परमेश्वर को जानना III
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 83
परमेश्वर सभी चीजों की सृष्टि करने के लिए वचनों को प्रयोग करता है (चुने हुए अंश)
उत्पत्ति 1:3-5 जब परमेश्वर ने कहा, “उजियाला हो,” तो उजियाला हो गया। और परमेश्वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है; और परमेश्वर ने उजियाले को अन्धियारे से अलग किया। और परमेश्वर ने उजियाले को दिन और अन्धियारे को रात कहा। तथा साँझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पहला दिन हो गया।
उत्पत्ति 1:6-7 फिर परमेश्वर ने कहा, “जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो कि जल दो भाग हो जाए।” तब परमेश्वर ने एक अन्तर बनाकर उसके नीचे के जल और उसके ऊपर के जल को अलग अलग किया; और वैसा ही हो गया।
उत्पत्ति 1:9-11 फिर परमेश्वर ने कहा, “आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे,” और वैसा ही हो गया। परमेश्वर ने सूखी भूमि को पृथ्वी कहा, तथा जो जल इकट्ठा हुआ उसको उसने समुद्र कहा : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है। फिर परमेश्वर ने कहा, “पृथ्वी से हरी घास, तथा बीजवाले छोटे छोटे पेड़, और फलदाई वृक्ष भी जिनके बीज उन्हीं में एक एक की जाति के अनुसार हैं, पृथ्वी पर उगें,” और वैसा ही हो गया।
उत्पत्ति 1:14-15 फिर परमेश्वर ने कहा, “दिन को रात से अलग करने के लिये आकाश के अन्तर में ज्योतियाँ हों; और वे चिह्नों, और नियत समयों और दिनों, और वर्षों के कारण हों; और वे ज्योतियाँ आकाश के अन्तर में पृथ्वी पर प्रकाश देनेवाली भी ठहरें,” और वैसा ही हो गया।
उत्पत्ति 1:20-21 फिर परमेश्वर ने कहा, “जल जीवित प्राणियों से बहुत ही भर जाए, और पक्षी पृथ्वी के ऊपर आकाश के अन्तर में उड़ें।” इसलिये परमेश्वर ने जाति जाति के बड़े बड़े जल-जन्तुओं की, और उन सब जीवित प्राणियों की भी सृष्टि की जो चलते फिरते हैं जिन से जल बहुत ही भर गया, और एक एक जाति के उड़नेवाले पक्षियों की भी सृष्टि की : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।
उत्पत्ति 1:24-25 फिर परमेश्वर ने कहा, “पृथ्वी से एक एक जाति के जीवित प्राणी, अर्थात् घरेलू पशु, और रेंगनेवाले जन्तु, और पृथ्वी के वनपशु, जाति जाति के अनुसार उत्पन्न हों,” और वैसा ही हो गया। इस प्रकार परमेश्वर ने पृथ्वी के जाति जाति के वन-पशुओं को, और जाति जाति के घरेलू पशुओं को, और जाति जाति के भूमि पर सब रेंगनेवाले जन्तुओं को बनाया : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।
पहले दिन, परमेश्वर के अधिकार के कारण, मानव-जाति के दिन और रात उत्पन्न हुए और स्थिर बने हुए हैं
आओ, हम पहले अंश को देखें : “जब परमेश्वर ने कहा, ‘उजियाला हो,’ तो उजियाला हो गया। और परमेश्वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है; और परमेश्वर ने उजियाले को अन्धियारे से अलग किया। और परमेश्वर ने उजियाले को दिन और अन्धियारे को रात कहा। तथा साँझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पहला दिन हो गया” (उत्पत्ति 1:3-5)। यह अंश विवरण देता है सृष्टि की शुरुआत में परमेश्वर के पहले कार्य का, और परमेश्वर द्वारा गुजारे गए उस पहले दिन का, जिसमें एक शाम और एक सुबह थी। पर वह एक असाधारण दिन था : परमेश्वर ने सभी चीजों के लिए उजाला तैयार करना शुरू किया, और इतना ही नहीं, उजाले को अँधेरे से अलग किया। इस दिन, परमेश्वर ने बोलना शुरू किया, और उसके वचन और अधिकार साथ-साथ मौजूद रहे। उसका अधिकार सभी चीजों के बीच दिखाई देने लगा, और उसके वचनों के परिणामस्वरूप उसका सामर्थ्य सभी चीजों में फैल गया। इस दिन से परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के अधिकार, और परमेश्वर के सामर्थ्य के कारण सभी चीजें बन गईं और सुदृढ़ रहीं, और उन्होंने परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के अधिकार, और परमेश्वर के सामर्थ्य की वजह से काम करना शुरू कर दिया। जब परमेश्वर ने ये वचन कहे “उजियाला हो,” तो उजियाला हो गया। परमेश्वर ने कार्यों को किसी क्रम से करना शुरू नहीं किया; उजाला उसके वचनों के परिणामस्वरूप प्रकट हुआ था। इस उजाले को परमेश्वर ने दिन कहा, जिस पर आज भी मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए निर्भर रहता है। परमेश्वर की आज्ञा से उसका सार और मूल्य कभी नहीं बदले हैं, और वह कभी गायब नहीं हुआ है। उसका अस्तित्व परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य को दर्शाता है, और सृष्टिकर्ता के अस्तित्व की घोषणा करता है। यह सृष्टिकर्ता की पहचान और हैसियत की बारंबार पुष्टि करता है। यह अमूर्त या मायावी नहीं, बल्कि वास्तविक प्रकाश है, जिसे मनुष्य द्वारा देखा जा सकता है। उस समय के बाद से, इस खाली संसार में, जिसमें “पृथ्वी बेडौल और सुनसान पड़ी थी, और गहरे जल के ऊपर अन्धियारा था,” पहली भौतिक चीज पैदा हुई। यह चीज परमेश्वर के मुँह से निकले वचनों से आई, और परमेश्वर के अधिकार और कथनों के कारण सभी चीजों की सृष्टि के पहले कार्य में दिखाई दी। इसके तुरंत बाद, परमेश्वर ने उजाले और अँधेरे को अलग-अलग होने की आज्ञा दी...। परमेश्वर के वचनों के कारण हर चीज बदल गई और पूरी हो गई...। परमेश्वर ने उजाले को “दिन” कहा और अँधेरे को उसने “रात” कहा। उस समय, जिस संसार को परमेश्वर बनाना चाहता था, उसमें पहली शाम और पहली सुबह हुई, और परमेश्वर ने कहा कि यह पहला दिन है। सृष्टिकर्ता द्वारा सभी चीजों की सृष्टि का यह पहला दिन था, और यह सभी चीजों की सृष्टि का प्रारंभ था, और यह पहली बार था, जब सृष्टिकर्ता का अधिकार और सामर्थ्य उसके द्वारा सृजित इस संसार में दिखा था।
इन वचनों के माध्यम से मनुष्य परमेश्वर और उसके वचनों के अधिकार, और साथ ही परमेश्वर के सामर्थ्य को देखने में सक्षम हुआ। चूँकि केवल परमेश्वर के पास ही ऐसा सामर्थ्य है, अतः केवल परमेश्वर के पास ही ऐसा अधिकार है; चूँकि परमेश्वर के पास ही ऐसा अधिकार है, अतः केवल परमेश्वर के पास ही ऐसा सामर्थ्य है। क्या किसी मनुष्य या वस्तु के पास ऐसा अधिकार और सामर्थ्य हो सकता है? क्या तुम लोगों के दिल में इसका कोई उत्तर है? परमेश्वर को छोड़, क्या किसी सृजित या गैर-सृजित प्राणी के पास ऐसा अधिकार है? क्या तुम लोगों ने किसी पुस्तक या प्रकाशन में कभी ऐसी चीज का उदाहरण देखा है? क्या ऐसा कोई अभिलेख है कि किसी ने स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजों की सृष्टि की हो? यह किसी अन्य पुस्तक या अभिलेखों में नहीं पाया जाता; निस्संदेह, ये परमेश्वर द्वारा दुनिया की भव्य सृष्टि के बारे में एकमात्र आधिकारिक और शक्तिशाली वचन हैं, जो बाइबल में दर्ज हैं; ये वचन परमेश्वर के अद्वितीय अधिकार और पहचान के बारे में बताते हैं। क्या इस तरह के अधिकार और सामर्थ्य को परमेश्वर की अद्वितीय पहचान का प्रतीक कहा जा सकता है? क्या यह कहा जा सकता है कि उन्हें सिर्फ और सिर्फ परमेश्वर ही धारण करता है? निस्संदेह, सिर्फ परमेश्वर ही ऐसा अधिकार और सामर्थ्य धारण करता है! यह अधिकार और सामर्थ्य किसी अन्य सृजित या गैर-सृजित प्राणी द्वारा धारण या प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता! क्या यह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर के विशिष्ट गुणों में से एक है? क्या तुम लोगों ने इसे देखा है? इन वचनों से लोग शीघ्रता और स्पष्टता से इस तथ्य को समझ जाते हैं कि परमेश्वर अद्वितीय अधिकार, अद्वितीय सामर्थ्य, सर्वोच्च पहचान और हैसियत धारण करता है। ऊपर जो संगति की गई है, उससे क्या तुम लोग कह सकते हो कि वह परमेश्वर, जिस पर तुम लोग विश्वास करते हो, स्वयं अद्वितीय परमेश्वर है?
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 84
परमेश्वर सभी चीजों की सृष्टि करने के लिए वचनों को प्रयोग करता है (चुने हुए अंश)
दूसरे दिन परमेश्वर के अधिकार ने जल का प्रबंध किया और आसमान बनाया तथा मनुष्य के जीवित रहने के लिए सबसे बुनियादी जगह प्रकट हुई
“फिर परमेश्वर ने कहा, ‘जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो कि जल दो भाग हो जाए।’ तब परमेश्वर ने एक अन्तर बनाकर उसके नीचे के जल और उसके ऊपर के जल को अलग अलग किया; और वैसा ही हो गया” (उत्पत्ति 1:6-7)। जब परमेश्वर ने कहा “जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो कि जल दो भाग हो जाए” तो कौन-से परिवर्तन हुए? पवित्र शास्त्र में कहा गया है : “तब परमेश्वर ने एक अन्तर बनाकर उसके नीचे के जल और उसके ऊपर के जल को अलग अलग किया।” जब परमेश्वर ने ऐसा कहा और किया, तो क्या परिणाम हुआ? इसका उत्तर अंश के आखिरी भाग में है : “और वैसा ही हो गया।”
इन दोनों छोटे वाक्यों में एक भव्य घटना दर्ज है, और ये वाक्य एक अद्भुत दृश्य का वर्णन करते हैं—एक जबरदस्त उपक्रम, जिसमें परमेश्वर ने जल को नियंत्रित किया और एक जगह बनाई, जिसमें मनुष्य जीवित रह सके ...
इस तस्वीर में, जल और आकाश परमेश्वर की आँखों के सामने तत्क्षण प्रकट होते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों के अधिकार द्वारा विभाजित हो जाते हैं, और परमेश्वर द्वारा निर्धारित तरीके से “ऊपर” और “नीचे” के रूप में अलग हो जाते हैं। अर्थात, परमेश्वर द्वारा बनाए गए आकाश ने न केवल नीचे के जल को ढक लिया, बल्कि ऊपर के जल को भी सँभाला...। इस दृश्य में मनुष्य टकटकी लगाकर देखने, भौचक्का होने, और उसके अधिकार की शक्ति और उस दृश्य की भव्यता की तारीफ में ठिठककर रह जाने से खुद को रोक नहीं पाता, जिसमें सृष्टिकर्ता ने जल को स्थानांतरित किया और उसे आज्ञा दी, और आकाश को बनाया। अपने वचनों और सामर्थ्य तथा अधिकार द्वारा परमेश्वर ने एक और महान उपलब्धि हासिल की। क्या यह सृष्टिकर्ता की शक्ति नहीं है? आओ, हम परमेश्वर के कर्मों को स्पष्ट करने के लिए पवित्र शास्त्र का प्रयोग करें : परमेश्वर ने अपने वचन कहे, और परमेश्वर के इन वचनों के कारण जल के मध्य में आकाश बन गया। और उसी समय परमेश्वर के इन वचनों के कारण इस स्थान में एक जबरदस्त परिवर्तन हुआ, और यह सामान्य अर्थों में परिवर्तन नहीं था, बल्कि एक प्रकार का प्रतिस्थापन था, जिसमें कुछ नहीं बदलकर कुछ बन गया। यह सृष्टिकर्ता के विचारों से उत्पन्न हुआ था और सृष्टिकर्ता द्वारा बोले गए वचनों के कारण कुछ नहीं से कुछ बन गया, और, इतना ही नहीं, इस बिंदु से आगे यह सृष्टिकर्ता की खातिर अस्तित्व में रहेगा और स्थिर बना रहेगा, और सृष्टिकर्ता के विचारों के अनुसार स्थानांतरित, परिवर्तित और नवीकृत होगा। यह अंश, संपूर्ण संसार की सृष्टि में सृष्टिकर्ता के दूसरे कार्य का वर्णन करता है। यह सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ्य की एक और अभिव्यक्ति और सृष्टिकर्ता का एक और अग्रणी उपक्रम था। यह दिन जगत की नींव रखने के बाद सृष्टिकर्ता द्वारा बिताया गया दूसरा दिन था, और यह उसके लिए एक और अद्भुत दिन था : वह उजाले के बीच में चला, आकाश को लाया, उसने जल का प्रबंध और नियंत्रण किया और उसके कर्म, उसका अधिकार और उसका सामर्थ्य एक नए दिन के काम में लगा दिए गए ...
क्या परमेश्वर के द्वारा अपने वचन कहे जाने से पहले जल के मध्य में आकाश था? बिलकुल नहीं! और परमेश्वर के यह कहने के बाद क्या हुआ “जल के बीच एक अन्तर हो जाए”? परमेश्वर द्वारा इच्छित चीजें प्रकट हो गईं; जल के मध्य में आकाश उत्पन्न हो गया, और जल विभाजित हो गया, क्योंकि परमेश्वर ने कहा “इस अंतर के कारण जल दो भाग हो जाए।” इस तरह से, परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करके, परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य के परिणामस्वरूप दो नए पदार्थ, दो नई जन्मी चीजें सभी चीजों के मध्य प्रकट हो गईं। इन दो नई चीजों के प्रकटीकरण से तुम लोग कैसा महसूस करते हो? क्या तुम लोग सृष्टिकर्ता के सामर्थ्य की महानता को महसूस करते हो? क्या तुम लोग सृष्टिकर्ता का अद्वितीय और असाधारण बल महसूस करते हो? इस बल और सामर्थ्य की महानता परमेश्वर के अधिकार के कारण है, और यह अधिकार स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है और स्वयं परमेश्वर की एक अद्वितीय विशेषता है।
क्या यह अंश तुम लोगों को एक बार और परमेश्वर की अद्वितीयता का गहरा बोध कराता है? वास्तव में यह पर्याप्त होने से बहुत दूर है; सृष्टिकर्ता का अधिकार और सामर्थ्य इससे कहीं परे जाता है। उसकी अद्वितीयता मात्र इसलिए नहीं है, क्योंकि वह किसी अन्य प्राणी से अलग सार धारण करता है, बल्कि इसलिए भी है कि उसका अधिकार और सामर्थ्य असाधारण, असीमित, सर्वोत्कृष्ट हैं, और इससे भी बढ़कर, उसका अधिकार और उसके पास जो है, वो जीवन की सृष्टि कर सकता है, चमत्कार कर सकता है, और प्रत्येक भव्य और असाधारण मिनट और सेकंड की सृष्टि कर सकता है। साथ ही वह स्वयं द्वारा सृजित जीवन पर शासन करने में सक्षम है और स्वयं द्वारा सृजित चमत्कारों, और हर मिनट और सेकंड पर संप्रभुता रखता है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 85
परमेश्वर सभी चीजों की सृष्टि करने के लिए वचनों को प्रयोग करता है (चुने हुए अंश)
तीसरे दिन, परमेश्वर के वचनों ने पृथ्वी और समुद्रों की उत्पत्ति की, और परमेश्वर के अधिकार ने संसार को जीवन से लबालब भर दिया
हम उत्पत्ति 1:9-11 का पहला वाक्य पढ़ें : “फिर परमेश्वर ने कहा, ‘आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे।’” परमेश्वर के बस इतना कहने के बाद कि, “आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे,” क्या परिवर्तन हुए? और उजाले और आकाश के अलावा इस जगह पर क्या था? पवित्र शास्त्र में लिखा है : “परमेश्वर ने सूखी भूमि को पृथ्वी कहा, तथा जो जल इकट्ठा हुआ उसको उसने समुद्र कहा : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।” दूसरे शब्दों में, अब इस जगह में भूमि और समुद्र थे, और भूमि और समुद्र विभाजित हो गए थे। इन नई चीजों का प्रकटीकरण परमेश्वर के मुँह से निकली आज्ञा के अनुसरण में हुआ था, “और वैसा ही हो गया।” क्या पवित्र शास्त्र यह वर्णन करता है कि परमेश्वर जब यह सब कर रहा था, तो बहुत व्यस्त था? क्या वह उसके शारीरिक श्रम में संलग्न होने का वर्णन करता है? तो फिर परमेश्वर ने यह कैसे किया? परमेश्वर ने इन नई चीजों को कैसे उत्पन्न किया? स्वतः स्पष्ट है कि परमेश्वर ने यह सब हासिल करने के लिए, इसकी संपूर्णता सृजित करने के लिए वचनों का प्रयोग किया।
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आओ, हम इस अंश का अंतिम वाक्य पढ़ें : “फिर परमेश्वर ने कहा, ‘पृथ्वी से हरी घास, तथा बीजवाले छोटे छोटे पेड़, और फलदाई वृक्ष भी जिनके बीज उन्हीं में एक एक की जाति के अनुसार हैं, पृथ्वी पर उगें,’ और वैसा ही हो गया।” जब परमेश्वर बोल रहा था, तो ये सभी चीजें परमेश्वर के विचारों का अनुसरण करके अस्तित्व में आ गईं, और एक क्षण में ही, विभिन्न प्रकार के नाजुक छोटे जीवन-रूप डगमगाते हुए मिट्टी से अपने सिर बाहर निकालने लगे, और अपने शरीर से मिट्टी के कण झाड़ने से पहले ही वे उत्सुकता से एक-दूसरे का अभिनंदन करने लगे तथा सिर हिला-हिलाकर संसार को देख मुस्कराने लगे। उन्होंने सृष्टिकर्ता द्वारा स्वयं को प्रदान किए गए जीवन के लिए उसे धन्यवाद दिया, और संसार के सामने घोषणा की कि वे सभी चीजों का अंग हैं और उनमें से प्रत्येक प्राणी सृष्टिकर्ता के अधिकार को दर्शाने के लिए अपना जीवन समर्पित करेगा। जैसे ही परमेश्वर ने वचन कहे, भूमि हरी-भरी, हो गई, मनुष्य के काम आ सकने वाले समस्त प्रकार के साग-पात अंकुरित हो गए और जमीन फोड़कर निकल आए, और पर्वत और मैदान वृक्षों एवं जंगलों से पूरी तरह से भर गए...। यह बंजर संसार, जिसमें जीवन का कोई निशान नहीं था, तेजी से प्रचुर घास, साग-पात, वृक्षों एवं उमड़ती हुई हरियाली से भर गया...। तथा घास की सुगंध और मिट्टी की महक हवा में फैल गई, और पौधों की कतार हवा के संचलन के साथ मिलकर साँस लेने लगी और उनके बढ़ने की प्रक्रिया शुरू हो गई। उसी समय, परमेश्वर के वचनों के कारण और परमेश्वर के विचारों का अनुसरण करके, सभी पौधों ने अपने शाश्वत जीवन-चक्र शुरू कर दिए, जिनमें वे बढ़ते हैं, खिलते हैं, फलते हैं और वंश-वृद्धि करते हैं। उन्होंने सख्ती से अपने-अपने जीवन-चक्रों का पालन करना शुरू कर दिया और सभी चीजों के मध्य अपनी-अपनी भूमिका निभानी प्रारंभ कर दी...। वे सब सृष्टिकर्ता के वचनों के कारण पैदा हुए थे और जी रहे थे। वे सृष्टिकर्ता की अनंत आपूर्ति और पोषण प्राप्त करेंगे, और परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य को दर्शाने के लिए हमेशा भूमि के हर कोने में दृढ़ता से जीवित रहेंगे और वे हमेशा सृष्टिकर्ता द्वारा स्वयं को प्रदान की गई जीवन-शक्ति को दर्शाते रहेंगे ...
सृष्टिकर्ता का जीवन असाधारण है, उसके विचार असाधारण हैं, और उसका अधिकार असाधारण है और इसलिए, जब उसके वचन उच्चरित हुए, तो उसका अंतिम परिणाम था “और वैसा ही हो गया।” स्पष्ट रूप से, जब परमेश्वर कार्य करता है, तो उसे अपने हाथों से काम करने की आवश्यकता नहीं होती; वह आज्ञा देने के लिए बस अपने विचारों का और आदेश देने के लिए अपने वचनों का प्रयोग करता है, और इस तरह काम पूरे हो जाते हैं। इस दिन, परमेश्वर ने जल को एक साथ एक जगह पर इकट्ठा किया और सूखी भूमि प्रकट होने दी, जिसके बाद परमेश्वर ने भूमि से घास को उगाया, और बीज उत्पन्न करने वाले पौधे और फल देने वाले पेड़ उग गए, और परमेश्वर ने उनकी किस्म के अनुसार उन्हें वर्गीकृत किया तथा उसके कारण प्रत्येक ने अपने खुद के बीज धारण किए। यह सब परमेश्वर के विचारों और उसके वचनों की आज्ञा के अनुसार साकार हुआ और इस नए संसार में हर चीज एक के बाद एक प्रकट होती गई।
अपना काम शुरू करने से पहले ही परमेश्वर के मस्तिष्क में उसकी तस्वीर थी, जिसे वह हासिल करना चाहता था, और जब परमेश्वर ने इन चीजों को हासिल करना शुरू किया, यह वही समय था जब परमेश्वर ने इस तस्वीर की विषयवस्तु के बारे में बोलने के लिए अपना मुँह खोला था, तो परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य के कारण सभी चीजों में बदलाव आना प्रारंभ हो गया। परमेश्वर ने इसे चाहे जैसे भी किया या जिस भी प्रकार से अपने अधिकार का इस्तेमाल किया, सब-कुछ परमेश्वर की योजना और उसके वचनों की बदौलत क्रमिक रूप से हासिल होता गया, परमेश्वर के वचनों और अधिकार की बदौलत स्वर्ग और पृथ्वी में क्रमिक रूप से बदलाव आते गए। इन सभी बदलावों और घटनाओं ने सृष्टिकर्ता के अधिकार और उसकी जीवन-शक्ति की असाधारणता और महानता को दर्शाया। उसके विचार कोई मामूली सोच या खाली तस्वीर नहीं हैं, बल्कि जीवन-शक्ति और असाधारण ऊर्जा से भरे हुए अधिकार हैं, वे ऐसे सामर्थ्य हैं जो सभी चीजों को परिवर्तित कर सकते हैं, पुनर्जीवित कर सकते हैं, फिर से नया बना सकते हैं और नष्ट कर सकते हैं। इसकी वजह से, उसके विचारों के कारण सभी चीजें कार्य करती हैं और साथ ही उसके मुँह से निकले वचनों के कारण पूरी होती हैं ...
सभी चीजों के प्रकट होने से पहले, परमेश्वर के विचारों में एक संपूर्ण योजना बहुत पहले से ही बन चुकी थी, और एक नया संसार बहुत पहले ही आकार ले चुका था। यद्यपि तीसरे दिन भूमि पर हर प्रकार के पौधे प्रकट हुए, किंतु परमेश्वर के पास इस संसार की सृष्टि के चरणों को रोकने का कोई कारण नहीं था; उसका इरादा लगातार अपने वचनों को बोलते रहने का था, ताकि वह हर नई चीज की सृष्टि करना जारी रख सके। वह बोलता गया, अपनी आज्ञाएँ जारी करता गया, और अपने अधिकार का इस्तेमाल करता तथा अपना सामर्थ्य दिखाता गया, और उसने हर वो चीज बनाई जिसके निर्माण की उसकी योजना थी, उसने उन सभी चीजों और मानव-जाति के लिए इन्हें बनाया, जिनके सृजन का उसका इरादा था ...
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 86
परमेश्वर सभी चीजों की सृष्टि करने के लिए वचनों को प्रयोग करता है (चुने हुए अंश)
चौथे दिन परमेश्वर ने एक बार फिर अपने अधिकार का उपयोग किया जिससे मानव-जाति की ऋतुएँ, दिन और वर्ष अस्तित्व में आए
सृष्टिकर्ता ने अपनी योजना पूरी करने के लिए अपने वचनों का उपयोग किया, और इस तरह उसने अपनी योजना के पहले तीन दिन गुजारे। इन तीन दिनों के दौरान परमेश्वर को व्यस्त होते या स्वयं को थकाते हुए नहीं देखा गया; इसके विपरीत, उसने अपनी योजना के पहले तीन दिन शानदार तरीके से बिताए, और दुनिया के आमूलचूल परिवर्तन का महान उपक्रम पूरा किया। उसकी आँखों के सामने एक नई दुनिया प्रकट हुई, और अंश-अंश करके वह सुंदर चित्र, जो उसके विचारों के भीतर बंद था, अंततः परमेश्वर के वचनों में प्रकट हुआ। हर नई चीज का प्रकटन किसी नवजात शिशु के जन्म के समान था, और सृष्टिकर्ता ने उस चित्र का आनंद लिया, जो कभी उसके विचारों में था, लेकिन जिसे अब जीवंत कर दिया गया था। इस समय उसके हृदय को थोड़ा संतोष मिला, लेकिन उसकी योजना अभी शुरू ही हुई थी। पलक झपकते ही एक नया दिन आ गया था—और सृष्टिकर्ता की योजना में अगला पृष्ठ क्या था? उसने क्या कहा? उसने अपने अधिकार का उपयोग कैसे किया? इस बीच इस नई दुनिया में कौन-सी नई चीजें आईं? सृष्टिकर्ता के मार्गदर्शन का अनुसरण करते हुए हमारी निगाह परमेश्वर द्वारा सभी चीजों के सृजन के चौथे दिन पर पड़ती है, एक ऐसा दिन, जो एक और नई शुरुआत थी। बेशक, सृष्टिकर्ता के लिए यह निस्संदेह एक और शानदार दिन था, और यह आज की मानव-जाति के लिए एक और अत्यंत महत्वपूर्ण दिन था। बेशक, यह बेहद मूल्यवान दिन था। यह शानदार कैसे था, यह इतना महत्वपूर्ण कैसे था, और यह बेहद मूल्यवान कैसे था? पहले सृष्टिकर्ता द्वारा बोले गए वचन सुनते हैं ...
“फिर परमेश्वर ने कहा, ‘दिन को रात से अलग करने के लिये आकाश के अन्तर में ज्योतियाँ हों; और वे चिह्नों, और नियत समयों और दिनों, और वर्षों के कारण हों; और वे ज्योतियाँ आकाश के अन्तर में पृथ्वी पर प्रकाश देनेवाली भी ठहरें’” (उत्पत्ति 1:14-15)। यह परमेश्वर के अधिकार का एक और प्रयोग था, जिसे उसके द्वारा सूखी जमीन और उस पर पौधों के सृजन के बाद, प्राणियों द्वारा दिखाया गया था। परमेश्वर के लिए यह कार्य उतना ही आसान था, जितना वे काम थे, जो वह पहले ही कर चुका था, क्योंकि परमेश्वर के पास इतना सामर्थ्य है; परमेश्वर अपने वचन का पक्का है, और उसका वचन पूरा होगा। परमेश्वर ने आकाश में ज्योतियों को प्रकट होने का आदेश दिया, और ये ज्योतियाँ न केवल आकाश और पृथ्वी पर चमक उठीं, बल्कि दिन और रात, ऋतुओं, दिनों और वर्षों के लिए चिह्नों के रूप में भी काम करने लगीं। इस तरह, जैसे ही परमेश्वर ने अपने वचन बोले, हर वह कार्य जिसे परमेश्वर पूरा करना चाहता था, परमेश्वर के आशय के अनुसार और परमेश्वर द्वारा निर्धारित तरीके से पूरा हुआ।
स्वर्ग की ज्योतियाँ आकाश का वह पदार्थ हैं, जो ज्योति विकीर्ण कर सकती हैं; वे आकाश, भूमि और समुद्र को रोशन कर सकती हैं। वे परमेश्वर द्वारा आदेशित लय और आवृत्ति के अनुसार घूमती हैं, और भूमि पर समय की अलग-अलग अवधियों को रोशन करती हैं, और इस तरह ज्योतियों के चक्रों के कारण भूमि के पूर्व और पश्चिम में दिन और रात उत्पन्न होते हैं, और वे केवल रात और दिन के संकेत ही नहीं हैं, बल्कि इन विभिन्न चक्रों के माध्यम से वे मानव-जाति के पर्वों और विभिन्न विशेष दिनों को भी चिह्नित करती हैं। वे चार ऋतुओं—बसंत, ग्रीष्म, शरद और शीत—के लिए पूर्ण पूरक और सहायक वस्तु हैं जो परमेश्वर द्वारा जारी की गई हैं, जिनके साथ ज्योतियाँ सामंजस्यपूर्ण तरीके से मानव-जाति की चंद्र-अवधियों, दिनों और वर्षों के लिए नियमित और सटीक चिह्नों के रूप में कार्य करती है। हालाँकि खेती के उद्भव के बाद ही मानव-जाति ने परमेश्वर द्वारा सृजित ज्योतियों के कारण उत्पन्न चंद्र-अवधियों, दिनों और वर्षों के विभाजन को समझना और उसे देखना शुरू किया, लेकिन वास्तव में चंद्र-अवधियाँ, दिन और वर्ष, जिन्हें मनुष्य आज समझता है, बहुत पहले परमेश्वर द्वारा सभी चीजों के सृजन के चौथे दिन उत्पन्न होने शुरू हो गए थे, और इसी तरह मनुष्य द्वारा अनुभव किए जाने वाले बसंत, ग्रीष्म, शरद और शीत के परस्पर परिवर्तनशील चक्र भी बहुत पहले परमेश्वर द्वारा सभी चीजों के सृजन के चौथे दिन शुरू हो गए थे। परमेश्वर द्वारा बनाई गई ज्योतियों ने मनुष्य को रात और दिन के बीच नियमित रूप से, सटीक और स्पष्ट रूप से अंतर करने, और दिनों की गणना करने और चंद्र-अवधियों और वर्षों की स्पष्ट रूप से जानकारी रखने में सक्षम बनाया। (पूर्णिमा का दिन एक महीना पूरा होने का दिन था, और इससे इंसान ने जाना कि ज्योतियों की रोशनी एक नया चक्र शुरू करती है; अर्धचंद्र का दिन आधा महीना पूरा होने का दिन था, जिसने मनुष्य को बताया कि एक नई चंद्र-अवधि शुरू हो रही है, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता था कि चंद्र-अवधि में कितने दिन और रात होते हैं, एक मौसम में कितनी चंद्र-अवधियाँ होती हैं, और एक वर्ष में कितने मौसम होते हैं, और यह सब बड़ी नियमितता के साथ प्रकट हुआ।) इसलिए, मनुष्य आसानी से ज्योतियों के घूर्णनों द्वारा चिह्नित चंद्र-अवधियों, दिनों और वर्षों की जानकारी रख सकता था। इस क्षण से, मानव-जाति और सभी चीजें अनजाने ही ज्योतियों के घूर्णनों द्वारा उत्पन्न रात और दिन के व्यवस्थित अंतःपरिवर्तन और ऋतुओं के बदलाव के बीच रहने लगीं। यह सृष्टिकर्ता द्वारा चौथे दिन ज्योतियों के सृजन का महत्व था। इसी तरह, सृष्टिकर्ता के इस कार्य के उद्देश्य और महत्व अभी भी उसके अधिकार और सामर्थ्य से अविभाज्य थे। और इसलिए, परमेश्वर द्वारा सृजित ज्योतियाँ और जल्दी ही मनुष्यों के लिए उनका जो मूल्य होने वाला था, सृष्टिकर्ता के अधिकार के प्रयोग में एक और कमाल था।
इस नई दुनिया में, जिसमें मानव-जाति का अभी प्रकट होना बाकी था, सृष्टिकर्ता ने उस नए जीवन के लिए, जिसे वह शीघ्र ही सृजित करने वाला था, शाम और सुबह, आकाश, भूमि और समुद्र, घास, साग-पात और विभिन्न प्रकार के पेड़, और ज्योतियाँ, मौसम, दिन और वर्ष तैयार किए। सृष्टिकर्ता द्वारा सृजित हर नई चीज में उसका अधिकार और सामर्थ्य व्यक्त हुए, और उसके वचन और उनकी पूर्ति एक-साथ, बिना थोड़ी-सी भी विसंगति के और बिना थोड़े-से भी अंतराल के घटित हुए। इन सभी नई चीजों का प्रकटन और जन्म सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ्य का प्रमाण था : वह अपने वचन का पक्का है और उसका वचन पूरा होगा, और जो वह पूरा करता है, वह हमेशा रहता है। यह तथ्य कभी नहीं बदला : ऐसा ही यह अतीत में था, ऐसा ही यह आज है, और ऐसा ही यह अनंत काल तक रहेगा। जब तुम एक बार फिर पवित्रशास्त्र के वे वचन देखते हो, तो क्या वे तुम लोगों को नए लगते हैं? क्या तुम लोगों ने नई सामग्री देखी है, और नई खोजें की हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि सृष्टिकर्ता के कर्मों ने तुम लोगों के दिलों को हिला दिया है, और उसके अधिकार और सामर्थ्य के बारे में तुम लोगों के ज्ञान की दिशा निर्देशित की है, और सृष्टिकर्ता के बारे में तुम लोगों की समझ के लिए द्वार खोला है, और उसके कर्मों और अधिकार ने इन वचनों को जीवन प्रदान किया है। इसलिए, इन वचनों में मनुष्य ने सृष्टिकर्ता के अधिकार की एक वास्तविक, विशद अभिव्यक्ति देखी है, वास्तव में सृष्टिकर्ता की सर्वोच्चता देखी है, और सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ्य की असाधारणता देखी है।
सृष्टिकर्ता का अधिकार और सामर्थ्य चमत्कार पर चमत्कार उत्पन्न करते हैं; वह मनुष्य का ध्यान आकर्षित करता है, और मनुष्य उसके अधिकार के प्रयोग से उत्पन्न आश्चर्यजनक कर्म स्तंभित होकर एकटक देखे बिना नहीं रह पाता। उसका असाधारण सामर्थ्य प्रसन्नता पर प्रसन्नता लाता है, और मनुष्य प्रशंसा में दम साधे, अचंभित होकर जय-जयकार करता हुआ चौंधिया जाता है और उल्लसित हो जाता है; इतना ही नहीं, मनुष्य प्रत्यक्ष रूप से द्रवित हो जाता है और उसमें सम्मान, श्रद्धा और लगाव पैदा होता है। सृष्टिकर्ता के अधिकार और कर्मों का मनुष्य की आत्मा पर बड़ा असर और शुद्धिकारक प्रभाव पड़ता है, और, इसके अलावा, वे मनुष्य की आत्मा को तृप्त कर देते हैं। उसका हर विचार, उसका हर कथन, और उसके अधिकार का हर प्रकटन सभी चीजों के बीच एक उत्कृष्ट कृत्य और सृजित मानवजाति की गहरी समझ और ज्ञान के सबसे योग्य एक महान उपक्रम है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 87
परमेश्वर सभी चीजों की सृष्टि करने के लिए वचनों को प्रयोग करता है (चुने हुए अंश)
पाँचवें दिन विविध और विभिन्न संरचनाओं का जीवन विभिन्न तरीकों से सृष्टिकर्ता के अधिकार को प्रदर्शित करता है
पवित्र-शास्त्र कहता है, “फिर परमेश्वर ने कहा, ‘जल जीवित प्राणियों से बहुत ही भर जाए, और पक्षी पृथ्वी के ऊपर आकाश के अन्तर में उड़ें।’ इसलिये परमेश्वर ने जाति जाति के बड़े बड़े जल-जन्तुओं की, और उन सब जीवित प्राणियों की भी सृष्टि की जो चलते फिरते हैं जिन से जल बहुत ही भर गया, और एक एक जाति के उड़नेवाले पक्षियों की भी सृष्टि की : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है” (उत्पत्ति 1:20-21)। पवित्रशास्त्र हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि इस दिन परमेश्वर ने जल में रहने वाले जीव-जंतु और हवा में उड़ने वाले पक्षी बनाए, अर्थात उसने विभिन्न मछलियाँ और चिड़ियाँ सृजित कीं, और उनमें से प्रत्येक को उनकी किस्म के अनुसार वर्गीकृत किया। इस तरह, पृथ्वी, आकाश और जल परमेश्वर की सृष्टि से समृद्ध हुए ...
जैसे ही परमेश्वर ने वचन बोले, अलग-अलग रूप में नया जीवन सृष्टिकर्ता के वचनों के बीच तुरंत जीवित हो गया। वे अपने स्थान पर पहुँचने के लिए एक-दूसरे को धक्का देते, उछलते-कूदते, खुशी से इठलाते हुए दुनिया में आए...। हर आकार-प्रकार की मछलियाँ पानी में तैरने लगीं; सभी तरह के घोंघे रेत से निकल आए; शल्क वाले, खोल वाले और बिना रीढ़ के जीव जल्दी से छोटे-बड़े, लंबे-ठिंगने अलग-अलग रूपों में विकसित हो गए। इसी तरह विभिन्न प्रकार के समुद्री शैवाल भी विभिन्न जलीय जीवन की गति से डोलते, लहराते हुए, रुके हुए समुद्र से आग्रह करते हुए तेजी से बढ़ने लगे, मानो उससे कह रहे हों : “जल्दी करो! अपने दोस्तों को लाओ! तुम फिर कभी अकेले नहीं होगे!” जिस क्षण से परमेश्वर द्वारा बनाए गए विभिन्न जीवित प्राणी पानी में प्रकट हुए, हर ताजा नया जीवन उस पानी में जीवन-शक्ति लेकर आया जो इतने लंबे समय से निश्चल था, और एक नए युग की शुरुआत की...। उस क्षण से वे एक-दूसरे से चिपटे हुए, एक-दूसरे का साथ देने लगे, और अपने बीच कोई दूरी नहीं रखी। जल अपने भीतर के प्राणियों के लिए अस्तित्व में था, अपनी गोद में पलने वाले प्रत्येक जीवन का पोषण करता था, और प्रत्येक जीवन जल के लिए, उसके पोषण के कारण अस्तित्व में था। प्रत्येक ने एक-दूसरे को जीवन प्रदान किया, और साथ ही, प्रत्येक ने, उसी तरह, सृष्टिकर्ता के सृजन के चमत्कारिकता और महानता, और सृष्टिकर्ता के अधिकार के अलंघ्य सामर्थ्य की गवाही दी ...
जैसे समुद्र अब शांत नहीं था, वैसे ही आसमान भी जीवन से भरने लगा। एक-एक करके छोटे-बड़े पक्षी जमीन से आसमान में उड़ गए। समुद्री जीवों के विपरीत उनके पंख और डैने थे, जिनसे उनके पतले और सुंदर शरीर ढके हुए थे। उन्होंने अपने पंख फड़फड़ाए, गर्व और अभिमान से अपने पंखों के भव्य आवरण और अपने विशेष कार्यों और कौशलों का प्रदर्शन किया, जो उन्हें सृष्टिकर्ता द्वारा प्रदान किए गए थे। वे आजादी से उड़ गए, और कुशलता से आकाश और पृथ्वी के बीच, घास के मैदानों और जंगलों में आवाजाही करने लगे...। वे हवा के लाड़ले थे, वे सभी चीजों के दुलारे थे। वे जल्दी ही आकाश और पृथ्वी के बीच जोड़ बनने और सभी चीजों को इसका संदेश देने वाले थे...। वे गाते थे, खुशी से गोता लगाते थे, कभी खाली रही इस दुनिया में वे प्रसन्नता, हँसी और जीवंतता लाए...। खुद को मिले जीवन के लिए उन्होंने सृष्टिकर्ता की प्रशंसा करने के लिए अपने स्पष्ट, मधुर गायन और अपने दिल में बसे शब्दों का इस्तेमाल किया। उन्होंने सृष्टिकर्ता के सृजन की पूर्णता और चमत्कारिकता प्रदर्शित करने के लिए खुशी से नृत्य किया, और सृष्टिकर्ता द्वारा प्रदान किए गए विशेष जीवन के माध्यम से उसके अधिकार की गवाही देने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया ...
ये प्रचुर जीव, चाहे पानी में हों या आसमान में, सृष्टिकर्ता की आज्ञा से जीवन के विभिन्न विन्यासों में अस्तित्व में आ गए, और सृष्टिकर्ता की आज्ञा से ही वे अपनी-अपनी प्रजाति के अनुसार एक-साथ एकत्र हो गए—और यह नियम, यह व्यवस्था किसी भी प्राणी द्वारा अपरिवर्तनीय थी। उन्होंने कभी भी सृष्टिकर्ता द्वारा उनके लिए निर्धारित सीमा से आगे जाने की हिम्मत नहीं की, न ही वे इसमें सक्षम थे। सृष्टिकर्ता के आदेशानुसार वे जीने और वंशवृद्धि करने लगे, और सृष्टिकर्ता द्वारा उनके लिए निर्धारित जीवन-क्रम और व्यवस्थाओं का सख्ती से पालन करने लगे, और सजगतापुर्वक उसकी अनकही आज्ञाओं और उसके द्वारा उन्हें दिए गए स्वर्गिक आदेशों और नियमों का पालन करने लगे और आज तक करते आ रहे हैं। उन्होंने सृष्टिकर्ता के साथ अपने विशेष तरीके से बातचीत की, सृष्टिकर्ता का आशय समझा और उसकी आज्ञाओं का पालन किया। किसी ने भी कभी सृष्टिकर्ता के अधिकार का उल्लंघन नहीं किया, वह अपने विचारों में ही उन पर संप्रभुता रखता और उन्हें आज्ञा देता था; कोई वचन जारी नहीं किए गए थे, लेकिन सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार ने मौन में उन सभी चीजों को नियंत्रित किया, इसमें भाषा का कोई कार्य नहीं था और यह मानव-जाति से भिन्न था। इस विशेष तरीके से उसके अधिकार के प्रयोग ने मनुष्य को सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार एक नया ज्ञान प्राप्त करने और उसकी एक नई व्याख्या करने के लिए विवश किया। यहाँ मैं तुम्हें बता दूँ कि इस नए दिन सृष्टिकर्ता के अधिकार के प्रयोग ने एक बार फिर सृष्टिकर्ता की अद्वितीयता प्रदर्शित की।
इसके बाद, हम पवित्रशास्त्र के इस अंश के अंतिम वाक्य पर एक नजर डालते हैं : “परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।” तुम लोग क्या सोचते हो, इसका क्या मतलब है? इन वचनों के भीतर परमेश्वर की भावनाएँ निहित हैं। परमेश्वर ने स्वयं द्वारा सृजित सभी चीजों को अपने वचनों के कारण अस्तित्व में आते और डटे रहते देखा, जो धीरे-धीरे बदलने लगीं। इस समय, क्या परमेश्वर उन विभिन्न चीजों से संतुष्ट था जिन्हें उसने अपने वचनों से बनाया था, और उन विभिन्न कार्यों से संतुष्ट था जो उसने पूरे किए थे? इसका उत्तर है कि “परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।” तुम लोग यहाँ क्या देखते हो? “परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है” क्या दर्शाता है? यह किसका प्रतीक है? इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर ने जिस चीज की योजना बनाई और निर्धारित की थी, जो लक्ष्य उसने पूरे करने तय किए थे, उन्हें पूरा करने का सामर्थ्य और बुद्धि उसके पास थी। जब परमेश्वर ने हर काम पूरा कर लिया, तो क्या उसे खेद हुआ? जवाब अभी भी यही है कि “परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।” दूसरे शब्दों में, उसे न केवल कोई पछतावा महसूस नहीं हुआ, बल्कि वह संतुष्ट भी हुआ। इसका क्या मतलब है कि उसे कोई पछतावा महसूस नहीं हुआ? इसका मतलब है कि परमेश्वर की योजना पूर्ण है, उसका सामर्थ्य और बुद्धि पूर्ण है, और केवल उसके अधिकार से ही ऐसी पूर्णता प्राप्त की जा सकती है। जब मनुष्य कोई कार्य करता है, तो क्या वह, परमेश्वर की तरह, देख सकता है कि यह अच्छा है? क्या मनुष्य जो कुछ भी करता है, वह पूर्णता प्राप्त कर सकता है? क्या मनुष्य कोई चीज हमेशा-हमेशा के लिए पूरा कर सकता है? ठीक जैसे मनुष्य कहता है, “कुछ भी पूर्ण नहीं है, केवल बेहतर है,” मनुष्य जो कुछ भी करता है, वह पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता। जब परमेश्वर ने देखा कि उसने जो कुछ किया और हासिल किया वह सब अच्छा है, परमेश्वर ने जो कुछ भी बनाया वह उसके वचनों द्वारा निर्धारित किया गया था, अर्थात, जब “परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है,” तो उसने जो कुछ भी बनाया था उसने एक स्थायी रूप ग्रहण कर लिया, किस्म के अनुसार वर्गीकृत कर दिया गया, और उसे अनंत काल के लिए एक निश्चित स्थान, उद्देश्य और कार्य दे दिया गया। इसके अलावा, सभी चीजों के बीच उसकी भूमिका, और वह यात्रा जो उसे परमेश्वर के सभी चीजों के प्रबंधन के दौरान करनी चाहिए, पहले से ही परमेश्वर द्वारा निर्धारित कर दी गई थी, और वह अपरिवर्तनीय थीं। यह सृष्टिकर्ता द्वारा सभी चीजों को दी गई स्वर्गिक व्यवस्था थी।
“परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है,” ये सरल, कम समझे गए वचन, जिन्हें अक्सर अनदेखा किया जाता है, परमेश्वर द्वारा सभी प्राणियों को दी गई स्वर्गिक व्यवस्था और स्वर्गिक आदेश के वचन हैं। ये सृष्टिकर्ता के अधिकार का एक और मूर्त रूप हैं, जो ज्यादा व्यावहारिक और ज्यादा गहरा है। अपने वचनों के माध्यम से सृष्टिकर्ता न केवल वह सब प्राप्त करने में सक्षम रहा जिसे उसने प्राप्त करना निर्धारित किया था, और वह सब हासिल करने में सक्षम रहा जिसे उसने हासिल करना निर्धारित किया था, बल्कि वह अपने हाथों में वह सब-कुछ नियंत्रित कर सका जिसे उसने सृजित किया था, और उन सभी चीजों पर शासन कर सका जिन्हें उसने अपने अधिकार के तहत बनाया था, और, इसके अलावा, सब-कुछ व्यवस्थित और नियमित था। उसके वचन के द्वारा सभी चीजें बढ़ीं भी, अस्तित्व में रहीं, और नष्ट भी हो गईं और, इसके अलावा, उसके अधिकार से वे उस व्यवस्था के बीच मौजूद रहीं जिसे उसने निर्धारित किया था, और कोई भी इससे मुक्त नहीं था! यह व्यवस्था उसी क्षण शुरू हो गई, जब “परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है,” और यह परमेश्वर की प्रबंधन-योजना के लिए ठीक उस दिन तक मौजूद, जारी और कार्यरत रहेगी, जब तक इसे सृष्टिकर्ता द्वारा निरस्त न कर दिया जाए! सृष्टिकर्ता का अद्वितीय अधिकार न केवल सभी चीजें सृजित कर उन्हें अस्तित्व में आने की आज्ञा देने की उसकी क्षमता में प्रकट हुआ, बल्कि सभी चीजों पर शासन करने और उन पर संप्रभुता रखने, और सभी चीजों को जीवन और जीवन-शक्ति प्रदान करने की उसकी क्षमता में प्रकट हुआ, इसके अलावा यह उसकी इस क्षमता में प्रकट हुआ कि अपनी योजना में उसने जिन चीजों को रचा, वे अनंत काल तक के लिए उसके द्वारा बनाई गई दुनिया में एक पूर्ण आकार, पूर्ण जीवन-संरचना और एक पूर्ण भूमिका में प्रकट होकर अस्तित्व में रहें। इसी तरह वह इस रूप में भी प्रकट हुआ कि सृष्टिकर्ता के विचार किसी बंधन के अधीन नहीं थे, समय, स्थान या भूगोल द्वारा सीमित नहीं थे। सृष्टिकर्ता के अधिकार की तरह उसकी अद्वितीय पहचान अनंत काल से अनंत काल तक अपरिवर्तित रहेगी। उसका अधिकार हमेशा उसकी विशिष्ट पहचान का प्रतिरूप और प्रतीक होगा, और उसका अधिकार हमेशा उसकी पहचान के साथ-साथ मौजूद रहेगा!
