24. जब मैंने मोर्चे पर धर्मप्रचार किया

एडेन, म्यांमार

जनवरी 2021 की बात है, मेरे दो साथी सैनिकों ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर का सुसमाचार सुनाया। फिर सभाओं और परमेश्वर के वचनों के जरिये मैंने जाना कि भ्रष्ट मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर अंत के दिनों में देहधारी बन चुका है, और मैंने परमेश्वर के देहधारणों की सार्थकता के बारे में भी जाना। मैंने कभी नहीं सोचा था कि परमेश्वर मानवता के बीच आने और कार्य करने के लिए स्वयं देह धारण करेगा। यह बहुत गहरा रहस्य है, और मानवता के लिए यह परमेश्वर का वास्तविक प्रेम और महानतम उद्धार भी है। मैं भावविह्वल हो गया। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं परमेश्वर की वाणी सुन सकता हूँ और उसके प्रकटन और कार्य को देख सकता हूँ। मुझे लगा कि मैं बहुत भाग्यशाली हूँ, और इससे मैं और ज्यादा सभाओं में जाने का इच्छुक हो गया। परमेश्वर के वचन पढ़कर और भाई-बहनों के साथ संगति कर मैंने देखा कि सुसमाचार का प्रचार हरेक की जिम्मेदारी है और हमसे यही अपेक्षा परमेश्वर करता है। सुसमाचार फैलाना परमेश्वर की गवाही देना है, लोगों को परमेश्वर के समक्ष लाना है, उन्हें सत्य और परमेश्वर से उद्धार पाने देना है, तो साथ ही अपने सत्कर्मों की सूची भी बढ़ाते जाना है। अगर मैंने ऐसा न किया तो मैं सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य की अनदेखी कर रहा हूँगा और परमेश्वर के वचन खाने-पीने योग्य नहीं रहूँगा। यह सब समझते ही मैं सुसमाचार सुनाने के लिए बहुत उत्सुक हो गया। मैं परमेश्वर के साथ कार्य करके और अधिक लोगों के साथ राज्य का सुसमाचार भी साझा करना चाहता था। उसके बाद फुर्सत मिलते ही मैं सुसमाचार प्रचार का अभ्यास करने लगता। फिर अक्तूबर में मेरी बदली ब्रिगेड में हो गई, जहाँ संयोग से मुझे नियोन नामक भाई मिला और वह भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर पर विश्वास करता था। अपने साथी सैनिकों को सुसमाचार सुनाने के लिए मैंने उसके साथ काम किया। एक बार मैंने करीब 20 सैनिकों को उपदेश सुनने बुलाया, और मैंने और भाई नियोन ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य के बारे में उनके सामने गवाही दी। इन सभी बीसेक सैनिकों ने खोजने और जाँचने के बाद आखिरकार सुसमाचार स्वीकार लिया। मैं जोश में आ गया और सुसमाचार सुनाने के लिए मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया।

म्यांमार में गृह युद्ध के दौरान मुझे मोर्चे पर भेजा गया था। मैंने नागरिकों के पिटते और जख्मी होते कुछ फोटो देखे, और दुश्मन धड़े से बचाए गए कुछ लोगों ने भी हमें बताया कि बंदी बनने के बाद उन्हें शत्रु सैनिकों के लिए खाना पकाना पड़ता था, वे सैनिक उन्हें लड़ाई में भी झोंकते थे। जिन्होंने मना किया उन्हें गोली से उड़ा देते थे। लड़ाई के कारण कुछ नागरिकों के घर भी जला दिए गए, और उन्हें जंगल में छिपकर रहना पड़ा। हर बार सैनिक जब किसी बस्ती पर हमला करते या लड़ते थे, तो घायलों को अस्पताल ले जाना पड़ता था। यह सब देखकर मुझे उन पर बहुत तरस आता था। मैंने सोचा, शायद वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं, आस्था न होने के कारण वे नहीं जानते कि उनका भाग्य किसके हाथ में है, या अपनी रक्षा के लिए वे किस पर भरोसा कर सकते हैं। अगर मैं उन्हें सुसमाचार सुनाकर परमेश्वर के समक्ष ला सकूँ, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना कर और उसके वचन पढ़कर सत्य समझ सकेंगे और परमेश्वर से सुरक्षा पा सकेंगे। इन विचारों ने मुझे जिम्मेदारी का एहसास कराया। मैं बस्ती में जाकर उन्हें सुसमाचार सुनाना और परमेश्वर के समक्ष लाना चाहता था। लेकिन मैं मोर्चे के उस इलाके से वाकिफ नहीं था, और मैं यह नहीं जानता था कि दुश्मन सैनिक कहाँ छिपे हैं। उन हालात में सुसमाचार सुनाने के लिए जाने पर अगर शत्रु सैनिकों से पाला पड़ता तो मेरे पकड़े और मारे जाने के आसार थे। मैं वाकई सहमा रहता था। मैंने यह जानने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की कि मुझे क्या करना चाहिए। फिर मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “तुम जानते हो कि तुम्हारे आसपास के परिवेश में सभी चीजें मेरी अनुमति से हैं, सब मेरे द्वारा आयोजित हैं। स्पष्ट रूप से देखो और मेरे द्वारा तुम्हें दिए गए परिवेश में मेरे दिल को संतुष्ट करो। डरो मत, सेनाओं का सर्वशक्तिमान परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हारे साथ होगा; वह तुम लोगों के पीछे खड़ा है और तुम्हारी ढाल है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 26)। मैं समझ गया कि मैं सुसमाचार सुनाते हुए शत्रु सैनिकों के हाथों में पड़कर मारे जाने से इसलिए डरता था क्योंकि मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और सब चीजों पर उसके शासन की सच्ची समझ नहीं