प्रस्तावना
यद्यपि बहुत सारे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन कुछ ही लोग समझते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बनने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यद्यपि लोग “परमेश्वर” शब्द और “परमेश्वर का कार्य” जैसे वाक्यांशों से परिचित हैं, लेकिन वे परमेश्वर को नहीं जानते और उससे भी कम वे उसके कार्य को जानते हैं। तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे सभी, जो परमेश्वर को नहीं जानते, उसमें अपने विश्वास को लेकर भ्रमित रहते हैं। लोग परमेश्वर में विश्वास करने को गंभीरता से नहीं लेते और यह सर्वथा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करना उनके लिए बहुत अनजाना, बहुत अजीब है। इस प्रकार वे परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। दूसरे शब्दों में, यदि लोग परमेश्वर और उसके कार्य को नहीं जानते, तो वे उसके इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं, और उसकी इच्छा पूरी करने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं। “परमेश्वर में विश्वास” का अर्थ यह मानना है कि परमेश्वर है; यह परमेश्वर में विश्वास की सरलतम अवधारणा है। इससे भी बढ़कर, यह मानना कि परमेश्वर है, परमेश्वर में सचमुच विश्वास करने जैसा नहीं है; बल्कि यह मजबूत धार्मिक संकेतार्थों के साथ एक प्रकार का सरल विश्वास है। परमेश्वर में सच्चे विश्वास का अर्थ यह है : इस विश्वास के आधार पर कि सभी वस्तुओं पर परमेश्वर की संप्रभुता है, व्यक्ति परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव करता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करता है, परमेश्वर की इच्छा पूरी करता है और परमेश्वर को जान पाता है। केवल इस प्रकार की यात्रा को ही “परमेश्वर में विश्वास” कहा जा सकता है। फिर भी लोग परमेश्वर में विश्वास को अकसर बहुत सरल और हल्के रूप में लेते हैं। परमेश्वर में इस तरह विश्वास करने वाले लोग, परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ गँवा चुके हैं और भले ही वे बिलकुल अंत तक विश्वास करते रहें, वे कभी परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं करेंगे, क्योंकि वे गलत मार्ग पर चलते हैं। आज भी ऐसे लोग हैं, जो परमेश्वर में शब्दों और खोखले धर्म-सिद्धांत के अनुसार विश्वास करते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर में उनके विश्वास में कोई सार नहीं है और वे परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं कर सकते। फिर भी वे परमेश्वर से सुरक्षा के आशीषों और पर्याप्त अनुग्रह के लिए प्रार्थना करते हैं। आओ रुकें, अपने हृदय शांत करें और खुद से पूछें : क्या परमेश्वर में विश्वास करना वास्तव में पृथ्वी पर सबसे आसान बात हो सकती है? क्या परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ परमेश्वर से अधिक अनुग्रह पाने से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता है? क्या परमेश्वर को जाने बिना उसमें विश्वास करने वाले या उसमें विश्वास करने के बावजूद उसका विरोध करने वाले लोग सचमुच उसकी इच्छा पूरी करने में सक्षम हैं?
