सत्य का अनुसरण कैसे करें (4)

इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखते हुए, क्या तुम्हें अपने आस-पास के लोगों और चीजों, और बाहरी दुनिया की स्थिति में हो रहे निरंतर बदलाव का आभास हुआ है? खास तौर से पिछले कुछ वर्षों में, क्या तुमने कोई बड़े बदलाव होते हुए देखे हैं? (हाँ।) तुमने ऐसा होते देखा है। और क्या तुम इसको लेकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचे हो? (परमेश्वर का कार्य समाप्त होने को है।) सही कहा, परमेश्वर का कार्य सचमुच समाप्त होने को है, और तुम्हारे आस-पास के लोगों, घटनाओं, चीजों और माहौल में निरंतर बदलाव हो रहे हैं। मिसाल के तौर पर, पहले इस समूह में दस लोग थे, अब आठ हैं। उन दो जनों का क्या हुआ? एक को बाहर कर दिया गया, और दूसरे का कर्तव्य बदल दिया गया। कलीसिया में विभिन्न प्रकार के तमाम लोग निरंतर बदलाव से गुजर रहे हैं और निरंतर उजागर हो रहे हैं। शुरू में, कुछ लोग बहुत जोशीले दिखाई देते हैं, मगर कुछ वक्त बाद वे एकाएक कमजोर और इतने नकारात्मक हो जाते हैं कि वे काम करना जारी नहीं रख पाते। शुरू में जो जोश, तीव्र ऊर्जा और तथाकथित वफादारी उनमें थी, सब गायब हो जाते हैं, कष्ट सहने का उनका दृढ़ निश्चय खत्म हो जाता है, वे परमेश्वर में विश्वास रखने में जरा भी रुचि नहीं रखते, और न जाने क्यों, अचानक लगने लगता है कि वे बिल्कुल अलग लोग हैं। परिवेश भी निरंतर बदल रहे हैं। लोगों के परिवेशों में कौन-से बदलाव हो रहे हैं? कुछ जगहों पर माहौल शत्रुतापूर्ण होता है, वहाँ गंभीर उत्पीड़न होता है, इसलिए अब लोग एक-साथ इकट्ठा नहीं हो पाते या भाई-बहनों से संपर्क नहीं कर पाते; कुछ जगहों पर, माहौल थोड़ा बेहतर और सुरक्षित होता है; कुछ और दूसरी जगहों पर, कर्तव्य-निर्वहन का माहौल और जीवन जीने की दशाएँ पहले से थोड़ी ज्यादा हितकारी, शांत और स्थिर होती हैं, और यहाँ लोग पहले वाले लोगों के मुकाबले काफी बेहतर ढंग से रह रहे होते हैं; वे सब परमेश्वर के लिए ईमानदारी से खपते हैं, ऐसे लोग ज्यादा होते हैं जो कष्ट सह कर कीमत चुका पाते हैं, यहाँ सभी कार्य-परियोजनाएँ ज्यादा आसानी और कुशलता से आगे बढ़ती हैं, और मिलने वाले नतीजे और प्रभाव ज्यादा आशाजनक और संतोषजनक होते हैं। यही नहीं, जिन योजनाओं, ढाँचों, विधियों और तरीकों से कार्य परियोजनाएँ पूरी की जाती हैं, उनमें निरंतर सुधार किया जाता है। संक्षेप में, भले ही लोग यह देखते हैं कि तरह-तरह के गलत और नकारात्मक लोग, घटनाएँ और चीजें सामने आ रही हैं, लेकिन साथ ही हर प्रकार के नेक, सही और सकारात्मक लोग, घटनाएँ और चीजें भी निरंतर उभर रही हैं। जब लोग ऐसे सामाजिक परिवेश में जीते हैं जहाँ उनके चारों ओर विविध सकारात्मक और नकारात्मक चीजें निरंतर बारी-बारी से बदल रही हैं, तो दरअसल, अंत में उन लोगों को ही लाभ होता है जो परमेश्वर को पाने की तीव्र आकांक्षा रखते हैं, सत्य का अनुसरण करते हैं और सत्य के लिए लालायित रहते हैं। ये वो लोग होते हैं जो प्रकाश और न्यायता के लिए लालायित रहते हैं, जबकि सत्य का अनुसरण न करने वाले, बुरी आदतों में लिप्त रहने वाले और सत्य से विमुख रहने वाले लोग विभिन्न लोगों, घटनाओं, चीजों और परिवेशों के संबंध में उजागर हो जाते हैं, हटा दिए जाते हैं, और छोड़ दिए जाते हैं। इन सब विभिन्न परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीजों के उजागर होने और निरंतर नए परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रकट होने के पीछे परमेश्वर का इरादा क्या है? इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, क्या तुम सब इस बात को समझ पाए हो? कम-से-कम, क्या तुम्हें भान है कि परमेश्वर यह सब आयोजित कर रहा है, और हमेशा से परमेश्वर ही इन चीजों का मार्गदर्शन करता रहा है? (हाँ।) ये सब करने के पीछे परमेश्वर का प्रयोजन और अर्थ यह है कि उसका अनुसरण करने वाले लोग इस योग्य बनें कि वे सबक सीखें, अपनी अंतर्दृष्टि और अनुभव में विकसित हों, और इस तरह धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करें। क्या तुम सबने यह स्वयं हासिल किया है? लोग अपने काम में चाहे जितने व्यस्त हों, या उनका परिवेश चाहे जितना हितकारी या शत्रुतापूर्ण हो, परमेश्वर में विश्वास में उनका लक्ष्य यह है कि वे बिना बदले सत्य का अनुसरण करें। लोगों को सत्य का अनुसरण करना इसलिए नहीं भूलना चाहिए क्योंकि वे कामों या चीजों में व्यस्त हैं, या अपने शत्रुतापूर्ण माहौल से बचना चाहते हैं, न ही यह भूलना चाहिए कि ये तमाम स्थितियाँ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हैं, और परमेश्वर का इरादा है कि वे इन विविध स्थितियों में सबक सीखें, तमाम लोगों, घटनाओं और चीजों के बीच भेद करना सीखें, सत्य को समझें, अंतर्दृष्टि में विकसित हों, और परमेश्वर को जानें। तुम सबको गंभीरता से इसका सार तैयार करना चाहिए कि क्या तुम लोगों ने ये चीजें हासिल कर ली हैं।

हाल के वर्षों में कलीसिया कार्य अत्यंत व्यस्त रहा है, और इसलिए प्रत्येक समूह में सदस्यों के तबादले, उनके कार्य में बदलाव, और साथ ही उन्हें प्रकट करने, हटा देने और स्वच्छ करने का कार्य अपेक्षाकृत ज्यादा होता रहा है। इस कार्य की प्रक्रिया में, टीम सदस्यों के तबादले खास तौर पर अधिक बार हुए हैं और उनका दायरा भी व्यापक रहा है। लेकिन, चाहे जितने भी तबादले हुए हों, या चीजें चाहे जितनी भी बदल जाएँ, परमेश्वर में सचमुच विश्वास रखने वाले और परमेश्वर की चाह रखने वाले लोगों का सत्य का अनुसरण करने का दृढ़ निश्चय नहीं बदलता, उद्धार प्राप्त करने की उनकी कामना नहीं बदलती, परमेश्वर में उनकी आस्था नहीं घटती, वे हमेशा एक अच्छी दिशा में विकसित होते रहे हैं और आज तक अपने कर्तव्य निर्वहन में डटे रहे हैं। इससे भी काफी बेहतर वे लोग हैं जो निरंतर अलग काम सौंपे जाने के माध्यम से अपनी सही जगह पा लेते हैं और अपने कर्तव्य में सिद्धांत खोजना सीख लेते हैं। लेकिन, जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, जिन्हें सकारात्मक चीजों के प्रति प्रेम नहीं है, और जो सत्य से विमुख महसूस करते हैं, वे अच्छे ढंग से कर्तव्य नहीं निभाते। कुछ लोग फिलहाल कर्तव्य निभाते रहने के लिए स्वयं को मजबूर कर रहे हैं, जबकि दरअसल उनकी अंदरूनी दशा पहले से ही पूरी तरह खस्ता है, और वे बुरी तरह से अवसाद-ग्रस्त और नकारात्मक हैं। लेकिन उन्होंने अभी भी कलीसिया नहीं छोड़ी है, और वे यूँ नजर आते हैं मानो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और अब भी अपने कर्तव्य निभाते हैं, मगर असल में उनके दिल बदल गए हैं, वे परमेश्वर से दूर हो गए हैं और उन्होंने उसका परित्याग कर दिया है। कुछ लोग शादी करके अपना जीवन जीने के लिए यह कहते हुए घर लौट आते हैं, “मैं अपनी जवानी बेकार नहीं होने दे सकता। हमें जवानी सिर्फ एक ही बार मिलती है, और मैं अपनी जवानी बिल्कुल भी बेकार नहीं जाने दे सकता! मुझे दिल से यकीन है कि परमेश्वर अवश्य है, लेकिन मैं तुम लोगों जितना सीधा-सादा नहीं हो सकता जो सत्य का अनुसरण करने के लिए अपनी जवानी की बलि चढ़ा देते हैं। मुझे शादी कर अपना जीवन जीना चाहिए। जिंदगी छोटी है, हम कुछ ही वर्ष जवान रहते हैं। जिंदगी देखते-देखते खत्म हो जाती है। मैं अपनी जवानी यहाँ बेकार नहीं होने दे सकता। जब तक जवानी है, तब तक मैं बेपरवाह रह सकता हूँ, कुछ वर्ष तक पूरी तरह जिंदगी के मजे लूट सकता हूँ।” कुछ लोग अमीर होने के अपने सपनों के पीछे भागना जारी रखते हैं; कुछ अधिकारी या नौकरशाह बनने का अपना सपना साकार करने के लिए आधिकारिक करियर बनाने का प्रयास करते हैं; कुछ लोग संतान रूपी समृद्धि के पीछे भागते हैं, इसलिए वे ऐसी पत्नी लाते हैं जो उन्हें बेटे दे; कुछ लोगों को परमेश्वर में उनके विश्वास के लिए परेशान किया जाता है, बरसों तब तक सताया जाता है, वे कमजोर और बीमार पड़ जाते हैं और फिर वे अपने कर्तव्य का परित्याग कर अपना शेष जीवन जीने के लिए घर लौट जाते हैं। सभी की स्थिति अलग-अलग होती है। कुछ लोग अपनी मर्जी से चले जाते हैं, और अपने नाम निकलवा देते हैं, कुछ छद्म-विश्वासी होते हैं जिन्हें हटा दिया जाता है, कुछ लोग तरह-तरह के बुरे कृत्यों के कारण निष्कासित कर दिए जाते हैं। इन लोगों की हड्डियों में क्या घुसा होता है? उनका सार क्या है? क्या तुमने इसे स्पष्ट रूप से देखा है? क्या ऐसे लोगों की कहानियाँ हर बार तुम्हारे दिल को छू जाती हैं? तुम सोच सकते हो, “ये लोग आखिर ऐसे कैसे हो गए? वे ऐसी खाई में कैसे गिर गए? वे पहले तो ऐसे नहीं थे, शानदार थे, तो फिर इतनी जल्दी कैसे बदल गए?” तुम इन बातों पर चाहे जितना चिंतन करो, इनका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, ये समझी नहीं जा सकतीं। तुम इस पर थोड़ा विचार कर सोचते हो, “यह व्यक्ति सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता; यह छद्म-विश्वासी है।” कुछ वक्त बाद, उन लोगों की करतूतें, उनका कामकाज, बर्ताव उनकी कुछ बातें, टिप्पणियाँ और उनके प्रयास तुम्हारे मन या लोगों की चेतना से गायब हो जाते हैं, बाद में तुम इन चीजों को भूल जाते हो, और धीरे-धीरे उनको लेकर तुम्हारी भावनाएँ काफूर हो जाती हैं। जब ऐसे लोग, घटनाएँ या चीजें दोबारा सामने आती हैं, तो तुम फिर से सोचते हो, “अरे, यह नामुमकिन है! वे ऐसे कैसे हो गए? वे पहले ऐसे नहीं थे। मैं समझ ही नहीं पा रहा।” तुम फिर से उन्हीं चीजों का अनुभव करते हो, तुम्हारी समझ वैसी ही रहती है। बताओ भला, क्या उन लोगों को उजागर कर हटा दिया जाना शर्म की बात है? (नहीं।) क्या तुम सब उन लोगों को याद नहीं करते? (नहीं।) क्या तुम उन लोगों का पक्ष लेकर पैरवी नहीं करते? (नहीं।) फिर तुम लोग जरूर बेहद बेदिल होगे। तुम सबको उनसे सहानुभूति क्यों नहीं है? उन्होंने कलीसिया छोड़ दी है; तुम उनका पक्ष लेकर पैरवी क्यों नहीं करते और उनके प्रति तुममें कोई सहानुभूति या करुणा क्यों नहीं है? उनके प्रति तुम्हें दया क्यों नहीं आती? क्या तुम सहानुभूति रखने के काबिल ही नहीं हो? क्या तुम बेदिल हो? (नहीं।) बताओ, परमेश्वर के घर के लिए क्या ऐसे लोगों से निपटने का यह उपयुक्त तरीका है? (हाँ।) यह उपयुक्त कैसे है? बताओ मुझे। (इन लोगों ने परमेश्वर में इतने वर्षों से विश्वास रखा है और इतने अधिक सत्य सुने हैं कि अब उनका ऐसा बर्ताव और परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर उससे दूर हो जाना दिखाता है कि वे छद्म-विश्वासी हैं, हमारी दया के लायक नहीं हैं, याद करने लायक नहीं हैं।) तो परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते वक्त वे जोश से भरे हुए थे, उन्होंने अपने घर-बार छोड़ दिए, अपनी नौकरियाँ छोड़ दीं, परमेश्वर के घर के लिए अक्सर चढ़ावे दिए, और जोखिम-भरे काम संभाले। उन्हें जैसे भी देखो, वे पूरी ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाते दिखे। तो फिर भला अब वे कैसे बदल गए? क्या इसलिए कि परमेश्वर ने उन्हें पसंद नहीं किया और शुरू से ही उसने उनका फायदा उठाया? (नहीं।) परमेश्वर सभी से निष्पक्षता और बराबरी से पेश आता है, सबको अवसर देता है। उन सबने कलीसियाई जीवन जिया, परमेश्वर के वचनों को खाया-पिया, और परमेश्वर द्वारा पोषण, सिंचन और अगुआई पाकर जीवन-यापन किया, तो फिर वे इतना ज्यादा कैसे बदल गए? परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते वक्त उनका व्यवहार और कलीसिया छोड़ते समय उनका व्यवहार ऐसा था मानो वे दो अलग व्यक्ति हों। क्या परमेश्वर के कारण उन्होंने उम्मीद खो दी? क्या परमेश्वर के घर या उसके कार्यों ने उन्हें बुरी तरह निराश कर दिया? क्या परमेश्वर, उसके द्वारा बोले जाने वाले वचनों या उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य ने उनकी प्रतिष्ठा को चोट पहुँचाई? (नहीं।) तो फिर कारण क्या है? इसे कौन समझा सकता है? (मेरे विचार से इन लोगों ने आशीषों की अपनी आकांक्षा के हावी होने के कारण परमेश्वर में विश्वास रखा। उन्होंने सिर्फ आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखा। जैसे ही उन्होंने देखा कि उन्हें आशीष प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रही, वे परमेश्वर से दूर हो गए।) क्या आशीष ठीक उनके सामने नहीं है? अभी उनका कर्तव्य निर्वहन बंद करने का समय नहीं आया है, तो फिर वे इतनी जल्दी में क्यों हैं? वे यह बात भी कैसे नहीं समझ सकते? (हे परमेश्वर, मेरे ख्याल से जब इन लोगों ने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया, तो उन्होंने अपने उत्साह और नेक इरादे पर भरोसा किया, और वे कुछ चीजें कर पाए, लेकिन अब परमेश्वर का घर अपने सारे कार्यों को ज्यादा-से-ज्यादा गंभीरता से ले रहा है। उसकी अपेक्षा है कि लोग सत्य सिद्धांतों के अनुरूप काम करें। लेकिन ये लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, अपने कर्तव्य निभाते समय मनमानी करते हैं और अक्सर उनकी काट-छाँट होती है। तो वे और ज्यादा महसूस करते हैं कि वे अभी जिस तरह जैसे-तैसे काम चला रहे हैं, वे वैसा आगे नहीं कर सकते, अंततः वे परमेश्वर का घर छोड़ देते हैं। मेरे ख्याल से यह एक कारण है।) वे अभी जिस तरह जैसे-तैसे काम करते रहे हैं, वैसा आगे नहीं कर सकते—क्या ऐसा कहना सही है? (हाँ।) वे अभी जिस तरह जैसे-तैसे काम करते रहे हैं, वैसा आगे नहीं कर सकते—यह उन लोगों के बारे में कहा जाता है जो जैसे-तैसे काम निपटाते हैं। ऐसे कुछ लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, जैसे-तैसे काम नहीं करते, ईमानदार हैं, जो इस मामले को गंभीरता से लेते हैं, तो ऐसा कैसे हुआ कि उन्होंने काम करना छोड़ दिया? (क्योंकि अपनी प्रकृति से ये लोग सत्य से प्रेम नहीं करते। उन्होंने आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखा। वे देखते हैं कि परमेश्वर का घर हमेशा सत्य पर चर्चा करता है, और वे सत्य से विमुख और उसे लेकर प्रतिरोध महसूस करते हैं, सभाओं में जाकर धर्मसंदेश सुनने की उनकी इच्छा कम होती जाती है, और इसी वजह से वे उजागर हो जाते हैं।) यह एक प्रकार की स्थिति है, और ऐसे बहुत-से लोग हैं। ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो हमेशा अपने कर्तव्य फूहड़ तरीके से निभाते हैं, जो कभी भी अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभाते, या वे जो भी कर्तव्य निभाते हैं उनकी जिम्मेदारी नहीं लेते। ऐसा नहीं है कि वे काबिल नहीं हैं, या उनकी काबिलियत उस कार्य के लायक नहीं है, बात बस इतनी है कि वे अवज्ञाकारी हैं, और वे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य नहीं करते। वे हमेशा अपने मन की करते हैं, जब तक उनकी निरंकुशता और मनमानी के कारण आखिरकार कोई रुकावट और बाधा नहीं आ जाती। उनकी चाहे जितनी काट-छाँट हो, वे प्रायश्चित्त नहीं करते, और इसलिए आखिर उन्हें बाहर कर दिया जाता है। जिन लोगों को बाहर कर दिया जाता है, उनका स्वभाव घिनौना होता है, उनकी मानवता अहंकारपूर्ण होती है। वे जहाँ भी जाते हैं, अपनी ही बात मनवाना चाहते हैं, सभी को हेय दृष्टि से देखते हैं, तानाशाहों जैसे कृत्य करते हैं, जब तक कि उन्हें हटा नहीं दिया जाता। कुछ लोग बदल दिए जाने और हटा दिए जाने के बाद महसूस करते हैं कि वे जहाँ भी जाते हैं अब उनके लिए कुछ भी आसान नहीं होता, कोई भी उन्हें भाव नहीं देता या कोई उन पर ध्यान नहीं देता। कोई भी उनके बारे में ऊँची राय नहीं रखता, अब वे अपनी बात नहीं मनवा सकते, उनकी मनमानी नहीं चलती, और आशीष प्राप्त करना तो दूर रहा, वे हैसियत पाने की भी उम्मीद नहीं कर सकते। उन्हें लगता है कि अब वे कलीसिया में जैसे-तैसे काम करते हुए जीवन नहीं बिता सकते, अब उन्हें इसको लेकर कोई दिलचस्पी नहीं रही, इसलिए वे छोड़ कर जाने का फैसला लेते हैं—ऐसे बहुत-से लोग हैं।

