21. एक गलत रिपोर्ट
करीब एक साल से, परमेश्वर ने झूठे अगुआओं की पहचान के सत्यों पर संगति की है। सभाओं में, मैं अपनी समझ और ज्ञान पर संगति करता था, लेकिन वास्तविक जीवन में, मैं झूठे अगुआओं को पहचान नहीं पाता था। किसी अगुआ को व्यावहारिक काम न करते देख, मैं झट से बिना सोचे-समझे उसे झूठा अगुआ कहकर उसकी निंदा करता, इसलिए परमेश्वर के घर के काम की रक्षा न कर पाने के साथ ही मैंने काम में बाधा भी पैदा की। तथ्यों ने जो उजागर किया, उसके जरिये मैंने अपनी असफलताओं से झूठे अगुआओं को पहचानना सीखा।
मैंने कलीसिया में प्रशासनिक कार्य करता था। मैं कलीसिया में कुछ वस्तुओं और उपकरणों के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार था। काम के दौरान, मैंने देखा कि भाई-बहन उपकरणों का इस्तेमाल ठीक से नहीं कर रहे। इससे प्रबंधन मुश्किल हो रहा था। मैंने अगुआ, बहन ली को इन मामलों की सूचना दी। उनसे इन मुद्दों को दूसरों के साथ उठाने और सभाओं में उन पर संगति करने को भी कहा। वो इसके लिए तैयार हो गईं। सभा में मैं उनके आने का इंतजार कर रहा था, लेकिन काफी इंतजार के बाद भी वो नहीं आईं, मैंने उन्हें कभी सभाओं में आते और उनका जायजा लेते नहीं देखा, तो मैंने अगुआ पर नजर रखनी शुरू कर दी। मैंने सोचा, "इतना वक्त हो गया। उन्होंने इस काम की जानकारी क्यों नहीं ली? इतनी बार इस समस्या के बारे में बताने के बाद भी अब तक समाधान नहीं हुआ। परमेश्वर झूठे अगुआओं को पहचानने के सत्य पर संगति कर रहा है। अगर आपने जानकारी नहीं ली, समस्याएँ दूर नहीं कीं, तो आप झूठी अगुआ हैं, और मुझे इसकी रिपोर्ट आपके वरिष्ठ-जनों को करनी होगी। इस तरह उन्हें लगेगा कि मुझमें न्याय की भावना है। वे मेरे बारे में अच्छी राय भी बना सकते हैं!" उस समय तो मैंने इस बारे में बस सोचा था। बाद में, परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों के लिए भाड़े पर लिये गोदाम का अनुबंध खत्म हो गया, तो किताबों को दूसरी जगह ले जाना था। बहुत सारी किताबें थीं और बक्से भारी थे, तो मेरे लिए उन्हें अकेले ले जाना मुश्किल था, उसमें बहुत समय लगता। मैंने अगुआ से पूछा कि क्या मदद के लिए कुछ लोग मिल सकते हैं। अगुआ कहती रहीं कि वह लोगों की तलाश कर रही हैं, लेकिन समय निकलता गया और कोई नहीं आया। आखिरकार, दो भाइयों ने एक बार ले जाने में मदद की और जल्दी ही चले गए। इससे मेरी असंतुष्टि बढ़ गई। मैंने सोचा, "अगुआ को लोग मिल क्यों नहीं रहे? वह देख क्यों नहीं रहीं कि काम आगे बढ़ रहा है या नहीं? आकर देखती क्यों नहीं कि मेरे पास कितना काम है?" सोच-सोचकर मुझे गुस्सा आ रहा था, मैं अब अगुआ को समस्याएँ नहीं बताना चाहता था, क्योंकि उसे बताना बेकार था। उस दौरान मैं अगुआ से मिलना भी नहीं चाहता था, न उन्हें देखकर बात करना चाहता था। मैंने सोचा, "अगर आप मुझे लोग ढूंढ़कर नहीं दे सकतीं, तो ठीक है, मैं खुद ही कर लूँगा। वैसे भी, आप जो करती हैं, मुझे पता है। वक्त आने पर, आपके वरिष्ठों को सब बता दूँगा।" मैंने झूठे अगुआओं की पहचान के परमेश्वर के वचनों पर विचार किया। "झूठे अगुवे कलीसिया के कार्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं की भी उपेक्षा करते हैं। वे कार्य-स्थल पर जाकर कार्य की अधिक जानकारी और जायजा नहीं लेते या यह पता नहीं करते कि क्या चल रहा है, ताकि समस्या को तुरंत पहचान कर उसे सुलझाया जा सके और काम के दौरान पैदा होने वाले विचलनों और गलतियों को दूर किया जा सके। कलीसिया के कार्य में आने वाली कठिनाइयों को लेकर, झूठे अगुआ मात्र थोड़े सिद्धांत बोल देते हैं या फिर रटे-रटाए कुछ जुमले बोलकर काम खत्म करते हैं" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। मुझे लगा, "मेरे अगुआ का व्यवहार वैसा ही है जैसा परमेश्वर के वचनों में वर्णित है। अगर वह मेरे काम की समस्याओं की जांच कर उन्हें दूर न करें, तो क्या वो झूठी अगुआ नहीं हैं?" उस समय मैंने भी यही सोचकर समस्या देखकर भी उन्हें नहीं बताई, मैंने सत्य समझने वालों से इसकी पुष्टि भी नहीं कराई, इसलिए मैं हड़बड़ी में उन्हें झूठी अगुआ नहीं कह सकता था। मैंने सोचा, "क्यों न मैं पहले सत्य के और सिद्धांतों की खोज करूँ, सत्य समझने वाले भाई-बहनों से इस पर चर्चा करूँ, फिर निर्णय लूँ?" लेकिन उनका व्यवहार परमेश्वर के वचनों के अनुरूप ही था, तो फिर कहने को बचा क्या? मैं अपने विचारों को लेकर आश्वस्त नहीं था, उन पर गलत आरोप भी नहीं लगाना चाहता था, तो मैं उहापोह की स्थिति में था। मेरा दिमाग इसी में उलझा हुआ था कि अगुआ मेरी समस्या दूर नहीं कर रहीं। इस उलझन में, मैंने सत्य की खोज नहीं की, परमेश्वर के वचनों की पृष्ठभूमि पर विचार नहीं किया, उन्हें गलत समझ लिया। बहन ली पर आरोप लगाने के लिए मैंने एक पँक्ति, एक व्यवहार को आधार बनाया और मान लिया कि वह झूठी अगुआ हैं।
