स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II

परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव

अब जबकि तुम लोग पिछली सहभागिता में परमेश्वर के अधिकार के बारे में सुन चुके हो, मैं आश्वस्त हूँ कि तुम लोग इस मुद्दे पर काफ़ी वचनों से लैस हो गए हो। तुम लोग कितना स्वीकार कर सकते हो, कितना समझ-बूझ सकते हो, यह सब इस पर निर्भर करता है कि तुम लोग इसके लिए कितना प्रयास करते हो। मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग इस मुद्दे को ईमानदारी से समझ सकते हो; किसी भी हालत में तुम लोगों को इसमें आधे-अधूरे मन से संलग्न नहीं होना चाहिए। अब, परमेश्वर के अधिकार को जानना क्या परमेश्वर की संपूर्णता को जानने के बराबर है? कहा जा सकता है कि परमेश्वर के अधिकार को जानना स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है, को जानने की शुरुआत है, और यह भी कहा जा सकता है कि परमेश्वर के अधिकार को जानने का अर्थ है कि व्यक्ति पहले ही स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है, के सार को जानने के द्वार के भीतर प्रवेश कर चुका है। यह समझ परमेश्वर को जानने का एक भाग है। तो फिर, दूसरा भाग क्या है? परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव—यह वह विषय है, जिस पर मैं आज सहभागिता करना चाहूँगा।

आज के विषय पर सहभागिता करने के लिए मैंने बाइबल से दो खंडों का चयन किया है : पहला खंड परमेश्वर द्वारा सदोम के विनाश से संबंधित है, जिसे उत्पत्ति 19:1-11 और उत्पत्ति 19:24-25 में पाया जा सकता है; दूसरा खंड परमेश्वर द्वारा नीनवे के छुटकारे से संबंधित है, जिसे योना की पुस्तक के तीसरे और चौथे अध्यायों के अतिरिक्त योना 1:1-2 में पाया जा सकता है। मुझे महसूस हो रहा है कि तुम लोग यह सुनने का इंतज़ार कर रहे हो कि मुझे इन दो खंडों के बारे में क्या कहना है। जो कुछ मैं कहता हूँ, स्वभावतः वह स्वयं परमेश्वर और उसके सार को जानने के दायरे से बाहर नहीं जा सकता, किंतु आज की सहभागिता का केंद्रीय मुद्दा क्या होगा? क्या तुम लोगों में से कोई जानता है? परमेश्वर के अधिकार के बारे में मेरी सहभागिता के किन भागों ने तुम लोगों का ध्यान खींचा है? मैंने क्यों कहा था कि केवल वही स्वयं परमेश्वर है, जो ऐसा अधिकार और सामर्थ्य रखता है? यह कहकर मैं क्या समझाना चाहता था? मैं तुम लोगों को क्या बताना चाहता था? क्या परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ्य उसके सार की अभिव्यक्ति के ढंग का एक पहलू हैं? क्या वे उसके सार का एक हिस्‍सा हैं, वह हिस्सा, जो उसकी पहचान और स्थिति को प्रमाणित करता है? क्या इन प्रश्नों से आकलन करके तुम लोग बता सकते हो कि मैं क्या कहने जा रहा हूँ? मैं तुम लोगों को क्या समझाना चाहता हूँ? इस पर ध्यानपूर्वक विचार करो।

हठधर्मी से परमेश्वर का विरोध करने से मनुष्य परमेश्वर के कोप से नष्‍ट हो जाता है

पहले, आओ हम पवित्रशास्त्र के वे अंश देखें, जो परमेश्वर द्वारा सदोम के विनाश का वर्णन करते हैं।

उत्पत्ति 19:1-11 साँझ को वे दो दूत सदोम के पास आए; और लूत सदोम के फाटक के पास बैठा था। उन को देखकर वह उनसे भेंट करने के लिये उठा, और मुँह के बल झुककर दण्डवत् कर कहा, “हे मेरे प्रभुओ, अपने दास के घर में पधारिए, और रात भर विश्राम कीजिए, और अपने पाँव धोइये, फिर भोर को उठकर अपने मार्ग पर जाइए।” उन्होंने कहा, “नहीं, हम चौक ही में रात बिताएँगे।” पर उसने उनसे बहुत विनती करके उन्हें मनाया; इसलिये वे उसके साथ चलकर उसके घर में आए; और उसने उनके लिये भोजन तैयार किया, और बिना खमीर की रोटियाँ बनाकर उनको खिलाईं। उनके सो जाने से पहले, सदोम नगर के पुरुषों ने, जवानों से लेकर बूढ़ों तक, वरन् चारों ओर के सब लोगों ने आकर उस घर को घेर लिया; और लूत को पुकारकर कहने लगे, “जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहाँ हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।” तब लूत उनके पास द्वार के बाहर गया, और किवाड़ को अपने पीछे बन्द करके कहा, “हे मेरे भाइयो, ऐसी बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियाँ हैं जिन्होंने अब तक पुरुष का मुँह नहीं देखा; इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊँ, और तुम को जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो; पर इन पुरुषों से कुछ न करो; क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।” उन्होंने कहा, “हट जा!” फिर वे कहने लगे, “तू एक परदेशी होकर यहाँ रहने के लिये आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा है; इसलिये अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।” और वे उस पुरुष लूत को बहुत दबाने लगे, और किवाड़ तोड़ने के लिये निकट आए। तब उन अतिथियों ने हाथ बढ़ाकर लूत को अपने पास घर में खींच लिया, और किवाड़ को बन्द कर दिया। और उन्होंने क्या छोटे, क्या बड़े, सब पुरुषों को जो घर के द्वार पर थे, अन्धा कर दिया, अतः वे द्वार को टटोलते टटोलते थक गए।

उत्पत्ति 19:24-25 तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई; और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को, और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्‍ट कर दिया।

इन अंशों से यह देखना कठिन नहीं है कि सदोम का अधर्म और भ्रष्टता पहले ही उस मात्रा तक पहुँच चुकी थी, जो मनुष्य और परमेश्वर दोनों के लिए घृणास्पद थी, और इसलिए परमेश्वर की दृष्टि में नगर नष्ट किए जाने के लायक था। परंतु नगर को नष्ट किए जाने से पहले उसके भीतर क्या हुआ था? लोग इन घटनाओं से क्या प्रेरणा ले सकते हैं? इन घटनाओं के प्रति परमेश्वर का रवैया उसके स्वभाव के संबंध में लोगों को क्या दिखाता है? पूरी कहानी समझने के लिए, आओ हम ध्यान से पढ़ें कि पवित्रशास्त्र में क्या दर्ज किया गया था ...

सदोम की भ्रष्टता : मनुष्य को क्रोधित करने वाली, परमेश्वर का कोप भड़काने वाली

उस रात लूत ने परमेश्वर के दो दूतों का स्वागत किया और उनके लिए एक भोज तैयार किया। रात्रि-भोजन के बाद, उनके लेटने से पहले, नगर भर के लोगों ने लूत के घर को घेर लिया और उसे बाहर बुलाने लगे। पवित्रशास्त्र में उनका यह कथन दर्ज है, “जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहाँ हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।” ये शब्द किसने कहे थे? ये किनसे कहे गए थे? ये सदोम के लोगों के शब्द थे, जो लूत के घर के बाहर चिल्ला रहे थे, और ये लूत से कहे गए थे। इन शब्दों को सुनकर कैसा महसूस होता है? क्या तुम क्रोधित हो? क्या इन शब्दों से तुम्हें घिन आती है? क्या तुम क्रोध के मारे आगबबूला हो रहे हो? क्या इन शब्दों से शैतान की दुर्गंध नहीं आती? इनके जरिये, क्या तुम इस नगर की बुराई और अंधकार का एहसास कर सकते हो? क्या तुम इन लोगों के शब्दों के जरिये उनके व्यवहार की क्रूरता और बर्बरता का एहसास कर सकते हो? क्या तुम उनके आचरण के जरिये उनकी भ्रष्टता की गहराई का एहसास कर सकते हो? उन्होंने जो कहा, उसके जरिये यह समझना कठिन नहीं है कि उनकी दुष्ट प्रकृति और बर्बर स्वभाव उस स्तर तक पहुँच गया था, जो उनके खुद के नियंत्रण से परे था। लूत को छोड़कर नगर का हर एक व्यक्ति शैतान से अलग नहीं था; दूसरे व्यक्ति की झलक पाते ही ये लोग उसे नुकसान पहुँचाना और निगल जाना चाहते थे...। ये चीज़ें व्यक्ति को नगर की विकराल और डरावनी प्रकृति के साथ ही उसके चारों ओर मौजूद मौत के वातावरण का ही एहसास नहीं करातीं, बल्कि उसकी दुष्टता और ख़ूनी प्रकृति का भी एहसास कराती हैं।

जब लूत ने स्वयं को अमानवीय ठगों के गिरोह के आमने-सामने पाया, जो मानव-आत्माओं को निगल जाने की जंगली लालसा से भरे हुए थे, तो उसने क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की? पवित्रशास्त्र के अनुसार : “हे मेरे भाइयो, ऐसी बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियाँ हैं जिन्होंने अब तक पुरुष का मुँह नहीं देखा; इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊँ, और तुम को जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो; पर इन पुरुषों से कुछ न करो; क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।” इन शब्दों से लूत का अभिप्राय यह था : वह दूतों को बचाने के लिए अपनी दो बेटियों को भी त्यागने के लिए तैयार था। किसी भी हिसाब से इन लोगों को लूत की शर्तों से सहमत हो जाना चाहिए था और दोनों दूतों को छोड़ देना चाहिए था; आख़िरकार, वे दूत उनके लिए पूरी तरह से अजनबी थे, ऐसे लोग जिनका उनसे कोई लेना-देना नहीं था और जिन्होंने उनके हितों को कभी नुकसान नहीं पहुँचाया था। फिर भी, अपनी बुरी प्रकृति से प्रेरित होकर उन्होंने मामला खत्‍म नहीं किया, बल्कि इसके बजाय, उन्होंने अपने प्रयास और तेज कर दिए। यहाँ उनकी बातचीत का दूसरा भाग लोगों को निस्संदेह इन लोगों की असली, शातिर प्रकृति की और अधिक जानकारी दे सकता है, साथ ही वह उन्हें परमेश्वर द्वारा इस नगर को नष्ट किए जाने का कारण समझने-बूझने में सक्षम भी बनाता है।

तो उन्होंने आगे क्या कहा? जैसा कि बाइबल में लिखा है : “‘हट जा!’ फिर वे कहने लगे, ‘तू एक परदेशी होकर यहाँ रहने के लिये आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा है; इसलिये अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।’ और वे उस पुरुष लूत को बहुत दबाने लगे, और किवाड़ तोड़ने के लिये निकट आए।” वे लूत का किवाड़ क्यों तोड़ना चाहते थे? कारण यह है कि वे उन दोनों दूतों को नुकसान पहुँचाने के लिए उत्सुक थे। वे दूत सदोम में किसलिए आए थे? उनका वहाँ आने का उद्देश्य लूत एवं उसके परिवार को बचाना था, लेकिन नगर के लोगों ने ग़लती से सोचा कि वे आधिकारिक पदों पर क़ब्ज़ा जमाने के लिए आए हैं। दूतों का उद्देश्य पूछे बिना नगर के लोगों ने केवल अनुमान के आधार पर असभ्यतापूर्वक उन दो दूतों को नुकसान पहुँचाना चाहा; उन्होंने उन दो लोगों को नुकसान पहुँचाना चाहा, जिनका उनके साथ कोई लेना-देना नहीं था। यह स्पष्ट है कि उस नगर के लोगों ने पूरी तरह से अपनी मानवता और विवेक गँवा दिए थे। उनके पागलपन और जंगलीपन का स्तर पहले से ही मनुष्यों को नुकसान पहुँचाने वाले और उन्हें निगल जाने वाले शैतान के शातिर स्वभाव से अलग नहीं था।

जब उन्होंने लूत से इन लोगों को सौंपने की माँग की, तब लूत ने क्या किया? पाठ से हमें ज्ञात होता है कि लूत ने उन्हें नहीं सौंपा। क्या लूत परमेश्वर के इन दो दूतों को जानता था? बेशक, नहीं! फिर भी वह इन दो लोगों को बचाने में समर्थ क्यों था? क्या वह जानता था कि वे क्या करने आए हैं? यद्यपि वह उनके आने के कारण से अनजान था, किंतु वह जानता था कि वे परमेश्वर के सेवक हैं, इसलिए वह उन्हें अपने घर में ले गया। उसका परमेश्वर के इन सेवकों को “प्रभु” कहकर पुकारना यह दिखाता है कि सदोम के अन्‍य लोगों के विपरीत लूत परमेश्वर का स्वाभाविक अनुयायी था। इसलिए जब परमेश्वर के दूत उसके पास आए, तो उसने इन दोनों सेवकों को अपने घर में ले जाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी; इतना ही नहीं, उसने इन दोनों सेवकों की रक्षा करने के लिए बदले में अपनी दो बेटियाँ देने की भी पेशकश की। यह लूत का धार्मिक कार्य था; यह लूत के स्वभाव और सार की एक ठोस अभिव्यक्ति थी, और यह परमेश्वर द्वारा लूत को बचाने के लिए अपने सेवकों को भेजने का कारण भी था। संकट से सामना होने पर लूत ने अन्य किसी भी चीज़ की परवाह किए बिना इन दोनों सेवकों की रक्षा की; यहाँ तक कि उसने सेवकों की सुरक्षा के बदले में अपनी दो बेटियों का सौदा करने का भी प्रयास किया। लूत के अतिरिक्त क्या नगर में कोई और ऐसा था, जिसने ऐसा कुछ किया होता? जैसा कि तथ्य साबित करते हैं—नहीं, ऐसा कोई नहीं था! इसलिए, कहने की आवश्यकता नहीं कि लूत को छोड़कर सदोम के भीतर हर कोई विनाश का लक्ष्य था, और ठीक भी है—वे इसके पात्र थे।

परमेश्वर को नाराज़ करने के कारण सदोम को पूरी तरह से तबाह कर दिया गया

जब सदोम के लोगों ने इन दो सेवकों को देखा, तो उन्होंने उनके आने का कारण नहीं पूछा, न ही किसी ने यह पूछा कि क्या वे परमेश्वर की इच्छा का प्रचार करने के लिए आए हैं। इसके विपरीत, उन्होंने एक भीड़ इकट्ठी की और स्पष्टीकरण का इंतज़ार किए बिना, जंगली कुत्तों या दुष्ट भेड़ियों के समान उन दोनों सेवकों को पकड़ने के लिए आ गए। क्या परमेश्वर ने इन चीज़ों को होते हुए देखा था? इस प्रकार के मानवीय व्यवहार, इस प्रकार की घटना को लेकर परमेश्वर अपने हृदय में क्या सोच रहा था? परमेश्वर ने इस नगर को नष्ट करने का मन बनाया; वह न तो हिचकिचाया और न ही उसने इंतज़ार किया, न ही उसने और अधिक धीरज दिखाया। उसका दिन आ चुका था, अतः उसने वह कार्य कर दिया, जिसे वह करना चाहता था। इस प्रकार, उत्पत्ति 19:24-25 कहती है, “तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई; और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को, और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्‍ट कर दिया।” ये दो पद परमेश्वर द्वारा उस नगर को नष्ट करने के तरीके और साथ ही उसके द्वारा नष्ट की गई चीज़ों के बारे में बताते हैं। प्रथम, बाइबल वर्णन करती है कि परमेश्वर ने उस नगर को आग से जला दिया, और आग की मात्रा समस्त लोगों और जो कुछ भूमि पर उगता था उसे, नष्ट करने के लिए पर्याप्त थी। कहने का तात्पर्य है कि स्वर्ग से गिरने वाली उस आग ने न केवल उस नगर को नष्ट कर दिया; बल्कि उसने उसके भीतर के समस्त लोगों और जीवित प्राणियों को भी नष्ट कर दिया, और उनका कोई नामोनिशान नहीं रहा। जब नगर नष्ट हो गया, तो वह भूमि जीवित प्राणियों से विहीन हो गई; वहाँ कोई जीवन नहीं रहा, और न ही जीवन के कोई निशान रहे। नगर एक बंजर भूमि बन गया, एक खाली जगह, जो मौत के सन्नाटे से भरी हुई थी। इस स्थान पर परमेश्वर के विरुद्ध अब और कोई बुरा कार्य नहीं होगा; अब और कोई हत्या या ख़ून-ख़राबा नहीं होगा।

परमेश्वर क्यों इस नगर को पूरी तरह से जलाना चाहता था? तुम लोग यहाँ क्या देख सकते हो? क्या परमेश्वर वाकई मनुष्य और प्रकृति, अपनी स्वयं की सृष्टि को इस तरह नष्ट होते हुए सहन कर सकता था? यदि तुम उस आग से, जिसे स्‍वर्ग से बरसाया गया था, यहोवा परमेश्वर के कोप को समझ सको, तो उसके विनाश के लक्ष्यों को और जिस हद तक इस नगर को नष्ट किया गया, उसे देखते हुए यह समझना कठिन नहीं है कि उसका कोप कितना बड़ा था। जब परमेश्वर किसी नगर से घृणा करता है, तो वह उस पर अपना दंड बरसाएगा। जब परमेश्वर किसी नगर से अप्रसन्न होता है, तो वह लोगों को अपने क्रोध से अवगत कराते हुए बार-बार चेतावनियाँ जारी करेगा। किंतु जब परमेश्वर किसी नगर का खात्मा और विनाश करने का निर्णय लेता है—अर्थात् जब उसके कोप और वैभव को ठेस पहुँचती है—तो वह आगे कोई दंड और चेतावनी नहीं देगा। इसके बजाय, वह सीधे उसे नष्ट कर देगा। वह उसे पूरी तरह से मिटा देगा। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है।

अपने प्रति सदोम की बार-बार की शत्रुता और प्रतिरोध के बाद परमेश्वर ने उसे पूरी तरह से मिटा दिया

अब जबकि हमें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की एक सामान्य समझ हो गई है, तो हम अपना ध्यान वापस सदोम नगर की ओर मोड़ सकते हैं—एक ऐसी जगह, जिसे परमेश्वर ने पाप की नगरी के रूप में देखा था। इस नगर के सार को समझकर हम यह समझ सकते हैं कि परमेश्वर इसे क्यों नष्ट करना चाहता था और उसने इसे क्यों पूरी तरह से नष्ट कर दिया। इससे हम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान सकते हैं।

मनुष्य के दृष्टिकोण से सदोम एक ऐसा नगर था, जो मनुष्य की कामना और दुष्टता को पूरी तरह से संतुष्ट कर सकता था। उस आकर्षक और मनमोहक नगर की संपन्नता ने हर रात चलने वाले संगीत और नृत्य के साथ मनुष्यों को सम्मोहन और उन्माद की ओर धकेल दिया। उसकी बुराई ने लोगों के हृदय कलुषित कर दिए और उन्हें अनैतिकता में फँसा दिया। वह एक ऐसा नगर था, जहाँ अशुद्ध और दुष्ट आत्माएँ बेधड़क मँडराया करती थीं; वह पाप और हत्या से सराबोर था और उसकी हवा में ख़ूनी एवं सड़ी हुई दुर्गंध समाई हुई थी। वह एक ऐसा नगर था, जिसने लोगों को आतंकित कर दिया था, ऐसा नगर जिससे कोई भी भय से सिकुड़ जाएगा। उस नगर में कोई भी व्यक्ति—पुरुष हो या स्त्री, जवान हो या बुज़ुर्ग—सच्चे मार्ग की खोज नहीं करता था; कोई भी प्रकाश की लालसा नहीं करता था या पाप से दूर नहीं जाना चाहता था। वे शैतान के नियंत्रण, भ्रष्टता और छल-कपट में जीवन बिताते थे। उन्होंने अपनी मानवता खो दी थी; उन्होंने अपनी संवेदनाएँ गँवा दी थीं, और उन्होंने मनुष्य के अस्तित्व का मूल उद्देश्य खो दिया था। उन्होंने परमेश्वर के विरुद्ध प्रतिरोध के असंख्य दुष्ट कर्मों को अंजाम दिया था; उन्होंने उसका मार्गदर्शन अस्वीकार किया था और उसकी इच्छा का विरोध किया था। ये उनके बुरे कार्य थे, जिन्होंने इन लोगों को, नगर को और उसके भीतर के हर एक जीवित प्राणी को कदम-दर-कदम विनाश के पथ पर पहुँचा दिया था।