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 88
परमेश्वर सभी चीजों की सृष्टि करने के लिए वचनों को प्रयोग करता है (चुने हुए अंश)
छठे दिन, सृष्टिकर्ता बोलता है और उसके दिमाग में मौजूद हर तरह का प्राणी एक के बाद एक प्रकट होता है
अलक्षित रूप से, सृष्टिकर्ता का सभी चीजों को बनाने का कार्य पाँच दिनों तक जारी रहा, जिसके तुरंत बाद सृष्टिकर्ता ने सभी चीजों के सृजन के छठे दिन का स्वागत किया। यह दिन एक और नई शुरुआत और एक और असाधारण दिन था। तो फिर, इस नए दिन की पूर्वसंध्या पर सृष्टिकर्ता की क्या योजना थी? वह कौन-से नए जीव पैदा करने वाला था, सृजित करने वाला था? सुनो, यह है सृष्टिकर्ता की वाणी ...
“फिर परमेश्वर ने कहा, ‘पृथ्वी से एक एक जाति के जीवित प्राणी, अर्थात् घरेलू पशु, और रेंगनेवाले जन्तु, और पृथ्वी के वनपशु, जाति जाति के अनुसार उत्पन्न हों,’ और वैसा ही हो गया। इस प्रकार परमेश्वर ने पृथ्वी के जाति जाति के वन-पशुओं को, और जाति जाति के घरेलू पशुओं को, और जाति जाति के भूमि पर सब रेंगनेवाले जन्तुओं को बनाया : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है” (उत्पत्ति 1:24-25)। इनमें कौन से जीवित प्राणी शामिल हैं? पवित्रशास्त्र कहता है : पशु, रेंगने वाले जंतु, और पृथ्वी के जाति-जाति के पशु। कहने का तात्पर्य यह है कि, इस दिन पृथ्वी पर न केवल सभी प्रकार के जीवित प्राणी थे, बल्कि वे सभी अपनी किस्म के अनुसार वर्गीकृत भी किए गए थे, और इसी तरह, “परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।”
पिछले पाँच दिनों की ही तरह, सृष्टिकर्ता ने उसी स्वर में बोलकर उन जीवित प्राणियों के जन्म का आदेश दिया, जिन्हें वह चाहता था, और कहा कि वे अपनी-अपनी किस्म के अनुसार पृथ्वी पर प्रकट हो जाएँ। जब सृष्टिकर्ता अपने अधिकार का प्रयोग करता है, तो उसका कोई भी वचन व्यर्थ नहीं बोला जाता, और इसलिए, छठे दिन, प्रत्येक जीवित प्राणी जिसे उसने बनाने का इरादा किया था, नियत समय पर प्रकट हो गया। जैसे ही सृष्टिकर्ता ने कहा, “पृथ्वी से एक-एक जाति के प्राणी, उत्पन्न हों,” पृथ्वी तुरंत जीवन से भर गई, और भूमि पर अचानक सभी प्रकार के जीवित प्राणियों की साँस उभरी...। घास के हरे जंगल में, मोटी-ताजी गायें अपनी पूँछ इधर-उधर सरसराती हुई एक के बाद एक प्रकट हुईं, मिमियाती भेड़ों ने खुद को झुंडों में इकट्ठा कर लिया, और हिनहिनाते घोड़े सरपट दौड़ने लगे...। पल भर में खामोश विशाल चरागाहों में जीवन का विस्फोट हो गया...। इन विभिन्न पशुओं की उपस्थिति घास के शांत मैदान पर एक सुंदर नजारा था, जो असीम जीवन-शक्ति लेकर आए। ये घास के मैदानों के साथी होंगे, घास के मैदानों के स्वामी होंगे, परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर रहेंगे; इसी तरह, वे इन भूमियों के संरक्षक और रखवाले होंगे, जो उनके स्थायी निवास-स्थान होंगे, और जो उन्हें उनकी जरूरत की हर चीज प्रदान करेंगे, जो उनके अस्तित्व के लिए शाश्वत पोषण के स्रोत होंगे ...
जिस दिन ये विभिन्न पशु अस्तित्व में आए, उसी दिन, सृष्टिकर्ता के वचन के द्वारा, एक के बाद एक बहुत सारे कीड़े भी प्रकट हुए। भले ही वे सभी प्राणियों में सबसे छोटे जीवित प्राणी थे, फिर भी उनकी जीवन-शक्ति सृष्टिकर्ता की चमत्कारी रचना थी, और वे बहुत देर से नहीं पहुँचे थे...। कुछ ने अपने छोटे-छोटे पंख फड़फड़ाए, जबकि अन्य धीरे-धीरे रेंगे; कुछ उछले-कूदे, कुछ डगमगाए; कुछ तेजी से आगे बढ़े, जबकि अन्य जल्दी से पीछे हट गए; कुछ बगल में चले गए, अन्य ऊपर-नीचे कूदने लगे...। सब अपने लिए घर ढूँढ़ने की कोशिश में व्यस्त थे : कुछ ने घास में अपना रास्ता बना लिया, कुछ जमीन में बिल बनाने लगे, कोई उड़कर जंगलों में छिपे पेड़ों पर चले गए...। आकार में छोटे होते हुए भी वे खाली पेट की पीड़ा सहने को तैयार नहीं थे, और अपना घर पाकर, वे अपना पेट भरने के लिए भोजन की तलाश में दौड़ पड़े। कुछ घास पर चढ़कर उसकी कोमल पत्तियाँ खाने लगे, कुछ ने झपटकर थोड़ी मिट्टी उठाई और उसे बहुत उत्साह और मजे से खाते हुए अपने पेट में निगल लिया (उनके लिए मिट्टी भी एक स्वादिष्ट भोजन है); कुछ जंगल में छिपे हुए थे, लेकिन वे आराम करने के लिए नहीं रुके, क्योंकि चमकदार गहरे हरे पत्तों के रस ने उन्हें एक रसीला भोजन प्रदान किया...। तृप्त होने के बाद भी, कीड़ों ने अपनी गतिविधि बंद नहीं की; कद में छोटे होते हुए भी उनमें जबरदस्त ऊर्जा और असीम उल्लास भरा था, और इसलिए सभी प्राणियों में वे सबसे सक्रिय और सबसे मेहनती हैं। उन्होंने कभी आलस नहीं किया, न कभी आराम किया। भूख शांत हो जाने पर भी उन्होंने अपने भविष्य के लिए कड़ी मेहनत की, अपने कल, अपने अस्तित्व के लिए खुद को व्यस्त रखा और दौड़-भाग करते रहे...। खुद को प्रेरित-प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने नजाकत से विभिन्न धुनों और लय के लोकगीत गुनगुनाए। उन्होंने घास, पेड़ और मिट्टी के कण-कण में खुशी भी जोड़ दी, हर दिन और हर साल को अनोखा बना दिया...। अपनी-अपनी भाषाओं में और अपने-अपने तरीकों से उन्होंने धरती के सभी जीवित प्राणियों तक जानकारी पहुँचा दी। अपने विशेष जीवन-क्रम का उपयोग करते हुए, उन्होंने उन सभी चीजों को चिह्नित कर दिया, जिन पर उन्होंने निशान छोड़े थे...। मिट्टी, घास और जंगलों के साथ उनका घनिष्ठ संबंध था, और वे मिट्टी, घास और जंगलों में जोश और जीवन-शक्ति लाए। वे सृष्टिकर्ता के उपदेश और अभिवादन सभी जीवित प्राणियों तक लेकर आए ...
सृष्टिकर्ता की निगाह उन सभी चीजों पर पड़ी, जिनका उसने सृजन किया था, और इस समय उसकी नजरें जंगलों और पहाड़ों पर आकर टिक गईं, उसका दिमाग सोच-विचार कर रहा था। जैसे ही उसने वचन बोले, घने जंगलों में, और पहाड़ों पर, एक प्रकार के जीव प्रकट हुए, जो पहले आए किसी भी प्राणी से भिन्न थे : वे परमेश्वर के मुख से बोले गए जंगली जानवर थे। उन चिर-प्रतीक्षित जानवरों ने अपना सिर हिलाया और पूँछ घुमाई, प्रत्येक का अपना अनूठा चेहरा था। कुछ के पास रोएँदार कोट थे, कुछ के पास कवच था, कुछ ने जहरीले दाँत दिखाए, कुछ ने मुस्कराहट ओढ़ी हुई थी, कुछ लंबी गर्दन वाले थे, कुछ छोटी पूँछ वाले थे, कुछ जंगली आँखों वाले थे, कुछ की दृष्टि कातर थी, कुछ घास खाने के लिए झुके हुए थे, कुछ के मुँह पर खून लगा था, कुछ दो पैरों पर उछल रहे थे, कुछ चार खुरों से चल रहे थे, कुछ पेड़ों के ऊपर बैठकर दूर तक निहार रहे थे, कुछ जंगलों में घात लगाए बैठे थे, कुछ आराम करने के लिए गुफाएँ तलाश रहे थे, कुछ मैदानों पर दौड़ और उछल-कूद रहे थे, कुछ जंगलों के बीच शिकार खोजते फिर रहे थे...; कुछ दहाड़ रहे थे, कुछ गरज रहे थे, कुछ भौंक रहे थे, कुछ चीख रहे थे...; कुछ ऊँचे सुर में गाने वाले थे, कुछ मध्यम सुर में गाने वाले थे, कुछ गला फाड़कर गाने वाले थे, कुछ स्पष्ट और मधुर सुर वाले थे...; कुछ कुरूप थे, कुछ सुंदर थे, कुछ घृणित थे, कुछ मनमोहक थे, कुछ भयानक थे, कुछ आकर्षक रूप से भोले थे...। एक-एक करके वे सभी सामने आए। देखो, वे कितने ऊँचे और पराक्रमी हैं, स्वतंत्र, एक-दूसरे के प्रति उदासीन, एक-दूसरे पर एक नजर डालने की परवाह तक नहीं करते...। उनमें से प्रत्येक सृष्टिकर्ता द्वारा दिया गया विशेष जीवन, अपना जंगलीपन और क्रूरता धारण किए हुए जंगलों में और पहाड़ों पर दिखाई दिया। सबसे तिरस्कारपूर्ण, इतने निरंकुश—आखिरकार वे पहाड़ों और जंगलों के सच्चे स्वामी थे। जिस क्षण से सृष्टिकर्ता ने उनके प्रकटन का आदेश दिया, उन्होंने जंगलों और पहाड़ों पर “दावा ठोंक दिया”, क्योंकि सृष्टिकर्ता ने पहले ही उनकी सीमाएँ तय कर दी थीं और उनके अस्तित्व का दायरा तय कर दिया था। केवल वे ही पहाड़ों और जंगलों के सच्चे स्वामी थे, और इसीलिए वे इतने जंगली, इतने तिरस्कारपूर्ण थे। उन्हें “जंगली जानवर” विशुद्ध रूप से इसलिए कहा जाता था, क्योंकि सभी प्राणियों में, वे ही थे जो वास्तव में जंगली, क्रूर और अदम्य थे। उन्हें वश में नहीं किया जा सकता था, इसलिए उन्हें पाला नहीं जा सकता था, और वे मानव-जाति के साथ सामंजस्यपूर्वक नहीं रह सकते थे या मानव-जाति के लिए श्रम नहीं कर सकते थे। चूँकि उन्हें पाला नहीं जा सकता था, और वे मानव-जाति के लिए काम नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्हें मानव-जाति से दूर जीना पड़ा, और मनुष्य उनसे संपर्क नहीं कर सकते थे। यह उनके मानव-जाति से दूर रहने और मनुष्य द्वारा उनसे संपर्क न किए जा सकने का ही नतीजा था, कि वे सृष्टिकर्ता द्वारा दी गई जिम्मेदारी पूरी करने में सक्षम थे : पहाड़ों और जंगलों की रक्षा करने की जिम्मेदारी। उनके जंगलीपन ने पहाड़ों की रक्षा की और जंगलों का बचाव किया, और यह उनके अस्तित्व और प्रसार का सबसे अच्छा संरक्षण और आश्वासन था। साथ ही, उनके जंगलीपन ने सभी चीजों के बीच संतुलन बनाए रखा और उसे सुनिश्चित किया। उनके आगमन से पहाड़ों और जंगलों को सहारा और आश्रय मिला; उनके आगमन ने शांत और खाली पड़े पहाड़ों और जंगलों में असीम जोश और जीवन-शक्ति का संचार किया। इस पल से पहाड़ और जंगल उनके स्थायी निवास-स्थान बन गए, और वे अपना घर कभी नहीं खोएँगे, क्योंकि पहाड़ और जंगल उन्हीं के लिए प्रकट हुए और अस्तित्व में थे; जंगली जानवर अपना कर्तव्य पूरा करेंगे और उनकी रक्षा की हर संभव कोशिश करेंगे। इसी तरह, जंगली जानवर भी अपने क्षेत्र पर पकड़ बनाए रखने के सृष्टिकर्ता के उपदेशों का सख्ती से पालन करेंगे, और सृष्टिकर्ता द्वारा स्थापित सभी चीजों का संतुलन कायम रखने के लिए अपनी पाशविक प्रकृति का उपयोग करते रहेंगे, और सृष्टिकर्ता का अधिकार और सामर्थ्य प्रदर्शित करेंगे!
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 89
सृष्टिकर्ता के अधिकार के तहत सभी चीजें पूर्ण हैं
परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजें, जिनमें वे भी शामिल हैं जो चल सकती हैं जैसे कि पक्षी और मछली, और वे भी जो नहीं चल सकतीं, जैसे कि पेड़ और फूल, और छठे दिन बनाए गए पशु, कीड़े और जंगली जानवर—वे सभी परमेश्वर की दृष्टि में अच्छे थे, और, इसके अलावा, परमेश्वर की दृष्टि में इन सभी चीजों ने, उसकी योजना के अनुसार, पूर्णता की पराकाष्ठा प्राप्त कर ली थी और उन स्तरों तक पहुँच गए थे, जिन्हें परमेश्वर प्राप्त करना चाहता था। कदम-दर-कदम, सृष्टिकर्ता ने अपनी योजना के अनुसार वह कार्य किया, जो वह करने का इरादा रखता था। एक के बाद एक, वे चीजें जिन्हें उसने सृजित करने का इरादा किया था, प्रकट हो गईं, और प्रत्येक का प्रकटन सृष्टिकर्ता के अधिकार का प्रतिबिंब था, उसके अधिकार का एक ठोस रूप था; इन ठोस रूपों के कारण, सभी प्राणी सृष्टिकर्ता के अनुग्रह और पोषण के लिए आभारी हुए बिना नहीं रह सके। जैसे ही परमेश्वर के चमत्कारी कर्म प्रकट हुए, यह दुनिया, अंश-अंश करके परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजों से भर गई, और अराजकता और अंधकार से स्पष्टता और उजाले में बदल गई, मृत्यु की शांति से जीवंतता और असीम जीवन-शक्ति में बदल गई। बड़े से लेकर छोटे तक, छोटे से लेकर सूक्ष्म तक, सृष्टि की सभी चीजों के बीच कोई भी ऐसा नहीं था जो सृष्टिकर्ता के अधिकार और सामर्थ्य द्वारा सृजित नहीं किया गया था, और प्रत्येक प्राणी के अस्तित्व की एक विशिष्ट और अंतर्निहित आवश्यकता और मूल्य था। उनके आकार और संरचना में भिन्नताओं के बावजूद, उन्हें सृष्टिकर्ता के अधिकार के तहत अस्तित्व में रहने के लिए सृष्टिकर्ता द्वारा बनाया जाना आवश्यक था। कभी-कभी लोग कोई बहुत ही बदसूरत कीट देखकर कहते हैं, “यह कीट बहुत भयानक है, यह हो ही नहीं सकता कि इतनी बदसूरत चीज परमेश्वर बनाए—वह ऐसी बदसूरत चीज बना ही नहीं सकता।” क्या मूर्खतापूर्ण दृष्टिकोण है! उन्हें असल में यह कहना चाहिए, “हालाँकि यह कीट बहुत बदसूरत है, लेकिन इसे परमेश्वर ने बनाया, इसलिए इसका विशिष्ट उद्देश्य अवश्य होगा।” अपने विचारों में परमेश्वर ने अपने द्वारा बनाई गई विभिन्न जीवित चीजों को प्रत्येक रूप और सभी प्रकार के कार्य और उपयोग देने का इरादा किया था, इसलिए परमेश्वर द्वारा बनाई गई कोई भी चीज दूसरे के जैसी नहीं है। अपने बाहरी रूप से लेकर अपनी आंतरिक संरचना तक, अपने रहन-सहन से लेकर अपने रहने की जगह तक—सब अलग हैं। गायों में गायों का रूप होता है, गधों में गधों का रूप होता है, हिरणों में हिरणों का रूप होता है, और हाथियों में हाथियों का रूप होता है। क्या तुम बता सकते हो कि कौन सबसे सुंदर है और कौन सबसे बदसूरत? क्या तुम बता सकते हो कि कौन-सा सबसे उपयोगी है, और किसका अस्तित्व सबसे कम आवश्यक है? कुछ लोगों को देखने में हाथी अच्छा लगता है, लेकिन कोई भी खेती करने के लिए हाथियों का इस्तेमाल नहीं करता; कुछ लोगों को शेर और बाघ अच्छे दिखते हैं, क्योंकि उनका रूप सभी चीजों में सबसे प्रभावशाली है, लेकिन क्या तुम उन्हें पालतू जानवरों के रूप में रख सकते हो? संक्षेप में, जब सृष्टि की असंख्य चीजों की बात आती है, तो मनुष्य को सृष्टिकर्ता के अधिकार का आदर करना चाहिए, अर्थात्, सृष्टिकर्ता द्वारा सभी चीजों के लिए नियत क्रम को स्वीकार करना चाहिए; यह सबसे बुद्धिमत्तापूर्ण रवैया है। केवल सृष्टिकर्ता के मूल इरादों की खोज करने और उसके प्रति आज्ञाकारिता का रवैया ही सृष्टिकर्ता के अधिकार की सच्ची स्वीकृति और निश्चितता है। जब परमेश्वर की दृष्टि में यह अच्छा है, तो मनुष्य के पास दोष निकालने का क्या कारण है?
इस प्रकार, सृष्टिकर्ता के अधिकार के तहत सभी चीजों को सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के लिए एक नया संगीत बजाना है, नए दिन के उसके कार्य के लिए एक शानदार प्रस्तावना शुरू करनी है, और इस समय सृष्टिकर्ता भी अपने प्रबंधन-कार्य में एक नया पृष्ठ खोलेगा! बसंत में नए अंकुर फूटने, गर्मियों में पकने, शरद ऋतु में फसल काटने, और सर्दियों में भंडारण करने की सृष्टिकर्ता द्वारा नियत व्यवस्था के अनुसार, सभी चीजें सृष्टिकर्ता की प्रबंधन-योजना को प्रतिध्वनित करेंगी, और वे अपने नए दिन, नई शुरुआत और नए जीवन-क्रम का स्वागत करेंगी। वे सृष्टिकर्ता के अधिकार की संप्रभुता के तहत प्रत्येक दिन का स्वागत करने के लिए अनगिनत पीढ़ियों तक जीवित रहेंगी और वंश-वृद्धि करेंगी ...
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 90
कोई भी सृजित और गैर-सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता की पहचान को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता
जब से परमेश्वर ने सभी चीजों का सृजन शुरू किया, तब से उसका सामर्थ्य व्यक्त और प्रकट होना शुरू हो गया, क्योंकि परमेश्वर ने सभी चीजें सृजित करने के लिए वचनों का इस्तेमाल किया। उसने उन्हें जिस भी तरीके से बनाया हो, उसने उन्हें जिस भी वजह से बनाया हो, परमेश्वर के वचनों के कारण सभी चीजें अस्तित्व में आ गईं, डटी और मौजूद रहीं; यह सृष्टिकर्ता का अद्वितीय अधिकार है। मानव-जाति के दुनिया में प्रकट होने से पहले के समय में सृष्टिकर्ता ने मानव-जाति के लिए सभी चीजें बनाने के लिए अपने सामर्थ्य और अधिकार का उपयोग किया, और मानव-जाति के रहने के लिए एक उपयुक्त परिवेश तैयार करने के लिए अपनी अनूठी विधियाँ नियोजित कीं। उसने जो कुछ किया, वह मानव-जाति की तैयारी में था, जो शीघ्र ही परमेश्वर की श्वास पाने वाली थी। अर्थात मानव-जाति के सृजन से पहले के समय में परमेश्वर का अधिकार मानव-जाति से भिन्न सभी प्राणियों में, आकाश, ज्योतियों, समुद्र और भूमि जैसी बड़ी चीजों में, और जानवरों और पक्षियों के साथ-साथ सभी प्रकार के कीड़ों और सूक्ष्मजीवियों में, जिनमें आँखों के लिए अदृश्य विभिन्न बैक्टीरिया शामिल हैं, दिखाया गया था। उनमें से प्रत्येक को सृष्टिकर्ता के वचनों द्वारा जीवन दिया गया, प्रत्येक ने सृष्टिकर्ता के वचनों के कारण वंश-वृद्धि की, और प्रत्येक सृष्टिकर्ता के वचनों के कारण उसकी संप्रभुता के तहत रहा। हालाँकि उन्हें सृष्टिकर्ता की साँस नहीं मिली, फिर भी उन्होंने सृष्टिकर्ता द्वारा प्रदान की गई जीवन-शक्ति को अपने विभिन्न रूपों और संरचनाओं के माध्यम से प्रदर्शित किया; हालाँकि उन्हें सृष्टिकर्ता द्वारा मानव-जाति को दी गई बोलने की क्षमता प्राप्त नहीं हुई, फिर भी उनमें से प्रत्येक ने अपने जीवन को व्यक्त करने का एक तरीका प्राप्त किया, जो उन्हें सृष्टिकर्ता द्वारा प्रदान किया गया था और जो मनुष्य की भाषा से भिन्न था। सृष्टिकर्ता का अधिकार न केवल गतिहीन प्रतीत होने वाली भौतिक चीजों को जीवन-शक्ति देता है, ताकि वे कभी गायब न हों, बल्कि वह प्रत्येक जीवित प्राणी को प्रजनन द्वारा वंश-वृद्धि करने की प्रवृत्ति भी देता है, ताकि वे कभी नष्ट न हों, जिससे कि वे सृष्टिकर्ता द्वारा उन्हें दी गई अस्तित्व में रहने की व्यवस्थाएँ और सिद्धांत पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करें। जिस तरह से सृष्टिकर्ता अपने अधिकार का प्रयोग करता है, वह किसी स्थूल या सूक्ष्म दृष्टिकोण का कठोरता से पालन नहीं करता और किसी भी रूप तक सीमित नहीं रहता; वह ब्रह्मांड के कार्यों को नियंत्रित करने और सभी चीजों के जीवन और मृत्यु पर संप्रभुता रखने में सक्षम है, और इसके अलावा, वह सभी चीजें इस तरह संचालित करने में सक्षम है कि वे उसकी सेवा करें; वह पहाड़ों, नदियों और झीलों के सभी कार्यों का प्रबंधन कर सकता है, और उनके भीतर की सभी चीजों पर शासन कर सकता है, और इससे भी बढ़कर, वह वो चीज प्रदान करने में सक्षम है जो सभी चीजों के लिए आवश्यक है। यह मानव-जाति के अलावा सभी चीजों के बीच सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार की अभिव्यक्ति है। ऐसी अभिव्यक्ति केवल जीवन भर के लिए नहीं है; यह कभी खत्म नहीं होगी, न ही रुकेगी, और इसे किसी व्यक्ति या वस्तु द्वारा बदला या क्षतिग्रस्त नहीं किया जा सकता, न ही इसे किसी व्यक्ति या वस्तु द्वारा बढ़ाया-घटाया जा सकता है—क्योंकि कोई भी सृष्टिकर्ता की पहचान को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता, और इसलिए, सृष्टिकर्ता के अधिकार को किसी भी सृजित प्राणी द्वारा प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता; यह किसी भी गैर-सृजित प्राणी द्वारा अप्राप्य है। उदाहरण के लिए परमेश्वर के दूतों और स्वर्गदूतों को लो। उनके पास परमेश्वर का सामर्थ्य नहीं है, सृष्टिकर्ता का अधिकार तो उनके पास बिलकुल भी नहीं है, और उनके पास परमेश्वर का सामर्थ्य और अधिकार न होने का कारण यह है कि उनमें सृष्टिकर्ता का सार नहीं है। गैर-सृजित प्राणी, जैसे कि परमेश्वर के दूत और स्वर्गदूत, परमेश्वर की ओर से कुछ चीजें कर सकने के बावजूद, परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। हालाँकि उनके पास कुछ ऐसा सामर्थ्य है जो मनुष्य के पास नहीं है, फिर भी उनके पास परमेश्वर का अधिकार नहीं हैं, उनके पास सभी चीजें सृजित करने, सभी चीजें नियंत्रित करने और सभी चीजों पर प्रभुता रखने का अधिकार नहीं है। इसलिए, परमेश्वर की अद्वितीयता किसी भी गैर-सृजित प्राणी द्वारा प्रतिस्थापित नहीं की जा सकती, और इसी तरह, परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ्य किसी भी गैर-सृजित प्राणी द्वारा प्रतिस्थापित नहीं किए जा सकते। क्या तुमने बाइबल में परमेश्वर के किसी दूत के बारे में पढ़ा है, जिसने सभी चीजें सृजित की हों? परमेश्वर ने अपने किसी दूत या स्वर्गदूत को सभी चीजें सृजित करने के लिए क्यों नहीं भेजा? चूँकि उनके पास परमेश्वर का अधिकार नहीं था, इसलिए उनके पास परमेश्वर के अधिकार का प्रयोग करने की क्षमता नहीं थी। सभी प्राणियों की तरह, वे सभी सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन हैं, सृष्टिकर्ता के अधिकार के अधीन हैं, और इसी तरह, सृष्टिकर्ता उनका परमेश्वर और उनका संप्रभु है। उनमें से हर एक के बीच—चाहे वे महान हों या नीच, महान सामर्थ्य के हों या अल्प सामर्थ्य के—कोई भी ऐसा नहीं है, जो सृष्टिकर्ता का अधिकार लाँघ सकता हो, और इसलिए उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है, जो सृष्टिकर्ता की पहचान को प्रतिस्थापित कर सके। उन्हें कभी परमेश्वर नहीं कहा जाएगा, और वे कभी सृष्टिकर्ता नहीं बन पाएँगे। ये अटल सत्य और तथ्य हैं!
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 91
परमेश्वर मनुष्य के साथ एक वाचा बाँधने के लिए अपने वचनों का उपयोग करता है
उत्पत्ति 9:11-13 “और मैं तुम्हारे साथ अपनी यह वाचा बाँधता हूँ कि सब प्राणी फिर जल-प्रलय से नष्ट न होंगे : और पृथ्वी का नाश करने के लिये फिर जल-प्रलय न होगा।” फिर परमेश्वर ने कहा, “जो वाचा मैं तुम्हारे साथ, और जितने जीवित प्राणी तुम्हारे संग हैं उन सब के साथ भी युग-युग की पीढ़ियों के लिये बाँधता हूँ, उसका यह चिह्न है : मैं ने बादल में अपना धनुष रखा है, वह मेरे और पृथ्वी के बीच में वाचा का चिह्न होगा।”
सृष्टिकर्ता द्वारा सभी चीजें बनाए जाने के बाद उसका अधिकार एक बार फिर इंद्रधनुष की वाचा में पुष्ट किया जाता और दिखाया जाता है
सृष्टिकर्ता का अधिकार सभी प्राणियों के बीच हमेशा दिखाया और प्रयुक्त किया जाता है, और सृष्टिकर्ता न केवल सभी चीजों की नियति पर शासन करता है, बल्कि मनुष्य पर भी शासन करता है, जो वह विशेष प्राणी है जिसे उसने अपने हाथों से सृजित किया और जिसकी एक अलग जीवन-संरचना है और जिसका जीवन के एक अलग रूप में अस्तित्व है। सभी चीजें बनाने के बाद सृष्टिकर्ता ने अपना अधिकार और सामर्थ्य व्यक्त करना बंद नहीं किया; उसके लिए वह अधिकार, जिसके द्वारा उसने सभी चीजों पर और संपूर्ण मानव-जाति की नियति पर संप्रभुता रखी, औपचारिक रूप से तभी शुरू हुआ, जब मानव-जाति ने वास्तव में उसके हाथों से जन्म लिया। उसका इरादा मानव-जाति का प्रबंधन करना और उस पर शासन करना था; उसका इरादा मानव-जाति को बचाना और उसे वास्तव में प्राप्त करना, ऐसी मानव-जाति को प्राप्त करना था जो सभी चीजों पर नियंत्रण कर सके; उसका इरादा ऐसी मानव-जाति को अपने अधिकार में रखने, उससे अपना अधिकार ज्ञात करवाकर उसका पालन करवाने का था। इसलिए परमेश्वर ने अपने वचनों का इस्तेमाल करके अपना अधिकार मनुष्यों के बीच आधिकारिक रूप से व्यक्त करना और अपने वचन साकार करने के लिए अपने अधिकार का उपयोग करना प्रारंभ किया। बेशक, इस प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर का अधिकार सभी स्थानों पर दिखाया गया; मैंने केवल कुछ विशिष्ट, जाने-माने उदाहरण चुने हैं, जिनसे तुम लोग परमेश्वर की अद्वितीयता और उसके अद्वितीय अधिकार को समझ और जान सकते हो।
उत्पत्ति 9:11-13 में दिए गए अंश और ऊपर दिए गए अंशों में परमेश्वर द्वारा दुनिया के सृजन के अभिलेख के संबंध में एक समानता है, लेकिन एक अंतर भी है। समानता क्या है? समानता यहाँ है कि परमेश्वर ने जो करने का इरादा किया, उसे करने के लिए उसने अपने वचनों का उपयोग किया, और अंतर यह है कि यहाँ उद्धृत अंश परमेश्वर की मनुष्य के साथ बातचीत दर्शाते हैं, जिसमें उसने मनुष्य के साथ एक वाचा बाँधी और मनुष्य को वह बताया जो वाचा में निहित था। मनुष्य के साथ उसके संवाद के दौरान परमेश्वर के अधिकार का प्रयोग किया गया, जिसका अर्थ है कि मानव-जाति के सृजन से पहले, परमेश्वर के वचन निर्देश और आदेश थे, जो उन प्राणियों को जारी किए गए थे जिन्हें वह सृजित करने का इरादा रखता था। लेकिन अब परमेश्वर के वचनों को सुनने वाला कोई था, इसलिए उसके वचन मनुष्य के साथ संवाद और मनुष्य के लिए उपदेश और चेतावनी दोनों थे। इसके अलावा, परमेश्वर के वचन वे आज्ञाएँ थीं, जो उसके अधिकार को धारण करती थीं और जो सभी चीजों को दी गई थीं।
इस अंश में परमेश्वर का कौन-सा कार्य दर्ज है? यह अंश उस वाचा को दर्ज करता है, जिसे परमेश्वर ने मनुष्य के साथ दुनिया को जलप्रलय से नष्ट करने के बाद बाँधा था; यह मनुष्य को बताती है कि परमेश्वर इस तरह का विनाश फिर से दुनिया पर नहीं ढाएगा, और इस उद्देश्य से परमेश्वर ने एक चिह्न बनाया। वह चिह्न क्या था? पवित्रशास्त्र में यह कहा गया है कि “मैं ने बादल में अपना धनुष रखा है, वह मेरे और पृथ्वी के बीच में वाचा का चिह्न होगा।” ये सृष्टिकर्ता द्वारा मानव-जाति से बोले गए मूल वचन हैं। जैसे ही उसने ये वचन कहे, मनुष्य की आँखों के सामने एक इंद्रधनुष प्रकट हो गया, और वह आज तक वहीं बना हुआ है। वह इंद्रधनुष हर किसी ने देखा है, और जब तुम इसे देखते हो, तो क्या तुम जानते हो कि यह कैसा दिखता है? विज्ञान इसे साबित करने या इसके स्रोत का पता लगाने या इसका अता-पता बताने में असमर्थ है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इंद्रधनुष सृष्टिकर्ता और मनुष्य के बीच बाँधी गई वाचा का चिह्न है; इसके लिए किसी वैज्ञानिक आधार की आवश्यकता नहीं है, इसे मनुष्य ने नहीं बनाया, न ही मनुष्य इसे बदलने में सक्षम है। यह सृष्टिकर्ता द्वारा अपने वचन बोलने के बाद उसके अधिकार की निरंतरता है। सृष्टिकर्ता ने मनुष्य के साथ अपनी वाचा और अपने वादे का पालन करने के लिए अपने विशेष तरीके का उपयोग किया, और इसलिए उसके द्वारा बाँधी गई उस वाचा के चिह्न के रूप में इंद्रधनुष का उपयोग एक स्वर्गिक आदेश और व्यवस्था है, जो हमेशा अपरिवर्तित रहेगी, चाहे सृष्टिकर्ता के संबंध में हो या सृजित मानव-जाति के संबंध में। कहना होगा कि यह अपरिवर्तनीय व्यवस्था सभी चीजों के सृजन के बाद सृष्टिकर्ता के अधिकार की एक और सच्ची अभिव्यक्ति है, और यह भी कहना होगा कि सृष्टिकर्ता का अधिकार और सामर्थ्य असीमित हैं; उसके द्वारा एक चिह्न के रूप में इंद्रधनुष का उपयोग सृष्टिकर्ता के अधिकार की निरंतरता और उसका विस्तार है। यह परमेश्वर द्वारा अपने वचनों का उपयोग करके किया गया एक और कार्य था, और यह उस वाचा का चिह्न था जिसे परमेश्वर ने वचनों का उपयोग करके मनुष्य के साथ बाँधा था। उसने मनुष्य को उस बारे में बताया, जिसे करने का उसने संकल्प किया था, और यह भी कि उसे किस तरीके से पूरा और हासिल किया जाएगा। इस प्रकार परमेश्वर के मुख से निकले वचनों के अनुसार मामला पूरा हुआ। केवल परमेश्वर के पास ही ऐसा सामर्थ्य है, और आज, उसके ये वचन कहे जाने के हजारों वर्ष बाद भी, मनुष्य परमेश्वर के मुख से उच्चरित इंद्रधनुष देख सकता है। परमेश्वर द्वारा कहे गए उन वचनों के कारण यह चीज आज तक अचल और अपरिवर्तित बनी हुई है। कोई इस इंद्रधनुष को हटा नहीं सकता, कोई इसकी व्यवस्थाएँ नहीं बदल सकता, और यह केवल परमेश्वर के वचनों के कारण मौजूद है। यही परमेश्वर का अधिकार है। “परमेश्वर अपने वचन का पक्का है, और उसका वचन पूरा होगा, और जो वह पूरा करता है वह हमेशा के लिए रहता है।” ये वचन यहाँ स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं, और यह परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य का एक स्पष्ट चिह्न और विशेषता है। ऐसा चिह्न या विशेषता किसी भी सृजित प्राणी में मौजूद नहीं है या उसमें नजर नहीं आती और न ही किसी गैर-सृजित प्राणी में देखी जाती है। यह केवल अद्वितीय परमेश्वर में है, और केवल सृष्टिकर्ता में मौजूद पहचान और सार को प्राणियों की पहचान और सार से अलग करता है। साथ ही, यह एक चिह्न और विशेषता भी है जिसे स्वयं परमेश्वर के अलावा किसी भी सृजित या गैर-सृजित प्राणी द्वारा कभी लाँघा नहीं जा सकता।
परमेश्वर द्वारा मनुष्य के साथ अपनी वाचा बाँधना एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य था, ऐसा कार्य जिसका उपयोग वह मनुष्य को एक तथ्य संप्रेषित करने और उसे अपनी इच्छा बताने के लिए करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने मनुष्य के साथ एक वाचा बाँधने के लिए एक विशेष चिह्न का उपयोग करते हुए एक अनोखी विधि इस्तेमाल की, एक चिह्न जो उस वाचा का वादा था जिसे उसने मनुष्य के साथ बाँधा था। तो क्या यह वाचा बाँधना एक महान घटना थी? यह कितनी महान थी? इस वाचा की खास बात यह है : यह दो आदमियों, दो समूहों या दो देशों के बीच बाँधी गई वाचा नहीं है, बल्कि सृष्टिकर्ता और पूरी मानव-जाति के बीच बाँधी गई वाचा है, और यह उस दिन तक वैध रहेगी, जब तक कि सृष्टिकर्ता सभी चीजें समाप्त नहीं कर देता। इस वाचा को बाँधने वाला सृष्टिकर्ता है, और इसे कायम रखने वाला भी सृष्टिकर्ता ही है। संक्षेप में, मानव-जाति के साथ बाँधी गई इंद्रधनुष रूपी वाचा संपूर्ण रूप से सृष्टिकर्ता और मानव-जाति के बीच हुए संवाद के अनुसार पूरी और हासिल की गई थी, जो आज तक बरकरार है। सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पित होने, उसकी आज्ञा मानने, उस पर विश्वास करने, उसे सराहने, उसकी गवाही देने और उसकी स्तुति करने के अलावा प्राणी और क्या कर सकते हैं? क्योंकि अद्वितीय परमेश्वर के अलावा किसी और में ऐसी वाचा बाँधने का सामर्थ्य नहीं है। इंद्रधनुष का बार-बार प्रकट होना मानव-जाति के लिए एक घोषणा है और वह उसका ध्यान सृष्टिकर्ता और मानव-जाति के बीच की वाचा की ओर आकर्षित करता है। सृष्टिकर्ता और मानव-जाति के बीच की वाचा के निरंतर प्रकट होने से जो कुछ मानव-जाति को प्रदर्शित किया जाता है, वह स्वयं इंद्रधनुष या वाचा नहीं, बल्कि सृष्टिकर्ता का अपरिवर्तनीय अधिकार है। इंद्रधनुष का बार-बार प्रकट होना, छिपे हुए स्थानों में सृष्टिकर्ता के जबरदस्त और चमत्कारपूर्ण कर्म प्रदर्शित करता है, और साथ ही, यह सृष्टिकर्ता के अधिकार का एक महत्वपूर्ण प्रतिबिंब है जो कभी मिटेगा नहीं, और न कभी बदलेगा। क्या यह सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार के एक दूसरे पहलू का प्रदर्शन नहीं है?