ऐसे भी कुछ लोग हैं जिनके छोड़कर जाने का कारण वही है जो ज्यादातर लोगों के हटाए जाने का कारण है। इन लोगों ने परमेश्वर में चाहे जितने लंबे समय से विश्वास रखा हो, वे व्यक्तिगत तौर पर परमेश्वर के घर में बस यही अनुभव करते और देखते हैं कि परमेश्वर के घर में सभाएँ निरंतर परमेश्वर के वचन पढ़ने, सत्य पर संगति करने, खुद को जानने, सत्य पर अमल करने, न्याय और ताड़ना को स्वीकारने, काट-छाँट को स्वीकारने, सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने, स्वभाव में परिवर्तन और अपने भ्रष्ट स्वभाव का त्याग करने के बारे में चर्चा करने को लेकर होती हैं। परमेश्वर जो कार्य करता है, उसकी विषयवस्तु—चाहे कलीसियाई जीवन पर की गई संगति हो, या जो ऊपरवाले द्वारा दिए गए धर्मोपदेशों या संगति में शामिल विषय हो—वह पूरा-का-पूरा सत्य होता है, परमेश्वर का वचन होता है, और पूरी तरह सकारात्मक होता है। लेकिन ये लोग सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते। वे मूल रूप से आशीष प्राप्त करने और फायदा उठाने आए थे। उनका प्रकृति सार देखा जाए, तो न सिर्फ वे सकारात्मक चीजों या सत्य से प्रेम नहीं करते, बल्कि और अधिक गंभीर बात यह है कि वे सकारात्मक चीजों और सत्य से अत्यधिक घृणा करते और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण होते हैं। इसीलिए परमेश्वर का घर सत्य पर संगति जितनी ज्यादा करता है, सत्य पर अमल करने के बारे में जितना ज्यादा बात करता है, सत्य के अनुसरण और सिद्धांतों के अनुसार चीजें करने के बारे में जितना ज्यादा बोलता है, ये लोग भीतर से उतना ही ज्यादा बेचैन और घृणित अनुभव करते हैं, और वे सुनने के उतने ही कम इच्छुक होते हैं। बताओ तो, ये लोग क्या सुनना चाहते हैं? क्या तुम लोग जानते हो? (वे मंजिलों और आशीष प्राप्त करने से जुड़े विषयों और सुसमाचार प्रसार कार्य के अभूतपूर्व स्तरों तक पहुँचने के बारे में सुनना चाहते हैं।) ये कुछ चीजें हैं जो वे सुनना चाहते हैं। वे ऊँची आवाज में नारे भी लगाना चाहते हैं, सिद्धांतों का प्रचार करना चाहते हैं और धर्मशास्त्र, सिद्धांत और रहस्यों की चर्चा करना चाहते हैं। समय-समय पर वे इस बारे में बताते हैं कि परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा, महाविपत्तियाँ कब आएँगी, मानवजाति की भविष्य की मंजिल क्या होगी, विपत्तियों के आने पर बुरी ताकतें कैसे धीरे-धीरे नष्ट होंगी, परमेश्वर किस तरह से कुछ चिह्न और चमत्कार प्रदर्शित करेगा, और किस तरह से परमेश्वर के घर की ताकतें और पैमाने निरंतर फैलेंगे और बढ़ेंगे, और किस तरह वे भी दिखावा करते हुए घमंड और शान से अकड़कर चलेंगे-फिरेंगे। यही नहीं, उनके लिए सबसे अहम बात यह है कि उनकी निरंतर तरक्की होगी, और परमेश्वर के घर में उनका सदुपयोग होगा। इस प्रकार, वे कुछ वक्त तक परमेश्वर के घर में बस जैसे-तैसे काम करते रहेंगे, और ऐसे काम करते हुए परमेश्वर या परमेश्वर के घर द्वारा किया गया कोई भी कार्य, उनकी इच्छानुसार नहीं होता और उनकी सुनी और देखी तमाम बातें सत्य से जुड़ी होती हैं। इसलिए वे दिल से कलीसियाई जीवन से बेहद विमुख होते हैं; उन्हें उसमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती, वे बेचैनी महसूस करते हैं, रह नहीं पाते, और वे इससे सताया हुआ महसूस करते हैं। कुछ लोग कोई हील-हवाला, कोई बहाना बनाकर यह कहते हुए कलीसिया छोड़ने का रास्ता ढूँढ़ लेते हैं, “मैं एक दुष्ट कार्य करूँगा, थोड़ी नकारात्मकता फैलाऊँगा और कुछ बुरा करूँगा। फिर कलीसिया मुझे हटाकर निष्कासित कर देगी, तब मेरा कलीसिया छोड़कर जाना पूरी तरह उचित होगा।” फिर ऐसे भी लोग होते हैं, जो अपने विदेश जाने का परमिट लेने जाते समय, अलविदा कहे बिना ही, परमेश्वर की अपनी किताबें लौटाकर अपना सामान बाँध कर निकल लेते हैं। ये लोग गुंडे-बदमाशों और आवारा चरित्रहीनों जैसे होते हैं, वे सामान्य लोगों की तरह काम नहीं करते। दूसरे लोगों के बीच रहते समय भद्र महिलाएँ और सामान्य लोग जीवन जीने के गंभीर मामले के बारे में सोचते और बात करते हैं। अच्छा जीवन कैसे जिएँ, कैसे अपने पूरे परिवार को इस लायक बनाएँ कि वे बढ़िया खाएँ-पिएँ, सुंदर कपड़े पहनें, उनके पास रहने की अच्छी जगह हो, किस तरह अपने बच्चों को वयस्क बनाएँ, और कैसे अपने बच्चों को सही मार्ग पर आगे बढ़ाएँ—वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं। लेकिन वे गुंडे-बदमाश और आवारा चरित्रहीन इन चीजों के बारे में कभी नहीं सोचते। अगर तुम इन उचित मामलों के बारे में उनसे बात करो, तो वे तुम पर भड़क जाते हैं, तुमसे घृणा करते हैं, तुमसे दूरी बना लेते हैं। तो फिर वे किस बारे में सोचते हैं? क्या ऐसा है कि वे हमेशा खाने-पीने, पार्टी करने के बारे में सोचते रहते हैं? (हाँ।) वे हमेशा खाने-पीने, पार्टी करने और कामुक चीजों के बारे में सोचते रहते हैं। जब वे सामान्य लोगों से इन चीजों के बारे में बात करते हैं, तो सामान्य लोग कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाते; सामान्य लोग उन जैसे नहीं होते, उनकी बातें एक-जैसी नहीं होतीं, और वे एक ही विचारधारा के नहीं होते। सामान्य लोग जिन चीजों के बारे में बात करते हैं, वे उनके दिलों में नहीं होते, वे उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाते, उनकी बातें नहीं सुनना चाहते। वे सोचते हैं कि उस तरह जीना खुद के साथ गंभीर रूप से गलत करना और बिना किसी आजादी के बंधक बन कर जीना है। वे सोचते हैं कि विपरीत लिंग के किसी सदस्य को रिझाने के लिए हमेशा सुंदर कपड़े पहने रहना जीने का एक रोमांचक और बेपरवाह तरीका है—उन्हें लगता है कि यह परिपूर्ण जीवन है! कलीसिया छोड़ने वाले ये लोग गैर-विश्वासियों के जीवन से ईर्ष्या करते हैं, पाप-सुखों से ईर्ष्या करते हैं, और सोचते हैं कि गैर-विश्वासियों की तरह दिन बिताना और उनकी तरह जीना ही खुद को निराश किए बिना रोमांचक और सुखमय जीवन जीने का एकमात्र तरीका है। गुंडे-बदमाशों और आवारा चरित्रहीनों की तरह ही इन छद्म-विश्वासियों में भी सामान्य मानवता नहीं होती और वे सामान्य लोग नहीं होते। अगर तुम उनसे कुछ सकारात्मक करने को कहोगे, तो वे सरासर इनकार कर देंगे, क्योंकि अपने अंतरतम में, अपने प्रकृति सार में वे सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते और सत्य से विमुख महसूस करते हैं। वे कैसे काम करते हैं? वे कलीसिया में, भाई-बहनों के बीच और अपने कर्तव्य-निर्वहन के दौरान क्या करते हैं? वे अपने कर्तव्य लापरवाही से निभाते हैं, बड़े-बड़े सिद्धांत बघारते हैं, हमेशा नारे लगाते हैं, मगर सचमुच कुछ नहीं करते—यही उनका सामान्य व्यवहार होता है। वे कभी भी लगन से अपने कर्तव्य नहीं निभाते, हमेशा लापरवाह होते हैं, सिर्फ बेमन से काम करते हैं, सिर्फ दूसरों को दिखाने के लिए काम करते हैं, और साथ ही दूसरे लोगों के बीच प्रतिष्ठा और फायदे के लिए होड़ करते हैं। ये बुरे लोग दूसरों को कष्ट भी देते हैं, उन्हें दबाते हैं, और बुरे लोग जहाँ भी होते हैं, वहाँ शांति और आराम नहीं होता—सिर्फ अव्यवस्था होती है। जब बुरे लोग प्रभारी बन जाते हैं, तो न सिर्फ कार्य दक्षता से आगे नहीं बढ़ता बल्कि अटक जाता है; कलीसिया का नियंत्रण बुरे लोगों के हाथ में हो, तो नेक लोगों को धमकाया जाता है, कलीसिया असहनीय रूप से अव्यवस्थित हो जाती है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों की आस्था ठंडी पड़ जाती है और वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं। बुरे लोग जहाँ भी होते हैं, वे बाधाजनक और विनाशकारी भूमिका अदा करते हैं। बुरे लोगों की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति यह है कि उनमें अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा नहीं होती। वे अपने कर्तव्य निभाएँ, तो भी लापरवाही से निभाते हैं, उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लेते, यही नहीं, वे दूसरों के कर्तव्य में भी बाधा पहुँचाते हैं। एक और बात है, और वो यह है कि बुरे लोग परमेश्वर के वचन कभी नहीं पढ़ते, कभी प्रार्थना नहीं करते, दूसरों के साथ सत्य पर कभी संगति नहीं करते, और वे परमेश्वर के वचनों की अपनी किताबें भी कभी नहीं खोलते। कुछ लोग बुरे लोगों की ओर से यह कहकर कुछ झूठी दलीलें देते हैं, “उन्होंने परमेश्वर की किताबें नहीं पढ़ी हैं तो क्या, वे धर्मोपदेश जरूर सुनते हैं।” लेकिन क्या वे उन्हें समझ पाते हैं? वे उन्हें सच्चे दिल से नहीं सुनते, वे परमेश्वर के घर द्वारा निर्मित वीडियो या फिल्में कभी नहीं देखते, भजन नहीं सुनते, अनुभवात्मक गवाहियाँ नहीं सुनते, न ही धर्मोपदेशों की रिकॉर्डिंग सुनते हैं। सभाओं में वे उनींदे हो जाते हैं, और कुछ ऐसे भी हैं जो अपने फोन से खेलते रहते हैं, मनोरंजन के कार्यक्रम देखते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो वयस्क फिल्में देखते हैं। वे सारा दिन जो-कुछ करते हैं उसका परमेश्वर में विश्वास रखने और सत्य का अनुसरण करने से कोई लेना-देना नहीं होता। जब परमेश्वर का घर सत्य पर ज्यादा विस्तृत संगतियाँ करता है, तो सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति वे जो घृणा महसूस करते हैं, वह और अधिक स्पष्ट हो जाती है। वे बेचैन महसूस करते हैं, और जब तक बर्दाश्त कर पाते हैं, उस दौरान वे अपनी लालसा की अच्छी मंजिल, अच्छा अंत और महाविपत्तियाँ देख नहीं पाते हैं, और वे इन चीजों के लिए व्यर्थ में प्रतीक्षा करते हैं। वे इन चीजों के लिए व्यर्थ में प्रतीक्षा करते हैं, तो क्या उनके दिल में बेचैनी होती है? (हाँ, होती है।) कैसी बेचैनी होती है? क्या वे हमेशा अपने भीतर हिसाब नहीं करते रहते? वे कभी भी परमेश्वर के न्याय और ताड़ना और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकारने, परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के समक्ष समर्पित होने, और कहीं भी, कभी भी पूरी लगन से अपने कर्तव्य निभाने को तैयार नहीं होते। उनकी मानसिकता क्या है? वे कभी भी और कहीं भी अपना सामान बाँध लेने और छोड़ कर चले जाने को तैयार रहते हैं। बड़े लंबे समय से वे कभी भी छोड़ कर जाने, कलीसिया और भाई-बहनों को अलविदा कहने, पूरी तरह अलग होकर सारे रिश्ते-नाते तोड़ लेने को तैयार बैठे हैं। उनके छोड़ कर जाने का समय वह होगा जब उनकी बर्दाश्त करने की समय-सीमा समाप्त हो जाएगी। क्या ऐसा नहीं है? (जरूर है।)

कुछ लोग, किसी भी कारण से बदल दिए जाने या हटा दिए जाने के बाद भी, भरसक डटकर अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होते हैं। कुछ लोग सत्य बिल्कुल नहीं खोजते, और इसलिए वे आगे से कर्तव्य न निभाने का फैसला कर लेते हैं। जब वे अपना कर्तव्य निभा रहे थे, तो वे पहले से ही उसके प्रति घृणा और अधीरता दिखाते थे, हमेशा कलीसियाई जीवन से बच निकलना चाहते थे, अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते थे। चूँकि ये लोग सत्य में रुचि नहीं रखते, इसलिए उन्हें कलीसियाई जीवन जीना अच्छा नहीं लगता, वे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते। वे सिर्फ परमेश्वर के दिन के आगमन की बाट जोहते हैं, ताकि वे आशीष प्राप्त कर सकें; वे पहले की तरह बस जैसे तैसे काम करते नहीं रह पाते हैं, वे देखते हैं कि विपत्तियाँ निरंतर बड़ी होती जा रही हैं और सोचते हैं कि अगर अभी उन्होंने दैहिक सुखों के लिए प्रयास नहीं किए, तो वे ऐसा करने का अवसर खो देंगे। इसलिए वे मुड़कर देखे बिना, बिना हिचकिचाहट के कलीसिया छोड़ देते हैं। उस पल से वे लोगों के विशाल सागर में लुप्त हो जाते हैं, और फिर कलीसिया में कभी कोई उनके बारे में कुछ नहीं जान पाता—छद्म-विश्वासियों को इसी तरह उजागर कर हटा दिया जाता है। परमेश्वर का घर सत्य पर संगति जितनी ज्यादा करता है, और लोगों से सत्य पर अमल करने और वास्तविकता में प्रवेश करने की जितनी अधिक अपेक्षा करता है, वे उतनी ही घृणा का अनुभव करते हैं, इसे बिल्कुल सुनना ही नहीं चाहते। न सिर्फ वे इन चीजों को स्वीकार नहीं करते, बल्कि उनका प्रतिरोध करते हैं। वे स्थिति को बड़ी अच्छी तरह समझते हैं : वे जानते हैं कि उन जैसे लोगों के लिए परमेश्वर के घर में कोई जगह नहीं है, वे अपनी आस्था में परमेश्वर के लिए खुद को सचमुच नहीं खपाते, पूरी लगन से अपना कर्तव्य नहीं निभाते, हमेशा अपना काम लापरवाही से करते हैं, वे सत्य से तीव्र घृणा और नफरत महसूस करते हैं; वे यह भी जानते हैं कि देर-सवेर उन्हें हटा दिया जाएगा, और यकीनन यही परिणाम होगा। उन्होंने यह सोचकर अपनी योजना बहुत पहले बना ली थी, “किसी भी स्थिति में, मुझ जैसे किसी व्यक्ति को आशीष नहीं मिलेंगे, तो बेहतर यही होगा कि अभी छोड़ दूँ, कुछ वर्ष बढ़िया जीवन बिताऊँ, और खुद को निराश न करूँ।” क्या वे ऐसी योजनाएँ नहीं बनाते? (जरूर बनाते हैं।) जब लोगों के ऐसे इरादे और योजनाएँ हों तो क्या वे अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा पाएँगे? नहीं, वे नहीं निभा पाएँगे। इसलिए इन लोगों ने चाहे जितने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, उन्हें परमेश्वर, उसके घर, कलीसिया, भाई-बहनों या कलीसियाई जीवन से अलग होने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं होती। एक दिन वे कहते हैं कि वे छोड़कर जा रहे हैं, और दूसरे ही दिन एक गैर-विश्वासी जैसी पोशाक में, बन-ठनकर भारी मेकअप लगाकर, तुरंत बिल्कुल एक गैर-विश्वासी की तरह सज-धज जाते हैं, उसकी तरह बोलते हैं और बर्ताव करते हैं; वे तड़क-भड़क वाली पोशाकों में सजते-सँवरते हैं, और तुम्हें सही नहीं लगते, फिर भी वे तुम्हें कैसे दिखाई देते हैं, इस बात से वे अनजान रहते हैं। ऐसा कैसे है कि वे इतने जल्द बदल जाते हैं? (इसलिए कि उन्होंने बहुत पहले ही अपनी योजनाएँ बना ली थीं, और यही उनकी प्रकृति है।) सही है। उन्होंने बहुत पहले ही अपनी योजनाएँ बना ली थीं; उन्होंने छोड़ने से कुछ ही दिन पहले ये योजनाएँ नहीं बनाईं, बल्कि उन्होंने बहुत पहले ही पक्का कर लिया था कि वे ऐसा करने वाले हैं। काफी पहले ही उन्होंने साजिश कर योजना बना ली थी कि वे कैसे खाएँगे, पिएँगे और पार्टी करेंगे, कैसा आचरण करेंगे और किस तरह जिएँगे। उन्हें कलीसियाई जीवन जीना, कर्तव्य निभाना या सत्य पर संगति करना पसंद नहीं है, हर दिन धर्मोपदेश सुनना और सभाओं में भाग लेना तो उनके लिए दूर की कौड़ी है। ऐसे कलीसियाई जीवन से उन्हें तीव्र घृणा है, और अगर आशीष प्राप्त करने और अच्छी मंजिल पाने, महाविपत्तियों से बच निकलने की बात न होती, तो वे यहाँ एक भी दिन नहीं टिक पाते—यही उनका असली चेहरा है। तो अगर तुम्हारी ऐसे लोगों से दोबारा मुलाकात हो जाए, तो तुम्हें उन्हें कैसे सँभालना चाहिए? क्या तुम उन्हें मीठी बातों से मनाओगे, या उन्हें ज्यादा सहारा और मदद दोगे? या क्या तुम उन्हें जाता देख दुखी हो जाओगे, और अपने प्रेम से उन्हें बदलने की कोशिश करोगे? उन्हें तुम्हें किस नजरिये से देखना चाहिए? (हमें उन्हें तुरंत छोड़ कर गैर-विश्वासियों की दुनिया में जाने को कहना चाहिए।) सही है, उन्हें दुनिया में लौट जाने को कहो, उन्हें लेकर परेशान न रहो। तुम उनसे कहोगे, “अच्छी तरह सोच लो, ताकि बाद में तुम्हें अपने फैसले पर पछतावा न हो।” वे कहेंगे, “मैंने सोच लिया है, भविष्य में चाहे जैसी मुश्किलें आएँ, मैं पीछे नहीं हटूँगा, मुझे पछतावा नहीं होगा।” तुम कहोगे, “तो फिर जाओ। कोई तुम्हें रोक नहीं रहा है। हम सब तुम्हारा भला चाहते हैं, और उम्मीद करते हैं कि तुम अपने आदर्श हासिल करो, अपने सपने साकार करो। हम यह भी उम्मीद करते हैं कि वह दिन आने पर जब तुम दूसरों को बचाया जाता देखो, तो तुम्हें कोई ईर्ष्या या पछतावा न हो। अलविदा।” क्या उनसे ऐसा कहना बहुत उपयुक्त नहीं है? (जरूर है।) तो इन जैसे लोगों के विषय में एक पहलू यह है कि तुम्हें उनके प्रकृति सार को साफ तौर पर देखना चाहिए, जबकि दूसरा पहलू यह है कि तुम्हें उन लोगों के प्रति उपयुक्त दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। अगर वे छद्म-विश्वासी, गैर-विश्वासी होकर भी श्रम करने को तत्पर हों, आज्ञाकारी होकर समर्पण कर सकते हों, तो भले ही वे सत्य का अनुसरण न करें, उनसे कुछ न कहो, उन्हें मत हटाओ। इसके बजाय, उन्हें श्रम करते रहने की अनुमति दे दो, और अगर तुम उनकी मदद कर सको तो करो। अगर उन्हें श्रम करने की भी इच्छा नहीं है, और वे लापरवाही से काम करना शुरू कर दें, बुरे काम करें, तो हमने वह सब कर दिया होगा जिसकी जरूरत है। अगर वे छोड़कर जाना चाहें तो उन्हें जाने दो, और उनके जाने के बाद उन्हें याद मत करो। वे ऐसे मुकाम पर हैं कि उन्हें छोड़कर चले जाना चाहिए, ऐसे लोग हमारी दया के लायक नहीं हैं, क्योंकि वे छद्म-विश्वासी हैं। सबसे दयनीय बात तो यह है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो निहायत बेवकूफ हैं, जो बाहर कर दिए गए लोगों के प्रति नर्म भावनाएँ रखते हैं, उन्हें हमेशा याद करते हैं, उनकी ओर से बोलते हैं, उनकी तरफदारी करते हैं, और उनके लिए रोते, प्रार्थना करते और विनती करते हैं। इन लोगों के ऐसे कृत्यों के बारे में तुम क्या सोचते हो? (यह बहुत बड़ी बेवकूफी है।) यह बेवकूफी कैसे है? (छोड़ कर जाने वाले लोग छद्म-विश्वासी होते हैं, सत्य को नहीं स्वीकारते, वे जरा भी इस लायक नहीं हैं कि उनके लिए प्रार्थना की जाए, उन्हें याद किया जाए। परमेश्वर जिन्हें अवसर देता है और जिनके बचाए जाने की उम्मीद है, बस वही लोग दूसरों के आँसुओं और प्रार्थनाओं के लायक हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी छद्म-विश्वासी या दानव के लिए प्रार्थना करता है, तो वह बहुत बेवकूफ है, अज्ञानी है।) एक पहलू तो यह है कि वे सचमुच यकीन नहीं करते कि परमेश्वर है—वे छद्म-विश्वासी हैं; दूसरा पहलू यह है कि इन लोगों का प्रकृति सार एक गैर-विश्वासी का है। इसमें निहित अर्थ क्या है? वह यह है कि वे इंसान ही नहीं हैं, उनका प्रकृति सार एक दानव, एक शैतान का है, और ये लोग परमेश्वर के विरुद्ध हैं। उनके प्रकृति सार की बात ऐसी ही है। इसके अलावा एक दूसरा पहलू भी है और वह यह है कि परमेश्वर लोगों को चुनता है, दानवों को नहीं। तो बताओ, क्या ये दानव परमेश्वर के चुने हुए लोग हैं, क्या इन्हें परमेश्वर ने चुना है? (नहीं।) वे परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं हैं, इसलिए अगर तुम इन लोगों के साथ हमेशा भावनाओं में उलझ जाओ और उनके जाने पर दुखी हो जाओ, तो क्या तुम बेवकूफ नहीं हो? क्या इससे तुम परमेश्वर के विरुद्ध नहीं हो जाते? अगर तुम्हारे भीतर सच्चे भाई-बहनों के प्रति गहरी भावनाएँ नहीं हैं, लेकिन तुम इन दानवों के लिए गहरी भावनाएँ रखते हो, तो तुम क्या हो? और कुछ नहीं तो तुम एक भ्रमित व्यक्ति तो हो ही, लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखते, और अभी भी सही दृष्टिकोण के साथ आचरण नहीं करते, मामलों को सिद्धांतों के साथ नहीं संभालते। तुम एक भ्रमित व्यक्ति हो। अगर तुम्हारे मन में इनमें से किसी एक दानव के लिए नर्म भावनाएँ हैं, तो तुम सोचोगे, “अरे, वह तो बड़ा नेक इंसान है, हमारा रिश्ता कितना बढ़िया है! हमारी कितनी अच्छी बनती है, वह मेरी बड़ी मदद करता है! जब मैं कमजोर होता हूँ तो वह मुझे आराम देता है, कुछ गलत करता हूँ तो मेरे साथ सहिष्णुता और धीरज से पेश आता है। वह बहुत प्यारा है!” वह सिर्फ तुम्हारे ही साथ ऐसा था, तो फिर तुम क्या हो? क्या तुम भी बस एक और साधारण भ्रष्ट इंसान नहीं हो? और वह व्यक्ति सत्य, परमेश्वर और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपे गए कर्तव्य के साथ कैसा बर्ताव करता है? तुम चीजों को इन नजरियों से क्यों नहीं देखते? क्या अपने निजी हितों, अपनी आँखों और भावनाओं के नजरिये से चीजों को देखना सही है? (नहीं।) साफ तौर पर यह सही नहीं है! और चूँकि यह चीजों को देखने का सही तरीका नहीं है, इसलिए तुम्हें इसे जाने देना चाहिए, उस व्यक्ति को देखने का अपना परिप्रेक्ष्य और नजरिया बदल देना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को आधार मानकर उस व्यक्ति को देखना और सँभालना चाहिए—यही वह दृष्टिकोण और रवैया है जो परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अपनाना और रखना चाहिए। जड़बुद्धि मत बनो! क्या तुम सोचते हो कि दूसरों पर तरस खाते हो इसलिए तुम एक दयालु व्यक्ति हो? तुम निहायत बेवकूफ हो और तुम्हारे पास कोई सिद्धांत नहीं है। तुम लोगों से परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश नहीं आते; शैतान की तरफदारी करते हो, शैतान और दानवों से सहानुभूति रखते हो। तुम्हारी सहानुभूति परमेश्वर के चुने हुए लोगों या उन लोगों के साथ नहीं है जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है, और यह सच्चे भाई-बहनों की ओर निर्देशित नहीं है।