यद्यपि ये दो अंश सदोम के लोगों की भ्रष्टता की सीमा का समस्त विवरण दर्ज नहीं करते, इसके बजाय वे नगर में परमेश्वर के दो सेवकों के आगमन के बाद उनके प्रति लोगों के आचरण को दर्ज करते हैं, तथापि एक साधारण-सा सत्य है जो प्रकट करता है कि सदोम के लोग किस हद तक भ्रष्ट एवं दुष्ट थे और वे किस हद तक परमेश्वर का प्रतिरोध करते थे। इससे नगर के लोगों के असली चेहरे और सार का भी खुलासा हो जाता है। इन लोगों ने न केवल परमेश्वर की चेतावनियों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था, बल्कि वे उसके दंड से भी नहीं डरते थे। इसके विपरीत, उन्होंने परमेश्वर के कोप का उपहास किया। उन्होंने आँख मूँदकर परमेश्वर का प्रतिरोध किया। परमेश्वर ने चाहे जो भी किया या जैसे भी किया, उनका दुष्ट स्वभाव सघन ही हुआ, और उन्होंने बार-बार परमेश्वर का विरोध किया। सदोम के लोग परमेश्वर के अस्तित्व, उसके आगमन, उसके दंड, और उससे भी बढ़कर, उसकी चेतावनियों से विमुख थे। वे अत्यधिक अहंकारी थे। उन्होंने उन सभी लोगों को निगल लिया और नुकसान पहुँचाया, जिन्हें निगला और नुकसान पहुँचाया जा सकता था, और उन्होंने परमेश्वर के सेवकों के साथ भी कोई अलग बरताव नहीं किया। सदोम के लोगों द्वारा किए गए तमाम दुष्कर्मों के लिहाज से, परमेश्वर के सेवकों को नुकसान पहुँचाना तो बस उनकी दुष्टता का एक छोटा-सा अंश था, और इससे जो उनकी दुष्ट प्रकृति प्रकट हुई, वह वास्तव में विशाल समुद्र में पानी की एक बूँद से बढ़कर नहीं थी। इसलिए परमेश्वर ने उन्हें आग से नष्ट करने का फैसला किया। परमेश्वर ने नगर को नष्ट करने के लिए बाढ़ का इस्तेमाल नहीं किया, न ही उसने चक्रवात, भूकंप, सुनामी या किसी और तरीके का इस्तेमाल किया। इस नगर का विनाश करने के लिए परमेश्वर द्वारा आग का इस्तेमाल क्या सूचित करता है? इसका अर्थ था नगर का संपूर्ण विनाश, इसका अर्थ था कि नगर पृथ्वी और अस्तित्व से पूरी तरह से लुप्त हो गया था। यहाँ “विनाश” न केवल नगर के आकार और ढाँचे या बाहरी रूप के लुप्त हो जाने को संदर्भित करता है; बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि पूरी तरह से मिटा दिए जाने के कारण नगर के भीतर के लोगों की आत्माएँ भी अस्तित्व में नहीं बचीं। सरल शब्दों में कहें तो, नगर से जुड़े सभी लोग, घटनाएँ और चीज़ें नष्ट कर दी गईं। उस नगर के लोगों के लिए कोई अगला जीवन या पुनर्जन्म नहीं होगा; परमेश्वर ने उन्हें अपनी सृष्टि की मानवजाति से हमेशा-हमेशा के लिए मिटा दिया। आग का इस्तेमाल इस स्थान पर पाप के अंत को सूचित करता है, और कि वहाँ पाप पर अंकुश लग गया; यह पाप अस्तित्व में नहीं रहेगा और न ही फैलेगा। इसका अर्थ था कि शैतान की दुष्टता ने अपनी उपजाऊ मिट्टी के साथ-साथ उस कब्रिस्तान को भी खो दिया था, जिसने उसे रहने और जीने के लिए एक स्थान दिया था। परमेश्वर और शैतान के बीच होने वाले युद्ध में परमेश्वर द्वारा आग का इस्तेमाल उसकी विजय की छाप है, जो शैतान पर अंकित की जाती है। मनुष्यों को भ्रष्ट करके और उन्हें निगलकर परमेश्वर का विरोध करने की शैतान की महत्वाकांक्षा में सदोम का विनाश एक बहुत भारी आघात है, और इसी प्रकार यह एक समय पर मानवता के विकास में एक अपमानजनक चिह्न है, जब मनुष्य ने परमेश्वर का मार्गदर्शन ठुकरा दिया था और अपने आपको बुराई के हवाले कर दिया था। इसके अतिरिक्त, यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के सच्चे प्रकाशन का एक अभिलेख है।

जब परमेश्वर द्वारा स्वर्ग से भेजी गई आग ने सदोम को राख में तब्दील कर दिया, तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसके बाद “सदोम” नामक नगर और उस नगर के भीतर की हर चीज़ अस्तित्व में नहीं रही। उसे परमेश्वर के क्रोध द्वारा नष्ट किया गया था, जो परमेश्वर के कोप और प्रताप के भीतर विलुप्त हो गया। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के कारण सदोम को उसका न्यायोचित दंड मिला और उसका न्यायोचित अंत हुआ। सदोम के अस्तित्व का अंत उसकी बुराई के कारण हुआ, और वह इस कारण से भी हुआ, क्योंकि परमेश्वर दोबारा इस नगर को या उसमें रहने वाले किसी व्यक्ति को या उस नगर में उत्पन्न किसी भी जीवित वस्तु को देखना नहीं चाहता था। परमेश्वर की “दोबारा उस नगर को कभी न देखने की इच्छा” उसके कोप के साथ-साथ उसका प्रताप भी है। परमेश्वर ने नगर को जला दिया, क्योंकि उसकी बुराई और पाप ने परमेश्वर को उसके प्रति क्रोध, घृणा और द्वेष का एहसास कराया था और वह उसको या वहाँ के किसी निवासी या जीवों को दोबारा कभी नहीं देखना चाहता था। जब एक बार नगर का जलना समाप्त हो गया और केवल राख ही बाकी रह गई, तो परमेश्वर की नज़रों में सचमुच उसका अस्तित्व नहीं रहा; यहाँ तक कि उसकी यादें भी परमेश्‍वर की स्मृति से चली गईं, मिट गईं। इसका अर्थ है कि स्वर्ग से भेजी गई आग ने न केवल संपूर्ण सदोम नगर को जला दिया, उसने न केवल नगर के अधर्म से अत्यधिक भरे हुए लोगों को नष्ट कर दिया, उसने न केवल नगर के भीतर की पाप से दूषित सभी चीज़ों को नष्ट कर दिया; बल्कि उससे भी बढ़कर, उस आग ने मनुष्यों की दुष्टता की याद और परमेश्वर के प्रति उनके प्रतिरोध को भी नष्ट कर दिया। उस नगर को जलाकर राख कर देने के पीछे परमेश्वर का यही उद्देश्य था।

मनुष्य चरम सीमा तक पतित हो चुके थे। वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर कौन है या वे स्वयं कहाँ से आए हैं। यदि तुम परमेश्वर का ज़िक्र भी करते, तो वे हमला कर देते, कलंक लगाते और ईश-निंदा करते। यहाँ तक कि जब परमेश्वर के सेवक उसकी चेतावनी का प्रचार करने आए थे, तब भी इन दुष्ट लोगों ने न केवल पश्चात्ताप का कोई चिह्न नहीं दिखाया और अपना दुष्ट आचरण नहीं त्यागा, बल्कि इसके विपरीत, उन्होंने ढिठाई से परमेश्वर के सेवकों को नुकसान पहुँचाया। जो कुछ उन्होंने व्यक्त और प्रकट किया, वह परमेश्वर के प्रति उनकी चरम शत्रुता की प्रकृति और सार था। हम देख सकते हैं कि परमेश्वर के विरुद्ध इन भ्रष्ट लोगों का प्रतिरोध उनके भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन से कहीं अधिक था, बिलकुल वैसे ही, जैसे यह सत्य की समझ की कमी के कारण की जाने वाली निंदा और उपहास की एक घटना से कहीं अधिक था। उनके दुष्ट आचरण का कारण न तो मूर्खता थी, न ही अज्ञानता; उन्होंने ऐसा कार्य इसलिए नहीं किया कि उन्हें धोखा दिया गया था, और इसलिए तो निश्चित रूप से नहीं कि उन्हें गुमराह किया गया था। उनका आचरण परमेश्वर के विरुद्ध खुले तौर पर निर्लज्ज शत्रुता, विरोध और उपद्रव के स्तर तक पहुँच चुका था। निस्संदेह, इस प्रकार का मानव-व्यवहार परमेश्वर को क्रोधित करेगा, और यह उसके स्वभाव को क्रोधित करेगा—ऐसा स्वभाव, जिसे ठेस नहीं पहुँचाई जानी चाहिए। इसलिए परमेश्वर ने सीधे और खुले तौर पर अपना कोप और प्रताप दिखाया; यह उसके धार्मिक स्वभाव का सच्चा प्रकाशन था। एक ऐसे नगर को सामने देख, जहाँ पाप उमड़ रहा था, परमेश्वर ने उसे यथासंभव तीव्रतम तरीके से नष्ट कर देना चाहा, ताकि उसके भीतर रहने वाले लोगों और उनके संपूर्ण पापों को पूरी तरह से मिटाया जा सके, ताकि उस नगर के लोगों का अस्तित्व समाप्त किया जा सके और उस स्थान के भीतर पाप को द्विगुणित होने से रोका जा सके। ऐसा करने का सबसे तेज और सबसे मुकम्मल तरीका था उसे आग से जलाकर नष्‍ट कर देना। सदोम के लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया परित्याग या उपेक्षा का नहीं था। इसके बजाय, उसने इन लोगों को दंड देने, मार डालने और पूरी तरह से नष्ट कर देने के लिए अपने कोप, प्रताप और अधिकार का प्रयोग किया। उनके प्रति उसका रवैया न केवल उनके शारीरिक विनाश का था, बल्कि उनकी आत्माओं के विनाश का, एक शाश्वत उन्मूलन का भी था। यह “अस्तित्व की समाप्ति” वचनों से परमेश्वर के आशय का वास्तविक निहितार्थ है।

हालाँकि परमेश्वर का कोप मनुष्य से छिपा हुआ और अज्ञात है, फिर भी वह कोई अपमान सहन नहीं करता

समस्त मानवजाति के प्रति, उस मानवजाति के प्रति जो कि मूर्ख और जाहिल है, परमेश्वर का व्यवहार मुख्य रूप से दया और सहनशीलता पर आधारित है। दूसरी ओर, उसका कोप अधिकांश समय और अधिकांश घटनाओं में छिपा रहता है, और मनुष्य उससे अनजान है। परिणामस्वरूप, परमेश्वर को अपना कोप व्यक्त करते हुए देखना मनुष्य के लिए कठिन है, और उसके कोप को समझना भी उसके लिए कठिन है। इसलिए मनुष्य परमेश्वर के कोप को हलके में लेता है। मनुष्य जब परमेश्वर के अंतिम कार्य और मनुष्य के लिए उसकी क्षमा और सहिष्णुता के कदम का सामना करता है—अर्थात्, जब परमेश्वर की दया की अंतिम घटना और अंतिम चेतावनी मनुष्य पर आती है—यदि लोग फिर भी उसी तरह से परमेश्वर का विरोध करते रहते हैं और पश्चाताप करने, अपने तौर-तरीके सुधारने या उसकी दया स्वीकार करने का कोई प्रयास नहीं करते, तो परमेश्वर आगे उन्हें अपनी सहनशीलता और धैर्य नहीं दिखाएगा। इसके विपरीत, उस समय परमेश्वर अपनी दया वापस ले लेगा। इसके बाद वह केवल अपना कोप ही भेजेगा। वह विभिन्न तरीकों से अपना कोप व्यक्त कर सकता है, वैसे ही, जैसे वह लोगों को दंड देने और नष्ट करने के लिए विभिन्न पद्धतियाँ इस्तेमाल करता है।

सदोम नगर का विनाश करने के लिए परमेश्वर द्वारा आग का इस्तेमाल करना मनुष्य या किसी अन्य चीज़ को पूरी तरह से नष्ट करने की उसकी तीव्रतम पद्धति है। सदोम के लोगों को जलाना उनके शरीर नष्ट करने से कहीं अधिक था; इसने पूरी तरह से उनकी आत्माएँ, उनके प्राण और उनके शरीर नष्ट कर दिए, और यह सुनिश्चित किया कि उस नगर के लोग न तो भौतिक संसार में अस्तित्व में रहें और न ही उस संसार में, जो मनुष्य के लिए अदृश्य है। यह परमेश्वर द्वारा अपना कोप प्रकाशित और अभिव्यक्त करने का एक तरीका है। इस तरह का प्रकाशन और अभिव्यक्ति परमेश्वर के कोप के सार का एक पहलू है, ठीक वैसे ही, जैसे यह स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के सार का प्रकाशन भी है। जब परमेश्वर अपना कोप भेजता है, तो वह कोई दया या प्रेममय करुणा प्रकट करना बंद कर देता है, न ही वह आगे कोई सहनशीलता या धैर्य प्रदर्शित करता है; कोई ऐसा व्यक्ति, वस्तु या कारण नहीं है, जो उसे धैर्य धारण किए रहने, फिर से दया करने, एक बार फिर अपनी सहनशीलता दिखाने के लिए राज़ी कर सके। इन चीज़ों के स्थान पर, एक पल के लिए भी हिचकिचाए बिना, परमेश्वर अपना कोप और प्रताप भेजता है, और जो कुछ चाहता है, वह करता है। इन चीज़ों को वह अपनी इच्छाओं के अनुरूप एक तीव्र और साफ़-सुथरे तरीके से करता है। यह वह तरीका है, जिससे परमेश्वर अपना वह कोप और प्रताप प्रकट करता है, जिसे मनुष्य द्वारा ठेस नहीं पहुँचाई जानी चाहिए, और यह उसके धार्मिक स्वभाव के एक पहलू की अभिव्यक्ति भी है। जब लोग परमेश्वर को मनुष्य के प्रति चिंता और प्रेम दिखाते हुए देखते हैं, तो वे उसके कोप को भाँपने में, उसके प्रताप को देखने में या अपमान के प्रति उसकी असहनशीलता अनुभव करने में असमर्थ होते हैं। इन चीज़ों ने हमेशा लोगों को विश्वास दिलाया है कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव केवल दया, सहनशीलता और प्रेम का है। किंतु जब कोई परमेश्वर को किसी नगर का विनाश करते हुए या मनुष्य से घृणा करते हुए देखता है, तो मनुष्य के विनाश में उसका कोप और प्रताप लोगों को उसके धार्मिक स्वभाव के अन्य पक्ष की झलक देखने देता है। यह अपमान के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता है। परमेश्वर का कोई अपमान सहन न करने वाला स्वभाव किसी भी सृजित प्राणी की कल्पना से परे है, और ग़ैर-सृजित प्राणियों में से कोई उसके साथ दखलंदाज़ी करने या उसको प्रभावित करने में सक्षम नहीं है; और इसका प्रतिरूपण या अनुकरण तो किया ही नहीं जा सकता। इस प्रकार, परमेश्वर के स्वभाव का यह ऐसा पहलू है, जिसे मनुष्य को सबसे अधिक जानना चाहिए। केवल स्वयं परमेश्वर का ही ऐसा स्वभाव है, और केवल स्वयं परमेश्वर ही ऐसे स्वभाव से युक्त है। परमेश्वर का ऐसा धार्मिक स्वभाव इसलिए है, क्योंकि वह दुष्टता, अंधकार, विद्रोहशीलता और शैतान के बुरे कार्यों—जैसे कि मानवजाति को भ्रष्ट करना और निगल जाना—से घृणा करता है, क्योंकि वह अपने विरुद्ध पाप के सारे कार्यों से घृणा करता है और इसलिए भी, क्योंकि उसका सार पवित्र और निर्मल है। यही कारण है कि वह किसी भी सृजित या ग़ैर-सृजित प्राणी द्वारा खुला विरोध या स्वयं से मुकाबला सहन नहीं करेगा। यहाँ तक कि कोई ऐसा व्यक्ति भी, जिसके प्रति उसने किसी समय दया दिखाई हो या जिसका चुनाव किया हो, उसके स्वभाव को ललकार दे या उसके धीरज और सहनशीलता के सिद्धांत का उल्‍लंघन कर दे, तो वह थोड़ी-सी भी दया या संकोच दिखाए बिना, अपमान बरदाश्त न करने वाला अपना धार्मिक स्वभाव प्रकट और प्रकाशित कर देगा।

परमेश्वर का कोप न्याय की समस्त शक्तियों और समस्त सकारात्मक चीज़ों के लिए सुरक्षा-उपाय है

परमेश्वर के संभाषण, विचारों और कार्यों के इन उदाहरणों को समझने से, क्या तुम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को समझने में समर्थ हो, ऐसा स्वभाव, जो मनुष्य द्वारा ठेस पहुँचाए जाने को बरदाश्त नहीं करेगा? संक्षेप में, इस पर ध्यान दिए बिना कि मनुष्य इसे कितना समझ सकता है, यह स्वयं परमेश्वर के स्वभाव का एक पहलू है, और यह अद्वितीय है। अपमान के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता उसका अद्वितीय सार है; परमेश्वर का कोप उसका अद्वितीय स्वभाव है; परमेश्वर का प्रताप उसका अद्वितीय सार है। परमेश्वर के क्रोध के पीछे का सिद्धांत उस पहचान और हैसियत का प्रदर्शन है, जिसे सिर्फ वही धारण करता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह अद्वितीय स्वयं परमेश्वर के सार का एक प्रतीक भी है। परमेश्वर का स्वभाव उसका अपना अंतर्निहित सार है, जो समय के साथ बिलकुल नहीं बदलता, और न यह भौगोलिक स्थान के बदलने से ही बदलता है। उसका अंतर्निहित स्वभाव उसका स्वाभाविक सार है। वह चाहे जिस किसी पर भी अपना कार्य क्‍यों न करे, उसका सार नहीं बदलता, और न ही उसका धार्मिक स्वभाव बदलता है। जब कोई परमेश्‍वर को क्रोधित करता है, तो वह अपना अंतर्निहित स्वभाव प्रस्फुटित करता है; इस समय उसके क्रोध के पीछे का सिद्धांत नहीं बदलता, और न ही उसकी अद्वितीय पहचान और हैसियत बदलती है। वह अपने सार में परिवर्तन के कारण या अपने स्वभाव से विभिन्न तत्त्वों के उत्पन्न होने के कारण क्रोधित नहीं होता, बल्कि इसलिए होता है क्योंकि उसके विरुद्ध मनुष्य का विरोध उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाता है। मनुष्य द्वारा परमेश्वर को खुले तौर पर उकसाना परमेश्वर की अपनी पहचान और हैसियत के लिए एक गंभीर चुनौती है। परमेश्वर की नज़र में, जब मनुष्य उसे चुनौती देता है, तब मनुष्य उससे मुकाबला कर रहा होता है और उसके क्रोध की परीक्षा ले रहा होता है। जब मनुष्य परमेश्वर का विरोध करता है, जब मनुष्य परमेश्वर से मुकाबला करता है, जब मनुष्य लगातार उसके क्रोध की परीक्षा लेता है—और यह उस समय होता है, जब पाप अनियंत्रित हो जाता है—तब परमेश्वर का कोप स्वाभाविक रूप से अपने आपको प्रकट और प्रस्तुत करेगा। इसलिए, परमेश्वर के कोप की अभिव्यक्ति इस बात की प्रतीक है कि समस्त बुरी ताकतें अस्तित्व में नहीं रहेंगी, और यह इस बात की प्रतीक है कि सभी विरोधी शक्तियाँ नष्ट कर दी जाएँगी। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और उसके कोप की अद्वितीयता है। जब परमेश्वर की गरिमा और पवित्रता को चुनौती दी जाती है, जब मनुष्य द्वारा न्याय की ताकतों को रोका जाता है और उनकी अनदेखी की जाती है, तब परमेश्वर अपने कोप को भेजता है। परमेश्वर के सार के कारण पृथ्वी की वे सारी ताकतें, जो परमेश्वर का मुकाबला करती हैं, उसका विरोध करती हैं और उसके साथ संघर्ष करती हैं, बुरी, भ्रष्ट और अन्यायी हैं; वे शैतान से आती हैं और उसी से संबंधित हैं। चूँकि परमेश्वर न्यायी है, प्रकाशमय है, दोषरहित और पवित्र है, इसलिए समस्त बुरी, भ्रष्ट और शैतान से संबंध रखने वाली चीज़ें परमेश्वर का कोप प्रकट होने पर नष्ट हो जाएँगी।

