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अंश 79

“वह जिसका हर चीज़ पर प्रभुत्व है” भजन सुनकर तुम लोगों पर कैसा प्रभाव पड़ा है क्या तुम्हें कोई अंतर्दृष्टि मिली है? जीवन जीने वाला हर व्यक्ति कई कष्टों से गुजरा है, लेकिन असल में कोई यह नहीं जानता कि ऐसा क्यों है, और कोई भी इस बात पर गहराई से चिंतन नहीं करता है कि इन कष्टों का आधार क्या है, क्या इन कष्टों को सहना सही है या क्या लोगों का इस तरह जीना सही है। जब लोग छोटे होते हैं, तो सदैव चाहते हैं कि उन्हें पहनने के लिए अच्छे कपड़े और खाने के लिए अच्छी चीजें मिलें, और उन्हें लगता है कि प्रसन्न रहने का यही तरीका है। जब लोग बड़े होते हैं, तो वे इस बात पर विचार करना शुरू कर देते हैं कि भीड़ से अलग दिखने और एक अच्छे जीवन का आनंद लेने के लिए उन्हें अपनी पढ़ाई में कितनी मेहनत करनी होगी। जब लोग अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं, तो वे बहुत सारा धन कमाने, शोहरत और लाभ पाने और सत्ता और प्रभाव हासिल करने की चाह रखने लगते हैं। वे अन्य लोगों से आगे रहना चाहते हैं। वे हमेशा ही सरकार में कोई पद और लोगों का सम्मान और प्रशंसा पाने की इच्छा रखते हैं। जब उनके बच्चे होते हैं, तो वे उम्मीद करते हैं कि उनकी संतानें पीढ़ियों तक फलती-फूलती रहें और उन्नति एवं प्रगति करती रहें। लोगों द्वारा उठाए जाने वाले इन सभी कदमों के पीछे क्या उद्देश्य होता है? लोग ऐसा क्यों सोचते हैं? वे सब इस तरह क्यों रहते हैं? लोग बिना राह के जी रहे हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि कोई राह नहीं है? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग नहीं जानते कि वे कहाँ से आए हैं या कहाँ जा रहे हैं, और वे नहीं जानते कि उन्हें इस जीवन में क्या करना है, किस तरह का जीवन जीना है, या अपने जीवन के पथ पर कैसे चलना चाहिए। लोग इन बातों को नहीं जानते। तो फिर ऐसा क्यों है कि लोग अब भी पीछे मुड़कर देखे बिना मौत आने तक शोहरत, लाभ और खुशहाल जीवन के पीछे बेतहाशा भागते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिए गए हैं और उन्होंने जीवन के प्रति अनुचित मानसिकता और नजरिया विकसित कर लिया है। वे जीवन जीने के इस तरीके को सही मानते हैं, और वे शोहरत और लाभ के पीछे भागने को उचित और सही मानते हैं। वे सोचते हैं कि शोहरत और लाभ पाना ही खुशी है और वे इन मान्यताओं के अनुसार ही जीते हैं। लोग इसी तरह से शोहरत और लाभ के रास्ते पर दौड़ लगाते हैं, और इसका परिणाम यह होता है कि उन्हें मौत आने तक कभी खुशी नहीं मिलती है। हर कोई ऐसे ही जीता है। इस दुनिया में अपनाने के लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं है। हर कोई पैसा कमाना और अच्छा जीवन बिताना चाहता है। पैसे के बिना जीवन मुश्किल है, और इससे बहुत कुछ किया जा सकता है, इसलिए हर कोई अधिक पैसा कमाना चाहता है। जब जीवन संपन्न हो जाता है, तो वे अपनी संपत्ति पर अधिकार बनाए रखना चाहते हैं और चाहते हैं कि अब उनके बच्चे उनकी विरासत को आगे बढ़ाएँ, और कोई भी यह नहीं समझता है कि इस तरह जीना खोखलापन है। हर कोई पछतावों, अनुत्तरित प्रश्नों और अनिच्छा की भावना के साथ इस दुनिया से चला जाता है। लोग इस जीवन को गरीबी और अमीरी में बिताते हैं और लंबा और छोटा जीवन जीते हैं। कुछ आम लोग हैं, जबकि अन्य उच्च पद पर आसीन अधिकारी और संभ्रांत व्यक्ति हैं। समाज में हर तरह के लोग हैं, लेकिन वे सभी लगभग एक जैसे ही रहते हैं : वे अपनी इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और शैतानी स्वभावों के अनुसार शोहरत और लाभ के लिए होड़ करते हैं, और तब तक शांति से नहीं बैठते, जब तक इन लक्ष्यों को हासिल ना कर लें। इन परिस्थितियों को देखकर, लोग सोच सकते हैं, “लोग इस तरह क्यों जीते हैं? क्या आगे बढ़ने के लिए कोई और रास्ता नहीं है? क्या लोग वास्तव में मरने तक केवल अच्छा खाने और पीने के लिए ही जीवित रहते हैं? इसके बाद वे कहाँ जाते हैं? लोगों की इतनी सारी पीढ़ियाँ इसी तरह क्यों जीती रही हैं? इन सब समस्याओं की जड़ क्या है?” मनुष्य नहीं जानते कि वे कहाँ से आए हैं, जीवन में उनका लक्ष्य क्या है, या मालिक कौन है और इन सब चीजों पर किसकी संप्रभुता है। पीढ़ियाँ एक के बाद एक आती हैं और चली जाती हैं, और हर पीढ़ी दूसरी पीढ़ी की तरह ही जीती है और फिर मर जाती है। वे सब एक जैसे ही आते और चले जाते हैं, और किसी को भी जीने की सच्ची राह या साधन नहीं मिल पाता है। कोई भी इसमें सत्य की तलाश नहीं करता। प्राचीन काल से लेकर अब तक सारे लोग एक ही जैसे रहते आए हैं। वे सभी तलाश और प्रतीक्षा कर रहे हैं, यह देखने की इच्छा में कि बिना किसी के जाने या देखे मानवता कैसी होगी। जब सब कुछ कहा और किया जाता है, तो लोग आम तौर पर यह नहीं जानते कि वह कौन है जो इन सब चीजों पर शासन करता है और संप्रभुता रखता है या उसका अस्तित्व है भी या नहीं। वे इसका जवाब नहीं जानते हैं, और केवल यही कर सकते हैं कि असहाय होकर जीते रहें, साल-दर-साल तरसते रहें, और अब तक दिन-ब-दिन सहते रहें। अगर लोगों को पता होता कि यह सब क्यों होता है, तो क्या इससे उन्हें यह राह मिल जाएगी कि उन्हें कैसे जीना चाहिए? क्या तब वे इस कष्ट से बच सकेंगे और उन्हें मानवीय इच्छाओं और उम्मीदों के अनुसार नहीं जीना पड़ेगा? जब लोग यह समझ जाते हैं कि वे क्यों जीते हैं, क्यों मरते हैं, और इस दुनिया का मालिक कौन है; जब उन्हें यह उत्तर समझ में आ जाएगा कि जो हर चीज पर संप्रभुता रखता है वही सृष्टिकर्ता है, तो उनके पास अनुसरण के लिए एक मार्ग होगा। उन्हें पता चल जाएगा कि आगे बढ़ने का रास्ता खोजने के लिए उन्हें परमेश्वर के वचनों में सत्य की तलाश करनी चाहिए और उन्हें इच्छाओं और उम्मीदों पर निर्भर होकर ऐसे दुख में जीने की जरूरत नहीं है। यदि लोग इसका जवाब तलाश लें कि वे क्यों जीते हैं और मरते हैं, तो क्या सभी मानवीय दुखों और कठिनाइयों का समाधान नहीं हो जाएगा? क्या इससे लोगों को मुक्ति नहीं मिल जाएगी? लोगों को वास्तव में मुक्ति मिल जाएगी, और वे पूरी तरह से स्वतंत्र हो जाएंगे।

“वह जिसका हर चीज़ पर प्रभुत्व है,” गीत सुनने के बाद तुम लोगों को अपने हृदय में क्या सोच-विचार करना चाहिए? यदि मानवजाति को यह पता होता कि वे क्यों जीते हैं और क्यों मरते हैं, और वास्तव में, इस दुनिया और सभी चीजों का मालिक कौन है और कौन हर चीज पर शासन करता है, और वह वास्तव में कहाँ है, और वह मनुष्य से क्या चाहता है—यदि मानवजाति इन बातों को समझ पाती, तो उन्हें पता होता कि सृष्टिकर्ता के साथ कैसा व्यवहार करना है, और उसकी आराधना कैसे करनी है और कैसे उसके प्रति समर्पण करना है, इससे उनके हृदय को सुकून, शांति और खुशी मिलती और वे कभी ऐसे कष्ट और पीड़ा में नहीं रहते। अंत में, लोगों को सत्य समझना चाहिए। वे अपने जीवन के लिए जो भी राह चुनते हैं वह अहम होती है, और वे कैसे जीते हैं यह भी महत्वपूर्ण है। कोई कैसे जीता है और वह किस राह पर चलता है इससे तय होता है कि उसका जीवन आनंदमय है या दुखमय। यह बात लोगों को समझनी चाहिए। जब लोग इस भजन को सुनते हैं, तो उनके दिलों में ऐसी गहरी अनुभूति हो सकती है : “पूरी मानवजाति का जीवन इसी पद्धति पर चलता है; प्राचीन लोग कोई अपवाद नहीं थे, और आधुनिक लोग भी वैसे ही हैं जैसे पुराने लोग थे। आधुनिक लोगों ने इन तरीकों को नहीं बदला है। तो, क्या मानवजाति के बीच कोई संप्रभु, कोई काल्पनिक परमेश्वर है जो हर चीज का प्रभारी है? यदि मानवजाति परमेश्वर को पा ले, जो हर चीज का प्रभारी है, तो क्या मानवजाति को खुशी नहीं हासिल हो जाएगी? सबसे बड़ी बात मानवजाति के मूल की तलाश करना है। यह मूल कहाँ है? इस मूल की तलाश करने पर, मानवजाति एक अन्य प्रकार के दायरे में आ सकती है। यदि मानवजाति इसकी तलाश नहीं कर पाती है, और हमेशा की तरह उसी प्रकार का जीवन जीती रहती है, तो क्या लोग खुशी पा सकेंगे?” यदि लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, भले ही वे जानते हों कि मानवजाति अत्यधिक भ्रष्ट है, तो उन्हें क्या करना चाहिए? क्या वे भ्रष्टता की असली समस्या का समाधान कर सकते हैं? क्या उनके पास उद्धार का कोई रास्ता है? भले ही तुम बेहतरी के लिए बदलाव करना चाहो और एक इंसानी समानता वाला जीवन जीना चाहो, पर क्या तुम ऐसा कर सकते हो? तुम्हारे पास ऐसा करने के लिए कोई राह ही नहीं है! उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने बच्चों के लिए जीते हैं; तुम कह सकते हो कि तुम ऐसा नहीं करना चाहते, लेकिन क्या तुम वाकई ऐसा कर सकते हो? कुछ लोग धन-दौलत, शोहरत और लाभ के लिए इधर-उधर भागते और व्यस्त रहते हैं। तुम कह सकते हो कि तुम इन चीजों के लिए इधर-उधर भागना नहीं चाहते, लेकिन क्या तुम वास्तव में ऐसा कर सकते हो? अनजाने में, तुम पहले ही इस राह पर चल चुके हो, और भले ही तुम जीवन जीने का एक अलग तरीका अपनाना चाहते हो, लेकिन तुम ऐसा नहीं कर सकते। तुम इस दुनिया में कैसे रहते हो यह तुम्हारी पहुँच से बाहर की बात है! इसका मूल क्या है? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग सच्चे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं और उन्होंने सत्य को पाया ही नहीं है। मनुष्य की भावना को क्या बनाए रखता है? आध्यात्मिक सहारे के लिए वे किसकी ओर देखते हैं? आध्यात्मिक सहारे के लिए, लोग अपने परिवार के साथ रहने; विवाह संबंध का आनंद लेने; सांसारिक वस्तुओं के उपभोग; धन-संपत्ति, प्रसिद्धि, और लाभ; अपने रुतबे, अपनी भावनाओं, और अपने करियर; और अगली पीढ़ी की खुशियों की ओर देखते हैं। क्या कोई ऐसा है जो आध्यात्मिक सहारे के लिए इन चीजों की ओर नहीं देखता है? जिनकी संतानें हैं वे इसे अपनी संतानों में देखते हैं; जिनकी संतानें नहीं हैं वे इसे अपने करियर में, विवाह संबंध में, अपने सामाजिक रुतबे में, और प्रसिद्धि और लाभ में देखते हैं। इसलिए, इस प्रकार उत्पन्न हुई जीवन जीने की सभी रीतियाँ एक समान ही हैं; जो शैतान के स्वामित्व और उसके अधिकार-क्षेत्र के आधीन हैं। स्वयं के बावजूद, सब इधर-उधर भागते हैं और प्रसिद्धि, लाभ, अपनी संभावनाओं, अपने करियर, विवाह संबंधों, अपने परिवारों या अगली पीढ़ी की खातिर जीने या भौतिक सुखों के उपभोग में ही स्वयं को व्यस्त रखते हैं। क्या यही सच्चा मार्ग है? इस संसार में लोग चाहे कितनी भी व्यस्तता से भाग-दौड़ करें, वे चाहे पेशेवर तौर पर कितने भी संपन्न हो जाएँ, चाहे उनके परिवार कितने भी खुशहाल रहें, चाहे उनका परिवार कितना भी बड़ा हो, चाहे उनका रुतबा कितना भी प्रतिष्ठित हो—क्या वे मानव जीवन के सच्चे मार्ग पर चलने में समर्थ हैं? प्रसिद्धि और लाभ, संसार या अपने करियर के पीछे भागते हुए, क्या वे इस सत्य को देख पाने में समर्थ हैं कि परमेश्वर ने ही समस्त चीजों की रचना की है और वही मानवजाति के भाग्य पर संप्रभुता रखता है? यह संभव नहीं है। यदि लोग इस सत्य को स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर ही मानवजाति के भाग्य पर संप्रभुता रखता है, तो चाहे वे किसी भी मार्ग विशेष का अनुसरण कर रहे हों, उनका चुना गया मार्ग अनुचित है। यह उचित मार्ग नहीं है, बल्कि विकृत मार्ग है, यह बुराई का मार्ग है। यह कोई मायने नहीं रखता कि तुमने अपने आध्यात्मिक सहारे से संतुष्टि प्राप्त की है या नहीं की है, और इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने वह सहारा कहाँ पाया है : यह सच्चा विश्वास नहीं है, और यह मानव जीवन के लिए उचित मार्ग भी नहीं है। सच्चा विश्वास कैसा होता है? यह परमेश्वर के प्रकटन और कार्य को स्वीकारना और परमेश्वर द्वारा व्यक्त समस्त सत्य को स्वीकारना है। यह सत्य ही मानव जीवन के लिए सही राह और सत्य और जीवन है, जिसका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। जीवन में सही राह पर चलने का मतलब है परमेश्वर का अनुसरण करना और उनके वचनों की अगुआई को समझना, सत्य को समझना, अच्छाई-बुराई में भेद करना, यह जानना कि क्या सकारात्मक है और क्या नकारात्मक, और उसकी संप्रभुता और सर्वशक्तिमत्ता को समझने के काबिल बनना है। जब लोग सच में अपने दिल से यह मानते हैं कि परमेश्वर ने ना केवल स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजों को बनाया है, बल्कि वह ब्रह्मांड और सभी चीजों पर संप्रभुता भी रखता है, तो वे उनके सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन कर सकते हैं, उनके वचनों के अनुसार जीते हैं, और परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हैं। मानव जीवन के लिए सही राह पर चलना यही है। जब लोग जीवन में सही राह अपनाते हैं, तो वे समझ सकते हैं कि लोग आखिर क्यों जीते हैं और प्रकाश में रहने और परमेश्वर की आशीष और स्वीकृति पाने के लिए उन्हें किस तरह जीना चाहिए।

अब तुम लोग किस लिए जीते हो? क्या तुम लोग यह समझते हो? (हम परमेश्वर द्वारा हमें दिए गए मिशन और सौंपे गए कामों को पूरा करने और सृजित प्राणियों के कर्तव्य को पूरा करने के लिए जीते हैं।) यदि तुम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करना चाहते हो और परमेश्वर के सौंपे गए काम को पूरा करना चाहते हो, तो यह तुम्हारी अपनी इच्छा है और जीवन का वह मार्ग है जो तुमने चुना है, और यह सही है। लेकिन एक तथ्य है जो तुम्हें अवश्य जानना चाहिए : लोग इस दुनिया में रहते हैं, और यह परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित है। प्रत्येक व्यक्ति एक मिशन के साथ दुनिया में प्रवेश करता है। लोग बेवजह नहीं आते हैं; यह सब परमेश्वर द्वारा बिना किसी त्रुटि के शासित, व्यवस्थित और आयोजित है। जैसे ही कोई दुनिया में प्रवेश करता है, वह जो कुछ भी सीखता या करता है, वह सब इसके भीतर एक भूमिका निभाने के लिए होता है। यह भूमिका क्या है? यह भूमिका है कि उसे इस दुनिया में एक कार्य पूरा करना होगा; ऐसी चीजें हैं जो उसे करनी होंगी। उदाहरण के लिए, दो लोग शादी करते हैं और उनका एक बच्चा होता है, और वे तीनों एक पूरा परिवार बनाते हैं। इस परिवार में, पत्नी अपने मिशन को पूरा करने के लिए जीती है जो कि अपने बच्चे और पति की देखभाल करना, परिवार की देखभाल करना है। फिर बच्चा किस लिए जीता है? उसकी क्या भूमिका है? परिवार के उत्तराधिकारी के रूप में, वह वंश को आगे बढ़ाता है। वह इस परिवार की अगली पीढ़ी है। यह परिवार इसलिए पूरा हुआ क्योंकि यह बच्चा आया है, और यह उसकी पहली भूमिका है। चाहे वह बेटा हो या बेटी, उसका अपना मिशन होता है। जहाँ तक उसके भविष्य की नियति का प्रश्न है, बड़े होने के बाद उसके पास क्या शैक्षणिक योग्यताएँ, कौशल या पेशा होगा, या वह कब परमेश्वर में विश्वास करेगा और उसके बाद वह क्या कर्तव्य निभाएगा, क्या इनमें से प्रत्येक चरण परमेश्वर द्वारा नियोजित और व्यवस्थित नहीं है? (बिल्कुल हैं।) क्या उसके पास अपना कोई विकल्प है? (नहीं है।) जब से कोई व्यक्ति किसी परिवार में जन्म लेता है, तब से उसकी नियति का एक भी कदम उसके द्वारा चुना हुआ नहीं होता है, और यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किया जाता है। यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किया जाता है, और इसमें सत्य है। यह इस बात से संबंधित है कि लोग किस लिए जीते हैं। उदाहरण के लिए, यदि तुम संगीत का अध्ययन करते हो और तुम्हारे पास इसके अनुकूल परिस्थितियाँ और पारिवारिक परिवेश है, तो क्या संगीत का अध्ययन करना तुमने चुना है? (ऐसा नहीं है।) तुम इस परिवेश में पैदा हुए, तुमने इस परिवेश के पोषण के माध्यम से एक पेशेवर कौशल सीखा, और इस मिशन को पूरा किया। तुम इसे पूरा करने में कैसे सक्षम हुए? ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि परमेश्वर ने इसे निर्धारित किया था, इसलिए नहीं कि तुमने इसे चुना था। क्या यह सृष्टिकर्ता के आयोजन से पूरा नहीं हुआ? अब जब तुम अपना कर्तव्य कर रहे हो और जो तुमने सीखा और जाना है उसे इसमें लगा रहे हो, तो इसका फैसला किसने किया? (परमेश्वर ने।) यह परमेश्वर ने तय किया था, तुमने नहीं। निष्पक्ष रूप से कहूँ तो, तुम अभी किसके लिए जीते हो? (हम परमेश्वर के लिए जीते हैं।) वास्तविकता में यह बात हर व्यक्ति के लिए समान है। सभी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था की खातिर जीते हैं, चाहे वे इसके बारे में जानते हों या नहीं और चाहे वे इसके प्रति सचेत हों या नहीं। लोग खेल में मोहरों की तरह हैं। परमेश्वर तुम्हें कहाँ रखता है, वह तुमसे क्या करवाता है, और वह तुम्हें कितने समय तक कहीं रहने देता है, यह सब उसके आयोजन के अधीन है। परमेश्वर के आयोजन के संदर्भ में, वास्तव में सभी लोग उसकी संप्रभुता और व्यवस्था के उद्देश्य से तथा उसके प्रबंधन के लिए जीते हैं, और इनका नियंत्रण उनके हाथ में नहीं होता। चाहे तुम कितने भी योग्य या प्रतिभाशाली क्यों न हो, तुम उस नियति से परे नहीं जा सकते जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए निर्धारित की है। कोई भी इन सीमाओं से परे नहीं रह सकता या उस नियति और जीवन से बाहर नहीं जा सकता जिसे सृष्टिकर्ता ने उसके लिए निर्धारित और व्यवस्थित की है। ये सभी ऐसी चीजें हैं जिनके बारे में वास्तव में लोगों को कोई जानकारी नहीं है, और वे अब तक अनजाने में और अनिच्छा से परमेश्वर के आयोजन और संप्रभुता के अधीन चल रहे हैं। इसे निष्पक्ष रूप से देखें तो, लोगों ने क्या समझा है? (उनका जीवन और मृत्यु उनके अधीन नहीं बल्कि परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजन के अधीन है।) (उन्हें अपनी नियति का प्रभारी होने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, और उन्हें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करना चाहिए।) यदि तुम इसे इस तरह से देख सकते हो तो तुम प्रगति करोगे। परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होने के लिए तुम्हें किन सत्यों को समझना चाहिए? तुम चाहे जिस भी तरह के परिवार में पैदा हुए हो और तुम्हारी काबिलियत, बुद्धि और विचार जैसे भी हों, तुम्हारी नियति और तुम्हारे बारे में सब कुछ परमेश्वर के आयोजन के अधीन है। इसके बारे में तुम कुछ नहीं कह सकते। यही वह रास्ता है जिसे लोगों को चुनना चाहिए : यह समझना कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए यह सब कैसे व्यवस्थित किया है, वह इसका मार्गदर्शन कैसे करता है, भविष्य में वह इसका मार्गदर्शन कैसे करेगा, परमेश्वर की इच्छाओं और इरादों को समझने की कोशिश करना और फिर उस नियति के मार्ग पर जीना जो सृष्टिकर्ता द्वारा शासित और आयोजित है। यह किसी चीज के लिए होड़ करना, उसे छीनना या उसे हथियाना नहीं है। यह सृष्टिकर्ता की इच्छाओं की पड़ताल या विरोध करने के बारे में नहीं है; यह परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित की गई इन सभी चीजों की पड़ताल या विरोध करने के बारे में नहीं है। क्या यह तुम्हारे जीवन को सही और उचित नहीं बनाता है? यह “लोग क्यों जीते हैं और क्यों मरते हैं” या “जो लोग जी रहे हैं, वे खत्म हो चुके लोगों के त्रासद इतिहास को ही दोहराते हैं” जैसे संदेहों को समाप्त करता है। लोगों को लगता है कि इस जीवन को जीने में कोई कठिनाई नहीं है, और उन्हें जीवन का स्रोत मिल गया है। वे समझते हैं कि नियति क्या है, वे जानते हैं कि लोगों को कैसे सृष्टिकर्ता की व्यवस्था के प्रति समर्पित होना चाहिए, और वे विरोध नहीं करते। यह जीने का एक सार्थक तरीका है। अब लोग खुशी की चाहत में संघर्ष और होड़ करने के लिए अपने मन की कल्पनाओं या अपनी ताकत पर निर्भर नहीं रहते हैं। वे जानते हैं कि यह सब मूर्खता और जिद्दीपन है, और वे अब ऐसा नहीं करते। उन्होंने सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पित होना सीख लिया है, और इससे कितनी पीड़ा टल गई है! तो क्या तुम लोग अब इस तरह जी रहे हो? क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ अन्याय हो रहा है और तुम्हें कमतर आंका जा रहा है? तुम जानते हो कि तुम्हारी प्रतिभाएँ और तुम्हारा कर्तव्य परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हैं और ये तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए हैं, लेकिन फिर भी तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है और तुम्हारा यह कर्तव्य तुम्हें अपनी आकांक्षाओं को साकार करने की अनुमति नहीं देता है। तुम्हारे पास वास्तव में बड़े-बड़े लक्ष्य हैं, लेकिन यह विशेष क्षेत्र जिसमें तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, वास्तव में तुम्हें उन्हें साकार करने की अनुमति नहीं देता है। क्या तुम ऐसा सोच रहे हो? (नहीं।) तुम्हारी कोई महत्वाकांक्षा या इच्छा नहीं है, तुम्हारी कोई असाधारण आवश्यकताएँ नहीं हैं, तुमने वह सब कुछ त्याग दिया है जो तुम्हें त्यागना चाहिए था, और तुममें केवल एक ही चीज की कमी है, वह है अपने भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करने के लिए सत्य को समझना। इससे लोगों को जिस मार्ग पर चलना चाहिए और जिस दिशा में जाना चाहिए, वे और स्पष्ट हो जाते हैं। उन्हें अब इस तरह के सवाल पूछने की जरूरत नहीं है, “लोग क्यों जीते हैं? और वे क्यों मरते हैं? वह कौन है जो सभी चीजों पर शासन करता है?” तुम चाहे जिस चीज का भी अनुसरण करो या तुम्हारी इच्छाएँ चाहे कुछ भी हों, केवल सृष्टिकर्ता की उपस्थिति में लौटकर, जो तुम्हें करना चाहिए उसे कर्तव्यनिष्ठा से पूरा करके, और जो तुम्हारा कर्तव्य है उसे निभाकर और पूरा करके ही तुम इस तरह से जी सकते हो जो तुम्हारे अंतःकरण को स्पष्ट करे और जो सही और उचित है। इसमें कोई पीड़ा शामिल नहीं है। जीने का अर्थ और मूल्य यही है।

अंश 80

सभी यह मानते हैं कि मानव की नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता है और व्यक्ति का पूरा जीवन परमेश्वर के हाथों में है, लेकिन काश तुम वास्तव में अनुभव कर पाओ कि किसी व्यक्ति के जीवन के हर एक पल और दौर में होने वाली हर बड़ी घटना उसकी अपनी योजनाओं और व्यवस्थाओं के अनुसार नहीं, बल्कि परमेश्वर के नियमों से नियंत्रित और व्यवस्थित होती है; काश तुम देख पाओ कि लोग अपनी खुद की नियति या अपने सामने आने वाली किसी भी पीड़ा पर काबू नहीं पा सकते; जब तुम ऐसी चीजों का अनुभव करने में सक्षम होते हो तो यही सच्ची आस्था होना है। यह बात तब और भी व्यावहारिक हो जाती है जब तुम कहते हो, “मानव की नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता होती है, और सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है।” परमेश्वर की संप्रभुता, उसकी व्यवस्थाओं और आयोजनों को अनुभव करना एक सूक्ष्म चीज है। यह कुछ ऐसा है जिसका तुम अनुभव करते हो और यदि तुम अभी इससे नहीं गुजरे हो, तो तुम इसे समझा भी नहीं सकते, लेकिन तुम जितना ज़्यादा इसका अनुभव करोगे और जितना ज्यादा इससे गुजरोगे, उतना ही बेहतर तुम इसे समझा पाओगे। एक कहावत है कि “50 की उम्र तक तुम अपनी नियति को समझ जाते हो।” यह कहने का क्या मतलब है कि तुम अपनी नियति को समझ जाते हो? बीस से तीस साल की उम्र के लोगों ने अभी दुनिया का सामना किया ही है। वे जवान और लापरवाह होते हैं, उन्हें कुछ मालूम नहीं होता और यह बात समझ नहीं आती कि मानव जीवन पूरी तरह से परमेश्वर के हाथों में है। वे लगातार अपनी किस्मत से लड़ना चाहते हैं और सोचते रहते हैं कि उनमें प्रतिभा और विशेषज्ञता है, और इसलिए अपने बूते पर नाम कमाने और धन और ओहदा हासिल करने की कोशिश करते रहते हैं। वे नाकाम होने पर भी अपनी कोशिशें जारी रखते हैं, हमेशा एक और मौका पाने की कोशिश में जुटे रहते हैं। 50 से अधिक की उम्र होने पर वे पीछे मुड़कर देखते हैं और सोचते हैं, “करीब तीस साल से यहाँ-वहाँ भाग-दौड़ करना और इतने हाथ-पांव मारना वाकई बेहद मुश्किल रहा है! शादी करने, करियर बनाने और बच्चे पैदा करने में से कोई भी काम मेरी योजनाओं और हिसाब-किताब के मुताबिक नहीं हुआ—यह सब कुछ नियति है!” यही अपनी नियति को समझना है; इससे लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। 50 की उम्र होने पर अपनी नियति को समझने का मतलब वास्तव में यही है कि 50 साल की उम्र तक लोग बहुत सी असफलताओं का सामना करने के बाद आखिरकार अपनी किस्मत के साथ शांति से जीवन जीना सीख जाते हैं। अपनी नियति को समझने के बाद लोग उससे लड़ना बंद कर देते हैं। मानव जीवन का क्या मतलब है, मानवता पर परमेश्वर की संप्रभुता का क्या अर्थ है, लोगों को अपना जीवन किस उद्देश्य के लिए जीना चाहिए, और उन्हें कैसे जीना चाहिए, क्या लोग इन बातों को पूरी तरह से समझते हैं? अविश्वासी लोग ये बातें नहीं समझ सकते, क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, और ज़्यादा से ज़्यादा वे बस अपनी नियति को स्वीकार सकते हैं और समझ सकते हैं कि इसका विरोध करना बेकार है। फिर वे अपने बच्चों और पोते-पोतियों को नियति से लड़ते हुए देखते और कहते हैं, “प्रकृति को अपना काम करने दो, हर पीढ़ी के पास उसकी अपनी आशीषें होती हैं। इसे होने दो, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो, जब वे 50 साल के हो जाएँगे, तो नियति से लड़ना छोड़ देंगे। पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे ही चलता है। वे सभी नियति से लड़ते रहते हैं, जब तक उनकी उम्र ढल नहीं जाती और अब वे इससे लड़ नहीं सकते। आखिर में वे अपनी नियति को स्वीकार लेंगे और अपना सबक सीख लेंगे। फिर वे ढीठ और घमंडी नहीं रहेंगे और उनके जीवन में और ठहराव आ जाएगा।” अविश्वासी लोग ज्यादा से ज्यादा इसी चीज को समझ सकते हैं, लेकिन क्या वे सत्य समझ सकते हैं? वे निश्चित रूप से ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं और उसके वचन नहीं पढ़ते हैं। तो वे सत्य कैसे समझ सकते हैं? क्या 50 वर्ष की आयु में अपना भाग्य जानने का मतलब यह है कि तुम सत्य समझते हो? लोगों का मानना है कि “मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है।” क्या इसका मतलब यह है कि वे स्वर्ग की इच्छा के आगे खुद को समर्पित कर देते हैं? (ऐसा नहीं है।) केवल इस पर विश्वास करने से काम नहीं चलेगा। इन चीजों को जानने का अर्थ बस यह है कि भाग्य के विरुद्ध संघर्ष ना किया जाए, लेकिन यह अभी भी सत्य समझना नहीं है। सत्य समझने के लिए लोगों को परमेश्वर के सामने आना होगा और उसका उद्धार प्राप्त करना होगा। यह सारा रहस्य समझने के लिए उन्हें उसके वचनों का न्याय प्राप्त करना होगा और सत्य और जीवन का पोषण प्राप्त करना होगा। अन्यथा, लोग भले ही वे 70, 80 या सौ वर्ष तक जीवित रहें, वे तब भी ये नहीं जान पाएंगे कि मानव जीवन का क्या अर्थ है, लोग क्यों जीते हैं, और क्यों मरते हैं। लोग पृथ्वी पर एक छोटी-सी सैर करते हैं और कई दशकों तक जीवित रहते हैं, और मानव जीवन के समाप्त होने से पहले यह तक नहीं जान पाते कि इसका अर्थ क्या है। वे मृत्यु के समय असंतुष्ट रहते हैं और इस-उस बात पर ध्यान देते हैं और अंत में पछतावे के साथ इस दुनिया को छोड़ देते हैं और उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता। यदि वे अगले जन्म में फिर से जन्म लें और इसी तरह जीते रहें, तो क्या यह दुखद नहीं होगा? (हाँ होगा।) लोगों की प्रत्येक पीढ़ी दुखद रूप से एक के बाद एक आती है और चली जाती है, जीवित लोग दिवंगत को विदा कर देते हैं और फिर अगली पीढ़ी उन्हें विदा कर देती है। वे इसी तरह एक चक्र में चलते रहते हैं, धुंध में जीते हैं और कुछ भी नहीं समझते हैं। लेकिन तुम लोग, जिन्होंने अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर लिया है, तुम्हारे लिए यह अलग है। तुम लोगों को अंत के दिनों में मानवता को बचाने के लिए परमेश्वर के देहधारण के इस अनमोल और दुर्लभ अवसर का लाभ मिला है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना मिल सकती है और तुम उसकी व्यक्तिगत चरवाही और अगुआई प्राप्त कर सकते हो। तुम कई रहस्य और कई सत्य समझते हो, और सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य पूरा कर सकते हो। तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध किया और बदला जा सकता है। तुमने पिछली पीढ़ियों के संतों की तुलना में बहुत कुछ हासिल किया है। क्या यह सबसे धन्य चीज नहीं है? सभी में तुम लोग सबसे अधिक धन्य हो।

परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और कई वर्षों तक उसके न्याय और ताड़ना का अनुभव करने के बाद तुम धीरे-धीरे परमेश्वर द्वारा मानवता के प्रबंधन के उद्देश्य और उसके द्वारा मानवता के प्रबंधन और उद्धार के रहस्य को समझ गए हो। तुम परमेश्वर के इरादे समझ चुके हो और उसकी संप्रभुता को जान गए हो। तुम दिल से परमेश्वर के प्रति समर्पण करने को तैयार हो और उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम हो। जीवन सुरक्षित और संतुष्टिदायक लगता है। परमेश्वर ने तुम्हें जीवन दिया है, तुम परमेश्वर के लिए जीते हो और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के लिए जीते हो। यही जीने का सार्थक तरीका है। यदि लोग सत्य को स्वीकार किए बिना या समझे बिना जीते हैं और केवल देह के लिए जीते हैं, तो इन सबका कोई मोल नहीं होता। अब तुम सभी सत्य की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहे हो, और अधिक से अधिक जमीर और विवेक के साथ जी रहे हो। एक इंसान को जो होना चाहिए, तुम लोग धीरे-धीरे बिल्कुल वही बनते जा रहे हो, और तुम सत्य को अधिक से अधिक समझने लगे हो। तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के बारे में अधिक से अधिक जानते हो, और तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर की गवाही दे सकते हो। इस तरह जीना तुम्हारे दिल को शांति और आनंद से भर देगा, और यही सबसे सार्थक जीवन है। यह एक आशीर्वाद है जो पूरी मानवता में केवल तुम लोगों ने प्राप्त किया है। इस विशाल विश्व और संपूर्ण मानव जाति में, परमेश्वर ने केवल तुम कुछ लोगों को चुना है और तुम्हें इस अंतिम युग में और बड़े लाल अजगर के देश में जन्म दिया है। तुम उसका आदेश प्राप्त कर सकते हो और अपना कर्तव्य निभा सकते हो, और तुम उसके लिए खुद को खपा सकते हो। तुम सभी परमेश्वर के कृपापात्र हो और तुम्हें ही उसने चुना है। क्या यह सबसे धन्य बात नहीं है? (हाँ है।) यह बहुत ही धन्य बात है। ऐसे कई लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन अपना कर्तव्य निभाने के लिए सब कुछ किनारे नहीं रख सकते, और यह खेदजनक है। ऐसे कई लोग हैं जो सत्य को नहीं समझते हैं, और जब वे अपना कर्तव्य निभा रहे होते हैं तब भी बस इतना ही कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर के लिए मजदूरी कर रहे हैं। वे अपने हृदय में परमेश्वर के साथ सौदा करते हुए अपनी खूबी की पेशकश करते हैं और इसके बदले आशीष प्राप्त करने की आशा करते हैं। जब एक दिन उन्हें सत्य समझ आ जाएगा, तो वे शांत हो जाएँगे और स्वेच्छा से अपना कर्तव्य पूरा कर पाएँगे। तुम्हारा वर्तमान जीवन और तुम्हारा हर दिन परमेश्वर की गवाही देने और परमेश्वर के राज्य के सुसमाचार को फैलाने के लिए जीना ही जीने का वह तरीका है जिसे वह स्वीकार करता है। सरल भाषा में कहें तो परमेश्वर तुम सभी को इस तरह जीने की अनुमति देता है, और यह परमेश्वर ही है जिसने तुम्हें यह अवसर दिया है। परमेश्वर ने तुम्हें यह अवसर दिया है और उसने तुम्हें जीने, अपना कर्तव्य निभाने और उसके लिए खुद को खपाने में सक्षम बनाया है, और यह सबसे सार्थक बात है। तुम सभी को गर्व और सम्मानित महसूस करना चाहिए और इस अवसर का आनंद लेना चाहिए। तुम लोग बहुत युवा हो और तुम्हारे लिए अपना कर्तव्य निभाना, परमेश्वर का अनुसरण करना, और आपदा के बीच और ऐसे प्रतिकूल परिवेश और परिस्थितियों में उसकी गवाही देना—यह बहुत ही दुर्लभ मौका है! अंत के दिनों में परमेश्वर का देहधारण करना और मानवता को पूरी तरह से बचाने के लिए इतना सत्य व्यक्त करना ताकि मानवता सत्य प्राप्त कर सके और शुद्ध हो सके, यह सबसे दुर्लभ अवसर है। ज्यादा समय नहीं है, और ये पलक झपकते ही खत्म हो जाएगा। तुम्हें इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए और वह सारा सत्य हासिल करना चाहिए जो तुम्हें प्राप्त करना चाहिए। यह सबसे बड़ा आशीष है, और यह अतीत के सभी संतों को मिले आशीष से भी बड़ा आशीष है।