परमेश्वर और मनुष्य की बराबरी पर बात नहीं की जा सकती। परमेश्वर का सार और कार्य मनुष्य के लिए सर्वाधिक अथाह और समझ से परे है। यदि परमेश्वर मनुष्य के संसार में व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य न करे और अपने वचन न कहे, तो मनुष्य कभी भी परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझ पाएगा। और इसलिए वे लोग भी, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन परमेश्वर को समर्पित कर दिया है, उसका अनुमोदन प्राप्त करने में सक्षम नहीं होंगे। यदि परमेश्वर कार्य करने के लिए तैयार न हो, तो मनुष्य चाहे कितना भी अच्छा क्यों न करे, वह सब व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि परमेश्वर के विचार मनुष्य के विचारों से सदैव ऊँचे रहेंगे और परमेश्वर की बुद्धि मनुष्य की समझ से परे है। और इसीलिए मैं कहता हूँ कि जो लोग परमेश्वर और उसके कार्य को “पूरी तरह से समझने” का दावा करते करते हैं, वे मूर्खों की जमात हैं; वे सभी अभिमानी और अज्ञानी हैं। मनुष्य को परमेश्वर के कार्य को परिभाषित नहीं करना चाहिए; बल्कि, मनुष्य परमेश्वर के कार्य को परिभाषित नहीं कर सकता। परमेश्वर की दृष्टि में मनुष्य एक चींटी जितना महत्वहीन है; तो फिर वह परमेश्वर के कार्य की थाह कैसे पा सकता है? जो लोग गंभीरतापूर्वक यह कहना पसंद करते हैं, “परमेश्वर इस तरह से या उस तरह से कार्य नहीं करता,” या “परमेश्वर ऐसा है या वैसा है”—क्या वे अहंकारपूर्वक नहीं बोलते? हम सबको जानना चाहिए कि मनुष्य, जो कि देहधारी है, शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है। मानवजाति की प्रकृति ही है परमेश्वर का विरोध करना। मानवजाति परमेश्वर के समान नहीं हो सकती, परमेश्वर के कार्य के लिए परामर्श देने की उम्मीद तो वह बिलकुल भी नहीं कर सकती। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि परमेश्वर मनुष्य का मार्गदर्शन कैसे करता है, तो यह स्वयं परमेश्वर का कार्य है। यह उचित है कि इस या उस विचार की डींग हाँकने के बजाय मनुष्य को समर्पण करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य धूल मात्र है। चूँकि हमारा इरादा परमेश्वर की खोज करने का है, इसलिए हमें परमेश्वर के विचार के लिए उसके कार्य पर अपनी अवधारणाएँ नहीं थोपनी चाहिए, और जानबूझकर परमेश्वर के कार्य का विरोध करने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव का भरसक उपयोग तो बिलकुल भी नहीं करना चाहिए। क्या ऐसा करना हमें मसीह-विरोधी नहीं बनाएगा? ऐसे लोग परमेश्वर में विश्वास कैसे कर सकते हैं? चूँकि हम विश्वास करते हैं कि परमेश्वर है, और चूँकि हम उसे संतुष्ट करना और उसे देखना चाहते हैं, इसलिए हमें सत्य के मार्ग की खोज करनी चाहिए, और परमेश्वर के अनुकूल रहने का मार्ग तलाशना चाहिए। हमें परमेश्वर के कड़े विरोध में खड़े नहीं होना चाहिए। ऐसे कार्यों से क्या भला हो सकता है?
आज परमेश्वर ने नया कार्य किया है। हो सकता है, तुम इन वचनों को स्वीकार न कर पाओ और वे तुम्हें अजीब लगें, पर मैं तुम्हें सलाह दूँगा कि तुम अपनी स्वाभाविकता प्रकट मत करो, क्योंकि केवल वे ही सत्य को पा सकते हैं, जो परमेश्वर के समक्ष धार्मिकता के लिए सच्ची भूख-प्यास रखते हैं, और केवल वे ही परमेश्वर द्वारा प्रबुद्ध किए जा सकते हैं और उसका मार्गदर्शन पा सकते हैं जो वास्तव में धर्मनिष्ठ हैं। परिणाम संयम और शांति के साथ सत्य की खोज करने से मिलते हैं, झगड़े और विवाद से नहीं। जब मैं यह कहता हूँ कि “आज परमेश्वर ने नया कार्य किया है,” तो मैं परमेश्वर के देह में लौटने की बात कर रहा हूँ। शायद ये वचन तुम्हें व्याकुल न करते हों; शायद तुम इनसे घृणा करते हो; या शायद ये तुम्हारे लिए बड़े रुचिकर हों। चाहे जो भी मामला हो, मुझे आशा है कि वे सब, जो परमेश्वर के प्रकट होने के लिए वास्तव में लालायित हैं, इस तथ्य का सामना कर सकते हैं और इसके बारे में झटपट निष्कर्षों पर पहुँचने के बजाय इसकी सावधानीपूर्वक जाँच कर सकते हैं; जैसा कि बुद्धिमान व्यक्ति को करना चाहिए।