फिर मैंने प्रशासनिक कार्य करने वाली बहनों को भी यह कहते सुना कि बहन ली ने उनके काम का अधिक जायजा नहीं लेतीं, कभी-कभी तो उनके काम में देरी भी हो जाती थी। यह सुनकर तो मुझे और भी यकीन हो गया, "बहन ली कोई व्यावहारिक काम नहीं करतीं, काम की निगरानी या जांच भी नहीं करतीं, तो क्या इससे वो एक झूठी अगुआ साबित नहीं होतीं? हाल ही में, हमने सभाओं में झूठे अगुआओं की पहचान पर संगति की है। विश्वास नहीं होता मुझे ऐसी अगुआ मिल गई। मुझे न्याय की भावना रखकर, परमेश्वर के घर के काम को बनाए रखना और झूठे अगुआ को बेनकाब करना है।" लेकिन बहन ली के वरिष्ठों को इन समस्याओं की रिपोर्ट करने में, मैं झिझक रहा था। मैंने अब तक इन मुद्दों पर अगुआ से चर्चा नहीं की थी, न ही सत्य की समझ रखने वालों से इसकी कोई चर्चा की थी, क्या यह आँख मूँदना और मनमानी करना नहीं था? लेकिन फिर मैंने सुना कि बहन ली के वरिष्ठ-जन उनसे बात करने आए थे और टीम के सभी अगुआओं से उनकी कार्य-कुशलता के बारे में भी पूछा था। यह सुनकर मैं खुद को रोक नहीं पाया। वरिष्ठ-जन बहन ली की समस्या से पहले ही परिचित थे, तो वह यकीनी तौर पर झूठी अगुआ थीं। मैंने सोचा, "मुझे बहन ली की समस्याओं के बारे में वरिष्ठों को तुरंत बताना चाहिए। मुझे अब और खोजने की जरूरत नहीं है। वरना, जब वरिष्ठ-जन जाँच पूरी कर बहन ली को बर्खास्त कर देंगे, और चर्चा करेंगे कि उन्हें किसने पहचाना, उनकी समस्याएँ किसने उठाईं, किसने न्याय की भावना से प्रेरित होकर उनकी रिपोर्ट की, तो मेरे नाम का जिक्र कहीं नहीं होगा, फिर मैं कैसे कह पाऊँगा कि उन्हें मैंने पहचाना? अब इंतजार करना ठीक नहीं।" मैंने उतावलेपन में बहन ली के वरिष्ठ, भाई झोउ से मिलकर, उनकी समस्या की रिपोर्ट कर दी। मैंने कहा, "बहन ली, बतौर अगुआ, मेरे काम का जायजा नहीं लेतीं, काम में आने वाली समस्याओं की जानकारी नहीं लेतीं। कोई समस्या बताता हूँ, तो वो समाधान नहीं करतीं।" मैंने उन्हें झूठे अगुआ पहचानने के बारे में परमेश्वर के वचन भी दिखाए। कहा कि उनका व्यवहार वैसा ही है जैसा परमेश्वर के वचनों में बताया गया है, और मुझे लगता है वो झूठी अगुआ हैं। मेरा बात का जवाब देते हुए उन्होंने कहा, "हम पहले ही जांच कर चुके हैं कि बहन ली की कुछ समस्याएँ हैं। कुछ कामों की उन्होंने ठीक से जाँच नहीं की है, अपने काम को जैसे-तैसे किया है। उन्हें काट-छाँट, निपटारे की जरूरत है, आत्म-चिंतन करने और सबक सीखने में मदद की आवश्यकता है। लेकिन हमें पता चला है कि पिछले कुछ महीनों से, बहन ली ज्यादातर सिंचन-कार्य ही देख रही हैं, क्योंकि हाल ही में कई नए लोग कलीसिया में शामिल हुए हैं। कुछ धार्मिक पादरी गंभीर गड़बड़ी पैदा कर रहे हैं। नवागतों को तत्काल सिंचन की जरूरत है ताकि सत्य मार्ग में इनकी जड़ें मजबूत हो सकें। यह फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण और बेहद अहम कार्य है। बहन ली अपनी सारी ऊर्जा इस काम में लगाती रही हैं। प्रशासनिक कार्य अभी उतना जरूरी नहीं है। जब तक काम बाधित न हो, तो अगर उनका काम थोड़ा धीमा भी हो, तो कोई बड़ी समस्या नहीं है। सारा काम एक साथ आ गया है और हमारे पास स्टाफ की भी कमी है, इसलिए उन्हें प्राथमिकता तय करके, फिलहाल प्रशासनिक कार्य स्थगित करना पड़ा है। इसी वजह से बहन ली समय पर आपके काम का जायजा नहीं ले पाईं, लेकिन उन्होंने यह निर्णय अपने साथियों के साथ चर्चा के बाद ही लिया है। इसके अलावा, बहन ली पहले एक ही काम की प्रभारी थीं। वह नई अगुआ हैं, इतने कामों की जिम्मेदारी एक साथ लेना उनके लिए थोड़ा मुश्किल है। वह कुछ चीजों का जायजा नहीं ले पा रही हैं, इसलिए उन्हें हमारी मदद की जरूरत है।" फिर, भाई झोउ ने संबंधित सिद्धांत भेजे। तब समझा कि कभी-कभी काम की प्राथमिकता तय करनी पड़ती है। फिलहाल प्राथमिकता सिंचन-कार्य था। दूसरे काम तभी किए जा सकते थे जब सिंचन-कार्य प्रभावित न हो। अगर सिंचन-कार्य प्रभावित हुआ, तो क्या यह ज़्यादा जरूरी काम छोड़ कम जरूरी काम करना नहीं है? हालांकि बहन ली ने मेरे काम का ठीक से जायजा नहीं लिया, लेकिन वह प्राथमिकता तय कर रही थीं, व्यावहारिक