अंश 81

जो लोग परमेश्वर के रास्ते पर चलते हैं, उन्हें कम से कम अपना सब कुछ त्यागने में सक्षम होना चाहिए। परमेश्वर ने बाइबल में एक बार कहा था, “तुम में से जो कोई अपना सब कुछ त्याग न दे, वह मेरा चेला नहीं हो सकता” (लूका 14:33)। अपने पास जो कुछ भी है, उसे त्यागने से क्या तात्पर्य है? इसका तात्पर्य यह है कि अपने परिवार को त्यागना, अपने कार्य को त्यागना, अपने सभी सांसारिक झंझटों को त्यागना। क्या यह करना आसान है? नहीं, यह बहुत ही कठिन है। ऐसा करने की इच्छाशक्ति न हो तो यह कभी नहीं किया जा सकता। जब किसी व्यक्ति के पास त्यागने की इच्छाशक्ति होती है, तो उसमें स्वाभाविक रूप से कठिनाइयाँ सहने की इच्छाशक्ति होती है। यदि कोई कठिनाइयाँ नहीं सह सकता है, तो वह चाहते हुए भी कुछ त्याग नहीं पाएगा। कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने परिवार त्याग चुके हैं और अपने प्रियजनों से दूर हो चुके हैं, पर कुछ दिनों तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद उन्हें घर की याद सताने लगती है। यदि वे सच में यह सहन नहीं कर पाते, तो अपने घर का हालचाल लेने के लिए चुपके से वहाँ जाते हैं और फिर अपना कर्तव्य निभाने के लिए वापस आ जाते हैं। कुछ लोग जो अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपना घर छोड़ चुके हैं, उन्हें नववर्ष और अन्य छुट्टियों पर अपने प्रियजनों की बहुत याद आती है और जब रात में बाकी सभी लोग सो जाते हैं, तो वे छिपकर रोते हैं। रोने-धोने के बाद वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और काफी बेहतर महसूस करते हैं, जिसके बाद वे अपने कर्तव्य निभाना जारी रखते हैं। हालाँकि ये लोग अपने परिवारों को त्यागने में सक्षम थे, लेकिन वे अत्यधिक पीड़ा सहने में असमर्थ हैं। यदि वे देह के इन संबंधों के लिए अपनी भावनाओं को भी नहीं त्याग पा रहे हैं, तो वे वास्तव में स्वयं को परमेश्वर के लिए कैसे खपा पाएँगे? कुछ लोग अपना सब कुछ त्याग कर परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं। वे अपनी नौकरी और अपने परिवारों को त्याग देते हैं। लेकिन ऐसा करने में उनका लक्ष्य क्या है? कुछ लोग अनुग्रह और आशीष पाने का प्रयास कर रहे हैं और कुछ पौलुस की तरह केवल ताज और पुरस्कार की ही इच्छा रखते हैं। कुछ लोग सत्य और जीवन पाने और उद्धार हासिल करने के लिए अपना सब कुछ त्याग देते हैं। तो इनमें से कौन सा लक्ष्य परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है? निस्संदेह, यह सत्य की खोज और जीवन प्राप्त करना है। यह पूर्ण रूप से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है और यह परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। यदि कोई व्यक्ति सांसारिक वस्तुएँ या धन नहीं त्याग सकता, तो क्या वह सत्य प्राप्त कर पाएगा? एकदम नहीं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपना सब कुछ त्याग कर अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, लेकिन वे सत्य की खोज नहीं करते और अपने कर्तव्य निभाने में सदैव अनमने रहते हैं। कुछ वर्षों तक इसी तरह कार्य करने के बाद, उनके पास कोई अनुभवात्मक गवाही नहीं होती है और उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया होता है। जो केवल प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा तलाशते हैं और जो मसीह-विरोधियों की राह पर चलते हैं, वे सत्य प्राप्त करने में और भी कम सक्षम हैं। ऐसे कई लोग हैं जिनका परमेश्वर में विश्वास अपने खाली समय में थोड़ा सा कर्तव्य निभाने तक ही सीमित है। क्या ऐसे लोगों के लिए सत्य प्राप्त करना आसान होगा? मुझे लगता है कि यह आसान नहीं होगा। सत्य प्राप्त करना कोई साधारण बात नहीं है। इसके लिए व्यक्ति को अनेक कष्ट सहने होंगे और बड़ी कीमत चुकानी होगी। उसे विशेष तौर पर न्याय और ताड़ना, परीक्षण और शोधन तथा काट-छाँट की कठिनाइयों का अनुभव करना होगा। इन सभी कष्टों को सहना होगा। अत्यधिक पीड़ा सहे बिना कोई सत्य प्राप्त नहीं कर सकता। इस अवधि में किसी व्यक्ति को कितनी बार परमेश्वर की प्रार्थना और सत्य की खोज करनी चाहिए? परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप के कितने आँसू बहाने चाहिए? प्रबुद्ध और रोशन होने के लिए किसी को परमेश्वर के वचनों का कितना पाठ करना चाहिए? शैतान को हरा सकने से पहले किसी को कितनी आध्यात्मिक लड़ाइयां जीतनी होंगी? और इन चीजों का अनुभव करने की प्रक्रिया में कितना समय लगता है? कोई अंततः कितने वर्षों में परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त कर पाता है? पतरस का अनुभव देखोगे तो तुम्हें पता चल जाएगा। क्या परमेश्वर का उद्धार और मनुष्य की पूर्णता उतनी सरल है जितना कि लोग समझते हैं? अपना सर्वस्व त्याग देना कोई साधारण बात नहीं है। सब कुछ त्यागने का वास्तव में क्या मतलब है? “अपने सब कुछ” में केवल बाहरी चीजें, परिवार, प्रियजन व दोस्त और पेशा, वेतन, धन-दौलत और संभावनाओं से भी बढ़कर बहुत कुछ शामिल है। इनसे भी आगे इसमें मन और आत्मा से जुड़ी चीज़ें शामिल हैं : जैसे कि ज्ञान, सीखना, चीजों के बारे में नजरिया, जीने के नियम, दैहिक प्राथमिकताएँ और साथ ही प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा जैसी चीजें जिन्हें लोग पाना या हासिल करना चाहता है। अपना सब कुछ त्यागने में मुख्यतः ये चीजें शामिल होती हैं; ये सभी अपना सर्वस्व त्यागने के अर्थ का हिस्सा हैं। बाहरी चीजों को एक झटके में त्याग देना आसान है। लेकिन जो चीजें लोगों को पसंद हैं, जिन्हें वो पाने की कोशिश करते हैं और जो उनके दिल के करीब हैं, जो उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण और मूल्यवान हैं और जो एक तरह से उनके व्यक्तित्व को दर्शाती हैं, उन्हें त्यागना सबसे कठिन है। आज अधिकतर लोगों के त्याग न कर पाने का मुख्य कारण यह है कि वे उन चीजों को छोड़ नहीं सकते, क्योंकि ये वही चीजें हैं जिन्हें वे सबसे अधिक महत्व देते हैं और सँजोकर रखते हैं। उदाहरण के लिए, प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा, या यश और धन, अपनी प्रिय आजीविका या सबसे मूल्यवान चीजें—यही वो सब कुछ है जो किसी के पास होता है और इन्हें ही त्यागना सबसे कठिन है। एक बैंक प्रबंधक था जो परमेश्वर में विश्वास करने लगा था। उसने देखा कि परमेश्वर के वचन वास्तव में सत्य हैं और उसने देखा कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह मनुष्य को बचाने का कार्य है। लेकिन जब उसने अपना सब कुछ त्यागने और परमेश्वर का अनुसरण करने का फैसला किया, तो उसे बैंक में अपने पद के साथ जूझना पड़ा। एक पल वह सोचता, “बैंक में मेरा पद अत्यंत मूल्यवान चीज है। इसमें अच्छी कमाई और प्रभाव है,” और अगले ही पल वह सोचता, “परमेश्वर में विश्वास करके मैं सत्य और शाश्वत जीवन पा सकता हूँ। यही महत्वपूर्ण है।” मन ही मन वह निरंतर एक लड़ाई लड़ रहा था। एक पल में वह बैंक प्रबंधक बना रहना चाहता था और अगले ही पल वह परमेश्वर में विश्वास करना चाहता था। एक क्षण वह पैसा पाना चाहता था और अगले ही क्षण वह सत्य पाना चाहता था। एक पल वह अपना पद हाथ से निकलने नहीं देना चाहता था और अगले ही पल वह शाश्वत जीवन पाना चाहता था। उसका मन इधर-उधर डोलता रहता था। बैंक प्रबंधक के रूप में उसका पद उसके लिए बहुत मूल्यवान था और वह इसे छोड़ नहीं पा रहा था। महीनों तक वह अपने मन में यह लड़ाई लड़ता रहा और अंततः, शायद इच्छा न होने पर भी उसने इसे छोड़ दिया। जो कुछ उसके पास था उसे त्यागना उसके लिए कितना कठिन था! भले ही वह जानता था कि बैंक प्रबंधक के रूप में उसकी स्थिति एक अस्थायी चीज है जो धुएँ के गुबार की तरह गायब हो सकती है, फिर भी उसके लिए इसे छोड़ना आसान नहीं था। कुछ लोग डॉक्टर या वकील या उच्च पदस्थ अधिकारी हैं, और उनका वेतन और आय बहुत ज्यादा है। इन चीजों को त्यागना आसान नहीं है; कौन जानता है कि इन्हें त्यागने के लिए उन्हें अपने भीतर कितने महीनों तक संघर्ष करना होगा। यदि कोई इन चीजों को त्यागने से पहले वर्षों तक संघर्ष करता रहे और तब तक परमेश्वर का कार्य समाप्त हो चुका हो, तो क्या इसका कोई मतलब होगा? तब वह केवल विपत्तियों से घिर सकता है, विलाप कर सकता है और अपने दाँत पीस सकता है। परमेश्वर के राज्य में तुम केवल तभी प्रवेश कर पाओगे जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपनी सबसे महत्वपूर्ण चीजों को त्याग पाओगे और अपना कर्तव्य निभाओगे और सत्य तथा जीवन पाने के लिए प्रयास करोगे। परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने का अर्थ क्या है? इसका मतलब है कि तुम अपना सब कुछ त्यागने और परमेश्वर का अनुसरण करने, उनके वचनों पर ध्यान देने और उनकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने, हर चीज में उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम हो; इसका मतलब है कि वो तुम्हारा प्रभु और तुम्हारा परमेश्वर बन गया है। परमेश्वर के लिए इसका मतलब है कि तुमने उसके राज्य में प्रवेश पा लिया है और तुम पर चाहे कोई भी विपत्ति आए, तुम्हें उसकी सुरक्षा मिलेगी और तुम बच जाओगे, और तुम उसके राज्य के लोगों में से एक होओगे। परमेश्वर तुम्हें अपने अनुयायी के रूप में स्वीकार करेगा या तुम्हें पूर्ण बनाने का वादा करेगा—लेकिन अपने पहले कदम के रूप में तुम्हें यीशु का अनुसरण करना होगा। केवल तभी तुम्हें राज्य के प्रशिक्षण में कोई भूमिका निभाने का अवसर मिलेगा। यदि तुम यीशु का अनुसरण नहीं करते और परमेश्वर के राज्य के बाहर हो, तो परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करेगा। और यदि परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करता, तो क्या तुम खुद को बचा लिए जाने और परमेश्वर का वादा और उससे पूर्णता पाने की इच्छा के बावजूद यह सब पा सकोगे? तुम नहीं पा सकोगे। यदि तुम परमेश्वर का अनुमोदन पाना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले उसके राज्य में प्रवेश करने लायक बनना होगा। यदि तुम सत्य के अनुसरण के लिए अपना सब कुछ त्याग सकते हो, यदि तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य खोज सकते हो, यदि तुम सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हो और यदि तुम्हारे पास सच्ची अनुभवात्मक गवाही है, तो तुम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने और उसका वादा हासिल करने के योग्य हो। यदि तुम परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपना सब कुछ त्याग नहीं सकते, तो तुम न तो उसके राज्य में प्रवेश करने के योग्य हो, और न ही उसके आशीष और वादे के हकदार। बहुत से लोग अपना सब कुछ त्याग कर परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, फिर भी यह निश्चित नहीं है कि वे सत्य पा सकेंगे। व्यक्ति को सत्य से प्रेम करना चाहिए और उसे प्राप्त कर सकने से पहले उसे स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए। यदि कोई सत्य को पाने का प्रयास नहीं करता है, तो वो इसे पा नहीं सकता। उन लोगों का तो जिक्र ही क्या जो अपने खाली समय में अपने कर्तव्य निभाते हैं—परमेश्वर के कार्य के बारे में उनका अनुभव इतना सीमित है कि उनके लिए सत्य को पाना और भी कठिन होगा। यदि कोई अपना कर्तव्य नहीं निभाता है या सत्य को पाने के लिए प्रयत्नशील नहीं है, तो वह परमेश्वर से उद्धार और पूर्णता प्राप्त करने के अद्भुत अवसर से चूक जाएगा। कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करते हैं, लेकिन अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते और सांसारिक चीजों के पीछे पड़े रहते हैं। क्या यही उनका सब कुछ त्यागना है? यदि परमेश्वर में ऐसे विश्वास करता है, तो क्या वह अंत तक उसका अनुसरण कर पाएगा? प्रभु यीशु के शिष्यों को देखो : उनमें मछुआरे, किसान और एक कर संग्राहक थे। जब प्रभु यीशु ने उन्हें पुकारा और कहा, “मेरे पीछे चले आओ,” तो उन्होंने अपने काम-काज छोड़ दिए और प्रभु का अनुसरण किया। उन्होंने न तो रोजी-रोटी के मुद्दे पर विचार किया, न ही इस बात पर कि बाद में उनके पास दुनिया में जीवित रहने का कोई रास्ता बचेगा या नहीं और वे तुरंत प्रभु यीशु के पीछे चल पड़े। पतरस ने खुद को पूरे दिल से समर्पित करके अंत तक प्रभु यीशु के आदेश का पालन करते हुए अपना कर्तव्य पूरा किया। उसे अपना पूरा जीवन परमेश्वर का प्रेम पाने में लगाया और अंत में परमेश्वर ने उसे पूर्णता प्रदान की। आज कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपना सब कुछ नहीं त्याग सकते, और, फिर भी वे परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना चाहते हैं। क्या वे केवल सपने नहीं देख रहे हैं?

परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए उत्साह होना ही काफी नहीं है। तुम्हें उसके इरादे, लोगों को पूर्णता प्रदान करने का उसका तौर-तरीका, किन लोगों को वह पूर्णता प्रदान करता है और परमेश्वर द्वारा लोगों को पूर्णता प्रदान किए जाने के प्रति जो रुख-रवैया रखना चाहिए, यह सब भी जरूर समझना चाहिए। इसके अलावा, परमेश्वर के अनुयायी के रूप में व्यक्ति को जानना चाहिए कि परमेश्वर के मार्ग पर चलना कितना महत्वपूर्ण है। इसी पर यह निर्भर करता है कि कोई सत्य हासिल कर सकेगा या नहीं। परमेश्वर के मार्ग पर चलने का अर्थ सत्य का आचरण करना है। केवल सत्य का अभ्यास करके ही कोई वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है, इसलिए सत्य की प्राप्ति के लिए सत्य का अभ्यास आवश्यक है। यदि कोई सत्य को नहीं समझता या इसका अभ्यास करना नहीं जानता, तो वह इसे किसी भी तरीके से हासिल नहीं कर सकता। यही वजह है कि परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा सत्य का अभ्यास करना है। सत्य का अभ्यास करने वाले ही परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं, वे ही सत्य को पूरी तरह से समझ सकते हैं, और जो सत्य को पूरी तरह से समझते हैं, वे ही परमेश्वर को जानते हैं। ये सभी चीजें सत्य का अभ्यास करने से प्राप्त होती हैं। परमेश्वर पर चाहे जितने लोग विश्वास करें, परमेश्वर यह देखता है कि उनमें से कौन उसके मार्ग का अनुसरण करता है, कौन सत्य का अभ्यास करता है और उनमें से कौन उसके प्रति वास्तव में समर्पित है। परमेश्वर में विश्वास करने वालों को सत्य समझना चाहिए और इसका अभ्यास करना चाहिए ताकि वे उन लोगों में शामिल हो सकें जो परमेश्वर की इच्छा का पालन करते हैं और उसके प्रति समर्पित हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं उन्हें पहले यह समझना चाहिए कि लोगों को अपने जीवन में परमेश्वर पर विश्वास क्यों करना चाहिए, पृथ्वी पर आने के समय से ही मनुष्य को बचाने का कार्य परमेश्वर कैसे कर रहा है, और उद्धार पाने तथा परमेश्वर का वादा और आशीष पाने योग्य बनने से पहले लोगों को सत्य का अनुसरण करते हुए क्या हासिल कर लेना चाहिए। अतीत में, इन सत्यों को कोई नहीं समझता था। हर कोई मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर में विश्वास करता था, और यह सोचता था कि परमेश्वर में विश्वास करने का संबंध आशीष, ताज और पुरस्कार पाने से है। परिणामस्वरूप, वे सभी परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध चले गए, सच्चे मार्ग से भटक गए और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल पड़े। इसीलिए यदि कोई सत्य को समझना और पाना चाहता है और खुद को बचाया जाना चाहता है, तो उसे परमेश्वर पर विश्वास के बारे में अतीत से चले आ रहे ये गलत विचार सुधारने होंगे। खासकर लोगों की धर्म-संबंधी धारणाएँ और कल्पनाएँ तथा उनके धर्मशास्त्रीय विचार बेतुके हैं; वे सभी सत्य विरोधी और ऊपरी तौर पर आकर्षक लगने वाली भ्रांतियाँ हैं। परमेश्वर उन सारे तरीकों को जरा भी नहीं स्वीकार करता जिन पर धर्मावलंबी लोगों का विश्वास है। यदि लोग अब भी उन तौर-तरीकों को जारी रखते हैं और आशीष, ताज और पुरस्कार पाना चाहते हैं—यदि वे इसी प्रकार के दृष्टिकोण के साथ परमेश्वर में विश्वास करना जारी रखते हैं, तो क्या वे सत्य और जीवन प्राप्त कर सकेंगे? बिलकुल नहीं। तो फिर लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखते हुए कैसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? तुम्हें इसकी शुरुआत परमेश्वर के इरादे समझने और यह साफ-साफ देखने से करनी चाहिए कि वह लोगों को कैसे बचाता है। यदि तुम सत्य नहीं खोजते, बल्कि अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर में विश्वास करना जारी रखते हो, यदि तुम प्रसिद्धि, लाभ, रुतबे, धन और सांसारिक चीजों के पीछे भागते रहते हो, तो भले ही तुम पूरी दुनिया जीत कर लो, क्या यह इस लायक होगा कि इसके लिए अंततः अपने जीवन की कीमत चुकाई जाए? कुछ लोग कहते हैं, “जब मैं पर्याप्त पैसे कमा लूँगा, सफल करियर बना लूँगा, जब अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी कर लूँगा और अपने सपने साकार कर लूँगा, तब आकर मैं अच्छा विश्वासी बन जाऊँगा।” क्या परमेश्वर तुम्हारा इंतजार करता है? क्या परमेश्वर का कार्य तुम्हारा इंतजार करता है? यदि तुम इन चीजों को अभी नहीं छोड़ सकते, तो परमेश्वर नहीं कहता कि तुम तुरंत ऐसा करो, लेकिन तुम्हें इन चीजों को छोड़ने का अभ्यास करना चाहिए। यदि तुम सचमुच ऐसा नहीं कर सकते, तो परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा करो। उससे मार्गदर्शन लो। इसके साथ ही, तुम्हें सहयोग करना चाहिए और अपने कर्तव्य निभाने चाहिए। कर्तव्य निभाने के पीछे क्या उद्देश्य होता है? दरअसल, इसका उद्देश्य अच्छे कर्मों की तैयारी से है। भले ही तुम अंततः पूरी तरह से पूर्णता प्राप्त न कर सको, फिर भी तुम्हें कम से कम थोड़े-बहुत अच्छे कर्म करने चाहिए, ताकि जब परमेश्वर द्वारा अच्छे लोगों को पुरस्कृत और बुरों को दंडित करने का समय आए, तो तुम उन कर्मों का हिसाब दे सको। परमेश्वर का कार्य एक दिन समाप्त हो जाएगा और वह अच्छे लोगों को पुरस्कृत और बुरे लोगों को दंडित करना शुरू करेगा। वह तुमसे अपने अच्छे कर्म सामने रखने को कहेगा, और यदि तुम्हारे पास कोई अच्छा कर्म नहीं होगा, तो तुम्हारा किस्सा खत्म—तुम्हें निश्चित रूप से दंड मिलेगा। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुमने लगभग दस वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है और तुमने जो सबसे कीमती कर्तव्य निभाया है वह केवल अपने खाली समय में सुसमाचार फैलाना था जिससे कुछ नए लोग परमेश्वर पर विश्वास करने लगे। तुम्हें तो यह भी नहीं पता कि अंत में वे लोग अपने विश्वास में दृढ़ रह सकेंगे या नहीं। क्या तुम परमेश्वर को इसका हिसाब दे सकते हो? तुम जरूर नहीं दे पाओगे। तुम्हें विचार करना चाहिए कि तुम किस तरह के परिणामों का लेखा-जोखा परमेश्वर को दे सकते हो और तुम्हारे पास किस प्रकार की अनुभवात्मक गवाही होनी चाहिए ताकि तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर सको और वह तुम्हारी पहचान अपने अनुयायी के रूप में कर सके। तुम सिर्फ इस बात से संतुष्ट नहीं हो सकते कि तुमने परमेश्वर के वर्तमान देहधारण का तथ्य स्वीकार लिया है और अंत के दिनों के यीशु को अपने दिल में स्वीकार लिया है। परमेश्वर तुममें जो देखना चाहता है वो है तुम्हारी सच्ची अनुभवात्मक गवाही और उसके कार्य के प्रति तुम्हारे समर्पण के फल। परमेश्वर अंत में यही परीक्षा लेगा कि क्या तुमने सत्य प्राप्त कर लिया कि नहीं और क्या तुम्हारे पास जीवन है कि नहीं। तुम्हें परमेश्वर के इरादे समझने ही चाहिए। अगर तुम केवल कलीसिया के रोजनामचे में अपना नाम जुड़वाते हो या कोई कर्तव्य निभाते हो लेकिन सत्य की खोज नहीं करते और परमेश्वर में कुछ वर्षों तक विश्वास रखने के बाद भी तुम्हारे पास कोई अनुभवात्मक गवाही नहीं है, तो क्या परमेश्वर तब भी तुम्हें स्वीकार कर सकता है? यदि परमेश्वर तुम्हें नहीं स्वीकारता, तो तुम उसके घर के बाहर रह जाते हो। अगर तुम केवल परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करते हो, लेकिन सत्य की खोज नहीं करते, तो अंत में परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास से क्या हासिल होगा? तुम परमेश्वर के मानकों से बहुत पीछे रह जाओगे! सत्य को प्राप्त करना उतना आसान नहीं है जितना कि लोग मान बैठते हैं; सत्य प्राप्त कर पाने और परमेश्वर को जानने से पहले कई परीक्षणों और तकलीफों, गहन पीड़ा और शोधन की प्रक्रिया से गुजरना होता है। जब तुम परमेश्वर के कार्य के इस तरीके का अनुभव करते हो, अगर तब भी उसका अनुसरण करने के लिए अपना सर्वस्व नहीं त्यागते तो क्या तुम्हें बचाया जा सकता है? क्या तुम अपने थोड़े से खाली समय में परमेश्वर पर विश्वास करने मात्र से उसके कार्य का अनुभव कर सकते हो? तुम यह अनुभव घर में ही परमेश्वर में विश्वास करके किस प्रकार ले सकते हो? तुम बाहरी दुनिया में रह कर यह अनुभव कैसे ले सकते हो? इसीलिए, अपना सर्वस्व त्यागना परमेश्वर का अनुसरण करने की एक शर्त है। यदि तुम अपना सर्वस्व नहीं त्याग सकते, तो तुम सत्य बिल्कुल नहीं पा सकते, और यदि तुम सत्य नहीं पा सकते, तो तुम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लायक नहीं हो। यह ऐसा तथ्य है जिसे कोई इंसान बदल नहीं सकता।

अंश 82 (भाई-बहनों के सवालों के जवाब)

(अपने परिवार के लिए स्नेह के कारण मैं अभी भी अपना कर्तव्य निभाने के प्रति बेबस रहता हूँ। मुझे अक्सर उनकी याद आती है और इसका मेरे कर्तव्य निर्वहन पर असर पड़ता है। हाल ही में मेरी दशा थोड़ी ठीक हुई है, लेकिन मुझे अभी भी कभी-कभी चिंता होती है कि बड़ा लाल अजगर मुझे डराने के लिए मेरे परिवार के लोगों को गिरफ्तार कर लेगा और मुझे डर है कि मैं तब मजबूती से खड़ा नहीं रह पाऊँगा।) ये डर बेबुनियाद है। जब तुम इन बातों के बारे में सोचते हो, तो तुम्हें इसके हल के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए। तुम्हें यह समझना चाहिए कि तुम जिन भी परिस्थितियों का सामना करते हो, उनका आयोजन और व्यवस्था परमेश्वर ने की है। तुम्हें परमेश्वर को समर्पित होना सीखना चाहिए और सत्य की तलाश करने के काबिल होना चाहिए और हालात का सामना करते हुए मजबूत रहना चाहिए। यह एक सबक है जिसे लोगों को सीखना होगा। तुम्हें अक्सर सोच-विचार करना चाहिए कि इस दौरान तुम परमेश्वर की सिंचाई और चरवाही का कैसा अनुभव कर रहे हो? तुम्हारा असली आध्यात्मिक कद क्या है? एक सृजित इंसान का कर्तव्य तुम्हें कैसे पूरा करना चाहिए? तुम्हें इन बातों को समझना होगा! अगर तुम बड़े लाल अजगर के धमकाने के बारे में सोच सकते हो, तो तुम यह क्यों नहीं सोचते कि सत्य में कैसे प्रवेश किया जाए? तुम सत्य के बारे में सोच-विचार क्यों नहीं करते? (जब ये ख्याल मेरे मन में आते हैं, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ और वादा करता हूँ कि अगर एक दिन मुझे सच में ऐसे हालात का सामना करना पड़ा, तो मैं मृत्यु आने तक परमेश्वर के प्रति सच्चा रहूँगा। लेकिन मुझे डर है कि मैं अपने छोटे आध्यात्मिक कद के साथ ऐसा नहीं कर पाऊँगा।) फिर तुम प्रार्थना करते हो, “परमेश्वर, मुझे डर है कि मैं अपने छोटे आध्यात्मिक कद के साथ ऐसा नहीं कर पाऊँगा। मुझे अत्यधिक डर लग रहा है। कृपया ऐसा न कर। जब मेरा आध्यात्मिक कद होगा तो तू ऐसा कर सकता है।” क्या यह प्रार्थना करने का सही तरीका है? (नहीं।) तुम्हें इस तरह प्रार्थना करनी चाहिए : “परमेश्वर, मैं अभी आध्यात्मिक कद और आस्था में नीचे हूँ, मुझे किसी चीज का सामना करने से डर लगता है; असल में मैं यह नहीं मानता कि सभी मामले और सभी चीजें तेरे हाथों में हैं। मैंने खुद को तेरे हाथों में नहीं सौंपा है; यह कैसा विद्रोह है! मैं तेरी व्यवस्थाओं और आयोजनों को समर्पित होने के लिए तैयार हूँ। तू चाहे जो करे, मेरा दिल तेरी गवाही देने को तैयार है। मैं तुझे अपमानित किए बिना अपनी गवाही पर मजबूती से खड़े रहने को तैयार हूँ। जैसा तू चाहे वैसा कर।” तुम जो कहना चाहते हो और जो तुम्हारी तमन्नाएँ हैं, उन्हें परमेश्वर के सामने रखने की जरूरत है—इसी तरह तुम्हारे अंदर सच्ची आस्था पैदा हो सकती है। अगर तुम इस तरह प्रार्थना करने में भी झिझकते हो, तो तुम्हारी आस्था कितनी कम होगी! तुम्हें अक्सर इसी तरह प्रार्थना करनी चाहिए। भले ही तुम इस तरह से प्रार्थना करते रहो लेकिन यह जरूरी नहीं कि परमेश्वर जवाब देगा। परमेश्वर लोगों पर उनकी ताकत से ज्यादा बोझ नहीं डालता, लेकिन अगर तुम्हारा रवैया और जो तुमने ठाना है वह स्पष्ट है, तो परमेश्वर खुश होगा। जब परमेश्वर खुश होगा तो तुम्हारा दिल इस मामले से परेशान और मजबूर नहीं होगा। “पति, बच्चे, परिवार, संपत्ति जैसी चीजें-ये सब परमेश्वर के हाथ में हैं। उनका कोई मतलब नहीं है। सारी दुनिया परमेश्वर के हाथों में है; क्या मेरा परिवार भी उसके हाथों में नहीं है? मुझे उनके बारे में परेशान होने से क्या फायदा? इसमें मेरी एक नहीं चलती, मैं असमर्थ हूँ और मैं उनकी हिफाजत नहीं कर सकता। उनकी किस्मत और उनके बारे में सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है!” तुम्हें परमेश्वर के सामने आने और प्रार्थना करने, मजबूती से संकल्प लेने और परमेश्वर की व्यवस्थाओं के लिए समर्पित होने का मन बनाने के लिए आस्था रखनी होगी। तब तुम्हारे अंदर की दशा बदल जाएगी। तुम्हें फिर कोई परेशानी नहीं होगी और तुम फिर चिंतित महसूस नहीं करोगे। तुम अपने हर काम में बहुत ज्यादा चौकन्ने और शक से भरे नहीं रहोगे। जब बाकी सभी लोग आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं, तुम हमेशा पीछे हटते हो, भागना चाहते हो—क्या यह एक डरपोक का काम नहीं है? जब परमेश्वर के लोग राज्य में अपना कर्तव्य निभाते हैं, और सभी सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के सामने अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो उन्हें परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के साथ शांति से आगे बढ़ना चाहिए। उन्हें लड़खड़ाते हुए, पीछे हटते हुए, या डर-डर कर नहीं चलना चाहिए। अगर तुम जानते हो कि यह दशा गलत है, और इसे हल करने के लिए सत्य की तलाश करने की बजाय लगातार इसके बारे में परेशान होते हो, तो तुम इसके आगे लाचार और इससे बँधे हुए हो और तुम अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर पाओगे। तुम एक सृजित प्राणी होने के नाते अपने कर्तव्य को पूरे दिल, पूरे दिमाग और अपनी पूरी ताकत से निभाना चाहते हो, लेकिन क्या तुम ऐसा कर सकते हो? तुम अपना पूरा दिल देने की हद तक नहीं पहुँच सकते क्योंकि तुम्हारा दिल तुम्हारे कर्तव्य पर नहीं है, तुमने ज्यादा से ज्यादा अपने दिल का सिर्फ दसवां हिस्सा ही सुपुर्द किया है। तुम अपने पूरे दिल के बिना अपना सारा दिमाग और अपनी ताकत कैसे लगा सकते हो? तुम्हारा दिल अपने कर्तव्य में नहीं लगा है, और तुम्हारे पास इसे निभाने की थोड़ी-सी इच्छा भर है। क्या तुम सचमुच अपना कर्तव्य पूरे दिल और दिमाग से पूरा कर सकते हो? तुम्हारे अंदर सत्य का अभ्यास करने का संकल्प नहीं है, इसलिए तुम परिवार और उसके प्रति स्नेह के आगे मजबूर हो। वे तुम्हारे हाथ-पाँव बाँध देंगे; वे तुम्हारी सोच और दिल पर नियंत्रण करेंगे और तुम सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाओगे—तुम चाहोगे लेकिन तुम्हारे अंदर ताकत की कमी रहेगी। इसलिए तुम्हें परमेश्वर के सामने प्रार्थना करनी चाहिए, एक ओर परमेश्वर के इरादे समझने होंगे तो साथ ही यह भी जानना होगा कि एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें कहाँ खड़े रहना चाहिए; तुम्हें वह संकल्प और रवैया अपनाना होगा जो तुम्हारे पास होना ही चाहिए, और इन्हें परमेश्वर के सामने रखना चाहिए। यही वह रवैया है जो तुम्हारे पास अवश्य होना चाहिए। बाकी लोगों को ये चिंताएँ क्यों नहीं होतीं? क्या तुम्हें लगता है कि बाकी लोगों को परिवार या इस तरह की परेशानियाँ नहीं होतीं? असल में हर किसी को कुछ देह संबंधी और घरेलू झंझट होते हैं, लेकिन कुछ लोग परमेश्वर से प्रार्थना करके और सत्य की तलाश करके उन्हें हल कर पाते हैं। तलाश करने के कुछ समय बाद, वे देह की इन आसक्तियों की असलियत समझ जाते हैं, और उन्हें अपने दिल से निकाल देते हैं, फिर ये चीजें उनके लिए कठिनाइयाँ नहीं रह जातीं, और वे उनके नियंत्रण में या उनके आगे मजबूर नहीं होते। ये चीजें उनके कर्तव्य-निर्वहन पर असर नहीं डालतीं और इसलिए वे मुक्त हो जाते हैं। बाइबल में परमेश्वर के वचनों का एक वाक्य यह कहता है, “तुम में से जो कोई अपना सब कुछ त्याग न दे, वह मेरा चेला नहीं हो सकता” (लूका 14:33)। जो कुछ भी किसी के पास है उसे त्यागना क्या होता है? “सब कुछ” का क्या मतलब है? रुतबा, प्रसिद्धि और लाभ, परिवार, दोस्त और संपत्ति जैसी चीजें—ये सभी “सब कुछ” शब्द में शामिल हैं। तो कौन-सी चीजें तुम्हारे दिल में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं? कुछ लोगों के लिए ये चीजें उनके बच्चे हैं, कुछ के लिए उनके माँ-बाप हैं, कुछ के लिए यह संपत्ति है और दूसरों के लिए यह रुतबा, प्रसिद्धि और लाभ है। अगर तुम इन चीजों को सँजोते हो, तो वे तुम पर हावी हो जाएँगी। अगर तुम उन्हें नहीं सँजोते और तुम उन्हें पूरी तरह से छोड़ देते हो, तो वे तुम्हें वश में नहीं कर सकतीं। यह सिर्फ इस बात पर निर्भर है कि उनके प्रति तुम्हारा रवैया कैसा है, और तुम इन चीजों को कैसे सँभालते हो।

तुम्हें यह समझना होगा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर कब या किस चरण में अपना काम कर रहा है, उसे हमेशा अपने साथ काम करने के लिए कुछ लोगों की जरूरत पड़ती है। इन लोगों का परमेश्वर के कार्य में उसका साथ देना या सुसमाचार फैलाने में मदद करना, उसके द्वारा पहले से निर्धारित है। तो क्या परमेश्वर के पास उस हर एक इंसान के लिए एक आदेश है जिसे वह पहले से निर्धारित करता है? हर किसी का एक मिशन और एक जिम्मेदारी होती है और हर किसी के लिए एक आदेश होता है। जब परमेश्वर तुम्हें एक आदेश देता है तो यह तुम्हारी जिम्मेदारी बन जाती है। तुम्हें यह जिम्मेदारी उठानी होगी, यह तुम्हारा कर्तव्य है। कर्तव्य क्या है? यह वह मिशन है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। मिशन क्या है? (परमेश्वर का आदेश इंसान का मिशन है। हर किसी को अपना जीवन परमेश्वर के आदेश को पूरा करने के लिए जीना चाहिए। यह आदेश ही उसके दिल में एकमात्र चीज होनी चाहिए और उसे किसी और चीज के लिए नहीं जीना चाहिए।) परमेश्वर का आदेश इंसान का मिशन है; यह समझ सही है। जो लोग परमेश्वर के होने में विश्वास करते हैं उन्हें परमेश्वर के आदेश को पूरा करने के लिए दुनिया में लाया गया है। अगर तुम इस जीवन में सिर्फ सामाजिक सीढ़ी चढ़ने, पैसा इकट्ठा करने, एक अच्छा जीवन जीने, परिवार के करीब रहने का मजा लेने और प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे का मजा लेने के पीछे भागते हो—अगर तुम सामाजिक रुतबा हासिल कर लेते हो, तुम्हारे लिए तुम्हारा परिवार जरूरी हो जाता है और तुम्हारे परिवार में हर कोई सुरक्षित और स्वस्थ है—लेकिन तुम उस मिशन को अनदेखा कर देते हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है, क्या इस जीवन का कोई मूल्य है जिसे तुम जी रहे हो? मरने के बाद तुम परमेश्वर को कैसे जवाब दोगे? तुम जवाब नहीं दे पाओगे और यह सबसे बड़ी बगावत है; यह सबसे बड़ा गुनाह है! परमेश्वर के घर में तुममें ऐसा कौन है जो इस समय संयोग से अपना कर्तव्य निभा रहा है? तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए चाहे जिस भी पृष्ठभूमि से आए, इसमें कुछ भी संयोग से नहीं हुआ है। इस कर्तव्य को बिना सोचे समझे सिर्फ कुछ विश्वासियों को खोज लेने से नहीं निभाया जा सकता; यह परमेश्वर ने युगों पहले से निर्धारित कर रखा था। किसी चीज के पहले से निर्धारित होने का क्या मतलब है? विशेषतः इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि अपनी पूरी प्रबंधन योजना में, परमेश्वर ने बहुत पहले ही योजना बना ली थी कि तुम धरती पर कितनी बार आओगे, अंत के दिनों के दौरान तुम किस वंश और किस परिवार में पैदा होगे, इस परिवार की परिस्थितियाँ क्या होंगी, तुम मर्द होगे या औरत, तुम्हारी ताकत क्या होगी, तुम्हारी शिक्षा किस स्तर की होगी, तुम कितना साफ-साफ बोलने वाले होगे, तुम्हारी क्षमता कितनी होगी और तुम कैसे दिखोगे। उसी ने यह तय किया कि तुम किस उम्र में परमेश्वर के घर में आकर अपना कर्तव्य निभाना शुरू करोगे और कब कौन-सा कर्तव्य निभाओगे। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए हर कदम पहले से निर्धारित कर दिया था। जब तुम पैदा भी नहीं हुए थे और जब तुम अपने पिछले कई जीवनों में धरती पर आए थे तो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए पहले से ही व्यवस्था की थी कि कार्य के इस आखिरी चरण में तुम क्या कर्तव्य निभाओगे। यह बिल्कुल भी कोई मजाक नहीं है! सच्चाई यह है कि तुम्हें यहाँ धर्मोपदेश सुनने का मौका मिल रहा है, यह भी परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित था। इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए! इसके अलावा, तुम्हारा कद, तुम्हारा हुलिया, तुम्हारी आँखें कैसी दिखती हैं, तुम्हारी कद-काठी, तुम्हारी सेहत, तुम्हारे जीवन के अनुभव क्या हैं और तुम किसी एक उम्र में कौन-से कर्तव्य निभा सकते हो और तुम्हारे पास किस तरह के गुण और काबिलियत है—ये बहुत पहले परमेश्वर ने तुम्हारे लिए निर्धारित किए थे और बेशक ये अब व्यवस्थित नहीं किए जा रहे। परमेश्वर ने लंबे समय से उन्हें तुम्हारे लिए निर्धारित किया हुआ है जिसका मतलब यह है कि अगर वह तुम्हारा उपयोग करने का इरादा रखता है तो वह तुम्हें यह आदेश और यह मिशन देने से पहले ही तुम्हें तैयार कर चुका होगा। तो क्या तुम्हारा उससे भागना स्वीकार्य है? क्या इसके बारे में तुम्हारा अनमना रहना स्वीकार्य है? दोनों ही स्वीकार्य नहीं हैं; यह परमेश्वर को निराश करने वाली बात होगी! लोगों द्वारा अपना कर्तव्य छोड़ना सबसे खराब प्रकार का विद्रोह है। यह एक घिनौना काम है। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए आज तक पहुँचने और तुम्हें यह मिशन सौंपे जाने के लिए अनादि काल से इसे निर्धारित करने के लिए सोच-समझकर और ईमानदारी से काफी मेहनत की है। तो क्या यह मिशन तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है? क्या यह वह नहीं है जो तुम्हारी जिदगी को मूल्यवान बनाता है? अगर तुम उस मिशन को पूरा नहीं करते हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है तो तुम अपनी जिदगी का मोल और मतलब खो देते हो; यह ऐसा है जैसे कि तुम बेकार में ही जिए जा रहे हो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए सही स्थितियों, माहौल और पृष्ठभूमि का बंदोबस्त किया। उसने तुम्हें यह क्षमता और काबिलियत दी, तुम्हें इस युग में जीने के लिए तैयार किया और तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने देने के लिए जरूरी सभी योग्यताएं हासिल करने के लिए तैयार किया, उसने तुम्हारे लिए यह सब बंदोबस्त किया है और फिर भी तुम इस कर्तव्य को पूरी लगन से नहीं निभाते हो। तुम लालच का सामना नहीं कर सकते और तुम बच निकलना चुनते हो, हमेशा एक अच्छा जीवन जीने की कोशिश और दुनिया की चीजों का पीछा करते हो। तुम परमेश्वर द्वारा दिए गए तोहफे और क्षमता का इस्तेमाल शैतान की सेवा के लिए करते हो, शैतान के लिए जीते हो। इससे परमेश्वर को कैसा महसूस होता है? तुम्हारे उसकी आशाओं पर इस तरह पानी फेर देने से क्या वह तुम लोगों से तिरस्कार नहीं करेगा? क्या वह तुमसे नफरत नहीं करेगा? वह तुम पर भारी कहर बरपाएगा। और क्या तब यह मामला खत्म हुआ माना जाएगा? क्या यह उतना आसान हो सकता है जितना तुम सोचते हो? क्या तुम सोचते हो कि अगर तुम इस जीवन में अपना मिशन पूरा नहीं करते तो इन सबका तुम्हारी मृत्यु के साथ अंत हो जाएगा? इसका अंत यहीं नहीं होता; तब तुम्हारी आत्मा खतरे में पड़ जाएगी। तुमने अपना कर्तव्य नहीं निभाया, तुमने परमेश्वर के आदेश को स्वीकार नहीं किया और तुम परमेश्वर की उपस्थिति से भाग गए। हालात डरावने हो गए हैं। तुम कहाँ तक भाग सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के हाथों से बच सकते हो? परमेश्वर इस प्रकार के इंसान को कैसे वर्गीकृत करता है? (ये वे लोग हैं जिन्होंने उसके साथ धोखा किया है।) परमेश्वर उन लोगों को कैसे परिभाषित करता है जिन्होंने उसको धोखा दिया है? परमेश्वर उन लोगों को कैसे वर्गीकृत करता है जो उसके न्यायासन से भाग गए हैं? ये वे लोग हैं जो नर्क का दुख भोगेंगे और नष्ट हो जाएँगे। तुम्हारे लिए कभी कोई दूसरा जीवन या पुनर्जन्म नहीं होगा और परमेश्वर तुम्हें कोई दूसरा आदेश नहीं देगा। तुम्हारे लिए अब कोई मिशन नहीं है और तुम्हारे पास उद्धार हासिल करने का कोई मौका नहीं है। यह एक गंभीर समस्या है! परमेश्वर कहेगा : “यह इंसान एक बार मेरी आँखों के सामने से बच कर निकल चुका है, मेरे न्याय के आसन और मेरी उपस्थिति से बच कर निकल चुका है। उन्होंने अपना मिशन पूरा नहीं किया या अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया। यहीं उनके जीवन का अंत होता है। यह खत्म हो गया है; इसका अंत हो गया है।” यह कैसी त्रासदी है! तुम्हारा आज परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य को पूरा कर पाना, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, और चाहे वह बाहरी मुद्दों को संभालना हो या आंतरिक कार्य को, किसी का भी अपना कर्तव्य निभाना संयोग नहीं है। यह तुम्हारी पसंद कैसे हो सकती है? यह सब परमेश्वर द्वारा किया गया है। यह सिर्फ परमेश्वर द्वारा तुम्हें आदेश सौंपे जाने के कारण ही है कि तुम इस तरह प्रेरित हुए हो, तुम्हारे पास मिशन और जिम्मेदारी का एहसास है और तुम इस कर्तव्य को पूरा कर सकते हो। अविश्वासियों में ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके पास अच्छी शक्ल-सूरत, ज्ञान या प्रतिभा है लेकिन क्या परमेश्वर उनकी तरफदारी करता है? नहीं, वह नहीं करता। परमेश्वर ने उन्हें नहीं चुना और वह सिर्फ तुम लोगों पर उपकार करता है। उसने अपने प्रबंधन कार्य में तुम सभी को हर प्रकार की भूमिका निभाने, सभी प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करने और विभिन्न प्रकार की जिम्मेदारियाँ उठाने का बीड़ा दिया है। जब परमेश्वर की प्रबंधन योजना आखिरकार खत्म हो जाएगी और पूरी कर ली जाएगी तो यह कितनी महिमा और सौभाग्य की बात होगी! तो फिर जब लोग आज अपना कर्तव्य पूरा करते समय थोड़ी कठिनाई सहते हैं; जब उन्हें कुछ चीजें छोड़नी पड़ती हैं, खुद को थोड़ा खपाना पड़ता है और कुछ कीमत चुकानी पड़ती है; जब वे दुनिया में अपना रुतबा, प्रसिद्धि और लाभ खो देते हैं और जब ये सभी चीजें खत्म हो जाती हैं तो ऐसा लगता है जैसे यह सब परमेश्वर ने उनसे छीन लिया है लेकिन उन्होंने कुछ अधिक कीमती और अधिक मूल्यवान चीज हासिल कर ली होती है। लोगों ने परमेश्वर से क्या हासिल किया है? उन्होंने अपने कर्तव्य को पूरा करके सत्य और जीवन हासिल किया है। सिर्फ जब तुमने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया है, तुमने परमेश्वर का आदेश पूरा कर लिया है, तुम अपना पूरा जीवन अपने मिशन और उस आदेश के लिए जीते हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है, तो तुम्हारे पास एक सुंदर गवाही है और तुम ऐसा जीवन जीते हो जिसका कोई मूल्य है—सिर्फ तभी तुम एक असली इंसान कहला सकते हो! और मैं यह क्यों कहता हूँ कि तुम एक असली इंसान हो? क्योंकि परमेश्वर ने तुम्हें चुना है और तुमसे अपने प्रबंधन के अंतर्गत एक सृजित प्राणी होने के नाते अपना कर्तव्य पूरा करवाया है। यह तुम्हारे जीवन का सबसे बड़ा मूल्य और सबसे बड़ा मतलब है।

