परमेश्वर द्वारा जगत की पीड़ा का अनुभव करने का अर्थ

देहधारी परमेश्वर भविष्य में मनुष्य की सुंदर मंजिल के बदले मनुष्य के बदले कष्ट उठाता है। यीशु द्वारा किए गए कार्य का चरण था पापी देह की छवि के रूप में सूली पर चढ़ाया जाना, एक पापबलि बनना, समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाना और सुंदर मंजिल में मनुष्य के प्रवेश की नींव रखना। उसे सूली पर चढ़ाया गया और उसने मनुष्य के पाप का बोझ उठाया, और मानवजाति को पाप से छुटकारा दिलाया। दूसरे शब्दों में, उसने मनुष्य के पाप क्षमा किए जाने और उसके परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होने के प्रमाण का काम किया, वह शैतान के साथ युद्ध में मोलभाव करने का साधन था। अब जब अंत के दिन आ गए हैं, तो परमेश्वर अपने कार्य को समाप्त करना चाहता है, इस युग को समाप्त करना चाहता है, और जो बचे हुए हैं उन्हें एक सुंदर मंजिल तक ले जाना चाहता है। परमेश्वर एक बार फिर देह बन गया है, और मनुष्य को जीतने, उसका न्याय करने और उसे शुद्ध करने के साथ ही वह मनुष्य के बदले कष्ट उठाता है, और मनुष्य की समस्त पीड़ा से मुक्ति के लिए इसे प्रमाण और तथ्य के रूप में प्रस्तुत करता है; अर्थात्, परमेश्वर अपनी गवाही स्वयं देता है, और वह इस प्रमाण, इस गवाही का उपयोग शैतान को हराने, दानवों को लज्जित करने और मनुष्य की सुंदर मंजिल के विनिमय के लिए करता है।

कुछ लोग कहते हैं, “देहधारी शरीर द्वारा कार्य करना अभी भी परमेश्वर द्वारा कार्य करना है। यह दैहिक शरीर द्वारा कार्य करना नहीं है; परमेश्वर का आत्मा उसे भीतर से नियंत्रित करता है।” क्या यह सही है? नहीं। पहले यह कहा गया था कि विजय के कार्य का एक चरण पूरा करने के लिए परमेश्वर का देहधारण सामान्य मानवता के बीच किया जाता है; तुम जो देखते हो, वह सामान्य मानवता है, लेकिन यह वास्तव में स्वयं परमेश्वर कार्य कर रहा है; जब यह दैहिक शरीर कार्य करता है, तो यह वास्तव में स्वयं परमेश्वर कार्य कर रहा होता है। इस तरह समझाए और संगति किए जाने से, लोग अक्सर मानते हैं कि यह दैहिक शरीर केवल एक साधन है, एक बाहरी आवरण है, वह केवल तभी कार्य करता है जब परमेश्वर का आत्मा उसे भीतर से कहता और नियंत्रित करता है, और वह इस नियंत्रण के बिना कार्य नहीं करता; दैहिक शरीर वही कहता है, जो कहने के लिए उसे आत्मा द्वारा निर्देशित किया जाता है, और जब इस तरह निर्देशित नहीं किया जाता, तो वह कुछ नहीं कहता। क्या यही मामला है? नहीं। जब आत्मा देह में अवतरित होता है, तो आत्मा और देह एक हो जाते हैं। देह द्वारा कार्य करना आत्मा द्वारा कार्य करना है, आत्मा द्वारा कार्य करना देह द्वारा कार्य करना है—केवल इसे ही देहधारण कहा जा सकता है। आज, सबसे शक्तिशाली व्याख्याओं में से एक यह है : जब अंत के दिनों में परमेश्वर देहधारण करता है, तो एक ओर वह विजय का कार्य करने और इस युग को समाप्त करने के लिए आ रहा है। दूसरी ओर, दैहिक शरीर का मनुष्य की पीड़ा का अनुभव करने के लिए आना स्वयं परमेश्वर का मनुष्य की पीड़ा अनुभव करने आना है; परमेश्वर का देह और स्वयं परमेश्वर एक हैं। दैहिक शरीर कोई साधन नहीं है जैसा कि लोग मानते हैं, न ही वह केवल एक खोल है—न ही वह किसी तरह की नियंत्रित की जा सकने वाली भौतिक सत्ता है, जैसा कि लोग मानते हैं। यह देह स्वयं परमेश्वर का मूर्त रूप है। लोगों की पिछली समझ बहुत सतही थी। अगर संगतियाँ मनुष्य की धारणाओं का अनुसरण करें, तो लोगों द्वारा देह और आत्मा को इस प्रकार अलग करने की संभावना होगी कि देह तो देह है और आत्मा आत्मा है। यह एक पथभ्रष्टता है। इसी तरह लोगों के लिए धारणाएँ बनाना भी आसान होगा।