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 92
परमेश्वर के आशीष
उत्पत्ति 17:4-6 देख, मेरी वाचा तेरे साथ बन्धी रहेगी, इसलिये तू जातियों के समूह का मूलपिता हो जाएगा। इसलिये अब से तेरा नाम अब्राम न रहेगा, परन्तु तेरा नाम अब्राहम होगा; क्योंकि मैं ने तुझे जातियों के समूह का मूलपिता ठहरा दिया है। मैं तुझे अत्यन्त फलवन्त करूँगा, और तुझ को जाति जाति का मूल बना दूँगा, और तेरे वंश में राजा उत्पन्न होंगे।
उत्पत्ति 18:18-19 अब्राहम से तो निश्चय एक बड़ी और सामर्थी जाति उपजेगी, और पृथ्वी की सारी जातियाँ उसके द्वारा आशीष पाएँगी। क्योंकि मैं जानता हूँ कि वह अपने पुत्रों और परिवार को, जो उसके पीछे रह जाएँगे, आज्ञा देगा कि वे यहोवा के मार्ग में अटल बने रहें, और धर्म और न्याय करते रहें; ताकि जो कुछ यहोवा ने अब्राहम के विषय में कहा है उसे पूरा करे।
उत्पत्ति 22:16-18 यहोवा की यह वाणी है, कि मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ कि तू ने जो यह काम किया है कि अपने पुत्र, वरन् अपने एकलौते पुत्र को भी नहीं रख छोड़ा; इस कारण मैं निश्चय तुझे आशीष दूँगा; और निश्चय तेरे वंश को आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान अनगिनित करूँगा, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा; और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगी : क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।
अय्यूब 42:12 यहोवा ने अय्यूब के बाद के दिनों में उसके पहले के दिनों से अधिक आशीष दी; और उसके चौदह हज़ार भेड़ बकरियाँ, छः हज़ार ऊँट, हज़ार जोड़ी बैल, और हज़ार गदहियाँ हो गईं।
सृष्टिकर्ता के कथनों का अद्वितीय तरीका और विशेषताएँ सृष्टिकर्ता की अद्वितीय पहचान और उसके अधिकार की प्रतीक हैं (चुने हुए अंश)
बहुत-से लोग परमेश्वर के आशीष खोजना और पाना चाहते हैं, लेकिन हर कोई ये आशीष प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि परमेश्वर के अपने सिद्धांत हैं, और वह मनुष्य को अपने तरीके से आशीष देता है। परमेश्वर मनुष्य से जो वादे करता है, और वह जितना अनुग्रह मनुष्य को देता है, वह मनुष्य के विचारों और कार्यों के आधार पर आवंटित किया जाता है। तो, परमेश्वर के आशीषों से क्या दिखता है? लोग उनके भीतर क्या देख सकते हैं? इस समय, हम इस बात की चर्चा अलग रखते हैं कि परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को आशीष देता है, और मनुष्य को आशीष देने के परमेश्वर के क्या सिद्धांत हैं। इसके बजाय आओ, हम परमेश्वर के अधिकार को जानने के उद्देश्य से, परमेश्वर के अधिकार को जानने के दृष्टिकोण से, परमेश्वर द्वारा मनुष्य को आशीष दिए जाने को देखते हैं।
पवित्रशास्त्र के उपर्युक्त चारों अंश परमेश्वर के मनुष्य को आशीष देने के अभिलेख हैं। वे अब्राहम और अय्यूब जैसे परमेश्वर के आशीष प्राप्त करने वालों का विस्तृत विवरण प्रदान करते हैं, साथ ही उन कारणों के बारे में भी बताते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें आशीष क्यों दिए, और इस बारे में भी कि इन आशीषों में क्या शामिल था। परमेश्वर के कथनों का लहजा और तरीका, और वह परिप्रेक्ष्य और स्थिति जिससे वह बोला, लोगों को यह समझने देता है कि आशीष देने वाले और आशीष पाने वाले की पहचान, हैसियत और सार स्पष्ट रूप से अलग हैं। इन कथनों का लहजा और ढंग, और जिस स्थिति से वे बोले गए थे, वे अद्वितीय रूप से परमेश्वर के हैं, जिसकी पहचान सृष्टिकर्ता की है। उसके पास अधिकार और शक्ति है, साथ ही सृष्टिकर्ता का सम्मान और प्रताप भी है, जो किसी व्यक्ति द्वारा संदेह किया जाना बरदाश्त नहीं करता।
आओ पहले हम उत्पत्ति 17:4-6 देखें : “देख, मेरी वाचा तेरे साथ बन्धी रहेगी, इसलिये तू जातियों के समूह का मूलपिता हो जाएगा। इसलिये अब से तेरा नाम अब्राम न रहेगा, परन्तु तेरा नाम अब्राहम होगा; क्योंकि मैं ने तुझे जातियों के समूह का मूलपिता ठहरा दिया है। मैं तुझे अत्यन्त फलवन्त करूँगा, और तुझ को जाति जाति का मूल बना दूँगा, और तेरे वंश में राजा उत्पन्न होंगे।” ये वचन वह वाचा थे, जिसे परमेश्वर ने अब्राहम के साथ बाँधा था, साथ ही यह अब्राहम को परमेश्वर का आशीष भी था : परमेश्वर अब्राहम को जातियों के समूह का मूलपिता बनाएगा, उसे अत्यंत फलवंत करेगा, और उसे जाति-जाति का मूल बनाएगा, और उसके वंश में राजा उत्पन्न होंगे। क्या तुम इन वचनों में परमेश्वर का अधिकार देखते हो? और तुम ऐसे अधिकार को कैसे देखते हो? तुम परमेश्वर के अधिकार के सार का कौन-सा पहलू देखते हो? इन वचनों को ध्यान से पढ़ने से, यह पता लगाना कठिन नहीं है कि परमेश्वर का अधिकार और पहचान परमेश्वर के वचनों में स्पष्ट रूप से प्रकट हुई है। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर कहता है “मेरी वाचा तेरे साथ बन्धी रहेगी, इसलिये तू ... हो जाएगा। ... मैं ने तुझे ठहरा दिया ... मैं तुझे बनाऊँगा...,” तो “तू हो जाएगा” और “मैं बनाऊँगा” जैसे वाक्यांश, जिनके शब्दों में परमेश्वर की पहचान और अधिकार निहित है, एक दृष्टि से सृष्टिकर्ता की विश्वसनीयता का संकेत हैं; तो दूसरी दृष्टि से, वे परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किए गए विशेष वचन हैं, जिनमें सृष्टिकर्ता की पहचान है—साथ ही वे परंपरागत शब्दावली का हिस्सा हैं। अगर कोई कहता है कि वह आशा करता है कि दूसरा व्यक्ति अत्यंत फलवंत हो, उसे जाति-जाति का मूल बनाया जाए, और उसके वंश में राजा उत्पन्न हों, तो यह निस्संदेह एक तरह की इच्छा है, कोई वादा या आशीष नहीं। इसलिए, लोग यह कहने की हिम्मत नहीं करते कि “मैं तुम्हें फलाँ-फलाँ बनाऊँगा, तुम फलाँ-फलाँ होगे” क्योंकि वे जानते हैं कि उनके पास ऐसा सामर्थ्य नहीं है; यह उन पर निर्भर नहीं है, और अगर वे ऐसी बातें कहते भी हैं, तो उनके शब्द उनकी इच्छा और महत्वाकांक्षा से प्रेरित कोरी बकवास होंगे। अगर किसी को लगता है कि वह अपनी इच्छा पूरी नहीं कर सकता, तो क्या वह इतने भव्य स्वर में बोलने की हिम्मत करता है? हर कोई अपने वंशजों के लिए शुभ कामना करता है, और आशा करता है कि वे उत्कृष्टता प्राप्त करें और बड़ी सफलता का आनंद लें। “उनमें से किसी का सम्राट बनना कितना बड़ा सौभाग्य होगा! अगर कोई राज्यपाल होता, तो वह भी अच्छा होता—बस वे कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति हों!” ये सभी लोगों की इच्छाएँ हैं, लेकिन लोग केवल अपने वंशजों के लिए आशीषों की कामना ही कर सकते हैं, लेकिन अपने किसी भी वादे को पूरा या साकार नहीं कर सकते। अपने दिल में हर कोई स्पष्ट रूप से जानता है कि उसके पास ऐसी चीजें हासिल करने का सामर्थ्य नहीं है, क्योंकि उसके बारे में हर चीज उसके नियंत्रण से बाहर है, इसलिए वे दूसरों के भाग्य को नियंत्रित कैसे कर सकते हैं? परमेश्वर इस तरह के वचन इसलिए कह सकता है, क्योंकि परमेश्वर के पास ऐसा अधिकार है, और वह मनुष्य से किए गए सभी वादे पूरे और साकार करने और मनुष्य को दिए गए सभी आशीष साकार करने में सक्षम है। मनुष्य को परमेश्वर ने सृजित किया था, और परमेश्वर के लिए किसी मनुष्य को अत्यंत फलवंत बनाना बच्चों का खेल होगा; किसी के वंशजों को समृद्ध बनाने के लिए सिर्फ उसके एक वचन की आवश्यकता होगी। उसे खुद कभी ऐसी चीज के लिए पसीना नहीं बहाना पड़ेगा, या अपने दिमाग को तकलीफ नहीं देनी पड़ेगी, या इसके लिए परेशान नहीं होना पड़ेगा; यही है परमेश्वर का सामर्थ्य, यही है परमेश्वर का अधिकार।
उत्पत्ति 18:18 में “अब्राहम से तो निश्चय एक बड़ी और सामर्थी जाति उपजेगी, और पृथ्वी की सारी जातियाँ उसके द्वारा आशीष पाएँगी” पढ़ने के बाद क्या तुम लोग परमेश्वर का अधिकार महसूस कर सकते हो? क्या तुम सृष्टिकर्ता की असाधारणता अनुभव कर सकते हो? क्या तुम सृष्टिकर्ता की सर्वोच्चता अनुभव कर सकते हो? परमेश्वर के वचन पक्के हैं। परमेश्वर ऐसे वचन सफलता में विश्वास होने के कारण या उसे दर्शाने के लिए नहीं कहता; बल्कि वे परमेश्वर के कथनों के अधिकार के प्रमाण हैं, और एक आज्ञा हैं जो परमेश्वर के कथन पूरे करती है। यहाँ दो अभिव्यक्तियाँ हैं, जिन पर तुम लोगों को ध्यान देना चाहिए। जब परमेश्वर कहता है, “अब्राहम से तो निश्चय एक बड़ी और सामर्थी जाति उपजेगी, और पृथ्वी की सारी जातियाँ उसके द्वारा आशीष पाएँगी,” तो क्या इन वचनों में अस्पष्टता का कोई तत्त्व है? क्या चिंता का कोई तत्त्व है? क्या डर का कोई तत्त्व है? परमेश्वर के कथनों में “निश्चय उपजेगी” और “आशीष पाएँगी” शब्दों के कारण ये तत्त्व, जो मनुष्य में विशेष रूप से होते हैं और अक्सर उसमें प्रदर्शित होते हैं, इनका सृष्टिकर्ता से कभी कोई संबंध नहीं रहा है। दूसरों के लिए शुभ कामना करते हुए कोई भी ऐसे शब्दों का उपयोग करने की हिम्मत नहीं करेगा, कोई भी दूसरे को ऐसी निश्चितता के साथ आशीष देने की हिम्मत नहीं करेगा कि उससे एक बड़ी और सामर्थी जाति उपजेगी, या यह वादा नहीं करेगा कि पृथ्वी की सारी जातियाँ उसके द्वारा आशीष पाएँगी। परमेश्वर के वचन जितने ज्यादा निश्चित होते हैं, उतना ही ज्यादा वे कुछ साबित करते हैं—और वह कुछ क्या है? वे साबित करते हैं कि परमेश्वर के पास ऐसा अधिकार है कि उसका अधिकार ये चीजें पूरी कर सकता है, और कि उनका पूरा होना अपरिहार्य है। परमेश्वर ने अब्राहम को जो आशीष दिए थे, उन सबके बारे में वह अपने हृदय में, बिना किसी झिझक के निश्चित था। इसके अलावा, यह उसके वचनों के अनुसार समग्र रूप से पूरा किया जाएगा, और कोई भी ताकत इसके पूरा होने को बदलने, बाधित करने, बिगाड़ने या अवरुद्ध करने में सक्षम नहीं होगी। चाहे और कुछ भी हो जाए, कुछ भी परमेश्वर के वचनों के पूरा और साकार होने को निरस्त या प्रभावित नहीं कर सकता। यह सृष्टिकर्ता के मुख से निकले वचनों का ही सामर्थ्य और सृष्टिकर्ता का अधिकार है, जो मनुष्य का इनकार सहन नहीं करता! इन वचनों को पढ़ने के बाद, क्या तुम्हें अभी भी संदेह है? ये वचन परमेश्वर के मुख से निकले थे, और परमेश्वर के वचनों में सामर्थ्य, प्रताप और अधिकार है। ऐसी शक्ति और अधिकार, और तथ्य के पूरा होने की अनिवार्यता, किसी सृजित या गैर-सृजित प्राणी द्वारा अप्राप्य है, और कोई सृजित या गैर-सृजित प्राणी इससे आगे नहीं निकल सकता। केवल सृष्टिकर्ता ही मानव-जाति के साथ ऐसे लहजे और स्वर में बात कर सकता है, और तथ्यों ने यह साबित कर दिया है कि उसके वादे खोखले वचन या बेकार की डींग नहीं होते, बल्कि अद्वितीय अधिकार की अभिव्यक्ति होते हैं, जिससे श्रेष्ठ कोई भी व्यक्ति, घटना या चीज नहीं हो सकती।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 93
परमेश्वर के आशीष
उत्पत्ति 17:4-6 देख, मेरी वाचा तेरे साथ बन्धी रहेगी, इसलिये तू जातियों के समूह का मूलपिता हो जाएगा। इसलिये अब से तेरा नाम अब्राम न रहेगा, परन्तु तेरा नाम अब्राहम होगा; क्योंकि मैं ने तुझे जातियों के समूह का मूलपिता ठहरा दिया है। मैं तुझे अत्यन्त फलवन्त करूँगा, और तुझ को जाति जाति का मूल बना दूँगा, और तेरे वंश में राजा उत्पन्न होंगे।
उत्पत्ति 18:18-19 अब्राहम से तो निश्चय एक बड़ी और सामर्थी जाति उपजेगी, और पृथ्वी की सारी जातियाँ उसके द्वारा आशीष पाएँगी। क्योंकि मैं जानता हूँ कि वह अपने पुत्रों और परिवार को, जो उसके पीछे रह जाएँगे, आज्ञा देगा कि वे यहोवा के मार्ग में अटल बने रहें, और धर्म और न्याय करते रहें; ताकि जो कुछ यहोवा ने अब्राहम के विषय में कहा है उसे पूरा करे।
उत्पत्ति 22:16-18 यहोवा की यह वाणी है, कि मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ कि तू ने जो यह काम किया है कि अपने पुत्र, वरन् अपने एकलौते पुत्र को भी नहीं रख छोड़ा; इस कारण मैं निश्चय तुझे आशीष दूँगा; और निश्चय तेरे वंश को आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान अनगिनित करूँगा, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा; और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगी : क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।
अय्यूब 42:12 यहोवा ने अय्यूब के बाद के दिनों में उसके पहले के दिनों से अधिक आशीष दी; और उसके चौदह हज़ार भेड़ बकरियाँ, छः हज़ार ऊँट, हज़ार जोड़ी बैल, और हज़ार गदहियाँ हो गईं।
सृष्टिकर्ता के कथनों का अद्वितीय तरीका और विशेषताएँ सृष्टिकर्ता की अद्वितीय पहचान और उसके अधिकार की प्रतीक हैं (चुना हुआ अंश)
परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों और मनुष्य द्वारा बोले गए वचनों में क्या अंतर है? जब तुम परमेश्वर द्वारा बोले गए इन वचनों को पढ़ते हो, तो तुम परमेश्वर के वचनों की शक्ति और परमेश्वर के अधिकार को महसूस करते हो। जब तुम लोगों को ऐसे वचन कहते सुनते हो, तो तुम्हें कैसा लगता है? क्या तुम्हें नहीं लगता कि वे बेहद अहंकारी हैं और शेखी बघारते हैं, ऐसे लोग हैं जो दिखावा कर रहे हैं? क्योंकि उनके पास यह सामर्थ्य नहीं है, उनके पास ऐसा अधिकार नहीं है, इसलिए वे ऐसी चीजें हासिल करने में पूरी तरह असमर्थ हैं। उनका अपने वादों को लेकर इतना आश्वस्त होना केवल उनकी टिप्पणियों की लापरवाही दर्शाता है। अगर कोई ऐसे वचन कहता है, तो वह निस्संदेह अहंकारी और अति-आत्मविश्वासी होगा, और खुद को प्रधान दूत के स्वभाव के एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में प्रकट करेगा। ये वचन परमेश्वर के मुख से निकले थे; क्या तुम यहाँ अहंकार का कोई तत्त्व महसूस करते हो? क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन केवल एक मजाक हैं? परमेश्वर के वचन अधिकार हैं, परमेश्वर के वचन तथ्य हैं, और उसके मुँह से वचन निकलने से पहले, यानी जब वह कुछ करने का फैसला कर रहा होता है, तो वह चीज पहले ही पूरी हो चुकी होती है। कहा जा सकता है कि जो कुछ भी परमेश्वर ने अब्राहम से कहा, वह परमेश्वर द्वारा अब्राहम के साथ बाँधी गई एक वाचा थी, परमेश्वर द्वारा अब्राहम से किया गया एक वादा था। यह वादा एक स्थापित तथ्य था, साथ ही एक पूरा किया गया तथ्य भी था, और ये तथ्य परमेश्वर की योजना के अनुसार परमेश्वर के विचारों में धीरे-धीरे पूरे हुए। इसलिए, परमेश्वर द्वारा ऐसे वचन कहे जाने का यह अर्थ नहीं है कि उसका स्वभाव अहंकारी है, क्योंकि परमेश्वर ऐसी चीजें हासिल करने में सक्षम है। उसके पास यह सामर्थ्य और अधिकार है, और वह वे कार्य करने में पूरी तरह से सक्षम है, और उनका पूरा होना पूरी तरह से उसकी क्षमता के दायरे के भीतर है। जब इस तरह के वचन परमेश्वर के मुख से बोले जाते हैं, तो वे परमेश्वर के सच्चे स्वभाव का प्रकाशन और अभिव्यक्ति होते हैं, परमेश्वर के सार और अधिकार का एक पूर्ण प्रकाशन और अभिव्यक्ति, और सृष्टिकर्ता की पहचान के प्रमाण के रूप में इससे ज्यादा सही और उपयुक्त कुछ नहीं होता। इस तरह के कथनों का ढंग, लहजा और शब्द सटीक रूप से सृष्टिकर्ता की पहचान की निशानी हैं, और पूर्ण रूप से परमेश्वर की पहचान की अभिव्यक्ति के अनुरूप हैं; उनमें न तो ढोंग है, न अशुद्धता; वे पूरी तरह से और सरासर सृष्टिकर्ता के सार और अधिकार का पूर्ण प्रदर्शन हैं। जहाँ तक प्राणियों का संबंध है, उनके पास न तो यह अधिकार है, न ही यह सार, उनके पास परमेश्वर द्वारा दिया गया सामर्थ्य तो बिलकुल भी नहीं है। अगर मनुष्य इस तरह का व्यवहार प्रकट करता है, तो यह निश्चित रूप से उसके भ्रष्ट स्वभाव का विस्फोट होगा, और इसके मूल में मनुष्य के अहंकार और जंगली महत्वाकांक्षा का हस्तक्षेपकारी प्रभाव होगा, और वह किसी और के नहीं बल्कि उस शैतान के दुर्भावनापूर्ण इरादों का खुलासा होगा, जो लोगों को धोखा देना और उन्हें परमेश्वर को धोखा देने के लिए फुसलाना चाहता है। ऐसी भाषा से जो प्रकट होता है, उसे परमेश्वर कैसे देखता है? परमेश्वर कहेगा कि तुम उसका स्थान हड़पना चाहते हो और तुम उसका रूप धरना और उसकी जगह लेना चाहते हो। जब तुम परमेश्वर के कथनों के लहजे की नकल करते हो, तो तुम्हारा इरादा लोगों के दिलों में परमेश्वर का स्थान लेने का होता है, उस मानव-जाति को हड़पने का होता है जो जायज तौर पर परमेश्वर की है। यह शुद्ध और स्पष्ट रूप से शैतान है; ये प्रधान दूत के वंशजों के कार्य हैं, जो स्वर्ग के लिए असहनीय हैं! क्या तुम लोगों में से कोई है, जिसने लोगों को गुमराह करने और धोखा देने के इरादे से कुछ शब्द बोलकर एक तरीके से परमेश्वर की नकल की है और उन्हें यह महसूस करवाया है कि इस व्यक्ति के वचनों और कार्यों में परमेश्वर का अधिकार और शक्ति है, इस व्यक्ति का सार और पहचान अद्वितीय है, यहाँ तक कि इस व्यक्ति के वचनों का स्वर परमेश्वर के समान है? क्या तुम लोगों ने कभी ऐसा कुछ किया है? क्या तुमने कभी अपनी बोलचाल में ऐसे हाव-भावों के साथ परमेश्वर के स्वर की नकल की है, जो कथित रूप से परमेश्वर के स्वभाव को दर्शाते हैं और जिन्हें तुम पराक्रम और अधिकार मानते हो? क्या तुम लोगों में से ज्यादातर अक्सर इस तरह से कार्य करते या कार्य करने की योजना बनाते हैं? अब, जबकि तुम लोग वास्तव में सृष्टिकर्ता के अधिकार को देखते, समझते और जानते हो, और याद करते हो कि तुम लोग क्या किया करते थे, और अपने बारे में क्या प्रकट किया करते थे, तो क्या तुम्हें खुद से नफरत होती है? क्या तुम लोग अपनी नीचता और निर्लज्जता पहचानते हो? ऐसे लोगों के स्वभाव और सार का विश्लेषण करने के बाद, क्या यह कहा जा सकता है कि वे नरक की शापित संतान हैं? क्या यह कहा जा सकता है कि ऐसा करने वाला हर व्यक्ति अपना अपमान करवा रहा है? क्या तुम लोग इसकी प्रकृति की गंभीरता समझते हो? आखिर यह कितना गंभीर है? इस तरह से कार्य करने वाले लोगों का इरादा परमेश्वर की नकल करना होता है। वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, लोगों से परमेश्वर के रूप में अपनी आराधना करवाना चाहते हैं। वे लोगों के दिलों से परमेश्वर का स्थान मिटाना चाहते हैं, और उस परमेश्वर से छुटकारा पाना चाहते हैं जो मनुष्यों के बीच कार्य करता है, और वे ऐसा लोगों को नियंत्रित करने, उन्हें निगलने और उन पर अधिकार करने का उद्देश्य हासिल करने के लिए करते हैं। हर किसी के अवचेतन में इस तरह की इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ होती हैं, और हर कोई इस तरह के भ्रष्ट शैतानी सार में जीता है, ऐसी शैतानी प्रकृति में, जिसमें वे परमेश्वर के साथ दुश्मनी रखते हैं, परमेश्वर को धोखा देते हैं, और परमेश्वर बनना चाहते हैं। परमेश्वर के अधिकार के विषय पर मेरी संगति के बाद, क्या तुम लोग अभी भी परमेश्वर का रूप धरने या उसकी नकल करने की इच्छा या आकांक्षा रखते हो? क्या तुम अभी भी परमेश्वर बनने की इच्छा रखते हो? क्या तुम अभी भी परमेश्वर बनना चाहते हो? मनुष्य द्वारा परमेश्वर के अधिकार की नकल नहीं की जा सकती, और मनुष्य परमेश्वर की पहचान और हैसियत का रूप नहीं धर सकता। भले ही तुम परमेश्वर के स्वर की नकल करने में सक्षम हो, लेकिन तुम परमेश्वर के सार की नकल नहीं कर सकते। भले ही तुम परमेश्वर के स्थान पर खड़े होने और परमेश्वर का रूप धरने में सक्षम हो, लेकिन तुम कभी वह करने में सक्षम नहीं होगे जो करने का परमेश्वर इरादा रखता है, और कभी भी सभी चीजों पर शासन और नियंत्रण करने में सक्षम नहीं होगे। परमेश्वर की नजर में तुम हमेशा एक छोटे-से प्राणी रहोगे, और तुम्हारे कौशल और क्षमता कितनी भी महान हों, चाहे तुममें कितने भी गुण हों, तुम संपूर्ण रूप से सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन हो। भले ही तुम कुछ ढिठाई भरे वचन कहने में सक्षम हो, लेकिन यह न तो यह दिखा सकता है कि तुममें सृष्टिकर्ता का सार है, और न ही यह दर्शाता है कि तुम्हारे पास सृष्टिकर्ता का अधिकार है। परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ्य स्वयं परमेश्वर के सार हैं। वे बाहर से सीखे या जोड़े नहीं गए, बल्कि स्वयं परमेश्वर के निहित सार हैं। और इसलिए सृष्टिकर्ता और प्राणियों के बीच का संबंध कभी नहीं बदला जा सकता। एक प्राणी के रूप में, मनुष्य को अपनी स्थिति बनाए रखनी चाहिए, और कर्तव्यनिष्ठा से व्यवहार करना चाहिए। सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें जो सौंपा गया है, उसकी कर्तव्यपरायणता से रक्षा करो। अनुचित कार्य मत करो, न ही ऐसे कार्य करो जो तुम्हारी क्षमता के दायरे से बाहर हों या जो परमेश्वर के लिए घृणित हों। महान, अतिमानव या दूसरों से ऊँचा बनने की कोशिश मत करो, न ही परमेश्वर बनने की कोशिश करो। लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान या अतिमानव बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना तो और भी ज्यादा शर्मनाक है; यह घृणित और निंदनीय है। जो प्रशंसनीय है, और जो प्राणियों को किसी भी चीज से ज्यादा करना चाहिए, वह है एक सच्चा प्राणी बनना; यही एकमात्र लक्ष्य है जिसका सभी लोगों को अनुसरण करना चाहिए।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 94
सृष्टिकर्ता का अधिकार समय, स्थान या भूगोल द्वारा सीमित नहीं है, और सृष्टिकर्ता का अधिकार गणना से परे है (चुने हुए अंश)
आओ, हम उत्पत्ति 22:17-18 देखें। यह यहोवा परमेश्वर द्वारा बोला गया एक और अंश है, जिसमें उसने अब्राहम से कहा, “इस कारण मैं निश्चय तुझे आशीष दूँगा; और निश्चय तेरे वंश को आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान अनगिनित करूँगा, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा; और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगी : क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।” यहोवा परमेश्वर ने अब्राहम को कई बार आशीष दिया कि उसकी संतानों की संख्या बढ़ेगी—लेकिन वह किस हद तक बढ़ेगी? जिस हद तक पवित्रशास्त्र में कहा गया है : “आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान।” कहने का तात्पर्य यह है कि परमेश्वर चाहता था कि अब्राहम को आकाश के तारों के समान असंख्य और समुद्र-तट की बालू के कणों के समान प्रचुर मात्रा में संतानें मिलें। परमेश्वर ने कल्पना का उपयोग करते हुए बात की, और इस कल्पना से यह देखना कठिन नहीं कि परमेश्वर अब्राहम को केवल एक, दो या केवल हजारों वंशज प्रदान नहीं करेगा, बल्कि एक बेशुमार संख्या में वंशज प्रदान करेगा, जो कि बहुत सारे जाति-समूह बन जाएँगे, क्योंकि परमेश्वर ने अब्राहम से वादा किया था कि वह कई जाति-समूहों का पिता होगा। अब, क्या यह संख्या मनुष्य द्वारा निर्धारित की गई थी या परमेश्वर द्वारा? क्या मनुष्य तय कर सकता है कि उसके कितने वंशज होंगे? क्या यह उस पर निर्भर है? मनुष्य पर तो यही निर्भर नहीं कि उसके कई वंशज होंगे भी या नहीं, “आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान” की तो बात ही छोड़ो। कौन नहीं चाहता कि उसकी संतान तारों के समान असंख्य हो? दुर्भाग्य से, चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं जैसी तुम चाहते हो। आदमी कितना भी कुशल या सक्षम क्यों न हो, यह उस पर निर्भर नहीं है; कोई भी उससे बाहर नहीं जा सकता, जो परमेश्वर द्वारा ठहराया गया है। वह तुम्हें जितना देता है, उतना ही तुम्हारे पास होगा : अगर परमेश्वर तुम्हें थोड़ा देता है, तो तुम्हारे पास ढेर सारा कभी नहीं होगा, और अगर परमेश्वर तुम्हें ढेर सारा देता है, तो इस बात से नाराज होने का कोई फायदा नहीं कि तुम्हारे पास कितना है। क्या बात ऐसी ही नहीं है? यह सब परमेश्वर पर निर्भर है, मनुष्य पर नहीं! मनुष्य परमेश्वर द्वारा शासित है, और कोई भी इससे मुक्त नहीं है!
जब परमेश्वर ने कहा, “मैं तेरे वंश को अनगिनत करूँगा,” तो यह एक वाचा थी, जिसे परमेश्वर ने अब्राहम के साथ बाँधा था, और इंद्रधनुष की वाचा की तरह, यह अनंत काल तक पूरी की जाएगी, और यह परमेश्वर द्वारा अब्राहम से किया गया एक वादा भी था। केवल परमेश्वर ही इस वादे को पूरा करने के काबिल और सक्षम है। मनुष्य इस पर विश्वास करे या न करे, मनुष्य इसे स्वीकार करे या न करे, और मनुष्य इसे जैसे चाहे देखे और समझे, यह सब परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों के अनुसार हूबहू पूरा किया जाएगा। परमेश्वर के वचन मनुष्य की इच्छा या धारणाओं में परिवर्तन के कारण बदले नहीं जाएँगे, और वे किसी व्यक्ति, घटना या चीज में परिवर्तन के कारण भी नहीं बदले जाएँगे। सभी चीजें गायब हो सकती हैं, लेकिन परमेश्वर के वचन हमेशा रहेंगे। वास्तव में, जिस दिन सभी चीजें गायब होती हैं, ठीक वही दिन परमेश्वर के वचनों के पूरी तरह से साकार होने का दिन होता है, क्योंकि वह सृष्टिकर्ता है, उसके पास सृष्टिकर्ता का अधिकार, सृष्टिकर्ता का सामर्थ्य है, और वह सभी चीजों और समस्त जीवन-शक्ति को नियंत्रित करता है; वह शून्य में से कोई चीज प्रकट करवा सकता है या किसी चीज को शून्य बना सकता है, और वह सभी चीजों के जीवित से मृत में रूपांतरण को नियंत्रित करता है; परमेश्वर के लिए वंशजों की वृद्धि करने से आसान कुछ भी नहीं हो सकता। यह मनुष्य को किसी परी-कथा की तरह काल्पनिक लगता है, लेकिन परमेश्वर के लिए, जो वह तय करता है और जो करने का वादा करता है, वह काल्पनिक नहीं है, न ही वह कोई परी-कथा है। बल्कि, वह एक तथ्य है जिसे परमेश्वर पहले ही देख चुका है, और जो निश्चित रूप से पूरा होगा। क्या तुम लोग इसे समझते हो? क्या तथ्य साबित करते हैं कि अब्राहम के वंशज असंख्य थे? वे कितने असंख्य थे? क्या वे “आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान” असंख्य थे, जैसा परमेश्वर ने कहा था? क्या वे सभी जाति-समूहों और क्षेत्रों में, दुनिया के हर स्थान पर फैल गए थे? यह तथ्य किसके माध्यम से पूरा हुआ? क्या यह परमेश्वर के वचनों के अधिकार द्वारा पूरा हुआ? परमेश्वर के वचनों के बोले जाने के बाद सैकड़ों-हजारों वर्षों तक परमेश्वर के वचन पूरे होते रहे और लगातार तथ्य बनते रहे; यह परमेश्वर के वचनों की शक्ति है, और परमेश्वर के अधिकार का प्रमाण है। जब परमेश्वर ने शुरुआत में सभी चीजें बनाईं, तो परमेश्वर ने कहा “उजियाला हो,” और उजियाला हो गया। यह बहुत जल्दी हो गया, बहुत कम समय में पूरा हो गया, और इसकी प्राप्ति और पूर्ति में कोई देरी नहीं हुई; परमेश्वर के वचनों का प्रभाव तत्काल हुआ। दोनों ही परमेश्वर के अधिकार का प्रदर्शन थे, लेकिन जब परमेश्वर ने अब्राहम को आशीष दिया, तो उसने मनुष्य को परमेश्वर के अधिकार के सार का दूसरा पक्ष दिखाया, और यह तथ्य भी कि सृष्टिकर्ता का अधिकार गणना से परे है, और इसके अलावा, उसने मनुष्य को सृष्टिकर्ता के अधिकार का एक ज्यादा वास्तविक, ज्यादा उत्तम पक्ष दिखाया।
जब परमेश्वर के वचन बोले जाते हैं, तो परमेश्वर का अधिकार इस कार्य की कमान अपने हाथ में ले लेता है, और परमेश्वर के मुख से किए गए वादे का तथ्य धीरे-धीरे एक वास्तविकता बनने लगता है। नतीजतन, सभी चीजों के बीच परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं, ठीक उसी तरह जैसे बसंत के आगमन पर घास हरी हो जाती है, फूल खिल जाते हैं, पेड़ों से कलियाँ फूट जाती हैं, पक्षी गाने लगते हैं, हंस लौट आते हैं और खेत लोगों से भर जाते हैं...। बसंत के आगमन के साथ सभी चीजों का कायाकल्प हो जाता है, और यह सृष्टिकर्ता का चमत्कारपूर्ण कार्य है। जब परमेश्वर अपने वादे पूरे करता है, तो आकाश और पृथ्वी की सभी चीजें परमेश्वर के विचारों के अनुसार फिर से नई होकर बदल जाती हैं—कुछ भी नहीं छूटता। जब कोई प्रतिज्ञा या वादा परमेश्वर के मुख से उच्चरित होती है, तो सभी चीजें उसे पूरा करती और उसे पूरा करने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं; सभी प्राणी अपनी-अपनी भूमिका निभाते हुए और अपना-अपना कार्य करते हुए सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के तहत आयोजित और व्यवस्थित किए जाते हैं। यह सृष्टिकर्ता के अधिकार की अभिव्यक्ति है। तुम इसमें क्या देखते हो? तुम परमेश्वर के अधिकार को कैसे जानते हो? क्या परमेश्वर के अधिकार की कोई सीमा है? क्या उसकी कोई समय-सीमा है? क्या उसे किसी निश्चित ऊँचाई या किसी निश्चित लंबाई का कहा जा सकता है? क्या उसे किसी निश्चित आकार या ताकत का कहा जा सकता है? क्या उसे मनुष्य के आयामों से मापा जा सकता है? परमेश्वर का अधिकार जलता-बुझता नहीं, आता-जाता नहीं, और ऐसा कोई नहीं जो यह नाप सके कि उसका अधिकार कितना महान है। चाहे परमेश्वर द्वारा किसी व्यक्ति को आशीष दिए कितना भी समय बीत जाए, वह आशीष जारी रहेगा, और उसकी निरंतरता परमेश्वर के अपरिमेय अधिकार की गवाही देगी, और मानव-जाति को बार-बार सृष्टिकर्ता की अविनाशी जीवन-शक्ति का पुनः प्रकटन देखने देगी। उसके अधिकार का प्रत्येक प्रदर्शन उसके मुँह से निकले वचनों का पूर्ण प्रदर्शन है, जो सभी चीजों और मानव-जाति को दिखाया जाता है। इसके अलावा, उसके अधिकार द्वारा पूरी की गई हर चीज अतुलनीय रूप से उत्तम और पूरी तरह से निर्दोष होती है। कहा जा सकता है कि उसके विचार, उसके वचन, उसका अधिकार, और वह समस्त कार्य जो वह पूरा करता है, सब एक अतुलनीय रूप से सुंदर चित्र हैं, और प्राणियों के लिए, मानव-जाति की भाषा, प्राणियों के लिए उसका महत्व और मूल्य व्यक्त करने में असमर्थ है। जब परमेश्वर किसी व्यक्ति से कोई वादा करता है, तो उसके बारे में हर चीज से परमेश्वर पूरी तरह से परिचित होता है, चाहे वह यह हो कि वह व्यक्ति कहाँ रहता है, क्या करता है, वादा किए जाने से पहले या बाद की उसकी पृष्ठभूमि, या उसके जीवन-परिवेश में कितनी बड़ी उथल-पुथल रही है। परमेश्वर के वचन बोले जाने के बाद चाहे कितना भी समय बीत जाए, उसके लिए यह ऐसा होता है मानो वे अभी-अभी बोले गए हों। कहने का तात्पर्य यह है कि परमेश्वर के पास सामर्थ्य और ऐसा अधिकार है कि वह मानव-जाति से किए गए प्रत्येक वादे की जानकारी रख सकता है, उसे नियंत्रित कर सकता है और उसे पूरा कर सकता है, और चाहे वादा कुछ भी हो, उसे पूरी तरह से पूरा होने में कितना भी समय लगे, और, इसके अलावा, उसका पूरा होना कितने भी व्यापक दायरे को स्पर्श करता हो—उदाहरण के लिए, समय, भूगोल, नस्ल आदि—यह वादा मुकम्मल और पूरा किया जाएगा, और, इसके अलावा, इसे मुकम्मल और पूरा करने के लिए उसे थोड़ा-सा भी प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होगी। यह क्या साबित करता है? यह साबित करता है कि परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य का विस्तार पूरे ब्रह्मांड और पूरी मानव-जाति को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त है। परमेश्वर ने प्रकाश बनाया, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि परमेश्वर केवल प्रकाश का ही प्रबंधन करता है, या वह केवल पानी का ही प्रबंधन करता है क्योंकि उसने पानी बनाया है, और बाकी सब-कुछ परमेश्वर से संबंधित नहीं है। क्या यह गलतफहमी नहीं होगी? हालाँकि परमेश्वर द्वारा अब्राहम को आशीष देने की स्मृति सैकड़ों वर्षों के बाद धीरे-धीरे मनुष्य की स्मृति से फीकी पड़ गई थी, फिर भी परमेश्वर के लिए यह वादा वैसा ही बना रहा। यह अभी भी पूरा होने की प्रक्रिया में था, और कभी रुका नहीं था। मनुष्य ने कभी नहीं जाना या सुना कि कैसे परमेश्वर ने अपने अधिकार का प्रयोग किया, कैसे सभी चीजें आयोजित और व्यवस्थित की गईं, और इस दौरान परमेश्वर की सृष्टि की सभी चीजों के बीच कितनी अद्भुत कहानियाँ घटित हुईं, लेकिन परमेश्वर के अधिकार के प्रदर्शन और उसके कर्मों के प्रकटन का हर अद्भुत अंश सभी चीजों के बीच पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित हुआ और ऊँचा उठाया गया, सभी चीजों ने सृष्टिकर्ता के चमत्कारी कर्म दर्शाए और उनके बारे में बात की, और सभी चीजों पर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता की बहुत बार सुनाई गई प्रत्येक कहानी सभी चीजों द्वारा हमेशा उद्घोषित की जाएगी। वह अधिकार, जिसके द्वारा परमेश्वर सभी चीजों पर शासन करता है, और परमेश्वर का सामर्थ्य सभी चीजों को दिखाता है कि परमेश्वर हर जगह और हर समय मौजूद है। जब तुम परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य की सर्वव्यापकता देख लोगे, तो तुम देखोगे कि परमेश्वर हर जगह और हर समय मौजूद है। परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ्य समय, भूगोल, स्थान या किसी व्यक्ति, घटना या चीज से प्रतिबंधित नहीं है। परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य का विस्तार मनुष्य की कल्पना से बढ़कर है; वह मनुष्य के लिए अथाह है, मनुष्य के लिए अकल्पनीय है, और मनुष्य इसे कभी भी पूरी तरह से नहीं जान पाएगा।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 95
सृष्टिकर्ता का अधिकार समय, स्थान या भूगोल द्वारा सीमित नहीं है, और सृष्टिकर्ता का अधिकार गणना से परे है (चुना हुआ अंश)
कुछ लोग अनुमान लगाना और कल्पना करना पसंद करते हैं, लेकिन मनुष्य की कल्पना कहाँ तक पहुँच सकती है? क्या वह इस दुनिया से परे जा सकती है? क्या मनुष्य परमेश्वर के अधिकार की प्रामाणिकता और सटीकता का अनुमान लगाने और उसकी कल्पना करने में सक्षम है? क्या मनुष्य का अनुमान और कल्पना उसे परमेश्वर के अधिकार का ज्ञान प्राप्त करने देने में सक्षम हैं? क्या वे मनुष्य को वास्तव में परमेश्वर के अधिकार को समझने और उसके प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित कर सकते हैं? तथ्य साबित करते हैं कि मनुष्य का अनुमान और कल्पना केवल मनुष्य की बुद्धि की उपज हैं, और मनुष्य को परमेश्वर के अधिकार का ज्ञान प्राप्त करने में थोड़ी-सी भी सहायता या लाभ प्रदान नहीं करते। विज्ञान-कथाएँ पढ़ने के बाद कुछ लोग चंद्रमा की कल्पना करने में सक्षम होते हैं, या इस बात की कि तारे कैसे होते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि मनुष्य को परमेश्वर के अधिकार की कोई समझ है। मनुष्य की कल्पना तो बस कल्पना ही है। इन चीजों के तथ्यों के बारे में, अर्थात् परमेश्वर के अधिकार से उनके संबंध के बारे में, उसे बिलकुल भी समझ नहीं है। अगर तुम चाँद पर हो भी आए, तो उससे क्या फर्क पड़ता है? क्या यह दर्शाता है कि तुम्हें परमेश्वर के अधिकार की बहुआयामी समझ है? क्या यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य की व्यापकता की कल्पना करने में सक्षम हो? चूँकि मनुष्य का अनुमान और कल्पना उसे परमेश्वर के अधिकार को जानने देने में असमर्थ हैं, तो मनुष्य को क्या करना चाहिए? सबसे बुद्धिमत्तापूर्ण विकल्प अनुमान या कल्पना न करना होगा अर्थात जब परमेश्वर के अधिकार को जानने की बात आए, तो मनुष्य को कभी कल्पना पर भरोसा नहीं करना चाहिए और अनुमान पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। मैं यहाँ तुम लोगों से क्या कहना चाहता हूँ? परमेश्वर के अधिकार, परमेश्वर के सामर्थ्य, परमेश्वर की पहचान और परमेश्वर के सार का ज्ञान अपनी कल्पना पर भरोसा करके प्राप्त नहीं किया जा सकता। चूँकि परमेश्वर के अधिकार को जानने के लिए तुम कल्पना पर भरोसा नहीं कर सकते, तो फिर तुम परमेश्वर के अधिकार का सच्चा ज्ञान किस तरह प्राप्त कर सकते हो? इसका तरीका है परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना, संगति करना और परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना। इस तरह तुम्हें परमेश्वर के अधिकार का एक क्रमिक अनुभव और सत्यापन होगा और तुम उसकी एक क्रमिक समझ और वर्धमान ज्ञान प्राप्त करोगे। परमेश्वर के अधिकार का ज्ञान प्राप्त करने का यही एकमात्र तरीका है; इसका कोई छोटा रास्ता नहीं है। तुम लोगों से कल्पना न करने के लिए कहना तुम लोगों को विनाश की प्रतीक्षा करते हुए निष्क्रिय बैठने के लिए प्रेरित करने या तुम लोगों को कुछ भी करने से रोकने के समान नहीं है। सोचने और कल्पना करने के लिए अपने मस्तिष्क का उपयोग न करने का अर्थ है अनुमान लगाने के लिए तर्क का उपयोग न करना, विश्लेषण करने के लिए ज्ञान का उपयोग न करना, आधार के रूप में विज्ञान का उपयोग न करना, बल्कि इस बात को समझना, सत्यापित करना और पुष्टि करना कि जिस परमेश्वर में तुम विश्वास करते हो, उसके पास अधिकार है, इस बात की पुष्टि करना कि वह तुम्हारे भाग्य पर संप्रभुता रखता है, और यह कि परमेश्वर के वचनों के माध्यम से, सत्य के माध्यम से, हर उस चीज के माध्यम से जिसका तुम जीवन में सामना करते हो, उसका सामर्थ्य हर समय उसे स्वयं सच्चा परमेश्वर साबित करता है। यही एकमात्र तरीका है, जिससे परमेश्वर की समझ प्राप्त की जा सकती है। कुछ लोग कहते हैं कि वे इस लक्ष्य को प्राप्त करने का कोई आसान तरीका खोजना चाहते हैं, लेकिन क्या तुम लोग ऐसा कोई तरीका सोच सकते हो? मैं तुमसे कहता हूँ, सोचने की कोई जरूरत नहीं : कोई दूसरा तरीका नहीं है! उसके द्वारा व्यक्त प्रत्येक वचन और वह जो भी करता है, बस उसी के माध्यम से परमेश्वर के पास जो कुछ है और जो वह है, उसे कर्तव्यनिष्ठा और दृढ़ता से जाना और सत्यापित किया जा सकता है। परमेश्वर को जानने का यही एकमात्र तरीका है। क्योंकि जो कुछ परमेश्वर के पास है और जो वह है, और परमेश्वर की हर चीज, खोखली और खाली नहीं, बल्कि वास्तविक है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 96
सभी चीजों और जीवित प्राणियों पर सृष्टिकर्ता के नियंत्रण और प्रभुत्व का तथ्य सृष्टिकर्ता के अधिकार के वास्तविक अस्तित्व के बारे में बताता है
