अध्याय 10

कलीसिया के निर्माण-समय के दौरान, परमेश्वर ने शायद ही राज्य के निर्माण का उल्लेख किया। अगर उसने इसका उल्लेख किया भी तो उसने उस समय की भाषा में ऐसा किया। एक बार जब राज्य का युग आ गया, तो परमेश्वर ने कलीसिया के निर्माण के समय की कुछ विधियों और चिंताओं को एक ही झटके में खारिज कर दिया और फिर कभी इसके बारे में एक वचन भी नहीं कहा। यही वास्तव में “स्वयं परमेश्वर” का मूल अर्थ है जो सदैव नया है और कभी भी पुराना नहीं पड़ता है। अतीत में चीज़ें कितने भी अच्छे ढंग से की गयी हों, वे आखिरकार विगत युग का हिस्सा हैं, इसलिए परमेश्वर ऐसी चीज़ों को मसीह के पहले घटित हुई घटनाओं के रूप में वर्गीकृत करता है, जबकि वर्तमान समय मसीह के बाद के समय के रूप में जाना जाता है। इससे देखा जा सकता है कि कलीसिया का निर्माण राज्य के निर्माण के लिए आवश्यक पूर्वशर्त था; इसने परमेश्वर के लिए राज्य में अपनी संप्रभु शक्ति के उपयोग की नींव रखी। कलीसिया के निर्माण का कार्य आज का आशुचित्र है; पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य मुख्य रूप से राज्य के निर्माण पर केंद्रित है। परमेश्वर ने कलीसिया के निर्माण का कार्य पूरा करने से पूर्व ही किए जाने वाले सारे कार्य की तैयारियाँ पूरी कर ली थीं, और जब सही समय आया, तो उसने अपना कार्य औपचारिक रूप से प्रारंभ किया। यही कारण है कि परमेश्वर ने कहा, “राज्य का युग, आख़िरकार, बीते हुए समयों से अलग है। इसका सरोकार इस बात से नहीं है कि मानवता कैसे काम करती है; बल्कि, मैं व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करने के लिए पृथ्वी पर उतरा हूँ, जो कुछ ऐसा कार्य है जिसकी मानव न तो कल्पना कर सकते हैं और न ही जिसे वे संपन्न कर सकते हैं।” निस्संदेह, यह कार्य अवश्य व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए—कोई भी मनुष्य ऐसा कार्य करने में सक्षम नहीं है; वह इसे करने के लायक ही नहीं है। परमेश्वर के अलावा, कौन है जो मानवजाति के बीच इतना महान कार्य कर सकता हो? और कौन संपूर्ण मानवजाति को “यंत्रणा” दे कर अधमरा करने में सक्षम है? क्या मनुष्य के लिए इस तरह के कार्य की व्यवस्था करना संभव था? वह ऐसा क्यों कहता है, “मैं व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करने के लिए पृथ्वी पर उतरा हूँ”? क्या संपूर्ण अंतरिक्ष से परमेश्वर का आत्मा सचमुच गायब हो सकता था? “मैं व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करने के लिए पृथ्वी पर उतरा हूँ,” इस वाक्य का एक संदर्भ यह है कि परमेश्वर के आत्मा ने कार्य करने के लिए देहधारण किया है, और दूसरा यह कि परमेश्वर का आत्मा स्पष्ट रूप से मानवजाति के माध्यम से कार्य कर रहा है। व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करके, वह बहुत सारे लोगों को अपनी नग्न आँखों से परमेश्वर स्वयं को देखने देता है; उनके लिए अपनी आत्माओं में सावधानीपूर्वक उसकी खोज करना अनावश्यक है। इसके अलावा, वह सभी मनुष्यों को