परिचय

परमेश्वर के वचनों के इस भाग में कुल चार खंड हैं जो मसीह द्वारा जून 1992 से लेकर 23 मार्च 2010 के बीच व्यक्त किए गए थे। इनमें से अधिकतर मसीह के उन प्रवचनों और संवादों की रिकॉर्डिंग पर आधारित हैं, जो उसने कलीसियाओं में अपनी यात्राओं के दौरान व्यक्त किए थे। इन्हें किसी भी रूप में संशोधित नहीं किया गया है, न ही मसीह ने बाद में इनमें कोई बदलाव किया था। शेष खंड स्वयं मसीह ने लिखे थे (जब मसीह लिखता है, तो वह सोचने के लिए रुके बिना या कोई संपादन किए बिना एक ही बार में लिखता है, और उसके वचन पूरी तरह से पवित्र आत्मा की अभिव्यक्ति हैं—इसमें कोई संदेह नहीं है)। इन दो तरह के कथनों को अलग करने के बजाय, हमने इन्हें एक-साथ उसी क्रम में प्रस्तुत किया है, जिस क्रम में ये मूलतः व्यक्त किए गए थे; इससे हम उसके कथनों की समग्रता से, परमेश्वर के कार्य के चरणों को देख पाते हैं और समझ पाते हैं कि वह प्रत्येक चरण में कैसे कार्य करता है। यह लोगों के लिए परमेश्वर के कार्य के चरणों और परमेश्वर की बुद्धि का ज्ञान प्राप्त करने के लिए लाभदायक है।

“कलीसियाओं में जाकर बोले गए मसीह के वचन (I)”—के पहले आठ अध्याय सम्मिलित रूप से “मार्ग” के रूप में संदर्भित हैं—ये मसीह द्वारा बोले गए वचनों का वह छोटा अंश हैं जो उसने लोगों के साथ बराबरी पर खड़े होकर बोले थे। अपनी स्पष्ट नीरसता के बावजूद, ये वचन इंसान के लिए परमेश्वर के प्रेम और उसके प्रति उसकी चिंता से भरे हुए हैं। इससे पहले, परमेश्वर ने तीसरे स्वर्ग के दृष्टिकोण से बात की थी, जिसने उसके और इंसान के बीच बहुत ज़्यादा दूरी बना दी थी। इंसान परमेश्वर के पास जाने से डरने लगा था, परमेश्वर से अपने जीवन-पोषण की माँग करना तो बहुत दूर की बात है। इसलिए, “मार्ग” में परमेश्वर ने इंसान से बराबरी के स्तर पर बात की, मार्ग की दिशा की ओर इशारा किया और इस तरह परमेश्वर के साथ इंसान के संबंध को उसकी मूल स्थिति में बहाल किया; लोगों को अब इस बात पर संदेह नहीं रहा कि परमेश्वर अभी भी बातचीत का तरीका अपना रहा है, और वे अब मौत के परीक्षण के आतंक से ग्रस्त भी नहीं रहे। परमेश्वर तीसरे स्वर्ग से धरती पर उतरा, लोग आग और गंधक की झील से परमेश्वर के सिंहासन के सामने आए, उन्होंने “सेवा करने वालों” की छाया का त्याग किया, और नवजात बछड़ों की तरह, आधिकारिक रूप से परमेश्वर के वचनों का बप्तिस्मा स्वीकार कर लिया। तब जाकर परमेश्वर उनसे अंतरंग रूप से बातचीत करने और उन्हें जीवन प्रदान करने का अधिक कार्य कर पाया। परमेश्वर का इंसान की तरह दीन बनने का उद्देश्य लोगों के करीब आना, उनके और अपने बीच की दूरी कम करना, लोगों की मान्यता और विश्वास प्राप्त करना और लोगों में जीवन और परमेश्वर का अनुसरण करने के संकल्प को प्रेरित करना था। “मार्ग” के आठ अध्यायों को उन कुंजियों के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जिनसे परमेश्वर लोगों के दिलों के द्वार खोलता है, और मिलकर वे ऐसी चीनी-लेपित गोली का रूप ले लेते हैं, जिसे परमेश्वर इंसान को प्रदान करता है। परमेश्वर द्वारा ऐसा किए जाने पर ही लोग परमेश्वर की बार-बार दी गई शिक्षाओं और फटकार पर