जीवन में प्रवेश VI
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 556
केवल सत्य का अनुसरण करके ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव ला सकता है : यह एक ऐसी बात है, जिसे लोगों को अच्छी तरह से जानना-बूझना चाहिए, और समझना चाहिए। अगर तुम्हें सत्य की पर्याप्त समझ नहीं है, तो तुम आसानी से फिसल जाओगे और मार्ग से भटक जाओगे। यदि तुम जीवन में विकास करना चाहते हो, तो तुम्हें हर चीज़ में सत्य की तलाश करनी चाहिए। तुम चाहे कुछ भी कर रहे हो, तुम्हें इस बात की खोज करनी चाहिए कि सत्य के अनुरूप जीने के लिए किस तरह व्यवहार करना चाहिए, और इस बात का पता लगाना चाहिए कि तुम्हारे भीतर क्या दोष मौजूद है, जो इसका उल्लंघन करता है; तुम्हें इन चीज़ों की स्पष्ट समझ होनी चाहिए। तुम चाहे कुछ भी कर रहे हो, तुम्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि वह सत्य के अनुरूप है या नहीं और उसका कोई मूल्य और अर्थ है या नहीं। तुम वे काम कर सकते हो जो सत्य के अनुरूप हों, लेकिन तुम वो काम नहीं कर सकते जो सत्य के अनुरूप न हों। जहाँ तक उन चीज़ों का संबंध है, जिन्हें तुम कर भी सकते हो और नहीं भी कर सकते, उन्हें यदि जाने दिया जा सकता है, तो तुम्हें उन्हें जाने देना चाहिए। अन्यथा यदि तुम कुछ समय के लिए उन चीज़ों को करते हो और बाद में पाते हो कि तुम्हें उन्हें जाने देना चाहिए, तो एक त्वरित निर्णय लो और उन्हें ज़ल्दी से जाने दो। यह वह सिद्धांत है, जिसका अनुसरण तुम्हें अपने हर काम में करना चाहिए। कुछ लोग यह प्रश्न उठाते हैं : सत्य की तलाश करना और उसे व्यवहार में लाना इतना ज्यादा मुश्किल क्यों है—मानो तुम धारा के विरुद्ध नाव खे रहे हो और अगर तुमने आगे की ओर नाव खेना बंद कर दिया, तो पीछे बह जाओगे? फिर भी, बुरी या निरर्थक चीज़ें करना वास्तव में बहुत आसान क्यों है—नाव को धारा के साथ खेने जितना आसान? ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य का स्वभाव परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना है। शैतान की प्रकृति ने मनुष्यों के भीतर एक प्रमुख भूमिका ग्रहण कर ली है, और वह एक प्रतिरोधी शक्ति है। परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की प्रकृति वाले मनुष्य निश्चित रूप से ऐसी चीज़ें आसानी से कर सकते हैं, जो परमेश्वर के साथ विश्वासघात करती हैं, और सकारात्मक कार्य करना उनके लिए स्वाभाविक रूप से कठिन होता है। यह पूरी तरह से मनुष्य की प्रकृति और सार द्वारा निश्चित किया जाता है। जब तुम वास्तव में सत्य को समझ जाते हो और उसे अपने भीतर से प्यार करना शुरू कर देते हो, तो तुम उन चीजों को करना आसान पाओगे, जो सत्य के अनुरूप हैं। तुम सामान्य ढंग से अपना कर्तव्य निभाओगे और सत्य का अभ्यास करोगे—बल्कि सहजता से और आनंद से, और तुम महसूस करोगे कि कोई नकारात्मक चीज़ करने के लिए भारी प्रयास की आवश्यकता होगी। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सत्य ने तुम्हारे दिल में एक प्रमुख भूमिका ले ली है। अगर तुम वाकई मानव-जीवन का सत्य समझते हो, तो तुम्हारे पास अनुसरण के लिए एक मार्ग होगा कि तुम्हें किस तरह का व्यक्ति होना चाहिए—किस तरह एक निष्कपट और सीधा-सादा व्यक्ति बनना चाहिए, एक ईमानदार व्यक्ति, ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर की गवाही देता हो और उसकी सेवा करता हो। और एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तो तुम फिर कभी परमेश्वर की अवहेलना करने वाले बुरे कार्य करने में सक्षम नहीं होगे, और न ही तुम कभी एक झूठे अगुआ, झूठे कार्यकर्ता या मसीह-विरोधी की भूमिका निभाओगे। भले ही शैतान तुम्हें धोखा दे, या कोई दुष्ट तुम्हें उकसाए, तुम वो नहीं करोगे; कोई तुम्हारे साथ कितनी भी ज़बरदस्ती करे, तुम फिर भी वैसा नहीं करोगे। यदि लोग सत्य को प्राप्त कर लेते हैं और सत्य उनका जीवन बन जाता है, तो वे बुराई से घृणा करने लगेंगे और नकारात्मक चीजों से आंतरिक विरक्ति महसूस करेंगे। उनके लिए बुराई करना मुश्किल होगा, क्योंकि उनके जीवन स्वभाव बदल गए हैं और उन्हें परमेश्वर द्वारा पूर्ण बना दिया गया है।
अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं! बुरे कर्मों के समाधान के लिए, पहले उन्हें अपनी प्रकृति को सुधारना होगा। स्वभाव में बदलाव किए बिना, इस समस्या का मौलिक समाधान हासिल करना संभव नहीं है। जब तुम्हें परमेश्वर की कुछ समझ होगी, जब तुम अपनी भ्रष्टता को देख सकोगे, अहंकार और दंभ की कुरूपता और घिनौनेपन को पहचान सकोगे, तब तुम नफरत, घृणा और व्यथा को महसूस करोगे। तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपनी इच्छा से कुछ काम करने में सक्षम होगे और ऐसा करने में तुम्हें सुकून महसूस होगा। तुम अपनी इच्छा से परमेश्वर के वचन पढ़ने, उसका उत्कर्ष करने, परमेश्वर के लिए गवाही देने में सक्षम होगे और अपने दिल में, तुम खुशी महसूस करोगे। तुम अपनी इच्छा से अपने आपको बेनकाब करोगे, अपनी खुद की कुरूपता को उजागर करोगे और ऐसा करके तुम अंदर से अच्छा महसूस करोगे और तुम अपने आपको बेहतर मानसिक स्थिति में महसूस करोगे। अपने स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश का पहला चरण परमेश्वर के वचनों को समझने की कोशिश करना और सत्य में प्रवेश करना है। केवल सत्य को समझकर ही तुम्हारे अंदर विवेक आएगा; केवल विवेक से ही तुम चीज़ों को पूरी तरह समझ पाओगे; चीज़ों को पूरी तरह समझकर ही तुम खुद को जान पाओगे; जब तुम खुद को जान लोगे, तो तुम देह की इच्छाओं का त्याग कर सत्य का अभ्यास कर पाओगे, इससे तुम धीरे-धीरे परमेश्वर का आज्ञापालन करने की दिशा में आगे बढ़ोगे और परमेश्वर में अपने विश्वास के साथ सही मार्ग पर चलोगे। यह इस बात से जुड़ा है कि सत्य का अनुसरण करते समय लोग कितने दृढ़ होते हैं। यदि कोई वास्तव में दृढ़ है, तो छह महीने या एक साल के बाद वे सही रास्ते पर आने शुरू हो जाएंगे। तीन या पांच वर्षों के भीतर, वे परिणाम देख लेंगे, और महसूस करेंगे कि वे जीवन में प्रगति कर रहे हैं। यदि लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते, और सत्य के अभ्यास पर ध्यान नहीं देते, तो दस साल-बीस साल में भी उन्हें किसी बदलाव का अनुभव नहीं होगा। अंत में, वे सोचेंगे कि यही परमेश्वर में विश्वास रखना है; वे सोचेंगे कि यह बहुत हद तक वैसा ही है जैसे वे पहले धर्मनिरपेक्ष दुनिया में रहते थे, और जीवित रहना अर्थहीन है। यह वास्तव में दिखाता है कि सत्य के बिना जीवन खोखला है। वे कुछ सैद्धांतिक शब्द बोलने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन तुम अभी भी असहज और बेचैन महसूस करोगे। यदि लोगों को परमेश्वर के बारे में कुछ जानकारी है, वे जानते हैं कि एक सार्थक जीवन कैसे जीना है, और वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कुछ चीजें कर सकते हैं, तो वे महसूस करेंगे कि यही वास्तविक जीवन है, केवल इसी तरह से रहने से उनके जीवन का अर्थ होगा, और परमेश्वर को संतुष्टि प्रदान करने, उसे प्रतिफल देने और सहजता महसूस करने के लिए उन्हें इसी तरह से रहना होगा। यदि वे सजगतापूर्वक परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, सत्य को व्यवहार में ला सकते हैं, स्वयं को त्याग सकते हैं, अपने विचारों को छोड़ सकते हैं, और परमेश्वर की इच्छा के प्रति आज्ञाकारी और विचारशील हो सकते हैं—यदि वे इन सभी चीजों को सजगतापूर्वक करने में सक्षम हैं—तो सत्य को सटीक रूप से व्यवहार में लाने, और सत्य को वास्तव में व्यवहार में लाने का यही अर्थ है। यह पहले की तरह नहीं है, केवल कल्पनाओं पर निर्भर रहना, नियमों का पालन करना और सोचना कि यह सत्य का अभ्यास करना है। वास्तव में, कल्पनाओं पर निर्भर रहना और नियमों का पालन करना बहुत थकाऊ है, सत्य न समझना और सिद्धांतों के बिना काम करना भी बहुत थकाने वाला है, बिना लक्ष्य के आँख मूँदकर काम करना तो और भी थका देने वाला है। जब तुम सत्य समझ जाते हो, तो कोई भी व्यक्ति या चीज तुम्हें विवश नहीं कर सकती, तुम स्वतंत्र और मुक्त होते हो। तुम सैद्धांतिक तरीके से कार्य करोगे, निश्चिंत और खुश रहोगे, और तुम्हें यह महसूस नहीं होगा कि इसमें बहुत मेहनत लगती है या यह बहुत पीड़ादायक है। यदि तुम्हारी स्थिति इस प्रकार की है, तो तुममें सत्य और मानवता है और तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसका स्वभाव बदल गया है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 557
जीवन के अनुभव की प्रक्रिया में, चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें सत्य की खोज करना सीखना चाहिए, परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार मामले पर पूरी तरह से विचार करना चाहिए। जब तुम जान जाते हो कि पूर्ण रूप से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कैसे कार्य करना है, तो तुम अपनी इच्छा से आने वाली चीजों को छोड़ पाओगे। एक बार जब तुम जान जाते हो कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कैसे कार्य करना है, तो तुम्हें बस वैसे ही काम करना चाहिए, मानो सहजता से कार्य कर रहे हो। इस तरह कार्य करना बहुत ही आरामदायक और आसान लगता है, सत्य समझने वाले लोग इसी ढंग से काम करते हैं। यदि तुम लोगों को दिखा सको कि तुम अपना कर्तव्य निभाते समय सच में प्रभावी होते हो, और जो तुम करते हो वह सिद्धांतों के अनुसार है, कि तुम्हारा जीवन स्वभाव वास्तव में बदल गया है, कि तुमने परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए कई अच्छे काम किए हैं, तो इसका अर्थ है कि तुम्हें सत्य की समझ है और निश्चित रूप से तुम्हारी छवि इंसान की है; और जब तुम परमेश्वर के वचन खाते-पीते हो, तो यकीनन उसका असर होता है। जब कोई सत्य समझ लेता है, तो वह अपनी विभिन्न अवस्थाओं को समझने लगता है, वह जटिल मामलों को स्पष्ट रूप से देख पाता है और यह जान जाता है कि कैसे सही तरीके से अभ्यास करना है। यदि कोई व्यक्ति सत्य नहीं समझता और अपनी स्थिति को नहीं पहचान पाता, तो यदि वह अपनी दैहिक इच्छाओं का त्याग करना चाहता है, तो उसे पता नहीं होगा कि क्या और कैसे त्याग करना है। यदि वह अपनी इच्छा का त्याग करना चाहता है, तो वह यह नहीं जान पाएगा कि उसकी इच्छा में क्या गलत है, उसे लगेगा कि उसकी इच्छा सत्य के अनुरूप है, यहाँ तक कि वह अपनी इच्छा को भी पवित्र आत्मा का प्रबोधन भी मान सकता है। ऐसा व्यक्ति अपनी इच्छा का त्याग कैसे करेगा? वह ऐसा नहीं कर पाएगा, वह दैहिक-सुखों का त्याग तो बिलकुल नहीं कर पाएगा। इसलिए, जब तुम्हें सत्य की समझ नहीं होती, तो तुम अपनी इच्छा से आई चीजों को, मानवीय धारणाओं, दया, प्रेम, पीड़ा और कीमत चुकाने के अनुरूप चीजों को आसानी से सही और सत्य समझने की गलती कर सकते हो। तो फिर, तुम इन मानवीय चीजों को कैसे छोड़ सकते हो? तुम्हें सत्य की समझ नहीं है, तुम नहीं जानते कि सत्य का अभ्यास करने का क्या अर्थ होता है। तुम पूरी तरह अंधेरे में हो और नहीं जान पाते कि क्या करना है, इसलिए तुम वही कर सकते हो जो तुम्हें सही लगता है, परिणामस्वरूप, तुम कुछ कामों में विचलन कर बैठते हो। इनमें से कुछ तो नियमों का पालन करने के कारण होता है, कुछ उत्साह के कारण और कुछ शैतान की गड़बड़ी के कारण। सत्य न समझने वाले ऐसे ही काम करते हैं। वे कार्य करते समय बेहद डावांडोल होते हैं और हर हाल में भटक ही जाते हैं, उनमें थोड़ी भी विशुद्धता नहीं होती। जो लोग सत्य नहीं समझते, वे चीजों को अविश्वासियों की तरह ही बेतुके ढंग से समझते हैं। वे सत्य का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? समस्याओं का समाधान कैसे कर सकते हैं? सत्य समझना कोई सरल बात नहीं है। किसी की काबिलियत कम हो या ज्यादा, जीवन भर के अनुभव के बाद भी, उनमें सत्य की समझ सीमित होती है, और परमेश्वर के वचनों की उनकी समझ भी सीमित ही होती है। जो लोग अपेक्षाकृत अधिक अनुभवी होते हैं उनमें सत्य की समझ थोड़ी ज्यादा होती है, वे अधिक से अधिक ऐसे काम नहीं करते जो परमेश्वर के विरुद्ध हों और जाहिर तौर पर बुरे काम नहीं करते। उनके लिए अपने इरादों की मिलावट के बिना कार्य करना असंभव है। चूँकि मनुष्य की सोच सामान्य होती है और जरूरी नहीं कि उनके विचार हमेशा परमेश्वर के वचनों के अनुरूप ही हों, तो उनकी अपनी इच्छा की मिलावट होना अपरिहार्य है। महत्वपूर्ण है उन सभी चीजों की समझ होना जो अपनी इच्छा से आती हैं और परमेश्वर के वचनों, सत्य और पवित्र आत्मा के प्रबोधन के विरुद्ध होती हैं। इसके लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों को समझने में मेहनत करनी पड़ेगी; जब तुम सत्य समझ लोगे, केवल तब ही तुममें विवेक होगा और तभी तुम यह सुनिश्चित कर पाओगे कि तुम बुरे कार्य नहीं करो।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 558
खुद को जानने के लिए तुम्हें अपनी भ्रष्टता की अभिव्यक्तियों, अपने भ्रष्ट स्वभाव, अपनी महत्वपूर्ण कमज़ोरियों और अपनी प्रकृति और सार के बारे में पता होना चाहिए। तुम्हें बहुत विस्तार से उन चीज़ों के बारे में भी पता होना चाहिए जो तुम्हारे दैनिक जीवन में सामने आती हैं—तुम्हारे इरादे, तुम्हारे नज़रिए और हर एक बात में तुम्हारा रवैया—चाहे तुम घर पर हो या बाहर, चाहे जब तुम सभाओं में होते हो, या जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हो, या किसी भी मुद्दे का सामना करते हो। इन पहलुओं के माध्यम से तुम्हें खुद को जानना होगा। बेशक, खुद को एक अधिक गहरे स्तर पर जानने के लिए, तुम्हें परमेश्वर के वचनों को एकीकृत करना होगा; केवल उसके वचनों के आधार पर स्वयं को जानकर ही तुम परिणाम हासिल कर सकते हो। परमेश्वर के वचनों के न्याय को स्वीकार करते समय कष्ट या पीड़ा से न डरो, और इस बात से और भी न डरो कि परमेश्वर तुम लोगों के दिल को चीर देगा और तुम्हारी कुरूप अवस्था को उजागर कर देगा। इन चीजों को झेलना हितकारी है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो तुम्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना वाले वचनों को और ज्यादा पढ़ना चाहिए, खासकर जिनमें मानवजाति की भ्रष्टता के सार का खुलासा किया गया है, तुम्हें उनके साथ अपनी व्यावहारिक अवस्था की तुलना करनी चाहिए, और तुम्हें उन्हें खुद पर ज्यादा और दूसरों पर कम लागू करना चाहिए। परमेश्वर अवस्था की जिन किस्मों को उजागर करता है, वे हर व्यक्ति में मौजूद हैं, और वे सभी तुम पर लागू की जा सकती हैं। अगर तुम्हें इस पर विश्वास नहीं है, तो इसे अनुभव करके देखो। तुम जितना ज्यादा अनुभव करोगे, उतना ही ज्यादा खुद को जानोगे, और उतना ही ज्यादा यह महसूस करोगे कि परमेश्वर के वचन बिल्कुल सही हैं। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, कुछ लोग उन्हें खुद पर लागू करने में असमर्थ होते हैं; उन्हें लगता है कि इन वचनों के कुछ हिस्से उनके बारे में नहीं, बल्कि अन्य लोगों के बारे में हैं। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर लोगों को कुलटाओं और वेश्याओं के रूप में उजागर करता है, तो कुछ बहनों को लगता है कि चूँकि वे अपने पति के प्रति पूरी तरह से वफ़ादार हैं, अत: ऐसे वचन उनके संदर्भ में नहीं होने चाहिए; कुछ बहनों को लगता है कि चूँकि वे अविवाहित हैं और उन्होंने कभी सेक्स नहीं किया है, इसलिए ऐसे वचन उनके बारे में भी नहीं होने चाहिए। कुछ भाइयों को लगता है कि ये वचन केवल महिलाओं के लिए कहे गए हैं, और इनका उनसे कोई लेना-देना नहीं है; कुछ लोगों का मानना है कि परमेश्वर के प्रकाशन के वचन बहुत कठोर हैं और वे वास्तविकता से मेल नहीं खाते, इसलिए वे उन्हें स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं। ऐसे लोग भी हैं, जो कहते हैं कि कुछ मामलों में परमेश्वर के वचन गलत हैं। क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति यह रवैया सही है? यह जाहिर तौर पर गलत है। सभी लोग खुद को अपने बाहरी व्यवहार के आधार पर देखते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के बीच आत्म-चिंतन करने और अपने भ्रष्ट सार के बारे में जान पाने में सक्षम नहीं होते। यहाँ “कुलटा” और “वेश्या” जैसे शब्द मानवजाति की भ्रष्टता, मलिनता और व्यभिचार के सार को दर्शाने के लिए इस्तेमाल किए गए हैं। चाहे पुरुष हो या महिला, विवाहित हो या अविवाहित, हर किसी में व्यभिचार के भ्रष्ट विचार होते हैं—तो इसका तुमसे कोई लेना-देना कैसे नहीं हो सकता है? परमेश्वर के वचन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करते हैं; चाहे पुरुष हो या स्त्री, भ्रष्टाचार का उनका स्तर समान है। क्या यह तथ्य नहीं है? कुछ और करने से पहले, हमें यह समझना होगा कि परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, वह सत्य है और तथ्य के अनुरूप है, और लोगों का न्याय करके उन्हें उजागर करने वाले उसके वचन चाहे जितने भी कठोर क्यों न हों, या लोगों के साथ सत्य की संगति करने या उन्हें प्रबोधित करने वाले उसके वचन कितने भी कोमल क्यों न हों, चाहे ये वचन न्याय हों या आशीष, चाहे वे निंदा हों या शाप, और चाहे वे लोगों को कड़वाहट का एहसास कराते हों या मिठास का, लोगों वे सब स्वीकार करने चाहिए। यही वह दृष्टिकोण है, जो लोगों को परमेश्वर के वचनों के प्रति अपनाना चाहिए। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह भक्ति का दृष्टिकोण है, पवित्रता का दृष्टिकोण है, धैर्यशीलता का दृष्टिकोण है, या कष्ट सहने का दृष्टिकोण है? तुम थोड़ी उलझन में हो। मैं तुमसे कहता हूँ कि यह इनमें से कोई नहीं है। अपनी आस्था में, लोगों को दृढ़ता से यह मानना चाहिए कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। चूँकि वे सचमुच सत्य हैं, लोगों को उन्हें तर्कसंगत ढंग से स्वीकार कर लेना चाहिए। हम इस बात को भले ही न पहचानें या स्वीकार न करें, लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रति हमारा पहला रुख़ पूर्ण स्वीकृति का होना चाहिए। अगर परमेश्वर के वचन तुम्हें उजागर नहीं करते तो ये किसे उजागर करते हैं? और अगर यह तुम्हें उजागर करने के लिए नहीं है, तो तुम्हें इसे स्वीकार करने के लिए क्यों कहा जाता है? क्या यह एक विरोधाभास नहीं है? परमेश्वर समूची मानवजाति से बात करता है, परमेश्वर द्वारा बोला गया हर वाक्य भ्रष्ट मानवजाति को उजागर करता है, और कोई भी इसके बाहर नहीं है—स्वाभाविक रूप से तुम भी इसमें शामिल हो। परमेश्वर के कथनों की एक भी पंक्ति बाह्य रूपों के बारे में या अवस्था की किसी किस्म के बारे में नहीं है, बाह्य नियमों के बारे में या लोगों के व्यवहार के किसी सरल रूप के बारे में तो बिल्कुल भी नहीं हैं। वे ऐसी नहीं हैं। अगर तुम परमेश्वर द्वारा कही गई हर पंक्ति को सिर्फ एक सामान्य प्रकार के इंसानी व्यवहार या बाह्य रूपका खुलासा मानते हो, तो फिर तुम्हारे अंदर आध्यात्मिक समझ नहीं है, और तुम नहीं समझते हो कि सत्य क्या है। परमेश्वर के वचन सत्य हैं। लोग परमेश्वर के वचनों की गहराई का एहसास कर सकते हैं। वे कैसे गहन होते हैं? परमेश्वर का हर वचन लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और उन अनिवार्य चीजों को उजागर करता है जो उसके जीवन के भीतर गहरी जड़ें जमाये हुए हैं। वे आवश्यक चीज़ें होती हैं, वे बाह्य रूप, विशेषकर बाह्य व्यवहार नहीं होते। लोगों को उनके बाहरी रूप से देखने पर, वे सभी अच्छे लोग लग सकते हैं। लेकिन फिर परमेश्वर क्यों कहता है कि कुछ लोग बुरी आत्माएं हैं और कुछ अशुद्ध आत्माएं हैं? यह एक ऐसा मामला है जो तुम्हें दिखाई नहीं देता है। इसलिए व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों को मानवीय धारणाओं या कल्पनाओं के आलोक में या मनुष्यों की सुनी-सुनाई बातों के आलोक में नहीं लेना चाहिए, और सत्तारूढ़ पार्टी के बयानों के आलोक में तो निश्चित रूप से नहीं लेना चाहिए। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं; मनुष्य के सभी वचन मिथ्या हैं। इस तरह से सहभागिता करने के बाद, क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने रवैये में बदलाव का अनुभव किया है? बदलाव चाहे जितना भी छोटा या बड़ा हो, अगली बार जब तुम लोगों का न्याय और खुलासा करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़ोगे, तो तुम्हें कम से कम परमेश्वर के साथ तर्क करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। तुम्हें यह कहते हुए परमेश्वर के बारे में शिकायत करना बंद कर देना चाहिए, “परमेश्वर के प्रकाशन और न्याय के वचन बहुत कठोर हैं, मैं इस पृष्ठ को नहीं पढ़ने वाला। मैं इसे छोड़ दूँगा! मुझे आशीषों और वादों के बारे में पढ़ने के लिए कुछ खोजना चाहिए, ताकि कुछ सुख-शांति मिल सके।” तुम्हें अब परमेश्वर के वचनों को अपनी मर्जी से छाँट-छाँटकर नहीं पढ़ना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए; सिर्फ तभी तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को स्वच्छ किया जा सकता है, और सिर्फ तभी तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण का महत्व और उसके अनुसरण का मार्ग
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 559
