वर है। लेकिन जिस रवैये से वे परमेश्वर और सत्य के प्रति व्यवहार करते हैं उससे तुम देख सकते हो कि उनके हृदयों में राक्षस रहते हैं, और इसमें सिर्फ वही है। वे परमेश्वर के सवालों का सीधे जवाब भी नहीं दे सकते—वे ऐसे लोग हैं जो तब तक साँपों की तरह गोल-गोल घूमते रहते हैं, जब तक तुम जवाब नहीं पा लेते और उसका सिर-पैर नहीं समझ पाते कि वे क्या कह रहे हैं। आखिर वे किस तरह के लोग हैं? क्या वे परमेश्वर के साथ अपने व्यवहार में ईमानदार हो सकते हैं? जिस तिरस्कार और घृणा के रवैये के साथ वे परमेश्वर के साथ व्यवहार करते हैं, क्या ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों का सत्य के रूप में अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि उनके हृदयों में राक्षस रहते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, वे परमेश्वर के साथ बिल्कुल भी परमेश्वर जैसा व्यवहार नहीं करते।) यही इन लोगों की दुष्टता है। उनकी दुष्टता यह सोचने में निहित होती है कि वे जो परमेश्वर की ईमानदारी, विनम्रता, सामान्यता और व्यावहारिकता को देखते हैं, वे परमेश्वर को सुंदर नहीं बनातीं—लेकिन फिर वे क्या हैं? वे सोचते हैं कि यह परमेश्वर की कमियाँ हैं; कि ये ऐसे क्षेत्र हैं जो लोगों को धारणाओं को जन्म देने की प्रवृत्ति रखते हैं; कि वे जिस परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उसमें ये सबसे बड़ी अपूर्णताएँ हैं; कि ये कमियाँ, समस्याएँ और दोष हैं। ऐसे लोगों को किस तरह से देखा जाना चाहिए? यही वह तरीका और रवैया है जिसके साथ वे परमेश्वर के साथ व्यवहार करते हैं; यह परमेश्वर के लिए अपमानजनक है, लेकिन उनके लिए क्या है? क्या उन्हें इससे कोई फायदा मिलता है? यह उनके लिए भी अपमान है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? एक साधारण व्यक्ति के रूप में अगर कोई तुम्हें खाने के लिए यूँ ही कुछ दे, और तुम उसे ले लो और मूर्ख की तरह मामले के तथ्यों की परवाह किए बिना और यह पूछे बिना कि यह सब क्या है, उसे खा लो, तो क्या इससे पता नहीं लगता कि तुम्हारी मानवता में कुछ कमी है? क्या वह व्यक्ति सामान्य व्यक्ति है जिसकी मानवता में कुछ कमी हो? नहीं। अगर देहधारी मसीह में इस प्रकार की सामान्य मानवता भी नहीं होती, तो क्या वह तब भी किसी के विश्वास के लायक होता? वह नहीं होता। देहधारी परमेश्वर की मानवता के लक्षण क्या होते हैं? उसकी तार्किकता, सोच और अंतरात्मा सबसे सामान्य लक्षण होते हैं। क्या उसके पास न्याय करने की क्षमता होती है? (हाँ।) अगर मेरे पास वह नहीं होती, अगर मैं केवल एक बिखरा हुआ दिमाग होता, जिसमें न तो सामान्य ज्ञान होता, न ही अंतर्दृष्टि, और जब मेरे साथ घटनाएँ घटित होतीं और मैं विचार करने में असमर्थ होता, तो क्या मुझे तब भी एक सामान्य मनुष्य माना जा सकता था? यह दोषपूर्ण मानवता होती, सामान्य मानवता नहीं। क्या ऐसे व्यक्ति को मसीह कहा जा सकता था? जब परमेश्वर ने देहधारण किया, तो क्या वह ऐसा देह चुनता? (नहीं।) निश्चित रूप से नहीं। अगर मैं असावधानी से ऐसा करता, तो क्या ऐसा परमेश्वर, जिसे एक देहधारी परमेश्वर कहा जाता है, अनुसरण करने लायक होता? नहीं, और तुम लोग गलत मार्ग पर बढ़ जाते। मेरे नजरिए से यह एक पहलू है। दूसरी ओर, तुम लोगों के नजरिए से अगर तुम उसे परमेश्वर मानते हो, अपने अनुसरण का विषय मानते हो, और उसके अनुयायी के रूप में तुम उसके साथ इस तरह का व्यवहार करते हो—तो तुम खुद को कहाँ रख रहे हो? क्या यह तुम्हारे लिए अपमानजनक नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम जिस परमेश्वर में विश्वास करते हो, वह तुम्हारी नजर में तुम्हारे सम्मान के इतने अयोग्य है, फिर भी तुम अभी भी उस पर विश्वास करते हो, तो इससे तुम क्या बन जाते हो? क्या तुम भ्रमित हो? क्या तुम एक भ्रमित अनुयायी हो? क्या तुम खुद को अपमानित नहीं कर रहे होगे? (हम कर रहे होंगे।) लेकिन अगर तुम सोचते हो कि उसमें सामान्य मानवता के ये सभी पहलू हैं कि वह देहधारी परमेश्वर है, और तुम फिर भी ऐसा ही करते हो, तो क्या तुम परमेश्वर का अपमान नहीं कर रहे हो? दोनों नजरिए मान्य हैं। तुम समस्या को देख सकते हो, चाहे तुम इसे परमेश्वर के नजरिए से देखो या मनुष्य के नजरिए से—और यहाँ समस्या गंभीर है! क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) मनुष्य के नजरिए से, अगर तुम उसे परमेश्वर मानते हो और फिर उसके साथ ऐसा व्यवहार करते हो, तो तुम खुलेआम परमेश्वर का अपमान कर रहे हो। अगर तुम सोचते हो कि वह परमेश्वर नहीं बल्कि एक मनुष्य है, लेकिन फिर भी तुम उसका अनुसरण करते हो, तो क्या यह विरोधाभास नहीं होगा? क्या तुम खुद का अपमान नहीं कर रहे होगे? इन दो पहलुओं पर विचार करो; क्या मैं सही हूँ? क्या ऐसा नहीं है? लोग इन चीजों के बारे में क्यों नहीं सोच पाते? वे अभी भी इस तरह से क्यों कार्य करते हैं? क्या यह केवल इसलिए है क्योंकि वे सत्य को नहीं समझते? आओ हम इसमें बहुत गहराई से न जाएँ; इसे केवल काबिलियत के नजरिए से देखें, तो वे नासमझ मूर्ख हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वे नासमझ हैं? मैं किस समझ की बात कर रहा हूँ? यह सोचने के बारे में है। बिना सोचे-समझे, बिना भले-बुरे का विचार किए, जो तुम कर रहे हो या तुम्हें कुछ करना चाहिए या नहीं, उसकी प्रकृति जाने बिना कुछ भी करना नासमझ होना है। किस तरह की चीज में दिमाग नहीं होता? जानवरों और वहशियों के पास दिमाग नहीं होता, लेकिन इंसान इन चीजों पर विचार करेंगे। लोग पल-भर के आवेग में आकर बेवकूफी कर सकते हैं, लेकिन अगर वे बार-बार वही बेवकूफी करते हैं, तो उन्हें नासमझ कहा जा सकता है। नासमझ व्यक्ति वह होता है जिसकी बुद्धि कमजोर होती है या बोलचाल की भाषा में कहें तो वह व्यक्ति जिसका पेंच ढीला हो जाता है। लेकिन उसका स्वार्थ बहुत ज्यादा होता है, और उसकी धूर्त चालें जरा भी कम नहीं होती हैं, इसी वजह से मैं कहता हूँ कि लोगों के दिलों में राक्षस रहते हैं।
क्या तुम सभी लोग सोचते हो कि उपहार देने के मुद्दे को संगति के लिए उठाना राई का पहाड़ बनाना है? अगर मैंने इस पर संगति नहीं की होती और बस यूँ ही इसका जिक्र कर दिया होता, तो क्या इसे सुनने के बाद तुम लोगों पर इसका ऐसा असर होता? (नहीं होता।) ज्यादा से ज्यादा इसे सुनने के बाद तुम लोगों ने सोचा होता, “यह व्यक्ति ऐसा कैसे कर सकता है? मैं इस तरह की चीजें नहीं करता; वाकई हर तरह के लोग होते हैं!” ज्यादा से ज्यादा, तुम लोगों ने यही सोचा होता। तुम शायद इसके बारे में थोड़ी बात करते, और बस इतना ही—लेकिन क्या तुम्हें इसकी इतनी गहरी समझ होती? (नहीं।) तुम्हें इसकी इतनी गहरी समझ नहीं होती। तो, मेरे वचन तुम लोगों को क्या फायदा पहुँचाते हैं? तुम लोगों को कौन-सा सत्य प्राप्त हुआ है? सबसे पहले, मुझे तुम लोगों को याद दिलाना है : मनुष्य और परमेश्वर के बीच किस तरह का रिश्ता स्थापित करना सबसे अच्छा होता है? जब कोई परमेश्वर तक पहुँचता है, जब वह उसके साथ निकट संपर्क में होता है, तो उसे परमेश्वर के साथ कैसे घुलना-मिलना चाहिए? क्या इसके लिए सिद्धांत खोजना जरूरी नहीं है? (हाँ।) इसके अलावा, इतने सालों से परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद लोगों के दैनिक जीवन में ऐसी कौन सी घटनाएँ हुई हैं जो कहानी में उस व्यक्ति के समान प्रकृति की हैं? क्या ये प्रश्न विचार करने लायक नहीं हैं? क्या कोई सबक सीख सकता है और कह सकता है, “परमेश्वर मामूली गलतियों को भी बर्दाश्त नहीं करता, इसलिए यह बेहद गंभीर है। बेहतर है कि हम उसके पास न जाएँ, उसके साथ निकट संपर्क न रखें, या उसके साथ व्यवहार न करें—उसके साथ तुच्छ व्यवहार नहीं करना चाहिए! अगर तुम गड़बड़ करते हो, तो वह इस मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करेगा और तुम खुद को गंभीर संकट में डाल लोगे। मैं निश्चित रूप से उसे कुछ नहीं देने वाला!”? क्या इस तरह सोचना स्वीकार्य है? (नहीं।) वास्तव में, तुम लोगों को चिंता करने की जरूरत नहीं है : हमें निकट संपर्क बनाने के लिए बहुत ज्यादा अवसर नहीं मिलते, और हमें एक-दूसरे के साथ बातचीत करने के और भी कम पल मिलते हैं, इसलिए यह ऐसा मामला नहीं है जिसके बारे में तुम लोगों को चिंता करनी चाहिए। अगर मैं किसी दिन तुम लोगों से बातचीत करता हूँ, तो चिंता मत करो; मैं तुम्हें एक रहस्य बताऊँगा। चाहे तुम लोग मेरे साथ घुल-मिलकर चलो या अकेले में प्रार्थना करो और खोज करो, सबसे बड़ा रहस्य क्या है? तुम जो भी करो, मेरे साथ प्रतियोगिता न करो; अगर तुम्हारी प्रवृत्ति लड़ाकू है, तो मुझसे दूरी बनाए रखो। कुछ लोग हैं जो बहुत धूर्तता से बात करते हैं, पलक झपकते ही कई साजिशें रच लेते हैं, और उनका बोला गया हर वाक्य अशुद्धता से भरपूर होता है; अगर वे ज्यादा बोलते हैं, तो तुम नहीं जान पाओगे कि कौन से शब्द सच हैं और कौन से झूठ। ऐसे लोगों को कभी मेरे पास नहीं आना चाहिए। जब तुम परमेश्वर के संपर्क में आते हो और उससे संवाद करते हो, तो वह सबसे महत्वपूर्ण काम क्या है जो तुम्हें करना चाहिए और वह सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत क्या है जिसका तुम्हें पालन करना चाहिए? परमेश्वर के साथ अपने व्यवहार में ईमानदार हृदय रखना। साथ ही, सम्मान करना सीखो। सम्मान विनम्रता नहीं है; यह चापलूसी या पक्षपात नहीं है, न ही यह कृतघ्नता या चाटुकारिता है। तो वास्तव में यह क्या है? (यह परमेश्वर के साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार करना है।) परमेश्वर के साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार करना प्रमुख सिद्धांत है। इसके विवरण क्या हैं? (परमेश्वर को सुनना सीखो।) यह अभ्यास का एक पहलू है। कुछ लोग मेरे संपर्क में आते हैं, और वे मेरी बात काटने लगते हैं, इसलिए मैं आगे बोलने से पहले उन्हें अपनी बात खत्म करने देता हूँ। और जब मैं बोल रहा होता हूँ तो वे मेरे साथ कैसा व्यवहार करते हैं? वे आँखें बंद करके सुनते हैं। इसका क्या मतलब है? यह ऐसा है जैसे कह रहे हों, “तुम जो कह रहे हो वह बकवास है। तुम क्या जानते हो?” यही उनका रवैया होता है। हो सकता है कि मैं सब कुछ नहीं जानता हूँ, लेकिन मेरे पास सिद्धांत हैं, और मैं तुम्हें बताता हूँ कि मैंने क्या सीखा है, क्या देखा है, और क्या समझ सकता हूँ, साथ ही मैं जो सिद्धांत जानता हूँ, वह भी बताता हूँ, और तुम इससे बहुत कुछ हासिल कर सकते हो। लेकिन तुम हमेशा मुझ पर सरसरी नजर डालते रहोगे, यह सोचते रहोगे कि मैं कुछ नहीं जानता, और तुम मेरी बात ध्यान से नहीं सुनोगे, तो तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा—तुम्हें बस खुद ही अपने लिए चीजों का पता लगाना होगा। क्या ऐसा ही नहीं होता? इसलिए, तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों को सुनना सीखना होगा। जब तुम लोग सुनते हो, तो क्या मैं तुम लोगों को अपने विचार व्यक्त करने में सीमित करता हूँ? मैं नहीं करता। एक बार जब मैं बोलना खत्म कर लेता हूँ, तो मैं तुम सभी लोगों से पूछता हूँ कि क्या तुम्हारे कोई प्रश्न हैं, और अगर किसी के पास होते हैं, तो मैं तुरंत उसका उत्तर देता हूँ और तुम लोगों को उन प्रश्नों में शामिल सिद्धांतों को बताता हूँ। कभी-कभी मैं तुम लोगों को सिर्फ सिद्धांत नहीं बताता, बल्कि पहलू का विवरण देते हुए मैं तुम लोगों को सीधे बताता हूँ कि तुम्हें क्या करना चाहिए। हालाँकि कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनकी मुझे समझ नहीं है, मेरे अपने सिद्धांत हैं, और ऐसे मामलों को सँभालने के मेरे अपने विचार और तरीके हैं, इसलिए मैं तुम लोगों को उन विचारों और सिद्धांतों के आधार पर सिखा रहा हूँ जो मुझे सही लगते हैं। तो ऐसा क्यों है कि मैं तुम लोगों को सिखा पा रहा हूँ? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोग इन चीजों को समझते ही नहीं हो। एक बार इन प्रश्नों के उत्तर दिए जाने के बाद मैं फिर से पूछूँगा कि क्या कोई और प्रश्न हैं; अगर हैं, तो मैं बिना देर किए एक बार फिर उनका उत्तर दूँगा। मैं नहीं चाहता कि तुम सिर्फ मेरी बात सुनो; मैं तुम्हें बोलने का अवसर देता हूँ, लेकिन तुम जो कहो वह तर्कसंगत होना चाहिए—कोई बकवास नहीं, और समय की कोई बर्बादी नहीं। कभी-कभी अधीरता के चलते मैं कुछ लोगों को बीच में ही रोक देता हूँ। किन परिस्थितियों में? ऐसा तब होता है जब वे बहुत लंबी-चौड़ी बातें करते हैं, पाँच वाक्यों में कही जा सकने वाली बात को दस वाक्यों में कहते हैं। वास्तव में, मैं उन्हें सुनते ही समझ जाता हूँ; मुझे पता होता है कि आगे वे क्या कहेंगे, इसलिए उन्हें और कुछ कहने की जरूरत नहीं होती। संक्षिप्त और मुद्दे पर रहो; दूसरों का समय बर्बाद न करो। जब तुम बोलना खत्म कर लोगे, तो मैं तुम्हें जवाब दूँगा, और तुम्हें बताऊँगा कि क्या करना है और इसे किन सिद्धांतों के अनुसार करना है। बात यहीं पर खत्म हो जानी चाहिए, है न? लेकिन कुछ लोग इसे भाँप नहीं पाते, और कहते हैं, “नहीं, तुम्हें मेरा सम्मान करना होगा; हमारा सम्मान दोनों तरफ से होता है। तुमने बोलना खत्म कर दिया है, लेकिन मैंने अपना दृष्टिकोण पूरी तरह से व्यक्त नहीं किया है। मेरा दृष्टिकोण यह है—मुझे फिर शुरुआत से शुरू करना होगा।” वे हमेशा इस विश्वास के साथ अपने विचार व्यक्त करना चाहते हैं कि मैं उनके बारे में नहीं जानता, जबकि वास्तव में जैसे ही वे बोलना शुरू करते हैं, मैं जान जाता हूँ कि उनके विचार क्या हैं—तो क्या उन्हें बोलते रहने की कोई जरूरत है? कोई जरूरत नहीं है। कुछ लोगों में IQ इतना कम होता है कि उन्हें दो वाक्यों के लायक किसी मामले में दस वाक्यों की जरूरत पड़ती है, और जब तक मैं उन्हें बीच में नहीं रोकता, वे बोलते रहते हैं। बाकी सभी लोग समझ गए; क्या मैं अभी भी नहीं समझा? लेकिन फिर भी वे खुद को व्यक्त करना चाहते हैं, इसलिए ऐसा नहीं है कि केवल उनका IQ कम है—उनकी सूझ-बूझ भी कमजोर है! क्या तुम लोग कभी ऐसे लोगों से मिले हो? (हाँ।) वे सोचते हैं कि वे होशियार हैं, भले ही उनके पास खराब सूझ-बूझ और कम IQ हो। क्या यह घिनौना नहीं है? यह घृणित और घिनौना है। जब लोग परमेश्वर के संपर्क में आते हैं, तो पहली बात यह है कि वे उसके साथ ईमानदार हृदय से पेश आएँ; दूसरी बात यह है कि लोग सम्मान करना जरूर सीखें; और तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे सत्य की खोज करना सीखें। क्या यह सबसे महत्वपूर्ण नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम सत्य की खोज नहीं करते, तो परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? उस पर विश्वास करने का मूल्य ही क्या है? इसमें समझदारी कहाँ है? यह ऐसी बात है जिसे ज्यादातर लोग नहीं समझ पाते, तो फिर इस मुद्दे को क्यों उठाना? यह भविष्य के लिए तैयारी है; तुम लोगों को इस तरह से अभ्यास करना सीखना होगा जब भविष्य में तुम्हारे साथ इस तरह की चीजें हों।
कलीसिया में मैं कई लोगों के संपर्क में आया, जिनमें से कुछ को मैंने कुछ काम सौंपे। कुछ दिन बाद उन्होंने मुझे फीडबैक दिया, मुझे दिखाया कि उन्होंने मेरे द्वारा सौंपे गए हर काम को नोट कर लिया है, और अब वे उनमें से हर एक को लागू करने की प्रक्रिया में हैं। जब वे मुझसे मिले, तो उन्होंने काम की प्रगति के बारे में मुझे बताया, कि किन मुद्दों पर खोज की जरूरत है, और किन पर अभी भी परिणाम आने बाकी हैं, और मुझे पूरी जानकारी दी। उन्होंने विवरण बहुत स्पष्ट रूप से समझाया, और हालाँकि कभी-कभी वे थोड़े मामूली भी थे, लेकिन उनके रवैये से पता चलता था कि वे परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने व्यवहार में गंभीर और जिम्मेदार थे, और उन्हें पता था कि उनकी जिम्मेदारियाँ, कर्तव्य और दायित्व क्या हैं। कुछ लोग अलग थे : मैंने उन्हें दो काम सौंपे थे और उन्होंने उन्हें अपनी नोटबुक में लिख लिया था, लेकिन एक हफ्ते बाद जब उन्होंने अभी भी कुछ भी लागू नहीं किया था, तो उन्हें केवल तभी याद आया जब मैंने उनसे इसके बारे में पूछा—और फिर उन्होंने इसे फिर से अपनी नोटबुक में लिख लिया। एक और सप्ताह के बाद जब मैंने उनसे पूछा कि यह मामला अभी तक क्यों नहीं पूरा हो पाया है, तो उन्होंने बहाने बनाए, इस मुश्किल और उस परेशानी का हवाला दिया, फिर से अपनी नोटबुक में सब कुछ पूरी लगन से लिख लिया। उन्होंने सब कुछ कहाँ लिखा? (अपनी नोटबुक में।) लेकिन उन्होंने अपने मन में कुछ भी नहीं लिखा। क्या यह गलत व्यक्ति को कुछ सौंपना नहीं है? ये लोग इंसान नहीं हैं। मैंने उन्हें जो कुछ भी सौंपा, वह एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकल दिया—उन्होंने इसे बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लिया। किसी खास पेशे या सामान्य मामलों से संबंधित सभी कार्य—साथ ही कलीसिया के काम से संबंधित कुछ मामले—जो मैं लोगों को सौंपता हूँ, वे उनके द्वारा प्राप्त किए जा सकने वाले दायरे में होते हैं; उनमें से किसी का भी मकसद उनके लिए चीजों को कठिन बनाना नहीं होता। हालाँकि, अक्सर जब मैंने अगुआओं और कार्यकर्ताओं को काम सौंपे, तो उनमें से ज्यादातर ने आदेश लेने के बाद मुझे रिपोर्ट नहीं दी, और मुझे काम की स्थिति के बारे में कुछ भी सुनने को नहीं मिला। यह व्यवस्थित था या नहीं, यह कैसे किया गया, क्या गलतियाँ हुईं, वर्तमान परिणाम क्या हैं—उन्होंने इनमें से किसी के बारे में कभी रिपोर्ट नहीं दी या खोज में शामिल नहीं हुए। उन्होंने बस अपने आदेशों को एक तरफ रख दिया, और मुझे किसी भी परिणाम के बारे में सुनने को भी नहीं मिला। कुछ लोगों के साथ तो और भी गंभीर समस्या थी, कि मैंने जो काम उन्हें सौंपा था, उसे अमल में लाने में नाकाम रहने के अलावा वे मेरी चापलूसी करने और मुझे धोखा देने के लिए भी आए, मुझे बताते रहे कि वे कल कहाँ गए थे और उन्होंने क्या किया था, उन्होंने उससे एक दिन पहले क्या किया था, और वे अब क्या कर रहे हैं। देखो कि वे दिखावा करने और कुतर्क करने में कितने अच्छे थे—उन्होंने मेरे द्वारा विशेष रूप से सौंपे गए कामों में से कुछ भी नहीं किया, इसके बजाय वे बेकार के कामों में व्यस्त रहे जबकि महत्वपूर्ण काम पूरी तरह से अव्यवस्थित पड़ा रहा। यह किस तरह का व्यवहार था? उन्होंने अपने उचित कार्यों की पूरी तरह से उपेक्षा की, और वे झूठ और धोखे से भरे हुए थे!
एक व्यक्ति पौधे लगाने का प्रभारी था। मैंने उससे पूछा, “इस साल कुछ साग अच्छे दिख रहे हैं। क्या तुमने बीज बचाकर रखे हैं?” “मैंने बचाए हैं,” उसने जवाब दिया। मैंने कहा, “मैंने सुना कि उन्होंने कुछ समय पहले सारा साग काट लिया था और कोई बीज नहीं बचाया था।” उसने कहा, “उन्होंने फसल की कटाई पूरी नहीं की है। अभी भी कुछ बचा हुआ है!” मैंने फिर पूछा, “बचा हुआ साग कहाँ है? मुझे दिखाओ।” उसने कहा, “ओह? ठीक है... मुझे पहले जाकर देखने दो।” क्या उसने वास्तव में कोई बीज बचाए थे या नहीं? उसने नहीं बचाए थे। उसने जो कुछ शब्द कहे, उनमें क्या उसका पहला कथन “मैंने बचाए” झूठ था? (हाँ।) और उसका दूसरा कथन, “उन्होंने फसल की कटाई पूरी नहीं की है। अभी भी कुछ बचा हुआ है!”—क्या वह झूठ नहीं था? उसे नहीं पता था कि उन्होंने बीज बचाए भी हैं या नहीं, और उसने कह दिया था, “मुझे पहले जाकर देखने दो।” तो तीसरा कथन एक और झूठ था। बयान दर बयान झूठ और भी गंभीर होता गया; वह झूठ पर झूठ बोलता गया, जो धीरे-धीरे और गहरा होता गया—एक के बाद एक झूठ! क्या तुम सभी लोग ऐसे व्यक्ति से बातचीत करने के लिए तैयार होगे जो झूठ पर झूठ बोलते हों? (नहीं।) झूठ से भरे हुए लोगों से बात करने और उनके साथ काम करने पर तुम्हें कैसा लगता है? क्या तुम्हें गुस्सा आता है? उसके पास किसी को भी धोखा देने की हिम्मत थी; अगर उसे लग रहा था कि मैं नहीं जानता तो वह गलत था! क्या मामला धोखे के लायक हो सकता है? इतना धोखेबाज बनकर उसे क्या हासिल हुआ? अगर तुम उसके काम करने के तरीके में यह रवैया देखते, अगर वह तुम्हारे साथ इसी तरह से पेश आता, तो तुम्हें कैसा लगता? अगर मूल रूप से किसी व्यक्ति द्वारा कही गई 99 प्रतिशत बातें झूठ हैं, तो चाहे वह व्यक्ति गपशप कर रहा हो या काम या गंभीर मामलों के बारे में बात कर रहा हो, या सत्य पर संगति कर रहा हो, तो ऐसे व्यक्ति से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। वह किसी को भी धोखा दे सकता है; इससे वह क्या बनता है? उसने कितने समय से परमेश्वर पर विश्वास किया है? कुछ अविश्वासी हमेशा कहते रहते हैं, “जहाँ तक मुझे पता है,” या, “दिल से बोल रहा हूँ,” और इस आधार पर वे कुछ सच कह रहे होते हैं। वह व्यक्ति इतने सालों तक परमेश्वर पर विश्वास करता रहा, और उसने इतने सारे उपदेश सुने, लेकिन वह सत्य का एक भी शब्द नहीं बोल सका; उसने जो कुछ भी कहा वह सब झूठ था। तो फिर वह किस तरह का प्राणी है? क्या यह घिनौना और घृणित नहीं है? क्या ऐसे बहुत से लोग हैं? क्या तुम लोग ऐसे हो? जब तुम लोग मेरे साथ बातचीत करते हो, तो तुम किन परिस्थितियों में मुझसे झूठ बोलोगे? अगर तुम्हारी वजह से कोई आपदा आई है, और तुम जानते हो कि इसके परिणाम गंभीर हैं और तुम्हें निष्कासित किया जा सकता है, तो जैसे ही दूसरे लोग इसका उल्लेख करते हैं, तुम इसे छिपाने के लिए झूठ बोलते हो। कोई भी इस तरह की बात के बारे में झूठ बोल सकता है। लोग और किस बारे में झूठ बोल सकते हैं? अपनी छवि को बढ़ाने और दूसरों द्वारा उच्च सम्मान पाने के लिए झूठ बोलना। फिर ऐसे लोग होते हैं जो जानते हैं कि वे अपने काम में अक्षम हैं, लेकिन वे ऊपरवाले को स्पष्ट रूप से नहीं बताते हैं, उन्हें डर होता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा। ऊपरवाले को अपना काम बताते समय, वे समस्या को ठीक करने के तरीके खोजने का दिखावा करते हैं, जिससे दूसरों पर गलत छाप पड़ती है। वे जो कुछ भी कहते हैं वह सब झूठ होता है, और वे काम करने में मूल रूप से अक्षम होते हैं। अगर वे कुछ सवाल नहीं पूछते, तो उन्हें डर लगता है कि ऊपरवाला उनकी विसंगतियों को पहचान लेगा और उन्हें बदल देगा, इसलिए वे जल्दबाजी में ढोंग रचते हैं। झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों की मानसिकता ऐसी ही होती है।
परमेश्वर के साथ बातचीत करने के तीन सिद्धांतों पर चिंतन करो, जिन पर मैंने अभी-अभी संगति की है। इनमें से कौन सा सिद्धांत तुम लोग लागू नहीं कर सकते और कौन सा सिद्धांत तुम्हारे लिए हासिल करना आसान है? वास्तव में, उनमें से किसी को भी सही मायने में लागू करना आसान नहीं है, क्योंकि राक्षस लोगों के हृदयों में बसते हैं। तुम उन्हें तब तक हासिल नहीं कर पाओगे, जब तक तुम अपने हृदय से राक्षस को बाहर नहीं निकाल देते। तुम्हें अपने हृदय में मौजूद राक्षस से लड़ना होगा और अगर तुम हर बार उस पर विजय पा सकते हो, तो तुम उन्हें हासिल कर सकते हो। अगर हर बार तुम असफल होते हो और उसके चंगुल में फँस जाते हो, तो तुम उन्हें हासिल नहीं कर पाओगे; तुम किसी भी सिद्धांत को लागू नहीं कर पाओगे। अगर तुम लोग इन तीनों को पूरा कर सकते हो, तो न केवल मेरे साथ घुलते-मिलते या मुझसे बातचीत करते समय बल्कि भाई-बहनों के साथ अपनी नियमित बातचीत में भी तुम लोग इन सिद्धांतों का पालन करते हो, तो क्या इससे हर कोई लाभान्वित नहीं होगा? (हाँ।) अब जब कि यह कहानी खत्म हो गई है, तो चलो मुख्य विषय पर आते हैं।
मसीह-विरोधियों के दुष्ट, धूर्त और कपटी होने का गहन-विश्लेषण
पिछली बार हमने मसीह-विरोधियों की सातवीं अभिव्यक्ति—वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं—के बारे में संगति की थी। इस मुद्दे पर लगभग दो बार संगति की जा चुकी है। पहली चर्चा मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति पर थी—उस चर्चा में किस बात पर जोर दिया गया था? (सत्य के प्रति शत्रुभाव रखना और उससे घृणा करना।) मसीह-विरोधी सत्य के प्रति शत्रुभाव रखते हैं और उससे घृणा करते हैं, वे उन सभी सकारात्मक चीजों से घृणा करते हैं जो सत्य और परमेश्वर के अनुरूप हों, जो मसीह-विरोधियों की दुष्टता की पहली और प्राथमिक अभिव्यक्ति है। पहली चर्चा इस बारे में थी कि मसीह-विरोधी किस चीज से घृणा करते हैं। सामान्य लोग नकारात्मक चीजों और दुष्ट शक्तियों से घृणा करते हैं; वे उन चीजों से घृणा करते हैं जो गंदी, कालिमामय और दुष्ट हैं। परंतु, इसके विपरीत, किसी मसीह-विरोधी की दुष्ट प्रकृति की पहली अभिव्यक्ति का सबसे सुदृढ़ साक्ष्य यह होता है कि वे नकारात्मक चीजों से घृणा नहीं, बल्कि सत्य और परमेश्वर से संबंधित सभी सकारात्मक चीजों से घृणा करते हैं, जो उनकी दुष्टता का पहला सुदृढ़ साक्ष्य है। हमारी दूसरी चर्चा मसीह-विरोधियों की दुष्टता की अभिव्यक्ति से संबंधित दूसरे सुदृढ़ साक्ष्य के बारे में थी। यदि वे सकारात्मक चीजों से घृणा करते हैं, तो वे प्रेम किससे करते हैं? (नकारात्मक चीजों से।) सामान्य मानवता वाले लोग क्या पसंद करते हैं? वे मानवता से संबंधित प्रेम, धैर्य और सहिष्णुता के साथ न्याय, दयालुता और सौंदर्य, साथ ही सहज समझ और लोगों के लिए फायदेमंद सकारात्मक ज्ञान, और परमेश्वर से मिली सभी सकारात्मक चीजें पसंद करते हैं जिनमें परमेश्वर द्वारा सभी चीजों के लिए स्थापित कानून और नियम, परमेश्वर के कानून और प्रशासनिक आदेश, और परमेश्वर द्वारा व्यक्त जीवन के सभी सत्य और तरीकों के साथ-साथ परमेश्वर से संबंधित अन्य चीजें शामिल हैं। मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव इसके उलट चलता है; उन्हें ये चीजें पसंद नहीं हैं—उन्हें क्या पसंद हैं? (झूठ और प्रवंचना।) ठीक कहा, वे षड्यंत्र, साजिशें, सांसारिक लेनदेन के विभिन्न साधन, चापलूसी करने, व तलवे चाटने वाले लोग, और कलह, रुतबा और अधिकार के साथ-साथ झूठ और प्रवंचना पसंद करते हैं। वे सत्य और सकारात्मक चीजों के विरुद्ध जाने वाली इन सभी नकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, जो मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति का सटीक प्रदर्शन करता है। क्या ये साक्ष्य प्रभावी नहीं हैं? (हाँ, हैं।) हालाँकि ये सभी साक्ष्य प्रभावी हैं, किंतु ये केवल दो ही भाग हुए हैं जिन्हें पूर्ण नहीं माना जा सकता है। आज हम तीसरे भाग—मसीह-विरोधी दुष्ट, धूर्त और कपटी कैसे हैं—पर चर्चा करना जारी रखेंगे। यह तीसरा भाग पहले और दूसरे भाग से अलग जरूर है, लेकिन उन्हीं से संबंधित है। यह किस प्रकार संबंधित है? तीनों भाग एक ही सार—मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति—पर चर्चा करते हैं। यह किस प्रकार अलग है? इस भाग में, उनकी दुष्ट प्रकृति को किस चीज से प्रेम है और किस चीज की जरूरत है के साथ-साथ वे किन चीजों से नफरत करते हैं, आदि बातें पिछले दो भागों में हुई चर्चा से भिन्न हैं—इसकी सामग्री अलग है। इस अंतर का मतलब यह नहीं है कि मसीह-विरोधियों को कुछ सकारात्मक चीजें भी पसंद होती हैं या वे कुछ नकारात्मक चीजों से नफरत भी करते हैं; बल्कि इसमें एक और अंश शामिल है, जो सिर्फ इस बारे में नहीं है कि उन्हें क्या पसंद हैं या उनकी क्या जरूरत है, बल्कि इसे उस स्तर तक उठाया गया है कि मसीह-विरोधी दुष्ट शक्तियाँ किसका सम्मान करती हैं—दूसरे शब्दों में कहें तो वे किसकी आराधना या प्रशंसा करते हैं। कुछ लोग कह सकते हैं, “‘सम्मान’, ‘आराधना’ और ‘प्रशंसा’ जैसे शब्दों का उपयोग सकारात्मक चीजों की व्याख्या के लिए किया जाना चाहिए, तो उन्हें मसीह-विरोधियों पर कैसे लागू किया जा सकता है? क्या ये शब्द उचित हैं?” ये शब्द न तो सराहना के अर्थ में हैं और न ही अपमानजनक हैं—ये तटस्थ हैं। इसलिए, यहाँ इनका उपयोग करना किसी भी सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता है और स्वीकार्य है।
III. उन चीजों का गहन-विश्लेषण जिनकी मसीह-विरोधी आराधना और प्रशंसा करते हैं