ऐसे छद्म-विश्वासी लोग कभी अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा नहीं रखते, वे इसे अपनी मर्जी से निभाते हैं। उनके साथ तुम सत्य पर चाहे जैसी संगति कर लो, वे उसे स्वीकार नहीं करते, थोड़ा सत्य समझ भी लें, तो भी उस पर अमल नहीं करते। उनकी एक और मुख्य अभिव्यक्ति है—वह क्या है? वह यह है कि वे अपना कर्तव्य हमेशा फूहड़पन से निभाते हैं, हमेशा फूहड़ होते हैं, और प्रायश्चित्त न करने पर अड़े रहते हैं। वे अपने निजी मामलों पर बहुत ध्यान देते हैं, उनके प्रति ईमानदार और मेहनती होते हैं, और उनकी अनदेखी करने का जरा भी साहस नहीं दिखाते। उन्होंने अपने रोटी-कपड़े, अपनी हैसियत, शोहरत, स्वाभिमान, देह-सुखों, बीमारियों, अपने भविष्य, सँभावनाओं, रिटायरमेंट और यहाँ तक कि अपनी मृत्यु को लेकर भी ध्यान से सोच लिया है—उन्होंने हर चीज की कामयाबी सुनिश्चित कर रखी है। लेकिन अपना कर्तव्य निभाने से जुड़े मामलों पर वे बिल्कुल ध्यान नहीं देते, सत्य का अनुसरण करना तो दूर की बात है। कुछ लोग सभाओं में जाने पर हर बार उनींदा महसूस कर झपकी लेने लगते हैं, और मेरी वाणी सुनने से उन्हें घृणा भी होती है। वे बहुत ही असहज महसूस करते हैं, अंगड़ाई और उबासी लेते हैं, अपने कान खुजाते हैं, गाल रगड़ते हैं। वे जानवरों जैसा बर्ताव करते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “सभाओं में धर्मोपदेश बड़े लंबे होते हैं, और कुछ लोग इतनी देर नहीं बैठ सकते।” असल में कभी-कभी सभा शुरू होते ही वे कुलबुलाने लगते हैं, और सुनते समय उन्हें घृणा होती है। इसीलिए वे कभी भी धर्मोपदेश नहीं सुनते या परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते। जैसे ही वे किसी को सत्य पर संगति करते सुनते हैं, उन्हें घृणा हो जाती है, और लोगों को पूरे ध्यान से सुनते हुए देख उन्हें उनसे घृणा हो जाती है और वे उनसे ऊब जाते हैं। ऐसे लोगों का प्रकृति सार क्या है? उनके शरीर पर इंसानी चमड़ी है; बाहर से तो वे इंसान हैं, मगर उनकी चमड़ी उधेड़ कर देखोगे तो वे दानव हैं, इंसान नहीं। परमेश्वर चाहता है कि अनेक लोग बच जाएँ, मानवता वाले लोग बच जाएँ; वह नहीं चाहता कि दानवों को बचाया जाए। परमेश्वर दानवों को नहीं बचाता! तुम्हें यह हमेशा याद रखना चाहिए, और भूलना नहीं चाहिए! तुम्हें ऐसे किसी के भी साथ नहीं जुड़ना चाहिए जिसकी चमड़ी इंसान की हो, मगर जिसकी प्रकृति और सार दानव का हो। अगर तुमने ऐसे व्यक्ति के साथ सारे संबंध नहीं तोड़े हैं, उन्हें खुश करने और उनकी चापलूसी की कोशिश करते हो, तो तुम शैतान के उपहास का विषय बन जाओगे, और परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा और कहेगा, “अरे अंधे बेवकूफ, तू किसी को नहीं समझ सकता!” परमेश्वर दानवों को नहीं बचाता, समझे? (हाँ।) परमेश्वर दानवों को नहीं बचाता, न ही वह दानवों को चुनता है। दानव कभी सत्य से प्रेम नहीं कर सकते, न ही सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, परमेश्वर को समर्पण करना तो दूर की बात है—वे परमेश्वर को कभी समर्पण नहीं कर सकते। वे परमेश्वर में विश्वास इसलिए नहीं रखते हैं क्योंकि उन्हें उसकी धार्मिकता और निष्पक्षता से प्रेम है, न ही इसलिए कि वे उद्धार प्राप्ति का अनुसरण कर सकें। वे अय्यूब के परमेश्वर से भय और बुराई से दूर रहने के प्रति घृणा और तिरस्कार व्यक्त करते हैं, और अपने दिलों में वे सत्य के अनुसरण के प्रति घोर घृणा और प्रतिरोध महसूस करते हैं। अगर तुम मेरी बात पर यकीन नहीं करते, तो बस अपने आसपास के उन लोगों पर नजर डालो जिन्हें बाहर कर दिया गया है, उजागर किया गया है, और देखो कि उनके भीतर गहराई में क्या दबा हुआ है, जब कोई सुन न रहा हो, तो देखो कि वे क्या बोलते हैं, किसकी परवाह करते हैं, अपने जीवन, जीवित रहने, और अपने आसपास के लोगों, घटनाओं, और चीजों के प्रति उनका रवैया क्या है, और साथ ही वे क्या बोलते हैं, कौन-सी सोच व्यक्त करते हैं। इन सभी अभिव्यक्तियों और उद्गारों से तुम साफ तौर पर देख सकते हो कि असल में वे क्या हैं, वे क्यों छोड़ कर जा पा रहे हैं, और परमेश्वर का घर उन्हें हटाना क्यों चाहता है। क्या यह सीखने लायक सबक नहीं है? (हाँ, जरूर है।) और तुमने कौन-सा सबक सीखा है? वह क्या है जो तुमने समझा है? (हमने सीखा है कि पहचान कैसे करनी है, हमने समझा है कि इन लोगों के भीतर गहराई में सत्य से प्रेम नहीं है और वे सत्य से विमुख महसूस करते हैं। परमेश्वर के घर में वे बस जैसे तैसे काम करते हैं, और देर-सवेर, उन्हें हटा दिया जाएगा।) अगर तुम चीजों को इस दृष्टि से देखते हो, तो यह दर्शाता है कि तुमने सबक सीख लिया है।

क्या तुम यह देख पाते हो कि आध्यात्मिक क्षेत्र के दानव और शैतान किस प्रकार सत्य से विमुख होते और उससे घृणा करते हैं? क्या तुम देख पाते हो कि दानव और शैतान किस तरह से परमेश्वर की अवज्ञा कर उसकी ईशनिंदा करते हैं? क्या तुम देख पाते हो कि दानव और शैतान परमेश्वर पर हमला करने के लिए कौन-से शब्द, कहावतें और तरीके इस्तेमाल करते हैं? क्या तुम देख पाते हो कि दानवों और शैतान को परमेश्वर क्या करने देता है, वे उसे कैसे करते हैं, और उनका रवैया क्या है? (नहीं।) तुम ये चीजें नहीं देख पाते। इसलिए, परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वह तुम्हारे मन में महज एक कल्पना या एक तस्वीर है; यह तथ्य नहीं है। चूँकि तुमने ये चीजें खुद नहीं देखी हैं, इसलिए तुम बस अपनी कल्पना पर भरोसा कर सकते हो और ऐसी नाटकीय झाँकी या किसी कृत्य की कल्पना कर सकते हो। लेकिन, जब तुम्हारी मुलाकात इंसान की खाल पहने इन जीवित दानवों और शैतानों से होती है, तो तुम व्यावहारिक रूप से दानवों और शैतानों के बोलों, कुकृत्यों के संपर्क में आते हो, और साथ ही उनके द्वारा की गई परमेश्वर की आलोचनाओं, उस पर हमलों, उसकी अवज्ञा और ईशनिंदा करने के तथ्यों और साक्ष्यों को देखते हो—तब तुम उनके स्वभाव को पूरी स्पष्टता से देख पाओगे, जोकि सत्य से विमुख होता है, उससे घृणा करता है। इंसानी खाल पहने ये दानव और शैतान परमेश्वर पर उसी तरह हमले करते हैं जैसे कि आध्यात्मिक क्षेत्र के दानव और शैतान करते हैं; वे पूरी तरह से वही हैं, फर्क बस इतना है कि इंसानी खाल वाले दानवों और शैतानों ने परमेश्वर पर हमला करने के लिए एक अलग रूप धर लिया है—फिर भी उनका सार वही रहता है। वे इंसानी खाल पहनकर मनुष्यों में बदल जाते हैं, मगर फिर भी वे परमेश्वर की आलोचना, उस पर हमला करते हैं, उसकी अवज्ञा और ईशनिंदा करते हैं। जिस तरीके से देह में मौजूद ये दानव और शैतान तथा छद्म-विश्वासी परमेश्वर की आलोचना कर उस पर हमले करते हैं, उसकी अवज्ञा करते हैं, और जिस तरह से वे उसके कार्य को नीचे गिराते और कलीसिया कार्य को बाधित करते हैं यह ठीक वही तरीका है जिससे आध्यात्मिक क्षेत्र के दानव और शैतान ये सारे काम करते हैं। इसलिए, जब तुम देखते हो कि दुनिया में दानव और शैतान कैसे परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं, तो तुम देखते हो कि आध्यात्मिक क्षेत्र के दानव और शैतान किस तरह परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं—इनमें बिल्कुल भी अंतर नहीं है। उनका स्रोत एक ही है और दोनों में एक ही प्रकृति सार है, इसीलिए वे एक-जैसे काम करते हैं। वे चाहे जो रूप धरें, सभी एक ही काम करते हैं। इसलिए इंसानी खाल पहने ये दानव और शैतान परमेश्वर की अवज्ञा कर उस पर हमला करते हैं, और अपनी प्रकृति और खुद को रोक न पाने के कारण, वे सत्य के प्रति चरम घृणा और प्रतिरोध दिखाते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि वे खुद को रोक नहीं पाते। वे देखने में मनुष्य लगते हैं, दूसरे इंसानों के साथ जीते हैं, दिन में तीन बार खाना खाते हैं, इंसानी शिक्षा और ज्ञान पाते हैं, उनके जीवन कौशल और जीने के तरीके दूसरे इंसानों के ही समान हैं; लेकिन उनकी आतंरिक आत्मा दूसरे इंसानों वाली नहीं है, न ही उनका सार वही है। तो उनकी सोच, और वे जो-कुछ करने के काबिल हैं, उनके पीछे का सार, मूल और स्रोत यह निर्देशित करता है कि वे लोग क्या हैं। अगर वे परमेश्वर पर हमला करते हैं, उसकी ईशनिंदा करते हैं, तो वे दानव हैं, इंसान नहीं। इंसानी रूप में वे चाहे जितनी बढ़िया या सही बातें करें, उनका प्रकृति सार दानवों का ही है। लोगों को गुमराह करने के लिए दानव सुनने में अच्छी लगने वाली बातें कह सकते हैं, फिर भी वे सत्य बिल्कुल स्वीकार नहीं करते, उस पर अमल करना तो बहुत दूर की बात है—बात बिल्कुल यही है। उन बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों और परमेश्वर की अवज्ञा कर उसके साथ विश्वासघात करने वाले लोगों पर गौर करो—क्या वे इस किस्म के व्यक्ति नहीं हैं? वे सब बढ़िया बातें कहने के काबिल हैं, लेकिन वे कुछ भी व्यावहारिक करने में सक्षम नहीं हैं। वे हैसियत वाले और सत्ताधारी लोगों, खास तौर से अपने अगले उच्चाधिकारियों को थोड़ा सम्मान दे सकते हैं, उनसे अच्छी बातें कह सकते हैं, लेकिन परमेश्वर के समक्ष आने पर वे देहधारी परमेश्वर को न्यूनतम सम्मान भी नहीं देते। अगर तुम उनसे परमेश्वर के लिए कोई मामला सँभालने को कहो, तो वे उसे बिल्कुल नहीं करना चाहते, और करते भी हैं तो लापरवाही से करते हैं। वे परमेश्वर से ऐसा बर्ताव करने के काबिल क्यों होते हैं? क्या सत्य ने उन्हें निराश किया है? क्या परमेश्वर ने उन्हें निराश किया है? क्या परमेश्वर ने उनके साथ पहले बातचीत की है? इन सवालों का जवाब है नहीं, परमेश्वर की उनसे कभी मुलाकात तक नहीं हुई है। तो फिर परमेश्वर और सत्य को लेकर ये लोग ऐसा रवैया क्यों रखते हैं? एक कारण है, और वह यह कि उनका प्रकृति सार सहज रूप से परमेश्वर के विरुद्ध है। इसीलिए वे परमेश्वर की खिल्ली उड़ाने, ईशनिंदा करने, दिल से परमेश्वर से घृणा करने, उसकी आलोचना कर उस पर हमला करने, और पूरी बेईमानी के साथ ऐसा करने से खुद को रोक नहीं पाते—इसका फैसला उनके प्रकृति सार से होता है। वे ये काम बिना ज्यादा कोशिश किए ही कर लेते हैं, बिना सोचे-विचारे, अनजाने ही बोल उनके मुँह से फूट पड़ते हैं, ये चीजें सहज रूप से बाहर उमड़ पड़ती हैं। वे दूसरे लोगों, हैसियत वालों और साधारण लोगों को सम्मान दे सकते हैं, मगर वे परमेश्वर और सत्य से जबरदस्त घृणा करते हैं। वे लोग क्या हैं? (दानव।) सही है, उनकी उम्र चाहे जो हो, वे दानव हैं, इंसान नहीं। कुछ लोग कहते हैं, “शायद वे बस कच्चे हैं, चीजों को नहीं समझते।” तुम सोचते हो कि वे कच्चे हैं और चीजें नहीं समझते, लेकिन दुनिया और समाज में जाकर जब वे बड़ों को देखते हैं, तो उन्हें हमेशा उचित ढंग से संबोधित करते हैं। सिर्फ परमेश्वर को देखकर ही वे उसे संबोधित नहीं करते, इसके बजाय कहते हैं, “सुनो,” “तुम जो वहाँ हो,” या बस “तुम।” वे परमेश्वर को संबोधित नहीं करते। वे समाज में बूढ़ों का सम्मान करना, छोटों की परवाह करना जानते हैं, वे सभ्य और विनम्र हैं। लेकिन परमेश्वर के समक्ष आने पर वे ये चीजें नहीं कर पाते, नहीं समझते कि उसका सम्मान कैसे करना है। तो, फिर ये क्या हैं? (दानव।) वे दानव हैं, ठेठ दानव! वे समाज में प्रतिष्ठित, हैसियत वाले और अपने प्रशंसनीय लोगों, और जिन लोगों से वे कुछ फायदा उठा सकते हैं, उनके प्रति सम्मान और विनम्रता दिखा पाते हैं; बस परमेश्वर के समक्ष आने पर ही वे जरा भी सम्मान या विनम्रता नहीं दिखाते, बल्कि इसके बजाय वे तुरंत प्रतिरोध करते हैं, खुले तौर पर उनसे घृणा करते हैं, तिरस्कारपूर्ण रवैये के साथ पेश आते हैं। वे लोग क्या हैं? वे दानव हैं, ठेठ दानव! ये छद्म-विश्वासी, जिन्होंने परमेश्वर के घर में घुसपैठ की और जिनका सफाया कर निकाल दिया गया, वे सब सौ फीसदी इसी किस्म के लोग हैं। वे परमेश्वर से इस तरह तिरस्कारपूर्ण ढंग से पेश आते हैं, और परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित कर्तव्य निभाने की बात आने पर, वे उस पर और भी ज्यादा ध्यान नहीं देते। समाज में उनकी हैसियत चाहे जो हो, वे कितने भी सुशिक्षित हों, उनकी उम्र या लिंग चाहे जो हो, उनका प्रकृति सार वही है। जब वे दुनिया में होते हैं और किसी अधिकारी से मिलते हैं जो उन्हें कुछ करने को कहता है, तो वे जमीन पर लोटते हुए सलाम ठोकने को बहुत उत्सुक होते हैं। वे अधिकारी के गुलाम बनने को खुशी-खुशी तैयार हो जाते हैं, सबसे उत्तम तरीके से उसकी चापलूसी करने की कोशिश करते हैं। अगर कोई प्रसिद्ध व्यक्ति या राष्ट्रपति उनसे हाथ मिला ले या उन्हें गले लगा ले, तो वे सम्मानित महसूस करते हैं, और शायद ताजिंदगी फिर कभी वे अपने हाथ न धोएँ या अपने कपड़े न बदलें। उन्हें लगता है कि ये प्रसिद्ध और महान लोग परमेश्वर से ऊँचे और बढ़कर हैं, और इसीलिए वे दिल से परमेश्वर से घृणा करने में सक्षम होते हैं। परमेश्वर चाहे जो कहे, या चाहे जो कार्य करे, ये लोग उन्हें जिक्र करने लायक नहीं मानते। न सिर्फ वे उन्हें जिक्र करने लायक नहीं मानते, बल्कि निरंतर परमेश्वर के वचनों पर कार्य करके उन्हें बदल देना चाहते हैं, उनमें अपने अर्थ जोड़ देना चाहते हैं, उन्हें पूरी तरह अपनी सोच के अनुरूप बना देना चाहते हैं—ये सभी लोग अपने प्रकृति सार में समस्या वाले लोग हैं। मुझे बताओ, इन दानवी लोगों या दानवी प्रकृति सार वाले लोगों को क्या परमेश्वर के घर में बने रहने देना उपयुक्त है? (बिल्कुल नहीं।) नहीं, यह उपयुक्त नहीं है। ये परमेश्वर के चुने हुए लोगों के समान नहीं हैं : परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के होते हैं, जबकि ये लोग दानवों और शैतान के हैं।

किस प्रकार के लोगों को एक साथ इकट्ठा होना चाहिए ताकि उन्हें कलीसिया कहा जाए? परमेश्वर के घर में किस प्रकार के लोग चाहिए होते हैं? और परमेश्वर का घर किस प्रकार के लोगों का होता है? बताओ। (वैसे लोग जो परमेश्वर में सचमुच विश्वास रखते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं।) यह कुछ ज्यादा ही सख्त है। मेरी नजर में, निम्नतम सीमा और न्यूनतम मानक ऐसे लोग होने चाहिए जो श्रम करने को तत्पर हों। हो सकता है उन्हें सत्य से प्रेम न हो, मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि वे सत्य से विमुख महसूस करते हैं, वे बिना कोई सवाल किए परमेश्वर के घर द्वारा दिया गया हर काम करते हैं, वे आज्ञाकारी हैं, और समर्पण कर पाते हैं। जब सत्य के अनुसरण की शर्तों की बात आती है, तो कुछ लोग सोच सकते हैं कि वे काबिलियत में कम हैं, उन्हें यह करना अच्छा नहीं लगता, और शायद वे इसमें उतनी रुचि नहीं रखते। हो सकता है वे सोचें कि बार-बार कोई धर्मोपदेश सुनना स्वीकार्य है, और कभी-कभी जब वे धर्मोपदेश सुनते हैं, तो उनकी आँख लग जाती है, और जागने पर वे सोचते हैं, “मैं क्या सुन रहा था? भूल गया। मेरे लिए काम ही अच्छा है। मैं अपना काम कर लूँ यही काफी है।” वे बेलगाम या विघ्नकारक नहीं हैं, उनके लिए जो भी कार्य व्यवस्थित किया जाए, उसे कड़ी मेहनत से करते हैं। उनमें सच्ची ईमानदारी है, वे काम करने वाले टट्टुओं जैसे होते हैं—उनका मालिक उन्हें बस काम करने को कहता है, और यह काम चक्की चलाना हो, हल चलाना हो, खेत-खलिहान में मजदूरी करनी हो, ठेलागाड़ी खींचनी हो, उनमें हमेशा सच्ची ईमानदारी की भावना होती है। वे बिना कोई तकलीफ दिए काम पूरा कर देते हैं। वे लोग क्या सोचते हैं? “मुझसे कहा गया है कि मैं श्रमिक हूँ, तो मैं श्रम करूँगा। मैं किसी काम का नहीं, मैं एक अधम नाचीज हूँ। परमेश्वर के लिए श्रम करने पर वह मुझे ऊँचा उठाता है, मुझे नहीं लगता कि मेरे साथ जरा भी गलत हुआ है।” देखा, उनका रवैया यह होता है। तो ऐसे लोगों को परमेश्वर के घर में रखना चाहिए। भले ही उनमें कुछ खामियाँ, कमियाँ और बुरी आदतें हों, उनमें काबिलियत की कमी हो या वे बेवकूफ हों, मैं बर्दाश्त कर सकता हूँ और इन सबको शामिल कर सकता हूँ; कोई दिक्कत नहीं है, मैं ऐसे लोगों को अवसर देता हूँ। कैसे अवसर? मैं उन्हें श्रम करने का अवसर देता हूँ या उद्धार प्राप्त करने का? बेशक, दोनों ही। सृजित प्राणियों के रूप में वे परमेश्वर के लिए श्रम और परमेश्वर के घर में श्रम करने को तैयार हैं, ऐसा करना उनका अधिकार है। यही नहीं, उनकी इस आकांक्षा के साथ उन्हें उद्धार प्राप्त करने का भी अवसर दिया जाना चाहिए। फिर भी कुछ ऐसे लोग हैं जो कहते हैं, “लेकिन वे उद्धार प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते!” अगर वे उद्धार प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते, तो यह उनका अपना मामला है, लेकिन कम-से-कम ऐसे लोगों पर विशेष कृपा कर उन्हें उद्धार प्राप्त करने का अवसर दिया जा सकता है, और उनके लिए बचाए जाने का मौका है। “उनके लिए बचाए जाने का मौका है” कहने से मेरा तात्पर्य क्या है? मेरा तात्पर्य है कि उनमें काबिलियत की कमी है, वे थोड़े बेवकूफ हैं, वे अपने कर्तव्य में बहुत बड़े या अहम कार्य नहीं कर सकते, बस साधारण कर्तव्य निभाते हैं, वे परमेश्वर के घर में कोई बहुत बड़ी भूमिका नहीं निभाते, परमेश्वर द्वारा उसके कार्य-विस्तार के दौरान कोई महत्वपूर्ण काम नहीं सँभालते, कोई बड़ा योगदान नहीं करते; लेकिन चूँकि उनमें परमेश्वर के लिए श्रम के लिए तत्पर होने की आकांक्षा है, इसलिए उन पर विशेष कृपा कर उन्हें बचाए जाने का मौका दिया गया है—यह उन्हें दी गई विशेष कृपा है। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को अनेक अवसर देता है। क्या परमेश्वर लोगों के साथ निष्पक्ष बर्ताव करता है? (हाँ।) वे चाहे जितने भी कमजोर हों, उनकी काबिलियत चाहे जितनी कम हो, वे जितने भी मूर्ख हों, वे साधारण, भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं; वे बस व्यक्तिगत रूप से बहुत सक्रिय होकर सत्य का अनुसरण नहीं करते, मगर वे मनुष्यों के रूप में अभी भी सही हैं। अंत में, चाहे वे सत्य या उद्धार प्राप्त कर पाएँ या नहीं, जहाँ तक परमेश्वर का सवाल है, वह उन पर दया बरसाता है, उन पर विशेष कृपा करता है, क्योंकि ये लोग परमेश्वर का विरोध करने वाले छद्म-विश्वासियों और दानवों से बिल्कुल अलग ढाँचे में तैयार किए गए हैं, और उनका सार अलग है। वे लोग दानव हैं, परमेश्वर के शत्रु हैं, जबकि ये लोग सिर्फ श्रम करने की कोशिश करने और श्रम करके संतुष्ट हो जाने के बावजूद दिल से परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करते। वे कभी भी सक्रिय रूप से परमेश्वर पर हमला नहीं करते, उसकी आलोचना या ईशनिंदा नहीं करते, और वे अपने मन में परमेश्वर के प्रति एक सकारात्मक और सही रवैया रखते हैं, यानी उन्हें उद्धार प्राप्त हो या नहीं, वे परमेश्वर के लिए श्रम करने को तैयार हैं। फिर ऐसे भी कुछ लोग हैं जो इनसे थोड़े बेहतर हैं, और जो अपने श्रम के दौरान कुछ सत्यों पर भरसक अमल कर पाते हैं, जो सक्रियता और सकारात्मकता से कुछ सत्य सिद्धांतों की तलाश करते हैं, और जो सिद्धांतों के विरुद्ध न जाने का प्रयास करते हैं। उनमें यह आकांक्षा होती है, यह रवैया होता है, और इसलिए परमेश्वर उन पर दया करता है। परमेश्वर उनसे अनुचित बर्ताव नहीं करता, वह उन्हें छोड़ नहीं देता, और हमेशा उन्हें अवसर देता है। परमेश्वर का कार्य समाप्त होते-होते, अगर उन्होंने परमेश्वर के प्रति समर्पण पा लिया हो, और वे शैतान के प्रभाव से बच पाए हों, तो परमेश्वर उन्हें राज्य का रास्ता दिखाता है—यही वह मंजिल है, जो उन्हें मिलनी चाहिए। परमेश्वर इन लोगों को बचाना चाहता है, और वह उनसे उम्मीद नहीं छोड़ेगा; परमेश्वर यह कैसे करेगा और ये वचन कैसे पूरे करेगा, यह तुम एक दिन जान जाओगे। दानवों और शैतानों के प्रति परमेश्वर का रवैया क्या है? (वह उनसे विमुख महसूस करता है।) उसका रवैया उनसे विमुख होने का है। कहने की जरूरत नहीं कि वह उनसे विमुख होता है। सही समय, स्थान और स्थिति में और सही चीजों के साथ श्रम करने के लिए परमेश्वर दानवों और शैतानों का प्रयोग करता है, और श्रम पूरी होते ही लिहाज किए बिना उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है। सत्य का अनुसरण न करने वाले और सत्य से घृणा करने वाले उनके प्रकृति सार को तरह-तरह की स्थितियों में निरंतर उजागर किया जाता है। परमेश्वर उन पर दया नहीं करता, क्योंकि वह उनसे विमुख होता ता है और उनसे अत्यधिक चिढ़ा हुआ है। लेकिन कमजोर काबिलियत वाले ये मूर्ख लोग, जिनमें से कुछ संभ्रमित भी हो सकते हैं, परमेश्वर के लिए श्रम करने के इच्छुक होते हैं, और वे “परमेश्वर के लिए श्रम करने और इसके लिए कभी न पछताने” का रवैया और दृढ़ निश्चय रखते हैं। इसलिए, दैनिक जीवन में, परमेश्वर उनकी बेवकूफी को हमेशा माफ कर देगा, उनकी कमजोरी को बर्दाश्त कर लेगा, और साथ ही उनकी रक्षा और देखरेख करेगा। मेरे यह कहने का क्या तात्पर्य है कि परमेश्वर उनकी रक्षा और देखरेख करेगा? मेरा तात्पर्य है कि वे जिन थोड़े-से सत्यों की थाह पा लेते हैं, उनके शाब्दिक अर्थों के बारे में परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध करेगा, और उन सत्यों को समझने देगा जिनकी थाह वे पा चुके हैं; परमेश्वर उनके साथ है, उन्हें शांति और उल्लास दे रहा है, और जब वे प्रलोभनों के सामने होंगे, तो परमेश्वर इनसे उनकी रक्षा करने के लिए उपयुक्त माहौल तैयार करेगा। मुख्य प्रलोभन क्या हैं? प्रलोभन अनेक हैं : शादी, पुरुषों, स्त्रियों के बीच अनुचित संबंध, पैसा, हैसियत, शोहरत और लाभ, प्रसिद्धि, साथ ही अच्छी नौकरी, अच्छा वेतन, वगैरह-वगैरह—ये तमाम प्रलोभन हैं। परमेश्वर और किन तरीकों से लोगों की रक्षा करता है? वह तुम्हें कष्ट से बचाने के लिए तुम्हारी बीमारी दूर कर देता है, वह तुम्हें बुरे लोगों के जाल में फँसने और उनके हमले से बचाता है, वगैरह-वगैरह। यही नहीं, जब किन्हीं मुश्किलों या विनाशकारी लगने वाली चीजों से तुम्हारा सामना होता है, तो परमेश्वर इन आपदाओं, और मुश्किलों से तुम्हारी रक्षा करने के लिए कुछ लोगों, घटनाओं और चीजों की व्यवस्था करता है, जिससे तुम अपनी कामना के अनुसार अंत तक आसानी से परमेश्वर के लिए श्रम करने लायक बन जाते हो—क्या यह अच्छी बात नहीं है? (हाँ, जरूर है।) तो हर चीज के आसानी से और तुम्हारी कामना के अनुसार हो, यह किस प्रकार हो सकता है? (परमेश्वर की रक्षा द्वारा।) सही है, यह परमेश्वर की रक्षा, देखरेख और दयालुता से होता है। लेकिन दानवों के लोग दानवी चीजें किए बिना नहीं रह सकते। वे अपने सभी कामों में गलतियाँ करते हैं, उनके इरादे बुरे होते हैं। अक्सर प्रलोभनों में पड़ना उनके लिए आम बात है; उन्हें ठीक यही चाहिए, आसमान से गिरने वाले किसी भारी-भरकम पत्थर की तरह यह उनके सिर पर गिरता है, उन्हें चकनाचूर कर देता है, और फिर वे मर जाते हैं। परमेश्वर के लिए श्रम करने को तैयार लोग भी इन चीजों का सामना करते हैं, लेकिन परमेश्वर की चमत्कारिक रक्षा से यह विपत्ति उन पर नहीं पड़ती, उनके पास से गुजर जाती है, और वे मन-ही-मन कहते हैं, “परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा है, यह मेरे मरने का समय नहीं है!” परमेश्वर ने तुम्हें जीवित रखा है, क्योंकि तुम अब भी उसके लिए उपयोगी हो। परमेश्वर ने तुम्हें तुम्हारा जीवन दिया, और चूँकि तुम उस के लिए श्रम करने को तैयार हो, और खुद को समर्पित करना चाहते हो, तो फिर परमेश्वर तुम्हारी रक्षा क्यों नहीं करेगा? परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हारी रक्षा करेगा। क्या परमेश्वर लोगों से काफी कुछ चाहता है? (नहीं।) ये लोग जो परमेश्वर के लिए श्रम करना चाहते हैं, वे दरअसल बहुत प्रतिभाशाली नहीं हैं, और उनकी काबिलियत भी उतनी बढ़िया नहीं है; उन्हें सत्य की सीमित समझ है, इतनी है कि वे सिर्फ कुछ वचन और धर्म-सिद्धांत ही समझ सकते हैं, और दूसरे लोगों की तरह बोलना सीख सकते हैं। लेकिन वे सत्य सिद्धांतों को तो समझ ही नहीं पाते, न ही वे सत्य का अनुसरण करने या उद्धार प्राप्त करने तक पहुँच पाते हैं। परमेश्वर के प्रति उनका समर्पण महज परमेश्वर के घर द्वारा बताया गया कार्य करने से जुड़ा होता है, ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे वे सत्य को समर्पित हो सकें, बात बस इतनी है। तो चूँकि वे सिर्फ साधारण भ्रष्ट इंसान हैं और परमेश्वर के लिए श्रम करने को तैयार हैं, इसलिए परमेश्वर उन्हें निकाल नहीं देता। इसलिए, जिन लोगों का सफाया कर दिया जाता है वे यकीनन अच्छे लोग नहीं होते हैं। अगर तुम लोग सचमुच अच्छे हो, अगर तुम सचमुच वह लोग हो जिन्हें परमेश्वर ने चुना है, अगर तुममें परमेश्वर के प्रति सचमुच समर्पण का रवैया है, परमेश्वर के लिए श्रम करने की आकांक्षा और इच्छुक होने और कभी न पछताने का रवैया है, तो परमेश्वर तुम्हें कभी नहीं निकालेगा, बल्कि इसके बजाय वह तुम्हें दया दिखाएगा। यह तुम्हारे लिए वरदान होगा, और परमेश्वर ऐसे ही लोग चाहता है। परमेश्वर ऐसे लोग चाहता है—काबिलियत में कमी के कारण वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और सत्य को नहीं समझ पाते, फिर भी वे परमेश्वर के लिए श्रम करने को तैयार हैं। जो दूसरे प्रकार के लोग परमेश्वर चाहता है वे वो लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करना चाहते हैं, सत्य से प्रेम करते हैं, निष्पक्षता, धार्मिकता और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, जो सत्य को समर्पित होना चाहते हैं, और जो सत्य की थाह पाकर उसे समझ लेने के बाद, सत्य को जानकर उसकी बारीकियाँ पकड़ लेने के बाद, सत्य के अनुसार आज्ञा मानकर समर्पण और अभ्यास कर सकते हैं। इसके अलावा, इन लोगों में सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय होता है, और उन्होंने कभी भी परमेश्वर पर शक नहीं किया है। ये लोग बेशक वे हैं, जिनसे परमेश्वर प्रेम करता है, जिन्हें बचाना चाहता है। लेकिन क्या तुम इस मानक को पूरा कर सकते हो? और अगर नहीं कर पाए तो तुम क्या करोगे? कम-से-कम, परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया दानवों और शैतान वाला नहीं होना चाहिए, कम-से-कम तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति के मानक के करीब पहुँचना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के लिए श्रम करने को तैयार होना चाहिए। अगर तुम निरंतर परमेश्वर के विरोध में रहते हो, परमेश्वर के विपरीत काम करते हो, हमेशा परमेश्वर पर हमला करते हो, दिल में ईशनिंदा करते हो, तो फिर तुम खुद को तकलीफदेह और खतरनाक स्थिति में पाओगे। तुम्हारे मन में स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है, और जिन विभिन्न प्रकार के लोगों के बारे में मैं यहाँ चर्चा करता रहा हूँ, उनके अनुसार तुम्हें खुद को वर्गीकृत करना चाहिए।