बारीकी से ध्यान देते हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि इसके बाद ही परमेश्वर ने आधिकारिक रूप से कार्य के वर्तमान चरण में जीवन प्रदान करने और सत्य व्यक्त करने का कार्य शुरू किया, जैसा कि वह बोलता रहा : “विश्वासियों को क्या दृष्टिकोण रखना चाहिए” और “परमेश्वर के कार्य के चरणों के विषय में”...। क्या यह तरीका परमेश्वर की बुद्धि और उसके गंभीर इरादों को नहीं दर्शाता? यह मसीह की जीवन की आपूर्ति की शुरुआत है, इसलिए इसमें सत्य बाद के खंडों की तुलना में थोड़े उथले हैं। इसके पीछे का सिद्धांत बहुत सरल है : परमेश्वर इंसान की आवश्यकताओं के अनुसार कार्य करता है। वह आँख मूँदकर काम या बातचीत नहीं करता; केवल परमेश्वर ही इंसान की आवश्यकताओं को पूरी तरह से समझता है, अन्य किसी में इंसान के लिए अधिक प्रेम और समझ नहीं है।

“कार्य और प्रवेश” में एक से लेकर दस कथनों तक, परमेश्वर के वचन एक नए चरण में प्रवेश करते हैं। परिणामस्वरूप, ये कथन शुरू में रखे गए हैं। उसके बाद, “कलीसियाओं में जाकर बोले गए मसीह के वचन (II)” अस्तित्व में आए। इस चरण के दौरान, परमेश्वर ने अपने अनुयायियों से और विस्तृत अपेक्षाएँ कीं। इन अपेक्षाओं में लोगों के रहन-सहन, उनकी क्षमताओं से क्या अपेक्षित है आदि की जानकारी शामिल थी। चूँकि ये लोग परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए दृढ़-संकल्प थे और उन्हें परमेश्वर की पहचान और सार को लेकर कोई संदेह नहीं रहा था, इसलिए परमेश्वर ने भी उन्हें औपचारिक रूप से अपने परिवार का सदस्य मानना शुरू कर दिया और उनके साथ सृष्टि के समय से लेकर आज तक परमेश्वर के कार्य के अंदरूनी सत्य पर संवाद करने लगा, उनके सामने बाइबल के पीछे का सत्य प्रकट करने लगा, और उन्हें परमेश्वर के देहधारण का वास्तविक अर्थ समझाने लगा। इस खंड में परमेश्वर के कथनों ने लोगों को परमेश्वर के सार की, उसके कार्य के सार की बेहतर समझ दी। इससे वे यह समझ पाए कि उन्होंने परमेश्वर के उद्धार से जो कुछ प्राप्त किया है, वह उससे भी बढ़कर है, जो पिछले तमाम युगों में नबियों और प्रेरितों को हासिल हुआ था। परमेश्वर के वचनों की हर पंक्ति में तुम उसकी बुद्धि का एक-एक कण, साथ ही इंसान के लिए उसका सच्चा प्रेम और चिंता देख सकते हो। इन वचनों को व्यक्त करने के अलावा, परमेश्वर ने सबके सामने एक-एक करके इंसान की पिछली सारी धारणाओं और भ्रांतियों को, और उन चीज़ों को जिनकी पहले लोगों ने कभी कल्पना भी नहीं की थी, साथ ही उस मार्ग को जिस पर लोग भविष्य में चलने वाले थे, उजागर कर दिया। शायद ठीक यही वह संकीर्ण “प्रेम” है इंसान जिसका अनुभव करने में सक्षम है! आखिरकार, परमेश्वर ने बिना कुछ अपने पास रखे या बिना बदले में कुछ माँगे लोगों को वह सब दिया था जिसकी उसे जरूरत थी, वह सब प्रदान किया था जो उसने माँगा था।

