केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है

केवल सत्य का अनुसरण करके ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव ला सकता है : यह एक ऐसी बात है, जिसे लोगों को अच्छी तरह से जानना-बूझना चाहिए, और समझना चाहिए। अगर तुम्हें सत्य की पर्याप्त समझ नहीं है, तो तुम आसानी से फिसल जाओगे और मार्ग से भटक जाओगे। यदि तुम जीवन में विकास करना चाहते हो, तो तुम्हें हर चीज़ में सत्य की तलाश करनी चाहिए। तुम चाहे कुछ भी कर रहे हो, तुम्हें इस बात की खोज करनी चाहिए कि सत्य के अनुरूप जीने के लिए किस तरह व्यवहार करना चाहिए, और इस बात का पता लगाना चाहिए कि तुम्हारे भीतर क्या दोष मौजूद है, जो इसका उल्लंघन करता है; तुम्हें इन चीज़ों की स्पष्ट समझ होनी चाहिए। तुम चाहे कुछ भी कर रहे हो, तुम्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि वह सत्य के अनुरूप है या नहीं और उसका कोई मूल्य और अर्थ है या नहीं। तुम वे काम कर सकते हो जो सत्य के अनुरूप हों, लेकिन तुम वो काम नहीं कर सकते जो सत्य के अनुरूप न हों। जहाँ तक उन चीज़ों का संबंध है, जिन्हें तुम कर भी सकते हो और नहीं भी कर सकते, उन्हें यदि जाने दिया जा सकता है, तो तुम्हें उन्हें जाने देना चाहिए। अन्यथा यदि तुम कुछ समय के लिए उन चीज़ों को करते हो और बाद में पाते हो कि तुम्हें उन्हें जाने देना चाहिए, तो एक त्वरित निर्णय लो और उन्हें ज़ल्दी से जाने दो। यह वह सिद्धांत है, जिसका अनुसरण तुम्हें अपने हर काम में करना चाहिए। कुछ लोग यह प्रश्न उठाते हैं : सत्य की तलाश करना और उसे व्यवहार में लाना इतना ज्यादा मुश्किल क्यों है—मानो तुम धारा के विरुद्ध नाव खे रहे हो और अगर तुमने आगे की ओर नाव खेना बंद कर दिया, तो पीछे बह जाओगे? फिर भी, बुरी या निरर्थक चीज़ें करना वास्तव में बहुत आसान क्यों है—नाव को धारा के साथ खेने जितना आसान? ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य का स्वभाव परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना है। शैतान की प्रकृति ने मनुष्यों के भीतर एक प्रमुख भूमिका ग्रहण कर ली है, और वह एक प्रतिरोधी शक्ति है। परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की प्रकृति वाले मनुष्य निश्चित रूप से ऐसी चीज़ें आसानी से कर सकते हैं, जो परमेश्वर के साथ विश्वासघात करती हैं, और सकारात्मक कार्य करना उनके लिए स्वाभाविक रूप से कठिन होता है। यह पूरी तरह से मनुष्य की प्रकृति और सार द्वारा निश्चित किया जाता है। जब तुम वास्तव में सत्य को समझ जाते हो और उसे अपने भीतर से प्यार करना शुरू कर देते हो, तो तुम उन चीजों को करना आसान पाओगे, जो सत्य के अनुरूप हैं। तुम सामान्य ढंग से अपना कर्तव्य निभाओगे और सत्य का अभ्यास करोगे—बल्कि सहजता से और आनंद से, और तुम महसूस करोगे कि कोई नकारात्मक चीज़ करने के लिए भारी प्रयास की आवश्यकता होगी। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सत्य ने तुम्हारे दिल में एक प्रमुख भूमिका ले ली है। अगर तुम वाकई मानव-जीवन का सत्य समझते हो, तो तुम्हारे पास अनुसरण के लिए एक मार्ग होगा कि तुम्हें किस तरह का व्यक्ति होना चाहिए—किस तरह एक निष्कपट और सीधा-सादा व्यक्ति बनना चाहिए, एक ईमानदार व्यक्ति, ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर की गवाही देता हो और उसकी सेवा करता हो। और एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तो तुम फिर कभी परमेश्वर की अवहेलना करने वाले बुरे कार्य करने में सक्षम नहीं होगे, और न ही तुम कभी एक झूठे अगुआ, झूठे कार्यकर्ता या मसीह-विरोधी की भूमिका निभाओगे। भले ही शैतान तुम्हें धोखा दे, या कोई दुष्ट तुम्हें उकसाए, तुम वो नहीं करोगे; कोई तुम्हारे साथ कितनी भी ज़बरदस्ती करे, तुम फिर भी वैसा नहीं करोगे। यदि लोग सत्य को प्राप्त कर लेते हैं और सत्य उनका जीवन बन जाता है, तो वे बुराई से घृणा करने लगेंगे और नकारात्मक चीजों से आंतरिक विरक्ति महसूस करेंगे। उनके लिए बुराई करना मुश्किल होगा, क्योंकि उनके जीवन स्वभाव बदल गए हैं और उन्हें परमेश्वर द्वारा पूर्ण बना दिया गया है।

अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं! बुरे कर्मों के समाधान के लिए, पहले उन्हें अपनी प्रकृति को सुधारना होगा। स्वभाव में बदलाव किए बिना, इस समस्या का मौलिक समाधान हासिल करना संभव नहीं है। जब तुम्हें परमेश्वर की कुछ समझ होगी, जब तुम अपनी भ्रष्टता को देख सकोगे, अहंकार और दंभ की कुरूपता और घिनौनेपन को पहचान सकोगे, तब तुम नफरत, घृणा और व्यथा को महसूस करोगे। तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपनी इच्छा से कुछ काम करने में सक्षम होगे और ऐसा करने में तुम्हें सुकून महसूस होगा। तुम अपनी इच्छा से परमेश्वर के वचन पढ़ने, उसका उत्कर्ष करने, परमेश्वर के लिए गवाही देने में सक्षम होगे और अपने दिल में, तुम खुशी महसूस करोगे। तुम अपनी इच्छा से अपने आपको बेनकाब करोगे, अपनी खुद की कुरूपता को उजागर करोगे और ऐसा करके तुम अंदर से अच्छा महसूस करोगे और तुम अपने आपको बेहतर मानसिक स्थिति में महसूस करोगे। अपने स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश का पहला चरण परमेश्वर के वचनों को समझने की कोशिश करना और सत्य में प्रवेश करना है। केवल सत्य को समझकर ही तुम्हारे अंदर विवेक आएगा; केवल विवेक से ही तुम चीज़ों को पूरी तरह समझ पाओगे; चीज़ों को पूरी तरह समझकर ही तुम खुद को जान पाओगे; जब तुम खुद को जान लोगे, तो तुम देह की इच्छाओं का त्याग कर सत्य का अभ्यास कर पाओगे, इससे तुम धीरे-धीरे परमेश्वर का आज्ञापालन करने की दिशा में आगे बढ़ोगे और परमेश्वर में अपने विश्वास के साथ सही मार्ग पर चलोगे। यह इस बात से जुड़ा है कि सत्य का अनुसरण करते समय लोग कितने दृढ़ होते हैं। यदि कोई वास्तव में दृढ़ है, तो छह महीने या एक साल के बाद वे सही रास्ते पर आने शुरू हो जाएंगे। तीन या पांच वर्षों के भीतर, वे परिणाम देख लेंगे, और महसूस करेंगे कि वे जीवन में प्रगति कर रहे हैं। यदि लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते, और सत्य के अभ्यास पर ध्यान नहीं देते, तो दस साल-बीस साल में भी उन्हें किसी बदलाव का अनुभव नहीं होगा। अंत में, वे सोचेंगे कि यही परमेश्वर में विश्वास रखना है; वे सोचेंगे कि यह बहुत हद तक वैसा ही है जैसे वे पहले धर्मनिरपेक्ष दुनिया में रहते थे, और जीवित रहना अर्थहीन है। यह वास्तव में दिखाता है कि सत्य के बिना जीवन खोखला है। वे कुछ सैद्धांतिक शब्द बोलने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन तुम अभी भी असहज और बेचैन महसूस करोगे। यदि लोगों को परमेश्वर के बारे में कुछ जानकारी है, वे जानते हैं कि एक सार्थक जीवन कैसे जीना है, और वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कुछ चीजें कर सकते हैं, तो वे महसूस करेंगे कि यही वास्तविक जीवन है, केवल इसी तरह से रहने से उनके जीवन का अर्थ होगा, और परमेश्वर को संतुष्टि प्रदान करने, उसे प्रतिफल देने और सहजता महसूस करने के लिए उन्हें इसी तरह से रहना होगा। यदि वे सजगतापूर्वक परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, सत्य को व्यवहार में ला सकते हैं, स्वयं को त्याग सकते हैं, अपने विचारों को छोड़ सकते हैं, और परमेश्वर की इच्छा के प्रति आज्ञाकारी और विचारशील हो सकते हैं—यदि वे इन सभी चीजों को सजगतापूर्वक करने में सक्षम हैं—तो सत्य को सटीक रूप से व्यवहार में लाने, और सत्य को वास्तव में व्यवहार में लाने का यही अर्थ है। यह पहले की तरह नहीं है, केवल कल्पनाओं पर निर्भर रहना, नियमों का पालन करना और सोचना कि यह सत्य का अभ्यास करना है। वास्तव में, कल्पनाओं पर निर्भर रहना और नियमों का पालन करना बहुत थकाऊ है, सत्य न समझना और सिद्धांतों के बिना काम करना भी बहुत थकाने वाला है, बिना लक्ष्य के आँख मूँदकर काम करना तो और भी थका देने वाला है। जब तुम सत्य समझ जाते हो, तो कोई भी व्यक्ति या चीज तुम्हें विवश नहीं कर सकती, तुम स्वतंत्र और मुक्त होते हो। तुम सैद्धांतिक तरीके से कार्य करोगे, निश्चिंत और खुश रहोगे, और तुम्हें यह महसूस नहीं होगा कि इसमें बहुत मेहनत लगती है या यह बहुत पीड़ादायक है। यदि तुम्हारी स्थिति इस प्रकार की है, तो तुममें सत्य और मानवता है और तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसका स्वभाव बदल गया है।

