परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है

कुछ लोगों को परमेश्वर पर विश्वास करते हुए कई साल हो चुके हैं, फिर भी वे खाने-पीने, पहनने और देह के दूसरे मजे लूटने में लगे हुए हैं। क्या ये चीजें इंसान के दिल की जरूरतें पूरी कर सकती हैं? लोगों को सबसे ज्यादा जरूरत किस चीज की है, यह बात तो कुछ ऐसे लोगों को भी स्पष्ट नहीं है, जो बरसों से परमेश्वर पर विश्वास कर रहे हैं। कुछ लोग मुझे किसी को कुछ देते हुए देख लेते हैं तो बात का बतंगड़ बनाकर कहते हैं, “परमेश्वर मुझे छोड़कर उसका ख्याल क्यों रख रहा है? ये चीज मेरे पास तो है नहीं।” हकीकत में, तुम न तो भूखे हो, न तुम्हारे पास कपड़ों का अभाव है। तुममें बस लालच है; तुम्हें नहीं पता कि संतोष भी कोई चीज होती है, और चीजों को लेकर तुममें होड़ मची रहती है। तुम लोगों का ख्याल रखना मेरी बाध्यता नहीं है। तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार आचरण करना होगा। अपने हितों या फायदों के लिए कभी मत झगड़ो। ये सब बाहरी चीजें हैं; ये तुम्हारे लिए सत्य और जीवन प्राप्त करने का विकल्प नहीं हैं। तुम्हारा पहनावा चाहे कितना ही अच्छा क्यों न हो, अगर तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है तो तुम्हारा हृदय अब भी खाली ही होगा। कहने को तो लोग इन चीजों को समझते हैं लेकिन जब सचमुच इनसे पाला पड़ता है तो वे असहाय हो जाते हैं। वे जान ही नहीं पाते कि वे किस चीज के लिए बने हैं। इस संसार में बहुत-से लोगों के पास धन-दौलत और ताकत है, लेकिन ये किस प्रकार का जीवन जीते हैं? सिर्फ खाने-पीने और मौज-मस्ती में रमे रहना; रोज शराब-कबाब के मजे लेना; मेहमाननवाजी और तोहफेबाजी करना; और लापरवाही से काम करना। वे इसी तरह जीते हैं। क्या ये मनुष्यों की भाँति जी रहे हैं? नहीं। उनका ध्यान दिन भर मूर्खों की तरह पेट भरने, डिजाइनर ब्रांड के कपड़े पहनने, जहाँ जाएँ वहाँ दिखावा करने और अपनी धाक दिखाने में लगा रहता है। ऐसे लोग कौन हैं? वे दुष्ट शैतान के लोग हैं; वे जानवर हैं। जब कुछ अमीर लोग सुख-सुविधाएँ भोगकर अघा जाते हैं तो वे जीने में रुचि खोकर खुदकुशी कर लेते हैं। हो सकता है कि उन्होंने खाने-पीने, कपड़े-लत्तों और मनोरंजन का पर्याप्त सुख भोग लिया हो मगर वे आत्महत्या क्यों कर लेते हैं? इससे पता चलता है कि नाम-दाम, पद-प्रतिष्ठा, धन-दौलत, खान-पान और कपड़े-लत्ते और भोग-विलास ऐसी चीजें नहीं हैं जिनकी लोगों को वास्तव में जरूरत है। तुम लोगों को इन चीजों के पीछे नहीं भागना चाहिए। अगर तुम पतन की हद पार कर वहाँ तक पहुँच गए कि तुम्हें बचाया ही नहीं जा सकता और तब सुधरने की सोचोगे तो बहुत देर कर चुके होगे! कोई भी सूझ-बूझ वाला इंसान किसी दूसरे व्यक्ति को नाकाम होते देखकर सीधे सबक लेता है, उसे खुद वैसा करने की जरूरत नहीं पड़ती है। दूसरी ओर कोई अज्ञानी व्यक्ति एक के बाद एक असफलता का स्वाद चखता जाता है, लेकिन इन सबसे कोई सबक नहीं ले पाता है। उसका निपटान करके काट-छाँट करनी पड़ती है, जब जाकर उसे थोड़ी-सी समझ आती है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। जो बहुत ही अज्ञानी हैं वे सत्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं। जो बुद्धिमान लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, केवल वही सत्य प्राप्त कर पाते हैं। तथ्य यह है कि समस्त मानवजाति को सत्य की जरूरत है, और वह सत्य का अनुसरण करके ही बचायी जा सकती है। तुम चाहे परमेश्वर के चुने हुए व्यक्ति हो या कोई अविश्वासी हो, तुम्हें सत्य रूपी पोषण की जरूरत है, और तुम्हें परमेश्वर के उद्धार की जरूरत है। कुछ लोगों में बिल्कुल भी मानवता नहीं होती और वे सत्य को लेशमात्र भी नहीं स्वीकारते—ऐसे लोग जानवर हैं। संभव है वे सभाओं में आते हों, लेकिन वे मन ही मन पापमय सुखों के पीछे भागते हैं, ये खान-पान, कपड़े-लत्ते और मनोरंजन के सुख हैं, और उनके दिल में यही चीजें समाई रहती हैं। वे बिल्कुल भी सत्य नहीं खोजते हैं, उनके दिल में नास्तिक सोच और विकासवाद के सिद्धांतों के विचार भरे रहते हैं। तुम चाहे उनके साथ सत्य पर कैसी भी संगति कर लो, वे इस बारे में तुम्हारी एक नहीं सुनते, और भले ही वे परमेश्वर पर विश्वास करना अच्छी बात मानते हैं और अपने विश्वास पर टिके भी रहते हैं, लेकिन वे सत्य के अनुसरण के मार्ग पर नहीं चल पाते। इसीलिए जिनके दिलों में सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं है, उनका उद्धार परमेश्वर ने बदा नहीं है।

अभी बहुत-से लोगों का परमेश्वर पर बेहद भ्रमित विश्वास है। वे नहीं जानते कि परमेश्वर पर विश्वास करने से क्या हासिल करना चाहिए; वे नहीं समझते कि परमेश्वर पर विश्वास रखने का मतलब क्या है—उन्हें कोई अंदाजा ही नहीं है। वे इस बारे में कतई कुछ नहीं जानते कि मनुष्य को किस लक्ष्य के लिए जीना चाहिए, किस आधार पर जीना चाहिए, या इस प्रकार कैसे जीना चाहिए कि जीवन मूल्यवान और सार्थक हो। अगर तुम दिल से यह नहीं जानते कि तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास क्यों करना चाहिए, तो फिर तुम परमेश्वर पर विश्वास के लिए जो दु:ख-दर्द सहते हो उसका कोई मूल्य या महत्व नहीं है। लोग वास्तव में परमेश्वर पर अपने विश्वास से क्या हासिल करना चाहते हैं? अगर तुम्हारा विश्वास सत्य और जीवन हासिल करने के लिए है, तो परमेश्वर का कार्य समाप्त होने और लोगों का अंत तय होने पर क्या तुम पछतावे से भरे नहीं होगे? जब तुमने पहले-पहल परमेश्वर का अनुसरण करने की ठानी थी, तो क्या वह क्षणिक आवेग था, या फिर परमेश्वर पर विश्वास का फैसला करने से पहले तुमने इस बारे में अच्छी तरह सोच-विचार करके सब समझ लिया था? तुम वास्तव में किस लक्ष्य के लिए जी रहे हो? जीवन में तुम्हारी दिशा क्या है और तुम्हारे लक्ष्य क्या हैं? क्या तुमने यह संकल्प लिया है कि अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करोगे और आखिरकार सत्य प्राप्त करके रहोगे? क्या यह सुनिश्चित कर सकते हो कि तुम आधे रास्ते में हाथ खड़े नहीं करोगे? क्या तुम वफादारी से अपना कर्तव्य निभा सकोगे, फिर चाहे कैसे भी हालात सामने आएँ या तुम्हें कैसे भी कष्टों, परीक्षणों, कठिनाइयों और मुसीबतों से गुजरना पड़े? कुछ लोगों में तो लेशमात्र भी आस्था या सत्य के अनुसरण का संकल्प नहीं होता है। ऐसे में, सत्य हासिल करना आसान नहीं होगा। जब लोगों की रुचि सत्य में नहीं होती है, तो वे स्वेच्छा से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम नहीं होते और ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपाते हैं। इस प्रकार के लोग अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? अगर तुम उनसे पूछो, “तुम परमेश्वर पर विश्वास क्यों करते हो? तुम परमेश्वर पर विश्वास करके क्या हासिल करना चाहते हो? तुम्हें किस मार्ग पर चलना चाहिए?” तो वे बगलें झाँकने लगेंगे और उत्तर नहीं दे पाएँगे। इससे साबित होता है कि वे परमेश्वर पर विश्वास सत्य और जीवन हासिल करने के लिए नहीं कर रहे हैं, बल्कि आशीष पाने के मौके ताक रहे हैं। ऐसा कोई व्यक्ति कैसे अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभा पाएगा? सत्य से सचमुच प्रेम करने वाले लोग इसे जितना ज्यादा समझते जाते हैं, वे अपना कर्तव्य निभाने के प्रति उतने ही अधिक उत्साही होते हैं। जो सत्य को नहीं समझते हैं, वे अपना कर्तव्य निभाते हुए अक्सर नकारात्मक होने लगते हैं। अगर वे सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते तो पीछे हट जाते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अलग तरह के होते हैं : वे अपना कर्तव्य जितना अधिक निभाते हैं, सत्य को उतना ही अधिक समझते हैं, इसे निभाते हुए उनकी भ्रष्टता स्वच्छ होती जाती है। कोई व्यक्ति सत्य को जितना अधिक समझता है, वह उतना ही अधिक महसूस करता है कि परमेश्वर का अनुसरण करने पर मिलने वाला फल उतना ही शानदार है, और देख सकता है कि परमेश्वर के अनुसरण के मार्ग पर जितना अधिक चलो, यह उतना ही अधिक रोशन होता जाता है। यही लोग सत्य हासिल कर चुके होते हैं। अगर लोग वास्तव में सत्य को समझते हैं, तो वे परमेश्वर का अनुसरण करने के प्रति आश्वस्त रहेंगे और अंत तक वफादार बने रहेंगे।

