परमेश्वर पर विश्वास करने में, सही मार्ग चुनना सबसे महत्वपूर्ण है

अंत के दिनों में, परमेश्‍वर के सुसमाचार को फैलाने के कार्य के दौरान, कुछ ही लोग स्‍वयं को ईमानदारी से परमेश्‍वर के प्रति खपाने के लिए अपने परिवार और बाकी सब चीजों का त्याग कर पाते हैं। इन सभी लोगों के पास कुछ वास्तविक अनुभवात्मक साक्ष्य और कुछ आध्‍यात्मिक कद होता है। इन्हें नहीं लगता कि अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए अपने परिवार और करिअर को त्यागना कोई बड़ा कष्‍ट है। यहाँ तक कि अगर उन्‍हें दस साल या जीवन भर भी घर से बाहर रहना पड़े तो वे ऐसा करने के इच्‍छुक होते हैं। उन्हें नहीं लगता कि यह कोई कठिन काम है। यह पवित्र आत्मा द्वारा उन्हें दी गई शक्ति है। लेकिन जहाँ तक उनके आध्‍यात्मिक कद की बात है, वह इस स्तर तक नहीं पहुँच पाता क्योंकि भले ही वे कुछ सत्य समझते हैं, पर उन्होंने अभी तक सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, न ही उन्होंने सत्य प्राप्त किया है। वे बस खुद को परमेश्वर के लिए खपाने को लेकर कुछ गंभीर हैं। यदि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने के लिए संकल्पित है, और साथ ही पवित्र आत्मा उस पर कुछ अनुग्रह करता है, तो वह उस क्षण विशेष रूप से संतुष्ट महसूस करता है; वह एक प्रकार की ताकत हासिल करता है और परमेश्‍वर हेतु खुद को खपाने के लिए धर्मनिरपेक्ष दुनिया के बँधनों से बाहर निकलने में सक्षम होता है—यह परमेश्‍वर की कृपा है। लेकिन कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो अपने कर्तव्यों को निभाते समय अपने समुचित कार्य पर ध्यान नहीं देते; वे सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करते, और इसके अलावा सभी प्रकार के गलत कार्यों में संलग्न होने में सक्षम होते हैं। ऐसे मामलों में, पवित्र आत्मा उन पर कार्य नहीं करता। ऐसे लोगों की प्रेरणाएँ ईमानदार नहीं होतीं, और वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते। यहाँ तक कि अगर पवित्र आत्मा ने अतीत में उन पर थोड़ा सा कार्य किया हो, तो वह भी जब्त कर लिया जाता है, और इसे जाने बिना, वे पतन के रास्‍ते पर चल पड़ते हैं। यदि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करने के लिए दृढ़ संकल्पि‍त है, तो पवित्र आत्मा तुम पर कुछ अनुग्रह करके तुम्‍हें आनंदित करेगा, और फिर तुम अपने अनुसरण में उस मार्ग पर आगे बढ़ सकते हो जिस पर पवित्र आत्मा तुम्हें ले जाता है; तुम्‍हारे लिए सत्य और भी अधिक स्पष्ट हो जाएगा, तुम्‍हारा संकल्प और भी अधिक दृढ़ हो जाएगा, और पवित्र आत्मा के लिए तुम पर कार्य करना उत्‍तरोत्‍तर रूप से आसान होता जाएगा। जब कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने के सही मार्ग पर नहीं चलता है, तो पवित्र आत्मा अंततः उसे बाहर निकाल देता है। बाहर निकाले जाने के बाद, उसका मूल संकल्प, मूल जुनून और त्याग करने तथा स्‍वयं को परमेश्‍वर के लिए खपाने की प्रेरणा पूरी तरह से गायब हो जाती है। उसे पछतावा होता है, और वह सोचता है, “अगर मुझे पता होता कि एक दिन ऐसा आएगा जब मुझे बाहर निकाल दिया जाएगा, तो मैं परमेश्‍वर में विश्वास ही नहीं करता।” इस बिंदु पर, उसका अफसोस, शिकायतें और नकारात्मकता सब बाहर आ जाते हैं। वास्‍तव में, पवित्र आत्मा ने बहुत पहले ही उस पर काम करना बंद कर दिया था। भले ही वह सुसमाचार फैलाता है, बोलने में प्रतिभाशाली है, और उसने कुछ परिणाम भी प्राप्त किए हैं, ऐसा पवित्र आत्मा के प्रबोधन और मार्गदर्शन के कारण नहीं हुआ। बल्कि, इसकी वजह इस व्यक्ति के पास थोड़ी चतुराई और कुछ क्षमता का होना था। इसका मतलब यह नहीं है कि पवित्र आत्मा उसमें काम कर रहा था। वह सेवाकर्ता के समान ही है—भले ही पवित्र आत्मा उसमें काम नहीं कर रहा है, फिर भी वह अस्थायी रूप से थोड़ी-बहुत सेवा प्रदान करने में सक्षम है। मामला जो भी हो, उसके पास कुछ प्रतिभाएँ और क्षमताएँ हैं; बात सिर्फ इतनी है कि सत्य का अनुसरण करने, अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने की कोशिश करने और परमेश्वर का प्रेम लौटाने का प्रयास करने के बजाय, वह प्रतिष्ठा, लाभ, हैसियत, आशीर्वाद और एक बड़े ताज की तलाश में है। इसलिए, जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता जाता है, उसका रास्ता गायब होता जाता है, और उसके लिए एक कदम भी उठाना मुश्किल हो जाता है। सत्य का अनुसरण नहीं करने वाले सभी लोगों का यही हाल होता है।

ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो कहते हैं, “मुझे मालूम है कि मैं खराब प्रकृति का हूँ। मैं अत्‍यंत मोहग्रस्‍त और अवज्ञाकारी हूँ।” लेकिन इसके बावजूद, ये लोग अपनी ही प्रकृति को नहीं जानते, और सत्य के किसी भी पहलू को नहीं समझते। भले ही वे सिद्धांतों के बारे में कितना भी अच्‍छा क्‍यों न बोलते हों, लगता है जैसे वे सब कुछ समझते हों, वे इन चीजों को अभ्यास में नहीं ला पाते। यह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि उन पर पवित्र आत्मा का कार्य धूमिल हो गया है। भले ही तुम्‍हारी मानवता कैसी भी क्‍यों न हो, या तुम कितने भी सिद्धांतों को क्‍यों न समझते हों, और तुमने कितना भी कष्ट क्‍यों न सहा हो या त्याग क्‍यों न किया हो, अगर पवित्र आत्मा तुममें काम नहीं कर रहा है, तो यह साबित करता है कि तुम सत्‍य से प्रेम नहीं करते। तुम कितने भी जुनूनी क्‍यों न हों, पवित्र आत्मा