थी, और मुझमें आस्था की कमी थी। मैंने यह भी सीखा, मैं रोजाना जिन छोटी-बड़ी स्थितियों का सामना कर रहा हूँ, इन सब पर शासन और इनकी व्यवस्था परमेश्वर करता है। मैं शत्रु सैनिकों के हाथों में पड़ूँगा या नहीं, यह भी परमेश्वर के हाथ में है। स्थिति चाहे जितनी भी खतरनाक हो, अगर परमेश्वर की अनुमति न हो तो वे मुझे पकड़ नहीं पाएँगे। और अगर किसी दिन दुश्मन मुझे वाकई उठाकर ले भी गए, तो मैं जिंदा रहूँगा या मारा जाऊँगा, यह भी पूरी तरह परमेश्वर पर निर्भर है। मुझे परमेश्वर की बनाई स्थिति के प्रति समर्पण करना चाहिए। मोर्चे पर भेजे जाने के पीछे भी परमेश्वर की ही सदिच्छा है। वहाँ नागिरक इतने खतरनाक माहौल में रह रहे थे, उनके पास सुसमाचार सुनाने वाला कोई नहीं था। उन्होंने अभी तक परमेश्वर की वाणी नहीं सुनी थी। शायद वहाँ ऐसे लोग हों जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है। मुझे परमेश्वर की इच्छा के बारे में सोचना चाहिए, सुसमाचार प्रचार कर परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए ताकि उन्हें परमेश्वर के समक्ष लाया जा सके। यह एहसास होने पर मुझे उतना डर नहीं लगा। मुझे लगा कि मैं परमेश्वर का सहारा लेने और उस माहौल में सुसमाचार प्रचार करने के लिए तैयार हूँ।

तब मैं स्थानीय लोगों को सुसमाचार सुनाने लगा, फिर भी मुझे नई दिक्कतों का सामना करना पड़ा। वहाँ के लोग दाई भाषा बोलते थे। मैं यह भाषा बस थोड़ी-बहुत ही बोल पाता था, जैसे “क्या तुमने खा लिया?” और “तुम कहाँ जा रहे हो?” मैं उन्हें सुसमाचार सुनाने के काबिल नहीं था। मुझे वाकई चिंता हुई। मैं उपदेश सुनाना चाहता था लेकिन मैं उनकी भाषा नहीं जानता था और यह बड़ी कठिनाई थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं सुसमाचार सुनाना चाहता हूँ लेकिन मैं उनकी बोली नहीं जानता। मेरा मार्गदर्शन करो और मेरे लिए रास्ता खोलो।” एक बार ऑनलाइन सभा में, एक बहन ने परमेश्वर के वचनों का एक अंश सुनाया था जो मेरे बड़े काम आया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “परमेश्वर उन लोगों को पूर्ण बनाता है जो उससे सचमुच प्रेम करते हैं, और उन सबको भी जो विभिन्न किस्म के परिवेशों में सत्य का अनुसरण करते हैं। वह लोगों को इस लायक बनाता है कि वे विभिन्न परिवेशों या परीक्षणों के जरिये उसके वचनों का अनुभव कर सकें, इससे सत्य की समझ और परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हासिल कर सकें, और अंततः सत्य हासिल कर सकें। ... जो लोग सत्य के अनुसरण के उजले मार्ग पर नहीं चलना चाहते, वे सदा शैतान की सत्ता के अधीन रहेंगे, निरंतर पाप और अंधकार में जिएँगे, और उनके लिए कोई उम्मीद नहीं बचेगी। क्या तुम लोग इन शब्दों का अर्थ समझ सकते हो? (मुझे सत्य का अनुसरण कर अपना कर्तव्य पूरे दिलोदिमाग से निभाना चाहिए।) जब तुम्हारे सामने अचानक कोई कर्तव्य आता है और यह तुम्हें सौंप दिया जाता है तो कठिनाइयों का सामना करने से बचने की मत सोचो; अगर कोई चीज संभालना कठिन है तो इसे दरकिनार कर अनदेखा मत करो। तुम्हें इसका आमना-सामना करना चाहिए। तुम्हें हर समय यह याद रखना चाहिए कि परमेश्वर लोगों के साथ है, अगर उन्हें कोई कठिनाई हो रही है तो सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजने की जरूरत है और परमेश्वर के साथ रहते कुछ भी कठिन नहीं है। तुममें यह आस्था होनी चाहिए। चूँकि तुम मानते हो कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है तो फिर अपने ऊपर कोई संकट आने पर तुम्हें अभी भी डर क्यों लगता है और ऐसा क्यों लगता है कि तुम्हारे पास कोई सहारा नहीं है? इससे साबित होता है कि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते हो। अगर तुम उसे अपना सहारा और अपना परमेश्वर नहीं मानोगे तो फिर वह तुम्हारा परमेश्वर नहीं है। वास्तविक जीवन में तुम चाहे जैसी स्थितियों का सामना करो, तुम्हें प्रार्थना करने और सत्य खोजने के लिए बार-बार परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए। भले ही तुम सत्य को समझकर हर दिन मात्र एक मसले से संबंधित कोई चीज हासिल करते हो तो यह समय बर्बाद करना नहीं होगा!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। यह अंश पढ़कर मेरे दिल में पक्के तौर पर यह बात बैठ गई कि परमेश्वर मेरे साथ है। कठिनाइयाँ पेश आने पर मुझे बस ईमानदारी से प्रार्थना कर परमेश्वर का सहारा लेना है, और वह मेरा मार्गदर्शन करेगा। परमेश्वर के लिए कुछ भी असंभव नहीं है, इसलिए मुझे आस्था रखनी चाहिए। सुसमाचार सुनाना मेरा कर्तव्य है। मैं महज इस कारण पीछे नहीं हट सकता था कि मुझे उनकी भाषा नहीं आती। मुझे तब भी अपना सर्वोत्तम प्रयास करना था। चूँकि मैंने परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सुसमाचार फैलाने का फैसला किया था, इसलिए यह चाहे जितना कठिन हो, मुझे उसका सहारा लेकर अपना कर्तव्य पूरा करना था। इन बातों पर विचार करके, मैं यह प्रयास करने के लिए तैयार था, और हर बार उपदेश देने जाने से पहले मैं परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे मार्गदर्शन माँगता था। मैं गाँव वालों के साथ बातचीत की कोशिश करने लगा, उन्हें दाई भाषा में धर्मप्रचार और गवाही की रिकॉर्डिंग सुनाने लगा। यह रिकॉर्डिंग सुनाते हुए मैं भी इसे ध्यान से सुनता था, और जब वे इसे पूरा सुन लेते तो, मैं लोगों के साथ संगति करता और जितनी दाई जानता था उसमें थोड़ी-सी और जोड़कर बोल देता था। दो-तीन दिन इसी तरह कार्य करने के बाद नौ लोगों ने सुसमाचार स्वीकार लिया। मैं परमेश्वर का बहुत आभारी था, और मुझमें सुसमाचार फैलाने की आस्था बढ़ गई थी।