जब कुछ लोगों का जीवन बीमारी के कारण अधर में लटका होता है, तो वे परमेश्वर से बचाने की गुहार लगाते हैं, और इससे उबरने पर वे थोड़ा-बहुत सत्य को समझने लगते हैं। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि हर कोई जीवन-मरण की स्थिति में परमेश्वर को पुकारने का अनुभव हासिल कर ले। महज कुछ लोगों के अनुभव देखो, उनकी संगति और उनकी भावनाओं को सुनो, और तुम्हें इससे लाभ होगा। भले ही तुम्हें खुद कोई अनुभव न हुआ हो, तुम दूसरों के अनुभवों से थोड़ी-सी समझ पा सकते हो। कुछ लोग मौत के करीब जाते हुए महसूस करते हैं कि उनमें बहुत अधिक बदलाव नहीं आया, कि वे परमेश्वर के बारे में कुछ नहीं जानते और परमेश्वर के लिए उन्होंने जो कुछ किया है और वे जितने खपे हैं, वह सीमित है। उन्हें लगता है कि बरसों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के दौरान भी उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, कि उन्होंने बहुत कम हासिल किया है और वे परमेश्वर के बहुत बड़े कर्जदार हैं। अगर उन्हें मरना पड़ा, तो वे खुशी-खुशी ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि अब उनके पास पछताने का मौका नहीं होगा। जब अय्यूब को परीक्षणों से गुजरना पड़ा, तो उसका शरीर फोड़ों से भर गया; उसकी पत्नी ने उसे नहीं समझा और ताने मारे, उसके दोस्तों ने भी उसे नहीं समझा और उसकी आलोचना और निंदा की, उन्होंने यहाँ तक सोचा कि उसने जरूर कोई बुरा काम करके यहोवा परमेश्वर को नाराज किया होगा। उन्होंने अय्यूब से कहा, “तुमने कैसे यहोवा परमेश्वर को नाराज कर दिया? जाओ, अपने पापों का प्रायश्चित करो। यहोवा परमेश्वर धार्मिक है।” लेकिन अय्यूब अपने दिल की बात समझता था और जानता था कि उसने कुछ भी बुरा नहीं किया है। फिर भी, उसके लिए ऐसा परीक्षण झेलना पीड़ादायक था! इस पीड़ा में उसने जीने से बेहतर मरना चाहा; उसने इतने अधिक कष्ट भोगे कि उसे लगा कि इनसे बचने का एकमात्र उपाय मौत ही है, कि मौत ही इन कष्टों का अंत है, मगर वह अब भी अपने दिल में परमेश्वर की स्तुति करने में सक्षम था। यह किसी साधारण मनुष्य के बस की बात नहीं है। अधिकतर लोग जब कष्टों में होते हैं को परमेश्वर की स्तुति नहीं कर पाते। वे उससे बस माँगें करते हैं, “हे परमेश्वर, मुझे जीने का एक और मौका दे। मुझे जल्दी से ठीक कर दे! जब मैं ठीक हो जाऊँगा तो तू जो भी चाहेगा मैं वही करूँगा।” वे सौदेबाजी करने लगते हैं। अगर बीमारी आ जाए तो तुम्हें इसका अनुभव कैसे करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के इरादे जानने और टटोलने चाहिए; तुम्हें अपनी जाँच करनी चाहिए कि तुमने ऐसा क्या कर दिया जो सत्य के विरुद्ध है, और तुम्हारी कौन-सी भ्रष्टता दूर नहीं हुई है। कष्ट भोगे बिना तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं हो सकता है। कष्टों की आँच से तपकर ही लोग स्वच्छंद नहीं बनेंगे और हर घड़ी परमेश्वर के समक्ष रह सकेंगे। जब कोई कष्ट भोगता है तो वह हमेशा प्रार्थना में लगा रहता है। तब उसे खान-पान, कपड़े-लत्तों और दूसरी सुख-सुविधाओं की सुध नहीं रहती; वह मन ही मन प्रार्थना करता रहता है, हमेशा आत्म-परीक्षण करता है कि कहीं वह कुछ गलत तो नहीं कर बैठा या कहीं सत्य के विरुद्ध तो नहीं चला गया। आम तौर पर जब तुम किसी गंभीर या अजीब बीमारी का सामना करते हो और बेहद पीड़ा झेलते हो तो ऐसा संयोगवश नहीं होता। चाहे तुम बीमार हो या खूब तंदुरुस्त हो, इसके पीछे परमेश्वर की इच्छा होती है। जब पवित्र आत्मा कार्य करता है और तुम शारीरिक रूप से स्वस्थ होते हो, तो तुम आम तौर परमेश्वर को खोज सकते हो, लेकिन बीमार पड़ने पर और कष्ट भोगते हुए तुम परमेश्वर को खोजना बंद कर देते हो, और नहीं जानते कि उसे कैसे खोजना है। तुम बीमारी भोगते हुए हमेशा यही सोचते रहते हो कि कौन-से इलाज से जल्द से जल्द ठीक हो सकते हो। तुम उन लोगों से जलने लगते हो जो ऐसे समय में बीमार नहीं हैं, और जितनी जल्दी हो सके तुम अपनी बीमारी और पीड़ा से मुक्ति पाना चाहते हो। ये नकारात्मकता और प्रतिरोध की भावनाएँ हैं। जब लोग बीमार पड़ते हैं तो कभी-कभी सोचते हैं, “क्या मैं अपनी अज्ञानता के कारण इस बीमारी को बुलावा दे बैठा, या फिर यह परमेश्वर की इच्छा है?” वे यह पता लगा ही नहीं पाते। दरअसल, कुछ बीमारियाँ सामान्य होती हैं, जैसे सर्दी-जुकाम, सूजन या बुखार। जब तुम्हें कोई बड़ी बीमारी लगती है जो तुम्हें अचानक पस्त कर दे, तुम इसे झेलने के बजाय मरना चाहो, ऐसी बीमारी संयोग से नहीं आती है। जब तुम्हें बीमारी या पीड़ा होती है तो क्या तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे कुछ माँगते हो? पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा मार्गदर्शन और अगुआई कैसे करता है? क्या वह तुम्हें केवल प्रबुद्ध और रोशन करता है? यह उसका अकेला तरीका नहीं है; वह तुम्हारी परीक्षा भी लेता है और तुम्हारा शोधन भी करता है। परमेश्वर लोगों की परीक्षा कैसे लेता है? क्या वह पीड़ा देकर लोगों की परीक्षा नहीं लेता? परीक्षा के साथ-साथ पीड़ा भी होती है। अगर यह परीक्षा न होती तो मनुष्य पीड़ा क्यों सहता? पीड़ा सहे बिना लोग बदल कैसे सकते हैं? परीक्षा के साथ-साथ पीड़ा भी होती है—यही पवित्र आत्मा का कार्य है। कभी-कभी परमेश्वर लोगों को कुछ कष्ट देता है, वरना उन्हें ब्रह्मांड में अपनी औकात का पता ही नहीं रहता और वे ढीठ बन जाते। केवल सत्य पर संगति करके किसी भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह दूर नहीं किया जा सकता। दूसरे लोग तुम्हारी समस्याओं को बता सकते हैं और तुम भी खुद उन्हें जान सकते हो, लेकिन तुम उन्हें बदल नहीं सकते। खुद को नियंत्रित करने के लिए तुम अपनी इच्छाशक्ति पर चाहे कितना ही भरोसा कर लो, अपने गाल पर थप्पड़ मारने, अपना सिर ठोकने, दीवार से पटकने और अपनी देह को चोट पहुँचाने से भी तुम्हारी समस्याएँ हल नहीं होंगी। चूँकि तुम्हारे भीतर बैठा शैतानी स्वभाव तुम्हें लगातार पीड़ा देता है, परेशान करता है और तुम्हें तमाम तरह के विचार और धारणाएँ देता है, इसलिए यह भ्रष्ट स्वभाव बाहर आकर रहेगा। अगर तुम इसे दूर नहीं कर सकते तो तुम्हें क्या करना चाहिए? बीमारी के जरिए तुम्हारा शोधन होना चाहिए। कुछ लोगों को इस शोधन के दौरान इतना अधिक कष्ट होता है कि वे इसे सह नहीं पाते, और प्रार्थना और खोज में जुट जाते हैं। जब तुम बीमार नहीं होते, तो बहुत स्वच्छंद और बेहद अहंकारी होते हो। जब बीमार पड़ जाते हो, तो तुम्हारी हेकड़ी उतर जाती है—क्या तुम तब भी बेहद अहंकारी हो सकते हो? जब तुममें कुछ बोलने भर का दम नहीं होता, तो क्या तुम दूसरों को भाषण दे सकते हो या अहंकारी हो सकते हो? ऐसे समय में तुम कोई माँग नहीं करते हो; तुम खान-पान, कपड़ों या मौज-मस्ती की चिंता किए बिना केवल अपने कष्टों से छुटकारा पाना चाहते हो। तुममें से अधिकतर लोगों को अभी यह अनुभूति नहीं हुई है, पर जब ऐसा होगा तो तुम समझ जाओगे। कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो पद के लिए, देह के सुखों के लिए और अपने हितों के लिए लड़ते हैं। इसकी वजह सिर्फ यह है कि वे बहुत आरामपरस्त हैं, उन्होंने बहुत कम कष्ट सहे हैं और वे मर्यादाहीन हैं। आगे इन लोगों का कष्ट और शोधन से पाला पड़ने वाला है!

कभी-कभी परमेश्वर तुम्हारे लिए कोई परिस्थिति खड़ी करेगा, तुम्हारे आसपास मौजूद लोगों के जरिए तुमसे निपटेगा और कष्ट दिलाएगा, तुम्हें सबक सिखाएगा और सत्य को समझने और चीजों की असलियत जाने का अवसर देगा। परमेश्वर अभी यही कार्य कर रहा है, तुम्हारी देह को कष्ट दे रहा है, ताकि तुम अपना सबक सीख सको और भ्रष्ट स्वभाव दूर कर अपना कर्तव्य निभा सको। पौलुस अक्सर कहता था कि उसकी देह में काँटा है। यह कौन-सा काँटा था? यह एक बीमारी थी और वह इससे बच नहीं सकता था। वह बखूबी जानता था कि यह कौन-सी बीमारी है, कि यह उसके स्वभाव और प्रकृति से जुड़ी है। अगर वह इस काँटे का मारा न होता, अगर उसे यह बीमारी न लगी होती तो वह शायद कहीं भी और कभी भी अपना राज्य स्थापित कर सकता था, लेकिन इस बीमारी के कारण उसके पास ताकत नहीं बची थी। इसलिए अधिकांश समय बीमारी लोगों के लिए एक प्रकार की “सुरक्षा छतरी” होती है। अगर तुम बीमार नहीं होते, बल्कि ताकत से भरे होते हो, तो तुम कोई भी बुराई कर सकते हो और कोई भी मुसीबत बुला सकते हो। जब लोग बेहद अहंकारी और स्वच्छंद होते हैं तो आसानी से अपने होश-ओ-हवास गँवा सकते हैं। बुराई कर चुकने के बाद वे पछताएँगे, लेकिन तब तक वे अपनी मदद करने में लाचार हो चुके होंगे। इसीलिए थोड़ी-सी बीमारी होना लोगों के लिए अच्छी चीज है, एक सुरक्षा कवच है। तुम दूसरे लोगों की सारी समस्याएँ दूर करने में समर्थ हो सकते हो और तुम अपने ख्यालों में सारी दिक्कतें ठीक कर सकते हो, लेकिन जब तक तुम खुद किसी बीमारी से नहीं उबर लेते, तुम कुछ भी नहीं कर सकते। बीमार पड़ना वास्तव में तुम्हारे बस के बाहर की चीज है। अगर तुम बीमार पड़ जाते हो और इसके उपचार का कोई तरीका नहीं होता है, तब तुम्हें पीड़ा सहनी चाहिए। इससे छुटकारा पाने की कोशिश मत करो; तुम पहले आज्ञाकारी बनो, परमेश्वर से प्रार्थना करो और परमेश्वर के इरादे खोजो। कहो : “हे परमेश्वर, जानता हूँ कि मैं भ्रष्ट हूँ और मेरी प्रकृति बुरी है। मैं ऐसी चीजें करने में सक्षम हूँ जो तुमसे विद्रोह और तुम्हारा प्रतिरोध करती हैं, जो तुम्हें आहत करती हैं और कष्ट देती हैं। कितनी अच्छी बात है कि तुमने मुझे यह बीमारी दे दी है। मुझे इसके प्रति समर्पण करना चाहिए। मुझे प्रबुद्ध करो, अपनी इच्छा समझने दो, और यह भी कि तुम मुझमें क्या बदलाव देखना चाहते हो और क्या पूर्ण करना चाहते हो। मेरी यही विनती है कि तुम मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं सत्य को समझ सकूँ और जीवन के सही मार्ग पर चल सकूँ।” तुम्हें खोज और प्रार्थना करनी चाहिए। तुम यह गलत सोच नहीं पाल सकते कि बीमार पड़ना कुछ नहीं होता, कि यह परमेश्वर को रुष्ट करने के बदले तुम्हें अनुशासित करने की प्रक्रिया नहीं हो सकती है। जल्दबाजी में फैसले मत करो। अगर तुम सचमुच ऐसे व्यक्ति हो जिसके हृदय में परमेश्वर है तो फिर तुम जिस चीज का भी सामना करते हो, उसकी अनदेखी मत करो। तुम्हें प्रार्थना और खोज करनी चाहिए, हर मामले में परमेश्वर की इच्छा देखनी चाहिए और उसकी आज्ञा का पालन करना सीखना चाहिए। जब परमेश्वर यह देख लेता है कि तुम समर्पण कर सकते हो और तुम्हारे दिल में उसके प्रति आज्ञाकारिता है, तो वह तुम्हारी पीड़ा कम कर देगा। परमेश्वर पीड़ा और शोधन के जरिए ऐसे प्रभाव पैदा करता है।

