सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7)

हाल ही में, मैंने नैतिक आचरण के बारे में पारंपरिक संस्कृति की तमाम तरह की कहावतों पर संगति की। कुछ खास कहावतों के बारे में तो मैंने काफी विस्तार से संगति की है। अब, क्या इस विषय और सामग्री का सत्य से कोई लेना-देना है? (हाँ।) क्या कोई मानता है कि यह विषय और सामग्री सत्य से संबंधित नहीं लगती? अगर उन्हें ऐसा लगता है, तो वे वाकई कम काबिल लोग हैं और उनमें जरा-सी भी समझ नहीं है। क्या इस विषय पर मेरी संगति समझने में आसान रही है? (बिल्कुल।) अगर मैं इस तरह से संगति और विश्लेषण न करता तो क्या तुम लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों को, जिन्हें लोग अपेक्षाकृत सकारात्मक मानते हैं, गलती से सत्य न मान लेते और इन पर लगातार कायम रहते? सबसे पहले, मैं यकीन से कह सकता हूँ कि ज्यादातर लोग इन कहावतों को सकारात्मक चीजें मानते हैं, ऐसी चीजें जो मानवता के अनुरूप हैं और जिनका पालन अवश्य किया जाना चाहिए, और यह भी मानते हैं कि ये चीजें अंतरात्मा, तर्क, अपेक्षाओं, धारणाओं और मानवता से संबंधित ऐसी अन्य चीजों के अनुरूप हैं। यह कहा जा सकता है कि इस विषय पर मेरी संगति से पहले लगभग हर व्यक्ति नैतिक आचरण की इन विभिन्न कहावतों को सकारात्मक और सत्य के अनुरूप मानता था। मेरी संगति और विश्लेषण सुनने के बाद क्या अब तुम लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों और सत्य के बीच अंतर कर सकते हो? क्या तुम लोगों में इस तरह की समझ आ गई है? कुछ लोग कहेंगे : “मैं इनमें फर्क करने में असमर्थ हूँ, लेकिन फिर भी परमेश्वर की संगति सुनकर अब मैं यह समझता हूँ कि इन चीजों और सत्य के बीच अंतर है। ये चीजें सत्य की जगह नहीं ले सकती हैं, इन्हें सकारात्मक चीजें या सत्य तो बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता है। बेशक, इन्हें परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं या सत्य की कसौटी के अनुरूप माने जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। उनका परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर की अपेक्षाओं या सत्य की कसौटी से कोई संबंध नहीं है। कुल मिलाकर, ये चाहे मानवता की अंतरात्मा और तर्क के अनुरूप हों या न हों, मैं अब अपने दिल में इन चीजों की पूजा नहीं करता और इन्हें सत्य नहीं मानता।” इससे पता चलता है कि पारंपरिक संस्कृति के ये पहलू अब लोगों के दिलों में मार्गदर्शक भूमिका नहीं निभाते। जब लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों को सुनेंगे, तो वे अनायास ही उनके और सत्य के बीच फर्क कर पाएँगे और ज्यादातर उन्हें ऐसी चीजें मानेंगे जिन्हें लोग अपनी अंतरात्मा में स्वीकृति देते हैं। लेकिन, वे जानते हैं कि ये चीजें अभी भी सत्य से अलग हैं और ये सत्य की जगह तो बिल्कुल भी नहीं ले सकती हैं। जब लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों के सार को समझ लेंगे, तब वे उन्हें सत्य मानना और उनके अनुरूप चलना, उनकी पूजा करना या उन्हें ऐसा मानना बंद कर देंगे—यही मूल प्रभाव हासिल किया जाता है। अब इन सभी चीजों की समझ होने का लोगों के सत्य के अनुसरण पर कौन-से सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं? यकीनन इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, लेकिन उस प्रभाव की तीव्रता इस बात पर निर्भर करेगी कि तुम किस हद तक सत्य को समझते हो या तुम कितना सत्य जानते हो। इन बातों पर विचार करने पर, यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि पारंपरिक संस्कृति के इन पहलुओं का विश्लेषण किया जाए, जिन पर लोग कायम रहते हैं और जो उनकी धारणाओं के अनुरूप हैं। कम-से-कम इस विश्लेषण से लोगों को सत्य की शुद्ध समझ हासिल करने में मदद मिलेगी और उन्हें निरर्थक प्रयास करने या सत्य के अनुसरण में गलत मार्ग पर चलने से रोका जा सकेगा। इससे ऐसे प्रभाव हासिल किए जा सकते हैं।

पिछली बार हमने नैतिक आचरण की इन चार कहावतों पर संगति कर इनका विश्लेषण किया था—“उठाए गए धन को जेब में मत रखो,” “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ,” “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो,” और “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ।” आज हम अन्य कहावतों पर संगति जारी रखेंगे। चीनी पारंपरिक संस्कृति ने नैतिक आचरण के बारे में कई मुखर दावों को आगे बढ़ाया है—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये दावे मूल रूप से किस युग के दौरान या इतिहास की किस अवधि में किए गए, इन सभी को मौजूदा समय तक आगे बढ़ाया गया है और ये लोगों के दिलों में मजबूती से जड़ें जमा चुके हैं। जैसे-जैसे समय बीतता गया और नई चीजें धीरे-धीरे उभरीं, मनुष्य ने नैतिक आचरण के बारे में कई नए और अलग-अलग दावे प्रस्तुत किए। ये दावे मूल रूप से लोगों के नैतिक चरित्र और व्यवहार से की गई अपेक्षाएँ हैं। क्या तुम सब लोगों की समझ नैतिक आचरण की उन चार कहावतों के बारे में कमोबेश स्पष्ट है, जिनके बारे में हमने पिछली बार संगति की थी? (बिल्कुल।) अब हमें अगली कहावत पर संगति करनी चाहिए : “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए।” यह विचार कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, पारंपरिक चीनी संस्कृति में यह आँकने के लिए एक प्रारूपिक कसौटी है कि किसी व्यक्ति का आचरण नैतिक है या अनैतिक। किसी व्यक्ति की मानवता अच्छी है या बुरी, और उसका आचरण कितना नैतिक है, इसका आकलन करने का एक मापदंड यह है कि क्या वह किसी के एहसान या मदद का बदला चुकाने की कोशिश करता है—क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाता है या नहीं। पारंपरिक चीनी संस्कृति में, और मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति में, लोग इसे नैतिक आचरण के एक अहम पैमाने के रूप में देखते हैं। अगर कोई यह नहीं समझता है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, और वह कृतज्ञता नहीं दिखाता है, तो ऐसा माना जाता है कि उसमें जमीर का अभाव है, वह मेलजोल के लिए अयोग्य है और ऐसे व्यक्ति से सभी लोगों को घृणा करनी चाहिए, उसका तिरस्कार करना चाहिए या उसे ठुकरा देना चाहिए। दूसरी तरफ, अगर कोई व्यक्ति यह समझता है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए—अगर वह कृतज्ञ है और उपलब्ध सभी साधनों का इस्तेमाल करके खुद पर किए गए एहसान या मदद का बदला चुकाता है—तो उसे जमीर और मानवता युक्त इंसान माना जाता है। अगर कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से लाभ या मदद लेता है, पर इसका बदला नहीं चुकाता, या सिर्फ जरा-सा “शुक्रिया” कहकर आभार जता देता है, और इसके अलावा कुछ नहीं करता, तो दूसरा व्यक्ति क्या सोचेगा? शायद उसे यह असहज लगेगा? शायद वह सोचेगा, “यह इंसान मदद किए जाने के योग्य नहीं है। यह अच्छा व्यक्ति नहीं है। मैंने उसकी इतनी मदद की, अगर इस पर उसकी यही प्रतिक्रिया है, तो उसमें जमीर और इंसानियत नाम की चीज नहीं है, और इस योग्य नहीं है कि उससे संबंध रखा जाए।” अगर उसे दोबारा कोई ऐसा व्यक्ति मिले, क्या वह तब भी उसकी मदद करेगा? कम-से-कम वह ऐसा करना तो नहीं चाहेगा। क्या तुम लोग भी, ऐसी परिस्थिति में यह नहीं सोचोगे कि सच में मदद करनी चाहिए या नहीं? पिछले अनुभव से तुमने जो सबक सीखा होगा वह यह होगा, “मैं हर किसी की यूँ ही मदद नहीं कर सकता—इन्हें यह बात समझ में आनी चाहिए कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए। अगर ये लोग एहसानफरामोश किस्म के हैं, जो मेरी मदद का बदला नहीं चुकाएंगे, तो बेहतर यही है कि मैं उनकी मदद न ही करूँ।” क्या इस मामले में तुम लोगों की यही सोच नहीं होगी? (बिल्कुल होगी।) आम तौर पर, जब लोग दूसरों की मदद करते हैं, तो वे वास्तव में अपने मदद भरे कदम बारे में क्या सोचते हैं? क्या वे जिस व्यक्ति की मदद करते हैं उससे कुछ अपेक्षाएँ या उम्मीदें रखते हैं? क्या कोई कहता है, “मैं तुमसे किसी भी तरह की भरपाई की अपेक्षा के बिना तुम्हारी मदद कर रहा हूँ। मैं तुमसे कुछ भी हासिल नहीं करना चाहता। जब तुम परेशानियों का सामना करते हो, तो मुझे तुम्हारी मदद करनी ही चाहिए, और यह मेरा कर्तव्य है। चाहे हमारा एक दूसरे के साथ कोई संबंध हो या न हो और चाहे भविष्य में तुम मेरे एहसान का बदला चुकाने में सक्षम हो या न हो, मैं बस एक साधारण इंसान के रूप में अपना मौलिक कर्तव्य निभा रहा हूँ और बदले में मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। तुम मेरे एहसान का बदला चुकाते हो या नहीं, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।” क्या ऐसी बातें कहने वाले लोग मौजूद हैं? अगर ऐसे लोग मौजूद भी हैं, तो वे बस बनावटी हैं और तथ्यों से मेल नहीं खाते। चीनी ऐतिहासिक उपन्यासों में ऐसे बहुत-से नायक पात्र गढ़े हैं और आधुनिक समाज में बड़े लाल अजगर के देश ने जो नायक गढ़े हैं वे और भी ज्यादा काल्पनिक हैं। भले ही ऐसे लोग मौजूद थे, पर उनके बारे में कहानियां गढ़ी गई थीं। इन तथ्यों के आधार पर देखें, तो क्या तुम्हें अब “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” की कहावत, लोगों के नैतिक आचरण को आँकने की इस कसौटी, और जहाँ से यह आई है, उसके बारे में स्पष्ट हो गया है? शायद कुछ लोगों को अभी भी इसके बारे में सब कुछ स्पष्ट नहीं है। इस भ्रष्ट मानवजाति में, सभी लोगों के पास एक तरह का आदर्श और मानव समाज से कुछ अपेक्षा होती है। उनकी क्या अपेक्षा है? “अगर सभी थोड़ा-सा प्रेम दें, तो दुनिया एक अद्भुत जगह बन जाएगी।” इस अपेक्षा के अलावा, लोग यह भी उम्मीद करते हैं कि उनके स्नेही दिलों और उनके द्वारा चुकाई गई कीमत के बदले में उन्हें कुछ मिले और उनकी भरपाई हो। एक तरफ, यह आर्थिक रूप से की जाने वाली भरपाई हो सकती है, जैसे कि पैसों का उपहार देना या कोई आर्थिक इनाम देना। वहीं दूसरी तरफ, इसका मतलब आध्यात्मिक रूप से भरपाई करना भी हो सकता है—यानी लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए इनाम के तौर पर उन्हें आध्यात्मिक पूर्णता देना, जो “आदर्श श्रमिक,” “नैतिक रोल मॉडल,” या “नैतिकता की मिसाल” जैसी उपाधि देकर किया जाता है। मानव समाज में, लगभग सभी को समाज और संसार से इस तरह की अपेक्षा होती है—वे सभी नेक इंसान बनने, सही रास्ते पर चलने, और जरूरतमंद लोगों के लिए मदद का हाथ बढ़ाने, लोगों को उनकी मदद पाने देने और कुछ लाभ प्राप्त करने की आशा रखते हैं। वे उम्मीद करते हैं उनकी मदद पाने वाले लोग याद रखेंगे कि किसने उनकी मदद की थी, और किस तरह से उनकी मदद की गई थी। बेशक, वे यह भी उम्मीद करते हैं कि जब उन्हें खुद कोई जरूरत होगी, तो कोई न कोई मदद का हाथ बढ़ाने के लिए मौजूद होगा। एक ओर, जब किसी को मदद की जरूरत होती है, तो वे आशा करते हैं कि कुछ लोग उनके प्रति स्नेही दिल दिखाएँगे; वहीं दूसरी ओर, वे आशा करते हैं कि जब स्नेही दिल दिखाने वालों को मुश्किल वक्त का सामना करना पड़ेगा, तो उन्हें भी वो मदद मिल पाएगी जिसकी उनको जरूरत है। समाज और संसार से लोगों को इसी तरह की अपेक्षा होती है—वास्तव में, उनका अंतिम लक्ष्य यही होता है कि मानवजाति एक समरस, शांतिपूर्ण और स्थिर समाज में रहे। यह अपेक्षा कैसे उत्पन्न हुई है? यह अपेक्षा और उससे जुड़ा दावा स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हुआ है[क], क्योंकि लोग इस प्रकार के सामाजिक परिवेश में सुरक्षित और खुश महसूस नहीं करते। इस तरह, लोग व्यक्ति के नैतिक आचरण और उसके चरित्र की श्रेष्ठता का मूल्यांकन इस आधार पर करने लगते हैं कि उसने दूसरों की दयालुता का बदला चुकाया या नहीं, और लोगों के नैतिक आचरण के मूल्यांकन की कसौटी बन चुकी यह कहावत “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” इसी परिस्थिति से निकली है। यह कहावत कैसे बनी, क्या यह बहुत अजीब नहीं है? (बिल्कुल।) वर्तमान युग में मनुष्य सत्य की खोज नहीं करता और उसे नहीं स्वीकारता, और वह सत्य से विमुख हो चुका है। लोग अस्त-व्यस्त दशा में हैं और एक दूसरे के बीच रहते हुए भी उन सभी को यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें कौन-सी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, कौन-से कर्तव्य निभाने चाहिए, और कौन-सा स्थान ग्रहण करना चाहिए और लोगों और चीजों को देखते समय कौन-से ऊँचे स्थान पर जाना चाहिए। इसके अलावा, लोगों को यह भी स्पष्ट नहीं है कि समाज के प्रति उनकी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य क्या हैं और वे निश्चित नहीं हैं कि उन्हें किस रुख और परिप्रेक्ष्य से समाज को देखना और उससे पेश आना चाहिए। संसार में जो कुछ भी होता है उसके लिए उनके पास सटीक व्याख्या और निर्णय नहीं है; वे अभ्यास का सही मार्ग खोजने में भी विफल रहते हैं, ताकि अपने आचरण और क्रियाकलाप को उस हिसाब से नियंत्रित कर सकें। लड़ाई-झगड़े, खून-खराबे, युद्ध और सभी प्रकार के अनुचित व्यवहार करने वाले अत्यधिक अंधकारमय, भयावह संसार का सामना करते हुए, लोग उद्धारकर्ता को याद करते हैं और उसके आने की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। फिर भी, सत्य में उनकी कोई रुचि नहीं है और कोई भी सक्रिय रूप से परमेश्वर या उसके कार्य की खोज नहीं करता। अगर वे परमेश्वर के कथनों को सुनते हैं, तब भी वे खोज नहीं करते, उन्हें स्वीकारना तो दूर की बात है। सभी लोग इसी असहाय दशा में जीते हैं और सबको लगता है कि यह समाज बेहद अन्यायी और असुरक्षित है। हर कोई इस समाज और इस संसार से पूरी तरह ऊब चुका है और इनके प्रति वैर भाव से भरा है, लेकिन वैर भाव से भरे होने के बावजूद, उन्हें अभी भी यह उम्मीद है कि एक दिन यह समाज बेहतर होगा। उनके हिसाब से एक बेहतर समाज कैसा होता है? वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जिसमें लड़ाई-झगड़ा और खून-खराबा न हो, जिसमें सभी लोग एक दूसरे से समरस तरीके से बातचीत कर सकें, किसी को भी दबाव, पीड़ा या जीवन की बाधाओं का सामना न करना पड़े; और सभी लोग सुकूनभरा, स्वतंत्र, सहज और खुशहाल जीवन जी सकें, दूसरों के साथ सामान्य रूप से बातचीत कर सकें, उनके साथ निष्पक्ष व्यवहार कर सकें, और बेशक दूसरे लोग भी उनके साथ उचित व्यवहार करें। क्योंकि इस संसार में और मानवजाति के बीच, निष्पक्षता कभी नहीं देखी गई है। यहाँ सिर्फ लड़ाई-झगड़े और खून-खराबे होते रहते हैं, पर लोगों के बीच कभी समरसता नहीं होती। इतिहास का कोई भी दौर रहा हो, हमेशा ऐसा होता आया है। इस क्रूर सामाजिक परिवेश और हालात का सामना करते हुए, एक भी ऐसा इंसान नहीं है जो इन समस्याओं को हल करना जानता हो, लोगों के बीच होने वाले लड़ाई-झगड़े और खून-खराबे या समाज में उत्पन्न होने वाली किसी भी अनुचित और अन्यायपूर्ण परिस्थिति का समाधान करना जानता हो। ऐसा साफ तौर पर इस तथ्य की वजह से है कि ऐसी समस्याएँ आती हैं और लोग उनका समाधान करना नहीं जानते; वे यह नहीं जानते कि उन्हें इन समस्याओं का समाधान करने के लिए कौन-सी बेहतर स्थिति या दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, या उन्हें हल करने के लिए कौन-सा तरीका अपनाना चाहिए; उनके मन में इस तरह का आदर्शवादी दर्शन विकसित हो जाता है। इस आदर्शवादी दर्शन में, लोग समरसता के साथ मिलजुलकर रह सकते हैं, समाज और आसपास के लोगों द्वारा सभी के साथ निष्पक्ष व्यवहार किया जाता है। सभी को यह उम्मीद होती है कि “दूसरों के प्रति लोगों का सम्मान दस गुणा अधिक होगा; अगर तुम मेरी मदद करोगे, तो बदले में मैं तुम्हारी मदद करूँगा; और जब तुम्हें मदद की जरूरत होगी, तो समाज में ऐसे बहुत से लोग होंगे जो मदद का हाथ बढ़ाने और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए तैयार होंगे; और जब मुझे मदद की जरूरत होगी, तो जिन लोगों को पहले मेरी मदद का फायदा मिला था वे मेरी मदद के लिए आगे आएँगे। यह ऐसा समाज होगा जिसमें लोग एक दूसरे की मदद करेंगे।” लोग मानते हैं कि मनुष्य सिर्फ इसी तरीके से खुशहाली में, समरस तरीके से और एक स्थिर और शांतिपूर्ण समाज में रह पाएँगे। वे मानते हैं कि सिर्फ इसी तरीके से एक दूसरे के खिलाफ जन संघर्षों को पूरी तरह मिटाकर हल किया जा सकता है। उन्हें लगता है कि जब इन समस्याओं का समाधान हो जाएगा, तब उनके दिलों की गहराइयों में बसी मानव समाज की अपेक्षाएँ और आदर्श साकार हो जाएँगे।