तुम मानव प्रकृति को कैसे समझते हो? अपनी प्रकृति को समझने का वास्तविक अर्थ है अपनी आत्मा की गहराई में मौजूद चीजों का विश्लेषण करना; उन चीजों का विश्लेषण करना जो तुम्हारे जीवन में हैं उन शैतानी तर्क और शैतान के दृष्टिकोण का विश्लेषण करना जिनके अनुसार तुम जीते आ रहे हो—जो कि शैतान का जीवन है जो तुम जी रहे हो। केवल अपने आत्मा में गहरे मौजूद चीजों को बाहर निकाल कर ही तुम अपनी प्रकृति को समझ सकते हो। इन चीज़ों को कैसे निकाला जा सकता है? मात्र एक या दो मामलों द्वारा, उन्हें निकाला और विश्लेषित नहीं किया जा सकता। कई बार काम खत्म कर लेने के बाद भी तुम्हारे पास कोई समझ नहीं होती। थोड़ी-सी भी पहचान या समझ प्राप्त कर सकने में तीन या पाँच वर्ष लग सकते हैं। इसलिए, बहुत-सी परिस्थितियों में तुम्हें आत्म-चिंतन कर खुद को जानना चाहिए। कोई परिणाम देखने के लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार गहराई तक खोदना चाहिए और आत्म-विश्लेषण करना चाहिए। जैसे-जैसे सत्य की तुम्हारी समझ ज्यादा से ज्यादा गहरी होती जाएगी, तुम धीरे-धीरे अपने सार और प्रकृति को आत्म-मंथन एवं आत्मज्ञान द्वारा जान जाओगे।
अपनी प्रकृति जानने के लिए, तुम्हें कुछ चीजों के द्वारा इसकी समझ हासिल करनी चाहिए: सबसे पहले, तुम्हें इस बात की स्पष्ट समझ होनी चाहिए कि तुम्हें क्या पसंद है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि तुम क्या खाना या पहनना पसंद करते हो, बल्कि इसका मतलब है कि तुम किस तरह की चीजों का आनन्द लेते हो, किन चीजों से तुम ईर्ष्या करते हो, किन चीजों की तुम आराधना करते हो, किन चीजों की तुम्हें तलाश है, और किन चीजों की ओर तुम अपने हृदय में ध्यान देते हो, जिस प्रकार के लोगों के संपर्क में आने का तुम आनन्द लेते हो, और जिस प्रकार के लोगों को तुम पसंद करते हो और अपना आदर्श मानते हो। उदाहरण के लिए, ज्यादातर लोग ऐसे लोगों को पसंद करते हैं जो महान हों, जो अपनी बोल-चाल में शानदार हों, या ऐसे हों जो वाक्पटु चापलूसी से बात करते हों या कुछ लोग ऐसे व्यक्तियों को पसंद करते हैं जो एक ढोंग करते हैं। यह पूर्वोक्त उस बारे में है कि वे कैसे लोगों के साथ बातचीत करना पसंद करते हैं। जहाँ तक लोग जिन चीजों को पसंद करते हैं इस बात का प्रश्न है, इसमें शामिल है कुछ चीजों को करने के लिए तैयार होना जिन्हें करना आसान है, उन चीजों को करने का आनन्द लेना जिन्हें दूसरे अच्छा मानते हैं, और जिनके कारण लोगों की प्रशंसा और सराहनाएँ मिलेंगी। लोगों की प्रकृति में, जिन चीजों को वे पसंद करते हैं, उनकी एक जैसी विशिष्टता होती है। अर्थात, वे उन लोगों, घटनाओं, और चीजों को पसंद करते हैं जिनके बाहरी दिखावे की वजह से अन्य लोग उनसे ईर्ष्या करते हैं, वे उन लोगों, घटनाओं और चीजों को पसंद करते हैं जो सुंदर और शानदार दिखते हैं, और वे उन लोगों, घटनाओं और चीज़ों को पसंद करते हैं जो लोगों से अपनी आराधना करवाते हैं। ये चीजें जिन्हें लोग अत्यधिक पसंद करते हैं वे बढ़िया, चमकदार, भव्य और आलीशान होती हैं। सभी लोग इन चीज़ों की आराधना करते हैं। यह देखा जा सकता है कि लोगों में कोई सच्चाई नहीं होती है, न ही उनमें वास्तविक मानव की सदृशता होती है। इन चीज़ों की आराधना करने का लेशमात्र भी महत्व नहीं है, मगर लोग तब भी इन चीजों को पसंद करते हैं। ये चीजें, जिन्हें लोग पसंद करते हैं, उन लोगों को विशेष रूप से अच्छी लगती प्रतीत होती हैं, जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, और ये वही चीजें होती हैं लोग जिनका विशेष रूप से अनुसरण करने के इच्छुक होते हैं। ... जिन चीजों का लोग अनुसरण और लालसा करते हैं, वे सांसारिक प्रवृत्तियों से संबंधित होती हैं, ये चीजें शैतान और दुष्टों की होती हैं, परमेश्वर उनसे घृणा करता है, वे सत्य से रहित होती हैं। जिन चीजों के लिए लोग तरसते हैं, वे उनकी प्रकृति और सार का पता लगाने की अनुमति देती हैं। लोगों की पसंद उनके कपड़े पहनने के तरीके में देखी जा सकती है। कुछ लोग ध्यान खींचने वाले, रंगीन कपड़े या विचित्र पोशाक पहनने के इच्छुक होते हैं। वे ऐसी चीजें पहनने को तैयार होते हैं जो पहले किसी और ने नहीं पहनी होतीं, और वे ऐसी चीजें पसंद करते हैं जो विपरीत लिंग को आकर्षित कर सकें। उनका ये कपड़े और चीजें पहनना उनके जीवन और दिल की गहराइयों में इन चीजों के लिए उनकी प्राथमिकता दर्शाता है। जो चीजें वे पसंद करते हैं, वे गरिमापूर्ण या शालीन नहीं होतीं। वे सामान्य व्यक्ति द्वारा पसंद की जाने वाली चीजें नहीं होतीं। इन चीजों के लिए उनके लगाव में अधार्मिकता है। उनका दृष्टिकोण बिल्कुल वैसा ही है, जैसा सांसारिक लोगों का होता है। व्यक्ति उनमें ऐसा कुछ भी नहीं देख पाता जिनमें सत्य से जरा भी कोई सामंजस्य हो। इसलिए, तुम क्या पसंद करते हो, तुम किस पर ध्यान केंद्रित करते हो, तुम किसकी आराधना करते हो, तुम किसकी ईर्ष्या करते हो, और रोज तुम अपने दिल में क्या सोचते हो, ये सब तुम्हारी अपनी प्रकृति का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन सांसारिक चीजों से तुम्हारा अनुराग यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि तुम्हारी प्रकृति अधार्मिकता की शौकीन है, और गंभीर परिस्थितियों में, तुम्हारी प्रकृति बुरी और असाध्य है। तुम्हें इस तरह अपनी प्रकृति का विश्लेषण करना चाहिए; यह जाँचो कि तुम क्या पसंद करते हो और तुम अपने जीवन में क्या त्यागते हो। शायद तुम कुछ समय के लिए किसी के प्रति अच्छे हो, लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि तुम उन के चाहने वाले हो। जिसके तुम वाकई शौकीन हो, वह ठीक वो है जो तुम्हारी प्रकृति में है; भले ही तुम्हारी हड्डियाँ टूट गयी हों, तुम फिर भी उसका आनंद लोगे और कभी भी इसे त्याग नहीं पाओगे। इसे बदलना आसान नहीं है। उदाहरण के लिए एक साथी को ढूँढने की बात लो, लोग अपने जैसे लोगों की ही तलाश करते हैं। यदि कोई महिला वास्तव में किसी के प्यार में पड़ जाए, तो कोई भी उसे रोक नहीं पाएगा। यहाँ तक कि अगर उसकी टांग भी तोड़ दी जाये, तब भी वह उसके साथ ही रहना चाहेगी; अगर उसे उसके साथ विवाह करने का अर्थ उस महिला की मृत्यु हो तो भी वह विवाह करना चाहेगी। यह कैसे हो सकता है? इसका कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति उसे नहीं बदल सकता जो लोगों की हड्डियों में होता है, जो उनके दिल में होता है। यहाँ तक कि अगर कोई मर भी जाए, तो भी उसकी आत्मा बस वही चीजें ले जाएगी; ये चीजें मानव प्रकृति की हैं, और वे किसी व्यक्ति के सार का प्रतिनिधित्व करती हैं। लोग जिन चीज़ों के शौकीन होते हैं, उनमें कुछ अधार्मिकता होती है। कुछ लोग उन चीजों के अपने शौक में स्पष्ट होते हैं और कुछ नहीं होते; कुछ तो उन्हें अत्यधिक पसंद करते हैं और कुछ नहीं करते; कुछ लोगों में आत्म-नियंत्रण होता है और कुछ स्वयं को नियंत्रित नहीं कर पाते। कुछ लोग अंधकारपूर्ण और बुरी चीजों में डूबने के आदी होते हैं, जिससे साबित होता है कि उनके पास जीवन नहीं है। कुछ लोग देह के प्रलोभनों पर विजय पा सकते हैं और उन चीजों के वशीभूत या उनसे विवश नहीं होते, जो साबित करता है कि उनका थोड़ा आध्यात्मिक कद है और उनके स्वभाव में थोड़ा बदलाव आया है। कुछ लोग कुछ सत्य समझते हैं और महसूस करते हैं कि उनके पास जीवन है और वे परमेश्वर से प्यार करते हैं, लेकिन असल में, यह अभी भी बहुत जल्दी है, और अपने स्वभाव को बदलना कोई आसान बात नहीं है। क्या किसी व्यक्ति की प्रकृति और सार को समझना आसान है? यदि कोई थोड़ा-बहुत समझता भी है, तो उस समझ को हासिल करने के लिए उस व्यक्ति को बहुत सारे घुमावदार रास्तों से गुजरना पड़ेगा और थोड़ी-बहुत समझ हो भी तो, बदलाव लाना आसान नहीं है। लोगों को इन तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, और जब तक सत्य के अनुसरण की इच्छाशक्ति न हो, लोग खुद को नहीं जान सकते। तुम्हारे इर्द-गिर्द लोग, मामले या चीजें चाहे कैसे भी बदलें, और चाहे दुनिया कैसे भी उलट-पुलट हो जाए, अगर सत्य तुम्हारा भीतर से मार्गदर्शन कर रहा है, यदि उसने तुम्हारे भीतर जड़ें जमा ली हैं और परमेश्वर के वचन तुम्हारे जीवन, प्राथमिकताओं, अनुभवों और अस्तित्व का मार्गदर्शन करते हैं, तो उस बिंदु पर तुम वास्तव में बदल गए होगे। वर्तमान में, लोगों का तथाकथित रूपांतरण केवल थोड़ा सहयोग करना, बेमन से काट-छाँट और निपटारा किए जाने को स्वीकारना, सक्रियता से अपने कर्तव्यों को निभाना और थोड़े उत्साह और विश्वास का होना है, लेकिन इसे स्वभावगत रूपांतरण नहीं माना जा सकता और इससे यह साबित नहीं होता कि लोगों के पास जीवन है। ये सिर्फ लोगों की प्राथमिकताएँ और प्रवृत्तियाँ हैं—और कुछ नहीं।
अपनी प्रकृति में लोग जिन चीजों को पसंद करते हैं, उन्हें उजागर करने के अलावा, प्रकृति की समझ के स्तर तक पहुँचने के लिए, उनकी प्रकृति से संबंधित अनेक बेहद महत्वपूर्ण पहलुओं को भी उजागर करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, चीजों पर लोगों के दृष्टिकोण, लोगों के तरीके और जीवन के लक्ष्य, लोगों के जीवन के मूल्य और जीवन पर दृष्टिकोण, साथ ही सत्य से संबंधित सभी चीजों पर उनके नजरिए और विचार। ये सभी चीजें लोगों की आत्मा के भीतर गहरी समाई हुई हैं और स्वभाव में परिवर्तन के साथ उनका एक सीधा संबंध है। तो फिर, भ्रष्ट मानवजाति का जीवन को लेकर क्या दृष्टिकोण है? इसे इस तरह कहा जा सकता है : “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।” सभी लोग अपने लिए जीते हैं; अधिक स्पष्टता से कहें तो, वे देह-सुख के लिए जी रहे हैं। वे केवल अपने मुँह में भोजन डालने के लिए जीते हैं। उनका यह अस्तित्व जानवरों के अस्तित्व से किस तरह भिन्न है? इस तरह जीने का कोई मूल्य नहीं है, उसका कोई अर्थ होने की तो बात ही छोड़ दो। व्यक्ति के जीवन का दृष्टिकोण इस बारे में होता है कि दुनिया में जीने के लिए तुम किस पर भरोसा करते हो, तुम किसके लिए जीते हो, और किस तरह जीते हो—और इन सभी चीजों का मानव-प्रकृति के सार से लेना-देना है। लोगों की प्रकृति का विश्लेषण करके तुम देखोगे कि सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं। वे सभी शैतान हैं और वास्तव में कोई भी अच्छा व्यक्ति नहीं है। केवल लोगों की प्रकृति का विश्लेषण करके ही तुम वास्तव में मनुष्य की भ्रष्टता और सार को जान सकते हो और समझ सकते हो कि लोग वास्तव में किससे संबंध रखते हैं, उनमें वास्तव में क्या कमी है, उन्हें किस चीज से लैस होना चाहिए, और उन्हें मानवीय सदृशता को कैसे जीना चाहिए। व्यक्ति की प्रकृति का वास्तव में विश्लेषण कर पाना आसान नहीं है, और वह परमेश्वर के वचनों का अनुभव किए बिना या वास्तविक अनुभव प्राप्त किए बिना नहीं किया जा सकता।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 560
किसी की प्रकृति को कैसे जानें? किसी व्यक्ति की प्रकृति किन चीजों से मिलकर बनती है? तुम केवल मनुष्य की कमियों, दोषों, इरादों, धारणाओं, नकारात्मकता और अवज्ञा के बारे में जानते हो, लेकिन तुम मनुष्य की प्रकृति के भीतर की चीज़ों को नहीं जान पाते। उसके उद्भव को जानने में समर्थ हुए बिना तुम केवल उसकी बाहरी परत को जानते हो, और इससे मनुष्य की प्रकृति का ज्ञान नहीं होता। कुछ लोग अपनी कमियाँ और नकारात्मकताएँ स्वीकारते हैं और कहते हैं, “मैं अपनी प्रकृति समझता हूँ। देखो, मैं अपने अहंकार को स्वीकारता हूँ। क्या यह मेरा अपनी प्रकृति को जानना नहीं है?” अहंकार मनुष्य की प्रकृति का एक अंग है; यह सत्य है। लेकिन इसे केवल सैद्धांतिक अर्थ में स्वीकारना पर्याप्त नहीं है। अपने स्वयं के स्वभाव को समझना क्या है? इसे कैसे जाना जा सकता है? किन पहलुओं से इसे जाना जा सकता है? एक व्यक्ति जिन चीज़ों को प्रकट करता है, उसके माध्यम से किसी की प्रकृति को विशिष्ट रूप से कैसे देखा जाना चाहिए? सबसे पहले, तुम व्यक्ति की प्रकृति को उसकी रुचियों के माध्यम से देख सकते हो। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों में मशहूर और विशिष्ट लोगों के लिए विशेष श्रद्धा होती है, कुछ लोगों को विशेष रूप से गायक या फ़िल्मी सितारे पसंद हैं, कुछ लोगों को गेम खेलने का विशेष शौक होता है। इन रुचियों से हम देख सकते हैं कि इन लोगों की प्रकृति क्या है। एक सरल उदाहरण है : कुछ लोग किसी गायक को आदर्श मान सकते हैं। वे किस हद तक उन्हें आदर्श मानते हैं? इस हद तक कि वे उस गायक की हर हरकत, मुस्कान और शब्द के प्रति आसक्त हो जाते हैं। वे उस गायक पर फिदा हो जाते हैं, यहाँ तक कि हर उस चीज़ की तस्वीर खींचते हैं जो वह पहनता है, और उसकी नक़ल करते हैं। इस स्तर का आदर्शीकरण इस व्यक्ति के बारे में किस समस्या को दर्शाता है? यह दर्शाता है कि ऐसे व्यक्ति के हृदय में केवल अविश्वासी चीज़ें हैं, उसमें सत्य नहीं है, उसमें सकारात्मक चीजें नहीं है, और परमेश्वर तो उसके हृदय में बिल्कुल नहीं है। वे सभी चीजें, जिनके बारे में यह व्यक्ति सोचता है, जिनसे प्यार करता है और जिन्हें खोजता है, शैतान की होती हैं। ये चीजें इस व्यक्ति के हृदय पर कब्ज़ा कर लेती हैं, जो उन चीज़ों को अर्पित कर दिया जाता है। क्या तुम लोग बता सकते हो कि उसका सार और प्रकृति क्या है? अगर किसी चीज़ को चरम सीमा तक प्रेम किया जाता है, तो वह चीज़ किसी का जीवन बन सकती है और उसके हृदय पर कब्ज़ा कर सकती है, पूरी तरह से यह साबित करती है कि वह व्यक्ति एक मूर्ति पूजक है जो परमेश्वर को नहीं चाहता है और उसके बजाय शैतान से प्यार करता है। इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति की प्रकृति शैतान से प्रेम और उसकी आराधना करने वाली होती है, जो सत्य से प्रेम नहीं करती और परमेश्वर को नहीं चाहती। क्या यह किसी व्यक्ति की प्रकृति को देखने का सही तरीका नहीं है? यह पूरी तरह सही है। मनुष्य की प्रकृति का विश्लेषण इसी तरह किया जाता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जाकर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है कि लोग उन्हें सुनें, उनकी आराधना करें और उनके चारों ओर घूमें। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के दिलों में उनकी एक जगह हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें। उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिलों में एक जगह रखना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो। उदाहरण के लिए, कुछ लोग वाकई दूसरों की कीमत पर चीजों का अनुचित लाभ उठाना पसंद करते हैं और वे सभी मामलों में अपना ही हित साधना चाहते हैं। वे जो कुछ भी करें उससे उन्हें लाभ मिलना चाहिए, वरना वे उसे नहीं करेंगे। जब तक उन्हें किसी चीज में लाभ न मिलता हो, वे उस पर ध्यान नहीं देते हैं, और उनके कार्यों के पीछे हमेशा गुप्त उद्देश्य होते हैं। जो व्यक्ति उन्हें लाभ पहुँचाता है, वे उसकी प्रशंसा करते हैं, और जो कोई उनकी चापलूसी करता है, उसे वे बढ़ावा देते हैं। यहाँ तक कि अगर उनके पसंदीदा लोगों को समस्याएँ भी हों, तो भी वे कहेंगे कि वे लोग सही हैं, और उनका बचाव करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। इस तरह के व्यक्तियों का क्या स्वभाव होता है? तुम उनकी प्रकृति को इन व्यवहारों से साफ देख सकते हो। वे अपने कार्यों के माध्यम से अनुचित लाभ लेने का प्रयास करते हैं और हर स्थिति में लेन-देन के व्यवहार में संलग्न रहते हैं, इसलिए तुम यह निश्चित रूप से कह सकते हो कि उनका स्वभाव लाभ के लिए ललचाते रहना है। वे हर चीज में स्वयं के बारे में सोचते हैं। अगर उन्हें कोई लाभ नहीं होगा, तो वे जल्दी नहीं उठेंगे। वे लोगों में सबसे स्वार्थी होते हैं, और वे बेहद लालची होते हैं। उनकी प्रकृति धन से उनके प्रेम और सत्य से प्रेम के अभाव के जरिये प्रदर्शित होती है। कुछ लोग महिलाओं से मोहित रहते हैं, जहाँ कहीं वे जाती हैं उनके साथ घूमते-फिरते रहते हैं। सुंदर महिलाएं ऐसे व्यक्तियों की चाहत का लक्ष्य होती हैं और उनके दिल में उनके लिए अत्यधिक सम्मान होता है। वे सुंदर महिलाओं के लिए अपना जीवन देने और सब कुछ त्यागने के लिए तैयार रहते हैं। केवल महिलाएं ही उनके दिल में रहती हैं। ऐसे पुरुषों का क्या स्वभाव होता है? उनका स्वभाव है सुंदर महिलाओं से प्रेम करना, उनकी पूजा करना और बुराई से प्रेम करना। वे बुरे, लालची स्वभाव वाले अय्याश व्यक्ति होते हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि यह प्रकृति है? उनके कृत्य एक लालची स्वभाव प्रकट करते हैं। ये व्यवहार केवल कभी-कभी किए जाने वाले अपराध नहीं होते, न ही ऐसे लोग केवल सामान्य लोगों से थोड़े ज्यादा बुरे होते हैं, बल्कि उनका दिल पहले से ही इन चीजों से पूरी तरह से भरा होता है, जो उनका स्वभाव, उनका सार बन जाती हैं। इस प्रकार, ये चीजें उनके स्वभाव की अभिव्यक्तियां बन जाती हैं। व्यक्ति की प्रकृति के घटक लगातार प्रकट होते रहते हैं। कोई व्यक्ति चाहे कुछ भी करे, उससे उस व्यक्ति का स्वभाव प्रकट हो सकता है। लोगों के कुछ भी करने के अपने मंतव्य और उद्देश्य होते हैं, चाहे वह आतिथ्य प्रदान करना हो, सुसमाचार का प्रचार करना हो, या किसी भी अन्य तरह का कार्य हो, वे अनजाने में अपने स्वभाव के कुछ हिस्सों को प्रकट कर सकते हैं, क्योंकि व्यक्ति की प्रकृति उसका जीवन होती है, और लोग जब तक जीवित रहते हैं, तब तक अपने स्वभाव के अनुसार चलते रहते हैं। व्यक्ति की प्रकृति केवल कुछ अवसरों पर या संयोग से प्रकट नहीं होती; बल्कि, यह पूरी तरह से व्यक्ति के सार का प्रतिनिधित्व कर सकता है। जो भी व्यक्ति की हड्डियों और रक्त के भीतर से बहता है, वह उसकी प्रकृति और जीवन का द्योतक होता है। कुछ लोगों को सुंदर महिलाएं पसंद होती हैं। कुछ लोग पैसे से प्रेम करते हैं। कुछ लोगों को हैसियत से विशेष प्रेम होता है। कुछ विशेष रूप से प्रतिष्ठा और व्यक्तिगत छवि को मूल्यवान समझते हैं। कुछ विशेष रूप से अपने आदर्श नायक-नायिकाओं से प्रेम करते हैं या उनकी आराधना करते हैं। और कुछ लोग, विशेष रूप से अहंकारी और दंभी होते हैं, वे अपने दिल में किसी को स्थान नहीं देते और ऊँची हैसियत प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, वे दूसरों से अलग दिखना चाहते हैं और उन पर अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं। विभिन्न प्रकार की प्रकृतियाँ होती हैं। वे लोगों में भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, लेकिन उनके साझे तत्व परमेश्वर का प्रतिरोध और उससे विश्वासघात है। इस मामले में वे सभी समान हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 561