जीवन के अनुभव की प्रक्रिया में, चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें सत्य की खोज करना सीखना चाहिए, परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार मामले पर पूरी तरह से विचार करना चाहिए। जब तुम जान जाते हो कि पूर्ण रूप से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कैसे कार्य करना है, तो तुम अपनी इच्छा से आने वाली चीजों को छोड़ पाओगे। एक बार जब तुम जान जाते हो कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कैसे कार्य करना है, तो तुम्हें बस वैसे ही काम करना चाहिए, मानो सहजता से कार्य कर रहे हो। इस तरह कार्य करना बहुत ही आरामदायक और आसान लगता है, सत्य समझने वाले लोग इसी ढंग से काम करते हैं। यदि तुम लोगों को दिखा सको कि तुम अपना कर्तव्य निभाते समय सच में प्रभावी होते हो, और जो तुम करते हो वह सिद्धांतों के अनुसार है, कि तुम्हारा जीवन स्वभाव वास्तव में बदल गया है, कि तुमने परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए कई अच्छे काम किए हैं, तो इसका अर्थ है कि तुम्हें सत्य की समझ है और निश्चित रूप से तुम्हारी छवि इंसान की है; और जब तुम परमेश्वर के वचन खाते-पीते हो, तो यकीनन उसका असर होता है। जब कोई सत्य समझ लेता है, तो वह अपनी विभिन्न अवस्थाओं को समझने लगता है, वह जटिल मामलों को स्पष्ट रूप से देख पाता है और यह जान जाता है कि कैसे सही तरीके से अभ्यास करना है। यदि कोई व्यक्ति सत्य नहीं समझता और अपनी स्थिति को नहीं पहचान पाता, तो यदि वह अपनी दैहिक इच्छाओं का त्याग करना चाहता है, तो उसे पता नहीं होगा कि क्या और कैसे त्याग करना है। यदि वह अपनी इच्छा का त्याग करना चाहता है, तो वह यह नहीं जान पाएगा कि उसकी इच्छा में क्या गलत है, उसे लगेगा कि उसकी इच्छा सत्य के अनुरूप है, यहाँ तक कि वह अपनी इच्छा को भी पवित्र आत्मा का प्रबोधन भी मान सकता है। ऐसा व्यक्ति अपनी इच्छा का त्याग कैसे करेगा? वह ऐसा नहीं कर पाएगा, वह दैहिक-सुखों का त्याग तो बिलकुल नहीं कर पाएगा। इसलिए, जब तुम्हें सत्य की समझ नहीं होती, तो तुम अपनी इच्छा से आई चीजों को, मानवीय धारणाओं, दया, प्रेम, पीड़ा और कीमत चुकाने के अनुरूप चीजों को आसानी से सही और सत्य समझने की गलती कर सकते हो। तो फिर, तुम इन मानवीय चीजों को कैसे छोड़ सकते हो? तुम्हें सत्य की समझ नहीं है, तुम नहीं जानते कि सत्य का अभ्यास करने का क्या अर्थ होता है। तुम पूरी तरह अंधेरे में हो और नहीं जान पाते कि क्या करना है, इसलिए तुम वही कर सकते हो जो तुम्हें सही लगता है, परिणामस्वरूप, तुम कुछ कामों में विचलन कर बैठते हो। इनमें से कुछ तो नियमों का पालन करने के कारण होता है, कुछ उत्साह के कारण और कुछ शैतान की गड़बड़ी के कारण। सत्य न समझने वाले ऐसे ही काम करते हैं। वे कार्य करते समय बेहद डावांडोल होते हैं और हर हाल में भटक ही जाते हैं, उनमें थोड़ी भी विशुद्धता नहीं होती। जो लोग सत्य नहीं समझते, वे चीजों को अविश्वासियों की तरह ही बेतुके ढंग से समझते हैं। वे सत्य का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? समस्याओं का समाधान कैसे कर सकते हैं? सत्य समझना कोई सरल बात नहीं है। किसी की काबिलियत कम हो या ज्यादा, जीवन भर के अनुभव के बाद भी, उनमें सत्य की समझ सीमित होती है, और परमेश्वर के वचनों की उनकी समझ भी सीमित ही होती है। जो लोग अपेक्षाकृत अधिक अनुभवी होते हैं उनमें सत्य की समझ थोड़ी ज्यादा होती है, वे अधिक से अधिक ऐसे काम नहीं करते जो परमेश्वर के विरुद्ध हों और जाहिर तौर पर बुरे काम नहीं करते। उनके लिए अपने इरादों की मिलावट के बिना कार्य करना असंभव है। चूँकि मनुष्य की सोच सामान्य होती है और जरूरी नहीं कि उनके विचार हमेशा परमेश्वर के वचनों के अनुरूप ही हों, तो उनकी अपनी इच्छा की मिलावट होना अपरिहार्य है। महत्वपूर्ण है उन सभी चीजों की समझ होना जो अपनी इच्छा से आती हैं और परमेश्वर के वचनों, सत्य और पवित्र आत्मा के प्रबोधन के विरुद्ध होती हैं। इसके लिए तुम्हें परमेश्वर के वचनों को समझने में मेहनत करनी पड़ेगी; जब तुम सत्य समझ लोगे, केवल तब ही तुममें विवेक होगा और तभी तुम यह सुनिश्चित कर पाओगे कि तुम बुरे कार्य नहीं करो।

अपने स्वभाव में बदलाव की खोज में, तुम्हें स्वयं की समझ में एक निश्चित गहराई तक पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए, जिससे तुम उन शैतानी विषों का पता लगा सको जो तुम्हारी प्रकृति के भीतर बसी हैं। तुम्हें पता होना चाहिए कि परमेश्वर की अवहेलना करने का क्या मतलब है, साथ-ही-साथ परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने का क्या अर्थ है, और तुम्हें यह सीखना चाहिए कि सभी मामलों में सत्य के अनुरूप आचरण कैसे करना है। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा और मनुष्य से उसकी अपेक्षाओं के बारे में भी कुछ समझ प्राप्त करनी चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के समक्ष जमीर और विवेक से युक्त होना चाहिए, तुम्हें डींगें नहीं हाँकनी चाहिए और परमेश्वर से धोखा नहीं करना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर का विरोध करने वाली बातें अब नहीं करनी चाहिए। इस तरह, तुमने अपना स्वभाव बदल लिया होगा। जिनके स्वभाव बदल गए हैं वे परमेश्वर के प्रति श्रद्धा का अनुभव करते हैं, और परमेश्वर के खिलाफ उनका विद्रोह धीरे-धीरे कम होने लगता है। इसके अलावा, अपने कर्तव्यों के निर्वहन में, उन्हें अब यह आवश्यकता नहीं होती कि दूसरे उनकी चिंता करें, और न ही पवित्र आत्मा को हमेशा उन पर अनुशासनात्मक कार्य करने की आवश्यकता होती है। वे मूलतः परमेश्वर को समर्पित हो सकते हैं, और चीजों पर उनके विचार सत्य के अनुरूप होते हैं। यह सब परमेश्वर के साथ संगत होने के बराबर है। मान लो कि कोई तुम्हें एक काम सौंपता है। तुम्हें इसकी आवश्यकता नहीं है कि कोई तुम्हारा प्रबंधन करे, तुम्हारी निगरानी करे। तुम केवल परमेश्वर के वचन और प्रार्थना द्वारा यह काम पूरा कर सकते हो। इस काम के दौरान, तुम लापरवाह या अहंकारी या दंभी नहीं होते, न ही तुम मनमाने ढंग से काम करते हो; तुम किसी को बेबस नहीं करते, और तुम दया भाव के साथ दूसरों की मदद कर पाते हो। तुम सभी को प्रावधान और लाभ पाने में मदद कर सकते हो, और तुम लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने के सही रास्ते में प्रवेश करने के लिए दिशा दिखा सकते हो। इसके अलावा, इस काम के दौरान तुम अपने रुतबे या हितों के लिए प्रयास नहीं करते हो, जो तुमने अर्जित नहीं किया है उसे अपने लिए नहीं रखते हो, अपने लिए आवाज नहीं उठाते, और कोई चाहे तुम्हारे साथ कैसा भी व्यवहार करे, तुम उसके साथ अच्छे से पेश आते हो। तब तुम अपेक्षाकृत अच्छे आध्यात्मिक कद वाले व्यक्ति होगे। यह आसान बात नहीं है कि कोई व्यक्ति किसी काम को हाथ में ले और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके वचनों की वास्तविकता में लेकर आए। सत्य की वास्तविकता के बिना ऐसा नहीं किया जा सकता। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो काम में बड़ी खूबियों पर भरोसा करते हैं, जो गिरकर विफल हो जाते हैं। जिनके पास सत्य नहीं होता है वे लोग बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं होते हैं, और अगर उन्होंने अपने स्वभाव नहीं बदले हैं, तो उन पर और भी भरोसा नहीं कर सकते। अभी तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना है? अगर कोई तुम्हारी खुशामद करता है, तो तुम्हें उसके साथ किस तरह से पेश आना चाहिए? अगर कोई तुम्हारे बारे में अलग राय रखता है या तुम्हें आलोचना की नजर से देखता है, तो तुम उसके साथ निष्पक्ष और उचित तरीके से कैसे पेश आओगे? क्या तुम अपनी भावनाओं पर निर्भर रहे बिना, पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार लोगों को बढ़ा और उन्हें चुन सकते हो? क्या तुम अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद के साथ ये चीजें करने में वाकई सक्षम हो? अगर किसी जगह पर कई सालों तक काम करने के बाद भी ज्यादातर लोग तुम्हारे बारे में अच्छा आकलन नहीं कर पाते हैं, तो इसका मतलब है कि तुम अपना काम अच्छे से नहीं करते हो और तुम परमेश्वर के इस्तेमाल के लिए उपयुक्त नहीं हो। अगर तुम जो कुछ भी करते हो उसे ज्यादातर लोग अच्छा और उचित होना मानते हैं, तो तुम मूलतः इस्तेमाल के लायक हो। अगर तुम्हारे पास सत्य नहीं है, तो तुम्हारे लिए उस अवस्था तक पहुँचना मुमकिन नहीं है जहाँ तुम परमेश्वर के इस्तेमाल के लिए उपयुक्त हो; उपयुक्त बनने के लिए तुम्हें सत्य हासिल करना ही चाहिए।

जीवन का अनुसरण करने में, तुम्‍हें दो बातों पर जरूर ध्‍यान देना चाहिए : पहली, परमेश्‍वर के वचनों के भीतर के सत्य को समझना; दूसरी, परमेश्‍वर के वचनों के भीतर स्‍वयं को समझना। ये दो बातें सबसे बुनियादी हैं। परमेश्‍वर के वचनों के बाहर कोई जीवन या सत्य नहीं है। अगर तुम परमेश्‍वर के वचन के भीतर सत्य नहीं खोजते हो, तो फिर तुम उसे खोजने कहाँ जा सकते हो? दुनिया में सत्य कहाँ है? क्या दुनिया भर के अखबार और मीडिया परमेश्वर के वचनों की रिपोर्ट करते हैं? क्या दुनिया भर के राजनीतिक दल परमेश्वर की गवाही देते हैं? क्या दुनिया के किसी भी देश में खुले तौर पर परमेश्वर के वचनों को फैलाना साध्य कार्य है? बिल्कुल नहीं। यही वजह है कि दुनिया में कोई सत्य नहीं है, संसार में बस राक्षस, शैतान का राज है, और इसी वजह से दुनिया अँधेरी और बुरी है। ऐसी कौन-सी जगह है, जहाँ लेशमात्र भी सत्य मौजूद है? परमेश्‍वर के वचनों में सत्य समझने का सबसे महत्‍वपूर्ण भाग है : परमेश्‍वर को उसके ही वचनों के भीतर समझना, उसके वचनों के भीतर मानव जीवन को समझना, अपनी सच्ची समझ होना और उसके