7. बाहरी अच्छे कर्मों और स्वभाव में परिवर्तनों के बीच अंतर

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :

स्वभाव में रूपांतरण मुख्य रूप से एक व्यक्ति की प्रकृति में रूपांतरण को संदर्भित करता है। किसी व्यक्ति की प्रकृति को बाहरी व्यवहारों से नहीं देखा जा सकता; उसका सीधा संबंध लोगों के अस्तित्व के मूल्य और महत्व से है। अर्थात इसमें जीवन के बारे में व्यक्ति का दृष्टिकोण और उसके मूल्य, उसका सार और उसकी आत्मा के भीतर गहराई में स्थित चीज़ें शामिल हैं। अगर एक व्यक्ति सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता, तो उसे इन पहलुओं में किसी परिवर्तन से नहीं गुज़रना होगा। केवल अगर लोगों ने परमेश्वर के कार्य का पूरी तरह अनुभव किया है और पूरी तरह से सत्य में प्रवेश किया है, अगर उन्होंने अस्तित्व और जीवन पर अपने मूल्यों और दृष्टिकोणों को बदला है, अगर चीजों को वैसे ही देखा है जैसे परमेश्वर देखता है, और अगर वे पूरी तरह से अपने को परमेश्वर के सामने प्रस्तुत और समर्पित करने में सक्षम हो गए हैं, तभी कहा जा सकता है कि उनके स्वभाव रूपांतरित हो गए हैं। ऐसा लग सकता है कि तुम कुछ प्रयास कर रहे हो, तुम कठिनाई के सामने लचीले हो सकते हो, तुम ऊपर से मिली कार्य व्यवस्थाओं को पूरा करने में सक्षम हो सकते हो, या तुम्हें जहाँ भी जाने के लिए कहा जाए तुम वहाँ जा सकते हो, लेकिन ये व्यवहार के केवल बहुत ही छोटे परिवर्तन हैं, और तुम्हारे स्वभाव के परिवर्तन के तौर पर गिने नहीं जा सकते हैं। तुम कई रास्तों पर जाने में सक्षम हो सकते हो, तुम कई कठिनाइयों का सामना कर सकते हो और घोर अपमान को सहन करने में सक्षम हो सकते हो; तुम महसूस कर सकते हो कि तुम परमेश्वर के बहुत करीब हो और पवित्र आत्मा तुम्हारे में काम कर रहा है, लेकिन जब परमेश्वर तुम से कुछ ऐसा करने के लिए अनुरोध करता है जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, तो तुम शायद अभी भी समर्पित नहीं हो पाओ, बल्कि तुम शायद बहाने ढूँढने लगो, तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और विरोध कर सकते हो, इस हद तक कि तुम परमेश्वर की आलोचना और उसके ख़िलाफ़ विरोध करते हो। यह एक गंभीर समस्या होगी! यह साबित करता है कि तुममें अभी भी परमेश्वर का प्रतिरोध करने की प्रकृति है और तुम ज़रा भी परिवर्तित नहीं हुए हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए

लोगों का व्यवहार अच्छा हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनके अंदर सत्य है। लोगों का उत्साह उनसे केवल सिद्धांतों का अनुसरण और नियम का पालन करवा सकता है; लेकिन जो लोग सत्य से रहित हैं उनके पास मूलभूत समस्याओं का समाधान करने का कोई रास्ता नहीं होता, न ही सिद्धांत सत्य का स्थान ले सकता है। जिन लोगों ने अपने स्वभाव में परिवर्तन का अनुभव किया है, वे अलग हैं; उन्होंने सत्य समझ लिया है, वे सभी मुद्दों पर विवेकी होते हैं, वे जानते हैं कि कैसे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करना है, कैसे सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना है, कैसे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कार्य करना है, और वे उस भ्रष्टता की प्रकृति को समझते हैं जो वे प्रकट करते हैं। जब उनके अपने विचार और धारणाएँ प्रकट होती हैं, तो वे विवेकी बनकर देह की इच्छाओं को छोड़ सकते हैं। स्वभाव में परिवर्तन को इस प्रकार व्यक्त किया जाता है। जो लोग स्वभाव में परिवर्तन से गुज़रे हैं, उनके