सारी मानवजाति शैतान द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी है, और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना मनुष्य का स्वभाव है। किंतु, शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए सभी मनुष्यों में कुछ ऐसे भी हैं, जो परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित हो सकते हैं और सत्य स्वीकार कर सकते हैं। ये वे लोग हैं जो सत्य प्राप्त कर सकते हैं और अपने स्वभाव में परिवर्तन कर सकते हैं। कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बस बहाव में बहते रहते हैं। वे तुम्हारी आज्ञा मानेंगे और जो कुछ भी करने को कहोगे, वे करेंगे, वे चीजें त्याग सकते हैं और खुद को खपा सकते हैं, और वे हर तरह की पीड़ा सह सकते हैं। ऐसे लोगों में थोड़ा जमीर और विवेक होता है, और उन्हें बचाए जाने और जीवित रहने की आशा होती है, लेकिन उनका स्वभाव नहीं बदल सकता क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और वे केवल सिद्धांत समझने से ही संतुष्ट रहते हैं। वे जमीर का उल्लंघन करने वाली बातें नहीं कहते या करते, वे ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं, और किसी भी समस्या के बारे में सत्य पर संगति स्वीकार सकते हैं। लेकिन वे सत्य खोजने के गंभीर प्रयास नहीं करते, उनका दिमाग भ्रमित होता है और वे कभी भी सत्य के सार को नहीं समझ सकते। उनके स्वभाव को बदलना असंभव होता है। अगर तुम भ्रष्टता से स्वच्छ होना चाहते हो और अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव से गुजरते हो, तो तुममें सत्य के लिए प्रेम करने और सत्य को स्वीकार करने की योग्यता होनी चाहिए। सत्य स्वीकार करने का क्या अर्थ है? सत्य स्वीकारने का यह अर्थ है कि चाहे तुममें किसी भी प्रकार का भ्रष्टाचारी स्वभाव हो या बड़े लाल अजगर के जो विष—शैतान के विष—तुम्हारी प्रकृति में हों जब परमेश्वर के वचन इन चीजों को उजागर करते हैं, तो तुम्हें उन्हें स्वीकारना और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए, तुम कोई और विकल्प नहीं चुन सकते, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को जानना चाहिए। इसका मतलब है परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकारने में सक्षम होना। चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे, चाहे उसके कथन कितने भी कठोर हों, चाहे वह किन्हीं भी वचनों का उपयोग करे, तुम इन्हें तब तक स्वीकार कर सकते हो जब तक कि वह जो भी कहता है वह सत्य है, और तुम इन्हें तब तक स्वीकार कर सकते हो जब तक कि वे वास्तविकता के अनुरूप हैं। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम परमेश्वर के वचनों को कितनी गहराई से समझते हो, तुम इनके प्रति समर्पित हो सकते हो, तुम उस रोशनी को स्वीकार कर सकते हो और उसके प्रति समर्पित हो सकते हो जो पवित्र आत्मा द्वारा प्रकट की गयी है और जिसकी तुम्हारे भाई-बहनों द्वारा सहभागिता की गयी है। जब ऐसा व्यक्ति सत्य का अनुसरण एक निश्चित बिंदु तक कर लेता है, तो वह सत्य को प्राप्त कर सकता है और अपने स्वभाव के रूपान्तरण को प्राप्त कर सकता है। अगर सत्य से प्रेम न करने वाले लोगों में थोड़ी-बहुत इंसानियत है, वे नेक कार्य कर सकते हैं, देह-सुख त्यागकर परमेश्वर के लिए खुद को खपा सकते हैं, पर वे सत्य को लेकर भ्रमित हैं और उसे गंभीरता से नहीं लेते, तो उनका स्वभाव कभी नहीं बदलता। तुम देख सकते हो कि पतरस में भी अन्य शिष्यों जैसी ही इंसानियत थी, लेकिन सत्य के अपने उत्कट अनुसरण में वह दूसरों से अलग था। यीशु ने चाहे जो भी कहा, उसने उस पर गंभीरता से चिंतन किया। यीशु ने पूछा, “हे शमौन, योना के पुत्र, क्या तुम मुझसे प्रेम करते हो?” पतरस ने ईमानदारी से उत्तर दिया, “मैं केवल उस पिता से प्रेम करता हूँ जो स्वर्ग में है, अभी तक मैंने पृथ्वी के प्रभु से प्रेम नहीं किया है।” बाद में उसने समझा, यह सोचते हुए, “यह सही नहीं है, पृथ्वी का परमेश्वर स्वर्ग का परमेश्वर है। क्या स्वर्ग और पृथ्वी दोनों का परमेश्वर एक ही नहीं है? अगर मैं केवल स्वर्ग के परमेश्वर से प्रेम करता हूँ, तो मेरा प्रेम वास्तविक नहीं है। मुझे पृथ्वी के परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए, तभी मेरा प्रेम वास्तविक होगा।” इस प्रकार, पतरस ने यीशु के वचनों से परमेश्वर के वचनों का सच्चा अर्थ जाना। परमेश्वर से प्रेम करने के लिए, और इस प्रेम के वास्तविक होने के लिए, व्यक्ति को पृथ्वी पर देहधारी परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए। किसी अज्ञात और अदृश्य परमेश्वर से प्रेम करना न तो यथार्थपरक है और न ही व्यावहारिक, जबकि व्यावहारिक, दृश्यमान परमेश्वर से प्रेम करना सत्य है। यीशु के वचनों से पतरस ने सत्य को हासिल किया और परमेश्वर की इच्छा की समझ प्राप्त की। स्पष्टतः, पतरस का परमेश्वर में विश्वास केवल सत्य की तलाश पर केंद्रित था। अंततः, उसने व्यावहारिक परमेश्वर का प्रेम प्राप्त किया—पृथ्वी के परमेश्वर का। सत्य की तलाश में पतरस विशेष रूप से ईमानदार था। जब भी यीशु ने उसे सलाह दी, उसने उत्साहपूर्वक यीशु के वचनों पर चिंतन किया। शायद पवित्र आत्मा द्वारा उसे प्रबुद्ध किए जाने और उससे परमेश्वर के वचनों का सार समझ पाने से पहले उसने महीनों, एक वर्ष, यहाँ तक कि वर्षों तक चिंतन किया। इस तरह, पतरस ने सत्य में प्रवेश किया, और जब उसने ऐसा किया, तो उसके जीवन के स्वभाव का रूपांतरण और नवीनीकरण हुआ। अगर कोई व्यक्ति सत्य की तलाश नहीं करता, तो वह इसे कभी नहीं समझेगा। तुम शब्दों और सिद्धांतों पर दस हजार बार बोल सकते हो, लेकिन वे फिर भी केवल शब्द और सिद्धांत ही रहेंगे। कुछ लोग बस यही कहते हैं, “मसीह सत्य, मार्ग और जीवन है।” अगर तुम इन शब्दों को दस हजार बार भी दोहराते हो, तो भी यह व्यर्थ होगा; तुम्हें उसके अर्थ की कोई समझ नहीं है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि मसीह सत्य, मार्ग और जीवन है? क्या तुम इसके बारे में अनुभव से प्राप्त ज्ञान को साफ़-साफ़ बता सकते हो? क्या तुमने सत्य, मार्ग और जीवन की वास्तविकता में प्रवेश किया है? परमेश्वर ने अपने वचन इसलिए बोले हैं, ताकि तुम उन्हें अनुभव कर सको और ज्ञान प्राप्त कर सको। केवल शब्दों और सिद्धांतों पर बोलना बेकार है। परमेश्वर के वचनों को समझने और उनमें प्रवेश करने के बाद ही तुम स्वयं को जान सकते हो। यदि तुम परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते, तो तुम स्वयं को नहीं जान सकते। तुम केवल तभी विवेक प्राप्त सकते हो जब तुम सत्य समझते हो। सत्य समझे बिना तुम परखने में असमर्थ रहते हो। तुम मामलों को पूरी तरह से तभी समझ सकते हो, जब तुम्हें सत्य की समझ हो। सत्य समझे बिना तुम मामलों को साफ तौर पर नहीं समझ सकते। सत्य की समझ होने पर ही तुम स्वयं को जान सकते हो। सत्य समझे बिना तुम स्वयं को नहीं जान सकते। सत्य की समझ होने पर ही तुम्हारा स्वभाव बदल सकता है। सत्य के बिना तुम्हारा स्वभाव नहीं बदल सकता। तुम्हारे पास सत्य होने पर ही तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप सेवा कर सकते हो। सत्य प्राप्त किए बिना तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप सेवा नहीं कर सकते। सत्य की समझ होने पर ही तुम परमेश्वर की आराधना कर सकते हो। सत्य समझे बिना, भले ही तुम उसकी आराधना करो, तुम्हारी आराधना धार्मिक कर्म-कांडों के आयोजन से ज्यादा कुछ नहीं होगी। सत्य के बिना तुम जो कुछ भी करते हो, वह वास्तविक नहीं होता। सत्य प्राप्त करने से, तुम जो कुछ भी करते हो, वह वास्तविक होता है। ये सभी चीज़ें परमेश्वर के वचनों से सत्य प्राप्त करने पर निर्भर हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 562
परमेश्वर के वचनों की सच्ची समझ पाना कोई सरल बात नहीं है। इस तरह मत सोच : “मैं परमेश्वर के वचनों के शाब्दिक अर्थ की व्याख्या कर सकता हूँ, और हर कोई मेरी व्याख्या को अच्छा कहता है और मुझे शाबाशी देता है, तो इसका अर्थ है कि मैं परमेश्वर के वचनों को समझता हूँ।” यह परमेश्वर के वचनों को समझने के समान नहीं है। यदि तूने परमेश्वर के कथनों के भीतर से कुछ प्रकाश प्राप्त किया है और तूने उसके वचनों के वास्तविक अर्थ को महसूस किया है, यदि तू उसके वचनों के पीछे के इरादे को और वे अंततः जो प्रभाव प्राप्त करेंगे, उसको व्यक्त कर सकता है, अगर तुम्हें इन सब बातों की स्पष्ट समझ हो, तो यह माना जा सकता है कि तुम्हारे पास कुछ अंश तक परमेश्वर के वचनों की समझ है। इस प्रकार, परमेश्वर के वचनों को समझना इतना आसान नहीं है। सिर्फ इसलिए कि तू परमेश्वर के वचनों के शाब्दिक अर्थ की एक लच्छेदार व्याख्या दे सकता है, इसका यह अर्थ नहीं है कि तू इन्हें समझता है। तू चाहे उनके शाब्दिक अर्थ की व्याख्या कर पाये, तेरी व्याख्या तब भी मनुष्य की कल्पना और मनुष्य के सोचने के तरीके पर आधारित होगी। यह बेकार है! तुम परमेश्वर के वचनों को कैसे समझ सकते हो? मुख्य बात है उनके भीतर से सत्य खोजना। केवल इसी तरह तुम परमेश्वर के वचनों को सच में समझ सकते हो। परमेश्वर कभी भी खोखले शब्द नहीं बोलता। उसके द्वारा कथित प्रत्येक वाक्य के भीतर ऐसे विवरण होते हैं जो उसके वचनों में निश्चित रूप से प्रकट किए जाने हैं, और वे अलग तरीके से व्यक्त किये जा सकते हैं। जिस तरीके से परमेश्वर सत्य को अभिव्यक्त करता है मनुष्य आसानी से उसकी थाह नहीं पा सकता। परमेश्वर के कथन बहुत गहरे हैं और उन्हें मनुष्य की सोच से आसानी से नहीं समझा जा सकता। अगर लोग प्रयास करें, तो वे सत्य के हर पहलू का लगभग पूरा अर्थ जान सकते हैं। शेष बचे विवरण उनके बाद के अनुभव के दौरान, पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता द्वारा भरे जाने हैं। एक हिस्सा है परमेश्वर के वचनों पर चिंतन कर उन्हें समझना, उन्हें पढ़कर उनकी विशिष्ट विषयवस्तु खोजना। दूसरा हिस्सा अनुभव करके और पवित्र आत्मा से प्रबोधन प्राप्त करके परमेश्वर के वचनों के अर्थ को समझना है। इन दो पहलुओं में निरंतर प्रगति से, तुम परमेश्वर के वचनों को समझ सकते हो। यदि तुम इनका शाब्दिक अर्थ निकालोगे या अपनी सोच और कल्पनाओं से व्याख्या करोगे, तो आलंकारिक रूप से और वाक्पटुता से व्याख्या करने पर भी, तुम सत्य नहीं समझते, और यह अब भी मानवीय सोच और कल्पनाओं पर ही आधारित होगा। यह पवित्र आत्मा के प्रबोधन से प्राप्त नहीं हुआ है। लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर के वचनों की व्याख्या करने की ओर प्रवृत्त रहते हैं, वे परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या भी कर सकते हैं, जिससे उनके परमेश्वर को गलत समझकर उसकी आलोचना करने की संभावना होती है, और यह कष्टप्रद है। इसलिए, सत्य मुख्यत: परमेश्वर के वचनों को समझने और पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध किए जाने से प्राप्त होता है। परमेश्वर के वचनों का शाब्दिक अर्थ समझकर उसकी व्याख्या करने का मतलब यह नहीं कि तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है। अगर परमेश्वर के वचनों का शाब्दिक अर्थ समझने का मतलब यह हो कि तुमने सत्य समझ लिया है, तो तुम्हारे लिए केवल थोड़ी-बहुत शिक्षा और ज्ञान ही काफी है, फिर तुम्हें पवित्र आत्मा के प्रबोधन की क्या आवश्यकता है? क्या परमेश्वर के कार्य को इंसानी दिमाग समझ सकता है? इसलिए, सत्य समझना मानवीय धारणाओं या कल्पनाओं पर आधारित नहीं है। वास्तविक अनुभव और ज्ञान प्राप्त करने के लिए तुम्हें पवित्र आत्मा के प्रबोधन, प्रकाशन और मार्गदर्शन की आवश्यकता है। यह सत्य समझने और प्राप्त करने की प्रक्रिया है और यह एक आवश्यक शर्त भी है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 563
मनुष्य की प्रकृति को कैसे पहचानते हैं? सबसे महत्वपूर्ण बात इसे मनुष्य की विश्वदृष्टि, जीवन के दृष्टिकोण और मूल्यों के परिप्रेक्ष्य से समझना है। जो लोग शैतान के हैं वे स्वयं के लिए जीते हैं। उनके जीवन के दृष्टिकोण और सिद्धांत मुख्यत: शैतान की कहावतों से आते हैं, जैसे कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये”, “मनुष्य धन के लिए मरता है, जैसे पक्षी भोजन के लिए मरते हैं,” और ऐसी अन्य भ्रांतियाँ। उन पिशाच राजाओं, महान लोगों और दार्शनिकों द्वारा बोले गए ये सभी वचन मनुष्य का जीवन बन गए हैं। विशेष रूप से, कन्फ़्यूशियस, जिसे चीनी लोगों द्वारा “ऋषि” के रूप में प्रचारित किया जाता है, के अधिकांश वचन, मनुष्य का जीवन बन गए हैं। बौद्ध धर्म और ताओवाद की मशहूर कहावतें, और प्रसिद्ध व्यक्तियों की अक्सर उद्धृत की गई विशेष कहावते हैं। ये सभी शैतान के फ़लसफों और शैतान की प्रकृति के जोड़ हैं। वे शैतान की प्रकृति के सबसे अच्छे उदाहरण और स्पष्टीकरण भी हैं। ये विष, जिन्हें मनुष्य के हृदय में डाल दिया गया है, सब शैतान से आते हैं, और उनमें से छोटा-सा अंश भी परमेश्वर से नहीं आता है। ये शैतानी वचन भी परमेश्वर के वचन के बिल्कुल विरुद्ध हैं। यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि सभी सकारात्मक चीज़ों की वास्तविकता परमेश्वर से आती है, और सभी नकारात्मक चीजें जो मनुष्य में विष भरती हैं, वे शैतान से आती हैं। इसलिए, तुम किसी व्यक्ति की प्रकृति को और वह किससे संबंधित है इस बात को उसके जीवन के दृष्टिकोण और मूल्यों को देखकर जान सकते हो। शैतान राष्ट्रीय सरकारों और प्रसिद्ध एवं महान व्यक्तियों की शिक्षा और प्रभाव के माध्यम से लोगों को दूषित करता है। उनके शैतानी शब्द मनुष्य के जीवन और प्रकृति बन गए हैं। “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये” एक प्रसिद्ध शैतानी कहावत है जिसे हर किसी में डाल दिया गया है और यह मनुष्य का जीवन बन गया है। जीने के लिए दर्शन के कुछ अन्य शब्द भी हैं जो इसी तरह के हैं। शैतान प्रत्येक देश के लोगों को शिक्षित करने, धोखा देने और भ्रष्ट करने के लिए की पारंपरिक संस्कृति का इस्तेमाल करता है, और मानवजाति को विनाश की विशाल खाई में गिरने और उसके द्वारा निगल लिए जाने पर मजबूर कर देता है, और अंत में, परमेश्वर लोगों को नष्ट कर देता है क्योंकि वे शैतान की सेवा करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं। कुछ लोग समाज में कई वर्षों से लोक अधिकारी रहे हैं। उनसे यह प्रश्न पूछने की कल्पना करो : “तुमने इस पद पर रहते हुए इतना अच्छा काम किया है, ऐसी कौन-सी मुख्य प्रसिद्ध कहावतें हैं जिनके अनुसार तुम लोग जीते हो?” शायद वे कहें, “मैंने एक चीज जो समझी है, वह है कि ‘अधिकारी उपहार देने वालों के लिए मुश्किलें खड़ी नहीं करते, और जो चापलूसी नहीं करते हैं वे कुछ भी हासिल नहीं करते हैं।’” उनका करियर इसी शैतानी दर्शन पर आधारित है। क्या ये शब्द ऐसे लोगों की प्रकृति का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं? पद पाने के लिए अनैतिक साधनों का इस्तेमाल करना उसकी प्रकृति बन गयी है, अफसरशाही और करियर में सफलता उसके लक्ष्य हैं। अभी भी लोगों के जीवन, आचरण और व्यवहार में कई शैतानी विष उपस्थित हैं। उदाहरण के लिए, उनके जीवन दर्शन, काम करने के उनके तरीके, और उनकी सभी कहावतें बड़े लाल अजगर के विषों से भरी हैं, और ये सभी शैतान से आते हैं। इस प्रकार, लोगों की हड्डियों और रक्त से बहने वाली सभी चीजें शैतान की हैं। उन सभी अधिकारियों, सत्ताधारियों और प्रवीण लोगों के सफलता पाने के अपने ही मार्ग और रहस्य होते हैं, तो क्या ऐसे रहस्य उनकी प्रकृति का उत्तम रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं? वे दुनिया में कई बड़ी चीज़ें कर चुके हैं और उन के पीछे उनकी जो चालें और षड्यंत्र हैं उन्हें कोई समझ नहीं पाता है। यह दिखाता है कि उनकी प्रकृति आखिर कितनी कपटी और विषैली है। शैतान ने मनुष्य को गंभीर ढंग से दूषित कर दिया है। शैतान का विष हर व्यक्ति के रक्त में बहता है, और यह कहा जा सकता है कि मनुष्य की प्रकृति भ्रष्ट, बुरी, प्रतिरोधात्मक और परमेश्वर के विरोध में है, शैतान के दर्शन और विषों से भरी हुई और उनमें डूबी हुई है। यह पूरी तरह शैतान की प्रकृति और सार बन गया है। इसीलिए लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं और परमेश्वर के विरूद्ध खड़े रहते हैं। अगर इस तरह मनुष्य की प्रकृति का विश्लेषण किया जा सके, तो वह आसानी से खुद को जान सकता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 564
आत्म-चिंतन और स्वयं को जानने की कुंजी है: जितना अधिक तुम महसूस करते हो कि तुमने किसी निश्चित क्षेत्र में अच्छा कर लिया है या सही चीज़ को कर लिया है, और जितना अधिक तुम सोचते हो कि तुम परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर सकते हो या तुम कुछ क्षेत्रों में शेखी बघारने में सक्षम हो, तो उतना ही अधिक उन क्षेत्रों में अपने आप को जानना तुम्हारे लिए उचित है, और यह देखने के लिए कि तुम में कौन सी अशुद्धियाँ हैं और साथ ही तुममें कौन सी चीजें परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट नहीं कर सकती हैं उतना ही अधिक उनमें गहन परिश्रम करना तुम्हारे लिए उचित है। आओ, एक उदाहरण के रूप में हम पौलुस को लें। पौलुस विशेष रूप से जानकार था, और प्रचार के अपने काम में उसने बहुत कष्ट उठाये थे। बहुत सारे लोगों ने उसका विशेष रूप से सम्मान किया। नतीजतन, बहुत सारा काम पूरा करने के बाद, उसने मान लिया था कि उसके लिए एक अलग मुकुट रखा होगा। इससे वह गलत राह पर बढ़ते-बढ़ते दूर चला गया, और अंत में उसे परमेश्वर ने दंडित किया। अगर उस समय, उसने खुद पर चिंतन किया होता और अपना विश्लेषण किया होता, तो उसने ऐसा नहीं सोचा होता। दूसरे शब्दों में, पौलुस ने प्रभु यीशु के वचनों में सत्य की खोज करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया था; उसे केवल अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर विश्वास था। उसने सोचा था कि जब तक वह कुछ अच्छा काम करेगा और कुछ अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन करेगा, तब तक परमेश्वर द्वारा उसकी प्रशंसा की जाएगी और उसे पुरस्कृत किया जाएगा। अंत में, उसकी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं ने उसकी आत्मा को अंधा बना दिया और उसकी भ्रष्टता की सच्चाई को ढंक दिया। पर लोग इसे भाँप नहीं सके, उन्हें इन मामलों का कुछ भी पता नहीं था, और इसलिए परमेश्वर द्वारा इसे प्रकाश में लाए जाने तक, वे पौलुस को एक मानक के रूप में स्थापित किए रहे और जीने के लिए एक उदाहरण मानते रहे, और उसे एक आदर्श लक्ष्य और एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखते रहे जैसे वे खुद भी बनने की कामना करते थे। पौलुस का मामला परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हरेक के लिए एक चेतावनी है। खासकर जब हम, परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोग, अपने कर्तव्यों में और परमेश्वर की सेवा करते हुए कष्ट उठा सकते हैं और मूल्य चुका सकते हैं, हमें लगता है कि हम परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हैं और उससे प्रेम करते हैं, इसलिए ऐसी घड़ी में, हमें अपने बारे में आत्म-चिंतन करना चाहिए और खासकर अपने चुने हुए रास्ते के संबंध में खुद को समझना चाहिए, जो कि बहुत जरूरी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम जिसे अच्छा समझते हो उसी को तुम सही मानोगे, और तुम इस पर संदेह नहीं करोगे, इस पर चिंतन-मनन नहीं करोगे, और यह विश्लेषण नहीं करोगे कि क्या इसमें कुछ ऐसा है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। उदाहरण के लिए, कुछ ऐसे लोग हैं जो खुद को बेहद दयालु मानते हैं। वे कभी दूसरों से नफ़रत या उनका नुकसान नहीं करते, और वे हमेशा ऐसे भाई या बहन की मदद करते हैं जिनका परिवार ज़रूरतमंद होता है, कि कहीं ऐसा न हो कि उनकी समस्या अनसुलझी रह जाये; उनके पास बहुत सद्भावना है, और वे हर किसी की मदद करने की भरसक कोशिश करते हैं। फिर भी वे कभी सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और उनका कोई जीवन-प्रवेश नहीं होता। ऐसी मदद का परिणाम क्या है? उन्होंने अपने जीवन को रोक रखा है, फिर भी वे खुद से काफी प्रसन्न हैं, और उस सबसे बेहद संतुष्ट हैं जो उन्होंने किया है। इतना ही नहीं, वे इसमें बहुत गर्व का अनुभव करते हैं, यह विश्वास करते हुए कि उन्होंने जो कुछ भी किया है, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो सत्य के विरुद्ध गया हो, और जो कुछ भी उन्होंने किया है, वह निश्चित रूप से परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए पर्याप्त है, और वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हैं। वे अपनी स्वाभाविक दयालुता को ऐसी वस्तु के रूप में देखते हैं, जिसका लाभ उठाया जा सकता है, और जैसे ही वे ऐसा करते हैं, वे अनिवार्य रूप से इसे सत्य समझने लगते हैं। वास्तव में, वे जो कुछ भी करते हैं, वह मानवीय भलाई है। वे सत्य का ज़रा भी अभ्यास नहीं करते, क्योंकि वे यह मनुष्य के सामने करते हैं, परमेश्वर के सामने नहीं, और वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य के अनुसार अभ्यास तो बिलकुल भी नहीं करते। इसलिए, उनका सब किया-धरा व्यर्थ हो जाता है। उनका कोई भी कार्य सत्य का अभ्यास नहीं है, और कोई भी कार्य परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं है, वे उसकी इच्छा का पालन तो बिलकुल भी नहीं करते; बल्कि वे मानवीय दया और अच्छे व्यवहार का उपयोग दूसरों की मदद करने के लिए करते हैं। संक्षेप में, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की इच्छा की तलाश नहीं करते, न ही वे उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करते हैं। परमेश्वर मनुष्य के ऐसे अच्छे व्यवहार की प्रशंसा नहीं करता, परमेश्वर के लिए यह निंदनीय है, और परमेश्वर द्वारा स्मरण किए जाने योग्य नहीं है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 565
