सिद्धांतों के वचन व उक्तियाँ सुनाने और सत्य की वास्तविकता के बीच अंतर

अंश 67

सत्य की वास्तविकता क्या है? इसका आशय क्या है? इसका आशय सत्य का अभ्यास करना है। जब लोग सत्य को समझ लेंगे और इसे अभ्यास में ला सकेंगे, तो यही सत्य उनकी वास्तविकता बन जाएगा, यही उनका जीवन बन जाएगा। जब लोग सत्य के अनुसार जीने लगते हैं, तो उनके पास सत्य की वास्तविकता होती है। लोग अगर केवल धर्म-सिद्धांत के वचन और वाक्यांश सुनाते हैं और सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते तो उनके पास सत्य की वास्तविकता नहीं होती है। जब वे धर्म-सिद्धांत के वचन और वाक्यांश सुनाते हैं, तो भले ही ऐसा लगे कि वे सत्य को समझते हैं, लेकिन वे इसका बिल्कुल भी अभ्यास नहीं कर पाते हैं जो यह साबित करता है कि उनके पास सत्य की वास्तविकता नहीं है। तो लोगों को सत्य की वास्तविकता में कैसे प्रवेश करना चाहिए? उन्हें परमेश्वर के वचनों को अपने वास्तविक जीवन में लागू करना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास करके ही वे सत्य का ज्ञान—कोई धारणात्मक ज्ञान नहीं, बल्कि वास्तविक अनुभव और वास्तविक ज्ञान प्राप्त करेंगे और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाएँगे। इसका मतलब है कि वे सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके होंगे। तो तुम लोगों ने किन सत्यों का अनुभव और वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया है? क्या तुम लोगों को कभी ऐसा लगा कि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है? जब तुम परमेश्वर के वचनों का कोई अंश पढ़ते हो, तो वे चाहे सत्य के जिस किसी पहलू की चर्चा करते हों, तुम खुद को उनकी कसौटी पर कस कर देख सकते हो कि वे तुम्हारी दशाओं के साथ पूरी तरह से मेल खाते हैं, और तब तुम अत्यंत द्रवित महसूस करते हो, मानो परमेश्वर के वचनों ने तुम्हारे दिल के अंतस्थल को छू लिया हो, और तुम्हें लगता है कि उसके वचन पूरी तरह सही हैं, और तुम उन्हें पूरी तरह स्वीकार कर लेते हो, और तुम न केवल अपनी दशाओं को जान लेते हो, बल्कि यह भी जान लेते हो कि उसकी इच्छा के अनुसार कैसे अभ्यास करना है। इस तरह से परमेश्वर के वचन खाने-पीने से तुम्हें लाभ मिलता है, तुम प्रबुद्ध और रोशन हो जाते हो, तुम्हें पोषण मिलता है, और तुम्हारी दशाएँ पूरी तरह बदल जाती हैं। जब तुम्हें यह लगता है कि तुम परमेश्वर के वचनों का ज्ञान प्राप्त कर चुके हो, परमेश्वर के वचनों के अमुक अंश का अर्थ समझने लगे हो, और यह जानने लगे हो कि उनका अनुभव और अभ्यास कैसे करना है तो तुम मानने लगते हो कि परमेश्वर के वचन महान हैं, और तुम बहुत प्रसन्न और संतुष्ट रहने लगते हो। क्या तुम लोगों को अक्सर ऐसा महसूस होता है? (हाँ।) तुम लोगों को एक बार जब यह एहसास हो गया, तो क्या लगा कि तुमने परमेश्वर के वचनों के इस अंश से सत्य प्राप्त कर लिया है? (नहीं।) चूँकि तुम्हें ऐसा नहीं लगा, इसलिए इसका मतलब है कि यह एहसास मात्र कोई धारणात्मक प्रतिक्रिया थी, हृदय की कोई अस्थायी हलचल भर थी। थोड़ा-सा पुरस्कार और थोड़ा-सा प्रवेश प्राप्त करने का मतलब सत्य को समझ लेना और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना नहीं है। यह मात्र शुरुआती अनुभव है, सत्य के शाब्दिक अर्थ की मात्र समझ है। सत्य को समझने से लेकर सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने तक की यात्रा एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें काफी समय लगता है। धर्म-सिद्धांत के वचनों और वाक्यांशों को समझने से लेकर सत्य को सही अर्थ में समझने तक परिणाम प्राप्त करने के लिए मात्र दो-चार नहीं, कहीं अधिक अनुभवों की आवश्यकता होती है। किसी एक अनुभव से तुम्हें कोई छोटा-मोटा प्रतिफल ही मिल सकता है, लेकिन सच्चा प्रतिफल और सत्य की समझ पाने के लिए ढेरों अनुभवों से गुजरना पड़ता है। यह किसी समस्या पर चिंतन करने जैसा है; एक बार चिंतन करने पर तुम्हें रोशनी की हल्की-सी झलक दिखेगी, लेकिन बार-बार चिंतन करने के बाद अधिक प्रतिफल मिलेगा और तुम उस विषय को स्पष्ट रूप से समझ लोगे। अगर तुम उस समस्या पर चिंतन में कुछ साल लगाओगे, तो इसे अच्छी तरह समझ लोगे। इसलिए, अगर तुम परमेश्वर के वचनों का ज्ञान पाना और सत्य समझना चाहते हो, तो यह कई अनुभव हासिल कर लेने जितना आसान नहीं है। क्या तुम लोग खुद भी इस प्रकार के अनुभवों से गुजरे हो? शायद हर कोई कुछ बार इनसे गुजर चुका है। जब लोग पहली बार परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना शुरू करते हैं तो रोशनी की हल्की झलक दिखती है, लेकिन तब भी इनका ज्ञान सतही ही रहता है। यह सिद्धांत समझने जैसा है, बस इतना है कि इनका ज्ञान थोड़ा अधिक व्यावहारिक लगता है, और इसे एक-दो वाक्यों में स्पष्ट रूप से नहीं समझाया जा सकता है। इन लोगों की संगति दूसरों को यह एहसास दिलाती है कि इनका ज्ञान धर्मसिद्धांत के वचनों और वाक्यांशों की तुलना में थोड़ा अधिक व्यावहारिक है। अगर इन लोगों के अनुभवों में गहराई आ जाए और वे कुछ विवरण देने लग जाएँ, तो इनका ज्ञान और भी अधिक व्यावहारिक लगेगा। अगर उसके बाद भी लोग कुछ समय तक अनुभव लेते रहें और परमेश्वर के वचनों को सच्चे ज्ञान के साथ बोल सकें, तो इन लोगों का ज्ञान धारणात्मक स्तर से उठकर तर्कसंगत स्तर तक पहुँच जाएगा। सत्य की सच्ची समझ यही है। जब लोग परमेश्वर के वचनों का और अधिक अनुभव करने लगेंगे और उन्हें अभ्यास में लाने लगेंगे, तो वे सत्य के सिद्धांत को समझने में निपुण हो जाएँगे, और जान जाएँगे कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है। सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने का यही मतलब होता है। इस दौरान, जब वे अनुभव के आधार पर गवाही देने लगेंगे, तो सुनने वालों को लगेगा कि यह व्यावहारिक है, और वे इसकी बढ़-चढ़ कर बड़ाई भी करेंगे। किसी व्यक्ति के इस मुकाम पर पहुँचने पर परमेश्वर के वचन उसके जीवन की वास्तविकता बन