बारे में मुख्य बात यह है कि उन्होंने स्पष्ट रूप से सत्य समझ लिया है, और कार्य करते समय तो वे सापेक्ष सटीकता के साथ सत्य का अभ्यास करते हैं और वे अक्सर भ्रष्टता नहीं दिखाते। आम तौर पर, जिन लोगों का स्वभाव बदल गया है, वे खासकर तर्कसंगत और विवेकपूर्ण प्रतीत होते हैं, और सत्य की अपनी समझ के कारण, वे उतनी आत्म-तुष्टि और दंभ नहीं दिखाते। वे अपनी प्रकट हुई भ्रष्टता में से काफ़ी कुछ समझ-बूझ लेते हैं, इसलिए उनमें अभिमान उत्पन्न नहीं होता। मनुष्य का क्या स्थान है, कैसे उचित व्यवहार करना है, कैसे कर्तव्यनिष्ठ होना है, क्या कहना और क्या नहीं कहना है, और किन लोगों से क्या कहना और क्या करना है, इस बारे में उन्हें एक विवेकपूर्ण समझ होती है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि इस प्रकार के लोग अपेक्षाकृत तर्कसंगत होते हैं। जिन लोगों का स्वभाव बदल जाता है, वे वास्तव में एक मनुष्य के समान जीवन जीते हैं, और उनमें सत्य होता है। वे हमेशा सत्य के अनुरूप बोलने और चीज़ों को देखने में समर्थ होते हैं और वे जो भी करते हैं, सैद्धांतिक रूप से करते हैं; वे किसी व्यक्ति, मामले या चीज़ के प्रभाव में नहीं होते, उन सभी का अपना दृष्टिकोण होता है और वे सत्य-सिद्धांत को कायम रख सकते हैं। उनका स्वभाव सापेक्षिक रूप से स्थिर होता है, वे असंतुलित नहीं होते, चाहे उनकी स्थिति कैसी भी हो, वे समझते हैं कि कैसे उन्हें अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाना है और परमेश्वर की संतुष्टि के लिए कैसे व्यवहार करना है। जिन लोगों के स्वभाव वास्तव में बदल गए हैं वे इस पर ध्यान नहीं देते कि सतही तौर पर स्वयं को अच्छा दिखाने के लिए क्या किया जाए; परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए क्या करना है, इस पर उन्होंने आंतरिक स्पष्टता पा ली है। इसलिए, हो सकता है कि बाहर से वे इतने उत्साही न दिखें या ऐसा न लगे कि उन्होंने कुछ बड़ा किया है, लेकिन वो जो कुछ भी करते हैं वह सार्थक होता है, मूल्यवान होता है, और उसके परिणाम व्यावहारिक होते हैं। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं उनके अंदर निश्चित रूप से बहुत सत्य होता है, और इस बात की पुष्टि चीज़ों के बारे में उनके दृष्टिकोण और सैद्धांतिक कार्यों के आधार पर की जा सकती है। जिन लोगों में सत्य नहीं है, उनके स्वभाव में कोई बिलकुल परिवर्तन नहीं हुआ है। स्वभाव में परिवर्तन का अर्थ परिपक्व और कुशल मानवता से युक्त होना नहीं है; यह मुख्य रूप से उन घटनाओं को संदर्भित करता है जिसमें लोगों की प्रकृति के भीतर के कुछ शैतानी विष, परमेश्वर का ज्ञान पा लेने और सत्य समझ लेने के परिणामस्वरूप बदल जाते हैं। कहने का अर्थ यह है कि उन शैतानी विषों को दूर कर दिया जाता है, और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य ऐसे लोगों के भीतर जड़ें जमा लेता है, उनका जीवन बन जाता है, और उनके अस्तित्व की नींव बन जाता है। तभी वे नए लोग बनते हैं, और इस तरह उनका स्वभाव रूपांतरित होता है। स्वभाव में रूपांतरण का मतलब यह नहीं है कि उनका बाहरी स्वभाव पहले की तुलना में विनम्र हो गया है, कि वे अभिमानी हुआ करते थे लेकिन अब तर्कसंगत ढंग से बोलते हैं, या वे पहले किसी की नहीं सुनते थे, लेकिन अब वे दूसरों की बात सुन सकते हैं; ऐसे बाहरी परिवर्तन स्वभाव के रूपान्तरण नहीं कहे जा सकते। बेशक स्वभाव के रूपांतरण में ये अवस्थाएँ और अभिव्यक्तियाँ शामिल हैं, लेकिन सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि अंदर से उनका जीवन बदल गया है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य ही उनका जीवन बन जाता है, उनके भीतर का शैतानी विष निकाल दिया गया है, उनका दृष्टिकोण पूरी तरह से बदल गया है और उनमें से कुछ भी दुनिया के अनुसार नहीं है। ये लोग बड़े लाल अजगर की योजनाओं और विष को उनके असल रूप में स्पष्टता से देख सकते हैं; उन्होंने जीवन का सच्चा सार समझ लिया है। इस तरह उनके जीवन के मूल्य बदल गए हैं, और यह सबसे मौलिक किस्म का रूपांतरण है और स्वभाव में परिवर्तन का सार है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

धर्म के दायरे में बहुत से लोग सारा जीवन अत्यंत कष्ट भोगते हैं : अपने शरीर को वश में रखते हैं और चुनौतियों का सामना करते हैं, यहाँ तक कि अंतिम सांस तक पीड़ा भी सहते हैं! कुछ लोग अपनी मृत्यु की सुबह भी उपवास रखते हैं। वे जीवन-भर स्वयं को अच्छे भोजन और अच्छे कपड़े से दूर रखते हैं और केवल पीड़ा सहने पर ही ज़ोर देते हैं। वे अपने शरीर को वश में करके देहसुख का त्याग कर देते हैं। पीड़ा सहन करने का जोश सराहनीय है। लेकिन उनकी सोच, उनकी अवधारणाओं, उनके मानसिक रवैये और निश्चय ही उनके पुराने स्वभाव का ज़रा-भी निपटारा नहीं किया गया है। उनकी स्वयं के बारे में कोई सच्ची समझ नहीं होती। परमेश्वर के बारे में उनकी मानसिक छवि एक अज्ञात परमेश्वर की पारंपरिक छवि होती है। परमेश्वर के लिए पीड़ा सहने का उनका संकल्प, उनके उत्साह और उनकी मानवता के अच्छे चरित्र से आता है। हालांकि वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन वे न तो परमेश्वर को समझते हैं और न ही उसकी इच्छा जानते हैं। वे केवल अंधों की तरह परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं और पीड़ा सहते हैं। विवेक पर वे बिल्कुल महत्व नहीं देते और उन्हें इसकी भी बहुत परवाह नहीं होती कि वे यह कैसे सुनिश्चित करें कि उनकी सेवा वास्तव में परमेश्वर की इच्छा पूरी करे। उन्हें इसका ज्ञान तो बिल्कुल ही नहीं होता कि परमेश्वर के विषय में समझ कैसे हासिल करें। जिस परमेश्वर की सेवा वे करते हैं, वह परमेश्वर की अपनी अंतर्निहित छवि नहीं है, बल्कि उनकी कल्पनाओं का एक परमेश्वर जिसके बारे में उन्होंने बस सुना है या लेखों में बस उनकी कहानियाँ सुनी हैं। फिर वे अपनी उर्वर कल्पनाओं और धर्मनिष्ठता का उपयोग परमेश्वर की खातिर पीड़ा सहने के लिए करते हैं और परमेश्वर के लिए उस कार्य का दायित्व स्वयं ले लेते हैं जो परमेश्वर करना चाहता है। उनकी सेवा बहुत ही अनिश्चित होती है, ऐसी कि उनमें से कोई भी परमेश्वर की इच्छा के अनुसार सेवा करने के पूरी तरह योग्य नहीं होता। चाहे वे स्वेच्छा से जितनी भी पीड़ा भुगतते हों, सेवा पर उनका मूल परिप्रेक्ष्य और परमेश्वर की उनकी मानसिक छवि अपरिवर्तित रहती है, क्योंकि वे परमेश्वर के न्याय, उसकी ताड़ना, उसके शुद्धिकरण और उसकी पूर्णता से नहीं गुज़रे हैं, न ही किसी ने सत्य द्वारा उनका मार्गदर्शन किया है। भले ही वे उद्धारकर्ता यीशु पर विश्वास करते हों, तो भी उनमें से किसी ने कभी उद्धारकर्ता को देखा नहीं होता। वे केवल किंवदंती और अफ़वाहों के माध्यम से ही उसके बारे में जानते हैं। इसलिए उनकी सेवा आँख बंद करके बेतरतीब ढंग से की जाने वाली सेवा से अधिक कुछ नहीं है, जैसे एक नेत्रहीन आदमी अपने पिता की सेवा कर रहा हो। इस प्रकार की सेवा के माध्यम से आखिरकार क्या हासिल किया जा सकता है? और इसे स्वीकृति कौन देगा? शुरुआत से लेकर