लोगों को आज जो समझना चाहिए, वह यह है : परमेश्वर मनुष्य की पीड़ा का अनुभव करने के लिए देहधारी हुआ है, लेकिन देहधारी द्वारा सही गई पीड़ा और व्याधियाँ ऐसी चीजें नहीं हैं, जिन्हें उसे सहना चाहिए। कुछ लोग मानते हैं कि चूँकि वह साधारण और सामान्य देह का है, और कोई अलौकिक प्राणी नहीं बल्कि एक साधारण व्यक्ति है, तो यह पीड़ा अपरिहार्य है। उन्हें लगता है कि उसे मनुष्य के सिरदर्द और कष्ट सहने चाहिए, जब लोगों को गर्मी महसूस हो तो उसे गर्मी महसूस होनी चाहिए, और जब मौसम में गर्मी कम हो जाए तो उसे बाकी सभी लोगों के साथ ठंड सहनी चाहिए। अगर तुम इसी तरह से सोचते हो, तो तुम इस साधारण और सामान्य दैहिक शरीर को ठीक वैसा समझते हो जैसे कोई अन्य व्यक्ति, मानो उनमें कोई अंतर न हो। लेकिन तथ्य यह है कि इस शरीर द्वारा सहे जाने वाले कष्ट का अर्थ है। सामान्य इंसानी बीमारियाँ या अन्य कष्ट वे हैं जिन्हें लोगों को सहना चाहिए, ये वे कष्ट हैं जो भ्रष्ट मनुष्य को सहने चाहिए—यह एक सामान्य व्यवस्था है। लेकिन देहधारी परमेश्वर ये कष्ट किस कारण सहता है? क्या यीशु का सूली पर चढ़ाया जाना ऐसी चीज थी, जो उसके साथ होनी चाहिए थी? यीशु देहधारी था, वह निष्पाप था, और उस समय की व्यवस्था के, और उस समय उसने जो किया, उसके अनुसार उसे सूली पर नहीं चढ़ाया जाना चाहिए था—तो उसे सूली पर क्यों चढ़ाया गया? यह समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए था। वर्तमान देहधारी द्वारा उठाए गए सभी कष्ट, वे सभी उत्पीड़न जो उस पर आ पड़े हैं—क्या ये सब आकस्मिक रूप से हुए हैं? या परमेश्वर द्वारा उन्हें जानबूझकर व्यवस्थित किया गया था? उन्हें जानबूझकर व्यवस्थित नहीं किया गया था, न ही वे आकस्मिक रूप से हुए हैं; इसके बजाय, वे सामान्य व्यवस्थाओं के अनुसार घटित हुए हैं। मैं यह क्यों कहता हूँ? क्योंकि परमेश्वर ने खुद को मनुष्यों के बीच रखा है, खुद को इस तरह से कार्य करने की स्वतंत्रता दी है, और इस कार्य के दौरान, उसने मनुष्य जैसी ही पीड़ा सही है। अगर परमेश्वर ने जानबूझकर पीड़ा की व्यवस्था की होती तो उसने सिर्फ कुछ दिनों की पीड़ा ही सही होती; ज्यादातर समय वह पीड़ा न सहता। और इसलिए, कार्य करते समय परमेश्वर मनुष्य के बीच जो पीड़ा अनुभव करता है, उसे जानबूझकर व्यवस्थित नहीं किया गया है, न ही उसने अनजाने ही थोड़ी-सी पीड़ा सही है; इसके बजाय, वह उस पीड़ा का अनुभव करने आया है जो मनुष्य के बीच मौजूद है, उसने खुद को मनुष्य के बीच रखा है, मनुष्य के समान कष्ट उठाया है, और बिना किसी अपवाद के उसके साथ मनुष्य जैसा ही व्यवहार किया गया है। जिस तरह तुम लोगों को सताया जाता है, क्या मसीह को भी नहीं सताया जाता? तुम लोगों का पीछा किया जाता है; क्या मसीह का भी पीछा नहीं किया जाता? लोग बीमारी से परेशान रहते हैं; क्या मसीह कम पीड़ित होता है? उसे छूट नहीं है। क्या यह समझना आसान नहीं है? ऐसे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि बड़े लाल अजगर के देश में कार्य करने आने पर परमेश्वर को कष्ट उठाना ही चाहिए—और क्या यह भी गलत नहीं है? परमेश्वर के लिए, मामला यह नहीं है कि उसे पीड़ित होना चाहिए या नहीं। परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से मनुष्यों के बीच पीड़ा सहकर कीमत चुकाता है, ताकि लोग और ज्यादा पीड़ित न हों, और फिर वह शैतान को पूरी तरह से आश्वस्त करते हुए मनुष्य को सुंदर मंजिल की ओर ले जाता है। परमेश्वर के लिए ये पीड़ाएँ सहना आवश्यक है। अगर वह कार्य के इस चरण के दौरान यह पीड़ा न सहना चाहता, बल्कि सिर्फ मनुष्य की पीड़ा समझने भर से अधिक और कुछ न करना चाहता, और अपने स्थान पर कुछ प्रेरितों या पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए लोगों को इस्तेमाल करता, जो फिर परमेश्वर को अपनी सही गई पीड़ा बयाँ करते—या अगर उसने गवाही देने के लिए कुछ खास लोगों का इस्तेमाल किया होता और उनसे इंसानों के बीच सबसे दर्दनाक चीजें सहन करवाई होतीं—तो अगर वे यह पीड़ा सहने और यह गवाही देने में सक्षम होते तो शैतान खुद पूरी तरह आश्वस्त हो जाता, और मनुष्य जो करते हैं उसके बदले उन्हें भविष्य में कष्ट न सहने पड़ते। क्या परमेश्वर ऐसा कर सकता था? वह