21. एक गलत रिपोर्ट
एक साल से ज्यादा समय से परमेश्वर ने झूठे अगुआओं के भेद की पहचान के सत्यों पर संगति की है। सभाओं में मैं अक्सर इस बारे में अपनी समझ और ज्ञान पर संगति करता था, लेकिन वास्तविक जीवन में मैं झूठे अगुआओं का भेद नहीं पहचान पाता था। जब मुझे किसी अगुआ की वास्तविक काम न करने की जरा भी अभिव्यक्ति दिखती थी, मैं आँख मूँदकर उसे झूठा अगुआ कहकर उसकी निंदा करता था। नतीजा यह कि न केवल मैं कलीसिया के काम की रक्षा करने में विफल रहा बल्कि मैंने काम में लगभग व्यवधान भी पैदा किया। इस विफलता ने मुझे एक सबक सिखाया जिससे मुझे झूठे अगुआओं के भेद की कुछ पहचान मिली।
मैं कलीसिया में सामान्य मामले सँभालता था। मेरी जिम्मेदारी कलीसिया में कुछ वस्तुओं और उपकरणों के प्रबंधन की थी। अपने कर्तव्य के दौरान मैंने पाया कि भाई-बहन इन वस्तुओं का इस्तेमाल ठीक से नहीं कर रहे। इससे प्रबंधन मुश्किल हो गया। मैंने अगुआ बहन मेगन के पास जाकर इन मामलों की सूचना दी। मैंने उसे यह भी याद दिलाया कि वह इन मुद्दों को दूसरों के साथ उठा सकती है और सभाओं में उन पर संगति कर सकती है। एक बार इसे समझने के बाद वह इसे करने के लिए तैयार हो गई। इसके बाद मैंने सभा में मेगन के आने का इंतजार किया, लेकिन काफी इंतजार के बावजूद मैंने उसे कभी किसी सभा में और उनका अनुवर्तन करते नहीं देखा, तो मैं अगुआ पर अटक गया। मैंने सोचा, “इतना वक्त हो गया। उसने इस काम का अनुवर्तन क्यों नहीं किया? एक बार से अधिक इस समस्या के बारे में बताने के बाद भी कभी इसका समाधान नहीं हुआ है। परमेश्वर झूठे अगुआओं के भेद की पहचान से जुड़े सत्य के पहलुओं पर संगति करता रहा है। अगर तुम अनुवर्तन नहीं करतीं, समस्याएँ दूर नहीं करतीं तो तुम झूठी अगुआ हो। मुझे इसकी रिपोर्ट तुम्हारे वरिष्ठों को करनी पड़ेगी। इस तरह तुमसे ऊपर अगुआओं को लगेगा कि मुझमें न्याय की भावना है। यहाँ तक कि वे मेरे बारे में ऊँचा भी सोच सकते हैं!” मगर उस समय तो मैंने इस बारे में बस सोचा, कुछ नहीं किया। बाद में जिस जगह हमने परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें रखी थीं, उसका भाड़े का अनुबंध एक महीने में खत्म होने वाला था, तो किताबों को जल्द से जल्द दूसरी जगह ले जाना था। चूँकि बहुत सारी किताबें थीं और हर बक्सा भारी था तो मेरे लिए उन्हें अकेले ले जाना मुश्किल होता और उसमें बहुत समय लगता। मैं थोड़ा बेचैन था तो मैंने अगुआ से पूछा कि क्या वह मदद के लिए कुछ लोग दिला सकती है। अगुआ हमेशा कहती कि वह लोगों की तलाश कर रही है, लेकिन बहुत लंबे समय तक कोई नहीं आया। आखिरकार दो भाई आए और उन्होंने एक बार ले जाने में मदद की और जल्दी ही चले गए। इससे मुझे बहुत निराशा हुई। मैंने सोचा, “अगुआ को मदद के लिए लोग मिल क्यों नहीं रहे? वह इस काम का अनुवर्तन क्यों नहीं करती? वह आकर देखती क्यों नहीं कि मुझे कितना काम करना है?” जितना मैंने सोचा उतना मुझे गुस्सा आया और मैं अब अगुआ को समस्याएँ नहीं बताना चाहता था, क्योंकि उसे बताना व्यर्थ लगता था। उस दौरान मैं अगुआ से मिलना भी नहीं चाहता था और उसे देखकर बात भी नहीं करना चाहता था। मैंने सोचा, “अगर तुम नहीं ढूँढ़ सकते तो ठीक है। मैं खुद ही कर यह काम कर लूँगा। किसी भी स्थिति में मैं तुम्हारे इस व्यवहार को याद रखूँगा और वक्त आने पर मैं तुम्हारे वरिष्ठों को सब बता दूँगा।” फिर मैंने झूठे अगुआओं के भेद की पहचान के बारे में परमेश्वर के वचनों के एक अंश पर विचार किया : “कलीसियाई कार्य में आने वाली समस्याओं और कठिनाइयों को लेकर भी यही स्थिति है कि नकली अगुआ इन पर भी बिल्कुल ध्यान नहीं देते या इन्हें दरकिनार करने के लिए बस थोड़े-से धर्म-सिद्धांत बघार देते हैं और कुछ नारे दोहरा देते हैं। कार्य की सभी मदों के काम को समझने और उसकी खोज-खबर लेने की कोशिश करने के लिए उन्हें कभी भी कार्यस्थल पर खुद आते हुए कोई नहीं देखेगा। कोई उन्हें वहाँ समस्याओं के समाधान के लिए सत्य पर संगति करते हुए नहीं देखेगा, और उससे भी कम कोई उन्हें वहाँ खुद व्यक्तिगत रूप से कार्य का निर्देशन और निरीक्षण करते हुए, उसमें खामियों और विचलनों को होने से रोकते हुए देखेगा। नकली अगुआ जितने अनमने ढंग से कार्य करते हैं यह उसकी सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। मैंने सोचा, “मेरे अगुआ का व्यवहार वैसा ही है जैसा परमेश्वर के वचनों में वर्णित है। अगर वह मेरे काम की समस्याओं की जाँच कर उन्हें दूर न करे, तो क्या वह झूठी अगुआ नहीं है?” लेकिन मैंने यह भी सोचा कि कैसे समस्याएँ देखकर भी मैंने उन्हें अगुआ को नहीं बताया, न ही मैंने सत्य समझने वाले कई लोगों से इसकी पुष्टि कराई, इसलिए शायद मैं हड़बड़ी में उन्हें झूठी अगुआ नहीं कह सकता था। मैंने सोचा, “क्यों न मैं पहले इस क्षेत्र में और सत्य सिद्धांतों की खोज करूँ, फिर निर्णय लेने से पहले सत्य समझने वाले कई भाई-बहनों से इस पर चर्चा करूँ?” लेकिन उसका व्यवहार ठीक परमेश्वर के वचनों के अनुरूप ही था, तो फिर और क्या खोजना था? मैं अपने