1. लोगों को परमेश्वर पर विश्वास क्यों करना चाहिए?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद :
"आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की" (उत्पत्ति 1:1)।
"जब परमेश्वर ने कहा, 'उजियाला हो,' तो उजियाला हो गया। और परमेश्वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है; और परमेश्वर ने उजियाले को अन्धियारे से अलग किया। और परमेश्वर ने उजियाले को दिन और अन्धियारे को रात कहा। तथा साँझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पहला दिन हो गया" (उत्पत्ति 1:3-5)।
"फिर परमेश्वर ने कहा, 'जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो कि जल दो भाग हो जाए।' तब परमेश्वर ने एक अन्तर बनाकर उसके नीचे के जल और उसके ऊपर के जल को अलग अलग किया; और वैसा ही हो गया" (उत्पत्ति 1:6-7)।
"फिर परमेश्वर ने कहा, 'आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे,' और वैसा ही हो गया। परमेश्वर ने सूखी भूमि को पृथ्वी कहा, तथा जो जल इकट्ठा हुआ उसको उसने समुद्र कहा : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है। फिर परमेश्वर ने कहा, 'पृथ्वी से हरी घास, तथा बीजवाले छोटे छोटे पेड़, और फलदाई वृक्ष भी जिनके बीज उन्हीं में एक एक की जाति के अनुसार हैं, पृथ्वी पर उगें,' और वैसा ही हो गया" (उत्पत्ति 1:9-11)।
"फिर परमेश्वर ने कहा, 'दिन को रात से अलग करने के लिये आकाश के अन्तर में ज्योतियाँ हों; और वे चिह्नों, और नियत समयों और दिनों, और वर्षों के कारण हों; और वे ज्योतियाँ आकाश के अन्तर में पृथ्वी पर प्रकाश देनेवाली भी ठहरें,' और वैसा ही हो गया" (उत्पत्ति 1:14-15)।
"फिर परमेश्वर ने कहा, 'जल जीवित प्राणियों से बहुत ही भर जाए, और पक्षी पृथ्वी के ऊपर आकाश के अन्तर में उड़ें।' इसलिये परमेश्वर ने जाति जाति के बड़े बड़े जल-जन्तुओं की, और उन सब जीवित प्राणियों की भी सृष्टि की जो चलते फिरते हैं जिन से जल बहुत ही भर गया, और एक एक जाति के उड़नेवाले पक्षियों की भी सृष्टि की : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है" (उत्पत्ति 1:20-21)।
"फिर परमेश्वर ने कहा, 'पृथ्वी से एक एक जाति के जीवित प्राणी, अर्थात् घरेलू पशु, और रेंगनेवाले जन्तु, और पृथ्वी के वनपशु, जाति जाति के अनुसार उत्पन्न हों,' और वैसा ही हो गया। इस प्रकार परमेश्वर ने पृथ्वी के जाति जाति के वन-पशुओं को, और जाति जाति के घरेलू पशुओं को, और जाति जाति के भूमि पर सब रेंगनेवाले जन्तुओं को बनाया : और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है" (उत्पत्ति 1:24-25)।
"फिर परमेश्वर ने कहा, 'हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार अपनी समानता में बनाएँ; और वे समुद्र की मछलियों, और आकाश के पक्षियों, और घरेलू पशुओं, और सारी पृथ्वी पर, और सब रेंगनेवाले जन्तुओं पर जो पृथ्वी पर रेंगते हैं, अधिकार रखें।' तब परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया, अपने ही स्वरूप के अनुसार परमेश्वर ने उसको उत्पन्न किया; नर और नारी करके उसने मनुष्यों की सृष्टि की" (उत्पत्ति 1:26-27)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :
परमेश्वर ही एकमात्र है जो सभी चीज़ों पर शासन करता है, और सभी चीज़ों को चलाता है। जो कुछ है वह उसी ने रचा है, जो कुछ है वही उसे चलाता है, जो कुछ है उस सब पर वही शासन करता है और जो कुछ है उस सब का वही भरण-पोषण करता है। यह परमेश्वर की प्रतिष्ठा और यही उसकी पहचान है। सभी चीजों के लिए और जो कुछ भी है उस सब के लिए, परमेश्वर की असली पहचान, सृजनकर्ता, और सम्पूर्ण सृष्टि के शासक की है। परमेश्वर की ऐसी पहचान है और वह सभी चीज़ों में अद्वितीय है। परमेश्वर का कोई भी प्राणी—चाहे वह मनुष्य के बीच हो या आध्यात्मिक दुनिया में हो—परमेश्वर की पहचान और प्रतिष्ठा का का रूप लेने या उसका स्थान लेने के लिए किसी भी साधन या बहाने का उपयोग नहीं कर सकता है, क्योंकि सभी चीज़ों में वही एक है जो इस पहचान, सामर्थ्य, अधिकार, और सृष्टि पर शासन करने की क्षमता से सम्पन्न है: हमारा अद्वितीय परमेश्वर