परमेश्वर लोगों से ज्यादा कुछ नहीं माँगता। जब परमेश्वर तुम्हें एक आदेश और जिम्मेदारी देता है तो अगर तुम कहते हो कि तुम्हारी आस्था कम है और तुम इससे ज्यादा प्रयास नहीं कर सकते, इससे अधिक नहीं दे सकते और तुम इतनी ही चीजों का बीड़ा उठा सकते हो, तो फिर परमेश्वर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा। ऐसा नहीं है कि अगर वह तुमसे सौ फीसद माँगता है और तुम पंचानवे फीसद देते हो, तो वह असंतुष्ट हो जाएगा, वह तुम्हें ऐसे ही जाने नहीं देगा और वह लगातार आगे बढ़ाता रहेगा और तुमसे सौ फीसद तक पहुँचने का आग्रह करता रहेगा। परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा। इसके बजाय, वह तुम्हें तुम्हारे आध्यात्मिक कद, तुम्हारी ऊर्जा और तुम जो करने के काबिल हो, उसके अनुसार कदम-कदम पर ऊपर की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करेगा। परमेश्वर अपने कार्य में निष्पक्ष और उचित है। वह लोगों पर दबाव नहीं डालता; वह तुम्हें सुकून और सहजता का एहसास करने देता है, वह तुम्हें यह महसूस कराता है कि वह तुम्हारे लिए जो कुछ भी करता है हर उस काम में तुम्हें समझ सकता है और तुम्हारे प्रति विचारशील हो सकता है। लोगों को परमेश्वर की कड़ी मेहनत के साथ-साथ इंसानियत के लिए उसकी दया, करुणा और सहिष्णुता के बारे में पता होना चाहिए। तब लोगों को क्या करना चाहिए और उन्हें कैसे साथ देना चाहिए? उन्हें इस प्रकार साथ देना चाहिए : “मुझे परमेश्वर के इरादे पूरे करने की कोशिश करनी चाहिए। परमेश्वर मुझसे सौ फीसद कोशिश चाहता है; अगर मैं साठ दे सकता हूँ तो मैं सिर्फ तीस फीसद ही नहीं दूँगा। मैं अपनी पूरी ताकत लगा दूँगा। मैं धूर्तता नहीं दिखाऊँगा, मैं हड़बड़ी में अनाप-शनाप काम नहीं करूँगा और भाग्य-भरोसे रहने की सोच नहीं पालूँगा।” यह काफी है। परमेश्वर इंसान के दिल को देखता है। उसके पास सभी लोगों के लिए एक जैसी अपेक्षाएँ नहीं हैं; ऐसा नहीं है कि तुम्हें अपने बच्चों और परिवार को इसलिए छोड़ना होगा या अपनी नौकरी इसलिए छोड़नी होगी क्योंकि किसी और ने ऐसा किया है। परमेश्वर का दृष्टिकोण सभी के लिए एक ही प्रकार का नहीं है, वह तुम्हारे आध्यात्मिक कद और तुम क्या हासिल कर सकते हो, उसके अनुसार तुमसे अपेक्षा करता है। तो फिर तुम्हें कोई परेशानी या दबाव महसूस करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम जो हासिल कर सकते हो उसके हिसाब से बस परमेश्वर से प्रार्थना करो। जो भी कठिनाइयाँ या रुकावटें हों, उनसे पीछे न हटो। उनसे प्रभावित न हो। यही सही तरीका है। एक बार जब तुम उनसे प्रभावित हो जाते हो तो तुम सोचते रहोगे, “मैंने बहुत अच्छा नहीं किया है। परमेश्वर मुझसे नाखुश है, है ना? मुझे बहुत ख्याल रखना पड़ता है। मुझे इतना जोर नहीं लगा सकता; मुझे खुद को कुछ समय देना चाहिए।” यह गलत है; यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी है। इस तरह के अनुभव का हर एक कदम लोगों को ज्यादा से ज्यादा यह महसूस कराता है कि उनकी आस्था बहुत कम है, इस हद तक कि वे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर पर भी शक कर सकते हैं, ठीक उसी तरह जैसे कि कहावत है “कुलीन लोगों को तुच्छ लोगों के मानदंड से मापना।” वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन उस पर निर्भर होने से डरते हैं; वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास करते हैं लेकिन सब कुछ उसे सौंपने से डरते हैं। लोग अक्सर कहते हैं, “परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है” और “सभी चीजें परमेश्वर के हाथ में हैं,” लेकिन जब वे किसी स्थिति का सामना करते हैं तो वे सोचते हैं, “क्या परमेश्वर वास्तव में इस बारे में संप्रभुता रख सकता है? क्या सच में उस पर भरोसा किया जा सकता है? बेहतर होगा कि मैं दूसरे लोगों पर भरोसा करूँ और अगर इससे काम नहीं बना तो मैं अपने दम पर कुछ करूँगा।” तब उन्हें एहसास होता है कि वे कितने बचकाने, हास्यास्पद हैं और आध्यात्मिक कद में कितना छोटे हैं। वे परमेश्वर पर निर्भर रहने की चाहत में फिर से पीछे मुड़ते हैं लेकिन पाते हैं कि अभी भी कोई रास्ता नहीं है। हालाँकि दिल से वे जानते हैं कि परमेश्वर वफादार है और उस पर भरोसा किया जा सकता है; बात सिर्फ इतनी है कि उनमें बहुत कम आस्था है और वे हमेशा बहुत शक करते हैं। तुम इस मसले को कैसे सुलझाओगे? तुम्हें अपने अनुभव पर और सत्य के अनुसरण और समझ पर भरोसा करना होगा। सिर्फ तभी तुम सच्ची आस्था पैदा कर सकते हो। जितना ज्यादा तुम तजुर्बा हासिल करोगे और जितना ज्यादा तुम परमेश्वर पर निर्भर होगे, उतना ज्यादा तुम महसूस करोगे कि उस पर भरोसा किया जा सकता है। जैसे-जैसे तुम ज्यादा मामलों का तजुर्बा हासिल करते हो, तब यह देखते हुए कि परमेश्वर बार-बार तुम्हारी रक्षा करता है, परेशानियों को दूर करने और खतरे से बचने में तुम्हारी मदद करता है, अनजाने में परमेश्वर पर तुम्हारी सच्ची आस्था और निर्भरता विकसित होगी। तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर भरोसेमंद और सच्चा है। सबसे पहले तुम्हें अपने दिल में यह विश्वास पैदा करना होगा।

हर एक इंसान की अपनी किस्मत होती है और यह सब परमेश्वर ने पहले से निर्धारित कर रखा है; कोई भी किसी दूसरे की किस्मत की जिम्मेदारी नहीं ले सकता। तुम्हें अपने परिवार पर दबाव डालना बंद करना होगा और सब कुछ छोड़ना और त्याग करना सीखना होगा। तुम यह कैसे कर सकते हो? एक तरीका परमेश्वर से प्रार्थना करना है। तुम्हें यह भी सोचना चाहिए कि तुम्हारे रिश्तेदार जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते वे दुनिया की चीजों, धन और दुनिया की सुख-सुविधाओं के पीछे भागते हैं। वे शैतान के हैं और वे तुम से अलग तरह के इंसान हैं। अगर तुम अपना कर्तव्य नहीं निभाते और उनके बीच रहते हो तो तुम कष्ट भरा जीवन जिओगे। क्योंकि तुम मामलों को उनसे अलग तरीके से देखते हो, इसलिए तुम्हारी उनके साथ आ नहीं बनेगी बल्कि तुम्हें दर्द ही होगा। सिर्फ दुःख होगा, सुख नहीं मिलेगा। क्या स्नेह तुम्हें शांति और आनंद दिला सकता है? देह की इच्छापूर्ति करने से तुम्हें दर्द, खालीपन और उम्र भर पछतावे के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। यह एक ऐसी चीज है जिसे तुम्हें अच्छी तरह से समझने की जरूरत है। इसलिए तुम्हारा अपने परिवार को याद करना एकतरफा है; यह बिना किसी कारण के जजबाती होना है! तुम उनसे अलग रास्ते पर चल रहे हो। जीवन और दुनिया को लेकर तुम्हारा नजरिया, जीवन-पथ और अनुसरण के लक्ष्य सभी अलग हैं। अब तुम अपने परिवार के साथ नहीं हो लेकिन क्योंकि तुम्हारा खून एक ही है, इसलिए तुम्हें हमेशा लगता है कि तुम उनके करीब हो और तुम एक परिवार हो। हालाँकि जब तुम सच में उनके साथ रहने लगोगे, तो उनके साथ कुछ दिनों तक रहना ही तुम्हें पूरी तरह से परेशान कर देगा। वे झूठ से भरे हुए हैं; वे जो कहते हैं वह सब झूठ, चिकनी-चुपड़ी बातें और छलावा है। दुनिया के साथ व्यवहार करने और उससे निपटने का उनका तरीका सभी शैतानी फलसफे और जीवन की आदर्श-सूक्तियों पर आधारित है। उनके ख्याल और नजरिये सभी गलत और बेतुके हैं और वे सुनने में बिल्कुल बर्दाश्त से बाहर हैं। तब तुम मन में सोचोगे कि “मैं उन्हें हर वक्त अपने मन में रखता था और मुझे लगातार डर रहता था कि वे ठीक से नहीं रह रहे हैं। लेकिन अब इन लोगों के साथ रहना सचमुच बर्दाश्त से बाहर है!” तुम्हें उनसे नफरत होगी। तुम्हें अभी तक पता नहीं चला है कि वे किस तरह के लोग हैं, इसलिए तुम अभी भी सोचते हो कि पारिवारिक संबंध किसी भी दूसरी चीज से ज्यादा जरूरी और ज्यादा असली हैं। तुम अभी भी लगाव के आगे मजबूर हो। लगाव की उन चीजों को जितना संभव हो सके छोड़ देने का प्रयास करो। अगर तुम नहीं कर सकते तो अपना कर्तव्य ऊपर रखो। परमेश्वर का आदेश और तुम्हारा मिशन सबसे जरूरी है। सबसे पहले अपना कर्तव्य पूरा करना बाकी सभी चीजों में सबसे ऊपर है और अभी अपने रक्त-संबंधियों की उन चीजों के बारे में चिंता न करो। जब तुम्हें दिया गया आदेश और कर्तव्य अच्छे से पूरा हो जाता है तो सत्य तुम्हारे लिए और अधिक स्पष्ट हो जाता है, परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता अधिक से अधिक सामान्य हो जाता है, तुम्हारा परमेश्वर के प्रति समर्पण वाला दिल और बड़ा होता जाता है और परमेश्वर का भय मानने वाला तुम्हारा दिल और ज्यादा बड़ा और स्पष्ट होता जाता है, फिर तुम्हारे अंदर की दशा बदल जाएगी। एक बार जब तुम्हारी दशा बदल जाएगी, तो तुम्हारे सांसारिक नजरिये और स्नेह खत्म हो जाएँगे, तुम अब उन चीजों की तलाश नहीं करोगे और तुम्हारा दिल सिर्फ यह तलाशना चाहेगा कि परमेश्वर से कैसे प्यार करें, उसे कैसे संतुष्ट करें, कैसे उस तरीके से जिंदगी गुजारें जिससे वह प्रसन्न हो और सत्य के साथ कैसे जिएँ। जब तुम्हारा दिल इस ओर कोशिश करने लगता है, तो देह की इच्छाओं से जुड़ी चीजें धीरे-धीरे धूमिल पड़ने लगती हैं और वे तुम्हें बांध या नियंत्रित नहीं कर पातीं।

कुछ लोग कहते हैं : “जब मैं अपने कर्तव्यों का पालन करता हूँ तो मैं अपने परिवार के लिए अपने स्नेह के आगे मजबूर नहीं होता, लेकिन जब भी मेरे पास खाली समय होता है तो मुझे उनकी याद आने लगती है।” तो, परिवार को याद करने के क्या परिणाम होते हैं? अगर इसके कारण तुम नकारात्मक और अपने कर्तव्य निभाने के अनिच्छुक हो सकते हो तो तुम्हें इसके हल के लिए सत्य की तलाश करनी होगी। समस्या हल कर लेने के बाद अगली बार जब तुम्हारे पास खाली समय होगा तो तुम्हें लगातार अपने परिवार की याद नहीं आएगी और इसका कोई परिणाम नहीं होगा। इसलिए, जो भी समस्याएँ पैदा हों, तुम्हें उन्हें हल करने के लिए हमेशा सत्य की तलाश करनी चाहिए; यही सबसे जरूरी है। अपने परिवार को याद करना चिंता का विषय नहीं है; असल बात यह है कि तुम्हें इस बारे में सोचने की जरूरत है कि लगातार घर की याद आने के क्या परिणाम होंगे और इस मामले को कैसे हल किया जाना चाहिए। तुम्हें इस पर सोचना चाहिए : “मेरी यह दशा कैसे हुई? ऐसा क्यों है कि मैं हमेशा अपने परिवार को याद करता हूँ? सत्य के कौन से हिस्से मुझे स्पष्ट नहीं हैं? मुझे किन सत्यों में प्रवेश करना चाहिए?” इस तरह अभ्यास करो और तुम जल्द ही सत्य में प्रवेश कर लोगे। तुम्हें अपने मन में हमेशा सत्य के बारे में सोचते रहना चाहिए; जितना अधिक तुम सोचोगे, सत्य के बारे में तुम्हारी समझ उतनी ही स्पष्ट होगी और तुम्हारे मन में अभ्यास के रास्ते उतने ही अधिक होंगे। इससे सत्य के बारे में सिर्फ थोड़ा-बहुत ज्ञान होने के बजाय इसे सही मायने में समझने में मदद मिलेगी। इस बिंदु पर, संगति के लिए तुम लोगों को ढूंढ़ना चाहोगे। संगति का उद्देश्य क्या है? यह पुष्टि करने के लिए है, सत्य को बिना किसी कठिनाई के अधिक साफ तौर से समझने के लिए है। इस तरह, तुम्हें कोई कठिनाइयाँ नहीं होंगी और तुम्हारा मन अब किसी भी दबाव के बिना मुक्ति और स्वतंत्रता हासिल करेगा। अब तुम्हें अपने परिवार की लगातार याद नहीं आएगी और तुम दुनिया की उलझनों से मुक्त हो सकोगे। तुम्हारी दशा तेजी से सामान्य हो जाएगी। तुम सभी को सत्य पर सोच-विचार करना सीखना होगा। यह कैसे करते हैं? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुमने आज कुछ ऐसा किया है जो तुम्हें बिल्कुल सही नहीं लगता और यह सिद्धांतों के खिलाफ लगता है, लेकिन तुम नहीं जानते कि समस्या कहाँ है। यही वह समय है जब तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी और सत्य की तलाश करनी चाहिए, यह सोचना चाहिए, “यह मुद्दा किस सत्य से संबंधित है? यह किस सिद्धांत से संबंधित है?” तुम्हें सत्य पर संगति करने के लिए किसी को ढूंढ़ना चाहिए, पीछे मुड़कर देखना और चिंतन करना चाहिए। जब तुम आखिरकार मसले की जड़ का पता लगा लेते हो और सत्य की तलाश के माध्यम से इसे हल कर लेते हो तो तुम्हें परमेश्वर में अधिक आस्था हो जाएगी और तुम महसूस करोगे कि तुमने सत्य के संबंध में अधिक तरक्की की है। तुम कुछ मामलों को समझने और कुछ आध्यात्मिक शब्दों को समझने में सक्षम होगे या तुम यह समझने में सक्षम होगे कि आम तौर पर दोहराए जाने वाले कुछ धर्म-सिद्धांत या नारे असल में क्या दर्शाते हैं और उनका क्या मतलब है। यह है सत्य की कुछ समझ होना और यह जानना कि इसका अभ्यास कैसे किया जाए। फिर तुम आगे बढ़ोगे और दूसरों के साथ संगति करोगे, इस नारे पर तब तक संगति करोगे जब तक यह साफ तौर पर समझ में न आ जाए, फिर इसे अभ्यास के रास्ते में बदल दोगे। क्या यह अच्छी बात नहीं है? यह आगे बढ़ने का एक और तरीका है। कभी-कभी तुम किसी को एक निश्चित दशा में देखोगे और तुम सोच सकते हो कि : “इस इंसान की ऐसी दशा क्यों है? उनकी यह दशा कैसे हुई? ऐसा क्यों है कि मेरी ऐसी दशा नहीं है? उन्होंने जो बात कही वह एक निश्चित दशा और मानसिकता दर्शाती है। उनकी यह मानसिकता कैसे विकसित हुई? समस्या कहाँ पैदा हुई? इसका सत्य के किस पहलू से संबंध है? क्या मुझे भी सत्य की तलाश नहीं करनी चाहिए?” संगति और तलाश के माध्यम से, तुम समस्या का पता लगा लेते हो और महसूस करते हो कि उनकी दशा कुछ ऐसी ही है जो तुम में भी है। तुमने उनकी दशा को अपने से मिलान कर लिया है, है ना? क्या यह प्रयास इस लायक नहीं था? (हाँ।) समस्या का पता चलने के बाद, तुम किसी ऐसे इंसान को ढूंढ़ते हो जिसके साथ संगति कर सको। जब तुम्हें आखिरकार जवाब मिल जाता है और पता चल जाता है कि समस्या क्या है, तो समस्या हल हो जाती है। किसी समस्या को हल करना तब आसान होता है जब तुम उसका पता लगाने के काबिल होते हो। अगर तुम इसका पता नहीं लगा सकते तो समस्या का हल कभी नहीं हो सकता। कभी-कभार जब तुम्हारा मन शांत हो जाता है तो यह सत्य और परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार करने का सबसे अच्छा समय हो सकता है। तुम कुछ भी करो लेकिन इस मौके को भावनात्मक संबंध विकसित करने, लगातार अपने परिवार के साथ फिर से जुड़ने के बारे में सोचने में बर्बाद न करो; यह तो परेशानी की बात है। अगर तुम लगातार अपने परिवार के बारे में चिंतित रहते हो और उनके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ने के हर अवसर का लाभ उठाते हो, तो तुम्हारा मन हमेशा इन भावनात्मक उलझनों से भरा रहेगा; तुम इन लगावों को तोड़ने में असमर्थ होगे और जाने देने में असमर्थ होगे। तुम्हें अधिक प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर के अधिक वचनों को पढ़ना चाहिए और अक्सर अपने भाई-बहनों के साथ संगति करनी चाहिए। सत्य समझ लेने के बाद तुम कम से कम परिवार, देह या स्नेह से मजबूर नहीं होगे। इन चीजों को छोड़ना आसान होगा; यही आगे का रास्ता है। असल में कई लोगों के अनुभव इस तरह के होते हैं। भावनात्मक मुद्दों को हल करने के लिए हमेशा लंबे समय के अनुभव की आवश्यकता होती है; सत्य समझ लेने पर मुश्किलों को हल करना आसान हो जाता है।

अंश 83

उन सभी के लिए जो अब कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, भले ही उन्होंने एक नींव रख दी हो, एक ऐसी वास्तविक समस्या है जिसका समाधान होना चाहिए। अधिकतर लोगों को सत्य के सभी पहलुओं की कुछ समझ होती है और वे सही वचन और सिद्धांत बोल और उनका प्रचार कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने अपने वास्तविक जीवन में इन वचनों की शुद्धता का अनुभव नहीं किया होता है। उन वचनों में निहित सत्य का वास्तविक अर्थ और व्यावहारिक पक्ष क्या है यह उन्होंने वास्तव में अनुभव नहीं किया होता है। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए, तुम्हें उचित वातावरण, अपने साथ सही लोग और योग्य लोग, घटनाओं और चीजों की आवश्यकता होती है, जो तुम्हें जीवन में आगे बढ़ने में सहायक होते हैं। इस तरह, ये सत्य और ये सिद्धांत दोनों जिन्हें तुम समझते हो, उनकी पुष्टि हो जाएगी और वे तुम्हें अनुभव प्राप्त कराएंगे। यदि एक जीवित बीज उपजाऊ मिट्टी में डाला जाए, लेकिन उसमें सूर्य की किरणें और बारिश के पानी की नमी न हो, तो क्या उसमें उगने वाली कली सूख नहीं जाएगी? (हाँ, वह सूख जाएगी।) इसलिए, जब तुमने बहुत से उपदेश, बहुत से सत्य और परमेश्वर के बहुत से वचन सुन लिए हैं और तुम्हें पहले ही यह सुनिश्चित कर लिया है कि यह मार्ग सही है और जीवन का सही रास्ता है, तो इस समय तुम्हें किस चीज की आवश्यकता है? तुम्हें परमेश्वर से तुम्हारे लिए उचित वातावरण की व्यवस्था करने के लिए प्रार्थना करनी होगी जो तुम्हारे जीवन के लिए शिक्षाप्रद और सहायक हो और तुम्हें जीवन में आगे बढ़ने में सहायक हो। यह वातावरण शायद बहुत आरामदायक नहीं हो—मनुष्य को कठिनाई का सामना करना होगा और उसे कई चीजों को छोड़ना और त्यागना होगा। इन बातों का अब तक तुम सभी अनुभव कर चुके हो। उदाहरण के लिए, मान लें कि तुम्हें सताया गया और तुम घर लौटने, अपने बच्चों या जीवनसाथी को देखने या उनसे संपर्क करने, अपने रिश्तेदारों या दोस्तों से मिलने या उनसे कोई समाचार प्राप्त नहीं कर पाए। आधी रात को, तुम घर के बारे में सोचने लगोगे : “मेरे पिता कैसे हैं? वह बूढ़े हैं, मैं उनका ख्याल कैसे रखूँ? मेरी माँ की तबीयत खराब है और मुझे नहीं पता कि वह अब कैसी हैं।” क्या तुम सदैव इन मामलों के बारे में नहीं सोचते रहोगे? यदि तुम्हारा मन हमेशा इन बातों को लेकर परेशान रहेगा, तो इसका तुम्हारे काम पर क्या असर पड़ेगा? यदि तुम सांसारिक, दैहिक मामलों में ज्यादा उलझते या चिंतित नहीं होते, तो यह तुम्हारे जीवन की प्रगति के लिए लाभप्रद है। तुम्हारे सोचने और चिंता करने से कोई लाभ नहीं होने वाला; ये सभी मामले परमेश्वर के हाथों में हैं और तुम अपने परिवार के सदस्यों के भाग्य को नहीं बदल सकते। तुम्हें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर के विश्वासी के रूप में, तुम्हारी सर्वोच्च प्राथमिकता उसके इरादों के प्रति विचारशील होना, अपना कर्तव्य निभाना, सच्चा विश्वास हासिल करना, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना, जीवन में विकास करना और सत्य को पाना है। यही सबसे ज्यादा मायने रखता है। ऊपरी ओर से, ऐसा लगता है जैसे लोग दुनिया और अपने परिवारों को त्याग रहे हैं, लेकिन वास्तव में क्या हो रहा है? (परमेश्वर ही इस पर संप्रभुता रखता है और इसका आयोजन करता है।) यह आयोजन परमेश्वर ने किया है; वही तुम्हें अपने परिवार से मिलने से रोकता है। इसे और सटीक ढंग से कहें तो परमेश्वर तुम्हें उससे वंचित करता है। क्या ये सर्वाधिक व्यावहारिक वचन नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) लोग हमेशा कहते हैं कि परमेश्वर हर चीज का संप्रभु है और उसकी व्यवस्था करता है, तो वह इस मामले पर कैसे संप्रभुता रखता है? वह तुम्हें अपने घर से बाहर ले आता है, तुम्हारे परिवार को ऐसा बोझ नहीं बनने देता जो तुम्हें रोके। तो, वह तुम्हें कहाँ ले जाता है? वह तुम्हें ऐसे माहौल में ले जाता है जहाँ देह के बंधन नहीं हैं, जहाँ तुम अपने प्रियजनों को मिल नहीं पाते। अगर तुम उनके बारे में चिंता करते हो और उनके लिए कुछ करना चाहते हो तो तुम कर नहीं सकोगे और अगर संतानोचित कर्तव्य निभाना चाहते हो, तो नहीं निभा पाओगे। ये अब तुम्हें उलझा नहीं सकते। परमेश्वर तुम्हें इनसे दूर ले जा चुका है, इन सभी बंधनों से वंचित कर चुका है, वरना तुम अभी भी उनके प्रति संतानोचित बने रहते, उनकी सेवा करते और उनके गुलाम बने रहते। परमेश्वर तुम्हें इन सभी बाहरी उलझनों से दूर ले जा रहा है, तो क्या यह अच्छी बात है या बुरी? (यह अच्छी बात है।) यह कुछ अच्छी चीज है और इस पर पछताने की कोई जरूरत नहीं है। चूँकि यह अच्छी बात है, तो लोगों को क्या करना चाहिए? लोगों को यह कहते हुए परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए : “परमेश्वर मुझसे इतना प्रेम करता है!” कोई भी व्यक्ति स्वयं स्नेह के बंधन से बाहर नहीं निकल सकता, क्योंकि सभी लोगों के मन स्नेह की डोर से बंधे होते हैं। वे सभी चाहते हैं कि वे अपने परिवार के साथ एकजुट रहें, उनका पूरा परिवार एक साथ इकट्ठा रहे, हर कोई सकुशल और खुश रहे और हर दिन ऐसे ही, एक-दूसरे से अलग रहे बिना बिताएँ। लेकिन इसका एक बुरा पक्ष भी है। तुम अपने जीवन की सारी ताकत और मेहनत, अपनी जवानी, अपने सर्वोत्तम वर्ष और अपने जीवन के सभी सर्वोत्तम हिस्से उनके लिए भेंट करोगे; तुम अपना पूरा जीवन अपनी देह, परिवार, प्रियजनों, काम, प्रसिद्धि और लाभ, और तमाम जटिल रिश्तों के लिए दे दोगे तो नतीजे में तुम खुद को पूरी तरह नष्ट कर डालोगे। तो फिर परमेश्वर मनुष्य से कैसे प्रेम करता है? परमेश्वर कहता है : “खुद को इस दलदल में नष्ट मत करो। यदि तुम्हारे दोनों पैर इसमें फँस गए, तो तुम खुद को बाहर नहीं निकाल पाओगे, फिर चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न कर लो। तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद या बहादुरी नहीं है, आस्था तो बिल्कुल भी नहीं है। मैं खुद तुम लोगों को बाहर निकालूँगा।” परमेश्वर यही करता है और वह तुम्हारे साथ इस पर चर्चा नहीं करता। परमेश्वर लोगों की राय क्यों नहीं पूछता? कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, वह जो चाहता है वही करता है। मनुष्य कीड़े-मकौड़ों की तरह हैं, परमेश्वर की नजर में वे कुछ भी नहीं हैं।” चीजें ऐसी ही हैं, लेकिन क्या परमेश्वर लोगों के साथ इसी तरह व्यवहार करता है? नहीं, ऐसा नहीं है। परमेश्वर बहुत सारे सत्य व्यक्त करता है और इन्हें मनुष्य को उपहार में देता है, जिससे लोगों को अपनी भ्रष्टता से शुद्ध होने और परमेश्वर से एक नया जीवन प्राप्त करने में मदद मिलती है। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम बहुत शानदार है। ये सारी ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोग देख सकते हैं। तुम्हारे लिए परमेश्वर के कुछ इरादे हैं, तुम्हें यहाँ लाने का उसका उद्देश्य जीवन में सही रास्ते पर ले जाना है, सार्थक जीवन जीने देना है, यह ऐसा रास्ता है जो तुम खुद नहीं चुन सकते हो। लोगों की दिली इच्छा अपना जीवन सकुशल ढंग से बिताने की होती है और भले ही वे अकूत धन-संपत्ति न कमाएँ, कम से कम वे अपने परिवार के साथ सदा एकजुट रहना चाहते हैं और इसी तरह की घरेलू खुशी का आनंद उठाना चाहते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर के इरादों का ध्यान कैसे रखें, वे यह भी नहीं जानते कि अपने भविष्य की मंजिलों या मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के इरादों के बारे में कैसे सोचना है। लेकिन परमेश्वर उनकी नासमझी पर ज्यादा ध्यान नहीं देता और उसे उनसे बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वे नासमझ हैं, उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और ऐसी किसी भी चर्चा से गतिरोध ही पैदा होगा। गतिरोध क्यों पैदा होगा? क्योंकि मानवता को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना जैसा बहुत ही बड़ा मामला ऐसा नहीं है जिसे लोग बस एक-दो वाक्यों की व्याख्या से समझ सकें। चूँकि बात यही है, इसलिए जब तक वह दिन नहीं आ जाता जब लोग अंततः समझने-बूझने लगें, तब तक परमेश्वर निर्णय लेकर सीधे कार्य करता है।

जब परमेश्वर अपने कुछ चुने हुए लोगों को मुख्य भूमि चीन के प्रतिकूल माहौल से बाहर निकालता है, तो इसमें उसकी सदिच्छा होती है जो अब हर कोई देख सकता है। इस मामले में लोगों को अक्सर कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए और अपने पर अनुग्रह दिखाने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए। तुम उस पारिवारिक माहौल से बाहर आ गए हो, देह के सभी जटिल आपसी संबंधों से अलग हो चुके हो और खुद को सभी सांसारिक और दैहिक बंधनों से मुक्त कर चुके हो। परमेश्वर तुम्हें एक जटिल जाल से निकालकर अपने समक्ष और अपने घर लाया है। परमेश्वर कहता है : “यहाँ शांति है, यह स्थान बहुत अच्छा है और यह तुम्हारे विकास के लिए बहुत ही उपयुक्त है। यहीं परमेश्वर के वचन और मार्गदर्शन हैं, यहीं सत्य शासन करता है। मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के इरादे और उद्धार के कार्य का केंद्र यही है। इसलिए यहाँ जी भर कर अपना विकास करो।” परमेश्वर तुम्हें इस प्रकार के माहौल में लाता है, एक ऐसा माहौल जिसमें शायद तुम्हारे प्रियजनों का सुख न हो, जहाँ तुम बीमार पड़े तो तुम्हारी देखभाल करने के लिए तुम्हारे बच्चे नहीं होंगे और जहाँ ऐसा कोई नहीं है जिससे तुम अपने दिल की बात कह सको। जब तुम अकेले होते हो और अपने देह की पीड़ा, कठिनाइयों और भविष्य में सामने आने वाली हर चीज के बारे में सोचते हो, तो उस समय अकेलापन महसूस करोगे। तुम अकेलापन क्यों महसूस करोगे? इसका एक वस्तुगत कारण यह है कि लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। और व्यक्तिपरक कारण क्या है? (लोग अपने रक्त-संबंधी प्रियजनों को पूरी तरह छोड़ नहीं पाते।) बिल्कुल सही बात है, लोग उन्हें छोड़ नहीं पाते। जो लोग देह के बंधनों में रहते हैं, वे देह के विभिन्न संबंधों और पारिवारिक बंधनों को सुख के रूप में लेते हैं। उनका मानना है कि लोग अपने प्रियजनों के बिना नहीं रह सकते। तो तुम यह क्यों नहीं सोचते कि तुम मनुष्य की दुनिया में कैसे आए? तुम अकेले आए थे, मूल रूप से तुम्हारा दूसरों से कोई संबंध नहीं था। परमेश्वर एक-एक करके लोगों को यहाँ लाता है; जब तुम आए थे, तो वास्तव में तुम अकेले थे। तब तुमने अकेला महसूस नहीं किया, तो अब जब परमेश्वर तुम्हें यहाँ लाया है, तुम अकेला क्यों महसूस करते हो? तुम्हें लगता है कि तुम्हें किसी ऐसे साथी की कमी खल रही है जिससे तुम दिल की बातें कर सको, चाहे वह तुम्हारे बच्चे या माता-पिता हों, या तुम्हारा जीवनसाथी—पति या पत्नी हो—इसलिए, तुम अकेला महसूस करते हो। फिर, जब तुम अकेलापन महसूस करते हो, तो परमेश्वर के बारे में क्यों नहीं सोचते? क्या परमेश्वर मनुष्य का साथी नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) जब तुम सबसे अधिक पीड़ा और उदासी महसूस करते हो, तो तुम्हें वास्तव में दिलासा कौन दे सकता है? वास्तव में तुम्हारे कष्ट कौन दूर कर सकता है? (परमेश्वर कर सकता है।) केवल परमेश्वर ही वास्तव में लोगों के कष्ट दूर कर सकता है। यदि तुम बीमार हो और तुम्हारे बच्चे तुम्हारे पास हैं, तुम्हें कुछ न कुछ पिला रहे हैं, तुम्हारी सेवा कर रहे हैं, तो तुम्हें काफी खुशी होगी, लेकिन समय बीतने के साथ तुम्हारे बच्चे तंग आ जाएंगे और कोई भी तुम्हारी सेवा करने को तैयार नहीं होगा। ऐसे समय तुम वास्तव में अकेला महसूस करोगे! तो अब, जब तुम यह सोचते हो कि तुम्हारा कोई संगी-साथी नहीं है, तो क्या यह वाकई सच है? वास्तव में ऐसा नहीं है, क्योंकि परमेश्वर सदैव तुम्हारा साथ दे रहा है! परमेश्वर लोगों को नहीं छोड़ता; वही ऐसा है जिस पर वे भरोसा कर सकते हैं, जिसकी हर समय शरण ले सकते हैं, और जो उनका एकमात्र हमराज है। इसलिए, तुम पर चाहे जो भी कठिनाइयाँ और कष्ट आएँ, तुम्हें चाहे किन्हीं शिकायतों, निराशा और कमजोरी के मामलों का सामना करना पड़े, यदि तुम परमेश्वर के सामने आते हो और फौरन प्रार्थना करते हो, तो उसके वचन तुम्हें दिलासा देंगे और तुम्हारी कठिनाइयों और तमाम तरह की दिक्कतों को दूर करेंगे। ऐसे माहौल में तुम्हारा अकेलापन परमेश्वर के वचनों का अनुभव और सत्य हासिल करने के लिए बुनियादी शर्त बन जाएगा। जैसे-जैसे तुम अनुभव लेते जाओगे, धीरे-धीरे तुम समझने लगोगे : “मैं अपने माता-पिता को छोड़ने के बाद भी अच्छा जीवन जी रही हूँ, अपने पति को छोड़ने के बाद भी संतुष्ट हूँ और अपने बच्चों को छोड़ने के बाद भी मेरा जीवन शांतिपूर्ण और आनंदमय है। मेरा मन अब खाली नहीं हैं। मैं अब लोगों पर भरोसा नहीं करूँगी बल्कि परमेश्वर पर भरोसा करूँगी। वह मेरा पोषण करेगा और हर समय मेरी सहायता करेगा। भले ही मैं उसे छू या देख नहीं सकती, लेकिन मैं जानती हूँ कि वह हर घड़ी और हर जगह मेरे साथ है। जब तक मैं उससे प्रार्थना करती रहूँगी, उसे पुकारती रहूँगी, तब तक वह मुझे प्रेरित करता रहेगा, अपने इरादे समझाएगा और उचित मार्ग दिखाएगा।” उस समय, वह वास्तव में तुम्हारा परमेश्वर बन जाएगा और तुम्हारी सभी समस्याएँ हल हो जाएँगी।