सत्य का अनुसरण करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वे अंत तक नहीं पहुँच सकते; यह सुनिश्चित नहीं है। सभी लोग सृजित प्राणी हैं, और अगर वे दानव या शैतान नहीं हैं, तो वे सक्रिय रूप से परमेश्वर पर हमला नहीं करेंगे, या पूरी तरह जानते-बूझते हुए परमेश्वर पर हमला और उसकी ईशनिंदा नहीं करेंगे। इसलिए, परमेश्वर साधारण भ्रष्ट मानवजाति के प्रति निष्पक्ष और वाजिब है, और वह उन्हें उद्धार प्राप्त करने का पूरा मौका देता है। जब मनुष्य उद्धार प्राप्ति का अनुभव करता है, तो परमेश्वर उसके प्रति दयालु होता है, उसकी रक्षा करता है, उसकी देखभाल करता है। तो उन लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया क्या होता है जो दानव और शैतान हैं? वे परमेश्वर को अपना शत्रु मानते हैं, निरंतर उसकी आलोचना कर उस पर हमला और ईशनिंदा करते हैं, उसके कार्य को नष्ट करते हैं, और कभी प्रायश्चित्त करना नहीं जानते। दूसरे लोगों से बातचीत करते समय, कुछ लोगों से उनकी अच्छी बनती है, लेकिन सिर्फ परमेश्वर के समक्ष आने पर उसके साथ मिनट भर या पल भर भी उनकी नहीं बनती; वे किसी भी बात पर परमेश्वर के साथ न कार्य कर सकते हैं, न उसके साथ जी सकते हैं या सहमति बना सकते हैं, और यह दर्शाता है कि वे प्रमाणित दानव और शैतान हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करता, और परमेश्वर का घर ऐसे लोगों को बिल्कुल नहीं रखता। जैसे ही ऐसे किसी व्यक्ति का पता चलता है, उसे हटा दिया जाता है; ऐसी किसी जोड़ी का पता चलने पर, उन्हें भी हटा दिया जाता है; जितने भी लोग उजागर किए जाते हैं, उतने लोग हटा दिए जाते हैं—जिस दिन वे उजागर होते हैं, उसी दिन उनका काम तमाम हो जाता है। देखो, जब नेक लोगों को तरक्की देकर अहम कामों में लगाया जाता है, तभी उन्हें पूर्ण कर आशीष दी जाती है और वे सबसे अधिक फल प्राप्त करते हैं; जब बुरे लोगों और दानवों को तरक्की देकर कामों में लगाया जाता है, तो वे स्वाभाविक रूप से उजागर कर हटा दिए जाते हैं, उनका अंतिम दिन आ जाता है। अपने आसपास के उन लोगों के बारे में सोचो जिन्हें जल्दी ही या शुरुआत में उजागर कर हटा दिया गया या हटा दिया गया और जिनके नाम काट दिए गए। ये लोग तब हटाए गए जब वे परमेश्वर के घर में अपने “करियर” के चरम पर थे, तभी उनका अंतिम दिन आया, और परमेश्वर में आस्था के उनके जीवन में एक विशाल विराम चिह्न अंकित हो गया। कलीसिया में छद्म-विश्वासी आते हैं और जाते हैं, उन्हें अपने लिए सही स्थान नहीं मिल पाता, न ही वे कोई कर्तव्य निभा पाते हैं। जैसे ही वे कोई कुकृत्य करते हैं, वे उजागर हो जाते हैं, और उनका अंतिम दिन आ जाता है। दानव बहुत बड़े काम करना चाहते हैं, नाम कमाना चाहते हैं, और जिस दिन वे महिमा का सबसे अधिक आनंद ले रहे होते हैं, वही उनका अंतिम दिन होता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्या तुम जानते हो? बात ऐसी ही है। जब वे महिमा सबसे अधिक आनंद ले रहे होते हैं, तब वे सबसे ज्यादा आत्मतुष्ट होते हैं, और क्या ऐसा नहीं है कि जब वे सबसे ज्यादा आत्मतुष्ट होते हैं, तभी उनके खुद को भूलने की सबसे अधिक संभावना होती है? (हाँ।) जब तक उन्हें कामयाबी और महिमा नहीं मिली होती, तब तक तो ये दानव सिर झुकाए रहते हैं। लेकिन सिर्फ इसलिए कि मैं कहता हूँ कि वे सिर झुकाए रहते हैं, उसका अर्थ यह नहीं है कि वे सत्य पर अमल कर पाते हैं, बस यही है कि वे सावधानी और सतर्कता से काम करते हैं, मगर सतर्क और परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के साथ नहीं। जैसे ही उन्हें कोई अवसर दिखाई देता है या उन्हें कोई सत्ता या हैसियत मिलती है, और वे हवा और वर्षा को भी अपना मनचाहा आदेश देने में समर्थ हो जाते हैं, तो वे यह सोचकर आत्मतुष्ट हो खुद को भूल जाते हैं, “मेरा वक्त आ गया है। अब अपनी काबिलियत और खूबियों को सामने रखने और अपनी क्षमताओं को काम पर लगाने का वक्त है!” फिर वे मैदान में कूद जाते हैं। उनके कर्मों के पीछे की अभिप्रेरणा क्या है, उनके कर्मों का स्रोत क्या है? उनके कर्मों की अभिप्रेरणा और स्रोत कहाँ से प्रस्फुटित होते हैं? ये दानवों से, शैतान से और उनकी निरंकुश महत्वाकांक्षाओं, आकांक्षाओं से प्रस्फुटित होते हैं। ऐसे हालात में, जो काम वे करते हैं क्या वे सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप हो सकते हैं? क्या काम करते समय वे परमेश्वर का भय मान सकते हैं? क्या वे परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के अनुसार मामले सँभाल सकते हैं? इन सभी सवालों का जवाब है नहीं, वे नहीं कर सकते। और इसके नतीजे क्या होते हैं? (वे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करते हैं।) सही है, परिणाम ये होते हैं कि वे गंभीर गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करते हैं, और वे परमेश्वर के घर और कलीसिया कार्य को भी गंभीर रूप से बाधित कर उसे नुकसान पहुँचाते हैं। तो फिर, परमेश्वर के घर में लोगों को संभालने के सिद्धांतों के अनुरूप, कलीसिया कार्य को ऐसे परिणामों में झोंकने वालों से कैसे निपटा जाए? अगर मामला बहुत छोटा हो, तो ऐसे लोगों को बदल देना चाहिए, और अगर गंभीर हो, तो उन लोगों को हटा देना चाहिए। जब किसी को तरक्की देकर किसी अहम काम में लगाया जाता है, या उनके लिए किसी काम की व्यवस्था की जाती है, तो परमेश्वर का घर उसके साथ हमेशा कार्य करने के सिद्धांतों पर स्पष्ट संगति करता है। उस व्यक्ति को अनेक सिद्धांत और बारीकियाँ समझाई जाती हैं, और उनके इन बातों को समझ लेने, उनकी थाह पा लेने, और उन्हें लिख लेने के बाद ही उसे काम सौंपने का कार्य पूरा माना जाता है। लेकिन जब ऐसे लोगों का कुछ काम कर अपना कर्तव्य निभाने का वक्त आता है, तो वे अपने दानवी पंजे निकालकर इसमें जुट जाते हैं और वे सचमुच में जैसे दानव हैं, वह प्रकट होने लगता है। वे परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों के अनुरूप बिल्कुल कार्य नहीं करते, बल्कि इसके बजाय बिल्कुल अपनी ही मर्जी, अपने ही ढंग से करते हैं। उन पर कोई काबू नहीं कर सकता, और वे यह सोचकर किसी की बात नहीं मानते, “परमेश्वर का घर, परमेश्वर और सत्य सबके-सब बाजू में! यहाँ मेरी ही चलती है!” दानव इसी तरह काम करते हैं, और कर्तव्य और सत्य के प्रति दानवों का रवैया यही होता है। अगर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया ऐसा है, तो तुम उजागर हो जाओगे। अगर तुम परमेश्वर के घर के कार्य और अपने कर्तव्य को तुच्छ मानते हो, परमेश्वर के घर द्वारा निर्दिष्ट सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करते, तो तुमसे शिष्टता से बर्ताव नहीं किया जाएगा। लोगों से व्यवहार करने के परमेश्वर के घर के अपने सिद्धांत हैं; जिन्हें उनके पद से बर्खास्त कर देना चाहिए, उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है, जिनका हटा दिया चाहिए उन्हें हटा दिया जाता है, और इस बारे में कहने को बस इतना ही है। क्या ऐसा नहीं है? क्या परमेश्वर का घर ऐसा नहीं करता? क्या इसी तरह दानवों का खुलासा नहीं होता? क्या यही उनके काम करने की अभिप्रेरणा, उनके कर्मों और उनके काम करने के तरीके का स्रोत नहीं है? (हाँ।) उनसे इस तरह व्यवहार कर क्या परमेश्वर का घर उनसे अन्यायपूर्वक बर्ताव कर रहा है? (नहीं।) क्या यह उनसे पेश आने का उपयुक्त तरीका है? (हाँ।) यह सचमुच बहुत उपयुक्त है! सामान्य व्यक्ति अपना कर्तव्य स्वीकारता है, तरक्की पाता है, और उसे कुछ महत्वपूर्ण काम दिया जाता है। वह अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार अपना काम करता है, कमोबेश इसे अपने समझे हुए कार्य सिद्धांतों या परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें पालन करने के लिए सौंपे सिद्धांतों के अनुसार करता है। इस तथ्य के बावजूद कि वह अक्सर भ्रष्ट स्वभाव दर्शाता है, उसके कर्तव्य के सामान्य निर्वहन पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता। वह चाहे जैसी मुश्किलों का सामना करे, खुद को जैसी भी गलत दशा में पाए, या जैसी भी बाधाएँ सहे, अंत में वह अपने कर्तव्य में कुछ सकारात्मक नतीजे जरूर पाएगा, और ये नतीजे सबको स्वीकार्य होंगे। लेकिन वे छद्म-विश्वासी चाहे जितने भी लंबे समय से अपना कर्तव्य निभाते आए हों, कभी भी सकारात्मक नतीजे हासिल नहीं करते। वे हमेशा दुष्कर्म करते हैं, चीजों को बरबाद करने की कोशिश करते हैं, और इससे न सिर्फ कलीसिया कार्य प्रभावित होता है, बल्कि इससे कलीसिया के हितों को भी हानि होती है, उनके काम के चारों ओर दूषित माहौल तैयार होता है, और वह गड़बड़ा जाता है। अगर कोई दानव किसी काम को बाधित कर बरबाद कर देता है, तो परदे के पीछे अनेक लोग होंगे जिन्हें काम को दोबारा शुरू से करना पड़ता है, जिससे परमेश्वर के घर के मानव और वित्तीय संसाधन व्यर्थ हो जाते हैं, और परमेश्वर के अनेक चुने हुए लोग क्रोधित हो जाते हैं। दानव के निकाल दिए जाने के बाद कलीसिया कार्य में तुरंत नई रौनक आ जाती है, और कार्य के नतीजे अलग होते हैं। गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करने वाले दानव को प्रतिबंधित कर देने के बाद लोगों की मानसिकता आजाद और मुक्त हो जाती है, कार्य क्षमता बढ़ जाती है, और सभी लोग अपने कर्तव्य सामान्य ढंग से करने लगते हैं। इसलिए, दानवों और शैतान के ये लोग बाहर से मनुष्य लगते हैं, और वे किसी भी उम्र के हों या जितने भी शिक्षित हों, अगर वे बुरे लोग हैं, तो वे दुष्कर्म कर सकते हैं, और दानवों और शैतान की भूमिका निभाते हुए लोगों को भ्रष्ट और बाधित कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, तुम चिकन सूप बना रहे हो, सभी लोग खाने के इंतजार में हैं, और तभी अचानक एक मक्खी सूप में जा गिरती है। तो बताओ, क्या इस सूप को अब भी लोग खा सकेंगे? कुछ नहीं हो सकता, तुम्हें इसे फेंकना पड़ेगा और दो-तीन घंटे का काम व्यर्थ हो जाएगा। फिर तुम्हें बर्तन को कई-कई बार धोना पड़ेगा और बार-बार धोने के बाद भी यह तुम्हें साफ नहीं लगेगा, और हल्की-सी घृणा बनी रहेगी। तुम्हें किस चीज ने विचलित किया? (मक्खी ने।) हालाँकि मक्खी बहुत छोटी-सी है, उसका अशुद्ध सार बहुत घिन पैदा करता है। दानवों के ये लोग मक्खियों जैसे हैं। वे किसी तरह कलीसिया में घुस जाते हैं, कलीसिया जीवन के सामान्य क्रम में गंभीर बाधा खड़ी करते हैं, और कलीसिया कार्य की सामान्य प्रगति को बाधित कर देते हैं। तो क्या अब तुम दानवों के इन लोगों की स्पष्ट समझ हासिल कर पाए हो? उनसे थोड़ी सेवा करवाने और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से करवाने की कोशिश करना किसी गाय को पेड़ पर चढ़ाने जैसा है; यह किसी बत्तख को पेड़ की शाखा पर बिठाने की कोशिश जैसा है। सबसे कठिन काम है दानवों और शैतानों से सत्य पर अमल करवाने की कोशिश करना, छद्म-विश्वासियों को वफादारी से उनका कर्तव्य निभाने के लिए मनाने की कोशिश करना भी वैसा ही है। बात ऐसी ही है। अगर तुम लोग शैतान के लोगों और छद्म-विश्वासियों के संपर्क में आते हो और तुम्हें अस्थायी तौर पर उनसे किसी काम में मदद माँगने की जरूरत पड़े, तब तो ठीक है। लेकिन अगर तुम उनके कोई कर्तव्य निभाने या कोई काम करने की व्यवस्था करते हो, तो तुम्हारी आँखें बंद हैं, तुम्हें धोखा मिलेगा। खास तौर पर अगर तुम उनसे कोई अहम काम करने को कहो, तो तुम और भी ज्यादा बेवकूफ हो। अगर तुम्हें सचमुच किसी काम के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिल रहा और इसलिए तुम उनसे मदद माँग रहे हो, तो उनसे कोई काम करने के लिए कहना ठीक है, लेकिन तुम्हें उन पर नजर रखनी चाहिए और मामले को दरकिनार नहीं करना चाहिए। ऐसे लोग बिल्कुल भरोसेमंद नहीं होते; चूँकि वे मानव नहीं दानव हैं, इसलिए वे बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं हैं। तो अब टीमों और टीम अगुआओं का प्रभार सँभालने वालों और अहम कर्तव्य और महत्वपूर्ण कार्य निभाने वाले लोगों पर नजर दौड़ाओ और देखो कि क्या वे इन दानवों जैसे हैं। अगर तुम ऐसे लोगों को बदल सको, तो जल्द-से-जल्द बदल दो; अगर किसी दूसरे उपयुक्त व्यक्ति के न मिलने के कारण तुम उन्हें नहीं बदल सकते, तो उन पर कड़ी नजर रखो, पर्यवेक्षण करो और बारीकी से जाँचते रहो। तुम्हें दानवों और शैतानों को बाधाएँ खड़ी करने का मौका नहीं देना चाहिए। दानव हमेशा दानव ही रहता है, उसमें कोई मानवता नहीं होती, उनमें कोई जमीर और विवेक नहीं होता—तुम्हें यह हमेशा याद रखना चाहिए! सभी छद्म-विश्वासी दानवों और शैतान के होते हैं, और तुम्हें उन पर यकीन नहीं करना चाहिए! चलो, इस विषय पर संगति यहीं समाप्त करते हैं।

