216 हे परमेश्वर, मैं तुझे छोड़ नहीं सकती
1
परमेश्वर के वचन के बिना, मैं पानी में तैरती घास-पत्तियों की तरह लंगरविहीन हूँ।
बिन परमेश्वर, मैं पीड़ा और ख़ालीपन महसूस करती हूँ।
आत्म-चिंतन के द्वारा, मैं देखती हूँ कि मैंने परमेश्वर में कई सालों तक विश्वास रखते हुए भी मैंने कभी सत्य का अनुसरण नहीं किया।
मन में बस भविष्य की संभावनाएँ और मंज़िल को ध्यान में रखे,
मैं बस आशीष पाने के लिए काम और मेहनत करती रही, कभी परमेश्वर से सच में प्रेम नहीं किया।
वो मुझसे घृणा और नफरत करता है; मैं अंधकार और चरम पीड़ा में गिर गयी हूँ।
याचना के शब्द परमेश्वर को मेरे पास वापस नहीं ला सकते।
परमेश्वर-भीरू हृदय के बिना, मैं परमेश्वर के सामने जीने के लायक नहीं हूँ।
मैं परमेश्वर की उदारता का हिसाब लगाती हूँ, आत्म-मंथन करती हूँ और स्वयं को परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस करती हूँ।
2
न्याय के ज़रिये, मुझे अपनी भ्रष्टता का सत्य स्पष्ट दिखाई देता है।
मैं आत्माभिमानी, कुटिल और कपटी हूँ, यहाँ तक कि मैंने परमेश्वर के साथ सौदा किया।
मैंने यह भी सोचा कि त्याग करने और खपाने से मैं उसका आशीष पाऊँगी।
मेरे अपनी धारणाओं से चिपके रहने ने एक त्रासदी को जन्म दे दिया।
अनेक शुद्धिकरण से गुज़रने पर, मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव कोई अपराध बर्दाश्त नहीं करता।
मेरा दिल उसके प्रति श्रद्धानत है, मुझे स्वयं से घृणा हो गई, मैं सचमुच पश्चाताप करती हूँ।
मैं देखती हूँ कि परमेश्वर का न्याय केवल प्रेम और उद्धार है।
उसका प्रतिदान देने के लिये मैंने सत्य का अभ्यास करने और अपना कर्तव्य निभाने का संकल्प लिया है।
मैं एक ईमानदार इंसान बनना, सच में परमेश्वर से प्रेम करना और उसे सुकून देना चाहती हूँ।