अविश्वासियों के समाज में एक गीत लोकप्रिय है, “आने वाला कल बेहतर होगा।” लोग हमेशा यही आशा करते हैं कि भविष्य में चीजें बेहतर होंगी—इसमें कुछ गलत भी नहीं है—लेकिन, वास्तविकता में, क्या कल चीजें वाकई बेहतर होंगी? नहीं, यह नामुमकिन है; चीजें सिर्फ बदतर ही होंगी, क्योंकि मानवता अधिक से अधिक बुरी और संसार अधिक से अधिक अंधकारमय होता जा रहा है। मानवजाति के बीच, न केवल गिने-चुने लोग ही किसी की दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्ण तरीके से चुकाते हैं, बल्कि अधिक से अधिक लोग कृतघ्न होते हैं और उस हाथ को ही चबा जाते हैं जो उन्हें खिलाता है। यही इस समय के हालत की वास्तविकता है। क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) चीजें ऐसी कैसे हो गईं। नैतिक आचरण की कसौटी, यानी “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” जिसका प्रचार नैतिकतावादी, शिक्षाविद और समाजशास्त्री करते हैं, इसका लोगों पर संकुचित करने वाला प्रभाव क्यों नहीं पड़ा है? (क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं।) क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं। लेकिन क्या ये नैतिकतावादी, शिक्षाविद और समाजशास्त्री इस बात को जानते हैं? (नहीं।) वे यह नहीं जानते कि खून-खराबे और लोगों के बीच संघर्षों का मूल कारण उनके नैतिक आचरण की समस्या नहीं है, बल्कि उनका भ्रष्ट स्वभाव है। लोगों में उस कसौटी की कोई समझ नहीं है जिसके अनुसार उन्हें आचरण करना चाहिए। यानी वे नहीं जानते कि उन्हें कैसा आचरण करना चाहिए और वे यह भी नहीं जानते कि असल में आचरण के सिद्धांत और मार्ग क्या हैं। इसके अलावा, सभी लोगों में भ्रष्ट स्वभाव और शैतानी प्रकृति है, लोग लाभ पाने की खातिर जीते हैं, और अपने हितों को सर्वोपरि मानते हैं। नतीजतन, लोगों के बीच खून-खराबे और संघर्षों की समस्या गंभीर होती जा रही है। क्या ऐसे भ्रष्ट मनुष्य “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” जैसी नैतिक आचरण की कसौटी का पालन कर सकते हैं? यह देखते हुए कि मनुष्य सबसे बुनियादी समझ और अंतरात्मा भी खो चुके हैं, तो वे किसी की दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक कैसे चुकाएंगे? परमेश्वर हमेशा से लोगों का मार्गदर्शन करता रहा है, उनके जीने के लिए जरूरी हर चीज तैयार करता रहा है, उसने धूप, हवा, भोजन, पानी वगैरह की आपूर्ति की है, फिर भी कितने लोग उसके प्रति आभार व्यक्त करते हैं? कितने लोग मानवजाति के प्रति परमेश्वर के सच्चे प्रेम को महसूस कर पाते हैं? ऐसे बहुत-से विश्वासी हैं जो परमेश्वर के इतने अधिक अनुग्रह का आनंद उठाते हुए भी गुस्से में भड़क उठते हैं, परमेश्वर को गाली देते हैं, और जैसे ही परमेश्वर एक-दो बार उनकी इच्छाएँ पूरी नहीं करता तो वे स्वर्ग के अन्याय को लेकर शिकायत करते हैं। क्या लोग ऐसा ही व्यवहार नहीं करते हैं? भले ही कुछ व्यक्ति कुछ लोगों की दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुका लेते हैं, पर वे किन समस्याओं को हल कर पाते हैं? बेशक, जिन लोगों ने नैतिक आचरण की इस कहावत को आगे बढ़ाया उनके इरादे नेक थे—वे केवल इस आशा से प्रेरित थे कि मनुष्य अपनी शत्रुता की समस्या को हल कर सकता है, संघर्ष से बच सकता है, एक दूसरे की मदद करते हुए समरसता से रह सकता है, एक दूसरे पर सुधारात्मक प्रभाव डाल सकता है, एक दूसरे के प्रति स्नेह दिखा सकता है, और जरूरत के समय मिलजुलकर एक दूसरे की मदद कर सकता है। अगर मानवजाति ऐसी दशा में पहुँच सके तो वह समाज कितना अद्भुत होगा, लेकिन अफसोस है कि ऐसा समाज कभी नहीं होगा, क्योंकि समाज उसके भीतर रहने वाले सभी भ्रष्ट व्यक्तियों का कुल योग है। मनुष्य की भ्रष्टता के कारण, समाज अधिक से अधिक अंधकारमय और बुरा होता जा रहा है, और समरस समाज होने का मनुष्य का आदर्श कभी साकार नहीं होगा। यह आदर्श समाज कभी साकार क्यों नहीं होगा? बुनियादी और सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य से देखें तो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों के कारण ऐसा समाज नहीं बन सकता। वास्तव में, क्षणिक अच्छे व्यवहार, अच्छे नैतिक आचरण के इक्का-दुक्का कृत्य, और दूसरों के प्रति अस्थायी तौर पर प्रेम, मदद, सहयोग वगैरह के प्रदर्शन मात्र से मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की समस्या दूर नहीं हो सकती। बेशक, इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि ये चीजें इन सवालों का समाधान नहीं कर सकतीं कि लोगों को कैसा आचरण करना चाहिए और कैसे उन्हें जीवन में सही मार्ग पर चलना चाहिए। यह देखते हुए कि इन समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता, क्या इस समाज के लिए उस समरस दशा को साकार करना मुमकिन होगा जिसे लोग आदर्श मानते हैं और जिसकी वे आशा करते हैं? यह वास्तव में एक व्यर्थ का सपना है, और ऐसा होने की दूर-दूर तक संभावना नहीं है। नैतिक धर्मशास्त्रों की पैरवी करके और लोगों को शिक्षित करके, ये नैतिकतावादी उन्हें दूसरों की मदद करने के नेक नैतिक आचरण का उपयोग करने और दूसरों पर सुधारात्मक प्रभाव डालने के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश करते हैं, जिसका मकसद समाज को प्रभावित करना और सुधारना होता है। फिर भी, क्या उनका यह विचार, उनकी यह महत्वाकांक्षा सही है या गलत? यह निश्चित रूप से गलत है और इसे साकार नहीं किया जा सकता। मैंने ऐसा क्यों कहा? क्योंकि वे केवल लोगों के व्यवहारों, विचारों और दृष्टिकोणों, और नैतिक आचरण को समझते हैं, लेकिन जब मनुष्य के सार, मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव, मनुष्य की भ्रष्टता के सार और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने के तरीके जैसी गहन समस्याओं की बात आती है, तो उन्हें इनकी जरा-सी भी समझ नहीं होती है। नतीजतन, वे “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” जैसी नैतिक आचरण की मूर्खतापूर्ण कसौटी सामने रखते हैं। फिर, वे इस तरह की कहावत और नैतिक आचरण के लिए इस तरह की कसौटी का उपयोग करने की आशा करते हैं, ताकि मानवजाति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रभावित किया जा सके, मनुष्य के व्यवहार की कसौटी को बदला जा सके और मनुष्य के व्यवहार की दिशा और लक्ष्यों को बदला जा सके; साथ ही, धीरे-धीरे सामाजिक परिवेश को बदला जा सके, और मनुष्यों के बीच के संबंधों में और शासकों और प्रजा के बीच के संबंधों में बदलाव लाया जा सके। उनका मानना है कि एक बार जब इन संबंधों में बदलाव आ जाएगा, तब समाज इतना अन्यायपूर्ण नहीं होगा और इसमें इतने अधिक लड़ाई-झगड़े, शत्रुता और मार-काट की गुंजाइश नहीं होगी। यह आम लोगों के लिए कुछ हद तक फायदेमंद होगा, जिन्हें एक बराबरी में जीने वाला सामाजिक परिवेश मिलेगा और उनका जीवन अपेक्षाकृत अधिक संतोषजनक होगा। लेकिन इसका सबसे बड़ा लाभ आम लोगों को नहीं, बल्कि शासकों को, शासक वर्ग को और हर युग के कुलीन लोगों को मिलेगा। ये तथाकथित प्रख्यात हस्तियाँ और साधु-संत, जो लगातार नैतिक धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते हैं, वे इन नैतिक धर्म-सिद्धांतों का इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें मानवजाति अपेक्षाकृत आदर्शपूर्ण और मानवता के साथ-साथ उनकी अंतरात्मा की समझ के अनुरूप मानती है, जिससे लोगों को शिक्षित और प्रभावित किया जाता है और उनके नैतिक दृष्टिकोणों को बदला जाता है, ताकि वे स्वेच्छा से ऐसे सामाजिक परिवेश में रह सकें जो सभ्य हो और जिसके कुछ नैतिक मानक भी हों। एक ओर, तो इससे आम लोगों को दैनिक जीवन में लाभ मिलता है, क्योंकि यह ऐसा सामाजिक परिवेश बनाता है जिसमें वे अधिक समरस, शांतिपूर्ण और सभ्य तरीके से रहते हैं। दूसरी ओर, यह शासकों के लिए भी अधिक अनुकूल परिस्थितियाँ बनाता है, जिससे वे लोगों पर शासन कर सकते हैं। ये कहावतें, जो नैतिक आचरण की कसौटी के बारे में बताती हैं, ज्यादातर लोगों के विचारों और धारणाओं के अनुरूप होती हैं, और ये एक शानदार भविष्य के संबंध में लोगों के आदर्शपूर्ण दर्शन के अनुरूप भी हैं। बेशक, इन कहावतों का प्रचार करने के पीछे उनका मुख्य इरादा शासकों के लिए शासन करने की अधिक अनुकूल परिस्थितियाँ तैयार करना है। ऐसी परिस्थितियों में, आम आदमी को कोई परेशानी नहीं होगी वे समरसता से और संघर्ष के बिना जी सकेंगे, और सभी लोग स्वेच्छा से सामाजिक व्यवहार को नियंत्रित करने वाली उस नैतिक कसौटी पर खरे उतर पाएँगे। सरल शब्दों में कहें, तो इन कहावतों का प्रचार करने का मकसद ऐसा माहौल बनाना है ताकि राज्य के शासित लोग और आम जनता, समाज की नैतिक कसौटी की बाधाओं के बीच आज्ञाकारिता से और उचित तरीके से व्यवहार कर सकें, नियमों का पालन करना सीख सकें, और विनम्र नागरिक बन सकें। क्या तब शासक अपेक्षाकृत आश्वस्त और सुकून से नहीं रहेंगे? अगर शासकों को यह चिंता नहीं होगी कि आम जनता उनके खिलाफ खड़ी होगी और उनके अधिकार छीनने की कोशिश करेगी, तब क्या इससे वह तथाकथित समरस समाज नहीं बनेगा? क्या इससे शासकों की राजनीतिक शक्ति मजबूत नहीं होगी? यही असल में इन नैतिक धर्मशास्त्रों का मूल और वह प्रसंग है जिसमें उनकी उत्पत्ति हुई है। सीधे शब्दों में कहा जाए, तो आम जनता के व्यवहारों और नैतिक आचरण को नियंत्रित करने के मकसद से ही उनके लिए सामाजिक नैतिकता के कुछ बुनियादी मानदंड बनाए गए। यानी ये कहावतें व्यक्तियों की खातिर थीं; इसके सार में जाएँ, तो वास्तव में इनका प्रचार समाज और देश की स्थिरता की खातिर किया गया, ताकि शासक लंबे समय तक निरंतर शासन करने में सक्षम हो सकें। पारंपरिक संस्कृति का प्रचार करने के पीछे तथाकथित नैतिकतावादियों का असली लक्ष्य यही था। वास्तव में, शासकों को आम जनता के कल्याण की उतनी परवाह नहीं होती है, और जब कभी वे उनकी परवाह करते प्रतीत होते हैं, तब भी वे सिर्फ अपनी राजनीतिक सत्ता की स्थिरता बनाए रखने के लिए ही ऐसा करते हैं। वे सिर्फ अपनी खुशहाली, अपनी सत्ता और रुतबे की स्थिरता, आम जनता पर निरंतर शासन करने की अपनी क्षमता और यहाँ तक कि दूसरे देशों पर भी शासन कर पाने की संभावनाओं की परवाह करते हैं, जिसका अंतिम लक्ष्य संपूर्ण संसार पर अपनी सत्ता कायम करना होता है। ये राक्षस राजाओं की मंशाएँ और इरादे हैं। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोग कहते हैं : “हम किसानों की उस पीढ़ी से आए हैं, जिन्होंने जमींदारों के लिए लंबे समय तक खेतों में कड़ी मेहनत की और जिनके पास कभी अपना कोई खेत नहीं रहा। पीआरसी की स्थापना के बाद, कम्युनिस्ट पार्टी ने जमींदारों और पूंजीपतियों का दबदबा खत्म किया, जिससे हमें अपनी जमीन का मालिकाना हक मिला, और हम किसान से जमीन-मालिक बन गए। हमारा सब कुछ कम्युनिस्ट पार्टी के कर्ज में दबा है, वह चीनी लोगों की उद्धारक है, और हमें उसकी दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाना चाहिए और उसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। कुछ लोग कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ खड़े होना चाहते हैं—वे कितने एहसानफरामोश हैं! क्या वे उस हाथ को ही नहीं चबा रहे हैं जिसने उन्हें खिलाया? लोगों में अंतरात्मा का ऐसा अभाव नहीं होना चाहिए और उन्हें अपनी जड़ों को नहीं भूलना चाहिए!” इस कथन का निहितार्थ यह है कि वर्तमान में तुम चाहे कैसे भी परिवेश में जी रहे हो, तुम्हारे साथ चाहे कैसा भी व्यवहार किया गया हो, और चाहे तुम्हारे मानव अधिकारों की गारंटी हो या न हो, या चाहे तुम्हारे जीवन जीने के अधिकार को खतरा ही क्यों न हो या भले ही उसे छीन लिया गया हो, तुम्हें हमेशा उस दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने की बात याद रखनी चाहिए और अपनी जड़ों को नहीं भूलना चाहिए। तुम्हें एक बुरे, एहसानफरामोश व्यक्ति जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए और पुरस्कार की किसी भी अपेक्षा के बिना लगातार और हर समय उनकी दयालुता का बदला चुकाना चाहिए। क्या ऐसे लोग अभी भी गुलामों जैसा जीवन नहीं जी रहे हैं? उन्हें लगता है कि वे जमींदारों और पूंजीपतियों के गुलाम हुआ करते थे, लेकिन क्या पूंजीपतियों और जमींदारों ने वाकई आम लोगों का शोषण किया था? क्या उस समय के किसान आज के लोगों की तुलना में वाकई बदतर हालत में थे? नहीं, यह कम्युनिस्ट पार्टी का फैलाया झूठ है। हालात से जुड़े तथ्य और वास्तविकता थोड़ी-थोड़ी करके सामने आ रही है। उनका यह दावा कि पूंजीपतियों ने बहुत-से आम लोगों के खून-पसीने का शोषण किया और “सफेद बालों वाली लड़की” की कहानी, बिल्कुल बनावटी और झूठी है—इनमें से कोई भी सच नहीं है। इन बनावटी और झूठी कहानियों का लक्ष्य क्या है? लोगों को उन जमींदारों और पूंजीपतियों से नफरत करने को मजबूर करना और निरंतर कम्युनिस्ट पार्टी की प्रशंसा के गीत गाना और हमेशा के लिए उनके प्रति समर्पित हो जाना। अतीत में बहुत-से लोग यह गीत गाते थे, “कम्युनिस्ट पार्टी के बिना, नया चीन नहीं बन सकता।” यह गीत कई दशकों तक चीन के कोने-कोने में गाया जाता रहा, लेकिन अब कोई इसे नहीं गाता। कम्युनिस्ट पार्टी की बनावटी कहानियों और झूठ के बहुत सारे उदाहरण मौजूद हैं, ये सभी वस्तुनिष्ठ तथ्यों के विपरीत हैं। अब कुछ लोग सभी को हालात की वास्तविकता दिखाने के लिए सार्वजनिक तौर पर सच्चाई को उजागर कर रहे हैं। मानव समाज के किसी भी युग में नैतिक आचरण की कसौटी “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” का लोगों के व्यवहार को संयमित करने में काफी हद तक प्रभाव रहा है और इसने लोगों की मानवता के लिए एक मानदंड का काम किया है। बेशक, ऐसी कहावत का एक अधिक महत्वपूर्ण प्रभाव यह भी है कि आम जनता पर शासकों की सत्ता की पकड़ मजबूत करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया है। एक विशेष अर्थ में, यह दावा किया जा सकता है कि इस कहावत ने लोगों के व्यवहारों और नैतिक आचरण को नियंत्रित करने के तरीके के तौर पर काम किया है, जिससे लोग समस्याओं को नैतिक आचरण की इस कसौटी के दायरे में रखकर सोचने और देखने को मजबूर हुए और फिर उन्होंने इस कसौटी के आधार पर अपने फैसले लिए और अपने विकल्प चुने। यह कहावत लोगों को अपने परिवार के प्रति और बड़े पैमाने पर समाज के प्रति उन सभी जिम्मेदारियों को पूरा करने की शिक्षा नहीं देती जो लोगों को पूरी करनी चाहिए, बल्कि सामान्य मानवता के मानकों और इच्छाओं के गंभीर उल्लंघन में, यह जबरन लोगों को बताती है कि क्या सोचें और कैसे सोचें, क्या करें और कैसे करें। यह कहावत लोगों को रास्ता दिखाने, रोकने और बाँधने के लिए एक तरह के सूक्ष्म तरीके और अदृश्य ढाँचे के तौर पर काम करती है और यह बताती है कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। इस कहावत का लक्ष्य इस तरह की सार्वजनिक राय और सामाजिक नैतिकता की कसौटी का इस्तेमाल कर लोगों के विचारों, दृष्टिकोणों और उनके आचरण और कार्य करने के तरीकों को प्रभावित करना है।

नैतिक आचरण को लेकर ऐसे कथन कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” लोगों को यह नहीं बताते कि समाज में और मानवजाति के बीच उनकी जिम्मेदारियाँ क्या हैं। इसके बजाय, ये लोगों को एक खास तरीके से सोचने और व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं, भले ही वे ऐसा चाहें या न चाहें, और वे परिस्थितियाँ या संदर्भ चाहे कुछ भी हों जिनमें दयालुता के ऐसे व्यवहार उन पर किए जाते हैं। प्राचीन चीन से ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जहाँ दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाया गया है। उदाहरण के लिए, एक भूखे भिखारी लड़के को एक ऐसे परिवार ने अपने पास रख लिया जिसे उसे खाना, कपड़ा दिया और मार्शल आर्ट सिखाया, उसे हर तरह का ज्ञान दिया। उन्होंने उसके बड़े होने तक इंतजार किया और फिर उसे कमाई का जरिया बना लिया। उसे बुरे काम करने के लिए, लोगों को मारने और ऐसी चीजें करने के लिए भेजने लगे, जो वह नहीं करना चाहता था। अगर तुम उसकी कहानी को उन एहसानों की रोशनी में देखो जो उस परिवार ने उस पर किए, तो उसका बचाया जाना एक अच्छी बात थी। लेकिन अगर यह सोचा जाए कि उससे बाद में क्या करवाया गया तो क्या यह सचमुच अच्छी बात थी या बुरी बात? (बुरी बात थी।) लेकिन पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा, जैसे कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” के कारण लोग इसमें भेद नहीं कर पाते। ऊपर से देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि लड़के के सामने बुरे काम करने, लोगों को चोट पहुंचाने और हत्यारा बनने के अलावा कोई रास्ता नहीं था—ऐसे काम जो ज्यादातर लोग नहीं करना चाहेंगे। लेकिन क्या अपने मालिक के कहने पर ऐसे बुरे काम करने और दूसरों की जान लेने के तथ्य के पीछे उसकी दयालुता का बदला चुकाने की गहरी भावना नहीं थी? खास तौर से पारंपरिक चीनी संस्कृति की “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” जैसी शिक्षा के कारण, लोग ऐसे विचारों के प्रभाव और नियंत्रण से बच नहीं पाते। वे जिस तरह व्यवहार करते हैं, और उनके इन कृत्यों के पीछे जो इरादे और मकसद होते हैं, वे यकीनन इनसे नियंत्रित होते हैं। जब लड़के ने खुद को इस स्थिति में पाया तो उसके मन में पहला विचार क्या आया होगा? “मुझे इस परिवार ने बचाया है, और वे सब मेरे साथ कितने अच्छे रहे हैं। मैं एहसान फरामोश नहीं हो सकता, मुझे उनकी दया का बदला चुकाना ही होगा। मेरी जिंदगी उनकी दी हुई है, इसलिए मुझे इसे उन पर अर्पित कर देना होगा। वे जो भी कहें मुझे करना चाहिए, चाहे इसका मतलब बुरे काम करना और लोगों की जान लेना हो। मैं यह नहीं सोच सकता कि यह सही है या गलत, मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना ही है। अगर मैंने ऐसा न किया तो क्या मैं मनुष्य कहलाने लायक भी हूँ?” परिणामस्वरूप, जब भी परिवार उसे किसी की हत्या करने या कोई और बुरा काम करने के लिए कहता था, तो वह बिना किसी झिझक या संकोच के कर देता था। तो क्या उसका आचरण, उसके कृत्य, और उसकी निर्विवाद आज्ञाकारिता, सब इस विचार और दृष्टिकोण से संचालित नहीं होते थे कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए”? क्या वह नैतिक आचरण के इसी मानक को पूरा नहीं कर रहा था? (हाँ।) तुम इस उदाहरण से क्या समझते हो? “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” की कहावत अच्छी बात है या नहीं? (यह अच्छी बात नहीं है, क्योंकि इसके पीछे कोई सिद्धांत नहीं है।) दरअसल, जो व्यक्ति दयालुता का बदला चुकाता है उसका एक सिद्धांत तो होता है, जो यह है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए। अगर कोई तुम पर दया करता है तो बदले में तुम्हें भी दया करनी चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर पाते तो तुम मनुष्य नहीं हो, और अगर इसके लिए तुम्हारी निंदा की जाए तो तुम कुछ नहीं कह सकते। एक कहावत है कि “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” पर इस मामले में, लड़के पर कोई छोटी-मोटी दया नहीं दिखाई जाती है, बल्कि उसकी जान बचाई जाती है, इसलिए उसके पास इसका मोल एक जीवन देकर चुकाने के सभी कारण मौजूद थे। उसे नहीं पता था कि दयालुता के प्रतिदान की सीमाएं और सिद्धांत क्या थे। उसका विश्वास था कि उसका जीवन उस परिवार का दिया हुआ था, इसलिए उसे बदले में अपना जीवन अर्पित करना होगा, और वे जो भी चाहते थे उसे करना होगा, चाहे किसी की हत्या हो या दूसरे बुरे काम। दयालुता के प्रतिदान के इस तरीके में न कोई सिद्धांत होता है न सीमा। उसने कुकर्मियों का साथ देने का काम किया और इस चक्कर में खुद को बर्बाद कर लिया। क्या उसका इस तरीके से दयालुता का बदला चुकाना सही था? बिल्कुल नहीं। यह चीजों को करने का एक मूर्खतापूर्ण तरीका था। यह सही है कि इस परिवार ने उसे बचाया और जीने का मौका दिया, लेकिन किसी व्यक्ति की दयालुता का बदला चुकाने के लिए सिद्धांत, सीमाएँ और संतुलन होना चाहिए। उन्होंने उसका जीवन बचाया, लेकिन उसके जीवन का मकसद बुरे कर्म करना नहीं है। मनुष्य के जीवन के अर्थ और मूल्य के साथ-साथ उसका मकसद बुरे कर्म और हत्या करना नहीं है, और उसे सिर्फ दयालुता का बदला चुकाने मात्र के उद्देश्य से नहीं जीना चाहिए। लड़के ने यह गलत समझ लिया कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाना ही जीवन का अर्थ और मूल्य था। यह बेहद गंभीर गलतफहमी थी। क्या यह नैतिक आचरण की कसौटी “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” से प्रभावित होने का नतीजा नहीं था? (बिल्कुल था।) क्या वह दयालुता का बदला चुकाने की इस कहावत के प्रभाव में पथभ्रष्ट हो गया था या उसे अभ्यास का सही मार्ग और सिद्धांत मिल चुके थे? जाहिर है कि वह पथभ्रष्ट हो चुका था—यह बात बिल्कुल दिन के उजाले की तरह साफ है। अगर नैतिक आचरण की यह कसौटी नहीं होती, तो क्या लोग सही-गलत के सरल मामलों में निर्णय लेने में सक्षम होते? (बिल्कुल।) लड़के ने यह सोचा होता : “इस परिवार ने भले ही मुझे बचाया हो, लेकिन लगता है कि उसने ऐसा सिर्फ अपने कारोबार और अपने भविष्य की खातिर किया। मैं एक साधन मात्र हूँ जिसका इस्तेमाल वह ऐसे किसी भी व्यक्ति को नुकसान पहुँचाने या मारने के लिए कर सकता है जो उसके व्यावसायिक उद्यमों में रोड़ा अटकाता है या उसे रोकता है। मुझे बचाने के पीछे का असली कारण यही है। उसने मुझे मौत के मुँह से सिर्फ इसलिए खींच लिया ताकि मुझसे बुरे कर्म और हत्या करवा सके—क्या वह मुझे नरक के रास्ते पर नहीं धकेल रहा है? क्या इससे मुझे और अधिक कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा? ऐसी स्थिति में उसने मुझे मरने ही दिया होता तो बेहतर था। असल में उसने मुझे बचाया नहीं है!” इस परिवार ने भिखारी लड़के को परोपकार की भावना से और उसे बेहतर जीवन जीने देने के लिए नहीं बचाया, बल्कि उसे काबू में करने और उसके जरिए दूसरों को चोट पहुँचाने, नुकसान पहुँचाने और मारने के लिए यह किया। तो यह परिवार वास्तव में भलाई कर रहा था या बुराई? जाहिर है कि वह भलाई नहीं, बल्कि बुराई कर रहा था—ये भलाई करने वाले लोग बुराई करने वाले बन गए। क्या बुरे लोग प्रतिदान के लायक हैं? क्या उन्हें प्रतिदान दिया जाना चाहिए? बिल्कुल नहीं। जैसे ही तुम्हें पता चले कि वे बुरे लोग हैं, तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें उनसे दूरी बना लेनी चाहिए, उनसे बचना चाहिए, और उनके चंगुल से भाग जाना चाहिए। यही बुद्धिमानी है। कुछ लोग कहेंगे : “इन बुरे लोगों ने पहले ही मुझे काबू में कर लिया है, तो इनके चंगुल से भागना इतना आसान नहीं है। बच निकलना तो नामुमकिन है!” अक्सर, दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने के यही दुष्परिणाम होते हैं। चूँकि दुनिया में अच्छे लोग बहुत कम हैं और बुरे लोगों की संख्या बहुत अधिक है, ऐसे में अगर तुम किसी अच्छे इंसान के साथ हो, तो उनकी दयालुता का बदला चुकाना ठीक है, लेकिन अगर तुम किसी बुरे इंसान के हाथ में पड़ गए हो, तो यह राक्षस, शैतान के हाथों में पड़ने के बराबर है। वे लोग तुम्हारे खिलाफ साजिश करेंगे और तुम्हारे साथ खिलवाड़ करेंगे, और उनके हाथों में पड़ने से तुम्हारा कुछ भी भला नहीं होगा। पूरे इतिहास में इसके बहुत सारे उदाहरण मौजूद हैं। अब जबकि तुम यह जानते हो कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाना अपने आचरण और व्यवहार के लिए कोई वैध कसौटी नहीं है, तो जब कोई तुम पर दया दिखाए, तब तुम्हें कैसा व्यवहार करना चाहिए? इस बारे में तुम लोगों के दृष्टिकोण क्या हैं? (चाहे कोई भी हमारी मदद करे, हालात के अनुसार हमें तय करना चाहिए हम उनकी मदद को स्वीकारें या नहीं। कुछ मामलों में, मदद स्वीकारना ठीक है, लेकिन अन्य मामलों में हमें बिना सोचे-विचारे उनकी मदद नहीं स्वीकारनी चाहिए। अगर हम मदद स्वीकार लेते हैं, तब भी हमें सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए और उनकी दयालुता का बदला चुकाने के लिए सीमाएँ तय करनी चाहिए, ताकि हम धोखा खाने से बच जाएँ और बुरे लोग हमारा फायदा न उठाएँ।) यह हालात से निपटने का एक सैद्धांतिक तरीका है। इसके अलावा, अगर तुम हालात को साफ तौर पर नहीं देख पाते हो या आगे कोई रास्ता नहीं दिखता है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर अपने लिए रास्ता खोलने की विनती करनी चाहिए। इससे तुम प्रलोभन से बच पाओगे और शैतान के चंगुल से निकल जाओगे। कई बार, परमेश्वर लोगों की मदद करने के लिए शैतान की सेवाओं का उपयोग करता है, लेकिन ऐसे मामलों में हमें परमेश्वर का धन्यवाद जरूर करना चाहिए और शैतान को दयालुता का बदला नहीं चुकाना चाहिए—यह सिद्धांत का प्रश्न है। जब प्रलोभन किसी बुरे आदमी की दयालुता के रूप में सामने आता है, तो तुम्हें यह साफ तौर पर पता होना चाहिए कि तुम्हारी मदद और सहायता कौन कर रहा है, तुम्हारे हालात क्या हैं, और क्या तुम कोई और रास्ता चुन सकते हो। तुम्हें ऐसे मामलों से लचीले ढंग से पेश आना चाहिए। अगर परमेश्वर तुम्हें बचाना चाहता है, तो चाहे वह ऐसा करने के लिए किसी की भी सेवाओं का उपयोग करे, तुम्हें पहले परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए और इसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए। तुम्हें अपनी कृतज्ञता सिर्फ लोगों के प्रति निर्देशित नहीं करनी चाहिए, कृतज्ञता में किसी को अपना जीवन अर्पित करने की तो बात ही छोड़ो। यह एक गंभीर भूल है। महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर का आभारी हो, और तुम इसे परमेश्वर की ओर से स्वीकारो। जो व्यक्ति तुम पर दया दिखाता है, तुम्हारी मदद करता है या तुम्हें बचाता है, अगर वह अच्छा इंसान है, तो तुम्हें उसकी दयालुता का बदला चुकाना चाहिए, लेकिन तुम्हें सिर्फ वही करना चाहिए जो तुम अपने मौजूदा साधनों के हिसाब से करने में सक्षम हो। अगर तुम्हारी मदद करने वाले व्यक्ति के इरादे गलत हैं और वह तुम्हारे खिलाफ साजिश करना चाहता है और अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए तुम्हारा इस्तेमाल करना चाहता है, तो किसी भी कीमत पर उसकी दयालुता का बदला चुकाने की जरूरत नहीं है। संक्षेप में, परमेश्वर मनुष्य के हृदय की जाँच-परख करता है, ऐसे में अगर तुम्हारा जमीर तुम्हें दोषी नहीं मानता और तुम्हारे पास सही प्रेरणाएँ हैं, तो इसमें कोई समस्या नहीं है। यानी सत्य समझने से पहले तुम्हारे क्रियाकलाप कम-से-कम मानवीय समझ और तर्क के अनुरूप तो होने ही चाहिए। तुम्हें यथोचित रूप से इस हालत से निपटने में सक्षम होना चाहिए, ताकि तुम्हें अपने क्रियाकलापों पर भविष्य में कभी भी कोई पछतावा न हो। तुम सब वयस्क लोग हो और बड़े लाल अजगर के देश में बहुत सारी परेशानियों का सामना कर चुके हो—क्या तुम्हारे जीवन में दबाव, अत्याचार, बुरे बर्ताव या अपमान की कोई कमी रही है? तुम सब साफ तौर पर देख सकते हो कि मानवजाति कितनी गहराई तक भ्रष्ट हो चुकी है, तो तुम चाहे किसी भी प्रलोभन का सामना करो, तुम्हें बुद्धिमानी से काम लेना चाहिए और शैतान की छल-कपट वाली साजिशों में नहीं पड़ना चाहिए। तुम चाहे किसी भी हालात का सामना करो, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए और केवल प्रार्थना और संगति के जरिए सिद्धांतों को समझने के बाद ही अपने फैसले लेने चाहिए। बीते कुछ वर्षों में कलीसिया स्वच्छता का काम करती आई है और बहुत से बुरे लोगों, छद्म-विश्वासियों और मसीह-विरोधियों को उजागर कर बहिष्कृत या निष्कासित किया गया है। अधिकतर लोगों ने कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा कुछ होगा। यह देखते हुए कि कलीसिया के भीतर अभी भी बहुत सारे भ्रमित लोग, बुरे लोग और छद्म-विश्वासी मौजूद हैं, मुझे लगता है कि तुम्हें यह स्पष्ट हो चुका होगा कि भ्रष्ट और बुरे अविश्वासी कैसे होते हैं? सत्य और बुद्धि के बिना, लोग कुछ भी साफ तौर पर नहीं देख सकते और वे आसानी से धोखा और चकमा खा जाएँगे, ऐसे में वे बुरे लोगों और शैतान के हाथों का खिलौना बन जाएँगे। इस तरह वे शैतान के सेवक बन जाएँगे। जो लोग सत्य नहीं समझते और जिनके पास सिद्धांतों का अभाव है वे केवल मूर्खतापूर्ण चीजें ही करते हैं।