पहले, सत्य का अनुसरण कैसे करें, विषय पर संगति करते समय हमने दो चीजों के बारे में चर्चा की थी। पहली चीज क्या थी? (त्याग देना।) एक थी त्याग देना। दूसरी क्या थी? (समर्पित होना।) समर्पित होना। हमने पहले विषय, “त्याग देना” पर तीन बार चर्चा की। पिछली बार हमने किस विषय पर संगति की थी? (पिछली बार, परमेश्वर ने लोगों के मुश्किलों का सामना करने के परिप्रेक्ष्य से उनमें संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं के उत्पन्न होने के कारणों और परमेश्वर के कार्य और सत्य के प्रति उनके रवैये का विश्लेषण किया था।) संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाएँ कई कारणों से पैदा हो सकती हैं, मगर आम तौर पर वे इस वस्तुपरक कारण से होती हैं कि लोग सत्य को नहीं समझते। यह एक कारण है। एक और भी कारण है, और वही मुख्य कारण है कि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते। जब लोग सत्य को नहीं समझते या उसका अनुसरण नहीं करते और उन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं होती, तो वे सचमुच में समर्पण नहीं करते, और इसी वजह से उनमें सहज रूप से हर तरह की नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। चूँकि लोग अपने दैनिक जीवन में व्यावहारिक दिक्कतों का अनुभव करते हैं, अपनी सोच में तरह-तरह की समस्याओं का सामना करते हैं, इसलिए वे अपने वस्तुपरक परिवेश में हर तरह की नकारात्मक भावनाएँ अनुभव करते हैं। खास तौर से संताप, व्याकुलता और चिंता की जिन नकारात्मक भावनाओं के बारे में हमने पिछली बार बात की थी, वे सब इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि लोग अपने शारीरिक जीवन से जुड़ी तरह-तरह की दिक्कतों और समस्याओं का सामना करते हैं। इन समस्याओं का सामना होने पर लोग सत्य नहीं खोजते या परमेश्वर की बात पर यकीन नहीं करते, परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजना और समझकर उस पर अमल करना तो दूर की बात है, जो उन्हें इन चीजों के बारे में अपनी गलत सोच, गलत विचारों और नजरियों को जाने देता है और साथ ही इन चीजों को सँभालने और देखने के गलत तरीकों को जाने देता है, इस कारण से दिन गुजरते जाते हैं, वक्त बीतता जाता है और दैनिक जीवन में लोग जिन दिक्कतों का सामना करते हैं, उनसे उनके मन में विचलित कर बेबस करने वाले तरह-तरह के विचार पैदा होते जाते हैं। अनजाने में ही, ये विचार उनमें उनके दैहिक जीवन और उनकी विभिन्न समस्याओं को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाएँ पैदा कर देते हैं। असल में, जब लोग परमेश्वर के समक्ष नहीं आए होते, या उन्हें सत्य की समझ नहीं होती, तो ये समस्याएँ कमोबेश हर व्यक्ति में संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाएँ पैदा करती हैं—इससे बचा नहीं जा सकता। जो लोग देह में जीवन जीते हैं, उनके साथ होने वाली कोई भी चीज जरूर उनके जीवन और विचारों में कुछ गड़बड़ी पैदा कर उन्हें प्रभावित करेगी। जब यह गड़बड़ी और प्रभाव उनकी सहनशीलता से ज्यादा हो जाते हैं, या जब उनका सहज बोध, काबिलियत और सामाजिक हैसियत उन्हें सहारा देने या इन दिक्कतों को सुलझाने या दूर करने के लिए नाकाफी हों, तो संताप, व्याकुलता और चिंता उनके दिलों में सहज ही गहराई से पैदा होकर जमा हो जाएँगी, और फिर ये भावनाएँ उनकी सामान्य दशा बन जाएँगी। अपने भविष्य की संभावनाओं, खान-पान, शादी, भविष्य में जीवित रहने या सेहत, बुढ़ापे, समाज में हैसियत और प्रतिष्ठा जैसी विविध चीजों के बारे में फिक्र करना एक ऐसी हालत है, जो मनुष्य के सत्य न समझने और परमेश्वर में विश्वास न रखने के कारण पूरी मानवजाति में समान रूप से होती है। लेकिन एक बार जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखने लगते हैं, जब वे थोड़ा-बहुत सत्य समझ लेते हैं, तो सत्य के अनुसरण का उनका संकल्प मजबूत होता जाता है। इस प्रकार, जिन व्यावहारिक दिक्कतों और समस्याओं का वे सामना करते हैं, वे धीरे-धीरे घट जाएँगी, और संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाएँ धीरे-धीरे कमजोर होकर कम हो जाएँगी—यह बहुत स्वाभाविक है। ऐसा इसलिए है कि लोगों के परमेश्वर के वचन पढ़ लेने और परमेश्वर में विश्वास में कुछ सत्य समझ लेने के बाद, वे ताजिंदगी हमेशा अपने सामने आने वाली समस्याओं के सार, उद्गम और स्रोत को परमेश्वर के वचनों के अनुसार समझेंगे और देखेंगे। अंतिम विश्लेषण में, वे आखिरकार यह समझ सकेंगे कि उनका भाग्य और अपने जीवन में उनके द्वारा अनुभव की गई तमाम चीजें, सब परमेश्वर के हाथ में हैं, और इसलिए एक सामान्य परिप्रेक्ष्य में यह समझ पाएँगे कि यह सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है और कुछ भी उनके अपने हाथ में नहीं है। इसलिए, लोगों के लिए सबसे सरल काम समर्पण करना है—स्वर्ग की व्यवस्थाओं और संप्रभुता को समर्पण करना। उन्हें अपने भाग्य से संघर्ष नहीं करना चाहिए, बल्कि इसके बजाय जब किसी भी मामले से उनका सामना हो, तो उन्हें हमेशा सकारात्मक और सक्रिय होकर परमेश्वर के इरादे खोजने चाहिए, और वहाँ से मसला सुलझाने का सबसे उपयुक्त तरीका ढूँढ़ना चाहिए—यह वह सबसे बुनियादी चीज है जो लोगों को समझनी चाहिए। यानी यह कह सकते हैं कि लोगों के परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, उनके समझे हुए सत्य और बुनियादी ढंग से परमेश्वर को समर्पित हो जाने के कारण, उनका संताप, व्याकुलता और चिंता धीरे-धीरे कम हो जाती है। इसका अर्थ है कि ये भावनाएँ अब उन्हें उतनी गंभीरता से परेशान नहीं करतीं, या उलझन या पशोपेश में नहीं डालतीं या उन्हें यह महसूस नहीं करातीं कि उनका भविष्य धूमिल या अनिश्चित है, जिससे वे अक्सर इन चीजों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करें। इसके विपरीत चूँकि वे परमेश्वर में विश्वास रखने लगे हैं, कुछ सत्य समझने लगे हैं और जीवन की तमाम चीजों को पहचान कर उन्हें समझने लगे हैं, या इन चीजों से निपटने का ज्यादा सही तरीका जान चुके हैं, इसलिए संताप, व्याकुलता और चिंता की उनकी नकारात्मक भावनाएँ धीरे-धीरे कम हो जाती हैं। लेकिन तुम्हारे अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने, अनेक धर्मोपदेश सुनने के बाद भी, संताप, व्याकुलता और चिंता की तुम्हारी नकारात्मक भावनाएँ अभी भी दूर या कमजोर नहीं हुई हैं—यानी लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के प्रति तुम्हारा रवैया, तुम्हारे विचार, नजरिये और परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले के, चीजों से निपटने के तुम्हारे तरीके नहीं बदले हैं—यानी परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद परमेश्वर के वचन पढ़कर और धर्मोपदेश सुनकर तुमने न तो सत्य को स्वीकारा और न इसे प्राप्त किया, न ही इन मसलों को सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग किया, और इस तरह संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं को दूर नहीं किया। अगर इन नकारात्मक भावनाओं को दूर करने के लिए तुमने कभी सत्य नहीं खोजा, तो क्या यह नहीं दिखाता कि तुम्हारे साथ कोई समस्या है? (हाँ।) यह कौन-सी समस्या दिखाता है? तुम अनेक वर्षों से परमेश्वर के विश्वासी रहे हो, और अब भी महसूस करते हो कि तुम्हारा भविष्य बिल्कुल धूमिल और निराशामय है। तुम अब भी अक्सर दिल में खाली और बेबस महसूस करते हो, अक्सर खोया हुआ महसूस करते हो, और तुम्हें लगता है कि आगे अब कोई रास्ता नहीं रहा। तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारा जीवन किस ओर जा रहा है, तुम्हें लगता है तुम आगे बढ़ने के लिए बिना किसी राह और दिशा के अँधेरे में तीर चला रहे हो। इसका अर्थ क्या है? इसका इतना अर्थ तो है ही कि तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, है ना? अगर तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तो इतने वर्षों से तुम क्या करते रहे हो? क्या तुम सत्य का अनुसरण करते रहे हो? (नहीं।) अगर चीजों को त्यागते हुए, खुद को खपाते हुए, अपने कर्तव्य निभाते हुए तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते रहे हो, और व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग नहीं करते रहे हो, तो इतने समय से तुम क्या करते रहे हो? (आलस्य करते और बस जैसे-तैसे काम निपटाते रहे हो।) ऐसे बहुत-से लोग हैं जो अपना कर्तव्य लापरवाही से करते हैं, और ये लोग असल में श्रम कर रहे हैं। श्रमिक अपने कर्तव्य निभाने, थोड़ी कीमत चुकाने और थोड़े कष्ट सहने से संतुष्ट हो जाते हैं, लेकिन वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। इसीलिए, अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, वे जरा भी नहीं बदलते। ये लोग दरअसल श्रमिक हैं, और अगर पहले जैसा कहा जाता था वैसा कहें तो वे धार्मिक गतिविधियों में लगे हुए हैं। धार्मिक संसार की उन धार्मिक गतिविधियों पर गौर करो—रविवार के दिन लोग आराधना करने और सभाएँ करने जाते हैं और आम तौर पर वे सुबह प्रार्थना करते हैं, भोजन के पहले प्रार्थना करते हैं और सभी चीजों के लिए धन्यवाद देते हैं, अपनी प्रार्थनाओं से लोगों को आशीष देते हैं, और जब वे दूसरे लोगों को देखते हैं तो कहते हैं, “परमेश्वर तुम्हें आशीष देता है, तुम्हारी रक्षा करता है।” जब किसी संभावित उम्मीदवार पर उनकी नजर पड़ती है, तो सुसमाचार का प्रचार करते हैं और उसे बाइबल से एक अंश पढ़कर सुनाते हैं। थोड़े बेहतर लोग कलीसिया की साफ-सफाई करते हैं, और किसी प्रचारक के आने पर, वे उन्हें अपने घरों में ठहराते हैं; जब वे ऐसे बड़े-बूढ़ों से मिलते हैं जिनके जीवन में कुछ मुश्किलें हैं, तो उनकी मदद करते हैं, और उनकी मदद करने में उन्हें आनंद आता है। क्या ये धार्मिक गतिविधियाँ नहीं हैं? ईस्टर पर ईस्टर के अंडे खाना, क्रिसमस उत्सव मनाना, और क्रिसमस भजन गाना—वे इन गतिविधियों में संलग्न होते हैं। अब तुम्हारी गतिविधियाँ धार्मिक लोगों की गतिविधियों से थोड़ी ज्यादा बार की जाती हैं। तुममें से अनेक लोग अपने घर छोड़कर पूरा समय कर्तव्य निभाते हैं। तुम सुबह के वक्त अपना आध्यात्मिक भक्ति-कार्य करते हो, दिन में कुछ कलीसिया कार्य करते हो, नियमित सभाओं में जाकर परमेश्वर के वचन पढ़ते हो, और रात को सोने से पहले, तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे रक्षा करने, रात में गहरी नींद देने और बुरे स्वप्न दूर रखने की विनती करते हो, और फिर अगले दिन यही सब काम दोहराते हो। तुम्हारा दैनिक जीवन अत्यधिक नियमित होता है, फिर भी वह बेहद फीका और मंद भी होता है। लंबे समय तक तुम कुछ हासिल नहीं करते, कुछ नहीं समझते, और कभी इस पर चिंतन नहीं करते या इन सर्वाधिक मौलिक नकारात्मक भावनाओं को नहीं पहचानते और न ही तुमने कभी उन्हें खोदकर निकाला और दूर किया है। अगर कभी तुम अपने खाली वक्त या अपने कर्तव्य में किसी ऐसी चीज का सामना करते हो जो तुम्हें पसंद नहीं, या तुम्हारे घर से कोई संदेश आए कि तुम्हारे माता-पिता की तबीयत खराब है, या घर में कोई अनहोनी घट गयी है, तो तुम्हें अब अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा नहीं होती, और कई दिन तक तुम कमजोर हो जाते हो। कमजोरी की इस हालत में, लंबे समय से तुम्हारे भीतर जमा हो रही ये नकारात्मक भावनाएँ फिर से उमड़ पड़ती हैं। तुम दिन-रात उनके बारे में सोचते हो, और वे साये की तरह तुम्हारा पीछा करती हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले से कुछ ऐसे विचार और सोच रखते थे, जो उनके कमजोर और नकारात्मक महसूस करते वक्त अचानक फिर से फूट पड़ते हैं, और वे सोचते हैं, “शायद बेहतर रहा होता अगर मैं कॉलेज चला गया होता, किसी विषय में विशेषज्ञता लेकर अच्छी नौकरी ढूँढ़ लेता—अब तक मेरी शादी भी हो चुकी होती। स्कूल में पढ़ते समय मेरा अमुक सहपाठी कुछ खास नहीं था, लेकिन स्कूल के बाद वह कॉलेज चला गया। नौकरी मिलने के बाद उसकी तरक्की भी हो गयी, और अब उसका घरेलू जीवन बहुत खुशहाल है। उसके पास अपना घर है, गाड़ी है और वह बढ़िया जीवन जी रहा है।” जब वे इन चीजों के बारे में सोचकर इन नकारात्मक दशाओं में डूब जाते हैं, तो एकाएक हर तरह की नकारात्मक भावनाएँ उमड़ पड़ती हैं। वे घर और अपनी माँ के बारे में सोचते हैं, पहले जैसे जीवन को तरसते हैं, अच्छी-बुरी चीजें, खुशी की बातें, दिल दुखाने वाली बातें और न भुलाई जाने वाली चीजें उनके दिमाग में भर जाती हैं, और इन सबके बारे में सोचकर वे दुखी हो जाते हैं, उनकी आँखों से आँसुओं की धार बह निकलती है। यह सब क्या दर्शाता है? यह दिखाता है कि तुम्हारे जीने और जीवन चलाने के तरीके समय-समय पर उभर कर तुम्हारे मौजूदा जीवन और उसकी दशा को विचलित कर सकते हैं। ये चीजें तुम्हारी मौजूदा जीवनशैली, जीवन में तुम्हारे रवैये, और साथ ही चीजों के बारे में तुम्हारी सोच पर हावी हो सकती हैं। ये तुम्हारे जीवन को निरंतर विचलित कर उस पर हावी हो जाती हैं। ऐसा तुम जान-बूझ कर नहीं करते, बल्कि इसके बजाय यह मामला तुम्हारे सहज ही इन नकारात्मक भावनाओं में घिर जाने का है। अभी शायद तुम्हें लगे कि तुममें ये भावनाएँ नहीं हैं, मगर सिर्फ इसलिए कि सही वक्त और माहौल नहीं आया है। सही वक्त और माहौल के आते ही, कभी भी कहीं भी तुम इन्हीं भावनाओं में डूब सकते हो। इन भावनाओं में डूबने पर तुम खतरे में हो, अपने मूल विचारों और सोच के काबू में हो जाने और कभी भी कहीं भी अपनी मूल जीवनशैली में वापस जाने के खतरे में हो—यह बेहद खतरनाक है। यह खतरा तुमसे कभी भी कहीं भी, तुम्हारे उद्धार प्राप्त करने के मौके और आशा को छीन सकता है, और कभी भी कहीं भी यह तुम्हें परमेश्वर में आस्था के रास्ते से दूर ले जा सकता है। इसलिए, अभी अपना कर्तव्य निभाने का तुम्हारा संकल्प और आकांक्षा चाहे जितनी प्रबल हो, तुम्हारे समझे हुए सत्य चाहे जितने भी गूढ़ और ऊँचे क्यों न लगते हों, या तुम्हारा आध्यात्मिक कद चाहे जितना भी ऊँचा हो, जब तक तुम्हारे विचार नहीं बदलते, जीवन के बारे में तुम्हारा नजरिया नहीं बदलता, तुम्हारी जीवनशैली नहीं बदलती, और जब तक तुम जीवन से जो चाहते हो, वह आकांक्षा नहीं बदलती—जो तमाम चीजें इन भावनाओं के निर्देशन के अधीन हैं वे नहीं बदलतीं—तो तुम हमेशा हर कहीं खतरे में रहोगे; जब तुम्हें इन विचारों और सोच से कभी भी कहीं भी निगला जा सके, अभिभूत कर बहाया जा सके, तब तुम खतरे में हो। इसलिए, इन नकारात्मक भावनाओं को हल्के में मत लो। कभी भी कहीं भी ये उद्धार प्राप्त करने का तुम्हारा मौका छीन सकते हैं, तुम्हारे बचाए जाने का मौका नष्ट कर सकते हैं, और यह कोई छोटी बात नहीं है।

मनुष्य की सारी नकारात्मक भावनाएँ विविध गलत विचारों, गलत सोच, गलत जीवनशैली, और जीवन के गलत शैतानी फलसफों के कारण पैदा होती हैं। तुम्हारे असल जीवन में भी कुछ चीजें होती हैं, खास तौर से तब जब तुम इन चीजों के सार को स्पष्ट रूप से समझ पाने में असमर्थ होते हो, तो तुम बड़ी आसानी से इन चीजों का रंग-रूप देख भयभीत हो कर इनसे घिर सकते हो, और बड़ी आसानी से उलझन में पड़ सकते हो, जिससे तुम वापस अपनी पुरानी जीवनशैली अपना सकते हो; तुम अनजाने ही अपनी रक्षा करने लगोगे, परमेश्वर और सत्य का परित्याग कर, बच निकलने की राह खोजने, जीने का तरीका और जीते रहने की आशा खोजने के लिए अपने ही उन तरीकों और विधियों का प्रयोग करोगे जिन्हें तुम सर्वाधिक पारंपरिक और भरोसेमंद मानते हो। हालाँकि ऊपर से ये नकारात्मक भावनाएँ सिर्फ भावनाओं के रूप में मौजूद होती हैं, और अगर हम इन भावनाओं का शब्दों में बयान करें, तो वे शाब्दिक अर्थ में सादी लगती हैं और उतनी गंभीर नहीं लगतीं, कुछ लोग इन नकारात्मक भावनाओं से कस कर चिपक जाते हैं, और उन्हें जाने नहीं देते, मानो उस तिनके से चिपके हुए हों, जो उन्हें डूबने से बचाएगा, और वे इन चीजों से कस कर बंध और जकड़ जाते हैं। दरअसल, उनके इन नकारात्मक भावनाओं से बंधे होने का कारण वे विविध तरीके हैं जिन पर मनुष्य अपने जीवित रहने के लिए भरोसा करता है, और साथ ही वे विविध विचार और सोच हैं जो उस पर हावी होती हैं, और उनके वे तमाम रवैये हैं जो वे निजी जीवन और जीवित रहने के प्रति अपनाते हैं। इसलिए, भले ही अवसाद, संताप, व्याकुलता, चिंता, हीनता, घृणा, क्रोध वगैरह की तमाम भावनाएँ नकारात्मक होती हैं, फिर भी लोगों को लगता है कि इन पर भरोसा किया जा सकता है, इन भावनाओं में डूबने के बाद ही वे सुरक्षित महसूस करते हैं, और उन्हें लगता है कि उन्होंने खुद को पा लिया है और वे अस्तित्व में हैं। वास्तविकता यह है कि लोगों का इन भावनाओं में घिर जाना, सत्य से विपरीत दिशा में जाता है, और सत्य से, साथ ही सोचने के सही तरीकों, सही विचारों और सोच से, और चीजों के प्रति उस सही रवैये और सोच से बहुत दूर चला जाता है जिसे परमेश्वर उन्हें अपनाने के लिए कहता है। तुम चाहे जिस भी नकारात्मक भावना का अनुभव करो, तुम उसमें जितनी गहराई तक डूबोगे, उससे उतने ही बंध जाओगे; तुम उससे जितना ज्यादा बंधोगे, उतना ही खुद की रक्षा करने की जरूरत महसूस करोगे; तुम रक्षा की जितनी ज्यादा जरूरत महसूस करोगे, उतना ही ज्यादा तुम सशक्त, सक्षम और काबिल बनने की आशा करोगे ताकि जीने के अवसर जीत सको, दुनिया पर विजय पाने हेतु विविध जीवनशैलियाँ ढूँढ़ सको, दुनिया में तुम्हारे सामने आने वाली तमाम मुश्किलों पर विजय पा सको और जीवन की तमाम मुश्किलों और कठिनाइयों से उबर सको। तुम इन भावनाओं में जितना ज्यादा डूबोगे, उतना ही ज्यादा तुम अपने जीवन में आने वाली तमाम मुश्किलों को काबू में करना और उन्हें दूर करना चाहोगे। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, ऐसा ही है।) तो फिर मनुष्य के ये विचार कैसे उपजते हैं? आओ, मिसाल के तौर पर शादी को लें। तुम शादी को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हो, मगर इन सबके पीछे आखिर वास्तविक मसला क्या है? तुम किस बारे में चिंतित हो? यह चिंता कहाँ से आती है? इसका स्रोत तुम्हारा यह न जानना है कि यह शादी भाग्य द्वारा व्यवस्थित और शासित है और स्वर्ग द्वारा व्यवस्थित और शासित है। यह न जानने के कारण तुम हमेशा खुद फैसले लेकर, योजना, प्रस्ताव और रूपरेखा बनाना चाहते हो, बार-बार ऐसी चीजें सोचते हो, “मुझे कैसा जीवनसाथी तलाशना चाहिए? उसकी लंबाई कितनी होनी चाहिए? उसका रंग-रूप कैसा होना चाहिए? उसका व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए? उसे कितना शिक्षित होना चाहिए? उसका खानदान कैसा होना चाहिए?” तुम्हारी योजना जितनी ज्यादा विस्तृत होती है, तुम उतनी ही फिक्र करते हो, क्या ऐसा नहीं है? तुम्हारी अपेक्षाएँ जितनी ऊँची और जितनी ज्यादा होती हैं, तुम उतनी ही चिंता करते हो, है ना? और जीवनसाथी ढूँढ़ना उतना ही मुश्किल हो जाता है, है ना? (हाँ।) जब तुम नहीं जानते कि कोई तुम्हारे लिए उपयुक्त है या नहीं, तो तुम्हारी मुश्किलें उतनी ही बड़ी हो जाती हैं, और तुम्हारी मुश्किलें जितनी बड़ी हो जाती हैं, संताप और व्याकुलता की भावनाएँ उतनी ही गंभीर हो जाती हैं, सही है या नहीं? संताप और व्याकुलता की तुम्हारी भावनाएँ जितनी गंभीर होती हैं, उतनी ही ज्यादा ये भावनाएँ तुम्हें जाल में फँसा लेती हैं। तो तुम्हें इस समस्या को कैसे सुलझाना चाहिए? मान लो कि तुम्हें शादी के सार की समझ है, और तुम आगे का सही रास्ते और दिशा जानते-समझते हो—तो फिर शादी को लेकर सही दृष्टिकोण क्या है? तुम कहते हो, “शादी जीवन की एक बड़ी घटना है, और लोग चाहे जो चुनें, यह सब बहुत पहले ही पूर्वनिर्धारित हो चुका है। परमेश्वर ने बहुत पहले ही निर्धारित और व्यवस्थित कर दिया था कि तुम्हारा जीवनसाथी कौन और कैसा होगा। लोगों को जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए, या अपनी कल्पनाओं पर भरोसा नहीं करना चाहिए, अपनी पसंद पर तो बिल्कुल भी नहीं। अपनी कल्पनाओं और पसंद पर भरोसा करना और जल्दबाजी करना, ये सभी अज्ञानता की अभिव्यक्तियाँ हैं, ये वास्तविकता के अनुरूप नहीं हैं। लोगों को अपनी चाहत को खुले नहीं उड़ने देना चाहिए, और सारी कल्पनाएँ असलियत के विपरीत होती हैं। सबसे व्यावहारिक चीज जो करनी चाहिए वह है चीजों को सहज रूप से आगे बढ़ने देना और उस व्यक्ति की प्रतीक्षा करना जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने तुम्हारे लिए की है।” तो इस सिद्धांत और इस व्यावहारिक समझ को अपनी बुनियाद बनाकर इस विषय पर तुम्हें कैसे अमल करना चाहिए? तुम्हें आस्था रखनी चाहिए, परमेश्वर के समय और उसकी व्यवस्था की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अगर परमेश्वर इस जीवन में तुम्हारे लिए एक उपयुक्त जीवनसाथी की व्यवस्था करता है, तो वह सही समय, सही जगह और सही माहौल में प्रकट हो जाएगा। यह हालात के पूरी तरह तैयार होने पर हो जाएगा, तुम्हें बस इतना करना होगा कि ऐसे समय, स्थान और माहौल में सहयोग देनेवाला व्यक्ति बनना होगा। तुम बस प्रतीक्षा ही कर सकते हो—इस समय, इस स्थान और इस माहौल की प्रतीक्षा करो, इस व्यक्ति के प्रकट होने और इन सब चीजों के होने की प्रतीक्षा करो, न सक्रिय होकर न ही निष्क्रिय होकर, बल्कि बस इन चीजों के होने और आने की प्रतीक्षा करो। “प्रतीक्षा” से मेरा क्या अर्थ है? मेरा तात्पर्य है एक समर्पण का रवैया रखना, न सक्रिय होना न निष्क्रिय; ऐसा रवैया अपनाना जो हठी न हो बल्कि खोजी और समर्पण का हो। एक बार जब तुम ऐसा रवैया अपना लेते हो, तो भी क्या तुम शादी को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करोगे? (नहीं।) तब तुम्हारी अपनी योजनाएँ, कल्पनाएँ, कामनाएँ, झुकाव और तमाम अज्ञानी सोच जोकि तथ्यों के विपरीत हैं, गायब हो जाते हैं। तब तुम्हारा हृदय शांत होता है, और तुम शादी को लेकर कोई नकारात्मक भावनाएँ अनुभव नहीं करते। तुम इस मामले में निश्चिंत, मुक्त और आजाद महसूस करते हो, और चीजों को स्वाभाविक ढंग से आगे बढ़ने देते हो। एक बार सही रवैया अपना लेने के बाद, तुम जो भी करते हो और जो कुछ व्यक्त करते हो, वह तर्कसंगत और उपयुक्त हो जाता है। तुम्हारी सामान्य मानवता के भीतर से अभिव्यक्त भावनाएँ सहज रूप से संताप, व्याकुलता और चिंता नहीं हो सकतीं, बल्कि ये शांत और स्थिर होती हैं। भावनाएँ अवसादग्रस्त करने वाली या उग्र नहीं होतीं—तुम बस प्रतीक्षा करो। तुम्हारे मन में अभ्यास और रवैये का एकमात्र तरीका है प्रतीक्षा और समर्पण करना : “मैं परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हर चीज के प्रति समर्पण करना चाहता हूँ। मेरी कोई भी निजी अपेक्षा या योजना नहीं है।” ऐसा करके क्या तुमने इन नकारात्मक भावनाओं को जाने नहीं दिया है? और क्या ऐसा नहीं है कि ये भावनाएँ पैदा नहीं होंगी? तुमने भले ही इन्हें महसूस किया हो, लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि तुम उन्हें धीरे-धीरे जाने दोगे? तो इन नकारात्मक भावनाओं को त्याग देने की प्रक्रिया किस किस्म की प्रक्रिया है? क्या यह सत्य का अनुसरण करने की अभिव्यक्ति है? यह दिखाती है कि तुम सत्य का अनुसरण और अभ्यास दोनों कर रहे हो। सत्य का अनुसरण करने से हासिल अंतिम परिणाम सत्य का अभ्यास करना होता है—सत्य का अभ्यास करने के जरिये इसे लागू किया जाता है। जब तुम सत्य का अभ्यास करने का स्तर हासिल कर लोगे, तो संताप, व्याकुलता और चिंता अब साये की तरह तुम्हारा पीछा नहीं करेंगी; ये तुम्हारे अंतरतम में से पूरी तरह निकाली जा चुकी होंगी। क्या इन भावनाओं को निकालने की प्रक्रिया त्याग देने की प्रक्रिया है? (हाँ।) सत्य पर अमल करना इतना सरल है। क्या यह आसान है? सत्य पर अमल करना विचारों और सोच में परिवर्तन है, और इससे भी ज्यादा यह चीजों को लेकर व्यक्ति के रवैये में परिवर्तन है। एक सरल नकारात्मक भावना को त्याग देने के लिए, व्यक्ति को इन प्रक्रियाओं का अभ्यास कर उन्हें हासिल करना चाहिए। पहले तो व्यक्ति के विचारों और सोच में परिवर्तन होना चाहिए, फिर अभ्यास के तरीके, अभ्यास के सिद्धांतों और अभ्यास के मार्ग में परिवर्तन से पहले अभ्यास के प्रति रवैये में परिवर्तन होना चाहिए। तब क्या तुमने उस नकारात्मक भावना को जाने नहीं दिया होगा? यह इतना ही सरल है। “त्याग देने” के जरिये जो अंतिम परिणाम तुम हासिल करते हो, वह यह है कि तुम अब इस नकारात्मक भावना से परेशान, विकल, और नियंत्रित नहीं होते, और साथ ही तुम अब इस नकारात्मक भावना से उपजने वाले हर तरह के नकारात्मक विचारों और सोच से त्रस्त नहीं होते। इस प्रकार, तुम निश्चिंत, आजाद और मुक्त महसूस करते हुए जियोगे। बेशक निश्चिंत, आजाद और मुक्त महसूस करना महज मानवीय भावनाएँ हैं—लोगों को असली फायदा यह होता है कि वे सत्य समझ लेते हैं। मनुष्य के अस्तित्व का आधार सत्य और परमेश्वर के वचन हैं। अगर लोग आत्म-रक्षा के लिए विविध नकारात्मक भावनाओं में जीने के लिए अपनी कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं, अगर वे अपनी सुरक्षा के लिए खुद पर और अपनी काबिलियत, साधनों और विधियों पर भरोसा करते हैं, और अपने ही रास्ते चलते हैं, तो फिर वे सत्य और परमेश्वर से भटक गए होंगे, और स्वाभाविक रूप से शैतान की सत्ता में रहने लग गए होंगे। इसलिए जब तुम ऐसी ही मुश्किलों और स्थितियों का सामना करते हो, तब तुम्हें अपने दिल में यह समझ रखनी चाहिए और फिर तुम सहज ढंग से सोचोगे, “मुझे इन चीजों की चिंता करने की जरूरत नहीं। चिंता करने का कोई तुक नहीं। विवेकशील और बुद्धिमान लोग परमेश्वर पर भरोसा करते हैं, ऐसी तमाम चीजें परमेश्वर को सौंप देते हैं, उसकी संप्रभुता को समर्पित हो जाते हैं, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित सभी चीजों की प्रतीक्षा करते हैं, और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित समय, स्थान, व्यक्ति या चीज की प्रतीक्षा करते हैं। मनुष्य सिर्फ सहयोग कर समर्पण कर सकता है और उसे यही करना चाहिए—यही चुनाव सबसे समझदारी भरा है।” बेशक अगर तुम यह नहीं करते और इस तरह अभ्यास नहीं करते, तो भी परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित तमाम चीजें अंत में जरूर होंगी—मनुष्य अपनी इच्छा से किसी भी व्यक्ति, घटना, स्थिति को नहीं बदल सकता। मनुष्य का संताप, व्याकुलता और चिंता बस एक निरर्थक न्योछावर है, और ये बस मनुष्य के मूर्खतापूर्ण विचार और उसकी अज्ञानतापूर्ण अभिव्यक्तियाँ हैं। संताप, व्याकुलता और चिंता की तुम्हारी भावनाएँ चाहे जितनी गंभीर क्यों न हों, या तुम किसी मामले पर जितने भी विस्तृत ढंग से क्यों न सोचो, अंत में ये सब बेकार है और इसे त्याग देना चाहिए। मनुष्य अपनी इच्छा से अंतिम तथ्यों और परिणामों को नहीं बदल सकता। अंत में मनुष्य को परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन ही जीना होगा; ये चीजें कोई नहीं बदल सकता, और कोई भी इन चीजों से छूट नहीं सकता। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, ऐसा ही है।)

