परमेश्वर की सेवकाई के बारे में वचन

अंश 70

अगर कलीसिया के एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर की अच्छी गवाही देने में अगुआई करनी है, तो सबसे महत्वपूर्ण बात लोगों का परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और सत्य की संगति करने में अधिक समय व्यतीत करने में मार्गदर्शन करना है। इस तरह से, परमेश्वर के चुने हुए लोग मनुष्य को बचाने में परमेश्वर के उद्देश्यों और परमेश्वर के कार्य के प्रयोजन का गहरा ज्ञान प्राप्त कर सकें, और परमेश्वर की इच्छा और मनुष्य के लिए उसकी विभिन्न आवश्यकताएँ समझ सकें, और इस प्रकार वे अपना कर्तव्य उचित ढंग से कर पाते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट कर पाते हैं। जब तुम संगति और प्रचार करने इकट्ठा होते हो, तो तुम्हें व्यावहारिक रूप से अपने अनुभवात्मक गवाहियों की बात करनी चाहिए, और शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देने से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। जब तुम परमेश्वर के वचन खाते-पीते हो, तो तुम्हें उस सत्य समझने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए—और सत्य समझ लेते हो, तुम्हें इस पर अमल करने का प्रयास करना होगा, जब तुम सत्य का अभ्यास करोगे, तभी तुम वास्तव में उसे समझ पाओगे। जब तुम परमेश्वर के वचनों पर संगति कर हो, वही बोलो जो तुम जानते हो। डींगें न मारो, गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणी मत करो, और केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को मत बोलो, बढ़ा-चढ़ा कर मत बोलो। अगर तुम बढ़ा चढ़ा कर बोलोगे, तो लोग तुमसे घृणा करेंगे और तुम बाद में अपमानित महसूस करोगे, और तुम्हें पछतावा और दुख होगा—और तुम यह सब अपने ऊपर ले आआगे। अगर तुम केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हो, और उनका व्याख्यान देते हो, उनसे निपटते हो, तो क्या तुम उन्हें सत्य समझा सकते हो और वास्तविकता में प्रवेश करा सकते हो? जिसके बारे में तुम संगति करते हो, अगर वह व्यवहारिक नहीं है, अगर वह शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम कितना भी उनसे निपटो और उन्हें व्याख्यान दो, उसका कोई लाभ नहीं होगा। क्या तुम्हें लगता है कि लोगों का तुमसे डरना और जो तुम उनसे कहते हो वह करना, और विरोध करने की हिम्मत न करना, उनके सत्य को समझने और आज्ञाकारी होने के समान है? यह एक बड़ी गलती है; जीवन प्रवेश इतना आसान नहीं है। कुछ अगुआ एक मजबूत छाप छोड़ने की कोशिश करने वाले एक नए प्रबंधक की तरह होते हैं, वे अपने नए प्राप्त अधिकार को परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर थोपने की कोशिश करते हैं ताकि हर व्यक्ति उनके अधीन हो जाए, उन्हें लगता है कि इससे उनका काम आसान हो जाएगा। अगर तुममें सत्य वास्तविकता का अभाव है, तो जल्दी ही तुम्हारा असली आध्यात्मिक कद उजागर हो जाएगा और तुम्हारे असली रंग सामने आ जाएँगे, और तुम्हें निकाला भी जा सकता है। कुछ प्रशासनिक कार्यों में थोड़ा निपटान, काट-छाँट और अनुशासन स्वीकार्य है। लेकिन अगर तुम सत्य की संगति करने में असमर्थ हो, तो अंत में, तुम समस्याएँ हल करने में असमर्थ होगे, और यह कार्य के परिणामों को प्रभावित करेगा। अगर, कलीसिया में चाहे जो भी समस्याएँ आएँ, तुम लोगों को व्याख्यान और दोष देना जारी रखते हो—अगर तुम हमेशा बस अपना आपा खोकर पेश आते हो—तो यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है जो प्रकट हो रहा है, और तुमने अपनी भ्रष्टता का बदसूरत चेहरा दिखा दिया है। अगर तुम हमेशा मंच पर खड़े होकर इसी तरह लोगों को व्याख्यान देते हो, तो जैसे-जैसे समय बीतेगा, लोग तुमसे जीवन का प्रावधान प्राप्त करने में असमर्थ हो जाएँगे, वे कुछ भी व्यवहारिक हासिल नहीं करेंगे, बल्कि तुमसे घृणा करेंगे और तुम्हें ठुकरा देंगे। इसके अलावा, कुछ लोग ऐसे होंगे, जो विवेक की कमी के कारण तुमसे प्रभावित होकर इसी तरह दूसरों को व्याख्यान देंगे, और उनसे निपटेंगे और उनकी काट-छाँट करेंगे। वे भी इसी तरह क्रोधित हो जाया करेंगे और अपना आपा खो दिया करेंगे। न केवल तुम लोगों की समस्याएँ हल करने में अक्षम होगे—तुम उनके भ्रष्ट स्वभाव को बढ़ावा भी दोगे। और क्या यह उन्हें विनाश के मार्ग पर नहीं ले जा रहा? क्या यह दुष्कर्म नहीं है? अगुआ को प्राथमिकता से सत्य और जीवन प्रदान करने के बारे में संगति करते हुए अगुआई करनी चाहिए। अगर तुम हमेशा मंच पर खड़े होकर दूसरों को व्याख्यान देते हो, तो क्या वे सत्य समझ पाएँगे? अगर तुम कुछ समय तक इसी तरह से काम करते रहे, तो जब लोग तुम्हारी असलियत देख लेंगे, वे तुम्हें छोड़ देंगे। क्या तुम इस तरह से काम करके लोगों को परमेश्वर के सामने ला सकते हो? तुम निश्चित रूप से नहीं ला सकते; तुम सिर्फ कलीसिया का काम खराब कर सकते हो और परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों को तुमसे घृणा करने और तुम्हें छोड़ देने के लिए बाध्य कर सकते हो। अतीत में, कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस वजह से निकाल दिया गया था। वे व्यवहारिक समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करने में अक्षम थे और, परमेश्वर के वचन खाने और पीने या खुद को समझने में लोगों की अगुआई नहीं कर सके। उन्होंने इनमें से कोई भी आवश्यक कार्य नहीं किया; उन्होंने सिर्फ खुद को उच्च स्थिति पर रखने, लोगों को भाषण देने, और आदेश देने पर ही ध्यान केंद्रित किया, वे सोच रहे थे कि ऐसा करते हुए वे कलीसिया के अगुआ का कार्य कर रहे हैं। परिणाम के तौर पर, उन्होंने ऊपर वाले द्वारा जारी किए गए कार्य प्रबंधन नहीं किए भले ही वे उन्हें करना जानते थे, ना ही उन्होंने विशिष्ट कार्य ठीक से किए। उन्होंने शब्द और धर्म-सिद्धांत उगलने और नारे लगाने के अलावा जो कुछ किया वह था खुद को उच्च स्थिति पर रखना और आँखें मूंद कर भाषण देना, लोगों से निपटना और उनकी कांट-छाँट करना। इस वजह से हर कोई इन अगुआओं और कार्यकर्ताओं से डरने और बचने लगा, और लोगों की हिम्मत नहीं हुई कि वे उन्हें समस्याएँ बताएँ। इस तरीके से कार्य करके अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने अपना काम बिगाड़ लिया और उसे ठप कर दिया। जब परमेश्वर के घर ने उन्हें बर्खास्त कर दिया तभी उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने कोई वास्तविक कार्य नहीं किया था। शायद उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ, लेकिन पछतावे किसी काम के नहीं हैं। उन्हें फिर भी बर्खास्त कर दिया गया और बाहर निकाल दिया गया।

अंश 71

तुम सभी सत्य की दिशा में प्रयास करना चाहते हो। बीते दिनों में तुमने परमेश्वर के वचनों में सत्य के भिन्न-भिन्न पहलुओं का निचोड़ निकालने में थोड़ा प्रयास किया। इससे कुछ लोगों को मामूली लाभ मिला, जबकि कुछ लोग विनियमों के पालन में ही लगे रहे और भटक गए। नतीजतन, उन्होंने सत्य के हर पहलू को विनियमों के पालन में बदल दिया। जब तुम लोग सत्य का निचोड़ इस तरीके से निकालते हो, तब तुम सत्य के भीतर से दूसरों को जीवन पाने या उनके स्वभाव में बदलाव लाने में मदद नहीं करते हो; बल्कि, तुम उन्हें सत्य के भीतर से कुछ ज्ञान या धर्म-सिद्धांत का माहिर बना रहे होते हो। यह कुछ ऐसा है मानो वे परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को समझते हों, जबकि असल में, उन्हें कुछ धर्म-सिद्धांतों और शब्दों में ही महारत प्राप्त होती है; उनके पास सत्य में निहित अर्थ की समझ नहीं होती है। यह ठीक धर्मशास्त्र या बाइबल पढ़ने जैसा है; बाइबल के कुछ ज्ञान और धर्मशास्त्र के कुछ सिद्धांतों का सारांश निकालने के बाद, लोगों ने सिर्फ बाइबल के कुछ ज्ञान और सिद्धांतों की समझ ही हासिल की है। वे उन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बोलने में तो निपुण होते हैं, लेकिन उनके पास कोई वास्तविक अनुभव नहीं होता। उनके पास अपने भ्रष्ट स्वभाव की कोई समझ नहीं है, उन्हें परमेश्वर के कार्य की समझ तो और भी कम है। कुल मिलाकर, इन्होंने जो हासिल किया है वह सिर्फ कुछ धर्म-सिद्धांत और ज्ञान की बातें हैं; यह तो विनियमों का समूह मात्र है। उन्हें व्यावहारिक कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। अगर परमेश्वर कोई नया कार्य करता है तो क्या ऐसे लोग उसे अपनाने और उसके प्रति समर्पित होने में समर्थ हो सकते हैं? क्या तुम अपने द्वारा निकाले गए सत्य के निचोड़ से इसका कोई मेल बिठा सकते हो? अगर तुम इसका मिलान कर सकते हो और तुम्हारे पास कुछ समझ भी हो, तो तुमने जो चीजें निचोड़ में निकाली हैं, वे कुछ हद तक व्यावहारिक हैं। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो निचोड़ में निकाली गई वे चीजें बस विनियम ही हैं और उनका कोई महत्व नहीं है। ऐसे में, क्या इस तरह सत्य का निचोड़ निकालना सही है? क्या यह सत्य को समझने में लोगों की मदद कर सकता है? अगर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, तो ऐसा करना बिल्कुल निरर्थक है। इससे लोग सिर्फ धर्मशास्त्र का अध्ययन ही करते रहते हैं। उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य का अनुभव नहीं हो पाता। इसीलिए पुस्तकों का संपादन करते समय कलीसिया में सिद्धांत जरूर होने चाहिए। उन्हें लोगों को सत्य को आसानी से समझाने, उसमे प्रवेश का रास्ता दिखाने और उनके दिलों में रोशनी लाने में मदद करने में सक्षम होना चाहिए। इससे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना आसान हो जाता है। तुम्हें धर्म में मौजूद उन लोगों की तरह नहीं होना है जो बाइबल और धर्मशास्त्र के ज्ञान का विधिवत अध्ययन करते हैं। इससे लोगों को सिर्फ बाइबल के ज्ञान, धार्मिक अनुष्ठानों और विनियमों की जानकारी मिलेगी, जो उन्हें एक दायरे में सीमित कर देगी। इसमें लोगों को परमेश्वर के समक्ष लाने की क्षमता नहीं है, ताकि वे सत्य और परमेश्वर के इरादों को समझ सके। तुम सोचते हो कि सवालों की झड़ी लगाने और फिर उनका जवाब देने से, या मूल बिंदुओं को चिह्नित करने और कुछ वाक्यों में सत्य का सारांश और निचोड़ निकालने से, ये मुद्दे अपने-आप स्पष्ट हो जाएँगे और भाई-बहनों को आसानी से समझ में आ जाएँगे। तुम्हें लगता है कि यह सही दृष्टिकोण है। लेकिन, लोग इसे पढ़कर सत्य में निहित अर्थ को समझ नहीं पाएँगे; वे कभी भी इसका वास्तविकता से मेल नहीं बिठा पाएँगे। वे सिर्फ कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों में माहिर हैं। इसलिए इन कामों को करने से अच्छा होगा कि इन्हें किया ही न जाए! ऐसा करना लोगों को ज्ञान के बारे में समझाने और उसमें महारत हासिल करने की दिशा में लाने का एक तरीका है। तुम लोगों को धर्म-सिद्धांत और धर्म की ओर जाने का रास्ता दिखा रहे हो और धर्म-सिद्धांत के संदर्भ में उन्हें परमेश्वर में विश्वास दिलाने और उसका अनुसरण करवाने के लिए प्रेरित कर रहे हो। क्या यही वह रास्ता नहीं है जिस पर पौलुस ने लोगों को परमेश्वर में विश्वास दिलाने की ओर प्रेरित किया? तुम लोगों का सोचना है कि आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांत को समझ लेना ही खास महत्व रखता है, और परमेश्वर के वचनों को जानना महत्वपूर्ण नहीं है। यह एक भारी भूल है। ऐसे कई लोग हैं जो इस बात पर ध्यान देते हैं कि वे परमेश्वर के कितने सारे वचन याद कर सकते हैं, कितने सारे धर्म-सिद्धांतों के बारे में बता सकते हैं, और कितने सारे आध्यात्मिक सूत्रों की खोज कर सकते हैं। इसी वजह से तुम लोग हमेशा सत्य के हर पहलू का विधिवत निचोड़ निकालना चाहते हो ताकि हर कोई सुर में सुर मिलाकर बात करे, एक ही धर्म-सिद्धांत का पाठ करे, एक ही ज्ञान सहेजे और एक जैसे विनियमों पर चले। यही तुम लोगों का लक्ष्य है। लगता है मानो तुम लोग ऐसा अन्य लोगों को सत्य की बेहतर समझ देने के लिए करते हो, लेकिन यह नहीं जानते हो कि तुम दूसरे लोगों को परमेश्वर के वचनों के धर्म-सैद्धांतिक विनियम बता रहे हो, इससे तो वे परमेश्वर के वचनों की सत्य वास्तविकता से ही और दूर भटक जाएँगे। सत्य समझने में लोगों की सचमुच मदद करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों के पाठ को वास्तविकता और लोगों की भ्रष्ट दशाओं के साथ जोड़ना होगा। तुम्हें अपने अंदर की समस्याओं पर चिंतन करना चाहिए और अपने उन भ्रष्ट स्वभावों के बारे में चिंतन करना चाहिए जिन्हें तुम प्रकट करते हो। फिर तुम्हें परमेश्वर के वचनों में सत्य की खोज करके इन समस्याओं को सुधारना चाहिए। यही लोगों की वास्तविक समस्याओं का समाधान करते हुए उन्हें सत्य समझाने और वास्तविकता में प्रवेश कराने का एकमात्र तरीका है। सिर्फ इसी नतीजे को हासिल करके तुम वास्तव में लोगों को परमेश्वर के समक्ष लाते हो। अगर तुम सिर्फ आध्यात्मिक सिद्धांत, धर्म-सिद्धांत और विनियमों के बारे में बात करते हो; अगर तुम्हारा ध्यान सिर्फ यह सुनिश्चित करने पर केन्द्रित है कि लोगों का व्यवहार अच्छा हो; अगर तुम सिर्फ यही हासिल करना चाहते हो कि लोग एक समान बात बोलें और एक समान विनियमों का पालन करें, लेकिन तुम उन्हें सत्य की समझ देने में नाकाम होते हो, और उन्हें खुद को बेहतर ढंग से समझने में मदद नहीं कर पाते हो, ताकि वे पश्चात्ताप कर सकें और अपने में बदलाव ला सकें, तो तुमने जो कुछ भी समझा है, वह सिर्फ शब्द और धर्मसिद्धांत हैं, तुम किसी भी सत्य वास्तविकता को नहीं जानते। अंत में, इस तरीके से परमेश्वर पर विश्वास करके, तुम न सिर्फ सत्य को पाने में नाकाम रहोगे, बल्कि खुद की प्रगति में भी बनोगे और अपने को ही खो दोगे—तुम कुछ भी हासिल नहीं कर पाओगे।