वचनों के भीतर मानव के अस्तित्‍व का अर्थ खोजना, और सत्य के अन्य पहलुओं को जानना। समस्‍त सत्य परमेश्‍वर के वचनों के भीतर ही है। तुम सत्य में तब तक प्रवेश नहीं कर सकते जब तक कि परमेश्‍वर के वचनों के जरिए प्रवेश न किया जाए। केवल परमेश्वर के वचनों का अनुभव करके और उनका अभ्यास करके ही तुम सत्य की समझ प्राप्त कर सकते हो, और सही मायनों में सत्य समझने का अर्थ है परमेश्वर के वचनों को समझना। यह सबसे बुनियादी बात है। कुछ लोग कार्य और प्रचार करते हैं, लेकिन सतही तौर पर परमेश्वर के वचन पर सहभागिता करते नजर आने के बावजूद, वे उसके वचनों के मात्र शाब्दिक अर्थ पर चर्चा कर रहे होते हैं, जिसमें किसी भी ठोस चीज का उल्लेख नहीं किया जाता। उनके उपदेश किसी भाषाई पाठ्य-पुस्तक की शिक्षा की तरह होते हैं—एक-एक चीज और एक-एक पहलू को सिलसिलेवार तरीके से व्यवस्थित किया गया होता है, और जब वे बोल लेते हैं, तो हर कोई उनका स्तुति-गान करते हुए कहता है : “इस व्यक्ति में वास्तविकता है। इसने कितने अच्छे ढंग से और कितने विस्तार से उपदेश दिया।” ऐसे लोग उपदेश देने का काम पूरा करने के बाद, दूसरों से अपने उपदेशों को संकलित करके कलीसिया के भीतर भेज देने के लिए कहते हैं। ऐसा करते हुए वे दूसरों को धोखा देने लगते हैं। वे अपने उपदेश में परमेश्वर के वचनों के उद्धरण देते हैं, और ऊपर से ऐसा दिखता है मानो उनके उपदेश सत्य के अनुरूप हैं, लेकिन वे चीजों को संदर्भ के बाहर लेकर जाते हैं और ऐसी अस्वाभाविक व्याख्या करते हैं जो सिद्धांतों के खिलाफ जाता है। अधिक गौर से देखने पर, तुम्हें पता चलेगा कि वे कुछ और नहीं बल्कि सिद्धांत के शब्द और अक्षर हैं, मानवीय कल्पनाएँ और धारणाएँ हैं, साथ-ही-साथ ऐसी चीजें हैं जो परमेश्वर को सीमांकित करती हैं। क्या इस तरह की संगति और उपदेश परमेश्वर के कार्य में बाधा नहीं है? यह ऐसी सेवा है जो परमेश्वर का प्रतिरोध करती है। एक समझदार इंसान को अपने भाषण के दायरे पर सीमाएँ निर्धारित करनी चाहिए—उन्हें पता होना चाहिए कि उन्हें किस तरह के शब्द बोलने चाहिए, कौन-से शब्द उनके कर्तव्य निर्वहन से संबंधित हैं, और किस तरह के वचन केवल परमेश्वर द्वारा बोले जा सकते हैं। मनुष्य को परमेश्वर की जगह खड़े होकर बोलना नहीं चाहिए। कोई इसकी थाह नहीं पा सकता कि परमेश्वर कैसे काम करता है, तो फिर कोई परमेश्वर को कैसे परिभाषित कर सकता है? परमेश्वर को परिभाषित करने की योग्यता मनुष्य में नहीं है। कोई भी अनुचित काम करने से बचने के लिए इस बात को समझ लेना चाहिए। एक समझदार इंसान के रूप में, तुम्हें अपनी जगह पता होनी चाहिए, तुम्हें कहने के लिए सही बातें मालूम होनी चाहिए, और तुम्हें ऐसा कुछ नहीं कहना चाहिए जो तुम्हें नहीं कहना चाहिए। अगर परमेश्वर ने पहले तुमसे कुछ कहा भी हो, तब भी तुम्हें इसे दूसरों के सामने नहीं दोहराना चाहिए। अगर तुममें आस्था है, अगर तुम यह मानते हो कि परमेश्वर का वचन सत्य है, तो तुम्हें इस पर अमल करना चाहिए। इसके बारे में यूँ ही बात करने से कोई लाभ नहीं होता। क्या हमेशा ऐसी चाह रखना अहंकार नहीं कि दूसरे तुम्हारी ही बात सुनें, जो तुम कहो उसी को मानें। परमेश्वर के मामलों में, अगर तुम उन्हें नहीं समझते, तो बस तुम उन्हें नहीं समझते। उन्हें समझने या सब कुछ जानने का नाटक मत करो—यह बेहद घिनौना है! तुम हमेशा परमेश्वर की जगह खड़े होना और दिखावा करना चाहते हो, मानो तुम सब कुछ समझते हो, लोगों की नजरों में बने रहना चाहते हो। तुम यह या वह काम करते हुए परमेश्वर का झंडा लहराने की इच्छा भी रखते हो। क्या यह सामान्य इंसान की तार्किकता है? क्या यह सत्य पर अमल करना है? क्या तुम परमेश्वर के विचार जानते हो? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर की बुद्धि है? लोग खुद ही सत्य नहीं समझते हैं—इससे युक्त होने की तो बात ही दूर रही। वे परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे सकते, न ही वे परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं। फिर भी वे परमेश्वर का झंडा लहराते हुए बोलना और काम करना चाहते हैं। सभी लोगों में यह महत्वाकांक्षा होती है, जो सबसे अधिक शर्मनाक और अनुचित बात है।