इतिहास के पूरे कालखंड में, धर्मनिष्ठ ईसाइयों, शिष्यों, प्रेरितों और पैगंबरों को पत्थर फेंक-फेंककर मारा गया, घोड़ों से घसीटा गया, टुकड़े-टुकड़े काटा गया, खौलते तेल में उबाला गया, सूली पर चढ़ाया गया...। उन्हें तमाम तरीकों से मारा गया। इससे मेरा यह आशय है कि परमेश्वर का अनुसरण करने पर आराम पाने की मत सोचो। इसकी माँग मत करो; इसके लिए अनुचित इच्छा न रखो। मैं क्यों कहता हूँ कि लोगों का परमेश्वर से माँगें करना गलत है? ऐसा इसलिए है क्योंकि कोई छोटी-सी भी माँग एक अनुचित इच्छा के बराबर होती है और तुम्हारे पास यह नहीं होनी चाहिए। यह कहकर चीजों की इच्छा मत करो, “हे परमेश्वर, मुझे अच्छे कपड़े पहना, क्योंकि मैं अच्छी चीजें पहनने का हकदार हूँ। हे परमेश्वर, मैं अभी अपना कर्तव्य पूरा कर रहा हूँ, इसलिए मुझे तुमसे आशीष और अच्छा स्वास्थ्य पाने का अधिकार है।” अगर तुम किसी दिन बीमार पड़ गए, तो क्या नकारात्मक हो जाओगे? क्या तुम परमेश्वर पर विश्वास करना बंद कर दोगे? अगर तुम स्वस्थ नहीं होते, क्या तब भी अपना कर्तव्य निभाओगे? क्या अपना कर्तव्य हर हाल में नहीं निभाना चाहिए? यह स्वर्ग से प्राप्त कर्म है, एक जिम्मेदारी है जो छोड़ी नहीं जा सकती। तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, भले ही कोई और निभाए या न निभाए। यह दृढ़ संकल्प तुममें होना ही चाहिए। बहुतेरे लोग सोचते हैं, “अगर परमेश्वर पर विश्वास करने पर भी मुझे कष्ट सहने पड़ें, तो उसका अनुसरण किस लक्ष्य के लिए करूँ? मैं परमेश्वर का अनुसरण उनकी आशीष पाने के लिए करता हूँ। आशीष का आनंद भी न मिले, तो मैं उसका अनुसरण नहीं करूँगा!” क्या यह गलत नजरिया नहीं है? तुम सब लोग अपने बरसों के अनुभव से जान ही चुके हो कि वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों पर ऐसा कोई स्पष्ट रूप से दिखने वाला आशीष नहीं बरसता, जैसा कि लोग सोचते हैं। हर रोज खुश और बेफिक्र रहना, अच्छे कपड़े पहनना, सब कुछ सुचारु रूप से चलना और दुनिया में समृद्धि पाना—सबके लिए चीजें इस तरह नहीं होती हैं। वे सब अपने जीवन में हर दिन एक के बाद एक बाधा पार करते हुए आगे बढ़ते हैं। कुछ लोगों के साथ किन्हीं नौकरियों में भेदभाव होता है और उन्हें धौंस दी जाती है; कुछ लोगों के पीछे हमेशा बीमारी पड़ी रहती है; कई अन्य लोग व्यवसाय में नाकाम होते हैं और उनके परिवार के अविश्वासी सदस्य उन्हें छोड़ देते हैं। जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं; यह कभी एक जैसा नहीं चलता है। जो सत्य का अनुसरण जितना अधिक करता है, उसे उतना ही अधिक कष्ट होता है, जबकि जो लोग सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करते, वे आराम का जीवन जीते हैं। उन्हें कोई बीमारी या परेशानी नहीं होती; उनके लिए सब कुछ सहज रूप से चलता रहता है, और दूसरे लोग उनसे जलते हैं। फिर भी उन्हें लेशमात्र भी जीवन-प्रवेश नहीं मिलता और वे अविश्वासियों की तरह जीते हैं। जो लोग निष्ठापूर्वक परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उन्हें दु:ख और मुसीबत अनिवार्य रूप से सहने पड़ते हैं। और जब तुम दु:ख और मुसीबत सहते हो, तो इससे क्या साबित होता है? यही कि परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ा नहीं है, परमेश्वर ने तुम्हें त्यागा नहीं है, तुम पर हमेशा परमेश्वर का वरदहस्त है और वह साथ नहीं छोड़ता है। अगर उसने साथ छोड़ दिया, और तुम शैतान के जाल में फँस गए, तो क्या तुम खतरे में नहीं पड़ोगे? अगर तुम रोज पाप में जीते हुए शोहरत और किस्मत तलाशते हो, सुखों के लिए लालायित रहते हो, शराब-जुए और व्यभिचार में डूबे रहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा। वह तुम पर कोई ध्यान नहीं देगा और तुम्हें शर्तिया त्याग देगा। तुम सांसारिक धन-दौलत और प्रतिष्ठा तो पा सकते हो, लेकिन वास्तव में सबसे बेशकीमती चीज खो चुकोगे—वह सत्य जो अनंत जीवन है—और तुम यह जानते तक नहीं हो!

कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर क्यों हमेशा मुझे अनुशासित करने में लगा रहता है? दूसरे लोग इतने स्वस्थ क्यों हैं जबकि मैं हमेशा बीमार रहता हूँ? मैं क्यों हमेशा कष्ट भोगता हूँ? मेरा परिवार इतना गरीब क्यों है? हम क्यों अमीर नहीं बन सकते? मैं क्यों कभी अच्छे कपड़े नहीं पहन सकता? दूसरे लोग क्यों अच्छे कपड़े पहन पाते हैं?” यह ईर्ष्या मत पालो कि दूसरे लोग परमेश्वर का कितना अधिक अनुग्रह और आशीष पाते हैं। इसका शायद यह कारण हो कि उनका आध्यात्मिक कद छोटा है और परमेश्वर उनकी कमजोरी समझता है, इसलिए वह उन्हें आनंद लेने के लिए कुछ अनुग्रह बरसाता है, उन्हें थोड़ा-थोड़ा करके इसका अनुभव लेने देता है, ताकि वे धीरे-धीरे उसके कर्मों को समझ सकें। तुमसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ अत्यंत कठोर हैं। मनुष्य की नजर से, तुम्हारा जीवन बिल्कुल भी खुशहाल नहीं है और तुम निरंतर कष्ट सह रहे हो, लेकिन तुम कई सत्य समझ चुके हो और तुम्हें बहुत सारा आभार जताकर परमेश्वर की स्तुति करनी चाहिए। ऐसा ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जानता है। अगर कोई व्यक्ति सत्य को समझ पा रहा है, तो यह परमेश्वर का सबसे बड़ा आशीष है, फिर चाहे उसे कोई भी कष्ट क्यों न भोगना पड़े। परमेश्वर के हाथों अक्सर इस प्रकार अनुशासित होना और परीक्षणों का सामना करना, जिससे तुम अक्सर सबक सीख सको और सत्य को समझ सको—इसका मतलब है कि तुम पर परमेश्वर का प्रेम बना हुआ है। अगर तुम हमेशा स्वच्छंद बने रहते हो और अभी तक अनुशासित नहीं हुए हो, और अनुशासित नहीं किए जाते हो, तो तुम्हारी स्वच्छंदता का दौर चाहे कितना भी लंबा चले, अगर तुमसे निपटने वाला या तुम्हें देखने वाला कोई नहीं है, तो फिर तुम खत्म हो चुके हो। इसका अर्थ है कि परमेश्वर तुम्हें त्याग चुका है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कोई कर्तव्य नहीं निभाते और कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। वे बड़े ही आराम से ऐश और बेफिक्री का जीवन जीते हैं। वे कोई सबक नहीं सीख सकते और उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता। क्या इसे ही खुशी कहते हैं? वे अपनी स्वच्छंदता की चाह, आजादी और दैहिक भोग-विलास की खोज से भला क्या हासिल कर सकते हैं? तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए कष्ट भोगते हो और खुद को थकाकर चूर कर देते हो, और हर कोई तुम्हारी परवाह करता है; कभी-कभी वे तुम्हारी काट-छाँट और निपटान करते हैं। यह दिखाता है कि परमेश्वर तुमसे प्रेम करता है और तुम्हारी जिम्मेदारी लेता है। कई मामलों में तुम्हें और भी अधिक खोज और परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। तब तुम उसकी इच्छा को समझ सकोगे। तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हें किसी भी परिस्थिति में मनमौजी, स्वच्छंद, बेफिक्र और लापरवाह, या अपने गलत तौर-तरीकों को लेकर अड़ियल नहीं होना चाहिए। जब तुम्हारे सामने कोई समस्या हो, तो तत्पर होकर सत्य खोजो। अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम होना ही सर्वोपरि है और इससे तुम्हारा दिल सहज रूप से शांत और खुश हो पाएगा। अगर तुम बहुत ही मनमौजी या स्वच्छंद हो, अनुशासन को स्वीकार नहीं करते, और बहुत ही अड़ियल भी हो, तो फिर तुम खतरे में हो। एक बार तुम्हें निकाल दिया गया तो तुम्हारे पास और अधिक मौके नहीं बचेंगे, और तब पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। कुछ लोग जब पहली बार बीमार पड़ते हैं तो हरदम प्रार्थना करते रहते हैं, लेकिन बाद में, प्रार्थना से खुद को ठीक न होते देखकर वे अपनी बीमारी में डूब जाते हैं, हरदम शिकायत करते हुए मन ही मन कुढ़ते हैं, “परमेश्वर पर विश्वास करके मेरा कोई भला नहीं हुआ। मैं बीमार हूँ और परमेश्वर मुझे ठीक करने से रहा!” यह सच्ची आस्था नहीं है। इसमें कतई भी आज्ञाकारिता नहीं है, और जब वे शिकायतों से भर जाते हैं तो आखिर मृत्यु ही हाथ लगती है। इस तरह परमेश्वर उनकी देह को खत्म कर नरक भेज देता है; यह उनके लिए सर्वनाश है। इस जीवन में उनके पास उद्धार का कोई अवसर नहीं बचता और उनकी आत्मा को नरक में ही जाना होगा। मानवता को बचाने के लिए परमेश्वर के कार्य का यह अंतिम चरण है और अगर किसी को निकाल दिया जाता है, तो उसके पास कभी भी दूसरा अवसर नहीं रहेगा! अगर तुम उस दौरान मरते हो जब परमेश्वर उद्धार के अपने कार्य में जुटा है, तो यह सामान्य मृत्यु नहीं, बल्कि दंड है। जो दंड के रूप में मृत्यु पाते हैं, उनके पास बचाए जाने का मौका नहीं होता। क्या नरक के कुंड में पौलुस को निरंतर दंड नहीं मिल रहा है? दो हजार साल बीत चुके हैं और वह अब भी वहीं है, दंड भुगत रहा है! जानबूझकर कुछ गलत करना तो और भी बुरा है, और तब दंड भी और गंभीर मिलता है!