क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के बोलने के किन्हीं ढर्रों पर गौर किया है? कुछ लोग इसे ऐसे बताते हैं : परमेश्वर के हरेक प्रवचन की विषय-वस्तु के कई पहलू होते हैं। हर एक अंश और हर एक वाक्य का अर्थ अलग-अलग है। इंसान के लिए इसे न तो याद रखना आसान है, न ही लोगों के लिए इसे समझ पाना। अगर लोग हर एक अंश के मुख्य विचार को संक्षेप में बताना भी चाहें, तो वे नहीं बता पाएँगे। कम काबिलियत वाले लोग परमेश्वर के वचनों को नहीं समझ सकते। उनके साथ चाहे जैसी भी संगति करें, फिर भी वे सत्य को समझने में नाकाम होते हैं। परमेश्वर के वचन कोई उपन्यास, गद्य या साहित्यिक रचनाएँ नहीं हैं; वे सत्य हैं, और ऐसी भाषा है जो इंसान को जीवन देता है। इन वचनों को इंसान उन पर सिर्फ चिंतन-मनन करके नहीं समझ सकता है, न ही लोग थोड़े और प्रयास करके उनके भीतर के ढर्रों का सार निकाल सकते हैं। इसीलिए, चाहे तुझे सत्य के किसी भी पहलू के बारे में थोड़ा-बहुत ज्ञान रहे, और तुम कुछ साफ-साफ बता भी सको, फिर भी तुम शेखी नहीं बघार सकते, क्योंकि तुम जो समझते हो वह महज आंशिक ज्ञान है। यह महज सतह की खुरचन है, यह समुद्र में एक बूँद-सा है, और परमेश्वर के सच्चे इरादों को समझने के मुकाबले काफी कम पड़ता है। परमेश्वर के हर प्रवचन में सत्य के कई पहलू होते हैं। जैसे कि कोई प्रवचन परमेश्वर के देहधारण के रहस्यों के बारे में बताता है। इसमें देहधारण का अर्थ, देहधारण से पूरा किया जाने वाला कार्य और लोगों के परमेश्वर पर विश्वास करने का तरीका शामिल हैं। इसमें यह भी आ सकता है कि लोग परमेश्वर को कैसे जानें और परमेश्वर से कैसे प्यार करें। इसमें सत्य के कई पहलू शामिल हैं। अगर, तुम यह सोचते हो कि देहधारण के बस कुछ ही अर्थ हैं, जिन्हें कई वाक्यों में समेटा जा सकता है, तो इंसान अपने मन में हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और कल्पनाएँ क्यों रखता है? देहधारण का कार्य लोगों पर क्या प्रभाव छोड़ना चाहता है? यह लोगों को परमेश्वर के वचन सुनने और परमेश्वर के पास लौटने में सक्षम बनाता है। यह इंसान से संवाद करने, इंसान को प्रत्यक्ष रूप से बचाने और उसे परमेश्वर के बारे में जानने में सक्षम करने के लिए किया जाता है। परमेश्वर को जानने के बाद, लोग स्वाभाविक रूप से परमेश्वर का भय मानने लगते हैं, और उन के लिए परमेश्वर के प्रति समर्पित होना आसान होता है। इसीलिए उसके वचन या सत्य का कोई भी पहलू उतना सरल नहीं जितना तुम सोचते हो। अगर तुम परमेश्वर के वचनों और दिव्य भाषा को इतना सरल मानते हो, यह सोचते हो कि किसी भी समस्या का हल परमेश्वर के वचनों के एक अंश से ही हो सकता है, तो तुम सत्य को पूरी तरह से नहीं समझते। भले ही तुम्हारी समझ सत्य के अनुरूप हो, फिर भी यह एकतरफा है। परमेश्वर का हर एक प्रवचन कई परिप्रेक्ष्यों से बोला जाता है। परमेश्वर के वचनों का सार-संक्षेप या निचोड़ इंसान नहीं निकाल सकता। उनका निचोड़ निकलने के बाद, तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर के वचनों का एक अंश सिर्फ एक ही मसले को हल करता है, जबकि असल में वह अंश कई समस्याओं का समाधान कर सकता है। तुम उसे संक्षिप्त या परिसीमित नहीं कर सकते, क्योंकि सत्य के सभी पहलुओं में कई वास्तविकताएँ छिपी होती हैं। ऐसा क्यों कहा जाता है कि सत्य ही जीवन है, कि लोग इसका आनंद ले सकते हैं, और यह कुछ ऐसा है कि कई जन्मों या सैकड़ों सालों के बाद भी जिसे लोग पूरी तरह अनुभव नहीं कर सकते हैं? अगर तुम सत्य के किसी पहलू या परमेश्वर के वचनों के किसी अंश का निचोड़ निकालते हो, तो तुमने जिस अंश का निचोड़ निकाला है वह एक सूत्र, एक विनियम, एक धर्म-सिद्धांत बन जाता है—यह अब सत्य नहीं रह जाता है। भले ही ये परमेश्वर के मूल वचन हैं, एक भी शब्द बदले बिना, अगर तुम इस प्रकार निचोड़ निकालकर इन्हें व्यवस्थित करते हो, तो वे सत्य नहीं, बल्कि सैद्धांतिक शब्द बन जाते हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोगों को गुमराह कर धर्म-सिद्धांत की ओर ले जाओगे, तुम अपने धर्म-सिद्धांत के अनुसार उन्हें सोचने, कल्पना करने, समस्याओं पर विचार करने और परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के लिए मजबूर करोगे। इसे बार-बार पढ़ने के बाद लोग सिर्फ एक धर्म-सिद्धांत को समझ कर उस अंश में एक विनियम देखेंगे और उस पहलू को देख नहीं पाएंगे जो सत्य वास्तविकता है। अंत में तुम लोगों को धर्म-सिद्धांत समझने और विनियमों के अनुसार चलने के मार्ग पर ले जाओगे। वे लोग नहीं जान पाएँगे कि परमेश्वर के वचनों का अनुभव कैसे करें। वे लोग सिर्फ धर्म-सिद्धांतों को समझेंगे और धर्म-सिद्धांतों की चर्चा करेंगे, लेकिन न तो सत्य समझेंगे और न ही परमेश्वर को जान पाएँगे। उन लोगों के मुँह से जो भी निकलेगा वह सुनने में सुखद और सही धर्म-सिद्धांत जैसा लगेगा, फिर भी उनमें रत्ती-भर वास्तविकता नहीं रहेगी और उनके लिए कोई साध्य मार्ग भी नहीं होगा। वास्तव में ऐसी अगुआई इंसान को बहुत नुकसान पहुँचाती है!

क्या तुम लोगों को पता है कि परमेश्वर की सेवा में इंसान की सबसे बड़ी वर्जना क्या है? कुछ अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा अलग दिखना चाहते हैं, बाकी लोगों से आगे रहना और दिखावा करना चाहते हैं और नई-नई तरकीबें ढूँढ़ने में लगे रहना चाहते हैं, ताकि परमेश्वर को दिखा सकें कि वास्तव में वे कितने सक्षम हैं। लेकिन, वे सत्य को समझने और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं। यह काम करने का सबसे मूर्खतापूर्ण तरीका है। क्या यह असल में घमंडी स्वभाव को नहीं दिखाता है? कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं, “अगर मैं ऐसा करता हूँ, तो मुझे यकीन है कि इससे परमेश्वर खुश होगा; वह इसे पसंद करेगा। इस बार मैं परमेश्वर को ऐसा करके दिखाऊँगा; यह उसे एक सुखद आश्चर्य देगा।” “सुखद आश्चर्य” से कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे क्या होगा? ऐसे लोग जो करते हैं दूसरे लोग बेतुका समझते हैं। परमेश्वर के घर के कार्य में इनके रहने से कोई लाभ नहीं मिलने वाला है, बल्कि वे पैसे की बर्बादी हैं—वे परमेश्वर की भेंट को नुकसान पहुँचाते हैं। परमेश्वर की भेंट का उपयोग मनमाने ढंग से नहीं किया जाना चाहिए; परमेश्वर की भेंट को बर्बाद करना पाप है। ये लोग अंततः परमेश्वर के स्वभाव का अनादर करते हैं, पवित्र आत्मा उनमें काम करना बंद कर देता है और उन्हें निकाल दिया जाता है। इस प्रकार कभी भी आवेग में आकर अपनी मनमर्जी नहीं करनी चाहिए। तुम परिणाम पर क्यों विचार नहीं कर पाते? परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करके उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने के कारण जब तुझे हटा दिया जाएगा, तो तेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं बचेगा। जाने-अनजाने तेरी मंशा चाहे जो कुछ भी हो, अगर तुम परमेश्वर के स्वभाव और उसके इरादों को नहीं समझोगे, तो तुम उसे आसानी से अपमानित कर दोगे और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन कर बैठोगे; यह ऐसी बात है जिसे लेकर सबको सतर्क रहना चाहिए। परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों के उल्लंघन या परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करने पर, अगर यह मामला बेहद गंभीर है, तो परमेश्वर यह विचार नहीं करेगा कि तुमने यह जानबूझकर किया या अनजाने में। ऐसे मामले में तुझे साफ-साफ समझना पड़ेगा। अगर तुम इस मसले को नहीं समझ पाओगे, तो गड़बड़ियाँ पैदा करोगे। परमेश्वर की सेवा में लोग अच्छी प्रगति करना, अच्छी चीजें करना, अच्छी बातें बोलना, अच्छे काम करना, अच्छी बैठकें आयोजित करना और अच्छे अगुआ बनना चाहते हैं। अगर तुम हमेशा ऐसी ऊँची महत्वाकांक्षाएँ रखोगे, तो तुम परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करोगे; जो लोग ऐसा करते हैं, वे शीघ्र ही मर जाएँगे। अगर तुम परमेश्वर की सेवा में सदाचारी, कर्तव्यनिष्ठ और विवेकशील नहीं रहोगे, तो तुम देर-सबेर उसके स्वभाव का अपमान करोगे। अगर तुम परमेश्वर के स्वभाव का अनादर करोगे, उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करोगे, और ऐसा करके परमेश्वर के खिलाफ पाप करोगे, तो वह यह नहीं देखेगा कि तुमने ऐसा क्यों किया या तुम्हारा इरादा क्या था। ऐसे में क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर अनुचित कार्य करता है? क्या वह इंसान की परवाह नहीं करता है? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि तुम अंधे या बहरे नहीं हो, न ही तुम मूर्ख हो। परमेश्वर के प्रशासनिक आदेश स्पष्ट और प्रत्यक्ष हैं। तुम उन्हें देख और सुन सकते हो। अगर तुम अभी भी उनका उल्लंघन करोगे, तो इसे तुम किस तर्क से इसे सही ठहराओगे? भले ही तुम्हारा ऐसा कोई इरादा न हो, अगर तुम परमेश्वर का अपमान करोगे, तो समय आने पर तुम्हें बर्बादी और दंड का सामना करना ही पड़ेगा। तुम्हारे जो भी हालात रहे हों, क्या उससे कोई फर्क भी पड़ेगा? शैतानी प्रकृति वाले लोग आदतन परमेश्वर के स्वभाव का अनादर कर सकते हैं। किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने या उसके स्वभाव का अनादर करने के लिए चाकू की नोक पर मजबूर नहीं किया जा सकता है; ऐसा कभी होता ही नहीं। बल्कि, यह कुछ ऐसा है जो इंसान की प्रकृति से तय होता है। “परमेश्वर के स्वभाव का अनादर नहीं किया जा सकता।” इस बात में गूढ़ अर्थ छिपे हैं। हालाँकि, परमेश्वर लोगों को उनकी दशा और पृष्ठभूमि के आधार पर दंड देता है। परमेश्वर को जाने बिना उसका अनादर करना एक किस्म की मनोदशा है, जबकि परमेश्वर को अच्छी तरह जानने के बावजूद उसका अनादर करना दूसरी मनोदशा है। कुछ लोग परमेश्वर को अच्छी तरह जानते हुए भी उसका अनादर कर सकते हैं और उन्हें दंडित किया जाएगा। परमेश्वर अपने कार्य के हर चरण में अपने कुछ स्वभावों को व्यक्त करता है। क्या इंसान इसमें से कुछ भी नहीं समझ पाया है? क्या लोग इस बारे में थोड़ा भी नहीं जानते हैं कि परमेश्वर ने अनेक सत्यों के माध्यम से अपने किन स्वभावों को व्यक्त किया है, और लोगों के कौन-से कार्यकलाप और शब्द उसका अनादर करते हैं? और जहाँ तक परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों द्वारा निर्धारित मामलों की बात है—इंसान को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए—क्या लोग ये भी नहीं जानते हैं? सत्य और सिद्धांतों से संबंधित कुछ मामलों को लोग पूरी तरह से नहीं समझे सकते क्योंकि उन्होंने उनका अनुभव नहीं किया है; वे उन्हें समझने में असमर्थ हैं। हालाँकि, प्रशासनिक आदेशों के मामले एक निर्धारित दायरे में आते हैं। वे विनियम हैं। इंसान इन बातों को आसानी से समझ कर अपना सकता है। उनका अध्ययन करने या समझाने की कोई जरूरत नहीं है। लोग उनके अर्थ को जैसे समझते हैं उसी हिसाब से काम करना उनके लिए काफी है। अगर तुम लापरवाह हो, तुम्हारा दिल परमेश्वर का भय नहीं मानता है, और तुम जान-बूझकर प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करते हो, तो तुम्हें दंड मिलना ही चाहिए!

अंश 72

अगुआ के रूप में कार्य करने वाले लोगों को काम पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देना नहीं चाहिए या सदैव अपने रुतबे पर ध्यान केन्द्रित नहीं करना चाहिए, न ही उन्हें अपने लिए उच्च मानक तय कर फिर हर किसी की समस्याएँ हल करने के लिए हर संभव तरीका सोचने में लगे रहना चाहिए ताकि हर कोई यह जान ले : “मैं अगुआ हूँ, मेरे पास यह पद है, यह रुतबा है, और मेरे पास भी यह काबिलियत है, यह योग्यता है। और चूँकि मैं तुम्हारी अगुआई कर सकता हूँ, इसलिए मैं तुम्हारा पोषण भी कर सकता हूँ।” यह परेशानी की बात है कि वे ऐसे शब्द बोल पा रहे हैं। यह किस तरह से परेशानी भरा है? यदि तुम्हारा रुझान गलत है और यदि तुम्हारे पास अपने मामले संभालने को लेकर कोई सिद्धांत नहीं है, तो फिर तुम जो कुछ भी करते हो वह गलत होगा और भटकाव पैदा करेगा। यदि तुम्हारी प्रेरणा गलत है, तो तुम जो कुछ भी करते हो वह गलत होगा। सत्य की खोज करने, सत्य को समझने, दिव्य-दर्शनों के सत्य के सार को समझने, और सिद्धांतों के इस पहलू में महारत पाने पर ध्यान केन्द्रित करो—यही सही है। अगर तुम अपने पर मुसीबतें आने पर या समस्याओं से निपटते हुए इन सीमाओं को नहीं लाँघते हो तो तुम दूसरों की मदद करने और उनकी कठिनाइयाँ हल करने में सक्षम रहोगे, और तुम एक योग्य अगुआ बनोगे। लेकिन, यदि तुम कुछ सिद्धांत ही समझते हो और केवल उन्हें ही ओढ़े रहते हो, उपदेश अधिक सुनते हो और अगुआई करने के लिए कुछ और वचन रट लेते हो, और यदि तुम किसी व्यक्ति की समस्याएँ हल करने के प्रयास में सिर्फ कुछ सिद्धांत और वचन पेश कर पाते हो, और परिणामस्वरूप, उसकी किसी भी समस्या को हल नहीं करते हो, तो फिर तुम्हारे पास अगुआ होने की वास्तविकता नहीं है, और तुम सिर्फ एक खाली ढांचा हो। यह किस तरह का अगुआ है? (झूठा अगुआ।) यह झूठा अगुआ है। तुम वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हो। भले ही कोई किसी झूठे अगुआ को उजागर न करे और उसके बारे में सूचना न दे, लेकिन ऐसे में कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन प्रगति नहीं करेगा, समस्याएँ इकट्ठी होती जाएँगी, और झूठे अगुआ को दोष अपने सिर पर लेना पड़ेगा और पद छोड़ना पड़ेगा। यदि तुम एक झूठे अगुआ हो, तो तुम्हारा पद चाहे कितना ही ऊँचा हो, तुम झूठे अगुआ ही रहोगे। अब, तुम चाहे वास्तविक कार्य कर सकते हो या नहीं और तुम झूठे अगुआ हो या नहीं—ये सबसे महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं। तो, सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है? अब तुम्हें जल्दी से सत्य का अनुसरण कर जीवन प्रवेश पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। एक बार जब तुम जीवन प्रवेश कर लेते हो, अपना स्वभाव बदल लेते हो, परमेश्वर के इरादे समझ लेते हो और अपनी गलत दशाएँ दूर करने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम्हारे लिए दूसरों की समस्याएँ हल करना आसान हो जाएगा। एक बार जब तुमने सत्य समझ लिया और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया, तो क्या तुम्हें तब भी यह डर होगा कि तुम दूसरों की समस्याएँ हल नहीं कर सकते? तुम्हें यह चिंता नहीं करनी पड़ेगी कि तुम अच्छी तरह से अगुआई कर सकते हो या नहीं। यदि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, तो तुम स्वाभाविक रूप से अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और वास्तविक समस्याएँ हल करने में सक्षम हो जाओगे। तुम्हें यह अच्छी तरह समझ लेना होगा। यदि तुम इसे अच्छी तरह से नहीं समझते हो, और एक अगुआ के रूप में हमेशा अपने रुतबे की रक्षा करना चाहते हो, और यदि परमेश्वर के चुने हुए लोगों के दिलों में अपनी अच्छी छवि बनाना चाहते हो, तो तुम्हारा इरादा गलत है, और तुम अपने आप कलंक लेकर असफल हो जाओगे। यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम करता है और अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान केन्द्रित करता है, और तुम अपनी मानवीय महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और गलत खोजों को छोड़ देते हो, और इन चीजों से विवश नहीं होते हो, तो तुम सत्य का अनुसरण करने में सक्षम रहोगे, और तुम समय के साथ सहज रूप से सत्य के प्रत्येक पहलू को समझने में सक्षम हो जाओगे। इस तरह, जब दूसरों की मदद करने की बात आएगी तो तुम मगन होकर यह काम करोगे और तुम्हें इसमें कोई कठिनाई नहीं होगी। इसलिए, तुमको अपने रुतबे की रक्षा नहीं करनी चाहिए। यह एक खाली ढाँचा है। यह बेकार है। इससे तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा, और यह तुम्हें सत्य को समझने में भी सहायता नहीं करेगा। यही नहीं, इसके कारण तुम कई गलतियाँ कर सकते हो और गुमराह भी हो सकते हो। भ्रष्ट मानवजाति के लिए रुतबा एक जाल है। लेकिन कोई भी इस बाधा से बच नहीं सकता है, सभी को इससे गुजरना होगा, यह सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि तुम इसे कैसे निपटते हो। यदि तुम मानवीय तरीकों से निपटते हो, तो तुम अपने आप को रोकने या अपने खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम नहीं होगे। इसे केवल सत्य का उपयोग करके हल किया जा सकता है। सत्य इस समस्या को हल कर सकता है। यदि तुम सत्य खोज सकते हो तो इस समस्या को जड़ से खत्म कर सकते हो। यदि तुम इस कठिनाई को हल करने के लिए सत्य का उपयोग नहीं कर सकते, यदि तुम केवल स्वयं को रोक रहे हो और चीजों के खिलाफ लड़ रहे हो—अपने विचारों, अपने दृष्टिकोणों, अपने ख्यालों से लड़ रहे हो, और हमेशा इसी तरह उनके खिलाफ लड़ रहे हो—तो यह क्या तरीका है? यह नकारात्मक और निष्क्रिय दृष्टिकोण है। तुम्हें इसे हल करने के लिए सकारात्मक तरीकों का उपयोग करना चाहिए, अर्थात्, तुम्हें इसे सत्य के जरिए हल करना चाहिए, और इस मामले को अच्छी तरह से समझना चाहिए। सबसे पहले उन विभिन्न दृष्टिकोणों को देखो जिसका उपयोग मसीह-विरोधी और झूठे अगुआ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे की तलाश करने और अपने घमंड और गर्व की रक्षा करने के लिए करते हैं। उन्हें स्पष्ट रूप से देखने के बाद, तुम महसूस करोगे : “ओह, कितना शर्मनाक है, सच में शर्मनाक! क्या मैं भी उन दृष्टिकोणों का उपयोग करता हूँ?” फिर, तुम आत्म-चिंतन करने लगोगे और जल्द ही तुमको एहसास होगा : “ओह, मैं भी कई ऐसे दृष्टिकोण अपनाता हूँ, मैं उन मसीह-विरोधियों और झूठे अगुआओं से इतना अलग नहीं हूँ।” तुम्हारे दिल में कुछ पछतावा होगा, और तुम सबक लेने के संकल्प के साथ कहोगे, “मैं अब और अपना रुतबा बचाकर यह बेशर्मी नहीं दिखा सकता”। ऐसी बातों पर ध्यान मत दो कि दूसरे लोग तुम्हारा सम्मान करते हैं या नहीं, तुम दूसरों की कितनी समस्याएँ हल कर सकते हो, कोई तुम्हारी बात सुनता है या नहीं, या तुम्हारे लिए कितने लोगों के दिल में जगह है। यदि ऐसी बातें हमेशा तुम्हारे हृदय में रहेंगी, तो तुम व्यथित और विचलित रहोगे और तुम्हारे पास सत्य के अनुसरण के लिए कम समय बचेगा। तुमने अपनी सीमित-सी ताकत और कीमती समय को प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा पाने की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने में लगा दिया। लिहाजा, तुमने सत्य और जीवन प्राप्त नहीं किया है। यद्यपि तुमने रुतबा प्राप्त कर लिया है और तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी हो गई हैं, फिर भी तुमने जीवन प्रवेश नहीं किया है और तुमने पवित्रात्मा के कार्य को खो दिया है। इसका अंतिम परिणाम क्या होगा? तुम्हें निकाल कर दंडित किया जाएगा। ऐसा क्यों होता है? तुमने गलत रास्ता चुना। यदि तुम पौलुस की हद तक जा चुके हो, तो तुम्हें अंत में दंडित किया जाएगा। लेकिन यदि तुम पौलुस की हद तक नहीं गए हो और समय पर अपना मार्ग बदल लेते हो, तो छुटकारे के लिए गुंजाइश बची है, और अभी भी उद्धार की आशा है।