मसीह-विरोधी किस चीज की आराधना और प्रशंसा करते हैं? सबसे पहले, यह तो निश्चित है कि वे सत्य की, परमेश्वर की या परमेश्वर से जुड़ी किसी भी सुंदर या अच्छी चीज की आराधना नहीं करते। तो, वे वास्तव में किसकी आराधना करते हैं? क्या तुम लोग ऐसी किसी चीज के बारे में सोच सकते हो? मैं तुम लोगों को एक संकेत देता हूँ। धर्म मानने वाले लोग जो प्रभु में विश्वास करते हैं, ईसाइयत में कैसे डूब गए? अब उन्हें परमेश्वर की कलीसिया, परमेश्वर के घर या परमेश्वर के कार्य की वस्तु के रूप में न पहचानकर एक धर्म, एक पंथ के रूप में क्यों पहचाना जाता है? उनके पास धार्मिक शिक्षाएँ हैं; वे परमेश्वर के किए कार्यों और उसके बोले वचनों को पुस्तक के रूप में संकलित करते हैं, शिक्षण सामग्री के रूप में संकलित करते हैं, और फिर स्कूल खोलते हैं, और विभिन्न धर्मशास्त्रियों की भर्ती करते हैं और उन्हें प्रशिक्षित करते हैं। ये धर्मशास्त्री किस चीज का अध्ययन करते हैं? क्या वे सत्य का अध्ययन करते हैं? (नहीं।) फिर वे किस चीज का अध्ययन करते हैं? (धर्मशास्त्रीय ज्ञान का।) वे धर्मशास्त्रीय ज्ञान और सिद्धांतों का अध्ययन करते हैं, जिनका परमेश्वर के कार्य या परमेश्वर द्वारा बोले गए सत्यों से कोई लेना-देना नहीं है। वे परमेश्वर के वचनों और पवित्र आत्मा के कार्य को धार्मिक ज्ञान से प्रतिस्थापित कर देते हैं, और इस तरह वे ईसाइयत या कैथोलिक धर्म में डूब जाते हैं। धर्म में किस चीज का सम्मान किया जाता है? यदि तुम किसी कलीसिया में जाओ और कोई तुमसे पूछे कि तुम कितने समय से परमेश्वर में विश्वास करते हो, और तुम कहो कि तुमने अभी-अभी विश्वास करना शुरू किया है, तो वे तुम पर कोई ध्यान नहीं देंगे। लेकिन यदि तुम बाइबल लेकर जाते हो और कहो कि “मैंने अभी-अभी फलां धर्मशास्त्रीय सेमिनेरी से स्नातक किया है,” तो वे तुम्हें सम्मानपूर्वक स्थान ग्रहण करने के लिए आमंत्रित करेंगे। यदि तुम एक सामान्य विश्वासी हो, तो जब तक कि तुम्हारी कोई खास सामाजिक हैसियत न हो, वे तुमसे परेशान नहीं होंगे। यही है ईसाई धर्म और ऐसी ही है धार्मिक दुनिया। कलीसियाओं में जो लोग उपदेश देते हैं और जिनके पास रुतबा, पद और प्रतिष्ठा है, वे धर्मशास्त्रीय सेमिनेरियों से धार्मिक ज्ञान और सिद्धांतों का प्रशिक्षण प्राप्त लोगों का एक समूह हैं, और वे दरअसल ईसाई धर्म का मुख्य निकाय हैं। ईसाई धर्म ऐसे लोगों को मंच पर जाकर उपदेश देने, सुसमाचार फैलाने और हर जगह काम करने के लिए प्रशिक्षित करता है। उनका मानना है कि धर्मशास्त्र के इन छात्रों, उपदेशक पादरियों और धर्मशास्त्रियों जैसी प्रतिभाओं की वजह से ही ईसाई धर्म का अब तक अस्तित्व में बने रहना सुनिश्चित हो सका है, और यही लोग ईसाई धर्म के अस्तित्व का मूल्य और पूँजी बनते हैं। यदि किसी कलीसिया का पादरी धर्मशास्त्रीय सेमिनेरी से स्नातक है, वह बाइबल पर अच्छी तरह से चर्चा करता है, उसने कुछ आध्यात्मिक किताबें पढ़ी हैं, उसके पास कुछ ज्ञान और वाक्पटुता है, तो उस कलीसिया में आने वालों की संख्या बढ़ेगी और वह कलीसिया दूसरे कलीसियाओं की तुलना में बहुत अधिक प्रसिद्ध हो जाएगी। ईसाई धर्म के ये लोग किस चीज का सम्मान करते हैं? ज्ञान का, धर्मशास्त्रीय ज्ञान का। यह ज्ञान आता कहाँ से है? क्या यह प्राचीन काल से आने वाली पीढ़ियों को हस्तांतरित नहीं किया जा रहा है? प्राचीन काल से ही धर्मशास्त्र मौजूद रहे हैं जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाया जाता रहा है और यही वह तरीका है जिससे सब लोग उन्हें आज तक पढ़ते और सीखते आए हैं। लोग बाइबल को विभिन्न खंडों में बाँटते हैं, उसके अलग-अलग संस्करणों का संकलन करते हैं और उसके अध्ययन तथा सीखने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हैं, लेकिन उनका बाइबल का अध्ययन करना परमेश्वर को जानने हेतु सत्य समझने के लिए नहीं है, न ही यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की परमेश्वर के इरादों को समझने के लिए है; बल्कि यह बाइबल में संग्रहीत ज्ञान और रहस्यों के अध्ययन के लिए है जिससे जाना जा सके कि किन घटनाओं ने किस प्रकाशित वाक्य की किस भविष्यवाणी को कब पूरा किया, और बड़ी आपदाएँ और सहस्राब्दी कब आएँगी—वे इनका अध्ययन करते हैं। क्या उनका अध्ययन सत्य से संबंधित है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) वे ऐसी चीजों का अध्ययन क्यों करते हैं जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है? ऐसा इसलिए है कि जितना अधिक वे अध्ययन करते हैं, उतना ही अधिक उन्हें लगता है कि वे समझ रहे हैं और जितने अधिक शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से वे लैस होते हैं, उनकी योग्यताएँ उतनी ही अधिक बढ़ती जाती हैं। उनकी योग्यताएँ जितनी अधिक होंगी, उन्हें लगता है कि वे उतने ही अधिक क्षमतावान हो गए हैं और उतना ही उनका यह विश्वास बढ़ता जाता है कि अंततः उनकी आस्था से उन्हें आशीष मिलेगी, मृत्यु के बाद वे स्वर्ग जाएँगे या कि उनका जीवन प्रभु से मिलन के लिए अंतरिक्ष में विलीन हो जाएगा। ये उनकी धार्मिक धारणाएँ हैं, जो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप कतई नहीं हैं।
धार्मिक जगत के पादरी, एल्डर आदि वे लोग हैं जो बाइबल संबंधी ज्ञान और धर्मशास्त्र का अध्ययन करते हैं; वे परमेश्वर का विरोध करने वाले पाखंडी फरीसी हैं। तो, वे कलीसिया में छिपे मसीह-विरोधियों से अलग कैसे हैं? आओ, अब इन दोनों में संबंध के बारे में बात करते हैं। ईसाई और कैथोलिक धर्म में जो लोग बाइबल, धर्मशास्त्र और यहाँ तक कि परमेश्वर के कार्य के इतिहास का अध्ययन करते हैं, क्या वे वास्तव में विश्वासी हैं? क्या वे परमेश्वर के उन विश्वासियों और अनुयायियों से भिन्न हैं जिनके बारे में वह बात करता है? परमेश्वर की नजर में, क्या वे विश्वासी हैं? नहीं, वे धर्मशास्त्र का अध्ययन करते हैं, वे परमेश्वर का अध्ययन करते हैं, लेकिन वे परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते और न ही उसकी गवाही देते हैं। परमेश्वर के बारे में उनका अध्ययन वैसा ही है जैसे लोग इतिहास, फलसफा, कानून, जीव विज्ञान या खगोल विज्ञान का अध्ययन करते हैं। बात सिर्फ इतनी है कि उन्हें विज्ञान या अन्य विषय पसंद नहीं हैं—उन्हें धर्मशास्त्र का अध्ययन विशेष रूप से पसंद है। परमेश्वर का अध्ययन करने के क्रम में परमेश्वर के कार्य के छोटे-छोटे अंशों को खोजने के उनके प्रयासों का परिणाम क्या है? क्या वे परमेश्वर के अस्तित्व की खोज कर सकते हैं? नहीं, कभी नहीं। क्या वे परमेश्वर के इरादों को समझ सकते हैं? (नहीं।) क्यों? क्योंकि वे शब्दों में, ज्ञान में, फलसफे में, मनुष्य के मन में और मनुष्य के विचारों में रहते हैं; वे परमेश्वर को कभी नहीं देख सकेंगे और कभी पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध नहीं किए जाएँगे। परमेश्वर उन्हें कैसे वर्गीकृत करता है? छद्म-विश्वासियों के रूप में, अविश्वासियों के रूप में। ये अविश्वासी और छद्म-विश्वासी तथाकथित ईसाई समुदाय के भीतर ईसाइयों की तरह परमेश्वर में विश्वासी होने का अभिनय करते हुए घुलमिल जाते हैं, लेकिन वास्तव में क्या उनमें परमेश्वर के प्रति आराधना का भाव होता है? क्या उनमें सच्चा समर्पण होता है? (नहीं।) ऐसा क्यों है? एक बात निश्चित है : उनमें से बड़ी संख्या में लोग अपने हृदय में परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते; वे यह विश्वास नहीं करते कि यह संसार परमेश्वर ने बनाया है और वही सभी चीजों पर संप्रभु है, और वे इस बात पर और भी कम विश्वास करते हैं कि परमेश्वर देहधारी हो सकता है। इस अविश्वास का क्या मतलब है? इसका मतलब है संदेह करना और इनकार करना। वे परमेश्वर की, विशेष रूप से आपदाओं के संबंध में, कही भविष्यवाणियों के पूरी होने या घटित होने की कोई उम्मीद न रखने का भी रवैया अपनाते हैं। यह परमेश्वर में विश्वास के प्रति उनका रवैया है, और यही उनकी तथाकथित आस्था का सार और असली चेहरा है। ये लोग परमेश्वर का अध्ययन करते हैं क्योंकि वे विशेष रूप से धर्मशास्त्र विषय और धर्मशास्त्रीय ज्ञान, और परमेश्वर के कार्य के ऐतिहासिक तथ्यों में रुचि रखते हैं; वे धर्मशास्त्र का अध्ययन करने वाले विशुद्ध बुद्धिजीवियों का समूह हैं। ये बुद्धिजीवी परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते, तो जब परमेश्वर कार्य करता है, जब परमेश्वर के वचन पूरे होते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया कैसी होती है? परमेश्वर के देहधारी होने और एक नया कार्य शुरू करने की बात सुनने पर उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या होती है? “असंभव!” जो कोई भी परमेश्वर के नए नाम और परमेश्वर के नए कार्य का प्रचार करता है, वे उसकी निंदा करते हैं, यहाँ तक कि उसे मार देना या खत्म कर देना चाहते हैं। यह किस प्रकार की अभिव्यक्ति है? क्या यह विशिष्ट मसीह-विरोधी की अभिव्यक्ति नहीं है? उनमें और फरीसियों, मुख्य याजकों और प्राचीन शास्त्रियों के बीच क्या अंतर है? वे परमेश्वर के कार्य के प्रति, अंतिम दिनों में परमेश्वर के न्याय के प्रति, देहधारी परमेश्वर के प्रति शत्रुभाव रखते हैं, और इससे भी अधिक, वे परमेश्वर की भविष्यवाणियाँ पूरी होने के प्रति शत्रुभाव रखते हैं। उनका मानना है, “यदि तुम देहधारी नहीं हो, यदि तुम आध्यात्मिक शरीर के रूप में हो, तो तुम परमेश्वर हो; यदि तुमने देहधारण किया और एक व्यक्ति बन गए, तो तुम परमेश्वर नहीं हो, और हम तुम्हें स्वीकार नहीं करते।” यह क्या इंगित करता है? इसका मतलब है कि जब तक वे हैं, तब तक वे परमेश्वर को देहधारी नहीं होने देंगे। क्या यह एक विशिष्ट मसीह-विरोधी भाव नहीं है? यह असली मसीह-विरोधी होना है। क्या धार्मिक जगत इस प्रकार के तर्क-वितर्क में पड़ता है? इस तर्क की आवाज ऊँची और बहुत शक्तिशाली है, जिसमें कहा गया है कि “परमेश्वर का देहधारी होना गलत और असंभव है! यदि वह देहधारी है, तो वह अवश्य ही झूठा होगा!” ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं कि, “वे साफ तौर पर एक मनुष्य में विश्वास करते हैं; उन्हें बस गुमराह किया गया है!” यदि वे ऐसा कह सकते हैं, तो यदि वे दो हजार साल पहले उस समय मौजूद होते जब प्रभु यीशु प्रकट हुए और कार्य किया, तो वे प्रभु यीशु पर विश्वास नहीं करते। अब वे प्रभु यीशु में विश्वास करते हैं, लेकिन वास्तव में वे केवल प्रभु यीशु के नाम में, दो शब्दों “प्रभु यीशु” में, विश्वास करते हैं और स्वर्ग में स्थित किसी अज्ञात परमेश्वर में विश्वास करते हैं। इसलिए, वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले नहीं हैं, वे छद्म-विश्वासी हैं। वे परमेश्वर के अस्तित्व में, परमेश्वर के देहधारण में, परमेश्वर के सृजन कार्य में विश्वास नहीं करते, और सलीब पर चढ़ाए जाने के माध्यम से परमेश्वर द्वारा पूरी मानवता को छुटकारा दिलाने के कार्य में तो और भी कम विश्वास करते हैं। वे जिस धर्मशास्त्र का अध्ययन करते हैं वह एक प्रकार का धार्मिक सिद्धांत या शोध-प्रबंध है, जो लोगों को गुमराह करने वाली लेकिन विश्वसनीय प्रतीत होने वाली भ्रांतियों से अधिक कुछ नहीं है। ईसाई धर्म में इन तथाकथित धार्मिक बुद्धिजीवियों का हमारी कलीसिया में मौजूद मसीह-विरोधियों के साथ क्या अपरिहार्य संबंध है? उनके विभिन्न व्यवहारों और जिन मसीह-विरोधियों की हम चर्चा करते हैं उनके प्रकृति सार में क्या संबंध है? उनकी बात क्यों करें? चलो, फिलहाल ईसाई धर्म के लोगों के बारे में बात करना बंद करके यह देखें कि मसीह-विरोधियों के रूप में वर्गीकृत लोग सत्य के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, और सत्य के प्रति उनके दृष्टिकोण से देखा जाए कि वे वास्तव में किस चीज का सम्मान करते हैं। सबसे पहले, कुछ सत्यों को सुनने के बाद वे उन सत्यों को कैसे समझते हैं? वे इन सत्यों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? इन सत्यों को स्वीकार करने के प्रति उनका रवैया क्या है? क्या वे इन वचनों को अपने अभ्यास के मार्ग के रूप में स्वीकार करते हैं, या वे उन्हें एक प्रकार के सिद्धांत के रूप में सुसज्जित करके दूसरों को उनका उपदेश देते हैं? (वे उन्हें उपदेश देने के लिए एक प्रकार के सिद्धांत के रूप में ग्रहण करते हैं।) वे उन्हें सीखने, विश्लेषण करने और अध्ययन करने के लिए एक प्रकार के सिद्धांत के रूप में देखते हैं और अध्ययन के बाद वे उन्हें अपने दिमाग में और अपने विचारों में बैठा लेते हैं; उन्हें याद रखते हैं, उन पर चर्चा कर सकते हैं, और उन पर धाराप्रवाह बोल सकते हैं, और फिर वे उन्हें हर जगह प्रदर्शित करते हैं। वे चाहे जितनी देर तक बात करें, एक चीज है जिसे तुम देख नहीं सकते, वह यह कि वे धर्म-सिद्धांतों के बारे में चाहे जितना बोलें, कितनी भी अच्छी तरह से बोलें, कितने ही लोगों से बात करें, कितना ही धाराप्रवाह बोलें, कितनी ही सामग्री बोलें या चाहे वह सत्य के अनुरूप हो या नहीं, तुम उनका कोई परिणाम नहीं देख सकते—तुम उनका अभ्यास में लाया जाना नहीं देख सकते। यह क्या दिखाता है? वे सत्य को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने सत्य को क्या बना दिया? खुद को प्रदर्शित करने का एक औजार। उदाहरण के लिए, परमेश्वर लोगों को ईमानदार होने के लिए कहता है और बताता है कि एक ईमानदार व्यक्ति की क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं, ईमानदार व्यक्ति को कैसे बोलना, कार्य करना और अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। ये सुनने के बाद उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी? इन शब्दों का उन पर क्या प्रभाव पड़ता है? पहले, तो वे इन शब्दों को कभी स्वीकार नहीं करते। उनका रवैया क्या है? “मैं समझ गया : ईमानदार लोग झूठ नहीं बोलते, ईमानदार लोग दूसरों से सत्य बोलते हैं और अपना दिल खोलकर बात कर सकते हैं, ईमानदार लोग अपने कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाते हैं, बेपरवाही से नहीं।” वे इन शब्दों को अपने मन में एक सिद्धांत के रूप में रखते हैं। क्या इस प्रकार का सिद्धांत, एक बार उनके हृदय में जड़ें जमा लेने के बाद, उन्हें बदल सकता है? (नहीं।) तो फिर, उन्हें यह अब भी याद क्यों है? उन्हें इन शब्दों की तथ्यता पसंद है, और वे इन सही सिद्धांतों का उपयोग खुद को प्रस्तुत करने, ज्यादा सम्मान प्राप्त करने के लिए करते हैं। ऐसा क्या है जिसे लोग ज्यादा सम्मान दे रहे हैं? सही शब्दों को धाराप्रवाह और विस्तार से बोलने की उनकी क्षमता—यही तो ये लोग चाहते हैं। सुनने के बाद, क्या उन्होंने इन शब्दों को गंभीरता से लिया है? (नहीं, उन्होंने ऐसा नहीं किया है।) क्यों नहीं किया? तुम कैसे बता सकते हो? (वे उनका अभ्यास नहीं करते।) वे उनका अभ्यास क्यों नहीं करते? अपने मन में वे सोचते हैं, “तो, ये परमेश्वर के वचन हैं? बढ़िया है, एक बार सुनने के बाद मुझे वे याद हो गए। एक बार सुनने के बाद मैं बोल सकता हूँ कि ईमानदार व्यक्ति को कैसा व्यवहार करना चाहिए; तुम सभी लोगों को अभी भी लिखने और उस पर विचार करने की जरूरत है, लेकिन मुझे नहीं!” परमेश्वर के वचनों को वे एक प्रकार का सिद्धांत या ज्ञान मानते हैं; वे इस बात पर विचार नहीं करते कि अपने दिल में एक ईमानदार व्यक्ति कैसे बनें, वे इन शब्दों से अपनी तुलना नहीं करते, वे यह देखने के लिए अपने कार्यों की जांच नहीं करते कि वे ईमानदार व्यक्ति बनने से पीछे कैसे रह गए या वे ऐसे कौन से कार्य करते हैं जो ईमानदार व्यक्ति होने के सिद्धांत के विरुद्ध जाते हैं, और वे कभी नहीं सोचते कि “ये परमेश्वर के वचन हैं, इसलिए ये सत्य हैं। लोगों को ईमानदार होना चाहिए, तो ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए किसी को कैसे कार्य करना चाहिए? मैं इस तरह से कैसे कार्य करूँ जिससे परमेश्वर प्रसन्न हो? मैंने ऐसा क्या किया है जो बेईमानी है? कौन से व्यवहार ऐसे हैं जो किसी ईमानदार व्यक्ति के नहीं हैं?” क्या वे ऐसा सोचते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं सोचते।) फिर वे क्या सोचते हैं? वे सोचते हैं, “तो क्या यही ईमानदार व्यक्ति होना है? क्या यह सच है? क्या यह सिर्फ एक सिद्धांत या एक नारा नहीं है? बस उच्च नैतिक स्वर अपनाओ, इसे व्यवहार में लाने की कोई आवश्यकता नहीं है।” वे इसे व्यवहार में क्यों नहीं लाते? उन्हें लगता है, “मेरे दिल में जो कुछ भी है अगर मैं वह दूसरों को बताता हूँ, तो क्या मैं खुद को उजागर नहीं कर रहा होऊँगा? अगर मैं खुद को उजागर कर दूँ और दूसरे लोग मुझे पूरी तरह से जान लें, तो क्या वे तब भी मेरे बारे में अच्छा सोचेंगे? अगर मैं बोलूँ तो क्या फिर भी दूसरे लोग सुनेंगे? परमेश्वर के वचनों का अर्थ यह है कि एक ईमानदार व्यक्ति झूठ नहीं बोल सकता; झूठ न बोलने पर क्या ऐसा नहीं होगा कि लोगों के दिलों में कोई गोपनीयता ही नहीं बचेगी? क्या यह दूसरों को उनके आर-पार नहीं देखने देगा? क्या इस तरह जीना मूर्खतापूर्ण नहीं होगा?” यह उनका दृष्टिकोण है। मतलब कि जब वे किसी सिद्धांत को सही मानते हुए स्वीकार करते हैं, तो उनके मन में विचार आ जाते हैं। ये विचार क्या हैं? मैं क्यों कहता हूँ कि वे दुष्ट हैं? वे पहले विश्लेषण करते हैं कि इन शब्दों का उन पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, उनसे क्या फायदे और नुकसान हैं। जब वे शब्दों का विश्लेषण कर लेते हैं और पाते हैं कि वे उनके लिए लाभप्रद नहीं हैं, तो वे सोचते हैं, “मैं इस तरह अभ्यास नहीं कर सकता, मैं ऐसा नहीं करूँगा, मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ, मैं तुम लोगों जितना मूर्ख और सरल नहीं बनूँगा।” चाहे जब हो, मुझे हमेशा अपने विचारों पर टिके रहना चाहिए और अपने विचारों को बनाए रखना चाहिए। हो सकता है कि तुम्हारी हजार योजनाएं हों, लेकिन मेरा एक नियम है; मैं अपने दिल की योजना को उजागर नहीं कर सकता—ईमानदार व्यक्ति होना मूर्खों का काम है! एक संदर्भ में, वे इस बात से इनकार करते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं; दूसरे संदर्भ में, वे खुद को प्रस्तुत करने के लिए कुछ अपेक्षाकृत आवश्यक वाक्यांशों को याद करते हैं, जिससे लोग उन्हें परमेश्वर में एक वास्तविक विश्वासी, एक आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह देखें। वे अपने मन में यही जोड़-घटाव करते हैं।
सत्य सुनने के बाद मसीह-विरोधी उस पर जो प्रतिक्रिया देते हैं, उससे यह स्पष्ट होता है कि सत्य में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है और वे इसे पसंद नहीं करते। उन्हें क्या पसंद है? वे सही, ताजा और थोड़ा ज्यादा परिष्कृत सैद्धांतिक ज्ञान पसंद करते हैं जिसके सहारे वे स्वयं को अधिक पूर्णता से, अधिक सम्मान तथा अधिक गरिमा के साथ प्रस्तुत कर सकें और लोगों से अपनी और अधिक आराधना करवा सकें। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ, है।) इसमें क्या दुष्टता है? कोई मसीह-विरोधी सत्य के चाहे जिस पहलू के बारे में संगति करे, वह हमेशा लोगों को गुमराह करने और उनसे अपना अनुसरण करवाने के लिए विश्वसनीय प्रतीत होने वाले सिद्धांतों या सही शब्दों का निर्माण कर सकता है, जो शैतान जैसी ही दुष्टता है। अपनी दुष्टता को अंजाम देने के लिए एक सैद्धांतिक आधार खोजने हेतु परमेश्वर के वचन पढ़ने की पताका फहराने की इच्छा रखने वाले किसी मसीह-विरोधी की दुष्टता उसके दुष्ट कुचक्रों, पूर्वचिंतनों और योजनाओं के पूरे समूह से अभिव्यक्त होती है; यह मसीह-विरोधी की दुष्टता है। वे केवल लोगों को गुमराह करने और खुद का दिखावा करने के लिए संदर्भ से हटकर परमेश्वर के वचन उद्धृत करते हैं। संगति और उपदेश सुनते हुए जब वे उपयोग करने लायक कोई नया वाक्यांश सुनते हैं, तो वे तुरंत उसे लिख लेते हैं। मूर्ख लोग ऐसा आचरण देख कर सोचते हैं कि “वे धार्मिकता के कितने भूखे और प्यासे हैं कि जब भी वे कोई उपदेश सुनते हैं तो उसे लिख लेते हैं, और उन्हें कितनी आध्यात्मिक समझ होगी जो हर महत्वपूर्ण बिंदु को लिखते हैं!” क्या महत्वपूर्ण बिंदुओं को लिखने का उनका तरीका दूसरे लोगों की तरह ही होता है? नहीं, ऐसा नहीं है। कुछ लोग लिखते हैं क्योंकि वे सोचते हैं, “यह एक अच्छा कथन है। मैं इसे नहीं समझता, इसलिए मुझे इसे लिख लेना चाहिए और बाद में इसे अभ्यास में लाना चाहिए, ताकि मेरे अभ्यास में कोई मार्ग और कुछ सिद्धांत हों।” क्या मसीह-विरोधी इसी तरह सोचता है? उसकी प्रेरणा क्या होती है? वह सोचता है, “मैंने आज सत्य की एक मद लिख ली है जिसे तुम लोगों में से किसी ने नहीं सुना, और मैं इसके बारे में न किसी को बताऊँगा, न ही दूसरों के साथ संगति करूँगा—मुझे यह मिल गया है, और एक दिन मैं तुम्हीं लोगों से इसके बारे में बात करूँगा और तुम लोगों को यह दिखाने के लिए कि मैं सत्य को वास्तव में कितना समझता हूँ, प्रदर्शन करूँगा, और हर कोई मुझसे सहमत होगा।” तुम सोच सकते हो कि मसीह-विरोधी सत्य से प्रेम करते हैं और उसके प्यासे हैं क्योंकि वे इस तरह से नोट्स बनाते हैं और उनके नोट्स काफी सटीक होते हैं, लेकिन नोट्स बनाने के बाद क्या होता है? वे अपनी पुस्तिका बंद कर देते हैं, और बस हो गया। जब वे एक दिन उपदेशक बन जाते हैं और उन्हें नहीं पता होता है कि उन्हें किस बारे में उपदेश देना है, तो वे तुरंत अपनी पुस्तिका पलटते हैं, अपने उपदेश की विषयवस्तु व्यवस्थित करते हैं, उसे पढ़ते हैं, याद करते हैं और स्मृति के आधार पर तब तक लिखते हैं जब तक कि वह उनके मन में पूरी तरह से स्पष्ट न हो जाए। तभी वे “खुद के प्रति आश्वस्त” महसूस करते हैं, और सोचते हैं कि अंततः उन्होंने “सत्य” पा लिया है और वे जहाँ भी जाएँगे, वहाँ हवा में बातें कर सकते हैं। ये लोग जिस बारे में बोलते हैं उसका एक लक्षण यह है कि वे सभी बातें खोखले धर्म-सिद्धांत, तर्क और विनियम मात्र होती हैं। जब तुम्हारे पास विशिष्ट कठिनाइयाँ होती हैं या जब तुम्हें मुद्दों का पता चलता है और तुम उनसे इनका समाधान चाहते हो, तब भी वे स्पष्ट और तार्किक रूप से बोलते हुए तुम्हें केवल धर्म-सिद्धांतों का एक गुच्छा पकड़ा देते हैं। यदि तुम उनसे पूछो कि इसे अभ्यास में कैसे लाया जाए, तो उनके पास कोई जवाब नहीं होता। यदि वे इसे स्पष्ट रूप से नहीं बता पाते, तो यह एक गंभीर समस्या है, और इससे साबित होता है कि वे सत्य नहीं समझते। जो लोग सत्य नहीं समझते और जो सत्य से प्रेम नहीं करते, वे अक्सर इसे केवल एक प्रकार की कहावत या सिद्धांत भर मानते हैं। और अंत में क्या होता है? परमेश्वर में कई वर्षों तक विश्वास करने के बाद, जब उन पर कोई मुसीबत आती है, तो वे उसे साफ समझ नहीं पाते, वे समर्पण नहीं कर पाते, और नहीं जानते कि सत्य की खोज कैसे करें। जब कोई उनके साथ संगति करता है, तो वे एक “मशहूर कहावत” से इसका जवाब देते हैं : “मुझे कुछ मत बताओ, मैं सब समझता हूँ। मैं तब से उपदेश दे रहा हूँ, जब तुम लोगों ने चलना भी नहीं सीखा था!” यही उनकी “मशहूर कहावत” है। वे सब कुछ समझने का दावा करते हैं, तो जब कोई समस्या आती है वे अटक क्यों जाते हैं? एक समझदार व्यक्ति की तरह तुम कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर पाते? यह मामला तुम्हें बाधित और भ्रमित क्यों करता है? तुम सत्य समझते हो या नहीं? यदि तुम इसे समझते हो, तो इसे स्वीकार क्यों नहीं कर पाते? यदि तुम इसे समझते हो, तो तुम समर्पण क्यों नहीं कर पाते? सत्य समझ लेने के बाद लोगों को सबसे पहले क्या करना चाहिए? उन्हें समर्पण करना चाहिए; इसके अलावा कुछ नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं सब कुछ समझता हूँ—मेरे साथ संगति मत करो, मुझे दूसरों की सहायता की जरूरत नहीं है।” ठीक है कि उन्हें लोगों की मदद की जरूरत नहीं है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि जब वे कमजोर होते हैं, तो जिन धर्म-सिद्धांतों को वे समझते हैं वे जरा भी किसी काम के नहीं होते। वे अपना कर्तव्य तक नहीं निभाना चाहते और उनमें अपने विश्वास को त्यागने की बुरी इच्छा भी पैदा हो जाती है। इतने वर्षों तक धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों का उपदेश देने के बाद, वे एकदम से विश्वास करना बंद कर देते हैं, और सब छोड़ कर चले जाते हैं—क्या उनका कोई आध्यात्मिक कद है? (नहीं, उनका कोई आध्यात्मिक कद नहीं है।) आध्यात्मिक कद के बिना कोई जीवन नहीं है। यदि तुममें जीवन है, तो तुम इतने छोटे से मामले से पार क्यों नहीं पाते? तुम काफी वाक्पटु हो, है न? तो फिर खुद को समझाओ। यदि तुम स्वयं को भी आश्वस्त नहीं कर सकते, तो वास्तव में वह क्या है जिसे तुम समझते हो? क्या यह सत्य है? सत्य लोगों की असली कठिनाइयों का समाधान कर सकता है, और यह लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का भी समाधान कर सकता है। जिन “सत्यों” को तुम समझते हो वे तुम्हारी अपनी कठिनाइयों का भी समाधान क्यों नहीं कर पाते? वह ठीक-ठीक क्या है जिसे तुम समझते हो? वह सिर्फ धर्म-सिद्धांत है।
मैंने अभी मसीह-विरोधियों की सातवीं अभिव्यक्ति—कि वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं—के तीसरे भाग के बारे में बात की है : वे ज्ञान और विद्वता का सम्मान करते हैं। मसीह-विरोधी ज्ञान और विद्वता का सम्मान करते हैं—इससे संबंधित किस बात से उनके दुष्ट स्वभाव का पता चल सकता है? ऐसा क्यों कहा जाता है कि ज्ञान और विद्वता का सम्मान करने का अर्थ यह है कि उनमें दुष्ट सार है? यहाँ हमें निश्चित रूप से तथ्यों के बारे में बात करनी चाहिए, क्योंकि अगर हमने केवल खोखले शब्दों या सिद्धांतों पर चर्चा की, तो लोगों को इसकी एकतरफा और कम गहन समझ हो सकती है। सबसे पहले, आओ इतिहास में कुछ और पीछे से शुरूआत करें। जब मैं बोल रहा हूँ, तो मेरे शब्दों की मसीह-विरोधियों के कार्यों और व्यवहारों से तुलना करो, और उनकी मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों और सार से तुलना करो। आओ, सबसे पहले दो हजार साल पहले के फरीसियों के बारे में बात करें। उस समय, फरीसी पाखंडी लोग थे। जब देहधारी परमेश्वर ने स्वयं को प्रकट किया और पहली बार कार्य किया, तो फरीसियों ने न केवल सत्य को जरा भी मानने से इनकार कर दिया, बल्कि उन्होंने प्रभु यीशु की जमकर निंदा की और विरोध भी किया, और इस कारण से परमेश्वर ने उन्हें शाप दिया। इससे पुष्टि हो सकती है कि फरीसी मसीह-विरोधियों के उच्च-कोटि के प्रतिनिधि हैं। “मसीह-विरोधी” फरीसियों का दूसरा नाम बन गया है, और सार रूप में फरीसी उसी प्रकार के लोग हैं जैसे मसीह-विरोधी हैं। इसलिए, मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति का गहन-विश्लेषण फरीसियों से शुरू करना एक आसान तरीका है। तो, फरीसियों ने ऐसा क्या किया जिससे लोगों को पता चला कि उनमें मसीह-विरोधी दुष्ट प्रकृति है? अभी-अभी मैंने बताया कि मसीह-विरोधी ज्ञान और विद्वता का सम्मान करते हैं; ज्ञान और विद्वता का किन लोगों से गहरा संबंध है? कौन इनकी प्रतिमूर्तियाँ हैं? क्या उनका तात्पर्य स्नातकोत्तर और डॉक्टरेट के छात्रों से करते हैं? नहीं, ऐसा करने का मतलब कुछ ज्यादा ही दूर चले जाना होगा—उनका तात्पर्य फरीसियों से हैं। फरीसियों के पाखंडी होने का कारण, उनके दुष्ट होने का कारण यह है कि वे सत्य से विमुख हैं, लेकिन ज्ञान से प्रेम करते हैं, इसलिए वे केवल शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और शास्त्रों में वर्णित ज्ञान का अनुसरण करते हैं, लेकिन सत्य या परमेश्वर के वचनों को कभी स्वीकार नहीं करते। वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय उसकी प्रार्थना नहीं करते, न ही वे सत्य की खोज करते हैं या उस पर संगति करते हैं। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करते हैं, परमेश्वर ने जो कहा और किया है उसका अध्ययन करते हैं, और ऐसा करके वे परमेश्वर के वचनों को एक सिद्धांत में बदल देते हैं, जो दूसरों को सिखाने के लिए एक धर्म-सिद्धांत बन जाता है, जिसे विद्वत्तापूर्ण अध्ययन कहा जाता है। वे विद्वत्तापूर्ण अध्ययन में क्यों लगे रहते हैं? वे क्या पढ़ रहे हैं? उनकी नजर में यह परमेश्वर के वचन या परमेश्वर की अभिव्यक्ति नहीं है, और सत्य तो बिल्कुल भी नहीं है। बल्कि, यह एक प्रकार की विद्वता है, या यह भी कह सकते हैं कि यह धर्मशास्त्रीय ज्ञान है। उनके विचार में, इस ज्ञान का, इस विद्वता का प्रचार-प्रसार करना, परमेश्वर के मार्ग का प्रसार करना है, सुसमाचार का प्रसार करना है—इसे वे उपदेश देना कहते हैं, लेकिन वे जो उपदेश देते हैं वह धर्मशास्त्रीय ज्ञान भर है।