काम करने में असमर्थ नहीं थीं। मैंने यह नहीं समझा कि उन्होंने मेरे काम का जायजा क्यों नहीं लिया या मेरी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं किया। बल्कि, उनके प्रति पूर्वाग्रह रखा, उन पर अपनी नजरें गड़ाकर रखीं सोचा कि वह व्यावहारिक काम नहीं करतीं और सीधे उन्हें एक झूठी अगुआ करार दे दिया। क्या मैं बहुत ज्यादा मनमानी नहीं कर रहा था? तब भाई झोउ ने मुझसे पूछा, "अगर हमने अभी बहन ली को बर्खास्त कर दिया, तो क्या कलीसिया उनके बदले में तुरंत किसी और को ढूँढ़ सकती है? क्या काम जारी रह सकता है?" इस बारे में सोचने पर लगा कि बहन ली अभी भी एक अगुआ बने रहने के उपयुक्त हैं। भाई झोउ के साथ बातचीत के बाद, मुझे बहुत दुख हुआ। पहले मुझे लगता था कि मुझमें न्याय की भावना है, मुझे मामले से जुड़े परमेश्वर के वचन भी मिल गए थे। मुझे लगा था कि मैंने सत्य खोजने के बाद बहन ली की रिपोर्ट की है, लेकिन अब पता चला कि मैं सत्य नहीं समझताऔर मैंने गलत पहचान की है। तो, मुझसे कहाँ गलती हुई?
मैंने खोजा और परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "नकली अगुआ या नकली कार्यकर्ता के रूप में किसी का चरित्रांकन पर्याप्त तथ्यों पर आधारित होना चाहिए। यह एक-दो घटनाओं या अपराधों पर आधारित नहीं होना चाहिए, अस्थायी भ्रष्टता को इसके आधार के रूप में तो बिलकुल भी इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। किसी के चरित्रांकन का एकमात्र सटीक मानक यह है कि क्या वह व्यावहारिक कार्य कर सकता है और क्या वह समस्याएँ हल करने के लिए सत्य का उपयोग कर सकता है, साथ ही क्या वह एक सही व्यक्ति है, क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकता है, और क्या उसमें पवित्र आत्मा का कार्य और प्रबुद्धता है। केवल इन्हीं कारकों के आधार पर किसी का एक नकली अगुआ या नकली कार्यकर्ता के रूप में चरित्रांकन सही ढंग से किया जा सकता है। ये कारक यह आकलन और निर्धारण करने के मानक और सिद्धांत हैं कि कोई व्यक्ति नकली अगुआ या नकली कार्यकर्ता है या नहीं" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचनों से, मैं समझ गया कि झूठे अगुआ को पहचानने के लिए, हमें मुख्य रूप से यह देखना चाहिए कि क्या वे व्यावहारिक कार्य करते और सत्य स्वीकारते हैं। जबकि मैंने तो सोचा था कि अगुआओं को मेरे काम में आने वाली हर समस्या का समाधान करना चाहिए, अगर वे ऐसा करते हैं, तो वे सच्चे अगुआ हैं, ऐसा नहीं करते तो वे झूठे अगुआ हैं जो व्यावहारिक काम नहीं करते। यह झूठा दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप नहीं है। यह तय करने के लिए कि क्या कोई अगुआ झूठा अगुआ है, सबसे अहम बात यह है कि जो काम उनकी जिम्मेदारी है, क्या वे उसकी प्रगति और स्थिति का तुरंत निरीक्षण कर सकते हैं, उसे समझ सकते हैं, क्या वे भाई-बहनों के काम में आने वाली समस्याओं, मुश्किलों और विचलन का तुरंत पता लगाकर उनकी जांच कर सकते हैं, क्या वे उनके साथ समस्या दूर करने के लिए सत्य के सिद्धांतों की खोज करते हैं। इनके आधार पर, हम कह सकते हैं कि कोई अगुआ व्यावहारिक कार्य करता है या नहीं। साथ ही, यह इस पर निर्भर करता है कि क्या वे सही व्यक्ति हैं और सत्य स्वीकार सकते हैं। अगर अगुआओं कोई प्रश्न नहीं समझ आता, तो वे वरिष्ठों के साथ खोज सकते हैं। जब दूसरे सुझाव दें या उनकी कमियां बताएँ, तो उन्हें मानना, सत्य खोजना और आत्मचिंतन कर पाना चाहिए। काट-छाँट, निपटारे, बाधा और असफलता का अनुभव होने पर, सबक सीखकर खुद में बदलाव लाना चाहिए। इसका अर्थ होगा कि वे सत्य स्वीकारने वाले लोग हैं। साथ ही जब किसी अगुआ पर कई कार्यों का दायित्व हो, तो उसे सारा काम अकेले नहीं करना होता। उसका मुख्य कार्य होता है हर काम पर नजर रखना, ताकि कलीसिया का काम सुचारु रूप से आगे बढ़ता रहे। ऐसा करने वाला ही योग्य अगुआ होता है। झूठे अगुआ देखने में तो व्यस्त नजर आते हैं, लेकिन वे केवल सतही या महत्वहीन कार्य करते हैं। वे कभी भी सबसे महत्वपूर्ण काम समय पर नहीं करते, ऐसे नाकाबिल लोग व्यर्थ में भाग-दौड़ करके खुद को व्यस्त रखते हैं। चूँकि उन्हें सत्य के सिद्धांतों की समझ नहीं होती, वे काम में आ रही समस्याओं को खोज और स्पष्ट रूप से देख नहीं पाते हैं, वे यह भी नहीं जानते कि कार्यों की योजना या व्यवस्था कैसे करें। वे केवल सिद्धांतों या खोखले शब्दों की बात कर सकते हैं, जिससे न तो अभ्यास का मार्ग मिलता है और न ही भाई-बहनों के काम