परमेश्वर पर विश्वास करने वालों की चाहे जो समस्याएँ हों, चाहे वे रुतबा, प्रसिद्धि, लाभ और धन की खोज हो, या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करनी हों, हर हाल में सभी समस्याएँ सत्य की खोज के माध्यम से हल की जानी चाहिए। कोई भी समस्या सत्य से किनारा करके नहीं निकल नहीं सकती। कोई भी मामला सत्य से अलग नहीं है। जैसे ही कोई व्यक्ति परमेश्वर पर अपने विश्वास के सत्य से भटक जाता है, उसका विश्वास खोखला हो जाता है। किसी और चीज को पाने की कोशिश करना बेकार है। कुछ लोग केवल असरदार और शानदार कर्तव्य निभाने से संतुष्ट रहते हैं, जिससे दूसरे लोग उन्हें सराहें और ईर्ष्या महसूस करें। क्या यह सार्थक है? यह तुम्हारा अंतिम परिणाम नहीं है, न ही यह तुम्हारा अंतिम पुरस्कार है, और यह निश्चित रूप से तुम्हारा गंतव्य नहीं है। इसलिए तुम चाहे जो कर्तव्य निभाओ, यह केवल अस्थायी है, चिरस्थायी नहीं। यह ऐसी कोई स्वीकृति या पुरस्कार नहीं है जो परमेश्वर ने तुम्हें दे दिया हो। आखिरकार, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर है कि वे सत्य को समझ और हासिल कर सकते हैं या नहीं, और अंत में, वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं, खुद को उसकी व्यवस्था की दया पर छोड़ सकते हैं या नहीं, अपने भविष्य और नियति पर कोई ध्यान न देकर एक योग्य सृजित प्राणी बन सकते हैं या नहीं। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, और ये वे मानक हैं जिनका उपयोग वह पूरी मानवजाति को मापने के लिए करता है। ये मानक अपरिवर्तनीय हैं, और यह तुम्हें याद रखना चाहिए। इन मानकों को अपने मन में अंकित कर लो, और किसी अवास्तविक चीज को पाने की कोशिश करने के लिए कोई दूसरा मार्ग ढूँढ़ने की मत सोचो। उद्धार पाने की इच्छा रखने वाले सभी लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक हमेशा के लिए अपरिवर्तनशील हैं। वे वैसे ही रहते हैं, फिर चाहे तुम कोई भी क्यों न हो। तुम केवल परमेश्वर की अपेक्षाओं और मानकों के अनुसार परमेश्वर में विश्वास करके उद्धार पा सकते हो। अगर तुम अस्पष्ट चीजों को पाने की कोशिश करने के लिए कोई और मार्ग खोजते हो, और कल्पना करते हो कि तुम भाग्य से सफल हो जाओगे, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर का विरोध करता है और उसे धोखा देता है, और तुम निस्संदेह परमेश्वर से शाप और दंड पाओगे।

अंश 73

स्वयं के कर्तव्यों को ठीक से पूर्ण करने हेतु और जो कार्य परमेश्वर ने उन्हें सौंपे हैं उन्हें अच्छे से निभाने हेतु, अगुआओं व कर्मियों को सर्वप्रथम परमेश्वर के इरादों को समझना होगा और अपने कार्य के आकार या गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए। बल्कि उन्हें इस बात पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि उन्होंने जीवन प्रवेश किया है कि नहीं और अपने स्वभाव बदलने चाहिए। परमेश्वर को अगुआओं व कर्मियों से ऐसी ही अपेक्षा है। क्या अब तुम लोग स्वभाव में बदलाव को सच में समझ गए हो? स्वभाव में बदलाव से क्या अभिप्राय है? क्या तुम व्यवहार में बदलाव व स्वभाव में बदलाव का अंतर पहचान सकते हो? किन दशाओं में माना जा सकता है कि व्यक्ति के जीवन स्वभाव में बदलाव आ गया है, व कौन-सी दशाओं में यह बदलाव सिर्फ बाहरी व्यवहार में ही होता है? व्यक्ति के ऊपरी बर्ताव में परिवर्तन और व्यक्ति की अंदरूनी जिंदगी में परिवर्तन में फर्क क्या होता है? क्या तुममें से कोई मुझे यह फर्क बता सकता है? तुम देखते हो कि एक व्यक्ति बहुत ही उत्साह से, भाग-दौड़ कर रहा है, कलीसिया के कामों में लगा हुआ है, अपना वक्त दे रहा है, यह देखकर तुम कहते हो : “अमुक व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन आ गया है!” तुम देखते हो कि एक महिला ने अपना घर-परिवार छोड़ दिया है, काम-धंधा छोड़ दिया है, तब तुम कहते हो : “इस महिला के स्वभाव में परिवर्तन आ चुका है!” तुम्हें लगता है कि अगर इन लोगों के स्वभाव में परिवर्तन नहीं हुआ होता, तो वे इस तरह का त्याग नहीं कर पाते। तुममें से ज्यादातर लोगों का दूसरों को देखने का नजरिया यही है, मगर क्या इस तरह का नजरिया ठीक है? कुछ ऐसे भी हैं जो इससे भी ज्यादा बेढंगी बाते करते हैं; जब कोई ऐसा व्यक्ति जिसने अपने घर-परिवार, काम-धंधे को तिलांजलि दे रखी है, उन्हें नजर आता है, तो वे कहते हैं : “यह इंसान परमेश्वर का सच्चा प्रेमी है!” एक दिन तुम कहते हो कि अमुक इंसान परमेश्वर का प्रेमी है, दूसरे दिन तुम कहते हो कि कोई दूसरा इंसान परमेश्वर का प्रेमी है। अगर कोई लगातार कई दिनों से प्रवचन दे रहा हो, तो तुम कहते हो : “इस व्यक्ति ने परमेश्वर को जान लिया है। इस व्यक्ति ने सत्य पा लिया है। नहीं तो यह व्यक्ति इतना सब कुछ कैसे कह पाता?” तुम लोगों का दृष्टिकोण ऐसा ही है ना? बेशक तुममें से ज्यादातर का लोगों और चीजों देखने का नजरिया ऐसा ही होता है। तुम सदैव ताज पहनाकर दूसरों को सम्मान देते हो, उनकी चाटुकारिता में लगे रहते हो। एक दिन अमुक व्यक्ति की ताजपोशी करते हो क्योंकि उसे परमेश्वर से प्यार है, दूसरे दिन किसी अन्य व्यक्ति की ताजपोशी करते हो क्योंकि वह परमेश्वर को जानता है, क्योंकि वह परमेश्वर के प्रति वफादार है। तुम लोगों को दूसरों की ताजपोशी करने में “महारत” हासिल है। रोजाना लोगों की ताजपोशी करके उन्हें सम्मान देते और उनकी चाटुकारिता करते हो, इससे उनका घाटा ही होता है, इसके बावजूद भी तुम्हें इससे गर्व की अनुभूति होती है। तुम लोग ऐसे तरीकों से औरों की सराहना कर उन्हें घमंडी बना देते हो। जिन लोगों की तारीफ इस प्रकार से की जाती है वे मन-ही-मन सोचते हैं, “मेरे अंदर परिवर्तन आ गया है, मैं मुकुट पाने का अधिकारी बन गया हूँ, मुझे पक्के तौर पर स्वर्ग के राज्य में दाखिला मिल जाएगा!” पौलुस जैसे कुछ व्यक्ति इससे भी खराब हालात में हैं, वे हमेशा यही बताते रहते हैं कि उन्होंने क्या-क्या तकलीफें सही हैं और कितनी ज्यादा गवाहियाँ दी हैं। वे परमेश्वर के इरादों की जरा-सी भी परवाह किए बिना अपनी ही तारीफ करने में लगे रहते हैं और अपनी धारणाओं और प्राथमिकताओं के अनुसार बात करते हैं। यह साफ तौर पर पता होने के बावजूद भी कि उनके निज स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया है, वे अन्य लोगों से बोलते हैं कि वे भी उनके अनुसार ही काम करें, इसका नतीजा यह होता है कि जो लोग परमेश्वर में आस्था तो रखते हैं पर विवेकहीन होते हैं—और खासकर जो ऐसे लोगों को पूजते हैं—उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ता है और वे रास्ते से भटक जाते हैं। उन्होंने अभी भी परमेश्वर पर विश्वास करने के सही रास्ते पर चलना शुरू नहीं किया है, मात्र जोश में आकर परमेश्वर के खातिर खुद को खपा रहे हैं और कष्ट भुगत रहे हैं। वे गिरफ्तार किए गए और जेल में डाले गए लेकिन किसी को न धोखा दिया न यहूदा बने—इस कारण वे सोचने लगे कि वे अपनी गवाही पर मजबूती से कायम हैं और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लायक बन चुके हैं। वे इस जरा-से अनुभव को एक गवाही मानकर हर स्थान पर इसका दिखावा करते हैं। क्या यह लोगों को गुमराह करने के लिए खुद का दिखावा करना नहीं है? बहुत-से लोग इस प्रकार की “गवाही” देते हैं और कितने लोग गुमराह किए गए हैं? क्या ऐसे लोगों को विजेता मानना बेतुका नहीं है? क्या तुम्हें मालूम है कि परमेश्वर लोगों को किस तरह से देखता है? क्या तुम लोगों को यह स्पष्ट है कि असली विजेता कौन होता है? इस तरीके से झूठी गवाही देना परमेश्वर द्वारा शापित है। तुमने इस तरह से कितने गलत कर्म किए हैं? तुम न तो तुम दूसरों को जीवन दे सकते हो, न ही दूसरों की अवस्था का विश्लेषण कर सकते हो। तुम मात्र लोगों को मुकुट पहना सकते हो और परिणामस्वरूप, उन्हें विनाश की ओर धकेल सकते हो। क्या तुम्हें पता नहीं कि एक भ्रष्ट व्यक्ति तारीफ नहीं झेल सकता? यदि कोई उनकी तारीफ नहीं भी करे, तब भी वे बहुत ही गर्व महसूस करते हैं, अहंकार में जीते हैं। परन्तु लोगों से तारीफ पाकर क्या वे और शीघ्र नहीं मर जाते? तुम लोगों को नहीं पता कि परमेश्वर से प्रेम करने, परमेश्वर को जानने और ईमानदारी से स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाने का मतलब क्या है। तुम्हें इनमें से कोई भी बात समझ नहीं आती। तुम चीजों के केवल बाहरी रूप को देखते हो और फिर अन्य लोगों के बारे में फैसला सुनाते हो, लोगों को मुकुट पहनाते हो और उनकी चापलूसी करते हो, और इस तरह कई लोगों को गलत राह दिखाकर उनका नुकसान करते हो—और यह काम तुम प्रायः करते हो। तुमसे इस प्रकार तारीफ सुनकर कई लोग सही रास्ते से भटक चुके हैं और गिर चुके हैं। हो सकता है वे वापस उठ जाएँ, लेकिन उन्होंने अपने जीवन के विकास में बहुत देरी कर दी है, और वे पहले ही खामियाजा भुगत चुके हैं। ज्यादातर लोग अभी भी परमेश्वर पर विश्वास रखने की उचित राह पर नहीं चल रहे हैं और सत्य का अनुसरण नहीं कर पा रहे हैं, और वे अपने आप के बारे में भी बहुत कम ही जानते हैं। अगर उनकी इस तरीके से तारीफ की जाती है, तो वे अपने आप में संतुष्ट हो जाएँगे, खुश हो जाएँगे और, यह महसूस करते हुए कि वे परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते पर पहले से ही चल रहे हैं और उनके पास थोड़ी सत्य वास्तविकताएँ हैं, वे अपने तौर-तरीकों पर अड़े रहेंगे। वे अपने भाषण में और साहसी हो जाएँगे, कलीसिया में लोगों को डांटेंगे और एक निरंकुश व्यक्ति जैसा बर्ताव करेंगे। क्या तुम इस तरीके से काम करके लोगों को हानि नहीं पहुँचा रहे हो, उनका नाश नहीं कर रहे हो? किस तरह के लोग परमेश्वर से प्रेम करते हैं? जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं उन्हें पतरस जैसा होना चाहिए, उन्हें पूर्ण बनाया जाना चाहिए, और परमेश्वर का प्रेम प्राप्त करने हेतु उन्हें रास्ते के अंतिम छोर तक परमेश्वर का अनुगमन करना चाहिए। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों को ध्यान से देखता है और केवल परमेश्वर ही यह निर्णय कर सकता है कि कौन उससे प्रेम करता है। लोगों के लिए खुद इसे स्पष्ट रूप से देख पाना आसान नहीं है, फिर वे अन्य लोगों के बारे में निर्णय कैसे कर सकते हैं? केवल परमेश्वर ही यह जानता है कि कौन लोग उससे सच्चा प्रेम करते हैं। चाहे लोगों के पास परमेश्वर से प्रेम करने वाला हृदय ही क्यों न हो, फिर भी वे यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकते कि वे खुद परमेश्वर से प्रेम करने वाले लोग हैं। परमेश्वर ने कहा कि पतरस परमेश्वर से प्रेम करने वाला व्यक्ति था, लेकिन पतरस ने ऐसा खुद कभी नहीं कहा। तो फिर, परमेश्वर से प्रेम करना क्या कोई ऐसी चीज है जिसे लेकर कोई यूँ ही डींगें हाँक सकता है? परमेश्वर से प्रेम करना मनुष्य का कर्तव्य है, अतः हृदय में परमेश्वर के प्रति तनिक प्रेम उत्पन्न होते ही इसके बारे में डींगें हाँकना गलत है। यह और भी अधिक तर्कहीन बात है कि तुम खुद तो परमेश्वर से प्रेम करते नहीं हो मगर दूसरों की यह कहकर प्रशंसा करते हो कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं। यह पागलपन है। कौन व्यक्ति परमेश्वर से प्रेम करता है यह केवल परमेश्वर ही जानता है, और सिर्फ वही बता सकता है कि कौन ऐसा है। अगर कोई व्यक्ति अपने मुँह से ऐसे शब्द कह रहा है तो वह गलत स्थान पर है। तुम परमेश्वर का स्थान ले रहे हो, लोगों की तारीफ कर रहे हो, चापलूसी कर रहे हो—यह सब किसकी ओर से कर रहे हो? परमेश्वर लोगों की चापलूसी तो कतई नहीं करता, न ही उनकी तारीफ करता है। पतरस को पूर्ण बनाने के बाद, परमेश्वर ने उसका उपयोग एक आदर्श के रूप में तब तक नहीं किया जब तक परमेश्वर ने अंत के दिनों का कार्य नहीं किया। उस समय तक, परमेश्वर ने दूसरों लोगों से यह कभी नहीं कहा : “पतरस परमेश्वर से प्रेम करता है।” परमेश्वर ने ऐसी बातें तभी कहीं जब उसने इस चरण का कार्य किया, उसने पतरस को उन लोगों के लिए एक आदर्श व उदाहरण के रूप में स्थापित किया जो परमेश्वर के न्याय का अनुभव करते हैं और अंत के दिनों में परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं। परमेश्वर जो भी करता है उसका कुछ अभिप्राय होता है। लोगों का मनमाने ढंग से यह कहना कि अमुक व्यक्ति परमेश्वर का प्रेमी है, कितना तर्कहीन है! यह बहुत ही हास्यास्पद है। पहली बात तो, ये लोग गलत स्थान पर खड़े है। दूसरी बात, यह कोई इस तरह का मामला नहीं है जिसका निर्णय लोग स्वयं कर सकें। दूसरों की चाटुकारिता करने का क्या अर्थ है? इसका अभिप्राय है दूसरे लोगों को गुमराह करना, उन्हें चकमा देना और क्षति पहुँचाना। तीसरी बात, इसके वस्तुनिष्ठ प्रभाव के संबंध में, इस तरह का बर्ताव न केवल दूसरों को उचित रास्ते पर ले जाने में अक्षम है, अपितु यह उनके जीवन प्रवेश में भी व्यवधान डालता है व उनके जीवन के लिए भी हानिकारक है। अगर तुम हमेशा कहते रहते हो कि अमुक व्यक्ति परमेश्वर से प्रेम करता है, चीजें त्याग सकता है, और परमेश्वर के प्रति निष्ठावान है, तो क्या हर कोई उसके बाह्य कार्यों की नकल नहीं करेगा? न केवल तुमने अन्य लोगों को उचित राह नहीं दिखाई, बल्कि तुमने बहुतों को बाहरी कार्यों पर ही ध्यान केंद्रित करने को भी प्रोत्साहित किया है, ताकि वे अनजाने में पौलुस के रास्ते का अनुगमन करते हुए, बदले में मुकुट पाने के लिए सिर्फ इन बाहरी क्रिया-कलापों पर ही विश्वास करते रहें। क्या इसका यह प्रभाव नहीं होता है? जब तुम ये शब्द कहते हो, तो क्या तुम्हें इन परेशानियों की जानकारी होती है? तुम कहाँ खड़े हो? तुम्हारी भूमिका क्या है? तुम्हारे बोले हुए शब्दों का वास्तविक असर क्या होता है? यह आखिरकार अन्य लोगों को किस राह पर चलने के लिए प्रोत्साहित करता है? यह किस सीमा तक हानि पहुँचा सकता है? जब लोग इस तरीके से कार्य करते हैं तो इनके परिणाम बहुत गंभीर होते हैं।