फरीसियों की दुष्टता कैसे अभिव्यक्त होती है? सबसे पहले, अपनी चर्चा इस बात से शुरू करते हैं कि फरीसियों ने देहधारी परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार किया, और तब तुम लोग थोड़ा बेहतर समझ सकोगे। देहधारी परमेश्वर के बारे में बात करते हुए हमें सबसे पहले इस बारे में बात करनी चाहिए कि दो हजार साल पहले देहधारी परमेश्वर का जन्म किस प्रकार के परिवार और पृष्ठभूमि में हुआ था। पहली बात यह कि प्रभु यीशु का जन्म किसी धनी परिवार में नहीं हुआ था—उसका वंश बहुत प्रतिष्ठित वंश नहीं था। उसके पालक पिता, जोसेफ, बढ़ई थे और उसकी माँ, मरियम, एक सामान्य विश्वासी महिला थीं। उसके माता-पिता की पहचान और सामाजिक स्थिति उस पारिवारिक पृष्ठभूमि को दर्शाती है जिसमें प्रभु यीशु का जन्म हुआ था, और यह स्पष्ट है कि उसका जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था। “सामान्य” का क्या अर्थ है? इसका तात्पर्य आम जनता से है, समाज के निचले पायदान पर मौजूद एक औसत परिवार से है, जिसका कुलीन परिवारों से कोई संबंध नहीं है, जो किसी महत्त्वपूर्ण पद से जुड़ा नहीं है, और कुलीन तो निश्चित रूप से नहीं है। यह स्पष्ट है कि किसी भी उल्लेखनीय सामाजिक स्थिति या विशिष्ट पारिवारिक पृष्ठभूमि से रहित, सामान्य माता-पिता के यहाँ एक साधारण परिवार में जन्मे प्रभु यीशु की पृष्ठभूमि और उसका परिवार उतने ही सामान्य थे जितने किसी अन्य के हो सकते हैं। क्या बाइबल में यह दर्ज है कि प्रभु यीशु ने कोई विशेष शिक्षा प्राप्त की थी? क्या उसने किसी सेमिनेरी से शिक्षा प्राप्त की थी? क्या उसे किसी महायाजक ने प्रशिक्षित किया था? क्या उसने पौलुस की तरह कई किताबें पढ़ी थीं? क्या उसका अभिजात्य वर्ग या यहूदी धर्म के उच्च याजकों के साथ कोई निकट संपर्क या व्यवहार था? नहीं, ऐसा नहीं था। प्रभु यीशु जिस परिवार में जन्मा उसकी सामाजिक स्थिति को देखते हुए यह स्पष्ट है कि वह ऊपरी दर्जें के यहूदी शास्त्रियों और फरीसियों के संपर्क में नहीं आया होगा; मूलतः वह सामान्य यहूदियों के बीच रहने तक ही सीमित था। कभी-कभी, वह यहूदी उपासनागृह जाता था, और वहाँ जिन लोगों से उसका सामना होता था वे सभी आम लोग होते थे। इससे क्या दिखता है? औपचारिक रूप से अपना काम शुरू करने से पहले प्रभु यीशु जैसे-जैसे बड़ा हो रहा था, जिस पृष्ठभूमि में उसका पालन-पोषण हुआ उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ था। उसकी आयु बारह वर्ष की होने के बाद भी उसका घर समृद्ध नहीं हुआ था, वे लोग अमीर नहीं हुए थे, सामाजिक या धार्मिक क्षेत्रों के उच्च वर्गों के लोगों के साथ बातचीत करने का मौका तो दूर, उसके पालन-पोषण के दौरान उसे तो उच्च शिक्षा पाने का भी मौका नहीं मिल सका था। बाद की पीढ़ियों को इससे क्या संदेश मिलता है? यह साधारण एवं सामान्य व्यक्ति, जो देहधारी परमेश्वर था, के पास उच्च शिक्षा प्राप्त करने का न तो अवसर था और न ही परिस्थितियाँ। वह आम लोगों की ही तरह था, वह एक सामान्य सामाजिक माहौल में एक साधारण परिवार में रहता था, और उसमें कुछ भी खास नहीं था। ठीक इसी वजह से, प्रभु यीशु के उपदेशों और कार्यों के बारे में सुनने के बाद उन शास्त्रियों और फरीसियों ने उसका विरोध करने और खुले तौर पर उसकी आलोचना, ईशनिंदा और भर्त्सना करने का साहस किया। उन लोगों के पास प्रभु यीशु की निंदा करने का क्या आधार था? निस्संदेह, यह सब पुराने नियम के कानूनों और विनियमों के आधार पर था। सबसे पहले, प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को विश्राम के दिन, सब्त, का पालन न करने के लिए प्रेरित किया—वह सब्त के दिन भी काम करता था। इसके अलावा, उसने कानूनों और विनियमों का पालन नहीं किया और वह मंदिर नहीं जाता था, और पापियों से सामना होने पर कुछ लोगों ने उसे बताया कि उनके साथ कैसे व्यवहार किया जाए, लेकिन उसने प्रचलित कानून के अनुसार व्यवहार नहीं किया बल्कि उन पर दया दिखाई। प्रभु यीशु के कार्यों का कोई भी पहलू फरीसियों की धार्मिक धारणाओं के अनुरूप नहीं था। चूँकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते थे और इसलिए प्रभु यीशु से घृणा करते थे, इसलिए उन्होंने प्रभु यीशु की जमकर निंदा करने के लिए कानून के उल्लंघन का बहाना बनाया और निर्धारित किया कि उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाना चाहिए। यदि प्रभु यीशु का जन्म किसी प्रतिष्ठित और विशिष्ट परिवार में हुआ होता, यदि वह उच्च शिक्षित होता, और यदि उसका इन शास्त्रियों और फरीसियों के साथ घनिष्ठ संबंध होता, तो उस समय उसके लिए वैसी चीजें नहीं होतीं, जैसी बाद में हुईं—वे बदल सकती थीं। निश्चित रूप से उसकी साधारणता, उसकी सामान्यता और उसके जन्म की पृष्ठभूमि के कारण ही फरीसियों ने उसकी निंदा की थी। प्रभु यीशु की निंदा करने का उनका आधार क्या था? इसका आधार वे कानून और विनियम थे जिनके बारे में उनका विश्वास था कि वे अनंत काल तक कभी नहीं बदलेंगे। फरीसी उन धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों से चिपके रहे जिन्हें उन्होंने ज्ञान और लोगों की प्रशंसा या निंदा करने का औजार माना था, यहाँ तक कि उसी का प्रयोग प्रभु यीशु पर भी किया गया। इस तरह प्रभु यीशु की निंदा की गई। वे लोग जिस तरह से किसी व्यक्ति का मूल्यांकन या उससे व्यवहार करते थे, वह व्यक्ति के सार पर कभी निर्भर नहीं करता था, न ही इस बात पर निर्भर करता था कि उस व्यक्ति ने जो उपदेश दिया है वह सत्य है या नहीं, और इससे भी कम इस बात पर निर्भर करता था कि उस व्यक्ति द्वारा कहे गए शब्दों का स्रोत क्या है—जिस तरह से फरीसी किसी व्यक्ति का मूल्यांकन या उसकी निंदा करते थे वह केवल बाइबल के पुराने नियम के उन विनियमों, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर निर्भर करता था जो उन्होंने सीखे थे। हालाँकि फरीसी अपने दिलों में जानते थे कि प्रभु यीशु ने जो कहा और किया वह पाप या किसी कानून का उल्लंघन नहीं था, फिर भी उन्होंने उसकी निंदा की, क्योंकि उसने जो सत्य व्यक्त किए और जो संकेत दिए और चमत्कार किए, उनके कारण बहुत से लोग उसके अनुगामी और प्रशंसक बन गए थे। फरीसियों के मन में उसके प्रति घृणा बढ़ती जा रही थी, और यहाँ तक कि वे उसे परिदृश्य से ही हटा देना चाहते थे। उन्होंने यह नहीं जाना कि प्रभु यीशु ही वह मसीहा था जो आने वाला था, न ही उन्होंने यह स्वीकार किया कि उसके वचनों में सत्य था, और यह भी नहीं देखा कि उसका कार्य सत्य का पालन करता था। उन्होंने प्रभु यीशु को राक्षसों के राजकुमार बील्जेबब के माध्यम से राक्षसों को बाहर निकालने वाला और अभिमानपूर्ण बातें करने वाला माना। प्रभु यीशु पर इन पापों को थोपना प्रदर्शित करता है कि फरीसियों के मन में प्रभु के लिए कितनी नफरत थी। इसलिए, उन्होंने इस बात को नकारने के लिए पूरी लगन से काम किया कि प्रभु यीशु को परमेश्वर ने भेजा था, और वह परमेश्वर का पुत्र था, और वह मसीहा था। उनके कहने का मतलब था कि “क्या परमेश्वर इस तरह से कार्य करेगा? यदि परमेश्वर देहधारण करता, तो उसका जन्म किसी बहुत ही संभ्रांत परिवार में होता। और उसे शास्त्रियों तथा फरीसियों से शिक्षा भी स्वीकार करनी होती। ‘देहधारी परमेश्वर’ का नाम ग्रहण करने में सक्षम होने से पहले उसने पवित्र शास्त्रों का व्यवस्थित अध्ययन किया होता, उसे शास्त्रीय ज्ञान की समझ होती, और वह शास्त्रों के सम्पूर्ण ज्ञान से लैस हुआ होता।” लेकिन प्रभु यीशु इस ज्ञान से लैस नहीं था, इसलिए उन्होंने उसकी निंदा करते हुए कहा, “सबसे पहले तो तुम इस प्रकार योग्य नहीं हो, इसलिए तुम परमेश्वर नहीं हो सकते; दूसरे, इस शास्त्रीय ज्ञान के बिना परमेश्वर होना तो दूर, तुम परमेश्वर का कार्य भी नहीं कर सकते; तीसरे, तुम्हें मंदिर के बाहर काम नहीं करना चाहिए—अभी तुम मंदिर में काम नहीं करते, बल्कि हमेशा पापियों के बीच में रहते हो, इसलिए तुम जो काम करते हो वह शास्त्रों के दायरे से परे है, जिसके कारण तुम्हारा परमेश्वर होना और भी कम संभव है।” उनकी निंदा का आधार कहाँ से आया? शास्त्र से, मनुष्य के दिमाग से, और उन्हें प्राप्त धर्मशास्त्रीय शिक्षा से। क्योंकि फरीसी धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान से भरे हुए थे, और उनका विश्वास था कि वह ज्ञान सही है, सत्य है, वैध आधार है, और परमेश्वर कभी भी इन चीजों का उल्लंघन नहीं कर सकता। क्या उन्होंने सत्य की तलाश की थी? उन्होंने ऐसा नहीं किया था। उन्होंने क्या तलाशा था? एक अलौकिक परमेश्वर जो आध्यात्मिक शरीर के रूप में प्रकट होता था। इसलिए, उन्होंने परमेश्वर के कार्यों के मानदंड निर्धारित किए, उसके कार्य को नकार दिया, और मनुष्य की धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान के आधार पर परमेश्वर के सही या गलत होने के बारे में निर्णय करने लगे। और इसका अंतिम परिणाम क्या हुआ? उन्होंने न केवल परमेश्वर के कार्य की निंदा की, बल्कि उन्होंने देहधारी परमेश्वर को सूली पर चढ़ा दिया। परमेश्वर का मूल्यांकन करने के लिए अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान का उपयोग करने से यही हुआ, और यही तो उनकी दुष्टता है।
ज्ञान और विद्वत्ता के प्रति फरीसियों के सम्मान को देखते हुए, उनमें कैसी दुष्टता होती है? यह कैसे अभिव्यक्त होती है? हम ऐसे लोगों की दुष्ट प्रकृति को कैसे ढूँढ़ सकते हैं और उसका गहन विश्लेषण कैसे कर सकते हैं? फरीसियों का ज्ञान और विद्वत्ता के प्रति सम्मान जगजाहिर है, और इस बारे में विस्तृत वार्ता की कोई आवश्यकता नहीं है। तो, उनके मामले में प्रकट होने वाली दुष्ट प्रकृति वास्तव में क्या है? हम ऐसे लोगों की दुष्ट प्रकृति का गहन विश्लेषण करके उसे ठीक से कैसे समझ सकते हैं? कोई तो बोलो। (वे परमेश्वर के सार का विरोध करने के लिए सैद्धांतिक ज्ञान का उपयोग करते हैं; यह उनकी दुष्टता की अभिव्यक्तियों में से एक है।) विरोध एक क्रिया है, तो उन्होंने विरोध क्यों किया? विरोध करने में थोड़ा-बहुत दुष्ट स्वभाव शामिल होता है, लेकिन तुमने अभी तक दुष्टता को नहीं छुआ है। उन्होंने विरोध क्यों किया? क्या यह परमेश्वर को पसंद करने या नापसंद करने का मामला था? वे ऐसे परमेश्वर को नापसंद करते थे, क्योंकि उनका मानना था कि, “परमेश्वर को स्वर्ग में होना चाहिए, तीसरे स्वर्ग में, सभी द्वारा प्रशंसित, मनुष्यों के लिए अप्राप्य, गूढ़, और ऐसा जिसकी ओर पूरी मानवता, सभी सृजित प्राणी और यहाँ तक कि ब्रह्मांड के सभी जीव आदर से देखें—वही परमेश्वर होता है! अब परमेश्वर आया है, लेकिन तुम एक बढ़ई के घर में पैदा हुए हो, साधारण माता-पिता के घर में, और वह भी एक अस्तबल में। तुम्हारे जन्म की पृष्ठभूमि सिर्फ साधारण ही नहीं, साधारण से एक कदम नीचे और सामान्य से भी नीचे है—लोग इसे कैसे स्वीकार कर सकते थे? अगर परमेश्वर को वास्तव में आना होता, तो वह इस तरह नहीं आ सकता!” क्या लोग इसी तरह से परमेश्वर को सीमित नहीं करते? प्रत्येक व्यक्ति इसी तरह से परमेश्वर को सीमित करता है। वास्तव में, मन की गहराई में वे यह भी महसूस करते थे कि प्रभु यीशु कोई साधारण व्यक्ति नहीं था, कि प्रभु यीशु जो कहता था वह सही था, और लोगों ने उस पर जिन पापों का आरोप लगाया था, वे वास्तव में तथ्यों से मेल नहीं खाते थे। प्रभु यीशु बीमारों को चंगा कर सकता था और दानवों को निकाल सकता था, और वे उसके बोले वचनों और उसके उपदेशों में न तो कोई गलती ढूँढ़ सके और न ही कुछ पकड़ पाए, लेकिन फिर भी वे उसके परमेश्वर होने की बात स्वीकार नहीं कर सके, और उनके दिलों में संदेह था : “क्या परमेश्वर वास्तव में ऐसा ही है? स्वर्ग में परमेश्वर बहुत महान है, इसलिए यदि वह देहधारी होकर पृथ्वी पर आता है, तो उसे और भी महान होना चाहिए, सभी की प्रशंसा का पात्र होना चाहिए, कुलीन परिवारों में उसका आना-जाना होना चाहिए, उसे वाक्पटु होना चाहिए, और कभी भी किसी मानवीय दोष या कमजोरी को प्रकट नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, सबसे पहले उसे अपने ज्ञान, विद्वता और अपने कौशल का उपयोग उपासना-गृह के पुरोहित वर्ग को वश में करने के लिए करना चाहिए। उसे पहले इन लोगों को जीतना चाहिए; परमेश्वर का इरादा यही होगा।” प्रभु यीशु ने जो किया, फरीसियों ने वह सब स्वीकार नहीं किया, न ही वे इस तथ्य को स्वीकारना चाहते थे। वे इस तथ्य को स्वीकारना नहीं चाहते थे यह कोई बड़ी बात नहीं है; उनके अंदर, इससे भी घातक कुछ और भी था : यदि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर था, तो सभी पुरोहित वर्ग परमेश्वर हो सकता था, वे सभी स्वयं परमेश्वर से भी अधिक परमेश्वर के समान थे, और वे सभी प्रभु यीशु से भी अधिक मसीह होने के योग्य थे। क्या यह परेशान करने वाली बात नहीं है? (हाँ, है।) जब वे प्रभु यीशु की निंदा कर रहे थे, तो वे देह से जुड़ी उस पृष्ठभूमि के हर पहलू का विरोध और उपहास भी कर रहे थे जिसे परमेश्वर ने इस बार अपने देहधारण के लिए चुना था। हमने अभी तक इस पर चर्चा नहीं की है कि फरीसियों की दुष्टता किसमें है—आओ, अपनी संगति जारी रखें।
परमेश्वर साधारण व्यक्ति के रूप में देहधारी होता है, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर स्वयं को ऊँची छवि, पहचान और सबसे पहले पद से गिरा कर पूरी तरह से साधारण व्यक्ति बन जाता है। जब वह एक साधारण व्यक्ति बनता है, तो वह एक प्रतिष्ठित, धनी परिवार में जन्म लेना नहीं चुनता; उसके जन्म की पृष्ठभूमि बहुत ही सामान्य, यहाँ तक कि दुर्दशापूर्ण होती है। यदि हम इस मामले को किसी ऐसे साधारण व्यक्ति के दृष्टिकोण से देखें जिसके पास विवेक, तर्क और मानवता है, तो परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह लोगों की श्रद्धा और प्रेम के योग्य है। लोगों को इसे कैसे देखना चाहिए? (श्रद्धा के साथ।) परमेश्वर का अनुसरण करने वाले किसी साधारण और सामान्य व्यक्ति को तो इसी तथ्य के लिए परमेश्वर की सुंदरता की प्रशंसा करनी चाहिए कि परमेश्वर स्वयं को एक ऊँचे दर्जे से हटाकर एक असाधारण रूप से साधारण व्यक्ति बना लेता है—परमेश्वर की यह विनम्रता और अदृश्यता बहुत प्यारी है! यह कुछ ऐसा है जिसे न तो कोई भ्रष्ट व्यक्ति कर सकता है और न ही दानव और शैतान कर सकते हैं। यह सकारात्मक बात है या नकारात्मक? (सकारात्मक बात है।) यह सकारात्मक बात, यह परिघटना और यह तथ्य सटीक रूप से क्या दर्शाते हैं? परमेश्वर की विनम्रता और अदृश्यता, परमेश्वर की सुंदरता और प्रियता। एक और तथ्य यह है कि परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है; परमेश्वर का प्रेम असली है, झूठा नहीं है। परमेश्वर का प्रेम खोखला भाषण नहीं है, यह एक नारा नहीं है और न ही यह एक भ्रम है, बल्कि यह वास्तविक और तथ्यात्मक है। परमेश्वर स्वयं देहधारण करता है और मानवजाति की गलतफहमियों के साथ-साथ उसके द्वारा किए गए उपहास, बदनामी और ईशनिंदा को भी सहन करता है। वह विनम्र होकर साधारण व्यक्ति बन जाता है, जो दिखने में भव्य नहीं होता, जिसमें कोई विशेष प्रतिभा और निश्चित रूप से, कोई गहन ज्ञान या विद्वता नहीं होती—यह सब वह किस उद्देश्य से करता है? यह उन लोगों तक पहुँचने के लिए करता है जिन्हें उसने चुना है और जिन्हें वह इस पहचान तथा एक ऐसे मानवीय स्वरूप के साथ बचाने का इरादा रखता है जो उनकी बिल्कुल आसान पहुँच में हो। यह सब जो परमेश्वर करता है क्या यह वह कीमत नहीं है जो उसने चुकाई है? (हाँ, है।) क्या कोई और ऐसा कर सकता है? कोई भी नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, कुछ महिलाएँ, जिन्हें सुंदरता से विशेष प्रेम होता है, हमेशा मेकअप करती हैं और इसके बिना बाहर नहीं जाती हैं। यदि आप ऐसी किसी महिला से सादे चेहरे में बाहर जाने या बिना मेकअप के मंच पर आने के लिए कहें, तो क्या वह ऐसा कर सकती है? वह नहीं कर सकती। इस मामले में उसका कोई अपमान भी नहीं किया गया है, बात सिर्फ इतनी है कि बिना मेकअप के बाहर जाना उसके लिए असंभव है, वह उस थोड़े-से दिखावे, थोड़े-से दैहिक लाभ को भी नहीं छोड़ सकती। तो परमेश्वर के बारे में क्या कहना है? परमेश्वर जब समाज के सबसे निचले तबके में सबसे साधारण व्यक्ति के रूप में जन्म लेने की विनम्रता दिखाता है, तो वह किस चीज का त्याग करता है? वह अपनी गरिमा त्यागता है। परमेश्वर किस लिए अपनी गरिमा का त्याग करने में सक्षम है? (लोगों से प्रेम करने और उन्हें बचाने के लिए।) यह सब लोगों से प्रेम करने और उन्हें बचाने के लिए ही है जिससे परमेश्वर का स्वभाव प्रकट होता है। तो, इससे गरिमा कम कैसे होती है? इस मामले को कैसे देखा जाना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने कौन-सी गरिमा खोई? क्या देहधारण के बाद भी तुम्हारे पास परमेश्वर वाली पहचान नहीं है? क्या अब भी तुम्हारे पास ऐसे लोग नहीं हैं जो तुम्हारे उपदेश सुनते हैं और उनका अनुसरण करते हैं? क्या तुम अभी भी अपना परमेश्वर वाला कार्य नहीं कर रहे हो—इससे तुम्हारी कौन-सी गरिमा कम हुई?” इस “गरिमा की क्षति” के कई पहलू हैं। एक लिहाज से, यह सब करने के पीछे परमेश्वर की प्रेरणा लोगों का हित है, लेकिन क्या लोग इसे समझ सकते हैं? यहाँ तक कि जो लोग उसका अनुसरण करते हैं वे भी इसे नहीं समझ सकते। समझ की इस कमी में क्या निहित है? इसमें कुछ लोगों की गलतफहमी, गलत व्याख्या, और अजीब या तिरस्कार भरी नजरें शामिल हैं। इन सारी चीजों के बीच, परमेश्वर आध्यात्मिक क्षेत्र में है, और सारी मानवता परमेश्वर के कदमों तले है, लेकिन अब जब परमेश्वर देहधारी बन गया है, तो यह उसके लिए लोगों के साथ उसी वातावरण में बराबरी से रहने जैसा है। उसे मानवता के उपहास, बदनामी, गलतफहमी और व्यंग्य का सामना करना पड़ता है, साथ ही लोगों की धारणाओं, शत्रुता और आलोचना का भी सामना करना पड़ता है—उसे इन चीजों का सामना करना पड़ता है। जब वह इन चीजों का सामना कर रहा होता है, तो क्या तुम लोेगों को लगता है कि उसकी कोई गरिमा है? परमेश्वर की पहचान के अनुसार, उसे ये चीजें नहीं झेलनी चाहिए, लोगों को परमेश्वर के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, और उसे इन चीजों को सहन नहीं करना चाहिए; ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर को सहन करना चाहिए, लेकिन जब परमेश्वर देहधारी होता है तो उसे यह सब स्वीकारना पड़ता है, उसे यह सब सहना पड़ता है, और कुछ भी नहीं बचता। भ्रष्ट मानवजाति स्वर्ग में रहने वाले परमेश्वर को तो सुखद लगने वाली कई बातें कह सकती है, लेकिन उसके मन में देहधारी परमेश्वर के लिए कोई सम्मान नहीं है। लोग सोचते हैं, “क्या परमेश्वर देहधारी हुआ है? तुम तो बहुत साधारण और सामान्य हो, तुममें कुछ भी खास नहीं है; ऐसा लगता है कि तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते!” वे कुछ भी कहने का दुस्साहस करते हैं! जब बात उनके अपने लाभ या उनकी प्रतिष्ठा की आती है, तो वे कोई भी आलोचना या निंदा करने की हिम्मत रखते हैं। इसलिए, जब परमेश्वर देहधारी होता है, तो जब वह मनुष्यों के साथ बातचीत करता है और भ्रष्ट मानवता के साथ रहता है, उसके पास यह रुतबा होता है और वह इस पहचान का आनंद लेता है, इसके साथ ही उसे अपनी पहचान के कारण हर तरह का अपमान भी सहना पड़ता है। वह अपनी सारी गरिमा खो देता है—यह वह पहली चीज है जो परमेश्वर को भ्रष्ट मानवजाति के उसके प्रति सभी भ्रम, गलतफहमियाँ, संदेह, परीक्षा, विद्रोह, आलोचनाएँ एवं कपट आदि का सामना करते हुए सहनी पड़ती है। उसे यह सब सहना पड़ता है—यह उसकी गरिमा की क्षति है। और क्या? देहधारण और आत्मा के बीच अनिवार्य रूप से कोई अंतर नहीं है—क्या यह बात ठीक है? (हाँ।) मूलतः इनमें कोई अंतर नहीं है, लेकिन एक पहलू है : देह कभी भी आत्मा की जगह नहीं ले सकता। अर्थात्, देह अपनी कई क्रियाओं द्वारा सीमाबद्ध है। उदाहरण के लिए, आत्मा अंतरिक्ष में यात्रा कर सकती है, समय, जलवायु या विभिन्न वातावरणों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, और वह सर्वव्यापी है, जबकि देह इन मामलों में सीमाओं के अधीन है। परमेश्वर की गरिमा को क्या क्षति पहुँचाई गई है? इस मामले में कठिनाई क्या है? स्वयं परमेश्वर में यह क्षमता है, किन्तु क्योंकि वह देह द्वारा सीमाबद्ध है, इसलिए अपने कार्य की अवधि में उसे कार्य पूरा होने तक सजगता से, शांति से, और आज्ञाकारिता से देह के कार्य में लगे रहना पड़ता है। जिस दौरान परमेश्वर देह में कार्य कर रहा होता है, उस समय लोग परमेश्वर का जो देख पाते हैं और अपनी धारणाओं से जो समझ सकते हैं, वह वही देह है जिसे उनकी आँखें देख पाती हैं। तो, उनकी कल्पनाओं और धारणाओं के भीतर क्या परमेश्वर की महानता, सर्वशक्तिमत्ता, बुद्धि और यहाँ तक कि अधिकार भी कुछ सीमाओं के अधीन नहीं होते? (हाँ, होते हैं।) काफी हद तक, वे चीजें कुछ सीमाओं के अधीन होती हैं। इन सीमाओं का कारण क्या है? (देहधारी होना।) ये सीमाएँ उसके देहधारी होने के कारण होती हैं। यह कहा जा सकता है कि देहधारी होना स्वयं परमेश्वर के लिए एक प्रकार की आफत का कारण बनता है है। बेशक, यहाँ “आफत” शब्द का उपयोग करना थोड़ा सटीक नहीं है, लेकिन इसे इसी तरह से कहना उचित है—इसे केवल इसी तरह से कहा जा सकता है। क्या इस आफत का लोगों की परमेश्वर के बारे में समझ पर कोई निश्चित प्रभाव पड़ता है, और क्या परमेश्वर से प्रेम करने और उसके प्रति समर्पित होने के क्रम में लोगों के परमेश्वर के साथ सच्चे जुड़ाव और संवाद पर भी कोई प्रभाव पड़ता है? (हाँ।) इसका एक निश्चित प्रभाव पड़ता है। जब तक किसी व्यक्ति ने परमेश्वर को देह में देखा है, जब तक उसका परमेश्वर की देह के साथ व्यवहार रहा है, जब तक उसने परमेश्वर के देह को बोलते सुना है, तब तक यह संभव है कि उस व्यक्ति के जीवनकाल में उसके लिए परमेश्वर की छवि, परमेश्वर की बुद्धि, परमेश्वर का सार और परमेश्वर का स्वभाव हमेशा वैसा ही बना रहेगा जैसा उसने परमेश्वर के देह में पहचाना है, देखा है और समझा है। यह परमेश्वर के साथ अन्याय है। क्या यह ऐसा ही मामला नहीं है? (हाँ, है।) यह स्थिति परमेश्वर के साथ अन्याय है। तो, परमेश्वर फिर भी ऐसा क्यों करता है? क्योंकि केवल परमेश्वर के देहधारण के माध्यम से ही परमेश्वर लोगों के शुद्धिकरण और उन्हें बचाने के काम में सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त कर सकता है—परमेश्वर इसी मार्ग को चुनता है। परमेश्वर देहधारण करता है और लोगों के बीच आमने-सामने रहता है जिससे लोग उसके वचनों को सुन सकें, उसकी हर गतिविधि देख सकें, और उसके स्वभाव, यहाँ तक कि उसके व्यक्तित्व और उसके सुख-दुःख को देख सकें। चाहे यह स्वभाव और ये सुख-दुःख, देखने वाले लोगों के मन में धारणाएँ विकसित कर सकते हों, जो परमेश्वर के सार के बारे में लोगों की समझ को प्रभावित करते हैं, और लोगों की समझ को सीमित करते हैं, भले ही परमेश्वर को इनके कारण गलत समझा जाए, फिर भी वह लोगों को बचाने के लिए यही तरीका चुनेगा जिससे सर्वोत्तम परिणाम पाए जा सकें। इसलिए, परमेश्वर के मूल चेहरे और उसकी सच्ची पहचान, स्थिति और सार के बारे में लोगों की समझ के दृष्टिकोण से उसने अपनी गरिमा का त्याग किया है। क्या ऐसा नहीं कहा जा सकता? यह इसी दृष्टिकोण से है। इस पर ध्यान से विचार करो : लोगों की समझ के अनुसार परमेश्वर ने जो कीमत चुकाई है और जो किया है, उसके विभिन्न पहलुओं में से क्या कुछ भी ऐसा है जो फरीसियों और मसीह-विरोधियों के उन सिद्धांतों और नारों के समतुल्य हो? ऐसा कुछ भी नहीं है। उदाहरण के लिए, जब फरीसी कहते थे कि “परमेश्वर सम्माननीय है,” तो वे इस सम्माननीयता को कैसे समझते थे? उनकी नजर में परमेश्वर की सम्माननीयता को कैसे महसूस किया जाना चाहिए? बस इतना ही कि वह बहुत ऊँचा है। क्या यह एक धर्म-सिद्धांत नहीं है कि “परमेश्वर सम्माननीय है, परमेश्वर बहुत सम्माननीय है”? (हाँ।) परमेश्वर की सम्माननीयता के बारे में उनका क्या विश्वास है? उनका विश्वास यह है कि यदि परमेश्वर संसार में आया, तो उसके पास महत्वपूर्ण पद होगा, सर्वोच्च ज्ञान और प्रतिभा होगी, सर्वोच्च योग्यता होगी, अव्वल दर्जे की वाक्पटुता होगी, तथा अव्वल दर्जे की पसंदीदा शक्ल-सूरत होगी। वह सम्माननीयता क्या है जिस पर वे विश्वास करते थे? यह वह है जो लोगों को दिख सके। क्या यह कुछ वैसी ही सम्माननीयता नहीं है जैसी शैतान करता है? (हाँ।) परमेश्वर ऐसा नहीं करता है! देखो कि परमेश्वर ने अपने चुने हुए लोगों में किस प्रकार के लोगों को चुना है, और यह भी देखो कि किस प्रकार के लोग शैतान की दुनिया के उत्कृष्ट कुलीनों में शामिल हैं। इस तरह से उनकी तुलना करने पर तुम्हें पता चल जाएगा कि किस प्रकार के व्यक्ति को परमेश्वर बचाता है और किस प्रकार के व्यक्ति को नहीं बचाया जा सकता। जो लोग विशेष रूप से अभिमानी, आत्मतुष्ट, गुणी, और प्रतिभाशाली हैं, उन्हीं के द्वारा सत्य स्वीकारने की संभावना सबसे कम है। उनकी वाणी ज्ञान से परिपूर्ण है, अत्यंत वाक्पटु है, और लोगों को उनकी आराधना और प्रशंसा करने पर मजबूर कर देती है, लेकिन सत्य स्वीकार न करना उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है, और वे सत्य से विमुख हैं तथा उससे घृणा करते हैं, जिससे तय होता है कि वे विनाश का मार्ग अपनाएँगे। पुनश्च, परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से किसी के पास कोई विशेष गुण या प्रतिभा नहीं है, लेकिन वे सत्य स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं, परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपनी कीर्ति, लाभ और रुतबे को त्याग सकते हैं, और अपना कर्तव्य करने के लिए तैयार हैं। ये ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाता है। अविश्वासी किसकी आराधना करते हैं? वे सभी उच्च-स्तरीय बुद्धिजीवियों और प्रतिष्ठित पारिवारिक स्थिति वाले लोगों की आराधना करते हैं। विशेष गुणों, विशेषज्ञताओं और पारिवारिक स्थिति को देखें, तो, हमारे पास इनमें से कुछ भी नहीं है—हम एक जैसे हैं। तुम लोग इस बारे में क्या सोचते हो? परमेश्वर ऐसे काम नहीं करता—क्या यह इतनी सरल बात है? परमेश्वर ने इसे इस तरह से व्यवस्थित क्यों नहीं किया? परमेश्वर का इरादा ऐसा ही है। परमेश्वर के लिए ये सब व्यवस्था करना बहुत आसान है कि कोई व्यक्ति किस परिवार में जन्म लेगा, और वह क्या ज्ञान प्राप्त कर सकेगा। क्या परमेश्वर इस तरह से कार्य कर सकता है? (हाँ।) वह वास्तव में ऐसा कर सकता है! तो फिर परमेश्वर ने हमारे लिए धनी और प्रतिष्ठित परिवारों में जन्म लेने की व्यवस्था क्यों नहीं की? यही परमेश्वर की सुंदरता है, यही परमेश्वर के सार का प्रकाशन है, और केवल सत्य समझने वाले लोग ही इस मामले को समझ सकते हैं। परमेश्वर के देहधारी होने के बाद, लोगों की धारणाएँ चाहे कितनी भी भव्य हों, परमेश्वर को अपने कार्य में चाहे कितनी भी बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, उसे चाहे कितनी भी बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़े, उसे चाहे कितने भी भारी उपहास और अपमान का सामना करना पड़े, और इस तरह से देहधारण के बाद उसकी गरिमा चाहे कितनी ही कम हो जाए, क्या वह इसकी परवाह करता है? उसे परवाह नहीं है। तो, उसे किस बात की परवाह है? अगर तुम लोग इस बात को समझ सकते हो, तो तुम सचमुच जानते हो कि परमेश्वर प्यारा है। परमेश्वर किस बात की परवाह करता है? इस कीमत को चुकाने और इतना बड़ा प्रयास करने के पीछे परमेश्वर का श्रमसाध्य इरादा क्या है? उसने यह वास्तव में किस लिए किया? (इस समूह के लिए जिसे परमेश्वर ने खुद को बेहतर ढंग से समझने, उसके देहधारी स्वरूप के माध्यम से परमेश्वर के साथ बेहतर संपर्क रखने, और फिर परमेश्वर की सच्ची समझ प्राप्त करने में सक्षम होने के लिए चुना है।) परमेश्वर की सच्ची समझ प्राप्त करने—तो क्या यह स्थिति परमेश्वर के लिए अब भी बहुत लाभदायक है? क्या परमेश्वर ने इस एक लक्ष्य के लिए इतना कुछ चुकाया है? हाँ या नहीं? क्या परमेश्वर ने 6,000 वर्षों तक इसलिए कड़ी मेहनत की कि वह लोगों को परमेश्वर के बारे में समझा सके? मुझे बताओ, परमेश्वर द्वारा लोगों के सृजन के बाद, जब मानवजाति ने खुद को परमेश्वर से दूर कर लिया और शैतान का अनुसरण किया, और लोगों ने अपना जीवन एक जीवित राक्षस की तरह बिताना शुरू कर दिया तो सबसे ज्यादा खुश कौन हुआ? (शैतान।) पीड़ित कौन है? (लोग।) तो सबसे ज्यादा दुःखी कौन है? (परमेश्वर।) क्या तुम लोग सबसे ज्यादा दुखी हो? (नहीं।) वास्तव में, कोई भी इन चीजों के आर-पार नहीं देख सकता। कोई भी स्वयं इन चीजों को नहीं जानता : वे जो भी बनने के लिए जीते हैं, उसे स्वीकारते हैं। जब तुम उनसे सत्य का अभ्यास करने के लिए कहते हो, तो उन्हें नहीं लगता कि इससे कोई फायदा होगा। वे लगातार अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीते हैं, और हमेशा परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हैं। सबसे दुःखी और सबसे ज्यादा भग्न-हृदय व्यक्ति वास्तव में परमेश्वर है। परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया; क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर को मानव अस्तित्व की वर्तमान स्थिति की परवाह है, या इसकी परवाह है कि उनका जीवन अच्छा है या नहीं? (उसे परवाह है।) परमेश्वर सबसे अधिक चिंतित है, और शायद इसमें शामिल लोग इस बात को महसूस नहीं करते, और वास्तव में वे स्वयं इसे नहीं समझते। इस दुनिया में रहते हुए, मानवजाति सौ साल पहले भी ऐसी ही थी, और अब भी यह ऐसी ही है, पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती जा रही है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी तरह जी रही है, कुछ लोग बढ़िया जीवन जी रहे हैं, कुछ गरीब हैं—जीवन उतार-चढ़ाव से भरा है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग आते हैं, अलग-अलग कपड़े पहनते हैं, एक जैसा ही भोजन खाते हैं, लेकिन सामाजिक संरचना और व्यवस्थाएँ धीरे-धीरे बदलती हैं; लोग अनजाने में वर्तमान में पहुँच जाते हैं—क्या वे जागरूक हैं? वे जागरूक नहीं हैं। तो, सबसे अधिक जागरूक कौन है? (परमेश्वर।) यह परमेश्वर है जो इन बातों की सबसे ज्यादा परवाह करता है। एक बात जो परमेश्वर नहीं भूलता वह यह है कि उसने जिन लोगों को बनाया है, वे कैसे जीते हैं, उनके जीवन की वर्तमान स्थिति क्या है, क्या वे अच्छी तरह से जी रहे हैं, वे क्या खाते और पहनते हैं, उनका भविष्य कैसा होगा, और वे हर दिन अपने दिलों में क्या सोचते हैं। यदि सभी लोग हर दिन बुरा सोचते हैं, उनकी सोच यही रहती है कि प्रकृति के नियम कैसे बदलने हैं और कैसे इन नियमों के विरुद्ध जाना है, कैसे स्वर्ग के खिलाफ लड़ना है, कैसे दुनिया की बुरी प्रवृत्तियों का अनुसरण करना है, तो क्या परमेश्वर को यह सब देख कर अच्छा लगता है? (नहीं, उसे अच्छा नहीं लगता।) तो, परमेश्वर को अच्छा नहीं लगता, और बस बात खत्म? क्या उसे इसके बारे में कुछ करना नहीं होगा? (हाँ, उसे करना होगा।) इन लोगों को अच्छी तरह से जीना सिखाने के लिए उसे एक रास्ता खोजना होगा, लोगों को स्वयं के आचरण के सिद्धांतों को समझाने के लिए, उन्हें परमेश्वर की आराधना करना सिखाने के लिए, प्रकृति के नियमों के प्रति समर्पण करना सिखाने के लिए, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना सिखाने के लिए एक रास्ता खोजना होगा ताकि लोग मानव सदृश जीवन जी सकें, और परमेश्वर को राहत मिल सके। परमेश्वर इन लोगों को छोड़ दे तो भी वे शैतान से तनिक भी पीड़ित हुए बिना ऐसे वातावरण में सामान्य रूप से रह सकें—यही परमेश्वर का इरादा है। जब शैतान देखता है कि लोग परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं और मानव सदृश जीवन जी सकते हैं, तो वह पूरी तरह से अपमानित और असफल हो जाता है, इसलिए वह इन लोगों को पूरी तरह से त्याग देता है और फिर कभी उन पर ध्यान नहीं देता। तो, शैतान किसकी परवाह करता है? वह केवल उन लोगों की परवाह करता है जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो परमेश्वर के वचनों का पाठ नहीं करते और परमेश्वर की प्रार्थना नहीं करते, जो अपने कर्तव्य आधे-अधूरे मन से करते हैं, और जो हमेशा कोई ऐसा व्यक्ति तलाशते रहते हैं जिससे विवाह करके वे परिवार और करियर शुरू कर सकें। वह इन लोगों को बहकाना चाहता है, उन्हें परमेश्वर से दूर करने, अपना कर्तव्य न करने और परमेश्वर को धोखा देने के लिए इतना गुमराह करना चाहता है कि वे परमेश्वर द्वारा निकाल दिए जाएँ—तभी वह पूरी तरह से खुश होता है। जितना अधिक तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, वह उतना ही अधिक खुश होता है, तुम जितना अधिक कीर्ति, लाभ और पद के पीछे दौड़ते हो, और जितनी अधिक अपने कर्तव्य निर्वहन में लापरवाही करते हो, वह उतना ही अधिक खुश होता है। यदि तुम खुद को परमेश्वर से दूर कर लो और उसे धोखा दो, तो शैतान और भी अधिक खुश हो जाता है—क्या यही शैतान की मानसिकता नहीं है? क्या मसीह-विरोधियों की मानसिकता भी ऐसी ही नहीं है? शैतान जैसे सभी लोगों की यही मानसिकता होती है। वे हर उस व्यक्ति को बहकाना चाहते हैं जो, जैसा कि वे देखते हैं, परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास नहीं करता, जो ज्ञान प्राप्ति, कीर्ति, लाभ और रुतबा हासिल करने पर ध्यान देता है, और जो अपने कर्तव्य निर्वहन में अपने मुख्य कार्य पर ध्यान नहीं देता। जब वे ऐसे लोगों से मिलते हैं, तो वे उनके साथ उन्हीं की भाषा में बात करते हैं, जब वे साथ होते हैं तो उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ होता है, और वे बिना किसी संकोच के अपने मन की बात खुलकर कहते हैं। परमेश्वर जब देखता है कि ये लोग सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हैं, तो उसे कैसा महसूस होता है? उसे चिंता होती है! इसलिए, परमेश्वर ने जो इतनी कीमत चुकाई है, उसका कारण क्या है? यह सब मानवता के लिए उसकी चिंता, परवाह और परेशानी के कारण है। परमेश्वर के हृदय में लोगों के बारे में ये चिंताएँ, परवाह और परेशानियाँ होती हैं, और चूँकि परमेश्वर लोगों के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखता है, इसलिए उसका कार्य चरणबद्ध तरीके से होता है। लोगों की नजरों में परमेश्वर चाहे विनम्र और छिपा हुआ है, वह लोगों से सच्चा प्यार करता है, वह वफादार है, या चाहे वह महान है, परमेश्वर का मानना है कि ये सभी कीमतें उचित हैं और इनका पुरस्कार मिल सकता है। इस पुरस्कार का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि जिन चीजों के बारे में वह अपने दिल में परेशान रहता है, वे फिर कभी नहीं होंगी, और जिन लोगों के बारे में वह अपने दिल में चिंतित है, वे उसके इरादों के अनुसार, उसके सिखाए और निर्दिष्ट तरीके और दिशा के अनुसार जी सकते हैं, और इन लोगों को शैतान अब भ्रष्ट नहीं कर सकेगा—वे अब और पीड़ा में नहीं रहेंगे, और परमेश्वर की परेशानियाँ खत्म हो जाएँगी और परमेश्वर को राहत मिलेगी। तो, परमेश्वर ने जो कुछ भी किया है, उसके संबंध में उसकी प्राथमिक प्रेरणा चाहे जो हो, उसकी योजना कितनी ही बड़ी या छोटी हो—क्या ये सब सकारात्मक नहीं है? (हाँ, है।) ये सभी सकारात्मक चीजें हैं। इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर के कार्य करने का तरीका लोगों के लिए अदृश्य है, कि वह उल्लेख करने योग्य है भी या नहीं, लोगों का न्याय करने और उन्हें बचाने के लिए किए जाने वाले परमेश्वर के कार्य के तरीके के बारे में लोग कैसी भी राय दें, परमेश्वर ने जो कुछ किया है और जो कीमत वह चुका सकता है, उसे देखते हुए, क्या परमेश्वर प्रशंसनीय नहीं है? (हाँ, वह प्रशंसनीय है।) तो, परमेश्वर महान है या क्षुद्र? (वह महान है।) बहुत महान! मानवजाति में से कोई भी ऐसी कीमत नहीं चुका सकता। कुछ लोग कहते हैं कि “माँ का प्रेम मानवजाति में सबसे महान है।” पर, क्या माँ का प्रेम इसके जितना महान है? आम तौर पर, बच्चे जब स्वतंत्र रूप से अपना जीवन जीने लगते हैं, तो उनकी माताएँ उनके बारे में तब तक चिंता नहीं करतीं, जब तक कि वे अपना काम चला सकते हैं। वास्तव में, वे अपने बच्चों के बारे में चाहें तो भी चिंता नहीं कर सकतीं। तो, परमेश्वर इस मानवजाति के साथ कैसा व्यवहार करता है? उसने कितने हजार वर्षों से इसे सहन किया है? परमेश्वर ने इसे छह हजार वर्षों से सहन किया है और अब भी हार नहीं मानी है। बस उस थोड़ी-सी परेशानी और चिंता की वजह से परमेश्वर ने इतनी बड़ी कीमत चुकाई। फरीसियों और उन मसीह-विरोधियों की नजर में इतनी बड़ी कीमत का क्या महत्व है? वे इसकी निंदा करते हैं, इसकी आलोचना करते हैं, यहाँ तक कि इसकी ईशनिंदा भी करते हैं। इस नजरिये से क्या वे मसीह-विरोधी प्रकृति से दुष्ट नहीं हैं? (हाँ, वे हैं।) परमेश्वर ने ऐसे प्रशंसनीय कार्य किए हैं, और परमेश्वर का सार और जो उसके पास है और जो वह है वह सब कुछ लोगों की प्रशंसा का पात्र है। फिर भी लोग न केवल उसकी प्रशंसा नहीं करते, बल्कि वे उसकी निंदा करने और उसकी आलोचना करने के लिए तरह-तरह के बहानों और सिद्धांतों का प्रयोग करते हैं, और यहाँ तक कि यह स्वीकारने से भी इनकार करते हैं कि वह मसीह है। क्या ये लोग घृणित नहीं हैं? (हाँ, वे हैं।) क्या वे दुष्ट नहीं हैं? उनके दुष्ट व्यवहार को देखते हुए, क्या वे ज्ञान और शिक्षा की आराधना नहीं करते हैं? क्या वे शक्ति और रुतबे की आराधना नहीं करते? (हाँ, वे ऐसा ही करते हैं।) चीजें जितनी अधिक सकारात्मक होंगी, वे लोगों की प्रशंसा, स्मरण और प्रसार के उतनी ही अधिक योग्य होंगी, और मसीह-विरोधी उनकी उतनी ही अधिक निंदा करेंगे। यह मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति का एक प्रकाशन है। यह अवश्य कहा जाना चाहिए कि मसीह-विरोधियों की दुष्टता का स्तर भ्रष्ट स्वभाव वाले अधिकांश लोगों की पहुँच से परे है।