कुछ लोग कहते हैं, “मैं हमेशा बीमार पड़ा रहा हूँ, हमेशा कष्टों में रहा हूँ और पीड़ा भुगतता आया हूँ। मेरे इर्द-गिर्द हमेशा कुछ हालात खड़े होते रहे हैं, लेकिन मैंने कभी भी पवित्र आत्मा के कार्य का अनुभव नहीं किया।” यह सही है। पवित्र आत्मा अधिकांश समय इसी तरह कार्य करता है—तुम्हें इसका पता नहीं चलता। यह शोधन है। कभी-कभी पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और संगति के जरिए तुम्हें कोई सत्य समझाएगा। कभी-कभी वह तुम्हारे माहौल के जरिए किसी चीज का बोध कराएगा, तुम्हारी परीक्षा लेगा, तपाएगा, और उस माहौल में तुम्हें प्रशिक्षित करेगा, ताकि तुम प्रगति कर सको—इसी तरह पवित्र आत्मा कार्य करता है। पहले जब तुम लोग चीजों का अनुभव करते थे तो तुम्हें कोई ज्ञान नहीं था, क्योंकि तुमने अपने दिल में सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया। जब कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझता है, तो वह कुछ नहीं जान पाता कि माजरा क्या है और वह हमेशा आशंका से डरा रहता है। ठीक उसी तरह जैसे जब कोई बीमार हो जाता है और मानता है कि परमेश्वर उसे अनुशासित कर रहा है, जबकि वास्तव में कुछ बीमारियाँ मानव निर्मित होती हैं और जीवन जीने के नियमों की समझ की कमी के कारण पैदा होती हैं। जब तुम ठूँस-ठूँसकर खाते हो और तंदुरुस्त रहना नहीं जानते, तो हर तरह से बीमार पड़ जाते हो। फिर भी तुम कहते हो कि यह परमेश्वर का अनुशासन है, जबकि हकीकत में यह तुम्हारी अज्ञानता का नतीजा है। लेकिन, कोई भी बीमारी चाहे मनुष्य की अपनी करनी का फल हो या पवित्र आत्मा की देन, आखिर यह परमेश्वर की विशेष मेहरबानी है; इसका उद्देश्य यह है कि तुम सबक सीखो, और इसके लिए परमेश्वर को धन्यवाद दो, न कि शिकायतें करो। तुम्हारी हर शिकायत एक दाग छोड़ जाती है, और यह ऐसा पाप है जो धोया नहीं जा सकता! जब तुम कोई शिकायत करते हो, तो तुम्हें अपनी दशा पूरी तरह बदलने में कितना समय लगेगा? अगर तुम थोड़े निराश होते हो, तो एक महीने बाद ठीक हो सकते हो। जब तुम कोई शिकायत करते हो और किसी निराशा की भावना को व्यक्त करते हो, तो तुम एक साल बाद भी ठीक नहीं हो सकते, और पवित्र आत्मा तुम पर काम नहीं करेगा। अगर तुम हमेशा शिकायतें करते रहे, तो तुम्हारे लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी और पवित्र आत्मा का कार्य हासिल करना तो और भी कठिन हो जाएगा। अपनी मानसिकता सही रखने और पवित्र आत्मा का थोड़ा-बहुत कार्य प्राप्त करने के लिए कमर कसकर प्रार्थना करनी पड़ती है। मानसिकता को पूरी तरह बदलना आसान नहीं है। ऐसा सिर्फ सत्य खोजकर और पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश पाकर किया जा सकता है। वास्तव में तुम लोगों के अपने अनुभव में ही ऐसे मौके आते हैं जब तुम पवित्र आत्मा का कार्य हासिल करते हो। इसमें से अधिकांश ऐसे होते हैं जब तुम कोई जुल्म और मुसीबत या बीमारी और पीड़ा झेल रहे होते हो। केवल तभी तुम मन लगाकर परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, खुद को ठीक करने, और आस्था और शक्ति देने की उससे विनती करते हो। तुम केवल इसी एक चीज के लिए प्रार्थना करते हो। तुम शायद और अधिक प्रार्थना कर परमेश्वर की इच्छा खोजना चाहते हो, लेकिन तुम जानते ही नहीं कि कहना क्या है। तुम अपने दिल से परमेश्वर से कुछ शब्द कहना चाहते हो, लेकिन तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ नहीं है। तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है। कभी-कभी परमेश्वर आसपास के लोगों के जरिए तुम्हें मुसीबत में डालेगा। ऐसे समय में तुम कुछ नहीं कर सकते, सिवाय इसके कि परमेश्वर के पास लौटकर आत्म-चिंतन करो, “मैंने वास्तव में क्या गलत किया है? हे परमेश्वर, मेरा प्रबोधन कर और मुझे समझने में मदद कर। अगर परमेश्वर मेरा प्रबोधन नहीं करता है, तो मैं बस प्रार्थना करता रहूँगा। अगर मैंने प्रार्थना कर ली है और अब भी नहीं समझता हूँ, तो फिर मैं इस मामले में खोज करता रहूँगा, और किसी ऐसे व्यक्ति की मदद लूँगा जो सत्य को समझता है।” अपनी जिम्मेदारी लेना इसे ही कहते हैं। कुछ लोगों के साथ चीजें घटती हैं, तो वे कभी सत्य नहीं खोजते हैं। वे धर्म-सिद्धांत के चंद शब्दों और वाक्यांशों को समझकर ही सोच लेते हैं कि उन्हें सत्य की समझ है। वे खुद को धोखा देते हैं, और यह मूर्खता है। वे सबसे मूर्ख और अज्ञानी लोग हैं, और इसका एक ही नतीजा हो सकता है कि वे जरा-सा भी सत्य हासिल किए बिना, खुद को नुकसान पहुँचाकर नष्ट कर डालेंगे।