ऐसी चीज़ की जाँच-पड़ताल करना कठिन नहीं है, परंतु इसके लिए हममें से प्रत्येक को इस सत्य को जानने की ज़रूरत है : जो देहधारी परमेश्वर है, उसके पास परमेश्वर का सार होगा और जो देहधारी परमेश्वर है, उसके पास परमेश्वर की अभिव्यक्ति होगी। चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया है, इसलिए वह उस कार्य को सामने लाएगा, जो वह करना चाहता है, और चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया है, इसलिए वह उसे अभिव्यक्त करेगा जो वह है और वह मनुष्य के लिए सत्य को लाने, उसे जीवन प्रदान करने और उसे मार्ग दिखाने में सक्षम होगा। जिस देह में परमेश्वर का सार नहीं है, वह निश्चित रूप से देहधारी परमेश्वर नहीं है; इसमें कोई संदेह नहीं। अगर मनुष्य यह पता करना चाहता है कि क्या यह देहधारी परमेश्वर है, तो इसकी पुष्टि उसे उसके द्वारा अभिव्यक्त स्वभाव और उसके द्वारा बोले गए वचनों से करनी चाहिए। इसे ऐसे कहें, व्यक्ति को इस बात का निश्चय कि यह देहधारी परमेश्वर है या नहीं और कि यह सही मार्ग है या नहीं, उसके सार से करना चाहिए। और इसलिए, यह निर्धारित करने की कुंजी कि यह देहधारी परमेश्वर की देह है या नहीं, उसके बाहरी स्वरूप के बजाय उसके सार (उसका कार्य, उसके कथन, उसका स्वभाव और कई अन्य पहलू) में निहित है। यदि मनुष्य केवल उसके बाहरी स्वरूप की ही जाँच करता है, और परिणामस्वरूप उसके सार की अनदेखी करता है, तो इससे उसके अनाड़ी और अज्ञानी होने का पता चलता है। बाहरी स्वरूप सार का निर्धारण नहीं कर सकता; इतना ही नहीं, परमेश्वर का कार्य कभी भी मनुष्य की अवधारणाओं के अनुरूप नहीं हो सकता। क्या यीशु का बाहरी रूपरंग मनुष्य की अवधारणाओं के विपरीत नहीं था? क्या उसका चेहरा और पोशाक उसकी वास्तविक पहचान के बारे में कोई सुराग देने में असमर्थ नहीं थे? क्या आरंभिक फरीसियों ने यीशु का ठीक इसीलिए विरोध नहीं किया था क्योंकि उन्होंने केवल उसके बाहरी स्वरूप को ही देखा, और उसके द्वारा बोले गए वचनों को हृदयंगम नहीं किया? मुझे उम्मीद है कि परमेश्वर के प्रकटन के आकांक्षी सभी भाई-बहन इतिहास की त्रासदी को नहीं दोहराएँगे। तुम्हें आधुनिक काल के फरीसी नहीं बनना चाहिए और परमेश्वर को फिर से सलीब पर नहीं चढ़ाना चाहिए। तुम्हें सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए कि परमेश्वर की वापसी का स्वागत कैसे किया जाए और तुम्हारे मस्तिष्क में यह स्पष्ट होना चाहिए कि ऐसा व्यक्ति कैसे बना जाए, जो सत्य के प्रति समर्पित होता है। यह हर उस व्यक्ति की जिम्मेदारी है, जो यीशु के बादल पर सवार होकर लौटने का इंतजार कर रहा है। हमें अपनी आध्यात्मिक आँखों को मलकर उन्हें साफ़ करना चाहिए और अतिरंजित कल्पना के शब्दों के दलदल में नहीं फँसना चाहिए। हमें परमेश्वर के वास्तविक कार्य के बारे में सोचना चाहिए और परमेश्वर के व्यावहारिक पक्ष पर दृष्टि डालनी चाहिए। खुद को दिवास्वप्नों में बहने या खोने मत दो, सदैव उस दिन के लिए लालायित न रहो, जब प्रभु यीशु बादल पर सवार होकर अचानक तुम लोगों के बीच उतरेगा और तुम्हें, जिन्होंने उसे कभी जाना या देखा नहीं और जो नहीं जानते कि उसकी इच्छा के अनुसार कैसे चलें, ले जाएगा। अधिक व्यावहारिक मामलों पर विचार करना बेहतर है!