आओ, पौलुस के बारे में चर्चा करते हुए बात को जारी रखते हैं। पौलुस किस तरह के परिवार में पैदा हुआ था? वह एक बौद्धिक परिवार, एक पढ़े-लिखे परिवार में पैदा हुआ था। वह ऐसे परिवार में पैदा हुआ था, और उसके जन्म की पृष्ठभूमि अच्छी मानी जाती थी। वह उच्च शिक्षित था। वर्तमान मानकों के अनुसार, वह धर्मशास्त्र का अध्ययन करने वाला या विश्वविद्यालयी शिक्षा ग्रहण करने वाला व्यक्ति हो सकता था। तो क्या उसका ज्ञान और शिक्षा अधिकांश लोगों से बेहतर थी? (हाँ।) पौलुस के ज्ञान और शिक्षा को देखते हुए, क्या उसके लिए यह पहचानना आसान था कि प्रभु यीशु मसीह था? (हाँ, ऐसा ही था।) ऐसा करना बहुत आसान था। लेकिन उसने प्रभु यीशु को मसीह के रूप में क्यों नहीं पहचाना? (वह ज्ञान का उपासक था और महसूस करता था कि प्रभु यीशु उसके जितना ज्ञानी नहीं था, इसीलिए उसने प्रभु यीशु को नहीं पहचाना।) इसे इस तरह से कहना बहुत आसान है। यदि प्रभु यीशु उसके जितना ज्ञानी नहीं होता, तो पौलुस उसे पहचान नहीं पाता। यदि प्रभु यीशु के पास वास्तव में ज्ञान होता, तो पौलुस उसे पहचान सकता था। यह थोड़ा-सा आंशिक-अनुमान है। अब, हम केवल यह कहें कि मसीह-विरोधी ज्ञान की आराधना करते हैं; अर्थात्, जब वे लोगों की बात सुनते हैं और लोगों तथा मामलों से निपट रहे होते हैं, तो उनके पास एक दृष्टिकोण होता है जिससे दूसरों को यह दिख जाता है कि वे ज्ञान और शिक्षा की आराधना करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारे शब्द बहुत तार्किक, उच्च-स्तरीय, चतुर, अथाह और सारगर्भित हैं, तो यही वे गुण हैं जो एक मसीह-विरोधी पसंद करता है। सारगर्भित होने के साथ-साथ तार्किक, दार्शनिक और यहाँ तक कि एक निश्चित शिक्षा के अनुरूप हों—यही तो वह चाहता है। प्रभु यीशु परमेश्वर का देहधारी है, और वह जो कुछ भी बोलता है वे सब परमेश्वर के वचन और सत्य हैं। तो, ज्ञानी और शिक्षित लोग जब इन वचनों और सत्यों को देखते हैं, तो वे उनका मूल्यांकन कैसे करते हैं? “तुम्हारे द्वारा बोले गए शब्द बहुत ही अशिष्ट और सतही हैं। परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में ये सभी तुच्छ बातें हैं। वे न तो गहन हैं और न ही अथाह। उनमें कोई रहस्य नहीं हैं। फिर भी तुम कहते हो कि वे सत्य हैं। सत्य में इतनी बड़ी बात क्या है? ये बातें तो मैं भी कह सकता हूँ!” क्या मसीह-विरोधी इन पर विश्वास नहीं करते? (हाँ, वे विश्वास नहीं करते।) वे इस तरह इनका महत्त्व कम कर देते हैं और सोचते हैं, “मुझे देखने दो कि तुम जिन चीजों के बारे में बात कर रहे हो वे आखिर मेरे ज्ञान से ऊँची हैं या नीची।” वे जैसे ही परमेश्वर के वचनों और सत्यों को सुनते हैं, चुनौती देते हुए कहते हैं, “तुम प्राथमिक विद्यालय के छात्र जैसे लगते हो। मैं महाविद्यालय का छात्र हूँ, इसलिए तुम मेरे जितने अच्छे नहीं हो!” फिर वे परमेश्वर के वचनों में कुछ दोष ढूँढ़ते हुए कहते हैं, “ऐसा लगता है कि तुम व्याकरण नहीं समझते, और बोलते समय तुम जो शब्द इस्तेमाल करते हो कभी-कभी वे उचित नहीं होते। तुम परमेश्वर जैसे तो नहीं लगते।” वह परमेश्वर है या नहीं, यह देखने के लिए वे उसकी शक्ल-सूरत देखते हैं; वे उसके वचनों का कथ्य नहीं सुनते, वे यह नहीं सुनते कि जो व्यक्त किया गया है वह सत्य है या नहीं, या ये वचन परमेश्वर की ओर से आए हैं या नहीं। क्या यह आध्यात्मिक समझ की कमी नहीं है? (हाँ, यह ऐसा ही है।) इसका मतलब हुआ कि मसीह-विरोधियों का एक और लक्षण होता है : उनमें आध्यात्मिक समझ की कमी होती है। चूँकि वे ज्ञान और सीखने को महत्त्व देते हैं, इसलिए वे सत्य नहीं समझते। वे कभी भी सत्य नहीं समझ पाएँगे। उनकी नियति में आध्यात्मिक समझ की कमी वाले लोग होना ही बदा है। वे परमेश्वर द्वारा बोले गए प्रत्येक वाक्य को तौलने के लिए अपने ज्ञान का उपयोग करते हैं। क्या वे सत्य समझ सकते हैं? क्या वे जान सकते हैं कि यह सत्य है? क्या वे अंततः किसी निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं और कह सकते हैं कि परमेश्वर द्वारा कहे गए ये सभी वचन सत्य हैं? क्या वे उन्हें पहचान सकते हैं? वे उन्हें नहीं पहचान सकते। तो, वे अपनी नजर में देहधारी परमेश्वर को किस तरह देखते हैं? वे सोचते हैं, “मैं इसे चाहे जैसे देखूँ, है तो वह मनुष्य ही। मैं इसे कैसे भी देखूँ, इसमें मैं परमेश्वर के गुण नहीं देख सकता। मैं इसे कैसे भी सुनूँ, मैं यह नहीं बता सकता कि उसके कौन-से वचन सत्य के अनुरूप हैं और कौन-से वचन सत्य हैं।” इसलिए, अपने दिल की गहराई में, वे सोचते हैं : “यदि तुम्हारे पास कुछ नया और ताजा है, और मैं तुमसे कुछ सिद्धांत हासिल कर सकता हूँ, और तुमसे कुछ पूँजी जुटा सकता हूँ, तो मैं अभी तुम्हारा अनुसरण करूँगा और देखूँगा कि क्या परिणाम निकलता है।” लेकिन क्या वे अपने दिल की गहराई से प्रभु यीशु को स्वीकार सकते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते।) वे उसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे। वे उसे स्वीकार क्यों नहीं करते? इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि उन्हें ज्ञान बहुत पसंद है। उनकी पसंद और वह ज्ञान जिससे वे लैस हैं और जिसे उन्होंने सीखा है, उनकी आँखों और उनके दिमाग को अंधा कर देता है, उन्हें वह सब देखने से रोकता है जो परमेश्वर ने किया है। यहाँ तक कि परमेश्वर जो कहता है वह स्पष्ट रूप से सत्य हो तो भी, परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य स्पष्ट रूप से परमेश्वर की पहचान और सार को व्यक्त करता हो तो भी, वे इसे नहीं देख सकते। वे इसे क्यों नहीं देख सकते? क्योंकि उनका ज्ञान और शिक्षा उन्हें परमेश्वर के बारे में धारणाओं, कल्पनाओं और निर्णयों से भर देते हैं। अंत में, वे चाहे जैसे उपदेश सुनें या परमेश्वर के संपर्क में आएँ, वे परमेश्वर की कही बातों को समझ नहीं पाते, यह स्वीकारना तो दूर की बात है कि इस व्यक्ति ने जो कुछ कहा है वह लोगों को बदल सकता है या यही सत्य, मार्ग और जीवन है। यह कुछ ऐसी बात है जिसे वे कभी स्वीकार नहीं कर सकते। वे इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकते जिससे यह नियत हो जाता है कि ठीक पौलुस की ही तरह वे भी बचाए नहीं जाएँगे। क्या पौलुस ने स्वीकार किया कि प्रभु यीशु मसीह थे? उसने अंत में भी यह बात स्वीकार नहीं की। कुछ लोग कहते हैं : “जब वह दमिश्क के रास्ते पर गिराया गया था, तो क्या उसने प्रभु को नहीं पुकारा था? उसने स्वीकार कर लिया होगा। यह कैसे कहा जा सकता है कि उसने स्वीकार नहीं किया?” एक तथ्य यह साबित करता है कि पौलुस ने कभी भी प्रभु यीशु मसीह को अपना उद्धारक नहीं माना। यानी, जब वह गिराया गया था, तब भी वह मसीह बनने की कोशिश करता रहा। क्या मसीह होना कुछ ऐसा है कि कोई भी आसानी से मसीह बन जाए? मसीह मनुष्य के रूप में देहधारी परमेश्वर है। वह परमेश्वर है और कोई भी व्यक्ति मात्र इसलिए मसीह नहीं बन सकता क्योंकि वह मसीह बनना चाहता है। कौन मसीह नहीं बनना चाहता, लेकिन क्या यह कुछ ऐसा है जो मनुष्य कर सकता है? यह लोगों की इच्छा का मामला नहीं है। पौलुस भी मसीह बनना चाहता था। पौलुस के अनुसरण को देखें, तो क्या वह पहचान सका था कि प्रभु यीशु मसीह और प्रभु है? (नहीं, वह नहीं पहचान सका था।) फिर उसने प्रभु यीशु की पहचान और स्थिति को किस रूप में ग्रहण किया? परमेश्वर के पुत्र के रूप में। परमेश्वर का पुत्र क्या है? इसका मतलब है कि “तुम परमेश्वर नहीं हो, तुम परमेश्वर के एक पुत्र हो, तुम परमेश्वर से छोटे हो, तुम हमारे जैसे ही हो; हम परमेश्वर के पुत्र हैं, और तुम भी परमेश्वर के एक पुत्र हो, लेकिन परमेश्वर ने तुम्हें एक अलग आदेश दिया है और तुमने अलग कार्य किया है। यदि परमेश्वर यह काम मुझे देता, तो मैं इसे कर सकता था और इसे सहन भी कर सकता था।” क्या इसका मतलब यह नहीं है कि पौलुस ने इस तथ्य को स्वीकार ही नहीं किया कि प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर है? (हाँ, इसका यही अर्थ है।) उसका मानना था कि उसके विश्वास का परमेश्वर स्वर्ग में है, कि यह मसीह परमेश्वर नहीं है, और परमेश्वर की पहचान और स्थिति का इस मसीह से कोई संबंध नहीं है। प्रभु यीशु के प्रति उसकी समझ और रवैया कैसे विकसित हुए? वे उसके ज्ञान और कल्पनाओं से निकाले गए निष्कर्ष थे। उसने ये निष्कर्ष कैसे निकाले? उसने उन्हें किस वाक्य में देखा? प्रभु यीशु ने कहा था, “मेरा पिता ऐसा या वैसा है,” और “मैं स्वर्ग में स्थित मेरे पिता के द्वारा यह सब करता हूँ,” और उसने यह सुना और सोचा, “क्या तुम भी परमेश्वर को परमेश्वर कहते हो? क्या तुम भी स्वर्ग में स्थित परमेश्वर को पिता कहते हो? तो, क्या तुम परमेश्वर के एक पुत्र हो?” क्या यह मानव मस्तिष्क की कल्पना नहीं है? यह ज्ञानी लोगों का निकाला हुआ निष्कर्ष है : “यदि तुम स्वर्ग में स्थित परमेश्वर को पिता कहते हो, और हम भी उसे पिता कहते हैं, तो हम भाई हैं। तुम सबसे बड़े पुत्र हो, हम दूसरे पुत्र हैं, और स्वर्ग में स्थित परमेश्वर हमारा साझा परमेश्वर है। इसलिए, तुम परमेश्वर नहीं हो, और हम सभी एक समान स्तर पर हैं। इसीलिए, यह प्रभु यीशु मसीह नहीं है जो अंततः यह तय करता हो कि किसे पुरस्कृत किया जाए, किसे दंडित किया जाए, और उनका अंतिम परिणाम क्या होगा—यह करने वाला प्रभु यीशु मसीह नहीं है, बल्कि स्वर्ग में स्थित परमेश्वर है।” पौलुस के ये निष्कर्ष और बेतुके दृष्टिकोण सभी धर्मशास्त्रों के अध्ययन और ज्ञानार्जन के बाद, विश्लेषण और न्याय करने में अपने दिमाग का उपयोग करने से हासिल हुए थे। उन सारी बातों का यह परिणाम था।
पौलुस ज्ञान को जीवन रक्षक तिनका, अपनी पूंजी और उससे भी अधिक अपना लक्ष्य मानता था। यदि पौलुस ने ज्ञान की उपासना न की होती, बल्कि अपने पहले से अर्जित ज्ञान को त्याग दिया होता, प्रभु यीशु को अनुसरणीय और सत्य व्यक्त कर सकने वाले प्रभु के रूप में माना होता और प्रभु यीशु के वचनों को पालन और अभ्यास करने योग्य सत्य के रूप में माना होता—तो परिणाम अलग होता। पतरस ने तीन बार प्रभु को नकार दिया, एक तो इसलिए कि वह डर गया था, और दूसरी बात यह कि उसने देखा कि प्रभु यीशु साधारण व्यक्ति था जिसे गिरफ्तार किया गया था और वह पीड़ा भोग रहा था। उसके दिल में कमजोरी थी—यह कोई घातक दोष नहीं था। न ही यह घातक दोष था कि उसने एक पल के लिए प्रभु को नकार दिया। यह ऐसा सबूत नहीं है जो अंततः किसी व्यक्ति के परिणाम को निर्धारित कर सकता हो। वह क्या चीज है जो अंततः लोगों का परिणाम निर्धारित करती है? वह बात यह है कि क्या वे परमेश्वर के वचनों को परमेश्वर के वचनों के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, उनका सत्य के रूप में पालन और अभ्यास कर सकते हैं। पौलुस और पतरस दो पूरी तरह से अलग उदाहरण हैं। पतरस एक मौके पर कमजोर था, उसने एक बार प्रभु को नकार दिया, और एक बार प्रभु पर संदेह किया, लेकिन अंतिम परिणाम यह था कि पतरस को पूर्ण बनाया गया। पौलुस ने प्रभु के लिए काम किया और कई वर्षों तक कष्ट सहे। यह तर्कसंगत बात है कि उसे मुकुट मिलना चाहिए था, लेकिन उसे अंत में परमेश्वर द्वारा दंडित क्यों होना पड़ा? उसके और पतरस के अंतिम परिणाम अलग-अलग क्यों थे? यह किसी व्यक्ति के प्रकृति सार और उसके द्वारा अपनाए गए मार्ग पर निर्भर करता है। पौलुस का प्रकृति सार क्या था? उसमें कम से कम दुष्टता का एक तत्व तो था। उसने ज्ञान और रुतबा पाने के लिए पागलों की तरह प्रयास किया, वह पुरस्कारों और मुकुट का पीछा करता रहा, और इधर-उधर भागता रहा, काम करता रहा, और सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण किए बिना उस मुकुट के लिए कीमत चुकाता रहा। इसके अलावा, अपने कार्य के दौरान, उसने कभी भी प्रभु यीशु के वचनों की गवाही नहीं दी, न ही उसने यह गवाही दी कि प्रभु यीशु मसीह है, परमेश्वर है, या देहधारी परमेश्वर है, कि प्रभु यीशु परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है, और वह जो भी वचन बोलता है वे परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन हैं। पौलुस इन बातों को समझ नहीं पाया। तो, पौलुस ने कौन सा मार्ग चुना? उसने हठपूर्वक ज्ञान और धर्मशास्त्र का अनुसरण किया, सत्य की अवहेलना की, सत्य स्वीकारने से मना किया और अपने रुतबे का प्रबंधन करने, उसे बनाए रखने और स्थिर करने के कामों में अपनी खूबियों और ज्ञान का उपयोग किया। उसका अंतिम परिणाम क्या रहा? शायद तुम बाहर से यह नहीं देख सकते कि मृत्यु से पहले उसे क्या सजा मिली थी, या क्या उसकी कोई असामान्य अभिव्यक्ति थी, लेकिन उसका अंतिम परिणाम पतरस से अलग था। यह “अंतर” किस बात पर निर्भर करता था? एक बात है व्यक्ति का प्रकृति सार, और दूसरी है वह मार्ग जो वे अपनाते हैं। प्रभु यीशु के प्रति पौलुस के रवैये और दृष्टिकोण के संबंध में, उसका प्रतिरोध सामान्य लोगों के प्रतिरोध से किस प्रकार अलग था? साथ ही, पौलुस द्वारा प्रभु को नकारने और खारिज करने, और पतरस द्वारा परमेश्वर के नाम को नकारने और कमजोरी और भय के कारण प्रभु को पहचानने में तीन बार विफल रहने के बीच क्या अंतर है? पौलुस ने अपना कार्य करने के लिए ज्ञान, शिक्षा और अपनी खूबियों का उपयोग किया। उसने सत्य का बिल्कुल भी अभ्यास नहीं किया, न ही उसने परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण किया। इसलिए, क्या तुम उसके इधर-उधर भाग-दौड़ करते हुए काम करने के दौरान या उसके पत्रों में उसकी कमजोरी देख पाए? तुम नहीं देख पाए, है ना? उसने बार-बार लोगों को सिखाया कि क्या करना है और पुरस्कार, मुकुट और एक अच्छी मंजिल पाने के प्रयास करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। उसके पास सत्य का अभ्यास करने का कोई अनुभव, समझ या गुणावगुण का विश्लेषण नहीं था। दूसरी ओर, पतरस अपने कार्य बिना शोर-शराबे के करता था। उसके पास वे गहन सिद्धांत या प्रसिद्ध पत्र नहीं थे। अलबत्ता, उसके पास सत्य की थोड़ी वास्तविक समझ और अभ्यास था। यद्यपि उसने अपने जीवन में कमजोरी और भ्रष्टाचार का अनुभव किया था, पर कई परीक्षणों के बाद उसने परमेश्वर के साथ जो रिश्ता बनाया वह मनुष्य और परमेश्वर के बीच का रिश्ता था, जो पौलुस से बिल्कुल अलग था। हालाँकि पौलुस ने काम किए, लेकिन उसने जो कुछ भी किया उसका परमेश्वर से कोई मतलब नहीं था। उसने परमेश्वर के वचनों, उसके कार्य, उसके प्यार या उसके द्वारा मानवजाति के उद्धार की गवाही नहीं दी, और लोगों के प्रति परमेश्वर के इरादों या उसकी अपेक्षाओं के बारे में तो बिल्कुल गवाही नहीं दी। उसने लोगों को अक्सर यह भी बताया कि प्रभु यीशु परमेश्वर का पुत्र था, जिसके कारण अंततः लोगों ने परमेश्वर को त्रिएकता के रूप में देखना शुरू कर दिया। “त्रिएकता” शब्द की उत्पत्ति पौलुस से हुई। यदि “पिता और पुत्र” जैसी कोई चीज न हो, तो क्या “त्रिएकता” का होना संभव है? नहीं संभव है। मानवीय कल्पनाएँ कुछ ज्यादा ही “समृद्ध” हैं। अगर तुम परमेश्वर के देहधारण को नहीं समझ सकते, तो आँख मूँदकर फ़ैसला न सुनाओ या आँख मूँदकर निर्णय न लो। बस प्रभु यीशु के वचनों को सुनो और उसे परमेश्वर के रूप में मानो, जैसे कि परमेश्वर देह में प्रकट होकर मनुष्य बन गया हो। इस तरह से व्यवहार करना अधिक वस्तुनिष्ठ है।
परमेश्वर के कार्य के इस चरण में जब पहली बार उसके स्त्री रूप में देहधारण की गवाही सामने आई, तो बहुत से लोग इसे स्वीकार नहीं कर पाए और इसी पर अटक गए। उन्हें लगा कि “बोले जा रहे सभी शब्द सत्य हैं, जो काम किया जा रहा है वह शब्दों के द्वारा न्याय का कार्य है—ये चीजें परमेश्वर के कार्य की तरह लगती हैं, और मैं स्वीकार कर सकता हूँ कि यह व्यक्ति देहधारी परमेश्वर है—बस इतनी-सी बात है कि परमेश्वर के इस लिंग को स्वीकार करना आसान नहीं है।” लेकिन चूँकि ये सभी वचन सत्य हैं, इसलिए वे थोड़ी अनिच्छा के साथ उसे स्वीकारते हैं, और अपने हृदय में सोचते हैं, “मैं पहले उसका अनुसरण करूँगा और देखूँगा कि क्या वह वास्तव में परमेश्वर है”—बहुत से लोगों ने इस तरह से अनुसरण किया। परमेश्वर द्वारा मानव जाति की रचना पुरुष और महिला, दो लिंगों, में की गई है और परमेश्वर का देहधारण कोई अपवाद नहीं है, वह या तो पुरुष है, या महिला। अचानक एक दिन किसी ने मुझसे पूछा, “यह कैसे जाना जा सकता है कि इस बार का देहधारण स्त्री है?” मैंने उत्तर दिया, “तुम इसे कैसे देखते हो? परमेश्वर लोगों की धारणाओं के अनुरूप कार्य नहीं करता : यदि तुम लोगों को यकीन है कि यह परमेश्वर द्वारा किया गया है तो तुम लोगों को परमेश्वर के कार्यों पर शोध नहीं करना चाहिए, और यदि तुम इसे नहीं समझते हो तो तुम्हें प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि तुम खोजते हो और फिर भी परिणाम नहीं मिलता तो बस देखो कि क्या तुम समर्पण कर सकते हो। यदि तुम समर्पण कर सकते हो तो तुम तर्कसंगत हो, लेकिन यदि तुम इस वजह से अटक जाते हो और परमेश्वर ने जो सब किया है उसे नकार देते हो तो तुम तर्कसंगत नहीं हो, तुम परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले नहीं हो। परमेश्वर दस चीजें करता है जिन्हें तुम सही मानते हो और अपनी धारणाओं के अनुरूप पाते हो, लेकिन यदि एक चीज तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं है तो तुम सभी दस चीजों को पलट देते हो—यह कैसा नीच है? क्या यह शैतान नहीं है?” जब मैंने इस तरह संगति की, तो उन्होंने कहा, “हाँ, तो मुझे इसे अभी स्वीकार कर लेना चाहिए।” जब मैंने अपनी संगति समाप्त की तो उन्होंने तुरंत इसे समझ लिया और स्वीकार कर लिया—क्या उनकी काबिलियत बहुत अच्छी नहीं है? मान लेते हैं कि ऐसा ही है। उन्होंने आगे कहा, “परमेश्वर ने पुरुष और महिला की रचना की, और पहली बार जब परमेश्वर देहधारी हुआ तो वह पुरुष था, परमेश्वर का पुत्र था। इस बार वह एक महिला के रूप में देहधारी हुआ है—तो, क्या यह परमेश्वर की पुत्री नहीं होगी? मुझे बताओ कि क्या मैं इसे सही तरीके से समझ पा रहा हूँ। जब लोगों के बच्चे होते हैं तो वे चाहते हैं कि उनके बेटा और बेटी दोनों हों—क्या परमेश्वर भी दोनों चाहता है?” मुझे उन्हें कैसे जवाब देना चाहिए था और इस मामले को कैसे समझाना चाहिए था? क्या इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए? क्या इसे ठीक करने की आवश्यकता नहीं है? क्या वे जो कह रहे थे उसमें कोई समस्या है? समस्या है। उन्होंने कहा, “परमेश्वर का एक पुत्र है प्रभु यीशु, और इस बार देहधारण स्त्री रूप में हुआ है, इसलिए इस स्थिति में यह उसकी पुत्री होगी। इस तरह, परमेश्वर के एक पुत्र है और एक पुत्री है, उसके पास दोनों हैं, इसलिए पवित्र आत्मा की कोई जरूरत नहीं है। इस त्रिएकता में पवित्र पिता, पवित्र पुत्र और पवित्र पुत्री हैं—यह कितना उपयुक्त और गरिमापूर्ण है! पुत्री के बिना यह पूरा नहीं होता।” इसे सुनने के बाद तुम्हें कैसा महसूस हो रहा है? तुम नहीं जानते कि इस पर हँसना चाहिए या रोना। बताओ, क्या यह मजाक नहीं है? (हाँ, यह मजाक है।) क्या देहधारण के बारे में उनकी और पौलुस की समझ में कोई अंतर है? (नहीं।) कोई अंतर नहीं है। यदि लोग परमेश्वर को समझने के मामलों में, विशेष रूप से परमेश्वर की पहचान और सार के मामलों में, अनुमान लगाने और निष्कर्ष निकालने के लिए हमेशा अपनी चतुराई, कल्पनाओं और धारणाओं पर भरोसा करेंगे, और इन्हें कुछ दृष्टिकोणों के साथ लागू करेंगे, तो यह परेशानी वाली बात होगी, और वे गलतियाँ करेंगे और समस्याओं का सामना करेंगे। तो, इस मामले से निपटने का सबसे उपयुक्त तरीका क्या है? कुछ मामले अधिक गहन और अमूर्त होते हैं जिन्हें समझना लोगों के लिए आसान नहीं होता, और इस समस्या के सार और मूल कारण को देख पाना आसान नहीं है; यदि इन चीजों में सत्य शामिल नहीं है, या ये चीजें सत्य के तुम्हारे अनुसरण को प्रभावित नहीं करतीं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले ऐसी चीजों को छोड़ दो। उन पर शोध करने का क्या फायदा? तुम्हारे लिए यह मामला शोध करने का नहीं है। तुम्हें बस जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करना है और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में सक्षम होना है। एक दिन तुम इन मामलों को स्वाभाविक रूप से समझ जाओगे। कुछ लोग कहते हैं कि वे इन्हें छोड़ नहीं सकते और इन पर शोध करना चाहते हैं। यह परेशानी वाली बात है। तुम्हें इन पर शोध नहीं करना चाहिए। लोगों को परमेश्वर की पहचान, परमेश्वर के सार और परमेश्वर की स्थिति से जुड़े मामलों को शोध के नजरिये से नहीं देखना चाहिए। यदि तुम शोध करना जारी रखते हो, तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। गंभीर मामलों में तुम परमेश्वर की घोर निंदा करोगे। परमेश्वर की पहचान और सार से जुड़े मामलों से लोगों को कैसे निपटना चाहिए? मामले को उलझाओ नहीं, और इस बारे में भले तुम पूरी तरह से स्पष्ट न हो, एक बात निश्चित है : वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है, वह परमेश्वर का प्रकटन है, वह जो व्यक्त करता है वह सत्य है, लोगों को सत्य ही स्वीकार करना चाहिए, और सत्य को पाने के लिए इतना पर्याप्त है।
मसीह विरोधियों का प्रकृति सार देखें तो, वे सबसे अधिक आराधना किसकी करते हैं? ऊँचे, खोखले, अमूर्त तथाकथित धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों की। उनके लिए, ये सिद्धांत अत्यंत मूल्यवान हैं। वे इन चीजों को बहुत महत्व देते हैं, उनसे बहुत प्यार करते हैं, और भीड़ से अलग दिखने के लिए वे इन चीजों को हासिल करने के सभी संभव तरीकों के बारे में सोचते हैं। वे अपने मन में इन चीजों को ध्यान में रखते हैं और उन्हें पूँजी के रूप में देखते हैं, उन्हें अपने जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सीढ़ियों के रूप में देखते हैं और यह नहीं जानते कि ये चीजें मूल रूप से सत्य नहीं हैं। लेकिन वे खुद को इन धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों से लैस करना पसंद करते हैं, जो बाद में गहरे धंस जाते हैं, और वे उन्हें सत्य मान लेते हैं। वे इस धर्मशास्त्रीय ज्ञान का उपयोग परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों का अध्ययन करने के लिए करते हैं। जब वे देखते हैं कि परमेश्वर के वचन और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य उन धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं जिनके वे पक्षधर हैं, तो वे अपने आप को परमेश्वर के वचनों की आधारहीन आलोचना और निंदा करने से नहीं रोक पाते। अपने मन में वे कोई डर महसूस नहीं करते क्योंकि उन्हें विश्वास होता है कि उनके पास ऐसा करने के लिए बाइबल का आधार है। उनमें से कुछ लोग परमेश्वर के वचनों की निंदा भी करते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर के वचन बहुत उबाऊ हैं। उनमें से कुछ बातें तार्किक नहीं हैं, तो कुछ व्याकरण के अनुरूप नहीं हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली के कुछ शब्द भी ठीक अर्थ नहीं देते।” वे बस अपने ही दिमाग और विचारों में जीते हैं, परमेश्वर के वचनों का विश्लेषण और अध्ययन करने के लिए अपने पास मौजूद ज्ञान और विद्वता का उपयोग करते हैं। उनमें से कई लोग परमेश्वर के वचनों में यह खोजने के लिए अपनी कल्पनाओं और निर्णय क्षमता का उपयोग करते हैं कि परमेश्वर कुछ लोगों को किस तरह से परिभाषित करता है या वह कुछ लोगों के लिए कौन-सी मंजिलें तय करता है, और फिर उन चीजों का विश्लेषण और निंदा बाइबल के आधार पर करते हैं, इस प्रकार परमेश्वर के वचनों को नकारना शुरू कर देते हैं। जब वे परमेश्वर के वचनों का विश्लेषण और उनकी निंदा करते हैं, तो कुछ भयानक बात घटित होती है। क्या तुम लोग जानते हो कि वह क्या है? जब लोग परमेश्वर का विश्लेषण और अध्ययन करते हैं और जब लोगों में निंदा की मानसिकता पैदा होती है, तो पवित्र आत्मा इन लोगों को ठुकरा देती है और उनमें काम नहीं करती। क्या यह भयानक बात नहीं है? और तुम लोग जानते हो कि जब पवित्र आत्मा काम नहीं करती है तो यह क्या पूर्वाभास देता है। जब पवित्र आत्मा काम नहीं करती, तो परमेश्वर इन लोगों से दूर हो जाता है, यह उन लोगों को त्याग दिए जाने के बराबर है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा। हम कारण का विश्लेषण कर सकते हैं। जिन धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों से वे लोग अपने आधे जीवन में खुद को मजबूत करते रहे हैं, वे आते कहाँ से हैं? वे किसका प्रतिनिधित्व करते हैं? अपने हृदय में वे इस बारे में स्पष्ट नहीं हैं। वास्तव में, ये चीजें परमेश्वर से बिल्कुल नहीं आई हैं, न ही ये शुद्ध मानवीय समझ का परिणाम हैं। ये लोगों की भ्रामक व्याख्याएँ हैं, और इस तरह कहा जा सकता है कि वे शैतान की ओर से आई हैं और पूरी तरह से शैतान का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस धर्मशास्त्रीय ज्ञान में और क्या शामिल है? बाइबल की भ्रामक व्याख्याओं के अलावा, इसमें लोगों के तर्क और तार्किक निष्कर्ष, लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ, साथ ही लोगों के अनुभव, नीतिशास्त्र, नैतिक मानक और दार्शनिक विचार शामिल होते हैं। जब वे इन चीजों का प्रयोग करते हुए परमेश्वर ने जो कहा है उसका और उसके कार्यों का आकलन करते हैं, तो वे स्पष्ट रूप से परमेश्वर के साथ किए जा रहे व्यवहार में शैतान के पक्ष में खड़े होते हैं। इसलिए, परमेश्वर उनसे अपना चेहरा छिपा लेता है, और पवित्र आत्मा उन्हें त्याग देता है। क्या तुम लोगों ने कभी ऐसा अनुभव किया है? अतीत में कुछ लोगों ने इस संबंध में अपने अनुभवों पर चर्चा करते हुए कहा था कि “जब मैंने परमेश्वर पर पहले-पहल विश्वास करना शुरू किया, तो मैं परमेश्वर का अध्ययन करने को उत्सुक था; मैंने अध्ययन किया कि वह क्या कहता है, वह किन शब्दों का उपयोग करता है, लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, किनके प्रति वह अच्छा है, और वह किस तरह के लोगों को पसंद करता है या किनसे नफरत करता है। इस सभी बातों के अध्ययन के परिणामस्वरूप, मेरा हृदय अंधकारपूर्ण हो गया, मैं अपनी प्रार्थनाओं में परमेश्वर को महसूस नहीं कर पा रहा था, मेरे हृदय से स्वतंत्रता और