स्वभाव में परिवर्तन को प्राप्त करने की कुंजी, अपने स्वयं के स्वभाव को जानना है, और यह अवश्य परमेश्वर से प्रकाशनों के अनुसार होना चाहिए। केवल परमेश्वर के वचन में ही कोई व्यक्ति अपने स्वयं के घृणास्पद स्वभाव को जान सकता है, अपने स्वभाव में शैतान के विभिन्न विषों को पहचान सकता है, जान सकता है कि वह मूर्ख और अज्ञानी है, और अपने स्वयं के स्वभाव में कमजोर और नकारात्मक तत्वों को पहचान सकता है। ये पूरी तरह से ज्ञात हो जाने के बाद, और तुम्हारे वास्तव में स्वयं से पूरी तरह से नफ़रत करने और शरीर से मुँह मोड़ने में सक्षम हो जाने पर, लगातार परमेश्वर के वचन का पालन करो, लगातार अपने कर्तव्य निभाते हुए सत्य का अनुसरण करो, अपने स्वभाव में बदलाव लाओ और परमेश्वर से प्रेम करने वाले इंसान बनो, तब तुम पतरस के मार्ग पर चलना शुरू कर चुके होगे। परमेश्वर के अनुग्रह के बिना, और पवित्र आत्मा से प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त किए बिना, इस मार्ग पर चलना मुश्किल होगा, क्योंकि लोगों के पास सत्य नहीं है और वे खुद को प्रकट कर देने में असमर्थ हैं। पतरस की पूर्णता के मार्ग पर चलना मुख्यतः संकल्पित होने, आस्था रखने और परमेश्वर पर भरोसा करने पर निर्भर है। इसके अलावा, व्यक्ति को पवित्र आत्मा के काम के प्रति समर्पित होना चाहिए; किसी भी चीज़ में व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के बिना नहीं चल सकता। ये वे प्रमुख पहलू हैं, जिनमें से किसी का भी उल्लंघन नहीं किया जा सकता। अनुभव के माध्यम से स्वयं को जान लेना बहुत कठिन है; पवित्र आत्मा के कार्य के बिना यह व्यर्थ है। पतरस के मार्ग पर चलने के लिए व्यक्ति को स्वयं को जानने और अपने स्वभाव को बदलने पर ध्यान केंद्रित करना होगा। पौलुस का मार्ग जीवन की तलाश या आत्म-बोध पर ध्यान केंद्रित करने का नहीं था; उसने विशेष रूप से काम करने और उसके प्रभाव और गति पर ध्यान केंद्रित किया। उसकी प्रेरणा थी अपने काम और अपनी पीड़ा के बदले परमेश्वर के आशीष प्राप्त करना और परमेश्वर से पुरस्कार प्राप्त करना। यह प्रेरणा गलत थी। पौलुस ने जीवन पर ध्यान केंद्रित नहीं किया, न ही उसने स्वभावगत परिवर्तन हासिल करने को कोई महत्व दिया; उसने केवल पुरस्कारों पर ध्यान केंद्रित किया। चूँकि उसके लक्ष्य गलत थे, इसलिए जिस रास्ते पर वह चला, वह भी निस्संदेह गलत था। यह उसकी अभिमानी और दंभी प्रकृति के कारण हुआ। स्पष्टतः, पौलुस के पास कोई सत्य नहीं था, न ही उसके पास कोई जमीर या विवेक था। लोगों को बचाने और बदलने में परमेश्वर मुख्य रूप से उनके स्वभाव बदलता है। उसके वचनों का उद्देश्य लोगों में रूपांतरित स्वभाव और परमेश्वर को जानने, उसके प्रति समर्पण करने और सामान्य तरीके से उसकी आराधना करने की क्षमता के परिणाम हासिल करना है। परमेश्वर के वचनों और उसके कार्य का यही उद्देश्य है। पौलुस की खोज का तरीका परमेश्वर की इच्छा के सीधे उल्लंघन और उसके साथ टकराव का था; यह पूरी तरह से उसके विरुद्ध जाता था। जबकि पतरस की तलाश का तरीका पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप था : उसने जीवन पर और स्वभाव में बदलाव लाने पर ध्यान दिया, जो ठीक वही परिणाम है, जिसे अपने कार्य से परमेश्वर इंसानों में हासिल करना चाहता है। इसलिए पतरस का मार्ग धन्य है और परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करता है। चूँकि पौलुस का मार्ग परमेश्वर की इच्छा का उल्लंघन है, इसलिए परमेश्वर उससे घृणा करता है और उसे शाप देता है। पतरस के मार्ग पर चलने के लिए व्यक्ति को परमेश्वर की इच्छा जाननी चाहिए। यदि कोई व्यक्ति सचमुच परमेश्वर के वचनों के माध्यम से उसकी इच्छा को पूरी तरह से समझने में सक्षम है—जिसका अर्थ यह समझना है कि परमेश्वर मनुष्य को क्या बनाना चाहता है और अंततः वह क्या परिणाम प्राप्त करना चाहता है—केवल तभी वह सटीक रूप से समझ सकता है कि किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। यदि तुम पतरस के मार्ग को पूरी तरह से नहीं समझते, और केवल उस पर चलने की इच्छा रखते हो, तो तुम उस पर नहीं चल पाओगे। दूसरे शब्दों में, हो सकता है तुम बहुत-से सिद्धांतों को जानते हो, लेकिन अंततः वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओगे। हालाँकि हो सकता है तुम सतही रूप से प्रवेश कर लो, लेकिन तुम कोई वास्तविक परिणाम प्राप्त करने में असमर्थ होगे।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 566
आजकल, ज़्यादातर लोगों की अपने बारे में समझ बहुत सतही है। वे उन चीज़ों को बिलकुल भी ठीक से नहीं जान पाये हैं जो उनकी प्रकृति का हिस्सा हैं। उन्हें सिर्फ़ स्वयं में उजागर होने वाली कुछ भ्रष्ट स्थितियों, अपने द्वारा की जाने वाली संभावित चीज़ों, या अपनी कुछ कमियों का ज्ञान है और इस वजह से उन्हें लगता है कि वे ख़ुद को जानते हैं। इसके अलावा, अगर वे कुछ नियमों का पालन करते हैं, कुछ क्षेत्रों में गलतियां न करना सुनिश्चित करते हैं, और कुछ पापों को करने से खुद को रोक लेते हैं, फिर तो वे मानने लगते हैं कि परमेश्वर में उनके विश्वास में उनके पास वास्तविकता है और उन्हें बचा लिया जाएगा। यह पूरी तरह से मानवीय कल्पना है। अगर तुम उन चीज़ों का पालन करते हो, तो क्या तुम सच में किसी भी पाप को करने से बच पाओगे? क्या तुमने सच में अपने स्वभाव में सच्चा बदलाव हासिल कर लिया होगा? क्या तुम सच में इंसान की समानता को जी पाओगे? क्या इस तरह तुम सच में परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे? बिल्कुल नहीं, और यह बात तय है। परमेश्वर में विश्वास तभी काम करता है जब किसी व्यक्ति के मानकों का स्तर ऊँचा हो और उसने सत्य को हासिल किया हो और उसके जीवन स्वभाव में कुछ परिवर्तन आया हो। इसमें पहले खुद को जानने की लगन चाहिए। यदि लोगों का स्वयं के बारे में ज्ञान बहुत उथला है, तो समस्याओं को हल करना उनके लिए असंभव होगा, और उसका जीवन स्वभाव नहीं बदलेगा। स्वयं को एक गहरे स्तर पर जानना आवश्यक है, जिसका अर्थ है कि अपनी स्वयं की प्रकृति को जानना : उस प्रकृति में कौन से तत्व शामिल हैं, ये कैसे पैदा हुए और वे कहाँ से आये। इसके अलावा, क्या तुम इन चीजों से वास्तव में घृणा कर पाते हो? क्या तुमने अपनी स्वयं की कुरूप आत्मा और अपनी बुरी प्रकृति को देखा है? यदि तुम सच में सही अर्थों में स्वयं के बारे में सत्य को देख पाओगे, तो तुम स्वयं से घृणा करोगे। जब तुम स्वयं से घृणा करते हो और फिर परमेश्वर के वचन का अभ्यास करते हो, तो तुम देह को त्यागने में सक्षम हो जाओगे और इसे श्रमसाध्य समझे बिना तुम्हारे अंदर सत्य को कार्यान्वित करने की शक्ति होगी। क्यों कई लोग अपनी दैहिक प्राथमिकताओं का अनुसरण करते हैं? क्योंकि वे स्वयं को बहुत अच्छा मानते हैं, उन्हें लगता है कि उनके कार्यकलाप सही और न्यायोचित हैं, कि उनमें कोई दोष नहीं है, और यहाँ तक कि वे पूरी तरह से सही हैं, इसलिए वे इस धारणा के साथ कार्य करने में समर्थ हैं कि न्याय उनके पक्ष में है। जब कोई यह जान लेता है कि उसकी असली प्रकृति क्या है—कितना कुरूप, कितना घृणित और कितना दयनीय है—तो फिर वह स्वयं पर बहुत गर्व नहीं करता है, उतना बेतहाशा अहंकारी नहीं होता है, और स्वयं से उतना प्रसन्न नहीं होता है जितना वह पहले होता था। ऐसा व्यक्ति महसूस करता है, कि “मुझे ईमानदार और व्यवहारिक बनकर परमेश्वर के कुछ वचनों का अभ्यास करना चाहिए। यदि नहीं, तो मैं इंसान होने के स्तर के बराबर नहीं होऊँगा, और परमेश्वर की उपस्थिति में रहने में शर्मिंदा होऊँगा।” तब कोई वास्तव में अपने आपको क्षुद्र के रूप में, वास्तव में महत्वहीन के रूप में देखता है। इस समय, उसके लिए सच्चाई का पालन करना आसान होता है, और वह थोड़ा-थोड़ा ऐसा दिखाई देता है जैसा कि किसी इंसान को होना चाहिए। जब लोग वास्तव में स्वयं से घृणा करते हैं केवल तभी वे शरीर को त्याग पाते हैं। यदि वे स्वयं से घृणा नहीं करते हैं, तो वे देह को नहीं त्याग पाएँगे। स्वयं से घृणा करना कोई मामूली बात नहीं है। उसमें बहुत-सी बातें होनी अनिवार्य हैं : सबसे पहले, अपने स्वयं के स्वभाव को जानना; और दूसरा, स्वयं को अभावग्रस्त और दयनीय के रूप में समझना, स्वयं को अति तुच्छ और महत्वहीन समझना, और स्वयं की दयनीय और गंदी आत्मा को समझना। जब कोई पूरी तरह से देखता है कि वह वास्तव में क्या है, और यह परिणाम प्राप्त हो जाता है, तब वह स्वयं के बारे में वास्तव में ज्ञान प्राप्त करता है, और ऐसा कहा जा सकता है कि किसी ने अपने आपको पूरी तरह से जान लिया है। केवल तभी कोई स्वयं से वास्तव में घृणा कर सकता है, इतना कि स्वयं को शाप दे, और वास्तव में महसूस करे कि उसे शैतान के द्वारा अत्यधिक गहराई तक भ्रष्ट किया गया है इस तरह से कि वह अब इंसान के समान नहीं है। तब एक दिन, जब मृत्यु का भय दिखाई देगा, तो ऐसा व्यक्ति महसूस करेगा, “यह परमेश्वर की धार्मिक सजा है; परमेश्वर वास्तव में धार्मिक है; मुझे वास्तव में मर जाना चाहिए!” इस बिन्दु पर, वह कोई शिकायत दर्ज नहीं करेगा, परमेश्वर को दोष देने की तो बात ही दूर है, वह बस यही महसूस करेगा कि वह बहुत ज़रूरतमंद और दयनीय है, वो इतना गंदा है कि उसे परमेश्वर द्वारा त्याग दिया और नष्ट कर दिया जाना चाहिए, और उसके जैसी आत्मा पृथ्वी पर रहने के योग्य नहीं है। इसलिए, यह व्यक्ति परमेश्वर की शिकायत या उसका विरोध नहीं करेगा, परमेश्वर के साथ विश्वासघात तो बिल्कुल नहीं करेगा। यदि कोई स्वयं को नहीं जानता है, और तब भी स्वयं को बहुत अच्छा मानता है, तो जब मृत्यु दस्तक देते हुए आएगी, तो ऐसा व्यक्ति महसूस करेगा, कि “मैंने अपनी आस्था में इतना अच्छा किया है। मैंने कितनी मेहनत से खोज की है! मैंने इतना अधिक दिया है, मैंने इतने कष्ट झेले हैं, मगत अंततः, अब परमेश्वर मुझे मरने के लिए कहता है। मुझे नहीं पता कि परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ है? वह मुझे मरने के लिए क्यों कह रहा है? यदि मुझे मरना पड़ता है, तो किसे बचाया जाएगा? क्या मानव जाति का अंत नहीं हो जाएगा?” सबसे पहले, इस व्यक्ति की परमेश्वर के बारे में धारणाएँ हैं। दूसरा, यह व्यक्ति शिकायत कर रहा है, और किसी प्रकार का समर्पण नहीं दर्शा रहा है। यह ठीक पौलुस की तरह है: जब वह मरने वाला था, तो वह स्वयं को नहीं जानता था और जब तक परमेश्वर से दण्ड निकट आया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 567
संक्षेप में, अपने विश्वास में पतरस के मार्ग को अपनाने का अर्थ है, सत्य को खोजने के मार्ग पर चलना, जो वास्तव में स्वयं को जानने और अपने स्वभाव को बदलने का मार्ग भी है। केवल पतरस के मार्ग पर चलने के द्वारा ही कोई परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर होगा। किसी को भी इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि वास्तव में कैसे पतरस के मार्ग पर चलना है साथ ही कैसे इसे अभ्यास में लाना है। पहले तो, किसी को भी अपने स्वयं के इरादों, अनुचित कार्यों, और यहाँ तक कि अपने परिवार और अपनी स्वयं की देह की सभी चीजों को एक ओर रखना होगा। एक व्यक्ति को पूर्ण हृदय से समर्पित अवश्य होना चाहिए, अर्थात्, स्वयं को पूरी तरह से परमेश्वर के वचन के प्रति समर्पित करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में सत्य और उसके इरादों की खोज पर अवश्य ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, और हर चीज में परमेश्वर की इच्छा को समझने का प्रयास करना चाहिए। यह अभ्यास की सबसे बुनियादी और प्राणाधार पद्धति है। यह वही था जो पतरस ने यीशु को देखने के बाद किया था, और केवल इस तरह से अभ्यास करने से ही कोई सबसे अच्छा परिणाम प्राप्त कर सकता है। परमेश्वर के वचन के प्रति हार्दिक समर्पण में मुख्यतः परमेश्वर के वचनों में सत्य और उसके इरादों की खोज करना, परमेश्वर की इच्छा को समझने पर ध्यान केन्द्रित करना, और परमेश्वर के वचनों से सत्य को समझना तथा और अधिक प्राप्त करना शामिल है। परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय, पतरस ने सिद्धांतों को समझने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया था और धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने पर तो उसका ध्यान और भी केंद्रित नहीं था। इसके बजाय, उसने सत्य को समझने और परमेश्वर की इच्छा को समझने पर, साथ ही परमेश्वर के स्वभाव और सुंदरता की समझ को प्राप्त करने पर ध्यान लगाया था। पतरस ने परमेश्वर के वचनों से मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट अवस्थाओं के साथ ही मनुष्य की प्रकृति, सार तथा मनुष्य की वास्तविक कमियों को समझने का भी प्रयास किया, और इस प्रकार परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए आसानी से, उसकी अपेक्षाएँ पूरी कीं। पतरस के पास ऐसे बहुत से अभ्यास थे जो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप थे। यह परमेश्वर की इच्छा के सर्वाधिक अनुकूल था, और यह वो सर्वोत्त्म तरीका था जिससे कोई व्यक्ति परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए सहयोग कर सकता है। परमेश्वर द्वारा भेजे गए सैकड़ों परीक्षणों का अनुभव करते समय, पतरस ने परमेश्वर के न्याय और मनुष्य के प्रकाशन के परमेश्वर के प्रत्येक वचन और मनुष्य की उसकी माँगों के प्रत्येक वचन के विरुद्ध सख्ती से स्वयं की जाँच की, और उन वचनों के अर्थ को ठीक से जानने का पूरा प्रयास किया। उसने उस हर वचन पर विचार करने और याद करने की ईमानदार कोशिश की जो यीशु ने उससे कहे थे, और उसने बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त किए। इस तरह अभ्यास करके, वह परमेश्वर के वचनों से स्वयं की समझ प्राप्त करने में सक्षम हो गया था, और वह न केवल मनुष्य की विभिन्न भ्रष्ट स्थितियों और कमियों को समझने लगा, बल्कि वह मनुष्य के सार और प्रकृति को भी समझने लगा। स्वयं को वास्तव में समझने का यही अर्थ है। परमेश्वर के वचनों से, पतरस ने न केवल स्वयं की सच्ची समझ प्राप्त की, बल्कि उसने परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, परमेश्वर का स्वरूप, परमेश्वर की अपने कार्य के लिए इच्छा, मनुष्यजाति से परमेश्वर की माँगें भी देखीं। इन वचनों से उसने परमेश्वर को जाना। उसे परमेश्वर का स्वभाव और उसका सार पता चला; उसे परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान और समझ मिली, साथ ही परमेश्वर की प्रेममयता और मनुष्य से परमेश्वर की माँगें पता चलीं। भले ही परमेश्वर ने उस समय उतना नहीं बोला, जितना आज वह बोलता है, किन्तु पतरस में इन पहलुओं में परिणाम उत्पन्न हुआ था। यह एक दुर्लभ और बहुमूल्य चीज़ थी। पतरस सैकड़ों परीक्षाओं से गुज़रा लेकिन उसका कष्ट सहना व्यर्थ नहीं हुआ। न केवल उसने परमेश्वर के वचनों और कार्यों से स्वयं को समझ लिया बल्कि उसने परमेश्वर को भी जान लिया। इसके साथ ही, उसने परमेश्वर के वचनों में समाविष्ट इंसानियत से उसकी सभी अपेक्षाओं पर विशेष ध्यान के साथ मन केंद्रित किया। परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होने के लिए मनुष्य को जिस भी पहलू से परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए, पतरस उन पहलुओं में पूरा प्रयास करने में और पूर्ण स्पष्टता प्राप्त करने में समर्थ रहा। ख़ुद उसके जीवन प्रवेश के लिए यह अत्यंत लाभकारी था। परमेश्वर ने चाहे जिस भी विषय में कहा, अगर वे वचन जीवन बनने में समर्थ थे और सत्य थे, तो पतरस उन्हें अपने हृदय में रचा-बसा लेता था ताकि अक्सर उन पर विचार कर सके और उनकी सराहना कर सके। यीशु के वचनों को सुनकर, वह उन्हें अपने हृदय में उतार सका, जिससे पता चलता है कि उसका ध्यान विशेष रूप से परमेश्वर के वचनों पर था, और अंत में उसने वास्तव में परिणाम प्राप्त कर लिये। अर्थात्, वह परमेश्वर के वचनों पर खुलकर व्यवहार कर सका, सत्य पर सही ढंग से अमल कर सका और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हो सका, पूरी तरह परमेश्वर की मर्ज़ी के अनुसार कार्य कर सका, और अपने निजी मतों और कल्पनाओं का त्याग कर सका। इस तरह, पतरस परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर सका। पतरस की सेवा परमेश्वर की इच्छा के अनुसार मुख्य रूप से इसीलिए हो पाई क्योंकि उसने ऐसा किया था।
यदि कोई अपना कर्तव्य पूरा करते हुए परमेश्वर को संतुष्ट कर सकता है, और अपने कार्यों और क्रियाकलापों में सैद्धांतिक है और सत्य के समस्त पहलुओं की वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर द्वारा पूर्ण किया गया है। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर का कार्य और उसके वचन उनके लिए पूरी तरह से प्रभावी हो गए हैं, कि परमेश्वर के वचन उनका जीवन बन गए हैं, उन्होंने सच्चाई को प्राप्त कर लिया है, और वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में समर्थ हैं। इसके बाद, उनके देह की प्रकृति—अर्थात, उनके मूल अस्तित्व की नींव—हिलकर अलग हो जाएगी और ढह जाएगी। जब लोग परमेश्वर के वचन को अपने जीवन के रूप में धारण कर लेंगे, केवल तभी वे नए लोग बनेंगे। अगर परमेश्वर के वचन लोगों का जीवन बन जाते हैं; परमेश्वर के कार्य का दर्शन, उसका प्रकाशन और मानवता से उसकी अपेक्षाएँ, और मानव जीवन के वे मानक जो परमेश्वर अपेक्षा करता है कि वे प्राप्त करें, लोगों का जीवन बन जाते हैं, अगर लोग इन वचनों और सच्चाइयों के अनुसार जीते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों द्वारा पूर्ण बनाए जाते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों के माध्यम से पुनर्जन्म लेते हैं और नए लोग बन गए हैं। यह वह मार्ग है जिसके द्वारा पतरस ने सत्य का अनुसरण किया। यह पूर्ण बनाए जाने का मार्ग है। पतरस परमेश्वर के वचनों से पूर्ण बना, उसने परमेश्वर के वचनों से जीवन प्राप्त किया, परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया सत्य उसका जीवन बन गया, और वह एक ऐसा व्यक्ति बना जिसने सत्य को प्राप्त किया।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 568
जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, “लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?” तो लोग जवाब देंगे, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।” यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये”—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है। शैतान का हर काम अपनी भूख, महत्वाकांक्षाओं और उद्देश्यों के लिए होता है। वह परमेश्वर से आगे जाना चाहता है, परमेश्वर से मुक्त होना चाहता है, और परमेश्वर द्वारा रची गई सभी चीजों पर नियंत्रण पाना चाहता है। आज लोग शैतान द्वारा इस हद तक भ्रष्ट कर दिए गए हैं : उन सभी की प्रकृति शैतानी है, वे सभी परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने की कोशिश करते हैं, और वे अपने भाग्य पर अपना नियंत्रण चाहते हैं और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं का विरोध करने की कोशिश करते हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएँ और भूख बिल्कुल शैतान की महत्वाकांक्षाओं और भूख जैसी हैं। इसलिए, मनुष्यों की प्रकृति शैतान की प्रकृति है। वास्तव में, बहुत से लोगों के नीति-वाक्य और सूक्तियाँ मानव प्रकृति को दर्शाती और इंसानी भ्रष्टता के सार को प्रतिबिंबित करती हैं। लोग जो कुछ भी चुनते हैं, वह उनकी अपनी पसंद होती है और वह लोगों के स्वभाव और लक्ष्य का प्रतिनिधित्व करता है। इंसान जो कुछ कहता और करता है, वह कितना भी छिपा हुआ क्यों न हो, वह उसकी प्रकृति नहीं छिपा सकता। जैसे, फरीसी आमतौर पर बहुत अच्छा उपदेश देते थे, लेकिन जब उन्होंने यीशु द्वारा व्यक्त उपदेश और सत्य सुने, तो उन्हें स्वीकारने के बजाय उनकी निंदा करने लगे। इसने फरीसियों की सत्य से ऊबने और घृणा करने वाली प्रकृति और सार को उजागर कर दिया। कुछ लोग बहुत अच्छा बोलते हैं और खुद को बहुत अच्छे से छिपा लेते हैं, लेकिन जब अन्य लोग कुछ समय के लिए उनसे जुड़ते हैं, तो वे जान जाते हैं कि उस व्यक्ति की प्रकृति बेहद धूर्त और कपटपूर्ण है। लंबे समय तक उनके साथ जुड़ने के बाद, सभी को उनके सार और प्रकृति का पता चल जाता है। अंत में, अन्य लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं : वे कभी एक शब्द भी सच नहीं बोलते और वे धोखेबाज हैं। यह कथन उन लोगों की प्रकृति को दर्शाता है और यह उनकी प्रकृति और सार का सर्वोत्तम चित्रण और सबूत है। उनके जीने का फलसफा है किसी को सच न बताना, और साथ ही किसी पर विश्वास न करना। मनुष्य की शैतानी प्रकृति बड़ी मात्रा में शैतानी फलसफों और विषों से युक्त है। कभी-कभी तुम स्वयं ही उनके बारे में अवगत नहीं होते और उन्हें नहीं समझते; फिर भी तुम्हारे जीवन का हर पल इन चीजों पर आधारित है। इसके अलावा तुम्हें लगता है कि ये चीजें बहुत सही और तर्कसम्मत हैं, और बिलकुल भी गलत नहीं हैं। यह, यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि शैतान के फलसफे लोगों की प्रकृति बन गए हैं और वे पूरी तरह से उनके अनुसार जी रहे हैं, इस तरह से जीने को अच्छा मानते हैं और उनमें जरा-सा भी पश्चात्ताप का भाव नहीं होता। इसलिए, वे लगातार अपनी शैतानी प्रकृति प्रकट कर रहे हैं और वे निरंतर शैतानी फलसफे के अनुसार जीवन जी रहे हैं। शैतान की प्रकृति मनुष्य का जीवन है, और वह मनुष्य की प्रकृति और सार है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 569