की समस्याओं का समाधान हो पाता है। वे मुसीबत में न तो सत्य खोजते हैं, न दूसरों का मार्गदर्शन या मदद स्वीकारते हैं, जिस वजह से कई काम या तो सुचारू रूप से हो नहीं पाते या रुक जाते हैं। यह कर्तव्य की गंभीर अवहेलना और झूठा अगुआ होना है। मैंने परमेश्वर के वचनों से समझा कि झूठे अगुआ को पहचानने के लिए कई पहलुओं को देखने और पूरी जांच करने की आवश्यकता होती है। अगर हम केवल लोगों के अस्थायी व्यवहार या भ्रष्टता को ही देखें, उनकी पृष्ठभूमि, विवेक और पश्चात्ताप कर बदलते हैं या नहीं–इनकी अवहेलना करें और मनमाने ढंग से उनके बारे में कुछ कहें, फिर तो लोगों पर गलत आरोप लगाना बहुत आसान है। भ्रष्टता और कमियां सभी में होती हैं, लेकिन अगर वे खुद को जानकर पश्चात्ताप करें और बदल जाएँ, तो परमेश्वर का घर उन्हें अभ्यास करने का अवसर देगा। जब मैंने बहन ली के व्यवहार को परमेश्वर के वचनों और सिद्धांतों के नजरिए से देखा, तो समझ आया कि वह सबसे जरूरी कार्यों का जायजा ले रही थीं, और समस्याएँ होने पर, वह उन्हें दूर करने के लिए लोगों से चर्चा करती थीं। कुल मिलाकर, वह व्यावहारिक काम कर रही थीं और अपने काम में परिणाम दे रही थीं। बात बस इतनी-सी थी कि सारा काम एक साथ आने पर वह संभाल नहीं पा रही थीं, इसलिए कुछ काम छूटगए। उनके काम में यह एक कमी थी, उन्हें याद दिलाने और मदद करने की जरूरत थी। इन बातों का एहसास होने पर, मैंने देखा कि मुझे सत्य के सिद्धांतों की समझ नहीं है, मैं लोगों के साथ उचित व्यवहार नहीं कर पाता। मैंने अपनी अगुआ की समस्याएं देखकर भी उनसे बात नहीं की, न ही सभी पहलुओं पर विचार किया बिना सोचे-समझे उन्हें झूठी अगुआ करार दे दिया। मेरे मन में परमेश्वर का कोई भय नहीं था।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा। "जब कोई व्यक्ति भाई-बहनों द्वारा अगुआ के रूप में चुना जाता है या परमेश्वर के घर द्वारा कोई निश्चित कार्य करने या कोई निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए उन्नत किया जाता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसकी कोई विशेष हैसियत या पहचान है या वह जिन सत्यों को समझता है, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक गहरे और संख्या में अधिक हैं—तो ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है और उसे धोखा नहीं देगा। इसका यह मतलब भी नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं। वास्तव में उन्होंने इसमें से कुछ भी हासिल नहीं किया है; उन्नति और विकास का सीधे-सीधे अर्थ केवल उन्नति और विकास ही है। उनकी उन्नति और विकास का सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें उन्नत किया गया है, और वे विकसित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और इस विकसित किए जाने का अंतिम परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति किस रास्ते पर चलता है और किस चीज का अनुसरण करता है। इस प्रकार, जब कलीसिया में किसी को अगुआ बनने के लिए उन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसे सीधे अर्थ में उन्नत और विकसित किया जाता है; इसका यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही योग्य अगुआ है, या सक्षम अगुआ है, कि वह पहले से ही अगुआ का काम करने में सक्षम है, और वास्तविक कार्य कर सकता है—ऐसा नहीं है। ज्यादातर लोगों को इन चीजों के बारे में स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देता, और वे इन पदोन्नत लोगों की कल्पनाओं पर भरोसा करते हुए उनका सम्मान करते हैं, पर यह एक भूल है। जिन्हें उन्नत किया जाता है, उन्होंने चाहे कितने ही वर्षों से विश्वास रखा हो, क्या उनके पास वास्तव में सत्य की वास्तविकता होती है? ऐसा जरूरी नहीं है। क्या वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं को साकार करने में सक्षम हैं? अनिवार्य रूप से नहीं। क्या उनमें जिम्मेदारी की भावना है? क्या उनमें प्रतिबद्धता है? क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पित हैं? जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो क्या वे सत्य की खोज करते हैं? यह सब अज्ञात है। क्या इन लोगों के अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? और उनमें परमेश्वर का आखिर कितना अधिक भय है? क्या काम करते समय उनके द्वारा अपनी इच्छा का पालन करने की संभावना रहती है? क्या वे परमेश्वर की खोज करने में समर्थ हैं? अगुआ का कार्य करने