यहोवा द्वारा अय्यूब को आशीष देना अय्यूब की पुस्तक में दर्ज है। परमेश्वर ने अय्यूब को क्या दिया? “यहोवा ने अय्यूब के बाद के दिनों में उसके पहले के दिनों से अधिक आशीष दी; और उसके चौदह हज़ार भेड़ बकरियाँ, छः हज़ार ऊँट, हज़ार जोड़ी बैल, और हज़ार गदहियाँ हो गईं” (अय्यूब 42:12)। मनुष्य के दृष्टिकोण से, वे कौन-सी चीजें थीं जो अय्यूब को दी गई थीं? क्या वे मानव-जाति की संपत्तियाँ थीं? इन संपत्तियों के साथ, क्या अय्यूब उस युग में बहुत धनी न हो गया होता? फिर, उसने ऐसी संपत्तियाँ कैसे हासिल कीं? उसे धन-दौलत किसने दी? कहने की आवश्यकता नहीं—परमेश्वर के आशीष की बदौलत ही वे संपत्तियाँ अय्यूब को मिलीं। अय्यूब ने इन संपत्तियों को कैसे देखा, और उसने परमेश्वर के आशीष को कैसे देखा, हम इस पर यहाँ चर्चा नहीं करेंगे। जब परमेश्वर के आशीषों की बात आती है, तो सभी लोग दिन-रात परमेश्वर से आशीष पाने के लिए लालायित रहते हैं, फिर भी मनुष्य का इस पर कोई नियंत्रण नहीं है कि वह अपने जीवनकाल में कितनी संपत्तियाँ प्राप्त कर सकता है, या वह परमेश्वर से आशीष प्राप्त कर सकता है या नहीं—यह एक निर्विवाद तथ्य है! परमेश्वर के पास मनुष्य को कोई भी संपत्ति देने, मनुष्य को कोई भी आशीष प्राप्त करने देने का अधिकार और सामर्थ्य है, फिर भी परमेश्वर के आशीषों का एक सिद्धांत है। परमेश्वर किस तरह के लोगों को आशीष देता है? बेशक, वह उन लोगों को आशीष देता है, जिन्हें वह पसंद करता है! अब्राहम और अय्यूब दोनों को परमेश्वर ने आशीष दिया, फिर भी जो आशीष उन्हें मिले, वे एक-जैसे नहीं थे। परमेश्वर ने अब्राहम को बालू के कणों और तारों जितने असंख्य वंशज होने का आशीष दिया। जब परमेश्वर ने अब्राहम को आशीष दिया, तो उसने एक ही व्यक्ति और एक जाति-समूह के वंशजों को सामर्थ्यवान और समृद्ध बना दिया। इसमें, परमेश्वर के अधिकार ने मानव-जाति पर शासन किया, जिसने सभी चीजों और जीवित प्राणियों के मध्य परमेश्वर की साँस फूँकी। परमेश्वर के अधिकार की संप्रभुता के तहत, यह मानव-जाति परमेश्वर द्वारा तय की गई गति से, और परमेश्वर द्वारा तय किए गए दायरे के भीतर, बढ़ी और अस्तित्व में रही। विशेष रूप से, इस जाति-समूह की जीवन-क्षमता, वृद्धि-दर और जीवन-प्रत्याशा सभी परमेश्वर की व्यवस्थाओं का हिस्सा थे, और इन सभी का सिद्धांत पूरी तरह से उस वादे पर आधारित था, जो परमेश्वर ने अब्राहम से किया था। कहने का तात्पर्य यह है कि, चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ हों, परमेश्वर के वादे बिना किसी बाधा के आगे बढ़ेंगे और परमेश्वर के अधिकार के विधि-विधान के तहत साकार होंगे। परमेश्वर द्वारा अब्राहम से किए गए वादे में, चाहे दुनिया में कैसी भी उथल-पुथल हो, कोई भी युग हो, मानव-जाति द्वारा कैसी भी तबाही झेली जाए, अब्राहम के वंशजों को विनाश के जोखिम का सामना नहीं करना पड़ेगा, और उसका जाति-समूह मरेगा नहीं। किंतु परमेश्वर के आशीष ने अय्यूब को अत्यधिक धनवान बनाया। परमेश्वर ने उसे जीवित, साँस लेते जानवरों का एक समूह दिया, जिनकी विशेषताएँ—उनकी संख्या, उनकी वंश-वृद्धि की गति, जीवित रहने की दर, उनके शरीर में वसा की मात्रा, आदि—भी परमेश्वर द्वारा नियंत्रित थीं। हालाँकि इन जीवित प्राणियों में बोलने की क्षमता नहीं थी, फिर भी, वे भी सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं का हिस्सा थे, और उनके लिए परमेश्वर की व्यवस्थाओं के पीछे का सिद्धांत उन आशीषों के आधार पर बनाया गया था, जिनका परमेश्वर ने अय्यूब से वादा किया था। परमेश्वर द्वारा अब्राहम और अय्यूब को दिए गए आशीषों में, हालाँकि जिस चीज का वादा किया गया था वह अलग थी, लेकिन वह अधिकार, जिससे सृष्टिकर्ता सभी चीजों और जीवित प्राणियों पर शासन करता है, एक ही था। परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य का प्रत्येक विवरण अब्राहम और अय्यूब को दिए गए उसके विभिन्न वादों और आशीषों में व्यक्त होता है, और मानव-जाति को एक बार फिर से दिखाता है कि परमेश्वर का अधिकार मनुष्य की कल्पना से बहुत परे है। ये विवरण मनुष्य को एक बार फिर बताते हैं कि अगर वह परमेश्वर के अधिकार को जानना चाहता है, तो यह केवल परमेश्वर के वचनों के माध्यम से और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करके ही हासिल किया जा सकता है।
सब चीजों पर संप्रभुता का परमेश्वर का अधिकार मनुष्य को एक तथ्य देखने देता है : परमेश्वर का अधिकार इन वचनों में ही सन्निहित नहीं है “और परमेश्वर ने कहा, उजियाला हो, और उजियाला हो गया, और आकाश हो, और आकाश हो गया, और भूमि हो, और भूमि हो गई,” बल्कि, इससे भी बढ़कर, उसका अधिकार इस बात में भी सन्निहित है कि कैसे उसने उजाले को जारी रखा, आकाश को गायब होने से रोका, और भूमि को हमेशा के लिए पानी से अलग किए रखा, साथ ही इस बात के विवरण में भी कि उसने कैसे स्वयं द्वारा बनाई गई चीजों : उजाले, आकाश और भूमि को शासित और प्रबंधित किया। परमेश्वर द्वारा मानव-जाति को आशीष दिए जाने में तुम लोग और क्या देखते हो? स्पष्ट रूप से, परमेश्वर द्वारा अब्राहम और अय्यूब को आशीष दिए जाने के बाद, परमेश्वर के कदम रुके नहीं, क्योंकि उसने अभी अपने अधिकार का प्रयोग करना शुरू ही किया था, और उसका इरादा अपने प्रत्येक वचन को वास्तविकता में बदलने, और अपनी कही बात के प्रत्येक विवरण को साकार करने का था, इसलिए, आगामी वर्षों में, उसने वह सब-कुछ करना जारी रखा, जिसका उसने इरादा किया था। चूँकि परमेश्वर के पास अधिकार है, इसलिए शायद मनुष्य को ऐसा लगता है कि परमेश्वर को केवल बोलने की जरूरत है, और बिना उँगली उठाए, सभी मामले और चीजें पूरी हो जाती हैं। ऐसी कल्पनाएँ बहुत ही हास्यास्पद हैं! अगर तुम परमेश्वर द्वारा वचनों का उपयोग करते हुए मनुष्य के साथ वाचा बाँधने और परमेश्वर द्वारा वचनों का उपयोग करते हुए हर चीज पूरी करने के बारे में केवल एकतरफा दृष्टिकोण अपनाते हो, और तुम इस बात के विभिन्न चिह्न और तथ्य देखने में असमर्थ हो कि परमेश्वर का अधिकार सभी चीजों के अस्तित्व पर प्रभुत्व रखता है, तो परमेश्वर के अधिकार के बारे में तुम्हारी समझ बहुत खोखली और हास्यास्पद है! अगर मनुष्य परमेश्वर के ऐसा होने की कल्पना करता है, तो कहना होगा कि परमेश्वर के बारे में मनुष्य का ज्ञान निराशाजनक स्थिति तक पहुँच गया है, वह एक अंधी गली में पहुँच गया है, क्योंकि जिस परमेश्वर की कल्पना मनुष्य करता है, वह केवल एक मशीन है जो आदेश जारी करती है, न कि परमेश्वर जिसके पास अधिकार है। तुमने अब्राहम और अय्यूब के उदाहरणों से क्या देखा है? क्या तुमने परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य का वास्तविक पक्ष देखा है? अब्राहम और अय्यूब को आशीष देने के बाद परमेश्वर वहीं नहीं रहा जहाँ वह था, न ही उसने अपने दूतों को काम पर लगाकर यह देखने का इंतजार किया कि परिणाम क्या होगा। इसके विपरीत, जैसे ही परमेश्वर ने अपने वचनों का उच्चारण किया, परमेश्वर के अधिकार के मार्गदर्शन में सभी चीजें उस कार्य का अनुपालन करने लगीं जिसे परमेश्वर करना चाहता था, और वे लोग, चीजें और पदार्थ तैयार हो गए, जिनकी परमेश्वर को आवश्यकता थी। कहने का तात्पर्य यह है कि, जैसे ही परमेश्वर के मुख से वचन निकले, परमेश्वर का अधिकार पूरी पृथ्वी पर लागू होना शुरू हो गया, और उसने अब्राहम और अय्यूब से किए गए वादे पूरे करने के लिए एक क्रम निर्धारित कर दिया, और हर कदम और प्रत्येक महत्वपूर्ण चरण, जिन्हें पूरा करने की उसने योजना बनाई थी, उनके लिए जो कुछ आवश्यक था, उस सबके लिए सभी उचित योजनाएँ भी बनाईं और तैयारियाँ भी कीं। इस दौरान परमेश्वर ने न केवल अपने दूतों का, बल्कि उन सभी चीजों का भी इस्तेमाल किया, जो उसके द्वारा बनाई गई थीं। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस दायरे में परमेश्वर के अधिकार का उपयोग किया गया था, उसमें न केवल दूत शामिल थे, बल्कि सृष्टि की सभी चीजें शामिल थीं, जिन्हें वह कार्य पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया गया था, जिसे वह पूरा करना चाहता था; ये वे विशिष्ट तरीके थे, जिनसे परमेश्वर के अधिकार का प्रयोग किया गया था। अपनी कल्पनाओं में कुछ लोगों की परमेश्वर के अधिकार की निम्नलिखित समझ हो सकती है : परमेश्वर के पास अधिकार है, और परमेश्वर के पास सामर्थ्य है, इसलिए परमेश्वर को केवल तीसरे स्वर्ग में या किसी निश्चित स्थान पर रहने की आवश्यकता है, और उसे कोई विशेष कार्य करने की आवश्यकता नहीं है, और परमेश्वर का संपूर्ण कार्य उसके विचारों में पूरा होता है। कुछ लोग यह भी मान सकते हैं कि, हालाँकि परमेश्वर ने अब्राहम को आशीष दिया, लेकिन परमेश्वर को कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं थी, और उसके लिए केवल अपने वचन बोलना ही पर्याप्त था। क्या सच में ऐसा ही हुआ? स्पष्ट रूप से नहीं! हालाँकि परमेश्वर के पास अधिकार और सामर्थ्य है, लेकिन उसका अधिकार सच्चा और वास्तविक है, खोखला नहीं। परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य की प्रामाणिकता और वास्तविकता धीरे-धीरे उसके द्वारा सभी चीजों के सृजन में, सभी चीजों पर उसके नियंत्रण में, और उस प्रक्रिया में जिसके द्वारा वह मानव-जाति का नेतृत्व और प्रबंधन करता है, प्रकट और मूर्त होती हैं। मानव-जाति और सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता का हर तरीका, हर दृष्टिकोण और हर विवरण, और वह सब कार्य जो उसने पूरा किया है, साथ ही सभी चीजों के बारे में उसकी समझ—ये सभी अक्षरशः साबित करते हैं कि परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ्य खोखले शब्द नहीं हैं। उसका अधिकार और सामर्थ्य लगातार और सभी चीजों में प्रदर्शित और प्रकट होता है। ये अभिव्यक्तियाँ और प्रकटन परमेश्वर के अधिकार के वास्तविक अस्तित्व के बारे में बताते हैं, क्योंकि वह अपने अधिकार और सामर्थ्य का उपयोग अपना कार्य जारी रखने, सभी चीजों को नियंत्रित करने और हर क्षण सभी चीजों पर शासन करने के लिए कर रहा है; उसका सामर्थ्य और अधिकार न तो स्वर्गदूतों द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है, न ही परमेश्वर के दूतों द्वारा। परमेश्वर ने तय किया कि वह अब्राहम और अय्यूब को क्या आशीष देगा—यह परमेश्वर का निर्णय था। भले ही परमेश्वर के दूत व्यक्तिगत रूप से अब्राहम और अय्यूब के पास गए थे, लेकिन उनके कार्य परमेश्वर की आज्ञाओं पर आधारित थे, और उनके कार्य परमेश्वर के अधिकार के तहत किए गए थे और इस तरह, दूत परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन थे। हालाँकि मनुष्य परमेश्वर के दूतों को अब्राहम के पास जाते देखता है, और बाइबल के अभिलेखों में यहोवा परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से कुछ भी करते नहीं देखता, किंतु असल में, वह केवल स्वयं परमेश्वर ही है, जो वास्तव में सामर्थ्य और अधिकार का उपयोग करता है, और वह किसी व्यक्ति की ओर से कोई संदेह बरदाश्त नहीं करता! हालाँकि तुमने देखा है कि स्वर्गदूतों और दूतों में बहुत सामर्थ्य है और उन्होंने चमत्कार किए हैं, या उन्होंने परमेश्वर द्वारा आदेशित कुछ काम किए हैं, लेकिन उनके कार्य केवल परमेश्वर का आदेश पूरा करने के लिए हैं, और वे किसी भी तरह से परमेश्वर के अधिकार का प्रदर्शन नहीं हैं—क्योंकि किसी भी मनुष्य या चीज के पास सभी चीजों की रचना करने और सभी चीजों पर शासन करने का सृष्टिकर्ता का अधिकार नहीं है। इसलिए, कोई भी मनुष्य या चीज सृष्टिकर्ता के अधिकार का प्रयोग या प्रदर्शन नहीं कर सकता।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 97
सृष्टिकर्ता का अधिकार अपरिवर्तनीय और अपमान न किए जाने योग्य है
1. परमेश्वर सभी चीजों की सृष्टि करने के लिए वचनों को प्रयोग करता है
उत्पत्ति 1:3-5 जब परमेश्वर ने कहा, “उजियाला हो,” तो उजियाला हो गया। और परमेश्वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है; और परमेश्वर ने उजियाले को अन्धियारे से अलग किया। और परमेश्वर ने उजियाले को दिन और अन्धियारे को रात कहा। तथा साँझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पहला दिन हो गया।
उत्पत्ति 1:6-7 फिर परमेश्वर ने कहा, “जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो कि जल दो भाग हो जाए।” तब परमेश्वर ने एक अन्तर बनाकर उसके नीचे के जल और उसके ऊपर के जल को अलग अलग किया; और वैसा ही हो गया।
उत्पत्ति 1:9-11 फिर परमेश्वर ने कहा, “आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे,” और वैसा ही हो गया। परमेश्वर ने सूखी भूमि को पृथ्वी कहा, तथा जो जल इकट्ठा हुआ उसको उसने समुद्र कहा : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है। फिर परमेश्वर ने कहा, “पृथ्वी से हरी घास, तथा बीजवाले छोटे छोटे पेड़, और फलदाई वृक्ष भी जिनके बीज उन्हीं में एक एक की जाति के अनुसार हैं, पृथ्वी पर उगें,” और वैसा ही हो गया।
उत्पत्ति 1:14-15 फिर परमेश्वर ने कहा, “दिन को रात से अलग करने के लिये आकाश के अन्तर में ज्योतियाँ हों; और वे चिह्नों, और नियत समयों और दिनों, और वर्षों के कारण हों; और वे ज्योतियाँ आकाश के अन्तर में पृथ्वी पर प्रकाश देनेवाली भी ठहरें,” और वैसा ही हो गया।
उत्पत्ति 1:20-21 फिर परमेश्वर ने कहा, “जल जीवित प्राणियों से बहुत ही भर जाए, और पक्षी पृथ्वी के ऊपर आकाश के अन्तर में उड़ें।” इसलिये परमेश्वर ने जाति जाति के बड़े बड़े जल-जन्तुओं की, और उन सब जीवित प्राणियों की भी सृष्टि की जो चलते फिरते हैं जिन से जल बहुत ही भर गया, और एक एक जाति के उड़नेवाले पक्षियों की भी सृष्टि की : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।
उत्पत्ति 1:24-25 फिर परमेश्वर ने कहा, “पृथ्वी से एक एक जाति के जीवित प्राणी, अर्थात् घरेलू पशु, और रेंगनेवाले जन्तु, और पृथ्वी के वनपशु, जाति जाति के अनुसार उत्पन्न हों,” और वैसा ही हो गया। इस प्रकार परमेश्वर ने पृथ्वी के जाति जाति के वन-पशुओं को, और जाति जाति के घरेलू पशुओं को, और जाति जाति के भूमि पर सब रेंगनेवाले जन्तुओं को बनाया : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।
2. परमेश्वर मनुष्य के साथ एक वाचा बाँधने के लिए अपने वचनों का उपयोग करता है
उत्पत्ति 9:11-13 “और मैं तुम्हारे साथ अपनी यह वाचा बाँधता हूँ कि सब प्राणी फिर जल-प्रलय से नष्ट न होंगे : और पृथ्वी का नाश करने के लिये फिर जल-प्रलय न होगा।” फिर परमेश्वर ने कहा, “जो वाचा मैं तुम्हारे साथ, और जितने जीवित प्राणी तुम्हारे संग हैं उन सब के साथ भी युग-युग की पीढ़ियों के लिये बाँधता हूँ, उसका यह चिह्न है : मैं ने बादल में अपना धनुष रखा है, वह मेरे और पृथ्वी के बीच में वाचा का चिह्न होगा।”
3. परमेश्वर के आशीष
उत्पत्ति 17:4-6 देख, मेरी वाचा तेरे साथ बन्धी रहेगी, इसलिये तू जातियों के समूह का मूलपिता हो जाएगा। इसलिये अब से तेरा नाम अब्राम न रहेगा, परन्तु तेरा नाम अब्राहम होगा; क्योंकि मैं ने तुझे जातियों के समूह का मूलपिता ठहरा दिया है। मैं तुझे अत्यन्त फलवन्त करूँगा, और तुझ को जाति जाति का मूल बना दूँगा, और तेरे वंश में राजा उत्पन्न होंगे।
उत्पत्ति 18:18-19 अब्राहम से तो निश्चय एक बड़ी और सामर्थी जाति उपजेगी, और पृथ्वी की सारी जातियाँ उसके द्वारा आशीष पाएँगी। क्योंकि मैं जानता हूँ कि वह अपने पुत्रों और परिवार को, जो उसके पीछे रह जाएँगे, आज्ञा देगा कि वे यहोवा के मार्ग में अटल बने रहें, और धर्म और न्याय करते रहें; ताकि जो कुछ यहोवा ने अब्राहम के विषय में कहा है उसे पूरा करे।
उत्पत्ति 22:16-18 यहोवा की यह वाणी है, कि मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ कि तू ने जो यह काम किया है कि अपने पुत्र, वरन् अपने एकलौते पुत्र को भी नहीं रख छोड़ा; इस कारण मैं निश्चय तुझे आशीष दूँगा; और निश्चय तेरे वंश को आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान अनगिनित करूँगा, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा; और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगी : क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।
अय्यूब 42:12 यहोवा ने अय्यूब के बाद के दिनों में उसके पहले के दिनों से अधिक आशीष दी; और उसके चौदह हज़ार भेड़ बकरियाँ, छः हज़ार ऊँट, हज़ार जोड़ी बैल, और हज़ार गदहियाँ हो गईं।
पवित्रशास्त्र के इन तीन भागों में तुमने क्या देखा है? क्या तुम लोगों ने देखा है कि एक सिद्धांत है, जिसके द्वारा परमेश्वर अपने अधिकार का प्रयोग करता है? उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने मनुष्य के साथ वाचा बाँधने के लिए इंद्रधनुष का उपयोग किया—उसने मनुष्य को यह बताने के लिए बादलों में इंद्रधनुष रखा कि वह दुनिया को नष्ट करने के लिए फिर कभी जलप्रलय का उपयोग नहीं करेगा। क्या लोग जो इंद्रधनुष आज देखते हैं, वह अभी भी वही है जो परमेश्वर के मुख से बोला गया था? क्या उसका स्वरूप और अर्थ बदल गया है? बेशक, नहीं। परमेश्वर ने यह कार्य करने के लिए अपने अधिकार का उपयोग किया, और जो वाचा उसने मनुष्य के साथ बाँधी थी, वह आज तक चलती आई है, और जिस समय इस वाचा को बदला जाएगा, वह निश्चित रूप से परमेश्वर का निर्णय होगा। परमेश्वर के यह कहने के बाद कि “बादल में अपना धनुष रखा है,” परमेश्वर ने आज तक हमेशा इस वाचा का पालन किया। तुम इसमें क्या देखते हो? हालाँकि परमेश्वर के पास अधिकार और सामर्थ्य है, लेकिन वह अपने कार्यों में बहुत कठोर और सिद्धांतवादी है, और अपने वचन पर अडिग रहता है। उसकी कठोरता और उसके कार्यों के सिद्धांत दर्शाते हैं कि सृष्टिकर्ता का अपमान नहीं किया जा सकता और सृष्टिकर्ता का अधिकार अलंघ्य है। हालाँकि उसके पास सर्वोच्च अधिकार है, और सभी चीजें उसके प्रभुत्व के अधीन हैं, और हालाँकि उसके पास सभी चीजों पर शासन करने का सामर्थ्य है, फिर भी परमेश्वर ने कभी भी अपनी योजना क्षतिग्रस्त या बाधित नहीं की है, और हर बार जब वह अपने अधिकार का उपयोग करता है, तो यह कड़ाई से उसके सिद्धांतों के अनुसार ही होता है, और ठीक उसी का अनुसरण करता है जो उसके मुँह से बोला गया था, और उसकी योजना के चरणों और उद्देश्यों का पालन करता है। कहने की जरूरत नहीं कि परमेश्वर द्वारा शासित सभी चीजें उन सिद्धांतों का भी पालन करती हैं, जिनके द्वारा परमेश्वर के अधिकार का प्रयोग किया जाता है, और कोई भी व्यक्ति या वस्तु उसके अधिकार की व्यवस्थाओं से मुक्त नहीं है, न ही वे उन सिद्धांतों को बदल सकते हैं जिनके द्वारा उसका अधिकार प्रयुक्त किया जाता है। परमेश्वर की दृष्टि में, जिन लोगों को आशीष दिया जाता है, वे उसके अधिकार द्वारा लाया गया सौभाग्य प्राप्त करते हैं, और जिन्हें शाप दिया जाता है, उन्हें परमेश्वर के अधिकार के कारण दंड मिलता है। परमेश्वर के अधिकार की संप्रभुता के तहत, कोई भी व्यक्ति या वस्तु उसके अधिकार के प्रयोग से मुक्त नहीं है, न ही वे उन सिद्धांतों को बदल सकते हैं जिनके द्वारा उसका अधिकार प्रयुक्त किया जाता है। सृष्टिकर्ता का अधिकार किसी भी कारक में होने वाले परिवर्तन से नहीं बदलता, और इसी तरह, वे सिद्धांत, जिनके द्वारा उसका अधिकार प्रयुक्त किया जाता है, किसी भी कारण से नहीं बदलते। आसमान और धरती भारी उथल-पुथल से गुजर सकते हैं, लेकिन सृष्टिकर्ता का अधिकार नहीं बदलेगा; सभी चीजें गायब हो सकती हैं, लेकिन सृष्टिकर्ता का अधिकार कभी गायब नहीं होगा। यह सृष्टिकर्ता के अपरिवर्तनीय और अपमान न किए जा सकने योग्य अधिकार का सार है, और यही सृष्टिकर्ता की अद्वितीयता है!
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 98
शैतान को परमेश्वर की आज्ञा
अय्यूब 2:6 यहोवा ने शैतान से कहा, “सुन, वह तेरे हाथ में है, केवल उसका प्राण छोड़ देना।”
शैतान ने कभी सृष्टिकर्ता के अधिकार का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं की है, और इस वजह से, सभी चीजें व्यवस्थित रहती हैं
यह अय्यूब की पुस्तक का एक उद्धरण है, और इन वचनों में “वह” का मतलब है अय्यूब। संक्षिप्त होने के बावजूद यह वाक्य कई मुद्दे स्पष्ट करता है। यह आध्यात्मिक दुनिया में परमेश्वर और शैतान के बीच हुई एक विशेष बातचीत का वर्णन करता है, और हमें बताता है कि परमेश्वर के वचनों का लक्ष्य शैतान था। यह इसे भी दर्ज करता है कि परमेश्वर ने विशेष रूप से क्या कहा था। परमेश्वर के वचन शैतान के लिए एक आज्ञा और एक आदेश थे। इस आदेश का विशिष्ट विवरण अय्यूब के जीवन को बख्शने से और इससे संबंधित है कि परमेश्वर ने शैतान द्वारा अय्यूब के साथ किए जाने वाले व्यवहार में मर्यादा-रेखा कहाँ खींची—शैतान को अय्यूब का जीवन छोड़ना था। इस वाक्य से पहली चीज जो हम सीखते हैं, वह यह है कि ये परमेश्वर द्वारा शैतान से कहे गए वचन थे। अय्यूब की पुस्तक के मूल पाठ के अनुसार, यह हमें ऐसे वचनों की पृष्ठभूमि बताता है : शैतान अय्यूब पर आरोप लगाना चाहता था, इसलिए उसकी परीक्षा लेने से पहले उसे परमेश्वर की सहमति प्राप्त करनी थी। अय्यूब की परीक्षा लेने का शैतान का अनुरोध स्वीकार करते हुए परमेश्वर ने शैतान के सामने निम्नलिखित शर्त रखी : “अय्यूब तुम्हारे हाथ में है; लेकिन उसके प्राण छोड़ देना।” इन वचनों की प्रकृति क्या है? ये स्पष्ट रूप से एक आज्ञा, एक आदेश है। इन वचनों की प्रकृति समझने के बाद, तुम्हें निश्चित रूप से यह भी समझ लेना चाहिए कि जिसने यह आदेश जारी किया, वह परमेश्वर था, और जिसने यह आदेश प्राप्त कर उसका पालन किया, वह शैतान था। कहने की जरूरत नहीं कि इस आदेश में परमेश्वर और शैतान के बीच का संबंध इन वचनों को पढ़ने वाले हर व्यक्ति पर स्पष्ट है। बेशक, यह आध्यात्मिक दुनिया में परमेश्वर और शैतान के बीच का संबंध भी है, और परमेश्वर और शैतान की पहचान और हैसियत के बीच का अंतर भी, जो पवित्रशास्त्र में परमेश्वर और शैतान के बीच हुई बातचीत के अभिलेख में दिया गया है, और यह परमेश्वर और शैतान की पहचान और हैसियत के बीच स्पष्ट अंतर है, जिसे आज तक मनुष्य विशिष्ट उदाहरण और पाठ्य अभिलेख में देख सकता है। इस जगह, मुझे कहना होगा कि इन वचनों का अभिलेख परमेश्वर की पहचान और हैसियत के बारे में मानव-जाति के ज्ञान का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है, और यह परमेश्वर के बारे में मानव-जाति के ज्ञान के लिए महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है। आध्यात्मिक दुनिया में सृष्टिकर्ता और शैतान के बीच हुई इस बात के माध्यम से मनुष्य सृष्टिकर्ता के अधिकार का एक और विशिष्ट पहलू समझने में सक्षम है। ये वचन सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार की एक और गवाही हैं।
बाहरी तौर पर, यहोवा परमेश्वर शैतान के साथ बातचीत कर रहा है। सार के संदर्भ में, जिस रवैये के साथ यहोवा परमेश्वर बोलता है, और जिस स्थान पर वह खड़ा है, वह शैतान से ऊँचा है। कहने का तात्पर्य यह है कि यहोवा परमेश्वर शैतान को आदेशात्मक स्वर में आज्ञा दे रहा है, और शैतान को बता रहा है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, कि अय्यूब पहले से ही उसके हाथों में है, और वह अय्यूब के साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार करने के लिए स्वतंत्र है—लेकिन वह अय्यूब की जान न ले। इसका निहित पाठ यह है कि, हालाँकि अय्यूब शैतान के हाथों में सौंप दिया गया है, लेकिन उसका जीवन शैतान को नहीं दिया गया है; कोई भी अय्यूब का जीवन परमेश्वर के हाथों से नहीं ले सकता, जब तक कि परमेश्वर की अनुमति न हो। शैतान को दिए गए इस आदेश में परमेश्वर का रवैया स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है, और यह आदेश उस स्थिति को भी अभिव्यक्त और प्रकट करता है, जिससे यहोवा परमेश्वर शैतान के साथ बातचीत करता है। इसमें यहोवा परमेश्वर न केवल उस परमेश्वर का दर्जा रखता है, जिसने प्रकाश, वायु और सभी चीजों और जीवों का सृजन किया, उस परमेश्वर का, जो सभी चीजों और जीवों पर प्रभुत्व रखता है, बल्कि उस परमेश्वर का भी, जो मानव-जाति को आज्ञा देता है, और रसातल को आज्ञा देता है, परमेश्वर जो सभी जीवित चीजों के जीवन और मृत्यु को नियंत्रित करता है। आध्यात्मिक दुनिया में परमेश्वर के अलावा और कौन शैतान को ऐसा आदेश देने का साहस करेगा? और परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से शैतान को अपना आदेश क्यों दिया? क्योंकि अय्यूब सहित सभी मनुष्यों का जीवन परमेश्वर के नियंत्रण में है। परमेश्वर ने शैतान को अय्यूब की जान को नुकसान पहुँचाने या उसकी जान लेने की अनुमति नहीं दी, यहाँ तक कि जब परमेश्वर ने शैतान को अय्यूब की परीक्षा लेने की अनुमति दी, तब भी परमेश्वर को विशेष रूप से ऐसा आदेश देना याद था, इसलिए उसने एक बार फिर शैतान को अय्यूब की जान न लेने की आज्ञा दी। शैतान ने कभी परमेश्वर के अधिकार का उल्लंघन करने का साहस नहीं किया है, और, इसके अलावा, उसने हमेशा परमेश्वर के आदेश और विशिष्ट आज्ञाएँ ध्यान से सुनी हैं और उनका पालन किया है, कभी उनका उल्लंघन करने का साहस नहीं किया है, और निश्चित रूप से, परमेश्वर के किसी भी आदेश को मुक्त रूप से बदलने की हिम्मत नहीं की है। ऐसी हैं वे सीमाएँ, जो परमेश्वर ने शैतान के लिए निर्धारित की हैं, और इसलिए शैतान ने कभी इन सीमाओं को लाँघने का साहस नहीं किया है। क्या यह परमेश्वर के अधिकार का सामर्थ्य नहीं है? क्या यह परमेश्वर के अधिकार की गवाही नहीं है? मानव-जाति की तुलना में शैतान को इस बात की ज्यादा स्पष्ट समझ है कि परमेश्वर के प्रति कैसे व्यवहार करना है, और परमेश्वर को कैसे देखना है, और इसलिए, आध्यात्मिक दुनिया में, शैतान परमेश्वर की हैसियत और अधिकार को बहुत स्पष्ट रूप से देखता है, और वह परमेश्वर के अधिकार की शक्ति और उसके अधिकार प्रयोग के पीछे के सिद्धांतों की गहरी समझ रखता है। वह उन्हें नजरअंदाज करने की बिलकुल भी हिम्मत नहीं करता, न ही वह किसी भी तरह से उनका उल्लंघन करने की या ऐसा कुछ करने की हिम्मत करता है, जो परमेश्वर के अधिकार का उल्लंघन करता हो, और वह किसी भी तरह से परमेश्वर के कोप को चुनौती देने का साहस नहीं करता। हालाँकि शैतान दुष्ट और अहंकारी प्रकृति का है, लेकिन उसने कभी परमेश्वर द्वारा उसके लिए निर्धारित हद और सीमाएँ लाँघने का साहस नहीं किया है। लाखों वर्षों से उसने इन सीमाओं का कड़ाई से पालन किया है, परमेश्वर द्वारा दी गई हर आज्ञा और आदेश का पालन किया है, और कभी भी हद पार करने की हिम्मत नहीं की है। हालाँकि शैतान दुर्भावना से भरा है, लेकिन वह भ्रष्ट मानव-जाति से कहीं ज्यादा बुद्धिमान है; वह सृष्टिकर्ता की पहचान जानता है, और अपनी सीमाएँ भी जानता है। शैतान के “विनम्र” कार्यों से यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ्य स्वर्गिक आदेश हैं, जिनका शैतान द्वारा उल्लंघन नहीं किया जा सकता, और यह ठीक परमेश्वर की अद्वितीयता और उसके अधिकार के कारण है कि सभी चीजें एक व्यवस्थित तरीके से बदलती और बढ़ती हैं, ताकि मानव-जाति परमेश्वर द्वारा स्थापित क्रम के भीतर रह सके और वंश-वृद्धि कर सके, कोई भी व्यक्ति या वस्तु इस आदेश को भंग करने में सक्षम नहीं है, और कोई भी व्यक्ति या वस्तु इस व्यवस्था को बदलने में सक्षम नहीं है—क्योंकि ये सभी सृष्टिकर्ता के हाथों से और सृष्टिकर्ता के आदेश और अधिकार से आते हैं।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 99
केवल परमेश्वर, जिसके पास सृष्टिकर्ता की पहचान है, ही अद्वितीय अधिकार रखता है (चुना हुआ अंश)
शैतान की विशेष पहचान के कारण कई लोग उसके विभिन्न पहलुओं की अभिव्यक्तियों में गहन रुचि प्रदर्शित करते हैं। यहाँ तक कि बहुत-से ऐसे मूर्ख लोग भी हैं, जो यह मानते हैं कि परमेश्वर के साथ-साथ शैतान के पास भी अधिकार है, क्योंकि शैतान चमत्कार दिखाने में सक्षम है, और वे चीजें करने में सक्षम है जो मानव-जाति के लिए असंभव हैं। इस तरह, परमेश्वर की आराधना करने के अतिरिक्त मानव-जाति अपने हृदय में शैतान के लिए भी स्थान सुरक्षित रखती है, यहाँ तक कि शैतान की परमेश्वर की तरह आराधना भी करती है। ये लोग दयनीय और घृणित दोनों हैं। वे दयनीय अपनी अज्ञानता के कारण हैं, और घृणित अपने पाखंड और अंतर्निहित रूप से दुष्ट सार के कारण। इस मुकाम पर, मुझे तुम लोगों को यह सूचित करना आवश्यक लगता है कि अधिकार क्या है, किसका प्रतीक है, और क्या दर्शाता है। मोटे तौर पर, स्वयं परमेश्वर अधिकार है, उसका अधिकार परमेश्वर की सर्वोच्चता और सार का प्रतीक है, और स्वयं परमेश्वर का अधिकार परमेश्वर की हैसियत और पहचान दर्शाता है। ऐसी स्थिति में, क्या शैतान यह कहने की हिम्मत करता है कि वह खुद परमेश्वर है? क्या शैतान यह कहने की हिम्मत करता है कि उसने सभी चीजों का सृजन किया, और वह सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है? बेशक, नहीं! क्योंकि वह सभी चीजों का सृजन करने में असमर्थ है; आज तक उसने कभी परमेश्वर द्वारा निर्मित कोई चीज नहीं बनाई, और कभी ऐसी किसी चीज का सृजन नहीं किया जिसमें जीवन हो। चूँकि उसके पास परमेश्वर का अधिकार नहीं है, इसलिए उसके पास कभी परमेश्वर की हैसियत और पहचान नहीं हो सकती, और यह उसके सार से निर्धारित होता है। क्या उसमें परमेश्वर के समान सामर्थ्य है? बेशक, नहीं है! हम शैतान के कार्यों और शैतान द्वारा प्रदर्शित चमत्कारों को क्या कहते हैं? क्या वह सामर्थ्य है? क्या उसे अधिकार कहा जा सकता है? बिल्कुल नही! शैतान बुराई के ज्वार को निर्देशित करता है, और परमेश्वर के कार्य के हर पहलू को खराब करता, बिगाड़ता और बाधित करता है। पिछले हजारों साल से, मनुष्य को मौत की छाया की घाटी की ओर चलवाने के लिए मानव-जाति को भ्रष्ट करने और उसके साथ दुर्व्यवहार करने, और मनुष्य को लालच और धोखा देकर दुष्टता की ओर धकेलने और परमेश्वर को नकारने के अलावा, क्या शैतान ने कुछ भी ऐसा किया है, जो मनुष्य के थोड़े-से भी स्मरण, प्रशंसा या उसके द्वारा सँजोए जाने के योग्य है? अगर शैतान के पास अधिकार और सामर्थ्य होते, तो क्या उसके द्वारा मानव-जाति भ्रष्ट की जाती? अगर शैतान के पास अधिकार और सामर्थ्य होते, तो क्या उसके द्वारा मानव-जाति को नुकसान पहुँचाया जाता? अगर शैतान के पास सामर्थ्य और अधिकार होते, तो क्या मानव-जाति परमेश्वर को छोड़कर मृत्यु की ओर मुड़ती? चूँकि शैतान के पास कोई अधिकार या सामर्थ्य नहीं है, इसलिए जो कुछ वह करता है, उसके सार के बारे में हमें क्या निष्कर्ष निकालना चाहिए? कुछ लोग हैं, जो शैतान के सभी कार्यों को मात्र चालबाजी के रूप में परिभाषित करते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि ऐसी परिभाषा ज्यादा उपयुक्त नहीं है। क्या उसके द्वारा मानव-जाति को भ्रष्ट करने के लिए किए जाने वाले दुष्कर्म केवल चालबाजी हैं? शैतान ने जिस बुरी ताकत से अय्यूब के साथ दुर्व्यवहार किया था, और उसके साथ दुर्व्यवहार कर उसे निगल जाने की उसकी तीव्र इच्छा शायद केवल चालबाजी से पूरी नहीं हो सकती थी। बीती बातों पर सोचें तो, अय्यूब के भेड़-बकरियों और गाय-बैलों के झुंड, जो दूर-दूर तक पहाड़ियों और पहाड़ों पर बिखरे हुए थे, एक ही क्षण में चले गए; अय्यूब की विशाल संपत्ति एक ही पल में गायब हो गई। क्या यह केवल चालबाजी से हासिल किया जा सकता था? शैतान जो कुछ भी करता है, उसकी प्रकृति बिगाड़ना, बाधित करना, नष्ट करना, नुकसान पहुँचाना, बुराई, दुर्भावना और अंधकार जैसे नकारात्मक शब्दों के साथ मेल खाती और सही बैठती है, इसलिए जो कुछ भी अधार्मिक और बुरा है, उसका होना शैतान के कार्यों के साथ अटूट रूप से जुड़ा है और शैतान के दुष्ट सार से अविभाज्य है। शैतान चाहे जितना भी “सामर्थ्यवान” हो, चाहे वह जितना भी दुस्साहसी और महत्वाकांक्षी हो, चाहे नुकसान पहुँचाने की उसकी क्षमता जितनी भी बड़ी हो, चाहे मनुष्य को भ्रष्ट करने और लुभाने की उसकी तकनीकें जितनी भी व्यापक हों, चाहे मनुष्य को डराने की उसकी तरकीबें और योजनाएँ जितनी भी चतुराई से भरी हों, चाहे उसके अस्तित्व के रूप जितने भी परिवर्तनशील हों, वह कभी एक भी जीवित चीज सृजित करने में सक्षम नहीं हुआ, कभी सभी चीजों के अस्तित्व के लिए व्यवस्थाएँ या नियम निर्धारित करने में सक्षम नहीं हुआ, और कभी किसी सजीव या निर्जीव चीज पर शासन और नियंत्रण करने में सक्षम नहीं हुआ। ब्रह्मांड और आकाश के भीतर, एक भी व्यक्ति या चीज नहीं है जो उससे पैदा हुई हो, या उसके कारण अस्तित्व में हो; एक भी व्यक्ति या चीज नहीं है जो उसके द्वारा शासित हो, या उसके द्वारा नियंत्रित हो। इसके विपरीत, उसे न केवल परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन रहना है, बल्कि, परमेश्वर के सभी आदेशों और आज्ञाओं का पालन करना है। परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान के लिए जमीन पर पानी की एक बूँद या रेत का एक कण छूना भी मुश्किल है; परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान धरती पर चींटियों का स्थान बदलने के लिए भी स्वतंत्र नहीं है, परमेश्वर द्वारा सृजित मानव-जाति की तो बात ही छोड़ दो। परमेश्वर की दृष्टि में, शैतान पहाड़ पर उगने वाली कुमुदनियों से, हवा में उड़ने वाले पक्षियों से, समुद्र में रहने वाली मछलियों से, और पृथ्वी पर रहने वाले कीड़ों से भी तुच्छ है। सभी चीजों के बीच उसकी भूमिका सभी चीजों की सेवा करना, मानव-जाति के लिए कार्य करना, और परमेश्वर के कार्य और उसकी प्रबंधन-योजना के काम आना है। उसकी प्रकृति कितनी भी दुर्भावनापूर्ण क्यों न हो, और उसका सार कितना भी बुरा क्यों न हो, केवल एक चीज जो वह कर सकता है, वह है अपने कार्य का कर्तव्यनिष्ठा से पालन करना : परमेश्वर के लिए सेवा देना, और परमेश्वर को एक विषमता प्रदान करना। ऐसा है शैतान का सार और उसकी स्थिति। उसका सार जीवन से असंबद्ध है, सामर्थ्य से असंबद्ध है, अधिकार से असंबद्ध है; वह परमेश्वर के हाथ में केवल एक खिलौना है, परमेश्वर की सेवा में रत सिर्फ एक मशीन है!
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 100
केवल परमेश्वर, जिसके पास सृष्टिकर्ता की पहचान है, ही अद्वितीय अधिकार रखता है (चुने हुए अंश)
अधिकार को अपने आप में परमेश्वर के सामर्थ्य के रूप में समझाया जा सकता है। पहले, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अधिकार और सामर्थ्य दोनों सकारात्मक हैं। उनका किसी भी नकारात्मक चीज से कोई संबंध नहीं, और वे किसी भी सृजित या गैर-सृजित प्राणियों से संबंधित नहीं हैं। परमेश्वर का सामर्थ्य जीवन और जीवन-शक्ति रखने वाले किसी भी रूप की चीजें बनाने में सक्षम है, और यह परमेश्वर के जीवन द्वारा निर्धारित किया जाता है। परमेश्वर जीवन है, इसलिए वह सभी जीवों का स्रोत है। इसके अलावा, परमेश्वर का अधिकार सभी जीवित प्राणियों से परमेश्वर के प्रत्येक वचन का पालन करवा सकता है, अर्थात्, उन्हें परमेश्वर के मुँह से निकले वचनों के अनुसार अस्तित्व में ला सकता है, और परमेश्वर की आज्ञा से जीने और प्रजनन करने दे सकता है, जिसके बाद परमेश्वर सभी जीवित प्राणियों पर शासन और नियंत्रण करता है, और इसमें कभी विचलन नहीं होगा, न अभी, न भविष्य में कभी। किसी व्यक्ति या वस्तु के पास ये चीजें नहीं हैं; केवल सृष्टिकर्ता के पास ही ऐसा सामर्थ्य है और वही इसे धारण करता है, इसलिए इसे अधिकार कहा जाता है। यह सृष्टिकर्ता की अद्वितीयता है। इसलिए, चाहे वह “अधिकार” शब्द हो या उस अधिकार का सार, दोनों केवल सृष्टिकर्ता के साथ जोड़े जा सकते हैं, क्योंकि ये सृष्टिकर्ता की अद्वितीय पहचान और सार के प्रतीक हैं, और सृष्टिकर्ता की पहचान और हैसियत दर्शाते हैं; सृष्टिकर्ता के अलावा, किसी व्यक्ति या चीज को “अधिकार” शब्द के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। यह सृष्टिकर्ता के अद्वितीय अधिकार की व्याख्या है।
हालाँकि शैतान ने अय्यूब को ललचाई आँखों से देखा, लेकिन परमेश्वर की अनुमति के बिना उसने अय्यूब के शरीर का एक बाल भी छूने की हिम्मत नहीं की। हालाँकि शैतान अंतर्निहित रूप से दुष्ट और क्रूर है, लेकिन परमेश्वर द्वारा उसे आदेश दिए जाने के बाद, उसके पास परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इस प्रकार, भले ही शैतान जब वह अय्यूब के पास आया, तो वह भेड़ों के बीच भेड़िये की तरह उन्मत्त था, लेकिन उसने परमेश्वर द्वारा उसके लिए निर्धारित सीमाएँ भूलने की हिम्मत नहीं की, परमेश्वर के आदेशों का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं की, और जो कुछ भी उसने किया, उसमें शैतान ने परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों और सीमाओं से भटकने की हिम्मत नहीं की—क्या यह एक तथ्य नहीं है? इससे यह देखा जा सकता है कि शैतान यहोवा परमेश्वर के किसी भी वचन का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं करता। शैतान के लिए परमेश्वर के मुख से निकला प्रत्येक वचन एक आदेश और एक स्वर्गिक व्यवस्था है, परमेश्वर के अधिकार की अभिव्यक्ति है—क्योंकि परमेश्वर के प्रत्येक वचन के पीछे परमेश्वर के आदेशों का उल्लंघन करने वालों और स्वर्गिक व्यवस्थाओं की अवज्ञा और विरोध करने वालों के लिए परमेश्वर की सजा निहित है। शैतान स्पष्ट रूप से जानता है कि अगर वह परमेश्वर के आदेशों का उल्लंघन करेगा, तो उसे परमेश्वर के अधिकार का उल्लंघन करने और स्वर्गिक व्यवस्थाओं का विरोध करने के परिणाम स्वीकारने होंगे। आखिर वे परिणाम क्या हैं? कहने की जरूरत नहीं कि वे परमेश्वर द्वारा उसे दी जाने वाली सजा हैं। अय्यूब के प्रति शैतान के कार्य उसके द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किए जाने का केवल एक सूक्ष्म रूप थे, और जब शैतान ये कार्य कर रहा था, तो परमेश्वर ने जो सीमाएँ निर्धारित कीं और जो आदेश उसने शैतान को दिए, वे सब उसके द्वारा की जाने वाली हर चीज के पीछे के सिद्धांतों का एक सूक्ष्म रूप मात्र थे। इसके अलावा, इस मामले में शैतान की भूमिका और स्थिति, परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य में उसकी भूमिका और स्थिति का एक सूक्ष्म रूप मात्र थी, और शैतान द्वारा अय्यूब की परीक्षा में परमेश्वर के प्रति उसकी पूर्ण आज्ञाकारिता केवल इस बात का एक सूक्ष्म रूप थी कि कैसे शैतान ने परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य में परमेश्वर का थोड़ा-सा भी विरोध करने की हिम्मत नहीं की। ये सूक्ष्म रूप तुम लोगों को क्या चेतावनी देते हैं? शैतान समेत सभी चीजों में, कोई भी व्यक्ति या चीज ऐसी नहीं है, जो सृष्टिकर्ता द्वारा निर्धारित स्वर्गिक व्यवस्थाओं और आदेशों का उल्लंघन कर सकती हो, और कोई भी व्यक्ति या चीज ऐसी नहीं है जो इन स्वर्गिक नियमों और आदेशों का उल्लंघन करने की हिम्मत करती हो, क्योंकि कोई भी व्यक्ति या चीज उस सजा को बदल या उससे बच नहीं सकती, जो सृष्टिकर्ता उनकी अवज्ञा करने वालों को देता है। केवल सृष्टिकर्ता ही स्वर्गिक व्यवस्थाएँ और आदेश स्थापित कर सकता है, केवल सृष्टिकर्ता के पास ही उन्हें लागू करने का सामर्थ्य है, और केवल सृष्टिकर्ता के सामर्थ्य का ही किसी भी व्यक्ति या चीज द्वारा उल्लंघन नहीं किया जा सकता। यह सृष्टिकर्ता का अद्वितीय अधिकार है, और यह अधिकार सभी चीजों में सर्वोच्च है, और इसलिए, यह कहना असंभव है कि “परमेश्वर महानतम है और शैतान दूसरे नंबर पर है।” अद्वितीय अधिकार से संपन्न सृष्टिकर्ता के अलावा कोई दूसरा परमेश्वर नहीं है!