इस खंड के कई अध्याय बाइबल का उल्लेख करते हैं। बाइबल हज़ारों साल से इंसानी इतिहास का हिस्सा रही है। इतना ही नहीं, लोग इसे परमेश्वर की तरह मानते हैं। यहाँ तक कि अंत के दिनों में इसने परमेश्वर की जगह ले ली है, जिससे परमेश्वर अप्रसन्न है। इसलिए, जब समय मिला, परमेश्वर ने बाइबल की अंदरूनी कहानी और उसकी उत्पत्ति को स्पष्ट करना ज़रूरी समझा। अगर वह ऐसा न करता, तो बाइबल लोगों के दिलों में परमेश्वर का स्थान बनाए रखती, और लोग परमेश्वर के कर्मों को मापने और उनका खंडन करने के लिए बाइबल के वचनों का इस्तेमाल करते रहते। बाइबल के सार, उसकी संरचना और उसकी कमियों की व्याख्या करके परमेश्वर किसी भी तरह से न तो बाइबल के अस्तित्व को नकार रहा था, न ही वह उसकी निंदा कर रहा था; बल्कि वह तो एक उपयुक्त और उचित विवरण मुहैया करा रहा था, जिससे बाइबल की मौलिक छवि बहाल हो सके। उसने बाइबल के प्रति लोगों की भ्रांतिपूर्ण समझ को दूर किया, और उनके सामने बाइबल की सही दृष्टि प्रस्तुत की, ताकि वे अब बाइबल की आराधना करके और भ्रमित न हों; जिसका तात्पर्य है कि, ताकि वे बाइबल में अपने अंधविश्वास को परमेश्वर में विश्वास और परमेश्वर की आराधना मानने की गलती न करें, और उसकी सच्ची पृष्ठभूमि और कमियों का सामना करने मात्र से भयभीत न हों। एक बार लोगों में बाइबल की विशुद्ध समझ पैदा हो जाए, तो वे बिना किसी खेद के इसे दरकिनार कर देंगे और परमेश्वर के नए वचनों को हिम्मत के साथ स्वीकार करेंगे। इन अनेक अध्यायों में परमेश्वर का यही लक्ष्य है। जो सत्य परमेश्वर लोगों को बताना चाहता है, वह यह है कि कोई भी सिद्धांत या तथ्य परमेश्वर के आज के कार्य और वचनों की जगह नहीं ले सकता, और कोई भी चीज़ परमेश्वर का स्थान नहीं ले सकती। अगर लोग बाइबल के फंदे से नहीं निकल सके, तो वे कभी भी परमेश्वर के सामने नहीं आ पाएँगे। अगर वे परमेश्वर के सामने आना चाहते हैं, तो उन्हें अपने दिल से हर वो चीज़ साफ करनी होगी, जो परमेश्वर की जगह ले सकती हो; तभी वे परमेश्वर के लिए संतोषजनक होंगे। हालाँकि यहाँ परमेश्वर केवल बाइबल का उल्लेख करता है, लेकिन यह बात मत भूलो कि बाइबल के अलावा भी ऐसी बहुत-सी भ्रांतिपूर्ण चीज़ें हैं जिन्हें लोग दिल से पूजते हैं; बस उन्हीं चीज़ों को लोग नहीं पूजते जो सचमुच परमेश्वर से आती हैं। परमेश्वर बाइबल का इस्तेमाल केवल लोगों को यह याद दिलाने के लिए एक उदाहरण के रूप में करता है कि वे कोई गलत रास्ता न अपनाएँ और परमेश्वर में विश्वास रखते हुए और उसके वचनों को स्वीकारते हुए फिर से चरम सीमाओं पर जाकर उलझन का शिकार न हो जाएँ।

परमेश्वर इंसान को जो वचन प्रदान करता है, वे हलके से गहरे तक जाते हैं। उसके कथनों के विषय इंसान के बाहरी व्यवहार और कामों से लेकर उसके भ्रष्ट स्वभावों तक निरंतर प्रगति करते हैं, जहाँ से परमेश्वर अपनी भाषारूपी बरछी की नोक का लक्ष्य लोगों की आत्माओं के गहनतम हिस्से को बनाता है : उनके सार को। उस अवधि में जब “कलीसियाओं में जाकर बोले गए मसीह के वचन (III)” व्यक्त किए गए थे, परमेश्वर के कथन मनुष्य का सार और उसकी पहचान और एक वास्तविक व्यक्ति होने का क्या अर्थ है—इन गहनतम सत्यों और लोगों के जीवन प्रवेश के अनिवार्य प्रश्नों पर बल देते हैं। बेशक, “कलीसियाओं में जाकर बोले गए मसीह के वचन (I),” में परमेश्वर द्वारा इंसान को प्रदान किए गए सत्यों पर पुनः विचार करते हुए, “कलीसियाओं में जाकर बोले गए मसीह के वचन (III)” की विषय-वस्तु, तुलनात्मक रूप से, बेहद