के दौरान क्या वे परमेश्वर की इच्छा की खोज करने के लिए नियमित रूप से और अकसर परमेश्वर के सामने आते हैं? क्या वे लोगों का सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं? निश्चय ही वे तुरंत ऐसी चीजें कर पाने में अक्षम होते हैं। उन्हें प्रशिक्षण नहीं मिला है और उनके पास बहुत थोड़ा अनुभव है, इसलिए वे ये चीजें नहीं कर पाते। इसीलिए, किसी को उन्नत और विकसित करने का यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही सत्य को समझता है, और न ही इसका अर्थ यह है कि वह पहले से ही अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से करने में सक्षम है। तो किसी को उन्नत और विकसित करने का क्या उद्देश्य और मायने हैं? वह यह है कि ऐसे व्यक्ति को, एक व्यक्ति के रूप में, प्रशिक्षित किए जाने, विशेष रूप से सिंचित और निर्देशित करने के लिए उन्नत किया जाता है, जिससे वह सत्य के सिद्धांतों, और विभिन्न कामों को करने के सिद्धांतों, और विभिन्न समस्याओं को हल करने के सिद्धांतों, साधनों और तरीकों को समझने में सक्षम हो जाए, साथ ही यह भी, कि जब वह विभिन्न प्रकार के परिवेश और लोगों का सामना करे, तो परमेश्वर की इच्छा के अनुसार और उस रूप में, जिससे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा हो सके, उन्हें कैसे सँभालना और उनके साथ कैसे व्यवस्थित होना है। क्या यह इंगित करता है कि परमेश्वर के घर द्वारा उन्नत और विकसित की गई प्रतिभा उन्नत और विकसित किए जाने की अवधि के दौरान या उन्नत और विकसित किए जाने से पहले अपना काम करने और अपना कर्तव्य निभाने में पर्याप्त सक्षम है? बेशक नहीं। इस प्रकार, यह अपरिहार्य है कि विकसित किए जाने की अवधि के दौरान ये लोग निपटे जाने, काट-छाँट किए जाने, न्याय किए जाने और ताड़ना दिए जाने, उजागर किए जाने, यहाँ तक कि बदले जाने का भी अनुभव करेंगे; यह सामान्य बात है, उन्हें प्रशिक्षित और विकसित किए जाने का यही अर्थ है" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ में आया किसी के अगुआ या कर्मी चुने जाने का मतलब ये नहीं है कि उसे सत्य की समझ है और वह कार्य के लिए पूरी तरह योग्य है। न ही ये है कि वह सब-कुछ समझता है और हर काम अच्छी तरह से कर सकता है। जिन्हें पदोन्नत किया जाता है, उनमें थोड़ी क्षमता और योग्यता होती है, वे सत्य स्वीकार कर उसका अनुसरण कर सकते हैं, इसलिए परमेश्वर का घर उन्हें विकसित और प्रशिक्षित होने का अवसर देता है। अपने काम में निरंतर समस्याओं का पता लगाकर उन्हें दूर करने से, वे थोड़ा सत्य समझकर सिद्धांत के अनुसार कार्य कर पाते हैं। लेकिन इस अवधि में भी अगुआ और कर्मी अभ्यास के चरण में ही होते हैं, इसलिए उनके काम में विचलन, कमियां और चूक होना लाजमी है और हमें मामले को सही ढंग से लेना चाहिए। समस्या या मुश्किल में हमें अगुआओं के साथ संगति कर चीजों को सुलझाना चाहिए। काम इसी तरह से प्रभावी हो सकता है। अगर हम अगुआओं और कर्मियों से बहुत अधिक अपेक्षा करें, अगर हम सारी समस्याएँ उनके कंधों पर डाल दें या समस्याएँ दूर करने में थोड़ा समय लेने पर हम उन्हें झूठा अगुआ कह दें, तो अगुआओं से ऐसा व्यवहार सिद्धांत और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर के वचनों के जरिए मैंने जाना कि अगुआओं के साथ मेरा व्यवहार सत्य के सिद्धांतों पर नहीं, बल्कि मेरी धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित था। अगुआओं से मेरी अपेक्षाएँ बहुत अधिक थीं। जब मैंने देखा कि अगुआ ठीक से मेरे काम का जायजा नहीं ले रहीं मेरी समस्याओं और कठिनाइयों को जल्दी सुलझा नहीं रहीं, तो मैंने उन्हें झूठा अगुआ मान लिया। मैंने न तो उनके काम की पृष्ठभूमि देखी, न ही पूरी प्रगति, ये भी नहीं सोचा कि वह सत्य स्वीकार कर चीजों को बदल सकती हैं या नहीं। एकतरफा जानकारी के आधार पर मैंने बिना सोचे-समझे झूठी अगुआ कहकर उनकी निंदा की। यह न्याय की भावना नहीं थी, सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन करती बाधा थी। मैंने देखा कि मुझमें सत्य की समझ नहीं थी, न ही मैं अगुआओं और कर्मियों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार कर रहा था, उन्हें गंभीरता से भी नहीं लेता था, मेरे मन में परमेश्वर का कोई भय भी नहीं था। अगुआ में थोड़ी-सी समस्या देख, मैंने उसे बड़ा मुद्दा बना दिया, लापरवाही से उनकी निंदा की, हर मुद्दे को पकड़ता रहा। मैंने उनसे उनकी प्रकृति और सार या वास्तविक स्थिति के आधार