विचारों को लेकर आश्वस्त नहीं था, उस पर गलत आरोप भी नहीं लगाना चाहता था, तो मैं ऊहापोह की स्थिति में था कि क्या करूँ। मेरा दिमाग उन छवियों से भरा था कि कैसे अगुआ ने मेरी समस्या का समाधान नहीं किया था। तो बस ऐसे ही मैंने अब सत्य की और खोज नहीं की, परमेश्वर की संगति की पृष्ठभूमि पर विचार नहीं किया और परमेश्वर के वचनों को गलत समझ लिया। मैंने मेगन पर आरोप लगाने और यह मानने के लिए कि वह एक झूठी अगुआ है, सुबूत के तौर पर एक वाक्यांश, एक अकेले व्यवहार को आधार बनाया। इसके बाद मैंने सामान्य कार्य सँभालने वाली कुछ अन्य बहनों को यह कहते सुना कि मेगन अक्सर उनके काम का भी अनुवर्तन नहीं लेती थी और कभी-कभी तो उनके काम में देरी हो जाती थी। यह सुनकर तो मुझे और भी यकीन हो गया, “मेगन कोई वास्तविक काम नहीं करती, काम का अनुवर्तन नहीं करती तो क्या इससे उसका झूठी अगुआ होने का खुलासा नहीं होता? हाल ही में सभाओं में हमने झूठे अगुआओं के भेद की पहचान से संबंधित सत्य के पहलुओं पर संगति की है। विश्वास नहीं होता मुझे ऐसी अगुआ मिल गई। मुझे न्याय की भावना रखकर कलीसिया के काम को बनाए रखना है और इस झूठी अगुआ को उजागर करना है।” लेकिन जब मैंने मेगन के वरिष्ठों को इन समस्याओं की रिपोर्ट करनी चाही तो मुझे झिझक महसूस हुई। मैंने अभी तक इस मुद्दे पर अगुआ से चर्चा नहीं की थी, न ही मैंने इसे खोजा या सत्य की समझ रखने वालों से इसकी कोई चर्चा की थी, क्या यह पूरी तरह आँख मूँदना और मनमानी करना नहीं था? लेकिन तभी मैंने सुना कि मेगन के वरिष्ठ उससे बात करने आए थे और टीम के सभी अगुआओं से उसकी कार्य-कुशलता के बारे में पूछा था। यह सुनकर मैं खुद को रोक नहीं पाया, “किसे पता था कि मेगन के वरिष्ठों को उसकी समस्या के बारे में पहले ही पता चल गया था? अब यह तकरीबन तय था कि वह झूठी अगुआ है।” मैंने सोचा, “मुझे मेगन की समस्याओं के बारे में वरिष्ठों को तुरंत बताना होगा। मुझे अब और खोज करने की जरूरत नहीं है। वरना जब वरिष्ठ जाँच पूरी करके मेगन को बरखास्त कर देंगे, जब वे यह सामने लाएँगे कि उसका भेद किसने पहचाना था, किसने उसकी समस्याएँ पता लगाई थीं और किसने न्याय की भावना से उसकी रिपोर्ट की तो मेरे नाम का जिक्र कहीं नहीं होगा। तो फिर मैं कैसे कह पाऊँगा कि मैंने उसका भेद पहचाना था? मैं अब और इंतजार नहीं कर सकता।” मैंने उतावलेपन में मेगन के वरिष्ठ भाई शॉन से मिलने का समय माँगा और उसकी समस्या उसे बता दी। मैंने कहा, “बतौर अगुआ मेगन मेरे काम का अनुवर्तन नहीं लेती, न ही वह काम में आने वाली मेरी समस्याओं की पूछताछ करती है। हर बार मैं उसे कोई समस्या बताता हूँ, तो वह समाधान नहीं करती।” मैंने उसे झूठे अगुआओं का भेद पहचानने के बारे में परमेश्वर के वचनों का अंश भी दिखाया। मैंने कहा कि झूठे अगुआओं के व्यवहार का जैसा खुलासा परमेश्वर के वचनों में किया गया है, वैसा ही उसका है और मुझे लगता है वह झूठी अगुआ है। मेरी बात पूरी होने पर उसने कहा, “हम पहले ही जाँच कर चुके हैं और मेगन की कुछ समस्याएँ हैं। कुछ कामों का उसने ठीक से अनुवर्तन नहीं किया है और वह अपने कर्तव्य में लापरवाह है। उसकी काट-छाँट की जरूरत है और उसे आत्म-चिंतन करने और इससे सीखने में मदद की आवश्यकता है। लेकिन हमें यह भी पता चला कि पिछले कुछ महीनों से मेगन ज्यादातर सिंचन कार्य ही देख रही है क्योंकि हाल ही में कई नए लोग कलीसिया में शामिल हुए हैं। कुछ धार्मिक पादरी गंभीर गड़बड़ी पैदा कर रहे हैं और इन नवागतों को तत्काल सिंचन की जरूरत है ताकि वे सच्चे मार्ग पर जड़ें जमा सकें। यह फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण और बेहद अहम कार्य है। मेगन अपनी सारी ऊर्जा इस काम में लगाती रही है। सामान्य मामले उतने जरूरी नहीं हैं। जब तक इससे काम बाधित नहीं होता, तब तक अगर उसका अनुवर्तन का काम थोड़ा धीमा भी हो तो कोई बड़ी समस्या नहीं है। चूँकि यह सारा काम एक ही समय पर आया है और हमारे पास स्टाफ की भी कमी है, इसलिए उसे प्राथमिकता तय करनी होगी, इसलिए फिलहाल सामान्य मामलों को टालना पड़ेगा। इसी वजह से मेगन समय पर तुम्हारे काम का अनुवर्तन नहीं ले पाई लेकिन उसने यह निर्णय अपने साथियों के साथ चर्चा के बाद ही लिया। इसके अलावा मेगन पहले एक ही काम की प्रभारी हुआ करती थी। वह नई अगुआ है, इसलिए इतने कामों की जिम्मेदारी एक साथ लेना उसके लिए थोड़ा मुश्किल है। वह कुछ चीजों का अनुवर्तन नहीं ले पाती, इसलिए उसे हमारी मदद और संवाद की जरूरत है।” यहाँ तक कि शॉन ने संबंधित सिद्धांत साझा किए। केवल तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि अधिक महत्वपूर्ण काम को पहले प्राथमिकता दी जानी चाहिए। फिलहाल प्राथमिकता सिंचन कार्य था। वे दूसरे काम तभी कर सकते थे जब सिंचन कार्य प्रभावित न हो। अगर सिंचन कार्य प्रभावित हुआ तो क्या यह महत्वहीन के लिए महत्वपूर्ण काम का त्याग नहीं होगा? हालाँकि मेगन ने कुछ कामों का ठीक से अनुवर्तन नहीं लिया था, ऐसा इसलिए था कि वह अधिक महत्वपूर्ण कार्य को प्राथमिकता