क्या तुम लोगों को अब परमेश्वर के अधिकार का नया ज्ञान है? पहले, क्या अभी-अभी उल्लिखित परमेश्वर के अधिकार और मनुष्य के सामर्थ्य के बीच कोई अंतर है? क्या अंतर है? कुछ लोगों का कहना है कि दोनों में कोई तुलना नहीं है। यह सही है! हालाँकि लोग कहते हैं कि दोनों के बीच कोई तुलना नहीं है, लेकिन मनुष्य के विचारों और धारणाओं में, मनुष्य का सामर्थ्य अक्सर अधिकार के साथ भ्रमित किया जाता है, और दोनों की अक्सर साथ-साथ तुलना की जाती है। यहाँ क्या हो रहा है? क्या लोग अनजाने में एक को दूसरे के साथ प्रतिस्थापित करने की गलती नहीं कर रहे? ये दोनों असंबद्ध हैं, और इनके बीच कोई तुलना नहीं है, फिर भी लोग बाज नहीं आते। इसका समाधान कैसे किया जाना चाहिए? अगर तुम वास्तव में समाधान खोजना चाहते हो, तो एकमात्र तरीका परमेश्वर के अद्वितीय अधिकार को समझना और जानना है। सृष्टिकर्ता के अधिकार को समझने और जानने के बाद तुम मनुष्य के सामर्थ्य और परमेश्वर के अधिकार का एक-साथ उल्लेख नहीं करोगे।
मनुष्य के सामर्थ्य से क्या तात्पर्य है? सीधे तौर पर कहें तो, यह एक क्षमता या कौशल है जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को अधिकतम सीमा तक फैलने या पूरा होने में सक्षम बनाता है। क्या इसे अधिकार माना जा सकता है? मनुष्य की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ चाहे जितनी भी बड़ी या आकर्षक हों, यह नहीं कहा जा सकता कि उस व्यक्ति के पास अधिकार है; ज्यादा से ज्यादा, यह घमंड और सफलता मनुष्यों के बीच शैतान के मसखरेपन का एक प्रदर्शन मात्र है; ज्यादा से ज्यादा यह एक प्रहसन है, जिसमें शैतान परमेश्वर होने की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए खुद को अपना ही पूर्वज बना लेता है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 101
केवल परमेश्वर, जिसके पास सृष्टिकर्ता की पहचान है, ही अद्वितीय अधिकार रखता है (चुने हुए अंश)
परमेश्वर का अधिकार किसका प्रतीक है? क्या यह स्वयं परमेश्वर की पहचान का प्रतीक है? क्या यह स्वयं परमेश्वर के सामर्थ्य का प्रतीक है? क्या यह स्वयं परमेश्वर की अद्वितीय हैसियत का प्रतीक है? सभी चीजों के बीच, तुमने परमेश्वर का अधिकार किसमें देखा है? तुमने इसे कैसे देखा? मनुष्य द्वारा अनुभव की जाने वाली चार ऋतुओं के संदर्भ में, क्या कोई बसंत, ग्रीष्म, शरद और शीत ऋतु के बीच अंतःपरिवर्तन की व्यवस्था बदल सकता है? बसंत ऋतु में पेड़ों पर कलियाँ उगती और खिलती हैं; गर्मियों में वे पत्तियों से ढक जाते हैं; शरद ऋतु में उन पर फल लगते हैं, और सर्दियों में पत्ते गिर जाते हैं। क्या कोई इस व्यवस्था को बदल सकता है? क्या यह परमेश्वर के अधिकार का एक पहलू दर्शाता है? परमेश्वर ने कहा “उजियाला हो,” और उजियाला हो गया। क्या यह उजियाला अभी भी मौजूद है? यह किसके कारण मौजूद है? बेशक, यह परमेश्वर के वचनों के कारण, और परमेश्वर के अधिकार के कारण मौजूद है। क्या परमेश्वर द्वारा सृजित हवा अभी भी मौजूद है? क्या मनुष्य जिस हवा में साँस लेता है, वह परमेश्वर से आती है? क्या कोई परमेश्वर से आने वाली चीजें छीन सकता है? क्या कोई उनका सार और कार्य बदल सकता है? क्या कोई परमेश्वर द्वारा नियत रात और दिन, और परमेश्वर द्वारा आदेशित रात और दिन की व्यवस्था नष्ट कर सकता है? क्या शैतान ऐसा कर सकता है? अगर तुम रात को नहीं सोते, और रात को दिन मान लेते हो, तब भी रात ही होती है; तुम अपनी दिनचर्या बदल सकते हो, लेकिन तुम रात और दिन के बीच अंतःपरिवर्तन की व्यवस्था बदलने में असमर्थ हो—यह तथ्य किसी भी व्यक्ति द्वारा अपरिवर्तनीय है, है न? क्या कोई शेर से बैल की तरह भूमि जुतवाने में सक्षम है? क्या कोई हाथी को गधे में बदलने में सक्षम है? क्या कोई मुर्गी को बाज की तरह हवा में उड़वाने में सक्षम है? क्या कोई भेड़िये को भेड़ की तरह घास खाने के लिए मजबूर कर सकता है? (नहीं।) क्या कोई पानी में रहने वाली मछली को सूखी जमीन पर जीवित रखने में सक्षम है? यह मनुष्यों द्वारा नहीं किया जा सकता। क्यों नहीं किया जा सकता? इसलिए कि परमेश्वर ने मछलियों को पानी में रहने की आज्ञा दी है, इसलिए वे पानी में रहती हैं। जमीन पर वे जीवित नहीं रह पाएँगी और मर जाएँगी; वे परमेश्वर की आज्ञा की सीमाओं का उल्लंघन करने में असमर्थ हैं। सभी चीजों के अस्तित्व की एक व्यवस्था और सीमा होती है, और उनमें से प्रत्येक की अपनी सहज प्रवृत्ति होती है। वे सृष्टिकर्ता द्वारा नियत की गई हैं, और किसी भी मनुष्य द्वारा अपरिवर्तनीय और अलंघ्य हैं। उदाहरण के लिए, शेर हमेशा मनुष्य के समुदायों से दूर, जंगल में रहेगा, और वह कभी उतना विनम्र और वफादार नहीं हो सकता, जितना कि मनुष्य के साथ रहने और उसके लिए काम करने वाला बैल होता है। हालाँकि हाथी और गधे दोनों जानवर हैं और दोनों के चार पैर होते हैं, और वे जीव हैं जो हवा में साँस लेते हैं, फिर भी वे अलग प्रजातियाँ हैं, क्योंकि उन्हें परमेश्वर द्वारा विभिन्न किस्मों में विभाजित किया गया था, उनमें से प्रत्येक की अपनी सहज प्रवृत्ति होती है, इसलिए वे कभी आपस में बदले नहीं जा सकेंगे। हालाँकि बाज की ही तरह मुर्गे के भी दो पैर और पंख होते हैं, लेकिन वह कभी हवा में नहीं उड़ पाएगा; ज्यादा से ज्यादा वह केवल पेड़ तक उड़ सकता है—यह उसकी सहज प्रवृत्ति से निर्धारित होता है। कहने की जरूरत नहीं कि यह सब परमेश्वर के अधिकार की आज्ञाओं के कारण है।
मानव-जाति के विकास में आज उसके विज्ञान को फलता-फूलता कहा जा सकता है, और मनुष्य की वैज्ञानिक खोज की उपलब्धियाँ प्रभावशाली कही जा सकती हैं। कहना होगा कि मनुष्य की क्षमता लगातार बढ़ती जा रही है, लेकिन एक वैज्ञानिक खोज ऐसी है जिसे करने में मनुष्य असमर्थ रहा है : मनुष्य ने हवाई जहाज, विमान-वाहक और परमाणु बम बना लिए हैं, वह अंतरिक्ष में पहुँच गया है, चंद्रमा पर चला है, उसने इंटरनेट का आविष्कार किया, और एक हाई-टेक जीवन-शैली जीने लगा है, फिर भी वह एक जीवित, साँस लेने वाली चीज बनाने में असमर्थ है। हर जीवित प्राणी की सहज प्रवृत्ति और वे व्यवस्थाएँ जिनके द्वारा वे जीते हैं, और हर किस्म के जीवित प्राणियों के जीवन और मृत्यु का चक्र—ये सब मनुष्य के विज्ञान के सामर्थ्य से परे हैं और उसके द्वारा नियंत्रित नहीं किए जा सकते। इस जगह, कहना होगा कि मनुष्य के विज्ञान ने चाहे जितनी भी महान ऊँचाइयाँ प्राप्त कर ली हों, उनकी तुलना सृष्टिकर्ता के किसी भी विचार के साथ नहीं की जा सकती और वह सृष्टिकर्ता के सृजन की चमत्कारिकता और उसके अधिकार की शक्ति को समझने में असमर्थ है। पृथ्वी पर इतने सारे महासागर हैं, लेकिन उन्होंने कभी अपनी सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया और अपनी इच्छा से भूमि पर नहीं आए, और ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने उनमें से प्रत्येक के लिए सीमाएँ निर्धारित की हैं; वे वहीं ठहर गए, जहाँ ठहरने की उसने उन्हें आज्ञा दी, और परमेश्वर की अनुमति के बिना वे आजादी से यहाँ-वहाँ नहीं जा सकते। परमेश्वर की अनुमति के बिना वे एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं कर सकते, और केवल तभी हिल सकते हैं जब परमेश्वर हिलने को कहता है, और वे कहाँ जाएँगे और ठहरेंगे, यह परमेश्वर के अधिकार द्वारा निर्धारित किया जाता है।
साफ कहें तो, “परमेश्वर के अधिकार” का अर्थ है कि यह परमेश्वर पर निर्भर है। परमेश्वर को यह तय करने का अधिकार है कि कोई चीज कैसे करनी है, और उसे उस तरह किया जाता है, जिस तरह से वह चाहता है। सब चीजों की व्यवस्था परमेश्वर पर निर्भर है, मनुष्य पर नहीं; न ही उसे मनुष्य द्वारा बदला जा सकता है। उसे मनुष्य की इच्छा से नहीं हिलाया जा सकता, बल्कि परमेश्वर के विचारों, परमेश्वर की बुद्धि और परमेश्वर के आदेशों द्वारा बदला जाता है; यह एक ऐसा तथ्य है जिससे कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता। स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजें, ब्रह्मांड, तारों भरा आकाश, वर्ष के चार मौसम, जो भी मनुष्य के लिए दृश्यमान और अदृश्य हैं—वे सभी थोड़ी-सी भी त्रुटि के बिना, परमेश्वर के अधिकार के तहत, परमेश्वर के आदेशों के अनुसार, परमेश्वर की आज्ञाओं के मुताबिक, और सृष्टि की शुरुआत की व्यवस्थाओं के अनुसार अस्तित्व में हैं, कार्यरत हैं, और बदलते हैं। कोई भी व्यक्ति या चीज उनकी व्यवस्थाएँ नहीं बदल सकती, या वह अंतर्निहित क्रम नहीं बदल सकती जिसके द्वारा वे कार्य करते हैं; वे परमेश्वर के अधिकार के कारण अस्तित्व में आए, और परमेश्वर के अधिकार के कारण नष्ट होते हैं। यही परमेश्वर का अधिकार है। अब जबकि इतना कहा जा चुका है, क्या तुम महसूस कर सकते हो कि परमेश्वर का अधिकार परमेश्वर की पहचान और हैसियत का प्रतीक है? क्या परमेश्वर का अधिकार किसी भी सृजित या गैर-सृजित प्राणी के पास हो सकता है? क्या किसी व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ द्वारा इसका अनुकरण, प्रतिरूपण, या प्रतिस्थापन किया जा सकता है?
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 102
सृष्टिकर्ता की पहचान अद्वितीय है और तुम्हें बहुईश्वरवाद के विचार का पालन नहीं करना चाहिए
हालाँकि शैतान के कौशल और क्षमताएँ मनुष्य की तुलना में ज्यादा हैं, हालाँकि वह वे चीजें कर सकता है जो मनुष्य नहीं कर सकता, चाहे तुम शैतान के कार्यों से ईर्ष्या करो या उनकी आकांक्षा करो, चाहे तुम इन चीजों से घृणा करो या इनका तिरस्कार करो, चाहे तुम उन्हें देखने में सक्षम हो या न हो, और चाहे शैतान जितना भी हासिल कर सकता हो या जितने भी लोगों को धोखा देकर उनसे अपनी आराधना और अपना प्रतिष्ठापन करवा सकता हो, और चाहे तुम जैसे भी इसे परिभाषित करो, लेकिन तुम संभवतः यह नहीं कह सकते कि उसमें परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ्य है। तुम्हें पता होना चाहिए कि परमेश्वर परमेश्वर है, केवल एक परमेश्वर है, और इसके अलावा, तुम्हें पता होना चाहिए कि केवल परमेश्वर के पास ही अधिकार है, कि केवल परमेश्वर के पास ही सभी चीजों पर नियंत्रण और शासन करने का सामर्थ्य है। सिर्फ इसलिए कि शैतान में लोगों को धोखा देने की क्षमता है और वह परमेश्वर का रूप धारण कर सकता है, परमेश्वर द्वारा बनाए गए चिह्नों और चमत्कारों की नकल कर सकता है, और उसने परमेश्वर के समान कार्य किए हैं, तुम गलती से मानते हो कि परमेश्वर अद्वितीय नहीं है, कि कई परमेश्वर हैं, कि इन अलग-अलग परमेश्वरों के पास केवल ज्यादा या कम कौशल हैं, और उनके सामर्थ्य के विस्तार में अंतर हैं। तुम उनके आगमन के क्रम में और उनकी उम्र के अनुसार उनकी महानता को श्रेणीबद्ध करते हो, और तुम गलत ढंग से यह मानते हो कि परमेश्वर के अलावा अन्य देवता भी हैं, और सोचते हो कि परमेश्वर का सामर्थ्य और अधिकार अद्वितीय नहीं हैं। अगर तुम्हारे ऐसे विचार हैं, अगर तुम परमेश्वर की अद्वितीयता को नहीं पहचानते, यह विश्वास नहीं करते कि केवल परमेश्वर के पास ही अधिकार है, और अगर तुम केवल बहुईश्वरवाद का पालन करते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम प्राणियों में सबसे नीच हो, तुम शैतान के सच्चे मूर्त रूप हो, और तुम पूरी तरह से बुरे व्यक्ति हो! क्या तुम लोग समझ रहे हो कि मैं ये वचन कहकर तुम लोगों को क्या सिखाने की कोशिश कर रहा हूँ? चाहे जो भी समय या स्थान हो, या जो भी तुम्हारी पृष्ठभूमि हो, तुम्हें किसी अन्य व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ को परमेश्वर नहीं समझ लेना चाहिए। चाहे तुम परमेश्वर के अधिकार और स्वयं परमेश्वर के सार को कितना भी अज्ञेय या अगम्य महसूस करो, चाहे शैतान के कर्म और वचन तुम्हारी धारणा और कल्पना से कितने भी मेल खाएँ, चाहे वे तुम्हारे लिए कितने भी संतोषजनक हों, तुम मूर्ख मत बनो, इन अवधारणाओं में मत उलझो, परमेश्वर का अस्तित्व मत नकारो, परमेश्वर की पहचान और हैसियत मत नकारो, परमेश्वर को दरवाजे से बाहर मत करो और शैतान को अपने दिल के भीतर लाकर परमेश्वर का स्थान मत दो, उसे अपना परमेश्वर मत बनाओ। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम लोग ऐसा करने के परिणामों की कल्पना करने में सक्षम हो!
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 103
हालाँकि मनुष्य भ्रष्ट हो चुका है, लेकिन वह अभी भी सृष्टिकर्ता के अधिकार की संप्रभुता के अधीन रहता है
शैतान हजारों वर्षों से मनुष्य को भ्रष्ट कर रहा है। उसने मनुष्य में बेहिसाब बुराई गढ़ी है, पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसे धोखा दिया है, और दुनिया में जघन्य अपराध किए हैं। उसने मनुष्य के साथ दुर्व्यवहार किया है, मनुष्य को धोखा दिया है, मनुष्य को परमेश्वर का विरोध करने के लिए बहकाया है, और ऐसे बुरे कार्य किए हैं जिन्होंने परमेश्वर की प्रबंधन-योजना को बार-बार उलझाया और बाधित किया है। फिर भी, परमेश्वर के अधिकार के तहत, सभी चीजें और जीवित प्राणी परमेश्वर द्वारा निर्धारित नियमों और व्यवस्थाओं का पालन करते रहते हैं। परमेश्वर के अधिकार की तुलना में, शैतान की दुष्ट प्रकृति और निरंकुशता बहुत कुरूप, बहुत घृणित और नीच, और बहुत क्षुद्र और कमजोर है। भले ही शैतान परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजों के बीच चलता है, लेकिन वह परमेश्वर द्वारा नियंत्रित लोगों, चीजों और पदार्थों में थोड़ा-सा भी बदलाव करने में सक्षम नहीं है। हजारों वर्ष बीत चुके हैं, और मानव-जाति अभी भी परमेश्वर द्वारा प्रदत्त प्रकाश और हवा का आनंद लेती है, अभी भी स्वयं परमेश्वर द्वारा छोड़ी गई साँस से साँस लेती है, अभी भी परमेश्वर द्वारा सृजित फूलों, पक्षियों, मछलियों और कीटों का आनंद लेती है, और परमेश्वर द्वारा प्रदान की गई सभी चीजों का आनंद लेती है; दिन और रात अभी भी लगातार एक-दूसरे की जगह लेते हैं; चार मौसम हमेशा की तरह बारी-बारी से आते हैं; आकाश में उड़ने वाले हंस सर्दियों में चले जाते हैं और अगले बसंत में फिर लौट आते हैं; पानी में रहने वाली मछलियाँ कभी नदी-झीलें—अपना घर नहीं छोड़तीं; गर्मी के दिनों में शलभ पृथ्वी पर दिल खोलकर गाते हैं; पतझड़ के दौरान हवा के साथ घास में झींगुर मृदुता से गुनगुनाते हैं; हंस झुंड में एकत्र होते हैं, जबकि बाज अकेले रहते हैं; सिंहों के समूह शिकार करके अपना भरण-पोषण करते हैं; बारहसिंगा घास और फूलों से भटककर दूर नहीं जाता...। सभी चीजों के बीच हर तरह का जीवित प्राणी जाता और लौटता है और फिर चला जाता है, पलक झपकते ही लाखों परिवर्तन हो जाते हैं—लेकिन जो नहीं बदलता, वह है उनकी सहज प्रवृत्ति और अस्तित्व की व्यवस्थाएँ। वे परमेश्वर के प्रावधान और पोषण के तहत रहते हैं, और कोई उनकी सहज प्रवृत्ति नहीं बदल सकता, और न ही कोई उनके अस्तित्व की व्यवस्थाओं के नियम भंग कर सकता है। हालाँकि मानव-जाति, जो सभी चीजों के बीच रहती है, शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई और ठगी गई है, फिर भी मनुष्य परमेश्वर द्वारा बनाए गए पानी, और परमेश्वर द्वारा बनाई गई हवा, और परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजें नहीं छोड़ सकता, और मनुष्य अभी भी परमेश्वर द्वारा सृजित स्थान में रहता और वंश-वृद्धि करता है। मानव-जाति की सहज प्रवृत्तियाँ नहीं बदली हैं। मनुष्य अभी भी देखने के लिए अपनी आँखों पर, सुनने के लिए अपने कानों पर, सोचने के लिए अपने मस्तिष्क पर, समझने के लिए अपने दिल पर, चलने के लिए अपने पैरों पर, काम करने के लिए अपने हाथों पर, इत्यादि, निर्भर करता है; वे सभी सहज प्रवृत्तियाँ जो परमेश्वर ने मनुष्य को दीं, ताकि वह परमेश्वर का प्रावधान स्वीकार कर सके, अपरिवर्तित रहती हैं, जिन क्षमताओं के माध्यम से मनुष्य परमेश्वर के साथ सहयोग करता है, उनमें कोई बदलाव नहीं आया है, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए मानव-जाति की क्षमता नहीं बदली है, मानव-जाति की आध्यात्मिक आवश्यकताएँ नहीं बदली हैं, मानव-जाति की अपने मूल को खोजने की इच्छा नहीं बदली है, सृष्टिकर्ता द्वारा बचाए जाने की मानव-जाति की लालसा नहीं बदली है। ऐसी हैं मानव-जाति की वर्तमान परिस्थितियाँ, जो परमेश्वर के अधिकार के अधीन रहती हैं, और जिसने शैतान द्वारा किया गया खूनी विनाश सहन किया है। हालाँकि मनुष्य शैतान द्वारा रौंदे गए हैं, और अब वे सृष्टि की शुरुआत वाले आदम और हव्वा नहीं हैं, बल्कि ज्ञान, कल्पना, धारणाओं आदि जैसी परमेश्वर-विरोधी चीजों से भरे हुए हैं और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से पूर्ण हैं, फिर भी परमेश्वर की दृष्टि में मानव-जाति अभी भी वही मानव-जाति है, जिसे उसने बनाया था। मानव-जाति अभी भी परमेश्वर द्वारा शासित और आयोजित है, और अभी भी परमेश्वर द्वारा निर्धारित क्रम के भीतर रहती है, और इसलिए परमेश्वर की दृष्टि में मानव-जाति, जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, सिर्फ गर्द से ढकी हुई है, उसका पेट गड़गड़ाता है, वह थोड़ी धीमी प्रतिक्रिया देती है, उसकी स्मृति उतनी अच्छी नहीं रही जितनी हुआ करती थी, और थोड़ी पुरानी पड़ गई है—लेकिन मनुष्य के सभी कार्य और सहज प्रवृत्तियाँ पूरी तरह से अक्षत हैं। यही वह मनुष्य है, जिसे परमेश्वर बचाने का इरादा रखता है। इस मनुष्य को बस सृष्टिकर्ता की पुकार सुननी होगी, बस सृष्टिकर्ता की वाणी सुननी होगी, फिर वह उठ खड़ा होगा और उस वाणी के स्रोत का पता लगाने के लिए दौड़ेगा। इस मनुष्य को बस सृष्टिकर्ता की आकृति देखनी होगी, फिर वह किसी और चीज पर ध्यान नहीं देगा, और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के लिए सब-कुछ त्याग देगा, यहाँ तक कि उसके लिए अपना जीवन भी दे देगा। जब मानव-जाति का हृदय सृष्टिकर्ता के हार्दिक वचनों को समझेगा, तब मानव-जाति शैतान को नकार देगी और सृष्टिकर्ता के साथ आ जाएगी; जब मानव-जाति अपने शरीर से गंदगी पूरी तरह से धो देगी, और एक बार फिर से सृष्टिकर्ता का प्रावधान और पोषण प्राप्त कर लेगी, तब मानव-जाति की स्मृति बहाल हो जाएगी, और उस समय मानव-जाति वास्तव में सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में लौट आएगी।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 104
हठधर्मी से परमेश्वर का विरोध करने से मनुष्य परमेश्वर के कोप से नष्ट हो जाता है (चुने हुए अंश)
उत्पत्ति 19:1-11 साँझ को वे दो दूत सदोम के पास आए; और लूत सदोम के फाटक के पास बैठा था। उन को देखकर वह उनसे भेंट करने के लिये उठा, और मुँह के बल झुककर दण्डवत् कर कहा, “हे मेरे प्रभुओ, अपने दास के घर में पधारिए, और रात भर विश्राम कीजिए, और अपने पाँव धोइये, फिर भोर को उठकर अपने मार्ग पर जाइए।” उन्होंने कहा, “नहीं, हम चौक ही में रात बिताएँगे।” पर उसने उनसे बहुत विनती करके उन्हें मनाया; इसलिये वे उसके साथ चलकर उसके घर में आए; और उसने उनके लिये भोजन तैयार किया, और बिना खमीर की रोटियाँ बनाकर उनको खिलाईं। उनके सो जाने से पहले, सदोम नगर के पुरुषों ने, जवानों से लेकर बूढ़ों तक, वरन् चारों ओर के सब लोगों ने आकर उस घर को घेर लिया; और लूत को पुकारकर कहने लगे, “जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहाँ हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।” तब लूत उनके पास द्वार के बाहर गया, और किवाड़ को अपने पीछे बन्द करके कहा, “हे मेरे भाइयो, ऐसी बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियाँ हैं जिन्होंने अब तक पुरुष का मुँह नहीं देखा; इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊँ, और तुम को जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो; पर इन पुरुषों से कुछ न करो; क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।” उन्होंने कहा, “हट जा!” फिर वे कहने लगे, “तू एक परदेशी होकर यहाँ रहने के लिये आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा है; इसलिये अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।” और वे उस पुरुष लूत को बहुत दबाने लगे, और किवाड़ तोड़ने के लिये निकट आए। तब उन अतिथियों ने हाथ बढ़ाकर लूत को अपने पास घर में खींच लिया, और किवाड़ को बन्द कर दिया। और उन्होंने क्या छोटे, क्या बड़े, सब पुरुषों को जो घर के द्वार पर थे, अन्धा कर दिया, अतः वे द्वार को टटोलते टटोलते थक गए।
उत्पत्ति 19:24-25 तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई; और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को, और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्ट कर दिया।
इन अंशों से यह देखना कठिन नहीं है कि सदोम का अधर्म और भ्रष्टता पहले ही उस मात्रा तक पहुँच चुकी थी, जो मनुष्य और परमेश्वर दोनों के लिए घृणास्पद थी, और इसलिए परमेश्वर की दृष्टि में नगर नष्ट किए जाने के लायक था। परंतु नगर को नष्ट किए जाने से पहले उसके भीतर क्या हुआ था? लोग इन घटनाओं से क्या प्रेरणा ले सकते हैं? इन घटनाओं के प्रति परमेश्वर का रवैया उसके स्वभाव के संबंध में लोगों को क्या दिखाता है? पूरी कहानी समझने के लिए, आओ हम ध्यान से पढ़ें कि पवित्रशास्त्र में क्या दर्ज किया गया था ...
सदोम की भ्रष्टता : मनुष्य को क्रोधित करने वाली, परमेश्वर का कोप भड़काने वाली
उस रात लूत ने परमेश्वर के दो दूतों का स्वागत किया और उनके लिए एक भोज तैयार किया। रात्रि-भोजन के बाद, उनके लेटने से पहले, नगर भर के लोगों ने लूत के घर को घेर लिया और उसे बाहर बुलाने लगे। पवित्रशास्त्र में उनका यह कथन दर्ज है, “जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहाँ हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।” ये शब्द किसने कहे थे? ये किनसे कहे गए थे? ये सदोम के लोगों के शब्द थे, जो लूत के घर के बाहर चिल्ला रहे थे, और ये लूत से कहे गए थे। इन शब्दों को सुनकर कैसा महसूस होता है? क्या तुम क्रोधित हो? क्या इन शब्दों से तुम्हें घिन आती है? क्या तुम क्रोध के मारे आगबबूला हो रहे हो? क्या इन शब्दों से शैतान की दुर्गंध नहीं आती? इनके जरिये, क्या तुम इस नगर की बुराई और अंधकार का एहसास कर सकते हो? क्या तुम इन लोगों के शब्दों के जरिये उनके व्यवहार की क्रूरता और बर्बरता का एहसास कर सकते हो? क्या तुम उनके आचरण के जरिये उनकी भ्रष्टता की गहराई का एहसास कर सकते हो? उन्होंने जो कहा, उसके जरिये यह समझना कठिन नहीं है कि उनकी दुष्ट प्रकृति और बर्बर स्वभाव उस स्तर तक पहुँच गया था, जो उनके खुद के नियंत्रण से परे था। लूत को छोड़कर नगर का हर एक व्यक्ति शैतान से अलग नहीं था; दूसरे व्यक्ति की झलक पाते ही ये लोग उसे नुकसान पहुँचाना और निगल जाना चाहते थे...। ये चीज़ें व्यक्ति को नगर की विकराल और डरावनी प्रकृति के साथ ही उसके चारों ओर मौजूद मौत के वातावरण का ही एहसास नहीं करातीं, बल्कि उसकी दुष्टता और ख़ूनी प्रकृति का भी एहसास कराती हैं।
जब लूत ने स्वयं को अमानवीय ठगों के गिरोह के आमने-सामने पाया, जो मानव-आत्माओं को निगल जाने की जंगली लालसा से भरे हुए थे, तो उसने क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की? पवित्रशास्त्र के अनुसार : “हे मेरे भाइयो, ऐसी बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियाँ हैं जिन्होंने अब तक पुरुष का मुँह नहीं देखा; इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊँ, और तुम को जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो; पर इन पुरुषों से कुछ न करो; क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।” इन शब्दों से लूत का अभिप्राय यह था : वह दूतों को बचाने के लिए अपनी दो बेटियों को भी त्यागने के लिए तैयार था। किसी भी हिसाब से इन लोगों को लूत की शर्तों से सहमत हो जाना चाहिए था और दोनों दूतों को छोड़ देना चाहिए था; आख़िरकार, वे दूत उनके लिए पूरी तरह से अजनबी थे, ऐसे लोग जिनका उनसे कोई लेना-देना नहीं था और जिन्होंने उनके हितों को कभी नुकसान नहीं पहुँचाया था। फिर भी, अपनी बुरी प्रकृति से प्रेरित होकर उन्होंने मामला खत्म नहीं किया, बल्कि इसके बजाय, उन्होंने अपने प्रयास और तेज कर दिए। यहाँ उनकी बातचीत का दूसरा भाग लोगों को निस्संदेह इन लोगों की असली, शातिर प्रकृति की और अधिक जानकारी दे सकता है, साथ ही वह उन्हें परमेश्वर द्वारा इस नगर को नष्ट किए जाने का कारण समझने-बूझने में सक्षम भी बनाता है।
तो उन्होंने आगे क्या कहा? जैसा कि बाइबल में लिखा है : “‘हट जा!’ फिर वे कहने लगे, ‘तू एक परदेशी होकर यहाँ रहने के लिये आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा है; इसलिये अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।’ और वे उस पुरुष लूत को बहुत दबाने लगे, और किवाड़ तोड़ने के लिये निकट आए।” वे लूत का किवाड़ क्यों तोड़ना चाहते थे? कारण यह है कि वे उन दोनों दूतों को नुकसान पहुँचाने के लिए उत्सुक थे। वे दूत सदोम में किसलिए आए थे? उनका वहाँ आने का उद्देश्य लूत एवं उसके परिवार को बचाना था, लेकिन नगर के लोगों ने ग़लती से सोचा कि वे आधिकारिक पदों पर क़ब्ज़ा जमाने के लिए आए हैं। दूतों का उद्देश्य पूछे बिना नगर के लोगों ने केवल अनुमान के आधार पर असभ्यतापूर्वक उन दो दूतों को नुकसान पहुँचाना चाहा; उन्होंने उन दो लोगों को नुकसान पहुँचाना चाहा, जिनका उनके साथ कोई लेना-देना नहीं था। यह स्पष्ट है कि उस नगर के लोगों ने पूरी तरह से अपनी मानवता और विवेक गँवा दिए थे। उनके पागलपन और जंगलीपन का स्तर पहले से ही मनुष्यों को नुकसान पहुँचाने वाले और उन्हें निगल जाने वाले शैतान के शातिर स्वभाव से अलग नहीं था।
जब उन्होंने लूत से इन लोगों को सौंपने की माँग की, तब लूत ने क्या किया? पाठ से हमें ज्ञात होता है कि लूत ने उन्हें नहीं सौंपा। क्या लूत परमेश्वर के इन दो दूतों को जानता था? बेशक, नहीं! फिर भी वह इन दो लोगों को बचाने में समर्थ क्यों था? क्या वह जानता था कि वे क्या करने आए हैं? यद्यपि वह उनके आने के कारण से अनजान था, किंतु वह जानता था कि वे परमेश्वर के सेवक हैं, इसलिए वह उन्हें अपने घर में ले गया। उसका परमेश्वर के इन सेवकों को “प्रभु” कहकर पुकारना यह दिखाता है कि सदोम के अन्य लोगों के विपरीत लूत परमेश्वर का स्वाभाविक अनुयायी था। इसलिए जब परमेश्वर के दूत उसके पास आए, तो उसने इन दोनों सेवकों को अपने घर में ले जाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी; इतना ही नहीं, उसने इन दोनों सेवकों की रक्षा करने के लिए बदले में अपनी दो बेटियाँ देने की भी पेशकश की। यह लूत का धार्मिक कार्य था; यह लूत के स्वभाव और सार की एक ठोस अभिव्यक्ति थी, और यह परमेश्वर द्वारा लूत को बचाने के लिए अपने सेवकों को भेजने का कारण भी था। संकट से सामना होने पर लूत ने अन्य किसी भी चीज़ की परवाह किए बिना इन दोनों सेवकों की रक्षा की; यहाँ तक कि उसने सेवकों की सुरक्षा के बदले में अपनी दो बेटियों का सौदा करने का भी प्रयास किया। लूत के अतिरिक्त क्या नगर में कोई और ऐसा था, जिसने ऐसा कुछ किया होता? जैसा कि तथ्य साबित करते हैं—नहीं, ऐसा कोई नहीं था! इसलिए, कहने की आवश्यकता नहीं कि लूत को छोड़कर सदोम के भीतर हर कोई विनाश का लक्ष्य था, और ठीक भी है—वे इसके पात्र थे।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 105
उत्पत्ति 19:1-11 साँझ को वे दो दूत सदोम के पास आए; और लूत सदोम के फाटक के पास बैठा था। उन को देखकर वह उनसे भेंट करने के लिये उठा, और मुँह के बल झुककर दण्डवत् कर कहा, “हे मेरे प्रभुओ, अपने दास के घर में पधारिए, और रात भर विश्राम कीजिए, और अपने पाँव धोइये, फिर भोर को उठकर अपने मार्ग पर जाइए।” उन्होंने कहा, “नहीं, हम चौक ही में रात बिताएँगे।” पर उसने उनसे बहुत विनती करके उन्हें मनाया; इसलिये वे उसके साथ चलकर उसके घर में आए; और उसने उनके लिये भोजन तैयार किया, और बिना खमीर की रोटियाँ बनाकर उनको खिलाईं। उनके सो जाने से पहले, सदोम नगर के पुरुषों ने, जवानों से लेकर बूढ़ों तक, वरन् चारों ओर के सब लोगों ने आकर उस घर को घेर लिया; और लूत को पुकारकर कहने लगे, “जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहाँ हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।” तब लूत उनके पास द्वार के बाहर गया, और किवाड़ को अपने पीछे बन्द करके कहा, “हे मेरे भाइयो, ऐसी बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियाँ हैं जिन्होंने अब तक पुरुष का मुँह नहीं देखा; इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊँ, और तुम को जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो; पर इन पुरुषों से कुछ न करो; क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।” उन्होंने कहा, “हट जा!” फिर वे कहने लगे, “तू एक परदेशी होकर यहाँ रहने के लिये आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा है; इसलिये अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।” और वे उस पुरुष लूत को बहुत दबाने लगे, और किवाड़ तोड़ने के लिये निकट आए। तब उन अतिथियों ने हाथ बढ़ाकर लूत को अपने पास घर में खींच लिया, और किवाड़ को बन्द कर दिया। और उन्होंने क्या छोटे, क्या बड़े, सब पुरुषों को जो घर के द्वार पर थे, अन्धा कर दिया, अतः वे द्वार को टटोलते टटोलते थक गए।
उत्पत्ति 19:24-25 तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई; और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को, और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्ट कर दिया।
परमेश्वर को नाराज़ करने के कारण सदोम को पूरी तरह से तबाह कर दिया गया
जब सदोम के लोगों ने इन दो सेवकों को देखा, तो उन्होंने उनके आने का कारण नहीं पूछा, न ही किसी ने यह पूछा कि क्या वे परमेश्वर की इच्छा का प्रचार करने के लिए आए हैं। इसके विपरीत, उन्होंने एक भीड़ इकट्ठी की और स्पष्टीकरण का इंतज़ार किए बिना, जंगली कुत्तों या दुष्ट भेड़ियों के समान उन दोनों सेवकों को पकड़ने के लिए आ गए। क्या परमेश्वर ने इन चीज़ों को होते हुए देखा था? इस प्रकार के मानवीय व्यवहार, इस प्रकार की घटना को लेकर परमेश्वर अपने हृदय में क्या सोच रहा था? परमेश्वर ने इस नगर को नष्ट करने का मन बनाया; वह न तो हिचकिचाया और न ही उसने इंतज़ार किया, न ही उसने और अधिक धीरज दिखाया। उसका दिन आ चुका था, अतः उसने वह कार्य कर दिया, जिसे वह करना चाहता था। इस प्रकार, उत्पत्ति 19:24-25 कहती है, “तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई; और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को, और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्ट कर दिया।” ये दो पद परमेश्वर द्वारा उस नगर को नष्ट करने के तरीके और साथ ही उसके द्वारा नष्ट की गई चीज़ों के बारे में बताते हैं। प्रथम, बाइबल वर्णन करती है कि परमेश्वर ने उस नगर को आग से जला दिया, और आग की मात्रा समस्त लोगों और जो कुछ भूमि पर उगता था उसे, नष्ट करने के लिए पर्याप्त थी। कहने का तात्पर्य है कि स्वर्ग से गिरने वाली उस आग ने न केवल उस नगर को नष्ट कर दिया; बल्कि उसने उसके भीतर के समस्त लोगों और जीवित प्राणियों को भी नष्ट कर दिया, और उनका कोई नामोनिशान नहीं रहा। जब नगर नष्ट हो गया, तो वह भूमि जीवित प्राणियों से विहीन हो गई; वहाँ कोई जीवन नहीं रहा, और न ही जीवन के कोई निशान रहे। नगर एक बंजर भूमि बन गया, एक खाली जगह, जो मौत के सन्नाटे से भरी हुई थी। इस स्थान पर परमेश्वर के विरुद्ध अब और कोई बुरा कार्य नहीं होगा; अब और कोई हत्या या ख़ून-ख़राबा नहीं होगा।
परमेश्वर क्यों इस नगर को पूरी तरह से जलाना चाहता था? तुम लोग यहाँ क्या देख सकते हो? क्या परमेश्वर वाकई मनुष्य और प्रकृति, अपनी स्वयं की सृष्टि को इस तरह नष्ट होते हुए सहन कर सकता था? यदि तुम उस आग से, जिसे स्वर्ग से बरसाया गया था, यहोवा परमेश्वर के कोप को समझ सको, तो उसके विनाश के लक्ष्यों को और जिस हद तक इस नगर को नष्ट किया गया, उसे देखते हुए यह समझना कठिन नहीं है कि उसका कोप कितना बड़ा था। जब परमेश्वर किसी नगर से घृणा करता है, तो वह उस पर अपना दंड बरसाएगा। जब परमेश्वर किसी नगर से अप्रसन्न होता है, तो वह लोगों को अपने क्रोध से अवगत कराते हुए बार-बार चेतावनियाँ जारी करेगा। किंतु जब परमेश्वर किसी नगर का खात्मा और विनाश करने का निर्णय लेता है—अर्थात् जब उसके कोप और वैभव को ठेस पहुँचती है—तो वह आगे कोई दंड और चेतावनी नहीं देगा। इसके बजाय, वह सीधे उसे नष्ट कर देगा। वह उसे पूरी तरह से मिटा देगा। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 106
उत्पत्ति 19:1-11 साँझ को वे दो दूत सदोम के पास आए; और लूत सदोम के फाटक के पास बैठा था। उन को देखकर वह उनसे भेंट करने के लिये उठा, और मुँह के बल झुककर दण्डवत् कर कहा, “हे मेरे प्रभुओ, अपने दास के घर में पधारिए, और रात भर विश्राम कीजिए, और अपने पाँव धोइये, फिर भोर को उठकर अपने मार्ग पर जाइए।” उन्होंने कहा, “नहीं, हम चौक ही में रात बिताएँगे।” पर उसने उनसे बहुत विनती करके उन्हें मनाया; इसलिये वे उसके साथ चलकर उसके घर में आए; और उसने उनके लिये भोजन तैयार किया, और बिना खमीर की रोटियाँ बनाकर उनको खिलाईं। उनके सो जाने से पहले, सदोम नगर के पुरुषों ने, जवानों से लेकर बूढ़ों तक, वरन् चारों ओर के सब लोगों ने आकर उस घर को घेर लिया; और लूत को पुकारकर कहने लगे, “जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहाँ हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।” तब लूत उनके पास द्वार के बाहर गया, और किवाड़ को अपने पीछे बन्द करके कहा, “हे मेरे भाइयो, ऐसी बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियाँ हैं जिन्होंने अब तक पुरुष का मुँह नहीं देखा; इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊँ, और तुम को जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो; पर इन पुरुषों से कुछ न करो; क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।” उन्होंने कहा, “हट जा!” फिर वे कहने लगे, “तू एक परदेशी होकर यहाँ रहने के लिये आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा है; इसलिये अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।” और वे उस पुरुष लूत को बहुत दबाने लगे, और किवाड़ तोड़ने के लिये निकट आए। तब उन अतिथियों ने हाथ बढ़ाकर लूत को अपने पास घर में खींच लिया, और किवाड़ को बन्द कर दिया। और उन्होंने क्या छोटे, क्या बड़े, सब पुरुषों को जो घर के द्वार पर थे, अन्धा कर दिया, अतः वे द्वार को टटोलते टटोलते थक गए।
उत्पत्ति 19:24-25 तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई; और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को, और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्ट कर दिया।
अपने प्रति सदोम की बार-बार की शत्रुता और प्रतिरोध के बाद परमेश्वर ने उसे पूरी तरह से मिटा दिया
मनुष्य के दृष्टिकोण से सदोम एक ऐसा नगर था, जो मनुष्य की कामना और दुष्टता को पूरी तरह से संतुष्ट कर सकता था। उस आकर्षक और मनमोहक नगर की संपन्नता ने हर रात चलने वाले संगीत और नृत्य के साथ मनुष्यों को सम्मोहन और उन्माद की ओर धकेल दिया। उसकी बुराई ने लोगों के हृदय कलुषित कर दिए और उन्हें अनैतिकता में फँसा दिया। वह एक ऐसा नगर था, जहाँ अशुद्ध और दुष्ट आत्माएँ बेधड़क मँडराया करती थीं; वह पाप और हत्या से सराबोर था और उसकी हवा में ख़ूनी एवं सड़ी हुई दुर्गंध समाई हुई थी। वह एक ऐसा नगर था, जिसने लोगों को आतंकित कर दिया था, ऐसा नगर जिससे कोई भी भय से सिकुड़ जाएगा। उस नगर में कोई भी व्यक्ति—पुरुष हो या स्त्री, जवान हो या बुज़ुर्ग—सच्चे मार्ग की खोज नहीं करता था; कोई भी प्रकाश की लालसा नहीं करता था या पाप से दूर नहीं जाना चाहता था। वे शैतान के नियंत्रण, भ्रष्टता और छल-कपट में जीवन बिताते थे। उन्होंने अपनी मानवता खो दी थी; उन्होंने अपनी संवेदनाएँ गँवा दी थीं, और उन्होंने मनुष्य के अस्तित्व का मूल उद्देश्य खो दिया था। उन्होंने परमेश्वर के विरुद्ध प्रतिरोध के असंख्य दुष्ट कर्मों को अंजाम दिया था; उन्होंने उसका मार्गदर्शन अस्वीकार किया था और उसकी इच्छा का विरोध किया था। ये उनके बुरे कार्य थे, जिन्होंने इन लोगों को, नगर को और उसके भीतर के हर एक जीवित प्राणी को कदम-दर-कदम विनाश के पथ पर पहुँचा दिया था।
यद्यपि ये दो अंश सदोम के लोगों की भ्रष्टता की सीमा का समस्त विवरण दर्ज नहीं करते, इसके बजाय वे नगर में परमेश्वर के दो सेवकों के आगमन के बाद उनके प्रति लोगों के आचरण को दर्ज करते हैं, तथापि एक साधारण-सा सत्य है जो प्रकट करता है कि सदोम के लोग किस हद तक भ्रष्ट एवं दुष्ट थे और वे किस हद तक परमेश्वर का प्रतिरोध करते थे। इससे नगर के लोगों के असली चेहरे और सार का भी खुलासा हो जाता है। इन लोगों ने न केवल परमेश्वर की चेतावनियों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था, बल्कि वे उसके दंड से भी नहीं डरते थे। इसके विपरीत, उन्होंने परमेश्वर के कोप का उपहास किया। उन्होंने आँख मूँदकर परमेश्वर का प्रतिरोध किया। परमेश्वर ने चाहे जो भी किया या जैसे भी किया, उनका दुष्ट स्वभाव सघन ही हुआ, और उन्होंने बार-बार परमेश्वर का विरोध किया। सदोम के लोग परमेश्वर के अस्तित्व, उसके आगमन, उसके दंड, और उससे भी बढ़कर, उसकी चेतावनियों से विमुख थे। वे अत्यधिक अहंकारी थे। उन्होंने उन सभी लोगों को निगल लिया और नुकसान पहुँचाया, जिन्हें निगला और नुकसान पहुँचाया जा सकता था, और उन्होंने परमेश्वर के सेवकों के साथ भी कोई अलग बरताव नहीं किया। सदोम के लोगों द्वारा किए गए तमाम दुष्कर्मों के लिहाज से, परमेश्वर के सेवकों को नुकसान पहुँचाना तो बस उनकी दुष्टता का एक छोटा-सा अंश था, और इससे जो उनकी दुष्ट प्रकृति प्रकट हुई, वह वास्तव में विशाल समुद्र में पानी की एक बूँद से बढ़कर नहीं थी। इसलिए परमेश्वर ने उन्हें आग से नष्ट करने का फैसला किया। परमेश्वर ने नगर को नष्ट करने के लिए बाढ़ का इस्तेमाल नहीं किया, न ही उसने चक्रवात, भूकंप, सुनामी या किसी और तरीके का इस्तेमाल किया। इस नगर का विनाश करने के लिए परमेश्वर द्वारा आग का इस्तेमाल क्या सूचित करता है? इसका अर्थ था नगर का संपूर्ण विनाश, इसका अर्थ था कि नगर पृथ्वी और अस्तित्व से पूरी तरह से लुप्त हो गया था। यहाँ “विनाश” न केवल नगर के आकार और ढाँचे या बाहरी रूप के लुप्त हो जाने को संदर्भित करता है; बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि पूरी तरह से मिटा दिए जाने के कारण नगर के भीतर के लोगों की आत्माएँ भी अस्तित्व में नहीं बचीं। सरल शब्दों में कहें तो, नगर से जुड़े सभी लोग, घटनाएँ और चीज़ें नष्ट कर दी गईं। उस नगर के लोगों के लिए कोई अगला जीवन या पुनर्जन्म नहीं होगा; परमेश्वर ने उन्हें अपनी सृष्टि की मानवजाति से हमेशा-हमेशा के लिए मिटा दिया। आग का इस्तेमाल इस स्थान पर पाप के अंत को सूचित करता है, और कि वहाँ पाप पर अंकुश लग गया; यह पाप अस्तित्व में नहीं रहेगा और न ही फैलेगा। इसका अर्थ था कि शैतान की दुष्टता ने अपनी उपजाऊ मिट्टी के साथ-साथ उस कब्रिस्तान को भी खो दिया था, जिसने उसे रहने और जीने के लिए एक स्थान दिया था। परमेश्वर और शैतान के बीच होने वाले युद्ध में परमेश्वर द्वारा आग का इस्तेमाल उसकी विजय की छाप है, जो शैतान पर अंकित की जाती है। मनुष्यों को भ्रष्ट करके और उन्हें निगलकर परमेश्वर का विरोध करने की शैतान की महत्वाकांक्षा में सदोम का विनाश एक बहुत भारी आघात है, और इसी प्रकार यह एक समय पर मानवता के विकास में एक अपमानजनक चिह्न है, जब मनुष्य ने परमेश्वर का मार्गदर्शन ठुकरा दिया था और अपने आपको बुराई के हवाले कर दिया था। इसके अतिरिक्त, यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के सच्चे प्रकाशन का एक अभिलेख है।