पर बर्ताव नहीं किया। झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी परमेश्वर के चुने हुओं का जैसे दमन करते हैं, वैसे ही मैंने किया। यह सोचकर अचानक ही मैं डर गया। मैंने महसूस किया कि समस्या की प्रकृति गंभीर है। अगर भाई झोउ को स्थिति का पता न होता, और मेरी बात मानकर उन्होंने बहन ली को बर्खास्त कर दिया होता, तो कलीसिया का काम कितना प्रभावित होता, क्या मैं दुष्टता नहीं कर रहा था? यह एक बड़ा अपराध होता! अगर मेरे साथ दोबारा ऐसा कुछ हुआ, तो मैं अपनी कल्पना से लोगों को नहीं आंक सकता। मुझे सत्य के सिद्धांत खोजने थे, लोगों के साथ परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उचित व्यवहार, और सैद्धांतिक तरीके से कार्य करना था।
एक दिन बहन ली ने मेरे पास आकर अपनी हालिया स्थिति और काम की समस्याएँ बताईं। बोलीं कि वो खुद को बदलना चाहती हैं, उन्होंने मेरे काम में समस्याओं और कठिनाइयों को भी जाना, मेरे साथ हर टीम के भाई-बहनों के साथ संगति के लिए दस्तावेजों को व्यवस्थित किया। मुझे एहसास हुआ कि वह सत्य स्वीकारने वाली इंसान हैं। हालाँकि जिन कार्यों और क्षेत्रों का उन्होंने जायजा नहीं लिया, वहाँ कुछ चूक हुई, लेकिन समस्या का पता लगते ही वह उस कार्य को ठीक करती थीं। मैंने जाना कि वह व्यावहारिक काम न करने वाली झूठी अगुआ नहीं थीं।
पहले तो मुझे लगा कि मुझे इस मुद्दे की थोड़ी समझ है, कि मुझे सत्य की समझ नहीं है और मैं झूठे अगुआओं को नहीं पहचान सकता, जिसके कारण मुझसे यह चूक हुई। लेकिन एक बार एक सभा में, मैंने भाई-बहनों को कहते सुना कि गलतियाँ केवल पहचान न पाने या सत्य न समझने की वजह से नहीं होतीं। हमें यह भी देखना चाहिए कि गलतियाँ कहीं मंशा या भ्रष्ट स्वभावों की मिलावट के कारण तो नहीं हुई है। मैंने परमेश्वर के वचन का यह अंश पढ़ा, "अपने अपराधों को किसी अपरिपक्व या मूर्ख व्यक्ति की गलतियाँ मात्र मत समझो, यह बहाना मत करो कि तुमने सत्य पर अमल इसलिए नहीं किया, क्योंकि तुम्हारी ख़राब क्षमता ने उसे असंभव बना दिया था। इसके अतिरिक्त, स्वयं द्वारा किए गए अपराधों को किसी अज्ञानी व्यक्ति के कृत्य भी मत समझ लेना। यदि तुम स्वयं को क्षमा करने और अपने साथ उदारता का व्यवहार करने में अच्छे हो, तो मैं कहता हूँ, तुम एक कायर हो, जिसे कभी सत्य हासिल नहीं होगा, न ही तुम्हारे अपराध तुम्हारा पीछा छोड़ेंगे, वे तुम्हें कभी सत्य की अपेक्षाएँ पूरी नहीं करने देंगे और तुम्हें हमेशा के लिए शैतान का वफ़ादार साथी बनाए रखेंगे" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे')। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं समझ गया, जब हालात बनते हैं, तो हम उन्हें यूँ ही हाथ से निकलने नहीं दे सकते। हमें उनमें सत्य खोजकर अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना चाहिए। तभी हमारे जीवन में सच्चा परिवर्तन और विकास हो सकता है। अगर आप अपने अपराधों को क्षणिक भूल ही मानते रहेंगे, सोचेंगे कि क्या फर्क पड़ता है, अगली बार अधिक ध्यान दे लेंगे, और अपने अपराधों को माफ करते रहेंगे, तो न कभी अपनी समस्याएँ समझ पाएंगे, न सत्य हासिल कर पाएंगे, आखिरकार, आपके अपराध बढ़ते जाएँगे और आपमें कोई बदलाव नहीं आएगा, परमेश्वर आपसे घृणा करेगा और निकाल देगा। परमेश्वर के वचनों के जरिए मैंने आत्मचिंतन करना शुरू किया कि उस समय मेरे विचार क्या थे जब मेरे सामने ऐसे हालात आए, और मेरी मंशा या भ्रष्ट स्वभाव की कौन-सी मिलावट उजागर हुई। आत्मचिंतन से जाना कि जब मैंने अगुआ की समस्याएँ देखीं, तो मैं आश्वस्त नहीं था कि क्या मैंने सही समझा है, मैं परमेश्वर के और वचन पढ़ना चाहता था। लेकिन जब मैंने सुना कि बहन ली ने अन्य प्रशासनिक कर्मचारियों के काम का जायजा भी नहीं लिया है और वरिष्ठ-जन बहन ली के कामों की जाँच कर रहे हैं, तो मैंने मान लिया कि वो पक्का झूठी अगुआ हैं, और मुझे तुरंत रिपोर्ट करनी चाहिए ताकि भाई-बहन देखें कि मुझमें न्याय और विवेक की भावना है। तो, सत्य के सिद्धांतों को समझे बिना या खोज जारी रखे बिना और पृष्ठभूमि या कारणों को जाने बिना, मैंने सुनी-सुनाई बात के आधार पर आँख मूँदकर बहन ली को झूठी अगुआ मान लिया। मैंने अपने आकलन को सही माना, मुझे उसमें कोई समस्या नहीं दिखी। लेकिन अब, मुझे एहसास हुआ कि मैं बहुत लापरवाह था और मेरे इरादे गलत थे। मैंने विचार किया, "मैंने सत्य के सिद्धांतों को समझे बिना अगुआ की रिपोर्ट क्यों की? समस्या का स्रोत क्या है?"
मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा, "लोग चाहे कुछ भी करें, अगर वे अपने ही विचारों का पालन करते हैं, और चीजों को अत्यधिक एकांगी तरीके से समझते हैं, और जैसा चाहते हैं वैसा ही करते हैं, और सिद्धांत का पूर्ण अभाव होने पर सत्य की तलाश भी नहीं करते, और अपने दिल में इस पर कोई विचार नहीं करते कि परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार या उस तरीके से कैसे कार्य करें जो परमेश्वर को संतुष्ट करता है, और केवल हठपूर्वक अपनी ही इच्छा का पालन करना जानते हैं, तो ऐसे लोगों के दिल में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, 'जब मेरे सामने कठिनाई आती है, तो मैं केवल परमेश्वर से ही प्रार्थना करता हूँ, लेकिन फिर भी ऐसा नहीं लगता कि इसका कोई प्रभाव होता है—इसलिए आम तौर पर अब जब मेरे साथ कुछ घटता है, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर से प्रार्थना करना बेकार है।' ऐसे लोगों के दिलों से परमेश्वर बिल्कुल नदारद होता है। अधिकांश समय वे सत्य की तलाश नहीं करते, फिर चाहे वे कुछ भी कर रहे हों; वे केवल अपने विचारों का ही पालन करते हैं, और जैसा चाहते हैं वैसा ही करते हैं। तो क्या उनके कार्यों के सिद्धांत हैं? निश्चित रूप से नहीं। वे सब-कुछ एकांगी तरीके से देखते हैं और जैसा चाहते हैं, वैसा ही करते हैं। यहाँ तक कि जब लोग उनके साथ सत्य के सिद्धांतों की संगति करते हैं, तो वे उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते, क्योंकि उनके कार्यों में कभी कोई सिद्धांत नहीं रहा होता, और उनके हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता; उनके हृदय में उनके सिवा कोई नहीं होता। उन्हें लगता है कि उनके इरादे नेक हैं, कि वे बुराई नहीं कर रहे, कि उनके इरादों को सत्य का उल्लंघन करने वाला नहीं माना जा सकता, उन्हें लगता है कि अपने इरादों के अनुसार कार्य करना सत्य का अभ्यास करना होना चाहिए, कि इस प्रकार कार्य करना परमेश्वर का आज्ञापालन करना है। वस्तुत:, इस मामले में वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश या उससे प्रार्थना नहीं कर रहे, उन्होंने परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं का पालन करने की पूरी कोशिश नहीं की है, उनकी यह वास्तविक स्थिति, यह इच्छा नहीं है। लोगों के अभ्यास में यह सबसे बड़ी गलती होती है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और फिर भी वह तुम्हारे दिल में नहीं है, तो क्या तुम परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश नहीं कर रहे? और परमेश्वर में ऐसी आस्था का क्या परिणाम हो सकता है? तुम इससे क्या हासिल कर सकते हो? और परमेश्वर में ऐसी आस्था का क्या मतलब है?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर की इच्छा को खोजना सत्य के अभ्यास के लिए है')। परमेश्वर के वचनों ने जो कुछ प्रकट किया, उससे मैंने जाना कि समस्या होने पर, मैं सत्य खोजकर सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं करता। बल्कि अपनी सोच को सचमानकर अपने ही विचारों पर चलता हूँ। मेरे हृदय में न तो परमेश्वर के लिए कोई स्थान था, न ही परमेश्वर का भय। परमेश्वर का भय मानने वाले, समस्या होने पर, पहले सत्य के सिद्धांत खोजते हैं, देखते हैं कि इन मामलों पर परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, फिर वचनों और सत्य के अनुसार लोगों और चीजों को देखते हैं। झूठे अगुआओं की पहचान न कर पाने की स्थिति में, मुझे सत्य खोजना चाहिए था, समझना चाहिए था कि झूठे अगुआ कौन हैं, उनका निर्धारण कैसे करना है, उनकी अभिव्यक्तियाँ और और सत्य के ऐसे अन्य सिद्धांतों को समझना चाहिए था। लेकिन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। अपने विचारों-कल्पनाओं के आधार पर मनमाने ढंग से निर्णय लिया। मुझे लगा जो मेरे काम का जायजा न ले, मेरी समस्याएँ दूर न करे, वो झूठा अगुआ है। इस दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े जरूर, लेकिन उन्हें समझा नहीं। मुझे तो परमेश्वर के वचनों की जो पंक्ति लागू होती दिखी, वही मैंने लगा दी और मान लिया कि बहन ली झूठी अगुआ हैं, मुझे लगता था मेरा नजरिया सही और सटीक है। पर मैं तो कहाँ की बात कहाँ उठाकर, बिना सोचे-समझे नियम लागू कर रहा था। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान, मुझे बेचैनी महसूस होती रही। मैंने चाहा कि रिपोर्ट करने से पहले और खोजूँ, बहन ली से बात करूँ, लेकिन मुझे लगा कि उनका व्यवहार पहले से ही स्पष्ट है और परमेश्वर के वचनों से मेल खाता है, तो और क्यों खोजूँ? इसलिए, मैंने न तो प्रार्थना की और न ही खोज की, बस अपने विचारों के अनुसार कार्य किया। मैंने अपने अहंकारी स्वभाव से काम लिया, लापरवाही से व्यवहार किया। मैंने अपनी समझ-बूझ के आधार पर कार्य किया और सत्य को दर-किनार कर दिया। ऐसे ही काम करता रहता, तो देर-सवेर मैं बुराई कर बैठता जो बहुत खतरनाक होता! मैंने यह भी जाना कि मेरी इंसानियत बुरी है। मैं परमेश्वर की इच्छा का ख्याल या कलीसिया के हित की रक्षा नहीं कर रहा था। एक नेक और विवेकी इंसान का फर्ज है कि कलीसिया के काम में चूक होते देख समय पर मदद करे और चेताए या अगुआ के साथ सत्य खोजकर समस्या दूर करने का रास्ता ढूँढ़े। लेकिन जब मैंने अगुआ के काम में दिक्कतें देखीं, तो खोजने और संगति करने के लिए मैंने उन्हें नहीं उठाया। बल्कि मैंने उन्हें छुपाया और जाकर उनके वरिष्ठ अगुआ को रिपोर्ट कर दी ताकि उन्हें लगे कि मैं पहचान कर सकता हूँ। बहन ली से खुलकर बात करने के बजाय मैंने उनकी पीठ में छुरा घोंपा और दिखावा करने के लिए समस्याओं की रिपोर्ट की। मैं मन से दुर्भावनापूर्ण और नीच था। यह एहसास दिल दहला देने वाला था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं ऐसा इंसान हूँ। मुझे सत्य की समझ नहीं थी, झूठे अगुआओं की पहचान नहीं थी, मैं बेहद अहंकारी और अविवेकी था। अगुआ की रिपोर्ट करके मैं बहुत खुश था क्योंकि मुझे लगा मेरे अलावा किसी ने भी बहन ली को नहीं पहचाना और मुझे सत्य के सिद्धांतों अच्छी समझ है। अब सोचता हूँ तो लगता है मुझे किसी भी चीज की समझ नहीं थी। केवल शब्दों और सिद्धांतों की समझ लेकर मैंने आँख मूँदकर नियम लागू किए। सत्य के सिद्धांतों की समझ न होने पर भी, मैंने परिणामों पर विचार किए बिना रिपोर्ट की। मैंने यह भी नहीं सोचा कि कहीं गलत रिपोर्ट करने से कलीसिया के काम को या बहन ली को नुकसान तो नहीं पहुँचेगा। मैंने परमेश्वर की इच्छा पर विचार करने या कलीसिया के हितों की रक्षा के लिए समस्याओं की रिपोर्ट नहीं की थी, मैंने यह सब दिखावे के लिए किया था। मैंने बिना सिद्धांत के मनमाने ढंग से रिपोर्ट की। क्या यह परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालना नहीं था? मैं अच्छे कर्म नहीं बल्कि बुरे कर्म संचित कर रहा था!
