372 किसने कभी परमेश्वर के दिल को समझा है?
1
अपना सब कुछ दिया तुम्हें परमेश्वर ने,
संसार की महिमा, प्रेम, आशीष का आनंद न लिया।
लोग बहुत बुरे हैं उसके प्रति। धरा के वैभव का भोग न किया उसने,
इंसान को दिया अपना सच्चा, भावों भरा दिल, अपना सब दिया।
किसने कभी दिलासा या स्नेह दिया उसे?
इंसान ने बोझ लादा उस पर सारा, बदकिस्मती से उसे नवाज़ा,
उसे जबरन डाला भयानक स्थितियों में।
इंसान उस पर अन्याय का इल्ज़ाम लगाए, वो उसे स्वीकारे खामोशी से।
क्या वो विरोध करे, माँगे हर्जाना? किसने जताई उससे हमदर्दी कभी?
2
किस इंसान ने न बिताया प्यारा बचपन?
किसे न मिला परिवार का स्नेह या जोशीला यौवन?
किसे न मिला प्यार दोस्तों का, सम्मान औरों का?
किसे विश्वासपात्रों का दिलासा न मिला?
क्या ईश्वर ने कभी गर्माहट और आराम भोगा?
किसने दिखाई इंसानी नैतिकता?
कौन पेश आया धीरज से, रहा उसके साथ कठिनाई में?
इंसान उससे माँगे बिना हिचके।
आत्मा से आए देहधारी ईश्वर को वो कैसे ईश्वर माने? कौन उसे जान सके?
3
इंसान के बीच सत्य कहाँ? सच्ची धार्मिकता कहाँ?
कौन जान सके ईश-स्वभाव, मुक़ाबला करे स्वर्गिक ईश्वर से?
अचरज नहीं कि इंसान के बीच
आया ईश्वर तो किसी ने न जाना उसे; सभी ने नकारा उसे।
इंसान कैसे ईश-अस्तित्व को सह सके,
कैसे वो रोशनी को अंधकार भगाने दे?
क्या ये इंसान की सच्ची भक्ति और प्रवेश नहीं?
क्या ईश-कार्य इंसानी प्रवेश पर केन्द्रित नहीं?
ईश्वर चाहे तुम ईश-कार्य को इंसानी प्रवेश संग जोड़ो,
इंसान और ईश्वर के बीच अच्छा रिश्ता बनाओ,
अपना कर्तव्य बेहतरीन ढंग से निभाओ। इस तरह, ईश-कार्य अंत होगा,
और होगी उसकी महिमा, होगी उसकी महिमा, और होगी उसकी महिमा।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (10) से रूपांतरित