जाएँगे, और केवल ऐसे व्यक्ति के बारे में यह कहा जा सकता है कि उसने सत्य हासिल कर लिया है। परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने और सत्य हासिल करने की यह सरलीकृत प्रक्रिया है, जिसे कम से कम कई सालों या यहाँ तक कि 10 सालों से अधिक के अभ्यास के बिना हासिल नहीं किया जा सकता है। जब कोई परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास शुरू करता है तो उसे लगता है कि यह काफी सरल होगा, लेकिन मुसीबत आने पर वह नहीं जान पाता कि इसका सामना कैसे किया जाए या इसे कैसे संभाला जाए, और हर तरह की कठिनाइयाँ आन पड़ती हैं। ऐसे लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ आड़े आएँगी, इन लोगों के भ्रष्ट स्वभाव गड़बड़ियाँ पैदा करेंगे, और जब इन लोगों को झटके लगेंगे और विफलताएँ हाथ लगेंगी तो वे जान ही नहीं पाएँगे कि अनुभव कैसे करना है। भ्रष्ट स्वभाव के लोग विशेष रूप से कमजोर होते हैं और आसानी से नकारात्मक हो जाते हैं, और जब उन पर हमला होता है, उसकी बदनामी होती है और उसके बारे में कोई राय बनाई जाती है, तो उसके लिए हिम्मत हार जाना और फिर से उठ न पाना आम बात है। अगर सत्य खोज कर इन समस्याओं को हल किया जा सके, अगर कोई व्यक्ति अटल रहने के लिए परमेश्वर पर भरोसा कर सके, तो ऐसे लोग सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चल सकते हैं। अगर किसी की रुचि सत्य में नहीं है और वह सत्य को अनुभव करने लायक और व्यवहार में ढालने लायक मूल्यवान चीज न माने, तो उसके पास सत्य के अभ्यास के लिए कोई ताकत नहीं होती, और वह मुसीबतों की पहली दस्तक पर ही गिर पड़ेगा और फँस जाएगा। ऐसा इंसान कायर होता है, और उसके लिए सत्य हासिल करना आसान नहीं होता। परमेश्वर के वचन सत्य हैं, ये एक नया जीवन हैं जो उसने लोगों को बख्शा है, लेकिन सत्य स्वीकारने का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य सत्य और जीवन हासिल करना है, सत्य का अनुभव इस तरह करना है मानो यह उसका अपना ही जीवन हो। सत्य अपना जीवन बन जाए, उससे पहले सत्य स्वीकारने का उद्देश्य मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभावों को दूर करना होता है। यह किन भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर सकता है? यह मुख्य रूप से विद्रोहीपन, धारणा और कल्पना, अहंकार, अकड़, खुदगर्जी, अधमता, कुटिलता, धूर्तता के साथ ही लापरवाह, असावधान और गैर-जिम्मेदार होने, और विवेक-बुद्धि की कमी होने जैसी चीजों को दूर करता है। और इससे आखिरी नतीजा क्या निकलता है? यही कि कोई भी व्यक्ति ऐसा ईमानदार हो सकता है जो परमेश्वर के सामने समर्पण करे, उसे महान मानकर प्रशंसा करे, उसकी आराधना करे, उसके प्रति वफादार रहे और वास्तव में उससे प्रेम करे, और आखिरी साँस तक उसके प्रति समर्पित रहे। इस प्रकार का व्यक्ति ही पूरी तरह से वास्तविक मनुष्य के समान जी रहा होता है, वह ऐसा व्यक्ति बन चुका होता है जिसमें सत्य और मानवता है। यही वह सर्वोच्च क्षेत्र है जहाँ कोई सत्य की खोज में पहुँच सकता है।

तो लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए किस तरह परमेश्वर के वचनों को खा-पी और अनुभव कर सकते हैं? यह कोई मामूली बात नहीं है। भ्रष्ट स्वभाव ऐसी समस्या की जड़ हैं जो सचमुच मौजूद है, और ये अक्सर लोगों के वास्तविक जीवन में स्वाभाविक रूप से प्रकट होते रहते हैं। चाहे लोगों पर कुछ भी बीते, चाहे वे कुछ भी करते हों, इन लोगों के भ्रष्ट स्वभाव हमेशा प्रकट होते रहेंगे। उदाहरण के लिए, लोग चाहे कुछ भी करें या कहें, अधिकांश समय उनके कुछ खास इरादे और लक्ष्य होते हैं। तेज दृष्टि वाले यह भाँप लेते हैं कि लोगों के बोलने और काम करने का तरीका सही है या गलत, साथ ही वे यह भी भाँप लेते हैं कि इन लोगों की कथनी-करनी में कौन-सी बातें छुपी हैं, और कौन-से जाल बिछे हुए हैं। तो क्या स्वाभाविक रूप से इन बातों का पता चलता है? क्या लोग इन्हें छिपाकर रख सकते हैं? भले ही लोग कुछ न कहें या न करें, फिर भी कोई मुसीबत आने पर इन लोगों की कोई न कोई प्रतिक्रिया होती है। ऐसी बातें सबसे पहले इन लोगों के हाव-भाव से प्रकट होती हैं, और फिर उससे भी ज्यादा इन लोगों की कथनी-करनी में दिखती हैं। तेज दृष्टि वाले इस पर हमेशा ध्यान देते हैं, और केवल मूर्ख और जड़बुद्धि वाले ही इसमें अंतर नहीं कर पाते हैं। यह कहा जा सकता है कि लोगों में भ्रष्टता दिखना सामान्य बात है, यह भी कि यह एक वास्तविक समस्या है जो हर किसी में मिलेगी। अंत के दिनों के अपने कार्यों में परमेश्वर का इतने सारे सत्य बोलने का उद्देश्य क्या है? वह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और इन लोगों के पापों के मूल कारण दूर करने, लोगों को शैतान की भ्रष्टता से बचाने, लोगों को उद्धार दिलाने और शैतान के प्रभाव से दूर रहने में मदद करने, और विशेष रूप से लोगों को जीवन, सत्य और मार्ग प्रदान करने के लिए यह सत्य बताता है। अगर लोग परमेश्वर में विश्वास रखें लेकिन सत्य को स्वीकार न करें, तो इन लोगों के भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ नहीं किए जा सकते हैं, और इस प्रकार वे उद्धार नहीं पा सकते हैं। इसलिए, जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे उनके वचनों का अभ्यास और अनुभव करने के प्रयास करेंगे, अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होने पर वे आत्म-चिंतन के साथ खुद को जानने का प्रयास करेंगे, और इस भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए परमेश्वर के वचनों का सत्य खोजेंगे। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे आत्म-चिंतन करने और परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए खुद को जानने का प्रयास करने पर ध्यान देते हैं, और इन लोगों को लगता है कि उसके वचन किसी आईने की तरह हैं जो इन लोगों के भ्रष्टता और कुरूपता को दिखा देता है। इस तरह, वे परमेश्वर के वचनों के जरिये उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने लगते हैं, और वे धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर कर लेते हैं। जब इन लोगों को अपना भ्रष्ट स्वभाव कम प्रकट होता दिखेगा, जब वे वास्तव में परमेश्वर के समक्ष समर्पण करने लगेंगे, तो इन लोगों को एहसास होने लगेगा कि सत्य का अभ्यास करना तो काफी आसान है, और अब कोई मुसीबत नहीं हैं। इस समय, वे अपने आप में सच्चा बदलाव पाएँगे, और इन लोगों के दिल में परमेश्वर के लिए सच्ची प्रशंसा उपजेगी : “सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मुझे मेरे भ्रष्ट स्वभाव के बंधन और बाधाओं से बचाया है और मुझे शैतान के प्रभाव से बचाया है।” यह परमेश्वर के वचनों से न्याय और ताड़ना का अनुभव करने का फल है। अगर लोग परमेश्वर के वचनों में न्याय और ताड़ना का अनुभव नहीं कर सकते, तो वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को स्वच्छ नहीं कर सकते या शैतान के प्रभाव से दूर नहीं हो सकते हैं। बहुत से लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, और भले ही वे परमेश्वर के वचन पढ़ते और उपदेश सुनते हों, बाद में वे सिर्फ सिद्धांत के वचन और वाक्यांश सुनाने लगते हैं, और परिणामतः वे बहुत साल से परमेश्वर में विश्वास करने के बावजूद अपने किसी भी भ्रष्ट स्वभाव को दूर नहीं कर पाते हैं। ये लोग अभी भी वैसे ही शैतान और दुष्ट हैं जैसे हमेशा से थे। इन लोगों का ख्याल था कि जब तक वे परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते हैं, जब तक वे परमेश्वर के कुछ वचनों का पाठ करते हैं और उसके वचनों पर दूसरों के साथ संगति करते हैं, जब तक वे धर्मसिद्धांत के कई वचन और वाक्यांश सुना सकते हैं, और जब तक वे धर्मसिद्धांत को समझ सकते हैं और आत्म-नियंत्रण सीख सकते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर ही लेंगे। फलस्वरूप, सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी उनके जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आ पाया है, वे अनुभवजन्य गवाही नहीं दे सकते और इसलिए वे निरुत्तर हैं। सालों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी उनके हाथ खाली हैं और उन्होंने कोई सत्य प्राप्त नहीं किया है, इन सभी सालों में उन्होंने बेकार जीवन जीकर समय बर्बाद किया। अब ऐसे ही कई झूठे अगुआ और कार्यकर्ता हैं, जो परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव का प्रयास करने के बजाय मात्र कार्य करने और उपदेश देने पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैं। तो क्या वे सत्य की राह पर हैं? बिल्कुल नहीं।

जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, उनके लिए सबसे अहम वास्तविकता क्या है? सत्य का अभ्यास करना। सत्य का अभ्यास करने का सबसे अहम हिस्सा क्या है? क्या यही नहीं है कि किसी व्यक्ति को सबसे पहले सिद्धांतों पर पकड़ बनानी चाहिए? तो फिर सिद्धांत क्या हैं? वे सत्य का व्यावहारिक पहलू हैं, वे ऐसे मानक हैं जो नतीजों की गारंटी दे सकते हैं। सिद्धांत बस इतने ही सरल होते हैं। शाब्दिक रूप में लें, तो तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचनों का प्रत्येक वाक्य सत्य है, लेकिन सत्य के सिद्धांतों की समझ न होने के कारण तुम यह नहीं जान पाते कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है। तुम सोचते हो कि परमेश्वर के वचन पूरी तरह सही हैं, कि वे ही सत्य हैं, लेकिन तुम यह नहीं जानते कि सत्य का व्यावहारिक पहलू क्या है, या वह किन दशाओं पर लक्ष्य केंद्रित करता है, यहाँ कौन-से सिद्धांत होते हैं, और अभ्यास का मार्ग क्या होता है—तुम इसे समझ-बूझ नहीं सकते हो। इससे सिद्ध होता है कि तुम सत्य को नहीं समझते, सिर्फ सिद्धांत समझते हो। अगर तुम वास्तव में यह समझ पाते कि तुम्हें सिर्फ सिद्धांत की समझ है, तो यह जान जाते कि तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें अवश्य ही सत्य खोजना चाहिए। सबसे पहले, सत्य की वास्तविकता का सटीक अनुभव प्राप्त करो, देखो कि वास्तविकता के कौन से पहलू सबसे अधिक उभरते हैं, और इस वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए। इस तरह खोजने और जाँच-परख करने से तुम्हें रास्ता मिल जाएगा। एक बार जब तुम सिद्धांतों पर पकड़ बना लोगे और इस वास्तविकता को जीने लगोगे, तो तुम्हें सत्य प्राप्त हो जाएगा, यह ऐसी उपलब्धि है जो सत्य का अनुसरण करने से मिलती है। अगर तुम कई सत्यों के सिद्धांत समझ सकते हो और उनमें से कुछ को अभ्यास में ला सकते हो, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, और तुम जीवन प्राप्त कर चुके हो। चाहे तुम सत्य के किसी भी पहलू की खोज कर रहे हो, एक बार जब तुमने यह समझ लिया कि परमेश्वर के वचनों में सत्य की वास्तविकता कहाँ निहित होती है और उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, एक बार जब तुम लोग वास्तव में यह समझ लेते हो, कीमत चुका सकते हो और इसे अभ्यास में ला सकते हो तो फिर तुम यह सत्य प्राप्त कर चुके हो। जब तुम इस सत्य को प्राप्त कर रहे होगे, तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे दूर होता जाएगा, और यह सत्य तुम्हारे भीतर अपना रास्ता बनाता जाएगा। अगर तुम सत्य की वास्तविकता को अभ्यास में ला सकते हो, और इस सत्य के अभ्यास के सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य और हर कार्यकलाप और आचरण कर सकते हो तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम बदल चुके हो? तुम किस तरह के इंसान बन गए हो? तुम ऐसे इंसान बन चुके हो जिसके पास सत्य की वास्तविकता है। जिसके पास सत्य की वास्तविकता हो, क्या वह ऐसा इंसान है जिसके कार्यकलाप नियमबद्ध होते हैं? अगर किसी के कार्यकलाप नियमबद्ध हों, तो क्या वह सत्य हासिल कर चुका है? जिसने सत्य हासिल कर लिया है क्या वह सामान्य मानवता को जी रहा है? जो इंसान सामान्य मानवता को जी रहा हो, क्या उसमें सत्य और मानवता है? जिन लोगों के पास सत्य होता है और मानवता होती है वे परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होते हैं, और जो लोग परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होते हैं, वे ऐसे लोग हैं जिन्हें वह प्राप्त कराना चाहता है। यह परमेश्वर पर विश्वास करने और उसके द्वारा प्राप्त कर लिए जाने का अनुभव है, और यह उसके वचन खाना-पीना शुरू करके सत्य प्राप्त करने के साथ ही साथ उद्धार पाने की प्रक्रिया भी है। यह सत्य का अनुसरण करने का मार्ग है, परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने का मार्ग है।