गहन है। इस खंड के वचन लोगों के भविष्य-पथ को और इस चीज को स्पर्श करते हैं कि उन्हें कैसे पूर्ण बनाया जा सकता है; वे इंसान की भविष्य की मंज़िल को भी स्पर्श करते हैं, और इसे भी कि परमेश्वर और मनुष्य किस तरह एक साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे। (यह कहा जा सकता है कि, आज तक, ये वे वचन हैं, जिन्हें परमेश्वर ने लोगों के सामने उनके सार, लक्ष्य और उनकी मंज़िल के विषय में व्यक्त किया है, जिन्हें समझना एकदम आसान है।) परमेश्वर को उम्मीद है कि इन्हें पढ़ने वाले वे लोग हैं, जो स्वयं को इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं से अलग कर चुके हैं, जो अपने हृदय की गहराइयों में परमेश्वर के प्रत्येक वचन को शुद्ध रूप से समझने में सक्षम हैं। इतना ही नहीं, उसे यह भी उम्मीद है कि इन वचनों को पढ़ने वाले लोग उसके वचनों को सत्य, मार्ग और जीवन के रूप में ले सकते हैं, और वे परमेश्वर को हलके में नहीं लेते या उसे फुसलाते नहीं हैं। अगर लोग इन वचनों को परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने या उसकी छानबीन करने के दृष्टिकोण से पढ़ेंगे, तो ये कथन उनके लिए किसी बंद पुस्तक की तरह होंगे। जो लोग सत्य का अनुशीलन करते हैं, दृढ़ता से परमेश्वर का अनुसरण करते हैं और जिनके मन में उसके प्रति जरा-सा भी संदेह नहीं है, केवल वही इन वचनों को स्वीकार करने के पात्र हैं।

“कलीसियाओं में जाकर बोले गए मसीह के वचन (IV)” दिव्य कथनों की एक और श्रेणी है, जो “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन” के बाद आती है। इस खंड में ईसाई सम्प्रदायों के लोगों के लिए परमेश्वर के उपदेश, शिक्षाएँ और प्रकाशन शामिल हैं, जैसे : “जब तक तुम यीशु के आध्यात्मिक शरीर को देखोगे, परमेश्वर स्वर्ग और पृथ्वी को नया बना चुका होगा,” “वे सभी जो मसीह से असंगत हैं निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं।” इसमें इंसान से परमेश्वर की सर्वाधिक विशिष्ट अपेक्षाएँ शामिल हैं, जैसे : “अपनी मंज़िल के लिए पर्याप्त संख्या में अच्छे कर्मों की तैयारी करो,” “तीन चेतावनियाँ,” “अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे।” इसमें बहुत से पहलू शामिल किए गए हैं, जैसे हर तरह के लोगों के लिए प्रकटीकरण और न्याय तथा वचन कि परमेश्वर को कैसे जानें। यह कहा जा सकता है कि यह खंड परमेश्वर द्वारा इंसान के न्याय का मूल है। परमेश्वर के कथनों के इस खंड का सबसे अविस्मरणीय भाग यह है कि, जब परमेश्वर अपना कार्य बंद करने वाला था, तो उसने उस चीज़ को उजागर किया, जो इंसान की अस्थिमज्जा में समायी हुई है : धोखा। उसका लक्ष्य एकदम अंत में लोगों को निम्न तथ्य ज्ञात कराना और उसे उनके दिल की गहराइयों में बसा देना है : तुम चाहे कितने भी समय से परमेश्वर के अनुयायी रहे हो—तुम्हारी प्रकृति फिर भी परमेश्वर को धोखा देने की ही है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर को धोखा देना इंसान की प्रकृति में है, क्योंकि लोग अपने जीवन में पूर्ण परिपक्वता हासिल कर पाने में अक्षम होते हैं, और उनके स्वभाव में केवल सापेक्ष बदलाव ही आ पाता है। हालाँकि