तुम लोग आम तौर पर ज्यादा प्रार्थना नहीं करते, है ना? जब लोग ज्यादा प्रार्थना नहीं करते, तो वे ज्यादा नहीं खोजते, और अगर वे ज्यादा नहीं खोजते, तो उनके लिए सत्य को समझना बहुत मुश्किल हो जाता है, और उनमें आज्ञाकारिता भी नहीं होती है। अगर तुम्हारा खोजी रवैया नहीं है, तो आज्ञाकारिता कहाँ से आएगी? तुम परमेश्वर के कर्मों को कैसे समझ पाओगे? तुम तो यह भी नहीं जानते कि परमेश्वर तुम पर कैसे कार्य करता है, न ये जानते हो कि तुम्हें किसकी आज्ञा माननी चाहिए या किसके वचनों पर ध्यान देना चाहिए। तुम्हारे लिए आज्ञाकारिता का प्रश्न ही बेमानी है। आज्ञाकारिता कोई अस्पष्ट चीज नहीं है। इसका उद्देश्य और प्रयोजन होता है। अगर तुम यह भी नहीं जानते कि परमेश्वर सत्य क्यों व्यक्त करता है या वह क्या करता है, तो तुम आज्ञाकारी कैसे हो सकते हो? जब तुम आज्ञाकारिता की बात करते हो, तो यह खोखला शब्द बनकर रह जाता है। जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम्हें कैसे प्रार्थना करनी चाहिए, और जो तुम्हारे दिल में है उसे कहकर तुम्हें कैसे खोजना चाहिए? तुम्हें क्या खोजना चाहिए? वास्तविक प्रार्थना करने से पहले तुम्हें इन चीजों को लेकर स्पष्ट होना चाहिए। प्रार्थना करते हुए दूसरे लोगों के कहे शब्दों की नकल मत करो, यीशु के इन वचनों की तो बिल्कुल भी नहीं, “तेरी इच्छा पूरी हो।” बिना सोचे-समझे इन शब्दों की नकल मत करो। तुममें जो कुछ है वह प्रबोधन और रोशनी से अधिक कुछ नहीं है, और यह परमेश्वर की इच्छा हासिल करने के बराबर नहीं हो सकता है। जब कभी-कभी तुम्हारा निपटान या काट-छाँट होता है या तुम कुछ कष्ट सहते हो, तो यह मत कहो कि परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बना रहा है या यह उसकी इच्छा है। यह कहना गलत है और तुम्हें इस तरह प्रार्थना नहीं करनी चाहिए। तुम गलत हैसियत पाना चाहते हो, और पवित्र आत्मा तुम पर कार्य नहीं करेगा। कुछ लोग यीशु की प्रार्थना की नकल करते हुए कहते हैं, “तौभी जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो।” क्या खुद को परमेश्वर के बराबर बैठाकर तुम्हारा कोई भला होगा? मसीह ने देह के परिप्रेक्ष्य से, स्वर्ग के आत्मा से यह प्रार्थना की थी। वे समकक्ष थे, समान हैसियत वाले थे। वे तो एक ही परमेश्वर थे, उनके केवल परिप्रेक्ष्य अलग थे। मसीह ने इस तरह प्रार्थना की; अगर लोग भी इसी तरह प्रार्थना करते हैं तो इससे दिखता है कि उनमें कोई समझ नहीं है, और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि पवित्र आत्मा उन्हें बिल्कुल भी प्रबुद्ध नहीं करता है! तुम जो शब्द कहते हो वे किसी की नकल हैं, अपने दिल से निकले शब्द नहीं हैं। वे पूरी तरह खोखले हैं और वास्तविक नहीं हैं, जो दिखाता है कि परमेश्वर के वचनों या अपेक्षाओं को समझने योग्य होने के लिए तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। पवित्र आत्मा तुम्हें कैसे प्रबुद्ध करेगा? लोग इतने भ्रमित हैं! अगर वे यह भी नहीं जान सकते, तो कभी भी सत्य को नहीं समझ पाएंगे। जब तुम प्रार्थना करते हो, तो यूँ ही दूसरों की नकल मत करो। तुम्हारे अपने विचार और दृष्टिकोण होने चाहिए। अगर तुम्हें कोई चीज समझ में नहीं आ रही है, तो सत्य खोजना चाहिए। तुम्हें अक्सर इस बारे में विचार करना चाहिए कि जब अपने सामने विभिन्न प्रकार के मामले आएँ तो प्रार्थना कैसे करें, और अगर तुम्हें आगे बढ़ने का कोई रास्ता मिल जाए, तो अपने भाई-बहनों से भी उसी तरह प्रार्थना करानी चाहिए। परमेश्वर इसी से प्रसन्न होता है। हर व्यक्ति को यह सीखना चाहिए कि परमेश्वर के सामने कैसे आएँ। हर चीज को आँख मूँद कर अकेले ही संभालने की कोशिश मत करो, और जो कुछ करते हो उसे अपनी कल्पनाओं के आधार पर मत करो। अगर ऐसा करते समय तुम ऐसे काम कर डालते हो जो विघ्न-बाधा पैदा करते हैं और परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध जाते हैं, तो मुसीबत आ जाएगी। अगर तुमसे किसी कलीसिया की अगुआई करने के लिए कहा जाता है और तुम हमेशा धर्म-सिद्धांत के शब्दों का प्रचार करते रहते हो, लेकिन परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने या प्रार्थना करने के उपायों पर संगति नहीं करते हो, तो तुम अपने मार्ग से भटक चुके हो। अगर तुम हमेशा धर्म-सिद्धांत के वचनों का प्रचार कर लोगों को खोखली प्रार्थनाएँ सिखा रहे हो, जिनमें वे केवल बाइबल और धर्म-सिद्धांत के कुछ शब्द पढ़ते हैं, तो वे चाहे जितनी भी प्रार्थना कर लें, कोई नतीजा नहीं निकलेगा। उनका जीवन प्रगति नहीं करेगा, परमेश्वर के साथ उनका संबंध सामान्य नहीं होगा और इसका मतलब है कि तुम उन्हें भी गुमराह कर दोगे। वह किस प्रकार की प्रार्थना होती है जिससे परिणाम प्राप्त होते हैं? यह परमेश्वर के साथ खुले दिल की संगति होती है। सबसे महत्वपूर्ण है, परमेश्वर से प्रार्थना कर उसके वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार सत्य की खोज करना। इसमें पूरा दिल लगाने की जरूरत होती है। जो लोग पूरा दिल नहीं लगाते, उनके लिए इसे हासिल करना कठिन होगा। पवित्र आत्मा कैसे लोगों को प्रबुद्ध करता है? उन्हें, जिनके विचार तीव्र और सूक्ष्म होते हैं। जब पवित्र आत्मा उन्हें कोई अनुभूति कराता है या उन्हें प्रबुद्ध करता है, तो वे समझ सकते हैं कि यह पवित्र आत्मा का कार्य है और इसे परमेश्वर कर रहा है। या कभी-कभी जब उन्हें पवित्र आत्मा प्रबुद्ध करता या फटकार लगाता है, तो वे तुरंत सजग होकर खुद को रोक सकते हैं। ये ऐसे लोग हैं जिन्हें पवित्र आत्मा प्रबुद्ध करता है। अगर कोई लापरवाह है और आध्यात्मिक मामलों को नहीं समझता, तो उसे पता ही नहीं चलेगा कि पवित्र आत्मा कब उसे अनुभूति देता है। ऐसे लोग पवित्र आत्मा के कार्य पर कोई ध्यान नहीं देते। पवित्र आत्मा उन्हें तीन-चार बार प्रबुद्ध कर सकता है, फिर भी वे इसे स्वीकार नहीं करते, तो पवित्र आत्मा फिर कभी उन पर कार्य नहीं करेगा। ऐसा क्यों है कि कुछ लोग विश्वास करते रहने के बावजूद परमेश्वर तक नहीं पहुँच पाते या पवित्र आत्मा को काम करते हुए महसूस नहीं कर पाते, अंदर से निराश और उदास होते हैं, और उनमें कोई उत्साह नहीं होता? उनमें पवित्र आत्मा का बिल्कुल भी प्रबोधन नहीं होता है। उन बेजान चीजों और धर्म-सिद्धांतों से उनमें कोई उत्साह कैसे हो सकता है? कोई व्यक्ति सिर्फ उत्साह के सहारे लंबे समय तक टिक नहीं सकता; शक्ति पाने के लिए सत्य को समझना होगा। इसलिए परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए व्यक्ति की सूक्ष्म विचार दृष्टि होनी चाहिए, और उसे परमेश्वर के वचन पढ़ने, स्वयं को जानने, और सत्य को समझने और इसका अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। तभी कोई पवित्र आत्मा का कार्य और अगुआई हासिल कर सकता है। कुछ लोगों में महज सत्य को समझने की क्षमता होती है, लेकिन उन्होंने कभी भी पवित्र आत्मा के कार्य का अवलोकन या अनुभव नहीं किया होता है। आगे से, तुम लोगों को सबसे सूक्ष्म अनुभूति और सबसे सूक्ष्म रोशनी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। हर बार जब भी तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है तो इसे देखना चाहिए और सत्य के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। इस तरह तुम धीरे-धीरे परमेश्वर पर विश्वास की सही राह पर आ जाओगे। अगर तुम हर चीज को अपनी दैहिक दृष्टि से देखते हो, अगर तुम हर चीज का विश्लेषण धर्म-सिद्धांत, तर्क और नियमों के सहारे करते हो, और अगर तुम मानवीय सोच के आधार पर विश्लेषण कर हर चीज को संभालते हो, तो यह सत्य की खोज नहीं है, और तुम परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी नहीं बन सकोगे। तुम चाहे जितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हो, तुम परमेश्वर के वचनों से बाहर ही रहोगे, तुम एक बाहरी व्यक्ति रहोगे, और सत्य को नहीं समझ सकोगे। तुम लोगों को धीरे-धीरे अब इस दिशा में ध्यान केंद्रित कर सत्य के लिए जुटना चाहिए। कई वर्षों के अनुभव के बाद तुम्हारा आध्यात्मिक कद थोड़ा बढ़ेगा और तुम कुछ सत्य को समझने में सक्षम हो जाओगे। यह मत सोचो कि परमेश्वर में देर से विश्वास करना कोई समस्या नहीं है, कि जब दूसरे लोग सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर लेंगे तब तुम भी कर लोगे, या तुम कभी पीछे नहीं छूटोगे। तुम्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। अगर ऐसा सोचते हो, तो तुम यकीनन पीछे छूट जाओगे। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करने देर से आए हो, तो फिर तुम्हें और भी जल्दबाजी करनी चाहिए। तुम्हें दूसरों के बराबर पहुँचने के लिए पुरजोर कोशिश करनी चाहिए, केवल तभी तुम परमेश्वर के कार्य से कदमताल मिलाकर चल सकोगे, और खुद को पिछड़ने और निकाले जाने से बचा पाओगे।

तुम्हारे साथ चाहे जो कुछ भी हो, तुम्हें चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना चाहिए और सत्य के परिप्रेक्ष्य से उन्हें संभालना चाहिए। इस तरीके से समस्याओं का पता लगाना आसान होता है, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीजों को देखकर तुम चीजों के सार की असलियत को आसानी से समझने में सक्षम रहोगे। कुछ लोग चीजों को हमेशा सीख के आधार पर देखते हैं। वे चीजों का अध्ययन और विश्लेषण हमेशा अपने दिमाग के आधार पर करते हैं या फिर अपनी दैहिक दृष्टि से चीजों को देखते और महत्व देते हैं। इसलिए वे समस्याओं के सार की असलियत नहीं समझ पाते और हमेशा रास्ता भटक जाते हैं। ऐसा कई दशक तक चल सकता है—वे चीजों को स्पष्ट रूप से देखे बिना मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, कभी-कभी तुम बीमार पड़ते हो तो सोचते हो कि यह सामान्य कारणों वाली कोई आम बीमारी है, कि यह न तो परमेश्वर का अनुशासन है और न ही कोई समस्या है, जबकि वास्तव में इसमें बहुत बड़ी समस्या है। अगर तुम इस मामले में सूक्ष्मता से विचारशील हो और परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोज सकते हो, तो फिर कभी-कभी, जब पवित्र आत्मा कोई अर्थ बताएगा, तो तुम अपनी किसी कमी या अपने स्वभाव की समस्या को पहचानने में सक्षम रहोगे। परमेश्वर तुम्हें कोई बीमारी इसलिए देता है ताकि तुम तपकर निखरो, कष्ट उठाओ, तुम अपनी सूक्ष्म जाँच और चिंतन-मनन के लिए हौसला जुटा सको, और यह देख सको कि वास्तव में यह बीमारी किस बारे में है। जब तुम अपनी जाँच के लिए आत्मा की गहराई में लौटते हो, तो तुम समस्या की जड़ को खोज सकते हो और अपनी भ्रष्टता के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकते हो। जरा-सा भी कष्ट सहे बिना तुम्हें हमेशा यही लगेगा कि तुम महान हो, और तुम इस भ्रष्टता का पता लगाने में नाकाम रहोगे। तब तुम उस सत्य को नहीं समझ पाओगे जिसकी तुम्हें जरूरत है। क्या तुम लोगों को इसका अनुभव है? पवित्र आत्मा सब कुछ बहुत समयबद्ध तरीके से करता है, लोगों की आवश्यकता के अनुसार और उनके वर्तमान आध्यात्मिक कद और दशा के अनुसार करता है। पहले बखूबी कहा जा चुका है कि परमेश्वर का कार्य समयबद्ध और नपा-तुला होता है, और बिना किसी देरी के ठीक समय पर होता है। तुम इसे अपने वास्तविक अनुभव में देख चुके हो। हर बार जब तुम किसी चीज का सामना करते हो, तो पवित्र आत्मा फौरन तुम्हें प्रेरित और प्रबुद्ध करता है, लेकिन तुम सहयोग नहीं करते हो। तुम बहुत ही अनमने रहते हो। कभी-कभी तुम भाँप लेते हो कि क्या हो रहा है और अधिक गहराई से समझने का जतन किए बिना इसे वहीं छोड़ देते हो। तुम केवल अवधारणात्मक समझ से संतुष्ट हो जाते हो, और इतने भर से सोच लेते हो कि तुम इसे समझते हो, लेकिन वास्तव में तुम्हें सच्ची समझ नहीं आई है। आगे बढ़ने से पहले तुम्हें अपनी अवधारणात्मक समझ को तार्किक समझ के स्तर तक बढ़ाना चाहिए। अगर पवित्र आत्मा तुम्हें फिर से प्रेरित करे और तुम अभी भी इसे अनदेखा करते हो और इसे स्मरणीय टिप्पणियों में दर्ज नहीं करना चाहते हो, तो तुम जल्द ही भूल जाओगे। तुम्हें यह रोशनी, यह वास्तविक चीज हासिल नहीं होगी, और यह बहुत-ही शर्म की बात होगी। मेहनती लोग चीजों को स्मरणीय टिप्पणियों में दर्ज कर लेते हैं और बाद में जब वे अपनी टिप्पणियाँ दोबारा देखते हैं तो उन्हें गजब का एहसास होता है। वे इस आधार पर कुछ रोशनी पाने में सक्षम रहते हैं। जो व्यक्ति लापरवाह होता है और जिसे आध्यात्मिक मामलों की कोई समझ नहीं होती, उसे इस रोशनी का एहसास नहीं होता—वह तो ये भी नहीं जानता कि रोशनी क्या चीज है। ये रोशनी उसके भीतर कौंधती है और अलोप हो जाती है, और अगर वह हमेशा ऐसे ही बना रहा, तो पवित्र आत्मा उसमें कार्य नहीं करेगा। सत्य का अनुसरण करने के लिए तुम्हें संवेदनशील और सूक्ष्मता से विचारशील होना पड़ेगा; आलस छोड़ना पड़ेगा। तुम्हें तत्परता से सहयोग भी करना होगा। जब तुम्हें कोई अवधारणात्मक समझ मिले, तो इसे हाथ से न निकलने दो, इस पर जल्दी से विचार करो और परमेश्वर से प्रार्थना करो। तुम्हें प्रार्थना कैसे करनी चाहिए? तुम्हें जो प्रबोधन मिला है, उस पर अपनी प्रार्थना को केंद्रित करो। कभी-कभी तुम्हें यह अपना ही विचार लग सकता है, और इसमें कोई दिक्कत नहीं है। जब तक तुम्हें आनंद और स्पष्टता का एहसास होता रहे, प्रार्थना और खोज करते रहो। इस नई रोशनी का पता लगाना और इसे सही ढंग से समझना सबसे ज्यादा मायने रखता है। अगर प्रार्थना करते समय शब्द खूब अच्छी तरह निकलते हैं और तुम सहज महसूस करते हो, तुम फिर से प्रबुद्ध हो जाते हो और तुम्हारा मन रोशन हो जाता है, तो तुम्हें इस नई रोशनी को स्मरणीय टिप्पणियों में दर्ज करना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि कभी-कभी तुम जब अच्छी दशा में होते हो तो चीजें याद रख लेते हो, लेकिन जब बुरी दशा में होते हो तो भूल जाते हो। लोग कोई लेख लिखते हुए कई-कई पृष्ठ भर सकते हैं, लेकिन जब अपनी अनुभवजन्य गवाही या परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान की बारी आती है, तो वे एक शब्द भी नहीं लिख सकते हैं। उनमें अभी भी वास्तविकता का अभाव है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी पर ध्यान केंद्रित करते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता को महत्व नहीं देते, जो साफ दिखाता है कि उन्हें यह नहीं पता कि क्या महत्वपूर्ण है, क्या गौण है, क्या सबसे जरूरी है या उन्हें क्या हासिल करना चाहिए। इस वजह से, वे पवित्र आत्मा का प्रबोधन खो बैठते हैं। अपने पास छोटी-सी नोटबुक रखना सबसे अच्छा है, ताकि जब भी तुम्हें पवित्र आत्मा प्रबुद्ध करे और नई रोशनी मिले, तो तुम तुरंत इसे पकड़ सको और स्मरणीय टिप्पणियों में दर्ज कर लो। पवित्र आत्मा हर समय और हर जगह कार्य करता है। कोई किसी भी स्थिति में हो, जब तक वह परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करता है और सत्य की खोज कर सकता है, तब तक पवित्र आत्मा उसे प्रबुद्ध करता है। यहाँ तक कि जब तुम काम में डूबे रहते हो और थककर चूर महसूस करते हो, तब भी अगर तुम खोज और प्रार्थना करोगे तो पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है। जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो या सत्य पर संगति करते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है। जब तुम परमेश्वर के वचनों पर मनन और आत्मचिंतन करते हो, तो वह तुम्हें प्रबुद्ध करता है। जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करे, तो इसे लिख डालो, इस पर मनन करो, और तुम्हारा मन निर्मल हो जाएगा। जब तुम्हें वास्तव में सत्य समझ में आ जाएगा, तो तुम पूरी तरह से मुक्त हो जाओगे। जब तुम इस तरह से परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हो, तो तुम जो फसल काटोगे वह बढ़ती जाएगी। तथ्य यह है कि तुम लोग पवित्र आत्मा के अधिकांश प्रबोधन को गँवा चुके हो। तुम किसी ऐसे अमीर खानदान की औलाद की तरह हो जो अपनी विरासत को बर्बाद कर रही है, पवित्र आत्मा द्वारा अपने पर किए सभी कार्यों को गँवा रहे हो, परमेश्वर के हाथों पूर्ण बनाए जाने के कई अवसर खो रहे हो! पवित्र आत्मा ने बहुत सारा काम किया है, फिर भी तुम इसे पकड़ पाने में असफल हो। क्या तुम सचमुच कह सकते हो कि परमेश्वर तुम्हारे प्रति दयालु नहीं है? तथ्य यह नहीं है कि परमेश्वर ने तुम पर पर्याप्त दया नहीं की—बल्कि यह है कि तुमने इसे हासिल नहीं किया है।