ऐसा कर सकता था, लेकिन सिर्फ स्वयं परमेश्वर ही स्वयं परमेश्वर का कार्य करता है। लोगों की गवाही चाहे कितनी भी उत्कृष्ट क्यों न हो, वह शैतान को सुनाई नहीं देती, वह कहेगा, “चूँकि तुम देहधारी हुए हो, इसलिए तुम व्यक्तिगत रूप से मनुष्य की पीड़ा का अनुभव क्यों नहीं करते?” अर्थात्, अगर परमेश्वर इस तरह कार्य न करता, तो ऐसी गवाही बहुत शक्तिशाली न होती। परमेश्वर का अपना कार्य स्वयं परमेश्वर द्वारा ही किया जाना चाहिए, क्योंकि तभी यह व्यावहारिक होगा। और परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य के इस चरण से यह भी देखा जा सकता है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसका अर्थ होता है, देहधारी द्वारा सहन की गई समस्त पीड़ा का अर्थ है, कि वह कुछ भी बिना सोचे-समझे नहीं करता, और न ही वह कोई ऐसा काम करता है जिसका कोई उपयोग न हो। कार्य करने और मनुष्य की पीड़ा का अनुभव करने के लिए देहधारी का आगमन वैकल्पिक नहीं है, बल्कि अत्यंत आवश्यक है : यह मनुष्य और उसकी भविष्य की मंजिल के लिए परम आवश्यक है, इसे मनुष्य को बचाने, उसे प्राप्त करने और सुंदर मंजिल में ले जाने के लिए किया और खर्चा जाता है।

देहधारण से संबंधित सत्यों पर कई कोणों से चर्चा की जानी चाहिए :

1. साधारण और सामान्य देह की आवश्यकता।

2. इस साधारण और सामान्य देह के कार्य का व्यावहारिक पहलू।

3. मनुष्य की पीड़ा अनुभव करने के लिए परमेश्वर का मनुष्यों के बीच आने का अर्थ—जिसका तात्पर्य आवश्यकता—भी है।

परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से मनुष्य की पीड़ा का अनुभव क्यों करना चाहिए? क्या ऐसा न करना उसके लिए ठीक नहीं है? यहाँ अर्थ का एक दूसरा पहलू भी है। इस साधारण और सामान्य देह का कार्य लोगों को जीत सकता और पूर्ण कर सकता है, पर लोगों के सार और मनुष्य के अस्तित्व के नियमों का अर्थ है कि वे अभी भी खोखलेपन, पीड़ा, व्यथा में जिएँगे, और आहें भरते रहेंगे, और अपनी बीमारियों से बचने में असमर्थ रहेंगे। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के प्रति तुम्हारा प्रेम एक निश्चित बिंदु पर पहुँच गया है, तुम्हें परमेश्वर को समझने का कुछ अनुभव हो गया है, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो गया है, और परमेश्वर कहता है कि तुम्हें पूर्ण बना दिया गया है, कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर से प्रेम करता है। अगर परमेश्वर लोगों को इस हद तक बचाता है और फिर चला जाता है—अगर देहधारी का कार्य इस तरह समाप्त हो जाता है—तो लोगों की व्याधियाँ, खोखलापन, और देह के दुःख और परेशानियाँ तब भी मौजूद रहेंगी, जिसका अर्थ है कि लोगों को बचाने का परमेश्वर का कार्य समाप्त नहीं होगा। हो सकता है कि किसी व्यक्ति को पूर्ण बना दिया गया हो, और वह परमेश्वर को जानता, उससे प्रेम करता और उसकी आराधना करता हो, लेकिन क्या वह अपनी बीमारियाँ और परेशानियाँ दूर करने में सक्षम है? सत्य होने से इसका समाधान नहीं हो सकता। किसी ने भी कभी नहीं कहा कि अब जबकि उसके पास सत्य है, इसलिए देह की बीमारियाँ अब उसे बीमार या पीड़ित नहीं करतीं—कोई भी उस तरह की पीड़ा ठीक नहीं कर सकता। तुम सिर्फ यह कह सकते हो, “जीना अब मुझे बहुत सार्थक लगता है, लेकिन जब मैं बीमार होता हूँ तो मुझे अभी भी दुख होता है।” क्या यही मामला है? और क्या यह एहसास वास्तविक है? इसलिए, अगर देहधारी ने सिर्फ मनुष्य को जीतने और पूर्ण करने का कार्य किया, अगर देहधारी ने सिर्फ लोगों को पूर्ण बनाया, और उनकी देह द्वारा सही जाने वाली पीड़ा का समाधान नहीं किया, तो पृथ्वी पर लोगों द्वारा सही जाने वाली समस्त पीड़ा, लोगों की बीमारियाँ, मनुष्य की खुशियाँ और दुःख, और लोगों की व्यक्तिगत चिंताएँ—ये सब हल नहीं किए जा सकेंगे, और भले ही तुमने लोगों को पृथ्वी पर हजार, दस हजार साल जीने दिया हो, जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु की ये परेशानियाँ और मामले हल नहीं होंगे। परमेश्वर मनुष्य की इस पीड़ा का अनुभव करने आया है; इसका अनुभव करने के बाद वह इसे जड़ से हल करता है, और बाद में, मनुष्य जन्म, बुढ़ापे, बीमारी या मृत्यु के मामलों से परेशान नहीं होता। यीशु ने मृत्यु का अनुभव किया। यह देहधारी सिर्फ जन्म और बीमारी की पीड़ा का अनुभव करता है (बुढ़ापे का अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है, और भविष्य में लोग बूढ़े नहीं होंगे)। जब वह इस समस्त पीड़ा का अनुभव कर लेगा, तो अंततः मनुष्य की पीड़ा समाप्त हो जाएगी। जब परमेश्वर मनुष्य के बदले समस्त पीड़ा सह लेगा, तो उसके पास शक्तिशाली साक्ष्य होगा, और अंततः मनुष्य के जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु को समाप्त करते हुए मनुष्य की सुंदर मंजिल से उसका विनिमय किया जाएगा। क्या इसमें अर्थ नहीं है? इसलिए, चाहे वह जन्म हो या बीमारी, कष्ट हो या व्यथा, देहधारी मनुष्य की पीड़ा का अनुभव करता है, और चाहे इस तरह की पीड़ा का कोई भी पहलू हो, देहधारी ऐसा मनुष्य की ओर से एक प्रतीक और भविष्य की घटनाओं के संकेत के रूप में करता है। उसने इस समस्त पीड़ा का अनुभव किया है, उसने इसे व्यक्तिगत रूप से सहा है, ताकि मनुष्य को अब इसे सहने की आवश्यकता न पड़े। अर्थ यहीं निहित है। जब लोगों को पूर्ण बना दिया जाता है, तो वे परमेश्वर की आराधना और उससे प्रेम करने में सक्षम हो जाते हैं, और वे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करने, परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करने, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने में सक्षम हो जाते हैं, जिसके बाद उनकी परेशानियाँ और पीड़ा दूर हो जाती है। यह मनुष्य के बदले परमेश्वर के पीड़ा सहने का अर्थ है, और यह लोगों को न सिर्फ पृथ्वी पर परमेश्वर की आराधना करने देता है, बल्कि इन बीमारियों की पीड़ा और भार से मुक्त होने देता है, जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु के मामलों से मुक्त होने देता है, जीवन के चक्रों से मुक्त होने देता है। वर्तमान देहधारण के दौरान इस पीड़ा को सहने और महसूस करने में, परमेश्वर मनुष्य की ओर से इन चीजों को सहता है, और जब वह इन्हें सह लेता है, तो जो लोग बचे रहते हैं, उन्हें इस पीड़ा को सहने की आवश्यकता नहीं है—जो कि भविष्य की घटनाओं का संकेत है। कुछ बेतुके लोग पूछते हैं, “तो परमेश्वर मनुष्य के बदले यह सब अकेले ही करता है?” यह पर्याप्त है कि परमेश्वर देहधारण करे और मनुष्य के बदले पीड़ा सहे—और किसे सहने की आवश्यकता है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर स्वयं सब-कुछ कर सकता है और किसी भी चीज का स्थान ले सकता है, वह सभी का प्रतिनिधित्व कर सकता है, और सभी चीजों का प्रतीक हो सकता है, सभी चीजें जो सुंदर, अच्छी और सकारात्मक हैं। इतना ही नहीं, अब जबकि उसने व्यावहारिक रूप से मनुष्य की पीड़ा का अनुभव कर लिया है, वह मनुष्य की भविष्य की समस्त पीड़ा खत्म करने के लिए और भी अधिक सशक्त गवाही और साक्ष्य का उपयोग करने के लिए और भी ज्यादा योग्य है।

इस तरह करने से, देहधारण के दो चरणों का कार्य पूरा हो जाता है और एक स्पष्ट रेखा बन जाती है : देहधारण के पहले चरण से लेकर देहधारण के इस चरण तक, इन दो चरणों के कार्य ने मानव-अस्तित्व की समस्त पीड़ा और लोगों की व्यक्तिगत पीड़ा हल कर दी है। परमेश्वर को देह में व्यक्तिगत रूप से ऐसा क्यों करना है? सबसे पहले, लोगों को यह समझना चाहिए कि उनके पूरे जीवन में जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु की पीड़ा कहाँ से आती है और मनुष्य ये चीजें क्यों झेलता है। क्या ये तब थीं जब मनुष्य पहली बार सृजित किया गया था? ये पीड़ाएँ कहाँ से आईं? ये पीड़ाएँ तब पैदा हुईं जब मनुष्य को शैतान ने लालच देकर भ्रष्ट बना दिया और फिर उसका पतन हो गया। मनुष्य की देह की पीड़ा, उसकी परेशानियाँ और