हो सकता है, तुमने इस पुस्तक को अनुसंधान के प्रयोजन से खोला हो या फिर स्वीकार करने के अभिप्राय से; तुम्हारा दृष्टिकोण जो भी हो, मुझे आशा है कि तुम इसे अंत तक पढ़ोगे, और इसे आसानी से अलग उठाकर नहीं रख दोगे। शायद इन वचनों को पढ़ने के बाद तुम्हारा दृष्टिकोण बदल जाए, किंतु यह तुम्हारी अभिप्रेरणा और समझ के स्तर पर निर्भर करता है। हालाँकि एक बात है, जो तुम्हें अवश्य जाननी चाहिए : परमेश्वर के वचन को मनुष्य का वचन नहीं समझा जा सकता, और मनुष्य के वचन को परमेश्वर का वचन तो बिलकुल भी नहीं समझा जा सकता। परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किया गया व्यक्ति देहधारी परमेश्वर नहीं है, और देहधारी परमेश्वर, परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किया गया मनुष्य नहीं है। इसमें एक अनिवार्य अंतर है। शायद इन वचनों को पढ़ने के बाद तुम इन्हें परमेश्वर के वचन न मानकर केवल मनुष्य द्वारा प्राप्त प्रबुद्धता मानो। उस हालत में, तुम अज्ञानता के कारण अंधे हो। परमेश्वर के वचन मनुष्य द्वारा प्राप्त प्रबुद्धता के समान कैसे हो सकते हैं? देहधारी परमेश्वर के वचन एक नया युग आरंभ करते हैं, समस्त मानवजाति का मार्गदर्शन करते हैं, रहस्य प्रकट करते हैं, और मनुष्य को वह दिशा दिखाते हैं, जो उसे नए युग में ग्रहण करनी है। मनुष्य द्वारा प्राप्त की गई प्रबुद्धता अभ्यास या ज्ञान के लिए सरल निर्देश मात्र हैं। वह एक नए युग में समस्त मानवजाति को मार्गदर्शन नहीं दे सकती या स्वयं परमेश्वर के रहस्य प्रकट नहीं कर सकती। अंततः परमेश्वर, परमेश्वर है और मनुष्य, मनुष्य। परमेश्वर में परमेश्वर का सार है और मनुष्य में मनुष्य का सार। यदि मनुष्य परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों को पवित्र आत्मा द्वारा प्रदत्त साधारण प्रबुद्धता मानता है, और प्रेरितों और नबियों के वचनों को परमेश्वर के व्यक्तिगत रूप से कहे गए वचन मानता है, तो यह मनुष्य की गलती होगी। चाहे जो हो, तुम्हें कभी सही और गलत को मिलाना नहीं चाहिए, और ऊँचे को नीचा नहीं समझना चाहिए, या गहरे को उथला समझने की गलती नहीं करनी चाहिए; चाहे जो हो, तुम्हें कभी भी जानबूझकर उसका खंडन नहीं करना चाहिए, जिसे तुम जानते हो कि सत्य है। हर उस व्यक्ति को, जो यह विश्वास करता है कि परमेश्वर है, समस्याओं की जाँच सही दृष्टिकोण से करनी चाहिए, और परमेश्वर द्वारा सृजित प्राणी के परिप्रेक्ष्य से परमेश्वर के नए कार्य और वचनों को स्वीकार करना चाहिए; अन्यथा परमेश्वर द्वारा उन्हें बाहर निकाल दिया जाएगा।
यहोवा के कार्य के बाद, यीशु मनुष्यों के मध्य अपना कार्य करने के लिए देहधारी हो गया। उसका कार्य अलग से किया गया कार्य नहीं था, बल्कि यहोवा के कार्य के आधार पर किया गया था। यह कार्य एक नए युग के लिए था, जिसे परमेश्वर ने व्यवस्था का युग समाप्त करने के बाद किया था। इसी प्रकार, यीशु का कार्य समाप्त हो जाने के बाद परमेश्वर ने अगले युग के लिए अपना कार्य जारी रखा, क्योंकि परमेश्वर का संपूर्ण प्रबंधन सदैव आगे बढ़ रहा है। जब पुराना युग बीत जाता है, तो उसके स्थान पर नया युग आ जाता है, और एक बार जब पुराना कार्य पूरा हो जाता है, तो परमेश्वर के प्रबंधन को जारी रखने के लिए नया कार्य शुरू हो जाता है। यह देहधारण परमेश्वर का दूसरा देहधारण है, जो यीशु का कार्य पूरा होने के बाद हुआ है। निस्संदेह, यह देहधारण स्वतंत्र रूप से घटित नहीं होता; व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग के बाद यह कार्य का तीसरा चरण है। हर बार जब परमेश्वर कार्य का नया चरण आरंभ करता है, तो हमेशा एक नई शुरुआत होती है और वह हमेशा एक नया युग लाता है। इसलिए परमेश्वर के स्वभाव, उसके कार्य करने के तरीके, उसके कार्य के स्थल, और उसके नाम में भी परिवर्तन होते हैं। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि मनुष्य के लिए नए युग में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करना कठिन होता है। परंतु इस बात की परवाह किए बिना कि मनुष्य द्वारा उसका कितना विरोध किया जाता है, परमेश्वर सदैव अपना कार्य करता रहता है, और सदैव समस्त मानवजाति का प्रगति के पथ पर मार्गदर्शन करता रहता है। जब यीशु मनुष्य के संसार में आया, तो उसने अनुग्रह के युग में प्रवेश कराया और व्यवस्था का युग समाप्त किया। अंत के दिनों के दौरान, परमेश्वर एक बार फिर देहधारी बन गया, और इस देहधारण के साथ उसने अनुग्रह का युग समाप्त किया और राज्य के युग में प्रवेश कराया। उन सबको, जो परमेश्वर के दूसरे देहधारण को स्वीकार करने में सक्षम हैं, राज्य के युग में ले जाया जाएगा, और इससे भी बढ़कर वे व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर का मार्गदर्शन स्वीकार करने में सक्षम होंगे। यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति के छुटकारे का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे।
यदि लोग अनुग्रह के युग में अटके रहेंगे, तो वे कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं पाएँगे, परमेश्वर के अंर्तनिहित स्वभाव को जानने की बात तो दूर! यदि लोग सदैव अनुग्रह की प्रचुरता में रहते हैं, परंतु उनके पास जीवन का वह मार्ग नहीं है, जो उन्हें परमेश्वर को जानने और उसे संतुष्ट करने का अवसर देता है, तो वे उसमें अपने विश्वास से उसे वास्तव में कभी भी प्राप्त नहीं करेंगे। इस प्रकार का विश्वास वास्तव में दयनीय है। जब तुम इस पुस्तक को पूरा पढ़ लोगे, जब तुम राज्य के युग में देहधारी परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण का अनुभव कर लोगे, तब तुम महसूस करोगे कि अनेक वर्षों की तुम्हारी आशाएँ अंततः साकार हो गई हैं। तुम महसूस करोगे कि केवल अब तुमने परमेश्वर को वास्तव में आमने-सामने देखा है; केवल अब तुमने परमेश्वर के चेहरे को निहारा है, उसके व्यक्तिगत कथन सुने हैं, उसके कार्य की बुद्धिमत्ता को सराहा है, और वास्तव में महसूस किया है कितना व्यावहारिक और सर्वशक्तिमान है वह। तुम महसूस करोगे कि तुमने ऐसी बहुत-सी चीजें पाई हैं, जिन्हें अतीत में लोगों ने न कभी देखा था, न ही प्राप्त किया था। इस समय, तुम स्पष्ट रूप से जान लोगे कि परमेश्वर पर विश्वास करना क्या होता है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होना क्या होता है। निस्संदेह, यदि तुम अतीत के विचारों से चिपके रहते हो, और परमेश्वर के दूसरे देहधारण के तथ्य को अस्वीकार या उससे इनकार करते हो, तो तुम खाली हाथ रहोगे और कुछ नहीं पाओगे, और अंततः परमेश्वर का विरोध करने के दोषी ठहराए जाओगे। वे जो सत्य के प्रति समर्पण करते हैं और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करते हैं, उनका दूसरे देहधारी परमेश्वर—सर्वशक्तिमान—के नाम