254 प्रायश्चित्त
I
अच्छे इरादे, अंत के दिनों का मशवरा,
जगाते हैं गहरी नींद से इंसान को।
दर्दभरी यादें, बचे दाग़ यातना देते हैं मेरे ज़मीर को।
उलझन में, डरकर प्रार्थना करता हूँ मैं।
दिल पर हाथ रखकर प्रायश्चित्त करता हूँ मैं।
इतने दयालु हो तुम, मगर मिथ्या-प्रेम से छला है तुम्हें मैंने।
मेरी दुष्ट आत्मा को नहीं हुआ मलाल कोई, मलाल कोई।
पाप में जीता हूँ बेख़ौफ़ मैं। इससे बेपरवाह कि कैसा लगा तुम्हें।
सिर्फ तुम्हारा अनुग्रह चाहता हूँ। बेचैन होकर, ख़ुद पर दया खाकर,
अफसोस करता हूँ, मगर रुक नहीं पाता हूँ।
ख़ुद से धोखा, छिपा नहीं पाता हूँ।
II
इस बात से अनजान कि वफ़ादार हो तुम,
पूरी लगन से अपनी राह की तलाश की मैंने, तलाश की मैंने।
एक बार आपदा आ जाए, कौन रोक सकता है तुम्हें?
आहें और मलाल रह जाते हैं बस।
पाप और दूषण में जीता हूँ। जुर्म का अहसास बढ़ता है दिल में मेरे।
सच्चे वचन ठहरते हैं मुझमें। नफरत है मुझे, कितना अधम हूँ मैं।
ख़ाली-हाथ तुम्हारे वचनों से रूबरू होता हूँ मैं।
तुम्हारे सामने कैसे आऊँ, शर्मिंदा हूँ मैं, शर्मिंदा हूँ मैं, शर्मिंदा हूँ मैं।