खोखलापन, और मनुष्य की दुनिया में सभी अधम चीजें—ये सभी शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किए जाने के बाद प्रकट हुईं। शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किए जाने के बाद, शैतान ने मनुष्य को पीड़ा देना शुरू कर दिया, और इस तरह मनुष्य और भी ज्यादा गिर गया, उसकी बीमारी और भी ज्यादा गंभीर हो गई, उसकी पीड़ा और भी ज्यादा बढ़ गई, और उसे इस बात का अधिकाधिक एहसास हुआ कि दुनिया खोखली और दुखद है, कि इस दुनिया में जीवित रहना असंभव है, और इस दुनिया में रहना अधिकाधिक निराशाजनक है। तो मनुष्य के लिए यह पीड़ा शैतान लाया और यह सारी पीड़ा तब पैदा हुई जब वह शैतान के हाथों भ्रष्ट बनकर पतित हो गया। लोगों को शैतान के हाथों से वापस लाने और उन्हें एक सुंदर मंजिल देने के लिए परमेश्वर का व्यक्तिगत रूप से यह पीड़ा अनुभव करना आवश्यक है। भले ही लोग निष्पाप हों, फिर भी ऐसी चीजें हैं जो उनके लिए पीड़ादायक हैं, शैतान अभी भी उन्हें नियंत्रित करता है, वह अभी भी उन्हें प्रभावित कर सकता है और उन्हें अत्यधिक पीड़ा और यातना दे सकता है। इसलिए, देहधारी का व्यक्तिगत रूप से इन पीड़ाओं का अनुभव करना, और लोगों को शैतान के चंगुल से छुड़ाकर वापस लाना, और उन्हें और ज्यादा पीड़ा सहने से रोकना—क्या यह अत्यधिक अर्थपूर्ण नहीं है? जब यीशु छुटकारे का कार्य करने के लिए आया, तो देखने में ऐसा लगा कि उसने व्यवस्था और नियमों का पालन नहीं किया, लेकिन वास्तव में इसने व्यवस्था पूरी की, इसने व्यवस्था के युग का समापन और अनुग्रह के युग का सूत्रपात किया, वह मनुष्य के लिए दया और करुणा लाया, और बाद में, जब यीशु को सूली पर चढ़ाया गया, इसने मनुष्य के सारे पाप क्षमा कर दिए। यीशु ने मनुष्य को परमेश्वर के सिंहासन के सामने लौटने का हकदार बनाने के लिए अपने कीमती लहू का उपयोग किया। कहा जा सकता है कि उसने मनुष्य को छुड़ाने के लिए सूली पर चढ़ने के प्रमाण और तथ्य का उपयोग किया। हालाँकि मनुष्य के पाप परमेश्वर द्वारा क्षमा कर दिर गए थे, लेकिन मनुष्य पहले ही शैतान द्वारा बहुत गहराई तक भ्रष्ट किया जा चुका था, उसकी पापी प्रकृति अभी भी बनी ही रही, और उसने पाप करना और परमेश्वर की अवहेलना करना जारी रखा। यह एक निर्विवाद तथ्य है, इसलिए मनुष्य को उसकी पापी प्रकृति से शुद्ध करने का कार्य करने के लिए परमेश्वर दूसरी बार देहधारण करता है, अर्थात्, वह मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से शुद्ध करने के लिए उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है। पहली बार जब परमेश्वर देहधारी हुआ, तो उसे मानवजाति के पापों के लिए सूली पर चढ़ाया गया, उसने मानवजाति को छुटकारा दिलाया, और मनुष्य परमेश्वर के सामने लौट आया। दूसरी बार जब परमेश्वर देहधारी हुआ, वह मनुष्य को जीतने आया, मनुष्य को जीतकर उसे बचाने आया। हालाँकि बहुतों ने परमेश्वर का कार्य स्वीकारा है, और वे अक्सर परमेश्वर के वचन खाते-पीते हैं, फिर भी वे परमेश्वर से अनभिज्ञ रहते हैं, वे नहीं जानते कि वह कहाँ है, वह आँखों के सामने हो तो भी वे उसे पहचान नहीं पाएँगे, और उनमें परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ होने की भी संभावना है, और कभी-कभी, जिस तरह से वे चीजों को देखते हैं, वह परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होता है। मामला ऐसा क्यों है? क्योंकि वे सत्य नहीं समझते, और उनमें परमेश्वर के बारे में सच्चे ज्ञान की कमी है। जब लोगों को परमेश्वर का ज्ञान होता है, तो वे परमेश्वर के लिए पीड़ित होने और जीने में प्रसन्न होते हैं, लेकिन शैतान अभी भी उनके अंदर की कमजोरियों को नियंत्रित करता है, शैतान अभी भी उन्हें पीड़ित करने में सक्षम है, दुष्ट आत्माएँ अभी भी उनके अंदर काम कर व्यवधान पैदा करने, उन्हें सम्मोहित करने, उन्हें विक्षिप्त और चिंतित करने और पूरी तरह से परेशान करने में सक्षम हैं। लोगों के विचारों