कुछ लोग जब परेशानी या खतरे में होते हैं और उन्हें किसी बुरे व्यक्ति से मदद मिल जाती है जिससे वे अपनी परेशानी से निकल पाते हैं, तो वे मानते हैं कि बुरा व्यक्ति असल में अच्छा इंसान है और वे अपना आभार जताने की खातिर उसके लिए कुछ करना चाहते हैं। लेकिन, ऐसे मामलों में, बुरा इंसान उन्हें अपने घृणित कृत्यों में शामिल करने की कोशिश करेगा और बुरे कर्म करने के लिए उनका इस्तेमाल करेगा। अगर वे इनकार नहीं कर पाते तो यह खतरनाक हो सकता है। कुछ ऐसे लोग इन हालात में उलझन में पड़ जाएँगे, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने कुछ बुरे कर्मों में अपने बुरे दोस्त की मदद नहीं की, तो लगेगा कि वे यह दोस्ती ठीक से नहीं निभा रहे हैं, और यह कुछ गलत करने के लिए उनके जमीर और विवेक को नकार देगा। इस तरह वे दुविधा में फँस जाएँगे। दयालुता का बदला चुकाने को लेकर पारंपरिक संस्कृति के इस विचार से प्रभावित होने का यही नतीजा है—वे इस विचार से बाधित और नियंत्रित होकर बँध जाते हैं। कई मामलों में, पारंपरिक संस्कृति की ये कहावतें मनुष्य के जमीर की समझ और उसके सामान्य फैसले की जगह ले लेती हैं; स्वाभाविक रूप से, वे मनुष्य की सामान्य सोच और सही फैसले लेने की क्षमता को भी प्रभावित करती हैं। पारंपरिक संस्कृति के विचार गलत हैं और वे चीजों के बारे में मनुष्य के दृष्टिकोणों पर सीधा प्रभाव डालते हैं, जिसके कारण वह बुरे फैसले लेने लगता है। प्राचीन समय से लेकर आज तक अनगिनत लोग दयालुता का बदला चुकाने के संबंध में नैतिक आचरण के इस विचार, दृष्टिकोण और कसौटी से प्रभावित हुए हैं। यहाँ तक कि जब उन पर दया दिखाने वाला व्यक्ति दुष्ट या बुरा इंसान हो और उन्हें घृणित कृत्य और बुरे कर्म करने के लिए मजबूर करता हो, तब भी वे अपने जमीर और विवेक के खिलाफ जाकर उसकी दयालुता का बदला चुकाने के लिए बिना सोचे-विचारे उसकी बात मानते हैं, जिसके विध्वंसक परिणाम होते हैं। यह कहा जा सकता है कि बहुत से लोग, नैतिक आचरण की इस कसौटी से बाधित, बेबस और बंधे होने के कारण बिना सोचे-विचारे और गलती से दयालुता का बदला चुकाने के इस दृष्टिकोण पर कायम रहते हैं, और बुरे लोगों की मदद और सहयोग तक कर सकते हैं। अब जबकि तुम लोगों ने मेरी संगति सुन ली है, तुम्हारे पास इन हालात की साफ तस्वीर मौजूद है और तुम तय कर सकते हो कि यह मूर्खतापूर्ण वफादारी है, और ऐसा व्यवहार कोई सीमा तय किए बिना आचरण करना और बिना किसी समझदारी के बेपरवाही से दयालुता का बदला चुकाना कहलाता है, और इसमें अर्थ और मूल्य का सर्वथा अभाव होता है। चूँकि लोग जनमत के जरिए तिरस्कृत या दूसरों के द्वारा निंदित होने से डरते हैं, इसलिए वे न चाहकर भी दूसरों की दयालुता का बदला चुकाने में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, यहाँ तक कि इस प्रक्रिया में अपना जीवन बलिदान कर देते हैं, जो चीजों से निपटने का एक भ्रामक और मूर्खतापूर्ण तरीका है। पारंपरिक संस्कृति की इस कहावत ने केवल लोगों की सोच को ही बाधित नहीं किया है, बल्कि उनके जीवन पर एक अनावश्यक भार और असुविधा का बोझ डाल दिया है, और उनके परिवारों को अतिरिक्त पीड़ा और बोझ तले दबा दिया है। बहुत से लोगों ने दयालुता का बदला चुकाने के लिए बहुत बड़ी कीमतें चुकाई हैं—वे दयालुता का बदला चुकाने को एक सामाजिक जिम्मेदारी या अपना कर्तव्य मानते हैं, और बहुत से लोगों ने तो दूसरों की दयालुता का बदला चुकाने के लिए अपना पूरा जीवन न्योछावर कर दिया है। उनका मानना है कि ऐसा करना बिल्कुल स्वाभाविक और उचित है, यह ऐसा कर्तव्य है जिससे बचा नहीं जा सकता है। क्या यह दृष्टिकोण और चीजों को करने का तरीका मूर्खतापूर्ण और बेतुका नहीं है? इससे साफ पता चलता है कि लोग कितने अज्ञानी और अबोध हैं। किसी भी स्थिति में, नैतिक आचरण की यह कहावत कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, भले ही लोगों की धारणाओं के अनुरूप हो, लेकिन यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप बिल्कुल नहीं है। यह परमेश्वर के वचनों के अनुरूप भी नहीं है और यह चीजों को करने का गलत दृष्टिकोण और तरीका है।

यह देखते हुए कि दयालुता का बदला चुकाने का संबंध न तो सत्य से है और न ही मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं से है, और यह हमारी आलोचना का विषय रहा है, तो असल में परमेश्वर इस कहावत को कैसे देखता है? इस कहावत के जवाब में सामान्य लोगों के दृष्टिकोण और क्रियाकलाप किस तरह के होने चाहिए? क्या तुम लोगों को यह बात स्पष्ट है? अगर किसी ने पहले तुम पर कोई दया दिखाई थी जिससे तुम्हें काफी लाभ हुआ या तुम्हारा बहुत भला हो गया, तो क्या तुम्हें इस भलाई का बदला चुकाना चाहिए? इस तरह के हालात से तुम कैसे निपटोगे? क्या यह लोगों के दृष्टिकोण का मामला नहीं है? यह लोगों के दृष्टिकोण का मामला भी है और उनके लिए अभ्यास का मार्ग भी है। अब तुम लोग इस मामले पर अपने विचार बताओ—अगर किसी ने तुम पर दया दिखाई, तो क्या तुम्हें उसका बदला चुकाना चाहिए? अगर तुम लोग अभी भी इस समस्या की थाह नहीं पा सकते, तो यह एक समस्या होगी। पहले, तुम लोग सत्य नहीं समझते थे और दयालुता का बदला चुकाने का अभ्यास इस तरह करते थे मानो वह सत्य हो। अब, मेरा विश्लेषण और आलोचना सुनने के बाद, तुम लोगों ने देख लिया है कि समस्या कहाँ है, लेकिन तुम अभी भी यह नहीं जानते कि इस समस्या से कैसे निपटें या इसका अभ्यास कैसे करें—क्या तुम अभी भी इस समस्या की थाह नहीं पा सकते? सत्य को समझने से पहले तुम अपने जमीर के अनुसार जीते थे और चाहे किसी ने भी तुम पर दया दिखाई या तुम्हारी मदद की हो, भले ही वह कोई बुरा आदमी या अपराधी रहा हो, तुम बेशक उसकी भलाई का बदला चुकाते थे, और अपने दोस्तों के लिए गोली खाने को मजबूर रहते थे, और उनके लिए अपना जीवन दाँव पर लगा देते थे। पुरुषों को अपनी भलाई करने वालों का बदला चुकाने के लिए उनके गुलाम बनकर रहना चाहिए, जबकि महिलाओं को उनके साथ विवाह कर बच्चे पैदा करने चाहिए—यह विचार पारंपरिक संस्कृति लोगों पर थोपती है, उन्हें दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने के आदेश देती है। नतीजतन, लोग सोचते हैं, “जो लोग दयालुता का बदला चुकाते हैं सिर्फ उनमें ही जमीर होता है, और अगर वे दयालुता का बदला नहीं चुकाते, तो उनमें जमीर नहीं होता और वे इंसान नहीं हैं।” यह विचार लोगों के दिलों में मजबूती से जड़ें जमा चुका है। अब बताओ, क्या जानवर दयालुता का बदला चुकाना जानते हैं? (हाँ।) अगर ऐसा है, तो क्या मनुष्यों को सिर्फ इसलिए उन्नत माना जा सकता है कि वे दयालुता का बदला चुकाना जानते हैं? क्या दयालुता का बदला चुकाने के मनुष्यों के अभ्यास को मानवता की निशानी माना जा सकता है? (नहीं।) तो इस मामले को लेकर लोगों का दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? इस तरह की चीज को कैसे समझा जाना चाहिए? इसे समझने के बाद इसके प्रति क्या नजरिया अपनाना चाहिए? ये ऐसे सवाल हैं जिनका हल तुम लोगों को इसी पल निकालना चाहिए। अब इस मामले को लेकर अपने दृष्टिकोण बताओ। (अगर किसी ने वाकई किसी मुद्दे या समस्या को हल करने में मेरी मदद की, तो सबसे पहले मैं उसे सच्चे दिल से धन्यवाद दूँगा, लेकिन मैं इन हालात के आगे बेबस या नियंत्रित नहीं होऊँगा। अगर वह किसी परेशानी का सामना कर रहा है, तो मैं अपनी सामर्थ्य के दायरे में रहकर वह करूँगा जो मैं कर सकता हूँ। जहाँ उसकी मदद कर सकता हूँ, ऐसा जरूर करूँगा, लेकिन मैं खुद को अपने साधनों के दायरे से बाहर जाने को मजबूर नहीं करूँगा।) यह सही दृष्टिकोण है और इस तरह का व्यवहार स्वीकार्य है। क्या कोई और इस मामले पर अपने विचार साझा करना चाहेगा? (पहले, मेरा दृष्टिकोण यह था कि अगर किसी ने मेरी मदद की, तो उसके किसी परेशानी में होने पर, बदले में मुझे उसकी मदद करनी चाहिए। “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” और “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” जैसे दृष्टिकोणों पर परमेश्वर की संगति और विश्लेषण से, मुझे एहसास हुआ है कि दूसरों की मदद करते समय लोगों को सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। अगर किसी ने मुझ पर दया दिखाई है या मेरी मदद की है, तो मेरा जमीर कहता है कि मुझे भी उनकी मदद करनी चाहिए, लेकिन मेरी मदद मेरी परिस्थितियों और क्षमता के अनुरूप होनी चाहिए। इसके अलावा, मुझे सिर्फ उनकी परेशानियों को हल करने और जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने में उनकी मदद करनी चाहिए; मुझे बुराई या बुरे कर्म करने में उनकी मदद नहीं करनी चाहिए। अगर मैं किसी भाई-बहन को परेशानी में देखता हूँ, तो मैं सिर्फ इसलिए उनकी मदद नहीं करूँगा कि उन्होंने एक बार मेरी मदद की थी, बल्कि इसलिए करूँगा कि यह मेरा कर्तव्य, मेरी जिम्मेदारी है।) और कुछ? (मुझे परमेश्वर के वे वचन याद हैं जिनमें कहा गया है, “अगर कोई हमारा भला करता है, तो हमें उसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए।” कहने का मतलब यह है कि जब कोई हमारे साथ अच्छा व्यवहार करता है, तो हमें इसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए और इसे सही तरीके से संभालना चाहिए। इस तरह, हम दयालुता का बदला चुकाने के इस दृष्टिकोण को सही तरीके से समझ सकते हैं। इसके अलावा, परमेश्वर कहता है कि हमें उससे प्रेम करना चाहिए जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे नफरत करनी चाहिए जिससे परमेश्वर नफरत करता है। दूसरे लोगों की मदद करते समय, हमें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर ऐसे व्यक्ति से प्रेम करता है या नफरत। हमें इसी सिद्धांत के अनुसार व्यवहार करना चाहिए।) यह सत्य से संबंधित है—यह एक सही सिद्धांत है और इसका एक आधार है। अभी हम इस बारे में बात नहीं करेंगे कि सत्य से संबंधित क्या है, बल्कि हम यह देखेंगे कि मानवता के परिप्रेक्ष्य से लोगों को इस मामले से कैसे निपटना चाहिए। वास्तव में, तुम जिन हालात का सामना कर सकते हो वे हमेशा इतने सरल नहीं होते—वे हमेशा कलीसिया के भीतर और भाई-बहनों के बीच नहीं होते। वे अक्सर कलीसिया के दायरे से बाहर होते हैं। उदाहरण के लिए, कोई अविश्वासी रिश्तेदार, दोस्त, परिचित या सहकर्मी तुम पर दया दिखा सकता है या तुम्हारी मदद कर सकता है। अगर तुम इस मामले में सही रवैया अपना सकते हो और जिस व्यक्ति ने तुम्हारी मदद की थी उसके साथ सही तरीके से पेश आ सकते हो, यानी ऐसा रवैया अपना सकते हो, जिसमें दोनों सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हों और एक दूसरे के प्रति उचित प्रतीत होते हों, तो इस मामले के प्रति तुम्हारा रवैया और इसके बारे में तुम्हारे विचार अपेक्षाकृत सटीक होंगे। “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए”, इस पारंपरिक अवधारणा को ठीक-से समझने की जरूरत है। इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा “दयालुता” शब्द है—तुम्हें इस दयालुता को किस तरह देखना चाहिए? इसमें दयालुता के किस पहलू और प्रकृति की बात की गई है? “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” का क्या महत्व है? लोगों को इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए और किसी भी परिस्थिति में दयालुता का बदला चुकाने के इस विचार से बेबस नहीं होना चाहिए—जो व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है उसके लिए तो यह एकदम अनिवार्य है। मानवीय धारणाओं के अनुसार “दयालुता” क्या है? एक छोटे स्तर पर, दयालुता का मतलब है, मुसीबत में किसी व्यक्ति का तुम्हारी मदद करना। उदाहरण के लिए, जब तुम भूख से बेहाल हो तो कोई तुम्हें चावल का कटोरा दे देता है, या जब तुम प्यास से तड़प रहे हो तो कोई तुम्हें पानी की बोतल दे देता है। या तुम गिर पड़ते हो और उठ नहीं पाते हो तो कोई तुम्हें हाथ पकड़कर उठा देता है। ये सभी दयालुता के काम हैं। दयालुता का बड़ा कर्म, किसी का तुम्हें उस समय बचा लेना है जब तुम बहुत ही कठिन परिस्थिति में फंस गए हो—यह जान बचाने वाली दयालुता है। जब तुम जान के खतरे में हो और कोई मौत से बचने में तुम्हारी मदद करता है, तो वह मूल रूप से तुम्हारी जान बचाता है। ये कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें लोग “दयालुता” के रूप में देखते हैं। इस तरह की दयालुता किसी भी तरह के छोटे-मोटे, भौतिक एहसान से बहुत ऊपर है—यह महान दयालुता है, जिसे पैसे या भौतिक वस्तुओं से नहीं तोला जा सकता। जिन्हें इस तरह की दयालुता मिलती है, वे कृतज्ञता की ऐसी भावना महसूस करते हैं जिसे धन्यवाद के कुछ शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। पर क्या दयालुता को इस तरह से नापना सही है? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह सही नहीं है? (क्योंकि यह माप पारंपरिक संस्कृति के मापदंड पर आधारित है।) यह उत्तर परिकल्पना और धर्म-सिद्धांत पर आधारित है, और भले ही यह सही प्रतीत हो, यह मामले के मर्म को नहीं छूता। तो हम इसे व्यावहारिक तौर पर कैसे समझा सकते हैं? इस पर ध्यान से विचार करो। कुछ समय पहले, मैंने एक ऑनलाइन वीडियो के बारे में सुना, जिसमें एक आदमी का पर्स गिर जाता है और उसे पता नहीं चलता। एक छोटा-सा कुत्ता उस पर्स को उठाकर उस आदमी के पीछे भागता है, जब वह आदमी उसे देखता है तो पर्स चुराने के लिए कुत्ते को मारने लगता है। बेहूदी बात है न? आदमी में कुत्ते से कम नैतिकता है! कुत्ते की हरकत मनुष्य के नैतिक मापदंडों के अनुरूप थी। कोई मनुष्य होता तो कहता, “आपका पर्स गिर गया है!” पर क्योंकि कुत्ता बोल नहीं सकता, इसलिए वह चुपचाप पर्स उठाकर आदमी के पीछे दौड़ पड़ा। तो अगर कुत्ता भी पारंपरिक संस्कृति द्वारा प्रोत्साहित अच्छे व्यवहार दिखा सकता है तो यह मनुष्यों के बारे में क्या बताता है? मनुष्य जमीर और विवेक के साथ पैदा होते हैं, इसलिए वे यह सब करने में ज्यादा सक्षम हैं। अगर किसी में अपने जमीर की समझ है, तो वह इस तरह की जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभा सकता है। इसके लिए कोई कड़ी मेहनत करने या कोई कीमत चुकाने की जरूरत नहीं है, बस थोड़े-से प्रयास की जरूरत होती है, और कुल मिलाकर कोई ऐसा काम करना होता है जिससे दूसरों की मदद हो और उनका भला हो। लेकिन क्या इस तरह के काम की प्रकृति सचमुच “दयालुता” है? क्या यह दयालुता के एक कर्म के स्तर तक पहुँचती है? (नहीं पहुँचती।) तो फिर, क्या लोगों को इसका बदला चुकाने की बात करने की जरूरत है? इसकी कोई जरूरत नहीं है।