एक दिन शत्रु सैनिकों ने वीचैट पर एक वीडियो डाला। मैंने देखा कि वे हमारे सैनिकों को पकड़कर उन्हें यातना दे रहे हैं। उनमें से कुछ के हाथ काट दिए तो कुछ के पैर, और वे सूअर की तरह उनके गले काट रहे थे। चाकुओं से उनके कलेजे तक बाहर निकाल दिए। यह देखकर मैं वाकई डर गया। मैं सोचने लगा, “मैं रोजाना सुसमाचार सुनाने बस्ती में जाता हूँ—क्या दुश्मन मुझे भी पकड़ लेंगे? अगर मैं उनके हाथ पड़ गया और उन्होंने मुझ पर दूसरे सैनिकों की तरह जुल्म किए या यातना देकर मार डाला तो मेरा क्या होगा?” यह सोचकर, मैं दोबारा बाहर जाकर उपदेश सुनाने से डरने लगा। उस समय मैंने महसूस किया कि मेरी दशा ठीक नहीं है, इसलिए मैंने प्रार्थना की और परमेश्वर को अपना दिल सौंपकर उससे मार्गदर्शन माँगा। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे आत्मविश्वास और शक्ति मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “परमेश्वर लोगों पर पूर्णता का कार्य करता है, और वे इसे देख नहीं सकते, महसूस नहीं कर सकते; इन परिस्थितियों में तुम्हारा विश्वास आवश्यक होता है। लोगों का विश्वास तब आवश्यक होता है, जब कोई चीज खुली आँखों से न देखी जा सकती हो, और तुम्हारा विश्वास तब आवश्यक होता है, जब तुम अपनी धारणाएँ नहीं छोड़ पाते। जब तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में स्पष्ट नहीं होते, तो आवश्यक होता है कि तुम विश्वास बनाए रखो, रवैया दृढ़ रखो और गवाह बनो। जब अय्यूब इस मुकाम पर पहुँचा, तो परमेश्वर उसे दिखाई दिया और उससे बोला। अर्थात्, केवल अपने विश्वास के भीतर से ही तुम परमेश्वर को देखने में समर्थ हो पाओगे, और जब तुम्हारे पास विश्वास होगा तो परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाएगा। विश्वास के बिना वह ऐसा नहीं कर सकता। परमेश्वर तुम्हें वह सब प्रदान करेगा, जिसे पाने की तुम आशा करते हो। अगर तुम्हारे पास विश्वास नहीं है, तो तुम्हें पूर्ण नहीं बनाया जा सकता और तुम परमेश्वर के कार्य को देखने में असमर्थ होगे, उसकी सर्वशक्तिमत्ता को तो बिलकुल भी नहीं देख पाओगे। जब तुम्हारे पास यह विश्वास होता है कि तुम अपने व्यावहारिक अनुभव में उसके कार्य को देख सकते हो, तो परमेश्वर तुम्हारे सामने प्रकट होगा और भीतर से तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। इस विश्वास के बिना परमेश्वर ऐसा करने में असमर्थ होगा। अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास खो चुके हो, तो तुम कैसे उसके कार्य का अनुभव कर पाओगे? इसलिए, जब तुम्हारे पास विश्वास होता है और तुम परमेश्वर पर संदेह नहीं करते, फिर चाहे वह कुछ भी करे, अगर तुम उस पर सच्चा विश्वास करते हो, केवल तभी वह तुम्हारे अनुभवों में तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन करेगा, और केवल तभी तुम उसके कार्य को देख पाओगे। ये सभी चीजें विश्वास के माध्यम से ही प्राप्त की जाती हैं। विश्वास केवल शोधन के माध्यम से ही आता है, और शोधन की अनुपस्थिति में विश्वास विकसित नहीं हो सकता। यह ‘विश्वास’ शब्द किस चीज को संदर्भित करता है? विश्वास सच्चा भरोसा और ईमानदार हृदय है, जो मनुष्यों के पास तब होना चाहिए जब वे किसी चीज को देख या छू न सकते हों, जब परमेश्वर का कार्य मनुष्यों की धारणाओं के अनुरूप न होता हो, जब वह मनुष्यों की पहुँच से बाहर हो। मैं इसी विश्वास की बात करता हूँ(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। मैंने सीखा कि परीक्षणों और संकटों का सामना करते समय अगर हममें आस्था की कमी होती है और हम सक्रिय होकर सहयोग नहीं करते तो परमेश्वर के पास हममें कार्य करने का कोई उपाय नहीं बचता और हम उसके हाथों पूर्ण नहीं बन सकते। हम किसी चीज को देखने में जितने ज्यादा असमर्थ रहते हैं, हमें उतनी ही अधिक आस्था रखने की जरूरत है, और परीक्षणों से गुजरना ही आस्था बढ़ाने का अकेला तरीका है। अग्रिम मोर्चे पर लड़ते हुए सुसमाचार साझा करना, शत्रु सैनिकों के हाथ में पड़ने के खतरे का सामना करना एक परीक्षण था, मेरी परीक्षा थी। मुझमें आस्था की कमी थी और मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता की सच्ची समझ नहीं थी। मुझे सच्चे मन से