मुक्ति का भाव गायब हो गया था, और मुझे शांति या आनंद का अनुभव नहीं हो रहा था। ऐसा लगता था जैसे कोई पत्थर मेरे दिल पर रखा हो।” क्या तुम लोगों को कभी ऐसा अनुभव हुआ है? (हाँ।) जो लोग लगातार परमेश्वर का अध्ययन करते हैं, उन्हें पवित्र आत्मा से कोई प्रबुद्धता या रोशनी नहीं मिलती। यहाँ तक कि परमेश्वर के वचनों को पढ़ कर भी कोई रोशनी नहीं मिलती। मसीह-विरोधी परमेश्वर का अध्ययन करने में माहिर होते हैं, लेकिन वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते। कलीसिया में उनके सामान्य पारस्परिक संबंध नहीं होते और दूसरों को उपदेश देने के लिए वे हमेशा खुद को औरों से ऊपर रखते हैं। उन्हें अक्सर अपने ज्ञान का घमंड होता है और वे साधारण भाई-बहनों को नीची निगाह से देखते हैं। यदि कोई मसीह-विरोधी तुमसे बातचीत करता है और उसे पता चलता है कि तुम पढ़े-लिखे नहीं हो, तो वे तुमसे परेशान नहीं होंगे। भले ही तुम कलीसिया के अगुआ या टीम के अगुआ बनने के मानदंडों को पूरा करते हो, वे तुम्हारा इस्तेमाल नहीं करेंगे। वे किस तरह के लोगों का इस्तेमाल करते हैं? वे सामाजिक रुतबे, शक्ति, ज्ञान और खूबियों वाले ऐसे लोगों की तलाश करते हैं जो वाक्पटु हों—वे ऐसे लोगों पर अपनी नजरें गड़ाते हैं और उनका इस्तेमाल करने की तैयारी करने लगते हैं। यदि लोगों को चुनने और उनका इस्तेमाल करना उनके हाथ में हो, तो वे केवल ऐसे व्यक्तियों का चयन करते हैं जो स्पष्टवक्ता हों, उच्च शिक्षित हों, जानकार हों और समाज में उनका रुतबा हो। ऐसे लोग भले ही सत्य का अनुसरण न करें या कोई काम न कर सकें, फिर भी वे उन्हें ही पसंद करते हैं। यह क्या दिखाता है? वे एक ही श्रेणी के हैं। आखिरकार, चोर-चोर मौसेरे भाई। कुछ मसीह-विरोधी कुछ शब्दों और सिद्धांतों को समझते हैं और फिर उपदेश देने का अभ्यास करने के सभी तरीकों के बारे में सोचते हैं। वे किस हद तक अभ्यास करते हैं? वे इस हद तक अभ्यास करते हैं कि वे स्पष्ट रूप से और विस्तार से बोल सकें, लिखित पर्चियों का इस्तेमाल किए बिना मंच पर घंटों बोल सकें। उन्हें लगता है कि काम करना यही सब है, यह उनका सबसे शानदार क्षण है, यह वह समय है जब वे सबसे अच्छे तरीके से अपना प्रदर्शन कर सकते हैं। वे ऐसे अवसरों को झपट लेते हैं और उन्हें कभी हाथ से जाने नहीं देते। परंतु, जिन विषयों पर परमेश्वर अक्सर संगति करता है, जैसे, सामान्य मानवता से जुड़ी चीजें, लोगों की अंतरात्मा और तर्क से जुड़ी चीजें, और सामान्य लोगों के वास्तविक जीवन में मानवता से सबसे अधिक निकट से संबंधित चीजें आदि—हालाँकि ये लोगों को छोटे और महत्वहीन विवरण लग सकते हैं, परंतु वास्तव में वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश से घनिष्ठता से संबंधित हैं। मसीह-विरोधी इन चीजों को कैसे देखते हैं? वे उनसे हृदय से घृणा करते हैं, वे इन वचनों को गंभीरता से नहीं लेते, और यह महसूस करते हुए कि वे अर्थहीन हैं, अपने हृदय में इन मामलों की निंदा करते हैं। तुम सत्य वास्तविकता के बारे में कैसे भी संगति करो, जैसे कि ईमानदार होना, वफादार होना, या व्यावहारिक और कर्तव्यपरायण व्यक्ति होना, तुम इनके बारे में चाहे जैसे संगति करो, उनका दृष्टिकोण अपरिवर्तित रहता है। वे ऐसा व्यक्ति बनना चाहते हैं जो धाराप्रवाह बोल सकता हो, जो प्रतिभा से लबालब हो और जिसमें विशेष योग्यताएँ हों, या यहाँ तक कि जिसमें अन्य भाषाओं में बोलने, असाधारण तेजी से पढ़ने, फोटोग्राफिक स्मृति होने जैसी अलौकिक योग्यताएँ हों। अगर उनमें भी ये योग्यताएँ होतीं तो उनका दिल खुशी से भर जाता। अपने दिल की गहराई में, वे इन्ही चीजों का पीछा करते हैं और इन्हें बहुत महत्व देते हैं। उदाहरण के लिए, मैं कुछ कहना समाप्त करता हूँ, और कुछ क्षण बाद मैं उसे भूल जाता हूँ। जब मैं सब से पूछता हूँ तो किसी और को भी वह याद नहीं रहता। तुम देखो, हमारी स्मृति काफी हद तक एक जैसी है, है ना? (हाँ।) लेकिन जब मसीह-विरोधी इसे देखते हैं तो वे कहते हैं, “तुम्हारी तो स्मरण-शक्ति भी अच्छी नहीं है! अमुक आध्यात्मिक व्यक्ति को देखो; वह तेजी से पढ़ सकता है और उसकी स्मरण-शक्ति फोटोग्राफिक है। तुम मसीह हो—तुम एक नजर में कितनी पंक्तियाँ पढ़ सकते हो?” मैं कहता हूँ, “मेरे पास वह अलौकिक क्षमता नहीं है। कभी-कभी तो मुझे पढ़ने के बाद एक भी वाक्य याद नहीं रहता, और मुझे उसे फिर से पढ़ना पड़ता है।” वे कहते हैं, “क्या परमेश्वर से सर्वशक्तिमान होना अपेक्षित नहीं है?” इस तरह वे धारणाएँ बनाना शुरू करते हैं। अपने हृदय की गहराई में वे देहधारी परमेश्वर को कैसे देखते हैं? “देहधारी परमेश्वर बिल्कुल साधारण और पूरी तरह से सामान्य व्यक्ति है। उसकी स्मरण-शक्ति अच्छी नहीं है, उसका शारीरिक गठन भी बहुत अच्छा नहीं है; वह किसी भी तरह से परमेश्वर जैसा नहीं लगता।” इसलिए, जब वे किसी को परमेश्वर से प्रेम करने के बारे में उपदेश देते हुए सुनते हैं, तो सोचते हैं, “यदि वह फलाना आध्यात्मिक व्यक्ति या ढिकाना प्रसिद्ध व्यक्ति परमेश्वर होता तो मैं उसे स्वीकार कर सकता था और उससे प्रेम कर सकता था। लेकिन यदि यह वर्तमान मसीह परमेश्वर है तो मैं उससे प्रेम नहीं कर सकता क्योंकि वह परमेश्वर जैसा बिल्कुल नहीं लगता।” अपने हृदय में वे यही सोचते हैं कि परमेश्वर होने के लिए किसी को परमेश्वर जैसा लगना चाहिए; उसे परमेश्वर की तरह बोलना, कार्य करना और दिखना चाहिए, ताकि जब लोग उसे देखें तो उनके मन में कोई धारणा न हो। क्यों? वे सोचते हैं, “पहली बात तो यह है कि तुम्हारे पास अलौकिक क्षमताएँ नहीं हैं। दूसरी, तुम्हारे पास विशेष प्रतिभाएँ नहीं हैं। तीसरी, तुम्हारे पास दुनिया के उन लोगों जैसी खूबियाँ नहीं हैं जो महान कार्य करते हैं। तुम किसी भी तरह से असाधारण नहीं हो, इसलिए मैं तुम्हारी बात क्यों सुनूँ? मुझे तुम्हारा सम्मान क्यों करना चाहिए? मुझे तुम्हारे सामने समर्पण क्यों करना चाहिए? मैं समर्पण नहीं कर सकता।” यह कैसी समस्या है? यह किस तरह का स्वभाव है? भले ही वे सत्य न समझें, फिर भी उनमें एक सामान्य व्यक्ति का विवेक और तर्क तो होना चाहिए। लोगों में धारणाएँ होती हैं, और परमेश्वर इस वजह से उनकी निंदा नहीं करता, लेकिन जब लोग धारणाएँ पालते हैं और फिर जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध और उसकी निंदा करते हैं, तो इससे आसानी से परमेश्वर के स्वभाव को ठेस लगती है। मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर की खुलेआम निंदा और प्रतिरोध कर पाते हैं, यह उनके दुष्ट स्वभाव के कारण होता है। ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद उनके पास परमेश्वर और उसके उदात्तपन, सार, अधिकार और उसकी सर्वशक्तिमत्ता के बारे में अधिक समृद्ध, अधिक विस्तृत और अधिक व्यापक कल्पनाएँ होती हैं। फिर, वे इन कल्पनाओं का मिलान उस परमेश्वर से करने की कोशिश करते हैं जिसे वे देख सकते हैं और जिसके साथ बातचीत कर सकते हैं। क्या वे उनका मिलान कर सकते हैं? वे उनका मिलान कभी नहीं कर सकते। वे परमेश्वर का जितना अधिक अध्ययन करते हैं, उतना ही अधिक वे अपने हृदय में परमेश्वर को नकारते हैं, और उतनी ही ज्यादा वे परमेश्वर की निंदा और उसका प्रतिरोध कर सकते हैं; इसे टाला नहीं जा सकता।
बाइबल और परमेश्वर के सभी वर्तमान कथनों में जो कुछ भी तुमने देखा है, उसमें क्या परमेश्वर खूबियों, शिक्षा और ज्ञान की वकालत करता है? (नहीं।) इसके विपरीत, परमेश्वर मानवीय ज्ञान और शिक्षा का गहन-विश्लेषण करता है। परमेश्वर खूबियों को कैसे परिभाषित करता है? अलौकिक क्षमताओं और विशेष प्रतिभाओं को वह कैसे परिभाषित करता है? तुम लोगों को समझना चाहिए कि खूबियाँ, अलौकिक क्षमताएँ और विशेष प्रतिभाएँ जीवन का प्रतिनिधित्व बिल्कुल नहीं करतीं। इसका क्या मतलब है कि वे जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं? इसका मतलब है कि ये चीजें लोगों के सत्य पा लेने का परिणाम नहीं होतीं। ये चीजें वास्तव में आती कहाँ से हैं? क्या वे परमेश्वर से आती हैं? नहीं, परमेश्वर लोगों को ज्ञान या शिक्षा नहीं देता है, और वह निश्चित रूप से लोगों को अधिक खूबियाँ नहीं देता ताकि वे सत्य का अनुसरण कर सकें। परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता। मैंने इस बात को ऐसे रखा है कि तुम लोग अब इसे समझ गए हो, है ना? तो, मसीह-विरोधियों की दुष्टता कहाँ अभिव्यक्त होती है? वे खूबियों, ज्ञानार्जन और ज्ञान को कैसे देखते हैं? वे इन चीजों को महत्व देते हैं, उनका अनुसरण करते हैं और यहाँ तक कि उन्हें पाने की इच्छा भी रखते हैं, विशेष रूप से खूबियों और अलौकिक क्षमताओं को पाने की। यदि तुम किसी मसीह-विरोधी से कहो कि, “यदि तुम्हारे पास अलौकिक क्षमताएँ होंगी, तो तुम बुरी आत्माओं को आकर्षित करोगे,” तो वह कहेगा, “मैं नहीं डरता!” तुम जवाब में कहोगे कि, “फिर भविष्य में तुम्हारे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं होगी, तुम्हें अठारहवें स्तर के नरक में, आग और गंधक की झील में डाल दिया जाएगा,” फिर भी वह कहेगा कि, “मुझे इसका डर नहीं है!” यदि तुमने उसे दस अलग-अलग भाषाओं में बोलने दिया होता और दूसरों से सम्मान पाने के लिए उसको दिखावा करने दिया होता, तो वह सहमत होता और ऐसा करने का इच्छुक होता। परमेश्वर सामान्य मानवता के भीतर बहुत सामान्य रूप से बोलता है और बहुत व्यावहारिक रूप से कार्य करता है, और मसीह-विरोधी लोग कार्य के इस तरीके, रूप और सामग्री को स्वीकार नहीं करते—वे इसका तिरस्कार करते हैं। लोगों को इन मामलों में कैसे भेद करना चाहिए? उदाहरण के लिए, कुछ लोग विभिन्न भाषाएँ बोल सकते हैं। क्या तुम इस तथ्य को स्वीकार कर सकते हो? क्या तुम्हें लगता है कि यह सामान्य है, या अजीब है? (अजीब।) इसलिए, सामान्य मानवता की तर्कसंगत सीमा के भीतर यह अस्वीकार्य है। कोई ऐसा व्यक्ति जो सब कुछ याद रखता हो, जैसे रंग, आकार, चेहरे और नाम, और कोई किताब पढ़ने के बाद उसके सैकड़ों पन्ने याद रख सकता हो, उसे शुरू से अंत तक सुना सकता हो—ऐसे व्यक्ति से बातचीत करने के बाद क्या तुम्हें ऐसा महसूस नहीं होगा कि तुमने किसी असामान्य चीज का अनुभव किया है? (हाँ।) लेकिन मसीह विरोधियों को ये चीजें पसंद हैं। मुझे बताओ कि जब तुम धार्मिक समुदाय के लोगों, तथाकथित इंजीलवादियों, उपदेशकों और पादरियों, जिन्हें सामूहिक रूप से फरीसी के रूप में जाना जाता है, के संपर्क में आते हो, तो क्या तुम्हें लगता है कि ये वही लोग हैं जिनकी तुम्हारे हृदय को जरूरत है, या तुम्हारे हृदय को व्यावहारिक परमेश्वर की जरूरत है? (परमेश्वर से संपर्क ही हमारे हृदय की जरूरत है।) सामान्य और व्यावहारिक परमेश्वर तुम्हारी आंतरिक जरूरतों के ज्यादा करीब है, ऐसा ही है न? तो, इस बारे में बात करो कि जब तुम फरीसियों से बातचीत करते हो तो तुम्हें कैसा लगता है, इसके क्या फायदे और नुकसान हैं, और क्या इससे कोई लाभ होता है। (यदि मैं फरीसियों से बातचीत करता हूँ, तो मुझे उनकी बातें नकली और दूर की लगती हैं। वे जिन चीजों के बारे में बात करते हैं, वे बहुत खोखली और झूठी होती हैं; उन्हें बहुत अधिक सुनने पर उबकाई आने लगती है, और मैं अब उनके साथ और बातचीत नहीं करना चाहता।) फरीसियों द्वारा व्यक्त किए गए दृष्टिकोण सही हैं या बेतुके? (बेतुके।) उनके दृष्टिकोणों की प्रकृति बेतुकी है। इसके अलावा, वे जो बातें कहते हैं वे अधिकतर व्यावहारिक होती हैं या खोखली? (खोखली।) क्या अधिकांश लोग उनकी बेतुकी और खोखली बातों, साथ ही साथ काल्पनिक और मनगढ़ंत बातों को सुनने से घृणा करते हैं या उन्हें सुनने में आनंद लेते हैं? (अधिकांश लोग इन बातों को सुनने से घृणा करते हैं।) अधिकांश लोग उन्हें नापसंद करते हैं और नहीं सुनना चाहते। उनके दृष्टिकोण और शब्दों को सुनने के बाद, और उनके स्वभाव तथा झूठे और पाखंडी व्यवहार को देखने के बाद तुम अपने हृदय में क्या महसूस करते हो? क्या तुम और अधिक सुनना चाहते हो? क्या तुम उनके करीब जाने, उनके साथ गहराई से बातचीत करने और उनके बारे में और अधिक समझने के इच्छुक हो? (नहीं।) तुम उनसे संवाद नहीं करना चाहते। मुख्य मुद्दा यह है कि उनके शब्द बहुत खोखले हैं, सिद्धांतों और नारों से भरे हुए हैं; सदियों तक सुनने के बाद भी तुम्हें लगता है कि तुम्हें कुछ नहीं पता कि वे क्या कह रहे हैं। इसके अलावा, उनका स्वभाव झूठा और दिखावे भरा है; वे विनम्र, धैर्यवान और प्रेमपूर्ण होने का दिखावा करते हैं, और किसी ऐसे अनुभवी विश्वासी जैसा आचरण करते हैं जो पक्का “भक्त” होता है। जब तुम अंततः उनका असली चेहरा देखते हो तो तुम घृणा महसूस करते हो। तुम लोगों ने मेरे साथ बहुत गहरी बातचीत नहीं की है; तुम लोगों को मेरे दिए उपदेश कैसे लगते हैं? क्या उनमें और फरीसी जो बात करते हैं उनमें, कोई अंतर है? (हाँ।) क्या अंतर है? (परमेश्वर के उपदेश व्यावहारिक हैं।) यही मूल बात है। इसके अलावा, मैं जो बात करता हूँ वह तुम लोगों के अभ्यास, अनुभवों और अपने कर्तव्यों के निर्वाह के क्रम में और वास्तविक जीवन में सामने आने वाले मामलों के विभिन्न पहलुओं से संबंधित है। यह अव्यावहारिक और अस्पष्ट नहीं है। इसके अलावा, मैं जिस सत्य पर चर्चा करता हूँ या जिस दृष्टिकोण पर विचार करता हूँ, वह व्यावहारिक है या खोखला है? (व्यावहारिक है।) तुम इसे व्यावहारिक क्यों कहते हैं? क्योंकि यह वास्तविक जीवन से अलग नहीं है, यह वास्तविक जीवन से ऊपर खोखले सिद्धांत उगलने वाली बात नहीं है। यह सब वास्तविक जीवन में लोगों के विवेक, समझ और अभ्यास, और उन स्थितियोँ से संबंधित है जो तब उत्पन्न होती हैं जब लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते समय विभिन्न मुद्दों का सामना करतेहैं। संक्षेप में, इसमें ऐसे विषय शामिल हैं जिनका संबंध इस बात से है कि लोग परमेश्वर में विश्वास का अभ्यास कैसे करते हैं, परमेश्वर में विश्वास करने का उनका जीवन, और अपने कर्तव्यों का पालन करते समय उनकी विभिन्न स्थितियाँ क्या होती हैं। हम उत्पत्ति या यशायाह की खोखली व्याख्या करने के लिए बाइबल नहीं निकालते, न ही हम प्रकाशित वाक्य के बारे में खोखली बातें करते हैं। मुझे प्रकाशितवाक्य पढ़ना सबसे अधिक नापसंद है और मैं इसके बारे में बात नहीं करना चाहता। इसके बारे में बात करने का क्या फायदा है? अगर मैं तुम्हें बताऊँ कि कौन सी विपत्ति सच हो गई, तो उसका तुमसे क्या मतलब होगा? यह परमेश्वर का मामला है। भले ही परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाए, लेकिन उसका तुम पर क्या असर होगा? क्या तुम लोग इसके बाद भी तुम ही नहीं रहोगे? अगर मैं तुम लोगों को बता दूँ कि कौन सी विपत्ति सच हो गई, तो क्या तुम लोग अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकोगे? क्या यह इतना चमत्कारी होगा? नहीं। इसलिए, जब लोग अंत तक अनुसरण करेंगे, तो उनमें से प्रत्येक को उनके प्रकार के अनुसार अलग किया जाएगा। वे जो सत्य स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने का आनंद ले सकते हैं, और सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, वे दृढ़ रहेंगे। जो लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ने या उपदेशों को सुनने के लिए तैयार नहीं हैं, जो सत्य स्वीकारने से लगातार इनकार करते हैं और अपने कर्तव्यों के निर्वाह को तैयार नहीं हैं, वे अंततः बेनकाब किए जाएँगे और निकाल दिए जाएँगे। यद्यपि वे सभाओं में भाग लेते हैं और उपदेश सुनते हैं, लेकिन वे कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अपरिवर्तित रहते हैं, और उपदेश सुनने से विमुख रहते हैं—वे उन्हें सुनने के इच्छुक नहीं हैं। इसीलिए, जब वे अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, तब वह अनमने ढंग से होता है, और कभी नहीं बदलता है। ये लोग बस छद्म-विश्वासी हैं। अगर परमेश्वर में निष्ठापूर्वक विश्वास करने वाले लोग अक्सर छद्म-विश्वासियों के साथ सम्पर्क में आएं और साथ रहें, तो उन्हें कैसा लगेगा? न केवल उन्हें कोई लाभ या कोई शिक्षा ही नहीं मिलेगी, बल्कि उनके दिलों में खीझ भी बढ़ती जाएगी। मान लो कि तुम फरीसियों के संपर्क में आते हो और उन्हें बोलते हुए सुनते हो, और तुम पाते हो कि वे स्पष्ट और तार्किक रूप से बोलते हैं, और वे सभी नियमों और विनियमों को समझने योग्य तरीके से समझाते हैं, और ऐसा प्रतीत होता है कि उनके शब्दों में गहरे सिद्धांत हैं, लेकिन सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने पर, उनमें से कोई भी सत्य वास्तविकता नहीं है, और सब खोखले सिद्धांत भर हैं। उदाहरण के लिए, वे त्रिएकता के सिद्धांत, धर्मशास्त्र, परमेश्वर के बारे में सिद्धांतों, स्वर्ग में स्वर्गदूतों के साथ परमेश्वर कैसा है, परमेश्वर के देहधारण और प्रभु यीशु की परिस्थितियों पर चर्चा करते हैं—यह सब सुनने के बाद तुम कैसा महसूस करोगे? इस सब का परिणाम पौराणिक कहानियों को सुनने जैसा होगा। फिर मसीह-विरोधी इन मामलों को सुनने और इन पर चर्चा करने का आनंद क्यों लेते हैं, और वे ऐसे व्यक्तियों के साथ जुड़ने के लिए क्यों तैयार होते हैं? क्या यह उनकी दुष्टता नहीं है? (हाँ, है।) उनकी दुष्टता से क्या देखा जा सकता है? हृदय की गहराई में उनकी एक निश्चित आवश्यकता है, जो उन्हें इस ज्ञान और शिक्षा की आराधना करने और फरीसियों के पास मौजूद इन चीजों की उपासना करने के लिए प्रेरित करती है। तो, उनकी आवश्यकता क्या है? (दूसरों से अत्यधिक सम्मान प्राप्त करना।) उन्हें न केवल दूसरों से अत्यधिक सम्मान पाने की आवश्यकता होती है, बल्कि अपने दिल की गहराई में, वे हमेशा महामानव, श्रेष्ठतर व्यक्ति या ज्ञानी हस्ती बनना चाहते हैं—वे बस साधारण नहीं रहना चाहते। महामानव बनने की उनकी इच्छा का क्या मतलब है? आम बोलचाल की भाषा में, इसका मतलब है कि वे वास्तविकता से कटे हुए हैं। उदाहरण के लिए, ज्यादातर लोग, हद से हद यह चाह सकते हैं कि, “काश मैं हवाई जहाज से आसमान में ऊँची उड़ान भर पाता।” लोगों की ऐसी इच्छा हो सकती है, है ना? लेकिन मसीह-विरोधियों की इच्छा क्या है? “मैं चाहता हूँ कि एक दिन मेरे पंख उग आएँ और मैं उड़ कर कहीं दूर चला जाऊँ!” उनकी ऐसी आकांक्षाएँ हैं—क्या तुम्हारी भी यही आकांक्षा है? (नहीं।) तुम्हारी आकांक्षा ऐसी क्यों नहीं है? क्योंकि यह यथार्थवादी नहीं है। अगर तुम्हें दो बड़े पंख लगा भी दिए जाएँ, तो क्या तुम उड़ पाओगे? तुम उस तरह के प्राणी नहीं हो, है ना? (सही है।) मसीह-विरोधियों जैसे लोग हमेशा अपनी कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं, लगातार अपनी इच्छाओं का अनुसरण करते हैं। क्या उन्हें बचाया जा सकता है? (नहीं।) ये ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर बचाता है। परमेश्वर उन लोगों को बचाता है जो सत्य से प्रेम करते हैं, वास्तविकता पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और जमीनी तरीके से सत्य का अनुसरण करते हैं। जो लोग लगातार महामानव या श्रेष्ठतर व्यक्ति बनने की इच्छा रखते हैं, वे मानसिक रूप से बीमार हैं, वे सामान्य लोग नहीं हैं, और परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा।
मसीह-विरोधी जब देहधारी परमेश्वर के संपर्क में आते हैं तो वे कुछ विचित्र सवाल करते हैं। ऐसे सवाल पूछ पाना उनकी गहरी जरूरतों को, और अपने हृदय में वे जिसकी आराधना करते हैं उसे, प्रदर्शित करता है। शुरू में देहधारी परमेश्वर की गवाही देने पर कुछ लोग हमेशा पूछते थे, “क्या परमेश्वर घर पर बाइबल पढ़ता है? ऐसा नहीं है कि मैं अपने लिए पूछ रहा हूँ, वास्तव में इस मामले में मेरी कोई जिज्ञासा नहीं है; मैं तो केवल भाई-बहनों की ओर से पूछ रहा हूँ। उनमें से कई लोगों के मन में भी यही विचार है। वे अपने मन में सोच रहे हैं कि अगर परमेश्वर वास्तव में अक्सर बाइबल पढ़ता है तो बाइबल के बारे में बात कर पाना और सत्य व्यक्त कर पाना बिल्कुल सामान्य बात है। परंतु, अगर परमेश्वर बाइबल नहीं पढ़ता और फिर भी उसे समझा सकता है तो यह एक चमत्कार ही है, तब तो वह सचमुच परमेश्वर होगा!” बेशक, उन्होंने इसे बिल्कुल इस तरह से नहीं कहा था; उन्होंने सीधे पूछा था कि “क्या परमेश्वर घर पर बाइबल पढ़ता है?” तुम लोग क्या सोचते हो? मुझे इसे पढ़ना चाहिए या नहीं? क्या तुम लोग इसे पढ़ते हो? यदि तुम लोगों ने कभी यीशु पर विश्वास नहीं किया है तो इसे नहीं पढ़ना बिल्कुल सामान्य बात होगी। क्या उस पर विश्वास करने वाले लोग इसे पढ़ते हैं? (हाँ, वे पढ़ते हैं।) जिन्होंने विश्वास किया है वे निश्चित रूप से पढ़ते हैं। मैंने यीशु पर आस्था के साथ शुरुआत की तो मैं बाइबल कैसे नहीं पढ़ता? अगर मैं इसे नहीं पढ़ता तो क्या होता? (यह भी सामान्य है।) बाइबल पढ़ना सामान्य है, इसे नहीं पढ़ना भी निश्चित रूप से सामान्य है। इसे पढ़ना या नहीं पढ़ना क्या निर्धारित करता है? यदि मैं वर्तमान स्थिति में नहीं होता, तो क्या कोई इस बात की परवाह करता कि मैंने बाइबल पढ़ी है या नहीं? (नहीं।) कोई भी यह नहीं पूछता कि मैंने क्या पढ़ा है। इस विशेष स्थिति में होने के कारण कुछ लोग इस मामले का अध्ययन करते हैं। वे हमेशा इसमें ताक-झाँक करते रहते हैं, पूछते हैं, “क्या उसने युवावस्था में बाइबल पढ़ी थी?” वे वास्तव में क्या जानना चाहते हैं? इसके दो संभावित स्पष्टीकरण हैं, जो इस पर निर्भर करते हैं कि मैंने इसे पढ़ा है या नहीं। अगर मैंने इसे पढ़ा है, तो उन्हें लगता है कि बाइबल को समझा पाना कोई बड़ी बात नहीं है। हालाँकि, अगर मैंने बाइबल नहीं पढ़ी है और फिर भी इसे समझा सकता हूँ तो यह कुछ हद तक परमेश्वर-तुल्य है। यही वह परिणाम है जो वे चाहते हैं। वे इसकी तह तक जाना चाहते हैं; वे सोचते हैं, “अगर तुमने बाइबल नहीं पढ़ी है और फिर भी इतनी कम उम्र में ही उस पर चर्चा कर सकते हो, तो यह जाँच के लायक बात है। यह तो परमेश्वर है!” यह उनका दृष्टिकोण है, और वे इसी तरीके से परमेश्वर का अध्ययन करते हैं। अब, उन फरीसियों पर विचार करो जो इंजील के अच्छे जानकार थे। क्या वे इंजील के शब्दों को वास्तव में समझते थे? क्या उन्होंने इंजील से सत्य की खोज की थी? (नहीं।) अब, मेरे बाइबल पढ़ने के बारे में सवाल करने वालों में से किसी ने क्या इस बारे में सोचा? अगर उन्होंने इस पर विचार किया होता तो वे लगातार इस मामले की पड़ताल नहीं करते, वे ऐसा मूर्खतापूर्ण काम नहीं करते। जो लोग सत्य को गहराई से नहीं समझते या आध्यात्मिक समझ नहीं रखते और परमेश्वर के सार और पहचान को नहीं समझ पाते, वे अंत में इसे हल करने के लिए ऐसे तरीकों का सहारा लेते हैं। क्या इस तरीके से समस्या हल हो सकती है? नहीं, इससे नहीं हो सकती। इस तरीके से केवल छोटी-मोटी जिज्ञासाओँ का मुद्दा हल हो सकता है। दरअसल, मैं बाइबल भी पढ़ता हूँ। विश्वासियों में से कौन बाइबल नहीं पढ़ता? मैं इसका बुनियादी पाठ करता हूँ। कम से कम, मैं नए नियम के चार सुसमाचार पढ़ता हूँ, प्रकाशितवाक्य और उत्पत्ति को पढ़ता हूँ, और यशायाह पर एक नज़र डालता हूँ। तुम लोगों को क्या लगता है कि मुझे पढ़ने में सबसे ज्यादा क्या पसंद होगा? (अय्यूब की किताब।) बिल्कुल ठीक। अय्यूब की कहानी पूरी और विशिष्ट है, उसके शब्दों को समझना आसान है, और इसके अलावा, यह कहानी मूल्यवान है और आज के लोगों के लिए मददगार और शिक्षाप्रद हो सकती है। तथ्यों से साबित हुआ है कि अय्यूब की कहानी का परवर्ती पीढ़ियों पर वास्तव में बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। उन्होंने अय्यूब के ज़रिए बहुत से सत्यों को समझा है—परमेश्वर के प्रति उसके रवैये से, साथ ही साथ उसके प्रति परमेश्वर के रवैये और परिभाषा से, उन्होंने परमेश्वर के इरादों को समझा है और यह भी समझा है कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद उन्हें किस तरह के रास्ते पर चलना चाहिए। मैं अय्यूब की पुस्तक का उपयोग उन खास तरीकों के बारे में संगति करने के लिए संदर्भ के रूप में करता हूँ, जिनसे लोग परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं। इसके अलावा, परमेश्वर के समक्ष समर्पण करने के कुछ तरीकों के बारे में भी संगति करने के लिए संदर्भ के रूप में इसका उपयोग करता हूँ—यह कहानी वाकई मूल्यवान है। यह ऐसी पुस्तक है जिसे हर किसी को अपने खाली समय में पढ़ना चाहिए। कुछ लोग जब परमेश्वर को देहधारी होते देखते हैं और परमेश्वर की व्यावहारिकता तथा सामान्यता के गवाह बनते हैं, तो वे संभवतः पूरी तरह से यह पता लगाने में सक्षम नहीं होते कि वह वास्तव में परमेश्वर है कि नहीं, या भविष्य में क्या होगा। लेकिन, कुछ सत्यों को समझने के बाद वे इन सवालों को छोड़ देते हैं। वे इन मामलों पर शोध या इनकी परवाह करना बंद कर देते हैं और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने, सही रास्ते पर चलने और उस काम को करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं जो उन्हें ठीक से करना चाहिए। लेकिन कुछ लोग इसे कभी नहीं छोड़ते; वे इसका अध्ययन करने पर जोर देते हैं। तुम लोग क्या सोचते हो, क्या मुझे इस मामले का ध्यान रखना चाहिए? क्या मुझे इस पर जरा भी ध्यान देना चाहिए? इस पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं है। जो लोग सत्य स्वीकारते हैं वे स्वाभाविक रूप से इस पर शोध करना बंद कर देते हैं, जबकि जो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, वे इस काम में लगे रहते हैं। यह शोध क्या संकेत करता है? यह शोध विरोध का एक रूप है। परमेश्वर के वचनों में एक कहावत है। विरोध का परिणाम क्या है? (मृत्यु।) विरोध का अर्थ है मृत्यु।
कुछ मसीह-विरोधी यद्यपि कार्य के इस चरण को स्वीकार कर चुके होते हैं, फिर भी इस बात को लेकर अक्सर चिंतित रहते हैं कि क्या देहधारी परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों और किए गए कार्य में कोई अलौकिक तत्व है, क्या उनमें सामान्य मानवता की सीमा से परे कोई तत्व हैं, और क्या ऐसे तत्व हैं जिनसे परमेश्वर के रूप में उसकी पहचान साबित की जा सकती है। वे अक्सर ऐसे मामलों पर शोध करते हैं, अथक रूप से अध्ययन करते हैं कि मैं कैसे बोलता हूँ, बोलते समय मेरा तरीका और रूप कैसा होता है, साथ ही मेरे कार्यों के सिद्धांत क्या हैं। इस शोध के लिए वे किस चीज का उपयोग करते हैं? वे उन प्रतिष्ठित और महान लोगों की छवि या मानक के आधार पर इसे मापते हैं और इसका अध्ययन करते हैं जिन्हें उन्होंने समझ लिया होता है। कुछ लोग तो पूछ भी लेते हैं कि, “चूँकि तुम देहधारी परमेश्वर हो, इसलिए तुम्हारी पहचान और सार को निश्चित रूप से सामान्य लोगों से अलग होना चाहिए। तो, तुम किस चीज में बेहतर हो? तुम में ऐसा क्या खास है कि हमें तुम्हारा अनुसरण करना चाहिए और तुम्हारी आज्ञा माननी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के रूप में स्वीकारना चाहिए?” इस सवाल ने मुझे वास्तव में निरुत्तर कर दिया। ईमानदारी से कहूँ तो, मैं किसी भी चीज में अच्छा नहीं हूँ। मेरे पास ऐसी आँखें नहीं हैं जो सभी दिशाओं में देख सकें या ऐसे कान नहीं हैं जो सभी तरफ से सुन सकें। अगर पढ़ने की बात हो तो मैं एक नजर में दस पंक्तियाँ नहीं पढ़ सकता, और थोड़ी देर पढ़ने के बाद, मैं भूल जाता हूँ कि मैंने क्या पढ़ा था। मैं संगीत के बारे में थोड़ा-बहुत जानता हूँ, लेकिन मैं लिपिबद्ध संगीत नहीं पढ़ सकता। अगर कोई दूसरा व्यक्ति किसी गाने को एक-दो बार गाता है, तो मैं उसके साथ गा सकता हूँ, लेकिन क्या इसे गायन में अच्छा होना माना जाएगा? क्या मेरे पास कोई विशेष प्रतिभा है, जैसे कि धाराप्रवाह अंग्रेजी या कोई खास भाषा बोलना? मैं इनमें से कोई भी काम नहीं कर सकता। तो फिर मैं किस चीज में अच्छा हूँ? मैं संगीत, ललित कला, नृत्य, साहित्य, फिल्म और डिजाइन के बारे में थोड़ा-बहुत जानता हूँ। मुझे इन क्षेत्रों की सतही समझ है। विशेषज्ञों के साथ इनके सिद्धांतों पर चर्चा करने के लिहाज से, यह सब मेरे लिए शब्दजाल है, लेकिन मैं इसे देखकर समझ सकता हूँ। उदाहरण के लिए, वास्तुशिल्प डिजाइन में, अगर पेशेवर और तकनीकी डेटा शामिल हो तो मैं उसे नहीं समझ पाता। हालांकि, अगर उसमें रंगों की छटाओं और शैलियों के सामंजस्य से जुड़ी बात हो तो मुझे इसके बारे में थोड़ी बहुत जानकारी और थोड़ी अंतर्दृष्टि है। लेकिन यह कहना कठिन है कि मैं इस क्षेत्र में विशेषज्ञ या कोई विशिष्ट प्रतिभा बनने के लिए पढ़ाई कर सकता हूँ या नहीं, क्योंकि मैंने इसकी पढ़ाई नहीं की है। इसके मद्देनजर कि लोग वर्तमान में किन चीजों तक पहुँच सकते हैं, संगीत, साहित्य, नृत्य, फिल्म और हमारी कलीसिया की परियोजनाओं के दायरे में आने वाली चीजों को थोड़ा-बहुत सीखने से इनकी बुनियादी समझ मिल सकती है। कुछ लोग कह सकते हैं, “अब मैं तुम्हारी पृष्ठभूमि जानता हूँ; तुम्हें केवल बुनियादी समझ है।” मैं झूठ नहीं बोलता; वास्तव में, मुझे केवल बुनियादी समझ ही है। हालाँकि, एक चीज है जिसे तुम लोग नहीं समझ सकते, और वह मेरी विशेषज्ञता हो सकती है। वह विशेषज्ञता क्या है? मैं यह समझता हूँ कि किसी विशेष क्षेत्र से संबंधित पेशा कौन-सा है, कोई निश्चित कला कैसे व्यक्त की जाती है, और इसका दायरा और इसके सिद्धांत क्या हैं। इनमें माहिर होने के बाद, मैं जानता हूँ कि इन उपयोगी चीजों को कलीसिया के काम में कैसे लागू किया जाए, सुसमाचार के कार्य में उनका उपयोग कैसे किया जाए और परमेश्वर के अंतिम दिनों के सुसमाचारफैलाने के कार्य को प्रभावी कैसे बनाया जाए। क्या यह विशेषज्ञता है? (हाँ, है।) आजकल मानव जाति में जिस बात की सबसे अधिक कमी है, उस संबंध में यदि कोई सही तरीकों का उपयोग कर सके और फिर प्रासंगिक सत्य को व्यक्त कर सके ताकि लोग उसे देख सकें और स्वीकार सकें, तो यह सबसे ज्यादा प्रभावी बात है। यदि तुम ऐसा तरीका अपनाते हो जिसे लोग स्वीकार कर सकें और जो सत्य को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर सके तथा जो परमेश्वर के कार्य को समझा सके, कोई भी ऐसा तरीका जिसे सामान्य मानवीय सोच स्वीकार कर सके और उस तक पहुँचने में सक्षम हो सके—यह लोगों के लिए बहुत लाभदायी होगा। यदि हम अपने सतही ज्ञान का उपयोग कर सकें तथा इन सभी उपयोगी चीजों