अंत तक, उनकी सेवा कभी भी बदलती नहीं। वे केवल मानव-निर्मित पाठ प्राप्त करते हैं और अपनी सेवा को केवल अपनी स्वाभाविकता और ख़ुद की पसंद पर आधारित रखते हैं। इससे क्या इनाम प्राप्त हो सकता है? यहाँ तक कि पतरस, जिसने यीशु को देखा था, वह भी नहीं जानता था कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार सेवा कैसे करनी है; अंत में, वृद्धावस्था में पहुंचने के बाद ही वह इसे समझ पाया। यह उन नेत्रहीन लोगों के बारे में क्या कहता है जिन्होंने किसी भी तरह के निपटारे या काट-छाँट का ज़रा-भी अनुभव नहीं किया और जिनका किसी ने मार्गदर्शन नहीं किया? क्या आजकल तुम लोगों में से अधिकांश की सेवा उन नेत्रहीन लोगों की तरह ही नहीं है? जिन लोगों ने न्याय नहीं प्राप्त किया है, जिनकी काट-छाँट और जिनका निपटारा नहीं किया गया है, जो नहीं बदले हैं—क्या उन पर प्राप्त विजय अधूरी नहीं है? ऐसे लोगों का क्या उपयोग? यदि तुम्हारी सोच, जीवन की तुम्हारी समझ और परमेश्वर की तुम्हारी समझ में कोई नया परिवर्तन नहीं दिखता है, और तुम्हें वास्तव में थोड़ा-सा भी लाभ नहीं मिलता है, तो तुम कभी भी अपनी सेवा में कुछ भी उल्लेखनीय प्राप्त नहीं कर पाओगे! परमेश्वर के कार्य की एक नई समझ और दर्शन के बिना, तुम पर विजय नहीं पाई गई है। फिर परमेश्वर का अनुसरण करने का तुम्हारा तरीका उन्हीं लोगों की तरह होगा जो पीड़ा सहते हैं और उपवास रखते हैं : उसका कोई मूल्य नहीं होगा! वे जो करते हैं उसमें कोई गवाही नहीं होती, इसीलिए मैं कहता हूँ कि उनकी सेवा व्यर्थ होती है! जीवनभर वे लोग कष्ट भोगते हैं और बंदीगृह में समय बिताते हैं; वे हर पल सहनशील, दयालु होते हैं और हमेशा चुनौतियों का सामना करते हैं। उन्हें दुनिया बदनाम करती है, नकार देती है और वे हर तरह की कठिनाई का अनुभव करते हैं। हालाँकि वे अंत तक आज्ञापालन करते हैं, लेकिन फिर भी, उन पर विजय प्राप्त नहीं की जाती और वे विजय प्राप्ति की कोई भी गवाही पेश नहीं कर पाते। वे कम कष्ट नहीं भोगते, लेकिन अपने भीतर वे परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते। उनकी पुरानी सोच, पुरानी अवधारणाओं, धार्मिक प्रथाओं, मानव-निर्मित ज्ञान और मानवीय विचारों में से किसी से भी निपटा नहीं गया होता है। उनमें कोई नई समझ नहीं होती। परमेश्वर के बारे में उनकी थोड़ी-सी भी समझ सही या सटीक नहीं होती। उन्होंने परमेश्वर की इच्छा को गलत समझ लिया होता है। क्या इससे परमेश्वर की सेवा होती है? तुमने परमेश्वर के बारे में अतीत में जो कुछ भी समझा हो, यदि तुम उसे आज भी बनाए रखो और चाहे परमेश्वर कुछ भी करे, तुम परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान को अपनी अवधारणाओं और विचारों पर आधारित रखना जारी रखो, अर्थात्, तुम्हारे पास परमेश्वर का कोई नया, सच्चा ज्ञान न हो और तुम परमेश्वर की वास्तविक छवि और स्वभाव को जानने में विफल रहे हो, यदि परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ अभी भी सामंती, अंधविश्वासी सोच पर आधारित है और अब भी मानवीय कल्पनाओं और अवधारणाओं से पैदा हुई है, तो तुम पर विजय प्राप्त नहीं की गई है। मैं अब जो सारे वचन कहता हूँ, उनका उद्देश्य यह है कि तुम जान सको, और यह ज्ञान तुम्हें एक सटीक और नई समझ की ओर ले जाए; यह तुम लोगों के भीतर बसी पुरानी अवधारणाओं और ज्ञान को मिटाने के लिए भी है। अगर तुम सच में मेरे वचनों को खाते-पीते हो, तो तुम्हारे ज्ञान में काफी बदलाव आएगा। यदि तुम एक आज्ञाकारी हृदय के साथ परमेश्वर के