अंश 68

क्या अब तुम सब समझे कि सत्य को पाना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना किस पर निर्भर है? वे सिर्फ वे दो बातों पर निर्भर हैं—सत्य को तलाशना और सत्य का अभ्यास करना, यह इतना आसान है। हालाँकि परमेश्वर के द्वारा व्यक्त सत्य लिखित रूप में दर्ज है, सत्य वास्तविकता लिखित रूप में नहीं है, इसके लिखित शब्दों की तुलना में इसे समझना-बूझना तो मनुष्य के लिए और भी कठिन है। तो फिर सत्य को समझने के लिए क्या करना चाहिए? सत्य को विशेष रूप से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करके, उसके कार्यों का अनुभव करके और सत्य और पवित्र आत्मा के प्रबोधन की तलाश करके समझा और प्राप्त किया जाता है। सत्य की वास्तविकता को लोग सत्य का अभ्यास और अनुभव करके ही साकार कर पाते हैं; यह कुछ ऐसा है जो कि अनुभव से प्राप्त होता है, कुछ ऐसा जिसे मनुष्य जीता है। सत्य एक खोखला सिद्धांत नहीं है, ना ही एक सरल, सुखद वाक्यशैली है। यह एक जीवन शक्ति से समृद्ध भाषा है; यह जीवन का शाश्वत सूत्रवाक्य है, यह सबसे अधिक व्यावहारिक, बहुमूल्य चीज है जो जीवन भर किसी व्यक्ति का साथ दे सकती है। सत्य क्या है? सत्य मनुष्य के जीवन में अस्तित्व का आधार है, सत्य स्वयं के आचरण में और चीजों से निपटने के अभ्यास का सिद्धांत है। सत्य जीवन में एक दिशा और उद्देश्य प्रदान करता है; यह लोगों को एक सच्चे व्यक्ति की तरह जीने और परमेश्वर के सामने आज्ञाकारी बनकर और उसकी आराधना करते हुए जीने में सक्षम बनाता है। इसी वजह से लोग सत्य के बिना नहीं रह सकते हैं। तो अब तुम जीने के लिए किस पर निर्भर हो? तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण क्या हैं? कार्य करते हुए तुम्हारी दिशा और उद्देश्य क्या हैं? अगर तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है तो तुम्हारे जीवन में सिद्धांत, दिशा और उद्देश्य हैं। अगर तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है तो तुम्हारे जीवन में कोई सिद्धांत, दिशा या उद्देश्य नहीं है। तुम निःसंदेह शैतान के फलसफे, पारंपरिक संस्कृति की शिक्षाओं के अनुसार जी रहे हो। अविश्वासी इसी तरह जीते हैं। क्या तुम सब इस बात को समझ पा रहे हो? इस समस्या को सुलझाने के लिए व्यक्ति को सत्य की खोज करके उसे स्वीकारना चाहिए। क्या सत्य को हासिल कर पाना आसान है? (हाँ, आसान है, लेकिन तब जब हम परमेश्वर पर भरोसा रखें।) परमेश्वर पर भरोसा रखते हुए, व्यक्ति को खुद पर भी भरोसा रखना चाहिए। तुम्हारे दिल में यह आत्मविश्वास, यह इच्छा और यह अपेक्षा अवश्य होनी चाहिए, तुम्हें कहना चाहिए, “मैं भ्रष्ट शैतानी स्वभावों के बीच नहीं रहना चाहता। मैं उनके द्वारा नियंत्रित होना और धोखा खाना नहीं चाहता और ना ही मैं इस तरह पूर्ण रूप से मूर्ख बनकर परमेश्वर की घृणा का पात्र बनना चाहता हूँ। इस तरह से तो मैं परमेश्वर के सामने रहने योग्य ही नहीं रहूँगा।” तुम्हारे दिल में यह भावना होनी चाहिए। फिर, जब चीजें तुम्हारे साथ घटित होती हैं, तब अगर तुम अपने वास्तविक जीवन में उन सत्यों को लागू करते हो जिन्हें तुम समझ सकते हो और जिन पर तुम्हारी पकड़ है और तुम हर मामले में उसे अभ्यास में ला सकते हो तो क्या सत्य इस तरह से तुम्हारी वास्तविकता नहीं बन जाएगा? और जब सत्य तुम्हारी वास्तविकता बन जाएगी, तब भी क्या तुम चिंतित रहोगे कि तुम्हारे जीवन में प्रगति नहीं होगी? तुम यह कैसे निर्धारित कर सकते हो कि किसी व्यक्ति में सत्य वास्तविकता है या नहीं? यह उनकी बातों से देखा जा सकता है। जो व्यक्ति केवल सिद्धांत की बातें करता है, उसमें सत्य वास्तविकता नहीं होती और निश्चित रूप से वह सत्य का अभ्यास भी नहीं करता, इसलिए वह जो कुछ भी कहता है, वह खोखला और अवास्तविक होता है। सत्य वास्तविकता वाले व्यक्ति के शब्द लोगों की समस्याएँ हल कर सकते हैं। वे समस्याओं का सार स्पष्टता से देख सकते हैं। जो समस्या तुम्हें कई वर्षों से परेशान कर रही है, वह केवल कुछ सरल शब्दों से हल हो सकती है; तुम सत्य और परमेश्वर की इच्छा समझ जाओगे, फिर कोई भी काम तुम्हारे लिए मुश्किल नहीं होगा, फिर तुम बाध्य और विवश महसूस नहीं करोगे और तुम स्वतंत्रता और मुक्ति प्राप्त कर लोगे। क्या ऐसा व्यक्ति जो कुछ कहता है, वह सत्य वास्तविकता होती है? यह सत्य वास्तविकता है। कोई व्यक्ति चाहे जो भी कहे, पर अगर तुम उससे अपनी समस्या समझ नहीं पाते, और उसकी कोई भी बात उसके मूल कारण को हल नहीं करती, तो वह जो कुछ कहता है, वे कोरी सिद्धांत की बातें होती हैं। क्या सैद्धांतिक बातें लोगों के लिए आपूर्ति और उनकी मदद कर सकती हैं? सैद्धांतिक बातें लोगों के लिए आपूर्ति या उनकी मदद नहीं कर सकतीं, लोगों की व्यावहारिक कठिनाइयाँ हल नहीं कर सकतीं। सैद्धांतिक बातें जितनी ज्यादा की जाती हैं, सुनने वाला उतना ही अधिक परेशान हो जाता है। जो लोग सत्य समझते हैं, वे अलग तरह से बोलते हैं। कुछ ही शब्दों से वे समस्या का मूल कारण या बीमारी की जड़ को पकड़ लेते हैं। एक वाक्य भी लोगों को जगा सकता है और मूल समस्या का पता लगा सकता है। यह लोगों की कठिनाइयाँ हल करने और अभ्यास का मार्ग बताने के लिए सत्य वास्तविकताओं वाले शब्दों का उपयोग करना है।