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों से अगुआओं और कर्मियों के साथ व्यवहार करने के सिद्धांत सीखे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जिन्हें उन्नत और विकसित किया जाता है, लोगों को उनसे उच्च अपेक्षाएँ या अवास्तविक उम्मीदें नहीं करनी चाहिए; यह अनुचित होगा, और उनके साथ अन्याय होगा। तुम लोग उनके कार्य पर नजर रख सकते हो, और अगर उनके काम के दौरान तुम्हें समस्याओं या ऐसी बातों का पता चलता है जो सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं, तो तुम इन मामलों को उठाकर, इन्हें सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो। तुम्हें उनकी आलोचना, और निंदा नहीं करनी चाहिए, या उन पर हमला कर उन्हें अलग नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे विकसित किए जाने की अवधि में हैं, और उन्हें ऐसे लोगों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जिन्हें पूर्ण बना दिया गया है, उन्हें पूर्ण या सत्य की वास्तविकता से युक्त व्यक्ति के रूप में तो बिल्कुल भी नहीं देखना चाहिए। वे तुम लोगों जैसे ही हैं : यह वह समय है, जब उन्हें प्रशिक्षित किया जा रहा है। ... तो उनके साथ व्यवहार कार्य करने का सबसे तर्कसंगत तरीका क्या है? उन्हें सामान्य लोगों की तरह ही समझना, और जब कोई ऐसी समस्या आए जिसे खोजने की आवश्यकता हो, तो उनके साथ संगति करना और एक-दूसरे की क्षमताओं से सीखना और एक-दूसरे का पूरक होना। इसके अतिरिक्त, अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य कर रहे हैं या नहीं, वे समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का इस्तेमाल करते हैं या नहीं, इस पर नजर रखना सभी की जिम्मेदारी है; अगुआ या कार्यकर्ता मानक स्तर का है या नहीं, इसे मापने के ये मानक और सिद्धांत हैं। अगर वे आम समस्याओं से निपटने और उन्हें सुलझाने में सक्षम हैं, तो वे सक्षम हैं। लेकिन अगर वे साधारण समस्याओं से भी निपट नहीं सकते, उन्हें हल नहीं कर सकते, तो वे अगुआ या कार्यकर्ता बनने के योग्य नहीं हैं, और उन्हें फौरन बर्खास्त कर देना चाहिए। किसी दूसरे को चुन लो, और परमेश्वर के घर के काम में देरी न करो। परमेश्वर के घर के काम में देरी करना खुद को और दूसरों को चोट पहुँचाना है, इसमें किसी का भला नहीं है" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं समझ गया कि अगुआओं और कर्मियों से कैसे बर्ताव करना है। परमेश्वर का घर जिन अगुआओं को तरक्की देता है, उन्हें सत्य की पूरी समझ नहीं होती, पूरी तरह योग्य नहीं होते, काम की पूरी समझ नहीं होती, न उसे अच्छे से करना जानते हैं। वे भी अभ्यास के दौर में ही होते हैं, उनमें भी भ्रष्टता और विचलन हो सकते हैं। हमें लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करते हुए, उनसे अधिक माँग नहीं करनी चाहिए, न ही यह अनुचित अपेक्षा करनी चाहिए कि वे सारा काम एकदम अच्छे से करें और उनमें कोई विचलन या चूक न दिखाई दे। बल्कि हमें समझकर सहनशीलता से परमेश्वर के घर के काम में सहयोग करना चाहिए। यह परमेश्वर की इच्छा के प्रति पर विचारशील होना है। अगुआओं और कर्मियों से ऐसा व्यवहार करना सिद्धांतों के अनुरूप है। साथ ही, अगुआओं के काम पर नजर रखना भी हमारी जिम्मेदारी है। अगर हमारे अगुआओं के कार्य सत्य के अनुरूप हों, तो हमें स्वीकार कर पालन करना चाहिए, लेकिन यदि उनके कार्य सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप न हों, तो हमें मुद्दे को उठाना और संगति कर समय पर उनकी मदद करनी चाहिए, ताकि उन्हें अपने कर्तव्यों में विचलन का एहसास हो, वे उसे जल्दी से ठीक कर सकें। यह उनके जीवन में प्रवेश और परमेश्वर के घर के काम के लिए फायदेमंद है। अगर ये तय हो जाता है कि कोई झूठा अगुआ है, सत्य के सिद्धांतों के अनुसार व्यावहारिक कार्य नहीं करता, तो उसे उजागर कर रिपोर्ट करनी चाहिए। इसका एहसास होने पर मेरा दिल रोशन हो गया, मैं जान गया कि आगे अगुआओं और कर्मियों से कैसा व्यवहार करना है।
हालांकि इस बार मेरा अगुआ की रिपोर्ट करना गलत था, पर मैं झूठे अगुआओं को पहचानने के सत्य के कुछ सिद्धांत समझ गया, सीख गया कि अगुआओं और कर्मियों से कैसा व्यवहार करना चाहिए, मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव की भी थोड़ी समझ प्राप्त हुई और कुछ सबक सीखे। परमेश्वर का धन्यवाद!