स्वयं। वह सभी चीज़ों के बीच रहता और चलता है; वह सभी चीज़ों से ऊपर, सर्वोच्च स्थान तक उठ सकता है। वह मनुष्य बनकर, जो मांस और लहू के हैं, उनमें से एक बन कर, लोगों के साथ आमने-सामने होकर और उनके सुख—दुःख बाँट कर, अपने आप को विनम्र बना सकता है, जबकि वहीं दूसरी तरफ, जो कुछ भी है वह सब को नियंत्रित करता है, और जो कुछ भी है उस का भाग्य और उसे किस दिशा में जाना है यह तय करता है। इसके अलावा, वह संपूर्ण मानवजाति के भाग्य और मानवजाति की दिशा का पथप्रदर्शन करता है। इस तरह के परमेश्वर की सभी जीवित प्राणियों के द्वारा आराधना की जानी चाहिए, उसका आज्ञापालन किया जाना चाहिए और उसे जानना चाहिए। इस प्रकार, इस बात की परवाह किए बिना कि तुम मानवजाति में से किस समूह या किस प्रकार सम्बन्धित हो, परमेश्वर में विश्वास करना, परमेश्वर का अनुसरण करना, परमेश्वर का आदर करना, उसके शासन को स्वीकार करना, और अपने भाग्य के लिए उसकी व्यवस्थाओं को स्वीकार करना ही किसी भी व्यक्ति के लिए, किसी जीवित प्राणी के लिए एकमात्र विकल्प—आवश्यक विकल्प—है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X
ब्रह्मांड और आकाश की विशालता में अनगिनत जीव रहते और प्रजनन करते हैं, जीवन के चक्रीय नियम का पालन करते हैं, और एक अटल नियम का अनुसरण करते हैं। जो मर जाते हैं, वे अपने साथ जीवित लोगों की कहानियाँ लेकर चले जाते हैं, और जो लोग जी रहे हैं, वे खत्म हो चुके लोगों के त्रासद इतिहास को ही दोहराते हैं। और इसलिए, मानवजाति खुद से पूछे बिना नहीं रह पाती : हम क्यों जीते हैं? और हमें मरना क्यों पड़ता है? इस संसार को कौन नियंत्रित करता है? और इस मानवजाति को किसने बनाया? क्या मानवजाति को वास्तव में प्रकृति माता ने बनाया? क्या मानवजाति वास्तव में अपने भाग्य की नियंत्रक है? ... ये वे सवाल हैं, जो मानवजाति ने हजारों वर्षों से निरंतर पूछे हैं। दुर्भाग्य से, जितना अधिक मनुष्य इन सवालों से ग्रस्त हुआ है, उसमें उतनी ही अधिक प्यास विज्ञान के लिए विकसित हुई है। विज्ञान देह की संक्षिप्त तृप्ति और अस्थायी आनंद प्रदान करता है, लेकिन वह मनुष्य को उसकी आत्मा के भीतर की तन्हाई, अकेलेपन, बमुश्किल छिपाए जा सकने वाले आतंक और लाचारी से मुक्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है। मानवजाति केवल उसी वैज्ञानिक ज्ञान का उपयोग करती है, जिसे वह अपनी खुली आँखों से देख सकती है और अपने मस्तिष्क से समझ सकती है, ताकि अपने हृदय को चेतनाशून्य कर सके। फिर भी यह वैज्ञानिक ज्ञान मानवजाति को रहस्यों की खोज करने से रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है। मानवजाति यह नहीं जानती कि ब्रह्मांड और सभी चीज़ों का संप्रभु कौन है, और मानवजाति के प्रारंभ और भविष्य के बारे में तो वह बिलकुल भी नहीं जानती। मानवजाति केवल इस व्यवस्था के बीच विवशतापूर्वक जीती है। इससे कोई बच नहीं सकता और इसे कोई बदल नहीं सकता, क्योंकि सभी चीज़ों के बीच और स्वर्ग में अनंतकाल से लेकर अनंतकाल तक वह एक ही है, जो सभी चीज़ों पर अपनी संप्रभुता रखता है। वह एक ही है, जिसे मनुष्य द्वारा कभी देखा नहीं गया है, वह जिसे मनुष्य ने कभी नहीं जाना है, जिसके अस्तित्व पर मनुष्य ने कभी विश्वास नहीं किया है—फिर भी वह एक ही है, जिसने मनुष्य के पूर्वजों में साँस फूँकी और मानवजाति को जीवन प्रदान किया। वह एक ही है, जो मानवजाति का भरण-पोषण करता है और उसका अस्तित्व बनाए रखता है; और वह एक ही है, जिसने आज तक मानवजाति का मार्गदर्शन किया है। इतना ही नहीं, वह और केवल वह एक ही है, जिस पर मानवजाति अपने अस्तित्व के लिए निर्भर करती है। वह सभी चीज़ों पर संप्रभुता रखता है और ब्रह्मांड के सभी जीवित प्राणियों पर राज करता है। वह चारों मौसमों पर नियंत्रण रखता है, और वही है जो हवा, ठंड, हिमपात और बारिश लाता है। वह मानवजाति के लिए सूर्य का प्रकाश लाता है और रात्रि का सूत्रपात करता है। यह वही था, जिसने स्वर्ग और पृथ्वी की व्यवस्था की, और मनुष्य को पहाड़, झीलें और नदियाँ और उनके भीतर के सभी जीव प्रदान किए। उसके कर्म सर्वव्यापी हैं, उसकी