के कार्य के बिना तुम मूढ़ रह जाओगे। मनुष्य के पास जो थोड़ी सी ताकत है, वह कितनी बड़ी है? मनुष्य की थोड़ी-सी आस्‍था कितनी बड़ी है? मनुष्य के पास जो थोड़ा ज्ञान है, उसका क्या उपयोग है? उदाहरण के लिए परमेश्‍वर के विश्वासियों का दमन, गिरफ्तार और कैद होना देखो। जब से उन्होंने पहली बार परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया, तभी से उन्हें बार-बार सताया गया, उनका पीछा किया गया और एक जगह से दूसरी जगह भागने के लिए मजबूर किया गया, और इसने उनके दिलो-दिमाग पर एक अमिट छाप छोड़ी। “यदि मैं पकड़ा गया, तो मैं यहूदा के समान नहीं हो पाऊॅंगा; मैं कभी कलीसिया के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता”—क्या अधिकतर लोगों ने स्वयं को इस प्रकार तैयार नहीं किया है? लेकिन जब वे वास्तव में पकड़े जाते हैं, तो यह उन पर निर्भर नहीं करता। यदि वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते और उस पर भरोसा नहीं करते, तो पवित्र आत्मा उनमें कार्य नहीं करेगा, और वे दृढ़ नहीं रह पाएँगे। लोग पल भर के भ्रम से यहूदा नहीं बन जाते। जैसा कि मैंने पहले भी कहा था, अंततः तुम्‍हारे साथ क्या होता है, और तुम्‍हारा परिणाम क्या होता है, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि तुम सत्य से प्रेम करते हो या नहीं और उसे स्‍वीकार करते हो या नहीं। यह सबसे महत्वपूर्ण है। उसके बाद, यह इस पर निर्भर करता है कि पवित्र आत्मा का कार्य हमेशा तुम्‍हारे साथ रहता है या नहीं, और क्या तुम सत्य को समझते हो और अपनी गवाही पर दृढ़ रहते हो। ये मुख्य बातें हैं जिन पर यह निर्भर करता है। जब कुछ लोगों ने पहली बार अपने कर्तव्यों का पालन करना शुरू किया तो उनमें बहुत उत्साह था, और उन्हें ऐसा महसूस होता था मानो उनमें कभी न खत्‍म होने वाली ऊर्जा हो। तो ऐसा क्यों है कि वे समय के साथ यह जोश खोने लगते हैं? वे अतीत में कौन थे और अब कौन हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि वे दो पूर्णतया भिन्न लोग हैं—वे क्यों बदल गए? इसका कारण क्या है? ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने गलत रास्ता अपनाया, और परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते में प्रवेश नहीं किया। उन्होंने आशीर्वाद पाने का मार्ग अपनाया। उनके कुछ छुपे हुए इरादे हैं। वे क्‍या हैं? जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे दिल-ही-दिल कुछ आशाएँ पालते हैं—वे आशा करते हैं कि परमेश्वर का दिन अवश्य ही जल्‍द आएगा और उनके सारे कष्‍ट खत्‍म हो जाएँगे, उन्‍हें उम्‍मीद होती है कि परमेश्‍वर स्‍वरूप बदलकर सिय्योन लौटेगा और तब उन्‍हें अपने सभी कष्‍टों से मुक्ति मिल जाएगी। लोगों को उम्मीद होती है कि एक दिन वे घर लौट सकेंगे और अपने प्रियजनों से दोबारा मिल सकेंगे। वे आशा करते हैं कि एक दिन आएगा जब उन्हें सताया नहीं जाएगा, जब वे वास्तव में स्वतंत्र हो सकेंगे, और खुले तौर पर परमेश्वर में विश्वास कर सकेंगे; उस समय, उन पर प्रतिबंध लगाने वाला कोई नहीं होगा, और वे आरामदेह माहौल में रह सकेंगे, अच्छा खा और पहन सकेंगे। क्या सभी लोगों को ऐसी आशाएँ नहीं होतीं? ये आशाएँ लोगों के दिलों की गहराई में विद्यमान हैं क्योंकि उनकी देह दुख नहीं भोगना चाहती। कष्ट के समय में, वे अच्छे दिनों की उम्‍मीद करते हैं। ऐसी बातें कष्‍ट और उत्‍पीड़न के बिना उजागर नहीं होतीं। कष्‍ट या उत्पीड़न के बिना, लोगों का विश्वास दृढ़ प्रतीत होता है। लगता है कि उनका कुछ आध्‍यात्मिक कद है, वे सत्य को अच्छी तरह से समझते हैं और जोश से भरे हुए हैं। लेकिन, जब एक दिन उन्हें उत्पीड़न और क्लेश का सामना करना पड़ता है, तो उनकी दैहिक आशाएँ, कल्पनाएँ और असाधारण इच्छाएँ फूट पड़ती हैं। उनके दिलों में संघर्ष प्रकट होने लगता है, और कुछ लोग नकारात्मक और कमजोर होने लगते हैं, और उनके भीतर परमेश्‍वर के बारे में संदेह और गलतफहमियाँ पैदा होने लगती हैं। लोग परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते। ऐसा नहीं है कि परमेश्‍वर उन्हें कोई उपाय नहीं दे रहा है या उन पर अपनी कृपा नहीं बरसा रहा है, और निश्चित रूप से ऐसा भी नहीं है कि परमेश्वर उनकी कठिनाइयों को नहीं समझता। बल्कि, अब चूँकि तुम मसीह का अनुसरण कर रहे हो तो तुम इस पीड़ा का अनुभव करने में सक्षम हो रहे हो, यह एक आशीर्वाद है, क्योंकि लोगों के लिए इस दुख को भोगे बिना उद्धार प्राप्त करना और जीवित रहना संभव नहीं है। यह परमेश्वर द्वारा आदेशित है, इसलिए, तुम पर यह कष्ट आना एक आशीर्वाद है। तुम्‍हें इसे सरल तरीके से नहीं देखना चाहिए; यह लोगों को कष्ट देने और उनके साथ खिलवाड़ करने का मामला नहीं है, बस इतना ही। इसका महत्व अविश्वसनीय रूप से गहन और बड़ा है! किसी साथी की तलाश किए बिना या घर लौटे बिना, स्‍वयं को परमेश्‍वर के लिए खपाने हेतु अपना पूरा जीवन समर्पित करना सार्थक है। यदि तुम सही रास्ता अपनाते हो और सही चीजों का अनुसरण करते हो, तो अंततः तुम सभी युगों के सभी संतों से भी अधिक पाओगे, और इससे भी अधिक वादे प्राप्त करोगे। कुछ लोग अब हमेशा आश्चर्य करते हैं, “क्या परमेश्वर मुझे इन कठिनाइयों को सहने के लिए याद रखेगा? यदि बुढ़ापे में मेरा साथ देने वाला कोई न हुआ तो क्या होगा? अगर मैं बीमार पड़ गया तो मेरी देखभाल कौन करेगा? क्या परमेश्‍वर को परवाह है? यह कष्ट कब दूर होगा? आखिरकार मेरे जीवन में नया सवेरा