दे रही थी, वास्तविक कार्य करने में असमर्थ नहीं थी। मैंने यह समझने का प्रयास नहीं किया कि उसने मेरे काम का अनुवर्तन क्यों नहीं लिया या उसने मेरी उठाई समस्याओं का समाधान क्यों नहीं किया। इसके बजाय मैंने उसके प्रति पूर्वाग्रह विकसित कर लिया, उन पर अपनी नजरें गड़ाकर रखीं, सोचा कि उसने वास्तविक काम नहीं किया और तुरंत उसे एक झूठी अगुआ करार दे दिया। क्या मैं बहुत ज्यादा मनमानी नहीं कर रहा था? इस बिंदु पर शॉन ने मुझसे पूछा, “अगर हमने अभी मेगन को बरखास्त कर दिया तो क्या कलीसिया उसके बदले तुरंत किसी और को ढूँढ़ सकती है? क्या काम जारी रह सकता है?” इस बारे में सोचने पर लगा कि मेगन अभी भी अगुआ बने रहने के लिए उपयुक्त है। शॉन के साथ बातचीत के बाद मुझे बहुत दुख हुआ। पहले मुझे लगता था कि मुझमें न्याय की मजबूत भावना है और मुझे मामले से जुड़े परमेश्वर के वचन भी मिल गए थे और मैंने सत्य खोजने के बाद ही मेगन की रिपोर्ट की है। लेकिन अब पता चला कि मैं सत्य को नहीं समझा था और भेद की मेरी पहचान गलत थी। मुझसे गलती कहाँ हुई थी?
जब मैंने खोजा तो परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “नकली अगुआ या नकली कार्यकर्ता के रूप में किसी का चरित्रांकन पर्याप्त तथ्यों पर आधारित होना चाहिए। यह एक-दो घटनाओं या अपराधों पर आधारित नहीं होना चाहिए, अस्थायी भ्रष्टता के प्रकाशन को इसके आधार के रूप में तो बिलकुल भी इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। किसी के चरित्रांकन का एकमात्र सटीक मानक यह है कि क्या वह वास्तविक कार्य कर सकता है और क्या वह समस्याएँ हल करने के लिए सत्य का उपयोग कर सकता है, साथ ही क्या वह एक सही व्यक्ति है, क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है और परमेश्वर को समर्पित हो सकता है, और क्या उसमें पवित्र आत्मा का कार्य और प्रबुद्धता है। केवल इन्हीं कारकों के आधार पर किसी का एक नकली अगुआ या नकली कार्यकर्ता के रूप में चरित्रांकन सही ढंग से किया जा सकता है। ये कारक यह आकलन और निर्धारण करने के मानक और सिद्धांत हैं कि कोई व्यक्ति नकली अगुआ या नकली कार्यकर्ता है या नहीं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (20))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि झूठे अगुआ का भेद पहचानने के लिए हमें मुख्य रूप से यह देखना चाहिए कि क्या वह वास्तविक कार्य कर सकता है और क्या वह सत्य स्वीकारता है। यह बिल्कुल वैसा नहीं था जैसा मैंने सोचा था कि अगुआओं को मेरे कर्तव्य में आने वाली हर समस्या का समाधान करना चाहिए, अगर वे ऐसा करते हैं तो वे सच्चे अगुआ हैं, ऐसा नहीं करते तो वे झूठे अगुआ हैं जो वास्तविक काम नहीं करते। यह दृष्टिकोण झूठा है और सत्य के अनुरूप नहीं है। यह तय करने के लिए कि कोई अगुआ झूठा है या नहीं, सबसे अहम बात यह है कि क्या वह जिम्मेदारी के दायरे में प्रत्येक कार्य की प्रगति और स्थिति का तुरंत अनुवर्तन कर सकते हैं, उसे समझ और पकड़ सकते हैं; क्या वे अपने कर्तव्य में भाई-बहनों के सामने आने वाली समस्याओं, मुश्किलों और विचलनों का तुरंत पता लगाकर पूछताछ कर सकते हैं; और क्या वे इन मुद्दों के हल के लिए उनके साथ सत्य सिद्धांतों की तलाश के लिए काम करते हैं। इनके आधार पर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि कोई अगुआ वास्तविक कार्य कर रहा है या नहीं। साथ ही यह इस पर निर्भर करता है कि क्या वह सत्य को स्वीकार कर सकता है या नहीं और क्या वह सही व्यक्ति है। अगर अगुआओं को कोई प्रश्न समझ नहीं आता तो वे ऊपर से खोज सकते हैं। जब दूसरे सुझाव दें या उनकी कमियां बताएँ तो अगुआओं को आज्ञा मानने, सत्य खोजने और आत्म-चिंतन करने में सक्षम होना चाहिए। काट-छाँट, रुकावटों और असफलता का अनुभव होने पर उन्हें उससे सबक सीखकर बाद में बदलाव करने में सक्षम होना चाहिए। इसका अर्थ होगा कि वे सत्य स्वीकारने वाले लोग हैं। साथ ही जब किसी अगुआ पर कई कार्यों का दायित्व हो तो उसे सारा काम अकेले नहीं करना होता। उसका मुख्य कार्य होता है हर काम की जाँच करना ताकि कलीसिया का काम सुचारु रूप से आगे बढ़ता रहे। ऐसा करने वाला ही योग्य अगुआ होता है। झूठे अगुआ देखने में हमेशा व्यस्त नजर आते हैं लेकिन केवल सतही या महत्वहीन कार्य करते हैं। वे कभी भी सबसे महत्वपूर्ण काम को समय पर नहीं करते; ऐसे नाकाबिल लोग व्यर्थ में भाग-दौड़ करके खुद को व्यस्त रखते हैं। चूँकि उन्हें सत्य सिद्धांतों की समझ नहीं होती, वे अपने काम में आ रही समस्याओं को पहचान और स्पष्ट रूप से देख नहीं पाते, वे यह भी नहीं जानते कि कार्यों की योजना या व्यवस्था कैसे करें। वे केवल सिद्धांतों या खोखले शब्दों को उगलने में सक्षम होते हैं, जिससे न तो अभ्यास का मार्ग मिलता है और न ही भाई-बहनों के काम में आने वाली वास्तविक समस्याओं का समाधान होता है। इसके अलावा झूठे अगुआ चीजों का सामना करने पर सत्य नहीं खोजते, दूसरों का मार्गदर्शन या मदद नहीं स्वीकारते और अंततः कई कार्यों को सुचारू रूप से आगे बढ़ने