उनकी स्वयं की आँखों से पवित्रात्मा के कार्यकलापों को देखने देता है, उन्हें यह दिखाते हुए कि मनुष्य की देह और परमेश्वर की देह के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है। इसके साथ ही, संपूर्ण अंतरिक्ष और ब्रह्मांड की दुनिया में परमेश्वर का आत्मा कार्यशील है। परमेश्वर के वे सभी लोग जो प्रबुद्ध हैं, परमेश्वर के नाम को स्वीकार कर देखते हैं कि परमेश्वर का आत्मा कैसे कार्य करता है और फलस्वरूप, देहधारी परमेश्वर से और भी अधिक परिचित हो जाते हैं। इस तरह, यदि परमेश्वर की दिव्यता प्रत्यक्ष रूप से कार्य करती है—अर्थात, जब परमेश्वर का आत्मा बिना किसी हस्तक्षेप के कार्य करने में समर्थ है—केवल तभी मानवजाति व्यावहारिक परमेश्वर स्वयं से परिचित हो सकती है। यही राज्य निर्माण का सार है।

परमेश्वर ने कितनी बार देहधारण किया है? क्या ऐसा कई बार हो सकता है? ऐसा क्यों है कि परमेश्वर ने कई बार यह कहा है, “मैं एक बार मानवों के संसार में उतरा था और मैंने उनके दुःख-दर्द अनुभव किए और देखे थे, किंतु यह मैंने अपने देहधारण का उद्देश्य पूरा किए बिना किया था”? क्या ऐसा है कि परमेश्वर कई बार देहधारी बना है, किन्तु कभी एक बार भी मानवजाति को इस बात की जानकारी नहीं हुई? इस कथन का यह अभिप्राय नहीं है। जब पहली बार परमेश्वर ने देहधारण किया था, तो उसका उद्देश्य वास्तव में यह नहीं था कि मनुष्य उसे जाने; इसके बजाय, उसने अपना कार्य किया और फिर किसी के ध्यान में आए बिना या किसी को उसे जानने का अवसर दिए बिना वह गायब हो गया। उसने लोगों को उसे पूरी तरह से जानने की अनुमति नहीं दी, और न ही वह देहधारण की महत्ता से पूरी तरह युक्त था; इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उसने पूरी तरह देहधारण किया था। प्रथम देहधारण में, उसने उस कार्य को करने के लिए केवल पापपूर्ण प्रकृति से मुक्त एक शारीरिक काया का उपयोग किया; कार्य पूरा हो जाने के बाद, आगे किसी उल्लेख की कोई आवश्यकता नहीं थी। जहाँ तक उन मनुष्यों की बात है जिन्हें परमेश्वर ने युगों से उपयोग किया है, वे तो “देहधारण” कहे जाने के और भी कम योग्य हैं। आज, केवल स्वयं व्यावहारिक परमेश्वर को ही पूर्णतया एक “देहधारण” कहा जा सकता है, जो कि सामान्य मानवता के आवरण में है और जिसके पास आंतरिक, संपूर्ण देवत्व है, जिसका उद्देश्य मनुष्य को स्वयं को उसे जानने की अनुमति देना है। इस दुनिया में परमेश्वर के प्रथम आगमन का महत्व, उस महत्व का एक पहलू है जो आज देहधारण कहलाता है—लेकिन इस आगमन में उसका संपूर्ण अर्थ बिलकुल शामिल नहीं है जिसे अब देहधारण कहा जाता है। इसीलिए परमेश्वर ने कहा, “अपने देहधारण के महत्त्व को पूरा नहीं किया।” मनुष्य के दुःखों का अनुभव और अवलोकन करना, जैसा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं, परमेश्वर के आत्मा और दो देहधारणों को संदर्भित करता है। इस कारण, परमेश्वर ने कहा, “एक बार जब राज्य का निर्माण शुरू हो गया, मेरे देहधारी शरीर ने सेवकाई करना