अंत के दिनों में, देहधारी परमेश्वर आ गया है। यह देखते हुए कि लोग व्यावहारिक परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, ऐसा क्या है जिसे मनुष्य को सबसे अधिक प्राप्त करना चाहिए? यह सत्य है, जीवन है; केवल यही सार्थक है और कुछ नहीं। जब मसीह आया, तो वह सत्य लाया, जीवन लाया; वह लोगों को जीवन देने के लिए आया था। फिर व्यावहारिक परमेश्वर में कोई कैसे विश्वास कर सकता है? सत्य और जीवन पाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? परमेश्वर ने बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं। वे सभी जिन्हें धार्मिकता की भूख और प्यास है, उन्हें परमेश्वर के वचनों से अपनी भूख और प्यास मिटानी चाहिए। परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और उसके वचन समृद्ध और विपुल हैं; हर जगह बहुमूल्य चीजें और हर तरफ खजाना है। जो लोग सत्य को चाहते हैं, उनके दिल कनान की सुंदर भूमि के बाहुल्य का आनंद लेते हुए खुशी से खिल उठते हैं। परमेश्वर के वचनों के हर वाक्य को जिसे वे खाते और पीते हैं, उनमें सत्य और रोशनी है, वे सभी बहुमूल्य हैं। वे लोग जिन्हें सत्य से प्रेम नहीं है, वे लोग दुःख से व्यग्र हो उठते हैं; वे दावत पर बैठकर भी भुखमरी से जूझते हैं, यह उनकी दयनीयता दिखाता है। जो लोग सत्य तलाशने के काबिल हैं, उनके लाभ बढ़ते रहेंगे, और जो ऐसा नहीं कर पाते हैं, उनके आगे का रास्ता बंद हो जाएगा। अब सबसे बड़ी चिंता का विषय है, हर चीज में सत्य को तलाशना सीखना, सत्य की समझ तक पहुँच पाना, सत्य का अभ्यास करते रहना, और असल में परमेश्वर के प्रति समर्पित हो पाना। यही है परमेश्वर में विश्वास करना। व्यावहारिक परमेश्वर में विश्वास करना ही सत्य और जीवन को प्राप्त करना है। सत्य किस काम आता है? क्या ये लोगों की आध्यात्मिक दुनिया को संपन्न करने में काम आता है? क्या इसका उद्देश्य लोगों को अच्छी शिक्षा देना है? (नहीं।) तो सत्य मनुष्य की कौन-सी समस्या को सुलझाता है? सत्य मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने, मनुष्य की पापी प्रकृति का समाधान करने, लोगों को परमेश्वर के सामने जीने, और उन्हें एक सामान्य मानवता का जीवन देने के लिए है। कुछ लोग समझ ही नहीं पाते हैं कि सत्य है क्या। उन्हें हमेशा लगता है कि सत्य गूढ़ और निराकार है, और यह एक पहेली है। वे यह नहीं समझते कि सत्य वह है जिसे लोगों को अभ्यास में लाना चाहिए, यह कुछ ऐसा है जिसे लोगों को प्रयोग में लाना चाहिए। कुछ लोग दस या बीस वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बावजूद अभी तक नहीं समझ पाए हैं कि सत्य आखिर है क्या। क्या ऐसे व्यक्ति ने सत्य प्राप्त कर लिया है? (नहीं।) क्या सत्य को प्राप्त न कर सकने वाले लोग दयनीय नहीं हैं? बहुत ज्यादा—ठीक वैसे ही जैसे उस गीत में गाया गया है, “दावत में बैठे होकर भी वे भुखमरी से जूझ रहे हैं।” सत्य प्राप्त करना कठिन नहीं है, न ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल है, लेकिन अगर लोग हमेशा सत्य से ऊबते रहे, तो क्या वे सत्य प्राप्त कर पाएँगे? नहीं। तो तुम्हें हमेशा परमेश्वर के सामने आना चाहिए, सत्य से ऊबने की अपनी आंतरिक अवस्थाओं की जांच करनी चाहिए, यह देखना चाहिए तुममें सत्य से ऊबने की क्या अभिव्यक्तियाँ हैं और किस प्रकार से कार्य करना सत्य से ऊबना है, और किन बातों में तुम सत्य से ऊबने की मनोवृत्ति रखते हो—तुम्हें इन बातों पर अक्सर आत्मचिंतन करते रहना चाहिए। मिसाल के तौर पर, कोई तुम्हें यह कहकर आगाह करता है, “तुम सिर्फ अपनी इच्छा के भरोसे अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर सकते—तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को पहचानना चाहिए,” इस पर तुम क्रोध में आकर जवाब देते हो, “जिस तरीके से मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ वह अच्छा नहीं है, लेकिन जिस तरह तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, क्या वह सही है? जिस तरह से मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ उसमें क्या गलत है? परमेश्वर मेरे दिल को जानता है!” यह कैसा रवैया है? सत्य को स्वीकारने का? (नहीं।) जब घटनाएँ घटती हैं तो व्यक्ति में सबसे पहले सत्य को स्वीकारने का रवैया होना चाहिए। ऐसे रवैये का न होना उसी प्रकार है जैसे खजाने को रखने के लिए किसी बर्तन का न होना, इसी तरह तुम सत्य पाने में असमर्थ हो जाओगे। अगर कोई व्यक्ति सत्य न पा सके, तो परमेश्वर में उसका विश्वास निरर्थक है! परमेश्वर पर विश्वास करने का उद्देश्य है सत्य प्राप्त करना। अगर कोई सत्य प्राप्त नहीं कर सका, तो परमेश्वर में उसका विश्वास विफल हो चुका है। सत्य प्राप्त करना क्या होता है? यह तब प्राप्त होता है जब सत्य तुम्हारी वास्तविकता बन जाता है, जब यह तुम्हारा जीवन बन जाता है। यही है सत्य प्राप्त करना—यही है परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ! परमेश्वर अपने वचनों को किस लिए कहता है? परमेश्वर उन सत्यों को किस लिए व्यक्त करता है? ताकि लोग सत्य को अपना सकें, जिससे भ्रष्टाचार को शुद्ध किया जा सके; जिससे लोग सत्य प्राप्त कर सकें, जिससे सत्य उनका जीवन बन जाए। अन्यथा परमेश्वर इतने सारे सत्य क्यों व्यक्त करेगा? क्या बाइबल के साथ मुकाबला करने के लिए? क्या “सत्य का विश्वविद्यालय” स्थापित करने और लोगों के एक वर्ग को प्रशिक्षित करने के लिए? इनमें से किसी के लिए भी नहीं। इसके बजाय इसका उद्देश्य मानवता को पूर्णतः बचाना है, ताकि लोग सत्य समझ सकें और अंततः उसे प्राप्त कर सकें। अब तुम समझ गए, है ना? परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे अधिक आवश्यक क्या है? (सत्य प्राप्त करना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना।) यहाँ से, यह इस पर निर्भर करता है कि तुम लोग सत्य वास्तविकता में कैसे प्रवेश करते हो, और तुम प्रवेश कर भी सकते हो या फिर नहीं।

अंश 69