और चेतना में ऐसी चीजें हैं, जो शैतान द्वारा नियंत्रित और प्रभावित की जा सकती हैं। इसलिए, कभी-कभी तुम बीमार या परेशान होते हो, कभी-कभी तुम्हें लगता है कि दुनिया उजाड़ हो गई है, या जीने का कोई मतलब नहीं है, और कभी-कभी तो मौत की भी कामना सकते हो और खुद को मारना चाहते हो। कहने का तात्पर्य यह है कि ये पीड़ाएँ शैतान द्वारा नियंत्रित की जाती हैं, और ये मनुष्य की घातक कमजोरी हैं। जो चीज शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दी गई है और रौंद दी गई है, वह अभी भी शैतान द्वारा इस्तेमाल की जा सकती है; यह वह पेच है जिसे शैतान कसता है। इसलिए, परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने के लिए एक बार फिर देह बन गया है, और साथ ही, विजय का कार्य करते हुए वह मनुष्य के स्थान पर कष्ट उठाता है, देह में कष्ट उठाने की कीमत चुकाता है, मनुष्य की पीड़ा और घातक कमजोरी पर बोलने और उन्हें हल करने के लिए यह कीमत चुकाता है। जब वह मनुष्य के बीच पीड़ा सहने के द्वारा कीमत चुकाकर मनुष्य को लौटा लाएगा, तो शैतान फिर मनुष्य पर नियंत्रण नहीं रख पाएगा, और मनुष्य पूरी तरह से परमेश्वर के पास लौट आएगा, और सिर्फ तभी वह पूरी तरह से परमेश्वर का हो जाएगा! ऐसा क्यों है कि तुम परमेश्वर के लिए जी सकते हो, और परमेश्वर की आराधना कर सकते हो, लेकिन तुम अनिवार्य रूप से पूरी तरह से परमेश्वर के नहीं हो? दुष्ट आत्माएँ अभी भी तुम्हारी कमजोरियों का फायदा उठा सकती हैं, वे अभी भी तुम्हारे साथ खिलवाड़ कर सकती हैं, अभी भी तुम्हारा इस्तेमाल कर सकती हैं, क्योंकि लोग बहुत मूर्ख हैं। कुछ लोग पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाने और दुष्ट आत्मा द्वारा परेशान किए जाने के बीच अंतर नहीं बता सकते। यहाँ तक कि वे पवित्र आत्मा के कार्य और दुष्ट आत्माओं के कार्य के बीच अंतर भी नहीं बता सकते। क्या यह एक घातक कमजोरी नहीं है? जब दुष्ट आत्माएँ कार्य करती हैं, तो वे प्रत्येक कमी का फायदा उठाती हैं। वे तुम्हारे भीतर या तुम्हारे कान में बोल सकती हैं, या तुम्हारे मन को परेशान और तुम्हारे विचारों को अव्यवस्थित कर सकती हैं, तुम्हें पवित्र आत्मा के स्पर्श के प्रति सुन्न कर सकती हैं, तुम्हें उसे महसूस करने से रोक सकती हैं, और फिर दुष्ट आत्माएँ तुम्हारे परेशान करना शुरू कर देंगी, तुम्हारे विचारों को अराजकता में डाल देंगी और तुम अपनी सुध-बुध खो दोगे, यहाँ तक कि तुम्हारी आत्मा तुम्हारे शरीर से निकल जाएगी। यह वह कार्य है जो दुष्ट आत्माएँ लोगों में करती हैं, और अगर लोग उसकी असलियत न बता पाएँ, तो वे बहुत खतरे में होते हैं। आज, परमेश्वर ने मनुष्य के लिए यह पीड़ा सही है, और जब मनुष्य के पास एक सुंदर मंजिल होगी, तो वह न सिर्फ परमेश्वर के लिए जीएगा, बल्कि वह अब और शैतान का नहीं रहेगा, और अब उनके पास ऐसा कुछ नहीं होगा जिस पर शैतान शिकंजा कस सके; मनुष्य के विचार, आत्मा, प्राण और शरीर सब परमेश्वर के होंगे। आज, तुम्हारा हृदय परमेश्वर की ओर मुड़ा हो सकता है, लेकिन कभी-कभी तुम शैतान द्वारा उपयोग किए जाने से नहीं बच सकते, और इसलिए जब लोग सत्य प्राप्त करते हैं तो वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर उसकी आराधना करने में सक्षम होते हैं, लेकिन उनके लिए शैतान के व्यवधान से पूरी तरह से मुक्त होना असंभव होगा और उनके लिए किसी बीमारी से मुक्त होना तो और भी असंभव होगा, क्योंकि लोगों का शरीर और आत्मा शैतान द्वारा कुचल दी गई हैं। लोगों की आत्मा एक गंदी जगह है, यह वह जगह है जहाँ शैतान रहा है, और वह जगह, जिसका शैतान फायदा उठाता है। शैतान अभी भी व्यवधान डालने और नियंत्रण करने, तुम्हारे मन को स्पष्ट होने से रोकने, तुम्हें सत्य को पहचान पाने से रोकने में सक्षम है। इसलिए, मनुष्य की पीड़ा का अनुभव करने और मनुष्य के बदले पीड़ित होने के लिए परमेश्वर का देह बनना वैकल्पिक नहीं, बल्कि अत्यंत आवश्यक है!

तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि मानवजाति को बचाने का कार्य पूरा करने के लिए परमेश्वर दो बार देहधारी हुआ है। अगर सिर्फ पहला देहधारण होता, तो मानवजाति को पूरी तरह से बचाना संभव न होता, क्योंकि पहले देहधारण ने छुटकारे का कार्य किया और वह मुख्य रूप से मनुष्य के पापों की क्षमा की समस्या हल करने और मनुष्य को परमेश्वर के सामने आने योग्य बनाने के लिए प्रकट हुआ। दूसरा देहधारण मनुष्य की भ्रष्टता शुद्ध करने और उसका भ्रष्ट स्वभाव ठीक करने के लिए न्याय का कार्य कर रहा है, लेकिन फिर भी मनुष्य के पूरी तरह से परमेश्वर के हो पाने की समस्या हल करना संभव नहीं होगा। इसके अलावा, मनुष्य के शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिए गए हिस्से को पूरी तरह से ठीक करने के लिए—मनुष्य की पीड़ा और यातना की समस्या पूरी तरह से, जड़ से हल करने के लिए—दूसरे देहधारी को मनुष्य की पीड़ा का अनुभव भी होना चाहिए। ऐसे हैं दो देहधारियों के कार्य के चरण। इनमें से एक भी छोड़ा नहीं जा सकता। और इसलिए, तुम्हें देहधारी द्वारा सहन की गई पीड़ा को हल्के में नहीं लेना चाहिए। कभी वह रोता है, कभी पीड़ित और व्याकुल होता हैं, और कभी दुर्बल और शोकाकुल प्रतीत होता है। तुम लोगों को इनमें से किसी को भी हल्के में नहीं लेना चाहिए, इसके बारे में धारणा तो बिल्कुल भी नहीं रखनी चाहिए। अगर तुम इसके बारे में धारणाएँ रखते हो, तो तुम अत्यंत मूर्ख और विद्रोही हो। इसके अलावा, न ही तुम्हें यह मानना चाहिए कि सामान्य देह को यही सहना चाहिए; यह तो और भी गलत है, और अगर तुम ऐसा कहते हो, तो तुम परमेश्वर की निंदा करते हो। लोगों को समझना चाहिए कि दो देहधारियों द्वारा सही गई पीड़ा आवश्यक है। यह स्वयं परमेश्वर के लिए नहीं, बल्कि मनुष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। मनुष्य की भ्रष्टता इतनी बड़ी है कि ऐसा नहीं हो सकता कि यह न किया जाए, भ्रष्ट मनुष्य को पूरी तरह से बचाने के लिए यह करना ही होगा। परमेश्वर इस तरह से कार्य करता है कि लोग अपनी आँखों से देख सकें। वह जो कुछ भी करता है, वह सार्वजनिक होता है, किसी से छिपा नहीं होता। वह गुप्त रूप से नहीं सहता, सब-कुछ खुद करता है, डरता है कि लोग देखेंगे और धारणाएँ बनाएँगे। वह खुद को किसी से नहीं छिपाता, चाहे उसने परमेश्वर में लंबे समय से विश्वास किया हो या थोड़े समय से, चाहे वह बूढ़ा हो या जवान, या वह सत्य समझने में सक्षम हो या नहीं। क्योंकि यह सबूत है, और कोई भी यह साबित कर सकता है कि परमेश्वर के देहधारण ने बहुत अधिक पीड़ा सही है, कि उसने वास्तव में मानवजाति की पीड़ा सही है। यह सत्य नहीं है कि उसने एक ऐसे स्थान पर, जिसके बारे में कोई नहीं जानता, सिर्फ कुछ दिन पीड़ा सही है, और कि वह अपना अधिकांश समय सुख-चैन से बिताता है—ऐसी बात नहीं है। मसीह का कार्य और कष्ट किसी से छिपा नहीं है; वह इस बात से नहीं डरता कि तुम कमजोर हो जाओगे, या तुम्हारे पास धारणाएँ होंगी, या तुम विश्वास करना बंद कर दोगे। और यह क्या दर्शाता है कि यह बात किसी से छिपी नहीं है? यह दर्शाता है कि इसका परम अर्थ है! देहधारी कभी अकर्मण्य नहीं होता। तुम देखते हो कि कभी-कभी वह बोलता नहीं या आवाज नहीं करता, लेकिन वह अभी भी काम कर रहा है, वह अभी भी अपने दिल में पीड़ा सह रहा है! क्या मनुष्य को इसका आभास है? जब लोग इसे देखते भी हैं, तब भी वे इसे नहीं समझते। कुछ लोग अवश्य जानते हैं कि आज परमेश्वर साधारण और सामान्य देह का है, पर क्या तुम जानते हो कि यह साधारण और सामान्य देह आज क्या कार्य करता है? तुम नहीं जानते। तुम्हारी आँखें सिर्फ बाहर की चीजें देखती हैं, तुम आंतरिक सार नहीं देख सकते। और इसलिए, चाहे देहधारी कितने भी वर्षों तक आधिकारिक रूप से कार्य करता दिखाई दे, परमेश्वर ने वास्तव में कभी एक पल का भी विश्राम नहीं किया है; हालाँकि कभी-कभी वह बोलता या आवाज नहीं करता, और बड़े पैमाने पर कार्य नहीं करता, लेकिन उसका कार्य रुका नहीं है, और वह अभी भी मनुष्य के बदले पीड़ा सह रहा है। कुछ लोग, यह मापने की कोशिश करते हुए कि क्या परमेश्वर देहधारी हुआ है, और वह मसीह है या नहीं, यह देखते हैं कि क्या परमेश्वर बोलता है : अगर वह दो-तीन वर्षों तक नहीं बोलता, तो वह परमेश्वर नहीं है, और इसलिए वे जल्दी से परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर देते हैं। ऐसे लोगों का परमेश्वर में अपनी आस्था के प्रति “प्रतीक्षा करो और देखो” का रवैया होता है, और उन्हें परमेश्वर का कोई ज्ञान नहीं होता है। आज ऐसे लोग हो सकते हैं, जो “प्रतीक्षा कर रहे और देख रहे हैं,” और जो यह देखते हुए कि परमेश्वर कुछ समय से बोला नहीं है, अपने दिल में सोचते हैं, “क्या परमेश्वर का आत्मा छोड़कर स्वर्ग चला गया है?” क्या ऐसा सोचना गलत है? लापरवाही से निर्णय मत लो। अगर तुम्हारे मन में धारणाएँ या शंकाएँ हैं, तो परमेश्वर से प्रार्थना करो, सत्य खोजो, परमेश्वर के वचन और ज्यादा पढ़ो, ये सभी समस्याएँ हल हो जाएँगी। “कदाचित् यह या शायद वह” के साथ मामलों का आँख मूँदकर वर्णन मत करो—तुम्हारे ये “कदाचित्” और “शायद” शब्द भ्रांतियाँ हैं, और ये दुष्टों और शैतान के मत हैं! परमेश्वर का कार्य एक पल के लिए भी नहीं रुकता। वह आराम नहीं करता, हमेशा काम करता रहता है और हमेशा मानवजाति की सेवा में रहता है!