यद्यपि परमेश्वर के कोप का उफान उसके धार्मिक स्वभाव की अभिव्यक्ति का एक पहलू है, किंतु परमेश्वर का क्रोध अपने लक्ष्य के प्रति किसी भी तरह से विवेकशून्य नहीं है, और न ही वह सिद्धांतविहीन है। इसके विपरीत, परमेश्वर क्रोध करने में बिलकुल भी उतावलापन नहीं दिखाता, और न ही वह अपने कोप और प्रताप को हलकेपन से प्रकट करता है। इतना ही नहीं, परमेश्वर का कोप पूरी तरह से नियंत्रित और नपा-तुला होता है; उसकी तुलना मनुष्य के क्रोध से आगबबूला होने या अपना गुस्सा प्रकट करने से बिलकुल नहीं की जा सकती। मनुष्य और परमेश्वर के बीच हुए अनेक वार्तालाप बाइबल में दर्ज हैं। इनमें से कुछ लोगों के कथन सतही, अज्ञानता से भरे और बचकाने थे, किंतु परमेश्वर ने उन्हें मार नहीं गिराया, और न ही उनकी भर्त्सना की। विशेष रूप से, अय्यूब के परीक्षण के दौरान, यहोवा परमेश्वर ने अय्यूब के तीन मित्रों और दूसरे लोगों द्वारा अय्यूब से कही गई बातें सुनने के बाद उनके साथ कैसा बरताव किया था? क्या उसने उनकी भर्त्सना की थी? क्या वह उन पर आगबबूला हो गया था? उसने ऐसा कुछ नहीं किया था! इसके बजाय उसने अय्यूब को उनकी ओर से विनती करने और उनके लिए प्रार्थना करने के लिए कहा, और स्वयं परमेश्वर ने उनकी गलतियों को गंभीरता से नहीं लिया। ये सभी उदाहरण भ्रष्ट एवं अबोध मानवजाति के साथ परमेश्वर के मौलिक रवैये को दर्शाते हैं। इसलिए, परमेश्वर के कोप का प्रस्फुटन किसी भी तरह से उसकी मनःस्थिति की अभिव्यक्ति नहीं है, न ही वह उसके द्वारा अपनी भावनाएँ जाहिर करने का तरीका है। मनुष्य की गलतफहमी के विपरीत, परमेश्वर का कोप पूरी तरह से गुस्से का फूट पड़ना नहीं है। परमेश्वर अपने कोप को इसलिए नहीं प्रकट करता कि वह अपनी मनःस्थिति पर काबू पाने में असमर्थ है या कि उसका क्रोध चरम पर पहुँच गया है और उसे बाहर निकालना आवश्यक है। इसके विपरीत, उसका कोप उसके धार्मिक स्वभाव का प्रदर्शन और उसकी वास्तविक अभिव्यक्ति है, और यह उसके पवित्र सार का सांकेतिक प्रकटन है। परमेश्वर कोप है, और वह अपमानित किया जाना सहन नहीं करता—इसका तात्पर्य यह नहीं है कि परमेश्वर का क्रोध कारणों के बीच अंतर नहीं करता या वह सिद्धांतविहीन है; क्रोध के सिद्धांतविहीन, बेतरतीब विस्फोट पर तो एकमात्र अधिकार भ्रष्ट मनुष्य का है, उस प्रकार का क्रोध, कारणों के बीच अंतर नहीं करता। एक बार जब मनुष्य को हैसियत मिल जाती है, तो उसे अकसर अपनी मनःस्थिति पर नियंत्रण पाने में कठिनाई महसूस होगी, और इसलिए वह अपना असंतोष व्यक्त करने और अपनी भावनाएँ प्रकट करने के लिए अवसरों का इस्तेमाल करने में आनंद लेता है; वह अकसर बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के क्रोध से आगबबूला हो जाता है, ताकि वह अपनी योग्यता दिखा सके और दूसरे जान सकें कि उसकी हैसियत और पहचान साधारण लोगों से अलग है। निस्संदेह, बिना किसी हैसियत वाले भ्रष्ट लोग भी अकसर नियंत्रण खो देते हैं। उनका क्रोध अकसर उनके निजी हितों को नुकसान पहुँचने के कारण होता है। अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए वे बार-बार अपनी भावनाएँ जाहिर करते हैं और अपना अहंकारी स्वभाव दिखाते हैं। मनुष्य पाप के अस्तित्व का बचाव और समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला हो जाता है, अपनी भावनाएँ जाहिर करता है, और इन्हीं तरीकों से मनुष्य अपना असंतोष व्यक्त करता है; वे अशुद्धताओं, कुचक्रों और साजिशों से, मनुष्य की भ्रष्टता और बुराई से, और अन्य किसी भी चीज़ से बढ़कर, मनुष्य की निरंकुश महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से लबालब भरे हैं। जब न्याय दुष्टता से टकराता है, तो मनुष्य न्याय के अस्तित्व का बचाव या समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला नहीं होता; इसके विपरीत, जब न्याय की शक्तियों को धमकाया, सताया और उन पर आक्रमण किया जाता है, तब मनुष्य का स्वभाव नज़रअंदाज़ करने, टालने या मुँह फेरने वाला होता है। लेकिन दुष्ट शक्तियों से सामना होने पर मनुष्य का रवैया समझौतापरक, झुकने और मक्खन लगाने वाला होता है। इसलिए, मनुष्य का क्रोध निकालना दुष्ट शक्तियों के लिए बच निकलने का मार्ग है, और देहयुक्त मनुष्य के अनियंत्रित और रोके न जा सकने वाले बुरे आचरण की अभिव्यक्ति है। किंतु जब परमेश्वर अपने कोप को भेजता है, तो सारी बुरी शक्तियों को रोका जाएगा, मनुष्य को हानि पहुँचाने वाले सारे पापों पर अंकुश लगाया जाएगा, परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने वाली सभी विरोधी ताकतों को प्रकट, अलग और शापित किया जाएगा, परमेश्वर का विरोध करने वाले शैतान के सभी सहयोगियों को दंडित किया जाएगा और उन्हें जड़ से उखाड़ दिया जाएगा। उनके स्थान पर, परमेश्वर का कार्य बाधाओं से मुक्त होकर आगे बढ़ेगा, परमेश्वर की प्रबंधन योजना निर्धारित समय के अनुसार कदम-दर-कदम विकसित होती रहेगी, और परमेश्वर के चुने हुए लोग शैतान की बाधा और छल से मुक्त होंगे, और परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोग स्वस्थ और शांतिपूर्ण माहौल के बीच परमेश्वर की अगुआई और आपूर्ति का आनंद लेंगे। परमेश्वर का कोप एक सुरक्षा-उपाय है, जो सभी दुष्ट ताकतों को बहुगुणित होने और अनियंत्रित होकर बढ़ने से रोकता है, और यह ऐसा सुरक्षा-उपाय भी है, जो समस्त न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ों के अस्तित्व और प्रसार की रक्षा करता है, और शाश्वत रूप से उन्हें दमन और विनाश से बचाता है।

क्या तुम लोग सदोम के विनाश में परमेश्वर के कोप का सार देख सकते हो? क्या उसके क्रोध में कोई और चीज़ मिली हुई है? क्या परमेश्वर का क्रोध पवित्र है? मनुष्य के शब्दों का प्रयोग करें तो, क्या परमेश्वर का कोप बिना किसी मिलावट के है? क्या उसके कोप के पीछे कोई छल है? क्या उसमें कोई षड्यंत्र है? क्या उसमें कोई अकथनीय रहस्य हैं? मैं कठोरता और गंभीरता से तुम्हें बता सकता हूँ : परमेश्वर के कोप का कोई अंश ऐसा नहीं है, जिस पर कोई संदेह कर सकता हो। उसका क्रोध पवित्र और मिलावट-रहित है, जिसमें कोई अन्य इरादे या लक्ष्य नहीं रहते। उसके क्रोध के पीछे के कारण पवित्र, निर्दोष और आलोचना से परे हैं। यह उसके पवित्र सार का एक स्वाभाविक प्रकाशन और प्रदर्शन है; यह कुछ ऐसा है, जो पूरी सृष्टि में किसी के पास नहीं है। यह परमेश्वर के अद्वितीय धार्मिक स्वभाव का एक अंग है, और यह सृष्टिकर्ता और उसकी सृष्टि के संबंधित सारों के बीच एक महत्त्वपूर्ण अंतर भी है।

चाहे कोई दूसरों के सामने क्रोध करे या उनके पीठ-पीछे, प्रत्येक व्यक्ति के पास अपने क्रोध का एक अलग इरादा और उद्देश्य होता है। शायद वे अपनी प्रतिष्ठा का निर्माण कर रहे होते हैं, या शायद वे अपने हितों का बचाव कर रहे होते हैं, अपनी छवि बना रहे होते हैं या अपनी लाज बचा रहे होते हैं। कुछ लोग अपने क्रोध में संयम बरतते हैं, जबकि अन्य लोग बहुत उतावले होते हैं और ज़रा भी संयम बरते बिना, जब चाहते हैं भड़क जाते हैं। संक्षेप में, मनुष्य का क्रोध उसके भ्रष्ट स्वभाव से निकलता है। उसका उद्देश्य कुछ भी हो, वह देह और प्रकृति का अंग है; उसका न्याय और अन्याय से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि मनुष्य की प्रकृति और सार में कुछ भी सत्य के अनुरूप नहीं है। इसलिए, भ्रष्ट मनुष्य के क्रोध और परमेश्वर के कोप की तुलना नहीं की जानी चाहिए। बिना किसी अपवाद के, शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य का व्यवहार भ्रष्टता की रक्षा की इच्छा से शुरू होता है, और निस्संदेह यह भ्रष्टता पर आधारित होता है; इसलिए, मनुष्य के क्रोध की तुलना परमेश्वर के कोप से नहीं की जा सकती, चाहे मनुष्य का क्रोध सैद्धांतिक रूप से कितना भी उचित क्यों न लगे। जब परमेश्वर अपना कोप भेजता है, तो दुष्ट शक्तियों को रोका जाता है, बुरी चीज़ों को नष्ट किया जाता है, जबकि न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ें परमेश्वर की देखरेख और सुरक्षा प्राप्त करती हैं और उन्हें जारी रहने दिया जाता है। परमेश्वर अपना कोप इसलिए भेजता है, क्योंकि अन्यायपूर्ण, नकारात्मक और बुरी चीज़ें न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ों की सामान्य गतिविधि और विकास को बाधित, अवरुद्ध या नष्ट करती हैं। परमेश्वर के क्रोध का लक्ष्य अपनी हैसियत और पहचान की रक्षा करना नहीं है, बल्कि न्यायोचित, सकारात्मक, सुंदर और अच्छी चीज़ों के अस्तित्व की रक्षा करना, मनुष्य के सामान्य अस्तित्व की विधियों और व्यवस्था की रक्षा करना है। यह परमेश्वर के कोप का मूल कारण है। परमेश्वर का कोप उसके स्वभाव का बिलकुल उचित, स्वाभाविक और वास्तविक प्रकाशन है। उसके कोप के कोई गुप्त अभिप्राय नहीं हैं, न ही उसमें छल या षड्यंत्र हैं; इच्छाएँ, चतुराई, द्वेष, हिंसा, बुराई या भ्रष्ट मनुष्य में पाई जाने वाले अन्य लक्षणों होने की तो बात ही छोड़ दो। अपना कोप भेजने से पहले परमेश्वर हर मामले के सार को पहले ही पर्याप्त स्पष्टता और पूर्णता के साथ जान चुका होता है, और उसने पहले ही सटीक, स्पष्ट परिभाषाएँ और निष्कर्ष निरूपित कर लिए होते हैं। इस प्रकार, परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले हर कार्य में उसका उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट होता है, जैसे कि उसका रवैया स्पष्ट होता है। वह नासमझ, अंधा, आवेशपूर्ण या लापरवाह नहीं है, और वह निश्चित रूप से सिद्धांतहीन नहीं है। यह परमेश्वर के कोप का व्यावहारिक पहलू है, और परमेश्वर के कोप के इस व्यावहारिक पहलू के कारण ही मनुष्य ने अपना सामान्य अस्तित्व हासिल किया है। परमेश्वर के कोप के बिना मनुष्य असामान्य जीवन-स्थितियों में पतित हो जाता और सभी न्यायोचित, सुंदर और अच्छी चीज़ों को नष्ट कर दिया जाता और वे अस्तित्व में न रहतीं। परमेश्वर के कोप के बिना सृजित प्राणियों के अस्तित्व के नियम और विधियाँ तोड़ दी जातीं या पूरी तरह से उलट दी जातीं। मनुष्य के सृजन के समय से ही परमेश्वर ने मनुष्य के सामान्य अस्तित्व की रक्षा करने और उसे कायम रखने के लिए अपने धार्मिक स्वभाव का निरंतर इस्तेमाल किया है। चूँकि उसके धार्मिक स्वभाव में कोप और प्रताप का समावेश है, इसलिए सभी बुरे लोग, चीज़ें और पदार्थ, और मनुष्य के सामान्य अस्तित्व को परेशान करने और उसे क्षति पहुँचाने वाली सभी चीज़ें उसके कोप के परिणामस्वरूप दंडित, नियंत्रित और नष्ट कर दी जाती हैं। पिछली कई सहस्राब्दियों से परमेश्वर ने सभी प्रकार की अशुद्ध और बुरी आत्माओं को, जो परमेश्वर का विरोध करती हैं और मनुष्य का प्रबंधन करने के परमेश्वर के कार्य में शैतान के सहयोगियों और अनुचरों के रूप में कार्य करती हैं, मार गिराने और नष्ट करने के लिए अपने धार्मिक स्वभाव का लगातार इस्तेमाल किया है। इस प्रकार, मनुष्य के उद्धार का परमेश्वर का कार्य उसकी योजना के अनुसार सदैव आगे बढ़ता गया है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर के कोप के अस्तित्व के कारण मनुष्यों के सर्वाधिक नेक कार्य कभी नष्ट नहीं किए गए हैं।

अब जबकि तुम लोगों को परमेश्वर के कोप के सार की समझ हो गई है, तो तुम लोगों को निश्चित रूप से इस बात की और भी बेहतर समझ होनी चाहिए कि शैतान की बुराई को कैसे पहचाना जाए!

यद्यपि शैतान दयालु, न्यासंगत और सदाचारी प्रतीत होता है, फिर भी शैतान का सार निर्दयी और बुरा है

शैतान लोगों को धोखा देकर अपनी प्रतिष्ठा बनाता है और अकसर खुद को धार्मिकता के अगुआ और आदर्श के रूप में स्थापित करता है। धार्मिकता की रक्षा की आड़ में वह लोगों को हानि पहुँचाता है, उनकी आत्माओं को निगल जाता है, और मनुष्य को स्तब्ध करने, धोखा देने और भड़काने के लिए हर प्रकार के साधनों का उपयोग करता है। उसका लक्ष्य मनुष्य से अपने बुरे आचरण का अनुमोदन और अनुसरण करवाना और उसे परमेश्वर के अधिकार और संप्रभुता का विरोध करने में अपने साथ मिलाना है। किंतु जब कोई उसकी चालों, षड्यंत्रों और नीच हरकतों को समझ जाता है और नहीं चाहता कि शैतान द्वारा उसे लगातार कुचला और मूर्ख बनाया जाए या वह निरंतर शैतान की गुलामी करे या उसके साथ दंडित और नष्ट किया जाए, तो शैतान अपने पिछले संतनुमा लक्षण बदल लेता है और अपना झूठा नकाब फाड़कर अपना असली चेहरा प्रकट कर देता है, जो दुष्ट, शातिर, भद्दा और वहशी है। वह उन सभी का विनाश करने से ज्यादा कुछ पसंद नहीं करता, जो उसका अनुसरण करने से इनकार करते हैं और उसकी बुरी शक्तियों का विरोध करते हैं। इस बिंदु पर शैतान अब और भरोसेमंद और सज्जन व्यक्ति का रूप धारण किए नहीं रह सकता; इसके बजाय, भेड़ की खाल में भेड़िए की तरह के उसके असली बुरे और शैतानी लक्षण प्रकट हो जाते हैं। एक बार जब शैतान के षड्यंत्र प्रकट हो जाते हैं और उसके असली लक्षणों का खुलासा हो जाता है, तो वह क्रोध से आगबबूला हो जाता है और अपनी बर्बरता जाहिर कर देता है। इसके बाद तो लोगों को नुकसान पहुँचाने और निगल जाने की उसकी इच्छा और भी तीव्र हो जाती है। क्योंकि वह मनुष्य के वस्तुस्थिति के प्रति जाग्रत हो जाने से क्रोधित हो जाता है, और उसकी स्वतंत्रता और प्रकाश की लालसा और अपनी कैद तोड़कर आज़ाद होने की आकांक्षा के कारण उसके अंदर मनुष्य के प्रति बदले की एक प्रबल भावना पैदा हो जाती है। उसके क्रोध का प्रयोजन अपनी बुराई का बचाव करना और उसे बनाए रखना है, और यह उसकी जंगली प्रकृति का असली प्रकाशन भी है।

हर मामले में शैतान का व्यवहार उसकी बुरी प्रकृति को उजागर करता है। शैतान द्वारा मनुष्य पर किए गए सभी बुरे कार्यों—अपना अनुसरण करने के लिए मनुष्य को बहकाने के उसके आरंभिक प्रयासों से लेकर उसके द्वारा मनुष्य के शोषण तक, जिसके अंतर्गत वह मनुष्य को अपने बुरे कार्यों में खींचता है, और उसके असली लक्षणों का खुलासा हो जाने और मनुष्य द्वारा उसे पहचानने और छोड़ देने के बाद मनुष्य के प्रति उसकी बदले की भावना तक—इनमें से कोई भी कार्य शैतान के बुरे सार को उजागर करने से नहीं चूकता, न ही इस तथ्य को प्रमाणित करने से कि शैतान का सकारात्मक चीज़ों से कोई नाता नहीं है और शैतान समस्त बुरी चीज़ों का स्रोत है। उसका हर एक कार्य उसकी बुराई का बचाव करता है, उसके बुरे कार्यों की निरंतरता बनाए रखता है, न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ों के विरुद्ध जाता है, और मनुष्य के सामान्य अस्तित्व के नियमों और विधियों को बरबाद कर देता है। शैतान के ये कार्य परमेश्वर के विरोधी हैं, और वे परमेश्वर के कोप द्वारा नष्ट कर दिए जाएँगे। हालाँकि शैतान के पास उसका अपना कोप है, किंतु उसका कोप उसकी बुरी प्रकृति को प्रकट करने का एक माध्यम भर है। शैतान के भड़कने और उग्र होने का कारण यह है : उसके अकथनीय षड्यंत्र उजागर कर दिए गए हैं; उसके कुचक्र आसानी से छिपाए नहीं छिपते; परमेश्वर का स्थान लेने और परमेश्वर के समान कार्य करने की उसकी वहशी महत्वाकांक्षा और इच्छा नष्ट और अवरुद्ध कर दी गई है; और समूची मानवजाति को नियंत्रित करने का उसका उद्देश्य अब शून्य हो गया है और उसे कभी हासिल नहीं किया जा सकता। यह परमेश्वर द्वारा बार-बार बुलाया जाने वाला उसका कोप है, जिसने शैतान के षड्यंत्र सफल होने से रोक दिए हैं और उसकी दुष्टता के फैलाव और निरंकुशता का समय से पहले ही अंत कर दिया है। इसीलिए शैतान परमेश्वर के कोप से घृणा भी करता है और उससे डरता भी है। जब भी परमेश्वर का कोप उतरता है, तो वह न केवल शैतान के असली बुरे रूप को बेनकाब करता है, बल्कि शैतान की बुरी इच्छाओं को उजागर भी करता है, और इस प्रक्रिया में मनुष्य के प्रति शैतान के कोप के कारणों का पर्दाफाश हो जाता है। शैतान के कोप का विस्फोट उसकी दुष्ट प्रकृति का असली प्रकाशन और उसके षड्यंत्रों का खुलासा है। निस्संदेह, शैतान जब भी क्रोधित होता है, तो यह बुरी चीज़ों के विनाश और सकारात्मक चीज़ों की सुरक्षा और निरंतरता की घोषणा करता है; यह इस तथ्य की घोषणा करता है कि परमेश्वर के कोप को ठेस नहीं पहुँचाई जा सकती।

परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जानने के लिए व्यक्ति को अनुभव और कल्पना पर भरोसा नहीं करना चाहिए