विश्वास नहीं था कि परमेश्वर सब पर शासन करता है, इसलिए मुझमें आस्था नहीं थी। सुसमाचार प्रचार के दौरान खतरनाक माहौल का सामना करते हुए, मैं पकड़े जाने और यातनाएँ पाकर मारे जाने से डर गया, इसलिए मैं बाहर जाकर प्रचार करने की हिम्मत नहीं जुटा सका। मैं सच्चे मन से परमेश्वर को अपना हृदय नहीं सौंप पाया। दरअसल, परमेश्वर इस तरह की स्थिति खड़ी कर रहा था ताकि वह मुझे और अधिक सत्य दे सके, ताकि मैं सत्य खोज सकूँ, इसे अभ्यास में ला सकूँ, और परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और मानवजाति के भाग्य पर उसके शासन के साथ ही यह तथ्य भी मान सकूँ कि मेरा जीवन-मरण भी उसी के हाथों में है। अब जबकि मैं इस तरह के खतरनाक माहौल का सामना कर रहा था, मुझे वास्तव में इसे अनुभव करते हुए जीना था, और परमेश्वर के कर्मों को देखने और सच्ची आस्था विकसित करने के लिए यही अकेला रास्ता था। एक बार परमेश्वर की इच्छा समझ लेने के बाद मेरे दिल में उजाला हो गया और मुझे उतना डर नहीं लगा।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जो और भी अधिक प्रेरणादायी था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “परमेश्वर के पास उसके प्रत्येक अनुयायी के लिए एक योजना है। उनमें से प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर द्वारा बनाया गया एक परिवेश है, जिसमें वह अपना कर्तव्य निभा सकता है, और उसके पास परमेश्वर का अनुग्रह और कृपा है जो मनुष्य के आनंद लेने के लिए है। उसके पास विशेष परिस्थितियाँ भी होती हैं, जिन्हें परमेश्वर मनुष्य के लिए निर्धारित करता है, और बहुत सारी पीड़ा है जो उसे सहनी होगी—सहज जीवन जैसा कुछ नहीं होता, जैसी कि मनुष्य कल्पना करता है। इसके अलावा, यदि तुम यह स्वीकारते हो कि तुम सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें सुसमाचार फैलाने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करने और अपना कर्तव्य समुचित रूप से निभाने की खातिर कष्ट भुगतने और कीमत चुकाने के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। यह कीमत कोई शारीरिक बीमारी या कठिनाई या बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न या सांसारिक लोगों की गलतफहमियाँ, और साथ ही वे क्लेश सहना भी हो सकती है जिनसे सुसमाचार फैलाते समय व्यक्ति गुजरता है : जैसे विश्वासघात किया जाना, पिटाई और डाँट-फटकार किया जाना; निंदा किया जाना—यहाँ तक कि घेरकर हमला किया जाना और मृत्यु के खतरे में डाल दिया जाना। सुसमाचार फैलाने के दौरान, यह संभव है कि परमेश्वर का कार्य पूरा होने से पहले ही तुम्हारी मृत्यु हो जाए, और तुम परमेश्वर की महिमा का दिन देखने के लिए जीवित न बचो। तुम्हें इसके लिए तैयार रहना चाहिए। इसका उद्देश्य तुम लोगों को भयभीत करना नहीं है; यह सच्चाई है। ... प्रभु यीशु के उन अनुयायियों की मौत कैसे हुई? उनमें ऐसे अनुयायी थे जिन्हें पत्थरों से मार डाला गया, घोड़े से बाँध कर घसीटा गया, सूली पर उलटा लटका दिया गया, पाँच घोड़ों से खिंचवाकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए—हर प्रकार की मौत उन पर टूटी। उनकी मृत्यु का कारण क्या था? क्या उन्हें उनके अपराधों के लिए कानूनी तौर पर फाँसी दी गई थी? नहीं। उनकी भर्त्सना की गई, पीटा गया, डाँटा-फटकारा गया और मार डाला गया, क्योंकि उन्होंने प्रभु का सुसमाचार फैलाया था और उन्हें इस संसार के लोगों ने ठुकरा दिया था—इस तरह वे शहीद हुए। ... वास्तव में, उनके शरीर इसी तरह मृत्यु को प्राप्त हुए और चल बसे; यह मानव संसार से प्रस्थान का उनका अपना माध्यम था, तो भी इसका यह अर्थ नहीं था कि उनका परिणाम भी वैसा ही था। उनकी मृत्यु और प्रस्थान का साधन चाहे जो रहा हो, या यह चाहे जैसे भी हुआ हो, यह वैसा नहीं था जैसे परमेश्वर ने उनके जीवन को, उन सृजित प्राणियों के अंतिम परिणाम को परिभाषित किया था। तुम्हें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। इसके विपरीत, उन्होंने इस संसार की भर्त्सना करने और परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए ठीक उन्हीं साधनों का उपयोग किया। इन सृजित प्राणियों ने अपने सर्वाधिक बहुमूल्य जीवन का उपयोग किया—उन्होंने परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए अपने जीवन के अंतिम क्षण का उपयोग किया, परमेश्वर के महान सामर्थ्य की गवाही देने के लिए उपयोग किया, और शैतान तथा इस संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए किया कि परमेश्वर के कर्म सही हैं, प्रभु यीशु परमेश्वर है, वह प्रभु है, और परमेश्वर का देहधारी शरीर है। यहां तक कि अपने जीवन के बिल्कुल अंतिम क्षण तक उन्होंने प्रभु यीशु का नाम कभी नहीं छोड़ा। क्या यह इस संसार के ऊपर न्याय का एक रूप नहीं था? उन्होंने अपने जीवन का उपयोग किया, संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए, मानव प्राणियों के समक्ष यह