कब होगा?” ऐसे लोग हमेशा इन चीजों के इंतजार में रहते हैं, आशा करते हैं कि परमेश्‍वर स्‍वरूप बदलकर उन्हें दुखों से बचाएँगे ताकि वे स्वर्ग के राज्य के आशीर्वाद का आनंद ले सकें। वे इस बात पर विचार नहीं करते कि परमेश्वर का अनुसरण करने और दुख भोगने का क्या महत्व है, या सत्य प्राप्त करने के लिए उन्हें यह दुख भोगने की आवश्यकता क्यों है। उनकी आस्‍था सचमुच बहुत कमजोर होती है! जब परमेश्‍वर में उनकी आस्था की बात आती है, तो हर किसी का अपना स्‍वार्थपूर्ण हिसाब-किताब होता है। इस आधार पर, परमेश्वर को धोखा देना मानव का स्वभाव है। कोई भी वास्तव में परमेश्‍वर से प्यार नहीं करता, कोई भी वास्तव में परमेश्‍वर की इच्छा के प्रति परवाह नहीं दिखा सकता, या सुसमाचार कार्य का विस्तार करने में परमेश्‍वर के साथ एकमन नहीं हो सकता। लोग परमेश्वर के पृथ्वी छोड़ने और रूप बदलने का इंतजार नहीं कर सकते, ताकि वह उन्हें पीड़ा से बचा सके और उन्हें स्वर्ग के राज्य में जीवन का आनंद लेने की अनुमति दे सके। अधिकतर लोग यही आशा करते हैं। बहुत से लोग मन में सोचते हैं, “यदि परमेश्वर हमें छोड़ देता है और बड़े लाल अजगर का पतन हो जाता है, तो हम शक्ति प्राप्त कर सकते हैं, और तब हमें और कष्ट सहने की आवश्यकता नहीं होगी। हम सभी राष्ट्रों और लोगों पर निरंकुश शासन करेंगे—क्‍या तब हमारे लिए नया सवेरा नहीं होगा? उस समय, परमेश्‍वर सबके सामने प्रकट होगा और हर शैतान और दुष्‍ट को दंडित और नष्ट कर देगा, मसीह का राज्य पृथ्वी पर साकार हो जाएगा, और तब दुष्‍टों और शैतानों द्वारा हमें सताया नहीं जा सकेगा।” हालाँकि ऐसी आशा रखना गलत नहीं है, लेकिन इन लोगों के अंदर कुछ गलत स्थितियाँ हैं। क्या निरंतर दुखों से बचने और आराम का आनंद लेने की इच्छा करना परमेश्वर की इच्छा के प्रति परवाह प्रदर्शित करना है? क्या यह परमेश्वर को संतुष्ट करता है? अधिकतर लोग दुख का अनुभव करने के महत्व को पूरी तरह से नहीं समझते हैं।

कोई भी जीवन पर्यंत परमेश्वर के अनुसरण के मार्ग पर चलने, जीवन पाने के लिए सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने, उसके लिए गवाही देने में सक्षम होने या अंततः पतरस की तरह सार्थक जीवन जीने का इरादा नहीं रखता है। अधिकतर लोग दुख भोगने को तैयार नहीं हैं और सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, फिर भी वे जल्द-से-जल्द स्वर्ग के राज्य के आशीर्वाद का आनंद पाना चाहते हैं, और प्रतिष्ठा, लाभ और हैसियत के लाभों की तलाश करना पसंद करते हैं। यही कारण है कि वे भटकते हैं। दर्द, असफलताओं या विफलता का सामना करने पर उनके नकारात्मक और कमजोर हो जाने की संभावना रहेगी, और उनके दिलों में परमेश्‍वर के लिए जगह नहीं होगी। पवित्र आत्मा उनमें कार्य नहीं करेगा, और कुछ लोग तो पलट जाना भी पसंद करेंगे। यदि कोई व्यक्ति वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता है, लेकिन उसके पास थोड़ी सी भी सत्य वास्तविकता नहीं है, तो यह बहुत खतरनाक बात है! कितने अफसोस की बात है कि उसकी सारी पीड़ाएँ, उसने जो अनगिनत उपदेश सुने, और परमेश्वर का अनुसरण करते हुए जो वर्ष बिताए, सब व्यर्थ हो गए हैं! लोगों के लिए पतन के रास्‍ते पर जाना आसान है, और वास्तव में, सही रास्ते पर चलना और पतरस का रास्ता चुनना कठिन है। अधिकतर लोगों की सोच अस्पष्ट होती है। वे स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते कि कौनसा मार्ग सही है और कौनसा उससे भटकाने वाला है। चाहे वे कितने भी उपदेश सुनें, परमेश्वर के कितने भी वचन पढ़ें, भले ही वे अपने दिलों में जानते हों कि मनुष्य का देहधारी पुत्र आ गया है, फिर भी वे उस पर पूरी तरह से विश्वास नहीं करते। वे जानते हैं कि यह सच्चा मार्ग है, लेकिन वे इस पर चल नहीं पाते। जब लोग सत्य से प्रेम नहीं करते तो उन्हें बचाना कितना कठिन होता है! तुम जानते हो कि परमेश्वर का वचन सत्य है, फिर भी तुम इसे स्वीकार नहीं कर पाते। चलो, तुम्‍हारी आस्‍था की गुणवत्ता के बारे में बात नहीं करते और केवल इस बारे में बात करते हैं कि तुम्‍हें सत्य से प्रेम क्यों नहीं है, और तुम सत्य को स्वीकार क्यों नहीं कर पाते। तुम सच्चे मार्ग पर चलने में असमर्थ हो, सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक नहीं हो, और स्‍वयं को समझ में आने वाले सत्‍यों को अभ्यास में लाने में असमर्थ हो। क्या तुम शैतान जैसे नहीं हो? ऐसे लोगों के जीवन में कोई लक्ष्य या दिशा नहीं होती, वे जानवरों की तरह मानवता से रहित होते हैं। इसलिए, कुछ लोग पवित्र आत्मा के कार्य को खो देते हैं, इसलिए नहीं कि पवित्र आत्मा जानबूझकर उनमें कार्य नहीं कर रहा है और इरादतन उन्हें उजागर कर रहा है, बल्कि इसलिए कि वह उनमें कार्य करने में सक्षम नहीं है। लोग अंदर से अत्‍यंत भ्रष्ट हैं और उन्हें संभालना बहुत कठिन है। यदि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते या सही मार्ग नहीं चुनते, तो पवित्र आत्मा उनमें कैसे कार्य कर सकता है? जब भी पवित्र आत्मा कार्य करता है तो वह हमेशा लोगों को विकल्प देता है, वह कभी किसी को मजबूर नहीं करता। लेकिन लोगों की सोच बहुत उलझी हुई है। वे सत्य से प्रेम नहीं करते या उसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, और वे इसे प्राप्त करने के लिए कष्ट सहने के तो और भी कम इच्छुक होते हैं। हालाँकि वे धन्य होना चाहते हैं, लेकिन वे प्रयास करने या कीमत चुकाने