तुम लोग अब कुछ हद तक स्वयं द्वारा प्रकट भ्रष्ट स्वभाव को पहचानने में सक्षम हो। जब तुम्हें यह स्पष्ट हो जाता है कि तुम अब भी कौन-सी भ्रष्ट चीजें प्रकट कर सकते हो और ऐसी कौन-सी ऐसी चीजें कर सकते हो जो सत्य के विपरीत हैं, तब तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ करना आसान हो जाएगा। क्यों, कई मामलों में, लोग खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते? क्योंकि हर समय, और हर तरह से, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में होते हैं, जो उन्हें सभी चीजों में विवश और बाधित करते हैं। कुछ लोग जब मुसीबत में नहीं होते, और गिर नहीं गए होते या नकारात्मक नहीं हुए होते, तो वे हमेशा यह महसूस करते हैं कि उनके पास आध्यात्मिक कद है, और जब कोई दुष्ट, नकली अगुआ या कोई मसीह-विरोधी उजागर कर निकाला जाता है, तो इसके बारे में कुछ नहीं सोचते। वे सभी के सामने यह शेखी बघारने के लिए भी तत्पर रहते हैं कि, “कोई और गिर सकता है, लेकिन मैं नहीं। हो सकता है कि कोई और परमेश्वर से प्रेम न करे, लेकिन मैं करता हूँ।” उन्हें लगता है कि वे किसी भी स्थिति या संदर्भ में अपनी गवाही पर अडिग रह सकते हैं। और नतीजा क्या होता है? एक दिन आता है जब उनकी परीक्षा ली जाती है और वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते फिरते हैं। क्या यह विफल होना नहीं है, क्या यह गिरना नहीं है? जब लोगों की परीक्षा ली जाती है, तो उससे ज्यादा कोई चीज लोगों को उजागर नहीं करती। परमेश्वर इंसान के अंतरतम हृदय को जाँचता है, और लोगों को किसी भी समय डींग नहीं मारनी चाहिए। वे जिस चीज के बारे में डींग मारते हैं, वहीं देर-सबेर गिर जाएँगे। दूसरों को गिरते और किसी निश्चित संदर्भ में असफल होते देखकर वे इसके बारे में कुछ नहीं सोचते, और यहाँ तक सोचते हैं कि वे खुद कुछ गलत नहीं कर सकते, कि वे मजबूती से खड़े हो सकेंगे—लेकिन वे भी उसी संदर्भ में गिर जाते और असफल हो जाते हैं। यह कैसे हो सकता है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोग अपनी प्रकृति और सार को पूरी तरह से नहीं समझते; अपनी प्रकृति और सार की समस्याओं के बारे में उनके ज्ञान की गहराई अभी भी अपर्याप्त है, इसलिए सत्य को अभ्यास में लाना उनके लिए बहुत कठिन है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग बहुत धोखेबाज, वचन और कर्म में बेईमान होते हैं, लेकिन अगर तुम उनसे पूछो कि उनका भ्रष्ट स्वभाव किस संबंध में सबसे गंभीर है, तो वे कहेंगे, “मैं थोड़ा धोखेबाज हूँ।” वे केवल इतना कहेंगे कि वे थोड़े धोखेबाज हैं, लेकिन वे यह नहीं कहते कि उनकी प्रकृति ही धोखा है, और वे यह नहीं कहते कि वे धोखेबाज व्यक्ति हैं। अपनी भ्रष्ट अवस्था के बारे में उनका ज्ञान उतना गहरा नहीं होता, और वे उसे कोई गंभीर चीज नहीं मानते, और न ही उसे उतनी गहराई से देखते हैं जितनी गहराई से दूसरे देखते हैं। दूसरे देखते हैं कि यह व्यक्ति बहुत धोखेबाज और बहुत कुटिल है, कि इसके हर शब्द में कपट है, कि इसके शब्द और कार्य कभी ईमानदार नहीं होते—लेकिन वे अपने आप को इतनी गहराई से नहीं देख सकते। उनके पास जो भी ज्ञान होता है, वह केवल सतही होता है। जब भी वे बोलते और कार्य करते हैं, तो वे अपनी प्रकृति में कुछ प्रकट करते हैं, लेकिन वे इससे अनजान होते हैं। वे मानते हैं कि उनका इस तरह से कार्य करना भ्रष्टता उजागर करना नहीं है, उन्हें लगता है कि वे पहले ही सत्य को अमल में ला चुके हैं—लेकिन लोगों की नजर में वे लोग बहुत विश्वासघाती और चालाक हैं, उनकी बातें और काम बेईमानी से भरे हैं। कहने का अर्थ यह है कि लोगों को अपनी प्रकृति की बहुत ही सतही समझ होती है, और उसके तथा परमेश्वर के वचनों के बीच बहुत बड़ा अंतर होता है, जो उनका न्याय कर उन्हें उजागर करते हैं। परमेश्वर जो प्रकट करता है उसमें कोई ग़लती नहीं है, बल्कि मानवजाति की अपनी स्वयं की प्रकृति की समझ की भारी कमी है। लोगों को स्वयं की मौलिक या अनिवार्य समझ नहीं है, इसके बजाय, वे अपनी ऊर्जा को अपने कार्यों और बाहरी अभिव्यक्तियों पर केंद्रित और समर्पित करते हैं। भले ही किसी ने कभी कभार स्वयं को समझने के बारे में कुछ कहा हो, यह बहुत अधिक गहरा नहीं होगा। किसी ने कभी भी नहीं सोचा है कि एक निश्चित प्रकार की चीज़ करने या एक निश्चित चीज प्रकट करने के कारण वह एक निश्चित प्रकार का व्यक्ति है या उसकी एक निश्चित प्रकार की प्रकृति है। परमेश्वर ने मनुष्य की प्रकृति और सार प्रकट कर दिया है, परंतु मनुष्य समझते हैं कि उनका चीज़ों को करने का तरीका और बोलने का तरीका दोषपूर्ण और ख़राब है; इसलिए लोगों के लिए सत्य को अभ्यास में लाना बहुत श्रमसाध्य कार्य होता है। लोग सोचते हैं कि उनकी गलतियाँ बस क्षणिक अभिव्यक्तियाँ हैं, जो उनकी प्रकृति के प्रकटन होने की बजाय लापरवाही से प्रकट हो जाती हैं। जब लोग इस तरह से सोचते हैं, तो उनके लिए स्वयं को वास्तव में जानना बहुत कठिन होता है, और उनके लिए सत्य को समझना और उसका अभ्यास करना बहुत कठिन होता है। चूँकि वे सत्य को नहीं जानते और सत्य के प्यासे नहीं होते; इसलिए, सत्य को अभ्यास में लाते समय, वे केवल लापरवाही से नियमों का पालन करते हैं। लोग अपनी स्वयं की प्रकृतियों को अत्यधिक भ्रष्ट के रूप में नहीं देखते हैं, और मानते हैं कि वे इतने बुरे नहीं है कि उन्हें नष्ट या दंडित किया जाना चाहिए। लेकिन परमेश्वर के मानकों के अनुसार, लोगों की भ्रष्टता बहुत गहरी है, वे अभी भी उद्धार के मानकों से दूर हैं, क्योंकि लोगों के केवल कुछ ही कृत्य होते हैं जो बाहर से सत्य का उल्लंघन नहीं करते, जबकि वस्तुत: वे सत्य को अभ्यास में नहीं लाते और वे परमेश्वर के आज्ञाकारी नहीं हैं।
किसी व्यक्ति के व्यवहार या आचरण में बदलाव का अर्थ उसकी प्रकृति में बदलाव नहीं है। इसका कारण यह है कि इंसान के आचरण में बदलाव मौलिक रूप से उसके मूल स्वरूप को नहीं बदल सकते, उसकी प्रकृति को तो वे बिलकुल भी नहीं बदल सकते। केवल जब लोग सत्य को समझते हैं, और उन्हें अपनी प्रकृति और सार का ज्ञान होता है, और वे सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हैं, तभी उनका अभ्यास गहरा, और नियमों के एक समूह के पालन से भिन्न, हो सकता है। आज जिस तरह से लोग सत्य का अभ्यास करते हैं, वह अभी भी मानक के अनुरूप नहीं है, और वह सत्य की अपेक्षाओं पर पूरी तरह से खरा नहीं उतर सकता। लोग केवल सत्य के एक अंश का अभ्यास करते हैं, और केवल कुछ अवस्थाओं और परिस्थितियों में होने पर ही थोड़ा-सा सत्य अभ्यास में ला सकते हैं; ऐसा नहीं है कि वे सभी अवस्थाओं और परिस्थितियों में सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हैं। जब किसी अवसर पर व्यक्ति खुश होता है और उसकी अवस्था अच्छी होती है, या जब वह दूसरों के साथ सहभागिता कर रहा होता है और उसके दिल में अभ्यास करने का एक मार्ग होता है, तो कुछ समय के लिए वह कुछ ऐसे काम करने में सक्षम होता है जो सत्य के अनुरूप होते हैं। लेकिन जब वह ऐसे लोगों के साथ रहता है, जो नकारात्मक होते हैं और सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वह इन लोगों से प्रभावित हो जाता है, और अपने हृदय में मार्ग खो देता है और सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो जाता है। इससे पता चलता है कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, कि वह अभी भी वास्तव में सत्य को नहीं समझता। कुछ इंसान ऐसे होते हैं, जो सही लोगों द्वारा मार्गदर्शन और अगुआई किए जाने पर सत्य को अमल में लाने में सक्षम होते हैं; लेकिन किसी नकली अगुआ या मसीह-विरोधी द्वारा धोखा दिए जाने और परेशान किए जाने पर वे न केवल सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि उनके अन्य लोगों का अनुसरण करने में भी धोखा खाने की संभावना होती है। ऐसे लोग अभी भी खतरे में हैं, है न? ऐसे लोग, इस तरह के आध्यात्मिक कद के साथ, संभवत: सभी मामलों और प्रसंगों में सत्य का अभ्यास करने में सक्षम नहीं हो सकते। अगर वे सत्य का अभ्यास करते भी हैं, तो यह केवल तभी होगा जब वे अच्छी मन:स्थिति में हों या दूसरों द्वारा उनका मार्गदर्शन किया जाए; किसी अच्छे इंसान द्वारा उनकी अगुआई न किए जाने पर वे अभी भी कई बार ऐसी चीजें कर सकते हैं जो सत्य का उल्लंघन करती हैं, अभी भी वे परमेश्वर के वचनों से भटक जाएँगे। और यह किस वजह से होता है? यह इस वजह से होता है, क्योंकि तुम केवल अपनी कुछ ही अवस्थाएँ जानते हो, और तुम्हें अपनी प्रकृति और सार का कोई ज्ञान नहीं है, और तुमने अभी देह-सुख त्यागने और सत्य का अभ्यास करने वाला आध्यात्मिक कद प्राप्त नहीं किया है; इसलिए, भविष्य में तुम क्या करोगे, इस पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है, और तुम इस बात की गारंटी नहीं दे सकते कि तुम किसी भी स्थिति या परीक्षा में दृढ़ रह सकोगे। कई बार तुम ऐसी अवस्था में होते हो कि तुम सत्य को व्यवहार में ला सकते हो और तुम कुछ बदलाव प्रकट करते प्रतीत होते हो, लेकिन एक भिन्न परिवेश में तुम उसे व्यवहार में लाने में असमर्थ होते हो। यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर होता है। कभी तुम सत्य का अभ्यास कर पाते हो, और कभी तुम नहीं कर पाते। किसी क्षण, तुम समझते हो, और अगले ही क्षण तुम भ्रमित होते हो। वर्तमान में तुम कुछ बुरा नहीं कर रहे, लेकिन शायद कुछ ही देर में करोगे। इससे साबित होता है कि भ्रष्ट चीज़ें अभी भी तुम्हारे भीतर मौजूद हैं, और यदि तुम सच्चा आत्म-बोध पाने में असमर्थ हो, तो उन्हें दूर करना आसान नहीं होगा। यदि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव की पूरी समझ हासिल नहीं कर पाते, और अंततः उन चीज़ों को करने में सक्षम होते हो जो परमेश्वर का विरोध करती हैं, तो तुम खतरे में हो। यदि तुम अपनी प्रकृति में एक तीक्ष्ण अंतर्दृष्टि हासिल कर सकते हो और उससे नफरत कर सकते हो, तो तुम अपने आपको नियंत्रित करने, अपने आपको त्यागने, और सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम होगे।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 570
सत्य की स्पष्ट रूप से संगति करने का उद्देश्य लोगों को सत्य समझकर उसका अभ्यास करने और अपने स्वभाव में परिवर्तन हासिल करने में सक्षम बनाना है। यह सत्य को समझने के बाद उनके दिलों में प्रकाश और थोड़ी-सी खुशी लाना भर नहीं है। अगर तुम सत्य समझते हो लेकिन सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो सत्य के बारे में संगति करने और उसे समझने का कोई मतलब नहीं है। जब लोग सत्य समझते हैं लेकिन उस पर अमल नहीं करते, तो इसमें क्या समस्या है? यह इस बात का प्रमाण है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, कि वे अपने हृदय में सत्य को स्वीकार नहीं करते, ऐसे में वे परमेश्वर के आशीषों और उद्धार के अवसर से चूक जाएँगे। लोग उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हैं या नहीं, इसमें यह महत्वपूर्ण है कि वे सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास करने में सक्षम हैं या नहीं। अगर तुमने उन सभी सत्यों पर अमल किया है जिन्हें तुम समझते हो, तो तुम्हें पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता, रोशनी और मार्गदर्शन मिलेगा, और तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होगे, सत्य की गहरी समझ प्राप्त करोगे, सत्य प्राप्त करोगे, और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करोगे। कुछ लोग सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होते हैं, वे हमेशा शिकायत करते हैं कि पवित्र आत्मा उन्हें प्रबुद्ध या रोशन नहीं करता, कि परमेश्वर उन्हें शक्ति नहीं देता। यह गलत है; यह परमेश्वर को गलत समझना है। पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी लोगों के सहयोग की नींव पर निर्मित होती है। लोगों को ईमानदार और सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार होना चाहिए, और चाहे उनकी समझ गहरी हो या सतही, उन्हें सत्य को अमल में लाने में सक्षम होना चाहिए। तभी वे पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध और रोशन किए जाएँगे। अगर लोग सत्य समझते हैं लेकिन उसे अमल में नहीं लाते—अगर वे केवल इस बात की प्रतीक्षा करते हैं कि पवित्र आत्मा कार्य करके उन्हें सत्य को अमल में लाने के लिए बाध्य करे—तो क्या वे अत्यधिक निष्क्रिय नहीं हैं? परमेश्वर कभी लोगों को कुछ भी करने के लिए बाध्य नहीं करता। अगर लोग सत्य को समझते हैं लेकिन उसे अमल में लाने के इच्छुक नहीं हैं, तो यह दर्शाता है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, या उनकी स्थिति असामान्य है और उसमें किसी प्रकार की रुकावट है। लेकिन अगर लोग परमेश्वर से प्रार्थना करने में सक्षम हैं, तो परमेश्वर भी कार्य करेगा; अगर वे सत्य का अभ्यास करने के अनिच्छुक हैं और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, केवल तभी पवित्र आत्मा के पास उनमें कार्य करने का कोई उपाय नहीं होगा। वास्तव में, लोगों को चाहे किसी भी प्रकार की कठिनाई हो, उसे हल किया जा सकता है; मुख्य बात यह है कि वे सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम हैं या नहीं। आज, तुम लोगों में भ्रष्टता की समस्याएँ कैंसर नहीं हैं, वे कोई लाइलाज बीमारी नहीं हैं। अगर तुम लोग सत्य का अभ्यास करने का संकल्प कर सको, तो तुम्हें पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त होगा, और इन भ्रष्ट स्वभावों को बदलना संभव होगा। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम सत्य का अभ्यास करने का संकल्प कर सकते हो, यही कुंजी है। अगर तुम सत्य का अभ्यास करते हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने में सक्षम होगे, और निश्चित रूप से बचाए जा सकोगे। अगर, जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो वह गलत है, तो तुम पवित्र आत्मा का कार्य खो दोगे, एक गलत कदम दूसरे गलत कदम को जन्म देगा, और तुम्हारे लिए सब खत्म हो जाएगा, और चाहे तुम कितने भी वर्षों तक विश्वास करते रहो, तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकोगे। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब काम कर रहे होते हैं, तो वे इस बारे में कभी नहीं सोचते कि काम उस तरह कैसे किया जाए, जिससे परमेश्वर के घर को लाभ हो और जो परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हो—नतीजतन वे बहुत-कुछ ऐसा करते हैं जो स्वार्थ और नीचता से भरा होता है, जो परमेश्वर के लिए तुच्छ और घिनौना होता है; और ऐसा करने से वे उजागर कर निकाल दिए जाते हैं। अगर, सभी चीजों में, लोग सत्य की खोज करने और सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम होते हैं, तो वे पहले ही परमेश्वर पर आस्था के सही मार्ग पर प्रवेश कर चुके होते हैं, और इसलिए उनके परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप इंसान बनने की आशा होती है। कुछ लोग सत्य समझते हैं, लेकिन उस पर अमल नहीं करते। इसके बजाय, वे मानते हैं कि सत्य इससे अधिक कुछ नहीं है, और अपनी प्रवृत्तियों और भ्रष्ट स्वभावों को हल करने में असमर्थ होते हैं। क्या ऐसे लोगों पर हँसी नहीं आएगी? क्या वे हास्यास्पद नहीं होते? क्या वे खुद को सबसे बुद्धिमान नहीं समझते? अगर लोग सत्य के अनुसार कार्य करने में सक्षम हों, तो उनके भ्रष्ट स्वभाव बदल सकते हैं। अगर उनका विश्वास और परमेश्वर के प्रति उनकी सेवा उनके अपने स्वाभाविक व्यक्तित्व के अनुसार है, तो उनमें से एक भी अपने स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो दिन भर खुद गलत चुनाव करने के कारण होने वाली चिंता में फँसे रहते हैं। आसानी से उपलब्ध सत्य उन्हें दिया जाता है तो वे उस पर कोई विचार नहीं करते या उसे अमल में लाने का प्रयास नहीं करते, बल्कि अपना अलग रास्ता चुनने पर जोर देते हैं। यह कैसा बेतुका बरताव है; वास्तव में, किसी अच्छी चीज को देखकर वे नहीं जान पाते कि वह अच्छी चीज है, और जीवन में कठिनाइयाँ झेलना उनकी नियति है। सत्य का अभ्यास करना बहुत आसान है; तुम अभ्यास करते हो या नहीं, बस यही मायने रखता है। अगर तुम ऐसे इंसान हो, जिसने सत्य का अभ्यास करने का संकल्प लिया है, तो तुम्हारी नकारात्मकता, कमजोरी और भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे दूर होकर बदल जाएँगे; यह इस पर निर्भर करता है कि तुम्हारा हृदय सत्य से प्रेम करता है या नहीं, तुम सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हो या नहीं, सत्य प्राप्त करने के लिए तुम कष्ट उठा सकते और कीमत चुका सकते हो या नहीं। अगर तुम वास्तव में सत्य से प्रेम करते हो, तो तुम सत्य प्राप्त करने के लिए सभी प्रकार के दर्द सहने में सक्षम होगे, चाहे लोग बदनाम करें, आलोचना करें या त्याग दें। तुम्हें यह सब धैर्य और सहनशीलता के साथ सहन करना चाहिए; और परमेश्वर तुम्हें आशीष देगा और तुम्हारी रक्षा करेगा, वह तुम्हारा त्याग या उपेक्षा नहीं करेगा—यह पक्का है। अगर तुम परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय से प्रार्थना करते हो, परमेश्वर पर निर्भर रहते हो और परमेश्वर का आदर करते हो, तो ऐसा कुछ नहीं होगा जिसे तुम पार न कर सको। तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट हो सकता है, और तुम अपराध कर सकते हो, लेकिन अगर तुम्हारे पास एक ऐसा हृदय है जो परमेश्वर का भय मानता है, और अगर तुम सावधानी से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम निर्विवाद रूप से दृढ़ रहने में सक्षम होगे, और निर्विवाद रूप से परमेश्वर द्वारा तुम्हारी अगुआई और सुरक्षा की जाएगी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 571
यदि तुम सत्य की समझ प्राप्त करना चाहते हो, तो यह बहुत महत्वपूर्ण है कि तुम्हें पता हो कि परमेश्वर के वचनों को कैसे खाना-पीना है। अगर तुम परमेश्वर के केवल थोड़े-बहुत वचन पढ़ते हो और उन्हें भी पूरी ईमानदारी से नहीं पढ़ते, मन से उन पर चिंतन नहीं करते, तो तुम सत्य नहीं समझ पाओगे। तब तुम केवल सिद्धांत की थोड़ी-बहुत समझ हासिल कर पाओगे। ऐसे में तुम्हारे लिए परमेश्वर की इच्छा और उसके वचनों में छिपे उद्देश्य को समझना बहुत मुश्किल होगा। अगर तुम उन लक्ष्यों या परिणामों को नहीं समझते हो जिसे परमेश्वर के वचन प्राप्त करना चाहते हैं, अगर तुम यह नहीं समझते हो कि उसके वचन मनुष्य में क्या पूर्ण और हासिल करना चाहते हैं, अगर तुम इन बातों को नहीं समझते हो, तो यह साबित करता है कि तुमने अभी तक सत्य को समझा नहीं है। परमेश्वर जो कहता है उसे क्यों कहता है? वह उस लहजे में क्यों बोलता है? वह अपने हर वचन में इतना ईमानदार और निष्कपट क्यों है? वह कुछ विशिष्ट वचनों को उपयोग के लिए क्यों चुनता है? क्या तुम जानते हो? अगर निश्चित होकर नहीं बता सकते, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर की इच्छा या उसके इरादों को नहीं समझते हो। अगर तुम उनके वचनों के पीछे के संदर्भ को नहीं समझते हो, तो तुम सत्य को समझ या उसका अभ्यास कैसे कर सकते हो? सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें पहले परमेश्वर द्वारा कहे जाने वाले हर वचन का अर्थ समझना होगा, फिर तुमने जो समझा है उसे अभ्यास में लाना होगा, जिससे तुम परमेश्वर के वचनों को अपने भीतर जी सको और वे तुम्हारी वास्तविकता बन जाएँ। ऐसा करके तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर लोगे। तुम्हारे द्वारा परमेश्वर के वचन को पूरी तरह से समझ लिए जाने पर ही तुम वास्तव में सत्य को समझ सकते हो। मात्र कुछ शब्द और सिद्धांत समझकर तुम सोचते हो कि तुम सत्य समझते हो और तुम्हारे पास वास्तविकता है। यह अपने आपको धोखा देना है। तुम यह तक नहीं जानते कि परमेश्वर क्यों चाहता है कि लोग सत्य का अभ्यास करें। इससे साबित होता है कि तुम्हें परमेश्वर की इच्छा की समझ नहीं है और तुम अभी भी सत्य की समझ नहीं रखते। वास्तव में, परमेश्वर लोगों को शुद्ध करके बचाने के लिए उनसे यह अपेक्षा करता है, ताकि लोग अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागकर परमेश्वर की आज्ञा मानने और उसे जानने वाले बन सकें। इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए परमेश्वर चाहता है कि लोग सत्य का अभ्यास करें।
परमेश्वर उन लोगों के लिए सत्य व्यक्त करता है जो सत्य से प्रेम करते हैं, जिनमें सत्य की प्यास है, और जो सत्य खोजते हैं। वे लोग जो शब्दों और सिद्धांतों में उलझे रहते हैं तथा लंबे, आडंबरपूर्ण भाषण देना पसंद करते हैं, वे कभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाएँगे; वे स्वयं को बेवकूफ बना रहे हैं। परमेश्वर के वचनों और सत्य के बारे में उनके दृष्टिकोण गलत हैं, जो सीधा है उसे पढ़ने के लिए वे अपनी गरदन उल्टी कर लेते हैं, उनका दृष्टिकोण पूरी तरह गलत होता है। कुछ लोग परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करना पसंद करते हैं। वे इस बात का अध्ययन करते हैं कि कैसे परमेश्वर के वचन गंतव्य या कैसे आशीष प्राप्त किए जाएँ, इस बारे में बात करते हैं। उन्हें ऐसे वचनों में अधिक रुचि होती है। यदि परमेश्वर के वचन उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं और आशीष पाने की उनकी इच्छा पूरी नहीं करते, तो वे नकारात्मक हो जाते हैं, फिर वे न तो सत्य का अनुसरण करते हैं और न ही खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहते हैं। यह दिखाता है कि उन्हें सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं है। परिणामस्वरूप, वे सत्य को गंभीरता से नहीं लेते; वे बस उन्हीं सत्य को स्वीकारने में सक्षम हैं जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हैं। भले ही वे परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर बेहद उत्साही हैं और कुछ अच्छे कर्म करने के लिए हरसंभव तरीके से प्रयास करते हैं और दूसरों के सामने खुद को अच्छे से पेश करते हैं, लेकिन वे यह सब केवल भविष्य में एक अच्छी मंज़िल पाने के लिए कर रहे हैं। इस तथ्य के बावजूद कि वे कलीसियाई जीवन से जुड़े हैं, परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, वे सत्य का अभ्यास नहीं करेंगे, न उसे प्राप्त करेंगे। कुछ लोग होते हैं जो परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हैं, लेकिन वे बस बिना रुचि के काम करते हैं; वे सोचते हैं कि उन्होंने बस कुछ शब्दों और सिद्धांतों को समझकर सत्य पा लिया है। वे कितने बेवकूफ हैं! परमेश्वर का वचन ही सत्य है। हालांकि, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद यह जरूरी नहीं कि कोई सत्य समझ ही ले, और सत्य प्राप्त कर ले। परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के बाद यदि तुम सत्य को हासिल करने में असफल हो जाते हो, तो तुमने बस शब्दों और सिद्धांतों को हासिल किया है। यदि तुम सत्य का अभ्यास करना या सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना नहीं जानते, तो फिर तुम सत्य की वास्तविकता से वंचित रह जाते हो। भले ही तुम अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ते हो, लेकिन फिर भी तुम परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझ पाते, तुम्हें केवल कुछ शब्द और सिद्धांत ही हासिल हो पाती है। सत्य समझने के लिए परमेश्वर के वचनों को कैसे खाएं-पिएँ? सर्वप्रथम, तुम्हें पता होना चाहिए कि परमेश्वर के वचन समझने की दृष्टि से इतने सरल नहीं हैं; परमेश्वर के वचन में बहुत गहराई है। परमेश्वर के वचनों के एक वाक्य का अनुभव करने में भी पूरा जीवन लग जाता है। अनेक वर्षों के अनुभव के बगैर, तुम परमेश्वर के वचनों को संभवतः कैसे समझ सकते हो? यदि परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए, तुम परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते हो और उसके वचनों के उद्देश्यों, उनके उद्गम, उस प्रभाव को नहीं समझते जो वे प्राप्त करना चाहते हैं, या जो वे हासिल करना चाहते हैं, तो क्या इसका यह अर्थ है कि तुम सत्य समझते हो? संभवतः तुमने परमेश्वर के वचनों को कई बार पढ़ा हो और शायद तुमने इसके कई अंशों को कंठस्थ कर लिया हो, लेकिन तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते और तुम बिल्कुल नहीं बदले हो, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध हमेशा की तरह दूरस्थ और विरक्त है। जब तुम्हारे सामने कोई ऐसी चीज आती है जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाती, तो तुम परमेश्वर के प्रति संदेहास्पद रहते हो, तुम उसे समझ नहीं पाते, उससे बहस करते हो, उसके बारे में धारणाएं बना लेते हो और गलतफहमियां पाल लेते हो, उसका विरोध और निंदा करते हो। यह किस तरह का स्वभाव है? यह अहंकार का, सत्य से ऊब जाने का स्वभाव है। जो लोग इतने अहंकारी और सत्य से ऊबे हुए हों, वे इसे कैसे स्वीकार या इसका अभ्यास कर सकते हैं? ऐसे लोग कभी भी सत्य या परमेश्वर को प्राप्त नहीं करेंगे।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 572