पुष्टि करने के लिए कि प्रभु यीशु प्रभु है, प्रभु यीशु मसीह है, वह परमेश्वर का देहधारी शरीर है, कि समस्त मानवजाति के लिए उसने जो छुटकारे का कार्य किया, उसी के कारण मानवता जीवित है—यह सच्चाई कभी बदलने वाली नहीं है। जो लोग प्रभु यीशु के सुसमाचार को फैलाने के लिए शहीद हुए, उन्होंने किस सीमा तक अपने कर्तव्य का पालन किया? क्या यह अंतिम सीमा तक किया गया था? यह अंतिम सीमा कैसे परिलक्षित होती थी? (उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया।) यह सही है, उन्होंने अपने जीवन से कीमत चुकाई। परिवार, सम्पदा, और इस जीवन की भौतिक वस्तुएँ, सभी बाहरी उपादान हैं; स्वयं से संबंधित एकमात्र चीज जीवन है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के लिए, जीवन सर्वाधिक सहेजने योग्य है, सर्वाधिक बहुमूल्य है, और असल में कहा जाए तो ये लोग मानव-जाति के प्रति परमेश्वर के प्रेम की पुष्टि और गवाही के रूप में, अपनी सर्वाधिक बहुमूल्य चीज अर्पित कर पाए, और वह चीज है—जीवन। अपनी मृत्यु के दिन तक उन्होंने परमेश्वर का नाम नहीं छोड़ा, न ही परमेश्वर के कार्य को नकारा, और उन्होंने जीवन के अपने अंतिम क्षणों का उपयोग इस तथ्य के अस्तित्व की गवाही देने के लिए किया—क्या यह गवाही का सर्वोच्च रूप नहीं है? यह अपना कर्तव्य निभाने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है; अपना उत्तरदायित्व इसी तरह पूरा किया जाता है। जब शैतान ने उन्हें धमकाया और आतंकित किया, और अंत में, यहां तक कि जब उसने उनसे अपने जीवन की कीमत अदा करवाई, तब भी उन्होंने अपनी जिम्मेदारी नहीं छोड़ी। यह उनके कर्तव्य-निर्वहन की पराकाष्ठा है। इससे मेरा क्या आशय है? क्या मेरा आशय यह है कि तुम लोग भी परमेश्वर की गवाही देने और उसका सुसमाचार फैलाने के लिए इसी तरीके का उपयोग करो? तुम्हें हूबहू ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु तुम्हें समझना होगा कि यह तुम्हारा दायित्व है, यदि परमेश्वर ऐसा चाहे, तो तुम्हें इसे अपने बाध्यकारी कर्तव्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। मैंने जाना कि परमेश्वर के नियम और व्यवस्था से ही हम सब उसका अनुसरण कर पाते हैं और वह ऐसी स्थितियाँ भी बनाता है जिसमें हम अपने कर्तव्य का पालन कर सकते हैं। सुसमाचार प्रचार के दौरान तमाम हालात और खतरों से हमारा सामना होना तय है। कुछ अपमानित किए जाते हैं, कुछ पीटे और झिड़के जाते हैं, कुछ शैतान के अधिकार में सौंपे जाकर यातनाएँ सहते हैं, और कुछ तो अपने जीवन से ही हाथ धो बैठते हैं। लेकिन चाहे जो स्थिति हो, मैं एक सृजित प्राणी हूँ और मुझे हर समय अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। सुसमाचार सुनाना मेरे जीवन का मिशन और मेरी जिम्मेदारी है। यह चाहे जितना भी कटु और कठिन हो, चाहे मुझे अपनी जान देकर कीमत चुकानी पड़े, मुझे अपना कर्तव्य निभाकर जिम्मेदारी पूरी करनी होगी। मैंने उन शिष्यों के बारे में सोचा जिन्होंने अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु का अनुसरण किया। उन्होंने भी प्रभु के सुसमाचार फैलाते हुए अनेक खतरों का सामना किया। कुछ को पीटा और फटकारा गया, कुछ को कैद कर लिया गया, और कुछ को सूली चढ़ा दिया गया, यातना देकर मौत की कगार पर पहुँचा दिया गया। लेकिन उन्होंने न तो शिकायत की, न अपना कर्तव्य और दायित्व ही छोड़ा। आखिरकार, उन्होंने मृत्यु पर्यंत आज्ञापालन किया, अपना जीवन देकर परमेश्वर के कर्मों और परमेश्वर की अत्यधिक सामर्थ्य की गवाही देकर दुष्ट शैतान को अपमानित किया। वे इसलिए नहीं मरे कि उन्होंने कुछ बुरा किया था, बल्कि इसका उद्देश्य परमेश्वर के नाम की गवाही देना था, और यह भी कि प्रभु यीशु सृष्टि का प्रभु है। उन्होंने परमेश्वर का सुसमाचार साझा करने और उसकी गवाही देने की कीमत जान देकर चुकाई। यही सबसे सार्थक बात है। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी निभाई। परमेश्वर ऐसे सृजित प्राणियों को स्वीकृति देता है, और भले ही उनका देहांत हो गया, उनकी आत्माएँ परमेश्वर के हाथ में और परमेश्वर की व्यवस्था के अधीन हैं। मैंने कुछ आत्म-चिंतन भी किया। जान पर बन आई तो मैं कायर बन गया और सुसमाचार साझा करने बाहर नहीं जाना चाहा। मैं अब भी अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा के बारे में सोच रहा था—मुझे सच्चा प्रेम अपने जीवन से था। मुझे लगा कि मैं अपनी किस्मत को नियंत्रित कर सकता हूँ, कि अगर मैं बाहर जाकर प्रचार न करूँ, तो खतरे या मृत्यु का सामना नहीं करना पड़ेगा। लेकिन अब मैं समझ गया, कि सुसमाचार प्रचार न करने भर से मैं सुरक्षित नहीं हो सकता। मैं सुरक्षा गार्ड के पद पर था, जो बहुत ही खतरनाक है, और मुझ पर घात लगाकर हमला हो सकता था। यही नहीं, जब हम पानी लेने या स्थानीय लोगों से कुछ खरीदने जाते थे तो यह भी खतरनाक था। दुश्मन के सैनिक हम पर किसी भी पल हमला कर सकते थे। मेरा