पर दावा किया जाएगा। वे परमेश्वर का व्यक्तिगत मार्गदर्शन स्वीकार करने में सक्षम होंगे, वे अधिक और उच्चतर सत्य तथा वास्तविक जीवन प्राप्त करेंगे। वे उस दृश्य को निहारेंगे, जिसे अतीत के लोगों द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया था : “तब मैं ने उसे, जो मुझ से बोल रहा था, देखने के लिये अपना मुँह फेरा; और पीछे घूमकर मैं ने सोने की सात दीवटें देखीं, और उन दीवटों के बीच में मनुष्य के पुत्र सदृश एक पुरुष को देखा, जो पाँवों तक का वस्त्र पहिने, और छाती पर सोने का पटुका बाँधे हुए था। उसके सिर और बाल श्वेत ऊन और पाले के समान उज्ज्वल थे, और उसकी आँखें आग की ज्वाला के समान थीं। उसके पाँव उत्तम पीतल के समान थे जो मानो भट्ठी में तपाया गया हो, और उसका शब्द बहुत जल के शब्द के समान था। वह अपने दाहिने हाथ में सात तारे लिये हुए था, और उसके मुख से तेज दोधारी तलवार निकलती थी। उसका मुँह ऐसा प्रज्वलित था, जैसा सूर्य कड़ी धूप के समय चमकता है” (प्रकाशितवाक्य 1:12-16)। यह दृश्य परमेश्वर के संपूर्ण स्वभाव की अभिव्यक्ति है, और उसके संपूर्ण स्वभाव की यह अभिव्यक्ति वर्तमान देहधारण में परमेश्वर के कार्य की अभिव्यक्ति भी है। ताड़ना और न्याय की बौछारों में मनुष्य का पुत्र कथनों के माध्यम से अपने अंर्तनिहित स्वभाव को अभिव्यक्त करता है, और उन सबको जो उसकी ताड़ना और न्याय स्वीकार करते हैं, मनुष्य के पुत्र के वास्तविक चेहरे को निहारने की अनुमति देता है, जो यूहन्ना द्वारा देखे गए मनुष्य के पुत्र के चेहरे का ईमानदार चित्रण है। (निस्संदेह, यह सब उनके लिए अदृश्य होगा, जो राज्य के युग में परमेश्वर के कार्यों को स्वीकार नहीं करते।) परमेश्वर का वास्तविक चेहरा मनुष्य की भाषा के इस्तेमाल द्वारा पूर्णतः व्यक्त नहीं किया जा सकता, और इसलिए परमेश्वर उन साधनों का इस्तेमाल करता है, जिनके द्वारा वह मनुष्य को अपना वास्तविक चेहरा दिखाने के लिए अपना अंर्तनिहित स्वभाव अभिव्यक्ति करता है। अर्थात्, जिन्होंने मनुष्य के पुत्र के अंर्तनिहित स्वभाव को सराहा है, उन सबने मनुष्य के पुत्र का वास्तविक चेहरा देखा है, क्योंकि परमेश्वर बहुत महान है और मनुष्य की भाषा के इस्तेमाल द्वारा उसे पूरी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता। एक बार जब मनुष्य राज्य के युग में परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण का अनुभव कर लेगा, तब वह यूहन्ना के वचनों का वास्तविक अर्थ जान लेगा, जो उसने दीवटों के बीच मनुष्य के पुत्र के बारे में कहे थे : “उसके सिर और बाल श्वेत ऊन और पाले के समान उज्ज्वल थे, और उसकी आँखें आग की ज्वाला के समान थीं। उसके पाँव उत्तम पीतल के समान थे जो मानो भट्ठी में तपाया गया हो, और उसका शब्द बहुत जल के शब्द के समान था। वह अपने दाहिने हाथ में सात तारे लिये हुए था, और उसके मुख से तेज दोधारी तलवार निकलती थी। उसका मुँह ऐसा प्रज्वलित था, जैसा सूर्य कड़ी धूप के समय चमकता है।” उस समय तुम निस्संदेह जान जाओगे कि इतना कुछ कहने वाला यह साधारण देह निर्विवाद रूप से दूसरा देहधारी परमेश्वर है। इतना ही नहीं, तुम्हें वास्तव में अनुभव होगा कि तुम कितने धन्य हो, और तुम स्वयं को सबसे अधिक भाग्यशाली महसूस करोगे। क्या तुम इस आशीष को प्राप्त करने के इच्छुक नहीं हो?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य