अंश 84

ताइवान एक लोकतांत्रिक देश है जहाँ सामाजिक स्थिरता और समृद्धि है। सार्वजनिक व्यवस्था, जीवन की गुणवत्ता, सांस्कृतिक मूल्य इत्यादि सभी कुछ मुख्य भूमि चीन की तुलना में बहुत बेहतर है। यहाँ लोग बहुत सुविधाजनक जीवन जीते हैं। सुविधा से रहना अच्छी बात है, लेकिन सुविधापूर्ण जीवन जीते हुए परमेश्वर में विश्वास करने वाले बहुत-से लोग उसके लिए पीड़ा सहना या कीमत चुकाना तो दूर, उसका अनुसरण करने को भी तैयार नहीं हैं। उनके लिए अपना सब कुछ त्यागना और स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाना बहुत कठिन है। क्या सच में ऐसा ही नहीं है? जब लोग सुविधापूर्वक रहते हैं, तो वे हमेशा खाने-पीने और मौज-मस्ती करने, देह और जीवन का आनंद उठाने के बारे में सोचते रहते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने वालों और सत्य का अनुसरण करने वालों पर इसका एक निश्चित प्रभाव पड़ता है। यही वजह है कि ऐसे सुविधापूर्ण सामाजिक माहौल में बहुत-से लोग अपने कर्तव्यों का पालन करना तो चाहते हैं लेकिन ऐसा करने में उन्हें संघर्ष करना पड़ता है। वे थोड़ा सा भी कष्ट उठाने को तैयार नहीं होते और जब वे कलीसिया के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन या विभिन्न प्रकार के कार्य कर रहे होते हैं, तो वे कुशलतापूर्वक काम नहीं करते। कई बार इससे उनके काम की प्रगति प्रभावित होती है और इस बात का उनके सामाजिक परिवेश से एक निश्चित संबंध होता है। मैं यह देख कर भावुक हो जाता हूँ कि हर बार जब हम एकत्रित होते हैं, तो तुम लोग यहाँ बैठ कर शुरू से अंत तक उपदेश सुन लेते हो। मुख्य भूमि चीन में कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास कर पाते हैं क्योंकि उनके परिवेश ने उनका दम घोंट रखा है, वे उत्पीड़ित हैं, समाज उनके साथ भेदभाव करता है और उन्हें गंभीर अत्याचारों का सामना करना पड़ता है, जबकि कुछ लोग परमेश्वर में इसलिए विश्वास करते हैं क्योंकि वे निष्पक्षता और तार्किकता तलाश रहे हैं या आध्यात्मिक समर्थन और भरोसा करने लायक किसी चीज की तलाश में हैं। कुछ लोगों के उत्साह, विश्वास और वफादारी के भाव बड़े लाल अजगर के क्रूर अत्याचार के कारण जागे। कुछ लोगों को विदेश भागने के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि मुख्य भूमि चीन में परमेश्वर पर विश्वास करना बहुत कठिन है और अनेक लोगों को इसी वजह से खोजा जा रहा है—उनके पास छिपने की कोई जगह नहीं है। यही वजह है कि वे विदेश भाग जाते हैं। मुख्य भूमि चीन में दमनकारी और कठोर जीवनदशाओं की तुलना में ताइवान में लोगों का जीवन बहुत आसान है। इस सुविधापूर्ण जीवन के साथ, जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं वे कोई कष्ट सहने या कीमत चुकाने को तैयार नहीं हैं और जब उन्हें किसी उत्पीड़न या क्लेश का सामना करना पड़ता है तो वे अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए तैयार नहीं होते। जीवन जब इतना सुविधापूर्ण होता है तो लोग बस खाने, पीने और मौज-मस्ती करने में लगे रहते हैं। वे हमेशा ऐसी बातों को लेकर चिंतित रहते हैं कि “मुझे क्या खाना चाहिए? मुझे कहाँ घूमने जाना चाहिए? मैं अभी तक किन देशों में नहीं गया हूँ? मनुष्य का जीवन केवल कुछ दशकों का होता है। अगर मैं दुनिया भर के देशों में नहीं जा सका और अपने क्षितिज का विस्तार नहीं कर सका, तो क्या मेरा जीवन व्यर्थ नहीं रह जाएगा?” इस तरह किसी व्यक्ति का मन अराजक हो जाता है और उस पर लगाम नहीं लगाई जा सकती। क्या कोई इन हालात में भी परमेश्वर के सामने शांति से उसके वचनों को खा और पी सकता है? क्या कोई अब भी सभाओं में उपदेशों को ध्यान से सुन सकता है? ऐसा करना निश्चित ही कठिन होगा। तो जब किसी को परमेश्वर में विश्वास करने, सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, तो उसे लगता है कि उसके साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है, उसका दमन किया जा रहा है और उसे महसूस होता रहता है कि उसका जीवन निरर्थक है। क्या यह सुविधाजनक परिवेश लोगों के सामने गंभीर प्रलोभन और बाधा उत्पन्न नहीं करता है? करता है। सभी लोग भौतिक सुखों की लालसा रखते हैं, लेकिन जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, उनके लिए जीवन विकास के संदर्भ में सुविधा जरूरी तौर पर कोई अच्छी बात नहीं है। अधिकतर लोग थोड़ा कष्ट होने पर ही नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं और उनमें जरा भी इच्छाशक्ति नहीं होती; क्या यह सुविधापूर्ण वातावरण का परिणाम नहीं है? अनुभवजन्य गवाही के ऐसे अनेक प्रकार के वीडियो हैं जिनमें देखा जा सकता है कि मुख्य भूमि चीन में भाइयों और बहनों को जेल में यातनाएँ दी जाती हैं, सजा दी जाती है और कैद रखा जाता है। क्या तुम सबने इन्हें देखा है? (हमने देखा है।) और उन्हें देखने के बाद तुम लोग उन लोगों के बारे में कैसा महसूस करते हो? (परमेश्वर, मैं इस बारे में थोड़ा बताना चाहूँगा कि मैं कैसा महसूस करता हूँ। मुख्य भूमि चीन में भाई-बहनों को यातना द्वारा तमाम उत्पीड़न का अनुभव करते हुए देखने और यह देखने के बाद कि किस तरह से वे परमेश्वर से प्रार्थना कर पाते हैं, उस पर भरोसा कर पाते हैं और इतने कठिन माहौल में भी अपनी आस्था पर कायम रह पाते हैं, अपनी गवाही पर दृढ़ रहते हुए और परमेश्वर को धोखा न देते हुए वे उसकी अगुआई में कदम-दर-कदम अनुभव प्राप्त कर रहे हैं, मुझे लगता है कि वे लोग हमसे अधिक आस्थावान हैं और उनका आध्यात्मिक कद हमसे काफी बड़ा है। अगर मुझे उस तरह के परिवेश में रहना होता, तो जरूरी नहीं कि मैं उन लोगों की तरह दृढ़ता से खड़ा रह पाता और इससे मुझे लगता है कि मेरा आध्यात्मिक कद उनसे बहुत छोटा है।) मुख्य भूमि चीन में बड़े लाल अजगर के क्रूर अत्याचारों के परिवेश के बीच बहुत से भाई-बहन अभी भी परमेश्वर में विश्वास करने, सभाओं में भाग लेने और अपने कर्तव्यों का पालन करने के प्रति दृढ़ हैं। यह एक गवाही है, एक सशक्त गवाही। इतने प्रतिकूल परिवेश में भी दृढ़ रह पाना एक गवाही है, तो इस सुविधापूर्ण परिवेश में रहने वाले तुम लोगों को विचार करना चाहिए कि एक अलग तरह की गवाही कैसे पेश की जाए। सबसे पहले तो तुम्हें परमेश्वर के दिए इस जीवन और इस परिवेश की हर चीज को सँजोना चाहिए। साथ ही, तुम्हें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि इस तरह के परिवेश में कैसे तुम अपनी गवाही पर दृढ़ रह पाओगे, परमेश्वर को शर्मिंदा नहीं करोगे और विजेता बनोगे। किसी लोकतांत्रिक देश में परमेश्वर में विश्वास करते हुए भले किसी को सरकार की ओर से यातना, दमन और उत्पीड़न का शिकार न होना पड़े, लेकिन परिवार और रिश्तेदारों की ओर से उत्पीड़न होगा और तब भी उस व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने, सत्य को हासिल करने और अपनी गवाही में दृढ़ता से खड़े रहने की जरूरत होगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई व्यक्ति किस परिवेश में परमेश्वर में विश्वास करता है, सत्य हासिल करना आसान बात नहीं है। सत्य को समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए तुम्हें कष्ट सहना होगा और कीमत चुकानी होगी। परमेश्वर के लिए गवाही देने की खातिर तुम्हें अनुभव के सभी पहलुओं में सत्य की समझ हासिल करनी होगी। इसका मतलब केवल सुसमाचार और परमेश्वर का नाम फैलाना नहीं है; इसका संबंध मुख्य रूप से जीवन की अनुभवजन्य गवाही से है। अगर लोग सत्य के अनुसार जियेंगे, ईमानदार बनने का प्रयास करेंगे और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का प्रयास करेंगे तो लोगों के किसी समूह में या किसी भी देश की सामाजिक व्यवस्था के तहत उन्हें कुछ भेदभाव, बहिष्कार या उत्पीड़न का सामना करना पड़ेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोकतांत्रिक देश भी परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं होते। सत्तारूढ़ राजनीतिक दल नास्तिक होते हैं, वे भी सत्य को अस्वीकार करते हैं और परमेश्वर को ठुकराते हैं। ऐसे देश में परमेश्वर में विश्वास करते हुए, भले किसी उत्पीड़न या क्लेश का सामना न करना पड़े, लेकिन यदि तुम सुसमाचार फैलाना चाहते हो और परमेश्वर के लिए गवाही देना चाहते हो तो कुछ सीमाएँ तो होंगी और साथ ही तुम्हें थोड़ा बहुत भेदभाव, बदनामी, आलोचना और निंदा का सामना करना होगा—यह सब तथ्य है। यदि तुम इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते, तो तुम वह नहीं हो जो सत्य समझता है। मसीह को स्वीकार करने और उसका अनुसरण करने पर हर देश में कुछ हद तक उत्पीड़न और क्लेश का सामना करना पड़ता है। तुम्हें हमेशा सावधानी से काम करने और परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर निर्भर रहने की आवश्यकता होगी और तुम्हारे पास विवेक और बुद्धिमत्ता भी होनी चाहिए। तुम चाहे जिस भी देश और सामाजिक परिवेश में हो, उन सभी में परमेश्वर ने तुम्हारे लिए एक उपयुक्त परिवेश की रचना और व्यवस्था की है। यह सब इस पर निर्भर करता है कि व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं। सुविधापूर्ण परिस्थितियों में लोगों के लिए प्रलोभन होते हैं, जबकि यातनापूर्ण उत्पीड़न में भी प्रलोभन और परीक्षण होते हैं। तब, क्या सुविधापूर्ण परिस्थितियों में परीक्षण होते हैं? परमेश्वर द्वारा लिए जाने वाले परीक्षण भी होते हैं। परमेश्वर ने तुम लोगों के लिए इस सुविधापूर्ण परिवेश की व्यवस्था की है और सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि तुम लोग इसका कैसे अनुभव करते हो—क्या तुम लोग पूरी तरह से शैतान के जाल और उसके प्रलोभनों में फंस जाओगे, या अपनी निष्ठा और कर्तव्य पर दृढ़ता से कायम रहते हुए इस पर हर तरह से जीत हासिल करने में सफल होगे और परमेश्वर के लिए गवाही दोगे। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि तुम किस तरह से इसका अनुभव करते हो और क्या विकल्प चुनते हो। मुख्यभूमि के चीनी भाई-बहनों का माहौल थोड़ा कठिन है और परमेश्वर ने उन पर एक बोझ डाला है जो थोड़ा भारी है और उनके लिए ऐसा माहौल बनाया है जो थोड़ा कठोर है, लेकिन उसने उन्हें और भी अधिक दिया है। परिवेश जितना कठिन होगा और परमेश्वर जितने बड़े परीक्षण लेगा, लोगों को उतना ही अधिक लाभ होगा। लेकिन सुविधापूर्ण परिवेश में भी लोगों को हर जगह प्रलोभनों और परीक्षणों का अनुभव होता है और परमेश्वर ने तुम्हें भी बहुत कुछ दिया है। यदि तुम हर बार प्रलोभन सामने आने पर उस पर विजय पा सकते हो, तो तुम्हें अपने उन भाई-बहनों से कम लाभ नहीं होगा जो यातना के कारण उत्पीड़न का अनुभव करते हैं। इसके लिए भी सत्य का अनुसरण करने और विजयी होने के लिए आध्यात्मिक कद की जरूरत होगी। उदाहरण के लिए, अपने परिवार के साथ रहना, अच्छा खाना-पीना, मनोरंजन और आनंद, तथा कुछ सामाजिक चलन जो तुम्हारे शरीर को आराम देते हैं और भ्रष्ट करते हैं, ऐसी सभी चीजें तुम्हारे लिए प्रलोभन हैं। जब तुम इन प्रलोभनों का सामना करते हो, तो वे न केवल तुम्हारा ध्यान आकर्षित करते हैं, बल्कि तुम्हें परेशान करते हैं और लुभाते भी हैं। जब तुम सांसारिक चीजों और चलनों का अनुसरण करते हो, तभी शैतान के प्रलोभन, या यों कहें कि परमेश्वर के परीक्षण सामने आएँगे। तुम्हें चुनना होगा कि तुम इन प्रलोभनों और परीक्षणों का जवाब देने का क्या तरीका अपनाते हो और इसी समय परमेश्वर लोगों का परीक्षण करता है और उन्हें दिखाता है कि वे कौन हैं। यही वह समय है जब परमेश्वर ने तुमसे जो कहा है और जिन सत्यों को तुमने समझा है उनका प्रभाव होना चाहिए। यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है और तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के प्रति सच्चा विश्वास है, तो तुम इन प्रलोभनों से उबरने में सक्षम होगे और तुम्हारे लिए परमेश्वर के बनाए परीक्षणों में मजबूत रहोगे और परमेश्वर के लिए गवाही दोगे। यदि तुम सत्य से प्रेम करने के बजाय संसार से प्रेम करते हो, चलनों से प्रेम करते हो, आराम और अपने शरीर को संतुष्ट करने की लालसा रखते हो और खोखले जीवन से प्रेम करते हो, तो तुम इन सांसारिक चीजों के पीछे भागोगे। तुम इन चीजों के प्रति प्रशंसा का भाव रखोगे और उनकी ओर आकर्षित होओगे तथा उनके वश में रहोगे। धीरे-धीरे, तुम्हारे हृदय में परमेश्वर पर विश्वास करने की रुचि घट जाएगी, तुम सत्य से विमुख होने लगोगे और फिर प्रलोभनों के बीच शैतान तुम्हें खींच ले जाएगा। इस तरह के परीक्षण में तुम अपनी गवाही खो दोगे। ऐसे बहुत-से लोग हैं जिन्होंने बहुत सारे उपदेश सुने हैं और अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं लेकिन फिर भी अंदर से खालीपन महसूस करते हैं। अभी भी वे पॉप सितारों और प्रसिद्ध लोगों के पीछे भागना, सामाजिक चलनों के अनुरूप बने रहना, टीवी पर मनोरंजक कार्यक्रम देखना और यहाँ तक कि लगातार रात-रात भर मनोरंजन कार्यक्रमों को देखना इस हद तक पसंद करते हैं कि वे निशाचर बन जाते हैं। कुछ युवा तो वीडियो गेम भी खेलते रहते हैं। संक्षेप में कहें तो, वे कोई भी कीमत चुकाने में संकोच नहीं करते और आम चलन की तमाम चीजों के पीछे पूरी ताकत से भागते हैं। और वे ऐसा क्यों करते हैं? ऐसा इसलिए है कि उन्होंने सत्य प्राप्त नहीं किया है। जिन लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया है, उनमें एक भावना यह होती है कि परमेश्वर में विश्वास करने और उस पर विश्वास न करने के बीच बहुत अंतर नहीं प्रतीत होता है। अपने दिलों में वे अब भी खालीपन महसूस करते हैं और समझते हैं कि उनके जीवन का कोई अर्थ नहीं है। आम चलन का अनुसरण करने पर उन्हें अधिक पूर्णता का, अपने जीवन में थोड़ी अधिक समृद्धि का और हर दिन थोड़ा अधिक खुशी का अनुभव होता है। यदि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और आम चलन के पीछे नहीं भागते तब भी उन्हें लगता है कि उनका जीवन निरर्थक और खाली है। इसका कारण यह है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। तुम विश्वास के साथ यह भी कह सकते हो कि ये लोग सत्य को जरा भी नहीं समझते और उनके पास सत्य वास्तविकता नहीं है और इसलिए वे आम चलनों का अनुसरण किए बिना नहीं रह सकते। कुछ लोगों ने कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं किया होता और वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय भी अस्थिर रहते हैं। प्रलोभन सामने आने पर वे दृढ़ रहने में असमर्थ होते हैं और अंततः उन्हें पीछे हटना पड़ता है। कुछ लोग अपने कर्तव्यों का पालन करना शुरू करते समय तो काफी उत्साही और दृढ़ होते हैं, लेकिन जब उन्हें प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है तो वे कर्तव्य-निर्वाह के प्रति अनिच्छुक होकर लापरवाह हो जाते हैं और उनमें भक्ति-भाव नहीं रह जाता। इसमें कोई गवाही नहीं है। यदि वे प्रलोभन सामने आते ही अपने कर्तव्यों से मुँह मोड़ लें और जो चाहें उसका चयन कर लें, तो उनके पास कोई गवाही नहीं होगी। दूसरा प्रलोभन मिलने पर वे परमेश्वर को नकार सकते हैं और कलीसिया को छोड़ कर सांसारिक चलनों के पीछे जाना चाह सकते हैं। या कोई अन्य प्रलोभन आने पर वे परमेश्वर पर संदेह करना शुरू कर देते हैं और तय नहीं कर पाते कि उसका अस्तित्व है भी या नहीं, और यह तक मानने लगते हैं कि वे बंदरों से विकसित हुए है। ये लोग पूरी तरह से शैतान की जकड़न में आ जाते हैं। इन प्रलोभनों में फँसकर, वे न तो परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, न सत्य की खोज करते हैं। वे केवल अपने शरीर के भाग्य के बारे में सोचते हैं और परिणामस्वरूप वे अपनी गवाही में दृढ़ रहने में विफल रहते हैं। कदम-दर-कदम, शैतान उन्हें नरक और मौत की खाई में खींच ले जाता है। परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को शैतान को सौंप देता है और उसके पास उद्धार पाने का कोई मौका नहीं रह जाता। मुझे बताओ, क्या सत्य का अनुसरण करना महत्वपूर्ण नहीं है? (है।) सत्य बहुत महत्वपूर्ण है। सत्य क्या काम कर सकता है? कम से कम, प्रलोभनों का सामना करते समय यह तुम्हें शैतान की योजनाएँ समझने में मदद कर सकता है, यह जानने में मदद कर सकता है कि तुम्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं और तुम्हें किसे चुनना चाहिए। यह कम से कम तुम्हें इन बातों को जानने में मदद करेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सत्य तुम्हें प्रलोभनों के सामने दृढ़ता से खड़े रहने में सक्षम बनाएगा। तुम परमेश्वर द्वारा दिए गए कर्तव्य को निभाते हुए, उन कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान रहते हुए, शैतान को खारिज करने में सक्षम रहते हुए दृढ़, स्थिर और अडिग रह सकोगे। तुम अय्यूब की ही तरह परीक्षणों के बीच भी अपनी गवाही पर दृढ़ रह सकोगे। लोगों को कम से कम इतना तो हासिल करना ही चाहिए।

अंश 85

क्या परमेश्वर से की गई तुम लोगों की प्रार्थनाओं के कोई सिद्धांत हैं? किन परिस्थितियों में तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो? तुम्हारी प्रार्थनाओं में क्या चीजें शामिल होती हैं? ज्यादातर लोग उस वक्त प्रार्थना करते हैं जब वे कष्ट में होते हैं : “हे परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ, मैं तुमसे मेरी मदद करने के लिए विनती करता हूँ।” यही वह पहली बात है जो वे कहते हैं। जब तुम प्रार्थना करते हो तब क्या हमेशा यह कहना ठीक है कि तुम कष्ट में हो? (नहीं।) क्यों नहीं? और यदि यह ठीक नहीं है, तो तुम अभी भी इस तरह से प्रार्थना क्यों करते हो? इससे पता चलता है कि तुम लोग नहीं जानते कि प्रार्थना कैसे करनी है, या जब कोई परमेश्वर के सामने आता है तो उससे क्या कहना और क्या खोजना चाहिए। तुम जब भी थोड़े कष्ट का अनुभव करते हो और उदास होते हो, तब परमेश्वर से यह कहकर प्रार्थना करते हो, “हे परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ! मैं बहुत दुखी महसूस कर रहा हूँ, कृपया मेरी मदद करो।” यह उस व्यक्ति की प्रार्थना है जिसने अभी-अभी परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू किया है। यह एक शिशु की प्रार्थना है। यदि किसी ने कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया है और अभी भी इसी तरह से प्रार्थना करता है, तो यह एक गंभीर समस्या है। इससे पता चलता है कि वे अभी भी एक शिशु हैं जो जीवन में बड़े नहीं हुए हैं। जो परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि उसके कार्य का अनुभव कैसे किया जाए, वे सभी ऐसे लोग हैं जो जीवन में विकसित नहीं हुए हैं और जिन्होंने अभी तक परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश नहीं किया है। यदि कोई सचमुच एक विचारशील व्यक्ति है, तो उसे इस बात पर विचार करना चाहिए कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाए, साथ ही साथ उसके वचनों को कैसे खाना और पीना है और उनका अनुभव और अभ्यास कैसे करना है। जहाँ कहीं भी परमेश्वर के वचन जाते हैं, व्यक्ति का अनुभव भी वैसा ही होना चाहिए; उस स्थान पर परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करना आवश्यक है। यदि कोई इस तरह से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव कर सकता है, तो वह कई समस्याओं का सामना करेगा और वह स्वाभाविक रूप से उन्हें हल करने के लिए परमेश्वर से सत्य की तलाश करेगा। यदि कोई हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करता है और इस तरह से अपनी कठिनाइयों को हल करने के लिए सत्य की खोज करता है, तो वह परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर रहा होता है। अपनी समस्याओं को लगातार हल करने से, लोगों की कठिनाइयाँ कम होती जाएंगी और वे धीरे-धीरे सत्य को समझने लगेंगे और परमेश्वर के कार्य का ज्ञान प्राप्त करने लगेंगे। वे जानेंगे कि उन्हें परमेश्वर के साथ कैसे सहयोग करना चाहिए, साथ ही साथ उसके कार्य के प्रति कैसे समर्पण करना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग पर प्रवेश करने का यही अर्थ है। कुछ लोग जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं वे नहीं जानते कि उसके कार्य का अनुभव कैसे किया जाए। वे हमेशा भ्रमित रहते हैं—वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, लेकिन उन पर विचार नहीं करते हैं; वे उपदेश सुनते हैं, लेकिन संगति नहीं करते हैं; और जब उन पर मुसीबतें आती हैं, तो वे सत्य खोजना नहीं जानते हैं, न ही वे जानते हैं कि परमेश्वर के इरादों को कैसे समझा जाए और वे नहीं जानते कि उन्हें कैसा रवैया अपनाना चाहिए या कैसे सहयोग करना चाहिए। वे इन बातों को नहीं समझते हैं। वे इन मामलों में नासमझ हैं और उनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है। जो भी मुसीबतें उन पर आती हैं, वे कभी भी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हैं और सत्य की खोज नहीं करते हैं और दिल की गहराई से वे वास्तव में परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते हैं या उसकी ओर नहीं देखते हैं। वे बस कहते हैं, “हे परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ। हे परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ।” वे इस वाक्यांश को इस हद तक दोहराते हैं कि लोग इसकी आवाज से तंग आ जाते हैं और इससे घृणा करते हैं। तुम में से ज्यादातर लोग इसी तरह प्रार्थना करते हैं, है ना? (बिल्कुल करते हैं।) लोगों की प्रार्थनाओं से, कोई भी देख सकता है कि उनकी स्थिति कितनी दयनीय है! तुम केवल तभी परमेश्वर को खोजते हो जब तुम कष्ट में होते हो। जब तुम कष्ट में नहीं होते हो या किसी भी समस्या का सामना नहीं कर रहे होते हो, तो तुम परमेश्वर की कोई आवश्यकता महसूस नहीं करते, न ही तुम उस पर भरोसा करना चाहते हो। तुम बस अपने मालिक बनना चाहते हो। क्या तुम इसी स्थिति में नहीं रहते हो? (बिल्कुल।) जब ज्यादातर लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करते हैं, इन वचनों के जरिये उनकी काट-छाँट होती है और फिर वे आत्म-चिंतन करके स्वयं को जानने की कोशिश करते हैं तो वे प्रार्थना किस तरह करते हैं? वे सभी एक ही बात कहते हैं, “हे परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ। हे परमेश्वर, मैं कष्ट में हूँ।” क्या इन शब्दों से तुम्हें घृणा महसूस नहीं होती है? (बिल्कुल होती है।) लोग अंदर से इतने मुरझाए हुए हैं—उनकी हालत कितनी दयनीय है! हर बार जब वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, तो वे एक ही, सरल वाक्यांश कहते हैं, जिसमें दिल से निकला एक भी शब्द नहीं होता है। वे सत्य की खोज नहीं करते हैं और वे अपनी समस्याओं को हल नहीं करना चाहते हैं। यह किस तरह की प्रार्थना है? जब कोई प्रार्थना में दिल की बात नहीं कह सकता है और यह नहीं जानता कि उसकी कमियाँ क्या हैं, इसमें असली समस्या क्या है? जब तुम परमेश्वर के सामने आते हो, तो क्या तुम्हें किसी भी चीज के बारे में खुद को प्रबुद्ध करने के लिए उसकी आवश्यकता नहीं होती है? क्या तुम्हें आस्था या शक्ति या अपने रक्षक के रूप में परमेश्वर की आवश्यकता नहीं है? क्या तुम्हें आगे के मार्ग पर चलने के लिए परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन की जरा भी आवश्यकता नहीं है? जो भी समस्याएँ तुम्हारे भीतर मौजूद हैं क्या उन्हें हल करने के लिए सत्य समझने की आवश्यकता नहीं है? क्या तुम्हें परमेश्वर के अनुशासन और ताड़ना की, या उसके मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं है? क्या तुम्हारे दुखों को दूर करने के लिए तुम्हें परमेश्वर से केवल एक चीज की आवश्यकता है? क्या तुम वास्तव में अपने दिल में महसूस नहीं कर सकते हो कि तुममें कमियाँ कितनी हैं? प्रार्थना करने का तरीका नहीं जानना कोई छोटी समस्या नहीं है; यह दर्शाता है कि तुम नहीं जानते हो कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे किया जाए, इससे पता चलता है कि तुमने परमेश्वर के वचनों को वास्तविक जीवन में नहीं उतारा है, और शायद ही कभी तुम्हारे जीवन में परमेश्वर के साथ कोई वास्तविक संवाद किया है। तुमने तो परमेश्वर के साथ उस तरह का संबंध भी स्थापित नहीं किया है जो परमेश्वर और उसके अनुयायियों के बीच, या सृजित प्राणियों और उनके सृष्टिकर्ता के बीच होना चाहिए। जब तुम्हें किसी समस्या का सामना करना पड़ता है, तो तुम खुद की व्यक्तिपरक मान्यताओं, धारणाओं, विचारों, ज्ञान, योग्यताओं, प्रतिभाओं और भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार चलते हो; तुम्हें परमेश्वर से कोई सरोकार नहीं होता है, इसलिए जब तुम उसके सामने आते हो, तो अक्सर तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ नहीं होता है। परमेश्वर पर विश्वास करने वाले लोगों की यही दुखद स्थिति होती है! यह बहुत दयनीय स्थिति है! लोगों की आत्माएँ शुष्क और सुन्न हो जाती हैं। जब जीवन में आध्यात्मिक मामलों की बात होती है तो उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता है, न ही उन्हें इनकी कोई समझ होती है, और जब वे परमेश्वर के सामने आते हैं, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता है। चाहे तुम खुद को कैसी भी स्थिति में पाते हो, चाहे तुम कैसी भी दुर्दशा का सामना कर रहे हो, और चाहे तुम्हारे सामने कैसी भी कठिनाइयाँ हों, अगर तुम परमेश्वर के सामने मूक खड़े हो, तो क्या उसके ऊपर तुम्हारी आस्था पर प्रश्न नहीं उठाया जाना चाहिए? क्या यह मनुष्य की दयनीय स्थिति नहीं है?

लोगों को परमेश्वर से प्रार्थना क्यों करनी चाहिए? परमेश्वर से प्रार्थना करना परमेश्वर की ओर देखने और उस पर भरोसा करने का मनुष्य का एकमात्र मार्ग है। प्रार्थना के बिना, इन बातों का प्रश्न ही नहीं उठता है; परमेश्वर पर भरोसा करना और उसकी ओर देखना प्रार्थना के माध्यम से ही पूरा होता है। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर से प्रार्थना किए बिना उस पर विश्वास करता है, तो क्या वह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त कर सकता है? क्या वह परमेश्वर का कार्य और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है? यदि तुम अपनी कठिनाइयों को परमेश्वर को नहीं सौंपते हो और उससे प्रार्थना नहीं करते हो और सत्य की खोज नहीं करते हो, तो वह उनका समाधान कैसे करेगा? वह आगे के मार्ग पर उसका अनुसरण करने के लिए तुम्हारा मार्गदर्शन कैसे करेगा? वह तुम्हें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से कैसे बचाएगा? यह कहा जा सकता है कि प्रार्थना के बिना परमेश्वर में विश्वास करना उसमें सच्चा विश्वास करना नहीं है। मनुष्य और परमेश्वर के बीच एक सामान्य संबंध प्रार्थना पर आधारित होना चाहिए और इसे प्रार्थना के माध्यम से बनाए रखा जाना चाहिए। प्रार्थना परमेश्वर में मनुष्य के विश्वास का प्रतीक है; क्या कोई वास्तव में प्रार्थना करता है, यह परीक्षण करने का एकमात्र मानदंड है कि परमेश्वर के साथ उस व्यक्ति का संबंध सामान्य है या नहीं। यदि कोई प्रार्थना में दिल से निकली बातें कहता है और यदि कोई प्रार्थना में सत्य की खोज कर सकता है, तो वह पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकता है, और यह दर्शाता है कि परमेश्वर के साथ उनका सामान्य संबंध है। यदि कोई शायद ही कभी प्रार्थना करता है और दिल से निकले शब्द बोलने में सक्षम नहीं है, यदि वह हमेशा परमेश्वर के खिलाफ बचाव का रवैया रखता है, तो यह दर्शाता है कि परमेश्वर के साथ उसका संबंध सामान्य नहीं है। और यदि कोई बिल्कुल भी प्रार्थना नहीं करता है, तो यह दर्शाता है कि उसका परमेश्वर के साथ कोई संबंध नहीं है। यदि कोई व्यक्ति अच्छी तरह से और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप प्रार्थना करता है, तो वह उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम होगा और ऐसे व्यक्ति से परमेश्वर प्रेम करता है; जो लोग अक्सर सच्चे मन से प्रार्थना करते हैं वे ईमानदार लोग होते हैं और परमेश्वर के लिए एक साधारण प्रेम रखते हैं। इसलिए, वे सभी जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन उससे प्रार्थना नहीं करते हैं, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध नहीं रखते हैं। वे सभी परमेश्वर से दूर हैं और वे उसके प्रति विद्रोही और प्रतिरोधी हैं। ज्यादातर लोग जो परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हैं वे सत्य के प्रेमी या साधक नहीं हैं और जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं या उसकी खोज नहीं करते हैं वे सच्चे मन से प्रार्थना नहीं कर सकते हैं। उन्हें जो भी कठिनाइयाँ होती हैं, वे प्रार्थना नहीं करते हैं और जब वे प्रार्थना करते हैं, तो वे केवल अपनी कठिनाइयों और पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए परमेश्वर का लाभ उठाना चाहते हैं। वे परमेश्वर के इरादों की परवाह नहीं करते हैं और वे अपनी कठिनाइयों में सत्य के उन पहलुओं की खोज नहीं करते हैं जिनके बारे में उन्हें समझना और प्रवेश करना चाहिए। ऐसे लोग सत्य के लिए लालायित नहीं रहते और परमेश्वर में उनका सच्चा विश्वास नहीं होता है—सार रूप में वे छद्म-विश्वासी हैं। परमेश्वर के विश्वासी के रूप में, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और सभी चीजों में सत्य की खोज करनी चाहिए। भले ही प्रार्थना के तुरंत बाद तुम यह महसूस न करो कि तुम्हारा हृदय उज्ज्वल हो गया है या तुम्हें अभ्यास का मार्ग मिल गया है, फिर भी परमेश्वर की प्रतीक्षा करो और जब तुम प्रतीक्षा करते हो, तो परमेश्वर के वचनों को पढ़ो और सत्य की खोज करो। जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हो या उपदेश और संगति सुनते हो, तो अपनी समस्याओं को अपने चिंतन और खोज में लाने पर ध्यान केंद्रित करो। यदि तुम इन तरीकों से व्यावहारिक रूप से सहयोग करते हो, तो हो सकता है कि जब तुम परमेश्वर के वचनों पर विचार कर रहे हो या उपदेश और संगति सुन रहे हो, तभी एक चमक के साथ तुममें अंतर्दृष्टि आ जाए। यह भी हो सकता है कि तुम किसी समस्या का सामना करते हो और यह तुम्हें प्रेरित करता है और तुम्हें उस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है जिसे तुम हल करने की कोशिश कर रहे हो। क्या यह परमेश्वर का मार्गदर्शन और उसकी व्यवस्था नहीं है? इसलिए, सच्चे मन से परमेश्वर से प्रार्थना करना प्रभावी हो सकता है, लेकिन यह प्रभाव ऐसा नहीं है जिसे तुम प्रार्थना के तुरंत बाद प्राप्त कर सको। इसमें समय लगता है और इसके लिए किसी के सहयोग और अभ्यास की आवश्यकता होती है। कोई यह नहीं कह सकता कि पवित्र आत्मा कब तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुम्हें उत्तर देगा। यह सत्य की खोज करने और उसे समझने की प्रक्रिया है और यही वह मार्ग है जिस पर चलकर मनुष्य जीवन में आगे बढ़ता है। कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, तुम लोगों को अभी भी यह सीखना बाकी है कि बार-बार प्रार्थना कैसे करें। तुम अभी भी प्रार्थना करना नहीं जानते हो और जब भी तुम किसी समस्या का सामना करते हो, तुम या तो रटे-रटाये शब्द चिल्लाते हो और संकल्प करते हो या परमेश्वर से शिकायत करते हो और अपनी चिंताओं को व्यक्त करते हो, यह कहते हुए कि तुम कैसे कष्ट उठा रहे हो, या फिर अपने आप को तर्कसंगत और उचित ठहराते हो। ये वे चीजें हैं जो तुम्हारे दिल में बसी हैं और इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि तुम लोग सत्य में प्रवेश करने के मामले में इतने धीमे रहे हो। तुम विषय से भटक जाते हो। तुम नहीं जानते कि सत्य का अनुसरण कैसे किया जाए; यह कहना कठिन है कि परमेश्वर में इस तरह विश्वास करना तुम्हारे लिए उद्धार प्राप्त करने के लिए पर्याप्त होगा या नहीं।