सामर्थ्य सर्वव्यापी है, उसकी बुद्धि सर्वव्यापी है, और उसका अधिकार सर्वव्यापी है। इन व्यवस्थाओं और नियमों में से प्रत्येक उसके कर्मों का मूर्त रूप है और प्रत्येक उसकी बुद्धिमत्ता और अधिकार को प्रकट करता है। कौन खुद को उसके प्रभुत्व से मुक्त कर सकता है? और कौन उसकी अभिकल्पनाओं से खुद को छुड़ा सकता है? सभी चीज़ें उसकी निगाह के नीचे मौजूद हैं, और इतना ही नहीं, सभी चीज़ें उसकी संप्रभुता के अधीन रहती हैं। उसके कर्म और उसकी सामर्थ्य मानवजाति के लिए इस तथ्य को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं छोड़ती कि वह वास्तव में मौजूद है और सभी चीज़ों पर संप्रभुता रखता है। उसके अतिरिक्त कोई ब्रह्मांड पर नियंत्रण नहीं रख सकता, और मानवजाति का निरंतर भरण-पोषण तो बिलकुल नहीं कर सकता। चाहे तुम परमेश्वर के कर्मों को पहचानने में सक्षम हो या न हो, और चाहे तुम परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हो या न करते हो, इसमें कोई शक नहीं कि तुम्हारा भाग्य परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है, और इसमें भी कोई शक नहीं कि परमेश्वर हमेशा सभी चीज़ों पर अपनी संप्रभुता रखेगा। उसका अस्तित्व और अधिकार इस बात से निर्धारित नहीं होता कि वे मनुष्य द्वारा पहचाने और समझे जाते हैं या नहीं। केवल वही मनुष्य के अतीत, वर्तमान और भविष्य को जानता है, और केवल वही मानवजाति के भाग्य का निर्धारण कर सकता है। चाहे तुम इस तथ्य को स्वीकार करने में सक्षम हो या न हो, इसमें ज्यादा समय नहीं लगेगा, जब मानवजाति अपनी आँखों से यह सब देखेगी, और परमेश्वर जल्दी ही इस तथ्य को साकार करेगा। मनुष्य परमेश्वर की आँखों के सामने जीता है और मर जाता है। मनुष्य परमेश्वर के प्रबंधन के लिए जीता है, और जब उसकी आँखें आखिरी बार बंद होती हैं, तो इस प्रबंधन के लिए ही बंद होती हैं। मनुष्य बार-बार, आगे-पीछे, आता और जाता रहता है। बिना किसी अपवाद के, यह परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी अभिकल्पना का हिस्सा है। परमेश्वर का प्रबंधन कभी रुका नहीं है; वह निरंतर अग्रसर है। वह मानवजाति को अपने अस्तित्व से अवगत कराएगा, अपनी संप्रभुता में विश्वास करवाएगा, अपने कर्मों का अवलोकन करवाएगा, और अपने राज्य में वापस लौट जाएगा। यही उसकी योजना और कार्य है, जिनका वह हजारों वर्षों से प्रबंधन कर रहा है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है
परमेश्वर ने इस संसार की सृष्टि की, उसने इस मानवजाति को बनाया, और इतना ही नहीं, वह प्राचीन यूनानी संस्कृति और मानव-सभ्यता का वास्तुकार भी था। केवल परमेश्वर ही इस मानवजाति को सांत्वना देता है, और केवल परमेश्वर ही रात-दिन इस मानवजाति का ध्यान रखता है। मानव का विकास और प्रगति परमेश्वर की संप्रभुता से जुड़ी है, मानव का इतिहास और भविष्य परमेश्वर की योजनाओं में निहित है। यदि तुम एक सच्चे ईसाई हो, तो तुम निश्चित ही इस बात पर विश्वास करोगे कि किसी भी देश या राष्ट्र का उत्थान या पतन परमेश्वर की योजनाओं के अनुसार होता है। केवल परमेश्वर ही किसी देश या राष्ट्र के भाग्य को जानता है और केवल परमेश्वर ही इस मानवजाति की दिशा नियंत्रित करता है। यदि मानवजाति अच्छा भाग्य पाना चाहती है, यदि कोई देश अच्छा भाग्य पाना चाहता है, तो मनुष्य को परमेश्वर की आराधना में झुकना होगा, पश्चात्ताप करना होगा और परमेश्वर के सामने अपने पाप स्वीकार करने होंगे, अन्यथा मनुष्य का भाग्य और गंतव्य एक अपरिहार्य विभीषिका बन जाएँगे।