जब तुम स्वयं को परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना का सामना करते हुए पाते हो, तो क्या तुम कहोगे कि परमेश्वर का वचन मिलावटी है? क्या तुम कहोगे कि परमेश्वर के कोप के पीछे कोई कहानी है और वह मिलावटी है? क्या तुम परमेश्वर को यह कहते हुए बदनाम करोगे कि उसका स्वभाव पूर्णतः धार्मिक होना आवश्यक नहीं है? परमेश्वर के प्रत्येक कार्य के साथ व्यवहार करते समय, तुम्हें पहले निश्चित होना चाहिए कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव किसी भी अन्य तत्त्व से मुक्त है और वह पवित्र और निर्दोष है। इन कार्यों में परमेश्वर द्वारा मनुष्य को मार गिराना, दंड देना और नष्ट करना शामिल है। बिना किसी अपवाद के, परमेश्वर का हर कार्य एकदम उसके अंतर्निहित स्वभाव और उसकी योजना के अनुसार किया जाता है, और उसमें मनुष्य के ज्ञान, परंपरा और दर्शन का कोई अंश शामिल नहीं होता। परमेश्वर का हर कार्य उसके स्वभाव और सार की अभिव्यक्ति है, जिसका ऐसी किसी चीज़ से संबंध नहीं है, जो भ्रष्ट मनुष्य से संबंधित हो। मनुष्य की धारणा है कि केवल मानवजाति के प्रति परमेश्वर का प्रेम, दया और सहनशीलता ही दोषरहित, मिलावटरहित और पवित्र है, और कोई नहीं जानता कि परमेश्वर का क्रोध और कोप भी इसी तरह से मिलावटरहित हैं; इतना ही नहीं, किसी ने भी इन प्रश्नों पर विचार नहीं किया है कि परमेश्वर कोई अपमान क्यों नहीं सहता या उसका कोप इतना विराट क्यों है? इसके विपरीत, कुछ लोग गलती से परमेश्वर के कोप को बुरा स्वभाव समझ लेते हैं, जैसा कि भ्रष्ट मनुष्य का होता है, और परमेश्वर के क्रोध को भ्रष्ट मनुष्य के क्रोध के समान ही समझने की गलती करते हैं। यहाँ तक कि वे गलती से यह मान लेते हैं कि परमेश्वर का कोप मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के स्वाभाविक प्रकटन के समान ही है और परमेश्वर के कोप का जारी होना भ्रष्ट लोगों के उस समय प्रकट होने वाले क्रोध के समान ही है, जब वे किसी अप्रिय स्थिति का सामना करते हैं, और वे यह मानते हैं कि परमेश्वर के कोप का प्रस्फुटन उसकी मनःस्थिति का प्रदर्शन है। इस सहभागिता के बाद, मैं आशा करता हूँ कि अब से तुम लोगों में से कोई भी परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के संबंध में किसी प्रकार की गलत धारणा, कल्पना या अनुमान नहीं रखेगा। मैं आशा करता हूँ कि मेरे वचनों को सुनने के बाद तुम अपने हृदय में परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के कोप की सच्ची पहचान रख सकते हो, उससे जुड़ी कोई पिछली गलत समझ अलग हटा सकते हो, तुम परमेश्वर के कोप के सार के संबंध में अपने गलत विश्वास और दृष्टिकोण बदल सकते हो। इतना ही नहीं, मैं आशा करता हूँ कि तुम लोगों के हृदय में परमेश्वर के स्वभाव की कोई सटीक परिभाषा हो सकती है, तुम्हारे मन में अब से परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को लेकर कोई संदेह नहीं होगा, और तुम परमेश्वर के सच्चे स्वभाव पर कोई मानवीय तर्क या अनुमान नहीं थोपोगे। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव परमेश्वर का अपना सच्चा सार है। यह कोई मनुष्य द्वारा लिखी या रची गई चीज़ नहीं है। उसका धार्मिक स्वभाव उसका धार्मिक स्वभाव है और उसका सृष्टि की किसी चीज़ से कोई संबंध या वास्ता नहीं है। स्वयं परमेश्वर स्वयं परमेश्वर है। वह कभी सृष्टि का भाग नहीं बन सकता, और यदि वह सृजित प्राणियों का सदस्य बनता भी है, तो भी उसका अंतर्निहित स्वभाव और सार नहीं बदलेगा। इसलिए, परमेश्वर को जानना किसी वस्तु को जानने के समान नहीं है; परमेश्वर को जानना किसी चीज़ की चीर-फाड़ करना नहीं है, न ही यह किसी व्यक्ति को समझने के समान है। यदि परमेश्वर को जानने के लिए मनुष्य किसी वस्तु को जानने या किसी व्यक्ति को समझने की अपनी धारणा या पद्धति का इस्तेमाल करता है, तो तुम परमेश्वर का ज्ञान हासिल करने में कभी सक्षम नहीं होगे। परमेश्वर को जानना अनुभव या कल्पना पर निर्भर नहीं है, इसलिए तुम्हें अपने अनुभव या कल्पना को परमेश्वर पर नहीं थोपना चाहिए; तुम्हारा अनुभव और कल्पना कितने भी समृद्ध क्यों न हों, फिर भी वे सीमित हैं। और तो और, तुम्हारी कल्पना तथ्यों से मेल नहीं खाती, और सत्य से तो बिलकुल भी मेल नहीं खाती, वह परमेश्वर के सच्चे स्वभाव और सार से असंगत है। यदि तुम परमेश्वर के सार को समझने के लिए अपनी कल्पना पर भरोसा करते हो, तो तुम कभी सफल नहीं होगे। एकमात्र रास्ता यह है : वह सब स्वीकार करो, जो परमेश्वर से आता है, फिर धीरे-धीरे उसे अनुभव करो और समझो। एक दिन ऐसा आएगा, जब परमेश्वर तुम्हारे सहयोग के कारण और सत्य के लिए तुम्हारी भूख और प्यास के कारण तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, ताकि तुम सच में उसे समझ और जान सको। और इसके साथ ही, हम अपने वार्तालाप के इस भाग को समाप्त करते हैं।

सच्चे पश्चात्ताप के जरिये मनुष्य परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त करता है

आगे बाइबल की “परमेश्वर द्वारा नीनवे के उद्धार” की कहानी दी गई है।

योना 1:1-2 यहोवा का यह वचन अमित्तै के पुत्र योना के पास पहुँचा : “उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और उसके विरुद्ध प्रचार कर; क्योंकि उसकी बुराई मेरी दृष्‍टि में बढ़ गई है।”

योना 3 तब यहोवा का यह वचन दूसरी बार योना के पास पहुँचा : “उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और जो बात मैं तुझ से कहूँगा, उसका उस में प्रचार कर।” तब योना यहोवा के वचन के अनुसार नीनवे को गया। नीनवे एक बहुत बड़ा नगर था, वह तीन दिन की यात्रा का था। योना ने नगर में प्रवेश करके एक दिन की यात्रा पूरी की, और यह प्रचार करता गया, “अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा।” तब नीनवे के मनुष्यों ने परमेश्‍वर के वचन की प्रतीति की; और उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा। तब यह समाचार नीनवे के राजा के कान में पहुँचा; और उसने सिंहासन पर से उठ, अपने राजकीय वस्त्र उतारकर टाट ओढ़ लिया, और राख पर बैठ गया। राजा ने प्रधानों से सम्मति लेकर नीनवे में इस आज्ञा का ढिंढोरा पिटवाया : “क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए; वे न खाएँ और न पानी पीएँ। मनुष्य और पशु दोनों टाट ओढ़ें, और वे परमेश्‍वर की दोहाई चिल्‍ला-चिल्‍ला कर दें; और अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्‍चाताप करें। सम्भव है, परमेश्‍वर दया करे और अपनी इच्छा बदल दे, और उसका भड़का हुआ कोप शान्त हो जाए और हम नष्‍ट होने से बच जाएँ।” जब परमेश्‍वर ने उनके कामों को देखा, कि वे कुमार्ग से फिर रहे हैं, तब परमेश्‍वर ने अपनी इच्छा बदल दी, और उनकी जो हानि करने की ठानी थी, उसको न किया।

योना 4 यह बात योना को बहुत ही बुरी लगी, और उसका क्रोध भड़का। उसने यहोवा से यह कहकर प्रार्थना की, “हे यहोवा, जब मैं अपने देश में था, तब क्या मैं यही बात न कहता था? इसी कारण मैं ने तेरी आज्ञा सुनते ही तर्शीश को भाग जाने के लिये फुर्ती की; क्योंकि मैं जानता था कि तू अनुग्रहकारी और दयालु परमेश्‍वर है, और विलम्ब से कोप करनेवाला करुणानिधान है, और दुःख देने से प्रसन्न नहीं होता। इसलिये अब हे यहोवा, मेरा प्राण ले ले; क्योंकि मेरे लिये जीवित रहने से मरना ही भला है।” यहोवा ने कहा, “तेरा जो क्रोध भड़का है, क्या वह उचित है?” इस पर योना उस नगर से निकलकर, उसकी पूरब ओर बैठ गया; और वहाँ एक छप्पर बनाकर उसकी छाया में बैठा हुआ यह देखने लगा कि नगर का क्या होगा? तब यहोवा परमेश्‍वर ने एक रेंड़ का पेड़ उगाकर ऐसा बढ़ाया कि योना के सिर पर छाया हो, जिससे उसका दुःख दूर हो। योना उस रेंड़ के पेड़ के कारण बहुत ही आनन्दित हुआ। सबेरे जब पौ फटने लगी, तब परमेश्‍वर ने एक कीड़े को भेजा, जिस ने रेंड़ का पेड़ ऐसा काटा कि वह सूख गया। जब सूर्य उगा, तब परमेश्‍वर ने पुरवाई बहाकर लू चलाई, और धूप योना के सिर पर ऐसी लगी कि वह मूर्च्छित होने लगा; और उसने यह कहकर मृत्यु माँगी, “मेरे लिये जीवित रहने से मरना ही अच्छा है।” परमेश्‍वर ने योना से कहा, “तेरा क्रोध, जो रेंड़ के पेड़ के कारण भड़का है, क्या वह उचित है?” उसने कहा, “हाँ, मेरा जो क्रोध भड़का है वह अच्छा ही है, वरन् क्रोध के मारे मरना भी अच्छा होता।” तब यहोवा ने कहा, “जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्‍ट भी हुआ; उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हज़ार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएँ हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?”

नीनवे की कहानी का सारांश

यद्यपि “परमेश्वर द्वारा नीनवे के उद्धार” की कहानी बहुत छोटी है, फिर भी यह व्यक्ति को परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के दूसरे पहलू की झलक दिखाती है। यह समझने के लिए कि उस दूसरे पहलू में वास्तव में क्या है, हमें पवित्रशास्त्र की ओर लौटना होगा और परमेश्वर के एक कृत्य की समीक्षा करनी होगी, जो उसने अपने कार्य की प्रक्रिया में किया था।

पहले हम इस कहानी की शुरुआत पर गौर करते हैं : “यहोवा का यह वचन अमित्तै के पुत्र योना के पास पहुँचा : ‘उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और उसके विरुद्ध प्रचार कर; क्योंकि उसकी बुराई मेरी दृष्‍टि में बढ़ गई है’” (योना 1:1-2)। पवित्रशास्त्र के इस अंश में, हम जानते हैं कि यहोवा परमेश्वर ने योना को नीनवे शहर जाने का आदेश दिया था। उसने योना को इस नगर में जाने का आदेश क्यों दिया था? बाइबल इसके विषय में बहुत स्पष्ट है : इस नगर के लोगों की दुष्टता यहोवा परमेश्वर की नज़रों में आ गई थी, और इसलिए उसने उस बात की घोषणा करने के लिए योना को उनके पास भेजा था, जो वह करना चाहता था। हालाँकि उसमें ऐसा कुछ भी दर्ज नहीं है, जो हमें यह बता सके कि योना कौन था, किंतु वास्तव में इसका संबंध परमेश्वर को जानने से नहीं है, और इसलिए तुम लोगों को इस मनुष्य, योना को समझने की आवश्यकता नहीं है। तुम लोगों को केवल यह जानने की आवश्यकता है कि परमेश्वर ने योना को क्या करने का आदेश दिया था और ऐसा करने के पीछे परमेश्वर के क्या कारण थे।

यहोवा परमेश्वर की चेतावनी नीनवे के लोगों तक पहुँचती है

हम दूसरे अंश, योना की पुस्तक के तीसरे अध्याय पर चलते हैं : “योना ने नगर में प्रवेश करके एक दिन की यात्रा पूरी की, और यह प्रचार करता गया, ‘अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा।’” ये वे वचन हैं, जो परमेश्वर ने नीनवे के लोगों को बताने के लिए सीधे योना को दिए थे, इसलिए निस्संदेह, ये वे वचन हैं, जिन्हें यहोवा नीनवे के लोगों से कहना चाहता था। ये वचन लोगों को बताते हैं कि परमेश्वर ने नगर के लोगों से घृणा करनी शुरू कर दी थी, क्योंकि उनकी दुष्टता उसकी नज़रों में आ गई थी, और इसलिए वह इस नगर को नष्ट करना चाहता था। किंतु नगर को नष्ट करने से पहले परमेश्वर नीनवे के नागरिकों के लिए एक घोषणा करेगा, और साथ ही वह उन्हें अपनी दुष्टता के लिए पश्चात्ताप करने और नए सिरे से शुरुआत करने का एक अवसर देगा। यह अवसर चालीस दिन तक रहेगा, इससे ज्यादा नहीं। दूसरे शब्दों में, यदि नगर में रहने वाले लोगों ने चालीस दिनों के भीतर पश्चात्ताप न किया, अपने पाप स्वीकार न किए या यहोवा परमेश्वर के सामने दंडवत न किया, तो परमेश्वर इस नगर को वैसे ही नष्ट कर देगा, जैसे उसने सदोम को नष्ट किया था। यहोवा परमेश्वर यही बात नीनवे के लोगों से कहना चाहता था। साफ बात है, यह कोई सामान्य घोषणा नहीं थी। इस बात ने लोगों को न केवल यहोवा परमेश्वर के क्रोध से अवगत कराया, बल्कि इससे नीनवे के लोगों के प्रति उसका रवैया भी ज़ाहिर हो गया, और साथ ही नगर के भीतर रहने वाले लोगों के लिए एक गंभीर चेतावनी के रूप में भी काम किया। इस चेतावनी ने उन्हें बताया कि अपने बुरे कार्यों से उन्होंने यहोवा परमेश्वर की घृणा को न्योता दिया है, और उनके दुष्कर्म उन्हें शीघ्र ही तबाही के कगार पर पहुँचा देंगे। इसलिए नीनवे के हर निवासी का जीवन आसन्न संकट में था।

यहोवा परमेश्वर की चेतावनी के प्रति नीनवे और सदोम की प्रतिक्रिया में स्पष्ट अंतर

उखाड़ फेंकने का क्या अर्थ है? बोलचाल की भाषा में इसका अर्थ है मौजूद न रहना। लेकिन किस तरह? कौन एक पूरे नगर को उखाड़कर फेंक सकता है? निस्संदेह मनुष्य के लिए ऐसा काम करना असंभव है। नीनवे के लोग मूर्ख नहीं थे; ज्यों ही उन्होंने इस घोषणा को सुना, त्यों ही वे इसके अभिप्राय को समझ गए। वे जानते थे कि घोषणा परमेश्वर की ओर से आई है, वे जानते थे कि परमेश्वर अपना कार्य करने जा रहा है, और वे जानते थे कि उनकी दुष्टता ने यहोवा परमेश्वर को क्रोधित कर दिया है, इसीलिए उसका क्रोध उन पर बरस रहा है, जिससे वे शीघ्र ही अपने नगर के साथ नष्ट हो जाने वाले हैं। यहोवा परमेश्वर की चेतावनी सुनने के बाद नगर के लोगों ने कैसा व्यवहार किया? बाइबल राजा से लेकर आम आदमी तक, सभी लोगों की प्रतिक्रिया का बहुत विस्तार से वर्णन करती है। पवित्रशास्त्र में ये वचन दर्ज हैं : “तब नीनवे के मनुष्यों ने परमेश्‍वर के वचन की प्रतीति की; और उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा। तब यह समाचार नीनवे के राजा के कान में पहुँचा; और उसने सिंहासन पर से उठ, अपने राजकीय वस्त्र उतारकर टाट ओढ़ लिया, और राख पर बैठ गया। राजा ने प्रधानों से सम्मति लेकर नीनवे में इस आज्ञा का ढिंढोरा पिटवाया : ‘क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए; वे न खाएँ और न पानी पीएँ। मनुष्य और पशु दोनों टाट ओढ़ें, और वे परमेश्‍वर की दोहाई चिल्‍ला-चिल्‍ला कर दें; और अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्‍चाताप करें...’” (योना 3:5-9)

यहोवा परमेश्वर की घोषणा सुनने के बाद नीनवे के लोगों ने सदोम के लोगों के रवैये से ठीक विपरीत रवैया दिखाया—जहाँ सदोम के लोगों ने खुले तौर पर परमेश्वर का विरोध किया और बुरे से बुरा कार्य करते चले गए, वहीं नीनवे के लोगों ने इन वचनों को सुनने के बाद इस मामले को नज़रअंदाज़ नहीं किया, और न ही उन्होंने प्रतिरोध किया। इसके बजाय उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास किया और उपवास की घोषणा कर दी। “विश्वास किया” शब्दों का यहाँ क्या अर्थ है? ये शब्द विश्वास और समर्पण की ओर संकेत करते हैं। यदि हम इन शब्दों की व्याख्या करने के लिए नीनवे के लोगों के वास्तविक व्यवहार का उपयोग करें, तो इनका अर्थ यह है कि उन्होंने विश्वास किया कि परमेश्वर ने जैसा कहा है, वह वैसा कर सकता है और करेगा, और कि वे पश्चात्ताप करने के लिए तैयार थे। क्या नीनवे के लोग आसन्न आपदा से डर गए? यह उनका विश्वास था, जिसने उनके हृदय में भय पैदा कर दिया था। तो नीनवे के लोगों के विश्वास और भय को प्रमाणित करने के लिए हम किस चीज़ का उपयोग कर सकते हैं? जैसा कि बाइबल कहती है : “... उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा।” कहने का तात्पर्य है कि नीनवे के लोगों ने सच में विश्वास किया, और इस विश्वास से भय उत्पन्न हुआ, जिसने तब उन्हें उपवास करने और टाट ओढ़ने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार उन्होंने दिखाया कि वे पश्चात्ताप करना शुरू कर रहे हैं। सदोम के लोगों के बिलकुल विपरीत, नीनवे के लोगों ने न केवल परमेश्वर का विरोध नहीं किया, बल्कि उन्होंने अपने व्यवहार और कार्यों के जरिये स्पष्ट रूप से अपना पश्चात्ताप भी दिखाया। निस्संदेह, ऐसा नीनवे के सभी लोगों ने किया, केवल आम लोगों ने नहीं—राजा भी इसका अपवाद नहीं था।

नीनवे के राजा का पश्चात्ताप यहोवा परमेश्वर की प्रशंसा पाता है

जब नीनवे के राजा ने यह समाचार सुना, तो वह अपने सिंहासन से उठा खड़ा हुआ, उसने अपने वस्त्र उतार डाले और टाट पहनकर राख में बैठ गया। तब उसने घोषणा की कि नगर में किसी को भी कुछ भी चखने की अनुमति नहीं दी जाएगी, और किसी भेड़, बैल या अन्य मवेशी को घास-पानी नहीं दिया जाएगा। मनुष्य और पशु दोनों को एक-समान टाट ओढ़ना था, और लोगों को बड़ी लगन से परमेश्वर से विनती करनी थी। राजा ने यह घोषणा भी की कि उनमें से प्रत्येक अपने बुरे मार्ग को छोड़ देगा और हिंसा का त्याग कर देगा। उसके द्वारा लगातार किए गए इन कार्यों को देखते हुए, नीनवे के राजा के हृदय में सच्चा पश्चात्ताप था। उसके द्वारा किए गए ये कार्य—अपने सिंहासन से उठ खड़ा होना, अपने राजकीय वस्त्र उतार देना, टाट ओढ़ना और राख में बैठ जाना—लोगों को बताता है कि नीनवे का राजा अपने शाही रुतबे को छोड़ रहा था और आम लोगों के साथ टाट ओढ़ रहा था। कहने का तात्पर्य है कि नीनवे का राजा यहोवा परमेश्वर से आई घोषणा सुनने के बाद अपने बुरे मार्ग पर चलते रहने या अपने हाथों से हिंसा जारी रखने के लिए अपने शाही पद पर जमा नहीं रहा; बल्कि उसने अपने अधिकार को दरकिनार कर यहोवा परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप किया। इस समय नीनवे का राजा एक राजा के रूप में पश्चात्ताप नहीं कर रहा था; बल्कि वह परमेश्वर की एक सामान्य प्रजा के रूप में अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर के सामने आया था। इतना ही नहीं, उसने पूरे शहर से भी उसी तरह यहोवा परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने और अपने पाप स्वीकार करने के लिए कहा, जिस तरह उसने किया था; इसके अलावा, उसके पास एक विशिष्ट योजना भी थी कि ऐसा कैसे किया जाए, जैसा कि पवित्रशास्त्र में देखने को मिलता है : “क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए; वे न खाएँ और न पानी पीएँ। ... और वे परमेश्‍वर की दोहाई चिल्‍ला-चिल्‍ला कर दें; और अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्‍चाताप करें।” नगर का शासक होने के नाते, नीनवे का राजा उच्चतम हैसियत और सामर्थ्य रखता था और जो चाहता, कर सकता था। यहोवा परमेश्वर की घोषणा सामने आने पर वह उस मामले को नज़रअंदाज़ कर सकता था या बस यों ही अकेले अपने पापों का प्रायश्चित कर सकता था और उन्हें स्वीकार कर सकता था; नगर के लोग पश्चात्ताप करें या न करें, वह इस मामले को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर सकता था। किंतु नीनवे के राजा ने ऐसा बिलकुल नहीं किया। उसने न केवल अपने सिंहासन से उठकर टाट ओढ़कर और राख मलकर यहोवा परमेश्वर के सामने अपने पाप स्वीकार किए और पश्चात्ताप किया, बल्कि उसने अपने नगर के सभी लोगों और पशुओं को भी ऐसा करने का आदेश दिया। यहाँ तक कि उसने लोगों को आदेश दिया कि “परमेश्वर की दोहाई चिल्ला चिल्लाकर दो।” कार्यों की इस शृंखला के जरिये नीनवे के राजा ने सच में वह किया, जो एक शासक को करना चाहिए। उसके द्वारा किए गए कार्यों की शृंखला ऐसी है, जिसे करना मानव-इतिहास में किसी भी राजा के लिए कठिन था, और निस्संदेह, कोई अन्य राजा ये कार्य नहीं कर पाया। ये कार्य मानव-इतिहास में अभूतपूर्व कहे जा सकते हैं, और ये मानवजाति द्वारा स्मरण और अनुकरण दोनों के योग्य हैं। मनुष्य की उत्पत्ति के समय से ही, प्रत्येक राजा ने परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध करने में अपनी प्रजा की अगुआई की है। किसी ने भी कभी अपनी दुष्टता से छुटकारा पाने, यहोवा परमेश्वर से क्षमा पाने और आने वाले दंड से बचने के लिए परमेश्वर से विनती करने हेतु अपनी प्रजा की अगुआई नहीं की। किंतु नीनवे का राजा परमेश्वर की ओर मुड़ने, कुमार्ग त्यागने और अपने हाथों के उपद्रव का त्याग करने में अपनी प्रजा की अगुआई कर पाया। इतना ही नहीं, वह अपने सिंहासन को भी छोड़ पाया, और बदले में, यहोवा परमेश्वर का मन बदल गया और उसे अफ़सोस हुआ, उसने अपना कोप त्याग दिया, नगर के लोगों को जीवित रहने दिया और उन्हें सर्वनाश से बचा लिया। राजा के कार्यों को मानव-इतिहास में केवल एक दुर्लभ चमत्कार ही कहा जा सकता है, यहाँ तक कि उन्हें भ्रष्ट मनुष्यों का आदर्श भी कहा जा सकता है, जो परमेश्वर के सामने अपने पाप स्वीकार करते हैं और पश्चात्ताप करते हैं।