आओ, अब रोग के बारे में चर्चा करें। मनुष्य की इस बूढ़ी देह की बात आने पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोगों को कौन-सा रोग हुआ है, वह ठीक हो सकता है या नहीं, या उसे किस हद तक सहना होगा, ये सब उसके हाथ में नहीं है—परमेश्वर के हाथ में है। बीमार पड़ने पर अगर तुम परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण करते हो, और इस सच्चाई को स्वीकार करने और सहने को तैयार हो जाते हो, तब भी तुम्हें यह रोग रहेगा; अगर तुम इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करते, तो भी तुम इस रोग से छुटकारा नहीं पा सकते—यह एक तथ्य है। तुम अपना रोग एक दिन तक सकारात्मक होकर झेल सकते हो, या एक दिन तक नकारात्मक होकर। यानी तुम्हारा रवैया चाहे जो हो, तुम इस तथ्य को नहीं बदल सकते कि तुम बीमार हो। विवेकशील लोग कौन-सा विकल्प चुनते हैं और मूर्ख लोग कौन-सा चुनते हैं? मूर्ख लोग संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाओं में जीने को चुनते हैं। वे इन भावनाओं में पूरी तरह घिरकर बाहर भी नहीं निकलना चाहते। वे कोई भी परामर्श नहीं मानते और सोचते हैं, “अरे, मुझे यह बीमारी कैसे हो गई? क्या यह थकान से हुई? चिंता के कारण हुई? या निषेध के कारण?” हर दिन, वे सोचते हैं कि वे बीमार कैसे पड़े और यह कब शुरू हुई, “मैंने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया? मैं इतना बेवकूफ होकर अपना कर्तव्य इतनी ईमानदारी से कैसे निभाता रहा? दूसरे लोग हर साल शारीरिक जाँच करवाते हैं, और कम-से-कम अपने रक्तचाप की माप करवाते हैं, एक्स-रे लेते हैं। मुझे यह एहसास क्यों नहीं हुआ कि मुझे शारीरिक जाँच करवानी चाहिए? दूसरे लोग इतनी सावधानी से रहते हैं, मैं इतना कुंद बनकर क्यों जीता रहा? मुझे यह बीमारी हो गयी और मुझे पता भी नहीं चला। मुझे इस बीमारी का इलाज करवाना चाहिए! मुझे कौन-सा इलाज मिल सकता है?” फिर वे ऑनलाइन जाकर खोजते हैं कि उन्हें यह बीमारी कैसे हुई, किस कारण हुई, चीनी दवाओं से इसका इलाज कैसे करें, पश्चिमी दवाओं से कैसे करें, और कौन-से देसी नुस्खे हैं—वे ये तमाम चीजें खोजते हैं। इसके बाद, वे चीनी दवाएँ और फिर पश्चिमी दवाएँ घर ले जाते हैं, बीमार होने को लेकर हमेशा गमगीन, व्याकुल और बेसब्र रहते हैं, और समय के साथ, वे अपना कर्तव्य निर्वहन छोड़ देते हैं, वे परमेश्वर में अपनी आस्था दूर फेंक देते हैं, विश्वास रखना छोड़ देते हैं, और सिर्फ अपनी बीमारी को ठीक करने के बारे में सोचते रहते हैं; उनका कर्तव्य अब अपनी बीमारी ठीक करना है। वे अपनी बीमारी में समा जाते हैं, वे बीमार होने को लेकर हर दिन संतप्त महसूस करते हैं, और कोई भी दिख जाए तो कहते हैं, “अरे, मुझे यह बीमारी ऐसे हुई। मुझे जो हुआ उसे तुम अपने लिए सबक समझो, जब बीमार हो जाओ, तो तुम्हें जाँच करवाकर इलाज करवाना चाहिए। अपनी सेहत की देखभाल करना सबसे अहम है। तुम्हें अक्लमंद होना चाहिए, ज्यादा बेवकूफी से नहीं जीना चाहिए।” वे जिससे भी मिलते हैं यही बातें कहते हैं। बीमार होकर उन्होंने यह अनुभव किया है और यह सबक सीखा है। बीमार पड़ने के बाद, वे खाने-पीने में बड़े सावधान और चलने-फिरने में बड़े सतर्क हो जाते हैं, और वे अपनी सेहत का ख्याल रखना सीख लेते हैं। अंत में, वे एक निष्कर्ष पर पहुँचते हैं : “लोगों को अपनी सेहत की देखभाल के लिए खुद पर भरोसा करना चाहिए। मैंने पिछले कुछ वर्षों से अपनी सेहत की देखभाल पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, जैसे ही मेरा ध्यान भटका मुझे यह बीमारी हो गई। सौभाग्य से मैंने इसका जल्द पता लगा लिया। अगर देर की होती, तो मैं खत्म हो जाता। बीमार होकर कम उम्र में मर जाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। मैंने अब तक जीवन के मजे नहीं लिए हैं, खाने की ढेरों लजीज चीजें मैंने नहीं खाई हैं, इतनी सारी मजेदार जगहों में अब तक नहीं गया हूँ!” वे बीमार होकर यह निष्कर्ष निकालते हैं। वे बीमार होते हैं मगर मरते नहीं, और उन्हें लगता है कि वे चालाक हैं उन्होंने समय रहते बीमारी का पता लगा लिया है। वे कभी नहीं कहते कि ये सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है या उसके द्वारा पूर्व-निर्धारित है, और अगर किसी को मरना नहीं है, तो वह कितनी भी गंभीर बीमारी से ग्रस्त क्यों न हो, वह नहीं मर सकता, और अगर किसी को मरना है, तो वह बिना बीमार हुए भी मर जाएगा—वे यह नहीं समझते। वे मानते हैं कि उनकी बीमारी ने उन्हें चालाक बना दिया है, जबकि दरअसल वे हद से ज्यादा “चालाकी” दिखाते हैं और बड़े मूर्ख हैं। जब सत्य का अनुसरण करने वाले लोग बीमार होते हैं, तो क्या वे संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाओं में घिर जाते हैं? (नहीं।) वे बीमारी के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखेंगे? (पहले, वे समर्पण कर पाते हैं, फिर बीमार पड़ने पर वे परमेश्वर के इरादों को समझने का प्रयास करते हैं और इस बात पर चिंतन करते हैं कि उनमें कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं।) क्या ये कुछ शब्द समस्या दूर कर सकते हैं? अगर वे बस चिंतन ही करते हैं, तो क्या उन्हें अब अपनी बीमारी का इलाज करवाने की जरूरत नहीं? (वे इलाज भी करवाएँगे।) हाँ, अगर यह ऐसा रोग है जिसका इलाज होना चाहिए, एक बड़ा रोग है, या इलाज न करवाने पर इसके बदतर हो जाने की संभावना है, तो इसका इलाज होना चाहिए—विवेकशील लोग यही करते हैं। मूर्ख लोग बीमार न होने पर भी हमेशा चिंता करते हैं, “ओह, क्या मैं बीमार हूँ? अगर मैं बीमार हूँ, तो क्या यह रोग बदतर हो जाएगा? क्या मुझे वह रोग लग जाएगा? और अगर वह रोग लग गया, तो क्या वक्त से पहले मर जाऊँगा? मरते वक्त क्या मुझे बहुत पीड़ा होगी? क्या मैं खुशहाल जीवन जियूँगा? अगर मुझे वह रोग लग गया, तो क्या मुझे अपनी मृत्यु की तैयारी कर लेनी चाहिए, और जल्द-से-जल्द जीवन के मजे ले लेने चाहिए?” मूर्ख लोग ऐसी चीजों को लेकर अक्सर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। वे कभी सत्य या इस मामले में जो सत्य उन्हें समझने चाहिए उन्हें नहीं खोजते। लेकिन विवेकशील लोगों को इस मामले की थोड़ी समझ और अंतर्दृष्टि तब होती है जब कोई दूसरा बीमार पड़ता है या वे अब तक बीमार न पड़े हों। तो उनमें कैसी समझ और अंतर्दृष्टि होनी चाहिए? सबसे पहले, क्या संतप्त, व्याकुल और चिंतित होने के कारण बीमारी किसी व्यक्ति को छुए बिना ही गुजर जाएगी? (नहीं।) मुझे बताओ, क्या पहले से किसी के भाग्य में यह नहीं लिखा है कि वह कब किस रोग से बीमार पड़ेगा, किस उम्र में उसकी सेहत कैसी रहेगी, और क्या वह कोई बड़ा या गंभीर रोग पकड़ लेगा? मेरी बात मानो, बिल्कुल लिखा हुआ है, और यह पक्का है। हम अभी इस पर चर्चा नहीं करेंगे कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीजें कैसे पूर्वनिर्धारित करता है; लोगों का रंग-रूप, नाक-नक्श, डील-डौल और उनकी जन्मतिथि सबको साफ तौर पर पता होती है। गैर-विश्वासी भविष्य बताने वाले, ज्योतिषी और नक्षत्र और लोगों की हथेलियाँ पढ़ सकने वाले, लोगों की हथेलियाँ, चेहरे और जन्मतिथियाँ देखकर यह बता सकते हैं कि उन पर विपत्ति कब टूटेगी, और दुर्भाग्य उन पर कब बरसेगा—ये चीजें पहले से पूर्व-निर्धारित हैं। तो जब कोई बीमार होता है, तो ऐसा लग सकता है कि यह थकान, क्रोध-भाव या गरीबी और कुपोषण के कारण हुआ—ऊपर से ऐसा लग सकता है। यह स्थिति सब पर लागू होती है, तो फिर एक ही आयु-वर्ग के कुछ लोगों को यह रोग क्यों होता है, जबकि दूसरों को नहीं होता? क्या भाग्य में ऐसा लिखा है? (हाँ।) आम आदमी की भाषा में यह भाग्य में लिखा है। हम इसे उन शब्दों में कैसे कह सकते हैं जो सत्य के अनुरूप हैं? ये सब प्रभु की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन हैं। इसलिए तुम्हारा खाना-पीना, घर और जीने का माहौल चाहे जैसे हों, इनका तुम कब बीमार पड़ोगे और तुम्हें कौन-सा रोग होगा, इससे कोई लेना-देना नहीं है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, वे हमेशा वस्तुपरक दृष्टिकोण से कारण ढूँढ़ते हैं, और हमेशा यह कहकर बीमारी के कारणों पर जोर देते हैं, “तुम्हें ज्यादा व्यायाम करना चाहिए, ज्यादा साग-सब्जियां और कम माँस खाना चाहिए।” क्या सचमुच ऐसा ही है? जो लोग कभी भी माँस नहीं खाते, उन्हें भी उच्च रक्तचाप और मधुमेह हो सकता है, और शाकाहारियों का भी कोलेस्ट्रोल बढ़ सकता है। आयुर्विज्ञान ने इन चीजों के लिए कोई सही और वाजिब स्पष्टीकरण नहीं दिया है। मेरी बात सुनो, परमेश्वर ने जो विविध भोजन मनुष्य के लिए रचे हैं, वे मनुष्य के खाने के लिए हैं; बस इन्हें ज्यादा नहीं, संयम से खाओ। अपनी सेहत की देखभाल का तरीका सीखना जरूरी है, लेकिन हमेशा बीमारी की रोकथाम के बारे में पढ़ते रहना गलत है। जैसा हमने अभी कहा, किसी की सेहत किस उम्र में कैसी रहेगी और क्या उसे कोई बड़ा रोग होगा, ये सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हैं। गैर-विश्वासी परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते और वे हथेलियाँ, जन्मतिथियाँ और चेहरे दिखाकर ये बातें जानने के लिए किसी को ढूँढ़ते फिरते हैं, और वे इन बातों पर यकीन करते हैं। तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो और अक्सर सत्य पर धर्मोपदेश और संगतियाँ सुनते हो, फिर अगर तुम उनमें विश्वास न रखो, तो तुम एक छद्म-विश्वासी के सिवाय कुछ नहीं हो। अगर तुम सच में मानते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथ में है, तो तुम्हें विश्वास करना होगा कि ये चीजें—गंभीर रोग, बड़े रोग, मामूली रोग, और सेहत—सभी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन हैं। किसी गंभीर रोग का आना और किसी खास उम्र में किसी की सेहत कैसी रहती है, ये संयोग से नहीं होते, और इसे समझना एक सकारात्मक और सही समझ रखना है। क्या यह सत्य के अनुरूप है? (हाँ।) यह सत्य के अनुरूप है, यही सत्य है, तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए, और इस मामले में तुम्हारा रवैया और सोच परिवर्तित होना चाहिए। इन चीजों के परिवर्तित हो जाने के बाद कौन-सी चीज दूर हो जाती है? क्या संताप, व्याकुलता और चिंता की तुम्हारी भावनाएँ दूर नहीं हो जातीं? कम-से-कम, रोग को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता की तुम्हारी नकारात्मक भावनाएँ सैद्धांतिक रूप से तो दूर हो ही जाती हैं। चूँकि तुम्हारी समझ ने तुम्हारे विचारों और सोच को परिवर्तित कर दिया है, इसलिए यह तुम्हारी नकारात्मक भावनाओं को दूर कर देता है। यह एक पहलू है : कोई बीमार पड़ेगा या नहीं, उसे कौन-सा गंभीर रोग होगा, और जीवन के प्रत्येक चरण में उसकी सेहत कैसी होगी, उसे मनुष्य अपनी इच्छा से नहीं बदल सकता, बल्कि ये सब परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित होते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैं बीमार न पड़ना चाहूँ, तो क्या यह ठीक है? क्या यह ठीक है कि मैं परमेश्वर से रोग दूर कर देने की विनती करूँ? क्या यह ठीक है कि मैं परमेश्वर से इस विपत्ति और दुर्भाग्य से मुझे बाहर निकाल देने को कहूँ?” तुम क्या सोचते हो? क्या ये चीजें ठीक हैं? (नहीं।) तुम यह बात इतनी निश्चितता से कह रहे हो, मगर कोई भी इन चीजों को स्पष्टता से नहीं समझ पा रहा है। शायद कोई वफादारी से अपना कर्तव्य निभा रहा है, उसमें सत्य का अनुसरण करने का दृढ़ संकल्प है, वह परमेश्वर के घर में किसी कार्य के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है, और संभवतः परमेश्वर उसके कर्तव्य, उसके कार्य, उसकी शारीरिक ऊर्जा और शक्ति को प्रभावित करने वाले इस गंभीर रोग को उससे दूर कर देता है, क्योंकि परमेश्वर अपने कार्य की जिम्मेदारी उठाता है। लेकिन क्या ऐसा कोई व्यक्ति है? ऐसा कौन है? तुम नहीं जानते, है न? शायद ऐसे लोग हैं। अगर सचमुच ऐसे लोग होते, तो क्या परमेश्वर उनके रोगों और दुर्भाग्य को सिर्फ एक वचन से दूर नहीं कर देता? क्या परमेश्वर यह सिर्फ एक विचार से करने में समर्थ नहीं होता? परमेश्वर विचार करेगा : “इस व्यक्ति को इस उम्र में, इस महीने में एक रोग होगा। वह फिलहाल अपने कार्य में बहुत व्यस्त है, तो उसे यह बीमारी नहीं होगी। उसे इस बीमारी का अनुभव करने की जरूरत नहीं। इसे उसके पास से गुजर जाने दो।” ऐसा न होने का कोई कारण नहीं है, और इसके लिए परमेश्वर से सिर्फ एक वचन की जरूरत होगी, है ना? लेकिन ऐसा आशीष कौन पा सकेगा? जिस किसी में ऐसा दृढ़ संकल्प और वफादारी होगी और जो परमेश्वर के कार्य में यह काम कर सके, वैसे ही व्यक्ति के लिए ऐसा आशीष पाना संभव होगा। हमें इस विषय पर बात करने की जरूरत नहीं है, इसलिए हम फिलहाल इस बारे में चर्चा नहीं करेंगे। हम रोग के बारे में चर्चा कर रहे हैं; यह ऐसी चीज है जिसका ज्यादातर लोग अपने जीवन में अनुभव करेंगे। इसलिए, लोगों के शरीरों को कैसा रोग, किस वक्त, किस उम्र में पकड़ेगा, और उनकी सेहत कैसी होगी, ये सारी चीजें परमेश्वर व्यवस्थित करता है और लोग इन चीजों का फैसला खुद नहीं कर सकते; उसी तरह जैसे लोग अपने जन्म का समय स्वयं तय नहीं कर सकते। तो क्या जिन चीजों के बारे में तुम फैसला नहीं ले सकते, उनको लेकर तुम्हारा संतप्त, व्याकुल और चिंतित होना बेवकूफी नहीं है? (हाँ, है।) लोगों को उन चीजों को सुलझाने में लगना चाहिए जिन्हें वे खुद सुलझा सकें, और जो चीजें वे नहीं सुलझा सकते, उनके लिए उन्हें परमेश्वर की प्रतीक्षा करनी चाहिए; लोगों को चुपचाप समर्पण करना चाहिए, और परमेश्वर से उनकी रक्षा करने की विनती करनी चाहिए—लोगों की मनःस्थिति ऐसी ही होनी चाहिए। जब रोग सचमुच जकड़ ले और मृत्यु सचमुच करीब हो, तो लोगों को समर्पण कर देना चाहिए, परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत या विद्रोह नहीं करना चाहिए, परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं करनी चाहिए या उस पर हमला करने वाली बातें नहीं कहनी चाहिए। इसके बजाय, लोगों को सृजित प्राणियों की तरह परमेश्वर से आने वाली हर चीज का अनुभव कर उसकी सराहना करनी चाहिए—उन्हें अपने लिए चीजों को खुद चुनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यह तुम्हारे जीवन को संपन्न करने वाला एक विशिष्ट अनुभव होना चाहिए, और यह अनिवार्य रूप से कोई बुरी चीज नहीं है, है ना? इसलिए रोग की बात आने पर, लोगों को पहले रोग के उद्गम से जुड़े अपने गलत विचारों और सोच को ठीक करना चाहिए, और तब उन्हें उसकी चिंता नहीं होगी; इसके अलावा लोगों को ज्ञात-अज्ञात चीजों का नियंत्रण करने का कोई हक नहीं है, न ही वे उन्हें नियंत्रित करने में सक्षम हैं, क्योंकि ये तमाम चीजें परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं। लोगों के पास जो अभ्यास का सिद्धांत और रवैया होना चाहिए, वह प्रतीक्षा और समर्पण का है। समझने से लेकर अभ्यास करने तक, सब-कुछ सत्य सिद्धांतों के अनुरूप किया जाना चाहिए—यह सत्य का अनुसरण करना है।