कलीसिया में कुछ अगुआ और कार्यकर्ता अपने अनुभवों के बारे में बातें नहीं कर सकते और गवाही नहीं दे सकते, और समस्याओं का समाधान निकालने के लिए सत्य का प्रयोग नहीं कर पाते। वे हमेशा इस बात की गवाही देते हैं कि उन्होंने किस तरह कष्ट झेले,किस तरह उन्होंने अपनी काट-छाँट स्वीकार की, किस तरह काफी समस्याओं के होते हुए भी वे कभी नकारात्मक नहीं हुए और कैसे वे अपने कर्तव्य निभाते रहे। पौलुस के समान वे हमेशा अपने लिए ही गवाही देते हैं, अपने को ही स्थापित करते रहते हैं, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग उनकी तारीफ करें, उनका सम्मान करें और उन्हें सम्मानजनक नजरों से देखें। और, जब इस तरह के लोग किसी ऐसे आदमी को देखते हैं जो शब्दों व धर्म-सिद्धांतों को ठीक तरीके से बता सकता है और जो प्रवचन दे सकता है, तो वे उसकी चाटुकारिता करते हैं, और वे पौलुस की तरह के उन अगुआओं और कार्यकर्ताओं की प्रशंसा करते हैं, उनकी वाहवाही करते हैं और इस तरह से दूसरे लोगों से भी उनकी सराहना करवाते हैं। वे न केवल सिंचन और पोषण का कार्य ठीक तरह से करने में असफल रहते हैं, बल्कि कुछ विनाशकारी और परेशानियाँ पैदा करने वाले कार्यों में भी लिप्त हो जाते हैं जिसके कारण अन्य लोग पौलुस के रास्ते पर चल देते हैं। भूलवश वे हमेशा यह सोचते रहते हैं कि वे खुद काबिल और अच्छे अगुआ हैं, और वे इसके लिए परमेश्वर से इनाम चाहते हैं। क्या तुममें से ज्यादातर लोग इसी अवस्था में नहीं हैं? मात्र शब्दों व धर्म-सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित कर, लोगों को लगातार फटकारते रहने के अपने मौजूदा तरीके के आधार पर, क्या तुम लोगों को सही राह पर ले जा सकते हो? यह आखिरकार उन्हें किस रास्ते पर पहुँचा सकता है? क्या यह उन सभी को पौलुस की राह पर नहीं ले जाएगा? मैं देख पा रहा हूँ कि यह ऐसा ही है, यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। यह कहा जा सकता है कि तुम सब पौलुस के जैसे अगुआ हो और दूसरे लोगों को भी पौलुस के रास्ते पर ले जा रहे हो। क्या तुम्हारी अब भी किसी प्रकार का मुकुट पाने की इच्छा है? तुम अपने को भाग्यशाली मानो, अगर तुम्हें इसके लिए दंडित नहीं किया गया। तुम्हारे कार्यों के अनुसार, तुम सब ऐसे लोग बन गए हो जो परमेश्वर के खिलाफ हैं, जो परमेश्वर की सेवा तो करते हैं पर परमेश्वर का विरोध भी करते हैं, और तुमने परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने में दक्षता हासिल कर ली है। अगर तुम इसी रास्ते पर चलते रहोगे, तो आखिर में तुम झूठे चरवाहे, झूठे कार्यकर्ता, झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी बन जाओगे। अभी तुम्हारे लिए राज्य के लिए प्रशिक्षण लेने का समय है। यदि तुम सत्य के लिए प्रयत्न नहीं करते हो और केवल कार्य पर ध्यान देते हो, तो तुम अनजाने में पौलुस का रास्ता पकड़ लोगे। इसके अलावा, तुम अपने साथ पौलुस जैसे दूसरे लोगों के समूह को भी लेकर आओगे। तो क्या तुम एक ऐसे व्यक्ति नहीं बन जाओगे जो परमेश्वर-विरोधी है और परमेश्वर के कार्य में बाधाएँ खड़ी करता है? इसलिए, अगर कोई व्यक्ति जो परमेश्वर की सेवा तो करता है, पर वह उसके लिए गवाही नहीं दे सकता है, या परमेश्वर द्वारा चयनित व्यक्तियों को सही राह पर नहीं ले जा सकता है, तो वह व्यक्ति परमेश्वर का विरोधी है। ये दो ही रास्ते हैं। पतरस का रास्ता सत्य के अनुसरण का, और अंततः, अपने विश्वास में सफल होने का रास्ता है। पौलुस का रास्ता सत्य के अनुसरण का रास्ता नहीं है, यह मात्र आशीर्वाद व पुरस्कार के लिए प्रयत्नरत रहने का रास्ता है। यह असफलता का रास्ता है। आज, पतरस के सफलता के रास्ते पर चलने वाले बहुत ही कम लोग हैं, जबकि पौलुस के असफलता के रास्ते पर चलने वाले लोग बहुत अधिक हैं। यदि तुममें से जो बतौर अगुआ और कार्यकर्ता काम कर रहे हैं वे आरंभ से अंत तक सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, तो तुम सब लोग झूठे अगुआ और झूठे कार्यकर्ता बन जाओगे, और तुम सब लोग मसीह-विरोधी और बुरे लोग बन जाओगे जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। अगर तुम अब से ही सही राह पर आ जाते हो और ईमानदारी से पतरस का रास्ता अपनाते हो, तो तुम लोग अभी भी ऐसे अच्छे अगुआ और कार्यकर्ता बन सकते हो जो परमेश्वर को स्वीकार हों। यदि तुम पूर्ण बनाए जाने और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने का प्रयत्न नहीं करते हो, तो तुम खतरे में हो। तुम्हारी मूर्खता और अज्ञानता, तुम्हारे उथले और अपर्याप्त अनुभव, तुम्हारे छोटे आध्यात्मिक कद, और तुम्हारी अपरिपक्वता को ध्यान में रखते हुए, केवल एक काम जो किया जा सकता है वह यह है कि तुम्हारे साथ सत्य पर और संगति की जाए, ताकि तुम सत्य समझ सको परन्तु, तुम सत्य पा सकते हो या नहीं यह तुम्हारे निजी अनुसरण पर ही निर्भर करता है। क्योंकि आज का समय पतरस और पौलुस के समय से बहुत भिन्न है। उन दिनों में, यीशु ने मनुष्य का न्याय करने, मनुष्य को ताड़ना देने, या मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन लाने का कार्य नहीं किया था। आज, देहधारी परमेश्वर ने बहुत ही स्पष्ट रूप में सत्य बता दिया है। यदि लोग अब भी पौलुस के रास्ते पर चलते हैं, तो इससे यह पता चलता है कि उन लोगों की समझने की क्षमता दोषपूर्ण है, और यह ये भी दर्शाता है कि पौलुस की तरह ही ये लोग भी बहुत ही बुरे चरित्र के हैं, और बहुत ही अहंकारी स्वभाव के हैं। वह जमाना आज के समय से भिन्न था और उस समय के संदर्भ भी भिन्न थे। आज, परमेश्वर के वचन बहुत ही साफ और स्पष्ट हैं; यह ऐसा है जैसे परमेश्वर ने स्वयं तुम्हें सिखाने के लिए और तुम्हारा मार्गदर्शन करने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया है, इसलिए यदि तुम अब भी गलत मार्ग पर चलते हो तो यह अक्षम्य है। इसके अलावा, आज, पतरस और पौलुस के दो उदाहरण तुम्हारे सामने हैं, एक उदाहरण सकारात्मक है, दूसरा नकारात्मक। पहला आदर्श है और दूसरा चेतावनी। यदि तुम गलत मार्ग पर चल रहे हो, तो इसका आशय यह है कि तुम्हारा चुनाव गलत है और तुम बहुत दुष्ट हो। तुम्हारे सिवाय दूसरा कोई व्यक्ति इसके लिए दोषी नहीं है। केवल वही व्यक्ति जिसके पास सत्य वास्तविकता है, अन्य लोगों को सत्य वास्तविकता में प्रवेश करा सकता है, लेकिन जिसके पास सत्य वास्तविकता नहीं है वह दूसरों को केवल भटकाने का कार्य कर सकता है।

अंश 74

ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता हैं, जो अपने कार्य में परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य के बारे में सहभागिता नहीं करते। वे स्वयं मामलों को पूरी तरह से समझने में असमर्थ होते हैं और अक्सर कहते हैं, “मैं चाहता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति अपने विचार व्यक्त करे। प्रत्येक व्यक्ति अपने मन की बात कहे।” यह सही और काफी लोकतांत्रिक लग सकता है, कि हर व्यक्ति को अपना मत व्यक्त करने दिया जा रहा है, और तब किसी सहमति पर पहुँचा जा रहा है। जब लोग सत्य नहीं समझते, तब यह अभ्यास आखिरी उपाय के रूप में स्वीकार्य है, मगर इसकी कोई गारंटी नहीं होगी कि कोई ऐसा निष्कर्ष निकल पाएगा जो सत्य के अनुरूप हो। चूँकि कोई भी सत्य नहीं समझता, और हर व्यक्ति की राय दोषपूर्ण होती है, इसलिए भले ही वे इकट्ठे हो जाएँ, फिर भी वे ऐसे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते जो सत्य के साथ मेल खाता हो। क्या यही बात नहीं है? यदि कोई सत्य को समझने वाला भाग लेता, तो ज्यादा अच्छा होता; तब चीजें बेहतर होतीं। हालाँकि यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सत्य समझने वाले किसी व्यक्ति के हाथ में कमान हो। इस व्यक्ति को परमेश्वर के वचन के आधार पर सत्य की खोज के लिए सभी का मार्गदर्शन करना चाहिए। इस तरह वे जिन निष्कर्षों पर पहुँचेंगे, वे सत्य के अनुरूप हो पाएँगे। यह सबसे अच्छा तरीका है। यह आवश्यक है कि जो सत्य समझता है, वही प्रभारी हो, उसके हाथ में कमान हो, और वह परमेश्वर के वचनों के आधार पर सहभागिता के लिए सभी लोगों की अगुआई करे, ताकि वे अंततः सत्य के संदर्भ में एकता और सर्वसम्मति हासिल कर सकें। अभ्यास का केवल यही मार्ग सही है। तो लोकतंत्र को किस तरह देखा जाना चाहिए? वर्तमान में, भ्रष्ट मानवजाति के बीच लोकतंत्र अपेक्षाकृत प्रगतिशील और उन्नत सामाजिक प्रणाली है। यह अग्रगामी और फैशनेबल भी है, और ज्यादातर लोगों को अच्छी भी लगती है। वैसे तो यह प्रणाली अपेक्षाकृत उन्नत और प्रगतिशील है, लेकिन क्या कोई प्रणाली चाहे वह जितनी भी महान क्यों न हो, मानवीय पाप की समस्या को हल कर सकती है? क्या यह समाज की बुराइयों और अंधकार के सार को बदल सकती है? इसे हासिल नहीं किया जा सकता, तानाशाही में तो इसे हासिल करने की बात ही छोड़ दें। क्या उन लोकतांत्रिक देशों के अफसरों के बीच भी जबरदस्त भ्रष्टाचार और कदाचार नहीं है? इस प्रणाली में होने वाली कोई भी चीज सत्य के अनुरूप नहीं होती, क्योंकि मानवजाति को शैतान ने बुरी तरह भ्रष्ट कर दिया है; यह समस्त सत्य से रहित है। मनुष्य अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं, परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हैं और उसका प्रतिरोध करते हैं; उनका सत्य को अभ्यास में लाना संभव नहीं है। यहाँ तक कि सभी सत्ताधारी राष्ट्रीय नेता और मशहूर हस्तियां, ज्ञान होने के बावजूद, शैतान के स्वभाव के अनुसार जीते हैं। उनमें सत्य का लेशमात्र भी अंश नहीं होता है और वे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसका प्रतिरोध करने वाले कई काम करने में समर्थ होते हैं। यहाँ तक कि वे कुछ बुरे और बेतुके कर्म करने में भी सक्षम होते हैं। भले ही उनमें आस्था हो या नहीं, उनमें से एक भी सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता है, या सचमुच परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर सकता है। उनमें से एक भी परमेश्वर के समक्ष समर्पण नहीं करता, या उसकी आराधना नहीं करता। वे परमेश्वर का उत्कर्ष करने या उसकी गवाही देने के लिए कभी कुछ भी नहीं कहते। वे जो बातें कहते हैं, वे सभी नास्तिकता वाली होती हैं, परमेश्वर को नकारती और उसका विरोध करती हैं; वे सभी विधर्मी भ्रांतियाँ हैं, वे सभी ऐसी बातें हैं जो स्वर्ग की अवहेलना करती हैं, और वे कुछ नहीं बस दानवी बातें हैं। इसलिए, चाहे मनुष्य अपने देशों में शासन के लिए जिस भी प्रणाली को अपनाएँ, वे परमेश्वर के सामने समर्पण नहीं करेंगे, उसकी आराधना नहीं करेंगे, उसके द्वारा व्यक्त किसी भी सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे, या उसके वचनों और सत्य के अनुसार अपने देशों का शासन नहीं चलाएँगे। वे कानून के नियमों और विज्ञान के आधार पर शासन चलाने की वकालत करते हैं। यह दिखाता है कि उन्होंने जो रास्ता चुना है, वह परमेश्वर से विद्रोह और उसके प्रतिरोध का रास्ता है। ऐसे देशों को परमेश्वर का आशीष नहीं मिलता। कोई भी देश जिस पर दानव राजाओं का शासन होता है, परमेश्वर का सबसे ज्यादा विरोधी होता है, और उसका शाप भोगता है। ये वे देश हैं, जिन्हें परमेश्वर ने नष्ट करने का फैसला लिया है। इसलिए कोई देश परमेश्वर द्वारा ठुकरा कर नष्ट किया जाएगा या नहीं, यह मुख्य रूप से इस पर निर्भर नहीं है कि वह लोकतांत्रिक देश है या नहीं। अहम चीज यह देखना है कि किस तरह के लोगों का समूह उस देश में सत्ताधारी है। अगर सभी सत्ताधारी लोग दानवी, शैतानी किस्म के हैं, अगर वे सभी परमेश्वर का विरोध करने वाले दानवों का जत्था हैं, तो यह वह देश है, जिससे परमेश्वर नफरत करता है और उसे शाप देता है, और उसके द्वारा नष्ट कर दिया जाएगा।