आओ अब हम अपना ध्यान मनुष्य की तथाकथित दयालुता के विषय की तरफ मोड़ें। उदाहरण के लिए, एक ऐसे दयालु व्यक्ति को लो जो बाहर बर्फ में भूख के कारण गिर पड़े भिखारी को बचाता है। वह भिखारी को अपने घर ले जाता है, उसे खाना-कपड़ा देता है, और अपने परिवार के बीच रहने और अपने लिए काम करने देता है। भिखारी ने चाहे अपनी मर्जी से उसके लिए काम करने का विकल्प चुना हो या दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए ऐसा किया हो, क्या उसे बचाना दयालुता का कृत्य था? (नहीं।) यहाँ तक कि छोटे जानवर भी मदद करने और एक दूसरे को बचाने में सक्षम हैं। ऐसे कर्म करने के लिए मनुष्य को बस थोड़ी-सी कोशिश करनी पड़ती है और मानवता वाला कोई भी व्यक्ति ऐसे काम करने में कामयाब रहता है। कहा जा सकता है कि ऐसे कर्म सामाजिक जिम्मेदारी और दायित्व हैं जो मानवता संपन्न किसी भी व्यक्ति को पूरे करने चाहिए। क्या मनुष्य का इसे दयालुता कहना कुछ ज्यादा ही बड़ी बात नहीं है? क्या यह सही चरित्र-चित्रण है? उदाहरण के लिए, अकाल के दौरान जब बहुत से लोग भूखे होते हैं, अगर कोई अमीर व्यक्ति गरीब परिवारों की मदद करने के लिए चावल की बोरियाँ बाँटता है ताकि वे इस मुश्किल दौर का सामना कर सकें, तो क्या यह सिर्फ बुनियादी नैतिक सहायता और सहयोग का एक उदाहरण नहीं है जो लोगों के बीच दिखना चाहिए? उसने लोगों को बस थोड़ा-सा चावल दिया—ऐसा नहीं है कि अपना सारा भोजन दूसरों को देकर वह खुद भूखा रह गया। क्या इसे वाकई दयालुता माना जाएगा? (नहीं।) वे सामाजिक जिम्मेदारियाँ और दायित्व जो मनुष्य पूरा करने में सक्षम है, ऐसे कर्म जो मनुष्य अंतःप्रेरणा से करने में सक्षम होगा और जो उसे करने चाहिए, और सेवा के सामान्य कृत्य जो दूसरों के लिए मददगार और लाभकारी हैं—इन चीजों को किसी भी तरह से दयालुता नहीं माना जा सकता, क्योंकि वे सभी ऐसे मामले हैं जहाँ मनुष्य बस मदद का हाथ बढ़ा रहा है। किसी जरूरतमंद व्यक्ति की सही समय और स्थान पर मदद करना एक बहुत ही सामान्य घटना है। यह मानवजाति के प्रत्येक सदस्य की जिम्मेदारी भी है। यह बस एक तरह की जिम्मेदारी और दायित्व है। परमेश्वर ने लोगों को सृजित करते समय ऐसी अंतःप्रेरणाएँ दी थीं। मैं यहाँ किन अंतःप्रेरणाओं की बात कर रहा हूँ? मैं मनुष्य की अंतरात्मा और विवेक की बात कर रहा हूँ। जब तुम किसी को जमीन पर गिरे हुए देखते हो, तो तुम्हारी स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है “मुझे जाकर उसकी मदद करनी चाहिए।” अगर तुमने उसे गिरा देखकर भी न देखने का बहाना बनाया और उसकी मदद नहीं की, तो तुम्हारी अंतरात्मा पर बोझ पड़ेगा और ऐसा व्यवहार करने पर तुम्हें बुरा लगेगा। जिस व्यक्ति में सचमुच मानवता होगी वह गिरे हुए व्यक्ति की मदद करने की तुरंत सोचेगा। वह इस बात की परवाह नहीं करेगा कि वह व्यक्ति उसका आभारी होगा या नहीं, क्योंकि उसका मानना है कि उसे यही करना चाहिए, और देखेगा कि इस मामले में और विचार करने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा क्यों है? ये परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी गई अंतःप्रेरणाएँ हैं, और जिसके पास अंतरात्मा और विवेक है वह यही करने की सोचेगा और इस तरह व्यवहार करने में सक्षम होगा। परमेश्वर ने मनुष्य को अंतरात्मा और एक मानवीय हृदय दिया—क्योंकि मनुष्य के पास मानवीय हृदय है, इसलिए उसमें मानवीय विचारों के साथ-साथ ऐसे परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण हैं जो कुछ मामलों में उसके पास होने चाहिए, तो वह ये चीजें स्वाभाविक रूप से और आसानी से करने में अक्षम है। उसे बाहरी शक्तियों से किसी मदद या सैद्धांतिक मार्गदर्शन की जरूरत नहीं है, और उसे शिक्षा या सकारात्मक नेतृत्व की भी जरूरत नहीं है—उसे इनमें से किसी भी चीज की जरूरत नहीं है। यह ठीक वैसा ही है जैसे लोग भूखे होने पर भोजन की तलाश करते हैं या प्यासे होने पर पानी माँगते हैं। यह एक सहज क्रिया है और इसे माता-पिता या शिक्षक नहीं सिखा सकते—यह स्वाभाविक रूप से आता है, क्योंकि मनुष्य में सामान्य मानवता की सोच है। इसी तरह परमेश्वर के घर में लोग अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ निभाने में सक्षम हैं और जिस व्यक्ति के पास अंतरात्मा और विवेक है उसे यही करना चाहिए। इस प्रकार, लोगों की मदद करने और उनके प्रति दया दिखाने में इंसानों को लगभग कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, यह मानवीय अंतःप्रेरणा के दायरे में आता है, और ऐसी चीज है जिसे करने में लोग पूरी तरह से सक्षम हैं। इसे दयालुता जितना ऊँचा दर्जा देने की कोई आवश्यकता नहीं। हालाँकि, कई लोग दूसरों की मदद को दयालुता के बराबर समझते हैं, और यह सोचकर हमेशा इसके बारे में बात करते रहते हैं और लगातार इसका मूल्य चुकाते रहते हैं कि अगर वे ऐसा नहीं करते, तो उनमें जमीर नहीं है। वे खुद को हिकारत से देखते और तुच्छ समझते हैं, यहाँ तक कि इस बात की चिंता भी करते हैं कि उन्हें जनमत द्वारा फटकार लगाई जाएगी। क्या इन बातों की चिंता करना जरूरी है? (नहीं।) ऐसे बहुत-से लोग हैं जो असलियत नहीं देख पाते और लगातार इस मुद्दे से विवश रहते हैं। सत्य सिद्धांतों को न समझना यही है। उदाहरण के लिए, अगर तुम किसी दोस्त के साथ रेगिस्तान में गए हो और उसके पास पानी खत्म हो जाता है, तो तुम बेशक उसे अपना थोड़ा-सा पानी दोगे, तुम उसे प्यासा मरने नहीं दोगे। भले ही तुम्हें पता हो कि तुम्हारी बोतल से दो लोग पानी पिएँगे तो वह आधा ही रह जाएगा, फिर भी तुम अपने दोस्त को पानी पिलाओगे। अब, तुम भला ऐसा क्यों करोगे? क्योंकि जब तुम्हारा दोस्त तुम्हारे सामने प्यासा खड़ा होगा, तब पानी की बूँद तुम्हारे गले से भी नीचे नहीं उतरेगी—तुम उस दृश्य को बर्दाश्त नहीं कर पाओगे। अपने दोस्त को प्यास से तड़पते देखना तुम क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाओगे? यह तुम्हारी अंतरात्मा की समझ है जहाँ से यह एहसास पैदा होता है। भले ही तुम इस तरह की जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना न चाहो, तुम्हारी अंतरात्मा ऐसा कर देगी कि तुम इसे न करना बर्दाश्त नहीं कर सकते, यह तुम्हें बेचैन कर देगा। क्या यह सब मानवीय अंतःप्रेरणाओं का नतीजा नहीं है? क्या यह सब मनुष्य की अंतरात्मा और विवेक से तय नहीं होता है? अगर वह दोस्त कहता है, “ऐसे हालात में अपने हिस्से का थोड़ा-सा पानी देने पर मैं तुम्हारा एहसानमंद हूँ!” क्या ऐसा कहना गलत भी नहीं होगा? इसका दयालुता से कोई लेना-देना नहीं है। अगर मामला पलट जाए, और दोस्त में मानवता, अंतरात्मा और विवेक हो, तो वह भी अपना पानी तुम्हें पिलाएगा। यह लोगों के बीच बस एक बुनियादी सामाजिक जिम्मेदारी या संबंध है। ये सभी सबसे बुनियादी सामाजिक संबंध या जिम्मेदारियाँ या दायित्व मनुष्य की अंतरात्मा की समझ, उसकी मानवता और अंतःप्रेरणाओं के कारण उत्पन्न होते हैं जो परमेश्वर मनुष्य की सृष्टि के समय उसे देता है। सामान्य परिस्थितियों में, ये चीजें माता-पिता या समाज को सिखाने या समझाने की जरूरत नहीं होती हैं, और दूसरों को तुम्हें बार-बार ऐसा करने की चेतावनी देने की जरूरत तो बिल्कुल नहीं होती। जिन लोगों में अंतरात्मा और विवेक नहीं है, जिनमें सामान्य संज्ञानात्मक चीजों का अभाव है उनके लिए सिर्फ शिक्षा होना जरूरी है—उदाहरण के लिए, मानसिक रूप से बीमार लोग या मंदबुद्धि—या जिन लोगों में अच्छी काबिलियत नहीं होती, और जो अज्ञानी और अड़ियल होते हैं। जिन लोगों में सामान्य मानवता होती है उन्हें ये चीजें सिखाने की जरूरत नहीं होती है—अंतरात्मा और विवेक से संपन्न सभी लोगों में ये चीजें होती हैं। इसलिए, जब कोई व्यवहार या कार्य बस अंतःप्रेरणा की बात हो और अंतरात्मा और विवेक के अनुरूप हो तो उसे बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दयालुता बताना अनुचित है। यह क्यों अनुचितहै? ऐसे व्यवहार को बहुत ऊँचा बताकर तुम हर एक व्यक्ति पर बहुत ज्यादा भार और बोझ डाल देते हो, और बेशक यह लोगों को एक दायरे में बाँध देता है। उदाहरण के लिए, अगर अतीत में, किसी ने तुम्हें पैसे दिए थे, किसी मुश्किल हालत से निकालने में तुम्हारी मदद की थी, काम ढूँढने में मदद की थी या तुम्हें बचाया था, तो तुम सोचोगे : “मैं एहसान फरामोश नहीं हो सकता, मुझे विवेकशील बनकर उसकी दयालुता का बदला चुकाना चाहिए। अगर मैंने उसकी दयालुता का बदला नहीं चुकाया, तो क्या मैं इंसान कहलाने लायक भी हूँ?” वास्तविकता में, चाहे तुम उसकी दयालुता का बदला चुकाओ या नहीं, तुम अभी भी इंसान हो और अभी भी सामान्य मानवता के ढाँचे में रहते हो—इस तरह बदला चुकाने से कुछ भी नहीं बदलेगा। सिर्फ इसलिए कि तुमने अच्छे से उसकी दयालुता का बदला चुकाया, इससे तुम्हारी मानवता में कोई बदलाव नहीं होगा और तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव भी दूर नहीं होगा। इसी तरह, सिर्फ इसलिए कि तुमने उसकी दयालुता का बदला अच्छे से नहीं चुकाया, तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बदतर नहीं होगा। चाहे तुम दयालुता दिखाते हो या उसका बदला चुकाते हो या कुछ और करते हो, इस का तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से कोई संबंध नहीं है। बेशक, भले ही ऐसा कोई संबंध मौजूद हो या नहीं, मेरे लिए, इस तरह की “दयालुता” का कोई अस्तित्व नहीं है, और मुझे उम्मीद है तुम लोगों के लिए भी ऐसा ही है। तो फिर तुम्हें इसे कैसे देखना चाहिए? इसे सीधे-सीधे एक दायित्व, एक जिम्मेदारी और कुछ ऐसा समझो जो एक मानवीय प्रवृत्तियों वाले किसी व्यक्ति को करना चाहिए। एक मनुष्य के रूप में तुम्हें इसे अपनी जिम्मेदारी और दायित्व की तरह देखना चाहिए, और इसे अपनी पूरी क्षमता से निभाना चाहिए। बस इतना ही। कुछ लोग कह सकते हैं : “मैं जानता हूँ कि यह मेरी जिम्मेदारी है, लेकिन मैं इसे नहीं निभाना चाहता।” यह भी ठीक है। तुम अपनी स्थिति और परिस्थितिके आधार पर अपना रास्ता चुन सकते हो। तुम उस समय की अपनी मनोदशा के आधार पर लचीले ढंग से भी फैसला कर सकते हो। अगर तुम्हें यह चिंता है कि जिसकी तुम मदद करोगे वह लगातार उसका बदला चुकाने की कोशिश करेगा, तुम्हारी खोज-खबर लेगा, बार-बार इस तरह तुम्हारा धन्यवाद करेगा कि यह तुम्हारे लिए असुविधा और परेशानी का सबब बन जाएगा, और इसी वजह से तुम यह जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहते, तो यह भी ठीक है—यह तुम पर निर्भर है। कुछ लोग पूछेंगे : “जो लोग इस तरह की सामाजिक जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहते क्या उनमें बुरी मानवता है?” क्या यह किसी व्यक्ति की मानवता को परखने का सही तरीका है? (नहीं।) यह बात क्यों गलत है? इस बुरे समाज में, मनुष्य को उसके व्यवहार से आँका जाना चाहिए और वह जो कुछ भी करता है उसमें स्वामित्व की भावना होनी चाहिए। बेशक, यह बात और भी अधिक जरूरी है कि वह व्यक्ति उस वक्त के परिवेश और संदर्भ को पहचानता हो। जैसा कि अविश्वासी कहते हैं, इस अस्त-व्यस्त संसार में, लोगों को अपने हर काम में चालाक, होशियार और बुद्धिमान होना चाहिए—उन्हें अज्ञानी नहीं होना चाहिए, और यकीनन उन्हें मूर्खतापूर्ण कृत्य नहीं करने चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ देशों में लोग सार्वजनिक स्थानों पर जालसाजी करते हैं, जिनमें वे कोई नकली दुर्घटना घटित होने का नाटक करके धोखाधड़ीपूर्ण तरीके से मुआवजे का दावा करते हैं। अगर तुम उन बुरे लोगों की जालसाजी को नहीं समझ पाते, और बिना सोचे-समझे अपनी अंतरात्मा के अनुसार व्यवहार करते हो, तो तुम मूर्ख बनकर खुद को परेशानी में डाल सकते हो। उदाहरण के लिए, किसी बुजुर्ग महिला को सड़क पर गिरी देखकर तुम सोच सकते हो : “मुझे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए, जरूरी नहीं है कि वह मेरी दयालुता का बदला चुकाए। क्योंकि मुझमें मानवता और अंतरात्मा की समझ है, इसलिए मुझे उसकी तरफ मदद करनी चाहिए और मैं जरूर करूँगा।” फिर, जब तुम उसे उठाने जाते हो, तो वह तुम्हारा फायदा उठाती है और तुम उसे अस्पताल तक लेकर जाने और उसके मेडिकल बिलों का भुगतान करने, उसकी भावनात्मक क्षति की भरपाई करने और उसकी सेवानिवृत्ति के खर्चों को पूरा करने को मजबूर होते हो। अगर तुम ऐसा नहीं करते हो, तो तुम्हें पुलिस थाने बुलाया जाएगा। ऐसा प्रतीत होता है कि तुमने अपने लिए मुसीबत मोल ले ली, है न? ऐसे हालात क्यों पैदा हुए? (तुमने अपने नेक इरादे को पूरा किया लेकिन बुद्धिमानी से काम नहीं लिया।) तुमने बिना सोचे-समझे कदम उठाया, तुममें विवेक की कमी थी, तुम मौजूदा रुझानों को समझ नहीं पाए, और हालात की वास्तविकता पर गौर नहीं किया। इस तरह के बुरे समाज में, व्यक्ति को सड़क पर गिरी एक बुजुर्ग महिला की यूँ ही मदद करने के कारण बड़ी कीमत चुकानी पड़ जाती है। अगर वह सच में गिरी होती और उसे तुम्हारी मदद की जरूरत होती, तो सामाजिक जिम्मेदारियाँ पूरी करने के कारण तुम्हारी निंदा नहीं की जाती, तुम्हारी सराहना की जाती, क्योंकि तुम्हारा व्यवहार मानवता और मनुष्य की अंतरात्मा की समझ के अनुरूप था। इस बुजुर्ग महिला की एक छिपी हुई मंशा थी—उसे सच में तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं थी। वह बस धोखे से तुम्हें फँसाना चाहती थी, और तुम उसकी धूर्त साजिश को समझ नहीं पाए। एक इंसान के रूप में उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करके, तुम उसकी रची साजिश में फँस गए, और अब वह तुम्हें नहीं छोड़ेगी, तुमसे और भी ज्यादा पैसे माँगेगी। सामाजिक जिम्मेदारियाँ पूरी करने का मतलब जरूरतमंद लोगों की मदद करना और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना होना चाहिए। इसकी वजह से किसी को छल-कपट का शिकार नहीं होना चाहिए या जाल में नहीं फँसना चाहिए। बहुत-से लोग इस तरह के घोटालों का शिकार बने हैं और तब जाकर उन्हें साफ तौर पर समझ आया कि लोग कितने बुरे हैं, और दूसरों को धोखा देने में कितने माहिर हो चुके हैं। वे किसी को भी धोखा दे सकते हैं, चाहे वे अजनबी हों या दोस्त और सगे-संबंधी। कितनी भयानक स्थिति है! यह भ्रष्टता किसकी वजह से आई। बड़े लाल अजगर की वजह से। बड़े लाल अजगर ने मानवजाति को बहुत गहराई तक और बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है। बड़ा लाल अजगर अपने हितों को साधने के लिए सभी प्रकार की अनैतिक चीजें करेगा, और लोग इसकी बुरी मिसालों के कारण भटक चुके हैं। नतीजतन, घोटालेबाजों और चोरों की तादाद काफी बढ़ चुकी है। इन तथ्यों के आधार पर, यह देखा जा सकता है कि बहुत-से लोग कुत्तों जैसे हैं। शायद कुछ लोग इस तरह की बातें न सुनना चाहें, वे इससे असहज होंगे और सोचेंगे : “क्या हम वाकई कुत्तों जैसे हैं? तुम हमारा अनादर कर रहे हो और हमेशा कुत्तों से तुलना करके हमें नीचा दिखाना चाहते हो। तुम हमें इंसान नहीं समझते!” मैं तुम लोगों को इंसान बने देखना पसंद करूँगा, लेकिन इंसान ने किस तरह का व्यवहार दिखाया है? वास्तविकता में, कुछ लोगों का व्यवहार वाकई कुत्तों से बेहतर नहीं है। अभी मैं इस मामले पर बस इतना ही कहना चाहूँगा।

मैंने अभी-अभी इस बारे में संगति की कि कैसे दूसरों की थोड़ी-सी मदद करने को दयालुता नहीं माना जाना चाहिए और यह एक सामाजिक जिम्मेदारी मात्र है। बेशक, लोग यह तय कर सकते हैं कि वे अपनी सर्वोत्तम क्षमताओं के अनुसार कौन-सी सामाजिक जिम्मेदारियाँ पूरी कर लेंगे। वे उन जिम्मेदारियों को पूरा कर सकते हैं जिन्हें पूरा करना उनके लिए उपयुक्त है, और जो उनके लिए उपयुक्त नहीं हैं उन्हें वे पूरा न करने का विकल्प चुन सकते हैं। यह मनुष्य की स्वतंत्र पसंद-नापसंद है। तुम अपनी परिस्थितियों, योग्यताओं और बेशक उस समय की मौजूदा परिस्थितियों और प्रसंग के आधार पर यह चुन सकते हो कि तुम्हें कौन-सी सामाजिक जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। यह तुम्हारा अधिकार है। यह अधिकार किस संदर्भ में आया? यह संसार बेहद अंधकारमय है, मानवजाति बेहद दुष्ट है, और समाज में न्याय का अभाव है। इन परिस्थितियों में, तुम्हें पहले अपनी सुरक्षा करनी होगी, मूर्खतापूर्ण और अज्ञानतापूर्ण व्यवहार से बचकर बुद्धिमानी से काम लेना होगा। बेशक, अपनी सुरक्षा करने से मेरा मतलब यह नहीं है कि तुम अपने बटुए और संपत्ति की चोरों से रक्षा करो, बल्कि इसका मतलब खुद को होने वाले नुकसान से बचाना है—यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। तुम्हें अपनी सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने के साथ-साथ अपनी सुरक्षा भी पक्की करनी चाहिए। दूसरों से सम्मान पाने पर ध्यान मत दो, और जनमत के बहाव में मत बहो या उसके आगे बेबस मत होओ। तुम्हें बस अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने की जरूरत है। तुम्हें अपनी स्थिति के अनुसार यह तय करना चाहिए कि तुम अपना कर्तव्य कैसे पूरा करोगे; अपनी परिस्थितियों और योग्यताओं को देखते हुए जितना मुमकिन हो सके उससे अधिक जिम्मेदारियाँ और दायित्व मत उठाओ। जो क्षमताएँ तुममें मौजूद नहीं हैं उनका दिखावा कर लोगों को प्रभावित करने की कोशिश मत करो और दूसरों से अपने अनादर, आलोचना या निंदा का भय मत पालो। अपने अहंकार को संतुष्ट करने की खातिर चीजें करना गलत है। बस उतना करो जितना तुम कर सकते हो, जितनी जिम्मेदारी उठा सकते हो उतनी ही उठाओ, और उतने ही दायित्व निभाओ जितने तुम पूरे कर सकते हो। यह तुम्हारा अधिकार है। तुम्हें खुद को ऐसी चीजें करने के लिए मजबूर करने की जरूरत नहीं है जिसकी परमेश्वर ने तुमसे अपेक्षा नहीं की है। जिन चीजों का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है उन्हें करने के लिए अपनी अंतरात्मा के अनुसार चलने का कोई अर्थ नहीं है। तुम चाहे जितना अधिक काम करो, परमेश्वर इसके लिए तुम्हारी सराहना नहीं करेगा, और इसका अर्थ यह भी नहीं होगा कि तुमने सच्ची गवाही दी है, यह कहना तो दूर की बात है कि तुमने अच्छे कर्म संचित किए हैं। जिन चीजों का परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई संबंध नहीं है, लेकिन जिनकी लोग तुमसे अपेक्षा करते हैं, उनके मामले में तुम्हारी अपनी पसंद और सिद्धांत होने चाहिए। लोगों के आगे बेबस मत बनो। अगर तुम ऐसा कुछ भी नहीं करते हो जिससे तुम्हारी अंतरात्मा, विवेक और सत्य का उल्लंघन होता है, तो यह काफी है। अगर तुम किसी की क्षणिक समस्या हल करके उसकी मदद करते हो तो वह तुम पर निर्भर होता जाएगा, और यह मानेगा कि तुम्हें उसकी समस्याएँ हल करनी चाहिए और करनी होंगी। वह व्यक्ति तुम पर पूरी तरह निर्भर हो जाएगा और अगर तुम एक बार भी उसकी किसी समस्या को हल करने में विफल रहे, तो तुमसे मुँह मोड़ लेगा। इससे तुम्हारे लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी और यह उस तरह का परिणाम बिल्कुल नहीं है जो तुम देखना चाहते हो। अगर तुम इस तरह के परिणाम का अंदाजा लगा सको तो तुम उसकी मदद न करने का फैसला ले सकते हो। दूसरे शब्दों में, इस मामले में उस जिम्मेदारी या दायित्व को पूरा करने से बचना गलत नहीं होगा। समाज, मानवजाति, और अधिक विशेष रूप से, जिस समुदाय में तुम रहते हो उसके प्रति तुम्हें इसी तरह का दृष्टिकोण और रवैया अपनाना चाहिए। यानी, किसी को जितना अधिक प्यार दे सको उतना अधिक प्यार दो और जितना तुम कर पाने में सक्षम हो उतना ही करो। दिखावा करने के प्रयास में अपने दृढ़ विश्वास के खिलाफ मत जाओ, उन चीजों को करने की कोशिश मत करो जो तुम करने में सक्षम नहीं हो। तुम्हें खुद को ऐसी कीमत चुकाने के लिए भी मजबूर करने की जरूरत नहीं है जो सामान्य इंसान चुका पाने में असमर्थ है। संक्षेप में, खुद से बहुत अधिक अपेक्षा मत रखो। बस उतना ही करो जितना तुम कर सकते हो। यह सिद्धांत कैसा प्रतीत होता है? (अच्छा प्रतीत होता है।) उदाहरण के लिए, तुम्हारा दोस्त तुम्हारी कार उधार लेना चाहता है और तुम सोचते हो : “उसने पहले मुझे चीजें उधार में दी थीं, तो उसे मेरी कार उधार लेने का हक है। लेकिन वह चीजों का अच्छे से ध्यान नहीं रखता है या उनका किफायती तरीके से इस्तेमाल नहीं करता है। मुमकिन है कि वह मेरी कार का कबाड़ा कर दे। बेहतर होगा कि मैं उसे अपनी कार उधार में न दूँ।” तो तुम उसे अपनी कार उधार में नहीं देने का फैसला करते हो। क्या ऐसा करना सही है? तुम उसे कार उधार दो या न दो, यह कोई बड़ी बात नहीं है—अगर तुम्हारे पास मामले की सटीक और अंतर्दृष्टि वाली समझ है, तो तुम्हें वही फैसला करना चाहिए जो तुम उन हालात में सबसे उपयुक्त समझते हो, और तब तुम बिल्कुल सही होगे। लेकिन, अगर तुम यह सोचने लगो, “कोई बात नहीं, मैं उसे अपनी कार उधार दूँगा। इससे पहले जब भी मैंने उससे कोई चीज माँगी थी तो उसने कभी मुझे मना नहीं किया था। वह चीजों को किफायती तरीके से इस्तेमाल नहीं करता है या उनका अच्छे से ध्यान नहीं रखता है, पर कोई बात नहीं। अगर मेरी कार को नुकसान पहुँचा, तो मैं थोड़े-से पैसे खर्च करके उसे ठीक करा लूँगा,” और फिर तुम उसे अपनी कार उधार देने पर सहमत हो जाते हो और उसे इनकार नहीं करते—क्या ऐसा करना सही है? ऐसा करने में भी कुछ गलत नहीं है। उदाहरण के लिए, अगर किसी ने पहले तुम्हारी मदद की थी और फिर जब उसका परिवार किसी परेशानी में पड़ जाता है तो वह तुमसे मदद माँगने आता है, तो तुम्हें मदद करनी चाहिए या नहीं? यह तुम्हारी स्थिति पर निर्भर करता है, और उसकी मदद करने या न करने का तुम्हारा फैसला सिद्धांत का मामला नहीं होगा। तुम्हें बस ईमानदारी से और सहज बुद्धि से काम लेना चाहिए और अपनी सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। ऐसा करके, तुम मानवता के दायरे में रहकर और अपनी अंतरात्मा की समझ से काम कर रहे होगे। तुम इस जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाते हो या नहीं, इसे अच्छे से पूरा करते हो या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। सहमत होना या इनकार करना तुम्हारा अधिकार है—अगर तुम इनकार करते हो, तो यह नहीं कहा जा सकता कि तुममें अंतरात्मा का अभाव है, और यह भी नहीं कहा जा सकता कि तुम्हारे दोस्त ने तुम्हारी मदद करके कोई दयालुता दिखाई थी। ऐसे कृत्य उस ऊँचाई तक नहीं पहुँचते हैं। समझ गए? (बिल्कुल।) यह चर्चा दयालुता के विषय पर थी, यानी तुम्हें दयालुता को कैसे देखना चाहिए, दूसरों की मदद करने के मामले को कैसे देखना चाहिए, और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को कैसे पूरा करना चाहिए। इन मामलों में, लोगों को सत्य सिद्धांतों की खोज करनी चाहिए—तुम सिर्फ अपनी अंतरात्मा और विवेक पर निर्भर रहकर इन समस्याओं को हल नहीं कर सकते। कुछ विशेष परिस्थितियाँ बेहद जटिल हो सकती हैं, और अगर तुम उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं संभालते हो, तो अपने लिए मुसीबत खड़ी कर लोगे और इसके नकारात्मक परिणाम होंगे। इसलिए इन मामलों में परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके इरादे समझने चाहिए और मानवता, विवेक, बुद्धि और सत्य सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए। यही सबसे उचित रुख रहेगा।

“दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” इस कहावत के संबंध में एक और स्थिति यह उत्पन्न हो सकती है कि तुम्हें मिलने वाली सहायता एक बोतल पानी, मुट्ठी भर सब्जियों या एक बोरी चावल जैसी कोई छोटी-मोटी चीज न हो, बल्कि ऐसी मदद हो जिससे तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की आजीविका पर प्रभाव पड़ता है, और जिसके निहितार्थ तुम्हारे भाग्य और भविष्य की संभावनाओं के लिए भी हैं। उदाहरण के लिए, कोई तुम्हें पढ़ा सकता है या तुम्हारी आर्थिक मदद कर सकता है, ताकि तुम किसी अच्छी यूनिवर्सिटी में दाखिला पा सको, अच्छी नौकरी ढूँढ सको, अच्छी तरह शादी कर सको, और तुम्हारे जीवन में बहुत-सी अच्छी चीजें होती रहें। यह कोई छोटा-मोटा एहसान या तुच्छ सहायता नहीं है—बहुत से लोग ऐसी चीज को बहुत बड़ी दयालुता मानते हैं। ऐसी स्थिति में तुम लोगों को क्या करना चाहिए? इस प्रकार की सहायता मनुष्य की सामाजिक जिम्मेदारी और उसके द्वारा निभाए जाने वाले दायित्वों से संबंधित होती है, जिनके बारे में हमने अभी-अभी चर्चा की है, मगर चूँकि उनके निहितार्थ मनुष्य के अस्तित्व, भाग्य और भविष्य की संभावनाओं से जुड़े हैं, तो वे महज एक बोतल पानी या एक बोरी चावल से कहीं अधिक मूल्यवान हैं—इनका लोगों के जीवन, उनकी आजीविका और इस धरती पर बीतने वाले उनके समय पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार उनकी कीमत काफी ज्यादा है। अब, क्या इस प्रकार की सहायता को दयालुता जैसा ऊँचा दर्जा देना चाहिए? मैं पहले की तरह ऐसी मदद को दया नहीं मानता। यह देखते हुए कि इस प्रकार की सहायता को दया नहीं मानना चाहिए, तो फिर ऐसी स्थिति से निपटने का उपयुक्त और उचित तरीका क्या है? क्या मनुष्यों को इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ता? उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी ने तुम्हें अपराध के जीवन से बाहर निकाला, तुम्हें सीधे रास्ते पर लाकर कानूनी तौर पर सही नौकरी दिलवाई, जिससे तुम एक अच्छा जीवन जी सके, शादी करके अपना घर बसा सके, और तुम्हारी किस्मत हमेशा के लिए बदल गई। या, मुमकिन है कि जब तुम मुसीबत में निराश-हताश थे, तो किसी नेक व्यक्ति ने तुम्हारी थोड़ी मदद की और मार्गदर्शन दिया, जिससे तुम्हारे भविष्य की संभावनाएँ सकारात्मक हो गईं, और तुम सबसे आगे निकलकर एक अच्छा जीवन बिता सके। इन स्थितियों को तुम्हें कैसे देखना चाहिए? क्या तुम्हें उनकी दयालुता याद रखकर बदला चुकाना चाहिए? क्या तुम्हें उनकी भरपाई करने और उनका बदला चुकाने के तरीके खोजने चाहिए? इस मामले में, तुम्हें सिद्धांतों के आधार पर फैसला करना चाहिए, है न? तुम्हें देखना चाहिए कि तुम्हारी मदद करने वाला व्यक्ति कैसा है। अगर वह नेक और सकारात्मक इंसान है, तो उसे “शुक्रिया” कहने के साथ ही तुम उससे सामान्य तरीके से मिलना-जुलना जारी रख सकते हो, दोस्त बन सकते हो और फिर, जब उसे मदद की जरूरत हो, तब तुम अपनी सर्वोत्तम क्षमता के साथ अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा सकते हो। लेकिन, तुम्हें अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करने के लिए अपना सब कुछ दाँव पर नहीं लगाना चाहिए, बल्कि यह इस बात पर निर्भर होना चाहिए कि तुम अपनी वर्तमान परिस्थिति में कितना कर सकते हो। इन हालात में ऐसे लोगों से निपटने का यही उचित तरीका है। तुम दोनों के बीच दर्जे में कोई अंतर नहीं है—भले ही उसने तुम्हारी मदद की और तुम पर दया दिखाई, फिर भी उसे तुम्हारा उद्धारकर्ता नहीं कहा जा सकता, क्योंकि केवल परमेश्वर ही मानवजाति को बचा सकता है। उसने तो बस परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के जरिए तुम्हारी मदद की—यकीनन इसका यह मतलब नहीं है कि वह तुमसे श्रेष्ठ है, और इसका यह मतलब तो कतई नहीं है कि वह तुम्हारा मालिक है और तुम्हें अपने हिसाब से चलाकर काबू में कर सकता है। उसे तुम्हारे भाग्य पर नियंत्रण रखने का कोई अधिकार नहीं है और न ही उसे तुम्हारे जीवन को लेकर आलोचना या टिप्पणी करनी चाहिए; तुम दोनों अभी भी बराबर हो। क्योंकि तुम दोनों बराबर हो, तो एक-दूसरे से दोस्तों की तरह मिल-जुल सकते हो, और सही समय आने पर, तुमसे जितना हो सके उसकी मदद कर सकते हो। यह अभी भी मानवता के दायरे में रहकर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी और दायित्व को पूरा करना, और मानवता के आधार पर और उसके दायरे में रहकर अपना कर्तव्य निभाना—तुम अपने लक्ष्य के अनुसार अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा कर रहे हो। तुम्हें ऐसा क्यों करना चाहिए? उसने अतीत में तुम्हारी मदद की थी और उसके कारण तुम्हें कई फायदे हुए और काफी लाभ मिला, तो तुम्हारी मानवता से आने वाली अंतरात्मा की समझ यह कहती है कि तुम्हें उसके साथ एक दोस्त जैसा व्यवहार करना चाहिए। कुछ लोग पूछेंगे : “क्या मैं उसे जिगरी दोस्त मान सकता हूँ?” यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम दोनों कैसे मिल-जुलकर रहते हो, और क्या तुम्हारी मानवता और प्राथमिकताएँ, तुम क्या खोजते हो और इस संसार को कैसे देखते हो, यह सब एक जैसी हैं या नहीं। इसका जवाब तुम पर ही निर्भर करेगा। अब इस अनोखे रिश्ते में, क्या तुम्हें अपनी जान न्यौछावर करके अपने मददगार का बदला चुकाना चाहिए? यह देखते हुए कि उसने तुम्हारी इतनी मदद की और तुम पर इतना जबरदस्त प्रभाव डाला, क्या तुम्हें अपनी जान देकर उसका बदला चुकाना चाहिए? ऐसा करना जरूरी नहीं है। तुम अपने जीवन के शाश्वत स्वामी हो—परमेश्वर ने तुम्हें जीवन दिया है, और यह जीवन सिर्फ तुम्हारा है, कोई और इसे नहीं संभाल सकता। इस संदर्भ और स्थिति के कारण लापरवाही से किसी और को अपने जीवन का प्रबंधन करने देने की कोई जरूरत नहीं है। यह चीजें करने का बेहद मूर्खतापूर्ण तरीका है और बेशक, यह बेतुका भी है। चाहे तुम लोग कितने ही गहरे दोस्त हो या तुम्हारा रिश्ता कितना भी मजबूत हो, तुम सिर्फ एक इंसान की तरह अपनी जिम्मेदारी निभा सकते हो, सामान्य रूप से बातचीत कर सकते हो और मानवता और विवेक के दायरे में रहकर ही एक-दूसरे की मदद कर सकते हो। ऐसा रिश्ता अधिक तर्कसंगत और बराबर है। तुम दोनों के दोस्त बनने का मुख्य कारण यह है कि उस व्यक्ति ने कभी तुम्हारी मदद की थी, और इसलिए तुम्हें लगा कि वह दोस्त बनाने लायक है, और वह उन अपेक्षाओं पर खरा उतरता है जो तुम अपने दोस्तों से करते हो। सिर्फ इसी वजह से तुम उससे दोस्ती करना चाहते थे। इस स्थिति पर भी विचार करो : अतीत में किसी ने तुम्हारी मदद की थी, कुछ खास तरीकों से तुम पर दया दिखाई थी और तुम्हारे जीवन या किसी बड़ी घटना पर उसने काफी प्रभाव डाला था, मगर उसकी मानवता और जिस मार्ग पर वह चल रहा है, वह तुम्हारे मार्ग और जो तुम खोजते हो उसके अनुरूप नहीं है। तुम्हारी भाषा अलग है, तुम इस व्यक्ति को पसंद नहीं करते और, शायद कुछ हद तक तुम कह सकते हो कि तुम्हारी रुचियाँ और जिस चीज की तुम्हें तलाश है वे बिल्कुल अलग हैं। जीवन में तुम्हारे मार्ग, संसार को देखने के तुम्हारे दृष्टिकोण और जीवन के प्रति तुम्हारे नजरिये, सभी अलग-अलग हैं—तुम दोनों एक दूसरे से पूरी तरह अलग हो। तो, अतीत में उसने तुम्हारी जो मदद की थी उसके प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए और तुम्हें उस मदद की कीमत कैसे चुकानी चाहिए? क्या वास्तव में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है? (बिल्कुल।) तो, तुम्हें क्या करना चाहिए? इस स्थिति से भी निपटना काफी आसान है। यह देखते हुए कि तुम दोनों अलग-अलग राह पर चल रहे हो, तो अपने साधनों के अनुसार तुम उसे जो भी आर्थिक प्रतिपूर्ति कर सकते हो वह करने के बाद, तुम्हें पता चलता है कि तुम्हारी मान्यताएँ बहुत भिन्न हैं, तुम दोनों एक ही मार्ग पर नहीं चल सकते, यहाँ तक कि दोस्त भी नहीं रह सकते और न ही मेलजोल कर सकते हो। अब जब तुम दोनों मेलजोल नहीं कर सकते, तो तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? उससे दूरी बनाए रखो। मुमकिन है कि अतीत में उसने तुम पर दया दिखाई हो, लेकिन वह समाज में धोखाधड़ी और चालबाजी करता है, सभी प्रकार के घृणित कर्म करता है और तुम्हें यह व्यक्ति पसंद नहीं है, इसलिए तुम्हारा उससे दूरी बनाए रखना बिल्कुल सही है। कुछ लोग कह सकते हैं, “क्या इस तरह से व्यवहार करना अंतरात्मा का अभाव नहीं दर्शाता?” यह अंतरात्मा का अभाव नहीं है—अगर उसे वाकई जीवन में किसी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, तो तुम अभी भी उसकी मदद कर सकते हो, पर तुम उसके आगे बेबस नहीं हो सकते और न ही बुरे और अविवेकपूर्ण कर्मों में उसका साथ दे सकते हो। सिर्फ इसलिए कि अतीत में उसने तुम्हारी मदद की थी या तुम पर कोई बड़ा एहसान किया था, तो तुम्हें उसकी गुलामी करने की भी कोई जरूरत नहीं है—यह तुम्हारा दायित्व नहीं है और न ही वह ऐसे व्यवहार के लायक है। तुम उन लोगों के साथ मेलजोल करने, समय बिताने और यहाँ तक कि उनके साथ दोस्ती करने के भी हकदार हो जिन्हें तुम पसंद करते हो और जिनके साथ तुम्हारी बनती है, और जो सही लोग हैं। तुम इस व्यक्ति के प्रति अपनी जिम्मेदारी और दायित्व को पूरा कर सकते हो, यह तुम्हारा अधिकार है। बेशक, तुम उन लोगों से दोस्ती करने और उनसे मेलजोल करने से इनकार भी कर सकते हो जिन्हें तुम पसंद नहीं करते, और तुम्हें उनके प्रति किसी भी दायित्व या जिम्मेदारी को पूरा करने की कोई जरूरत नहीं है—यह भी तुम्हारा अधिकार है। अगर तुम इस व्यक्ति को त्यागने का फैसला करते हो और उसके साथ मेलजोल करने या उसके प्रति किसी भी जिम्मेदारी या दायित्व को पूरा करने से इनकार करते हो, तब भी यह गलत नहीं होगा। तुम्हें अपने आचरण के तरीके पर कुछ सीमाएँ निर्धारित करनी होंगी और अलग-अलग लोगों के साथ अलग-अलग तरीकों से पेश आना होगा। तुम्हें बुरे लोगों से नहीं जुड़ना चाहिए या उनके बुरे उदाहरण पर नहीं चलना चाहिए, यही बुद्धिमानी है। कृतज्ञता, भावनाओं और जनमत जैसे विभिन्न कारकों से प्रभावित मत हो—यह एक रुख अपनाना और सिद्धांत पर चलना है, और तुम्हें यही करना चाहिए। क्या तुम लोग इन तरीकों और दावों को स्वीकार सकते हो? (बिल्कुल।) भले ही मैंने जिन दृष्टिकोणों, अभ्यास के मार्गों और सिद्धांतों पर चर्चा की है, उनकी पारंपरिक धारणाओं और संस्कृति में आलोचना की जाती है, ये दृष्टिकोण और सिद्धांत हर उस व्यक्ति के अधिकारों और गरिमा की दृढ़ता से रक्षा करेंगे जिनमें मानवता और अंतरात्मा की समझ है। वे लोगों को पारंपरिक संस्कृति में नैतिक आचरण के तथाकथित मानकों से बेबस और बाधित नहीं होने, और इन झूठी पवित्र और दिखावटी चीजों के धोखे से आजाद होने और गुमराह न किए जाने में सक्षम बनाएँगे। ये दृष्टिकोण और सिद्धांत उन्हें परमेश्वर के वचनों के जरिए सत्य समझने, परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार जीने, नैतिकता को लेकर सार्वजनिक राय से प्रभावित नहीं होने और खुद को तथाकथित सांसारिक तौर-तरीकों की बाधाओं और बंधनों से मुक्त करने में भी मदद करेंगे, ताकि वे लोगों और सभी चीजों के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सही दृष्टिकोणों का उपयोग करके व्यवहार कर सकें, और सांसारिक चीजों, परंपरा और सामाजिक नैतिकता की बेड़ियों और गुमराह करने वाले तौर-तरीकों को पूरी तरह से त्याग सकें। इस तरह, वे रोशनी में रह सकेंगे, सामान्य मानवता का जीवन जी सकेंगे, गरिमा के साथ रह सकेंगे और परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करेंगे।

सामाजिक नैतिकता के संबंध में “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” और “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” जैसी कहावतों से लोगों पर वास्तव में क्या प्रभाव पड़ सकता है? क्या वे मनुष्य का रुतबा और लाभ कमाने वाला शैतानी स्वभाव बदल सकती हैं? क्या वे मनुष्य की महत्वाकांक्षा और इच्छा को बदल सकती हैं? क्या वे मनुष्यों के बीच संघर्ष और खून-खराबे का समाधान कर सकती हैं? क्या वे लोगों को जीवन में सही मार्ग पर कदम रखने और खुशहाल जीवन जीने में सक्षम बना सकती हैं? (नहीं।) तो फिर सामाजिक नैतिकता के इन मानदंडों का वास्तव में क्या प्रभाव पड़ता है? ज्यादा-से-ज्यादा, क्या वे चंद नेक लोगों को अच्छे कर्म करने और समाज की सुरक्षा में योगदान देने के लिए प्रोत्साहित करते हैं? (हाँ।) वे बस इतना ही करते हैं, और एक भी समस्या का समाधान नहीं करते। भले ही नैतिक आचरण के इन तथाकथित मानदंडों की शिक्षा के तहत लोग आखिर में उनका पालन करके उनके अनुसार जीने लगें, इसका मतलब यह नहीं है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त होकर एक मनुष्य की तरह जीवन जी पाएँगे। उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी व्यक्ति ने तुम पर एहसान किया है, तो तुम इसका बदला चुकाने के लिए जो बन पाता है वह करते हो—वह तुम्हें एक बोरी चावल देता है तो तुम बदले में उसे आटे का एक बड़ा-सा थैला देते हो, और वह तुम्हें दो किलो बकरे का माँस देता है, तो तुम उसे दो किलो भेड़ का माँस देकर बदला चुकाते हो। तुम्हारे लगातार एक-दूसरे के एहसान का बदला चुकाने का परिणाम क्या होगा? मन-ही-मन, तुम दोनों हिसाब लगाओगे कि किसे ज्यादा फायदा हुआ और किसे कम, और इससे गलतफहमियाँ पैदा होंगी, तुम्हारे बीच झगड़े होंगे और तुम एक-दूसरे के खिलाफ साजिश रचोगे। मेरे कहने का क्या अर्थ है? मैं यह कहना चाहता हूँ कि नैतिक आचरण की यह अपेक्षा कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” न सिर्फ लोगों के सोचने के तरीके को बाधित और गुमराह करती है, बल्कि यह लोगों के जीवन को कई असुविधाओं, बोझ और यहाँ तक कि संकट से भर देती है। और अगर इसके कारण तुम किसी के दुश्मन बन जाते हो, तो तुम्हें और बड़ी मुश्किल और भयंकर कष्ट झेलना पड़ सकता है! लोगों को ऐसे रिश्तों में नहीं रहना चाहिए जो लेनदेन की नींव पर बने हों। लोग हमेशा ऐसी भावनाओं और सांसारिक तौर-तरीकों के अनुसार जीते हैं, जिससे आखिर में बहुत-सी अनावश्यक परेशानियाँ ही खड़ी होंगी। यह सिर्फ आत्म-प्रताड़ना और निरर्थक पीड़ा है। परंपरागत संस्कृति और नैतिक आचरण के दावे इसी तरह लोगों के मन में बैठकर उन्हें गुमराह करते हैं। इन्हें बिल्कुल भी न पहचान पाने के कारण लोग यह गलत मान बैठते हैं कि परंपरागत संस्कृति के ये पहलू सही हैं और वे इन्हें अपने मानदंड और दिशा-निर्देश के रूप में अपना लेते हैं, इन कहावतों का सख्ती से पालन करते हैं और जनमत की निगरानी में जीवन जीते हैं। धीरे-धीरे और अनजाने में, वे इन चीजों से शिक्षित, प्रभावित और नियंत्रित हो जाते हैं, और असहाय और पीड़ित महसूस करने लगते हैं, और फिर भी इनसे मुक्त होने में असमर्थ होते हैं। जब परमेश्वर लोगों के अंदर मौजूद परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं को उजागर करने और उनका न्याय करने की बात कहता है, तो इससे कई लोग परेशान भी होते हैं। जब ये चीजें लोगों के मन, विचारों और धारणाओं से पूरी तरह से साफ हो जाती हैं, तो वे अचानक काफी खालीपन महसूस करते हैं, मानो उनके पास सहारा लेने के लिए कुछ भी नहीं है, और तब वे पूछेंगे, “मुझे आगे क्या करना चाहिए? मुझे कैसे जीना चाहिए? इन चीजों के बिना, मेरे जीवन में कोई मार्ग या दिशा नहीं है। अब जब ये बातें मेरे मन से बिल्कुल साफ हो गई हैं, तो मैं इतना खालीपन और लक्ष्यहीन क्यों महसूस करता हूँ? अगर लोग इन कहावतों के अनुसार न जिएँ, तो क्या उन्हें अभी भी मनुष्य कहा जा सकता है? क्या उनमें अभी भी मानवता होगी?” सोचने का यह तरीका गलत है। वास्तव में, जब तुम परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं से मुक्त हो जाते हो, तो तुम्हारा हृदय शुद्ध हो जाता है, तुम अब इन चीजों से बँधे हुए और बाधित नहीं रहते हो, तुम्हें आजादी और मुक्ति मिल जाती है और ये परेशानियाँ भी खत्म हो जाती हैं—तुम उनसे मुक्त क्यों नहीं होना चाहोगे? कम से कम, जब तुम परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं को त्याग दोगे जो सत्य नहीं हैं, तो तुम्हें कम पीड़ा और यातना सहनी पड़ेगी और तुम कई निरर्थक बाधाओं और चिंताओं से छुटकारा पा सकोगे। अगर तुम सत्य स्वीकार करके परमेश्वर के वचनों के अनुसार चल सकते हो, तो तुम जीवन में सही मार्ग पर कदम रखोगे और रोशनी में जी पाओगे। परंपरागत संस्कृति के नैतिक आचरण के मानकों के अनुरूप चलना पूरी तरह से सही प्रतीत हो सकता है, पर क्या इस तरह तुम एक मनुष्य का जीवन जी रहे हो? क्या तुमने जीवन में सही मार्ग पर कदम रखा है? परंपरागत संस्कृति के ये पहलू कुछ भी नहीं बदल सकते। वे न तो लोगों की भ्रष्ट सोच बदल सकते हैं, न ही उनके भ्रष्ट स्वभाव, तो फिर लोगों का भ्रष्ट सार बदलना तो दूर की बात है। उनका कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि इनकी शिक्षाओं, अनुकूलन और प्रभाव से मनुष्य की मानवता विकृत और पथभ्रष्ट हो सकती है। लोग स्पष्ट देख पाते हैं कि जिस व्यक्ति ने उन पर दया दिखाई थी वह अच्छा इंसान नहीं है, मगर फिर भी वे अपनी मान्यताओं के खिलाफ जाकर उसका ऋण चुकाते हैं, सिर्फ इसलिए कि अतीत में उसने उन पर कोई एहसान किया था। अपनी मान्यताओं के बावजूद लोग दूसरों की दयालुता का बदला क्यों चुकाते हैं? वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि परंपरागत संस्कृति का यह विचार कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाना चाहिए, उनके दिलों में जड़ें जमा चुका है। वे डरते हैं कि अपनी मान्यताओं के खिलाफ जाकर अगर उन्होंने उनकी मदद करने वालों के एहसान का बदला नहीं चुकाया, तो सभी उनका तिरस्कार करेंगे, और उन्हें ऐसे एहसान फरामोश के रूप में देखा जाएगा जो दयालुता का बदला चुकाने में असफल रहे, और उन्हें नीच, घिनौने चरित्र वाले, और ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाएगा जिसके पास कोई अंतरात्मा या मानवता नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे इन बातों से डरते हैं और सोचते हैं कि भविष्य में कोई उनकी मदद नहीं करेगा, उनके पास दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने से जुड़ी परंपरागत संस्कृति के विचार की शिक्षा और बेड़ियों में जकड़कर जीने के अलावा कोई चारा नहीं है। इसी वजह से सभी लोग प्रतिकूल और कष्टपूर्ण जीवन जीते हैं, जिसमें वे अपनी मान्यताओं के खिलाफ जाकर काम करते हैं और अपनी ही मुश्किलों के बारे में बोल नहीं पाते। क्या इसके लिए इतनी सारी मुश्किलें उठाई जानी चाहिए? क्या दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने के इस विचार ने लोगों को कष्ट में नहीं डाला है?

“दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” इस कहावत के बारे में मैंने अभी-अभी संगति करते हुए कहा कि वास्तव में “दयालुता” क्या है, परमेश्वर मनुष्य की दयालुता की परिभाषा को कैसे देखता है, मनुष्य को इस दयालुता के साथ कैसे पेश आना चाहिए, जिन्होंने तुम पर दया दिखाई है या तुम्हारी जान बचाई है उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, सही परिप्रेक्ष्य और मार्ग वास्तव में क्या हैं और तुम्हारे जीवन में उनका क्या स्थान होना चाहिए, लोगों को अपने दायित्व कैसे पूरे करने चाहिए, और कुछ विशेष परिस्थितियों से कैसे निपटना चाहिए और उन्हें किस परिप्रेक्ष्य से देखा जाना चाहिए। ये अपेक्षाकृत पेचीदा मामले हैं जिन्हें केवल कुछ संक्षिप्त टिप्पणियों से स्पष्ट नहीं किया जा सकता, मगर मैंने तुम लोगों को मुख्य समस्याओं, इस विषय से जुड़ी समस्याओं के सार वगैरह के बारे में बता दिया है। आइंदा ऐसी समस्या का सामना करने पर तुम लोगों को कैसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और अभ्यास का कौन-सा मार्ग चुनना चाहिए, इस बारे में क्या यह नहीं लगता कि तुम्हें कमोबेश सब स्पष्ट है? कुछ लोग कहते हैं, “सैद्धांतिक तौर पर तो मुझे सब स्पष्ट है, पर मनुष्य देह और रक्त से बना है। इस संसार में रहते हुए हम इन नैतिक मानदंडों से प्रभावित और जनमत से प्रेरित जरूर होंगे। बहुत से लोग इसी तरह से जीते हैं, दयालुता दिखाने और दूसरों की दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने के कार्यों को महत्व देते हैं। अगर मैं इस तरह से नहीं जीता, तो यकीनन दूसरे लोग मेरा अपमान और तिरस्कार करेंगे। मुझे डर है कि लोग मुझे अमानवीय घोषित कर देंगे, जो कि एक अछूत की तरह जीता है, और मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता।” इसमें दिक्कत क्या है? लोग इससे बेबस क्यों होते हैं? क्या इस समस्या को हल करना आसान है? बिल्कुल है, और मैं तुम्हें बताऊँगा कि ऐसा कैसे होगा। अगर तुम्हें लगता है कि जब तुम पारंपरिक संस्कृति के दृष्टिकोण यानी दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए के अनुसार नहीं जियोगे, तो तुम एक सामाजिक अछूत की तरह जियोगे; अगर तुम्हें लगता है कि तुम अब एक पारंपरिक चीनी व्यक्ति के समान नहीं दिखते, और पारंपरिक संस्कृति से भटककर तुम एक इंसान की तरह नहीं जी रहे और तुममें उन गुणों का अभाव है जो तुम्हें इंसान बनाते हैं; अगर तुम्हें चिंता है कि तुम चीनी समाज के उपयुक्त नहीं होगे, और दूसरे चीनी लोग तुम्हारा तिरस्कार करेंगे और तुम्हें सड़े हुए सेब की तरह देखेंगे; तो सामाजिक रुझानों के साथ चलो—कोई तुम पर दबाव नहीं डालेगा और न ही तुम्हारी निंदा करेगा। हालाँकि, अगर तुम्हें लगता है कि पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीने और हमेशा दूसरों की दयालुता के कृत्यों को महत्व देने से पिछले कुछ सालों में तुम्हें कोई लाभ नहीं हुआ है, यह जीवन जीने का थकाऊ तरीका रहा है, और अगर तुम इस जीवनशैली को त्यागकर लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखने और आचरण करने और मेरे वचनों के अनुसार सब कुछ करने के लिए प्रतिबद्ध हो, तो बेशक, यह और भी बेहतर होगा। भले ही तुम लोग इन चीजों को अब सैद्धांतिक तौर पर समझते हो और तुम्हें हालात की अच्छी समझ है, आगे जाकर तुम वास्तव में लोगों और चीजों को कैसे देखोगे, कैसे जीवन जियोगे, कैसे आचरण करोगे, यह सब तुम लोगों का अपना मामला है। तुम्हें किस हद तक मेरी बात माननी है, किस हद तक तुम इन सारी बातों को अभ्यास में ला सकते हो, और इसे कितनी दूर तक लेकर जाओगे, यह सब तुम्हारा फैसला है और तुम पर ही निर्भर करता है। मैं तुम पर दबाव नहीं डाल रहा। मैं तो बस तुम्हें रास्ता दिखा रहा हूँ। लेकिन, एक बात पक्की है : मैं तुम्हें सच-सच बता दूँ कि अगर तुम पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीते हो, तो तुम बेहद अमानवीय और गरिमाहीन जीवन जियोगे, और तुम्हें एहसास होगा कि तुम्हारी अंतरात्मा की भावना अधिक से अधिक असंवेदनशील हो जाएगी। धीरे-धीरे, तुम एक दयनीय जीवन जीने लगोगे, जहाँ तुम न तो इंसान जैसे दिखोगे, न ही भूत जैसे। लेकिन, अगर तुम मेरे वचनों और मेरे बताए सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हो, तो मैं गारंटी देता हूँ कि तुम और अधिक मानवता, अंतरात्मा, विवेक और गरिमा के साथ जियोगे—यह पक्का है। बाद में जब ऐसी परिस्थितियों से तुम्हारा सामना होगा, तो तुम स्वतंत्र और मुक्त होकर जी पाओगे और शांति और खुशी महसूस करोगे। तुम्हारे दिल का अंधकार और बोझ कम हो जाएगा, तुम आत्मविश्वास महसूस करोगे और दृढ़ता से खड़े रहने में सक्षम होगे। अब तुम लौकिक संसार के तौर-तरीकों से त्रस्त, गुमराह या प्रभावित नहीं होगे और गरिमा के साथ जीवन जियोगे। हर दिन खुद को जमीन से जुड़ा हुआ महसूस करोगे और हर एक मामले से सबसे सटीक तरीके से निपटोगे, अनेक भटकावों और भयंकर कष्टों से बच पाओगे, जिनसे तुम्हें नहीं गुजरना होगा। तुम ऐसा कुछ भी नहीं करोगे जो तुम्हें नहीं करना चाहिए, और न ही ऐसी कोई कीमत चुकाओगे जो तुम्हें नहीं चुकानी चाहिए। अब तुम दूसरों की खातिर नहीं जियोगे। अब तुम लोगों के परिप्रेक्ष्य और राय से प्रभावित नहीं होगे। अब तुम समाज की आलोचनाओं और निंदा से बेबस नहीं होगे। क्या यह गरिमापूर्ण जीवन नहीं है? क्या यह स्वतंत्र और मुक्त जीवन नहीं है? इसी समय तुम्हें एहसास होगा कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना ही जीवन का एकमात्र सही मार्ग है, और केवल इस तरह से जीने से ही कोई व्यक्ति मनुष्य की तरह जीकर खुश रह सकता है। पारंपरिक संस्कृति के कोहरे में रहते हुए तुम्हें मार्ग साफ दिखाई नहीं देता और तुम गलती से यह मान बैठते हो कि तुम मनुष्य के संसार में स्थित किसी आदर्शवादी सपनों की नगरी की ओर जा रहे हो। लेकिन आखिर में तुम भटक जाते हो और शैतान तुम्हारा मजाक उड़ाते हुए तुम्हें यंत्रणा देता है। आज, अब जब तुमने परमेश्वर की वाणी सुन ली है, सत्य खोज लिया है और मनुष्य के संसार में रोशनी को आते देखा है, तो तुम कोहरे से निकलकर उस मार्ग और दिशा को स्पष्ट देख रहे हो जो तुम्हें अपने जीवन में अपनाना चाहिए। तुम तेजी से आगे बढ़कर परमेश्वर के समक्ष वापस आते हो। क्या यह परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष नहीं है? तो, क्या अब तुम लोगों को उस कोहरे से निकलकर ऊपर साफ आसमान दिख रहा है? शायद तुम लोग पहले ही एक किरण देख चुके हो और अब रोशनी की ओर बढ़ रहे हो—यह सबसे बड़ा आशीष है। अगर तुम परमेश्वर की वाणी सुन सकते हो, सत्य को स्वीकार और समझ सकते हो, कोहरे को दूर कर सकते हो, पारंपरिक संस्कृति की ये सभी गलत चीजें त्याग कर सभी बाधाएँ दूर कर सकते हो, तो तुम उद्धार पाने के मार्ग पर कदम रख सकते हो। नैतिक आचरण की कहावत “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” के संबंध में मुझे बस इतना ही कहना है। आगे चलकर तुम लोग इन वचनों के बारे में मिलकर और संगति कर सकते हो, और फिर तुम्हें पूरी समझ आ जाएगी। सिर्फ एक बार सभा में संगति करने से कोई व्यक्ति इन मामलों में तत्काल प्रवेश नहीं कर सकता है। भले ही मैंने अब नैतिक आचरण की इस कहावत पर अपनी संगति पूरी कर ली है, और तुम लोग इसे सैद्धांतिक तौर पर समझते हो, पर वास्तविक जीवन में इन पुरानी, पारंपरिक धारणाओं को त्यागना आसान नहीं है। हो सकता है कि तुम लोग अभी भी इन पुराने विचारों पर अड़े रहकर कुछ समय इनसे जूझते रहो। कम से कम, पारंपरिक संस्कृति के इन पहलुओं को पूरी तरह से त्यागने और परमेश्वर के वचनों के सत्य को पूरी तरह से स्वीकारने में तुम्हें थोड़ा समय जरूर लगेगा। तुम्हें वास्तविक जीवन में और समाज और मानवजाति का सामना करते हुए धीरे-धीरे इनका अनुभव करना होगा, इन्हें जीना होगा और इनकी पुष्टि करनी होगी। इन अनुभवों से तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों को जानोगे और सत्य समझोगे। ऐसा करके तुम्हें लाभ होने लगेगा, फायदे और इनाम प्राप्त होंगे, और तुम सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में अपने गलत दृष्टिकोणों और विचारों को सुधार लोगे। यही सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया और मार्ग है।

अब मैं “दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो” की कहावत पर संगति करूँगा। यह कहावत चीनी पारंपरिक संस्कृति के एक विशेष सद्गुण के बारे में है जिसे लोग उत्कृष्ट और महान मानते हैं। बेशक, यह मत थोड़ा अतिशयोक्तिपूर्ण और अवास्तविक है, फिर भी इसे दुनियाभर में एक सद्गुण माना जाता है। जब भी कोई इस सद्गुण के बारे में सुनता है, तो उसके दिमाग में कुछ दृश्य उभर आते हैं, जैसे : पंगत में भोजन करते समय एक-दूसरे की थाली में खाना परोसना और सबसे अच्छा खाना दूसरों के लिए छोड़ना; किराने की दुकान पर कतार में अपने आगे किसी और को खड़े होने देना; रेलवे स्टेशन या हवाई अड्डे पर पहले दूसरों को टिकट खरीदने देना; सड़क पर चलते या गाड़ी चलाते समय दूसरों को रास्ता देकर पहले जाने देना...। ये सभी “एक के लिए सभी, और सभी के लिए एक” के कुछ “सुंदर” उदाहरण हैं। इनमें से हरेक दृश्य यह बताता है कि समाज और संसार कितना प्यारा, सौहार्दपूर्ण, खुश और शांतिपूर्ण है। खुशी का स्तर इतना ऊँचा है कि इसे बयाँ नहीं किया जा सकता। अगर उनसे कोई पूछे, “तुम इतने खुश क्यों हो?” तो वे जवाब देते हैं, “चीनी पारंपरिक संस्कृति दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की वकालत करती है। हम सभी इस विचार पर अमल करते हैं और हमारे लिए यह बिल्कुल भी कठिन नहीं है। हम काफी धन्य महसूस करते हैं।” क्या ऐसे दृश्य तुम लोगों के दिमाग में भी आए हैं? (हाँ।) ऐसे दृश्य कहाँ देखे जा सकते हैं? ये वसंत उत्सव के चित्रों में देखे जा सकते हैं जो 1990 के दशक से पहले चीनी नववर्ष के दौरान दीवारों पर लगाए जाते थे। ये जनमानस में और यहाँ तक कि तथाकथित मृगतृष्णाओं में या हवाई किलों में भी पाए जा सकते हैं। संक्षेप में कहें तो ऐसे दृश्य असली जीवन में मौजूद नहीं हैं। बेशक, “दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो,” नैतिक मानदंडों के संबंध में नैतिकतावादियों की एक अपेक्षा भी है। यह मनुष्य के नैतिक आचरण के संबंध में एक कहावत है जो यह अपेक्षा करती है कि लोगों को कोई काम करने से पहले अपने बजाय दूसरों के बारे में सोचना चाहिए। उन्हें पहले दूसरों के हितों के बारे में सोचना चाहिए, न कि अपने हितों के बारे में। उन्हें दूसरों के बारे में सोचना और खुद की इच्छाओं का त्याग करना सीखना चाहिए—यानी, उन्हें अपने हितों, अपेक्षाओं, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को त्याग देना चाहिए, और यहाँ तक कि अपना सब कुछ त्याग कर पहले दूसरों के हितों के बारे में सोचना चाहिए। भले ही मनुष्य इस अपेक्षा को पूरा कर सकता हो या नहीं, सबसे पहले यह पूछा जाना चाहिए : इस दृष्टिकोण का प्रस्ताव रखने वाले कैसे लोग हैं? क्या वे मनुष्यता को समझते हैं? क्या वे इस प्राणी अर्थात मनुष्य की सहज प्रवृत्तियों और मनुष्यता के सार को समझते हैं? उन्हें इसकी जरा-सी भी समझ नहीं है। जिन लोगों ने इस कहावत को आगे बढ़ाया है, वे बेहद मूर्ख रहे होंगे जो उन्होंने दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की अवास्तविक अपेक्षा मनुष्य जैसे स्वार्थी प्राणी पर थोपी, जिसके पास न केवल विचार और स्वतंत्र इच्छा है, बल्कि वह महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से भी भरा है। चाहे लोग इस अपेक्षा को पूरा कर पाएँ या नहीं, प्राणियों के रूप में लोगों के सार और सहज प्रवृत्तियों को देखते हुए, जिन नैतिकतावादियों ने इस अपेक्षा को सामने रखा है वे वास्तव में अमानवीय थे। मैंने उन्हें अमानवीय क्यों कहा? उदाहरण के लिए, जब कोई भूखा होता है तो उसे तुरंत अपनी भूख महसूस होगी और वह नहीं सोचेगा कि क्या कोई और भी भूखा है। वह कहेगा, “मुझे भूख लगी है, मैं कुछ खाना चाहता हूँ।” वह सबसे पहले “मैं” के बारे में सोचता है। यह सामान्य, स्वाभाविक और उचित है। कोई भी भूखा व्यक्ति, अपनी सच्ची भावनाओं के विरुद्ध जाकर किसी और से यह नहीं पूछेगा, “तुम क्या खाना चाहते हो?” जब कोई खुद भूखा हो तो क्या उसका दूसरे व्यक्ति से यह पूछना कि वह क्या खाना चाहता है कोई सामान्य बात है? (नहीं।) रात में जब कोई थका-हारा होगा, तो वह यही कहेगा, “मैं थक गया हूँ। सोना चाहता हूँ।” कोई यह नहीं कहेगा, “मैं थक गया हूँ, तो क्या तुम मेरी खातिर जाकर बिस्तर पर सो सकते हो? जब तुम सोते हो, तो मुझे कम थकान महसूस होती है।” अगर वह इस तरह से खुद को अभिव्यक्त करे तो क्या यह असामान्य नहीं होगा? (बिल्कुल होगा।) लोग जो कुछ भी सहज रूप से सोच और कर पाते हैं, वह सब अपनी खातिर होता है। अगर वे अपना ख्याल रख पा रहे हैं तो वे पहले से ही काफी अच्छा कर रहे हैं—यह मानवीय प्रवृत्ति है। अगर तुम स्वतंत्र रूप से रह सकते हो, उस स्तर तक पहुँच गए हो जहाँ तुम अकेले रह सकते हो और खुद मसले निपट सकते हो, अपना ख्याल रख सकते हो, बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास जाना जानते हो, बीमारी से उबरना जानते हो, और जीवन में आने वाली सभी समस्याओं और कठिनाइयों को हल करना जानते हो, तो तुम पहले से ही काफी अच्छा कर रहे हो। लेकिन दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने के लिए तुम्हें दूसरों के हितों के पक्ष में इन जरूरतों को त्यागना होगा; अपने लिए कुछ न करना, बल्कि पहले दूसरों के हितों के बारे में सोचना और सब कुछ दूसरों की खातिर करना होगा—क्या यह अमानवीय नहीं है? मेरे हिसाब से यह लोगों को जीने के अधिकार से पूरी तरह वंचित करता है। जीवन की बुनियादी जरूरतों का ध्यान तुम्हें खुद रखना चाहिए, तो फिर इन चीजों को करने और तुम्हारे लिए इनका ख्याल रखने के लिए दूसरे लोग अपने हितों का त्याग क्यों करें? ऐसा करने से तुम कैसे व्यक्ति कहलाओगे? क्या तुम मानसिक तौर पर बीमार, विकलांग या कोई पालतू जानवर हो? ये सभी चीजें लोगों को सहज रूप से करनी चाहिए—दूसरे लोग तुम्हारी खातिर यह सब करने के लिए अपने सारे काम क्यों त्यागें और अपनी ऊर्जा क्यों खपाएँ? क्या यह उचित है? क्या दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की यह अपेक्षा अतिशयोक्ति नहीं है? (बिल्कुल है।) यह बात सुनने में कैसी लगती है, और कहाँ से आई है? क्या यह उन तथाकथित नैतिकतावादियों के दिमाग की उपज नहीं है जिनमें मनुष्य की सहज प्रवृत्ति, जरूरतों और सार की थोड़ी-सी भी समझ नहीं है, और क्या यह नैतिक श्रेष्ठता के बारे में शेखी बघारने की उनकी ललक नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या यह अमानवीय नहीं है? (हाँ, है।) अगर सभी लोग दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दें, तो फिर वे अपने मामलों से कैसे निपटेंगे? क्या तुम वाकई बाकी सबको अक्षम, अपना जीवन संभालने में असमर्थ, बेवकूफ, मानसिक तौर पर कमजोर या मंदबुद्धि समझते हो? अगर ऐसा नहीं है, तो फिर तुम दूसरों की खातिर अपने हितों की बलि क्यों चढ़ाओगे, और यह अपेक्षा क्यों करोगे कि दूसरे भी तुम्हारी खातिर लिए अपने हितों को त्याग दें? यहाँ तक कि कुछ विकलांग लोग भी नहीं चाहते कि दूसरे उनकी मदद करें, बल्कि वे अपनी जीविका खुद कमाना चाहते हैं और अपना जीवन खुद चलाना चाहते हैं—उन्हें नहीं चाहिए कि दूसरे उनके लिए ज्यादा कीमत चुकाएँ या कोई उनकी अतिरिक्त मदद करे। वे बस इतना चाहते हैं कि दूसरे उनके साथ उचित व्यवहार करें; यह उनके लिए अपनी गरिमा बनाए रखने का एक तरीका है। उन्हें दूसरों से सहानुभूति और दया की नहीं, बल्कि सम्मान की जरूरत है। यह उन लोगों के लिए और भी अधिक सही है जो अपना खुद ख्याल रख सकते हैं, है न? इसलिए, दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की यह अपेक्षा मेरे विचार में उचित नहीं है। यह मनुष्य की सहज प्रवृत्तियों और अंतरात्मा की समझ का निरादर करती है और कम-से-कम अमानवीय तो है ही। भले ही उद्देश्य सामाजिक मानदंडों, सार्वजनिक व्यवस्था और सामान्य पारस्परिक संबंधों को बनाए रखना हो, इस अनुचित और अमानवीय तरीके से यह अपेक्षा रखने की कोई जरूरत ही नहीं है कि हर कोई अपनी इच्छा के विरुद्ध जाकर दूसरों की खातिर जिए। अगर लोग अपने बजाय दूसरों की खातिर जिएँ, तो क्या यह थोड़ा अजीब और असामान्य नहीं होगा?

दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की अपेक्षा किन परिस्थितियों में लागू होती है? ऐसी एक परिस्थिति वह होती है जब माँ-बाप अपने बच्चों की खातिर काम करते हैं। ऐसा सिर्फ कुछ समय के लिए किया जा सकता है। बच्चों के वयस्क होने से पहले माँ-बाप को उनकी देखभाल करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने और यह पक्का करने के लिए कि वे स्वस्थ, सुखी और आनंदमय जीवन जिएँ, माँ-बाप अपनी युवावस्था को त्याग देते हैं, अपनी ऊर्जा खपाते हैं, शारीरिक सुखों को एक तरफ रखकर अपने करियर और शौक को भी त्याग देते हैं। वे यह सब अपने बच्चों की खातिर करते हैं। यह एक जिम्मेदारी है। माँ-बाप को यह जिम्मेदारी क्यों निभानी चाहिए? क्योंकि हर माँ-बाप पर अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने का दायित्व है। यह उनकी ऐसी जिम्मेदारी है जिसे वे टाल नहीं सकते। हालाँकि, लोगों का समाज और मानवजाति के प्रति ऐसा कोई दायित्व नहीं है। अगर तुम अपना ख्याल रखते हो, परेशानी खड़ी नहीं करते और दूसरों के लिए दिक्कत पैदा नहीं करते, तो तुम पहले से ही काफी अच्छा कर रहे हो। ऐसी एक और परिस्थिति वह होती है जहाँ शारीरिक रूप से कमजोर लोग अपनी देखभाल खुद नहीं कर पाते और अपने जीवन-यापन में मदद करने और जीवित रहने के लिए उन्हें माँ-बाप, भाई-बहनों और यहाँ तक कि समाज कल्याण संगठनों की जरूरत होती है। एक और विशेष परिस्थिति तब होती है जब लोग या क्षेत्र प्राकृतिक आपदा से प्रभावित होते हैं, और वे आपातकालीन राहत के बिना जीवित नहीं रह सकते। यह एक ऐसी परिस्थिति है जहाँ उन्हें दूसरों की मदद की जरूरत पड़ती है। क्या इनके अलावा भी कोई अन्य परिस्थितियाँ हैं, जिनमें लोगों को दूसरों की खातिर अपने हित त्याग देने चाहिए? शायद नहीं। वास्तविक जीवन में, समाज बेहद प्रतिस्पर्धी है, और अगर कोई अपना काम अच्छी तरह से करने में अपनी सारी मानसिक ऊर्जा नहीं लगाता, तो आगे बढ़ना, जीवित रहना मुश्किल है। मानवजाति दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने में असमर्थ है; अगर लोग अपना जीवित रहना सुनिश्चित कर सकते हैं और दूसरों के हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते, तो यह पहले से ही काफी अच्छी बात है। वास्तव में, मानवजाति का असली चेहरा उन संघर्षों और प्रतिशोधपूर्ण खून-खराबे में अधिक सटीक रूप से प्रतिबिंबित होता है जहाँ वे सामाजिक संदर्भ और वास्तविक जीवन की परिस्थितियों से जूझते हैं। खेल आयोजनों में तुम देखते हो कि जब खिलाड़ी अपनी क्षमता दिखाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाकर आखिर में जीत जाते हैं, तो उनमें से कोई भी यह नहीं कहता, “मुझे चैंपियन का खिताब नहीं चाहिए। मेरे हिसाब से तुम उसके ज्यादा काबिल हो।” कोई भी ऐसा कभी नहीं करेगा। प्रथम स्थान पर आने, सर्वश्रेष्ठ बनने और शीर्ष पर पहुँचने के लिए प्रतिस्पर्धा करना लोगों की सहज प्रवृत्ति है। वास्तव में लोग दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने में बिल्कुल असमर्थ हैं। दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की जरूरत या इच्छा मनुष्य की सहज प्रवृत्ति नहीं है। मनुष्य के सार और प्रकृति को देखें, तो वह केवल अपनी खातिर कार्य कर सकता है और करेगा। अगर कोई व्यक्ति अपने हितों के लिए कार्य करता है और ऐसा करते हुए सही मार्ग अपनाने में सक्षम होता है, तो यह एक अच्छी बात है, और इस व्यक्ति को मनुष्यों के बीच एक अच्छा सृजित प्राणी माना जा सकता है। अगर, अपने हित में कार्य करते हुए, तुम सही मार्ग अपनाने में सक्षम होते हो, सत्य और सकारात्मक चीजों का अनुसरण कर सकते हो, और अपने आस-पास के लोगों पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हो, तो तुम पहले से ही काफी अच्छा कर रहे हो। दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने के विचार का प्रचार-प्रसार करना शेखी बघारने से ज्यादा कुछ नहीं है। यह न तो मनुष्य की जरूरतों के अनुरूप है, न ही मानवजाति की वर्तमान स्थिति से मेल खाता है। इस तथ्य के बावजूद कि दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की यह अपेक्षा वास्तविकता के अनुरूप न होकर अमानवीय है, इसका अभी भी लोगों के दिलों में एक खास स्थान है, और लोगों के विचार अभी भी इससे अलग-अलग स्तर तक प्रभावित और बँधे हुए हैं। जब लोग सिर्फ अपने लिए कार्य करते हैं, दूसरों के लिए कुछ नहीं करते, दूसरों की मदद नहीं करते, या दूसरों के बारे में नहीं सोचते या उनके लिए विचार नहीं करते, तो उन्हें अक्सर दिल से बुरा महसूस होता है। उन्हें लगता है कि उन पर कोई अदृश्य दबाव है और कभी-कभी तो दूसरों की आलोचनात्मक नजरें उन्हें घूर रही होती हैं। ऐसी भावनाएँ उनके दिलों की गहराई में निहित पारंपरिक नैतिक विचारधारा के प्रभाव के कारण उत्पन्न होती हैं। क्या तुम लोग भी पारंपरिक संस्कृति से अलग-अलग स्तर तक प्रभावित हुए हो, जिसमें कहा जाता है कि तुम्हें दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने होंगे? (बिल्कुल।) बहुत से लोग अभी भी पारंपरिक संस्कृति की अपेक्षाओं को मानते हैं, और अगर कोई इन अपेक्षाओं को पूरा करने में सक्षम है, तो लोग उनके बारे में अच्छा सोचेंगे और कोई भी उनकी निंदा या विरोध नहीं करेगा, फिर चाहे वे इनमें से कितनी भी अपेक्षाएँ पूरी करते हों। अगर कोई ने किसी दूसरे व्यक्ति को सड़क पर गिरते हुए देखा और जाकर उसकी मदद नहीं की, तो सभी लोग उस व्यक्ति से नाराज होंगे, कहेंगे कि वह व्यक्ति बहुत अमानवीय है। इससे पता चलता है कि मनुष्यों पर लागू होने वाले पारंपरिक संस्कृति के आवश्यक मानकों का लोगों के दिलों में एक खास स्थान है। तो, अगर किसी व्यक्ति को पारंपरिक संस्कृति की इन चीजों के आधार पर आँका जाए, तो क्या यह सही होगा? जो लोग सत्य नहीं समझते वे कभी भी इस समस्या को पूरी तरह से नहीं समझ पाएँगे। यह कहना सही होगा कि पारंपरिक संस्कृति हजारों साल से मानव जीवन का हिस्सा रही है, पर वास्तव में इसका क्या प्रभाव पड़ा है? क्या इसने मानवजाति के आध्यात्मिक नजरिए को बदला है? क्या इससे समाज में सभ्यता और प्रगति आई? क्या इससे समाज में लोक सुरक्षा की समस्याएँ हल हुई हैं? क्या यह मानवजाति को शिक्षित करने में सफल रही है? इसने इनमें से किसी का भी समाधान नहीं किया है। पारंपरिक संस्कृति बिल्कुल भी प्रभावी नहीं रही है, तो हम यह कह सकते हैं कि मनुष्यों पर लागू होने वाले इसके आवश्यक मानकों को कसौटी नहीं माना जा सकता है—यह सिर्फ लोगों के हाथ-पैर बाँधने, उनके विचारों को बाधित करने और उनके व्यवहार को नियंत्रित करने वाली बेड़ियाँ हैं। ऐसा इसलिए है ताकि मनुष्य चाहे जहाँ कहीं भी जाए, वह अच्छा व्यवहार करे, नियमों का पालन करे, उसमें मानवता की झलक दिखे, वह बूढ़ों का सम्मान करे और छोटों का खयाल रखे और वरिष्ठता का सम्मान करना जाने। ऐसा इसलिए है ताकि कोई व्यक्ति भोला और अशिष्ट दिखकर दूसरों को परेशान न करे। बहुत हुआ तो ये सभी मानक लोगों को बस थोड़ा अधिक आकर्षक और परिष्कृत दिखने में मदद करते हैं—वास्तव में, इसका लोगों के सार से कोई लेना-देना नहीं है और यह सिर्फ दूसरों से पल भर की स्वीकृति पाने और अपने घमंड को संतुष्ट करने के लिए अच्छा है। जब दूसरों के लिए कार्य करने के कारण लोग तुम्हें अच्छा इंसान कहते हैं तो तुम फूले नहीं समाते। जब तुम बस में बच्चों और बुजुर्गों के लिए अपनी सीट छोड़कर उनका ख्याल रखना दिखाते हो और दूसरे लोग तुम्हें अच्छा इंसान और देश का भविष्य कहते हैं, तो तुम्हें भी बड़ी खुशी होती है। तुम तब भी खुश होते हो जब टिकट खरीदने के लिए कतार में खड़े होकर भी तुम खुद से पहले अपने पीछे वाले को टिकट खरीदने देते हो और दूसरों का ध्यान रखने के लिए लोग तुम्हारी प्रशंसा करते हैं। कुछ नियमों का पालन करने और कुछ अच्छे काम करने के बाद तुम्हें लगता है कि तुम्हारा चरित्र महान है। अगर तुम यह मानते हो कि कुछ एक बार के अच्छे कार्यों के बाद तुम्हारा दर्जा दूसरों की तुलना में ऊँचा हो गया है—तो क्या यह बेवकूफी नहीं है? इस बेवकूफी के कारण तुम अपने मार्ग और विवेक से भटक सकते हो। दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की नैतिक आचरण की इस कहावत के बारे में संगति करने में ज्यादा समय बर्बाद करना उचित नहीं है। इससे जुड़ी समस्याओं को समझना काफी आसान है, क्योंकि यह लोगों की मानवता, चरित्र और गरिमा को काफी बड़े स्तर तक विकृत कर देती है। इससे वे अधिक निष्ठाहीन, अव्यावहारिक, आत्म-संतुष्ट हो जाते हैं और यह जानने में सक्षम नहीं होते हैं कि उन्हें कैसे रहना चाहिए, वास्तविक जीवन में लोगों, घटनाओं और चीजों को कैसे समझना चाहिए, और अपने सामने आने वाली विभिन्न समस्याओं से कैसे निपटना चाहिए। लोग सिर्फ दूसरों की थोड़ी-बहुत मदद करने और उनकी चिंताओं और समस्याओं से राहत दिलाने में सक्षम हैं, पर जीवन में उन्हें किस मार्ग पर चलना चाहिए, इस बारे में कुछ नहीं बता पाते हैं, इसलिए शैतान उन्हें अपने इशारों पर नचाता है और वे उसके उपहास के पात्र बन जाते हैं—क्या यह अपमान का प्रतीक नहीं है? जो भी हो, दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने का यह तथाकथित नैतिक मानक पाखंडपूर्ण और विकृत कहावत है। बेशक, इस संबंध में, परमेश्वर मनुष्यों से बस यही अपेक्षा करता है कि वे उन दायित्वों, जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को पूरा करें जो उन्हें सौंपे गए हैं, और यह कि वे लोगों को चोट, नुकसान या हानि न पहुँचाएँ, और वे इस तरह से व्यवहार करें जिससे दूसरों को भी फायदा हो—इतना ही काफी है। परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि लोग कोई अतिरिक्त जिम्मेदारियाँ या दायित्व उठाएँ। अगर तुम अपने सभी कार्य, कर्तव्यों, दायित्वों, और जिम्मेदारियों को पूरा कर सकते हो, तो तुम पहले से ही अच्छा कर रहे हो—क्या यह सीधी-सी बात नहीं है? (बिल्कुल।) इसे आसानी से पूरा किया जा सकता है। क्योंकि यह बहुत सरल है और हर कोई इसे समझता है, तो इसके बारे में अधिक विस्तार से संगति करने की कोई जरूरत नहीं है।

अब मैं नैतिक आचरण के इस कथन पर चर्चा करूँगा कि “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए।” इस कथन और नैतिक आचरण के लिए अन्य आवश्यक मानकों के बीच इस मायने में अंतर है कि यह मानक खास तौर पर महिलाओं के लिए है। “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” यह महिलाओं के संबंध में तथाकथित नैतिकतावादियों द्वारा प्रस्तावित एक अमानवीय और अव्यावहारिक अपेक्षा है। मैंने ऐसा क्यों कहा? क्योंकि इस मानक की अपेक्षा यह है कि सभी महिलाओं को, चाहे वे बेटियाँ हों या पत्नियाँ, सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए। एक अच्छी और सम्मानित महिला कहलाने के लिए उन्हें इस प्रकार के नैतिक आचरण का अभ्यास करना और यह नैतिक चरित्र अपनाना होगा। पुरुषों के लिए इसका मतलब यह है कि महिलाओं को तो सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए, जबकि पुरुषों को नहीं—पुरुषों को सच्चरित्र या दयालु होने की कोई जरूरत नहीं है, और न ही उन्हें सौम्य या नैतिकतायुक्त होने की जरूरत है। फिर पुरुषों को क्या करना चाहिए? अगर उनकी पत्नियाँ सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त नहीं हो पाती हैं, तो वे उन्हें तलाक दे सकते हैं या त्याग सकते हैं। अगर कोई पुरुष अपनी पत्नी को त्याग नहीं सकता, तो उसे क्या करना चाहिए? उसे अपनी पत्नी को एक सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त महिला बनाना चाहिए—यह उसकी जिम्मेदारी और दायित्व है। पुरुषों की सामाजिक जिम्मेदारी महिलाओं पर सख्ती से नजर रखना, उनका मार्गदर्शन और उनकी निगरानी करना है। उन्हें पूरी तरह से श्रेष्ठ लोगों की भूमिका निभाते हुए सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त महिलाओं का दमन करना चाहिए, उनका स्वामी और घर का मुखिया बनकर यह पक्का करना चाहिए कि महिलाएँ वही करें जो उन्हें करना चाहिए और इस तरह अपने उचित दायित्वों को पूरा करना चाहिए। वहीं, पुरुषों को ऐसे नैतिक आचरण का अभ्यास करने की कोई जरूरत नहीं है—उन पर यह नियम लागू नहीं होता। क्योंकि यह नियम पुरुषों पर लागू नहीं होता, तो नैतिक आचरण के बारे में यह दावा सिर्फ एक मानक है जिससे पुरुष महिलाओं को आँक सकते हैं। यानी, जब कोई पुरुष अच्छे नैतिक आचरण वाली महिला से शादी करना चाहता है तो उसे उस महिला को कैसे आँकना चाहिए? वह बस यह निर्धारित कर सकता है कि महिला सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त है या नहीं। अगर वह सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त है, तो वह उससे शादी कर सकता है—वरना उसे उससे शादी नहीं करनी चाहिए। अगर वह ऐसी महिला से शादी करता है, तो लोग उसे नीची नजर से देखेंगे और यह भी कहेंगे कि वह एक अच्छी इंसान नहीं है। तो, नैतिकतावादियों के अनुसार महिलाओं को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त कहलाने के लिए कौन-सी विशेष अपेक्षाएँ पूरी करनी होंगी? क्या इन विशेषणों का कोई विशेष अर्थ होता है? “सच्चरित्र,” “दयालु,” “सौम्य,” और “नैतिकतायुक्त,” इन चारों शब्दों में से प्रत्येक के पीछे एक गहरा अर्थ है, और इनमें से एक भी गुण पर खरा उतरना किसी के लिए आसान नहीं है। कोई भी पुरुष या बुद्धिजीवी इन गुणों पर खरा नहीं उतर सकता, फिर भी वे सामान्य महिलाओं से ऐसी अपेक्षा रखते हैं—यह महिलाओं के लिए बेहद अनुचित है। तो महिलाओं को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त कहलाने के लिए कैसे बुनियादी व्यवहार और किस तरह के नैतिक आचरण दिखाने चाहिए? सबसे पहले, महिलाओं को अपने निवास के आंतरिक कक्षों के बाहर कभी भी कदम नहीं रखना चाहिए, और उन्हें लगभग चार इंच तक ही अपने पैर आगे करने चाहिए, जो एक छोटे बच्चे की हथेली की लंबाई से भी कम है। यह महिलाओं पर रोक लगाता है और पक्का करता है कि वे जहाँ चाहें वहाँ न जा सकें। शादी से पहले महिलाओं को अपने निवास के आंतरिक कक्षों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं दी जाती है, उन्हें अपने जनानखाने तक ही सीमित रहना पड़ता है, और वे सबके सामने अपना चेहरा तक नहीं दिखा सकती हैं। अगर वे इन नियमों का पालन कर सकती हैं, तो उनके पास एक सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त अविवाहित महिला का नैतिक चरित्र है। शादी के बाद महिला को अपने सास-ससुर के प्रति संतानोचित आज्ञाकारिता दिखानी चाहिए और अपने पति के अन्य रिश्तेदारों के साथ अपेक्षाकृत अच्छा व्यवहार करना चाहिए। ससुराली उससे चाहे जैसा व्यवहार या ज्यादती करें, उसे वफादार बैल की तरह जुतकर कठिनाई और आलोचना सहनी होगी। उसे न सिर्फ परिवार के सभी सदस्यों, बच्चों-बूढ़ों की सेवा करनी होगी, बल्कि वंश को आगे बढ़ाने के लिए बच्चे भी पैदा करने होंगे और यह सब बिना किसी शिकायत के करना होगा। चाहे उसे अपने सास-ससुर के हाथों कितना भी पिटना पड़े या उसके साथ कितना भी अन्याय किया जाए, चाहे वह कितनी भी थकी हुई हो और उसे कितनी भी मेहनत करनी पड़े, वह कभी अपने पति से इस बारे में शिकायत नहीं कर सकती। उसके सास-ससुर चाहे उसे कितना भी धमकाएँ, वह परिवार के बाहर किसी को भी इसकी जानकारी नहीं होने दे सकती और न ही अपने परिवार के बारे में कोई अफवाह फैला सकती है। उसके साथ चाहे कितना भी गलत हुआ हो, वह अपना मुँह नहीं खोल सकती और उसे चुपचाप अपमान का घूँट पीना होगा। उसे न सिर्फ कठिनाइयों और आलोचनाओं को सहना होगा, बल्कि उत्पीड़न के प्रति दब्बू बनकर समर्पण करना, अपने गुस्से को दबाना, और अपमान सहकर भी जिम्मेदारी का बोझ उठाना सीखना होगा—उसे सहनशीलता और धैर्य की कला सीखनी होगी। भोजन में चाहे जो भी बढ़िया पकवान बना हो, उसे पहले परिवार के अन्य सदस्यों को खिलाना होगा; अपनी संतानोचित आज्ञाकारिता दिखाने के लिए उसे पहले अपने सास-ससुर को और फिर अपने पति और बच्चों को खिलाना होगा। जब सभी लोग खा चुके होंगे और सारा बढ़िया खाना खत्म हो जाएगा, तब उसे बचे-खुचे खाने से अपना पेट भरना पड़ेगा। जिन अपेक्षाओं की मैंने अभी चर्चा की उनके अलावा, आज के समय में, महिलाओं से “घर के साथ ही बाहर भी चमकने” की अपेक्षा की जाती है। यह बात सुनकर मैंने सोचा, अगर महिलाओं से घर के साथ ही बाहर भी चमकने की अपेक्षा की जाती है तो पुरुष क्या कर रहे हैं? महिलाओं को पूरे परिवार के लिए खाना बनाना चाहिए, घर के सारे काम और बच्चों की देखभाल करनी चाहिए, और बाहर खेतों में जाकर मजदूरी भी करनी चाहिए—ये सभी काम करते हुए उन्हें घर में और घर के बाहर दोनों जगह अच्छा काम करना होगा। वहीं, पुरुषों को बस काम पर जाकर घर वापस आना, और मौज-मस्ती में अपना समय बर्बाद करना होता है, उन्हें घरेलू काम नहीं करने होते। अगर काम के दौरान उन्हें किसी बात पर गुस्सा आता है, तो वे इसे अपनी पत्नी और बच्चों पर उतारते हैं—क्या यह उचित है? जिन विषयों पर मैंने चर्चा की उनसे तुम लोगों ने क्या समझा? कोई भी पुरुषों के नैतिक आचरण को लेकर कोई अपेक्षा नहीं रखता, लेकिन महिलाओं से सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त चरित्र बनाए रखने के अलावा घर के साथ ही बाहर भी चमकने की अपेक्षा की जाती है। कितनी महिलाएँ ऐसी अपेक्षाओं पर खरी उतर पाती हैं? क्या महिलाओं से ऐसी अपेक्षा करना अनुचित नहीं है? अगर कोई महिला छोटी-सी भी गलती करती है, तो उसे मारा-पीटा और अपमानित किया जाता है, और यहाँ तक कि उसका पति उसे छोड़ भी सकता है। महिलाओं को यह सब सहना पड़ता है, और अगर वे वाकई यह सब और नहीं सह सकतीं, तो उनके पास सिर्फ आत्महत्या करने का विकल्प बचता है। क्या सिर्फ महिलाओं से ऐसी अमानवीय अपेक्षाएँ करना दमनकारी नहीं है, जबकि वे शारीरिक रूप से कमजोर, पुरुषों की तुलना में कम शक्तिशाली और शारीरिक रूप से कम सक्षम होती हैं? आज यहाँ जितनी भी महिलाएँ हैं, अगर वास्तविक जीवन में लोग तुम सबसे ऐसी अपेक्षाएँ करें तो क्या तुम लोगों को यह ज्यादती नहीं लगेगी? क्या पुरुष सचमुच महिलाओं पर काबू रखने के लिए बने हैं? क्या उनका उद्देश्य महिलाओं के मालिक बनना और उन्हें कठिनाई सहने के लिए मजबूर करना है? इस विकृत स्थिति को देखते हुए, क्या हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए” वाली कहावत प्रभावी रूप से समाज में दरार पैदा कर रही है? क्या यह साफ तौर पर समाज में पुरुषों का दर्जा ऊँचा उठाते हुए जानबूझकर महिलाओं का दर्जा नहीं घटा रही है? यह अपेक्षा पुरुषों और महिलाओं को दृढ़ता से यह सोचने पर मजबूर करती है कि समाज में महिलाओं का दर्जा और मूल्य पुरुषों के बराबर नहीं, बल्कि उनकी तुलना में कम है। इसलिए, महिलाओं को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना पड़ता है, दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है, समाज में उनके साथ भेदभाव होता है, उन्हें अपमान सहना पड़ता है और मानवाधिकारों से वंचित किया जाता है। इसके विपरीत, यह मान लिया गया है कि पुरुष घर के मुखिया होने चाहिए और तार्किक ढंग से महिलाओं से सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होने की माँग करते हैं। क्या यह जानबूझकर समाज में संघर्ष पैदा करना नहीं हुआ? क्या यह जानबूझकर समाज में दरार पैदा करना नहीं हुआ? क्या लंबे समय तक दुर्व्यवहार झेलने के बाद कुछ महिलाएँ विद्रोह के लिए नहीं उठ खड़ी होंगी? (बिल्कुल होंगी।) जहाँ भी अन्याय होता है, वहाँ विद्रोह जरूर होगा। क्या नैतिक आचरण की यह कहावत महिलाओं के लिए उचित और न्यायसंगत है? कम से कम, यह महिलाओं के लिए उचित और न्यायसंगत तो नहीं है—यह पुरुषों को और भी ज्यादा बेशर्मी से व्यवहार करने का लाइसेंस देती है, समाज में दरार को गहरा करती है, पुरुषों का दर्जा बढ़ाती है और महिलाओं का दर्जा गिराती है; इसके साथ ही, यह महिलाओं को उनके अस्तित्व के अधिकार से और भी अधिक वंचित करती है, और समाज में पुरुषों और महिलाओं के दर्जे में महीन ढंग से असमानता बढ़ाती है। मैं घर पर और समाज में बड़े पैमाने पर महिलाओं की भूमिका और उनके द्वारा प्रदर्शित नैतिक आचरण को केवल तीन शब्दों में समेट सकता हूँ : बलि का बकरा। नैतिक आचरण की कहावत, “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” यह अपेक्षा करती है कि महिलाएँ परिवार में बड़ों का सम्मान करें, छोटों से प्यार और उनकी देखभाल करें, खास तौर पर अपने पतियों का सम्मान और सेवा करें। उन्हें घर के अंदर और बाहर सभी पारिवारिक मामलों को संभालना होगा, और वे चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ झेलें, कभी कोई शिकायत नहीं कर सकतीं—क्या यह महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करना नहीं हुआ? (बिल्कुल हुआ।) यह महिलाओं को उनकी स्वतंत्रता, आजादी से बोलने के अधिकार और जीवन जीने के अधिकार से वंचित करना हुआ। क्या महिलाओं को उनके सभी अधिकारों से वंचित करके उनसे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने की अपेक्षा करना मानवीय है? यह महिलाओं को कुचलने और भयंकर कष्ट देने के समान है!