अब, दुनिया भर से लोग सच्चे मार्ग की खोज करने आ रहे हैं, तो तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए? अगर तुम्हारे पास कोई विवेक नहीं है, तुम अहंकारी, दंभी, मनमौजी हो और निरंकुश दौड़ते हो, तो क्या तुम परमेश्वर की अवहेलना कर उसका तिरस्कार नहीं कर रहे हो? यह अपना कर्तव्य निभाना नहीं है, और परमेश्वर के लिए गवाही देना तो और भी नहीं है। वास्तव में यह अपनी शैतानी छवि दिखाना है। जिन लोगों को सच में जीत लिया गया है उन्हें यह सीखना चाहिए कि ईमानदारी से कैसे बात करें या थोड़ी वास्तविक गवाही कैसे दें। अपने जीवन अनुभव को साझा करना किसी भी और चीज से बेहतर है। बड़े-बड़े सिद्धांत बघारना और उनकी बातें करना—इसका क्या काम है? बरसों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करके भी लोगों का व्यवहार अभी तक सुधरा नहीं है। अपनी पहचान के आधार पर लोग परमेश्वर के लिए गवाही देने लायक नहीं हैं। विवेकहीन और अहंकारी लोग फिर भी परमेश्वर के लिए गवाही देना चाहते हैं—क्या तुम परमेश्वर को शर्मिंदा नहीं कर रहे, उसका तिरस्कार नहीं कर रहे हो? तुम परमेश्वर को नहीं समझते। इसके अलावा, तुम्हारा स्वभाव अभी भी परमेश्वर की अवहेलना करता है। क्या तुम्हारी गवाही में एक घृणास्पद स्वाद नहीं है? इसलिए, मनुष्य परमेश्वर के लिए गवाही देने लायक नहीं है। अगर कोई कहता है : “चीन की मुख्यभूमि में परमेश्वर के कार्य के बारे में क्या तुम हमें गवाही दे सकते हो?” और तुम कहते हो : “हमने बरसों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है, इसलिए मेरा मानना है कि हम परमेश्वर के लिए गवाही देने की योग्यता रखते हैं”, क्या यह एक समस्या नहीं हैं? एक बार फिर, यह अनुचित है। मनुष्य परमेश्वर के लिए गवाही देने लायक नहीं है। तुम्हें बस यह कहना चाहिए : “हम परमेश्वर के लिए गवाही देने के योग्य नहीं हैं। फिर भी परमेश्वर ने हमें बचाया और हम पर अनुग्रह किया है। हमें थोड़ा अनुग्रह हासिल हुआ है और हमने परमेश्वर के कुछ कार्य का अनुभव किया है। इसलिए हम संगति में हिस्सा ले सकते हैं, लेकिन हम वाकई परमेश्वर के लिए गवाही देने की नहीं सोच सकते। हम केवल अपने अनुभवों की बात कर सकते हैं।” अगर तुम इस बारे में संगति करो कि परमेश्वर ने तुम्हें कैसे जीता, उस समय तुमने किस तरह की भ्रष्टता दिखाई थी, तुम कितने अहंकारी थे, तुम्हें जीत लिए जाने के बाद आखिर में किस तरह के परिणाम सामने आए, और तुमने किस तरह के संकल्प लिए। वास्तव में, परमेश्वर के लिए गवाही देने की खातिर असली अनुभवों की बातें करना परमेश्वर की इच्छा के सबसे अधिक अनुरूप है, और यही परमेश्वर की अपेक्षा है। परमेश्वर की गवाही देने के लिए कोई जगह पाने की इच्छा रखना एक बड़ी गलती है—तुम विवेकहीन भी हो और अहंकारी भी। तुम्हें यह कहना चाहिए : “मैं अपने कुछ अनुभवों की बात करूँगा, लेकिन मैं परमेश्वर की गवाही देने के योग्य नहीं हूँ। मैं पहले कुछ बातों पर संगति करूँगा। परमेश्वर ने चीन में देहधारण क्यों किया? तुम लोग शायद इस बात को नहीं समझते। हमने इसे परमेश्वर के कार्य से समझा है। हम चीनी, वहाँ पैदा हुए जहाँ बड़ा लाल अजगर कुंडली मारे बैठा है, हम एक गंदी जगह में बड़े हुए हैं। शैतान ने हमें सबसे अधिक गहराई तक भ्रष्ट किया है, हम सबसे अधिक झूठ बोलते हैं, हमारी मानवता सबसे अधिक कमी है, हममें ईमानदारी सबसे कम है, मानवता जैसी चीज तो लेशमात्र भी नहीं है। अन्य सभी देशों और इलाकों में मौजूद परमेश्वर के चुने हुए लोगों की तुलना में हम सबसे निम्न हैं, हम सबसे अधिक गंदे और भ्रष्ट लोग हैं। यही वजह है कि हम परमेश्वर के लिए गवाही देने लायक नहीं हैं, और फिर भी हम परमेश्वर के महान उद्धार में लाए गए हैं और हमने परमेश्वर का महान प्रेम प्राप्त किया है, इसलिए हमें अपने निजी अनुभवों की गवाहियों के बारे में बात करनी चाहिए। हम परमेश्वर के अनुग्रह को दबा नहीं सकते।” इस तरह की बातें करना अधिक उचित है। परमेश्वर द्वारा इंसानों पर विजय प्राप्त कर लिए जाने के बाद, उनके पास कम से कम यह तार्किकता तो होनी ही चाहिए कि वे अहंकार से बात न करें। सबसे अच्छा तो यही होगा कि वे अपना रुतबा बहुत छोटा समझें, “जमीन पर पड़े गोबर के समान,” और ऐसी बातें कहें जो सत्य हों। विशेष रूप से परमेश्वर की गवाही देते हुए, अगर तुम कोई खोखली या बड़ी बात किए बगैर, कोई काल्पनिक झूठ बोले बगैर, अपने हृदय से कोई गहरी बात कह सकते हो, तो फिर तुम्हारा स्वभाव वाकई बदल चुका होगा; परमेश्वर द्वारा जीत लिए जाने के बाद तुममें यही बदलाव आना चाहिए। अगर तुम इतनी भी समझदारी नहीं रख सकते हो, तो तुम्हारे अंदर मानवता जैसी कोई बात नहीं है। भविष्य में जब सभी राष्ट्रों और क्षेत्रों में परमेश्वर द्वारा चुने गए लोग परमेश्वर के समक्ष लौट चुके होंगे, और उसके वचनों के जरिये जीत लिए गए होंगे, तब अगर किसी विशाल सभा में तुम परमेश्वर के