अंश 86

कलीसिया के भजन में एक पंक्ति आती है, “सभी सत्य-प्रेमी लोग भाई-बहन हैं।” यह कथन सही है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं बस वे ही परमेश्वर के घर के हैं; वे ही सच्चे भाई-बहन हैं। क्या तुम सोचते हो कि अक्सर सभाओं में हिस्सा लेने वाले सभी लोग भाई-बहन होते हैं? जरूरी नहीं कि ऐसा हो। कौन-से लोग भाई-बहन नहीं होते? (वे जो सत्य से विमुख रहते हैं, जो सत्य स्वीकार नहीं करते।) जो लोग सत्य को नहीं स्वीकारते और उससे विमुख रहते हैं, वे सभी बुरे लोग हैं। उन सबमें जमीर या विवेक नहीं होता। उनमें से कोई ऐसा नहीं है, जिसे परमेश्वर बचाता है। वे लोग इंसानियत से रहित हैं, वे अपने उचित कार्य नहीं करते और आपे से बाहर रहकर बुरे कार्य करते हैं। वे शैतानी फलसफों से जीते हैं, कुटिल तिकड़में लगाते हैं और लोगों का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें फुसलाते हैं और उन्हें धोखा देते हैं। वे जरा-सा भी सत्य नहीं स्वीकारते और केवल आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के घर में घुस आए हैं। हम उन्हें छद्म-विश्वासी क्यों कहते हैं? क्‍योंकि वे सत्‍य से विमुख हैं और इसे स्‍वीकारते नहीं। जैसे ही सत्य के बारे में संगति की जाती है, उनकी रुचि खत्म हो जाती है, वे इससे विमुख हो जाते हैं, वे इसे सुनना बर्दाश्त नहीं कर सकते, उन्हें यह उबाऊ लगता है और वे बैठे नहीं रह पाते। ये स्पष्ट रूप से छद्म-विश्वासी और अविश्वासी हैं। तुम्हें इन्हें भाई-बहन नहीं समझना चाहिए। संभव है कि वे कुछ लाभ देने के लिए तुम्हारे करीब आना चाहते हों, छोटे-मोटे फायदे देकर तुमसे संबंध जोड़ने की कोशिश कर रहे हों। लेकिन, जब तुम उनके साथ सत्य पर संगति करते हो तो वे तुच्छ बातों की ओर ध्यान भटकाते हुए देह के मामलों, काम-काज, सांसारिक मामलों, अविश्वासियों की प्रवृत्तियों, भावनाओं, पारिवारिक मामलों जैसी बाहरी चीजों पर चर्चा करने लगते हैं। वे ऐसा कुछ नहीं कहते जो सत्य, परमेश्वर में विश्वास करने या सत्य का अभ्यास करने से संबंधित हो। ऐसे लोग बिल्कुल भी सत्य नहीं स्वीकारते। वे कभी भी परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते या सत्य पर संगति नहीं करते और वे कभी प्रार्थना या आध्यात्मिक भक्ति भी नहीं करते। क्या ये लोग भाई-बहन हैं? नहीं हैं। ये लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते, और सत्य से विमुख हो चुके हैं। बाद में परमेश्वर के घर में घुसपैठ बनाकर जब वे देखते हैं कि सभाओं में हमेशा परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य पर संगति करने, स्वयं को जानने के बारे में बातें, कर्तव्य निभाते समय आने वाली समस्याओं पर संगति जैसे कार्य होते हैं, तो उनका दिल विमुख हो जाता है। उनके पास न कोई समझ होती है, न अनुभव, न कहने को कुछ होता है, इसलिए वे कलीसियाई जीवन से ऊब जाते हैं। उनके मन में लगातार यही प्रश्न उठते हैं, “हमेशा परमेश्वर के वचनों पर संगति क्यों करें? हमेशा स्वयं को जानने के बारे में बात क्यों करें? कलीसियाई जीवन में कोई मनोरंजन या आनंद क्यों नहीं है? इस तरह का कलीसियाई जीवन कब खत्म होगा? हम कब राज्य में प्रवेश करेंगे और आशीष पाएंगे?” उन्हें सत्य पर संगति उबाऊ लगती है और वे इसे सुनना नहीं चाहते। क्या तुम लोगों को लगता है कि जब इन लोगों के साथ कुछ चीजें घटती हैं, तो वे सत्य खोजते हैं? क्या वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं है? (नहीं कर सकते।) अगर उन्हें सत्य में दिलचस्पी नहीं है, वे सत्य का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? तो वे किसके सहारे जीते हैं? कोई शक नहीं कि वे शैतान के फलसफों के अनुसार जीते हैं, वे हमेशा धूर्त और कपटी होते हैं, उनके जीवन में सामान्य मानवता नहीं होती। वे कभी परमेश्वर से प्रार्थना या सत्य की खोज नहीं करते, बल्कि वे इंसानी जुगाड़ों, चालाकियों और सांसारिक आचरण के फलसफों का इस्तेमाल कर हर चीज संभालते हैं—इससे उनका जीवन थकाऊ और पीड़ादायी बन जाता है। वे भाई-बहनों से उसी तरह बातचीत करते हैं जिस तरह अविश्वासियों से करते हैं, वे शैतानी फलसफों का अनुसरण कर झूठ बोलते हैं और धोखा देते हैं। उन्हें बहस छेड़कर बाल की खाल निकालना पसंद है। वे चाहे किसी भी समूह में रह रहे हों, हमेशा यही ताड़ते रहते हैं कि कौन किस से मिला हुआ है और कौन किसके खेमे में है। वे बोलते हुए दूसरे लोगों की प्रतिक्रिया गौर से भाँपते हैं, हमेशा चौकस रहते हैं ताकि किसी को भी नाराज न कर बैठें। वे अपने आसपास की सभी चीजों और दूसरों के साथ अपने संबंधों से निपटने के लिए हमेशा सांसारिक आचरण के इन्हीं फलसफों का पालन करते हैं। यही उनके जीवन को इतना थकाऊ बना देता है। भले ही वे दूसरे लोगों के बीच सक्रिय दिखते हों, हकीकत में अपने संघर्ष को केवल वे ही जानते हैं, और अगर तुम उनका जीवन करीब से देख सको तो महसूस कर लोगे कि यह कितना थकाऊ है। प्रसिद्धि, लाभ या मान-सम्मान से जुड़े किसी मामले में, वे इस बात को स्पष्ट करने पर जोर देते हैं कि कौन सही है कौन गलत है, कौन श्रेष्ठ है कौन निम्न है, और वे कोई बात साबित करने के लिए बहस जरूर करते हैं। दूसरे लोग इसे सुनना नहीं चाहते। लोग कहते हैं, “तुम जो कह रहे हो क्या उसे आसान बना सकते हो? क्या तुम स्पष्ट बोल सकते हो? तुम्हें इतना तुच्छ बनने की क्या जरूरत है?” उनके विचार इतने ज्यादा जटिल और उलझे हुए हैं, और वे बुनियादी समस्याओं का एहसास किए बिना ही इतना थकाऊ जीवन जीते हैँ। वे सत्य खोजकर ईमानदार क्यों नहीं बन सकते? क्योंकि वे सत्य से विमुख हो चुके हैं और ईमानदार नहीं बनना चाहते। तो वे जीवन में किस पर निर्भर रहते हैं? (सांसारिक आचरण के फलसफों और इंसानी तौर-तरीकों पर।) इंसानी तौर-तरीकों पर निर्भर रहना ऐसे परिणामों की ओर ले जाता है जिससे वे या तो हँसी के पात्र बन जाते हैं या अपना भद्दा पहलू उजागर करते हैं। और इसलिए, करीब से देखने पर, उनके क्रियाकलाप, और जो करते हुए वे पूरा दिन बिताते हैं—वे सब उनकी इज्जत, प्रतिष्ठा, लाभ और घमंड से संबंधित होती हैं। ऐसा लगता है, मानो वे किसी जाल में जी रहे हों, उन्हें हर चीज सही ठहरानी पड़ती है या हर बात के लिए बहाने बनाने पड़ते हैं, और वे हमेशा अपनी खातिर बोलते हैं। उनकी सोच जटिल होती है, वे बहुत बकवास करते हैं, उनके शब्द बहुत पेचीदा होते हैं। वे हमेशा इस बात पर बहस करते हैं कि क्या सही है और क्या गलत, इसका कोई अंत नहीं होता। अगर वे इज्जत हासिल करने की कोशिश नहीं कर रहे होते, तो वे प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं, और ऐसा कोई समय नहीं होता जब वे इन चीजों के लिए नहीं जीते। और अंतिम परिणाम क्या होता है? हो सकता है कि वे इज्जत पा लें, लेकिन हर कोई उनसे तंग आ जाता है। लोगों ने उनकी असलियत देख ली है, और एहसास कर लिया है कि उनमें सत्य वास्तविकता नहीं है, वे ईमानदारी से परमेश्वर पर विश्वास करने वाले इंसान नहीं हैं। जब अगुआ और कार्यकर्ता या अन्य भाई-बहन उनकी काट-छाँट करने के लिए कुछ शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो वे इन्हें स्वीकारने से हठपूर्वक इनकार कर देते हैं, वे खुद को सही ठहराने या बहाने बनाने की कोशिश करने पर जोर देते हैं, और वे अपना दोष दूसरे के सिर मढ़ने की कोशिश करते हैं। सभाओं के दौरान वे अपना बचाव करते हैं, और परमेश्वर के चुने हुओं के बीच समस्या पैदा कर देते हैं। अपने दिल में वे सोच रहे होते हैं, “क्या अब मेरे लिए अपना मामले पर बहस करने के लिए कोई जगह नहीं है?” ये किस तरह के इंसान हैं? क्या ये ऐसे इंसान हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं? क्या ये ऐसे इंसान हैं, जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? जब वे किसी को कुछ ऐसा कहते सुनते हैं जो उनकी इच्छाओं के अनुरूप नहीं होती, तो वे हमेशा बहस करना चाहते हैं और स्पष्टीकरण माँगते हैं, वे इस बात में उलझ जाते हैं कि कौन सही है और कौन गलत, वे सत्य की खोज नहीं करते और उसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार उससे पेश नहीं आते। मामला कितना भी सरल क्यों न हो, उन्हें उसे बहुत जटिल बनाना होता है—वे केवल परेशानी को न्योता दे रहे हैं, वे इतना थकने लायक हैं! लोगों के सामने आने वाली बहुत सी समस्याएँ उनकी खुद खड़ी की हुई होती हैं। वे बेवजह परेशानी खोजते हैं। बिना लाग-लपेट के कहें तो वे उचित चीजों में अपना समय नहीं लगाते हैं। यह बेहूदा लोगों की जीवनशैली है। कुछ भ्रमित लोग सही-गलत के फेर में नहीं पड़ते, मगर उनकी काबिलियत इतनी कम होती है कि वे किसी भी चीज की असलियत नहीं समझ पाते। वे सुअरों की तरह अचकचाए फिरते हैं। ये दो तरह के लोग एक दूसरे से पूरी तरह अलग होते हैं : एक दाएँ झुकता है तो दूसरा बाएँ, लेकिन दोनों ही अविश्वासी होते हैं। ऐसे लोग चाहे कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हों या कितने ही उपदेश सुन चुके हों, वे कभी भी सत्य नहीं समझ सकते, यह जानना तो दूर की बात है कि सत्य का अभ्यास करना क्या होता है। किसी भी स्थिति का सामना करने पर वे कभी सत्य नहीं खोजते, बल्कि इंसानी तौर-तरीकों और शैतान के फलसफे का पालन कर थकाऊ और दयनीय जीवन जीते हैं। क्या वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हैं? बिल्कुल भी नहीं। जो सत्य से प्रेम नहीं करते, वे वास्तव में परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। जो सत्य बिल्कुल भी नहीं स्वीकार सकते, उन्हें भाई-बहन नहीं कहा जा सकता। भाई-बहन केवल वे ही हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं और उसे स्वीकारने में सक्षम हैं। अब, वे कौन हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते? वे सभी अविश्वासी हैं। जो लोग बिल्कुल भी सत्य नहीं स्वीकारते, वे सत्य से विमुख होते हैं और इसे नकार देते हैं। अधिक सटीक रूप से, वे सभी अविश्वासी हैं, जिन्होंने कलीसिया में घुसपैठ कर ली है। अगर वे हर तरह की बुराई करने में सक्षम हैं और कलीसिया के काम को अव्यवस्थित और बाधित कर सकते हैं, तो वे शैतान के गुर्गे हैं। उन्हें निष्कासित कर हटा देना चाहिए। उन्हें बिल्कुल भी भाई-बहन नहीं माना जा सकता। उनके प्रति प्रेम प्रदर्शित करने वाले सभी लोग बेहद मूर्ख और अज्ञानी हैं।

अंश 87

अगर, इस समय, तुम लोगों के लिए एक संत होने की भावना और सिद्धांतों को पाना अभी तक बाकी है, तो यह साबित करता है कि तुम लोगों का जीवन-प्रवेश बहुत सतही है, और यह कि तुम अभी तक सत्य समझ नहीं पाए हो। अपने साधारण व्यवहार और आचरण, और उस वातावरण में जिसमें तुम प्रतिदिन रहते हो, तुम्हें रस लेना और चिंतन करना, एक-दूसरे से संगति, एक-दूसरे को प्रोत्साहित, एक-दूसरे को याद दिलाना, एक-दूसरे की मदद और देखभाल करनी होगी, और एक-दूसरे का समर्थन और संपोषण करना होगा। इसके जरूर सिद्धांत होंगे कि भाई और बहनें कैसे बातचीत करें। हमेशा दूसरों के दोषों पर ध्यान केंद्रित न करो, इसके बजाय निरंतर अपना मूल्यांकन करो, दू फिर दूसरों के सामने सक्रिया से उसे स्वीकार करो जिससे तुमने उनके प्रति हस्तक्षेप या नुकसान पहुँचाया हो, और खुलकर अपने बारे में बोलना और संगति करना सीखो। इस तरह से, तुम आपसी समझ प्राप्त कर सकते हो। इससे भी ज्यादा, चाहे तुम्हारे साथ कोई भी बात हो जाए, तुम्हे चीजें परमेश्वर के वचनों के आधार पर देखनी चाहिए। अगर लोग सत्य सिद्धांत समझने और अभ्यास का मार्ग खोजने में सक्षम हों, तो वे एक हृदय और दिमाग के हो जाएँगे, और भाई-बहनों के बीच संबंध सामान्य हो जाएगा, वे अविश्वासियों जितने अलग, उदासीन और क्रूर नहीं होंगे, और वे एक-दूसरे के प्रति आपसी संदेह और सतर्कता की मानसिकता छोड़ देंगे। भाई-बहन एक-दूसरे के साथ ज्यादा घनिष्ठ हो जाएँगे; वे एक-दूसरे की सहायता और प्रेम करने में सक्षम हो सकेंगे; उनके हृदयों में सद्भावना होगी, और वे एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता और करुणा रखने में सक्षम होंगे, और वे एक-दूसरे को अलग-थलग करने, एक-दूसरे से ईर्ष्या करने, एक-दूसरे से तुलना करने और गुप्त रूप से एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने और एक दूसरे के प्रति विद्रोही होने के बजाय एक-दूसरे का समर्थन और सहायता करने में सक्षम होंगे। अगर लोग अविश्वासियों जैसे होंगे, तो वे अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह कैसे निभा सकते हैं? यह न केवल उनके जीवन प्रवेश को प्रभावित करेगा, बल्कि दूसरों को भी नुकसान पहुँचाएगा और प्रभावित करेगा। उदाहरण के लिए, जब लोग तुम्हें गलत तरीके से देखते हैं तो तुम्हें गुस्सा आ जाता है, या जब वे कुछ ऐसा कहते हैं जो तुम्हारी इच्छा के अनुरूप नहीं होता, और जब कोई ऐसा कुछ करता है जो तुम्हें किसी चीज़ को अपने आप से करने से रोकता है, तो तुम उनसे नाराज हो सकते हो, और तुम असहज और अप्रसन्न महसूस कर सकतेहो, और तुम हमेशा यह सोचते हो कि अपनी प्रतिष्ठा को कैसे बहाल करूँ। महिलाएँ और युवा विशेष रूप से इस पर काबू पाने में असमर्थ होते हैं। वे हमेशा छोटे-मोटे विवादों और असहमतियों पर ध्यान देते हैं, स्वेच्छाचारी होते हैं और नकारात्मकता की स्थिति में रहते हैं। वे परमेश्वर से प्रार्थना करने या परमेश्वर के वचन को खाने-पीने के इच्छुक नहीं हैं, जिसका प्रभाव उनके जीवन प्रवेश पर पड़ता है। जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं, तो उनके लिए परमेश्वर के सामने शांति से रहना बहुत कठिन होता है, और उनके लिए सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना बहुत कठिन होता है। परमेश्वर के सामने जीने के लिए तुम्हें पहले आत्मचिंतन कर खुद को जानना और वास्तव में परमेश्वर से प्रार्थना करना सीखना चाहिए, और फिर तुम्हें सीखना चाहिए कि भाई-बहनों के साथ कैसे निभाना है। तुम्हें एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए, एक-दूसरे के साथ उदार होना चाहिए, और यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि दूसरों के गुण और ताकतें क्या हैं—तुम्हें दूसरों की राय और सही चीजें स्वीकार करना सीखना होगा, खुद को लिप्त मत करो, निरंकुश इच्छाएँ मत रखो और हमेशा यह मत सोचो कि तुम अन्य लोगों से बेहतर हो, और फिर खुद को एक महान व्यक्ति समझकर अन्य लोगों को तुम्हारा कहा मानने, तुम्हारी आज्ञा मानने, तुम्हारा आदर और बड़ाई करने के लिए मजबूर मत करो—यह विचलन है। अगर किसी व्यक्ति के अहंकारी स्वभाव का समाधान नहीं हुआ है, और बढ़ती महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ भी साथ मिल गई हैं, तो यह स्थिति उसे आसानी से पथ-भ्रष्टता की ओर ले जा सकती है। इसलिए कुछ लोग सत्य स्वीकार नहीं कर सकते और आत्म-चिंतन में असफल रहते हैं और जानते हैं कि वे बहुत बड़े खतरे में हैं। वे हमेशा महत्वाकांक्षाएँ पालते हैं, हमेशा महान और सुपरमैन बनना चाहते हैं—यही पथ-भ्रष्टता है, यह अत्यधिक अहंकार है। वे अपनी सारी समझ खो चुके हैं, वे सामान्य लोग नहीं हैं, वे पथभ्रष्ट लोग हैं, और वे राक्षस हैं। अहंकारी स्वभावों के वशीभूत होकर, वे अपने हृदयों में दूसरों को नीचा समझते हैं, उन्हें तुच्छ और अज्ञानी मानते हैं। वे दूसरों की खूबियाँ नहीं पहचान पाते हैं लेकिन दूसरों की कमियाँ खूब बढ़ा-चढा कर बता सकते हैं; वे अपने हृदय में उनसे घृणा करते हैं, और हर मोड़ पर वे इन कमियों को सार्वजनिक करते हैं और इनकी खिल्ली उड़ाते हैं, दूसरों को परेशान और आहत करते हैं, और अंततः दूसरों को उनकी बात सुनने और मानने के लिए, या फिर उनसे डरने और छिपने कि लिए बाध्य करते हैं। जब लोगों के बीच ऐसा रिश्ता बनता है या पहले ये ही मौजूद होता है, तो क्या तुम लोग यही देखना चाहते हो? क्या तुम लोग इसे स्वीकार सकते हो? (नहीं।) उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम दूसरों से कद में थोड़े लंबे और बेहतर दिखते हो, जिसकी वजह से कुछ लोग तुम्हारी तारीफ करते हैं। परिणामस्वरूप, तुम अपने आप से बहुत खुश रहते हो और अंततः उन लोगों को नीचा समझते हो जो तुमसे कद में छोटे और कम अच्छे दिखते हैं। इससे किस तरह के स्वभाव का खुलासा हुआ है? जो लोग इतने अच्छे नहीं दिखते, जो कद में थोड़े छोटे हैं, और जो थोड़े ज्यादा मूर्ख हैं और उतने तेज-तर्रार नहीं हैं, ऐसे लोगों को कुछ लोग हेय दृष्टि से देखते हैं और यहाँ तक कि उनका मजाक उड़ाने के लिए तंज कसते हैं। क्या लोगों से इस तरह का बर्ताव करना उचित है? क्या यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है? बिल्कुल नहीं। तो, इस तरह की स्थिति से निपटने का सबसे सही तरीका क्या है? (दूसरों का उनकी कमियों के लिए उपहास नहीं करना, और दूसरों का सम्मान करना।) यह एक सिद्धांत है। ऐसा लगता है कि तुम लोगों को इसकी कुछ समझ है। तो लोगों से परमेश्वर कैसा व्यवहार करता है? परमेश्वर इसकी परवाह नहीं करता कि लोग कैसे दिखते हैं, वे कद में लंबे हैं या छोटे। इसके बजाय, वह देखता है कि क्या उनके हृदय दयालु हैं, क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं, और क्या वे उसे प्रेम करते हैं और उसके समक्ष समर्पण करते हैं। परमेश्वर का लोगों के प्रति व्यवहार इसी पर आधारित है। अगर लोग भी ऐसा ही कर सकें तो वे दूसरों के साथ अच्छी तरह से और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप व्यवहार करने में सक्षम होंगे। सबसे पहले, हमें परमेश्वर के इरादे समझने होंगे, और जानना होगा कि परमेश्वर लोगों के प्रति कैसा व्यवहार करता है, फिर हमारे पास एक सिद्धांत और मार्ग होगा कि लोगों के प्रति कैसे व्यवहार करना है। आमतौर पर, सभी लोगों में थोड़ा-सा घमंड होता है। जब वे तारीफ के कुछ शब्द सुनते हैं, वे खुद से थोड़े खुश हो जाते हैं, वे एक धुन गुनगुनाते हैं और अपने सिर ऊंचे उठाकर चलते हैं। यह शैतान के स्वभाव की अभिव्यक्ति है। अगर वे भी दूसरों का मूल्यांकन करें और उन्हें नीची नजरों से देखें, तो यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुष्ट, अहंकारी और बुरा स्वभाव है। अगर लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीने की कुरूपता पहचानने और देखने में विफल रहते हैं, तो उनके लिए इन भ्रष्ट स्वभावों को उतार फैंकना मुश्किल होता है, और वे वास्तविक मानव के समान नहीं जी सकते।

अंश 88

परमेश्वर जो सत्य व्यक्त करता है, वह किसे दिए जाने के उद्देश्य से है, ताकि वह उनका जीवन बन सके? सत्य पर किसके लिए संगति की जा रही है? (उन लोगों के लिए जो सत्य से प्रेम करते हैं, और सत्य स्वीकार सकते हैं।) वे कौन हैं, जो वास्तव में सत्य से प्रेम कर सकते हैं और सत्य को अपने दिल में स्वीकार सकते हैं? यदि तुम इस सवाल को समझ पाओ, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति को बचाता है। पहले हमें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य उन लोगों के लिए है, जिनके पास मानवता, विवेक, सकारात्मक चीजों के लिए प्रेम और अपनी अंतरात्मा के बारे में जागरूकता है। अन्य लोगों को सत्य पसंद नहीं होता, और इसे सुनने के बाद वे उदासीन रहते हैं और उन्हें फर्क नहीं पड़ता, न वे खुद को धिक्कारते हैं, न कुछ महसूस करते हैं—वे जीवित होते हुए भी मर चुके होते हैं, और उनकी नियति में जीवन प्रवेश नहीं है। कुछ लोग पूछेंगे, “परमेश्वर को इतनी परेशानी मोल लेकर इतने सारे वचन कहने की क्या आवश्यकता है जब ज्यादातर लोग तो सत्य से प्रेम ही नहीं करते, या अच्छी मानवता नहीं रखते, या सत्य स्वीकार नहीं करते, और वे उद्धार की वस्तु नहीं हैं, और इसके बजाय सिर्फ सेवाकर्मी हैं?” क्या यह सही है? (नहीं। हालाँकि अधिकांश लोग सत्य का अनुसरण करने की इच्छा नहीं रखते, एक छोटा समूह अभी भी इसके अनुसरण का इच्छुक है, और उसमें कुछ मानवता है और यह वह छोटा समूह है जिसे परमेश्वर बचाना चाहता है।) सही है। परमेश्वर के वचन लोगों के कानों के लिए हैं, जानवरों या शैतानों के लिए नहीं। कलीसिया के भीतर, चाहे लोगों का एक तिहाई या पाँचवां हिस्सा ही सत्य स्वीकार करे, किसी भी स्थिति में, जो आखिर में बचेंगे, वे अल्पसंख्यक होंगे। तो हम यह कैसे पता लगाएँ कि किसका परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, और कौन बचा रह पाएगा? हम पता लगा सकते हैं कि व्यक्ति के पास अंतरात्मा है या नहीं, क्या परमेश्वर के वचन सुनने के कारण उनके अंतरात्मा में कुछ जागरूकता आती है, क्या वे परमेश्वर के वचन समझ सकते हैं, क्या वे धर्मोपदेश सुनने के जरिये सत्य समझ सकते हैं, और एक बार समझने के बाद उसे अभ्यास में ला सकते हैं, और क्या वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदल सकते हैं। इन चीजों के आधार पर हम पहचान सकते हैं कि क्या वे सत्य स्वीकार करने वाले लोग और परमेश्वर की भेड़ें हैं। परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज सुनने में सक्षम होती हैं, वे उसकी आवाज सुनकर प्रतिक्रिया देती हैं और उनमें जागरूकता आती है, और वे परमेश्वर का अनुसरण करने की इच्छुक होती हैं। ऐसे लोग परमेश्वर की भेड़ें हैं। इन लोगों के पास अपनी मानवता में क्या होता है? (ये लोग सकारात्मक चीजें पसंद करते हैं, सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक होते हैं, और इनमें थोड़ी अंतरात्मा होती है।) वे सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक क्यों होते हैं? उनकी मानवता में सत्य, विवेक और अंतरात्मा के प्रति प्रेम शामिल होता है। वे परमेश्वर के वचनों को भी समझ सकते हैं और उन्हें अपनी अवस्थाओं पर लागू कर सकते हैं, फिर परमेश्वर के वचनों को अपने दिन-प्रतिदिन, अपने जीवन-विकास का हिस्सा बना सकते हैं, और अपने बर्ताव और आचरण के लक्ष्य, सिद्धांत और आधार बना सकते हैं। यानी परमेश्वर के वचन उनके जीवन की वास्तविकता बन जाते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने में सक्षम हो जाते हैं। ये लोग परमेश्वर की भेड़ें हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो बाहर से बुरे नहीं दिखते और बेहद निष्कपट होते हैं, पर वे परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद उन्हें अभ्यास में नहीं ला पाते। ये लोग परमेश्वर की भेड़ें नहीं हैं। मजदूरों के बीच ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो परमेश्वर के वचनों को चाहे जैसे भी सुनें, समझ नहीं पाते, और परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने में तो और भी कम सक्षम होते हैं। वे जीवन प्राप्त किए बिना वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास कर सकते हैं। इसलिए लोगों को यह समझना चाहिए कि वास्तव में परमेश्वर के वचनों से किसे बचाया जा सकता है। जब उन लोगों की बात आती है जिन्हें परमेश्वर बचाता है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग कितने हैं। भले ही केवल एक व्यक्ति ही परमेश्वर के वचन समझ पाए, फिर भी परमेश्वर उस कार्य को करेगा जो किया जाना चाहिए। जैसा कि सबको पता है, जब नूह ने जहाज बनाया था, तब केवल आठ लोग बचाए गए थे। पुराने नियम के समय से लेकर आज तक, कुछ लोग ही बचाए गए हैं। व्यवस्था के युग में जब परमेश्वर ने औपचारिक रूप से उद्धार का कार्य नहीं किया था, और न ही मानवजाति को सत्य प्रदान किया था, तब परमेश्वर ने कितने लोगों को स्वीकार किया था? क्या वे बहुत सारे थे? ऐसे बहुत कम लोग थे, जिन्हें उस दौरान उसकी स्वीकृति मिली थी। अंत के दिनों के कार्य के बारे में क्या? हालाँकि ऐसे लोगों की संख्या जो न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन के माध्यम से सत्य स्वीकार कर सकते हैं, अल्प है, फिर भी यह संख्या व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग में परमेश्वर द्वारा प्राप्त लोगों की तुलना में बड़ी है। अब ऐसे बहुत ही कम लोग हैं, जो अनुभवजन्य गवाही दे सकें, और कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने स्वभाव बदल लिए हैं, तो इससे परमेश्वर के हृदय को कुछ आराम कैसे प्राप्त नहीं हो सकता?

जब तुम लोग देखते हो कि कलीसिया में ज्यादातर लोगों का कई साल से परमेश्वर में विश्वास है, फिर भी वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, बिल्कुल भी नहीं बदले हैं, और अभी भी अविश्वासियों की तरह हैं, तो क्या तुम नकारात्मक होते हो? (कभी-कभी मैं थोड़ा नकारात्मक होता हूँ, पर मैं देखता हूँ कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई कितना विद्रोही है या उसकी काबिलियत कितनी कम है, जब तक उनका दिल सही है और वे सत्य के अनुसरण के लिए प्रयास करने को तैयार हैं, तब तक परमेश्वर उन पर बड़े धैर्य के साथ काम करना, उन्हें सत्य को थोड़ा-थोड़ा करके तोड़कर हिस्सों में देना, और जितना संभव हो उनके साथ विस्तार से संगति करना जारी रखेगा। मैं यह देखकर गहराई से प्रभावित होता हूँ कि मानव जाति को पूर्ण बनाने के लिए परमेश्वर कितनी कीमत चुकाता है, वह तब तक हार नहीं मानता जब तक वह सफल नहीं हो जाता। मुझे लगता है कि चाहे मेरी काबिलियत जितनी भी कमजोर हो, मुझे बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिए, अपने अनुसरण में मेहनती होना चाहिए और हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।) यह जाना-माना तथ्य है कि लोग कमजोर काबिलियत वाले या विद्रोही होते हैं, लेकिन परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा कि तुम्हें इस कारण बचाया नहीं जाएगा। यदि उसे तुम्हें बचाना न होता, तो वह तुमसे ये वचन क्यों कहता, या ऐसी कीमत क्यों चुकाता? ये सभी चीजें करने में परमेश्वर का इरादा मानवजाति को पहले ही साफ तौर पर बताकर स्पष्ट रूप से ज्ञात करा दिया गया है। यह रहस्य नहीं रहा बल्कि विदित है, और दिल और आत्मा वाला कोई भी व्यक्ति इसे समझ सकता है; आध्यात्मिक समझ न रखने वाले मूर्ख ही नकारात्मक हो सकते हैं और जो सत्य को नहीं समझते वे ही हताश और हतोत्साहित महसूस करेंगे, खुद को बचाए जाने में असमर्थ मानेंगे। परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में सबसे अहम बात यह है कि तुम्हें उन सभी वचनों और सत्यों पर विश्वास करना होगा जो वह बोलता है। अगर तुममें संकल्प है और तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो, तो वे तुम्हारा जीवन बन सकते हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि अंत में तुम्हारा जीवन कितना परिपक्व है, अगर तुम सकारात्मकता और सक्रियता के साथ परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करते हो और जानबूझकर उनका या सत्य का उल्लंघन नहीं करते, उतना अभ्यास करते हो जितना तुम समझते हो और सत्य के लिए प्रयास करते हो, और पूरे दिल और क्षमता से अपना कर्तव्य निभाते हो, तो यह मानक पर खरा उतरता है। मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ ऊँची नहीं होतीं। जिन सत्यों पर परमेश्वर संगति करता है वे व्यापक हैं, और उसके वचन खासतौर पर विस्तृत और विशिष्ट होते हैं। इस तरह बोलने का क्या कारण है? यह संपूर्ण मानवजाति के लिए प्रावधान है, केवल एक छोटे समूह या कुछ प्रकार के लोगों के लिए नहीं है। समस्त मानवजाति को प्रदान किए गए सभी सत्यों में से, तुम किसका अभ्यास कर सकते हो और क्या हासिल कर सकते हो, इसकी एक सीमा होती है। मैं क्यों कहता हूँ कि सीमा होती है? क्योंकि हर व्यक्ति की काबिलियत, अंतर्दृष्टि और समझने की क्षमता अलग-अलग होती है, ठीक उसी तरह परमेश्वर उनके लिए जो माहौल बनाता है और वे जो कर्तव्य निभाते हैं वो भी अलग-अलग होते हैं, ये “भिन्नताएँ” हर व्यक्ति को परमेश्वर के वचन के केवल एक हिस्से का अभ्यास करने और उसमें प्रवेश करने लायक बनाते हैं, और वे जो प्राप्त कर सकते हैं या अभ्यास कर सकते हैं, वह सीमित होता है। उदाहरण के लिए, क्या यह उचित है कि अगर कोई व्यक्ति बीमारी के परीक्षण का अनुभव करता है, यह पाता है कि परीक्षण परमेश्वर की ओर से है, मगर फिर सोचता है कि परमेश्वर को हर किसी को बीमारी के परीक्षण का अनुभव कराना चाहिए? (नहीं, ऐसा नहीं है।) यह पूरी तरह से इंसान की इच्छा से आता है। परमेश्वर हर किसी पर अलग ढंग से काम करता है और यह परीक्षण लोगों के एक खास समूह के लिए है। परमेश्वर उन्हें बीमारी के परीक्षण का अनुभव कराने के लिए उन पर कार्य करता है। जब परमेश्वर ने लोगों के एक समूह को बीमारी के परीक्षण से गुजारा तो इससे लोगों को क्या प्राप्त हुआ? यही कि परीक्षण के दौरान लोगों को सीखना चाहिए कि परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करें, उन्हें अपने विद्रोहीपन को जानना चाहिए, सृजित प्राणियों और सृष्टिकर्ता के बीच का संबंध सुधारना चाहिए, मनुष्य और परमेश्वर के बीच के संबंध को ठीक करना चाहिए, परमेश्वर के हृदय को समझने में सक्षम होना चाहिए और उसके प्रति समर्पण करना चाहिए और चाहे कुछ भी हो, परमेश्वर को गलत नहीं समझना चाहिए बल्कि सिर्फ समर्पण करना चाहिए। सत्य का यह वह पहलू है, जिसे हर किसी को प्राप्त करना चाहिए। अगर तुम सत्य के इस पहलू को किसी और के अनुभव से प्राप्त करते हो, तो क्या तब भी तुम्हें इस परीक्षण का अनुभव करना होगा? जरूरी नहीं है। इस परीक्षण और परमेश्वर के कार्य के इस भाग का अनुभव करने के लिए परमेश्वर अलग-अलग लोगों को—शायद सही व्यक्ति, या किसी विशेष व्यक्ति—को चुनता है। परमेश्वर ने मनुष्य से यही वादा किया है, और वह यही करेगा। कुछ लोगों ने किसी प्रियजन को खोने का दर्द महसूस किया है, और इस नुकसान से अनुभव और गवाही, परमेश्वर के प्रति समर्पण, और सच्ची निर्भरता और विश्वास पाया है। लोगों के एक विशेष समूह पर परमेश्वर जो कार्य करता है, उससे हर कोई इस बात की गवाही पा सकता है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है और लोगों को समर्पण चुनना चाहिए, न कि विश्लेषण, शोध या उसके साथ तर्क करना, और उसे स्पष्ट रूप से और पूरी तरह समझाने के लिए कहना; उन्हें बिना किसी शर्त और शिकायत के समर्पण करना चाहिए। इसके अलावा, लोगों को परमेश्वर के किए सभी कार्यों के अर्थ और मूल्य को समझना सीखना चाहिए। परमेश्वर के कार्य के इन तरीकों और उसके वचनों के सभी पहलुओं से हर व्यक्ति को जो अनुभव होता है, वह परमेश्वर के वचनों का बस एक छोटा सा हिस्सा है। इस छोटे से हिस्से में तुम्हारी काबिलियत, तुम्हारे पारिवारिक माहौल और वर्तमान में तुम जो कर्तव्य निभा रहे हो, उसके आधार पर परमेश्वर के वचनों का जो तुम्हें अनुभव होता है, वह उनका दस हजारवां हिस्सा है, या कहो कि मात्र दस-हजारवां हिस्सा है। अगर तुम इस दस-हजारवें हिस्से में प्रवेश करते हो और सच में परमेश्वर के प्रति बिना शर्त, पूर्ण समर्पण हासिल करते हो, खुद को एक सृजित प्राणी की स्थिति में रखते हो, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करते हो, और वह परिणाम हासिल करते हो जो परमेश्वर तुमसे प्राप्त करवाना चाहता है, तो तुम बचा लिए जाओगे। इसे समझना आसान है और चीजें इसी तरह हैं।

अपने कर्तव्य निभाने में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम लोग निष्ठावान रहो। निष्ठा क्या है? इसका अर्थ है गंभीर और जिम्मेदार होना, अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह निभाना और जरा भी अनमना न रहना। यदि तुम अनमने रहते हो तो जब कुछ गलत हो जाता है तो यह शर्म की निशानी होती है, और यह बिल्कुल कोई मामूली बात नहीं है। इसके अलावा परमेश्वर के घर में तुम लोगों को सौंपे गए कार्य के संबंध में, सभी को एक साथ अधिक संगति करनी चाहिए, सत्य सिद्धांतों की अधिक खोज करनी चाहिए, और सही सिद्धांत पाने चाहिए। जब समस्याओं का पता चले तो उन्हें तुरंत हल किया जाना चाहिए, और जिनका समाधान न किया जा सके, उनकी रिपोर्ट तुरंत वरिष्ठों को देनी चाहिए। यह सुनिश्चित करने की कोशिश करो कि परमेश्वर के घर का कार्य बिना किसी बाधा, कमियों या देरी के सुचारू रूप से चलता रहे। अपना काम अच्छी तरह करो, सुसमाचार के कार्य के प्रसार को बढ़ाओ, और परमेश्वर की इच्छा को पृथ्वी पर संपूर्ण रूप से पूरा होने दो। इस तरह तुम लोगों का कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया जाएगा। वास्तव में किसी व्यक्ति के कर्तव्य पालन के दायरे में ये सत्य के कुछ पहलू हैं, जिनका वे अभ्यास कर सकते हैं, हासिल कर सकते हैं, और उन पर चर्चा सकते हैं, और इन सत्यों की वास्तविकताओं में प्रवेश करना परमेश्वर द्वारा मानव जाति से न्यूनतम अपेक्षित मानक हासिल करना है। कुछ लोगों की आस्था कमजोर होती है, कुछ लोग कायर होते हैं, दूसरे कमजोर काबिलियत रखते हैं, या उनकी समझ विकृत होती है, या उनकी सोच मूर्खतापूर्ण होती है; सभी पहलुओं में ये और दूसरी निराश और निष्क्रिय चीजें लोगों की सत्य का अभ्यास करने और अपना कर्तव्य प्रभावी ढंग से निभाने की क्षमता को प्रभावित करेंगी। परमेश्वर लोगों से उनकी काबिलियत, चरित्र और सत्य की समझ की मात्रा के आधार पर अपनी अपेक्षाएँ बनाता है। इस अपेक्षा का मानक क्या होता है? परमेश्वर यह देखता है कि क्या कोई परमेश्वर में अपने विश्वास के प्रति ईमानदार है और क्या वह सत्य को स्वीकार कर सकता है; ये दो सबसे महत्वपूर्ण स्थितियाँ होती हैं। कुछ लोग स्वाभाविक रूप से मूर्ख होते हैं, चीजों की उनकी समझ विकृत होती है, अंतर्दृष्टि की कमी होती है, कुछ भी सीखने में धीमे होते हैं, दूसरे जो भी कहते हैं उसे समझ नहीं पाते, और उन्हें हाथ पकड़कर सिखाना पड़ता है—ये बेहद खराब काबिलियत के लोग होते हैं और यह कभी नहीं बदलेगा। दूसरों के पास ज्ञान का भंडार हो सकता है, या उनमें गहरा ज्ञान हो सकता है, बाहर से बहुत चतुर दिखाई दे सकते हैं, पर सत्य से जुड़े मामलों की समझ में विकृतियाँ होने की आशंका होती है। भले ही वे सत्य को समझ लें, फिर भी वे इसे स्वीकार नहीं कर पाते, और यह उनका घातक दोष होता है। इस तरह का कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाते समय आसानी से ज्ञान और धर्म-सिद्धांत से प्रभावित हो जाता है, और उसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना या चीजों पर अपने विचार बदलना मुश्किल लगता है। तो अगर वे वास्तव में सत्य का अनुसरण करना चाहते हैं तो उन्हें क्या करना चाहिए? खास बात यह देखना है कि क्या वे सत्य स्वीकार कर पाते हैं। यदि वे ऐसा कर सकते हैं, तो समस्या आसानी से हल हो जाएगी, पर यदि वे अड़ियल होकर सत्य को स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं तो समझो खेल खत्म। न केवल वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में असफल हो जाएँगे, बल्कि मुझे डर है कि उनके बचाए जाने का भी तरीका नहीं बचेगा। किसी की शैक्षणिक उपलब्धि मायने नहीं रखती, न ही यह मायने रखता है कि उनकी व्यावहारिक बुद्धि कितनी है—जो महत्वपूर्ण है वह है, सत्य को स्वीकार करना और परमेश्वर के वचनों से प्रेम करने में सक्षम होना। परमेश्वर जो देखता है वह यह है कि उसके द्वारा व्यवस्थित माहौल में सत्य समझने के लिए प्रबुद्ध किए जाने के बाद तुम सत्य का कितना अभ्यास कर पाते हो। वह देखता है कि तुम उसके द्वारा अपेक्षित कार्यों में खुद का कितना योगदान देते हो, उसमें अपनी कितनी क्षमता लगाते हो, तुम कितना प्रयास करते हो। उदाहरण के लिए तुम्हारी काबिलियत औसत है, बहुत अधिक पढ़े-लिखे नहीं हो, तुम्हारी समझने की क्षमता कमजोर है, और थोड़ा विकृत है। ये वस्तुनिष्ठ तथ्य हैं। फिर भी जब कुछ घटित होता है, और परमेश्वर तुमको उसमें खामियाँ देखने देता है, कि इसमें कोई समस्या है, और यह किसकी जिम्मेदारी है, तो इस मामले से प्रकट होगा कि क्या तुम सिद्धांतों का पालन कर पाते हो और सत्य का अभ्यास करने वाले हो। यदि तुम अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाते हो और परमेश्वर के प्रति ईमानदार हो, तो तुम्हें उस बारे में क्या करना चाहिए? सत्य के अनुरूप होने के लिए, परमेश्वर की माँगों को पूरा करने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? ऐसी परिस्थितियों में परमेश्वर यह नहीं देखता कि तुम्हारी काबिलियत क्या है या तुम कितने शिक्षित हो, या तुमने कितने साल उसमें विश्वास किया है; जो घटना घटी है, उसमें वह तुम्हारे दृष्टिकोण और रवैये को देखता है कि क्या तुम ईमानदार हो और क्या उस समय तुम अपने विवेक का प्रयोग करते हो। यदि तुम परमेश्वर के प्रति ईमानदार हो, तो तुममें जिम्मेदारी की भावना होगी, और तुम सोचोगे, “यह बेशक मेरी जिम्मेदारी न हो, पर यह कलीसिया के काम पर असर डालती है। मुझे पूछताछ करनी चाहिए और इस बारे में और अधिक जानना चाहिए।” और हो सकता है कि तुम्हारी पूछताछ में तुमको पता चले कि पर्यवेक्षक आलसी और गैर-जिम्मेदार है, कि उसने मामले को गंभीरता से नहीं लिया और लटकाए रखा। फिर तुम पर्यवेक्षक को खोजोगे और उसके साथ संगति करोगे, समस्या को तुरंत सुधारोगे। तुम्हें ऊपर वाले से पूछना नहीं पड़ेगा; तुमने स्वयं ही समस्या का समाधान कर लिया होगा। तुम सामान्य काबिलियत के हो और तुममें कुछ कमियाँ और दोष हैं, पर क्या उन चीजों ने तुम्हारे सत्य के अभ्यास को प्रभावित किया होगा? क्या उन्होंने तुम्हारे कर्तव्य पालन या परमेश्वर के प्रति तुम्हारी निष्ठा पर असर डाला होगा? वे असर नहीं डालेंगी। कुछ लोग कहते हैं कि वे मूर्ख हैं और उनकी समझ विकृत है, कुछ कहते हैं कि उनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है तो दूसरे लोग कहते हैं कि उनकी काबिलियत कम है और वे अशिक्षित हैं। अगर ऐसा है तो कुछ घटित होने पर क्या तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते? परमेश्वर लोगों की काबिलियत या उनकी शिक्षा की डिग्री नहीं देखता। इन चीजों का सत्य के अभ्यास से बहुत अधिक लेना-देना नहीं है। इन कमियों और खामियों का तुम्हारे सत्य के अभ्यास पर, या परमेश्वर के प्रति तुम्हारी निष्ठा पर, या कर्तव्य के निर्वहन के लिए तुम्हारे द्वारा ली गई जिम्मेदारी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। परमेश्वर देखता है कि तुम ईमानदार हो या नहीं—यही सबसे व्यावहारिक है, और यह वह चीज है जिसे लोग हासिल कर सकते हैं। परमेश्वर हरेक व्यक्ति के आकलन के लिए सबसे व्यावहारिक साधनों का उपयोग करता है। कुछ लोग कहते हैं, “मेरी काबिलियत खराब है, मैं अज्ञानी हूँ, मेरे पास बहुत अधिक ज्ञान है, यह मेरे सत्य के अभ्यास को प्रभावित करता है।” ये सब बहाने हैं, और इनमें कोई दम नहीं है। मगर क्यों? क्योंकि यह वह तरीका नहीं है जिससे परमेश्वर लोगों को आंकता है। यह तुम्हारा अपना मानक है, परमेश्वर का नहीं। किसी के आकलन के लिए परमेश्वर का मानक क्या है? परमेश्वर देखता है कि क्या वे उसके प्रति निष्ठावान हैं और क्या वे ईमानदार हैं। यदि तुम परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी समझ थोड़ी विकृत या बेतुकी है। कुछ लोग कहते हैं, “मुझमें आध्यात्मिक समझ नहीं है।” लेकिन, क्या तुम परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हो? यदि ऐसा है, तो इससे तुम्हारे सत्य का अभ्यास करने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। क्या यह पर्याप्त रूप से स्पष्ट है? यदि तुम परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हो, और अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाते हो, तो क्या तुम तब भी काट-छाँट के समय निराश और कमजोर हो पाओगे? यदि तुम सचमुच निराश और कमजोर हो जाते हो तो क्या किया जाना चाहिए? (हमें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर पर निर्भर रहना चाहिए, कोशिश करनी चाहिए और सोचना चाहिए कि परमेश्वर क्या चाहता है, इस पर आत्मचिंतन करना चाहिए कि हममें क्या कमी है, हमने क्या गलतियाँ की हैं; जिन क्षेत्रों में हम नीचे गिरे हैं, उन्हीं में हमें फिर से ऊपर चढ़ना चाहिए।) सही है। निराशा और कमजोरी बड़ी समस्याएँ नहीं हैं। परमेश्वर उनकी निंदा नहीं करता। जब तक कोई व्यक्ति जहाँ गिरा था, वहाँ से वापस ऊपर चढ़ सकता है, और अपना सबक सीख सकता है, और सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभा सकता है, तो बस इतना बहुत है। कोई भी इसे तुम्हारे विरुद्ध इस्तेमाल नहीं करेगा, इसलिए बहुत अधिक निराश न हो। यदि तुम अपना कर्तव्य छोड़ोगे और उससे भागोगे, तो तुम स्वयं को पूरी तरह से बर्बाद कर लोगे। हर कोई कभी न कभी निराश और कमजोर होता है—बस सत्य की खोज करते रहो, और निराशा और कमजोरी आसानी से हल हो जाएगी। कुछ लोगों की दशा केवल परमेश्वर के वचनों का एक अध्याय पढ़ने या कुछ भजन गाने भर से पूरी तरह बदल जाती है; वे परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना में अपना हृदय खोल पाते हैं, और उसकी स्तुति कर पाते हैं। क्या फिर भी उनकी समस्या का समाधान नहीं हुआ है? काट-छाँट किया जाना वास्तव में बहुत अच्छी बात है। भले ही तुम्हारी काट-छाँट करने वाले वचन थोड़े कठोर, थोड़े चुभने वाले होते हैं, इसका कारण यह है कि तुमने बिल्कुल बिना विवेकहीन होकर काम किया है और तुम्हें एहसास भी नहीं कि तुमने सिद्धांतों का उल्लंघन किया है—ऐसी परिस्थितियों में तुम्हारे साथ काट-छाँट क्यों नहीं की जानी चाहिए? तुम्हारी इस तरह से काट-छाँट वास्तव में तुम्हारी मदद करना है, यह तुम्हारे लिए प्रेम है। तुमको इसे समझना चाहिए और शिकायत नहीं करनी चाहिए। इसलिए यदि काट-छाँट निराशा और शिकायत को जन्म देती है, तो यह मूर्खता और अज्ञानता है, यह किसी विवेकहीन व्यक्ति का व्यवहार है।