परमेश्वर नीनवे के लोगों के हृदय की गहराइयों में सच्चा पश्चात्ताप देखता है

परमेश्वर की घोषणा सुनने के बाद, नीनवे के राजा और उसकी प्रजा ने अनेक कार्यों को अंजाम दिया। उनके इन कार्यों और व्यवहार की प्रकृति क्या थी? दूसरे शब्दों में, उनके समग्र व्यवहार का सार क्या था? उन्होंने जो किया, वह क्यों किया? परमेश्वर की नज़रों में उन्होंने ईमानदारी से पश्चात्ताप किया था, न केवल इसलिए कि उन्होंने पूरी लगन से परमेश्वर से विनती की थी और उसके सम्मुख अपने पाप स्वीकार किए थे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने अपना दुष्ट आचरण छोड़ दिया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद वे बेहद डर गए थे और यह मानते थे कि वह वैसा ही करेगा, जैसा उसने कहा है। उपवास करके, टाट पहनकर और राख में बैठकर वे अपने तौर-तरीके सुधारने और बुराई से दूर रहने की इच्छा व्यक्त करना चाहते थे, और उन्होंने यहोवा परमेश्वर से अपना निर्णय और उन पर पड़ी विपत्ति वापस लेने के लिए विनती करते हुए अपना कोप रोकने की प्रार्थना की। यदि हम पूरे व्यवहार की जाँच करें, तो हम देख सकते हैं कि वे पहले ही समझ गए थे कि उनके पिछले बुरे काम यहोवा परमेश्वर के लिए घृणास्पद थे, और हम यह भी देख सकते हैं कि वे यह समझ गए थे कि वह किस कारण से उन्हें शीघ्र ही नष्ट कर देगा। इसीलिए वे सभी पूरा पश्चात्ताप करना, अपने बुरे मार्गों से हटना और अपने हाथों के उपद्रव को त्याग देना चाहते थे। दूसरे शब्दों में, एक बार जब वे यहोवा परमेश्वर की घोषणा से अवगत हो गए, तो उनमें से प्रत्येक ने अपने हृदय में भय महसूस किया; उन्होंने अपना बुरा आचरण बंद कर दिया और फिर वे कार्य नहीं किए, जो यहोवा परमेश्वर के लिए इतने घृणास्पद थे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने यहोवा परमेश्वर से उनके पिछले पाप क्षमा करने और उनसे उनके पिछले कार्यों के अनुसार व्यवहार न करने की विनती की। वे फिर कभी दुष्टता में लिप्त न होने और यहोवा परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार कार्य करने के लिए तैयार थे, ताकि यहोवा परमेश्वर यथासंभव फिर कभी कुपित न हो। उनका पश्चात्ताप सच्चा और संपूर्ण था। वह उनके हृदय की गहराई से आया था और वास्तविक और स्थायी था।

एक बार जब नीनवे के लोग, राजा से लेकर प्रजा तक, यह जान गए कि यहोवा परमेश्वर उनसे क्रोधित है, तो परमेश्वर उनका अगला हर कार्य, उनका समग्र आचरण, उनका हर एक निर्णय और चुनाव स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूप से देख सकता था। परमेश्वर का हृदय उनके व्यवहार के अनुसार बदल गया। उस क्षण परमेश्वर की मनःस्थिति क्या थी? बाइबल तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर दे सकती है। पवित्रशास्त्र में ये वचन दर्ज हैं : “जब परमेश्‍वर ने उनके कामों को देखा, कि वे कुमार्ग से फिर रहे हैं, तब परमेश्‍वर ने अपनी इच्छा बदल दी, और उनकी जो हानि करने की ठानी थी, उसको न किया” (योना 3:10)। यद्यपि परमेश्वर ने अपना मन बदल लिया था, फिर भी उसकी मनःस्थिति बिलकुल भी जटिल नहीं थी। उसने अपना क्रोध व्यक्त करने के बजाय उसे शांत किया, और फिर नीनवे शहर पर विपत्ति न लाने का निर्णय लिया। परमेश्वर का निर्णय—विपत्ति से नीनवे के लोगों को बख्श देना—इतना शीघ्र होने का कारण यह है कि परमेश्वर ने नीनवे के हर व्यक्ति के हृदय का अवलोकन कर लिया था। उसने देखा कि उनके हृदय की गहराइयों में क्या है : अपने पापों के लिए उनका सच्चा पश्चात्ताप और स्वीकृति, परमेश्वर में उनका सच्चा विश्वास, उनका गहरा बोध कि कैसे उनके बुरे कार्यों ने परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित कर दिया, और इस वजह से यहोवा परमेश्वर से तुरंत मिलने वाले दंड से पैदा हुआ भय। साथ ही, यहोवा परमेश्वर ने उनके हृदय की गहराइयों से निकली उनकी प्रार्थनाएँ भी सुनीं, जिनमें उससे विनती की गई थी कि वह अब उन पर क्रोधित न हो, ताकि वे इस विपत्ति से बच सकें। जब परमेश्वर ने इन सभी तथ्यों का अवलोकन किया, तो धीरे-धीरे उसका क्रोध जाता रहा। चाहे उसका क्रोध पहले कितना भी विराट क्यों न रहा हो, लेकिन जब उसने इन लोगों के हृदय की गहराइयों में सच्चा पश्चात्ताप देखा, तो उसका हृदय पिघल गया, और इसलिए वह उन पर विपत्ति लाना सहन नहीं कर पाया, और उसने उन पर क्रोध करना बंद कर दिया। इसके बजाय उसने उन्हें अपनी दया और सहनशीलता प्रदान करना जारी रखा और वह उनका मार्गदर्शन और आपूर्ति करता रहा।

यदि परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास सच्चा है, तो तुम अकसर उसकी देखरेख प्राप्त करोगे

नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर द्वारा अपने इरादे बदलने में कोई झिझक या ऐसी चीज़ शामिल नहीं थी, जो अस्पष्ट या अज्ञात हो। बल्कि, यह शुद्ध क्रोध से शुद्ध सहनशीलता में हुआ एक रूपांतरण था। यह परमेश्वर के सार का एक सच्चा प्रकटन है। परमेश्वर अपने कार्यों में कभी अस्थिर या संकोची नहीं होता; उसके कार्यों के पीछे के सिद्धांत और उद्देश्य स्पष्ट और पारदर्शी, शुद्ध और दोषरहित होते हैं, जिनमें कोई धोखा या षड्यंत्र बिलकुल भी मिला नहीं होता। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के सार में कोई अंधकार या बुराई शामिल नहीं होती। परमेश्वर नीनवे के नागरिकों से इसलिए क्रोधित हुआ, क्योंकि उनकी दुष्टता के कार्य उसकी नज़रों में आ गए थे; उस समय उसका क्रोध उसके सार से निकला था। किंतु जब परमेश्वर का कोप जाता रहा और उसने नीनवे के लोगों पर एक बार फिर से सहनशीलता दिखाई, तो वह सब जो उसने प्रकट किया, वह भी उसका अपना सार ही था। यह संपूर्ण परिवर्तन परमेश्वर के प्रति मनुष्य के रवैये में हुए बदलाव के कारण था। इस पूरी अवधि के दौरान परमेश्वर का अनुल्लंघनीय स्वभाव नहीं बदला, परमेश्वर का सहनशील सार नहीं बदला, परमेश्वर का प्रेममय और दयालु सार नहीं बदला। जब लोग दुष्टता के काम करते हैं और परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हैं, तो वह उन पर क्रोध करता है। जब लोग सच में पश्चात्ताप करते हैं, तो परमेश्वर का हृदय बदलता है, और उसका क्रोध थम जाता है। जब लोग हठपूर्वक परमेश्वर का विरोध करते हैं, तो उसका कोप निरंतर बना रहता है और धीरे-धीरे उन्हें तब तक दबाता रहता है, जब तक वे नष्ट नहीं हो जाते। यह परमेश्वर के स्वभाव का सार है। परमेश्वर चाहे कोप प्रकट कर रहा हो या दया और प्रेममय करुणा, यह मनुष्य के हृदय की गहराइयों में परमेश्वर के प्रति उसका आचरण, व्यवहार और रवैया ही होता है, जो यह तय करता है कि परमेश्वर के स्वभाव के प्रकाशन के माध्यम से क्या व्यक्त होगा। यदि परमेश्वर किसी व्यक्ति पर निरंतर अपना क्रोध बनाए रखता है, तो निस्संदेह ऐसे व्यक्ति का हृदय परमेश्वर का विरोध करता है। चूँकि इस व्यक्ति ने कभी सच में पश्चात्ताप नहीं किया है, परमेश्वर के सम्मुख अपना सिर नहीं झुकाया है या परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं रखा है, इसलिए उसने कभी परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त नहीं की है। यदि कोई व्यक्ति अकसर परमेश्वर की देखरेख, उसकी दया और उसकी सहनशीलता प्राप्त करता है, तो निस्संदेह ऐसे व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर के प्रति सच्चा विश्वास है, और उसका हृदय परमेश्वर के विरुद्ध नहीं है। यह व्यक्ति अकसर सच में परमेश्वर के सम्मुख पश्चात्ताप करता है; इसलिए, भले ही परमेश्वर का अनुशासन अकसर इस व्यक्ति के ऊपर आए, पर उसका कोप नहीं आएगा।

इस संक्षिप्त विवरण से लोग परमेश्वर के हृदय को देख सकते हैं, उसके सार की वास्तविकता को देख सकते हैं, और यह देख सकते हैं कि परमेश्वर का क्रोध और उसके हृदय के बदलाव बेवजह नहीं हैं। परमेश्वर द्वारा कुपित होने और अपना मन बदल लेने पर दिखाई गई स्पष्ट विषमता के बावजूद, जिससे लोग यह मानते हैं कि परमेश्वर के सार के इन दोनों पहलुओं—उसके क्रोध और उसकी सहनशीलता—के बीच एक बड़ा अलगाव या अंतर है, नीनवे के लोगों के पश्चात्ताप के प्रति परमेश्वर का रवैया एक बार फिर से लोगों को परमेश्वर के सच्चे स्वभाव का दूसरा पहलू दिखाता है। परमेश्वर के हृदय का बदलाव मनुष्य को सच में एक बार फिर से परमेश्वर की दया और प्रेममय करुणा की सच्चाई दिखाता है, और परमेश्वर के सार का सच्चा प्रकाशन दिखाता है। मनुष्य को मानना पड़ेगा कि परमेश्वर की दया और प्रेममय करुणा मिथक नहीं हैं, न ही वे मनगढ़ंत हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उस क्षण परमेश्वर की भावना सच्ची थी, और परमेश्वर के हृदय का बदलाव सच्चा था—परमेश्वर ने वास्तव में एक बार फिर मनुष्य के ऊपर अपनी दया और सहनशीलता बरसाई थी।

नीनवे के लोगों ने अपने हृदय के सच्चे पश्चात्ताप से परमेश्वर की दया प्राप्त की और अपना परिणाम बदल लिया

क्या परमेश्वर के हृदय के बदलाव और उसके कोप में कोई विरोध था? बिलकुल नहीं! ऐसा इसलिए है, क्योंकि उस समय-विशेष पर परमेश्वर की सहनशीलता का अपना कारण था। वह कारण क्या हो सकता है? वह कारण बाइबल में दिया गया है : “प्रत्येक व्यक्ति अपने कुमार्ग से फिर गया,” और “अपने हाथों के उपद्रवी कार्यों को तज दिया।”

यह “कुमार्ग” मुटठीभर बुरे कार्यों को संदर्भित नहीं करता, बल्कि उस बुरे स्रोत को संदर्भित करता है, जिससे लोगों का व्यवहार उत्पन्न होता है। “अपने कुमार्ग से फिर जाने” का अर्थ है कि ऐसे लोग ये कार्य दोबारा कभी नहीं करेंगे। दूसरे शब्दों में, वे दोबारा कभी इस बुरे तरीके से व्यवहार नहीं करेंगे; उनके कार्यों का तरीका, स्रोत, उद्देश्य, इरादा और सिद्धांत सब बदल चुके हैं; वे अपने मन को आनंदित और प्रसन्न करने के लिए दोबारा कभी उन तरीकों और सिद्धांतों का उपयोग नहीं करेंगे। “अपने हाथों के उपद्रव को त्याग देना” में “त्याग देना” का अर्थ है छोड़ देना या दूर करना, अतीत से पूरी तरह से नाता तोड़ लेना और कभी वापस न मुड़ना। जब नीनवे के लोगों ने हिंसा त्याग दी, तो इससे उनका सच्चा पश्चात्ताप सिद्ध हो गया। परमेश्वर लोगों के बाहरी रूप के साथ-साथ उनका हृदय भी देखता है। जब परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के हृदय में सच्चा पश्चात्ताप देखा जिसमें कोई सवाल नहीं थे, और यह भी देखा कि वे अपने कुमार्गों से फिर गए हैं और उन्होंने हिंसा त्याग दी है, तो उसने अपना मन बदल लिया। कहने का तात्पर्य है कि इन लोगों के आचरण, व्यवहार और कार्य करने के विभिन्न तरीकों ने, और साथ ही उनके हृदय में पापों की सच्ची स्वीकृति और पश्चात्ताप ने परमेश्वर को अपना मन बदलने, अपने इरादे बदलने, अपना निर्णय वापस लेने, और उन्हें दंड न देने या नष्ट न करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार, नीनवे के लोगों ने अपने लिए एक अलग परिणाम प्राप्त किया। उन्होंने अपने जीवन को छुड़ाया और साथ ही परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त कर ली, और इस मुकाम पर परमेश्वर ने भी अपना कोप वापस ले लिया।

परमेश्वर की करुणा और सहनशीलता दुर्लभ नहीं है—बल्कि मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप दुर्लभ है

परमेश्वर नीनवे के लोगों से चाहे जितना भी क्रोधित रहा हो, लेकिन जैसे ही उन्होंने उपवास की घोषणा की और टाट ओढ़कर राख पर बैठ गए, वैसे ही उसका हृदय नरम होने लगा, और उसने अपना मन बदलना शुरू कर दिया। जब उसने घोषणा की कि वह उनके नगर को नष्ट कर देगा—उनके द्वारा अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने से पहले के क्षण तक भी—परमेश्वर उनसे क्रोधित था। लेकिन जब वो लोग लगातार पश्चात्ताप के कार्य करते रहे, तो नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर का कोप धीरे-धीरे उनके प्रति दया और सहनशीलता में बदल गया। एक ही घटना में परमेश्वर के स्वभाव के इन दो पहलुओं के एक-साथ प्रकाशन में कोई विरोध नहीं है। तो विरोध के न होने को कैसे समझना और जानना चाहिए? नीनवे के लोगों द्वारा पश्चात्ताप करने पर परमेश्वर ने एक के बाद एक ये दो एकदम विपरीत सार व्यक्त और प्रकाशित किए, जिससे लोगों ने परमेश्वर के सार की वास्तविकता और अनुल्लंघनीयता देखी। परमेश्वर ने लोगों को निम्नलिखित बातें बताने के लिए अपने रवैये का उपयोग किया : ऐसा नहीं है कि परमेश्वर लोगों को बरदाश्त नहीं करता, या वह उन पर दया नहीं दिखाना चाहता; बल्कि वे कभी परमेश्वर के सामने सच्चा पश्चात्ताप नहीं करते, और उनका सच में अपने कुमार्ग को छोड़ना और हिंसा त्यागना एक दुर्लभ बात है। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर मनुष्य से क्रोधित होता है, तो वह आशा करता है कि मनुष्य सच में पश्चात्ताप करेगा, दरअसल वह मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप देखना चाहता है, और उस दशा में वह मनुष्य पर उदारता से अपनी दया और सहनशीलता बरसाता रहेगा। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य का बुरा आचरण परमेश्वर के कोप को जन्म देता है, जबकि परमेश्वर की दया और सहनशीलता उन लोगों पर बरसती है, जो परमेश्वर की बात सुनते हैं और उसके सम्मुख वास्तव में पश्चात्ताप करते हैं, जो कुमार्ग छोड़कर हिंसा त्याग देते हैं। नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के व्यवहार में उसका रवैया बहुत साफ तौर पर प्रकट हुआ था : परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त करना बिलकुल भी कठिन नहीं है; और वह इंसान से सच्चा पश्चात्ताप चाहता है। यदि लोग कुमार्ग छोड़कर हिंसा त्याग देते हैं, तो परमेश्वर उनके प्रति अपना हृदय और रवैया बदल लेता है।