को तैयार नहीं हैं। उनका स्वार्थ बहुत बड़ा है। उन्हें केवल अपने तात्कालिक हितों की चिंता है; वे उन चीज़ों का पीछा और उनके लिए संघर्ष करते हैं जो उनकी आँखों के सामने हैं, जिन्हें वे देख सकते हैं और जिनका वे आनंद ले सकते हैं, और वे उन चीजों को अनदेखा कर देते हैं जिन्हें वे नहीं देख सकते, या जिनमें उन्हें कोई अर्थ नहीं नजर आता। अधिकतर लोग इसी स्थिति में हैं, और पवित्र आत्मा के कार्य के लिए लगभग कोई जगह नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मेरी कई समस्याएँ हैं जिन्हें मैं हल नहीं कर सकता। अगर कोई मेरे साथ संगति करे और सत्य को समझने में मेरी मदद करे, तो मुझे और समस्‍याएँ नहीं रहेंगी।” लेकिन क्या वे केवल सत्य को समझकर सचमुच अपनी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं? क्या वे सत्य को अभ्‍यास में लाने में सक्षम हैं? ये सभी अज्ञात हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने बहुत सारे उपदेश सुने हैं और बहुत सारे सत्य समझे हैं, लेकिन वे उनमें से किसी भी सत्य को अभ्यास में लाने में असमर्थ हैं। यदि तुम उनसे उनकी समस्याओं के बारे में पूछो तो वे कहते हैं, “मैं संपूर्ण सत्‍य समझता हूँ, लेकिन मैं उसे अभ्यास में नहीं ला सकता। इस समस्या का समाधान कैसे किया जा सकता है?” यदि तुम किसी सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते तो परमेश्वर में विश्वास करने का क्या फायदा? जल्दी घर जाओ और अपना जीवन जारी रखो। सत्य पर तुम्‍हारे साथ संगति करने का क्या लाभ? तुम सत्य सुनने के लिए अयोग्य हो, और परमेश्वर पर विश्वास करने के अयोग्य हो, इसलिए तुम्‍हें बस अपने विनाश की प्रतीक्षा करनी चाहिए! चूँकि तुमने कुरूप, घटिया और दानवों जैसा मार्ग चुना है, इसलिए चाहे तुम्‍हारे साथ सत्‍य पर कितनी भी संगति की जाए, तुम उसे स्वीकार नहीं करोगे। तो, तुम्‍हें अलग हट जाना चाहिए! ऐसे लोगों को कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है। ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने पहले कहा है, “मैं सारी सच्चाई समझता हूँ, लेकिन उसे अभ्यास में नहीं ला सकता।” यह कथन अकेला ही यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि वह दुष्‍ट है और पूरी तरह से शैतान जैसा ही है। यदि कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह निश्चित रूप से दुष्ट है। किसी व्यक्ति की प्रकृति पूरी तरह से इस बात से प्रदर्शित होती है कि उसे क्या पसंद है, वे किसकी आशा करते हैं, वे क्या महत्‍वाकांक्षा रखते हैं और किसके लिए लालायित हैं। यदि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, तो तुम शैतान के हो और नष्ट हो जाओगे। परन्तु यदि तुम सत्य से प्रेम करते हो, तो तुम परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित और चुने हुए हो। क्या यह स्पष्ट नहीं है? तुम्‍हारे द्वारा चुना गया मार्ग सबसे महत्वपूर्ण है। तुम शांत होकर इस पर गंभीरता से विचार कर सकते हो; यदि तुम भटक गए हो, तो वापस लौटने में देर नहीं हुई है। यदि तुममें सत्य को अभ्‍यास में लाने की इच्छाशक्ति है, तो यह अच्छी बात है। इसके अलावा, अपनी इस इच्छा को कैसे प्राप्त करें और उसे कैसे पूरा करें, इसके लिए तुम्‍हें एक मार्ग की आवश्यकता है। सबसे पहले, तुम्हें सत्य को समझना चाहिए, मानवजाति के भावी गंतव्य को जानना चाहिए, मानवजाति को कौन सा मार्ग अपनाना चाहिए और उन्‍हें किन लक्ष्यों को उन्हें पूरा करना चाहिए। अतीत में, यह अक्सर कहा जाता था कि, “सभी चीजें और घटनाएँ परमेश्‍वर के हाथों में हैं।” यह कुछ ऐसा है जिसे तुम्हें पूरी तरह से अनुभव करना चाहिए। हर चीज में, तुम्हें यह विचार करना चाहिए कि क्या वह मामला परमेश्वर के हाथ में है। यदि तुम्‍हें वास्‍तव में स्पष्ट है कि सभी चीजें और घटनाएँ परमेश्‍वर के हाथों में हैं, तो तुम वास्‍तव में विश्‍वास रखते हो। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो तो क्या तुम्‍हें उसके प्रति समर्पण करना चाहिए? परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या महत्व है? क्या परमेश्वर में विश्वास रखने का उद्देश्य केवल उसका आशीर्वाद प्राप्त करना है? अब तुम परमेश्‍वर में अपने विश्वास में मसीह का अनुसरण कर रहे हो, लेकिन क्या तुम अंत तक इस मार्ग पर बने रह सकोगे? जब भविष्य में तुम्‍हें अपने मार्ग में बाधाओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा तो तुम्‍हें कैसे आगे बढ़ते रहना चाहिए? तुम्‍हें स्‍वयं को प्रोत्साहित करने के लिए परमेश्‍वर के मुख्‍य वचनों को आदर्श वाक्य के रूप में लेना चाहिए, ताकि तुम्‍हारा पतन न हो, तुम कमजोर या नकारात्मक न हों, परमेश्‍वर को दोष न दो, रास्ते से भटक न जाओ, या आधे रास्ते से भागकर परमेश्‍वर को धोखा न दो। अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए तुम्हें इस पर स्पष्ट होना और यह सब पूरी तरह से समझना होगा।