यदि कलीसिया के अगुआ और कार्यकर्ता सत्य का अनुसरण नहीं करते और बिना सिद्धांतों के अपने कार्य को अंजाम देते हैं, तो क्या नतीजे होंगे? निश्चित ही उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता सोचते हैं, “मेरे पास सत्य हो या न हो, अगर मैं सभी मामलों में लोकतंत्र का अभ्यास करूँ और तानाशाही से काम न करूँ, तो मैं सुनिश्चित कर सकता हूँ कि मैं बुरे काम नहीं कर रहा हूँ। इस तरह परमेश्वर मेरा त्याग नहीं करेगा। यदि मैं अपना कार्य अच्छे से करूँगा, तो परमेश्वर मुझे स्वीकृति देगा।” क्या यह कथन सही है? क्या तुम लोग समझ सकते हो कि वे क्या कह रहे हैं? क्या तानाशाहीपूर्ण कार्य करने से दूर रहना साबित करता है कि ये लोग परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हैं? क्या लोकतंत्र का अभ्यास करने से साबित होता है कि वे सिद्धांतों के अनुसार काम करते हैं? सोचने का यह तरीका उचित लग सकता है, पर वास्तव में यह गलत है। क्योंकि जो अगुआ और कार्यकर्ता सत्य का अनुसरण नहीं करते, चाहे वे जैसे भी अभ्यास करें, यह हमेशा मेल नहीं खाएगा और गलत होगा। केवल सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलना ही सही होता है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए एकमात्र उपयुक्त पद्धति यह है कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले मार्ग पर चलते रहने में समर्थ हों, और वे चाहे जैसे भी हालात झेल रहे हों, सभी को परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य पर सहभागिता करने और सत्य के अभ्यास का मार्ग खोजने के लिए प्रेरित करें। क्या अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा हर किसी को अपनी राय बताने और मन की बात कहने देने के दृष्टिकोण का अभ्यास करते रहना सही है या गलत? (यह गलत है।) गलती कहाँ होती है? (किसी के पास सत्य नहीं है।) यह सच है। किसी के पास सत्य नहीं है। फिर चाहे वे जिस भी तरह सहभागिता करें, क्या उनकी से निकले निष्कर्ष सत्य के अनुरूप हो सकते हैं? यह संभव नहीं है। तो सत्य के साथ तालमेल बैठाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? (यह देखना चाहिए कि परमेश्वर ने क्या कहा है। उसे परमेश्वर के वचनों में रास्ता खोजना चाहिए।) यह कथन सुनने में कैसा लगता है? यह बिल्कुल सही है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सभी मामलों में सत्य को लेकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार सहभागिता करनी चाहिए, और उसके वचनों में मार्ग खोजना चाहिए; केवल तभी सही निष्कर्षों तक पहुँचा जा सकता है। जहाँ तक यह बात है कि सभी लोग सत्य सिद्धांतों के बारे में संगति कैसे करते हैं, और क्या वे सिद्धांतों को सटीक रूप से खोज पाते हैं, यह दूसरा मामला है। अगर तुम सभी को सत्य खोजने और सिद्धांत खोजने के लिए परमेश्वर के वचन पढ़ने की ओर ले जा सकते हो, तो इससे पता चलता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो, जो सत्य का अनुसरण करता है। यदि तुम परमेश्वर के वचनों में आधार खोजने या उसके वचनों में सिद्धांतों की तलाश को लेकर कोई जिक्र किए बिना सभी से केवल सहभागिता करवाते जाते हो, और उनकी राय व्यक्त करने देते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो, जो सत्य का अनुसरण करता है; तुम सिद्धांतों की परवाह किए बिना चीजों को सुगम बनाने की कोशिश कर रहे हो। अगर अंत में, तुम हर किसी को हाथ उठाकर और बहुमत के नियमों के मुताबिक वोट देने को कहते हो, तो क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप है? मुमकिन है कि कभी-कभी, संयोग से यह कुछ सिद्धांतों के साथ मेल खा जाए या सिद्धांतों के दायरे से बाहर न जाए। मगर अधिकांश समय यह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होगा क्योंकि तुम सिद्धांतों को नहीं खोजते; तुम केवल हर किसी की निराधार टिप्पणियाँ सुन रहे हो, जहाँ सबसे ऊँचे और तीखे स्वर वाले लोगों की राय ही आखिरी होती है। और उस अगुआ का आखिर में क्या होता है? वह तटस्थ हो जाता है, जो केवल उन्हीं की सुनता है जिनका पलड़ा भारी होता है। यह बिल्कुल वैसा है जैसे कि जब कुछ अगुआ दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों को निष्कासित करते समय हाथ उठाकर वोट देने को कहते हैं। यदि एक व्यक्ति भी असहमत हो, तो वे व्यक्ति को निष्कासित नहीं करेंगे या उसका निपटारा नहीं करेंगे। यहाँ तक कि जो मैं कह रहा हूँ, उसका भी कोई मूल्य नहीं होगा। क्या यह परमेश्वर को दरकिनार करना नहीं है? उनके लिए परमेश्वर को दरकिनार करना और फिर भी कहना कि वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं, कोरी बकवास है! जब हर कोई सत्य की सहभागिता करता है और सिद्धांतों को खोजता है, इसका चरम परिणाम क्या होता है? इस सहभागिता का नतीजा परमेश्वर के वचनों और सत्य तथा सिद्धांतों के अनुरूप होता है; यह उसकी इच्छा के अनुसार होता है। अगर लंबी सहभागिता के बाद आम सहमति बनती है, जो लागू किए जाने पर परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाती है, और उससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को कोई लाभ नहीं होता, तब उस आम सहमति का परिणाम सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होता। निश्चित रूप से वह परमेश्वर के वचनों के विरोध में जाता है। इस बारे में कोई संशय नहीं है। तो इस आम सहमति के परिणाम का सार क्या है? यह एक खोखला धर्म-सिद्धांत है जो सुनने में अच्छा लगता है, दुनिया के धर्मनिरपेक्ष तरीकों से मेल खाता है, हर किसी की रुचि के अनुसार होता है, और हर किसी के हितों के लिए लाभकारी होता है, मगर यह परमेश्वर के घर के सत्य सिद्धांतों से मेल नहीं खाता। कुछ अगुआ उलझन में फँसे होते हैं; वे न तो सत्य का अनुसरण करते हैं और न ही उसे समझते हैं। सभी के सहभागिता करने के बाद ये अगुआ ऐसे परिणाम चुनते हैं, जो उनकी प्राथमिकताओं के लिए उपयुक्त होते हैं, मगर जो वास्तव में सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध होते हैं। वे मानते हैं कि वे जो कर रहे हैं वह निष्पक्ष है, उचित है, और पूरी तरह से सत्य के अनुरूप है। वास्तव में वे नहीं समझते कि परमेश्वर का वचन ही सत्य है। सत्य सिद्धांतों को तो वे और भी कम समझते हैं। सभी की सहभागिता में से वे वह परिणाम चुनते हैं, जो उन्हें पसंद आता है, और सोचते हैं, “देखो मैं कितना लोकतांत्रिक हूँ। मैं तानाशाही प्रवृत्ति का नहीं हूँ। मैं हर बात पर सभी लोगों से चर्चा करता हूँ, और अंत में वह सभी का निर्णय होता है। हमने हाथ उठाकर उस पर मतदान किया। यह निर्णय करने वाले समूह का प्रस्ताव है; यह कोई ऐसा निर्णय नहीं था, जो मैंने अकेले कर लिया हो।” वे खुद पर बहुत प्रसन्न होते हैं, मगर वे आखिरकार परमेश्वर के घर के हितों और उसके वचनों के सत्य को धोखा देते हैं, उसकी अपेक्षाओं को रौंदते हैं। हर कोई संतुष्ट होता है और उसे फायदा होता है। मगर क्या परमेश्वर इससे संतुष्ट होगा? क्या वह इसे स्वीकृति देगा? परमेश्वर को अपने हृदय में कैसा महसूस होगा? ये अगुआ इन बातों की परवाह नहीं करते; वे बस इसी तरह कलीसिया का कार्य चलाते हैं। जहाँ तक यह बात है कि वे झूठे अगुआ हैं या मसीह-विरोधी हैं, हर किसी को इसकी समझ होनी चाहिए। क्या सभी जगह कलीसियाओं में इस तरह की कई घटनाएँ होती हैं। निश्चित रूप से थोड़ी तो नहीं होतीं।

लोगों का समर्थन हासिल करने और एक अगुआ के तौर पर फिर से चुनाव सुनिश्चित करने के लिए कलीसिया के कुछ अगुआ तानाशाह न होने का दिखावा करते हुए अपने हर काम में लोकतांत्रिक सिद्धांतों का पालन करते हैं। वे लोगों का समर्थन पाने के लिए इसका एक युक्ति की तरह इस्तेमाल करते हैं, मगर वास्तव में, वे इसका इस्तेमाल अपनी हैसियत को मजबूत करने के लिए कर रहे होते हैं। क्या यह किसी मसीह-विरोधी का व्यवहार नहीं है? (हाँ है।) केवल एक मसीह-विरोधी ही इस तरह काम करेगा। क्या तुम लोग भी ऐसी चीजें करते हो? (कभी-कभी।) और क्या तुम लोग इस पर विचार करते हो कि ऐसे कृत्यों के पीछे कौन-से मंसूबे काम कर रहे होते हैं? यह बात तब समझ में आती है जब किसी व्यक्ति ने अभी-अभी ही अगुआ के कार्य का प्रशिक्षण लेना शुरू किया हो और सिद्धांतों को न समझता हो। लेकिन अगर वह कुछ वर्षों से अगुआ या कार्यकर्ता रहा हो, और फिर भी ऐसा करने में जुटा हो, तो यह सिद्धांतों की कमी दिखाता है। यह झूठी अगुआई है, और वह व्यक्ति वह नहीं है, जो सत्य का अनुसरण करता हो। अगर किसी व्यक्ति के अपने इरादे और लक्ष्य हों, और वह इन्हें इसी तरह करने पर अड़ा हो, तो वह मसीह-विरोधी है। तुम लोग इस मुद्दे को कैसे देखते हो? ऐसा मसला सामने आने पर तुम किस चीज का अभ्यास करते हो? अगर तुम्हारे अपने इरादे और लक्ष्य हों, तो उनके समाधान के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? (मैंने देखा है कि मेरे भीतर कुछ इरादे पल रहे हैं। कभी-कभी मुझे डर लगता है कि भाई-बहन कहेंगे कि मैं अपने कार्यों में खुला और पारदर्शी नहीं हूँ, मैं उन्हें बिना बताए निर्णय लेता हूँ। जब मेरे मन में ऐसे विचार आएँगे, तो मैं भाई-बहनों से इस पर चर्चा करूँगा, और मामलों का हल निकालूँगा। मैं अपनी मनमर्जी से निर्णय नहीं लूँगा।) दूसरों से सलाह लेना स्वीकार्य है। यह सुनिश्चित करना सही है कि सभी को पता हो; यह भाई-बहनों द्वारा तुम्हारे काम की निगरानी को स्वीकार करना है, जिससे तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने में मदद मिलती है। हालाँकि अपनी चर्चाओं के दौरान तुम्हें सत्य सिद्धांतों का भी पालन करना चाहिए। अगर तुम सत्य सिद्धांतों से भटकते हो, तो चर्चा विषयेतर हो सकती है या समय खराब हो सकता है, और तुम सही निष्कर्षों तक नहीं पहुँच पाओगे। इसलिए कोई चर्चा शुरू करते समय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश पढ़ने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए। इस तरह सभी लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार संगति कर सकेंगे। इस तरह की संगति मार्ग दिखाएगी और अच्छे परिणाम लाएगी। तुम अलग रहकर हर किसी को उसकी मर्जी के मुताबिक संगति नहीं करने दे सकते। अगर किसी के भी पास कोई ठोस राय नहीं है, और वे सत्य को नहीं खोजते, तो इस तरह की संगति करना निरर्थक है, चाहे फिर तुम इसे कितनी भी देर तक क्यों न करो। इससे कभी भी सही परिणाम प्राप्त नहीं होगा। इसलिए अगर कलीसिया में कोई अच्छा अगुआ नहीं है, और उसका नेतृत्व किसी ऐसे व्यक्ति के पास है जो सत्य को नहीं समझता; अगर यह सिर्फ कमसमझ लोगों का समूह है, जिनकी कोई ठोस राय नहीं है, जो बस यूँ ही संगति कर रहे हैं, और जिनकी संगति केवल बकवास ही पैदा करती है, तो इससे क्या प्रभाव पड़ेगा? इस तथाकथित लोकतंत्र को क्या कहा जाता है? यह सब अंधी बहस है जिसमें सिद्धांत नहीं हैं और इसके सही परिणाम नहीं मिलेंगे। इस प्रकार की लोकतांत्रिक पद्धति सकारात्मक प्रभाव नहीं डाल सकेगी। हर किसी के ग्लैमर से भरे और चिकनी जबान वाले दिखावे के बावजूद उनके पास वास्तव में ठोस राय, सच्ची प्रतिभा और असली सीख नहीं होती है। वे लोगों को सही मार्ग पर ले जाने में सक्षम नहीं होते हैं। वे केवल लोगों को गुमराह करने वाली बातें बोलते हैं, जिनका कोई सकारात्मक असर नहीं होता। किसी भी स्थिति में, यदि कोई व्यक्ति केवल तभी लोकतांत्रिक परामर्श करता है, जब किसी हालत का सामना होने पर रास्ता दिखाने के लिए सत्य समझने वाला कोई व्यक्ति न हो, तो यह कारगर नहीं होगा। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए तब भी सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि वे स्वयं सत्य को खोजें, परमेश्वर के संगत वचनों को चुनें, उन्हें सावधानी से पढ़ें, और उन पर ध्यानपूर्वक चिंतन करें। तब वे परमेश्वर के वचनों को संगति के लिए सभा में ला सकते हैं, और सबके साथ उन पर चर्चा कर सकते हैं। केवल इसी ढंग से परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। जहाँ तक झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की बात है, चाहे जो भी स्थिति हो, वे कभी भी लोकतांत्रिक परामर्श का अभ्यास नहीं करते। वे लोगों से कभी चर्चा या संगति करवाते ही नहीं। वे अपने इरादों और लक्ष्यों से चिपके होते हैं, उन्हें डर होता है कि लोकतांत्रिक परामर्श उन्हें उजागर कर देंगे या उनके इरादों और लक्ष्यों को नामंजूर कर देंगे। इसलिए वे तानाशाही प्रवृत्ति से काम लेते हैं, हमेशा ऐसा व्यक्ति बनने की इच्छा रखते हैं, जिसके निर्णय ही अंतिम होते हैं। भले ही कुछ छोटे-मोटे मामलों में वे लोकतांत्रिक संगति का अभ्यास कर लें, पर यह केवल इस प्रयास में होता है कि उन्हें सभी का समर्थन मिले और सभी लोग उन्हें सकारात्मक दृष्टि से देखें; यह विशुद्ध रूप से उनकी अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए किया जाता है। यदि तुम लोगों को ऐसे इरादे वाले लोग मिलें, तो तुम्हें उनसे सतर्क रहना चाहिए, और उन पर नजर रखनी चाहिए, और अगर जरूरी हो तो उन्हें उजागर कर प्रतिबंधित कर देना चाहिए। एक सही अगुआ या कार्यकर्ता वह है, जो पहले स्वयं सत्य को खोजता है, और इसके बाद सभी को परमेश्वर के वचनों पर संगति करने और सत्य को खोजने के लिए प्रेरित करता है। हो सकता है कि संगति के दौरान हर किसी का हृदय पूरी तरह स्पष्ट न हो, और थोड़ा अस्पष्ट हो, पर जैसे-जैसे वे संगति करते जाएँगे, उन्हें पवित्र आत्मा का प्रबोधन प्राप्त होता जाएगा। संभवतः उनमें से कोई एक पहले से प्रकाश या मार्ग के बारे में बता सके, और जैसे-जैसे सभी लोग इस रोशनी के प्रकाश में और इस मार्ग पर निरंतर संगति करते जाएँगे, उनके दिल में स्पष्टता आती जाएगी, जिससे वे अभ्यास का उचित मार्ग तय कर पाएँगे। जैसे-जैसे सभी लोग साथ-साथ संगति करते जाएँगे, वे पहले से अधिक स्पष्टता से बोल पाएँगे। अगर एक भी व्यक्ति पवित्र आत्मा के कार्य से प्रबुद्ध और रोशन हो जाता है, तो ऐसा लगेगा मानो हर कोई प्रबुद्ध और रोशन हो गया हो। सभी अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस तरीके से सत्य को खोजना सीखना चाहिए। इस तरह अभ्यास करने से पवित्र आत्मा को कार्य करने का मौका मिलता है। अगर तुम हमेशा दूसरों की राय के मुताबिक चलते हो, और कभी यह जानने का प्रयास नहीं करते हो कि पवित्र आत्मा कैसे कार्य करता है, तो यह एक भटकाव होगा। हमेशा हर किसी की राय मानना और जिसे हर कोई अच्छा मानता है उसी पर टिक जाना—यह कैसी पद्धति है? यह ऐसी पद्धति है जिसमें कोई एक व्यक्ति चापलूसी कर लाभ उठाता है, कोई जिम्मेदारी नहीं लेता, और परमेश्वर के घर के काम को लेकर विचार नहीं करता। हालाँकि ऊपर से देखें तो तुमने अपना काम किया है, लोगों को संगति करने और अपनी राय जताने दिया है, लोकतंत्र का अभ्यास किया है, और तानाशाही या एकतरफा काम करने से बचे हो, फिर भी तुम्हारा उद्देश्य चापलूसी कर लाभ उठाना था, लोगों को इस ओर खींचना था कि वे तुम्हारे बारे में ऊँचा सोचें, तुम्हें स्वीकार करें, कहें कि तुम तानाशाह नहीं हो, विवेकशील हो, और काम करने में सक्षम हो। ऐसा होने पर तुम संतुष्ट हो जाते हो। क्या ऐसा करना सही है? यदि तुम्हारा उद्देश्य ही सही नहीं है, तो क्या परिणाम सही हो सकते हैं? नहीं, निश्चित रूप से नहीं हो सकते। तुमने सबका समर्थन हासिल किया है, और उन्हें खुश किया है। वे सभी कहते हैं कि तुम एक अच्छे अगुआ हो, झूठे अगुआ या मसीह-विरोधी नहीं हो, और तुम कार्य कर सकते हो; वे सभी तुम्हारा समर्थन करते हैं—पर आखिरकार फायदा किसे होता है? तुम्हें। क्या यह एक अच्छा परिणाम है? नहीं है। पहली बात, तुमने परमेश्वर की गवाही नहीं दी, और दूसरी बात, तुमने परमेश्वर के घर के कार्य का मान नहीं रखा। अंतिम परिणाम यह है कि तुमने अपने और बाकी सभी के हितों की रक्षा की है, और अपनी हैसियत की रक्षा की, लेकिन किसी ने भी परमेश्वर के घर और कलीसिया के हितों की रक्षा नहीं की। तुम सबके बीच काफी सद्भावना है, लेकिन परमेश्वर के घर के अहम कार्य एक किनारे कर दिए गए हैं। कोई भी इस पर ध्यान नहीं देता या विचार नहीं करता कि परमेश्वर के घर का कार्य सिद्धांतों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप कैसे हो। क्या यह परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात नहीं है? तुमने सत्य को, परमेश्वर की अपेक्षाओं और परमेश्वर के घर के कार्य और हितों के साथ विश्वासघात किया है, ताकि तुम सबकी चापलूसी कर लाभ उठा सको। अंत में इसका फायदा तुम्हें और बाकी सभी को होता है। ये लोग घृणित, नीच हैं, और गद्दारों का गिरोह हैं। यही वह मार्ग है, जिसे मसीह-विरोधियों ने अपनाया है। सभी को खुश करने और अपनी हैसियत बनाए रखने के लिए परमेश्वर के घर के हितों के साथ धोखा करके तुम आखिर सभी के सम्मान और समर्थन के पात्र बन जाते हो, ताकि वे हमेशा तुम्हें अपना अगुआ चुनते रहें। तुमने अपनी हैसियत को मजबूत किया है, पर क्या कलीसिया में परमेश्वर की इच्छा और सत्य को क्रियान्वित किया गया है? (नहीं।) उन्हें तुमने बाधित कर दिया है। जिस कलीसिया पर तुम्हारा नियंत्रण है वहाँ परमेश्वर की इच्छा को क्रियान्वित नहीं किया गया है। परमेश्वर के वचनों को भाई-बहनों के बीच अभ्यास में नहीं लाया गया है, और वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हृदयों में प्रवेश नहीं कर पाए हैं, ताकि वे उनका जीवन बन सकें। इसका मुख्य दोषी कौन है? तुम हो। तुम कलीसिया में परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के रास्ते में एक बाधा और रुकावट बन गए हो—परमेश्वर तुमसे नाराज क्यों न हो? क्या तुम्हें बदल नहीं देना चाहिए? अगर तुम्हें बदलने का समय आ गया हो और फिर भी कोई इस पर सहमत न हो, तो तुम क्या बन जाओगे? तुम मसीह-विरोधी बन जाओगे। जो तुम्हारी आराधना करते हैं और तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उन सभी को तुम गलत रास्ते पर ले गए हो, वे बचाए जाने का मौका खो चुके हैं, और वे तुम्हारे बलि के मेमने बन गए हैं। तुम्हारे नियंत्रण में कलीसिया मसीह-विरोधी का राज्य बन गया है। यही परिणाम हैं। कोई भी तुम्हें बदलने को क्यों सहमत नहीं है? तुमने उन सभी को खरीद लिया है, और अब वे तुम्हें परमेश्वर के रूप में देखते हैं। तुमने उनके हृदयों में परमेश्वर की जगह ले ली है, उनके दिलों पर पूरी तरह कब्जा जमा लिया है। उनके हृदयों में अब परमेश्वर या सत्य नहीं बसता; तुमने उन्हें बंदी बनाकर उन पर नियंत्रण कर रखा है। यह शैतान के लोगों पर काबू करने और उन्हें भ्रष्ट करने से अलग नहीं है। परमेश्वर ने इन लोगों को तुम्हारे हाथों में सौंपा है, फिर भी तुमने उन्हें लूटकर उन्हें जब्त कर लिया है। क्या यह मसीह-विरोधी नहीं है? निश्चित रूप से यह मसीह-विरोधी है। कलीसिया में मसीह-विरोधी कौन-सी भूमिका निभाता है? यह खुले तौर पर जाहिर है और इसे देखना आसान है। एक मसीह-विरोधी शैतान का कारिंदा होता है, जो वह सब कुछ करता है जो शैतान चाहता है, और जो लोगों को गुमराह कर उन पर नियंत्रण करने के शैतान के लक्ष्य को हासिल करता है। ऐसा करके वह शैतान का साथी बन जाता है, और उसे परमेश्वर द्वारा शाप देकर दंडित किया जाना चाहिए।