पवित्र आत्मा के कार्य की एक खास शैली होती है, और इसके बारे में निष्कर्ष निकाले जाने चाहिए। अगर कोई निष्कर्ष निकालने लगे, तो वह कई चीजों का निष्कर्ष निकालने में सक्षम रहेगा। इतना तय है कि इसमें कुछ न कुछ हासिल होगा। उदाहरण के लिए, प्रार्थना को ही ले लो। कई अवसरों पर तुम प्रार्थना से काफी प्रबोधन हासिल कर सकते हो, लेकिन अगर तुम चौकन्ने नहीं हो, तो इस बारे में अनभिज्ञ रहोगे। भले ही तुम्हारे मुँह से प्रबोधन के कुछ शब्द निकल सकते हैं, लेकिन ध्यान केंद्रित नहीं करोगे तो तुम्हें इन शब्दों का पता ही नहीं चलेगा। तुम्हें सिर्फ यह लगेगा कि तुमने अच्छी प्रार्थना की, जबकि तुम्हारी प्रार्थना में वास्तव में ऐसे शब्द थे जिन्हें पवित्र आत्मा ने प्रबुद्ध और रोशन किया था। ये सब नई रोशनी थे, लेकिन तुमने इन्हें अपने दिमाग से निकल जाने दिया। पवित्र आत्मा का कार्य जिस खास तरीके से लोगों की सबसे अधिक मदद करता है, वह है उन्हें प्रबुद्ध और रोशन करना, उन्हें सत्य और परमेश्वर की इच्छा समझने में मदद करना, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार काम करने योग्य बनाना और सही रास्ते से न भटकने देना। लोगों को प्रबुद्ध करने के पीछे पवित्र आत्मा के कार्य का लक्ष्य क्या है? कभी इसका कार्य रास्ता दिखाना होता है; कभी यह तुम्हें होश में रहने की याद दिलाता है; तो कभी यह तुम्हें रोशन कर सत्य को समझने में मदद करता है, और तुम्हें अभ्यास का मार्ग देता है। जब तुम अपनी राह भटक जाते हो, तो वह तुम्हारा सहारा बनकर मदद करता है, तुम्हें सही राह पर ले जाता है और तुम्हारा मार्गदर्शन करता है। पवित्र आत्मा जिस रोशनी और ज्ञान से लोगों को प्रबुद्ध करता है, वो लोगों की अपनी-अपनी पृष्ठभूमि के कारण अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन वो सत्य का खंडन या विरोध कतई नहीं करते हैं। अगर हर किसी को इस तरह से अनुभव होने लगे कि उसमें सच्ची खोज और प्रार्थना है, वास्तविक आज्ञाकारिता है, पवित्र आत्मा लगातार प्रबुद्ध कर उनका मार्गदर्शन कर रहा है, और अगर वे विचारों से तीव्र और सूक्ष्म हैं, और उन चीजों का अभ्यास करने और उनमें प्रवेश करने में सक्षम हैं जिन्हें पवित्र आत्मा प्रबुद्ध करता है, तो उनका आध्यात्मिक कद बहुत तेजी से बढ़ेगा। तब वे मौके का फायदा उठा चुके होंगे। पवित्र आत्मा के कार्य की एक विशेषता है कि यह बड़ी तेजी से होता है। यह पलक झपकते ही पूरा हो जाता है, यह बुरी आत्माओं के कार्य की तरह नहीं है जो हमेशा लोगों को इस तरह से काम करने के लिए उकसाता और मजबूर करता है कि वे किसी अन्य तरीके से कार्य न कर सकें। कभी-कभी पवित्र आत्मा लोगों को यह एहसास दिलाने का काम करता है कि वे खतरे की कगार पर हैं, इससे वे असहज और बहुत परेशान हो जाते हैं। ऐसा विशेष परिस्थितियों में होता है। आम तौर पर जब लोग परमेश्वर के निकट आते हैं, और सत्य की खोज करते हैं, या जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो पवित्र आत्मा उन्हें कोई एहसास या सूक्ष्म विचार या ख्याल देता है। या, वह तुम्हें कोई वाक्य या संदेश दे सकता है। मानो कि यह कोई आवाज हो, पर इसमें आवाज नहीं भी है; यह कुछ याद दिलाने जैसा है, और तुम इसका अर्थ समझ सकते हो। अगर तुम अपने समझे हुए उस अर्थ को ग्रहण करते जाते हो और उसे उचित शब्दों में व्यक्त करते हो, तो तुम्हें जरूर कुछ न कुछ हासिल होगा, और यह दूसरों को भी शिक्षित करेगा। अगर लोग हमेशा इसी तरह अनुभव करें, तो वे धीरे-धीरे अनेक सत्य समझने लगेंगे। अगर लोगों के पास हमेशा पवित्र आत्मा का कार्य रहता है, और हमेशा एक नई रोशनी उनकी अगुआई करती है, तो वे सच्चे मार्ग से कभी नहीं भटकेंगे। भले ही तुम्हारे साथ कभी कोई संगति न करता हो, कोई भी तुम्हें राह न दिखाता हो, और तुम्हारे पास कोई कार्य व्यवस्था न हो, अगर तुम पवित्र आत्मा की दिखाई दिशा में चलते हो, तो कभी नहीं भटकोगे। प्रभु यीशु के पुनर्जीवित होने और स्वर्ग में आरोहण के बाद पतरस ने उसे देखा, मगर यदा-कदा और बस कुछ ही बार। जैसा कि लोग सोचते हैं, वह प्रभु यीशु को न तो अक्सर देख पाता था, न जब चाहे तब देख पाता था, और न ही तब जब वह समझ में न आने वाली किसी चीज के बारे में प्रार्थना करता था। यह सब वैसा नहीं था जैसा लोग सोचते हैं। क्या परमेश्वर को देखना इतना आसान है? परमेश्वर आसानी से लोगों के सामने नहीं आता। परमेश्वर ने ज्यादातर समय पतरस को पवित्र आत्मा के कार्य के जरिए चीजें समझाईं। पतरस ने जो हासिल किया, उसे तुम लोग क्यों नहीं हासिल कर सकते? इन सबसे क्या साबित होता है? यह साबित करता है कि तुम लोगों की काबिलियत नाकाफी है, तुम्हारे पास समझने की शक्ति नहीं है, और तुम चिंतन-मनन से चीजों को समझने में असमर्थ हो। तुम चाहे किसी भी परिस्थिति का सामना करो, तुम्हें इसे हमेशा परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार देखना चाहिए। अगर लोग अपने साथ घटने वाली चीजों के मामले में हमेशा अपने ही विचारों और दिमाग के अंदर घुटते रहें, उन चीजों को मानवीय तरीकों से संभालते रहें, तो उनके हाथ कुछ नहीं आने वाला। जब पतरस के साथ कुछ हुआ तो उसने क्या सोचा? उसने प्रभु यीशु के वचनों के अनुसार चिंतन-मनन किया, और वह इस तरह परमेश्वर की इच्छा का पता लगाने में सफल रहा। और बाद में, जब प्रभु यीशु ने स्वर्गारोहण कर लिया, तब भी पतरस परमेश्वर की इच्छा को समझने में सक्षम क्यों था? वह पवित्र आत्मा के प्रबोधन के जरिए ऐसा करने में सफल रहा। अगर वह पवित्र आत्मा का प्रबोधन महसूस न कर पाता और प्रभु यीशु पुनर्जीवित होने और स्वर्ग आरोहण के बाद उसके सामने प्रकट नहीं होते, तो वह परमेश्वर की इच्छा को कैसे समझ पाता? देहधारी परमेश्वर उस तरह कार्य नहीं करता जैसा लोग सोचते हैं कि वह व्यक्तिगत और अनवरत रूप से लोगों को पूर्ण बनाने के लिए रोज उनका मार्गदर्शन करता है। ऐसा नहीं है। पवित्र आत्मा का कार्य साझेदारी में होता है। आत्मा का साझे का कार्य अधिकतर लोग करते हैं। प्रमुख कार्य देह करती है, और जब यह कार्य पूरा हो जाता है, तो बाकी बचे छोटे-छोटे मुद्दे समझने के लिए पवित्र आत्मा लोगों को प्रबुद्ध करता है। अगर लोग इसे पूरी तरह समझ न सकें और केवल एक अंश ही ग्रहण कर सकें, तो आगे के ब्योरे नहीं समझ पाएँगे—और अगर वे इन्हें समझ नहीं पाते तो वे बदलेंगे नहीं और कोई प्रगति नहीं करेंगे।