सृष्टिकर्ता का धार्मिक स्वभाव वास्तविक और स्पष्ट है

जब नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर का हृदय-परिवर्तन हुआ, तो क्या उसकी दया और सहनशीलता एक दिखावा थी? बिलकुल नहीं! तो फिर परमेश्वर द्वारा इस एक स्थिति से निपटने के दौरान उसके स्वभाव के इन दो पहलुओं के बीच बदलाव से क्या दिखाया गया है? परमेश्वर का स्वभाव पूरी तरह से संपूर्ण है—वह बिलकुल भी विभाजित नहीं है। चाहे वह लोगों पर कोप प्रकट कर रहा हो या दया और सहनशीलता दिखा रहा हो, ये सब उसके धार्मिक स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं। परमेश्वर का स्वभाव जीवंत और एकदम स्पष्ट है, वह अपने विचार और रवैये चीज़ों के विकसित होने के हिसाब से बदलता है। नीनवे के लोगों के प्रति उसके रवैये का रूपांतरण मनुष्य को बताता है कि उसके अपने विचार और युक्तियाँ हैं; वह कोई मशीन या मिट्टी का पुतला नहीं है, बल्कि स्वयं जीवित परमेश्वर है। वह नीनवे के लोगों से क्रोधित हो सकता था, वैसे ही जैसे उनके रवैये के कारण उसने उनके अतीत को क्षमा किया था। वह नीनवे के लोगों के ऊपर दुर्भाग्य लाने का निर्णय ले सकता था, और उनके पश्चात्ताप के कारण वह अपना निर्णय बदल भी सकता था। लोग नियमों को कठोरता से लागू करना, और ऐसे नियमों का परमेश्वर को सीमांकित और परिभाषित करने के लिए उपयोग करना पसंद करते हैं, वैसे ही जैसे वे परमेश्वर के स्वभाव को समझने के लिए सूत्रों का उपयोग करना पसंद करते हैं। इसलिए, जहाँ तक मानवीय विचारों के दायरे का संबंध है, परमेश्वर न तो सोचता है, न ही उसके पास कोई ठोस विचार हैं। वास्तव में परमेश्वर के विचार चीज़ों और वातावरण में परिवर्तन के अनुसार निरंतर रूपांतरण की स्थिति में रहते हैं। जब ये विचार रूपांतरित हो रहे होते हैं, तब परमेश्वर के सार के विभिन्न पहलू प्रकट हो रहे होते हैं। रूपांतरण की इस प्रक्रिया के दौरान, ठीक उसी क्षण, जब परमेश्वर अपना मन बदलता है, तब वह मानवजाति को अपने जीवन का वास्तविक अस्तित्व दिखाता है और यह भी दिखाता है कि उसका धार्मिक स्वभाव गतिशील जीवन-शक्ति से भरा है। उसी समय, परमेश्वर मानवजाति के सामने अपने कोप, अपनी दया, अपनी प्रेममय करुणा और अपनी सहनशीलता के अस्तित्व की सच्चाई प्रमाणित करने के लिए अपने सच्चे प्रकाशनों का उपयोग करता है। उसका सार चीज़ों के विकसित होने के ढंग के अनुसार किसी भी समय और स्थान पर प्रकट हो सकता है। उसमें एक सिंह का कोप और एक माता की ममता और सहनशीलता है। उसका धार्मिक स्वभाव किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रश्न किए जाने, उल्लंघन किए जाने, बदले जाने या तोड़े-मरोड़े जाने की अनुमति नहीं देता। समस्त मामलों और सभी चीज़ों में परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, अर्थात् परमेश्वर का कोप और उसकी दया, किसी भी समय और स्थान पर प्रकट हो सकती है। वह समस्त सृष्टि के प्रत्येक कोने में इन पहलुओं को मार्मिक अभिव्यक्ति देता है, और हर गुज़रते पल में उन्हें जीवंतता के साथ लागू करता है। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव समय या स्थान द्वारा सीमित नहीं है; दूसरे शब्दों में, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव समय या स्थान की बाधाओं के अनुसार यांत्रिक रूप से व्यक्त या प्रकाशित नहीं होता, बल्कि, किसी भी समय और स्थान पर बिल्कुल आसानी से व्यक्त और प्रकाशित होता है। जब तुम परमेश्वर को अपना मन बदलते और अपने कोप को थामते और नीनवे के लोगों का नाश करने से पीछे हटते हुए देखते हो, तो क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर केवल दयालु और प्रेमपूर्ण है? क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर का कोप खोखले वचनों से युक्त है? जब परमेश्वर प्रचंड कोप प्रकट करता है और अपनी दया वापस ले लेता है, तो क्या तुम कह सकते हो कि वह मनुष्यों के प्रति सच्चा प्रेम महसूस नहीं करता? यह प्रचंड कोप परमेश्वर द्वारा लोगों के बुरे कार्यों के प्रत्युतर में व्यक्त किया जाता है; उसका कोप दोषपूर्ण नहीं है। परमेश्वर का हृदय लोगों के पश्चात्ताप से द्रवित हो जाता है, और यह पश्चात्ताप ही उसका हृदय-परिवर्तन करवाता है। जब वह द्रवित महसूस करता है, जब उसका हृदय-परिवर्तन होता है, और जब वह मनुष्य के प्रति अपनी दया और सहनशीलता दिखाता है, तो ये सब पूरी तरह से दोषमुक्त होते हैं; ये स्वच्छ, शुद्ध, निष्कलंक और मिलावट-रहित हैं। परमेश्वर की सहनशीलता ठीक वही है : सहनशीलता, जैसे कि उसकी दया सिवाय दया के कुछ नहीं है। उसका स्वभाव मनुष्य के पश्चात्ताप और उसके आचरण में भिन्नता के अनुसार कोप या दया और सहनशीलता प्रकाशित करता है। चाहे वह कुछ भी प्रकाशित या व्यक्त करता हो, वह सब पवित्र और प्रत्यक्ष है; उसका सार सृष्टि की किसी भी चीज़ से अलग है। जब परमेश्वर अपने कार्यों में निहित सिद्धांतों को व्यक्त करता है, तो वे किसी भी त्रुटि या दोष से मुक्त होते हैं, और ऐसे ही उसके विचार, उसकी योजनाएँ और उसके द्वारा लिया जाने वाला हर निर्णय और उसके द्वारा किया जाने वाला हर कार्य है। चूँकि परमेश्वर ने ऐसा निर्णय लिया है और चूँकि उसने इस तरह कार्य किया है, इसलिए इसी तरह से वह अपने उपक्रम भी पूरे करता है। उसके उपक्रमों के परिणाम सही और दोषरहित इसलिए होते हैं, क्योंकि उनका स्रोत दोषरहित और निष्कलंक है। परमेश्वर का कोप दोषरहित है। इसी प्रकार, परमेश्वर की दया और सहनशीलता—जो पूरी सृष्टि में किसी के पास नहीं हैं—पवित्र एवं निर्दोष हैं और विचारपूर्ण विवेचना और अनुभव पर खरी उतर सकती हैं।

नीनवे की कहानी की अपनी समझ के माध्यम से, क्या तुम लोग अब परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के सार का दूसरा पक्ष देखते हो? क्या तुम परमेश्वर के अद्वितीय धार्मिक स्वभाव का दूसरा पक्ष देखते हो? क्या मनुष्यों में से किसी का इस प्रकार का स्वभाव है? क्या किसी में इस प्रकार का कोप, परमेश्वर का कोप, है? क्या किसी में वैसी दया और सहनशीलता है, जैसी परमेश्वर में है? सृष्टि में ऐसा कौन है, जो इतना बड़ा कोप कर सकता है और मानवजाति को नष्ट करने या उस पर विपत्ति लाने का निर्णय ले सकता है? मनुष्य पर दया करने, उसे सहन करने, क्षमा करने, और परिणामस्वरूप मनुष्य को नष्ट करने का अपना पिछला निर्णय बदलने योग्य कौन है? सृष्टिकर्ता अपना धार्मिक स्वभाव अपनी अनोखी पद्धतियों और सिद्धांतों के माध्यम से प्रकट करता है; वह किन्हीं लोगों, घटनाओं या चीज़ों द्वारा थोपे गए नियंत्रण या प्रतिबंधों के अधीन नहीं है। उसके अद्वितीय स्वभाव के कारण कोई उसके विचारों और युक्तियों को बदलने में सक्षम नहीं है, न ही कोई उसे मनाने और उसका कोई निर्णय बदलने में सक्षम है। समस्त सृष्टि में विद्यमान व्यवहार और विचारों की संपूर्णता उसके धार्मिक स्वभाव के न्याय के अधीन रहती है। वह कोप करे या दया, इसे कोई भी नियंत्रित नहीं कर सकता; केवल सृष्टिकर्ता का सार—या दूसरे शब्दों में, सृष्टिकर्ता का धार्मिक स्वभाव—ही यह तय कर सकता है। ऐसी है सृष्टिकर्ता के धार्मिक स्वभाव की अद्वितीय प्रकृति!

नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये में हुए रूपांतरण का विश्लेषण करने और उसे समझने से क्या तुम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव में पाई जाने वाली दया का वर्णन करने के लिए “अद्वितीय” शब्द का उपयोग कर सकते हो? हमने पहले कहा कि परमेश्वर का कोप उसके अद्वितीय धार्मिक स्वभाव के सार का एक पहलू है। अब मैं दो पहलुओं—परमेश्वर का कोप और परमेश्वर की दया—को उसके धार्मिक स्वभाव के रूप में परिभाषित करूँगा। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव पवित्र है; वह उल्लंघन या प्रश्न किया जाना सहन नहीं करता; वह चीज़ किसी भी सृजित या गैर-सृजित प्राणी के पास नहीं है। वह परमेश्वर के लिए अद्वितीय और अनन्य दोनों है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर का कोप पवित्र और अनुल्लंघनीय है। इसी प्रकार, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का दूसरा पहलू—परमेश्वर की दया—भी पवित्र है और उसका भी उल्लंघन नहीं किया जा सकता। सृजित या गैर-सृजित प्राणियों में से कोई भी परमेश्वर के कार्यों में उसका स्थान नहीं ले सकता या उसका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, और न ही कोई सदोम के विनाश या नीनवे के उद्धार में परमेश्वर का स्थान ले सकता था या उसका प्रतिनिधित्व कर सकता था। यह परमेश्वर के अद्वितीय धार्मिक स्वभाव की सच्ची अभिव्यक्ति है।

मानवजाति के प्रति सृष्टिकर्ता की सच्ची भावनाएँ

लोग अक्सर कहते हैं कि परमेश्वर को जानना आसान बात नहीं है। किंतु मैं कहता हूँ कि परमेश्वर को जानना बिल्कुल भी कठिन बात नहीं है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य को बार-बार अपने कर्म दिखाता है। परमेश्वर ने कभी भी मनुष्य के साथ संवाद करना बंद नहीं किया है, और न ही उसने कभी अपने आपको मनुष्य से गुप्त रखा है, न उसने स्वयं को छिपाया है। उसके विचार, उसकी युक्तियाँ, उसके वचन और उसके कर्म सब मानवजाति के सामने हैं। इसलिए, यदि मनुष्य परमेश्वर को जानना चाहता है, तो वह सभी प्रकार के साधनों और पद्धतियों के जरिये उसे समझ और जान सकता है। मनुष्य के आँख मूँदकर यह सोचने की वजह कि परमेश्वर ने जानबूझकर खुद को मनुष्य से छिपाया है, कि उसका कोई इरादा नहीं है कि मनुष्य परमेश्वर को समझे या जाने, यह है कि मनुष्य नहीं जानता कि परमेश्वर कौन है, और न ही वह परमेश्वर को समझना चाहता है। इससे भी बढ़कर, मनुष्य सृष्टिकर्ता के विचारों, वचनों या कर्मों की परवाह नहीं करता...। सच कहूँ तो, यदि कोई व्यक्ति सृष्टिकर्ता के वचनों या कर्मों पर ध्यान केंद्रित करने और उन्हें समझने के लिए सिर्फ अपने खाली समय का उपयोग करे, और यदि वह सृष्टिकर्ता के विचारों और उसके हृदय की वाणी पर थोड़ा-सा ध्यान दे, तो उसे यह महसूस करने में कठिनाई नहीं होगी कि सृष्टिकर्ता के विचार, वचन और कर्म दृष्टिगोचर और पारदर्शी हैं। इसी प्रकार, यह महसूस करने में बस थोड़ा-सा प्रयास लगेगा कि सृष्टिकर्ता हर समय मनुष्य के मध्य है, कि वह हमेशा मनुष्य और संपूर्ण सृष्टि के साथ वार्तालाप करता रहता है, वह प्रतिदिन नए कर्म कर रहा है। उसका सार और स्वभाव मनुष्य के साथ उसके संवाद में व्यक्त होते हैं; उसके विचार और युक्तियाँ पूरी तरह से उसके कर्मों में प्रकट होते हैं; वह हर समय मनुष्य के साथ रहता है और उसका अवलोकन करता है। वह ख़ामोशी से अपने मौन वचनों के साथ मानवजाति और समूची सृष्टि से बोलता है : मैं स्वर्ग में हूँ, और मैं अपनी सृष्टि के मध्य हूँ। मैं रखवाली कर रहा हूँ, मैं इंतज़ार कर रहा हूँ; मैं तुम्हारे साथ हूँ...। उसके हाथों में गर्मजोशी है और वे मजबूत हैं, उसके कदम हलके हैं, उसकी आवाज़ कोमल और शिष्ट है; उसका स्वरूप समूची मानवजाति को आगोश में भरता हुआ हमारे पास से होकर गुज़र जाता है और मुड़ जाता है; उसका मुख सुंदर और सौम्य है। वह कभी हमें छोड़कर नहीं गया, कभी विलुप्त नहीं हुआ। रात-दिन, वह मानवजाति का निरंतर साथी है, उसका साथ कभी नहीं छोड़ता। मनुष्यों के लिए उसकी समर्पित देखभाल, विशेष स्नेह, मनुष्य के लिए उसकी सच्ची चिंता और प्रेम उस समय धीरे-धीरे प्रकट हुआ, जब उसने नीनवे के नगर को बचाया। विशेष रूप से, यहोवा परमेश्वर और योना के बीच के संवाद ने उस मानवजाति के लिए सृष्टिकर्ता की दया खुलकर प्रकट की, जिसे स्वयं उसने रचा था। इन वचनों से, तुम मनुष्यों के प्रति परमेश्वर की सच्ची भावनाओं की एक गहरी समझ हासिल कर सकते हो ...

योना की पुस्तक 4:10-11 में निम्नलिखित अंश दर्ज किया गया है : “तब यहोवा ने कहा, ‘जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्‍ट भी हुआ; उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हज़ार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएँ हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?’” ये यहोवा परमेश्वर के वास्तविक वचन हैं, जो उसके और योना के बीच हुए वार्तालाप से दर्ज किए गए हैं। यद्यपि यह संवाद संक्षिप्त है, फिर भी यह मानवजाति के प्रति सृष्टिकर्ता की परवाह और उसे त्यागने की उसकी अनिच्छा से भरा हुआ है। ये वचन उस सच्चे रवैये और भावनाओं को व्यक्त करते हैं, जो परमेश्वर अपनी सृष्टि के लिए अपने हृदय में रखता है। इन वचनों के जरिये, जो इतने स्पष्ट और सटीक हैं कि मनुष्य ने शायद ही कभी ऐसे स्पष्ट और सटीक वचन सुने हों, परमेश्वर मनुष्यों के प्रति अपने सच्चे इरादे बताता है। यह संवाद नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये को दर्शाता है—किंतु यह किस प्रकार का रवैया है? यह वह रवैया है, जिसे परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के प्रति उनके पश्चात्ताप से पहले और बाद में अपनाया, और वह रवैया, जिससे वह मानवजाति के साथ व्यवहार करता है। इन वचनों में उसके विचार और उसका स्वभाव है।

इन वचनों में परमेश्वर के कौन-से विचार प्रकट हुए हैं? यदि पढ़ते समय तुम विवरण पर ध्यान दो, तो तुम्हारे लिए यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि वह “तरस” शब्द का प्रयोग करता है; इस शब्द का उपयोग मानवजाति के प्रति परमेश्वर के सच्चे रवैये को दर्शाता है।

शाब्दिक अर्थ के स्तर पर लोग “तरस” शब्द की व्याख्या विभिन्न प्रकार से कर सकते हैं : पहले, इसका अर्थ है “प्रेम करना और रक्षा करना, किसी चीज़ के प्रति नरमी महसूस करना”; दूसरे, इसका अर्थ है “अत्यधिक प्रेम करना”; और अंत में, इसका अर्थ है “किसी को चोट पहुँचाने का इच्छुक न होना और ऐसा करना सह न पाना।” संक्षेप में, इस शब्द का अर्थ है कोमल स्नेह और प्रेम, और साथ ही साथ किसी व्यक्ति या वस्तु को छोड़ने की अनिच्छा; इसका अर्थ है मनुष्य के प्रति परमेश्वर की दया और सहनशीलता। परमेश्वर ने इस शब्द का उपयोग किया, जो मनुष्यों द्वारा आम तौर पर बोला जाने वाला शब्द है, किंतु यह मानवजाति के प्रति परमेश्वर के हृदय की वाणी और उसके रवैये को प्रकट करने में भी सक्षम है।

यद्यपि नीनवे का नगर ऐसे लोगों से भरा हुआ था, जो सदोम के लोगों के समान ही भ्रष्ट, बुरे और हिंसक थे, किंतु उनके पश्चात्ताप के कारण परमेश्वर का मन बदल गया और उसने उन्हें नष्ट न करने का निर्णय लिया। चूँकि परमेश्वर के वचनों और निर्देशों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया ने एक ऐसे रवैये का प्रदर्शन किया, जो सदोम के नागरिकों के रवैये के बिलकुल विपरीत था, और परमेश्वर के प्रति उनके सच्चे समर्पण और अपने पापों के लिए उनके सच्चे पश्चात्ताप, और साथ ही साथ हर लिहाज से उनके सच्चे और हार्दिक व्यवहार के कारण, परमेश्वर ने एक बार फिर उन पर अपनी हार्दिक करुणा दिखाई और उन्हें अपनी करुणा प्रदान की। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी जाने वाली चीज़ें और उसकी करुणा की नकल कर पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है, और परमेश्वर की दया, उसकी सहनशीलता, या किसी भी व्यक्ति में मनुष्य के प्रति परमेश्वर की सच्ची भावनाएँ होना असंभव है। क्या कोई है, जिसे तुम महान पुरुष या स्त्री मानते हो, या कोई अतिमानव मानते हो, जो एक ऊँचे मुकाम से, एक महान पुरुष या स्त्री के रूप में, या सबसे ऊँचे मुकाम पर बोलते हुए, मानवजाति या सृष्टि के लिए इस प्रकार का कथन कहेगा? मनुष्यों में से कौन मानव-जीवन की स्थितियों को भली-भाँति जान सकता है? कौन मनुष्य के अस्तित्व का दायित्व और ज़िम्मेदारी उठा सकता है? कौन किसी नगर के विनाश की घोषणा करने के योग्य है? और कौन किसी नगर को क्षमा करने के योग्य है? कौन कह सकता है कि वह अपनी सृष्टि पर तरस खाए? केवल सृष्टिकर्ता! केवल सृष्टिकर्ता में ही इस मानवजाति के लिए कोमलता है। केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति के लिए करुणा और स्नेह दिखाता है। केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति के प्रति सच्चा, अटूट स्नेह रखता है। इसी प्रकार, केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति पर दया कर सकता है और अपनी संपूर्ण सृष्टि पर तरस खा सकता है। उसका हृदय मनुष्य के हर कार्य पर उछलता और पीड़ित होता है : वह मनुष्य की दुष्टता और भ्रष्टता पर क्रोधित, परेशान और दुखी होता है; वह मनुष्य के पश्चात्ताप और विश्वास से प्रसन्न, आनंदित, क्षमाशील और उल्लसित होता है; उसका हर एक विचार और अभिप्राय मानवजाति के अस्तित्व के लिए है और उसी के इर्द-गिर्द घूमता है; उसका स्वरूप पूरी तरह से मानवजाति के वास्ते प्रकट होता है; उसकी संपूर्ण भावनाएँ मानवजाति के अस्तित्व के साथ गुंथी हैं। मनुष्य के वास्ते वह भ्रमण करता है और यहाँ-वहाँ भागता है; वह खामोशी से अपने जीवन का कतरा-कतरा दे देता है; वह अपने जीवन का हर पल अर्पित कर देता है...। उसने कभी नहीं जाना कि अपने ही जीवन को किस प्रकार सँजोए, किंतु उसने हमेशा उस मानवजाति पर तरस खाया है, जिसकी रचना उसने स्वयं की है...। वह अपना सब-कुछ इस मानवजाति को दे देता है...। वह बिना किसी शर्त के और बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के अपनी दया और सहनशीलता प्रदान करता है। वह ऐसा सिर्फ इसलिए करता है, ताकि मानवजाति उससे जीवन का पोषण प्राप्त करते हुए उसकी नज़रों के सामने निरंतर जीवित रह सके; वह ऐसा सिर्फ इसलिए करता है, ताकि मानवजाति एक दिन उसके सम्मुख समर्पित हो जाए और यह जान जाए कि वही मनुष्य के अस्तित्व का पोषण करता है और समूची सृष्टि के जीवन की आपूर्ति करता है।

सृष्टिकर्ता मनुष्य के लिए अपनी सच्ची भावनाएँ प्रकट करता है

यहोवा परमेश्वर और योना के बीच का यह वार्तालाप निस्संदेह मनुष्य के लिए सृष्टिकर्ता की सच्ची भावनाओं की एक अभिव्यक्ति है। एक ओर यह लोगों को सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन विद्यमान संपूर्ण सृष्टि के संबंध में उसकी समझ के बारे में सूचित करता है; जैसा कि यहोवा परमेश्वर ने कहा था : “फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हज़ार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएँ हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?” दूसरे शब्दों में, नीनवे के संबंध में परमेश्वर की समझ सतही बिल्कुल नहीं थी। वह न केवल नगर में रहने वाले जीवित प्राणियों (लोगों और मवेशियों समेत) की संख्या जानता था, बल्कि यह भी जानता था कि कितने लोग अपने दाहिने-बाएँ हाथों का भेद नहीं पहचानते—अर्थात् कितने बच्चे और युवा वहाँ मौजूद थे। यह मानवजाति के संबंध में परमेश्वर की व्यापक समझ का एक ठोस प्रमाण है। दूसरी ओर, यह वार्तालाप लोगों को मनुष्य के प्रति परमेश्वर के रवैये, अर्थात् सृष्टिकर्ता के हृदय में मनुष्य के महत्त्व के संबंध में सूचित करता है। यह वैसा ही है, जैसा यहोवा परमेश्वर ने कहा था : “जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्‍ट भी हुआ; उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे ... तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?” ये योना के प्रति यहोवा परमेश्वर की भर्त्सना के वचन हैं, किंतु ये सब सत्य हैं।