यह कहा गया है कि “वह जो अंत तक अनुसरण करता है, उसे बचाया जाएगा”, लेकिन क्या इसे अभ्यास में लाना आसान है? यह आसान नहीं है, और लाल अजगर जिन लोगों का पीछा कर सताता है, वे बहुत डरपोक बन जाते हैं परमेश्वर का अनुसरण करने से डरते हैं। उनका पतन क्यों हुआ? क्योंकि उनमें सच्ची आस्था नहीं थी। कुछ लोग सत्य स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं, उस पर निर्भर रह सकते हैं, परीक्षणों और क्लेशों में अडिग रह सकते हैं, जबकि बाकी लोग अंत तक अनुसरण नहीं कर पाते। परीक्षणों और क्लेशों के दौरान एक मुकाम पर आकर गिर पड़ते हैं, अपनी गवाही गँवा देते हैं और फिर से उठकर चल नहीं पाते। शायद प्रतिदिन होने वाली सभी चीज़ें, चाहे वे बड़ी हों या छोटी, जो तुम्हारे संकल्प को डगमगा सकती हैं, तुम्हारे दिल पर कब्ज़ा कर सकती हैं, या कर्तव्य-पालन की तुम्हारी क्षमता और आगे की प्रगति को सीमित कर सकती हैं, परिश्रमयुक्त उपचार माँगती हैं; तुम्हें उनकी सावधानीपूर्वक जाँच करनी चाहिए और सत्य का पता लगाया जाना चाहिए। जैसे-जैसे तुम अनुभव करते हो, तुम्हें इन सभी चीजों का समाधान करना चाहिए। कुछ लोग नकारात्मक होकर शिकायत करने लगते हैं, जब मुश्किलें आती हैं तो वे अपने कर्तव्य छोड़ भागते हैं और प्रत्येक नाकामयाबी के बाद वे घिसटकर वापस अपने पैरों पर उठ खड़े होने में असमर्थ होते हैं। ये सभी लोग मूर्ख हैं, जो सत्य से प्रेम नहीं करते, और वे जीवन भर के विश्वास के बाद भी उसे हासिल नहीं करेंगे। ऐसे मूर्ख अंत तक अनुसरण कैसे कर सकते थे? यदि तुम्हारे साथ एक ही बात दस बार होती है, लेकिन तुम उससे कुछ हासिल नहीं करते, तो तुम एक औसत दर्जे के, निकम्मे व्यक्ति हो। दक्ष और सच्ची योग्यता वाले लोग, जो आध्यात्मिक मामलों को समझते हैं, सत्य के अन्वेषक होते हैं; यदि उनके साथ कुछ दस बार घटित होता है, तो शायद उनमें से आठ मामलों में वे कुछ प्रबोधन प्राप्त करने, कुछ सबक सीखने, कुछ सत्य समझने, और कुछ प्रगति कर पाने में समर्थ होंगे। जब चीज़ें दस बार किसी मूर्ख पर पड़ती हैं—किसी ऐसे पर, जो आध्यात्मिक मामलों को नहीं समझता है—तो इससे एक बार भी उनके जीवन को लाभ नहीं होगा, एक बार भी यह उन्हें नहीं बदलेगा, और न ही एक बार भी यह उनके बदसूरत चेहरे को जानने का कारण बनेगा, और ऐसे में यही उनके लिए अंत है। हर बार जब उनके साथ कुछ घटित होता है, तो वे गिर पड़ते हैं, और हर बार जब वे गिर पड़ते हैं, तो उन्हें समर्थन और दिलासा देने के लिए किसी और की ज़रूरत होती है; बिना सहारे और दिलासे के वे उठ नहीं सकते। अगर, हर बार जब कुछ होता है, तो उन्हें गिरने का खतरा होता है, और अगर, हर बार उन्हें अपमानित होने का खतरा होता है, तो क्या उनके लिए यही अंत नहीं है? क्या ऐसे निकम्मे लोगों के बचाए जाने का कोई और आधार बचा है? परमेश्वर द्वारा मानवजाति का उद्धार उन लोगों का उद्धार है, जो सत्य से प्रेम करते हैं, उनके उस हिस्से का उद्धार है, जिसमें इच्छा-शक्ति और संकल्प हैं, और उनके उस हिस्से का उद्धार है, जिनके दिल में सत्य और धार्मिकता के लिए तड़प है। किसी व्यक्ति का संकल्प उसके दिल का वह हिस्सा है, जो धार्मिकता, भलाई और सत्य के लिए तरसता है, और विवेक से युक्त होता है। परमेश्वर लोगों के इस हिस्से को बचाता है, और इसके माध्यम से, वह उनके भ्रष्ट स्वभाव को बदलता है, ताकि वे सत्य को समझ सकें और हासिल कर सकें, ताकि उनकी भ्रष्टता परिमार्जित हो सके, और उनका जीवन-स्वभाव रूपांतरित किया जा सके। यदि तुम्हारे भीतर ये चीज़ें नहीं हैं, तो तुमको बचाया नहीं जा सकता। यदि तुम्हारे भीतर सत्य के लिए कोई प्रेम या धार्मिकता और प्रकाश के लिए कोई आकांक्षा नहीं है; यदि, जब भी तुम बुराई का सामना करते हो, तब तुम्हारे पास न तो बुरी चीज़ों को दूर फेंकने की इच्छा-शक्ति होती है और न ही कष्ट सहने का संकल्प; यदि, इसके अलावा, तुम्हारा जमीर सुन्न है; यदि सत्य को प्राप्त करने की तुम्हारी क्षमता भी सुन्न है, और तुम सत्य के साथ और उत्पन्न होने वाली घटनाओं के साथ लयबद्ध नहीं हो; और यदि तुम सभी मामलों में विवेकहीन हो, और कोई भी मुसीबत आने पर समस्या का हल ढूँढ़ने के लिए सत्य नहीं खोज पाते हो और लगातार नकारात्मक हो रहे हो, तो तुम्हें बचाए जाने का कोई रास्ता नहीं है। ऐसे व्यक्ति के पास अपनी सिफ़ारिश करवाने के लिए ऐसा कुछ भी नहीं होता जिस पर परमेश्वर काम कर सके। उनका जमीर सुन्न होता है, उनका मन मैला होता है, और वे सत्य से प्रेम नहीं करते, न ही अपने दिल की गहराई में वे धार्मिकता के लिए तरसते हैं, और परमेश्वर चाहे कितने ही स्पष्ट या पारदर्शी रूप से सत्य की बात करे, वे जरा-सी भी प्रतिक्रिया नहीं देते, मानो पहले से ही उनका हृदय मृत हो। क्या उनके लिए खेल ख़त्म नहीं हो गया है? किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसकी साँस बाक़ी हो, कृत्रिम श्वसन द्वारा बचाया जा सकता है, लेकिन अगर वह पहले से ही मर चुका हो और उसकी आत्मा उसे छोड़कर जा चुकी है, तो कृत्रिम श्वसन कुछ नहीं कर पाएगा। यदि, समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करने पर, कोई व्यक्ति पीछे हट जाता है और उनसे बचता है, तो वह सत्य नहीं खोजता, और अपने काम में नकारात्मक और सुस्त होने का चुनाव करता है, फिर उसकी असलियत उजागर कर दी जाती है। ऐसे लोगों के पास न तो कोई अनुभव होता है और न ही कोई गवाही। वे मुफ्तखोर और व्यर्थ का बोझ होते हैं, परमेश्वर के घर में बेकार होते हैं और वे पूरी तरह अभिशप्त होते हैं। जो लोग समस्याओं के हल के लिए सत्य खोजते हैं, उन्हीं के पास आध्यात्मिक कद होता है और वही लोग दृढ़ता से गवाही दे सकते हैं। जब समस्याएँ और कठिनाइयाँ आएँ, तो तुम्हें उन पर ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए और उन पर सही तरीके से प्रतिक्रिया देनी चाहिए और कोई एक विकल्प चुनना चाहिए। तुम्हें समस्याओं के हल के लिए सत्य का उपयोग करना सीखना चाहिए। जिन सत्यों को तुम आमतौर पर समझते हो, वे चाहे गहन हों या उथले, तुम्हें उनका उपयोग करना चाहिए। सत्य केवल वे शब्द नहीं हैं जो तुम्हारे मुंह से उस समय निकलते हैं जब तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है, न ही वे खास तौर पर दूसरों की समस्याओं को हल करने के लिए उपयोग किए जाते हैं; इसके बजाय, उनका उपयोग तुम्हारी समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के लिए किया जाना चाहिए। यही सबसे महत्वपूर्ण है। जब तुम अपनी समस्याएँ हल करोगे तभी तुम दूसरों की समस्याएँ भी हल कर पाओगे। पतरस को फल क्यों कहा जाता है? क्योंकि उसमें मूल्यवान चीजें हैं, जो पूर्ण करने के लायक हैं। उसने सभी बातों में सत्य की खोज की, उसमें संकल्प था और दृढ़ इच्छाशक्ति थी; उसमें विवेक था, वह कठिनाई सहने के लिए तैयार था और दिल से सत्य से प्रेम करता था; उसने आने वाली हर चीज को थामे रखा, और हर चीज से सबक सीख सका। ये सभी बड़ी खूबियाँ हैं। यदि तुम्हारे पास इनमें से कोई भी बड़ी खूबी नहीं है, तो यह परेशानी की बात है। तुम्हारे लिए सत्य प्राप्त करना और बचाया जाना आसान नहीं होगा। यदि तुम्हें नहीं पता कि अनुभव कैसे करना है या तुम्हें कोई अनुभव नहीं है, तो तुम अन्य लोगों की कठिनाइयों को हल करने में सक्षम नहीं होगे। चूँकि तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने में असमर्थ हो, और तुम नहीं जानते कि अगर कुछ हो जाए तो क्या करना है और तुम परेशान हो जाते हो—आंसू बहाने लगते हो—जब तुम समस्याओं का सामना करते हो, तो नकारात्मक हो जाते हो और छोटी-मोटी असफलता पर भाग खड़े होते हो और कभी सही तरीके से प्रतिक्रिया नहीं दे पाते—इन सब के कारण, तुम्हारे लिए जीवन में प्रवेश करना असंभव है। तुम जीवन-प्रवेश के बिना दूसरों को पोषण कैसे दे सकते हो? लोगों के जीवन को पोषण देने के लिए, तुम्हें सत्य की स्पष्ट रूप से संगति करनी चाहिए और समस्याओं को हल करने के लिए अभ्यास के सिद्धांतों की स्पष्ट संगति करना आना चाहिए। जिसमें दिल और आत्मा है, उसे ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है, वह थोड़ी बातों से ही समझ जाएगा। लेकिन केवल सत्य की थोड़ी सी समझ से काम नहीं चलेगा। उनके पास अभ्यास के मार्ग और सिद्धांत भी होने चाहिए। इसी से उन्हें सत्य का अभ्यास करने में मदद मिलेगी। यहाँ तक कि जब लोगों में आध्यात्मिक चीजों की समझ हो और थोड़ा ही बोलने पर वे समझ जाते हैं, पर यदि वे सत्य का अभ्यास नहीं करते तो जीवन-प्रवेश नहीं होगा। यदि वे सत्य नहीं स्वीकार पाते, तो उनके लिए सब खत्म है और वे कभी भी सत्य की वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं कर पाएँगे। तुम कुछ लोगों का हाथ पकड़कर उन्हें सिखा सकते हो, उस समय तो लगेगा कि वे समझ रहे हैं, लेकिन जैसे ही तुम उनका हाथ छोड़ते हो, वे फिर से भ्रमित हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक मामले नहीं समझता। यदि, चाहे कोई भी समस्या हो, तुम नकारात्मक और कमजोर होते हो, तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होती और तुम्हें जो करना चाहिए वह करते हुए सहयोग नहीं करते, जिसका सहयोग करना चाहिए उसका सहयोग नहीं करते, तो इससे साबित होता है कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर नहीं है, तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य से प्रेम करता है। पवित्र आत्मा का कार्य लोगों को चाहे जैसे प्रेरित करे, कई वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करके, इतने सारे सत्य सुनकर, थोड़ा जमीर रखकर और आत्म-संयम पर भरोसा करके ही, लोगों को कम से कम न्यूनतम मानकों को पूरा करने में सक्षम होना चाहिए और अपने जमीर से फटकार नहीं खानी चाहिए। लोगों को उतना सुस्त और कमजोर नहीं होना चाहिए जितना वे अब हैं, उनका ऐसी स्थिति में होना अकल्पनीय है। शायद तुम लोगों के पिछले कुछ वर्ष भ्रम की अवस्था में, सत्य का अनुसरण और कोई प्रगति न करते हुए गुजरे हैं। यदि ऐसा नहीं है, तो तुम अभी भी इतने सुन्न और नीरस कैसे हो सकते हो? तुम्हारा इस तरह होना, पूरी तरह से तुम्हारी मूर्खता और अज्ञानता के कारण है, इसके लिए तुम किसी और को दोष नहीं दे सकते। सत्य दूसरों के मुकाबले कुछ खास लोगों के प्रति पक्षपातपूर्ण नहीं होता। यदि तुम सत्य नहीं स्वीकारते और समस्याओं को हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, तो तुम कैसे बदल सकते हो? कुछ लोगों को लगता है कि उनमें बहुत कम काबिलियत है और उनमें प्राप्त करने की क्षमता नहीं है, इसलिए वे खुद को सीमित कर लेते हैं, उन्हें लगता है कि वे चाहे कितना भी प्रयास कर लें, परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते। वे सोचते हैं कि चाहे वे कितनी भी कोशिश कर लें, सब बेकार है, और इसमें बस इतना ही है, इसलिए वे हमेशा नकारात्मक होते हैं, परिणामस्वरूप, बरसों परमेश्वर में विश्वास रखकर भी, उन्हें सत्य प्राप्त नहीं होता। यदि, सत्य का अनुसरण करने के लिए कड़ी मेहनत किए बिना, तुम कहते हो कि तुम्हारी क्षमता बहुत खराब है, तुम हार मान लेते हो और हमेशा एक नकारात्मक स्थिति में रहते हो और नतीजतन उस सत्य को नहीं समझते जिसे तुम्हें समझना चाहिए या जिस सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो, उसका अभ्यास नहीं करते, तो क्या तुम अपने लिए बाधा नहीं बन रहे हो? यदि तुम हमेशा यही कहते रहो कि तुममें पर्याप्त क्षमता नहीं है, क्या यह अपनी जिम्मेदारी से बचना और जी चुराना नहीं है? यदि तुम कष्ट उठा सकते हो, कीमत चुका सकते हो और पवित्र आत्मा का कार्य को प्राप्त कर सकते हो, तो तुम निश्चित ही कुछ सत्य समझकर कुछ वास्तविकताओं में प्रवेश कर पाओगे। यदि तुम परमेश्वर से उम्मीद न करो, उस पर निर्भर न रहो और बिना कोई प्रयास किए या कीमत चुकाए, बस हार मान लेते हो और समर्पण कर देते हो, तो तुम बेकार हो, तुममें रत्ती भर भी अंतरात्मा और विवेक नहीं है। चाहे तुम्हारी क्षमता खराब हो या अत्युत्तम हो, यदि तुम्हारे पास थोड़ा-सा भी जमीर और विवेक है, तो तुम्हें वह ठीक से पूरा करना चाहिए, जो तुम्हें करना है और जो तुम्हारा ध्येय है; पलायनवादी होना एक भयानक बात है और परमेश्वर के साथ विश्वासघात है। इसे सही नहीं किया जा सकता। सत्य का अनुसरण करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, और जो लोग बहुत अधिक नकारात्मक या कमज़ोर होते हैं, वे कुछ भी संपन्न नहीं करेंगे। वे अंत तक परमेश्वर में विश्वास नहीं कर पाएँगे, और, यदि वे सत्य को प्राप्त करना चाहते हैं और स्वभावगत बदलाव हासिल करना चाहते हैं, तो उनके लिए अभी भी उम्मीद कम है। केवल वे, जो दृढ़-संकल्प हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, ही उसे प्राप्त कर सकते हैं और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जा सकते हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 573
ऐसे बहुत लोग हैं, जो अपने कर्तव्य में व्यस्त होते ही अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं और सामान्य स्थिति बनाए नहीं रख पाते, और नतीजतन, लगातार सभा आयोजित कर अपने साथ सत्य की संगति किए जाने की माँग करते रहते हैं। यहाँ क्या चल रहा है? वे सत्य नहीं समझते, वे सच्चे मार्ग में नींव नहीं जमा पाए हैं, ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते समय जोश से प्रेरित होते हैं, और लंबे समय तक नहीं सह सकते हैं। जब लोग सत्य नहीं समझते, तो वे जो कुछ भी करते हैं उसमें कोई सिद्धांत नहीं होता। अगर उनके लिए कुछ करने की व्यवस्था की जाती है, तो वे उसमें गड़बड़ी कर देते हैं, वे जो करते हैं उस पर न तो ध्यान देते हैं, न ही सिद्धांत की तलाश करते हैं, उनके दिलों में कोई आज्ञाकारिता नहीं होती—जो यह साबित करता है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने में असमर्थ हैं। चाहे तुम कुछ भी करो, तुम्हें सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि तुम इसे क्यों कर रहे हो, वह कौन सी मंशा है जो तुम्हें ऐसा करने के लिए निर्देशित करती है, तुम्हारे ऐसा करने का क्या महत्व है, मामले की प्रकृति क्या है, और क्या तुम जो कर रहे हो वह कोई सकारात्मक चीज़ है या कोई नकारात्मक चीज़ है। तुम्हें इन सभी मामलों की एक स्पष्ट समझ अवश्य होनी चाहिए; सिद्धान्त के साथ कार्य करने में समर्थ होने के लिए यह बहुत आवश्यक है। अगर तुम अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए कुछ कर रहे हो, तो तुम्हें यह विचार करना चाहिए : मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे करना चाहिए, ताकि मैं इसे बस लापरवाही से न करूँ? इस मामले में तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। परमेश्वर से प्रार्थना करना सत्य, अभ्यास करने का तरीका, परमेश्वर का इरादा और परमेश्वर को संतुष्ट करने का तरीका खोजने के लिए है। प्रार्थना ये प्रभाव प्राप्त करने के लिए है। परमेश्वर से प्रार्थना करना, परमेश्वर के निकट आना और परमेश्वर के वचन पढना कोई धार्मिक अनुष्ठान या बाहरी क्रिया-कलाप नहीं हैं। यह परमेश्वर की इच्छा को खोजने के बाद सत्य के अनुसार अभ्यास करने के उद्देश्य से किया जाता है। अगर तुम उस समय हमेशा कहते हो “परमेश्वर को धन्यवाद”, जब तुमने कुछ नहीं किया होता, और तुम बहुत आध्यात्मिक और गहरी पहुँच रखने वाले लग सकते हो, लेकिन अगर कार्य करने का समय आने पर भी तुम जैसा चाहते हो वैसा ही करते हो, सत्य की खोज बिलकुल नहीं करते, तो यह “परमेश्वर का धन्यवाद” एक मंत्र से ज्यादा कुछ नहीं है, यह झूठी आध्यात्मिकता है। अपना कर्तव्य करते समय तुम्हें हमेशा सोचना चाहिए : “मुझे यह कर्तव्य कैसे पूरा करना चाहिए? परमेश्वर की इच्छा क्या है?” अपने कार्यों के लिए सिद्धांत और सत्य खोजने हेतु परमेश्वर से प्रार्थना करना और उसके करीब जाना, अपने दिल में परमेश्वर की इच्छा की तलाश करना, और जो भी तुम करते हो उसमें परमेश्वर के वचनों या सत्य के सिद्धांतों से न भटकना—केवल ऐसा करने वाला इंसान ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है; यह सब उन लोगों के लिए अप्राप्य है जो सत्य से प्रेम नहीं करते। ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो चाहे कुछ भी करें, अपने ही विचारों का पालन करते हैं, और चीजों को अत्यधिक एकांगी तरीके से समझते हैं, और सत्य की तलाश भी नहीं करते। वहाँ सिद्धांत का पूर्ण अभाव रहता है, और अपने दिल में वे इस पर कोई विचार नहीं करते कि परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार या उस तरीके से कैसे कार्य करो जो परमेश्वर को संतुष्ट करता है, और केवल हठपूर्वक अपनी ही इच्छा का पालन करना जानते हैं। ऐसे लोगों के दिल में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, “जब मेरे सामने कठिनाई आती है, तो मैं केवल परमेश्वर से ही प्रार्थना करता हूँ, लेकिन फिर भी ऐसा नहीं लगता कि इसका कोई प्रभाव होता है—इसलिए आम तौर पर अब जब मेरे साथ कुछ घटता है, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर से प्रार्थना करना बेकार है।” ऐसे लोगों के दिलों से परमेश्वर बिलकुल नदारद होता है। वे सत्य की तलाश नहीं करते, फिर चाहे वे कुछ भी कर रहे हों; वे केवल अपने विचारों का ही पालन करते हैं। तो क्या उनके कार्यों के सिद्धांत हैं? निश्चित रूप से नहीं। वे सब-कुछ एकांगी तरीके से देखते हैं। यहाँ तक कि जब लोग उनके साथ सत्य के सिद्धांतों की संगति करते हैं, तो वे उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते, क्योंकि उनके कार्यों में कभी कोई सिद्धांत नहीं रहा होता, उनके हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता, और उनके हृदय में उनके सिवा कोई नहीं होता। उन्हें लगता है कि उनके इरादे नेक हैं, कि वे बुराई नहीं कर रहे, कि उनके इरादों को सत्य का उल्लंघन करने वाला नहीं माना जा सकता, उन्हें लगता है कि अपने इरादों के अनुसार कार्य करना सत्य का अभ्यास करना होना चाहिए, कि इस प्रकार कार्य करना परमेश्वर का आज्ञापालन करना है। वस्तुत:, इस मामले में वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश या उससे प्रार्थना नहीं कर रहे, बल्कि आवेग पर कार्य करते हुए, अपने ही जोशीले इरादों के अनुसार, वे उस तरह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे जिस तरह परमेश्वर कहता है, उनमें परमेश्वर की आज्ञाकारिता वाला दिल नहीं है, उनमें यह इच्छा अनुपस्थित रहती है। लोगों के अभ्यास में यह सबसे बड़ी गलती होती है। अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो और फिर भी वह तुम्हारे दिल में नहीं है, तो क्या तुम परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रहे? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या परिणाम हो सकता है? तुम इससे क्या हासिल कर सकते हो? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या मतलब है?
