सत्य का अनुसरण कैसे करें (3)
हमारी पिछली सभा में अपनी संगति के दौरान हम कहाँ पहुँचे थे? हम संगति कर रहे थे कि सत्य का अनुसरण कैसे करें, जो दो प्रमुख विषयों से संबंधित है, जो कि मुख्य रूप से अभ्यास के दो पहलू हैं। पहला पहलू क्या है? (पहला है त्याग देना।) और दूसरा? (दूसरा है समर्पित होना।) पहला है त्याग देना और दूसरा है समर्पित होना। “त्याग देने” के अभ्यास की बात करें, तो पहले हमने विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्याग देने पर संगति की थी। “त्याग देने” का पहला पहलू विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागने से जुड़ा हुआ है। तो जब हमने विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के बारे में बात की, तो हमने किन चीजों का जिक्र किया? (परमेश्वर ने पहले हीनभावना, नफरत और गुस्से के बारे में, और दूसरी बार अवसाद के बारे में बताया।) पहली बार मैंने नफरत, गुस्से और हीनभावना को त्यागने की जरूरत पर बात की—मुख्य रूप से मैंने इन तीन नकारात्मक भावनाओं के बारे में बात की, और मैंने चलते-चलते अवसाद का भी जिक्र किया। दूसरी बार मैंने नकारात्मक भावनाओं में से एक अवसाद को जाने देने को अभ्यास में लाने के बारे में बात की। लोग कई-कई वजहों से अवसाद-ग्रस्त हो सकते हैं, और पिछली बार मैंने मुख्य रूप से उन अनेक तरीकों के बारे में बात की थी, जिनसे अवसाद की नकारात्मक भावना पैदा हो सकती है। बताओ, मैंने अवसाद की भावना पैदा होने के कौन-से मुख्य कारण बताए थे? (हे परमेश्वर, कुल मिलाकर तीन कारण हैं। पहला यह है कि लोगों को हमेशा लगता है कि उनका भाग्य खराब है; दूसरा यह है कि अपने साथ कुछ घट जाने पर लोग अपने दुर्भाग्य को दोष देते हैं; और तीसरा वो है जब लोगों ने पहले गंभीर अपराध किए हैं, या जब उन्होंने मूर्खतापूर्ण या अज्ञानतापूर्ण काम किए हैं, जिनसे वे अवसाद में डूब जाते हैं।) यही हैं तीन मुख्य कारण। पहला इसलिए कि लोग अपने भाग्य को बुरा मानने के कारण अक्सर अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं; दूसरा इसलिए कि स्वयं को अभागा मानने के कारण भी वे अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं; और तीसरा इसलिए है कि गंभीर अपराध करने के कारण लोग अक्सर अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हैं। यही तीन मुख्य कारण हैं। अवसाद की भावना नकारात्मकता या उदासी की क्षणिक भावना नहीं है। बल्कि यह कुछ विशेष कारणों से आदतन मन में बार-बार आने वाली नकारात्मक भावना है। इस नकारात्मक भावना के कारण लोगों के मन में बहुत-से नकारात्मक विचार, मत और दृष्टिकोण और बहुत-से अतिवादी और विकृत विचार, मत, व्यवहार और तरीके आ जाते हैं। यह कोई अस्थायी मनःस्थिति या क्षणिक विचार नहीं है; यह लोगों के मन में आदतन बार-बार आने वाली नकारात्मक भावना है, जो लोगों के अंतरतम और आत्मा की गहराई में रची-बसी होती है और उनके सोच-विचार और कार्यों में झलकती है। यह नकारात्मक भावना न सिर्फ लोगों की सामान्य मानवता के जमीर और विवेक पर असर डालती है, बल्कि दैनिक जीवन में लोगों और चीजों को देखने और उनके आचरण और कार्यों में लोगों के विभिन्न दृष्टिकोणों, मतों और नजरियों को भी प्रभावित कर सकती है। इसलिए इससे पहले कि हम इन्हें जाने दें और एक-एक कर इन्हें बदलें, हमारे लिए यह जरूरी है कि विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण करें, उन्हें बारीकी से देखें और पहचानें, और कोशिश कर धीरे-धीरे उन्हें पीछे छोड़ दें, ताकि हमारा जमीर और विवेक और साथ ही हमारी मानवता की सोच सामान्य और व्यावहारिक हो जाए, और ताकि हमारे दैनिक जीवन में लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने का हमारा तरीका इन नकारात्मक भावनाओं से प्रभावित और नियंत्रित न हो, या दबे भी नहीं—इन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण कर इन्हें समझने का यही मुख्य उद्देश्य है। मुख्य उद्देश्य यह नहीं है कि तुम मेरी बात सुनो, जानो और समझो, और फिर उसे वहीं-की-वहीं छोड़ दो, बल्कि मेरे वचनों से तुम यह जानो कि नकारात्मक भावनाएँ लोगों के लिए ठीक किस तरह से हानिकारक होती हैं, यह जानो कि वे कितनी हानिकारक हैं, और लोगों के दैनिक जीवन में लोगों और चीजों को देखने और उनके आचरण और व्यवहार के तरीके पर वे कितना बड़ा प्रभाव डालती हैं।
पहले हमने इस पर भी संगति की थी कि ये नकारात्मक भावनाएँ किस तरह से एक हद तक भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार के स्तर तक नहीं पहुँचतीं, बल्कि किसी हद तक लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को बढ़ाने में मदद करती हैं, जो उन्हें भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर चीजें करने का आधार देता है और लोगों को इन नकारात्मक भावनाओं का सहारा लेकर अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीने की ज्यादा वजह मिल जाती है, और साथ ही किसी भी व्यक्ति या चीज को इन भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर देखने की वजह भी मिल जाती है। इसलिए ये तमाम नकारात्मक भावनाएँ लोगों के दैनिक जीवन को कमोबेश प्रभावित करती हैं, और एक हद तक ये लोगों के विभिन्न सोच-विचार को प्रभावित और नियंत्रित करती हैं, और सत्य और परमेश्वर के बारे में लोगों के रवैयों, परिप्रेक्ष्यों और दृष्टिकोणों को प्रभावित करती हैं। यह कहा जा सकता है कि इन नकारात्मक भावनाओं का लोगों पर कतई अच्छा असर नहीं होता, न ही कोई सकारात्मक या सहायक प्रभाव पड़ता है, बल्कि उल्टे ये लोगों को सिर्फ नुकसान पहुँचा सकती हैं। इसीलिए जब लोग इन नकारात्मक भावनाओं में जीते हैं, तो उनके दिल इनसे सहज रूप से प्रभावित और नियंत्रित हो जाते हैं, और वे नकारात्मकता की दशा में जीने से खुद को रोक नहीं पाते, और वे बेतुके दृष्टिकोणों के साथ लोगों और चीजों के बारे में भी अतिवादी मत अपना लेते हैं। जब लोग नकारात्मक भावनाओं के परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण से किसी व्यक्ति या चीज को देखते हैं, तो आचरण और कार्य के जो व्यवहार, दृष्टिकोण और प्रभाव वे प्रदर्शित करते हैं, उनमें स्वाभाविक रूप से अतिवादी, नकारात्मक और अवसाद-जनक भावनाओं की मिलावट होती है। ये नकारात्मक, अवसाद-जनक और अतिवादी भावनाएँ लोगों को परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी और उससे असंतुष्ट होने, परमेश्वर को दोष देने, अवहेलना करने और यहाँ तक कि उसका विरोध करने, और साथ ही बेशक उससे घृणा करने का कारण बनती हैं। मिसाल के तौर पर, जब किसी व्यक्ति को लगता है कि उसका भाग्य बुरा है, तो वह इसके लिए किसे दोष देता है? शायद वे कुछ न बोलें, मगर उन्हें अपने हृदय में लगता है कि परमेश्वर ने गलत किया है, वह अन्यायी है, और वे सोचते हैं, “परमेश्वर ने उसे इतना सुंदर क्यों बनाया? परमेश्वर ने उसे ऐसे बड़े परिवार में क्यों पैदा होने दिया? उसने उसे ऐसे गुण क्यों दिए? उसने उसे इतनी अच्छी काबिलियत क्यों दी? मेरी काबिलियत इतनी बुरी क्यों है? परमेश्वर ने उसके अगुआ बनने की व्यवस्था क्यों की? मेरी बारी कभी क्यों नहीं आती, मैं एक बार भी अगुआ क्यों नहीं बन सका? उसके लिए सब-कुछ इतना आसान क्यों होता है, और मैं जो भी करता हूँ कभी भी सही या आसानी से नहीं होता? मेरा भाग्य इतना दीन-हीन क्यों है? मेरे साथ होने वाली चीजें इतनी अलग क्यों होती हैं? मेरे साथ हमेशा बुरा ही क्यों होता है?” हालाँकि अवसाद-जनक भावनाओं से पैदा हुए इन विचारों के कारण लोग अपनी व्यक्तिपरक चेतना में परमेश्वर को दोष नहीं देते, परमेश्वर या अपने भाग्य का विरोध नहीं करते, फिर भी इनके कारण लोग अपने अंतरतम में अक्सर अनायास ही अवज्ञा, असंतोष, रोष, ईर्ष्या और घृणा की भावनाओं में डूब जाते हैं। गंभीर मामलों में ये लोगों में अधिक अतिवादी विचार और व्यवहार पैदा करने का कारण भी बन सकते हैं। मिसाल के तौर पर जब कुछ लोग किसी और को उनसे बेहतर प्रदर्शन करते और परमेश्वर की सराहना पाते देखते हैं, तो उनके मन में ईर्ष्या और घृणा जागती है। नतीजतन, तुच्छ कार्यों का तांता लग जाता है : वे दूसरे व्यक्ति की बुराई करते हैं और पीठ पीछे नुकसान पहुँचाते हैं, वे चोरी-छिपे कुछ संदेहास्पद और विवेकहीन कार्य करते हैं, वगैरह-वगैरह। इन मुद्दों की इस कड़ी के पैदा होने का उनके अवसाद और नकारात्मक भावनाओं से सीधा संबंध होता है। अवसाद-जनक भावनाओं से पैदा हुए विचारों, व्यवहारों और दृष्टिकोणों का यह सिलसिला शुरू में बस कुछ भावनाओं जैसा लग सकता है, लेकिन जैसे-जैसे चीजें आगे बढ़ती हैं, ये नकारात्मक और अवसाद-जनक भावनाएँ लोगों को अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभावों के अनुसार जीने के लिए और ज्यादा प्रोत्साहित कर सकती हैं। हालाँकि अगर लोग सत्य को समझकर सामान्य मानवता के साथ जिएँ, तो इन नकारात्मक और अवसाद-जनक भावनाओं के उनके भीतर सिर उठाने पर उनका जमीर और विवेक फौरन कार्रवाई कर सकता है और ये लोग इन अवसाद-जनक भावनाओं की मौजूदगी और उनकी बाधाओं को बूझ कर उन्हें समझ सकते हैं। तब वे उन अवसाद-जनक भावनाओं को बहुत तेजी से पीछे छोड़ सकते हैं, और अपनी मौजूदा स्थिति में लोगों, घटनाओं और चीजों से सामना होने पर वे तर्कसंगत फैसले ले सकते हैं और जिन स्थितियों से उनका सामना हो और जिन चीजों का वे अनुभव करें, उनके बारे में सही नजरिए से तर्कसंगत ढंग से सोच-विचार कर सकते हैं। जब लोग ये तमाम चीजें तर्कसंगत ढंग से करते हैं, तो सबसे मूलभूत चीज जो वे हासिल कर पाएँगे, वह सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के शासन को स्वीकार करना है। इससे भी बेहतर, अगर वे सत्य को समझते हैं, तो वे और अधिक तर्कसंगत ढंग से अपने जमीर और विवेक के आधार पर सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकेंगे, और वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के प्रभुत्व में अपना आचरण और कार्य नहीं करेंगे। हालाँकि अगर नकारात्मक भावनाएँ उनके दिलों पर हावी हो जाती हैं, उनके विचारों, मतों और उनके मामले सँभालने और आचरण करने के तरीकों पर असर डालती हैं, तो स्वाभाविक रूप से ये नकारात्मक भावनाएँ जीवन में उनकी तरक्की को प्रभावित करेंगी, और उनके विचारों, चुनावों, व्यवहार और दृष्टिकोणों को हर तरह की स्थितियों में अवरुद्ध और बाधित करेंगी। एक तरफ ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को आसान बनाती हैं, जिससे लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों में रहने में आराम और युक्तिसंगत महसूस करते हैं; दूसरी ओर वे लोगों के सकारात्मक चीजों का विरोध करने, नकारात्मकता में जीने, और प्रकाश देखने के लिए अनिच्छुक होने का भी कारण बनती हैं। इस तरह नकारात्मक भावनाएँ लोगों में और ज्यादा व्यापक और गंभीर हो जाती हैं, और ये लोगों को जमीर और विवेक की सीमाओं में तर्कसंगत तरीके से बिल्कुल कार्य नहीं करने देतीं। इसके बजाय ये लोगों को सत्य खोजने और परमेश्वर के समक्ष जीने से रोकती हैं, और इस तरह लोग सहज ही और भी ज्यादा पतित हो जाते हैं, वे न सिर्फ निराश महसूस करते हैं बल्कि परमेश्वर से बहुत दूर भी हो जाते हैं। और चीजों के इसी तरह होते रहने के क्या नतीजे होंगे? न सिर्फ नकारात्मक भावनाएँ लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को दूर नहीं कर सकेंगी, बल्कि वे उन्हें आसान बना देंगी, जिससे लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर मामले सँभालने लगेंगे, आचरण करने लगेंगे, और अपने ही रास्ते चलने लगेंगे। जब लोगों पर भ्रांतिपूर्ण और अतिवादी विचार और मत हावी हो जाएँगे तो वे क्या करेंगे? क्या वे कलीसिया के कार्य को बाधित करेंगे? क्या वे नकारात्मकता फैलाएंगे, परमेश्वर और परमेश्वर के घर में कार्य-व्यवस्थाओं को अपनी नजर से परखेंगे? क्या वे परमेश्वर को दोष देंगे, उसकी अवहेलना करेंगे? यकीनन वे ऐसा करेंगे! यही हैं अंतिम परिणाम। लोगों में अवज्ञा, असंतोष, नकारात्मकता और विरोध जैसे दृष्टिकोणों का सिलसिला उभरेगा—ये सब लोगों के दिलों पर नकारात्मक भावनाओं के लंबे समय तक हावी होने के परिणाम हैं। जरा गौर करो, एक हल्की-सी नकारात्मक भावना—ऐसी भावना जिसे शायद लोग महसूस भी न कर सकें, लोगों को जिसके होने का भान भी न हो, उन पर उसका जो असर हो रहा है, वह महसूस भी न हो—यह हल्की-सी नकारात्मक भावना अभी भी उनका पीछा करती रहती है मानो उनके पैदा होने के समय से यह उनके साथ हो। यह लोगों को हर आकार-प्रकार के नुकसान पहुँचाती है, और यह उन्हें निरंतर लपेटे में ले रही है, डरा रही है, दबा रही है और बाँध रही है, इस हद तक कि यह हरदम उनके साथ रहती है, जैसे कि तुम्हारा जीवन साथ होता है मगर तुम उससे पूरी तरह बेखबर रहते हो, अक्सर उसके भीतर जीते हो, उसे हल्के मे लेते हो, और ऐसी बातें सोचते हो, “लोगों को इसी तरह सोचना चाहिए, इसमें कुछ भी गलत नहीं है, यह बहुत सामान्य है। ऐसे कुछ सक्रिय विचार किसके मन में नहीं होते? किसके मन में नकारात्मक भावनाएँ नहीं होतीं?” तुम्हें इसका अंदाजा भी नहीं हो पाता कि यह नकारात्मक भावना तुम्हें कितना नुकसान पहुँचा रही है, लेकिन नुकसान बिल्कुल असली होता है, और यह अक्सर अनायास तुम्हें उकसाएगी कि सहज रूप से अपना भ्रष्ट स्वभाव सामने ले आओ, और अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर आचरण और कार्य करो, जब तक आखिर सब-कुछ अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर ही न करने लगो। तुम कल्पना कर सकते हो कि इसके अंतिम परिणाम क्या हैं : सारे परिणाम नकारात्मक और प्रतिकूल हैं, कुछ भी फायदेमंद या सकारात्मक नहीं, सत्य और परमेश्वर की सराहना पाने में लोगों की मदद कर पाने वाली किसी चीज का होना तो बहुत दूर की बात है—ये आशावादी परिणाम नहीं हैं। इसलिए अगर किसी व्यक्ति में नकारात्मक भावनाएँ मौजूद होती हैं, तो तरह-तरह के नकारात्मक विचार और मत उसके जीवन पर गंभीर प्रभाव डालकर हावी हो जाएँगे। जब तक नकारात्मक विचार और मत उनके जीवन पर हावी रहते हैं, तो सत्य का अनुसरण करने, सत्य का अभ्यास करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से उन्हें रोकने वाली बहुत बड़ी रुकावटें आएँगी। इसलिए यह जरूरी है कि हम लगातार इन नकारात्मक भावनाओं को उजागर कर उनका विश्लेषण करते रहें, ताकि ये सारी-की-सारी दूर की जा सकें।
जिन नकारात्मक भावनाओं पर हमने अभी संगति की है, उनका लोगों पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ता है और ये उन्हें गंभीर नुकसान पहुँचाती हैं, लेकिन दूसरी नकारात्मक भावनाएँ भी हैं, जो इसी तरह लोगों पर असर डालकर नुकसान पहुँचाती हैं। नफरत, गुस्सा, हीनभावना और अवसाद की नकारात्मक भावनाओं के अलावा, जिनके बारे में हम बात कर चुके हैं, संताप, व्याकुलता, और चिंता की नकारात्मक भावनाएँ भी होती हैं। ये भावनाएँ भी उसी तरह लोगों के अंतरतम में गहरे पैठी होती हैं, और लोगों के दैनिक जीवन, उनकी कथनी और करनी में साथ-साथ चलती हैं। बेशक जब लोगों के साथ कुछ होता है, तो वे उनके भीतर पैदा होने वाले विचार और मत भी प्रभावित करती हैं, और साथ ही उनके दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य भी। आज हम संताप, व्याकुलता, और चिंता की नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण कर उन्हें उजागर करेंगे, और इन्हें अपने भीतर ढूँढ़ने में लोगों की मदद करने की कोशिश करेंगे। जब लोग इन नकारात्मक भावनाओं को अपने भीतर ढूँढ़ लेंगे, तो उनका अंतिम लक्ष्य होगा इन नकारात्मक भावनाओं को अच्छी तरह जानना, उनकी सफाई करना, उनके प्रभाव में और न जीना, इन नकारात्मक भावनाओं को अपना आधार और बुनियाद बनाकर और नहीं जीना और आचरण नहीं करना। आओ पहले “संताप, व्याकुलता और चिंता” शब्दों पर गौर करें। क्या ये भावनाओं को व्यक्त करने के तरीके नहीं हैं? (जरूर हैं।) इस विषय पर संगति करने से पहले आओ पहले इस बारे में विचार करें, ताकि तुम जान सको कि “संताप, व्याकुलता और चिंता” की सबसे आधारभूत संकल्पना क्या है। चाहे तुम इन शब्दों का शाब्दिक अर्थ समझो या शाब्दिक अर्थ से परे उनकी गहरी समझ हासिल करो, तुम्हें तब इन नकारात्मक भावनाओं का आधारभूत ज्ञान हो जाएगा। अव्वल तो मुझे यह बताओ कि अतीत में तुम लोग किस वजह से चिंता करते थे, या किन चीजों को लेकर तुम हमेशा संताप, व्याकुलता और चिंता महसूस करते हो। वे ऐसी हो सकती हैं, जैसे तुम किसी बड़ी चट्टान के नीचे पिस रहे हो, या कोई साया हमेशा तुम्हारा पीछा कर रहा है, तुम्हें बाँध रहा है। (हे परमेश्वर, मैं कुछ बोलूँगा। जब मुझे अपने कर्तव्य के कोई नतीजे नहीं मिलते, तो यह भावना बहुत हावी होती है और मुझे फिक्र हो जाती है कि क्या मुझे उजागर कर हटा दिया जाएगा, क्या मेरा भविष्य अच्छा होगा, मेरी मंजिल अच्छी होगी। जब मुझे अपने कर्तव्य में नतीजे मिलते हैं, तो ऐसा महसूस नहीं होता, लेकिन जब कभी मुझे कुछ समय तक इसमें नतीजे नहीं मिलते, तब इस प्रकार की नकारात्मक भावना अत्यंत स्पष्ट हो जाती है।) क्या यह संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं है? (जरूर है।) सही है। इस किस्म की नकारात्मक भावना लोगों के अंतरतम में हरदम छुपी रहती है, निरंतर उनके विचारों को प्रभावित करती है। हालाँकि कुछ बुरा न होने पर लोगों को इस किस्म की नकारात्मक भावना का भान नहीं होता, यह एक गंध की तरह, या एक किस्म की गैस की तरह होती है, या उससे भी बढ़कर बिजली की तरंग जैसी होती है। तुम इसे देख नहीं सकते, और जब तुम इससे अनजान होते हो, तो तुम इसे महसूस भी नहीं कर सकते। हालाँकि तुम अपने अंतरतम में हमेशा इसकी मौजूदगी को महसूस कर सकते हो, तथाकथित छठी इंद्रिय की तरह, और तुम्हें हमेशा अवचेतन में ऐसी सोच और भावना के मौजूद होने का एहसास हो सकता है। सही समय, सही जगह और सही संदर्भ में, इस किस्म की नकारात्मक भावना थोड़ा-थोड़ा करके सिर उठाएगी, थोड़ा-थोड़ा करके उभरेगी। क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल।) तो कौन-सी दूसरी चीजें हैं जिनसे तुम लोग संतप्त, व्याकुल और चिंतित हो जाते हो? जिन चीजों का अभी जिक्र हुआ क्या उनके सिवाय और कुछ नहीं है? अगर ऐसा है तो तुम लोग काफी खुशी से जी रहे होते, किसी भी चीज को लेकर बिना चिंता, बिना किसी व्याकुलता, बिना संतप्त हुए—फिर तुम सचमुच एक स्वतंत्र व्यक्ति होते। क्या ऐसा ही है? (नहीं।) तो फिर मुझे बताओ, तुम लोगों के दिलों में क्या है? (जब मैं अपने कर्तव्य को अच्छी तरह नहीं निभा पाता, तो मुझे हमेशा चिंता होती है कि कहीं अपनी शोहरत और हैसियत न खो दूँ, भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे, मेरे अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे। साथ ही, भाई-बहनों के साथ अपना कर्तव्य निभाते समय जब मैं अपना भ्रष्ट स्वभाव दिखाता रहता हूँ, तो मुझे हमेशा फिक्र होती है कि परमेश्वर में इतने लंबे समय तक विश्वास रखने के बावजूद मैं बिल्कुल नहीं बदला, और ऐसा ही चलता रहा तो शायद किसी दिन मुझे हटा दिया जाएगा। मेरे मन में ये आशंकाएँ रहती हैं।) इन आशंकाओं के होने पर क्या तुम्हारे मन में संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाएँ पैदा होती हैं? (जरूर होती हैं।) तो तुममें से ज्यादातर लोग इसलिए व्याकुल और चिंतित हो, क्योंकि तुम अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा रहे हो, ठीक कहा? (मैं ज्यादातर अपने भविष्य और अपने भाग्य को लेकर चिंतित हूँ।) अपने भविष्य और भाग्य को लेकर चिंता करना प्रमुख है। जब लोग परमेश्वर द्वारा आयोजित माहौल और उसकी संप्रभुता को स्पष्ट रूप से देख, समझ और स्वीकार कर उसके आगे समर्पण नहीं कर पाते, और जब लोग अपने दैनिक जीवन में तरह-तरह की मुश्किलों का सामना करते हैं, या जब ये मुश्किलें सामान्य लोगों के बरदाश्त के बाहर हो जाती हैं, तो अवचेतन रूप में उन्हें हर तरह की चिंता और व्याकुलता होती है, और यहाँ तक कि संताप भी हो जाता है। वे नहीं जानते कि कल या परसों कैसा होगा, या कुछ साल बाद चीजें कैसी होंगी, या उनका भविष्य कैसा होगा, और इसलिए वे हर चीज के बारे में संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। ऐसा कौन-सा संदर्भ होता है जिसमें लोग हर चीज को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित होते हैं? होता यह है कि वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं रखते—यानी वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास कर उसे समझ नहीं पाते। अपनी आँखों से देखने पर भी वे उसे नहीं समझ सकते, या उस पर यकीन नहीं कर सकते। वे नहीं मानते कि उनके भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता है, वे नहीं मानते कि उनके जीवन परमेश्वर के हाथों में हैं, और इसलिए उनके दिलों में परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति अविश्वास पैदा हो जाता है, और फिर दोषारोपण होता है, और वे समर्पण नहीं कर पाते। दोष मढ़ने और समर्पित न हो पाने के अलावा वे अपने भाग्य का मालिक बनना चाहते हैं, और अपनी ही पहल पर कार्य करना चाहते हैं। जब वे अपनी पहल पर कार्य शुरू कर देते हैं तो फिर असली स्थिति क्या होती है? बस वे अपनी काबिलियत और योग्यता पर भरोसा कर जीने लगते हैं, लेकिन ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो वे हासिल नहीं कर पाते, या वहाँ पहुँच नहीं पाते, या अपनी काबिलियत और योग्यताओं से पूरी नहीं कर पाते। मिसाल के तौर पर : भविष्य में उनका क्या होगा, क्या वे कॉलेज में दाखिल हो सकेंगे, कॉलेज पूरा करने पर क्या उन्हें अच्छी नौकरी मिल सकेगी, और नौकरी मिल जाने पर उनके लिए क्या सब-कुछ अच्छा होगा; अगर वे तरक्की पाना चाहें, अमीर होना चाहें, तो क्या वे कुछ ही वर्षों में अपने आदर्श और आकांक्षाएँ हासिल कर पाएँगे; और जब वे एक जीवनसाथी ढूँढ़ना चाहें, शादी कर घर-परिवार बसाना चाहें, तो उनके लिए कैसा जीवनसाथी ठीक रहेगा? मनुष्य के लिए ऐसी चीजें अज्ञात होती हैं। ऐसी अज्ञात चीजों के साथ लोग खोया हुआ महसूस करते हैं। जब लोग खोया हुआ महसूस करते हैं, तो वे संतप्त, व्याकुल और चिंतित हो जाते हैं—भविष्य की हर चीज को लेकर वे संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि सामान्य मानवता के दायरे में लोग ये सभी चीजें बरदाश्त नहीं कर सकते। कोई नहीं जानता कि कुछ वर्षों में वे कैसे रहेंगे, भविष्य में उनकी नौकरी, शादी या बच्चे कैसे होंगे—लोग ये चीजें जानते ही नहीं। ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें सामान्य मानवता की क्षमता के दायरे में पहले से जाना नहीं जा सकता, और इसीलिए इनको लेकर लोग हमेशा संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। किसी व्यक्ति का मन चाहे जितना सरल हो, जब तक उसमें सोचने की ताकत है, वयस्क होने पर एक-एक कर के ये नकारात्मक भावनाएँ उसके अंतरतम में सिर उठाएँगी। संताप, व्याकुलता और चिंता लोगों के मन में क्यों पैदा होती हैं? इसलिए कि लोग हमेशा अपनी योग्यता के दायरे के बाहर की चीजों को लेकर खीझते और परेशान होते रहते हैं; वे हमेशा अपनी योग्यता से बाहर की चीजों को जानना, समझना और हासिल कर लेना चाहते हैं, यहाँ तक कि सामान्य मानवता की योग्यताओं के दायरे से परे की चीजों को नियंत्रित करना चाहते हैं। वे इन सब पर नियंत्रण करना चाहते हैं, और यही नहीं—वे इन चीजों के विकास की विधियों और परिणामों को भी अपनी ही इच्छा के अनुसार आगे बढ़ाना और पूरा करना चाहते हैं। इसलिए ऐसी विवेकहीन सोच के हावी हो जाने से लोग संताप, व्याकुलता और चिंता महसूस करते हैं, और इन भावनाओं के नतीजे हर व्यक्ति के लिए अलग होते हैं। लोग चाहे जिन चीजों को लेकर तीव्र रूप से संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हों, और इस तरह ऐसी नकारात्मक भावनाएँ तैयार कर लेते हों, उन्हें इन चीजों को गंभीरता से लेना चाहिए और इन्हें दूर करने के लिए सत्य को खोजना चाहिए।
हम संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं पर मुख्य रूप से दो पहलुओं की दृष्टि से संगति करेंगे : पहला, वे क्या हैं यह देखने के लिए लोगों की मुश्किलों का विश्लेषण करना होगा, और वहाँ से यह देखना होगा कि संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं के पैदा होने के सटीक कारण कौन-से हैं, और वे ठीक कैसे पैदा होती हैं; दूसरा होगा परमेश्वर के कार्य के प्रति लोगों के विभिन्न रवैयों के संबंध में संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण करना। क्या तुम समझे? (हाँ।) कितने पहलू हैं? (दो।) हमें संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं के पैदा होने के कारणों का विश्लेषण करना है, पहले लोगों की मुश्किलों से और दूसरे परमेश्वर के कार्य के प्रति लोगों के रवैये से। मेरे लिए इसे दोहराओ। (हमें संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं के पैदा होने के कारणों का विश्लेषण करना है, पहले लोगों की मुश्किलों से और दूसरे परमेश्वर के कार्य के प्रति लोगों के रवैये से।) लोगों को कई मुश्किलें हो सकती हैं, जो सारी-की-सारी उनके दैनिक जीवन में होती हैं, वे मुश्किलें जो सामान्य मानवता का जीवन जीने के दायरे में अक्सर आती हैं। और ये मुश्किलें किस तरह आती हैं? ये इसलिए आती हैं क्योंकि लोग हमेशा चादर से बाहर पैर फैलाने की कोशिश करते हैं, हमेशा अपने भाग्य को नियंत्रित करने, समय से पहले अपना भविष्य जानने की कोशिश करते हैं। अगर उनका भविष्य अच्छा नहीं दिखाई देता, तो कोई उपाय कर उसे सुधारने के लिए वे तुरंत किसी फेंग शुई विशेषज्ञ या भविष्यवक्ता की तलाश में लग जाते हैं। इसीलिए लोगों का अपने दैनिक जीवन में इतनी सारी मुश्किलों से सामना होता है, और इन्हीं मुश्किलों के कारण लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। ये मुश्किलें क्या हैं? आओ पहले गौर करें कि लोग किसे अपनी सबसे बड़ी मुश्किल मानते हैं—वह क्या है? वह है उनकी भविष्य की संभावना, यानी इस जीवनकाल में किसी व्यक्ति का भविष्य कैसा होगा, भविष्य में वे अमीर होंगे या साधारण, क्या वे सबसे अलग दिख पाएँगे, बड़ी सफलता हासिल कर पाएँगे, और दुनिया में और लोगों के बीच समृद्ध हो सकेंगे। खास तौर पर परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग शायद यह न जानें कि दूसरों का भविष्य में क्या होगा, लेकिन वे अपने भविष्य की हमेशा चिंता करते हैं और सोचते हैं, “क्या परमेश्वर में आस्था का अर्थ बस इतना ही है? क्या मुझे भविष्य में कभी भीड़ से अलग दिखने का मौका मिल पाएगा? क्या मैं परमेश्वर के घर में कोई अहम भूमिका निभा पाऊँगा? क्या मैं टीम अगुआ या कोई प्रभारी बन पाऊँगा? क्या मैं अगुआ बन पाऊँगा? मेरा क्या होने वाला है? अगर मैं परमेश्वर के घर में इसी तरह अपना कर्तव्य निभाता रहा, तो अंत में मेरा क्या होगा? क्या मैं उद्धार प्राप्त कर पाऊँगा? क्या मेरे लिए भविष्य की कोई संभावना है? क्या मुझे अभी भी संसार में अपना काम करते रहना चाहिए? क्या मुझे उस व्यावसायिक कौशल की पढ़ाई जारी रखनी चाहिए जो मैं पहले सीख रहा था, या इसे आगे की शिक्षा में ले जाना चाहिए? अगर मैं परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य पूरे समय निभाता रह सकता हूँ, तो जीवन की बुनियादी जरूरतों को लेकर मुझे कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, लेकिन अगर मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभाता, और मेरा तबादला कर किसी और काम में लगा दिया जाता है, तो फिर मैं कैसे जी पाऊँगा? क्या बदले जाने या हटा दिए जाने से पहले ही मुझे इस मौके को उस संभावना की तैयारी में नहीं लगाना चाहिए?” वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं और देखते हैं कि उन्होंने थोड़ी-बहुत बचत कर रखी है और वे सोचते हैं, “मैंने जो कुछ बचाया है उससे कितने साल गुजारा कर पाऊँगा? मैं अभी तीस की दहाई में हूँ, दस साल में मैं चालीस पार कर लूँगा। अगर मुझे कलीसिया से बाहर निकाल दिया गया, तो संसार में लौटने पर क्या मैं उस स्थिति के साथ चल पाऊँगा? क्या काम करते रहने के लिए मेरी सेहत ठीक रहेगी? क्या इतना कमा पाऊँगा कि गुजारा कर सकूँ? क्या मेरे लिए जीना मुश्किल होगा? मैं परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाता हूँ, मगर क्या परमेश्वर मुझे अंत तक वहाँ रखेगा?” हालाँकि वे हर पल इन चीजों के बारे में सोचते हैं, मगर उन्हें कभी जवाब नहीं मिलते। हालाँकि कभी कोई निष्कर्ष नहीं निकलता, मगर वे इन चीजों के बारे में सोचे बिना नहीं रह पाते—यह उनके नियंत्रण के बाहर होता है। जब किसी मुश्किल या रुकावट से उनका सामना होता है, या कोई चीज उनके मन मुताबिक नहीं होती, तो वे किसी को बताए बिना इन चीजों के बारे में अपने अंतरतम में विचार करते रहते हैं। जब कुछ लोगों की काट-छाँट होती है, जब उनके कर्तव्य बदल दिए जाते हैं, जब उन्हें दूसरे कर्तव्यों में लगा दिया जाता है, या जब वे किसी-न-किसी संकट में फँस जाते हैं, तो वे अनजाने ही पीछे हटने का रास्ता ढूँढ़ते हैं, और अपने अगले कदम के लिए योजनाएँ और उपाय तैयार किए बिना नहीं रह पाते। अंत में चाहे जो भी हो, लोग फिर भी अक्सर उन चीजों के बारे में योजनाएँ और उपाय बनाते हैं जिनको लेकर वे चिंतित, व्याकुल और संतप्त होते हैं। क्या ये चीजें वो नहीं हैं जिनके बारे में लोग अपनी भविष्य की संभावनाओं के लिए सोचते हैं? क्या ये नकारात्मक भावनाएँ इसलिए पैदा नहीं होतीं क्योंकि लोग अपनी भविष्य की संभावनाओं को जाने देने में असमर्थ होते हैं? (हाँ, इसीलिए होती हैं।) जब लोग खास तौर पर जोशीला महसूस कर रहे हों, जब उनके कर्तव्य निर्वहन में सब कुछ आसानी से हो रहा हो, और खास तौर पर जब उन्हें तरक्की मिले, उन्हें किसी अहम काम में लगाया जाए, जब उन्हें ज्यादातर भाई-बहनों का साथ मिले, और जब उनका अपना मूल्य परिलक्षित हो, तो वे इन नकारात्मक भावनाओं के बारे में नहीं सोचते। जैसे ही उनकी शोहरत, हैसियत और हितों को खतरा पैदा होता है, वैसे ही वे संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में लौटे बिना नहीं रह पाते। इन नकारात्मक भावनाओं में वापस लौटने पर वे इन नकारात्मक भावनाओं को जिस नजरिए से देखते हैं, वह उनसे दूर भागने या उन्हें ठुकराने का नहीं होता, बल्कि उनका पोषण कर संताप, व्याकुलता और चिंता की इन भावनाओं में डूब जाने, और उनमें गहराई तक जाने के लिए कड़ी मेहनत करने का प्रयास करना होता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? जब लोग इन नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं, तो उनके पास ज्यादा वजहें, या कहें कि बहाने होते हैं और वे बिना रोक-टोक ज्यादा आसानी से अपने भविष्य और अगले कदमों के लिए योजनाएँ बना सकते हैं। ये योजनाएँ बनाते समय वे सोचते हैं कि ऐसा ही होना चाहिए, उन्हें यही करना चाहिए, और वे इस कहावत का प्रयोग करते हैं, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” और एक दूसरी कहावत, “जो भविष्य की योजना नहीं बनाता, मुसीबतें उसके सामने ही खड़ी होंगी,” यानी अगर तुम पहले ही अपने भविष्य और अपने भाग्य का विचार कर योजनाएँ नहीं बनाते, तो किसी और को इस बारे में तुम्हारे लिए चिंता नहीं होगी, और तुम्हारे लिए कोई भी इनकी परवाह नहीं करेगा। जब तुम्हें जरा भी अंदाजा न हो कि अगला कदम कैसे उठाएँ, तो तुम अटपटापन, पीड़ा और शर्मिंदगी का सामना करोगे, और कष्ट और मुश्किलें सहने वाले तुम अकेले होगे। तो लोगों को लगता है कि वे बहुत चतुर हैं, और अपने हर कदम पर उनकी नजर आगे के दस कदमों पर होगी। किसी मुश्किल या निराशा का सामना होते ही वे तुरंत संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में लौट जाते हैं, ताकि खुद की रक्षा कर सकें, अपने भविष्य और जीवन के अगले कदम को पक्का और आसान बना सकें, खाने के लिए रोटी और पहनने के लिए कपड़े संजो सकें, सड़कों-गलियों में भटकते न रहें, और उन्हें कभी भी रोटी-कपड़े की कमी महसूस न हो। इसलिए इन नकारात्मक भावनाओं के प्रभाव में वे यह सोचकर अक्सर खुद को चेतावनी देते हैं, “मुझे पहले ही योजनाएँ बना लेनी चाहिए, कुछ चीजें थाम लेनी चाहिए, और अपने लिए पीछे हटने को पर्याप्त राह बना कर रखनी चाहिए। मुझे बेवकूफ नहीं होना चाहिए—मेरा भाग्य मेरे अपने हाथों में है। लोग अक्सर कहते हैं, ‘हमारा भाग्य परमेश्वर के हाथों में है, और मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता है,’ लेकिन ये बस खोखली मीठी बातें हैं। इसे वास्तव में किसने देखा है? परमेश्वर हमारे भाग्य पर संप्रभुता कैसे रखता है? किसी ने परमेश्वर को किसी के लिए भी वास्तव में दिन में तीन बार भोजन की व्यवस्था करते, या जीवन में उनकी जरूरत की तमाम चीजों की व्यवस्था करते देखा है? किसी ने नहीं।” लोग मानते हैं कि जब वे परमेश्वर की संप्रभुता नहीं देख पाते, और अगर वे अपने भविष्य की संभावनाओं को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित होते हैं, तो ये नकारात्मक भावनाएँ उनके लिए रक्षा की तरह हैं, एक रक्षा कवच, एक सुरक्षित शरण-स्थल की तरह हैं। वे भविष्य की योजनाएँ बनाने के लिए खुद को निरंतर चेताते और याद दिलाते रहते हैं कि उन्हें कल की चिंता करनी चाहिए, उन्हें सारा दिन भरपेट खाकर निठल्ले नहीं पड़े रहना चाहिए; अपने लिए योजनाएँ बनाना, अपने लिए बाहर निकलने का रास्ता खोजना और अपने भविष्य के लिए दिन-रात एक करना गलत नहीं है। वे खुद से कहते हैं कि यह सहज और पूरी तरह न्यायसंगत है, और इसको लेकर शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है। तो भले ही लोग मानते हों कि संताप, व्याकुलता और चिंता, नकारात्मक भावनाएँ हैं, फिर भी वे कभी नहीं सोचते कि उनका अनुभव करना बुरी बात है, वे कभी नहीं सोचते कि ये नकारात्मक भावनाएँ उन्हें किसी भी तरह से नुकसान पहुँचा सकती हैं, या ये सत्य के अनुसरण और सत्य वास्तविकता में प्रवेश की राह का रोड़ा बन सकती हैं। इसके बजाय वे बिना थके इनके मजे लेते हैं, और स्वेच्छा से बिना थके इन नकारात्मक भावनाओं में जीते हैं। ऐसा इसलिए कि वे मानते हैं कि केवल इन नकारात्मक भावनाओं में जीकर और भविष्य की संभावनाओं को लेकर निरंतर संताप, व्याकुलता और चिंता का अनुभव करते हुए ही वे सुरक्षित रह सकते हैं। वरना उनके भविष्य को लेकर और कौन संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करेगा? कोई भी नहीं। कोई भी उनसे इतना प्रेम नहीं करता, जितना वे स्वयं से करते हैं, उन्हें स्वयँ जितना और कोई नहीं समझता, और स्वयँ जितना कोई और नहीं जानता। इसलिए भले ही लोग कुछ हद तक और शाब्दिक, सैद्धांतिक स्तर पर यह पहचान सकें कि ऐसी नकारात्मक भावनाओं का होना उनके लिए हानिकारक है, फिर भी वे ऐसी नकारात्मक भावनाओं को छोड़ने की इच्छा नहीं रखते, क्योंकि ये नकारात्मक भावनाएँ उन्हें अपने भविष्य को समझकर उसे नियंत्रित करने की पहल पर दृढ़ता से पकड़ बनाए रखने देती हैं। क्या ऐसा कहना सही है? (हाँ।) इसलिए लोगों के लिए अपने भविष्य को लेकर चिंता करना, व्याकुल रहना और संताप महसूस करना एक जबरदस्त जिम्मेदारी का मामला है। यह शर्मनाक, दयनीय या घिनौना नहीं है, बल्कि उनके लिए यह बस वैसा ही है जैसे होना चाहिए। इसीलिए लोगों के लिए इन नकारात्मक भावनाओं को जाने देना बहुत मुश्किल है, मानो ये जन्म से उनके साथ रही हों। जन्म के बाद से लोग जो कुछ भी सोचते हैं, वह अपने ही लिए होता है, और उनके लिए सबसे अहम बात उनके अपने भविष्य की संभावनाएँ हैं। वे सोचते हैं कि अगर अपने भविष्य पर उनकी पकड़ अच्छी हो और वे उस पर नजर रखें, तो फिर वे चिंताहीन जीवन जी सकेंगे। वे सोचते हैं कि भविष्य की अच्छी संभावनाओं के साथ उनकी चाही हर चीज उनके पास होगी और सब-कुछ बहुत आसान होगा। इसलिए अपने भविष्य को लेकर बार-बार संतप्त, व्याकुल और चिंतित होने से लोग कभी नहीं उकताते। भले ही परमेश्वर ने वचन दिया हो, भले ही लोगों ने परमेश्वर का अत्यधिक अनुग्रह पाकर आनंद उठाया हो, भले ही उन्होंने परमेश्वर को मानव जाति को हर प्रकार के आशीष देते देखा हो और ऐसे ही दूसरे तथ्य देखे हों, फिर भी लोग संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में जीना चाहते हैं, और अपने भविष्य की योजनाएँ और खाके तैयार करना चाहते हैं।
भविष्य की संभावनाओं के अलावा कुछ और भी बात महत्वपूर्ण है जिसको लेकर लोग अक्सर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं, और वह है शादी। कुछ लोग इस बारे में चिंता नहीं करते और तीस की दहाई वाली उम्र में भी शादी न होने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि आजकल ऐसे बहुत-से लोग हैं जिन्होंने तीस की दहाई में भी शादी नहीं की है। समाज में अक्सर ऐसा देखने में आता है, और इसको लेकर कोई किसी की हँसी नहीं उड़ाता, कोई नहीं कहता कि उनमें कुछ खोट है। हालाँकि अगर कोई व्यक्ति चालीस में पहुँचने पर भी शादी नहीं करता, तो उसके भीतर हल्का-सा डर पैदा होने लगता है, और वे सोचते हैं, “मुझे जीवन साथी तलाशना चाहिए या नहीं? मुझे शादी करनी चाहिए या नहीं? अगर मैंने शादी नहीं की, अपना घर नहीं बसाया, मेरे बाल-बच्चे न हुए, तो बूढ़ा होने पर मेरी देखभाल कौन करेगा? बीमार होने पर मेरी देखभाल कौन करेगा? मेरे मरने पर मेरा अंतिम संस्कार कौन करेगा?” लोग इन चीजों की चिंता करते हैं। जो लोग शादी करने की योजना ही नहीं बनाते, वे उतने संतप्त, व्याकुल और चिंतित नहीं होते। मिसाल के तौर पर, कुछ लोग कहते हैं, “अब मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, और मैं खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहता हूँ। मैं कोई जीवनसाथी नहीं ढूँढ़ूँगा, शादी नहीं करूँगा। मैं चाहे जितना बूढ़ा हो जाऊँ, इन चीजों को लेकर संतप्त नहीं रहूँगा।” अविवाहित लोग, जो लोग दस-बीस साल से अविवाहित हैं, जो बीस की उम्र से लेकर चालीस तक अविवाहित हैं, उन्हें कोई बड़ी चिंता नहीं होनी चाहिए। हालाँकि कभी-कभार परिवेश या वस्तुपरक कारणों से उन्हें थोड़ी चिंता और संताप महसूस हो सकता है, मगर परमेश्वर में आस्था और अपने कर्तव्य-निर्वहन में व्यस्त रहने और उनके मौजूदा संकल्प के न बदलने की वजह से उनको होने वाली चिंता अस्पष्ट-सी होती है, और यदा-कदा ही आती है और यह कोई बड़ी बात नहीं है। इस प्रकार की भावना जो सामान्य कर्तव्य-निर्वहन को प्रभावित नहीं करती लोगों के लिए हानिकारक नहीं है, न ही इसे नकारात्मक भावना कहा जा सकता है, यानी तुम्हारे लिए यह नकारात्मक भावना में तब्दील नहीं हुई है। जो लोग पहले ही शादीशुदा हैं, वे किस तरह की चीजों की चिंता करते हैं? अगर पति-पत्नी दोनों परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो फिर क्या यह शादी कायम रहेगी? क्या परिवार का अस्तित्व होता है? बाल-बच्चों का क्या? इसके अलावा दोनों में से एक सत्य का अनुसरण करे और दूसरा न करे, और अगर सत्य का अनुसरण न करने वाला हमेशा सांसारिक चीजों और आलीशान जीवन के पीछे भागे, और सत्य का अनुसरण करने वाला हमेशा अपना कर्तव्य निभाना चाहे, अगर सत्य का अनुसरण न करने वाला हमेशा अपने साथी को रोकने की कोशिश करे, मगर ऐसा करते हुए शर्मिंदा महसूस करे, कभी-कभार थोड़ी शिकायत करे या अपने साथी को हतोत्साहित करने के लिए नकारात्मक बातें करे, तो फिर सत्य का अनुसरण करने वाला सोचेगा, “अरे, मेरे पति सच में परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो हम लोगों का भविष्य में कैसे चलेगा? अगर हमारा तलाक हो गया, तो मैं अकेली हो जाऊँगी और गुजारा नहीं कर पाऊँगी। अगर मैं उनके साथ रही, तो हम दोनों एक मार्ग पर नहीं चलेंगे, हम दोनों के सपने अलग होंगे, तब मैं क्या करूँगी?” वे इन चीजों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित हो जाते हैं। एक बार परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद कुछ बहनें सोचती हैं कि हालाँकि उनके पति परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, वे परमेश्वर में उनकी आस्था की राह में रोड़ा बनने की ज्यादा कोशिश नहीं करते, और उन्हें सताया नहीं जा रहा है, तो तलाक लेने की कोई वजह नहीं है। हालाँकि अगर वे साथ रहते हैं, तो हमेशा प्रतिबंधित और प्रभावित महसूस करती हैं। वे किस चीज से प्रभावित होती हैं? उनका अपना स्नेह उन्हें प्रतिबंधित और प्रभावित करता है, और पारिवारिक जीवन और शादी की विभिन्न मुश्किलें, उनके दिलों की गहराई में हलचल पैदा करती हैं, जिससे वे कुछ ऐसे संताप, व्याकुलता और चिंता का अनुभव करती हैं जो न बड़ी होती है न छोटी। ऐसे हालात में शादी एक औपचारिकता होती है जो सामान्य पारिवारिक जीवन बनाए रखती है, और कुछ ऐसी होती है जिससे पत्नियों की सामान्य सोच, उनका सामान्य जीवन, और यहाँ तक कि उनका सामान्य कर्तव्य-निर्वहन भी बंध जाता है—शादी कायम रखना मुश्किल हो जाता है, मगर वे खुद को उससे बाहर नहीं निकाल पातीं। ऐसी शादी को कायम रखने की कोई खास वजह नहीं होती, न ही तलाक लेने की कोई खास वजह होती है; इनमें से कुछ भी करने का कोई पर्याप्त कारण नहीं होता। वे नहीं जानतीं कि कौन-सा विकल्प चुनना सही है, और वे नहीं जानतीं कि क्या करना गलत है। इसलिए उनमें संताप, व्याकुलता और चिंता पैदा हो जाती है। संताप, व्याकुलता और चिंता की ये भावनाएँ उनके मन में निरंतर तैरती-उतराती हैं, उनके दैनिक जीवन में उन्हें बांधे रखती हैं, और उनके सामान्य जीवन को भी प्रभावित करती हैं। अपने कर्तव्य-निर्वहन के दौरान ये चीजें उनके मन में हमेशा उभरती रहती हैं, और उनके अंतरतम में उठती रहती हैं, जिससे उनका सामान्य कर्तव्य-निर्वहन प्रभावित होता है। हालाँकि उन पत्नियों को क्या करना चाहिए या उन्हें कौन-सा विकल्प चुनना चाहिए, इस बारे में ये कोई स्पष्ट वचन नहीं लगते, मगर इन बातों से वे संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में गहराई तक डूब जाती हैं, जिससे वे दबी हुई और फँसी हुई महसूस करती हैं। क्या यह एक अलग किस्म की मुश्किल नहीं है? (जरूर है।) यह एक अलग किस्म की मुश्किल है, ऐसी मुश्किल जो शादी के कारण होती है।