का अनुप्रयोग कर सकें, तो ऐसी विशेषज्ञता को होना पर्याप्त है। मैं एक चीज में श्रेष्ठ हूँ, क्या तुम लोग यह जान सके हो? (परमेश्वर सत्य की संगति करने में श्रेष्ठ है।) क्या सत्य की संगति करने की गिनती कौशलों में होती है? क्या यह विशेषज्ञता नहीं है? तो, मैं किसमें अच्छा हूँ? मैं तुम सभी लोगों के भीतर के भ्रष्ट सार की खोज करने में श्रेष्ठ हूँ। यदि मैं यह करने में अच्छा नहीं होता, तो मुझे बताओ कि जब भी तुम लोगों के सामने समस्याएँ आतीं और मुझे नहीं पता होता कि उनसे कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव या प्रकृति सार प्रकट होता है, तो मैं कार्य कैसे कर पाता? यह असंभव होता। क्या यह कहना ठीक है कि तुम लोगों के भ्रष्ट सार की खोज करना ही वह चीज है जिसमें मैं सबसे अच्छा हूँ? (हाँ।) यही वह चीज होनी चाहिए जिसमें मैं सबसे अच्छा हूँ। मैं व्यक्तियों के भ्रष्ट स्वभाव और उनके प्रकृति सार को पहचानने में सबसे अच्छा हूँ। मैं किसी व्यक्ति के प्रकृति सार के आधार पर यह समझने में माहिर हूँ कि वह किस रास्ते पर चल रहा है और परमेश्वर के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या है। फिर उसकी अभिव्यक्तियों, व्यवहार और सार के माध्यम से मैं उसके साथ सत्य की संगति करता हूँ और विशिष्ट मुद्दों का निपटारा करते हुए उसे उसकी समस्याएँ हल करने और उनसे उभरने में उसकी मदद करता हूँ। वास्तव में, यह कोई कौशल नहीं है; यह मेरी सेवकाई है, यह वह कार्य है जो मेरी जिम्मेदारी के दायरे में आता है। क्या तुम लोग इस काम में कुशल हो? (नहीं, हम इसमें कुशल नहीं हैं।) तो, तुम लोग किसमें कुशल हो? (भ्रष्टता प्रदर्शित करने में।) यह सही नहीं है कि तुम लोग भ्रष्टता प्रदर्शित करने में कुशल हो। तुम लोग सत्य को सुनने के बाद उससे प्रभावित हुए बिना रहने, उसे हल्के में लेने और अपने कर्तव्य का अनमने ढंग से निर्वाह करने में कुशल हो। क्या ऐसा ही नहीं है? (हाँ।) मैं तुम लोगों को ये बातें खुल कर बताता हूँ; क्या फरीसी और मसीह-विरोधी भी तुमसे इसी तरह से बात कर सकते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते।) वे इस तरह से बिल्कुल नहीं बोलते। क्यों नहीं बोलते? वे इसे शर्मनाक, मानवता में कमी, निजता और किसी की पृष्ठभूमि से जुड़ा मामला मानते हैं। वे कहते हैं, “मैं दूसरों को अपनी पृष्ठभूमि के बारे में कैसे बता सकता हूँ? ऐसा होने पर क्या मैं अपनी सारी पहचान, गरिमा और रुतबा नहीं खो दूँगा? तब मैं खुद को कैसे पेश करूँगा?” उनके मुताबिक, वे तो मर ही जाएँगे! तो, मेरे द्वारा अपनी परिस्थितियों को तुम्हारे साथ इतने खुले तौर पर साझा किए जाने के बाद क्या परमेश्वर में तुम्हारी आस्था प्रभावित होती है? (नहीं, ऐसा नहीं होता।) अगर इस बारे में तुम लोगों का कोई भी विचार हो, तो भी मुझे इसका डर नहीं है। मैं क्यों नहीं डरता? विचार होना सामान्य है; यह अस्थायी है। लोगों को समय-समय पर दृश्य और श्रव्य भ्रमों का अनुभव हो सकता है। एक अस्थायी, विकृत समझ या क्षणिक गलतफहमी की संभावना हमेशा होती है। क्या इसका मतलब यह है कि इसके कारण लोग अपना बोरिया-बिस्तर समेट लें या नकारात्मक और कमजोर हो जाएँ? लेकिन, तुम अगर वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो क्या तुम इन क्षणिक धारणाओं के कारण परमेश्वर को नकार सकते हो या छोड़ सकते हो? नहीं, तुम नहीं छोड़ सकते। जो लोग ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करते हैं, वे इन मामलों को सही तरीके से देख और समझ सकते हैं, वे अनजाने में इन तथ्यों को सामान्य रूप से स्वीकार कर सकते हैं, और धीरे-धीरे इन्हें परमेश्वर के सच्चे ज्ञान, वस्तुनिष्ठ और सटीक ज्ञान में बदल सकते हैं—यह सत्य की वास्तविक समझ है। कभी कोई कह सकता है, “देहधारी परमेश्वर बहुत दयनीय है; वह सत्य बोलने के अलावा कुछ नहीं कर सकता।” यह कैसा लहजा है? यह मसीह-विरोधी का लहजा है। क्या तुम लोग उससे सहमत हो? (मैं सहमत नहीं हूँ।) तुम सहमत क्यों नहीं हो? (उसका कथन तथ्यात्मक नहीं है।) उसका कथन तथ्यात्मक है। देहधारी परमेश्वर अपनी वाणी में सत्य व्यक्त करने में सक्षम होने के अलावा कुछ और करना नहीं जानता; उसके पास एक कौशल विशेष नहीं है। क्या यह दयनीय है? क्या तुम लोग ऐसा सोचते हो? (नहीं।) तो तुम लोग क्या सोचते हो? कुछ लोग कहते हैं, “ऐसा होने की ठीक-ठीक वजह यह है कि परमेश्वर साधारण और सामान्य है, व्यावहारिक कार्य कर रहा है, कि भ्रष्ट मानव जाति के रूप में हमारे पास उद्धार प्राप्त करने का अवसर है। अन्यथा, हम सभी नरक में जाएँगे। अभी हमें एक बड़ा लाभ मिल रहा है, इसलिए आओ बिना किसी चर्चा के इसका आनंद लें!” क्या तुम लोगों को ऐसा लगता है? (हाँ।) लेकिन कुछ लोग अलग तरह के हैं। उन्हें लगता है कि “परमेश्वर बस बात कर रहा है; उसमें कुछ भी असाधारण नहीं है। मुझे क्या मिल रहा है? परमेश्वर के बारे में मेरी अपनी धारणाएँ और विचार हैं, और मैं पीठ पीछे परमेश्वर की आलोचना करता हूँ, लेकिन परमेश्वर ने मुझे अनुशासित नहीं किया। मुझे न तो कोई कष्ट सहना पड़ा और न ही कोई दंड भोगना पड़ा।” धीरे-धीरे उनका दुस्साहस बढ़ता जाता है और वे कुछ भी कहने का साहस करते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “देहधारी परमेश्वर को तुम्हें इस तरह से जानना चाहिए : जब वह बोलता है, कार्य करता है, और सत्य व्यक्त करता है, तो उसके भीतर परमेश्वर की आत्मा काम कर रही होती है, और देह एक खोल, एक उपकरण मात्र है। सच्चा सार परमेश्वर की आत्मा है; यह परमेश्वर की आत्मा ही है जो बोल रही है। यदि परमेश्वर की आत्मा न होती, तो क्या देह उन शब्दों को बोल सकती था?” जब तुम इन्हें सुनते हो तो ये शब्द सही लगते हैं, लेकिन इनका क्या अर्थ है? (इनका अर्थ ईशनिंदा है।) बिल्कुल ठीक, ये ईशनिंदा है—कितना क्रूर स्वभाव है! वे क्या कहना चाह रहे हैं? वे कहना चाहते हैं कि “तुम बहुत ही साधारण व्यक्ति हो। तुम्हारा रूप-रंग भव्य नहीं है, तुम बहुत प्रभावशाली नहीं दिखते। तुम्हारी वाणी में वाक्पटुता या सैद्धांतिक परिष्कार नहीं है—तुम्हें कुछ भी कहने से पहले उस बारे में सोचना पड़ता है। तुम देहधारी परमेश्वर कैसे हो सकते हो? तुम इतने धन्य और भाग्यशाली क्यों हो? मैं देहधारी परमेश्वर क्यों नहीं हूँ?” अंत में वे कहते हैं, “यह सब परमेश्वर का आत्मा कार्य कर रहा है और बोल रहा है; देह केवल आत्मा के निकास का रास्ता है, यह एक उपकरण है।” ऐसा कहने से उन्हें समानता का एहसास होता है। यह ईर्ष्या है जो घृणा की ओर ले जाती है। इसका निहितार्थ यह है कि “तुम देहधारी परमेश्वर कैसे हो? तुम इतने भाग्यशाली क्यों हो? तुम्हें यह लाभ कैसे मिला? यह मुझे क्यों नहीं मिला? मुझे नहीं लगता कि तुम मुझसे बेहतर हो। तुम पर्याप्त वाक्पटु नहीं हो, उच्च शिक्षित नहीं हो, तुम मेरे जितने अच्छे नहीं दिखते, और तुम मेरे जितने लंबे नहीं हो। किस तरह से तुम मुझसे बेहतर हो? तुम देहधारी परमेश्वर कैसे बने? मैं क्यों नहीं बना? यदि तुम देहधारी परमेश्वर हो, तो बहुत से दूसरे लोग भी वही हैं। मुझे इसके लिए भी लड़ना है। हर कोई कहता है कि तुम परमेश्वर हो, मैं इस बारे में कुछ नहीं कर सकता, लेकिन मैं फिर भी इसी तरह तुम्हारी आलोचना करूँगा। इस तरह से बोलने से मेरी नफरत दूर हो जाती है!” क्या यह क्रूर नहीं है? (हाँ, है।) पद की दावेदारी करने के लिए वे कुछ भी कहने की हिम्मत करते हैं—क्या यह मौत को बुलावा देना नहीं है? यदि तुम यह स्वीकार नहीं करना चाहते कि वह परमेश्वर है, तो कौन तुम्हें ऐसा करने को मजबूर कर रहा है? क्या मैंने तुम पर दबाव डाला? मैंने तो तुम पर दबाव नहीं डाला, है ना? पहली बात तो यह है कि मैंने ऐसी कोई दलील नहीं दी कि तुम मुझे स्वीकार करो। दूसरी, मुझे स्वीकार करने के लिए तुम्हें बाध्य करने को मैंने किन्हीं चरम साधनों का इस्तेमाल नहीं किया। तीसरी, परमेश्वर के आत्मा ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया है, उसने तुमसे नहीं कहा है कि तुम्हें मुझे स्वीकारना होगा, अन्यथा तुम्हें दंडित किया जाएगा। क्या परमेश्वर ने ऐसा किया है? नहीं। तुमको स्वतंत्र चयन का अधिकार है; तुम स्वीकार न करने का विकल्प चुन सकते हो। तो, अगर तुम स्वीकार नहीं करना चाहते, तो तुम आखिर स्वीकार क्यों करते हों? क्या तुम केवल आशीष नहीं चाहते? वे आशीष चाहते हैं लेकिन स्वीकार या आज्ञापालन नहीं कर सकते, या फिर भी अनिच्छुक महसूस करते हैं, तो वे क्या करते हैं? वे ऐसे दुर्भावनापूर्ण शब्द कहते हैं। क्या तुम लोगों ने पहले भी इस तरह के शब्द सुने हैं? कुछ लोगों के बीच मैंने ऐसे शब्दों को बहुत बार सुना है। कुछ लोग सोचते हैं कि “हमने तुम्हारे साथ-साथ परमेश्वर में विश्वास करना शुरु किया। उस समय तुम युवा थे, अक्सर परमेश्वर के वचनों को लिखते थे। बाद में, तुमने उपदेश देना शुरू किया। तुम बस एक साधारण व्यक्ति हो; हमे तुम्हारी पृष्ठभूमि पता है।” मेरी पृष्ठभूमि कैसी है? मैं तो एक साधारण व्यक्ति हूँ; मेरी सच्चाई यही है। क्या तुम्हारे अनिच्छुक होने का कारण केवल यह नहीं है कि मैं एक साधारण और सामान्य व्यक्ति हूँ, फिर भी इतने सारे लोग मेरा अनुसरण करते हैं? अगर तुम अनिच्छुक हो, तो विश्वास मत करो। यह परमेश्वर का कार्य है; मैं अपनी ज़िम्मेदारी से भाग नहीं सकता, मेरे पास कोई बहाना नहीं है, और मैंने कोई ऐसा काम नहीं किया है जो किसी को चोट या नुकसान पहुँचाने वाला हो। तो, तुम इस दृष्टिकोण से मेरे पास क्यों आते हो? अगर तुम अनिच्छुक हो, तो विश्वास मत करो। तुम जिस पर विश्वास करने के इच्छुक हो, उस पर विश्वास करो; मेरा अनुसरण मत करो। मैंने तुम्हें मजबूर नहीं किया है। तुम मेरा अनुसरण क्यों कर रहे हो? कुछ लोग तो जाँच करने के लिए मेरे घर भी आए। वे क्या जाँच कर रहे थे? उन्होंने मुझसे पूछा, “क्या तुम घर वापस जाते हो? अभी घर पर तुम्हारी आर्थिक स्थिति कैसी है? तुम्हारे परिवार के सदस्य क्या करते हैं? वे कहाँ हैं? उनका जीवन कैसा है?” कुछ लोगों ने तो मेरे घर में पड़ी एक अतिरिक्त रजाई या कम्बल की भी जाँच-पड़ताल की। ये लोग परमेश्वर में विश्वास करने के बिल्कुल भी इच्छुक नहीं हैं! वे इच्छुक क्यों नहीं हैं? क्योंकि वे सोचते हैं कि, “परमेश्वर को ऐसा नहीं होना चाहिए। परमेश्वर इतना छोटा, इतना सामान्य और व्यावहारिक, और इतना आम और साधारण नहीं होना चाहिए। वह इतना आम है, इतना आम कि हम उसे परमेश्वर के रूप में पहचान ही नहीं सकते।” क्या तुम्हारी आँखें जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है, परमेश्वर को पहचान सकती हैं? भले ही परमेश्वर तुम्हें यह बताने के लिए स्वर्ग से नीचे आ जाए, फिर भी तुम उसे नहीं पहचान सकोगे। क्या तुम परमेश्वर का वास्तविक व्यक्तित्व देखने के योग्य हो? परमेश्वर यदि तुम्हें स्पष्ट रूप से बताए कि वह परमेश्वर है, फिर भी तुम उसे स्वीकार नहीं करोगे। क्या तुम उसे पहचान सकते हो? ये किस तरह के लोग हैं? उनकी प्रकृति क्या है? (दुष्टता।) ये लोग वास्तव में “मेरे क्षितिज को व्यापक बनाते हैं।”
परमेश्वर के कार्य का दायित्व लेने के बाद इस पहचान और पद के साथ अपना कार्य करते हुए मैं कुछ व्यक्तियों के संपर्क में आया हूँ। विविध प्रकार की “प्रतिभाओं” के समूहों का सामना करते हुए, मैंने पाया है कि मनुष्यों के भ्रष्ट स्वभाव से दो शब्दों को अलग नहीं किया जा सकता है : “बुरा” और “दुष्ट”—इन दोनों में वह समाहित है। वे हर दिन मेरे बारे में अध्ययन क्यों करते हैं? वे मेरी पहचान को स्वीकार करने के अनिच्छुक क्यों हैं? क्या यह इसलिए नहीं है कि मैं बहुत ही साधारण और सामान्य व्यक्ति हूँ? यदि मैं आध्यात्मिक देह के रूप में होता, तो क्या उनकी ऐसी हिम्मत होती? वे इस तरह से मेरा अध्ययन करने की हिम्मत नहीं करते। यदि मेरा एक खास सामाजिक रुतबा होता, विशेष योग्यताएँ होतीं, किसी महान व्यक्ति की छवि और रूप होता, और कुछ हद तक बुरा, दबंग और निर्दयी स्वभाव होता, तो क्या ये लोग मेरे घर आकर मेरी जाँच करने और मेरा अध्ययन करने की हिम्मत करते? वे ऐसी हिम्मत बिल्कुल नहीं करते; वे मुझसे बचते, मुझे आते देखकर छिप जाते, और निश्चित ही मेरा अध्ययन करने की हिम्मत नहीं करते, है ना? फिर, क्यों वे इस तरह से मेरा अध्ययन करने में सक्षम हैं? वे मुझे आसान लक्ष्य के रूप में देखते हैं। एक आसान लक्ष्य का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि मैं बहुत साधारण हूँ। “साधारण” का निहितार्थ क्या है? “तुम तो बस एक मनुष्य हो; तुम परमेश्वर कैसे हो सकते हो? तुम्हारे पास वह ज्ञान, शिक्षा, खूबियाँ, प्रतिभाएँ और योग्यताएँ बिल्कुल नहीं हैं जो परमेश्वर में होनी चाहिए। तुम किस तरह से परमेश्वर जैसे हो? तुम उसके जैसे नहीं हो! इसलिए, मेरे लिए यह स्वीकार करना मुश्किल है कि तुम परमेश्वर हो; तुम्हारा अनुसरण करना, तुम्हारे वचनों को सुनना और तुम्हारे अधीन रहना मुश्किल है। मुझे पूरी जांच करने की जरूरत है : मुझे तुम पर निगरानी रखने की जरूरत है, तुम पर नजर रखने की जरूरत है, और तुम्हें कुछ भी अनुचित नहीं करने देना है।” वे क्या करने की कोशिश कर रहे हैं? यदि मेरे पास सामाजिक प्रतिष्ठा और एक निश्चित स्तर की प्रसिद्धि होती, उदाहरण के लिए, यदि मैं आला दर्जे का गायक होता, और एक दिन यह गवाही देता कि मैं परमेश्वर हूँ, मसीह हूँ, तो क्या कम से कम कुछ लोग भी इस पर विश्वास नहीं करते? मेरा अध्ययन करने वाले लोगों की संख्या अपेक्षाकृत कम होगी। केवल मेरे साधारण, सामान्य, व्यावहारिक और बहुत आम होने का तथ्य ही बहुत से लोगों को प्रकट करता है। यह उनमें क्या प्रकट करता है? यह उनकी दुष्टता को प्रकट करता है। यह दुष्टता कितनी दूर तक जाती है? यह दुष्टता इस हद तक जाती है कि जब मैं उनकी बगल से निकल जाता हूँ, तो भी वे लंबे समय तक मेरा अध्ययन करते रहते हैं, मेरी पीठ में परमेश्वर से समानता की तलाश करते हैं, यह जाँचते हैं कि क्या मेरी वाणी में कोई चमत्कार है। वे अक्सर अपने दिलों में अनुमान लगाते हैं, “ये शब्द कहाँ से आते हैं? क्या ये सीखे हुए शब्द थे? ऐसा नहीं लगता : लगता नहीं कि उसके पास अध्ययन करने का समय है। हाल के वर्षों में वह बहुत बदल गया है; यह सब सीखा हुआ नहीं लगता। तो, ये शब्द कहाँ से आते हैं? यह अनुमान लगाना कठिन है; मुझे सावधान रहने की आवश्यकता है,” और वे अध्ययन करते रहते हैं। जो लोग लगातार अध्ययन करते हैं, वे मेरे साथ आमने-सामने संवाद या बातचीत नहीं करते; वे हमेशा मेरी पीठ पीछेचिंतन करते हैं, हमेशा मेरे वचनों में गलतियाँ ढूँढ़ना चाहते हैं, और कुछ लाभ उठाना चाहते हैं। वे अपनी धारणाओं से मेल नहीं खाने वाले वाक्य का कई दिनों तक अध्ययन कर सकते हैं, और जरा-सी कठोर टिप्पणी भी उनमें कोई धारणा विकसित कर सकती है। ये चीजें कहाँ से आती हैं? वे लोगों के दिमाग और ज्ञान से आती हैं। वे किस तरह के लोग हैं जो परमेश्वर का अध्ययन कर सकते हैं, जो लगातार अपने विचारों का उपयोग परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाने के लिए कर सकते हैं? क्या उन्हें दुष्ट स्वभाव वाले लोगों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है? बिल्कुल! यह देखते हुए कि तुम्हारे पास समय और ऊर्जा है, बहुत अच्छा होगा कि तुम सत्य पर विचार करो! ऐसा कौन-सा सत्य है जिसके बारे में संगति करने और विचार करने में तुम्हें थोड़ा भी समय नहीं लगेगा? ऐसे बहुत से सत्य हैं जिन पर शायद तुम लोग इस जीवनकाल में विचार न कर सको। ऐसे बहुत से सत्य हैं जिन्हें समझने की आवश्यकता हर व्यक्ति को है। वे इस मामले को लेकर कोई बोझ महसूस नहीं करते, फिर भी वे उन बाहरी और सतही मामलों को कभी नहीं भूलते और हमेशा उनका अध्ययन करते रहते हैं। जैसे ही मैं बोलता हूँ, वे अपनी आँखें झपकाते हैं, मेरी आँखों की ओर टकटकी लगा कर देखते हैं, मेरे कार्यों और भावों की जाँच करते हैं, और अपने मन में अनुमान लगाते हैं कि, “क्या वह इस पहलू में परमेश्वर जैसा दिखता है? इसकी वाणी तो उससे मिलती-जुलती नहीं है, उसके रूप भी बिल्कुल मेल नहीं खाते। मैं उसका अनुमान कैसे लगाऊँ? मैं यह कैसे देखूँ कि वह अपने दिल की गहराई में मेरे बारे में क्या सोचता है? वह इस मामले और उस मामले के बारे में क्या सोचता है? वह मुझे कैसे परिभाषित करता है?” वे हमेशा मन में ऐसे विचारों को रखते हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ।) इसे नहीं बचाया जा सकता—यह बहुत दुष्ट है!
कोई सच्चा इंसान उन चीजों से प्यार करता है और उनका अनुसरण करता है जो मानवता, अंतरात्मा, सामान्य मानवीय सोच और वास्तविक जीवन से मेल खाती हैं, जो सामान्य और व्यावहारिक हैं, जिनमें कोई विकृति या विचित्रता नहीं है, जो अमूर्त नहीं हैं, खोखली नहीं हैं, और अलौकिक नहीं हैं। कोई भी सामान्य व्यक्ति इन चीजों को सकारात्मक चीजें मानते हुए उन्हें संजोने, सही ढंग से संभालने और उन्हें पारम्परिक रूप से स्वीकारने में सक्षम होगा। इसके विपरीत, कुछ व्यक्ति जब वास्तविक जीवन के विभिन्न पहलुओं, जैसे कि भोजन, कपड़ा, मकान, परिवहन, व्यवहार और व्यक्तिगत आचरण आदि से निकटता से जुड़े इन सत्यों का सामना करते हैं, तो उन्हें कमतर आंकते हैं, अनदेखा करते हैं और उनकी अवहेलना करते हैं। यहाँ समस्या क्या है? समस्या उनकी प्राथमिकताओं और प्रकृति सार के साथ है। कोई चीज जितनी अधिक सकारात्मक होती है, परमेश्वर उससे उतना ही अधिक प्रेम करता है, उसे उतना ही अधिक चाहता है, और उससे उतना ही अधिक करता है, और कोई चीज परमेश्वर के इरादों के अनुसार लोगों के लिए प्राप्य और स्वीकार्य होने के जितना अधिक समरूप होती है, उतने ही अधिक ये लोग उस पर सवाल उठाते हैं, उतना ही अधिक उसका अध्ययन करते हैं, उसका विरोध करते हैं और उसकी निंदा करते हैं—क्या यह दुष्टतापूर्ण बात नहीं है? यह अत्यधिक दुष्टता है! मसीह-विरोधी अविश्वासियों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। अगर मैं अविश्वासियों के बीच होता, तो वे मसीह-विरोधियों और देहधारी परमेश्वर में से किसे अधिक आसानी से स्वीकारते? (मसीह-विरोधियों को।) क्यों? क्या अविश्वासी सीधे-सच्चे लोगों को पसंद करते हैं, या दुष्ट लोगों को? (दुष्ट लोगों को।) क्या वे उन लोगों को पसंद करते हैं जो चापलूसी करते हैं और खुशामद करते हैं, या उनको जो ईमानदार हैं? (जो चापलूसी करते हैं और खुशामद करते हैं।) बिल्कुल, वे ऐसे ही व्यक्तियों का पक्ष लेते हैं। यदि तुम नहीं जानते कि किसी समूह में विभिन्न पारस्परिक संबंधों के प्रबंधन के लिए रणनीतियों का उपयोग कैसे किया जाए, और तुम नहीं जानते कि रणनीतियों के माध्यम से लोगों के बीच कैसे हेरफेर की जाए या कैसे उन्हें नियंत्रित किया जाए, तो क्या वह समूह तुम्हें समायोजित कर सकता है? यदि तुम बहुत ईमानदार हो, हमेशा सच बोलते हो, कई मुद्दों के सार की असलियत समझ सकते हो, और फिर जो तुमने देखा और समझा उन सत्यों को बोलते हो, तो क्या कोई इसे स्वीकार करेगा? नहीं, इस दुनिया में कोई भी इसे स्वीकार नहीं कर सकता। इस दुनिया में, सत्य बोलने की उम्मीद न करो—ऐसा करने से परेशानी आएगी या आपदा आएगी। ईमानदार व्यक्ति होने की उम्मीद न करो; ऐसा होने पर तुम्हारा कोई भविष्य नहीं होगा। मसीह विरोधियों का क्या है? वे झूठ बोलने में माहिर हैं, खुद को छिपाने और खुद को पेश करने में माहिर हैं, वे खुद को भव्य, गरिमापूर्ण और गुणी व्यक्ति के रूप में पेश करते हैं, जिससे लोग उनकी आराधना करते हैं। वे इन चीजों में माहिर हैं, और वे ऐसी ही चीजों का आनंद लेते हैं—वे थोथे ज्ञान और शिक्षा पर चर्चा करने के साथ-साथ खूबियों और रणनीतियों की तुलना करने में आनंदित होते हैं। उदाहरण के लिए, किसी कंपनी या लोगों के समूह में उच्चतम ज्ञान और शिक्षा का होना प्राथमिक बात नहीं होती, न ही यह उस कंपनी में किसी व्यक्ति की स्थिति निर्धारित करने का मुख्य कारक होता है। मुख्य कारक क्या है? (रणनीतियाँ और प्रतिभा।) बिल्कुल ठीक, रणनीतियाँ और प्रतिभा ही मुख्य कारक होते हैं। इनके बिना, व्यापक शिक्षा होने का कोई फायदा नहीं है। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम विदेश से लौटे हो, और यहाँ के लोगों के इस समूह के खेल के नियमों से पूरी तरह अनभिज्ञ हो। यदि तुम विदेशी कंपनियों के आत्म-व्यवहार संबंधी नियम, विनियम और सिद्धांत लागू करते हो, तो तुम आगे नहीं बढ़ पाओगे। क्या यह ऐसा ही नहीं है? (हाँ, है।) ऐसा ही होता है। तुम्हें रणनीति बनानी होगी, और तुम्हें उच्च पद पर पहुँचने के लिए बुरा और दुष्ट होना होगा। यह कुछ महिलाओं की तरह ही है : भले ही उनके पास उनका भरण-पोषण करने के लिए पति हो, लेकिन वे संतुष्ट नहीं होतीं। अलग दिखने और प्रसिद्धि, लाभ तथा प्रतिष्ठा पाने के लिए, वे किसी भी साधन का सहारा लेती हैं। वे चापलूसी करती हैं और आवश्यक होने पर निजी सेवाएँ प्रदान करती हैं, और इस सब के लिए उन्हें बाद में शर्मिंदगी या अपने पतियों या परिवारों के प्रति अपराध-बोध या ऋणी होने जैसे अहसास भी नहीं होते। क्या तुम ऐसा कर सकते हो? तुम्हें यह घृणित लगता है, और तुम ऐसा नहीं कर सकते। तो, उनके बीच तुम ऊँचे पद पर कैसे पहुँच सकते हो? कोई रास्ता नहीं है। यह सब अपनी आत्मा को बेच कर और विभिन्न दुष्टतापूर्ण तरीकों का उपयोग करने से प्राप्त किया जाता है। क्या तुम्हें काम करने का यह तरीका पसंद है? (नहीं।) तुम कहते हो कि अभी तुम्हें यह पसंद नहीं है, लेकिन किसी दिन जब तुम्हें एक निश्चित सीमा तक दबाया जाएगा, तो यह सब तुम्हें पसंद आने लगेगा। अगर लोग तुम्हें दिन भर धमकाते और सताते रहें, तुम्हारे लिए मुश्किलें खड़ी करते रहें, तुममें कमियाँ निकालते रहें और तुम्हें बाहर निकालना चाहें, तो अपनी नौकरी बचाने के लिए तुम्हें अपना शरीर बेचना पड़ सकता है। तुम्हें वे सभी दुष्ट चालें सीखनी होंगी जिनका वे प्रयोग करते हैं, और अंत में तुम भी उनके जैसे ही बन जाओगे। ठीक अभी तुम सख्ती से घोषणा करते हो कि, “मुझे ये चालें पसंद नहीं हैं। मैं उस तरह का व्यक्ति नहीं बनना चाहता। मैं इतना दुष्ट नहीं हूँ। मैं अपना शरीर नहीं बेचना चाहता। मुझे पैसा पसंद नहीं है; खाने और पहनने के लिए पर्याप्त होना ही काफी है।” तुम किस तरह के व्यक्ति हो? तुम कुछ भी नहीं हो। तुम वही हो जो शैतान ने तुम्हें भ्रष्ट करके बनाया है। क्या तुम्हें लगता है कि तुम अपने मालिक हो सकते हो? लोग माहौल के साथ बदलते हैं, उनका स्वभाव भ्रष्ट होता है, और तुम प्रसिद्धि, लाभ, स्थिति, धन और सभी प्रकार के प्रलोभनों पर काबू नहीं पा सकते। यदि तुम उस वातावरण में होते, तो तुम खुद को नियंत्रित करने में असमर्थ होते। अविश्वासियों के लिए यह चरण मांस पीसने की चक्की में पड़ने जैसा है। एक बार जब कोई व्यक्ति इसमें पिस जाता है, तो बचने का कोई रास्ता नहीं होता। अब, परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हुए, परमेश्वर की सुरक्षा में, और बिना किसी की दादागीरी सहे तुम परमेश्वर की उपस्थिति में शांति से रह सकते हैं। तुम बहुत धन्य हो, इसलिए इसका शांति से आनंद लो! यदि तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते और थोड़ी सी काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, तो तुम्हें गलत महसूस नहीं करना चाहिए। तुम्हें ढेरों आशीष मिले हैं; क्या तुम्हें पता नहीं है? (हाँ, पता है।) मुझे बताओ, अविश्वासियों के लिए “मांस पीसने की चक्की” में पड़े होने का अनुभव कैसा होता है? उनके लिए मर जाना बेहतर होता है। परमेश्वर के घर में तुम्हें जो थोड़ा बहुत कष्ट सहना पड़ता है, वह लोगों को सहना चाहिए; वह बहुत पीड़ादायक बिल्कुल नहीं होता। लेकिन, लोग संतुष्ट नहीं हैं और कितनी भी काट-छाँट की जाए वे पश्चाताप करने को तैयार नहीं हैं। लेकिन जब उन्हें घर भेजा जाता है, तो वे अविश्वासियों के बीच लौटने को तैयार नहीं होते क्योंकि उन्हें लगता है कि वे बहुत बुरे और दुष्ट हैं। जब वास्तव में मृत्यु का सामना करना पड़ता है, तो लोग मरना नहीं चाहते; हर कोई जीवन की तीव्र आकांक्षा करता है और इस सिद्धांत का पालन करता है कि “बुरा जीवन भी अच्छी मृत्यु से बेहतर है।” वे जैसे ही अपना ताबूत देखते हैं, फूट-फूट कर रोने लगते हैं। लोग अब जानते हैं कि अविश्वासियों के बीच जीवित रहना आसान नहीं है। यदि तुम गरिमा के साथ जीना चाहते हो और अपनी क्षमताओं के आधार पर जीविकोपार्जन करना चाहते हैं, तो ऐसा करने का कोई तरीका नहीं है। केवल योग्यता होना ही पर्याप्त नहीं है; सफल होने के लिए तुम्हें पर्याप्त दुष्ट, बुरा और बदनीयत भी होना चाहिए। तुम्हारे पास क्या है? कुछ लोग कहते हैं, “मेरे पास अब थोड़ी-सी दुष्टता है, लेकिन पर्याप्त बुराई नहीं है।” यह आसान है। खुद को “मांस पीसने की चक्की” में डालो, और एक महीने से भी कम समय में, तुम बुरे बन जाओगे। यदि तुम अच्छे व्यक्ति हो तो वे तुम्हें मारना चाहेंगे; तुम उन्हें छोड़ दोगे, लेकिन वे तुम्हें नहीं छोड़ेंगे, इसलिए तुम्हें जीवित रहने के लिए लड़ना होगा। एक बार जब तुम बुरे हो जाते हो, तो वापस मुड़ना संभव नहीं होता और तुम भी शैतान बन चुके होते हो। दुष्टता इस तरह से बनती है। अविश्वासियों की दुनिया बहुत अंधकारमय और दुष्टतापूर्ण है। लोग अंधकार और दुष्टता के शैतानी प्रभाव से कैसे मुक्त हो सकते हैं? उद्धार पाने के लिए उन्हें सत्य समझने की जरूरत होती है। अब जब तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, यदि तुम शैतान के प्रभाव से बचना और मुक्त होना चाहते हो, तो यह कोई आसान बात नहीं है। तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पित होना सीखना चाहिए, परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय विकसित करना चाहिए, कई चीजों को साफ-साफ समझना चाहिए, और, इसके अलावा, तुम्हारे आचरण के सिद्धांतों में बुद्धिमत्ता होनी चाहिए किंतु उन्हें परमेश्वर को नाराज नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, हमेशा प्रसिद्धि और लाभ के लिए प्रयासरत मत रहो, या हमेशा रुतबे के फायदों का आनंद लेने की कोशिश मत करो। बस खाने के लिए जरूरत भर सामग्री का होना और भूख से न मरना ही पर्याप्त है। इस तरह से अनुग्रह प्राप्त करने के लिए तुम्हें परमेश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए, ताकि तुम्हें सुरक्षा मिले। यदि तुम हमेशा असाधारण इच्छाएँ रखोगे, तो यह उचित नहीं होगा, और परमेश्वर तुम्हारी प्रार्थनाओं पर ध्यान नहीं देगा।
मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति के संबंध में, आज हम मुख्य रूप से जिस तीसरी अभिव्यक्ति के बारे में संगति करने जा रहे हैं वह है, मसीह-विरोधी किसकी आराधना करते हैं। मसीह-विरोधी किस चीज की आराधना करते हैं? (ज्ञान और शिक्षा की।) ज्ञान और शिक्षा के अलावा एक और चीज—खूबियों की। ज्ञान और शिक्षा में क्या शामिल है? इनमें वह सब शामिल है जो दुनिया भर में अध्ययन की जाने वाली पुस्तकों में पाया जाता है, ज्ञान से संबंधित उद्योगों में काम करने से प्राप्त अनुभव के साथ ही नैतिकता, मानवता, व्यवहार इत्यादि के बारे में समाज में प्रचारित विभिन्न प्रतिबंध, नियम और विनियम, इत्यादि इनमें शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, इनमें विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ा ज्ञान शामिल है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग परमेश्वर के वचनों में वर्णित पुनर्देहधारण पर विश्वास नहीं करते। लेकिन अगर किसी दिन वैज्ञानिक शोध में पता चले कि मनुष्यों में आत्मा होती है, क्योंकि मृत्यु के बाद कोई चीज शरीर से निकल जाती है, और व्यक्ति का वजन एक निश्चित मात्रा में कम हो जाता है, जो संभवतः आत्मा का वजन है, तो वे इस पर विश्वास कर सकते हैं। इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर कैसे कह रहा है, वे विश्वास नहीं करते, लेकिन जैसे ही वैज्ञानिक वजन के आधार पर कुछ मापते हैं, वे उस पर विश्वास कर लेते हैं। वे केवल विज्ञान पर भरोसा करते हैं। कुछ लोग केवल राष्ट्र, सरकार और उससे जुड़ी जानकारियों, सिद्धांतों और मशहूर हस्तियों की व्याख्याओं पर ही भरोसा करते हैं। वे केवल उन्हीं चीजों पर भरोसा करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों, उसकी शिक्षा, उसके मार्गदर्शन या कथनों को गंभीरता से नहीं लेते। लेकिन वे जैसे ही किसी मशहूर हस्ती को बोलते हुए सुनते हैं, उसे तुरंत स्वीकार कर लेते हैं और उसकी आराधना भी करते हैं और उसकी बातों का प्रचार करते हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने कहा कि वह जो दिव्य भोजन, मन्ना, लोगों के लिए हर दिन गिराता है, उसे संग्रहीत नहीं किया जा सकता और अगले दिन नहीं खाया जाना चाहिए क्योंकि वह ताजा नहीं होगा, लेकिन उन्होंने परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं किया। उन्होंने सोचा, “अगर परमेश्वर ने मन्ना न भेजा और हम भूखे रह गए, तब क्या होगा?” इसलिए, उन्होंने इसे इकट्ठा करने और बचा कर रखने का एक तरीका खोज निकाला। परमेश्वर ने दूसरे दिन मन्ना भेजा और वे उसे इकट्ठा करते रहे। परमेश्वर ने तीसरे दिन मन्ना भेजा और वे उसे इकट्ठा करते रहे। परमेश्वर हर दिन एक ही बात कहता रहा, और उन्होंने लगातार ऐसे तरीके से काम किया जो परमेश्वर के निर्देशों के खिलाफ था। उन्होंने कभी न तो परमेश्वर के वचनों पर विश्वास किया और न ही उन पर ध्यान दिया। एक दिन, किसी वैज्ञानिक ने शोध किया और कहा कि “यदि मन्ना उसी दिन नहीं खाया जाता है और अगले दिन के लिए छोड़ दिया जाता है, तो भले ही वह बाहर से ताजा दिखे, लेकिन उसमें ऐसे कीटाणु पैदा हो जाते हैं जिन्हें खाने से पेट की बीमारी हो सकती है।” उस दिन के बाद से लोगों ने मन्ना का संग्रह करना बंद कर दिया। उनके लिए एक वैज्ञानिक का एक कथन परमेश्वर के दस कथनों से अधिक भारी है। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ, यह दुष्टता है।) वे मौखिक रूप से स्वीकार करते थे कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, कि वे परमेश्वर को स्वीकारते हैं, परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, और परमेश्वर से आशीष पाना चाहते हैं। इसके साथ ही उन्होंने परमेश्वर के दिए अनुग्रह और आशीष का आनंद लिया, परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा का आनंद लिया, लेकिन उसके अलावा उन्होंने परमेश्वर की कही बातों, उसके दिए निर्देशों, आज्ञाओं या आदेशों का एक भी वाक्य नहीं सुना। यदि कोई अधिकार सम्पन्न और प्रतिष्ठित ज्ञानी और विद्वान व्यक्ति कुछ कहता है या कोई भ्रांति व्यक्त करता है, तो वे सही या गलत की परवाह किए बिना उसे तुरंत स्वीकार कर लेते हैं। यहाँ क्या हो रहा है? यह दुष्टता है, बहुत ज्यादा दुष्टता! उदाहरण के लिए, मैंने कुछ लोगों से कहा कि शकरकंद और अंडे एक साथ न खाएँ, क्योंकि इससे खाद्य विषाक्तता हो सकती है। मेरा कथन किस पर आधारित है? मैं कोई मनगढ़ंत बात नहीं कह रहा हूँ; ऐसे मामले सामने आए हैं जब दोनों चीजें एक साथ खाने से लोगों को खाद्य विषाक्तता हो गई। यह सुनने के बाद किसी सामान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया क्या होगी? वह सोचेगा, “भविष्य में, मैं शकरकंद खाते समय अंडे नहीं खाऊँगा, कम से कम दो-तीन घंटों के भीतर तो नहीं खाऊँगा।” वह इसे गंभीरता से लेगा और अपनी खाने की आदतों को बदलेगा। परंतु, कुछ लोग इस पर विश्वास नहीं करेंगे। वे कहेंगे, “अंडा और शकरकंद एक साथ खाने से खाद्य विषाक्तता? यह असंभव है। मैं उन्हें एक साथ खाऊँगा, और तुम देखना कि मुझे भोजन विषाक्तता होती है या नहीं!” यह किस तरह का व्यक्ति है? (दुष्ट।) मुझे यह व्यक्ति थोड़ा नीच लगता है! मैं कुछ और कह रहा हूँ, और वह दोनों चीजें एक साथ खाने पर अड़ा है; क्या यह नीचता नहीं है? इस किस्म के लोग खास तौर पर उस बात का विरोध करते हैं, प्रतिवाद करते हैं, और उस पर बहस करते हैं जो सही, उचित और सकारात्मक हो—यह दुष्टता है। भ्रष्ट मानव जाति दुष्टता और सामर्थ्य को महत्व देती है। दानव और शैतान चाहे जो भ्रांति फैलाएँ, लोग बिना किसी सवाल के उसे स्वीकार कर लेते हैं, जबकि परमेश्वर कई सत्य व्यक्त करता है, लेकिन लोग उन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं और यहाँ तक कि कई धारणाएँ भी बना लेते हैं। एक और उदाहरण है। संयुक्त राज्य अमेरिका के कई ग्रामीण इलाकों में आदिम जंगल हैं जहाँ जंगली जानवर अक्सर घूमते रहते हैं। वहाँ बाहर जाते समय किसी को साथ ले जाना उचित है, और जब तक आवश्यक न हो रात में बाहर न जाना सबसे अच्छा है। यदि तुम्हें बाहर जाने की आवश्यकता है तो तुम्हें सावधानी बरतनी चाहिए, किसी के साथ जाना चाहिए, या आत्मरक्षा के लिए हथियार साथ रखने चाहिए—बाद में पछताने से बेहतर है सुरक्षित रहना। कुछ लोग कहते हैं, “कुछ नहीं होगा; परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा।” क्या यह परमेश्वर की परीक्षा नहीं है? लोगों को ये सावधानियाँ बरतनी ही चाहिए। तुम्हारे पास एक दिमाग, एक दिल और एक आत्मा है तो फिर परमेश्वर की सुरक्षा पर जोर क्यों देना? परमेश्वर की परीक्षा मत लो। वही करो जो तुम्हें करना चाहिए। अगर संयोग से तुम्हारा सामना किसी ऐसे खूंखार जंगली जानवर से हो जाए जिससे चार या पाँच लोगों का समूह भी नहीं निपट सकता, फिर भी तुम बच सकते हो—यह परमेश्वर की सुरक्षा है। कुछ लोगों ने वाकई भेड़ियों को देखा है और भेड़ियों और भालुओं को दहाड़ते हुए सुना है, जो वहाँ इन जंगली जानवरों के होने की पुष्टि करता है। इसलिए, जब मैं कहता हूँ कि रात में बाहर मत जाओ क्योंकि जंगली जानवरों से आसानी से सामना हो सकता है, तो क्या मैं केवल बातें बना रहा हूँ? (नहीं।) मैं लोगों को डराने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ। कुछ लोग, यह सुनने के बाद कहते हैं, “मुझे ज्यादा सावधान रहना चाहिए। मैं बाहर जाते समय किसी को अपने साथ ले जाऊँगा, या जंगली जानवरों से सामना हो ही जाए तो उनसे निपटने के लिए आत्मरक्षा के हथियार साथ रखूँगा।” कुछ लोग, यह सुनने के बाद इसे गंभीरता से लेते हैं, विश्वास करते हैं और इसे स्वीकार करते हैं, और फिर जो मैंने कहा है उसे व्यवहार में लाते हैं। यह सहज स्वीकृति है; इससे आसान कुछ नहीं हो सकता। हालाँकि, कुछ अलग तरह के लोग यह सब सुनने से इनकार करते हैं। वे कहते हैं, “मुझे तो कभी जंगली जानवर नहीं दिखा? वे कहाँ हैं? कोई तो बाहर आए; मैं उसका सामना करूँगा और देखूँगा कि कौन अधिक भयानक है। जंगली जानवरों में इतना डरावना क्या है? तुम लोगों में कम आस्था है और डरपोक हो। मेरी आस्था को देखो; मैं तो भालुओं से भी नहीं डरता!” ऐसे लोग जानबूझकर अकेले बाहर जाते हैं, बिना किसी कारण के बस इधर-उधर घूमते हैं। भोजन के बाद, उन्हें बाहर टहलना होता है और वे अकेले ही जाने पर जोर देते हैं। दूसरे लोग जब कोई साथी खोजने का सुझाव देते हैं तो वे जवाब देते हैं, “बिल्कुल नहीं, मुझे साथी की क्या जरूरत? साथी होने से लगेगा कि मैं बेकार हूँ! मैं अकेले ही बाहर जाऊँगा!” वे इसे आजमाना चाहते हैं। यह कैसा व्यक्ति है? चलो इस बारे में बात ही नहीं करते कि उसे जंगली जानवरों का सामना करना पड़ा या नहीं; क्या ऐसे मामलों के प्रति उसके रवैये में समस्या नहीं है? (हाँ, है।) उसकी समस्या क्या है? (ऐसे व्यक्ति का स्वभाव दुष्ट होता है।) तुम उससे गंभीर मामलों पर बात करने की कोशिश करते हो, और वह उसे मजाक समझता है। क्या ऐसे लोगों से बात करने का कोई मतलब है? इस तरह के लोग जंगली जानवरों से भी बदतर हैं; उनके बारे में परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है।
अभी-अभी हमने इस तथ्य के संबंध में चर्चा की कि मसीह-विरोधियों जैसे दुष्ट स्वभाव वाले लोग ज्ञान, शिक्षा, खूबियों और कुछ विशेष प्रतिभाओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं; वे विशेष प्रतिभा वाले लोगों की खास तौर पर प्रशंसा और सम्मान करते हैं; और वे ऐसे लोगों की बातों से पूरी तरह से विस्मित होते हैं और उनकी बातों को मानते हैं। लोगों के लिए फायदेमंद और सामान्य मानवता वाले लोगों के लिए जरूरी सामान्य ज्ञान, अंतर्दृष्टि और वास्तविक शिक्षा, या सामान्य मानवीय विचारों के दायरे में समझ में आने वाली व्यावहारिक और सकारात्मक चीजों के प्रति उनका रवैया क्या है? वे उनका तिरस्कार करते हैं, उन पर कोई ध्यान नहीं देते। हर बार जब सभाओं में इन वचनों और सत्यों पर संगति की जाती है तो वे क्या कर रहे होते हैं? वे अपना सिर खुजाते हैं, कुछ की आँखें अधमुँदी होती हैं, वे सुन्न और ठस दिखाई देते हैं, और कुछ विचारों में खोए हुए से लगते हैं। परमेश्वर का घर गंभीर मामलों पर जितनी अधिक चर्चा करता है, उनकी रुचि उतनी ही कम होती जाती है। सत्य के बारे में परमेश्वर का घर जितनी अधिक संगति करता है, उतना ही अधिक वे सो जाते हैं या उनींदापन महसूस करते हैं। यह स्पष्ट है कि इन लोगों की सत्य में कोई रुचि नहीं है। क्या ये छद्म-विश्वासी लोग उद्धार से परे नहीं हैं? कुछ लोग जब धर्म में थे, वे केवल अन्य भाषाओं में बोलने वालों को सुनना या अजीबोगरीब चीजें देखना पसंद करते थे, और अविश्वसनीय चीजें देखकर उनका मन तुरंत खुश हो जाता था। मुझे देख कर कुछ लोग कहते हैं, “मैंने दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री प्राप्त की है। तुमने किस चीज का अध्ययन किया है?” मैं कहता हूँ, “मैंने किसी विशेष विषय का अध्ययन नहीं किया है; मैं बस कुछ अक्षरों को समझ सकता हूँ और किताबें पढ़ सकता हूँ।” वे कहते हैं, “तो, ठीक है, तुम मेरे जितना नहीं जानते।” मैं जवाब देता हूँ, “इसकी तुलना करना बेकार है, लेकिन चलो थोड़ी देर के लिए संगति करते हैं—क्या फिलहाल तुम्हें कोई कठिनाई है?” इस पर, वे कैसे जवाब देते हैं? “हम्म, मुझे क्या कठिनाई? मुझे कोई कठिनाई नहीं है। मैं अपना कर्तव्य बहुत अच्छी तरह से निभा रहा हूँ!” जब मैं उनके साथ सत्य पर संगति करता हूँ, तो वे रुचि खो देते हैं, जम्हाई लेते हैं और आँसू बहाते हैं मानो उन पर कोई भूत चढ़ गया हो। अगर मैं उनके भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करना शुरू करता हूँ, तो वे कुछ और नहीं सुनना चाहते और अपना प्याला उठा कर चल देते हैं। मैं उनका साथ निभाने और उनके साथ बराबरी से बातचीत करने की जितनी कोशिश करता हूँ, वे उतना ही मुझे नीची निगाह से देखते हैं। क्या यह सद्भावना की उपेक्षा करना नहीं है? कोई था जो गाड़ी चलाना जानता था। मैंने उससे पूछा, “तुम कितने सालों से गाड़ी चला रहे हो?” उसने कहा, “मैंने महाविद्यालय से स्नातक करने के बाद दो साल तक काम किया, और उसके बाद कार खरीदी।” मैंने कहा, “तो, तुम काफी सालों से गाड़ी चला रहे हो। मुझे अभी भी गाड़ी चलाना नहीं आता।” क्या ऐसा कहना समानता से मेलजोल के साथ रहना नहीं है? क्या यह सामान्य मानवता वाले लोगों की बातचीत नहीं है? (हाँ, है।) यह सुनने के बाद, उसने कहा, “हुह्? तुम अभी तक गाड़ी चलाना नहीं जानते? फिर तुम क्या कर सकते हो?” मैंने कहा, “मैं ज्यादा कुछ नहीं कर सकता। मैं सिर्फ कार में बैठना जानता हूँ।” मैंने उससे पूछा, “तुम आजकल क्या कर्तव्य कर रहे हो?” उसने कहा, “मैं वित्त और लेखा देखता हूँ। मेरे दिमाग में संख्याएँ भरी हैं। महाविद्यालय में मैं गणित में उत्कृष्ट था और विज्ञान विषयों में सबसे तेज था। मुझमें सिन्हुआ या पीकिंग विश्वविद्यालय जाने की क्षमता थी।” मैंने कहा, “मैं गणित में बहुत खराब हूँ। संख्याओं से मुझे सिरदर्द होता है। मैं शब्दों का अध्ययन करना, शब्दावली सीखना जैसी चीजें ज्यादा पसंद करता हूँ।” उसने कहा, “यह सीखना बेकार है। जो लोग कला विषयों का अध्ययन करते हैं, उनका आम तौर पर कोई भविष्य नहीं होता।” देखो कि उसने क्या कहा। क्या इसमें कोई सामान्य मानवीय तर्क है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) जब मैंने उससे इतने शांत और दोस्ताना तरीके से बोला और संवाद किया, तो वह मामले को सही ढंग से नहीं संभाल सका। इसके बजाय, उसने मुझे नीची निगाह से देखा और मुझे छोटा साबित किया। अगर उसका सामना किसी ऐसे व्यक्ति से होता, जिसके पास कोई रुतबा या ज्ञान होता, तो शायद बात अलग होती। कुछ समय साथ बिताने के बाद उसे लगने लगता है कि, “मैं परमेश्वर से परिचित हो गया हूँ, मैंने उससे बातचीत की है, और उसके साथ लेन-देन किया है।” उसे लगता कि अब उसके पास कुछ पूँजी है। परिणामस्वरूप, उसका लहजा बदल जाता है। एक बार, मैंने उससे पूछा कि “मैंने सुना है कि कोई व्यक्ति अब अपने कर्तव्य नहीं करना चाहता था और घर जाना चाहता था। क्या वह व्यक्ति घर चला गया?” उसने उत्तर दिया, “ओह, वह व्यक्ति? उसका तो कभी घर जाने का इरादा था ही नहीं!” यह कैसा लहजा है? क्या उसमें बदलाव हुआ है? जब मैं पहली बार उससे मिला तो उसे लगा कि वह मुझे सँभाल नहीं पा रहा था : उसने सम्मान प्रदर्शित करते हुए दुम दबाकर व्यवहार किया। मगर, अब जब वह अधिक परिचित हो गया है, तो उसकी दुम ऊपर हो गई। यह कैसा लहजा है? जब वह मुझसे बात करता है, तो उसमें थोड़ी अवज्ञा, बेपरवाही, उपेक्षा और नीचा दिखाने वाला और तिरस्कारपूर्ण रवैया होता है। यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुष्टता है। क्या यह सामान्य मानवता वाला व्यक्ति है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) एक साधारण, सामान्य व्यक्ति तुमसे सामान्य रूप से संवाद और बातचीत कर सकता है—यह सबसे सामान्य बात है। अगर वह तुम्हें धमकाता है, दबाता है, या तुम्हें नीचा दिखाता है, तो कैसा लगता है? क्या तुम्हारे साथ इस तरह व्यवहार करना उस व्यक्ति में किसी तरह की सामान्य मानवता प्रदर्शित करता है? मुझे बताओ, अगर ऐसा कोई व्यक्ति किसी विश्व-प्रसिद्ध व्यक्ति, किसी पद और प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति, या अपने बॉस या वरिष्ठ से मिलता है, तो क्या वह उससे इस तरह से व्यवहार करने की हिम्मत करेगा? वह ऐसी हिम्मत नहीं करेगा। वह उत्सुकता से दंडवत करेगा, और इन लोगों से बातचीत करने के लिए खुद को अधीनस्थ, नीचे दर्जे का, नौकर, विनम्र व्यक्ति, आम आदमी, या साधारण आदमी जैसे संबोधनों से संदर्भित करेगा। अविश्वासियों में उच्च अधिकारी अपने से नीचे के लोगों को कुचलते हैं, और तुम जैसे बेकार के आदमी के साथ शांत और मैत्रीपूर्ण तरीके से कौन बात करेगा? कभी-कभार खुश होने पर वे तुमसे भले ही बात कर लेते हों, लेकिन उनके मन में तुम्हारे लिए कोई सम्मान नहीं होता; वे तुम्हारे साथ मानव से निम्नतर व्यवहार करते हैं, बिना किसी कारण के तुम्हें लात मारते हैं। जब मैं उस व्यक्ति से शांतिपूर्वक और मैत्रीपूर्ण तरीके से बात करता हूँ, तो न केवल मुझे सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिलती है, बल्कि मुझे तिरस्कार, अपमान, घिन और मजाक का भी सामना करना पड़ता है। क्या ऐसा इसलिए है कि उस व्यक्ति के साथ बातचीत करने के मेरे तरीके में कुछ गड़बड़ है या उसके स्वभाव में कोई समस्या है? (ऐसा इसलिए है कि उस व्यक्ति का स्वभाव बहुत घमंडी है।) सही है, मैं ऐसा ही सोच रहा था। मैं सभी के साथ एक जैसा व्यवहार करता हूँ, तो क्यों कुछ लोग सही तरीके से प्रतिक्रिया देते हैं, जबकि बहुत से दूसरे लोग ऐसा नहीं करते? लोगों को आम तौर पर दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है : मानवता वाले लोग जो दूसरों का सम्मान करना जानते हैं, परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते को समझते हैं, और जानते हैं कि वे कौन हैं, और दूसरे, वे लोग जो दुष्ट और अभिमानी हैं, जिनमें आत्म-ज्ञान नहीं है। मुझे बताओ, तुम उस चीज को क्या कहोगे जो है तो मानव की खाल में, लेकिन यह भी नहीं जानता कि वह कौन है? वह विवेकहीन जानवर है। एक और मौके पर मैंने उससे पूछा, “मैंने कुछ दिन पहले तुम्हें जिस मामले को संभालने के लिए कहा था, उसका क्या नतीजा रहा? क्या तुमने वे काम किए?” जवाब में उसने कहा, “तुम किस बारे में बात कर रहे हो?” मैंने कहा, “वे जो कुछ चीजें मैंने आपको बताई थी, क्या तुम लोगों ने उनका ध्यान रखा? क्या वे काम हो गए?” मैंने उसे दो बार याद दिलाया, तो आखिरकार उसे याद आया, “ओह, तुम उन चीजों के बारे में बात कर रहे हो? वे काम तो बहुत पहले हो गए थे।” इस उत्तर के पहले शब्द, “ओह” से किस तरह का लहजा जाहिर होता है? फिर से यह तिरस्कार का लहजा है, उसका शैतानी स्वभाव एक बार फिर उभर रहा है। उसकी प्रकृति अपरिवर्तित रही; वह बस इसी तरह का दुष्ट है। फिर मैंने उससे पूछा कि वह इससे कैसे निपटा और कोई ज्यादा जानकारी दिए बिना उसने जवाब दिया, “कुछ लोगों ने इसे देखा और इसे इस तरह से निपटा दिया।” अगर मैंने और अधिक विशिष्ट विवरण जानने की कोशिश की होती, बात पकड़ भी ली होती तो भी मुझे कोई जवाब नहीं मिलता। मैंने उसे एक काम करने का निर्देश दिया था; क्या मुझे सूचना पाने का अधिकार नहीं है? (हाँ, है।) तो, उसकी जिम्मेदारी क्या थी? मुझसे काम स्वीकार लेने के बाद, क्या उसे यह जानकारी देने की जरूरत नहीं थी कि उसने इसे कैसे संभाला? (थी।) लेकिन उसने जानकारी नहीं दी, और मैं पूरे समय उसमें हुई प्रगति के बारे में जानने में असमर्थ रहा। मैं केवल यही कर सकता था कि यह जानने के लिए किसी को भेजूँ कि इस मामले को कैसे संभाला जा रहा है, लेकिन फिर भी, कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। मैंने सोचा, “ठीक है, मैं तुम्हें याद रखूँगा। तुम भरोसेमंद नहीं हो। मैं तुम्हें कुछ भी नहीं सौंप सकता। तुम्हारी विश्वसनीयता बहुत कम है!” यह किस तरह का शैतान है? ऐसे व्यक्ति का स्वभाव कैसा है? दुष्टता। जब तुम उसके साथ बराबरी का व्यवहार करते हो, उसके साथ विनम्रता से चर्चा करते हो, और सौहार्दपूर्ण रहने की कोशिश करते हो, तो वह इसे कैसे देखता है? वह इसे तुम्हारी अक्षमता और कमजोरी के रूप में देखता है, जैसे कि तुम कोई मूर्ख हो। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ, यह दुष्टता है।) यह शुद्ध दुष्टता है। यद्यपि इस तरह के दुष्ट लोग बहुत ज्यादा नहीं हैं, लेकिन वे हर कलीसिया में मौजूद हैं। उनके हृदय कठोर, अभिमानी और सत्य से विमुख हैं, और उनका स्वभाव क्रूर है। ठीक यही वे स्वभाव और व्यवहार हैं जो इस तरह के लोगों के दुष्ट होने की बात की पुष्टि करते हैं। सामान्य मानवता के सकारात्मक पहलुओं, जैसे कि दयालुता, सहनशीलता, धैर्य और प्रेम को वे न केवल नापसंद करते हैं, बल्कि इसके विपरीत वे अपने हृदय में भेदभाव और घृणा भी पालते हैं। ऐसे लोगों के हृदय की गहराई में क्या छिपा है? दुष्टता। वे बेहद दुष्ट हैं! यह मसीह-विरोधियों की दुष्टता की एक और अभिव्यक्ति है।
मसीह-विरोधियों की दुष्ट अभिव्यक्तियों पर हमारी आज की संगति की विषय-वस्तु पिछली दो संगतियों से कुछ अलग है, और हर संगति एक पहलू पर जोर देती है। मुझे बताओ, मसीह-विरोधियों के दिलों की गहराई में, वे ज्ञान, शिक्षा, खूबियों और विशेष प्रतिभाओं को महत्व देते हैं—वे इन चीजों के लिए गहरा सम्मान महसूस करते हैं—तो, क्या परमेश्वर में उनकी सच्ची आस्था है? (नहीं, नहीं है।) कुछ लोग कह सकते हैं कि समय के साथ वे बदल सकते हैं। क्या वे बदलेंगे? नहीं, वे नहीं बदलेंगे, वे बदल नहीं सकते। परमेश्वर की विनम्रता और गुप्तता, उसके वास्तविक प्रेम, उसकी निष्ठा और मानवता के लिए उसकी दया और देखभाल का तिरस्कार करना उनकी प्रकृति में है। और क्या? वे मनुष्यों के बीच रहने वाले परमेश्वर की सामान्यता और व्यावहारिकता का तिरस्कार करते हैं और इससे भी अधिक, उन सभी सत्यों का तिरस्कार करते हैं जिनका ज्ञान, शिक्षा, विज्ञान और खूबियों से कोई संबंध नहीं है। क्या ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है? (नहीं, उन्हें नहीं बचाया जा सकता।) उन्हें क्यों नहीं बचाया जा सकता? क्योंकि यह किसी भ्रष्ट स्वभाव का क्षणिक प्रकाशन नहीं है; यह उनके प्रकृति सार का खुलासा है। दूसरे लोग उन्हें चाहे जैसी सलाह दें या उनके साथ सत्य पर कितनी भी संगति की जाए, इनमें से कुछ भी उन्हें बदल नहीं सकता। यह कोई अस्थायी शौक नहीं है, बल्कि उनके भीतर इन चीजों की गहरी जरूरत है। ऐसा ठीक इसीलिए है कि उन्हें ज्ञान, शिक्षा, खूबियों और विशेष प्रतिभाओं की जरूरत है, यह उन्हें इन चीजों का सम्मान करने देता है। सम्मान का क्या मतलब है? इसका मतलब है किसी भी कीमत पर इन चीजों का अनुसरण करने और उन्हें प्राप्त करने के लिए तैयार रहना, यही सम्मान का अंतर्निहित अर्थ है। इन चीजों को पाने के लिए वे पीड़ा सहने और कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं, क्योंकि यही वे चीजें हैं जिनका वे सम्मान करते हैं। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं, “परमेश्वर मुझसे जो भी करने को कहे, वह ठीक है। मैं परमेश्वर को संतुष्ट रख सकता हूँ, जब तक कि वह मुझसे सत्य का अनुसरण करने की अपेक्षा न करे।” वे ऐसी आशा करते हैं। ये लोग परमेश्वर के वचनों को कभी भी सत्य के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे; वे जब शांति से बैठकर धर्मोपदेश सुनते हैं और परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, तब भी उन्हें इनसे जो मिलता है वह सत्य नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे हमेशा परमेश्वर के वचनों को मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर मापते हैं, धर्मशास्त्रीय ज्ञान का उपयोग करके परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करते हैं, जिससे उनके लिए सत्य प्राप्त करना असंभव हो जाता है। वे परमेश्वर के वचनों से ज्ञान, शिक्षा और किसी प्रकार की जानकारी या रहस्य प्राप्त करने की उम्मीद करते हैं—किसी ऐसी शिक्षा की उम्मीद करते हैं जिसकी वे लालसा रखते हैं जिसकी वे खोज कर रहे होते हैं और जो आम लोगों को पता नहीं है। लोगों के लिए अज्ञात इस विद्या को प्राप्त करने के बाद वे इसका दिखावा करते हैं, इस विद्या और ज्ञान से खुद को लैस करने की व्यर्थ उम्मीद करते हैं ताकि वे अधिक सम्मानजनक और अधिक संतोषजनक जीवन जी सकें, लोगों के बीच अधिक प्रतिष्ठा और अधिक रुतबा प्राप्त कर सकें, और ताकि लोग उन पर अधिक विश्वास करें और उनकी अधिक आराधना करें। इसलिए, वे अपने किए गए कुछ महत्वपूर्ण कार्यों और उन चीजों के बारे में लगातार शेखी बघारते हैं, जिन्हें वे शानदार मानते हैं, जिन्हें वे प्रभावशाली मानते हैं, जिनके बारे में वे डींगें हांक सकते हैं और जिनका अपनी क्षमता और विशिष्टता का दिखावा करने के लिए उपयोग कर सकते हैं। वे जहाँ भी जाते हैं, उन्हीं सिद्धांतों का प्रचार करते हैं। परमेश्वर के वचनों को ये लोग चाहे जैसे पढ़ें या चाहे जैसे सभाओं में भाग लें और धर्मोपदेश सुनें, ये लोग सत्य नहीं समझ सकते। सत्य का थोड़ा-सा हिस्सा अगर वे समझ भी लें, तो इसका अभ्यास तो बिल्कुल नहीं करेंगे। यह ऐसे लोगों का सार है, और यह ऐसी चीज है जिसे कोई नहीं बदल सकता। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनमें स्वाभाविक रूप से कुछ ऐसा होता है जो दूसरों के पास नहीं है, और वे जिस चीज से प्रेम करते हैं उसका संबंध उनके दुष्टतापूर्ण सार से है—यह उनका घातक दोष है। सत्य को स्वीकार न करना, पौलुस के मार्ग पर चलना और अंत तक सत्य और परमेश्वर का विरोध करना उनकी नियति है। ऐसा क्यों है? क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते; वे इसे कभी स्वीकार नहीं करते।
क्या तुम लोगों ने मसीह-विरोधियों की दुष्टता का अनुभव किया है? क्या तुम लोगों के आस-पास ऐसे लोग हैं? क्या तुम लोगों का ऐसे लोगों से संपर्क हुआ है? हमने कई सभाओं में इस विषय पर चर्चा करने में समय क्यों खर्च किया है? आम तौर पर, जब लोग खुद को जानने के बारे में बात करते हैं, तो मैं अक्सर उन्हें अहंकार, आत्मतुष्टता और धोखेबाजी के स्वभाव का उल्लेख करते हुए सुनता हूँ। यद्यपि, लोगों को दुष्टता के बारे में बात करते हुए सुनना दुर्लभ है। अब, जब हम दुष्ट स्वभाव के बारे में संगति करते हैं तो मैं अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुनता हूँ कि किसी का स्वभाव दुष्ट है। ऐसा लगता है कि तुम लोगों को इसकी कुछ समझ आ गई है। अतीत में, जब लोग खुद को जानने के बारे में बात करते थे तो वे हमेशा अहंकार की बात करते थे। अब इसे देखते हुए, कौन-सा स्वभाव अधिक बुरा है, अहंकारी होना या दुष्टता? (दुष्टता।) सही है। अतीत में, लोग दुष्टता की समस्या की गंभीरता को नहीं पहचानते थे। वास्तव में, दुष्टता का स्वभाव और सार अहंकार से अधिक गंभीर है। अगर किसी व्यक्ति का स्वभाव और प्रकृति सार भयंकर रूप से दुष्टतापूर्ण है तो मैं बता रहा हूँ कि तुम्हें उनके साथ संपर्क से बचना चाहिए—दूरी बनाए रखनी चाहिए। ऐसे लोग सही रास्ते पर नहीं चलेंगे। दुष्ट लोगों के साथ जुड़ने और संपर्क बनाए रखने से तुम्हें क्या लाभ मिल सकता है? अगर कोई लाभ नहीं है, लेकिन तुम्हारे भीतर उनकी दुष्टता का विरोध करने के लिए “प्रतिरोधक शक्ति” है, तो तुम उनके साथ बातचीत कर सकते हो। क्या तुम इस बारे में आश्वस्त हो? (नहीं।) अगर तुम आश्वस्त नहीं हो तो तुम्हें ऐसे लोगों से बातचीत करने से क्यों बचना चाहिए? क्योंकि दुष्टता के पीछे दो और चीजें हैं—धूर्तता और कपट। सत्य की समझ न रखने वाले ज्यादातक लोगों में अनुभव और अंतर्दृष्टि की कमी होती है, वे आसानी से गुमराह हो जाते हैं। वे तुम्हें अपने अधीन कर सकते हैं और अंत में तुम उनकी गिरफ्त में आ जाते हो। उनके गिरफ्त में आने के दो तरीके हो सकते हैं : या तो तुम उन्हें हरा नहीं सकते और तुम अपने दिल में आश्वस्त नहीं होते लेकिन जरूरत के मुताबिक तुम्हें मौखिक रूप से उनके सामने झुकना पड़ता है; या फिर एक और तरीका है जिससे तुम पूरी तरह से उनके अधीन हो सकते हो। ऐसा इसलिए है कि मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति में कुछ ऐसा है जिसके बारे में लोगों को कुछ पता नहीं है : वे तुम्हें उनकी बात सुनने के लिए राजी करने, तुमको यह विश्वास दिलाने के लिए कि वे सही, उचित और सकारात्मक हैं, विभिन्न साधनों, भाषणों, विधियों, रणनीतियों, तरीकों और भ्रांतियों का उपयोग कर सकते हैं, और भले ही वे बुराई करें, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करें, और भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें, अंत में, वे चीजों को पलट देते हैं और लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि वे सही हैं। उनके पास ऐसी योग्यता है। यह योग्यता क्या है? यह अत्यधिक भ्रममूलक होना है। यह उनकी दुष्टता है कि वे अत्यधिक भ्रममूलक हैं। अपने हृदय में, उन्हें क्या पसंद हैं, क्या नापसंद हैं, किनसे वे घृणा करते हैं, और किनका सम्मान और उपासना करते हैं, इन चीजों का निर्माण कुछ विकृत दृष्टिकोणों द्वारा किया जाता है। इन दृष्टिकोणों के भीतर सिद्धांतों का एक समूह होता है, जिसमें सब की सब अच्छी लगने वाली भ्रांतियाँ होती हैं जिनका खंडन करना आम लोगों के लिए मुश्किल होता है क्योंकि वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते और अपनी गलतियों के लिए परिष्कृत तर्क भी प्रस्तुत कर सकते हैं। सत्य वास्तविकता के बिना, उनके साथ सत्य पर संगति करके तुम उन्हें मना नहीं सकते। अंतिम परिणाम यह होता है कि वे अपने खोखले सिद्धांतों का उपयोग करके तुम्हारी बातों का खंडन करते हैं, जिससे तुम अवाक रह जाते हो, और धीरे-धीरे उनके सामने हार जाते हो। ऐसे लोगों की दुष्टता इस तथ्य में निहित होती है कि वे अत्यधिक भ्रममूलक होते हैं। स्पष्टतः, वे कुछ भी नहीं हैं और अपने हर कर्तव्य में गड़बड़ करते हैं; फिर भी, अंत में, वे अभी भी कुछ लोगों उनकी आराधना करने, उनके सामने “घुटने टेकने” और उनकी आज्ञाओं का पालन करने के लिए गुमराह कर सकते हैं। इस तरह का व्यक्ति गलत को सही में, काले को सफेद में बदल सकता है। वे सत्य और असत्य को उलट सकते हैं, अपने किए गए गलत कामों को दूसरों पर डाल सकते हैं, और दूसरों के किए अच्छे कामों का श्रेय ले सकते हैं। समय के साथ, तुम भ्रमित हो जाते हो और यह नहीं जान पाते कि वे वास्तव में कौन हैं। उनके शब्दों, कार्यों और रूप-रंग को देखते हुए तुम सोच सकते हो, “यह व्यक्ति असाधारण है; हम उसकी तुलना नहीं कर सकते!” क्या यह गुमराह होना नहीं है? जिस दिन तुम गुमराह होते हो, उसी दिन तुम खतरे में पड़ोगे। क्या इस तरह का व्यक्ति, जो दूसरों को गुमराह करता है, बहुत दुष्ट नहीं है? जो कोई भी उसकी बातों को सुनता है, वह गुमराह और परेशान हो सकता है, उसे लंबे समय तक संभलना मुश्किल हो जाता है। कुछ भाई-बहन उसे पहचान सकते हैं और देख सकते हैं कि वह गुमराह करने वाला है, वे उसे उजागर कर सकते हैं और अस्वीकार कर सकते हैं, लेकिन गुमराह होने वाले अन्य लोग यह कहते हुए उसका बचाव भी कर सकते हैं कि, “नहीं, परमेश्वर का घर उसके साथ अन्याय कर रहा है; मुझे उसके पक्ष में खड़ा होना चाहिए।” यहाँ समस्या क्या है? स्पष्ट रूप से, वे गुमराह हैं, फिर भी वे उस व्यक्ति का बचाव करते हैं और उसे सही ठहराते हैं जिसने उन्हें गुमराह किया होता है। क्या ये लोग परमेश्वर में विश्वास करने वाले, लेकिन मनुष्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हैं? वे परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करते हैं, फिर वे इस व्यक्ति की इस तरह से आराधना क्यों करते हैं, और विशेष रूप से उसका बचाव क्यों करते हैं? यदि वे इतने स्पष्ट मामले को नहीं पहचान सकते तो क्या वे एक निश्चित सीमा तक गुमराह नहीं हुए हैं? मसीह-विरोधी ने लोगों को इस हद तक गुमराह किया होता है कि वे मनुष्यों जैसे नहीं लगते या उनमें परमेश्वर का अनुसरण करने का दिमाग नहीं रह जाता; इसके बजाय, वे मसीह-विरोधी की आराधना करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं। क्या ये लोग परमेश्वर के साथ धोखा नहीं कर रहे हैं? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, लेकिन उसने तुम्हें नहीं जीता है, और मसीह-विरोधी ने तुम्हारा दिल जीत लिया है, और तुम पूरे दिल से उसका अनुसरण करते हो, तो साबित होता है कि उसने तुम्हें परमेश्वर के घर से दूर कर दिया है। एक बार जब तुम परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा से, परमेश्वर के घर से दूर हो जाते हो, तो मसीह-विरोधी तुम्हें अपनी इच्छानुसार नचा सकता है और तुम्हारे साथ खिलवाड़ कर सकता है। जब तुम्हारे साथ उसका खेल पूरा हो जाता है, तो तुम में उसकी रुचि खत्म हो जाती है, और वह दूसरों को गुमराह करना शुरू कर देता है। यदि तुम उसकी बातों को सुनना जारी रखते हो और तुम्हारे पास उसके लिए फायदा उठाने लायक कोई बात है, तो वह तुम्हें कुछ और समय तक साथ चलने दे सकता है। हालाँकि, अगर उसे तुमसे फायदा उठाने लायक कोई बात नहीं दिखती, यदि उसके मन में तुम्हारे लिए कोई सम्मान नहीं बचा है, तो वह तुम्हें त्याग देगा। क्या तुम अभी भी परमेश्वर में विश्वास करने के लिए वापस आ सकते हो? (नहीं।) तुम अब और विश्वास क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि तुम्हारी आरंभिक आस्था चली गई है; खत्म हो गई है। मसीह-विरोधी इसी तरह से लोगों को गुमराह करते हैं और नुकसान पहुँचाते हैं। वे लोगों द्वारा आराधित ज्ञान और शिक्षा का उपयोग अपनी खूबियों के साथ मिलाकर लोगों को गुमराह करने और नियंत्रित करने के लिए करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे शैतान ने आदम और हव्वा को गुमराह किया था। मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार की परवाह किए बिना, इस बात का ख्याल किए बिना कि उनके प्रकृति सार में उन्हें क्या पसंद है, किस बात से घृणा है और किस बात का वे सम्मान करते हैं, एक बात तय है कि जो चीज उन्हें पसंद है और लोगों को गुमराह करने के लिए वे जिस बात का उपयोग करते हैं वह सत्य के विरुद्ध है, उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, और वह परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है—इतना तो तय है। याद रखो : मसीह-विरोधियों की कभी भी परमेश्वर से सुसंगति नहीं हो सकती।