विधिवत आरंभ कर दिया था; अर्थात्, राज्य के राजा ने अपनी संप्रभु सामर्थ्‍य औपचारिक रूप से ग्रहण कर ली थी।” यद्यपि कलीसिया का निर्माण परमेश्वर के नाम की गवाही थी, किन्तु कार्य अभी तक औपचारिक रूप से आरंभ नहीं हुआ था; केवल आज इसे राज्य का निर्माण करना कहा जा सकता है। पहले जो कुछ भी किया गया था वह सिर्फ एक पूर्वानुभव था; यह असली चीज़ नहीं थी। भले ही यह कहा गया था कि राज्य की शुरुआत हो चुकी है, किन्तु इसके अंदर कोई कार्य नहीं किया जा रहा था। केवल आज, अब चूँकि परमेश्वर की दिव्यता के भीतर कार्य किया जा रहा है और परमेश्वर ने औपचारिक रूप से अपना कार्य आरंभ कर दिया है, तब जाकर मानवजाति ने अंततः राज्य में प्रवेश कर लिया है। इस प्रकार, “इससे यह स्पष्ट है कि मानव जगत में राज्य का अवरोहण—मात्र एक शाब्दिक अभिव्यंजना होने से कहीं दूर—वास्तविक सच्चाइयों में से एक है; यह ‘अभ्यास की वास्तविकता’ के अर्थ का एक पहलू है।” यह उद्धरण उपर्युक्त व्याख्या का एक सटीक सारांश है। यह विवरण प्रदान करने के बाद, लोगों को लगातार कार्यरतता की स्थिति में छोड़ते हुए, परमेश्वर मानवजाति की सामान्य स्थिति की विशेषता बताने के लिए आगे बढ़ता है। “समूचे संसार में, सब कुछ मेरी दया और कृपालु प्रेम के भीतर विद्यमान है, परंतु ऐसे तो समूची मानवता भी मेरे न्याय के अंतर्गत निहित है, और इसी प्रकार मेरे परीक्षणों के अधीन भी है।” मनुष्य का जीवन परमेश्वर द्वारा निर्धारित कुछ सिद्धांतों और नियमों के अनुसार संचालित होता है, और वे निम्नानुसार हैं : यहाँ खुशी के और हताशा के क्षण होंगे, और इसके अलावा कष्टों द्वारा शुद्धिकरण के समय होंगे जिसे सहन करना आवश्यक होगा। इस प्रकार, कोई भी व्यक्ति विशुद्ध सुखद या विशुद्ध दुःखद जीवन नहीं जिएगा; हर जीवन के उतार-चढ़ाव होंगे। समस्त मानवजाति में, न केवल परमेश्वर की करुणा और प्रेमपूर्ण दयालुता स्पष्ट है, बल्कि उसका न्याय और उसका संपूर्ण स्वभाव भी उतना ही स्पष्ट है। कहा जा सकता है कि सभी मनुष्य परमेश्वर के परीक्षण के बीच रहते हैं, है ना? इस विशाल दुनिया में, सभी मनुष्य खुद के लिए बचने का मार्ग तलाशने में व्यस्त हैं। वे आश्वस्त नहीं हैं कि वे क्या भूमिका निभाते हैं और कुछ तो अपने भाग्य के वास्ते अपने जीवन को क्षति तक पहुँचाते हैं या उसे खो बैठते हैं। यहाँ तक कि अय्यूब भी इस नियम का अपवाद नहीं था : भले ही परमेश्वर के परीक्षण को उसने भी झेला, लेकिन उसने भी बचने का मार्ग तलाशा। कोई भी व्यक्ति परमेश्वर के परीक्षणों के समक्ष डटे रहने में कभी भी सक्षम नहीं हुआ है। मानवीय लालच या प्रकृति के कारण, कोई भी व्यक्ति अपनी वर्तमान स्थिति से पूरी तरह संतुष्ट नहीं होता है, और कोई भी व्यक्ति परीक्षणों में डटा नहीं रह पाता है; हर मनुष्य परमेश्वर के न्याय के आगे ध्वस्त हो जाता है। यदि परमेश्वर को मनुष्य के प्रति गंभीर होना होता, यदि उसे अभी भी लोगों से इतनी सख़्त माँग रखनी होती, तो ठीक वैसा ही होता जैसा परमेश्वर ने कहा था : “तो समूची मानव जाति मेरी सुलगती हुई नज़रों के नीचे धराशायी हो जाती।”