वचनों को खाओगे-पिओगे, तो तुम्हारा परिप्रेक्ष्य बदल जाएगा। यदि तुम बार-बार ताड़ना को स्वीकार कर पाओ, तो तुम्हारी पुरानी मानसिकता धीरे-धीरे बदल जाएगी। यदि तुम्हारी पुरानी मानसिकता पूरी तरह से नई बन जाए, तो तुम्हारा अभ्यास भी तदनुसार बदलेगा। इस तरह तुम्हारी सेवा अधिक से अधिक लक्ष्य पर होगी और अधिक से अधिक परमेश्वर की इच्छा को पूरा कर पाएगी। यदि तुम अपना जीवन, मानव जीवन की अपनी समझ और परमेश्वर के बारे में अपनी अनेक अवधारणाओं को बदल सको, तो तुम्हारी स्वाभाविकता धीरे-धीरे कम होती जाएगी। यह परिणाम, और इससे कुछ भी कम नहीं, तब होता है जब परमेश्वर मनुष्य पर विजय प्राप्त कर लेता है; लोगों में यह परिवर्तन होने लगता है। यदि परमेश्वर पर विश्वास करने में, तुम केवल अपने शरीर को काबू में रखना एवं कष्ट और पीड़ा भुगतना जानते हो, और तुम्हें यह भी नहीं पता कि वह सही है या गलत, तुम्हें यह तो बिलकुल भी पता नहीं होता कि तुम किसके लिए ऐसा कर रहे हो, तो इस तरह के अभ्यास से परिवर्तन कैसे लाया जा सकता है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई (3)

जब कभी भी ऐसे धार्मिक लोग जमा होते हैं, तो वे पूछ सकते हैं, "बहन, आजकल तुम कैसी हो?" संभव है कि बहन उत्तर दे, "मैं महसूस करती हूँ कि मैं परमेश्वर की कर्जदार हूँ और मैं उसकी इच्छा पूरी नहीं कर पाती।" संभव है कि दूसरी बहन कहे, "मैं भी परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस करती हूँ और उसे संतुष्ट नहीं कर पाती।" ये कुछ वाक्य और शब्द ही उनके हृदय की गहराई में मौजूद अधम चीजों को व्यक्त कर देते हैं; ऐसी बातें अत्यधिक घृणित और अत्यंत विरोधी हैं। ऐसे लोगों की प्रकृति परमेश्वर से उलट होती है। जो लोग वास्तविकता पर ध्यान देते हैं वे वही बोलते हैं जो उनके दिल में होता है, और संगति में अपना दिल खोल देते हैं। ऐसे लोग न तो एक भी झूठी कवायद में शामिल होते हैं, न झूठा शिष्टाचार दिखाते हैं, न खोखली हँसी-खुशी का प्रदर्शन करते हैं। वे हमेशा स्पष्ट होते हैं और किसी सांसारिक नियम का पालन नहीं करते हैं। कुछ लोगों में, समझ के निपट अभाव की हद तक, दिखावे की आदत होती है। जब कोई गाता है, तो वह नाचने लगते हैं, वो समझ ही नहीं पाते कि उनका खेल पहले ही खत्म हो चुका है। ऐसे लोग धर्मपरायण या सम्माननीय नहीं होते, वे तो बहुत ही तुच्छ होते हैं। ये सब वास्तविकता के अभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब कुछ लोग आध्यात्मिक जीवन के बारे में संगति करते हैं, तो यद्यपि वे परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ होने की बात नहीं करते, फिर भी वे अपने हृदय की गहराई में उसके प्रति सच्चा प्रेम रखते हैं। परमेश्वर के प्रति तुम्हारी कृतज्ञता का दूसरे लोगों से कोई लेना-देना नहीं है; तुम परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हो, न कि मनुष्य के प्रति। इस बारे में लगातार दूसरों को बताने का क्या फायदा है? तुम्हें वास्तविकता में प्रवेश करने को महत्व देना चाहिए, न कि बाहरी उत्साह या प्रदर्शन को।