जब परमेश्वर द्वारा स्वर्ग से भेजी गई आग ने सदोम को राख में तब्दील कर दिया, तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसके बाद “सदोम” नामक नगर और उस नगर के भीतर की हर चीज़ अस्तित्व में नहीं रही। उसे परमेश्वर के क्रोध द्वारा नष्ट किया गया था, जो परमेश्वर के कोप और प्रताप के भीतर विलुप्त हो गया। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के कारण सदोम को उसका न्यायोचित दंड मिला और उसका न्यायोचित अंत हुआ। सदोम के अस्तित्व का अंत उसकी बुराई के कारण हुआ, और वह इस कारण से भी हुआ, क्योंकि परमेश्वर दोबारा इस नगर को या उसमें रहने वाले किसी व्यक्ति को या उस नगर में उत्पन्न किसी भी जीवित वस्तु को देखना नहीं चाहता था। परमेश्वर की “दोबारा उस नगर को कभी न देखने की इच्छा” उसके कोप के साथ-साथ उसका प्रताप भी है। परमेश्वर ने नगर को जला दिया, क्योंकि उसकी बुराई और पाप ने परमेश्वर को उसके प्रति क्रोध, घृणा और द्वेष का एहसास कराया था और वह उसको या वहाँ के किसी निवासी या जीवों को दोबारा कभी नहीं देखना चाहता था। जब एक बार नगर का जलना समाप्त हो गया और केवल राख ही बाकी रह गई, तो परमेश्वर की नज़रों में सचमुच उसका अस्तित्व नहीं रहा; यहाँ तक कि उसकी यादें भी परमेश्वर की स्मृति से चली गईं, मिट गईं। इसका अर्थ है कि स्वर्ग से भेजी गई आग ने न केवल संपूर्ण सदोम नगर को जला दिया, उसने न केवल नगर के अधर्म से अत्यधिक भरे हुए लोगों को नष्ट कर दिया, उसने न केवल नगर के भीतर की पाप से दूषित सभी चीज़ों को नष्ट कर दिया; बल्कि उससे भी बढ़कर, उस आग ने मनुष्यों की दुष्टता की याद और परमेश्वर के प्रति उनके प्रतिरोध को भी नष्ट कर दिया। उस नगर को जलाकर राख कर देने के पीछे परमेश्वर का यही उद्देश्य था।
मनुष्य चरम सीमा तक पतित हो चुके थे। वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर कौन है या वे स्वयं कहाँ से आए हैं। यदि तुम परमेश्वर का ज़िक्र भी करते, तो वे हमला कर देते, कलंक लगाते और ईश-निंदा करते। यहाँ तक कि जब परमेश्वर के सेवक उसकी चेतावनी का प्रचार करने आए थे, तब भी इन दुष्ट लोगों ने न केवल पश्चात्ताप का कोई चिह्न नहीं दिखाया और अपना दुष्ट आचरण नहीं त्यागा, बल्कि इसके विपरीत, उन्होंने ढिठाई से परमेश्वर के सेवकों को नुकसान पहुँचाया। जो कुछ उन्होंने व्यक्त और प्रकट किया, वह परमेश्वर के प्रति उनकी चरम शत्रुता की प्रकृति और सार था। हम देख सकते हैं कि परमेश्वर के विरुद्ध इन भ्रष्ट लोगों का प्रतिरोध उनके भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन से कहीं अधिक था, बिलकुल वैसे ही, जैसे यह सत्य की समझ की कमी के कारण की जाने वाली निंदा और उपहास की एक घटना से कहीं अधिक था। उनके दुष्ट आचरण का कारण न तो मूर्खता थी, न ही अज्ञानता; उन्होंने ऐसा कार्य इसलिए नहीं किया कि उन्हें धोखा दिया गया था, और इसलिए तो निश्चित रूप से नहीं कि उन्हें गुमराह किया गया था। उनका आचरण परमेश्वर के विरुद्ध खुले तौर पर निर्लज्ज शत्रुता, विरोध और उपद्रव के स्तर तक पहुँच चुका था। निस्संदेह, इस प्रकार का मानव-व्यवहार परमेश्वर को क्रोधित करेगा, और यह उसके स्वभाव को क्रोधित करेगा—ऐसा स्वभाव, जिसे ठेस नहीं पहुँचाई जानी चाहिए। इसलिए परमेश्वर ने सीधे और खुले तौर पर अपना कोप और प्रताप दिखाया; यह उसके धार्मिक स्वभाव का सच्चा प्रकाशन था। एक ऐसे नगर को सामने देख, जहाँ पाप उमड़ रहा था, परमेश्वर ने उसे यथासंभव तीव्रतम तरीके से नष्ट कर देना चाहा, ताकि उसके भीतर रहने वाले लोगों और उनके संपूर्ण पापों को पूरी तरह से मिटाया जा सके, ताकि उस नगर के लोगों का अस्तित्व समाप्त किया जा सके और उस स्थान के भीतर पाप को द्विगुणित होने से रोका जा सके। ऐसा करने का सबसे तेज और सबसे मुकम्मल तरीका था उसे आग से जलाकर नष्ट कर देना। सदोम के लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया परित्याग या उपेक्षा का नहीं था। इसके बजाय, उसने इन लोगों को दंड देने, मार डालने और पूरी तरह से नष्ट कर देने के लिए अपने कोप, प्रताप और अधिकार का प्रयोग किया। उनके प्रति उसका रवैया न केवल उनके शारीरिक विनाश का था, बल्कि उनकी आत्माओं के विनाश का, एक शाश्वत उन्मूलन का भी था। यह “अस्तित्व की समाप्ति” वचनों से परमेश्वर के आशय का वास्तविक निहितार्थ है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 107
हालाँकि परमेश्वर का कोप मनुष्य से छिपा हुआ और अज्ञात है, फिर भी वह कोई अपमान सहन नहीं करता
समस्त मानवजाति के प्रति, उस मानवजाति के प्रति जो कि मूर्ख और जाहिल है, परमेश्वर का व्यवहार मुख्य रूप से दया और सहनशीलता पर आधारित है। दूसरी ओर, उसका कोप अधिकांश समय और अधिकांश घटनाओं में छिपा रहता है, और मनुष्य उससे अनजान है। परिणामस्वरूप, परमेश्वर को अपना कोप व्यक्त करते हुए देखना मनुष्य के लिए कठिन है, और उसके कोप को समझना भी उसके लिए कठिन है। इसलिए मनुष्य परमेश्वर के कोप को हलके में लेता है। मनुष्य जब परमेश्वर के अंतिम कार्य और मनुष्य के लिए उसकी क्षमा और सहिष्णुता के कदम का सामना करता है—अर्थात्, जब परमेश्वर की दया की अंतिम घटना और अंतिम चेतावनी मनुष्य पर आती है—यदि लोग फिर भी उसी तरह से परमेश्वर का विरोध करते रहते हैं और पश्चाताप करने, अपने तौर-तरीके सुधारने या उसकी दया स्वीकार करने का कोई प्रयास नहीं करते, तो परमेश्वर आगे उन्हें अपनी सहनशीलता और धैर्य नहीं दिखाएगा। इसके विपरीत, उस समय परमेश्वर अपनी दया वापस ले लेगा। इसके बाद वह केवल अपना कोप ही भेजेगा। वह विभिन्न तरीकों से अपना कोप व्यक्त कर सकता है, वैसे ही, जैसे वह लोगों को दंड देने और नष्ट करने के लिए विभिन्न पद्धतियाँ इस्तेमाल करता है।
सदोम नगर का विनाश करने के लिए परमेश्वर द्वारा आग का इस्तेमाल करना मनुष्य या किसी अन्य चीज़ को पूरी तरह से नष्ट करने की उसकी तीव्रतम पद्धति है। सदोम के लोगों को जलाना उनके शरीर नष्ट करने से कहीं अधिक था; इसने पूरी तरह से उनकी आत्माएँ, उनके प्राण और उनके शरीर नष्ट कर दिए, और यह सुनिश्चित किया कि उस नगर के लोग न तो भौतिक संसार में अस्तित्व में रहें और न ही उस संसार में, जो मनुष्य के लिए अदृश्य है। यह परमेश्वर द्वारा अपना कोप प्रकाशित और अभिव्यक्त करने का एक तरीका है। इस तरह का प्रकाशन और अभिव्यक्ति परमेश्वर के कोप के सार का एक पहलू है, ठीक वैसे ही, जैसे यह स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के सार का प्रकाशन भी है। जब परमेश्वर अपना कोप भेजता है, तो वह कोई दया या प्रेममय करुणा प्रकट करना बंद कर देता है, न ही वह आगे कोई सहनशीलता या धैर्य प्रदर्शित करता है; कोई ऐसा व्यक्ति, वस्तु या कारण नहीं है, जो उसे धैर्य धारण किए रहने, फिर से दया करने, एक बार फिर अपनी सहनशीलता दिखाने के लिए राज़ी कर सके। इन चीज़ों के स्थान पर, एक पल के लिए भी हिचकिचाए बिना, परमेश्वर अपना कोप और प्रताप भेजता है, और जो कुछ चाहता है, वह करता है। इन चीज़ों को वह अपनी इच्छाओं के अनुरूप एक तीव्र और साफ़-सुथरे तरीके से करता है। यह वह तरीका है, जिससे परमेश्वर अपना वह कोप और प्रताप प्रकट करता है, जिसे मनुष्य द्वारा ठेस नहीं पहुँचाई जानी चाहिए, और यह उसके धार्मिक स्वभाव के एक पहलू की अभिव्यक्ति भी है। जब लोग परमेश्वर को मनुष्य के प्रति चिंता और प्रेम दिखाते हुए देखते हैं, तो वे उसके कोप को भाँपने में, उसके प्रताप को देखने में या अपमान के प्रति उसकी असहनशीलता अनुभव करने में असमर्थ होते हैं। इन चीज़ों ने हमेशा लोगों को विश्वास दिलाया है कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव केवल दया, सहनशीलता और प्रेम का है। किंतु जब कोई परमेश्वर को किसी नगर का विनाश करते हुए या मनुष्य से घृणा करते हुए देखता है, तो मनुष्य के विनाश में उसका कोप और प्रताप लोगों को उसके धार्मिक स्वभाव के अन्य पक्ष की झलक देखने देता है। यह अपमान के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता है। परमेश्वर का कोई अपमान सहन न करने वाला स्वभाव किसी भी सृजित प्राणी की कल्पना से परे है, और ग़ैर-सृजित प्राणियों में से कोई उसके साथ दखलंदाज़ी करने या उसको प्रभावित करने में सक्षम नहीं है; और इसका प्रतिरूपण या अनुकरण तो किया ही नहीं जा सकता। इस प्रकार, परमेश्वर के स्वभाव का यह ऐसा पहलू है, जिसे मनुष्य को सबसे अधिक जानना चाहिए। केवल स्वयं परमेश्वर का ही ऐसा स्वभाव है, और केवल स्वयं परमेश्वर ही ऐसे स्वभाव से युक्त है। परमेश्वर का ऐसा धार्मिक स्वभाव इसलिए है, क्योंकि वह दुष्टता, अंधकार, विद्रोहशीलता और शैतान के बुरे कार्यों—जैसे कि मानवजाति को भ्रष्ट करना और निगल जाना—से घृणा करता है, क्योंकि वह अपने विरुद्ध पाप के सारे कार्यों से घृणा करता है और इसलिए भी, क्योंकि उसका सार पवित्र और निर्मल है। यही कारण है कि वह किसी भी सृजित या ग़ैर-सृजित प्राणी द्वारा खुला विरोध या स्वयं से मुकाबला सहन नहीं करेगा। यहाँ तक कि कोई ऐसा व्यक्ति भी, जिसके प्रति उसने किसी समय दया दिखाई हो या जिसका चुनाव किया हो, उसके स्वभाव को ललकार दे या उसके धीरज और सहनशीलता के सिद्धांत का उल्लंघन कर दे, तो वह थोड़ी-सी भी दया या संकोच दिखाए बिना, अपमान बरदाश्त न करने वाला अपना धार्मिक स्वभाव प्रकट और प्रकाशित कर देगा।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 108
परमेश्वर का कोप न्याय की समस्त शक्तियों और समस्त सकारात्मक चीज़ों के लिए सुरक्षा-उपाय है (चुने हुए अंश)
अपमान के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता उसका अद्वितीय सार है; परमेश्वर का कोप उसका अद्वितीय स्वभाव है; परमेश्वर का प्रताप उसका अद्वितीय सार है। परमेश्वर के क्रोध के पीछे का सिद्धांत उस पहचान और हैसियत का प्रदर्शन है, जिसे सिर्फ वही धारण करता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह अद्वितीय स्वयं परमेश्वर के सार का एक प्रतीक भी है। परमेश्वर का स्वभाव उसका अपना अंतर्निहित सार है, जो समय के साथ बिलकुल नहीं बदलता, और न यह भौगोलिक स्थान के बदलने से ही बदलता है। उसका अंतर्निहित स्वभाव उसका स्वाभाविक सार है। वह चाहे जिस किसी पर भी अपना कार्य क्यों न करे, उसका सार नहीं बदलता, और न ही उसका धार्मिक स्वभाव बदलता है। जब कोई परमेश्वर को क्रोधित करता है, तो वह अपना अंतर्निहित स्वभाव प्रस्फुटित करता है; इस समय उसके क्रोध के पीछे का सिद्धांत नहीं बदलता, और न ही उसकी अद्वितीय पहचान और हैसियत बदलती है। वह अपने सार में परिवर्तन के कारण या अपने स्वभाव से विभिन्न तत्त्वों के उत्पन्न होने के कारण क्रोधित नहीं होता, बल्कि इसलिए होता है क्योंकि उसके विरुद्ध मनुष्य का विरोध उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाता है। मनुष्य द्वारा परमेश्वर को खुले तौर पर उकसाना परमेश्वर की अपनी पहचान और हैसियत के लिए एक गंभीर चुनौती है। परमेश्वर की नज़र में, जब मनुष्य उसे चुनौती देता है, तब मनुष्य उससे मुकाबला कर रहा होता है और उसके क्रोध की परीक्षा ले रहा होता है। जब मनुष्य परमेश्वर का विरोध करता है, जब मनुष्य परमेश्वर से मुकाबला करता है, जब मनुष्य लगातार उसके क्रोध की परीक्षा लेता है—और यह उस समय होता है, जब पाप अनियंत्रित हो जाता है—तब परमेश्वर का कोप स्वाभाविक रूप से अपने आपको प्रकट और प्रस्तुत करेगा। इसलिए, परमेश्वर के कोप की अभिव्यक्ति इस बात की प्रतीक है कि समस्त बुरी ताकतें अस्तित्व में नहीं रहेंगी, और यह इस बात की प्रतीक है कि सभी विरोधी शक्तियाँ नष्ट कर दी जाएँगी। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और उसके कोप की अद्वितीयता है। जब परमेश्वर की गरिमा और पवित्रता को चुनौती दी जाती है, जब मनुष्य द्वारा न्याय की ताकतों को रोका जाता है और उनकी अनदेखी की जाती है, तब परमेश्वर अपने कोप को भेजता है। परमेश्वर के सार के कारण पृथ्वी की वे सारी ताकतें, जो परमेश्वर का मुकाबला करती हैं, उसका विरोध करती हैं और उसके साथ संघर्ष करती हैं, बुरी, भ्रष्ट और अन्यायी हैं; वे शैतान से आती हैं और उसी से संबंधित हैं। चूँकि परमेश्वर न्यायी है, प्रकाशमय है, दोषरहित और पवित्र है, इसलिए समस्त बुरी, भ्रष्ट और शैतान से संबंध रखने वाली चीज़ें परमेश्वर का कोप प्रकट होने पर नष्ट हो जाएँगी।
यद्यपि परमेश्वर के कोप का उफान उसके धार्मिक स्वभाव की अभिव्यक्ति का एक पहलू है, किंतु परमेश्वर का क्रोध अपने लक्ष्य के प्रति किसी भी तरह से विवेकशून्य नहीं है, और न ही वह सिद्धांतविहीन है। इसके विपरीत, परमेश्वर क्रोध करने में बिलकुल भी उतावलापन नहीं दिखाता, और न ही वह अपने कोप और प्रताप को हलकेपन से प्रकट करता है। इतना ही नहीं, परमेश्वर का कोप पूरी तरह से नियंत्रित और नपा-तुला होता है; उसकी तुलना मनुष्य के क्रोध से आगबबूला होने या अपना गुस्सा प्रकट करने से बिलकुल नहीं की जा सकती। मनुष्य और परमेश्वर के बीच हुए अनेक वार्तालाप बाइबल में दर्ज हैं। इनमें से कुछ लोगों के कथन सतही, अज्ञानता से भरे और बचकाने थे, किंतु परमेश्वर ने उन्हें मार नहीं गिराया, और न ही उनकी भर्त्सना की। विशेष रूप से, अय्यूब के परीक्षण के दौरान, यहोवा परमेश्वर ने अय्यूब के तीन मित्रों और दूसरे लोगों द्वारा अय्यूब से कही गई बातें सुनने के बाद उनके साथ कैसा बरताव किया था? क्या उसने उनकी भर्त्सना की थी? क्या वह उन पर आगबबूला हो गया था? उसने ऐसा कुछ नहीं किया था! इसके बजाय उसने अय्यूब को उनकी ओर से विनती करने और उनके लिए प्रार्थना करने के लिए कहा, और स्वयं परमेश्वर ने उनकी गलतियों को गंभीरता से नहीं लिया। ये सभी उदाहरण भ्रष्ट एवं अबोध मानवजाति के साथ परमेश्वर के मौलिक रवैये को दर्शाते हैं। इसलिए, परमेश्वर के कोप का प्रस्फुटन किसी भी तरह से उसकी मनःस्थिति की अभिव्यक्ति नहीं है, न ही वह उसके द्वारा अपनी भावनाएँ जाहिर करने का तरीका है। मनुष्य की गलतफहमी के विपरीत, परमेश्वर का कोप पूरी तरह से गुस्से का फूट पड़ना नहीं है। परमेश्वर अपने कोप को इसलिए नहीं प्रकट करता कि वह अपनी मनःस्थिति पर काबू पाने में असमर्थ है या कि उसका क्रोध चरम पर पहुँच गया है और उसे बाहर निकालना आवश्यक है। इसके विपरीत, उसका कोप उसके धार्मिक स्वभाव का प्रदर्शन और उसकी वास्तविक अभिव्यक्ति है, और यह उसके पवित्र सार का सांकेतिक प्रकटन है। परमेश्वर कोप है, और वह अपमानित किया जाना सहन नहीं करता—इसका तात्पर्य यह नहीं है कि परमेश्वर का क्रोध कारणों के बीच अंतर नहीं करता या वह सिद्धांतविहीन है; क्रोध के सिद्धांतविहीन, बेतरतीब विस्फोट पर तो एकमात्र अधिकार भ्रष्ट मनुष्य का है, उस प्रकार का क्रोध, कारणों के बीच अंतर नहीं करता। एक बार जब मनुष्य को हैसियत मिल जाती है, तो उसे अकसर अपनी मनःस्थिति पर नियंत्रण पाने में कठिनाई महसूस होगी, और इसलिए वह अपना असंतोष व्यक्त करने और अपनी भावनाएँ प्रकट करने के लिए अवसरों का इस्तेमाल करने में आनंद लेता है; वह अकसर बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के क्रोध से आगबबूला हो जाता है, ताकि वह अपनी योग्यता दिखा सके और दूसरे जान सकें कि उसकी हैसियत और पहचान साधारण लोगों से अलग है। निस्संदेह, बिना किसी हैसियत वाले भ्रष्ट लोग भी अकसर नियंत्रण खो देते हैं। उनका क्रोध अकसर उनके निजी हितों को नुकसान पहुँचने के कारण होता है। अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए वे बार-बार अपनी भावनाएँ जाहिर करते हैं और अपना अहंकारी स्वभाव दिखाते हैं। मनुष्य पाप के अस्तित्व का बचाव और समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला हो जाता है, अपनी भावनाएँ जाहिर करता है, और इन्हीं तरीकों से मनुष्य अपना असंतोष व्यक्त करता है; वे अशुद्धताओं, कुचक्रों और साजिशों से, मनुष्य की भ्रष्टता और बुराई से, और अन्य किसी भी चीज़ से बढ़कर, मनुष्य की निरंकुश महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से लबालब भरे हैं। जब न्याय दुष्टता से टकराता है, तो मनुष्य न्याय के अस्तित्व का बचाव या समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला नहीं होता; इसके विपरीत, जब न्याय की शक्तियों को धमकाया, सताया और उन पर आक्रमण किया जाता है, तब मनुष्य का स्वभाव नज़रअंदाज़ करने, टालने या मुँह फेरने वाला होता है। लेकिन दुष्ट शक्तियों से सामना होने पर मनुष्य का रवैया समझौतापरक, झुकने और मक्खन लगाने वाला होता है। इसलिए, मनुष्य का क्रोध निकालना दुष्ट शक्तियों के लिए बच निकलने का मार्ग है, और देहयुक्त मनुष्य के अनियंत्रित और रोके न जा सकने वाले बुरे आचरण की अभिव्यक्ति है। किंतु जब परमेश्वर अपने कोप को भेजता है, तो सारी बुरी शक्तियों को रोका जाएगा, मनुष्य को हानि पहुँचाने वाले सारे पापों पर अंकुश लगाया जाएगा, परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने वाली सभी विरोधी ताकतों को प्रकट, अलग और शापित किया जाएगा, परमेश्वर का विरोध करने वाले शैतान के सभी सहयोगियों को दंडित किया जाएगा और उन्हें जड़ से उखाड़ दिया जाएगा। उनके स्थान पर, परमेश्वर का कार्य बाधाओं से मुक्त होकर आगे बढ़ेगा, परमेश्वर की प्रबंधन योजना निर्धारित समय के अनुसार कदम-दर-कदम विकसित होती रहेगी, और परमेश्वर के चुने हुए लोग शैतान की बाधा और छल से मुक्त होंगे, और परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोग स्वस्थ और शांतिपूर्ण माहौल के बीच परमेश्वर की अगुआई और आपूर्ति का आनंद लेंगे। परमेश्वर का कोप एक सुरक्षा-उपाय है, जो सभी दुष्ट ताकतों को बहुगुणित होने और अनियंत्रित होकर बढ़ने से रोकता है, और यह ऐसा सुरक्षा-उपाय भी है, जो समस्त न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ों के अस्तित्व और प्रसार की रक्षा करता है, और शाश्वत रूप से उन्हें दमन और विनाश से बचाता है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 109
परमेश्वर का कोप न्याय की समस्त शक्तियों और समस्त सकारात्मक चीज़ों के लिए सुरक्षा-उपाय है (चुने हुए अंश)
क्या तुम लोग सदोम के विनाश में परमेश्वर के कोप का सार देख सकते हो? क्या उसके क्रोध में कोई और चीज़ मिली हुई है? क्या परमेश्वर का क्रोध पवित्र है? मनुष्य के शब्दों का प्रयोग करें तो, क्या परमेश्वर का कोप बिना किसी मिलावट के है? क्या उसके कोप के पीछे कोई छल है? क्या उसमें कोई षड्यंत्र है? क्या उसमें कोई अकथनीय रहस्य हैं? मैं कठोरता और गंभीरता से तुम्हें बता सकता हूँ : परमेश्वर के कोप का कोई अंश ऐसा नहीं है, जिस पर कोई संदेह कर सकता हो। उसका क्रोध पवित्र और मिलावट-रहित है, जिसमें कोई अन्य इरादे या लक्ष्य नहीं रहते। उसके क्रोध के पीछे के कारण पवित्र, निर्दोष और आलोचना से परे हैं। यह उसके पवित्र सार का एक स्वाभाविक प्रकाशन और प्रदर्शन है; यह कुछ ऐसा है, जो पूरी सृष्टि में किसी के पास नहीं है। यह परमेश्वर के अद्वितीय धार्मिक स्वभाव का एक अंग है, और यह सृष्टिकर्ता और उसकी सृष्टि के संबंधित सारों के बीच एक महत्त्वपूर्ण अंतर भी है।
चाहे कोई दूसरों के सामने क्रोध करे या उनके पीठ-पीछे, प्रत्येक व्यक्ति के पास अपने क्रोध का एक अलग इरादा और उद्देश्य होता है। शायद वे अपनी प्रतिष्ठा का निर्माण कर रहे होते हैं, या शायद वे अपने हितों का बचाव कर रहे होते हैं, अपनी छवि बना रहे होते हैं या अपनी लाज बचा रहे होते हैं। कुछ लोग अपने क्रोध में संयम बरतते हैं, जबकि अन्य लोग बहुत उतावले होते हैं और ज़रा भी संयम बरते बिना, जब चाहते हैं भड़क जाते हैं। संक्षेप में, मनुष्य का क्रोध उसके भ्रष्ट स्वभाव से निकलता है। उसका उद्देश्य कुछ भी हो, वह देह और प्रकृति का अंग है; उसका न्याय और अन्याय से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि मनुष्य की प्रकृति और सार में कुछ भी सत्य के अनुरूप नहीं है। इसलिए, भ्रष्ट मनुष्य के क्रोध और परमेश्वर के कोप की तुलना नहीं की जानी चाहिए। बिना किसी अपवाद के, शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य का व्यवहार भ्रष्टता की रक्षा की इच्छा से शुरू होता है, और निस्संदेह यह भ्रष्टता पर आधारित होता है; इसलिए, मनुष्य के क्रोध की तुलना परमेश्वर के कोप से नहीं की जा सकती, चाहे मनुष्य का क्रोध सैद्धांतिक रूप से कितना भी उचित क्यों न लगे। जब परमेश्वर अपना कोप भेजता है, तो दुष्ट शक्तियों को रोका जाता है, बुरी चीज़ों को नष्ट किया जाता है, जबकि न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ें परमेश्वर की देखरेख और सुरक्षा प्राप्त करती हैं और उन्हें जारी रहने दिया जाता है। परमेश्वर अपना कोप इसलिए भेजता है, क्योंकि अन्यायपूर्ण, नकारात्मक और बुरी चीज़ें न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ों की सामान्य गतिविधि और विकास को बाधित, अवरुद्ध या नष्ट करती हैं। परमेश्वर के क्रोध का लक्ष्य अपनी हैसियत और पहचान की रक्षा करना नहीं है, बल्कि न्यायोचित, सकारात्मक, सुंदर और अच्छी चीज़ों के अस्तित्व की रक्षा करना, मनुष्य के सामान्य अस्तित्व की विधियों और व्यवस्था की रक्षा करना है। यह परमेश्वर के कोप का मूल कारण है। परमेश्वर का कोप उसके स्वभाव का बिलकुल उचित, स्वाभाविक और वास्तविक प्रकाशन है। उसके कोप के कोई गुप्त अभिप्राय नहीं हैं, न ही उसमें छल या षड्यंत्र हैं; इच्छाएँ, चतुराई, द्वेष, हिंसा, बुराई या भ्रष्ट मनुष्य में पाई जाने वाले अन्य लक्षणों होने की तो बात ही छोड़ दो। अपना कोप भेजने से पहले परमेश्वर हर मामले के सार को पहले ही पर्याप्त स्पष्टता और पूर्णता के साथ जान चुका होता है, और उसने पहले ही सटीक, स्पष्ट परिभाषाएँ और निष्कर्ष निरूपित कर लिए होते हैं। इस प्रकार, परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले हर कार्य में उसका उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट होता है, जैसे कि उसका रवैया स्पष्ट होता है। वह नासमझ, अंधा, आवेशपूर्ण या लापरवाह नहीं है, और वह निश्चित रूप से सिद्धांतहीन नहीं है। यह परमेश्वर के कोप का व्यावहारिक पहलू है, और परमेश्वर के कोप के इस व्यावहारिक पहलू के कारण ही मनुष्य ने अपना सामान्य अस्तित्व हासिल किया है। परमेश्वर के कोप के बिना मनुष्य असामान्य जीवन-स्थितियों में पतित हो जाता और सभी न्यायोचित, सुंदर और अच्छी चीज़ों को नष्ट कर दिया जाता और वे अस्तित्व में न रहतीं। परमेश्वर के कोप के बिना सृजित प्राणियों के अस्तित्व के नियम और विधियाँ तोड़ दी जातीं या पूरी तरह से उलट दी जातीं। मनुष्य के सृजन के समय से ही परमेश्वर ने मनुष्य के सामान्य अस्तित्व की रक्षा करने और उसे कायम रखने के लिए अपने धार्मिक स्वभाव का निरंतर इस्तेमाल किया है। चूँकि उसके धार्मिक स्वभाव में कोप और प्रताप का समावेश है, इसलिए सभी बुरे लोग, चीज़ें और पदार्थ, और मनुष्य के सामान्य अस्तित्व को परेशान करने और उसे क्षति पहुँचाने वाली सभी चीज़ें उसके कोप के परिणामस्वरूप दंडित, नियंत्रित और नष्ट कर दी जाती हैं। पिछली कई सहस्राब्दियों से परमेश्वर ने सभी प्रकार की अशुद्ध और बुरी आत्माओं को, जो परमेश्वर का विरोध करती हैं और मनुष्य का प्रबंधन करने के परमेश्वर के कार्य में शैतान के सहयोगियों और अनुचरों के रूप में कार्य करती हैं, मार गिराने और नष्ट करने के लिए अपने धार्मिक स्वभाव का लगातार इस्तेमाल किया है। इस प्रकार, मनुष्य के उद्धार का परमेश्वर का कार्य उसकी योजना के अनुसार सदैव आगे बढ़ता गया है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर के कोप के अस्तित्व के कारण मनुष्यों के सर्वाधिक नेक कार्य कभी नष्ट नहीं किए गए हैं।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 110
यद्यपि शैतान दयालु, न्यासंगत और सदाचारी प्रतीत होता है, फिर भी शैतान का सार निर्दयी और बुरा है
शैतान लोगों को धोखा देकर अपनी प्रतिष्ठा बनाता है और अकसर खुद को धार्मिकता के अगुआ और आदर्श के रूप में स्थापित करता है। धार्मिकता की रक्षा की आड़ में वह लोगों को हानि पहुँचाता है, उनकी आत्माओं को निगल जाता है, और मनुष्य को स्तब्ध करने, धोखा देने और भड़काने के लिए हर प्रकार के साधनों का उपयोग करता है। उसका लक्ष्य मनुष्य से अपने बुरे आचरण का अनुमोदन और अनुसरण करवाना और उसे परमेश्वर के अधिकार और संप्रभुता का विरोध करने में अपने साथ मिलाना है। किंतु जब कोई उसकी चालों, षड्यंत्रों और नीच हरकतों को समझ जाता है और नहीं चाहता कि शैतान द्वारा उसे लगातार कुचला और मूर्ख बनाया जाए या वह निरंतर शैतान की गुलामी करे या उसके साथ दंडित और नष्ट किया जाए, तो शैतान अपने पिछले संतनुमा लक्षण बदल लेता है और अपना झूठा नकाब फाड़कर अपना असली चेहरा प्रकट कर देता है, जो दुष्ट, शातिर, भद्दा और वहशी है। वह उन सभी का विनाश करने से ज्यादा कुछ पसंद नहीं करता, जो उसका अनुसरण करने से इनकार करते हैं और उसकी बुरी शक्तियों का विरोध करते हैं। इस बिंदु पर शैतान अब और भरोसेमंद और सज्जन व्यक्ति का रूप धारण किए नहीं रह सकता; इसके बजाय, भेड़ की खाल में भेड़िए की तरह के उसके असली बुरे और शैतानी लक्षण प्रकट हो जाते हैं। एक बार जब शैतान के षड्यंत्र प्रकट हो जाते हैं और उसके असली लक्षणों का खुलासा हो जाता है, तो वह क्रोध से आगबबूला हो जाता है और अपनी बर्बरता जाहिर कर देता है। इसके बाद तो लोगों को नुकसान पहुँचाने और निगल जाने की उसकी इच्छा और भी तीव्र हो जाती है। क्योंकि वह मनुष्य के वस्तुस्थिति के प्रति जाग्रत हो जाने से क्रोधित हो जाता है, और उसकी स्वतंत्रता और प्रकाश की लालसा और अपनी कैद तोड़कर आज़ाद होने की आकांक्षा के कारण उसके अंदर मनुष्य के प्रति बदले की एक प्रबल भावना पैदा हो जाती है। उसके क्रोध का प्रयोजन अपनी बुराई का बचाव करना और उसे बनाए रखना है, और यह उसकी जंगली प्रकृति का असली प्रकाशन भी है।
हर मामले में शैतान का व्यवहार उसकी बुरी प्रकृति को उजागर करता है। शैतान द्वारा मनुष्य पर किए गए सभी बुरे कार्यों—अपना अनुसरण करने के लिए मनुष्य को बहकाने के उसके आरंभिक प्रयासों से लेकर उसके द्वारा मनुष्य के शोषण तक, जिसके अंतर्गत वह मनुष्य को अपने बुरे कार्यों में खींचता है, और उसके असली लक्षणों का खुलासा हो जाने और मनुष्य द्वारा उसे पहचानने और छोड़ देने के बाद मनुष्य के प्रति उसकी बदले की भावना तक—इनमें से कोई भी कार्य शैतान के बुरे सार को उजागर करने से नहीं चूकता, न ही इस तथ्य को प्रमाणित करने से कि शैतान का सकारात्मक चीज़ों से कोई नाता नहीं है और शैतान समस्त बुरी चीज़ों का स्रोत है। उसका हर एक कार्य उसकी बुराई का बचाव करता है, उसके बुरे कार्यों की निरंतरता बनाए रखता है, न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ों के विरुद्ध जाता है, और मनुष्य के सामान्य अस्तित्व के नियमों और विधियों को बरबाद कर देता है। शैतान के ये कार्य परमेश्वर के विरोधी हैं, और वे परमेश्वर के कोप द्वारा नष्ट कर दिए जाएँगे। हालाँकि शैतान के पास उसका अपना कोप है, किंतु उसका कोप उसकी बुरी प्रकृति को प्रकट करने का एक माध्यम भर है। शैतान के भड़कने और उग्र होने का कारण यह है : उसके अकथनीय षड्यंत्र उजागर कर दिए गए हैं; उसके कुचक्र आसानी से छिपाए नहीं छिपते; परमेश्वर का स्थान लेने और परमेश्वर के समान कार्य करने की उसकी वहशी महत्वाकांक्षा और इच्छा नष्ट और अवरुद्ध कर दी गई है; और समूची मानवजाति को नियंत्रित करने का उसका उद्देश्य अब शून्य हो गया है और उसे कभी हासिल नहीं किया जा सकता। यह परमेश्वर द्वारा बार-बार बुलाया जाने वाला उसका कोप है, जिसने शैतान के षड्यंत्र सफल होने से रोक दिए हैं और उसकी दुष्टता के फैलाव और निरंकुशता का समय से पहले ही अंत कर दिया है। इसीलिए शैतान परमेश्वर के कोप से घृणा भी करता है और उससे डरता भी है। जब भी परमेश्वर का कोप उतरता है, तो वह न केवल शैतान के असली बुरे रूप को बेनकाब करता है, बल्कि शैतान की बुरी इच्छाओं को उजागर भी करता है, और इस प्रक्रिया में मनुष्य के प्रति शैतान के कोप के कारणों का पर्दाफाश हो जाता है। शैतान के कोप का विस्फोट उसकी दुष्ट प्रकृति का असली प्रकाशन और उसके षड्यंत्रों का खुलासा है। निस्संदेह, शैतान जब भी क्रोधित होता है, तो यह बुरी चीज़ों के विनाश और सकारात्मक चीज़ों की सुरक्षा और निरंतरता की घोषणा करता है; यह इस तथ्य की घोषणा करता है कि परमेश्वर के कोप को ठेस नहीं पहुँचाई जा सकती।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 111
परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जानने के लिए व्यक्ति को अनुभव और कल्पना पर भरोसा नहीं करना चाहिए
जब तुम स्वयं को परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना का सामना करते हुए पाते हो, तो क्या तुम कहोगे कि परमेश्वर का वचन मिलावटी है? क्या तुम कहोगे कि परमेश्वर के कोप के पीछे कोई कहानी है और वह मिलावटी है? क्या तुम परमेश्वर को यह कहते हुए बदनाम करोगे कि उसका स्वभाव पूर्णतः धार्मिक होना आवश्यक नहीं है? परमेश्वर के प्रत्येक कार्य के साथ व्यवहार करते समय, तुम्हें पहले निश्चित होना चाहिए कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव किसी भी अन्य तत्त्व से मुक्त है और वह पवित्र और निर्दोष है। इन कार्यों में परमेश्वर द्वारा मनुष्य को मार गिराना, दंड देना और नष्ट करना शामिल है। बिना किसी अपवाद के, परमेश्वर का हर कार्य एकदम उसके अंतर्निहित स्वभाव और उसकी योजना के अनुसार किया जाता है, और उसमें मनुष्य के ज्ञान, परंपरा और दर्शन का कोई अंश शामिल नहीं होता। परमेश्वर का हर कार्य उसके स्वभाव और सार की अभिव्यक्ति है, जिसका ऐसी किसी चीज़ से संबंध नहीं है, जो भ्रष्ट मनुष्य से संबंधित हो। मनुष्य की धारणा है कि केवल मानवजाति के प्रति परमेश्वर का प्रेम, दया और सहनशीलता ही दोषरहित, मिलावटरहित और पवित्र है, और कोई नहीं जानता कि परमेश्वर का क्रोध और कोप भी इसी तरह से मिलावटरहित हैं; इतना ही नहीं, किसी ने भी इन प्रश्नों पर विचार नहीं किया है कि परमेश्वर कोई अपमान क्यों नहीं सहता या उसका कोप इतना विराट क्यों है? इसके विपरीत, कुछ लोग गलती से परमेश्वर के कोप को बुरा स्वभाव समझ लेते हैं, जैसा कि भ्रष्ट मनुष्य का होता है, और परमेश्वर के क्रोध को भ्रष्ट मनुष्य के क्रोध के समान ही समझने की गलती करते हैं। यहाँ तक कि वे गलती से यह मान लेते हैं कि परमेश्वर का कोप मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के स्वाभाविक प्रकटन के समान ही है और परमेश्वर के कोप का जारी होना भ्रष्ट लोगों के उस समय प्रकट होने वाले क्रोध के समान ही है, जब वे किसी अप्रिय स्थिति का सामना करते हैं, और वे यह मानते हैं कि परमेश्वर के कोप का प्रस्फुटन उसकी मनःस्थिति का प्रदर्शन है। इस सहभागिता के बाद, मैं आशा करता हूँ कि अब से तुम लोगों में से कोई भी परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के संबंध में किसी प्रकार की गलत धारणा, कल्पना या अनुमान नहीं रखेगा। मैं आशा करता हूँ कि मेरे वचनों को सुनने के बाद तुम अपने हृदय में परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के कोप की सच्ची पहचान रख सकते हो, उससे जुड़ी कोई पिछली गलत समझ अलग हटा सकते हो, तुम परमेश्वर के कोप के सार के संबंध में अपने गलत विश्वास और दृष्टिकोण बदल सकते हो। इतना ही नहीं, मैं आशा करता हूँ कि तुम लोगों के हृदय में परमेश्वर के स्वभाव की कोई सटीक परिभाषा हो सकती है, तुम्हारे मन में अब से परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को लेकर कोई संदेह नहीं होगा, और तुम परमेश्वर के सच्चे स्वभाव पर कोई मानवीय तर्क या अनुमान नहीं थोपोगे। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव परमेश्वर का अपना सच्चा सार है। यह कोई मनुष्य द्वारा लिखी या रची गई चीज़ नहीं है। उसका धार्मिक स्वभाव उसका धार्मिक स्वभाव है और उसका सृष्टि की किसी चीज़ से कोई संबंध या वास्ता नहीं है। स्वयं परमेश्वर स्वयं परमेश्वर है। वह कभी सृष्टि का भाग नहीं बन सकता, और यदि वह सृजित प्राणियों का सदस्य बनता भी है, तो भी उसका अंतर्निहित स्वभाव और सार नहीं बदलेगा। इसलिए, परमेश्वर को जानना किसी वस्तु को जानने के समान नहीं है; परमेश्वर को जानना किसी चीज़ की चीर-फाड़ करना नहीं है, न ही यह किसी व्यक्ति को समझने के समान है। यदि परमेश्वर को जानने के लिए मनुष्य किसी वस्तु को जानने या किसी व्यक्ति को समझने की अपनी धारणा या पद्धति का इस्तेमाल करता है, तो तुम परमेश्वर का ज्ञान हासिल करने में कभी सक्षम नहीं होगे। परमेश्वर को जानना अनुभव या कल्पना पर निर्भर नहीं है, इसलिए तुम्हें अपने अनुभव या कल्पना को परमेश्वर पर नहीं थोपना चाहिए; तुम्हारा अनुभव और कल्पना कितने भी समृद्ध क्यों न हों, फिर भी वे सीमित हैं। और तो और, तुम्हारी कल्पना तथ्यों से मेल नहीं खाती, और सत्य से तो बिलकुल भी मेल नहीं खाती, वह परमेश्वर के सच्चे स्वभाव और सार से असंगत है। यदि तुम परमेश्वर के सार को समझने के लिए अपनी कल्पना पर भरोसा करते हो, तो तुम कभी सफल नहीं होगे। एकमात्र रास्ता यह है : वह सब स्वीकार करो, जो परमेश्वर से आता है, फिर धीरे-धीरे उसे अनुभव करो और समझो। एक दिन ऐसा आएगा, जब परमेश्वर तुम्हारे सहयोग के कारण और सत्य के लिए तुम्हारी भूख और प्यास के कारण तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, ताकि तुम सच में उसे समझ और जान सको।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 112
सच्चे पश्चात्ताप के जरिये मनुष्य परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त करता है (चुने हुए अंश)
यहोवा परमेश्वर की चेतावनी नीनवे के लोगों तक पहुँचती है
हम दूसरे अंश, योना की पुस्तक के तीसरे अध्याय पर चलते हैं : “योना ने नगर में प्रवेश करके एक दिन की यात्रा पूरी की, और यह प्रचार करता गया, ‘अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा।’” ये वे वचन हैं, जो परमेश्वर ने नीनवे के लोगों को बताने के लिए सीधे योना को दिए थे, इसलिए निस्संदेह, ये वे वचन हैं, जिन्हें यहोवा नीनवे के लोगों से कहना चाहता था। ये वचन लोगों को बताते हैं कि परमेश्वर ने नगर के लोगों से घृणा करनी शुरू कर दी थी, क्योंकि उनकी दुष्टता उसकी नज़रों में आ गई थी, और इसलिए वह इस नगर को नष्ट करना चाहता था। किंतु नगर को नष्ट करने से पहले परमेश्वर नीनवे के नागरिकों के लिए एक घोषणा करेगा, और साथ ही वह उन्हें अपनी दुष्टता के लिए पश्चात्ताप करने और नए सिरे से शुरुआत करने का एक अवसर देगा। यह अवसर चालीस दिन तक रहेगा, इससे ज्यादा नहीं। दूसरे शब्दों में, यदि नगर में रहने वाले लोगों ने चालीस दिनों के भीतर पश्चात्ताप न किया, अपने पाप स्वीकार न किए या यहोवा परमेश्वर के सामने दंडवत न किया, तो परमेश्वर इस नगर को वैसे ही नष्ट कर देगा, जैसे उसने सदोम को नष्ट किया था। यहोवा परमेश्वर यही बात नीनवे के लोगों से कहना चाहता था। साफ बात है, यह कोई सामान्य घोषणा नहीं थी। इस बात ने लोगों को न केवल यहोवा परमेश्वर के क्रोध से अवगत कराया, बल्कि इससे नीनवे के लोगों के प्रति उसका रवैया भी ज़ाहिर हो गया, और साथ ही नगर के भीतर रहने वाले लोगों के लिए एक गंभीर चेतावनी के रूप में भी काम किया। इस चेतावनी ने उन्हें बताया कि अपने बुरे कार्यों से उन्होंने यहोवा परमेश्वर की घृणा को न्योता दिया है, और उनके दुष्कर्म उन्हें शीघ्र ही तबाही के कगार पर पहुँचा देंगे। इसलिए नीनवे के हर निवासी का जीवन आसन्न संकट में था।
यहोवा परमेश्वर की चेतावनी के प्रति नीनवे और सदोम की प्रतिक्रिया में स्पष्ट अंतर
उखाड़ फेंकने का क्या अर्थ है? बोलचाल की भाषा में इसका अर्थ है मौजूद न रहना। लेकिन किस तरह? कौन एक पूरे नगर को उखाड़कर फेंक सकता है? निस्संदेह मनुष्य के लिए ऐसा काम करना असंभव है। नीनवे के लोग मूर्ख नहीं थे; ज्यों ही उन्होंने इस घोषणा को सुना, त्यों ही वे इसके अभिप्राय को समझ गए। वे जानते थे कि घोषणा परमेश्वर की ओर से आई है, वे जानते थे कि परमेश्वर अपना कार्य करने जा रहा है, और वे जानते थे कि उनकी दुष्टता ने यहोवा परमेश्वर को क्रोधित कर दिया है, इसीलिए उसका क्रोध उन पर बरस रहा है, जिससे वे शीघ्र ही अपने नगर के साथ नष्ट हो जाने वाले हैं। यहोवा परमेश्वर की चेतावनी सुनने के बाद नगर के लोगों ने कैसा व्यवहार किया? बाइबल राजा से लेकर आम आदमी तक, सभी लोगों की प्रतिक्रिया का बहुत विस्तार से वर्णन करती है। पवित्रशास्त्र में ये वचन दर्ज हैं : “तब नीनवे के मनुष्यों ने परमेश्वर के वचन की प्रतीति की; और उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा। तब यह समाचार नीनवे के राजा के कान में पहुँचा; और उसने सिंहासन पर से उठ, अपने राजकीय वस्त्र उतारकर टाट ओढ़ लिया, और राख पर बैठ गया। राजा ने प्रधानों से सम्मति लेकर नीनवे में इस आज्ञा का ढिंढोरा पिटवाया : ‘क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए; वे न खाएँ और न पानी पीएँ। मनुष्य और पशु दोनों टाट ओढ़ें, और वे परमेश्वर की दोहाई चिल्ला-चिल्ला कर दें; और अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्चाताप करें...’” (योना 3:5-9)।
यहोवा परमेश्वर की घोषणा सुनने के बाद नीनवे के लोगों ने सदोम के लोगों के रवैये से ठीक विपरीत रवैया दिखाया—जहाँ सदोम के लोगों ने खुले तौर पर परमेश्वर का विरोध किया और बुरे से बुरा कार्य करते चले गए, वहीं नीनवे के लोगों ने इन वचनों को सुनने के बाद इस मामले को नज़रअंदाज़ नहीं किया, और न ही उन्होंने प्रतिरोध किया। इसके बजाय उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास किया और उपवास की घोषणा कर दी। “विश्वास किया” शब्दों का यहाँ क्या अर्थ है? ये शब्द विश्वास और समर्पण की ओर संकेत करते हैं। यदि हम इन शब्दों की व्याख्या करने के लिए नीनवे के लोगों के वास्तविक व्यवहार का उपयोग करें, तो इनका अर्थ यह है कि उन्होंने विश्वास किया कि परमेश्वर ने जैसा कहा है, वह वैसा कर सकता है और करेगा, और कि वे पश्चात्ताप करने के लिए तैयार थे। क्या नीनवे के लोग आसन्न आपदा से डर गए? यह उनका विश्वास था, जिसने उनके हृदय में भय पैदा कर दिया था। तो नीनवे के लोगों के विश्वास और भय को प्रमाणित करने के लिए हम किस चीज़ का उपयोग कर सकते हैं? जैसा कि बाइबल कहती है : “... उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा।” कहने का तात्पर्य है कि नीनवे के लोगों ने सच में विश्वास किया, और इस विश्वास से भय उत्पन्न हुआ, जिसने तब उन्हें उपवास करने और टाट ओढ़ने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार उन्होंने दिखाया कि वे पश्चात्ताप करना शुरू कर रहे हैं। सदोम के लोगों के बिलकुल विपरीत, नीनवे के लोगों ने न केवल परमेश्वर का विरोध नहीं किया, बल्कि उन्होंने अपने व्यवहार और कार्यों के जरिये स्पष्ट रूप से अपना पश्चात्ताप भी दिखाया। निस्संदेह, ऐसा नीनवे के सभी लोगों ने किया, केवल आम लोगों ने नहीं—राजा भी इसका अपवाद नहीं था।
नीनवे के राजा का पश्चात्ताप यहोवा परमेश्वर की प्रशंसा पाता है