यद्यपि योना को नीनवे के लोगों के लिए यहोवा परमेश्वर के वचनों की घोषणा का काम सौंपा गया था, किंतु उसने यहोवा परमेश्वर के इरादों को नहीं समझा, न ही उसने नगर के लोगों के लिए उसकी चिंताओं और अपेक्षाओं को समझा। इस फटकार से परमेश्वर उसे यह बताना चाहता था कि मनुष्य उसके अपने हाथों की रचना है, और उसने प्रत्येक व्यक्ति के लिए कठिन प्रयास किया है, प्रत्येक व्यक्ति अपने कंधों पर परमेश्वर की अपेक्षाएँ लिए हुए है, और प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर के जीवन की आपूर्ति का आनंद लेता है; प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर ने भारी कीमत चुकाई है। इस फटकार ने योना को यह भी बताया कि परमेश्वर मनुष्य पर तरस खाता है, जो उसके हाथों की रचना है, वैसे ही जैसे योना ने स्वयं कद्दू पर तरस खाया था। परमेश्वर किसी भी कीमत पर, या अंतिम क्षण तक, मनुष्य को आसानी से नहीं त्यागेगा; खासकर इसलिए, क्योंकि नगर में बहुत सारे बच्चे और निरीह मवेशी थे। परमेश्वर की सृष्टि के इन युवा और मासूम प्राणियों से व्यवहार करते समय, जो अपने दाएँ-बाएँ हाथों का भेद भी नहीं पहचानते थे, यह और भी कम समझ में आने वाला था कि परमेश्वर इतनी जल्दबाज़ी में उनका जीवन समाप्त कर देगा और उनका परिणाम निर्धारित कर देगा। परमेश्वर उन्हें बढ़ते हुए देखना चाहता था; उसे आशा थी कि वे उन्हीं मार्गों पर नहीं चलेंगे जिन पर उनके पूर्वज चले थे, उन्हें दोबारा यहोवा परमेश्वर की चेतावनी नहीं सुननी पड़ेगी, और वे नीनवे के अतीत की गवाही देंगे। और तो और, परमेश्वर ने नीनवे द्वारा पश्चात्ताप किए जाने के बाद उसे देखने, नीनवे के पश्चात्ताप के बाद उसके भविष्य को देखने, और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण रूप से, नीनवे को एक बार फिर अपनी दया के अधीन जीते हुए देखने की आशा की थी। इसलिए, परमेश्वर की नज़र में सृष्टि के वे प्राणी, जो अपने दाएँ-बाएँ हाथों का भेद भी नहीं जान सकते थे, नीनवे का भविष्य थे। वे नीनवे के घृणित अतीत की ज़िम्मेदारी लेंगे, वैसे ही जैसे वे नीनवे के अतीत और यहोवा परमेश्वर के मार्गदर्शन के अधीन उसके भविष्य, दोनों की गवाही देने के महत्वपूर्ण कर्तव्य की ज़िम्मेदारी लेंगे। अपनी सच्ची भावनाओं की इस घोषणा में यहोवा परमेश्वर ने मनुष्य के लिए सृष्टिकर्ता की दया को उसकी संपूर्णता में प्रस्तुत किया। इसने मनुष्य को दिखाया कि “सृष्टिकर्ता की दया” कोई खोखला वाक्यांश नहीं है, न ही यह कोई खोखला वादा है; इसमें ठोस सिद्धांत, पद्धतियाँ और उद्देश्य हैं। परमेश्वर सच्चा और वास्तविक है, और वह किसी झूठ या स्वाँग का उपयोग नहीं करता, और इसी तरह उसकी दया मनुष्य को हर समय और हर युग में निरंतर प्रदान की जाती है। फिर भी, आज तक, योना के साथ सृष्टिकर्ता का संवाद इस बारे में उसका एकमात्र, अनन्य मौखिक कथन है कि वह मनुष्य पर दया क्यों करता है, वह मनुष्य पर दया कैसे करता है, वह मनुष्य के प्रति कितना सहनशील है और मनुष्य के प्रति उसकी सच्ची भावनाएँ क्या हैं। इस वार्तालाप के दौरान यहोवा परमेश्वर के संक्षिप्त वचन संपूर्ण मानवजाति के प्रति उसके विचारों को अभिव्यक्त करते हैं; वे मानवजाति के प्रति परमेश्वर के हृदय के रवैये की सच्ची अभिव्यक्ति हैं, और वे मानवजाति पर प्रचुर मात्रा में दया करने का ठोस सबूत भी हैं। उसकी दया न केवल मनुष्य की वृद्ध पीढ़ियों को प्रदान की जाती है; बल्कि वह मानवजाति के युवा सदस्यों को भी दी जाती है, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक, जैसा हमेशा से होता आया है। यद्यपि परमेश्वर का कोप कुछ निश्चित जगहों पर और कुछ निश्चित युगों में मानवजाति पर बार-बार उतरता है, किंतु उसकी दया कभी खत्म नहीं हुई है। अपनी दया से वह अपनी सृष्टि की एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी का मार्गदर्शन और अगुआई करता है, वह सृष्टि की एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी की आपूर्ति एवं पालन-पोषण करता है, क्योंकि मनुष्य के प्रति उसकी सच्ची भावनाएँ कभी नहीं बदलेंगी। जैसा कि यहोवा परमेश्वर ने कहा : “तो क्या मैं तरस न खाऊँ?” उसने सदैव अपनी सृष्टि पर तरस खाया है। यह सृष्टिकर्ता के धार्मिक स्वभाव की दया है, और यह सृष्टिकर्ता की पूर्ण अद्वितीयता भी है।

पाँच प्रकार के लोग

फिलहाल मैं परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के संबंध में हमारी सहभागिता को यहीं छोड़ता हूँ। आगे मैं परमेश्वर के संबंध में उसके अनुयायियों की समझ और उसके धार्मिक स्वभाव के संबंध में उनकी समझ और अनुभव के अनुसार उनका विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकरण करूँगा, ताकि तुम लोग उस अवस्था को जान सको, जिसमें तुम लोग वर्तमान में हो, और साथ ही तुम लोग अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद को भी जान सको। लोगों के परमेश्वर संबंधी ज्ञान और उसके धार्मिक स्वभाव की उनकी समझ के अनुसार लोगों की विभिन्न अवस्थाओं और उनके आध्यात्मिक कद को सामान्यतः पाँच प्रकारों में बाँटा जा सकता है। इस विषय को अद्वितीय परमेश्वर और उसके धार्मिक स्वभाव को जानने के आधार पर प्रतिपादित किया गया है। इसलिए, निम्नलिखित विषयवस्तु को पढ़ते हुए तुम लोगों को ध्यानपूर्वक यह पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए कि तुम्हारे अंदर परमेश्वर की अद्वितीयता और उसके धार्मिक स्वभाव के संबंध में वास्तव में कितनी समझ और ज्ञान है, और फिर तुम्हें इसका उपयोग यह आँकने के लिए करना चाहिए कि तुम लोग वास्तव में किस अवस्था में हो, तुम लोगों का आध्यात्मिक कद वास्तव में कितना बड़ा है, और तुम लोग वास्तव में किस प्रकार के व्यक्ति हो।

पहला प्रकार : कपड़े में लिपटे हुए नवजात शिशु की अवस्था

“कपड़े में लिपटे हुए नवजात शिशु” से क्या तात्पर्य है? कपड़े में लिपटा हुआ नवजात शिशु एक ऐसा शिशु है, जो संसार में अभी आया ही है, एक नया जन्मा बच्चा होता है। यह तब होता है, जब लोग बिलकुल अपरिपक्व होते हैं।

इस अवस्था के लोगों में परमेश्वर में विश्वास के मामलों को लेकर मूलतः कोई जागरूकता और चेतना नहीं होती। वे हर चीज़ के बारे में भ्रमित और अनजान होते हैं। हो सकता है, इन लोगों ने लंबे समय से परमेश्वर पर विश्वास किया हो, या हो सकता है, बहुत लंबे समय से बिलकुल भी न किया हो, किंतु उनकी भ्रम और अज्ञानता की स्थिति और उनका वास्तविक आध्यात्मिक कद उन्हें कपड़े में लिपटे हुए एक नवजात शिशु की अवस्था के अंतर्गत रखता है। कपड़े में लिपटे हुए एक नवजात शिशु की स्थितियों की सटीक परिभाषा इस प्रकार है : इस प्रकार के लोगों ने चाहे कितने भी लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया हो, वे हमेशा नासमझ, भ्रमित और सरलचित्त होंगे; वे नहीं जानते कि वे परमेश्वर में क्यों विश्वास करते हैं, न ही वे यह जानते हैं कि परमेश्वर कौन है या कौन परमेश्वर है? यद्यपि वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, फिर भी उनके हृदय में परमेश्वर की कोई सटीक परिभाषा नहीं होती, और वे यह तय नहीं कर पाते कि वे जिसका अनुसरण करते हैं, वह परमेश्वर है या नहीं, और इसकी तो बात ही छोड़ दो कि उन्हें सच में परमेश्वर पर विश्वास और उसका अनुसरण करना चाहिए या नहीं। इस प्रकार के व्यक्तियों की यही वास्तविक स्थिति है। इन लोगों के विचार धुँधले होते हैं, और सरल शब्दों में कहूँ तो, उनका विश्वास गड़बड़ होता है। वे हमेशा संभ्रम और शून्यता की स्थिति में रहते हैं; “नासमझी, भ्रम और सीधापन” उनकी अवस्था का सारांश प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने न तो कभी परमेश्वर के अस्तित्व को देखा होता है, न ही महसूस किया होता है, और इसलिए, उनसे परमेश्वर को जानने के बारे में बात करना भैंस के आगे बीन बजाने जैसा होता है—वे न तो उसे समझेंगे और न ही उसे स्वीकार करेंगे। उनके लिए परमेश्वर को जानना एक अति काल्पनिक कहानी सुनने जैसा होता है। हो सकता है कि उनके विचार धुँधले हों, लेकिन उन्हें पक्का यकीन होता है कि परमेश्वर को जानना पूरी तरह से समय और श्रम की बरबादी है। यह पहले प्रकार का व्यक्ति है : कपड़े में लिपटा हुआ नवजात शिशु।

दूसरा प्रकार : दुधमुँहे शिशु की अवस्था

कपड़े में लिपटे हुए नवजात शिशु की तुलना में, इस प्रकार के व्यक्ति ने कुछ प्रगति कर ली होती है। लेकिन अफ़सोस, उनमें भी परमेश्वर की कुछ भी समझ नहीं होती। उनमें भी परमेश्वर के संबंध में स्पष्ट समझ और अंतर्दृष्टि का अभाव होता है, वे बहुत स्पष्ट नहीं होते कि उन्हें परमेश्वर पर विश्वास क्यों करना चाहिए, लेकिन उनके हृदय में उनके अपने उद्देश्य और स्पष्ट युक्तियाँ होती हैं। वे इस बात से वास्ता नहीं रखते कि परमेश्वर में विश्वास करना सही है या नहीं। परमेश्वर में विश्वास करने के ज़रिए वे उसके अनुग्रह का आनंद उठाने, ख़ुशी और शांति प्राप्त करने, आरामदेह ज़िंदगी बिताने, परमेश्वर की देखभाल एवं सुरक्षा का आनंद लेने और परमेश्वर के आशीषों के अधीन जीवन बिताने के उद्देश्य और प्रयोजन पूरे करना चाहते हैं। वे इस बात से मतलब नहीं रखते कि वे किस हद तक परमेश्वर को जानते हैं; उनमें परमेश्वर की समझ प्राप्त करने की कोई उत्सुकता नहीं होती, और न ही वे इस बात से वास्ता रखते हैं कि परमेश्वर क्या कर रहा है या वह क्या करना चाहता है। वे केवल आँख मूँदकर उसके अनुग्रह का आनंद उठाने तथा ज़्यादा से ज़्यादा उसके आशीष प्राप्त करने का प्रयास करते हैं; वे वर्तमान युग में सौ गुना और आने वाले युग में शाश्वत जीवन प्राप्त करना चाहते हैं। उनके विचार, वे स्वयं को कितना खपा सकते हैं, उनकी भक्ति, और साथ ही उनका कष्ट उठाना, सभी के पीछे एक ही उद्देश्य है : परमेश्वर का अनुग्रह और उसके आशीष प्राप्त करना। उन्हें अन्य किसी भी चीज़ की कोई चिंता नहीं होती। इस प्रकार का व्यक्ति केवल इस बारे में निश्चित होता है कि परमेश्वर लोगों को सुरक्षित रख सकता है और उन्हें अपना अनुग्रह प्रदान कर सकता है। कहा जा सकता है कि वे इस बात में रुचि नहीं रखते और न ही इस बारे में बहुत स्पष्ट होते हैं कि परमेश्वर मनुष्य को क्यों बचाना चाहता है या परमेश्वर अपने वचनों और कार्य से क्या परिणाम हासिल करना चाहता है। उन्होंने परमेश्वर के सार और उसके धार्मिक स्वभाव को जानने का कभी कोई प्रयास नहीं किया होता, न ही वे ऐसा करने के लिए रुचि पैदा कर पाते हैं। उनमें इन चीज़ों पर ध्यान देने की इच्छा का अभाव होता है, और न ही वे इन्हें जानना चाहते हैं। वे परमेश्वर के कार्य, मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं, परमेश्वर की इच्छा या परमेश्वर से संबंधित किसी भी अन्य चीज़ के बारे में पूछना नहीं चाहते, और उनमें इन चीज़ों के बारे में पूछने की इच्छा का भी अभाव है। क्योंकि उन्हें लगता है कि ये मामले उनके द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने से संबंध नहीं रहते, और वे केवल एक ऐसे परमेश्वर से मतलब रखते हैं, जो उनकी व्यक्तिगत रुचियों के साथ सीधे संबंध रखता हो, और जो मनुष्य पर अनुग्रह करता हो। उनकी किसी और चीज़ में कोई रुचि नहीं होती, इसलिए वे सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाते, चाहे वे कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते रहे हों। बिना किसी ऐसे व्यक्ति के, जो उन्हें बार-बार खिलाता-पिलाता रहे, उनके लिए परमेश्वर में विश्वास करने के मार्ग पर बढ़ते जाना कठिन होता है। यदि वे अपनी पिछली ख़ुशी और शांति या परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद न उठा पाएँ, तो उनके पीछे हटने की बहुत संभावना रहती है। यह दूसरे प्रकार का व्यक्ति है : वह व्यक्ति, जो दुधमुँहे शिशु की अवस्था में रहता है।

तीसरा प्रकार : दूध छुड़ाए हुए बच्चे या छोटे बच्चे की अवस्था

लोगों के इस समूह में एक निश्चित मात्रा में स्पष्ट जागरूकता रहती है। वे जानते हैं कि परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने का अर्थ यह नहीं है कि वे अपने आप में सच्चा अनुभव रखते हैं, और वे जानते हैं कि भले ही वे आनंद और शांति की माँग करते न थकें, अनुग्रह की माँग करते न थकें, या भले ही वे परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने के अनुभव बाँटने या परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए आशीषों के लिए परमेश्वर की स्तुति करके गवाही देने में समर्थ हों, इन चीज़ों का यह अर्थ नहीं है कि उनमें जीवन है, न ही इनका यह अर्थ है कि उनमें सत्य की वास्तविकता है। अपनी चेतना की शुरुआत से ही वे ऐसी निरर्थक आशाएँ रखना छोड़ देते हैं कि केवल परमेश्वर का अनुग्रह ही उनके साथ रहेगा; इसके बजाय, परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने के साथ ही वे परमेश्वर के लिए कुछ करना भी चाहते हैं। वे अपना कर्तव्य निभाने, थोड़ी-बहुत कठिनाई और थकान सहने, और परमेश्वर के साथ कुछ हद तक सहयोग करने के लिए तैयार रहते हैं। किंतु, चूँकि परमेश्वर के प्रति विश्वास में उनका अनुसरण बहुत अधिक मिलावटी होता है, चूँकि उनके मन के व्यक्तिगत इरादे और इच्छाएँ बहुत ताकतवर होती हैं, चूँकि उनका स्वभाव बेतहाशा दंभी होता है, इसलिए परमेश्वर की इच्छा पूरी करना या परमेश्वर के प्रति वफ़ादार होना उनके लिए बहुत कठिन होता है। इसलिए वे अकसर अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं का एहसास या परमेश्वर से की गई प्रतिज्ञाएँ पूरी नहीं कर पाते। वे अकसर अपने आपको परस्पर विरोधी स्थितियों में पाते हैं : वे परमेश्वर को अधिक से अधिक संतुष्ट करने की उत्कट इच्छा रखते हैं, लेकिन वे अपनी सारी शक्ति का उपयोग उसका विरोध करने के लिए करते हैं, और वे अकसर परमेश्वर से वादे करते हैं, लेकिन फिर तुरंत ही अपने वादे तोड़ भी देते हैं। बल्कि अकसर वे अपने आपको अन्य परस्पर विरोधी स्थितियों में पाते हैं : वे ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी उसे और उससे आने वाली हर चीज़ को नकारते हैं; वे उत्सुकता से आशा करते हैं कि परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध करेगा, उनकी अगुआई करेगा, उनकी आपूर्ति करेगा और उनकी सहायता करेगा, किंतु वे अपना अलग मार्ग भी खोजते रहते हैं। वे परमेश्वर को समझना और जानना चाहते हैं, किंतु वे उसके करीब आने के लिए तैयार नहीं होते। इसके बजाय, वे हमेशा परमेश्वर से बचते हैं और उनके हृदय उसके लिए बंद होते हैं। एक तरफ तो उनमें परमेश्वर के वचनों और सत्य के शाब्दिक अर्थ की सतही समझ और अनुभव होता है, परमेश्वर और सत्य की सतही अवधारणा होती है, दूसरी ओर, वे अवचेतन रूप से अभी भी इस बात की पुष्टि या निर्धारण नहीं कर पाते कि परमेश्वर सत्य है या नहीं, न ही वे इसकी पुष्टि कर पाते हैं कि परमेश्वर वास्तव में धार्मिक है या नहीं। वे परमेश्वर के स्वभाव और उसके सार की वास्तविकता भी निर्धारित नहीं कर पाते, उसके सच्चे अस्तित्व की तो बात ही छोड़ दो। परमेश्वर के प्रति उनके विश्वास में सदैव संदेह और गलतफहमियाँ होती हैं, और उसमें कल्पनाएँ और अवधारणाएँ भी होती हैं। जब वे परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हैं, तो अनिच्छा से कुछ ऐसे सत्यों का अनुभव या अभ्यास भी करते हैं, जिन्हें वे अपने विश्वास को समृद्ध करने, परमेश्वर में विश्वास करने का अपना अनुभव बढ़ाने, परमेश्वर में विश्वास की अपनी समझ का सत्यापन करने, और खुद ही स्थापित जीवन-पथ पर चलने के अपने घमंड को संतुष्ट करने और मानवजाति का धार्मिक उपक्रम पूरा करने के लिए व्यवहार्य समझते हैं। साथ ही, वे ये चीज़ें आशीष हासिल करने की अपनी इच्छा पूरी करने, जो एक शर्त का हिस्सा है जिसे वे मानवजाति के लिए अधिक आशीष प्राप्त करने की आशा में लगाते हैं, और अपनी यह महत्वाकांक्षी आकांक्षा और जीवनभर की इच्छा पूरी करने के लिए भी करते हैं कि वे तब तक विश्राम नहीं करेंगे, जब तक परमेश्वर को प्राप्त नहीं कर लेंगे। ये लोग परमेश्वर की प्रबुद्धता प्राप्त करने में शायद ही कभी सक्षम होते हैं, क्योंकि आशीष पाने की उनकी इच्छा और इरादा उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। उनमें इन्हें छोड़ने की कोई इच्छा नहीं होती, और निस्संदेह वे ऐसा करना सहन नहीं कर पाते। वे डरते हैं कि आशीष पाने की इच्छा के बिना, लंबे समय से सँजोई इस महत्वाकांक्षा के बिना कि वे तब तक विश्राम नहीं करेंगे जब तक वे परमेश्वर को प्राप्त नहीं कर लेंगे, वे परमेश्वर पर विश्वास करने की प्रेरणा खो देंगे। इसलिए वे वास्तविकता का सामना नहीं करना चाहते। वे परमेश्वर के वचनों या परमेश्वर के कार्य का सामना नहीं करना चाहते। वे परमेश्वर के स्वभाव या सार तक का सामना नहीं करना चाहते, परमेश्वर को जानने के विषय का उल्लेख करने की तो बात ही छोड़ दो। क्योंकि जब परमेश्वर, उसका सार और उसका धार्मिक स्वभाव उनकी कल्पनाओं का स्थान लेगा, तो उनके सपने धुएँ में उड़ जाएँगे; और उनका तथाकथित विश्वास और “योग्यताएँ”, जिन्हें वर्षों के कठिन कार्य के जरिये इकट्ठा किया गया है, लुप्त और शून्य हो जाएँगे। इसी प्रकार, उनका “इलाका”, जिसे उन्होंने वर्षों के खून-पसीने से जीता है, धराशायी हो जाएगा। यह सब चीज़ें इस बात का संकेत होंगी कि उनका अनेक वर्षों का कठिन परिश्रम और प्रयास व्यर्थ हो गए हैं, और उन्हें शून्य से शुरुआत करनी होगी। यह उनके लिए सबसे पीड़ादायक स्थिति है, और यही परिणाम वे देखना नहीं चाहते, इसीलिए वे हमेशा इस प्रकार के गतिरोध में बंद रहते हैं और लौटना नहीं चाहते। यह तीसरे प्रकार का व्यक्ति है : ऐसा व्यक्ति, जो दूध छुड़ाए हुए बच्चे की अवस्था में रहता है।