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 574
अगर तुमने कुछ ऐसा किया है, जो सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन और परमेश्वर को अप्रसन्न करता है, तो तुम्हें आत्मचिंतन करके खुद को जानने की कोशिश कैसे करनी चाहिए? जब तुम उसे करने जा रहे थे, तब क्या तुमने उससे प्रार्थना की थी? क्या तुमने कभी यह विचार किया, “क्या चीजें इस तरह से करना सत्य के अनुरूप है? अगर यह बात परमेश्वर के सामने लाई जाएगी, तो उसे कैसी लगेगी? अगर उसे इसका पता चलेगा, तो वह खुश होगा या कुपित? क्या वह इसका तिरस्कार या इससे घृणा करेगा?” तुमने यह जानने की कोशिश नहीं की, है ना? यहाँ तक कि अगर दूसरे लोगों ने तुम्हें याद भी दिलाया, तो तुम तब भी यही सोचोगे कि यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, और यह किसी भी सिद्धांत के खिलाफ नहीं जाता और न ही कोई पाप है। नतीजतन, तुमने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर दिया और उसे क्रोध करने के लिए उकसाया, इस हद तक कि उसे तुमसे नफरत हो जाए। यह लोगों की विद्रोहशीलता से उत्पन्न होता है। इसलिए, तुम्हें सभी चीजों में सत्य खोजना चाहिए। तुम्हें इसी का पालन करना चाहिए। अगर तुम पहले से प्रार्थना करने के लिए ईमानदारी से परमेश्वर के सामने आ सको, और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य की तलाश कर सको, तो तुम गलती नहीं करोगे। सत्य के तुम्हारे अभ्यास में कुछ विचलन हो सकते हैं, लेकिन इससे बचना कठिन है, और कुछ अनुभव प्राप्त करने के बाद तुम सही ढंग से अभ्यास करने में सक्षम होगे। लेकिन अगर तुम जानते हो कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है, फिर भी इसका अभ्यास नहीं करते, तो समस्या सत्य के प्रति तुम्हारी नापसंदगी है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे उसे कभी नहीं खोजेंगे, चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए। केवल सत्य से प्रेम करने वालों के पास ही ऐसे हृदय होते हैं जो परमेश्वर से डरते हैं, और जब ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें समझ नहीं आतीं, तो वे सत्य की खोज करने में सक्षम होते हैं। अगर तुम परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकते और अभ्यास करना नहीं जानते, तो तुम्हें कुछ ऐसे लोगों के साथ सहभागिता करनी चाहिए, जो सत्य समझते हैं। अगर तुम्हें ऐसे लोग न मिल पाएँ जो सत्य समझते हों, तो तुम्हें एकचित्त होकर एक-साथ परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए कुछ ऐसे लोग ढूँढ़ने चाहिए जिन्हें शुद्ध समझ हो, परमेश्वर से खोजना चाहिए, परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए, और परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए एक रास्ता खोले जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अगर तुम सभी सत्य के लिए तरसते हो, सत्य की खोज करते हो, और सत्य पर एक-साथ सहभागिता करते हो, तो एक समय आएगा जब तुममें से किसी को कोई अच्छा समाधान सूझ जाएगा। अगर तुम सभी को वह समाधान उपयुक्त लगता है और वह एक अच्छा उपाय है, तो यह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी के कारण हो सकता है। फिर अगर तुम अभ्यास का ज्यादा सटीक मार्ग तलाशने के लिए एक-साथ संगति करना जारी रखते हो, तो यह निश्चित रूप से सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप होगा। अपने अभ्यास में, अगर तुम पाते हो कि तुम्हारे अभ्यास का तरीका अभी भी कुछ ठीक नहीं है, तो तुम्हें उसे जल्दी से सही करने की आवश्यकता है। अगर तुम थोड़ी गलती करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा, क्योंकि तुम जो करते हो उसमें तुम्हारे इरादे सही हैं, और तुम सत्य के अनुसार अभ्यास कर रहे हो। तुम बस सिद्धांतों के बारे में थोड़े भ्रमित हो और तुमने अपने अभ्यास में एक त्रुटि कर दी है, जो क्षम्य है। लेकिन जब ज्यादातर लोग चीजें करते हैं, तो वे इसे किए जाने के तरीके को लेकर अपनी कल्पना के आधार पर इसे करते हैं। सत्य के अनुसार अभ्यास कैसे करें या परमेश्वर की स्वीकृति कैसे प्राप्त करें, इस पर विचार करने के लिए वे परमेश्वर के वचनों को आधार नहीं बनाते। इसके बजाय, वे केवल इस बारे में सोचते हैं कि कैसे स्वयं को लाभ पहुँचाया जाए, कैसे दूसरों से अपना आदर करवाया जाए, और कैसे दूसरों से अपनी प्रशंसा करवाई जाए। वे चीजें पूरी तरह से अपने विचारों के आधार पर और विशुद्ध रूप से खुद को संतुष्ट करने के लिए करते हैं, जो परेशानी खड़ी करता है। ऐसे लोग कभी सत्य के अनुसार कार्य नहीं करेंगे, और परमेश्वर हमेशा उनसे घृणा करेगा। अगर वास्तव में तुम्हारे पास अंतरात्मा और विवेक है, तो चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें प्रार्थना करने और खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होना चाहिए, अपने कामों में उद्देश्यों और मिलावट की गंभीरता से जाँच करने में सक्षम होना चाहिए, यह तय करने में सक्षम होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार क्या करना उचित है, और बार-बार तोलना और विचारना चाहिए कि कौन-से कार्य परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं, कौन-से कार्य परमेश्वर को नाराज करते हैं, और कौन-से कार्य परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करते हैं। तुम्हें मन में इन मामलों पर तब तक बार-बार विचार करना चाहिए, जब तक तुम उन्हें स्पष्ट रूप से समझ नहीं लेते। अगर तुम जान जाते हो कि कुछ करने के पीछे तुम्हारे अपने उद्देश्य हैं, तो तुम्हें इस पर चिंतन करना चाहिए कि तुम्हारे उद्देश्य क्या हैं, वे खुद को संतुष्ट करने के लिए हैं या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, वे तुम्हारे लिए फायदेमंद हैं या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए, और उनके क्या परिणाम होंगे।...अगर तुम अपनी प्रार्थनाओं में इस तरह से और अधिक खोज और चिंतन करते हो, और सत्य खोजने के लिए खुद से और प्रश्न पूछते हैं, तो तुम्हारे कार्यों में विचलन कम होते जाएँगे। जो लोग इस तरह से सत्य की खोज कर सकते हैं, केवल वे ही ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील हैं और जो परमेश्वर का भय मानते हैं, क्योंकि तुम परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार और एक आज्ञाकारी हृदय से खोज रहे हो, और इस तरह खोजने से तुम जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हो, वे सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप होंगे।
अगर किसी विश्वासी के कर्म सत्य के अनुरूप नही हैं, तो वह किसी अविश्वासी के समान ही है। वह उस तरह का इंसान है, जिसके दिल में परमेश्वर नहीं होता, और जो परमेश्वर से भटक जाता है, और ऐसा इंसान परमेश्वर के घर में काम पर रखे गए उस कर्मचारी की तरह होता है, जो अपने मालिक के लिए कोई छोटे-मोटे कार्य कर देता है, कुछ मुआवज़ा पाता है और फिर चला जाता है। यह ऐसा इंसान बिलकुल नहीं हो सकता, जो परमेश्वर पर विश्वास करता है। परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करने के लिए क्या करना है, यह वह पहली चीज़ है, जिसके बारे में तुम्हें चीजें करते समय सोचना और काम करना चाहिए; यह तुम्हारे अभ्यास का सिद्धांत और दायरा होना चाहिए। तुम जो कर रहे हो वह सत्य के अनुरूप है या नहीं, इसका निश्चय तुम्हें इसलिए करना चाहिए, क्योंकि अगर वह सत्य के अनुरूप है, तो वह निश्चित रूप से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। ऐसा नहीं है कि तुम्हें यह मापना चाहिए कि यह बात सही है या गलत है, या क्या यह हर किसी की रुचि के अनुरूप है, या क्या यह तुम्हारी अपनी इच्छाओं के अनुसार है; बल्कि तुम्हें यह निश्चित करना चाहिए कि यह सत्य के अनुरूप है या नहीं, और यह कलीसिया के काम और हितों को लाभ पहुँचाता है या नहीं। अगर तुम इन बातों पर विचार करते हो, तो तुम चीज़ों को करते समय परमेश्वर की इच्छा के अधिकाधिक अनुरूप होते जाओगे। अगर तुम इन पहलुओं पर विचार नहीं करते, और चीज़ों को करते समय केवल अपनी इच्छा पर निर्भर रहते हो, तो तुम्हारा उन्हें गलत तरीके से करना गारंटीशुदा है, क्योंकि मनुष्य की इच्छा सत्य नहीं है और निश्चित रूप से, वह परमेश्वर के साथ असंगत होती है। अगर तुम परमेश्वर द्वारा अनुमोदित होने की इच्छा रखते हो, तो तुम्हें सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, न कि अपनी इच्छा के अनुसार। कुछ लोग अपने कर्तव्य पूरे करने के नाम पर कुछ निजी मामलों में संलग्न रहते हैं। उनके भाई और बहन इसे अनुचित मानते हैं और इसके लिए उन्हें फटकारते हैं, लेकिन ये लोग भूल स्वीकार नहीं करते। उन्हें लगता है कि यह एक व्यक्तिगत मामला है, जिसमें कलीसिया का कार्य, वित्त या उसके लोग शामिल नहीं हैं, और यह कोई बुरा काम काम नहीं है, इसलिए लोगों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कुछ चीज़ें तुम्हें निजी मामले लग सकती हैं, जिन पर कोई सिद्धांत या सत्य लागू नहीं होता। किंतु, तुम्हारे द्वारा किए गए कार्य को देखते हुए, तुम बहुत स्वार्थी रहे। तुमने कलीसिया के कार्य या परमेश्वर के घर के हितों पर कोई ध्यान नहीं दिया, न ही इस बात पर ध्यान दिया कि क्या यह परमेश्वर के लिए संतोषजनक होगा; तुम केवल अपने फायदे पर विचार करते रहे। इसमें पहले ही संतों का औचित्य और साथ ही इंसान की मानवता शामिल हैं। भले ही तुम जो कर रहे थे, उससे चर्च के हित नहीं जुड़े थे, न ही उसमें सत्य शामिल था, फिर भी अपने कर्तव्य के पालन करने का दावा करते हुए एक निजी मामले में संलग्न होना सत्य के अनुरूप नहीं है। चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, चाहे मामला कितना भी बड़ा या छोटा हो, और चाहे वह परमेश्वर के परिवार में तुम्हारा कर्तव्य हो या तुम्हारा निजी मामला, तुम्हें इस बात पर विचार करना ही चाहिए कि जो तुम कर रहे हो वह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है या नहीं, साथ ही क्या यह ऐसा कुछ है जो किसी मानवता युक्त इंसान को करना चाहिए। अगर तुम जो भी करते हो उसमें उस तरह सत्य की तलाश करते हो तो तुम ऐसे इंसान हो जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है। अगर तुम हर बात और हर सत्य को इस ढंग से लेते हो, तो तुम अपने स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम होगे। ऐसे लोग हैं, जो सोचते हैं, “जब मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तब मेरा सत्य का अभ्यास करना तो ठीक है, लेकिन जब मैं अपने निजी कार्य कर रहा होता हूँ, तो मुझे परवाह नहीं कि सत्य क्या कहता है—मैं वही करूँगा जो मुझे पसंद है, जो कुछ भी मुझे अपने फायदे के लिए करना पड़े।” इन शब्दों से तुम देख सकते हो कि वे सत्य के प्रेमी नहीं हैं। वे जो कुछ करते हैं, उसमें कोई सिद्धांत नहीं होता। इस बात पर विचार तक किए बिना कि परमेश्वर के घर पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, वे जो कुछ भी उनके लिए फायदेमंद होगा, करेंगे। नतीजतन, जब वे कुछ कर लेते हैं, तो परमेश्वर उनमें मौजूद नहीं होता, और वे अंधकार और उदासी महसूस करते हैं, और नहीं जानते कि क्या हो रहा है। क्या वे अपने इस रेगिस्तान के ही लायक नहीं है? अगर तुम अपने कार्यों में सत्य का अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर का अपमान करते हो, तो तुम उसके खिलाफ पाप कर रहे हो। अगर कोई इंसान सत्य से प्रेम नहीं करता और अक्सर अपनी इच्छा के अनुसार काम करता है, तो वह अक्सर परमेश्वर को रुष्ट करेगा। परमेश्वर उससे घृणा करेगा और अस्वीकार कर उसे एक किनारे कर देगा। ऐसा इंसान जो कुछ करता है, वह अक्सर परमेश्वर की स्वीकृति पाने में विफल हो जाता है, और अगर वह पश्चाताप न करे, तो सजा उससे दूर नहीं है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 575
तुम जो भी कर्तव्य निभाते हो उसमें जीवन-प्रवेश शामिल होता है। तुम्हारा कर्तव्य काफी नियमित हो या अनियमित, नीरस हो या जीवंत, तुम्हें हमेशा जीवन-प्रवेश हासिल करना ही चाहिए। कुछ लोगों द्वारा किये गये कर्तव्य एकरसता वाले होते हैं; वे हर दिन वही चीज करते रहते हैं। मगर, इनको करते समय, ये लोग अपनी जो दशाएं प्रकट करते हैं वे सब एक-समान नहीं होतीं। कभी-कभार अच्छी मन:स्थिति में होने पर लोग थोड़े ज़्यादा चौकस होते हैं और बेहतर काम करते हैं। बाकी समय, किसी अनजान प्रभाव के चलते, उनका शैतानी स्वभाव उनमें शैतानी जगाता है जिससे उनमें अनुचित विचार उपजते हैं, वे बुरी हालत और मन:स्थिति में आ जाते हैं; परिणाम यह होता है कि वे अपने कर्तव्यों को सतही ढंग से करते हैं। लोगों की आंतरिक दशाएं निरंतर बदलती रहती हैं; ये किसी भी स्थान पर किसी भी वक्त बदल सकती हैं। तुम्हारी दशा चाहे जैसे बदले, अपनी मन:स्थिति के अनुसार कर्म करना हमेशा ग़लत होता है। मान लो कि जब तुम अच्छी मन:स्थिति में होते हो, तो थोड़ा बेहतर करते हो, और बुरी मन:स्थिति में होते हो तो थोड़ा बदतर करते हो—क्या यह काम करने का कोई सैद्धांतिक ढंग है? क्या यह तरीका तुम्हें अपने कर्तव्य को एक स्वीकार्य मापदंड तक निभाने देगा? मन:स्थिति चाहे जैसी हो, लोगों को परमेश्वर के सामने प्रार्थना करना और सत्य की खोज करना आना चाहिए, सिर्फ इसी तरीके से वे अपनी मन:स्थिति द्वारा नियंत्रित होने, और उसके द्वारा इधर-उधर भटकाए जाने से बच सकते हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें हमेशा खुद को जांच कर देखना चाहिए कि क्या तुम सिद्धांत के अनुसार काम कर रहे हो, तुम्हारा कर्तव्य निर्वाह सही स्तर का है या नहीं, कहीं तुम इसे सतही तौर पर तो नहीं कर रहे हो, कहीं तुमने अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने से जी चुराने की कोशिश तो नहीं की है, कहीं तुम्हारे रवैये और तुम्हारे सोचने के तरीके में कोई खोट तो नहीं। एक बार तुम्हारे आत्मचिंतन कर लेने और तुम्हारे सामने इन चीज़ों के स्पष्ट हो जाने से, अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हें आसानी होगी। अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा किसी भी चीज़ से सामना हो—नकारात्मकता और कमज़ोरी, या निपटान के बाद बुरी मन:स्थिति में होना—तुम्हें कर्तव्य के साथ ठीक से पेश आना चाहिए, और तुम्हें साथ ही सत्य को खोजना और परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए। ये काम करने से तुम्हारे पास अभ्यास करने का मार्ग होगा। अगर तुम अपना कर्तव्य निर्वाह बहुत अच्छे ढंग से करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी मन:स्थिति से बिल्कुल प्रभावित नहीं होना चाहिए। तुम्हें चाहे जितनी निराशा या कमज़ोरी महसूस हो रही हो, तुम्हें अपने हर काम में पूरी सख्ती के साथ सत्य का अभ्यास करना चाहिए, और सिद्धांतों पर अडिग रहना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो न सिर्फ दूसरे लोग तुम्हें स्वीकार करेंगे, बल्कि परमेश्वर भी तुम्हें पसंद करेगा। इस तरह, तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे, जो ज़िम्मेदार है और दायित्व का निर्वहन करता है; तुम सचमुच में एक अच्छे व्यक्ति होगे, जो अपने कर्तव्यों को सही स्तर पर निभाता है और जो पूरी तरह से एक सच्चे इंसान की तरह जीता है। ऐसे लोगों का शुद्धिकरण किया जाता है और वे अपने कर्तव्य निभाते समय वास्तविक बदलाव हासिल करते हैं, उन्हें परमेश्वर की दृष्टि में ईमानदार कहा जा सकता है। केवल ईमानदार लोग ही सत्य का अभ्यास करने में डटे रह सकते हैं और सिद्धांत के साथ कर्म करने में सफल हो सकते हैं, और मानक स्तर के अनुसार कर्तव्यों को निभा सकते हैं। सिद्धांत पर चलकर कर्म करने वाले लोग अच्छी मन:स्थिति में होने पर अपने कर्तव्यों को ध्यान से निभाते हैं; वे सतही ढंग से कार्य नहीं करते, वे अहंकारी नहीं होते और दूसरे उनके बारे में ऊंचा सोचें इसके लिए दिखावा नहीं करते। बुरी मन:स्थिति में होने पर भी वे अपने रोज़मर्रा के काम को उतनी ही ईमानदारी और ज़िम्मेदारी से पूरा करते हैं और उनके कर्तव्यों के निर्वाह के लिए नुकसानदेह या उन पर दबाव डालने वाली या उनके कर्तव्यों में बाधा पहुँचाने वाली किसी चीज़ से सामना होने पर भी वे परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत रख पाते हैं और यह कहते हुए प्रार्थना करते हैं, “मेरे सामने चाहे जितनी बड़ी समस्या खड़ी हो जाए—भले ही आसमान फट कर गिर पड़े—जब तक मैं जीवित हूँ, अपना कर्तव्य निभाने की भरसक कोशिश करने का मैं दृढ़ संकल्प लेता हूँ। मेरे जीवन का प्रत्येक दिन वह दिन होगा जब मैं अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाऊंगा, ताकि मैं परमेश्वर द्वारा मुझे दिये गये इस कर्तव्य, और उसके द्वारा मेरे शरीर में प्रवाहित इस सांस के योग्य बना रहूँ। चाहे जितनी भी मुश्किलों में रहूँ, मैं उन सबको परे रख दूंगा क्योंकि कर्तव्य निर्वाह करना मेरे लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है!” जो लोग किसी व्यक्ति, घटना, चीज़ या माहौल से प्रभावित नहीं होते, जो किसी मन:स्थिति या बाहरी स्थिति से बेबस नहीं होते, और जो परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गये कर्तव्यों और आदेशों को सबसे आगे रखते हैं—वही परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होते हैं और सच्चाई के साथ उसके सामने समर्पण करते हैं। ऐसे लोगों ने जीवन-प्रवेश हासिल किया है और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश किया है। यह सत्य को जीने की सबसे सच्ची और व्यावहारिक अभिव्यक्तियों में से एक है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 576