इस तथ्य के बावजूद कि राज्य का निर्माण औपचारिक रूप से आरंभ हो गया है, राज्य के लिए औपचारिक रूप से सलामी बजनी अभी शेष है; अभी यह केवल आने वाली चीज़ों की भविष्यवाणी है। जब सभी लोगों को संपूर्ण बना लिया गया होगा और पृथ्वी के सभी राष्ट्र मसीह का राज्य बन गए होंगे, तब वह समय होगा जब सात गर्जनाएँ गूँजेंगी। वर्तमान दिन उस चरण की दिशा में एक लंबा कदम है; आने वाले उस दिन की ओर बढ़ने के लिए धावा बोल दिया गया है। यह परमेश्वर की योजना है, और निकट भविष्य में ये साकार हो जाएगा। हालाँकि, परमेश्वर ने जो कुछ भी कहा है, वह सब पहले ही पूरा कर दिया है। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि धरती के देश केवल रेत के किले हैं जो ज्वार आने पर काँप जाते हैं : अंत का दिन सन्निकट है और बड़ा लाल अजगर परमेश्वर के वचन के नीचे गिर जाएगा। यह सुनिश्चित करने के लिए कि परमेश्वर की योजना का सफलतापूर्वक क्रियान्वन होता है, परमेश्वर को संतुष्ट करने का भरपूर प्रयास करते हुए, स्वर्गदूत पृथ्वी पर उतर आए हैं। स्वयं देहधारी परमेश्वर दुश्मन से लड़ाई करने के लिए युद्ध के मैदान में तैनात हुआ है। जहाँ कहीं भी देहधारण प्रकट होता है, उस जगह से दुश्मन पूर्णतया विनष्ट किया जाता है। सबसे पहले चीन का सर्वनाश होगा; यह परमेश्वर के हाथों बर्बाद कर दिया जाएगा। परमेश्वर वहाँ कोई भी दया बिलकुल नहीं दिखाएगा। बड़े लाल अजगर के उत्तरोत्तर ढहने का सबूत लोगों की निरंतर परिपक्वता में देखा जा सकता है; इसे कोई भी स्पष्ट रूप से देख सकता है। लोगों की परिपक्वता दुश्मन की मृत्यु का संकेत है। यह “प्रतिस्पर्धा करने” के अर्थ का थोड़ा स्पष्टीकरण है। इस तरह, परमेश्वर ने अनेक अवसरों पर लोगों को स्मरण दिलाया है कि वे उन धारणाओं को, जो बड़े लाल अजगर की कुरूपता के रूप में उनके हृदय में है, नष्ट करने के लिए परमेश्वर की खूबसूरत गवाहियाँ दें। परमेश्वर लोगों के विश्वास में जीवन डालने के लिए इस तरह के अनुस्मारकों का उपयोग करता है और, ऐसा करने में, अपने कार्य में उपलब्धियाँ प्राप्त करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने कहा है, “मानव सचमुच में क्या करने में सक्षम हैं? बल्कि क्यों न मैं स्वयं ही यह करूँ?” सभी मनुष्य ऐसे ही हैं; न केवल वे अक्षम हैं, बल्कि वे आसानी से निरुत्साहित और निराश हो जाते हैं। इस कारण, वे परमेश्वर को नहीं जान सकते। परमेश्वर न केवल मानवजाति के विश्वास को पुनर्जीवित करता है, बल्कि वह लोगों के भीतर गुप्त रूप से लगातार शक्ति का संचार भी कर रहा है।