साफ जाहिर है कि जिन नैतिकतावादियों ने महिलाओं पर यह अपेक्षा थोपी और इस प्रक्रिया में उन्हें भयंकर कष्ट पहुँचाया, वे पुरुष ही थे, न कि महिलाएँ। महिलाएँ कभी दूसरी महिलाओं को नहीं कुचलेंगी, तो यह यकीनन पुरुषों का ही काम था। उन्हें चिंता थी कि अगर महिलाएँ ज्यादा सक्षम हो गईं, उन्हें बहुत ज्यादा अधिकार और स्वतंत्रता मिल गई तो सख्त निगरानी और नियंत्रण के बिना वे पुरुषों के बराबर हो जाएँगी। धीरे-धीरे, सक्षम महिलाओं का दर्जा पुरुषों से ऊँचा हो जाएगा, वे अपने घरेलू काम करना बंद कर देंगी, और वे मानते थे कि इससे घरेलू सामंजस्य पर असर पड़ेगा। अगर अलग-अलग घरों में सामंजस्य की कमी हो, तो पूरे समाज का तालमेल बिगड़ जाएगा और यह देश के शासकों के लिए चिंताजनक रहेगा। देखा तुमने, चाहे हम कोई भी चर्चा करें, बात हमेशा घूम-फिरकर शासक वर्ग पर आ जाती है। उनके इरादे बुरे होते हैं और वे महिलाओं से निपटना और उनके खिलाफ कार्रवाई करना चाहते हैं—यह अमानवीय है। वे यह अपेक्षा करते हैं कि चाहे घर पर हो या पूरे समाज में, महिलाओं को पूरी तरह से आज्ञाकारी होना चाहिए, उत्पीड़न के प्रति चुपचाप समर्पण करना चाहिए, खुद को विनम्र और कमतर दिखाना चाहिए, हर तरह के अपमान का घूँट पीना चाहिए, सुशिक्षित और समझदार होना चाहिए, विनीत और विचारशील होना चाहिए, और बिना किसी आलोचना के सभी कठिनाइयों को सहना चाहिए, वगैरह। जाहिर है कि वे महिलाओं को बस बलि का बकरा और पायदान जैसा समझते हैं—अगर वे यह सब करते हैं, तो क्या उन्हें अभी भी मनुष्य कहा जाएगा? अगर वे वाकई इन सभी अपेक्षाओं को पूरा कर सकें, तो वे मनुष्य नहीं होंगी; वे अविश्वासियों द्वारा पूजी जाने वाली उन प्रतिमाओं जैसी होंगी जो खाती-पीती नहीं हैं, सांसारिक भौतिक चिंताओं से अलग होती हैं, कभी गुस्सा नहीं होती हैं, और न ही उनका कोई व्यक्तित्व होता है। या फिर वे उन कठपुतलियों या मशीनों जैसी हो सकती हैं जो न तो अपने आप सोचती हैं और न ही प्रतिक्रिया करती हैं। किसी भी वास्तविक इंसान के पास बाहरी दुनिया की इन कहावतों और पाबंदियों पर राय और दृष्टिकोण होंगे—यह मुमकिन नहीं है कि वह सभी उत्पीड़नों के प्रति चुपचाप समर्पण कर दे। यही कारण है कि आज के समय में महिला अधिकार आंदोलन हो रहे हैं। पिछले करीब सौ सालों में धीरे-धीरे समाज में महिलाओं का दर्जा बढ़ा है, और वे आखिरकार उन बेड़ियों से मुक्त हो पाई हैं जो कभी उन्हें बाँधकर रखती थीं। कितने सालों तक महिलाओं को इस बंधन में जकड़कर रखा गया? पूर्वी एशिया में, वे कम से कम कई हजार सालों तक इस बंधन में बंधी रहीं। यह बंधन बेहद क्रूर और बर्बर था—उनके पैर इस हद तक बंधे थे कि वे चल-फिर भी नहीं सकती थीं और किसी ने कभी इन महिलाओं को अन्याय से नहीं बचाया। मैंने सुना है कि 17वीं और 18वीं शताब्दी में कुछ पश्चिमी देशों और क्षेत्रों ने भी महिलाओं की आजादी पर कुछ पाबंदियाँ लगाईं थीं। उन दिनों उन्होंने महिलाओं पर कैसी पाबंदियाँ लगाईं थीं? उन्हें हूप स्कर्ट पहनने को कहा गया था जो उनकी कमर पर धातु की पट्टियों और धातु के लटकते हुए भारी छल्लों से कसकर बँधी होती थीं। इससे महिलाओं के लिए घर से बाहर निकलना या घूमना-फिरना बहुत असुविधाजनक होता था और वे अच्छे से चल-फिर नहीं पाती थीं। इसलिए महिलाओं को दूर तक चलने या अपने घरों से निकलने में बहुत कठिनाई होती थी। इन कठिन परिस्थितियों में महिलाओं ने क्या किया? उनके पास चुपचाप सहमति देने और घर पर ही रहने के अलावा और कोई चारा नहीं था, और वे लंबी दूरी की यात्राएँ भी नहीं कर सकती थीं। घूमने-फिरने के लिए बाहर जाने, दर्शनीय स्थल देखने, अपना दायरा बढ़ाने या दोस्तों से मिलने के लिए बाहर जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था। पश्चिमी समाज में महिलाओं पर इसी तरह की पाबंदियाँ लगाई जाती थीं—वे नहीं चाहते थे कि महिलाएँ घर छोड़कर बाहर जाएँ और अपनी मर्जी से किसी के भी संपर्क में आएँ। उन दिनों, पुरुष अपनी घोड़ागाड़ी लेकर बेरोकटोक जहाँ चाहें वहाँ जा सकते थे, मगर महिलाओं को घर से बाहर निकलने पर तमाम पाबंदियों का सामना करना पड़ता था। आज के समय में महिलाओं पर कम से कम पाबंदियाँ लगाई जाती हैं : पैरों को बाँधकर रखना गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है और पूरब की महिलाएँ जिसे चाहे उसे अपना साथी चुन सकती हैं। महिलाएँ अब पहले से ज्यादा आजाद हैं और धीरे-धीरे उन बेड़ियों की छाया से बाहर आ रही हैं। इस छाया से उभरते हुए, उन्होंने समाज में प्रवेश किया है और धीरे-धीरे अपनी उचित जिम्मेदारी निभानी भी शुरू कर दी है। महिलाओं ने समाज में अपेक्षाकृत ऊँचा दर्जा हासिल कर लिया है और उन्हें पहले की तुलना में अधिक अधिकार और विशेषाधिकार प्राप्त हैं। धीरे-धीरे कुछ देशों में महिलाओं को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति चुना जाने लगा है। धीरे-धीरे महिलाओं का दर्जा बढ़ना मानवता के लिए अच्छी बात है या बुरी? कम से कम, इस तरह दर्जा बढ़ने से महिलाओं को कुछ हद तक स्वतंत्रता और मुक्ति मिली है—महिलाओं के लिए तो यह यकीनन अच्छी बात है। क्या महिलाओं का स्वतंत्र होना और उनके पास खुद को अभिव्यक्त करने का अधिकार होना समाज के लिए फायदेमंद है? दरअसल, यह फायदेमंद है; महिलाएँ ऐसे कई काम करने में सक्षम हैं जिन्हें पुरुष या तो अच्छी तरह से नहीं करते या करना नहीं चाहते हैं। महिलाएँ कई कार्यक्षेत्रों में बेहतरीन प्रदर्शन करती हैं। आजकल महिलाएँ न केवल कार चला सकती हैं बल्कि हवाई जहाज भी उड़ा सकती हैं। कुछ महिलाएँ राष्ट्रों के मामलों की अध्यक्षता करने वाली अधिकारियों या अध्यक्षाओं के रूप में भी काम कर रही हैं, और वे अपने काम में पुरुषों से कहीं भी कमतर नहीं हैं—इससे एक बात तो साफ है कि महिलाएँ पुरुषों के बराबर हैं। अब महिलाओं को जो अधिकार मिलने चाहिए, उन्हें पूरी तरह बढ़ावा देकर उनकी रक्षा की जा रही है, जो एक सामान्य घटना है। बेशक, यह उचित है कि महिलाओं को अपने अधिकारों का आनंद उठाना चाहिए, लेकिन हजारों सालों तक हालात बदतर रहने के बाद, अब जाकर यह फिर से मानक बना है, और महिला-पुरुषों के बीच समानता हासिल हो पाई है। वास्तविक जीवन के परिप्रेक्ष्य से देखें, तो महिलाएँ धीरे-धीरे सभी सामाजिक वर्गों और उद्योगों में अपनी मौजूदगी बढ़ा रही हैं। इससे हमें क्या पता चलता है? इससे हमें यह पता चलता है कि सभी प्रकार की विभिन्न विशेषज्ञताओं वाली महिलाएँ धीरे-धीरे अपनी प्रतिभाओं का उपयोग करके मानवजाति और समाज के लिए योगदान दे रही हैं। कोई व्यक्ति इन हालात को चाहे कैसे भी देखे, यह यकीनन मानवजाति के लिए फायदेमंद है। अगर समाज में महिलाओं के अधिकार और दर्जे को बहाल न किया जाता, तो वे आज किस तरह के काम कर रही होतीं? वे घर पर रहकर अपने पतियों की सेवाटहल करतीं और अपने बच्चों को बड़ा करतीं, घर के मामले देखतीं, और अपने सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त आचरण पर अमल करतीं—वे अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को बिल्कुल भी पूरा न कर पातीं। अब जबकि उनके अधिकारों को बढ़ावा दिया जा रहा है और उनकी सुरक्षा की जा रही है, तो महिलाएँ सामान्य रूप से समाज में योगदान दे सकती हैं, और मानवजाति ने उन मूल्यों और योगदानों का लाभ उठाया है जो महिलाएँ समाज में लेकर आई हैं। इस तथ्य से यह बात पूरी तरह स्पष्ट होती है कि महिला-पुरुष बराबर हैं, और पुरुषों को महिलाओं को नीचा नहीं दिखाना चाहिए या उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए, और महिलाओं के सामाजिक दर्जे को बढ़ाना चाहिए, जो यह दर्शाता है कि समाज में सुधार हो रहा है। मानवजाति के पास अब लैंगिक मामलों में अधिक अंतर्दृष्टिपूर्ण, सही और नियंत्रित समझ है, और इसी वजह से महिलाएँ उन कामों में शामिल होने लगी हैं जिनके बारे में लोग सोचते थे कि वे करने में असमर्थ हैं। महिला कर्मचारियों को अब न केवल अक्सर निजी उद्यमों में नियुक्त किया जाता है, बल्कि वैज्ञानिक अनुसंधान विभागों में भी कई पदों पर महिलाओं का काम करना काफी आम हो गया है, और राष्ट्रीय नेतृत्व की भूमिकाओं में कार्यरत महिलाओं का अनुपात भी बढ़ रहा है। हम सभी ने महिला लेखिकाओं, गायिकाओं, उद्यमियों और वैज्ञानिकों के बारे में भी सुना है, कई महिलाएँ खेल प्रतियोगिताओं में विजेता और उप-विजेता बनी हैं, और यहाँ तक कि युद्ध के समय में महिला नायिकाएँ भी रही हैं, इन सारी बातों से यह साबित होता है कि महिलाएँ भी बिल्कुल अपने पुरुष समकक्षों जैसी सक्षम हैं। हरेक उद्योग में कार्यरत महिलाओं का अनुपात बढ़ रहा है और यह अपेक्षाकृत सामान्य बात है। समकालीन समाज में सभी कारोबारों और पेशों में, महिलाओं के प्रति कम से कम पूर्वाग्रह है, समाज पहले से ज्यादा निष्पक्ष है और महिला-पुरुषों के बीच सच्ची समानता है। महिलाओं को अब नैतिक आचरण की उन कहावतों और मानदंडों से बाधित नहीं किया जाता और आंका नहीं जाता है, जैसे कि “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए” या “एक महिला को अपने जनानखाने तक ही सीमित रहना चाहिए।” महिलाओं के अधिकार अब पहले से ज्यादा सुरक्षित हैं, जो वास्तव में पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता के सामाजिक परिवेश को दर्शाता है।

हम सिर्फ पुरुषों को ही यह अपेक्षा करते हुए देखते हैं कि महिलाएँ सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त हों, लेकिन हमें महिलाएँ कभी ऐसी अपेक्षाएँ पुरुषों से करती दिखाई नहीं देती हैं। महिलाओं से पेश आने का यह तरीका बहुत ही गलत है और थोड़ा-बहुत स्वार्थी, घृणित और बेशर्म भी है। यह भी कहा जा सकता है कि महिलाओं के साथ ऐसा बर्ताव करना गैरकानूनी और अपमानजनक है। समकालीन समाज में कई देशों ने महिलाओं और बच्चों के साथ दुर्व्यवहार पर रोक लगाने वाले कानून बनाए हैं। वास्तव में, मानवजाति के लैंगिक संबंध को लेकर परमेश्वर ने कुछ नहीं कहा है, क्योंकि महिला-पुरुष दोनों ही परमेश्वर की रचनाएँ हैं और परमेश्वर से आते हैं। जैसी एक कहावत भी है, “हाथ की हथेली और पीछे का हिस्सा, दोनों ही हाड़-माँस से बने होते हैं”—परमेश्वर का पुरुषों या महिलाओं के प्रति कोई विशेष पूर्वाग्रह नहीं है, और न ही वह दोनों में से किसी से अलग-अलग अपेक्षाएँ करता है, दोनों ही बराबर हैं। इसलिए, चाहे तुम पुरुष हो या महिला, परमेश्वर तुम्हें आँकने के लिए एक जैसे चंद मानकों का उपयोग करता है—वह यह देखता है कि तुम्हारी मानवता का सार कैसा है, तुम किस मार्ग पर चलते हो, सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है, क्या तुम सत्य से प्रेम करते हो, क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है और क्या तुम उसके प्रति समर्पण कर सकते हो। किसी व्यक्ति को कोई विशेष कर्तव्य या विशेष जिम्मेदारी निभाने के लिए चुनते और तैयार करते समय परमेश्वर यह नहीं देखता कि वह महिला है या पुरुष। वह चाहे पुरुष हो या महिला, परमेश्वर यह देखकर उसे आगे बढ़ाता और उपयोग करता है कि उसके पास अंतरात्मा और विवेक है या नहीं, स्वीकार्य क्षमता है या नहीं, क्या वह सत्य को स्वीकारता है या नहीं और वह किस मार्ग पर चलता है। मानवजाति को बचाते और पूर्ण बनाते समय परमेश्वर उसकी लैंगिक स्थिति पर विचार करने के लिए नहीं रुकता। अगर तुम एक महिला हो, तो परमेश्वर यह विचार नहीं करता है कि तुम सच्चरित्र, दयालु, सौम्य या नैतिकतायुक्त हो या नहीं, या तुम्हारा व्यवहार अच्छा है या नहीं, और न ही वह पुरुषों को उनके साहस और पुरुषत्व के आधार पर आँकता है—परमेश्वर महिला-पुरुषों को इन मानकों के आधार पर नहीं आँकता है। फिर भी भ्रष्ट मानवजाति के बीच हमेशा ऐसे लोग होते हैं जो महिलाओं से भेदभाव करते हैं, जो महिलाओं पर कुछ अनैतिक और अमानवीय अपेक्षाएँ थोपते हैं ताकि उन्हें उनके अधिकारों, उनके वास्तविक सामाजिक दर्जे, और समाज में उनके मूल्य से वंचित किया जा सके, और जो समाज के भीतर महिलाओं के सकारात्मक विकास और अस्तित्व को सीमित और बाधित करने की कोशिश करते हैं, उनकी मनोवैज्ञानिक मनोदशाओं को विकृत करते हैं। इस वजह से महिलाओं को अपना पूरा जीवन अवसादग्रस्त और व्यथित होकर बिताना पड़ता है, उनके पास इन विकृत और असाधारण सामाजिक और नैतिक परिवेशों में रहकर अपमानजनक जीवनशैली को बर्दाश्त करने के अलावा और कोई चारा नहीं होता। इसका एकमात्र कारण यह है कि समाज और पूरे संसार पर शैतान का नियंत्रण है, और सभी प्रकार के दानव मानवजाति को निर्दयतापूर्वक गुमराह कर भ्रष्ट कर रहे हैं। इसलिए लोग सच्ची रोशनी नहीं देख पाते हैं, परमेश्वर को नहीं खोजते, बल्कि न चाहते हुए भी या अनजाने में शैतान की धूर्तता और चालाकी में फँसकर जीवन जीते हैं, और इन सबसे छुटकारा पाने में असमर्थ होते हैं। उनके लिए इन सबसे बाहर निकलने का एकमात्र तरीका परमेश्वर के वचनों, उसके प्रकटन और कार्य को खोजना है, ताकि वे सत्य की समझ पा सकें और विभिन्न भ्रांतियों, पाखंडों, शैतानी शब्दों और बेतुके दावों को स्पष्ट रूप से देखने और पहचानने में सक्षम हो सकें, जो सभी शैतान और दुष्ट मानवजाति से उत्पन्न होते हैं। तभी वे इन बाधाओं, दबावों और प्रभावों से मुक्त हो सकेंगे। परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार चीजों और लोगों को देखने, आचरण और व्यवहार करने से ही व्यक्ति एक मनुष्य की तरह, गरिमा के साथ और रोशनी में जीवन जी सकता है, अपने कर्तव्य निभा सकता है, अपने दायित्व पूरे कर सकता है, और बेशक, परमेश्वर की अगुआई में और सही विचारों और दृष्टिकोणों से निर्देशित होकर ही वह अपना उचित योगदान दे सकता है और जीवन का मकसद पूरा कर सकता है—क्या इस तरह से जीना काफी सार्थक नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) इस बात पर पुनर्विचार करते हुए तुम्हारे मन में कैसी भावनाएँ उभर रही हैं कि कैसे शैतान ने महिलाओं से अपेक्षाएँ रखकर और कई हजार साल तक उन पर पाबंदियाँ लगाकर उन्हें नियंत्रित करने और यहाँ तक कि गुलाम बनाने के लिए “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए” जैसी कहावत का उपयोग किया है? जब तुम सब महिलाएँ लोगों को यह कहते सुनती हो कि “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” तो क्या तुम तुरंत इसके विरोध में कहती हो, “ऐसी बातें मत करो! इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। भले ही मैं एक महिला हूँ, मगर परमेश्वर के वचन कहते हैं कि इस कहावत का महिलाओं से कोई लेना-देना नहीं है।” इस पर कुछ पुरुष कहेंगे : “अगर इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है, तो फिर यह कहावत किसके लिए बनी है? क्या तुम महिला नहीं हो?” तब तुम्हारा जवाब होगा : “मैं एक महिला हूँ, यह सच है। मगर ये परमेश्वर के वचन नहीं हैं, ये सत्य नहीं हैं। ये शब्द शैतान और मानवजाति की उपज हैं, ये महिलाओं को कुचलकर उन्हें जीवन जीने के अधिकार से वंचित करते हैं। ये शब्द महिलाओं के लिए अमानवीय और अनुचित हैं। मैं इसका विरोध करती हूँ!” इसके विरोध में खड़े होना वास्तव में जरूरी नहीं है। तुम्हें बस ऐसी कहावतों के प्रति सही दृष्टिकोण रखना है, उन्हें अस्वीकार करना है, और उनसे प्रभावित और बेबस नहीं होना है। अगर, आगे जाकर तुमसे कोई कहता है, “तुम महिला जैसी नहीं दिखती, और एक पुरुष की तरह बहुत बेरुखी से बात करती हो। तुमसे भला कौन शादी करना चाहेगा?” इस पर तुम्हें कैसे जवाब देना चाहिए? तुम कह सकती हो, “अगर कोई मुझसे शादी नहीं करता, तो कोई बात नहीं। क्या तुम वाकई यह कहना चाहते हो कि कोई महिला शादी करके ही गरिमापूर्ण जीवन जी सकती है? क्या तुम यह कहना चाहते हो कि सिर्फ सच्चरित्र, दयालु, सौम्य, नैतिकतायुक्त महिलाएँ, जिनसे सभी प्यार करते हैं, वे ही सच्ची महिलाएँ हैं? यह सही नहीं हो सकता—महिलाओं को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त जैसे शब्दों से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। महिलाओं को उनकी लैंगिक पहचान से नहीं जाना जाना चाहिए और उनकी मानवता को उनके सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होने के आधार पर नहीं आँकना चाहिए, बल्कि उन्हें उन मानकों का उपयोग करके आँकना चाहिए जिनसे परमेश्वर मनुष्य की मानवता का मूल्यांकन करता है। यही उन्हें आँकने का निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ तरीका है।” क्या अब तुम्हें इस कहावत की बुनियादी समझ आ गई कि “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए?” मेरी संगति से अब तक इस कहावत के प्रासंगिक सत्यों और उन दृष्टिकोणों के बारे में सब स्पष्ट हो जाना चाहिए जो लोगों को इसके प्रति अपनाना चाहिए।

ऐसी ही एक और कहावत है : “कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था।” मैं इस कहावत पर संगति नहीं करना चाहता। मैं इस पर संगति क्यों नहीं करना चाहता? क्योंकि इसकी प्रकृति “दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो” की कहावत के समान है और इसमें कुछ बेतुकापन भी है। अगर किसी व्यक्ति को हर बार पानी निकालने के लिए कुआँ खोदने वाले को याद करना पड़े तो कितनी दिक्कत होगी? कुछ कुओं को लाल फीतों और ताबीजों से सजाया जाता है—अगर लोग वहाँ जाकर धूप-अगरबत्ती जलाएँ और फल चढ़ाएँ, तो क्या यह अजीब नहीं होगा? इस कहावत की तुलना में कि कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था, मुझे यह कहावत ज्यादा पसंद है, “आने वाली पीढ़ियाँ पिछली पीढ़ियों के रोपे हुए पेड़ों की छाया का आनंद लेती हैं,” क्योंकि यह कहावत उस वास्तविकता को दर्शाती है जिसे लोग वास्तव में खुद अनुभव कर जी सकते हैं। एक पौधे को छायादार पेड़ बनने में दस से बीस साल लग जाते हैं, इसलिए जिस व्यक्ति ने पेड़ लगाया था वह इसकी छाया में ज्यादा समय तक आराम नहीं कर पाएगा, और सिर्फ आने वाली पीढ़ियों को ही उनके जीवन भर में इसका लाभ मिलेगा। प्रकृति में चीजें इसी प्रकार व्यवस्थित होती हैं। वहीं दूसरी ओर, जब भी कोई कुएँ से पानी पीने जाए तो उसे खोदने वाले को याद करना थोड़ा पागलपन लगता है। अगर लोगों को हर बारकुएँ से पानी निकालने से पहले उसे खोदने वाले को याद करना पड़े, तो क्या यह थोड़ा पागलपन नहीं लगेगा? अगर उस साल सूखा पड़ जाए और बहुत-से लोगों को उस कुएँ से पानी भरने की जरूरत हो, ऐसे में अगर हर किसी को वहाँ खड़े रहकर पाने निकालने से पहले कुआँ खोदने वाले का ध्यान करना पड़े, तो क्या लोगों को पानी लेने और खाना पकाने में परेशानी नहीं होगी? क्या यह वाकई इतना जरूरी होगा? इससे तो सबका काम रुक जाएगा। क्या कुआँ खोदने वाले की आत्मा कुएँ के पास बसती है? क्या वह उन्हें याद करने वालों की पुकार सुन सकता है? इनमें से किसी भी बात की पुष्टि नहीं की जा सकती। यानी यह कहावत कि “कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था,” पूरी तरह से बेतुकी और निरर्थक है। चीनी परंपरागत संस्कृति ने नैतिक आचरण के संबंध में ऐसी कई कहावतें पेश की हैं, जिनमें से ज्यादातर बेतुकी हैं, और खास तौर पर यह कहावत सबसे ज्यादा बेतुकी है। कुआँ किसने खोदा था? उसने यह किसके लिए और क्यों खोदा? क्या उसने वाकई सभी लोगों और आने वाली पीढ़ियों की खातिर कुआँ खोदा था? यह जरूरी नहीं है। उसने यह काम सिर्फ अपने लिए किया, ताकि उसके परिवार के पास पीने का पानी उपलब्ध हो—उसने आने वाली पीढ़ियों के बारे में नहीं सोचा था। तो फिर, क्या यह लोगों को गुमराह करना और गलत राह दिखाना नहीं हुआ कि बाद की सभी पीढ़ियाँ कुआँ खोदने वाले को याद करें और उसे धन्यवाद दें; और क्या यह उन्हें ऐसा सोचने पर मजबूर करना नहीं हुआ कि उसने यह कुआँ सभी लोगों के लिए खोदा था? इसलिए जिस व्यक्ति ने यह कहावत बनाई वह सिर्फ अपने विचार और दृष्टिकोण दूसरों पर थोपकर इन्हें स्वीकारने के लिए मजबूर कर रहा था। यह अनैतिक है; इससे और भी ज्यादा लोग ऐसी कहावतों से नाराजगी, वितृष्णा और घृणा महसूस करेंगे। जो लोग ऐसी कहावत को बढ़ावा देते हैं उनके दिमाग में कुछ तो बौद्धिक खराबी होती है जिससे यह निश्चित हो जाता है कि वे कुछ बेतुकी बातें कहेंगे और बेतुके काम करेंगे। परंपरागत संस्कृति के विचारों और दृष्टिकोणों, जैसे कि “कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था” और “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” इन कहावतों का लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है? परंपरागत संस्कृति की इन कहावतों से शिक्षित और थोड़े जानकार लोगों को क्या हासिल हुआ है? क्या वे वाकई अच्छे इंसान बन गए हैं? क्या उन्होंने मनुष्य की तरह जीवन जिया है? बिल्कुल नहीं। परंपरागत संस्कृति को पूजने वाले ये नैतिकता विशेषज्ञ नैतिकता के शिखर पर बैठकर उन लोगों से नैतिक अपेक्षाएँ करते हैं जिनके जीवन की वास्तविक परिस्थिति इनसे जरा भी नहीं मिलती—यह इस धरती पर जीने वाले सभी लोगों के लिए अनैतिक और अमानवीय है। ये लोग परंपरागत संस्कृति के जिन नैतिक दृष्टिकोणों को बढ़ावा देते हैं, वे सामान्य समझ रखने वाले किसी भी व्यक्ति को असामान्य विवेक वाले व्यक्ति में बदल सकता है, जो ऐसी बातें कहने में सक्षम हो जो दूसरों को अकल्पनीय और गूढ़ लगें। ऐसे लोगों की मानवता और उनका मस्तिष्क विकृत हो जाता है। इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कई सारे चीनी लोग खेल आयोजनों, सार्वजनिक स्थानों और आधिकारिक व्यवस्था में ऐसी बातें कह जाते हैं जो थोड़ी अजीब होती हैं और लोगों को उन बातों की थाह लेने में समय लगता है। उनकी सारी बातें खोखली, बेतुके सिद्धांत वाली होती हैं, और उनमें से एक भी बात सच्ची या व्यावहारिक नहीं होती। यह सच्चा प्रमाण है, शैतान द्वारा मानवजाति की भ्रष्टता का नतीजा है, और चीनी लोगों को कई सहस्राब्दियों तक परंपरागत संस्कृति द्वारा शिक्षित किए जाने का दुष्परिणाम है। इन सबने ईमानदारी और प्रामाणिकता से जीवन जीने वाले लोगों को ऐसे लोगों में बदल दिया है जो झूठ का कारोबार करते हैं, दूसरों को धोखा देने के लिए भेष बदलने और खुद को छिपाने में माहिर हैं, जो देखने में बेहद सुसंस्कृत और सिद्धांत पर वाक्पटुता से राय देने में सक्षम प्रतीत होते हैं, लेकिन असल में, जिनकी मानसिकता विकृत है और वे समझदारी से बात करने या लोगों के साथ मेलजोल और बातचीत करने में असमर्थ होते हैं—वे सभी मूल रूप से इसी प्रकृति के हैं। सच कहें, तो ऐसे लोग मानसिक रोग के कगार पर हैं। अगर तुम इन शब्दों को स्वीकार नहीं सकते, तो मैं तुम्हें इनका अनुभव करने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ। इसी के साथ आज की संगति खत्म होती है।

2 अप्रैल 2022

फुटनोट :

क. मूल पाठ में “यह दावा है” लिखा है।

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