पीछे मुड़कर उस समय को देखो, जब नूह ने नाव बनाई थी : मानवजाति पूरी तरह से भ्रष्ट थी, लोग परमेश्वर के आशीषों से भटक गए थे, परमेश्वर द्वारा अब और उनकी देखभाल नहीं की जा रही थी, और वे परमेश्वर की प्रतिज्ञाएँ खो चुके थे। वे परमेश्वर की रोशनी के बिना अंधकार में रहते थे। फिर वे स्वभाव से व्यभिचारी बन गए, और उन्होंने स्वयं को घृणित चरित्रहीनता में झोंक दिया। ऐसे लोग अब और परमेश्वर की प्रतिज्ञाएँ प्राप्त नहीं कर सकते थे; वे परमेश्वर के चेहरे की गवाही देने या परमेश्वर की वाणी सुनने के अयोग्य थे, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर को त्याग दिया था, उन सब चीजों को बेक़ार समझकर छोड़ दिया था, जो परमेश्वर ने उन्हें प्रदान की थीं, और वे परमेश्वर की शिक्षाओं को भूल गए थे। उनका हृदय परमेश्वर से अधिकाधिक दूर भटक गया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे विवेक और मानवता से वंचित होकर पथभ्रष्ट हो गए और अधिक से अधिक दुष्ट होते गए। फिर वे मृत्यु के और भी निकट पहुँच गए, और परमेश्वर के कोप और दंड के भागी हो गए। केवल नूह ने परमेश्वर की आराधना की और बुराई से दूर रहा, और इसलिए वह परमेश्वर की वाणी और निर्देशों को सुनने में सक्षम था। उसने परमेश्वर के वचन के अनुसार नाव बनाई, और सभी प्रकार के जीवित प्राणियों को उसमें एकत्र किया। और इस तरह, जब एक बार सब-कुछ तैयार हो गया, तो परमेश्वर ने संसार पर अपनी विनाशलीला शुरू कर दी। केवल नूह और उसके परिवार के सात अन्य लोग इस विनाशलीला में जीवित बचे, क्योंकि नूह ने यहोवा की आराधना की थी और बुराई से दूर रहा था।
अब वर्तमान युग को देखो : नूह जैसे धर्मी मनुष्य, जो परमेश्वर की आराधना कर सके और बुराई से दूर रह सके, होने बंद हो गए हैं। फिर भी परमेश्वर इस मानवजाति के प्रति दयालु है, और इस अंतिम युग में अभी भी उन्हें दोषमुक्त करता है। परमेश्वर उनकी खोज कर रहा है, जो उसके प्रकट होने की लालसा करते हैं। वह उनकी खोज करता है, जो उसके वचनों को सुनने में सक्षम हैं, जो उसके आदेश को नहीं भूले और अपना तन-मन उसे समर्पित करते हैं। वह उनकी खोज करता है, जो उसके सामने बच्चों के समान आज्ञाकारी हैं, और उसका विरोध नहीं करते। यदि तुम किसी भी ताकत या बल से अबाधित होकर ईश्वर के प्रति समर्पित होते हो, तो परमेश्वर तुम्हारे ऊपर अनुग्रह की दृष्टि डालेगा और तुम्हें अपने आशीष प्रदान करेगा। यदि तुम उच्च पद वाले, सम्मानजनक प्रतिष्ठा वाले, प्रचुर ज्ञान से संपन्न, विपुल संपत्तियों के मालिक हो, और तुम्हें बहुत लोगों का समर्थन प्राप्त है, तो भी ये चीज़ें तुम्हें परमेश्वर के आह्वान और आदेश को स्वीकार करने, और जो कुछ परमेश्वर तुमसे कहता है, उसे करने के लिए उसके सम्मुख आने से नहीं रोकतीं, तो फिर तुम जो कुछ भी करोगे, वह पृथ्वी पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगा और मनुष्य का सर्वाधिक धर्मी उपक्रम होगा। यदि तुम अपनी हैसियत और लक्ष्यों की खातिर परमेश्वर के आह्वान को अस्वीकार करोगे, तो जो कुछ भी तुम करोगे, वह परमेश्वर द्वारा श्रापित और यहाँ तक कि तिरस्कृत भी किया जाएगा। शायद तुम कोई अध्यक्ष, कोई वैज्ञानिक, कोई पादरी या कोई एल्डर हो, किंतु इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा पद कितना उच्च है, यदि तुम अपने ज्ञान और अपने उपक्रमों की योग्यता पर भरोसा रखते हो, तो तुम हमेशा असफल रहोगे, और हमेशा परमेश्वर के आशीषों से वंचित रहोगे, क्योंकि परमेश्वर ऐसा कुछ भी स्वीकार नहीं करता जो तुम करते हो, और वह नहीं मानता कि तुम्हारे उपक्रम धर्मी हैं, या यह स्वीकार नहीं करता कि तुम मानवजाति के भले के लिए कार्य कर रहे हो। वह कहेगा कि जो कुछ भी तुम करते हो, वह मानवजाति के ज्ञान और ताकत का इस्तेमाल कर इंसान से परमेश्वर की सुरक्षा छीनने और उसे आशीषों से वंचित करने के लिए किया जाता है। वह कहेगा कि तुम मानवजाति को अंधकार की ओर, मृत्यु की ओर, और एक ऐसे अंतहीन अस्तित्व के आरंभ की ओर ले जा रहे हो, जिसमें मनुष्य ने परमेश्वर और उसके आशीष खो दिए हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है