इसके बाद, परमेश्वर ने पूरे ब्रह्मांड से बात करना शुरू कर दिया। परमेश्वर ने न केवल चीन में अपना नया कार्य आरंभ किया है, बल्कि उसने पूरे ब्रह्मांड में आज का नया कार्य करना आरंभ कर दिया है। कार्य के इस चरण में, क्योंकि परमेश्वर अपने सभी कर्मों को दुनिया भर में प्रकट करना चाहता है ताकि सभी मनुष्य जिन्होंने उसके साथ विश्वासघात किया है, पुनः उसके सिंहासन के समक्ष समर्पित होने के लिए आ जाएँ, परमेश्वर के न्याय में अभी भी उसकी करुणा और प्रेमपूर्ण दयालुता होगी। परमेश्वर दुनिया भर में वर्तमान घटनाओं का उपयोग ऐसे अवसरों के तौर पर करता है जिससे मनुष्य घबरा जाएँ, उन्हें परमेश्वर की तलाश करने के लिए प्रेरित करता है ताकि वे उसके समक्ष लौट सकें। इस प्रकार परमेश्वर कहता है, “यह मेरे कार्य करने के तरीक़ों में से एक है, और यह निस्संदेह मानवता के उद्धार का एक कार्य है, और जो मैं उन्हें देता हूँ वह अब भी एक प्रकार का प्रेम ही है।” यहाँ, परमेश्वर मनुष्य जाति की सच्ची प्रकृति को ऐसी सटीकता के साथ उजागर करता है जो गहरी, अद्वितीय और सहज है। इससे लोग, बेहद अपमानित महसूस करते हुए, शर्म से अपना चेहरा छुपा लेते हैं। परमेश्वर जब भी बोलता है, तो वह किसी तरह हमेशा मानवजाति के शर्मनाक प्रदर्शन के किसी पहलू को इंगित करने में सफल रहता है ताकि, निश्चिंतता में, लोग स्वयं को जानना न भूल जाएँ और इसे एक पुराना काम न समझें। यदि परमेश्वर एक पल के लिए भी मनुष्य की गलतियाँ बताना छोड़ देता, तो मानवीय प्रकृति के अनुसार मनुष्य स्वच्छन्द और अभिमानी हो सकता था। यही कारण है कि आज परमेश्वर पुनः कहता है, “मानव प्राणी मेरे द्वारा प्रदान की गई पदवियों को सँजोकर रखना तो दूर, उनमें से कई ‘सेवा करने वाले’ की पदवी के कारण अपने हृदयों में द्वेष पालते हैं, और बहुत सारे ‘मेरे लोग’ की पदवी के कारण अपने हृदयों में मेरे प्रति प्रेम पालते हैं। किसी को भी मुझे मूर्ख बनाने का प्रयास नहीं करना चाहिए; मेरी आँखें सब देख रही हैं!” मनुष्य जैसे ही इस वक्तव्य को पढ़ते हैं, वे तुरंत असहज महसूस करते हैं। उन्हें महसूस होता है कि उनके अतीत के कार्य अत्यधिक बचकाने—सिर्फ एक प्रकार के गंदे-व्यवहार थे, जो परमेश्वर को अपमानित करते हैं। वे हाल ही में परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते थे, किन्तु जबकि वे अत्यधिक इच्छुक हैं, तब भी उनमें सामर्थ्य का अभाव है और वे नहीं जानते कि उन्हें क्या करना चाहिए। अनजाने में, वे एक नए संकल्प के साथ प्रेरित होते हैं। जब कोई निश्चिंत हो जाता है तो इन वचनों को पढ़ने का यह प्रभाव होता है।

एक ओर, परमेश्वर कहता है कि शैतान चरम सीमा तक पागल है, जबकि दूसरी ओर वह यह बताता है कि अधिकांश मनुष्यों की पुरानी, साझी प्रकृति नहीं बदली है। इससे यह स्पष्ट है कि शैतान के क्रिया-कलाप मानवजाति के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। इसलिए, परमेश्वर प्रायः मनुष्य को स्वच्छन्द नहीं होने की याद दिलाता है, ताकि कहीं ऐसा न हो कि वह शैतान द्वारा निगल लिया जाए। यह केवल इस बात की भविष्यवाणी नहीं करता है कि कुछ मनुष्य विद्रोह करेंगे, बल्कि इससे अधिक, यह खतरे की एक घंटी है जो सभी मनुष्यों को फौरन अतीत को दरकिनार कर, वर्तमान दिन की तलाश करने हेतु चेतावनी देने के लिए बज रही है। कोई भी व्यक्ति असुरों के कब्जे में या दुष्टात्माओं