फिलहाल उन सभी को जो अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में सेवा करते हैं, मसीह-विरोधी के मार्ग पर जाने का डर सता रहा है। तो इस नतीजे से बचने के लिए तुम क्या कर सकते हो? सबसे पहले, तुम्हें समझना होगा कि तुम जो कर्तव्य निभाते हो और जो कार्य करते हो, वे सब परमेश्वर द्वारा सौंपे गए हैं, और तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कार्य करने चाहिए। ऐसा करते हुए तुम्हारे मन में एक उद्देश्य और दिशा होगी, तुम सत्य को खोजने में सक्षम होगे, और परमेश्वर के वचनों के भीतर मार्ग ढूँढ़ सकोगे। तब तुम्हें परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंशों के बारे में संगति करने के लिए सभी की अगुआई करनी चाहिए, और उन्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य के बारे में संगति करने, परमेश्वर के वचनों में और अधिक प्रकाश प्राप्त करने, परमेश्वर की इच्छा और सत्य को समझने, और फिर सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने लायक बनाना चाहिए। यह सही मार्ग पर कदम रखना है। सार रूप में कहें, तो कलीसिया का कार्य परमेश्वर के चुने हुए लोगों का उन सभी सत्यों को समझने और उनमें प्रवेश करने में नेतृत्व करना है, जिन्हें परमेश्वर व्यक्त करता है। यह कलीसिया का सबसे अधिक बुनियादी कार्य है। इसलिए चाहे जो समस्या हल की जा रही हो, किसी भी सभा को परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश पढ़ने से या सत्य के बारे में संगति करने से अलग नहीं किया जा सकता। आखिरकार तुम यदि सत्य और अभ्यास के सिद्धांतों के बारे में तब तक संगति कर सकते हो, जब तक वे स्पष्ट न हो जाएँ, तो सभी लोग सत्य को समझ जाएँगे, और जान जाएँगे कि उनका अभ्यास कैसे करना है। इसकी परवाह किए बिना कि किसी सभा के दौरान तुम सत्य के किस पहलू को खा और पी रहे हो, तुम्हें इसी तरह से संगति करनी चाहिए और सामने आए मसलों के आधार पर सत्य को खोजना चाहिए। जो लोग सत्य को समझते हैं, उन्हें संगति की अगुआई करनी चाहिए, और जो लोग प्रबुद्ध हो चुके हैं, वे संगति को आगे बढ़ा सकते हैं। इस प्रकार वे जितनी अधिक संगति करेंगे, उतना ही अधिक पवित्र आत्मा उन पर कार्य करेगा, और वे सत्य पर जितनी अधिक संगति करेंगे, उतनी ही अधिक स्पष्टता उन्हें हासिल हो जाएगी। जब सभी लोग सत्य को समझ लेंगे, तो वे पूर्ण मुक्ति और आजादी हासिल कर लेंगे और उनके पास अनुसरण के लिए एक मार्ग होगा। यह वह सबसे अच्छा परिणाम है, जो एक सभा प्राप्त कर सकती है। जब सभी लोग सत्य वास्तविकता के बारे में तब तक बात करेंगे, जब तक वह इस तरह की संगति के जरिए स्पष्ट न हो जाए, तो क्या वे सत्य को नहीं समझ जाएँगे? (हाँ, समझ जाएँगे।) सत्य को समझने के बाद लोग स्वाभाविक रूप से जान जाएँगे कि उसे कैसे अनुभव करना है और कैसे उसका अभ्यास करना है। जब वे सत्य का सटीक ढंग से अभ्यास कर पाएँगे, तो क्या वे सत्य को प्राप्त नहीं कर लेंगे? (जरूर।) जब कोई व्यक्ति सत्य को प्राप्त कर ले, तो क्या उसने परमेश्वर को प्राप्त नहीं कर लिया होगा? यदि किसी ने परमेश्वर को प्राप्त कर लिया हो, तो क्या उसे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं हो गया होगा? (जरूर।) यदि बतौर अगुआ या कार्यकर्ता अपने काम में तुम यह परिणाम हासिल कर सकते हो, तो तुमने अपना कार्य ठीक ढंग से कर लिया होगा, तुमने मानक स्तर तक अपना कर्तव्य निभा लिया होगा, और तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी। जब परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग सत्य को समझ जाएँगे, तो क्या तब भी वे तुम्हारी आराधना करेंगे, तुम्हारा आदर करेंगे, और तुम्हारा अनुसरण करेंगे? (नहीं।) लोग केवल तुम्हारी सराहना करेंगे, तुम्हारा आदर करेंगे, तुम्हारे संपर्क में आने और तुमसे बात करने को तैयार होंगे, और तुम्हारी संगति सुनने को तैयार होंगे, ताकि वे इससे लाभ उठा सकें। जो लोग सत्य को समझते हैं, वे वास्तव में परमेश्वर के विरुद्ध चीजों को बर्दाश्त नहीं करते। किसी सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को पूरा करने, और एक योग्य सृजित प्राणी होने का यही अर्थ है। जब लोग सत्य को समझ जाते हैं, और परमेश्वर से घनिष्ठ संबंध स्थापित कर लेते हैं, तो वे परमेश्वर के साथ अनुकूलता हासिल कर सकते हैं, तब वे उसके प्रति विद्रोह नहीं करते, गलतफहमी नहीं रखते, या उसका विरोध नहीं करते, और चाहे वे किसी भी मसले का सामना कर रहे हों, परमेश्वर को उत्कर्षित करने और उसकी गवाही देने में सक्षम हो पाएँगे। यदि किसी अगुआ या कार्यकर्ता के तौर पर तुम इन जैसे सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हो, तो तुम जान पाओ इससे पहले ही तुम लोगों को परमेश्वर के सामने ला चुके होगे। तुम जिन लोगों की अगुआई करते हो, वे भी सत्य का अभ्यास करने, वास्तविकता में प्रवेश करने, और परमेश्वर को उत्कर्षित करने और उसकी गवाही देने में सक्षम हो जाएँगे। इस तरह से तुम जिन लोगों की अगुआई करते हो, वे परमेश्वर की स्वीकृति पाने और उसके द्वारा प्राप्त किए जाने लायक हो जाएँगे। इसलिए जब एक अगुआ सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलता है, तो यह पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के अनुसार होता है। यदि लोग जो करते हैं वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होता है, तो उनके कार्यों के नतीजे बेहतर से बेहतर होते जाएँगे, एक भी विपरीत प्रभाव नहीं होगा, और उन्हें हर मामले में परमेश्वर का आशीष और रक्षा प्राप्त होगी। भले ही वे कभी-कभी मार्ग से थोड़ा भटक भी जाएँ, तो भी परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध करेगा, उन्हें आगे बढ़ाएगा, और उन्हें परमेश्वर के वचनों में सुधार प्राप्त होगा। जब लोग सही मार्ग अपनाते हैं, तो उन्हें परमेश्वर का आशीष और रक्षा मिलती है।