जब नीनवे के राजा ने यह समाचार सुना, तो वह अपने सिंहासन से उठा खड़ा हुआ, उसने अपने वस्त्र उतार डाले और टाट पहनकर राख में बैठ गया। तब उसने घोषणा की कि नगर में किसी को भी कुछ भी चखने की अनुमति नहीं दी जाएगी, और किसी भेड़, बैल या अन्य मवेशी को घास-पानी नहीं दिया जाएगा। मनुष्य और पशु दोनों को एक-समान टाट ओढ़ना था, और लोगों को बड़ी लगन से परमेश्वर से विनती करनी थी। राजा ने यह घोषणा भी की कि उनमें से प्रत्येक अपने बुरे मार्ग को छोड़ देगा और हिंसा का त्याग कर देगा। उसके द्वारा लगातार किए गए इन कार्यों को देखते हुए, नीनवे के राजा के हृदय में सच्चा पश्चात्ताप था। उसके द्वारा किए गए ये कार्य—अपने सिंहासन से उठ खड़ा होना, अपने राजकीय वस्त्र उतार देना, टाट ओढ़ना और राख में बैठ जाना—लोगों को बताता है कि नीनवे का राजा अपने शाही रुतबे को छोड़ रहा था और आम लोगों के साथ टाट ओढ़ रहा था। कहने का तात्पर्य है कि नीनवे का राजा यहोवा परमेश्वर से आई घोषणा सुनने के बाद अपने बुरे मार्ग पर चलते रहने या अपने हाथों से हिंसा जारी रखने के लिए अपने शाही पद पर जमा नहीं रहा; बल्कि उसने अपने अधिकार को दरकिनार कर यहोवा परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप किया। इस समय नीनवे का राजा एक राजा के रूप में पश्चात्ताप नहीं कर रहा था; बल्कि वह परमेश्वर की एक सामान्य प्रजा के रूप में अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर के सामने आया था। इतना ही नहीं, उसने पूरे शहर से भी उसी तरह यहोवा परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने और अपने पाप स्वीकार करने के लिए कहा, जिस तरह उसने किया था; इसके अलावा, उसके पास एक विशिष्ट योजना भी थी कि ऐसा कैसे किया जाए, जैसा कि पवित्रशास्त्र में देखने को मिलता है : “क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए; वे न खाएँ और न पानी पीएँ। ... और वे परमेश्वर की दोहाई चिल्ला-चिल्ला कर दें; और अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्चाताप करें।” नगर का शासक होने के नाते, नीनवे का राजा उच्चतम हैसियत और सामर्थ्य रखता था और जो चाहता, कर सकता था। यहोवा परमेश्वर की घोषणा सामने आने पर वह उस मामले को नज़रअंदाज़ कर सकता था या बस यों ही अकेले अपने पापों का प्रायश्चित कर सकता था और उन्हें स्वीकार कर सकता था; नगर के लोग पश्चात्ताप करें या न करें, वह इस मामले को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर सकता था। किंतु नीनवे के राजा ने ऐसा बिलकुल नहीं किया। उसने न केवल अपने सिंहासन से उठकर टाट ओढ़कर और राख मलकर यहोवा परमेश्वर के सामने अपने पाप स्वीकार किए और पश्चात्ताप किया, बल्कि उसने अपने नगर के सभी लोगों और पशुओं को भी ऐसा करने का आदेश दिया। यहाँ तक कि उसने लोगों को आदेश दिया कि “परमेश्वर की दोहाई चिल्ला चिल्लाकर दो।” कार्यों की इस शृंखला के जरिये नीनवे के राजा ने सच में वह किया, जो एक शासक को करना चाहिए। उसके द्वारा किए गए कार्यों की शृंखला ऐसी है, जिसे करना मानव-इतिहास में किसी भी राजा के लिए कठिन था, और निस्संदेह, कोई अन्य राजा ये कार्य नहीं कर पाया। ये कार्य मानव-इतिहास में अभूतपूर्व कहे जा सकते हैं, और ये मानवजाति द्वारा स्मरण और अनुकरण दोनों के योग्य हैं। मनुष्य की उत्पत्ति के समय से ही, प्रत्येक राजा ने परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध करने में अपनी प्रजा की अगुआई की है। किसी ने भी कभी अपनी दुष्टता से छुटकारा पाने, यहोवा परमेश्वर से क्षमा पाने और आने वाले दंड से बचने के लिए परमेश्वर से विनती करने हेतु अपनी प्रजा की अगुआई नहीं की। किंतु नीनवे का राजा परमेश्वर की ओर मुड़ने, कुमार्ग त्यागने और अपने हाथों के उपद्रव का त्याग करने में अपनी प्रजा की अगुआई कर पाया। इतना ही नहीं, वह अपने सिंहासन को भी छोड़ पाया, और बदले में, यहोवा परमेश्वर का मन बदल गया और उसे अफ़सोस हुआ, उसने अपना कोप त्याग दिया, नगर के लोगों को जीवित रहने दिया और उन्हें सर्वनाश से बचा लिया। राजा के कार्यों को मानव-इतिहास में केवल एक दुर्लभ चमत्कार ही कहा जा सकता है, यहाँ तक कि उन्हें भ्रष्ट मनुष्यों का आदर्श भी कहा जा सकता है, जो परमेश्वर के सामने अपने पाप स्वीकार करते हैं और पश्चात्ताप करते हैं।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 113
योना 3 तब यहोवा का यह वचन दूसरी बार योना के पास पहुँचा : “उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और जो बात मैं तुझ से कहूँगा, उसका उस में प्रचार कर।” तब योना यहोवा के वचन के अनुसार नीनवे को गया। नीनवे एक बहुत बड़ा नगर था, वह तीन दिन की यात्रा का था। योना ने नगर में प्रवेश करके एक दिन की यात्रा पूरी की, और यह प्रचार करता गया, “अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा।” तब नीनवे के मनुष्यों ने परमेश्वर के वचन की प्रतीति की; और उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा। तब यह समाचार नीनवे के राजा के कान में पहुँचा; और उसने सिंहासन पर से उठ, अपने राजकीय वस्त्र उतारकर टाट ओढ़ लिया, और राख पर बैठ गया। राजा ने प्रधानों से सम्मति लेकर नीनवे में इस आज्ञा का ढिंढोरा पिटवाया : “क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए; वे न खाएँ और न पानी पीएँ। मनुष्य और पशु दोनों टाट ओढ़ें, और वे परमेश्वर की दोहाई चिल्ला-चिल्ला कर दें; और अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्चाताप करें। सम्भव है, परमेश्वर दया करे और अपनी इच्छा बदल दे, और उसका भड़का हुआ कोप शान्त हो जाए और हम नष्ट होने से बच जाएँ।” जब परमेश्वर ने उनके कामों को देखा, कि वे कुमार्ग से फिर रहे हैं, तब परमेश्वर ने अपनी इच्छा बदल दी, और उनकी जो हानि करने की ठानी थी, उसको न किया।
परमेश्वर नीनवे के लोगों के हृदय की गहराइयों में सच्चा पश्चात्ताप देखता है
परमेश्वर की घोषणा सुनने के बाद, नीनवे के राजा और उसकी प्रजा ने अनेक कार्यों को अंजाम दिया। उनके इन कार्यों और व्यवहार की प्रकृति क्या थी? दूसरे शब्दों में, उनके समग्र व्यवहार का सार क्या था? उन्होंने जो किया, वह क्यों किया? परमेश्वर की नज़रों में उन्होंने ईमानदारी से पश्चात्ताप किया था, न केवल इसलिए कि उन्होंने पूरी लगन से परमेश्वर से विनती की थी और उसके सम्मुख अपने पाप स्वीकार किए थे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने अपना दुष्ट आचरण छोड़ दिया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद वे बेहद डर गए थे और यह मानते थे कि वह वैसा ही करेगा, जैसा उसने कहा है। उपवास करके, टाट पहनकर और राख में बैठकर वे अपने तौर-तरीके सुधारने और बुराई से दूर रहने की इच्छा व्यक्त करना चाहते थे, और उन्होंने यहोवा परमेश्वर से अपना निर्णय और उन पर पड़ी विपत्ति वापस लेने के लिए विनती करते हुए अपना कोप रोकने की प्रार्थना की। यदि हम पूरे व्यवहार की जाँच करें, तो हम देख सकते हैं कि वे पहले ही समझ गए थे कि उनके पिछले बुरे काम यहोवा परमेश्वर के लिए घृणास्पद थे, और हम यह भी देख सकते हैं कि वे यह समझ गए थे कि वह किस कारण से उन्हें शीघ्र ही नष्ट कर देगा। इसीलिए वे सभी पूरा पश्चात्ताप करना, अपने बुरे मार्गों से हटना और अपने हाथों के उपद्रव को त्याग देना चाहते थे। दूसरे शब्दों में, एक बार जब वे यहोवा परमेश्वर की घोषणा से अवगत हो गए, तो उनमें से प्रत्येक ने अपने हृदय में भय महसूस किया; उन्होंने अपना बुरा आचरण बंद कर दिया और फिर वे कार्य नहीं किए, जो यहोवा परमेश्वर के लिए इतने घृणास्पद थे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने यहोवा परमेश्वर से उनके पिछले पाप क्षमा करने और उनसे उनके पिछले कार्यों के अनुसार व्यवहार न करने की विनती की। वे फिर कभी दुष्टता में लिप्त न होने और यहोवा परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार कार्य करने के लिए तैयार थे, ताकि यहोवा परमेश्वर यथासंभव फिर कभी कुपित न हो। उनका पश्चात्ताप सच्चा और संपूर्ण था। वह उनके हृदय की गहराई से आया था और वास्तविक और स्थायी था।
एक बार जब नीनवे के लोग, राजा से लेकर प्रजा तक, यह जान गए कि यहोवा परमेश्वर उनसे क्रोधित है, तो परमेश्वर उनका अगला हर कार्य, उनका समग्र आचरण, उनका हर एक निर्णय और चुनाव स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूप से देख सकता था। परमेश्वर का हृदय उनके व्यवहार के अनुसार बदल गया। उस क्षण परमेश्वर की मनःस्थिति क्या थी? बाइबल तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर दे सकती है। पवित्रशास्त्र में ये वचन दर्ज हैं : “जब परमेश्वर ने उनके कामों को देखा, कि वे कुमार्ग से फिर रहे हैं, तब परमेश्वर ने अपनी इच्छा बदल दी, और उनकी जो हानि करने की ठानी थी, उसको न किया” (योना 3:10)। यद्यपि परमेश्वर ने अपना मन बदल लिया था, फिर भी उसकी मनःस्थिति बिलकुल भी जटिल नहीं थी। उसने अपना क्रोध व्यक्त करने के बजाय उसे शांत किया, और फिर नीनवे शहर पर विपत्ति न लाने का निर्णय लिया। परमेश्वर का निर्णय—विपत्ति से नीनवे के लोगों को बख्श देना—इतना शीघ्र होने का कारण यह है कि परमेश्वर ने नीनवे के हर व्यक्ति के हृदय का अवलोकन कर लिया था। उसने देखा कि उनके हृदय की गहराइयों में क्या है : अपने पापों के लिए उनका सच्चा पश्चात्ताप और स्वीकृति, परमेश्वर में उनका सच्चा विश्वास, उनका गहरा बोध कि कैसे उनके बुरे कार्यों ने परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित कर दिया, और इस वजह से यहोवा परमेश्वर से तुरंत मिलने वाले दंड से पैदा हुआ भय। साथ ही, यहोवा परमेश्वर ने उनके हृदय की गहराइयों से निकली उनकी प्रार्थनाएँ भी सुनीं, जिनमें उससे विनती की गई थी कि वह अब उन पर क्रोधित न हो, ताकि वे इस विपत्ति से बच सकें। जब परमेश्वर ने इन सभी तथ्यों का अवलोकन किया, तो धीरे-धीरे उसका क्रोध जाता रहा। चाहे उसका क्रोध पहले कितना भी विराट क्यों न रहा हो, लेकिन जब उसने इन लोगों के हृदय की गहराइयों में सच्चा पश्चात्ताप देखा, तो उसका हृदय पिघल गया, और इसलिए वह उन पर विपत्ति लाना सहन नहीं कर पाया, और उसने उन पर क्रोध करना बंद कर दिया। इसके बजाय उसने उन्हें अपनी दया और सहनशीलता प्रदान करना जारी रखा और वह उनका मार्गदर्शन और आपूर्ति करता रहा।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 114
योना 3 तब यहोवा का यह वचन दूसरी बार योना के पास पहुँचा : “उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और जो बात मैं तुझ से कहूँगा, उसका उस में प्रचार कर।” तब योना यहोवा के वचन के अनुसार नीनवे को गया। नीनवे एक बहुत बड़ा नगर था, वह तीन दिन की यात्रा का था। योना ने नगर में प्रवेश करके एक दिन की यात्रा पूरी की, और यह प्रचार करता गया, “अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा।” तब नीनवे के मनुष्यों ने परमेश्वर के वचन की प्रतीति की; और उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा। तब यह समाचार नीनवे के राजा के कान में पहुँचा; और उसने सिंहासन पर से उठ, अपने राजकीय वस्त्र उतारकर टाट ओढ़ लिया, और राख पर बैठ गया। राजा ने प्रधानों से सम्मति लेकर नीनवे में इस आज्ञा का ढिंढोरा पिटवाया : “क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए; वे न खाएँ और न पानी पीएँ। मनुष्य और पशु दोनों टाट ओढ़ें, और वे परमेश्वर की दोहाई चिल्ला-चिल्ला कर दें; और अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्चाताप करें। सम्भव है, परमेश्वर दया करे और अपनी इच्छा बदल दे, और उसका भड़का हुआ कोप शान्त हो जाए और हम नष्ट होने से बच जाएँ।” जब परमेश्वर ने उनके कामों को देखा, कि वे कुमार्ग से फिर रहे हैं, तब परमेश्वर ने अपनी इच्छा बदल दी, और उनकी जो हानि करने की ठानी थी, उसको न किया।
यदि परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास सच्चा है, तो तुम अकसर उसकी देखरेख प्राप्त करोगे
नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर द्वारा अपने इरादे बदलने में कोई झिझक या ऐसी चीज़ शामिल नहीं थी, जो अस्पष्ट या अज्ञात हो। बल्कि, यह शुद्ध क्रोध से शुद्ध सहनशीलता में हुआ एक रूपांतरण था। यह परमेश्वर के सार का एक सच्चा प्रकटन है। परमेश्वर अपने कार्यों में कभी अस्थिर या संकोची नहीं होता; उसके कार्यों के पीछे के सिद्धांत और उद्देश्य स्पष्ट और पारदर्शी, शुद्ध और दोषरहित होते हैं, जिनमें कोई धोखा या षड्यंत्र बिलकुल भी मिला नहीं होता। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के सार में कोई अंधकार या बुराई शामिल नहीं होती। परमेश्वर नीनवे के नागरिकों से इसलिए क्रोधित हुआ, क्योंकि उनकी दुष्टता के कार्य उसकी नज़रों में आ गए थे; उस समय उसका क्रोध उसके सार से निकला था। किंतु जब परमेश्वर का कोप जाता रहा और उसने नीनवे के लोगों पर एक बार फिर से सहनशीलता दिखाई, तो वह सब जो उसने प्रकट किया, वह भी उसका अपना सार ही था। यह संपूर्ण परिवर्तन परमेश्वर के प्रति मनुष्य के रवैये में हुए बदलाव के कारण था। इस पूरी अवधि के दौरान परमेश्वर का अनुल्लंघनीय स्वभाव नहीं बदला, परमेश्वर का सहनशील सार नहीं बदला, परमेश्वर का प्रेममय और दयालु सार नहीं बदला। जब लोग दुष्टता के काम करते हैं और परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हैं, तो वह उन पर क्रोध करता है। जब लोग सच में पश्चात्ताप करते हैं, तो परमेश्वर का हृदय बदलता है, और उसका क्रोध थम जाता है। जब लोग हठपूर्वक परमेश्वर का विरोध करते हैं, तो उसका कोप निरंतर बना रहता है और धीरे-धीरे उन्हें तब तक दबाता रहता है, जब तक वे नष्ट नहीं हो जाते। यह परमेश्वर के स्वभाव का सार है। परमेश्वर चाहे कोप प्रकट कर रहा हो या दया और प्रेममय करुणा, यह मनुष्य के हृदय की गहराइयों में परमेश्वर के प्रति उसका आचरण, व्यवहार और रवैया ही होता है, जो यह तय करता है कि परमेश्वर के स्वभाव के प्रकाशन के माध्यम से क्या व्यक्त होगा। यदि परमेश्वर किसी व्यक्ति पर निरंतर अपना क्रोध बनाए रखता है, तो निस्संदेह ऐसे व्यक्ति का हृदय परमेश्वर का विरोध करता है। चूँकि इस व्यक्ति ने कभी सच में पश्चात्ताप नहीं किया है, परमेश्वर के सम्मुख अपना सिर नहीं झुकाया है या परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं रखा है, इसलिए उसने कभी परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त नहीं की है। यदि कोई व्यक्ति अकसर परमेश्वर की देखरेख, उसकी दया और उसकी सहनशीलता प्राप्त करता है, तो निस्संदेह ऐसे व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर के प्रति सच्चा विश्वास है, और उसका हृदय परमेश्वर के विरुद्ध नहीं है। यह व्यक्ति अकसर सच में परमेश्वर के सम्मुख पश्चात्ताप करता है; इसलिए, भले ही परमेश्वर का अनुशासन अकसर इस व्यक्ति के ऊपर आए, पर उसका कोप नहीं आएगा।
इस संक्षिप्त विवरण से लोग परमेश्वर के हृदय को देख सकते हैं, उसके सार की वास्तविकता को देख सकते हैं, और यह देख सकते हैं कि परमेश्वर का क्रोध और उसके हृदय के बदलाव बेवजह नहीं हैं। परमेश्वर द्वारा कुपित होने और अपना मन बदल लेने पर दिखाई गई स्पष्ट विषमता के बावजूद, जिससे लोग यह मानते हैं कि परमेश्वर के सार के इन दोनों पहलुओं—उसके क्रोध और उसकी सहनशीलता—के बीच एक बड़ा अलगाव या अंतर है, नीनवे के लोगों के पश्चात्ताप के प्रति परमेश्वर का रवैया एक बार फिर से लोगों को परमेश्वर के सच्चे स्वभाव का दूसरा पहलू दिखाता है। परमेश्वर के हृदय का बदलाव मनुष्य को सच में एक बार फिर से परमेश्वर की दया और प्रेममय करुणा की सच्चाई दिखाता है, और परमेश्वर के सार का सच्चा प्रकाशन दिखाता है। मनुष्य को मानना पड़ेगा कि परमेश्वर की दया और प्रेममय करुणा मिथक नहीं हैं, न ही वे मनगढ़ंत हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उस क्षण परमेश्वर की भावना सच्ची थी, और परमेश्वर के हृदय का बदलाव सच्चा था—परमेश्वर ने वास्तव में एक बार फिर मनुष्य के ऊपर अपनी दया और सहनशीलता बरसाई थी।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 115
योना 3 तब यहोवा का यह वचन दूसरी बार योना के पास पहुँचा : “उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और जो बात मैं तुझ से कहूँगा, उसका उस में प्रचार कर।” तब योना यहोवा के वचन के अनुसार नीनवे को गया। नीनवे एक बहुत बड़ा नगर था, वह तीन दिन की यात्रा का था। योना ने नगर में प्रवेश करके एक दिन की यात्रा पूरी की, और यह प्रचार करता गया, “अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा।” तब नीनवे के मनुष्यों ने परमेश्वर के वचन की प्रतीति की; और उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा। तब यह समाचार नीनवे के राजा के कान में पहुँचा; और उसने सिंहासन पर से उठ, अपने राजकीय वस्त्र उतारकर टाट ओढ़ लिया, और राख पर बैठ गया। राजा ने प्रधानों से सम्मति लेकर नीनवे में इस आज्ञा का ढिंढोरा पिटवाया : “क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए; वे न खाएँ और न पानी पीएँ। मनुष्य और पशु दोनों टाट ओढ़ें, और वे परमेश्वर की दोहाई चिल्ला-चिल्ला कर दें; और अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्चाताप करें। सम्भव है, परमेश्वर दया करे और अपनी इच्छा बदल दे, और उसका भड़का हुआ कोप शान्त हो जाए और हम नष्ट होने से बच जाएँ।” जब परमेश्वर ने उनके कामों को देखा, कि वे कुमार्ग से फिर रहे हैं, तब परमेश्वर ने अपनी इच्छा बदल दी, और उनकी जो हानि करने की ठानी थी, उसको न किया।
नीनवे के लोगों ने अपने हृदय के सच्चे पश्चात्ताप से परमेश्वर की दया प्राप्त की और अपना परिणाम बदल लिया
क्या परमेश्वर के हृदय के बदलाव और उसके कोप में कोई विरोध था? बिलकुल नहीं! ऐसा इसलिए है, क्योंकि उस समय-विशेष पर परमेश्वर की सहनशीलता का अपना कारण था। वह कारण क्या हो सकता है? वह कारण बाइबल में दिया गया है : “प्रत्येक व्यक्ति अपने कुमार्ग से फिर गया,” और “अपने हाथों के उपद्रवी कार्यों को तज दिया।”
यह “कुमार्ग” मुटठीभर बुरे कार्यों को संदर्भित नहीं करता, बल्कि उस बुरे स्रोत को संदर्भित करता है, जिससे लोगों का व्यवहार उत्पन्न होता है। “अपने कुमार्ग से फिर जाने” का अर्थ है कि ऐसे लोग ये कार्य दोबारा कभी नहीं करेंगे। दूसरे शब्दों में, वे दोबारा कभी इस बुरे तरीके से व्यवहार नहीं करेंगे; उनके कार्यों का तरीका, स्रोत, उद्देश्य, इरादा और सिद्धांत सब बदल चुके हैं; वे अपने मन को आनंदित और प्रसन्न करने के लिए दोबारा कभी उन तरीकों और सिद्धांतों का उपयोग नहीं करेंगे। “अपने हाथों के उपद्रव को त्याग देना” में “त्याग देना” का अर्थ है छोड़ देना या दूर करना, अतीत से पूरी तरह से नाता तोड़ लेना और कभी वापस न मुड़ना। जब नीनवे के लोगों ने हिंसा त्याग दी, तो इससे उनका सच्चा पश्चात्ताप सिद्ध हो गया। परमेश्वर लोगों के बाहरी रूप के साथ-साथ उनका हृदय भी देखता है। जब परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के हृदय में सच्चा पश्चात्ताप देखा जिसमें कोई सवाल नहीं थे, और यह भी देखा कि वे अपने कुमार्गों से फिर गए हैं और उन्होंने हिंसा त्याग दी है, तो उसने अपना मन बदल लिया। कहने का तात्पर्य है कि इन लोगों के आचरण, व्यवहार और कार्य करने के विभिन्न तरीकों ने, और साथ ही उनके हृदय में पापों की सच्ची स्वीकृति और पश्चात्ताप ने परमेश्वर को अपना मन बदलने, अपने इरादे बदलने, अपना निर्णय वापस लेने, और उन्हें दंड न देने या नष्ट न करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार, नीनवे के लोगों ने अपने लिए एक अलग परिणाम प्राप्त किया। उन्होंने अपने जीवन को छुड़ाया और साथ ही परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त कर ली, और इस मुकाम पर परमेश्वर ने भी अपना कोप वापस ले लिया।
परमेश्वर की करुणा और सहनशीलता दुर्लभ नहीं है—बल्कि मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप दुर्लभ है
परमेश्वर नीनवे के लोगों से चाहे जितना भी क्रोधित रहा हो, लेकिन जैसे ही उन्होंने उपवास की घोषणा की और टाट ओढ़कर राख पर बैठ गए, वैसे ही उसका हृदय नरम होने लगा, और उसने अपना मन बदलना शुरू कर दिया। जब उसने घोषणा की कि वह उनके नगर को नष्ट कर देगा—उनके द्वारा अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने से पहले के क्षण तक भी—परमेश्वर उनसे क्रोधित था। लेकिन जब वो लोग लगातार पश्चात्ताप के कार्य करते रहे, तो नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर का कोप धीरे-धीरे उनके प्रति दया और सहनशीलता में बदल गया। एक ही घटना में परमेश्वर के स्वभाव के इन दो पहलुओं के एक-साथ प्रकाशन में कोई विरोध नहीं है। तो विरोध के न होने को कैसे समझना और जानना चाहिए? नीनवे के लोगों द्वारा पश्चात्ताप करने पर परमेश्वर ने एक के बाद एक ये दो एकदम विपरीत सार व्यक्त और प्रकाशित किए, जिससे लोगों ने परमेश्वर के सार की वास्तविकता और अनुल्लंघनीयता देखी। परमेश्वर ने लोगों को निम्नलिखित बातें बताने के लिए अपने रवैये का उपयोग किया : ऐसा नहीं है कि परमेश्वर लोगों को बरदाश्त नहीं करता, या वह उन पर दया नहीं दिखाना चाहता; बल्कि वे कभी परमेश्वर के सामने सच्चा पश्चात्ताप नहीं करते, और उनका सच में अपने कुमार्ग को छोड़ना और हिंसा त्यागना एक दुर्लभ बात है। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर मनुष्य से क्रोधित होता है, तो वह आशा करता है कि मनुष्य सच में पश्चात्ताप करेगा, दरअसल वह मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप देखना चाहता है, और उस दशा में वह मनुष्य पर उदारता से अपनी दया और सहनशीलता बरसाता रहेगा। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य का बुरा आचरण परमेश्वर के कोप को जन्म देता है, जबकि परमेश्वर की दया और सहनशीलता उन लोगों पर बरसती है, जो परमेश्वर की बात सुनते हैं और उसके सम्मुख वास्तव में पश्चात्ताप करते हैं, जो कुमार्ग छोड़कर हिंसा त्याग देते हैं। नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के व्यवहार में उसका रवैया बहुत साफ तौर पर प्रकट हुआ था : परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त करना बिलकुल भी कठिन नहीं है; और वह इंसान से सच्चा पश्चात्ताप चाहता है। यदि लोग कुमार्ग छोड़कर हिंसा त्याग देते हैं, तो परमेश्वर उनके प्रति अपना हृदय और रवैया बदल लेता है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 116
सृष्टिकर्ता का धार्मिक स्वभाव वास्तविक और स्पष्ट है
जब नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर का हृदय-परिवर्तन हुआ, तो क्या उसकी दया और सहनशीलता एक दिखावा थी? बिलकुल नहीं! तो फिर परमेश्वर द्वारा इस एक स्थिति से निपटने के दौरान उसके स्वभाव के इन दो पहलुओं के बीच बदलाव से क्या दिखाया गया है? परमेश्वर का स्वभाव पूरी तरह से संपूर्ण है—वह बिलकुल भी विभाजित नहीं है। चाहे वह लोगों पर कोप प्रकट कर रहा हो या दया और सहनशीलता दिखा रहा हो, ये सब उसके धार्मिक स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं। परमेश्वर का स्वभाव जीवंत और एकदम स्पष्ट है, वह अपने विचार और रवैये चीज़ों के विकसित होने के हिसाब से बदलता है। नीनवे के लोगों के प्रति उसके रवैये का रूपांतरण मनुष्य को बताता है कि उसके अपने विचार और युक्तियाँ हैं; वह कोई मशीन या मिट्टी का पुतला नहीं है, बल्कि स्वयं जीवित परमेश्वर है। वह नीनवे के लोगों से क्रोधित हो सकता था, वैसे ही जैसे उनके रवैये के कारण उसने उनके अतीत को क्षमा किया था। वह नीनवे के लोगों के ऊपर दुर्भाग्य लाने का निर्णय ले सकता था, और उनके पश्चात्ताप के कारण वह अपना निर्णय बदल भी सकता था। लोग नियमों को कठोरता से लागू करना, और ऐसे नियमों का परमेश्वर को सीमांकित और परिभाषित करने के लिए उपयोग करना पसंद करते हैं, वैसे ही जैसे वे परमेश्वर के स्वभाव को समझने के लिए सूत्रों का उपयोग करना पसंद करते हैं। इसलिए, जहाँ तक मानवीय विचारों के दायरे का संबंध है, परमेश्वर न तो सोचता है, न ही उसके पास कोई ठोस विचार हैं। वास्तव में परमेश्वर के विचार चीज़ों और वातावरण में परिवर्तन के अनुसार निरंतर रूपांतरण की स्थिति में रहते हैं। जब ये विचार रूपांतरित हो रहे होते हैं, तब परमेश्वर के सार के विभिन्न पहलू प्रकट हो रहे होते हैं। रूपांतरण की इस प्रक्रिया के दौरान, ठीक उसी क्षण, जब परमेश्वर अपना मन बदलता है, तब वह मानवजाति को अपने जीवन का वास्तविक अस्तित्व दिखाता है और यह भी दिखाता है कि उसका धार्मिक स्वभाव गतिशील जीवन-शक्ति से भरा है। उसी समय, परमेश्वर मानवजाति के सामने अपने कोप, अपनी दया, अपनी प्रेममय करुणा और अपनी सहनशीलता के अस्तित्व की सच्चाई प्रमाणित करने के लिए अपने सच्चे प्रकाशनों का उपयोग करता है। उसका सार चीज़ों के विकसित होने के ढंग के अनुसार किसी भी समय और स्थान पर प्रकट हो सकता है। उसमें एक सिंह का कोप और एक माता की ममता और सहनशीलता है। उसका धार्मिक स्वभाव किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रश्न किए जाने, उल्लंघन किए जाने, बदले जाने या तोड़े-मरोड़े जाने की अनुमति नहीं देता। समस्त मामलों और सभी चीज़ों में परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, अर्थात् परमेश्वर का कोप और उसकी दया, किसी भी समय और स्थान पर प्रकट हो सकती है। वह समस्त सृष्टि के प्रत्येक कोने में इन पहलुओं को मार्मिक अभिव्यक्ति देता है, और हर गुज़रते पल में उन्हें जीवंतता के साथ लागू करता है। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव समय या स्थान द्वारा सीमित नहीं है; दूसरे शब्दों में, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव समय या स्थान की बाधाओं के अनुसार यांत्रिक रूप से व्यक्त या प्रकाशित नहीं होता, बल्कि, किसी भी समय और स्थान पर बिल्कुल आसानी से व्यक्त और प्रकाशित होता है। जब तुम परमेश्वर को अपना मन बदलते और अपने कोप को थामते और नीनवे के लोगों का नाश करने से पीछे हटते हुए देखते हो, तो क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर केवल दयालु और प्रेमपूर्ण है? क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर का कोप खोखले वचनों से युक्त है? जब परमेश्वर प्रचंड कोप प्रकट करता है और अपनी दया वापस ले लेता है, तो क्या तुम कह सकते हो कि वह मनुष्यों के प्रति सच्चा प्रेम महसूस नहीं करता? यह प्रचंड कोप परमेश्वर द्वारा लोगों के बुरे कार्यों के प्रत्युतर में व्यक्त किया जाता है; उसका कोप दोषपूर्ण नहीं है। परमेश्वर का हृदय लोगों के पश्चात्ताप से द्रवित हो जाता है, और यह पश्चात्ताप ही उसका हृदय-परिवर्तन करवाता है। जब वह द्रवित महसूस करता है, जब उसका हृदय-परिवर्तन होता है, और जब वह मनुष्य के प्रति अपनी दया और सहनशीलता दिखाता है, तो ये सब पूरी तरह से दोषमुक्त होते हैं; ये स्वच्छ, शुद्ध, निष्कलंक और मिलावट-रहित हैं। परमेश्वर की सहनशीलता ठीक वही है : सहनशीलता, जैसे कि उसकी दया सिवाय दया के कुछ नहीं है। उसका स्वभाव मनुष्य के पश्चात्ताप और उसके आचरण में भिन्नता के अनुसार कोप या दया और सहनशीलता प्रकाशित करता है। चाहे वह कुछ भी प्रकाशित या व्यक्त करता हो, वह सब पवित्र और प्रत्यक्ष है; उसका सार सृष्टि की किसी भी चीज़ से अलग है। जब परमेश्वर अपने कार्यों में निहित सिद्धांतों को व्यक्त करता है, तो वे किसी भी त्रुटि या दोष से मुक्त होते हैं, और ऐसे ही उसके विचार, उसकी योजनाएँ और उसके द्वारा लिया जाने वाला हर निर्णय और उसके द्वारा किया जाने वाला हर कार्य है। चूँकि परमेश्वर ने ऐसा निर्णय लिया है और चूँकि उसने इस तरह कार्य किया है, इसलिए इसी तरह से वह अपने उपक्रम भी पूरे करता है। उसके उपक्रमों के परिणाम सही और दोषरहित इसलिए होते हैं, क्योंकि उनका स्रोत दोषरहित और निष्कलंक है। परमेश्वर का कोप दोषरहित है। इसी प्रकार, परमेश्वर की दया और सहनशीलता—जो पूरी सृष्टि में किसी के पास नहीं हैं—पवित्र एवं निर्दोष हैं और विचारपूर्ण विवेचना और अनुभव पर खरी उतर सकती हैं।
नीनवे की कहानी की अपनी समझ के माध्यम से, क्या तुम लोग अब परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के सार का दूसरा पक्ष देखते हो? क्या तुम परमेश्वर के अद्वितीय धार्मिक स्वभाव का दूसरा पक्ष देखते हो? क्या मनुष्यों में से किसी का इस प्रकार का स्वभाव है? क्या किसी में इस प्रकार का कोप, परमेश्वर का कोप, है? क्या किसी में वैसी दया और सहनशीलता है, जैसी परमेश्वर में है? सृष्टि में ऐसा कौन है, जो इतना बड़ा कोप कर सकता है और मानवजाति को नष्ट करने या उस पर विपत्ति लाने का निर्णय ले सकता है? मनुष्य पर दया करने, उसे सहन करने, क्षमा करने, और परिणामस्वरूप मनुष्य को नष्ट करने का अपना पिछला निर्णय बदलने योग्य कौन है? सृष्टिकर्ता अपना धार्मिक स्वभाव अपनी अनोखी पद्धतियों और सिद्धांतों के माध्यम से प्रकट करता है; वह किन्हीं लोगों, घटनाओं या चीज़ों द्वारा थोपे गए नियंत्रण या प्रतिबंधों के अधीन नहीं है। उसके अद्वितीय स्वभाव के कारण कोई उसके विचारों और युक्तियों को बदलने में सक्षम नहीं है, न ही कोई उसे मनाने और उसका कोई निर्णय बदलने में सक्षम है। समस्त सृष्टि में विद्यमान व्यवहार और विचारों की संपूर्णता उसके धार्मिक स्वभाव के न्याय के अधीन रहती है। वह कोप करे या दया, इसे कोई भी नियंत्रित नहीं कर सकता; केवल सृष्टिकर्ता का सार—या दूसरे शब्दों में, सृष्टिकर्ता का धार्मिक स्वभाव—ही यह तय कर सकता है। ऐसी है सृष्टिकर्ता के धार्मिक स्वभाव की अद्वितीय प्रकृति!
नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये में हुए रूपांतरण का विश्लेषण करने और उसे समझने से क्या तुम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव में पाई जाने वाली दया का वर्णन करने के लिए “अद्वितीय” शब्द का उपयोग कर सकते हो? हमने पहले कहा कि परमेश्वर का कोप उसके अद्वितीय धार्मिक स्वभाव के सार का एक पहलू है। अब मैं दो पहलुओं—परमेश्वर का कोप और परमेश्वर की दया—को उसके धार्मिक स्वभाव के रूप में परिभाषित करूँगा। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव पवित्र है; वह उल्लंघन या प्रश्न किया जाना सहन नहीं करता; वह चीज़ किसी भी सृजित या गैर-सृजित प्राणी के पास नहीं है। वह परमेश्वर के लिए अद्वितीय और अनन्य दोनों है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर का कोप पवित्र और अनुल्लंघनीय है। इसी प्रकार, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का दूसरा पहलू—परमेश्वर की दया—भी पवित्र है और उसका भी उल्लंघन नहीं किया जा सकता। सृजित या गैर-सृजित प्राणियों में से कोई भी परमेश्वर के कार्यों में उसका स्थान नहीं ले सकता या उसका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, और न ही कोई सदोम के विनाश या नीनवे के उद्धार में परमेश्वर का स्थान ले सकता था या उसका प्रतिनिधित्व कर सकता था। यह परमेश्वर के अद्वितीय धार्मिक स्वभाव की सच्ची अभिव्यक्ति है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 117
मानवजाति के प्रति सृष्टिकर्ता की सच्ची भावनाएँ
लोग अक्सर कहते हैं कि परमेश्वर को जानना आसान बात नहीं है। किंतु मैं कहता हूँ कि परमेश्वर को जानना बिल्कुल भी कठिन बात नहीं है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य को बार-बार अपने कर्म दिखाता है। परमेश्वर ने कभी भी मनुष्य के साथ संवाद करना बंद नहीं किया है, और न ही उसने कभी अपने आपको मनुष्य से गुप्त रखा है, न उसने स्वयं को छिपाया है। उसके विचार, उसकी युक्तियाँ, उसके वचन और उसके कर्म सब मानवजाति के सामने हैं। इसलिए, यदि मनुष्य परमेश्वर को जानना चाहता है, तो वह सभी प्रकार के साधनों और पद्धतियों के जरिये उसे समझ और जान सकता है। मनुष्य के आँख मूँदकर यह सोचने की वजह कि परमेश्वर ने जानबूझकर खुद को मनुष्य से छिपाया है, कि उसका कोई इरादा नहीं है कि मनुष्य परमेश्वर को समझे या जाने, यह है कि मनुष्य नहीं जानता कि परमेश्वर कौन है, और न ही वह परमेश्वर को समझना चाहता है। इससे भी बढ़कर, मनुष्य सृष्टिकर्ता के विचारों, वचनों या कर्मों की परवाह नहीं करता...। सच कहूँ तो, यदि कोई व्यक्ति सृष्टिकर्ता के वचनों या कर्मों पर ध्यान केंद्रित करने और उन्हें समझने के लिए सिर्फ अपने खाली समय का उपयोग करे, और यदि वह सृष्टिकर्ता के विचारों और उसके हृदय की वाणी पर थोड़ा-सा ध्यान दे, तो उसे यह महसूस करने में कठिनाई नहीं होगी कि सृष्टिकर्ता के विचार, वचन और कर्म दृष्टिगोचर और पारदर्शी हैं। इसी प्रकार, यह महसूस करने में बस थोड़ा-सा प्रयास लगेगा कि सृष्टिकर्ता हर समय मनुष्य के मध्य है, कि वह हमेशा मनुष्य और संपूर्ण सृष्टि के साथ वार्तालाप करता रहता है, वह प्रतिदिन नए कर्म कर रहा है। उसका सार और स्वभाव मनुष्य के साथ उसके संवाद में व्यक्त होते हैं; उसके विचार और युक्तियाँ पूरी तरह से उसके कर्मों में प्रकट होते हैं; वह हर समय मनुष्य के साथ रहता है और उसका अवलोकन करता है। वह ख़ामोशी से अपने मौन वचनों के साथ मानवजाति और समूची सृष्टि से बोलता है : मैं स्वर्ग में हूँ, और मैं अपनी सृष्टि के मध्य हूँ। मैं रखवाली कर रहा हूँ, मैं इंतज़ार कर रहा हूँ; मैं तुम्हारे साथ हूँ...। उसके हाथों में गर्मजोशी है और वे मजबूत हैं, उसके कदम हलके हैं, उसकी आवाज़ कोमल और शिष्ट है; उसका स्वरूप समूची मानवजाति को आगोश में भरता हुआ हमारे पास से होकर गुज़र जाता है और मुड़ जाता है; उसका मुख सुंदर और सौम्य है। वह कभी हमें छोड़कर नहीं गया, कभी विलुप्त नहीं हुआ। रात-दिन, वह मानवजाति का निरंतर साथी है, उसका साथ कभी नहीं छोड़ता। मनुष्यों के लिए उसकी समर्पित देखभाल, विशेष स्नेह, मनुष्य के लिए उसकी सच्ची चिंता और प्रेम उस समय धीरे-धीरे प्रकट हुआ, जब उसने नीनवे के नगर को बचाया। विशेष रूप से, यहोवा परमेश्वर और योना के बीच के संवाद ने उस मानवजाति के लिए सृष्टिकर्ता की दया खुलकर प्रकट की, जिसे स्वयं उसने रचा था। इन वचनों से, तुम मनुष्यों के प्रति परमेश्वर की सच्ची भावनाओं की एक गहरी समझ हासिल कर सकते हो ...
योना की पुस्तक 4:10-11 में निम्नलिखित अंश दर्ज किया गया है : “तब यहोवा ने कहा, ‘जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्ट भी हुआ; उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हज़ार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएँ हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?’” ये यहोवा परमेश्वर के वास्तविक वचन हैं, जो उसके और योना के बीच हुए वार्तालाप से दर्ज किए गए हैं। यद्यपि यह संवाद संक्षिप्त है, फिर भी यह मानवजाति के प्रति सृष्टिकर्ता की परवाह और उसे त्यागने की उसकी अनिच्छा से भरा हुआ है। ये वचन उस सच्चे रवैये और भावनाओं को व्यक्त करते हैं, जो परमेश्वर अपनी सृष्टि के लिए अपने हृदय में रखता है। इन वचनों के जरिये, जो इतने स्पष्ट और सटीक हैं कि मनुष्य ने शायद ही कभी ऐसे स्पष्ट और सटीक वचन सुने हों, परमेश्वर मनुष्यों के प्रति अपने सच्चे इरादे बताता है। यह संवाद नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये को दर्शाता है—किंतु यह किस प्रकार का रवैया है? यह वह रवैया है, जिसे परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के प्रति उनके पश्चात्ताप से पहले और बाद में अपनाया, और वह रवैया, जिससे वह मानवजाति के साथ व्यवहार करता है। इन वचनों में उसके विचार और उसका स्वभाव है।
इन वचनों में परमेश्वर के कौन-से विचार प्रकट हुए हैं? यदि पढ़ते समय तुम विवरण पर ध्यान दो, तो तुम्हारे लिए यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि वह “तरस” शब्द का प्रयोग करता है; इस शब्द का उपयोग मानवजाति के प्रति परमेश्वर के सच्चे रवैये को दर्शाता है।
शाब्दिक अर्थ के स्तर पर लोग “तरस” शब्द की व्याख्या विभिन्न प्रकार से कर सकते हैं : पहले, इसका अर्थ है “प्रेम करना और रक्षा करना, किसी चीज़ के प्रति नरमी महसूस करना”; दूसरे, इसका अर्थ है “अत्यधिक प्रेम करना”; और अंत में, इसका अर्थ है “किसी को चोट पहुँचाने का इच्छुक न होना और ऐसा करना सह न पाना।” संक्षेप में, इस शब्द का अर्थ है कोमल स्नेह और प्रेम, और साथ ही साथ किसी व्यक्ति या वस्तु को छोड़ने की अनिच्छा; इसका अर्थ है मनुष्य के प्रति परमेश्वर की दया और सहनशीलता। परमेश्वर ने इस शब्द का उपयोग किया, जो मनुष्यों द्वारा आम तौर पर बोला जाने वाला शब्द है, किंतु यह मानवजाति के प्रति परमेश्वर के हृदय की वाणी और उसके रवैये को प्रकट करने में भी सक्षम है।
यद्यपि नीनवे का नगर ऐसे लोगों से भरा हुआ था, जो सदोम के लोगों के समान ही भ्रष्ट, बुरे और हिंसक थे, किंतु उनके पश्चात्ताप के कारण परमेश्वर का मन बदल गया और उसने उन्हें नष्ट न करने का निर्णय लिया। चूँकि परमेश्वर के वचनों और निर्देशों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया ने एक ऐसे रवैये का प्रदर्शन किया, जो सदोम के नागरिकों के रवैये के बिलकुल विपरीत था, और परमेश्वर के प्रति उनके सच्चे समर्पण और अपने पापों के लिए उनके सच्चे पश्चात्ताप, और साथ ही साथ हर लिहाज से उनके सच्चे और हार्दिक व्यवहार के कारण, परमेश्वर ने एक बार फिर उन पर अपनी हार्दिक करुणा दिखाई और उन्हें अपनी करुणा प्रदान की। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी जाने वाली चीज़ें और उसकी करुणा की नकल कर पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है, और परमेश्वर की दया, उसकी सहनशीलता, या किसी भी व्यक्ति में मनुष्य के प्रति परमेश्वर की सच्ची भावनाएँ होना असंभव है। क्या कोई है, जिसे तुम महान पुरुष या स्त्री मानते हो, या कोई अतिमानव मानते हो, जो एक ऊँचे मुकाम से, एक महान पुरुष या स्त्री के रूप में, या सबसे ऊँचे मुकाम पर बोलते हुए, मानवजाति या सृष्टि के लिए इस प्रकार का कथन कहेगा? मनुष्यों में से कौन मानव-जीवन की स्थितियों को भली-भाँति जान सकता है? कौन मनुष्य के अस्तित्व का दायित्व और ज़िम्मेदारी उठा सकता है? कौन किसी नगर के विनाश की घोषणा करने के योग्य है? और कौन किसी नगर को क्षमा करने के योग्य है? कौन कह सकता है कि वह अपनी सृष्टि पर तरस खाए? केवल सृष्टिकर्ता! केवल सृष्टिकर्ता में ही इस मानवजाति के लिए कोमलता है। केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति के लिए करुणा और स्नेह दिखाता है। केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति के प्रति सच्चा, अटूट स्नेह रखता है। इसी प्रकार, केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति पर दया कर सकता है और अपनी संपूर्ण सृष्टि पर तरस खा सकता है। उसका हृदय मनुष्य के हर कार्य पर उछलता और पीड़ित होता है : वह मनुष्य की दुष्टता और भ्रष्टता पर क्रोधित, परेशान और दुखी होता है; वह मनुष्य के पश्चात्ताप और विश्वास से प्रसन्न, आनंदित, क्षमाशील और उल्लसित होता है; उसका हर एक विचार और अभिप्राय मानवजाति के अस्तित्व के लिए है और उसी के इर्द-गिर्द घूमता है; उसका स्वरूप पूरी तरह से मानवजाति के वास्ते प्रकट होता है; उसकी संपूर्ण भावनाएँ मानवजाति के अस्तित्व के साथ गुंथी हैं। मनुष्य के वास्ते वह भ्रमण करता है और यहाँ-वहाँ भागता है; वह खामोशी से अपने जीवन का कतरा-कतरा दे देता है; वह अपने जीवन का हर पल अर्पित कर देता है...। उसने कभी नहीं जाना कि अपने ही जीवन को किस प्रकार सँजोए, किंतु उसने हमेशा उस मानवजाति पर तरस खाया है, जिसकी रचना उसने स्वयं की है...। वह अपना सब-कुछ इस मानवजाति को दे देता है...। वह बिना किसी शर्त के और बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के अपनी दया और सहनशीलता प्रदान करता है। वह ऐसा सिर्फ इसलिए करता है, ताकि मानवजाति उससे जीवन का पोषण प्राप्त करते हुए उसकी नज़रों के सामने निरंतर जीवित रह सके; वह ऐसा सिर्फ इसलिए करता है, ताकि मानवजाति एक दिन उसके सम्मुख समर्पित हो जाए और यह जान जाए कि वही मनुष्य के अस्तित्व का पोषण करता है और समूची सृष्टि के जीवन की आपूर्ति करता है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 118
योना 4 यह बात योना को बहुत ही बुरी लगी, और उसका क्रोध भड़का। उसने यहोवा से यह कहकर प्रार्थना की, “हे यहोवा, जब मैं अपने देश में था, तब क्या मैं यही बात न कहता था? इसी कारण मैं ने तेरी आज्ञा सुनते ही तर्शीश को भाग जाने के लिये फुर्ती की; क्योंकि मैं जानता था कि तू अनुग्रहकारी और दयालु परमेश्वर है, और विलम्ब से कोप करनेवाला करुणानिधान है, और दुःख देने से प्रसन्न नहीं होता। इसलिये अब हे यहोवा, मेरा प्राण ले ले; क्योंकि मेरे लिये जीवित रहने से मरना ही भला है।” यहोवा ने कहा, “तेरा जो क्रोध भड़का है, क्या वह उचित है?” इस पर योना उस नगर से निकलकर, उसकी पूरब ओर बैठ गया; और वहाँ एक छप्पर बनाकर उसकी छाया में बैठा हुआ यह देखने लगा कि नगर का क्या होगा? तब यहोवा परमेश्वर ने एक रेंड़ का पेड़ उगाकर ऐसा बढ़ाया कि योना के सिर पर छाया हो, जिससे उसका दुःख दूर हो। योना उस रेंड़ के पेड़ के कारण बहुत ही आनन्दित हुआ। सबेरे जब पौ फटने लगी, तब परमेश्वर ने एक कीड़े को भेजा, जिस ने रेंड़ का पेड़ ऐसा काटा कि वह सूख गया। जब सूर्य उगा, तब परमेश्वर ने पुरवाई बहाकर लू चलाई, और धूप योना के सिर पर ऐसी लगी कि वह मूर्च्छित होने लगा; और उसने यह कहकर मृत्यु माँगी, “मेरे लिये जीवित रहने से मरना ही अच्छा है।” परमेश्वर ने योना से कहा, “तेरा क्रोध, जो रेंड़ के पेड़ के कारण भड़का है, क्या वह उचित है?” उसने कहा, “हाँ, मेरा जो क्रोध भड़का है वह अच्छा ही है, वरन् क्रोध के मारे मरना भी अच्छा होता।” तब यहोवा ने कहा, “जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्ट भी हुआ; उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हज़ार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएँ हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?”