मानवजाति द्वारा सामाजिक विज्ञानों के आविष्कार के बाद से मनुष्य का मन विज्ञान और ज्ञान से भर गया है। तब से विज्ञान और ज्ञान मानवजाति के शासन के लिए उपकरण बन गए हैं, और अब मनुष्य के पास परमेश्वर की आराधना करने के लिए पर्याप्त गुंजाइश और अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं रही हैं। मनुष्य के हृदय में परमेश्वर की स्थिति सबसे नीचे हो गई है। हृदय में परमेश्वर के बिना मनुष्य की आंतरिक दुनिया अंधकारमय, आशारहित और खोखली है। बाद में मनुष्य के हृदय और मन को भरने के लिए कई समाज-वैज्ञानिकों, इतिहासकारों और राजनीतिज्ञों ने सामने आकर सामाजिक विज्ञान के सिद्धांत, मानव-विकास के सिद्धांत और अन्य कई सिद्धांत व्यक्त किए, जो इस सच्चाई का खंडन करते हैं कि परमेश्वर ने मनुष्य की रचना की है, और इस तरह, यह विश्वास करने वाले बहुत कम रह गए हैं कि परमेश्वर ने सब-कुछ बनाया है, और विकास के सिद्धांत पर विश्वास करने वालों की संख्या और अधिक बढ़ गई है। अधिकाधिक लोग पुराने विधान के युग के दौरान परमेश्वर के कार्य के अभिलेखों और उसके वचनों को मिथक और किंवदंतियाँ समझते हैं। अपने हृदयों में लोग परमेश्वर की गरिमा और महानता के प्रति, और इस सिद्धांत के प्रति भी कि परमेश्वर का अस्तित्व है और वह सभी चीज़ों पर प्रभुत्व रखता है, उदासीन हो जाते हैं। मानवजाति का अस्तित्व और देशों एवं राष्ट्रों का भाग्य उनके लिए अब और महत्वपूर्ण नहीं रहे, और मनुष्य केवल खाने-पीने और भोग-विलासिता की खोज में चिंतित, एक खोखले संसार में रहता है। ... कुछ लोग स्वयं इस बात की खोज करने का उत्तरदायित्व लेते हैं कि आज परमेश्वर अपना कार्य कहाँ करता है, या यह तलाशने का उत्तरदायित्व कि वह किस प्रकार मनुष्य के गंतव्य पर नियंत्रण और उसकी व्यवस्था करता है। और इस तरह, मनुष्य के बिना जाने ही मानव-सभ्यता मनुष्य की इच्छाओं के अनुसार चलने में और भी अधिक अक्षम हो गई है, और कई ऐसे लोग भी हैं, जो यह महसूस करते हैं कि इस प्रकार के संसार में रहकर वे, उन लोगों के बजाय जो चले गए हैं, कम खुश हैं। यहाँ तक कि उन देशों के लोग भी, जो अत्यधिक सभ्य हुआ करते थे, इस तरह की शिकायतें व्यक्त करते हैं। क्योंकि परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना शासक और समाजशास्त्री मानवजाति की सभ्यता को सुरक्षित रखने के लिए अपना कितना भी दिमाग क्यों न ख़पा लें, कोई फायदा नहीं होगा। मनुष्य के हृदय का खालीपन कोई नहीं भर सकता, क्योंकि कोई मनुष्य का जीवन नहीं बन सकता, और कोई सामाजिक सिद्धांत मनुष्य को उस खालीपन से मुक्ति नहीं दिला सकता, जिससे वह व्यथित है। विज्ञान, ज्ञान, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, फुरसत, आराम : ये मनुष्य को केवल अस्थायी सांत्वना देते हैं। यहाँ तक कि इन बातों के साथ भी मनुष्य पाप करता और समाज के अन्याय का रोना रोता है। ये चीज़ें मनुष्य की अन्वेषण की लालसा और इच्छा को दबा नहीं सकतीं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य को परमेश्वर द्वारा बनाया गया था और मनुष्यों के बेतुके त्याग और अन्वेषण केवल और अधिक कष्ट की ओर ही ले जा सकते हैं और मनुष्य को एक निरंतर भय की स्थिति में रख सकते हैं, और वह यह नहीं जान सकता कि मानवजाति के भविष्य या आगे आने वाले मार्ग का सामना किस प्रकार किया जाए। यहाँ तक कि मनुष्य विज्ञान और ज्ञान से भी डरने लगता है, और खालीपन के एहसास से और भी भय खाने लगता है। इस संसार में, चाहे तुम किसी स्वंतत्र देश में रहते हो या बिना मानवाधिकारों वाले देश में, तुम मानवजाति के भाग्य से बचकर भागने में सर्वथा असमर्थ हो। तुम चाहे शासक हो या शासित, तुम भाग्य, रहस्यों और मानवजाति के गंतव्य की खोज करने की इच्छा से बचकर भागने में सर्वथा अक्षम हो, और खालीपन के व्याकुल करने वाले बोध से बचकर भागने में तो और भी ज्यादा अक्षम हो। इस प्रकार की घटनाएँ, जो समस्त मानवजाति के लिए सामान्य हैं, समाजशास्त्रियों द्वारा सामाजिक घटनाएँ कही जाती हैं, फिर भी कोई महान व्यक्ति इस समस्या का समाधान करने के लिए सामने नहीं आ सकता। मनुष्य आखिरकार मनुष्य है, और परमेश्वर का स्थान और जीवन किसी मनुष्य द्वारा प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता। मानवजाति को केवल एक निष्पक्ष समाज की ही आवश्यकता नहीं है, जिसमें हर व्यक्ति को नियमित रूप से अच्छा भोजन मिलता हो और जिसमें सभी समान और स्वतंत्र हों, बल्कि मानवजाति को आवश्यकता है परमेश्वर के उद्धार और अपने लिए जीवन की आपूर्ति की। केवल जब मनुष्य परमेश्वर का उद्धार और जीवन की आपूर्ति प्राप्त करता है, तभी उसकी आवश्यकताओं, अन्वेषण की लालसा और आध्यात्मिक रिक्तता का समाधान हो सकता है। यदि किसी देश या राष्ट्र के लोग परमेश्वर के उद्धार और उसकी देखभाल प्राप्त करने में अक्षम हैं, तो वह देश या राष्ट्र पतन के मार्ग पर, अंधकार की ओर चला जाएगा, और परमेश्वर द्वारा जड़ से मिटा दिया जाएगा।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है