मसीह का सार समस्त पहलुओं में समझा जाना चाहिए। तुम मसीह के सार को कैसे जान सकते हो? कुंजी यह है कि तुम्हें इस दैहिक शरीर द्वारा किए गए सभी कार्य जानने चाहिए। अगर तुम सिर्फ यह मानते हो कि इस तरह आत्मा कार्य करता है, और देह नहीं करता, कि देह सिर्फ आत्मा द्वारा नियंत्रित होता है, तो यह गलत है! ऐसा क्यों कहते हैं कि कष्ट सहना, सूली पर चढ़ाया जाना, समस्त मानवजाति पर विजय प्राप्त करना और मनुष्य की पीड़ा का अनुभव करना मसीह द्वारा किया गया कार्य है? क्योंकि परमेश्वर मनुष्य बन गया और मनुष्यों के बीच कार्य करता है। आत्मा और देह एक-साथ कार्य करते हैं; यह वैसा नहीं है जैसा लोग कल्पना करते हैं, जहाँ देह नहीं बोलता और आत्मा उसे बोलने के लिए विवश करता है—ऐसा नहीं है। इसके बजाय, बड़ी आजादी है : आत्मा और देह एक ही काम करते हैं; जब देह देखता है कि कोई मामला लगभग पूरा हो चुका है, तो आत्मा भी मामले को उसी तरह देखता है। वे एक ही समय काम करते हैं। इसलिए यह कहना भी गलत है कि भौतिक शरीर प्रबल होता है। “भौतिक शरीर के प्रबल होने” का क्या अर्थ होगा? इसके लिए एक प्रसंग है : जब परमेश्वर मनुष्य बन जाता है, तो मनुष्य जो कुछ भी देखता है वह शरीर की एक क्रिया होती है, और देहधारण के दौरान शरीर प्रबल होता है। हर हाल में, आत्मा और देह एक-साथ कार्य करते हैं। ऐसा कभी नहीं होगा कि आत्मा देह को बोलने के लिए बाध्य करे पर देह अनिच्छुक हो, या फिर देह बोलना चाहे पर आत्मा द्वारा शब्द न दिए जाएँ। ऐसा कभी नहीं होगा। अगर लोग ऐसा मानते हैं, तो वे गलत हैं—और हास्यास्पद हैं। आत्मा और देह एक हैं। आत्मा देह में सन्निहित है, तो ऐसा कैसे हो सकता है कि आत्मा बोलना चाहे, पर देह न बोले? या फिर देह बोलना चाहे और आत्मा शब्द न दे? ऐसी कोई चीज नहीं हो सकती। परमेश्वर का देहधारण देह में आत्मा का अवतरण है। जब देह कार्य करता है, तो वह किसी भी समय या स्थान पर बोल सकता है, जो उससे बिल्कुल अलग है जब पवित्र आत्मा किसी व्यक्ति में कार्य करता है। सिर्फ देह में सन्निहित पवित्र आत्मा ही देहधारी है, और पवित्र आत्मा के छोड़कर जाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। जब पवित्र आत्मा लोगों में कार्य करता है, तो इसमें पसंद और संदर्भ शामिल होता है। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, अगर वे अपने रास्ते चलते हैं, तो पवित्र आत्मा उन्हें छोड़ जाता है, और वे इसे महसूस करेंगे। लोगों की समझ में हमेशा विकृतियाँ होती हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर का कार्य इस स्तर पर पहुँच गया है, तो उसके पास और वचन नहीं हैं, और वह चाहता तो भी बोल न पाता। क्या यही मामला है? परमेश्वर किसी भी समय बोल सकता है, आत्मा और शरीर के बीच कभी कोई दरार नहीं आई है। चाहे कोई भी कार्य या सत्य का पहलू व्यक्त किया जाए, चाहे तुम उसे जिस भी तरफ से देखो, यह देह में आत्मा का अवतरण है, परमेश्वर मनुष्य बन गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि देह द्वारा सही गई समस्त पीड़ा आत्मा द्वारा व्यक्तिगत रूप से मनुष्य की पीड़ा का अनुभव करना भी है। शरीर और आत्मा के बारे में अलग-अलग बात बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। देहधारण का सत्य सबसे गहरा है, और उसे वास्तविक रूप में जानने के लिए लोगों को दस-बीस वर्षों का, या जीवन भर का भी, अनुभव होना आवश्यक है।

बसंत ऋतु 1997

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