सृष्टिकर्ता मनुष्य के लिए अपनी सच्ची भावनाएँ प्रकट करता है
यहोवा परमेश्वर और योना के बीच का यह वार्तालाप निस्संदेह मनुष्य के लिए सृष्टिकर्ता की सच्ची भावनाओं की एक अभिव्यक्ति है। एक ओर यह लोगों को सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन विद्यमान संपूर्ण सृष्टि के संबंध में उसकी समझ के बारे में सूचित करता है; जैसा कि यहोवा परमेश्वर ने कहा था : “फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हज़ार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएँ हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?” दूसरे शब्दों में, नीनवे के संबंध में परमेश्वर की समझ सतही बिल्कुल नहीं थी। वह न केवल नगर में रहने वाले जीवित प्राणियों (लोगों और मवेशियों समेत) की संख्या जानता था, बल्कि यह भी जानता था कि कितने लोग अपने दाहिने-बाएँ हाथों का भेद नहीं पहचानते—अर्थात् कितने बच्चे और युवा वहाँ मौजूद थे। यह मानवजाति के संबंध में परमेश्वर की व्यापक समझ का एक ठोस प्रमाण है। दूसरी ओर, यह वार्तालाप लोगों को मनुष्य के प्रति परमेश्वर के रवैये, अर्थात् सृष्टिकर्ता के हृदय में मनुष्य के महत्त्व के संबंध में सूचित करता है। यह वैसा ही है, जैसा यहोवा परमेश्वर ने कहा था : “जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्ट भी हुआ; उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे ... तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?” ये योना के प्रति यहोवा परमेश्वर की भर्त्सना के वचन हैं, किंतु ये सब सत्य हैं।
यद्यपि योना को नीनवे के लोगों के लिए यहोवा परमेश्वर के वचनों की घोषणा का काम सौंपा गया था, किंतु उसने यहोवा परमेश्वर के इरादों को नहीं समझा, न ही उसने नगर के लोगों के लिए उसकी चिंताओं और अपेक्षाओं को समझा। इस फटकार से परमेश्वर उसे यह बताना चाहता था कि मनुष्य उसके अपने हाथों की रचना है, और उसने प्रत्येक व्यक्ति के लिए कठिन प्रयास किया है, प्रत्येक व्यक्ति अपने कंधों पर परमेश्वर की अपेक्षाएँ लिए हुए है, और प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर के जीवन की आपूर्ति का आनंद लेता है; प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर ने भारी कीमत चुकाई है। इस फटकार ने योना को यह भी बताया कि परमेश्वर मनुष्य पर तरस खाता है, जो उसके हाथों की रचना है, वैसे ही जैसे योना ने स्वयं कद्दू पर तरस खाया था। परमेश्वर किसी भी कीमत पर, या अंतिम क्षण तक, मनुष्य को आसानी से नहीं त्यागेगा; खासकर इसलिए, क्योंकि नगर में बहुत सारे बच्चे और निरीह मवेशी थे। परमेश्वर की सृष्टि के इन युवा और मासूम प्राणियों से व्यवहार करते समय, जो अपने दाएँ-बाएँ हाथों का भेद भी नहीं पहचानते थे, यह और भी कम समझ में आने वाला था कि परमेश्वर इतनी जल्दबाज़ी में उनका जीवन समाप्त कर देगा और उनका परिणाम निर्धारित कर देगा। परमेश्वर उन्हें बढ़ते हुए देखना चाहता था; उसे आशा थी कि वे उन्हीं मार्गों पर नहीं चलेंगे जिन पर उनके पूर्वज चले थे, उन्हें दोबारा यहोवा परमेश्वर की चेतावनी नहीं सुननी पड़ेगी, और वे नीनवे के अतीत की गवाही देंगे। और तो और, परमेश्वर ने नीनवे द्वारा पश्चात्ताप किए जाने के बाद उसे देखने, नीनवे के पश्चात्ताप के बाद उसके भविष्य को देखने, और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण रूप से, नीनवे को एक बार फिर अपनी दया के अधीन जीते हुए देखने की आशा की थी। इसलिए, परमेश्वर की नज़र में सृष्टि के वे प्राणी, जो अपने दाएँ-बाएँ हाथों का भेद भी नहीं जान सकते थे, नीनवे का भविष्य थे। वे नीनवे के घृणित अतीत की ज़िम्मेदारी लेंगे, वैसे ही जैसे वे नीनवे के अतीत और यहोवा परमेश्वर के मार्गदर्शन के अधीन उसके भविष्य, दोनों की गवाही देने के महत्वपूर्ण कर्तव्य की ज़िम्मेदारी लेंगे। अपनी सच्ची भावनाओं की इस घोषणा में यहोवा परमेश्वर ने मनुष्य के लिए सृष्टिकर्ता की दया को उसकी संपूर्णता में प्रस्तुत किया। इसने मनुष्य को दिखाया कि “सृष्टिकर्ता की दया” कोई खोखला वाक्यांश नहीं है, न ही यह कोई खोखला वादा है; इसमें ठोस सिद्धांत, पद्धतियाँ और उद्देश्य हैं। परमेश्वर सच्चा और वास्तविक है, और वह किसी झूठ या स्वाँग का उपयोग नहीं करता, और इसी तरह उसकी दया मनुष्य को हर समय और हर युग में निरंतर प्रदान की जाती है। फिर भी, आज तक, योना के साथ सृष्टिकर्ता का संवाद इस बारे में उसका एकमात्र, अनन्य मौखिक कथन है कि वह मनुष्य पर दया क्यों करता है, वह मनुष्य पर दया कैसे करता है, वह मनुष्य के प्रति कितना सहनशील है और मनुष्य के प्रति उसकी सच्ची भावनाएँ क्या हैं। इस वार्तालाप के दौरान यहोवा परमेश्वर के संक्षिप्त वचन संपूर्ण मानवजाति के प्रति उसके विचारों को अभिव्यक्त करते हैं; वे मानवजाति के प्रति परमेश्वर के हृदय के रवैये की सच्ची अभिव्यक्ति हैं, और वे मानवजाति पर प्रचुर मात्रा में दया करने का ठोस सबूत भी हैं। उसकी दया न केवल मनुष्य की वृद्ध पीढ़ियों को प्रदान की जाती है; बल्कि वह मानवजाति के युवा सदस्यों को भी दी जाती है, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक, जैसा हमेशा से होता आया है। यद्यपि परमेश्वर का कोप कुछ निश्चित जगहों पर और कुछ निश्चित युगों में मानवजाति पर बार-बार उतरता है, किंतु उसकी दया कभी खत्म नहीं हुई है। अपनी दया से वह अपनी सृष्टि की एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी का मार्गदर्शन और अगुआई करता है, वह सृष्टि की एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी की आपूर्ति एवं पालन-पोषण करता है, क्योंकि मनुष्य के प्रति उसकी सच्ची भावनाएँ कभी नहीं बदलेंगी। जैसा कि यहोवा परमेश्वर ने कहा : “तो क्या मैं तरस न खाऊँ?” उसने सदैव अपनी सृष्टि पर तरस खाया है। यह सृष्टिकर्ता के धार्मिक स्वभाव की दया है, और यह सृष्टिकर्ता की पूर्ण अद्वितीयता भी है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 119
पाँच प्रकार के लोग
मैं परमेश्वर के संबंध में उसके अनुयायियों की समझ और उसके धार्मिक स्वभाव के संबंध में उनकी समझ और अनुभव के अनुसार उनका विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकरण करूँगा, ताकि तुम लोग उस अवस्था को जान सको, जिसमें तुम लोग वर्तमान में हो, और साथ ही तुम लोग अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद को भी जान सको। लोगों के परमेश्वर संबंधी ज्ञान और उसके धार्मिक स्वभाव की उनकी समझ के अनुसार लोगों की विभिन्न अवस्थाओं और उनके आध्यात्मिक कद को सामान्यतः पाँच प्रकारों में बाँटा जा सकता है। इस विषय को अद्वितीय परमेश्वर और उसके धार्मिक स्वभाव को जानने के आधार पर प्रतिपादित किया गया है। इसलिए, निम्नलिखित विषयवस्तु को पढ़ते हुए तुम लोगों को ध्यानपूर्वक यह पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए कि तुम्हारे अंदर परमेश्वर की अद्वितीयता और उसके धार्मिक स्वभाव के संबंध में वास्तव में कितनी समझ और ज्ञान है, और फिर तुम्हें इसका उपयोग यह आँकने के लिए करना चाहिए कि तुम लोग वास्तव में किस अवस्था में हो, तुम लोगों का आध्यात्मिक कद वास्तव में कितना बड़ा है, और तुम लोग वास्तव में किस प्रकार के व्यक्ति हो।
पहला प्रकार : कपड़े में लिपटे हुए नवजात शिशु की अवस्था
“कपड़े में लिपटे हुए नवजात शिशु” से क्या तात्पर्य है? कपड़े में लिपटा हुआ नवजात शिशु एक ऐसा शिशु है, जो संसार में अभी आया ही है, एक नया जन्मा बच्चा होता है। यह तब होता है, जब लोग बिलकुल अपरिपक्व होते हैं।
इस अवस्था के लोगों में परमेश्वर में विश्वास के मामलों को लेकर मूलतः कोई जागरूकता और चेतना नहीं होती। वे हर चीज़ के बारे में भ्रमित और अनजान होते हैं। हो सकता है, इन लोगों ने लंबे समय से परमेश्वर पर विश्वास किया हो, या हो सकता है, बहुत लंबे समय से बिलकुल भी न किया हो, किंतु उनकी भ्रम और अज्ञानता की स्थिति और उनका वास्तविक आध्यात्मिक कद उन्हें कपड़े में लिपटे हुए एक नवजात शिशु की अवस्था के अंतर्गत रखता है। कपड़े में लिपटे हुए एक नवजात शिशु की स्थितियों की सटीक परिभाषा इस प्रकार है : इस प्रकार के लोगों ने चाहे कितने भी लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया हो, वे हमेशा नासमझ, भ्रमित और सरलचित्त होंगे; वे नहीं जानते कि वे परमेश्वर में क्यों विश्वास करते हैं, न ही वे यह जानते हैं कि परमेश्वर कौन है या कौन परमेश्वर है? यद्यपि वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, फिर भी उनके हृदय में परमेश्वर की कोई सटीक परिभाषा नहीं होती, और वे यह तय नहीं कर पाते कि वे जिसका अनुसरण करते हैं, वह परमेश्वर है या नहीं, और इसकी तो बात ही छोड़ दो कि उन्हें सच में परमेश्वर पर विश्वास और उसका अनुसरण करना चाहिए या नहीं। इस प्रकार के व्यक्तियों की यही वास्तविक स्थिति है। इन लोगों के विचार धुँधले होते हैं, और सरल शब्दों में कहूँ तो, उनका विश्वास गड़बड़ होता है। वे हमेशा संभ्रम और शून्यता की स्थिति में रहते हैं; “नासमझी, भ्रम और सीधापन” उनकी अवस्था का सारांश प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने न तो कभी परमेश्वर के अस्तित्व को देखा होता है, न ही महसूस किया होता है, और इसलिए, उनसे परमेश्वर को जानने के बारे में बात करना भैंस के आगे बीन बजाने जैसा होता है—वे न तो उसे समझेंगे और न ही उसे स्वीकार करेंगे। उनके लिए परमेश्वर को जानना एक अति काल्पनिक कहानी सुनने जैसा होता है। हो सकता है कि उनके विचार धुँधले हों, लेकिन उन्हें पक्का यकीन होता है कि परमेश्वर को जानना पूरी तरह से समय और श्रम की बरबादी है। यह पहले प्रकार का व्यक्ति है : कपड़े में लिपटा हुआ नवजात शिशु।
दूसरा प्रकार : दुधमुँहे शिशु की अवस्था
कपड़े में लिपटे हुए नवजात शिशु की तुलना में, इस प्रकार के व्यक्ति ने कुछ प्रगति कर ली होती है। लेकिन अफ़सोस, उनमें भी परमेश्वर की कुछ भी समझ नहीं होती। उनमें भी परमेश्वर के संबंध में स्पष्ट समझ और अंतर्दृष्टि का अभाव होता है, वे बहुत स्पष्ट नहीं होते कि उन्हें परमेश्वर पर विश्वास क्यों करना चाहिए, लेकिन उनके हृदय में उनके अपने उद्देश्य और स्पष्ट युक्तियाँ होती हैं। वे इस बात से वास्ता नहीं रखते कि परमेश्वर में विश्वास करना सही है या नहीं। परमेश्वर में विश्वास करने के ज़रिए वे उसके अनुग्रह का आनंद उठाने, ख़ुशी और शांति प्राप्त करने, आरामदेह ज़िंदगी बिताने, परमेश्वर की देखभाल एवं सुरक्षा का आनंद लेने और परमेश्वर के आशीषों के अधीन जीवन बिताने के उद्देश्य और प्रयोजन पूरे करना चाहते हैं। वे इस बात से मतलब नहीं रखते कि वे किस हद तक परमेश्वर को जानते हैं; उनमें परमेश्वर की समझ प्राप्त करने की कोई उत्सुकता नहीं होती, और न ही वे इस बात से वास्ता रखते हैं कि परमेश्वर क्या कर रहा है या वह क्या करना चाहता है। वे केवल आँख मूँदकर उसके अनुग्रह का आनंद उठाने तथा ज़्यादा से ज़्यादा उसके आशीष प्राप्त करने का प्रयास करते हैं; वे वर्तमान युग में सौ गुना और आने वाले युग में शाश्वत जीवन प्राप्त करना चाहते हैं। उनके विचार, वे स्वयं को कितना खपा सकते हैं, उनकी भक्ति, और साथ ही उनका कष्ट उठाना, सभी के पीछे एक ही उद्देश्य है : परमेश्वर का अनुग्रह और उसके आशीष प्राप्त करना। उन्हें अन्य किसी भी चीज़ की कोई चिंता नहीं होती। इस प्रकार का व्यक्ति केवल इस बारे में निश्चित होता है कि परमेश्वर लोगों को सुरक्षित रख सकता है और उन्हें अपना अनुग्रह प्रदान कर सकता है। कहा जा सकता है कि वे इस बात में रुचि नहीं रखते और न ही इस बारे में बहुत स्पष्ट होते हैं कि परमेश्वर मनुष्य को क्यों बचाना चाहता है या परमेश्वर अपने वचनों और कार्य से क्या परिणाम हासिल करना चाहता है। उन्होंने परमेश्वर के सार और उसके धार्मिक स्वभाव को जानने का कभी कोई प्रयास नहीं किया होता, न ही वे ऐसा करने के लिए रुचि पैदा कर पाते हैं। उनमें इन चीज़ों पर ध्यान देने की इच्छा का अभाव होता है, और न ही वे इन्हें जानना चाहते हैं। वे परमेश्वर के कार्य, मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं, परमेश्वर की इच्छा या परमेश्वर से संबंधित किसी भी अन्य चीज़ के बारे में पूछना नहीं चाहते, और उनमें इन चीज़ों के बारे में पूछने की इच्छा का भी अभाव है। क्योंकि उन्हें लगता है कि ये मामले उनके द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने से संबंध नहीं रहते, और वे केवल एक ऐसे परमेश्वर से मतलब रखते हैं, जो उनकी व्यक्तिगत रुचियों के साथ सीधे संबंध रखता हो, और जो मनुष्य पर अनुग्रह करता हो। उनकी किसी और चीज़ में कोई रुचि नहीं होती, इसलिए वे सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाते, चाहे वे कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते रहे हों। बिना किसी ऐसे व्यक्ति के, जो उन्हें बार-बार खिलाता-पिलाता रहे, उनके लिए परमेश्वर में विश्वास करने के मार्ग पर बढ़ते जाना कठिन होता है। यदि वे अपनी पिछली ख़ुशी और शांति या परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद न उठा पाएँ, तो उनके पीछे हटने की बहुत संभावना रहती है। यह दूसरे प्रकार का व्यक्ति है : वह व्यक्ति, जो दुधमुँहे शिशु की अवस्था में रहता है।
तीसरा प्रकार : दूध छुड़ाए हुए बच्चे या छोटे बच्चे की अवस्था
लोगों के इस समूह में एक निश्चित मात्रा में स्पष्ट जागरूकता रहती है। वे जानते हैं कि परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने का अर्थ यह नहीं है कि वे अपने आप में सच्चा अनुभव रखते हैं, और वे जानते हैं कि भले ही वे आनंद और शांति की माँग करते न थकें, अनुग्रह की माँग करते न थकें, या भले ही वे परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने के अनुभव बाँटने या परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए आशीषों के लिए परमेश्वर की स्तुति करके गवाही देने में समर्थ हों, इन चीज़ों का यह अर्थ नहीं है कि उनमें जीवन है, न ही इनका यह अर्थ है कि उनमें सत्य की वास्तविकता है। अपनी चेतना की शुरुआत से ही वे ऐसी निरर्थक आशाएँ रखना छोड़ देते हैं कि केवल परमेश्वर का अनुग्रह ही उनके साथ रहेगा; इसके बजाय, परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने के साथ ही वे परमेश्वर के लिए कुछ करना भी चाहते हैं। वे अपना कर्तव्य निभाने, थोड़ी-बहुत कठिनाई और थकान सहने, और परमेश्वर के साथ कुछ हद तक सहयोग करने के लिए तैयार रहते हैं। किंतु, चूँकि परमेश्वर के प्रति विश्वास में उनका अनुसरण बहुत अधिक मिलावटी होता है, चूँकि उनके मन के व्यक्तिगत इरादे और इच्छाएँ बहुत ताकतवर होती हैं, चूँकि उनका स्वभाव बेतहाशा दंभी होता है, इसलिए परमेश्वर की इच्छा पूरी करना या परमेश्वर के प्रति वफ़ादार होना उनके लिए बहुत कठिन होता है। इसलिए वे अकसर अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं का एहसास या परमेश्वर से की गई प्रतिज्ञाएँ पूरी नहीं कर पाते। वे अकसर अपने आपको परस्पर विरोधी स्थितियों में पाते हैं : वे परमेश्वर को अधिक से अधिक संतुष्ट करने की उत्कट इच्छा रखते हैं, लेकिन वे अपनी सारी शक्ति का उपयोग उसका विरोध करने के लिए करते हैं, और वे अकसर परमेश्वर से वादे करते हैं, लेकिन फिर तुरंत ही अपने वादे तोड़ भी देते हैं। बल्कि अकसर वे अपने आपको अन्य परस्पर विरोधी स्थितियों में पाते हैं : वे ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी उसे और उससे आने वाली हर चीज़ को नकारते हैं; वे उत्सुकता से आशा करते हैं कि परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध करेगा, उनकी अगुआई करेगा, उनकी आपूर्ति करेगा और उनकी सहायता करेगा, किंतु वे अपना अलग मार्ग भी खोजते रहते हैं। वे परमेश्वर को समझना और जानना चाहते हैं, किंतु वे उसके करीब आने के लिए तैयार नहीं होते। इसके बजाय, वे हमेशा परमेश्वर से बचते हैं और उनके हृदय उसके लिए बंद होते हैं। एक तरफ तो उनमें परमेश्वर के वचनों और सत्य के शाब्दिक अर्थ की सतही समझ और अनुभव होता है, परमेश्वर और सत्य की सतही अवधारणा होती है, दूसरी ओर, वे अवचेतन रूप से अभी भी इस बात की पुष्टि या निर्धारण नहीं कर पाते कि परमेश्वर सत्य है या नहीं, न ही वे इसकी पुष्टि कर पाते हैं कि परमेश्वर वास्तव में धार्मिक है या नहीं। वे परमेश्वर के स्वभाव और उसके सार की वास्तविकता भी निर्धारित नहीं कर पाते, उसके सच्चे अस्तित्व की तो बात ही छोड़ दो। परमेश्वर के प्रति उनके विश्वास में सदैव संदेह और गलतफहमियाँ होती हैं, और उसमें कल्पनाएँ और अवधारणाएँ भी होती हैं। जब वे परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हैं, तो अनिच्छा से कुछ ऐसे सत्यों का अनुभव या अभ्यास भी करते हैं, जिन्हें वे अपने विश्वास को समृद्ध करने, परमेश्वर में विश्वास करने का अपना अनुभव बढ़ाने, परमेश्वर में विश्वास की अपनी समझ का सत्यापन करने, और खुद ही स्थापित जीवन-पथ पर चलने के अपने घमंड को संतुष्ट करने और मानवजाति का धार्मिक उपक्रम पूरा करने के लिए व्यवहार्य समझते हैं। साथ ही, वे ये चीज़ें आशीष हासिल करने की अपनी इच्छा पूरी करने, जो एक शर्त का हिस्सा है जिसे वे मानवजाति के लिए अधिक आशीष प्राप्त करने की आशा में लगाते हैं, और अपनी यह महत्वाकांक्षी आकांक्षा और जीवनभर की इच्छा पूरी करने के लिए भी करते हैं कि वे तब तक विश्राम नहीं करेंगे, जब तक परमेश्वर को प्राप्त नहीं कर लेंगे। ये लोग परमेश्वर की प्रबुद्धता प्राप्त करने में शायद ही कभी सक्षम होते हैं, क्योंकि आशीष पाने की उनकी इच्छा और इरादा उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। उनमें इन्हें छोड़ने की कोई इच्छा नहीं होती, और निस्संदेह वे ऐसा करना सहन नहीं कर पाते। वे डरते हैं कि आशीष पाने की इच्छा के बिना, लंबे समय से सँजोई इस महत्वाकांक्षा के बिना कि वे तब तक विश्राम नहीं करेंगे जब तक वे परमेश्वर को प्राप्त नहीं कर लेंगे, वे परमेश्वर पर विश्वास करने की प्रेरणा खो देंगे। इसलिए वे वास्तविकता का सामना नहीं करना चाहते। वे परमेश्वर के वचनों या परमेश्वर के कार्य का सामना नहीं करना चाहते। वे परमेश्वर के स्वभाव या सार तक का सामना नहीं करना चाहते, परमेश्वर को जानने के विषय का उल्लेख करने की तो बात ही छोड़ दो। क्योंकि जब परमेश्वर, उसका सार और उसका धार्मिक स्वभाव उनकी कल्पनाओं का स्थान लेगा, तो उनके सपने धुएँ में उड़ जाएँगे; और उनका तथाकथित विश्वास और “योग्यताएँ”, जिन्हें वर्षों के कठिन कार्य के जरिये इकट्ठा किया गया है, लुप्त और शून्य हो जाएँगे। इसी प्रकार, उनका “इलाका”, जिसे उन्होंने वर्षों के खून-पसीने से जीता है, धराशायी हो जाएगा। यह सब चीज़ें इस बात का संकेत होंगी कि उनका अनेक वर्षों का कठिन परिश्रम और प्रयास व्यर्थ हो गए हैं, और उन्हें शून्य से शुरुआत करनी होगी। यह उनके लिए सबसे पीड़ादायक स्थिति है, और यही परिणाम वे देखना नहीं चाहते, इसीलिए वे हमेशा इस प्रकार के गतिरोध में बंद रहते हैं और लौटना नहीं चाहते। यह तीसरे प्रकार का व्यक्ति है : ऐसा व्यक्ति, जो दूध छुड़ाए हुए बच्चे की अवस्था में रहता है।
ऊपर वर्णित तीन प्रकार के लोग—अर्थात् इन तीन अवस्थाओं में रहने वाले लोग—परमेश्वर की पहचान और हैसियत में या उसके धार्मिक स्वभाव में कोई सच्चा विश्वास नहीं रखते, और न ही उनके पास इन चीज़ों की कोई स्पष्ट, सटीक पहचान या पुष्टि होती है। इसलिए, इन तीनों अवस्थाओं के लोगों के लिए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना बहुत कठिन होता है, और उनके लिए परमेश्वर की दया, प्रबुद्धता या रोशनी प्राप्त करना भी कठिन होता है, क्योंकि जिस तरह से वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वह और परमेश्वर के प्रति उनका गलत रवैया परमेश्वर के लिए उनके हृदय में कार्य करना असंभव बना देता है। परमेश्वर के संबंध में उनके संदेह, गलतफहमियाँ और कल्पनाएँ परमेश्वर संबंधी उनके विश्वास और ज्ञान से अधिक होती हैं। ये तीन प्रकार के लोग बहुत अधिक जोखिम में होते हैं, और ये तीनों ही चरण बहुत ख़तरनाक होते हैं। जब कोई परमेश्वर, परमेश्वर के सार, परमेश्वर की पहचान, परमेश्वर की सत्यता और उसके अस्तित्व की वास्तविकता के संबंध में संदेह का रवैया रखता है, और जब कोई इन चीज़ों के संबंध में निश्चित नहीं हो पाता, तो वह परमेश्वर से आने वाली हर चीज़ कैसे स्वीकार कर सकता है? वह कैसे इस तथ्य को स्वीकार कर सकता है कि परमेश्वर सत्य, मार्ग और जीवन है? वह कैसे परमेश्वर की ताड़ना और उसके न्याय को स्वीकार कर सकता है? कोई कैसे परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार कर सकता है? इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर का सच्चा मार्गदर्शन और आपूर्ति कैसे प्राप्त कर सकता है? जो लोग इन तीन अवस्थाओं में हैं, वे परमेश्वर का विरोध कर सकते हैं, परमेश्वर की आलोचना कर सकते हैं, परमेश्वर की निंदा कर सकते हैं या किसी भी समय परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। वे किसी भी समय सत्य के मार्ग को त्याग सकते हैं और परमेश्वर को छोड़ सकते हैं। कहा जा सकता है कि इन तीनों अवस्थाओं के लोग विकट स्थिति में रहते हैं, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश नहीं किया होता है।
चौथा प्रकार : परिपक्व होते हुए बालक की अवस्था या बचपन
किसी व्यक्ति का दूध पीना छुड़ाए जाने के बाद—अर्थात् उसके द्वारा प्रचुर मात्रा में अनुग्रह का आनंद लिए जाने के बाद—वह यह जानना शुरू करता है कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है, वह विभिन्न प्रश्नों को समझने की इच्छा करना शुरू कर देता है, जैसे कि मनुष्य क्यों जीता है, मनुष्य को कैसे जीना चाहिए, और परमेश्वर मनुष्य पर अपना कार्य क्यों करता है। जब ये अस्पष्ट विचार और भ्रमित विचार-प्रतिरूप लोगों के भीतर उभरते और मौजूद रहते हैं, तो वे लगातार सिंचन प्राप्त करते हैं, और वे अपना कर्तव्य भी निभा पाते हैं। इस दौरान उनमें परमेश्वर के सत्य को लेकर कोई संदेह नहीं रह जाते, और उनमें इस बात की सटीक समझ होती है कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है। इस नींव पर उन्हें धीरे-धीरे परमेश्वर का ज्ञान होने लगता है, और वे आहिस्ता-आहिस्ता परमेश्वर के स्वभाव और सार के संबंध में अपने अस्पष्ट विचारों और भ्रमित विचार-प्रतिरूपों के कुछ उत्तर प्राप्त करने लगते हैं। अपने स्वभाव और परमेश्वर संबंधी अपने ज्ञान में हुए परिवर्तनों के अनुसार, इस अवस्था के लोग सही मार्ग पर चलना शुरू कर देते हैं, और वे एक बदलाव के दौर में प्रवेश करते हैं। इसी अवस्था में लोग जीवन पाना शुरू करते हैं। उनमें जीवन होने का स्पष्ट संकेत परमेश्वर को जानने से संबंधित उन विभिन्न प्रश्नों का क्रमिक समाधान है, जो लोगों के मन में होते हैं—जैसे कि गलतफहमियाँ, कल्पनाएँ, अवधारणाएँ और परमेश्वर की अस्पष्ट परिभाषाएँ—और वे न केवल परमेश्वर के अस्तित्व की वास्तविकता पर विश्वास करने और उसे जानने लगते हैं, बल्कि उनके पास परमेश्वर की एक सटीक परिभाषा होती है और उनके मन में परमेश्वर का सही स्थान भी होता है, और परमेश्वर का वास्तविक अनुसरण उनके अस्पष्ट विश्वास का स्थान ले लेता है। इस दौरान लोग धीरे-धीरे परमेश्वर के प्रति अपनी मिथ्या अवधारणाएँ और अनुसरण तथा विश्वास के अपने गलत लक्ष्य और तरीके जान जाते हैं। वे सत्य के लिए लालायित होना, परमेश्वर के न्याय, ताड़ना और अनुशासन के अनुभव के लिए लालायित होना, और अपने स्वभाव में परिवर्तन के लिए लालायित होना शुरू कर देते हैं। इस अवस्था के दौरान वे धीरे-धीरे परमेश्वर के संबंध में सभी प्रकार की अवधारणाएँ और कल्पनाएँ त्याग देते हैं, और साथ ही वे परमेश्वर के संबंध में अपने गलत ज्ञान को बदलते और सुधारते हैं और उसके संबंध में सही आधारभूत ज्ञान हासिल करते हैं। यद्यपि इस अवस्था में लोगों में मौजूद ज्ञान का एक अंश बहुत विशिष्ट या सटीक नहीं होता, फिर भी कम से कम वे परमेश्वर के संबंध में अपनी अवधारणाएँ, गलत ज्ञान और गलतफ़हमियाँ त्यागना आरंभ कर देते हैं; अब वे परमेश्वर के प्रति अपनी अवधारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं रखते। वे यह सीखना शुरू करते हैं कि अपनी अवधारणाओं में पाई जाने वाली चीज़ों को, ज्ञान से प्राप्त चीज़ों को, और शैतान से प्राप्त चीज़ों को कैसे छोड़ा जाए; वे सही और सकारात्मक चीज़ों के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार होना शुरू कर देते हैं, यहाँ तक कि उन चीज़ों के प्रति भी, जो परमेश्वर के वचनों से आती हैं और जो सत्य के अनुरूप होती हैं। वे परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने का प्रयास करना, उसके वचनों को व्यक्तिगत रूप से जानना और उन्हें क्रियान्वित करना, उसके वचनों को अपने कार्यों के सिद्धांतों के रूप में और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के एक आधार के रूप में स्वीकार करना आरंभ कर देते हैं। इस दौरान लोग अनजाने ही परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार कर लेते हैं, और अनजाने ही परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। परमेश्वर के न्याय, ताड़ना और वचनों को स्वीकार करते हुए वे अधिकाधिक सचेत हो जाते हैं और यह महसूस करने लगते हैं कि जिस परमेश्वर पर वे दिल से विश्वास करते हैं, वह वास्तव में मौजूद है। परमेश्वर के वचनों में, अपने अनुभवों और अपनी ज़िंदगी में वे अधिकाधिक यह महसूस करने लगते हैं कि परमेश्वर ने हमेशा मनुष्य की नियति पर शासन किया है और उसकी अगुआई और आपूर्ति की है। परमेश्वर के साथ अपने जुड़ाव के जरिये वे धीरे-धीरे परमेश्वर के अस्तित्व की पुष्टि करने लगते हैं। इसलिए, इससे पहले कि वे इसे महसूस कर पाएँ, वे अवचेतन मन में पहले ही परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर लेते हैं, उस पर दृढ़ता से विश्वास करना शुरू कर देते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों को मंज़ूर कर लेते हैं। जब लोग परमेश्वर के वचनों और कार्य को स्वीकार कर लेते हैं, तो वे निरंतर स्वयं को नकारते हैं, अपनी ही अवधारणाओं को नकारते हैं, अपने ज्ञान को नकारते हैं, अपनी ही कल्पनाओं को नकारते हैं, और निरंतर खोज करने लगते हैं कि सत्य क्या है और परमेश्वर की इच्छा क्या है। विकास की इस अवधि में परमेश्वर के संबंध में लोगों का ज्ञान बहुत ही सतही होता है—वे इस ज्ञान को शब्दों में स्पष्ट रूप से बताने तक में असमर्थ होते हैं, न ही वे इसे विशिष्ट विवरणों के संदर्भ में व्यक्त कर सकते हैं—और उनमें केवल एक अनुभूति-आधारित समझ होती है; फिर भी, पिछली तीन अवस्थाओं के साथ तुलना करने पर, इस अवधि के लोगों की अपरिपक्व ज़िंदगी ने पहले ही परमेश्वर के वचनों की सिंचाई और आपूर्ति प्राप्त कर ली होती है, और इस प्रकार उन्होंने पहले ही अंकुरित होना आरंभ कर दिया होता है। उनकी ज़िंदगी भूमि में दबे एक बीज के समान होती है; नमी और पोषक तत्त्व पाने के बाद यह मिट्टी से फूटती है, और उसका अंकुरण एक नए जीवन की उत्पत्ति को दर्शाता है। इस उत्पत्ति से व्यक्ति जीवन के चिह्नों की झलक देखने लगता है। जब लोगों में जीवन होता है, तो वे बढ़ते हैं। इसलिए—परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग पर धीरे-धीरे आगे बढ़ने, अपनी अवधारणाओं को त्यागने और परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त करने की—इन नीवों पर लोगों की ज़िंदगी अनिवार्य रूप से थोड़ी-थोड़ी आगे बढ़ती है। इस प्रगति को किस आधार पर मापा जाता है? इसे व्यक्तियों द्वारा परमेश्वर के वचनों के अनुभव और उनकी परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की वास्तविक समझ के अनुसार नापा जाता है। यद्यपि प्रगति की इस अवधि में उन्हें परमेश्वर और उसके सार के संबंध में अपने ज्ञान का अपने ही शब्दों में सटीकता से वर्णन करना बहुत कठिन जान पड़ता है, फिर भी लोगों का यह समूह अब परमेश्वर के अनुग्रह के आनंद के जरिये प्रसन्नता प्राप्त करने या परमेश्वर का अनुग्रह प्राप्त करने का अपना प्रयोजन पूरा करने हेतु उसमें विश्वास करने के लिए व्यक्तिपरक ढंग से तैयार नहीं होता। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचन के द्वारा जीवन जीने और परमेश्वर के उद्धार का पात्र बनने के लिए इच्छुक होते हैं। इतना ही नहीं, वे आश्वस्त होते हैं और परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हैं। यह प्रगति की अवस्था में मौजूद व्यक्ति का चिह्न है।
यद्यपि इस अवस्था के लोगों को परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का कुछ ज्ञान होता है, किंतु यह ज्ञान बहुत धुँधला और अस्पष्ट होता है। हालांकि वे इसका स्पष्ट रूप से वर्णन नहीं कर पाते, फिर भी उन्हें लगता है कि उन्होंने पहले ही अंतर्मन में कुछ हासिल कर लिया है, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर की ताड़ना एवं न्याय के जरिये परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के संबंध में कुछ मात्रा में ज्ञान और समझ हासिल कर ली होती है; किंतु यह सब सतही होता है, और यह अभी भी प्रारंभिक अवस्था में ही होता है। लोगों के इस समूह का एक विशिष्ट दृष्टिकोण होता है, जिससे वे परमेश्वर के अनुग्रह के साथ व्यवहार करते हैं, जो उनके द्वारा अपनाए जाने वाले उद्देश्यों और उनकी पूर्ति के तरीकों में होने वाले परिवर्तनों में व्यक्त होता है। उन्होंने परमेश्वर के वचनों और कार्यों में, मनुष्य से उसकी सभी प्रकार की अपेक्षाओं में और मनुष्य को दिए जाने वाले उसके प्रकाशनों में पहले ही देख लिया होता है कि यदि वे अभी भी सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे, यदि वे अभी भी वास्तविकता में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करेंगे, यदि वे अभी भी परमेश्वर के वचनों का अनुभव करते हुए उसे संतुष्ट करने और जानने का प्रयास नहीं करेंगे, तो वे परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ खो देंगे। वे देखते हैं कि चाहे वे परमेश्वर के अनुग्रह का कितना भी आनंद उठाते हों, वे अपने स्वभाव को नहीं बदल सकते, परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकते या परमेश्वर को नहीं जान सकते, और यदि लोग लगातार परमेश्वर के अनुग्रह के तहत जीवन बिताते हैं, तो वे कभी प्रगति हासिल नहीं कर पाएँगे, जीवन हासिल नहीं कर पाएँगे या उद्धार पाने योग्य नहीं हो पाएँगे। संक्षेप में, यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचनों का वास्तव में अनुभव नहीं कर पाता और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से उसे जानने में असमर्थ रहता है, तो वह अनंतकाल तक एक नवजात शिशु की अवस्था में बना रहेगा और अपने जीवन की प्रगति में कभी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाएगा। यदि तुम सदैव एक नवजात शिशु की अवस्था में बने रहते हो, यदि तुम कभी परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश नहीं करते, यदि तुम्हारे पास कभी अपने जीवन के रूप में परमेश्वर का वचन नहीं है, यदि तुम्हारे पास परमेश्वर में सच्चा विश्वास और उसका ज्ञान नहीं है, तो क्या परमेश्वर द्वारा तुम्हें पूर्ण किए जाने की कोई संभावना है? इसलिए, जो कोई परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश करता है, जो कोई परमेश्वर के वचन को अपने जीवन के रूप में स्वीकार करता है, जो कोई परमेश्वर की ताड़ना और न्याय स्वीकार करना शुरू करता है, जिस किसी का भ्रष्ट स्वभाव बदलना शुरू हो जाता है, और जिस किसी के पास सत्य के लिए लालायित रहने वाला हृदय है, जिसके पास परमेश्वर को जानने और उसका उद्धार स्वीकार करने की इच्छा है, तो यही वे लोग हैं जिनके पास वास्तव में जीवन है। यह वास्तव में चौथे प्रकार का व्यक्ति है, परिपक्व हो रहे बच्चे के प्रकार का, वह व्यक्ति जो बचपन की अवस्था में है।
पाँचवाँ प्रकार : जीवन की परिपक्वता की अवस्था या वयस्क अवस्था
बार-बार के उतार-चढ़ावों से भरी प्रगति वाली बचपन की अवस्था का अनुभव करने और उसमें लड़खड़ाते हुए चलने के बाद लोगों का जीवन स्थिर हो जाता है, उनके बढ़ते कदम अब रुकते नहीं, और कोई उन्हें रोक पाने में समर्थ नहीं होता। यद्यपि आगे का मार्ग अभी भी ऊबड़-खाबड़ और खुरदरा होता है, लेकिन वे अब कमज़ोर या भयभीत नहीं होते, वे आगे लड़खड़ाते नहीं चलते या अपनी दिशा नहीं खोते। उनकी नींव परमेश्वर के वचन के वास्तविक अनुभव में गहरी जमी होती है, और उनके हृदय परमेश्वर की गरिमा और महानता द्वारा आकर्षित हो चुके होते हैं। वे परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलने के लिए, परमेश्वर के सार को जानने के लिए, परमेश्वर के संबंध में सब-कुछ जानने के लिए लालायित रहते हैं।
इस अवस्था के लोग पहले से ही स्पष्ट रूप से जानते हैं कि वे किसमें विश्वास करते हैं, और वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर में विश्वास क्यों करना चाहिए और उनके जीवन का क्या अर्थ है, और वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि वह हर चीज़, जिसे परमेश्वर व्यक्त करता है, सत्य है। अपने अनेक वर्षों के अनुभव में वे महसूस करते हैं कि परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना व्यक्ति कभी परमेश्वर को संतुष्ट करने या परमेश्वर को जानने में सक्षम नहीं होगा, और वास्तव में कभी परमेश्वर के सम्मुख आने में समर्थ नहीं होगा। इन लोगों के हृदय में परमेश्वर द्वारा परखे जाने की तीव्र इच्छा होती है, जिससे परखे जाते समय वे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देख सकें, और अधिक शुद्ध प्रेम हासिल कर सकें, और साथ ही परमेश्वर को और अधिक सच्चाई से समझने और जानने में समर्थ हो सकें। इस अवस्था के लोग नवजात शिशु वाली अवस्था को, और परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने और रोटी खाकर तृप्त होने की अवस्था को पहले ही अलविदा कह चुके होते हैं। वे अब परमेश्वर को सहनशील बनाने और उन पर दया दिखाने के लिए असाधारण आशाएँ नहीं रखते; बल्कि वे परमेश्वर की सतत ताड़ना और न्याय पाने के लिए आश्वस्त और आशान्वित रहते हैं, ताकि अपने भ्रष्ट स्वभाव से अपने आपको अलग कर सकें और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकें। परमेश्वर के संबंध में उनका ज्ञान और उनकी खोज, या उनकी खोज के अंतिम लक्ष्य उनके हृदय में बहुत स्पष्ट होते हैं। इसलिए, अपनी वयस्क अवस्था में लोग अस्पष्ट विश्वास की अवस्था को, उद्धार के लिए अनुग्रह पर आश्रित रहने की अवस्था को, परीक्षणों का सामना न कर सकने वाले अपरिपक्व जीवन की अवस्था को, धुँधलेपन की अवस्था को, लड़खड़ाकरआगे बढ़ने की अवस्था को, उस अवस्था को जिसमें अक्सर चलने के लिए कोई मार्ग नहीं होता, अचानक गर्मजोशी से भर उठने और अचानक ही ठंडे पड़ जाने के बीच डोलने की अस्थिर अवधि को, और उस अवस्था को, जिसमें व्यक्ति आँख मूँदकर परमेश्वर का अनुसरण करता है, पहले ही पूरी तरह से अलविदा कह चुके होते हैं। इस प्रकार के लोग अक्सर परमेश्वर की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करते हैं, और अक्सर परमेश्वर के साथ सच्ची संगति और संवाद में संलग्न रहते हैं। कहा जा सकता है कि इस अवस्था में रह रहे लोग पहले ही परमेश्वर की इच्छा का अंश समझ चुके होते हैं, वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सत्य के सिद्धांत ढूँढ़ पाने में समर्थ होते हैं, और वे जानते हैं परमेश्वर की इच्छा कैसे पूरी करनी है। इतना ही नहीं, उन्होंने परमेश्वर को जानने का मार्ग भी पा लिया होता है और परमेश्वर के संबंध में अपने ज्ञान की गवाही देनी शुरू कर दी होती है। क्रमिक प्रगति की प्रक्रिया के दौरान वे परमेश्वर की इच्छा : मनुष्य की सृष्टि करने में परमेश्वर की इच्छा, और मनुष्य का प्रबंधन करने में परमेश्वर की इच्छा की क्रमिक समझ और ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। वे धीरे-धीरे सार की दृष्टि से परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की समझ और ज्ञान भी प्राप्त कर लेते हैं। कोई मानवीय अवधारणा या कल्पना इस ज्ञान का स्थान नहीं ले सकती। हालाँकि यह नहीं कहा जा सकता कि पाँचवीं अवस्था में व्यक्ति का जीवन पूरी तरह से परिपक्व हो जाता है या यह व्यक्ति धार्मिक या पूर्ण है, लेकिन फिर भी इस प्रकार के व्यक्ति ने जीवन में परिपक्वता की अवस्था की ओर पहले ही एक कदम बढ़ा लिया है और वह परमेश्वर के सामने आने, परमेश्वर के वचन और परमेश्वर के आमने-सामने खड़े होने में पहले से ही समर्थ है। चूँकि इस प्रकार के व्यक्तियों ने परमेश्वर के वचनों का बहुत अधिक अनुभव कर लिया है, अनगिनत परीक्षणों का अनुभव कर लिया है और परमेश्वर से अनुशासन, न्याय और ताड़ना की असंख्य घटनाओं का अनुभव कर लिया है, इसलिए परमेश्वर के प्रति उनका समर्पण सापेक्ष नहीं, बल्कि संपूर्ण है। परमेश्वर के संबंध में उनका ज्ञान अवचेतन ज्ञान से स्पष्ट एवं सटीक ज्ञान में, सतही ज्ञान से गहरे ज्ञान में, धुँधले और अस्पष्ट ज्ञान से सूक्ष्म और मूर्त ज्ञान में रूपांतरित हो गया है। वे श्रमसाध्य लड़खड़ाहट और निष्क्रिय प्रयास करने की स्थिति से सहज ज्ञान और सक्रिय गवाही की स्थिति तक आ गए हैं। यह कहा जा सकता है कि इस अवस्था के लोगों में परमेश्वर के वचन के सत्य की वास्तविकता विद्यमान है, और उन्होंने पूर्णता के उस मार्ग पर कदम रख दिया है, जिस पर पतरस चला था। यह पाँचवें प्रकार का व्यक्ति है, ऐसा व्यक्ति परिपक्वता की अवस्था यानी वयस्क अवस्था में जीता है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II