ऐसे भी लोग हैं जो चूँकि परमेश्वर में आस्था रखते हैं, कलीसिया का जीवन जीते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हैं, उनके पास अपने गैर-विश्वासी बच्चों, अपनी पत्नियों (या पतियों), अपने माता-पिता या दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ सामान्य रूप से जुड़ने का समय ही नहीं होगा। खास तौर से वे अपने गैर-विश्वासी बच्चों की ठीक से देखभाल करने या अपने बच्चों की अपेक्षा का कोई भी काम करने में असमर्थ होंगे, और इसलिए वे अपने बच्चों के भविष्य और संभावनाओं को लेकर चिंता करते हैं। खास तौर से बच्चों के बड़े हो जाने के बाद कुछ लोग खीझना शुरू कर देंगे : मेरा बच्चा कॉलेज जाएगा या नहीं? कॉलेज गया तो कौन-सा मुख्य विषय लेगा? मेरा बच्चा परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता और कॉलेज जाना चाहता है, तो मुझ जैसे परमेश्वर में विश्वास रखने वाले व्यक्ति को क्या उसकी पढ़ाई का खर्च उठाना चाहिए? क्या मुझे उसकी दैनिक जरूरतों का ख्याल रखना चाहिए, और पढ़ाई-लिखाई में उसका साथ देना चाहिए? और फिर उसकी शादी, नौकरी, परिवार और उसके अपने बच्चों की बात आने पर, मुझे कैसी भूमिका निभानी चाहिए? मुझे कौन-सी चीजें करनी चाहिए और कौन-सी नहीं? उन्हें इन चीजों का कोई अंदाजा नहीं होता। जैसे ही ऐसी कोई चीज सामने आती है, जैसे ही वे खुद को ऐसी स्थिति में पाते हैं, वे समझ नहीं पाते कि क्या करना है, न ही वे जान पाते हैं कि ऐसी चीजों को कैसे सँभालें। समय गुजरने के साथ इन चीजों को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता पैदा हो जाती है : अगर वे अपने बच्चे के लिए ये काम करते हैं, तो वे डरते हैं कि कहीं यह परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध न हो, परमेश्वर को नाखुश न कर दे, और अगर वे ये काम नहीं करते, तो डरते हैं कि वे माता-पिता वाली जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं, जिसके लिए उनका बच्चा और दूसरे पारिवारिक सदस्य उन्हें दोष देंगे; अगर वे ये चीजें करते हैं, तो डरते हैं कि गवाही खो देंगे, और अगर नहीं करते, तो डरते हैं कि कहीं सांसारिक लोग उनका मजाक न उड़ाएँ, उनके पड़ोसी उन पर न हँसें, ताने न कसें, और उनकी आलोचना न करें; वे डरते हैं कि कहीं वे परमेश्वर का अपमान न कर दें, मगर वे अपनी बदनामी और शर्मिंदा होने से इतना डरते हैं कि वे मुँह नहीं दिखा पाते। इन चीजों के बीच ढुलमुल होने से उनके दिलों में संताप, व्याकुलता और चिंता पैदा हो जाती है; यह पता न होने पर कि क्या करना चाहिए, वे संतप्त हो जाते हैं, वे चाहे कुछ भी चुनें, गलत काम करने को लेकर वे व्याकुल हो जाते हैं, और यह न जानकर कि वे जो कुछ करते हैं वह उपयुक्त है या नहीं, और वे चिंता करते हैं कि अगर ये चीजें बार-बार होती रहीं, तो फिर एक दिन वे उसे सह नहीं सकेंगे, और अगर वे टूट गए तो उनके लिए चीजें और ज्यादा मुश्किल हो जाएँगी। ऐसी स्थिति में लोग जीवन में पैदा होने वाली इन सब छोटी-बड़ी चीजों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। उनके भीतर एक बार जब ये नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाएँ तो वे संताप, व्याकुलता और चिंता में घिर जाते हैं, और खुद को मुक्त नहीं कर पाते : अगर वे ऐसा करें तो गलत, वैसा करें तो गलत, और वे नहीं जानते कि क्या करना सही है; वे दूसरे लोगों को खुश करना चाहते हैं, मगर परमेश्वर को नाखुश करने से डरते हैं; वे दूसरों के लिए कुछ करना चाहते हैं ताकि लोग उनकी प्रशंसा करें, लेकिन वे परमेश्वर का निरादर नहीं करना चाहते या नहीं चाहते कि परमेश्वर उनसे घृणा करे। इसीलिए वे हमेशा संताप, व्याकुलता और चिंता की इन भावनाओं में घिर जाते हैं। वे दूसरों और स्वयं अपने लिए संतप्त हो जाते हैं; वे दूसरों और स्वयं अपने लिए व्याकुल हो जाते हैं; और वे दूसरों और स्वयं अपने लिए चीजों को लेकर चिंता करते हैं, और इसलिए वे दोहरी मुश्किल में घिर जाते हैं, जिससे वे बच कर नहीं निकल पाते। ऐसी नकारात्मक भावनाएँ न सिर्फ उनके दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं, बल्कि उनके कर्तव्य-निर्वहन पर भी असर डालती हैं, और बेशक साथ ही कुछ हद तक सत्य के उनके अनुसरण को भी प्रभावित करती हैं। यह एक किस्म की मुश्किल है, यानी ये मुश्किलें शादी, पारिवारिक जीवन, निजी जीवन से जुड़ी मुश्किलें हैं और इन्हीं मुश्किलों की वजह से लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता में फँस जाते हैं। जब लोग इस किस्म की नकारात्मक भावना में फँस जाते हैं तो क्या वे तरस खाने लायक नहीं हैं? (जरूर हैं।) क्या उन पर तरस खाना चाहिए? तुम लोग अभी भी कहते हो, “जरूर,” जो दर्शाता है कि तुम अब भी उनके प्रति सहानुभूति रखते हो। जब कोई व्यक्ति नकारात्मक भावना में घिर जाता है, तो उस नकारात्मक भावना के पैदा होने की पृष्ठभूमि चाहे जो हो, उसके पैदा होने का कारण क्या होता है? क्या यह माहौल के कारण है, या उस व्यक्ति के चारों ओर के लोगों, घटनाओं और चीजों के कारण है? या परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य से उनके विचलित होने के कारण है? क्या माहौल व्यक्ति को प्रभावित करता है या परमेश्वर के वचन उनके जीवन में बाधा डालते हैं? इसका सटीक कारण क्या है? क्या तुम लोग जानते हो? मुझे बताओ, यह लोगों के सामान्य जीवन में हो, या उनके कर्तव्य-निर्वहन में, क्या ये मुश्किलें तब मौजूद होती हैं जब वे सत्य का अनुसरण करते हैं, या सत्य को अभ्यास में लाना चाहते हैं? (नहीं।) ये मुश्किलें वस्तुपरक तथ्य के संदर्भ में मौजूद होती हैं। तुम लोग कहते हो कि ये मौजूद नहीं हैं, तो क्या ऐसा हो सकता है कि तुम लोगों ने ये मुश्किलें दूर कर ली हों? क्या तुम लोग ऐसा करने में सक्षम हो? ये मुश्किलें दूर नहीं की जा सकतीं, और ये वस्तुपरक तथ्य के संदर्भ में मौजूद हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों में इन मुश्किलों के परिणाम क्या होंगे? और इनके परिणाम उन लोगों में क्या होंगे जो सत्य का अनुसरण नहीं करते? उनके दो बिल्कुल अलग परिणाम होंगे। अगर लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, तो वे इन मुश्किलों में फँस कर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में नहीं डूबेंगे। इसके उलट अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो ये मुश्किलें उनमें पहले की ही तरह मौजूद होती हैं, और परिणाम क्या होगा? ये तुम्हें उलझा देंगी ताकि तुम बच कर निकल न सको, और अगर तुम इन्हें दूर न कर पाओ, तो आखिरकार ये नकारात्मक भावनाएँ बन जाएँगी जो तुम्हारे अंतरतम में गाँठ बन कर पैठ जाएँगी; ये तुम्हारे सामान्य जीवन और तुम्हारे सामान्य कर्तव्य-निर्वहन को प्रभावित करेंगी, और ये तुम्हें दबा हुआ और छुटकारा पाने में असमर्थ महसूस करवाएँगी—तुम पर इनका यह परिणाम होगा। ये दोनों परिणाम भिन्न हैं, है न? (हाँ।) तो आओ मैंने अभी जो पूछा उस सवाल पर लौट चलें। मैंने क्या पूछा था? (लोगों में नकारात्मक भावनाएँ पैदा होने के पीछे माहौल के प्रभाव होते हैं या परमेश्वर के वचनों से लोगों को होने वाली बाधा?) तो कारण क्या है? जवाब क्या है? (ऐसा इसलिए होता है कि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते।) सही है, इनमें से कोई भी नहीं है, बल्कि यह इसलिए है कि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते। जब लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वे अक्सर अतिवादी विचारों और नकारात्मक भावनाओं में घिर जाते हैं और खुद को मुक्त नहीं कर पाते। अभी मैंने जो सवाल पूछा उसे दोहराओ। (लोगों में नकारात्मक भावनाओं के पैदा होने का कारण उनका माहौल, और उनके चारों ओर के लोग, घटनाएँ और चीजें हैं या यह इसलिए है कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य लोगों को विचलित करता है?) आसान शब्दों में कहें, तो क्या यह माहौल के प्रभाव के कारण है या इसलिए कि परमेश्वर के वचन लोगों को विचलित करते हैं? इनमें से कौन-सा कारण है? (कोई भी नहीं।) सही है, कोई भी नहीं। माहौल सभी को निष्पक्ष रूप से प्रभावित करते हैं; अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो किसी एक माहौल के कारण तुम नकारात्मक भावना में नहीं डूबोगे। हालाँकि अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो सहज रूप से बार-बार अपने माहौल से अभिभूत हो जाओगे, और संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में फँस कर रह जाओगे। इस नजरिए से गौर करें तो क्या सत्य का अनुसरण करना महत्वपूर्ण नहीं है? (जरूर है।) घटने वाली सभी चीजों में खोजने के लिए सत्य-सिद्धांत होते हैं। हालाँकि असलियत में चूँकि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, और सत्य-सिद्धांतों को नहीं खोजते, या फिर वे साफ तौर पर जानते हैं कि परमेश्वर की क्या अपेक्षा है, सत्य-सिद्धांत क्या हैं, उन्हें कौन से मार्ग पर अभ्यास करना चाहिए, और अभ्यास के मानदंड क्या हैं, लेकिन हमेशा अपने चुनाव कर योजनाएँ बनाते समय वे उन पर ध्यान नहीं देते या उनका अनुसरण नहीं करते, तो अंत में उनका क्या होगा? जब लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते, हमेशा किसी-न-किसी चीज के बारे में चिंता करते हैं, तो फिर सिर्फ एक ही परिणाम होता है, और वह यह है कि वे संताप, व्याकुलता और चिंता में घिर जाते हैं, और उसमें से फिर बाहर नहीं निकल पाते। क्या लोगों के लिए यह संभव है कि वे हमेशा अपनी कल्पनाओं पर भरोसा करें ताकि चीजें हमेशा उनकी इच्छा से हों, वे दूसरे लोगों को खुश रखें और साथ ही परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करें? यह असंभव है! वे हमेशा चीजों को इस तरह से सँभालना चाहते हैं ताकि उनके आसपास के सभी लोग खुश हों, संतुष्ट हों, और उनकी खूब प्रशंसा करें। वे एक अच्छा व्यक्ति कहलाना चाहते हैं, और परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते हैं, और अगर वे यह मानक प्राप्त नहीं कर पाते, तो संतप्त हो जाते हैं। और क्या वे संतप्त होने के पात्र नहीं हैं? (हाँ।) यही वह चीज है जो लोग अपने लिए चुनते हैं।
कुछ लोग जो विकृतियों की ओर प्रवृत्त होते हैं वे कहते हैं, “अगर परमेश्वर ने इतने सारे वचन नहीं बोले होते, तो मैं एक नेक इंसान होने के नैतिक मानकों के अनुसार काम करता। वह बहुत सरल होता, और इतने वक्तव्य नहीं दिए जाते। जैसे कि अनुग्रह के युग में लोग आज्ञाओं का पालन करते थे, सहन और बर्दाश्त करते थे, क्रूस को ढोते और कष्ट उठाते थे, और यह बड़ा सरल था। क्या बात यहाँ खत्म नहीं हो जाती थी? अब परमेश्वर द्वारा बोले गए अनेक सत्य और संगति में अभ्यास के इतने सिद्धांत दिए जाने के बाद, इतना लंबा वक्त गुजरने पर भी लोग उन्हें क्यों हासिल नहीं कर पाते? लोगों में काबिलियत की बड़ी कमी है, वे ये सब बातें नहीं समझ पाते, और ऐसे बहुत से सत्य हैं जो वे हासिल नहीं कर पाते; सत्य को अमल में लाने को लेकर भी लोगों की बहुत-सी मुश्किलें हैं, भले ही वे इसे समझ लें, फिर भी इसे हासिल करना उनके लिए कठिन होता है। तुम सत्य को समझ कर भी उसे अमल में नहीं लाते, तो तुम्हें बेचैनी होती है, लेकिन जब तुम इसे अमल में लाते हो, तो बहुत-सी व्यावहारिक मुश्किलें आती हैं।” लोग मानते हैं कि परमेश्वर के वचन उन्हें परेशान करते हैं, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? (नहीं।) इसे नासमझ और तर्कहीन होना कहा जाता है। वे सत्य से विमुख हैं, और सत्य का अनुसरण नहीं करते, न ही सत्य का अभ्यास करते हैं, लेकिन फिर भी वे आध्यात्मिक होने का, सत्य के अभ्यास का ढोंग करना चाहते हैं, और वे उद्धार पाना चाहते हैं। अंत में जब वे ये चीजें हासिल नहीं कर पाते, तो यह सोचकर अवसाद-ग्रस्त और संतप्त अनुभव करते हैं, “कौन इन सबमें संतुलन बना सकता है? बेहतर होता अगर परमेश्वर अपने मानकों का स्तर थोड़ा घटा देता, तब लोग ठीक रहते, परमेश्वर ठीक रहता, सब लोग ठीक रहते—वह जीवन कितना स्वर्गिक होता!” ऐसे लोग हमेशा सोचते हैं कि परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन मनुष्य के प्रति अविवेकी हैं। दरअसल, संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाएँ होने पर वे कई चीजों को लेकर परमेश्वर से असंतुष्ट होते हैं। खास तौर से, जब सत्य-सिद्धांतों के प्रति उनके दृष्टिकोण की बात आती है, तो वे उन्हें हासिल या प्राप्त नहीं कर पाते, उनके बारे में बिल्कुल बात नहीं कर पाते, और दूसरे लोगों की नजर में उनकी शोहरत और प्रतिष्ठा पर, आशीष पाने की उनकी आकांक्षा पर इसका गंभीर प्रभाव होता है, जिसके कारण वे संताप, व्याकुलता और चिंता में घिर जाते हैं, और इसीलिए वे मानते हैं कि परमेश्वर द्वारा की गई ऐसी बहुत-सी चीजें हैं, जिनको लेकर वे खुश नहीं हैं। ऐसे भी कुछ लोग हैं जो कहते हैं, “परमेश्वर धार्मिक है, मैं इसे नहीं नकारता; परमेश्वर पवित्र है और मैं यह भी नहीं नकारता। निश्चित रूप से परमेश्वर का कहा सब-कुछ सत्य है, बस यह शर्म की बात है कि अब परमेश्वर जो कहता है वे बड़ी ऊँची बातें हैं, लोगों से उसकी अपेक्षाएँ बहुत कठोर हैं, और लोगों के लिए ये सब पूरा करना आसान नहीं है!” उन्हें सत्य से कोई प्रेम नहीं है और वे सारी जिम्मेदारी परमेश्वर पर थोप देते हैं। वे इस आधार पर शुरू करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है, वह पवित्र है, और वे मानते हैं कि यह सब सच है। परमेश्वर धार्मिक है, वह पवित्र है—क्या तुम्हारे लिए परमेश्वर के सार को स्वीकारना जरूरी है? ये तथ्य हैं; वे सिर्फ इसलिए सच नहीं हैं क्योंकि तुम उन्हें स्वीकारते हो। परमेश्वर को दोष देने के कारण उनकी निंदा न हो, इसलिए वे जल्दी से कहते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है, परमेश्वर पवित्र है। लेकिन परमेश्वर के धार्मिक और पवित्र होने को लेकर वे चाहे जो कहें, संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाएँ अब भी उनमें मौजूद हैं, और न सिर्फ ये भावनाएँ मौजूद हैं बल्कि वे इन भावनाओं को जाने देने और उन्हें पीछे छोड़ देने को भी अनिच्छुक हैं, अभ्यास के अपने सिद्धांतों, अपने अनुसरण की दिशा, और अपने जीवन-पथ को बदलने को अनिच्छुक हैं। ऐसे लोग दयनीय और घृणित दोनों होते हैं। वे सहानुभूति के लायक ही नहीं हैं, और वे चाहे जितने कष्ट सहें, वे हमारे तरस के लायक नहीं हैं। हमें बस उन्हें ये कुछ शब्द ही कहने चाहिए : तुम्हारे साथ ठीक हो रहा है! अगर तुम बहुत संतप्त होकर मर भी जाओ, तो भी कोई तुम पर तरस नहीं खाएगा! अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य खोजने से तुम्हें किसने रोका था? किसने तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ बनाया था? किसकी खातिर तुम संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव कर रहे हो? क्या तुम इन चीजों का अनुभव सत्य प्राप्त करने के लिए कर रहे हो? या परमेश्वर को प्राप्त करने के लिए? या फिर परमेश्वर के कार्य की खातिर? या फिर परमेश्वर की महिमा की खातिर? (नहीं।) तो फिर तुम ये भावनाएँ किस बात के लिए अनुभव कर रहे हो? ये सब तुम्हारे लिए है, तुम्हारे बच्चों, तुम्हारे परिवार, तुम्हारे आत्म-सम्मान, तुम्हारी शोहरत, तुम्हारे भविष्य और संभावनाओं के लिए है, उन सबके लिए है जिनसे तुम्हारा लेना-देना है। ऐसा व्यक्ति कुछ भी नहीं छोड़ता, कोई भी चीज जाने नहीं देता, किसी भी चीज के खिलाफ विद्रोह नहीं करता, या किसी भी चीज का परित्याग नहीं करता; परमेश्वर में वे सच्ची आस्था नहीं रखते, अपना कर्तव्य निभाने के प्रति उनकी कोई सच्ची निष्ठा नहीं होती। परमेश्वर में अपने विश्वास में वे सच में खुद को नहीं खपाते, वे सिर्फ आशीष पाने के लिए विश्वास रखते हैं, और आशीष प्राप्त करने के दृढ़विश्वास के साथ ही वह परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। वे परमेश्वर, उसके कार्यों और उसके वादों में “आस्था” से पटे होते हैं, लेकिन परमेश्वर ऐसी आस्था की सराहना नहीं करता, न ही उसे याद रखता है, बल्कि वह उससे घृणा करता है। ऐसे लोग परमेश्वर द्वारा उनसे अपेक्षित कोई भी मामला सँभालने के लिए सिद्धांतों का अनुसरण या अभ्यास नहीं करते, वे उन चीजों को नहीं जाने देते जिन्हें जाने देना चाहिए, वे उन चीजों को नहीं छोड़ते जिन्हें छोड़ देना चाहिए, वे उन चीजों का परित्याग नहीं करते, जिनका उन्हें परित्याग करना चाहिए, और वे वह निष्ठा नहीं दिखाते जो उन्हें दिखानी चाहिए, और इसलिए वे संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाने लायक हैं। हालाँकि वे जितने भी कष्ट सहें, ऐसा सिर्फ अपने लिए करते हैं, अपने कर्तव्य के लिए और कलीसिया कार्य के लिए नहीं। इसलिए ऐसे लोग सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करते—वे सिर्फ परमेश्वर में नाम के लिए विश्वास रखनेवाले लोगों का जत्था होते हैं। वे ठीक-ठीक जानते हैं कि यह सच्चा मार्ग है, लेकिन वे उसका अभ्यास नहीं करते, न ही उस पर चलते हैं। उनकी आस्था दयनीय है, उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल सकती, और परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। ऐसे लोग अपने घरेलू जीवन की ढेरों मुश्किलों के कारण संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में घिर जाते हैं।
फिर ऐसे लोग होते हैं जिनकी सेहत ठीक नहीं है, जिनका शारीरिक गठन कमजोर और ऊर्जाहीन है, जिन्हें अक्सर छोटी-बड़ी बीमारियाँ पकड़ लेती हैं, जो दैनिक जीवन में जरूरी बुनियादी काम भी नहीं कर पाते, और जो न सामान्य लोगों की तरह जी पाते हैं, न तरह-तरह के काम कर पाते हैं। ऐसे लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर बेआराम और बीमार महसूस करते हैं; कुछ लोग शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं, कुछ को वास्तविक बीमारियाँ होती हैं, और बेशक कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें किसी-न-किसी प्रकार के ज्ञात और संभाव्य रोग हैं। ऐसी व्यावहारिक शारीरिक मुश्किलों के कारण ऐसे लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। वे किस बात को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं? उन्हें चिंता होती है कि अगर वे अपना कर्तव्य इसी तरह निभाते रहे, परमेश्वर के लिए खुद को इसी तरह खपाते रहे, भाग-दौड़ करते रहे, हमेशा थका हुआ महसूस करते रहे, तो कहीं उनकी सेहत और ज्यादा न बिगड़ जाए? 40 या 50 के होने पर क्या वे बिस्तर से लग जाएँगे? क्या ये चिंताएँ सही हैं? क्या कोई इससे निपटने का ठोस तरीका बताएगा? इसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा? जवाबदेह कौन होगा? कमजोर सेहत वाले और शारीरिक तौर पर अयोग्य लोग ऐसी बातों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं। बीमार लोग अक्सर सोचते हैं, “ओह, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने को दृढ़संकल्प हूँ, मगर मुझे यह बीमारी है। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे हानि न होने दे, और परमेश्वर की सुरक्षा के तहत मुझे डरने की जरूरत नहीं। लेकिन अपना कर्तव्य निभाते समय अगर मैं थक गया, तो क्या मेरी हालत बिगड़ जाएगी? अगर मेरी हालत बिगड़ गई तो मैं क्या करूँगा? अगर किसी ऑपरेशन के लिए मुझे अस्पताल में दाखिल होना पड़ा और मेरे पास वहाँ देने को पैसे न हों, तो अगर मैं अपने इलाज के लिए पैसे उधार न लूँ, तो कहीं मेरी हालत और ज्यादा न बिगड़ जाए? और अगर ज्यादा बिगड़ गई, तो कहीं मैं मर न जाऊँ? क्या ऐसी मृत्यु को सामान्य मृत्यु माना जा सकेगा? अगर मैं सच में मर गया, तो क्या परमेश्वर मेरे निभाए कर्तव्य याद रखेगा? क्या माना जाएगा कि मैंने नेक कार्य किए थे? क्या मुझे उद्धार मिलेगा?” ऐसे भी कुछ लोग हैं जो जानते हैं कि वे बीमार हैं, यानी वे जानते हैं कि उन्हें वास्तव में कोई-न-कोई बीमारी है, मिसाल के तौर पर, पेट की बीमारियाँ, निचली पीठ और टाँगों का दर्द, गठिया, संधिवात, साथ ही त्वचा रोग, स्त्री रोग, यकृत रोग, उच्च रक्तचाप, दिल की बीमारी, वगैरह-वगैरह। वे सोचते हैं, “अगर मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा, तो क्या परमेश्वर का घर मेरी बीमारी के इलाज का खर्च उठाएगा? अगर मेरी बीमारी बदतर हो गई और इससे मेरा कर्तव्य-निर्वहन प्रभावित हुआ, तो क्या परमेश्वर मुझे चंगा करेगा? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद दूसरे लोग ठीक हो गए हैं, तो क्या मैं भी ठीक हो जाऊँगा? क्या परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा, उसी तरह जैसे वह दूसरों को दयालुता दिखाता है? अगर मैंने निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाया, तो परमेश्वर को मुझे चंगा कर देना चाहिए, लेकिन अगर मैं सिर्फ यह कामना करूँ कि परमेश्वर मुझे चंगा कर दे और वह न करे, तो फिर मैं क्या करूँगा?” जब भी वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, उनके दिलों में व्याकुलता की तीव्र भावना उफनती है। हालाँकि वे अपना कर्तव्य-निर्वाह कभी नहीं रोकते, और हमेशा वह करते हैं जो उन्हें करना चाहिए, फिर भी वे अपनी बीमारी, अपनी सेहत, अपने भविष्य और अपने जीवन-मृत्यु के बारे में निरंतर सोचते रहते हैं। अंत में, वे खयाली पुलाव वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, “परमेश्वर मुझे चंगा कर देगा, परमेश्वर मुझे सुरक्षित रखेगा। परमेश्वर मेरा परित्याग नहीं करेगा, और अगर वह मुझे बीमार पड़ता देखेगा, तो कुछ किए बिना अलग खड़ा नहीं रहेगा।” ऐसी सोच का बिल्कुल कोई आधार नहीं है, और कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार की धारणा है। ऐसी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ लोग कभी अपनी व्यावहारिक मुश्किलों को दूर नहीं कर पाएँगे, और अपनी सेहत और बीमारियों को लेकर अपने अंतरतम में वे अस्पष्ट रूप से संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करेंगे; उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि इन चीजों की जिम्मेदारी कौन उठाएगा, या क्या कोई इनकी जिम्मेदारी उठाएगा भी।
ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो हालाँकि सचमुच बीमार महसूस नहीं करते और जिनमें किसी भी बीमारी का निदान नहीं हुआ होता, फिर भी वे जानते हैं कि उनमें कोई बीमारी छिपी हुई है। कौन-सी छिपी हुई बीमारी? मिसाल के तौर पर, हो सकता है यह वंशानुगत बीमारी हो, जैसे दिल की बीमारी, मधुमेह या उच्च रक्तचाप, या हो सकता है अल्जाइमर्स या पार्किन्सन की बीमारी, या किसी किस्म का कैंसर—ये सभी छिपी हुई बीमारियाँ हैं। कुछ लोग जानते हैं कि चूँकि उन्होंने ऐसे परिवार में जन्म लिया है, इसलिए देर-सवेर यह आनुवंशिक बीमारी उन्हें घेर लेगी। वे सोचते हैं, अगर वे परमेश्वर में विश्वास रखकर सत्य का अनुसरण करें, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाएँ, पर्याप्त नेक कर्म करें और परमेश्वर को खुश कर पाएँ, तो क्या यह छिपी हुई बीमारी उन्हें बिना छुए निकल जाएगी? लेकिन परमेश्वर ने उनसे कभी ऐसा वादा नहीं किया, और उन्हें परमेश्वर में ऐसी आस्था कभी नहीं थी, और कोई गारंटी या अवास्तविक विचार पालने की उन्होंने कभी हिम्मत नहीं की। चूँकि उन्हें कोई गारंटी या आश्वासन नहीं मिल सकता, इसलिए वे अपने कर्तव्य-निर्वहन में अत्यधिक ऊर्जा खपाते हैं, कड़ी मेहनत करते हैं, वे कष्ट सहने और कीमत चुकाने पर ध्यान देते हैं, और वे यह सोचकर हमेशा दूसरों से ज्यादा काम करते हैं, और दूसरों से अलग दिखाई देते हैं, “कष्ट सहनेवाला पहला और आनंद लेनेवाला आखिरी व्यक्ति मैं बनूँगा।” इस प्रकार के आदर्श वाक्य से वे हमेशा स्वयं को अभिप्रेरित करते हैं, फिर भी छिपी हुई बीमारी को लेकर उनमें गहरे पैठे डर और चिंता को दूर नहीं भगाया जा सकता, और यह चिंता, यह संताप हमेशा उनके साथ बना रहता है। भले ही वे कष्ट सह सकते हों, कड़ी मेहनत कर सकते हों, और अपने कर्तव्य-निर्वाह में कीमत चुकाने को तैयार हों, फिर भी उन्हें लगता है कि वे इस विषय पर परमेश्वर का वादा या उससे एक अचूक वचन पाने में असमर्थ हैं, और इसलिए इस मामले को लेकर वे संताप, व्याकुलता और चिंता से भरे होते हैं। हालाँकि वे अपनी छिपी हुई बीमारी के बारे में कुछ भी न करने की भरसक कोशिश करते हैं, फिर भी वे कभी-कभी अवचेतन रूप से किसी दिन, किसी पल, अनजाने ही एकाएक इस छिपी हुई बीमारी से ग्रस्त हो जाने से बचने के लिए तरह-तरह के देसी नुस्खे ढूँढ़ने में लग जाते हैं। कुछ लोग समय-समय पर लेने के लिए कुछ चीनी औषधिक जड़ी-बूटियाँ तैयार कर सकते हैं, कुछ लोग कभी-कभी जरूरत पड़ने पर लेने के लिए देसी नुस्खों के बारे में यहाँ-वहाँ पूछते हैं, और कुछ लोग कभी-कभी ऑनलाइन जाकर कसरतों के नुस्खे ढूँढ़ते हैं, ताकि वे कसरत कर के आजमा सकें। भले ही यह सिर्फ एक छिपी हुई बीमारी हो, फिर भी उनके दिमाग में यह सबसे ऊपर होती है; भले ही ये लोग बीमार महसूस न करें या उनमें कोई लक्षण न हों, फिर भी वे इसे लेकर चिंता और व्याकुलता से भरे होते हैं, और वे इसे लेकर गहराई से संतप्त और अवसाद-ग्रस्त अनुभव करते हैं, और प्रार्थना या अपने कर्तव्य-निर्वहन के जरिए अपने भीतर से इन नकारात्मक भावनाओं को ठीक करने या दूर करने की हमेशा उम्मीद करते हैं। ये लोग जिन्हें सच में कोई बीमारी होती है या जिनमें छिपी हुई बीमारी होती है, उन लोगों के साथ जो भविष्य में बीमार होने को लेकर चिंता करते हैं, और वे जो कमजोर सेहत के साथ पैदा हुए, जिन्हें कोई बड़ी बीमारी नहीं है पर जो निरंतर छोटी बीमारियों का कष्ट सहते हैं, वे विभिन्न शारीरिक बीमारियों और मुश्किलों को लेकर निरंतर संतप्त और चिंतित रहते हैं। वे उनसे बच निकलना चाहते हैं, उनसे दूर भागना चाहते हैं, लेकिन उनके पास ऐसा करने का कोई तरीका नहीं होता; वे उन्हें जाने देना चाहते हैं, मगर नहीं जाने दे पाते; वे परमेश्वर से आग्रह करना चाहते हैं कि इन बीमारियों और मुश्किलों को उनसे दूर कर दे, लेकिन वे ये वचन नहीं कह पाते और शर्मिंदा महसूस करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसे निवेदन का कोई औचित्य नहीं है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि इन मामलों को लेकर परमेश्वर से विनती नहीं की जा सकती, मगर वे अपने दिलों में शक्तिहीन अनुभव करते हैं; वे सोचते हैं कि अपनी सारी आशाएँ परमेश्वर पर थोपकर क्या उन्हें ज्यादा आराम मिलेगा, उनके जमीर को तसल्ली मिलेगी? इसलिए समय-समय पर वे अपने अंतरतम में इस मामले पर मौन प्रार्थना करते हैं। अगर परमेश्वर से उन्हें कोई अतिरिक्त या अप्रत्याशित कृपा या अनुग्रह मिलता है, तो उन्हें थोड़ी खुशी और आराम मिलता है; अगर परमेश्वर के घर से उन्हें बिल्कुल कोई विशेष देखभाल नहीं मिलती, और वे परमेश्वर की दया का थोड़ा भी अनुभव नहीं करते, तो वे अनजाने ही फिर से संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। हालाँकि जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु मानवजाति के लिए शाश्वत हैं और जीवन में इनसे बचा नहीं जा सकता, फिर भी एक विशेष शारीरिक गठन या खास बीमारी वाले कुछ लोग होते हैं, जो अपना कर्तव्य निभाएँ या नहीं, देह की मुश्किलों और बीमारियों को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं; वे अपनी बीमारियों के बारे में चिंता करते हैं, उन तमाम मुश्किलों के बारे में चिंता करते हैं जो उनकी बीमारी उन्हें दे सकती है, कहीं उनकी बीमारी गंभीर न हो जाए, गंभीर हो गई तो उसके दुष्परिणाम क्या होंगे, और क्या इससे उनकी मृत्यु हो जाएगी। खास हालात और कुछ संदर्भों में सवालों के इस सिलसिले से वे संताप, व्याकुलता और चिंता में घिर जाते हैं और खुद को बाहर नहीं निकाल पाते; कुछ लोग तो पहले से जानते हुए कि उन्हें यह गंभीर बीमारी है या ऐसी छिपी हुई बीमारी है जिससे बचने के लिए वे कुछ नहीं कर सकते, संताप, व्याकुलता और चिंता की दशा में ही जीते हैं, और वे इन नकारात्मक भावनाओं से प्रभावित होते हैं, चोट खाते हैं और नियंत्रित होते हैं। एक बार इन नकारात्मक भावनाओं के नियंत्रण में पड़ने के बाद कुछ लोग उद्धार प्राप्त करने के सारे मौके और पूरी आशा छोड़ देते हैं; वे अपना कर्तव्य-निर्वहन और परमेश्वर की दयालुता पाने का कोई भी मौका छोड़ देना चुनते हैं। इसके बजाय वे किसी दूसरे की मदद माँगे बिना और किसी भी अवसर की प्रतीक्षा किए बिना खुद अपनी बीमारी का सामना कर उसे सँभालने का चुनाव करते हैं। वे अपनी बीमारी का इलाज खुद करने को समर्पित हो जाते हैं, अब कोई कर्तव्य नहीं निभाते, कर्तव्य निभाने में शारीरिक रूप से समर्थ होने पर भी वे उसे नहीं निभाते। इसका कारण क्या है? उन्हें चिंता होती है, “अगर मेरी बीमारी इसी तरह चलती रही, और परमेश्वर मुझे ठीक न करे, तो मैं अभी की तरह अपना कर्तव्य निभाता रहूँगा और फिर अंत में मर जाऊँगा। अगर मैं अपना कर्तव्य निर्वाह बंद कर इलाज करवाऊँ, तो दो-चार वर्ष और जी सकूँगा, और संभवतः यह ठीक हो जाए। अगर मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा और परमेश्वर ने नहीं कहा कि वह मुझे ठीक कर देगा, तो हो सकता है मेरी सेहत और भी बदतर हो जाए। मैं नहीं चाहता कि 10-20 साल और अपना कर्तव्य निभाऊँ और फिर मर जाऊँ। मैं और कुछ साल जीना चाहता हूँ, मैं इतनी जल्दी नहीं मरना चाहता!” इसलिए वे परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य कुछ समय तक निभाते हैं, थोड़े समय तक देखते हैं, यूँ कहें कि वे कुछ समय तक देखते हैं कि क्या होता है, और फिर वे सोचने लगते हैं, “मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा हूँ, लेकिन मेरी बीमारी जरा भी ठीक नहीं हुई है, दूर नहीं हुई है। लगता है बेहतर होने की कोई उम्मीद नहीं है। पहले मेरी एक योजना थी कि अगर मैंने सब-कुछ छोड़कर वफादारी से अपना कर्तव्य निभाया, तो शायद परमेश्वर मुझसे यह बीमारी ले लेगा। लेकिन मेरी योजना, अनुमान और कामना के अनुसार कुछ भी नहीं हुआ। मेरी बीमारी बिल्कुल पहले जैसी ही है। इतने साल गुजर गए हैं, और यह बीमारी जरा भी कम नहीं हुई है। लगता है इस बीमारी का इलाज मुझे खुद करना चाहिए। मैं किसी और पर भरोसा नहीं कर सकता, किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। अपने भाग्य की कमान मुझे अपने हाथों में लेनी होगी। विज्ञान और टेक्नालॉजी और चिकित्सा विज्ञान भी अब बहुत विकसित हो चुके हैं, हर तरह की बीमारी के इलाज की असरदार दवाएँ उपलब्ध हैं और सभी बीमारियों के लिए उन्नत चिकत्सा पद्धतियाँ मौजूद हैं। मुझे यकीन है कि इस बीमारी का इलाज किया सकता है।” ऐसी योजनाएँ बनाकर वे ऑनलाइन खोज शुरू करते हैं या यहाँ-वहाँ पूछताछ करते हैं, जब तक कि अंत में उन्हें कोई समाधान नहीं मिल जाता। अंत में वे फैसला कर लेते हैं कि कौन-सी दवा लेनी है, अपनी बीमारी का इलाज कैसे करें, कैसे कसरत करें, और अपनी सेहत का ख्याल कैसे रखें। वे सोचते हैं, “अगर मैं अपना कर्तव्य न निभाकर इस बीमारी के इलाज पर ध्यान दूँ, तो ठीक हो जाने की उम्मीद है। ऐसी बीमारी के ठीक हो जाने के बहुत-से उदाहरण हैं।” इस तरह कुछ समय तक योजना बनाकर और उपाय करके वे अंत में अब आगे अपना कर्तव्य न निभाने का फैसला करते हैं, और अपनी बीमारी का इलाज करना उनकी पहली प्राथमिकता बन जाती है—उनके लिए जीने से बढ़कर कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं होता। उनका संताप, व्याकुलता और चिंता एक प्रकार के व्यावहारिक कार्य में तब्दील हो जाते हैं; उनकी व्याकुलता और चिंता महज सोच से बदलकर एक प्रकार के कार्य में बदल जाती है। गैर-विश्वासियों की एक कहावत है जो इस प्रकार है : “कर्म विचार से बेहतर है, और कर्म से भी बेहतर है तुरंत कर्म।” ऐसे लोग सोचते हैं, फिर कार्य करते हैं, और तेजी से कार्य करते हैं। एक दिन वे अपनी बीमारी का इलाज करने के बारे में सोचते हैं, और अगली सुबह वे अपनी चीजें समेटकर जाने को तैयार हो जाते हैं। कुछ थोड़े-से महीने गुजरते ही बुरी खबर आती है कि बीमारी ठीक हुए बिना ही वे मर गए। क्या वे अपनी बीमारी से ठीक हो पाए? (नहीं।) जरूरी नहीं कि हमेशा अपनी किसी बीमारी को स्वयँ ठीक कर पाना संभव हो, मगर क्या यह सुनिश्चित है कि परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते समय तुम बीमार नहीं पड़ोगे? तुमसे ऐसा वादा कोई नहीं करेगा। तो तुम कैसे चुनोगे, और बीमार पड़ने की बात को तुम्हें किस नजरिए से देखना चाहिए? यह बहुत सरल है, और चलने का एक पथ है : सत्य का अनुसरण करो। सत्य का अनुसरण करो, और इस बात को परमेश्वर के वचनों और सत्य-सिद्धांतों के अनुसार देखो—यही समझ लोगों में होनी चाहिए। तुम्हें अभ्यास कैसे करना चाहिए? ये सभी अनुभव लेकर तुम अपने द्वारा हासिल समझ, और सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार प्राप्त सत्य-सिद्धांतों का अभ्यास करो, और तुम उन्हें अपनी वास्तविकता और अपना जीवन बनाओ—यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि तुम्हें अपने कर्तव्य का परित्याग करना ही नहीं चाहिए। चाहे तुम बीमार हो या पीड़ा में, जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, जब तक तुम जिंदा हो, जब तक तुम चल-फिर और बोल सकते हो, तब तक तुममें अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा है, और तुम्हें विवेकशील होकर अपने कर्तव्य-निर्वाह में सुव्यवहार दिखाना चाहिए। तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्य, या सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें दी गई जिम्मेदारी का परित्याग नहीं करना चाहिए। जब तक तुम अभी मरे नहीं हो, तुम्हें अपना कर्तव्य पूर्ण करना चाहिए, और इसे अच्छे से निभाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “तुम्हारी ये बातें बहुत अधिक विचारशील नहीं हैं। मैं बीमार हूँ और मेरे लिए बर्दाश्त करना मुश्किल है!” जब तुम्हारे लिए यह मुश्किल हो, तब तुम आराम कर सकते हो, अपनी देखभाल कर सकते हो, और इलाज करवा सकते हो। अगर तुम अभी भी अपना कर्तव्य निभाना चाहते हो, तो तुम अपने काम का बोझ घटाकर कोई उपयुक्त कर्तव्य निभा सकते हो, जो तुम्हारे स्वास्थ्य-लाभ को प्रभावित न करे। इससे साबित होगा कि तुमने अपने दिल से अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं किया है, कि तुम्हारा दिल परमेश्वर से नहीं भटका है, कि तुमने अपने दिल से परमेश्वर के नाम को नहीं नकारा है, और तुमने अपने दिल से एक उचित सृजित प्राणी बनने की आकांक्षा का परित्याग नहीं किया है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने यह सब किया है, तो क्या परमेश्वर मेरी यह बीमारी मुझसे ले लेगा?” क्या वह लेगा? (जरूरी नहीं।) परमेश्वर तुमसे वह बीमारी ले या न ले, परमेश्वर तुम्हें ठीक करे या न करे, तुम्हें वही करना चाहिए जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए। तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए शारीरिक रूप से सक्षम हो या नहीं, तुम कोई काम सँभाल सको या नहीं, तुम्हारी सेहत तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने दे या नहीं, तुम्हारे दिल को परमेश्वर से दूर नहीं भटकना चाहिए, और तुम्हें अपने दिल से अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं करना चाहिए। इस प्रकार तुम अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और अपना कर्तव्य निभा सकोगे—तुम्हें यह वफादारी कायम रखनी होगी। सिर्फ इसलिए कि तुम अपने हाथों से काम नहीं कर सकते, और अब बोल नहीं सकते, या अब तुम्हारी आँखें देख नहीं सकतीं, या अब तुम चल-फिर नहीं सकते, तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि परमेश्वर को तुम्हें ठीक करना ही होगा, और अगर वह तुम्हें चंगा नहीं करता, तो तुम अपने अंतरतम में उसे नकारना चाहते हो, अपने कर्तव्य का परित्याग करना चाहते हो, और परमेश्वर को पीछे छोड़ देना चाहते हो। ऐसे कर्म की प्रकृति क्या है? (यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात है।) यह विश्वासघात है! कुछ लोग बीमार न होने पर अक्सर परमेश्वर के समक्ष आकर उससे प्रार्थना करते हैं, और बीमार होने पर जब वे आशा करते हैं कि परमेश्वर उन्हें ठीक कर देगा, खुद को पूरी तरह परमेश्वर पर छोड़ देते हैं, वे तब भी परमेश्वर के समक्ष आएँगे, और उसका परित्याग नहीं करेंगे। हालाँकि कुछ वक्त गुजरने के बाद भी अगर परमेश्वर ने उनका इलाज न किया, तो वे परमेश्वर से निराश हो जाते हैं, वे दिल की गहराई से परमेश्वर का परित्याग कर देते हैं, और अपने कर्तव्यों का परित्याग कर देते हैं। जब उनकी बीमारी उतनी ज्यादा नहीं होती, और परमेश्वर उन्हें ठीक नहीं करता, तो कुछ लोग परमेश्वर का परित्याग नहीं करते; लेकिन जब उनकी बीमारी गंभीर हो जाती है, और मौत उनके सामने होती है, तब वे जान लेते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें ठीक नहीं किया है, वे इतने वक्त से सिर्फ मौत की प्रतीक्षा करते रहे हैं, और इसलिए वे अपने दिलों से परमेश्वर का परित्याग कर उसे नकार देते हैं। वे मानते हैं कि अगर परमेश्वर ने उन्हें ठीक नहीं किया है, तो फिर परमेश्वर को अस्तित्व में नहीं होना चाहिए; अगर परमेश्वर ने उन्हें ठीक नहीं किया है, तो फिर परमेश्वर को परमेश्वर ही नहीं होना चाहिए, और वह विश्वास रखने लायक है ही नहीं। चूँकि परमेश्वर ने उन्हें ठीक नहीं किया इस कारण उन्हें अब तक परमेश्वर में विश्वास रखने पर खेद होता है, और वे उसमें विश्वास रखना बंद कर देते हैं। क्या यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं है? यह परमेश्वर के साथ गंभीर विश्वासघात है। इसलिए तुम्हें उस रास्ते बिल्कुल नहीं जाना चाहिए—सिर्फ वही लोग जो मृत्यु आने तक परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं, उन्हीं में सच्ची आस्था होती है।