परमेश्वर में विश्वास करते समय ध्यान देने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है? चाहे किसी की काबिलियत ऊँची हो या नीची, चाहे उनमें आध्यात्मिक समझ हो या न हो, या उन्हें किस प्रकार की काट-छाँट का सामना करना पड़ता हो—इसमें से कुछ भी अहम नहीं है। आजकल महत्वपूर्ण बात क्या है? महत्वपूर्ण यह है कि तुम लोग सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कैसे करते हो। ऐसा करने के लिए किसी के पास सबसे बुनियादी चीज क्या होनी चाहिए? उनका हृदय सच्चा होना चाहिए। ईमानदार होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जब तुम पर मुसीबत आए तो तुम धूर्त न बनो, अपने हितों के बारे में न सोचो, दूसरों के साथ मिलकर साजिश और षड्यंत्र न रचो, और परमेश्वर के साथ कपटी खेल न खेलो। यदि तुम परमेश्वर को धोखा दे सकते हो और तुममें उसके प्रति ईमानदारी की कमी है, तो तुम्हारा काम तमाम हो चुका है, और परमेश्वर तुमको नहीं बचाएगा, तो सत्य समझने का मतलब क्या रह गया? तुम्हारे पास आध्यात्मिक समझ हो सकती है, तुम अच्छी काबिलियत वाले हो सकते हो, अच्छा भाषण दे सकते हो, और चीजें जल्दी समझने में सक्षम हो सकते हो, निष्कर्ष निकाल सकते हो, और परमेश्वर जो कुछ भी कहता है उसे समझ सकते हो, पर मुसीबत आने पर अगर तुम परमेश्वर के साथ कपटी खेल खेलते हो, तो यह शैतानी स्वभाव है और यह बहुत खतरनाक है। तुम्हारी काबिलियत चाहे कितनी ही अच्छी क्यों न हो, यह किसी काम की नहीं है, और परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहेगा। परमेश्वर कहेगा, “तुम अच्छा बोलते हो, तुम्हारी काबिलियत अच्छी है, हाजिर-जवाब हो और आध्यात्मिक समझ वाले हो, पर तुममें बस एक ही समस्या है—तुम सत्य से प्रेम नहीं करते।” जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते वे दुखदायी हैं, और परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता। अच्छे हृदय के बिना व्यक्ति को त्याग दिया जाएगा, ठीक वैसे जैसे बाहर से अच्छे रखरखाव के साथ दिखने वाली कार इंजन खराब होने पर पूरी तरह त्याग दी जाती है। लोग भी ऐसे ही होते हैं : चाहे तुम्हारी काबिलियत कितनी भी अच्छी लगती हो, तुम कितने ही चतुर, वाक्पटु, या सक्षम हो, या समस्याओं से निपटने में कितने भी अच्छे क्यों न हो, सब बेकार है, और यह मुख्य बात नहीं है। तो मुख्य बात क्या है? यह कि क्या किसी का हृदय सत्य से प्रेम करता है। मुख्य यह सुनना नहीं है कि वे कैसे बोलते हैं, बल्कि यह देखना है कि वे कैसे कार्य करते हैं। परमेश्वर इस बात पर ध्यान नहीं देता कि उसके सामने होने पर तुम क्या कहते हो या क्या वादा करते हो। परमेश्वर य देखता है कि तुम जो कर रहे हो उसमें सत्य वास्तविकता है या नहीं, लेकिन इसकी परवाह नहीं करता कि तुम्हारे कार्य कितने ऊँचे, रहस्यमय या प्रबल हैं; भले ही तुम कोई छोटी चीज करो, अगर परमेश्वर तुम्हारे कार्यों में ईमानदारी देखता है, तो वह कहेगा, “यह व्यक्ति ईमानदारी से मुझ पर विश्वास करता है। इसने कभी अतिशयोक्ति नहीं की। यह अपने पद के अनुसार आचरण करता है। और भले ही उसने परमेश्वर के घर के लिए कोई बड़ा योगदान न दिया हो, और उसकी क्षमता खराब हो, फिर भी वह जो कुछ करता है, उस सबमें दृढ़ रहता है; उसमें ईमानदारी है।” इस “ईमानदारी” में क्या शामिल है? इसमें परमेश्वर के प्रति भय और समर्पण शामिल है, साथ ही सच्ची आस्था और प्रेम शामिल है; इसमें वह सब-कुछ शामिल है, जो परमेश्वर देखना चाहता है। दूसरों की नजर में ऐसे लोग मामूली हो सकते हैं, ये वे व्यक्ति हो सकते हैं जो खाना बनाते हैं या सफाई करते हैं, ऐसे व्यक्ति जो साधारण काम करते हैं। ऐसे लोग दूसरों के लिए मामूली होते हैं, उन्होंने कुछ भी बड़ा हासिल नहीं किया होता, और उनके पास कुछ भी बहुमूल्य, सराहनीय या ईर्ष्यायोग्य नहीं होता—वे सिर्फ आम लोग होते हैं। और फिर भी, जो कुछ परमेश्वर चाहता है, वह उनमें पाया जाता है, वह सब उनमें जिया जाता है, और वे सब कुछ परमेश्वर को दे देते हैं। तुम लोगों के विचार से परमेश्वर और क्या चाहता है? परमेश्वर संतुष्ट है। इसलिए केवल इस वजह से हतोत्साहित और निराश न हो कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और तुम सत्य नहीं समझते, या क्योंकि तुम दूसरों को कष्टों का सामना करने और परीक्षणों और शोधन का अनुभव करने के बाद पूर्ण होने के मार्ग पर चलते देखते हो, और ऐसा न सोचो कि परमेश्वर तुमसे प्रेम नहीं करता या तुम्हें पूर्ण बनाना नहीं चाहता। तुम्हें जल्दी क्या है? परमेश्वर हर व्यक्ति को जो देता है वह अलग है, और जब तुम स्वयं को आंकते हो, तो पहले देखो कि परमेश्वर ने तुम्हें क्या दिया है और तुम्हारी अपनी परिस्थितियाँ क्या हैं, और फिर तुम समझ पाओगे कि परमेश्वर जो सब कुछ करता है, बढ़िया होता है। कोई कहेगा, “मेरी काबिलियत खराब है। क्या परमेश्वर ने मुझे जो दिया है वह अब भी अच्छा है?” हाँ, यह अच्छा है। कोई और कह सकता है, “मैं बहुत मूर्ख हूँ। क्या परमेश्वर ने मुझे जो दिया है, वह अब भी अच्छा है?” हाँ, यह सब कुछ अच्छा है। यह सब अच्छा क्यों है? यदि तुम मूर्ख न होते तो तुम अहंकारी हो जाते और अपना स्थान भूल जाते, तो इससे तुम्हारी रक्षा होती है और यह अच्छी बात है। यदि तुम सभी में वर्तमान की तुलना में अधिक योग्यता और कौशल होता, तो परमेश्वर के घर में इतना अच्छा व्यवहार करने वाला और अपना कर्तव्य निभाने को इतना इच्छुक कौन रहता? क्या ऐसा नहीं है कि ऐसे कुछ ही लोग हैं, ज्यादा नहीं? (हाँ।) परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह अच्छा और सही होता है, बात बस इतनी है कि लोग इसे साफ-साफ नहीं समझ पाते। लोग हमेशा परमेश्वर से और अधिक चाहते हैं, जैसे जितना अधिक वह किसी को देगा, उतना अधिक वे सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम हो पाएँगे, पर वास्तव में ऐसा नहीं होता। परमेश्वर ने तुम्हें पहले ही काफी कुछ दिया है; उसने तुमको सब कुछ दिया है और अपना जीवन तुम्हें प्रदान किया है, तो तुम और क्या चाहते हो? ये वचन जो परमेश्वर कहता है और सारा कार्य जो वह करता है, मानवजाति के लिए प्रचुर मात्रा में है और पर्याप्त है। ऐसा कुछ भी नहीं जो लोग परमेश्वर से मांग सकें, और उन्हें उसके बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए और यह नहीं कहना चाहिए, “मैं इस काबिलियत या इन मामूली उपहारों के साथ क्या कर सकता हूँ जो परमेश्वर ने मुझे दिए हैं?” तुम बहुत कुछ कर सकते हो। परमेश्वर जो चाहता है वह वह नहीं है जिसकी तुम कल्पना करते हो—वह चाहता है कि तुम सत्य का अभ्यास करो, सिद्धांतों के अनुसार काम करो और जो कर्तव्य तुम्हें अच्छी तरह निभाने चाहिए उन्हें अच्छी तरह निभाओ। तुम वह नहीं करते जो तुम करने में सक्षम हो, बल्कि आँख मूँदकर वह करते हो जो तुम्हें नहीं करना चाहिए। इसे अपने काम की अनदेखी करना कहते हैं। क्या तुम कुछ ज्यादा ही ऊँचा लक्ष्य नहीं रख रहे हो? (हाँ।) लोग क्या करना चाहते हैं? दूसरों के बीच अपनी प्रतिष्ठा बनाना, अपने शब्दों और कार्यों के लिए प्रशंसा और ऊँचा सम्मान और प्रसिद्धि हासिल करना चाहते हैं। परमेश्वर नहीं चाहता कि तुम वैसे इंसान बनो, इसलिए उसने तुम्हें उस प्रकार की चीजें नहीं दीं। अगर तुम्हें उस तरह का इंसान बनने का मौका मिले, तो क्या तुम इसे ठुकरा पाओगे? क्या तुम इसे इतनी आसानी से जाने दे सकोगे? इसका नतीजा खतरनाक है। क्या तुमने यह मान लिया कि वो चीजें अच्छी थीं? कुछ लोग मसीह-विरोधी क्यों बन जाते हैं? क्या ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि वे सोचते हैं कि उनके पास थोड़े हुनर हैं, और इसलिए वे बेहद अहंकारी हो जाते हैं? वे उस रास्ते पर कैसे चल पाते हैं? वे बस उसी तरह के इंसान होते हैं; देर-सवेर उन्हें उसी रास्ते पर चलना होगा, और परमेश्वर की कोई योजना नहीं है कि वह उन्हें सत्य बताए या उन्हें बचाए। तो, वह तुम्हें जो देता है वह निश्चित ही दूसरों को जो दिया जाता है उससे अलग होता है। यदि तुम हमेशा अपनी तुलना दूसरों से करते हो और हमेशा वही चाहते हो जो उनके पास है, तो क्या यह शुद्ध समझ है? तुम परमेश्वर के इरादे को नहीं समझते! इसलिए जब तुम्हें एहसास होता है कि तुम्हारी काबिलियत कम है, कि तुममें आध्यात्मिक समझ नहीं है और तुम्हारी विकृत समझ है, कि तुम अक्सर कमजोर पड़ जाते हो, या सोचते हो कि तुममें बहुत सारी समस्याएँ और कमियाँ हैं, तो तुम्हें सबसे पहले यह विचार करना चाहिए कि परमेश्वर ने तुमको कोई खास गुण क्यों नहीं दिया। इसी में उसकी सदिच्छा निहित है। अधिकांश गुणी और प्रतिभाशाली लोग कौन सा रास्ता अपनाते हैं, और उनके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या होता है, इस पर फिर से नजर डालो। इस मामले को समझने के बाद वह कौन सा वाक्य है जिसे तुम सबसे ज्यादा कहना चाहोगे? (परमेश्वर को उसकी सुरक्षा के लिए धन्यवाद।) सही है, तुम्हें परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए और कहना चाहिए : “परमेश्वर, तू मेरे प्रति कितना अच्छा है, तूने मुझे गुण या प्रतिभा नहीं दी, और मुझे मूर्ख और बेवकूफ बना दिया। यह मेरा आशीष है! मैं निराश या दुखी नहीं हूँ। अब मुझमें तेरे प्रति ईमानदारी और निष्ठा की कमी रह गई है। मैं चतुर और वाक्पटु होने या गुण और प्रतिभा की माँग नहीं कर रहा हूँ। मैं बस तुझे अपनी ईमानदारी अर्पित करना चाहता हूँ। गुण, प्रतिभा और ज्ञान, साथ ही लोगों के बीच रुतबा और प्रसिद्धि अच्छी चीजें नहीं हैं, और मुझे वो नहीं चाहिए।” क्या यह परिवर्तन नहीं दर्शाता? (हाँ, दर्शाता है।) तो क्या तुम अभी भी दुखी होकर यह रोना रोओगे कि तुम्हारे पास कितनी चीजों की कमी है? अब तुम ऐसा नहीं करोगे और तुम्हें अन्याय महसूस नहीं होगा। वरना जब दूसरे लोग तुम्हारी काट-छाँट करते तो तुम सोचते, “मैं बेवकूफ हूँ, दुनिया में हर कोई मुझे हेय दृष्टि से देखता है, और परमेश्वर के घर में मुझे कभी भी पदोन्नत नहीं किया जाएगा या कोई महत्वपूर्ण पद नहीं मिलेगा।” तात्पर्य यह है, “परमेश्वर ने मुझे इतना कम दिया है तो वह दूसरों को इतना अधिक कैसे दे देता है?” तुम हमेशा अपने दिल में शिकायत करते रहोगे और महसूस करोगे कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है। असल में तुम्हें एक बड़ा आशीष मिला है और तुम्हें इसका पता भी नहीं है। अगर भविष्य में ऐसी कोई बात फिर होती है, तो क्या तुम्हारा दृष्टिकोण अलग होगा? (हाँ, होगा।) जब लोगों का दृष्टिकोण अलग होगा तो उनमें क्या बदलाव आएगा? (वे इतना ऊँचा लक्ष्य नहीं रखेंगे और ऐसी उत्कृष्ट चीजों के पीछे नहीं भागेंगे, और कृतज्ञ हृदय के साथ और जमीन पर टिके रहकर अपना कर्तव्य अच्छे से निभा पाएँगे।) वे मजबूती से जमीन पर टिके रह पाएँगे, प्रामाणिक और वास्तविक ढंग से जी सकेंगे, और अलग-अलग लक्ष्यों का अनुसरण कर पाएँगे। मुझे बताओ, क्या परमेश्वर के लिए यह ठीक है कि वह तुम्हें एक ऐसा मूर्ख और बेवकूफ बनाए जो अपना कर्तव्य जमीन पर टिके रहकर ठीक से निभा सके ताकि तुम्हें बचाया जा सके, या उसके लिए यह बेहतर होगा कि वह तुम्हें अच्छी काबिलियत दे, उच्च स्तर की शिक्षा, अच्छी शक्ल-सूरत और वाक्पटुता दे, साथ ही काम करने की योग्यता और विशेष क्षमताएँ दे, ताकि तुम जहाँ भी जाओ लोग तुम्हारी ओर सराहना से देखें और तुम बौनों के बीच एक विशालकाय व्यक्ति दिखो, और फिर तुम एक मसीह-विरोधी के रास्ते पर चलो? तुम किसे चुनोगे? (मूर्ख और बेवकूफ होना बेहतर है।) तुम यह अभी कह सकते हो, पर अगर किसी ने वास्तव में तुम्हें मूर्ख और बेवकूफ कहा, तो इससे तुम परेशान हो जाओगे। तुम्हें इस तरह सोचना चाहिए : “भले ही मेरी काबिलियत कम है और मैं अज्ञानी हूँ, मैं बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों से बेहतर हूँ क्योंकि मेरे पास अभी भी बचाए जाने का मौका है।” तुम्हें अपने मन को दिलासा देना सीखना चाहिए। (मुझे याद है कि मेरे साथ कुछ अन्य लोग भी थे जिनका परमेश्वर में विश्वास था। उन सभी की काबिलियत ऊँची थी और वे बहुत चतुर थे, लेकिन चूँकि वे हमेशा सत्ता और लाभ के लिए लड़ते रहते थे और कलीसिया के काम में बाधा डालते थे, इसलिए उन्हें भगा दिया गया और निष्कासित कर दिया गया। मुझे ऐसा लगता है कि मैं आज जहाँ हूँ, वहाँ तक इसलिए पहुँच पाया हूँ क्योंकि मेरी काबिलियत कम है, मैं बेवकूफ हूँ और मैं अच्छा व्यवहार करने में सक्षम हूँ—यह भी परमेश्वर की बड़ी सुरक्षा है।) परमेश्वर तुम्हारी सुरक्षा क्यों करता है? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम बेवकूफ हो? क्या वह कमजोरों से सहानुभूति रखता है? नहीं, वह ऐसा नहीं करता; यह ऐसा नहीं है जैसा अविश्वासी कहते हैं कि रोने पर बच्चे को मिठाई मिलती है। ऐसी बात नहीं है। इसे देखने का सही तरीका क्या है? इसे देखने का कौन-सा तरीका सत्य के अनुरूप है? (ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग अपने दिलों में सत्य के प्रति थोड़ी ईमानदारी और प्रेम के साथ विश्वास करते हैं, और सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक होते हैं—परमेश्वर उन लोगों को बचाता है जिनके पास ऐसे हृदय हैं, और इस प्रकार उनकी सुरक्षा के लिए अलग-अलग माहौल की व्यवस्था करता है।) सही है। तुम्हारे लिए परमेश्वर की सुरक्षा उसके प्रति तुम्हारी ईमानदारी के बदले में है। तो सबसे कीमती क्या है? मनुष्य की ईमानदारी सबसे कीमती है। तुममें सकारात्मक चीजों को लेकर थोड़ा प्रेम और परमेश्वर के प्रति ईमानदारी है, और तुम इनके बदले परमेश्वर की सुरक्षा और अनुग्रह पाते हो—तुमने बहुत कुछ प्राप्त किया है। कोई कह सकता है, “मेरी काबिलियत खराब है, और भले ही मैंने बहुत कुछ प्राप्त किया है, फिर भी मुझे कुछ समझ नहीं आता।” क्या तुम्हें ज्यादा समझ नहीं आता? अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर का अनुसरण करने की तुम्हारी योग्यता सत्य की तुम्हारी समझ से जुड़ी है। कोई दूसरा कह सकता है, “मैं क्या समझता हूँ? मैं इसे स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकता।” हो सकता है कि तुम इसे स्पष्ट रूप से समझाने में सक्षम न हो, पर तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हो, और तुम बहुत कुछ समझते हो। चाहे इन चीजों के बारे में तुम्हारी समझ कितनी भी गहरी या उथली हो, वे निश्चित रूप से सत्य से संबंधित हैं और उसके करीब हैं, यही कारण है कि तुम्हें अब तक समर्थन मिला है, और तुम लगातार अपना कर्तव्य निभा रहे हो। क्या ऐसी बात नहीं है? (हाँ, ऐसा ही है।) यह सोचना कि तुम मूर्ख या बेवकूफ हो, कोई बुरी बात नहीं है, और अब इसे देखें तो, “मूर्ख” और “बेवकूफ” बिना किसी अपमान या तुच्छ अर्थ के उपनाम हैं। जब मूर्ख और बेवकूफ कहे जाने की तुलना मसीह-विरोधी कहे जाने से की जाए, तो कौन-सा बेहतर है? (मूर्ख और बेवकूफ कहलाया जाना बेहतर है।) अगर एक दिन परमेश्वर कहे, “यहाँ आ मूर्ख। यहाँ आ बेवकूफ,” हो सकता है कि तुम्हें खुशी न हो लेकिन तुम इस पर यह सोच-विचार करोगे, “उसने मुझे मूर्ख कहा, न कि मसीह-विरोधी, इसलिए मैं जाऊँगा।” और तुम खुशी-खुशी जाओगे। फिर कोई कहता है, “तुम मूर्ख कहलाने पर इतने खुश कैसे हो?” और तुम कहते हो, “उसने मुझे मूर्ख कहा और यह नहीं कहा कि मैं मसीह-विरोधी हूँ, या यह नहीं कहा कि मुझे बचाया नहीं जा सकता। इसलिए मैं खुश हूँ।” तुम्हें मूर्ख कहना तुम्हारे साथ एक बाहरी व्यक्ति के रूप में व्यवहार करना नहीं है, बल्कि परिवार के एक सदस्य के रूप में, किसी परिचित के रूप में व्यवहार करना है। यह वैसा ही है जैसे लोग अपने बच्चों को “नन्हे शैतान” कहते हैं; यह थोड़ा अटपटा लग सकता है, पर वास्तव में सच है, और यह केवल लाड़ का एक शब्द है। यदि तुम्हें मसीह-विरोधी कहा जाए तो क्या होगा? तब तुम मुसीबत में पड़ जाओगे, क्योंकि नाम बदलने का मतलब है कि उसकी प्रकृति बदल जाएगी, और तुम्हारा नतीजा भी अलग हो जाएगा। तुम किसे चुनोगे? (मैं मूर्ख और बेवकूफ कहलाना पसंद करूँगा।) हमेशा मूर्ख और बेवकूफ बने रहना भी अच्छा नहीं है; तुम्हारी काबिलियत में भी थोड़ा सुधार होना चाहिए। क्या पिछले कुछ वर्षों में तुम लोगों की काबिलियत में सुधार हुआ है? (बस थोड़ा-सा सुधार हुआ है, पर बहुत ज्यादा नहीं।) जीवन प्रवेश के मामले में यदि तुम वास्तव में कड़ी मेहनत करते हो और प्रयास करते रहते हो, तो तुम निश्चित ही सुधार करोगे, पर एक ही बार में बड़े सुधार देखना असंभव है। यह विकास की धीमी प्रक्रिया है, लेकिन जब तक तुम्हारे पास प्रवेश है, तब तक तुम पीछे नहीं हटोगे, और जब तक तुम कोशिश करोगे तब तक तुम्हारा जीवन प्रवेश धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ता जाएगा।

परमेश्वर के लिए लोगों में सत्य ढालना आसान काम नहीं होता। यह उतनी तेजी से नहीं होता, जितनी तेजी से जमीन में बोया गया बीज अंकुरित होता है—यह काफी अलग चीज होती है। परमेश्वर द्वारा मनुष्य का उद्धार उसके शैतानी स्वभाव को पूरी तरह से स्वच्छ और परिवर्तित करने और मनुष्य को अपने वचनों में सत्य वास्तविकता को जीने की अनुमति देने के जरिये होता है, मगर ये साधारण मामले नहीं हैं। भले ही तुम धर्मोपदेश सुनो, परमेश्वर के वचन पढ़ो, प्रार्थना करो और हर दिन अनुभव करो, तुम्हारी प्रगति सीमित रहेगी, और तुम्हारे जीवन का विकास धीमा होगा। सत्य समझने के लिए कई प्रक्रियाओं की आवश्यकता होती है। लोगों को कई बार दोहराए जाने वाले अनुभव चाहिए, और उन्हें सत्य समझने के लिए निरंतर लगे रहने और प्रयास करने की भी जरूरत होती है—केवल तभी वे इसे समझ पाते हैं। साथ ही पवित्र आत्मा का कार्य भी आवश्यक है, अन्यथा लोगों को जो प्राप्त होता है वह और अधिक सीमित हो जाएगा। बहुत-से लोगों का बीस या तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास है पर फिर भी वे अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बात नहीं कर सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं किया है, या सत्य को जानने के लिए एकाग्र होकर प्रयास नहीं किया है, जिसके परिणामस्वरूप दशकों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी उन्हें कुछ प्राप्त नहीं हुआ। लोगों को सत्य समझना होता है, उसका अनुभव करना होता है और उसे समझना होता है, और उन्हें विशेष रूप से आवश्यकता होती है कि परमेश्वर उनके लिए माहौल की व्यवस्था करे। इन अलग-अलग पहलुओं के जोड़ से लोगों में थोड़ी समझ आती है और वे प्रवेश कर पाते हैं। एक बार जब यह तुम्हारे भीतर पैदा हो जाता है, तो इससे तुम्हें अलग-अलग ज्ञान, भावनाएँ और विचार मिलेंगे, जिससे तुम्हारी चेतना और विचारों में प्रगति होगी और तुम उन्हें थोड़ा बदल पाओगे, जो बदले में परमेश्वर में तुम्हारी आस्था को थोड़ा मजबूत करेगा और सत्य और अपने जीवन पथ के प्रति तुम्हारे रवैये में थोड़ा बदलाव करेगा। वे सभी छोटे, बारीक बदलाव होते हैं, पर ये बारीक बदलाव जीवन के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण, तुम्हारे विचारों और नजरियों और चीजों और परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये में बड़ा बदलाव लाएँगे। यह परमेश्वर के वचन—सत्य—की सामर्थ्य है।

अंश 89

मनुष्य के उद्धार के दौरान परमेश्वर लोगों को, चाहे वे कितने भी विद्रोही हों, या उनके स्वभाव कितने भी भ्रष्ट हों, क्या आधार रेखा देता है? अर्थात्, परमेश्वर किन परिस्थितियों में लोगों को त्याग और निकाल देता है? परमेश्वर तक पहुँचने का वह निम्नतम मानक क्या है कि वह तुम्हें अपनाए रखे और निकाल न दे? यह बात परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों को स्पष्ट पता होनी चाहिए। सबसे पहले, परमेश्वर को नकारना नहीं है—यह सबसे बुनियादी शर्त है। परमेश्वर को नहीं नकारने का जो अर्थ है उसमें व्यावहारिक तत्व निहित है। यह केवल यह स्वीकार कर लेना नहीं है कि आकाश में एक बूढ़ा आदमी है, या कि परमेश्वर देहधारी हो गया है, या कि परमेश्वर का नाम सर्वशक्तिमान परमेश्वर है। यह पर्याप्त नहीं है, यह परमेश्वर में विश्वास के मानक को पूरा नहीं करता है। कम से कम इतना तो तुम्हें जानना ही चाहिए कि देहधारी परमेश्वर व्यावहारिक परमेश्वर है; तुम्हें संदेह या आकलन नहीं करना चाहिए; भले ही तुम्हारी अपनी धारणाएँ हों, तुम्हें समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए—यह परमेश्वर में विश्वास का मानक है। तुम्हारे इस मानक तक पहुँचने पर ही परमेश्वर तुम्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में स्वीकार करेगा जो उस पर विश्वास करता हो। परमेश्वर के पास लोगों के लिए कम से कम तीन आधार रेखाएँ हैं। सबसे पहले, लोगों को उसे स्वीकार करना चाहिए, उस पर विश्वास करना चाहिए, और उसका अनुसरण करना चाहिए। उन्हें परमेश्वर का सच्चा विश्वासी होना चाहिए, उन्हें अपनी पूरी क्षमता के साथ अपने कर्तव्य निभाने चाहिए, और उन्हें न तो बुरे कर्म करने चाहिए और न ही अशांति पैदा करनी चाहिए। यह पहली आधार रेखा है। दूसरी बात, परमेश्वर का अनुसरण करते समय, उन्हें कम से कम अपने कर्तव्यों का त्याग नहीं करना चाहिए। उन्हें अपने कर्तव्य निभाते समय आज्ञापालन और समर्पण करना चाहिए, इनसे औसत परिणाम प्राप्त करने चाहिए और, कम से कम, एक स्वीकार्य मानक के अनुरूप मजदूरी करनी चाहिए। यह दूसरी आधार रेखा है। तीसरी बात, उनकी मानवता मानक स्तर की होनी चाहिए। वे अच्छे, या, कम से कम, विवेकशील और तर्कशील लोगों के रूप में जाने जाने चाहिए। वे मूल रूप से परमेश्वर के चुने हुए अधिकांश लोगों के साथ घुलने-मिलने में सक्षम हों, न कि सड़े हुए सेब की तरह हों जिन्हें हर कोई दूर फेंकना चाहे। इस तरह के लोग, कम से कम, खराब या बुरे नहीं होते। यह तीसरी आधार रेखा है। यदि कोई सत्य स्वीकार नहीं कर सकता, और अपना कर्तव्य, चाहे कुछ भी हो, निभाने से इंकार कर देता है, तो वह परमेश्वर का सच्चा विश्वासी नहीं है—कम से कम, उसकी मानवता मानक के अनुरूप नहीं है। इसका मतलब है कि वह आधार रेखा से नीचे चला गया है और उसे हटा किया जाना चाहिए। बुरी मानवता वाले सभी लोगों को, जो थोड़ा-सा भी सत्य स्वीकार नहीं कर सकते, जो अशांति और व्यवधान पैदा करते हैं, और कलीसिया में कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभाते हैं, बुरे लोगों की श्रेणी में रखा जा सकता है। कोई भी व्यक्ति जो अधिकांश लोगों के साथ घुल-मिल नहीं सकता, वह सड़े हुए सेब जैसा है, एक बुरा व्यक्ति है, और इससे भी बढ़कर, एक ऐसा व्यक्ति है जो आधार रेखा से नीचे चला गया है और उसे हटा दिया जाना चाहिए। हो सकता है ये बुरे और मसीह-विरोधी लोग कर्तव्यों का पालन करते हों, लेकिन ये केवल विघ्न, अशांति, विनाश ही पैदा करते हैं और बुरे कर्म करते हैं—क्या परमेश्वर को ऐसे ही लोग चाहिए? क्या वे अपना कर्तव्य निभा रहे हैं? (नहीं।) परमेश्वर की नजर में, उनके कार्य आधार रेखा तोड़ चुके हैं। वे अपने कर्तव्य निभाने में असमर्थ हैं, और वे जो नुकसान पहुँचाते हैं वह उनके द्वारा निभाए गए कर्तव्यों से कहीं ज्यादा है, इसलिए उन्हें कलीसिया से दूर कर दिया जाना चाहिए। क्या यही वह सिद्धांत नहीं है जिसके अनुसार परमेश्वर के घर में लोगों के साथ व्यवहार किया जाता है? क्या कभी किसी को इसलिए निकाला गया क्योंकि वह क्षण भर के लिये बुरी स्थिति में था, और निराश और कमजोर महसूस कर रहा था? क्या कभी किसी को अपना कर्तव्य निभाने से इसलिए रोका गया क्योंकि वह कभी-कभार थोड़ा लापरवाह हो जाता था और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा रहा था? क्या कभी किसी को इसलिए निकाला गया क्योंकि उसने अपना कर्तव्य निभाने में खराब नतीजे हासिल किए, या इसलिए क्योंकि उसने कुछ बुरे विचार या सोच प्रकट की? क्या कभी किसी को इसलिए निकाला गया क्योंकि उसका आध्यात्मिक कद छोटा था, और उसके अंदर परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और संदेह पैदा हो गए थे? (नहीं।) तो फिर, लोगों को बाहर निकालने का परमेश्वर के घर का सिद्धांत क्या है? किन लोगों को हटाया जाता है और अपने कर्तव्यों का पालन करने से रोक दिया जाता है? (उन्हें जिनकी मजदूरी फायदे से ज्यादा नुकसान करती है, और जो लगातार विघ्न और अशांति उत्पन्न करते हैं।) इस प्रकार के व्यक्ति कर्तव्य पालन करने योग्य नहीं हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई उनके प्रति पूर्वाग्रही है या व्यक्तिगत द्वेष के कारण उन पर प्रतिबंध लगा रहा है और उन्हें हटा रहा है; इसका मतलब है कि उन्हें अपने कर्तव्य का कोई परिणाम नहीं मिलता, और वे विघ्न और अशांति पैदा करते हैं। उन्हें इसलिए हटाया जाता है कि वे वास्तव में कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं हैं। यह पूर्णतः सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। वे सभी सिद्धांत जिनसे परमेश्वर का घर लोगों को संभालता है और उनके साथ व्यवहार करता है, निष्पक्ष हैं। परमेश्वर का घर लोगों के मीन-मेख निकालने, तिल का ताड़ बनाने या बिना बात बखेड़ा खड़ा करने की कोशिश नहीं करता है। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है। बेशक, जिन लोगों को हटा दिया गया है, यदि वे सत्य को स्वीकार कर सकें और ईमानदारी से परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप कर सकें तो वे अभी भी उद्धार की आशा कर सकते हैं। लेकिन वे छद्म-विश्वासी और बुरे लोग जो थोड़ा-सा भी सत्य स्वीकार नहीं कर सकते, जिनमें जमीर और विवेक नहीं है, वे खुलासा होने के बाद हमेशा के लिए निकाल दिए जाएँगे। यही परमेश्वर की धार्मिकता है।