मुझे बताओ कि किस तरह के लोग मसीह-विरोधियों जैसी दुष्टता के संकेत और निशान प्रदर्शित करते हैं? (गुणी लोग।) और कौन? (वे जो दिखावा-पसंद हैं।) जो दिखावा करना पसंद करते हैं, वे बहुत दुष्ट नहीं हैं। यद्यपि वे दिखावा करना पसंद करते हैं, पर उनमें दूसरों को नियंत्रित करने की इच्छा नहीं होती, वे उस हद तक नहीं जाते—यह एक भ्रष्ट स्वभाव है। इस पर विस्तार से विचार करो कि कौन-से लोग ऐसे संकेत और निशान प्रदर्शित करते हैं जिनकी मदद से तुम उनके विभिन्न व्यवहारों और संकेतों से जल्दी ही पता कर लेते हो कि वे दुष्ट मसीह-विरोधी है? (घमंडी लोग जो रुतबे से प्रेम करते हैं।) घमंड और रुतबे से प्रेम में कुछ प्रासंगिकता है, लेकिन यह भी काफी बड़ी बात नहीं है। चलो, मैं कुछ बताता हूँ और तुम लोग ध्यान से सुनो और देखो कि यह बिंदु महत्वपूर्ण है या नहीं। कुछ लोग लगातार ऐसे दृष्टिकोण पेश करते हैं जो सत्य और सकारात्मक चीजों से अलग होते हैं। बाहर से ऐसा लग सकता है कि वे हमेशा लोगों को आकृष्ट करना चाहते हैं और बाकी लोगों से अलग दिखना चाहते हैं, लेकिन ऐसा ही होना जरूरी नहीं है। यह हो सकता है कि उनके दृष्टिकोण ही ऐसे बाहरी व्यवहार का कारण बनते हों। वास्तव में, यदि वे सचमुच ऐसे दृष्टिकोण रखते हैं, तो गंभीर समस्या होगी। उदाहरण के लिए, जब सभी लोग एक साथ संगति कर रहे हों और कह रहे हों कि “हमें परमेश्वर से यह वस्तु स्वीकार करनी चाहिए। यदि हम नहीं समझते तो हमें पहले समर्पण करना चाहिए,” और हर कोई इससे सहमत हो तो क्या ऐसा दृष्टिकोण सही है? (हाँ, यह सही है।) क्या अभ्यास का यह सिद्धांत गलत है? (नहीं, यह गलत नहीं है।) फिर, लोग किस तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं जिनसे दिखता है कि उनमें मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव के संकेत और निशान हैं? “समर्पण एक बात है, लेकिन तुम्हें इस बात पर नियंत्रण रखना होगा कि क्या हो रहा है, है ना? हर चीज को गंभीरता से लो, ठीक है? तुम भ्रमित होकर समर्पण नहीं कर सकते; परमेश्वर हमसे लापरवाही से समर्पण करने को नहीं कहता।” क्या यह एक तरह का तर्क नहीं है? (हाँ, है।) कुछ लोग कहते हैं कि, “अगर कुछ ऐसा है जो हमें समझ में नहीं आता तो हम धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर सकते हैं और किसी ऐसे व्यक्ति के साथ संगति की तलाश सकते हैं जो इसे समझता हो। अभी हममें से कोई भी इसे नहीं समझता, और हमें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिल रहा है जो इसे समझता हो और जिसके साथ संगति की जा सके। इसलिए, आओ, पहले समर्पण करें।” मसीह-विरोधियों का दृष्टिकोण क्या है? “तुम लोग कमजोर लोगों का झुंड हो, हर चीज के आगे समर्पण करते हो और हर चीज में परमेश्वर की बात सुनते हो। मेरी बात सुनो! किसी ने मेरा जिक्र क्यों नहीं किया? मुझे एक गंभीर राय पेश करने दो!” वे अपने उदात्त विचार साझा करना चाहते हैं। वे सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों का पालन करने वाले लोगों के विरोधी होते हैं। वे हमेशा बाकी सभी से श्रेष्ठ रहना चाहते हैं, झगड़ा करना चाहते हैं, कुचालें चलना चाहते हैं, उदात्त विचार साझा करना चाहते हैं, और प्रयास करते हैं कि लोग उन्हें अलग नजर से देखें। क्या यह मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव का संकेत नहीं है? क्या यह उनकी पहचान नहीं है? सभी के लिए समर्पण करना गलत क्यों है? भले ही वे मूर्खतापूर्ण तरीके से समर्पण कर रहे हों—क्या यह गलत है? क्या परमेश्वर इसकी निंदा करेगा? (नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा।) परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करेगा। उन्हें इस मामले में पेंच फंसाने और चीजों को उलझाने का क्या अधिकार है? जब वे लोगों को परमेश्वर के प्रति समर्पण करते देखते हैं तो क्या वे अपने हृदय में क्रोध का अनुभव करते हैं? जब वे लोगों को परमेश्वर के प्रति समर्पण करते देखते हैं तो वे अपने हृदय में नाराजगी और असंतोष महसूस करते हैं कि उन्हें कोई लाभ नहीं मिला, कि लोग उनकी आज्ञा नहीं मानते, उनकी बात नहीं सुनते, उनकी सलाह नहीं लेते, और वे दुःखी हो जाते हैं—वे अपने मन में यह सोचते हुए प्रतिरोध करते हैं कि “तुम किसके प्रति समर्पण कर रहे हो? क्या तुम सत्य के प्रति समर्पण कर रहे हो? सत्य के प्रति समर्पण करना ठीक है, लेकिन हमें इसका अध्ययन करने की जरूरत है। तो, सत्य क्या है? क्या तुम सही तरीके से समर्पण कर रहे हो? क्या तुम्हें कम से कम इसे अच्छी तरह से समझ नहीं लेना चाहिए?” क्या वे ये तर्क नहीं देते? वे क्या करने की कोशिश कर रहे होते हैं? लोगों को गुमराह करने के लिए वे चीजों को भड़काना चाहते हैं। कुछ सुन्न, मंदबुद्धि और मूर्ख लोग उनकी बात सुनकर गुमराह हो जाते हैं जबकि विवेकशील लोग उनका खंडन करते हुए कहते हैं, “तुम क्या कर रहे हो? क्या तुम्हें इससे ईर्ष्या और जलन हो रही है कि मैंने परमेश्वर के समक्ष समर्पण किया है? जब मैं परमेश्वर के समक्ष समर्पण करता हूँ तो तुम दुःखी होते हो, लेकिन जब मैं तुम्हारा कहा मानता हूँ तो तुम प्रसन्न होते हो? क्या यह सही है कि हर कोई तुम्हारी बात माने, तुम्हारी बात सुने और जो तुम कहो वही करे? क्या तुम जो कहते हो वह सत्य के अनुरूप है?” यह देखकर, वे सोचते हैं, “कुछ लोगों में समझ है—मुझे अभी इंतजार करना चाहिए।” संक्षेप में, जब सभी लोग सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर रहे होते हैं तो वे इससे बाहर आने में देर नहीं लगाते। लोग परमेश्वर की जितनी अधिक आज्ञा मानते हैं, परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति जितना अधिक समर्पण करते हैं, परमेश्वर के वचनों के अनुसार जितना अधिक अभ्यास करते हैं, कार्य व्यवस्थाओं और सिद्धांतों के अनुसार मामलों को जितना अधिक संभालते हैं, मसीह-विरोधी उतने ही अधिक असहज, परेशान और बेचैन हो जाते हैं। यह मसीह-विरोधियों के दुष्ट सार का संकेत है। जब तक सभी लोग परमेश्वर के वचनों को सुनते हैं, सत्य का अभ्यास करते हैं और सिद्धांतों के अनुसार मामलों को संभालते हैं, तब तक मसीह-विरोधी असहज और बेचैन महसूस करते हैं। क्या यह समस्या नहीं है? (हाँ, है।) यदि कोई भी परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ता, या यदि पढ़ता है और उन पर संगति नहीं करता, केवल मसीह-विरोधियों की बात सुनता है तो वे प्रसन्न होते हैं। यह किस समस्या को दर्शाता है? वे कभी भी परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति नहीं करते। जब तक सभी लोग शांति से परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति कर रहे होते हैं, और मसीह-विरोधी देखते हैं कि कोई भी उन पर ध्यान नहीं दे रहा है, उनकी बात नहीं सुन रहा है, उनकी आराधना नहीं कर रहा है, उनका रुतबा खतरे में है, और वे खतरे में हैं—तब वे चीजों को भड़काने के लिए एक पेंच डालते हैं, तुम्हें गुमराह और परेशान करने के लिए किसी पाखंड या भ्रांति का प्रस्ताव रखते हैं, जिससे तुम अनिश्चय का शिकार हो जाओ कि तुमने अभी जो चर्चा की थी वह सही थी या गलत। जब सभी लोग संगति के माध्यम से अंततः कुछ समझ चुके होते हैं, तो वे कुछ शैतानी शब्द बोल कर चीजों को उलझा देते हैं। क्या यह मसीह विरोधियों का दुष्ट स्वभाव नहीं है? यह दुष्ट स्वभाव किस अभिव्यक्ति से मेल खाता है? (सत्य के प्रति शत्रुभाव।) बिल्कुल ठीक। लोग सत्य को जितना अधिक समझते हैं, मसीह-विरोधी उतनी ही अधिक परेशानी महसूस करते हैं। क्या यह सत्य के प्रति शत्रुभाव नहीं है? क्या यह बात मेल नहीं खाती? (हाँ, मेल खाती है।) क्या तुम लोगों का सामना ऐसे लोगों से हुआ है? जब सभी लोग किसी चीज के बारे में संगति कर रहे होते हैं तो वे काफी समय तक चुप रहते हैं। अंत में, जब संगति में कुछ स्पष्टता आती है तो वे सामने आते हैं और संगति कर रहे लोगों के लिए चीजों को कठिन बनाने के लिए एक चुनौतीपूर्ण प्रश्न प्रस्तुत करते हैं। उनका इरादा यह कहने का होता है कि, “मैं तुम लोगों को दिखाता हूँ, मैं तुम्हें दिखाऊँगा कि मैं क्या कर सकता हूँ! तुम लोग सत्य के बारे में संगति कर रहे हो, मेरी बात नहीं सुनते, मेरी अनदेखी करते हो, मेरी परवाह नहीं करते, और तुम लोग मेरी ओर ध्यान नहीं देते इसलिए मैं तुम लोगों के सामने संगति के लिए एक कठिन प्रश्न रखूँगा और तुम सब को उलझा दूँगा!” क्या यह शैतान नहीं है? (हाँ, है।) यह शैतान है, एक प्रामाणिक मसीह-विरोधी है।
कुछ लोग जब भी सुनते हैं कि कोई व्यक्ति नकारात्मक या कमजोर है तो वे विशेष रूप से खुश होते हैं। खास तौर पर जब वे किसी को कलीसियाई जीवन में बाधा डालते हुए देखते हैं, किसी को कलीसिया के काम अस्त-व्यस्त करने के लिए गलत काम करते देखते हैं, या किसी को आँख मूंदकर परेशानी खड़ी करते देखते हैं—वे विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं, और पटाखे फोड़ कर जश्न मनाने के लिए उत्सुक रहते हैं। ऐसे लोगों के साथ क्या समस्या होती है? दूसरों के दुर्भाग्य पर वे इतने खुश क्यों होते हैं? इस महत्वपूर्ण क्षण में वे परमेश्वर के पक्ष में क्यों नहीं खड़े हो सकते, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा क्यों नहीं कर सकते? क्या ऐसे लोग छद्म-विश्वासी नहीं हैं? क्या वे शैतान के चाकर नहीं हैं? तुम लोगों को इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि क्या तुम इस तरह का व्यवहार प्रदर्शित करते हो और यह भी जाँचना चाहिए कि क्या तुम्हारे आस-पास ऐसे लोग हैं और समझना चाहिए कि ऐसे व्यक्तियों को कैसे पहचाना जाए, खास तौर पर जब तुम बुरे लोगों को बुरे काम करते हुए देखते हो—तुम लोगों का रवैया क्या होता है? क्या तुम केवल तमाशबीन बनकर खड़े रहते हो, या क्या तुम भी इस रास्ते पर जा सकते हो? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो? कुछ लोग इस तरह से आत्म-चिंतन नहीं करते। उन्हें लोगों में अच्छाई देखना पसंद नहीं होता; वे चाहते हैं कि हर कोई उनसे बुरा हो—तभी उन्हें खुशी महसूस होती है। उदाहरण के लिए, जब वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने वाले किसी व्यक्ति की काट-छाँट होते देखते हैं, या वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने वाले किसी व्यक्ति को अपराध करते देखते हैं तो वे मन ही मन खुश होते हैं और कहते हैं, “हम्म, तुम्हारा दिन भी आ गया। तुमने खुद को परमेश्वर के लिए खपाया—ऐसा करना कैसा रहा? तुम्हारे साथ गलत हुआ, है ना? तुम्हें नुकसान हुआ, है कि नहीं? खुद को खपाने से क्या फायदा? तुम हमेशा सच बोलते हो और अब तुम्हारी कटाई-छँटाई हो रही है, है ना? तुम इसी के लायक हो!” वे इतने प्रसन्न क्यों होते हैं? क्या ऐसा नहीं है कि वे दूसरों के दुर्भाग्य में खुशी ढूंढ रहे हैं? क्या ऐसे लोगों के इरादे गलत नहीं हैं? जब वे किसी को परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालते देखते हैं तो वे खुश होते हैं। जब वे देखते हैं कि परमेश्वर के घर के काम का नुकसान हो रहा है तो उन्हें खुशी होती है। ऐसा क्या है जिससे उन्हें खुशी मिलती है? वे सोचते हैं कि “आखिरकार, मेरे ही जैसे सत्य से प्रेम न करने वाले किसी व्यक्ति ने परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाया है, और वे किसी भी तरह से खुद को दोषी महसूस नहीं करते।” यही बात उन्हें खुशी देती है। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ, यह दुष्टता है।) यह बहुत बड़ी दुष्टता है! क्या तुम लोगों के बीच ऐसे लोग हैं? कुछ लोग हैं जो आम तौर पर गुनगुनाते नहीं हैं, लेकिन जैसे ही वे किसी को गलती करते देखते हैं, वे अचानक गुनगुनाना शुरू कर देते हैं, अपनी देह को हिलाने-डुलाने लगते हैं, बेहद प्रसन्न दिखते हैं और सोचते हैं, “आखिरकार आज कुछ अच्छी खबर मिली है। मैं बहुत खुश हूँ, आज दो रोटी ज्यादा खाऊँगा!” यह किस तरह का स्वभाव है? दुष्टता का। वे क्षण भर के लिए भी इस पर न आँसू बहाएँगे, न दुःखी महसूस करेंगे कि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा है। उन्हें किसी तरह के आत्म-दोष, दुख या दर्द का अनुभव नहीं होता। इसके बजाय, उन्हें खुशी और संतोष का अनुभव होता है कि किसी की गलती से परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा है और परमेश्वर का नाम बदनाम हुआ है। क्या यह दुष्टता नहीं है? क्या यह उनमें मसीह-विरोधियों वाली दुष्ट प्रकृति होने का संकेत नहीं है? यह भी एक संकेत है।
कहते हैं कि सुसमाचार दलों में कुछ लोग वाक्पटु हैं। उन्होंने वर्षों से धर्मोपदेश सुने होते हैं और सिद्धांतों का निचोड़ निकाला होता है, वे जहाँ भी जाते हैं, जोश से भरे होते हैं, उपदेश देते समय उन्हें कभी शब्दों की कमी महसूस नहीं होती, और वे अपनी खूबियों और वाक्पटुता का पूरा प्रदर्शन करते हैं। कुछ लोग ऐसे व्यक्तियों को काफी सक्षम मानते हैं और उनका अनुसरण करने का निर्णय लेते हैं। अंततः वे क्या कहते हैं? “हम उस व्यक्ति की संगति सुनते हैं, इसलिए हमें ऊपरवाले के उपदेश सुनने की जरूरत नहीं है; हमें परमेश्वर के वचनों को सुनने की भी आवश्यकता नहीं है। इन सब की जगह उस व्यक्ति की संगति पर्याप्त है।” क्या ये लोग खतरे में नहीं हैं? (हाँ।) ये लोग बहुत खतरे में हैं। उन्हें मसीह विरोधियों के कार्य और व्यवहार, साथ ही उनकी धृष्टता, बर्बरता और दुष्टता पसंद है। उन्हें वह पसंद है जो मसीह-विरोधियों को पसंद है और वे उससे विमुख हैं जिससे मसीह-विरोधी विमुख हैं। उन्हें मसीह-विरोधियों द्वारा प्रचारित ज्ञान, शिक्षा, धर्म सिद्धांत और विभिन्न धर्मशास्त्रीय सिद्धांत, पाखंड और भ्रांतियाँ बहुत पसंद हैं। वे इन चीजों की आराधना करते हैं। वे उनकी किस हद तक आराधना करते हैं? रात में अपने सपनों में भी वे उन्हीं शब्दों को बोलते हैं। क्या यह गंभीर मामला है? जब उनकी आराधना इस स्तर पर पहुँच जाती है तो क्या ये लोग तब भी परमेश्वर का अनुसरण करते रह सकते हैं? कुछ लोग कह सकते हैं, “यह गलत है। वे अभी भी कलीसिया में हैं, वे अभी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं।” उन्हें अभी तक उचित अवसर नहीं मिला है। एक बार जब उन्हें वह व्यक्ति या वस्तु मिल जाए जिसकी वे आराधना करना चाहते हैं, तो वे किसी भी समय परमेश्वर को छोड़ सकते हैं। क्या यह उनमें मसीह-विरोधियों वाला दुष्ट सार होने का संकेत नहीं है? (हाँ, है।) क्या तुम लोग ऐसे लोगों को देखते ही पहचान सकते हो? (हाँ, हम पहचान सकते हैं।) अतीत में, हो सकता है कि तुम्हें ऐसे मामलों की गंभीर प्रकृति का पता न रहा हो। अब, जब तुम फिर से ऐसे लोगों का सामना करोगे तो क्या तुम्हारे मन में उनके बारे में अभी भी सवाल होंगे? क्या तुम उन्हें अनदेखा कर दोगे? (नहीं, हम ऐसा नहीं करेंगे।) तो, क्या तुमने ऐसे लोगों के बारे में कुछ समझ हासिल की है? (हाँ, हासिल की है।) ये कुछ संकेत और जानकारियाँ हैं जिन्हें वे प्रकट करते हैं। मतलब कि जब इन लोगों को एक बार मौका या रुतबा मिल जाता है, या कोई उन्हें गुमराह करता है, तो वे कभी भी, कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। क्या लोग उनके खुलासों और उनके दुष्ट सार को देख सकते हैं? क्या कुछ ऐसे पीछे छूटे निशान हैं जिन्हें लोग देख सकते हैं? (हाँ, हैं।) होने ही चाहिए। अगर मैंने इनका उल्लेख नहीं किया होता तो भी तुम लोग सोच सकते थे कि “ये निशान कौन दिखाता है? इन संकेतों को कौन प्रकट करता है? कोई नहीं, मैंने किसी को ऐसा करते नहीं देखा।” इन संकेतों के बारे में मेरी चर्चा से क्या तुम लोग यह नहीं जान सके कि ऐसे लोग मौजूद हैं? उनमें से कुछ अनुयायी हैं, और कुछ अगुआ हैं और कुछ कार्यकर्ता। किसी में मसीह-विरोधियों वाले दुष्ट सार होने का यह तीसरा संकेत है।
जिन लोगों में मसीह-विरोधियों वाला दुष्ट सार होता है, उनमें एक और खास लक्षण होता है, जो उन सभी में समान होता है। ये लोग सत्य से प्रेम और सच्चे मार्ग की लालसा का दिखावा करते हुए धर्मोपदेश सुनने आते हैं, सत्य से संबंधित विभिन्न ज्ञान और कथ्य सीखते हैं, स्वयं को धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों और ज्ञान से लैस करते हैं, फिर इन्हीं सिद्धांतों और ज्ञान का उपयोग करते हुए नेतृत्वकर्ताओं और कार्यकर्ताओं से वाक्युद्ध में जुट जाते हैं, कुछ लोगों की निंदा करने, कुछ दूसरे लोगों को गुमराह करने और उनसे अपनी बात मनवाने के लिए इनका उपयोग करते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोगों को तथाकथित पोषण, सहायता और सिंचन देने के लिए भी वे इनका उपयोग करते हैं। फिर भी, एक बात सो यह स्पष्ट होता है कि वे सत्य के प्रेमी नहीं हैं। वह बात क्या है? वह बात यह है कि ये लोग खुद को चाहे जैसे लैस करें और चाहे जैसे उपदेश दें, वे केवल बातें करते हैं और कुछ कहते हैं, केवल खुद को लैस करने में लगे रहते हैं, लेकिन वे मामलों को सत्य सिद्धांतों के अनुसार कभी नहीं संभालते। “कभी नहीं” किस बात का संकेत करता है? इसका मतलब है कि वे एक भी सत्य शब्द नहीं बोल सकते, कभी ईमानदार नहीं रहे, और उन्होंने कभी भी अपनी रुतबे के लाभों को छोड़ने की कीमत नहीं चुकाई है। चाहे जो मौका हो, वे बोलते और कार्य करते समय हमेशा अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए अधिकतम प्रयास करते हैं। बाहर से भले ही वे कीमत चुकाते और सत्य से प्रेम करते दिखाई दें, लेकिन उनका दुष्ट सार अपरिवर्तित रहता है। यहाँ समस्या क्या है? एक लिहाज से, ये लोग अपने कार्यों में कभी भी सत्य सिद्धांतों की तलाश नहीं करते हैं। दूसरे लिहाज से, भले ही वे सत्य सिद्धांतों और अभ्यास के मार्ग को जानते हों, लेकिन वे उनका अभ्यास नहीं करते। यह इस बात का संकेत है कि उनमें मसीह-विरोधियों का दुष्ट सार है। उनके पास कोई रुतबा हो या न हो, और चाहे वे सुसमाचार फैलाने का कर्तव्य निभाते हों या अगुआ अथवा कार्यकर्ता हों, उनका लक्षण क्या है? वे केवल सही धर्म सिद्धांतों को बोल सकते हैं, लेकिन वे कभी भी सही काम नहीं करते। यही उनका लक्षण है। वे धर्म-सिद्धांतों के बारे में किसी से भी अधिक स्पष्ट रूप से बोलते हैं, लेकिन वे काम भी सबसे बदतर करते हैं—क्या यह दुष्टता नहीं है? किसी में मसीह-विरोधियों वाला दुष्ट सार होने का यह चौथा संकेत है। इसकी जाँच स्वयं करो और मूल्यांकन करो कि क्या तुम्हारे आस-पास ऐसे कई लोग हैं जिनमें मसीह-विरोधियों वाला दुष्ट सार है। अब मैंने इन्हें सूचीबद्ध कर दिया है, तो तुम लोग मूल्यांकन कर सकते हो कि तुम्हारे आस-पास ऐसे बहुत से लोग हैं या नहीं। उनका प्रतिशत कितना है? उनमें ज्यादा अगुआ हैं या साधारण विश्वासी? क्या तुममें से कुछ लोग पहले ऐसा नहीं सोचते थे कि केवल अगुआओं के पास ही मसीह-विरोधी होने का मौका होता है? (पहले यह ऐसा ही था।) तो, क्या अब यह दृष्टिकोण बदल गया है? मसीह-विरोधी इसलिए मसीह-विरोधी नहीं बन जाते कि उनके पास रुतबा होता है; वे तब भी ऐसे ही दुष्ट थे जब उनके पास रुतबा नहीं था। वे केवल किस्मत से अगुआई की स्थिति में पहुँचे होते हैं, और मसीह-विरोधी के रूप में उनके असली लक्षण जल्दी ही प्रकट हो जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे सही तापमान और मिट्टी मिलने पर कुकुरमुत्ता तेजी से बढ़ता है और अपने असली रूप में सामने आता है। यदि वातावरण उपयुक्त न हो, तो उनका प्रकृति सार प्रकट होने में थोड़ा अधिक समय लग सकता है, लेकिन इस धीमी गति से खुलासा होने का मतलब यह नहीं है कि उनकी वह प्रकृति नहीं है। ऐसी प्रकृति के लोग अनिवार्य रूप से कार्य करेंगे और चीजें प्रकट करेंगे, और ये प्रकट हुए व्यवहार मसीह-विरोधियों के दुष्ट सार के चिह्न और निशान हैं। उनमें जब ये चिह्न और निशान हों तो उन्हें मसीह-विरोधियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
मुझे बताओ कि क्या सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार मामलों को निपटाने के लिए तरह-तरह के बहानों और औचित्यों की आवश्यकता होती है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) यदि किसी व्यक्ति के पास सच्चा हृदय है, तो वह सत्य को व्यवहार में उतार सकता है। क्या सत्य का अभ्यास न करने वाले लोग तरह-तरह के बहाने बनाते हैं? उदाहरण के लिए, जब वे कुछ गलत करते हैं, सिद्धांतों के विरुद्ध जाते हैं, और कोई उन्हें सुधारे, तो क्या वे उसकी बात को सुन सकते हैं? वे नहीं सुनते। क्या उनका न सुनने का तथ्य ही सब कुछ है? वे किस तरह से दुष्ट हैं? (वे तुम्हें राजी करने का एक बहाना खोजते हैं, जिससे तुम सोचो कि वे सही हैं।) वे एक ऐसी व्याख्या खोज लेंगे जो तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ मेल खाती हो, फिर वे तुम्हें समझाने के लिए आध्यात्मिक सिद्धांतों के एक समुच्चय का इस्तेमाल करते हैं जिसे तुम मानते हो और स्वीकार कर सकते हो और जो सत्य से मेल खाता हो ताकि वे तुम्हें मना सकें, तुम्हें उनके साथ चलने के लिए बाध्य कर सकें, और तुम्हें ईमानदारी से विश्वास दिला सकें कि वे सही हैं। यह सब वे लोगों को गुमराह करने और नियंत्रित करने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए करते हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ।) यह वास्तव में दुष्टता है। स्पष्ट रूप से उन्होंने कुछ गलत किया होता है, अपने कार्यों में सिद्धांतों और सत्य के विरुद्ध गए होते हैं, और सत्य का अभ्यास करने में विफल रहे होते हैं, फिर भी वे सैद्धांतिक औचित्यों का एक समुच्चय पेश करते हैं। यह वास्तव में दुष्टता है। यह भेड़िये द्वारा भेड़ को खाए जाने जैसा है; भेड़ों को खाना मूल रूप से भेड़िये के स्वभाव में है, और परमेश्वर ने इस तरह के जानवर का निर्माण भेड़ों को खाने के लिए किया—भेड़ें उसका भोजन हैं। लेकिन इसे खाने के बाद भी भेड़िया तरह-तरह के बहाने ढूँढ़ता है। क्या तुमने इस बारे में सोचा है? तुम सोचते हो, “तुमने मेरी भेड़ खा ली, और अब तुम चाहते हो कि मैं सोचूँ कि तुम्हें इसे खाना चाहिए था, कि तुम्हारे लिए इसे खाना तर्कसंगत और उचित था, और यहाँ तक कि मुझे तुम्हें धन्यवाद भी देना चाहिए।” क्या तुम्हें गुस्सा नहीं आता? (हाँ, आता है।) जब तुम गुस्से में होते हो, तो तुम्हारे मन में क्या विचार आते हैं? तुम सोचते हो, “यह आदमी बहुत दुष्ट है! अगर तुम इसे खाना चाहते हो, तो आगे बढ़ो, तुम बस यही हो; मेरी भेड़ों को खाना एक बात है, लेकिन तुम तरह-तरह के कारण और बहाने पेश करते हो, और बदले में मुझे तुम्हारा आभारी होने के लिए कहते हो। क्या यह सही और गलत का भ्रम पैदा नहीं करता?” यह दुष्टता है। जब कोई भेड़िया भेड़ को खाना चाहता है, तो वह क्या बहाने ढूँढ़ता है? भेड़िया कहता है, “मेमने, आज तो मुझे तुम्हें खा लेना चाहिए क्योंकि पिछले साल मेरा अपमान करने का तुमसे मुझे बदला लेना है।” मेमना, अन्याय महसूस करते हुए कहता है, “पिछले साल तो मैं पैदा भी नहीं हुआ था।” जब भेड़िया को पता चलता है कि वह गलत बोल गया और उसने मेमने की उम्र गिनने में गलती की है तो वह कहता है, “ठीक है, हम इस बात को छोड़ देते हैं, लेकिन मुझे फिर भी तुम्हें खाना पड़ेगा क्योंकि पिछली बार जब मैं इस नदी से पानी पी रहा था तो तुमने पानी को गंदा कर दिया था, इसलिए मुझे तुमसे बदला लेना है।” मेमना कहता है, “मैं तो नदी के बहाव के नीचे की ओर हूँ और तुम ऊपर की ओर हो। मैं ऊपर की ओर के पानी को कैसे गंदा कर सकता हूँ? अगर तुम मुझे खाना चाहते हो, तो बस आगे बढ़ो और मुझे खा लो। तरह-तरह के बहानों की तलाश मत करो।” यह भेड़िये की प्रकृति है। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ, है।) क्या भेड़िये की दुष्टता बिल्कुल बड़े लाल अजगर की दुष्टता के समान है? (हाँ।) यह तुलना बड़े लाल अजगर के लिए सबसे उपयुक्त है। बड़ा लाल अजगर उन लोगों को गिरफ़्तार करना चाहता है जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं; वह इन लोगों पर अपराधों का आरोप लगाना चाहता है। इसलिए, यह पहले कुछ मोर्चे खोलता है, कुछ अफवाहें गढ़ता है, और फिर उन्हें दुनिया भर में प्रसारित करता है ताकि पूरी दुनिया तुम्हारी निंदा करने को उठ खड़ी हो। वह परमेश्वर में विश्वास करने वालों पर कई आरोप लगाता है, जैसे “सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ना,” “राज्य के रहस्यों को सार्वजनिक करना” और “राज्य की शक्ति को कमजोर करना” आदि। वह ऐसी अफवाहें भी फैलाता है कि तुमने कई फौजदारी अपराध किए हैं और ये आरोप तुम पर लगा देता है। अगर तुम उन्हें स्वीकार करने से इनकार करते हो, तो क्या यह ठीक है? क्या इस बात का कोई मतलब है कि तुम उन्हें स्वीकार करते हो या नहीं? नहीं, कोई मतलब नहीं है। वह जब तुम्हें गिरफ़्तार करने पर आमादा हो जाता है, तो भेड़ को खाने पर आमादा भेड़िये की तरह तरह-तरह के बहाने ढूँढ़ता है। यह दावा करते हुए कि हमने कुछ बुरा किया है, बड़ा लाल अजगर कुछ मोर्चे बनाता है जबकि वास्तव में, वह काम दूसरे लोगों ने किया होता है। वह दोष मढ़ता है और कलीसिया को फँसाता है। क्या तुम उससे बहस कर सकते हो? (नहीं।) तुम उससे बहस क्यों नहीं कर सकते? क्या तुम उससे स्पष्ट तर्क कर सकते हो? क्या तुम सोचते हो कि बहस करने और स्थिति को समझाने से वह तुम्हें गिरफ़्तार नहीं करेगा? तुम उसे बहुत अच्छा मान रहे हो। इससे पहले कि तुम बोलना समाप्त करो, वह तुम्हें बालों से पकड़ कर तुम्हारा सिर दीवार पर पटक देगा, और फिर तुमसे पूछेगा, “क्या तुम जानते हो कि मैं कौन हूँ? मैं एक शैतान हूँ!” इसके बाद, तुम्हें बुरी तरह पीटा जाएगा, साथ ही दिन-रात बारी-बारी से पूछताछ होगी और यातनाएँ दी जाएँगी, और फिर तुम उनकी मर्जी के मुताबिक व्यवहार करना शुरू कर दोगे। इस बिंदु पर, तुम्हें एहसास होगा कि “यहाँ तर्क के लिए कोई जगह नहीं है; यह एक जाल है!” बड़ा लाल अजगर तुमसे बहस नहीं करता है—क्या तुम्हें लगता है कि वह बिना इरादे के, संयोगवश उन मोर्चों का निर्माण करता है? इसके पीछे साजिश होती है, और उसने अगले कदम की योजना बनाई होती है। यह तो उसके क्रियाकलापों की शुरूआत है। कुछ लोगों को अभी भी लग सकता है कि, “वे परमेश्वर में विश्वास करने से संबंधित मामलों को नहीं समझते; अगर मैं उन्हें समझाऊँ तो सब ठीक हो जाएगा।” क्या तुम उसे स्पष्ट रूप से समझा सकते हो? उसने तुम्हें किसी ऐसी चीज के लिए फंसाया है, जो तुमने नहीं की है—क्या तुम अभी भी चीजों को स्पष्ट रूप से समझा सकते हो? जब उसने तुम्हें फंसाया तो क्या वह नहीं जानता था कि तुमने ऐसा नहीं किया है? क्या वह इस बात से अनभिज्ञ है कि यह किसका काम है? वह बहुत अच्छी तरह से जानता है! तो वह तुम पर दोष क्यों मढ़ता है? तुम ही वह व्यक्ति हो जिसे उसे पकड़ना है। क्या तुम्हें लगता है कि जब वह तुम पर दोषारोपण कर रहा होता है तो उसे पता नहीं होता कि तुम्हारे साथ अन्याय हो रहा है? वह तुम्हारे साथ अन्याय करना चाहता है और तुम्हें गिरफ़्तार करके सताना चाहता है। यह दुष्टता है।
मसीह-विरोधियों के दुष्ट सार वाला कोई भी व्यक्ति अपने सार में सत्य से विमुख होता है और सत्य से घृणा करता है। अपने हृदय में वह सत्य को जरा भी नहीं स्वीकारता और उसका अभ्यास करने का कोई इरादा नहीं रखता। यदि तुम्हें लगता है कि उसे सत्य की समझ नहीं है और तुम उसके साथ इस बारे में संगति करने का प्रयास करते हो, तो परिणाम क्या होगा? तुम आगे नहीं बढ़ पाओगे—तुमने गलत व्यक्ति को पकड़ लिया है। वह ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सत्य को स्वीकार करेगा, और तुम्हें उसके साथ संगति नहीं करनी चाहिए; इसके बजाय, तुम्हें उसे सबक सिखाना चाहिए और उसके साथ यह कहते हुए सख्ती बरतनी चाहिए कि, “तुम कितने समय से अपना कर्तव्य निभा रहे हो? तुमने अपने कर्तव्य को तुच्छ कैसे मान लिया? क्या यह तुम्हारा अपना काम है? तुम किसे चुनौती दे रहे हो? तुम मेरे नहीं, परमेश्वर और सत्य के खिलाफ हो!” क्या तुम्हें उसे सबक सिखाने की कोई जरूरत नहीं है? क्या उसके साथ सत्य के बारे में संगति करना उपयोगी है? नहीं, यह उपयोगी नहीं है। यह उपयोगी क्यों नहीं है? वह भेड़िया है, खोई हुई या भटकी हुई भेड़ें नहीं। क्या भेड़िया सत्य का अभ्यास कर सकता है? नहीं। भेड़िये की प्रकृति क्या है? (दुष्टता।) भेड़ को देखते ही वह लार टपकाने लगता है, उसकी आँखें स्वादिष्ट भोजन की कल्पना से भर जाती हैं, और भेड़ की नियति है कि वह उसका भोजन बने। यह उसकी प्रकृति है; यह दुष्टता है। यदि तुम उससे कहो कि, “भेड़ें बहुत दयनीय और कोमल हैं; कृपया उन्हें मत खाओ। खाने के लिए कोई दूसरा खूंखार जानवर चुन लो, ठीक है?” तो, क्या वह इसे समझ सकेगा? वह नहीं समझ सकता। यह उसकी प्रकृति है। कुछ लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते और तरह-तरह के बहाने ढूँढ़ते हैं—यह उनकी प्रकृति है। यह प्रकृति क्या है? यह दुष्टता है। उनके काम कितने भी नीच, विद्रोही या खुल्लमखुल्ला सिद्धांतों के विरुद्ध क्यों न हों, वे फिर भी वे अपनी प्रतिष्ठा बचाना चाहते हैं; भले ही वे सत्य के विरुद्ध जा रहे हों, फिर भी इसे बहुत भव्य और गरिमापूर्ण तरीके से करना चाहते हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? क्या सत्य का उल्लंघन करना सकारात्मक बात है, या नकारात्मक? (नकारात्मक।) कोई नकारात्मक बात भव्य, गरिमापूर्ण और सम्माननीय तरीके से कैसे की जा सकती है? क्या इन दोनों पहलुओं को एक साथ जोड़ने की कोशिश करना थोड़ा अजीब नहीं है? यह दुष्टता है : यह उन लोगों का व्यवहार और अभिव्यक्ति है जिनमें मसीह-विरोधियों का दुष्ट सार होता है। यह बात विरोधाभासी लग सकती है, लेकिन वे ऐसे ही काम करते हैं, यही उनका स्वभाव है और यही वे प्रकट करते हैं। वे मन में सत्य के प्रति घृणा रखते हैं, उसे कभी स्वीकार नहीं करते—ये मसीह विरोधी लोग हैं, यही मसीह विरोधियों का दुष्ट प्रकृति सार है। मसीह विरोधियों के दुष्ट सार में कितनी चीजें हैं? (चार चीजें।) कुल मिलाकर चार चीजें हैं। क्या तुम लोगों के समझने के लिए ये चार संकेत पर्याप्त नहीं हैं? दुष्टता में स्वाभाविक रूप से कपट और छल के तत्व होते हैं, और जब कपट और छल के तत्व अपने चरम पर पहुँच जाते हैं, तो उन्हें दुष्ट स्वभाव के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। मसीह-विरोधी इस तरह के दुष्ट स्वभाव के जीवित प्रतिरूप होते हैं।
3 सितंबर 2019