परमेश्‍वर का अनुसरण करने के मार्ग के अपने उतार-चढ़ाव होते हैं, वह सीधा भी हो सकता है और टेढ़ा भी। जब लोग खुश होते हैं, तो वे यह कहने में पूरी तरह से सक्षम होते हैं, “मैं परमेश्‍वर के लिए खुद को खपाने का इच्‍छुक हूँ, मैं जीवनपर्यंत उसके लिए खपूँगा।” लेकिन, फिर किसी समय वे असफलताएँ अनुभव करते हैं और नकारात्मक हो जाते हैं। वे मन-ही-मन सोचते हैं, “परमेश्वर कहाँ है? अब मैं उसमें विश्वास करते रहना जारी नहीं रख सकता, इस रास्ते पर चलना बहुत कठिन है!” इसके बाद, वे प्रार्थना करते हैं और यह सोचते हुए कि वे परमेश्‍वर के ऋणी हैं, खुद को फटकारते हैं। यह जानने के बाद कि वे परमेश्‍वर के ऋणी हैं, उन्हें इस तरह का व्यवहार करना बंद कर देना चाहिए। लेकिन, फिर शायद एक दिन चीजें उनके अनुसार नहीं होतीं, और वे एक बार फिर से नकारात्मक हो जाते हैं और परमेश्‍वर के बारे में शिकायत करते हुए कहते हैं, “परमेश्‍वर मेरे लिए इस स्थिति का आयोजन कैसे कर सका? वह मुझे हमेशा दुख क्यों देता है? क्‍या वह मुझे दुखों से मुक्‍त नहीं कर सकता?” लोग हमेशा शिकायत करते हैं, फिर बाद में हमेशा कहते हैं कि वे परमेश्‍वर के ऋणी हैं। लेकिन, वे कभी नहीं बदलते; जब उन्हें थोड़ा-सा भी झटका लगता है या कोई छोटी-सी चीज भी उनके अनुसार नहीं होती, तो वे क्रोधित होकर शिकायत करते हैं। सबसे बुरे मामले तो वे होते हैं जबकि कुछ लोग परमेश्‍वर की निंदा और आकलन के भी कुछ शब्‍द कह देते हैं। बाद में, उन्हें एहसास होता है कि उन्होंने जो कहा वह गलत था, और वे उसे लेकर बुरा महसूस करते हैं, इसलिए वे अपने कुछ कर्तव्यों को निभाने में जल्दबाजी करते हैं और खुद को छुड़ाने के लिए कुछ अच्छे काम करते हैं। ऐसे प्रकटन हमें क्‍या बताते हैं? यह कि सत्य को पसंद न करना या उससे परेशान तक हो जाना मनुष्य की प्रकृति है। मनुष्य काफी दुष्ट, कुरूप है और उसमें सहज ज्ञान और विवेक की कमी है। लोग परमेश्वर में ऐसे विश्वास करते हैं मानो वे कोई लेन-देन कर रहे हों; वे परमेश्वर की प्रार्थना तभी करते हैं जब उन्हें उसकी आवश्यकता होती है, और जब उन्हें परमेश्‍वर की आवश्यकता नहीं होती तो उससे भटक जाते हैं। उनके दिलों में परमेश्वर नहीं होता, और वे अपनी इच्‍छानुसार कार्य करते हैं। लोग अत्‍यंत अहंकारी और बेलगाम होते हैं; वे परमेश्वर से नहीं डरते या वास्तव में नकारात्मक चीजों से घृणा नहीं करते। उनमें सत्य के प्रति सच्चे प्रेम की कमी होती है और वे न्याय और अन्याय के बीच अंतर नहीं कर पाते। उनकी कोई सीमा, कोई लक्ष्य नहीं होता और वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सिद्धांत और संयम तो और भी नहीं होता। उनके हृदय काफी घिनौने होते हैं, और इस पृष्ठभूमि में भी वे इस इंतजार में रहते हैं कि भविष्‍य में वे कितना बड़ा वादा या कितने आशीर्वाद प्राप्‍त कर सकेंगे या बाद में वे खुद को अन्‍य लोगों से अलग कैसे करेंगे और किन चीजों का आनंद ले सकेंगे। जब वे ऐसी चीजों के बारे में सोचते हैं, केवल तभी उन्‍हें मन में यह महसूस होता है, “परमेश्‍वर कितना अच्‍छा है! मुझे परमेश्वर का प्रेम चुकाना होगा!” वे ऐसा क्यों कहते हैं कि परमेश्वर अच्‍छा है? उनमें परमेश्वर का प्रेम चुकाने की इच्छा कहाँ से आती है? क्या इन वक्‍तव्‍यों के पीछे कोई मंशा नहीं है? वे बस अपनी अस्‍थायी वरीयता और आनंद के क्षणभंगुर प्रवाह के कारण कुछ भावुक बातें कह रहे हैं—क्या यह सच्ची समझ है? क्या यह सच्‍चा प्रेम है? क्या यह उनके दिल की गहराइयों से आता है? यदि तुममें वास्तव में ऐसी समझ है, तो तुम्‍हें शिकायतें क्यों हैं? यदि तुम वास्तव में परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस करते हो, तो फिर शिकायत क्यों करते हो? तुम्‍हें लगता है कि परमेश्‍वर तुम्‍हारे प्रति अच्छा नहीं है, इसलिए तुम उसकी उपेक्षा करते हो। यदि परमेश्वर तुम्‍हारा उपयोग नहीं करता, तो तुम अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते। तुमने अपने अंदर कितना आक्रोश पाल रखा होगा! इसके बावजूद, तुम अब भी मानते हो कि तुम परमेश्‍वर से दूसरों की तुलना में अधिक प्यार करते हो। यह वास्‍तव में परमेश्‍वर से प्रेम करना कैसे है? यह तथ्‍य कि कोई व्यक्ति ऐसी शिकायतें कर सकता है, यह साबित करता है कि उसमें अब भी अपनी प्रकृति को लेकर समझ की कमी है। वह अब भी नहीं जानता कि वह क्‍या है, किसका है और उसका वास्‍तविक मोल क्‍या है। दरअसल, परमेश्वर का विरोध करना और उसे धोखा देना हर व्यक्ति की प्रकृति में है। यह सार्वभौमिक और सभी लोगों में साझा है। कोई भी वास्तव में सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता, ठीक वैसे ही जैसे कोई भी वास्तव में शैतान और बुराई से नफरत नहीं करता। मनुष्य के प्रेम और घृणा के कोई सिद्धांत या सीमाएँ नहीं हैं, और मनुष्य का प्रेम और घृणा सत्य पर तो और भी कम आधारित है। मनुष्य के हृदय में, न्याय और अन्याय, काले और सफेद के बीच कोई अंतर नहीं है, सत्यों और सिद्धांतों या अफवाहों के बीच तो और भी अंतर नहीं है। लोग ये भेद नहीं कर सकते। वे इस बारे में अस्पष्ट हैं कि क्या प्रेम और अनुसरण करने लायक है, किससे नफरत की जानी चाहिए और क्या अस्वीकार किया जाना चाहिए, और वे किसी भी प्रकार की समझ से दूर हैं। कुछ लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, और जब वे धर्मनिरपेक्ष गीत, “कम बैक होम मोर ऑफन” सुनते हैं, तो उन्हें घर की याद आ जाती है और फिर उनका अपने कर्तव्‍यों का पालन करने का मन नहीं करता। ऐसा व्‍यक्ति किस प्रकार का है? क्या इसमें रत्ती भर भी सत्य वास्तविकता है? कुछ लोगों को लगता है कि वे थोड़ा-सा काम कर सकते हैं और उनमें कुछ योग्यताएँ हैं। उन्हें ऐसा लग सकता है कि उनके पास सत्य है, लेकिन वास्तव में, उनके पास कुछ भी नहीं है, और वे स्‍वयं कुछ भी नहीं हैं। हालाँकि, अब तुम दूसरों को कुछ सिद्धांतों का उपदेश देने में सक्षम हो, हो सकता है