के अधीन रहना नहीं चाहता है, इसलिए परमेश्वर के वचन उनके लिए और भी अधिक चेतावनी और फटकार होते हैं। हालाँकि, जब परमेश्वर के हर वचन को बहुत महत्व देते हुए, अधिकांश लोग बिलकुल विपरीत दिशा में चल देते हैं, तो परमेश्वर बदले में कहता है, “अधिकांश लोग मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि मैं उनके लिए और अधिक रहस्य प्रकाशित करूँ, जिन्हें देख कर वे अपनी आँखें निहाल कर सकें। फिर भी, यदि तुम स्वर्ग के सारे रहस्य समझ भी जाओ, तो उस ज्ञान के साथ तुम क्या कर सकते हो? क्या यह मेरे प्रति तुम्हारा प्रेम बढ़ाएगा? क्या यह मेरे प्रति तुम्हारा प्रेम जगाएगा?” इससे यह स्पष्ट है कि मनुष्य परमेश्वर को जानने और परमेश्वर से प्यार करने के लिए परमेश्वर के वचन का उपयोग नहीं करता है, बल्कि अपने “छोटा सा भण्डारगृह” के भंडार में वृद्धि करने के लिए उपयोग करता है। इसलिए, मनुष्य जाति के अतिवाद का वर्णन करने के लिए परमेश्वर “देख कर अपनी आँखें निहाल करना” वाक्यांश का उपयोग करता है, जो यह दर्शाता है कि कैसे परमेश्वर के प्रति मनुष्यों का प्यार अभी भी पूरी तरह से शुद्ध नहीं है। यदि परमेश्वर रहस्यों का अनावरण नहीं करता, तो मनुष्य उसके वचनों को बहुत महत्व नहीं देते, बल्कि उन्हें सिर्फ सरसरी तौर एक नज़र देखते, मानो घुड़सवारी करते हुए फूलों की सराहना कर रहे हों। वे परमेश्वर के कथनों पर सही मायने में चिंतन करने और उन पर विचार करने का समय नहीं निकालते। अधिकांश लोग परमेश्वर के वचनों को वास्तव में सँजो कर नहीं रखते हैं। वे उसके वचनों को खाने और पीने की बहुत कोशिश नहीं करते हैं, बल्कि बेमन से उन्हें सतही रूप से पढ़ते हैं। परमेश्वर अब अतीत की तुलना में एक भिन्न तरीके से क्यों बोलता है? उसके सारे वचन इतने अथाह क्यों हैं? उदाहरण के लिए, “मैं इतनी आसानी से उन्हें ऐसे तमगों के मुकुट नहीं पहनाता,” में “मुकुट,” “क्या कोई है जो वह शु़द्धतम सोना ग्रहण कर सकता है जिससे मेरे वचन निर्मित हैं,” में “शु़द्धतम सोना,” “शैतान द्वारा किसी संसाधन से गुज़रे बिना” में “संसाधित” का उसका पिछला उल्लेख, और अन्य ऐसे ही वाक्यांश। मनुष्य की समझ में नहीं आता है कि परमेश्वर इस तरह से क्यों बोलता है; उनकी समझ में नहीं आता है कि वह क्यों इस तरह के मजाकिया, विनोदपूर्ण और भड़काऊ अंदाज में बोलता है। वास्तव में यही परमेश्वर के वचनों के उद्देश्य की अभिव्यक्तियाँ हैं। शुरुआत से अब तक, मनुष्य हमेशा परमेश्वर के वचन को समझने में अक्षम रहा है और ऐसा प्रतीत हुआ है मानो उसके कथन वास्तव में काफी गंभीर और कठोर हैं। हास्य का हल्का-सा पुट डाल कर—यहाँ-वहाँ कुछ चुटकियाँ जोड़ कर—वह अपने वचनों के भाव को हल्का करने और मनुष्य को अपनी मांसपेशियाँ थोड़ा-बहुत शिथिल करने देने में समर्थ है। ऐसा करते हुए, वह, हर मनुष्य को परमेश्वर के वचन पर विचार करने के लिए बाध्य करते हुए, एक और भी बड़ा प्रभाव प्राप्त करने में सक्षम है।

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