परमेश्वर के घर में लोकतांत्रिक चुनाव और परामर्श का अभ्यास करने का क्या प्रयोजन है? लोकतंत्र का अभ्यास क्यों किया जाना चाहिए? (ताकि लोग मनमानी न करें।) वास्तव में यह इस समस्या से बचने के लिए है। हालाँकि लोकतांत्रिक परामर्श का अभ्यास करने का अंतिम लक्ष्य समस्याओं का हल करने के लिए सत्य का प्रयोग करना है, भटकने से बचना है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार काम करना है। यह सत्य को समझने के लिए और सही रास्ते में प्रवेश करने के लिए है। यह उस मार्ग का पता लगाने के लिए है जो परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण करता है, उसके कार्य के प्रति समर्पण करने के लिए है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सत्य वास्तविकता में अगुआई करने के लिए है, ताकि उसकी इच्छा को क्रियान्वित किया जा सके। यह झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह होने और विघ्न-बाधाओं से सतर्क रहने, कलीसिया में अराजकता पैदा होने से रोकने, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन को नुकसान से बचाने के लिए भी है। लोकतांत्रिक परामर्श के अभ्यास से इन परिणामों को पाया जा सकता है। यदि कलीसिया में सत्य या लोकतांत्रिक परामर्श पर कोई संगति नहीं होती, तो कलीसिया में अराजकता फैलना और दानव और शैतान का इस खामी का फायदा उठाना बहुत आसान हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप सत्ता झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के हाथ आ जाती है। चूँकि सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं, इसलिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं में तानाशाहीपूर्ण ढंग से कार्य करने, केवल अपनी बात मनवाने और सभी फैसले खुद लेने की प्रवृत्ति अधिक होती है। परमेश्वर के घर में लोकतांत्रिक चुनावों का अभ्यास विशुद्ध रूप से अगुआओं और कार्यकर्ताओं को मनमानी करने से रोकने, साथ ही कलीसिया में झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों पर सत्ता पकड़े रहने से रोक लगाने, केवल अपनी बात मनवाने से रोकने और कलीसिया को उनके परिवारों के नियंत्रण में लाने से रोकने के लिए किया जाता है। यह पूरी तरह से तमाम निरंकुश और मसीह-विरोधी नजरियों को प्रतिबंधित करने के लिए है। हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं है कि परमेश्वर का घर लोकतंत्र का अभ्यास करके भाई-बहनों को अंतिम निर्णय करने दे रहा है, और इसका मतलब यह तो निश्चित ही नहीं है कि सब कुछ भाई-बहनों के परामर्श से ही तय किया जाना चाहिए। परमेश्वर के घर में लोकतंत्र के साथ-साथ केंद्रीकरण भी होता है। उसके लिए इस तरह से अभ्यास करना बहुत आवश्यक होता है। क्या इस बात की गारंटी है कि सिर्फ लोकतंत्र का अभ्यास करके जो निष्कर्ष निकाले गए हैं, वे सत्य के अनुरूप होंगे? जरूरी नहीं है। तो इसीलिए केंद्रीकरण होना चाहिए। केंद्रीकरण का मतलब क्या है? इसका अर्थ है सभी की राय इकट्ठा करना ताकि एक सही निष्कर्ष पाया जा सके, जो पूरी तरह से सत्य से मेल खाता हो, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हो। जब लोकतांत्रिक परामर्श अच्छे नतीजे पाने में असमर्थ होते हैं, तब इन परिणामों को पाने के लिए जो चाहिए वह होता है केंद्रीकरण। केंद्रीकरण के अभ्यास का तरीका यह है कि जब निर्णय करने वाला समूह किसी मसले पर संगति करने के बाद आम सहमति पर न पहुँच पाए और सही निर्णय न ले पाए, तब उसे इस बारे में ऊपरवालों को सूचित करना चाहिए, ताकि वे इस पर निर्णय लें। चूँकि ऊपरवाले सत्य को समझते हैं, और उनके पास सिद्धांत हैं, इसलिए वे जो प्रस्ताव तैयार करते हैं वे सही होते हैं, और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार होते हैं। यदि कलीसिया के अगुआ या निर्णय लेने वाला समूह साफ तौर पर सत्य पर सहभागिता करने या सिद्धांत और मार्ग का पता लगाने में असमर्थ हों, यदि वे न जानते हों कि निर्णय कैसे लिया जाए, और इन परिस्थितियों में ऊपरवालों को सूचित नहीं करते, या उनसे समाधान निकालने के लिए नहीं कहते, बल्कि इसके बजाय अपने मर्जी से कार्यभार उठाते हैं, तब यह कलीसिया और निर्णय लेने वाला समूह झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के नियंत्रण में होते हैं। यदि परमेश्वर के चुने हुए लोग सत्य के बारे में संगति करके परिणाम प्राप्त कर लें, और वे जिन निष्कर्षों पर पहुँचें वे सही हों, तो ऊपरवाले आगे बढ़कर उन्हें अपनी स्वीकृति दे देंगे। अगर उनके निष्कर्षों में अभी भी भटकाव हैं, और वे पूरी तरह सत्य सिद्धांतों से मेल न खाएँ, तब ऊपरवाले उन्हें ठीक करेंगे। इस तरह लोकतांत्रिक परामर्शों में कभी-कभार होने वाली त्रुटियों से प्रभावी ढंग से बचा जा सकता है। इस केंद्रीकरण के साथ इस बात की गारंटी दी जा सकती है कि लोकतांत्रिक परामर्श सामान्य ढंग से काम करेंगे, बाधित नहीं होंगे और साथ ही अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कर्तव्य निर्वहन में कोई भटकाव नहीं होंगे। यद्यपि परमेश्वर का घर लोकतंत्र का अभ्यास करता है, पर इसके लिए भी उसके पास सिद्धांत हैं। ये सिद्धांत हैं कि इसे परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुसार किया जाना चाहिए, और लोगों को परमेश्वर और वह सभी मामलों में जो कहता है, उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। ये परिणाम लोकतंत्र के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुरूप होने के लिए हासिल किए जाने चाहिए। कलीसिया के लोकतंत्र के अभ्यास के अंतिम परिणाम सत्य के अनुरूप होने चाहिए। अगर वे मेल नहीं खाते, तो उन्हें पलट देना चाहिए। कुछ लोगों का मानना है कि लोकतंत्र के अभ्यास का अर्थ है कि सभी मामलों में परमेश्वर के चुने हुए लोगों का निर्णय ही अंतिम हो, और भाई-बहन जो भी कहें, उसका सम्मान करते हुए उस पर विचार किया जाए। क्या यह सही है? क्या भाई-बहनों के पास सत्य होता है? (नहीं होता।) अगर उन्हें सभी मामलों में अंतिम निर्णय लेने दिया जाए, तो यह झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को अंतिम निर्णय लेने देने से अलग कैसे है? दोनों ही मामलों में उनके पास सत्य नहीं होता, और वे भ्रष्ट लोग होते हैं। अगर उनका निर्णय अंतिम होता है, तो क्या सत्ता शैतान के हाथ में नहीं है? इसलिए लोकतंत्र के अभ्यास का अर्थ यह नहीं है कि भाई-बहन जो भी कहें वह सत्य है, सही है और उसका आदर किया जाना चाहिए। बात ऐसी नहीं है। लोकतंत्र का अभ्यास मुख्य रूप से इसलिए किया जाता है कि हर व्यक्ति को बोलने, बात करने, संगति करने और अपनी जिम्मेदारियाँ, दायित्व और कर्तव्य निभाने का मौका मिले। मगर निर्णय लेने का हक निर्णय लेने वाले समूह के हाथ में होता है। निर्णय वे लोग लेते हैं, जो सत्य को समझते हैं, और सभी महत्वपूर्ण मामलों में फैसले ऊपरवालों द्वारा लिए जाते हैं। इस तरह इसकी गारंटी मिल सकती है कि कलीसिया द्वारा लिए गए निर्णय कुल मिलाकर सही हैं, या ज्यादातर निर्णय सही हैं, और उनमें भटकाव बहुत कम होते जाएँगे। लोकतांत्रिक चुनावों और परामर्शों को अपनाने के पीछे यही अर्थ है। इन चीजों का अभ्यास सभी मामलों में पूरी तरह से सत्य के अनुरूप होने का प्रभाव हासिल करने के लिए किया जाता है, उस मुकाम पर पहुँचने के लिए किया जाता है, जहाँ परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण होता है, नहीं के बराबर त्रुटियाँ होती हैं, और इसकी गारंटी होती है कि परमेश्वर की इच्छा बगैर किसी बाधा के क्रियान्वित की जाएगी। यदि लोकतांत्रिक चुनावों और परामर्शों का अभ्यास नहीं किया जाता तो यह तय है कि खामियों का फायदा उठाने वाले दुष्ट बड़ी तादाद में होंगे, और झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी तानाशाही तरीके से काम कर रहे होंगे। इससे न केवल सुसमाचार का विस्तार प्रभावित होता है, बल्कि कलीसिया का जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन प्रवेश भी प्रभावित होता है। जब से परमेश्वर के घर ने लोकतांत्रिक चुनावों को अभ्यास में लाना शुरू किया है, तब से कई झूठे अगुआओं और कार्यकर्ताओं का खुलासा करके उन्हें त्याग दिया गया है, और ऐसे दुष्ट लोग भी सामने आए हैं जिन्हें फायदा उठाने का कोई मौका नहीं मिल पा रहा था। ऐसे भी कई लोग जो सत्य का अनुसरण करते हैं और जो परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा स्वीकृत हैं, उन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में चुना गया है। उन्हें प्रशिक्षण लेने और पूर्ण बनाए जाने का मौका दिया गया है। ये लोकतांत्रिक चुनावों के अभ्यास के स्पष्ट परिणाम हैं और उन्हें सब देख सकते हैं। परमेश्वर के चुने हुए सभी लोगों को समझना चाहिए कि कलीसिया द्वारा लोकतंत्र का अभ्यास परमेश्वर के घर, कलीसिया और लोगों के लिए फायदेमंद और अनुकूल है। चूँकि कलीसिया का हर व्यक्ति परमेश्वर के घर का सदस्य है, और उनमें से कोई भी बाहरी नहीं है, हर व्यक्ति को उन मामलों में बोलने, बात करने, वोट देने और चुनाव करने का अधिकार है, जो कलीसिया के कार्य से संबंधित इत्यादि हैं। यह हर किसी का अधिकार है। हालाँकि इस अधिकार का होना तुम्हारे पास सत्य होने या तुम्हें गैरजिम्मेदारी से काम करने देने की अनुमति देने के बराबर नहीं है। अगर तुम इस अधिकार का दुरुपयोग करते हो, तो क्या तुम्हें परमेश्वर के घर द्वारा प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए? (जरूर।) तुम्हें यह अधिकार इसलिए दिया गया है ताकि तुम सत्य का अभ्यास करो, और मामलों को सत्य सिद्धांतों के अनुसार सँभालो। इसलिए कि तुम कलीसिया के हितों और परमेश्वर के घर के हितों को बरकरार रखो। यह इसलिए नहीं था कि तुम मनमानी करो और लापरवाही से काम करो। कलीसिया तुम्हारी कही हुई उन बातों को संदर्भित कर अपना सकता है, जो सही हैं। अगर तुम कुछ ऐसा कहते हो जो गलत है, और तुम्हें खारिज कर दिया जाता है, तो तुम्हें जिद नहीं करनी चाहिए। तुम्हें स्वीकृति और समर्पण का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार का अभ्यास परमेश्वर के घर के कार्य के लिए लाभकारी होता है।

अंश 75

अपने कार्य में, कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को दो सिद्धांतों पर ध्यान अवश्य देना चाहिए : एक यह कि उन्हें ठीक कार्य व्यवस्थाओं के द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार ही कार्य करना चाहिए, उन सिद्धांतों का कभी भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए, और अपने कार्य को अपने विचारों या ऐसी किसी भी चीज़ के आधार पर नहीं करना चाहिए जिसकी वे कल्पना कर सकते हैं। जो कुछ भी वे करें, उन्हें कलीसिया के कार्य के लिए परवाह दिखानी चाहिए, और हमेशा परमेश्वर के घर के हित सबसे पहले रखने चाहिए। दूसरी बात, जो बेहद अहम है, वह यह है कि जो कुछ भी वे करें उसमें पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का पालन करने के लिए ध्यान अवश्य केन्द्रित करना चाहिए, और हर काम परमेश्वर के वचनों का कड़ाई से पालन करते हुए करना चाहिए। यदि वे अभी भी पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के विरुद्ध जा सकते हैं, या वे जिद्दी बनकर अपने विचारों का पालन करते हैं और अपनी कल्पना के अनुसार कार्य करते हैं, तो उनके कृत्य को परमेश्वर के प्रति एक अति गंभीर विरोध माना जाएगा। प्रबुद्धता और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से निरंतर मुँह फेरना उन्हें केवल बंद गली की ओर ले जाएगा। यदि वे पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा देते हैं, तो वे कार्य नहीं कर पाएँगे, और यदि वे कार्य करने का प्रबंध कर भी लेते हैं, तो वे कुछ पूरा नहीं कर पाएँगे। कार्य करते समय दो मुख्य सिद्धांत यह हैं जिनका पालन अगुआओं और कार्यकर्ताओ को करना चाहिए : एक है कार्य को ऊपर से प्राप्त कार्य प्रबंधनों के अनुसार सटीकता से करना, और साथ ही ऊपर से तय किये गए सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना। और दूसरा सिद्धांत है, पवित्र आत्मा द्वारा अंतर में दिये गए मार्गदर्शन का पालन करना। जब एक बार इन दोनों सिद्धांतों को अच्छी तरह से समझ लेंगे, तो वे अपने काम में आसानी से गलतियाँ नहीं करेंगे। कलीसिया का कार्य करने में तुम लोगों का अनुभव अभी भी सीमित है, जब तुम काम करते हो, तो वह बुरी तरह से तुम्हारे विचारों से दूषित होता है। कभी-कभी, हो सकता है कि तुम पवित्र आत्मा से आए, अपने भीतर के प्रबोधन और मार्गदर्शन को न समझ पाओ; और कभी, ऐसा लगता है कि तुम इसे समझ गये हो परन्तु संभव है कि तुम इसकी अनदेखी कर दो। तुम हमेशा मानवीय रीति से सोचते या निष्कर्ष निकालते हो, जैसा तुम्हें उचित लगता है वैसा करते हो और पवित्र आत्मा के इरादों की बिल्कुल भी परवाह नहीं करते हो। तुम अपने विचारों के अनुसार अपना कार्य करते हो, और पवित्र आत्मा के प्रबोधन को एक किनारे कर देते हो। ऐसी स्थितियां अक्सर होती हैं। पवित्र आत्मा का आन्तरिक मार्गदर्शन लोकोत्तर नहीं है; वास्तव में यह बिल्कुल ही सामान्य है। यानी, अपने दिल की गहराई में तुम्हें लगता है कि कार्य करने का यही उपयुक्त और सर्वोत्तम तरीका है। ऐसा विचार वास्तव में बहुत ही स्पष्ट है; यह गंभीर सोच का परिणाम नहीं है, और कभी-कभी तुम पूरी तरह से नहीं समझ पाते कि तुम्हें इस तरह से कार्य क्यों करना चाहिए। यह पवित्र आत्मा का प्रबोधन ही होता है। ऐसा अक्सर अनुभवी लोगों के साथ होता है। पवित्र आत्मा वह करने के लिए तुम्हारा मार्गदर्शन करता है, जो सर्वाधिक उपयुक्त होता है। तुम इस बारे में नहीं सोचते, बल्कि तुम्हारे मन में ऐसा भाव आता है जो तुम्हें यह एहसास कराता है कि इसे करने का यही बेहतरीन तरीका है, और तुम कारण जाने बिना ही उसे उस ढंग से करना पसंद करते हो। यह पवित्र आत्मा से आ सकता है। इंसान के अपने विचार अक्सर सोचने-विचारने का परिणाम होते हैं और उनमें उनका मत शामिल होता है; वे हमेशा यही सोचते हैं कि इससे उन्हें क्या लाभ और फायदा है; इंसान जो भी कार्य करने का निर्णय लेता है, उसमें ये बातें होतीं हैं। लेकिन पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में ऐसी कोई मिलावट नहीं होती। पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और प्रबोधन पर सावधानीपूर्वक ध्यान देना बहुत आवश्यक है; विशेषकर तुम्हें मुख्य विषयों में बहुत सावधान रहना होगा ताकि इन्हें समझा जा सके। ऐसे लोग जो अपना दिमाग लगाना पसंद करते हैं, जो अपने विचारों पर ही कार्य करना पसंद करते हैं, बहुत संभव है कि वे ऐसे मार्गदर्शन और प्रबोधन में चूक जाएँ। उपयुक्त अगुआ और कर्मी ऐसे लोग होते हैं जिनमें पवित्र आत्मा का कार्य होता है, जो हर पल पवित्र आत्मा के कार्य पर ध्यान देते हैं, जो पवित्र आत्मा के प्रति समर्पण करते हैं, परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखते हैं, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलरहते हैं और बिना थके सत्य खोजते हैं। परमेश्वर को सन्तुष्ट करने और सही ढंग से उसकी गवाही देने के लिये तुम्हें अक्सर अपनी मंशाओं और अपने कर्तव्य में मिलावटी तत्वों पर आत्मचिंतन करना चाहिए, और फिर ध्यान से यह देखने का प्रयास करना चाहिये कि तुम्हारा कार्य इंसानी विचारों से कितना प्रेरित है, और कितना पवित्र आत्मा के प्रबोधन से उत्पन्न हुआ है, और कितना परमेश्वर के वचन के अनुसार है। तुम्हें निरन्तर और हर परिस्थिति में अपनी कथनी- करनी पर विचार करते रहना चाहिये कि वे सत्य के अनुरूप हैं या नहीं। अक्सर इस तरह का अभ्यास करना तुम्हें परमेश्वर की सेवा के लिये सही रास्ते पर ले जाएगा। परमेश्वर के इरादों के अनुरूप उसकी सेवा करने के लिए, सत्य वास्तविकताओं का होना आवश्यक है। सत्य को समझकर ही लोग भेद करने के काबिल बनते हैं और वे यह पहचानने के योग्य होते हैं कि उनके अपने विचारों से क्या उत्पन्न होता है और इंसानी मंशाओं से क्या उत्पन्न होता है। वे मानवीय अशुद्धता को पहचानने के योग्य हो जाते हैं, और यह भी पहचान पाते हैं कि सत्य के अनुसार कार्य करना क्या होता है। भेद कर पाने के बाद ही यह सुनिश्चित हो सकता है कि वे सत्य को अभ्यास में ला सकते हैं और पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो सकते हैं। सत्य को समझे बिना लोगों के लिए भेद कर पाना असंभव है। एक भ्रमित व्यक्ति शायद आजीवन परमेश्वर पर विश्वास करे, लेकिन यह नहीं समझ पाता कि अपनी भ्रष्टता को प्रकट करने का क्या अर्थ होता है या परमेश्वर का विरोध करने का क्या अर्थ होता है, क्योंकि वह सत्य को नहीं समझता; उसके मन में वह विचार ही मौजूद नहीं है। सत्य बेहद निम्न काबिलियत वाले लोगों की पहुँच से बाहर होता है; तुम उनके साथ किसी भी प्रकार से संगति करो, फिर भी वे नहीं समझते। ऐसे लोग भ्रमित होते हैं। इस प्रकार के भ्रमित लोग परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते; वे थोड़ी-सी मजदूरी ही कर सकते हैं। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अपने कर्तव्य अच्छे से निभाने हैं, तो उनकी काबिलियत बहुत खराब नहीं होनी चाहिए। कम-से-कम उनमें आध्यात्मिक समझ तो होनी ही चाहिए और उन्हें चीजों को विशुद्ध रूप से समझना चाहिए, ताकि वे आसानी से सत्य को समझकर उसका अभ्यास कर सकें। कुछ लोगों का अनुभव बहुत उथला होता है, इसलिए कभी-कभी उनकी सत्य की समझ में विकृतियाँ होती हैं और उनकी गलतियाँ करने की संभावना होती है। जब उनकी समझ में विकृतियाँ होती हैं तो वे सत्य का अभ्यास करने योग्य नहीं रहते। जब लोगों की सत्य की समझ में विकृतियाँ होती हैं तो संभावना है कि वे विनियमों के अनुसार चलेंगे और जब वे विनियमों के अनुसार चलते हैं तो गलतियाँ करना आसान होता है और वे सत्य के अभ्यास के योग्य नहीं रहते। जब समझ में विकृतियाँ होती हैं तो मसीह-विरोधियों के हाथों गुमराह और इस्तेमाल होना भी आसान होता है। इसलिए समझ में विकृतियों के कारण बहुत-सी गलतियाँ हो सकती हैं। इसके परिणामस्वरूप, वे न केवल अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने में असफल हो जाएंगे, वे आसानी से भटक भी सकते हैं, जो परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को हानि पहुँचाता है। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने का क्या महत्व रह जाता है? वे ऐसे लोग बन गए हैं जो बस कलीसिया के काम को बाधित और अस्तव्यस्त करते हैं। इसके अलावा, इन असफलताओं से सबक सीखने चाहिए। परमेश्वर के सौंपे गए कार्य को करने के लिए अगुआ और कार्यकर्ताओं को ये दो सिद्धांत समझने चाहिए : कर्तव्य निभाते समय ऊपरवाले की कार्य व्यवस्था का कड़ाई से पालन करना और परमेश्वर के वचनों के अनुसार पवित्र आत्मा के किसी भी मार्गदर्शन पर ध्यान देकर इसके प्रति समर्पण करना। जब इन दोनों सिद्धांतों को समझ लिया जाएगा, तभी किसी व्यक्ति का कार्य कारगर हो सकता है और परमेश्वर के इरादे पूरे हो सकते हैं।