दुनिया के विशाल विस्तार में, बार-बार गाद भरने से महासागर मैदानों में बदल रहे हैं, खेत बाढ़ से महासागरों में बदल रहे हैं। सिवाय उसके जो सभी चीज़ों में सर्वस्व पर शासन करता है, कोई भी इस मानव-जाति की अगुआई और मार्गदर्शन करने में समर्थ नहीं है। कोई ऐसा पराक्रमी नहीं है, जो इस मानव-जाति के लिए श्रम या तैयारी कर सकता हो, और ऐसा तो कोई भी नहीं है, जो इस मानव-जाति को प्रकाश की मंजिल की ओर ले जा सके और इसे सांसारिक अन्यायों से मुक्त कर सके। परमेश्वर मनुष्य-जाति के भविष्य पर विलाप करता है, वह मनुष्य-जाति के पतन पर शोक करता है, और उसे पीड़ा होती है कि मनुष्य-जाति, कदम-दर-कदम, क्षय और ऐसे मार्ग की ओर बढ़ रही है, जहाँ से वापसी संभव नहीं है। किसी ने कभी नहीं सोचा है कि ऐसी मनुष्य-जाति जिसने परमेश्वर का हृदय तोड़ दिया है और दुष्ट की तलाश करने के लिए उसका त्याग कर दिया है, किस ओर जा रही है। क्या किसी ने कभी उस दिशा पर विचार किया है, जिस ओर ऐसी मनुष्य-जाति जा रही है? ठीक इसी कारण से कोई परमेश्वर के कोप को महसूस नहीं करता, कोई परमेश्वर को खुश करने का तरीका नहीं खोजता या परमेश्वर के करीब आने की कोशिश नहीं करता, और इससे भी अधिक, कोई परमेश्वर के दुःख और दर्द को समझने की कोशिश नहीं करता। परमेश्वर की वाणी सुनने के बाद भी मनुष्य अपने रास्ते पर चलता रहता है, परमेश्वर से दूर जाने, परमेश्वर के अनुग्रह और देखभाल से बचने, उसके सत्य से कतराने में लगा रहता है, अपने आप को परमेश्वर के दुश्मन, शैतान को बेचना पसंद करता है। और किसने इस बात पर कोई विचार किया है—क्या मनुष्य को अपनी जिदपर अड़े रहना चाहिए—कि परमेश्वर इस मानव-जाति के साथ कैसा व्यवहार करेगा, जिसने उसे मुड़कर एक नज़र देखे बिना ही खारिज कर दिया? कोई नहीं जानता कि परमेश्वर के बार-बार के अनुस्मारकों और आग्रहों का कारण यह है कि उसने अपने हाथों में एक अभूतपूर्व आपदा तैयार की है, एक ऐसी आपदा, जो मनुष्य की देह और आत्मा के लिए असहनीय होगी। यह आपदा केवल देह का ही नहीं, बल्कि आत्मा का भी दंड है। तुम्हें यह जानने की आवश्यकता है : जब परमेश्वर की योजना निष्फल होती है और जब उसके अनुस्मारकों और आग्रहों का कोई प्रतिदान नहीं मिलता, तो वह किस प्रकार का क्रोध प्रकट करेगा? यह ऐसा होगा, जिसे पहले किसी सृजित प्राणी ने कभी अनुभव किया या सुना नहीं होगा। और इसलिए मैं कहता हूँ, यह आपदा बेमिसाल है और कभी दोहराई नहीं जाएगी। क्योंकि परमेश्वर की योजना मनुष्य-जाति का केवल एक बार सृजन करने और उसे केवल एक बार बचाने की है। यह पहली बार है, और यही अंतिम बार भी है। इसलिए, जिन श्रमसाध्य इरादों और उत्साहपूर्ण प्रत्याशा से परमेश्वर इस बार इंसान को बचाता है, उसे कोई नहीं समझ सकता।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है
परमेश्वर ने इस संसार की रचना की और इसमें एक जीवित प्राणी, मनुष्य को लेकर आया, जिसे उसने जीवन प्रदान किया। इसके बाद, मनुष्य के माता-पिता और परिजन हुए, और वह अकेला नहीं रहा। जब से मनुष्य ने पहली बार इस भौतिक दुनिया पर नजरें डालीं, तब से वह परमेश्वर के विधान के भीतर विद्यमान रहने के लिए नियत था। परमेश्वर की दी हुई जीवन की साँस हर एक प्राणी को उसके वयस्कता में विकसित होने में सहयोग देती है। इस प्रक्रिया के दौरान किसी को भी महसूस नहीं होता कि मनुष्य परमेश्वर की देखरेख में बड़ा हो रहा है, बल्कि वे यह मानते हैं कि मनुष्य अपने माता-पिता की प्रेमपूर्ण देखभाल में बड़ा हो रहा है, और यह उसकी अपनी जीवन-प्रवृत्ति है, जो उसके बढ़ने की प्रक्रिया को निर्देशित करती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य नहीं जानता कि उसे जीवन किसने प्रदान किया है या यह कहाँ से आया है, और यह तो वह बिलकुल भी नहीं जानता कि