ऊपर वर्णित तीन प्रकार के लोग—अर्थात् इन तीन अवस्थाओं में रहने वाले लोग—परमेश्वर की पहचान और हैसियत में या उसके धार्मिक स्वभाव में कोई सच्चा विश्वास नहीं रखते, और न ही उनके पास इन चीज़ों की कोई स्पष्ट, सटीक पहचान या पुष्टि होती है। इसलिए, इन तीनों अवस्थाओं के लोगों के लिए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना बहुत कठिन होता है, और उनके लिए परमेश्वर की दया, प्रबुद्धता या रोशनी प्राप्त करना भी कठिन होता है, क्योंकि जिस तरह से वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वह और परमेश्वर के प्रति उनका गलत रवैया परमेश्वर के लिए उनके हृदय में कार्य करना असंभव बना देता है। परमेश्वर के संबंध में उनके संदेह, गलतफहमियाँ और कल्पनाएँ परमेश्वर संबंधी उनके विश्वास और ज्ञान से अधिक होती हैं। ये तीन प्रकार के लोग बहुत अधिक जोखिम में होते हैं, और ये तीनों ही चरण बहुत ख़तरनाक होते हैं। जब कोई परमेश्वर, परमेश्वर के सार, परमेश्वर की पहचान, परमेश्वर की सत्यता और उसके अस्तित्व की वास्तविकता के संबंध में संदेह का रवैया रखता है, और जब कोई इन चीज़ों के संबंध में निश्चित नहीं हो पाता, तो वह परमेश्वर से आने वाली हर चीज़ कैसे स्वीकार कर सकता है? वह कैसे इस तथ्य को स्वीकार कर सकता है कि परमेश्वर सत्य, मार्ग और जीवन है? वह कैसे परमेश्वर की ताड़ना और उसके न्याय को स्वीकार कर सकता है? कोई कैसे परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार कर सकता है? इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर का सच्चा मार्गदर्शन और आपूर्ति कैसे प्राप्त कर सकता है? जो लोग इन तीन अवस्थाओं में हैं, वे परमेश्वर का विरोध कर सकते हैं, परमेश्वर की आलोचना कर सकते हैं, परमेश्वर की निंदा कर सकते हैं या किसी भी समय परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। वे किसी भी समय सत्य के मार्ग को त्याग सकते हैं और परमेश्वर को छोड़ सकते हैं। कहा जा सकता है कि इन तीनों अवस्थाओं के लोग विकट स्थिति में रहते हैं, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश नहीं किया होता है।

चौथा प्रकार : परिपक्व होते हुए बालक की अवस्था या बचपन

किसी व्यक्ति का दूध पीना छुड़ाए जाने के बाद—अर्थात् उसके द्वारा प्रचुर मात्रा में अनुग्रह का आनंद लिए जाने के बाद—वह यह जानना शुरू करता है कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है, वह विभिन्न प्रश्नों को समझने की इच्छा करना शुरू कर देता है, जैसे कि मनुष्य क्यों जीता है, मनुष्य को कैसे जीना चाहिए, और परमेश्वर मनुष्य पर अपना कार्य क्यों करता है। जब ये अस्पष्ट विचार और भ्रमित विचार-प्रतिरूप लोगों के भीतर उभरते और मौजूद रहते हैं, तो वे लगातार सिंचन प्राप्त करते हैं, और वे अपना कर्तव्य भी निभा पाते हैं। इस दौरान उनमें परमेश्वर के सत्य को लेकर कोई संदेह नहीं रह जाते, और उनमें इस बात की सटीक समझ होती है कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है। इस नींव पर उन्हें धीरे-धीरे परमेश्वर का ज्ञान होने लगता है, और वे आहिस्ता-आहिस्ता परमेश्वर के स्वभाव और सार के संबंध में अपने अस्पष्ट विचारों और भ्रमित विचार-प्रतिरूपों के कुछ उत्तर प्राप्त करने लगते हैं। अपने स्वभाव और परमेश्वर संबंधी अपने ज्ञान में हुए परिवर्तनों के अनुसार, इस अवस्था के लोग सही मार्ग पर चलना शुरू कर देते हैं, और वे एक बदलाव के दौर में प्रवेश करते हैं। इसी अवस्था में लोग जीवन पाना शुरू करते हैं। उनमें जीवन होने का स्पष्ट संकेत परमेश्वर को जानने से संबंधित उन विभिन्न प्रश्नों का क्रमिक समाधान है, जो लोगों के मन में होते हैं—जैसे कि गलतफहमियाँ, कल्पनाएँ, अवधारणाएँ और परमेश्वर की अस्पष्ट परिभाषाएँ—और वे न केवल परमेश्वर के अस्तित्व की वास्तविकता पर विश्वास करने और उसे जानने लगते हैं, बल्कि उनके पास परमेश्वर की एक सटीक परिभाषा होती है और उनके मन में परमेश्वर का सही स्थान भी होता है, और परमेश्वर का वास्तविक अनुसरण उनके अस्पष्ट विश्वास का स्थान ले लेता है। इस दौरान लोग धीरे-धीरे परमेश्वर के प्रति अपनी मिथ्या अवधारणाएँ और अनुसरण तथा विश्वास के अपने गलत लक्ष्य और तरीके जान जाते हैं। वे सत्य के लिए लालायित होना, परमेश्वर के न्याय, ताड़ना और अनुशासन के अनुभव के लिए लालायित होना, और अपने स्वभाव में परिवर्तन के लिए लालायित होना शुरू कर देते हैं। इस अवस्था के दौरान वे धीरे-धीरे परमेश्वर के संबंध में सभी प्रकार की अवधारणाएँ और कल्पनाएँ त्याग देते हैं, और साथ ही वे परमेश्वर के संबंध में अपने गलत ज्ञान को बदलते और सुधारते हैं और उसके संबंध में सही आधारभूत ज्ञान हासिल करते हैं। यद्यपि इस अवस्था में लोगों में मौजूद ज्ञान का एक अंश बहुत विशिष्ट या सटीक नहीं होता, फिर भी कम से कम वे परमेश्वर के संबंध में अपनी अवधारणाएँ, गलत ज्ञान और गलतफ़हमियाँ त्यागना आरंभ कर देते हैं; अब वे परमेश्वर के प्रति अपनी अवधारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं रखते। वे यह सीखना शुरू करते हैं कि अपनी अवधारणाओं में पाई जाने वाली चीज़ों को, ज्ञान से प्राप्त चीज़ों को, और शैतान से प्राप्त चीज़ों को कैसे छोड़ा जाए; वे सही और सकारात्मक चीज़ों के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार होना शुरू कर देते हैं, यहाँ तक कि उन चीज़ों के प्रति भी, जो परमेश्वर के वचनों से आती हैं और जो सत्य के अनुरूप होती हैं। वे परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने का प्रयास करना, उसके वचनों को व्यक्तिगत रूप से जानना और उन्हें क्रियान्वित करना, उसके वचनों को अपने कार्यों के सिद्धांतों के रूप में और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के एक आधार के रूप में स्वीकार करना आरंभ कर देते हैं। इस दौरान लोग अनजाने ही परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार कर लेते हैं, और अनजाने ही परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। परमेश्वर के न्याय, ताड़ना और वचनों को स्वीकार करते हुए वे अधिकाधिक सचेत हो जाते हैं और यह महसूस करने लगते हैं कि जिस परमेश्वर पर वे दिल से विश्वास करते हैं, वह वास्तव में मौजूद है। परमेश्वर के वचनों में, अपने अनुभवों और अपनी ज़िंदगी में वे अधिकाधिक यह महसूस करने लगते हैं कि परमेश्वर ने हमेशा मनुष्य की नियति पर शासन किया है और उसकी अगुआई और आपूर्ति की है। परमेश्वर के साथ अपने जुड़ाव के जरिये वे धीरे-धीरे परमेश्वर के अस्तित्व की पुष्टि करने लगते हैं। इसलिए, इससे पहले कि वे इसे महसूस कर पाएँ, वे अवचेतन मन में पहले ही परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर लेते हैं, उस पर दृढ़ता से विश्वास करना शुरू कर देते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों को मंज़ूर कर लेते हैं। जब लोग परमेश्वर के वचनों और कार्य को स्वीकार कर लेते हैं, तो वे निरंतर स्वयं को नकारते हैं, अपनी ही अवधारणाओं को नकारते हैं, अपने ज्ञान को नकारते हैं, अपनी ही कल्पनाओं को नकारते हैं, और निरंतर खोज करने लगते हैं कि सत्य क्या है और परमेश्वर की इच्छा क्या है। विकास की इस अवधि में परमेश्वर के संबंध में लोगों का ज्ञान बहुत ही सतही होता है—वे इस ज्ञान को शब्दों में स्पष्ट रूप से बताने तक में असमर्थ होते हैं, न ही वे इसे विशिष्ट विवरणों के संदर्भ में व्यक्त कर सकते हैं—और उनमें केवल एक अनुभूति-आधारित समझ होती है; फिर भी, पिछली तीन अवस्थाओं के साथ तुलना करने पर, इस अवधि के लोगों की अपरिपक्व ज़िंदगी ने पहले ही परमेश्वर के वचनों की सिंचाई और आपूर्ति प्राप्त कर ली होती है, और इस प्रकार उन्होंने पहले ही अंकुरित होना आरंभ कर दिया होता है। उनकी ज़िंदगी भूमि में दबे एक बीज के समान होती है; नमी और पोषक तत्त्व पाने के बाद यह मिट्टी से फूटती है, और उसका अंकुरण एक नए जीवन की उत्पत्ति को दर्शाता है। इस उत्पत्ति से व्यक्ति जीवन के चिह्नों की झलक देखने लगता है। जब लोगों में जीवन होता है, तो वे बढ़ते हैं। इसलिए—परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग पर धीरे-धीरे आगे बढ़ने, अपनी अवधारणाओं को त्यागने और परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त करने की—इन नीवों पर लोगों की ज़िंदगी अनिवार्य रूप से थोड़ी-थोड़ी आगे बढ़ती है। इस प्रगति को किस आधार पर मापा जाता है? इसे व्यक्तियों द्वारा परमेश्वर के वचनों के अनुभव और उनकी परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की वास्तविक समझ के अनुसार नापा जाता है। यद्यपि प्रगति की इस अवधि में उन्हें परमेश्वर और उसके सार के संबंध में अपने ज्ञान का अपने ही शब्दों में सटीकता से वर्णन करना बहुत कठिन जान पड़ता है, फिर भी लोगों का यह समूह अब परमेश्वर के अनुग्रह के आनंद के जरिये प्रसन्नता प्राप्त करने या परमेश्वर का अनुग्रह प्राप्त करने का अपना प्रयोजन पूरा करने हेतु उसमें विश्वास करने के लिए व्यक्तिपरक ढंग से तैयार नहीं होता। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचन के द्वारा जीवन जीने और परमेश्वर के उद्धार का पात्र बनने के लिए इच्छुक होते हैं। इतना ही नहीं, वे आश्वस्त होते हैं और परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हैं। यह प्रगति की अवस्था में मौजूद व्यक्ति का चिह्न है।

यद्यपि इस अवस्था के लोगों को परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का कुछ ज्ञान होता है, किंतु यह ज्ञान बहुत धुँधला और अस्पष्ट होता है। हालांकि वे इसका स्पष्ट रूप से वर्णन नहीं कर पाते, फिर भी उन्हें लगता है कि उन्होंने पहले ही अंतर्मन में कुछ हासिल कर लिया है, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर की ताड़ना एवं न्याय के जरिये परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के संबंध में कुछ मात्रा में ज्ञान और समझ हासिल कर ली होती है; किंतु यह सब सतही होता है, और यह अभी भी प्रारंभिक अवस्था में ही होता है। लोगों के इस समूह का एक विशिष्ट दृष्टिकोण होता है, जिससे वे परमेश्वर के अनुग्रह के साथ व्यवहार करते हैं, जो उनके द्वारा अपनाए जाने वाले उद्देश्यों और उनकी पूर्ति के तरीकों में होने वाले परिवर्तनों में व्यक्त होता है। उन्होंने परमेश्वर के वचनों और कार्यों में, मनुष्य से उसकी सभी प्रकार की अपेक्षाओं में और मनुष्य को दिए जाने वाले उसके प्रकाशनों में पहले ही देख लिया होता है कि यदि वे अभी भी सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे, यदि वे अभी भी वास्तविकता में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करेंगे, यदि वे अभी भी परमेश्वर के वचनों का अनुभव करते हुए उसे संतुष्ट करने और जानने का प्रयास नहीं करेंगे, तो वे परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ खो देंगे। वे देखते हैं कि चाहे वे परमेश्वर के अनुग्रह का कितना भी आनंद उठाते हों, वे अपने स्वभाव को नहीं बदल सकते, परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकते या परमेश्वर को नहीं जान सकते, और यदि लोग लगातार परमेश्वर के अनुग्रह के तहत जीवन बिताते हैं, तो वे कभी प्रगति हासिल नहीं कर पाएँगे, जीवन हासिल नहीं कर पाएँगे या उद्धार पाने योग्य नहीं हो पाएँगे। संक्षेप में, यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचनों का वास्तव में अनुभव नहीं कर पाता और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से उसे जानने में असमर्थ रहता है, तो वह अनंतकाल तक एक नवजात शिशु की अवस्था में बना रहेगा और अपने जीवन की प्रगति में कभी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाएगा। यदि तुम सदैव एक नवजात शिशु की अवस्था में बने रहते हो, यदि तुम कभी परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश नहीं करते, यदि तुम्हारे पास कभी अपने जीवन के रूप में परमेश्वर का वचन नहीं है, यदि तुम्हारे पास परमेश्वर में सच्चा विश्वास और उसका ज्ञान नहीं है, तो क्या परमेश्वर द्वारा तुम्हें पूर्ण किए जाने की कोई संभावना है? इसलिए, जो कोई परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश करता है, जो कोई परमेश्वर के वचन को अपने जीवन के रूप में स्वीकार करता है, जो कोई परमेश्वर की ताड़ना और न्याय स्वीकार करना शुरू करता है, जिस किसी का भ्रष्ट स्वभाव बदलना शुरू हो जाता है, और जिस किसी के पास सत्य के लिए लालायित रहने वाला हृदय है, जिसके पास परमेश्वर को जानने और उसका उद्धार स्वीकार करने की इच्छा है, तो यही वे लोग हैं जिनके पास वास्तव में जीवन है। यह वास्तव में चौथे प्रकार का व्यक्ति है, परिपक्व हो रहे बच्चे के प्रकार का, वह व्यक्ति जो बचपन की अवस्था में है।

पाँचवाँ प्रकार : जीवन की परिपक्वता की अवस्था या वयस्क अवस्था

बार-बार के उतार-चढ़ावों से भरी प्रगति वाली बचपन की अवस्था का अनुभव करने और उसमें लड़खड़ाते हुए चलने के बाद लोगों का जीवन स्थिर हो जाता है, उनके बढ़ते कदम अब रुकते नहीं, और कोई उन्हें रोक पाने में समर्थ नहीं होता। यद्यपि आगे का मार्ग अभी भी ऊबड़-खाबड़ और खुरदरा होता है, लेकिन वे अब कमज़ोर या भयभीत नहीं होते, वे आगे लड़खड़ाते नहीं चलते या अपनी दिशा नहीं खोते। उनकी नींव परमेश्वर के वचन के वास्तविक अनुभव में गहरी जमी होती है, और उनके हृदय परमेश्वर की गरिमा और महानता द्वारा आकर्षित हो चुके होते हैं। वे परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलने के लिए, परमेश्वर के सार को जानने के लिए, परमेश्वर के संबंध में सब-कुछ जानने के लिए लालायित रहते हैं।

इस अवस्था के लोग पहले से ही स्पष्ट रूप से जानते हैं कि वे किसमें विश्वास करते हैं, और वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर में विश्वास क्यों करना चाहिए और उनके जीवन का क्या अर्थ है, और वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि वह हर चीज़, जिसे परमेश्वर व्यक्त करता है, सत्य है। अपने अनेक वर्षों के अनुभव में वे महसूस करते हैं कि परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना व्यक्ति कभी परमेश्वर को संतुष्ट करने या परमेश्वर को जानने में सक्षम नहीं होगा, और वास्तव में कभी परमेश्वर के सम्मुख आने में समर्थ नहीं होगा। इन लोगों के हृदय में परमेश्वर द्वारा परखे जाने की तीव्र इच्छा होती है, जिससे परखे जाते समय वे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देख सकें, और अधिक शुद्ध प्रेम हासिल कर सकें, और साथ ही परमेश्वर को और अधिक सच्चाई से समझने और जानने में समर्थ हो सकें। इस अवस्था के लोग नवजात शिशु वाली अवस्था को, और परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने और रोटी खाकर तृप्त होने की अवस्था को पहले ही अलविदा कह चुके होते हैं। वे अब परमेश्वर को सहनशील बनाने और उन पर दया दिखाने के लिए असाधारण आशाएँ नहीं रखते; बल्कि वे परमेश्वर की सतत ताड़ना और न्याय पाने के लिए आश्वस्त और आशान्वित रहते हैं, ताकि अपने भ्रष्ट स्वभाव से अपने आपको अलग कर सकें और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकें। परमेश्वर के संबंध में उनका ज्ञान और उनकी खोज, या उनकी खोज के अंतिम लक्ष्य उनके हृदय में बहुत स्पष्ट होते हैं। इसलिए, अपनी वयस्क अवस्था में लोग अस्पष्ट विश्वास की अवस्था को, उद्धार के लिए अनुग्रह पर आश्रित रहने की अवस्था को, परीक्षणों का सामना न कर सकने वाले अपरिपक्व जीवन की अवस्था को, धुँधलेपन की अवस्था को, लड़खड़ाकरआगे बढ़ने की अवस्था को, उस अवस्था को जिसमें अक्सर चलने के लिए कोई मार्ग नहीं होता, अचानक गर्मजोशी से भर उठने और अचानक ही ठंडे पड़ जाने के बीच डोलने की अस्थिर अवधि को, और उस अवस्था को, जिसमें व्यक्ति आँख मूँदकर परमेश्वर का अनुसरण करता है, पहले ही पूरी तरह से अलविदा कह चुके होते हैं। इस प्रकार के लोग अक्सर परमेश्वर की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करते हैं, और अक्सर परमेश्वर के साथ सच्ची संगति और संवाद में संलग्न रहते हैं। कहा जा सकता है कि इस अवस्था में रह रहे लोग पहले ही परमेश्वर की इच्छा का अंश समझ चुके होते हैं, वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सत्य के सिद्धांत ढूँढ़ पाने में समर्थ होते हैं, और वे जानते हैं परमेश्वर की इच्छा कैसे पूरी करनी है। इतना ही नहीं, उन्होंने परमेश्वर को जानने का मार्ग भी पा लिया होता है और परमेश्वर के संबंध में अपने ज्ञान की गवाही देनी शुरू कर दी होती है। क्रमिक प्रगति की प्रक्रिया के दौरान वे परमेश्वर की इच्छा : मनुष्य की सृष्टि करने में परमेश्वर की इच्छा, और मनुष्य का प्रबंधन करने में परमेश्वर की इच्छा की क्रमिक समझ और ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। वे धीरे-धीरे सार की दृष्टि से परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की समझ और ज्ञान भी प्राप्त कर लेते हैं। कोई मानवीय अवधारणा या कल्पना इस ज्ञान का स्थान नहीं ले सकती। हालाँकि यह नहीं कहा जा सकता कि पाँचवीं अवस्था में व्यक्ति का जीवन पूरी तरह से परिपक्व हो जाता है या यह व्यक्ति धार्मिक या पूर्ण है, लेकिन फिर भी इस प्रकार के व्यक्ति ने जीवन में परिपक्वता की अवस्था की ओर पहले ही एक कदम बढ़ा लिया है और वह परमेश्वर के सामने आने, परमेश्वर के वचन और परमेश्वर के आमने-सामने खड़े होने में पहले से ही समर्थ है। चूँकि इस प्रकार के व्यक्तियों ने परमेश्वर के वचनों का बहुत अधिक अनुभव कर लिया है, अनगिनत परीक्षणों का अनुभव कर लिया है और परमेश्वर से अनुशासन, न्याय और ताड़ना की असंख्य घटनाओं का अनुभव कर लिया है, इसलिए परमेश्वर के प्रति उनका समर्पण सापेक्ष नहीं, बल्कि संपूर्ण है। परमेश्वर के संबंध में उनका ज्ञान अवचेतन ज्ञान से स्पष्ट एवं सटीक ज्ञान में, सतही ज्ञान से गहरे ज्ञान में, धुँधले और अस्पष्ट ज्ञान से सूक्ष्म और मूर्त ज्ञान में रूपांतरित हो गया है। वे श्रमसाध्य लड़खड़ाहट और निष्क्रिय प्रयास करने की स्थिति से सहज ज्ञान और सक्रिय गवाही की स्थिति तक आ गए हैं। यह कहा जा सकता है कि इस अवस्था के लोगों में परमेश्वर के वचन के सत्य की वास्तविकता विद्यमान है, और उन्होंने पूर्णता के उस मार्ग पर कदम रख दिया है, जिस पर पतरस चला था। यह पाँचवें प्रकार का व्यक्ति है, ऐसा व्यक्ति परिपक्वता की अवस्था यानी वयस्क अवस्था में जीता है।

14 दिसंबर, 2013

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