गुणगान में फिर से अहंकारपूर्वक कार्य करने लगते हो, लगातार डींगें हाँकते हो और दिखावा करते हो, तो तुम्हें पूरी तरह से रद्दी में डालकर निकाल दिया जाएगा। मनुष्य को हमेशा उचित व्यवहार करना चाहिए, अपनी हैसियत और स्थिति को पहचानना चाहिए, और अपने पुराने रंग-ढंग में नहीं लौटना चाहिए। शैतान की छवि सबसे मुखर ढंग से मनुष्य के अहंकार और दंभ में प्रकट होती है। अपने इस पहलू को बदले बगैर, तुम कभी भी एक मनुष्य जैसे नहीं हो सकते और हमेशा शैतान का चेहरा धारण किए रहोगे। अहंकार और दंभ का समाधान करना सबसे कठिन चीज है; और अपने अहंकार और दंभ का जरा-सा ज्ञान होने पर तुम पूर्ण परिवर्तन हासिल नहीं कर पाओगे; तुम्हें तब भी बहुत सारे शोधनों से गुजरना होगा। न्याय और ताड़ना का सामना किए बिना, किसी निपटान और काट-छांट के बिना, लंबी अवधि में तुम फिर भी खतरे में घिरे रहोगे। भविष्य में, जब दुनिया भर में परमेश्वर के चुने हुए लोग उसके कार्य को स्वीकारेंगे और कहेंगे, “हमें बहुत पहले ही प्रबुद्ध किया गया था जब परमेश्वर ने चीन में विजेताओं का एक समूह प्राप्त कर लिया था,” और जब तुम लोग यह सुनोगे, तो तुम सोचोगे : “हमारे पास शेखी बघारने के लिए कुछ नहीं है, सब-कुछ परमेश्वर के अनुग्रह से प्राप्त हुआ है। हम विजेता कहलाने के योग्य नहीं हैं।” लेकिन समय के साथ जब तुम स्वयं को कुछ कहने में सक्षम होते देखने लगते हो, और तुम्हारे पास थोड़ी सी वास्तविकता होती है, तो तुम विचार करोगे : “यहाँ तक कि विदेशियों ने भी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त की है, और उनका कहना है कि परमेश्वर ने चीन में विजेताओं का एक समूह बना लिया है, इसलिए हमें विजेता माना जाना चाहिए!” अब तुम अपने हृदय में इस स्वीकृति को चुपचाप मंजूर कर लोगे, और बाद में बस सार्वजनिक स्वीकृति दोगे। मनुष्य प्रशंसा किए जाने या हैसियत से परीक्षा लिए जाने पर टिक नहीं पाते। अगर तुम्हारी हमेशा प्रशंसा की जाती है, तो तुम खतरे में होगे। जिन लोगों का स्वभाव नहीं बदला है, वे आखिर में अडिग नहीं रह सकते।

भ्रष्ट मानवजाति के लिए सबसे कठिन समस्या है वही पुरानी गलतियाँ दोहराना। इसे रोकने के लिए लोगों को पहले इससे अवगत होना चाहिए कि उन्होंने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है, कि उनके जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया है, और यह कि भले ही वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, पर वे अभी भी शैतान के प्रभुत्व में रह रहे हैं, और उन्हें बचाया नहीं गया है; वे किसी भी समय परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उससे दूर भटक सकते हैं। यदि उनके हृदय में संकट का यह भाव हो—यदि, जैसा कि लोग अक्सर कहते हैं, वे शांति के समय खतरे के लिए तैयार रहें—तो वे कुछ हद तक अपने आपको काबू में रख पाएँगे, और अगर उनके साथ कोई बात हो भी जाए, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे और उस पर निर्भर रहेंगे, और वही पुरानी गलतियाँ करने से बच पाएँगे। तुम्हें स्पष्ट देखना चाहिए कि तुम्हारा स्वभाव नहीं बदला है, परमेश्वर के खिलाफ धोखा देने की प्रकृति अभी भी तुममें गहराई तक जड़ें जमाए हुए है और वह निकाली नहीं गई है, कि तुम अब भी परमेश्वर को धोखा देने के जोखिम में हो, और तुम्हें तबाह और नष्ट किए जाने की संभावना निरंतर बनी हुई है। यह वास्तविक है; इसलिए तुम लोगों को सावधान रहना चाहिए। तीन सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए : पहली, तुम अभी भी परमेश्वर को नहीं जानते; दूसरी, तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया है; और तीसरी, तुम्हें अभी भी मनुष्य की सच्ची छवि को जीना है। ये तीनों चीजें तथ्यों के अनुरूप हैं, ये वास्तविक हैं, और तुम्हें इनके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। तुम्हें आत्म-जागरूक होना चाहिए। यदि तुम्हारे पास इस समस्या को ठीक करने का संकल्प है, तो तुम्हें अपना नीति-वाक्य चुनना चाहिए : उदाहरण के लिए, “मैं जमीन पर पड़ा गोबर हूँ,” या “मैं शैतान हूँ,” या “मैं अकसर पुराने ढर्रे पर चल पड़ता हूँ,” या “मैं हमेशा खतरे में हूँ।” इनमें से कोई भी तुम्हारा व्यक्तिगत नीति-वाक्य बनने के लिए उपयुक्त है, और यदि तुम हर समय इसे याद करोगे, तो यह तुम्हारी मदद करेगा। इसे मन में दोहराते रहो, इस पर चिंतन करो, और तुम कम गलतियाँ करोगे या गलतियाँ करना बंद कर दोगे। बहरहाल, सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य समझने में