“यहोवा का भय मानना बुद्धि का आरम्भ है,” जहाँ तक इन शब्दों का सवाल है, तुम लोग आमतौर पर इनका पालन और अनुभव कैसे करते हो? (परमेश्वर के सभी वचनों और कार्यों का पालन करके।) यह एक व्यापक कथन है, एक सिद्धांत है। यह सही लगता है, लेकिन इसमें कुछ खोखलापन है। अगर तुम किसी ऐसी चीज का सामना करते हो जो तुम्हारी धारणाओं के खिलाफ हो और तुम उसे स्वीकार नहीं कर सकते तो क्या करोगे? यह एक वास्तविक चुनौती है। जब ऐसा होता है, तो ये वचन कैसे परिणाम दिखा सकते हैं और तुम पर प्रभाव डाल सकते हैं? तुम्हारे व्यवहार को कैसे नियंत्रित कर सकते हैं और तुम्हारे कार्यों के सिद्धांत और दिशा को कैसे बदल सकते हैं? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हें पेट-दर्द है और कोई कहता है, “दर्द निवारक दवाइयाँ लेने से दर्द बंद हो जाएगा।” तुम्हें पता है कि यह कथन सही है, लेकिन तुम इसे कैसे स्वीकार करते हो और इसे व्यवहार में कैसे लाते हो? जब तुम्हारे पेट में दर्द होता है तो क्या तुम दर्द निवारक दवाइयाँ लेते हो? तुम उन्हें कब लेते हो? भोजन से पहले या इसके बाद? दिन में कितनी बार लेते हो? दर्द रोकने के लिए एक बार में कितनी दवाइयाँ लेते हो, और ठीक होने के लिए तुम्हें कितने दिन दवाई लेनी चाहिए? क्या तुम इन विवरणों को जानते हो? तुम इन विवरणों को वास्तविक जीवन में “दर्द निवारक दवाइयाँ लेने से दर्द बंद हो जाएगा” कथन को लागू करके ही समझ सकते हो। अगर तुम इसे लागू नहीं करते हो, तो चाहे तुम इस कथन को किसी भी तरह से मानो, स्वीकार करो, या अनुमोदन करो, यह तुम्हारे लिए एक सिद्धांत का वाक्यांश ही रहेगा। लेकिन अगर तुम यह कथन अपने वास्तविक जीवन में लागू करते हो, अपनी बीमारी का इलाज करते हो, और इससे लाभ उठाते हो, तो जब तुम इसे सुनाओगे तो यह केवल एक खोखला कथन नहीं रहेगा, बल्कि एक व्यावहारिक कथन होगा। जब कोई और इसी तरह की स्थिति का सामना करेगा, तो तुम अपने व्यावहारिक अनुभव का उपयोग करके उसकी मदद कर सकोगे। हमने अभी-अभी “यहोवा का भय मानना बुद्धि का आरम्भ है” का उल्लेख किया था। “यहोवा का भय” ऐसा वाक्यांश है जिस पर लोगों को अमल करना चाहिए, और “बुद्धि का आरम्भ” वह फल है जो उन्हें यहोवा का भय मानकर मिलता है। यानी, जब तुम “यहोवा का भय” वाक्यांश का पालन कर इसे अपने वास्तविक जीवन में अपनाते हो, और यह वाक्यांश तुम्हारे काम आए और तुम्हें लाभ पहुँचाए, तभी तुम बुद्धि का फल प्राप्त कर पाओगे। आओ पहले इस वाक्यांश “यहोवा का भय” का पालन करने के तरीके के बारे में बात करते हैं। यह वाक्यांश वास्तविक जीवन में लोगों के सामने आने वाली सभी समस्याओं को छूता है, जैसे कि उसके विचार, विचारधाराएँ और मनोदशाएँ, उसकी कठिनाइयाँ, धारणाएँ और कल्पनाएँ, परमेश्वर के बारे में उसकी गलतफहमियाँ, उसके लिए संदेह और अनुमान, साथ ही साथ लापरवाही और उलझन, धोखाधड़ी, आत्म-तुष्टता, अक्सर अपने कर्तव्य पालन की प्रक्रिया में खुद में एक कानून बन जाना, इत्यादि। तो, तुम इस वाक्यांश “परमेश्वर के भय” को कैसे लागू कर सकते हो ताकि तुम अपने कार्यों और आचरण के सिद्धांतों को बदल सको? अगर तुम लोग इस वाक्य की गहराई में उतरकर इसे अनुभव करते हो, इसे समझते हो, तो यह तुम्हारे लिए एक सत्य होगा। अगर तुम कभी इसकी गहराई में नहीं उतरे, और तुमने इस वाक्यांश को सिर्फ जाना और सुना है, तो यह तुम्हारे लिए हमेशा एक सिद्धांत ही रहेगा। यह बस किसी ग्रंथ का एक कथन होगा, केवल वचन होंगे, एक सत्य नहीं होगा। मैं यह क्यों कहता हूँ? वो इसलिए कि इस कथन ने तुम्हारे किसी भी इरादे, विचार या दृष्टिकोण को कभी नहीं बदला है। इसने कभी भी उन सिद्धांतों को नहीं बदला जिनके अनुसार तुम आचरण करते हो और दुनिया से निपटते हो। इसने न तो तुम्हारे कार्य करने या कर्तव्य निभाने के रवैये को बदला, न तुम्हारी मनोदशा ही बदली। तुम्हें इससे किसी भी तरह का लाभ नहीं हुआ है। तुम लोग इन सभी प्रसिद्ध कथनों को जानते हो और उन्हें सुना सकते हो, लेकिन तुम्हें इनकी सिर्फ सतही समझ है, और तुम्हारे पास इनका कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं है। यह स्थिति पाखंडी फरीसियों से कैसे अलग है? धार्मिक जगत के उन पादरियों और एल्डरों का ध्यान बाइबल के सभी प्रसिद्ध अध्याय और अंश सुनाने और समझाने पर होता है। जो व्यक्ति सबसे ज्यादा सुनाता है, वह सबसे आध्यात्मिक माना जाता है, सबसे सराहना पाता है, और सबसे प्रतिष्ठित और सर्वोच्च स्थान पर होता है। अपने वास्तविक जीवन में वह वास्तव में दुनिया, मानवजाति और सभी प्रकार के लोगों को वैसे ही देखता है जैसे सांसारिक लोग देखते हैं, और उसके दृष्टिकोण में कोई बदलाव नहीं हुआ है। इससे साबित होता है : वह बाइबल के जो खंड सुनाता है, वे किसी भी तरह उसके जीवन का हिस्सा नहीं बने हैं, उसके पल्ले सिर्फ सिद्धांत और धार्मिक मत हैं, और उसने अपना जीवन नहीं बदला है। अगर तुम लोग भी धार्मिक लोगों जैसी राह पर ही चलते हो तो फिर तुम परमेश्वर पर नहीं ईसाईयत पर विश्वास रखते हो और तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो। कुछ लोग जो कुछ ही समय से विश्वास में हैं, वे लम्बे समय से विश्वास रखने वाले उन धार्मिक व्यक्तियों की प्रशंसा करते हैं जो बहुत सारे आध्यात्मिक सिद्धांत सुना सकते हैं। जब वे उन लम्बे समय से विश्वास रखने वाले व्यक्तियों को देखते हैं जो बिना किसी समस्या के लगातार दो-तीन घंटे बैठकर बोलते हैं, तो वे उनसे सीखने लगते हैं। वे उन आध्यात्मिक शब्दों और अभिव्यक्तियों को सीखते हैं, वे लम्बे समय से विश्वास रखने वालों के बोलने और व्यवहार के तरीके सीखते हैं, और फिर परमेश्वर के कुछ उत्कृष्ट वचन रट लेते हैं। वे ऐसा तब तक जारी रखते हैं जब तक कि आखिरकार वे सोच लें कि उनके पास कुछ है। जब सभा का समय आता है, तो वे भारी-भरकम लगने वाले विचारों के बारे में बकवास करने लगते हैं, लेकिन यदि तुम ध्यान से सुनो, तो यह सब बेतुकी, खोखली बातें, वचन और सिद्धांत हैं। यह स्पष्ट है कि वे धार्मिक धोखेबाज हैं जिन्होंने खुद को और दूसरों को धोखा दिया है। यह कितना दुखद है! इस राह पर मत जाओ। जैसे ही तुम इस पर