अंश 90

परमेश्वर क्यों चाहता है कि लोग उसे जानें? वह क्यों चाहता है कि लोग अपने आप को जानें? खुद को जानने का क्या उद्देश्य है? इससे क्या मिलेगा? और परमेश्वर को जानने का क्या उद्देश्य है? यदि लोग परमेश्वर के बारे में जानेंगे तो उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या तुम लोगों ने कभी इन सवालों पर विचार किया है? परमेश्वर विभिन्न साधनों का उपयोग करता है ताकि लोग खुद को जान सकें। उसने लोगों की भ्रष्टता प्रकट करने और अनुभव के माध्यम से थोड़ा-थोड़ा करके उन्हें खुद को जानने के लिए सभी प्रकार के परिवेश तैयार किए हैं। चाहे परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन हो या उसका न्याय और ताड़ना हो, क्या तुम लोगों को पता है कि परमेश्वर द्वारा इस कार्य को करने का परम उद्देश्य क्या है? इस तरह से अपना कार्य करने के पीछे परमेश्वर का परम उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि उसके कार्य का अनुभव करने वाला हर व्यक्ति मनुष्य के स्वरूप को जान ले। और “मनुष्य के स्वरूप को जानने” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ मनुष्य को अपनी पहचान, स्थिति, कर्तव्य और जिम्मेदारी के प्रति जागरूक करना है। इसका अर्थ तुम्हें यह बताना है कि मनुष्य होने से क्या अभिप्राय है, तुम्हें यह समझाना है कि तुम कौन हो। लोगों को अपनी पहचान कराने के पीछे परमेश्वर का परम लक्ष्य यही है। तो परमेश्वर क्यों चाहता है कि लोग उसे जानें? यह वह विशेष अनुग्रह है जो वह मानवजाति को प्रदान करता है, क्योंकि परमेश्वर को जानकर मनुष्य कई सत्यों को समझ सकता है और कई रहस्यों को जान सकता है। परमेश्वर को जानने से लोगों को बहुत कुछ प्राप्त होता है। जब लोग परमेश्वर को जान लेते हैं, तो वे सबसे सार्थक तरीके से जीने का तरीका सीखते हैं, इसलिए लोगों को परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करना परमेश्वर का सबसे बड़ा प्रेम, उसका सबसे बड़ा आशीष है। और परमेश्वर लोगों को अपने बारे में ज्ञान देने के लिए कई तरीकों का उपयोग करता है, जिसमें सबसे प्राथमिक तरीका न्याय और ताड़ना, मार्गदर्शन और उसके वचनों का पोषण है। बेशक, वह न्याय और ताड़ना के माध्यम से लोगों को अपने स्वभाव का ज्ञान भी देता है—यह परमेश्वर को जानने का शॉर्टकट है। परमेश्वर के स्वभाव को देखने और जानने से लोगों को आखिरकार क्या मिलता है? इससे लोगों को पता चलता है कि परमेश्वर कौन है, उसका सार क्या है, उसकी पहचान और स्थिति क्या है, उसकी चीजें और अस्तित्व क्या हैं और उसका स्वभाव कैसा है। इससे प्रत्येक व्यक्ति स्पष्ट रूप से जान लेता है कि वह सृजित प्राणी है, कि केवल परमेश्वर ही सृजनकर्ता है और कैसे सृजित प्राणियों को सृजनकर्ता के प्रति समर्पण करना चाहिए। यह सब जानने से जीवन में मनुष्य का मार्ग पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है। जब लोग वास्तव में खुद को जान लेंगे तो क्या वे धीरे-धीरे अपनी असंयमित इच्छाओं और विभिन्न अन्यायपूर्ण इरादों को छोड़ नहीं देंगे? (हाँ।) तो क्या वे तब इस स्तर पर नहीं पहुँच जाएंगे जहाँ वे इन बुराइयों को पूरी तरह से त्यागने में सक्षम हों? यह व्यक्ति पर निर्भर करता है। कोई व्यक्ति अपनी असंयमित इच्छाएँ और परमेश्वर से विभिन्न मांगें वास्तव में केवल तभी छोड़ पाता है जब वह परमेश्वर के कार्य के माध्यम से उसके बारे में ज्ञान प्राप्त करता है और उसके सार, पहचान और स्थिति की सटीक जानकारी और परिभाषा जान लेता है। केवल इस प्रकार का व्यक्ति पतरस की तरह अपने दिल की गहराई से परमेश्वर से प्रेम करने की इच्छा और कामना व्यक्त कर सकता है, और परमेश्वर के प्रति प्रेम को जीवन में उतार सकता है। अतः परमेश्वर को जानना और खुद को जानना—दोनों कार्यों को छोड़ा नहीं जा सकता। तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर से प्यार करना चाहते हो, लेकिन यदि तुम उसे समझे ही नहीं तो क्या तुम जान सकते हो कि उससे प्यार कैसे करना है? उसके कौन-से हिस्से प्यारे हैं? उसके सबसे प्यारे पहलू कौन-से हैं? यदि तुम्हें यह सब नहीं पता तो तुम उससे प्यार नहीं कर सकते। तुम चाहकर भी उससे प्यार नहीं कर सकोगे और हो सकता है कि तुम देखो कि तुम्हारे मन में उसके बारे में धारणाएँ भी हैं और तुम्हारे अंदर अनायास ऐसा विद्रोह पैदा हो रहा है जो तुम्हें नकारात्मकता की ओर ले जा रहा है। क्या इस प्रकार के व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी? बिल्कुल नहीं। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर को नहीं जानता और फिर भी कहता है कि वह उससे प्यार करता है तो यह तथाकथित “प्रेम” केवल एक खोखला सिद्धांत होता है जो मानवीय तर्क और सोच विचार का नतीजा होता है। यह परमेश्वर के ज्ञान से उत्पन्न नहीं होता है और यह परमेश्वर के सामने बिल्कुल भी नहीं टिकता। तो क्या अब तुम लोग समझ गए कि मैं इन दो मामलों के बारे में क्या कह रहा हूँ? (हाँ।) तो फिर तुम लोग यह अभी क्यों नहीं कह पाए? इससे सिद्ध होता है कि व्यावहारिक अनुभव के मामले में तुम लोगों का अपने बारे में ज्ञान पूरी तरह से गड़बड़ है और तुम लोगों को परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं है। क्या तुम लोग जानते हो कि इसमें समस्या क्या है? (हमें अभ्यास का सही रास्ता नहीं मिला है। हम परमेश्वर को जानने और खुद को जानने के दो पहलुओं से एक साथ प्रवेश नहीं कर पाते। हम केवल एक ही पहलू से प्रवेश करने पर ध्यान देते हैं और इस प्रकार हम अपने जीवन के विकास को सीमित कर देते हैं।) चूँकि तुम लोग अभी इस दशा में हो, तो तुम लोगों का आध्यात्मिक कद क्या है? क्या यह अविकसित नहीं है? क्या तुम लोग खुद को जानने के मामले में परमेश्वर की अपेक्षा और मानक से बहुत दूर नहीं हो? कम से कम तुम अभी भी अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं और इरादों को नहीं छोड़ पा रहे हो। क्या परमेश्वर के प्रति तुम्हारा समर्पण सत्य के अनुरूप हो सकता है? क्या तुम यह जान सकते हो कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर की कोई हैसियत है या नहीं? अभी भी ऐसे बहुत-से लोग हैं जो यह सवाल करते हैं कि क्या परमेश्वर का देहधारण मानव है या परमेश्वर; वे दोनों नावों पर सवार हैं, एक पल तो वे पृथ्वी पर मौजूद परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और अगले ही पल वे आकाश में एक अज्ञात परमेश्वर में विश्वास करने लगते हैं। और कुछ ऐसे भी लोग हैं जो परमेश्वर के सार पर भी सवाल उठाते हैं और कहते हैं, “देहधारी परमेश्वर और आकाश में मौजूद परमेश्वर एक ही परमेश्वर कैसे हो सकते हैं? यदि वह वास्तव में परमेश्वर है तो वह चमत्कार और चिह्न क्यों नहीं दिखाता है?” इससे पता चलता है कि तुम लोगों में आध्यात्मिक ज्ञान की भारी कमी है। यह है तुम लोगों का आध्यात्मिक कद कि परमेश्वर द्वारा इतना कुछ बताए जाने के बावजूद भी तुम अभी भी इसे समझ नहीं पा रहे हो। अभी तुम लोग केवल यह मानते हो कि परमेश्वर देहधारी हुआ है, तुम लोग केवल देहधारी परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य को ही स्वीकार करते हो; लेकिन जब परमेश्वर के सार, पहचान और दर्जे की बात आती है तो तुम्हारे पास इसके बारे में ज्यादा ज्ञान नहीं होता है। तुम लोग कह सकते हो कि तुम्हारे दिलों में यह ज्ञान शून्य के बराबर है, है न? (ऐसा ही है।) और इस बात को वास्तव में सिद्ध किया जा सकता है : परमेश्वर के सार या परमेश्वर के इरादों जैसे सत्य के पहलुओं पर मेरे संगति करने से पहले तुम सोचते थे कि परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान बहुत गहरा है और तुम सोचते थे कि परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास दृढ़ और अटूट है। लेकिन जब मैंने तुम लोगों के साथ स्वयं परमेश्वर, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के सार जैसे सत्यों के बारे में संगति की तो इन वचनों और विषयवस्तु ने तुम लोगों के दिलों ने एक कड़ी प्रतिक्रिया दी। यह प्रतिक्रिया बहुत तीव्र थी और इसके कारण तुम लोगों के लिए इसे स्वीकार करना कठिन हो गया और इसने तुम लोगों के दिल में कल्पित परमेश्वर के साथ एक बड़ा संघर्ष पैदा कर दिया। क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) इसलिए जब मैं कोई ऐसी बातें बताता हूँ जो तुम लोगों ने पहले नहीं सुनी हैं, तो तुम लोगों को पहली बार में उन्हें स्वीकार करना असंभव लगता है, मानो तुम लोग समझ ही नहीं पा रहे हो कि मैं क्या कह रहा हूँ। इससे सिद्ध होता है कि तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, इतना छोटा कि तुम परमेश्वर के वचनों को समझ भी नहीं सकते या उनके योग्य भी नहीं बन सकते। इन्हें समझने के लिए अभी तुम्हें कई और सालों के अनुभव की आवश्यकता होगी।

अंश 91

अय्यूब के बारे में परमेश्वर का मूल्यांकन पुराने नियम में दर्ज है : “उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है” (अय्यूब 1:8)। अंत के दिनों में, परमेश्वर ने न केवल यह तथ्य दिखाया कि पतरस वास्तव में उससे प्यार करता था, बल्कि यह तथ्य भी दिखाया कि अय्यूब एक ऐसा व्यक्ति था जिसे उस पर सच्ची आस्था थी और परमेश्वर चाहता है कि अंत तक उसका अनुसरण करने के लिए उसके चुने हुए लोगों के मन में कम से कम अय्यूब जैसी आस्था होनी चाहिए। तुम लोगों की कल्पनाओं में और तुम लोगों की समझ में आने वाली सीमित पाठ्य-सामग्री के दायरे में, अय्यूब किस प्रकार का व्यक्ति था? क्या वह अच्छा इंसान था? (हाँ।) यह मुख्य रूप से किन तरीकों से अभिव्यक्त होता था? सबसे पहले, वह ऐसा व्यक्ति था जो परमेश्वर का भय मानता था और उसने कभी कोई बुरा कार्य नहीं किया था। यह एक अच्छे व्यक्ति की प्राथमिक अभिव्यक्ति और पहचान है। इसके अलावा, वह अपने आचरण में और अपने बच्चों और परिवार के साथ व्यवहार में भी सिद्धांतवादी था। उसने अपने बच्चों की गलतियों को छिपाने की कोशिश नहीं की और उसने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपने बच्चों को उसे सौंप दिया, जिससे लोगों को पता चला कि अपने बच्चों के प्रति उसका रवैया पूरी तरह से सही और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप था। एक बच्चे के तौर पर, तुम लोगों को क्या लगता है, उसके जैसा पिता पाना कैसा होगा? क्या इससे तुम्हें खुशी महसूस नहीं होगी? लेकिन अय्यूब के दोस्त कैसे थे? जब अय्यूब को परीक्षणों और विपत्तियों का सामना करना पड़ा, तो उसके दोस्तों ने उसके साथ कैसा व्यवहार किया? उनमें से कोई भी उसे समझ नहीं सका और इसके अलावा उन्होंने उसकी आलोचना की : “तुमने परमेश्वर को नाराज किया है और उसने तुम्हें शाप दिया है। जरा देखो, परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास ने तुम्हें कहाँ पहुँचा दिया है। कितनी दयनीय स्थिति है!” अय्यूब की पत्नी ने भी कहा, “क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा” (अय्यूब 2:9)। अत्यधिक पीड़ा के इस समय के दौरान, अय्यूब के दोस्तों और पत्नी ने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया, जिससे उसे अत्यधिक नुकसान और दर्द हुआ। लेकिन बहुत कम लोग थे जो अय्यूब को समझते थे—यह सच है। अब जब हम अय्यूब की कहानी पढ़ते हैं, तो हमें लगता है कि वास्तव में, अय्यूब जैसे लोग ही सबसे विश्वसनीय और भरोसेमंद हैं और इस प्रकार का व्यक्ति वास्तव में एक अच्छा व्यक्ति है। वे तुम्हें कभी धोखा नहीं देंगे या नुकसान नहीं पहुँचाएँगे और वे तुम्हारे साथ जिस तरह से व्यवहार करते हैं, उसमें हमेशा सिद्धांतों का पालन करेंगे। यदि तुम सही व्यक्ति हो और सिर्फ इसीलिए कि तुमने कोई एक बुरा कार्य किया है या अन्य लोग तुम्हारे बारे में बुरा बोलते हैं, तो वे तुम्हारी निंदा नहीं करेंगे या तुम्हारे बारे में बुरी बातें नहीं कहेंगे। वे तथ्यों के खिलाफ नहीं जाएँगे और लोगों पर झूठा आरोप लगाने के लिए धूर्तता से बात नहीं करेंगे। वे भावनाओं या प्राथमिकताओं को अपने भाषण पर हावी नहीं होने देंगे। समय बीतने के साथ तुम देखोगे : “अब यह अच्छा व्यक्ति है। जब भी हमें किसी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, तो हम अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं, लेकिन वह परमेश्वर का नाम कभी नहीं त्यागता, चाहे उसे कितने भी बड़े परीक्षणों और विपत्तियों का सामना करना पड़े। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति को पसंद करता है। अगर ऐसा कोई व्यक्ति मेरे साथ होता, तो चाहे मुझ पर कोई भी बीमारी या विपत्ति क्यों न आए, वह पहले की तरह ही मेरी मदद, सहायता, देखभाल करता और मुझे बर्दाश्त करता रहता। ऐसा व्यक्ति बहुत अच्छा होता है। भले ही वह कभी-कभी मुझे परेशान कर देता हो या अगर हम हमेशा एक-दूसरे से सहमत नहीं हो पाते हों, तो भी मैं उन शैतानों और राक्षसों में से किसी एक के बजाय उसे ही अपने साथ रखना पसंद करूंगा!” आम तौर पर, शैतान और राक्षस बाहर से कहेंगे, “तुम बहुत अच्छे हो। मैं तुम्हें पसंद करता हूँ और तुम्हारी बहुत परवाह करता हूँ,” लेकिन जैसे ही तुम किसी परेशानी का सामना करोगे, वे तुम्हें नजरअंदाज कर देंगे और तभी तुम्हें एहसास होगा कि अच्छा व्यक्ति होना क्या है और विश्वसनीय व्यक्ति होना क्या है। केवल भरोसेमंद और परमेश्वर का भय मानने वाले और बुराई से दूर रहने वाले लोग, वास्तव में अच्छे लोग हैं और अच्छे लोग बहुत मूल्यवान हैं। यदि तुम्हारे पास अय्यूब जैसे एक दर्जन लोग हों तो यह बहुत बढ़िया होगा—लेकिन अब तुम्हारे पास कोई नहीं है! इस समय, तुम्हें महसूस होगा कि अच्छा व्यक्ति कितना दुर्लभ है। हर किसी को ऐसे अच्छे व्यक्ति की जरूरत होती है। धार्मिक और परोपकारी लोग, सैद्धांतिक तरीके से कार्य करने वाले दयालु लोग, जिनमें न्याय की भावना होती है, जो परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं और जो भरोसे के योग्य होते हैं, ऐसे लोगों को हर कोई पसंद करता ह।

जब तुम विपत्तियों और बीमारी से घिरे हुए होते हो, जब तुम्हें सबसे ज़्यादा तकलीफ होती है, तो तुम्हें अपने पास किस तरह के व्यक्ति की जरूरत होगी? क्या तुम्हें ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो झूठे और मधुर वचन बोलता हो? क्या तुम्हें ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो तुम्हारी आलोचना, निंदा करे और तुममें दोष निकाले? (नहीं।) तो फिर तुम्हें सबसे ज्यादा किस प्रकार के व्यक्ति की जरूरत है? तुम्हें ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो तुम्हारी कठिनाइयों के प्रति सहानुभूति दिखा सके और तुम्हें सांत्वना दे सके, जिसे तुम अपने दिल का दर्द बता सको और फिर वह तुम्हारी नकारात्मकता, कमजोरी और पीड़ा से उभरने में तुम्हारी मदद कर सके। यह व्यक्ति तुम्हारी मदद कर सकता है—जब तुम गिरोगे तो वह तुम पर हँसेगा नहीं या तुम्हें लात नहीं मारेगा और वह तुम्हारी कठिनाइयों को नजरअंदाज नहीं करेगा। अर्थात्, अगर तुम्हें जरूरत है कि वह तुम्हें दिलासा दे और जब तुम कठिनाइयों में पड़े हो, कमजोर महसूस कर रहे हो और निजी समस्याओं में उलझे हुए हो, तो तुम इन बातों को उसके साथ साझा कर सको और वह उन बातों को तुम्हारे पीठ पीछे लोगों को न बताए, तुम्हारा उपहास न करे, तुम्हारा मजाक न उड़ाए, या तुम्हारे निजी मामलों में गड़बड़ी पैदा न करे। वह तुम्हारी कठिनाइयों, कमजोरी, नकारात्मकता और तुम्हारी मानवता के कमजोर पहलुओं के प्रति सही नजरिया रख सके। क्या इन बातों के प्रति सही नजरिया रखना सैद्धांतिक नहीं है? क्या ये एक अच्छे व्यक्ति की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? इस प्रकार का व्यक्ति तुम्हें समझ सकता है, तुम्हें बर्दाश्त कर सकता है और तुम्हारा ख्याल रख सकता है। वह तुम्हारा समर्थन कर सकता है, तुम्हें पोषण दे सकता है और पीड़ा और कमजोरी से बाहर निकलने में तुम्हारी मदद कर सकता है। वह तुम्हारी इतनी अधिक मदद करता है। ऐसा व्यक्ति अत्यंत मूल्यवान होता है। यह एक अच्छा व्यक्ति है! मान लो कि कोई तुम्हें नजरअंदाज करता है और तुम्हें किसी समस्या में देखकर वह तुम्हारा मजाक उड़ाता है और उपहास भी करता है। तुम उस पर भरोसा करके उसे कोई बात बताना चाहते हो, लेकिन फिर तुम मन में सोचते हो, “मैं उसे नहीं बता सकता। अगर मैंने ऐसा किया तो इसके दुष्परिणाम हो सकते हैं। वह मेरे पीठ पीछे मेरे निजी मामलों के बारे में बात कर सकता है। तब हर कोई मुझ पर हँसेगा और कौन जाने, मुझे बदनाम करने के लिए वह कैसी कहानियाँ गढ़ेगा।” क्या तुममें ऐसे किसी व्यक्ति से बात करने की हिम्मत है? वह क्या कर सकता है इसका तुम्हें कोई अंदाजा नहीं है। संभव है कि वह तुम्हारी कोई मदद या समर्थन न करे, ऊपर से वह तुम्हारे निजी मामलों में गडबडी कर सकता है और तुम्हें धोखा देकर नुकसान पहुँचा सकता है। क्या तुम उस पर भरोसा करके कुछ बताने की हिम्मत करोगे? इस समय, तुम्हें एहसास होगा कि अच्छे लोग कितने महत्वपूर्ण, मूल्यवान और अनमोल हैं और किसी भी अन्य प्रकार के व्यक्ति होने की तुलना में एक अच्छा व्यक्ति होने का महत्व अधिक है। जब तुम तकलीफ और पीड़ा में होते हो तब तुम्हारे माता-पिता भी शायद तुम्हारी कठिनाइयों और जरूरतों को ठीक से न समझ पाएँ और वे तुम्हें सांत्वना न दे पाएँ। कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो कड़ी मेहनत करते हैं और घर से दूर नौकरी करते हैं—विशेष रूप से, कुछ महिलाओं को थोड़े से पैसे कमाने के लिए अपने मालिकों की चापलूसी करनी पड़ती है या अपना शरीर भी बेचना पड़ता है—और बच्चों के लिए घर से दूर काम करना या पैसा कमाना कितना मुश्किल है इसके बारे में उनके माता-पिता कभी नहीं पूछते। अगर उनके बच्चे बहुत सारा पैसा कमाकर नहीं लाते हैं तो वे शिकायत भी करते हैं और दूसरों से उनकी तुलना करते हैं। इससे उनके बच्चे कैसा महसूस करते हैं? (उदास, निराश।) उनके दिल बैठ जाते हैं। वे सोचते है कि दुनिया एक अंधेरी जगह है और उनके अपने माता-पिता भी ऐसे ही हैं और सोचते हैं कि वे कैसे अपना जीवन काटेंगे। इसलिए तुम्हें एक अच्छा व्यक्ति होना चाहिए। हर किसी को एक अच्छे व्यक्ति की आवश्यकता होती है। और अच्छे लोग कैसे बनते हैं? क्या वे आसमान से गिरते हैं? क्या वे जमीन से उगते हैं? क्या वे किसी जानवर से विकसित होते हैं? क्या वे उच्च श्रेणी की पाठशालाओं की शिक्षा के उत्पाद होते हैं? या तपस्वी धार्मिक साधना के उत्पाद हैं? नहीं, इनमें से कोई भी स्पष्टीकरण सही नहीं है, ये सभी बिल्कुल असंभव हैं। केवल परमेश्वर का अनुसरण करके, सत्य का अभ्यास करके और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करके ही अच्छा व्यक्ति बना जा सकता है। अच्छे लोग भ्रष्ट मनुष्यों के अचानक परिवर्तन से उत्पन्न नहीं होते हैं—लोगों को परमेश्वर में विश्वास करना और उसका उद्धार प्राप्त करना जरूरी है, उन्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए, पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना चाहिए और अच्छा व्यक्ति बनने के लिए पूर्ण बनाया जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को मित्र और विश्वासपात्र के रूप में एक अच्छे व्यक्ति की जरूरत होती है। मुझे बताओ, क्या परमेश्वर को भी उनकी जरूरत है? (हाँ।) परमेश्वर को अच्छे लोगों की जरूरत है और लोगों को भी अच्छे लोगों की जरूरत है। इस मामले को समझने से तुम पर क्या प्रभाव पड़ेगा? तुममें एक अच्छा व्यक्ति बनने का प्रयास करने का निश्चय और इच्छा होनी चाहिए। अगर तुम कहते हो, “अच्छा व्यक्ति बनना कठिन और थकानेवाला है, लेकिन मेरे भीतर अच्छा व्यक्ति बनने के लिए प्रयास करने का निश्चय होना जरूरी है। लोगों को अच्छे लोगों की सख्त जरूरत है और मुझे भी अच्छे लोगों की जरूरत है। इसलिए, सबसे पहले मैं स्वयं एक अच्छा व्यक्ति बनूँगा और दूसरों की सहायता और समर्थन करूँगा, परमेश्वर को और अच्छे लोगों को प्राप्त करने में मदद करने का प्रयास करूँगा,” तो यह सही है। अगर हर कोई अच्छा व्यक्ति बनने का प्रयास करे, तो मानवजाति के लिए कुछ आशा होगी। तुम कह सकते हो, “मानवजाति बहुत भ्रष्ट और बुरी है। अगर परमेश्वर में विश्वास करने वाले केवल कुछ लोग ही अच्छे लोग हों तो इसका कोई फायदा नहीं है। उन पर अब भी धौंस जमाई जाएगी क्योंकि दुनिया में बहुत सारे बुरे लोग हैं।” यह कहना मूर्खतापूर्ण बात है। तुम उद्धार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हो। अगर तुम अच्छे और धार्मिक व्यक्ति बन जाते हो, तो परमेश्वर तुम्हें आशीष देगा। मनुष्य चाहे कितने भी दुष्ट और बुरे क्यों न हों, परमेश्वर के पास उनसे निपटने के तरीके होते हैं। इस बारे में लोगों को चिंता करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें केवल सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करना है। यही उसके इरादों के अनुरूप है। जब नूह ने जहाज बनाया तो अंत में केवल आठ लोग बचाए गए। जिन्होंने परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं किया और सही मार्ग पर नहीं चले वे सभी अंत में परमेश्वर की बाढ़ से नष्ट हो गए। यह सर्वमान्य तथ्य है। ऐसा क्यों है कि तुम परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को नहीं पहचान सकते? तुम क्यों नहीं पहचान सकते कि परमेश्वर एक धार्मिक परमेश्वर है? जब परमेश्वर अपना कार्य समाप्त करता है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितने लोग उद्धार प्राप्त करते हैं, इस युग का अंत तो अवश्य होगा। बड़ी आपदाएँ आएँगी और परमेश्वर इन सभी समस्याओं का समाधान कर देगा। तुम सत्य का अनुसरण करते हो और अपने लिए एक धार्मिक व्यक्ति बनते हो—इससे तुम्हें लाभ होता है, और दूसरों को लाभ होता है। कुछ लोग कहते हैं, “अच्छे लोग जिसके हकदार होते हैं वह उन्हें नहीं मिलता,” लेकिन यह गलत है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें अंततः स्वर्ग के राज्य में अपना स्थान मिलेगा और पृथ्वी पर बुरे लोग चाहे कितना भी फले-फूलें, अंत में वे सभी नष्ट कर नरक में डाल दिए जाएँगे। तो, अच्छे और बुरे दोनों को उनकी न्यायसंगत सजा मिलती है, क्या नहीं मिलती? बाइबल में क्या कहा गया है? “हर एक के काम के अनुसार बदला देने के लिये प्रतिफल मेरे पास है” (प्रकाशितवाक्य 22:12)

जो चीजें अय्यूब ने कीं और जो अय्यूब की किताब में दर्ज हैं, वे ज्यादा जगह नहीं लेती हैं, वे बहुत सरल हैं और उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है। लेकिन तुम्हें अय्यूब के कार्यों के भीतर सुराग ढूँढ़ना आना चाहिए और अच्छा व्यक्ति बनने के लिए अय्यूब के सिद्धांतों और अभ्यास के मार्ग को ढूँढ़ना आना चाहिए। सबसे पहले, अपने बच्चों और अपने सबसे करीबी लोगों के साथ व्यवहार के संबंध में अय्यूब का सिद्धांत क्या था? यह था कि अपने स्नेह पर निर्भर न रहना, बल्कि सिद्धांतों पर कायम रहना। जो कुछ हुआ उसके कारण वह परमेश्वर के विरुद्ध पाप नहीं करने वाला था। यह उसके परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का पहला मानदंड था—उसने इसकी शुरुआत अपने परिवार के सदस्यों के प्रति अपने व्यवहार से की। दूसरा, उसकी संपत्ति के प्रति उसका व्यवहार था। अय्यूब जानता था, हालाँकि उसकी संपत्ति केवल सांसारिक संपत्ति थी, लेकिन वह परमेश्वर से आई थीं और वह परमेश्वर ने ही उसे प्रदान की थीं और आशीष के तौर पर परमेश्वर ने उसे सौंपी थी। लोगों को इन चीजों का सावधानीपूर्वक और अच्छी तरह से प्रबंधन और उनकी देखभाल करनी चाहिए। उनकी अच्छी तरह से देखभाल करने का मतलब लालच से उन्हें अपने पास रखना या उनका आनंद लेना नहीं है और इसका मतलब इन चीजों के लिए जीना नहीं है; इसका अर्थ है उनके लिए परमेश्वर को धन्यवाद देना, परमेश्वर के आयोजन और उनके भीतर उनकी संप्रभुता को देखना और इन चीजों के माध्यम से परमेश्वर को जानना। जब लोग परमेश्वर को जानते हैं तो वे उसकी संप्रभुता के प्रति समर्पण कर पाते हैं और अच्छा व्यक्ति होने के लिए वास्तव में यही सबसे महत्वपूर्ण मानदंड है। यदि तुम दूसरों से पेश आते समय सिद्धांतों का पालन कर सकते हो लेकिन परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते तो क्या तुम वास्तव में अच्छे व्यक्ति हो? नहीं, तुम नहीं हो। इसके अलावा, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति पेश आते हुए अय्यूब परमेश्वर की संपूर्ण संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में सक्षम था। परमेश्वर की व्यवस्थाओं में उसका अभाव और उसके परीक्षण शामिल हैं। परमेश्वर कभी वंचित रखता है, कभी परीक्षा लेता है। उसके परीक्षणों में क्या शामिल है? कभी-कभी वह तुम्हें बीमार कर सकता है, या तुम्हारे परिवार में कुछ प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है, या वह कुछ ऐसा कर सकता है जिससे अपना कर्तव्य निभाने के दौरान तुम्हें कुछ कठिनाइयों और काट-छाँट का सामना करना पड़े और वह तुम्हें दंड दे, अनुशासित करे, तुम्हारा न्याय करे और ताड़ना दे। ये सभी परमेश्वर की व्यवस्थाएँ हैं—और उनके प्रति तुम्हारा व्यवहार कैसा होना चाहिए? अगर तुम उनके प्रति समर्पित नहीं हो सकते और तुम लगातार उनसे दूर भागना चाहते हो, तो तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो। इसके अलावा, लोगों को अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान होना जरूरी है। उन्हें अपनी वफादारी दिखाना जरूरी है। यहाँ वफादारी का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि वे जो कुछ कर सकते हैं और जो कुछ उनके पास है, उसे अर्पित करना। यही वफादारी है! यह अच्छा व्यक्ति होने का मानदंड है। अगर अभी तुम लोगों के बीच अय्यूब जैसा केवल एक ही व्यक्ति होता—और लोगों की कोई आवश्यकता नहीं है, केवल एक—तो तुम लोगों के बीच एक स्तंभ होता। जब तुम लोगों पर कोई विपत्ति आती, तो वह हर समय तुम लोगों के आदर्श के रूप में काम करता। तुम लोगों को बस वैसा ही करना होता जैसा वह करता है और समय के साथ तुम लोग बदल जाते। तुम अपने विचारों से लेकर अपने कार्यों तक, सत्य की खोज से लेकर उसका अभ्यास करने तक सुधार करते रहते। तुम्हारी स्थिति सुधर जाती, सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ती, जिससे तुम परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते पर चलने लगते। इस तरह से कुछ वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के बाद, तुम लोग भी परमेश्वर का भय मान पाते और अय्यूब की तरह बुराई से दूर रहकर एक आदर्श व्यक्ति बन जाते।

अंश 92

तुम लोग इस अंतिम युग में जी रहे हो। तुम्हारे ज्यादातर पारिवारिक जीवन पहले से कहीं अधिक समृद्ध है और तुम लोगों के जीवन के हर पहलू में भौतिक प्रचुरता है। तुम लोग कैसा महसूस कर रहे हो? देह में खुशी की हल्की सी अनुभूति होती है, लेकिन इसमें और दिल की खुशी के बीच क्या अंतर है? तुम सभी के पास कुछ अनुभव हैं और तुम लोगों ने कुछ चीजें देखी हैं, परमेश्वर में आस्था की तुम्हारी खोज पहले की तुलना में अधिक व्यावहारिक है, तुम लोग महसूस कर सकते हो कि दैहिक सुख की खोज खोखली है और तुम सभी सत्य की ओर चलना चाहते हो—क्या तुम सभी को ऐसा अनुभव हुआ है? क्या विभिन्न प्रकार की भौतिक चीजों में लोगों का दैहिक सुख उन्हें आध्यात्मिक सुकून दे सकता है? जीवन में श्रेष्ठता की भावना और प्रचुरता से भरा भौतिक जीवन लोगों में क्या बदलाव ला सकता है? वे लोगों को केवल पथभ्रष्ट कर सकते हैं और उनकी दिशा से भटका सकते हैं। इस प्रकार से लोग आसानी से अपना विवेक खो देंगे, अच्छे-बुरे में फर्क नहीं कर पाएँगे और विवेकहीन हो जाएँगे, और वे धीरे-धीरे अपनी मानवता खो देंगे; वे अधिक से अधिक आराम चाहेंगे, और ब्रह्मांड में अपने स्थान के बारे में और भी अनजान हो जाएँगे। कुछ ऐसे लोग भी होंगे जो अपना ख्याल रखने की क्षमता खो देंगे। वे बिल्कुल भी स्वतंत्र रूप से नहीं जी पाएँगे, अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ होंगे और अपने माता-पिता पर निर्भर हो जाएँगे। वे और भी अधिक अतृप्त और बेशर्म होते जाएँगे। संक्षेप में, उच्च जीवनशैली की स्थितियाँ और समृद्ध भौतिक जीवन लोगों में केवल पथभ्रष्टता लाता है, उन्हें आलसी बनाता है और काम से घृणा करवाता है, उन्हें अत्यधिक लालची बनाता है और वे निहायत बेशर्म बन जाते हैं। इनसे लोगों को कोई फायदा नहीं होता। देह की बात करें तो, तुम उसके प्रति जितने अच्छे होगे, यह उतना ही अधिक लालची होगा। थोड़ा कष्ट उठाना उपयुक्त है। जो लोग थोड़ा कष्ट सहते हैं वे सही रास्ते पर चलते हैं और सही काम करते हैं। यदि देह कष्ट नहीं सहता, आराम की इच्छा रखता है और आराम के माहौल में बढ़ता है, तो लोगों को कुछ भी हासिल नहीं होगा और संभवतः सत्य भी नहीं मिलेगा। यदि लोगों को प्राकृतिक आपदाओं और मानव निर्मित आपदाओं का सामना करना पड़ता है, तो वे तर्कहीन और अविवेकपूर्ण हो जाएँगे। जैसे-जैसे समय बीतेगा, वे और अधिक पथभ्रष्ट होते जाएँगे। क्या इसके कई उदाहरण हैं? तुम देख सकते हो कि अविश्वासियों के बीच कई गायक और फिल्मी सितारे हैं जो मशहूर होने से पहले कष्ट सहने को तैयार थे और उन्होंने खुद को अपने काम के प्रति समर्पित कर दिया था। लेकिन प्रसिद्धि हासिल कर लेने और पैसा कमाना शुरू करने के बाद वे सही रास्ते पर नहीं चलते हैं। उनमें से कुछ नशीली दवाएँ लेते हैं, कुछ आत्महत्या कर लेते हैं और उनका जीवन कम हो जाता है। इसकी वजह क्या है? उनके भौतिक सुख बहुत ऊंचे हैं, वे बहुत आरामदायक हैं और नहीं जानते कि बड़ी खुशी या बड़ा उत्साह कैसे प्राप्त किया जाए। उनमें से कुछ लोग अत्यधिक उत्तेजना और आनंद की तलाश में नशीली दवाओं की ओर चल पड़ते हैं और जैसे-जैसे समय बीतता है वे इसे छोड़ नहीं पाते। कुछ लोग नशीली दवाओं के अत्यधिक सेवन से मर जाते हैं और कुछ लोग इससे छुटकारा पाने के तरीके की जानकारी न होने के कारण अंत में आत्महत्या कर लेते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं। तुम कितना अच्छा खाते हो, कितने अच्छे कपड़े पहनते हो, कितने अच्छे से रहते हो, कितना आनंद लेते हो या तुम्हारा जीवन कितना आरामदायक है और चाहे तुम्हारी इच्छाएँ किसी भी तरह पूरी होती हों, अंत में सिर्फ खालीपन ही मिलता है और उसका परिणाम विनाश है। क्या अविश्वासी जिस खुशी की तलाश में हैं वह वास्तविक खुशी है? दरअसल वह खुशी नहीं है। यह एक मानवीय कल्पना है, यह एक प्रकार की पथभ्रष्टता है, यह लोगों को पथभ्रष्ट करने का एक तरीका है। लोग जिस तथाकथित खुशी को पाने की कोशिश करते हैं वह झूठी है। यह वास्तव में पीड़ा है। लोगों को ऐसे लक्ष्य को पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और जीवन का मूल्य इसी में निहित भी नहीं है। शैतान जिन मार्गों और तरीकों से लोगों को भ्रष्ट करता है वे उन्हें एक लक्ष्य के रूप में देह की संतुष्टि और वासना में लिप्त होने के लिए प्रेरित करते हैं। इस तरह, शैतान लोगों को सुन्न कर देता है, उन्हें लुभाता और भ्रष्ट कर देता है और उन्हें उस लक्ष्य की ओर ले जाता है जिसे वे खुशी मानते हैं। लोगों का मानना है कि उन चीजों को पाने का मतलब खुशी पाना है, इसलिए लोग उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सब कुछ करते हैं। फिर, जब वे इसे पा लेते हैं, तो उन्हें खुशी नहीं बल्कि खालीपन और दर्द महसूस होता है। इससे सिद्ध होता है कि यह सही मार्ग नहीं है; यह मृत्यु का रास्ता है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग अविश्वासियों की तरह इस मार्ग पर क्यों नहीं चलते? परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों को क्या खुशी मिलती है? यह खुशी और अविश्वासी लोग जिस खुशी को पाने की कोशिश करते हैं उसमें क्या अंतर है? परमेश्वर में विश्वास करने के बाद अधिकांश लोग अकूत दौलत पाने की कोशिश नहीं करते। वे सांसारिक समृद्धि, करियर की सफलता या प्रसिद्धि की तलाश नहीं करते हैं। बल्कि वे चुपचाप अपने कर्तव्य निभाने में व्यस्त रहते हैं, सादगी से रहते हैं और अपने जीवन की गुणवत्ता के लिए बहुत अधिक अपेक्षा नहीं करते हैं। कुछ लोग खाने के लिए भोजन और पहनने के लिए कपड़ों से ही संतुष्ट रहते हैं। ऐसी अंधेरी और बुरी दुनिया में, वे फिर भी ऐसा रास्ता क्यों चुन पा रहे हैं? क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले सभी भाई-बहनों में बड़ी कमाई करने की क्षमता नहीं है? बिल्कुल नहीं। क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, ये लोग कमोवेश पहले से ही अपने दिल की गहराइयों में महसूस करते हैं कि परमेश्वर का अनुसरण करना ही सबसे बडी खुशी है और इस खुशी को दुनिया की किसी भी भौतिक चीज से बदला नहीं जा सकता है। कुछ लोगों ने कोशिश भी की है; उन्होंने कई वर्षों तक संसार में कष्ट सहे हैं और उन्हें यह थका देने वाला और कठिन लगता है। हालाँकि उन्होंने थोड़ा पैसा कमाया और दैहिक सुखों का अनुभव भी लिया, लेकिन वे सम्मान के बिना रहते थे और उनका जीवन अधिक से अधिक खाली और कड़वा हो गया। उन्हें लगा कि इस तरह जीने से तो मौत ही बेहतर है। ये लोग ये चीजें पहले ही देख चुके हैं। वे केवल इसलिए परमेश्वर में विश्वास नहीं करते क्योंकि उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है, बल्कि वे वास्तव में महसूस करते हैं कि : परमेश्वर का अनुसरण करना और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना, साथ ही अपना पूरा जीवन परमेश्वर को समर्पित करना और उसकी खातिर खुद को खपाना, उनके दिल के लिए सबसे बड़ा सुकून है और उनके पूरे जीवन में सबसे महान चीजें हैं; परमेश्वर की प्राप्ति और सत्य की प्राप्ति सबसे बड़ी खुशी है और यही चीज लोगों के दिलों को सबसे अधिक शांत, हर्षित और स्थिर बनाती है। वे पहले ही इस खुशी को अनुभव कर चुके हैं; यह काल्पनिक नहीं है। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर के चुने हुए कुछ लोगों ने पहले से ही कुछ विपत्तियों और परीक्षणों का अनुभव किया है, सत्य को समझा है और कई चीजें देखी हैं। उन्होंने पुष्टि की है कि परमेश्वर में विश्वास करना और सत्य का अनुसरण करना ही सही मार्ग है, दुनिया में कोई अन्य मार्ग स्वीकार्य नहीं है और केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं—और वे इस मार्ग पर चल पड़े हैं। ऐसे व्यक्ति में सच्ची आस्था होती है और उनकी वर्षों की पीड़ा व्यर्थ नहीं जाती। भले ही वे जिन अनुभवजन्य गवाहियों की बात करते हैं वे गहरे हों या सतही, एक बात स्पष्ट है : यदि तुम उन्हें परमेश्वर में विश्वास करने से रोकने और उन्हें संसार में वापस लाने की कोशिश करते हो, तो वे कभी भी उस रास्ते पर नहीं जाएँगे। भले ही संसार में सोने का एक लुभावना पहाड़ होता, जो उस समय उन्हें लुभा सकता, फिर भी वे सोचते : “सोने-चाँदी का पहाड़ पाने से मुझे उतनी खुशी नहीं मिलेगी जितनी खुद को परमेश्वर के लिए खपाने और अपना कर्तव्य निभाने से मिलेगी। यदि मुझे सोने-चाँदी का खजाना मिल जाए तो मैं उस क्षण भले ही बहुत प्रसन्न हो जाऊँगा, लेकिन मेरे दिल में पीड़ा और वेदना होगी, इसलिए चाहे कुछ भी हो, मैं वह मार्ग नहीं अपना सकता। परमेश्वर को खोजना आसान नहीं था; अगर मैं दोबारा वापस जाऊँ, तो परमेश्वर को खोजने कहाँ जाऊँगा? परमेश्वर का अनुसरण करने का अवसर बहुत मुश्किल से मिलता है! ज्यादा समय नहीं है और समय तो क्षणिक है—वास्तव में यह एक दुर्लभ मौका है!” उन्होंने परमेश्वर के प्रकटन और कार्य को देखा है और परमेश्वर को समझना डूबते को तिनके का सहारा के समान है। मुझे बताओ, डूबते हुए व्यक्ति को जब जीवनरक्षक तिनके का सहारा मिलता है तो उसे क्या महसूस होता है? (उसे लगता है कि जीवित रहने की उम्मीद दिखी है, इसलिए वह इसे कसकर पकड़े रहता है और कभी छूटने नहीं देते।) वह ऐसा ही महसूस करता है। जब वह उस तिनके को पकड़ लेता है तो क्या सोचता है? “मुझे अब मरना नहीं है, आखिरकार जीने की उम्मीद दिखी है! मृत्यु निकट आने पर, अगर जीने की जरा सी भी आशा है, तो मैं हार नहीं मान सकता, भले ही मुझे अपनी सारी शक्ति लगानी पड़े। चाहे यह कितना भी कठिन या दर्दनाक क्यों न हो, मैं इसे जाने नहीं दे सकता। भले ही मैं अपनी आखिरी साँस ले रहा हूँ, मुझे उस तिनके को थामे रहना होगा।” जब कोई महसूस करता है कि उसे जीवित रहने की आशा है, तो क्या उसे खुशी नहीं होती? अब, जब तुम लोग शांति से सोचते हो, मनन करते हो, प्रार्थना करते हो या आध्यात्मिक भक्ति में मग्न हो जाते हो और तुम लोगों को एहसास होता है कि परमेश्वर का अनुसरण करने से तुम्हें कितना लाभ हुआ है, तो क्या तुम्हारे मन में खुशी की भावना पैदा नहीं होती है? अपनी सच्ची भावनाएँ बताओ। (यदि हमने मसीह का अनुसरण नहीं किया होता, तो हम पहले से ही संकट में होते और परिणाम अकल्पनीय होते। अब परमेश्वर के वचन खाने-पीने और अपना कर्तव्य निभाने से हमने कई सत्यों को समझ लिया है। हमने सच्ची आस्था प्राप्त कर ली है और हम अपने दिलों में परमेश्वर का भय भी मान सकते हैं; हमने परमेश्वर के प्रति समर्पण करना सीखा है। हमने बहुत कुछ हासिल किया है और हम परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए बहुत आभारी हैं।) सही बात है। तुम लोगों ने परमेश्वर का अनुसरण करके और अपना कर्तव्य निभाकर बहुत कुछ हासिल किया है। यही मनुष्य के लिए परमेश्वर की सौगात है। तुम लोगों को उचित रूप से परमेश्वर का आभारी होना चाहिए और उसकी स्तुति करनी चाहिए।