कि किसी दिन दूसरों को तुम्‍हें प्रोत्साहित करना पड़े, और तुम्‍हारा पतन किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में अधिक त्रासद होगा, और तुम किसी भी अन्य व्‍यक्ति की तुलना में अधिक नकारात्मक हो जाओगे। क्या तुम ऐसी बात पर विश्वास करते हो? क्या तुम लोग इससे आश्वस्त हो? शायद तुम लोगों ने अभी तक मुश्किल पतन का अनुभव नहीं किया है या विशेष रूप से नकारात्मक नहीं हुए हो। तुम्‍हें लगता है कि तुम अपेक्षाकृत रूप से मजबूत हो, और चूँकि तुमने ऐसी चीजों का अनुभव नहीं किया है, तो तुम मानते हो कि तुम्‍हारे पास आध्‍यात्मिक कद है। शायद एक दिन जब तुम्‍हें उजागर किया जाएगा, तो तुम आँसू बहाते हुए चिल्‍लाओगे, “सब खत्‍म हो गया। मेरे जीवन में अब कुछ नहीं बचा!” यही वह समय है जब तुम एक अति से दूसरी अति की ओर जाना शुरू कर दोगे। ऐसे बहुत से लोग हैं जो जब परमेश्‍वर में विश्वास करना शुरू करते हैं तो जोश से भरे होते हैं, लेकिन जब उन पर मुसीबतें आती हैं, तो हो सकता है कि वे अचानक अपनी प्रेरणा खो दें, और फिर से खुद को संभालने में असमर्थ रहें। क्या तुम लोगों को ऐसे लोगों के साथ कोई समस्या नजर आती है? किसी भी व्यक्ति का अपनी कमजोरी और ताकत पर नियंत्रण नहीं होता; लोगों के भीतर छिपी भ्रष्ट चीजें कभी भी और कहीं भी सामने आ सकती हैं। इंसान के अंदर सौदेबाजी और गंदगी की कोई कमी नहीं है, ऐसी चीजें इंसान के अंदर लगातार उभरती रहती हैं। इसलिए, मनुष्य की प्रकृति शैतान की प्रकृति है, जो पूरी तरह से सटीक बात है। यह परमेश्वर के सार से मूलतः भिन्न है। अतीत में, परमेश्वर ने कहा था, “मैं मनुष्य से अनंत काल तक प्रेम कर सकता हूँ, और मैं उससे अनंत काल तक नफरत भी कर सकता हूँ।” इसका अर्थ है कि परमेश्‍वर के पास एक मानक है जिससे वह लोगों को मापता है। उसके पास अपने फैसले हैं, और उसके पास उन आधारों के लिए सिद्धांत हैं जिनके आधार पर वह चीजों पर फैसले सुनाता है। वह किससे प्रेम और किससे नफरत करता है, किससे घृणा करता है और किसे आशीर्वाद देता है, इसके लिए उसके अपने मानक और सिद्धांत हैं। लोगों में सत्य और सिद्धांतों का अभाव होता है, इसलिए वे अपने रास्‍ते चलने को प्रवृत्त होते हैं। वे सनकी होते हैं और परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना सही रास्ते पर चलने में असमर्थ होते हैं।

कुछ लोग हमेशा सोचते हैं, “परमेश्‍वर पृथ्वी कब छोड़ेगा? परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा? अब मैं उतना युवा नहीं रहा; बूढ़ा हो जाने पर मैं कैसे जिऊँगा?” क्या ऐसे व्यक्ति में आस्था होती है? यदि वास्तव में बुढ़ापे में उनका साथ देने वाला कोई नहीं हुआ तो वे क्या करेंगे? क्या वे इसका दोष परमेश्वर पर नहीं मढ़ देंगे? परमेश्वर के बहुत से विश्वासियों को यह अंदाजा नहीं है कि उसका अनुसरण करने पर उन्हें क्या लाभ होना चाहिए, या कौन सी चीजें सबसे मूल्‍यवान हैं। बहुत कम लोग इन मामलों पर वास्तव में स्पष्ट हैं। देहधारी परमेश्वर के कार्य के बिना, चीन के लोग बहुत पहले ही नष्ट हो गए होते। हो सकता है कि कुछ लोग इस पर विश्‍वास न करें, लेकिन ऐसा इसलिए है कि वे स्थिति को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, लेकिन मामले की सच्चाई यही है। लोग यह भी मानते हैं कि : “हम परमेश्‍वर के नेतृत्व के बिना भी आगे बढ़ सकते हैं; यही पर्याप्त है कि हमारे पास मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर के वचन हैं। हम सभी ने वचन देह में प्रकट होता है पुस्तक पढ़ी है, इसका मोटा-मोटा विचार हमारे दिलों में है और हम सिद्धांतों को समझते हैं। अब, हम चीजें संभाल सकते हैं।” लेकिन क्या तुम वास्तव में चीजें संभाल सकते हो? तुम सही मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते—जैसे-जैसे तुम आगे बढ़ते जाओगे, तुम भटक जाओगे, तो क्या तुम वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो? अब भी, तुम लोग आश्वस्त नहीं हो। कहा जा सकता है कि जिस भी व्यक्ति में परमेश्वर के नेतृत्व का अभाव है, वह भटक जाएगा। अनुग्रह के युग में पवित्र आत्मा ने कुछ लोगों के भीतर लगातार काम किया, लेकिन उनमें से अधिकतर ने अपने तरीके से चलने पर जोर क्यों दिया? यह गिनना कठिन है कि संपूर्ण धार्मिक जगत में कितने पंथ हैं; ऐसे अनेक पंथ हैं जिनके बारे में तुम्‍हें कोई जानकारी नहीं है, या जिनके नाम तुम नहीं जानते—यहाँ समस्या क्या है? बात यह है कि लोग बहुत जटिल हैं, और उनके लिए अपनी प्रकृति के अवयवों को देख पाना आसान नहीं है। आज, परमेश्वर ने मनुष्य की प्रकृति को प्रकट करने वाले कई वचन बोले हैं, और वह लोगों से अपेक्षा करता है कि वे अपनी प्रकृति के अवयवों को देखें, और अपने सार को स्पष्ट रूप से देखें। यही एकमात्र तरीका है जिससे वे दूसरों को पहचानना सीख सकते हैं और उनसे धोखा खाने, या उनकी पूजा, प्रशंसा करने या उनका अनुसरण करने से बच सकते हैं। यदि किसी व्यक्ति में सत्य की समझ का अभाव है, तो वह नहीं देख पाएगा कि लोग वास्तव में कौन हैं, और उनके द्वारा उसे धोखा दिए जाने और नियंत्रित किए जाने की संभावना होगी। इसलिए, परमेश्वर के विश्वासियों को सत्य समझना होगा, उन्हें परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ना होगा, और मनुष्य की प्रकृति जानकर परमेश्वर के प्रकाशनों के माध्यम से मनुष्य के सार को समझना होगा। परमेश्वर के वचन का प्रकाशन मनुष्य की प्रकृति को