कुछ लोग यह कहते हुए अपने रोग को लेकर हमेशा चिंतित रहते हैं, “मेरा रोग बढ़ गया तो क्या मैं सह पाऊँगा? अगर मेरी हालत बिगड़ गई तो क्या मैं मर जाऊँगा? क्या मुझे ऑपरेशन करवाना पड़ेगा? अगर मेरा ऑपरेशन हुआ, तो कहीं मैं ऑपरेशन टेबल पर मर न जाऊँ? मैंने समर्पण कर दिया है। क्या इस रोग के चलते परमेश्वर मेरे प्राण ले लेगा?” ये बातें सोचने का क्या तुक है? अगर तुम ये बातें सोचे बिना नहीं रह सकते, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। खुद पर भरोसा करना बेकार है, तुम इसे सहन करने में बिल्कुल असमर्थ रहोगे। कोई भी नहीं चाहता कि उसे रोग हो, और बीमार पड़ने पर कोई भी मुस्कुराता नहीं, बहुत खुश होकर उत्सव नहीं मनाता। ऐसा कोई भी नहीं है क्योंकि यह सामान्य मानवता नहीं है। आम लोग बीमार होने पर हमेशा कष्ट में डूबे रहकर उदास हो जाते हैं, और उनके सहन करने की एक सीमा होती है। वैसे एक बात ध्यान देने की है : अगर लोग बीमार पड़ने पर बीमारी से छुटकारा पाकर बच निकलने के लिए हमेशा अपनी शक्ति पर निर्भर रहने की सोचें, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? अपने रोग के साथ क्या वे और ज्यादा कष्ट नहीं झेलेंगे, और ज्यादा उदास नहीं हो जाएँगे? इसलिए लोग रोग से जितना ज्यादा घिरे हुए हों, उतना ही उन्हें परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होने के लिए सत्य और अभ्यास करने का मार्ग खोजना चाहिए। लोग जितना ज्यादा बीमारी से घिरे हुए हों, उतना ही उन्हें परमेश्वर के समक्ष आकर अपनी भ्रष्टता और परमेश्वर से की जाने वाली अपने नावाजिब माँगों को जानना चाहिए। तुम बीमारी से जितने ज्यादा घिरे हुए हो, उतनी ही ज्यादा तुम्हारी सच्चे समर्पण की परख होती है। इसलिए, बीमार पड़ने पर, परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित रहने और अपनी शिकायतों और नावाजिब माँगों के खिलाफ विद्रोह करने की तुम्हारी काबिलियत दिखाती है कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सचमुच सत्य का अनुसरण कर परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है, तुम गवाही देते हो, परमेश्वर के प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण सच्चा है और परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकता है, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण महज नारेबाजी और सिद्धांत नहीं हैं। बीमार होने पर लोगों को इस बात पर अमल करना चाहिए। जब तुम बीमार पड़ते हो, तो यह तुम्हारी नावाजिब माँगों और परमेश्वर के प्रति अवास्तविक कल्पनाओं और धारणाओं का खुलासा करने के लिए होता है, यह परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति समर्पण की परीक्षा लेने के लिए भी होता है। अगर तुम इन चीजों की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हो, तो तुम्हारे पास परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण की सच्ची गवाही और असली प्रमाण है। परमेश्वर यही चाहता है, एक सृजित प्राणी के पास यह होना चाहिए और उसे इसे जीना चाहिए। क्या ये सारी चीजें सकारात्मक नहीं हैं? (जरूर हैं।) लोगों को इन सभी चीजों का अनुसरण करना चाहिए। इसके अलावा, अगर परमेश्वर तुम्हें बीमार पड़ने देता है, तो क्या वह कभी भी कहीं भी तुमसे तुम्हारा रोग ले नहीं सकता? (जरूर ले सकता है।) परमेश्वर कभी भी कहीं भी तुम्हारा रोग तुमसे ले सकता है, तो क्या वह ऐसा नहीं कर सकता कि तुम्हारा रोग तुममें बना रहे और तुम्हें कभी न छोड़े? (जरूर कर सकता है।) अगर परमेश्वर ऐसा कुछ करता है कि यह रोग तुम्हें कभी न छोड़े, तो क्या तब भी तुम अपना कर्तव्य निभा पाओगे? क्या तुम परमेश्वर में अपनी आस्था रख पाओगे? क्या यह परीक्षा नहीं है? (हाँ है।) अगर तुम बीमार पड़कर कई महीने बाद ठीक हो जाओ, तो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति तुम्हारी वफादारी और समर्पण की परीक्षा नहीं होती, और तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होती। कुछ महीने तक रोग सहना आसान है, लेकिन अगर तुम्हारा रोग दो-तीन साल चले, और तुम्हारी आस्था और परमेश्वर के प्रति वफादार और समर्पित बने रहने की तुम्हारी कामना बदलने के बजाय और सच्ची हो जाए, तो क्या यह नहीं दिखाता कि तुम जीवन में विकसित हो चुके हो? क्या तुम्हें इसका फल नहीं मिलेगा? (हाँ।) तो सत्य का सच्चा अनुसरण करने वाला कोई व्यक्ति बीमार होने पर अपने रोग से आए विविध लाभों से गुजर कर उनका खुद अनुभव करता है। वह व्याकुल होकर अपने रोग से बच निकलने की कोशिश नहीं करता, न ही चिंता करता है कि रोग के लंबा खिंचने पर नतीजा क्या होगा, उसके कारण कौन-सी समस्याएँ पैदा होंगी, कहीं रोग बदतर तो नहीं हो जाएगा, या कहीं वह मर तो नहीं जाएगा—वह ऐसी चीजों के बारे में चिंता नहीं करता। ऐसी चीजों की चिंता न करने के साथ-साथ ऐसे लोग सकारात्मक रुख रख पाते हैं, परमेश्वर में सच्ची आस्था रखकर उसके प्रति समर्पित और वफादार रह पाते हैं। इस तरह अभ्यास करके, वे गवाही हासिल कर पाते हैं, यह उन्हें उनके जीवन-प्रवेश और स्वभावगत परिवर्तन में बड़ा लाभ प्रदान करता है, और यह उनकी उद्धार-प्राप्ति की ठोस बुनियाद बना देता है। यह कितना अद्भुत है! इसके अलावा, रोग बड़ा भी हो सकता है और छोटा भी। मगर चाहे यह छोटा हो या बड़ा, हमेशा लोगों को शुद्ध करता है। किसी रोग से गुजर कर लोग परमेश्वर में अपनी आस्था नहीं खोते, वे समर्पित होते हैं, शिकायत नहीं करते, उनका व्यवहार बुनियादी तौर पर स्वीकार्य होता है, और फिर रोग के चले जाने के बाद उन्हें कुछ लाभ मिलते हैं, वे बड़ी खुशी महसूस करते हैं—साधारण बीमारी का सामना करने के बाद लोगों के साथ ऐसा ही होता है। वे ज्यादा लंबे समय तक बीमार नहीं रहते, और उसे सहने में समर्थ होते हैं, और बुनियादी तौर पर यह रोग सहने में वे सक्षम होते हैं। लेकिन कुछ रोग ऐसे होते हैं, जो कुछ समय इलाज से बेहतर होने के बावजूद दोबारा हो जाते हैं, और बदतर हो जाते हैं। ऐसा बार-बार होता है, जब तक कि आखिर रोग इस हद तक बढ़ जाता है कि उसका इलाज नहीं हो सकता, और आधुनिक चिकित्सा में उपलब्ध कोई साधन काम नहीं आता। रोग किस हद तक पहुँच जाता है? यह उस हद तक पहुँच जाता है कि बीमार व्यक्ति कभी भी कहीं भी मर सकता है। यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि उस व्यक्ति का जीवन सीमित है। यह वह समय नहीं है जब वह बीमार न हो और मृत्यु उससे बहुत दूर हो, और उसका कोई अंदेशा नहीं है, मगर इसके बजाय व्यक्ति को आभास हो जाता है कि उसकी मृत्यु का दिन करीब है, और मृत्यु उसके सामने है। मृत्यु का सामना किसी व्यक्ति के जीवन का सबसे मुश्किल और सबसे अहम पल होता है। तो तुम क्या करते हो? जो लोग संतप्त, व्याकुल और चिंतित रहते हैं, वे अपनी मृत्यु को लेकर निरंतर व्याकुल, संतप्त और चिंतित महसूस करते हैं, जब तक कि उनके जीवन की सबसे मुश्किल घड़ी नहीं आ जाती, और जिस चीज को लेकर वे व्याकुल, संतप्त और चिंतित हैं, वह आखिरकार सच्चाई बन जाती है। वे मृत्यु से जितना डरते हैं, उतनी ही वह उनके करीब आती है, और वे इतनी जल्दी न मरना चाहें तो भी मृत्यु उन पर अप्रत्याशित हमला कर देती है। वे क्या कर सकते हैं? क्या वे मृत्यु से दूर भागने की कोशिश करें, मृत्यु को खारिज कर दें, उसका विरोध करें, उसके बारे में शिकायत करें, या परमेश्वर से सौदा करने की कोशिश करें? इनमें से कौन-सा तरीका काम आएगा? कोई भी काम नहीं आएगा, और उनका संताप और व्याकुलता बेकार है। जब वे अपनी मृत्यु की घड़ी पर पहुँच जाते हैं, तो उनके लिए सबसे दुख की बात क्या होती है? उन्हें सूअर का लाल भुना माँस खाना बहुत पसंद था, मगर पिछले कुछ साल से उन्होंने इसे ज्यादा नहीं खाया, उन्होंने बहुत कष्ट सहे और अब उनका जीवन खत्म होने को है। वे सूअर के लाल भुने माँस को याद कर उसे फिर से खाना चाहते हैं, लेकिन उनकी सेहत उस लायक नहीं है, वे उसे नहीं खा सकते, उसमें बहुत तेल होता है। उन्हें सुंदर और आकर्षक ढंग से तैयार होना और बढ़िया कपड़े पहनना पसंद था। अब वे मरनेवाले हैं, वे अपनी भरी आलमारी में सजे वस्त्र बस देख सकते हैं, एक भी पहन नहीं सकते। मृत्यु कितनी दुखदाई होती है! मृत्यु सबसे ज्यादा दर्दनाक चीज है, और जब वे इस बारे में सोचते हैं, तो लगता है जैसे कोई उनके दिल को छुरा घुमा-घुमा कर छलनी कर रहा हो, और उनके पूरे शरीर की तमाम हड्डियाँ लुगदी बन गई हों। मृत्यु के बारे में सोचकर उन्हें दुख होता है, वे रोना चाहते हैं, बिलखना चाहते हैं, और वे सचमुच रोते-बिलखते हैं, और आहत होते हैं कि वे अब मरनेवाले हैं। वे सोचते हैं, “मैं क्यों नहीं मरना चाहता? मैं मृत्यु से इतना डरता क्यों हूँ? पहले जब मैं गंभीर रूप से बीमार नहीं था, मुझे मृत्यु भयावह नहीं लगती थी। कौन मृत्यु का सामना नहीं करता? कौन नहीं मरता? तो चलो मैं मर ही जाता हूँ! उस बारे में अब सोचता हूँ, तो यह कहना उतना आसान नहीं है, और जब मृत्यु सच में आ जाती है, तो उसका समाधान करना उतना आसान नहीं होता। मुझे इतना दुख क्यों हो रहा है?” क्या तुम मृत्यु के बारे में सोचकर दुखी होते हो? जब भी तुम मृत्यु के बारे में सोचते हो, दुख और पीड़ा का अनुभव करते हो, और यह चीज जो तुम्हें सबसे ज्यादा व्याकुल और चिंतित करती है वह आखिरकार आ जाती है। इसलिए, तुम इस तरह जितना ज्यादा सोचते हो, उतना ही भयभीत और बेबस होते हो, उतना ही कष्ट सहते हो। तुम्हारा दिल बेआराम है, और तुम मरना नहीं चाहते। मृत्यु के इस मामले को कौन सुलझा सकता है? कोई भी नहीं, और निश्चित रूप से तुम खुद तो इसे सुलझा ही नहीं सकते। तुम मरना नहीं चाहते, तो फिर क्या कर सकते हो? तुम्हें मरना तो पड़ेगा ही, कोई भी मृत्यु से बच नहीं सकता। मृत्यु लोगों को घेर लेती है; वे दिल से मरना नहीं चाहते, मगर बस हमेशा मृत्यु के बारे में ही सोचते हैं, क्या यह उनके सचमुच मरने से पहले ही मर जाने का मामला नहीं है? क्या वे सचमुच मर सकते हैं? कौन यह पक्के तौर पर कहने की हिम्मत कर सकता है कि वह कब मरेगा या उसकी मृत्यु किस वर्ष होगी? कौन ये बातें जान सकता है? कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अपना भविष्य पढ़वा लिया है, मैं अपनी मृत्यु का वर्ष, माह और दिन जानता हूँ, यह भी जानता हूँ कि मेरी मृत्यु कैसी होगी।” क्या तुम इसे पक्के तौर पर कह सकते हो? (नहीं।) तुम इसे पक्के तौर पर नहीं कह सकते। तुम्हें नहीं मालूम तुम कब मरोगे—यह गौण बात है। अहम बात यह है कि जब तुम्हारा रोग तुम्हें सचमुच मौत की दहलीज पर ले आए, तब तुम कौन-सा रवैया अपनाओगे। इस प्रश्न पर तुम्हें चिंतन कर सोचना चाहिए। क्या तुम मृत्यु का सामना समर्पण के रवैये के साथ करोगे, या मृत्यु को तुम प्रतिरोध, अस्वीकृति या अनिच्छा के रवैये से देखोगे? तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए? (समर्पण का रवैया।) सिर्फ कह देने भर से यह समर्पण प्राप्त नहीं हो सकता, व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। तुम यह समर्पण कैसे प्राप्त कर सकते हो? स्वेच्छा से समर्पण प्राप्त करने से पहले तुम्हें कैसी समझ की जरूरत है? यह सरल नहीं है, है न? (नहीं, यह सरल नहीं है।) तो बताओ तुम्हारे दिल में क्या है? (अगर मैं गंभीर रूप से बीमार हो जाऊँ, तो सोचूँगा कि अगर मैं सचमुच मर भी जाऊँ, तो यह परमेश्वर के संप्रभुता के अधीन और उसके द्वारा व्यवस्थित किया गया होगा। मनुष्य इतनी गहराई से भ्रष्ट हो चुका है कि अगर मेरी मृत्यु हो जाए, तो परमेश्वर की धार्मिकता से होगी। ऐसा नहीं है कि मुझे जीवित रहना ही चाहिए; मनुष्य परमेश्वर से ऐसी माँग करने योग्य नहीं है। इसके अलावा, मेरे ख्याल से अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए चाहे जो हो जाए, मैंने जीवन का सही मार्ग देख लिया है, अनेक सत्य समझ लिए हैं, कि मैं जल्दी मर भी गया तो यह सार्थक होगा।) क्या ऐसा सोचना सही है? क्या यह कोई खास समर्थक सिद्धांत बनाता है? (जरूर बनाता है।) और कौन बोलना चाहता है? (हे परमेश्वर, अगर किसी दिन मैं सचमुच बीमार हो गया, और शायद मेरी मृत्यु हो जाए, तो वैसे भी मृत्यु से बच पाने का कोई तरीका नहीं है। यह परमेश्वर का पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता है, मैं चाहे जितनी फिक्र या चिंता करूँ, कोई फायदा नहीं। अपना बचा-कुचा समय मुझे इस बात पर ध्यान देने में लगाना चाहिए कि अपना कर्तव्य मैं अच्छे से कैसे निभाऊँ। अगर मैं सचमुच मर भी गया, तो भी मुझे कोई पछतावा नहीं होगा। बिल्कुल अंत में परमेश्वर और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाना भय और आतंक में जीने से बेहतर है।) इस समझ के बारे में तुम्हारी क्या सोच है? क्या यह थोड़ी बेहतर नहीं है? (हाँ।) सही है, मृत्यु के विषय को तुम्हें इसी तरह लेना चाहिए। सभी को इस जीवन में मृत्यु का सामना करना होगा, यानी अपनी जीवनयात्रा के अंत में सबको मृत्यु का सामना करना होगा। लेकिन मृत्यु की बहुत-सी तरह-तरह की खासियतें हैं। उनमें से एक यह है कि परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित समय पर तुम अपना उद्देश्य पूरा कर लेते हो, परमेश्वर तुम्हारे दैहिक जीवन के नीचे एक लकीर खींच देता है, और तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाता है, हालाँकि इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारा जीवन खत्म हो गया है। जब कोई व्यक्ति बिना शरीर का हो, तो उसका जीवन समाप्त हो जाता है—क्या बात ऐसी ही है? (नहीं।) मृत्यु के बाद जिस रूप में तुम्हारे जीवन का अस्तित्व होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जीवित रहते समय, तुमने परमेश्वर के कार्य और वचनों के साथ कैसा बर्ताव किया—यह बहुत महत्वपूर्ण है। मृत्यु के बाद तुम्हारा अस्तित्व जिस रूप में होता है, या तुम्हारा अस्तित्व होगा भी या नहीं, यह जीवित रहते समय परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करेगा। अगर जीवित रहते हुए मृत्यु और हर तरह के रोगों का सामना करने पर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया विद्रोह, विरोध करने और सत्य से विमुख होने का हो, तो तुम्हारे दैहिक जीवन की समाप्ति का वक्त आने पर मृत्यु के बाद तुम किस रूप में अस्तित्व में रहोगे? तुम पक्के तौर पर किसी दूसरे रूप में रहोगे, और तुम्हारा जीवन निश्चित रूप से जारी नहीं रहेगा। इसके विपरीत, अगर जीवित रहते हुए, तुम्हारे शरीर में जागरूकता होने पर, सत्य और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया समर्पण और वफादारी का हो और तुम सच्ची आस्था रखते हो, तो भले ही तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाए, तुम्हारा जीवन किसी और संसार में एक अलग रूप धारण कर अस्तित्व में बना रहेगा। मृत्यु का यह एक स्पष्टीकरण है। एक और भी बात ध्यान देने की है, और वह यह है कि मृत्यु के विषय की प्रकृति वही है जो दूसरे विषयों की होती है। इसका चयन लोग खुद नहीं कर सकते, और इसे मनुष्य की इच्छा से बदलना तो दूर की बात है। मृत्यु भी जीवन की किसी दूसरी महत्वपूर्ण घटना जैसी ही है : यह पूरी तरह से सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता के अधीन है। अगर कोई मृत्यु की भीख माँगे, तो जरूर नहीं कि वह मर जाए; अगर कोई जीने की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह जीवित रहे। ये सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनिर्धारण के अधीन हैं, और परमेश्वर के अधिकार, उसके धार्मिक स्वभाव और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं से ही इसे बदला जा सकता है। इसलिए, मान लो कि तुम्हें कोई गंभीर रोग, संभावित घातक गंभीर रोग हो जाता है, तो जरूरी नहीं कि तुम्हारी मृत्यु हो जाए—तुम मरोगे या नहीं इसका फैसला कौन करता है? (परमेश्वर।) परमेश्वर फैसला लेता है। और चूँकि परमेश्वर निर्णय लेता है, और लोग ऐसी चीज का फैसला नहीं कर सकते, तो लोग किस बात को लेकर व्याकुल और संतप्त हैं? यह ऐसा ही है, जैसे तुम्हारे माता-पिता कौन हैं, तुम कब और कहाँ पैदा होते हो—ये चीजें भी तुम नहीं चुन सकते। इन मामलों में सबसे बुद्धिमान यह चुनाव है कि चीजों को कुदरती ढंग से होने दिया जाए, समर्पण किया जाए, चुना न जाए, इस विषय पर कोई विचार न किया जाए या ऊर्जा न खपाई जाए, और इसे लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित न हुआ जाए। चूँकि लोग खुद नहीं चुन सकते, इसलिए इस विषय पर इतनी ऊर्जा और विचार खपाना बेवकूफी और अविवेकपूर्ण है। मृत्यु के अत्यंत महत्वपूर्ण विषय का सामना करते समय लोगों को संतप्त नहीं होना चाहिए, फिक्र नहीं करनी चाहिए और डरना नहीं चाहिए, फिर क्या करना चाहिए? लोगों को प्रतीक्षा करनी चाहिए, है ना? (हाँ।) सही? क्या प्रतीक्षा का अर्थ मृत्यु की प्रतीक्षा करना है? मृत्यु सामने होने पर मृत्यु की प्रतीक्षा करना? क्या यह सही है? (नहीं, लोगों को सकारात्मक होकर इसका सामना करना चाहिए, समर्पण करना चाहिए।) यह सही है, इसका अर्थ मृत्यु की प्रतीक्षा करना नहीं है। मृत्यु से बुरी तरह भयभीत मत हो, अपनी पूरी ऊर्जा मृत्यु के बारे में सोचने में मत लगाओ। सारा दिन यह मत सोचते रहो, “क्या मैं मर जाऊँगा? मेरी मृत्यु कब होगी? मरने के बाद क्या करूँगा?” बस, इस बारे में मत सोचो। कुछ लोग कहते हैं, “इस बारे में क्यों न सोचूँ? जब मरने ही वाला हूँ, तो क्यों न सोचूँ?” चूँकि यह नहीं मालूम कि तुम्हारी मृत्यु होगी या नहीं, और यह भी नहीं मालूम कि परमेश्वर तुम्हें मरने देगा या नहीं—ये चीजें अज्ञात हैं। खास तौर से यह मालूम नहीं है कि तुम कब मरोगे, कहाँ मरोगे, किस वक्त मरोगे और मरते समय तुम्हारे शरीर को क्या अनुभव होगा। जो चीजें तुम नहीं जानते, उनके बारे में सोचकर और चिंतन कर अपने दिमाग को झकझोरने और उनके बारे में व्याकुल और चिंतित होना क्या मूर्खता नहीं है? चूँकि ऐसा करके तुम मूर्ख बन जाते हो, इसलिए तुम्हें इन चीजों पर अत्यधिक नहीं सोचना चाहिए।