जब परमेश्वर में सच्ची आस्था रखने वाले लोगों को समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो वे सत्य की खोज कर सकते हैं, और थोड़ा अनुभव करने के बाद वे कुछ सत्य पा सकते हैं। इन सत्यों से मिलने वाली खुशी भौतिक चीजों और सुख-सुविधाओं को मात देने के लिए पर्याप्त है। जहाँ तक उन चीजों का सवाल है, जितना अधिक तुम उन चीजों को प्राप्त करते हो, तुम उतने ही कम संतुष्ट होते हो और अच्छे-बुरे को पहचानने में उतने ही कम सक्षम होते हो। लेकिन जितनी अच्छी तरह से लोग सत्य को समझेंगे और जितना अधिक वे इसे प्राप्त करेंगे, उतना ही अधिक वे परमेश्वर को धन्यवाद देना और उसका आभारी होना सीखेंगे, उतनी ही अधिक उनके दिलों में परमेश्वर से प्रेम करने की प्यास होगी और उतना ही अधिक वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करेंगे और उसका भय मानेंगे। यही सच्ची खुशी है। भौतिक सुखों को पाने की कोशिश करने से लोगों को क्या हासिल होता है? खालीपन और पथभ्रष्टता; इससे केवल भौतिक चीजों को पाने की उनकी कोशिश और इच्छा ही बढ़ सकती है। रुतबे, प्रसिद्धि और लाभ का प्रलोभन छोड़ना लोगों के लिए मुश्किल होता है। तो, परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग इन भौतिक सुखों को कैसे छोड़ सकते हैं? क्या यह उपलब्धि दैनिक प्रार्थना और आत्म-संयम से प्राप्त होती है? (नहीं, यह उपलब्धि इन चीजों की असलियत जानने से प्राप्त होती है।) कोई व्यक्ति इनकी असलियत कैसे जान सकता है? (एक ओर परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से तो दूसरी ओर व्यक्ति के अपने अनुभवों और एहसासों और धीरे-धीरे कुछ सत्यों को समझ पाने से इन चीजों की असलियत जानी जा सकती है।) तुम सत्य को समझते हो, इसलिए इन चीजों को छोड़ सकते हो और यह दर्शाता है कि तुमने सत्य को स्वीकार लिया है। मन की गहराई में तुमने परमेश्वर के वचनों को स्वीकार लिया है—उसने मनुष्य से जो कहा है और वह मनुष्य से जो अपेक्षा करता है वह स्वीकार लिया है—और यह तुम्हारी वास्तविकता बन गई है। क्या यह वास्तविकता तुम्हारा जीवन है? यह पहले ही तुम्हारा जीवन बन चुकी है। अपना कर्तव्य निभाते हुए तुमने अनजाने में ही सत्य को अपने जीवन के रूप में प्राप्त कर लिया है। यह संभव है कि तुम्हें अभी तक इसका कोई एहसास नहीं है, तुम्हें लगता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और ऐसी कई चीजें हैं जिन्हें तुम नहीं समझते हो—लेकिन तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है और यह दर्शाता है कि परमेश्वर का जीवन तुम में पहले ही समाया हुआ है। जीवन में विकास स्वाभाविक है; इसके लिए तुम्हें खास तरीके से महसूस करने की जरूरत नहीं है। भले ही तुम इसे स्पष्ट शब्दों में नहीं बता सकते, लेकिन तुम वास्तव में प्रगति कर चुके हो और बदल चुके हो। इसलिए परमेश्वर के जीवन सत्य को स्वीकार करने के साथ ही साथ तुम्हारा दिल अनजाने में ही परमेश्वर के करीब आ गया है और इसी दौरान निरंतर परमेश्वर तुम्हारी पड़ताल कर रहा है और तुम्हारे दिल को परख रहा है। अब ध्यान से सोचो—क्या यह प्रक्रिया सुखद नहीं है? यह बहुत खुशी की बात है! तुम लोग बहुत भाग्यशाली हो कि तुम अंत के दिनों में जी रहे हो, तुम्हें अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकारने, परमेश्वर का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने का सौभाग्य मिला है। परमेश्वर के वचन सीधे तुम लोगों के भीतर समाहित होते हैं जो तुम्हें सत्य को जीवन के रूप में प्राप्त करने देते हैं। परमेश्वर के वचनों के जीवन की वास्तविकता और सत्य के जीवन की वास्तविकता के कारण क्या मनुष्य का अस्तित्व वास्तव में बहुमूल्य नहीं है? तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तुम लोगों को पता भी नहीं लगा और यह इतना प्रभावशाली बन गया? क्या जीवित रहना धीरे-धीरे और अधिक गरिमामय नहीं हो गया है? सिर्फ इसी समय लोगों को लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करके उन्होंने बहुत कुछ हासिल किया है। कुछ सत्यों को समझने से लोगों में ऐसा बदलाव आ सकता है; पहले उन्हें यह समझ नहीं आता था, लेकिन अब उन्हें सब कुछ स्पष्ट दिखाई देता है। ऐसा लगता है, परमेश्वर के वचनों का सत्य पहले से ही उनमें उनका जीवन बन चुका है। सत्य दिल में जड़ें जमाता है और फल देने के लिए खिलता है—यही जीवन है; यह सत्य को समझने का फल है और इसे किसी भी चीज से बदला नहीं जा सकता। जब तुम लोग बाद में कुछ अनुशासन, ताड़ना और न्याय का अनुभव करते हो और उन्हें स्वीकार करने और उनके प्रति समर्पित होने में सक्षम होते हो, तो तुम लोग अनजाने में ही कई सत्यों को समझने के बाद परमेश्वर को जान पाते हो और फिर तुम लोगों का जीवन उत्तरोत्तर प्रगति करेगा। क्या यह धीरे-धीरे प्रगति करना नहीं है? क्या तुम लोग भी उस दिन का इंतजार कर रहे हो? (बिल्कुल।) तब तुम लोगों को सत्य प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।

अंश 93

जिन लोगों को सत्य की समझ नहीं है, वे लोग चीजें करते समय किस बात पर भरोसा करते हैं? वे मानवीय तरीकों, मानवीय बुद्धि और कुछ हद तक मानवीय चतुरता पर भरोसा करते हैं। जब इन चीजों के प्रयोग से कार्य पूरा हो जाता है, तो लोग अहंकारी हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनके पास पूँजी है और वे अपनी वरिष्ठता की शेखी बघार सकते हैं और उसका दिखावा कर सकते हैं। इसे समझ की कमी होना कहते हैं। वास्तव में, उन्हें पता ही नहीं होता कि उन्होंने जो किया है वह वाकई परमेश्वर के इरादों के अनुसार है भी या नहीं। उन्हें यह बात समझ नहीं आती है, उनमें अंतर्दृष्टि की कमी होती है। इसलिए, जब अचानक उनके साथ कुछ बुरा घटता है, तो ऐसे लोग बाल की खाल निकालने लगते हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय जब वे गलतियाँ करते हैं और उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे औरों पर दोष मढ़ते हुए बाहरी कारणों की तलाश करते हैं। वे खराब परिस्थितियों को दोष देते हैं, और उस समय चीजों के बारे में ठीक से न सोचने के लिए खुद को दोषी ठहराते हैं। वे सिर्फ बाहरी कारणों की तलाश करते हैं; वे यह स्वीकार नहीं करते कि उन्हें सत्य की समझ नहीं है, या वे सत्य सिद्धांतों को नहीं समझ पाए हैं। उनके निराश हो चुके दिलों में परमेश्वर के बारे में गलतफहमी भरी हुई है, और उनका मानना है कि परमेश्वर ने उनका खुलासा कर दिया है। क्या यह मामला वाकई ऐसा है? अपना कर्तव्य निभाते समय वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करते हैं। वे ऐसी चीजें करते हैं जिनका सिद्धांतों और सत्य से कोई संबंध नहीं है। कितने दयनीय हैं ये लोग! ऐसे लोग समर्पण के बिना अपना कर्तव्य निभाते हैं; उनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें कोई वफादारी या भक्ति है, तो परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का तो सवाल ही नहीं उठता। वे चीजें करने के लिए लगातार मानवीय तरीकों पर भरोसा करते हैं, और सिर्फ बाहरी तौर पर कार्य और प्रयास करते हैं, लेकिन अंत में, वे फिर भी सत्य को समझने से चूक जाते हैं। क्या इन लोगों के जीवन स्वभाव में बदलाव आते हैं? क्या परमेश्वर से उनके संबंध सामान्य होते हैं? क्या परमेश्वर के प्रति उनके समर्पण और उसका भय मानने में कोई सुधार आता है? (नहीं।) उनके जीवन में कोई सुधार नहीं आता है। उनके भ्रष्ट स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आता है। बल्कि वे अधिक मक्कार और कपटी हो जाते हैं, वे अधिक धूर्त तरीकों का प्रयोग करने लगते हैं और बेहद अहंकारी हो जाते हैं। भले ही उन्हें किसी भी स्थिति का सामना क्यों न करना पड़े, वे फिर भी शैतान के फलसफे के अनुसार जीवन जीते हैं, लगातार अपने अनुभवों और सीखे हुए सबक का मूल्यांकन करते रहते हैं, इस बात का ध्यान रखते हैं कि कहाँ उनका नैतिक पतन हुआ और कहाँ वे चूक गए, और दोबारा नैतिक पतन और चूक से बचने के लिए उन्हें कौन से सबक सीखने चाहिए। वे हमेशा बस इसी तरह से अपने अनुभवों और सबक का मूल्यांकन करते हैं, लेकिन सत्य की तलाश बिल्कुल नहीं करते। क्या शैतान के फलसफे के अनुसार जीवन जीते हुए कोई अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकता है? अगर ऐसे लोग अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं त्याग सकते हैं तो क्या वे उद्धार पा सकते हैं? इन बातों को समझने से चूकना खतरनाक है, जहाँ परमेश्वर में विश्वास करने के सही रास्ते पर प्रवेश करने का कोई तरीका नहीं है। कई वर्षों तक ऐसे भ्रमित तरीके से परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, क्या उन्हें सत्य की प्राप्ति हो सकती है? क्या उनकी अंतरात्मा और समझ कभी सामान्य हो सकती हैं? क्या वे सामान्य मानवता का जीवन जी सकते हैं? (नहीं।) हो सकता है कि इस तरह से अनुभवों और सबक का मूल्यांकन करने और उसके अनुसार अपने व्यवहार में बदलाव लाने से गलतियाँ कम होने लगें, लेकिन क्या इसे सत्य का अभ्यास करना माना जाएगा? (नहीं।) क्या यह व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? (नहीं।) क्या ऐसे व्यक्ति के दिल में परमेश्वर के लिए जगह होती है? (नहीं।) सत्य या परमेश्वर के लिए सम्मान के बिना कार्य करने वाले लोग छद्म-विश्वासी होते हैं, जो परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने में असमर्थ हैं। क्या तुम सब ऐसे लोगों को पहचान सकते हो?

जब कोई कुछ करता है, चाहे वह अपना कर्तव्य निभा रहा हो या व्यक्तिगत मामलों का ध्यान रख रहा हो, तो इस बात पर ध्यान दो कि वह किस दिशा में ध्यान केंद्रित कर रहा है। अगर वह सांसारिक आचरण के फलसफों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, तो यह दर्शाता है कि वह सत्य से प्रेम नहीं करता या उसका अनुसरण नहीं करता। अगर व्यक्ति के साथ चाहे जो हो जाए, वह सत्य की ओर बढ़ने का प्रयास करता है, अगर वह यह सोचते हुए अपने चिंतन में हमेशा सत्य की ओर बढ़ता है : “क्या ऐसा करना परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होगा? परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं? क्या ऐसा करना परमेश्वर के प्रति पाप करना है? क्या यह उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाएगा? क्या इससे परमेश्वर को ठेस पहुँचेगी? क्या परमेश्वर इससे घृणा करेगा? क्या ऐसा करने में समझदारी है? क्या इससे कलीसिया के काम में बाधा या रुकावट आएगी? क्या इससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचेगा? क्या यह परमेश्वर के नाम को लज्जित करेगा? क्या यह सत्य का अभ्यास करना है? क्या यह बुराई करना है? परमेश्वर इसके बारे में क्या सोचेगा?” अगर वह हमेशा इन प्रश्नों पर विचार करता रहता है, तो यह किस बात का संकेत है? (यह इसका संकेत है कि वह सत्य की खोज और उसका अनुसरण कर रहा है।) यह सही है। यह इस बात का संकेत है कि वह सत्य की खोज कर रहा है और उसके हृदय में परमेश्वर है। जिन लोगों के दिलों में परमेश्वर नहीं है, वे अपने ऊपर आने वाली मुसीबतों से कैसे निपटते हैं? (वे अपनी बुद्धि और गुणों के आधार पर कार्य करते हैं, जिसका परमेश्वर से कोई संबंध नहीं होता, और उनके क्रियाकलापों में उनके अपने इरादे खास तौर पर मिले हुए होते हैं।) वे न सिर्फ अपने इरादे मिलाते हैं, बल्कि अपने इरादों के अनुसार कार्य करते समय वे अपनी जांच या आत्म-चिंतन बिल्कुल नहीं करते हैं। वे हठपूर्वक अपने तरीकों पर कायम रहते हैं और उसमें कोई रियायत नहीं देते। वे अपनी मर्जी से चीजें करते हैं, परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हैं और सत्य की तलाश नहीं करते हैं। परमेश्वर से उनका कोई वास्ता नहीं होता है। क्या ऐसे लोगों के लिए गलत कार्य करना और परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाना आसान नहीं है? क्या यह बेहद खतरनाक नहीं है? सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग जैसा आचरण करते हैं और जैसा स्वभाव प्रकट करते हैं, उनके संबंध में अपने दैनिक जीवन में कौन से लक्षण दर्शाते हैं? (वे उतावलेपन और असंयमित तरीके से कार्य करते हैं, दूसरों को नीची नजर से देखते हैं, वे खास तौर पर अहंकारी और हठी हो जाते हैं, और एकतरफा फैसले लेते हैं।) उनमें मुख्य तौर पर ये चीजें होती हैं : वे अहंकारी, दंभी, अत्यधिक उतावले, हठी और असंयमित होते हैं; वे विवेक के बगैर कार्य करते हैं, चीजों को जैसे चाहें वैसे करते हैं और हमेशा जुनूनी और दुष्ट बने रहते हैं। काट-छाँट किए बिना वे अपने तेवर दिखाने लगते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे निराश, प्रतिरोधी, अवज्ञाकारी और विद्रोही बन जाते हैं, और उनकी दानवी प्रकृति पूरी तरह उजागर हो जाती है। सत्य का अनुसरण न करने वाले ये लोग जब कुछ कहते या करते नहीं हैं, तो वे सामान्य लोगों जैसे दिखते हैं। लेकिन जैसे ही वे कुछ करते हैं, उनका भ्रष्ट स्वभाव सामने आ जाता है और वह स्वभाव बर्बर और पाशविक होता है। परमेश्वर के वचनों में ऐसे लोगों को कैसे वर्णित किया गया है? (“तुम लोगों में जो प्रकट होता है, वह अपने माता-पिता से भटके बच्चों का शरारतीपन नहीं है, बल्कि अपने स्वामियों के कोड़ों की पहुँच से बाहर हो जाने वाले जानवरों से फूटकर बाहर आने वाला जंगलीपन है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ क्या है?)।) ऐसे लोगों के प्रकट किए गए स्वभाव को पाशविक कहा जा सकता है, और उनमें सामान्य मानवता की कमी होती है। अगर भीड़ में ऐसे लोग मौजूद हों, तो क्या तुम लोग उन्हें अलग से पहचान सकोगे? (थोड़ा सा।) सत्य की तलाश करने और न करने वालों के व्यवहार और प्रकटन में जमीन-आसमान का फर्क होता है। समझ की कमी, अंतरात्मा की आवाज की कमी और सत्य सिद्धांतों की उपेक्षा करते हुए कार्य करना सत्य की तलाश न करने वालों की स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं। वे बेहूदा और लापरवाह तरीके से कार्य करते हैं और अत्यंत ढीठ होते हैं। सत्य पाने का प्रयास न करने वाले लोग दयनीय और घिनौने दोनों होते हैं। वे स्वयं को मूर्ख बनाते हैं जिससे दूसरे लोगों का कोई फायदा नहीं होता है। अगर वे दूसरों के लिए उपयोगी साबित नहीं होते हैं, तो क्या परमेश्वर उनसे घृणा नहीं करेगा? (हाँ।) क्या उन्हें खुद इस चीज का कोई ज्ञान है? (नहीं।) मैं उन्हें दयनीय क्यों कह रहा हूँ? ऐसा इसलिए क्योंकि वे ऐसे ही हैं, लेकिन उन्हें खुद इस बात का एहसास नहीं है। उनमें मानव सदृशता की कोई झलक नहीं है, लेकिन फिर भी उन्हें लगता है कि वे ठीक हैं, और फिर भी वे आवेशपूर्ण लापरवाही से कार्य करने की जुर्रत करते हैं। क्या यह दयनीय नहीं है? लोगों को पहचानने में देखने योग्य मुख्य चीज यह है कि क्या वे सत्य का अभ्यास करते हैं, सत्य की तलाश करते हैं और सत्य को स्वीकार करते हैं या नहीं। उन्हें पहचानने का और लोगों की सभी श्रेणियों को साफ-साफ देखने का यही सटीक तरीका है।

क्या तुम लोग सत्य पाने का प्रयास करने वालों में से हो? (हमने पहले इसका प्रयास नहीं किया, लेकिन अब हम इसके लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं।) पिछले कुछ वर्षों में जब तुम लोगों ने सत्य सत्य पाने का प्रयास नहीं किया, तब क्या तुम लोगों ने वे ही व्यवहार प्रदर्शित किए जिनके बारे में मैंने अभी-अभी बात की? (हाँ, हमने किए।) जब तुम लोगों ने वे व्यवहार प्रदर्शित किए, तो क्या उस अवस्था में रहते हुए तुम्हारे दिल को दर्द नहीं हुआ? (हाँ, हमें कष्ट हो रहा था, लेकिन हमें इसका एहसास नहीं था।) इसका एहसास न होना कितना दयनीय है! जब व्यक्ति को सत्य की समझ नहीं होती और उसमें सत्य वास्तविकता नहीं होती, तो वह सबसे दयनीय और शोचनीय बात है। इन सत्यों पर अपना विश्वास बनाए रखना, अक्सर उपदेश सुनना, लेकिन फिर भी कुछ हासिल न करना और तब भी शैतान की बेड़ियों में रहकर जीवन जीना, तार्किकता के बिना कार्य करना और बोलना, स्पष्टतः मानवता से विहीन है—कितना दयनीय है यह! इसलिए, सत्य पाने का प्रयास करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है! अब तुम लोगों को इसका एहसास है, है ना? (हाँ, हमें एहसास है।) यह अच्छी बात है कि तुम्हें इसका एहसास है। फिक्र की बात तब होती है जब लोग उदासीन और कुंठित हो जाते हैं, और इस बात का एहसास करने में सक्षम नहीं होते। अगर कोई सत्य पाने का प्रयास नहीं करता है और उसे इसका एहसास नहीं है, तो यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। सबसे अधिक फिक्र की बात तब होती है जब व्यक्ति को इसका एहसास तो होता है, लेकिन फिर भी वह सत्य पाने का प्रयास नहीं करता, और पूरी तरह से पश्चात्तापहीन होता है। यह जानबूझकर किया जाने वाला अपराध है। जो लोग जानबूझकर अपराध करते हैं और सत्य को स्वीकार करने से पूरी तरह इनकार कर देते हैं, वे अपने दिल में दुराग्रही और दुर्भावनापूर्ण होते हैं और सत्य से विमुख हो चुके होते हैं। क्या दुराग्रही लोग परमेश्वर का भय मानने वाले हो सकते हैं? अगर वे परमेश्वर का भय नहीं मानते हैं, तो क्या वे परमेश्वर के साथ अनुकूलता प्राप्त कर सकते हैं? (नहीं।) दुराग्रही लोगों का परमेश्वर के प्रति कैसा रवैया होता है? वे प्रतिरोधी, विद्रोही और पश्चात्तापहीन होते हैं, और वे यह बिल्कुल नहीं मानते कि परमेश्वर ही सत्य है। वे सत्य को स्वीकार नहीं करते और अंत तक परमेश्वर का विरोध करते हैं! ऐसे लोगों का क्या परिणाम होता है? (परमेश्वर उन्हें दंडित करेगा और तबाह कर देगा।) परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता है। क्या बाइबिल में बताए गए 250 अगुआ दुराग्रही और विद्रोही थे? अंत में उनका क्या हाल हुआ? (धरती उन्हें निगल गई।) यही परिणाम होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग कितने समय तक परमेश्वर में विश्वास करते हैं, अगर उन्हें सत्य पाने के प्रयास का महत्व नहीं मालूम है, अगर वे सत्य से घृणा करने और विमुख रहने के दुष्परिणाम नहीं समझते हैं तो उनका परिणाम क्या होगा? उन्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा। नए विश्वासी लोग बेवकूफ और अज्ञानी होते हैं, उन्हें अभी तक यह नहीं पता है कि उचित कार्य कैसे किए जाते हैं या चलने का सही रास्ता क्या है। यही लोगों का दयनीय पहलू है। अगर तुमने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है और तुम अपना कर्त्तव्य निभा सकते हो, और फिर भी तुम सत्य पाने का प्रयास नहीं करते हो, तो यह सिर्फ मजदूरी करना है। अगर तुम वफादारी से अपना कर्त्तव्य निभा सकते हो, खुशी से मजदूरी कर सकते हो, कोई बुरा कार्य नहीं करते हो, और किसी भी तरह के विघ्न या बाधाएँ नहीं डालते हो, तो भले ही तुमने अभी तक सत्य का अनुसरण न किया हो, परमेश्वर फिर भी तुम्हारी निंदा नहीं करेगा क्योंकि तुम अपना कर्त्तव्य वफादारी से निभा सकते हो। लेकिन अगर लोगों को सत्य के कुछ हिस्से की समझ है और वे सत्य के अनुसरण के महत्व को समझते हैं, और फिर भी सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, तो उनके लिए उद्धार प्राप्त करना आसान नहीं होगा। ज्यादा से ज्यादा वे वफादार मजदूर बनकर ही रह सकते हैं। जहाँ तक उन लोगों का प्रश्न है जो मजदूरी नहीं करना चाहते, सत्ता और लाभ के लिए मुकाबला करते हैं और कलीसिया के जीवन और कार्य में बाधा डालते हैं, उनका परिणाम तय हो चुका है। उनका पहले से ही सर्वनाश हो चुका है और वे मृत्यु का इंतजार कर रहे हैं। उन्हें आने वाले परिणाम के लिए तैयार हो जाना चाहिए!

अंश 94

परमेश्वर में अभी-अभी विश्वास शुरू करने वाले कुछ लोग अक्सर नकारात्मक और कमजोर होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य नहीं समझते, उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और उनमें परमेश्वर में आस्था से संबंधित विभिन्न सत्यों की कोई समझ नहीं होती। इसलिए वे मानते हैं कि उनकी क्षमता कमजोर है, वे आगे बढ़ने में अक्षम हैं, उन्हें बहुत सारी कठिनाइयाँ हैं—जिसके कारण नकारात्मकता जन्म लेती है और वे हार तक मान लेते हैं : वे कोशिशें छोड़ देने, सत्य का अनुसरण बंद करने का फैसला करते हैं। वे खुद को खुद ही निकाल देते हैं। वे यही सोचते हैं, “कुछ भी हो, परमेश्वर उसमें मेरे विश्वास को स्वीकार नहीं करेगा। परमेश्वर मुझे पसंद भी नहीं करता। और मेरे पास सभाओं में जाने के लिए ज्यादा समय नहीं है। मेरा पारिवारिक जीवन कठिन है और मुझे पैसे कमाने की जरूरत है,” वगैरह-वगैरह। इन्हीं सब कारणों से वे सभाओं में नहीं जाते। अगर तुम जल्दी से नहीं पता लगाते कि क्या चल रहा है तो शायद तुम उन्हें सत्य से प्रेम नहीं करने वाला, और परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं रखने वाला व्यक्ति समझ लोगे या उन्हें देह के सुखों का लालची, दुनिया का अनुसरण करने वाला और सांसारिक चीजों को न छोड़ पाने वाला समझ लोगे—और इसकी वजह से तुम उन्हें त्याग दोगे। क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या ये कारण वास्तव में उनकी प्रकृति सार दर्शाते हैं? असल में, वे अपनी कठिनाइयों और उलझनों के कारण निराश हो जाते हैं; अगर तुम इन समस्याओं का हल निकाल सकते हो, तो वे इतने नकारात्मक नहीं रहेंगे और परमेश्वर का अनुसरण कर सकेंगे। जब वे कमजोर और नकारात्मक होते हैं, तो उन्हें लोगों के सहारे की जरूरत होती है। अगर तुम उनकी सहायता करोगे, तो वे फिर अपने पैरों पर खड़े हो सकेंगे। लेकिन अगर तुम उन्हें नजरअंदाज करते हो, तब उनके लिए नकारात्मकता के कारण हार मानना आसान हो जाएगा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि जो लोग कलीसिया के कार्य करते हैं उनमें प्रेम है या नहीं, या वे इस बोझ को उठाते हैं या नहीं। कुछ लोग अक्सर सभाओं में नहीं आते, इसका मतलब यह नहीं है कि वे परमेश्वर में सचमुच विश्वास नहीं रखते, यह सत्य को नापसंद करने के बराबर नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं है कि वे देह के सुखों के लिए लालायित हैं, और अपने परिवारों और कार्यों को दरकिनार करने में सक्षम नहीं हैं—उन्हें अत्यधिक भावुक या पैसों का लालची तो और भी कम समझा जाना चाहिए। बात इतनी भर है कि इन मामलों में लोगों का आध्यात्मिक कद और आकांक्षाएँ अलग-अलग होती हैं। कुछ लोग सत्य से प्रेम करते हैं, और सत्य के अनुसरण में सक्षम होते हैं; वे इन चीजों को छोड़ने की तकलीफ सहने के लिए तैयार होते हैं। कुछ लोगों में कम आस्था होती है, और जब असली कठिनाइयों से सामना होता है तो वे कमजोर पड़ जाते हैं और उससे पार नहीं पा सकते। अगर कोई उनकी मदद या सहयोग नहीं करता है तो वे हाथ खड़े कर देंगे और खुद ही हार मान लेंगे; ऐसे समय में, उन्हें लोगों के समर्थन, देखरेख और सहायता की जरूरत होती है। ऐसा तब होता है जब तक वे छद्म-विश्वासी न हों, सत्य के प्रति प्रेम रहित न हों और बुरे व्यक्ति न हों—ऐसे मामलों में उन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है। अगर वे कोई ऐसे व्यक्ति हैं, जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, और अक्सर कुछ वास्तविक कठिनाइयों के चलते सभाओं में नहीं जाते, तो उन्हें छोड़ा नहीं जाना चाहिए, बल्कि प्रेम के साथ सहयोग और मदद दी जानी चाहिए। अगर वे अच्छे व्यक्ति हैं, और समझने की योग्यता रखते हैं, अच्छे क्षमतावान हैं, तो वे और अधिक मदद और सहयोग पाने के योग्य हैं।

अंश 95

अपना कर्तव्य निभाते समय कड़ी मेहनत करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि तुम्हें इसमें पूरा मन भी लगाना होगा। अपनी पूरी कोशिश करने का एक ही तरीका है कि तुम पूरे मन से काम करो। अगर तुम्हारा मन इसमें नहीं है, तो तुमने अपना पूरा प्रयास नहीं किया है। अगर तुम केवल पूरी ताकत झोंकते हो लेकिन मन नहीं लगाते, तो तुम अपना मन लगाए बिना केवल कड़ी मेहनत कर रहे हो। अपने कर्तव्य पूरे करने का यह तरीका परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं है। अपना कर्तव्य निभाते समय, तुम्हें परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए हमेशा अपने मन, अपनी ताकत और अपने दिमाग से अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए। अगर तुम केवल आधी ताकत लगाओगे और आधी बचा लोगे, यह सोचते हुए कि “मैं थकना नहीं चाहता; अगर मैं थक जाऊँगा तो मेरा भरण-पोषण कौन करेगा?” क्या यह सही प्रवृत्ति है? (नहीं।) क्या इस तरह की मानसिकता के साथ अपने कर्तव्य निभाने पर तुम्हें कोई नुकसान होगा? (हाँ।) किस तरह का नुकसान? (परमेश्वर मुझसे अत्यंत घृणा करेगा और मैं धीरे-धीरे पवित्र आत्मा का कार्य खो दूंगा।) पवित्र आत्मा का कार्य नहीं होना एक नुकसान है। अगर लोग कई वर्षों तक पवित्र आत्मा का कार्य किए बिना परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो उनका नुकसान इतना बड़ा हो जाएगा है कि उन्हें कुछ नहीं मिलेगा। यह ऐसा होगा मानो वे व्यर्थ ही विश्वास करते रहे हों। ऐसे बहुत से लोग हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते और वे कुछ वर्षों तक विश्वास करने के बाद निकाल दिए जाते हैं। यानी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अपना कर्तव्य निभाते समय तुमने कितनी मेहनत की, अगर तुमने इसे मन से नहीं किया, तो तुम सत्य प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो सकोगे। क्या यह कोई नुकसान है? क्या तुम लोगों को एहसास है कि यह नुकसान है? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो, जो वाकई सत्य को समझता है, तो तुम यह देख सकते हो कि यह नुकसान बहुत बड़ा है। जो लोग पाँच-दस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते आए हैं, उनमें से कुछ ने सत्य वास्तविकता को प्राप्त कर लिया है, जबकि दूसरे अभी भी परमेश्वर के वचनों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दे रहे हैं। क्या यह कोई बड़ा अंतर है? (हाँ।) जिन्होंने सत्य वास्तविकता को प्राप्त कर लिया है, उन्होंने इसे कैसे हासिल किया? यह अनुभव और अभ्यास से आता है। क्या इसे परमेश्वर ने दिया है? (हाँ।) जिन्होंने सत्य वास्तविकता को प्राप्त नहीं किया और अभी भी परमेश्वर के वचनों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दे रहे हैं, उनके साथ क्या हो रहा है? उन्हें कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने पर भी अब तक सत्य प्राप्त नहीं हुआ है, क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और अपना कर्तव्य निभाने में केवल अपनी ताकत लगाते हैं, अपना मन नहीं लगाते। परमेश्वर में विश्वास करना और सत्य को प्राप्त न कर पाना आशीष है या अभिशाप? (यह अभिशाप है।) यह अभिशाप क्यों है? क्या तुम इसके आर-पार देख सकते हो? तुम सत्य को प्राप्त नहीं कर पाए हो, यह तथ्य बड़ी समस्या है या छोटी? (एक बड़ी समस्या है।) यह बड़ी समस्या किस चीज से जुड़ी है? क्या इसका उद्धार से कुछ संबंध है? (हाँ।) जब तुम दिनभर परमेश्वर के वचनों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हो तो इसका क्या मतलब है? यह बचाए जाने पर प्रश्नचिह्न लगाता है और इसे प्राप्त करना मुश्किल बना देता है। दस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने वाले कुछ लोग अभी भी परमेश्वर के वचनों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दे रहे हैं। दूसरे कुछ लोग बीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते आए हैं और सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाए हैं और अभी तक नहीं जानते हैं कि सत्य वास्तविकता का क्या अर्थ है। क्या ये लोग खतरे में हैं? क्या यह अस्पष्ट है कि उन्हें बचाया जा सकेगा या नहीं? (हाँ।) मुझे बताओ, समान वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों में से किस प्रकार के व्यक्ति का उद्धार होने की संभावना और उम्मीद अधिक है? उसकी जो परमेश्वर के वचनों और सिद्धांतों का उपदेश देता है या उसकी जिसके पास सत्य वास्तविकता है? (जिन लोगों के पास सत्य वास्तविकता है।) यह स्पष्ट है। तो फिर तुम लोग किस तरह के व्यक्ति बनना चाहते हो? (जिन लोगों के पास सत्य वास्तविकता है।) कोई ऐसा व्यक्ति कैसे बन सकता है जिसके पास सत्य वास्तविकता है? (वास्तव में परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करके।) (अपने पूरे मन, पूरी ताकत और बुद्धि से परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार कर्तव्य निभाकर और उसे संतुष्ट करने में कोई कसर बाकी न छोड़कर।) यह सही है। अगर तुम वही करते हो, जो परमेश्वर तुमसे करने के लिए कहता है, तो तुम सत्य प्राप्त कर लोगे। यह किस से संबंधित है? यह व्यक्ति के परिणाम और गंतव्य से संबंधित है। कुछ लोग बेवकूफ और दंभी होते हैं, और वे यह भी नहीं जानते कि उन्होंने कितना खोया है, या उन्हें कितना नुकसान झेलना पड़ा है। वे बेलगाम होकर परमेश्वर के वचनों तथा धर्म-सिद्धांतों का उपदेश बघारते रहते हैं और फिर भी नहीं जानते कि वे खतरे के कगार पर हैं! जिन्हें बचाया नहीं जा सकता, उनका अंत क्या है? सबसे पहले, वे परमेश्वर द्वारा निकाल दिए जाएँगे और, इससे भी आगे जाकर देखें तो उनका क्या अंत है? (तबाही और विनाश।) यही उनका परिणाम है, यही उनका गंतव्य है। अगर लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उनका ऐसा अंत होता है, तो क्या उस पर विश्वास करने का उनका मूल इरादा यही है? (नहीं।) कोई ऐसा अंत नहीं चाहता। अगर तुम ऐसा अंत नहीं चाहते, तो उस मार्ग का अनुसरण मत करो। तुम्हें सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलना चाहिए और केवल तभी तुम उद्धार पा सकोगे।

अगर लोग अंतिम दिनों में कार्य करने का मौका पाने में अक्षम हैं, वे पूरी तरह खत्म हो जाएँगे और उन्हें दूसरा अवसर नहीं मिलेगा। यह अनुग्रह के युग में कार्य करने जैसा नहीं है, जहाँ अगर किसी व्यक्ति ने इसे प्राप्त नहीं किया, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका जन्म किस देश में हुआ, वे अभी भी अंतिम दिनों में परमेश्वर का कार्य प्राप्त करने के अवसर के लिए प्रतीक्षा कर सकते थे। अंतिम दिनों में परमेश्वर का कार्य का अंत होना उसकी प्रबंधन योजना का अंत है, और इस अंत का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि वह प्रत्येक व्यक्ति के अंत का निर्धारण करने जा रहा है, और सभी चीजों का तथा मानव जाति का अंत निकट है। परमेश्वर का कार्य इस चरण में पहुँच चुका है, और अगर लोगों के हृदय में यह दृष्टि नहीं है, अगर वे हमेशा असमंजस में रहते हैं और अनमने ढंग से अपना कर्तव्य निभाते हैं, अगर वे सत्य का गंभीरता से अनुसरण करने में विफल रहते हैं और सोचते हैं कि अगर वे विश्वास करते रहेंगे तो वे बचा लिए जाएँगे, तो वे उद्धार का अंतिम मौका चूक जाएँगे। एक दिन जब बड़ी विपदाएँ आएँगी और परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से खत्म हो जाएगा तो परमेश्वर लोगों के सिंचन और उन्हें सत्य का पोषण देने का कार्य आगे से नहीं करेगा। क्या तुम जानते हो कि उस समय परमेश्वर किस प्रकार के स्वभाव के साथ मानवजाति का सामना करेगा? उसका रोष बहुत अधिक होगा और उसका धार्मिक स्वभाव पूरी मानवजाति पर अभूतपूर्व तरीके से प्रकट होगा। यह मानवजाति के लिए आखिरी बड़ी तबाही होगी। अब वह समय आ गया है जिसमें परमेश्वर लोगों को बचाने का कार्य कर रहा है। वह धैर्यवान है, सहनशील है और प्रतीक्षा कर रहा है। किस की प्रतीक्षा? वह अपने पहले से निश्चित किए हुए लोगों, अपने चुने हुए लोगों की प्रतीक्षा कर रहा है, वह जिन्हें बचाना चाहता है उनकी यह प्रतीक्षा कर रहा है कि वे उसके सामने आएँ, उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करें, और उसका उद्धार स्वीकार करें। जब इन लोगों को पूर्ण बना लिया जाएगा तो परमेश्वर का महान कार्य पूरा हो जाएगा और तब परमेश्वर मानवजाति को बचाने का कार्य नहीं करेगा। यह नूह का समय नहीं है, न ही यह सदोम के विनाश या संसार के सृजन का समय है। बल्कि यह दुनिया के खत्म होने का समय है। कुछ लोग अभी भी सपने देख रहे हैं, वे नहीं जानते कि परमेश्वर का उद्धार का कार्य किस चरण में पहुँच चुका है। भले ही उन्होंने परमेश्वर के प्रकटन और कार्य को प्राप्त किया है, फिर भी उन्हें कोई जल्दी नहीं है, वे असमंजस में पड़े रहते हैं और इसे गंभीरता से नहीं लेते। जब कार्य का यह चरण पूरा हो जाएगा तो किसी व्यक्ति का परिणाम जो भी रहे उसे स्वीकारना पड़ेगा, और यह नहीं बदलेगा। मनुष्य मूर्ख है और अभी भी सोचता है, “कोई बात नहीं, परमेश्वर हमें अगला अवसर देगा!” अवसर परमेश्वर के कार्य के दौरान दिए जाते हैं। जब यह युग पूरा हो जाएगा तो दूसरा अवसर कैसे मिलेगा? क्या यह सिर्फ सपना नहीं है?

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