अंश 76

कलीसिया में, किस तरह के लोग सर्वाधिक अहंकारी होते हैं? उनका अभिमान कैसे प्रकट होता है? किन मामलों में उनका अहंकार सबसे अधिक प्रकट होता है? क्या तुम लोगों को इसकी समझ है? कलीसिया में मौजूद सबसे अधिक अहंकारी लोग वास्तव में दुष्ट और मसीह-विरोधी हैं। उनका अहंकार सामान्य लोगों की तुलना में बहुत आगे निकल जाता है, यहां तक कि विवेकहीनता के छोर पर चला जाता है। किन मामलों में यह सबसे आसानी से देखा जा सकता है? उनका अहंकारी स्वभाव तब सर्वाधिक स्पष्ट तौर पर उजागर होता है, जब उनकी काट-छाँट की जाती है। इन मसीह-विरोधियों के कुकर्मों की विकरालता चाहे जितनी भी हो, अगर कोई उनकी काट-छाँट करता है तो वे क्रोधित हो जाते हैं और कहते हैं : “तुम कौन होते हो मेरी आलोचना करने वाले और मुझे भाषण देने वाले? तुम कितने लोगों की अगुवाई कर सकते हो? क्या तुम धर्मोपदेश दे सकते हो? क्या तुम सत्य पर संगति कर सकते हो? अगर तुम मेरी भूमिका में होते तो तुम भी कोई मुझसे बेहतर नहीं होते।” यह तुम लोगों को कैसा लग रहा है? क्या उनमें सत्य को स्वीकारने का जरा-सा भी रवैया है? अगर तुम लोग अपनी काट-छाँट को इस रूप में लोगे तो यह परेशानी पैदा करता है। यह साबित करता है कि तुम लोगों में सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं, और तुम्हारे जीवन स्वभाव में बिल्कुल भी परिवर्तन नहीं हुआ है। क्या इस तरह का नितांत भ्रष्ट, सठिया चुका इंसान एक अगुआ या कार्यकर्ता बन सकता है? क्या ऐसे लोग परमेश्वर की सेवा करने का कर्तव्य निभा सकते हैं? निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि ऐसे लोग अगुआ और कार्यकर्ता बनने के योग्य भी नहीं होते हैं। अगुआ और कार्यकर्ता बनने के लिए किसी व्यक्ति के पास कम-से-कम कुछ वास्तविक अनुभव होना चाहिए, उसे कुछ सत्य समझने चाहिए, उसके पास कुछ वास्तविकताएँ होनी चाहिए और उसके पास न्यूनतम समर्पण हो चाहिए, यानी, अपनी काट-छाँट होने पर वह कम-से-कम इसे स्वीकार सके—केवल इस प्रकार का व्यक्ति ही अगुआ या कार्यकर्ता बनने के योग्य होता है। अगर किसी व्यक्ति में कोई भी सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं अपनी काट-छाँट होने पर भी वह बहस और प्रतिरोध करता है, सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता और अगर इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर की सेवकाई करता है तो तुम लोगों को क्या लगता है कि क्या होगा? इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर का विरोध करेंगे; वे सत्य पर अमल नहीं करेंगे, फिर चाहे वे किसी भी प्रकार का कार्य क्यों न कर रहे हों और वे चीजों को सिद्धांतों के अनुसार तो बिल्कुल नहीं संभालेंगे। इसलिए अगर ऐसे लोग जिनमें कोई भी सत्य वास्तविकता नहीं है, अगुआ या कार्यकर्ताओं की भूमिका लेते हैं तो वे निश्चित रूप से मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल पड़ेंगे और परमेश्वर का प्रतिरोध करेंगे। ऐसा क्यों है कि बहुत सारे अगुआ और कार्यकर्ता अपना थोड़ा-सा कर्तव्य निभाने के बाद ही बेनकाब हो जाते हैं? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि वे प्रसिद्धि लाभ और रुतबे की तलाश में रहते हैं, और परिणामस्वरूप वे स्वाभाविक रूप से मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना प्रारंभ कर देते हैं। जहां तक तुम लोगों की बात है, अगर तुम लोगों को एक कलीसिया की जिम्मेदारी दी गई और छह महीने तक किसी ने भी जांच नहीं की, तो तुम लोग अंततः गलत राह पर चल पड़ोगे और मनमर्जी करने लगोगे। अगर तुम लोगों को एक साल के लिए आजाद पंछी की तरह छोड़ दिया गया, तो तुम लोग दूसरे लोगों को भी गुमराह करने लगोगे, और वे सभी केवल शब्द और धर्म-सिद्धात बोलने पर और यह तुलना करने पर ध्यान देंगे कि कौन किससे बेहतर है। अगर तुम लोगों को दो साल के लिए आजाद पंछी की तरह छोड़ दिया जाए, तो तुम लोग दूसरों को अपने पीछे चलाने लगोगे, लोग तुम्हारा आज्ञापालन करेंगे, परमेश्वर का नहीं, और इस तरह से कलीसिया का पतन हो जाएगा और यह धार्मिक हो जाएगी। इसका कारण क्या है? क्या तुम लोगों ने इस सवाल के बारे में सोचा है? जब कोई व्यक्ति कलीसिया की अगुआई इस तरह से कर रहा होता हो, तो वह किस राह पर चल रहा होता है? मसीह-विरोधियों की राह पर। क्या तुम लोग ऐसे बनोगे? कब तक तुम लोग दूसरों को सत्य का वह थोड़ा-सा भाग पहुंचाते रहोगे जिसे तुम लोग अब समझते हो? क्या तुम परमेश्वर में आस्था के सही मार्ग पर लोगों की अगुवाई कर सकते हो? अगर परमेश्वर के चुने हुए लोग बहुत सारे प्रश्न पूछते हैं, तो क्या तुम लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य पर संगति करते हुए उनका उत्तर देने में सक्षम हो पाओगे? अगर तुम सत्य को नहीं समझते, और केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दोगे तो तुम्हें कुछ बार सुनने के बाद लोग अघा जाएँगे, और जब तुम शब्दों और धर्म-सिद्धांत का उपदेश देते रहोगे तो वे खुद को इससे विमुख महसूस करेंगे और इसे पहचान जाएँगे—ऐसे में उन्हें उपदेश क्यों देना? अगर तुम समझदार व्यक्ति हो, तो तुम्हें लोगों को धर्म-सिद्धांत का उपदेश देना बंद कर देना चाहिए, तुम्हें लोगों को ऊंचे पद से भाषण देना बंद कर देना चाहिए, तुम्हें सभी के समान धरातल पर खड़ा होना चाहिए, और उनके साथ मिलकर परमेश्वर के वचन खाने-पीने और अनुभव करने चाहिए। ये सभी समझदार लोगों के लक्षण हैं। जो खास तौर पर अहंकारी और आत्म-तुष्ट होते हैं, वे आसानी से अपना विवेक खो देते हैं, और दूसरों को शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देने पर जोर देते हैं, या वे और अधिक गहरे आध्यात्मिक सिद्धांतों की तलाश करने और सीखने का दिखावा करने का प्रयास करते हैं, और इस प्रकार दूसरों को गुमराह करने वाले लोग बन जाते हैं। इस तरह से व्यवहार करना परमेश्वर का प्रतिरोध करना है। क्या तुम इस बात पर स्पष्ट हो कि अगर तुम इस तरह से उपदेश देते रहे तो क्या दुष्परिणाम होंगे? क्या तुम्हें स्पष्ट तौर पर पता है कि तुम लोगों की अगुआई कर उन्हें कहां ले जाओगे? जब तुम मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते हो, लोगों को अपने सामने लाते हो और उनसे अपनी पूजा और आज्ञापालन करवाते हो तो यह किस प्रकार की समस्या है? क्या तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए परमेश्वर से मुकाबला नहीं कर रहे हो? यह तो यही बात हुई कि जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करना चाहते थे, परमेश्वर की ओर लौटना चाहते थे और परमेश्वर को प्राप्त करना चाहते थे, उनसे तुम अपना आज्ञापालन करवाकर, उनसे अपनी मर्जी के काम करवाकर और उनसे खुद को परमेश्वर जैसा मनवाकर तुम उन्हें अपने सामने ला रहे हो। और इसका दुष्परिणाम क्या होगा? ये लोग वास्तव में बचाए जाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करना चाहते थे, लेकिन अंतत तुमसे गुमराह हो गए—न सिर्फ उन्हें बचाया नहीं जाएगा, बल्कि वे नरक का दुख भोगेंगे और नष्ट हो जाएँगे। इस तरह से कार्य करके, तुम लोगों को गुमराह कर रहे हो, तुम उन्हें बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हो, तुम उन लोगों को अपने कब्जे में ले रहे हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। तुम किस अपराध के दोषी हो? तुम उनका भला कैसे कर सकते हो? तुमने नए विश्वासियों को चालाकी से अपने हाथों में ले लिया, तुमने उन्हें अपनी भेड़ें बना लिया, वे सभी तुम्हारी बात सुनते हैं, तुम्हारी आज्ञा मानते हैं और तुम वास्तव में मन-ही-मन सोचते हो : “मैं अब शक्तिशाली हूँ; इतने सारे लोग मेरी बात सुनते हैं, और कलीसिया मेरे इशारे पर चलती है।” मनुष्य के अंदर मौजूद विश्वासघात की यह प्रकृति अनजाने में तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को नाममात्र का बना देती है, और तब तुम स्वयं कोई धर्म या संप्रदाय बना लेते हो। विभिन्न धर्म और संप्रदाय कैसे उत्पन्न होते हैं? वे इसी तरह से बनते हैं। प्रत्येक धर्म और संप्रदाय के अगुआओं को देखो— वे सभी अहंकारी और आत्म-तुष्ट हैं, और बाइबल की उनकी व्याख्या में संदर्भ का अभाव है और वे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार चलते हैं। वे सभी अपना काम करने के लिए प्रतिभा और ज्ञान पर भरोसा करते हैं। यदि वे बिल्कुल भी उपदेश न दे पाते तो क्या लोग उनका अनुसरण करते? कुछ भी हो, उनके पास कुछ ज्ञान तो है ही और वे धर्म-सिद्धांत के बारे में थोड़ा-बहुत बोल सकते हैं, या वे जानते हैं कि दूसरों का मन कैसे जीता जाए और कुछ चालों का उपयोग कैसे करें। इन चीजों के माध्यम से वे लोगों को धोखा देते हैं और उन्हें अपने सामने ले आते हैं। नाममात्र के लिए, वे लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन वास्तव में वे इन अगुआओं का अनुसरण करते हैं। जब वे उन लोगों का सामना करते हैं जो सच्चे मार्ग का प्रचार करते हैं, तो उनमें से कुछ कहेंगे, “हमें परमेश्वर में अपने विश्वास के मामले में हमारे अगुआ से परामर्श करना है।” देखो, परमेश्वर में विश्वास करने और सच्चा मार्ग स्वीकारने की बात आने पर कैसे लोगों को अभी भी दूसरों की सहमति और मंजूरी की जरूरत होती है—क्या यह एक समस्या नहीं है? तो फिर, वे सब अगुआ क्या बन गए हैं? क्या वे फरीसी, झूठे चरवाहे, मसीह-विरोधी, और लोगों के सही मार्ग को स्वीकारने में अवरोध नहीं बन चुके हैं? इस तरह के लोग पौलुस जैसे ही हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूं? बाइबल में पौलुस के धर्मपत्र दर्ज हैं और दो हजार वर्षों से प्रचलित होते रहे हैं। अनुग्रह के पूरे युग के दौरान, प्रभु पर विश्वास करने वाले लोग, अक्सर पौलुस के शब्दों को पढ़ते थे और उन्हें अपनी कसौटी मानते थे—कष्ट सहना, अपने शरीर को वश में करना और अंततः धार्मिकता का ताज हासिल करना...। सभी लोग पौलुस के शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर में विश्वास करते थे। इन दो हजार वर्षों में बहुत से लोगों ने पौलुस का अनुकरण किया है, उसकी आराधना की और उसका अनुसरण किया। उन्होंने पौलुस के वचनों को एक धर्मग्रंथ की तरह माना। उन्होंने प्रभु यीशु के वचनों की जगह पौलुस के शब्दों को दे दी और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने में असफल रहे। क्या यह मार्ग से भटकाव नहीं है? यह बहुत बड़ा भटकाव है। अनुग्रह के युग के दौरान लोग परमेश्वर के इरादों को कितना समझ पाए? आखिर जो लोग उस समय यीशु का अनुसरण करते थे, उनकी संख्या कम थी, और जो लोग उसे जानते थे उनकी संख्या तो और भी कम थी—यहाँ तक कि उसके शिष्य भी उसे सच में नहीं जानते थे। अगर लोगों को बाइबल में थोड़ी-सी रोशनी भी दिखती है तो यह नहीं समझा जाना चाहिए कि यह परमेश्वरके इरादों का प्रतिनिधित्व करती है, और थोड़े-से प्रबोधन को परमेश्वर का ज्ञान तो और भी नहीं समझा जाना चाहिए। सभी लोग अहंकारी और दम्भी हैं, और वे परमेश्वर को अपने दिल में नहीं रखते हैं। थोड़ा-सा सिद्धांत समझने के बाद, वे अपने दम पर नया काम शुरू कर देते हैं, जिसके कारण कई संप्रदाय बन जाते हैं। अनुग्रह के युग में परमेश्वर मानव के साथ बिल्कुल भी सख्त नहीं था। यीशु के नाम पर बने सभी धर्मों और संप्रदायों में कुछ न कुछ पवित्र आत्मा का कार्य था; जब तक इसमें कोई भी दुष्टात्मा नहीं काम कर रही थी, तब तक पवित्र आत्मा किसी भी कलीसिया पर कार्य कर सकता था, ताकि अधिकतर लोग परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने में सक्षम हों। अतीत में, परमेश्वर, लोगों के साथ सख्त नहीं था, भले ही परमेश्वर पर उनका विश्वास सच्चा रहा हो या नहीं, इससे फर्क नहीं पड़ता था कि वे दूसरों का अनुसरण करते थे, या सत्य का अनुसरण नहीं करते थे, क्योंकि उसने पहले ही यह निर्धारित कर दिया था कि अंतिम चरण में, उसके द्वारा पूर्वनिधार्रित और चुने गए लोगों को उसके सामने आना ही होगा और उसके न्याय को स्वीकारना ही होगा। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने के बाद, अगर लोग अभी भी दूसरों की उपासना और अनुसरण कर रहे हैं, अगर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, बल्कि आशीष और ताज पाना चाहते हैं तो यह क्षमा करने योग्य नहीं है। ऐसे लोगों का अंत बिल्कुल पौलुस की तरह ही होगा। मैं अक्सर पौलुस और पतरस के उदाहरण का प्रयोग क्यों करता हूँ? ये दो मार्ग हैं। परमेश्वर पर विश्वास करने वाले या तो पतरस के मार्ग का अनुसरण करते हैं या पौलुस के मार्ग का। केवल ये ही दो मार्ग हैं। चाहे तुम अनुयायी हो या अगुआ, दोनों के लिए बात एक ही है। अगर तुम पतरस के मार्ग पर नहीं चल सकते तो तुम पौलुस के मार्ग पर चल रहे हो। यह अपरिहार्य है; कोई तीसरा रास्ता नहीं है। जो लोग परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते, वे परमेश्वर को नहीं जानते, जो सत्य को समझने का प्रयास नहीं करते और जो परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से समर्पण नहीं कर पाते, उनका अंत बिल्कुल पौलुस की ही तरह होना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर को जानने या परमेश्वर के इरादों को समझने का प्रयास नहीं करते और केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत बघारने और आध्यात्मिक सिद्धांतों का उपदेश दे पाने का प्रयास करते हो तो तुम केवल परमेश्वर का प्रतिरोध कर उसे धोखा दे सकते हो, क्योंकि मानव की प्रकृति ही परमेश्वर का प्रतिरोध करने की है। जो चीजें सत्य से मेल नहीं खातीं वे निश्चित रूप से मनुष्य की इच्छा से उत्पन्न हुई हैं। जो कुछ भी मनुष्य की इच्छा से उत्पन्न होता है, चाहे वह मनुष्य की नजर में अच्छा हो या बुरा, परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी पैदा करता है। कुछ लोग सोचते हैं कि भले ही वे कुछ मामलों में सत्य के अनुसार कार्य नहीं करते हैं, पर वे कुछ बुरा नहीं कर रहे हैं या परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हैं। क्या यह सही है? यदि तुम सत्य के अनुसार कार्य नहीं करते हो तो तुम निश्चित रूप से सत्य का उल्लंघन कर रहे हो और सत्य का उल्लंघन करना अनिवार्य रूप से परमेश्वर का प्रतिरोध करना है; यह बस गंभीरता का एक अलग स्तर है। भले ही तुम्हें परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है, फिर भी परमेश्वर तुम्हें स्वीकृति नहीं देगा क्योंकि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते और तुम केवल ऐसे काम करते हो जो सत्य से संबंधित नहीं हैं, और तुम केवल अपनी मर्जी के मुताबिक काम करते हो। भले ही सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग कोई बुराई न करें, पर क्या वे अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकेंगे? यदि वे अपने भ्रष्ट स्वभावों से छुटकारा नहीं पा सकते हैं तो वे अभी भी उन भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार ही जी रहे हैं। भले ही वे परमेश्वर का प्रतिरोध करने के लिए कुछ भी न करें, फिर भी वे संभवतः परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, और परमेश्वर ऐसे लोगों को स्वीकृति नहीं देगा।

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