लोग चाहे किसी भी मामले से निपट रहे हों, उन्हें इसे हमेशा सक्रिय और सकारात्मक रवैये के साथ देखना चाहिए, बात अगर मृत्यु की हो तो यह और भी ज्यादा सच है। सक्रिय, सकारात्मक रवैया होने का अर्थ मृत्यु के साथ जाना, मृत्यु की प्रतीक्षा करना या सकारात्मक और सक्रिय तरीके से मृत्यु का अनुसरण करने की कोशिश करना नहीं है। अगर इसका अर्थ मृत्यु का अनुसरण करना, मृत्यु के साथ जाना या मृत्य की प्रतीक्षा करना नहीं है, तो फिर क्या है? (समर्पित होना।) समर्पण मृत्यु के विषय के प्रति एक तरह का रवैया है, और इससे निपटने का सबसे अच्छा तरीका मृत्यु को त्याग देना और उसके बारे में न सोचना है। कुछ लोग कहते हैं, “इस बारे में क्यों न सोचें? अगर मैं इस बारे में अच्छी तरह से न सोचूँ, तो क्या इससे जीत पाऊँगा? अगर मैं इस बारे में अच्छी तरह से न सोचूँ, तो क्या मैं इसे जाने दे पाऊँगा?” हाँ, जरूर। भला ऐसा क्यों? मुझे बताओ, जब तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया, तो जन्म लेने का विचार क्या तुम्हारा था? तुम्हारा रंग-रूप, तुम्हारी उम्र, जिस उद्योग में तुम काम करते हो, यह तथ्य कि तुम यहाँ बैठे हो, और अभी तुम जैसा महसूस कर रहे हो—क्या तुम्हारे सोचने से यह सब हुआ है? तुम्हारे सोचने से यह सब नहीं हुआ है, ये सब दिन, महीने गुजरने, और तुम्हारे दिन-ब-दिन, एक के बाद एक दिन का सामान्य जीवन जीने के जरिये हुआ है, यहाँ तुम्हारे पहुँचने तक, जहाँ आज तुम हो, और यह बहुत कुदरती है। मृत्यु भी बस वही है। तुम अनजाने ही बड़े होकर वयस्क और फिर अधेड़ हो जाते हो, बूढ़े हो जाते हो, अपने अंतिम वर्षों में पहुँच जाते हो, और फिर मृत्यु आती है—इस बारे में मत सोचो। तुम जिन चीजों के बारे में नहीं सोचते उनके बारे में न सोचने से तुम उनसे बच नहीं सकते, न ही सोचने से वे जल्दी आ जाती हैं; उन्हें मनुष्य अपनी इच्छा से नहीं बदल सकता, ठीक? उनके बारे में मत सोचो। “उनके बारे में मत सोचो” से मेरा तात्पर्य क्या है? चूँकि अगर यह चीज निकट भविष्य में सचमुच होनी है, तो हमेशा उस बारे में सोचते रहने से तुम अपने ऊपर एक अदृश्य दबाव महसूस करोगे। यह दबाव तुममें जीवन और जीवनयापन के प्रति डर पैदा कर देगा, तुम्हारा रवैया सक्रिय और सकारात्मक नहीं रहेगा, और इसके बजाय तुम और भी ज्यादा अवसादग्रस्त हो जाओगे। चूँकि मृत्यु का सामना करने वाले व्यक्ति को किसी भी चीज में रुचि नहीं होती या किसी भी चीज के प्रति उसका रवैया सकारात्मक नहीं होता, इसलिए वह सिर्फ अवसाद-ग्रस्त रहता है। वह मरने वाला है, सब-कुछ खत्म हो गया है, किसी भी चीज का अनुसरण करने या कोई भी काम करने का कोई अर्थ नहीं रहा, उसके लिए कोई संभावना या अभिप्रेरणा नहीं रही, और वह जो भी करता है, वह मृत्यु की तैयारी और मृत्यु की दिशा में जाने के लिए है, तो वह जो कुछ भी करता है, उसका क्या अर्थ है? इसलिए, उसके सभी कामों से नकारात्मकता और मृत्यु के तत्व और उसकी प्रकृति जुड़ी होती है। तो क्या तुम मृत्यु के बारे में नहीं सोच सकते? क्या इसे हासिल करना आसान है? अगर यह मामला सिर्फ तुम्हारे मानसिक तर्क और कल्पना का नतीजा है, तो तुमने खुद के लिए एक नकली खतरे की घंटी बजाई है, तुम खुद को डराते हो, और यह निकट भविष्य में होगा ही नहीं, तो तुम इसके बारे में भला क्यों सोच रहे हो? इस कारण मृत्यु के बारे में सोचना और भी बेकार है। जो होना है वह होकर रहेगा; जो नहीं होना है, उसके बारे में चाहे जैसे सोचो, वह नहीं होगा। इससे डरना वैसे ही बेकार है, जैसे इसके बारे में चिंता करना। मृत्यु की चिंता करके उससे नहीं बचा जा सकता, न ही सिर्फ तुम्हारे डरने के कारण यह तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएगा। इसलिए एक पहलू यह है कि तुम्हें अपने दिल से मृत्यु के विषय को त्याग देना चाहिए, और इसे महत्व नहीं देना चाहिए; तुम्हें इसे परमेश्वर को सौंप देना चाहिए, मानो मृत्यु का तुमसे कोई लेना-देना न हो। यह एक ऐसी चीज है जिसकी व्यवस्था परमेश्वर करता है, तो परमेश्वर को व्यवस्थित करने दो—तब क्या यह सरल नहीं हो जाता? दूसरा पहलू यह है कि तुम्हें मृत्यु के प्रति सक्रिय और सकारात्मक रवैया रखना चाहिए। बताओ भला, पूरी दुनिया में खरबों लोगों के बीच कौन इतना धन्य है कि परमेश्वर के इतने सारे वचन सुन पाए, जीवन के इतने सत्य और इतने सारे रहस्य समझ पाए? उन सबमें कौन निजी तौर पर परमेश्वर का मार्गदर्शन, उसका पोषण, देखभाल और रक्षा प्राप्त कर सकता है? कौन इतना धन्य है? बहुत कम लोग। इसलिए तुम थोड़े-से लोगों का आज परमेश्वर के घर में जीवनयापन करने, उसका उद्धार पाना, और उसका पोषण पाने में समर्थ होना, ये सब तुम तुरंत मर जाओ तो भी सार्थक है। तुम अत्यंत धन्य हो, क्या यह सही नहीं है? (हाँ।) इस नजरिये से देखें, तो लोगों को मृत्यु के विषय से इतना अधिक भयभीत नहीं होना चाहिए, न ही इससे बेबस होना चाहिए। भले ही तुमने दुनिया की किसी महिमा या धन-दौलत के मजे न लिए हों, फिर भी तुम्हें सृष्टिकर्ता की दया मिली है, और तुमने परमेश्वर के इतने सारे वचन सुने हैं—क्या यह आनंददायक नहीं है? (जरूर है।) इस जीवन में तुम चाहे जितने साल जियो, ये सब इस योग्य है और तुम्हें कोई खेद नहीं, क्योंकि तुम परमेश्वर के कार्य में निरंतर अपना कर्तव्य निभाते रहे हो, तुमने सत्य समझा है, जीवन के रहस्यों को समझा है, और जीवन में जिस पथ और लक्ष्यों का तुम्हें अनुसरण करना चाहिए उन्हें समझा है—तुमने बहुत कुछ हासिल किया है! तुमने सार्थक जीवन जिया है! भले ही तुम इसे साफ तौर पर समझा न पाओ, तुम कुछ सत्यों पर अमल करने और कुछ वास्तविकता रखने में समर्थ हो, और इससे साबित होता है कि तुमने जीवन का थोड़ा पोषण प्राप्त किया है, और परमेश्वर के कार्य से कुछ सत्यों को समझा है। तुमने बहुत कुछ हासिल किया है—सच्ची प्रचुरता हासिल की है—और यह कितना महान आशीष है! मानव इतिहास के आरंभ से ही, सभी युगों के दौरान, कभी किसी ने इस आशीष का आनंद नहीं लिया, मगर तुम इसका आनंद ले रहे हो। क्या अब तुम मरने के लिए तैयार हो? ऐसी तत्परता के साथ मृत्यु के प्रति तुम्हारा रवैया सचमुच समर्पण करने वाला होगा, है ना? (हाँ।) एक पहलू यह है कि लोगों को सच्ची समझ होनी चाहिए, उन्हें सकारात्मक और सक्रिय सहयोग देना चाहिए, सचमुच समर्पित होना चाहिए, और मृत्यु के प्रति उनका रवैया सही होना चाहिए। इस तरह से, क्या लोगों की संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाएँ काफी कम नहीं हो जातीं? (जरूर हो जाती हैं।) वे बहुत कम हो जाती हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अभी-अभी यह संगति पूरी सुनी है, मगर ऐसा नहीं लगता कि ये भावनाएँ कुछ ज्यादा कम हुई हैं। शायद इसमें समय लगता होगा। खास तौर से, बड़े-बूढ़े और बीमार लोग मृत्यु के बारे में बहुत ज्यादा सोचते हैं।” लोग अपनी मुश्किलें जानते हैं। लंबे समय से बीमार रहे कुछ लोग उन सबका सारांश बनाकर सोचते हैं, “मैंने इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, जिन लोगों को मेरा ही रोग हुआ, वे बहुत पहले मर चुके हैं। अगर उनका पुनर्जन्म हुआ हो, तो अब उनकी उम्र बीस-तीस साल होगी। परमेश्वर के अनुग्रह से मैं इतने वर्ष जी गया, सब कुछ मुझे मुक्त रूप से मिला। अगर मैंने परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा होता, तो कब का मर गया होता। जब मैं जाँच के लिए अस्पताल गया, तो डॉक्टर चौंक गए थे। मुझे कितना बड़ा लाभ और आशीष प्राप्त है! अगर मैं 20 वर्ष पहले मर गया होता, तो मैंने ये सत्य और धर्मसंदेश नहीं सुने होते, उन्हें नहीं समझा होता; अगर मैं यूँ ही मर गया होता, तो मैंने कुछ भी हासिल नहीं किया होता। अगर मैंने लंबा जीवन जिया होता, तो सारा-का-सारा खोखला और व्यर्थ रहा होता। अब मैं इतने वर्ष अतिरिक्त जिया हूँ, और मुझे इतने लाभ दिए गए हैं। मैंने इतने वर्ष मृत्यु के बारे में नहीं सोचा, और मुझे उसका डर नहीं।” अगर लोग हमेशा मृत्यु से भयभीत रहें, तो वे हमेशा मृत्यु से जुड़े तमाम सवालों के बारे में सोचते रहेंगे। अगर लोग मरने से न डरें, और उन्हें मृत्यु का खौफ न हो, तो यह दिखाता है कि वे काफी कष्ट सह चुके हैं, और अब उन्हें मृत्यु का खौफ नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर किसी को मृत्यु का खौफ नहीं है, तो क्या इसका यह अर्थ है कि वे मृत्यु को खोज रहे हैं?” नहीं, यह सही नहीं है। मृत्यु को खोजना एक तरह का नकारात्मक रवैया है, बचने का रवैया है, जबकि पहले मृत्यु के बारे में न सोचने को लेकर मैंने जो कहा, वह वस्तुपरक, सकारात्मक रवैया है; यानी मृत्यु को उपेक्षा से देखना, उसे बहुत महत्व न देना, उसे बहुत दुखदायी, व्याकुलता पैदा करने वाली घटना न समझना; उसके बारे में और चिंता न करना, उसको लेकर बिल्कुल चिंतित न होना, मृत्यु की जकड़ में न रहना, उसे खुद से बहुत पीछे छोड़ देना—जो लोग ऐसा कर पाते हैं, उन्हें मृत्यु का थोड़ा निजी ज्ञान और अनुभव होता है। अगर कोई हमेशा बीमारी और मृत्यु से बंधा हुआ और बेबस रहे, हमेशा संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं से घिरा रहे, सामान्य रूप से अपना कर्तव्य न निभा पाए या सामान्य रूप से न जी पाए, तो उसे मृत्यु के बारे में और ज्यादा अनुभवात्मक गवाही सुननी चाहिए, यह देखना चाहिए कि जो लोग मृत्यु को उपेक्षा से देख पाते हैं, वे उसका कैसे अनुभव करते हैं और अपने अनुभव में मृत्यु को कैसे समझते हैं, तब जाकर वे कोई बहुमूल्य चीज हासिल कर पाएँगे।

मृत्यु एक ऐसी समस्या नहीं है जिसे हल करना आसान हो, यह मनुष्य की सबसे बड़ी मुश्किल है। अगर कोई तुमसे कहे, “तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बहुत गहरा है और तुम्हारी मानवता भी अच्छी नहीं है। अगर तुम सच्चे दिल से सत्य का अनुसरण न करके भविष्य में अनेक दुष्कर्म करोगे, तो नरक में दंडित किए जाओगे!” तो इसके बाद तुम थोड़ी देर परेशान रहोगे। तुम शायद इस पर चिंतन करो, रात भर सो लेने के बाद काफी बेहतर महसूस करो, और तब तुम उतने परेशान न रहो। लेकिन अगर तुम एक घातक रोग से ग्रस्त हो जाते हो, तुम्हारे जीने का ज्यादा समय न बचा हो, तो यह ऐसी चीज नहीं है जो रात भर सो लेने से ठीक हो जाए, और इसे उतनी आसानी से जाने नहीं दिया जा सकेगा। इस मामले में तुम्हें कुछ वक्त तपने की जरूरत है। सत्य का सच्चे दिल से अनुसरण करने वाले लोग इस विषय को पीछे छोड़ पाते हैं, सभी चीजों में सत्य खोज सकते हैं, और इसे दूर करने के लिए सत्य का प्रयोग कर सकते हैं—ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे वे हल नहीं कर सकते। लेकिन अगर लोग मनुष्य के तरीके इस्तेमाल करें, तो आखिरकार वे मृत्यु को लेकर सिर्फ निरंतर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते रहेंगे। जिन चीजों का समाधान नहीं किया जा सकता, वे उन्हें सुलझाने की कोशिश में अतिवादी तरीके काम में लेते हैं। कुछ लोग यह कहकर अवसादग्रस्त और नकारात्मक नजरिया अपनाते हैं, “तो मैं बस मर जाऊँगा। मौत से कौन डरता है? मृत्यु के बाद, मैं पुनर्जन्म लेकर फिर से जियूँगा!” क्या तुम इसका सत्यापन कर सकते हो? तुम्हें बस सुकून देने वाले कुछ वचनों की तलाश है, और इससे समस्या हल नहीं होती। दृश्य या अदृश्य, भौतिक या अभौतिक, तमाम चीजें और हर चीज सृष्टिकर्ता के हाथों नियंत्रित और शासित होती हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी नियति का नियंत्रण नहीं कर सकता, मनुष्य को बीमारी या मृत्यु, दोनों के प्रति बस एक ही रवैया अपनाना चाहिए, और वह है समझ, स्वीकार्यता, और समर्पण का; लोगों को अपनी कल्पनाओं या धारणाओं के भरोसे नहीं रहना चाहिए, उन्हें इन चीजों से बाहर निकलने का रास्ता नहीं ढूँढ़ना चाहिए, और इन चीजों को ठुकराना या उनका प्रतिरोध तो बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने ही तरीकों से आँखें बंद करके बीमारी और मृत्यु के मसलों को दूर करने की कोशिश करोगे, तो तुम जितना लंबा जिओगे उतना ही ज्यादा कष्ट सहोगे, उतना ही अवसादग्रस्त हो जाओगे, और उतना ही फँसा हुआ अनुभव करोगे। अंत में, तब भी तुम्हें मृत्यु के पथ पर चलना पड़ेगा, तुम्हारा अंत सचमुच तुम्हारी मृत्यु जैसा ही होगा—तुम सचमुच मर जाओगे। अगर तुम सक्रिय होकर सत्य खोज सको, और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित रोग या मृत्यु की समझ को लेकर तुम सकारात्मक और सक्रिय ढंग से सत्य खोज सको, इस प्रकार की बड़ी घटना के बारे में सृष्टिकर्ता के आयोजनों, संप्रभुता और व्यवस्थाओं को खोज सको, और सच्चा समर्पण कर पाओ, तो यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। अगर तुम ये तमाम चीजें झेलने के लिए मनुष्य की शक्ति और तरीकों के भरोसे रहो, इन्हें ठीक करने या इनसे बच निकलने की जबरदस्त कोशिश करो, तो भले ही तुम न मरो, अस्थायी रूप से मृत्यु की मुश्किल से बचने का प्रबंध कर लो, तो भी परमेश्वर और सत्य के प्रति सच्ची समझ, स्वीकार्यता और समर्पण न होने से तुम इस मामले में गवाही नहीं दे पाओगे, और इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि जब तुम उसी मसले का दोबारा सामना करोगे, तब भी यह तुम्हारे लिए एक बड़ी परीक्षा बना रहेगा। तुम्हारे लिए अब भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर गिर पड़ने की संभावना होगी, और बेशक तुम्हारे लिए यह खतरनाक चीज होगी। इसलिए, अगर तुम फिलहाल रोग या मृत्यु का सचमुच सामना कर रहे हो, तो मैं बता दूँ, सत्य को खोज कर इस मामले को जड़ से मिटा देने के लिए अभी इस व्यावहारिक स्थिति का फायदा उठाना बेहतर है, बजाय इसके कि मृत्यु के सचमुच एकाएक आ जाने की प्रतीक्षा करो, खोया हुआ, विकल और बेसहारा महसूस करो जिससे तुम ऐसी चीजें करो कि तुम्हें जीवन भर पछताना पड़े। अगर तुम ऐसे काम करते हो जिनके लिए तुम्हें खेद और पछतावा होता है, तो यह तुम्हें विनाश की ओर बढ़ा सकता है। इसलिए, मसला चाहे जो भी हो, तुम्हें हमेशा उस विषय की समझ के साथ और जो सत्य तुम्हें समझने चाहिए, उनके साथ ही अपना प्रवेश प्रारंभ करना चाहिए। अगर तुम रोग जैसी चीजों को लेकर निरंतर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हो, और ऐसी नकारात्मक भावनाओं में घिरे रहते हो, तो तुम्हें तुरंत सत्य की खोज शुरू कर देनी चाहिए, और जल्द-से-जल्द इन समस्याओं को दूर करना चाहिए।

संताप, व्याकुलता और चिंता जैसी नकारात्मक भावनाओं की प्रकृति भी दूसरी विविध नकारात्मक भावनाओं जैसी ही होती है। ये सब तरह-तरह की नकारात्मक भावनाएँ हैं जो लोगों में पैदा होती हैं, क्योंकि वे सत्य नहीं समझते और अपने बहुविध शैतानी भ्रष्ट स्वभावों में जकड़े रहते हैं, या वे तरह-तरह के शैतानी विचारों से परेशान और प्रभावित होकर जीते रहते हैं। इन नकारात्मक भावनाओं के कारण लोग हमेशा हर तरह के गलत विचारों और सोच के साथ जीते हैं, साथ ही हर तरह के गलत विचारों और सोच से नियंत्रित रहते हैं, जो उनके सत्य के अनुसरण को रोककर उसे प्रभावित करते हैं। बेशक, संताप, व्याकुलता और चिंता की ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के जीवन को बाधित करती हैं, उसे निर्देशित करती हैं, उनके सत्य के अनुसरण को प्रभावित करती हैं, और उन्हें सत्य का अनुसरण करने से दूर रखती हैं। इसलिए, भले ही ये नकारात्मक भावनाएँ सरल अर्थ में भावनाएँ ही हैं, मगर उनके कार्य को कम नहीं आंका जा सकता; ये लोगों पर जो प्रभाव डालती हैं, लोगों के अनुसरण और जिस पथ पर वे चलते हैं, उसका जो परिणाम करती हैं, वे खतरनाक हैं। किसी भी स्थिति में, जब किसी व्यक्ति के मन में तरह-तरह की नकारात्मक भावनाएँ अक्सर उफन कर उन्हें बाधित करती हैं, तो उन्हें तुरंत इनका पता लगा कर विश्लेषण करना चाहिए कि ये नकारात्मक भावनाएँ अक्सर क्यों सिर उठाती हैं, और वे अक्सर इन नकारात्मक भावनाओं से क्यों तंग रहते हैं। साथ ही, किसी खास माहौल में ये नकारात्मक भावनाएँ उस व्यक्ति को निरतर तंग कर उसके सत्य के अनुसरण को बुरी तरह बाधित करती हैं—ये ऐसी चीजें हैं जिनकी समझ लोगों को होनी चाहिए। एक बार ये चीजें समझ लेने के बाद, उन्हें यह सोचना चाहिए कि इस विषय में सत्य कैसे खोजें और समझें, इन गलत विचारों और सोच से परेशान और प्रभावित न रहने की कोशिश करनी चाहिए, और उनका स्थान परमेश्वर द्वारा सिखाए गए सत्य सिद्धांतों को दे देना चाहिए। एक बार सत्य सिद्धांतों को समझ लेने के बाद, उनका अगला कदम परमेश्वर द्वारा उन्हें सिखाए गए सत्य सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास करना होना चाहिए। ऐसा करने पर, उनकी सभी नकारात्मक भावनाएँ धीरे-धीरे उन्हें बाधित करने के लिए उभरेंगी, और फिर एक-एक-कर धीरे-धीरे ठीक कर दी जाएँगी और इनके खिलाफ विद्रोह होगा, जब तक कि वे लोग अनजाने ही इन तमाम नकारात्मक भावनाओं को पीछे न छोड़ दें। तो विविध नकारात्मक भावनाओं का समाधान किसके भरोसे होता है? यह उनको लेकर लोगों के विश्लेषण और समझ के भरोसे होता है, लोगों की सत्य की स्वीकार्यता और उससे भी ज्यादा लोगों के सत्य के अनुसरण और अभ्यास के भरोसे होता है। क्या ऐसा नहीं है? (जरूर है।) जैसे-जैसे लोग धीरे-धीरे सत्य का अनुसरण कर उस पर अमल करते हैं, उनकी विविध नकारात्मक भावनाएँ धीरे-धीरे ठीक हो जाती हैं और त्याग दी जाती हैं। तो अब इस पर गौर करते हुए, तुम्हारे ख्याल से किस चीज को त्याग देना और ठीक करना आसान है, इन विविध नकारात्मक भावनाओं को या भ्रष्ट स्वभावों को? (नकारात्मक भावनाओं का समाधान ज्यादा आसान है।) तुम सोचते हो कि नकारात्मक भावनाओं को ठीक करना ज्यादा आसान है? यह हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होता है। इनमें से कोई एक कठिन या आसान नहीं होता, यह बस व्यक्ति पर निर्भर करता है। किसी भी स्थिति में, हमने नकारात्मक भावनाओं को त्याग देने के बारे में संगति शुरू करते हुए, हमने लोगों के स्वभावगत परिवर्तन के अनुसरण में थोड़ी विषयवस्तु जोड़ी है, और वह है विविध नकारात्मक भावनाओं को त्याग देना। नकारात्मक भावनाओं को त्याग देने का काम मुख्य रूप से कुछ गलत विचारों और सोच को दुरुस्त करने के लिए किया जाता है, जबकि भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करने के लिए भ्रष्ट स्वभावों के सार की समझ जरूरी होती है। बताओ मुझे, क्या ज्यादा आसान है, नकारात्मक भावनाओं को ठीक करना या भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करना? असल में इनमें से किसी भी समस्या को हल करना आसान नहीं है। अगर तुम सचमुच दृढ़संकल्प हो, और सत्य खोज सकते हो, तो फिर चाहे जो भी समस्या हल करना चाहो, उसमें कोई मुश्किल नहीं होगी। लेकिन अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, और भाँप नहीं पाते, कि ये दोनों समस्याएँ कितनी गंभीर हैं, तो तुम किसी भी समस्या को हल करने की कोशिश करो यह आसान नहीं होगा। इन नकारात्मक प्रतिकूल चीजों के विषय में, तुम्हें उन्हें ठीक करने के लिए सत्य को स्वीकार कर उस पर अमल करने, सत्य को समर्पित होने और उन चीजों को सकारात्मक चीजों से बदलने की जरूरत है। हमेशा यही प्रक्रिया होती है, और इसमें हमेशा लोगों के नकारात्मक चीजों के खिलाफ विद्रोह करने और सकारात्मक, सक्रिय और सत्य के अनुरूप चीजों को स्वीकारने की जरूरत होती है। एक पहलू तुम्हारे विचारों और सोच पर कार्य करना है, और दूसरा तुम्हारे स्वभावों पर कार्य करना; एक है तुम्हारे विचारों और सोच को दुरुस्त करना और दूसरा तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करना। बेशक कभी-कभी ये दोनों चीजें एक-साथ उभरती हैं, और एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं। किसी भी स्थिति में, लोगों को सत्य का अनुसरण करते समय, नकारात्मक भावनाओं को त्याग देने पर अमल करना चाहिए। ठीक है, चलो, आज की संगति यहीं समाप्त करते हैं।

29 अक्तूबर 2022

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