जब बीमारी दस्तक दे, तो लोगों को किस पथ पर चलना चाहिए? उन्हें कैसे चुनना चाहिए? लोगों को संताप, व्याकुलता और चिंता में डूबकर अपने भविष्य की संभावनाओं और रास्तों के बारे में सोच-विचार नहीं करना चाहिए। इसके बजाय लोग खुद को जितना ज्यादा ऐसे वक्त और ऐसी खास स्थितियों और संदर्भों में, और ऐसी फौरी मुश्किलों में पाएँ, उतना ही ज्यादा उन्हें सत्य खोजकर उसका अनुसरण करना चाहिए। ऐसा करके ही पहले तुमने जो धर्मोपदेश सुने हैं और जो सत्य समझे हैं, वे बेकार नहीं होंगे, और उनका प्रभाव होगा। तुम खुद को जितना ज्यादा ऐसी मुश्किलों में पाते हो, तुम्हें उतना ही अपनी आकांक्षाओं को छोड़कर परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम्हारे लिए ऐसी स्थिति बनाने और इन हालात की व्यवस्था करने में परमेश्वर का प्रयोजन तुम्हें संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाओं में डुबोना नहीं है, यह इस बात के लिए भी नहीं है कि तुम परमेश्वर की परीक्षा ले सको कि क्या वह बीमार पड़ने पर तुम्हें ठीक करेगा, जिससे मामले की सच्चाई पता चल सके; परमेश्वर तुम्हारे लिए ये विशेष स्थितियाँ या हालात इसलिए बनाता है कि तुम ऐसी स्थितियों और हालात में सत्य में गहन प्रवेश पाने और परमेश्वर को समर्पण करने के लिए व्यावहारिक सबक सीख सको, ताकि तुम ज्यादा स्पष्ट और सही ढंग से जान सको कि परमेश्वर सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को कैसे आयोजित करता है। मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों में होता है, और लोग इसे भाँप सकें या नहीं, वे इस बारे में सचमुच अवगत हों या न हों, उन्हें समर्पण करना चाहिए, प्रतिरोध नहीं करना चाहिए, ठुकराना नहीं चाहिए और निश्चित रूप से परमेश्वर की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। किसी भी हालत में तुम्हारी मृत्यु हो सकती है, और अगर तुम प्रतिरोध करते हो, ठुकराते हो और परमेश्वर की परीक्षा लेते हो, तो यह कहने की जरूरत नहीं कि तुम्हारा अंत कैसा होगा। इसके विपरीत अगर उन्हीं स्थितियों और हालात में तुम यह खोज पाओ कि किसी सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के आयोजनों के प्रति कैसे समर्पण करना चाहिए, यह खोज पाओ कि तुम्हें कौन-से सबक सीखने हैं, परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए पैदा की गई स्थितियों में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें जानने हैं, ऐसी स्थितियों में परमेश्वर के इरादों को समझना है, और परमेश्वर की माँगें पूरी करने के लिए अपनी गवाही अच्छी तरह देनी है, तो तुम्हें बस यही करना चाहिए। जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, और बीमारी से होने वाली तकलीफों और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों के प्रति कैसे महसूस करें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारी विविध योजनाओं, फैसलों और चालों को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं। इसीलिए जब बीमारी दस्तक देती है, तो तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि उससे कैसे बच निकलें, दूर भाग जाएँ या उसे ठुकरा दें। कुछ लोग कहते हैं, “तुम कहते हो कि मुझे इससे दूर नहीं भागना चाहिए या इसे ठुकराना नहीं चाहिए, और मुझे इससे बच निकलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए यानी तुम कहना चाहते हो कि मुझे जाकर उसका इलाज नहीं करवाना चाहिए!” मैंने ऐसा कभी नहीं कहा; यह तुमने गलत समझा है। तुम्हारी बीमारी के सक्रिय इलाज में मैं तुम्हारे साथ हूँ, लेकिन मैं नहीं चाहता कि तुम अपनी बीमारी में जियो, या बीमारी से प्रभावित होकर तुम संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाओ, और आखिर बीमारी से हुई पीड़ा के कारण परमेश्वर से भटककर परमेश्वर का परित्याग कर दो। अगर बीमारी तुम्हें बहुत तकलीफ दे रही है, और तुम चाहते हो कि इलाज करवा लो और बीमारी चली जाए, तो बेशक यह ठीक है। यह तुम्हारा अधिकार है; इलाज करवाने का चुनाव तुम्हारा हक है, और किसी को भी तुम्हें रोकने का हक नहीं है। हालाँकि तुम इलाज करवा रहे हो, इसलिए तुम्हें अपनी बीमारी में जीते हुए अपना कर्तव्य निभाने से इनकार नहीं करना चाहिए, न ही अपने कर्तव्य का परित्याग करना या परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को ठुकराना चाहिए। अगर तुम्हारी बीमारी ठीक नहीं हो सकती, तो तुम संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाओगे, और इसलिए परमेश्वर को लेकर तुम्हारे मन में शिकायतें और शंकाएँ भर जाएँगी, तुम परमेश्वर में आस्था भी खो दोगे, आशा खो दोगे, और कुछ लोग अपने कर्तव्यों का परित्याग करना चुन लेंगे—दरअसल यह ऐसा काम है जो तुम्हें नहीं करना चाहिए। बीमारी झेलते वक्त तुम सक्रिय रूप से इलाज की कोशिश कर सकते हो, मगर तुम्हें इसके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। तुम्हारी बीमारी का चाहे जितना इलाज हो पाए, यह ठीक हो या नहीं, और अंत में चाहे जो हो, तुम्हें हमेशा समर्पण करना चाहिए, शिकायत नहीं। तुम्हें यही रवैया अपनाना चाहिए, क्योंकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तुम्हारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। तुम यह नहीं कह सकते, “अगर इस बीमारी से मैं ठीक हो गया, तो मैं विश्वास कर लूँगा कि यह परमेश्वर की महान सामर्थ्य है, लेकिन अगर मैं ठीक नहीं हो पाया, तो परमेश्वर से प्रसन्न नहीं होऊँगा। परमेश्वर ने मुझे यह बीमारी क्यों दी? वह यह बीमारी ठीक क्यों नहीं करता? यह बीमारी मुझे ही क्यों हुई, किसी और को क्यों नहीं? मुझे यह नहीं चाहिए! इतनी छोटी उम्र में, इतनी जल्दी मेरी मृत्यु क्यों होनी चाहिए? दूसरे लोगों को कैसे जीते रहने का मौका मिलता है? क्यों?” मत पूछो क्यों, यह परमेश्वर का आयोजन है। कोई कारण नहीं है, और तुम्हें नहीं पूछना चाहिए कि क्यों? सवाल उठाना विद्रोहपूर्ण बात है, और यह प्रश्न किसी सृजित प्राणी को नहीं पूछना चाहिए। मत पूछो क्यों, क्यों का प्रश्न ही नहीं है। परमेश्वर ने इस तरह चीजों की व्यवस्था की है, चीजों को यूँ नियोजित किया है। अगर तुम पूछोगे क्यों, तो फिर केवल यही कहा जा सकता है कि तुम बहुत ज्यादा विद्रोही हो, बहुत हठी हो। जब तुम किसी बात से असंतुष्ट होते हो, या परमेश्वर तुम्हारे चाहे अनुसार नहीं करता, या तुम्हें अपनी मनमानी नहीं करने देता, तो तुम नाखुश हो जाते हो, नाराज हो जाते हो, और हमेशा पूछते हो क्यों। तो परमेश्वर तुमसे पूछता है, “एक सृजित प्राणी के रूप में तुमने अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से क्यों नहीं निभाया? तुमने वफादारी से अपना कर्तव्य क्यों नहीं निभाया?” फिर तुम उसका क्या जवाब दोगे? तुम कहते हो, “क्यों का प्रश्न नहीं है। मैं बस ऐसा ही हूँ।” क्या यह स्वीकार्य है? (नहीं।) परमेश्वर के लिए तुमसे इस तरह बात करना स्वीकार्य है, मगर तुम्हारा परमेश्वर से इस तरह बात करना स्वीकार्य नहीं है। तुम गलत स्थान पर खड़े हो, तुम बेहद नासमझ हो। कोई सृजित प्राणी चाहे जैसी मुश्किलों का सामना करे, यह पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है कि तुम्हें सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। मिसाल के तौर पर, तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया, बड़ा किया, और तुम उन्हें माता-पिता कहते हो—यह पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है, और ऐसा ही होना चाहिए; क्यों का प्रश्न ही नहीं उठता। तो परमेश्वर तुम्हारे लिए इन सब चीजों का आयोजन करता है, तुम आशीष का आनंद पाते हो या तकलीफें सहते हो, यह भी पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है, और इस बारे में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं है। अगर तुम बिल्कुल अंत तक समर्पण कर सकते हो, तो पतरस की तरह उद्धार प्राप्त कर सकते हो। हालाँकि अगर तुम किसी अस्थायी बीमारी के कारण परमेश्वर को दोष दो, उसका परित्याग करो और उसके साथ विश्वासघात करो, तो पहले तुमने जो कुछ छोड़ा, खपाया, अपना कर्तव्य निभाया और कीमत चुकाई, वह व्यर्थ हो जाएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि पहले की तुम्हारी कड़ी मेहनत ने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने या एक सृजित प्राणी के रूप में उचित स्थान धारण करने के लिए कोई बुनियाद नहीं रखी होगी, और इससे तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं बदला होगा। फिर बीमारी के कारण यह तुम्हें परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की ओर बढ़ाएगा, और तुम्हारा अंत पौलुस जैसा होगा, अंत में दंड पाओगे। इस दृढ़ता का कारण यह है कि तुमने पहले जो कुछ भी किया वह एक ताज पाने और आशीष पाने की खातिर था। आखिर जब तुम बीमारी और मृत्यु का सामना करते हो, अगर तब भी तुम बिना किसी शिकायत के समर्पण कर सकते हो, तो इससे साबित होता है कि पहले तुमने जो कुछ किया वह परमेश्वर के लिए निष्ठा से और इच्छापूर्वक किया था। तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित हो, और आखिर तुम्हारा समर्पण परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के जीवन का पूर्ण अंत अंकित करेगा, और परमेश्वर इसकी सराहना करता है। इसलिए बीमारी तुम्हें अच्छा अंत दे सकती है, या फिर बुरा अंत; तुम्हें जो अंत मिलता है, वह तुम्हारे अनुसरण के पथ और परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करता है।
क्या बीमारी के कारण लोगों की नकारात्मक भावनाओं में डूबने की समस्या अब दूर हो गई है? (हाँ, दूर हो गई है।) क्या अब बीमारी का सामना करने को लेकर तुम्हारे मन में सही सोच और विचार हैं? (हाँ।) क्या तुम इसे अभ्यास में लाना जानते हो? अगर नहीं, तो मैं तुम्हें करने के लिए सही युक्ति, सबसे बढ़िया चीज दूँगा। क्या तुम लोग जानते हो कि यह क्या है? अगर तुम्हें बीमारी हो जाए, और तुम सिद्धांत को चाहे जितना समझ लो, फिर भी इस पर विजय न पा सको, तुम्हारा दिल अभी भी संतप्त, व्याकुल और चिंतित होगा, और न सिर्फ तुम इस मामले का शांति से सामना नहीं कर पाओगे, बल्कि तुम्हारा दिल भी शिकायतों से भर जाएगा। तुम निरंतर सोचते रहोगे, “किसी दूसरे व्यक्ति को यह बीमारी क्यों नहीं हुई? मुझे ही यह बीमारी क्यों पकड़ा दी गई? मेरे साथ ऐसा कैसे हो गया? यह इसलिए हुआ कि मैं दुर्भाग्यशाली हूँ, मेरा भाग्य खराब है। मैंने कभी किसी का दिल नहीं दुखाया, न ही मैंने कोई पाप किया, तो फिर मुझे यह क्यों हुआ? परमेश्वर मुझसे बहुत अनुचित बर्ताव कर रहा है!” देखा, संताप, व्याकुलता और चिंता के अलावा तुम अवसाद में भी डूब जाते हो, एक नकारात्मक भावना के बाद दूसरी, और तुम जितना भी चाहो, इनसे बच निकलने का कोई रास्ता नहीं होता। चूँकि यह एक असली बीमारी है, इसलिए इसे आसानी से तुमसे दूर नहीं किया जा सकता या ठीक नहीं किया जा सकता, तो फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम समर्पण करना चाहते हो, मगर नहीं कर सकते, और अगर किसी दिन तुम समर्पण कर भी दो और अगले ही दिन तुम्हारी हालत बिगड़ जाए, बहुत तकलीफ हो, तब तुम और समर्पण नहीं करना चाहते हो, और फिर से शिकायत करना शुरू कर देते हो। तुम इसी तरह हमेशा आगे-पीछे होते रहते हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? आओ, मैं तुम्हें सफलता का रहस्य बताता हूँ। तुम्हें कोई बड़ी बीमारी हो या छोटी, जब तुम्हारी बीमारी गंभीर हो जाए या तुम मौत के करीब पहुँच जाओ, बस एक चीज याद रखो : मृत्यु से डरो मत। चाहे तुम कैंसर की अंतिम अवस्था में हो, तुम्हारी खास बीमारी की मृत्यु दर बहुत ज्यादा हो, फिर भी मृत्यु से डरो मत। तुम्हारा कष्ट चाहे जितना बड़ा हो, अगर तुम मृत्यु से डरोगे, तो समर्पण नहीं करोगे। कुछ लोग कहते हैं, “आपकी यह बात सुनकर मुझे प्रेरणा मिली है, और मेरे पास इससे भी बेहतर विचार है। न सिर्फ मैं मृत्यु से नहीं डरूँगा, मैं उसकी याचना करूँगा। क्या इससे गुजरना तब आसान नहीं हो जाएगा?” मृत्यु की याचना क्यों? मृत्यु की याचना करना एक अतिवादी विचार है, जबकि मृत्यु से न डरना उसे अपनाने का एक वाजिब रवैया है। सही है न? (सही है।) मृत्यु से न डरने का सही रवैया क्या है जो तुम्हें अपनाना चाहिए? अगर तुम्हारी बीमारी इतनी गंभीर हो जाए कि शायद तुम मर सकते हो, और इस बीमारी की मृत्यु दर ज्यादा हो, भले ही व्यक्ति की उम्र जितनी भी हो जिसे भी यह बीमारी हुई हो, और लोगों के बीमार होने से लेकर मरने तक का अंतराल बहुत कम हो, तब तुम्हें अपने दिल में क्या सोचना चाहिए? “मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए, अंत में सबकी मृत्यु होती है। लेकिन परमेश्वर के प्रति समर्पण एक ऐसी चीज है जो ज्यादातर लोग नहीं कर पाते, और मैं इस बीमारी का उपयोग परमेश्वर के प्रति समर्पण को अमल में लाने के लिए कर सकता हूँ। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने की सोच और रवैया अपनाना चाहिए, और मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए।” मरना आसान है, जीने से ज्यादा आसान। तुम अत्यधिक पीड़ा में हो सकते हो, और तुम्हें इसका पता भी नहीं होगा, और जैसे ही तुम्हारी आँखें बंद होती हैं, तुम्हारी साँस थम जाती है, तुम्हारी आत्मा शरीर छोड़ देती है, और तुम्हारा जीवन खत्म हो जाता है। मृत्यु इसी तरह होती है; यह इतनी ही सरल है। मृत्यु से न डरना वह रवैया है जिसे अपनाना चाहिए। इसके अलावा तुम्हें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि क्या बीमारी बदतर हो जाएगी, या इलाज नहीं हो सका तो क्या तुम मर जाओगे, या तुम्हारे मरने में कितना वक्त लगेगा, या मृत्यु का समय आने पर तुम्हें कैसी पीड़ा होगी। तुम्हें इन चीजों के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए; ये वो चीजें नहीं हैं जिनकी तुम्हें चिंता नहीं करनी चाहिए। ऐसा इसलिए कि वह दिन तो आना ही है, किसी वर्ष, किसी महीने, या किसी निश्चित दिन आना ही है। तुम इससे छुप नहीं सकते, इससे बचकर नहीं निकल सकते—यह तुम्हारा भाग्य है। तुम्हारा तथाकथित भाग्य परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित है, और पहले ही उसके द्वारा व्यवस्थित है। तुम्हारा जीवनकाल और मृत्यु के समय तुम्हारी उम्र और समय परमेश्वर ने पहले ही तय कर रखा है। तो फिर तुम किसकी चिंता कर रहे हो? तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर इससे कुछ भी नहीं बदलेगा; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम इसे होने से नहीं रोक सकते; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम उस दिन को आने से नहीं रोक सकते। इसलिए, तुम्हारी चिंता बेकार है, और इससे बस तुम्हारी बीमारी का बोझ और भी भारी हो जाता है। एक पहलू है चिंता न करना, और दूसरा है मृत्यु से न डरना। एक और पहलू है यह कहकर व्याकुल न होना, “क्या मेरी मृत्यु के बाद मेरे पति (या पत्नी) दूसरी शादी कर लेंगे? मेरे बच्चे की देखभाल कौन करेगा? मेरा कर्तव्य कौन सँभालेगा? मुझे कौन याद करेगा? मेरी मृत्यु के बाद परमेश्वर मेरे अंत के बारे में क्या निर्धारित करेगा?” ये मामले ऐसे नहीं हैं कि तुम इनकी चिंता करो। मरने वाले लोगों के लिए जाने के उचित स्थान होते हैं और परमेश्वर ने व्यवस्थाएँ कर रखी हैं। जीवित रहने वाले जीते रहेंगे; किसी एक व्यक्ति के होने न होने से मानवजाति की सामान्य गतिविधि और जीवित रहने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, न ही किसी एक व्यक्ति के गायब हो जाने से कुछ भी बदल जाएगा, तो ये चीजें कुछ भी नहीं हैं कि तुम इनकी चिंता करो। अपने विभिन्न रिश्तेदारों के बारे में चिंता करना जरूरी नहीं है, और यह तो और भी जरूरी नहीं है कि तुम इस बात की चिंता करो कि तुम्हारी मृत्यु के बाद कोई तुम्हें याद करेगा या नहीं। किसी के याद करने से आखिर क्या हो जाएगा? अगर तुम पतरस जैसे थे, तो तुम्हें याद करने का कोई महत्व भी होगा; अगर तुम पौलुस जैसे थे, तो तुम लोगों पर कहर ही बरपा करोगे, तो कोई भला तुम्हें क्यों याद करना चाहेगा? चिंता का एक और विषय है जो लोगों के मन में सबसे ज्यादा वास्तविक विचार होता है। वे कहते हैं, “एक बार मैं मर गया, तो कभी भी इस संसार पर नजर नहीं डाल पाऊँगा, सांसारिक जीवन की इन सब चीजों का फिर कभी आनंद नहीं ले पाऊँगा। एक बार मैं मर गया, तो इस संसार की किसी भी चीज से मेरा कोई वास्ता नहीं रह जाएगा, और जीने की भावना चली जाएगी। मर जाने के बाद मैं कहाँ जाऊंगा?” तुम कहाँ जाओगे, तुम्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। न ही यह ऐसी चीज है जिसके बारे में तुम्हें व्याकुल होना चाहिए। तब तुम एक जीवित व्यक्ति नहीं रहोगे, और तुम इस बात की चिंता कर रहे हो कि तुम इस भौतिक संसार के सभी लोगों, घटनाओं, चीजों, माहौल वगैरह को भाँप नहीं पाओगे। इसकी चिंता करने की तो तुम्हें और भी जरूरत नहीं है, तुम भले ही इन चीजों को जाने न दे पाओ, पर इनका कोई उपयोग नहीं रह जाएगा। लेकिन जिस चीज से तुम्हें थोड़ा आराम मिल पाएगा, वह यह है कि शायद तुम्हारी मृत्यु या तुम्हारा प्रस्थान तुम्हारे अगले देहधारण की नई शुरुआत, एक बेहतर शुरुआत, एक स्वस्थ शुरुआत, पूरी तरह से अच्छी शुरुआत, तुम्हारी आत्मा के फिर से वापस लौट आने की शुरुआत हो पाएगी। जरूरी नहीं कि यह बुरी चीज हो, क्योंकि तुम शायद अलग तरह से एक अलग रूप-रंग में अस्तित्व के लिए वापस आ जाओ। यह ठीक कौन-सा आकार लेगा, यह परमेश्वर और सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं पर निर्भर करता है। इस बात पर कहा जा सकता है कि सभी को बस प्रतीक्षा करके देखना चाहिए। अगर तुम इस जीवन में मृत्यु के बाद बेहतर ढंग से एक बेहतर आकार में जीना चुनते हो, तो तुम्हारी बीमारी चाहे जितनी बदतर हो जाए, सबसे अहम बात यह है कि तुम इसका सामना कैसे करते हो, और तुम्हें कौन-से नेक कर्म करने चाहिए, तुम्हारा बेकार के संताप, व्याकुलता और चिंता में डूबे रहना अहम नहीं है। जब तुम इस तरह से सोचते हो, तो क्या मृत्यु से डर, आतंक, और उसे ठुकराने का स्तर कम नहीं हो जाता? (हाँ।) अभी हमने कितने पहलुओं की बात की? एक था मृत्यु से न डरना। दूसरे कौन-से पहलू थे? (हमें चिंता नहीं करनी चाहिए कि हमारी बीमारियाँ बदतर हो जाएँगी या नहीं, और हमें अपने पति या पत्नी या बच्चों के बारे में, या अपने खुद के अंत और अपनी मंजिल वगैरह के बारे में व्याकुल नहीं होना चाहिए।) ये सब कुछ परमेश्वर के हाथ में छोड़ दो। और क्या रह गया? (मरने के बाद हम कहाँ जाएँगे इस बारे में हमें चिंता करने की जरूरत नहीं।) इन चीजों के बारे में चिंता करना बेकार है। वर्तमान में जियो, और यहाँ और अभी जो काम तुम्हें करने चाहिए, वो अच्छी तरह करो। तुम्हें नहीं मालूम कि भविष्य में क्या होगा, इसलिए तुम्हें यह सब परमेश्वर के हाथों में छोड़ देना चाहिए। और क्या बचा? (हमें भविष्य की मंजिल के लिए जल्दी से नेक कर्म करने चाहिए।) सही है, लोगों को भविष्य के लिए ज्यादा नेक काम करने चाहिए, उन्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए, और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो सत्य को समझे, और जिसे सत्य वास्तविकता प्राप्त हो। कुछ लोग कहते हैं, “अभी तुम मृत्यु की बात कर रहे हो, तो क्या तुम कहना चाहते हो कि भविष्य में सबको मृत्यु का सामना करना होगा? क्या यह एक बुरा शगुन है?” यह एक बुरा शगुन नहीं है, न ही यह तुम्हें कोई बचाव का टीका लगा रहा है, किसी को मृत्यु का शाप देना तो दूर की बात है—ये कथन शाप नहीं हैं। तो ये क्या हैं? (ये लोगों के लिए अभ्यास का रास्ता हैं।) सही कहा, ये वे हैं जो लोगों को अभ्यास में लाना चाहिए। ये लोगों द्वारा अपनाने की सही सोच और रवैये हैं, और ये वे सत्य हैं जो लोगों को समझने चाहिए। जो लोग किसी बीमारी से ग्रस्त नहीं हैं, उन्हें भी मृत्यु का सामना करने के लिए ऐसा रवैया अपनाना चाहिए। तो कुछ लोग कहते हैं, “अगर हम मृत्यु से न डरें, तो क्या इसका अर्थ यह है कि मृत्यु हमारे पास नहीं फटकेगी?” क्या यह सत्य है? (नहीं।) तो फिर यह क्या है? (यह एक धारणा है, और उनकी कल्पना है।) यह विकृत है, यह तार्किक विवेक और शैतानी फलसफा है—यह सत्य नहीं हैं। बात यह नहीं है कि अगर तुम मृत्यु से नहीं डरते या चिंतित नहीं होते, तो मृत्यु तुम तक नहीं आएगी, और तुम नहीं मरोगे—यह सत्य नहीं है। मैं उस रवैये की बात कर रहा हूँ जो मृत्यु और बीमारी के प्रति लोगों को अपनाना चाहिए। जब तुम ऐसा रवैया अपनाते हो, तो तुम संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं को पीछे छोड़ सकते हो। तब तुम अपनी बीमारी में नहीं फँसोगे, और बीमारी का तथ्य तुम्हारी सोच और तुम्हारी जिजीविषा को नुकसान नहीं पहुँचाएगा या विचलित नहीं करेगा। लोग जिस एक निजी दिक्कत का सामना करते हैं वह है उनके भविष्य की संभावनाएँ, और दूसरी है बीमारी और मृत्यु। भविष्य की संभावनाएँ और नश्वरता लोगों के दिलों को नियंत्रण में ले सकती हैं, लेकिन अगर तुम इन दो समस्याओं का सही ढंग से सामना कर सको और अपनी नकारात्मक भावनाओं पर विजय पा सको, तो आम मुश्किलें तुम्हें हरा नहीं पाएँगी।