चलने लगोगे, तुम पूरी तरह से नष्ट हो जाओगे, और यदि तुम चाहो भी तो वापस लौटना कठिन होगा! अगर तुम उन वचनों और सिद्धांतों को ऐसे मानते हो कि जैसे वे खजाना और जीवन हों, और तुम हर जगह उन्हें प्रदर्शित करते हो, तो फिर समझ लो कि तुम्हारे भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव पर कुछ आध्यात्मिक सिद्धांतों और कुछ पाखंडी चीजों का मुलम्मा चढ़ चुका है। यह सिर्फ झूठ ही नहीं, बल्कि पूरी तरह से घृणित है। यह बेशर्मी है, और देखने में घिनौना और भयानक है। इस समय, हम प्रभु यीशु के अनुयायियों के संप्रदायों को ईसाई धर्म के रूप में मानकर एक धर्म और धार्मिक समूह के रूप में वर्गीकृत करते हैं। यह इसलिए है क्योंकि वे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन सत्य को स्वीकार नहीं करते, और वे परमेश्वर के वचनों का पालन या अनुभव नहीं करते हैं, बल्कि वे अपने जीवन स्वभाव बदले बिना केवल धार्मिक अनुष्ठानों और औपचारिकताओं में अटके रहते हैं। वे सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग हैं, और वे परमेश्वर से मिलने वाले सत्य, मार्ग और जीवन का अनुसरण नहीं करते, बल्कि वे बाइबल संबंधी ज्ञान का अनुसरण करते हैं, फरीसियों का अनुकरण करते हैं और परमेश्वर से दुश्मनी रखते हैं। परिणामस्वरूप, इस समूह को ईसाईयत के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। परमेश्वर पर विश्वास करने वाले ये सभी लोग इस धर्म के अनुयायी हैं। वे परमेश्वर की कलीसिया के सदस्य नहीं हैं, और उसकी भेड़ें नहीं हैं। “ईसाईयत” शब्द कहाँ से आया है? यह इस तथ्य से आता है कि इसके अनुयायी मसीह पर विश्वास करने का ढोंग करते हैं, आध्यात्मिक होने और परमेश्वर का अनुसरण करने का ढोंग करते हैं, जबकि वे उन सभी सत्यों को नकारते हैं जो मसीह ने व्यक्त किए हैं, वे पवित्र आत्मा के कार्य को नकारते हैं, और वे परमेश्वर से आने वाली सभी सकारात्मक बातों को नकारते हैं। वे खुद को उन बातों से लैस कर ढक और छिपा लेते हैं जो परमेश्वर ने अतीत में कही थीं। वे इन चीजों को पूँजी के रूप में हर मौके पर इस्तेमाल करते हैं और धोखाधड़ी करके लाभ उठाते हैं। परमेश्वर पर विश्वास का ढोंग करते हुए वे हर मोड़ पर लोगों को ठगते हैं, वे बाइबल की व्याख्या करने के अपने तरीके और अपने बाइबल संबंधी ज्ञान पर दूसरों के साथ विवाद करते हैं, और इन चीजों को अपनी प्रतिष्ठा और पूँजी मानते हैं। वे तो परमेश्वर का आशीष और पुरस्कार भी चालाकी से हासिल करना चाहते हैं। वे उस मसीह-विरोधी मार्ग पर चलते हैं, जो देहधारी परमेश्वर को नकारता है और उसकी निंदा करता है, और इस समूह के इसी मार्ग पर चलने के कारण यह अंत में ईसाईयत और एक धर्म के रूप में वर्गीकृत होता है। अब चलो “ईसाईयत” शब्द पर नजर डालें—यह अच्छा शीर्षक है या बुरा? हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि यह एक अच्छा शीर्षक नहीं है। यह एक शर्मनाक चिह्न है और यह कोई गर्व या प्रतिष्ठा की बात नहीं है।

जीवन प्रवेश करते हुए वह कौन-सी सबसे महत्वपूर्ण बात है जो तुम्हें समझनी चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के कहे वचनों में यह खोजना चाहिए कि लोगों से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं और लोगों को उसके कार्यों का अनुभव कैसे करना चाहिए—फिर चाहे ये वचन किसी भी विषय पर हों। तुम्हें अपने आचरण और कार्यशैली, अपने विचारों-ख्यालों और जीवन में संकट आने पर उत्पन्न होने वाली तमाम मनोदशाओं और अभिव्यक्तियों को परमेश्वर के प्रकाशन और न्याय के वचनों की कसौटी पर कसना चाहिए। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए और अभ्यास के सिद्धांतों का पता लगाने के लिए सत्य खोजना चाहिए। इसके जरिये तुम्हें अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए, अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर की इच्छा पूरी करना सीखना चाहिए, पूरी तरह उसकी अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करना चाहिए, ईमानदार इंसान बनना चाहिए और ऐसा इंसान बनना चाहिए जो सत्य का अभ्यास करे। शब्दों, सिद्धांतों, धार्मिक मत के बारे में बोलकर लोगों को धोखा देने जैसे काम मत करो। खुद को आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह पेश मत करो और न पाखंडी बनो। तुम्हें सत्य स्वीकारने और इसका पालन करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, साथ ही परमेश्वर के वचनों का उपयोग कर अपनी परिस्थितियों की तुलना करते हुए उन पर विचार करना चाहिए और इसके बाद उन गलत धारणाओं और रवैयों को बदलना चाहिए जिनके जरिये तुम हर तरह की स्थिति का सामना करते हो। अंत में, तुम्हारे भीतर हर स्थिति में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होना चाहिए, तुम्हें फिर कभी उतावले होकर काम कर अपने विचारों का अनुसरण नहीं करना चाहिए, न अपनी लालसाओं के अनुसार चीजें करनी चाहिए, न ही भ्रष्ट स्वभाव के साथ जीना चाहिए। इसके बजाय तुम्हारी सारी कथनी-करनी परमेश्वर के वचनों और सत्य पर आधारित होनी चाहिए। इस तरह से तुम में धीरे-धीरे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय उत्पन्न हो जायेगा। ऐसा हृदय सत्य का पालन करने से उत्पन्न होता है, संयम बरतने से नहीं। संयम से सिर्फ एक तरह का व्यवहार उत्पन्न होता है; यह एक सतही स्तर के नियंत्रण के समान होता है। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को लगातार स्वीकारने और उसके कार्य का अनुभव करने के दौरान काट-छाँट और निपटान होने से परमेश्वर का भय मानने वाला सच्चा हृदय मिलता है। जब लोग अपनी भ्रष्टता का असली चेहरा देखेंगे तो उन्हें सत्य के अनमोल होने का पता चलेगा और वे सत्य के लिए प्रयास कर सकेंगे। उनके भ्रष्ट स्वभाव कम से कम प्रकट होंगे, वे सामान्य रूप से परमेश्वर के सामने रह सकेंगे, हर दिन परमेश्वर के वचन खा-पी सकेंगे और सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य निभा सकेंगे। इस प्रक्रिया से परमेश्वर का भय और उसकी आज्ञा मानने वाला हृदय उत्पन्न होता है। जो लोग अपने कर्तव्य निभाते हुए समस्याएँ हल करने के लिए लगातार सत्य खोजते हैं, उन सबके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है। परमेश्वर का भय क्या है, यह उन सभी लोगों को पता है जिन्हें अनुशासित किया गया है और जिन्होंने काफी ज्यादा काट-छाँट और निपटान का अनुभव किया है। जब उनकी भ्रष्टता प्रकट होती है तो वे न सिर्फ भयभीत होकर काँपने लगते हैं, बल्कि परमेश्वर के क्रोध और प्रताप को भी महसूस कर सकते हैं। इस स्थिति में स्वाभाविक रूप से उनके मन में डर उत्पन्न होता है। क्या अब तुम सभी लोगों को इन बातों की कोई अनुभवजन्य समझ है? (थोड़ी-सी)। धीरे-धीरे इसे बढ़ाने की जरूरत है। केवल थोड़ी-सी अनुभवजन्य समझ पाकर संतुष्ट मत होओ। तुम अभी एक अनुकूल वातावरण में हो, जहाँ तुम बहुत सारे उपदेश सुन रहे हो, बहुत सारी सभाओं में जा रहे हो, परमेश्वर के खूब सारे वचन पढ़ रहे हो, तुम एक ऐसे परिवेश में हो जिसमें तुम अपने कर्तव्य निभाकर तमाम दूसरी शर्तें पूरी कर सकते हो। तुम्हें लगता है कि तुम्हारे मन में परमेश्वर का भय है इसलिए तुम्हारी आस्था बढ़ चुकी है, लेकिन अगर तुम्हें दूसरे परिवेश में रख दिया जाए तो क्या तुम अपनी वर्तमान मनोदशा बरकरार रख पाओगे? अभी तुम जिन सत्यों को समझते हो क्या ये चीजों को लेकर तुम्हारा परिप्रेक्ष्य या जीवन और मूल्यों को लेकर तुम्हारा दृष्टिकोण बदल सकते हैं? तुम जिन सत्यों को समझते हो अगर वे ये बदलाव नहीं ला सकते तो तुम वास्तव में सत्य को नहीं समझते। जब परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन और ऐसे सत्य बन जाते हैं जिन्हें तुम समझते हो, तब तुम जीवन प्रवेश कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुके होगे। इसका अर्थ है कि सत्य का अभ्यास ऐसी चीज बन जाएगा जिसकी पहल तुम खुद करते हो, तुम्हें लगेगा कि ऐसी चीजों को स्वाभाविक तौर से करना चाहिए। सत्य के अनुसार काम करना तुम्हारे लिए स्वाभाविक हो जाएगा; यह किसी प्राकृतिक सोते की तरह नियमित हो जाएगा। इसका अर्थ है कि परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन बन चुके होंगे। यदि तुम किसी चीज का सामना होने पर हमेशा गलत रास्ता चुनते हो और तुम्हें सही राह पर आने के लिए हमेशा आत्म-चिंतन करना पड़ता है और दूसरों की मदद और सहारे की जरूरत पड़ती है तो फिर बात नहीं बनती है और तुम्हारा कोई आध्यात्मिक कद नहीं है। यदि तुम्हारे पास कोई मदद और सहारा देने वाला नहीं है तो अपने आसपास का परिवेश तेजी से बदलने पर तुम कितनी दूर जाकर गिरोगे, यह कोई नहीं बता सकता। एक ही रात में तुम परमेश्वर को नकारकर धोखा दे सकते हो या तुम रातोरात परमेश्वर को छोड़कर शैतान की बाँहों में लौट सकते हो। दूसरे शब्दों में, इससे पहले कि तुम सत्य को प्राप्त करो और सत्य तुम्हारा जीवन बन जाए, तुम अभी भी खतरे में हो! ऐसा नहीं है कि थोड़ी-सी आस्था रखना, खुद को खपाने के लिए तैयार रहना और अभी थोड़ा-सा संकल्प या अच्छी आकांक्षाएँ होना यह साबित करता है कि तुम्हारे पास जीवन है। ये केवल सतही चीजें हैं; यह सिर्फ कोरी आशा है। इससे पहले कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सुधरे, तुम्हें स्वयं को सत्य से सुसज्जित करना होगा। तुम्हें परमेश्वर के कार्य और कुछ परीक्षणों और शोधन का अनुभव करने में सक्षम होना चाहिए। जब तुम्हारे भीतर परमेश्वर के प्रति सच्चा आस्था उत्पन्न होगी, तो तुम उसके साथ सच्ची प्रार्थना और सच्ची संगति करोगे। तुम परमेश्वर को यह बता पाओगे कि तुम्हारे हृदय में क्या है, और जब तुम किसी चीज का सामना करोगे तो तुम महसूस करोगे कि तुम सिर्फ उसी पर भरोसा कर सकते हो और कोई और काम नहीं आएगा। तब परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाएगा। जब तुम परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हो तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह तुम्हें कहाँ रखता है, और भले ही तुम कई वर्षों तक किसी सभा में भाग न ले सको, फिर भी परमेश्वर में तुम्हारी आस्था अय्यूब की तरह पूरी तरह अटूट रहेगी। भले ही तुम सभाओं में भाग नहीं ले रहे होगे और तुम्हें उपदेश देने वाला कोई नहीं होगा, फिर भी तुम्हारे हृदय में परमेश्वर का मार्ग और परमेश्वर के वचन होंगे। तुम परमेश्वर को नहीं छोड़ोगे और तुम इस बारे में स्पष्ट हो जाओगे कि वह किस तरह रोज तुम्हारी अगुआई करता है। तुम परमेश्वर के परीक्षणों का सामना करने पर उसे अस्वीकार नहीं करोगे, बल्कि उनमें उसके कर्म भी देखोगे। उस समय, तुम स्वतंत्र हो सकोगे। तुम लोग अभी तक वहाँ नहीं पहुँचे हो, तुम्हारे पास अभी भी कई धारणाएँ, कल्पनाएँ और मिलावटें हैं। तुम्हारे क्रियाकलापों और कर्तव्य पालन के दायरे में अभी भी कुछ छिपी हुई चीजें हैं। तुम्हारी अपनी इच्छा बहुत अधिक है। तुम अभी भी दिखावा करने के दौर में हो, तुम अभी भी आध्यात्मिक बनने का प्रयास कर रहे हो, आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रचार करने और अपने आप को आध्यात्मिक जुमलों, शब्दावली और सिद्धांतों से लैस करने में लगे हुए हो। तुम अभी भी एक फरीसी और झूठा आध्यात्मिक व्यक्ति बनने का प्रयास कर रहे हो। तुम अभी भी ऐसी राह पर चलने का प्रयास कर रहे हो और इस गलत राह पर हो। यह किसी ऐसे व्यक्ति से बहुत उलट बात है जो वास्तव में परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है! इसलिए, तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करने और न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन का अधिक अनुभव करने के लिए भरसक कोशिश करनी चाहिए। केवल तभी इन ढोंग, छद्मवेश और असामान्य मानसिकताओं को पूरी तरह दूर किया जा सकता है। जब ये भ्रष्टताएँ दूर हो जाती हैं तो तुम्हारा और परमेश्वर का संबंध स्वाभाविक रूप से सामान्य हो जाता है।

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