जिन लोगों को पवित्र आत्मा के कार्य या प्रबोधन का अनुभव नहीं है, उनके लिए ये चीजें समझ पाना आसान नहीं है। दरअसल, पवित्र आत्मा के कार्य और प्रबोधन की एक खास शैली है। जब भी पवित्र आत्मा के कार्य और प्रबोधन का उल्लेख किया जाता है, उसके बारे में लोग हमेशा गलत समझ बैठते हैं, वे सोचते हैं कि पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने से पहले उन्हें बहुत अधिक कष्ट सहने पड़ेंगे या भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। क्या यह इंसानी धारणा नहीं है? चूँकि लोग आलसी होते हैं और उनका दिल निष्ठुर होता है, इसलिए वे आम तौर पर अपनी आत्मा की अनुभूतियों पर ध्यान नहीं देते, और जब कभी वहाँ थोड़ी-सी रोशनी और प्रबोधन होता है, वे इसे नाचीज समझकर खारिज कर देते हैं। अगर तुम सारा दिन अपने काम में बिता देते हो, धर्म-सिद्धांत और नियमों के शब्दों से चिपके रहते हो, दैहिक इच्छाओं और रोमांस की जिंदगी जीते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारा प्रबोधन और मार्गदर्शन नहीं करेगा। वह किसी सूरत में ऐसा नहीं करेगा। तुम्हें और प्रार्थना करनी चाहिए, पवित्र आत्मा के वचन खोजने चाहिए, यह खोजना चाहिए कि पवित्र आत्मा के कार्य को कैसे प्राप्त करें और कैसे हाथ से न जाने दें। परमेश्वर से प्रार्थना करो : “हे परमेश्वर! मुझ पर काम कर, मुझे पूर्ण बना और बदल दे, हर चीज में मुझे तेरी इच्छा समझने लायक और तेरे इरादों के सामने समर्पण करने वाला बना। तेरे हाथों मेरे उद्धार में तुम्हारा महान प्रेम और तुम्हारी इच्छा शामिल है। भले ही लोग तेरी अवज्ञा और विरोध करते हैं, भले वे अपनी प्रकृति से विद्रोही हैं, लेकिन मैं अब लोगों को बचाने की तेरी इच्छा को समझता हूँ, और तेरे साथ सहयोग करना चाहता हूँ। मेरे सामने और ज्यादा हालात पैदा कर, मुझे परीक्षाओं, मुसीबतों से गुजरने दे, इन मुसीबतों में अपना हाथ देखने दे, अपने कार्य देखने दे, ताकि मैं तेरी इच्छा समझ कर इसके सामने समर्पण कर सकूँ। मुझे स्वच्छंद मत बनने दे, बल्कि ऐसा बना कि मेरे पैर मजबूती से जमीन पर टिके रहें।” प्रार्थना इस तरह करो, और बार-बार करो; पवित्र आत्मा से विनती करो कि वह सदा तुम पर कार्य करे और तुम्हें राह दिखाए। पवित्र आत्मा जब यह देखता है कि तुम सही मार्ग पर चल रहे हो और जो करना चाहिए वही कर रहे हो, तो वह तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए कुछ परिस्थितियाँ खड़ी करता है और फिर यह देखने के लिए कड़ी परीक्षा लेता है कि क्या तुम इससे उबर सकते हो। कुछ लोग शायद इसे न झेल सकें। वे कहेंगे, “हे परमेश्वर, यह तो भारी मुसीबत है—मैं इसे नहीं झेल सकता!” तो वे फिर इस मामले में विफल हो चुके होंगे। अगर तुम्हें वाकई लगता है कि तुम बहुत विकट स्थिति में हो, तो परमेश्वर से इस तरह प्रार्थना करो : “हे परमेश्वर, तुमने मुझे जिस स्थिति में डाला है, वह बहुत विकट है। मैं इसे झेल तो नहीं सकता, लेकिन मैं कोशिश करने के लिए तैयार हूँ। मेरे आध्यात्मिक कद के अनुसार व्यवस्था कर और मुझे यह समझने में मदद कर कि तेरी इच्छा क्या है, चाहे मैं मामूली कष्ट में हूँ या भारी कष्ट में, और मुझे न तो रास्ते से भटकने देना और न शिकायतें करने देना। मुझे पूरी तरह समर्पण करने लायक बना, ताकि मैं तुझे संतुष्ट कर सकूँ। इससे फर्क नहीं पड़ता कि मैं मामूली कष्ट में हूँ या भारी कष्ट में, जब तक इसके पीछे तेरी इच्छा है, मैं बिना कोई शिकायत किए समर्पण करने के लिए तैयार हूँ। मैं तेरे इरादों के खिलाफ नहीं जा सकता, और कष्ट चाहे जितना भी बढ़ता रहे, इसे जब तक सह सकूँगा तब तक तुझसे माँगता रहूँगा।” तुम्हें आत्मविश्वास और निडरता से प्रार्थना करनी चाहिए। डरो या भागो मत। जब पवित्र आत्मा देखता है कि तुम सही मार्ग पर चल रहे हो, जो तुम्हें करना चाहिए वही कर रहे हो, तुम वास्तव में अपने दिल में परमेश्वर को चाहते हो और सत्य का अनुसरण करते हो, तो वह शायद तुम्हें एक कठिन स्थिति में डाल दे और इससे उबरने के लिए बड़ी हिम्मत दे—और फिर तुम जीत चुके होगे। तुम्हारे लिए किसी बेहद कठिन स्थिति पर काबू पाना धर्म-सिद्धांत के कुछ शब्दों को समझने से कहीं ज्यादा बड़ी बात है। यह गवाही देने का मामला है।

दैनिक जीवन में लोग तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आते हैं और अगर उनके पास सत्य नहीं है और वे प्रार्थना कर इसे खोजते नहीं हैं, तो फिर उनके लिए प्रलोभन छोड़ना मुश्किल होगा। चाहे स्त्री-पुरुषों के संबंधों का उदाहरण ही ले लो। कई लोग इस प्रकार के प्रलोभन नहीं छोड़ पाते, और इस तरह की स्थिति आते ही इसमें फँस जाते हैं। क्या इससे यह पता नहीं चलता कि उनका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है? जिन लोगों के पास सत्य नहीं होता है, वे ऐसे ही दयनीय होते हैं, और कोई गवाही नहीं दे पाते हैं। कुछ लोग पैसे से जुड़ी स्थितियों का सामना करते हुए प्रलोभन में फँस जाते हैं। जब वे दूसरे धनवान लोगों को देखते हैं तो शिकायत करने लगते हैं, “उनके पास इतना पैसा कैसे है और मैं इतना गरीब क्यों हूँ? यह अन्याय है!” जब उनके साथ ऐसा होता है तो वे शिकायत करते हैं, और वे इसे परमेश्वर से आया नहीं मानते या उसके आयोजनों और व्यवस्था के प्रति समर्पण नहीं कर पाते। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो हमेशा रुतबे पर ध्यान धरे रहते हैं, और ऐसे प्रलोभन सामने आने पर, इनसे बच नहीं पाते हैं। जैसे, कोई अविश्वासी उन्हें किसी आधिकारिक पद पर रखना चाहता है, उन्हें कई लाभ देना चाहता है, तो वे डिगे बिना नहीं रह पाते। वे सोचने लगते हैं, “क्या इसे स्वीकार करना चाहिए?” वे प्रार्थना करते हैं, मनन करते हैं, और फिर कहते हैं : “हाँ—मुझे स्वीकारना ही होगा!” वे अपना मन बना चुके होते हैं, उनके और आगे खोजने का कोई अर्थ नहीं होता है। वे इस आधिकारिक पद और लाभों को स्वीकारने का पक्का फैसला कर चुके होते हैं, लेकिन वे लौटकर परमेश्वर पर विश्वास भी करना चाहते हैं, उन्हें डर होता है कि वे परमेश्वर पर विश्वास से प्राप्त आशीष गँवा बैठेंगे। इसलिए वे उससे प्रार्थना करते हैं : “हे परमेश्वर, मेरी परीक्षा ले।” अब तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए बचा ही क्या है? तुम पहले ही अपना आधिकारिक ओहदा संभालने का मन बना चुके हो। तुम इस मामले में दृढ़ता से खड़े नहीं रह पाए, और पहले ही इस प्रलोभन में फँस चुके हो। क्या तुम्हें अब भी परीक्षा देने की जरूरत है? तुम परमेश्वर की परीक्षा देने लायक नहीं हो। तुम्हारा आध्यात्मिक कद पिद्दी भर है, क्या तुम परीक्षा दे भी पाओगे? कुछ दूसरे घिनौने लोग भी होते हैं जो कोई भी फायदा देखकर होड़ करने लगते हैं। पवित्र आत्मा ठीक उनके बगल में होता है, देखता रहता है कि वे क्या विचार व्यक्त करते हैं, उनका रवैया क्या है और वह उनकी परीक्षा लेने लगता है। कुछ लोग मन ही मन सोचते हैं, “भले ही परमेश्वर मुझ पर मेहरबानी कर रहा हो, मुझे यह नहीं चाहिए। मेरे पास पहले से बहुत है, और परमेश्वर पहले ही मुझ पर मेहरबान है। मुझे न तो अच्छे भोजन की परवाह है, न अच्छे कपड़ों की, मुझे तो बस सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर को हासिल कर सकने की चिंता है। मैंने जो सत्य हासिल किया है वह मुझे परमेश्वर ने मुफ्त में दिया है। मैं तो इन चीजों के लायक भी नहीं हूँ।” पवित्र आत्मा उनके दिलों की पड़ताल करके उन्हें और भी प्रबुद्ध करता है, उन्हें और समझने लायक बनाता है, उनमें और उत्साह भरता है, और उनके लिए सत्य को और भी समझने लायक बना देता है। लेकिन ऐसे घिनौने लोग किसी फायदे को देखकर सोचते हैं, “किसी और से पहले मैं इसे लपक लेता हूँ। अगर वे इसे किसी और को देते हैं तो मैं उन्हें डपटूँगा और मुसीबत खड़ी कर दूँगा। मैं उन्हें दिखा दूँगा कि मैं किस मिट्टी का बना हूँ, और फिर देखता हूँ कि वे अगली बार कैसे किसी और को देते हैं!” पवित्र आत्मा उनकी यह चाल-ढाल देखकर उन्हें उजागर कर देता है। उनकी कुरूपता सामने आ चुकी होती है, और ऐसे व्यक्तियों को दंड मिलना ही चाहिए। वे चाहे कितने ही साल से विश्वास करते आ रहे हों, यह उनके काम नहीं आएगा। उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा! कई बार पवित्र आत्मा लोगों पर तब दया दिखाता है जब उन्हें इसकी कोई उम्मीद नहीं होती है। अगर परमेश्वर तुम पर दया नहीं दिखाता है, तो तुम्हें दंड भी तब मिलेगा जब तुम्हें उम्मीद नहीं होगी। तो देख लो, सत्य का अनुसरण न करने वालों के लिए चीजें कितनी खतरनाक हैं।