उजागर करता है, यह लोगों को सिखाता है कि उनका सार क्या है, और उन्हें उनके भ्रष्टाचार का सार समझने देता है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। शैतान एक उलझी हुई चीज है, और वह जो दुष्‍टतापूर्ण बातें बोलता है, उनकी व्याख्या करना कठिन है। परमेश्वर ने उससे पूछा, “तू कहाँ से आता है?” जिस पर शैतान ने उत्तर दिया, “पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ” (अय्यूब 1:7)। उसके उत्तर पर ध्यानपूर्वक विचार करो। वह आ रहा है या जा रहा है? उसका अर्थ समझना कठिन है, इसीलिए मैं कहता हूँ कि ये शब्द उलझे हुए हैं। इन शब्दों के आधार पर, यह देखा जा सकता है कि शैतान भ्रमित है। जब लोग शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिए जाते हैं, तो वे भी भ्रमित हो जाते हैं। उनके किसी भी काम में कोई संयम, कोई मानक और कोई सिद्धांत नहीं है। इसलिए कोई भी व्यक्ति आसानी से भटक सकता है। शैतान ने हव्वा को यह कहकर फुसलाया, “तुम उस पेड़ का फल क्यों नहीं खातीं?” इस पर हव्वा ने उत्तर दिया, “परमेश्‍वर ने हमें बताया था कि उस पेड़ का फल खाने पर हम मर जाएँगे।” तब शैतान ने कहा, “यह कोई जरूरी नहीं कि तुम उस पेड़ का फल खाने पर मर जाओ।” ये शब्‍द हव्वा को ललचाने के इरादे से कहे गए थे। निश्चित रूप से यह कहने के बजाय कि यदि वह उस पेड़ का फल खा लेगी तो वह नहीं मरेगी, उसने बस इतना कहा कि जरूरी नहीं कि वह मर जाए, जिससे वह सोचने लगी, “यदि यह जरूरी नहीं कि मैं मर ही जाऊँ तो मैं इसे खा सकती हूँ!” वह इस लोभ का संवरण नहीं कर सकी और उसने उस फल को चख लिया। इस तरह, शैतान ने हव्वा को पाप के लिए ललचाने का अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया। उसने इसकी जि‍म्मेदारी नहीं ली, क्योंकि उसने उसे फल खाने के लिए मजबूर नहीं किया था। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर, एक शैतानी स्वभाव होता है; प्रत्येक व्‍यक्ति के हृदय में बेशुमार जहर होते हैं जिनसे शैतान परमेश्वर को प्रलोभित करता है और मनुष्य को फुसलाता है। कभी-कभी, उसकी वाणी शैतान की आवाज और लहजे से युक्त होती है, और उसका इरादा लुभाना और फुसलाना होता है। मनुष्य के विचार शैतान के जहर से भरे हुए हैं और उसकी दुर्गंध फैलाते हैं। कभी-कभी, इंसानों के व्‍यक्तित्‍व या हरकतों से भी प्रलोभन और फुसलाने की यही दुर्गंध आती है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं इसी तरह अनुसरण करता रहूँ, तो मेरा यह प्राप्‍त करना तय है। मैं अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कर सकता हूँ, भले ही मैं सत्य का अनुसरण न भी करूँ। मैं चीजों का त्याग करता हूँ और ईमानदारी से खुद को परमेश्‍वर के लिए खपाता हूँ। मुझमें अंत तक डटे रहने की ताकत है। यदि मैंने थोड़ा-सा अपराध किया भी हो तो परमेश्वर मुझ पर दया करेगा, और मुझे नहीं त्यागेगा।” उन्हें यह भी नहीं पता कि वे क्या कह रहे हैं। लोगों के भीतर बहुत सारी भ्रष्ट चीजें हैं—यदि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वे कैसे बदल सकते हैं? जितना भ्रष्‍टाचार वे करते हैं, यदि परमेश्वर लोगों पर नजर नहीं रखता, तो वे किसी भी क्षण पतित होकर परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। क्‍या तुम्‍हें इस पर विश्‍वास है? भले ही तुम स्वयं को मजबूर करो, फिर भी लक्ष्‍य तक नहीं पहुँच सकते क्योंकि परमेश्वर के कार्य का यह अंतिम चरण विजेताओं का एक समूह तैयार करने का है। क्या ऐसा करना सचमुच उतना आसान है जितना तुम सोचते हो? इस अंतिम परिवर्तन के लिए किसी व्यक्ति को 100 प्रतिशत या यहाँ तक कि 80 प्रतिशत भी बदलने की जरूरत नहीं होती, पर कम-से-कम 30 या 40 प्रतिशत तो बदलना पड़ता है। कम-से-कम, तुम्हें अपने भीतर की उन चीजों को खोद निकालना, साफ करना और बदलना होगा जो परमेश्‍वर का विरोध करती हैं, जिन्होंने तुम्हारे दिल की गहराइयों में जड़ें जमा ली हैं। तभी तुम्हारा उद्धार हो सकेगा। जब तुम परमेश्‍वर की अपेक्षा के अनुसार 30% से 40% तक या अधिमानतः 60% से 70% तक परिवर्तित हो जाते हो, तभी यह प्रदर्शित होगा कि तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है, और तुम अनिवार्य रूप से परमेश्‍वर के अनुकूल हो। अगली बार जब तुम पर कोई विपत्ति आएगी तो तुम परमेश्वर का विरोध करने या उसके स्वभाव का अपमान करने के उत्तरदायी नहीं होंगे। केवल इसी तरीके से तुम्‍हें पूर्ण बनाया जा सकता है और तुम परमेश्‍वर का अनुमोदन प्राप्‍त कर सकते हो।

कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने के मामले को बहुत ही सरल तरीके से देखते हैं। वे सोचते हैं, “परमेश्‍वर में विश्वास करने का अर्थ है, सभाओं में भाग लेना, प्रार्थना करना, उपदेश सुनना, संगति करना, गीत गाना और परमेश्‍वर की स्तुति करना, और कुछ कर्तव्यों का पालन करना। क्या परमेश्वर पर विश्वास करना यही सब नहीं है?” चाहे तुमने कितने भी वर्षों से परमेश्‍वर में विश्वास क्‍यों न किया हो, फिर भी तुम लोग अभी तक परमेश्वर में विश्वास के महत्व को पूरी तरह से नहीं समझ पाए हो। दरअसल, परमेश्वर में आस्था का अर्थ इतना गहन है कि अगर किसी व्यक्ति के अनुभव बहुत उथले हों तो वह इसे समझ ही नहीं पाएगा। अंत तक अनुभव करने पर उसका शैतानी स्वभाव और उसके भीतर के शैतानी जहर साफ होकर परिवर्तित हो जाएँगे। लोगों को स्वयं को कई सत्‍यों से सुसज्जित करना होगा, उन मानकों को पूरा करना