से रोकते हैं और यहाँ तक कि उन्हें गतिहीन बना देते हैं। यह कर्तव्य की गंभीर अवहेलना है; झूठा अगुआ ऐसा होता है। मैंने परमेश्वर के वचनों से समझा कि झूठे अगुआ का भेद पहचानने के लिए किसी को कई पहलुओं को देखने और पूरी जाँच करने की आवश्यकता होती है। अगर हम केवल किसी व्यक्ति के अस्थायी व्यवहार या भ्रष्टता को ही देखें, पृष्ठभूमि और कारणों को और उन्होंने पश्चात्ताप कर बदलाव किया है या नहीं, इसे नजरंदाज करें, मनमाने ढंग से उनका चरित्र चित्रण करें, फिर तो लोगों पर गलत आरोप लगाना बहुत आसान है। हर किसी में भ्रष्टता और कमियाँ होती हैं, लेकिन अगर वे खुद को जानकर पश्चात्ताप कर सकते हैं और बदल सकते हैं तो कलीसिया उन्हें अभ्यास जारी रखने का अवसर देगा। मेगन के व्यवहार में सत्य सिद्धांतों को लागू करने के बाद मैंने देखा कि वह सबसे जरूरी कार्यों का अनुवर्तन ले रही थी और समस्या होने पर वह दूसरों से चर्चा करती थी और समाधान ढूँढ़ती थी। कुल मिलाकर वह वास्तविक काम कर रही थी और अपने काम में परिणाम दे रही थी। बात बस इतनी-सी थी कि यह सारा काम एक साथ आया था और वह अभी तक संतुलन नहीं बना पाई थी और इसीलिए कुछ काम छूट गए। यह उसके काम में एक कमी थी और उसे अनुस्मारक और मदद की जरूरत थी। एक बार इन बातों का एहसास होने पर मैंने आखिरकार देखा कि मुझे सत्य सिद्धांतों की समझ नहीं थी और मैं लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार नहीं कर पाता था। मैंने अपनी अगुआ की समस्याएँ देखकर भी उससे उनके बारे में बात नहीं की; मैं सभी पहलुओं पर विचार करने में विफल रहा और आँख मूँदकर उसे झूठी अगुआ करार दिया। मेरे मन में परमेश्वर का कोई भय नहीं था।
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा : “जब कोई व्यक्ति भाई-बहनों द्वारा अगुआ के रूप में चुना जाता है या परमेश्वर के घर द्वारा कोई निश्चित कार्य करने या कोई निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए उन्नत किया जाता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसका कोई विशेष रुतबा या पद है या वह जिन सत्यों को समझता है, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक गहरे और संख्या में अधिक हैं—तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है और उसे धोखा नहीं देगा। निश्चय ही, इसका यह मतलब भी नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं। वास्तव में उन्होंने इसमें से कुछ भी हासिल नहीं किया है। पदोन्नयन और संवर्धन सीधे मायने में केवल पदोन्नयन और संवर्धन ही है, और यह भाग्य में लिखे होने या परमेश्वर की अभिस्वीकृति पाने के समतुल्य नहीं है। उनकी उन्नति और विकास का सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें उन्नत किया गया है, और वे विकसित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और इस विकसित किए जाने का अंतिम परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि क्या यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और क्या वह सत्य के अनुसरण का रास्ता चुनने में सक्षम है। इस प्रकार, जब कलीसिया में किसी को अगुआ बनने के लिए उन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसे सीधे अर्थ में उन्नत और विकसित किया जाता है; इसका यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही अगुआ के रूप में मानक स्तर का है, या सक्षम अगुआ है, कि वह पहले से ही अगुआई का काम करने में सक्षम है, और वास्तविक कार्य कर सकता है—ऐसा नहीं है। ज्यादातर लोगों को इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, और अपनी कल्पनाओं के आधार पर वे इन पदोन्नत लोगों का सम्मान करते हैं, पर यह एक भूल है। जिन्हें उन्नत किया जाता है, उन्होंने चाहे कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, क्या उनके पास वास्तव में सत्य वास्तविकता होती है? ऐसा जरूरी नहीं है। क्या वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ लागू करने में सक्षम हैं? अनिवार्य रूप से नहीं। क्या उनमें जिम्मेदारी की भावना है? क्या वे निष्ठावान हैं? क्या वे समर्पण करने में सक्षम हैं? जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो क्या वे सत्य की खोज करने योग्य हैं? यह सब अज्ञात है। क्या इन लोगों के अंदर परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय हैं? और परमेश्वर का भय मानने वाले उनके हृदय कितने विशाल हैं? क्या काम करते समय वे अपनी इच्छा का पालन करना टाल पाते हैं? क्या वे परमेश्वर की खोज करने में समर्थ हैं? अगुआई का कार्य करने के दौरान क्या वे अक्सर परमेश्वर के इरादों की तलाश में परमेश्वर के सामने आने में सक्षम हैं? क्या वे लोगों के सत्य वास्तविकता में प्रवेश की अगुआई करने में सक्षम हैं? निश्चय ही वे ऐसी चीजें कर पाने में अक्षम होते हैं। उन्हें प्रशिक्षण नहीं मिला है और उनके पास पर्याप्त अनुभव भी नहीं है, इसलिए वे ये चीजें नहीं कर पाते। इसीलिए, किसी को उन्नत और विकसित करने का यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही सत्य को समझता है, और न ही इसका अर्थ यह है कि वह पहले से ही अपना कर्तव्य एक मानक तरीके से करने में सक्षम है। तो किसी को पदोन्नत और विकसित करने का क्या उद्देश्य और मायने हैं? वह यह है कि इस व्यक्ति को, एक व्यक्ति के रूप में पदोन्नत किया गया है, ताकि वह अभ्यास कर सके, और वह विशेष रूप से सिंचित और प्रशिक्षित हो सके, जिससे वह इस योग्य हो जाए कि सत्य सिद्धांतों, और विभिन्न कामों को करने के सिद्धांतों, और विभिन्न कार्य करने और विभिन्न समस्याओं को हल करने के सिद्धांतों, साधनों और तरीकों को समझ सके, साथ ही यह भी कि जब वह विभिन्न प्रकार के परिवेशों और लोगों का सामना करे, तो परमेश्वर के इरादों के अनुसार और उस रूप में, जिससे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा हो सके, उन्हें सँभालने और उनके साथ निपटने का तरीका सीख सके। इन बिंदुओं के आधार पर परखें, तो क्या परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और विकसित किए गए प्रतिभाशाली लोग, पदोन्नत और विकसित किए जाने की अवधि के दौरान या पदोन्नत और विकसित किए जाने से पहले अपना कार्य और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने में पर्याप्त सक्षम हैं? बेशक नहीं। इस प्रकार, यह अपरिहार्य है कि विकसित किए जाने की अवधि के दौरान ये लोग काट-छाँट और न्याय किए जाने और ताड़ना दिए जाने, उजागर किए जाने, यहाँ तक कि बरखास्तगी का भी अनुभव करेंगे; यह सामान्य बात है, यही है प्रशिक्षण और विकसित किया जाना” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ में आया किसी के अगुआ या कर्मी चुने जाने का मतलब यह नहीं है कि उसे सत्य की समझ है और अपना कार्य करने के लिए पूरी तरह सक्षम है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वह सब कुछ समझता है और हर काम पूर्णता के साथ कर सकता है। उसमें थोड़ी काबिलियत और कार्य क्षमता होती है और वह सत्य स्वीकार कर उसका अनुसरण कर सकता है, इसलिए कलीसिया उन्हें विकसित और प्रशिक्षित होने का अवसर देती है। अपने काम में निरंतर समस्याओं का पता लगाकर उन्हें हल करने से वे आखिरकार थोड़ा सत्य समझ जाएँगे और सिद्धांत के अनुसार कार्य कर पाएँगे। लेकिन इस अवधि में भी अगुआ और कर्मी अभ्यास के चरण में ही होते हैं, इसलिए उनके काम में विचलन, कमियाँ और चूक होना लाजमी है और हमें मामले को सही ढंग से लेना चाहिए। जब हमें समस्याएँ या मुश्किलें आएँ तो हमें अगुआओं के साथ मिलकर खोजना, संगति करना और चीजों को सुलझाना चाहिए। काम केवल इसी तरह से प्रभावी हो सकता है। अगर हम अगुआओं और कर्मियों से बहुत अधिक अपेक्षा करें, अगर हम सारी समस्याएँ उनके कंधों पर डाल दें, फिर हल निकालने में धीमा होने पर हम उन्हें झूठा अगुआ कह दें, तो यह सिद्धांतहीन और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के जरिए मैंने जाना कि अगुआओं और कर्मियों के लिए मेरा व्यवहार सत्य सिद्धांतों पर नहीं बल्कि मेरी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित था। अगुआओं से मेरी अपेक्षाएँ बहुत अधिक और कठिन थीं। जब मैंने देखा कि अगुआ ठीक से मेरे काम का अनुवर्तन नहीं कर रही और उसने मेरी समस्याओं और कठिनाइयों को जल्दी नहीं सुलझाया तो मैंने उसे झूठा अगुआ मान लिया। मैंने मुद्दे की पृष्ठभूमि या उसके पूरे काम पर विचार नहीं किया, न ही यह कि वह सत्य स्वीकार कर चीजों को बदल सकती है या नहीं। मैंने जो अधूरी जानकारी देखी, उसके आधार पर मैंने आँख मूँदकर उसे झूठी अगुआ कहकर उनकी निंदा की। यह न्याय की भावना नहीं थी, यह एक गड़बड़ी थी और इसने सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया। मुझमें सत्य की समझ नहीं थी और मैं अगुआओं और कर्मियों के साथ व्यवहार में सिद्धांतहीन था। अधिक गंभीर रूप से मेरे मन में परमेश्वर का कोई भय नहीं था। अगुआ में थोड़ी-सी समस्या देख मैंने उसे बड़ा मुद्दा बना दिया, लापरवाही से उनकी निंदा की और इसका पीछा नहीं छोड़ा। मैंने उससे उसके प्रकृति सार या स्थिति की वास्तविक पृष्ठभूमि के आधार पर बर्ताव नहीं किया, इसके बजाय मैंने उसे चोट पहुँचाई। इस खयाल के आने पर मैं अचानक डर से घिर गया। मैंने महसूस किया कि इस समस्या की प्रकृति गंभीर है। अगर शॉन को स्थिति का पता न होता और सिर्फ मेरी बात सुनकर उसने मेगन को बरखास्त कर दिया होता, तो कलीसिया का काम प्रभावित होता, तो क्या मैं बुराई नहीं कर रहा होता? यह एक बड़ा अपराध होता! अगर मेरे साथ दोबारा ऐसा कुछ हुआ तो मैं दूसरों का मूल्यांकन करने के लिए अपनी कल्पना के भरोसे नहीं रह सकता। मुझे और सत्य सिद्धांत खोजने थे, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार लोगों से निष्पक्ष व्यवहार करना था और सैद्धांतिक तरीके से कार्य करना था।