जब लोगों में अपने साथ होने वाली चीजों के बारे में अंतर्दृष्टि की कमी होती है, और वे यह नहीं जानते कि क्या करना उचित है, तो उन्हें पहले क्या करना चाहिए? उन्हें पहले प्रार्थना करनी चाहिए; प्रार्थना पहले आती है। प्रार्थना करने से क्या प्रकट होता है? यही कि तुम धर्मनिष्ठ हो, तुम्हारे पास परमेश्वर का कुछ भय मानने वाला दिल है, तुम परमेश्वर को खोजना जानते हो, और यह साबित करता है कि तुम परमेश्वर को पहले स्थान पर रखते हो। जब तुम्हारे दिल में परमेश्वर होता है, और वहाँ उसके लिए जगह होती है, और तुम परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम हो, तो फिर तुम धर्मनिष्ठ ईसाई हो। कई बुजुर्ग विश्वासी हैं, जो रोज एक ही समय और स्थान पर प्रार्थना में घुटने टेकते हैं। वे हर बार एक-दो घंटे घुटने टेके रहते हैं लेकिन उन्हें इस तरह घुटने टेके चाहे कितने ही साल हो चुके हों, इससे उनकी पाप की कई समस्याएँ दूर नहीं हुई हैं। इस बात को पहले एक तरफ रख देते हैं कि ऐसी धार्मिक प्रार्थना किसी काम की है या नहीं। कम से कम ये बुजुर्ग भाई-बहन थोड़े धर्मनिष्ठ तो हैं। इस मामले में वे युवाओं से काफी बेहतर हैं। अगर तुम परमेश्वर के सामने जीना और उसके कार्य का अनुभव करना चाहते हो, तो जब तुम्हें कुछ होता है तो पहली चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है प्रार्थना। प्रार्थना करने का मतलब यह नहीं है कि रटे-रटाए वाक्यांश बिना सोचे-समझे दोहरा दो और बस छुट्टी पा लो; इससे तुम कहीं नहीं पहुँचोगे। तुम्हें दिल से प्रार्थना करना सीखना है। हो सकता है कि ऐसा आठ-दस बार करने के बाद भी तुम्हें कुछ फर्क न दिखाई दे, लेकिन निराश मत होओ : तुम्हें अभ्यास करते जाना है। जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहले प्रार्थना करो। पहले परमेश्वर को बताओ और उसे स्थिति सँभालने दो। परमेश्वर को मदद करने दो, तुम्हारा मार्गदर्शन करने दो, रास्ता दिखाने दो। यह साबित करेगा कि तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, और तुम परमेश्वर को सर्वोपरि रखते हो। जब तुम्हें कुछ होता है या तुम किसी कठिनाई का सामना करते हो और निराश और गुस्सा हो जाते हो, तो यह तुम्हारे हृदय में परमेश्वर की अनुपस्थिति और उसका भय न मानने की निशानी है। अपने असल जीवन में तुम्हारे सामने जो भी कठिनाइयाँ आएँ, तुम्हें परमेश्वर के सामने आना चाहिए। पहला काम है प्रार्थना में घुटने टेकना। यही सबसे महत्वपूर्ण है। प्रार्थना दिखाती है कि तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए स्थान है। जब तुम कठिनाई में होते हो, तो परमेश्वर की ओर देखना और सत्य की खोज में उससे प्रार्थना करना दर्शाता है कि तुम्हारे पास परमेश्वर का थोड़ा-बहुत भय मानने वाला दिल है; अगर तुम्हारे दिल में परमेश्वर न होता तो तुम ऐसा न करते। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, फिर भी उसने मुझे प्रबुद्ध नहीं किया!” ऐसा नहीं कहना चाहिए। तुम्हें पहले यह देखना चाहिए कि प्रार्थना करते समय तुम्हारा इरादा सही है या नहीं। अगर तुम ईमानदारी से सत्य की खोज करते हो, और अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, तो कोई हो सकता है कि किसी विशेष मामले में परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करे और इसे समझने दे। हर हाल में परमेश्वर तुम्हें समझा देगा। अगर परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध न करे, तो तुम अपने आप नहीं समझ पाओगे। कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो मनुष्य के विचार से परे हैं, फिर चाहे तुम्हारे पास समझने की शक्ति हो या नहीं, और तुम कितने भी काबिल हो। जब तुम समझते भी हो, तो क्या यह तुम्हारे अपने दिमाग की उपज है? परमेश्वर के इरादों और पवित्र आत्मा के कार्य के बारे में, अगर पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध नहीं करता, तो तुम्हें ऐसा कोई नहीं मिलेगा जो इसका अर्थ जानता हो। जब परमेश्वर खुद तुम्हें बताता है कि इसका क्या अर्थ है, तभी तुम जानोगे। और इसलिए, जब तुम्हारे साथ कुछ होता है तो पहली चीज है प्रार्थना करना। जब तुम प्रार्थना करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपने विचार, मत और दृष्टिकोण व्यक्त करने चाहिए, और आज्ञाकारिता की मानसिकता के साथ उससे सत्य खोजना चाहिए; यही अभ्यास लोगों को करना चाहिए। बेमन से प्रार्थना करने से तुम्हें कोई नतीजा नहीं मिलेगा, और तुम्हें यह शिकायत नहीं करनी चाहिए कि पवित्र आत्मा ने तुम्हें प्रबुद्ध नहीं किया है। मैंने पाया है कि परमेश्वर पर अपनी आस्था में कुछ लोग केवल धार्मिक अनुष्ठानों का पालन और धार्मिक कृत्य करते हैं। परमेश्वर का उनके हृदय में कोई स्थान नहीं होता; वे तो पवित्र आत्मा के कार्य को भी नकार देते हैं। वे न तो प्रार्थना करते हैं, न परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं। वे बस सभा में जाते रहते हैं, और कुछ नहीं। क्या यही परमेश्वर पर आस्था है? वे अपने ढंग से विश्वास करते जाते हैं, लेकिन परमेश्वर उनकी आस्था से गायब है। उनके दिल में परमेश्वर नहीं है, वे अब और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करना चाहते, वे अब परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए भी तैयार नहीं हैं। तो क्या वे अविश्वासी नहीं बन गए हैं? विशेष रूप से कुछ अगुआ और कार्यकर्ता अक्सर सामान्य मामले सँभालते हैं। वे जीवन में प्रवेश पर कभी ध्यान नहीं देते, बल्कि सामान्य कार्यों को अपना मुख्य काम मानते हैं। इससे वे कार्य प्रबंधक बनकर रह गए हैं, और ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते हैं जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए आवश्यक है। नतीजतन, बीस-तीस वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी उनके पास बताने के लिए कोई जीवन-अनुभव नहीं होता, और उन्हें परमेश्वर का कोई सच्चा ज्ञान नहीं होता है। वे केवल धर्म-सिद्धांत के कुछ शब्द और वाक्यांश सुना सकते हैं। क्या वे इस तरह नकली अगुआ नहीं बन गए हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर पर अपने विश्वास में, वे अपने उचित कर्तव्यों को नहीं निभाते या सत्य का अनुसरण नहीं करते। केवल धर्म-सिद्धांत के कुछ शब्दों की अपनी समझ पर भरोसा करने से कुछ हल नहीं होगा। परीक्षा लेते, विपदा झेलते या बीमार पड़ते ही वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करने लगते हैं। उन्हें सच्चा आत्मज्ञान नहीं है, और उनके पास कोई अनुभवजन्य गवाही नहीं है। यह दिखाता है कि उन्होंने इतने साल से परमेश्वर पर विश्वास के दौरान सत्य का अनुसरण नहीं किया, वे केवल दुनियादारी में व्यस्त रहे, नतीजतन उन्होंने खुद को नष्ट कर दिया है। लोग चाहे कितने ही वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास कर रहे हों, अगर उन्होंने यह सुनिश्चित करना है कि वे गिरें नहीं, बुराई न करें, बहिष्कृत न किए जाएँ, तो उन्हें कम से कम कुछ सत्यों की समझ हासिल करनी चाहिए। इतना तो उनमें होना ही चाहिए। कुछ लोग आधे-अधूरे दिल से उपदेश सुनते हैं, और परमेश्वर के वचनों पर विचार नहीं करते। उनके साथ चाहे कुछ भी हो जाए, वे सत्य की तलाश नहीं करते। वे धर्म-सिद्धांत के शब्द समझने मात्र से संतुष्ट रहते हैं, और मान लेते हैं कि उन्होंने सत्य हासिल कर लिया है। फिर जब परीक्षा ली जाती है तो उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता, उनके दिल शिकवे-शिकायतों से भरे होते हैं जिन्हें वे बताना तो चाहते हैं मगर बताने की हिम्मत नहीं करते। क्या ऐसे लोग निपट दयनीय नहीं होते हैं? बहुत-से लोग अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा लापरवाह और असावधान रहते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है और उनसे निपटा जाता है तो वे आत्मचिंतन नहीं करते या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते हैं। वे हमेशा खुद को सही ठहराते रहते हैं, लिहाजा भिन्न-भिन्न तरह से उनका भोंडापन सामने आ जाता है, उन्हें उजागर करके बाहर निकाल दिया जाता है, और वे अंत तक कभी भी खुद को नहीं जान पाते हैं। भला उनके कुछ धर्म-सिद्धांत समझ लेने भर में क्या तुक है? इसमें कोई तुक नहीं है। लोग चाहे कितने ही वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते आए हों, केवल धर्म-सिद्धांत समझ पाने और इनका बखान कर सकने का कोई फायदा नहीं है। उन्होंने सत्य प्राप्त नहीं किया, बल्कि भटक चुके हैं। इसलिए, जब तुम्हारे साथ कुछ घटता है और तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर उसके इरादे खोजते हो, तो समस्या हल करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है सत्य की समझ प्राप्त करना। यही सही मार्ग है, और तुम्हें इस तरह से निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए।

1997

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