इंसान के दिखावटी काम क्या दर्शाते हैं? वे देह की इच्छाओं को दर्शाते हैं, यहाँ तक कि दिखावे के सर्वोत्तम अभ्यास भी जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करते, वे केवल तुम्हारी अपनी व्यक्तिगत मनोदशा को दर्शा सकते हैं। मनुष्य के बाहरी अभ्यास परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं कर सकते। तुम निरतंर परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता की बातें करते रहते हो, लेकिन तुम दूसरों के जीवन की आपूर्ति नहीं कर सकते या उन्हें परमेश्वर से प्रेम करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते। क्या तुम्हें विश्वास है कि तुम्हारे ऐसे कार्य परमेश्वर को संतुष्ट करेंगे? तुम्हें लगता है कि तुम्हारे कार्य परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं, और वे आत्मिक हैं, किन्तु वास्तव में, वे सब बेतुके हैं! तुम मानते हो कि जो तुम्हें अच्छा लगता है और जो तुम करना चाहते हो, वे ठीक वही चीजें हैं जिनसे परमेश्वर आनंदित होता है। क्या तुम्हारी पसंद परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकती है? क्या मनुष्य का चरित्र परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है? जो चीज तुम्हें अच्छी लगती है, परमेश्वर उसी से घृणा करता है, और तुम्हारी आदतें ऐसी हैं जिन्हें परमेश्वर नापसंद और अस्वीकार करता है। यदि तुम खुद को कृतज्ञ महसूस करते हो, तो परमेश्वर के सामने जाओ और प्रार्थना करो; इस बारे में दूसरों से बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने के बजाय दूसरों की उपस्थिति में निरंतर अपनी ओर ध्यान आकर्षित करवाते हो, तो क्या इससे परमेश्वर की इच्छा पूरी की जा सकती है? यदि तुम्हारे काम सदैव दिखावे के लिए ही हैं, तो इसका अर्थ है कि तुम एकदम नाकारा हो। ऐसे लोग किस तरह के होते हैं जो दिखावे के लिए तो अच्छे काम करते हैं लेकिन वास्तविकता से रहित होते हैं? ऐसे लोग सिर्फ पाखंडी फरीसी और धार्मिक शख्सियत होते हैं। यदि तुम लोग अपने बाहरी अभ्यासों को नहीं छोड़ते और परिवर्तन नहीं कर सकते, तो तुम लोग और भी ज्यादा पाखंडी बन जाओगे। जितने ज्यादा पाखंडी बनोगे, उतना ही ज्यादा परमेश्वर का विरोध करोगे। और अंत में, इस तरह के लोग निश्चित रूप से हटा दिए जाएँगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इंसान को अपनी आस्था में, वास्तविकता पर ध्यान देना चाहिए—धार्मिक रीति-रिवाजों में लिप्त रहना आस्था नहीं है

संदर्भ के लिए धर्मोपदेश और संगति के उद्धरण :

धार्मिक दुनिया में, बहुत से भक्त कहते हैं, "हम प्रभु यीशु में अपने विश्वास के कारण बदल गए हैं। हम प्रभु के लिए खुद को खपाने में, काम करने में, कारावास सहन करने में सक्षम हैं, और उसके नाम को अस्वीकार नहीं करते हैं। हम कई गुणकारी चीजें करने, भले कार्य के लिए धन देने, दान करने और गरीबों की सहायता करने में सक्षम हैं। ये बड़े बदलाव हैं! इसलिए हम स्वर्ग के राज्य में ले जाये जाने के योग्य हैं।" तुम इन शब्दों के बारे में क्या सोचते हो? (वे गलत हैं।) इन शब्दों के बारे में क्या तुममें कोई विवेक है? शुद्ध किये जाने का क्या मतलब है? क्या तुम्हें लगता है कि यदि तुम्हारा व्यवहार बदल गया है और तुम अच्छे कर्म करते हो, तो तुम्हें शुद्ध कर दिया गया है? कोई कहता है, "मैंने सब कुछ दरकिनार कर दिया है। परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के लिए, मैंने अपनी नौकरी, अपना परिवार और देह की इच्छाओं को भी दरकिनार कर दिया। क्या यह शुद्ध किये जाने के बराबर है?" यदि तुमने यह सब किया भी है, तो यह ठोस प्रमाण नहीं है कि तुम्हें शुद्ध कर दिया गया है। तो, मुख्य बात क्या है? तुम किस पहलू में ऐसी शुद्धता प्राप्त कर सकते हो जिसे असल शुद्धता माना जा सकता है? परमेश्वर का विरोध करने वाले शैतानी स्वभाव की शुद्धता ही सच्ची शुद्धता है। उस शैतानी स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं जो परमेश्वर का विरोध करती हैं? सबसे स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं, एक व्यक्ति का अहंकार, दम्भ, आत्मतुष्टता और आत्म-गौरव, साथ ही साथ उसका टेढ़ापन, विश्वासघात, झूठ बोलना, धोखाधड़ी और पाखंड। जब ये शैतानी स्वभाव किसी का हिस्सा नहीं रह जाते हैं, तो उसे वास्तव में शुद्ध कर दिया गया है। कहा जाता है कि मनुष्य के शैतानी स्वभाव की 12 महत्वपूर्ण अभिव्यक्तियाँ हैं, जैसे कि, स्वयं को सबसे सम्मानजनक मानना; खुद से अनुकूल लोगों को बढ़ने देना और अपना विरोध करने वालों का नाश होने देना; केवल परमेश्वर को ही अपने आप से बेहतर मानना, किसी और के सामने न झुकना, किसी और के प्रति आदर न रखना; एक बार सत्ता पाने के बाद अपना एक स्वतंत्र राज्य बनाना; सत्ता का उपयोग करने वाला एकमात्र इन्सान बनने और सभी चीजों का स्वामी बनने की चाह रखना, और अपने आप सब कुछ तय करने की चाह रखना। ये सभी अभिव्यक्तियाँ शैतानी स्वभाव हैं। कोई व्यक्ति अपने जीवन स्वभाव में बदलाव का अनुभव कर पाए, इससे पहले इन शैतानी स्वभावों को शुद्ध किया जाना ज़रूरी है। किसी के जीवन स्वभाव में बदलाव एक पुनर्जन्म है, क्योंकि उसका सार बदल गया है। इससे पहले, जब उसे सत्ता दी गई, तो वह अपना स्वतंत्र राज्य बनाने में सक्षम था। अब, जब उसे सत्ता दी जाती है, तो वह परमेश्वर की सेवा करता है, परमेश्वर की गवाही देता है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए सेवक बन जाता है। क्या यह वास्तविक परिवर्तन नहीं है? इससे पहले, सभी स्थितियों में वह खुद का दिखावा करता था और चाहता था कि अन्य लोग उसके बारे में श्रेष्ठ सोचें और उसकी आराधना करें। अब, वह हर जगह परमेश्वर की गवाही देता है, और खुद का दिखावा नहीं करता।चाहे लोग उससे कैसे भी व्यवहार करें, उसे वह ठीक लगता है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग उसके बारे में कैसी टिप्पणी करते हैं, उसे वह ठीक लगता है। उसे इसकी कोई परवाह नहीं होती है। वह केवल परमेश्वर को उत्कृष्टता देना चाहता है, परमेश्वर के लिए गवाही देना चाहता है, दूसरों को परमेश्वर की समझ प्राप्त करने में मदद करना चाहता है, और परमेश्वर की उपस्थिति में दूसरों की पालन करने में मदद करना चाहता है। क्या यह जीवन स्वभाव में बदलाव नहीं है? "मैं भाई-बहनों के साथ प्रेम से व्यवहार करूँगा। मैं सभी परिस्थितियों में दूसरों के प्रति करुणामय रहूँगा। मैं अपने बारे में नहीं सोचूंगा और दूसरों को लाभ प्रदान करूँगा। मैं दूसरों को उनकी जिंदगी में आगे बढ़ने में मदद करूँगा और अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करूंगा। मैं दूसरों की सत्य समझने में और सत्य प्राप्त करने में मदद करूँगा।" दूसरों को स्वयं के समान प्यार करने का यही मतलब है! जब शैतान की बात आती है, तो तुम इसे समझ सकते हो, सिद्धांत बना सकते हो, इसके साथ एक सीमांकन रेखा खींच सकते हो और शैतान की बुराइयों को पूरी तरह से प्रकट कर सकते हो ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इसके नुकसान से बचाया जा सके। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा करना है, और यह दूसरों को और भी अधिक स्वयं के समान प्यार करना है। इसके अतिरिक्त, तुम्हें उससे प्यार करना चाहिए जिससे परमेश्वर प्यार करता है और उससे नफरत करनी चाहिए जिससे परमेश्वर घृणा करता है। परमेश्वर मसीह विरोधियों, दुष्ट आत्माओं और दुष्ट लोगों से नफरत करता है। इसका मतलब है कि हमें भी मसीह विरोधियों, दुष्ट आत्माओं और दुष्ट लोगों से नफरत करनी है। हमें परमेश्वर की तरफ खड़ा होना चाहिए। हम उनके साथ समझौता नहीं कर सकते हैं। परमेश्वर किससे प्यार करता है? परमेश्वर उनसे प्यार करता है जिन्हें वह बचाना और आशीष देना चाहता है। इन लोगों के लिए, हमें जिम्मेदार होना चाहिए, उनके साथ प्यार से व्यवहार करना चाहिए, उन्हें सहायता, नेतृत्व और समर्थन प्रदान करना चाहिए। क्या यह किसी के जीवन स्वभाव में बदलाव नहीं है? इसके अतिरिक्त, जब तुमने कुछ अपराध या गलतियाँ की हैं, या कोई काम करने में सिद्धांतों की उपेक्षा की है, तो तुम भाई-बहनों की आलोचना, उलाहना, व्यवहार और कांट-छांट स्वीकार कर सकते हो; तुम इन सभी चीजों से उचित व्यवहार कर सकते हो और उन्हें परमेश्वर से प्राप्त कर सकते हो, घृणा त्याग सकते हो, और अपने भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए सत्य की तलाश कर सकते हो। क्या यह तुम्हारे जीवन स्वभाव में बदलाव नहीं है?

क्या एक व्यक्ति के व्यवहार में बदलाव, जिसकी धार्मिक जगत में चर्चा है, जीवन स्वभाव में बदलाव का प्रतिनिधित्व कर सकता है? सभी कहते हैं कि नहीं कर सकता। ऐसा क्यों है? मुख्य कारण यह है कि वह अभी भी परमेश्वर का विरोध करता है। यह बिल्कुल फरीसियों जैसा है जो बाहर से बड़े भक्त थे। वे अक्सर प्रार्थना करते थे, पवित्रशास्त्र को समझाते थे और व्यवस्था के नियमों का बहुत अच्छे से पालन करते थे। ऐसा कहा जा सकता है कि बाहरी रूप से, वे निंदा से परे थे। लोग कोई भी दोष निकालने में असमर्थ थे। हालाँकि, वे अभी भी मसीह का विरोध करने और निंदा करने में सक्षम क्यों थे? यह क्या इशारा करता है? चाहे लोग कितने भी अच्छे प्रतीत हों, अगर उनके पास सत्य नहीं है और इस प्रकार वे परमेश्वर को नहीं जानते हैं तो वे अभी भी परमेश्वर का प्रतिरोध करेंगे। बाहरी रूप से, वे बहुत अच्छे थे, लेकिन यह जीवन स्वभाव में बदलाव के रूप में क्यों नहीं गिना जाता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि उनका भ्रष्ट स्वभाव ज़रा भी नहीं बदला था और वे अभी भी घमंडी, दम्भी और विशेष रूप से आत्म-तुष्ट थे। वे अपने ज्ञान और सिद्धांतों में विश्वास करते थे और मानते थे कि उनकी शास्त्रों की समझ सर्वोत्तम है। उनका मानना था कि वे सबकुछ समझ गए थे और वे अन्य लोगों की तुलना में बेहतर थे। यही कारण है कि जब प्रभु यीशु प्रचार कर रहा था और अपना कार्य कर रहा था, तब उन्होंने उसका विरोध किया और निंदा की। यही कारण है कि जब धार्मिक जगत ने सुनता है कि अंत के दिनों के मसीह ने सारा सत्य व्यक्त किया है, तो वे उसकी निंदा करते हैं, भले ही उन्हें पता है कि यह सच है। उन्होंने किस तरह की गलती की? बाहरी रूप से, वे इतने बड़े बदलाव से होकर गुज़रे, तो यह कैसे सम्भव था कि वे अभी भी परमेश्वर का विरोध करने में सक्षम थे? यह कैसे सम्भव था कि वे अभी भी मसीह के प्रति पागलों के समान शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने में सक्षम थे? यह किस तरह की समस्या है? क्या कोई व्यक्ति जो मसीह का विरोध करता है और प्रतिरोध करता है वह स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता है? क्या परमेश्वर उन लोगों को राज्य में ला सकता है जो मसीह के दुश्मन हैं? परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा।

—जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए। तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी...

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