जीवन ऐसा नहीं था जिसे मैं अपने दम पर नियंत्रित कर सकता था। हम दुश्मन के हाथों में पड़ जाएँगे या नहीं, यह पूरी तरह परमेश्वर के हाथ में था। अगर वह इसकी अनुमति न दे तो भले ही मैं प्रचार करने बाहर जाऊँ, मैं पकड़ा नहीं जाऊँगा। अगर परमेश्वर को मंजूर हुआ तो भले ही मैं प्रचार करने बाहर न जाऊँ, फिर भी मुझ पर हमला हो सकता है या मैं पकड़ा जा सकता हूँ। मैं सृजित प्राणी हूँ जिसे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। चाहे जो भी हो, मुझे सुसमाचार प्रचार और अपना कर्तव्य निभाते रहना चाहिए। अगर मैं सुसमाचार प्रचार न करने और परमेश्वर की गवाही न देने के लिए हरदम बहाना ढूंढ़ता हूँ, अपना कर्तव्य नहीं निभाता, तो मैं तब भी शरीर से तो जीवित रहूँगा लेकिन परमेश्वर के लिए मैं सृजित प्राणी के रूप में अपना कार्य खो बैठूँगा और मेरा जीवन निरर्थक हो जाएगा। अंत में परमेश्वर मुझे त्याग देगा, और मुझे बचाया नहीं जाएगा। मोर्चे पर बस्तियों में प्रचार करने जाना खतरनाक था, लेकिन परमेश्वर का सुसमाचार प्रचार करके इसकी पहुँच बढ़ाने की खातिर, मैं जिंदगी से चिपका नहीं रह सकता, मुझे मृत्यु की संभावना का सही ढंग से सामना करना चाहिए, और जरूरी हुआ तो प्रचार करते रहने की कीमत जान देकर चुकानी चाहिए, इस तरह अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। यह गवाही है, और अपना कर्तव्य निभाने का यह सर्वोत्तम तरीका है। मैं यह भी समझ गया कि मैं सृजित प्राणी और परमेश्वर का अनुयायी हूँ। मैं चाहे जैसी खतरनाक स्थिति का सामना करूँ, सुसमाचार फैलाना मेरे जीवन का मकसद और एक ऐसा कर्तव्य है जिसे मुझे पूरा करना है। मैं कभी भी सुसमाचार साझा करना कतई बंद नहीं कर सकता। उसके बाद मेरे साथ प्रचार करने जाने के लिए दो और भाई निकोलस और आर्थर मिल गए।

एक दिन हम एक बस्ती में गए और दस लोग हमें सुनने आ गए। हमने उनके साथ संगति की कि आपदाओं में कैसे बचा जा सकता है : “आपदाएँ अब बड़ी से बड़ी होती जा रही हैं, बिल्कुल यहाँ की तरह, हम लगातार युद्धरत हैं और यहाँ का पानी भी खून से सना हुआ है। फिर महामारी भी है...। इन सभी आपदाओं के बीच, हमें वास्तव में कौन बचा सकता है? केवल वो उद्धारक, वो एक सच्चा परमेश्वर जिसने स्वर्ग और धरती और सभी चीजें बनाईं, वही हमें बचा सकता है।” फिर हमने उनके लिए उपदेशों की कुछ रिकॉर्डिंग चलाईं जिनमें यह बताया गया कि मनुष्य क्यों जन्म लेते हैं, बूढ़े और बीमार होकर मर जाते हैं, आपदाओं में परमेश्वर से सुरक्षा कैसे पाएँ, शैतान लोगों को कैसे भ्रष्ट करता है, और मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर कैसे कार्य करता है। इनमें सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश भी थे : “तथ्य ये हैं : पृथ्वी के अस्तित्व से पहले, प्रधान स्वर्गदूत स्वर्ग के स्वर्गदूतों में सबसे महान था। स्वर्ग के सभी स्वर्गदूतों पर उसका अधिकार था; और यह अधिकार उसे परमेश्वर ने दिया था। परमेश्वर के अपवाद के साथ, वह स्वर्ग के स्वर्गदूतों में सर्वोच्च था। बाद में जब परमेश्वर ने मानवजाति का सृजन किया, तब प्रधान स्वर्गदूत ने पृथ्वी पर परमेश्वर से और भी बड़ा विश्वासघात किया। मैं इसलिए कहता हूँ कि उसने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया क्योंकि वह मानवजाति का प्रबंधन करना और परमेश्वर के अधिकार से आगे बढ़ना चाहता था। यह प्रधान स्वर्गदूत ही था जिसने हव्वा को पाप करने के लिए ललचाया; उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह पृथ्वी पर अपना राज्य स्थापित करना और मानवजाति से परमेश्वर को धोखा दिलाकर अपना आज्ञापालन करवाना चाहता था। उसने देखा कि बहुत-सी चीजें हैं जो उसका आज्ञापालन कर सकती थीं—स्वर्गदूत उसकी आज्ञा मान सकते थे, ऐसे ही पृथ्वी पर लोग भी उसकी आज्ञा मान सकते थे। पृथ्वी पर पक्षी और पशु, वृक्ष और जंगल, पर्वत और नदियाँ और सभी वस्तुएँ मनुष्य—अर्थात, आदम और हव्वा—की देखभाल के अधीन थीं, जबकि आदम और हव्वा प्रधान स्वर्गदूत का आज्ञापालन करते थे। इसलिए प्रधान स्वर्गदूत परमेश्वर के अधिकार से आगे बढ़ना और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना चाहता था। इसके बाद उसने परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने के लिए बहुत से स्वर्गदूतों की अगुआई की, जो बाद में विभिन्न अशुद्ध आत्माएँ बन गए। क्या आज के दिन तक मानवजाति का विकास प्रधान स्वर्गदूत की भ्रष्टता के कारण नहीं है? मानवजाति जैसी आज है, केवल इसलिए है क्योंकि प्रधान स्वर्गदूत ने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया और मानवजाति को भ्रष्ट कर दिया(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें पता होना चाहिए कि समस्त मानवजाति आज के दिन तक कैसे विकसित हुई)। “सबसे पहले, लोगों को यह समझना चाहिए कि उनके पूरे जीवन में जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु की पीड़ा