इसके बाद मेगन ने मेरे पास आकर अपनी हालिया स्थिति और काम की समस्याएँ बताईं। वह बोली कि वह खुद को बदलना चाहती है और उसने मेरे काम में समस्याओं और कठिनाइयों के बारे में जाना और हमने हर टीम के भाई-बहनों के साथ संगति के लिए मिलकर काम किया। मुझे एहसास हुआ कि वह कोई ऐसी व्यक्ति नहीं थी जो सत्य को स्वीकार न करे। हालाँकि जिन कार्यों और क्षेत्रों में उसने अनुवर्तन नहीं किया, उसमें कुछ चूकें थीं लेकिन एक बार समस्या का पता लगते ही वह जल्दी से बदलाव कर पाती थी। मैंने देखा कि वह असल में वास्तविक काम न करने वाली झूठी अगुआ नहीं थी।
पहले तो मुझे लगा कि मुझे इस मुद्दे की थोड़ी समझ है—मुझे सत्य की समझ नहीं थी और मैं झूठे अगुआओं का भेद नहीं पहचान सका जिसके कारण मुझसे गलती हुई। लेकिन एक बार एक सभा में मैंने अपने भाई-बहनों को कहते सुना कि गलतियाँ केवल भेद की पहचान न कर पाने या सत्य न समझने की वजह से नहीं होतीं। हमें यह भी देखना चाहिए कि हमारे काम कहीं इरादों या भ्रष्ट स्वभावों से दूषित तो नहीं थे। मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा जो कहता है : “अपने अपराधों को किसी अपरिपक्व या मूर्ख व्यक्ति की गलतियाँ मात्र मत समझो, यह बहाना मत करो कि तुमने सत्य पर अमल इसलिए नहीं किया, क्योंकि तुम्हारी ख़राब क्षमता ने उसे असंभव बना दिया था। इसके अतिरिक्त, स्वयं द्वारा किए गए अपराधों को किसी अज्ञानी व्यक्ति के कृत्य भी मत समझ लेना। यदि तुम स्वयं को क्षमा करने और अपने साथ उदारता का व्यवहार करने में अच्छे हो, तो मैं कहता हूँ, तुम एक कायर हो, जिसे कभी सत्य हासिल नहीं होगा, न ही तुम्हारे अपराध तुम्हारा पीछा छोड़ेंगे, वे तुम्हें कभी सत्य की अपेक्षाएँ पूरी नहीं करने देंगे और तुम्हें हमेशा के लिए शैतान का वफ़ादार साथी बनाए रखेंगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गया कि जब कोई स्थिति पैदा होती है तो हम उसे सिर्फ साधारण मामला मानकर उससे नहीं निपट सकते। हमें सत्य खोजना चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना चाहिए। तभी हमारे जीवन में सच्चा परिवर्तन और विकास हो सकता है। अगर हम हमेशा अपने अपराधों को क्षणिक भूल ही मानते रहेंगे, महसूस करेंगे कि वे मायने नहीं रखते, कहते हैं कि हम अगली बार अधिक ध्यान देंगे और हमेशा अपने अपराधों को माफ करते रहेंगे, तो हम कभी अपनी समस्याएँ नहीं समझ पाएँगे, सत्य हासिल नहीं कर पाएँगे और आखिरकार जब हमारे अपराध बढ़ेंगे और हम कोई बदलाव नहीं करेंगे तो परमेश्वर हमें ठुकरा देगा और निकाल देगा। परमेश्वर के वचनों ने जो कुछ प्रकट किया उसके जरिए मैंने ठीक-ठीक आत्म-चिंतन करना शुरू किया कि उस समय मेरे विचार क्या थे जब यह स्थिति मेरे सामने बनी और किन इरादों ने मुझे दूषित किया या किन भ्रष्ट स्वभावों को मैंने प्रदर्शित किया। आत्म-चिंतन के जरिए मैंने जाना कि जब मैंने अगुआ की समस्याएँ देखीं, तो मैं आश्वस्त नहीं था कि क्या मैं चीजों को सही तरीके से देख रहा हूँ और मैं परमेश्वर के और वचन पढ़ना चाहता था। लेकिन जब मैंने सुना कि मेगन ने अन्य सामान्य मामले सँभालने वालों के काम का अनुवर्तन नहीं लिया और वरिष्ठ उसके प्रदर्शन की जाँच कर रहे हैं तो मैंने मान लिया कि इस बात की प्रबल संभावना है कि वह झूठी अगुआ है और मुझे लगा कि मुझे मेगन के वरिष्ठों से तुरंत रिपोर्ट करनी चाहिए ताकि भाई-बहन देखें कि मुझमें न्याय की भावना है और मैं भेद पहचान सकता हूँ। तो सत्य सिद्धांतों को समझे बिना या खोज जारी रखे बिना और बिना पृष्ठभूमि या कारणों को जाने मैंने सुनी-सुनाई बात के आधार पर आँख मूँदकर मेगन को झूठी अगुआ के रूप में चित्रित कर दिया। मैंने सोचा कि मैंने चीजों को सही ढंग से देखा था और उसमें कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। लेकिन अब मुझे एहसास हुआ कि मैं लापरवाह था और मेरा इरादा गलत था। मैंने आत्म-चिंतन किया, “मैंने सत्य सिद्धांतों को समझे बिना अगुआ की रिपोर्ट क्यों की? इस समस्या का स्रोत क्या है?” मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो चाहे कुछ भी करें, अपने ही विचारों का पालन करते हैं, और चीजों को अत्यधिक एकांगी तरीके से समझते हैं, और सत्य की तलाश भी नहीं करते। वहाँ सिद्धांत का पूर्ण अभाव रहता है, और अपने दिल में वे इस पर कोई विचार नहीं करते कि परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार या उस तरीके से कैसे कार्य करें जो परमेश्वर को संतुष्ट करता है, और केवल हठपूर्वक अपनी ही इच्छा का पालन करना जानते हैं। ऐसे लोगों के दिल में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, ‘जब मेरे सामने कठिनाई आती है, तो मैं केवल परमेश्वर से ही प्रार्थना करता हूँ, लेकिन फिर भी ऐसा नहीं लगता कि इसका कोई प्रभाव होता है—इसलिए आम तौर पर अब जब मेरे साथ कुछ घटता है, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर से प्रार्थना करना बेकार है।’ ऐसे लोगों के दिलों से परमेश्वर बिल्कुल नदारद होता है। वे सामान्य समय में चाहे जो भी कर रहे हों, सत्य की तलाश नहीं करते; वे केवल अपने विचारों का ही पालन करते हैं। तो क्या उनके कार्यों के सिद्धांत हैं? निश्चित रूप से नहीं। वे सब-कुछ एकांगी तरीके से देखते हैं। यहाँ तक कि जब लोग उनके साथ सत्य सिद्धांतों की संगति करते हैं, तो वे उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते, क्योंकि उनके कार्यों में कभी कोई सिद्धांत नहीं रहा होता, उनके हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता, और उनके हृदय में उनके सिवा कोई नहीं होता। उन्हें लगता है कि उनके इरादे नेक हैं, कि वे बुराई नहीं कर रहे, कि उनके इरादों को सत्य का उल्लंघन करने वाला नहीं माना जा सकता, उन्हें लगता है कि अपने इरादों के अनुसार कार्य करना सत्य का अभ्यास करना होना चाहिए, कि इस प्रकार कार्य करना परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। वस्तुतः, इस मामले में वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश या उससे प्रार्थना नहीं कर रहे, बल्कि आवेग पर कार्य करते हुए, अपने ही जोशीले इरादों के अनुसार, वे उस तरह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे जिस तरह परमेश्वर कहता है, उनमें परमेश्वर की आज्ञा मानने वाला दिल नहीं है, उनमें यह इच्छा अनुपस्थित रहती है। लोगों के अभ्यास में यह सबसे बड़ी गलती होती है। अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो और फिर भी वह तुम्हारे दिल में नहीं है, तो क्या तुम परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रहे? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या परिणाम हो सकता है? तुम इससे क्या हासिल कर सकते हो? और परमेश्वर पर ऐसी आस्था का क्या मतलब है?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों के संपर्क में आने से मैंने देखा कि जब कुछ होता था तो मैं शायद ही कभी सत्य खोजता था या सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करता था। इसके बजाय मैं अपनी सोच के मुताबिक चलता था। मेरे हृदय में न तो परमेश्वर के लिए कोई स्थान था, न ही उसका भय था। जब कुछ होता है तो परमेश्वर का भय मानने वाले लोग पहले सत्य सिद्धांत खोजते हैं और उस मामले के बारे में परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, फिर परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर लोगों और चीजों को देखते हैं। चूँकि मैं झूठे अगुआओं का भेद पहचान नहीं पाया, मुझे सत्य खोजना चाहिए था, स्पष्ट समझना चाहिए था कि झूठे अगुआ कौन हैं, उनकी अभिव्यक्तियाँ क्या हैं और यह कैसे निर्धारित किया जाए कि झूठा अगुआ कौन है, लेकिन इसके बजाय अपनी कल्पनाओं के आधार पर मैंने मनमाने निर्णय लिए। मैंने सोचा कि अगर कोई अगुआ मेरे काम का अनुवर्तन न ले या मेरी समस्याएँ हल न करे, इससे वह झूठा अगुआ बन जाता है। हालाँकि उस दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और उन पर विचार किया लेकिन उन्हें समझा नहीं। जब मैंने झूठे अगुआओं के बारे में परमेश्वर के वचनों की एक पंक्ति देखी जो सचमुच मेगन के व्यवहार से मेल खाती थी तो मैंने मान लिया कि वह झूठी अगुआ है और सोचने लगा कि हालात पर मेरा नजरिया सटीक था। असल में मैं चीजों को संदर्भ के बाहर ले जा रहा था और आँख मूँदकर नियम लागू कर रहा था। और इस पूरी प्रक्रिया के दौरान मुझे असहज महसूस होता रहा। मैं मेगन की शिकायत करने से पहले उससे और अधिक जानना और बात करना चाहता था, लेकिन मुझे लगा कि उसका व्यवहार पहले से ही इतना स्पष्ट था कि मैंने आगे कुछ भी जानने की जहमत नहीं उठाई और बस अपने विचारों पर काम किया। मैं कितना अभिमानी और आत्मतुष्ट था! मैंने यह भी देखा कि मेरी मानवता बुरी है। मैं सचमुच परमेश्वर के इरादों का ख्याल नहीं रख रहा था, न ही मैंने कलीसिया के काम की रक्षा की। जब मैंने अपने अगुआ के काम में दिक्कतें देखीं, तो मैंने उन्हें उसे नहीं बताया; बल्कि मैंने उसके वरिष्ठों को उनकी रिपोर्ट देने का मौका तलाशा ताकि मैं उन्हें दिखा सकूँ कि मैं भेद पहचान कर सकता हूँ। मैं देख सकता था कि मैं कितना नीच था और यह दिल दहला देने वाला एहसास था। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मैं इस तरह का इंसान हूँ। मुझे स्पष्ट रूप से सत्य सिद्धांतों की समझ नहीं थी, फिर भी मैं बेहद अहंकारी और अनुचित था। अपने अगुआ की रिपोर्ट करके मैं खुद से बहुत खुश था क्योंकि मुझे लगा मेरे अलावा किसी ने भी भेद नहीं पहचाना था और मुझे सत्य सिद्धांतों की समझ है। मगर असल में मैं कुछ नहीं समझता था; मुझे केवल शब्द और धर्म-सिद्धांतों की समझ थी और मैंने आँख मूँदकर नियम लागू किए। मैंने बिना सिद्धांत के मनमाने ढंग से किसी की रिपोर्ट की। क्या यह कलीसिया के कार्य में बाधा डालना नहीं था? मैं अच्छे कर्म संचित नहीं कर रहा था, मैं बुराई कर रहा था!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों से अगुआओं और कर्मियों के साथ व्यवहार करने के सिद्धांत सीखे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जिन लोगों को पदोन्नत और विकसित किया जाता है, उनसे लोगों को ऊंची अपेक्षाएँ या अवास्तविक माँगें नहीं करनी चाहिए; यह अनुचित होगा, और उनके साथ अन्याय होगा। तुम लोग उनके कार्य की निगरानी कर सकते हो। अगर उनके काम के दौरान तुम्हें समस्याओं या ऐसी बातों का पता चले जिनसे सिद्धांतों का उल्लंघन होता हो, तो तुम यह मसला उठा सकते हो, और इन मामलों को सुलझाने के लिए सत्य को खोज सकते हो। तुम्हें उनकी आलोचना, और निंदा नहीं करनी चाहिए, या उन पर हमला कर उन्हें अलग-थलग नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे बस विकसित किए जाने की अवधि में हैं, और उन्हें ऐसे लोगों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जिन्हें पूर्ण बना दिया गया है, उन्हें दोषरहित या ऐसे लोगों के रूप में बिल्कुल भी नहीं देखना चाहिए जिनमें सत्य वास्तविकता है। तुम लोगों की ही तरह, वे महज प्रशिक्षण की अवधि में हैं। अंतर केवल इतना है कि वे साधारण लोगों की तुलना में अधिक काम करते हैं और अधिक जिम्मेदारियाँ उठाते हैं। उनके पास साधारण लोगों की तुलना में अधिक काम करने की जिम्मेदारी और दायित्व है; उन्हें ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है, अधिक कठिनाई सहनी पड़ती है, ज्यादा मानसिक प्रयास करने पड़ते हैं, अधिक समस्याएँ हल करनी पड़ती हैं, अधिक लोगों की निंदा सहन करनी पड़ती हैं, और निस्संदेह, उन्हें सामान्य लोगों की तुलना में अधिक प्रयास करने पड़ते हैं, और साधारण लोगों के कार्य करने की तुलना में—उन्हें थोड़ा कम सोना चाहिए, अच्छी चीजों का कम आनंद लेना चाहिए, और उतनी ज्यादा गपशप नहीं करनी चाहिए। उनके बारे में यही खास बात है; इसके अतिरिक्त वे किसी भी अन्य व्यक्ति के समान ही होते हैं। ... तो उनके साथ व्यवहार का सबसे उचित तरीका क्या है? उन्हें सामान्य लोगों की तरह ही समझना, और जब तुम्हें किसी समस्या के संदर्भ में किसी को तलाशने की आवश्यकता हो, तो उनके साथ संगति करना और एक-दूसरे के मजबूत पक्षों से सीखना और एक-दूसरे का पूरक होना। इसके अतिरिक्त, अगुआ और कार्यकर्ता का यह देखने के लिए निरीक्षण करना कि वे वास्तविक कार्य कर रहे हैं या नहीं, वे समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का इस्तेमाल कर सकते हैं या नहीं, इस पर नजर रखना सभी की जिम्मेदारी है; अगुआ या कार्यकर्ता मानक स्तर का है या नहीं, इसे मापने के ये मानक और सिद्धांत हैं। अगर कोई अगुआ या कार्यकर्ता आम समस्याओं से निपटने और उन्हें सुलझाने में सक्षम है, तो वह सक्षम है। लेकिन अगर वह साधारण समस्याओं से भी नहीं निपट सकता, उन्हें हल नहीं कर सकता, तो वह अगुआ या कार्यकर्ता बनने के योग्य नहीं है, और उसे फौरन उसके पद से निकाल देना चाहिए। किसी दूसरे को चुनन चाहिए, और परमेश्वर के घर के काम में देरी नहीं की जानी चाहिए। परमेश्वर के घर के काम में देरी करना खुद को और दूसरों को आहत करना है, इसमें किसी का भला नहीं है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गया कि अगुआओं और कर्मियों से कैसे बर्ताव करना चाहिए। कलीसिया जिन अगुआओं को चुनता है, उन्हें सत्य की पूरी समझ नहीं होती, वे पूरी तरह योग्य नहीं होते, काम के हर पहलू की पूरी समझ नहीं होती या यह नहीं जानते कि उसे अच्छे से कैसे करें। वे भी अभ्यास के दौर में ही होते हैं और भ्रष्टता और विचलन प्रदर्शित कर सकते हैं या गलतियाँ कर सकते हैं। हमें लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करते हुए उनसे बहुत अधिक की माँग नहीं करनी चाहिए, हमें उनसे बिना किसी विचलन या चूक के सब कुछ पूरी तरह से करने के लिए कहकर अनुचित नहीं होना चाहिए। बल्कि हमें समझदार और सहनशील होना चाहिए और कलीसिया के काम को अच्छी तरह से करने के लिए उनके साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग करना चाहिए। यही परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होने का अर्थ है और अगुआओं और कर्मियों से ऐसा व्यवहार करना सिद्धांतों के अनुरूप है। साथ ही अगुआओं के काम पर नजर रखना भी हमारी जिम्मेदारी है। जब हमारे अगुआओं के कार्य-कलाप सत्य के अनुरूप हों तो हमें उन्हें स्वीकार कर पालन करना चाहिए, लेकिन यदि उनके कार्य-कलाप सत्य सिद्धांतों के अनुरूप न हों तो हमें मुद्दे उठाने चाहिए और उन पर संगति करनी चाहिए और समय रहते उनकी मदद करनी चाहिए, ताकि वे अपने कर्तव्यों में विचलन का एहसास करके उन्हें जल्दी से ठीक कर सकें। यह उनके जीवन प्रवेश और कलीसिया के काम के लिए फायदेमंद है। अगर सिद्धांतों से तय होता है कि कोई झूठा अगुआ है जो कोई वास्तविक कार्य नहीं करता तो उसे उजागर कर उसकी रिपोर्ट करनी चाहिए। इसका एहसास होने पर मेरा दिल खुश हो गया और मैं जान गया था कि आगे अगुआओं और कर्मियों से कैसा व्यवहार करना है।
हालाँकि इस बार मैंने गलती से अपने अगुआ के भेद की पहचान कर उसकी रिपोर्ट की थी पर मैंने झूठे अगुआओं का भेद पहचानने के बारे में कुछ सत्य सिद्धांत जान लिए थे। मैंने यह भी जाना कि अगुआओं और कर्मियों से कैसा व्यवहार करना चाहिए, मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव का भी थोड़ा ज्ञान प्राप्त हुआ और कुछ सबक सीखे। परमेश्वर का धन्यवाद!