जीवन की प्रवृत्ति किस तरह से चमत्कार करती है। वह केवल इतना ही जानता है कि भोजन ही वह आधार है जिस पर उसका जीवन चलता रहता है, अध्यवसाय ही उसके अस्तित्व का स्रोत है, और उसके मन के विश्वास वह पूँजी है जिस पर उसका अस्तित्व निर्भर करता है। परमेश्वर के अनुग्रह और भरण-पोषण से मनुष्य पूरी तरह से बेखबर है, और इस तरह वह परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया जीवन गँवा देता है...। जिस मानवजाति की परमेश्वर दिन-रात परवाह करता है, उसका एक भी व्यक्ति परमेश्वर की आराधना करने की पहल नहीं करता। परमेश्वर ही अपनी बनाई योजना के अनुसार, मनुष्य पर कार्य करता रहता है, जिससे वह कोई अपेक्षाएँ नहीं करता। वह इस आशा में ऐसा करता है कि एक दिन मनुष्य अपने सपने से जागेगा और अचानक जीवन के मूल्य और अर्थ को समझेगा, परमेश्वर ने उसे जो कुछ दिया है, उसके लिए परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत और परमेश्वर की उस उत्सुक व्यग्रता को समझेगा, जिसके साथ परमेश्वर मनुष्य के वापस अपनी ओर मुड़ने की प्रतीक्षा करता है। किसी ने कभी भी मनुष्य के जीवन की उत्पत्ति और निरंतरता को नियंत्रित करने वाले रहस्यों पर गौर नहीं किया है। केवल परमेश्वर, जो इस सब को समझता है, चुपचाप उस ठेस और आघात को सहन करता है, जो वह मनुष्य उसे देता है जिसने परमेश्वर से सब-कुछ प्राप्त किया है किंतु जो उसका आभारी नहीं है। जीवन से जो कुछ मिलता है, मनुष्य उसे स्वाभाविक समझकर उसका आनंद लेता है, और इसी तरह, यह एक "स्वाभाविक बात" है कि मनुष्य द्वारा परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया जाता है, उसे भुला दिया जाता है, और उससे जबरन वसूली की जाती है। क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर की योजना सच में इतने ही महत्व की है? क्या ऐसा हो सकता है कि यह जीवित प्राणी, यह मनुष्य, जो कि परमेश्वर के हाथ से आया है, वास्तव में इतने महत्व का है? परमेश्वर की योजना निश्चित रूप से महत्व की है; किंतु परमेश्वर के हाथ से बनाया गया यह जीवित प्राणी उसकी योजना के वास्ते विद्यमान है। इसलिए परमेश्वर इस मानव-जाति के प्रति घृणा के कारण अपनी योजना को बेकार नहीं कर सकता। यह परमेश्वर की योजना के वास्ते और उसके द्वारा फूँकी गई साँस के लिए है कि परमेश्वर, मनुष्य की देह के लिए नहीं बल्कि मनुष्य के जीवन के लिए, समस्त यातनाएँ सहता है। वह ऐसा मनुष्य की देह को वापस लेने के लिए नहीं, बल्कि उस जीवन को वापस लेने के लिए करता है, जिसमें उसने साँस फूँकी है। यही उसकी योजना है।
इस दुनिया में आने वाले सभी लोगों को जीवन और मृत्यु से गुजरना होता है, और उनमें से अधिकांश मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से गुजर चुके हैं। जो जीवित हैं, वे शीघ्र ही मर जाएँगे और मृत शीघ्र ही लौट आएँगे। यह सब परमेश्वर द्वारा प्रत्येक जीवित प्राणी के लिए व्यवस्थित जीवन का क्रम है। फिर भी यह क्रम और यह चक्र ठीक वह सत्य है, जो परमेश्वर चाहता है कि मनुष्य देखे : कि परमेश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदान किया गया जीवन असीम और भौतिकता, समय या स्थान से मुक्त है। यह परमेश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदान किए गए जीवन का रहस्य है, और इस बात का प्रमाण है कि जीवन उसी से आया है। यद्यपि हो सकता है कि बहुत-से लोग यह न मानें कि जीवन परमेश्वर से आया है, फिर भी मनुष्य अनिवार्य रूप से उस सब का आनंद लेता है जो परमेश्वर से आता है, चाहे वह परमेश्वर के अस्तित्व को मानता हो या उसे नकारता हो। यदि किसी दिन परमेश्वर का अचानक हृदय-परिवर्तन हो जाए और वह दुनिया में विद्यमान हर चीज़ वापस प्राप्त करने और अपना दिया जीवन वापस लेने की इच्छा करे, तो कुछ भी नहीं रहेगा। परमेश्वर सभी चीज़ों, जीवित और निर्जीव दोनों, को आपूर्ति करने के लिए अपने जीवन का उपयोग करता है, और अपनी शक्ति और अधिकार के बल पर सभी को सुव्यवस्थित करता है। यह एक ऐसा सत्य है, जिसकी किसी के द्वारा कल्पना नहीं की जा सकती या जिसे किसी के द्वारा समझा नहीं जा सकता, और ये अबूझ सत्य परमेश्वर की जीवन-शक्ति की मूल अभिव्यक्ति और प्रमाण हैं। अब मैं तुम्हें एक रहस्य बताता हूँ : परमेश्वर के जीवन की महानता और उसके जीवन के सामर्थ्य की थाह कोई भी प्राणी नहीं पा सकता। यह अभी भी वैसा ही है, जैसा अतीत में था, और आने वाले समय में भी यह ऐसा ही रहेगा। दूसरा रहस्य जो मैं बताऊँगा, वह यह है : सभी सृजित प्राणियों के लिए जीवन का स्रोत परमेश्वर से आता है, चाहे वे जीवन-रूप या संरचना में कितने ही भिन्न हों; तुम चाहे किसी भी प्रकार के जीव हो, तुम उस जीवन-पथ के विपरीत नहीं चल सकते, जिसे परमेश्वर ने निर्धारित किया है। हर हाल में, मेरी इच्छा है कि मनुष्य इसे समझे : परमेश्वर की देखभाल, रखरखाव और भरण-पोषण के बिना मनुष्य वह सब प्राप्त नहीं कर सकता, जो उसे प्राप्त करना था, चाहे वह कितनी भी तत्परता से कोशिश क्यों न करे या कितना भी कठिन संघर्ष क्यों न करे। परमेश्वर से जीवन की आपूर्ति के बिना मनुष्य जीवन के मूल्य और उसकी सार्थकता के बोध को गँवा देता है। परमेश्वर उस मनुष्य को इतना बेफिक्र कैसे होने दे सकता है, जो मूर्खतापूर्ण ढंग से अपने जीवन की सार्थकता को गँवा देता है? जैसा कि मैंने पहले कहा है : मत भूलो कि परमेश्वर तुम्हारे जीवन का स्रोत है। यदि मनुष्य वह सब सँजोने में विफल रहता है, जो परमेश्वर ने प्रदान किया है, तो परमेश्वर न केवल उसे वापस ले लेगा जो उसने शुरुआत में दिया था, बल्कि वह मनुष्य से उस सबका दोगुना मूल्य वसूल करेगा जो उसने दिया है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है
सर्वशक्तिमान के जीवन के प्रावधान से भटके हुए मनुष्य, अस्तित्व के उद्देश्य से अनभिज्ञ हैं, लेकिन फिर भी मृत्यु से डरते हैं। उनके पास मदद या सहारा नहीं है, लेकिन फिर भी वे अपनी आंखों को बंद करने के अनिच्छुक हैं, इस दुनिया में एक अधम अस्तित्व को घसीटने के लिए खुद को मजबूत बनाते हैं, जो अपनी आत्मा के बोध के बगैर बस माँस के बोरे हैं। तुम अन्य लोगों की तरह ही, आशारहित और उद्देश्यहीन होकर जीते हो। केवल पौराणिक कथा का पवित्र जन ही उन लोगों को बचाएगा, जो अपने दु:ख में कराहते हुए उसके आगमन के लिए बहुत ही बेताब हैं। अभी तक, चेतनाविहीन लोगों को इस तरह के विश्वास का एहसास नहीं हुआ है। फिर भी, लोग अभी भी इसके लिए तरस रहे हैं। सर्वशक्तिमान ने हुरी तरह से पीड़ित इन लोगों पर दया की है; साथ ही, वह उन लोगों से तंग आ गया है, जिनमें चेतना की कमी है, क्योंकि उसे मनुष्य से जवाब पाने के लिए बहुत लंबा इंतजार करना पड़ा है। वह तुम्हारे हृदय की, तुम्हारी आत्मा की तलाश करना चाहता है, तुम्हें पानी और भोजन देना और तुम्हें जगाना चाहता है, ताकि अब तुम भूखे और प्यासे न रहो। जब तुम थक जाओ और तुम्हें इस दुनिया की बेरंग उजड़ेपन का कुछ-कुछ अहसास होने लगे, तो तुम हारना मत, रोना मत। द्रष्टा, सर्वशक्तिमान परमेश्वर, किसी भी समय तुम्हारे आगमन को गले लगा लेगा। वह तुम्हारी बगल में पहरा दे रहा है, तुम्हारे लौट आने का इंतजार कर रहा है। वह उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा है जिस दिन तुम अचानक अपनी याददाश्त फिर से पा लोगे: जब तुम्हें यह एहसास होगा कि तुम परमेश्वर से आए हो लेकिन किसी अज्ञात समय में तुमने अपनी दिशा खो दी थी, किसी अज्ञात समय में तुम सड़क पर होश खो बैठे थे, और किसी अज्ञात समय में तुमने एक "पिता" को पा लिया था; इसके अलावा, जब तुम्हें एहसास होगा कि सर्वशक्तिमान तो हमेशा से ही तुम पर नज़र रखे हुए है, तुम्हारी वापसी के लिए बहुत लंबे समय से इंतजार कर रहा है। वह हताश लालसा लिए देखता रहा है, जवाब के बिना, एक प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करता रहा है। उसका नज़र रखना और प्रतीक्षा करना बहुत ही अनमोल है, और यह मानवीय हृदय और मानवीय आत्मा के लिए है। शायद ऐसे नज़र रखना और प्रतीक्षा करना अनिश्चितकालीन है, या शायद इनका अंत होने वाला है। लेकिन तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारा दिल और तुम्हारी आत्मा इस वक्त कहाँ हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सर्वशक्तिमान की आह