बीमारी के अलावा लोग अक्सर अपने जीवन की कुछ दूसरी वास्तविक समस्याओं को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। जीवन में बहुत-सी वास्तविक समस्याएँ होती हैं, मिसाल के तौर पर, तुम्हारे घर में बड़े-बूढ़े हैं, जिनकी देखभाल करनी है, बच्चे हैं जिन्हें पालना-पोसना है, बच्चों की स्कूली पढ़ाई और दैनिक खर्चों के लिए, बड़े-बूढ़ों के इलाज के लिए पैसों की जरूरत है, और दैनिक आजीविका के लिए ढेर सारा पैसा चाहिए। तुम अपना कर्तव्य निभाना चाहते हो, लेकिन अगर तुम अपनी नौकरी छोड़ दोगे, तो गुजारा कैसे करोगे? तुम्हारी बचत जल्द खत्म हो जाएगी, तब तुम बिना पैसों के क्या करोगे? अगर तुम पैसे कमाने बाहर जाओगे, तो तुम्हारे कर्तव्य-निर्वाह में विलंब होगा, लेकिन अगर कर्तव्य-निर्वाह के लिए तुम अपनी नौकरी छोड़ दोगे, तो तुम्हारे पास घर की मुश्किलें हल करने के लिए कोई रास्ता नहीं होगा। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? बहुत-से लोग ऐसी चीजों से संघर्ष करते हैं और पसोपेश में पड़ जाते हैं, और इसलिए वे सभी परमेश्वर के दिन के लिए तरसते हैं, वे सोचते हैं कि महाविपत्तियाँ जाने कब आ जाएँ और कहीं उन्हें खाने-पीने का सामान घर में जमा करके तो नहीं रखना चाहिए। अगर वे तैयारी करें, तो घर में अतिरिक्त पैसा नहीं होता, और जीवन बहुत मुश्किल हो जाता है। वे दूसरे लोगों को बेहतर कपड़े पहने, बेहतर खाना खाते देखते हैं और दुखी महसूस करते हैं कि उनका जीवन बहुत कष्टप्रद है। वे लंबा वक्त माँस खाए बिना गुजारते हैं, और पास में कुछ अंडे हों, तो भी खाने की इच्छा दबाकर वे जल्द उन्हें बेचकर कुछ डॉलर कमाने बाजार चले जाते हैं। जब ये तमाम मुश्किलें जेहन में आती हैं, वे चिंता करने लगते हैं : “ये मुश्किलें कब खत्म होंगी? लोग हमेशा कहते हैं, ‘परमेश्वर का दिन आ रहा है, परमेश्वर का दिन आ रहा है,’ और ‘परमेश्वर का कार्य जल्द समाप्त हो जाएगा,’ लेकिन मुझे कोई कब बताएगा कि यह दरअसल होगा कब? इस बारे में निश्चित रूप से कौन बता सकेगा?” कुछ लोग वर्षों घर से दूर रहकर अपना कर्तव्य निभाते हैं, और समय-समय पर सोचते हैं, “मुझे कोई अंदाजा नहीं कि मेरे बच्चे अब कितने बड़े हैं, मेरे माता-पिता अच्छी सेहत में हैं या नहीं। इतने वर्षों तक मैं घर से दूर रहा हूँ, मैंने उनकी देखभाल नहीं की है। क्या उन्हें कोई दिक्कत है? अगर वे बीमार हो गए तो क्या करेंगे? क्या कोई उनकी देखभाल करेगा? मेरे माता-पिता अब अस्सी-नब्बे के होंगे, न जाने वे जिंदा भी हैं या नहीं।” इन चीजों के बारे में सोचने पर उनके दिलों में एक अनाम व्याकुलता पैदा हो जाती है। व्याकुल होने से बढ़कर वे चिंता करने लगेंगे, लेकिन चिंता करने से कुछ भी हल नहीं होता, इसलिए वे संतप्त अनुभव करने लगते हैं। जब वे बहुत संतप्त अनुभव करते हैं, तो उनका ध्यान परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के दिन की ओर जाता है, और वे सोचते हैं, “अब तक परमेश्वर का दिन क्यों नहीं आया? क्या हमें हमेशा इसी तरह बंजारा और सबसे अलग-थलग जीवन जीते रहना है? परमेश्वर का दिन आखिर कब आएगा? परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा? परमेश्वर इस संसार को कब नष्ट करेगा? इस पृथ्वी पर परमेश्वर का राज्य कब जाहिर होगा? हम परमेश्वर का व्यक्तित्व कब प्रकट होता देखेंगे?” वे इन चीजों के बारे में बार-बार सोचते हैं, और चिंता, व्याकुलता और संताप की नकारात्मक भावनाएँ उनके दिलों में जोर से उफनती हैं, उनके चेहरे पर फौरन चिंता का भाव छा जाता है, उन्हें अब कोई खुशी नहीं होती, वे निरुत्साहित-से चलते हैं, भूख लगे बिना खाते हैं, और उनका मन हर दिन उलझा हुआ रहता है। क्या ऐसी नकारात्मक भावनाओं में जीना अच्छी बात है? (नहीं।) कभी-कभी जीवन में कोई छोटी-सी मुश्किल लोगों को निष्क्रियता की नकारात्मक भावनाओं में डुबा देती है, कभी-कभी बिल्कुल बिना वजह, बिना किसी खास संदर्भ, या किसी खास व्यक्ति के बिना खास कुछ भी कहे ये नकारात्मक भावनाएँ अनजाने ही लोगों के दिलों में उफन जाती हैं। जब ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के दिलों में उफनती हैं, तो लोगों की आकांक्षाओं, परमेश्वर के दिन के आने, उसके कार्य के समाप्त होने और उसके राज्य के आने की लालसा और ज्यादा जोर पकड़ लेती है। कुछ लोग सच्चाई से घुटने टेककर आँसुओं की बाढ़ में परमेश्वर से यह कहकर प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, मुझे इस संसार से घृणा है, इस मानव जाति से घृणा है। जितनी जल्दी हो सके इसे समाप्त कर दो, लोगों का दैहिक जीवन और ये तमाम तकलीफें खत्म कर दो।” वे बिना किसी नतीजे के कई-कई बार ऐसी प्रार्थना करते हैं, और चिंता, व्याकुलता और संताप की नकारात्मक भावनाएँ अब भी उनके दिलों को घेरे रहती हैं, उनके विचारों और उनकी अंतरात्मा में गहराई से पैठी होती हैं, उन्हें गहन रूप से प्रभावित करती हैं और घेर लेती हैं। दरअसल यह किसी और वजह से नहीं बल्कि इसलिए होता है कि वे तरसते रहते हैं कि परमेश्वर का दिन जल्द आए, परमेश्वर का कार्य जल्द समाप्त हो, और जितनी जल्दी हो सके उन्हें आशीष मिलें, एक अच्छी मंजिल मिले, और अपनी धारणाओं में जिस स्वर्ग या राज्य की वे कल्पना करते हैं, उसमें प्रवेश मिल जाए; इसीलिए इन चीजों को लेकर वे अपने अंतरतम में इतने परेशान हो जाते हैं। वे बाहर से तो दिखाते हैं कि परेशान हैं, मगर दरअसल वे संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस कर रहे होते हैं। जब संताप, व्याकुलता और चिंता की ऐसी भावनाएँ लोगों को निरंतर घेरे रहती हैं, उनके मन में एक विचार सक्रिय हो जाता है, वे सोचते हैं, “अगर परमेश्वर का दिन जल्द नहीं आ रहा, परमेश्वर का कार्य जल्द-से-जल्द समाप्त नहीं होने वाला, तो मुझे अपने यौवन और कड़ी मेहनत करने की अपनी क्षमता का लाभ उठाना चाहिए। मैं काम करके पैसे कमाना चाहता हूँ, दुनिया में कुछ समय तक कड़ी मेहनत करके जीवन के मजे लेना चाहता हूँ। अगर परमेश्वर का दिन जल्द नहीं आ रहा, तो मैं घर लौटकर अपने परिवार से फिर से मिलना चाहता हूँ, जीवन साथी पाकर कुछ समय मजे से गुजारना चाहता हूँ, अपने माता-पिता को सहारा देना चाहता हूँ, अपने बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करना चाहता हूँ। बुजुर्ग हो जाने पर मेरे पास बहुत-से बच्चे होंगे, वे सब मेरे साथ रहेंगे, और हम पारिवारिक जीवन का आनंद लेंगे—यह कितना अद्भुत दृश्य है! कितनी मीठी छवि है!” इस तरह सोचकर वे उस किस्म की जिंदगी के मजे लेने की बाट जोहते हैं। जब कभी लोग सोचते हैं कि परमेश्वर का दिन जल्द आ जाएगा और परमेश्वर का कार्य शीघ्र समाप्त हो जाएगा, तो उनकी आकांक्षाएँ और अधिक तीव्र हो जाती हैं, परमेश्वर के कार्य के जल्द-से-जल्द समाप्त होने की उनकी लालसा और अधिक तीव्र हो जाती है। ऐसी हालत में जब तथ्य लोगों की कामनाओं से मेल नहीं खाते, जब लोग परमेश्वर के कार्य के समाप्त होने या परमेश्वर के दिन के आने का कोई संकेत नहीं देख पाते, तो संताप, व्याकुलता और चिंता की उनकी भावनाएँ और अधिक गंभीर हो जाती हैं। वे इस बारे में चिंता करते हैं कि कुछ साल बाद जब वे बूढ़े हो चुके होंगे, और उन्हें जीवन साथी नहीं मिला होगा, तो बुढ़ापे में उनकी देखभाल कौन करेगा। वे चिंता करते हैं कि अगर वे परमेश्वर के घर में निरंतर अपना कर्तव्य निभाते रहे और पहले ही समाज से तमाम रिश्ते तोड़ चुके हों, तो घर लौटने पर जीवन-यापन के लिए वे समाज में फिर से घुल-मिल पाएँगे या नहीं। उन्हें चिंता होती है कि कुछ साल बाद जब वे व्यापार करने लौटें, या नौकरी पर वापस जाएँ, तो वे समय के साथ कदम मिला पाएँगे या नहीं, भीड़ में अलग दिख पाएँगे या नहीं और गुजारा कर पाएँगे या नहीं। ऐसी चीजों के बारे में वे जितनी ज्यादा चिंता करते हैं, और इनको लेकर वे जितना ज्यादा व्याकुल और संतप्त अनुभव करते हैं, उतना ही वे परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य शांति से नहीं निभा पाते, और परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर पाते। इस तरह वे अपने भविष्य, अपनी संभावनाओं, और अपने पारिवारिक जीवन की और ज्यादा चिंता करते हैं, और साथ ही भविष्य में जीवन में आने वाली तमाम मुश्किलों के बारे में भी चिंता करते हैं। वे उन सभी चीजों के बारे में सोचते हैं जिन पर वे सोच सकते हैं, उन सभी चीजों की चिंता करते हैं जिनकी कर सकते हैं; वे इस बारे में भी चिंता करते हैं कि उनके नाती-पोतों का, और नाती-पोतों के वंशजों का जीवन कैसा होगा। उनके विचारों की पहुँच दूर तक होती है, और उनके विचार बहुत प्रबल होते हैं, और वे सबकी बारीकी पर ध्यान देते हैं। जब लोगों को ये चिंताएँ, व्याकुलताएँ और संताप की भावनाएँ होती हैं, तो वे शांति से अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ हो जाते हैं, वे सिर्फ परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर पाते, बल्कि इसके बजाय उनके मन में अक्सर विचार सक्रिय हो जाते हैं, और वे कभी हाँ कभी ना करते हैं। जब वे सुसमाचार कार्य को बहुत अच्छा होते देखते हैं, तो सोचते हैं, “परमेश्वर का दिन जल्द आएगा। मुझे अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना चाहिए, हाँ! लगे रहो! मुझे कुछ वर्ष और चलते रहना है, अब जाने में इतना ज्यादा वक्त नहीं है। ये तमाम तकलीफें झेलने योग्य हैं, इन सबका लाभ मिलेगा, और मुझे कोई चिंता नहीं होगी!” लेकिन कुछ वर्ष बाद भी महाविपत्तियाँ नहीं आईं, कोई भी परमेश्वर के दिन का जिक्र नहीं करता, इसलिए उनके दिल ठंडे पड़ जाते हैं। इस प्रकार यह संताप, व्याकुलता और चिंता और साथ ही उनके सक्रिय विचार बार-बार आते-जाते रहते हैं, अंतर्राष्ट्रीय स्थिति और परमेश्वर के घर की स्थिति के अनुसार बिना किसी अंजाम के घूमते रहते हैं, और वे इन्हें काबू में करने के लिए कुछ नहीं कर सकते—कोई कुछ भी कहे वे जिस दशा में हैं उसे बदलने में असमर्थ होते हैं। क्या ऐसे लोग होते हैं? (हाँ।) क्या ऐसे लोगों के लिए डटे रहना आसान होता है? (नहीं।) अपने कर्तव्य-निर्वाह में उनका रवैया और मनःस्थिति और जो ऊर्जा वे अपने कर्तव्यों में लगाते हैं, वे सब “ताजा खबरों” पर आधारित होते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “विश्वस्त समाचारों के अनुसार परमेश्वर का सुसमाचार अद्भुत ढंग से फैल रहा है!” और कुछ लोग कहते हैं, “ताजा खबर यह है कि अब पूरी दुनिया में विपत्तियाँ बड़ी तेजी से आ रही हैं, और जाहिर तौर पर संसार की स्थिति और विपत्तियों ने अब प्रकाशित वाक्यों की किताब की अमुक विपत्ति को साकार किया है। परमेश्वर का कार्य जल्द ही पूरा हो जाएगा, परमेश्वर का दिन जल्द ही आने वाला है, और पूरे धार्मिक संसार में कोलाहल है!” जब भी वे “ताजा खबर” या “विश्वस्त समाचार” सुनते हैं, तो उनका संताप, और उनकी व्याकुलता और चिंता अस्थायी रूप से समाप्त हो जाती हैं, अब उन्हें और परेशान नहीं करते, और वे कुछ वक्त के लिए अपने सक्रिय विचारों को जाने देते हैं। हालाँकि जब उन्होंने हाल में कोई “विश्वस्त समाचार” या “सही समाचार” नहीं सुना होता, तो उनके संताप, व्याकुलता और चिंता और साथ ही उनके सक्रिय विचारों की बाढ़ आने लगती है। कुछ लोग नौकरी के लिए कहाँ आवेदन करना है, कहाँ काम करना है, कितने बच्चे होने हैं, कुछ वर्षों में उनके बच्चे कहाँ स्कूल जाएँगे, उनके कॉलेज की फीस कैसे जोड़नी है, इस बारे में सोचकर तैयारी भी करने लगते हैं, और वे एक घर खरीदने, जमीन खरीदने या कार खरीदने की भी योजना बना लेते हैं। हालाँकि “विश्वस्त समाचार” सुनने के बाद ये चीजें अस्थायी रूप से ठंडे बस्ते में डाल दी जाती हैं। क्या यह एक मजाक नहीं लगता? (जरूर लगता है।) वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, मगर इस पर अपना दिल नहीं लगाते, और कहते हैं कि परमेश्वर में आस्था जीवन का सही पथ है, यही सबसे सार्थक जीवन है, इस तरह जीने का सर्वाधिक मूल्य है; परमेश्वर चाहे जैसे उनकी अगुआई करे, या परमेश्वर चाहे जो करे, वे निश्चित होते हैं कि परमेश्वर का किया सब-कुछ लोगों को बचाने के लिए होता है, और इसलिए वे अंत समय तक परमश्वर का अनुसरण करेंगे। चाहे यह तब तक चले, जब तक स्वर्ग और पृथ्वी बूढ़े न हो जाएँ, जब तक तारे अपनी स्थिति न बदल लें, जब तक समुद्र सूख न जाएँ, चट्टानें धूल न बन जाएँ, या समुद्र जमीन न बन जाएँ, और जमीन समुद्र, उनका दिल बिल्कुल वही रहेगा और यह तय है। शेष जीवन के लिए उनका हृदय परमेश्वर को अर्पित होगा, और अगर इस जीवन के बाद एक और जीवन हुआ, तब भी वे परमेश्वर का अनुसरण करेंगे। लेकिन अपने जीवन में अनेक मुश्किलें झेलने वाले ये लोग इस तरह नहीं सोचते। परमेश्वर में उनकी आस्था कुछ समय देखने से जुड़ी है, और वे अपना जीवन वैसे ही जीते हैं जैसा वे सोचते हैं कि उन्हें जीना चाहिए। वे उन तरीकों और साधनों को नहीं बदलेंगे जिनमें वे जीते हैं, या सिर्फ इसलिए अपनी कामनाएँ और योजनाएँ नहीं बदलेंगे क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलते हैं। शुरू में उनकी योजनाएँ चाहे जो रही हों, वे उन्हें सिर्फ इस कारण नहीं बदलते कि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वे बिल्कुल कुछ भी नहीं बदलते, और उसी तरह जीने की कोशिश करते हैं जैसे गैर-विश्वासी जीते हैं। फिर भी परमेश्वर में आस्था एक खास चीज से जुड़ी होती है, जो यह है कि परमेश्वर का दिन जल्द आएगा, परमेश्वर का राज्य जल्द आएगा, महाविपत्तियाँ आएँगी, और परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग तब विपत्तियों से बच कर निकल जाएँगे, वे विपत्तियों में नहीं फँसेंगे, और उन्हें बचाया जा सकता है। सिर्फ इसी एक विशेष चीज के कारण वे परमेश्वर में विश्वास रखने में इतनी ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं। इसलिए उनका प्रयोजन और परमेश्वर में विश्वास के लिए वे जिस पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वह बस यही एकमात्र चीज होती है। वे चाहे जितने धर्मोपदेश सुनें, लोगों द्वारा संगति में जितने भी सत्य सुनें, या उन्होंने परमेश्वर में चाहे जितने लंबे समय से विश्वास रखा हो, फिर भी परमेश्वर में उनके विश्वास का तरीका कभी नहीं बदलता, और वे इसे कभी नहीं छोड़ते। न तो वे जो धर्मोपदेश सुनते हैं, और न ही उन सत्यों के कारण जो वे समझते हैं, उनसे वे परमेश्वर में विश्वास को लेकर अपनी गलत सोच को बदलते हैं या छोड़ते हैं। और इसलिए बाहरी संसार में या परमेश्वर के घर में कोई बदलाव आए, या उस स्थिति के बारे में कोई बात कही जाए, उसका हमेशा उस चीज पर प्रभाव पड़ता है, जिसे लेकर वे अपने अंतरतम में बहुत चिंतित रहते हैं। अगर वे सुनते हैं कि परमेश्वर का कार्य जल्द ही पूरा हो जाएगा, तो उन्हें बेहद खुशी होती है; लेकिन अगर वे सुनते हैं कि इतनी जल्दी परमेश्वर का कार्य पूरा नहीं हो सकता, और वे चलते नहीं रह सकते, तो उनका संताप, व्याकुलता और चिंता दिन-ब-दिन बढ़ती जाएँगी, और वे परमेश्वर के घर से बिल्कुल अलग हो जाने के लिए किसी भी वक्त परमेश्वर का घर छोड़ने और भाई-बहनों को अलविदा कहने को तैयार होने लगते हैं। बेशक ऐसे लोग भी हैं जो किसी भी वक्त सभी भाई-बहनों के संपर्क विवरण पूरी तरह मिटा देने और परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें भेजी गई परमेश्वर के वचनों की किताबें कलीसिया को वापस भेजने की तैयारी करने लगते हैं। वे सोचते हैं, “मैं परमेश्वर में विश्वास रखने और सत्य का अनुसरण करने के इस मार्ग पर चलता नहीं रह सकता। मैंने सोचा था कि परमेश्वर में विश्वास रखने का अर्थ है कि मैं एक खुशहाल जीवन जियूँगा, मेरे बच्चे होंगे, मुझे आशीष मिलेंगे और मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करूँगा। अब चूँकि यह खूबसूरत सपना चूर-चूर हो गया है, मैं अब भी एक खुशहाल जीवन जीना, बच्चों के साथ जीवन के मजे लेना चुनूँगा। फिर भी मैं परमेश्वर में अपना विश्वास नहीं छोड़ सकता। अगर मौका मिला तो इसी जीवन में सौ गुना और आगे के जीवन में अनंत जीवन पा सकूँगा, क्या यह और भी बेहतर नहीं होगा?” परमेश्वर में विश्वास पर उनकी यह सोच है, यह उनकी योजना है, और बेशक यही वे करते हैं। परमेश्वर में अपने विश्वास में अपनी कल्पनाओं पर भरोसा करने वाले लोगों, जो अपने दैहिक जीवन को लेकर हमेशा संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं, के अंतरतम में यही सोच और योजना होती है, और यह उस मार्ग को दर्शाता है जिसका वे परमेश्वर में अपने विश्वास में अनुसरण करते हैं और जिस पर वे चलते हैं। वह क्या चीज है जो उनके मन में घर कर गई है? जो चीज उनके मन में सबसे ज्यादा घर कर गई है वह यह है कि परमेश्वर का दिन कब आएगा, परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा, महाविपत्तियाँ कब आएँगी, और वे महाविपत्तियों से बच कर निकल पाएँगे या नहीं—यही बात है जो उनके मन में सबसे ज्यादा पैठी हुई है।
जहाँ तक उन लोगों का सवाल है, जो अपने दैहिक जीवन को लेकर हमेशा संतप्त, व्याकुल और चिंतित रहते हैं, परमेश्वर में विश्वास में उनका प्रयास “इस जीवन में सौ गुना और आनेवाले जीवन में अनंत जीवन पाना” होगा। लेकिन वे इस बारे में नहीं सुनना चाहते कि परमेश्वर का कार्य कितना आगे बढ़ा है, क्या जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं वे उद्धार प्राप्त करने के नतीजे हासिल कर पाते हैं, कितने लोगों ने सत्य प्राप्त किया है, परमेश्वर को जाना है, अच्छी गवाही दी है, मानो इन चीजों का उनके साथ कोई लेना-देना न हो। तो वह क्या है जो वे सुनना चाहते हैं? (परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा।) उनकी उम्मीदें ज्यादा बड़ी हैं, है न? ज्यादातर लोग बहुत ओछे हैं। देखो, उनकी नजर किस पर है और वे सिर्फ महान चीजों की उम्मीद रखते हैं—वे कितनी ऊँची दशा में हैं! ज्यादातर लोग बस बहुत अभद्र हैं, हमेशा स्वभाव में बदलावों, परमेश्वर के प्रति समर्पण, वफादारी से अपना कर्तव्य निभाने, सत्य-सिद्धांतों के अनुसार काम करने की बात करते हैं—ये लोग क्या हैं? ये बहुत ओछे लोग हैं! चीनी लोग क्या कहते हैं? ये बहुत कमीने हैं। कमीने का क्या अर्थ है? यह बहुत अभद्र है। और इन लोगों की नजर किस पर होती है? वे बड़ी चीजों, ऊँची चीजों, आलीशान चीजों की उम्मीद रखते हैं। जो लोग आलीशान चीजों की उम्मीद रखते हैं, वे हमेशा ऊपर चढ़ना चाहते हैं, तब भी बेवजह उम्मीद करते हुए कि एक-न-एक दिन परमेश्वर उससे मिलने के लिए उन्हें हवा में ऊपर उठा लेगा। तुम परमेश्वर से मिलना चाहते हो, मगर यह नहीं पूछते कि परमेश्वर तुमसे मिलना चाहता है या नहीं—तुम बस ऐसी शानदार चीजें चाहते रहते हो! क्या तुमने परमेश्वर से सिर्फ कुछ बार भेंट की है? लोग परमेश्वर को नहीं जानते, इसलिए जब तुम उससे मिलते हो तब भी तुम उसकी अवज्ञा करोगे। तो इन लोगों के संताप, व्याकुलता और चिंता के पीछे का कारण क्या है? क्या यह सचमुच पूरी तरह से उनके जीवन की मुश्किलों के कारण है? नहीं, ऐसा नहीं है कि उनके जीवन में सचमुच मुश्किलें हैं, कारण यह है कि उन्होंने परमेश्वर में अपनी आस्था का केंद्र बिंदु अपने दैहिक जीवन को बना लिया है। उनके प्रयासों का केंद्र सत्य नहीं, बल्कि एक सुखी जीवन जीना है, अच्छे जीवन के मजे लेना है, एक अच्छे भविष्य का आनंद उठाना है। क्या इन लोगों की समस्याओं को दूर करना आसान है? क्या कलीसिया में ऐसे लोग हैं? वे हमेशा दूसरों से पूछते हैं, “बताओ भला, परमेश्वर का दिन कब आएगा? क्या कुछ वर्ष पहले यह नहीं कहा गया था कि परमेश्वर के कार्य का अंत होने ही वाला है? तो यह अब तक समाप्त क्यों नहीं हुआ?” क्या ऐसे लोगों से निपटने का कोई तरीका है? उनसे बस एक बात कहो, उनसे बोलो, “जल्द!” जब ऐसे लोगों की बात आए तो पहले उनसे पूछो, “तुम हमेशा इस बारे में पूछते हो। क्या तुमने कुछ योजनाएँ बनाई हैं? अगर ऐसा है, तो अगर तुम यहाँ नहीं रहना चाहते तो यहाँ रहने की जहमत मत उठाओ। वही करो जो तुम चाहते हो। अपनी आकाँक्षाओं के खिलाफ मत जाओ, और अपना जीवन कठिन मत बनाओ। परमेश्वर के घर ने तुम्हें यहाँ नहीं रखा है, वह तुम्हें यहाँ नहीं फँसा रहा है। तुम जब चाहो जा सकते हो। हमेशा यह मत पूछते रहो कि नई अफवाह क्या है। अफवाहों की खबरों पर तुम्हें बताया जाएगा ‘जल्द!’ अगर तुम उस जवाब से खुश नहीं हो, तुमने अपने दिल में पहले ही योजनाएँ बना ली हों, और उन्हें देर-सवेर अमल में लाओगे, तो मेरी सलाह मानो : जल्द-से-जल्द परमेश्वर के वचनों की किताबें कलीसिया को लौटा दो, अपना सामान बांधो और चले जाओ। हम एक-दूसरे को बस अलविदा कह देंगे और तुम्हें इन चीजों को लेकर फिर कभी संतप्त, व्याकुल और चिंतित होने की जरूरत नहीं पड़ेगी। घर लौट जाओ और अपनी जिंदगी जियो। खुश रहो! मैं तुम्हें सुखी और संतुष्ट जीवन की शुभकामना देता हूँ, आशा करता हूँ कि भविष्य में तुम्हारे साथ सब-कुछ ठीक होगा!” तुम इस बारे में क्या सोचते हो? (अच्छा है।) उन्हें कलीसिया छोड़ देने की सलाह दो; उन्हें रखने की कोशिश मत करो। उन्हें रखने की कोशिश क्यों न करें? (वे परमेश्वर में सचमुच विश्वास नहीं रखते, इसलिए उन्हें रखने का कोई तुक नहीं है।) सही है; वे छद्म-विश्वासी हैं! छद्म-विश्वासियों को रखने और उन्हें न निकालने का क्या तुक है? कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन उन्होंने कुछ भी बुरा नहीं किया है, और उन्होंने किसी भी चीज में बाधा नहीं पहुँचाई है।” क्या उन्हें किसी चीज को बाधित करने की जरूरत है? मुझे बताओ, क्या लोगों के एक समूह में किसी एक ऐसे व्यक्ति का रहना बाधित करना नहीं है? वे जहाँ भी जाते हैं, उनकी चाल-ढाल और कर्म पहले ही बाधा बन जाते हैं। वे कभी भी आध्यात्मिक भक्ति कार्य नहीं करते, वे कभी परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते, वे कभी प्रार्थना नहीं करते या सभाओं में संगति नहीं करते, वे बस अपने कर्तव्य निभाने का नाटक करते हैं, हमेशा पूछते रहते हैं कि नई अफवाह क्या है। वे खास तौर पर कुछ ज्यादा ही भावुक और चंचल होते हैं। वे खास तौर पर खाने-पीने, मौज-मस्ती में ज्यादा मन लगाते हैं, और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो आलसी होते हैं, खाने-पीने में लगे रहते हैं, सोते रहते हैं, गड़बड़ियाँ करते हैं, और वे परमेश्वर के घर में सिर्फ संख्या बढ़ाने के लिए रहते हैं। उन्हें अपने कर्तव्य निर्वाह की फिक्र नहीं होती, वे बस आवारा होते हैं। परमेश्वर के घर में वे अपने लाभ की चीजें ढूँढ़ने और फायदा उठाने के लिए आते हैं। अगर वे फायदा नहीं उठा सकते, तो वे तुरंत बिना किसी हिचकिचाहट के चले जाते हैं। यह देखकर कि वे बिना किसी हिचकिचाहट के तुरंत चले जाएँगे, क्या यह बेहतर नहीं है कि वे देर किए बिना तुरंत चले जाएँ? ऐसे लोग अंत तक मजदूरी नहीं कर सकते और उनकी मजदूरी का कोई अच्छा असर नहीं होता। वे मजदूरी करते भी हैं, तो सही चीजें नहीं करते—वे बस छद्म-विश्वासी हैं। परमेश्वर में अपनी आस्था में वे चीजों को एक तीसरे नजरिए से देखते हैं। जब परमेश्वर का घर समृद्ध होता है, तो वे यह सोचकर खुश होते हैं कि वे आशीष पाने की आशा रख सकते हैं, वे फायदे में हैं, परमेश्वर में उनका विश्वास व्यर्थ नहीं हुआ है, वे हारे नहीं है, और उन्होंने विजेता पक्ष पर दाँव लगाया है। लेकिन अगर परमेश्वर का घर शैतानी ताकतों के नीचे दब गया है, समाज ने उसका परित्याग कर दिया है, उसकी बदनामी कर उसे सताया गया है, वह खस्ता हाल है, तो न सिर्फ वे परेशान नहीं होते, बल्कि उस पर हँसते भी हैं। क्या हम ऐसे लोगों को कलीसिया में रख सकते हैं? (नहीं।) वे छद्म-विश्वासी और दुश्मन हैं! अगर कोई दुश्मन तुम्हारे बाजू में हो और तुम उसे भाई या बहन मानो, तो क्या तुम मूर्ख नहीं हो? अगर ऐसे लोग स्वेच्छा से मजदूरी करने में असमर्थ होते हैं, तो उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए, है न? (सही है।) सचमुच सही है, यह फौरन और अच्छी तरह से करो। उन्हें परामर्श देने की कोई जरूरत नहीं, बस आराम से उन्हें जाने को कहो। तुम्हें उन लोगों पर अपना समय और ऊर्जा खर्च करने की जरूरत नहीं, बस उनका सामान बंधवा कर घर भेज दो। सार रूप में, वे ऐसे लोग नहीं हैं जो परमेश्वर के घर के हैं, वे बस छद्म-विश्वासी हैं, जो कलीसिया में घुस आए हैं। वे वहाँ लौट सकते हैं जहाँ से आए थे, और तुम उन्हें बस जाने को कह सकते हो। कलीसिया में प्रवेश करने के बाद कुछ लोग वास्तव में अपने और परमेश्वर के घर के भाई-बहनों के बीच एक स्पष्ट भेद बना लेते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे जानते हैं वे क्या करने आए हैं, वे जानते हैं कि वे सचमुच विश्वास रखते हैं या नहीं, और परमेश्वर के कार्य के समाप्त होने की उम्मीद के अलावा वे आशीष पा सकेंगे या नहीं, परमेश्वर के घर का कोई भी कार्य या परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित किसी भी सत्य में प्रवेश का उनसे कोई लेना-देना नहीं होता; वे इन चीजों पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं देते, वे कलीसिया द्वारा उन्हें पढ़ने के लिए भेजी गई परमेश्वर के वचनों की किताबें नहीं पढ़ते, उन्हें बिना खोले बस पैकेजिंग के साथ यूँ ही छितरा कर छोड़ देते हैं। ऐसे लोग ऐसा कहते भर हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं; ऊपर से तो वे दूसरों की तरह विश्वास रखते-से लगते हैं, अपना कर्तव्य निभाने का नाटक करते हैं, मगर वे परमेश्वर के वचन कभी नहीं पढ़ते। उन्होंने कभी एक बार भी परमेश्वर के वचनों की किताब नहीं खोली, एक भी पन्ना नहीं पलटा—उन्होंने उसमें से कुछ भी नहीं पढ़ा। वे कभी भी परमेश्वर के घर द्वारा ऑनलाइन पोस्ट किए गए जाने वाले लोगों के अपने अनुभव बयान करनेवाली गवाही के वीडियो, सुसमाचार फिल्में, भजन वगैरह के वीडियो भी नहीं देखते। वे आम तौर पर क्या देखते हैं? वे खबरें, लोकप्रिय कार्यक्रम, वीडियो क्लिप और हास्य कार्यक्रम देखते हैं, जिन्हें देखना बेमानी है। ये लोग क्या हैं? कभी-कभार वे यह पूछने के लिए कलीसिया जाते हैं, “अब तक सुसमाचार कार्य कितने देशों में फैल चुका है? कितने लोगों ने परमेश्वर के प्रति रुझान दिखाया है? अब तक कितने देशों में कलीसिया स्थापित की गई हैं? कुल कितनी कलीसिया हैं? परमेश्वर का कार्य किस चरण में है?” अपने खाली समय में वे हमेशा इन्हीं चीजों के बारे में पूछते हैं। क्या इससे शक नहीं होता कि यह व्यक्ति जासूस है? बताओ भला, क्या किसी ऐसे को रखना ठीक है? (नहीं।) अगर वे अपनी मर्जी से कलीसिया नहीं छोड़ते, तो तुम लोगों को उनका पता चलते ही उन्हें निकाल देना चाहिए, और कलीसिया को इनके अभिशाप से मुक्त कर देना चाहिए। उन्हें रखना बेतुका है, और कलीसिया को इन आफतों से छुटकारा दिला देना चाहिए। ये लोग जिन चीजों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित होते हैं, उनका हम लोगों से रत्ती भर भी लेना-देना नहीं है। उन्हें परामर्श देने की जहमत मत उठाओ, उनके साथ सत्य पर संगति करना बेकार है। बस उनसे पीछा छुड़ाओ, और खत्म करो—ऐसे लोगों से निपटने का सबसे बढ़िया तरीका यही है।
भाई-बहनों के बीच छद्म-विश्वासियों के अलावा 60 से लेकर 80 या 90 वर्ष तक की उम्र के बड़े-बूढ़े भी हैं, जो अपनी बढ़ी हुई उम्र के कारण भी कुछ मुश्किलों का अनुभव करते हैं। ज्यादा उम्र होने पर भी जरूरी नहीं कि उनकी सोच सही या तार्किक ही हो, और उनके विचार और नजरिये सत्य के अनुरूप हों। इन बड़े-बूढ़ों को भी वही समस्याएँ होती हैं, और वे हमेशा चिंता करते हैं, “अब मेरी सेहत उतनी अच्छी नहीं रही, और मैं कौन-से कर्तव्य निभा पाऊँगा वे भी सीमित हो गए हैं। अगर मैं बस यह छोटा-सा कर्तव्य निभाऊँगा तो क्या परमेश्वर मुझे याद रखेगा? कभी-कभी मैं बीमार पड़ जाता हूँ, और मुझे अपनी देखभाल के लिए किसी की जरूरत पड़ती है। जब मेरी देखभाल के लिए कोई नहीं होता, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बूढ़ा हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे याद नहीं रहते, और सत्य को समझना मेरे लिए कठिन होता है। सत्य पर संगति करते समय मैं उलझे हुए और अतार्किक ढंग से बोलता हूँ, और मेरे पास साझा करने लायक कोई अनुभव नहीं होते। मैं बूढ़ा हूँ, मुझमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं है, मेरी दृष्टि बहुत स्पष्ट नहीं है, और मैं अब शक्तिशाली नहीं हूँ। मेरे लिए सब कुछ मुश्किल होता है। न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, बल्कि मैं आसानी से चीजें भूल जाता हूँ, गलत समझ लेता हूँ। कभी-कभी मैं भ्रमित हो जाता हूँ, और कलीसिया और अपने भाई-बहनों के लिए समस्याएँ खड़ी कर देता हूँ। मैं उद्धार प्राप्त करना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण करना चाहता हूँ, मगर यह बहुत कठिन है। मैं क्या कर सकता हूँ?” जब वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, तो यह सोचकर झुँझलाने लगते हैं, “मैंने आखिर इतनी बड़ी उम्र में ही परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू क्यों किया? मैं उन लोगों जैसा क्यों नहीं हूँ, जो 20-30 वर्ष के हैं, या जो 40-50 वर्ष के हैं? इतना बूढ़ा हो जाने के बाद ही क्यों मुझे परमेश्वर के कार्य का पता चला? ऐसा नहीं है कि मेरा भाग्य खराब है; कम-से-कम अब तो परमेश्वर के कार्य से मेरा सामना हो चुका है। मेरा भाग्य अच्छा है, और परमेश्वर मेरे प्रति दयालु है! बस सिर्फ एक चीज है जिसे लेकर मैं खुश नहीं हूँ, और वह यह है कि मैं बहुत बूढ़ा हूँ। मेरी याददाश्त बहुत अच्छी नहीं है, और मेरी सेहत उतनी बढ़िया नहीं है, मगर मैं अंदर से बहुत शक्तिशाली हूँ। बात बस इतनी है कि मेरा शरीर मेरी आज्ञा नहीं मानता, और सभाओं में थोड़ी देर सुनने के बाद मेरी आँख लग जाती है। कभी-कभी मैं प्रार्थना के लिए आँखें बंद कर लेता हूँ और सो जाता हूँ, और परमेश्वर के वचन पढ़ते समय मेरा मन भटकता है। थोड़ी देर पढ़ने के बाद मैं उनींदा हो जाता हूँ और सो जाता हूँ, और वचन मेरे दिमाग में नहीं उतरते। मैं क्या करूँ? ऐसी व्यावहारिक दिक्कतों के साथ भी क्या मैं सत्य का अनुसरण कर उसे समझने में समर्थ हूँ? अगर नहीं, और अगर मैं सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास न कर पाऊँ, तो कहीं मेरी पूरी आस्था बेकार न हो जाए? कहीं मैं उद्धार प्राप्त करने में विफल न हो जाऊँ? मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बहुत चिंतित हूँ! इस उम्र में अब और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, मुझे कोई चिंता नहीं रही या और मैं किसी चीज को लेकर व्याकुल नहीं हूँ, मेरे बच्चे बड़े हो चुके हैं, और उन्हें देखभाल के लिए या उन्हें बड़ा करने के लिए मेरी जरूरत नहीं है, इसलिए जीवन में मेरी सबसे बड़ी कामना सत्य का अनुसरण करने की है, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की है, और अपनी बची-खुची उम्र में उद्धार प्राप्त करने की है। हालाँकि मेरी असली स्थिति, उम्र से धुंधला गई आँखों की रोशनी, मन की उलझनों, खराब सेहत, अपना कर्तव्य अच्छी तरह न निभा पाने, और यथासंभव कार्य करने पर भी कभी-कभी समस्याएँ खड़ी होते देखकर लगता है कि उद्धार प्राप्त करना मेरे लिए आसान नहीं होगा।” वे इन चीजों के बारे में बार-बार सोचकर व्याकुल हो जाते हैं, और फिर सोचते हैं, “लगता है कि अच्छी चीजें सिर्फ युवाओं के साथ ही होती हैं, बूढ़ों के साथ नहीं। लगता है चीजें जितनी भी अच्छी हों, मैं अब उनका आनंद नहीं ले पाऊँगा।” वे इन चीजों के बारे में जितना ज्यादा सोचते हैं, जितना झुँझलाते हैं, उतने ही व्याकुल हो जाते हैं। वे अपने बारे में सिर्फ चिंता ही नहीं करते, बल्कि आहत भी होते हैं। अगर वे रोते हैं तो उन्हें लगता है कि यह बात सचमुच रोने लायक नहीं है, और अगर नहीं रोते, तो वह पीड़ा, वह चोट हमेशा उनके साथ बनी रहती है। तो फिर उन्हें क्या करना चाहिए? खास तौर से कुछ ऐसे बड़े-बूढ़े हैं, जो अपना सारा वक्त परमेश्वर के लिए खपने और अपना कर्तव्य निभाने में बिताना चाहते हैं, मगर वे शारीरिक रूप से बीमार हैं। कुछ को उच्च रक्तचाप है, कुछ को मधुमेह है, कुछ को पेट की बीमारियाँ हैं, और उन लोगों की शारीरिक ताकत उनके कर्तव्य की अपेक्षाओं की बराबरी नहीं कर पाती, और इसलिए वे झुँझलाते हैं। वे युवाओं को खाने-पीने, दौड़ने-कूदने में समर्थ देखते हैं, और उनसे ईर्ष्या करते हैं। वे युवाओं को ऐसे काम करते हुए जितना ज्यादा देखते हैं, यह सोचकर उतना ही संतप्त अनुभव करते हैं, “मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढँग से निभाना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण कर उसे समझना चाहता हूँ, सत्य का अभ्यास भी करना चाहता हूँ, तो फिर यह इतना कठिन क्यों है? मैं बहुत बूढ़ा और बेकार हूँ! क्या परमेश्वर को बूढ़े लोग नहीं चाहिए? क्या बूढ़े लोग सचमुच बेकार होते हैं? क्या हम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकेंगे?” चाहे वे जैसे सोचें वे दुखी रहते हैं, उन्हें खुशी नहीं मिलती। वे ऐसा अद्भुत समय और ऐसा बढ़िया मौका नहीं चूकना नहीं चाहते, फिर भी वे युवाओं की तरह तन-मन से खुद को खपाकर अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा नहीं पाते। ये बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं। हर बार जब वे किसी दिक्कत, रुकावट, कठिनाई या बाधा का सामना करते हैं, वे अपनी उम्र को दोष देते हैं, यहाँ तक कि खुद से घृणा करते हैं और खुद को पसंद नहीं करते। लेकिन किसी भी स्थिति में इसका कोई फायदा नहीं होता, कोई समाधान नहीं मिलता, और उन्हें आगे का रास्ता नहीं मिलता। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके लिए सचमुच आगे का रास्ता नहीं है? क्या कोई समाधान है? (बूढ़े लोगों को भी अपने बूते के कर्तव्य निभाने चाहिए।) बूढ़े लोगों के लिए उनके बूते के कर्तव्य निभाना स्वीकार्य है, है न? क्या बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण अब सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते? क्या वे सत्य को समझने में सक्षम नहीं हैं? (हाँ, जरूर हैं।) क्या बूढ़े लोग सत्य को समझ सकते हैं? वे कुछ सत्य समझ सकते हैं, वैसे युवा लोग भी सभी सत्य नहीं समझ पाते। बूढ़े लोगों को हमेशा भ्रांति होती है, वे मानते हैं कि वे भ्रमित हैं, उनकी याददाश्त कमजोर है, और इसलिए वे सत्य को नहीं समझ सकते। क्या वे सही हैं? (नहीं।) हालाँकि युवा बूढ़ों से ज्यादा ऊर्जावान और शारीरिक रूप से सशक्त होते हैं, मगर वास्तव में उनकी समझने, बूझने और जानने की क्षमता बूढ़ों के बराबर ही होती है। क्या बूढ़े लोग भी कभी युवा नहीं थे? वे बूढ़े पैदा नहीं हुए थे, और सभी युवा भी किसी-न-किसी दिन बूढ़े हो जाएँगे। बूढ़े लोगों को हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि वे बूढ़े, शारीरिक रूप से कमजोर, बीमार और कमजोर याददाश्त वाले हैं, इसलिए वे युवाओं से अलग हैं। असल में कोई अंतर नहीं है। कोई अंतर नहीं है कहने का मेरा अर्थ क्या है? कोई बूढ़ा हो या युवा, उनके भ्रष्ट स्वभाव एक-समान होते हैं, हर तरह की चीज को लेकर उनके रवैये और सोच एक सामान होते हैं, और हर तरह की चीज को लेकर उनके परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण एक-समान होते हैं। इसलिए बूढ़े लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि बूढ़े होने और युवाओं की तुलना में उनकी असाधारण आकांक्षाओं के कम होने, और उनके स्थिर हो पाने के कारण उनकी महत्वाकांक्षाएँ या आकांक्षाएँ प्रचंड नहीं होतीं, और उनमें कम भ्रष्ट स्वभाव होते हैं—यह एक भ्रांति है। युवा लोग पद के लिए जोड़-तोड़ कर सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े पद के लिए जोड़-तोड़ नहीं कर सकते? युवा सिद्धांतों के विरुद्ध काम कर सकते हैं और मनमानी कर सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े ऐसा नहीं कर सकते? (हाँ, जरूर कर सकते हैं।) युवा घमंडी हो सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े घमंडी नहीं हो सकते? लेकिन बड़े-बूढ़े जब घमंडी होते हैं, तो ज्यादा उम्र के कारण वे उतने आक्रामक नहीं होते और इसलिए यह उनका घमंड तेज-तर्रार नहीं होता। युवा अपने लचीले हाथ-पैर और फुर्तीले दिमाग के कारण अहंकार का ज्यादा स्पष्ट दिखावा करते हैं, जबकि बड़े-बूढ़े अपने सख्त हाथ-पाँव और हठीले दिमाग के कारण अहंकार का कम स्पष्ट दिखावा करते हैं। लेकिन उनके अहंकार और भ्रष्ट स्वभावों का सार एक-समान होता है। किसी बूढ़े व्यक्ति ने चाहे जितने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, या चाहे जितने वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाया हो, अगर वह सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो उसका भ्रष्ट स्वभाव कायम रहेगा। मिसाल के तौर पर, अकेले रहने वाले कुछ बड़े-बूढ़े अपने बल पर जीने के आदी होते हैं, और अपने रंग-ढंग में पक्के हो जाते हैं : खाने, सोने और आराम करने का उनका निश्चित समय और उनकी अपनी व्यवस्थाएँ होती हैं, और वे अपने जीवन में चीजों के क्रम को बाधित नहीं होने देना चाहते। ये बड़े-बूढ़े बाहर से तो बड़े अद्भुत-से लगते हैं, लेकिन उनमें अभी भी भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, और लंबे समय तक उनसे जुड़े रहने के बाद ही तुमको इसका पता चल पाता है। कुछ बूढ़े लोग बेहद सनकी और घमंडी होते हैं; उन्हें बस वही चाहिए जो वे खाना चाहते हैं, और जब वे मौज-मस्ती के लिए कहीं जाना चाहें, तो उन्हें कोई नहीं रोक सकता। जब वे कुछ करने का मन बना लेते हैं, तो दुनिया की कोई ताकत उन्हें नहीं रोक सकती। उन्हें कोई नहीं बदल सकता, और वे ताजिंदगी सनकी ही रहते हैं। ऐसे जिद्दी बड़े-बूढ़े आवारा युवाओं से भी ज्यादा तकलीफदेह होते हैं! इसलिए जब कुछ लोग कहते हैं, “बड़े-बूढ़े युवाओं जितने गहराई से भ्रष्ट नहीं होते। बड़े-बूढ़ों ने ऐसे जमाने में अपना जीवन गुजारा जो बहुत रूढ़िवादी था, जब सब-कुछ मना या बंद होता था, और इसलिए बड़े-बूढ़ों की यह पीढ़ी उतनी भ्रष्ट नहीं है,” क्या यह कहना सही है? (नहीं।) यह बस अपनी खातिर बाल की खाल निकलना है। युवा लोग दूसरों के साथ काम करना पसंद नहीं करते, तो क्या बड़े-बूढ़े भी ऐसे नहीं हो सकते? (जरूर हो सकते हैं।) कुछ बड़े-बूढ़ों का स्वभाव युवाओं से भी ज्यादा गंभीर रूप से भ्रष्ट होता है, वे हमेशा अपने बुढ़ापे का हवाला देते हैं, अपने जमाने पर यह कहकर गर्व करते हैं, “मैं उम्र में सयाना हूँ। तुम्हारी उम्र ही क्या है? मैं बड़ा हूँ या तुम? तुम यह नहीं सुनना चाहोगे, लेकिन मुझे तुमसे कहीं ज्यादा अनुभव है मैंने तुमसे कहीं ज्यादा किया है, और तुम्हें मेरी बात माननी पड़ेगी। मैं अनुभवी और जानकार हूँ। तुम बच्चे क्या समझोगे? मैं परमेश्वर में तब से विश्वास रख रहा था, जब तुम पैदा भी नहीं हुए थे!” क्या यह ज्यादा तकलीफदेह नहीं है? (जरूर है।) एक बार “बड़े-बूढ़े” की उपाधि पा लेने के बाद बूढ़े लोग ज्यादा तकलीफदेह हो सकते हैं। तो ऐसा नहीं है कि बड़े-बूढ़ों के पास करने को कुछ नहीं है, न ही वे अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ हैं, उनके सत्य का अनुसरण करने में असमर्थ होने की तो बात ही नहीं उठती—उनके लिए करने को बहुत कुछ है। अपने जीवन में जो विविध मतांतर और भ्रांतियाँ तुमने पाल रखी हैं, साथ ही जो विविध पारंपरिक विचार और धारणाएँ, अज्ञानी, जिद्दी, दकियानूसी, अतार्किक और विकृत चीजें तुमने इकट्ठा कर रखी हैं, वे सब तुम्हारे दिल में जमा हो गई हैं, और तुम्हें युवाओं से भी ज्यादा वक्त इन चीजों को खोद निकालने, विश्लेषित करने और पहचानने में लगाना चाहिए। ऐसी बात नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ करने को नहीं है, या कोई काम न होने पर तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करना चाहिए—यह न तो तुम्हारा कार्य है न ही तुम्हारी जिम्मेदारी। अव्वल तो बड़े-बूढ़ों की मनःस्थिति सही होनी चाहिए। भले ही तुम्हारी उम्र बढ़ रही हो और शारीरिक रूप से तुम अपेक्षाकृत बूढ़े हो, फिर भी तुम्हें युवा मनःस्थिति रखनी चाहिए। भले ही तुम बूढ़े हो रहे हो, तुम्हारी सोचने की शक्ति धीमी हो गई है, तुम्हारी याददाश्त कमजोर है, फिर भी अगर तुम खुद को जान पाते हो, मेरी बातें समझ सकते हो, और सत्य को समझ सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम बूढ़े नहीं हो, और तुम्हारी काबिलियत कम नहीं है। अगर कोई 70 की उम्र में होकर भी सत्य को नहीं समझ पाता, तो यह दिखाता है कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है, और कामकाज के लायक नहीं है। इसलिए सत्य की बात आने पर उम्र असंगत होती है और यही नहीं, भ्रष्ट स्वभावों के मामले में भी उम्र असंगत होती है। शैतान हजारों-लाखों वर्षों से, करोड़ों वर्षों से अस्तित्व में रहा है, और वह अब भी शैतान है, फिर भी हमें “शैतान” के पहले एक गुणवाचक विशेषण जोड़ देना चाहिए और वह है “बूढ़ा शैतान,” जिसका अर्थ है कि यह चरम सीमा तक दुष्ट है, सही है न? (हाँ।) तो बड़े-बूढ़ों को कैसे अभ्यास करना चाहिए? एक पहलू यह है कि तुम्हें युवाओं वाली मनःस्थिति रखनी चाहिए, सत्य का अनुसरण कर खुद को जानना चाहिए, और खुद को जान लेने के बाद प्रायश्चित्त करना चाहिए। एक और पहलू यह है कि तुम्हें अपने कर्तव्य पालन में सिद्धांत खोजने चाहिए, और सत्य-सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। तुम्हें खुद को यह कहकर सत्य का अनुसरण करने से खारिज नहीं करना चाहिए कि तुम बूढ़े हो, तुम्हारी उम्र बहुत ज्यादा है, तुम युवाओं जैसे सक्रिय विचार नहीं रखते, तुममें युवाओं जैसे भ्रष्ट स्वभाव नहीं हैं, कि तुमने इस जीवन में सभी चीजों का अनुभव कर लिया है, सभी चीजों को गहराई से देख लिया है, और इसलिए तुम्हारी कोई प्रचंड महत्वाकांक्षा या आकांक्षा नहीं है। इस बात से तुम वास्तव में यह कहना चाहते हो, “मेरे भ्रष्ट स्वभाव उतने गंभीर नहीं हैं, इसलिए सत्य का अनुसरण तुम युवा लोगों के लिए है। हम बड़े-बूढ़े लोगों से इसका कोई लेना-देना नहीं। हम बड़े-बूढ़े परमेश्वर के घर में बस अपने बूते का कार्य और प्रयास करते हैं, और बस इससे हमने अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा लिया होगा और हम बचा लिए जाएँगे। परमेश्वर द्वारा लोगों के भ्रष्ट स्वभावों, मसीह-विरोधी स्वभावों और मसीह-विरोधी सार का खुलासा करने की बात करें तो इसे समझने की जरूरत तुम युवाओं को है। तुम लोग इसे ध्यान से सुन सकते हो, और यह काफी है कि हम तुम लोगों का अच्छा आतिथ्य करें और तुम्हें सुरक्षित रखने के लिए आसपास के माहौल पर नजर रखें। हम बड़े-बूढ़ों की महत्वाकांक्षाएँ प्रचंड नहीं होतीं। हम बूढ़े हो