अधिक समय व्यतीत करना, अपनी प्रकृति को जानना और अपने भ्रष्ट स्वभाव से बचना। तभी तुम सुरक्षित रहोगे। दूसरी चीज यह है कि कभी भी “परमेश्वर के किसी गवाह” का स्थान न लो, और कभी खुद को परमेश्वर के गवाह मत कहो। तुम केवल निजी अनुभव के बारे में बात कर सकते हो। तुम इस बारे में बात कर सकते हो कि परमेश्वर ने तुम लोगों को कैसे बचाया, इस बारे में संगति कर सकते हो कि परमेश्वर ने तुम लोगों को कैसे जीता, और यह बता सकते हो कि उसने तुम लोगों पर कौन-सा अनुग्रह किया। यह कभी मत भूलो कि तुम लोग सबसे अधिक भ्रष्ट हो, तुम गोबर की खाद और कचरा हो। अब परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने में सक्षम होना पूरी तरह से उसके द्वारा तुम्हारे उत्थान की बदौलत मुमकिन हुआ है। इसकी वजह केवल यही है कि तुम लोग सबसे भ्रष्ट और सबसे गंदे हो, इसलिए तुम्हें देहधारी परमेश्वर ने बचाया है, और उसने तुम पर इतना बड़ा अनुग्रह किया है। इसलिए तुम लोगों में शेखी बघारने के लायक कुछ भी नहीं है और तुम केवल परमेश्वर की प्रशंसा कर सकते हो और उसे धन्यवाद दे सकते हो। तुम लोगों का उद्धार विशुद्ध रूप से परमेश्वर के अनुग्रह के कारण हुआ है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि तुम लोग सबसे अधिक भाग्यशाली हो? तुम सबसे भाग्यशाली इसलिए नहीं हो क्योंकि तुम्हारे पास कुछ विशेष खूबियाँ हैं या अच्छे गुण हैं। तुम केवल इसलिए भाग्यशाली हो क्योंकि तुम्हारा जन्म चीन में हुआ है और तुम शैतान द्वारा सबसे अधिक भ्रष्ट और अशुद्ध किए गए हो। परमेश्वर ने अपनी प्रबंधन योजना के अनुसार, सबसे पहले उस देश में, जहाँ बड़ा लाल अजगर कुंडली मारे बैठा है, सर्वाधिक भ्रष्ट और गंदे मनुष्यों को बचाया; सबसे पहले मॉडलों या नमूनों का एक समूह बनाने का काम पूरा किया। यही वजह है कि उसने तुम सबको चुना है; तुम सब वे लोग हो जिन्हें परमेश्वर ने पूर्व-नियत किया और चुना था। अगर परमेश्वर ने यह योजना नहीं बनाई होती, तो तुम अनंत काल तक गर्त में डूबते जाते। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि तुम लोग सबसे अधिक भाग्यशाली हो। बहरहाल, इसमें गर्व करने वाली कोई बात नहीं है, और तुम यकीनन शेखी नहीं बघार सकते।

परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करना तुम्हें लाभ और सच्चे अनुभव देता है—ताकि तुम परमेश्वर की गवाही दे सको। जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और कैसे लोगों को ताड़ना देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुम लोगों को इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुम्हारे अनुभव में कितनी भ्रष्टता उजागर हुई, तुमने कितना कष्ट सहा, परमेश्वर का विरोध करने के लिए तुमने कितनी चीजें कीं, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुम लोगों को जीता; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुम्हें परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और कैसे परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। तुम्हें इन बातों को सरलता से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा में सत्व डालना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार चीजों का अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश मत करो, दिखावा करने के लिए खोखले सिद्धांतों की बात मत करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्कहीन माना जाएगा। तुम्हें अपने वास्तविक अनुभव की असली, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज्यादा बोलना चाहिए; यह दूसरों के लिए सबसे अधिक लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा। तुम लोग परमेश्वर के सबसे कट्टर विरोधी थे, और उनके प्रति समर्पित होने के लिए तैयार ही नहीं थे, लेकिन अब तुम जीत लिए गए हो, इस बात को कभी नहीं भूलो। इन बातों पर तुम्हें और अधिक विचार करना और सोचना चाहिए। एक बार जब लोग इसे साफ तौर पर समझ जाएँगे, तो उन्हें गवाही देने का तरीका पता चल जाएगा; अन्यथा वे और अधिक बेशर्मी भरे, मूर्खतापूर्ण कृत्य करने लगेंगे, जो कि परमेश्वर के लिए गवाही देना नहीं, बल्कि उसे शर्मिंदा करना है। सच्चे अनुभवों और सत्य की समझ के बिना, परमेश्वर के लिए गवाही देना संभव नहीं है; परमेश्वर में जिन लोगों की आस्था संभ्रमित और उलझन भरी होती है, वे कभी भी परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे सकते।

वसंत, 1999

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