कहाँ से आती है और मनुष्य ये चीजें क्यों झेलता है। क्या ये तब थीं जब मनुष्य पहली बार सृजित किया गया था? ये पीड़ाएँ कहाँ से आईं? ये पीड़ाएँ तब पैदा हुईं जब मनुष्य को शैतान ने लालच देकर भ्रष्ट बना दिया और फिर उसका पतन हो गया। मनुष्य की देह की पीड़ा, परेशानियाँ और खोखलापन, और मनुष्य की दुनिया में सभी अधम चीजें—ये सभी शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किए जाने के बाद प्रकट हुईं। शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किए जाने के बाद, शैतान ने मनुष्य को पीड़ा देना शुरू कर दिया, और इस तरह मनुष्य और भी ज्यादा गिर गया, उसकी बीमारी और भी ज्यादा गंभीर हो गई, उसकी पीड़ा और भी ज्यादा बढ़ गई, और उसे इस बात का अधिकधिक एहसास हुआ कि दुनिया खोखली और दुखद है, कि इस दुनिया में जीवित रहना असंभव है, और इस दुनिया में रहना अधिकाधिक निराशाजनक है। तो मनुष्य के लिए यह पीड़ा शैतान लाया और यह सारी पीड़ा तब पैदा हुई जब वह शैतान के हाथों भ्रष्ट बनकर पतित हो गया(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर द्वारा जगत की पीड़ा का अनुभव करने का अर्थ)। “एक के बाद एक सभी तरह की आपदाएँ आ पड़ेंगी; सभी राष्ट्र और स्थान आपदाओं का सामना करेंगे : हर जगह महामारी, अकाल, बाढ़, सूखा और भूकंप आएँगे। ये आपदाएँ सिर्फ एक-दो जगहों पर ही नहीं आएँगी, न ही वे एक-दो दिनों में समाप्त होंगी, बल्कि इसके बजाय वे बड़े से बड़े क्षेत्र तक फैल जाएँगी, और अधिकाधिक गंभीर होती जाएँगी। इस दौरान, एक के बाद एक सभी प्रकार की कीट-जनित महामारियाँ उत्पन्न होंगी, और हर जगह नरभक्षण की घटनाएँ होंगी। सभी राष्ट्रों और लोगों पर यह मेरा न्याय है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 65)। उन्होंने ये वचन सुने और सोचा कि ये बहुत अच्छे हैं। कुछ लोगों ने कहा, “हमने ऐसे वचन पहले कभी नहीं सुने। ये बहुत अद्भुत हैं और दिल को छूते हैं।” कुछ ने कहा, “यहाँ आने और यह सुसमाचार सुनाने और हमें परमेश्वर की वाणी सुनाने के लिए शुक्रिया।” और दूसरों ने कहा, “हमें उम्मीद है कि आप दुबारा आएँगे।” उन दस लोगों ने उसी दिन सुसमाचार सुनकर इसे स्वीकार लिया। मैंने उनसे कहा कि हम उसी शाम दुबारा आएँगे, और उन्हें अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को लाने के लिए भी प्रेरित किया। उस शाम को वे दर्जन भर और लोगों को लेकर आए। उपदेशों की रिकॉर्डिंग और परमेश्वर के वचन सुनने के बाद उन सबने सुसमाचार स्वीकार लिया और वादा किया कि हर शाम को जब भी समय मिलेगा वे इन्हें सुनने आएँगे। मुझे बहुत खुशी हुई। उसके बाद से, जब भी हमें समय मिलता, हम दिन के समय प्रचार करते रहते थे, और रात में उनका सिंचन करते थे। सिंचन के बाद हम वापस चुपचाप अपनी चौकियों में लौट आते। इसके लगभग एक महीने बाद, वे सभी अपनी सभाओं में बहुत ही स्थिर और व्यस्त रहने लगे। वे दूसरों को भी उपदेश सुनने के लिए लाते थे। ज्यादा से ज्यादा लोगों ने सुसमाचार स्वीकार लिया। यह परिणाम देखकर मैं वास्तव में खुश हो गया और इसने मुझे भावुक कर दिया। मोर्चे पर सुसमाचार प्रचार करने और उन नागरिकों को परमेश्वर के समक्ष लाने की मेरी क्षमता परमेश्वर के मार्गदर्शन का नतीजा थी और इससे मुझे वाकई सुकून मिला।

एक शाम मैं कुछ नए विश्वासियों का सिंचन करने बस्ती में गया। वापस लौटते हुए मेरा सामना एक कंपनी कमांडर से हुआ जो नाइट विजन उपकरणों के साथ गश्त कर रहा था। उसने मुझे देख लिया, और यह सोचकर कि मैं दुश्मन हूँ और घात लगाने आ रहा हूँ, उसने मुझे पकड़ने के लिए कुछ सैनिक जुटा लिए। वे ज्यों ही गोली चलाने वाले थे, मैंने हाथ खड़े कर पुकारा। भाई शॉन ने मुझे पहचान लिया, वरना वे गोलियाँ चला देते। अगले दिन भाई शॉन ने मुझसे कहा, “कल रात तुम्हें गोली लगने ही वाली थी। गनीमत है कि मैंने तुम्हारी आवाज पहचान ली।” यह सुनकर मैं बहुत हिल गया, और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर उसकी सुरक्षा के लिए धन्यवाद कहा। मुझे परमेश्वर के वचनों में से कुछ याद आया : “मनुष्य का हृदय और आत्मा परमेश्वर के हाथ में हैं, उसके जीवन की हर चीज़ परमेश्वर की दृष्टि में रहती है। चाहे तुम यह मानो या न मानो, कोई भी और सभी चीज़ें, चाहे जीवित हों या मृत, परमेश्वर के विचारों के अनुसार ही जगह बदलेंगी, परिवर्तित, नवीनीकृत और गायब होंगी। परमेश्वर सभी चीज़ों को इसी तरीके से संचालित करता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। मैंने देखा कि परमेश्वर हर चीज पर शासन कर उसे नियंत्रित करता है। लोगों के दिल और आत्माएँ उसके हाथ में हैं। कोई भी चीज जीवित हो या मृत, सब कुछ परमेश्वर के विचारों के अनुसार हटती या बदलती हैं। हम जिएँ या मरें, यह फैसला और व्यवस्था भी परमेश्वर करता है। एक रात पहले मेरे साथी सैनिक मुझ पर गोली चलाते या नहीं, यह भी परमेश्वर के हाथ में था। भाई शॉन से सामना होना भी परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन था। उसने किसी तरह मेरी आवाज पहचान ली, इसीलिए उसने गोली नहीं चलाई। यह सब कुछ परमेश्वर ने पहले से तय किया था। मैं परमेश्वर का बहुत शुक्रगुजार था, और भावुक हो गया। अपने लिए मैं परमेश्वर के प्रेम और सुरक्षा को समझ पा रहा था, और मैंने देखा कि उसके कर्म कितने चकित करने वाले हैं। उसके बाद मैं उन दोनों भाइयों के साथ सुसमाचार प्रचार करने बस्ती में जाता रहा। हमने सत्तावन लोगों के साथ सुसमाचार साझा किया, वे सभी कलीसिया में शामिल हो गए। परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए मैं वाकई आभारी था।