ये दो अध्याय “विश्वासघात (1)” और “विश्वासघात (2)” लोगों को आघात पहुँचाते हैं, लेकिन ये लोगों के लिए सचमुच परमेश्वर की सबसे ईमानदार और परोपकारी चेतावनियाँ हैं। कम से कम, जब लोग आत्म-संतुष्ट और अहंकारी हों, तो इन दो अध्यायों को पढ़कर उनके अपने बुरे कर्मों पर तो लगाम लगेगी और वे शांत हो जाएँगे। इन दो अध्यायों के ज़रिए परमेश्वर लोगों को याद दिलाता है कि तुम्हारा जीवन कितना भी परिपक्व क्यों न हो, तुम्हारे अनुभव चाहे कितने भी गहरे क्यों न हों, तुम्हारा आत्म-विश्वास चाहे कितना भी प्रबल क्यों न हो, तुम चाहे कहीं भी क्यों न पैदा हुए हो और कहीं भी क्यों न जा रहे हो, परमेश्वर को धोखा देने की तुम्हारी प्रकृति किसी भी समय और किसी भी स्थान पर उजागर हो सकती है। परमेश्वर हर व्यक्ति को यह बताना चाहता है : परमेश्वर को धोखा देना हर व्यक्ति की जन्मजात प्रकृति है। बेशक, इन दो अध्यायों को व्यक्त करने के पीछे परमेश्वर का इरादा इंसान को बाहर निकालने या उसकी निंदा करने का बहाना खोजना नहीं है, बल्कि लोगों को इंसान की प्रकृति से और अधिक वाकिफ कराना है, ताकि वे परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने के लिए हर समय सावधानी से उसके सामने रह सकें, जो उन्हें परमेश्वर की उपस्थिति गँवाने और वापसी-रहित मार्ग पर जाने से रोक देगा। ये दो अध्याय परमेश्वर का अनुसरण करने वाले सभी लोगों के लिए खतरे की घंटी हैं। उम्मीद है कि लोग परमेश्वर के गंभीर इरादों को समझेंगे; आखिरकार, ये वचन निर्विवाद तथ्य हैं—तो इंसान को इस बात पर बखेड़ा खड़ा करने की क्या ज़रूरत है कि परमेश्वर ने ये वचन कब और कहाँ व्यक्त किए थे? अगर परमेश्वर ने ये सारी चीज़ें अपने तक ही सीमित रखी होतीं, और तब तक इंतज़ार किया होता, जब लोगों को लगता कि अब परमेश्वर के लिए इन्हें व्यक्त करने का उपयुक्त समय है, तो क्या बहुत देर नहीं हो चुकी होती? वह उपयुक्त समय कब होता?

परमेश्वर ने इन चार खंडों में बहुत सारे तरीके और दृष्टिकोण अपनाए हैं। मिसाल के तौर पर, कभी वह व्यंग्य का इस्तेमाल करता है, और कभी वह प्रत्यक्ष पोषण और शिक्षा के तरीके का इस्तेमाल करता है; कभी वह उदाहरणों का इस्तेमाल करता है, और कभी वह कड़ी फटकार का इस्तेमाल करता है। कुल मिलाकर, सभी प्रकार के विभिन्न तरीके हैं, जिनका उद्देश्य लोगों की विभिन्न स्थितियों और रुचियों की पूर्ति करना है। जिस परिप्रेक्ष्य से वह बोलता है, वह उसके कथनों के विभिन्न तरीकों और विषय-वस्तु के साथ बदल जाता है। उदाहरण के लिए, कभी वह “मैं” या “मुझे” कहता है; यानी, वह लोगों से स्वयं परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से बोलता है। कभी वह अन्य पुरुष के रूप में बोलते हुए कहता है, “परमेश्वर” यह या वह है, और कई बार वह इंसानी नज़रिए से बोलता है। वह चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य से क्यों न बोले, उसका सार नहीं बदलता, क्योंकि वह किसी भी तरह क्यों न बोले, वह जो कुछ भी व्यक्त करता है, वह स्वयं परमेश्वर का सार होता है—यह सब सत्य है, और इंसान को इसी की आवश्यकता है।

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