रहे हैं, हमारे दिमाग धीरे-धीरे प्रतिक्रिया देते हैं, और इसीलिए हमारी तमाम प्रतिक्रियाएँ सकारात्मक होती हैं। मरने से पहले हम दयालु हो जाते हैं। लोग जब बूढ़े हो जाते हैं, तो उनका बर्ताव अच्छा हो जाता है, इसलिए हम शिष्ट लोग हैं।” वे दरअसल कहना चाहते हैं कि उनके स्वभाव भ्रष्ट नहीं हैं। हमने कब कहा कि बड़े-बूढ़ों को सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं है, या तुम्हारी उम्र के अनुसार सत्य के अनुसरण में अंतर होता है? क्या हमने कभी ऐसा कहा? नहीं, हमने नहीं कहा। परमेश्वर के घर में और सत्य के मामले में क्या बड़े-बूढ़ों का कोई विशेष समूह होता है? नहीं, बिल्कुल नहीं। सत्य के मामले में उम्र असंगत है, जैसे कि यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव, तुम्हारी भ्रष्टता की गहराई, तुम सत्य का अनुसरण करने योग्य हो या नहीं, तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, या तुम्हारे बचाए जाने की संभाव्यता क्या है, इसमें असंगत है। क्या ऐसा नहीं है? (जरूर है।) हमने इतने वर्षों से सत्य पर संगति की है, लेकिन हमने कभी भी लोगों की अलग-अलग उम्र के अनुसार विभिन्न प्रकार के सत्यों पर संगति नहीं की। न युवाओं के लिए न ही बड़े-बूढ़ों के लिए कभी भी सत्य पर विशेष रूप से अलग संगति की गई है, न ही इस आधार पर उनके भ्रष्ट स्वभावों का खुलासा किया गया है, न ही यह कहा गया है कि उनकी उम्र, सख्त सोच, और नई चीजों को न स्वीकार कर पाने के कारण, उनके भ्रष्ट स्वभाव सहज रूप से कम होकर बदल जाते हैं—ये बातें कभी नहीं कही गई हैं। एक भी सत्य की संगति खास तौर पर लोगों की उम्र के अनुसार और बूढ़ों को बाहर रखकर नहीं की गई। कलीसिया, परमेश्वर के घर में या परमेश्वर के समक्ष बूढ़े लोगों का कोई विशेष समूह नहीं होता, बल्कि वे किसी भी दूसरे उम्र के समूहों जैसे ही होते हैं। वे किसी भी तरह से विशेष नहीं हैं, बात बस इतनी है कि वे दूसरों के मुकाबले थोड़ा ज्यादा समय जी चुके हैं, वे इस संसार में दूसरों से कुछ वर्ष पहले आए, उनके बाल दूसरों से थोड़े ज्यादा सफेद हैं, और उनके शरीर दूसरों के मुकाबले थोड़ा पहले बूढ़े हो गए हैं; इन चीजों के अलावा कोई फर्क नहीं है। इसलिए अगर बूढ़े लोग हमेशा सोचते हैं, “मैं बूढ़ा हूँ, यानी इसका अर्थ है कि मैं अच्छे व्यवहार वाला व्यक्ति हूँ, मुझमें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, बस थोड़ी-सी भ्रष्टता है,” तो क्या यह भ्रांतिपूर्ण समझ नहीं है? (जरूर है।) क्या यह थोड़ी बेशर्मी नहीं है? कुछ बड़े-बूढ़े चालाक दुष्ट बूढ़े होते हैं, चरम सीमा तक कपटी होते हैं। वे कहते हैं कि उनमें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, यहाँ तक कि उनके भ्रष्ट स्वभाव खत्म हो चुके हैं, जबकि दरअसल उनके भ्रष्ट स्वभाव के सतत उद्गार दूसरों से कम नहीं होते। असलियत में ऐसे बहुत-से तरीके हैं जिनसे हम इस किस्म के बूढ़े व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव और मानवता की गुणवत्ता का बयान कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, “चालाक बूढ़े दुष्ट” और “बूढ़ा व्यक्ति बुद्धिमान और शक्तिशाली होता है, अनुभव यौवन को पछाड़ देता है”—इन दोनों में “बूढ़ा” शब्द का इस्तेमाल होता है, सही है न? (सही है।) दूसरे और कौन-से विवरण हैं जिनमें “बूढ़ा” शब्द का इस्तेमाल होता है? (बूढ़े षड्यंत्रकारी।) हाँ, यह अच्छा है, “बूढ़े षड्यंत्रकारी।” देखा, इन सब में “बूढ़ा” शब्द इस्तेमाल हुआ है। फिर “बूढ़ा शैतान” और “बूढ़े दानव” भी हैं—ठेठ वरिष्ठ! बूढ़े लोगों के समूह का हिस्सा बनने पर लोग क्या मानते हैं? वे मानते हैं, “हमारे सारे भ्रष्ट स्वभाव खत्म हो चुके हैं। भ्रष्ट स्वभाव तुम युवा लोगों का मामला है। तुम लोग हमसे ज्यादा गहराई से भ्रष्ट हो।” क्या यह जान-बूझकर लाई गई विकृति नहीं है? वे खुद को अच्छा दिखाना चाहते हैं, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनाना चाहते हैं, लेकिन बात दरअसल यह नहीं है, और चीजें ऐसी नहीं हैं। “बूढ़े दानव,” “बूढ़ा शैतान,” “बूढ़े षड्यंत्रकारी,” “चालाक बूढ़े दुष्ट,” “अपने बुढ़ापे का दिखावा करना”—“बूढ़े” शब्द का इस्तेमाल करने वाले ऐसे विवरण अच्छी बातें नहीं हैं, ये सकारात्मक बातें नहीं हैं।
हम अभी बड़े-बूढ़ों को चेतावनी देने, उन्हें परामर्श देने, उनका मार्गदर्शन करने, और युवाओं को बचाव की सुई लगाने के लिए इस पर संगति कर रहे हैं। ये बातें कहने का प्रयोजन मुख्य रूप से किस समस्या को सुलझाना है? यह इन बड़े-बूढ़ों के संताप, व्याकुलता और चिंता को दूर करने और यह सुनिश्चित करने के लिए है कि वे समझ लें कि यह संताप, व्याकुलता और चिंता फालतू और गैर-जरूरी है। अगर तुम कोई कर्तव्य निभाना चाहते हो, और तुम किसी कर्तव्य-निर्वहन के लिए उपयुक्त हो, तो क्या परमेश्वर का घर तुम्हें मना करेगा? (नहीं।) परमेश्वर का घर यकीनन तुम्हें कर्तव्य निभाने का एक अवसर देगा। वह बिल्कुल नहीं कहेगा, “तुम कर्तव्य नहीं निभा सकते, क्योंकि तुम बूढ़े हो। बाहर जाओ। हम तुम्हें मौका नहीं देंगे।” नहीं, परमेश्वर का घर सभी लोगों से उचित बर्ताव करता है। जब तक तुम कोई कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त हो, और कोई छिपा हुआ खतरा नहीं है, तो परमेश्वर का घर तुम्हें अवसर देगा, और तुम्हारी क्षमता के अनुसार तुम्हें कोई एक कर्तव्य निभाने देगा। यही नहीं, अगर तुम खुद को जान कर सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, तो क्या कोई तुम्हारा मजाक उड़ाकर कहेगा, “तुम जैसा बूढ़ा आदमी क्या सत्य के अनुसरण के योग्य है?” क्या कोई तुम्हारा मजाक उड़ाएगा? (नहीं।) क्या कोई कहेगा, “तुम बूढ़े और भ्रमित हो। तुम्हारे सत्य का अनुसरण करने की क्या तुक है? परमेश्वर तुम जैसे बूढ़े व्यक्ति को नहीं बचाएगा?” (नहीं।) कोई नहीं कहेगा। सत्य के समक्ष सभी बराबर हैं, और सबके साथ उचित व्यवहार होता है। बात बस इतनी है कि शायद तुम सत्य का अनुसरण न करो, और हमेशा यह सोचकर अपनी उम्र और अनुभव का फायदा उठाकर लोगों से छल करो, “मैं बूढ़ा हूँ, मैं कोई कर्तव्य नहीं निभा सकता।” दरअसल, तुम अपनी क्षमता के अनुसार बहुत-से कर्तव्य निभा सकते हो। अगर तुम कोई भी कर्तव्य नहीं निभाते, और इसके बजाय अपने बुढ़ापे का दिखावा करते हो, दूसरों को ज्ञान देना चाहते हो, तो तुम्हारी बात कौन सुनना चाहेगा? कोई नहीं। तुम हमेशा कहते हो, “अरे, तुम युवा लोग बस चीजें नहीं समझते!” और “अरे, तुम युवा लोग बस स्वार्थी हो!” और “अरे, तुम युवा लोग बस घमंडी हो!” और “अरे, तुम युवा लोग बस आलसी हो। हम बड़े-बूढ़े मेहनती हैं, और हमारे जमाने में हम फलाँ-फलाँ थे।” ऐसी बातें कहने का क्या फायदा? अपने “शानदार” इतिहास की शेखी मत बघारो; कोई नहीं सुनना चाहता। इन पुराने ढर्रे की चीजों के बारे में बात करना बेकार है; वे सत्य नहीं दर्शातीं। अगर तुम किसी चीज के बारे में बात करना चाहते हो, तो सत्य के साथ कुछ प्रयास करो, सत्य को थोड़ा और समझो, खुद को जानो, खुद को बस किसी दूसरे साधारण इंसान की तरह देखो न कि किसी विशेष समूह के सदस्य के रूप में, जिसका दूसरों द्वारा सम्मान किया जाना चाहिए, जिसकी दूसरे आराधना करें, जिसे दूसरे ऊँचा दर्जा दें, और जिसके चारों ओर दूसरों की भीड़ लग जाए। यह एक असाधारण आकाँक्षा है, एक गलत सोच है। उम्र तुम्हारी पहचान का प्रतीक चिह्न नहीं है, उम्र योग्यता नहीं दर्शाती, और उम्र वरिष्ठता नहीं दर्शाती, और यह तो बिल्कुल भी नहीं दर्शाती कि तुम्हें सत्य या मानवता हासिल है, और उम्र तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों को हल्का नहीं कर सकती। तो तुम बस दूसरे लोगों जैसे ही हो। हमेशा खुद को दूसरों से अलग करने और स्वयँ को पवित्र दर्शाने के लिए खुद पर “बूढ़ा” होने का तमगा मत लगाओ। यह दिखाता है कि तुम खुद को बिल्कुल भी नहीं जानते! जब तक जीवित हैं, तब तक बड़े-बूढ़ों को सत्य और जीवन-प्रवेश का अनुसरण करने का और ज्यादा प्रयास करना चाहिए, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए भाई-बहनों के साथ सद्भाव से कार्य करना चाहिए; सिर्फ इसी प्रकार उनका आध्यात्मिक कद बढ़ सकता है। बूढ़े लोगों को खुद को दूसरों से वरिष्ठ समझकर अपने बुढ़ापे का दिखावा नहीं करना चाहिए। युवा हर प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर सकते हैं, वैसे ही तुम भी कर सकते हो; युवा हर तरह की बेवकूफी कर सकते हैं, वैसे ही तुम भी कर सकते हो; युवा धारणाएँ छुपाए होते हैं, वैसे ही बूढ़े भी छुपाए होते हैं; युवा विद्रोही हो सकते हैं, वैसे ही बूढ़े भी हो सकते हैं; युवा मसीह-विरोधी स्वभाव दर्शा सकते हैं, वैसे ही बूढ़े भी दर्शा सकते हैं; युवाओं की महत्वाकांक्षाएँ और आकांक्षाएँ प्रचंड होती हैं, वैसे ही बूढ़ों की भी होती हैं, रत्ती भर फर्क नहीं होता; युवा विघ्न-बाधाएँ पैदा कर सकते हैं और कलीसिया से उन्हें हटाया जा सकता है, वैसे ही बूढ़े लोग भी हटाए जा सकते हैं। इसलिए अपनी काबिलियत के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के अलावा बहुत-सी ऐसी चीजें हैं, जो वे कर सकते हैं। अगर तुम बेवकूफ और भुलक्कड़ नहीं हो, सत्य को नहीं समझ सकते, और जब तक खुद की देखभाल कर सकते हो, तो ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए। युवाओं की ही तरह तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो, सत्य को खोज सकते हो, और तुम्हें अक्सर परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य-सिद्धांत खोजने चाहिए, और लोगों और चीजों को देखने-समझने और पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपना मानदंड बनाकर आचरण और कार्य करने का प्रयास करना चाहिए। यही वह रास्ता है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए, और तुम्हारे बूढ़े होने, अनेक बीमारियाँ होने, या शरीर के बूढ़े होते जाने के कारण तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव नहीं करना चाहिए। संताप, व्याकुलता और चिंता का अनुभव करना सही नहीं है—ये तर्कहीन अभिव्यक्तियाँ हैं। बड़े-बूढ़ों को अपनी “बूढ़ा” वाली उपाधि त्याग देनी चाहिए, युवाओं के साथ जुड़ जाना चाहिए और उनके बराबर बैठना चाहिए। तुम्हें हमेशा यह सोचते हुए अपने बुढ़ापे का दिखावा नहीं करना चाहिए कि तुम आदर-योग्य हो, उच्च सदाचार और ऊँची योग्यता वाले हो, युवाओं का प्रबंधन कर सकते हो, युवाओं के लिए वरिष्ठ और बुजुर्ग हो, हमेशा युवाओं को नियंत्रित करने की महत्वाकाँक्षा रखते हो, हमेशा युवाओं का प्रबंधन करने की कामना करते हो—यह पूरी तरह से भ्रष्ट स्वभाव है। चूँकि बड़े-बूढ़ों के स्वभाव भी युवाओं की तरह ही भ्रष्ट होते हैं, और वे भी युवाओं की तरह ही अक्सर जीवन और अपने कर्तव्य-निर्वहन में भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, तो फिर बड़े-बूढ़े वे काम क्यों नहीं करते जो उचित हैं, और इसके बजाय हमेशा अपने बुढ़ापे और उनकी मृत्यु के बाद क्या होगा विषय को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित क्यों अनुभव करते हैं? वे युवाओं की तरह अपने कर्तव्य क्यों नहीं निभाते? वे युवाओं की तरह सत्य का अनुसरण क्यों नहीं करते? तुम्हें यह अवसर दिया गया है, तो अगर तुम इसे गँवा दो, और फिर तुम इतने बूढ़े हो जाओ कि न सुन सको न अपनी देखभाल कर सको, तब तुम पछताओगे, और तुम्हारा जीवन यूँ ही गुजर जाएगा। समझ रहे हो? (हाँ।)
क्या बड़े-बूढ़ों की नकारात्मक भावनाओं की समस्या अब दूर हो चुकी है? बूढ़े हो जाने पर क्या तुम लोग बुढ़ापे का दिखावा करोगे? क्या तुम चालाक बूढ़े दुष्ट और बूढ़े षड्यंत्रकारी बन जाओगे? किसी बड़े-बूढ़े को देखकर क्या तुम लोग उसे “बूढ़े भाई” या “बूढ़ी बहन” कहकर पुकारोगे? उनके अपने नाम हैं, मगर तुम उन्हें उनके नाम से नहीं पुकारते, इसके बजाय तुम “बूढ़ा” शब्द जोड़ देते हो। अगर तुम बड़े-बूढ़ों से बात करते वक्त हमेशा “बूढ़ा” शब्द जोड़ देते हो, तो क्या उन्हें हानि नहीं होगी? वे पहले से खुद को बूढ़ा समझते हैं, उनमें कुछ नकारात्मक भावनाएँ हैं, तो अगर तुम उन्हें “बूढ़ा” पुकारते हो, तो यह उनसे यह कहने जैसा है, “तुम बूढ़े हो, मुझसे ज्यादा बूढ़े, और अब तुम किसी काम के नहीं हो।” तुम्हारी यह बात सुनकर क्या उन्हें अच्छा लगेगा? वे यकीनन नाखुश होंगे। तुम उन्हें इस तरह संबोधित करोगे, तो क्या उनका दिल नहीं दुखेगा? कुछ बड़े-बूढ़ों को तुम्हारे इस संबोधन से आनंद मिलेगा, और वे सोचेंगे, “देखा, मैं आदर-योग्य, बढ़िया शोहरत वाला उच्च सदाचारी हूँ। मुझे देखने पर भाई-बहन मुझे मेरे नाम से नहीं पुकारते। परमेश्वर के घर में लोग बड़े-बूढ़ों को चाचा, दादा या दादी नहीं पुकारते। इसके बजाय जब भाई-बहन मुझे संबोधित करते हैं, तो वे ‘बूढ़ा’ शब्द जोड़ देते हैं और मुझे ‘बूढ़ा भाई’ (या ‘बूढ़ी बहन’) कहकर पुकारते हैं। देखो मैं दूसरों के सामने कितना प्रतिष्ठित, कितना सम्मानित हूँ। परमेश्वर का घर अच्छा है—लोग बड़े-बूढ़ों का आदर और युवाओं का खयाल रखते हैं!” क्या तुम आदर के योग्य हो? तुम अपने भाई-बहनों के लिए क्या शिक्षा लाए हो? उनके लिए क्या लाभ लाए हो? परमेश्वर के घर में तुम्हारा योगदान क्या है? तुम सत्य को कितना समझते हो? सत्य को कितना अभ्यास में लाते हो? तुम खुद को आदर-योग्य, उच्च सदाचारी मानते हो, फिर भी तुमने रत्ती भर भी योगदान नहीं किया है, तो क्या तुम इस योग्य हो कि भाई बहन तुम्हें “बूढ़ा भाई” या “बूढ़ी बहन” कहकर पुकारें? बिल्कुल नहीं! तुम अपने बुढ़ापे का दिखावा करते हो और हमेशा चाहते हो कि दूसरे लोग तुम्हारा आदर करें! क्या “बूढ़ा भाई” या “बूढ़ी बहन” कहकर संबोधित किया जाना अच्छी बात है? (नहीं।) नहीं, अच्छी बात नहीं है, मगर मैं अक्सर यह सुनता हूँ। यह बहुत बुरी बात है, फिर भी लोग बड़े-बूढ़ों को अक्सर इसी तरह संबोधित करते हैं। इससे किस प्रकार का माहौल बनता है? यह घिनौना लगता है, है न? किसी बड़े-बूढ़े को तुम जितना ज्यादा “बूढ़ा भाई” या “बूढ़ी बहन” कहकर संबोधित करते हो, वे खुद को उतना ही योग्य, और आदर-योग्य उच्च सदाचारी मानते हैं; तुम उन्हें जितना ज्यादा “बूढ़े अमुक-अमुक” नाम से संबोधित करते हो, उतना ही ज्यादा वे खुद को विशेष मानते हैं, दूसरे लोगों से ज्यादा महत्वपूर्ण और बेहतर मानते हैं, उनके दिलों में दूसरों की अगुआई करने का झुकाव पैदा हो जाता है, और सत्य का अनुसरण करने से वे उतना ही ज्यादा दूर भटक जाते हैं। वे हमेशा खुद को दूसरों से बेहतर और दूसरों को अप्रिय मानकर, हमेशा दूसरों में समस्याएँ और खुद में कोई समस्या न देखकर, वे हमेशा दूसरों की अगुआई और प्रबंधन करना चाहते हैं। बताओ भला, क्या ऐसा व्यक्ति अभी भी सत्य का अनुसरण कर सकता है? नहीं, वे नहीं कर सकते। इसलिए लोगों को “बूढ़ा भाई” या “बूढ़ी बहन” कहकर संबोधित करने से उन्हें कोई लाभ नहीं, और इससे बस इतना ही होगा कि उनका दिल दुखेगा और उन्हें नुकसान होगा। अगर तुम उन्हें बस उनके नाम से पुकारो और “बूढ़ा” पदनाम हटा दो, अगर तुम उन्हें सही ढंग से लो, उनके साथ बराबर होकर बैठो, तो उनकी दशा और उनकी मानसिकता सामान्य हो जाएगी, और वे फिर कभी अपने अनुभव के वर्षों पर गर्व नहीं करेंगे और दूसरों को नीची नजर से नहीं देखेंगे। इस प्रकार उनके लिए यह आसान हो जाएगा कि वे खुद को दूसरों के बराबर मानें, फिर वे खुद को और दूसरों को सही ढंग से देख सकेंगे, खुद को दूसरे लोगों से बेहतर नहीं बल्कि बिल्कुल दूसरे, साधारण लोगों के समान देख पाएँगे। इस तरह उनकी मुश्किलें कम हो जाएँगी, और वे अपनी बढ़ती हुई उम्र और सत्य हासिल न कर पाने के कारण पैदा हो सकने वाली नकारात्मक भावनाओं का अनुभव नहीं करेंगे, और फिर वे सत्य का अनुसरण करने की उम्मीद कर पाएँगे। जब ये नकारात्मक भावनाएँ पैदा नहीं होतीं, तो वे अपनी समस्याओं, खास तौर से अपने भ्रष्ट स्वभाव को सही मानसिकता के साथ देख पायेंगे। इसका सत्य के उनके अनुसरण, उनके आत्मज्ञान और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने की उनकी क्षमता पर एक सकारात्मक और सहायक प्रभाव पड़ेगा। तब क्या बड़े-बूढ़ों के साथ होनेवाली नकारात्मक भावनाओं की समस्याएँ दूर नहीं हो जाएँगी? (जरूर हो जाएँगी।) वे दूर हो जाएँगी और फिर बिल्कुल कोई कठिनाई नहीं होगी। तो वह कौन-सी मानसिकता है जो बड़े-बूढ़ों को सबसे पहले अपनानी चाहिए? उन्हें सकारात्मक मानसिकता अपनानी चाहिए; उन्हें न सिर्फ विवेकपूर्ण होना चाहिए बल्कि उदार भी होना चाहिए। उन्हें युवाओं के साथ चीजों को लेकर हंगामा नहीं करना चाहिए, बल्कि एक उदाहरण बनकर युवाओं को रास्ता दिखाना चाहिए, उन पर आवेश नहीं दिखाना चाहिए। युवा जल्द भड़क जाते हैं, और बेसब्री से बात करते हैं, तो उनके साथ चीजों को लेकर हंगामा मत करो। वे युवा हैं, कच्चे हैं, उन्हें अनुभव नहीं है, कुछ साल तपकर वे सही हो जाएँगे। चीजों को ऐसा ही होना चाहिए, और बड़े-बूढ़ों को यह बात समझ लेनी चाहिए। तो बड़े-बूढ़ों को कौन-सी मानसिकता अपनानी चाहिए जो सत्य के अनुरूप हो। उन्हें युवाओं के साथ सही ढंग से पेश आना चाहिए, और साथ ही उन्हें खुद को बहुत अनुभवी और गहरी दृष्टि वाला मानकर घमंडी और दंभी नहीं होना चाहिए। उन्हें खुद को साधारण मानना चाहिए, बिल्कुल सब लोगों जैसा ही—यही करना सही है। बड़े-बूढ़ों को अपनी उम्र को रुकावट नहीं बनने देना चाहिए, न ही उन्हें एक युवा व्यक्ति की मानसिकता पाने के लिए बदल जाना चाहिए। एक युवा व्यक्ति वाली मानसिकता में बदल जाना भी सामान्य नहीं है, इसलिए अपनी उम्र के कारण रुको मत। हमेशा यह न सोचो, “अरे, मैं बहुत बूढ़ा हूँ, मैं यह नहीं कर सकता, वह नहीं कर सकता। बूढ़ा होने के कारण मुझे युवाओं को दिखाने के लिए यह करना चाहिए, वह करना चाहिए, मुझे एक खास अंदाज से बैठना और खड़ा होना चाहिए, मुझे एक खास अच्छे तरीके से खाना चाहिए, ताकि युवा बड़े-बूढ़ों को नीची नजर से न देखें।” यह मानसिकता गलत है, और यह सोचकर तुम एक किस्म की गलत सोच द्वारा नियंत्रित और प्रतिबंधित हो रहे हो, और तुम थोड़ा कृत्रिम, नकली और झूठे हो रहे हो। अपनी उम्र के कारण रुको मत, बाकी सबकी तरह रहो, जो कुछ कर सकते हो और जो तुम्हें करना चाहिए, वह करो—इस तरह तुम्हारी मानसिकता सामान्य हो जाएगी। समझ गए? (हाँ।) तो जब किसी बड़े-बूढ़े में सामान्य मानसिकता होती है, तो उनकी बढ़ती उम्र के कारण उनमें पैदा हो सकने वाली विविध नकारात्मक भावनाएँ उनके जाने बिना ही गायब हो जाती हैं; वे अब तुम्हें उलझा नहीं सकतीं, उनसे होने वाली हानि भी गायब हो जाती है; ये नकारात्मक भावनाएँ अब उन्हें उलझा नहीं पाती हैं, इन भावनाओं के कारण उनको होने वाले नुकसान गायब हो जाते हैं, और तब उनकी मानवता, उनका तर्क, उनका जमीर, सब अपेक्षाकृत सामान्य हो जाते हैं। सामान्य जमीर और तार्किकता होने के आधार पर लोगों का आरंभ बिंदु सत्य के अनुसरण, उनके कर्तव्य-निर्वहन, किसी भी गतिविधि और कार्य में लगने के लिए अपेक्षाकृत सही हो जाता है, और प्राप्त नतीजे भी अपेक्षाकृत सही होते हैं। अव्वल तो बड़े-बूढ़े अपनी उम्र के कारण रुकेंगे नहीं बल्कि वस्तुपरक और व्यावहारिक ढंग से अपना मूल्यांकन कर पाएँगे, जो कार्य उन्हें करने चाहिए वे कर पाएँगे, दूसरे लोगों जैसे ही होंगे, और जो कर्तव्य उन्हें निभाना चाहिए उसे अपनी पूरी काबिलियत से निभा पाएँगे। युवाओं को नहीं सोचना चाहिए, “तुम इतने बूढ़े हो, तुम मेरे लिए जगह नहीं बनाते, न मेरी देखभाल करते हो। तुम इतने बूढ़े हो, तुम्हें अनुभवी होना चाहिए, मगर तुम मुझे काम करने के नुस्खे नहीं देते, और तुम्हारे साथ रहने का कोई फायदा नहीं है। तुम बूढ़े हो, तो फिर कैसे नहीं जानते कि युवाओं के प्रति सहृदयता से कैसे रहें?” क्या ऐसा कहना सही है? (नहीं।) बड़े-बूढ़ों से ऐसी माँगें करना अनुचित है। इसलिए सत्य के समक्ष सभी लोग बराबर हैं। अगर तुम्हारी पूरी सोच व्यावहारिक, वस्तुपरक, सही और तार्किक है, तो वह यकीनन सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप होगी। अगर तुम किसी वस्तुपरक शर्त, कारण, परिवेश या किसी भी कारक से अप्रभावित हो, अगर तुम बस वही करते हो जो लोगों को करना चाहिए, और वही करते हो जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है, तो तुम जो करोगे वह यकीनन उपयुक्त और उचित होगा, मूल रूप से सत्य के अनुरूप होगा। तुम अपनी बूढ़ी उम्र के कारण संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में भी नहीं घिरोगे, और यह समस्या दूर हो जाएगी।
बहुत बढ़िया, मैं आज की संगति यहीं समाप्त करूँगा। फिर मिलेंगे!
22 अक्तूबर 2022