कुछ समय बाद, उस इलाके में सुसमाचार प्रचार का काम काफी हद कर पूरा हो चुका था, और अब मैं दूसरे इलाके में जाने के बारे में सोचने लगा। तभी उसी दिन हमारी टुकड़ी दूसरी बस्ती में भेज दी गई, जिसके दायरे में दो गाँव थे। मैं नए इलाके में सुसमाचार प्रचार कर सकने से बहुत ही खुश था। उस बस्ती में भी बहुत खतरा था—दुश्मन सैनिक कभी भी हमला कर सकते थे। यहाँ पहुँचते ही हमें एक बारूदी सुरंग मिली। मैं थोड़ा-सा सहम गया, डर लगा कि दुश्मन सैनिक नागरिकों के वेश में अचानक कहीं से भी आ सकते हैं। अगर हमारी गिनती कम हुई या हम अकेले, निहत्थे निकले और हमारा उनसे सामना हुआ, तो वे हमें मारने या पकड़ने का मौका नहीं चूकेंगे। लेकिन पिछले इलाके में अपने अनुभव से मैंने परमेश्वर के चमत्कारी कर्म देख लिए थे, और मैं जानता था कि सुसमाचार प्रचार मेरी जिम्मेदारी है। चाहे जो भी हो, मुझे यह करते रहना था। यह सोचकर मैं अब और इतना बेबस नहीं रहा, और जब भी समय मिलता मैं सुसमाचार सुनाने जाता रहा। जब हम बस्ती में गए तो लापरवाही बरतने का साहस नहीं किया और बंदूकें साथ ले गए। हमने गाँव के उप मुखिया और उसकी पत्नी और माँ के साथ सुसमाचार साझा करने की शुरुआत की, और उन्हें रिकॉर्डिंग सुनाईं। इन रिकॉर्डिंग में बताया गया कि परमेश्वर ने किस प्रकार शुरुआत में स्वर्ग और धरती और तमाम चीजें बनाईं, मानवजाति किस प्रकार पथभ्रष्ट होने लगी, साथ ही अंत के दिनों में आपदाओं और युद्धों के बारे में बताया, और यह भी कि ये प्रभु के आगमन के संकेत हैं। प्रभु यीशु मानवजाति को बचाने के लिए पहले ही देह में लौट चुका है। वह अंत के दिनों का मसीह है, सर्वशक्तिमान परमेश्वर है। मानवता को शुद्ध करने और बचाने के लिए वह सत्य व्यक्त कर रहा है, अंत के दिनों का न्याय कार्य कर रहा है ताकि हम बुराई और आपदाओं से बच सकें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के समक्ष आने पर ही हम परमेश्वर का उद्धार हासिल कर स्वर्ग के राज्य में जा सकते हैं। उन्होंने इस गवाही को सुना और सबने कहा कि यह अद्भुत है। गाँव के उप मुखिया ने कहा, “तुमने अभी-अभी जो कुछ कहा, उसे लिखने के लिए नोटबुक लाने दो, ताकि मैं बाद में और ज्यादा पढ़ सकूँ।” मैंने कहा, “इस बारे में चिंता मत करो, हम कल फिर आएँगे। क्या तुम कुछ और लोगों को सुनने के लिए बुला सकते हो?” उसने जवाब दिया, “तुम जो कह रहे हो, वह बहुत अच्छा और सही है। मैं गाँव का उप मुखिया हूँ, इसलिए मुझे ग्रामीणों को इसे एक साथ सुनने के लिए बुलाना चाहिए।” अगले दिन वह हमारे उपदेश सुनने के लिए कुछ और लोगों को ले आया। अंततः इन दो गाँवों के 94 लोगों ने अंत के दिनों का सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकार लिया। मैं वास्तव में परमेश्वर का शुक्रगुजार था कि उसने मेरे वहाँ जाने की व्यवस्था की ताकि मैं सुसमाचार साझा कर अपना कर्तव्य पूरा कर सकूँ, जो परमेश्वर का उत्कर्ष है। मैंने परमेश्वर का इतना आभार माना!

इस सबसे गुजरकर मुझे यह व्यक्तिगत अनुभव हुआ कि लोगों के भाग्य पर परमेश्वर का शासन चलता है और हमारा जीवन-मरण उसके हाथों में है। इससे मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता की और अधिक व्यावहारिक समझ मिली। पहले जब मैं अभी मोर्चे पर नहीं आया था, मैं जानता था कि सैनिक होना खतरे से खाली नहीं है, मैंने प्रार्थना की और अपना जीवन-मरण परमेश्वर के हाथों में सौंप दिया। लेकिन जब तक मैं वहाँ पहुँच नहीं गया, मैं नहीं जानता था कि परमेश्वर पर मेरी आस्था कितनी तुच्छ है। तब हर बार जब मेरा सामना किसी खतरनाक स्थिति से होता था तो मैं सहम जाता था और मुझ में आस्था की कमी रहती थी, तो परमेश्वर के वचन मेरा पोषण और मार्गदर्शन करते थे, और मुझे आस्था और शक्ति देते थे। केवल इसी कारण मैं पीछे नहीं हटा और मैंने अपना कर्तव्य निभाना नहीं छोड़ा। इस तरह का अनुभव पाने के लिए मैं वास्तव में परमेश्वर का आभारी था। मैं भविष्य में चाहे जहाँ पहुँचूँ, वह जगह चाहे जितनी खतरनाक हो, परमेश्वर का सुसमाचार फैलाना मेरे जीवन का मिशन है। मुझे परमेश्वर पर आस्था रखनी है, उसे अपना दिल अर्पित करना है, और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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