कुछ लोगों के लिए, भले ही वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय किसी भी समस्या का सामना क्यों न करें, वे सत्य की तलाश नहीं करते हैं और हमेशा अपने विचारों, अपनी अवधारणाओं, कल्पनाओं और इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं। वे निरंतर अपनी स्वार्थी इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं और उनके भ्रष्ट स्वभाव हमेशा उनके कार्यों पर नियंत्रण करते हैं। वे हमेशा अपने कर्तव्य निभाते हुए प्रतीत हो सकते हैं, पर क्योंकि उन्होंने सत्य को कभी स्वीकार नहीं किया है, और वे सत्य के सिद्धांतों के अनुसार चीजें करने में अक्षम हैं, इसलिए वे आखिर में सत्य और जीवन पाने में असफल रहेंगे, और सेवाकर्ता बनने के ही लायक होंगे। तो ऐसे लोग अपने कर्तव्यों को करते समय किस पर निर्भर करते हैं? ऐसे व्यक्ति न तो सत्य पर निर्भर करते हैं, न ही परमेश्वर पर। जिस थोड़े से सत्य को वे समझते हैं, उसने उनके हृदयों में संप्रभुत्व हासिल नहीं किया है; वे इन कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनी खुद की योग्यताओं और प्रतिभाओं पर, उस ज्ञान पर जो उन्होंने प्राप्त किया है, और साथ ही अपनी इच्छाशक्ति या नेक इरादों पर भरोसा कर रहे हैं। अगर बात ऐसी है, तो क्या वे अपने कर्तव्यों को एक स्वीकार्य स्तर तक निभाने में सक्षम होंगे? जब लोग अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनी स्वाभाविक अवस्था, धारणाओं, कल्पनाओं, विशेषज्ञता और शिक्षा पर निर्भर करते हैं, तो भले ही ऐसा प्रतीत हो कि वे अपने कर्तव्य निभा रहे हैं और कोई दुष्टता नहीं कर रहे हैं, पर वे सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे होते, और कुछ भी ऐसा नहीं करते जिससे परमेश्वर संतुष्ट हो। साथ ही एक दूसरी समस्या भी है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता : अपने कर्तव्य को निभाने की प्रक्रिया के दौरान, यदि तुम्हारी अवधारणाएँ, कल्पनाएँ और व्यक्तिगत इच्छाएँ कभी नहीं बदलती हैं और कभी भी सत्य के साथ प्रतिस्थापित नहीं की जाती हैं, यदि तुम्हारे कार्य और कर्म कभी भी सत्य के सिद्धांत के अनुसार नहीं किए जाते हैं, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? तुम्हें जीवन में प्रवेश नहीं मिलेगा, तुम एक सेवाकर्ता बन जाओगे और इस प्रकार बाइबल में लिखे गए प्रभु यीशु के ये वचन पूरे करोगे : “उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:22-23)। परमेश्वर अपने प्रयास खपाने वालों और सेवा प्रदान करने वालों को कुकर्मी क्यों कहता है? एक बात पर हम निश्चित हो सकते हैं, और वह यह कि ये लोग चाहे किन भी कर्तव्यों को निभाएँ या कोई भी काम करें, इन लोगों की अभिप्रेरणाएँ, उमंग, इरादे और विचार पूरी तरह से उनकी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं से पैदा होते हैं, और ये पूरी तरह से अपने निजी हितों और संभावनाओं की रक्षा के लिए होते हैं, और अपने खुद के गर्व, दंभ और रुतबे की संतुष्टि के लिए होते हैं। यह सब इसी सोच और हिसाब-किताब के आसपास केंद्रित होता है, उनके दिलों में कोई सत्य नहीं होता, और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला और उसका आज्ञापालन करने वाला दिल नहीं होता—यही समस्या की जड़ है। तुम लोगों के लिए आज किस चीज का अनुसरण करना बहुत जरूरी है? सभी मामलों में, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर की इच्छा और तुमसे उसकी मांग के अनुसार अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम परमेश्वर द्वारा प्रशंसा पाओगे। तो परमेश्वर की मांग के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने में खासतौर से क्या शामिल है? तुम जो कुछ भी करो, उसमें परमेश्वर से प्रार्थना करना सीखो, अपनी मंशाओं पर, अपने विचारों पर चिंतन करो, कि क्या ये मंशाएँ और विचार सत्य के अनुरूप हैं; अगर नहीं हैं तो उन्हें एक तरफ कर देना चाहिए, जिसके बाद तुम्हें सत्य के सिद्धांतों के अनुसार चलना चाहिए, और परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकार करना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि तुम सत्य को व्यवहार में लाओ। अगर तुम्हारे खुद की प्रेरणाएँ और लक्ष्य हैं, और तुम्हें अच्छी तरह पता है कि वे सत्य का उल्लंघन करते हैं और परमेश्वर की इच्छा के उलट हैं, फिर भी तुम प्रार्थना नहीं करते और समाधान के लिए सत्य नहीं खोजते, तो यह बहुत खतरनाक है, और तुम्हारे लिए बुराई करना और परमेश्वर का विरोध करने वाले काम करना आसान हो जाएगा। अगर तुम एक-दो बार कोई बुरा काम करके प्रायश्चित कर लेते हो, तो तुम्हारे उद्धार की अब भी उम्मीद है। पर अगर तुम बार-बार बुराई करते रहते हो, अगर तुम हर तरह के दुष्टतापूर्ण काम करते हो—और फिर भी प्रायश्चित नहीं करते, तो तुम संकट में हो : परमेश्वर तुम्हें एक तरफ कर देगा या त्याग देगा, जिसका मतलब है कि तुम बाहर किए जाने के खतरे में हो; जो लोग सभी तरह के बुरे काम करते हैं, उन्हें निश्चित ही दंडित और बाहर किया जाएगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 577
लोगों को समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता का सृजित प्राणियों के साथ व्यवहार करने का एक बुनियादी सिद्धांत है, जो सर्वोच्च सिद्धांत है। सृष्टिकर्ता सृजित प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार करता है, यह पूरी तरह से उसकी प्रबंधन योजना और उसकी कार्य अपेक्षाओं पर आधारित है; उसे किसी व्यक्ति से सलाह लेने की जरूरत नहीं है, न ही उसे इसकी आवश्यकता है कि कोई व्यक्ति उससे सहमत हो। जो कुछ भी उसे करना चाहिए और जिस भी तरह से उसे लोगों से व्यवहार करना चाहिए, वह करता है, और भले ही वह कुछ भी करता हो और जिस भी तरह से लोगों से व्यवहार करता हो, वह सब सत्य के सिद्धांतों और उन सिद्धांतों के अनुरूप होता है, जिनके द्वारा सृष्टिकर्ता कार्य करता है। एक सृजित प्राणी के रूप में करने लायक केवल एक ही चीज़ है और वह है सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पित होना; व्यक्ति को अपना कोई चुनाव नहीं करना चाहिए। यही विवेक है जो सृजित प्राणियों में होना चाहिए, और अगर किसी व्यक्ति के पास यह नहीं है, तो वह व्यक्ति कहलाने योग्य नहीं हैं। लोगों को समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता हमेशा सृष्टि का प्रभु ही रहेगा; उसके पास किसी भी सृजित प्राणी पर जैसे चाहे वैसे आयोजन और शासन करने की शक्ति और योग्यता है, और ऐसा करने के लिए उसे किसी कारण की आवश्यकता नहीं है। यह उसका अधिकार है। सृजित प्राणियों में से कोई भी ऐसा नहीं है, जिसके पास यह अधिकार हो या वह इतना पात्र हो कि वह इस बात की आलोचना कर सके कि सृष्टिकर्ता जो कुछ करता है, वह सही है या गलत है, या उसे कैसे कार्य करना चाहिए। कोई भी प्राणी यह हक नहीं रखता कि यह चुन सके कि उसे सृष्टिकर्ता के शासन और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना है या नहीं; किसी भी प्राणी को यह हक नहीं है कि वह यह पूछ सके कि सृष्टिकर्ता को कैसे शासन करना चाहिए या उसे उनकी नियति की व्यवस्था कैसे करनी चाहिए। यह सर्वोच्च सत्य है। सृष्टिकर्ता ने चाहे सृजित प्राणियों के साथ कुछ भी किया हो या कैसे भी किया हो, उसके द्वारा सृजित मनुष्यों को केवल एक ही काम करना चाहिए : सृष्टिकर्ता द्वारा प्रस्तुत हरेक चीज को खोजना, इसके प्रति समर्पित होना, इसे जानना और स्वीकार करना। इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि सृष्टिकर्ता ने अपनी प्रबंधन योजना और अपना काम पूरा कर लिया होगा, जिससे उसकी प्रबंधन योजना बिना किसी अवरोध के आगे बढ़ेगी; इस बीच, चूँकि सृजित प्राणियों ने सृष्टिकर्ता का नियम और उसकी व्यवस्थाएँ स्वीकार कर ली हैं, और वे उसके शासन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो गए हैं, इसलिए उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया होगा, सृष्टिकर्ता की इच्छा को समझ लिया होगा, और उसके स्वभाव को जान लिया होगा। एक और सिद्धांत है, जो मुझे तुम्हें बताना चाहिए : सृष्टिकर्ता चाहे जो भी करे, जिस भी तरह से अभिव्यक्त करे, उसका कार्य बड़ा हो या छोटा, वह फिर भी सृष्टिकर्ता ही है; जबकि समस्त मनुष्य, जिन्हें उसने सृजित किया, चाहे उन्होंने कुछ भी किया हो, या वे कितने भी प्रतिभाशाली और गुणी क्यों न हों, वे सृजित प्राणी ही रहते हैं। जहाँ तक सृजित मनुष्यों का सवाल है, चाहे जितना भी अनुग्रह और जितने भी आशीष उन्होंने सृष्टिकर्ता से प्राप्त कर लिए हों, या जितनी भी दया, प्रेमपूर्ण करुणा और उदारता प्राप्त कर ली हो, उन्हें खुद को भीड़ से अलग नहीं मानना चाहिए, या यह नहीं सोचना चाहिए कि वे परमेश्वर के बराबर हो सकते हैं और सृजित प्राणियों में ऊँचा दर्जा प्राप्त कर चुके हैं। परमेश्वर ने तुम्हें चाहे जितने उपहार दिए हों, या जितना भी अनुग्रह प्रदान किया हो, या जितनी भी दयालुता से उसने तुम्हारे साथ व्यवहार किया हो, या चाहे उसने तुम्हें कोई विशेष प्रतिभा दी हो, इनमें से कुछ भी तुम्हारी संपत्ति नहीं है। तुम एक सृजित प्राणी हो, और इस तरह तुम सदा एक सृजित प्राणी ही रहोगे। तुम्हें कभी नहीं सोचना चाहिए, “मैं परमेश्वर के हाथों में उसका लाड़ला हूँ। परमेश्वर मुझे कभी दर-किनार नहीं करेगा। परमेश्वर का रवैया मेरे प्रति हमेशा प्रेम, देखभाल और नाज़ुक दुलार के साथ-साथ सुकून के गर्मजोशी भरे बोलों और प्रोत्साहन का होगा।” इसके विपरीत, सृष्टिकर्ता की दृष्टि में तुम अन्य सभी सृजित प्राणियों की ही तरह हो; परमेश्वर तुम्हें जिस तरह चाहे, उस तरह इस्तेमाल कर सकता है, और साथ ही तुम्हारे लिए जैसा चाहे, वैसा आयोजन कर सकता है, और तुम्हारे लिए सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीज़ों के बीच जैसी चाहे वैसी कोई भी भूमिका निभाने की व्यवस्था कर सकता है। लोगों को यह ज्ञान होना चाहिए और उनमें यह अच्छी समझ होनी चाहिए। अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो परमेश्वर के साथ उसका संबंध अधिक सामान्य हो जाएगा, और वह उसके साथ एक सबसे ज़्यादा वैध संबंध स्थापित कर लेगा; अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो वह अपने स्थान को सही ढंग से उन्मुख कर पाएगा, वहाँ अपना आसन ग्रहण कर पाएगा और अपना कर्तव्य निभा पाएगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 578
परमेश्वर को जानना परमेश्वर के वचनों को पढ़ने, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने, और साथ ही कई परीक्षणों, शोधनों, काट-छाँट और निपटान का अनुभव करने के माध्यम से होना चाहिए; केवल तभी परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के स्वभाव का सच्चा ज्ञान होना संभव है। कुछ लोग कहते हैं : “मैंने देहधारी परमेश्वर को नहीं देखा है, तो मुझे परमेश्वर को कैसे जानना चाहिए?” वास्तव में, परमेश्वर के वचन उसके स्वभाव की एक अभिव्यक्ति हैं। परमेश्वर के वचनों से तुम मनुष्यों के लिए उसके प्रेम और उद्धार के साथ-साथ उन्हें बचाने के उसके तरीके को भी देख सकते हो...। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर के वचन स्वयं परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए जाते हैं, वे मनुष्यों द्वारा लिखे नहीं जाते। उन्हें परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से व्यक्त किया गया है; स्वयं परमेश्वर अपने वचनों और अपने दिल की आवाज़ व्यक्त कर रहा है, जिन्हें उसके दिल से निकले वचन भी कहा जा सकता है। उन्हें उसके दिल से निकले वचन क्यों कहा जाता है? वह इसलिए, क्योंकि वे बहुत गहराई से निकलते हैं, और परमेश्वर के स्वभाव, उसकी इच्छा, उसके मतों और विचारों, मानवजाति के लिए उसके प्रेम, उसके द्वारा मानवजाति के उद्धार, तथा मानवजाति से उसकी अपेक्षाओं को व्यक्त करते हैं...। परमेश्वर के कथनों में कठोर वचन, कोमल और विचारशील वचन, और साथ ही प्रकाशनात्मक वचन भी शामिल हैं, जो इंसान की इच्छाओं के अनुरूप नहीं हैं। यदि तुम केवल प्रकाशनात्मक वचनों को देखो, तो तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर बहुत कठोर है। यदि तुम केवल कोमल वचनों को देखो, तो तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर ज़्यादा अधिकार-संपन्न नहीं है। इसलिए तुम्हें उन्हें संदर्भ से अलग करके नहीं देखना चाहिए; बल्कि उन्हें हर कोण से देखो। कभी-कभी परमेश्वर करुणामय दृष्टिकोण से बोलता है, और तब लोग मानवजाति के लिए उसके प्रेम को देखते हैं; कभी-कभी वह कठोर दृष्टिकोण से बोलता है, और तब लोग देखते हैं कि उसका स्वभाव कोई अपमान सहन नहीं करता, कि मनुष्य अत्यधिक गंदा है, और वह परमेश्वर के मुख को देखने या परमेश्वर के सामने आने के योग्य नहीं है, और अब लोगों को परमेश्वर के सामने आने की जो अनुमति है, वो पूरी तरह से परमेश्वर के अनुग्रह की बदौलत है। परमेश्वर के कार्य करने के तरीके और उसके कार्य के अर्थ से उसकी बुद्धि को देखा जा सकता है। लोग इन चीज़ों को परमेश्वर के वचनों में भी देख सकते हैं, यहाँ तक कि उसके सीधे संपर्क में आए बिना भी। जब परमेश्वर की सच्ची समझ रखने वाले व्यक्ति मसीह के संपर्क में आते हैं, तो मसीह के साथ उनका अनुभव परमेश्वर के बारे में उनकी मौजूदा समझ के साथ मेल खा सकता है, किंतु जब केवल सैद्धांतिक समझ वाले व्यक्ति मसीह के संपर्क में आते हैं, तो वे इस पारस्परिक संबंध को नहीं देख सकते। देहधारण का सत्य सबसे गंभीर रहस्य है; मनुष्य के लिए उसकी थाह पाना कठिन है। देहधारण का रहस्य समझने के लिए मिलकर परमेश्वर के वचनों का उपयोग करो, उन्हें विभिन्न कोणों से देखो, और फिर मिलकर प्रार्थना करो, विचार करो और सत्य के इस पहलू पर आगे और सहभागिता करो। इससे तुम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त करने और इसे समझने में सक्षम हो जाओगे। चूँकि मनुष्यों के पास परमेश्वर के संपर्क में आने का कोई अवसर नहीं है, इसलिए उन्हें आगे बढ़ने के लिए इस तरह के अनुभव पर भरोसा करना चाहिए और अगर उन्हें अंतत: परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त करना है, तो एक बार में थोड़ा-सा प्रवेश करना चाहिए।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
परमेश्वर के दैनिक वचन अंश 579
परमेश्वर को जानने का क्या अभिप्राय है? इसका अभिप्राय है परमेश्वर के आनंद, गुस्से, दुःख और खुशी को समझ पाना, और इस प्रकार उसके स्वभाव को जानना—यही है परमेश्वर को वास्तव में जानना। तुम दावा करते हो कि तुमने उसे देखा है, फिर भी तुम उसके आनंद, गुस्से, दुःख और खुशी को नहीं जानते हो, उसके स्वभाव को नहीं जानते हो। न उसकी धार्मिकता को जानते हो, न ही उसकी दयालुता को, न ही तुम ये जानते हो कि वह किन चीज़ों को पसंद करता है और किनसे घृणा करता है। इसे परमेश्वर को जानना नहीं कहा जा सकता है। कुछ लोग परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि वे वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हों। परमेश्वर पर वास्तव में विश्वास करना परमेश्वर का आज्ञापालन करना है। जो लोग वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन नहीं करते, वे परमेश्वर पर वास्तव में विश्वास नहीं करते—अंतर यहीं पर है। जब तुमने कई वर्षों से परमेश्वर का अनुसरण किया होता है, और तुम्हें परमेश्वर का ज्ञान और समझ होती है, जब तुम्हें परमेश्वर की इच्छा की कुछ समझ-बूझ होती है, जब तुम मनुष्य को बचाने में परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे से अवगत होते हो : तो यह तब होता है, जब तुम वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हो, वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करते हो, वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करते हो, और वास्तव में परमेश्वर की आराधना करते हो। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो लेकिन परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते, और परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के कार्य की कोई समझ नहीं रखते, तो तुम सिर्फ एक ऐसे अनुयायी हो, जो परमेश्वर के पीछे दौड़ता है और जो कुछ बहुसंख्यक लोग करते हैं, उसका अनुसरण करता है। इसे सच्चा समर्पण नहीं कहा जा सकता, सच्ची आराधना तो बिलकुल नहीं कहा जा सकता। सच्ची आराधना कैसे उत्पन्न होती है? बिना किसी अपवाद के, जो लोग परमेश्वर को देखते हैं और वास्तव में परमेश्वर को जानते हैं, वे सब उसकी आराधना और आदर करते हैं; वे सभी उसके सामने झुककर उसकी आराधना करने के लिए बाध्य होते हैं। वर्तमान में, जब देहधारी परमेश्वर कार्य कर रहा है, तब लोगों के पास उसके स्वभाव की और उसके स्वरूप की जितनी अधिक समझ होती है, उतना ही अधिक लोग इन बातों को संजोकर रखेंगे, उतना ही अधिक वे परमेश्वर का आदर करेंगे। आम तौर पर, परमेश्वर की जितनी कम समझ लोगों में होती है, वे उतना ही अधिक लापरवाह होते हैं, और इसलिए वे परमेश्वर से मनुष्य के समान बर्ताव करते हैं। अगर लोग वास्तव में परमेश्वर को जानते और देखते, तो वे भय के मारे काँपने लगते और जमीन पर गिरकर दंडवत करते। “जो मेरे बाद आने वाला है, वह मुझ से शक्तिशाली है; मैं उसकी जूती उठाने के योग्य नहीं”—(मत्ती 3:11)—यूहन्ना ने ऐसा क्यों कहा? यद्यपि अंतरतम में उसके पास परमेश्वर का बहुत गहरा ज्ञान नहीं था, फिर भी वह जानता था कि परमेश्वर विस्मय की भावना जगाता है। आजकल कितने लोग परमेश्वर का आदर करने में सक्षम हैं? अगर वे परमेश्वर के स्वभाव को नहीं जानते, तो वे किस प्रकार उसका आदर कर सकते हैं? अगर लोग न तो मसीह का सार जानते हैं, न ही परमेश्वर के स्वभाव को समझते हैं, तो वे परमेश्वर की आराधना करने में और भी कम सक्षम होंगे। अगर वे सिर्फ मसीह के साधारण और सामान्य बाहरी रूप को देखते हैं फिर भी उसके सार को नहीं जानते हैं, तो मसीह के साथ मात्र एक सामान्य मनुष्य की तरह बर्ताव करना लोगों के लिए आसान है। वे उसके प्रति एक अपमानजनक प्रवृत्ति अपना सकते हैं, उसे धोखा दे सकते हैं, उसका प्रतिरोध कर सकते हैं, उसकी अवज्ञा कर सकते हैं, उस पर दोष लगा सकते हैं, और दुराग्रही हो सकते हैं। वे दंभी हो सकते हैं और हो सकता है वे उसके वचन को गंभीरता से न लें, वे परमेश्वर के बारे में धारणाएं भी बना सकते हैं, उसकी निंदा और तिरस्कार कर सकते हैं। इन मुद्दों को सुलझाने के लिए व्यक्ति को मसीह के सार, एवं मसीह की दिव्यता को अवश्य जानना चाहिए। परमेश्वर को जानने का यही मुख्य पहलू है; यही वो है जिसमें व्यवहारिक परमेश्वर में विश्वास करने वाले हर इंसान को प्रवेश और जिसे हासिल करना चाहिए।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन