268 शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए कैसे सामाजिक प्रवृत्तियों का उपयोग करता है
1 अंतिम मुद्दा है कि कैसे शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए सामाजिक प्रवृत्तियों का लाभ उठाता है। ऐसे विचार जिन्हें सामाजिक प्रवृत्तियाँ लोगों के लिए ले कर आती हैं, जिस तरह से वे संसार में लोगों से स्वयं का आचरण करवाती हैं, जीवन के लक्ष्य एवं जीवन को देखने का नज़रिया जिन्हें वे लोगों के लिए लाती हैं, हम केवल उनके बारे में ही बात करने की इच्छा करते हैं। ये अत्यंत महत्वपूर्ण हैं; वे मनुष्य के मन की अवस्था को नियन्त्रित और प्रभावित कर सकती हैं। एक के बाद एक, ये सभी प्रवृत्तियाँ दुष्ट प्रभाव को लेकर चलती हैं जो निरन्तर मनुष्य को पतित करते रहते हैं, जिसके कारण वे लगातार विवेक, मानवता और कारण को गँवा देते हैं, और जो उनकी नैतिकता एवं उनके चरित्र की गुणवत्ता को और भी अधिक नीचे ले जाते हैं, उस हद तक कि हम यहाँ तक कह सकते हैं कि अब अधिकांश लोगों के पास कोई ईमानदारी नहीं है, कोई मानवता नहीं है, न ही उनके पास कोई विवेक है, और कोई तर्क तो बिलकुल भी नहीं है।
2 शैतान इन सामाजिक प्रवृत्तियों का उपयोग करता है ताकि एक बार में एक कदम उठाकर लोगों को दुष्टों के घोंसले में आने के लिए लुभा सके, ताकि सामाजिक प्रवृत्तियों में फँसे लोग अनजाने में ही धन एवं भौतिक इच्छाओं का समर्थन करें, और साथ ही दुष्टता एवं हिंसा का समर्थन करें। जब एक बार ये चीज़ें मनुष्य के हृदय में प्रवेश कर जाती हैं, तो मनुष्य क्या बन जाता है? मनुष्य दुष्ट शैतान बन जाता है! ऐसा मनुष्य के हृदय में कौन से मनोवैज्ञानिक झुकाव की वजह से होता है? मनुष्य किस बात का समर्थन करता है? मनुष्य दुष्टता और हिंसा को पसन्द करना शुरू कर देते हैं। वे खूबसूरती या अच्छाई को पसन्द नहीं करते हैं, और शांति को तो बिलकुल भी पसन्द नहीं करते हैं। लोग सामान्य मानवता के साधारण जीवन को जीने की इच्छा नहीं करते हैं, बल्कि इसके बजाए ऊँची हैसियत एवं अपार धन समृद्धि का आनन्द उठाने की, देह के सुखविलासों में मौज करने की इच्छा करते हैं, और उन्हें रोकने के लिए प्रतिबंधों के बिना और बन्धनों के बिना अपनी स्वयं की देह को संतुष्ट करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते हैं, दूसरे शब्दों में जो कुछ भी वे चाहते हैं करते हैं।
3 तो जब मनुष्य इस किस्म की प्रवृत्तियों में डूब जाता है, मनुष्य और भी अधिक दुष्ट, अभिमानी, दूसरों को नीचा दिखाने वाला, स्वार्थी एवं दुर्भावनापूर्ण बन जाता है। लोगों के बीच अब और कोई स्नेह नहीं रह जाता है, परिवार के सदस्यों के बीच अब और कोई प्रेम नहीं रह जाता है, रिश्तेदारों एवं मित्रों के बीच में अब और कोई तालमेल नहीं रह जाता है; मानवीय रिश्ते हिंसा से भरे हुए हो जाते हैं। हर एक व्यक्ति अपने साथी मनुष्यों के बीच रहने के लिए हिंसक तरीकों का उपयोग करना चाहता है; वे हिंसा का उपयोग करके अपनी स्वयं की आजीविका को झपट लेते हैं; वे हिंसा का उपयोग करके अपने पद को प्राप्त कर लेते हैं और अपने स्वयं के लाभों को प्राप्त करते हैं और वे हिंसा एवं बुरे तरीकों का उपयोग करके जो कुछ भी चाहते हैं वह करते हैं। क्या ऐसी मानवता भयावह नहीं है?
— "वचन देह में प्रकट होता है" में "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI" से रूपांतरित