होगा जिनकी अपेक्षा परमेश्वर मनुष्य से करता है, और वास्तव में परमेश्वर की आज्ञा मानने और उसकी आराधना करने में सक्षम होना होगा। केवल तभी वास्तव में उनका उद्धार होता है। यदि तुम अब भी वैसे ही हो जैसे पहले किसी धर्म का हिस्सा होने के समय थे, तो बस सिद्धांत के कुछ शब्दों का पाठ करना और कुछ नारे लगाना, कुछ अच्छे व्यवहार और कार्य करना और कुछ पापपूर्ण चीजों से बचना—कम से कम स्पष्ट चीजें—इस बात का प्रतिनिधित्व नहीं करता है कि तुमने परमेश्‍वर पर अपने विश्वास में सही रास्ते पर प्रवेश कर लिया है। क्या नियमों का पालन करने का मतलब यह है कि तुम सही रास्ते पर हो? क्या इसका मतलब यह है कि तुमने सही चुनाव किया है? यदि तुम्‍हारी प्रकृति के भीतर की चीजें नहीं बदलती हैं, तो भी तुम परमेश्वर का विरोध कर सकते हो और अंत में उसे अपमानित कर सकते हो। यही सबसे बड़ी समस्या है। यदि तुम परमेश्वर में अपने विश्वास में इस समस्या का समाधान नहीं करते, तो क्या यह कहा जा सकता है कि तुमने वास्तव में उद्धार प्राप्त कर लिया है? इससे मेरा ठीक-ठीक क्या अभिप्राय है? मैं चाहता हूँ कि तुम लोग अपने दिलों में यह समझ लो कि परमेश्वर में आस्‍था को उसके वचन से अलग नहीं किया जा सकता है, न ही इसे स्वयं परमेश्वर या सत्य से अलग किया जा सकता है। तुम्‍हें सही रास्ता चुनना होता है और सत्य और परमेश्वर के वचन के बारे में प्रयास करना होता है। तुम केवल आंशिक या सतही समझ प्राप्त नहीं कर सकते, बस इतना ही। स्वयं को मूर्ख बनाने से तुम्‍हारा ही नुकसान होगा। अपनी कल्पनाओं पर अपने विश्‍वास को आधारित करना अच्छा नहीं है। यदि तुम अंत तक विश्वास करते हो, और तुम्‍हारे दिल में परमेश्‍वर नहीं है, अगर तुम उसके शब्दों को बस जल्दी-जल्‍दी पलटते हो, और बाद में उन्हें याद नहीं रख पाते, और अगर तुम्‍हारे दिल में परमेश्‍वर के लिए जगह नहीं है, तो तुम खत्‍म हो। “परमेश्वर में आस्‍था को उसके वचन से अलग नहीं किया जा सकता” का क्या मतलब है? क्या तुम लोग यह समझते हो? क्या यह इस कथन के विरोध में है, “परमेश्‍वर में आस्‍था को स्वयं परमेश्वर से अलग नहीं किया जा सकता”? यदि परमेश्‍वर के शब्द तुम्‍हारे हृदय में नहीं हैं तो तुम उसे अपने हृदय में कैसे रख सकते हो? यदि तुम परमेश्‍वर में विश्वास करते हो, लेकिन तुम्हारा हृदय उससे, उसके वचन और उसके मार्गदर्शन से रहित है, तो तुम पूरी तरह से खत्‍म हो। यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार एक छोटे से मामले को भी संभाल नहीं सकते, तो सिद्धांत के किसी बड़े मामले के सामने आने पर तो तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत पीछे रह जाओगे। फिर, तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होगी, जो परेशानी की बात है; यह साबित करता है कि तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है और तुमने कोई सत्य प्राप्त नहीं किया है।

कुछ विशेष मामले ऐसे हैं जिनकी विस्‍तारपूर्वक ठोस व्याख्या नहीं की जा सकती। तुम लोग उन्हें पूरी तरह से केवल तभी समझ पाओगे जब एक दिन पवित्र आत्मा तुम्‍हें प्रबुद्ध करेगा। अभी तो मैं उन्हें केवल कुछ शब्दों में ही व्यक्त कर सकता हूँ जो लोगों को बहुत सामान्य या अतार्किक भी लग सकते हैं, बस इतना ही। क्या तुम जानते हो कि विदेशी चीन में परमेश्‍वर के चुने हुए लोगों के बारे में क्या सोचते हैं? जब वे तुम्‍हें चीन में परमेश्‍वर में विश्वास करते और मसीह का अनुसरण करते, इतना उत्पीड़न और कष्‍ट सहते, परमेश्‍वर के वचन और उसके कार्य का आनंद लेते और बहुत सी चीजें हासिल करते देखते हैं, तो वे तुम लोगों से बहुत ईर्ष्या करते हैं! विदेशियों की एक इच्छा है—वे मन में सोचते हैं : “मैं भी परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना चाहता हूँ। चाहे मुझे कुछ भी क्‍यों न सहना पड़े, मैं सत्य भी पाना चाहता हूँ! मैं भी अपने ज्ञान और आध्‍यात्मिक कद में वृद्धि करना चाहता हूँ, लेकिन दुर्भाग्य से, मैं सही परिवेश में नहीं हूँ।” उन्हें लगता है कि चीनी लोग बहुत धन्य हैं, लेकिन इसके बावजूद, तुम लोग अब भी सोचते हो कि वे ही धन्य हैं, और उनसे ईर्ष्या करते हो। वास्तव में, तुम अपने सौभाग्य को हल्के में लेते हो। परमेश्वर बड़े लाल अजगर के देश में लोगों के इस समूह को पूरा करता है, और उन्हें इस पीड़ा को सहने की अनुमति देता है। इसे परमेश्वर का महान उत्कर्ष कहा जा सकता है! अतीत में, परमेश्वर ने कहा था, “मैं बहुत पहले अपनी महिमा इस्राएल से पूरब में ला चुका हूँ।” अब, क्या तुम इस कथन का अर्थ समझते हो? तुम्‍हें भविष्य में अपने रास्ते पर कैसे चलना चाहिए? तुम्‍हें सत्य का अनुसरण कैसे करना चाहिए? सत्य का अनुसरण किए बिना तुम पवित्र आत्मा का कार्य कैसे प्राप्त कर सकते हो? यदि पवित्र आत्मा तुम्‍हारे अंदर काम करना बंद कर देता है, तो तुम सबसे खतरनाक स्थिति में होते हो। अभी तुम जो थोड़ा-सा कष्ट झेल रहे हो, वह कितना है? क्या तुम जानते हो कि इससे तुम्‍हें क्या लाभ होगा? क्या कष्ट झेले बिना तुम्‍हारे लिए सत्य का अनुसरण करना संभव है? क्या तुम इस तरह से सत्य प्राप्त कर सकते हो? क्या तुम सच्ची गवाही दे सकते हो? यदि तुम ऐसी बातें समझ सकते हो, तो तुम्‍हें यह महसूस नहीं होगा कि तुम कष्‍ट झेल रहे हो। अगर तुम्‍हारा कष्ट बढ़ भी जाता है तो भी वह कुछ नहीं लगेगा।

शरद ऋतु, 1999

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